खेल कार्य में एक प्रकार का मनोरंजन है यह परिभाषा किसकी है? - khel kaary mein ek prakaar ka manoranjan hai yah paribhaasha kisakee hai?

खेल कार्य में एक प्रकार का मनोरंजन है यह परिभाषा किसकी है? - khel kaary mein ek prakaar ka manoranjan hai yah paribhaasha kisakee hai?
खेल द्वारा शिक्षा पद्धति का क्या तात्पर्य है ?

खेल द्वारा शिक्षा पद्धति का क्या तात्पर्य है ? खेल द्वारा शिक्षा पद्धति का सविस्तार वर्णन कीजिये।

खेल द्वारा शिक्षा-पद्धति या खेल द्वारा शिक्षा को आरम्भ करने का श्रेय ‘हेनरी काल्डवैल कुक’ (Henry Caldwell Cook) को है। कुक महोदय का विश्वास था कि कुशलता तथा निपुणता क्रिया के माध्यम से आती है। अतः उन्होंने प्ले वे (Play Way) नामक एक पुस्तक लिखी, जिसमें खेल को महत्व देते हुये यह बताया गया है कि यदि भाषा तथा साहित्य की शिक्षा के लिये कक्षा-कार्य में वाद-विवाद तथा नाटक के रूप में खेल की भावना उत्पन्न कर दी जाये तो बालक खेलते ही खेलते भाषा को स्वाभाविक रूप से सीख सकते हैं। आधुनिक युग में खेल को एक रचनात्मक प्रवृत्ति मानते हुये यह स्वीकार किया जाता है कि खेल के तीन लक्षण हैं—(1) स्वतन्त्रता (Freedom), (2) स्वाभाविकता (Spontancity) एवं (3) सुख (Pleasure) | अतः आजकल प्ले वे (Play. Way) शब्द का प्रयोग और भी अधिक व्यापक अर्थ में लेते हुये प्रत्येक विषय का सम्बन्ध रुचिकर क्रियाओं तथा खेलों से कर दिया जाता है। इससे बालक स्वतन्त्र वातावरण में सुख अनुभव करते हुये कठिन से कठिन बात को बिना किसी कठिनाई के स्वाभाविक रूप से सीख जाते हैं। इस प्रकार, खेल द्वारा शिक्षा पद्धति का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक विषय की शिक्षा खेल के माध्यम से दी जाने चाहिये। संक्षेप में, किसी भी विषय की शिक्षा देते समय उसका खेल से सम्बन्ध स्थापित कर देना खेल-पद्धति कहलाती है।

  • खेल की परिभाषा (Definition of Play)
  • ‘खेल तथा कार्य में अन्तर
  • खेल के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण सिद्धान्त
  • खेल का शैक्षिक महत्व
  • खेल विधि के आधारभूत सिद्धान्त
  • खेल विधि के गुण (Merits of Play Way Method)
  • खेल विधि के दोष

खेल की परिभाषा (Definition of Play)

खेल-पद्धति के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिये खेल के सम्बन्ध में कुछ परिभाषायें निम्नलिखित है-

  1. स्टर्न – ‘खेल एक स्वेच्छानुरूप आत्म-संयम की क्रिया है।’
  2. टी० पी० नन्- ‘खेल रचनात्मक क्रियाओं का गहन प्रकाशन है।’
  3. मैक्डूगल- खेल जन्मजात स्वाभाविक प्रवृत्ति है।’
  4. वैलनटायन- खेल मनोरंजन का एक प्रकार है, जो कार्य में निहित होता है।’

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि खेल एक मनोरंजनपूर्ण क्रिया है तथा इसके द्वारा हमें आत्म-प्रकाशन के अवसर प्राप्त होते हैं। इसीलिये प्रत्येक प्राणी खेल में स्वेच्छापूर्वक स्वाभाविक ढंग से अधिक से अधिक भाग लेने का प्रयास करता है।

