4 भारत में न्यायपालिका को स्वतंत्र बनाने के लिए क्या क्या कदम उठाये गये हैं ?`? - 4 bhaarat mein nyaayapaalika ko svatantr banaane ke lie kya kya kadam uthaaye gaye hain ?`?

न्यायपालिका की स्वतंत्रता या न्यायिक स्वातंत्र्य (Judicial independence) से आशय यह है कि न्यायपालिका को सरकार के अन्य अंगों (विधायिका और कार्यपालिका) से स्वतन्त्र हो। इसका अर्थ है कि न्यायपालिका सरकार के अन्य अंगों से, या किसी अन्य निजी हित-समूह से अनुचित तरीके से प्रभावित न हो। यह एक महत्वपूर्ण परिकल्पना है। न्यायिक स्वातंत्र्य के लिए भिन्न-भिन्न देश भिन्न-भिन्न उपाय करते हैं।

न्यायपालिका अपने कार्यों को निष्पक्षता तथा कुशलता से तभी कर सकती है जब वह स्वतंत्र हो। न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है कि न्यायाधीश स्वतंत्र , निष्पक्ष तथा निडर होनी चाहिए। न्यायधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका, विधानमण्डल तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए।

भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता[संपादित करें]

भारतीय संविधान में सरकार के तीनों अंगों के मध्य शक्तियों का पृथक्करण किया गया है। इसके तहत नागरिकों के अधिकारों का विधिवत संरक्षण सुनिश्चित करने तथा शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए इन तीनों अंगों के मध्य पर्याप्त नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था की गयी है।

निम्नलिखित उपायों द्वारा भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित की गई है:

  • नियुक्ति की व्यवस्था- उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायलयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायपालिका के कॉलेजियम की अनुशंसाओं के आधार पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इस प्रक्रिया के माध्यम से कार्यपालिका के पूर्ण विवेकाधिकार में कटौती की गई है तथा न्यायिक नियुक्तियां राजनीतिक विचारों पर आधारित नहीं हैं।
  • नियत सेवा-शर्ते- न्यायाधीशों की नियुक्ति के पश्चात् उनके वेतन, भत्ते, विशेषाधिकार इत्यादि में अलाभकारी परिवर्तन नहीं किए जा सकते है। ये व्यय संचित निधि पर भारित होते हैं- इस कारण, ये व्यय वार्षिक संसदीय मतदान से मुक्त होते हैं। किसी भी विधायिका में न्यायाधीशों के आचरण पर चर्चा नहीं की जा सकती है, केवल उस परिस्थिति को छोड़कर जब महाभियोग का प्रस्ताव विचाराधीन हो।
  • कार्यकाल की सुरक्षा- न्यायाधीशों को केवल संविधान में उल्लिखित आधारों पर ही हटाया जा सकता है।
  • न्यायपालिका की अवमानना हेतु दण्ड देने की शक्ति - न्यायपालिका के कार्यों और निर्णयों का मनमाने ढंग से विरोध या आलोचना नहीं की जा सकती है।
  • अन्य प्रावधान - जैसे कि सेवानिवृत्ति के पश्चात् प्रैक्टिस पर प्रतिबन्ध, संसद को न्यायपालिका के क्षेत्राधिकार को कम करने की शक्ति प्राप्त न होना, अपने कर्मचारियों को नियुक्त करने की स्वतंत्रता आदि भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने में सहायता प्रदान करते हैं।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • शक्तियों का पृथक्करण
  • न्यायिक सुधार
  • न्यायिक पुनरावलोकन

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सिद्धान्त
  • स्वतंत्र न्यायपालिका, हितधारक समूह और नियमों का औचित्य

4 भारत में न्यायपालिका को स्वतंत्र बनाने के लिए क्या क्या कदम उठाये गये हैं?

भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारतीय संविधान में सरकार के तीनों अंगों के मध्य शक्तियों का पृथक्करण किया गया है। इसके तहत नागरिकों के अधिकारों का विधिवत संरक्षण सुनिश्चित करने तथा शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए इन तीनों अंगों के मध्य पर्याप्त नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था की गयी है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए क्या क्या किया गया?

कार्यपालिका–न्यायपालिका के कार्यों में किसी प्रकार की बाधा न पहुँचाए ताकि वह ठीक ढंग से न्याय कर सकें । सरकार के अन्य अंग न्यायपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप न करें। न्यायाधीश बिना भय या भेदभाव के अपना कार्य कर सकें। न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता या उत्तरदायित्त्व का अभाव नहीं है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए संविधान के प्रावधान कौन कौन से हैं?

शक्तियों के इस बँटवारे को दुरुस्त रखने के लिए यह भी महत्त्वपूर्ण है कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार की अन्य शाखाओं का कोई दखल न हो।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता से क्या आवश्यक है?

स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान की रक्षक होती है। न्यायपालिका संविधान विरोधी कानूनों को अवैध घोषित कर उन्हें निरस्त कर देती है। इसलिए संविधान की स्थिरता और सुरक्षा के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है। एक स्वतंत्र न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण रखकर शासन की दक्षता को बढ़ाती है।