स्वतंत्रता के लगभग 53 वर्ष बाद गत 28 जुलाई 2002 को केंद्रीय कृषि मंत्री श्री नीतीश कुमार ने नई राष्ट्रीय कृषि नीति संसद के पटल पर रखी, इसकी मुख्य विशेषता यह है कि सरकार ने अगले दो दसकों के लिये कृषि क्षेत्र में प्रतिवर्ष 4 प्रतिशत की विकास दर निर्धारित की है। 17 पृष्ठों की कृषि नीति में भूमि सुधार के माध्यम से गरीब किसानों को भूमि प्रदान करना, कृषि जोतों का समेकन, कृषि क्षेत्र में निवेश को बढ़ाना, किसानों को फसल के लिये कवर प्रदान करना, किसानों के बीजों के लेन-देन के अधिकार को बनाये रखना जैसे लक्ष्यों को निर्धारित किया गया है। इसके अतिरिक्त मुख्य फसलों की न्यूनतम मूल्य नीति को जारी रखने का आश्वासन दिया गया है। इस नीति के तहत कृषि का सतत विकास रोजगार सृजन, ग्रामीण क्षेत्रों को स्वालंबी बनाना किसानों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने और पर्यावरण संरक्षित कृषि तकनीकि अपना अन्य मुख्य उद्देश्य है। नीति में कहा गया है कि अप्रयुक्त बंजर भूमि का कृषि और वनोरोपण के लिये प्रयोग बहु फसल और अंत: फसल के माध्यम से फसल गहनता बढ़ाने पर जोर दिया जायेगा। सरकार कृषि में जैव प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिये जोर देगी, इसके अंतर्गत देश में उपलब्ध विशाल जैव विविधता की सूची बनाने तथा उसे वर्गीकृत करने के लिये संबंद्ध कार्यक्रम बनाया जायेगा। Show
बौद्धिक संपदा समझौते के अंतर्गत भारत की जिम्मेदारियों के अनुसार विशेषकर निजी क्षेत्र में नई किस्मों के विकास और अनुसंधान को प्रोत्साहन देने के लिये पौध किस्मों को संरक्षण दिया जायेगा। इसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि किसानों के वाणिज्य उद्देश्यों के संरक्षित किस्मों के ब्राण्डयुक्त बीजों को छोड़कर अपनी कृषि के द्वारा बनाये हुए बीजों के बचत, उपयोग, विनियम, लेन-देन एवं बिक्री के पारस्परिक अधिकार बने रहेंगे किंतु नई किस्मों के विकास के लिये मालिकाना किस्मों पर अनुसंधान करने संबंधी शोद्धार्थियों के हितों की सुरक्षा का ध्यान रखा जायेगा। सरकार का मानना है कि कृषि क्षेत्र में पूँजी निवेश की महती आवश्यकता है। इसलिये सार्वजनिक निवेश के अतिरिक्त कृषि अनुसंधान/मानव संसाधन विकास फसल प्रबंधन व विपणन जैसे क्षेत्रों में निजी निवेश को प्रोत्साहित किया जायेगा कृषि सुधार के अंतर्गत उत्तर पश्चिम राज्यों की तरह पूरे देश में कृषि जोतों का समेकन फिर किया जायेगा। निर्धारित सीमा से अधिक और परती भूमि को भूमिहीन किसानों बेरोजगार युवकों में प्रारंभिक पूँजी के साथ फिर से बाँटा जायेगा, साथ ही पट्टेदारों तथा फसल हिस्सेदारों के अधिकारों को मान्यता देने के लिये पट्टेदार सुधार किया जायेगा। कृषिनीति में इस बात की भी घोषणा की गयी है कि खाद्य एवं पोषण सुरक्षा के अंतर्गत एक राष्ट्रीय पशु प्रजनन नीति भी बनायी जायेगी जिससे अंडा, मांस, दूध एवं पशु उत्पादों की आपूर्ति बढ़ायी जा सके। इसके अतिरिक्त सरकार का प्रयास उच्च गुणवत्ता वाली तकनीकी बीज उर्वरक पौध संरक्षण रसायन जैव कृमिनाशी, कृषि मशीनरी एवं ऋण की उचित दरों पर समय से तथा पर्याप्त मात्रा में किसानों तक पहुँचाने की व्यवस्था की जायेगी। कृषि नीति में किसानों की जोखिम प्रबंध का भी ध्यान रखा गया है इसमें कहा गया है कि कृषि उत्पादकों के मूल्यों में बाजारी उतार-चढ़ाव सहित बुवाई से फसल कटाई तक किसानों को बीमा पॉलिसी पैकेज उपलब्ध कराने का प्रयास कराया जायेगा। 1. पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि उत्पादकता वृद्धि के सरकारी प्रयास :-भारत में आर्थिक नियोजन 1 अप्रैल 1951 से प्रारंभ किया गया अब तक 8 पंचवर्षीय योजनाएँ 3 एक-एक वर्षीय योजनाएँ व तीन वर्ष का अंतराल तथा 9वीं योजना के भी चार वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस प्रकार नियोजन के पचास वर्ष पूरे हो चुके हैं। नवीं योजना का कार्यकाल 1997 से 2002 तक रहेगा। यद्यपि सभी योजनाओं के सामान्य उद्देश्य अधिकतम उत्पादन, अधिकतम रोजगार, आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय की प्राप्ति रहे हैं। लेकिन विभिन्न योजनाओं में परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार उद्देश्यों को परिभाषित और निर्धारित किया जाता रहा है। जिनका योजनानुसार कृषि से संबंधित विवरण निम्न प्रकार है। सर्व प्रथम 1947-48 में ‘‘अधिक अन्य उपजाऊ’’ अभियान को पुनर्जीवित किया गया और अगले 5 वर्षों के लिये 40 लाख टन अतिरिक्त खाद्यान्न उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। 1951 में प्रारंभ होने वाली प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि विकास को योजना की वरीयता में सर्वोपरि स्थान दिया गया है तथा अगली पंच वर्षीय योजनओं में कृषि क्षेत्र के विकासार्थ किया जाने वाला कुल विनियोग उत्तरोत्तर बढ़ता गया। कृषि क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने के लिये किया जाने वाला उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ यह निवेश आत्म निर्भरता प्राप्त करने और पिछड़ेपन के निवारणार्थ एक सराहनीय प्रयास माना जा सकता है। 20वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध 50 वर्षों में भारतीय कृषि की संवृद्धि दर 0.25 प्रतिशत प्रति वर्ष रही है जिससे इन वर्षों में कृषि उत्पादन में कुल 12.6 प्रतिशत की ही वृद्धि हो सकी जबकि 1950-51, 1999-2000 की अवधि में कृषि उपज में औसतन 2.65 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से हुई है। अतीत की तुलना में यह वृद्धि दर काफी ऊँची है। क्योंकि योजनाकाल में जनसंख्या की औसत वृद्धि दर 2.1 प्रतिशत रही है। अत: कृषि उपज की वृद्धि दर जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक रही है यह कृषि मोर्चे पर सफलता का सूचक है। प्रथम पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1951 से 31 मार्च 1956) :-भारत की यह प्रथम पंचवर्षीय यद्यपि 1 अप्रैल 1951 से मानी गयी परंतु इस योजना का अंतिम स्वरूप दिसम्बर 1952 में ही प्रकाशित किया गया इस योजना में कृषि संबंधित निम्न प्राथमिकतायें निर्धारित की गयी थी। 1. ग्रामीण श्रम शक्ति का पूर्ण उपयोग करने के लिये सामुदायिक विकास योजनाओं को लागू करना। यह योजना कृषि प्रधान योजना थी जिसमें कृषि क्षेत्र के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी। द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1956 से 31 मार्च 1961) :-इस योजना की रूप रेखा प्रा. पीसी महालनोविस ने ऑपरेशन अनुसंधान पद्धति पर तैयारी की जो उनके एक विकास मॉडल पर आधारित थी। इस योजना का मौलिक उद्देश्य देश में औद्योगीकरण की प्रक्रिया को तेज करना था जिससे देश में समाजवादी समाज की स्थापना करके आर्थिक विकास की गति को बढ़ाया जा सके। पं. नेहरू के शब्दों में हमारी द्वितीय पंचवर्षीय योजना का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण भारत का पुनर्निर्माण करना। भारत में औद्योगिक प्रगति की नींव रखना, कमजोर और अपेक्षाकृत अधिकारहीन वर्ग को उन्नत के समान अवसर प्रदान करना और देश के सभी क्षेत्रों का संतुलित विकास करना है इस योजना में कृषि एवं सिंचाई पर कुल व्यय का 20.9 प्रतिशत व्यय आवंटित किया गया। तृतीय पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1961 से 31 मार्च 1966) :-जानसैण्डी एवं प्रो. एस. चक्रवर्ती द्वारा निर्मित विकास मॉडल पर आधारित इस योजना का मुख्य