भारत की प्राचीन लिपियां - सिंधु घाटी की लिपि को थोड़ी-देर के लिये छोड़ दिया जाय तो भारत के पुराने शिलालेखों और सिक्कों पर दी लिपियां - 1. ब्राह्मी, 2. खरोष्ठी मिलती हैं। पर पुस्तकों में और अधिक लिपियों के नाम मिलते है। जैनों के पत्रावणासूत्रा में 18 लिपियां- 1. बंभी, 2. जवणालि, 3. दीसापुरिया, 4. खरोष्ठी, 5. पुक्खरसारिया, 6. भोगवइया, 7. पहाराइया, 8. उपअन्तरिक्खिया, 9. अक्खरपिट्ठिया, 10. तेवणइया, 11. गि (णि) राइया, 12. अंकलिवि, 13. गणितलिवि, 14. गंधव्वलिवि, 15. आंदसलिवि, 16. माहेसरी, 17. दामित्नी, 18. पोलिंदी तथा बौद्धों की संस्कृत पुस्तक ‘ललितविस्तर’ में 64 लिपियां- इनमें ब्राह्मी और खरोष्ठी, इन दोनों का ही आज पता है। यों इनमें से अधिकांश नाम कल्पित ज्ञात होते हैं। Show
भारत की प्राचीन लिपियां1. खरोष्ठी लिपिखरोष्ठी लिपि के प्राचीनतम लेख शहबाजगढ़ी और मनसेरा में मिले हैं। आगे चलकर बहुत-से विदेशी राजाओं के सिक्कों तथा शिलालेखों आदि में यह लिपि प्रयुक्त हुई है। इसकी प्राप्त सामग्री मोटे रूप से 4थी सदी ई.पू. से 3री सदी ई. तक मिलती है। इसके इंडोबैक्ट्रियन, बैक्ट्रियन, काबुलियन, वैक्ट्रोपालि तथा आर्यन आदि और भी कई नाम मिलते हैं, पर अधिक प्रचलित नाम ‘खरोष्ठी’ ही है, जो चीनी साहित्य में 7वीं सदी तक मिलता है। खरोष्ठी लिपि नाम पड़ने के कारण ‘खरोष्ठी’ नाम पड़ने के संबंध में 9 बातें कही जाती हैं-
इन नवों में कोई भी बहुत पुष्ट प्रमाणों पर आधारित नहीं है, अतएव इस संबंध में पूर्ण निश्चय के साथ कुछ कहना कठिन है। यों अधिक विद्वान् इस लिपि की उत्पत्ति जैसा कि आगे हम लोग देखेंगे आर्मेइक लिपि से मानते हैं, अतएव आर्मेइक शब्द ‘खरोट्ठ’ से इसके नाम को संबद्ध माना जा सकता है। खरोष्ठी लिपि की उत्पत्ति के संबंध में सभी लोग एक मत नहीं है इस संबंध में प्रमुख रूप से दो मत हैं-
प्रथम मत का संबंध प्रसिद्ध लिपिवेत्ता जी. वूलर से है। इसका कहना है कि-
भारतीय लिपियों के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा भी इस मत से सहमत हैं। आधुनिक युग के लिपि-शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान् और अध्येता डिरिंजर ने भी इसी मत को स्वीकार किया है। दूसरा मत खरोष्ठी को शुद्ध भारतीय माने जाने का है। डॉ. राजबली पांडेय ने अपनी पुस्तक ‘इंडियन पैलोग्राफी’ में इस मत का प्रतिपादन किय है। यह मत केवल तर्क पर आधारित है। पूर्व मत की भांति ठोस आधारों की इसमें कमी है। अत: जब तक इस मत के पक्ष में कुछ ठोस सामग्री उपलब्ध न हो जाय, पूर्व मत की तुलना में इसे मान्यता नहीं प्राप्त हो सकती। खरीष्ठी लिपि उर्दू लिपि की भांति पहले दाएं से बांए को लिखी जाती थी, पर बाद में सम्भवत: ब्राह्मी लिपि के प्रभाव के कारण यह भी नागरी आदि लिपियों की भांति बाएं से दाएं को लिखी जाने लगी। डिरिंजर तथा अन्य विद्वानों का अनुमान है कि इस दिशा-परिवर्तन के अतिरिक्त कुछ और बातों में भी ब्राह्मी लिपि ने