निम्नलिखित में से किस राज्य में अधिकांश ग्रामीण ढलानदार छतों वाले मजबूत बांस के खंभों पर जमीन से 3 से 3.5 मीटर ऊपर अपने लकड़ी के घर बनाते हैं?
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Answer (Detailed Solution Below)Option 2 : असम Free 10 Questions 10 Marks 10 Mins अवधारणा:
व्याख्या: असम में घर:
इस प्रकार, उपरोक्त प्रकार का घर असम राज्य में पाया जाता है। विभिन्न स्थानों के घरों का विवरण:
Last updated on Dec 7, 2022 CTET Application Correction Window was active from 28th November 2022 to 3rd December 2022. The detailed Notification for CTET (Central Teacher Eligibility Test) December 2022 cycle was released on 31st October 2022. The last date to apply was 24th November 2022. The CTET exam will be held between December 2022 and January 2023. The written exam will consist of Paper 1 (for Teachers of class 1-5) and Paper 2 (for Teachers of classes 6-8). Check out the CTET Selection Process here. Candidates willing to apply for Government Teaching Jobs must appear for this examination. असम की बांस तथा बेंत संस्कृति – परिचयसुंदर टोकरी, बांस असम वन संसाधनों में समृद्ध है और इसके अधिकतर वनों में विभिन्न प्रजातियों के बांस और बेंत प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। बांस एक बहुउपयोगी कच्ची सामग्री है और यह असम की जीवनशैली तथा अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न हिस्सा है। तथापि मिज़ो पहाड़ियों, कचर, मिकिर और उत्तरी कचर पहाड़ियों, नौगोंग और लखीमपुर जिलों के वनों का विशेष उल्लेख किया जा सकता है। पहाड़ी राज्यों में यात्रा करते समय व्यक्ति को कभी-कभी बांस और बेंत के विशाल क्षेत्र पर आश्चर्य होता है। आर्थिक मूल्य वाले बांस की महत्वपूर्ण प्रजातियाँ हैं मुली(Melocanna bambusoides), डालु (Teinostachyum dalloa), खांग(Dendrocalmus longispatnus), कलिगोबा (Oxytenanthera nigrociliata) और पेचा(Dendrocalamus Hamilton-ii). मुली और डालु का अत्यधिक व्यावसायिक महत्व है, मुली का लुगदी, निर्माण तथा तारबंदी के प्रयोजनों से, और डालु का चटाई तथा टोकरी उद्योग के लिए। बांस तथा बेंत के उत्पाद बनाना शायद पूरे राज्य में बिखरे बहुत से कलाकारों द्वारा बनाए जाने वाले शिल्पों में से सर्वाधिक सार्वभौमिक शिल्प है। यह कार्य एक घरेलू उद्योग की तरह किया जाता है और किसी यांत्रिक उपकरण का प्रयोग नहीं किया जाता। बेंत तथा बांस के उत्पादों का प्रयोग विभिन्न प्रयोजनों के लिए किया जाता है और इनका प्रत्येक घर में व्यापक उपयोग किया जाता है। इस उद्योग ने राज्य के हस्तशिल्पों में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। यह कृषकों को उनके खाली समय में अल्पकालीन रोजगार उपलब्ध कराता है, और कुछ अत्यधिक कुशल कारीगरों को पूर्णकालिक रोजगार उपलब्ध कराता है जो केवल व्यावसायिक आधार पर सुंदर सजावटी टोकरियाँ, फर्नीचर और चटाइयाँ बनाते हैं। इतिहास और उद्गम असम में इस शिल्प की प्राचीनता, इतिहास तथा उद्गम स्थापित करने के लिए कोई निश्चित रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है। तथापि यह माना जा सकता है कि इस शिल्प का कार्य मानव सभ्यता के प्रारंभ से धुंधले अतीत से किया जा रहा आता। असम में शुरुआती अवधि में बांस को विशेष दर्जा दिया जाता था और इसे “शुभ दिनों” में काटने पर प्रतिबंध था। यह एक आम धारणा है कि बांस में पवित्र गुण होते हैं और यह धार्मिक महत्व का होता है। असम के बेंत तथा बांस उत्पादों के फलने-फूलने की स्थिति का उल्लेख असम के राजा भास्कर वर्मन (7वीं सदी के शुरुआती भाग में) के शासन काल के दौरान पाया जा सकता है। (डॉ. पी.सी. चौधरी द्वारा लिखित “असम के लोगों की सभ्यता का इतिहास” का उद्धरण)। “प्रारंभिक साहित्य में समृद्ध लोगों द्वारा प्रयुक्त सुसज्जित तथा रंगीन शीतल पतीस (ठंडी चटाई) का उल्लेख मिलता है। चटाइयाँ सामान्यत: बेंत की बनाई जाती थीं। शास्त्रीय लेखक असम के जंगलों में बेंत की प्रचुरता को प्रमाणित करते हैं। उदाहरण के लिए टोलेमी उल्लेख करते हैं कि सेरिका के पूर्व में, जिसे हमने असम के रूप में चिह्नित किया है, पहाड़ियाँ और दलदल थीं जहां बेंत उगाई जाती थीं और इनका प्रयोग पुल की तरह किया जाता था। अन्य बेंत की वस्तुओं के उत्पादन का साक्ष्य ‘हर्षचरित’ में भी मिलता है जिसमें बेंत की स्टूलों