UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 5 Administration, Society, Art and Literature during Mughal Period (मुगलकालीन शासन-व्यवस्था, कला व साहित्य) are the part of UP Board Solutions for Class 12 History. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 5 Administration, Society, Art and Literature during Mughal Period (मुगलकालीन शासन-व्यवस्था, कला व साहित्य).
अभ्यास प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. मुगलकाल की चित्रकला शैली की दृष्टि से सजीव एवं स्वाभाविक है। मुगलकाल के चित्र हिन्दूकाल के चित्रों के समान धार्मिक भावनाओं पर आधारित नहीं थे। इन चित्रों को दरबारी चित्र कहा जा सकता था। मुगलकाल के चित्रकारों में मीर सैयद, अब्दुल समद, फारुख बेग, जमशेद दशवन्त, हरिवंश, जगन्नाथ, धर्मराज, उस्ताद मंसूर विशनदान, मनोहर आदि प्रमुख थे। प्रश्न 3.
प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. विस्तृत उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. 1. फारसी साहित्य – मुगलों के समय में फारसी राजभाषा बन गई थी। अकबर के शासनकाल तक फारसी का ज्ञान इतना फैल चुका था कि अब राजस्व के दस्तावेज फारसी के साथ-साथ स्थानीय भाषा (हिन्दी) में भी रखने की जरूरत खत्म हो गई। प्रथम मुगल सम्राट बाबर स्वयं तुर्की और फारसी का विद्वान था। उसने अपनी आत्मकथा ‘तुजुके-बाबरी’ अथवा बाबरनामा’ की रचना तुर्की में की। एल्फिंस्टन के अनुसार बाबर की यह जीवनी ही सारे एशिया में वास्तविक ऐतिहासिक सामग्री है। बाबर का कविता संग्रह ‘दीवान’ (तुर्की) बहुत प्रसिद्ध हुआ। हुमायूं मुगल शासकों में अत्यन्त शिक्षित था। वह न केवल तुर्की तथा फारसी साहित्य का अच्छा ज्ञाता था अपितु दर्शन, गणित आदि का भी ज्ञाता था। दुर्भाग्यवश वह साहित्यिक प्रोत्साहन को विशेष योगदान नहीं दे सका। अकबर का काल सांस्कृतिक प्रगति के साथ-साथ साहित्यिक पुनरुत्थान का भी युग था। मौलिक रचनाओं के साथ-साथ अनुदित रचनाएँ भी बाहुल्यता में प्रकाश में आईं। अकबर के शासनकाल के दौरान अबुल फजल का ‘अकबरनामा’ और ‘आइने-अकबरी’, निजामुद्दीन अहमद का ‘तबकाते अकबरी’, गुलबदन बेगम का ‘हुमायूँनामा’, अब्बास सरवानी का ‘तौफीक-ए-अकबरशाही’, बदायूँनी का मुन्तखब-उत-तवारीख’, अहमद यादगार का ‘तारीखे सलातीने अफगाना’, बयाजिद सुल्तान का ‘तारीखे हुमायूँ और फैजी सरहिन्दी का ‘अकबरनामा’ आदि प्रमुख ग्रन्थ हैं। इस काल में अकबर के प्रोत्साहन से महाभारत का अनुवाद ‘रज्यनामा’ नाम से नकीब खाँ, बदायूँनी, अबुल फजल, फैजी आदि के सम्मिलित प्रयत्नों से फारसी में किया गया। बदायूँनी ने रामायण का अनुवाद किया। उसने अथर्ववेद का अनुवाद आरम्भ किया और उसको हाजी इब्राहिम सरहिन्दी ने पूरा किया। ‘लीलावती’ का अनुवाद फैजी ने किया। राजतरंगिणी का अनुवाद शाह मुहम्मद शाहाबादी ने, कालियदमन का अबुल फजल ने और नल-दमयन्ती का फैजी ने अनुवाद किया। 2. हिन्दी साहित्य – मुगलकाल में फारसी साहित्य के समान हिन्दी साहित्य की भी खूब उन्नति हुई। यद्यपि अकबर से पूर्व हिन्दी साहित्य का विकास प्रारम्भ हो चुका था और ‘पद्मावत’ तथा ‘मृगावत’ जैसे उच्चकोटि के ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी तथापि अकबर की सहिष्णु नीति से हिन्दी साहित्य अत्यन्त समृद्ध हुआ। राजा बीरबल, राजा मानसिंह, राजा भगवानदास, नरहरि और हरिनाथ अकबर के राजदरबार से सम्बन्धित विद्वान थे। नन्ददास, विट्ठलनाथ, परमानन्ददास, कुम्भनदास आदि कवियों ने व्यक्तिगत प्रयत्नों से हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया। इस काल में तुलसीदास ने लगभग 25 ग्रन्थों की रचना की, जिनमें ‘रामचरितमानस’ और ‘विनय पत्रिका प्रमुख हैं। सूरदास ने ‘सूरसागर’, रहीम ने ‘रहीम सतसई और रसखान ने प्रेमवाटिका’ नामक काव्य ग्रन्थों की रचना की। मीराबाई के भजन भी हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। अकबर का समय हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल था। जहाँगीर के दरबार में राजा सूरजसिंह, अगरूप गोसाई और बिशनदास जैसे हिन्दी के विद्वान थे। जहाँगीर का भाई दानियाल हिन्दी में कविता करता था। शाहजहाँ के संरक्षण में सुन्दर कविराय, सेनापति, कविन्द्र आचार्य, शिरोमणि मिश्र, बनारसीदास आदि हिन्दी के विद्वान थे। इनके अतिरिक्त अहमदाबाद के दादू ने, जिन्होंने दादू-पन्थी सम्प्रदाय को प्रारम्भ किया, अनेक धार्मिक कविताओं की रचना की। हिन्दी के महान् कवि बिहारी को राजा जयसिंह का संरक्षण प्राप्त हुआ था। इसी समय में केशवदास ने कविप्रिया, रसिकप्रिया और रामचन्द्रिका की रचना की। औरंगजेब ने हिन्दी को संरक्षण नहीं दिया। 3. संस्कृत साहित्य – मुगलकाल में संस्कृत साहित्य की श्रेष्ठ मौलिक रचनाओं का अभाव रहा, परन्तु तब भी संस्कृत भाषा की स्थिति दिल्ली सुल्तानों के काल से अच्छी रही। अकबर ने संस्कृत को राज्याश्रय प्रदान किया। ‘पारसी प्रकाश’ नामक संस्कृत व फारसी का कोष इसी समय लिखा गया। महेश ठाकुर ने अकबर के समय का संस्कृत में इतिहास लिखा। जैन विद्वानों में पद्मसुन्दर कृत ‘अकबरशाही शृंगार-दर्पण’, सिद्धचन्द्र उपाध्याय कृत ‘भानुचन्द चरित्र’, देव मिलन कृत ‘हीर सौभाग्यम्” आदि महत्वपूर्ण संस्कृत ग्रन्थ हैं। संस्कृत के महान् पण्डित कवीन्द्र आचार्य सरस्स्वती और पण्डित जगन्नाथ शाहजहाँ के राजकवि थे। शाहजहाँ के दरबार में अनेक संस्कृत कवि अपनी कविताओं पर पुरस्कार प्राप्त करते थे। औरंगजेब और उसके उत्तराधिकारियों ने संस्कृत को न तो संरक्षण दिया और न प्रोत्साहन। 4. उर्दू साहित्य – अमीर खुसरो पहला विद्वान था, जिसने उर्दू भाषा को अपनी कविताओं का माध्यम बनाया। उसके पश्चात् सूफी सन्तों और भक्ति मार्ग के कुछ सन्तों ने भी अपने विचारों के प्रचार के लिए इसका प्रयोग किया तथा इसे लोकप्रिय बनाने में सहायता दी, परन्तु उर्दू को किसी भी तुर्क अथवा शक्तिशाली मुगल बादशाहों ने सरंक्षण नहीं दिया। मुहम्मदशाह (1719-1748 ई०) पहला बादशाह था, जिसने उर्दू को प्रोत्साहन दिया। उसने प्रसिद्ध कवि शम्सुद्दीन वली को दरबार में सम्मान दिया। इसके पश्चात् उर्दू का विकास होता गया और उर्दू दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश में पर्याप्त लोकप्रिय हो गई। उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों ने भी उर्दू को प्रोत्साहन दिया। 5. बंगला साहित्य – बंगला साहित्य का उत्थान भी इस युग में सम्भव हो सका। बंगाल में चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रसारित कृष्णभक्तिमार्गी अनेक सन्त भक्तों ने भजन, पद तथा गीत निर्मित किए। चैतन्य के जीवन-चरित्र पर अनेक ग्रन्थ लिखे गए, जिन्होंने बंगाल के निवासियों को भगवत् प्रेम तथा उदारता की भावना से ओत-प्रोत कर दिया। इस समय कई महाकाव्यों तथा ‘भागवत्’ का बंगला भाषा में अनुवाद किया गया तथा चण्डी देवी और मनसा देवी पर ग्रन्थों की रचनाएँ हुई। काशी, रामदास, जयचन्द (चैतन्य चरितामृत) और मुकुन्दराम चक्रवर्ती (कवि-कंकन-चण्डी) इस युग के प्रमुख विद्वान थे। 