उद्देश्य अर्थव्यवस्था को स्वावलंबी एवं स्वयं स्फूर्ति अर्थव्यवस्था बनाना था इस योजना के मुख्य बिंदु इस प्रकार थे :- 1. खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना। तीन वार्षिक योजनाएँ (1966-67, 1967-68, 1968-69) :-1962 एवं 1965 में युद्ध के कारण पूर्णत: असफल हुई तीसरी पंचवर्षीय योजना के बाद तीन वर्षों का योजनावकास रहा, इस अवधि में चौथी योजना की उपयुक्त पृष्ठभूमि बनाने के प्रयास किये गये। इन वार्षिक योजनाओं के कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं :- 1. युद्ध जनित आर्थिक समस्याओं का निराकरण करना। चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1969 से 31 मार्च 1974) :-इस योजना के कुछ प्रमुख उद्देश्य निम्न रहे - पंचम पंचवर्षीय योजना(1 अप्रैल 1974 से 31 मार्च 1979 तक परंतु योजना 31 मार्च 1978 को समाप्त घोषित) :- 1. न्यूनतम आवश्यकता से राष्ट्रीय कार्यक्रम को लागू करना। छठी पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1980 से 31 मार्च 1985)जनता पार्टी की सरकार ने पांचवीं पंचवर्षीय योजना एक वर्ष पूर्व ही समाप्त घोषित करके 1 अप्रैल 1978 से 31 मार्च 1983 तक की छठी पंचवर्षीय योजना लागू की जो एक अनवरत योजना थी इस अनवरत योजना में प्रत्येक वर्ष अगले 5 वर्ष के लिये योजना बनाने का प्रावधान रखा गया। 1980 में फिर राजनैतिक परिवर्तन और श्रीमती इंदिरा गांधी की वापसी के बाद अनवरत योजना समाप्त कर दी गयी और नवीन छठी पंचवर्षीय योजना 1980 में लागू की गयी जिसकी अवधि 1980 से एक अप्रैल 1985 रखी गयी इस योजना के प्रमुख बिंदु निम्न प्रकार रहे :- 1. विकासदर में वृद्धि, संसाधनों का कुशलतम उपयोग एवं उत्पादिता में वृद्धि करना। सातवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1985 से 31 मार्च 1990) :-इस योजना का प्रारूप राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा 8 नवंबर 1985 को स्वीकृत किया गया। इस योजना के प्रमुख रूप से 4 लक्ष्य रखे गये। तीव्र विकास, आधुनिकीकरण, आत्मनिर्भरता तथा सामाजिक न्याय। इस योजना के प्रमुख बिंदु निम्न रहे। 1. उत्पादन व रोजगार सृजन को वरीयता दी गयी। आठवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1992 से 31 मार्च 1997) :-राजनैतिक अस्थिरता के कारण 8वीं योजना 1 अप्रैल 1990 से प्रारंभ न हो सकी इस योजना को राष्ट्रीय विकास परिषद ने 23 मई 1992 को स्वीकृति दी और इसे 1992-97 की अवधि के लिये लागू किया गया इस योजना के प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं :- 1. शताब्दी के अंत तक पूर्ण रोजगार का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये रोजगार सृजन को प्राथमिकता। नौवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1997 से 31 मार्च 2002) :-नौवीं पंचवर्षीय योजना का प्रारंभिक प्रारूप तत्कालीन योजना आयोग के उपाध्यक्ष मधु दण्डवते ने 1 मार्च 1998 को जारी किया जिसे भाजपा सरकार ने संशोधित किया। संशोधित प्रारूप के प्रमुख बिंदु निम्नवत हैं। 1. पर्याप्त उत्पादक रोजगार पैदा करना और गरीबी उन्मूलन की दृष्टि से कृषि और ग्रामीण विकास को प्राथमिकता देना। प्रथम पंचवर्षीय योजना से लेकर नौवीं पंचवर्षीय योजना के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर दृष्टिपात करने से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि कृषि और ग्रामीण विकास के लिये योजनाकाल में लगातार प्रयास किये गये, इसके लिये विज्ञान पोषित प्रविधियों और नवीन कार्यक्रमों का लगातार समावेश किया जा रहा है। कृषि और ग्रामीण विकास पर अभी हाल के वर्षों में अधिक ध्यान दिये जाने के कारण ग्रामीण परिवारों की आय बढ़ी है। स्वतंत्रता