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Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शनRBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शन पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तरRBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शन वस्तुनिष्ठ प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शन अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शन लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शन निबन्धात्मक प्रश्न प्रश्न 1.
उपर्युक्त बातें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं तथा विक्रेता तथा क्रेता दोनों का मार्गदर्शन करने वाली हैं। मैं भी बाजार से जरूरत की चीजों को खरीदने के लिए जाऊँगा किन्तु वहाँ से अनावश्यक चीजें नहीं खरीदूंगा और अपने धन का दम्भपूर्ण प्रदर्शन भी नहीं करूंगा। प्रश्न 2. उपभोक्ताओं को शोषण से बचाने के लिए मैं निम्नलिखित सुझाव देना चाहूँगा –
RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शन भाषा सम्बन्धी प्रश्न प्रश्न 1. RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शन अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तरRBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शन वस्तुनिष्ठ प्रश्न 1. मूल में एक ही तत्व की महिमा सविशेष है। वह तत्व है – (क) पति 2. ‘परिमित’ का विलोम शब्द है – (क) सीमित 3. ‘बाजार में एक जादू है।’ यहाँ ‘जादू’ शब्द का अर्थ है – (क) सौन्दर्य 4. भगत जी का कार्य है – (क) नमक बेचना 5. क्यों न मैं मोटर वालों के यहाँ पैदा हुआ? इस वाक्य में है – (क) व्यंग्य शक्ति उत्तर:
RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शन अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न
9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शन लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. इच्छाओं के वेग से वह व्याकुल हो उठता है। उसका मन तृष्णा, असन्तोष और ईर्ष्या से भर उठता है। उसकी व्याकुलता उसको पागल बना देती है तथा वह सदा के लिए बेकार हो जाता है। प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न
15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. प्रश्न 19. यह व्यंग्य शक्ति अत्यन्त कष्टदायक होती है। इसको परास्त करना साधारण काम नहीं है। पैसे की व्यंग्य शक्ति को चूर-चूर करने वाला बल सांसारिक धन वैभव के बल से ऊँचा है। यह बल उस व्यक्ति में ही होता है, जिसने तृष्णा तथा संग्रह की प्रवृत्ति पर विजय पा ली है। इस बल को धार्मिक, नैतिक तथा आत्मिक बल कहा जाता है। सांसारिक इच्छाओं के आकर्षण से मुक्त मनुष्य में ही यह बल होता प्रश्न 20. प्रश्न 21. प्रश्न 22. प्रश्न 23. प्रश्न 24. प्रश्न 25. RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शन निबंधात्मक प्रश्न प्रश्न 1. संतोषी – भगत जी संतोषी हैं। वह अपनी कम कमाई से भी संतुष्ट रहते हैं। छ: आने की कमाई होते ही वह चूरन बेचना बन्द कर देते हैं। वह पच्चीसवाँ पैसा भी स्वीकार नहीं करते। शेष चूरन वह बच्चों में मुफ्त बाँट देते हैं। लोभहीन – भगत जी को लोभ नहीं है। वह व्यापार को शोषण का जरिया नहीं मानते। तृष्णा से मुक्त – भगत जी में तृष्णा-भाव नहीं है। उनमें संग्रह की भावना नहीं है। जीवनयापन के लिए जितना पैसा जरूरी है, वह उतना ही कमाना चाहते हैं। भगत जी को जरूरत का ज्ञान है। वह चौक बाजार से जीरा और काला नमक खरीदते हैं। वह एक पंसारी की दुकान से मिल जाता है। शेष बाजार उनको आकर्षित नहीं कर पाता। सम्माननीय – भगत जी धनवान तथा बहुत पढ़े-लिखे नहीं हैं किन्तु अपने संतोषपूर्ण स्वभाव के कारण वह सभी के सम्माननीय हैं। बाजार में लोग उनका अभिवादन करते हैं। प्रश्न 2. वर्तमान नोटबंदी के कारण बाजार अस्त-व्यस्त हो रहा है। ग्राहकों के पास भी धन नहीं है। बाजार जाकर सामान खरीदना आसान नहीं है। इस परिस्थिति में मैं पहले मित्र की तरह फिजूलखर्ची करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। वैसे भी ज्यादा चीजों का प्रयोग करना मैं सुख-शांति में बाधक मानता हूँ। मैं दूसरे मित्र की तरह भी बनना नहीं चाहता। बाजार में जाकर अनिश्चय में पड़ना तथा कुछ भी न खरीद कर समय नष्ट करना मैं उचित नहीं समझता। मैं चाहूँगा कि भगत जी की तरह अपनी जरूरतों के बारे में जानें तथा उनको सीमित रखें। इस प्रकार मैं केवल उपयोगी चीजें ही खरीदूंगा। ऐसी दशा में नोटबंदी के कारण पास में पैसा न होने की समस्या भी मुझे नहीं सतायेगी। प्रश्न 3. यदि सभी उपभोक्ता भगत जी की तरह हो जायें तो बाजार तथा ग्राहकों पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। बाजार को अनावश्यक रूप से चीजों का विज्ञापन करके लोगों को ललचाने की जरूरत नहीं रह जायंगी। ग्राहक उसमें फँसेंगे ही नहीं तथा बाजार को उनका शोषण करने का अवसर नहीं मिल पायेगा। ग्राहक यह जान लेंगे कि उनको किस चीज की जरूरत है तथा उनको बाजार में वह कहाँ प्राप्त होगी। तब वह बाजार में बेकार भटकेंगे नहीं। वे अनावश्यक चीजें खरीदने में अपना पैसा भी बरबाद नहीं करेंगे। वे अनिश्चय का शिकार भी नहीं होंगे और खाली हाथ बिना कुछ खरीदे बाजार से नहीं लौटेंगे। वे भगत जी की तरह अपनी जरूरत की चीजें ही बाजार की किसी निश्चित दुकान से खरीदेंगे। वे चीजों का संग्रह नहीं करेंगे। अतः तृष्णा से मुक्त और संतुष्ट रहेंगे। वे शोषण से भी अपनी रक्षा कर सकेंगे। प्रश्न 4. बाजार जाने वाले की केवल एक ही चीज देखी जाती है, वह है उसकी क्रय-शक्ति । कोई मनुष्य बाजार में कितना धन खर्च कर सकता है और कितनी चीजें खरीद सकता है, यह देखना ही बाजार का विषय है। जिस मनुष्य के पास धन नहीं है, वह चाहे किसी भी जाति-वर्ग का हो, उसको बाजार से कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि बाजार की दृष्टि में सभी मनुष्य समान होते हैं। वह कोई भेदभाव नहीं करता। बाजार समतामूलक समाज बनाने में योग दे रहा है। यदि गंभीरतापूर्वक देखा जाय तो ऐसा नहीं है। साम्प्रदायिक दंगे होते हैं तो एक वर्ग के लोग दूसरे की दुकानें जलाने में संकोच नहीं करते। पड़ौसी दुकानदार आमने-सामने आ जाते हैं। आर्थिक श्रेत्र में बाजार समानता को व्यवहार नहीं करता। वहाँ अमीर-गरीब ग्राहकों में भेदभाव होता है। गरीब व्यक्ति की ऊँची दुकानों में घुसने की हिम्मत भी नहीं होती। प्रश्न 5. (ख) खुला मन – मन खुला होने का आशय यह है कि बाजार जाने वाले को अपनी जरूरत का स्पष्ट ज्ञान हो। जैसे भगत जी जानते हैं कि उनको काला नमक