UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 1 उत्पादन एवं उपभोक्ता में सम्बन्ध (अनुभाग – चार)These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 1 उत्पादन एवं उपभोक्ता में सम्बन्ध (अनुभाग – चार) Show विस्तृत उत्तरीय प्रत प्रश्न 1. विनिमय सभ्यता के प्रारम्भ में मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित थीं। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं कर लेता था। मनुष्य आत्मनिर्भर था। ज्ञान व सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य की आवश्यकताओं में वृद्धि होती चली गयी। इस प्रकार मनुष्य (UPBoardSolutions.com) को दूसरे मनुष्यों के सहयोग की आवश्यकता अनुभव हुई और विनिमय का प्रारम्भ हुआ। विनिमय क्रिया के अन्तर्गत एक मनुष्य अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ, सेवाएँ या धन दूसरे व्यक्तियों से प्राप्त करता है तथा दूसरे व्यक्तियों को बदले में उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ, सेवाएँ या धन प्रदान करता है। अतः यह कहा जा सकता है कि विनिमय क्रिया में दो पक्षों का पारस्परिक हित निहित होता कुछ विद्वानों ने विनिमय की परिभाषा निम्नवत् दी है- लक्षण या विशेषताएँ
प्रश्न 2. 1. दोहरे संयोग का अभाव – वस्तु-विनिमय प्रणाली की सबसे बड़ी कठिनाई दोहरे संयोग का अभाव है। इस प्रणाली में व्यक्तियों को ऐसे व्यक्ति की खोज में भटकना पड़ता है, जिसके पास उसकी आवश्यकता की वस्तु हो और वह व्यक्ति अपनी वस्तु के बदले में स्वयं उस मनुष्य की वस्तु लेने को 2. मूल्य के सर्वमान्य माप का अभाव-वस्तु – विनिमय प्रणाली में मूल्य का कोई सर्वमान्य माप नहीं होता, जिसके द्वारा प्रत्येक वस्तु के मूल्य को विभिन्न वस्तुओं के सापेक्ष निश्चित किया जा सके। दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी वस्तु का अधिक मूल्य ऑकते हैं, जिससे वस्तु-विनिमय में कठिनाई होती है। 3. वस्तु के विभाजन में कठिनाई – कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनका विभाजन नहीं किया जा सकता; जैसे—गाय, बैल, भेड़, बकरी, कुर्सी, मेज आदि; क्योंकि इनका विभाजन करने से इनकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है। अत: वस्तु-विनिमय प्रणाली में वस्तुओं की अविभाज्यता भी बहुधा कठिनाई का कारण बन जाती है। 4. मूल्य संचय की असुविधा–वस्तु – विनिमय प्रणाली में वस्तुओं को अधिक समय तक संचित करके नहीं रखा जा सकता, क्योंकि बहुधा वे नाशवान होती हैं तथा उन्हें सुरक्षित रखने के लिए अधिक स्थान की आवश्यकता होती है। 5. मूल्य हस्तान्तरण की असुविधा – वस्तु-विनिमय प्रणाली में वस्तु के मूल्य को हस्तान्तरित करने में , कठिनाई होती है। उदाहरणत: यदि किसी व्यक्ति के पास नगर में कोई मकान है और वह गाँव में रहना चाहता है तो वह वस्तु-विनिमय प्रणाली द्वारा अपने मकान को बेचकर न तो धन प्राप्त कर सकता है। और न ही अपने मकान को साथ ले जा सकता है। 6. स्थगित भुगतानों में कठिनाई-वस्तु – विनिमय प्रणाली में वस्तु के मूल्य स्थिर नहीं होते तथा वस्तुएँ कुछ समय के पश्चात् नष्ट होनी प्रारम्भ हो जाती हैं। इस कारण उधार लेन-देन में असुविधा रहती है। यदि वस्तुओं के मूल्य का भुगतान कुछ समय बाद किया जाता है तो सर्वमान्य मूल्य मापक के अभाव के कारण समस्या पैदा हो जाती है। अतएव वस्तु-विनिमय प्रणाली आज के युग में पूर्णतः अव्यावहारिक तथा असफल है। प्रश्न 3. 