के पश्चात विशेषकर नियोजन काल में कृषि क्षेत्र में पूँजी निर्माण में वृद्धि हुई है। कृषिगत उत्पादक परिसंपत्ति जैसे मशीनरी, भवन, भूमि, सुधार आदि की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किये गये हैं। अब पम्पसेट, थ्रेसर, ट्रैक्टर तथा हार्वेस्टर का प्रयोग लगातार बढ़ता जा रहा है, इनके आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि कृषि क्षेत्र में पूँजी निर्माण बढ़ा है। नियोजित विकास प्रयासों के परिणाम स्वरूप कृषि उत्पादन आवश्यकता की दृष्टि से अति कमी की दशाओं को पार करता हुआ अब पर्याप्तता की स्थिति में पहुँच चुका है। विभिन्न फसलों का उत्पादन बढ़ा है, फसल प्रणाली में संरचनात्मक परिवर्तन आया है। अब तक की विकास प्रक्रिया में हम अपनी 100 करोड़ से अधिक जनसंख्या के लिये खाद्यान्न पूर्ति करने के साथ-साथ निर्यात करने की स्थिति में हो गये हैं। पंचवर्षीय योजना में कृषि विकास पर व्यय :-कृषि क्षेत्र के विकास के लिये बहु विधि प्रयास किये गये हैं, प्रथम योजना तो कृषि प्रधान योजना ही थी। प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र के विकास हेतु लगातार बढ़ती धनराशि व्यय की गयी है। सारिणी क्रमांक 9.1 में प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में कृषि विकास के लिये होने वाले व्यय का विवरण दिया जा रहा है।
भारत में कृषि विकास-दो महत्त्वपूर्ण अवस्थायें :-भारतीय नियोजन में कृषि विकास को आधारभूत दृष्टिकोण के रूप में स्वीकार किया गया है। खाद्यान्न संकट से जूझता देश नियोजन के आरंभिक चरण में निस्संदेह कृषि विकास को वरीयता दिये जाने की अपेक्षा कर रहा था। देश की तत्कालीन समस्या को ध्यान में रखकर ही पहली योजना जो आकार में बहुत छोटी थी में कृषि क्षेत्र के विकास को सर्वोच्च वरीयता दी गई। यह योजना वांछित उद्देश्यों को पूरा करने में सफल रही, खाद्यान्न उत्पादन लक्ष्य से अधिक रहा। लेकिन दूसरी और तीसरी योजना में प्राथमिकतायें भारी उद्योगों के विकास तथा आयात प्रतिस्थापन की ओर मोड़ दी गई। जिसके परिणामस्वरूप भारतीय कृषि इस सीमा तक पछिड़ गई कि तीसरी योजना के अंतिम वर्ष 1965-966 में देश में गंभीर खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो गया जिसके समाधान के लिये भारत को अमेरिका के पीएल-480 गेहूँ का आयात करना पड़ा। भारत में बढ़ते खाद्यान्न के इस आयात ने देश को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक रूप से कमजोर बनाया और अमेरिका में गेहूँ के इसी आयात को लेकर देश की नीतियों में हस्तक्षेप करना प्रारंभ किया जिससे तीन वार्षिक योजनओं में कृषि को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करते हुए कृषि उत्पादकता वृद्धि की नवीन रणनीति का सूत्रपात किया गया जिसे हरित क्रांति के नाम से जाना जाता है। इस हरित क्रांति आंदोलन के उद्गम से भारतीय कृषि अपनी परंपरागत परिवर्तनों की दिशा में मुड़ गई तथा भारतीय कृषि में एक नये युग की शुरुआत हुई। नियोजन काल में भारतीय कृषि को दो भागों में बाँटा जा सकता है। अ. 1950-51 से 1965-66 तक की अवधि :- 1. संस्थागत सुधारों को वरीयता भारत में कृषि विकास की प्रवृत्ति :-वर्ष 1951 के बाद से भारतीय कृषि विकास की प्रवृत्तियों को निम्न शीर्षकों में रखा जा सकता है। 1. कृषि विकास दर :-
सारिणी 9.2 भारतीय कृषि विकास दर पर प्रकाश डाल रही है जिससे ज्ञात होता है कि कृषि की दृष्टि से 1996-97 वर्ष सर्वाधिक उपयुक्त रहा जिसमें कृषि विकासदर + 9.4 प्रतिशत प्राप्त की जा सकी है जबकि न्यूनतम -1.00 प्रतिशत वर्ष 1997-98 में रही। वर्ष 1994-95 तथा वर्ष 1999-2000 में विकासदर लगभग एक सामान रही है, वर्ष 1998-99 में भी विकासदर +7.7 प्रतिशत संतोषजनक कही जा सकती है। विभिन्न वर्षों में कृषि विकास दर में प्रयाप्त विचलन दिखाई पड़ता है। 2. कृषि विकास का विकास
