हठयोग में जब इड़ा और पिंगल नाड़ी, वाम और दक्षिण स्वर जब एक समान चलने लगें तो सुषुम्ना का जागरण होता है। जब सुषुम्ना निरन्तर चलने लगती है तो शरीर में सूक्ष्म रूप में विद्यमान कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है। जब कुण्डलिनी छरूचक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार में जाकर परमशिव से मिलती हैं तो आध्यात्मिक अर्थों में यही हठयोग का तात्पर्य है। Show
शरीर में विद्यमान पॉच प्राण प्राव, अपान, व्यान, समान, उदान, है। प्राण ह्दय में, तथा गुहय प्रदेश में निवास करती है। प्राण तथा अपान का समान में मिल जाना ही हठयोग है। हठयोग का अर्थसामान्य रूप से हठयोग का अर्थ व्यक्ति जिदपूर्वक हठपूर्वक किए जाने वाले अभ्यास से लेता है अर्थात किसी अभ्यास को जबरदस्ती करने के अर्थ में हठयोग जिदपूर्वक जबरदस्ती की जाने वाली क्रिया है। हठयोग शब्द पर अगर विचार करें तो दो शब्द हमारे सामने आते है ह और ठ। ह का अर्थ है- हकार अर्थात सूर्य नाडी।(पिंगला) हठयोग के इसी हकार तथा ठकार शब्द को संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ ने भी स्वीकार किया है। भलई हठयोग के परिपेक्ष्य में यह अवश्य प्रतीत होता है कि हठपूर्वक (जिदपूर्वक) की जाने वाली क्रिया हठयोग है। परन्तु स्पष्ट है कि हठयोग की क्रिया एक उचित तथा श्रेष्ठ मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरीत अगर व्यक्ति मार्गदर्शन पुस्तकों में पढकर करता है तो इस साधना के के विपरित तथा नकारात्मक परिणाम होते है। यह सच है कि हठयोग की कुछ क्रियाये कठिन अवश्य कही जा सकती है। इन्हें करने के लिए निरन्तरता और –ढता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने के लिए अपने को तैयार नहीं करता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी, जिज्ञासु और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है। हठयोग की परिभाषाअब हम हठयोग की विविध परिभाषाओं का अध्ययन करेंगे। विविध ग्रन्थों में हठयोग को इस प्रकार परिभाषित किया है। योगशिखोपनिषद में भी हकार को सूर्य तथा ठकार को चन्द्र मानकर सूर्य और चन्द्र के संयोग को हठयोग कहा गया है। हकारेण तु सूर्य स्याकत् सकारेणेन्दुदरूच्यकते। योगशिखोपनिषद में योग की परिभाषा देते हुए कहा है कि अपान व प्राण, रज व रेतस सूर्य व चन्द्र तथा जीवात्मा व परमात्मा का मिलन योग है। यह परिभाषा भी हठयोग की सूर्य व चन्द्र के मिलन की स्थिति को प्रकट करती है - योSपानप्राणयोरैक्यं स्वरजो रेतसोस्तथा।। ह (सूर्य) का अर्थ सूर्य स्वर, दायाँ स्वर, पिंगला स्वर अथवा यमुना तथा ठ (चन्द्र) का अर्थ चन्द्र स्वर, बाँया स्वर, इडा स्वर अथवा गंगा लिया जाता है। दोनों के संयोग से अग्नि स्वर, मध्य स्वर, सुषुम्ना स्वर अथवा सरस्वती स्वर चलता है, जिसके कारण ब्रह्मनाड़ी में प्राण का संचरण होने लगता है। इसी ब्रह्मनाड़ी के निचले सिरे के पास कुण्डलिनी शक्ति सुप्तावस्था में स्थित है। जब साधक प्राणायाम करता है तो प्राण के आघात