1. सरलता – वस्तु-विनिमय प्रणाली एक सरल प्रक्रिया है। अनपढ़ (UPBoardSolutions.com) लोग मुद्रा का ठीक-ठीक हिसाब नहीं लगा पाते हैं। ऐसी स्थिति में वे वस्तुओं का परस्पर आदान-प्रदान करके अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करते हैं। 2. पारस्परिक सहयोग – वस्तु-विनिमय प्रणाली सीमित क्षेत्र तक ही वहाँ उपयोग में लायी जा सकती है, जहाँ के निवासी एक-दूसरे की आवश्यकताओं से परिचित रहते हैं। वे आपस में वस्तुओं एवं सेवाओं का आदान-प्रदान करके आवश्यकताओं की सन्तुष्टि सरलता से कर लेते हैं, जिससे उनमें पारस्परिक सहयोग की भावना बलवती होती है। 3. धन का विकेन्द्रीकरण – वस्तु-विनिमय प्रणाली सीमित क्षेत्र व न्यूनतम स्तर तक ही कार्य कर पाती है। व्यक्तियों को वस्तुओं के नष्ट होने का भय बना रहता है। इस कारण वे वस्तुओं का संग्रहण अधिक मात्रा में नहीं कर पाते। मुद्रा पद्धति के अभाव के कारण धन का केन्द्रीकरण कुछ ही हाथों में न होकर समाज के सीमित क्षेत्र के लोगों में बँट जाता है। 4. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए उपयुक्त – विभिन्न देशों की मुद्राओं में भिन्नता के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भुगतान की समस्या बनी रहती है, परन्तु वस्तु-विनिमय द्वारा इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है, क्योंकि वस्तुओं के माध्यम से भुगतान सरलता से हो जाता है। 5. मौद्रिक पद्धति के दोषों से मुक्ति – मौद्रिक पद्धति में मुद्रा-प्रसार व मुद्रा-संकुचन की स्थिति उत्पन्न होती रहती है, परन्तु वस्तु-विनिमय प्रणाली में इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इस प्रकार वस्तु विनिमय प्रणाली मौद्रिक अवगुणों से मुक्त व्यवस्था है। 6. कार्यकुशलता में वृद्धि – वस्तु-विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता एवं दक्षता के अनुसार अधिक-से-अधिक मात्रा में उत्पादन करता है, जिससे उसकी कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। 7. आय तथा सम्पत्ति का समान वितरण – वस्तु-विनिमय प्रणाली में मुट्ठीभर लोगों द्वारा आर्थिक शक्ति को संकेन्द्रण सम्भव नहीं है। इसका कारण यह है कि वस्तुएँ अपेक्षाकृत शीघ्र नाशवान होती हैं, जिससे उनका दीर्घकाल तक संचय नहीं किया जा सकता। परिणामत: यह व्यवस्था पूँजीवाद के दोषों से सर्वथा मुक्त रहती है। 8. आर्थिक असन्तुलन से मुक्त – मुद्रा के अभाव में वस्तु-विनिमय व्यवस्था, (UPBoardSolutions.com) मुद्रा-प्रसार व मुद्रा-संकुचन जैसी असाम्य की दशाओं से भी मुक्त रहती है। | दोनों पक्षों को उपयोगिता का लाभ दोनों पक्षों को उपयोगिता का लाभ विनिमय क्रिया में प्रत्येक पक्ष कम आवश्यक वस्तु देकर अधिक आवश्यक वस्तु प्राप्त करता है अर्थात् एक पक्ष उस वस्तु को दूसरे व्यक्ति को देता है जो उसके पास आवश्यकता से अधिक है तथा जिसकी कम उपयोगिता है और बदले में उस वस्तु को लेता है जिसकी उसे अधिक आवश्यकता या तुष्टिगुण होता है। अत: विनिमय से दोनों पक्षों को उपयोगिता का लाभ होता है। यदि किसी भी पक्ष को हानि होगी तब विनिमय सम्पन्न नहीं होगा। उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण – माना प्रिया व अरुणा के पास क्रमशः आम व सेब की कुछ इकाइयाँ हैं। वे परस्पर विनिमय करना चाहती हैं। दोनों को एक-दूसरे की वस्तु की आवश्यकता है। क्रमागत तुष्टिगुण ह्रास नियम के अनुसार, प्रिया व अरुणा की आम व सेब की इकाइयों का तुष्ट्रिगुण क्रमश: घटता जाता है, परन्तु जब विनिमय प्रक्रिया दोनों के मध्य प्रारम्भ होती है तब दोनों के पास आने वाली इकाइयों का तुष्टिगुण अधिक होता है तथा बदले में दोनों अपनी अतिरिक्त इकाइयों का त्याग करती हैं जिनका तुष्टिगुण अपेक्षाकृत कम होता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक दोनों पक्षों को तुष्टिगुण का लाभ मिलता रहता है। उपर्युक्त तालिका के अनुसार प्रिया व अरुणा में विनिमय प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। प्रिया आम की एक इकाई देकर अरुणा से सेब की एक इकाई प्राप्त करती है। प्रिया को सेब की प्रथम इकाई से प्राप्त तुष्टिगुण अधिक होता है। उसे सेब की पहली इकाई से 25 इकाई तुष्टिगुण मिलता है। सेब के बदले में वह आम की अन्तिम इकाई, जिसको तुष्टिगुण 6 इकाई है, देती है। इस प्रकार उसे 25-6 = 19 तुष्टिगुण का लाभ होता है। इसी प्रकार अरुणा सेब की अन्तिम इकाई, जिसका तुष्टिगुण 4 है, को देकर आम की पहली इकाई जिससे उसे 20 तुष्टिगुण मिलता है, प्राप्त करती है। उसे 20-4 = 16 तुष्टिगुण के बराबर लाभ मिलता है। विनिमय की यह प्रक्रिया आम व सेब की तीसरी इकाई तक निरन्तर चलती रहती है, क्योंकि विनिमय प्रक्रिया से दोनों पक्षों को लाभ होता रहता है। परन्तु दोनों पक्ष चौथी इकाई के विनिमय हेतु तैयार नहीं होते हैं, क्योंकि अब विनिमय-प्रक्रिया से उन्हें हानि होती है। इस प्रकार दोनों पक्ष उस सीमा तक ही विनिमय करते हैं, जब तक दोनों पक्षों को लाभ प्राप्त होता है। अत: यह कथन कि विनिमय से दोनों पक्षों को तुष्टिगुण का लाभ प्राप्त होता है, सत्य है। प्रश्न 4. वस्तु का मूल्य-निर्धारण किस प्रकार होता है ? तालिका एवं रेखाचित्र से स्पष्ट कीजिए। उत्तर: किसी भी वस्तु के मूल्य-निर्धारण के सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में प्रायः मतभेद रहे हैं। एडम स्मिथ व रिकार्डो उत्पादन व्यय को मूल्य-निर्धारण का एकमात्र घटक मानते हैं, जब कि जेवेन्स व वालरस सीमान्त उपयोगिता को। प्रो० मार्शल ने इन दोनों विचारधाराओं में समन्वय स्थापित किया और बताया कि वस्तु का मूल्य न केवल उत्पादन लागत (पूर्ति पक्ष) द्वारा निर्धारित होता है और न सीमान्त उपयोगिता (माँग पक्ष) द्वारा ही, अपितु (UPBoardSolutions.com) दोनों ही शक्तियाँ (मॉग व पूर्ति) संयुक्त रूप से मूल्य का निर्धारण करती हैं। स्वयं प्रो० मार्शल के शब्दों में, “मूल्य उपयोगिता (माँग पक्ष) से तथा उत्पाद्न लागत (पूर्ति पक्ष) से निर्धारित होता है। बाजार में किसी भी वस्तु का मूल्य उस बिन्दु पर निर्धारित होता है, जहाँ वस्तु की माँग और पूर्ति एक-दूसरे के बराबर हो जाती हैं। यह बिन्दु ‘साम्य बिन्दु’ कहलाता है तथा यह मूल्य ‘साम्य मूल्य’। 