व्यवसाय (Business) विधिक रूप से मान्य संस्था है, जो उपभोक्ताओं को कोई उत्पाद या सेवा प्रदान करने के लक्ष्य से निर्मित की जाती है। व्यवसाय को 'कम्पनी', 'इंटरप्राइज' या 'फर्म' भी कहते हैं। पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में व्यापार का प्रमुख स्थान है जो अधिकांशत: निजी हाथों में होते हैं और लाभ कमाने के ध्येय से काम करते हैं तथा साथ-साथ स्वयं व्यापार की भी वृद्धि करते हैं। किन्तु सहकारी संस्थाएँ तथा सरकार द्वारा चलायी जानी वाली संस्थाएं प्राय: लाभ के बजाय अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिये बनायी गयी होती हैं। हम व्यावसायिक वातावरण में रहते हैं। यह समाज का एक अनिवार्य अंग है। यह व्यावसायिक क्रियाओं के विस्तृत नेटवर्क के माध्यम से विभिन्न प्रकार की वस्तुएं तथा सेवाएं उपलब्ध कराकर हमारी आश्यकताओं की पूर्ति करता है। अन्य शब्दों में - व्यवसाय एक ऐसा है जिसमें अर्थोपार्जन के बदले वस्तुओं अथवा सेवाओं का उत्पादन, विक्रय और विनिमय होता है एवं या कार्य नियमित रूप से किया जाता है। "व्यवसाय में वे संपूर्ण मानवीय क्रियाएं आ जाती हैं, जो वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन एवं वितरण के लिए की जाती है, जिनका उद्देश्य अपनी सेवाओं द्वारा समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करके लाभ अर्जन करना होता है। व्यवसाय की प्रकृति तथा क्षेत्र[संपादित करें]जब हम अपने आसपास ध्यान देते हैं तो देखते हैं कि ज्यादातर लोग किसी न किसी काम में संलग्न हैं। अध्यापक विद्यालयों में पढ़ाते हैं, किसान खेतों में काम करते हैं, मजदूर कारखानों में काम करते हैं, चालक गाड़ियाँ चलाते हैं, दुकानदार सामान बेचते हैं, चिकित्सक रोगियों को देखते हैं आदि। इस तरह बारहों महीने हर आदमी दिन भर, या कभी-कभी रात भर, किसी न किसी काम में व्यस्त रहता है। लेकिन अब प्रश्न यह उठता है कि हम सब इस तरह किसी न किसी काम में अपने आपको इतना व्यस्त क्यों रखते हैं? इसका सिर्फ एक ही उत्तर है - 'अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए'। इस तरह काम करके या तो हम अपने विभिन्न उत्तरदायित्वों की पूर्ति करते हैं या धन अर्जित करते हैं, जिससे कि हम अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ तथा सेवाएँ खरीद सकें। मानवीय क्रियाएँ[संपादित करें]मनुष्य द्वारा की जाने वाली विभिन्न क्रियाएँ मानवीय क्रियाएँ कहलाती हैं। इन सभी क्रियाओं को हम दो वर्गो में बाँट सकते हैं-
आर्थिक क्रियाएँ[संपादित करें]जो क्रियाएँ धन अर्जित करने के उद्देश्य से की जाती हैं, उन्हें आर्थिक क्रियाएँ कहते हैं। उदाहरण के लिए, किसान खेत में हल चलाकर फसल उगाता है और उसे बेचकर धन अर्जित करता है, कारखाने अथवा कार्यालय का कर्मचारी अपने काम के बदले वेतन या मजदूरी प्राप्त करता है, व्यापारी वस्तुओं के क्रय विक्रय से लाभ अर्जित करता है। ये सभी क्रियाएँ आर्थिक हैं। अनार्थिक क्रियाएँ[संपादित करें]जो क्रियाएँ धन अर्जित करने की अपेक्षा, संतुष्टि प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाती हैं उन्हें अनार्थिक क्रियाएँ कहते हैं। इस तरह की क्रियाएँ, सामाजिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति, मनोरंजन