‘खेल तथा कार्य में अन्तर

खेल की वास्तविक प्रवृत्ति को समझने के लिये यह आवश्यक है कि खेल और कार्य के अन्तर को समझ लिया जाये। अतः निम्नलिखित पंक्तियों में खेल तथा कार्य के अन्तर को स्पष्ट किया जा रहा है-

1. स्वाभाविकता- खेल एक स्वाभाविक क्रिया है, जो प्रत्येक प्राणी में पाई जाती है। इसीलिये हम सब अपनी-अपनी इच्छा से विभिन्न प्रकार के खेलों में भाग लेते रहते हैं। स्मरण रहे कि खेल में हमारे ऊपर किसी बाह्य शक्ति का कोई दबाव अथवा बंधन नहीं होता। जब तक हमारी इच्छा करती है, हम तब तक खेलते हैं या खेल को बन्द कर देते हैं। पर कार्य के साथ यह बात नहीं है। कार्य में बाह्य शक्ति का दबाव होता है।

अन्य शब्दों में कार्य को बन्धन में बन्धते हुये करना ही पड़ता है तथा इसका एक निश्चित परिणाम भी होता है। ध्यान देने की बात है कि जब खेल में बंधन का पुट लगा दिया जाता है तो खेल भी कार्य ही बन जाता है।

2. सुख या आनन्द – खेल की क्रिया सुख अथवा आनन्द प्रधान होती है। जब खेल समाप्त हो जाता है तो आनन्द भी समाप्त हो जाता है। पर कार्य के साथ ऐसी बात नहीं है। कार्य के आनन्द का अनुभव केवल उसी समय होता है, जब कार्य करने का उद्देश्य प्राप्त हो जाता है।

3. उद्देश्य नहीं- खेल का कोई उद्देश्य नहीं होता। खेल का उद्देश्य तो खेल ही होता है। इसके विपरीत ड्रीवर के अनुसार कार्य का एक निश्चित उद्देश्य होता है। इस उद्देश्य के अनुसार कार्य का मूल्यांकन किया जाता है। कुछ विद्वानों का मत है कि कभी-कभी खेल का भी कोई उद्देश्य बन जाता है। उदाहरणार्थ-वाक्य प्रतियोगिता में रखी हुई शील्ड को जीतना। स्मरण रहे कि ऐसे उद्देश्य कार्यों के उद्देश्यों से भिन्न होते हैं। इन उद्देश्यों के द्वारा बालकों को खेलते ही खेलते केवल आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।

4. स्वतन्त्रता – खेल में स्वतन्त्रता का होना परम आवश्यक है। बिना स्वतन्त्रता के कोई भी खेल खेला ही नहीं जा सकता। पर कार्य में स्वतन्त्रता का अभाव होता है। कार्य तो करना ही पड़ता है।

5. काल्पनिक संसार में विचरण- खेल खेलते समय हम काल्पनिक संसार का विचरण करते हैं। हमें वास्तविक संसार का कोई ध्यान नहीं रहता। पर कार्य करते समय हमको वास्तविक परिस्थितियों से टक्कर लेनी पड़ती है।

खेल तथा कार्य के उपर्युक्त अन्तर से स्पष्ट हो जाता है कि खेल का उद्देश्य केवल खेल ही होता है। इसमें बालक स्वाभाविकता, स्वतन्त्रता एवं आनन्द का अनुभव करता है। इसलिये हमें चाहिये कि हम प्रत्येक कार्य तथा पाठ्यक्रम के सभी विषयों का सम्बन्ध किसी न किसी खेल के साथ स्थापित कर दें। इससे अध्ययन की गम्भीरता कम हो जायेगी और बालक कठिन से कठिन बातों को खेलते ही खेलते सरलतापूर्वक सीख जायेंगे। संक्षेप में, हमें ‘खेल द्वारा शिक्षा’ की व्यवस्था करनी चाहिये ।