1. माँग शक्ति – वस्तु की माँग क्रेता वर्ग द्वारा की जाती है, क्योंकि वस्तु में निहित उपयोगिता की प्राप्ति । के लिए वह मूल्य देता है। क्रेता किसी वस्तु का अधिक-से-अधिक कितना मूल्य दे सकता है, यह वस्तु से प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता के द्वारा निर्धारित होता है। इस प्रकार माँग पक्ष की ओर से किसी वस्तु का जो मूल्य निर्धारित होता है, वह वस्तु की सीमान्त उपयोगिता से अधिक नहीं हो सकता। इस प्रकार वस्तु की सीमान्त उपयोगिता ही वस्तु के लिए दी जाने वाली कीमत की उच्चतम सीमा निर्धारित करती है। 2. पूर्ति शक्ति – वस्तु की पूर्ति उत्पादक अथवा विक्रेता वर्ग द्वारा की जाती है। प्रत्येक उत्पादक अथवा विक्रेता अपनी वस्तु का कुछ-न-कुछ मूल्य अवश्य लेता है, क्योंकि वस्तु को बनाने में कुछ-न-कुछ। लागत अवश्य आती है। उत्पादक वस्तु का कम-से-कम कितना मूल्य लेना चाहेगा, यह भी वस्तु की सीमान्त उत्पादन लागत द्वारा निर्धारित होता है। इस प्रकार वस्तु की सीमान्त उत्पादन लागत वह न्यूनतम मूल्य है, जो उत्पादक अथवा विक्रेता को अवश्य प्राप्त होनी चाहिए। मूल्य-निर्धारण बिन्दु मूल्य के सामान्य सिद्धान्त के अनुसार, “वस्तु का मूल्य सीमान्त उपयोगिता तथा सीमान्त उत्पादन लागत के मध्य माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा उस स्थान पर निर्धारित होता है, जहाँ वस्तु की पूर्ति उसकी माँग के बराबर होती है। (UPBoardSolutions.com) ” इस कथन का अभिप्राय यह है कि क्रेता की दृष्टि से मूल्य की अन्तिम सीमा वस्तु की सीमान्त उपयोगिता द्वारा निर्धारित होती है, जब कि विक्रेताओं की दृष्टि से सीमान्त लागत मूल्य की निम्नतम सीमा का निर्धारण करती है। प्रत्येक क्रेता वस्तु का कम-से-कम मूल्य देना चाहता है तथा विक्रेता वस्तु का अधिक-से-अधिक मूल्य प्राप्त करना चाहता है। अत: दोनों पक्ष सौदेबाजी करते हैं और अन्त में वस्तु का मूल्य उस बिन्दु (जिसे साम्य अथवा सन्तुलन बिन्दु कहते हैं) पर निर्धारित होता है, जहाँ वस्तु की माँग वस्तु की पूर्ति के ठीक बराबर होती है। इसी बिन्दु को सन्तुलन मूल्य (Equilibrium Price) कहा जाता है। नीचे दी गयी सारणी से मूल्य-निर्धारण की प्रक्रिया को आसानी से समझा जा सकेगा – उपर्युक्त सारणी से स्पष्ट है कि जब ‘क’ वस्तु का मूल्य क्रमशः ₹ 1 व ₹ 2 प्रति किग्रा है, तो ‘क’ वस्तु की कुल माँग क्रमशः 1,000 व 800 किग्रा है, जबकि ‘क’ वस्तु की पूर्ति 200 व 400 किग्रा है अर्थात् माँग और पूर्ति में क्रमशः 800 व 400 किग्रा का अन्तर है इसी प्रकार जब ‘क’ वस्तु का मूल्य क्रमशः ₹ 4.00 व ₹ 5.00 प्रति किग्रा है, तो ‘क’ की पूर्ति क्रमशः 800 व 1,000 किग्रा है, जबकि माँग क्रमश: 300 व 200 किग्रा है; अर्थात् पूर्ति व माँग के बीच क्रमशः 500 व 800 किग्रा का अन्तर है। ये सभी अवस्थाएँ माँग व पूर्ति में असाम्य की अवस्थाएँ हैं। अत: इने पर किसी में भी मूल्य-निर्धारण नहीं होगा। मूल्य-निर्धारण ₹ 3 प्रति किग्रा पर होगा, क्योंकि इस अवस्था में माँग और पूर्ति दोनों 600 किग्रा हैं और यह ‘सन्तुलन मूल्य’ बिन्दु है। रेखाचित्र में DD ‘क- वस्तु की मॉग-रेखा है तथा SS-‘क’ वस्तु की पूर्ति-रेखा है। माँग व पूर्ति की ये रेखाएँ , एक-दूसरे को साम्य बिन्दुE पर काटती हैं और यह साम्य ₹ 3 प्रति किग्रा मूल्य निर्धारित करता है। यही वस्तु का सन्तुलन मुल्य है। संक्षेप में, किसी वस्तु का मूल्य माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है। मूल्य का यह निर्धारण उस साम्य बिन्दु पर होता है, जहाँ माँग व पूर्ति एक-दूसरे के बराबर हो जाती हैं। प्रश्न 5.