इसे प्रभावित किया। इसमें मूलत: स्वरों का अभाव था। वृत्त, रेखा या इसी प्रकार के अन्य चिन्हो द्वारा Ðस्व स्वरों का अंकन इसमें ब्राह्मी का ही प्रभाव है। इसी प्रकार भ, ध तथा घ आदि के चिन्ह आर्मेइक में नहीं थे। यह भी ब्राह्मी के ही आधार पर सम्मिलित किये गये। खरोष्ठी लिपि को बहुत वैज्ञानिक या पूर्ण लिपि नहीं कहा जा सकता। यह एक कामचलाऊ लिपि थी, और आज की उर्दू लिपि की भांति इसे भी लोगों को प्राय: अनुमान के आधार पर पढ़ना पड़ता रहा होगा। मात्राओं के प्रयोग की इसमें कमी है विशेषत: दीर्घ स्वरों (आ, ई, ऊ, ऐ और औ) का तो इसमें सर्वथा अभाव है। संयुक्त व्यंजन भी इसमें प्राय: नहीं के बराबर या बहुत थोड़े हैं। इसकी वर्णमाला में अक्षरों की मूल संख्या 37 है। खरोष्ठी-लिपि के अक्षर यहां दिये जा रहे हैं- ख्पहचान के लिए आरम्भ में नागरी अक्षर देकर उनके सामने उसी ध्वनि के खरोष्ठी अक्षर दिये गये हैं, 2. ब्राह्मी लिपिब्राह्मी प्राचीन काल में भारत की सर्वश्रेष्ठ लिपि रही है। इसके प्राचीनतम नमूने बस्ती जिले में प्राप्त पिपरावा के स्तूप में तथा अजमेर जिले के बडली (या बर्ली) गांव के शिलालेख में मिले हैं। इनका समय ओझा जी ने 5वीं सदी ई.पू. माना है। उस समय से लेकर 350 ई. तक इस लिपि का प्रयोग मिलता है। ब्राह्मी नाम का आधार इस लिपि के ‘ब्राह्मी’ नाम पड़ने के संबंध में कई मत हैं-
‘खरोष्ठी’ की भांति ही ब्राह्मी के विषय में भी व्यक्त ये मत केवल अनुमान पर ही आधारित हैं। ऐसी स्थिति में इनमें किसी को भी सनिश्चय स्वीकार नहीं किया जा सकता। यों पहला मत अन्य की अपेक्षा तर्क-सम्मत लगता है। ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति - ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति के प्रश्न को लेकर विद्वानों में बहुत विवाद होता आया है। इस विषय में व्यक्त किये गये विभिन्न मत दो प्रकार के हैं। एक के अनुसार ब्राह्मी किसी विदेशी लिपि से संबंध रखती है और दूसरे के अनुसार इसका उद्भव और विकास भारत में हुआ है। यहां दोनों प्रकार के मतों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है। ब्राह्मी किसी विदेशी लिपि से निकली है - इस संबंध में विभिन्न विद्वानों ने अपने अलग-अगल विचार व्यक्त किये हैं, जिनमें प्रमुख हैं-
वेबर, कस्ट, बेनफे तथा जेनसन आदि विद्वान् सामी लिपि की फोनीशियन शाखा से ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति मानते हैं। इस मत का मुख्य आधार है कुछ ब्राह्मी और फोनीशियन लिपि-चिन्हो का रूप-साम्य। इसे स्वीकार करने में दो आपत्तियां हैं -
बूलर का कहना है कि हिन्दुओ ने उत्तरी सामी लिपि के अनुकरण पर कुछ परिवर्तन के साथ अपने अक्षरों को बनाया। परिवर्तन से उसका आशय यह है कि कहीं लकीर को कुछ इधर-उधर हटा दिया जैसे ‘अलीफ़’ से ‘अ’ करने में- जहां लकीर न थी वहां नई लकीर बना दी, जैसे जाइन से ‘ज’ बनाने में, कहीं-कहीं लकीरें मिटा दीं जैसे ‘हेथ’ को ‘घ’ करने में- और इसी प्रकार कहीं नीचे लटकती लकीर ऊपर घुमा दी, कहीं तिरछी लकीर सीधी कर दी, कहीं आड़ी लकीर खड़ी कर दी, कहीं ित्राकोण को धनुषाकार बना दिया और कहीं कोण को अर्द्धवृत्त या कहीं लकीर को काटकर छोटी या बड़ी कर दी तो कहीं और कुछ। आशय है कि जहां जो परिवर्तन चाहा कर लिया। यहां दो बातें कहनी हैं:
