मोहन राकेश की नाट्य कला से आप क्या समझते हैं - mohan raakesh kee naaty kala se aap kya samajhate hain

मोहन राकेश की नाट्य कला से आप क्या समझते हैं - mohan raakesh kee naaty kala se aap kya samajhate hain

हिंदी नाटक के क्षितिज पर मोहन राकेश का उदय नाटक और रंगमंच दोनों दृष्टियों से श्रेयस्कर था। उन्हें आधुनिक हिंदी नाटकों के अग्रदूत के रूप में पहचाना जाता है। लीक से हट कर कथ्य का चयन और रंगमंचीयता की दृष्टि से अनुकूलता उनके नाटकों की मुख्य विशेषता रही है। राकेश जी ने यों तो उपन्यास, कहानी, यात्रा-विवरण सभी कुछ लिखा; परन्तु आपको सर्वाधिक प्रसिद्धि नाट्यलेखन के क्षेत्र में मिली। उन्होंने अपने जीवन में चार नाटकों की रचना की–  ‘आषाढ़ का एक दिन’, लहरों के राजहंस’, आधे-अधूरे’ तथा ‘पैरों तले की जमीन’। अन्तिम नाटक अधूरा रह गया था जिसे बाद उनके मित्र और प्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश्वर ने पूरा किया।

मोहन राकेश का जन्म 8 फरवरी, सन! 1925 में अमृतसर के एक सामान्य परिवार में हुआ था। राकेशजी की प्रारंभिक शिक्षा अमृतसर में ही हुई थी परन्तु उच्च शिक्षा के लिए आप लाहौर चले गए। ओरिएण्टल कालेज, लाहौर से संस्कृत में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की पर ज्ञान की प्यास शान्त नहीं हुई। प्राइवेट अध्ययन करते हुए प्रथम श्रेणी से हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। सर्वप्रथम उन्होंने बम्बई में अध्यापन कार्य आरम्भ किया, पर वहाँ के घुटन भरे वातावरण जो यातना उन्होंने अनुभव की उससे छुटकारा पाने के लिए शिमला चले गए। परन्तु अधिक समय तक वहाँ पर भी नहीं टिक सके। कुछ दिन तक ‘सारिका’ का सम्पादन भी किया। उनका जीवन एक स्वतंत्र सर्जक कलाकार का रहा और जीवन पर्यंत वे साहित्य-सृजन में लगे रहे। 3 दिसम्बर, सन् 1972 को अत्यन्त अल्पायु में ही उनका निधन हो गया। उसके बाद भी अपने कृतित्व के माध्यम से मोहन राकेश साहित्य जगत में आज भी जीवित हैं।

मोहन राकेश की नाटयकला को पारम्परिक कसौटी पर कसने पर हमें निराशा ही हाथ लगेगी क्योंकि उनके नाटक पारंपरिक नाट्यशास्त्र में उल्लेखित तत्वों के आधार पर लिखे ही नहीं गए हैं। एक बात जो मोहन राकेश के नाटकों में देखी जाती है कि उनके तीनों नाटकों में अभिव्यक्त कथा में घर से भागने की बेचैनी और बार-बार वापस लौट आने की मज़बूरी है। यह ऐतिहासिक नाटकों ‘अषाढ़ का एक दिन’ और ‘लहरों का राजहंस’ तथा आधुनिक मध्यवर्ग की कहानी कहने वाले नाटक ‘आधे-अधूरे’ में समान रूप से दिखाई देती है। संत्रास, द्वन्द्व और अस्तित्व की पहचान के लिए बेचैनी तीनों नाटकों में अभिव्यक्त हुई है। इसलिए अलग-अलग कथाएँ होते हुए भी तीनों नाटक एक ही भावभूमि पर टिके दिखाई देते हैं। वस्तुतः वर्तमान जीवन की विसंगतियों और तद्जनित अन्द्र्वन्दों से लड़ता और टूटता हुआ आम आदमी ही इन नाटकों का मूल कथ्य है। स्वयं राकेशजी को जीवन के प्रत्येक पक्ष में नयी समस्याओं और चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, ‘युगीन परिस्थितियों का दबाव उनके नाटकों के द्वन्द्व, संघर्ष और उद्वेलन में बखूबी अभिव्यक्ति हुआ है। मनुष्य का परिवेश, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिस्थतियां ही मानवीय मूल्यों को गढ़ती हैं आधुकिता का आधार यद्यपि समय सापेक्षता है फिर भी सम्बन्धहीनता और नए सम्बन्धों के निर्माण के पीछे कई ऐतिहासिक कारण होते हैंद्व इस ओर भी मोहन राकेश ने अपने नाटकों में संकेत किया है।

