वह कौन सा देश है जहां समाजशास्त्र विषय का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ था? - vah kaun sa desh hai jahaan samaajashaastr vishay ka adhyayan sarvapratham praarambh hua tha?

Rajasthan Board RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 1 समाजशास्त्र एवं समाज Important Questions and Answers. 

RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 1 समाजशास्त्र एवं समाज

बहुविकल्पात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
निम्नलिखित में कौनसा कथन गलत है
(अ) समाजशास्त्र का एक कार्य व्यक्तिगत समस्या और जनहित के मुद्दे के बीच सम्बन्ध को स्पष्ट करना है। 
(ब) वर्तमान समय में व्यक्ति एक से अधिक समाजों से जुड़ा हुआ है। 
(स) समाजशास्त्र में समाज का दार्शनिक तथा धार्मिक अनुचिंतन ही किया जाता है।
(द) समाजशास्त्र में समाज का विधिवत अध्ययन किया जाता है। 
उत्तर:
(स) समाजशास्त्र में समाज का दार्शनिक तथा धार्मिक अनुचिंतन ही किया जाता है।

वह कौन सा देश है जहां समाजशास्त्र विषय का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ था? - vah kaun sa desh hai jahaan samaajashaastr vishay ka adhyayan sarvapratham praarambh hua tha?
 

प्रश्न 2. 
समाजशास्त्रीय दृष्टि से समकालीन गरीबी का कारण है
(अ) वर्ग-समाज में असमानता की संरचना का होना। 
(ब) काम से जी चुराना। 
(स) परिवार का उचित बजट बनाने में अयोग्य होना।
(द) कार्य के लिए स्थानान्तरण से डरना। 
उत्तर:
(अ) वर्ग-समाज में असमानता की संरचना का होना। 

प्रश्न 3. 
समाजशास्त्र का संस्थापक समझा जाता है
(अ) आगस्त कॉम्टे को
(ब) एमिल दुर्शीम को 
(स) कार्ल मार्क्स को 
(द) मैक्स वेबर को। 
उत्तर:
(अ) आगस्त कॉम्टे को

प्रश्न 4. 
औद्योगिक नगरों की निम्न में कौनसी विशेषता नहीं है
(अ) फैक्ट्रियों का धुआँ और कालिख। 
(ब) नई औद्योगिक श्रमिक वर्ग की भीड़भाड़ वाली बस्तियाँ, गंदगी और सफाई का नितान्त अभाव। 
(स) द्वैतीयक सामाजिक सम्बन्धों की बहुलता।
(द) प्राथमिक सामाजिक सम्बन्धों की बहुलता। 
उत्तर:
(द) प्राथमिक सामाजिक सम्बन्धों की बहुलता। 

प्रश्न 5. 
समाजशास्त्रीय उपागम आर्थिक व्यवहार का अध्ययन करता है
(अ) वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन एवं वितरण की क्रियाओं के रूप में। 
(ब) आर्थिक चरों के अन्तःसम्बन्धों के वर्णन के रूप में। 
(स) सामाजिक मानकों, मूल्यों और हितों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में। 
(द) कीमत, माँग एवं पूर्ति के सम्बन्ध के रूप में।
उत्तर:
(स) सामाजिक मानकों, मूल्यों और हितों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में। 

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें-
1. भारत सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण बातता है कि सफाई सुविधाएँ सिर्फ प्रतिशत लोगों को प्राप्त हैं। ........... संजीव पास बुक्स 
2. समाजशास्त्र मनुष्य के ........... जीवन, समूहों और समाजों का अध्ययन है। 
3. समाजशास्त्र अपने प्रारंभिक काल से ही स्वयं को ........... की तरह समझता है। 
4. समाजशास्त्र सामान्य बौद्धिक प्रेक्षणों से ........... है। 
5. औद्योगिक क्रांति एक नए गतिशील आर्थिक क्रियाकलाप ............ पर आधारित थी। 
6. राजनीतिक समाजशास्त्र का केन्द्र ........... व्यवहार का वास्तविक अध्ययन है। 
7. इतिहास ठोस विवरणों का और समाजशास्त्र ठोस ........... का अध्ययन करता है। 
8. सामाजिक ........... समाजशास्त्र और मनोविज्ञान के बीच एक पुल है। 
उत्तर:
1. 28 
2. सामाजिक 
3. विज्ञान 
4. अलग 
5. पूँजीवाद 
6. राजनीतिक 
7. वास्तविकताओं 
8. मनोविज्ञान

निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये-
1. समाजशास्त्र में समाज का विधिवत अध्ययन किया जाता है। 
2. समाजशास्त्रीय उपागम के अनुसार लोग गरीब इसलिए हैं क्योंकि वे काम से जी चुराते हैं। 
3. प्रकृतिवादी दृष्टिकोण के अनुसार समकालीन गरीबी का कारण वर्ग समाज में असमानता की संरचना है। 
4. समाजशास्त्र सामाजिक विज्ञानों के समूह का एक हिस्सा है। 
5. समाजशास्त्र वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन और वितरण का अध्ययन करता है। 
6. समाजशास्त्रीय उपागम आर्थिक व्यवहार को सामाजिक मानकों, मूल्यों, व्यवहारों और हितों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखता है। 
7. सामाजिक इतिहास में शासकों के कार्यों, युद्ध एवं राजतंत्रवाद का अध्ययन किया जाता है। 
8. समाजशास्त्र आधुनिक जटिल समाजों का अध्ययन करता है जबकि सामाजिक मनोविज्ञान सरल समाजों का अध्ययन करता है। 
उत्तर:
1. सत्य 
2. असत्य 
3. असत्य 
4. सत्य 
5. असत्य 
6. सत्य 
7. असत्य 
8. सत्य 

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. मनोविज्ञान

(अ) समाज के संगठित व्यवहार का अध्ययन

2. समाजशास्त्र

(ब) वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन व वितरण का अध्ययन

3. अर्थशास्त्र

(स) अतीत का अध्ययन

4. इतिहास

(द) राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन

5. राजनीति विज्ञान

(य) व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन

उत्तर:

1. मनोविज्ञान

(य) व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन

2. समाजशास्त्र

(अ) समाज के संगठित व्यवहार का अध्यययन

3. अर्थशास्त्र

(ब) वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन व वितरण का अध्ययन

4. इतिहास

(स) अतीत का अध्यययन

5. राजनीति विज्ञान

(द) राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन


अतिलघुत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
गिडिंग्स ने समाजशास्त्र की क्या परिभाषा दी है? .
उत्तर:
गिडिंग्स के शब्दों में, "समाजशास्त्र मानव समूहों और समाजों का अध्ययन करता है, जिसमें औद्योगीकृत विश्व के विश्लेषण पर पर्याप्त बल दिया गया है।"

प्रश्न 2. 
समाजशास्त्रीय कल्पना का मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर:
समाजशास्त्रीय कल्पना हमें इतिहास और जीवन-कथा को समझने एवं समाज में इन दोनों के सम्बन्ध को . समझाने में हमारी सहायता करती है। यही इसका प्रमुख कार्य है।

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प्रश्न 3. 
सी. राइट मिल्स समाजशास्त्रीय कल्पनाओं पर अपनी दृष्टि किस बात पर टिकाते हैं? .
उत्तर:
सी. राइट मिल्स समाजशास्त्रीय कल्पनाओं पर अपनी दृष्टि मुख्यतः इस बात को सुलझाने पर टिकाते हैं कि किस तरह व्यक्तिगत हित और जनहित परस्पर सम्बन्धित हैं।

प्रश्न 4. 
अमर्त्य सेन ने भारतीय समाज में व्याप्त किन-किन असमानताओं का उल्लेख किया है?
उत्तर:
अमर्त्य सेन के उद्धरण में सम्पत्ति, शिक्षा, राजनीतिक शक्ति, अवसरों तथा सामाजिक सम्मान सम्बन्धी असमानताओं का उल्लेख किया गया है।

