Himalaya Show
हिमालयी क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों पर हो रहे आधुनिक विकास का प्रभाव बदलते मौसम के तहत धीरे-धीरे सामने आने लग गया है। हिमालय में जिस विकास नीति का मॉडल लागू किया जा रहा है उसने हिमालय को संरक्षित करने और समृद्ध बनाने में तो कोई भूमिका नहीं निभाई उल्टा पहाड़ को आपदाओं का घर जरूर बना दिया। यद्यपि पश्चिम, मध्य एवं उत्तर-पूर्व हिमालयी क्षेत्रों में हो रहे विस्थापन जनित विकास पर नियंत्रण करने में ये सरकारें विफल होती दिखाई दे रही हैं। केन्द्र सरकार पर निर्भर इन राज्यों का तंत्र हिमालय की गम्भीरता, संवेदनशीलता और हिमालय में चल सकने वाली स्थायी जीवनशैली एवं जीविका को भी आत्मसात नहीं कर पा रहे हैं। हिमालयी क्षेत्र के वनवासियों के पारम्परिक अधिकार और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण एवं संवर्द्धन के तरीकों को दरकिनार कर आयातित योजनाओं एवं परियोजनाओं को हिमालय पर थोपकर अतिक्रमण, शोषण व प्रदूषण की स्थिति पैदा की जा रही है। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 16.3 प्रतिशत भूभाग में फैले हिमालयी क्षेत्र को समृद्ध जल टैंक के रूप में माना जाता है। हिमालय परिक्षेत्र के 45.2 प्रतिशत भू-भाग में घने जंगल हैं। यहाँ नदियों, पर्वतों के बीच में सदियों से निवास करने वाले लोगों के पास हिमालयी संस्कृति एवं सभ्यता को अक्षुण्ण बनाए रखने का लोक विज्ञान भी मौजूद है। जो प्रकृति विज्ञानियों, पर्यावरणविदों, लेखकों ने अपनी-अपनी विद्या के अनुसार हिमालय की जरूरत व हिमालय का ही होना जीव और जीविका के लिये आवश्यक बताया। इधर एक दशक से अधिक चले लम्बे संघर्ष के बाद अब केन्द्र सरकार ने हिमालय के लिये अलग मंत्रालय, गंगा नदी के लिये अलग विभाग, हिमालय के लिये अलग अध्ययन केन्द्र जैसे हिमालय और हिमालयी समाज से जुड़े मुद्दों पर नए सिरे से पहल की है। हिमालयी राज्यों का राजनीतिक ढाँचाभारतीय हिमालय क्षेत्र में मुख्यतः 11 छोटे राज्य हैं, जहाँ से सांसदों की कुल संख्या 36 है, लेकिन अकेले बिहार में 39, मध्य प्रदेश में 29, राजस्थान में 25 तथा गुजरात में 26 सांसद है। इस सन्दर्भ का अर्थ यह है कि देश का मुकुट कहे जाने वाले हिमालयी भूभाग की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय पहुँच संसद में भी कमजोर है। सामरिक एवं पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील हिमालयी राज्यों को पूरे देश और दुनिया के सन्दर्भ में नई सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से देखने की नितान्त आवश्यकता है। केन्द्र सरकार को पाँचवी पंचवर्षीय योजना में हिमालयी क्षेत्र के विकास की याद आई थी और तत्काल हिल एरिया डेवलपमेंट योजना का विस्तार करके हिमालयी क्षेत्र को अलग-अलग राज्यों में विस्तृत तो किया गया मगर विकास के मानक आज भी मैदानी ही हैं। फलस्वरूप इसके हिमालय का शोषण बढ़ा हैं। आपदाओं का चक्र तेज हो गया है। प्राकृतिक संसाधन लोगों के हाथ से खिसक रहे हैं। अतएव जवानी और पानी दोनों पहाड़ से पलायन कर रही है। अर्थात योजनाकार कागजों में ग्लेशियरों, पर्वतों, नदियों व जैैव विविधता के सरंक्षण की अच्छी खासी योजना बना देंगे परन्तु ये योजनाएँ अब तक ज़मीनी रूप नहीं ले पाई। जबकि वे जानते हैं कि हिमालय पर खतरा बढ़ेगा तो देश की आन्तरिक राजनीतिक व्यवस्था व अन्य समाज पर खतरे बढ़ेंगे। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिये आन्दोलनरत संगठन चिपको व रक्षासूत्र ने भी ‘हिमालय बचाओ-देश बचाओ’ ‘मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार’ ‘ऊँचाई पर पेड़ रहेंगे, नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे’, ‘धार ऐंच पाणी, ढाल पर डाला, बिजली बणावा खाला-खाला’ नारों के साथ समग्र हिमालय विकास का चरित-चित्रण किया है। यह एक नारा मात्र नहीं है, यह भावी विकास नीतियों को दिशाहीन होने से बचाने का भी एक रास्ता बताता है। अब तो आधुनिक विकास के रास्ते पहाड़ो पर सुरंगों का जाल बिछाया जा रहा है। बताया जा रहा है कि इन सुरंगों में पानी डालकर विद्युत उत्पादन किया जाएगा। मगर सुरंगों व पहाड़ों के ऊपर बसे गाँव सुरक्षित हैं कि नहीं इस पर आधुनिक विकासकर्ता कुछ कहने के लिये तैयार नहीं दिखते। 16वीं लोकसभा में हरिद्वार से सांसद चुने गये डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने भी संसद में हिमालयी राज्यों के मुद्दों को मजबूती से उठाया है। 11 जुलाई 2014 को संसद में हिमालयी राज्यों के लिये अलग मंत्रालय बनाने की माँग करते हुए श्री निशंक ने एक गैर सरकारी संकल्प पत्र प्रस्तुत किया। इस संकल्प पत्र में श्री निशंक ने हिमालयी राज्यों की सामरिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थिति का विस्तार से उल्लेख किया। इस संकल्प पत्र के समर्थन में विभिन्न राज्यों के 17 सांसदों ने अपना वक्तव्य दिया। हिमालयी राज्य
भारतीय हिमालय क्षेत्र
हिमालयी राज्यों के मुख्य ग्लेशियर
स्रोत- प्लानिंग कमीशन 2006 (11वीं पंचवर्षीय योजना) हिमालयी राज्यों में ग्लेशियर पिघलने की स्थिति
स्रोत- प्लानिंग कमीशन 2006 (11वीं पंचवर्षीय योजना) हिमालय पर्यावरणहिमालय का वन क्षेत्र स्वस्थ पर्यावरण के मानकों से अभी अधिक है। सरकारी आँकड़ों के आधार पर हिमाचल प्रदेश में 66.52 उत्तराखण्ड में 64.79, सिक्किम में 82.31, अरुणाचल प्रदेश में 61.55 मणिपुर में 78.01, मेघालय में 42.34, मिजोरम में 79.30, नागालैण्ड में 55.62, त्रिपुरा में 60.02, असम में 34.21 प्रतिशत वन क्षेत्र मौजूद है। जहाँ से देश को शुद्ध ऑक्सीजन, पानी और ग्लेशियरों को संरक्षण मिल रहा है। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किलोमीटर में हिमालयी राज्यों का क्षेत्रफल 5,37,435 (16.3) प्रतिशत है। इसमें वन 45.2 प्रतिशत क्षेत्रफल में है। इससे स्पष्ट है कि हिमालय क्षेत्र का जलवायु नियंत्रण में भारी योगदान है। हिमालय वनों पर संकट इसलिये बढ़ रहा है कि यहाँ पर एकल प्रजाति चीड़ के वनों की मात्रा तेजी से बढ़ रही है। जबकि चौड़ी पत्ती के वन पहले की अपेक्षा 40 प्रतिशत भी नहीं बचे हैं। इस कारण हिमालय वनों का सन्तुलन भी बिगड़ रहा है। हिमालयी राज्यों का वन क्षेत्र