:- 1. हरित क्रांति से पूर्व की अवधि 1951-1965 तथा
सारिणी 9.3 से ज्ञात होता है कि हरिक्रांति से पूर्व की अवधि अर्थात 1951 से 1965 तक कृषि क्षेत्र में 25.52 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इस अवधि में सभी फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल की वृद्धि दर 2.5 प्रतिशत थी। हरित क्रांति के बाद के वर्षों में अर्थात 1965 से 1999 तक की अवधि में विभिन्न फसलों के अंतर्गत क्षेत्र में वृद्धि हुई। खाद्यान्न फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल में 0.18 प्रतिशत तक तथा गैर खाद्य फसलों के क्षेत्रफल के अंतर्गत 2.19 प्रतिशत की वृद्धि देखी जा रही है, इस अवधि में चावल के क्षेत्रफल में 0.70 प्रतिशत प्रति वर्ष वृद्धि हुई जबकि गेहूँ के क्षेत्रफल में 3.26 प्रतिशत वृद्धि दर हुई है। इसका प्रमुख कारण गेहूँ की फसल के लिये अधिक उपज देने वाले बीजों के प्रयोग के कारण गेहूँ की उत्पादकता आशातीत बढ़ी जिससे कृषक गेहूँ को अधिक क्षेत्रफल में बोने के लिये प्रेरित हुए। 3. उत्पादकता में वृद्धि :-वर्ष 1951 के बाद की अवधि में कृषि उपज की उत्पादकता में आशातीत वृद्धि हुई है, कृषि उपज की उत्पादकता से आशय प्रति हेक्टेयर उत्पादकता वृद्धि से है जिसे सारिणी 9.4 में प्रस्तुत किया जा रहा है।
सारिणी क्रमांक 9.4 से स्पष्ट होता है कि गेहूँ का प्रति हेक्टेयर उत्पादन जहाँ 1951 में केवल 663 किलो ग्राम था वह 1999 में बढ़कर 2583 किलोग्राम तक हो गया है। इसी प्रकार चावल का उत्पादन जहाँ 668 किलोग्राम था वह बढ़कर 1928 किलोग्राम तक हो गया है। इसी प्रकार मक्का का 704 से 1755 किलोग्राम, आलू का 7000 किलो ग्राम से बढ़कर 18000 किलो ग्राम तक पहुँच गया है। गन्ना का उत्पादन 33420 किलो ग्राम से बढ़कर 73000 किलो ग्राम तक पहुँच गया है। यद्यपि विभिन्न फसलों की उत्पादकता में आशातीत वृद्धि हुई है। परंतु यह अभी भी अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है। इसलिये अपने देश में विभिन्न फसलों की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ाने की बहुत अधिक संभावनाएं है। 4. कृषि उत्पादन में वृद्धि :-
सारिणी क्रमांक 9.5 विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में खाद्य तथा अखाद्य फसलों के उत्पादन को दर्शा रही है। जिससे ज्ञात होता है कि पहले पचास वर्षों में अनाज का उत्पादन लगभग चार गुना बढ़ा है। जबकि दालों का उत्पादन दोगुने से भी कम बढ़ पाया है। अनाज में भी चावल का उत्पादन लगभग चार गुना और गेहूँ का उत्पादन 11 गुना से भी अधिक बढ़ा है। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं पर दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि अनाज का उत्पादन तृतीय योजना को छोड़कर सभी योजनाओं में बढ़ा है। जबकि तृतीय योजना में अनाज का उत्पादन घटा है। व्यापारिक फसलों में कपास, गन्ना, तिलहन तथा पटसन आदि फसलें आती हैं। इन फसलों का भी भारतीय कृषि में महत्त्वपूर्ण स्थान है परंतु इन फसलों के उत्पादन में भी उतार चढ़ाव देख जा सकते हैं। फिर भी कपास के उत्पादन में चार गुनी तथा पटनसन के उत्पादन में लगभग तीन गुनी वृद्धि हुई है। गन्ने तथा तिलहन के उत्पादन में भी क्रमश: लगभग 6 गुनी वृद्धि देखी जा सकती है। 5. फसल प्रतिरूप में परिवर्तन :-