बूलर ने इस द्रविण-प्राणायम के आधार पर यह सिद्ध किया कि ब्राह्मी के 22 अक्षर उत्तरी सामी से, कुछ प्राचीन फोनीशीय लिपि से, कुछ मेसा के शिलालेख से तथा 5 असीरिया के बाटों पर लिखित अक्षरों से लिये गये। इधर डॉ. डेविड डिरिंजर ने अपनी ‘द अलफाबेट’ नामक पुस्तक में बूलर का समर्थन करते हुए ब्राह्मी को उत्तरी सामी लिपि से उत्पन्न माना है। उत्तरी सामी से ब्राह्मी के उत्पन्न होने के लिए प्रधान तर्क ये दिये जाते हैं-
यहां एक-एक करके इन तर्कों पर विचार किया जा रहा है।
ब्राह्मी के उदाहरण जो दायें से बाये लिखे मिले हैं,
बूलर के सामने इनमें केवल प्रथम दो थे। तीसरा बाद में मिला है। ‘क’ के संबंध में यह कहना कि इसके उदाहरण बहुत थोड़े हैं जब कि इसके समकालीन लेखों में बायें से दायें लिखने के उदाहरण इससे कई गुने अधिक हैं। जैसा कि ओझा जी का अनुमान है यह लेखक की असावधानी के कारण हुआ ज्ञात होता है या संभव है देश-भेद के कारण इस प्रकार का विकास हो गया हो जैसे छठीं सदी के यशोधर्मन के लेख में ‘उ’ नागरी के ‘उ’ सा मिलता है, पर उसी सदी के गारुलक सिंहादित्य में दानपत्रा में ठीक उसके उलटा। बंगला का ‘च’ भी पहले बिल्कुल उल्टा लिखा जाता था। अतएव कुछ उल्टे अक्षरों के आधार पर लिपि की उल्टी लिखी जाने वाली (दायें से बायें) मानना उचित नहीं कहा जा सकता। ‘ख का संबंध सिक्के से है। किसी सिक्के पर अक्षरों का उलटे खुद जाना आश्चर्य नहीं। ठप्पे की गड़बड़ी के कारण प्राय: ऐसा हो जाता है। सातवाहन (आंध्र) वंश के राजा शातकण्र्ाी के भिन्न प्रकार के दो सिक्कों पर ऐसी अशुद्धि मिलती है। इसी प्रकार पार्थिअन् अब्दगसिस के एक सिक्के पर का खरोष्ठी का लेख भी उलट गया है। और भी इस प्रकार के उदाहरण हैं। इसी कारण प्रसिद्ध पुरातत्वेत्ता फ्लीट ने बुलर के इस तर्क को अर्थहीन माना है। ‘ग’ के संबंध में विचित्रता यह है कि इसमें एक पंक्ति बायें से दायें को लिखी मिलती हैं तो दूसरी दायें से बाएं और आगे भी इसी प्रकार परिवर्तन होता गया है। इससे ऐसा लगता है कि लिखने वाला नये प्रयोग या खिलवाड़ की दृष्टि से प्रयोग कर रहा था। यदि वह दायें से बायें लिखने के किसी निश्चित सिद्धांत का पालन करता तो ऐसा न होता। पूरा लेख एक प्रकार का होता। इन सारी बातों को देखने से स्पष्ट हुए बिना नहीं रहता कि इन थोड़े से अपवाद स्वरूप प्राप्त और अशुद्धियों या नये प्रयोगों पर आश्रित उदाहरणों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि पहले ब्राह्मी दायें