का उल्लेख है। बांस की खेती और विभिन्न प्रयोजनों के लिए इसका उपयोग भली-भांति ज्ञात है। बाना भी इस अत्यधिक विकसित शिल्प को प्रमाणित करते हैं। वे कहते हैं कि भास्कर ने हर्ष को ‘विभिन्न रंगों के ईख की टोकरियाँ’,‘मोटी बांस की ट्यूबें’ और ‘बांस के पिंजरों’ में विभिन्न पक्षी भेजे थे। इन सभी से यह प्रमाणित होता है कि असम में बहुत पहले विभिन्न औद्योगिक कलाएं विकसित थीं और ये हाल ही के समय तक जारी थीं, भारत के अन्य भागों के शिल्पकारों की परंपराओं के आधार पर…..” जाति अथवा समुदाय के अनुसार वितरण यह देखा गया है कि असम घाटी में कोई विशेष जाति अथवा समुदाय नहीं है जो विशेष रूप से इस शिल्प से जुड़े हों। यह कार्य सामान्य रूप से सभी जाति, समुदाय अथवा पंथ के लोगों द्वारा किया जाता है, विशेष रूप से किसानों द्वारा। उत्पादन की तकनीक चाय की ट्रे, बांस कच्चा माल और उनका उपयोग: असम के पास संभवत: भारत में बेंत तथा बांस उद्योग के लिए सर्वाधिक संसाधन है जिनकी तुलना कनाडा और स्कैंडिनेवियाई देशों – स्वीडन, नॉर्वे और फिनलैंड से की जा सकती है। बांस तथा ईख के संबंध में असम के पास पूरे भारत में सर्वाधिक संकेंद्रित वन हैं। असम में बांस की 51 प्रजातियाँ उगती हैं और इनका प्रयोग विविध प्रयोजनों से, मुख्य रूप से भवनों, फर्नीचर और यंत्रों के लिए किया जा रहा है। भारत के कुछ अनुसंधान केन्द्रों में हल्की कंक्रीट की संरचनाओं में हल्की इस्पात छड़ियों को प्रतिस्थापित करने के लिए सुदृढीकरण के लिए बांस की उपयुक्तता के संबंध में अध्ययन किए जा रहे हैं। बांस का प्रयोग छातों के हैंडल, चलने की छड़ियों, उपकरणों के हैंडल, मछली पकड़ने की छड़ियों, टेंट के खंभों, रस्सियाँ, सीढ़ियाँ, योक, टोकरियाँ, खिलौने, हाथ पंखे और विभिन्न घरेलू तथा कृषि उपकरण बनाने में भी किया जाता है। इन सभी वस्तुओं को छोटी मशीनों के साथ कुटीर तथा लघु-स्तर पर उत्पादित किया जा सकता है। बांस बांस की टोकरी, सिल्चर, असम वर्तमान में बांस के संसाधनों का प्रयोग नहीं हो रहा है जो विभिन्न लाभकारी कार्यों के लिए बांस के उपयोग के मार्ग खोल सकते हैं। बांस का इतना आधिक्य भारत में कहीं और नहीं पाया जाता है। केवल बांस पर लुगदी एवं कागज के विभिन्न बड़े तथा छोटे संयंत्र स्थापित करने की संभावनाएँ बहुत अधिक हैं। नीचे उल्लिखित महत्वपूर्ण प्रजातियाँ व्यावसायिक मात्रा में उपलब्ध हैं।
वनों के अतिरिक्त बांस पूरे राज्य के गांवों में भी प्रचुर मात्रा पाया जाता है। असम के बांस के क्षेत्र में पारंपरिक रूप से समृद्ध होने के बावजूद असम का बांस शिल्प भारत के हस्तशिल्प बाजार में प्रमुखता से दिखाई नहीं देता और निर्यात व्यापार में असम का हिस्सा नगण्य है। बेंत असम में विभिन्न कुटीर तथा लघु उद्योग विभिन्न प्रकार की बेंत तथा ईख की आपूर्ति पर निर्भर हैं। यह देखा गया है कि सामान्यत: बेंत की तीन क़िस्मों का प्रयोग व्यावसायिक मात्रा में होता है – जटी (Calamus tenuis), टिटा (Calamus leptesadix) और लेजई (Calamus floribundus)।कुछ कम महत्वपूर्ण गुणवत्ता की बेंत जैसे सूँडी (Calamus garuba) और राइदंग (Calamus flagellum) को भी निकाला जाता है। लगभग पूरे राज्य में बेंत भी प्रचुरता में पाई जाती है। बांस तथा बेंत की कुछ और किस्में हैं जिनका प्रयोग विभिन्न उत्पादों के निर्माण में किया जाता है। एक प्रकार के मुली बांस का प्रयोग छातों के हैंडल बनाने के लिए किया जाता है, जिसे स्थानीय रूप से ‘मुली बजाइल’ के नाम से जाना जाता है। बांस की दो और क़िस्मों, जिन्हें स्थानीय रूप से ‘मृथिंगा’ और ‘बेथुआ’ के नाम से जाना जाता है, और बेंत की विभिन्न क़िस्मों, जिन्हें स्थानीय रूप से ‘सूँडी’,‘बरजली’,‘हरुआ’,‘गोला’ आदि नामों से जाना जाता है, की आवश्यकता फर्नीचर तथा टोकरियाँ बनाने के लिए होती है। ईख परिवार अथवा पटीदाई के एक पौधे ‘मुर्ता’(Clinogyne Dichotoma) की आवश्यकता प्रसिद्ध ‘शीतल पट्टी’ (ठंडी-चटाई) बनाने के लिए होती है। ‘जपिस’ (छाते) के निर्माण के लिए एक प्रकार की ताड़ की पत्तियों, जिन्हें स्थानीय रूप से “टोको पट” के नाम से जाना जाता है, का प्रयोग किया जाता है। एक ‘फुलम जपी’ (बांस का सजावटी छाता) के लिए ताड़ की पत्तियों के अतिरिक्त रंगीन ऊन, कपास, रंगे हुए धागे, माइका आदि की आवश्यकता होती है। अपने उत्पादों को रंगने तथा रोगन करने के लिए कारीगर निम्नलिखित सामग्री का प्रयोग करते हैं –‘भतर फेन’ (उबले हुए चावल का रस),‘आम्रपात’(Hibicus Subdariffa), ‘इमली की