बच्चे दिए स्कूल की भाषा और घर एवं पड़ोस की भाषा में ______ होना/होनी चाहिए।This question was previously asked in Show CTET Feb 2016 Paper 2 Social Studies (L - I/II: Hindi/English/Sanskrit) View all CTET Papers >
Answer (Detailed Solution Below)Option 3 : जुडाव Free 10 Questions 10 Marks 10 Mins
घर में बोली जाने वाली, दोस्तों के बीच और पड़ोस की भाषाओं तथा स्कूल में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा के बीच के फासले को पाटने का भरपूर प्रयास किया जाना चाहिए क्योंकि घर, दोस्त, पड़ोस, और स्कूल में बोली जाने वाली भाषा की जुड़ाव बच्चों को:
अतः निष्कर्ष निकलता है कि बच्चे दिए स्कूल की भाषा और घर एवं पड़ोस की भाषा में जुड़ाव होना चाहिए।
Last updated on Dec 7, 2022 CTET Application Correction Window was active from 28th November 2022 to 3rd December 2022. The detailed Notification for CTET (Central Teacher Eligibility Test) December 2022 cycle was released on 31st October 2022. The last date to apply was 24th November 2022. The CTET exam will be held between December 2022 and January 2023. The written exam will consist of Paper 1 (for Teachers of class 1-5) and Paper 2 (for Teachers of classes 6-8). Check out the CTET Selection Process here. Candidates willing to apply for Government Teaching Jobs must appear for this examination. लेखक : एलीथिया डी. रोज़ारियो विद्यालयों में हो रहे भाषा शिक्षण के बारे में इस यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि भाषाई कौशल सुधारने के ये प्रयोग माध्यमिक तथा उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में किए गए थे। लेकिन मैं मानती हूँ कि निचली कक्षाओं में भी ये प्रयोग किए जा सकते हैं। यह समझने के लिए कि इन प्रयोगों को मेरे पूर्वानुमान से भी अधिक सफलता क्यों मिली, शुरुआती पैराग्राफ में चिन्हित किए गए कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर गौर करें। 1. अलग हो गए, ठुकराए गए, हताश; स्वाभिमान की कमी। 2. न केवल अँग्रेज़ी बल्कि अपनी मातृभाषा (हिन्दी) में भी खराब प्रदर्शन। 3. सीखने की प्रक्रिया में कुछ भी चुनौतीपूर्ण व रोचक न होना। 4. उन्होंने न केवल अँग्रेज़ी बल्कि अन्य विषयों में भी सुधार किया। 5. वे ज़्यादा आत्मविश्वासी और अपने समग्र व्यवहार में ज़्यादा सामाजिक हो गए। विद्यालयों में भाषा शिक्षण तीसरी भाषा मातृभाषा के अलावा कोई भारतीय भाषा होती है जो बच्चा ‘राष्ट्रीय एकीकरण’ को और अधिक प्रोत्साहित करने के लिए सीखता है। इस सूची में संस्कृत शामिल है। रोचक बात यह है कि यह स्थिति खास भारतीय सन्दर्भ में ही देखने में आती हो, ऐसा नहीं है। गोल्डा मायर माउण्ट कैरमल अन्तर्राष्ट्रीय प्रशिक्षण केन्द्र में कार्यरत वरिष्ठ शिक्षिका और पाठ्यक्रम निदेशक जैनेट हर्शमैन के निम्नलिखित कथन पर विचार कीजिए: “हमने सीखने में आने वाली दिक्कतों और नव