6. मराठी साहित्य – इस समय का मराठी साहित्य भी धार्मिक एवं भक्ति की भावनाओं से ओत-प्रोत है। प्रारम्भ में ‘रामायण’, ‘महाभारत’ तथा ‘भागवत्’ को आधार मानकर कुछ ग्रन्थों की मराठी में रचना की गई, जिनमें ‘हरि-विजय’, ‘राम विजय’, ‘शिवलीलाकृत’ आदि प्रमुख हैं। इस काल के मराठी विद्वानों में रघुनाथ पण्डित’, ‘मुक्तेश्वर’ तथा ‘समर्थ गुरु रामदास प्रमुख हैं। रामदास भक्त, कवि एवं उपदेशक थे, जिन्होंने राष्ट्रप्रेम की भावनाएँ प्रसारित की। इनका प्रमुख ग्रन्थ ‘दास-बोध’ है। तुकाराम भी इसी युग की विभूति हैं, जिनके भक्ति से ओत-प्रोत पद मराठी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। 7. गुजराती साहित्य – हिन्दी, बंगला तथा मराठी भाषाओं के समान गुजराती भाषा में भी इस समय उच्चकोटि के साहित्यिक ग्रन्थों की रचना की गई। गुजरात के प्रसिद्ध कवि अरबा ने अकबर के काल में ‘चित-विचार’, ‘संवाद-शतपद’, ‘कैवल्य गीता’ आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। तदुपरान्त प्रेमानन्द ने भक्ति रस के पदों से गुजराती साहित्य में एक अपूर्व परिवर्तन ला दिया। उन्होंने 26 ग्रन्थों की रचना की तथा उनके पद आज भी गुजरात में लोकप्रिय हैं। इसके पश्चात सामल ने पौराणिक कथाओं का सुन्दर ढंग से वर्णन करने की ख्याति प्राप्त की। इनके अतिरिक्त वल्लभ’, ‘मुकुन्द’, ‘देवीदास’, ‘शिवदास’, ‘विष्णुदास’ आदि अन्य प्रसिद्ध कवि इस युग में उपन्न हुए। 8. पुस्तकालय – मुगल बादशाहों को हस्तलिखित पुस्तकें संकलित करने में विशेष अभिरुचि थी। हुमायूँ ने लाहौर में एक पुस्तकालय बनवाया, जिसकी सीढ़ियों से गिरकर उसकी मृत्यु हुई। अकबर ने पुस्तकालय में 24,000 हस्तलिखित पुस्तकों का संग्रह किया था, जिनमें अनेक पुस्तकों में सुन्दर-सुन्दर चित्र अंकित थे। जहाँगीर तथा शाहजहाँ ने भी अपने महान् पूर्वजों का अनुसरण करते हुए पुस्तकालय में महत्वपूर्ण ग्रन्थों का संग्रह करवाया था। मुगलकाल में चित्रकला का विकास – भवन निर्माण कला के समान ही चित्रकला को भी मुगल सम्राटों ने राज्याश्रय प्रदान किया तथा इस समय चित्रकला का चरम् विकास हुआ। भारत में प्राचीनकाल से ही हिन्दू राजाओं के दरबारों में चित्रकला को प्रोत्साहन मिलता रहा था तथा उस समय के भित्तिचित्र तथा मनुष्यों के चित्र आज भी दर्शनीय हैं, परन्तु सल्तनत काल में मुस्लिम सुल्तानों ने चित्रकला को प्रोत्साहित नहीं किया अपतुि फिरोज तुगलक ने तो दीवारों पर चित्र बनाने अथवा मनुष्यों के चित्र बनाने पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया था, अतः सल्तनत काल में चित्रकला नष्ट हो गई। मुगलकाल में उसका पुनरुत्थान हुआ। इस समय भारतीय तथा ईरानी चित्रकला का सुन्दर सम्मिश्रण हुआ। 1. बाबर और हुमायूँ – बाबर अपने पूर्वजों के समान चित्रकला का शौकीन था तथा उसने चित्रकला को प्रोत्साहित किया। वह प्रकृति का प्रेमी था तथा उसकी आत्मकथा ‘तुजुके-बाबरी’ इस बात की पुष्टि करती है कि प्राकृतिक रमणीय दृश्यों को देखकर वह कितना आनन्दित हो उठता था। परन्तु उसके काल के विशेष चित्र इस समय उपलब्ध नहीं हैं। उसके उत्तराधिकारी हुमायूँ को भी चित्रकला का शौक था तथा ईरान से लौटते समय वह अपने साथ दो ईरानी चित्रकारों मीर सैयद अली तबरीजी और ख्वाजा अब्दुल समद को भारत लाया था। हुमायूं का निर्वासन के दौरान सफाविद दरबार में सर्वप्रथम फारसी कला से परिचय हुआ। वहाँ के शासक तहमास्प ने फारसी कला को अत्यधिक प्रश्रय दिया लेकिन वह धीरे-धीरे कट्टरवाद की ओर अग्रसर हो गया। 2. अकबर – अकबर को चित्रकला से विशेष अनुराग था तथा उसके दरबार में लगभग सौ हिन्दू तथा मुसलमान चित्रकार रहते थे। इनमें अब्दुल समद, फारुख बेग, जमशेद, दशवन्त, बसावन, मुकुन्द, लालगेसू, हरिवंश, जगन्नाथ, भवानी तथा धर्मराज प्रमुख चित्रकार थे। उसके दरबार के 17 प्रमुख चित्रकारों में अधिकतर हिन्दू ही थे तथा ईरानी अथवा विदेशी कलाकारों की संख्या बहुत कम थी। विदेशी चित्रकारों में मीर सैयद अली, अब्दुल समद, अकारिजा और फर्रुखबेग मुख्य थे। अकबर ने चित्रकला में भी देशी तथा विदेशी तत्वों का सुन्दर सम्मिश्रण करने में सफलता प्राप्त की तथा उसके काल की कला पूर्णतः भारतीय थी। अकबर ने जफरनामा, चंगेजनामा, कालियादमन, रज्मनामा, नल-दमयन्ती तथा रामायण के चित्रों का निर्माण करवाया। फतेहपुर सीकरी की दीवारों पर उसने सुन्दर चित्रकारी करवाई। दरबार में साप्ताहिक प्रदर्शनियों की व्यवस्था करके तथा पुरस्कार प्रदान करके उसने चित्रकला को प्रोत्साहन दिया। उसने चित्रकारों को उच्च मनसब प्रदान किए तथा उनके लिए चित्रशालाओं की व्यवस्था की। 3. जहाँगीर – नि:सन्देह मुगल चित्रकला का स्वर्ण-युग जहाँगीर का काल माना जाता है। जहाँगीर स्वयं चित्रकार था तथा प्रकृति के दृश्यों से उसे अगाध प्रेम था। वह चित्रकला की सूक्ष्म वृत्तियों से परिचित था तथा चित्रकारों का ध्यान उनकी त्रुटियों की ओर आकर्षित करता रहता था। कहा जाता है कि वह चित्र देखकर चित्रकार का नाम बतला सकता था। उसके काल में पौधों, वृक्षों, पुष्पों तथा पशु-पक्षियों के चित्र निर्मित हुए। प्राकृतिक दृश्यों को भी अनेक चित्रकारों ने अपनी तूलिका से विविध रंगों एवं आकृतियों में चित्रित किया। जहाँगीर के काल में चित्रकारी पुष्ट तथा परिपक्व होकर पूर्णता को प्राप्त हुई। सम्राट को भारतीय चित्रकला की शैली पसन्द थी तथा उसने ईरानी प्रभाव से चित्रकला को मुक्त किया तथा विदेशी तत्वों का भारतीय शैली से सुन्दर सामंजस्य स्थापित किया। इस प्रकार जहाँगीर का काल मुगल चित्रकला का स्वर्ण-युग था। इस समय चित्रकला में नवीनता, मौलिकता, स्वाभाविकता, गतिशीलता तथा सजीवता थी। प्राकृतिक दृश्यों का सूक्ष्म, भावपूर्ण तथा स्वाभाविक चित्रण एवं व्यक्ति चित्र और युद्धों व आखेट के दृश्य चित्रों का निर्माण इस कला की विशेषता थी। इस समय के चित्रकारों में उस्ताद मंसूर, आगार खाँ, फारुखबेग, मुहम्मद नादिर, केशव, बिशनदास, मनोहर, माधव, गोवर्धन, तुलसी आदि प्रमुख थे। लेकिन पर्सी ब्राउन के अनुसार- “जहाँगीर के निधन के साथ ही मुगल चित्रकला की आत्मा विलीन हो गई। 4. शाहजहाँ – वैसे तो शाहजहाँ के काल में भी चित्रकला को प्रोत्साहन मिला, परन्तु शाहजहाँ को चित्रकला से उतना प्रेम नहीं था, जितना भवन निर्माण कला से। उसके काल में चित्रकला अलंकरण से युक्त होकर अपनी मौलिकता तथा सजीवता को खो बैठी। शाहजहाँ ने रंगो के स्थान पर बहमल्य पत्थरों का प्रयोग आरम्भ करवाया। उसके द्वारा निर्मित भवनों में चित्रकला शाही वैभव को प्रदर्शित करती है, जिसमें स्वर्ण तथा बहुमूल्य रत्नों का अत्यधिक प्रयोग किया गया है, परन्तु इस समय चित्रकला का धीरे-धीरे पतन आरम्भ होने लगा। इस काल के चित्र नीरस तथा भाव विहीन हैं, जिनमें केवल रंगों को प्रधानता दी गई है। शाहजहाँ ने अपने शासनकाल के 8वें वर्ष में अपने शासन के आधिकारिक इतिहास ‘पादशाहनामा’ लिखने का आदेश दिया था, जिसके मूल पाठ के साथ दिए गए चित्र दरबारी समारोहों और महत्वपूर्ण घटनाओं का चित्रण करते हैं। इस समय के चित्रों का प्रमुख विषय सामन्ती दरबार के दृश्यों तथा रत्नजड़ित वस्त्राभूषण आदि का प्रदर्शन मात्र रह गया था, जिसमें कला की सूक्ष्मता का सर्वथा अभाव था। शाहजहाँ के काल के व्यक्ति चित्र (Portraits) वास्तव में अत्यन्त