तथा जीरा पंसारी की दुकान से खरीदना है। खुले मन वाले व्यक्ति पर बाजार का जादू नहीं चलता। वह अपनी जरूरत की चीजें खरीदकर बाजार को सार्थकता प्रदान करता है। वह फिजूलखर्ची से भी बचा रहता है। (ग) बन्द मन – मन खुला नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं कि मन बन्द है। मन में इच्छाएँ पैदा न होना, उसका कामनामुक्त होना, मन का बन्द होना है। मन को बन्द करने का अधिकार मनुष्य को नहीं है। यह अधिकार तो परमात्मा का है। परमात्मा स्वयं सम्पूर्ण है। उसी में इच्छामुक्त होने की शक्ति है। मनुष्य अपूर्ण है। उसमें इच्छाएँ पैदा होना स्वाभाविक है। मन में बलपूर्वक इच्छा पैदा न होने देना उसका दमन करना है। मनुष्य के लिए ऐसा करना न संभव है और न उचित । प्रश्न 6. पैसे की यह शक्ति अटल होती है किन्तु कभी-कभी इसकी अनिर्वायता भंग होती भी देखी जाती है। ऐसी दशा में पैसा शक्तिहीन हो जाता है। पैसे की शक्ति का प्रमाण हमको मुंशी प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानी ‘नमक का दरोगा’ में मिलता है। जमींदार पंडित अलोपीदीन की चोरी से नमक ले जाती गाड़ियाँ दरोगा जी द्वारा पकड़ी जाती हैं। पंडित जी को इस अपराध के लिए पकड़कर न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है। वहाँ बड़े-बड़े वकील उनकी पैरवी में खड़े हो जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति उनकी आवभगत में जुट जाता है। पंडित अलोपीदीन धन के बल पर न्यायालय में निरपराध सिद्ध होते हैं तथा मुक्त हो जाते हैं। दूसरी ओर ईमानदार दरोगा बंशीधर को कर्तव्यपालन में असावधान मानकर चेतावनी दी जाती है। उनकी नौकरी चली जाती है। शक्तिहीनता – पैसे की शक्तिहीनता का प्रमाण भी हमें इसी कहानी में मिलता है। नदी तट पर दरोगा बंशीधर को नमक की गाड़ियाँ छोड़ने के लिए चालीस हजार रुपये तक की रिश्वत पेश की जाती है किन्तु ईमानदार बंशीधर उसे स्वीकार न करके जमींदार अलोपीदीन को बंदी बना लेते हैं। यहाँ धन-बल की पराजय और शक्तिहीनता स्पष्ट दिखाई देती है। पैसे से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता। ये दोनों ही प्रसंग साहित्य से सम्बन्धित हैं किन्तु यथार्थ जीवन में भी कभी-कभी ऐसा होता देखा जाता है। प्रश्न 7. बाजार का यह जादू उन लोगों पर ही होता है, जिनका मन खाली तथा जेब भरी होती है। आशय यह है कि जिनको बाजार जाने पर अपनी जरूरतों को ठीक से पता नहीं होता वे अपने पैसे के बल पर बाजार में प्रदर्शित आकर्षक किन्तु गैरजरूरी चीजों को खरीद लेते हैं। जो व्यक्ति अपनी जरूरतों के बारे में ठीक तरह जानता है, वह ऐसा नहीं करता । बाजार के जादू से बचने के लिए आवश्यक है। कि बाजार जाने से पहले सोचें कि हमें किस चीज की जरूरत है। इस प्रकार हम जरूरी चीज ही खरीदेंगे तथा बाजार के आकर्षण का प्रभाव हम पर नहीं पड़ेगा। हमें बाजार को आवश्यकता पूर्ति का स्थान मानना चाहिए। उसे अपनी क्रय-शक्ति को प्रदर्शन करने तथा अपने घमंड के प्रदर्शन का स्थान नहीं मानना चाहिए। ऐसा करके हम बाजार के जादू से बच सकेंगे तथा उसका सही उपयोग कर सकेंगे। प्रश्न 8. भारत में ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का सिद्धान्त मान्य है। बाजार इसके विपरीत प्रदर्शनपूर्ण जीवन-शैली को प्रोत्साहित करता है। वह ज्यादा से ज्यादा चीजें खरीदने तथा उनके उपयोग पर जोर देता है। इससे जीवन में सादगी नहीं रह जाती तथा सादा जीवन बिताने वाला मनुष्य तिरस्कार का पात्र बनता है। बाजार मनुष्य को वैभवपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है। प्रश्न 9. प्रश्न 10. (अ) बाजार से लाभ कौन नहीं उठा सकता? उत्तर: (ब) बाजार में जाकर अपनी ‘पर्चेजिंग पावर’ का प्रदर्शन करने वाले अपने मन के घमंड को भले ही संतुष्ट कर लें परन्तु उनके कारण बाजार के उद्देश्य को हानि पहुँचती है। बाजार का उद्देश्य लोगों की आवश्यकता की पूर्ति करना है। ऐसे लोगों के कारण बाजार शोषण का स्थल बन जाता है। वह अपने उद्देश्य को पूरा करके अपने गठन का लाभ नहीं ले पाता।। (स) जब बाजार अपने लक्ष्य से भटक जाता है तो वह प्रदर्शन का स्थान तथा ग्राहकों के शोषण का स्थान बन जाता है। वह समाजोपयोगी और उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने का स्थान नहीं रह जाता। अनुचित तरीकों से अनावश्यक खरीद के लिए उत्तेजित करना ही बाजारूपन है। बाजार की यह दशा उन लोगों के कारण होती है जो अपनी आवश्यकता को जाने बिना बाजार जाकर अनाप-शनाप खरीदारी करते हैं। बाजार दर्शन लेखक-परिचय प्रश्न- साहित्यिक परिचय- जैनेन्द्र कुमार ने कथा साहित्य के साथ हिन्दी गद्य की अन्य विधाओं पर भी लेखनी चलाई है। आप हिन्दी में मनोविश्लेषणात्मक कथा साहित्य की रचना के पुरोधा हैं। प्रेमचन्द ने आपको हिन्दी का गोर्की कहकर महिमा मण्डित किया था। जैनेन्द्र कुमार ने कहानियों के साथ ही उपन्यासों की भी रचना की है। आपने विभिन्न विषयों पर महत्त्वपूर्ण निबन्ध लिखे हैं। अपने निबन्धों में वह विचारक तथा विश्लेषक के रूप में प्रकट हुए हैं। जैनेन्द्र की भाषा तत्सम शब्द प्रधान है। उसमें प्रचलित शब्दों को उदारता से स्वीकार किया गया है। आवश्कता के अनुसार मुहावरों का प्रयोग करने से उनकी भाषा पुष्ट हुई है। जैनेन्द्र ने विचारात्मक, मनोविश्लेषणात्मक, वर्णनात्मक आदि शैलियों के साथ व्यंग्य शैली को भी अपनाया है। कृतियाँ-जैनेन्द्र जी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं बाजार दर्शन पाठ-सारांश प्रश्न- अनावश्यक क्रय-लेखक के मित्र एक मामूली चीज खरीदने बाजार गए थे। लौटे तो उनके साथ अनेक बण्डल थे। इस फिजूलखर्ची के लिए उन्होंने अपनी पत्नी को जिम्मेदार बताया। स्त्रियाँ अधिक सामान बाजार से खरीदती हैं। यह ठीक है किन्तु पुरुष अपना दोष पत्नी पर डालकर बचना चाहते हैं। खरीदारी में एक अन्य चीज का भी महत्त्व है। वह है मनीबैग अर्थात् पैसे की शक्ति। पैसा की पॉवर-पैसा पॉवर है। इसका प्रमाण लोग अपने आस-पास माल-असबाब, कोठी-मकान आदि इकट्ठा करके देते हैं। कुछ संयमी लोग इस पॉवर को समझते हैं, किन्तु वे प्रदर्शन में विश्वास नहीं करते। वे संयमी होते हैं। वे पैसा जोड़ते जाते हैं तथा इस संग्रह को देखकर गर्व का अनुभव करते हैं। मित्र का मनी बैग खाली हो गया था। लेखक ने समझा कि जो सामान उन्होंने खरीदा था वह उनकी आवश्यकता के अनुरूप था। उन्होंने अपनी ‘पर्चेजिंग पावर’ अर्थात् क्रय के अनुसार ही सामान खरीदा था। बाजार का जादू-बाजार में आकर्षण होता है। उसमें प्रदर्शित वस्तुएँ ग्राहक को आकर्षित करती हैं कि वह उनको खरीदे। इस आकर्षण से बहुत कम