प्रश्न 5. 
समाजशास्त्र का मुख्य सरोकार किस.चीज से है?
उत्तर:
समाजशास्त्र का मुख्य सरोकार उस तरीके से है जिसके तहत वे वास्तविक समाजों में कार्य करते हैं। समाजों का आनुभविक अध्ययन समाजशास्त्र का मुख्य कार्य है।
प्रश्न 6. 
ज्ञानोदय क्या है?
उत्तर:
ज्ञानोदय एक यूरोपीय बौद्धिक आन्दोलन है जो 17वीं सदी के अन्तिम वर्षों तथा 18वीं सदी में चला। यह आन्दोलन कारण और व्यक्तिवाद पर बल देता है।

प्रश्न 7. 
समाजशास्त्र की रचना में किन बौद्धिक विचारों की भूमिका है?
उत्तर:
समाजशास्त्र की रचना में डार्विन के उद्विकासीय सिद्धान्त तथा समाज को व्यवस्था के भागों के रूप में रखने के तरीके ने सामाजिक संस्थाओं एवं संरचनाओं के अध्ययन को बहुत प्रभावित किया। इसके अतिरिक्त ज्ञानोदय ने कारण और व्यक्तिवाद पर बल दिया तथा प्राकृतिक विज्ञान की पद्धतियों को समाजशास्त्र के अध्ययन में अपनाने पर बल दिया।

प्रश्न 8. 
उन भौतिक मुद्दों का उल्लेख कीजिए जिनकी समाजशास्त्र की रचना में भूमिका है।
उत्तर:
समाजशास्त्र की रचना में जिन भौतिक मुद्दों की प्रमुख भूमिका रही है, वे हैं-औद्योगिक क्रान्ति और . पूँजीवाद पर आधारित नए गतिशील आर्थिक क्रियाकलाप।

प्रश्न 9. 
पूँजीवाद में कौनसी नई अभिवृत्तियाँ और संस्थाएँ सम्मिलित थीं? 
उत्तर:

  1. उद्यमी निश्चित तथा व्यवस्थित मुनाफे की आशा से प्रेरित थे। 
  2. बाजारों ने उत्पादनकारी जीवन में प्रमुख साधन की भूमिका अदा की। 
  3. माल, सेवाएँ एवं श्रम वस्तुएँ बन गईं। 

प्रश्न 10. 
औद्योगीकरण से पूर्व इंग्लैण्ड की सामाजिक जिन्दगी कैसी थी?
उत्तर:
'औद्योगीकरण से पूर्व अंग्रेजों का मुख्य पेशा खेती करना एवं कपड़ा बुनना था। अधिकांश लोग गाँवों में रहते थे। समाज छोटा था तथा स्तरीकृत था तथा यह नजदीकी आपसी व्यवहार की विशेषता रखता था।

प्रश्न 11. 
औद्योगीकरण के बाद इंग्लैण्ड की नई सामाजिक व्यवस्था के किन्हीं दो पक्षों का उल्लेख कीजिए। 
उत्तर:

  1. औद्योगीकरण के बाद नई सामाजिक व्यवस्था में श्रम की प्रतिष्ठा कम हो गई।
  2. औद्योगिक शहरों ने एक बिल्कुल नये नगरीय संसार को जन्म दिया।

प्रश्न 12. 
नये औद्योगिक शहरों की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
नये औद्योगिक शहरों की विशेषताएँ थीं फैक्ट्रियों का धुआँ और कालिख, नई औद्योगिक श्रमिक वर्ग की भीड़भाड़ वाली बस्तियाँ, गंदगी और सफाई का नितान्त अभाव, नए प्रकार की सामाजिक अन्तःक्रिया तथा समय के महत्त्व का बढ़ना।

प्रश्न 13. 
समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय-क्षेत्र काफी व्यापक है। इसके विषय- क्षेत्र के अन्तर्गत समाज के सदस्य के रूप में व्यक्तियों की पारस्परिक अन्तःक्रियाएँ, बेरोजगारी, जातीय संघर्ष, ग्रामीण कर्जे जैसे राष्ट्रीय मुद्दे तथा वैश्विक सामाजिक प्रक्रियाओं आदि का अध्ययन किया जा सकता है।

प्रश्न 14. 
समाजशास्त्रीय उपागम से क्या आशय है?
उत्तर:
समाजशास्त्रीय उपागम द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानव समाज का एक व्यवस्था के रूप में मनुष्य तथा मनुष्यों के बीच, मनुष्यों और समूहों के बीच तथा विभिन्न समूहों के बीच अन्तःक्रिया के रूप में अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 15. 
उन महत्त्वपूर्ण परिस्थितियों का उल्लेख कीजिए जिन्होंने समाजशास्त्र का एक विषय के रूप में आविर्भाव अपरिहार्य बना दिया।
उत्तर:
समाजशास्त्र की उत्पत्ति यूरोप में 19वीं सदी में हुई। औद्योगिक क्रान्ति, ज्ञानोदय, नगरीकरण तथा पूँजीवादी व्यवस्था से उत्पन्न होने वाले सामाजिक तथा आर्थिक दुष्परिणामों ने एक विषय के रूप में समाजशास्त्र के आविर्भाव को अपरिहार्य बना दिया।

प्रश्न 16. 
उन प्रमुख समाजशास्त्रियों के नामों का उल्लेख कीजिए जिन्हें समाजशास्त्र का संस्थापक माना जाता है।
उत्तर:
आगस्त कॉम्टे, एमिल दुर्थीम, हरबर्ट स्पैंसर, कार्ल मार्क्स और मैक्स वेबर को समाजशास्त्र का संस्थापक माना जाता है।

वह कौन सा देश है जहां समाजशास्त्र विषय का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ था? - vah kaun sa desh hai jahaan samaajashaastr vishay ka adhyayan sarvapratham praarambh hua tha?

प्रश्न 17. 
भारत में सर्वप्रथम समाजशास्त्र का अध्यापन कब और कहाँ प्रारम्भ हुआ?
उत्तर:
भारत में समाजशास्त्र का सर्वप्रथम अध्यापन 1908 में कोलकाता (कलकत्ता) विश्वविद्यालगय के राजनीतिक, आर्थिक तथा दर्शन विभाग में प्रारम्भ हुआ।

प्रश्न 18. 
भारत में समाजशास्त्र की उत्पत्ति का इतिहास मुम्बई (बंबई) विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से किस प्रकार सम्बद्ध है?
उत्तर:

  1. पैट्रिक गिड्स को मुम्बई विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में समाजशास्त्र का संस्थापक माना जाता है।
  2. जी.एस. घुर्ये द्वारा गिड्स के समाजशास्त्रीय प्रतिमानों को आगे जारी रखा गया। 1919 ई. में मुम्बई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र को स्नातकोत्तर स्तर पर राजनीति विज्ञान के साथ जोड़ा गया।

प्रश्न 19. 
भारत के किन तीन विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र की प्रथम पीढ़ी तैयार हुई? तत्कालीन किन्हीं चार प्रसिद्ध समाजशास्त्रियों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. कोलकाता, मुम्बई तथा लखनऊ विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्रियों की प्रथम पीढी तैयार हई। ।
  2. उस समय के प्रसिद्ध चार समाजशास्त्री हैं
    • राधाकमल मुकर्जी, 
    • जी.एस. घुर्ये, 
    • डी.पी. . मुकर्जी, 
    • एम. एन. श्रीनिवास।

प्रश्न 20. 
हमें यूरोप में हुए समाजशास्त्र के आरम्भ और विकास को क्यों पढ़ना चाहिए?
उत्तर:
समाजशास्त्र के अधिकांश मुद्दे एवं सरोकार यूरोपियन समाज में 18वीं और 19वीं सदी में पूँजीवाद और औद्योगीकरण के आगमन के कारण हुए सामाजिक परिवर्तनों से सम्बन्ध रखते हैं। भारतीय होने के नाते हमारा अतीत अंग्रेजी पूँजीवाद और उपनिवेशवाद के इतिहास से गहरा जुड़ा हुआ है। पश्चिम में पूँजीवाद विश्वव्यापी विस्तार पा गया था। अतः हमें भी यूरोप में हुए समाजशास्त्र के आरम्भ तथा विकास को पढ़ना आवश्यक है।