प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु-विनिमय प्रणाली – “जब दो व्यक्ति परस्पर अपनी वस्तुओं तथा सेवाओं का प्रत्यक्ष रूप से आदान-प्रदान करते हैं, तब इस प्रकार की क्रिया को हम अर्थशास्त्र में वस्तु-विनिमय (Barter) कहते हैं। उदाहरणार्थ- एक (UPBoardSolutions.com) समय भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अनाज देकर सब्जी प्राप्त की जाती थी तथा नाई, धोबी, बढ़ई आदि को सेवाओं के बदले में अनाज दिया जाता था। अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय प्रणाली – जब विनिमय प्रक्रिया में मुद्रा (द्रव्य) का लेन-देन भी किया जाता है तो इस प्रणाली को क्रय-विक्रय अथवा अप्रत्यक्ष विनिमय कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जब कोई व्यक्ति मुद्रा लेकर किसी वस्तु या सेवा को क्रय करता है या किसी वस्तु या सेवा को देकर मुद्रा प्राप्त करता है, तब इस क्रिया को अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय विक्रय प्रणाली कहते हैं। वस्तु-विनिमय से लाभ वस्तु-विनिमय से निम्नलिखित लाभ दृष्टिगोचर होते हैं – 1. विनिमय से दोनों पक्षों को लाभ होता है – दो व्यक्ति आपस में विनिमय तभी करते हैं जब दोनों को लाभ होता है। यदि इससे एक ही पक्ष लाभान्वित हो तो दूसरे पक्ष का मिलना असम्भव हो जाएगा, क्योकि दूसरा पक्ष बिना लाभ के ऐसा करने के लिए तैयार नहीं होगा। 2. आवश्यक वस्तुओं का मिलना – विनिमय के द्वारा अतिरिक्त पदार्थों के बदले अधिक आवश्यक वस्तुओं का मिलना सुलभ होगा। विनिमय के कारण हम उन वस्तुओं का भी उपभोग कर सकते हैं जो हम स्वयं उत्पन्न नहीं कर सकते। इस प्रकार विनिमय के द्वारा आवश्यक वस्तु सरलता से उपलब्ध हो ” जाती है। 3. अधिकतम उत्पादन – विनिमय क्रिया के द्वारा सभी लोगों को अपनी-अपनी वस्तु के बदले में उनकी आवश्यकता की सभी वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति या राष्ट्र उसी वस्तु को पैदा करता है, जिसके उत्पादन में वह दूसरों से अधिक श्रेष्ठ है और जिनके उत्पादन की उसे अधिक सुविधाएँ प्राप्त हैं। 4. बाजारों का क्षेत्र विस्तृत होना – विनिमय के द्वारा ही बड़े पैमाने का उत्पादन सम्भव हुआ। इसके द्वारा उत्पादन लागत घट गयी। बड़े पैमाने पर वस्तुओं का उत्पादन होने से बढ़े हुए उत्पादन को निर्यात करके बाजार का क्षेत्र विस्तृत किया जा सकता है। 5. देश के प्राकृतिक साधनों का पूर्ण प्रयोग – विनिमय प्रणाली के कारण ही प्रत्येक राष्ट्र अपने देश में उपलब्ध सभी प्राकृतिक साधनों का पूरा प्रयोग कर लेता है, क्योंकि यदि उसे केवल अपनी आवश्यकता के लिए ही उत्पादन करना होता तो उसे उन साधनों का थोड़ा प्रयोग करना पड़ता और शेष साधन बेकार पड़े रहते। अब उसे अपनी आवश्यकता के अतिरिक्त भी उत्पादन करना पड़ता है, तो देश में प्राप्त सभी प्राकृतिक साधनों का भरपूर प्रयोग किया जाता है। 6. कार्य-कुशलता में वृद्धि – विनिमय द्वारा लोगों की कार्य-कुशलता में वृद्धि होती है। इसका मुख्य कारण आवश्यक वस्तुओं का सरलता से मिलना तथा उन वस्तुओं का उत्पादन करना है, जिनमें कोई व्यक्ति या राष्ट्र निपुणता प्राप्त कर लेता है। एक कार्य को निरन्तर करने से कार्य की निपुणता में वृद्धि होती है। 7. ज्ञान में वृद्धि – विनिमय द्वारा मनुष्यों का परस्पर सम्पर्क बढ़ता है, फलस्वरूप व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के धर्म, रहन-सहन, भाषा, रीति-रिवाजों आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार विनिमय द्वारा ज्ञान व सभ्यता में वृद्धि होती है। 