लोग बच पाते हैं। संयमहीन व्यक्ति को बाजार कामना से व्याकुल ही नहीं पागल बना देता है, उसमें असन्तोष, ईष्र्या और तृष्णा उत्पन्न करके उसको बेकार कर देता है। जादू से रक्षा-लेखक के एक अन्य मित्र भी बाजार गए थे। वहाँ अनेक चीजें थीं। वह बाजार में रुके भी बहुत देर तक। उनका सभी चीजें खरीदने का मन हो रहा था। सोचते रहे क्या लँ क्या न लैं? उन्होंने कुछ नहीं खरीदा, खाली हाथ लौटे। बाजार का जादू उसी पर चलता है जिसकी जेब भरी हो और मन खाली हो। मन खाली होने का मतलब यह पता न होना है कि उसकी आवश्यकता की वस्तु क्या है। वह सभी चीजों को खरीद लेना चाहता है जब यह जादू उतरता है तो पता चलता है कि अनावश्यक चीजें खरीदने से आराम नहीं कष्ट ही होता है। बाजार जाना हो तो खाली मन जाना ठीक नहीं। बाजार जाते समय अपनी आवश्यकता ठीक से पता होनी चाहिए। खाली और बन्द मन-मन खाली न रहे इसका मतलब मन का बन्द होना नहीं है। मन के बन्द होने का अर्थ है-शून्य हो जाना। शून्य होने का अधिकार परमात्मा को है। वह पूर्ण है, मनुष्य तो अपूर्ण है। उसके मन में इच्छा उत्पन्न होना स्वाभाविक है। मन को बलात् बन्द करना केवल हठ है। सच्चा ज्ञान अपूर्णता के बोध को गहरा करता है। सच्चा कर्म इस अपूर्णता को स्वीकार करके ही होता है। अतः मन को बलात् बन्द नहीं करना है। किन्तु मन को जो चाहे सो करने की छूट नहीं देनी है। चूरनवाले भगत जी-लेखक के पड़ोसी चूरनवाले भगत जी हैं। वे चूरन बेचते हैं। उनका चूरन प्रसिद्ध है। वह नियत समय पर चूरन की पेटी लेकर निकलते हैं। लोग उनसे सद्भाव रखते हैं। उनका चूरन तुरन्त बिक जाता है। छ: आने की कमाई होते ही वह शेष चूरन बच्चों में मुफ्त बाँट देते हैं। बाजार का जादू उन पर प्रभाव नहीं डालता। पैसा उनसे प्रार्थना करता है कि मुझे अपनी जेब में आने दीजिए। किन्तु वह निर्दयतापूर्वक उसका निवेदन ठुकरा देते हैं। वे नियम से चूरन बनाते हैं, बेचते हैं और उतना ही कमाते हैं, जितने की उनको जरूरत होती है। भगत जी बाजार से नित्य सामान खरीदते हैं। वह बाजार में सबसे हँसते-बोलते हैं। वह वहाँ आँखें खोलकर चलते हैं। बाजार में अनेक फैंसी स्टोर हैं। बाजार माल से भरा पड़ा है, वह सबको देखते आगे बढ़ जाते हैं और पंसारी की दुकान पर रुकते हैं, काला नमक तथा जीरा खरीदते हैं। इसके बाद चाँदनी चौक (बाजार) का आकर्षण उनके लिए शून्य हो जाता है। पैसे की व्यंग्य शक्ति-पैसे की व्यंग्य शक्ति चुभने वाली होती है। पैदल चलने वाले के पास से गुजरती धूल उड़ाती मोटर उस पर व्यंग्य करती हैं कि तेरे पास मोटर नहीं है। वह सोचता है-मैं अभागा हूँ, नहीं तो किसी मोटरवाले के घर जन्म क्यों न लेता। पैसे की व्यंग्य शक्ति का प्रभाव चूरनवाले भगतजी पर नहीं होता उनमें इससे बचने का बल है। यह बल उसी को प्राप्त होता है, जिसमें तृष्णा तथा संचय की प्रवृत्ति नहीं है। इस बल को आत्मिक, नैतिक, धार्मिक कोई भी बल कह सकते हैं। जिसमें यह बल होता है, वह बाजार के व्यंग्य से प्रभावित नहीं होता निर्बल ही धन की ओर झुकता है। बाजार की सार्थकता-जो मनुष्य जानता है कि उसको क्या चाहिए। उसी से बाजार को सार्थकता प्राप्त होती है। अनावश्यक चीजें खरीदने वाले बाजार की शैतानी और व्यंग्य शक्ति ही बढ़ाते हैं। ऐसे लोगों के कारण बाजार का सामाजिक सद्भाव नष्ट होता है। और कपट बढ़ता है। ऐसा बाजार मानवता के लिए विडम्बना है। ऐसे बाजार का पोषण करने वाला अर्थशास्त्र पूर्णत: उल्टा है। वह मायावी शास्त्र है। ऐसा अर्थशास्त्र अनीति शास्त्र है। → महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्याएँ 1. उनका आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उस महिमा का मैं कायल हूँ। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है। स्त्री माया न जोड़े, तो क्या मैं जोड़ें? फिर भी सच सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्व की महिमा सविशेष है। वह तत्व है मनीबेग, अर्थात् पैसे की गरमी यो एनर्जी॥ (पृष्ठ सं. 42) कठिन शब्दार्थ-आशय = तात्पर्य। महिमा = महत्ता। कायल होना = स्वीकार करना। आदिकाल = प्राचीनकाल। प्रमुखता = प्रधानता। माया = धन। ओट लेना = बहाना बनाकर बचना। मूल = जड़े। एनर्जी = शक्ति। सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बाजार दर्शन’ पाठ से लिया गया है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक के एक मित्र कोई मामूली सामान लेने बाजार गए थे, लौटे तो उनके पास सामान के कई बण्डल थे। लेखक को उन्होंने बताया कि बाजार जाने पर उनको इतना अधिक सामान पत्नी के कारण खरीदना पड़ा। व्याख्या–लेखक कहता है कि उसके मित्र ने ज्यादा सामान खरीदने की जिम्मेदारी अपनी पत्नी पर डाल दी और उसे उसकी महिमा बताया। लेखक का कहना है कि पत्नी की महिमा को तो वह भी मानता है। अधिक सामान खरीदने और जोड़ने में प्राचीनकाल से ही पति की अपेक्षा पत्नी को प्रधानता अधिक रही है। यहाँ व्यक्तित्व नहीं स्त्रीत्व का विधान है अर्थात् सामान जोड़ना पुरुषों का नहीं स्त्रियों का स्वभाव होता है। धन-दौलत, सम्पत्ति जोड़ना स्त्रियों का काम है। तब भी सच्चाई को बहाने बनाकर छिपाया नहीं जा सकता। सच्चाई यह है कि पुरुष जो फिजूलखर्ची करता है उसके लिए पत्नी को जिम्मेदार बताकर बहाने से स्वयं को बचा लेता है। खर्च अथवा आवश्यकता से अधिक खर्च करना एक और बात पर निर्भर करता है। वह बात है मनी बैग, बटुआ अर्थात् उसमें रखा हुआ पैसा और उसकी क्रय शक्ति। जितना अधिक धन होगा, बाजार से उतनी ही ज्यादा खरीदारी की जायेगी। विशेष- 2. पैसा पावर है। पर उसके सबूत में आस-पास माल-टाल न जमा हो, तो क्या वह खाक पावर है। पैसे को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर पाल-असबाब मकान-कोठी तो अनदेखे भी दीखते हैं। पैसे की उस पर्चेजिंग पॉवर के प्रयोग में ही पावर का रस है। लेकिन नहीं। लोग संयमी भी होते हैं। वे फिजूल सामान को फिजूल समझते हैं। वे पैसा बहाते नहीं हैं और बुद्धिमान होते हैं। बुद्धि और संयमपूर्वक वह पैसे को जोड़ते जाते हैं। वह पैसे की पावर को इतना निश्चय समझते हैं। कि उसके प्रयोग की परीक्षा उन्हें दरकार नहीं है। बस खुद पैसे के जुड़ा होने पर उनका मन गर्व से भरा फूला रहता है। (पृष्ठ सं. 