प्रश्न 21. 
पश्चिमी समाजशास्त्रियों का पूँजीवाद एवं आधुनिक समाज के अन्य पक्षों पर लिखित दस्तावेज भारत के सामाजिक परिवर्तनों को समझने में क्यों प्रासंगिक है?
उत्तर:
चूँकि उपनिवेशवाद आधुनिक पूँजीवाद एवं औद्योगीकरण का आवश्यक हिस्सा था, इसलिए पश्चिमी समाजशास्त्रियों का पूँजीवाद एवं आधुनिक समाज के अन्य पक्षों पर लिखित दस्तावेज, भारत में हो रहे सामाजिक परिवर्तनों को समझने के लिए सर्वथा प्रासंगिक है।

प्रश्न 22. 
भारत में समाजशास्त्र के विकास में पाश्चात्य समाजशास्त्र से भिन्नता के दो तथ्य बताइए।
उत्तर:

  1. औद्योगीकरण का भारत में उतना प्रभाव नहीं हुआ जितना पश्चिमी समाज में हुआ।
  2. पाश्चात्य समाजशास्त्रीय लेखक समाजशास्त्र और सामाजिक मानव विज्ञान में अन्तर करते थे, जबकि भारत में समाजशास्त्र एवं सामाजिक मानव विज्ञान के बीच कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं है।

प्रश्न 23. 
एक स्तरीय पाश्चात्य पाठ्यपुस्तक में समाजशास्त्र की क्या परिभाषा है?
उत्तर:
"समाजशास्त्र मानव समूहों और समाजों का अध्ययन है, जिससे औद्योगीकृत विश्व के विश्लेषण पर पर्याप्त बल दिया गया है।"

प्रश्न 24. 
सामाजिक मानव विज्ञान की पाश्चात्य परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
सामाजिक मानव विज्ञान की पाश्चात्य परिभाषा इस प्रकार है-"सामाजिक मानव विज्ञान गैर-पश्चिमी साधारण समाजों अर्थात् दूसरी संस्कृतियों का अध्ययन है।".

प्रश्न 25. 
समाजशास्त्र में आनुभविक अन्वेषण से क्या आशय है?
उत्तर:
समाजशास्त्रीय अध्ययन में दिए गए किसी भी क्षेत्र में की जाने वाली तथ्यपरक जाँच को ही आनुभविक अन्वेषण कहा जाता है।

प्रश्न 26. 
नारीवादी सिद्धान्त से क्या आशय है?
उत्तर:
नारीवादी सिद्धान्त एक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण है जो सामाजिक विश्व का विश्लेषण करते समय लिंग की महत्ता को केन्द्र में रखने पर बल देता है। इसका मुख्य सरोकार है-समाज में लिंग के आधार पर होने वाली असमानता की व्याख्या करना एवं उसे दूर करने के लिए कार्य करना।

प्रश्न 27. 
समाजशास्त्रीय उपागम आर्थिक व्यवहार को किस परिप्रेक्ष्य में देखता है?
उत्तर:
समाजशास्त्रीय उपागम आर्थिक व्यवहार को सामाजिक मानकों, मूल्यों, व्यवहारों और हितों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखता है।

प्रश्न 28. 
नारीवादी अर्थशास्त्री अर्थशास्त्र के दायरे को किस तरह बढ़ाना चाहते हैं?
उत्तर:
नारीवादी अर्थशास्त्री लिंग को समाज के केन्द्रीय संगठनकारी सिद्धान्त की तरह पेश कर इसके दायरे को बढ़ाना चाहते हैं। जैसे वे घर के किये गये कार्य को बाहर की उत्पादकता से जुड़ा हुआ बताकर इसके दायरे को बढ़ाना चाहते हैं।

प्रश्न 29. 
अर्थशास्त्र के राजनीतिक-आर्थिक उपागम के तहत अर्थशास्त्री आर्थिक क्रियाकलापों को किस तरह समझने का प्रयास करते हैं?
उत्तर:
अर्थशास्त्र के राजनीतिक-आर्थिक उपागम के तहत अर्थशास्त्री आर्थिक क्रियाकलापों को स्वामित्व के रूप में उत्पादन के साधनों के साथ सम्बन्धों के विस्तृत दायरे में समझने का प्रयास करते हैं।

वह कौन सा देश है जहां समाजशास्त्र विषय का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ था? - vah kaun sa desh hai jahaan samaajashaastr vishay ka adhyayan sarvapratham praarambh hua tha?

प्रश्न 30. 
आर्थिक विश्लेषण का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
आर्थिक विश्लेषण का मूल उद्देश्य आर्थिक व्यवहार के सुनिश्चित कानूनों का निर्माण करना होता है। 

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र में अन्तर बताइए।
उत्तर:
(1) अर्थशास्त्र वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन और वितरण का अध्ययन करता है अर्थात् यह आर्थिक चरों के अन्तःसम्बन्धों का अध्ययन करता है। जबकि समाजशास्त्र आर्थिक व्यवहार को सामाजिक मानकों, मूल्यों, व्यवहारों और हितों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखता है।

(2) समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों, क्रियाओं तथा व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है, जबकि अर्थशास्त्र में आर्थिक सम्बन्धों, क्रियाओं व व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है।

(3) समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है, जबकि अर्थशास्त्र एक विशिष्ट विज्ञान है।

(4) समाजशास्त्र में घटनाओं की वास्तविक और स्वतन्त्र रूप से व्याख्या की जाती है जबकि अर्थशास्त्र में प्रत्येक घटना का सम्बन्ध आर्थिक कारणों के साथ जोड़ा जाता है।

प्रश्न 2. 
समाजशास्त्र का अध्ययन अर्थशास्त्री के लिए किस प्रकार उपयोगी है?
उत्तर:
समाजशास्त्र के अध्ययन के द्वारा अर्थशास्त्री व्यक्तिगत व्यवहार, सांस्कृतिक मानकों और संस्थागत प्रतिरोधों को अपने अध्ययन में सम्मिलित कर मानव के आर्थिक व्यवहार के पूर्वानुमान लगाने में अधिक समर्थ हो सकता है। दूसरे, यह अर्थशास्त्र को प्रश्नकारी एवं आलोचनात्मक दृष्टि प्रदान करता है। तीसरे, समाजशास्त्र किसी भी सामाजिक स्थिति की पहले से विद्यमान समझ को ज्यादा स्पष्ट और पर्याप्त समझ प्रदान करता है।

प्रश्न 3.
समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान में अन्तर बताइए।
उत्तर:
समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान में अन्तर-

  1. समाजशास्त्र समाज के सभी पक्षों का अध्ययन करता है, जबकि राजनीति विज्ञान में अपने को शक्ति के अध्ययन तक सीमित रखा है।
  2. समाजशास्त्र सरकार सहित संस्थाओं के समुच्चय के बीच अन्तःसम्बन्धों पर बल देता है, जबकि राजनीति विज्ञान सरकार में विद्यमान प्रक्रियाओं पर ध्यान देता है।
  3. समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है, जबकि राजनीतिशास्त्र एक विशेष विज्ञान है।
  4. समाजशास्त्र में व्यक्ति का अध्ययन एक सामाजिक प्राणी के रूप में किया जाता है, जबकि राजनीतिशास्त्र व्यक्ति को एक नागरिक के रूप में देखता है।

प्रश्न 4. 
समाजशास्त्र और इतिहास का सम्बन्ध लिखिए। उत्तर-समाजशास्त्र और इतिहास में सम्बन्ध
(1) समाजशास्त्र और इतिहास दोनों सामाजिक विज्ञान हैं तथा एक-दूसरे के पूरक हैं।
(2) समाजशास्त्र और इतिहास दोनों ही मानव-समाज, सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन अपने-अपने परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत करते हैं।
(3) समाजशास्त्र और इतिहास के घनिष्ठ सम्बन्धों के आधार पर ही अनेक इतिहासकारों ने सामाजिक इतिहास लिखा है।
(4) दोनों के विषयों में पारस्परिक निर्भरता पायी जाती है।

प्रश्न 5.
समाजशास्त्र और इतिहास में कोई दो अन्तर स्पष्ट कीजिए।' उत्तर:
समाजशास्त्र और इतिहास में अन्तर

  1. इतिहासकार अतीत का अध्ययन करते हैं, जबकि समाजशास्त्री समकालीन समय या कुछ ही पहले के अतीत में ज्यादा रुचि लेते हैं। .
  2. इतिहासकार ठोस. विवरणों का अध्ययन करता है, जबकि समाजशास्त्री ठोस वास्तविकताओं से सार निकालकर उनका वर्गीकरण एवं सामान्यीकरण करता है।