से बायें को लिखी जाती थी। चौथा तर्क भी महत्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता। जब तक उत्तरी भारत के सभी संभाव्य स्थलों की पूरी खुदाई नहीं हो जाती यह नहीं कहा जा सकता कि इससे पुराने शिलालेख नहीं हैं। साथ ही साहित्यिक प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि इससे बहुत पूर्व से भारत में लिखने का प्रचार था। यह बहुत संभव है कि आर्द्र जलवायु तथा नदियों की बाढ़ आदि के कारण पुरानी लिखित सामग्री जो भोजपत्रा आदि पर रही हो सड़-गल गई हो। ब्राह्मी को किसी विदेशी लिपि से संबद्ध सिद्ध करने वालों में प्रधान के मतों का विवेचन यहां किया गया, और इससे स्पष्ट है कि ऐसा कोई भी पुष्ट प्रमाण अभी तक नहीं मिला है, जिसके आधार पर ब्राह्मी को किसी विदेशी लिपि से निकली सिद्ध किया जा सके। इसी प्रकार कुछ और लोगों ने कुछ और लिपियों से ब्राह्मी को संबद्ध माना है। संक्षेप में इन विभिन्न विद्वानों के अनुसार ब्राह्मी, चीनी, आर्मेइक, फोनीशियन, उत्तरी सेमिटिक, दक्षिणी सेमिटिक, मिòी, अरबी, हिमिअरेटिक क्यूनीफार्म, हड्रमांट या ओर्मज की किसी अज्ञात लिपि या सेअिबन आदि से मिलती-जुलती तथा सम्बद्ध है। इस प्रसंग में सीधी बात यह कही जा सकती है कि इस क्षेत्रा में काम करने वाले उच्च श्रेणी के विद्वानों ने ब्राह्मी लिपि से इन विभिन्न प्रकार की लिपियों से समता देखी है और संबद्ध सिद्ध करने का प्रयास किया है। यदि इन विभिन्न लिपियों में किसी एक से भी स्पष्ट और यथर्थ साम्य होता है तो इस विषय में इतने मतभेद न होते। इन विद्वानों में इतना अधिक मतभेद यही सिद्ध करता है कि यथार्थत: इनमें विद्वानों को दूर की कौड़ी लानी पड़ी है। ऐसी स्थिति में यह निष्कर्ष निकालना अनुचित नहीं कहा जा सकता है कि ब्राह्मी ऊपर गिनाई गई लिपियों में किसी से भी नहीं निकली है। ब्राह्मी की उत्पत्ति भारत में हुई है - इस वर्ग में कई मत हैं, जिन पर यहां अलग विचार किया जा रहा है। 1. द्रविड़ीय उत्पत्ति: एडवर्ड थामस तथा कुछ अन्य विद्वानों का यह मत है कि ब्राह्मी लिपि के मूल आविष्कारक द्रविड़ थे। डॉ. राजबली पांडेय ने इस मत को काटते हुए लिखा है कि द्रविड़ों का मूल स्थान उत्तर भारत न होकर दक्षिण भारत है परब्राह्मी लिपि के पुराने सभी शिलालेख उत्तर भारत में मिले हैं। यदि इसके मूल आविष्कर्त्ता द्रविड़ होते हो तो इसकी सामग्री दक्षिण भारत में भी अवश्य मिलती। साथ ही उनका यह भी कहना है कि द्रविड़ भाषाओं में सबसे प्राचीन भाषा तमिल हैं और उसमें विभिन्न वर्गों के केवल प्रथम एवं पंचम वर्ण ही उच्चरित होते हैं, पर ब्राह्मी में पांचों वर्ग मिलते ैं। यदि ब्राह्मी मूलत: उनकी लिपि होती तो इसमें भी केवल प्रथम और पंचम वर्ण ही मिलते। किसी ठोस आधार के अभाव में यह कहना तो सचमुच ही संभव नहीं है कि ब्राह्मी के मूल-आविष्कर्ता द्रविड़ ही थे, पर पांडेय जी के तर्क भी बहुत युक्ति-संगत नहीं दृष्टिगत होते। यह संभव है कि द्रविड़ों का मूल स्थान दक्षिण में रहा हो पर यह भी बहुत-से विद्वान मानते हैं कि वे उत्तर भारत में भी रहते थे और हड़प्पा और मोहन-जो-दड़ो