हुन्डरू जलप्रपात की विशेषता क्या है? - hundaroo jalaprapaat kee visheshata kya hai?

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 1 (Hundru Ka Jalprapat) “ हुंडरू का जलप्रपात” के व्याख्या को जानेंंगे इस पाठ के कवि कामता प्रसाद सिंह “काम” है | प्रस्‍तुत पाठ मेंं लेखक ने छोटानागपुर के एक झरना की विशेषता को बताया है, जो प्राक़तिक द़ष्टि से एक स्‍वर्ग के टुकड़ा जैसा प्रतित होता है।

हुन्डरू जलप्रपात की विशेषता क्या है? - hundaroo jalaprapaat kee visheshata kya hai?

Hundru Ka Jalprapat

5 हुंडरू का जलप्रपात

सामान्यतः यात्रा वृतांतों में पारंपरिक रूप से महत्त्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक स्थानों का वर्णन किया जाता है। ’हंडरू का जलप्रपात’ आदिवासी संस्कृति की विशिष्टता को उभारने वाला यात्रा वृतांत है। इस दृष्टि से पाठ उल्लेखनीय है। पहाड, नदी, जंगल की सुंदरता के साथ ही, उस इलाके में आसानी से उपलब्ध अबरक और कोयला खदानों का भी वर्णन है। यानी प्रकृति के साथ हो, मनुष्य की जिजीविषा और श्रम की महत्ता का भी संयोजन है। पाठ में बहुलवादी संस्कृति (सामासिक संस्कृति) के प्रति विश्वास प्रकट किया गया है। झरने की सुंदरता और प्राकृतिक दृश्यों की विशिष्टता के उद्घाटन से पाठ रोचक बन गया है।
हुंडरू का जलप्रपात
जलप्रपात का अर्थ- ऊँचे से गिरनेवाला प्राकृतिक झरना।
“छोटानागपुर‘ स्वर्ग का एक टुकड़ा है।“
जमीन में हरियाली, आकाश में नीलिमा। पग-पग पर पहाडों को देखकर धरती भी ऊबड़-खाबड़ और ऊँची हो गई है। तीव्र धारा और गँदले पानी के साथ नदियाँ बलखाती बह रही हैं जिन्होंने मैदानों की छाती चीरी है और पर्वतों का अन्तर फोड़ा है। झाड़ी-झुरमुटों, पेड़-पौधों और लता-गुल्मों के साथ जंगल अपनी जगह पर आबाद है जिन्होंने जंगली जानवरों को शरण दिया है। बेहतरीन सड़के जिनके बनाने में ठीकेदारों को कम तरद्दुद और विभाग को कम व्यय पड़ा है, साँप की तरह भागी जा रही हैं और उन्हीं के साथ कुछ सवारी पर, कुछ पैदल मुसाफिर भी द्रुतगति से चले जा रहे हैं।
धरती पर आदिवासियों का नृत्य हो रहा है और आसमान में बादल आँख मिचौनी खेल रहे हैं। जन-जन के कंठ से मादक गीतों की सृष्टि हो रही है जिनसे पहाड़ और मैदान गुँज रहे हैं। जंगली जानवरों की आवाज के साथ जंगल का कोना कोना बोल रहा है। विचित्र-विचित्र पक्षियों की चहकन से पेड़ों की शाखा-शाखा गुलजार है।
सुन्दर जलवायु, मनहर वातावरण। हवा धीरे-धीरे डोलती है तो अपने साथ फूलों की सुरभि बिखेरती चलती है। बादल धीरे-धीरे बरसते हैं तो उनसे स्वस्थ शरीर और सुन्दर स्वास्थ्य का वरदान मिलता है। नदियाँ कलकल छलछल स्वर में बहती हैं तो किनारे पर के रहनेवाले को अमृत बाँटती जाती हैं। झरने सतत झर-झरकर आँखों को तरी तथा नमी, कल्पना को सुन्दर खुराक, चित्त को स्वच्छता और पवित्रता प्रदान करते हैं।
खानों में कोयला और अबरक, जंगल में तरह-तरह की लकड़ी, फूल-फुनगियों पर नाचती तितलियाँ, फल-भार से झुके जा रहे पेड़, शोभा-संपन्न अवर्णनीय घाटियाँ, सुषमा की दर्शनीय नदियाँ, हरीतिमावाले मनमोहक मैदान, मन पर जादू-जैसा असर करनेवाले पर्वत, मस्त निवासी इन सबके साथ, यह छोटानागपुर है।
