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दान का महत्व क्या है? क्या दान करना चाहिए? दान के विषय में वेद, पुराण और महाभारत का क्या मत है? यह ऐसा विषय है, जिसे जानना चाहिए। इसलिए, प्रमाणों द्वारा इस लेख में दान के महत्व के बारे में जानेंगे। दान के विषय में श्रीरामचरितमानस ने कहा- प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान। अर्थात् :- धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं, जिनमें से कलि में एक (दान रूपी) चरण ही प्रधान है। जिस किसी प्रकार से भी दिए जाने पर दान कल्याण ही करता है। बृहदारण्यकोपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद से जुड़ा एक उपनिषद है। इसमें ब्रह्मा जी ने मनुष्यों के लिए उपदेश दिया है। वह उपदेश इस प्रकार है- अथ हैनं मनुष्या ऊचुर्ब्रवीतु नो भवानिति तेभ्यो हैतदेवाक्षरमुवाच द इति व्यज्ञासिष्टा३ इति व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दत्तेति न आत्थेत्योमिति होवाच व्यज्ञासिष्टेति॥२॥ अर्थात् - प्रजापति (ब्रह्मा) से मनुष्यों ने कहा, ‘आप हमें उपदेश कीजिये।’ प्रजापति ने उनसे भी ‘द’ अक्षर कहा और पूछा ‘समझ गए क्या?’ इस पर उन्होंने कहा, ‘समझ गये, आपने हमसे दान करो ऐसा कहा है।’ तब प्रजापति ने कहा, ‘ठीक है, तुम समझ गये।’ दान करो अर्थात् मनुष्य स्वभावतः लोभी और मरने के बाद क्या फल मिलेगा यह नहीं सोचता। इसलिए यथाशक्ति संविभाग करों दान दो। यह मनुष्य के अर्थात् स्वयं के हित की बात है। दान के संबंध में, तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया, जो कृष्ण शुक्ल यजुर्वेद से जुड़ा एक उपनिषद है - श्रद्धया देयम्। अश्रद्धयाऽदेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्। अर्थात् :- श्रद्धा से, लज्जा से, भय से भी कोई दान करो तो फल मिलेगा। कुछ लोग भय से दान करते है। जो भय दान करते है वो अपने परमार्थ की चिंता करते है अर्थात् उनको यह भय रहता है कि अगर हम दान नहीं करेगें तो मरने के बाद क्या होगा? इस भय से वो दान देते है। जो दान नहीं करता, इस विषय में गरुडपुराण में कहा गया। अदत्तदानाच्च भवेद्दरिद्रो दरिद्रभावाच्च करोतिपापम्। अर्थात् :- दान न देने से प्राणी दरिद्र होता है। दरिद्र हो जाने पर फिर पाप करता है। पाप के प्रभाव से नरक में जाता है और नरक से लौटकर पुनः दरिद्र और पुनः पापी होता है। यानी जो दान नहीं करते, वो दरिद्र होते है। पेट के लिए वो पाप करते है। पाप करने से नरक जाते है। फिर नरक से लोटकर पुनः वे दरिद्र होते है। इस प्रकार दरिद्र बनने का क्रम चलता जाता है। अतः थोड़ा ही, परन्तु दान करना चाहिए। यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्। अर्थात् :- मनुष्य को चाहिए कि उतनी ही संपत्ति के स्वामित्व का दावा करें जितनी शरीर - निर्वाह के लिए पर्याप्त है, किंतु जो इससे अधिक के स्वामित्व की इच्छा करता है, वह चोर है और प्रकृति के नियमों के द्वारा दंडित होने योग्य है। यानी जितने धन से शरीर-निर्वाह हो जाये अर्थात् भोजन, कपड़े एवं भवन के लिए जितने धन की आवश्यकता हो केवल उतने धन पर अपना अधिकार जताना चाहिए। इससे अधिक धन अगर हो तो उसे इकठा नहीं करना चाहिए। उसे दान कर देना चाहिए। क्योंकि इससे अधिक धन इकठा करने पर प्रकृति के नियमों के द्वारा दंड मिलता है। महाभारत शांतिपर्व २६.२८ में कहा गया ‘लब्धस्य त्यागमित्यार्हुन भोगं न च संचयम्।’ अर्थात् “जो धन प्राप्त हो उसका भोग या संग्रह करने से दान करना अच्छा है।” दान का फल क्या है?