जैसे विशाल नगर उनकी उच्च संस्कृति के केन्द्र थे। पश्चिमी पाकिस्तान में ब्राहुई भाषा का मिलना (जो द्रविड़ भाषा ही है) भी उनके उत्तर भारत में निवास की ओर संकेत करता है। बाद में संभवत: आर्यों ने अपने आने पर उन्हें मार भगाया और उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली। पांडेय जी यदि सिंधु-सभ्यता से द्रविड़ों का संबंध नहीं मानते या ब्राहुई भाषा के उस क्षेत्रा में मिलने के लिए कोई अन्य कारण मानते है, तो उनकी ओर यदि यहां संकेत कर देते तो पाठकों के लिए इस प्रकार सोचने का अवसर न मिलता। पांडेय जी की दूसरी आपत्ति तमिल में ब्राह्मी से कम ध्वनि होने के संबंध में है। ऐसी स्थिति में क्या यह संभव नहीं है कि आर्यों ने तमिल या द्रविड़ों से उनकी लिपि ली हो और अपनी भाषा की आवश्यकता के अनुकूल उनमें परिवर्द्धन कर लिया हो। किसी लिपि के प्राचीन या मूल रूप का अपूर्ण तथा अवैज्ञानिक होना बहुत संभव है और यह भी असंभव नहीं है कि आवश्यकतानुसार समय-समय पर उसे वैज्ञानिक तथा पूर्ण बनाने का प्रयास किया गया हो। किसी अपूर्ण लिपि से पूर्ण लिपि के निकलने की बात तत्वत: असम्भव न होकर बहुत संभव तथा स्वाभाविक है। 2. सांकेतिक चिन्हो से उत्पत्ति: श्री आर. शाम शास्त्री ने ‘इंडियन एंटीक्वेरी’ जिल्द 35 में एक लेख देवनागरी लिपि की उत्पत्ति के विषय में लिखा था। इनके अनुसार देवताओं की मूर्तियां बनने के पूर्व सांकेतिक चिन्हो द्वारा उनकी पूजा होती थी, ‘जो कई ित्राकोण तथा चक्रों आदि से बने हुए यन्त्रा, जो ‘देवनगर’ कहलाता था के मध्य लिखे जाते थे। देवनगर के मध्य लिखे जाने वाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिन्ह कालांतर में उन-उन नामों के पहले अक्षर माने जाने लगे और देवनगर के मध्य उनका स्थान होने से उनका नाम देवनागरी हुआ। ओझा जी के शब्दों में शास्त्रीजी का यह लेख, गवेषणा के साथ लिखा गया तथा युक्ति-युक्त है, पर जब तक यह न सिद्ध हो जाय कि जिन तांित्रक पुस्तकों से अवतरण दिये हैं वे वैदिक साहित्य से पहले के या काफी प्राचीन हैं, इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता। 3. वैदिक चित्र-लिपि से उत्पत्ति: श्री जगमोहन वर्मा ने सरस्वती (1913-15) में एक लेख-माला में यह दिखाने का यत्न किया था कि वैदिक चित्र-लिपि या उससे निकली सांकेतिक लिपि से ब्राह्मी निकली है। पर, इस लेख के चित्र पूर्णतया कल्पित हें, और उनके लिए प्राचीन प्रमाणों का अभाव है, अतएव इनका मत भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। 