से सुप्त कुण्डलिनी जाग्रत होती है तथा ब्रह्मनाड़ी में गमन कर जाती है जिससे साधक में अनेकानेक विशिष्टताएँ आ जाती हैं। यह प्रक्रिया इस योग पद्धति में मुख्य है। इसलिए इसे हठयोग कहा गया है। यही पद्धति आज आसन, प्राणायाम, “ाट्कर्म, मुद्रा आदि के अभ्यास के कारण सर्वाधिक लोकप्रिय हो रही है। महर्षि पतंजलि के मनोनिग्रह के साधन रूप में इस पद्धति का प्रयोग अनिवार्यत: उपयोगी बताया गया है। हठ प्रदीपिका में स्वामी स्वात्माराम ने हठयोग को परिभाषित करते हुए कहा है कि हठपूर्वक मोक्ष का भेद हठयोग से किया जा सकता है। उद्घाटयेत् कपाटं तु तथा कुचिंकया हठात। अर्थात जिस प्रकार चाभी से हठात किवाड़ को खोलते है उसी प्रकार योगी कुण्डलिनी के द्वार (हठात) मोक्ष द्वार का भेदन करते है। विविध परिभाषाओं के अवलोकन के बाद अब एक प्रश्न आपका अवश्य होगा कि हठयोग के क्या उद्देश्य है। स्वात्माराम योगी द्वारा यह घोषणा कर दी गई है कि ‘केवल राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते’ अर्थात् केवल राजयोग की साधना के लिए ही हठविद्या का उपदेश करता हूँ। हठप्रदीपिका में अन्यत्र भी कहा है कि आसन, प्राणायाम, मुद्राएँ आदि राजयोग की साधना तक पहुँचाने के लिए हैं- पीठानि कुम्भकाश्चित्रा दिव्यानि करणानि च। यह हठयोग भवताप से तप्त लोगों के लिए आश्रय स्थल के रूप में है तथा सभी योगाभ्यासियों के लिए आधार है- अशेषतापतप्तानां समाश्रयमठो हठरू इसका अभ्यास करने के पश्चात अन्य योगप्रविधियों में सहज रूप से सफलता प्राप्त की जा सकती है। कहा गया है कि यह हठविद्या गोपनीय है और प्रकट करने पर इसकी शक्ति क्षीण हो जाती है- हठविद्यां परं गोप्या योगिनां सिद्धिमिच्छताम। इसलिए इस विद्या का अभ्यास एकान्त में करना चाहिए जिससे अधिकारी- जिज्ञासु तथा साधकों के अतिरिक्त सामान्य जन इसकी क्रियाविधि को देखकर स्वयं अभ्यास करके हानिग्रस्त न हों। साथ ही अनधिकारी जन इसका उपहास न कर सकें। स्मारण रहे कि - जिस काल में हठप्रदीपिका की रचना हुई थी, वह काल योग के प्रचार-प्रसार का नहीं था। तब साधक ही योगाभ्यास करते थे। सामान्यजन योगाभ्यास को केवल ईÜवरप्राप्ति के उद्देश्य से की जाने वाली साधना के रूप में जानते थे। आज स्थिति बदल गई है। योगाभ्यास जन-जन तक पहुँच गया है तथा प्रचार-प्रसार दिनों-दिन प्रगति पर है। लोग इसकी महत्ता को समझ गए हैं तथा जीवन में ढालने के लिए प्रयत्नशील हो रहे हैं। हठयोग का उद्देश्यहठयोग के मुख्य उद्देश्य के साथ अन्य अवान्तर उद्देश्य भी कहे जा सकते हैं जैसे- स्वास्थ्य का संरक्षण, रोग से मुक्ति, सुप्त चेतना की जागृति, व्यक्तित्व विकास, जीविकोपार्जन तथा आध्यात्मिक उन्नति। इनकी विस्तृत विवेचना इस प्रकार है।