या स्वास्थ्य लाभ के लिए की जाती हैं। लोग पूजा स्थलों पर जाते हैं, बाढ़ अथवा भूकंप राहत कोष में दान देते हैं, स्वास्थ्य लाभ के लिए स्वयं को खेलकूद में व्यस्त रखते हैं, बागवानी करते हैं, रेडियो सुनते हैं, टेलीविजन देखते हैं या इसी तरह की अन्य क्रियाएँ करते हैं। ये कुछ उदाहरण अनार्थिक क्रियाओं के हैं। आर्थिक क्रियाओं के प्रकार[संपादित करें]आमतौर पर आर्थिक क्रियाएँ धन अर्जित करने के उद्देश्यों से की जाती है। साधरणतया लोग इस तरह की क्रियाओं में नियमित रूप में संलग्न होते हैं, जिसे आर्थिक क्रिया कहा जाता है।
व्यवसाय वित्त कि विशेषताएँ[संपादित करें]व्यवसाय को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है : ‘‘व्यवसाय एक ऐसी क्रिया है, जिसमें लाभ कमाने के उद्देश्य से वस्तुओं अथवा सेवाओं का नियमित उत्पादन क्रय-विक्रय तथा विनिमय सम्मिलित है’’।व्यवसाय की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं :
संलग्न होते हैं। इन वस्तुओं में ब्रेड, मक्खन, दूध, चाय आदि जैसी उपभोक्ता वस्तुएं भी हो सकती हैं और संयन्त्रा, मशीनरी, उपकरण आदि जैसी पूंजीगत वस्तुएँ भी। सेवाएँ- परिवहन, बैंकिंग, बीमा, विज्ञापन आदि रूपों में हो सकती हैं।
व्यवसाय विकास[संपादित करें]भारत की सांस्कृतिक ध्रोहर बहुत समृद्ध है। लेकिन शायद यह बहुत कम लोग जानते होंगे कि प्राचीन काल में भारत, अर्थव्यवस्था तथा व्यवसाय के स्तर पर बहुत ही विकसित देश था। यह बात ऐतिहासिक साक्ष्यों, खुदाई से प्राप्त प्रमाणों, साहित्य व लिखित दस्तावेज़ों से सिद्ध होती हैं। इन सबसे अध्कि भारत की असीम धन संपत्ति से आकर्षित होकर विभिन्न विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा समय-समय पर हुए आक्रमण भी इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं। प्राचीन भारतीय सभ्यता न केवल वृफषि आधारित थी, बल्कि इसके आंतरिक व बाह्य व्यापार व वाणिज्य भी काफी उन्नत थे। व्यावसायिक जगत के विभिन्न क्षेत्रों में भारत का असीम योगदान है। उस समय के अन्य देशों में प्रचलित व्यवसायों से तुलना करने पर हम पाते हैं कि भारतीय व्यवसाय अपनी विलक्षणता, गतिशीलता ;गत्यात्मकताद्ध व गुणात्मकता में इन सबसे कहीं आगे था। शुरू के दिनों में भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्णतः कृषि आधरित थी। लोग अपने उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन स्वयं करते थे। वस्तुओं को बेचने अथवा विनिमय की आवश्यकता ही नहीं थी। लेकिन विकास के साथ-साथ लोगों की आवश्यकताएँ बढ़ने लगी। जिसके कारण वस्तुओं के उत्पादन में भी वृधि होने लगी। लोगों ने दैनिक उपयोग तथा विलासिता संबंधी विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में विशेषज्ञता अर्जित करनी शुरू कर दी और इस तरह से उनके पास अपने उपयोग की अन्य वस्तुओं के उत्पादन के लिए दक्षताऔर समय का व्यवसाय की प्रकृति तथा क्षेत्र अभाव होना शुरू हो गया। इस प्रकार इनकी कुशलता में वृधि होने लगी और ये अपनी आवश्यकता से अध्कि वस्तुओं का उत्पादन करने में सक्षम हो गए। अतः अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी अध्कि उत्पादित वस्तुओं के विनिमय की प्रणाली विकसित