साक्षरता पर पहले कई कोर्स चलाए हैं। इन कोर्सों के अन्त में हम हमेशा भाग लेने वालों से भविष्य के लिए सुझाव माँगते हैं, और इसमें द्विभाषा और बहुभाषा प्रयोग का मुद्दा ज़ोर-शोर से उठकर आया। यदि कोई बच्चा घर में अपनी मातृभाषा, बाहर सड़कों पर कोई अन्य भाषा और स्कूल में एक तीसरी भाषा ः जैसे अँग्रेज़ी ः सुनता है, तब उसे किस भाषा में पढ़ना-लिखना सिखाया जाना चाहिए?” किसे माने मातृ भाषा? घर, विद्यालय और भाषा शिक्षण कई प्रथाओं का बहुत सख्ती से पालन किया जाता है क्योंकि उसी तरह शिक्षकों ने ‘विषय’ को सीखा था और उन्हें वे परिचित तरीके ही सहज लगते हैं। भाषा की एक पाठ्यपुस्तक होती है, पर व्याकरण के नियम मूल पाठ से अलग स्वतंत्र रूप से सिखाए जाते हैं। कुछ अभ्यास भी होते हैं जिनके द्वारा जो भी सीखा गया है उसे पक्का किया जाता है। अत: इस व्याकरण के ढाँचे को रटकर सीखना है जो पाठ्य-सन्दर्भ से जुड़ा नहीं होता। मूल पाठ अलग से पढ़ाया जाता है और उसमें शिक्षक बच्चों को पाठ्यांशों पर आधारित प्रश्नों के बँधे-बँधाए मानक उत्तरों को रटकर जस का तस दोहराने के लिए प्रेरित करते हैं। वे कुछ ‘अभ्यास’ भी देते हैं, जिसका मतलब होता है ‘रचनात्मक लेखन’ के लिए कुछ गिने-चुने विषयों पर दी गई सामग्री को रटकर तैयार कर लेना। शिक्षक मूल पाठ पढ़ाते समय अनुवाद का सहारा लेते हैं क्योंकि उन्हें अपनी क्षमताओं पर उतना भरोसा नहीं होता है। इसमें लक्ष्य भाषा (दूसरी भाषा) के एक-एक शब्द को मातृभाषा के समतुल्य शब्द द्वारा बदला जाता है। अपरिहार्य रूप से विद्यार्थी भी अनुवाद के इस तरीके को आत्मसात करने लगते हैं और फिर लगता है कि वे इससे कभी बाहर ही नहीं निकल पाते। वाक्य निर्माण में वे एक ही प्रकार की गलतियाँ करते हैं। उदाहरण के
लिए, एक हिन्दी भाषी विद्यार्थी अँग्रेज़ी का कोई वाक्य बनाते समय क्रिया को वाक्य के अन्त में लगाने के बारे में सोचेगा क्योंकि हिन्दी में व्याकरण का ढाँचा ऐसा ही है। जो सीखने वाले इस पद्धति पर निर्भर करते हैं वे अगले स्तर पर नहीं जा पाते, और शायद नियुक्त किए गए अँग्रेज़ी शिक्षकों की भी यही मुश्किल होती है। मेरे कुछ प्रयोग अब भाषा पूरी तरह से बहना शुरु हुई क्योंकि बच्चे अनुवाद प्रणाली के कारण आने वाली सीमाओं से बाहर निकल गए थे। ऐसा नहीं है कि शिक्षण में ऐसे अभ्यास कार्य जोड़ने वाली मैं पहली व्यक्ति थी। इन्दौर, भोपाल, होशंगाबाद और मुम्बई के ऐसे कई विद्यालयों ने जिनसे मेरा नाता रहा है, भाषा के विकास और कौशल-निर्माण के लिए कई गतिविधियाँ और अभ्यास तैयार किए हैं। पर अन्तर
यह है कि ये सभी परम्परागत ढंग से कार्यान्वित किए जाते हैं। जैसे प्रश्नों को शिक्षक द्वारा हल किया जाना, विद्यार्थियों द्वारा उन्हें उतार लेना, मौखिक कवायद करना और दोहरा देना आदि। इन कार्यों को वाकई निर्धारित तरीके से कार्यान्वित करने का कोई प्रयास नहीं होता जिससे सीखने वाले को भाषाई गतिविधि में सीधे भाग लेने का मौका मिले। भाषा कौशल और नमूने पहचानने के कार्य में हम सही दिशा में जा रहे हैं, इसकी और भी अधिक पुष्टि तब हुई जब मैंने इन्दौर में अँंग्रेज़ी भाषा के