‘आषाढ़ का एक दिन’ मोहन राकेश के नाटक साहित्य का प्रारंभिक चरण है। यह नाटक संत्रास, द्वन्द्व और अस्तित्व का नाटक होते हुए भी मनुष्य की कोमी कान्त अनुभूतियों की फुहारों का नाटक है। ऐसा होना स्वयं में एक काव्य की सृष्टि होना है। इस नाटक में परिस्थिति जन्य दशाओं का चित्रण मल्लिका, कालिदास और विलोम के माध्यम से हुआ है। उनकी विडम्बना और द्वन्द्व को तीव्र करने में प्रियंगु मंजरी, अनुलोम, विलोम तथा अन्य राजकर्मचारियों के क्रियाकलाप उद्दीपक का कार्य करते हैं। ‘अषाढ़ का एक दिन’ की प्रत्यक्ष विषयवस्तु कवि कालिदास के जीवन से संबंधित है। किंतु मूलतः वह उसके प्रसिद्ध होने से पहले की उसकी प्रेमिका मल्लिका की कहानी है। जो न केवल उससे एक कवि के रूप में प्रेम करती है बल्कि उसे महान बनते हुए भी देखना चाहती है। इस नाटक में प्रकृति बल्कि उसे महान बनते हुए भी देखना चाहती है। इस नाटक में प्रकृति और परिवेश भी एक पात्र की तरह महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। नाटकीय संघर्ष और द्वन्द्व को तीव्र बनाने में उसका बड़ा योगदान रहा है। कला, प्रेम, सृजनशीलता, भावना, कर्म, राजसी ऐश्वर्य, लता, वीथी आदिका संबंध एक ओर भावना से है तो दूसरी ओर कवि कर्म से भी हैं प्राकृतिक वातावरण में रहकर कालिदास महान काव्य की रचना करता है परन्तु राज्य की ओर से मिलने वाले सम्मान और निमंत्रण पर वह आन्तरिक और बाह्य दबावों के चलते उज्जैन चला जाता है। वहाँ जाकर, अपने परिवेश से अलग ही कर एक सर्जंक के रूप में भी वह टूट जाता है। इसीसे सिद्ध होता है कि एक ओर मल्लिका के जीवन के प्रत्येक अनुभव प्रेम हो या करूणा यह परिवेश मौजू़द है तो कालिदास के जीवन में भी उसकी पे्ररणास्पद और विघटनकारी शक्तियों की उपस्थिति दिखाई देती है। इस नाटक में एक ओर कालिदास और मल्लिका के प्रेम की कहानी है तो दूसरी ओर इच्छा और समय का द्वन्द्व भी है। समय किसी का इन्तजार नहीं करता और प्रेम भी समय के साथ जीवन की कठोर परिस्थितियों से टकरा कर समाप्त हो जाता है। प्रेम गाथा से अधिक इसमें समसामयिक संदर्भों का उद्घाटन हुआ हैं। प्रथम अंक की प्रमुख घटना है कालिदास का उंज्जयनी चले जाना; दूसरे अंक में ग्राम आकर मल्लिका से न मिलना और तीसरे अंक में मल्लिका के पास आकर भी परिस्थिति में बदलाव की वजह से वापिस लौट जाना। यहाँ विलोम से मल्लिका का विवाह संबंधो की त्रिकोणीय स्थिति दिखाता है। वास्तव में यह मनुष्य की उस परिणति की कथा है जहाँ इच्छाओंका द्वन्द्व उसे बारबार इच्छित वस्तु के केन्द्र से दूर लौट जाने को मज़बूर करता है। इस कथा के माध्यम से राकेश जी ने अनेक समस्याओं को उभारा है। साहित्यकार का व्यक्तित्व, विभिन्न सामाजिक राजनैतिक दबाव उसकी आशा-आकांक्षाएँ, सत्ता का सुख-दुख और उसकी परिणति, इन सबका साहित्यकार और उसके परिजनों पर पड़ने वाला प्रभाव इन समसामयिक समस्याओं को प्रच्छन्न रूप में नाटक में उभारा गया है। राज्य सत्ता और वहाँ का वातावरण एक सृजनशील कलाकार की प्रतिभा को किस प्रकार कुंठित कर देता है यह इस नाटक में दिखाया गया है। अपनी जड़ों से उखड़ कर उसका ‘पनपना’ कितना कठिन है परन्तु आर्थिक अभाव और सम्मान पाने की चाह उसे मज़बूर करती है, भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति की इच्छा करना सहज स्वाभाविक है परन्तु यहाँ पर कुछ भी स्थायी नहीं है, यह बताना लेखक का उदद्ेश्य रहा है। नाटक में पात्रों की संख्या अधिक नहीं है और अभिनेयता की दृष्टि से भी यह उपयुक्त ही है। मल्लिका और कालिदास मुख्य पात्र हैं विलोम उनके जीवन से सघन रूप से जुड़ा है। इसके अलावा अम्बिका, प्रियंगुमंजरी, मातुल, अनुलोभ-विलोम आदि प्रसंग वश घटनाओं को गतिशीलता और क्षिप्रता प्रदान करने के लिए आते हैं। सभी पात्र नाटक के कथानक को सशक्त बनाने और संदेश को पूरी संवेदनशीलता के साथ ग्रहण कराने के साधन रूप में अत्यन्त प्रभावशाली बन पड़े हैं।