8. राष्ट्रों में पारस्परिक मैत्री व सद्भावना – विनिमय के कारण ही वस्तुओं का आयात-निर्यात सम्भव हो सका है, फलस्वरूप विश्व के विभिन्न राष्ट्र परस्पर निकट आये हैं। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर वस्तुओं की प्राप्ति हेतु निर्भर हो गया है। परिणामस्वरूप विभिन्न राष्ट्रों में मित्रता व संभावना बलवती हुई है। वस्तु-विनिमय से हानियाँ वस्तु-विनिमय से कुछ हानियाँ भी होती हैं, जो निम्नलिखित हैं – 1. आत्मनिर्भरता की समाप्ति – विनिमय की सुविधा हो जाने से एक राष्ट्र कुछ ही वस्तुओं का उत्पादन करता है और अपनी आवश्यकता की शेष वस्तुएँ वह दूसरे देशों से मँगाता है। इसलिए एक देश कुछ अंश तक दूसरे देशों पर निर्भर रहने लगता है और उसकी आत्मनिर्भरता समाप्त हो जाती है। इस स्थिति में युद्ध या संकट के समय उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। 2. प्राकृतिक साधनों का अनुचित शोषण – विनिमय के कारण विभिन्न वस्तुओं के बाजार का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है। फलस्वरूप देश अपने प्राकृतिक साधनों का बिना सोचे-समझे शोषण करने लगते हैं। अधिक उत्पादन के लालच में यदि किसी देश की खनिज सम्पत्ति समाप्त हो जाए तो उसका औद्योगिक भविष्य अन्धकारमय हो जाएगा। 3. देश का एकांगी विकास – विनिमय की सुविधा के कारण प्रत्येक देश केवल उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करता है जिनमें वे अधिक दक्ष होते हैं। इसलिए देश में उन्हीं वस्तुओं से सम्बन्धित उद्योग-धन्धों का विकास होता है तथा अन्य उद्योग-धन्धों के विकास में वह देश शून्य हो जाता है। इससे देश का विकास एकांगी होता है। 4. राजनैतिक दासता – अत्यधिक उत्पादन के कारण शक्तिशाली (UPBoardSolutions.com) देश विनिमय के द्वारा दूसरे देशों के बाजारों पर नियन्त्रण कर लेते हैं तथा निर्बल देश को अपना दास बना लेते हैं। 5. पिछड़े राष्ट्रों को हानि – विनिमय प्रणाली में विकसित राष्ट्रों को तो अधिक लाभ प्राप्त होता है। लेकिन पिछड़े हुए राष्ट्रों को पर्याप्त हानि उठानी पड़ती है। पिछड़े राष्ट्रों का शोषण होता है और उनका विकास अवरुद्ध हो जाता है। 6. युद्ध की आशंका – कभी-कभी कुछ देश बाजार पर अपना प्रभुत्व बनाये रखने के लिए अनुचित प्रतियोगिता करने लगते हैं। वे अपनी वस्तुओं को बहुत ही कम मूल्य पर दूसरे देशों में बेचने लगते हैं। इससे दूसरे देशों के उद्योग-धन्धों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। जब वह देश इस अनुचित प्रतियोगिता को रोकना चाहता है तो संघर्ष की स्थिति आ जाती है। 7. अनुचित प्रतियोगिता – विनिमय के कारण ही विभिन्न उत्पादकों एवं राष्ट्रों में अपनी-अपनी वस्तुएँ। बेचने के लिए ऐसी प्रतियोगिता होती है कि सामान्य उत्पादकों को हानि उठानी पड़ती है। प्रश्न 6. बाजार का अर्थ एवं परिभाषाएँ साधारण भाषा में ‘बाजार’ (Market) का अर्थ उस स्थान से लगाया जाता है, जहाँ भौतिक रूप से उपस्थित क्रेताओं और विक्रेताओं द्वारा वस्तुएँ खरीदीं और बेची जाती हैं; जैसे—सर्राफा बाजार, दालमण्डी आदि। किन्तु अर्थशास्त्र में बाजार शब्द का अर्थ अधिक व्यापक होता है। अर्थशास्त्र के अन्तर्गत बाजार शब्द से अभिप्राय उस समस्त क्षेत्र से लगाया जाता है, जहाँ किसी वस्तु के क्रेता-विक्रेता आपस में स्वतन्त्रतापूर्वक प्रतिस्पर्धा करते हैं। बाजार की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं – कूनो के शब्दों में, “बाजार से तात्पर्य किसी स्थान-विशेष से नहीं होता जहाँ वस्तुएँ खरीदीं और बेची जाती । हैं, वरन् उस समस्त क्षेत्र से होता है जिसमें क्रेताओं और विक्रेताओं के बीच ऐसी