केरल में नमस्कार को क्या कहते हैं? - keral mein namaskaar ko kya kahate hain?

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नई दिल्लीएक महीने पहलेलेखक: ऐश्वर्या शर्मा

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केरल में नमस्कार को क्या कहते हैं? - keral mein namaskaar ko kya kahate hain?

नमस्कार! शारदीय नवरात्रि में आज मां कालरात्रि का दिन है। आप सुबह तैयार होकर पूजा के बाद फलाहार तो जरूर करेंगे। व्रत में साबूदाना, चौलाई के लड्‌डू या सामक के चावल भी खाए ही होंगे…तो आज हम इन्हीं तीनों व्रत के सूपरफूड के बारे में बताएंगे, जो आपमें दिनभर एनर्जी बनाए रखते हैं।

दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से हमारे देश के पावन त्योहार में खानपान का हिस्सा बनने वाले इन तीनों सुपरफूड की दिलचस्प कहानी ‘फुरसत के रविवार’ में जानेंगे।

करीना कपूर से लेकर शिल्पा शेट्‌टी तक हर कोई साबूदाने का दीवाना है। शिल्पा ने इसे अपनी पसंद का फास्ट फूड बताया, तो वहीं सोनाली बेंद्रे को साबूदाने की खिचड़ी खूब भाती है।

लॉकडाउन के दौरान माधुरी दीक्षित के पति डॉ. श्रीराम नेने भी उनके लिए साबूदाने की खिचड़ी बनाते दिखे।

हाल ही में टीवी एक्ट्रेस जूही परमार ने भी अपने इंस्टाग्राम पर इसकी खिचड़ी की रेसिपी अपने फैंस से शेयर की।

ऐसे में आप समझ ही सकते हैं कि साबूदाना हेल्दी फूड है जो कम समय में ही ज्यादा पॉपुलर हो गया। लेकिन क्या कभी सोचा कि साबूदाना, सामक के चावल और चौलाई होती क्या है, कैसे बनता है और कहां से आया और इसे व्रत में ही क्यों खाते हैं?

पहले बात साबूदाने की करते हैं। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि आप सभी का फेवरेट साबूदाना भारत में उगता ही नहीं था।

स्टोरी में आगे बढ़ने से पहले इस ग्रैफिक्स के जरिए साबूदाने का इतिहास जानते हैं।

केरल में नमस्कार को क्या कहते हैं? - keral mein namaskaar ko kya kahate hain?

यूरोप घूमने गए थे राजा, वहां से केरल लेकर आए साबूदाना

दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रोफेसर अमरजीव लोचन ने बताया कि केरल के त्रावणकोर के महाराजा विशाखम थिरुनल ने कसावा को केरल पहुंचाया। वह व्यापार के चलते यूरोप के कई लोगों से मिलते-जुलते रहते थे। उनके जरिए उन्हें इसका पता चला।

कहा जाता है कि तब उनकी प्रजा इसके बारे में ज्यादा जानती नहीं थी। इसलिए वह कसावा को खाने से डरती थी। ऐसे में लोगों में विश्वास जगाने के लिए उन्होंने इसे पकाने को कहा और खुद जनता के बीच बैठकर खाया। मलयालम भाषा में इसे ‘कप्पा’ कहा जाता है।

कुछ इतिहासकार कहते हैं कि महाराजा विशाखम थिरुनल वनस्पतिशास्त्री भी थे। कसावा केवल राजघराने के लोगों के लिए उगाया जाता था। यह ब्राजील से आयात किया गया। यह 1880 की बात है।

दूसरे विश्वयुद्ध में चावल की कमी हुई तो लोग खाने लगे साबूदाना

बात दूसरे विश्वयुद्ध की है, जब दुनिया आपस में जूझ रही थी। उस वक्त अनाज की बहुत किल्लत होने लगी थी। भारत भी ब्रिटेन का उपनिवेश था, ऐसे में युद्ध के चलते यहां भी चावल की किल्लत हो गई। इसका असर त्रावणकोर में भी काफी पड़ा।

उसी समय केरल में कप्पा ने लोगों के बीच अपनी जगह बना ली यानी लोग चावल के बदले साबूदाने से पेट भरने लगे। मशहूर जर्नलिस्ट वीके माधवनकुट्टी की किताब ‘The Village Before Time’ में भी बताया गया है कि टैपियोका (Tapioca) यानी कसावा अथवा साबूदाना उत्तर केरल में सबसे पहले पहुंचा और यहां इसने अपनी पैठ बना ली।