एक ओर पृथ्वी अपने कोष को उगल रही है, तो वह कोयला बनकर लोगों के घरों में सोना ला रहा है। एक ओर पृथ्वी अपनी चमक-दमक का प्रदर्शन कर रही है तो वह अबरक बनकर दुनिया का श्रृंगार कर रही है।
अपने निरंतर संघर्ष से नदियाँ पत्थरों को ख़राद्-ख़राद् एक नवीन आकार में प्रस्तुत कर रही हैं, तो उसे लोग श्वेत शालिग्राम कहकर पूजते हैं। पत्थरों से करुणा की धारा झर रही है जिसे लोग झरना कहकर विस्मित भाव से देखते हैं।
इस छोटानागपुर में कई दर्शनीय झरने हैं, पर उनमें हुंडरू का झरना निराला है। मैं जब भी राँची गया, हुंडरू देखने ज़रूर जाता हूँ। यह झरना है जिसने मेरे मन-प्राण पर जादू किया है। यह झरना है। जिसकी स्मृति भूलती नहीं; यह झरना है। जिसके बारे में लिखते हुए मैं अघाता नहीं।
राँची से पुरुलियावाली सड़क पर 14 मील जाने के बाद एक सड़क मिलती है। जिससे हुंडरू पहुँचते हैं। पुरुलिया रोड से उसकी दूरी 13 मील है। यों राँची से हुंडरू 27 मील दूर है।
महात्मा गाँधी ने कहा है कि साध्य की पवित्रता एवं महत्ता तभी है जब उसका साधन भी महान हो। महान मंजिल पर पहुँचने के लिए मार्ग भी महान ही चाहिए। जैसा हुंडरू का झरना, वैसा उसका मार्ग।
राँची से चलनेवाले मुसाफिर को झरना पहुँचने तक ऐसे-ऐसे सुन्दर मैदान मिलते हैं कि वहाँ थोड़ी देर ठहरकर टहलने की इच्छा होती है। ऐसे जंगल दिखलाई पड़ते हैं जिनकी विभीषिका से शायद बाघ को भी डर लगता हो और बीच-बीच में पहाड़ी उस पर झाड़ी। सब दर्शनीय, सब वर्णनीय! चूँकि महीना अगस्त का था, इसलिए धान की क्यारी की भी न्यारी हरियाली थी। बलखाती सड़क जिसपर चलने में आनंद आए।
पथरीली जमीन एवं पत्थर की छाती चीरकर बहनेवाली पतली नदी जिसके देखने में आनंद आए। पेड़ों पर चहकती चिड़ियाँ जिनकी चहक सुनने में आनंद आए। सब मिलकर आनंद को कई गुणा बढ़ा रहे थे। हवा यों डोल रही थी, जैसे सलाह लेकर डोल रही हो।
छोटानागपुर के निवासी सादगी के अवतार और गरीबी की मूर्ति, जिनकी रहन-सहन में शत-प्रतिशत कला बसती है, मार्ग में यों खड़े थे, जैसे मेरा स्वागत कर रहे हों। मकई के पौधे कहीं-कहीं अगल-बगल में यों लहरा रहे थे-जैसे यहाँ वालों की किस्मत लहरा रही हो।
इस प्रकार मार्ग-दर्शन का आनंद लेते हुए हम हुंडरू के पास पहुँचे। एक बार मन ही मन मैंने झरने को प्रणाम किया।
पहाड़ पर पानी की यह अजीब लीला है जिसका मुकाबला न रामलीला करे, न रासलीला। पानी का इस प्रकार उछलना-कूदना, धूम मचाना और उसकी यह आवाज़ जैसे, दस-पाँच हाथी एक बार चिंघाड़ रहे हों जैसे- दस-पाँच ट्रेन के इंजन एक साथ आवाज़ कर हां, जैसे- एक साथ कई हवाई जहाज चक्कर काट रहे हों या जैसे- कई सहस्र नाग एक साथ फन फैलाकर फुफकार कर रहे हों। पहुँचने के साथ यात्री के कानों में ऐसी ही आवाज़ पड़ती है।
और अब झरना देखने लगा। वातावरण की पवित्रता ऐसी कि मालूम होता है, मानो हम देवलोक के समीप पहुँच गए।
है क्या यह ! युग-युग से पानी का आघात है-पत्थर की बर्दाश्त है और यों एक प्रकार से यह पत्थर की क्षमता का प्रदर्शन हैं। पर एक पत्थर ऐसा भी है जिसकी छाती को चीरकर पानी निकलता है।
यां एक प्रकार से यह जल की क्षमता का प्रदर्शन है जिसके सामने पत्थर भी मात है। हाँ, पत्थर मात है-करुणा के सामने, प्रेम के सामने जिसके अपार बल के स्वरूप पत्थर की छाती से धारा फूटती है, पत्थर को आँख से आँसू निकलते हैं और पत्थर का कलेजा पिघल जाता है।