पत्तियाँ’, मेजेंटा (एक प्रकार की रासायनिक डाई), कलबाती चाच (लाह) राल, मेथिलेटेड स्पिरिट, रबी मुस्तफ़ी आदि। उपकरण और सामग्री अंदरूनी सतह और वर्गाकार आधार का दृश्य बांस की टोकरी, सिल्चर, असम बांस और बेंत के कामों में पूरे राज्य में सरल तथा सस्ती सामग्री का प्रयोग किया जाता है। बांस के शिल्प के लिए आवश्यक अनिवार्य उपकरणों में एक ‘दाव’ (बिल-हुक), एक चाकू और एक ‘जैक’(‘v’ आकार का लकड़ी का फ्रेम) शामिल होता है। बेंत के उत्पादों के निर्माण में भी मुख्यत: ‘दाव’ और चाकुओं का प्रयोग किया जाता है, और केवल फर्नीचर बनाने वाले उद्योग दाव और चाकुओं के अतिरिक्त कुछ आरा मशीन, हथौड़ों, चिमटों और पिंसर का प्रयोग करते हैं।छातों के बांस के हैंडल के निर्माण में कुछ और हाथ उपकरणों का प्रयोग होते हुए देखा जा सकता है। इस शिल्प में प्रयुक्त उपकरणों तथा सामग्री में ‘बकाई कोल’ (मोड़ने वाला फ्रेम),‘नरूम’ (तीखी तथा नुकीली नक्काशी ब्लेड), फाइल, आरा मशीन, चाकू, नाल, चिमटा, ओवन आदि शामिल हैं। वर्कशेड: बेंत तथा बांस के उत्पादों का निर्माण अधिकतर खुले क्षेत्र में किया जाता है और इस शिल्प के लिए किसी इमारत की आवश्यकता नहीं होती, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में। तथापि शहरी क्षेत्रों में यह देखा जाता है कि बेंत के उत्पादों का निर्माण वर्कशॉप में किया जाता है और अधिकतर कारखाने किराये के भवनों में चलाए जाते हैं। उत्पाद और निर्माण की प्रक्रिया बेंत की चटाई इस राज्य में विभिन्न प्रकार के बेंत तथा बांस उत्पाद पाए जाते हैं। असम के मैदानी और पहाड़ी जिलों के लोगों के अलग विशेषताओं तथा विशिष्ट डिजाइन वाले उनके स्वयं के बांस तथा बेंत उत्पाद होते हैं। मैदानी जिलों के उत्पाद पहाड़ी जिलों के उत्पादों से उपयोग, आकार तथा डिजाइन में भिन्न होते हैं। यह देखा गया है कि राज्य के मैदानी जिलों में विभिन्न उत्पाद जैसे बांस की चटाइयाँ, शीतल पट्टी, विभिन्न आकारों तथा स्वरूपों की टोकरियाँ, विनोइंग ट्रे, छलनी, जपी अथवा छाता, विभिन्न प्रकार के मछली पकड़ने के उपकरण आदि का निर्माण बड़ी संख्या में किया जाता है। घरेलू प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त बेंत तथा बांस के उत्पाद राज्य के प्रत्येक नुक्कड़ तथा कोने में कटे हुए बांस और बारीक लचीली बेंत की पत्तियों से तैयार किए जाते हैं। घरेलू प्रयोजनों के लिए निर्मित बांस तथा बेंत के उत्पाद I. घरेलू प्रयोजनों में उपयोग के लिए निर्मित कुछ बेंत तथा बांस के उत्पादों का एक संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है: असम की मिकिर पहाड़ी में खेरुनी गाँव से असामान्य टोकरी चलनी (छलनी) इसे बांस की बारीक परतों को आड़ा-तिरछा रख कर बुना जाता है, और विभिन्न प्रयोजनों के लिए आवश्यकता के अनुसार विभिन्न परतों के बीच कुछ खाली स्थान छोड़ा जाता है। ‘छलनी’ एक गोलाकार डिस्क जैसी वस्तु होती है और इसका व्यास 1½ फुट – 3½ फुटके बीच होता है। इसका प्रयोग चावल, धान,चाय की पत्तियों आदि को छानने के लिए और मछली को धोने के लिए भी किया जाता है। कुला (विनोइंग पंखा) यह छानने के प्रयोजन से बांस की सपाट पत्तियों से विभिन्न आकारों तथा स्वरूपों में तैयार किया जाता है। एक ‘कुला’ के लिए विकर्णीय डिजाइन का प्रयोग किया जाता है। कुला का किनारा लचीली बेंत की पट्टी में एक-इंच चौड़े बांस के टुकड़ों के दो सेट लगा कर मजबूत बनाया जाता है। खोरही (छोटी टोकरी) खोरही चावल, सब्जियाँ, मछली आदि को धोने के लिए बांस की बारीक पट्टियों से बनाई जाती है। यह एक छोटी टोकरी जैसी चीज होती है और इसमें जल और धूल-मिट्टी के निकलने का प्रावधान होता है। खोरही सरल तथा वर्ग के आकार में बुनी जाती है परंतु अंतिम सिलाई के समय बेंत की लचीली पट्टियों से इसे धीरे-धीरे एक गोल आकार में मोड़ा जाता है। दुकुला / टुकुरी (बड़ी टोकरी) एक दुकुला का रूप वैसा ही होता है जैसा खोरही का होता है, परंतु इसका आकार तथा इसे तैयार करने की प्रक्रिया थोड़ी अलग है। ‘टुकुरी’ का अपेक्षित रूप कपड़े के साथ बुनाई की प्रक्रिया चलते हुए वार्प बनाते हुए बांस की पट्टियों को मोड़ कर बनाया जाता है। बांस की दो अथवा चार सपाट पट्टियाँ लगाने से किनारा मजबूत होता है। अंतिम चरण है किनारे को बेंत की कुछ लचीली पट्टियों के साथ-साथ बांस की उन सपाट पट्टियों के साथ सिलना। एक ‘दुकुला’ अथवा एक ‘टुकुरी’ का आकार खोरही से काफी बड़ा होता है और इसका प्रयोग धान, चावल आदि को ले जाने और रखने के लिए भी