प्रश्न 6. 
मनोविज्ञान से क्या आशय है?
उत्तर:
मनोविज्ञान से आशय-मनोविज्ञान को प्रायः व्यवहार के विज्ञान के रूप में परिभाषित किया जाता है। यह मुख्यतः व्यक्ति से सम्बन्धित है। यह व्यक्ति की बौद्धिकता एवं सीखने की प्रवृत्ति, अभिप्रेरणाओं एवं याददाश्त, तन्त्रिका प्रणाली एवं प्रतिक्रिया का समय, आशा और डर में रुचि रखता है।

प्रश्न 7. 
सामाजिक मनोविज्ञान का सरोकार किस बात से है?
उत्तर:
सामाजिक मनोविज्ञान-सामाजिक मनोविज्ञान समाजशास्त्र और मनोविज्ञान के बीच पुल का कार्य करता है। इसकी प्राथमिक रुचि मनोविज्ञान की तरह व्यक्ति के अध्ययन में है लेकिन इसका मुख्य सरोकार इस बात से है कि व्यक्ति किस प्रकार सामाजिक समूहों में सामूहिक तौर पर अन्य व्यक्तियों के साथ व्यवहार करता है।

प्रश्न 8. 
समाजशास्त्र और मनोविज्ञान में अन्तर स्पष्ट कीजिए। उत्तर-समाजशास्त्र और मनोविज्ञान में अन्तर

  1. मनोविज्ञान का सम्बन्ध मनुष्य के व्यक्तित्व, व्यक्तित्व व्यवस्था तथा मानसिक क्रियाओं से है, जबकि समाजशास्त्र का सम्बन्ध समाज, सामाजिक प्रक्रियाओं एवं सामाजिक व्यवस्था से है।
  2. समाजशास्त्र की तुलना में मनोविज्ञान का क्षेत्र सीमित है। 
  3. मनोविज्ञान का दृष्टिकोण वैयक्तिक है, जबकि समाजशास्त्र का दृष्टिकोण सामाजिक है।

प्रश्न 9.
समाजशास्त्र और सामाजिक मानव विज्ञान के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्र और सामाजिक मानव विज्ञान में अन्तर

  1. समाजशास्त्र आधुनिक जटिल समाजों का अध्ययन है, जबकि सामाजिक मानव विज्ञान सरल समाजों का अध्ययन है।
  2. सामाजिक मानव विज्ञान की प्रवृत्ति सरल समाज के सभी पक्षों का एक समग्र के रूप में अध्ययन करने की है, जबकि समाजशास्त्री जटिल समाजों की गतिशीलता के अध्ययन पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है।
  3. सामाजिक मानव विज्ञान की विशेषताएँ हैं-लम्बी क्षेत्रीय कार्य परम्परा, समुदाय जिसका अध्ययन किया जाना है, में रहना और अनुसन्धान की नृजातीय पद्धतियों का उपयोग; दूसरी तरफ समाजशास्त्री प्रायः सांख्यिकी एवं प्रश्नावली विधि का प्रयोग करते हुए सर्वेक्षण पद्धति एवं संख्यात्मक आँकड़ों पर निर्भर रहते हैं।

वह कौन सा देश है जहां समाजशास्त्र विषय का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ था? - vah kaun sa desh hai jahaan samaajashaastr vishay ka adhyayan sarvapratham praarambh hua tha?

प्रश्न 10. 
स्पष्ट कीजिए कि समाजशास्त्र मानव समाज का एक अन्तःसम्बन्धित समग्र के रूप में अध्ययन करता है।
उत्तर:
समाजशास्त्र मानव समाज का एक अन्तःसम्बन्धित समग्र के रूप में अध्ययन करता है। समाज और व्यक्ति परस्पर अन्तःक्रिया करते हैं। इसे निम्न उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है प्रत्येक विद्यार्थी को तरक्की तथा नौकरी हेतु मेहनत से अध्ययन अवश्य करना चाहिए। लेकिन वह कितना अच्छा कर पाता है यह सामाजिक कारकों के एक पूरे समुच्चय द्वारा निर्धारित किया जाता है। जैसे-

  1. नौकरी का बाजार अर्थव्यवस्था की जरूरतों से परिभाषित होता है। 
  2. अर्थव्यवस्था की जरूरतें भी सरकार की आर्थिक एवं राजनीतिक नीतियों पर निर्भर करती हैं। 
  3. किसी विद्यार्थी के नौकरी के अवसर इन विशिष्ट राजनीतिक-आर्थिक आँकड़ों के साथ-साथ उसके परिवार की सामाजिक पृष्ठभूमि से भी प्रभावित होते हैं। 

इससे स्पष्ट होता है कि समाजशास्त्र मानवशास्त्र का एक अन्तःसम्बन्धित समग्र के रूप में अध्ययन करता

प्रश्न 11. 
"समाजशास्त्र का एक कार्य व्यक्तिगत समस्या और जनहित के मुद्दे के बीच के सम्बन्ध को स्पष्ट करना है।" स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
व्यक्तिगत समस्या और जनहित के मुद्दे के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है-उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में, विषयों के चुनाव की समस्या विद्यार्थी का व्यक्तिगत मामला है। इसके बावजूद अधिकांश विद्यार्थी इस समस्या से प्रभावित रहते हैं। अतः स्पष्ट है कि यह एक व्यापक जनहित का मुद्दा है। समाजशास्त्रीय कल्पना-समाजशास्त्रीय कल्पना हमें इतिहास और व्यक्ति की जीवन कथा को समझने एवं समाज में इन दोनों के सम्बन्ध को समझाने में सहायता करती है।

इसका मुख्य कार्य व्यक्तिगत समस्याओं और सामाजिक संरचना के जनहित के मुद्दे के बीच है। जब किसी को व्यक्तिगत या अपने आस-पास के लोगों के साथ सम्बन्ध कठिनाइयों में पड़ जाते हैं, तब वह उसे प्रत्यक्ष या निजी रूप से ज्ञात सीमित सामाजिक दायरे में सुलझाता है। इन मुद्दों का सम्बन्ध व्यक्ति के निजी जीवन और स्थानीय वातावरण से होता है। उदाहरण के लिए समाजशास्त्रीय कल्पना एक गरीब की गरीबी को समझने और इसकी एक जनहित मुद्दे की तरह व्याख्या करने में इस प्रकार सहायता करती है कि समकालीन गरीबी का कारण वर्ग-समाज में असमानता की संरचना है और वे लोग इससे ज्यादा प्रभावित होते हैं जिनकी कार्य की अनियमितता दीर्घकालिक एवं मजदूरी कम है।

प्रश्न 12. 
वर्तमान समय में व्यक्ति कैसे एक से अधिक समाजों से जुड़ा हुआ है और समाज कैसे असमान होते
उत्तर:
समकालीन विश्व में व्यक्ति एक से अधिक समाजों से जुड़ा हुआ है। जब हम विदेशियों के बीच 'हमारे समाज' की बात करते हैं तो हमारा आशय 'भारतीय समाज' से हो सकता है। लेकिन भारतीयों के बीच हमारा समाज भाषा, धर्म, जाति, क्षेत्र, जनजाति आदि के सन्दर्भ में विभाजित है और व्यक्ति इन सभी समाजों से जुड़ा हुआ है। असमानता सभी समाजों में पायी जाती है। भारतीय समाज किस प्रकार से असमान है, इसे अमर्त्य सेन के निम्न उद्धरण से स्पष्ट किया जा सकता है "कुछ भारतीय अमीर हैं, अधिकांश नहीं हैं। कुछ बहुत अच्छी तरह शिक्षित हैं; अन्य निरक्षर हैं।

कुछ विलासिता की जिन्दगी बसर करते हैं, जबकि दूसरे थोड़े से पारिश्रमिक के बदले कठोर परिश्रम करते हैं। कुछ राजनीतिक रूप से शक्तिशाली हैं, लेकिन किसी भी चीज को प्रभावित नहीं कर सकते। कुछ के पास जिन्दगी में आगे बढ़ने के लिए अनेक अवसर हैं; जबकि अन्य के पास अवसरों का नितान्त अभाव है। कुछ के प्रति पुलिस का व्यवहार सम्मानजनक रहता है, जबकि अन्य कुछ के लिए अत्यन्त असम्मानजनक।" भारतीय समाज में असमानता के ये विभिन्न रूप हैं।

