पाशो अभी किशोरी ही थी, जब उसकी माँ विधवा होकर शेखों की हवेली जा चढ़ी। ऐसे में माँ ही उसके मामुओं के लिए कुलबोरनी नहीं हो गई, वह भी सन्देहास्पद हो उठी। नानी ने भी एक दिन कहा ही था-‘‘सँभलकर री, एक बार का थिरका पाँव ज़िन्दगानी धूल में मिला देगा!’’ एक नौसिखिए लेखक की रचनात्मक क्षमताओं और सीमाओं से अलग ‘डार से बिछुड़ी’ के सीधे सरल पाठक की संरचना में उसकी मूल सम्भावनाएँ पहले से ही निहित थीं। पुराने वक्तों के आख्यान ने स्वयं अपना कथ्य कुछ ऐसे संयम से निर्धारित किया कि पहले वाक्यांश ने ही लेखक को चौंका दिया। जिएँ ! जागें ! सब जिएँ-जागें ! ‘डार से बिछुड़ी’ का पाठ लिखने में कुछ ऐसा बना कि जैसे पहले ही लिखी जा चुकी इबारत को मन से कागज पर उतारना हो। कोई झिझक, सन्देह या भाषायी उलझन नहीं हुई और फिरंगी की छावनी में पहुँच कहानी अपने आप ही समाप्त हो गई। लिफाफे पर ‘निकष’—इलाहाबाद का पता लिखा और ‘डार से बिछुड़ी’ को डाक से ‘निकष’ के सम्पादक धर्मवीर भारती को विचारार्थ प्रस्तुत कर दिया। मन में न छपने की बेचैनी थी और न ही उत्सुकता। नए लेखक वाली कोई चिन्ता और उत्तेजना भी नहीं थी। ‘निकष’ ने जब इसे विशेष कृति करके प्रकाशित किया तो देखकर विस्मय हुआ और न ही विशेष उल्लास की प्रतिक्रिया। ‘डार से बिछुड़ी’ के पाठ से जो उम्मीद उसके लेखक को थी, ‘निकष’ सम्पादक ने उसकी ताईद की थी। इतना कम नहीं था। ‘निकष’ में कहानी को पढ़ा। कहीं कुछ बदला न गया था। कोई परिवर्तन नहीं। सही समय पर मैं आश्वस्त हुई। ‘डार से बिछुड़ी’ के प्रकाशन के साथ ही मेरी रचनाओं पर नजर रखी जाने लगी। लेखक के लिए सबसे बड़ा पुरस्कार और भला क्या हो सकता था ! ‘डार से बिछुड़ी’ के पाठक और सुधी आलोचकों, पाठकों के प्रति गहरे भाव से कृतज्ञ हूँ। हाल ही में जब इसे पढ़ा तो लगा कहानी कहने की यह रफ्तार मुझे अब भी कायम रखनी चाहिए थी। विनम्रतापूर्वक इतना ही कि अपने बलबूते पर मेरे हाथ से
उधड़ती चली गई। सुबह-शाम नई दिल्ली की टैंकर से धुलनेवाली तारकोली सड़कों की रंगत बदल गई थी। पटरियाँ उदास, गुस्सील, गमगीन शरणार्थियों को टोलियों से अटी पड़ी थीं। मैली-कुचैली, पगड़ियाँ और दुपट्टे। घायल लुटे नुचे लोगों के ठट्ट के ठट्ट। कैम्प। बेवतनों के नए नागरिक वार्ड बन रहे हैं। अपने ठीयों से उखड़े हुए, जड़ों से दूर बदहवास, फिक्रमन्द ख़लकतें और एक दूसरे को रौंदता भाषायी शोर ! खड़े-खड़े लड़ाई-झगड़े। अपनी तल्खियों को उतार फेंकने के लिए तू-तू मैं-मैं,