1. स्वास्थ्य का संरक्षणशरीर स्वस्थ रहे। रोगग्रस्त न हो। इसके लिए भी हम हठयौगिक अभ्यासों का आश्रय ले सकते हैं। ‘आसनेन भवेद् –ढम, ‘षट्कर्मणा शोधनम’ आदि कहकर आसनों के द्वारा मजबूत शरीर तथा षट्कर्मों के द्वारा शुद्धि करने पर दोषों के सम हो जाने से व्यक्ति सदा स्वस्थ बना रहता है। विभिन्न आसनों के अभ्यास से शरीर की मांसपेशियों को मजबूत बनाया जा सकता है तथा प्राणिक ऊर्जा के संरक्षण से जीवनी शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। शरीर में गति देने से सभी अंग-प्रत्यंग चुस्त बने रहते हैं तथा शारीरिक कार्यक्षमता में वृद्धि होती है जिससे शरीर स्वस्थ रहता है। अत: हम कह सकते है कि स्वास्थ्य संरक्षण में हठयोग का महत्वपूर्ण स्थान है। 2. रोग से मुक्तिअब इन हठयोग के अभ्यासों को रोग-निवारण के लिए भी प्रयुक्त किया जा रहा है। विभिन्न आसनों का शरीर के विभिन्न अंगों पर जो प्रभाव पड़ता है, उससे तत्सम्बन्धी रोग दूर होते हैं। जैसे मत्स्येन्द्रासन का प्रभाव पेट पर अत्यधिक पड़ता है तो उदरविकारों में लाभदायक है। जठराग्नि प्रदीप्त होने के कारण कब्ज, अपच, मन्दाग्नि आदि रोग दूर होते हैं। सी प्रकार षट्कर्मों का प्रयोग करके रोगनिवारण किया जा सकता है। जैसे धौति के द्वारा कास, श्वास, प्लीहा सम्बन्धी रोग, कुष्ठ रोग, कफदोष आदि नष्ट होते हैं। नेति के द्वारा दृष्टि तेज होती है, दिव्य दृष्टि प्रदान करती है और स्कन्ध प्रदेश से ऊपर होने वाले रोगसमूहों को शीघ्र नष्ट करती है। आधुनिक वैज्ञानिक युग में यद्यपि आयुर्विज्ञान की नई वैज्ञानिक खोज हो रही है। फिर भी अनेक रोग जैसे- मानसिक तनाव, मधुमेह, प्रमेह, उच्च रक्तचाप, निम्न रक्तचाप, साइटिका, कमरदर्द, सर्वाइकल स्पोंडोलाइटिस, आमवात, मोटापा, अर्श आदि अनेक रोगों को योगाभ्यास द्वारा दूर किया जा रहा है। 3. सुप्त चेतना की जागृतिहठयोग के अभ्यास शरीर को वश में करने का उत्तम उपाय हैं। जब शरीर स्थिर और मजबूत हो जाता है तो प्राणायाम द्वारा श्वास को नियंत्रित किया जा सकता है। प्राण नियंत्रित होने पर मूलाधार में स्थित शक्ति को ऊध्र्वगामी कर सकते हैं। प्राण के नियंत्रण से मन भी नियंत्रित हो जाता है। अत: मनोनिग्रह तथा प्राणापान-संयोग से शक्ति जाग्रत होकर ब्रह्मनाड़ी में गति कर जाती है जिससे साधक को अनेक योग्यताएँ स्वत: प्राप्त हो जाती हैं। अत: हम कह सकते है कि हठयोग के अभ्यागस से सुप्ता चेतना की जागृति होती है। 4. व्यक्तित्व विकाससाधक इन अभ्यासों को अपनाकर निज व्यक्तित्व का विकास करने में समर्थ होता है। उसमें मानवीय गुण स्वत: आ जाते हैं। शरीर गठीला, निरोग, चुस्त, कांतियुक्त तथा गुणों से पूर्ण होकर व्यक्तित्व का निर्माण करता है। ऐसे गुणों को धारण करके उसकी वाणी में मृदुता, आचरण में पवित्रता, व्यवहार में सादगी, स्नेह, आदि का समावेश हो जाता है। 5. जीविकोपार्जनदेश ही नहीं, विदेश में भी आज योगाभ्यास जीविकोपार्जन का एक सशक्त माध्यम बन गया है। देश में ही अनेक योग प्रशिक्षण केन्द्र, चिकित्सालय, विद्यालय, महाविद्यालय, विÜव विद्यालय योग के प्रचार-प्रसार में लगे हैं। रोगोपचार के लिए व्यक्तिगत रूप से लोग योग प्रशिक्षक को बुलाकर चिकित्सा ले रहे हैं तथा स्वास्थ्य-संरक्षण हेतु प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। विदेश में तो भारत से भी अधिक जागरूकता है। अत: जीविकोपार्जन के लिए भी इसे अपनाया जा रहा है। 