प्रश्न 13. 
स्पष्ट कीजिए कि समाजशास्त्र समाज का विधिवत अध्ययन है। 
उत्तर:
समाजशास्त्र में समाज का विधिवत अध्ययन किया जाता है। यह समाज का एक अन्तःसम्बन्धित समग्र के रूप में अध्ययन करता है। समाजशास्त्र का मुख्य सरोकार उस तरीके से है जिसके तहत वे वास्तविक समाजों में कार्य करते हैं। समाजशास्त्र प्रचलित सामान्य बौद्धिक प्रेक्षणों या दार्शनिक अनुचिन्तनों या ईश्वरवादी व्याख्या से हटकर वैज्ञानिक कार्यविधियों से बँधा हुआ है। समाजशास्त्र को अपने प्रेक्षणों और विश्लेषणों में कुछ निश्चित नियमों का । पालन करना होता है ताकि दूसरों के द्वारा उसकी जाँच की जा सके या उनकी जानकारियों के विकास हेतु उन्हें दोहरा सकें। अतः स्पष्ट है कि समाजशास्त्र समाज का विधिवत अध्ययन करता है। 

प्रश्न 14. 
उन बौद्धिक विचारों को स्पष्ट कीजिए जिसमें समाजशास्त्र का जन्म और विकास हुआ।
उत्तर:
बौद्धिक विचार जिनकी समाजशास्त्र की रचना में भूमिका है- 
(1) डार्विन का उद्विकासवाद-डार्विन के जीव विकास के विचारों का आरम्भिक समाजशास्त्रीय विचारों पर दृढ़ प्रभाव पड़ा। इसके अन्तर्गत समाज की प्रायः जीवित जैववाद से तुलना की जाती थी और इसके क्रमबद्ध विकास को चरणों में तलाशने के प्रयास किये जाते थे, जिनकी जैविकीय जीवन से तुलना की जा सकती थी। इस प्रकार उद्विकासवाद ने समाज को व्यवस्था के भागों के रूप में देखने के तरीके को दिया, जिसमें प्रत्येक भाग एक खास कार्य निष्पादन करने में रत होता है। इसने सामाजिक संस्थाओं एवं संरचनाओं के अध्ययन को बहुत प्रभावित किया। इन बौद्धिक विचारों का इससे गहरा सम्बन्ध है कि समाजशास्त्र आनुभविक वास्तविकता का अध्ययन किस प्रकार करता है?

(2) ज्ञानोदय-18वीं सदी में यूरोप में चले ज्ञानोदय नामक बौद्धिक आन्दोलन ने कारण और व्यक्तिवाद पर बल दिया और यह दृढ़ विश्वास विकसित किया कि प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धतियों द्वारा मानवीय पहलुओं का अध्ययन किया जा सकता है और करना चाहिए। उदाहरण के लिए इसके कारण यह स्पष्ट हुआ कि 'गरीबी' प्राकृतिक क्रिया नहीं है बल्कि एक सामाजिक समस्या है जो मानवीय उपेक्षा तथा शोषण का परिणाम है। इसलिए गरीबी का निराकरण किया जा सकता है। इस प्रकार ज्ञानोदय ने समाजशास्त्र में वैज्ञानिकता, कार्य और कारण सिद्धान्त का विकास किया तथा सामाजिक सर्वेक्षण, वर्गीकरण के द्वारा विश्लेषण पर बल दिया। यही कारण है कि प्रारम्भिक आधुनिक सामाजिक विचारक इस बात से सहमत थे कि ज्ञान में वृद्धि से सभी सामाजिक समस्याओं का समाधान सम्भव है।

प्रश्न 15. 
उन भौतिक मुद्दों को स्पष्ट कीजिए जिनकी समाजशास्त्र की रचना में भूमिका है।
उत्तर:
भौतिक मुद्दे जिनकी समाजशास्त्र की रचना में भूमिका है
(1) औद्योगिक क्रान्ति एवं पूँजीवादी व्यवस्था-औद्योगिक क्रान्ति पूँजीवाद पर आधारित थी। औद्योगिक उत्पादन की उन्नति के पीछे यही पूँजीवादी व्यवस्था एक प्रमुख शक्ति थी। पूँजीवादी व्यवस्था की निम्न प्रमुख विशेषताएँ थीं

  • पूँजीवाद में नयी अभिवृत्तियाँ एवं संस्थाएँ सम्मिलित थीं। 
  • उद्यमी निश्चित और व्यवस्थित लाभ की आशा से प्रेरित थे।
  • बाजारों ने उत्पादनकारी जीवन में प्रमुख साधन की भूमिका अदा की। 
  • माल, सेवाएँ एवं श्रम वस्तुएँ बन गईं जिनका निर्धारण तार्किक गणनाओं के द्वारा होता था। 
  • इंग्लैण्ड औद्योगिक क्रान्ति का केन्द्र था। 
  • इस व्यवस्था में नगरीय केन्द्रों का विकास और विस्तार हुआ।

इन नगरों की विशेषता थी-
फैक्ट्रियाँ, धुआँ, नया औद्योगिक श्रमिक वर्ग, भीड़भाड़ वाली गन्दी बस्तियाँ तथा नए प्रकार की सामाजिक अन्तःक्रिया। पूँजीवादी व्यवस्था में औद्योगिक नगरों में श्रमिकों ने बेहतर जिन्दगी हेतु सामूहिक कार्यप्रणाली एवं संगठित प्रयास, दोनों चीजें सीखीं।
(2) घड़ी के अनुसार समय का महत्त्व-औद्योगिक क्रान्ति एवं पूँजीवादी व्यवस्था में घड़ी के अनुसार समय का महत्त्व सामाजिक संगठन का आधार बन गया और खेतिहर तथा औद्योगिक मजदूरों ने तेजी से घड़ी और कैलेंडर के अनुसार अपने आपको ढालना शुरू कर दिया। इससे उत्पादन में समय की पाबन्दी, स्थिर रफ्तार, कार्य करने के निश्चित घण्टे और हफ्ते के दिन निर्धारित हो गए। इसके अलावा घड़ी ने कार्य की अनिवार्यता पैदा कर दी। नियोक्ता और कर्मचारी दोनों के लिए समय का महत्त्व बढ़ गया। इन भौतिक परिस्थितियों में नवीन समाज-व्यवस्था का जन्म हुआ और इसके साथ अनेक नई सामाजिक समस्याएँ सामने आईं। इन सामाजिक समस्याओं का समाधान खोजने के प्रयास में समाजशास्त्र का जन्म हुआ।

प्रश्न 16. 
भारत में समाजशास्त्र के विकास पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत में समाजशास्त्र का विकास-भारत में समाजशास्त्र के विकास का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है
(1) पश्चिमी समाजशास्त्रियों द्वारा लिखित दस्तावेज-उपनिवेशवाद आधुनिक पूँजीवाद एवं औद्योगीकरण का आवश्यक हिस्सा था। इसलिए पश्चिमी समाजशास्त्रियों का पूँजीवाद एवं आधुनिक समाज के अन्य पक्षों पर लिखित दस्तावेज, भारत में हो रहे सामाजिक परिवर्तनों को समझने के लिए प्रासंगिक हैं।

वह कौन सा देश है जहां समाजशास्त्र विषय का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ था? - vah kaun sa desh hai jahaan samaajashaastr vishay ka adhyayan sarvapratham praarambh hua tha?

