करीब दो साल पर पहले जोधपुर में एक अखबार के कार्यक्रम में बीजेपी सांसद सुब्रह्मण्यन स्वामी ने कहा था कि ‘हमारी सरकार आरक्षण को पूरी तरह खत्म नहीं करेगी. ऐसा करना पागलपन होगा. लेकिन हमारी सरकार आरक्षण को उस स्तर पर पहुंचा देगी, जहां उसका होना या नहीं होना बराबर होगा. यानी आरक्षण निरर्थक हो जाएगा.’ Show आज आप चाहें तो सुब्रह्मण्यन स्वामी को बधाई दे सकते हैं कि आने वाले वक्त को उन्होंने बिल्कुल सही पढ़ लिया था और सही भविष्यवाणी की थी. भर्तियों में लागू हो गई है लैटरल एंट्रीकेंद्र सरकार ने नौकरशाही में बाहर के क्षेत्रों से जानकारों को लाने की एक नई प्रणाली लागू की है. जिसमें कैंडिडेट से कोई परीक्षा नहीं ली जाएगी और उनकी निय़ुक्तियों में कोई आरक्षण भी लागू नहीं होगा. यानी जिस तरह से अभी यूपीएसससी की सिविल सर्विस परीक्षा में कम से कम 50 प्रतिशत अफसर एससी-एसटी-ओबीसी कटेगरी से आते हैं, वैसा इन नियुक्तियों में नहीं होगा. इसे लैटरल एंट्री नाम दिया गया है. इस तरीके से 9 अफसर आ चुके हैं, जिन्हें ज्वायंट सेक्रेटरी के स्तर पर विभिन्न मंत्रालयों में ज्वाइन करना है. ज्वायंट सेक्रेटरी लेवल के अफसर सरकार के लिए नीतियां बनाते हैं. इसके अलावा 40 और अफसर भी डायरेक्टर और डिप्टी सेक्रेटरी स्तर पर लिए जाएंगे. वादों में आरक्षण का समर्थन, हकीकत में आरक्षण की विरोधबीजेपी और आरएसएस की घोषित नीति आरक्षण को बनाए रखने की है. नरेंद्र मोदी कह चुके हैं कि ‘जब तक वह जिंदा हैं तब तक बाबा साहब के आरक्षण पर कोई आंच नहीं आएगी.’ जबकि आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत का कहना है कि ‘सामाजिक कलंक को मिटाने के लिए संविधान में प्रदत्त आरक्षण का आरएसएस पूरी तरह समर्थन करता है. आरक्षण कब तक दिया जाना चाहिए, यह निर्णय वही लोग करें, जिनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है. जब उन्हें लगे कि यह जरूरी नहीं है, तो वे इसका निर्णय लें.’ 1. नौकरशाही में लैटरल एंट्री: भारत में नौकरशाही के लिए अफसरों के चयन की एक संविधान प्रदत्त प्रणाली है. इसके लिए यूपीएससी और राज्यों के पब्लिक सर्विस कमीशन का संविधान में प्रावधान है. संविधान में अनुच्छेद 315 से लेकर 323 तक में इस बात का जिक्र है कि नौकरशाही के लिए चयन का पूरा सिस्टम कैसा होगा. पब्लिक सर्विस कमीशन से बाहर से इक्के-दुक्के लोगों को पहले भी सरकारें नौकरशाही में लाती रही हैं. लेकिन ये कभी उस स्तर पर नहीं हुआ, जो मोदी सरकार के समय में हो रहा है. जब केंद्र सरकार ने लोकसभा चुनाव के मतदान के बीच में ही नौ ज्वायंट सेक्रेटरी की नियुक्ति की घोषणा की तो मीडिया ने उसे अब तक की सबसे बड़ी ऐसी नियुक्ति करार दिया. अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें. अभी सब्सक्राइब करें लेकिन इन बयानों से परे नरेंद्र मोदी शासन में तीन ऐसी चीजें हो रही है, जिससे आरक्षण का प्रावधान काफी कमजोर हो जाएगा और सुब्रह्मण्यन स्वामी के शब्दों में ‘निरर्थक’ हो जाएगा. लैटरल एंट्री में रिजर्वेशन के संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने की व्यवस्था नहीं है. इंडियन एक्सप्रेस के श्यामलाल यादव ने जब कार्मिक और प्रशिक्षण मंत्रालय से सूचना के अधिकार के तहत ये पूछा कि लैटरल एंट्री में रिजर्वेशन है या नहीं, तो मंत्रालय ने जवाब में कहा कि ‘इस योजना के तहत जो पद भरे जाने हैं, वे एकल पद हैं और चूंकि एकल पद में रिजर्वेशन लागू नहीं होता, इसलिए इन नियुक्तियों में रिजर्वेशन नहीं दिया गया है.’ यह भी पढ़ें : हर कटेगरी के लिए सिविल सर्विस में हो एक एज लिमिट लैटरल एंट्री के तहत पहली खेप में चुने गए नौ कैंडिडेट के नाम हैं – अम्बर दुबे, राजीव सक्सेना, सुजीत कुमार वाजपेयी, सौरभ मिश्रा, दयानंद जगदले, काकोली घोष, भूषण कुमार, अरुण गोयल और सुमन प्रसाद सिंह. श्यामलाल यादव को आरटीआई के जवाब में बताया गया कि चूंकि इन कैंडिडेट का चयन रिजर्वेशन के आधार पर नहीं हुआ है, इसलिए इनकी कटेगरी नहीं बताई जा सकती. इनमें से कोई भी कैंडिडेट एससी, एसटी, ओबीसी का नहीं है, जिसके आधार पर दलित आइएएस अफसर इस स्कीम को गैर-कानूनी करार दे रहे हैं. ऐसा माना जा रहा है कि बगैर आरक्षण दिए जिस तरह से नौ नियुक्तियां हुई हैं, उसी तरह आगे भी और नियुक्तियां होंगी. नीति आयोग ने ऐसे 54 पदों की पहचान कर ली है, जिन्हें लैटरल एंट्री से भरा जा सकता है. अगर आगे ये चलन जारी रहा, तो कहने को तो संविधान में रिजर्वेशन के प्रावधान बने रहेंगे, लेकिन वास्तविक अर्थों में रिजर्वेशन काफी हद तक खत्म हो जाएगा. सरकारी नौकरियों में कटौती: यूपीएससी से सेंट्रल सिविल सर्विस के लिए हो रहे सलेक्शन की संख्या लगातर गिरती जा रही है. दिप्रिंट की सान्या ढींगरा ने खबर दी थी कि ‘2014 में यूपीएससी ने 1,236 अफसरों के नाम नियुक्तियों के लिए सरकार के पास भेजे थे. 2018 में ये संख्या घटकर 759 रह गई.’ कम नियुक्तियों का मतलब है कोटा से कम कैंडिडेट का आना. चूंकि आरक्षण सिर्फ सरकारी नौकरियों में है, इसलिए सरकारी नौकरियों में कटौती का मतलब आरक्षण का कमजोर होना भी है. सरकारी कंपनियों का निजीकरण और सिंकुड़ता आरक्षण: सेना को छोड़ दें तो देश में लगभग डेढ़ करोड़ सरकारी कर्मचारी हैं. इनमें से 11.30 लाख कर्मचारी और अफसर केंद्र सरकार के उपक्रमों यानी सेंट्रल पीएसयू में हैं. केंद्र सरकार नीति आयोग की सलाह पर 42 पीएसयू को बेचने या उन्हें बंद करने पर विचार कर रही है. हालांकि पीएसयू की खासकर वित्तीय बदइंतजामी और उनका घाटे में होना एक वाजिब समस्या है और इसका समाधान खोजा जाना चाहिए. लेकिन साथ में इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि वे देश में नौकरियों के प्रमुख स्रोत भी हैं. पीएसयू की नौकरियों में आरक्षण लागू है. लेकिन, निजी हाथ में बिकते ही पीएसयू का मालिकाना चरित्र बदल जाता है और वहां आरक्षण बंद हो जाता है. क्या सरकार ऐसा कोई बंदोबस्त कर रही है कि किसी कंपनी के बिक जाने पर भी वहां नियुक्तियों में रिजर्वेशन लागू रहे? इस बारे में कभी कोई चर्चा भी नहीं हुई है. और फिर भारत न अमेरिका है और न ही फ्रांस, ब्रिटेन या कनाडा कि निजी क्षेत्र खुद ही डायवर्सिटी का ख्याल रिक्रूटमेंट के दौरान रखे. प्रोफेसर सुखदेव थोराट और पॉल अटवेल ने भारत में निजी क्षेत्र की नौकरियों में भेदभाव के चरित्र को समझने के लिए एक अध्ययन किया था. इसके तहत अखबारों में निजी कंपनियों के जो विज्ञापन आए थे, उनके जवाब में एक ही जैसे बायोडाटा अलग-अलग जातिसूचक, धर्मसूचक नाम के साथ कंपनियों को भेजे गए. ये पाया गया कि अगर आवेदक का नाम/सरनेम हिंदू सवर्णों वाला है तो उसे इंटरव्यू के लिए बुलाए जाने के चांस ज्यादा हैं. एक जैसे बायोडाटा भेजने पर, 100 सवर्ण हिंदुओं के मुकाबले सिर्फ 60 दलितों और 30 मुसलमानों को ही इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. इससे पता चलता है कि नौकरियां देने के मामले में सामाजिक पृष्ठभूमि की भूमिका होती है. बेशक कॉरपोरेट सेक्टर कहता रहे कि वे तो सिर्फ मेरिट देख कर नौकरियां देते हैं. इसे देखते हुए यूपीए सरकार के समय में निजी क्षेत्र में आरक्षण का प्रस्ताव आया था. लेकिन उद्योग और कारोबार संगठनों ने इसका विरोध किया और सरकार को प्रस्ताव दिया कि वंचित तबकों को हुनर सिखाने और शिक्षित करने में वे भी सहयोग करेंगे. कहना मुश्किल है कि निजी कंपनियों ने इस दिशा में कितना काम किया है. निजी क्षेत्र में आरक्षण के बारे में पिछली एनडीए सरकार का ये कहना था कि इस बारे में संबंधित पक्षों की आम सहमति नहीं बन पाई है. संविधान में आरक्षण का प्रावधानआने वाले समय में ऐसा हो सकता है कि चौतरफा हमलों के बीच आरक्षण खत्म हो जाए या कमजोर पड़ जाए. ऐसे में ये जानना उपयोगी होगा कि संविधान आरक्षण को लेकर क्या कहता है.