कुछ दान का फल इस जन्म में ही मिल जाता है और कुछ अगले जन्म में। जैसे किसी धनवान व्यक्ति के घर में जन्म जो लेता है, वो उसके किये गए दान का परिणाम है। वैसे दान में कई चीजें दान की जाती है - जल, अनाज, धन से लेकर भवन तक दान दिया जाता है। लेकिन उनका फल क्या है, इस बारे में गरुडपुराण में कहा गया - वारिदस्तृप्तिमाप्नोति सुखमक्षय्यमन्नदः। अर्थात् :- जल दान से तृप्ति, अन्न दान से अक्षय सुख, तिल दान से अभीष्ट संतान, दीप दान से उत्तम नेत्र, भूमि दान से अभिलषित पदार्थ, स्वर्ण दान से दीर्घ आयु, गृह दान से उत्तम भवन और रजत (चांदी) दान से उत्तम रूप की प्राप्ति होती है। यह ध्यान रहे कि करोङपति द्वारा दान किया गया १०० रूपये और लखपति द्वारा दान किया गया १० रुपया समान है। इसलिए, अपनी स्थिति के अनुसार, यथासंभव दान करना चाहिए। पूर्व जन्म का किया हुआ दान, इस जन्म में भगवान द्वारा भाग्य के रूप में मिल जाता है। अतः हमें अगले जन्म केलिए सोचना चाहिए। और सोच कर दान करना चाहिए। लेकिन? दान चार प्रकार का होता है। जो भोजन उम्र को बढ़ाने वाले, मन, बुद्धि को शुद्ध करने वाले, शरीर को स्वस्थ कर शक्ति देने वाले, सुख और संतोष को प्रदान करने वाले, रसयुक्त और मन को स्थिर रखने वाले तथा हृदय को भाने वाले होते हैं, ऐसे भोजन सतोगुणी मनुष्यों को प्रिय होते हैं। प्रभासाक्षी के सहृदय गीता प्रेमियों ! इस दुनिया में सिर्फ शहद ही ऐसा खाद्य पदार्थ है जिसको सौ साल के बाद भी खाया जा सकता है और शहद जैसी बोली से सालों साल तक लोगों के दिल पर राज किया जा सकता है। गीता में मधुर बोली को सात्विक वाणी कहा गया है। आइए ! अब गीता के आगे के प्रसंग में चलते हैं... पिछले अंक में भगवान ने अर्जुन को शास्त्र विधि के अनुसार कर्म करने का उपदेश दिया। इस पर अर्जुन ने प्रश्न किया... इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: श्रीकृष्ण ने कहा है- आसुरी स्वभाव वाले व्यक्ति ही अपने आप को भगवान मानने लगते हैंअर्जुन उवाच ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ अर्जुन ने कहा- हे कृष्ण ! जो मनुष्य शास्त्रों के विधान का उल्लंघन कर किन्तु पूर्ण श्रद्धापूर्वक भगवान की पूजा अर्चना करते हैं, उनकी श्रद्धा फिर कौन-सी है, सतोगुणी, रजोगुणी, या तमोगुणी ? श्री भगवान उवाच यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः । प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः ॥ भगवान अर्जुन की शंका का समाधान करते हुए कहते हैं--- सात्त्विक गुणों से युक्त मनुष्य देवी-देवताओं को पूजते हैं, राजसी गुणों से युक्त मनुष्य यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं और अन्य तामसी गुणों से युक्त मनुष्य भूत-प्रेत आदि को पूजते हैं। अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः । दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥ जो मनुष्य शास्त्रों के विधान के विरुद्ध अपने को बुद्धिमान, चतुर समझकर कल्पना द्वारा व्रत धारण करके कठोर तपस्या करतें हैं, ऐसे घमण्डी मनुष्य कामनाओं, आसक्ति और बल के अहंकार से प्रेरित होते हैं। कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः । मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ॥ ऐसे भ्रमित बुद्धि वाले मनुष्य सबके हृदय में स्थित मुझ परमात्मा को भी कष्ट देने वाले होते हैं, उन सभी अज्ञानियों को तुम निश्चित रूप से असुर ही समझो। आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः । यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु ॥ हे अर्जुन! सभी मनुष्यों का भोजन भी प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है और यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं, इनके भेदों को तुम मुझ से सुनो। आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः । रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥ जो भोजन उम्र को बढ़ाने वाले, मन, बुद्धि को शुद्ध करने वाले, शरीर को स्वस्थ कर शक्ति देने वाले, सुख और संतोष को प्रदान करने वाले, रसयुक्त और मन को स्थिर रखने वाले तथा हृदय को भाने वाले होते हैं, ऐसे भोजन सतोगुणी मनुष्यों को प्रिय होते हैं। कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः । आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ कड़वे, खट्टे, नमकीन, अत्यधिक गरम, चटपटे, रूखे, जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी मनुष्यों को रुचिकर होते हैं, इस प्रकार के भोजन दुःख, शोक तथा रोग को बढ़ाते हैं। यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् । उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥ जो भोजन अधिक समय का रखा हुआ, स्वादहीन, दुर्गन्धयुक्त, सड़ा हुआ, दूसरे के द्वारा जूठा किया हुआ और अपवित्र होता है, वह भोजन तमोगुणी मनुष्यों को प्रिय होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि तामसी प्रवृति के लोग भोजन और उसके परिणाम पर विचार करते ही नहीं उचित और अनुचित का विचार किए बिना, हाथ-पैर धोए बिना, चप्पल जूते पहनकर पशु की तरह खाने में लग जाते हैं। अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते । यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ जो यज्ञ और पूजा-पाठ बिना किसी फल की इच्छा से, शास्त्रों के निर्देशानुसार किया जाता है और जो यज्ञ मन को स्थिर करके कर्तव्य समझकर केवल प्रभु की प्रसन्नता के लिए किया जाता है वह सात्त्विक यज्ञ होता है। इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: गीता में कहा गया है- संसार रूपी वृक्ष में परमात्मा ही प्रधान हैंअभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् । इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥ परन्तु हे भरतश्रेष्ठ ! जो यज्ञ और पूजा-पाठ केवल फल की इच्छा के लिये अहंकार से युक्त होकर किया जाता है उसको तू राजसी यज्ञ समझ। हमारे समाज में हमें धन-संपत्ति मिले, पति-पत्नी, पुत्र-परिवार अच्छा मिले, नौकर-चाकर हमारे अनुकूल मिले, हमारा शरीर निरोग रहे, देश-दुनिया में आदर-सत्कार, और प्रसिद्धि प्राप्त हो, हमारे दुश्मन नष्ट हो जाएँ इतना ही नहीं मरने के बाद भी स्वर्ग लोक में सुंदर-सुंदर भोग भोगने को मिले। इन कामनाओं से प्रेरित होकर किए गए यज्ञ और अनुष्ठान कर्मों को राजसी समझना चाहिए। विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् । श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ जो यज्ञ शास्त्रों के निर्देशों के बिना, अन्न का वितरण किये बिना, वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के बिना, पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना और श्रद्धा के बिना किये जाते हैं, उन यज्ञ को तामसी यज्ञ माना जाता है। कभी-कभी तामस प्रवृत्ति के लोग यह सोचते हैं कि हमने यज्ञ में आहुति दे दी और ब्राह्मणों को ठीक से भोजन करा दिया, अब उनको दक्षिणा देने की क्या जरूरत है? यदि हम उनको दक्षिणा देंगे तो वे आलसी हो जाएँगे कुछ काम नहीं करेंगे। वे लोग यह नहीं सोचते कि ब्राह्मणों को दक्षिणा न देने से वे आलसी या प्रमादी बने या न बने शास्त्र नियम का उल्लंघन कर हम तो प्रमादी बन गए। यज्ञ अथवा अनुष्ठान आदि कर्म सम्पन्न होने के बाद ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा अवश्य देना चाहिए, यह शास्त्र की आज्ञा है। अब, आगे भगवान शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप का वर्णन करते हुए कहते हैं---- देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-- ईश्वर, ब्राह्मण, गुरु, माता, पिता के समान पूज्यनीय व्यक्तियों का पूजन