(2) पश्चिमी लेखकों द्वारा भारत के समाज का अध्ययन : सामाजिक मानव विज्ञान के रूप में भारत में समाजशास्त्र के विकास में सर्वप्रथम पश्चिमी लेखकों द्वारा भारतीय समाज का अध्ययन किया गया। इसमें इन लेखकों ने भारतीय समाज को पाश्चात्य समाज से एकदम भिन्न बताया। इन्होंने भारतीय गाँवों को अपरिवर्तनीय रूप में चित्रित किया। उन्होंने 19वीं सदी के भारत में यूरोपियन समाजों का अतीत देखा। इन विद्वानों ने भारतीय समाज का अध्ययन 'सामाजिक मानव विज्ञान' के रूप में किया।
बाद के भारतीय समाजशास्त्रियों ने इन विचारों को गलत ठहराया।

(3) किसानों, सजातीय समूहों, सामाजिक वर्गों, प्राचीन सभ्यताओं की विशेषताओं तथा आधुनिक औद्योगिक समाजों का अध्ययन-भारतीय समाजशास्त्रियों ने भारतीय समाजशास्त्र को सामाजिक मानव विज्ञान के अध्ययन से आगे बढ़ाया। सामाजिक मानव-विज्ञान ने पहले आदिम लोगों के अध्ययन का ही स्थान ले रखा था, धीरे-धीरे बदलकर किसानों, सजातीय समूहों, सामाजिक वर्गों, प्राचीन सभ्यताओं के विभिन्न पक्षों और विशेषताओं एवं आधुनिक औद्योगिक समाजों के अध्ययन पर आ गया।
भारत में समाजशास्त्र और सामाजिक मानव-विज्ञान के बीच कोई स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं है।

प्रश्न 17.
समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र-समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय-क्षेत्र काफी व्यापक है। यह व्यक्ति और समाज के बीच की अन्तःक्रिया के विश्लेषण को अपने अध्ययन का केन्द्र-बिन्दु बनाता है। इसमें राष्ट्रीय सामाजिक मुद्दे, जैसे-बेरोजगारी, जातीय संघर्ष, वैश्विक सामाजिक प्रक्रियाएँ आदि विषयों का अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र सामाजिक विज्ञानों के समूह का एक हिस्सा है जिसमें मानव विज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान एवं इतिहास आदि शामिल हैं।

इन सभी में कुछ हद तक साझी रुचियाँ हैं जिनका सभी सामाजिक शास्त्र अपने-अपने दृष्टिकोण से अध्ययन करते हैं। इस प्रकार समाजशास्त्र समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति और समाज की अन्तःक्रियाओं, सामाजिक संस्थाओं तथा सामाजिक संरचनाओं का अध्ययन करता है। यह किसी भी घटना, तथ्य या वस्तु का अध्ययन सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक सम्बन्धों तथा उन पर पड़ने वाले प्रभावों के सन्दर्भ में करता है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य अन्य सामाजिक विज्ञानों के परिप्रेक्ष्य से किस प्रकार भिन्न है? ।
उत्तर:
परिप्रेक्ष्य-परिप्रेक्ष्य का तात्पर्य अध्ययन के विशिष्ट दृष्टिकोण से है जो एक विषय को अन्य विषय से भिन्न और विशिष्ट बनाता है। किसी भी घटना एवं तथ्य के बारे में अध्ययन और व्याख्या करने का जो दृष्टिकोण है, वही परिप्रेक्ष्य है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य व अन्य सामाजिक विज्ञानों के परिप्रेक्ष्य में अन्तर-ई. चिनोय ने अपनी पुस्तक 'सोशियोलोजीकल पर्सपैक्टिव' में डबलरोटी के उदाहरण द्वारा सामाजिक विज्ञानों के परिप्रेक्ष्यों में अन्तर स्पष्ट किया है।

यथा प्रत्येक विज्ञान डबलरोटी के किसी एक पक्ष का अध्ययन करने के लिए विशिष्ट अवधारणाओं का प्रयोग करेगा, जैसे-अर्थशास्त्री डबलरोटी का अध्ययन एक उद्योग के रूप में करेगा, जिसमें वह उसके उत्पादन, मांग, उत्पादन लागत, क्रय-विक्रय मूल्य, लाभ अथवा हानि के संदर्भ में देखेगा; जबकि एक पोषाहार-वैज्ञानिक डबलरोटी का अध्ययन स्वास्थ्य पर उसके प्रभाव एवं पोषाहार के संदर्भ में करेगा।

एक मनोवैज्ञानिक उसका अध्ययन व्यक्तियों की खानपान की आदतों और व्यवहारों के रूप में करेगा। इतिहासकार डबलरोटी की उत्पत्ति कब और कहाँ हुई तथा किस तरह विभिन्न देशों में इसे अपनाया गया अर्थात् ऐतिहासिक संदर्भ में उसका अध्ययन करेगा, जबकि समाजशास्त्री डबलरोटी का अध्ययन करते समय पति-पत्नी तथा परिवार के अन्य सदस्यों के मध्य सम्बन्धों की व्यवस्था तथा उस पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में विश्लेषण करेगा।

समाजशास्त्री किसी घटना व वस्तु का अध्ययन सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक सम्बन्धों पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में करता है, यही समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य है। प्रो नरेन्द्र कुमार सिंघी ने इनके अन्तर को स्पष्ट करते हुए संदर्भ-परिधि पर बल दिया है। प्रो. सिंघी ने एक कुर्सी का उदाहरण देकर इसे स्पष्ट किया है

(1) आर्थिक परिप्रेक्ष्य-एक अर्थशास्त्री कुर्सी का अध्ययन उसके क्रय-विक्रय मूल्य, लागत-मूल्य तथा लाभहानि के संदर्भ में करता है। इस प्रकार किसी घटना या वस्तु का अध्ययन आर्थिक परिप्रेक्ष्य में मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं व व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है।

(2) राजनीतिक परिप्रेक्ष्य-प्रो. सिंघी ने कहा है कि राजनीतिशास्त्री कुर्सी का अध्ययन शक्ति, सत्ता एवं सरकार के प्रतीक के संदर्भ में करता है। अर्थात् जब किसी घटना या वस्तु का अध्ययन शक्ति, सत्ता व सरकार, राज्य आदि के संदर्भ में किया जाता है, तो उसे राजनीतिक परिप्रेक्ष्य कहा जाता है।

(3) समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य-एक समाजशास्त्री कुर्सी का अध्ययन एक प्रस्थिति प्रतीक के रूप में करता है। वह यह देखने का प्रयास करता है कि कुर्सी पर बैठने वाले व्यक्ति का पद क्या है, पद के अनुसार उसकी भूमिका क्या, है। आदि यही समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में किसी घटना या वस्तु का अध्ययन सामाजिक व्यवहारों तथा सामाजिक सम्बन्धों के संदर्भ में किया जाता है।

(4) मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य-मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य वह है जब किसी व्यक्ति का अध्ययन उसके व्यक्तित्व के संदर्भ में किया जाता है।

प्रश्न 2. 
समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य का अर्थ एवं विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य का अर्थ-समाजशास्त्रीय किसी भी घटना, तथ्य या वस्तु का अध्ययन सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक सम्बन्धों और उन पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में ही करता है। यही समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य है।उदाहरण के लिए एक समाजशास्त्री फुटबाल का अध्ययन मनोरंजन, खेल-समूह, खेल के नियमों की व्यवस्था, खिलाड़ियों में प्रतिस्पर्धी सम्बन्ध, एक टीम के सदस्यों में सहयोगी सम्बन्ध आदि के आधारों पर अध्ययन करता है।

इसी प्रकार वह एक डबलरोटी का अध्ययन पति-पत्नी तथा परिवार के अन्य सदस्यों के मध्य सम्बन्धों की व्यवस्था तथा उस पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में विश्लेषण करता है और वह एक कुर्सी का अध्ययन इस संदर्भ में करता है कि कुर्सी पर बैठने वाले व्यक्ति का पद (प्रस्थिति) क्या है, पद के अनुसार उसकी भूमिका क्या है तथा कुर्सी किस स्थान पर रखी हुई है? अतः विभिन्न कुर्सियाँ विभिन्न प्रस्थितियों के प्रतीक के रूप में देखी जाती हैं।

उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य अध्ययन का एक विशिष्ट दृष्टिकोण है जिसके द्वारा हम विभिन्न सामाजिक घटनाओं, तथ्यों व वस्तुओं का अध्ययन कर सकते हैं। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत हम सामाजिक सम्बन्धों, दो या दो से अधिक व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों, उनसे उत्पन्न प्रभावों व उनके निर्माण की परिस्थितियों आदि का अध्ययन करते हैं।