43) कठिन शब्दार्थ-पावर = शक्ति। सबूत = प्रमाण। माल-टाल = सम्पत्ति। खाक = मिट्टी, राख। खाक पावर है = महत्त्वहीन है, बेकार है। माल-असबाब = सामान। पर्चेजिंग पावर = क्रय शक्ति। रस = आनन्द। फिजूल = व्यर्थ। बहाना = नष्ट करना। दरकार = जरूरी। मन गर्व से फूला रहना = मन में घमण्ड अनुभव करना। सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इस निबन्ध के लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक कहता है कि बाजार से सामान खरीदने में पैसा महत्वपूर्ण है। पैसे में चीजों को खरीदने की ताकत होती है। बिना धन के चीजें नहीं खरीदी जा सकतीं। व्याख्या-लेखक कहता है कि पैसा पावर है अर्थात् धन में क्रय शक्ति होती है। पैसे की इस शक्ति का प्रमाण उस सामान को देखकर मिलता है, जो किसी आदमी के पास जमा होता है। इसके बिना पैसे की ताकत को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। धन का पता किसी के बैंक खाते में जमा राशि को देखकर किया जा सकता है। लेकिन सामान-सट्टा और मकान-कोठी तो बिना देखे ही सबको दिखाई देते हैं। पैसे में जो क्रय शक्ति होती है, उसका प्रयोग करके अर्थात् पैसे को खर्च करके सामान खरीदने से उसकी शक्ति का आनन्द मिलता है। पैसे की शक्ति का आनन्द लेने के लिए खरीदारी करना जरूरी नहीं है। संयमी लोगों को पैसा पास होने से ही खुशी मिल जाती है। वे बेकार की चीजें नहीं खरीदते। अनावश्यक चीजें खरीदकर इकट्ठा करना वे बेकार समझते हैं और उनमें अपना धन नष्ट नहीं करते। वे समझदार होते हैं। वे अपना धन एकत्र करते रहते हैं, जोड़ते रहते हैं। उसको खर्च करने में संयम बरतते हैं। पैसे की शक्ति की परीक्षा करने के लिए वे उसको खर्च करने की जरूरत नहीं समझते। उनको तो उसकी ताकत पर पहले ही पूरा विश्वास होता है। उनके पास पैसा है-यह मानकर ही वे सन्तुष्ट रहते हैं, प्रसन्न रहते हैं और गर्व की भावना को मन में अनुभव करते हैं। विशेष- 3. मैंने मन में कहा, ठीक। बाजार आमन्त्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो। सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए है? मैं तुम्हारे लिए हैं। नहीं कुछ चाहते हो तो भी देखने में क्या हरज है। अजी आओ भी। इस आमन्त्रण में यह खूबी है कि आग्रह नहीं है आग्रह तिरस्कार जगाता है। लेकिन ऊँचे बाजार का आमन्त्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चौक बाजार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफी नहीं है। और चाहिए, और चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितनी अतुलित है। ओह! कोई अपने को न जाने तो बाजार का यह चौक उसे कामना से विकल बना छोड़े। विकल क्यों पागल। असन्तोष, तृष्णा और ईष्र्या से घायल कर मनुष्य को सदा के लिए बेकार बना डाल सकता है। (पृष्ठ सं. 43) कठिन शब्दार्थ-आमन्त्रित करना = बुलाना। हरज = नुकसान, हानि। तिरस्कार = अपमान। मूक = गूंगा, शब्दहीन। चाह = इच्छा। काफी = पर्याप्त, अधिक। परिमित = सीमित, कम। अतुलित = अधिक। सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बजार दर्शन’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक कहता है कि कुछ लोग अनाप-शनाप खरीदारी करते हैं। अनावश्यक चीजें खरीदने का दोष वे अपनी पत्नी के सिर पर मढ़ देते हैं। फिजूलखर्ची उनकी आदत होती है। खरीदारी में पास में खूब पैसा होने का भी योगदान रहता है। इसके लिए बाजार भी प्रेरक होता है। ये तीनों तत्व ही फिजूलखर्ची के लिए उत्तरदायी होते हैं। व्याख्या-लेखक को उसके मित्र ने बताया कि बाजार में सजी हुई चीजें देखकर उनको खरीदने के लोभ से वह बच न सका और ढेर सारा सामान खरीद लाया। लेखक भी इस विषय में उससे सहमत हुआ। बाजार क्रेता को बुलाता है। चीजें खरीदने की लिए निमन्त्रण देता है। वह कहता है आकर मुझे लूटो, खूब लूटो। यहाँ आकर सब कुछ भुलाकर मुझे देखो। मेरा सुन्दर रूप तुम्हारे देखने के लिए ही बना है। यदि मुझसे किसी चीज की जरूरत नहीं है तब भी मुझे देखने में कोई हानि नहीं है। इस प्रकार बाजार का आकर्षण ग्राहक को बुलाता है। इस बुलाने की एक विशेषता यह है कि इसमें आग्रह का भाव नहीं होता। आग्रह में अपमान छिपा होता है। ऊँचे बाजार में ग्राहक को पुकार कर नहीं बुलाया जाता। वह उसको मौन रहकर ही आकर्षित करता है, बुलाता है। मौन बुलावा ग्राहक में इच्छा पैदा करता है। उसको लगता है कि बाजार में अनेक चीजें ऐसी हैं जो उसके पास नहीं हैं। चौक बाजार में खड़ा आदमी सोचता है कि उसके पास बहुत सी चीजें नहीं हैं उसको और चीजों की जरूरत है। बाजार में अपार सामान भरा पड़ा है किन्तु उसके पास बहुत कम सामान है। उसको और अधिक सामान की जरूरत है। बाजार का प्रबल आकर्षण उसको अपनी जेब खाली करने को बाध्य करता है। जिस मनुष्य को अपनी आवश्यकता का ठीक और सही पता नहीं होता, वह बाजार के आकर्षण, आमन्त्रण से बच नहीं पाता। उसके मन में चीजें खरीदने की प्रबल इच्छा उत्पन्न करके बाजार उसको व्याकुल ही नहीं व्यग्र कर देता है। वह उसको पागल कर देता है। बाजार में प्रदर्शित चीजों का आकर्षण उसकी सोच को विकृत कर देता है। वह उसके मन में नई-नई अनेक चीजों को पाने की लालसा पैदा कर देता है। जिनके घर में खूब सामान है उनके प्रति उसके मन में जलन की भावना पैदा हो जाती है। इस बाजार का प्रबल आकर्षण मनुष्य को असन्तुलित करके उसमें असंयम जगाता है तथा उसको सदा के लिए बेकार बना देता है। विशेष- 4. बाजार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है पर जैसे चुम्बक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है, तो बाजार की अनेकानेक चीजों का निमन्त्रण उस तक पहुँच जाएगा। कहीं हुई उस वक्त जेब भारी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है। (पृष्ठ सं. 44) कठिन शब्दार्थ-राह = रास्ता। जादू = आकर्षण। चुम्बक = लोहे को आकर्षित करने वाली धातु। मर्यादा = सीमा। असर = प्रभाव। निमन्त्रण = बुलावा॥ सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक निबन्ध से अवतरित है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। बाजार में प्रबल आकर्षण है। उसमें प्रदर्शित वस्तुएँ ग्राहकों को खरीदारी के लिए आकर्षित करती हैं। इस आकर्षण से बचने का उपाय अपनी आवश्यकता का ठीक-ठीक ज्ञान होना है। इसके अभाव में मनुष्य को इच्छाएँ घेर लेती हैं और उसको दुःख देती हैं। व्याख्या-लेखक कहता है कि बाजार में आकर्षण होता है। वह आँखों के रास्ते लोगों को आकर्षित करता है। बाजार में प्रदर्शित सुन्दर वस्तुओं को देखकर उनको खरीदने की इच्छा पैदा होती है। यह आकर्षण सुन्दर रूप का है। सुन्दर चीजें आकर्षक होती हैं। जिस प्रकार चुम्बक लोहे को अपनी ओर खींचता है, उसी प्रकार बाजार लोगों को आकर्षित करता है। लोहा चुम्बक से प्रभावित होता है। अन्य वस्तुएँ नहीं। उसी प्रकार बाजार के आकर्षण की भी सीमा होती है। जिनके पास जेब में खूब पैसा होता है तथा वे यह नहीं जानते कि उनकी जरूरतें क्या हैं, वे बाजार के जाल में फंस जाते हैं। लोग विज्ञापनों से प्रभावित होते हैं। वे बाजार के जादुई प्रभाव से बच नहीं पाते। वे अनियन्त्रित होकर बिना सोच-विचारे बाजार में चीजें खरीदने में जुट जाते हैं। विशेष- 5. पर उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा-सा उपाय है। वह यह कि बाजार जाओ तो मन खाली न हो। मन खाली हो, तब बाजार न जाओ। कहते हैं लू में जाना हो, तो पानी पीकर जाना चाहिए। पानी भीतर हो, लू का लूपन व्यर्थ हो जाता है। मन लक्ष्य में भरा हो तो बाजार भी फैला-का-फैला ही रह जायगा। तब वह घाव बिलकुल नहीं दे सकेगा, बल्कि कुछ आनन्द ही देगा। तब बाजार तुमसे कृतार्थ होगा, क्योंकि तुम कुछ-न-कुछ सच्चा लाभ उसे दोगे। बाजार की असली कृतार्थता है आवश्यकता के समय काम आना। (पृष्ठ सं. 