Gandhi से हमें क्या शिक्षा मिलती है? - gandhi se hamen kya shiksha milatee hai?

महात्मा गांधी जी ने हम बापू के नाम से जानते हैं उनका पूरा जीवन ही अपने आप में एक स्कूल की तरह है |जिसे फॉलो कर कर आप अपने जीवन में नई ऊंचाइयां पा सकते हैं| गांधी जी ने अपने अनुभव के आधार पर कई किताबें लिखी वहीं किताबें आज हमें जीवन की नई राह दिखाती हैं| उनकी सोच हमें नवीनतम मनोवैज्ञानिक राह दिखाती है उनके विचार आज भी उतने ही सार्थक हैं जितने कि वह तब थे यदि उनके विचारों पर अमल किया जाए तो हम जीवन में कई तरह से आनंद पा सकते हैं|उन्हीं के कुछ विचारों का आज की धारा में विश्लेषण आपके सामने प्रस्तुत है -

1.ऐसे जियें जैसे आपको कल मरना है सीखें ऐसे कि आपको हमेशा जीवित रहना है|" -गांधी जी का यह विचार हमें लगातार सीखने की ओर प्रेरित करता है |कई बार हम यह सोचकर नया नहीं सीखते कि अब सीख कर क्या करना है |हमें जीना ही कितना है; मगर गांधीजी के अनुसार सीखने की कोई उम्र नहीं होती जब जागो तब सवेरा|

2. जो समय बचाते हैं वह धन को बचाते हैं, बचाया धन कमाए धन के समान ही महत्वपूर्ण है|"- हम में से कई लोग हैं जो अक्सर ये कहते हैं क्या करें टाइम ही नहीं मिलता| मगर भगवान ने सभी को 24 घंटे ही दिए हैं किसी को कम या ज्यादा नहीं तो फिर कोई और कर सकता है तो हम क्यों नहीं |क्या हम में काबिलियत नहीं है; कुछ अलग से करने की ऐसा नहीं है |इसका कारण टाइम मैनेजमेंट का ना होना यदि हम लगातार अपना समय बचाएं | अपने समय को अनावश्यक रूप से व्यर्थ ना करके उसका सदुपयोग करें ;तो हम अपने साथ-साथ दूसरों का जीवन भी सवार सकते हैं |

3.आंख के बदले आंख पूरे विश्व को अंधा बना देगी "-आज के समय हर कोई किसी की तरक्की नहीं देख सकता |हर समय एक दूसरे की टांग खींचने पर लगे हुए रहते हैं| यदि कोई व्यक्ति किसी की उन्नति में बाधा बनता है; तो कोई दूसरा व्यक्ति उसकी उन्नति में बाधा बन जाता है| जैसा हम दूसरे के लिए करते हैं वैसा ही हम अपने लिए पाते हैं |इसलिए अपनी सोच को सदैव सकारात्मक रखें| बदला लेने की भावना अपने मन पर हावी होने ना दें| ताकि खुद भी तरक्की कर सकें और दूसरों की तरक्की पर हमें मलाल ना हो |

4.प्रसन्नता ही एक मात्र ऐसा इत्र है जिसे आप दूसरे पर डालते हैं तो कुछ बूंद आप पर भी पड़ती है "-हंसता हुआ चेहरा हर किसी को पसंद होता है| हर हंसने वाले चेहरे के साथ दुनिया हंसती है| यदि आप अपनी छवि को हमेशा अच्छा बनाए रखना चाहते हैं सदैव प्रसन्न रहकर अपने आसपास का माहौल खुशनुमा बना सकते हैं |

5.व्यक्ति की पहचान उसके कपड़ों से नहीं उसके चरित्र से होती है"- कई बार हम बाहरी आवरण को देख किसी की तरफ आकर्षित हो जाते हैं |मगर जब हम उसके करीब जाते हैं तो हम सच्चाई से रूबरू हो पाते हैं |किसी व्यक्ति के कपड़ों से हम उसके व्यक्तित्व को नहीं समझ सकते| वह उसके व्यक्तित्व का कवर मात्र है| उसका व्यक्तित्व उसके चरित्र से उजागर होता है|

6. आप जो कुछ भी करते हैं वह कम महत्वपूर्ण हो सकता है ;मगर सबसे महत्वपूर्ण यह है कि आप कुछ करें"- हम कई बार किसी कार्य को करने के पहले "वह जरूरी नहीं है"" वह कम महत्वपूर्ण है ऐसे विचार हमारे  दिमाग में चलते रहते हैं और हम उस कार्य को शुरू ही नहीं कर पाते | मगर यदि हम किसी कार्य को करेंगे ही नहीं तो कैसे पता चलेगा वह महत्वपूर्ण है या नहीं| कार्य महत्वपूर्ण है या नहीं यह जरूरी नहीं है कार्य का होना जरूरी है|