हो गई। यह व्यापार की शुरूआत थी। आज ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि भारत में व्यवसाय व व्यापार के क्षेत्र में इतना विकास स्वतंत्राता प्राप्ति के पश्चात ही हुआ है। भारत, आज औद्योगिक उत्पादन में इतना सक्षम हो गया है कि हम सभी वस्तुओं का उत्पादन देशी तकनीक के प्रयोग से कर सकते हैं। लेकिन इससे यह परिणाम नहीं निकाल लेना चाहिए कि भूत काल में भारतीय सभ्यता विकसित या उन्नत नहीं थी। जबकि हमें आज भी भारत की समृधि व्यापारिक व वाणिज्यिक ध्रोहर पर गर्व है। आप यह जानकर हैरान होंगे कि भारत ने व्यापार व वाणिज्य के क्षेत्र में अपनी यात्रा 5000 वर्ष ई.पू. शुरू कर दी थी। कई ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह प्रमाणित होता है कि उस समय भारत में सुनियोजित शहर थे। भारतीय कपड़ों, आभूषणों और इत्रा इत्यादि के प्रति पूरे विश्व में आकर्षण था। यह भी प्रमाण मिले हैं कि काफी समय से भारतीय व्यापारियों में व्यवसाय के लिए मुद्रा के प्रयोग का चलन था। व्यापारियों, शिल्पकारों व उत्पादकों के हितों की रक्षा के लिए संघों ;हनपसकद्ध का प्रचलन था। यह भारत में व्यापार व वाणिज्य के जटिल विकास की ओर संकेत करता है। उस समय भारत के व्यापारियों ने न केवल सुदृढ़ आंतरिक व्यवसायिक रास्तों का जाल बुना था, बल्कि उनके व्यावसायिक संबंध अरब, मध्य व दक्षिण पूर्व एशिया के व्यापारियों से भी थे। भारत विभिन्न प्रकार की धतु सामग्री के उत्पादन में भी सक्रिय था, जैसे तांबा, पीतल की वस्तुएं, बर्तन, गहने तथा सजावटी सामान आदि। भारतीय व्यापारी विश्व के विभिन्न भागों में अपने उत्पादों का निर्यात करते थे और वहां से उनके उत्पादों का आयात करते थे। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि अंग्रेज सर्वप्रथम भारत में व्यापार करने के लिए ही आए थे, जिन्होंने बाद में यहां अपना राज्य स्थापित कर लिया। भारत ने कई प्रकार से विश्व व्यापार व वाणिज्य में योगदान दिया है। गणना के लिए अंक प्रणाली, जिसका हम आज भी उपयोग करते हैं, भारत में पहले से विकसित थी। संयुक्त परिवार प्रथा तथा व्यवसाय में श्रम विभाजन का विकास भी यहीं हुआ, जो आज तक प्रचलित है। आज आध्ुनिक समय में प्रयोग की जाने वाली उपभोक्ता केंद्रित व्यवसाय तकनीक पुराने समय से भारतीय व्यवसाय का एक अभिन्न अंग रही है। इसलिए हम कह सकते हैं कि भारत की अपनी समृधि व्यावसायिक ध्रोहर है, जिसने इसकी उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। व्यवसाय के उद्देश्य[संपादित करें]सभी व्यावसायिक क्रियाएँ कुछ उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की जाती हैं। व्यवसाय के उद्देश्यों को निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है : आर्थिक उद्देश्य[संपादित करें]व्यवसाय के आर्थिक उद्देश्यों के अंतर्गत लाभ कमाने के उद्देश्य के साथ वे समस्त आवश्यक क्रियाएँ भी आती हैं, जिनके द्वारा लाभ कमाने के उद्देश्य की पूर्ति की जाती है, जैसे ग्राहक बनाना, नियमित नव प्रवर्तन तथा उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग आदि। लाभ कमाना[संपादित करें]लाभ, व्यवसाय के लिए जीवन दायिनी शक्ति का कार्य करता है। इसके बिना कोई भी व्यवसाय प्रतियोगिता