खेल के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण सिद्धान्त

1. शक्तिवर्धन का सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के प्रतिपादन का श्रेय प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैक्डूगल को है। मैक्डूगल के अनुसार बालक को थक जाने पर ही खेल में आनन्द आता है। दूसरे शब्दों में, जब वह थोड़ी देर खेल लेता है तो उसकी पहली थकान दूर हो जाती है और उसके अन्दर नई शक्ति पैदा हो जाती है। इस प्रकार शक्तिवर्धन का सिद्धान्त अतिरिक्त शक्ति के सिद्धान्त का बिल्कुल उल्टा है।

2. पुनरावृत्ति का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के प्रतिपादन का श्रेय स्टेनले हाल महोदय को है। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक जीवधारी खेल के द्वारा अपनी जाति के विकास की विभिन्न अवस्थाओं की पुनरावृत्ति करता है। बालक भी कूदने, दौड़ने, लटकने, काटने एवं भागने तथा शिकार करने के माध्यम से मानव जीवन की बर्बर अवस्था को देहराते हैं। ऐसे ही उनके रचनात्मक खेल मानव के पूर्ण सामाजिक विकास की अवस्था के द्योतक हैं। इस प्रकार पुनरावृत्ति का सिद्धान्त जीवन की तैयारी के सिद्धान्त का बिल्कुल उल्टा है। इसके अन्तर्गत बालक के भविष्य की अपेक्षा उसके भूत पर अधिक बल दिया जाता है।

3. अतिरिक्त शक्ति का सिद्धान्त- अतिरिक्त शक्ति के सिद्धान्त का प्रतिपादन सर्वप्रथम जर्मनी के प्रसिद्ध कवि शिलर ने किया था। कुछ दिन पश्चात् प्रकृतिवादी दार्शनिक हरबर्ट स्पेन्सर ने इसकी विस्तृत व्याख्या की। यही कारण है कि इस सिद्धान्त को शिलर-स्पेन्सर के सिद्धान्त की संज्ञा भी दी जाती है। इस सिद्धान्त के अनुसार उच्चकोटि के प्राणियों को जीवन संघर्ष के लिये अधिक प्रयास करना पड़ता है। अतः उसके पास अतिरिक्त शक्ति होती है। बालकों में भी शक्ति आवश्यकता से अधिक भरी होती है। जिस प्रकार एक इंजन में आवश्यकता से अधिक भरी हुई भाप को सेफ्टी वाल्व द्वारा निकाल दिया जाता है, ठीक उसी प्रकार बालक भी अपने अन्दर भरी हुई आवश्यकता से अधिक शक्ति को खेल के से माध्यम निकालते हैं।

कुछ विद्वानों को यह सिद्धान्त मान्य नहीं है। उनके अनुसार यह सिद्धान्त कुछ उन बातों को स्पष्ट करने में असफल है; जैसे बालक थक जाने के पश्चात् भी खेलना पसन्द करते हैं। ऐसा क्यों है ? इसके अतिरिक्त प्रो० नन् के अनुसार अपनी अतिरिक्त शक्ति को निकाल देने के बाद इंजन को कुछ लाभ नहीं होता, परन्तु खेल बालक के शरीर को स्फूर्ति प्रदान करता है। यही नहीं, इस सिद्धान्त के प्रवर्तक केवल शारीरिक शक्ति की ही चर्चा करते हैं, जबकि खेल के द्वारा बालक की शारीरिक ही नहीं अपितु मानसिक तथा नैतिक शक्तियों का विकास भी होता है। उक्त कारणों से यह सिद्धान्त सर्वमान्य नहीं है।

4. परिष्कार का सिद्धान्त- परिष्कार के सिद्धान्त के अनुसार बालक अपनी अवांछित प्रवृत्तियों का परिष्कार करता है। स्टेनले हाल महोदय ने बताया कि बालक की जन्मजात प्रवृत्तियाँ पाश्विक होती हैं। यदि उनका परिष्कार नहीं किया गया तो बालक मानव के स्थान पर दानव बन जायेगा। टी० पी० नन् के अनुसार-“मानव बुराई और बेरहमी की अति प्राचीन प्रवृत्तियों से छुटकारा नहीं पा सकता। पर खेल एकदम ऐसा साधन है, जिसके द्वारा उसकी शरारत को बाहर निकाला जा सकता है। खेल के द्वारा मनुष्य उन प्रवृत्तियों को सामाजिक विधान के लिये प्रेरक शक्तियों के रूप में परिवर्तित करता है।”