4. आर्य उत्पत्ति: डाउसन, कनिंघम, लासन, थामस तथा डॉसन आदि विद्वानों का मत है कि आर्यों ने ही भारत की किसी पुरानी चित्र-लिपि के आधार पर ब्राह्मी लिपि को विकसित किया। बूलर ने पहले इसका विरोध करते हुए लिखा था कि जब भारत में कोई चित्र-लिपि मिलती ही नहीं तो चित्र-लिपि से ब्राह्मी के विकसित होने की कल्पना निराधार है। पर संयोग से इधर सिंध की घाटी में चित्र-लिपि मिल गई है, अतएव बूलर की इस आपत्ति के लिए अब कोई स्थान नहीं है, और संभव है कि यह लिपि आर्यों की अपनी खोज हो। यह तो किसी सीमा तक माना जा सकता है कि भारतीयों ने इस लिपि को जन्म दिया तथा इसका विकास किया पर यह कार्य आर्यों, द्रविड़ों या किसी अन्य जाति के लोगों द्वारा हुआ, यह जानने के लिए आज हमारे पास कोई साधन नहीं है। ओझा जी का यह कथन- ‘‘जितने प्रमाण मिलते हैं, चाहे प्राचीन शिलालेखों के अक्षरों की शैली और चाहे साहित्य के उल्लेख, सभी यह दिखाते हैं कि लेखन-कला अपनी प्रौढ़ावस्था में थी। उनके आरम्भिक विकास का पता नहीं चलता। ऐसी दशा में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि ब्राह्मीलिपि का आविष्कार कैसे हुआ और इस परिपक्व रूप में.....वह किन-किन परिवर्तनों के बाद पहुंची।.. निश्चय के साथ इतना ही कहा जा सकता है कि इस विषय के प्रमाण जहां तक मिलते हैं, वहां तक ब्राह्मी लिपि अपनी प्रौढ़ अवस्था में और पूर्ण व्यवहार में आती हुई मिलती है, पर उसका किसी बाहरी स्त्रोत और प्रभाव से निकलना सिद्ध नहीं होता। उसके कुछ चिन्ह ब्राह्मी से मिलते भी हैं अतएव इस आधार पर इतना और जोड़ा जा सकता है कि यह भी असंभव नहीं है कि ब्राह्मी का विकास सिंधु घाटी की लिपि से हुआ हो। पर, इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ कहना तभी उचित होगा जब सिंधु घाटी के चिन्हो की ध्वनि का भी पता चल जाय। डॉ. राजबली पांडेय का निश्चित मत है कि सिंधु घाटी की लिपि से ही ब्राह्मी लिपि का विकास हुआ है, पर तथ्य है कि बिना ध्वनि1 का विचार किये केवल स्वरूप में थोड़ा-बहुत साम्य देखकर दोनों लिपियों को संबद्ध मान लेना वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता। ब्राह्मी लिपि का विकास - ब्राह्मी लिपि के प्राचीनतम नमूने 5वीं सदी ई.पू. के मिले हैं। आगे चलकर इसके उत्तरी भारत और दक्षिणी भारत के रूपों में अन्तर होने लगा। उत्तरी भारत के रूप पुराने के समीप थे पर दक्षिणी रूप धीरे-धीरे विकसित होकर भिन्न हो गये। यह लिपि भारत के बाहर भी गई वहां इस के रूपों में धीरे-धीरे कुछ भिन्नताओं का विकास हुआ। मध्य एशिया में ब्राह्मी लिपि के नाम से ही पुकारी जाती है। 350 ई. के बाद इसकी स्पष्ट रूप से दो शैलियां हो जाती हैं-
इन्हीं दोनों शैलियों से आगे और चलकर भारत की विभिन्न लिपियों का विकास हुआ, जिनका संिक्षप्त परिचय दिया जा रहा है। 3. गुप्त लिपिगुप्त राजाओं के समय (चौथी तथा पांचवी सदी) में इसका प्रचार होने से इसे ‘गुप्त लिपि’ नाम आधुनिक विद्वानों ने दिया है। 4. कुटिल लिपिइस लिपि का विकास गुप्त लिपि से हुआ। स्वरों की मात्राओं की आकृति कुटिल या टेढ़ी होने के कारण इसे कुटिल लिपि कहा गया है। नागरी तथा शारदा लिपियां इसी से निकली हैं। 