महात्मा गांधी की मूलतः गुजराती में लिखी पुस्तक हिन्द स्वराज्य (Indian Home Rule) एक बार फिर अपने सौ साल पूरे होने पर चर्चा में है । महात्मा गांधी की यह बहुत छोटी सी पुस्तिका कई सवाल उठाती है और अपने समय के सवालों के वाजिब उत्तरों की तलाश भी करती है । सबसे महत्व की बात है पुस्तक की शैली। यह किताब प्रश्नोत्तर की शैली में लिखी गयी है । पाठक और संपादक के सवाल-जवाब के माध्यम से पूरी पुस्तक एक ऐसी लेखन शैली का प्रमाण जिसे कोई भी पाठक बेहद रूचि से पढ़ना चाहेगा। यह पूरा संवाद महात्मा गांधी ने लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए लिखा था । 1909 में लिखी गयी यह किताब मूलतः यांत्रिक प्रगति और सभ्यता के पश्चिमी पैमानों पर एक तरह हल्लाबोल है। गांधी इस कल्पित संवाद के माध्यम से एक ऐसी सभ्यता और विकास के ऐसे प्रतीकों की तलाश करते हैं जिनसे आज की विकास की कल्पनाएं बेमानी साबित हो जाती हैं। गांधी इस मामले में बहुत साफ थे कि सिर्फ अंग्रेजों के देश के चले से भारत को सही स्वराज्य नहीं मिल सकता, वे साफ कहते हैं कि हमें पश्चिमी सभ्यता के मोह से बचना होगा। पश्चिम के शिक्षण और विज्ञान से गांधी अपनी संगति नहीं बिठा पाते। वे भारत की धर्मपारायण संस्कृति में भरोसा जताते हैं और भारतीयों से आत्मशक्ति के उपयोग का आह्लान करते हैं। भारतीय परंपरा के प्रति अपने गहरे अनुराग के चलते वे अंग्रेजों की रेल व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था, न्याय व्यवस्था सब पर सवाल खड़े करते हैं। जो एक व्यापक बहस का विषय हो सकता है। हालांकि उनकी इस पुस्तक की तमाम क्रांतिकारी स्थापनाओं से देश और विदेश के तमाम विद्वान सहमत नहीं हो पाते। गांधी जी के राजनीतिक गुरू श्री गोपाल कृष्ण गोखले जैसे महान नेता को भी इस किताब में कच्चा पन नजर आया ।

गांधी जी के यंत्रवाद के विरोध को दुनिया के तमाम विचारक सही नहीं मानते । मिडलटन मरी कहते हैं-गांधी जी अपने विचारों के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं इंसान की बनाई हुयी चीज है।हालांकि जब दिल्ली की एक सभा में उनसे यह पूछा गया कि क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं तो महात्मा गांधी ने अपने इसी विचार को कुछ अलग तरह से व्यक्त किया। महात्मा गांधी ने कहा कि- वैसा मैं कैसे हो सकता हूं, जब मैं यह जानता हूं कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है। खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी सी दांत कुरेदनी भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है उसके लिए है।वे यह भी कहते हैं मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करना नहीं बल्कि उनकी हद बांधने का है। अपनी बात को साफ करते हुए गांधी जी ने कहा कि ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें। कुल मिलाकर गांधी, मनुष्य को पराजित होते नहीं देखना चाहते हैं। वे मनुष्य की मुक्ति के पक्षधर हैं। उन्हें मनुष्य की शर्त पर न मशीनें चाहिए न कारखाने।