पहाड़ पर नदी का यह खेल है। यह नदी है स्वर्णरेखा-जिसके उद्गमस्थान से 50 मील आगे आकर हुंडरू का यह झरना है। स्वर्णरेखा नदी राँची, धनबाद, सिंहभूम एवं बालासोर जिलों से होकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
नदी जहाँ पहाड़ को पार करने की चेष्टा में पहाड़ पर चढ़ती है, वहाँ पानी की कई धाराएँ हो जाती हैं और जब सबकी सब धाराएँ एक होकर पहाड़ से नीचे गिरती हैं, एक विचित्र दृश्य दिखलाई देता है। वही झरना है जिसकी ऊँचाई 243 फुट है। उजला पानी ऐसा प्रतीत होता है कि पानी के चक्कर और भंवर में पिसकर पत्थर का सफेद चूर्ण गिर रहा है।
कभी ऐसा भी मालूम होता है कि रूई धुनने वाला अपनी धुनकी पर रूई धुनकर ऊँचे बैठा हुआ गल्ले को नीचे गिरा रहा है। बचपन में हवा की मिठाई लेकर फेरीवाला आता था तो उसका रंग लाल होता था। प्रतीत होता है, वैसी हीं; लेकिन उजले रंग की हवा की मिठाई लेकर पर्वत आज स्वयं फेरी देने निकला है। इंद्रधनुष फरफरा रहा है।
और कहीं-कहीं बीच में चट्टान पर जब प्रबल धारा गिरती है, तो संघर्ष से इंद्रधनुष जैसा रंग उत्पन्न होता है। जान पड़ता है कि सतरंगा पानी हवा में उड़कर विलीन हो रहा है या हवा में उड़ता इंद्रधनुष फरफरा रहा है।
चारों ओर जंगल और पहाड़ के बीच में प्रकृति की यह लीलास्थली है। झरना के एक ओर का जंगल राँची में है, एक ओर का जंगल हजारीबाग में और बीच में झरना बह रहा है. मानो उसका यह संदेश हो कि वह सबके लिए है, सबका कल्याण उसका उद्देश्य है। वह न राँची का है, न हजारीबाग का, बल्कि सबका है।
बड़े झरने को बगल में एक इंच मोटी एक धारा ऊपर से नीचे धीरे धीरे पत्थरों पर से उतर रही है- जैसे महादेवजी पर कोई भक्त दुध चढ़ा रहा हो। नीचे जहाँ घनघोर धारा गिरती है, वहाँ पानी करीब 20 फुट ऊपर उछलता है। लगता है, पत्थर को चीरकर आनेवाले पानी का स्वागत करने और उसको कंठहार पहनाने के लिए नीचे से पानी ऊपर दौड़ता है।
मेरे मित्र कहते हैं कि शिवजी की बारात शायद इस राह से गुजरी थी। उसका स्वागत करने को पर्वत ने इस गुलाबपाश का प्रबन्ध किया था। वहीं गुलाबपाश शाश्वत होकर अभी भी झरझर कर रहा है।
स्वयं झरने से भी ज्यादा खूबसूरत मालूम होता है झरने के आगे की घाटी का दृश्य। पहाड़ों के बीच एक पतली सी नदी बहती जाती है, जैसे थर्मामीटर में एक पतला पारा हो। आगे भी एक पहाड़ मालूम होता है।
ज्ञात होता है, पहाड़ नदी को ललकार रहा है कि यहाँ से तुम किसी प्रकार पार होकर मेरे आगे जा सको तो जानें यहाँ पर नदी यों दिखाई देती है जैसे, नदी के इर्द-गिर्द पत्थरों का अंबार लगाकर उस पर झाड़ी उगाई गई हो। प्रकृति या परमात्मा ने अपने हाथ से यह सब किया होगा अन्यथा मनुष्य जाति में इतनी सामर्थ्य कहाँ ? सैकड़ों वर्षों में भी मानव के प्रयत्नों से शोभा के इस विशाल वैभव की सृष्टि कठिन है।
पहाड़ के ऊपर से एक पतली-सी पगडंडी नीचे गई है और उसके सहारे हम भी कई बार नीचे गए हैं। नीचे जाकर हम अनिमेष कुछ देर तक इस शोभा से अपनी आँखों की प्यास बुझाते रहे हैं।
यह शोभा, वह छटा और यह दृश्य-यह इतना बड़ा प्रपात जहाँ 243 फुट से पानी नीचे गिरता है। बीच-बीच में चट्टानों की वजह से हुंडरू की शोभा बिखर जाती है। पानी कुछ पीलापन लिए हुए है और यो सरसराता-हरहराता गिरता है कि कुछ भयंकर मालूम पड़ता है।