हाथापाई, धक्का-मुक्की। जाने किस-किस शहर के मुर्दा साये बचे-खुचे अपने इलाकेवालों के साथ भटकते छितरते-छिटकते राजधानी में आ जुटे थे। एक दुपहर मैसोनिक लॉज की डिस्पैंसरी पर लगी लाइनों पर खड़े शरणार्थियों के कार्ड बनवाने की ड्यूटी लगी थी हमारे ग्रुप की। वहीं खड़ी भीड़ में माँ के कंधे से लगे एक बच्चे का भयानक चेहरा देखकर दिल दहल गया। एक आँख और माथे पर लगे दो गहरे घाव। ऊपर भिनभिनाती मक्खियाँ। विभाजन जब होना ही था तो यह वहशीपन क्यों न रोका जा सका ! नस्लकुशी ? चलते-चलते आसमान की ओर देखा। लगा एक बहुत बड़ी रस्सी पर ज़ख्मी घायल और
मरे हुए लोगों के कपड़े एक साथ सूख रहे हैं। घबराकर अपने को धमकाया। खबरदार। अब इन ख्यालों से अपने को दूर रखो। परे झटक दो और सड़क के साथ-साथ लगे इन छाँहदार हरे भरे पेड़ों की ओर देखो। अपनी हस्ती में मजबूती से जमे हैं और अपनी गहरी जड़ों से। जो उखड़कर सड़कों पर पड़े हैं—उनके लिए जो भी कर सको करो। भीड़ में अदृश्य हो गई वह लड़की। और मैं चलने लगी सर्राफे की ओर। रुपहली सुनहली जेवर और झक्क मोतियों की जड़त। तो लौट आओ। सिक्के और तलवारें—लड़ाई के वक्त छावनी और शहर में अंग्रेजों का पहरा लग गया था।
तहखानों और सिक्ख-फिरंगी युद्ध की जाने कितनी कहानियाँ हमने सुन रखी थीं। अपनी सेनाओं को पराजित कर अंग्रेजों ने शहर-भर में अपनी विजय का ऐलान कर दिया था। गलियों, नाकों और हवेलियों के मुख्य द्वारों पर फिरंगी गारद के पहले लग गए। रात के पहले पहर हमारे परिवार की सयानी पुरखन तहखानों में उतरी। अँधेरे में हरिसिंगे सिक्के झोली में डाले और पैड़ियों से ऊपर चढ़ी। जाने किस हड़बड़ाहट में सिक्के नीचे गिर पड़े और
ड्योढ़ी के सामने बिखर गए। गारद ने मुड़कर देखा तो सयानी पुरखन ने रोबीली आवाज़ में हुक्म दिया—उठाओ और इधर लाओ। मुझे दो। नहीं, जो सामने हो उसे सौ बरस पुराना किस्सा कैसे मिटा देगा। इस बीच कई बरस बीत गए। टुकड़ों-टुकड़ों में जाने क्या अन्दर जमा होता रहा। इसकी प्रतीति तभी हुई जब ‘डार से बिछुड़ी’ लिखनी शुरू की। एक रात मेज पर बैठी थी कि कोई चुपके से कान में दोहरा गया। जिएँ-जागें। सब जिएँ-जागें। उलाहने,
शिकायत, दुख-दर्द, कड़ुवाहट भुलाकर कौन कह रहा था कि सब जिएँ-जागें। जिएँ ! जागें ! सब जिएँ जागें ! पर कौन होती थी मैं अपने दुर्भाग्य से हरी-भरी बेलों को जला देनेवाली ! कौन होती थी मैं दूध-भरी झोलियों को सुखा देनेवाली ! कौन होती थी मैं भरी-भराई, लाड-सनी झोलियों को दहला देनेवाली ! मालिक के किए जब भरी रही मेरी झोली, हरी रही मेरी झोली, तो क्यों न लोक-जहान फले-फूले ! क्यों न अपने-पराये जिएँ-जागें ! हँस-खेलें उनकी भरी पूरी गृहस्थियाँ, जिन्होंने बाँहें बढ़ा मुझ कर्मजली को अपनी डार से मिला लिया। सब जिएँ ! सब जागें ! पर जो मैं थी, वह क्या फिर से लौट आई हूँ ? कभी नानी के संग ठाकुरद्वारे जाती तो नानी तेवर सिर चढ़ा सिर ठोकती— ‘‘अरी, यह कुलच्छनियोंवाले हाव-भाव !’’ |