रघुवीर सहाय - कविता में समाज और समाज में कविता की चिंताडॉ. व्यास मणि त्रिपाठी जीवन की समग्रता का बोध, मूल्यों के लिए प्रतिबद्धता और संघर्ष, आस्था और करूणा, परम्परा और प्रयोग, सहजता और संश्लिष्टता को कविता में संभव करने वाले रघुवीर सहाय अन्तर्विरोधों के सामंजस्य के कवि हैं। उनकी एक निश्चित विचारधारा है लेकिन उसके घेरे में सीमित रहना उनके कवि-स्वभाव के विपरीत है। वस्तुओं के बीच अंतर्सबंध और द्वन्द्वात्मक चेतना के साथ जीवन की संपूर्णता की तलाश उनकी प्रवृति है। इसीलिए जीवन
के प्रति अटूट आस्था का स्वर उनकी जीवन की संपूर्णता की तलाश उनकी प्रवृति है। इसीलिए जीवन के प्रति अटूट आस्था का स्वर उनकी कविताओं में सर्वाधिक मुखरित है। वे जीवन के प्रति जितना सचेत हैं उतना ही कविता के प्रति। उनके यहाँ यह सवाल भी है कि ‘रचना क्यों की जाय?’ और समाधान भी कि ‘‘मैं मौन रहूँ तो पता नहीं किस अनीति की स्वीकृति दे बैठूं।’’ यही कारण है कि वे कविता की चिन्ता लेकर समाज क निकट जाते हैं और समाज की चिन्ता के साथ कविता के निकट आते हैं। इसी संदर्भ में डॉ. परमानन्द श्रीवास्वत का कहना है कि
रघुवीर सहाय के यहाँ कविता की चिंता तथा समाज की चिंता परस्पर पर्याय हैं- ‘‘कविता की चिंता तथा समाज की चिंता वहाँ इस हद तक एक-दूसरे के लिए पर्याय हो चली है कि उन्हें रूपवादी या कलावादी कहकर अलग करना मुश्किल है। यह जरूर है कि रघुवीर सहाय की समाज-चिंता के अपने रूप हैं, उसे अनुभव करने या जाँचने की अपनी कसौटी है, उसे व्यक्त करने के अपने ढंग हैं, कभी बहुत सीधे और कभी बेहद जटिल। समाज से संपृक्ति और स्थूल सामाजिकता से अलगाव दोनों रघुवीर सहाय को एक साथ कवि-कर्म के हित में जरूरी लगते हैं।’’ (शब्द और
मनुष्य, पृष्ठ १०५)। समाज का अपना आत्म-बल और अपनी स्वतः स्फूर्त पहल का सभी क्षेत्रों में लगातार छीजना रघुवीर सहाय की चिंता का कारण है। इससे भी चिन्तनीय यह है कि सर्जनात्मक शब्द की जगह विज्ञापन देने की प्रवृति ही नहीं, आग्रह भी जोर पकड रहा है- |