Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions Show कबीर के पद पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. जाके गुरु अंधरा, चेला खरा निरंध, असद् अविवेकी बनावटी गुरु सद्ग्रन्थों का केवल उच्चारण करते हैं, वाचन करते-कराते हैं, ग्रन्थों में विहित, निहित तथ्यों को अपने आचरण में उतारते और उतरवाते नहीं हैं। अपरिपक्व ज्ञान और उससे उत्पन्न अभिमान को अपनी आजीविका बना लेते हैं। समय रहते ये चेत नहीं पाते और अन्त में जब आत्मोद्धार के लिए समय नहीं बच पाता, तब ये बेचैन हो जाते हैं। किन्तु अब इनके पास पछतावे के अलावा कुछ बचता ही नहीं है। प्रश्न 4. दो सम्प्रदायों के बीच का सौहार्द्र वैमनस्य में बदल जाता है। हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं और लड़कर कट मर जाते हैं। यदि उन्हें परम तत्त्व का, परम सत्य का, मूल-मर्म का ज्ञान होता तो पूरब-पश्चिम, मंदिर-मस्जिद, पूजा-रोजा, राम-रहीम में भेद नहीं करते। एक-दूसरे के लिए प्राणोत्सर्ग करते न कि एक-दूसरे के खून के प्यासे होते। प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. इस रहस्यवाद में कवि स्वयं को स्त्री या पुरुष मानकर ईश्वर, आराध्य या परम ब्रह्म के साथ अपने विभिन्न क्रिया व्यापारों, क्षणों और उपलब्धियों का अत्यंत प्रांजल, भाव प्रवण वर्णन करती है। सूफी संत की जहाँ आत्मा पुरुष और परमात्मा को नारी रूप में चित्रित करते हैं, वहाँ कबीर आदि संत कवियों ने स्वयं को नारी, प्रिया, प्रेयसी आदि के रूप में प्रस्तुत करते हुए परमब्रह्म, ईश्वर, . साईं, सद्गुरु, कर्त्तार आदि के साथ अपने रभस प्रसंग का स्नेहिल, क्षणों का निष्कलुष और प्रांजल वर्णन किया है। कबीर की भक्ति भाव रहस्यवाद, प्रगल्भ इन्द्रिक बिम्बों प्रतीकों से पूर्ण है किन्तु शृंगारिक रचनाओं की तरह कामोद्दीपक नहीं है, जुगुप्सक नहीं है। “मेरी चुनरी में लग गये दाग” लिखकर भी कबीर का रहस्यवाद पुरइन के पत्र पर पानी की बून्द की तरह निर्लिप्त है, शीलगुण सम्पन्न है। प्रश्न 9. प्रश्न 10. तथाकथित नेमी द्वारा (नियमों का कठोरता से अनुपालन करने वाले) प्रात:काल प्रत्येक ऋतु और अवस्था में स्नान करना, पाहन (पत्थर) की पूजा करना, आसन मारकर बैठना और समाधि लगाना पितरों (पितृ) की पूजा, तीर्थाटन करना, विशेष प्रकार की टोपी, पगड़ी को धारण करना, तरह-तरह के पदार्थों की माला (तुलसी, चन्दन, रुद्राक्ष और पत्थरों की मालाएँ) माथे पर विभिन्न रंगों और रूपों में, गले में कानों के आस-पास बाहुओं पर तिलक-छापा लगाना ये सभी बाह्याडम्बर है। इनका विरोध मुखर स्वर में कबीर ने किया है। प्रश्न 11. कबीर ने स्वयं (आत्मा) को पहचानने पर बल देते हुए कहा है कि यही ईश्वर का स्वरूप है। आत्मा का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। प्रश्न 12. वेद-पुराण, कुरान, हदीश लगभग सभी धार्मिक ग्रंथों पर ईश्वर के स्वरूप, उसके प्रभाव और सर्वव्यापी सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान होने की बात कही गयी है। जीव और ब्रह्म में द्वैत नहीं अद्वैत का सम्बन्ध है यह भी कथित है। किन्तु द्विधा और द्वैत भाव की प्रबलता के कारण हम हिन्दू-मुसलमान लड़ते आ रहे हैं। कबीर ने स्पष्ट कहा “एकै चाम एकै मल मूदा-काको कहिए ब्राह्मण