6. आध्यात्मिक उन्नतिकुछ लोग वास्तव में जिज्ञासु हैं जो योग द्वारा साधना में सफल होकर साक्षात्कार करना चाहते हैं। उनके लिए तो योग है ही। साधक साधना के लिए आसन-प्राणायामादि का अभ्यास करके –ढ़ता तथा स्थिरता प्राप्त करके ध्यान के लिए तैयार हो जाता है। ध्यान के अभ्यास से समाधि तथा साक्षात्कार की अवस्था तक पहुँचा जा सकता है। अत: आध्यात्मिक उन्नति हेतु भी हठयोग एक साधन है। अर्थात् पूर्व में बताई गई विधि से यदि बोधिप्राप्त न हो तो हठयोग का आश्रय लेना चाहिए। राजयोग साधना का आधार होने के कारण इसे भी राजयोग के समकक्ष स्थान प्राप्त है। अतरू हम कह सकते है कि आध्यात्मिक उन्नति का राजयोग महत्वपूर्ण सौपान है। हठयोग के प्रमुख ग्रन्थों का सामान्य परिचयहठयोग के ग्रन्थों के अध्ययन से पूर्व यह आवश्यक है कि हठयोग की परम्परा कहॉं से शुरू हुई इस प्रश्न के उत्तर आपको कहानी को पढ़कर स्वत: ही आ जायेगा। एक बार भगवान शिव, मॉं पार्वती को लेकर भ्रमण पर निकले थे। भ्रमण के दौरान दोनों एक सरोवर के किनारे बैठ जाते है मॉं पार्वती की इच्छा पर भगवान शिव उन्हें हठयोग की शिक्षा देते है। भगवान शिव द्वारा दी गई यह शिक्षा सरोवर में एक मछली सुन लेती है जब भगवान शिव को इस बात का आभास होता है तो वह उस मछली को मत्स्येन्द्र नाथ बना देते है। स्वयं हठप्रदीपिका के प्रणेता स्वात्मा राम जी हठप्रदीपिका की शुरूवात करते कहते है ‘श्रीआदिनाथाय नमोSस्तुतस्मैयेनोपदिष्टार हठयोगविद्या’’ हठ0प्रदी0 1/1 अर्थात् उन सर्वशक्तिमान आदिनाथ को नमस्कार है जिन्होंने हठयोगविद्या की शिक्षा दी थी। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि भगवान शिव ही हठयोग के आदि प्रणेता है। पुन: स्वात्माराम कहते है- हठविद्या हि मत्ये्वान्द्रागोरक्षाद्या विजानते अर्थात मत्येन्द्रनाथ, गोरक्ष आदि योगी हठविद्या के मर्मज्ञ थे और उन्हीें की कृपा से योगी स्वात्माराम ने इसे जाना अब हम आपके अवलोकनार्थ हठयोग के प्रमुख ग्रन्थों का सामान्य परिचय देते है। 1. हठ प्रदीपिकाहठप्रदीपिका स्वामी स्वात्माराम द्वारा प्रतिपादित हठयोग का एक ग्रन्थ है। अगर आपने इतिहास का अध्ययन किया है तो 10वीं तथा 15वीं शताब्दी में अपने मुट्ठी भर स्वार्थ के लिए कई लोग हठयोग व राजयोग के समबन्ध में भ्रान्तियॉ फैलाते रहे। कई लोगों का मत था कि हठयोग व राजयोग दो अलग-अलग मार्ग है इन दोनों रास्तों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। इन भ्रामक तत्वों ने वेश-भूषा, इत्यादि आडम्बरों पर जोर देकर भ्रान्तियॉं फैलाई थी परन्तु इस शस्य श्यामला धरती पर जब भी विकृतियॉं पैदा हुई और अपने चरमोत्कर्ष तक पहुँची तब कोई न कोई महापुरूष का अवतरण हुआ है। स्वात्माराम नाम के इस महापुरूष ने ऐसे समय में हठप्रदीपिका नामक प्रमाणिक वैज्ञानिक पुस्तक लिखकर हठयोग के वास्तविक स्वरूप को हमारे सामने रखा। स्वात्माराम जी ने कहा केवलं राजयोगाथहठविद्योपदिश्यसते ह0प्र0 1/2 अर्थात केवल राजयोग की प्राप्ति के लिए हठयोग का उपदेश दिया जा रहा है। 