परिष्कार का सिद्धान्त एक प्रकार से पुनरावृत्ति के सिद्धान्त की मनोवैज्ञानिक व्याख्या ही है। इसके द्वारा भी निम्न प्राणियों के खेलों की व्याख्या करना कठिन है। अतः अपने परिष्कृत रूप में यह सिद्धान्त सर्वमान्य नहीं है।

5. जीवन की तैयारी का सिद्धान्त – इस सिद्धान्त का निर्माण मेलब्राश ने किया था और श्री कार्लयूस महोदय ने इसको विस्तृत व्याख्या की। दोनों विद्वानों ने विभिन्न श्रेणियों के प्राणियों का अध्ययन किया तथा इस निष्कर्ष पर आये कि खेल का उद्देश्य प्रौढ़ जीवन की तैयारी है। उन्होंने बताया कि बिल्ली का बच्चा एक गेंद का पीछा करने से चूहा पकड़ना सीखता है। ऐसे ही कुत्ते का बच्चा भी खेल के माध्यम से शिकार का पीछा करने में निपुण हो जाता है। बालकों द्वारा डॉक्टर, इन्जीनियर, वकील एवं प्रोफेसर आदि का अभिनय करना भी इसके भावी जीवन की तैयारी है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि खेल के सम्बन्ध में एक सिद्धान्त दूसरे सिद्धान्त का विरोधी है। साथ ही कोई भी सिद्धान्त अपने में पूर्ण नहीं है। फिर भी यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि प्रत्येक सिद्धान्त ने खेल के किसी न किसी पक्ष पर प्रकाश अवश्य डाला है। इससे हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि खेल एक जन्मजात स्वाभाविक प्रवृत्ति है, जो प्रत्येक बालक में पाई जाती है।

खेल का शैक्षिक महत्व

खेल अपनी इच्छा से खेला जाता है। इससे बालकों की श्वास क्रिया में तेजी आती है, उनका रक्त संचार बढ़ता है। एवं उनकी मांसपेशियों में स्फूर्ति आती है। इससे बालकों में उत्साहवर्धन होता है तथा वे जीवन की कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना करने के लिये तैयार हो जाते हैं। इसीलिये प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री प्लेटो ने भी खेल के महत्व को स्वीकार करते हुये लोगों को बताया कि खेल बालकों को शारीरिक दृष्टि से विकसित करने का उत्तम साधन है। प्लेटो के बाद प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री फ्रोबेल ने खेल के शैक्षिक महत्व को स्वीकार करते हुये बताया कि खेल बालक की ‘नैसर्गिक प्रवृत्ति है। इसीलिये उन्होंने अपनी किण्डरगार्टन पद्धति में खेल द्वारा शिक्षा की व्यवस्था की, जिससे प्रत्येक बालक दिये हुये कार्य को रुचि, स्वेच्छा एवं आनन्दपूर्वक कर सके।