महात्मा गांधी की सबसे बड़ी देन यह है कि वे भारतीयता का साथ नहीं छोड़ते, उनकी सोच धर्म पर आधारित समाज रचना को देखने की है। वे भारत की इस असली शक्ति को पहचानने वाले नेता हैं। वे साफ कहते हैं- मुझे धर्म प्यारा है, इसलिए मुझे पहला दुख तो यह है कि हिंदुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं हिंदू, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है भारतीय होने का धर्मय वह हिंदुस्तान से जा रहा है, हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।’  वे धर्म के प्रतीकों और तीर्थ स्थलों को राष्ट्रीय एकता के एक बड़े कारक के रूप में देखते थे। वे कहते हैं- जिन दूरदर्शी पुरूषों ने सेतुबंध रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी और हरिद्वार की यात्रा निश्चित की उनका आपकी राय में क्या ख्याल रहा होगा। वे मूर्ख नहीं थे। यह तो आप भी कबूल करेंगें। वे जानते थे कि ईश्वर भजन घर बैठे भी होता है। गांधी कहते हैं- हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं। उससे वह राष्ट्र मिटनेवाला नहीं है। जो नए लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुल-मिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जाएगा। ऐसे मुल्क में दूसरों के गुणों का समावेश करने का गुण होना चाहिए। हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है।महात्मा गांधी की राय में धर्म की ताकत का इस्तेमाल करके ही हिंदुस्तान की शक्ति को जगाया जा सकता है। वे हिंदू और मुसलमानों के बीच फूट डालने की अंग्रेजों की चाल को वे बेहतर तरीके से समझते थे। वे इसीलिए याद दिलाते हैं कि हमारे पुरखे एक हैं, परंपराएं एक हैं। वे लिखते हैं-  बहुतेरे हिंदुओं और मुसलमानों के बाप-दादे एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए। धर्म तो एक ही जगह पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं।

गांधी राष्ट्र को एक पुरातन राष्ट्र मानते थे। ये उन लोगों को एक करारा जबाब भी है जो यह मानते हैं कि भारत तो कभी एक राष्ट्र था ही नहीं और अंग्रेजों ने उसे एकजुट किया। एक व्यवस्था दी। इतिहास को विकृत करने की इस कोशिश पर गांधी जी का गुस्सा साफ नजर आता है। वे हिंद स्वराज्य में लिखते हैं- आपको अंग्रेजों ने सिखाया कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक राष्ट्र बनने में आपको सैंकड़ों बरस लगे। जब अंग्रेज हिंदुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे। हमारा रहन-सहन भी एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया।गांधी इस अंग्रेजों की इस कूटनीति पर नाराजगी जताते हुए कहते हैं- दो अंग्रेज जितने एक नहीं है उतने हम हिंदुस्तानी एक थे और एक हैं।एक राष्ट्र-एक जन की भावना को महात्मा गांधी बहुत गंभीरता से पारिभाषित करते हैं। वे हिंदुस्तान की आत्मा को समझकर उसे जगाने के पक्षधर थे। उनकी राय में हिंदुस्तान का आम आदमी देश की सब समस्याओं का समाधान है। उसकी जिजीविषा से ही यह महादेश हर तरह के संकटों से निकलता आया है। गांधी देश की एकता और यहां के निवासियों के आपसी रिश्तों की बेहतरी की कामना भर नहीं करते वे इस पर भरोसा भी करते हैं।

शिक्षा के उद्देश्य पर चलने वाली बहस पुरानी है। भारत की आधुनिक शिक्षा पध्दति अंग्रेजी राज की देन है। अंग्रेजी राज की शिक्षा का उद्देश्य भारत की सभ्यता को अंग्रेजी सभ्यता में ढालना था । भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के प्रति आत्महीन भाव पैदा करना था। अंग्रेजी राज को जायज ठहराने वाले विद्वान पुरूष पैदा करना था। लार्ड मैकाले ने इसी बड़े लक्ष्य को लेकर भारतीय शिक्षा प्रणाली का ताना-बाना बुना था। अंग्रेजी सत्ताधीशों की भाषा थी, अफसरों और न्यायालयों की भाषा थी। सो अंग्रेजी सम्मान और हनक-ठसक की भाषा भी थी। गांधी जी ने हिन्द स्वराजमें लिखा, यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इन्साफ पाना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। बैरिस्टर होने पर मैं स्वभाषा में बोल ही नहीं सकता। दूसरे आदमी को मेरे लिए तरजुमा कर देना चाहिए । यह कुछ कम दंभ है? यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है? इसमे मैं अंग्रेजों का दोष निकालूं या अपना? हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं।

राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी, बल्कि हम पर पड़ेगी। गांधी जी की टिप्पणी में आक्रामकता के साथ वेदना भी है कि राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं बल्कि हम पर पड़ेगी। भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं होती। प्रत्येक संस्कृति की अपनी भाषा होती है, प्रत्येक भाषा की अपनी संस्कृति भी होती है। भारतीय संस्कृति की भाषा संस्कृत थी और है। संस्कृत भाषा ने भारतीय संस्कृति को राष्ट्रव्यापी, वैज्ञानिक और दार्शनिक बनाया था। हिन्दी संस्कृत का नया रूप है। अंग्रेजी भाषा की भी अपनी संस्कृति है। अंग्रेजी भाषा और संस्कृति में विज्ञान, इतिहास और सभी विषयों की अपनी दृष्टि है। यह दृष्टि दैहिक और भोगवादी है। यहां अंग्रेजी शिक्षा के साथ अंग्रेजी सभ्यता भी आई थी। गांधी जी ने लिखा, आपको समझना चाहिए कि अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरा बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है।गांधी जी ने लिखा, करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकॉले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। उसने इसी इरादे से अपनी योजना बनायी थी, ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता। लेकिन उसके काम का नतीजा यही निकला है। यह कितने दुख की बात है कि हम स्वराज्य की बात भी परायी भाषा में करते हैं?’