जोन्हे में यहाँ पानी गिरता है, बिल्कुल सफेद है और यह भयंकरता भी उसमें नहीं है। वह माधुर्य और कोमलता से ओत-प्रोत जान पड़ता है। यहाँ का पानी निरंतर संघर्ष के साथ चट्टान पर गिरता हुआ, मानो आग की सृष्टि करता है जिसका धुआँ बराबर ऊपर उड़ता रहता है।
हुंडरू का पानी कहीं साँप की तरह चक्कर काटता है, कहीं हरिण की तरह छलांग भरता है और कहीं बाघ की तरह गरजता हुआ नीचे गिरता है। सारा पानी एक जगह सिमटकर जहाँ नीचे गिरता है, उस जगह इसका रूप बहुत विशाल और भयंकर हो गया है।
उस जगह हाथी भी जाए तो धारा के साथ कहाँ चला जाए, इसका पता मिलना मुश्किल है। इसके बाद धीरे-धीरे मंथर गति से इसका पानी नदी के रूप में जिसको देखने के लिए दिन-रात दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है।
यहाँ डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की ओर से एक बंगला बनवा दिया गया है लेकिन खाने-पीने के सामान का यहाँ भी अभाव है। हंडरू-प्रपात की भीड़ और चीजों का अभाव देखकर ख़्याल आया कि यहाँ के लोग सचमुच अव्यावहारिक है।
अगर किसी दुसरी जगह में ऐसा झरना होता. तो वहाँ के लोग इसके पास दुकान बगैरह सजाकर अपने लिए आय और दूसरों के लिए सुविधा की व्यवस्था कर देते।
धन्य हुंडरू! किस यग से किस महाकवि की वाणी, किस संगीत की स्वर-लहरी और किस प्रेमी की रुदन-ध्वनि से पिघलकर यह पाषाण बह रहा है, यह कह सकना असंभव है। पत्थर का अंतस्थल जैसे पिघलकर बह रहा है. वैसे यदि मनष्यों का अंतर द्रवित होकर बहने लगता तो संसार से कलह, कपट, स्वार्थ और छीना-झपटी का अंत हो जाता।
यहाँ दो तरह के पत्थर देखने में आए। एक वह पत्थर है जिसका अंतर फोड़कर विशाल झरना झर रहा है और एक वह भी पत्थर है जिस पर न जाने किस युग से पानी की यह धारा गिर रही है, पर वह जरा भी विचलित नहीं होता। ज्यों का त्यों खड़ा रहता है। घिसता भी नहीं, फँसता भी नहीं, खिसकता भी नहीं।
243 फुट का यह प्रपात निराला है।सुन्दरता यहाँ साकार हो गई है और वर्णन शक्ति को यहाँ और भावों की कमी हो गई है। विचित्र शोभा है, जो कभी पुरानी नहीं पड़ती और धन्य प्रपात है, जो सदा एक-सा बह रहा है। अविरल और अविचल दोनों का उदाहरण यहाँ एक बार में ही उपस्थित है।
दानी दान करता है तो गुमान करता है; पर युग-युग से न जाने कितना पानी यह पहाड़ दान कर चुका, पर इसको कोई अभिमान नहीं है।
अंधे आवाज सुन लें तो प्रवाह का अंदाज लगा लें और बहरे प्रवाह देख लें तो आवाज का अंदाज लगा लें। समुद्र गंभीरता के लिए प्रसिद्ध है, तो यह हुंडरू अपनी चपलता के चलते मशहूर है।
किंवदंती यह है कि इस हुंडरू से 7 मील पर कुछ लोगों ने एक प्रपात देखा है जो इससे कई गुना बड़ा है; पर वहाँ जाने का रास्ता इतना बीहड़, घनघोर और भयंकर है कि जंगल के उस भाग में पहुँच सकना दुशवार है। अगर बात सही है, तो जंगल विभाग को उसका ठीक पता लगाकर वहाँ तक मार्ग का निर्माण कर देना चाहिए, जिससे वह प्रपात भी जनता के सामने आ सके।
जो भी हो, हुंडरू दर्शनीय है। इसकी याद भूलने की नहीं। कितने दिन गुजर गए, लेकिन पानी आँखों के सामने उसी प्रकार उछल-कूद मचा रहा है।