के बाजार में टिका नहीं रह सकता। वास्तव में किसी भी व्यावसायिक इकाई के अस्तित्व में आने का उद्देश्य होता है- लाभ कमाना। लाभ, व्यवसायी को न केवल उसकी आजीविका अर्जित करने में सहायता करता है, अपितु लाभ का एक भाग व्यवसाय में पुनः विनियोजित कर व्यावसायिक गतिविध्यिं के विस्तार में भी सहायक होता है। लाभ कमाने के प्राथमिक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए व्यवसाय के कुछ अन्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं :
सामाजिक उद्देश्य[संपादित करें]सामाजिक उद्देश्य व्यवसाय के वे उद्देश्य होते हैं, जिन्हें समाज के हितों के लिए प्राप्त करना आवश्यक होता है। अतः हर व्यवसाय का उद्देश्य होना चाहिए कि वह किसी भी प्रकार से समाज को हानि न पहुँचाए। व्यवसाय के सामाजिक उद्देश्यों के अंतर्गत अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन तथा पूर्ति, उचित व्यापारिक प्रथाएँ अपनाना, समाज के सामान्य कल्याणकारी कार्यों में योगदान तथा कल्याणकारी सुविधाओं में योगदान करना सम्मिलित है।
मानवीय उद्देश्य[संपादित करें]मानवीय उद्देश्यों से अभिप्राय उन उद्देश्यों से है, जिनमें समाज के अक्षम तथा विकलांग, शिक्षा अथवा प्रशिक्षण से वंचित लोगों के कल्याण तथा कर्मचारियों की अपेक्षाओं की पूर्ति के लक्ष्य निहित होते हैं। इस प्रकार व्यवसाय के मानवीय उद्देश्यों के अंतर्गत कर्मचारियों की आर्थिक सुरक्षा, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक संतुष्टि और मानव संसाधनों का विकास निहित है।
राष्ट्रीय उद्देश्य[संपादित करें]व्यवसाय, देश का एक महत्वपूर्ण अंग होता है अतः राष्ट्रीय लक्ष्यों और आकांक्षाओं की प्राप्ति प्रत्येक व्यवसाय का उद्देश्य होना चाहिए। व्यवसाय के राष्ट्रीय उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
वैश्विक उद्देश्य[संपादित करें]पहले भारत के अन्य देशों के साथ बहुत ही सीमित व्यापारिक संबंध थे। तब वस्तुओं की आयात और निर्यात संबंधी नीतियाँ बहुत कठोर थीं, लेकिन आजकल उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण काफी हद तक विदेशी निवेश पर प्रतिबंध समाप्त हो चुका है, तथा आयातित वस्तुओं पर लगने वाला शुल्क भी काफी कम हो गया है। इन परिवर्तनों से बाजार में प्रतियोगिता काफी बढ़ गई है। आज वैश्वीकरण के कारण पूरी दुनिया एक बड़े बाजार के रूप में परिवर्तित हो चुकी है। आज एक देश में तैयार माल दूसरे देश में आसानी से उपलब्ध है। इस प्रकार विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ने से प्रत्येक व्यवसाय अपने मस्तिष्क में कुछ उद्देश्य रखकर काम करने लगा है, जिसे वैश्विक उद्देश्य कहा जा सकता है।
व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व[संपादित करें]लोग लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से व्यवसाय चलाते हैं। लेकिन केवल लाभ अर्जित करना ही व्यवसाय का एकमात्रा उद्देश्य नहीं होता। समाज का एक अंग होने के नाते इसे बहुत से सामाजिक कार्य भी करने होते हैं। यह विशेष रूप से अपने अस्तित्व की सुरक्षा में संलग्न स्वामियों, निवेशकों, कर्मचारियों तथा सामान्य रूप से समाज व्यवसाय की प्रकृति तथा क्षेत्र व समुदाय की देखरेख की