सुन्दर, सजीव तथा भावपूर्ण थे। भावव्यंजना, मुख मुद्रा तथा आन्तरिक अभिव्यक्ति में ये चित्र श्रेष्ठ थे, परन्तु इन चित्रों की माँग बढ़ने पर व्यक्ति चित्र के स्वतन्त्र चित्रण के स्थान पर उनकी प्रतिकृतियाँ बनाई जाने लगीं, जिन्होंने कला को निम्न स्तर पर पहुंचा दिया। इसी प्रकार पशुओं के चित्रों में भी अस्वाभाविकता की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है। शाहजहाँ के काल के मुगलकालीन चित्रकला की विशेषताएँ- मुगलकाल में चित्रकला के अनेक विषय थे, जैसे- आखेट, युद्ध, शाही राजसभा, सामन्तों के जीवन के दृश्य, पौराणिक कहानियों के विभिन्न दृश्य, व्यक्ति चित्र, पशु-पक्षियों, वृक्षों, पुष्पों तथा पौधों के चित्र आदि। ये चित्र हिन्दूकाल के चित्रों के समान धार्मिक भावनाओं पर आधारित नहीं थे। इन चित्रों को दरबारी चित्र कहा जा सकता है क्योंकि जनता की भावनाओं का चित्रण इनमें नहीं है। मुगलकाल की चित्रकला शैली की दृष्टि से सजीव एवं स्वाभाविक है। धीरे-धीरे ईरानी कला के प्रभाव से मुक्त होकर वह पूर्णतया भारतीय हो गई। इसकी
विशेषता रेखाओं की गोलाई और कोमलता, आकृतियों में गति और स्फूर्ति, हस्तमुद्राओं में सजीवता और उनके प्रयोग की बाहुल्यता है। इस समय के चित्रकारों ने चटकीले तथा रुपहले रंगों का खूब प्रयोग किया है। इस काल के व्यक्ति चित्रों में आकृति का अंकन अत्यन्त सूक्ष्म व स्वाभाविक है परन्तु मुगल वैभव तथा विकास की परिधि में प्रश्न 2. प्रश्न 3. 2. भूमि का वर्गीकरण – पैमाइश के पश्चात समस्त कृषि योग्य भूमि को चार भागों में विभाजित किया गया-
3. नकद रुपयों में कर संग्रह करना – अकबर अनाज से अधिक नकद कर वसूल करना चाहता था; अत: विभिन्न प्रदेशों में अनाज की दर, प्रत्येक वर्ष, पिछले दस वर्षों के अनुपात से निर्धारित की जाता थी। गेहूँ, कपास, तिल आदि 95 वस्तुओं की दर की सूची प्रत्येक प्रदेश के लिए तैयार की जाती थी। कर सर्वप्रथम अनाज और उत्पादित की जाने वाली वस्तुओं के रूप में। निश्चित किया जाता था, तत्पश्चात उस प्रदेश की दर के हिसाब से उसका मूल्य निर्धारित करके उसे वसूल किया जाता था। 4. राज्य-कर संग्रह करने की पद्धति – राजस्व-कर वर्ष में दो बार वसूल किया जाता था- रबी की उपज से तथा खरीफ की उपज से। गाँव के मुखिया भूमि-कर वसूल करने में आमिल, गुजार, पोतदार आदि की सहायता करते थे तथा इस सहायता के लिए उन्हें 2% प्रतिशत कमीशन मिलता था। सम्राट का आदेश था कि कर वसूल करने वाले कर्मचारी पहले कृषकों से बकाया वसूल करें, तत्पश्चात उस वर्ष की उपज का कर संग्रह करें। कृषकों को कर्मचारियों के अत्याचारों से बचाने के लिए प्रत्येक कृषक को पट्टा प्रदान किया जाता था जिसमें उसके द्वारा प्रयोग की जाने वाली भूमि की पैमाइश तथा निश्चित कर अंकित रहता था। इस पट्टे द्वारा सरकार भूमि पर कृषक का अधिकार स्वीकार करती थी तथा निश्चित कर के अतिरिक्त कृषक से और कुछ भी वसूल नहीं कर सकती थी। कर प्रदान करने पर कृषक को रसीद दी जाती थी जिससे कई कर्मचारी दुबारा कर वसूल न कर सके। 5. भूमि-कर पद्धति का व्यावहारिक रूप – भूमि सुधारों के द्वारा अकबर ने रैयतवाड़ी प्रथा प्रचलित की तथा कृषकों का सरकार से सीधा सम्पर्क स्थापित किया तथा उन दोनों के बीच के वर्ग का उसने अन्त कर दिया। अकबर ने कृषकों की सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा। भूमि पर उनका अधिकार स्वीकृत कर उन्हें पट्टे दिए गए तथा उनके कबूलियत पर हस्ताक्षर करवाए गए। खालसा भूमि पर सफल प्रयोग करने के उपरान्त उसने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में पूर्ण रूप से भूमि सम्बन्धी सुधारों को लागू किया तथा भागीदारी प्रथा का लगभग अन्त कर दिया। कुछ व्यक्तियों को छोड़कर अन्य सभी पदाधिकारियों से जागीर छीनकर सम्राट ने उनके लिए नकद वेतन की व्यवस्था की, जिससे किसानों पर होने वाले अत्याचार बन्द हो जाएँ। बंजर भूमि के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करके कृषकों की खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। आरम्भ में सरकार बंजर भूमि पर बहुत कम भूमि-कर लेती थी तथा धीरे-धीरे उसकी दर बढ़ाती थी। दुर्भिक्ष अथवा फसल के खराब होने पर राज्य के उन पीड़ित प्रदेशों पर कर माफ करके सरकार उनकी आवश्यक सहायता करती थी। कर वसूल करने वाले कर्मचारियों (आमिल, वितिक्ची, कानूनगो, पटवारी, मुकद्दम आदि) को राज्य की ओर से यह आदेश रहता था कि वे कृषकों पर अत्याचार न करें तथा उनके साथ अच्छा व्यवहार करें। सेना द्वारा यदि कृषकों के खेतों की क्षति हो जाती थी तो सरकार उसकी क्षतिपूर्ति करती थी। आवश्यकता पड़ने पर वह कृषकों को ऋण भी देती थी। यदि कृषकों के पास कर का कुछ भाग शेष रह जाता था तो वह भी बलपूर्वक वसूल नहीं किया जाता था। कर वसूल करने वाले कर्मचारियों को कृषकों की दशा की रिपोर्ट प्रतिमान भेजनी पड़ती थी। प्रश्न 4. इस सामन्त वर्ग के नीचे छोटे कर्मचारियों द्वारा निर्मित मध्यम वर्ग था तथा भारत की अधिकांश जनता, जो ग्रामों में रहकर कृषि अथवा घरेलू उद्योग-धन्धे करती थी, निम्न वर्ग में आती थी। मुगलकाल में सल्तनत काल के समान समाज हिन्दू और मुसलमान वर्गों में विभाजित नहीं था। यह काल हिन्दू तथा मुस्लिम संस्कृति के बीच सामंजस्य का काल रहा। अकबर के काल से सामन्त तथा निम्न दोनों ही वर्गों में हिन्दू तथा मुसलमान समान रूप से सम्मिलित थे। 2. वस्त्राभूषण – मुगलकाल में बादशाह तथा उसका सामन्त वर्ग बहुमूल्य वस्त्रों का प्रयोग करता था। जरी के बहुमूल्य वस्त्र, रेशमी तथा मलमल के वस्त्रों का उच्च वर्ग में प्रयोग होता था। ढाका की मलमल तथा मुर्शीदाबाद का रेशम उस समय अत्यधिक प्रसिद्ध थे। उच्च सामन्त वर्ग के सभी व्यक्तियों की, चाहे वे मुसलमान हों अथवा हिन्दू, वेशभूषा समान थी तथा जाति-चिह्न के बिना उन्हें पहचान पाना असम्भव था। बादशाह भेट तथा खिलअत के रूप में अमीरों को बहुमूल्य वस्त्र प्रदान करता था तथा अबुल फजल के कथनानुसार उसे अकबर के लिए प्रतिवर्ष 1000 पोशाक निर्मित करवानी पड़ती थीं। उच्च वर्ग में अचकन तथा पाजामा पहनने का रिवाज था, परन्तु साधारण हिन्दू वर्ग अधिकतर धोती-कुर्ता पहनता था। आभूषणों का प्रयोग दोनों जातियाँ समान रूप से करती थीं। 3. आमोद-प्रमोद – मुगलकाल में आमोद-प्रमोद के प्रमुख साधन शिकार, पोलो, पशु-युद्ध, कुश्ती लड़ना तथा कबूतर उड़ाना थे। घरेलू खेलों में चौपड़, पासा तथा शतरंज के खेल प्रमुख थे। उच्च वर्ग के लोग मदिरापान के दुर्व्यसन से वंचित नहीं थे वरन् मुगल सम्राटों का मदिरापान तथा अफीम सेवन का व्यसन तो विख्यात है। बाबर के आमोद-प्रमोद, हुमायूँ का अफीम के नशे में मस्त रहना, अत्यधिक मदिरापान के कारण अकबर के दो पुत्रों की अल्पायु में ही मृत्यु हो जाना और जहाँगीर का मदिरा प्रेम आदि बातें इस मत की पुष्टि करती हैं। 4. स्त्रियों की दशा – इस समय समाज में स्त्रियों का कोई स्थान नहीं था। वे केवल विलास के लिए उपयुक्त समझी जाती थीं। बहुविवाह प्रथा, पर्दा प्रथा तथा अशिक्षा के दुर्गुणों ने स्त्री-समाज को पतित बना दिया था, तथापि कुछ प्रसिद्ध स्त्रियाँ इस काल में भी हुई, जिनमें गुलबदन बेगम, नूरजहाँ, जहाँआरा, रोशनआरा तथा जेबुन्निसा के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त अहमदनगर की चाँदबीबी, गोंडवाना की दुर्गाबाई, शिवाजी की माता जीजाबाई तथा राजाराम की विधवा पत्नी ताराबाई भी नारी-रत्न थी, जिन्होंने अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करके ख्याति प्राप्त की। हिन्दू स्त्रियों में बाल-विवाह, सती–प्रथा आदि अनेक कुप्रथाएँ विद्यमान थीं, जिसके कारण उनके समाज का घोर अध:पतन हो रहा था। 