1952 से 1967 के बीच भारतीय राजनीति में किस पार्टी का वर्चस्व रहा - 1952 se 1967 ke beech bhaarateey raajaneeti mein kis paartee ka varchasv raha

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1952 से 1967 तक भारत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व और शासन रहा

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1952 से 1966 के बीच भारतीय राजनीतिक में किस पार्टी का वर्चस्व किया?...


1952 से 1967 के बीच भारतीय राजनीति में किस पार्टी का वर्चस्व रहा - 1952 se 1967 ke beech bhaarateey raajaneeti mein kis paartee ka varchasv raha

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1952 से 1966 के बीच भारतीय राजनीति के इस पार्टी का वर्चस्व था भारत की राजनीति में 952 से लेकर 1966 तक कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व रहा कांग्रेस पार्टी के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल उन्होंने जो है 1964 के बाद निगम के बाद उनका स्थान पर लाल बहादुर शास्त्री जय किसान का नारा देने वाले जय जवान जय किसान का नारा देने वाले पंडित बहादुर शास्त्री लाल बहादुर शास्त्री इस देश के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के बाद इंदिरा गांधी विभाग में शासन के तरीके से कुल मिलाकर के सर्वाधिक जो है 1966 का जो काम था वह ही रोमांचकारी और भारतीय राजनीति में कांग्रेस के प्रत्यक्ष की राजनीति

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1952 से 1967 के बीच भारतीय राजनीति में किस पार्टी का वर्चस्व रहा - 1952 se 1967 ke beech bhaarateey raajaneeti mein kis paartee ka varchasv raha

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  • 1952 से 1966 के बीच की भारतीय राजनीतिक में किस पार्टी का वर्चस्व रहा - 1952 se 1966 ke beech ki bharatiya raajnitik me kis party ka varchaswa raha
  • 1952 से 1966 के बीच भारतीय राजनीति में किस पार्टी का वर्चस्व रहा - 1952 se 1966 ke beech bharatiya raajneeti me kis party ka varchaswa raha

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भारतीय राजनीति में बदलाव की बयार, कांग्रेस के वर्चस्व को मिली चुनौती

आम चुनाव की कहानी- 1967

1952 से 1967 के बीच भारतीय राजनीति में किस पार्टी का वर्चस्व रहा - 1952 se 1967 ke beech bhaarateey raajaneeti mein kis paartee ka varchasv raha


देश की राजनीतिक फिजा में यह सवाल यद्यपि काफी पहले से तैरने लगा था कि नेहरू के बाद कौन? लेकिन पहली बार इस सवाल से देश का सीधा सामना हुआ।

पहली बार देश को 2 बड़े युद्घों का सामना करना पड़ा। पहले चीन से और फिर पाकिस्तान से। 1962 के आम चुनाव के कुछ महीनों बाद ही अक्टूबर 1962 में भारत-चीन युद्घ हुआ। यह एकतरफा युद्घ था। चीन के हाथों भारत को करारी शिकस्त खानी पड़ी।

चीन से मिले धोखे से नेहरू का 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' का सपना चूर-चूर हो गया था। सारा देश स्तब्ध और मायूस था। नेहरू का सिर शर्म से झुक गया था। इतिहास में ऐसी पराजय का कोई उदाहरण नहीं था। हमारी सेना जिस तरह पीछे हटी थी उससे सबको सदमा लगा।

विरोधियों ने नेहरू की बोलती बंद कर दी थी। नेहरू भी इस सदमे से उबर नहीं पाए और युद्घ के डेढ़ साल के भीतर ही उनका निधन हो गया। 1964 में उनकी मृत्यु के बाद गुलजारीलाल नंदा कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने और फिर चंद दिनों बाद नेहरू के उत्तराधिकारी के तौर पर देश की बागडोर लालबहादुर शास्त्री के हाथों में आ गई।