5. प्राचीन नागरी लिपिइसका प्रचार उत्तर भारत में 9वीं सदी के अन्तिम चरण से मिलता है। यह मूलत: उत्तरी लिपि है पर दक्षिण भारत में भी कुछ स्थानों पर 8वीं सदी से यह मिलती है। दक्षिण में इसका नाम नागरी न होकर ‘नंदनागरी’ है। आधुनिक काल की नागरी या देवनागरी, गुजराती, महाजनी, राजस्थानी तथा महाराष्ट्री आदि लिपियां इस प्राचीन नागरी के ही पश्चिमी रूप से विकसित हुई हैं और इसके पूर्वी रूप से कैथी, मैथिली तथा बंगला आदि लिपियों का विकास हुआ है। इसका प्रचार 16वीं सदी तक मिलता है। नागरी लिपि को नागरी या देवनागरी लिपि भी कहते हैं। इसके नाम के संबंध में मत हैं-
ये मत कोरे अनुमान पर आधारित है, अतएव किसी को भी बहुत प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। यों दूसरा मत विद्वानों को अधिक मान्य है। 6. शारदा-लिपि काश्मीर की अधिष्ठात्राी देवी शारदा कही जाती है, और इसी आधार पर कश्मीर को ‘शारदा मंडल’ तथा वहां की लिपि को ‘शारदा लिपि’ कहते
हैं। कुटिल लिपि से ही 10वीं सदी में इसका विकास हुआ और नागरी के क्षेत्रा के उत्तर-पश्चिम में (कश्मीर, सिंधु तथा पंजाब आदि) इसका प्रचार रहा। आधुनिक काल की शारदा, टक्री, लंडा, गुरमुखी, डोग्री, चमेआली तथा कोछी आदि लिपियां इसी से निकली हैं। 7. टाकरी लिपिग्रियर्सन इसे शारदा और लंडा की बहिन मानते हैं, पर बूलर इसे शारदा की पुत्राी मानते हैं। ओझा जी इसे शारदा का घसीट रूप कहा है। इसका नाम टक्की भी है। टक्क लोगों की लिपि होने से इसका नाम टक्की है। महाजनी की तरह इसमें भी स्वरों की कमी है। इधर इसके बहुत-से रूप विकसित हो गये हैं। ‘टाकरी’ शब्द टांक (एक जाति) या ठक्कुरी (ठाकुरों की लिपि) से व्युत्पन्न माना जाता है। 8. डोग्री लिपियह पंजाब की डोग्री भाषा की लिपि है। इसकी भी उत्पत्ति शारदा से हुई है। 9. चमेआली लिपिचंबा प्रदेश की चमेआली भाषा की यह लिपि है। देवनागरी की भांति यह पूर्ण लिपि है। यह भी शारदा से निकली है। 10. मंडेआली लिपिमंडा तथा सुकेत राज्यों की मंडेआली भाषा की यह लिपि है और शारदा से निकली है। 11. जौनसारी लिपिसिरमौरी से मिलती-जुलती ‘जौनसारी’ लिपि पहाड़ी प्रदेश जौनसार की जौनसारी बोली की लिपि है। यह भी शारदा से ही विकसित हुई है। 12. कोछी लिपिशारदा से उत्पन्न इस लिपि का प्रयोग शिमला में पश्चिम पहाड़ों में बोली जाने वाली कोछी के लिए होता है। यह लिपि भी अवैज्ञानिक है। 13. कुल्लुई लिपियह भी शारदा से उत्पन्न है। कुल्लू घाटी की बोली कुल्लुई की यह लिपि है। 14. कश्टवारी लिपिकश्मीर के दक्षिणपूर्व मे कश्टवार की घाटी की बोली कश्टवारी की लिपि में लिखी जाती है। यह भी शारदा से उत्पन्न है। ग्रियर्सन से इसे टक्की और शारदा के बीच की कड़ी माना है। 15. लंडा लिपिपंजाब तथा सिंध के महाजनों की यह लिपि शारदा से निकली है। लवी तथा लहंदा भाषा इसमें लिखी जाती है। यह भी महाजनी लिपि की भांति अपूर्ण है। इसके कई स्थानीय भेद विकसित हो गये हैं। ‘लंडा’ शब्द का संबंध ‘लहंदा’ से है। 16. मुल्तानी लिपिलहंदा की प्रमुख बोली ‘मुल्तानी’ की यह लिपि ‘लंडा’ लिपि से ही विकसित है। 