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हुन्डरू जलप्रपात की विशेषता क्या है?

हुंडरू जलप्रपात 98 मीटर यानी क़रीब 320 फीट की उंचाई से गिरता है। यह झारखण्ड का दूसरा सबसे ऊँचा जलप्रपात है, जिसकी छटा देखते ही बनती है। वर्षा के दिनों में इस जलप्रपात की धारा मोटी हो जाती है। इन दिनों में तो इसका दृश्य और भी सुंदर व मनमोहक हो जाता है

हुंडरू प्रसिद्ध क्यों है?

हुंडरू प्रपात झारखंड राज्य में सर्वाधिक ऊँचाई से गिरने वाला प्रपात है, अत: पर्यटन पटल पर सर्वाधिक प्रसिद्ध भी यही है। स्वर्णरेखा नदी की जलराशि से प्रस्फ़ुटित इस प्राकृतिक झरने के ऊँचाई से गिरने का लाभ झारखंड राज्य को पनबिजली के रूप में विगत 50 वर्षों से प्राप्त होता आ रहा है।

हुंदरू जलप्रपात की ऊंचाई कितनी है?

हुंडरू जलप्रपात रांची सुवर्णरेखा नदी के दौरान बनाई गई है, जहां 320 फीट की ऊंचाई से गिरती है जो राज्य के उच्चतम जलप्रपात मे से एक है।

हुंडरू का जलप्रपात के रचयिता कौन है?

-कामता प्रसाद सिंह ' काम ' हुंडरू झारखण्ड राज्य के छोटा नागपुर जिले में पड़ता है । सूची से 27 मील की दूरी पर स्थित है – हुंडरू का जलप्रपात । अत्यन्त सुन्दर , मनमोहक यह जलप्रपात है ।