जिम्मेदारी भी निभाता है। अतः प्रत्येक व्यवसाय को किसी न किसी रूप में इनके प्रति जिम्मेदारियों का निर्वाह करना चाहिए। उदाहरण के लिए, निवेशकों को उचित प्रतिफल की दर का आश्वासन देना, अपने कर्मचारियों को अच्छा वेतन, सुरक्षा, उचित कार्य दशाएँ उपलब्ध कराना, अपने ग्राहकों को अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुएँ उचित मूल्यों पर उलब्ध कराना, पर्यावरण की सुरक्षा करना तथा इसी प्रकार के अन्य बहुत से कार्य करने चाहिए। हालांकि ऐसे कार्य करते समय व्यवसाय के सामाजिक उत्तारदायित्वों के निर्वाह के लिए दो बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए। पहली तो यह कि ऐसी प्रत्येक क्रिया र्ध्मार्थ क्रिया नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि यदि कोई व्यवसाय किसी अस्पताल अथवा मंदिर या किसी स्कूल अथवा कॉलेज को कुछ धनराशि दान में देता है तो यह उसका सामाजिक उत्तरदायित्व नहीं कहलाएगा, क्योंकि दान देने से सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह नहीं होता। दूसरी बात यह है कि, इस तरह की क्रियाएँ कुछ लोगों के लिए अच्छी और कुछ लोगों के लिए बुरी नहीं होनी चाहिए। मान लीजिए एक व्यापारी तस्करी करके या अपने ग्राहकों को धेखा देकर बहुत सा धन अर्जित कर लेता है और गरीबों के मुफ्रत इलाज के लिए अस्पताल चलाता है तो उसका यह कार्य सामाजिक रूप से न्यायोचित नहीं है। सामाजिक उत्तरदायित्व का अर्थ है कि एक व्यवसायी सामाजिक क्रियाओं को सम्पन्न करते समय ऐसा कुछ भी न करे, जो समाज के लिए हानिकारक हो। इस प्रकार सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधरणा व्यवसायी को जमाखोरी व कालाबाजारी, कर चोरी, मिलावट, ग्राहकों को धेखा देना जैसी अनुचित व्यापरिक क्रियाओं के बदले व्यवसायी को विवेकपूर्ण प्रबंध्न के द्वारा लाभ अर्जित करने के लिए प्रोत्साहित करती है। यह कर्मचारियों को उचित कार्य तथा आवासीय सुविधएँ प्रदान करके, ग्राहकों को उत्पाद विक्रय उपरांत उचित सेवाएँ प्रदान करके, पर्यावरण प्रदूषण को नियंत्रित करके तथा प्राकृतिक संसाध्नों की सुरक्षा द्वारा संभव है। विभिन्न हित समूहों के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधरणा तथा इसके महत्व के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद आइए जानें कि व्यवसाय का इसके विभिन्न हित-समूहों, जिन पर यह आश्रित है, के प्रति क्या उत्तरदायित्व हैं। व्यवसाय प्रायः स्वामियों, विनिवेशकों, कर्मचारियों, पूर्तिकर्ताओं, ग्राहकों तथा उपभोक्ताओं, प्रतियोगियों, सरकार तथा समाज पर आश्रित है। इन्हें हित-समूह इसलिए कहा जाता है, क्योंकि व्यवसाय की प्रत्येक क्रिया से इन समूहों का हित, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है। स्वामियों तथा निवेशकों के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]व्यवसाय के अपने स्वामियों के प्रति उत्तरदायित्व हैं :
लेनदारों के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]व्यवसाय के अपने लेनदारों के प्रति उत्तरदायित्व हैः
कर्मचारियों के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]व्यवसाय के अपने कर्मचारियों के प्रति निम्नलिखित उत्तरदायित्व हैं :