शूद्रा।” हमें इस मर्म पर ध्यान देना है कि हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं। हमारी उत्पत्ति समान रूप से हुई है। पालन समान हवा, पानी, अन्नादि से होता है और मृत्यु की प्रक्रिया भी परम सत्ता द्वारा नियत और नियंत्रित है। परोपकार करके हम ईश्वर के सन्निकट होते हैं। पाप करके बाह्योपचार के पचड़े में पड़कर हम ईश्वर से दूर होकर अपना इहलोक के साथ परलोक भी कष्टमय कर लेते हैं। सदाचरण निष्काम सेवा ही ईश्वरोपासना का मूल मर्म है। मानवता की निष्काम सेवा से बढ़कर इस अनित्य संसार में कुछ भी नहीं है। प्रश्न 13. कबीर कहते हैं ईश्वर का निवास न तो मंदिर में है, न मस्जिद में, न किसी क्रिया-कर्म में है और न योग-साधना में। उन्होंने कहा है कि बाह्याडंबरों से दूर रहकर स्वयं (आत्मा) को पहचानना चाहिए। यही ईश्वर है। आत्म-तत्व के ज्ञानी व्यक्ति ईश्वर को सहज से भी सहज रूप में प्राप्त कर सकता है। कबीर का तात्पर्य है कि ईश्वर हर साँस में समाया हुआ है। उन्हें पल भर की तालाश में ही पाया जा सकता है। प्रश्न 14. कबीर ने इन बाह्याडम्बरों के ‘भर्म’ को भुलाकर स्वयं (आत्मा) को पहचानने की सलाह देते हुए कहा है कि आत्मा का ज्ञान की सच्चा ज्ञान है। ईश्वर हर साँस में समाया हुआ है अर्थात् सच्ची अनुभूति और आत्म-साक्षात्कार के बल पर ईश्वर को पल भर की तलाश में ही पाया जा सकता है। कबीर के पद भाषा की बात प्रश्न 1.
प्रश्न 2. पीर-धर्मगुरु; औलिया-संत; कितेब-किताब, पुस्तक; कुरान-इस्लाम धर्म का पवित्र ग्रंथ; मुरीद-शिष्य, चेला, अनुयायी; तदबीर-उपाय, उद्योग, कर्मवीरता; खवरि-सूचना, ज्ञान; तुर्क-इस्लाम धर्म के अनुयायी, तुर्की देश के निवासी; रहिमाना-रहमान-रहम दया करने वाला अल्ला। प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. हालांकि उन्होंने स्पष्ट कहा है “मेरी बोली पूरबी” लेकिन भोजपुरी राजस्थानी, पंजाबी, अवधी, ब्रजभाषा आदिनेक तत्कालीन प्रचलित बोलियों और भाषाओं के शब्द ही नहीं नवागत इस्लाम की भाषा अरबी, उर्दू, फारसी के शब्दों की शैलियों का उपयोग किया है। रहस्यवादी संध्याभाषा उलटबाँसी, योग की पारिभाषिक शब्दावली के साथ ही सरल वोधगम्य शब्दों के कुशल प्रयोक्ता हैं। “जल में रहत कुमुदनी चन्दा बसै आकास, जो जाहि को भावता सो ताहि के पास” कहने वाले कबीर “आँषि डिया झाँई पड्या जीभड्या छाल्या पाड्या” भी कहते हैं। ये आँखियाँ अलसानि पिया हो सेज चलो “कहने वाले कबीर” कुत्ते को ले गयी बिलाई ठाढ़ा सिंह चरावै गाई”। भी कहते हैं। कबीर के सामने भाषा सचमुच निरीह हो जाती है। प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर। कबीर के पद लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. कबीर के पद अति लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 5. इन्हें अपने ज्ञान, महिमा तथा गुरुत्व का अभिमान रहता है लेकिन वास्तव में ये आत्मज्ञान से रहित मूर्ख, ठग और अभिमानी होते हैं। प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. कबीर के पद वस्तनिष्ठ प्रश्नोत्तर सही उत्तर सांकेतिक चिह्न (क, ख, ग या घ) लिखें। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. कबीर के पद कवि परिचय – (1399-1518) कबीर का जन्मकाल भी निश्चित प्रमाण के अभाव में विवादास्पद रहा है। फिर भी, बहुत से विद्वानों द्वारा सन् 1399 ई० को उनका जन्म और सन् 1518 ई० को उनका शरीर त्याग मा लिया गया है। इस तरह कुल एक सौ बीस वर्षों की लम्बी आयु तक जीवित रहने का सौभाग्य संत कवि कबीर को मिला था। जीवन रूपी लम्बी चादर को इन्होंने इतने लम्बे काल तक ओढा, जीया और अंत में गर्व के साथ कहा भी कि “सो चादर सुन नर मुनि ओढ़ी-ओढ़ी के मैली कीन्हीं चदरिया। दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों की त्यों धरि दीनि चदरिया।” हिन्दी साहित्य के स्वर्णयुग भक्तिकाल के पहले भक्त कवि कबीरदास थे। भक्ति को जन-जन तक काव्य रूप में पहुँचा कर उससे सामाजिक चेतना को जोड़ने का काम भक्तिकालीन भक्त कवियों ने किया। ऐसा भक्त कवियों में पहला ही नहीं सबसे महत्वपूर्ण नाम भी कबीर का ही माना जाता है। कहा जाता है कि एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से जन्म लेने के बाद लोक-लाज के भय से माता द्वारा परित्यक्त नवजात शिशु कबीर बनारस के लहरतारा तालाब के किनारे नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पति द्वारा पाये और पुत्रवत पाले गये। कबीर रामानन्दाचार्य के ही शिष्य माने जाते हैं पर गुरु मंत्र के रूप में प्राप्त राम नाम को उन्होंने सर्वथा निर्गुण रूप में स्वीकार और अंगीकार किया। अनजाने सिद्ध और नाथ-साहित्य से भी गहरे तक प्रभावित रहे। विशेष पंथ या मठ-मंदिर के आजन्म विरोधी रहे। कहा जाता है कि उनको कमाल नामक पुत्र और कमाली नामक एक पुत्री भी थी। सिकंदर लोदी जैसे कट्टर मुसलमान शासक के काल में भी ऐसी धर्म निरपेक्ष ही नहीं कट्टरता-विरोधी उक्तियाँ कबीर से ही संभव थीं। शायद उसके अत्याचार का वे शिकार हुए भी थे। मृत्युकाल में उन्होंने मगहर की यात्रा की थी। कबीर के पद कविता का भावार्थ प्रथम पद महान् निर्गुण संत, परम्परा, भंजक, एकेश्वरवादी चिंतक कवि, कबीर संतों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे संतो ! देखो यह संसार बौरा गया है, पागल हो गया है। इसकी विवेक . बुद्धि नष्ट हो गयी है। जब भी मैं इन सांसारिक जीवों को सत्य के बारे में बताना चाहता हूँ। ये मुझे उल्टा-सीधा कहते हैं, मुझे मारने दौड़ते हैं और जो कुछ इनके इर्द-गिर्द माया प्रपंच है उसे ये सत्य मान बैठे हैं। मुझे ऐसे अनेक नियम-धर्म के कठोर पालक दिखे जो हर मौसम में शरीर को कष्ट देकर स्नान करते हैं, आत्म ज्ञान से शून्य होकर पत्थर के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। अनेक पीर (धर्म गुरु) और औलिया (संत) मिले जो कुरान जैसे ग्रंथ की गलत तथ्यहीन व्याख्या अपने शिष्यों को समझा कर उनको भटका चुके हैं। उन्हें अपने पीर औलिया होने का घमंड हो गया है। पितृ (मरे हुए पूर्वज) की सेवा पत्थरों की मूर्ति पूजा और तीर्थटन करने वाले धार्मिक अहंकारी हो चले हैं। स्वयं को संत, महात्मा धार्मिक दर्शन के लिए टोपी, माला, तिलक-छाप धारण किये हुए हैं और अपनी स्वाभाविक स्थिति भूल चुके हैं। सचमुच के महान् वीतरागी संतों द्वारा रचित साखी सबद आदि गाते घुमते चलते हैं। इस संसार के प्राणी अपने को हिन्दू-मुस्लिम में बाँट चुके हैं। एक को राम प्यारा है तो दूसरे को रहमान प्यारे हैं। छोटी-छोटी बातों पर ये एक-दूसरे के रक्त के प्यासे हो लड़-मर पड़ते हैं? लेकिन