17. वानिको लिपिवानिको या बनिया, ‘लंडा’ का सिंध में प्रचलित नाम है। अब केवल वहां के हिन्दू ही इसका प्रयोग करते हैं। मुसलमानों ने फारसी लिपि को कुछ परिवर्तन-परिवर्धन के साथ अपना लिया है। 18. गुरुमुखी लिपिलंडा लिपि को सुधार कर सिक्खों के दूसरे गुरु अंगद ने यह लिपि 16वीं सदी में बनाई। सिक्खों में इस लिपि का विशेष प्रचार है। 19. नागरी लिपिप्राचीन नागरी या नागर लिपि से ही इसका विकास हुआ है। यह वैज्ञानिक तथा पूर्ण लिपि है। यों भाषा-विज्ञान की ध्वनि-विषयक सूक्ष्मताओं की दृष्टि से इसे बहुत वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता। इसीलिए सुभाष बाबू तथा डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी आदि बहुत-से विद्वान् इसे छोड़कर रोमन लिपि को अपना लेने के पक्ष में रहे हैं। पूरे हिन्दी प्रदेश की यह लिपि है। मराठी भाषा में भी कुछ परिवर्धन-परिवर्तन के साथ यह प्रयुक्त होती है। नेपाली, संस्कृत, पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश के लिए भी यही लिपि प्रयुक्त होती है। नागरी लिपि पूर्ण वैज्ञानिक नहीं है। हिंदी की दृष्टि से उसकी प्रधान कमियां हैं -
इन कमियों को दूर करने के लिए सुधार के प्रस्ताव बहुत दिनों से आ रहे हैं। विद्वानों द्वारा वैयक्तिक रूप से तथा नागरी प्रचारिणी सभा काशी एवं हिन्दी साहित्य सम्मेलन आदि संस्थाओं द्वार किये गये प्रयासों के फलस्वरूप कुछ उपयोगी एवं व्यवहार्य सुधार सामने आये, पर इनमें किसी को भी लोगों ने नहीं अपनाया। उत्तर प्रदेशीय सरकार तथा केन्द्रीय सरकार ने भी कुछ सुधार किये हैं, किन्तु इन सुधारों का भी स्वागत नहीं हो रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि सौन्दर्य, वैज्ञानिकता तथा सरलता इन तीनों की दृष्टि में रखकर इस प्रश्न पर फिर से विचार किया जाय और नागरी लिपि हर दृष्टि से पूर्ण बनाने वाले सुधारों को स्वीकार किया जाय। आधुनिक नागरी लिपि तथा उसके अंकों का ब्राह्मी से (उसकी उत्तरी शैली, गुप्त लिपि तथा कुटिल लिपि में होते) कैसे विकास हुआ है, भारत में कुल कितने लिपि है?भारत की २२ भाषा की लिपि
भारत की पहली लिपि कौन सी है?ब्राह्मी लिपि भारत की प्राचीनतम लिपियों में से एक है। इसके प्रयोग के प्राचीन उदाहरण अशोक के अभिलेखों के रूप में उपलब्ध हैं। यह बाएँ से दाएँ लिखी जाती है।
कुल कितनी लिपियां है?लिपि कितने प्रकार की होती है? - Quora. ब्राह्मी लिपि -- प्राचीन काल में संस्कृत और पालि देवनागरी के रूप में आज हिन्दी, मराठी ,भोजपुरी ,नेपाली । चित्रलिपि में चीन जापान और कोरीअन की लिपिया प्रयुक्त हैं । फोनेशियन लिपि में समस्त यूरोपेयन मध्य एशिया एवम दक्षिणी अफ्रीका ।
हिंदी भाषा की लिपि कौन सी है नाम लिखिए?देवनागरी लिपि, जिसमें १४ स्वर और ३३ व्यञ्जन सहित ४७ प्राथमिक वर्ण हैं, दुनिया में चौथी सबसे व्यापक रूप से अपनाई जाने वाली लेखन प्रणाली है, जिसका उपयोग १२० से अधिक भाषाओं के लिए किया जा रहा है।
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