हेनरी काल्डवैल कुक ने भी खेल को शिक्षा का महत्वपूर्ण साधन माना। ऐसे ही जर्मनी के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री कार्लप्रुस ने भी कुक महोदय के विचार का समर्थन करते हुये खेल को प्राणीमात्र की शिक्षा का महत्वपूर्ण साधन स्वीकार किया। जन् के अनुसार-‘खेल शिक्षा की व्यावहारिक समस्याओं की कुंजी है। खेल में बालक की रचनात्मक शक्ति अत्यन्त बलवती तथा आदर्शभूत रूप में प्रकट होती है। उनके अनुसार खेल के द्वारा बालक के स्वभाव तथा उसकी प्रवृत्तियों का सही ज्ञान होता है। इससे उसका सही विकास किया जा सकता है। खेल के द्वारा बालक शारीरिक दृष्टि से ही विकसित नहीं होता वरन् उसमें निहित बौद्धिक एवं नैतिक शक्तियों का विकास भी होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि खेल के द्वारा बालकों का शारीरिक विकास तो होता है, साथ ही उनका निरीक्षण, परीक्षण तथा रचनात्मक कल्पना एवं निर्णय आदि अनेक मानसिक शक्तियाँ भी स्वाभाविक रूप से विकसित हो जाती हैं। ग्रीफिथ के अनुसार, जिस शिक्षा में खेल की व्यवस्था नहीं होती वह बालकों के शारीरिक तथा मानसिक विकास में बाधा डालती है। अतः शिक्षा में खेल को महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिये।

खेल द्वारा बालकों का संवेगात्मक एवं सामाजिक विकास भी स्वाभाविक रूप में होता है। जब बालक सामूहिक खेलों में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं तो उनमें प्रेम, सहानुभूति, सहनशीलता एवं सहयोग एवं अनुशासन आदि ऐसे अनेक सामाजिक तथा संवेगात्मक एवं चारित्रिक गुण सहज ही में विकसित हो जाते हैं, जो जनतन्त्र की सफलता के लिये परम आवश्यक हैं। पिछड़े बालकों के लिये तो खेल एक वरदान है। खेल के द्वारा शिक्षा प्राप्त करने से पिछड़े हुये बालकों के अचेतन मस्तिष्क से हीनता की ग्रन्थियाँ दूर हो जाती हैं। फलस्वरूप वे कार्य को सामान्य रूप से प्रसन्नतापूर्वक करने लगते हैं।

खेल द्वारा बालकों को दमन की अपेक्षा आत्माभिव्यक्ति के अवसर प्राप्त होते हैं। इससे जहाँ एक ओर बालकों में प्रेरणा आदि अनेक गुणों का विकास होता है, वहाँ दूसरी ओर वे शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक आदि सभी प्रकार से विकसित होते रहते हैं। संक्षेप में, खेल के द्वारा स्कूल की नीरसता समाप्त हो जाती है, जिसके फलस्वरूप सभी बालकों का सर्वांगीण विकास होता रहता है।

उपर्युक्त विवरण से खेल का महत्व एवं खेल द्वारा शिक्षा की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है। इसीलिये खेल द्वारा शिक्षा या खेल विधि की उपयोगिता के सम्बन्ध में अब संसार के किसी भी शिक्षाशास्त्री को किसी भी प्रकार का कोई संदेह नहीं रहा है। अतः हम देखते हैं कि स्कूलों में पाठ्यक्रम के सभी विषयों की शिक्षा अब खेल विधि के द्वारा दी जाने लगी है। संक्षेप में, खेल विधि एक उत्तम विधि है। इसीलिये शिक्षण की अनेक विधियों में खेल विधि का प्रयोग किसी न किसी रूप में अवश्य किया जाता है।

खेल विधि के आधारभूत सिद्धान्त

खेल विधि के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

1. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार बालकों को खेल में पर्याप्त स्वतन्त्रता मिले, जिससे वे किसी प्रकार के बन्धन का अनुभव करते हुये अपनी-अपनी रुचि तथा गति के साथ कार्य करते रहें। इस सिद्धान्त के अनुसार स्कूलों में बालकों को खेल के अवसर प्रदान करते हुये इस प्रकार से प्रेरित करना चाहिये कि वे कार्य को रुचिपूर्ण ढंग से सक्रिय रहते हुये पूरा कर लें। इससे स्कूलों की नीरसता समाप्त हो जायेगी तथा सभी बालक निष्क्रिय बैठकर सुनने की अपेक्षा सक्रिय रहते हुये बौद्धिक परिश्रम करने में रुचि लेने लगेंगे।