शिक्षकों के लिए एक शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशाला का संचालन किया। अगली कार्यशाला में एक हिन्दी शिक्षिका, जो पहली कार्यशाला में भी थीं, ने मुझे बताया कि अँंग्रेज़ी शिक्षण के लिए जो तरीके मैंने सुझाए थे उनमें से कुछ उन्होंने अपनी हिन्दी और उर्दू की कक्षाओं में आज़माए और वे सफल रहे। इसने मुझे एक और प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया। यह स्पष्ट था कि जब विद्यार्थी भावावेश के साथ आपस में बातचीत करते थे, तो वे अपने आप उस भाषा में बात करने लगते थे जिसमें वे सहज महसूस करते थे। तब ः हालाँकि मैं उन्हें
अँंग्रेज़ी पढ़ा रही थी ः मुझे लगा कि क्यों न मैं उन्हें सामूहिक कार्य करने के लिए उस भाषा के इस्तेमाल की छूट दे दूँ जिसमें वे सहज थे, लेकिन निष्कर्षों को अँग्रेज़ी में प्रस्तुत करने को कहूँ? इस तरह मैंने सोचा कि उनकी विचार की प्रक्रियाएँ भी भंग नहीं होंगी और वे अपने विचारों को भी स्पष्टता से व्यक्त कर पाएँगे। भाषा पर परिवेश का असर यदि बच्चे का परिवेश एक से अधिक भाषाओं वाला हो, या वह मातृभाषा पर पकड़ बना लेने के बाद कोई दूसरी भाषा सीखना शु डिग्री करता है, तो एक मज़ेदार प्रक्रिया घटने लगती है। बच्चा अपना
अभिप्राय व्यक्त करने के लिए मातृभाषा की सीमाओं को लांघकर वैकल्पिक शब्दों और व्याकरण के ढाँचों का उपयोग करने लगता है। इसे संकेतों का मिश्रण (code mixing) कहते हैं। किसी से बात करते समय बच्चे में दूसरे भागीदार के हिसाब से भाषाओं को अदल-बदल करने की प्रवृत्ति भी आ जाती है। इसे संकेतों का बदलाव (code switching) कहते हैं। सीखने का दूसरा तल वह है जहाँ सीखनेवाला अर्थ सम्बन्धी दो भिन्न आधारों का स्वतंत्र रूप से प्रयोग करता है ः एक, पहली भाषा के लिए और दूसरा, दूसरी भाषा के लिए। इसमें सीखने वाला एक भाषा से दूसरी भाषा में शब्द-शब्द या पद-पद का अनुवाद करने का सरल तरीका नहीं अपनाता, बल्कि ऐसा लगता है कि वह समान्तर शब्दों या पदों का उपयोग करते हुए दोनों भाषाओं में मिलते-जुलते भाषाई संकेत पैदा करता है। मिश्रित भाषाओं का प्रयोग जैसा पहले कहा जा चुका है, मैंने यह प्रयोग माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में किया था।
लेकिन मुझे जो सफलता मिली उससे लगता है कि यह तरीका प्रारम्भिक स्तरों पर ः प्राथमिक कक्षाएँ या उससे पहले ः भी कारगर हो सकता है। जैसा कि आपने देखा होगा, बहुभाषी परिवेश में छोटे बच्चे भी एक से अधिक भाषाएँ साथ-साथ सीख लेते हैं। हिन्दी और उर्दू साथ-साथ सीखने का इन्दौर का जो उदाहरण मैंने दिया था उसमें भी बच्चे तीसरी और चौथी कक्षा के थे। दूसरे शब्दों में, यदि छोटे बच्चों को लक्ष्य भाषा से परिचित होने का अवसर मिले तो वे उसे सीख सकते हैं। आखिरकार, सीखने की दृष्टि से शुरुआती बचपन अत्यन्त ग्रहणशील होता है।