44) कठिन शब्दार्थ-जादू = आकर्षण। जकड़ = पकड़ा। जाल। लू = गरम हवा। भीतर = अन्दर, पेट में। लूपन = गर्मी का प्रवाह। लक्ष्य = उद्देश्य। फैला-का-फैला = प्रदर्शित, विज्ञापित। घाव देना = अनुचित प्रभाव डालना। कृतार्थ = कृतकृत्य, आभारी॥ सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक ने बताया है कि बाजार में प्रबल आकर्षण होता है। बाजार का जादू उसको जकड़ लेता है। इससे बचने के लिए लेखक कहता है कि बाजार जाते समय मन खाली न हो॥ व्याख्या-लेखक कहता है कि बाजार का आकर्षण एक तरह की जकड़न होती है। उससे बचने का एक सरल तरीका है कि बाजार जाते समय मन खाली न हो। आशय यह है कि बाजार जाने वाले को यह पता होना चाहिए कि उसको क्या चाहिए यदि बाजार जाने वाले को अपनी जरूरत की चीजों का सही पता न हो तो उसको बाजार जाना ही नहीं चाहिए। गर्मी के मौसम में जब लू चलती है तो घर से बाहर जाने वाले को उसके दुष्प्रभाव से बचाव करना पड़ता है। अन्यथा वह बीमार पड़ सकता है। लू से बचने के लिए खूब पानी पीकर। बाहर जाते हैं। जब शरीर में पानी की पर्याप्त मात्रा होती है तो लू नहीं लगती। खूब पानी पीकर बाहर जाना लू के बुरे प्रभाव से रक्षा करता है। यदि ग्राहक को अपने उद्देश्य अर्थात् जरूरत की चीज का ठीक से पता है तो बाजार का अनुचित आकर्षण उसको प्रभावित नहीं कर पाता। वह तरह-तरह की चीजों को वहाँ देखकर उन्हें नहीं खरीदता और फिजूलखर्ची से बचा रहता है। अपनी जरूरत की चीजें बाजार से खरीदकर उसको प्रसन्नता ही होती है। उस अवस्था में बाजार अपने ग्राहक का आभारी होता है कि उसने बाजार को सही और उपयोगी बनाया। दूसरे, बाजार को कुछ-न-कुछ सच्चा लाभ ही प्राप्त होता है। बाजार का महत्व और उपयोगिता यह है कि वह ग्राहक को उसकी आवश्यकता की वस्तु उपलब्ध कराये, उसकी जरूरतों को पूरा करने में सहायक हो। ग्राहक को अपने आकर्षण में फंसाकर अनावश्यक खरीदारी के लिए प्रेरित करना अनुचित है। विशेष- 6. यहाँ एक अन्तर चीन्ह लेना बहुत जरूरी है। मन खाली नहीं रहना चाहिए, इसका मतलब यह नहीं है कि वह मन बन्द रहना चाहिए। जो बन्द हो जायगा, वह शून्य हो जायगा। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है जो सनातन भाव से सम्पूर्ण है। शेष सब अपूर्ण हैं। इससे मन बन्द नहीं रह सकता। सब इच्छाओं का निरोध कर लोगे, यह झूठ है। और अगर इच्छानिरोधस्तपः का ऐसा ही नकारात्मक अर्थ हो, तो वह तप झूठ है। वैसे तप की राह रेगिस्तान को जाती होगी, मोक्ष की राह वह नहीं है। ठाट देकर मन को बन्द कर रखना जड़ता है। लोभ का यह जीतना नहीं है कि जहाँ लोभ होता है, यानी मन में, वहाँ नकार हो! यह तो लोभ की ही जीत है और आदमी की हार। आँख अपनी फोड़ डाली, तब लोभनीय के दर्शन से बचे तो क्या हुआ? ऐसे क्या लोभ मिट जाएगा? और कौन कहता है कि आँख फूटने पर रूप दीखना बन्द हो जायगा? क्या आँख बन्द करके ही हम सपने नहीं लेते हैं? और वे सपने क्या चैन-भंग नहीं करते हैं। (पृष्ठ सं. 44) कठिन शब्दार्थ-चीन्ह लेना = पहचान लेना। सनातन भाव = सृष्टि के आरम्भ होने का भाव। निरोध = रोकना। इच्छा निरोध स्तपः = इच्छाओं पर नियन्त्रण ही तपस्या है। नकारात्मक = निषेधवाचक। मोक्ष = मुक्ति। लोभनीय = लुभाने योग्य। सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक विचारात्मक निबन्ध से लिया गया है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। बाजार का जादू उसको ही प्रभावित करता है, जिसके पास खुब पैसा हो और यह पता न हो कि उसकी जरूरत क्या है। बाजार के आकर्षण से बचना है तो मन खाली नहीं होना चाहिए। व्याख्या-लेखक कहता है कि यह समझना बहुत जरूरी है कि मेन खाली न रहने का तात्पर्य मन को बन्द रहना नहीं है। दोनों बातों में अन्तर है और इस अन्तर को पहचानना आवश्यक है। जो बन्द हो जायगा वह शून्य हो जायगा। परमात्मा को ही शून्य होने का अधिकार है क्योंकि वह सनातन और सम्पूर्ण है। अन्य सभी अपूर्ण हैं। अत: मन बन्द नहीं हो सकता है। यह झूठ है कि मनुष्य अपनी सभी इच्छाओं को नियन्त्रित कर लेगा, उन पर रोक लगा लेगा। इच्छाओं को रोकना तप है। यदि ‘इच्छानिरोधस्तप:’ का यही निषेध अथवा नकारसूचक अर्थ है तो तपस्या अर्थहीन है। इस प्रकार का तप मुक्ति देने वाला नहीं होता। उससे कोई लाभ नहीं है। मन को बलात् बन्द रखना मूर्खता है। इस प्रकार मन को निरुद्ध करके लोभ पर विजय नहीं पाई जा सकती। लोभ मन में होता है और वहाँ नकारात्मकता हो, तो यह लोभ की ही जीत है। यह लोभ को जीतने का प्रयास करने वाले मनुष्य की हार है। जो आपको अपनी ओर आकर्षित कर रहा है, उसको देखने से बचने के लिए आप अपनी आँखें फोड़ लेंगे तो यह सही प्रयास नहीं है। आँखें नहीं रहने पर भी रूप दिखाई देना बन्द नहीं होता। आँखें बन्द होने पर भी नींद की दशा में मनुष्य सपने देखता है। सपनों में देखी बातों से उसकी सुख-शान्ति नष्ट होती है। अतः मन को बन्द करने से कोई लाभ नहीं है। विशेष- 7. इससे मन को बन्द कर डालने की कोशिश तो अच्छी नहीं। वह अकारथ है। यह तो हठवाला योग है। शायद हठ-ही-हठ है, योग नहीं है। इससे मन कृश भले हो जाय और पीला और अशक्त जैसे विद्वान का ज्ञान। वह मुक्त ऐसे नहीं होता। इससे वह व्यापक की जगह संकीर्ण और विराट की जगह क्षुद्र होता है। इसलिए उसका रोम-रोम मूंदकर बन्द तो मन को करना नहीं चाहिए। वह मन पूर्ण कब है? हम में पूर्णता होती तो परमात्मा से अभिन्न हम महाशून्य ही न होते? अपूर्ण हैं, इसी से हम हैं। सच्चा ज्ञान सदा इसी अपूर्णता के बोध को हम में गहरा करता है। सच्चा कर्म सदा इस अपूर्णता की स्वीकृति के साथ होता है। अतः उपाय कोई वही हो सकता है। जो बलात् मन को रोकने को न कहे, जो मन को भी इसलिए सुने क्योंकि वह अप्रयोजनीय रूप में हमें नहीं प्राप्त हुआ है। हाँ, मनमानेपन की छूट मन को न हो, क्योंकि वह अखिल का अंग है, खुद कुल नहीं है। (पृष्ठ सं. 