2. रुचि का सिद्धान्त- यह सिद्धान्त बालकों में कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार अरुचिकर कार्यों को खेल द्वारा रुचिकर बनाया जाता है। जब बालकों की खेल के द्वारा कार्य में रुचि उत्पन्न हो जाती है तो वे अरुचिकर कार्य को भी प्रसन्न रहते हुये पूरा करने का प्रयास करते हैं।

3. उत्तरदायित्व का सिद्धान्त- खेल विधि का तीसरा सिद्धान्त बालकों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास करना है। इस सिद्धान्त के अनुसार बालकों को खेल द्वारा अपना-अपना उत्तरदायित्व सम्भालने के लिये उचित प्रशिक्षण मिलता है। इससे वे अपनी शिक्षा के स्वयं उत्तरदायी बन जाते हैं। फलस्वरूप वे कक्षा के प्रत्येक कार्य में रुचिपूर्ण ढंग से सक्रिय रहते हुये भाग लेने लगते हैं।

उपर्युक्त तीनों सिद्धान्तों को स्कूलों के कार्यों से सम्बन्ध स्थापित करा देना ही खेल द्वारा शिक्षा या खेल विधि कहलाती है। इस विधि का अनुसरण करने से बालक प्रत्येक कार्य को पूरा करने के लिये अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं। संक्षेप में, खेल विधि के माध्यम से बालक प्रत्येक कार्य को उस समय तक करते रहते हैं, जब तक वह कार्य समाप्त नहीं हो जाता।

खेल विधि के गुण (Merits of Play Way Method)

खेल विधि के गुण निम्नलिखित हैं-

1. क्रिया-प्रधान विधि- इस पद्धति में क्रिया प्रधान होती है तथा शिक्षक का कथन गौण। दूसरे शब्दों में, खेल विधि के अन्तर्गत क्रिया को अधिक महत्व दिया जाता है।

2. स्वतन्त्रता का महत्व- खेल विधि में बालकों को अपनी-अपनी रुचियों, रुझानों, योग्यताओं, क्षमताओं तथा आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। इस स्वतन्त्रता से बालकों को आत्माभिव्यक्ति के अवसर मिलते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनका स्वाभाविक विकास होता रहता है।

3. उत्तरदायित्व का विकास- इस विधि में शिक्षा का उत्तरदायित्व शिक्षक के ऊपर नहीं, अपितु स्वयं बालकों के ऊपर आ जाता है। इससे बालकों में साधनपूर्णता, आत्म-निर्भरता तथा आत्म-विश्वास के साथ-साथ रचनात्मक प्रवृत्तियों का विकास भी सहज ही में हो जाता है।

4. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास- इस विधि द्वारा शिक्षा देने से बालकों का शारीरिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक एवं चारित्रिक सभी प्रकार का विकास होता है। दूसरे शब्दों में, खेल विधि के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करने से व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होता है।

5. रुचिपूर्ण सीखने की विधि- खेल में बालकों की स्वाभाविक रुचि होती है। अतः खेल विधि के प्रयोग से बालक प्रत्येक कार्य को स्वेच्छा से रुचिपूर्वक करते रहते हैं। जब बालकों की कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाती है तो शुष्क तथा नीरस कार्य भी आनन्ददायक बन जाता है। इससे बालकों को प्रसन्नता मिलती है तथा सीखना अधिक सम्भव हो जाता है।

6. स्वानुभव द्वारा सीखने के अवसर- खेल विधि में विषयों को जीवन से सम्बन्धित कर दिया जाता है। सभी बालक प्रत्येक कार्य को खेलते ही खेलते करते हुये अपने स्वानुभवों द्वारा सीखते रहते हैं। ऐसा सीखा हुआ ज्ञान उनके मस्तिष्क में शिक्षक द्वारा बलपूर्वक थोपे हुये ज्ञान की अपेक्षा अधिक स्थाई होता है। अतः इस विधि द्वारा बालकों को वास्तविक तथा प्रभावशाली शिक्षा प्राप्त होती है। इसीलिये आजकल शिक्षा जगत में करके सीखने, अनुभव द्वारा सीखने तथा खेल द्वारा सीखने के सिद्धान्तों पर अधिक बल दिया जाता है।