आपूर्तिकर्ताओं के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]व्यवसाय के अपने आपूर्तिकर्त्ताओं के प्रति उत्तरदायित्व निम्नलिखित हैं :
ग्राहकों के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]ग्राहकों के प्रति व्यवसाय के उत्तरदायित्व निम्नलिखित हैं :
प्रतियोगियों के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]व्यवसाय के अपने प्रतियोगियों के प्रति निम्नलिखित उत्तरदायित्व हैं :
सरकार के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]सरकार के प्रति व्यवसाय के विभिन्न उत्तरदायित्व निम्नलिखित हैं :
समाज के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]एक समाज, व्यक्तियों, समूहों, संगठनों, परिवारों आदि से मिलकर बनता है। ये सभी समाज के सदस्य होते हैं। ये सभी एक दूसरे के साथ मिलते-जुलते हैं तथा अपनी लगभग सभी गतिविधियों के लिए एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। इन सभी के बीच एक संबंध होता है, चाहे वह प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष। समाज का एक अंग होने के नाते, समाज के सदस्यों के बीच संबंध बनाए रखने में व्यवसाय को भी मदद करनी चाहिए। इसके लिए उसे समाज के प्रति कुछ निश्चित उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना आवश्यक है। ये उत्तरदायित्व निम्नलिखित हैं :
व्यवसाय से आप क्या समझते हैं?व्यवसाय : व्यवसाय का अर्थ है एक ऐसा धंधा, जिसमें धन के बदले वस्तुओं अथवा सेवाओं का उत्पादन, विक्रय और विनिमय होता है। यह नियमित रूप से किया जाता है तथा इसे लाभ कमाने के उद्देश्य से किया जाता है। खनन, उत्पादन, व्यापार, परिवहन, भंडारण, बैंकिंग तथा बीमा आदि व्यावसायिक क्रियाओं के उदाहरण हैं।
व्यवसाय क्या है इसकी विशेषताओं का वर्णन कीजिये?व्यवसाय का अर्थ (vyavsay ka arth)
व्यवसाय को हम तभी व्यवसाय कहेगें जब उसमे आर्थिक क्रियाओं मे नियमितता हो। व्यसाय मे उन सभी क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है, जिसमें वस्तुओं के उत्पादन से लेकर वितरण तक क्रियाएं की जाती है। व्यवसाय का मुख्य उद्देश्य समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए धन प्राप्त करना होता है।
व्यवसाय योजना से आप क्या समझते हैं व्यवसाय योजना के प्रकारों की व्याख्या करें?व्यवसाय योजना (business plan) औपचारिक रूप से लिखा गया वह दस्तावेज है जिसमें व्यवसाय के लक्ष्य लिखें हों, उन्हें प्राप्त करना सम्भव है - इसकी व्याख्या हो, तथा उन लक्ष्यों की प्राप्ति की योजना लिखी हो। व्यवसाय योजना में संस्था के बारे में जानकारी आदि भी दिया जा सकता है।
व्यावसायिक पर्यावरण से आप क्या समझते हैं व्यावसायिक पर्यावरण के प्रमुख संघटकों की विवेचना कीजिए?इस प्रकार स्पष्ट है कि “व्यावसायिक पर्यावरण कई गतिशील, जटिल व अनियंत्रित बाध्य आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, भौतिक एवं तकनीकी घटकों का योग है, जिसके अन्दर ही रहकर व्यवसाय को कार्य करना पड़ता है।” यह वातावरण, व्यवसाय को नये आकार, प्रकार, स्वरूप, नयी चुनौतियाँ, नयी भूमिका, मान्यताएँ व नये तेवर ग्रहण करने को बाध्य करता है।
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