कोई भी घटना, तथ्य अथवा वस्तु सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक मूल्यों, प्रस्थिति, सामाजिक नियंत्रण एवं सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को किस रूप में प्रभावित करती है, आदि का अध्ययन समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत किया जाता है। ई. चिनोय, गुडे एवं हाट, लुंडबर्ग आदि विद्वानों ने समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के इसी पक्ष पर अधिक बल दिया है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की विशेषताएँ समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) वैज्ञानिक प्रकृति-समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की प्रकृति वैज्ञानिक है। यह मानव मानव समाज का वैज्ञानिक पद्धतियों द्वारा कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर विश्लेषण करता है। लेकिन कुछ विद्वान समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की मानविकी प्रकृति को भी स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार समाजशास्त्र में क्या है, क्यों है, के साथ क्या होना चाहिए' और 'किसके लिए?' का भी अध्ययन किया जाना चाहिए।

(2) सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन-समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत मानव समाज का सामाजिक सम्बन्धों की जटिल व्यवस्था के रूप में अध्ययन किया जाता है। सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करते हुए दो या दो से अधिक व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों, उनमें सहयोग अथवा संघर्ष के सम्बन्धों, उनसे उत्पन्न प्रभावों तथा उनके निर्माण की परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाता है।

(3) सामाजिक घटनाओं व तथ्यों का सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में विश्लेषण-समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य सामाजिक घटनाओं व तथ्यों आदि का विवेचन सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में करता है। इंकल्स ने लिखा है कि समाज में व्यक्ति सैकड़ों-हजारों प्रकार की क्रियायें प्रतिदिन करते हैं, उन क्रियाओं में एक व्यवस्था पायी जाती है। प्रत्येक व्यक्ति क्रियायें करते हुए दूसरे व्यक्ति के लक्ष्य प्राप्ति को सरल बनाता है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य व्यक्ति की सामाजिक अन्त:क्रियाओं व क्रियाओं का सामाजिक जीवन में व्यवस्था की दृष्टि से अध्ययन करता है।

(4) सामाजिक सम्बन्धों आदि को प्रभावित करने के संदर्भ में अध्ययन-समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत कोई भी वस्तु, तथ्य अथवा घटना सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक मूल्यों, प्रस्थिति, सामाजिक प्रक्रिया, सामाजिक नियंत्रण व परिवर्तन आदि को कैसे प्रभावित करती है, का अध्ययन करता है। 

वह कौन सा देश है जहां समाजशास्त्र विषय का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ था? - vah kaun sa desh hai jahaan samaajashaastr vishay ka adhyayan sarvapratham praarambh hua tha?

(5) सामाजिक अव्यवस्था का अध्ययन-समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत सामाजिक जीवन में व्याप्त व्यवस्था के साथ-साथ अव्यवस्था के जनित विचलित व्यवहारों, अपराधों, विघटनकारी सामाजिक समस्याओं आदि का भी अध्ययन किया जाता है।

(6) सामाजिक अवधारणाओं के माध्यम से अध्ययन-किसी प्रस्थिति अथवा तथ्य का अध्ययन व विश्लेषण करते समय जब प्रस्थिति और भूमिका, सामाजिक समूह, सामाजिक स्तरीकरण, सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक संरचना व प्रकार्य आदि सामाजिक अवधारणाओं का प्रयोग किया जाता है, तो वह भी समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य है।

प्रश्न 3. 
वैज्ञानिक अभिमुखन को समझाइये तथा इसके समर्थकों के विचारों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
समाजशास्त्रीय अभिमुखन-समाजशास्त्रीय अभिमुखन के अन्तर्गत अध्ययन के परिप्रेक्ष्य, अध्ययन के उपागम, अध्ययन पद्धति, तथ्यों के वर्गीकरण, सारणीयन, विश्लेषण तथा निष्कर्ष कैसे निकाले जाते हैं, आदि के बारे में मार्गदर्शन किया जाता है।
समाजशास्त्रीय अभिमुखन को दो वर्गों में रखा जा सकता है

  1. वैज्ञानिक अभिमुखन, 
  2. मानविकी अभिमुखन। यहाँ पर हमारा प्रतिपाद्य विषय वैज्ञानिक अभिमुखन का विवेचन करना है।

वैज्ञानिक अभिमुखन-अधिकांश समाजशास्त्री समाजशास्त्र के वैज्ञानिक अभिमुखन को स्वीकार करते हैं। वैज्ञानिक अभिमुखन से आशय यह है कि सामाजिक प्रघटनाओं का केवल वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाना चाहिए। वैज्ञानिक अभिमुखन के समर्थकों का मानना है मानवीय व्यवहार में कार्य-कारण सम्बन्ध पाया जाता है तथा इसके सम्बन्ध में भविष्यवाणी की जा सकती है। जॉनसन ने किसी भी वैज्ञानिक अध्ययन में चार बातों का होना आवश्यक माना है-

  1. आनुभविकता
  2. सैद्धान्तिक
  3. संचयी और 
  4. तटस्थता।

वैज्ञानिक अभिमुखन की प्रक्रिया के अन्तर्गत अध्ययनकर्ता को वैज्ञानिक अध्ययन पद्धति के आवश्यक चरणों, जैसे-समस्या का चुनाव प्राक्कल्पना का निर्माण; तथ्यों का संकलन, वर्गीकरण, सारणीयन तथा विश्लेषण; निष्कर्षीकरण, सामान्यीकरण एवं सिद्धान्तों का प्रतिपादन आदि कैसे किया जाये, इसके बारे में जानकारी दी जाती है।

वैज्ञानिक रूप में समाजशास्त्री अध्ययन करते समय नैतिकतामुक्त अर्थात् पूर्णतया तटस्थ होते हैं। उनके लिए कोई भी सामाजिक घटना या तथ्य अच्छे या बुरे नहीं होते हैं। घटनाएँ 'जो हैं', 'जैसी हैं', उनका उसी रूप में अध्ययन व विश्लेषण तथा अध्ययनकर्ता के व्यक्तिगत मूल्यों का अध्ययन में समावेश न होना ही वैज्ञानिक अभिमुखन की विशेषता वैज्ञानिक अभिमुखन की विशेषताएँ समाजशास्त्र में वैज्ञानिक अभिमुखन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन संभव-समाजशास्त्र में सामाजिक प्रघटनाओं एवं मानवीय व्यवहारों का वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन संभव है।
  2. कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर भविष्यवाणी संभव-वैज्ञानिक पद्धतियों द्वारा मानवीय व्यवहारों का अध्ययन, कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर विश्लेषण तथा पूर्वानुमान व भविष्यवाणी संभव है।
  3. वस्तुनिष्ठता-वैज्ञानिक अभिमुखन अध्ययन में वस्तुनिष्ठता पर बल देता है। घटनाएँ एवं तथ्य जैसे हैं', उनका उसी रूप में अध्ययन किया जाना चाहिए। इससे अध्ययन में वस्तुनिष्ठता और प्रामाणिकता बनी रहती है। 
  4. तटस्थ अध्ययन-समाजशास्त्रीय अध्ययनों में मानव समाज व व्यवहारों का अध्ययन करते समय शोधकर्ता को तटस्थ रहकर सभी व्यक्तिगत एवं नैतिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अध्ययन करना चाहिए।
  5. क्या है? का अध्ययन-समाजशास्त्री को अध्ययन में वैज्ञानिकता बनाए रखने के लिए 'क्या है' तथा 'क्यों है' का ही अध्ययन करना चाहिए। क्या होना चाहिए?' से अध्ययनकर्ता का कोई सम्बन्ध नहीं होता है।
  6. सार्वभौमिकता एवं सत्यापनशीलता-वैज्ञानिक समाजशास्त्रीय अध्ययनों में सार्वभौमिकता, तार्किकता एवं सत्यापनशीलता संभव है।
  7. सार्वभौमिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन-वैज्ञानिक अभिमुखन के अन्तर्गत सामाजिक घटनाओं व व्यवहारों का विश्लेषण करने के लिए समाजशास्त्र में सार्वभौमिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जाता है।