इटली के यात्री मार्को पोलो आए तो साबूदाना साथ लाए

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि भारत में साबूदाना मशहूर ट्रैवलर रहे मार्को पोलो और सर फ्रैंसिस ड्रेक ने पहुंचाया। वेनिस के रहने वाले व्यापारी और यात्री मार्को पोलो 1271-1295 के बीच ‘सिल्क रूट’ के जरिए यूरोप से एशिया पहुंचे थे।

ब्रिटेन के सर फ्रांसिस ड्रेक के बारे में भी यही कहा जाता है कि उन्होंने भी दुनिया की अलग-अलग जगहों पर साबूदाने को पहुंचाया। वह 1577 से 1580 के बीच दुनिया के कई मुल्कों में घूमे।

दरअसल, वह नेवी ऑफिसर और गुलाम बने अफ्रीकी लोगों को दूसरे इलाकों में पहुंचाते थे। वह प्रशांत महासागर से हिंद महासागर होते हुए वापस अटलांटिक पहुंचे थे। इसी दौरान उन्होंने साबूदाने को भारत पहुंचाया।

अब जानते हैं कि भारत में आने के बाद कैसे साबूदाने ने पहले दक्षिण में जगह बनाई और फिर यह पूरे देश में फैल गया। लेकिन उससे पहले साबूदाना क्यों है सुपरफूड ग्राफिक्स के जरिए समझें:

केरल में नमस्कार को क्या कहते हैं? - keral mein namaskaar ko kya kahate hain?

तमिलनाडु में साबूदाने की पहली फैक्ट्री लगी

अब आपको बताते हैं साबूदाने की पहली फैक्ट्री लगने का दिलचस्प किस्सा। तमिलनाडु में सेलम के मछली व्यापारी मनिक्क्कम चेट्टियार व्यापार के चलते कई बार केरल जाते थे। वहां उनकी मुलाकात मलेशिया के पेनांग से केरल में बसे पोपटलालजी शाह से हुई।

उन्हें कसावा/ टैपियोका से स्टार्च बनाने की जानकारी थी। ऐसे में पोपटलालजी शाह के बिजनेस आइडिया पर इन दोनों ने मिलकर सेलम में फैक्ट्री खोली और कसावा से स्टार्च को अलग कर साबूदाना बनाना शुरू किया। इस तरह सेलम में कसावा के पेड़ की जड़ों से साबूदाना बनाने की पहली फैक्ट्री 1943 में लगी।

1944 में जब देश में अकाल पड़ा तो सेलम के कलेक्टर ने साबूदाने को बाहर बेचने पर रोक लगा दी। लेकिन कसावा उगाने वाले किसानों के विरोध करने पर कलेक्टर ने इस आदेश को रद्द कर दिया। 1945 में इसकी पैदावार इतनी बढ़ी कि यह पूरे भारत में पहुंच गया।

ये तो रही अपने देश की बात, अब जरा पड़ोस के चीन में चलते हैं, जहां साबूदाना हिट हो गया। लेकिन उससे पहले ग्राफिक्स में देखिए साबूदाना किस राज्य में कौन से रूप में खाया जाता है:

केरल में नमस्कार को क्या कहते हैं? - keral mein namaskaar ko kya kahate hain?

चीन में गेहूं के बदले खाया जाता था साबूदाना

वैसे तो चीन का सबसे पसंदीदा अनाज चावल है और यह धान उत्पादन में सबसे आगे भी है। लेकिन यहां पर साबूदाने के स्वाद को भी खूब पसंद किया। चीन के एक राजवंश बोनीक के शासन में लोग गेहूं की जगह शा-हू यानी साबूदाने को अनाज के रूप में खाते थे। यह बात चीन के सागो राजवंश के दौरान हुए इतिहासकार झाओ रुकुओ ( Zhao Rukuo) (1170-1231) ने भी अपनी किताब Zhu Fan Zhi (1225) में लिखी है।

यही नहीं, चीन के दक्षिणी तट के पास हुई खुदाई में कुछ औजार भी मिले हैं, जिन पर साबूदाने के अंश पाए गए। माना जाता है कि 5 हजार साल पहले भी चीनियों के खानपान में साबूदाना शामिल था। इसे PLOS ONE नाम के ऑनलाइन जर्नल में छपी चीन के एक रिसर्च में बताया गया है।

अब समझते हैं कि हमारे देश में व्रत या उपवास में कैसे शामिल हुआ साबूदाना। पर उससे पहले क्यों खास है साबूदाना , यह ग्राफिक्स से जानें:

केरल में नमस्कार को क्या कहते हैं? - keral mein namaskaar ko kya kahate hain?