अभिमान अहंकार के वशीभूत हो ये घर-घर बाह्याचरण का आडम्बर युक्त पूजा, कर्मकाण्ड का मंत्र देते चलते हैं। मुझे तो लगता है कि ये तथाकथित गुरु अपने शिष्यों सहित माया के सागर में डूब चुके हैं। अन्त में इन्हें पछताना ही पड़ेगा। ये हिन्दू-मुसलमान, पीर औलिया सभी ईश्वर-धर्म के मूल तत्त्व और मर्म को भूल चुके हैं। कई बार इनकी मैंने समझाकर कहा कि ईश्वर को कर्मकाण्ड बाह्यचार से नहीं बल्कि सहज जीवन-यापन की पद्धति से ही प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि परमब्रह्म ईश्वर अल्ला अत्यंत सहज और सरल हैं। प्रस्तुत पद में कबीर ने अपने समय के साम्प्रदायिक तनावग्रस्त माहौल का भी वर्णन किया है। पद में अनायास रूप से अनुप्रास, वीप्सा. आदि अलंकार आये हैं। पद शांत रस का अनूठा उदाहरण है। द्वितीय पद साधना के क्षेत्र के सहज सिद्ध हठयोगी, भावना के क्षेत्र में आकर कितना कोमल प्राण, भावुक, भाव विह्वल, विदग्ध हृदय हो सकता है, यह विरोधाभास कबीर में उपलब्ध हो सकता है। चिर विरहिणी कबीर आत्मा विरह विदग्ध अवस्था की चरम स्थिति में चीत्कार करती हुई कहती है कि हे बलिया (बाल्हा) प्रियतम तुझे कब देवूगी तेरा प्रेम मेरे भीतर इस तरह से व्याप्त हो गया है कि दिन-रात तुम्हारे दर्शन की आतूरता आकुलता बनी रहती है। मेरी आँखें केवल तुमको देखना चाहती हैं, ये लगातार खुली रहती हैं कि तुम्हारे दीदार से वंचित न हो जाएँ। हे मेरे भर्तार (स्वामी) तुम भी इतना सोच विचार लो कि तुम्हारे बिना शरीर में जो विरहाग्नि उत्पन्न हुई है वह शरीर को कैसे जलाती होगी। मेरी गुहार सुनो, बहरा मत बन जाओ मैं जानती हूँ कि तुम धीरता की प्रतिमूर्ति हो, शाश्वत हो लेकिन मेरी शरीर कच्चा कुम्भ है और उसने प्राण रूपी नीर है। घड़ा कभी भी फूट सकता है, मृत्यु कभी भी हो सकती है। तुमसे बिछड़े हुए भी बहुत दिन हो गये, अब मन को किसी भी प्रकार से धीरता प्राप्त नहीं हो पाती। जब तक यह शरीर है, मेरे दु:ख का नाश करने वाले तुम एक बार मुझे अपना “दरस-परस” करा दो। मैं अतृप्ति को साथ लिये मरना नहीं चाहती। तुमसे मैंने प्रेम किया है, विरह भी भोंग रही हूँ किन्तु यदि हमारा मिलन नहीं हुआ, प्रेम का सुखान्त नहीं हुआ तो यह तुम्हारे जैसे सर्वशक्तिमान आर्तिनाशक के विरुद्ध के विरुद्ध बात होगी। प्रस्तुत पद में कबीर ने भारतीय रहस्यवाद का सुन्दर वर्णन किया है। जहाँ जीवात्मा और परमात्मा का सम्बन्ध प्रेमी और प्रेमास्पद के रूप में चित्रित है। रूपक और अनुप्रास अलंकार के उदाहरण यत्र-तत्र उपलब्ध है। सम्पूर्ण पद में शांत रस का पूर्ण परिपाक हुआ है। कबीर के पद कठिन शब्दों का अर्थ पतियाना-विश्वास करना। धावै-दौड़ना। व्यापै-अनुभव। रती-तनिक (रत्ती, रती)। नेमी-नियम का पालन करने वाला। बधीर-बहरा, जो कम सुने या न सुने। आतम-आत्मा। अगिनी-अग्नि। पखानहि-पत्थर को। दादि-विनती, स्तुति। पीर-धर्म गुरु। गुसांई-गोस्वामी, मालिक। औलिया-सन्त। जिन-मत, नहीं (निषेध सूचक)। कितेब-किताब, पुस्तक। भांडै-बर्तन। मुरीद-शिष्य, चेला, अनुयायी। छता-अक्षत, रहते हुए। तदवीर-उपाय। आरतिवंत-दुःखी। डिंभ-दंभ। रहिमाना-दयालु। पीतर-पीतल, पितर, पुरखा। महिमा-महत्त्व। मूए-मरे। बलिया-प्रियतम। अहनिस-दिन-रात। कबीर के पद काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या 1. संतो देखत जग बौराना…………नमें