हिमालय विकासहिमालय में जल, जंगल, जमीन पर स्थानीय लोगों का अधिकार नहीं है। लोग भूमिहीन होने के कारण पलायन करते हैं। सामरिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण हिमालय क्षेत्र के लोगों का पलायन रोकना आवश्यक है। अधिकतर हिमालयी राज्यों की सरकारों ने नदियों को रोककर विद्युत ऊर्जा बनाने के लिये राज्य के नाम को ऊर्जा प्रदेश से जोड़कर सैकड़ों जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण का बीड़ा उठा दिया है। लेकिन इन जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण से पहले प्रभावित लोगों का जीवन एवं उनकी आजीविका के प्राकृतिक संसाधनों का जिस तरह से अतिक्रमण, शोषण एवं प्रदूषण विकासकर्ताओं के साथ मिलकर विभिन्न समझौतों के द्वारा किया जा रहा है, उससे सम्पूर्ण हिमालयी जन-जीवन खतरे में पड़ता नजर आ रहा है। दूसरा संकट यह भी है कि बड़ी नदियों को फीड बैक करने वाली असंख्य छोटी नदियाँ एवं गाड़-गधेरे हैं जिनकी जलराशि निरन्तर घट रही है। चौड़ी पत्ती के वन धीरे-धीरे सिमट रहे हैं। हिमालयी क्षेत्रों में प्रस्तावित, निर्माणाधीन एवं निर्मित लगभग 1000 जलविद्युत परियोजनाओं के कारण लोगों को भारी मात्रा में अपने स्थानों से विस्थापित होना पड़ रहा है। प्रभावित लोगों के साथ इस अविवेकपूर्ण व्यवहार से कैसे निपटना है, इसके लिये हिमालयी राज्यों के पास कोई पूर्व तैयारी नहीं है। बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन के लिये भारत के सभी हिमालयी राज्य असंवेदनशील हैं। यहाँ पर आपदाओं का सामना करने के लिये स्थानीय निवासियों की पारम्परिक शिल्पकला, लोक विज्ञान व अनुभवों की उपेक्षा हुई है। आपदा प्रबन्धन का काम गाँव के लोगों के हाथ कम और सरकारी अधिकारियों की जिम्मेदारी में अधिक है। परिणामस्वरूप आपदा प्रबन्धन तंत्र की सहायता लोगों को समय पर नहीं मिलती है। आपदा प्रभावितों को मिलने वाली आर्थिक सहायता भी एक तरह से प्रभावितों को उपेक्षित करती है। भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तराखण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, नागालैण्ड, त्रिपुरा, असम जोन 4 में तथा जम्मू-कश्मीर हिमाचल प्रदेश जोन 4-5 में स्थित है। जो बाढ़, भूकम्प और भूस्खलन की त्रासदी बार-बार झेल रहे हैं। हिमालय क्षेत्र की नदियाँ
स्रोत- ग्लेशियर एटलस ऑफ इण्डिया 2008 हिमालय परम्पराहिमालय स्वयं में एक जैविक प्रदेश है। यहाँ के निवासी एक ही खेत से बारहनाजा (विविध प्रकार की फसलें) की फसल उगाते रहे हैं। मौजूदा योजनाओं में उनको पारम्परिक बीज, जैविक खाद, कृषि और इससे जुड़े पशुपालन को वरीयता नहीं मिल रही है। अच्छा होता कि उनकी इस जैविक खाद्य व्यवस्था को मजबूती दी जाती। कृषि विविधीकरण के नाम पर अजैविक व्यवस्था को पहाड़ पर थोपा जा रहा है। आज भी रासायनिक खादों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बीज हिमालय क्षेत्र की जैविक खेती को अजैविक में परिवर्तित करने का काम कर रही है। कृषि एवं पशुपालन को उद्योग का दर्जा नहीं मिला। वृक्ष खेती, फल खेती, छोटी-छोटी पनबिजली को उद्योगों के रूप में विकसित करने की योजना सिर्फ नेताओं की