19वीं सदी के बाद उत्तर-पश्चिम भारत से हुई व्रत में खाने की शुरुआत

साबूदाने की खेती गेहूं-धान या दालों की तरह हर जगह नहीं होती। इसे तैयार करने का तरीका मुश्किल भी है और यह आम अनाजों से महंगा भी है। इसलिए इसे खास मौकों पर ही खाया जाता है।

प्रोफेसर अमरजीव लोचन बताते हैं, ‘व्रत और त्योहारों में साबूदाना कब शामिल हुआ, इसका कोई ठीक-ठीक प्रमाण तो मौजूद नहीं है। लेकिन मेरी रिसर्च कहती है कि इसे 19वीं शताब्दी के बाद उत्तर पश्चिम भारत में व्रत में खाया जाने लगा। चूंकि साबूदाना शाकाहारी है और यह जल्दी पच भी जाता है तो लोग इसे व्रत में खाने लगे।’

वैसे तो साबूदाना का नाम आते ही मशहूर कार्टूनिस्ट प्राण के बनाए ‘चाचा चौधरी’ और उनके साथी ‘साबू’ के किस्से जेहन में उभर आते हैं। जहां चाचा चौधरी का दिमाग कंप्यूटर से भी तेज चलता था तो साबू के गुस्सा होने पर जूपिटर ग्रह पर ज्वालामुखी फट पड़ता था। मगर, यहां हम तो बात साबूदाने के नामकरण संस्कार की कर रहे हैं।

केरल में नमस्कार को क्या कहते हैं? - keral mein namaskaar ko kya kahate hain?

1971 में हिंदी मैगजीन 'लोटपोट' में पहली बार ‘चाचा चौधरी’ कॉमिक कॉलम में छपा।

अब साबूदाना भारत आए और बिना नामकरण के रह जाए तो ऐसा नहीं हो सकता। भले ही उसे दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में शा-हू, सागो, कसावा, टैपियोका और सागू कहा जाता रहा हो, मगर यहां तो उसे साबूदाना ही कहा गया।

प्रोफेसर अमरजीव लोचन भी कहते हैं कि साबूदाने के कई नाम हैं। सागो सबसे मशहूर नाम है। सागो से साबू बना। चूंकि पहले के जमाने में हमारे देश में इसे हाथों से छोटे-छोटे गोल आकार में बनाया जाता था इसलिए इसका नाम साबूदाना पड़ गया।

ये तो रही साबूदाने के भारत आने और उसके नामरकण की बात, अब जरा इसके फायदों के बारे में भी जान लेते हैं।

40 की उम्र के बाद हर महिला को खाना चाहिए साबूदाना

साबूदाना पीरियड्स में बहुत फायदा करता है। अगर किसी को ज्यादा ब्लीडिंग होती हो तो उन्हें इसे खाना चाहिए। यह एस्ट्रोजन के लेवल को बैलेंस करता है जिससे महिला को मां बनने में दिक्कत नहीं आती।

वहीं अगर उनके शरीर में टेस्टोस्टेरोन का लेवल बढ़ जाए तो साबूदाना उसे भी कम करता है। दरअसल महिलाओं की ओवरी से कम मात्रा में पुरुषों में पाया जाने वाला टेस्टोस्टेरोन नाम का हॉर्मोन भी निकलता है।

वैसे भी 40 की उम्र के बाद हर महिला को साबूदाना खाना चाहिए। मेनोपॉज के दौरान कई बार महिलाओं को हॉट फ्लैश की समस्या होने लगती है। उन्हें चेहरे, गले और छाती पर गर्मी लगती है और हद से ज्यादा पसीना आता है। इस स्थिति में साबूदाना मददगार साबित होता है।

वहीं, पुरुषों को अक्सर हाई ब्लड प्रेशर की दिक्कत रहती है। साबूदाने में मौजूद पोटैशियम ब्लड प्रेशर को कम करता है।