कछु नहिं ज्ञाना। 2. बहुतक देखा पीर औलिया…………..उनमें उहै जो ज्ञाना। 3. आसन मारि डिंभ धरि…………….आतम खबरि न जाना। 4. हिन्दु कहै मोहि राम पियारा………….मरम न काहू जाना। 5. घर घर मंत्र देत…………….सहजै सहज समाना। मैंने कितनी बार लोगों को कहा है कि आत्मज्ञान ही सही ज्ञान है लेकिन ये लोग नहीं मानते हैं। ये अपने आप में समाये हुए हैं, अर्थात् स्वयं को सही तथा दूसरों को गलत माननेवाले मूर्ख हैं। यदि आप ही आप समाज का अर्थ यह करें कि कबीर ने लोगों को कहा कि अपने आप में प्रवेश करना ही सही ज्ञान है। तब यहाँ ‘आपहि आप समान’ का अर्थ होगा-‘आत्मज्ञान प्राप्त करना’ जो कबीर का प्रतिपाद्य है। 6. हो बलिया कब देखेंगी…………..न मानें हारि। मेरे नेत्र तुम्हें चाहते हैं और दिन-रात प्रतीक्षा में ताकते रहते हैं। नेत्रों की चाह इतनी प्रबल है कि ये न थकते हैं और न हार मानते हैं। अर्थात् ये नेत्र जिद्दी हैं और तुम्हारे दर्शन किये बिना हार मानकर बैठने वाले नहीं हैं। अभिप्राय यह कि जब ये नेत्र इतने जिद्दी हैं, और मन दिन-रात आतुर होते हैं तो तुम द्रवित होकर दर्शन दो और इनकी जिद पूरी कर दो। 7. “बिरह अगिनि तन……………..जिन करहू बधीर।” कबीरदास जी अपनी विरह-दशा को बतला कर चुप नहीं रह जाते हैं? वे एक वादी अर्थात् फरियादी करने वाले व्यक्ति के रूप में अपना वाद या पक्ष या पीड़ा निवेदित करते हैं और प्रार्थना. करते हैं कि तुम मेरी पुकार सुनो, बहरे की तरह अनसुनी मत करो। पंक्तियों की कथन-भगिमा की गहराई में जाने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि कबीर याचक की तरह दयनीय मुद्रा में विरह-निवेदन नहीं कर रहे हैं। उनके स्वर में विश्वास का बल है और प्रेम की वह शक्ति है जो प्रेमी पर अधिकार-बोध व्यक्त करती है। 8. तुम्हे धीरज मैं आतुर…………….आरतिवंत कबीर। मन अधीर हो रहा है तथा शरीर क्षीण हो रहा है। अपने भक्त कबीर पर कृपाकर अपने दर्शन दीजिए। आपके दर्शन से ही मेरा जीवन सफल हो सकता है। कबीरदास का मन ईश्वर से मिलने के लिए व्याकुल है। उनकी अन्तरात्मा ईश्वर के लिए आतुर है। वास्तव में, ईश्वर के दर्शन से ही कबीर का जीवन सफल हो सकता है। II कबीर ने ईश्वर के दो स्वरूप मानने वालों को क्या प्राप्त होने की बात कही है?कबीर कहते हैं कि मनुष्य ईश्वर को बाह्य आडंबरों में खोजता है। वह मंदिरों-मस्जिदों, तप, तीर्थ, तिलक, टोपी धारण करने आदि को ईश्वर प्राप्ति का माध्यम मानता है, जबकि ईश्वर उसके अंदर ही विद्यमान है।
कबीर के अनुसार ईश्वर को कहाँ प्राप्त किया जा सकता है?प्रत्येक जीव की साँसों में ईश्वर घर-घट वासी है। Question 3. कबीर ने संत के क्या लक्षण बताए हैं।
ईश्वर के स्वरूप के बारे में कबीर ने क्या कहा है?उत्तर:- कबीर की दृष्टि में ईश्वर का स्वरूप अविनाशी है। कबीर दास के कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार लकड़ी में अग्नि निवास करती है ठीक उसी प्रकार परमात्मा सभी जीवों के ह्रदय में आत्मा स्वरुप में व्याप्त है। ईश्वर सर्वव्यापक, अजर-अमर और अविनाशी है।
कबीर ने ईश्वर को किसका रूप माना है answer?Answer: कबीर निर्गुण संत परंपरा के कवि हैं। वे ईश्वर के मूर्ति रूप को नहीं मानते हैं परन्तु सांसारिक संबंधों को अवश्य मानते हैं।
|