7. इन्द्रियों का प्रशिक्षण- खेल विधि में बालक विभिन्न वस्तुओं को छूते हैं, सूँघते हैं, चखते हैं तथा उनके सम्बन्ध में सुनते भी हैं। यही नहीं, बालक कार्य को खेल ही खेल में करते हुये दौड़ते हैं, कूदते हैं तथा उछलते हैं। उक्त सभी क्रियाओं से बालकों की इन्द्रियों को स्वाभाविक रूप से प्रशिक्षण मिलता है।

8. मूल प्रवृत्तियों का नियन्त्रण, मार्गान्तीकरण तथा शोधन- खेल विधि में बालकों को अपनी मूल प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण रखने, उनका मार्गान्तीकरण करने तथा उनका शोधन करने के अवसर प्राप्त होते हैं। इससे वे पाश्विक व्यवहार की अपेक्षा मानवीय व्यवहार करना सीख जाते हैं।

खेल विधि के दोष

खेल विधि के दोष अग्रलिखित हैं-

1. ऊँची कक्षाओं के लिये अनुपयुक्त- खेल विधि छोटी कक्षाओं के बालकों के लिये तो उपयुक्त हो सकती है. परन्तु बड़ी कक्षाओं के बालकों के लिये नहीं। इसका कारण यह है कि बड़ी कक्षा के बालक खेल की अपेक्षा आदर्श को प्राप्त करने में अधिक रुचि लेते हैं।

2. पूर्ण स्वतन्त्रता के बुरे परिणाम- खेल विधि में बालकों को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है। स्वतन्त्रता प्राप्त करते ही बालक अपने वास्तविक उद्देश्य से दूर हट जाते हैं। इससे बालक उच्छृंखल हो जाते हैं।

3. मृदु-शिक्षा विज्ञान का विकास- कुछ विद्वानों का मत है कि खेल द्वारा शिक्षा से मृदु-शिक्षा विज्ञान की उत्पत्ति होती है। उनके अनुसार खेल विधि के अन्तर्गत बालकों की रुचि तथा स्वतन्त्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। इससे वे अपने भावी जीवन में अरुचिकर कार्यों को करने में असमर्थ हो जाते हैं। बालकों की शिक्षा ऐसी होनी चाहिये कि सभी बालक जीवन संघर्ष में असफलतापूर्वक भाग लेने के लिये अरुचिकर एवं कठिन से कठिन बातों तथा समस्याओं का सामना करने के लिये तैयार हो जायें। चूँकि मृदु शिक्षा बालकों को उच्छृंखल बनाती है तथा उनमें संघर्ष करने की क्षमता उत्पन्न नहीं करती, इसलिये खेल को शिक्षा का आधार बनाना बहुत बड़ी भूल है।

4. प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव- खेल द्वारा शिक्षा देने के लिये विशेष रूप से प्रशिक्षित शिक्षकों की आवश्यकता है। वर्तमान परिस्थितियों में यह सम्भव नहीं है।

5. सभी विषयों का पढ़ाना असम्भव- कुछ विद्वानों के अनुसार खेल विधि द्वारा पाठ्यक्रम के सभी विषयों की शिक्षा नहीं दी जा सकती। उनका मत है कि कोई व्यक्ति इतिहास एवं साहित्य जैसे विषयों को खेल विधि द्वारा भले ही पढ़ा ले, परन्तु विज्ञान तथा गणित आदि विषयों को खेल विधि द्वारा पढ़ाना असम्भव है। आलोचकों का यह मत खेल शिक्षा के सम्बन्ध में उचित नहीं लगता।

6. व्यय साध्य- खेल विधि के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करने के लिये अधिक स्थान एवं अनेक प्रकार के उपकरण चाहिये। निर्धन देशों में उक्त दोनों बातों की व्यवस्था आसानी से नहीं हो सकती।

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