साबूदाना गर्भ में पल रहे बच्चे को भी देता है ताकत

गर्भवती महिलाओं को साबूदाने की खिचड़ी या खीर जरूर खानी चाहिए। दरअसल, इसमें फोलेट और विटामिन बी-6 होता है जो गर्भ में पल रहे भ्रूण के विकास के लिए फायदेमंद होता है।

कभी-कभी कुछ कारणों से प्रेग्नेंसी के 5वें महीने में न्यूरल ट्यूब असामान्य तरीके से विकसित होने लगती है। इसे न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट कहते हैं। न्यूरल ट्यूब से गर्भ में शिशु का दिमाग, रीढ़ की हड्‌डी और नसें विकसित होती हैं। साबूदाना खाने से इस बीमारी से शिशु का बचाव होता है।

भारत में साबूदाने की खिचड़ी, पापड़, खीर तो कई देशों में बनता है ब्रेड और केक

भारत में भले ही कसावा यानी साबूदाने की खिचड़ी, पापड़, खीर बनाई जाती हो लेकिन दुनिया के कई देशों में इसका इस्तेमाल ब्रेड, फ्रेंच फ्राइज, केक, चिप्स, सॉस, मिठाई जैसी खाने की चीजों में हो रहा है।

आगे बढ़ने से पहले साबूदाने के और फायदे ग्राफिक्स में पढ़ें:

केरल में नमस्कार को क्या कहते हैं? - keral mein namaskaar ko kya kahate hain?

ये तो बात हो गई सेहत की, अब बात करते हैं कुछ सावधानियों की-

साबूदाना खाने से हो चुकी हैं कई मौत

साबूदाना खाने से कई लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। इसमें मौजूद साइनाइड से कई लोगों को फूड पॉइजनिंग हो चुकी है। सिंतबर 2017 में कसावा के आटे से बने खाने से यूगांडा में 98 लोग बीमार पड़ गए थे, जिनमें से 2 की जान चली गई।

मार्च 2005 में फिलीपींस के एक स्कूल में कसावा से बनी मिठाई खाने से 27 बच्चों की मौत हो गई।

साबूदाने में मौजूद साइनाइड शरीर में चला जाए तो बच्चों के पैरों पर लकवा मार सकता है

मेडिकल न्यूज टुडे में छपी रिपोर्ट के अनुसार वैज्ञानिक मानते हैं कि कसावा आंतों में मौजूद अच्छे बैक्टीरिया को बढ़ाता है। लेकिन साथ ही माना कि अगर इसमें मौजूद साइनाइड शरीर में चला जाए तो बच्चों के पैरों पर लकवा मार सकता है। इससे थाइरॉयड का रिस्क बढ़ जाता है, आयोडीन कम होने लगता है और नसें डैमेज होने लगती हैं।

तो क्या है साबूदाने में वो जहरीला केमिकल, जो पहुंचाता है नुकसान, इसे जान लेते हैं। लेकिन आगे बढ़ने से पहले, किन लोगों को नहीं खाना चाहिए साबूदाना, ग्राफिक्स में पढ़िए:

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साबूदाने में साइनाइड, पकाकर ही हमेशा खाएं

साबूदाने में Cyanogenic Glycosides नाम का जहरीला केमिकल भी होता है जो असल में साइनाइड जहर ही है। अगर इसे बिना धोए या अधपका खाया जाए तो इससे थाइराॅयड, उल्टी, लकवा और यहां तक कि मौत भी हो सकती है।

सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (CDC) के अनुसार कसावा को हमेशा 4 से 6 दिनों तक पानी में भिगोकर ही खाना चाहिए। वहीं, साबूदाना को पकाने से 1 रात पहले भिगोकर रखना चाहिए। इसे पूरी तरह पकने के बाद ही खाना चाहिए।

अब तक आपने फुरसत से साबूदाने का इतिहास, भूगोल, खाने-पकाने का सलीका, उसका नफा-नुकसान जाना, अब व्रत में खाए जाने वाले सामक के चावल और चौलाई की कहानी झटपट जान लेते हैं।

साबूदाने के बाद व्रत में सबसे ज्यादा सामक के चावल खाए जाते हैं? क्या ये वाकई चावल हैं या कुछ और? यह आपको आगे बताएंगे लेकिन पहले जानते हैं कि साबूदाना खाने के अलावा किन-किन चीजों में इस्तेमाल होता है:

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4 हजार साल पहले जापान में उगाया गया सामक