हिंद स्वराज्य के शताब्दी वर्ष के बहाने हमें एक अवसर है कि हम उन मुद्दों पर विमर्श करें जिन्होंने इस देश को कई तरह के संकटों से घेर रखा है। राजनीति कितनी भी उदासीन हो जाए उसे अंततः इन सवालों से टकराना ही है। भारतीय राजनीति ने गांधी का रास्ता खारिज कर दिया बावजूद इसके उनकी बताई राह अप्रासंगिक नहीं हो सकती। आज जबकि दुनिया वैश्विक मंदी का शिकार है। हमें देखना होगा कि हम अपने आर्थिक एवं सामाजिक ढांचे में आम आदमी की जगह कैसे बचा और बना सकते हैं। जिस तरह से सार्वजनिक पूंजी को निजी पूंजी में बदलने का खेल इस देश में चल रहा है उसे गांधी आज हैरत भरी निगाहों से देखते। सार्वजनिक उद्यमों की सरकार द्वारा खरीद बिक्री से अलग आदमी को मजदूर बनाकर उसके नागरिक सम्मान को कुचलने के जो षडयंत्र चल रहे हैं उसे देखकर वे द्रवित होते। गांधी का हिन्द स्वराज्य मनुष्य की मुक्ति की किताब है। यह सरकारों से अलग एक आदमी के जीवन में भी क्रांति ला सकती है। ये राह दिखाती है। सोचने की ऐसी राह जिस पर आगे बढ़कर हम नए रास्ते तलाश सकते हैं। मुक्ति की ये किताब भारत की आत्मा में उतरे हुए शब्दों से बनी है। जिसमें द्वंद हैं, सभ्यता का संघर्ष है किंतु चेतना की एक ऐसी आग है जो हमें और तमाम जिंदगियों को रौशन करती हुयी चलती है। गाँधी की इस किताब की रौशनी में हमें अंधेरों को चीर कर आगे आने की कोशिश तो करनी ही चाहिए ।

महात्मा गांधी के जीवन से हमें क्या शिक्षा मिलती है?

शांति और धैर्य से काम करना लेकिन अंग्रेजों से लड़ने के लिए भी गांधीजी ने अहिंसा का रास्ता अपनाया और शांति और धैर्य रखकर वह हासिल कर लिया जो वह चाहते थे। हमें याद रखना चाहिए कि कई बार परिस्थितियां हमारे अनुकूल, हमारे मनमुताबिक नहीं होती। लेकिन उस वक्त भी हमें धैर्य नहीं खोना चाहिए।

महात्मा गांधी के विचारों के मुख्य शिक्षा क्या है?

गांधीजी के शिक्षा संबंधी विचार वे शिक्षा को मानव के सर्वांगीण विकास का सशक्त माध्यम तानते थे। अतः वर्धा योजना में उन्होंने प्रथम सात वर्षों की शिक्षा को निःशुल्क एवं अनिवार्य किये जाने पर बल दिया था। गांधीजी का यह मानना भी था कि व्यक्ति अपनी मातृभाषा में शिक्षा को अधिक रुचि तथा सहजता के साथ ग्रहण कर सकता है।

गांधीजी की सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा कौन सी है?

गाँधीजी के अनुसार बुनियादी शिक्षा के प्रमुख तत्व.
नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा,.
मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा,.
स्वावलम्बी शिक्षा,.
जीवन से संबंधित शिक्षा,.
हस्त कौशल पर आधारित शिक्षा,.

गांधीजी ने शिक्षा का क्या उद्देश्य बताया है?

गाँधीजी के अनुसार,शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य परम सत्य या अन्तिम वास्तविकता (ईश्वर) से साक्षात्कार करना है। सत्य का अन्वेषण एवं आत्मा का ज्ञान आवश्यक है ताकि उसमें नैतिक गुणों का प्रादुर्भाव हो सके तथा उसका चारित्रिक विकल्प खोजा जा सके। आत्मानुभूति या आत्म-साक्षात्व के लिये 'आत्मा' का प्रशिक्षण आवश्यक है।