44-45) कठिन शब्दार्थ-अकारथ = व्यर्थ। कृश = दुर्बल। संकीर्ण = संकुचित। क्षुद्र = तुच्छ। अभिन्न = समान। बोध = ज्ञान। अप्रयोजनीय = निरुद्देश्य। अखिल = समस्त, पूर्ण। कुल = सम्पूर्ण (परमात्मा)। सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक का कहना है कि मन को बलपूर्वक बन्द नहीं करना है, उसे रोकना नहीं है। इससे लाभ के स्थान पर हानि ही होगी। आँखें बन्द होने पर भी हम सपने देखते हैं। ये सपने हमारी सुख-शान्ति में बाधा ही डालते हैं। व्याख्या-लेखक का मानना है कि मन को बलपूर्वक रोकने का प्रयत्न उचित नहीं माना जा सकता। ऐसा प्रयत्न बेकार है। यह एक प्रकार का हठयोग है। इसमें हठ ही अधिक है। योग तो सम्भवत: है ही नहीं। इस प्रकार के प्रयत्न मन को दुर्बल करते हैं। उनसे मन को मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। इस प्रकार का प्रयास मन की व्यापकता और विराटता छीनकर उसको संकुचित और छोटा बना देता है। लेखक के अनुसार मन को पूरी तरह निरुद्ध नहीं करना है। वैसे ही मन पूर्ण नहीं है। मनुष्य यदि पूर्ण होता तो वह परमात्मा के समान ही महाशून्य होता। मनुष्य अपूर्ण है, अपूर्णता ही मनुष्य की पहचान है। सच्चा ज्ञान वह है जो मनुष्य को उसके अपूर्ण होने के बारे में बताए। मनुष्य को उसकी अपूर्णता का सदा ध्यान दिलाता रहे। मनुष्य की इस अपूर्णता को स्वीकार करने पर ही कोई सच्चा कार्य हो सकता है। इसके लिए कोई भी उपाय अपनाया जा सकता है किन्तु वह उपाय मन को जबरदस्ती निरुद्ध करने की प्रेरणा देने वाला नहीं होना चाहिए। मनुष्य को मन किसी विशेष उद्देश्य को लेकर ही दिया गया है, मन का होना निरुद्देश्य नहीं है। अत: मन की बात भी सुननी चाहिए। यद्यपि मन को अनियन्त्रित होने की छूट नहीं होनी चाहिए। मन सम्पूर्णता बोधक ईश्वर का ही एक अंग है किन्तु वह अपने आप में सम्पूर्ण नहीं है। मन को न तो बाँधना है और न अनियन्त्रित छोड़ना है। विशेष- 8. क्या जाने उस भोले आदमी को अक्षर-ज्ञान तक भी है या नहीं। और बड़ी बातें तो उसे मालूम क्या होंगी और हम-आप न जाने कितनी बड़ी-बड़ी बातें जानते हैं। इससे यह तो हो सकता है कि वह चूरन वाला.भगत हम लोगों के सामने एकदम नाचीज आदमी हो। लेकिन आप पाठकों की विद्वान् श्रेणी का सदस्य होकर भी मैं यह स्वीकार नहीं करना चाहता हूँ कि उस अपदार्थ प्राणी को वह प्राप्त है जो हम में से बहुत कम को शायद प्राप्त है। उस पर बाजार का जादू वार नहीं कर पाता। माल बिछा रहता है और उसका मन अडिग रहता है। पैसा उससे आगे होकर भीख तक माँगता है कि मुझे लो, लेकिन उसके मन में पैसे पर दया नहीं समाती। वह निर्मम व्यक्ति पैसे को अपने आहत गर्व में बिलखता ही छोड़ देता है। ऐसे आदमी के आगे क्या पैसे की व्यंग्य-शक्ति कुछ भी चलती होगी? क्या वह शक्ति कुंठित रहकर सलज्ज ही न हो जाती होगी? (पृष्ठ सं. 45) कठिन शब्दार्थ- भोला = सरल, सीधा-सादा। नाचीज = महत्वहीन। श्रेणी = स्तर। अपदार्थ = मामूली। वार = प्रहार, हमला॥ अडिग = दृढ़। निर्मम = निर्दय। आहत = घायल। बिलखता = रोता हुआ। कुंठित = प्रभावहीन। सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ से संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक विचारात्मक निबन्ध से उधृत है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक के पड़ोस में एक सज्जन रहते हैं। वह चूरन बेचते हैं तथा भगत जी के नाम से प्रसिद्ध हैं। चूरनवाले भगतजी पर बाजार का जादू नहीं चल पाता है। व्याख्या-लेखक कहता है कि उसको यह नहीं पता कि चूरन वाले वह सीधे-सरल भगत जी कुछ पढ़े-लिखे हैं या नहीं। ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें तो उनको पता होंगी ही नहीं। बड़ी-बड़ी बातें जानने वाले लेखक तथा पाठक की दृष्टि में चूरन वाला भगत एक मामूली आदमी ही है। लेखक स्वयं को पाठकों की तरह ही विद्वानों के स्तर का व्यक्ति मानता है। लेकिन वह यह मानने को तैयार नहीं कि उस मामूली आदमी भगत को वह प्राप्त है जो लेखक के स्तर के लोगों में से बहुत कम लोगों को प्राप्त होता है। भगत पर बाजार के आकर्षण का प्रभाव नहीं होता। बाजार में चीजें सजी रहती हैं, पर भगत को वे खरीदारी करने के लिए लालायित नहीं करतीं। उसका मन उनको लेने के लिए नहीं ललचाता। पैसा स्वयं उससे निवेदन करता है, वह उसके पास आना चाहता है परन्तु भगत उसको लेना नहीं चाहता। पैसा का साग्रह निवेदन भी उसको द्रवित नहीं करता। वह उसको निर्ममतापूर्वक अस्वीकार कर देता है। मैं बड़ा शक्तिशाली हूँ। मैं अत्यन्त आकर्षक हूँ-पैसे का यह घमण्ड उसकी दृढ़ता के आगे टूट जाता है। वह व्याकुल होकर रोता है। ऐसे दृढ़ मनुष्य के सामने धन की व्यंग्य शक्ति प्रभावहीन ही रहती है। वह निस्तेज होकर लज्जित हो जाता है। विशेष- 9. पैसे की व्यंग्य-शक्ति की सुनिए। वह दारुण है। मैं पैदल चल रहा हूँ कि पास ही धूल उड़ाती निकल गई मोटर। वह क्या निकली मेरे कलेजे को कौंधती एक कठिन व्यंग्य की लीक ही आर-से-पार हो गई। जैसे किसी ने आँखों में उँगली देकर दिखा दिया हो कि देखो, उसका नाम है मोटर, और तुम उससे वंचित हो! यह मुझे अपनी ऐसी विडम्बना मालूम होती है कि बस पूछिए नहीं। मैं सोचने को हो आता हूँ कि हाय, ये ही माँ-बाप रह गए थे जिनके यहाँ मैं जन्म लेने को था। क्यों न मैं मोटरवालों के यहाँ हुआ। उस व्यंग्य में इतनी शक्ति है कि जरा में मुझे अपने संगों के प्रति कृतघ्न कर सकती है। (पृष्ठ सं. 45) कठिन शब्दार्थ-दारुण = भयंकर। लीक = लकीर। विडम्बना = दुर्भाग्य। कृतघ्न = अहसान फरामोश, आभार न मानने वाला। सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक बता रहा है कि धन में प्रबल व्यंग्य शक्ति होती है। वह मनुष्य को तुरन्त प्रभावित करता है। भगत जी जैसे कुछ लोग ही धन की व्यंग्य शक्ति के प्रहार से अपनी रक्षा कर पाते हैं। व्याख्या-लेखक धन की व्यंग्य शक्ति को उदाहरण देकर समझाता है। वह कहता है कि धन की व्यंग्य शक्ति भयंकर होती है। वह कहता है कि वह रास्ते में पैदल चल रहा है। तभी एक मोटर धूल उड़ाती हुई उसके पास से निकल जाती है। मोटर का उसके पास से तेजी से निकलना उसको ऐसा प्रतीत हुआ जैसे व्यंग्य की एक लकीर उसके हृदय को बेधती हुई आर-पार निकल गई हो। जैसे किसी ने उसकी आँख में उँगली डालकर उसे खोलकर दिखाया हो कि देखो इसको मोटर कहते हैं, यह मोटर तुम्हारे पास नहीं है। अपने पास मोटर न होना लेखक अपना दुर्भाग्य मानता है। वह तुरन्त सोचता है कि क्या उसे इन्हीं माँ-बाप के घर पैदा होना था। उसका जन्म किसी