होता है। डाला (बांस की ट्रे) डाला को विकर्णीय डिजाइन में बांस की लचीली पट्टियों से तैयार किया जाता है। एक डाला का स्वरूप एक डिस्क जैसा होता है जो विभिन्न प्रयोजनों के लिए विभिन्न आकारों का होता है। डाला के चारों ओर किनारे को उसी प्रकार सिला जाता है जैसे कि एक टुकुरी अथवा दुकुला के किनारे को सिला जाता है, परंतु डाला के किनारे में प्रयुक्त बांस की रिम लगभग 1½” की होती है। डाला का प्रयोग अन्य घरेलू प्रयोजनों के अतिरिक्त विशेष रूप से रेशम के कीड़ों को पालने के लिए और छानने के लिए किया जाता है। डुली (असमिया) / ताली (बंगाली) –बड़ी टोकरी ‘डुली’ अथवा ‘ताली’ का प्रयोग धान के परिरक्षण के लिए किया जाता है। बुनाई की प्रक्रिया लगभग वैसी ही है जैसी टुकुरी की होती है परंतु इसमें प्रयुक्त बांस की पट्टियों का आकार अधिक सपाट तथा लचीला है। डुली टुकुरी से काफी बड़ी होती है और इसका स्वरूप भी थोड़ा अलग होता है। डून (असमिया) काठी (बंगाली)-मापन यह चावल अथवा धान का मापन करने के लिए बांस की बारीक पट्टियों से लगभग शंकु के आकार में बनाई जाती है।इसकी धारण क्षमता स्थान दर स्थान 2 सीयर – 3½ सीयर के बीच होती है।तले में एक छल्ला लगाया जाता है ताकि यह जमीन पर खड़ी रह सके। ढोल (बड़ा माप) ‘ढोल’ बनाने की प्रक्रिया वैसी ही है जैसी डून की है। तथापि यह आकार में काफी बड़ा होता है। इसका प्रयोग केवल धान का मापन करने के लिए किया जाता है। कचर जिले में इसे ‘पुरा’ के नाम से जाना जाता है। यह सामान्यत: बाजार में खरीदा अथवा बेचा नहीं जाता। मछली पकड़ने के उपकरण राज्य के विभिन्न भागों में बेंत तथा बांस से विभिन्न प्रकार के मछली पकड़ने के उपकरण बनाए जाते हैं। व्यापक रूप से प्रयोग किए जाने वाले कुछ मछली पकड़ने के उपकरणों जैसे पोलो, जकई, खलई, डोरी, चेपा, परन, झुटी, होगरा आदि का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है: पोलो इसका आकार एक गुंबद से मिलता-जुलता होता है और इसमें ऊपर खुलने वाली लगभग 6″ व्यास की छोटी डंडी होती है। तले का व्यास 2 फुट – 3½ फुट तक और 4 फुट तक भी होता है और ऊंचाई 2 फुट से 3 फुट तक होती है। इन्हें बांस की छोटी पट्टियों को बेंत की बारीक तथा लचीली पट्टियों से बांध कर तैयार किया जाता है। पोलो का प्रयोग उथले पानी में मछली पकड़ने के लिए किया जाता है। जो व्यक्ति इसका प्रयोग करता है वह इसे डंडी के किनारे से पकड़ता है, इसकी रिम को कीचड़ में दबाता है, उसके बाद इसे वापस खींचता है और इसे ऊपर अथवा पानी के स्तर तक खींचता है और पानी में इसे चलाते हुए पुन: इसे पहले की तरह दबाता है। जब भी कोई मछली पकड़ी जाती है तो वह मछली को पकड़ने के लिए डंडी के अंदर अपना हाथ डालता है;जुल्की इसी तरह से तैयार किया गया एक छोटा पोलो होता है। जकई ‘जकई’ सींक से बने काम के करछे की एक किस्म है जिसे या तो तले के साथ खींचा जाता है अथवा जब खरपतवार को दबाया जाता है तब इसमें शरण लेने वाली छोटी मछलियों को पकड़ने के लिए पानी के तल पर रखा जाता है। इसे बांस की पट्टियों से तैयार किया जाता है, जिन्हें स्थानीय रूप से ‘डाइ’ के नाम से जाना जाता है। इस विशेष उपकरण को बनाने के लिए विशेष रूप से ‘जटी’ का प्रयोग किया जाता है। खलई ‘खलई’ भी बांस की पट्टियों से तैयार की जाती है। कपड़े के लिए आवश्यक पट्टियाँ बहुत लंबी होती हैं, जबकि वार्प के लिए ये छोटी होती हैं। ‘खलई’ की बुनाई एक मिट्टी के ‘कलश’ अथवा घड़े के आकार में की जाती है। इसका प्रयोग हैंड-नेट फिशिंग के दौरान मछलियों को अस्थायी रूप से रखने के लिए किया जाता है। चेपा चेपा अपेक्षित आकार के अनुसार पहले तैयार बांस की छड़ियों से बनाया जाता है। इन्हें जूट की तारों अथवा बेंत की कोमल पट्टियों से एक गोल आकार में बुना जाता है। बांस का बना वाल्व, जिसे स्थानीय रूप से ‘पर’ (बंगाली) और ‘कल’ (असमिया) के नाम से जाना जाता है, को मछलियों को बाहर जाने की किसी संभावना के बिना अंदर जाने देने के लिए मध्य में लगाया जाता है। डोरी राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में मछुआरे विभिन्न प्रकार की डोरियाँ बनाते हैं। एक ‘डोरी’ सामान्यत: आयताकार होती है। ये बेंत की लचीली पट्टियों के साथ बुनी गई बांस की छोटी पट्टियों से बनाई जाती है। ‘डोरी’ के साथ इस प्रकार एक जाल फिट किया जाता है कि अंडाकार मुंह के दोनों ओर से बांस की बनी स्क्रीन अंदर प्रविष्ट कराई जाती है और दोनों ओर की नुकीली पट्टियाँ एक दूसरे से गुथ जाती हैं। परन ये मछलियों को