5. सामाजिक पतन – शाहजहाँ के शासनकाल के अन्तिम वर्षों में भारतीय समाज के पतन के चिह्न स्पष्टतः दृष्टिगोचर होने लगे थे तथा औरंगजेब के काल में सामाजिक पतन आरम्भ हो गया था। इस समय उच्च सामन्त वर्ग की नैतिकता, पवित्रता, साहस तथा शक्ति विनष्ट हो गई थी। विलासिता, मदिरापान तथा दुराचार उस समाज के सामान्य अवगुण बन गए थे। अमीर रिश्वतखोरी तथा भ्रष्टाचार में लिप्त रहते थे तथा राजदरबार में कुचक्र एवं षड्यन्त्र रचना उनका एकमात्र कार्य रह गया था। मस्जिदों में भी ये सामान्य दुर्गुण दृष्टिगोचर हो रहे थे। उच्च वर्ग के साथ-साथ अन्य वर्गों का नैतिक पतन भी होने लगा था। सरकारी कर्मचारी निर्लज्जतापूर्वक रिश्वत लेते थे तथा प्रजा पर अत्याचार करते थे, जिनको रोकने वाला कोई नहीं था। औरंगजेब के पश्चात मुगल सम्राट प्रजा के प्रति अपने समस्त कर्तव्यों को भूलकर विलासिता में लिप्त हो गए। इस प्रकार 18 वीं शताब्दी में भारत के सामाजिक पतन की पराकाष्ठा हो गई। अशिक्षा, नैतिक पतन, अधर्म, भ्रष्टाचार और मदिरापान आदि दुर्गुणों ने समाज को अधोगति तक पहुँचा दिया। 6. सामाजिक प्रथाएँ – मुगलकाल में हिन्दू व मुस्लिम दोनों जातियों में अनेक प्रकार की सामाजिक रूढ़ियाँ तथा प्रथाएँ समान रूप से विद्यमान थीं। दोनों ही ज्योतिष में विश्वास रखते थे, पीरों के मजारों की पूजा करते थे तथा गुरु की भक्ति करते थे। इस समय समाज में समान रूप से अन्धविश्वास तथा अनेक कुप्रथाएँ पनप चुकी थीं। हिन्दुओं में सती प्रथा, बाल-विवाह प्रथा तथा दहेज की प्रथाएँ प्रचलित थीं। विधवा पुनर्विवाह पंजाब तथा महाराष्ट्र के कुछ भागों के अतिरिक्त अन्य कहीं प्रचलित नहीं था। हिन्दुओं के प्रमुख त्योहार होली, दीवाली, रक्षाबन्धन आदि थे, जिन्हें मुसलमान भी उत्साहपूर्वक मनाते थे। मुसलमानों के त्योहार ईद तथा मुहर्रम को हिन्दू लोग भी मनाते थे। यद्यपि हिन्दू समाज में इस समय छुआछूत तथा जाति-भेद विद्यमान था तथापि हिन्दू वर्ग की सहिष्णुता की भावना ने उनको मुसलमानों के अधिक निकट ला दिया था। उच्च वर्ग के अतिरिक्त साधारण वर्ग सामान्यतः ईमानदार तथा धर्मभीरु था। ट्रैवनियर ने लिखा है- “नैतिकता में हिन्दू अच्छे हैं, विवाह करने पर वे कदाचित ही अपनी पत्नियों के प्रति अश्रद्धा और अविश्वास रखते हैं। उनमें व्यभिचार का अभाव है और उनके अस्वाभाविक अपराधों के विषय में तो कभी कोई सुनता ही नहीं है। इस प्रकार दरिद्र होते हुए भी साधारण प्रजा का चरित्र उच्चकोटि का था तथा वह सामान्यत: मितव्ययी होने के कारण सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करती थी। मुगलकाल की आर्थिक दशा – मुगलों के शासनकाल में भारत एक समृद्ध देश था, जिसका प्रमुख श्रेय यहाँ के व्यापारियों को था, जिन्होंने विदेशों के साथ व्यापारिक सम्पर्क स्थापित करके देश को सोने-चाँदी तथा बहुमूल्य पत्थरों से परिपूर्ण कर दिया। यद्यपि इस समय भी भारत एक कृषिप्रधान देश ही था तथा यहाँ की अधिकांश ग्रामीण जनता की जीविका कृषि पर निर्भर करती थी, परन्तु कृषि तथा व्यापार के सुन्दर सामंजस्य के कारण देश में समृद्धि थी तथा आवश्यक वस्तुओं के मूल्य कम थे। ‘हुमायूँनामा’ में भारत में प्रचलित सस्ते मूल्यों का विवरण प्राप्त होता है। इसके अनुसार अमरकोट में एक रुपए में एक बकरा बिकता था। इसी प्रकार अन्य खाद्य सामग्री भी काफी सस्ती थी। अकबर के कृषि सम्बन्धी तथा आर्थिक सुधारों के कारण भाव और भी सस्ते हो गए तथा दरिद्रों को भी पर्याप्त मात्रा में खाद्य सामग्री उपलब्ध थी। उस समय दरिद्रों की दशा चिन्तनीय नहीं थी। तथा वे सन्तोषपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। 1. कृषि – सदैव की भाँति मुगलकाल में भी भारत का प्रमुख व्यवसाय कृषि ही था। अकबर के भूमि सुधारों से कृषकों की दशा में सुधार हुआ। गन्ना, नील, कपास तथा रेशम प्रमुख उत्पादित वस्तुएँ थीं। तम्बाकू की कृषि भी मुगलकाल में आरम्भ हो गई थी। कृषि के सामान्य उपकरण अधिकतर वही थे, जो आज तक प्रचलित हैं। सिंचाई के उपयुक्त साधनों के अभाव में कृषक अधिकतर प्रकृति पर निर्भर रहते थे तथा अतिवृष्टि या अनावृष्टि के समय दुर्भिक्ष पड़ने पर उनकी दशा अत्यन्त दयनीय हो जाती थी। सरकार की सहायता मिलने पर भी उनकी स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं होता था। अकाल के पश्चात महामारी का प्रकोप होता था, जिससे असंख्य व्यक्ति मृत्यु के शिकार हो जाते थे। दुर्भिक्ष के अतिरिक्त बहुधा युद्धों तथा सेनाओं के आवागमन के कारण भी कृषकों को काफी कष्ट उठाना पड़ता था और बादशाह की निरन्तर चेतावनी के उपरान्त भी कई बार सैनिक उनके खेतों को रौंद डालते थे। अकबर के पश्चात जहाँगीर तथा शाहजहाँ के काल में अनेक बार दुर्भिक्ष पड़ा, जिसके कारण जनता की दशा इतनी शोचनीय हो गई कि उसका वर्णन करना असम्भव है। इस काल में आने वाले विदेशी यात्रियों ने दुर्भिक्ष पीड़ितों की दयनीय दशा का वर्णन किया है। यातायात के समुचित साधनों के अभाव में उनकी दशा बद से बदतर हो जाती थी। 18 वीं शताब्दी की अराजकता तथा अव्यवस्था में तो कृषकों की दशा अत्यन्त दयनीय हो गई और वे ऋणग्रस्त हो गए। 2. उद्योग-धन्धे – यद्यपि मुगलकाल में आधुनिक ढंग की मशीनें तथा कारखाने उपलब्ध नहीं थे परन्तु हस्त उद्योग-धन्धे उस काल में प्रचलित थे तथा अपने देश की खपत से अधिक माल तैयार करके व्यापारीगण भारत का बना हुआ माल विदेशों में भी ले जाते थे। व्यापार द्वारा भारत को लाभ होता था, जिससे देश उत्तरोत्तर धनी बनता जा रहा था। इस समय भारत का सबसे महत्वपूर्ण उद्येाग कपड़ा बुनना, राँगाई तथा छपाई करना था। बंगाल तथा बिहार के प्रान्त सूती कपड़ा बुनने के लिए प्रसिद्ध थे, जहाँ प्रत्येक घर में कपड़ा बुना जाता था। ऊनी वस्त्र कश्मीर में निर्मित किए जाते थे। गुजरात भी सूती वस्त्रों के लिए विख्यात था। यहाँ के व्यापारियों की ईमानदारी की प्रशंसा बारबोसा तथा मनूची जैसे विदेशी यात्रियों ने भी की है। वस्त्र उद्योग के अतिरिक्त अन्य छोटे-छोटे उद्योग-धन्धे भी इस समय भारत में प्रचलित थे। विदेशों के साथ व्यापार करने के लिए जहाजों का भी निर्माण होता था। यद्यपि भारतीय बहुत उत्तम जहाज निर्मित करना नहीं जानते थे तथापि यह उद्योग भी इस समय प्रचलित था। विविध प्रकार के टूक, कलमदान, शमादान, अलंकृत तश्तरियाँ. छोटी-छोटी सन्दकचियाँ तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुएँ, जो सामन्तों के आवासगृहों को सुसज्जित करने के काम में आती थीं, भारत में निर्मित होती थीं। 3. अन्तरप्रान्तीय व्यापार – भारत के भिन्न-भिन्न भागों में व्यापार प्रचुर मात्रा में होता था। व्यापार के लिए समृद्ध नगरों का निर्माण करवाया गया था, जो सड़कों अथवा नदियों के द्वारा परस्पर सम्बन्धित थे। लाहौर, बुरहानपुर, अहमदाबाद, बनारस, पटना,, बर्दवान, ढाका, दिल्ली तथा आगरा आदि इस काल के प्रसिद्ध व्यापारिक नगर थे। बुरहानपुर और आगरा उत्तर भारत में व्यापार के मुख्य केन्द्र थे। बंगाल से वहाँ खाद्यान्न और रेशमी कपड़ा आता था तथा मालाबार से काली मिर्च भी पहुँचती थी। गुजरात में जैन और बोहरा मुसलमान, राजस्थान में ओसवाल, माहेश्वरी और अग्रवाल, कोरोमण्डल तट पर चेट्टी और मालाबार में मुसलमान व्यापारी थे। व्यापार नदियों तथा सड़कों दोनों मार्गों से होता था। मुगल सम्राटों ने व्यापार के लिए सड़कों का निर्माण करवाया, जो दोनों ओर छायादार वृक्षों से आच्छादित थीं। थोड़ी-थोड़ी दूर पर सरायों का प्रबन्ध था, जहाँ यात्रियों के ठहरने की पूर्ण सुविधा प्राप्त थी। चोरों तथा डाकुओं से सड़कों की सुरक्षा के लिए सरकारी कर्मचारी नियुक्त होते थे। 