2. घेरण्ड संहिता -घेरण्ड संहिता की रचना स्वात्माराम जी ने की थी, कहा जाता है कि एक राजा चण्डिकापालि महर्षि घेरण्ड की कुटी में गये और प्रणाम कर एक प्रश्न किया घटस्थ योगं योगेश तत्वाज्ञानस्य कारणम। अर्थात हे योगेश्वर, तत्व ज्ञान का कारण जो धटस्थ योग है, उसे मैं जानने का इच्छुक हूँ हे प्रभु कृपा करके उसे मेरे प्रति कहिए। महर्षि घेरण्डक कहते है - साधु-साधु महाबाहो यन्मां त्वं परिपृच्छसि अर्थात हे महाबाहों, तुम्हारे प्रश्न के लिए मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूँ। हे वत्स, तुमने जिस विषय की जिज्ञासा की है उसे मैं तुम्हारे प्रति कहता हूँ। इस प्रकार राजा चिण्कापालि प्रश्न पूछते है और महर्षि घेरण्ड उत्तर देते है। इस प्रश्न उत्तर की शैली में पूरी घेरण्ड संहिता लिखी गई है। महर्षि घेरण्ड कौन थे इस बात का किसी को पता नहीं है सर्वप्रथम प्रति 1804 की है। मालूम पड़ता है कि महर्षि घेरण्ड एक वैष्णव संत रहे होंगे उन्होंने कई श्लोकों में विष्णु की चर्चा की है। शायद ऐसा हो कि वैष्णव सन्त होने के साथ-साथ इन्होंने हठयोग को अपनाया हो। घेरण्ड संहिता को लोग सप्तांग योग के नाम से भी जानते है। 3. शिव संहिताशिव संहिता योग की एक मुख्य ग्रन्थ है, कहा जाता है कि स्वयं आदिनाथ शिव ने इसकी रचना की थी। शिव संहिता पर अनेकानेक विद्वानों ने भाषानुवाद किया है। शिव संहिता को ‘पंच प्रकरण’ भी कहा जाता है। शिव संहिता में योग की विविध विषयवस्तु का वर्णन मिलता है इनमें साधक की दिनचर्या तथा साधना पद्धति का ज्ञान व विज्ञान निहित है। नाडी ज्ञान, चक्र तथा कुण्डलिनी का इसमें वृहद वर्णन मिलता है। हठयोग का उद्देश्य क्या है?हठयोग का उद्देश्य हठयोग के मुख्य उद्देश्य के साथ अन्य अवान्तर उद्देश्य भी कहे जा सकते हैं जैसे- स्वास्थ्य का संरक्षण, रोग से मुक्ति, सुप्त चेतना की जागृति, व्यक्तित्व विकास, जीविकोपार्जन तथा आध्यात्मिक उन्नति।
हठयोग शब्द की व्याख्या और अर्थ क्या है?हठयोग की परिभाषा-
अर्थात हकार (सूर्य) तथा ठकार (चन्द्र) नाडी के योग को हठयोग कहते है। योगशिखोपनिषद के अनुसार- योगशिखोपनिषद में भी हकार को सूर्य तथा ठकार को चन्द्र मानकर सूर्य और चन्द्र के संयोग को हठयोग कहा गया है।
हठ योग में हठ का क्या अर्थ है?अर्थात् हठयोग में हठ शब्द 'ह' और 'ठ' दो अक्षरों से मिलकर बना है। इनमें हकार का अर्थ सूर्य स्वर या पिंगला नाड़ी से है और 'ठकार' का अर्थ चन्द्र स्वर या इड़ा नाड़ी से लिया गया है। इन सूर्य और चन्द्र स्वरों के मिलन को ही हठयोग कहा गया है।
हठ योग कितने प्रकार के होते हैं?हमारे शास्त्रों के अनुसार, हठ - तीन प्रकार के होते हैं -. (1) राज हठ. (2) त्रिया हठ [****]. (3) बाल हठ. [****]. त्रिया - देहाती बोलचाल में यह शब्द औरत का पर्यायवाची बनता है। ... . 😎😎 उपरोक्त इन तीनों ही प्रकार की हठों में सबसे कठिन, तो [[[ त्रिया हठ ]]] ही होती है।. |