करना, आचरण की शुद्धता, मन की शुद्धता, इन्द्रियों के विषयों के प्रति अनासक्ति और मन, वाणी और शरीर से किसी को भी कष्ट न पहुँचाना, शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है। अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥ किसी को भी कष्ट न पहुँचाने वाले शब्द बोलना, सत्य वोलना, प्रिय लगने वाले हितकारी शब्द वोलना और वेद-शास्त्रों का उच्चारण द्वारा अध्यन करना, वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है। मनुस्मृति में कहा गया है... सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् । प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन: ॥ मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ मन में संतोष का भाव, सभी प्राणियों के प्रति आदर, प्रेम का भाव, केवल ईश्वरीय चिन्तन का भाव, मन को आत्मा में स्थिर करने का भाव और सभी प्रकार से मन को शुद्ध करना, मन सम्बन्धी तप कहा जाता है। अब भगवान सात्विक, राजसिक और तामसिक दान के लक्षण बताते हुए कहते हैं--- दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे । देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥ जो दान कर्तव्य समझकर, बिना किसी उपकार की भावना से, उचित स्थान में, उचित समय पर और योग्य व्यक्ति को ही दिया जाता है, उसे सात्त्विक (सतोगुणी) दान कहा जाता है। यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः । दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ किन्तु जो दान बदले में कुछ पाने की भावना से अथवा किसी प्रकार के फल की कामना से और बिना इच्छा के दिया जाता है, उसे राजसी (रजोगुणी) दान कहा जाता है। इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया था- कौन पुरुष गुणों से भरपूर होता हैअदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते । असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ जो दान अनुचित स्थान में, अनुचित समय पर, अज्ञानता के साथ, अपमान करके अयोग्य व्यक्तियों को दिया जाता है, उसे तामसी (तमोगुणी) दान कहा जाता है। अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् । असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ हे पृथापुत्र अर्जुन ! बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी "असत्" कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है। तुलसीदास जी कहते हैं— श्रद्धा और प्रसन्नता पूर्वक दान करने से हमारा धन घटता नहीं बल्कि शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की तरह धीरे-धीरे बढ़ता रहता है। तुलसी पंछिन के पिये, घटे न सरिता-नीर । दान दिये धन ना घटे, जो सहाय रघुवीर ।। श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु-------- जय श्री कृष्ण ---------- -आरएन तिवारी गीता के अनुसार दान कितने प्रकार का है?गीता के अनुसार दान तीन प्रकार का होता है सतोगुणी, रजोगुणी, और तमोगुणी ।
गीता दान करने से क्या होता है?इस दिन गीता का दान ब्रहामण को करना चाहिए। मान्यता है कि गीता का दान यदि मनुष्य करें तो उसे अमोघ पुण्य की प्राप्ति होती है।
दान कैसे देना चाहिए?* स्वयं जाकर दिया हुआ दान उत्तम एवं घर बुलाकर दिया हुआ दान मध्यम फलदायी होता है। जब गौ, ब्राम्हणों तथा रोगियों को कुछ दिया जाता हो, उस समय यदि कोई व्यक्ति उसे न देने की सलाह देता हो, तो वह दुःख भोगता है। * तिल, कुश, जल और चावल को हाथ में लेकर दान देना चाहिए अन्यथा उस दान पर दैत्य अधिकार कर लेते हैं।
दान कितने प्रकार के होते हैं?प्रकार. विद्या दान - विद्या देना. भू दान - भूमि देना. अन्न दान - खाना देना. कन्या दान - कन्या को विवाह के लिए वर को देना. गो दान - गाय देना. |