पकड़ने के लिए कटे हुए बांस से बने विभिन्न पिंजरे अथवा टोकरी के जाल होते हैं। दो प्रकार के ‘परन’ होते हैं अर्थात (i) ‘ऊबा परन’ (ऊर्ध्वाधर पिंजरा) और (ii) ‘पोरा परन’ (क्षैतिज पिंजरा)। ये एक अथवा दो वाल्व अथवा ट्रेप दरवाजों के साथ दिए जाते हैं जिनके माध्यम से मछलियों को आसानी से फसाया जा सके। ऊपर उल्लिखित इन सभी उपकरणों का प्रयोग सामान्यत: उथले पानी में मछलियाँ पकड़ने के लिए किया जाता है। इन उपकरणों के अतिरिक्त बांस और बेंत के कुछ अन्य उपकरण बनाए जाते हैं और गहरे पानी में मछलियाँ पकड़ने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। इन्हें स्थानीय रूप से गुई, झुटी, डिंगरु, थुपा, होगरा आदि नामों से जाना जाता है। सरल टोकरी, असम (बोडो लोगों द्वारा मछली पकड़ते समय इन्हें पकड़ कर रखने के लिए प्रयोग की जाती है) बांस की चटाइयाँ तैयार ‘धारी’ अथवा बांस की चटाई नौगोंग, दरंग और कचर जिलों में व्यावसायिक आधार पर विभिन्न प्रकार की बांस की चटाइयों का निर्माण किया जाता है। कचर जिले के करीमगंज उप-मंडल से बड़े पैमाने पर व्यावसायिक उत्पादन देखा जा सकता है जहां चटाइयों को स्थानीय रूप से ‘धरा’,‘झरिया’ अथवा ‘दरमा’ के नाम से जाना जाता है, और हजारों लोग इस कला में काम कर रहे हैं। दरंग और नौगाँव जिलों में ऐसी चटाइयाँ विभिन्न प्रकार के दलदली पौधों तथा खरपतवार के सूखे डंठलों से बनाई जाती हैं। जहां कचर जिले में इसका निर्माण बांस की पट्टियों से किया जाता है। निर्माण प्रक्रिया के संबंध में यहाँ रिकॉर्ड की गई प्रक्रिया की समीक्षा कचर के एक गाँव में शुरू की गई थी। सबसे पहले बुनी जाने वाली चटाई की अभीष्ट लंबाई के अनुसार लंबे बाँसों को कई भागों में बांटा जाता है। उसके बाद प्रत्येक भाग को कई पतले टुकड़ों में काटा जाता है, ऐसे टुकड़े की चौड़ाई लगभग 1/8″ से 1/16″ होती है। टुकड़ों में बांटने का काम सामान्यत: एक ‘हटु दाव’ (छोटा बिल हुक) द्वारा किया जाता है, जिसे एक ‘जैक’(‘v’ आकार का लकड़ी का ढांचा) पर फिक्स किया जाता है। उसके बाद इस प्रकार काटे गए बांस के कोमल हिस्से को एक ‘दाव’ से हटाया जाता है, वहीं बांस की सपाट लचीली पट्टियाँ चटाइयों के निर्माण के लिए प्राप्त की जाती हैं। इस प्रकार बांस की पट्टियाँ तैयार होने के बाद कारीगर वास्तविक बुनाई शुरू करता है। बांस की चटाइयों की बुनाई करने में सामान्यत: विकर्णीय पैटर्न अपनाया जाता है जहां एक बार में तीन पट्टियाँ ली जाती हैं और एक के बाद एक चौड़ाई के अनुसार बुनी जाती हैं और इसी प्रक्रिया को दोहराया जाता है। जैसे ही बुनाई समाप्त होती है चटाई की चारों भुजाओं को थोड़ा मोड़ा जाता है और बाहरी किनारों को फ्रेम करने के लिए इन्हें बांस की एक लंबी पट्टी से बांधा जाता है जो बुनी गई पट्टियों को बांधे रखती है। यह देखा जाता है कि यह शिल्प कारीगर के परिवार के सभी सदस्यों/बांस की पट्टियाँ तैयार करने वाले पुरुषों, चटाई की बुनाई करने वाली महिलाओं और बच्चों द्वारा आगे जारी रखा जाता है। बांस की चटाइयों का विभिन्न प्रयोजनों के लिए व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है जैसे अस्थायी दीवारों तथा शैड, बड़े पंडालों के निर्माण, देशी नावों,निवास घरों की छत बनाने, आदि के लिए। घरेलू उपयोगों के अतिरिक्त चटाइयों की बड़ी मिलों तथा फैक्टरियों को विभिन्न उपयोगों के लिए आवश्यकता होती है। A lady engaged in Mat Weaving छाते के हैंडल मुली बांस की एक विशेष किस्म का प्रयोग छाते के हैंडल के लिए किया जाता है, जिसे स्थानीय रूप से मुली-बजाइल कहा जाता है। छाते के हैंडल बनाने में विभिन्न प्रक्रियाएँ होती हैं। सबसे पहले प्रयोग के लिए चयनित बांस के टुकड़ों के सबसे ऊपरी चैंबर को मिट्टी से भरा जाता है ताकि यह मुड़ते समय टूटे नहीं। इसके बाद इस प्रकार भरे गए चैंबर का मुंह गोबर से सील किया जाता है। इसके बाद मोड़ने का कार्य आता है जिसे सामान्यत: मोड़ने के एक हाथ के उपकरण से किया जाता है जिसे स्थानीय रूप से ‘बकई-कोल’ के नाम से जाना जाता है। बांस को चिमटों से मजबूती से पकड़ते हुए बांस के ऊपरी हिस्से को अत्यधिक गर्म करने के बाद ‘बकई-कोल’ में दबाया जाता है। कुछ मिनट के बाद बांस को ‘बकई-कोल’ से हटा लिया जाता है और छाते के हैंडल के मुड़े हुए भाग को एक रस्सी से बांधा जाता है और इसे ठंडा होने के लिए कुछ देर के लिए छांव में रखा जाता है। इसके बाद ‘यू’ मोड़ के किनारे को एक समान तरीके से काटा जाता है और भरी गई मिट्टी को हैंडल से बाहर