4. विदेशी व्यापार – मुगलकाल में भारत के विभिन्न बाह्य देशों से सम्पर्क थे, जिनके साथ भारत का व्यापार होता था। विदेशों के साथ भी जल मार्ग तथा स्थल मार्ग के द्वारा व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित थे। इस समय उत्तर-पश्चिम प्रान्तों में दो प्रमुख स्थल मार्ग थे- प्रथम, लाहौर से काबुल होते हुए बाहर जाता था तथा द्वितीय, मुल्तान से कंधार होकर। इन स्थल मार्गों के अतिरिक्त अनेक बन्दरगाह थे जिनसे जल मार्गों के द्वारा व्यापार होता था। सिन्ध में लाहौरी बन्दर, गुजरात में सूरत, भड़ौच, खम्भात, बम्बई (वर्तमान-मुम्बई) में गोआ, मालाबार में कालीकट तथा कोचिन प्रमुख बन्दरगाह थे तथा पूर्वी तटों पर मछलीपट्टम, नीमापट्टम और बंगाल में श्रीपुर, सतगाँव और सोनारगाँव नामक बन्दरगाह थे। इन सभी बन्दरगाहों में सूरत का बन्दरगाह प्रमुख था, जहाँ से सबसे अधिक विदेशों के लिए व्यापार होता था। भारत सामान्यतः सुती और रेशमी वस्त्र, नील, अफीम, काली मिर्च तथा विलास की सामग्री बाहर भेजता था तथा बाहर से इन वस्तुओं के बदले में सोना, चाँदी, ताँबा, घोड़े, कच्चा रेशम, बहुमूल्य रत्न, सुगन्धित द्रव तथा मखमल आदि वस्तुएँ मंगाई जाती थी। फ्रांस से ऊनी वस्त्र, फारस व इटली से रशम, फारसे से कालान फारस व इटली से रेशम, फारस से कालीन, चीन से कच्चा रेशम और अरब तथा मध्य एशिया से घोड़े मॅगाए जाते थे। मुगल बादशाह विदेश जाने वाली और विदेश से आनी वाली वस्तुओं पर 3.5% तक कर लेते थे। चुंगी की दर कम होने के कारण व्यापार को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला तथा भारत निरन्तर धन सम्पन्न देश बनने लगा था। यह समृद्धि मुगल युग को स्वर्ण युग के रूप में परिणत करने में सहायक बनी। मुगलकाल की धार्मिक दशा मुगल सम्राटों ने मुसलमान होते हुए भी धर्मान्धता की नीति का अनुसरण नहीं किया तथा देश के सभी व्यक्तियों को उत्थान का समान अवसर प्रदान किया। यहाँ तक कि औरंगजेब जैसे धर्मान्ध सम्राट के काल में भी (जिसने धर्म प्रभावित राज्य स्थापित करने का प्रयास किया था) अनेक कट्टर मुसलमान तक सम्राट की न्याय नीति के विरोधी थे; अतः मुगल राज्य संस्था को धर्म निरपेक्ष कहना अधिक न्यायसंगत प्रतीत होता है। प्रश्न 5. 1639 ई० में शाहजहाँ ने दिल्ली के पास शाहजहाँनाबाद नगर की नींव डाली। दिल्ली में यमुना नदी के दाएँ किनारे एक किला बनवाया, जो लाल किले के नाम से विख्यात है। इस किले के भीतर सफेद संगमरमर की सुन्दर इमारतें बनवाई गई हैं, जिनमें मोती महल, हीरा महल और रंग महल विशेष उल्लेखनीय हैं। दीवाने आम और दीवाने खास आदि सरकारी इमारतों के अतिरिक्त नौबतखाना, शाही निवास, नौकरों के निवास आदि भी बने हुए हैं। दीवाने खास में चमकीले संगमरमर के फर्श, उसकी दीवारों पर फूल-पत्तियों की सुन्दर नक्काशी और मेहराबों का सुनहला रंग इतना आकर्षक है कि वहाँ लिखा है- “अगर भूमि पर कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं हैं, यहीं है, यहीं है।’ यहाँ पानी और फव्वारों का प्रबन्ध अत्यन्त भव्य है। शाहजहाँकालीन मस्जिदों में दिल्ली की जामा मस्जिद देश की सबसे प्रसिद्ध मस्जिद है। एक दूसरी जामा मस्जिद शाहजहाँ की बड़ी पुत्री जहाँआरा ने आगरा में बनवाई। पर्सी ब्राउन ने आगरा की जामा मस्जिद को दिल्ली की जामा मस्जिद से स्थापत्य कला की दृष्टि से भव्य और सुन्दर बताया है। मोती मस्जिद जिसे शाहजहाँ ने आगरा के किले में बनवाया था, स्थापत्य कला की दृष्टि से एक उच्चकोटि की कृति है। दूध की तरह सफेद संगमरमर से बनी हुई यह मस्जिद अपने नाम ‘मोती की तरह ही है। लेकिन जिस इमारत के लिए शाहजहाँ को आज भी याद किया जाता है, वह है ताजमहल, जो उसने अपनी पत्नी मुमताज महल की याद में बनवाया, जिसे 22 वर्षों में लगभग चार करोड़ रुपए की रकम से बनाया गया था। जन्नत के बागों की तरह खूबसूरत चार बाग के बीचों-बीच स्थित इस संगमरमर की इमारत का ज्यामितीय ग्रिडों की श्रृंखला के अनुसार यथानुपात निर्माण किया गया था। चबूतरे के चारों कोनों पर चार सफेद मीनारें हैं और इसकी बगल में यमुना नदी बहती है। सुन्दर चित्रकारी से अलंकृत जालियाँ, बेल-बूटों से सजी हुई दीवारें तथा लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई की दृष्टि से इमारत को एक इकाई का रूप प्रदान करने वाली कला न केवल ताजमहल के सौन्दर्य को बढ़ाने वाली है अपितु ताजमहल एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में संगमरमर में ढाला गया एक स्वपन है, जो एक महान् सौन्दर्य का प्रतीक माना जा सकता है। हावेल ने इसे ‘भारतीय नारीत्व की साकार प्रतिमा कहा है। ताजमहल के निर्माण की योजना के बारे में यह धारणा गलत सिद्ध कर दी गई है कि इसके नक्शे को बनाने में किसी यूरोपियन कलाकार ने सहयोग दिया था। यह प्रमाणित किया जा चुका है कि इसका मुख्य कलाकार उस्ताद अहमद लाहौरी था, जिसे शाहजहाँ ने ‘नादिर-उज-असर’ की उपाधि प्रदान की थी। शाहजहाँ ने मयूर सिंहासन भी बनवाया था, जिसकी छत मयूर स्तम्भों पर आधारित थी। ये स्तम्भ हीरे, पन्ने, मोती तथा लाल रत्नों से बने हुए थे। इस सिंहासन के बनने में 14 लाख रुपए से अधिक व्यय हुआ था। 1739 ई० में नादिरशाह इस सिंहासन को लूटकर अपने साथ ईरान ले गया था। लाहौर के किले में दीवाने आम, शाहबुर्ज, शीशमहल, नौलखा महल और ख्वाबगाह आदि शाहजहाँ के समय में बनाई गई मुख्य इमारतें हैं। इनके अतिरिक्त काबुल, कश्मीर, अजमेर, कन्धार, अहमदाबाद आदि विभिन्न स्थानों पर भी शाहजहाँ ने अनेक मस्जिदें, मकबरे आदि बनवाए थे। प्रश्न 6. 1. बाबर तथा हुमायूँ – मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर था, जिसे भारत की भवन निर्माण कला पसन्द नहीं आई। उसने कुस्तुनतुनियाँ से कलाकारों को बुलवाया और उनके द्वारा उसने कुछ इमारतों का निर्माण करवाया। उसने लगभग 1500 कारीगरों से प्रतिदिन कार्य करवाया तथा आगरा, ग्वालियर, बयाना और धौलपुर में कुछ भवनों का निर्माण करवाया परन्तु उसके काल के भवन अधिकाशंत: नष्ट हो चुके हैं, केवल पानीपत में काबुली बाग की मस्जिद तथा रुहेलखण्ड में सम्भल की जामा मस्जिद शेष हैं जो उसके कला प्रेम की द्योतक हैं। बाबर के उत्तराधिकारी हुमायूँ को इतना समय नहीं मिला कि वह भवनों का निर्माण करवा सकता, परन्तु हिसार जिले के फतेहाबाद में उसके द्वारा निर्मित मस्जिद आज भी विद्यमान है जिसमें ईरानी कला का बाहुल्य है। 2. शेरशाह सूरी – हुमायूं के भारत से चले जाने के बाद शेरशाह सूरी ने अपना साम्राज्य स्थापित किया। वह भी कला का महान पोषक था तथा अनेक दुर्गों का निर्माण करवाया जो शिल्पकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। दिल्ली में आज भी उसके द्वारा निर्मित दुर्ग के कुछ अवशेष प्राप्त होते हैं, जो उसकी आकस्मिक मृत्यु के कारण अपूर्ण रह गया था। शेरशाह के काल की सुन्दरतम कृति बिहार में सासाराम में उसका मकबरा है जो झील के बीचों-बीच निर्मित किया गया है। यह मकबरा भव्यता, सुन्दरता तथा सुडौलपन में अद्वितीय है। इसमें देशी तथा विदेशी कलाओं का सुन्दर सम्मिश्रण है। 