सामक के चावल को अंग्रेजी में बर्नयार्ड मिलेट (Barnyard Millet) कहा जाता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि भले ही इसे चावल कहते हों, लेकिन यह चावल नहीं, असल में बीज होते हैं। इसे फलाहार माना जाता है इसलिए इसे व्रत में खाया जाता है।

यह Echinochloa Colona नाम की जंगली घास होती है। इसके ऊपर बीज फलते हैं जिसे निकालकर सामक के चावल बनाए जाते हैं।

इसमें चावल की ही क्वॉलिटी होती है जिससे तुरंत एनर्जी मिलती है। यह ग्लूटेन फ्री होता है जिसमें फाइबर, कैल्शियम, प्रोटीन, पोटैशियम, आयरन, मैग्नीशियम अच्छी मात्रा होती है।

1983 में प्रसादा राव केई और मेन्गेशा एमएच के लिखे लेख के अनुसार 4 हजार साल पहले इसे जापान में उगाया गया। प्राचीन काल में भारत, चीन और कोरिया में भी इसके उगाने के सबूत मिले। भारत में इसकी खेती तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में की जाती है।

व्रत में चौलाई के लड्डू तो जरूर खाते होंगे। कभी सोचा कि चौलाई आई कहां से? लेकिन उससे पहले ग्राफिक्स से जानें इसके फायदे और नुकसान:

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दक्षिण अमेरिका के एक छोटे से देश में मिली थी चौलाई

चौलाई जिसे रामदाना भी कहा जाता है, इसकी दुनियाभर में 60 से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। यह हरी पत्तेदार सब्जी होती है जिसका साग भी बनाया जाता है। चौलाई को अंग्रेजी में Amaranth कहते हैं। यह 8 हजार साल पहले उत्तरी अर्जेंटीना में नूतनतम युग के पुरातात्विक स्थलों में पाई गई।

6000 साल पहले मेक्सिको की तेहुआकान पुएब्ला (Tehuacan Puebla) गुफा में भी चौलाई मिली।

भारत की बात की जाए तो चौलाई 2000 साल पहले उत्तर प्रदेश में पहुंची। इतिहासकार मानते हैं कि प्राचीन काल में व्यापारियों के जरिए यह अमेरिका से एशिया पहुंची होगी।

चौलाई भी ग्लूटन फ्री होती है। इसमें प्रोटीन, फाइबर, आयरन, विटामिन बी अच्छी मात्रा में होता है। ग्वाटेमाला में शोधकर्ताओं ने पाया कि चौलाई पौधे से मिलने वाला सबसे अच्छा प्रोटीन है। यह दांतों के रोग, थायरॉयड, स्किन प्रॉब्लम, घाव को सुखाने और ब्लड से जुड़ी दिक्कतों को दूर करता है। इसका इस्तेमाल औषधि के रूप में भी होता है।

आपने व्रत के तीनों सुपरफूड की कथा सुनी, अब खाने का मन कर रहा होगा। ऐसे में फुरसत से इनकी खिचड़ी, लड्‌डू या पापड़ खा लीजिए।

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ग्राफिक्स: सत्यम परिडा

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केरल में क्या बोलते हैं?

केरल की भाषा मलयालम है जो द्रविड़ परिवार की भाषाओं में एक है। मलयालम भाषा के उद्गम के बारे में अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए हैं

केरल के लोगों का पहनावा क्या है?

मुंडू (मलयालम: മുണ്ട് उच्चारण [muɳɖɨ]) केरल, तुलुनुडू क्षेत्र और मालदीव द्वीपसमूह में कमर के चारों ओर पहने हुए वस्त्र हैं। यह धोती, सरंग और लुंगी से निकटता से संबंधित है। दक्षिण कानारा, कर्नाटक राज्य के एक जिले में, तुलु बोलने वाले लोक और बेरी समुदाय भी मुंडू पहनते हैं।

केरल का प्राचीन नाम क्या है?

प्राचीन विदेशी यायावरों ने इस स्थल को 'मलबार' नाम से भी सम्बोधित किया है। काफी लबे अरसे तक यह भूभाग चेरा राजाओं के अधीन था एवं इस कारण भी चेरलम (चेरा का राज्य) और फिर केरलम नाम पड़ा होगा। केरल की संस्कृति हज़ारों साल पुरानी है।

क्या केरल में हिंदी पढ़ाई जाती है?

सच तो यह है कि केरल में स्कूलों में दसवीं कक्षा तक हिन्दी पढ़ाई जाती है.