आने से रोकने के लिए इसके खुले हिस्से को ईख के एक पतले टुकड़े से बंद किया जाता है जिसे स्थानीय रूप से ‘गोलर डोगा’ के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार इसमें बची मिट्टी मोड़ के टूटने तथा अलग होने की संभावना को बहुत कम कर देती है। बंद किए गए हिस्से को लोहे की फाइल से चिकना बनाया जाता है। अब छाते के हैंडल की खुरदरी सतह को एक तेज धार वाले चाकू से चिकना बनाया जाता है जिसे स्थानीय रूप से ‘चाचा’ के नाम से जाना जाता है, और इसके बाद हैंडल पर विभिन्न डिजाइन उकेरे जाते हैं अथवा खरोंच कर बनाए जाते हैं। ये एक तीखी तथा नुकीली ब्लेड, जिसे स्थानीय रूप से ‘नारायण’ के नाम से जाना जाता है अथवा कुछ मामलों में ‘रैली मशीन’ के नाम से जाने जाने वाले एक हाथ उपकरण से तेज तथा निपुण आघात करके उकेरा जाता है। इन पर बनाए जाने वाले विभिन्न डिज़ाइनों में से कुछ हैं फूल, बेल, पत्तियाँ, पौधे, छल्ला आदि। यह देखा जाता है कि कारीगर के परिवार की महिला सदस्य विशेष रूप से डिजाइन का काम करती हैं। जैसे ही डिजाइन का काम पूरा होता है छाते के हैंडल की सतह को ‘सीरिश’‘ग्लास पेपर’ से पोलिश किया जाता है और उसके बाद इस पर रोगन किया जाता है और धौंकनी की सहायता से रेंड़ी के तेल की लपटें फेंक कर हैंडल की स्पॉटिंग की जाती है। इसके बाद इस प्रकार बनाए गए हैंडल बाजार में भेजे जाने के लिए तैयार होते हैं, घास के बंडलों में पैक किए जाते हैं। ‘जपी अथवा छाता’ (बांस/पत्ती की टोपी) “जपी” अथवा टोपी बांस और पत्तियों की टोपी खुले में काम करने वाले कारीगरों के लिए सर्वाधिक आवश्यक वस्तु है। ऐसी सामान्य टोपियाँ पूरे राज्य में बनाई जाती हैं। व्यावसायिक आधार पर ‘छाते’ ऐसे सामान्य छाते कचर जिले के कुछ गांवों (जैसे रंगपुर, चिनिपटन आदि) में बड़े पैमाने पर बनाए जाते हैं और मुख्य रूप से आस-पास के चाय के बागानों और नौगोंग जिले के कुछ भागों में इनकी आपूर्ति की जाती है। ये उत्पाद सामान्यत: कंधे पर उठाए जाते हैं और और आस-पास की ‘झोंपड़ियों’ में ले जाए जाते हैं और उपभोक्ताओं को रिटेल में अथवा बिचौलिये को थोक में बेचे जाते हैं। ‘जपी’ की विभिन्न किस्में जैसे ‘हलुआ जपी’,‘पिथा जपी’,‘सोरुदोइया जपी’,‘बोरदोईया जपी’,‘कैप जपी’ आदि का उत्पादन कामरूप, नौगोंग, दरंग, सिबसागर और लखीमपुर जिलों में किया जाता है। ‘फुलम जपी’ (बांस के सजावटी छाते) के निर्माण के संबंध में नलबारी और कामरूप जिले के इसके आस-पास के गांवों (जैसे कमारकूची, मुघ्कुची आदि) का विशेष उल्लेख किया जाना चाहिए। पुराने दिनों में यह विशेष प्रकार की ‘जपी’ कुलीन तथा अमीर परिवारों की महिलाओं की टोपी हुआ करती थी, परंतु अब यह प्रचलन में नहीं है। ‘फुलम जपी’ का निर्माण अब केवल बैठक कक्ष की सजावट की एक वस्तु के रूप में किया जाता है। यह पारंपरिक टोपी (जपी) बांस की पत्तियों और एक विशेष प्रकार से सुखाई गई ताड़ की पत्तियों से बनाई जाती है, जिन्हें स्थानीय रूप से ‘टोको-पट’ के रूप में जाना जाता है। सामान्य ‘जपी’ के निर्माण में किसी विशेष कौशल की आवश्यकता नहीं होती। सबसे पहले चयनित बांस को अपेक्षित आकार की छोटी पत्तियों में तोड़ लिया जाता है। उसके बाद इन पत्तियों को बीच में सिर डालने के लिए एक गुंबद रखते हुए एक गोल डिस्क में खुले षट्कोणीय डिजाइन में बुना जाता है और ऐसी दो डिस्क के बीच कुछ सुखाई गई ‘टोको’ पत्तियाँ (पहले से अपेक्षित आकार में काटी गई) डाल कर और अंत में इन्हें सावधानी से धागे तथा बेंत की बारीक रस्सी के साथ सिला जाता है। इस प्रकार सामान्य ‘जपी’ का निर्माण पूरा होता है। किसानों और खुले में काम करने वाले श्रमिकों के लिए एक जपी पारंपरिक छाते से अधिक लाभदायक होती है, क्योंकि किसान इसे पहन कर इसके धागे को अपनी ठोडी पर बांध सकता है जिससे उसके हाथ किसी भी स्थिति में काम करने के लिए खुले रहते हैं – खड़े हुए, उकड़ू बैठे अथवा झुके हुए। ‘जपी’ को इसकी कम कीमत के कारण एक गरीब आदमी का छाता भी कहा जा सकता है। बांस के संगीत वाद्य यंत्र बांसुरी एक आम तौर पर प्रयोग किए जाने वाला संगीत वाद्य यंत्र है जो बांस से बनाई जाती है। इसके अतिरिक्त असम के बिहू त्योहार में अन्य संगीत वाद्य यंत्रों जैसे बांस के डिब्बे,दो-तारा आदि का प्रयोग किया जाता है। “गोगोना” एक और ऐसा संगीत वाद्य यंत्र है जिसे एक मोटे बांस की बाहरी सतह से बनाया जाता है ताकि एक सिरा इसका हैंडल बने जबकि दूसरा सिरा यंत्र को मुंह के सामने रखने पर उँगलियों से बजाया जा सके। असम