इनमें से अनुच्छेद 15 और 16 को संशोधित करके अब तक अनारक्षित रहे गए सामाजिक समूह के गरीबों यानी सवर्ण ईडबल्यूएस को आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है. इसके लिए गरीबी की एक परिभाषा बनाई गई है. इस संशोधन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है और मामला वहां लंबित है. कुल मिलाकर देखा जाए तो भारतीय संविधान समानता के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि जाति, लिंग, धर्म आदि के आधार पर हर व्यक्ति समान नहीं है और इस भेदभाव को स्वीकार करते हुए वंचित समूहों को लिए अलग से प्रावधान किए गए हैं. आरक्षण का अधार यही सिद्धांत है कि समूहों के सदस्य के तौर पर हर व्यक्ति समान नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज पी.बी. सावंत इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि ‘अगर समाज के हर तबके के पास समानता की स्थिति का फायदा उठाने की क्षमता और संसाधन न हो तो समानता का अधिकार वंचित तबकों के लिए क्रूर मजाक बन जाएगा. संविधान में जो विशेष प्रावधान है, उनका मकसद राज्य को इस बात के लिए सक्षम बनाना है कि वह वंचितों को इन फायदों का लाभ उठाने के काबिल बनाए, जो अन्यथा इनका लाभ नहीं उठा पाते.’ मौजूदा स्थितियों में आरक्षणअगर हम नौकरियों की घटती संख्या, सरकारी क्षेत्र के निजीकरण और नौकरशाही में हो रही लैटरल एंट्री में आरक्षण की अनदेखी को मिलाकर देखें तो ये कहा जा सकता है कि वास्तव में आरक्षण ऐसी स्थिति में पहुंच रहा है, जहां इसके होने या नहीं होने में खास अंतर नहीं रह जाएगा. ये इसलिए भी ज्यादा चिंताजनक है. क्योंकि सरकार खुद भी मानती है कि नौकरशाही के उच्च पदों पर वंचित समूहों के लोग काफी कम हैं. मिसाल के तौर पर पिछली सरकार में कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के मंत्री जितेंद्र सिंह ने 2017 में सूचना दी थी कि केंद्र सरकार में डायरेक्टर से और उससे ऊपर के कुल 747 पदों में से एससी अफसर सिर्फ 60 और एसटी अफसर सिर्फ 24 हैं. यह भी पढ़ें : न्यायपालिका में क्यों होना चाहिए आरक्षण? ऐसे में सरकार ने वंचित तबकों को सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के अपने संवैधानिक दायित्व (अनुच्छेद 16-4) को पूरा करने की जगह एक ऐसी नीति पर चलने का फैसला किया है, जिससे उनका प्रतिनिधित्व और कम हो जाएगा. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेख उनके निजी विचार हैं) क्या आरक्षण प्रणाली खत्म करना चाहिए?इसलिए इस व्यवस्था को पूरी तरह से खत्म किया जाना चाहिए। आज हर तरह का आरक्षण पूरी तरह समाप्त होना चाहिए। किसी को भी एक प्रतिशत भी आरक्षण नहीं मिलना चाहिए, न सरकारी नौकरियों में और न ही राजनीति में। इसकी जगह आॢथक रूप से कमजोर छात्रों की शिक्षा पूरी तरह नि:शुल्क की जानी चाहिए।
भारत में आरक्षण कब तक रहेगा?संविधान संशोधन (126वां) बिल मंगलवार को लोकसभा से पास हो गया. बिल में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति समुदायों के आरक्षण को दस वर्ष बढ़ाने का प्रावधान है. फिलहाल आरक्षण 25 जनवरी, 2020 को समाप्त हो रहा है. बिल में इसे 25 जनवरी, 2030 तक बढ़ाने का प्रावधान है.
आरक्षण कितना सही?भारत की केन्द्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 27% आरक्षण दे रखा है और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए कानून बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता, लेकिन राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने 68% आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसमें अगड़ी जातियों के लिए 14% आरक्षण भी शामिल है।
आरक्षण से क्या फायदा होता है?आरक्षण के लाभ: आरक्षण करता है जो उसे करना चाहिए, वह अनुसूचित जाति और जनजाति लोगों को दरिद्रता से बचाता है । भारत में आर्थिक असमानता को घटाता है । अनुसूचित जाति और जनजाति लोगों को वास्तव में विद्या और काम पाने में कठिनाई आती है, आरक्षण उनकी सहायता करता है, जीने में ।
|