‘लहारो के राजहंस’ सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शान्ति के अन्तर्विरोधों के बीच खड़े व्यक्ति के द्वन्द्व को अभिव्यक्त करने वाला नाटक है। इसमें नाटककार ने ऐतिहासिक पात्रों तथा कथा स्थितियों को उनकी ऐतिहासिकता से बाहर निकाल कर युगीन परिस्थितियों के साथ जोड़ दिया है। जीवन के प्रेम और श्रेय के बीच स्थित कृत्रिम और आरोपित द्वन्द्व ही नाटक का मुख्य चेतना बिंदु है। दो वस्तुओं के चयन के समय होने वाले द्वन्द्व और कशमकंश की अभिव्यक्ति नाटक में हुई है। प्रस्तुत नाटक में भी ऐतिहासिक कथानक के आधार पर आधुनिक मनुष्य की बेचैनी और अन्तद्र्वन्द्व को उभारा है। हर व्यक्ति अपनी मुक्ति का मार्ग स्वयं खोजना है क्योंकि दूसरो के द्वारा खोजी गई राह चाहे जितनी श्रद्धास्पद, आकर्षक और मुग्ध्कारी हो किसी भी संवेदनशील प्राणी के लिए ग्राह्य नहीं हो सकती। नाटक के अंत में नंद द्वारा बुद्ध के अपेक्षित भिक्षुक रूप को और सुंदरी के आत्मसंतुष्ट संकुचित संुदर जीवन को त्याग कर चले जाना इसी तथ्य को रेखांकित करता है कि नंद को भी अपनी मुक्ति के मार्ग की रचना स्वयं ही करनी होगी। यद्यपि कथा की गहनता और गहराई के अनुरूप इसमें पर्याप्त सघनता, एकाग्रता और संगति की कमी दिखाई देती है। मगर इस कमी के होने पर भी पहले दो अंक सुगठित और कलापूर्ण बन पड़े हैं। इसमें आंतरिक उद्वेग तथा तनाव को बड़ी सूक्ष्मता, संवेदनशीलता और कुशलता के साथ रचा गया है।

‘आधे-अधूरे’ मोहन राकेश का बहुत प्रसिद्ध और चर्चित नाटक है। इसमें नाटकीय कार्य व्यापार किसी ऐतिहासिक चरित्र, प्रसंग या परिवेश की बजाय समकालीन जीवन की स्थितियों पर आधारित है। आज़ादी के बाद मध्यवर्ग में आर्थिक विषमता के कारण अनेक विसंगतियाँ आ गई थी। खास तौर पर पारिवारिक विघटन, मानसिक तनाव और नैतिक मूल्यों में गिरावट स्वात्रयोत्तर समाज में विकसित मध्यवर्ग के जीवन में उभरी थी। ‘आधे अधूरे’ की कथा निर्माण एक मध्यवगी्रय परिवार की स्थिति को लेकर किया गया है। पति-पत्नी की गृहकलह, पत्नी की काम-कुंठाएँ, बेरोज़गार पति का आत्मविश्वास रहित व्यक्तित्व किस प्रकार पारिवारिक जीवन को क्लेशपूर्ण और असहनीय बना देता है इसकी अभिव्यक्ति नाटककार ने की है। इन स्थितियों में परिवार का हर सदस्य घर से भागने की मनःस्थिति में रहता है। वस्तुतः आधुनिक मध्यवर्गीय परिवार की विसंगतियों को यह ‘नाटक यथार्थ रूप में प्रस्तुत करता है। आर्थिक अभावों के बीच सुख-सुविधाओं की आकांक्षा, परिवेश के दबाव और मानसिक ताव मनुष्य को आधी-अधूरी जिन्दगी जीने के लिए मजबूर कर देते हैं। पूर्णता पाने की इच्छा में आपसी टकराहट उन्हें और अधिक निराशा और हताशा की तरफ़ ढकेलती है। यही इस नाटक की मूल संवेदना है। पत्नी सावित्री की कर्मठता और अकेले ही सारे परिवार की जिम्मेदारी उठाने की पीड़ा है दूसरी ओर पति महेन्द्रनाथ की निष्क्रियता उसमें महत्व की भावना जगाती है तो पति के रूप में एक सम्पूर्ण पुरूष की असफल तलाश उसे निराश करती है। इन परिस्थितियों में परिवार के अन्य सदस्यों का एक दूसरे से अलगाव इस नाटक का केन्द्रबिन्दु है। इस प्रकार सभी पूर्णता की तलाश किसी भिन्न व्यक्ति में करते हें परन्तु अपने अन्दर के अधूरेपन के कारण यह एहसास और भी तीव्र हो जाता है। यह स्थिति अपने में त्रासद भी है और करूणा भी उत्पन्न करती है। समकालीन जीवन बोध की यह कथा पाठक/दर्शक को अनिभूत कर देती है।