सारिणी 9.5 से स्पष्ट होता है कि योजनाकाल में खाद्य फसलों के अंतर्गत भूमि की तुलना में गैर खाद्य फसलों के अंतर्गत भूमि में अधिक तेजी से वृद्धि हुई है। जबकि भारतीय कृषि भूमि का लगभग 74 प्रतिशत भाग खाद्य फसलों के अंतर्गत तथा लगभग 26 प्रतिशत भाग गैर खाद्य फसलों के अंतर्गत लगा हुआ है। जबकि सारिणी से ज्ञात होता है कि खाद्य फसलों का सूचक अंक जहाँ 1950-51 में 79.3 था वह वर्ष 96-97 में बढ़कर 98.1 हो गया जबकि इसके पूर्व दशक 1990-91 में यह 100.7 था इसके विपरीत गैर खाद्य फसलों का सूचक अंक 1950-51 में जहाँ 73.8 था वह 1996-97 में बढ़कर 135.7 हो गया जो लगभग दोगुनी वृद्धि को दर्शा रहा है जिसका अर्थ है कि भारतीय कृषि में गैर खाद्य फसलों का महत्त्व तेजी से बढ़ रहा है। 6. कृषि उत्पाद निर्यात :-
यद्यपि निर्यात किये गये उत्पादों में कुछ विविधता और गंतव्यों में विस्तार आया है फिर भी अधिकतर भारतीय कृषि उत्पाद निर्यात अभी भी परंपरागत मदों के रूप में ही है। वर्ष 1997-98 में कृषि निर्यातों का मूल्य 6.4 विलियन डॉलर था वर्ष 1993-94 से 1997-98 के मध्य देश के कुल निर्यात में कृषि निर्यातों का मूल्य 6.4 विलियन डॉलर था। वर्ष 1993-94 से 1997-98 के मध्य देश के कुल निर्यात में कृषि निर्यात 17.20 प्रतिशत था। वर्ष 1998-99 में 1703 करोड़ रुपये की काफी 2302 करोड़ रुपये की चाय 1912 करोड़ रुपये की खली, 779 करोड़ रुपये की तंबाकू, 224 करोड़ रुपये की कपास और 595 करोड़ रुपये के जूट का सामान विदेशों को निर्यात किया गया था। 2. पोषक स्तर में वृद्धि के उपाय :- 1. मानव गरीबी सूचकांक के आधार पर भारत का विश्व में 59वां स्थान है। मानव विकास रिपोर्ट की उक्त सूचनाओं के आधार पर भारत करके आम नागरिकों के जीवन सतर के बार में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है जबकि स्वतंत्रता के बाद नियोजन काल में ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिये सरकार ने अनेक परियोजनाओं का शुभारंभ किया है। चौथी और पांचवीं पंचवर्षीय योजनाओं में गरीब एवं पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिये अनेक रोजगार परक कार्यक्रम लागू किये गये। यद्यपि पिछले 50 वर्षों में भारत की जनसंख्या में सभी वर्गों के पोषण में सुधार हुआ है परंतु अभी भी अल्प पोषण की समस्या जिन वर्गों में बनी हुई है उनमें से प्रमुख रूप से एक तिहाई नवजात बच्चे जिनका भार 2.5 किग्राम से कम है तथा गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाएँ सम्मिलित हैं। राष्ट्रीय पोषण निरीक्षण बोर्ड के अनुसार 1975-80 में 31 प्रतिशत परिवारों में परिवार के सभी सदस्यों में ऊर्जा उपभोग पर्याप्त था। 19 प्रतिशत परिवारों में ऊर्जा उपभोग परिवार के सभी सदस्यों में अपर्याप्त था। यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि 25 प्रतिशत परिवारों में केवल बालिगों के लिये ऊर्जा उपभोग पर्याप्त था परंतु स्कूल पूर्व बच्चों में ऐसा नहीं था। पर्याप्त खाद्य पदार्थ जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है, भारतीय औसत आहार इस दृष्टि से असंतुलित है कि भारत में अधिकांश पोषक तत्व खाद्यान्नों से प्राप्त किये जाते हैं कुल प्राप्त कैलोरी में दो तिहाई भाग खाद्यान्नों से प्राप्त किया जाता है। गुणात्मक दूष्टि से अपेक्षित स्तर का नहीं होता। खाद्य और कृषि संगठन के एक अनुमान वे देश जहाँ के आहार में खाद्यान्न जड़दार सब्जियों और चीनी की बहुतायत हो वहाँ पोषण संबंधी असंतुलन पाया जाता है। भारत की पोषण समस्या के चार प्रमुख पहलू है :-1. पोषण समस्या का परिमाणात्मक पहलू :- 2. पोषण समस्या का गुणात्मक पहलू :- 1. रक्षात्मक खाद्यान्नों का कम उत्पादन। स. पोषण समस्या का प्रशासनिक पहलू :- 1. खाद्यान्नों की मांग और पूर्ति का सही अनुमान। द. पोषण समस्या का आर्थिक पहलू :- योजनावधि में पोषण समस्या के समाधान के लिये सरकार ने जो प्रयत्न किये हैं उन्हें हम तीन शीर्षकों के अंतर्गत रख सकते हैं। अ.
खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की दिशा में उपाय :- 1. तकनीकी उपाय : 2. भूमि सुधार : 3. प्ररेक मूल्य नीति : 4. विशिष्ट संस्थानों की स्थापना :- 5. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा : ब. खाद्यान्नों के वितरण संबंधी उपाय : खाद्यन्न वितरण प्रणाली में सुधार के प्रयास का एक प्रमुख पक्ष सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अधिक कारगर बनाने से संबंद्ध है। सरकार विभिन्न आधिक्य वाले क्षेत्रों से अथवा आयातित खाद्यान्न से बनाये गये बफर स्टॉक द्वारा उचित मूल्य की दुकानों से खाद्यान्न वितरण करती है। खाद्यान्नों के वितरण संबंधी उपायों को निम्न शीर्षकों में रखा जा सकता है। 1.
सरकारी खरीद :- 2. खरीद मूल्यों का निर्धारण :- 3. सार्वजनिक वितरण प्रणाली :- 4. खाद्यान्नों की जमाखोरी तथा मुनाफाखोरी के विरुद्ध किये गये प्रयास :- 5. भारतीय खाद्य निगम की स्थापना :- 1. अन्न भंडार 6. सार्वजनिक वितरण प्रणाली :- 1. प्रणाली का क्षेत्र और जनसंख्या :- 2. सार्वजनिक वितरण प्रणाली की वस्तुएँ :- 3. नवीन सार्वजनिक वितरण प्रणाली योजना :- 4. राशन या उचित मूल्य की दुकानें :- 5. सहकारी उपभोक्ता बाजार :- 6. नियंत्रित कपड़ों की बिक्री की दुकानें :- 7. सॉफ्ट कोक डिपो :- 8. सुपर बाजार :- 9. मिट्टी तेल की बिक्री :- 10. लक्षित सार्वजनिक वितरण योजना :- स. खाद्यान्नों के उपभोग संबंधी नीति :- 1. जनसंख्या नीति :- 2. पोषण नीति :- खाद्य एवं पोषण बोर्ड ने पोषक आहारों के क्रमिक विकास, संरक्षण और प्रभावकारी प्रयोग के लिये अनेक कार्यक्रम हाथ में लिये हैं इन कार्यक्रमों का उद्देश्य पोषक आहारों की आपूर्ति बढ़ाना, आहारों की पौष्टिकतायें बढ़ाना, कर्मचारियों और उपभोक्ताओं का शिक्षण प्रशिक्षण और समेकित खाद्य एवं पोषण प्रणाली का विकास का आयोजन करना है ताकि लोगों के पोषण में सुधार लाया जा सके। बोर्ड में चावल, दाल और मक्के की पिसाई के आधुनिकीकरण तथा अन्य खाद्यान्नों के परिस्करण, फल एवं साग सब्जी संरक्षण उद्योग, प्रोटीन आहार उद्योग, बेकरी उद्योग के संबर्द्धन की दिशा में भी कदम उठाये गये हैं। द. अल्प पोषण दूर करने के सरकारी प्रयास :- 1. प्रायोगिक पोषण प्रोजेक्ट
:- 2. विशेष पोषण प्रोग्राम :- 3. समन्वित बाल विकास योजनायें
:- 4. बालवाडी पोषाहार कार्यक्रम :- 5. स्कूली बच्चों के मध्य भोजन कार्यक्रम :- य. खाद्य सुरक्षा हेतु किये गये प्रयास :- 1. देश में खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ाना। र. रोजगार सृजन तथा गरीबी निवारण के प्रयास -
इस विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि पंचवर्षीय योजनाओं में न केवल उत्पादन बढ़ाने के प्रयास किये बल्कि लोगों के पोषणस्तर को बढ़ाने के चतुर्दिक प्रयास किये हैं परंतु जनसंख्या वृद्धि की दर देखते हुए खाद्यान्नों को और अधिक बढ़ाने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्वावलंबन की दृष्टि से भी खाद्यान्नों में आत्म निर्भरता प्राप्त करना महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि खाद्यान्नों के उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि के बावजूद भी अभी तक हमारे देश में खाद्यान्नों में स्थायी किस्म की आत्म निर्भरता प्राप्त नहीं हुई है। आज भी 30 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है जिन्हें भरपेट भोजन नहीं मिलता है। संतुलित भोजन का लक्ष्य