बयानबाजी की बात ही रह गई है। पर्यटन के नाम पर केवल इसी सिद्धान्त को मान्यता मिली है कि हिमालय दुनिया के पर्यटकों को आकर्षित करता है। पर्यटन के नाम पर पंचतारा होटलों का विकास एक मात्र उद्देश्य बन गया है। पंचतारा होटल संस्कृति से महिलाओं व बच्चों की ट्रेफिकिंग की समस्या बढ़ती ही जा रही है। हिमालय में वर्षा व जैवविविधताहिमालयी क्षेत्रों में होने वाली कुल वर्षा का 3 प्रतिशत उपयोग भी नहीं हो पाता है। स्थानीय जल संरक्षण की विधियों को जो प्रोत्साहन मिलना चाहिये था वह नहीं मिला है, लेकिन इसके स्थान पर सीमेंटेड जल संरचनाएँ बनाई जा रही हैं, जिसके प्रभाव से जलस्रोत सूख रहे हैं। हिमालय जड़ी-बूटियों का विशाल भण्डार है, जो यहाँ का बड़ा आर्थिक स्रोत हो सकता है। यह तभी सम्भव है, जब लोग जड़ी-बूटी उगाएँ और सरकार उसको तत्काल खरीदें। बार-बार जड़ी-बूटी उत्पादकों के हाथों निराशा ही लगती है। इसके बदले दवाई निर्माण करने वाली कम्पनियाँ स्थानीय वन विभाग, वन निगम के साथ समझौता वार्ता करवा कर स्वयं ही स्थानीय दलालों के माध्यम से ऊँचाई वाले क्षेत्रों की दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ सस्ते दामों में खरीदकर ले जाते हैं। हिमालयी राज्यों में वन एवं पर्यावरण सेवा मूल्य
स्रोत- सिंह, एस.पी.2007. हिमालयन फॉरेस्ट इको सिस्टम सर्विसेज : इंकॉर्पोरेटिंग इल नेशनल अकाउंटिंग। सीएचईए, नैनीताल Tags हिमालय का भारत के लिए क्या महत्व है?देश के 1.3 प्रतिशत वन हिमालय में हैं और इसमें भी देश के अच्छे वनों का 46 प्रतिशत भाग हिमालय में ही है। यहां लगभग 1.3 भूमि परती है जो देश में लगभग 17.6 प्रतिशत है। यहां लगभग 74 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी में बसते हैं, जबकि मैदानों में यह अौसत 324 का है। क्षेत्र में देश की 3.8 प्रतिशत अबाादी रहती है।
भारत के आर्थिक विकास में हिमालय पर्वत का क्या महत्व है लिखिए?हिमालय की पूरी पर्वत श्रृंखला एक युवा स्थलाकृति को दर्शाती है, जिसमें ऊँचे शिखर, गहरी घाटियाँ तथा तेज बहने वाली नदियाँ भारत का भौतिक स्वरूप चित्र 2.1 : हिमालय Page 2 हैं। उत्तरी मैदान जलोढ़ निक्षेपों से बने हैं । प्रायद्वीपीय पठार आग्नेय तथा रूपांतरित शैलों वाली कम ऊँची पहाड़ियों एवं चौड़ी घाटियों से बना है ।
हिमालय की विशेषताएं क्या होती है?हिमालय इस पृथ्वी का सबसे युवा पर्वत है , यह मात्र 6.5 करोड़ साल पहले बनना शुरू हुआ था। हिमालय पृथ्वी का 1/10 भाग पर स्थित है। पश्चिम से पूर्व तक यह 2500 किमी तक फैला हुआ है यह विस्तार गंगा नदी की कुल लंबाई के बराबर है। हिमालय की चौड़ाई दक्षिण से उत्तर तक 400 किमी तक है।
भारत में कुल कितने हिमालयी राज्य हैं?भारतीय हिमालयी क्षेत्र 12 भारतीय राज्यों (अर्थात् जम्मू और कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, असम के दो जिलों अर्थात् दीमा हसाओ और कार्बी एंगलोंग तथा पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग और कालिम्पोंग) में 2500 किमी की लंबाई और 250 से 300 किमी की चौड़ाई में ...
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