मोहन राकेश के सभी नाटक पात्र परिकल्पना, संवाद याजेजना और भााषा की दृष्टि से अत्यन्त सफल हैं। अपने नाटकों को रंगमंच के अनुकूल बनाने के उदद्ेश्य से उन्होंने किसी भी नाटक में बहुत अधिक पात्रों और दृश्यों की योजना नहीं की है। ‘आधे-अधूरे’ तो मंचन और दृश्य संयोजन की दृष्टि से अभिनेयता के सारे उपादानों को समेटे हैं। एक मध्यवर्गीय घर का दृश्य जो उनके रहन-सहन और उनके बीच के सम्बन्धों की अस्त-व्यस्तता को भी मुखरित करता है। ‘आषाढ़ का एकदिन और ‘लहरों के राजहंस’ भी नाट्यरूप और नाट्यकला की दृष्टि से सुगठित यथार्थवादी नाटक हैं। प्रत्येक पात्र संवेदना के मूल स्वरूप और नाटक की विषयवस्तु का संवाहक बन कर आया है। मल्लिका एक सीधी-सादी प्रेमभाव से भरी युवती है। उसका चरित्र दायित्व बोध का निर्वाह करता है। कालिदास और विलोम एक दूसरे से पूर्णतः विपरीत होने पर भी एक दूसरे के पूरक हैं। रंगिणी-संगिनी और अनुस्वार-अनुनासिक समकालीन स्थितियों को कथा में प्रतिध्वनित करते हैं। भाषा बिंब प्रधान है और तत्समता लिए होने पर भी काव्यात्मक प्रभाव छोड़ती है। ‘लहरो का राजहंस’ एक प्रतीक है इसमें नन्द और श्यामात्र भाव विचार के धरातल पर अस्थिर तरंगों में तैर रहे हैं, जहाँ गति तो है पर स्थिरता और दिशा नहीं है। नाटक पात्र भौतिक-अध्यात्मिक, पार्थिव-अपार्थिव, अस्तित्व और अनस्तित्व के धरातल पर एक साथ भ्रम की स्थिति में जी रहे हैं। परन्तु विकसशील चरित्र के रूप में नंद आगे बढ़कर इस स्थिति से निकलता है और अपनी जीवन यात्रा का चुनाव करता है। सभी नाटक रंगमंच के अनुकूल हैं।