मोटरवाले के घर क्यों नहीं हुआ। यह व्यंग्य इतना शक्तिशाली है कि व्यक्ति थोड़ी ही देर में अपने सगे-सम्बन्धियों के प्रति कृतज्ञता को भुला देता है और पराया हो जाता है। विशेष- 10. उस बल को नाम जो दो, पर वह निश्चय उस तल की वस्तु नहीं है जहाँ पर संसारी वैभव फलता-फूलता है। वह कुछ अपर जाति का तत्व है। लोग स्पिरिचुअल कहते हैं, आत्मिक, धार्मिक, नैतिक कहते हैं। मुझे योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अन्तर देखें और प्रतिपादन करूं। मुझे शब्द से सरोकार नहीं। मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटकें; लेकिन इतना तो है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है-वहाँ उस बल का बीज नहीं है। बल्कि यदि उसी बल को सच्चा बल मानकर बात की जाय तो कहना होगा कि संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। निर्बल ही धन की ओर झुकता है। वह अबलता है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है। (पृष्ठ सं. 46) कठिन शब्दार्थ-तल = संसार। वैभव = ऐश्वर्य। अपर = दूसरी, अन्य। स्पिरिचुअल = आध्यात्मिक। प्रतिपादन = स्थापना। सरोकार = मतलब। अटकू = उलझना। तृष्णा = लालच। स्पृहा = कामना, इच्छा। संचय = जोड़ना, इकट्ठा करना। अबलता = निर्बलता। चेतन = बौद्धिकता। जड़ = विचारशून्य। सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ से संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक विचारात्मक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। धन में व्यंग्य की प्रबल शक्ति होती है। किन्तु चूरन वाले भगत जी पर उसका वश नहीं चलता, वह उससे अप्रभावित रहकर बाजार से केवल जरूरत की चीजें ही खरीदते हैं। उनके मन के बल के सामने धन का यह व्यंग्य बल अप्रभावी रहता है। व्याख्या-लेखक कहता है कि उस बल को किसी भी नाम से पुकार सकते हैं। परन्तु वह इस संसार की चीज नहीं है। इस संसार में धन-ऐश्वर्य का मान होता है। उसे पाने के लिए लोग ललचाते हैं, कर्म, अकर्म करते हैं। वह बल किसी अन्य वर्ग से सम्बन्धित है। इस तत्व को आध्यात्मिक कहा जाता है। इसको आत्मिक, धार्मिक, नैतिक आदि नामों से पुकारा जाता है। लेखक शब्दों के झमेले में पड़ना नहीं चाहता वह कहता है कि शब्दों में अन्तर देखने तथा उनको स्थापित करने की योग्यता उसमें नहीं है। वह विद्वान नहीं है कि शब्दों में उलझे। परन्तु इतनी बात तो निश्चित ही मानने योग्य है कि जिस व्यक्ति में धन के प्रति लालसा और संग्रह की भावना होती है, उसमें उसकी शक्ति की उपेक्षा की ताकत नहीं होती। अगर इस नैतिक बल को सच मानें तो धन संग्रह की लालसा और ऐश्वर्य पाने की इच्छा से सिद्ध होता है कि वह व्यक्ति कमजोर है। आत्मिक बल के अभाव में कमजोर मनुष्य ही धन के पीछे दौड़ता है। यह मनुष्य की निर्बलता है। यह मनुष्य पर धन की जीत है। यह बौद्धिकता पर विचारहीनता की जीत है। विशेष- 11. बाजार से हठ-पूर्वक विमुखता उनमें नहीं है, लेकिन अगर उन्हें जीरा और काला नमक चाहिए तो सारे चौक-बाजार की सत्ता उनके लिए तभी तक है, तभी तक उपयोगी है, जब तक वहाँ जीरा मिलता है। जरूरत भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है। वह जानते हैं कि जो उन्हें चाहिए वह है। जीरा नमक। बस इस निश्चित प्रतीति के बल पर शेष सब चाँदनी चौक का आमन्त्रण उन पर व्यर्थ होकर बिखरा रहता है। चौक की चाँदनी दाएँ-बाएँ भूखी-की-भूखी फैली रह जाती है, क्योंकि भगत जी को जीरा चाहिए वह तो कोने वाली पंसारी की दुकान से मिल जाता है और वहाँ से सहज भाव में ले लिया गया है। इसके आगे आस-पास अगर चाँदनी बिछी रहती है। तो बड़ी खुशी बिछी रहे, भगत जी उस बेचारी का कल्याण ही चाहते हैं। (पृष्ठ सं. 46) कठिन शब्दार्थ-प्रतीति = विश्वास। चाँदनी चौक = दिल्ली का एक पुराना बाजार। चाँदनी = आकर्षण। भूखी-की-भूखी = प्रभाव डालने में अक्षम। पंसारी = मसाले बेचने वाला। सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ से संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक विचारात्मक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक का पड़ोसी एक सीधा-सरल चूरनवाला भगत है। वह बाजार की बाहरी और दिखावटी चमक-दमक से प्रभावित नहीं होता। बाजार का महत्व उसके लिए इतना ही है कि वहाँ से उसको अपनी आवश्यकता की चीजें मिलती हैं। वहाँ पैसे की जो विचारहीन अमानवीय दौड़ है उससे वह अप्रभावित रहता है। व्याख्या-लेखक कहता है कि चूरन वाले भगत जी में नैतिक बल है। उनको बाजार की उपयोगिता मालूम है। वह बाजार की जानबूझकर उपेक्षा नहीं करते। उनको जीरा और नमक खरीदना है। वह चौक बाजार में मिलता है। चौक बाजार उनके लिए तभी तक महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी है जब तक वहाँ ये चीजें मिलती हैं। अपनी आवश्यकता के अनुरूप नमक-जीरा खरीदने के बाद चौक बाजार उनके लिए बेकार हो जाता है। भगत जी को पता है कि उनकी आवश्यकता जीरा और नमक है। उनको यह भलीभाँति विदित है। अतः चाँदनी चौक नामक बाजार का आकर्षण उनको प्रभावित नहीं करता। भगत जी उस आकर्षक बाजार से गुजरकर पंसारी की कोने की दुकान पर पहुँचते हैं और अपनी जरूरत का जीरा खरीदते हैं। यह एक स्वाभाविक क्रिया है। इसके बाद चाँदनी चौक का आकर्षण, उसमें प्रदर्शित सुन्दर चीजें भगत जी के लिए अस्तित्वहीन हो जाती हैं। वे उन्हें आकर्षित नहीं करतीं। चाँदनी चौक के समस्त वैभव के प्रति तटस्थ रहते हुए वह उसका भला चाहते हैं। विशेष- 12. यहाँ मुझे ज्ञात होता है कि बाजार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ‘पर्चेजिंग पावर’ के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ति-शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति ही बाजार को देते हैं। न तो वे बाजार से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाजार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं, जिसका मतलब है कि कपट बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर में सद्भाव की घटी॥ (पृष्ठ सं. 