अभी भी दूरगामी स्वप्न है। इस दिशा में 50 वर्षों की प्रयास की समीक्षा करते हुए नवी योजना में उल्लेख किया गया है ‘खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त हो चुकी है परंतु अभी भी जनसंख्या संतुलित भोजन का अभाव अनुभव करती है। यह चिंता का विषय है कि चाहे अनाज का उत्पादन बढ़ती हुई आवश्यकताओं के साथ-साथ बढ़ता गया है। और अनाज का प्रति व्यक्ति औसत उपभोग संतोषजनक रहा है परंतु दालों के उपयोग में प्रतिव्यक्ति गिरावट दर्ज की गयी है, इसलिये दालों का उत्पादन बढ़ती हुई आवश्यकता के अनुरूप बढ़ाना ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह भी जरूरी है कि दालें सस्ते दामों पर उपलब्ध करायी जाये। सब्जियों और फलों का उत्पादन एवं उपभोग नीचा ही रहा है। सब्जियों के उत्पादन को बढ़ाने और उन्हें विशेषकर हरी पत्तेदार सब्जियों को उचित दामों पर उपलब्ध कराने की ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में शख्त जरूरत है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि खाद्यान्नों तथा दालों और सब्जियों का न केवल उत्पादन ही बढ़ाया जाये बल्कि उनका उचित वितरण भी सुनिश्चित किया जाये जिससे सामान्य जन भी अपना उचित भरण पोषण कर सके। 3. भावी व्यूह रचना :- क. विस्तृत खेती की संभावनाएं :- ख. बड़ी मात्रा में कृषि आदान उपलब्ध कराना :- ग. सामुदायिक विकास कार्यक्रम और प्रसार सेवाओं में वृद्धि :- घ. फसलों की अधिक तीव्रता :- य. न्यूनतम फसल कीमतों का निर्धारण :- भारत में कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए क्या उपाय किए गए?ज्ञात हो कि कृषि में मशीनीकरण का स्तर कम होने से कृषि उत्पादकता में कमी होती है। आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 के अनुसार भारत में कृषि का मशीनीकरण 40 प्रतिशत है, जो कि ब्राज़ील के 75 प्रतिशत तथा अमेरिका के 95 प्रतिशत से काफी कम है। इसके अलावा भारत में कृषि ऋण के क्षेत्रीय वितरण में भी असमानता विद्यमान है।
भारत में कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा क्या प्रयास किए गए हैं?1. पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि उत्पादकता वृद्धि के सरकारी प्रयास :- भारत में आर्थिक नियोजन 1 अप्रैल 1951 से प्रारंभ किया गया अब तक 8 पंचवर्षीय योजनाएँ 3 एक-एक वर्षीय योजनाएँ व तीन वर्ष का अंतराल तथा 9वीं योजना के भी चार वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस प्रकार नियोजन के पचास वर्ष पूरे हो चुके हैं।
उत्पादकता बढ़ाने के लिए कौन कौन से उपाय किए जा सकते हैं?उत्पादकता बढ़ाने के तरीके. तरीका # 2. विनिर्माण पर अधिक जोर देना:. तरीका # 3. बनाने के लिए प्रोत्साहन बदलना:. तरीका # 4. बढ़ता श्रम-प्रबंधन सहकारिता:. तरीका # 5. मौजूदा नियंत्रण को कसने:. विधि # 6. सरकारी नीतियों में बदलाव:. भारत में कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए सरकार द्वारा कौन से संस्थागत सुधार किए गए हैं?कृषि ऋण एवं विपणन
इसके अतिरिक्त आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम के तहत, सरकार ने किसान क्रेडिट कार्डों (केसीसी) के माध्यम से 2.5 करोड़ किसानों को दो लाख करोड़ रुपए के रियायती ऋण प्रोत्साहन की भी घोषणा की है। इसके अनुसरण में बैंकों ने 17.01.2022 तक 2.70 करोड़ योग्य किसानों को केसीसी जारी किया है।
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