भाषिक क्षमता नाटक के संदर्भ में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। नाटक में वर्णन या व्याख्या के लिए कोई स्थान नहीं होता। इसलिए कथा, संवेदनाद्व पात्रों की चरित्रगत विशेषताएँ सभी भाषा के माध्यम से ही संप्रेषित होती हैं। ‘आषाढ़ का एकदिन’ नाटक में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग तथा भावनाओं के संगुंफन की अभिव्यक्ति के लिए लम्बे-लम्बे वाक्यों का भी प्रयोग हुआ है। परन्तु जहाँ सरल भावों का स्पंदन है वहाँ छोटे-छोटे वाक्यों का ही चयन किया गया है। भाषा में वर्षा, बिजली का कौंधना और कड़कना, भीगना ये सभी बिंब भाषा की भावों को अभिव्यक्त करने के लिए प्रतीकार्थ के रूप में आए हैं। भाषा दुधारी तलवार से काट कर अतीत से जोड़ती है तो दूसरी ओर नई संवदेनाओं और कथ्य के आधार पर उसे वर्तमान से मिलाती है।” आधुनिक हिंदी नाटक का मसीहाः गोविन्द चातक, ‘लहरों का राजहंस’ विचार प्रधान नाटक है। इस नाटक की भाषा में एक प्रकार का आरोपित संयम, अभिजात्य और सौष्ठव विद्यमान है, फिर भी इस नाटक की भाषा अपनी कुछ अनुगूँज छोड़ती है। आधे-अधूरे भाषा की दृष्टि से एक नया प्रयोग है। यहाँ तक आते-आते, विषयवस्तु की ज़रूरत के दबाव से राकेश जी ने स्वयं को प्रसादयुगीन भाषा के प्रभाव से मुक्त कर लिया है। ‘आधे-अधूरे’ की भाषा में समकालीन जीवन के तनाव को अभिव्यक्त करने सामथ्र्य है। ध्वनि, शब्द और वाक्य का चयन और उनका संयोजन वांछित अर्थ के अनुरूप है। भाषा जीने की भाषा के निकट पहुँच गई है तथा छोटे-छोटे वाक्य भी अर्थ की अनेक छायाओं और स्तरों को खोलते हैं।

मोहन राकेश की नाट्यकला के संबंध में यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद अनेक नाटक हिंदी नाटक के सर्वश्रेष्ठ और विकसित रूप को प्रस्तुत करते हैं। ये नाटक रंगमंच की दृष्टि से भी अत्यन्त सफल हैं। यही कारण है कि उन्होंने व्यापक स्तर पर हिंदी नाट्य लेखन को प्रभावित किया और कई ऐतिहासिक कारणों से हिंदी नाटक और रंगमंच के क्षेत्र में मील का पत्थर बन गए।

संदर्भः

  1. हिंदी नाटक सिद्धान्त और विवेचनः गिरीश रस्तोगी
  2. आधुनिक हिंदी नाटक और रंगमंचः संपादक नेमिचन्द्र जैन
  3. मोहन राकेश की रंगसृष्टिः जगदीश शर्मा
  4. नाटककार मोहन राकेशः संपादक सुंदरलाल कथूरिया
  5. आधुनिक नाटक का मसीहाः गोविन्द चातक
  6. मोहन राकेश और उनके नाटकः गिरीश रस्तोगी
डॉ. साधना शर्मा
श्यामा प्रसाद मुखर्जी महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

मोहन राकेश की नाट्य कला से आप क्या समझते हैं उनकी आधुनिक संवेदनाएं चरित्र?

मोहन राकेश का कृतित्व :- Page 3 मोहन राकेश को नाटकीय परम्परा तथा उपन्यास लेखन का शिरोमणि माना जाता है, मोहन राकेश वर्तमान नवीन साहित्य की मानवीय संवेदना के जागरूक कलाकार थे, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी साहित्य में गद्य की विभिन्न विधाओं में अपनी लेखनी का चमत्कार इतनी शीघ्रता से दर्शाया कि अपनी मौलिक सर्जनात्मकता से आधुनिक ...

मोहन राकेश का नाटक कौन कौन सा है?

इस पुस्तक में मोहन राकेश के सभी नाटक-''अषाढ़ का एक दिन'', ''लहरों के राजहंस'', ''आधे अधूरे'', और ''पैर तले की ज़मीन'' पाठकों को एक साथ मिलेंगे।

एक नाटककार के रूप में मोहन राकेश की क्या विशेषताएं हैं?

इन्होंने अपनी रचनाओं में भावात्मक शैली का सर्वाधिक प्रयोग किया है। भावात्मक एवं काव्यात्मक गुणों पर आधारित इनकी यह शैली बड़ी रोचक एवं लोकप्रिय रही है। मोहन राकेश मूलतः नाटककार हैं; अतः इनके निबंधों में संवाद शैली की बहुलता है। इससे नाटकीयता तो आती ही है, साथ ही रोचकता भी बढ़ती है और पात्र का चरित्र भी निखार उठता है।

मोहन राकेश का पहला नाटक कौन सा है?

मोहन राकेश हिंदी साहित्य के उन चुनिंदा साहित्यकारों में हैं जिन्हें 'नयी कहानी आंदोलन' का नायक माना जाता है और साहित्य जगत् में अधिकांश लोग उन्हें उस दौर का 'महानायक' कहते हैं। उन्होंने 'आषाढ़ का एक दिन' के रूप में हिंदी का पहला आधुनिक नाटक भी लिखा।