के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रयुक्त बांस की स्थानीय दवाइयाँ ताजा घाव:बांस के तने के हरे भाग को पीसा जाता है और ताजे घाव वाले स्थान पर लगाए जाने के लिए इसका पेस्ट बनाया जाता है। यह सामान्यत: एक रोगाणुरोधक के रूप में कार्य करता है और घाव को भरने की प्रक्रिया में तेजी से काम करता है। शुरुआती मधुमेह: जब बांस के अंदर एकत्रित पानी पिया जाता है तो इस बीमारी में काफी राहत मिलती है। दाँत दर्द: छोटे बांस की टहनी को गर्म करके दाँत पर लगाने से दाँत के दर्द में राहत मिलती है। ढीला दाँत: सूखे बांस को जलाने से जो लिसलिसा रस निकलता है उसे दाँत को मजबूत बनाने के लिए इसकी जड़ पर लगाया जाता है। उच्च रक्तचाप: नए बांस की पत्ती का एक भाग प्रात: काल में खाली पेट लेना होता है, जो उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करने में सहायक होता है। रूसी: बांस के समूह के खोल की राख़ रूसी को हटाने में प्रभावी है। शरीर दर्द: पूरी तरह से बांस के बने बिस्तर पर सोने से शरीर दर्द में आराम मिलता है। चेचक, स्माल पॉक्स और अल्सर: नए बांस की सुखाई गई टहनी को पीसा जाता है और इसे पकाई गई कैटफिश के साथ लिया जाता है जो चेचक, स्माल पॉक्स और अल्सर को शीघ्र ठीक करने में सहायता करता है। चक्कर आना और पुराना दर्द:नए बांस की टहनियों से बनाए दही को काली मिर्च के साथ लेने से चक्कर आने तथा पुराने दर्द से आराम मिलता है। सिर दर्द और साइनसाइटिस: सुखाए गए बांस को जलाया जाता है और इस बांस के धुएँ को श्वास द्वारा अंदर लेने से सिर दर्द और साइनसाइटिस में आराम मिलता है। वर्तमान बांस उद्योग में विविधीकरण “मन-बाता” अथवा पान-बाता, बांस बाजार की वर्तमान मांग और निर्यात की संभावना को देखते हुए उद्यमी या तो निम्नलिखित बांस के उत्पादों के निर्माण का प्रस्ताव कर रहे हैं अथवा शुरू कर रहे हैं:
कुछ अन्य आम बांस के उत्पाद “मुर्रा”, बांस (स्टूल)
बेंत के फर्नीचर तथापि बेंत के फर्नीचर के निर्माण के लिए कार्मिक को उच्च स्तर के कौशल की आवश्यकता होती है। ऐसा कौशल परंपरागत रूप से पाया जाता है। बेंत के फर्नीचर के निर्माण में कचर जिले को कुशल कारीगरों के संदर्भ में राज्य के अन्य जिलों पर एक विशेष बढ़त प्राप्त है। इस शिल्प का राज्य के लगभग सभी महत्वपूर्ण शहरी क्षेत्रों में व्यावसायिक उत्पादन होता है। बेंत के फर्नीचर का निर्माण आवश्यक मात्रा में बांस की पट्टियाँ तैयार करके शुरू होता है। विभिन्न व्यास की बेंत को भी अनुकूलन के अनुसार विभिन्न आकारों की पट्टियों में बदल दिया जाता है। उसके बाद कारीगर कीलों की सहायता से बांस के विभिन्न भागों (पहले से आकार दिया गया) को जोड़ कर फर्नीचर का एक कच्चा खाका तैयार कराते हैं। गोल बेंत के फर्नीचर के मामले में गोल बेंत को अपेक्षित आकार में मोड़ने के लिए पतली लोहे की छड़ों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार बनाई गई संरचना की वास्तविक बुनाई अथवा कॉयलिंग लचीली बेंत की बारीक पट्टियों से की जाती है। एक कारीगर जितना कुशल होता है वह उतनी ही सुंदर बेंत की पट्टियाँ कॉयलिंग तथा गूँथने में प्रयोग कर सकता है। उपभोक्ताओं की बढ़ती हुई आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शहरी उद्योग विभिन्न प्रकार के बेंत फर्नीचर और अन्य विविध वस्तुओं जैसे बॉक्स, मुर्रा, पालना, कार्यालय ट्रे, बोतल रखने के थैले, टिफिन की टोकरियों, साइकिल की टोकरियों, रद्दी कागज फेंकने के लिए टोकरियों आदि के निर्माण में संलग्न पाए जाते हैं।ऐसे उत्पादों की लागत बांस के अन्य सामान्य उत्पादों से अधिक होती है। बेंत की टोकरियाँ गुंबद के आकार के ढक्कन तथा वर्गाकार तले के साथ बेंत बांस की टोकरी। (विकर्णीय कार्य तकनीक), गुवाहाटी, असम राज्य के विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार की बेंत की टोकरियाँ बनाई जाती हैं। बेंत की टोकरियों का प्रयोग विभिन्न प्रयोजनों से किया जाता है। इनका प्रयोग मुख्य रूप से सामान ले जाने, अनाज का भंडारण करने और मूल्यवान वस्तुएँ रखने के लिए किया जाता है। कुकी, मिकिर और मिज़ो इन टोकरियों का प्रयोग विशेष रूप से ताले की व्यवस्था के साथ आभूषण तथा कपड़े रखने के लिए करते हैं। मैदानी जिलों में भी कुछ लोग अपने कपड़े आदि बेंत के सूटकेस में रखते हैं। सभी मैदानी जिलों में व्यावसायिक आधार पर ‘चाय की पत्तियाँ तोड़ कर एकत्रित करने के लिए टोकरियों’ का बड़े स्तर पर निर्माण देखा जाता है। सामान्यत: चाय बगानों