वर्ण (संस्कृत: वर्ण), के कई अर्थ होते हैं, जैसे प्रकार, क्रम, रंग या वर्ग।[1][2] इसका उपयोग सामाजिक वर्गों को संदर्भित करने के लिए किया जाता था। सनातन ग्रंथों में जैसे मनुस्मृति[1][3][4] और अन्य ग्रंथों में मनुष्यों के इन चार वर्णों का उल्लेख है:[1][5]
कालांतर में समुदाय वर्णों से संबंधित हो गए। डी. आर. जटावा के अनुसार समुदाय जो चार वर्णों या वर्गों में से एक से संबंधित थे, उन्हें सवर्ण कहा जाता था, जो लोग किसी वर्ण से संबंध नहीं रखते थे, उन्हें अवर्ण कहा जाता था।[7][8] आमतौर पर इस अवधारणा का पता ऋग्वेद के पुरुष सूक्त पद्य से लगाया जाता है। मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था पर टिप्पणी अक्सर उद्धृत की जाती है.[9] वर्ण-व्यवस्था की चर्चा धर्मशास्त्रों में व्यापक रूप से की जाती है।[10] धर्म-शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था समाज को चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में विभाजित करती है। जो लोग अपने पापों के कारण इस व्यवस्था से बाहर हो जाते हैं, उन्हें अवर्ण (अछूत) के रूप में निरूपित किया जाता है और वर्ण व्यवस्था के बाहर माना जाता है।[11][12] म्लेच्छ और जो लोग अधर्मी या अनैतिक हैं उन्हें भी अवर्ण माना जाता है। इन्हें भी देखें[संपादित करें]
सन्दर्भ[संपादित करें]
वर्ण व्यवस्था को कितने भागों में बांटा गया है?भारत में वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत समाज को चार भागों में बाँटा गया है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
वर्ण व्यवस्था की शुरुआत कब हुई?दैवी सिद्धान्त के रूप में वर्ण - व्यवस्था के उद्भव का वर्णन महाभारत में भी किया गया है। महाभारत में विराट पुरुष के स्थान पर ब्रह्म की कल्पना की गयी है , तथा उसके विविध अंगों से चारों वर्णों की उत्पत्ति बताई गयी है।
भारत में कितने वर्ण है?वर्ण व्यवस्था के अनुसार समस्त समाज को 4 वर्णों में विभाजित किया गया था— ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। वेदों, ब्राह्मणों, उपनिषदों, स्मृतियों, महाभारत, भगवद्गीता, रामायण आदि सभी ग्रन्थों में वर्णों का उल्लेख हुआ है।
वर्ण व्यवस्था कैसे बनी?सदियों से चली आ रही वर्ण व्यवस्था तथा जति प्रथा में अनेक प्रकार के गुण-दोष विद्वानों के गहन अध्ययन में विश्लेषित किए गए हैं। यह बात निर्विवाद रूप से सही है कि वर्ण तथा जाति व्यवस्था का निर्माण एक अत्यंत कुटिलतापूर्ण कार्य था जिसके द्वारा बहुसंख्यक मेहनतकश वर्ग को विभिन्न श्रेणियों में बांटकर रखा गया।
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