3. अकबर – मुगल सम्राटों में अकबर प्रथम सम्राट था जिसके काल की अनेक कला-कृतियाँ आज भी उपलब्ध हैं। अकबर ने देशी तथा विदेशी दोनों कलाओं के सुन्दर तत्त्वों का समावेश अपनी कला में किया तथा कला को व्यापक संरक्षण प्रदान किया। यद्यपि अकबर की कला में भारतीय तथा ईरानी तत्त्व विद्यमान हैं परन्तु उसमें भारतीय तत्त्वों का बाहुल्य है। बौद्ध तथा जैन शैली को भी सम्राट ने उदारतापूर्वक अपनाया है। उसके काल के अधिकांश भवन आगरा तथा फतेहपुर सीकरी में निर्मित हुए। आगरा का प्रसिद्ध दुर्ग अकबर ने निर्मित करवाया जिसमें दीवान-ए-आम, जहाँगीरी महल आदि प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। फतेहपुर सीकरी की समस्त इमारतें सुदृढ़ लाल पत्थर द्वारा निर्मित हैं जिसमें दीवान-ए-आम, जोधाबाई का महल तथा अन्य दो रानियों के महल, संगमरमर की जामा मस्जिद, दक्षिण विजय को चिरस्मरणीय बनाने के लिए निर्मित विशाल बुलन्द दरवाजा, बौद्ध विहारों के आधार पर निर्मित पंचमहल तथा विशुद्ध संगमरमर की शेख सलीम चिश्ती की दरगाह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त बीरबल का महल तथा बादशाह की ख्वाबगाह भी दर्शनीय इमारतें हैं। अकबर की अन्य इमारतों में हुमायूँ का मकबरा है, जो दिल्ली में है और ईरानी कला के अनुरूप बनाया गया है। इलाहाबाद के दुर्ग का निर्माण भी अकबर ने करवाया जिसमें चालीस स्तम्भों का प्रासाद हिन्दू शैली के आधार पर निर्मित है। सिकन्दरा में अकबर ने अपने मकबरे का निर्माण आरम्भ करवाया था जिसकी योजना उसी ने बनाई थी तथा जिसके ऊपर एक सुनहरी छत वाला संगमरमर का गुम्बद बनवाने का सम्राट का विचार था। परन्तु उसके पूर्ण होने से पूर्व ही सम्राट की मृत्यु हो गई तथा उसके पुत्र जहाँगीर ने उस मकबरे को पूर्ण करवाया। 4. जहाँगीर – अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर को भवन निर्माण कला से उतना प्रेम नहीं था जितना चित्रकला से; अतः उसके काल में अधिक भवनों का निर्माण नहीं हुआ। परन्तु एक तो उसने अपने पिता द्वारा आरम्भ किए गए सिकन्दरा के मकबरे को पूर्ण करवाया जिसके दर्शनार्थ वह बहुधा पैदल जाया करता था। और जहाँगीर के काल की दूसरी कलाकृति आगरा में नूरजहाँ के पिता एतमादुद्दौला का मकबरा है जो शुद्ध संगमरमर का बना हुआ है और उसमें विभिन्न रंगों के बहुमूल्य पत्थर जड़े हुए हैं। जहाँगीर का मकबरा लाहौर में है, जिसे उसकी मृत्यु के पश्चात नूरजहाँ ने बनवाया था। 5. शाहजहाँ – शाहजहाँ भवन निर्माण कला का प्रेमी सम्राट था तथा उसके काल में मुगल युग की सर्वाधिक सुन्दर कलाकृतियाँ निर्मित हुईं। शाहजहाँ के भवन दृढ़ता तथा मौलिकता में अकबर के भवनों से निम्न कोटि के हैं परन्तु सौन्दर्य, रमणीयता, अलंकरण तथा सरलता से बेजोड़ हैं। शाहजहाँ ने बहुमूल्य पत्थरों तथा स्वर्ण का अत्यधिक प्रयोग किया है जिससे उसके भवनों की जगमगाइट एवं आकर्षण में चार चाँद लग गए हैं। शाहजहाँ ने दिल्ली में शाहजहाँनाबाद का दुर्ग निर्मित करवाया जिसके भवनों में दीवान-ए-आम जो लाल पत्थर से बना है, दीवान-ए-खास जो शुद्ध संगमरमर से बना है, रंगमहल, खासमहल आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। दीवान-ए-खास अधिक अंलकरण युक्त है जहाँ पर मयूर सिंहासन पर सम्राट बैठा करता था। उसकी छत पर सोने की नक्काशी दर्शनीय है। श्वेत संगमरमर के इस भवन पर लिखा हुआ यह शेर सत्य ही प्रतीत होता है कि यदि पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं पर है गर फिरदौस बर रू-ए-जमीं अस्त। दिल्ली में जामा मस्जिद शाहजहाँ के काल की अन्यतम कृति है, जो लाल पत्थर द्वारा निर्मित है। दिल्ली के अतिरिक्त आगरा में शाहजहाँ के काल की सर्वश्रेष्ठ इमारतें उपलब्ध होती हैं। अकबर के द्वारा निर्मित आगरा के दुर्ग में शाहजहाँ ने सफेद संगमरमर की मोती मस्जिद तथा मुसम्मन बुर्ज का निर्माण करवाया। इसी मोती मस्जिद में, बन्दी के रूप में शाहजहाँ ने अपने जीवन के अन्तिम आठ वर्ष व्यतीत किए तथा मुसम्मन बुर्ज में, ताजमहल को देखते-देखते उसने अपने प्राण त्यागे।। शाहजहाँ तथा मुगलकाल की सर्वश्रेष्ठ कृति आगरा का ताजमहल है जो सम्राट ने अपनी दिवंगत पत्नी मुमताजमहल की स्मृति में बनवाया था। यह शुद्ध संगमरमर द्वारा निर्मित मकबरा 22 वर्षों में बनकर तैयार हुआ तथा इस पर तीन करोड़ रुपया व्यय हुआ। सौन्दर्य, अलंकरण तथा कला की दृष्टि से यह अद्वितीय एवं सर्वश्रेष्ठ इमारत है। 6. औरंगजेब – शाहजहाँ के पश्चात औरंगजेब मुगल सम्राट बना। वह धर्मानुरागी शासक था। वह संयमित जीवन जीने प्रश्न 7. प्रश्न 8. मुगलकाल में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह दिखाई देता है कि मुगल शासक केवल शान्ति स्थापना और देश-विजय को ही अपना कर्तव्य नहीं मानते थे बल्कि अपनी प्रजा के लिए अच्छी और सुसभ्य जीवन की परिस्थितियों का निर्माण करना भी अपना कर्तव्य समझते थे। इसी कारण मुगलकाल में आर्थिक ही नहीं बल्कि सभ्यता और संस्कृति की भी उन्नति सम्भव हो पाई। महान् मुगल बादशाहों की शासन-व्यवस्था धार्मिक सहिष्णुता पर आधारित थी। केवल औरंगजेब ही ऐसा बादशाह था, जिसने धार्मिक असहिष्णुता की नीति को अपनाया। औरंगजेब ने शासन-व्यवस्था में जो परिवर्तन किए वे मुगल साम्राज्य के आधार स्तम्भ न होकर उसके लिए घातक सिद्ध हुए। अतः इसके फलस्वरूप मुगल साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। केन्द्रीय शासन-व्यवस्था अकबर के समय से बादशाह को ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में माना जाने लगा। मुगलों का राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त हिन्दू राजत्व सिद्धान्त के समान था। किन्तु मुगल बादशाह निरंकुश होते हुए भी स्वेच्छाचारी एवं अत्याचारी न थे। अकबर का कहना था “एक राजा को न्यायप्रिय, निष्पक्ष, उदार, परिश्रमी और अपनी प्रजा का संरक्षक एवं शुभचिन्तक होना चाहिए।’ औरंगजेब भी अपने इस कर्त्तव्य के प्रति जागरूक था। मुगल बादशाह अपने कर्तव्य की पूर्ति के लिए अत्यधिक परिश्रम करते थे। आरामपसन्द जहाँगीर भी स्वयं सात या आठ घण्टे राज्यकार्य में लगा रहता था, जबकि औरंगजेब रात्रि में कठिनाई से तीन या चार घण्टे ही आराम करता था। 2. शासक वर्ग- बादशाह के अतिरिक्त मुगल राज्य में कई वर्ग ऐसे थे, जो शासन में प्रभावशाली थे। उनमें एक वर्ग अमीरों का था। बाबर के साथ ईरानी, तुर्रानी, मुगल आदि बहुत बड़ी संख्या में भारत आए थे। अकबर के समय में अमीरों की संख्या में वृद्धि हुई तथा राजपूतों और योग्य भारतीय मुसलमानों को भी इस श्रेणी में सम्मिलित किया गया। जबकि औरंगजेब के समय में मराठे भी इस श्रेणी में सम्मिलित किए गए। ये अमीर राज्य में सभी प्रकार के सैनिक और असैनिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति करते थे और इस प्रकार ये शासन में शरीर की धमनियों के समान थे। राज्य-प्रशासन में इनकी भूमिका प्रभावशाली होती थी। इनके अतिरिक्त जागीरदार तथा जमींदार वर्ग भी शासन में महत्वपूर्ण स्थान रखता था। आरम्भ में जागीरदार राजस्व वसूल करके अपना और अपने सैनिकों का व्यय पूरा करके बचा हुआ राजस्व केन्द्रीय सरकार में जमा करते थे। किन्तु धीरे-धीरे इस व्यवस्था में इतने दोष उत्पन्न हो गए कि उन्होंने मुगल साम्राज्य के पतन में भाग लिया। जमींदार-वर्ग का सम्पर्क प्रत्यक्षतः किसानों से होता था। इस कारण वे आर्थिक, प्रशासकीय और सांस्कृतिक दृष्टि से भी साम्राज्य के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। 