स्वतन्त्र प्रतिस्पर्धा हो कि किसी वस्तु का मूल्य सहज ही समान होने की प्रवृत्ति रखता हो।” प्रो० बेन्हम के शब्दों में, “बाजार वह क्षेत्र होता है जिसमें क्रेता (UPBoardSolutions.com) और विक्रेता एक-दूसरे के इतने निकट सम्पर्क में होते हैं कि एक भाग में प्रचलित कीमतों को प्रभाव दूसरे भाग में प्रचलित कीमतों पर पड़ता है। बाजार के आवश्यक तत्त्व अथवा विशेषताएँ बाजार के आवश्यक तत्त्व निम्नलिखित हैं – 1. एक क्षेत्र – बाजार से अर्थ उस समस्त क्षेत्र से होता है जिसमें क्रेता व विक्रेता फैले रहते हैं तथा क्रय-विक्रय करते हैं। 2. एक वस्तु का होना – बाजार के लिए एक वस्तु का होना भी आवश्यक है; जिसका क्रय-विक्रय किया जा सकता है। अर्थशास्त्र में प्रत्येक वस्तु को बाजार अलग-अलग माना जाता है; जैसे-कपड़ा बाजार, नमक बाजार, सर्राफा बाजार, किराना बाजार, घी बाजार आदि। 3. क्रेताओं व विक्रेताओं का होना – विनिमय के सम्पन्न करने के लिए बाजार की आवश्यकता होती है। अत: बाजार में विनिमय के दोनों पक्षों (क्रेता व विक्रेता) का होना आवश्यक है। किसी एक भी पक्ष के न होने पर सम्बद्ध क्षेत्र बाजार नहीं कहलाएगा। 4. स्वतन्त्र व पूर्ण प्रतियोगिता – बाजार में क्रेता और विक्रेताओं में निकट का सम्पर्क होता है। इसका अर्थ है कि उनमें पूर्ण प्रतियोगिता रहती है तथा उन्हें बाजार का पूर्ण ज्ञान रहता है। इसके परिणामस्वरूप वस्तु की कीमत की प्रवृत्ति एक ही या एक समान होने की पायी जाती है। अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में कीमत-विभेद पाया जाता है। 5. क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार के सम्बन्ध में ज्ञान होता है। बाजार का वर्गीकरण बाजार का वर्गीकरण निम्नलिखित पाँच प्रकार से किया जाता है –
(i) क्षेत्र की दृष्टि से
(ii) समय की दृष्टि से समय के आधार पर बाजार को निम्नलिखित चार भागों में विभक्त किया जा सकता है –
(iii) बिक्री की दृष्टि से बिक्री के आधार पर बाजार को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है –
(iv) प्रतियोगिता की दृष्टि से प्रतियोगिता के आधार पर बाजार निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं –
(v) वैधानिकता की दृष्टि से
लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. क्रय-विक्रय प्रणाली के गुण मुद्रा के प्रचलन से विनिमय की क्रिया अधिक सरल हो गयी। मुद्रा ने वस्तु विनिमय प्रणाली की समस्याओं को दूर कर दिया है। क्रय-विक्रय प्रणाली के गुण निम्नवत् हैं –
क्रय-विक्रय प्रणाली के दोष विनिमय के माध्यम के रूप में मुद्रा के प्रचलन से जहाँ एक ओर क्रय-विक्रय की प्रक्रिया आसान हुई है, वहीं कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि मुद्रा आज की लगभग सभी बुराइयों की जड़ है। मुद्रा के कारण ही अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति की समस्या खड़ी होती है, मुद्रास्फीति में सामान्य मूल्य-स्तर बहुत तेजी से बढ़ता है। मुद्रास्फीति गरीबों को बुरी तरह प्रभावित करती है। प्रश्न 2. उदाहरण – एक गाय देकर पाँच बकरियाँ लेना तथा एक किलो गेहूँ के बदले नाई से हजामत करवाना, वस्तु-विनिमय के उदाहरण हैं। उत्तर:
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आधुनिक युग में वस्तु-विनिमय प्रणाली का होना कठिन ही नहीं, वरन् असम्भव है। प्रश्न 4. वस्तु-विनिमय एवं मुद्रा विनिमय प्रणाली को स्पष्ट कीजिए। उत्तर: वस्तु-विनिमय एवं मुद्रा विनिमय प्रणाली
प्रश्न 5. प्रश्न 6.
प्रश्न 7.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2.
प्रश्न 3.
प्रश्न 4.