के मालिक समय-समय पर इन टोकरियों को बड़ी संख्या में खरीदते हैं। इसलिए इन एकत्रण टोकरियों के निर्माण पर उल्लेखनीय वित्तीय सहयोग से कुछ बड़ी कंपनियों का एकाधिकार है। ये कंपनियाँ मिट्टी, कोयला आदि ले जाने के लिए प्रयोग की जाने वाली विभिन्न प्रकार की टोकरियों का निर्माण भी करती हैं। यह देखा जाता है कि ये बड़ी कंपनियाँ अन्य कंपनियों की तुलना में कच्चा माल बहुत कम लागत पर खरीदती हैं। असम में विभिन्न डिजाइन और विभिन्न पद्धतियों से टोकरियाँ डिजाइन की जाती हैं। ये बांस तथा बेंत दोनों से बनाई जा सकती हैं अथवा केवल बेंत से बनाई जा सकती है। उत्पादन की विभिन्न पद्धतियाँ निम्न तीन प्रकारों तक सीमित हैं अर्थात (1) गूँथने अथवा बुनाई का काम, (2) सींक का काम और (3) कॉयल वाली टोकरियाँ। गूँथी गई अथवा बुनी गई टोकरियाँ गूँथी गई टोकरियों में मूल रूप से दो प्रकार के घटक होते हैं (धागा तथा कपड़ा) जो एक दूसरे को क्रॉस करते हैं। गूँथी गई टोकरियाँ विभिन्न डिजाइन में बनाई जाती हैं जैसे चौकोर, विकर्णीय, बटी हुई, लिपटी हुई और षट्कोणीय। कपड़े तथा आभूषण रखने के लिए टोकरियों, बेंत के सूटकेस आदि सामान्यत: इस पद्धति से बनाए जाते हैं। सींक का काम सींक के काम में धागा लचीला नहीं होता, परंतु कपड़ा लचीला होता है और इसे बारी-बारी से धागे के ऊपर तथा नीचे से निकाला जाता है।इस पद्धति में धागे को कम कठोर रखा जाता है। एकत्रण टोकरियाँ इस पद्धति से बनाई जाती हैं। कॉयल वाली टोकरियाँ धागे को पर्याप्त लंबाई की बेंत से व्यवस्थित किया जाता है। यह व्यवस्था करने से पहले इस बेंत को लचीला बनाने के लिए कुछ समय तक पानी में भिगोया जाता है। बुनाई की प्रक्रिया के दौरान केवल कॉयल की गई बेंत को बांधने से टोकरी का स्वरूप बना रहता है। अंत में इस टोकरी के किनारे को बेंत की एक पतली तथा लचीली पट्टी से सिला जाता है। एकत्रण टोकरियों, राशन टोकरियों, मिट्टी, पत्थर, कोयला आदि ले जाने के लिए प्रयुक्त टोकरियों आदि का निर्माण इसी पद्धति से किया जाता है, जिसे तकनीकी रूप से ‘बी-स्किप’ डिजाइन कहा जाता है। विकास की संभावना इस उद्योग के लिए मुख्य कच्चा माल अर्थात विभिन्न प्रकार के बांस तथा बेंत पूरे राज्य में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। इसके लिए बहुत कम अथवा न के बराबर निवेश की आवश्यकता है और घर के किसी भी अथवा सभी लोगों द्वारा इसे एक सहायक व्यवसाय बनाया जा सकता है। इसी प्रकार इस उद्योग के विकास की काफी संभावनाएँ हैं और बांस तथा बेंत से आधुनिक पसंद के अनुरूप विभिन्न नए उत्पादों का निर्माण किया जा सकता है। बाजार की समझ विकसित किए जाने की आवश्यकता है ताकि उपभोक्ता बाजार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उत्पाद बनाए जा सकें। राज्य सरकार के एम्पोरियम भी बेंत तथा बांस के कुछ कलात्मक तथा सजावटी उत्पादों को राज्य के बाहर लोकप्रिय बनाने का प्रयास कर रहे हैं। असंगठित और छितरे हुए हस्तशिल्प कारीगरों को संगठित करने के लिए असम सरकार ने हस्तशिल्प कारीगरों और हस्तशिल्प इकाइयों के रजिस्ट्रेशन के लिए एक स्कीम शुरू की थी। शब्दकोश:
असम में घर बांस के खंभों पर क्यों बने होते हैं?Expert-Verified Answer. असम में मकान स्लिट्स पर बनाए गए हैं क्योंकि राज्य में प्रचुर मात्रा में वर्षा होती है जिसके कारण बाढ़ की संभावना होती है। बाढ़ के मामले में घरों के अंदर पानी जमा हो सकता है, अगर मकान जमीनी स्तर पर बनते हैं, तो घरों की बाढ़ से बचने के लिए, घरों को जमीनी स्तर पर और ऊपर जमीन पर बनाया जाता है।
असम में घर जमीन से लगभग कितने फुट के होते हैं?पारंपरिक रूप से इनके घर जमीन से 10 से 12 फीट ऊंचे ही बनाए जाते हैं लेकिन पानी इस बार घर की चौखट तक दस्तक दे चुका है.
असम में बांस से क्या क्या बनाया जाता है?पूर्वोत्तर में अगरबत्ती उद्योग भी बांस आधारित हैं। बांस और केन को पूर्वोत्तर की अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना जाता हैं। पर्यावरण, रोजगार, और अर्थव्यवस्था को संतुलित करने में बांस और केन की खेती महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती हैं। बांस के विकास और बाजार को वर्ष 2018 में एनईसी की मुख्य प्राथमिकताओं में रखा गया था।
कौन सा राज्य बांस और बेंत से सामान बनाने की कला के लिए प्रसिद्ध है?बेंत और बांस
असम के लोग बेंत से सुंदर फर्नीचर और छत की टाइलें बनाने के लिए जाने जाते हैं।
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