फिर1965 में भारत-पाकिस्तान युद्घ हुआ। सोवियत संघ के हस्तक्षेप से युद्घविराम और ताशकंद समझौता हुआ। ताशकंद में ही शास्त्रीजी की रहस्यमय हालात में मृत्यु हो गई और 1966 में इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं।

देश चलाना इंदिरा गांधी के लिए भी नया अनुभव था। 1962 के आम चुनाव के बाद कुछ संसदीय सीटों के लिए उपचुनाव हुए थे।

1963 में समाजवादी दिग्गज डॉ. राममनोहर लोहिया फर्रुखाबाद से उपचुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे। इसी तरह स्वतंत्र पार्टी के सिद्घांतकार मीनू मसानी गुजरात की राजकोट सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचे थे।

1964 में समाजवादी नेता मधु लिमये भी बिहार के मुंगेर संसदीय क्षेत्र से उपचुनाव जीत गए थे यानी इंदिरा गांधी को घेरने के लिए लोकसभा में कई दिग्गज पहुंच गए।

इसी दौरान देश की राजनीति में एक घटना और हुई। सैद्घांतिक मतभेदों के चलते 1964 में ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) का विभाजन हो गया। भाकपा से अलग होकर एके गोपालन, ईएमएस नम्बूदिरीपाद, बीटी रणदिवे आदि नेताओं ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का गठन कर लिया।

यह थी 1967 के आम चुनाव की पूर्ण पृष्ठभूमि। संक्षेप में कहा जाए तो 1967 के आम चुनाव पर 2 युद्घ और 2 प्रधानमंत्रियों की मृत्यु की काली छाया साफ देखी जा सकती थी।

जाहिर है कि आम चुनाव के मुद्दे भी इसी पृष्ठभूमि के इर्द-गिर्द ही थे। कांग्रेस के लिए नेहरू की गैरमौजूदगी और इंदिरा गांधी की असरदार मौजूदगी वाला यह पहला आम चुनाव था।

संक्रमण काल के इस चुनाव में इंदिरा गांधी की अग्निपरीक्षा होनी थी। कांग्रेस की सीटें भी घटी और वोट भी। इस चुनाव में लोकसभा की कुल सीटें 494 से बढ़ाकर 520 कर दी गई थीं। बतौर मतदाता करीब 25 करोड़ लोगों ने इस चुनाव को देखा। इसमें करीब 13 करोड़ पुरुष और 12 करोड़ महिलाएं थीं।

इस चुनाव में 15 करोड़ 27 लाख लोगों ने मतदान किया था यानी मतदान का प्रतिशत करीब 61 रहा। चुनाव नतीजे चौंकाने वाले रहे। कांग्रेस को करारा झटका लगा। उसे स्पष्ट बहुमत तो मिल गया लेकिन पिछले चुनाव के मुकाबले लोकसभा में उसका संख्या बल काफी कम हो गया।

पिछले तीनों आम चुनावों में कांग्रेस को करीब तीन-चौथाई सीटें मिलती रहीं लेकिन इस बार उसके खाते में मात्र 283 सीटें ही आईं यानी बहुमत से मात्र 22 सीटें ज्यादा। उसे प्राप्त वोटों के प्रतिशत में भी करीब 5 फीसदी की गिरावट आई।

कांग्रेस को 1952 में 45 फीसदी, 1957 में 47.78 फीसदी और 1962 में 44.72 फीसदी वोट मिले थे, पर 1967 में उसका वोट घटकर 40.78 फीसदी रह गया। आमतौर पर उसके 2-3 प्रत्याशियों की जमानत जब्त होती रही थी, लेकिन 1967 में उसके 7 उम्मीदवारों को जमानत गंवानी पड़ी।

गुजरात, राजस्थान और ओडिशा में स्वतंत्र पार्टी ने उसे झटका दिया तो उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और दिल्ली में जनसंघ ने। उसे बंगाल और केरल में कम्युनिस्टों से भी कड़ी चुनौती मिली।


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