प्रश्न 5.
बहुविकल्पीय प्रश्न 1. वस्तु-विनिमय प्रणाली को कहते हैं [2012] (क) प्रत्यक्ष विनिमय 2. “वस्तुओं का आपस में अदल-बदल ही वस्तु-विनिमय है।” यह कथन किसका है? (क) मार्शल का 3. विनिमय की क्रिया के अन्तर्गत आता है| (क) वस्तु-विनिमये । 4. वस्तुओं के अदल-बदल की प्रक्रिया कहलाती है – (क) क्रय-विक्रय
5. “दो पक्षों के मध्य होने वाले ऐच्छिक, वैधानिक तथा पारस्परिक धन का हस्तान्तरण ही विनिमय है।” यह परिभाषा किसने दी है? (क) जेवेन्स ने 6. विनिमय में कम-से-कम कितने लोगों की आवश्यकता होती है? [2015] (क) दो 7. निम्नलिखित में से कौन-सी क्रिया उत्पादन और उपभोग के बीच की कड़ी है? (क) उपभोग 8. दूध, फल और सब्जी का बाजार होता है- (क) स्थानीय 9. विनिमय क्रिया में वस्तुओं का हस्तान्तरण (क) ऐच्छिक, वैधानिक एवं पारस्परिक होता है । 10. वस्तुओं को वस्तुओं के माध्यम से किया जाने वाला आदान-प्रदान अर्थशास्त्र के अन्तर्गत कहलाता है (क) क्रय-विक्रय 11. अर्थशास्त्र की दृष्टि से किसे बाजार के वर्गीकरण का मान्यता प्राप्त आधार माना जाता है? (क) वस्तु की कीमत 12. पूर्ण बाजार में पाई जाती है (क) पूर्ण प्रतियोगिता 13. ईंट का बाजार होता है [2017] (क) स्थानीय (ख) प्रादेशिक 14. वस्तु-विनिमय सम्बन्धित है [2010, 11, 14, 15] (क) वस्तुओं के उत्पादन से 15. खनिज तेल का बाजार है [2013, 17] (क) स्थानीय बाजार 16. निम्नलिखित में से कौन तथ्य वस्तु-विनिमय से सम्बन्धित है? [2013] (क) राष्ट्रीय बाजार 17. निम्न में से कौन बाजार को प्रभावित करता है?[2014] (क) शान्ति और सुरक्षा की स्थिति 18. निम्न में से कौन बाजार की विशेषता है? [2014] (क) एक वस्तु 19. चूड़ियों का बाजार है [2014, 18] (क) प्रान्तीय उत्तरमाला Hope given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 1 are helpful to complete your homework. If you have any doubts, please comment below. UP Board Solutions try to provide online tutoring for you. वस्तु विनिमय प्रणाली में कौन सी कठिनाई है?<br> (v) मूल्य हस्तांतरण की कठिनाई-वस्तु विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत वस्तुओं के मूल्य को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजना अत्यधिक कठिन कार्य था। उदाहरणार्थ, यदि एक व्यक्ति के पास गाय थी और वह उसकी कीमत के समान मूल्य का सामान दूसरी जगह भेजना चाहता है तो वह वस्तु विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत में एक कठिन बात थी।
वस्तु विनिमय प्रणाली के नुकसान क्या हैं?वस्तु विनिमय प्रणाली: कमियां
वस्तु विनिमय बाद में उपयोग के लिए मूल्य को संग्रहीत करने का कोई तरीका प्रदान नहीं करता है और इसे खाते की एक इकाई के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है, जिससे यह व्यावसायिक दृष्टिकोण से अनाकर्षक हो जाता है।
वस्तु विनिमय प्रणाली के क्या दोष है?Solution : वस्तु विनिमय प्रणाली के दोष अथवा कठिनाइयाँ निम्नलिखित हैं(i) आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की कमी। (ii) मूल्य के समान मापन की कमी। (iii) स्थगित भुगतान के मानक की कमी। (iv) मूल्य संचय की कमी।
वस्तु विनिमय प्रणाली की विशेषता कौन सी है?वस्तु विनिमय एक आदिम विनिमय प्रणाली थी जहाँ वस्तुओं का आदान-प्रदान किया जाता था। यह वस्तु विनिमय प्रणाली की मुख्य विशेषता है। वस्तु विनिमय प्रणाली वस्तुओं और सेवाओं का सीधा आदान-प्रदान है। इसके लिए आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की आवश्यकता होती है।
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