3. बादशाह के मन्त्रा – शासन में अपनी सहायता के लिए बादशाह विभिन्न मन्त्रियों की नियुक्ति करता था। ये अधिकारी अपने (ख) खानेसामाँ (मीर-ए-सामाँ) – खानेसामाँ का प्रमुख कार्य राजकीय परिवार से सम्बन्धित सदस्यों की जरूरतों की पूर्ति व देखरेख का था। यह घरेलू विभाग का प्रधान होता था। अकबर के समय में यह मंत्री पद न था, परन्तु बाद के बादशाहों के समय में इसे मन्त्री पदों में स्वीकार किया गया। उसका एक मुख्य उत्तरदायित्व शाही कारखानों की देखभाल करना था। यह सम्राट के भोजनालय की भी देखरेख करता था। यह पद बहुत ही विश्वासपात्र व्यक्ति को दिया जाता था क्योंकि इसका सम्बन्ध सम्राट के व्यक्तिगत विभागों से होता था। यह पद बाद में इतना महत्वपूर्ण हो गया कि वजीर के पद के पश्चात् यह पद ही महत्वपूर्ण माना जाने लगा। (ग) मीर बख्शी – मीर बख्शी सेना विभाग का प्रधान था तथा सेना सम्बन्धी सभी कार्यों जैसे सैनिकों की भर्ती, अनुशासन, प्रशिक्षण, वेतन, शस्त्र, रसद आदि के प्रति उत्तरदायी था। इसे ‘अफसर-ए-खजाना’ भी कहा जाता था। वह सैनिकों का हुलिया आदि सही रखता था तथा घोड़ों पर दाग लगवाता था। सैनिकों के वेतन के लिए भी यही उत्तरदायी था। उसकी सहायता के लिए अनेक कर्मचारी होते थे। मनसबदारों की नियुक्ति भी इसी के द्वारा होती थी। मुख्य काजी- मुगल शासन-व्यवस्था में बादशाह के पश्चात् न्याय विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी मुख्य काजी (मुख्य न्यायाधीश) होता था। इसे ‘काजी-उल-कुजात’ कहा जाता था। प्रत्येक बुधवार को बादशाह स्वयं न्याय के लिए बैठता था, परन्तु वह सभी मुकदमों का निर्णय नहीं कर सकता था। इस कारण मुख्य काजी की नियुक्ति की जाती थी। काजी मुस्लिम कानून के अनुसार न्याय करता था। उसकी सहायता के लिए मुफ्ती’ होते थे, जो इस्लामी कानूनों की व्याख्या करते थे। न्याय के मामलों में सम्राट के बाद उसी का निर्णय अन्तिम होता था। (ङ) सद्र-उस-सुदूर – यह धार्मिक विभाग का अध्यक्ष होता था। धार्मिक मामलों में वह बादशाह का मुख्य सलाहकार होता था। दान-पुण्य की व्यवस्था, धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था, विद्वानों को जागीरें प्रदान करना और इस्लाम के कानूनों के पालन की समुचित व्यवस्था को देखना इसके प्रमुख कर्त्तव्य थे। अकबर के शासनकाल में इस पद का महत्व कम हो गया था। डा० आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार, “प्रधानसद्र धार्मिक धन-सम्पत्ति तथा दान विभाग का प्रधान होता था। सद्र का काम योग्य व्यक्तियों के प्रार्थना-पत्रों की जॉचकर उनकी संस्तुति करना होता था। वह दान की भूमि और सम्पत्ति का निर्णायक एवं निरीक्षक होता था। अकबर के शासनकाल में सद्र घूस तथा निर्दयता के कारण कुख्यात हो गए थे। (च) मुहतसिब – प्रजा के नैतिक चरित्र की देखभाल करना तथा मुस्लिम प्रजा इस्लाम के कानूनों के अनुसार जीवनयापन करती है या नहीं, यह देखना इसका मुख्य काम था। कभी-कभी इन्हें वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करने तथा माप-तोल के पैमाने की देखभाल करने की जिम्मेदारी भी दी जाती थी। इनका काम सिपाहियों के साथ नगर का दौरा करके, शराब, जुए आदि के अड्डों को समाप्त करना भी था। औरंगजेब के काल में हिन्दू मन्दिरों और पाठशालाओं को नष्ट करने का उत्तरदायित्व भी उसे सौंपा गया था। (छ) मीरे आतिश – मीरे आतिश अथवा दरोगा-ए- तोपखाना का पद मन्त्री स्तर का न होते हुए भी प्रभावशाली होता था। शाही तोपखाना इसके अधीन था। तोपों को बनवाना, किलों में उनकी व्यवस्था और बन्दूकों का निर्माण आदि उसकी देखरेख में होता था। अधिकांशतः यह पद किसी तुर्क या ईरानी को दिया जाता था क्योंकि उन देशों का तोपखाना अधिक श्रेष्ठ था। शाही गढ़ की रक्षा करना उसका प्रमुख कर्त्तव्य था। (ज) दरोगा-ए-डाकचौकी – यह सूचना एवं गुप्तचर विभाग का अध्यक्ष होता था। प्रान्तों से सूचनाएँ प्राप्त कर उनको बादशाह तक पहुँचाना इसका प्रमुख कर्त्तव्य था। गुप्तचर विभाग का प्रधान होने के कारण शासन में इसका विशेष महत्व था। प्रान्तीय दरोगा इसी को ही सूचनाएँ भेजा करते थे। प्रान्तीय शासन-व्यवस्था – सम्पूर्ण मुगल-साम्राज्य को सूबों या प्रान्तों में बाँटा गया था। अकबर के समय में सूबों की संख्या 15 या 18 थी जो औरंगजेब के समय साम्राज्य विस्तार होने से 21 हो गई थी। प्रान्तीय शासन-व्यवस्था का ढाँचा केन्द्रीय शासनव्यवस्था के समान ही था। सर जदुनाथ ने लिखा है “मुगल सूबों में शासन-व्यवस्था केन्द्रीय शासन-व्यवस्था का लघु रूप थी।” प्रत्येक सूबे की अपनी पृथक राजधानी थी, जहाँ का प्रधान सूबेदार होता था। सूबेदार को निजाम, सिपहसालार अथवा केवल सूबा के नाम से भी पुकारा जाता था। प्रत्येक सूबे में मुख्य अधिकारी सूबेदार, दीवान, बख्शी, सद्र और काजी, कोतवाल तथा वाकिया-ए-नवीस होते थे। सूबेदार स्वतन्त्र होने का प्रयास न करें, इसलिए अकबर के शासनकाल में यह व्यवस्था थी कि दो-तीन वर्ष पश्चात् सूबेदार को भी स्थानान्तरित कर दिया जाता था। 1. कोतवाल – सूबे की राजधानी तथा बड़े नगरों में शान्ति और सुरक्षा, स्वच्छता और सफाई, यात्रियों की देखभाल आदि कोतवाल करता था। यह एक पुलिस अधिकारी होता था और उसकी अधीनता में पर्याप्त सैनिक रहते थे। नगर प्रबन्ध का भार कोतवाल पर ही था। अबुल फजल के अनुसार, “इस पद के लिए पुरुष को योग्य, बलवान, अनुभवी, चुस्त, गम्भीर, कुशाग्र बुद्धि तथा उदार हृदय होना चाहिए।’ 2. वाकिया-ए-नवीस – यह सूबे के गुप्तचर विभाग का प्रधान था। यह सूबे के शासन की प्रत्येक सूचना यहाँ तक कि सूबेदार व दीवान के कार्यों की सूचना भी यह केन्द्रीय सरकार को भेजता था। 3. बख्शी – प्रान्त के सैनिकों की देखरेख, उनको ठीक दशा में रखना, रसद की व्यवस्था करना एवं सरकारी निर्देशों का पालन कराना उसका मुख्य कर्तव्य था। इसकी नियुक्ति केन्द्रीय मीर बख्शी की सलाह से की जाती थी। बख्शी को कभी कभी सूबे का वाकिया-ए-नवीस भी बना दिया जाता था। 4. सद्र और काजी – धार्मिक और न्याय कार्य हेतु प्रान्त में सद्र और काजी का पद साधारणतया एक ही व्यक्ति को प्रदान किया जाता था, जिसकी नियुक्ति केन्द्र के सद्र-उस-सुदूर की सिफारिश पर सम्राट द्वारा की जाती थी। 5. दीवान – दीवान सूबे का वित्त अधिकारी था। सूबे में सूबेदार के पश्चात् शासन में उसी का पद महत्वपूर्ण था। वह सूबेदार के अधीन न था बल्कि वह केन्द्र के दीवान के अधीन था। सूबे की वित्त-व्यवस्था पर नियन्त्रण, आय-व्यय का हिसाब, लगान और कृषि की देखभाल, अधीनस्थ वित्त-अधिकारियों पर नियन्त्रण, सूबे की आर्थिक स्थिति की सूचना केन्द्रीय सरकार को देना तथा दीवानी मुकदमों पर निर्णय आदि दीवान के प्रमुख कर्त्तव्य एवं अधिकार थे। 6. सूबेदार – सूबेदार की नियुक्ति बादशाह द्वारा की जाती थी। सामान्यतः यह पद राजवंश के लोगों या उच्च मनसबदारों को ही दिया जाता था। अपने सूबे में उसकी स्थिति एक छोटे बादशाह के समान थी। उसके साथ एक बड़ी सेना होती थी। उसे अपने सूबे में एक बड़ी जागीर भी प्राप्त होती थी। सूबे के सभी अधिकार उसके अधीन होते थे। सूबे में शान्ति और सुरक्षा की व्यवस्था, प्रजा के हित की रक्षा, फौजदारी मुकदमों का निर्णय करना, विद्रोहों को दबाना, पुल, सराय, सड़कों आदि की सुरक्षा और निर्माण, सूबों के अधीन राज्यों से कर-वसूली आदि उसके विभिन्न कार्य थे। बादशाह अपने प्रान्त के अधिकारियों की नियुक्ति, पदोन्नति, तबादले आदि सूबदार की सलाह से ही करता था। अपने सूबे में बादशाह जैसी स्थिति होने के बावजूद भी सूबेदार के अधिकारों की एक सीमा भी थी। वह दरबार लगा सकता था। परन्तु झरोखे से अपनी प्रजा को दर्शन नहीं दे सकता था। इसका केवल बादशाह को ही अधिकार था। बादशाह की अनुमति के बिना वह युद्ध या सन्धि भी नहीं कर सकता था। वह मीर अदल तथा काजी के फैसलों की अपील सुन सकता था।, किन्तु मृत्युदण्ड देने का उसे अधिकार न था। धार्मिक मामलों में भी वह कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। औरंगजेब के साम्राज्य में सूबे स्थानीय शासन