46) कठिन शब्दार्थ-सार्थकता = महत्व, उपयोगिता। पर्चेजिंग पावर = क्रय शक्ति। विनाशक = नष्ट करने वाली। शैतानी = दुष्टतापूर्ण। बाजारूपन = विज्ञापन द्वारा अनुपयोगी चीजों को बेचना। कपट = छल, धोखा। सद्भाव = अच्छी भावना। घटी = कमी। सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ से संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक विचारात्मक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक को मानना है कि बाजार लोगों की जरूरत की चीजें उनको उपलब्ध कराने के लिए है। यदि वह चीजों का अनुचित विज्ञापन करके उन्हें लोगों को भेड़ने का प्रयास करता है तो वह अपने लक्ष्य से विरत हो जाता है। जो लोग पैसे के बल पर अनावश्यक चीजें बाजार से खरीदते हैं। वे भी बाजार की मर्यादा भंग करने के दोषी हैं। व्याख्या-लेखक कहता है कि बाजार जाने वाले को यह ठीक तरह पता होना चाहिए कि उसको किस चीज की जरूरत है, यह जानने वाला ग्राहक ही बाजार को एक महत्वपूर्ण उपयोगी संस्था बनाने में सहायक होता है। जो मनुष्य अपनी आवश्यकता की चीजों का सही ज्ञान नहीं रखता और बाजार जाकर अपनी क्रय शक्ति का घमण्ड दिखाता है तथा अनाप-शनाप गैर जरूरी चीजें खरीद डालता है। वह बाजार की उपयोगिता भंग करके उसको हानि पहुँचाता है। उसके कारण बाजार को एक विनाशकारी शक्ति प्राप्त हो जाती है। यह शक्ति ग्राहक के शोषण की शक्ति होती है। इसको व्यंग्य शक्ति तथा दुष्टतापूर्ण शक्ति भी कह सकते हैं। ऐसे व्यक्ति बाजार से लाभ नहीं उठा पाते। ने इस तरह के ग्राहकों के कारण बाजार एक उद्देश्यपूर्ण संस्था ही बना रह पाता है। ये लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं। अर्थात् बाजार को चीजों के अनुचित प्रदर्शन और विज्ञापन द्वारा उन्हें खरीदने के लिए ग्राहकों को बाध्य करने का स्थान बना देते हैं। ऐसे व्यक्तियों के कारण बजार ग्राहक को सामान उपलब्ध कराने के उपयोगी स्थल के बजाय उनके शोषण का स्थान बन जाता है। उनके कारण बाजार में छल-कपट बढ़ता है। ठगी बढ़ती है। विक्रेता और क्रेता के बीच का सद्भाव नष्ट हो जाता है। दोनों एक-दूसरे पर अविश्वास करते हैं और एक-दूसरे को ठगने का प्रयास करते हैं। विशेष- 13. इस सद्भाव के ह्रास पर आदमी आपस में भाई-भाई और सुहृद और पड़ोसी फिर रह हीं नहीं जाते हैं और आपस में कोरे ग्राहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं। मानो दोनों एक-दूसरे को ठगने की घात में हों। एक की हानि में दूसरे को अपना लाभ दीखता है और यह बाजार का, बल्कि इतिहास का सत्य माना जाता है। ऐसे बाजार को बीच में लेकर लोगों की आवश्यकताओं का आदान-प्रदान नहीं होता, बल्कि शोषण होने लगता है। तब कपट सफल होता है, निष्कपट शिकार होता है। ऐसे बाजार मानवता के लिए बिडम्बना हैं और जो ऐसे बाजार का पोषण करता है, जो उसका शास्त्र बना हुआ है, वह अर्थशास्त्र सरासर औंधा है। वह मायावी शास्त्र है। वह अर्थशास्त्र अनीति-शास्त्र है। (पृष्ठ सं. 46-47) कठिन शब्दार्थ-हास = कमी। सुहृद = मित्र। सद्भाव = अच्छी भावना। कोरे = केवल, मात्र। ग्राहक = खरीदने वाला। बेचक = बेचने वाला। घात = चोट पहुँचाना। शोषण = धन छीनना, रुपये ऐंठना। शिकार होना = ठगी का लक्ष्य बनना। पोषण करना = पालन, संरक्षण करना। शास्त्र = विद्या विज्ञान। सरासर = पूरी तरह। औंधा = उल्टा, उद्देश्य के विपरीत काम करने वाला। मायावी = कपटी। अर्थशास्त्र = धन की विद्या। अनीतिशास्त्र = नीति अर्थात् उचित नियमों के विपरीत ज्ञान सिखाने वाली विद्या॥ सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक विचारात्मक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। जैनेन्द्र का मानना है कि जब विक्रेता अनावश्यक चीजें ग्राहकों को बेचकर अनुचित लाभ कमाते हैं तथा ग्राहक अपनी क्रय शक्ति दिखाकर फिजूल की चीजें खरीदते हैं तो बाजार का उद्देश्य प्रभावित होता है और वह आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली संस्था के स्थान पर शोषण का माध्यम बन जाता है। व्याख्या-लेखक कहता है कि विक्रेता तथा क्रेता के अनुचित आचरण के कारण बाजार में सद्भाव नष्ट हो जाता है। विक्रेता ग्राहक से अनुचित मुनाफा कमाना चाहता है और ग्राहक भी विक्रेता पर विश्वास नहीं करता। दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति कपट की भावना रहती है। दोनों एक-दूसरे को ठगना चाहते हैं। ऐसी दशा में उनमें एक ही रिश्ता बन जाता है। वह रिश्ता है केवल ग्राहक और विक्रेता का। उनका आपसी व्यवहार इसी पर केन्द्रित हो जाता है। दोनों एक-दूसरे को ठगने का प्रयत्न करते हैं। ग्राहक को हानि पहुँचाकर विक्रेता तथा विक्रेता को धोखा देकर ग्राहक लाभ उठाने की चेष्टा करते हैं। इस व्यवहार को बाजार का सत्य ही नहीं इतिहास का सत्य भी माना जाता है। इस प्रकार का बाजार आवश्यकताओं की माँग पूर्ति का स्थान नहीं रह जाता। वह शोषण का स्थान बन जाता है। वह छलपूर्ण व्यवहार करने वाला ठग बन जाता है। ऐसे बाजार मनुष्यता के दुर्भाग्य को जन्म देते हैं। अर्थशास्त्र लाभ हानि की गणना करके माँग पूर्ति का सिद्धान्त सुझाकर बाजार की शोषक प्रणाली को मजबूत बनाता है। लेखक की दृष्टि में वह अर्थशास्त्र है ही नहीं। वह उल्टी सीख देने वाला और छल-कपट सिखाने वाला शास्त्र है। उसको अर्थशास्त्र नहीं अनर्थ शास्त्र कहना ठीक है। वह नीति की नहीं अनीति की शिक्षा देने वाला शास्त्र है। विशेष- We hope the RBSE Solutions for Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शन will help you. If you have any query regarding Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 11 बाजार दर्शन, drop a comment below and we will get back to you at the earliest. लेखक ने बाजार को क्या समझा?लेखक का मानना है कि बाजार को सार्थकता वह मनुष्य देता है जो अपनी जरूरत को पहचानता है। जो केवल पर्चेजिंग पॉवर के बल पर बाजार को व्यंग्य दे जाते हैं, वे न तो बाजार से लाभ उठा सकते हैं और न उस बाजार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं। ये कपट को बढ़ाते हैं जिससे सद्भाव घटता है।
लेखक के अनुसार बाजारवाद का प्रमुख कारण क्या है?'बाजार दर्शन' पाठ के अनुसार बाजारवाद का प्रमुख कारण मनी बैग, पैसे की गर्मी और पैसे की एनर्जी तीनों हैं। व्यक्ति बाजारवाद के जाल में तभी फंसता है, जब उसके पास मनी बैग यानि पैसे की भरमार हो।
बाज़ार दर्शन पाठ में लेखक ने किसका वर्णन किया है?बाज़ार में हर वस्तु को खरीदने का मन करता है। (ख) हम आवश्यकता से अधिक सामान खरीद कर ले आते हैं। (ग) जेब में रखा सारा पैसा उड़ जाता है। (क) बाद में खरीदारी करने पर अपनी गलती का पता चलता है कि क्या अनावश्यक सामान खरीद लिया है।
बाजार का बाजारूपन से लेखक का क्या अभिप्राय है?बाजार दर्शन से लेखक का अभिप्राय है बाज़ार के दर्शन करवाना अर्थात् बाज़ार के बारे में बताना कि कौन-कौन सी चीजें मिलती हैं कि वस्तुओं की बिक्री ज्यादा होती है। यह बाज़ार किस तरह आकर्षित करता है। लोग क्यों बाज़ार से ही आकर्षित होते हैं।
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