शासन के अंगों के बीच नियंत्रण और संतुलन
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में देश में शासन के विभिन्न अंगों के बीच शक्ति के विभाजन तथा इन संस्थानों के संदर्भ में संविधान में निहित नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं। Show संदर्भ:हाल ही में गुजरात के केवड़िया में 80वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन (All India Presiding Officers Conference) का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच ‘सामंजस्यपूर्ण समन्वय’ विषय को लेकर बड़े पैमाने पर कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा की गई। इस सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री ने शासन के तीनों अंगों (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) के संदर्भ में भारतीय संविधान में निहित नियंत्रण और संतुलन तथा शक्ति के पृथक्करण की व्यवस्था एवं इसके महत्त्व को रेखांकित किया। हालाँकि हाल ही में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले हैं जो शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत तथा जाँच और संतुलन की प्रणाली को कमज़ोर करते हैं। इन महत्त्वपूर्ण संस्थानों के प्रति सत्यनिष्ठा में आई कमी के कारण सरकार के कामकाज पर लोगों का विश्वास भी खत्म हो सकता है, जो एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये उचित नहीं होगा। शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत:
नियंत्रण और संतुलन:
नियंत्रण और संतुलन की कमज़ोर प्रणाली:
आगे की राह:
निष्कर्ष:शासन के एक अंग द्वारा दूसरे के कार्यों में बार-बार हस्तक्षेप करने से उसकी अखंडता, गुणवत्ता और दक्षता पर लोगों का विश्वास कम होने लगता है। साथ ही इससे लोकतंत्र की भावना का अवमूल्यन होता है, क्योंकि शासन के किसी एक अंग में शक्तियों का बहुत अधिक संचय ‘नियंत्रण और संतुलन’ के सिद्धांत को कमज़ोर करता है। अभ्यास प्रश्न: शासन के एक अंग द्वारा दूसरे के कार्यों में बार-बार हस्तक्षेप करना एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की अखंडता, गुणवत्ता और दक्षता के प्रति लोगों के विश्वास को कम कर सकता है। चर्चा कीजिये। |