व्यवस्था–
2. गाँवों का शासन – मुगलों ने गाँव के शासन का उत्तरदायित्व अपने हाथों में नहीं लिया था बल्कि परम्परागत ग्राम पंचायतें ही अपने गाँव की सुरक्षा, सफाई तथा छोटे-मोटे झगड़ों का निपटारा करती थी। गाँवों के अधिकांश झगड़ों का निपटारा भी ग्राम-पंचायतें ही करती थीं। गाँव के अधिकारियों में मुकद्दम, पटवारी, चौकीदार आदि प्रमुख थे। साधारणतया सरकारी कर्मचारी ग्राम्य जीवन और शासन में हस्तक्षेप नहीं करते थे और न ही गाँव में किसी सरकारी कर्मचारी की नियुक्ति की जाती थी। अतः सरकारी कर्मचारियों की अधीनता में गाँव शासन की स्वतन्त्र इकाइयाँ थीं। 3. नगरों का शासन – नगर के शासन का प्रधान कोतवाल होता था। वह उन सभी कार्यों को करता था, जो आधुनिक समय में नगरपालिकाएँ और पुलिस अधिकारी करते हैं। नगर सुरक्षा, सफाई व्यवस्था, बाजार पर नियन्त्रण, यात्रियों पर निगरानी, नगर को वार्डों में बाँटना, स्थानीय करों की वसूली आदि उसके प्रमुख कार्य होते थे। उसकी अधीनता में पर्याप्त सैनिक होते थे। 4. परगने का शासन – प्रत्येक सरकार कई परगनों में बँटी होती थी। इसमें शिकदार, आमिल, फौतदार, काजी, कानूनगो तथा अनेक लेखक होते थे। शिकदार का कर्तव्य परगने में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना तथा लगान वसूलने में सहायता करना था। आमिल परगने का वित्त अधिकारी था तथा किसानों से लगान वसूल करना उसका मुख्य काम था। फौतदार परगने का खजांची था तथा खजाने की सुरक्षा उसका मुख्य उत्तरदायित्व था। परगने में न्याय का कार्य काजी के सुपुर्द था तथा कानूनगो परगने के पटवारियों का प्रधान था। लगान, भूमि और कृषि सम्बन्धी सभी कागजों को देखना और तैयार करना उसका कर्त्तव्य था। परगने में अनेक लेखक (कारकून) भी थे, जो लिखा-पढ़ी का कार्य करते थे। प्रश्न 9.
सेना – मुगल सेना मोटे तौर पर पाँच भागों में बँटी हुई थी। ये पाँच भाग थे- पैदल सेना, घुड़सवार सेना, तोपखाना, नौसैना और हस्ति सेना। 1. पैदल सेना – पैदल सैनिक मुख्यत: दो भागों में बँटे होते थे,
2. घुड़सवार सेना – घुड़सवार सेना मुगल सेना का श्रेष्ठतम भाग था। इसमें मुख्यतया दो प्रकार के सैनिक थे
3. तोपखाना – भारत में बाबर ने सर्वप्रथम तोपखाने का उपयोग किया। अकबर ने इसे और शक्तिशाली बनाया। इस क्षेत्र में अकबर का प्रमुख कार्य ऐसी छोटी-छोटी तोपों का निर्माण करना था, जो एक हाथी अथवा ऊँट की पीठ पर ले जायी जा सकती थी। डॉ०आर०पी० त्रिपाठी के अनुसार “तुर्की तोपखाने को छोड़कर अकबर का तोपखाना एशिया में किसी से कम न था क्योंकि अकबर के समय में वह श्रेष्ठता की चरम सीमा पर था।” तोपखाने में यूरोपियनों की नियुक्ति की जाती थी। कहा जाता था कि वे तोपखाने के प्रयोग में दक्ष थे। 4. नौसेना – मुगल सैनिक-शक्ति का यह कमजोर अंग था। अकबर ने पहली बार इस ओर ध्यान दिया था और इसके लिए मीर-ए-बहर की अध्यक्षता में एक अलग विभाग स्थापित किया गया था। वास्तव में मुगल सम्राट नौसेना की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे सके तथा कालान्तर में यूरोपीय जातियों से पराजित हुए। 5. हस्ति सेना – अकबर ने अपनी सेना में ‘हस्ति सेना’ के संगठन पर विशेष महत्व दिया। उसे हाथियों से विशेष लगाव था। उसकी सेना में एक हजार शाही हाथी थे और बाद में इनकी संख्या पचास हजार तक पहुंच गई। इनका प्रयोग युद्ध में व सामान ढोने में किया जाता था। सम्राट जिन हाथियों का प्रयोग करता था, उन्हें ‘खास’ कहा जाता था। अन्य श्रेणियों के हाथी ‘हलकह’ कहे जाते थे। प्रश्न 10. 2. लगान व्यवस्था – मुगल साम्राज्य की लगभग दो-तिहाई आय लगान ( भूमिकर) से होती थी, जो एक प्रकार से आर्थिक संगठन का मुख्य आधार थी। अकबर प्रथम मुगल बादशाह था, जिसने लगान-व्यवस्था को सुचारु रूप से स्थापित किया और मध्य युग की सर्वश्रेष्ठ लगान पद्धति का निर्माण किया। उसने विभिन्न लगान अधिकारियों तथा अर्थ-मन्त्रियों को नियुक्त करके विभिन्न अन्वेषण किए। उसने टोडरमल की सहायता से जिस लगान व्यवस्था को स्थापित किया, उसे दहसाला प्रबन्ध (जाब्ता) कहा जाता है और वह मुगल लगान-व्यवस्था का सफल आधार बनी। 3. दहसाला प्रबन्ध – 1580 ई० में अकबर ने दहसाला प्रबन्ध को आरम्भ किया और उसे लगान व्यवस्था का स्थायी स्वरूप दिया गया। उस समय राजा टोडरमल अर्थ मन्त्री था और उसका मुख्य सहायक ख्वाजा शाह मंसूर था। इस बन्दोबस्त की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार थीं
अकबर की उपर्युक्त लगान-व्यवस्था की कुछ ब्रिटिश इतिहासकारों ने आलोचना की है। उनके अनुसार लगान कर्मचारी भ्रष्ट थे, जो किसानों पर अत्याचर करते थे और किसानों से अधिक मात्रा में लगान वसूल किया जाता था। परन्तु अधिकांश भारतीय इतिहासकार अकबर की लगान-व्यवस्था को श्रेष्ठ और सफल मानते हैं। इनके अनुसार उपज का 1/3 भाग मध्य युग का न्यूनतम लगान था। लगान के अतिरिक्त अकबर अन्य कोई कर नहीं लेता था। इस प्रकार अकबर की लगान-व्यवस्था के सम्बन्ध में लेनपूल ने लिखा है, “ मध्य युग के इतिहास में आज तक किसी व्यक्ति का नाम इतना ख्यातिपूर्ण नहीं माना गया है, जितना टोडरमल का और इसका कारण यह है कि अकबर के सुधारों में से कोई भी सुधार इतनी अधिक मात्रा में प्रजा के हितों की पूर्ति करने वाला न था, जितनी इस महान् अर्थशास्त्री द्वारा की गई लगान की पुनर्व्यवस्था।” जहाँगीर के समय में लगान-व्यवस्था का मूल स्वरूप अकबर के समय की भाँति ही रहा परन्तु उसका प्रबन्ध शिथिल हो गया। डॉ० बी०पी० सक्सेना के अनुसार, राज्य की 70% भूमि जागीरदारों को दे दी गई और राज्य का सम्पर्क जागीरदारी भूमि के किसानों से न रहा। शाहजहाँ ने किसानों के कर-भार में वृद्धि कर दी। उसने लगान वसूल करने के लिए भूमि को ठेकेदारों को दिया जाना भी आरम्भ कर दिया। औरंगजेब के समय में राज्य की आर्थिक कठिनाइयों के कारण किसानों पर अधिक दबाव डाला गया। किसानों से लगान वसूल करने के लिए कठोरता भी की गई, जिससे किसानों की स्थिति खराब हो गई। उत्तरकालीन मुगल बादशाहों के समय में तो यह व्यवस्था पूर्णतया समाप्त हो गई और भूमि को ठेकेदारों को देने के अतिरिक्त और कोई कार्य शेष न रहा। इससे किसानों की स्थिति खराब हो गई और राज्य का आर्थिक ढाँचा नष्ट हो गया। We hope the UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 5 Administration, Society, Art and Literature during Mughal Period (मुगलकालीन शासन-व्यवस्था, कला व साहित्य) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 5 Administration, Society, Art and Literature during Mughal Period (मुगलकालीन शासन-व्यवस्था, कला व साहित्य), drop a comment below and we will get back to you at the earliest. |