इन तथ्यों को देखते हुए क्यों न बच्चों को एक साथ मातृभाषा/राष्ट्रभाषा और अँंग्रेज़ी से साथ-साथ परिचित कराया जाए? यद्यपि, जैसा मैंने पहले कहा, अँग्रेज़ी सिखाने का उपयुक्त समय बच्चे के मातृभाषा में कुशल हो जाने के बाद ही होता है, तो भी इस बारे में सोचा जा सकता है। निष्कर्ष में, मैं कहना चाहूँगी कि पहली भाषा से दूसरी भाषा में जाने की गति को बढ़ाया जा सकता है, बशर्ते कि दोनों भाषाओं पर साथ-साथ काम किया जाए, रटने और अनुवाद करने के तरीके को त्याग दिया जाए, कक्षा में एक से अधिक भाषाओं में मुक्त बहस होने दी जाए, और मिश्रित भाषा के उपयोग को स्वीकार किया जाए। ऐसा दृष्टिकोण विद्यार्थियों को पढ़ने, समझने, विश्लेषण करने, तर्क
करने, सुसंगत उत्तर देने और अपने को अभिव्यक्त करने में अधिक सक्षम बनाएगा जिससे वे वास्तविक जीवन की परिस्थितियों से निपटने में काफी हद तक समर्थ होंगे। पर अन्तत: वे ही असली कुंजी हैं, वे ही इस प्रक्रिया की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी हैं, वे ही भाषा पाठ्यक्रम को लागू करते हैं। उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती और न ही की जानी चाहिए। ज़रूरत इस बात की है कि भाषा की कक्षा में अपनी भूमिका बेहतर ढंग से समझने में उनकी मदद की जाए। उन्हें अपने विषय की बेहतर समझ
और भाषाई कौशल विकसित करने की ज़रूरत है। उनकी गहरी मान्यताओं और कक्षा की प्रचलित कार्य प्रणाली को बदलने के लिए ऐसे कारगर शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रमों की आवश्यकता है जो कक्षा के परिवेश की वास्तविकताओं और बच्चों की ज़रूरतों का ध्यान रखकर बनाए गए हों। एलीथिया डी.
रोज़ारियो: बीस वर्षों तक विभिन्न स्कूलों में अँग्रेज़ी पढ़ाने का अनुभव। पिछले कुछ वर्षों से भोपाल में एकलव्य के साथ भाषा शिक्षण पर काम कर रही हैं। मातृभाषा एवं विद्यालय भाषा में क्या अंतर है?घरेलू भाषा की अपेक्षा विद्यालय में प्रयोग की जाने वाली भाषा के स्तर की शक्ति अधिक आँकी जाती है। इसका प्रमुख कारण यही है कि विभिन्न विषयों का पठन छात्र विद्यालयीय भाषा में करता है और उस भाषा का निरंतर उपयोग करने से उस भाषा पर भी पकड़ उत्पन्न हो जाती है।
घर का भाषा क्या है?एक भौतिक स्थान के रूप में 'घर' की परिभाषा वह मकान होती है, जहां शरण या आराम की मानसिक या भावनात्मक तृप्ति प्राप्त हो।
विद्यालय में भाषा की क्या भूमिका है?फिर विद्यालय में प्रवेश लेते समय बालक भाषा के लिखित रूप से भी परिचित नहीं होता है। अत: विद्यालय का यह दायित्व है कि वह बालक को भाषा का मौखिक व लिखित प्रयोग कर सकने की दृष्टि से सक्षम करे। इसके लिए सुनना, बोलना, पढ़ना तथा लिखना इन चारों भाषिक कौशलों का विकास करना आवश्यक होता है।
मातृभाषा और द्वितीय भाषा के शिक्षण में क्या अन्तर है?मातृ भाषाशिक्षण के समय शिक्षार्थी अपनी भाषा का आधारभूत ज्ञान प्राप्त कर चुका होता है जबकि द्वितीय एवं विदेशी भाषाशिक्षण के अधिगम में शिक्षार्थी की मातृभाषा की ध्वनि एवं व्याकरणिक व्यवस्थाओं की सीखी हुई आदतें व्याघात पैदा करती हैं।
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