वैज्ञानिक अभिमुखन के समर्थक समाजशास्त्र में वैज्ञानिक अभिमुखन के प्रमुख समर्थकों के विचारों को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है -
(1) अगस्त कॉम्टे-अगस्त कॉम्टे समाजशास्त्र के जनक थे। इन्होंने समाजशास्त्रीय अध्ययन करने के लिए वैज्ञानिक अभिमुखन तथा प्रत्यक्षवादी पद्धति के प्रयोग पर बल दिया। कॉम्टे के प्रमुख विचार इस प्रकार हैं

  • समाज को एक इकाई मानकर अध्ययन करना चाहिए। 
  • ज्ञान के विकास के तीन स्तर हैं-धार्मिक, तात्विक और वैज्ञानिक। ज्ञान का आधार विज्ञान है।
  • अध्ययनकर्ता को समाज का वैज्ञानिक अध्ययन प्रत्यक्ष अवलोकन, परीक्षण तथा कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर करना चाहिए।

(2) हर्बर्ट स्पेंसर-हरबर्ट स्पेंसर ने कॉम्टे के वैज्ञानिक अभिमुखन के विचारों को आगे बढ़ाया। यथा

  • स्पेंसर ने समाजशास्त्रीय अध्ययनों में प्राणीशास्त्र की अवधारणाओं और सिद्धान्तों के आधार पर मानव समाज और सावयव में समानता स्थापित की।
  • स्पेंसर ने समाजशास्त्र के वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य का विकास किया; धार्मिक और वैज्ञानिक अभिमुखन में अन्तर स्पष्ट किया तथा समाजशास्त्रियों का वैज्ञानिक अभिमुखन किया।

(3) इमाइल दुखीम-दुर्थीम के अनुसार यदि कोई समाजशास्त्री वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य के अनुसार सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करता है तो उसे सामाजिक तथ्यों को वस्तुओं के समान समझकर तथा सभी पूर्व-धारणाओं से मुक्त रहकर अध्ययन करना चाहिए। इनके अनुसार समाजशास्त्र एक प्रत्यक्ष, यथार्थ व आनुभविक विज्ञान है। दुर्थीम ने धर्म, श्रम-विभाजन, अपराध और आत्महत्या जैसी सामाजिक प्रघटनाओं का वैज्ञानिक आधार पर अध्ययन प्रस्तुत किया।

(4) मैक्स वेबर-वेबर के अनुसार समाजशास्त्री को सामाजिक घटनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए केवल . 'क्या है' का अध्ययन करना चाहिए तथा मूल्यांकनात्मक निर्णयों अर्थात् 'क्या होना चाहिए' से बचना चाहिए। वेबर ने मानवीय सम्बन्धों व क्रियाओं के वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य से अध्ययन करने के लिए एक विशेष अध्ययन पद्धति 'वरस्तेहेन' (Verstehen) का विकास किया। वेबर ने सामाजिक क्रिया, आदर्श प्रारूप, सत्ता, नौकरशाही, धर्म का समाजशास्त्र तथा पूँजीवाद की अवधारणाओं का विकास किया है जिनके अध्ययन द्वारा समाजशास्त्रियों के ज्ञान का वैज्ञानिक अभिमुखन होता है।

(5) टाल्कट पारसन्स-

  • पारसन्स के अनुसार सामाजिक विज्ञानों में अध्ययन के लिए प्राकृतिक विज्ञानों में प्रयुक्त अध्ययन पद्धतियों को ही अपनाना चाहिए।
  • अवधारणाओं तथा सैद्धान्तिक व्यवस्थाओं को आनुभविक रूप से प्रमाणित किया जाना चाहिए। 
  • समाजशास्त्रीय अध्ययनों में आनुभविकता, तार्किकता, सिद्धान्तों में सामान्यता व सार्वभौमिकता होनी चाहिए।

(6) राबर्ट के. मर्टन-

  1. समाजशास्त्र में वैज्ञानिक अभिमुखन के लिए सामाजिक घटनाओं व तथ्यों का अध्ययन सार्वभौमिकता व प्रामाणिकता के आधार पर किया जाना चाहिए।
  2. अध्ययनकर्ता को नैतिक दृष्टि से तटस्थ रहकर मूल्यरहित अध्ययन करना चाहिए।
  3. मर्टन ने सामाजिक संरचना व उसकी इकाइयों के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए प्रकार्य एवं अपकार्य की अवधारणा प्रतिपादित की।

प्रश्न 4. 
समाजशास्त्र का अर्थशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र से सम्बन्ध स्पष्ट कीजिये। 
उत्तर:
समाजशास्त्र का अर्थशास्त्र से सम्बन्ध समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों सामाजिक विज्ञान हैं। प्रत्येक सामाजिक विज्ञानं सामाजिक जीवन के किसी न किसी पक्ष का अध्ययन करता है। ऐसी स्थिति में समाजशास्त्र का अर्थशास्त्र से घनिष्ठ सम्बन्ध होना स्वाभाविक है। इसे निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है -
(1) समाजशास्त्र व अर्थशास्त्र के अध्ययन विषय. समाजशास्त्र-मानव की क्रियाओं व व्यवहारों का समाजशास्त्र में समग्रता में अध्ययन किया जाता है तथा इसके द्वारा समाज की व्याख्या की जाती है। समाजशास्त्र में प्रथा, परम्परा, संस्कृति, संस्था, सामाजिक सम्बन्ध, सामाजिक प्रतिमान, सामाजिक प्रक्रियायें, सामाजिक नियंत्रण व सामाजिक परिवर्तन आदि का अध्ययन किया जाता है। अर्थशास्त्र-अर्थशास्त्र के अन्तर्गत मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं व व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। इसमें उत्पादन, उपभोग, विनिमय तथा वितरण की घटनाओं की व्याख्या व उनका विश्लेषण किया जाता है। इसमें वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन, वितरण एवं उपभोग से सम्बन्धित मानव-व्यवहारों का भी अध्ययन किया जाता है।

वह कौन सा देश है जहां समाजशास्त्र विषय का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ था? - vah kaun sa desh hai jahaan samaajashaastr vishay ka adhyayan sarvapratham praarambh hua tha?

(2) अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र दोनों के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध है-अर्थशास्त्र व समाजशास्त्र दोनों परस्पर पूरक हैं, दोनों के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। यथा

  • समाजशास्त्र एक व्यापक विज्ञान है और अर्थशास्त्र उसकी एक शाखा है। 
  • अध्ययन-सामग्री एवं विषय-क्षेत्र की दृष्टि से दोनों स्वतंत्र विज्ञान हैं और दोनों ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण
  • दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं तथा दोनों विषय एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित रहे हैं। यही कारण है कि कुछ विद्वान अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री दोनों हुए हैं, जैसे-कार्ल मार्क्स, मैक्स वेबर, पैरेटो, मिल्स आदि।
  • दोनों का एक-दूसरे की क्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति की सामाजिक क्रियाओं व व्यवहार पर आर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है तथा आर्थिक क्रियाओं एवं व्यवहार पर सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता  है।
  • कुछ समस्याओं का अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र दोनों में ही अध्ययन किया जाता है। ये समस्यायें हैंऔद्योगीकरण, नगरीकरण, श्रम-कल्याण, श्रम-समस्यायें, बेरोजगारी, निर्धनता आदि। इन समस्याओं पर सामाजिक व आर्थिक दोनों दृष्टिकोणों से विचार आवश्यक है, तभी इनका हल किया जा सकता है।

(3) अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के मध्य अन्तर-यद्यपि अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध हैं, तथापि दोनों में पर्याप्त अन्तर है। यथा
(i) अर्थशास्त्र अपने आपको मनुष्यों के आर्थिक व्यवहारों के अध्ययन पर केन्द्रित करता है, जबकि समाजशास्त्र आर्थिक जीवन के सामाजिक पक्षों के अध्ययन में रुचि रखता है; जैसे-आय, व्यवसाय, उपभोग, प्रतिमान, जीवन-शैली आदि।

(ii) अर्थशास्त्र में मानव के आर्थिक सम्बन्धों, क्रियाओं और व्यवहारों के अध्ययन पर बल दिया जाता है, जबकि समाजशास्त्र में मानव के सामाजिक सम्बन्धों, क्रियाओं और व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है।

(iii) समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है, जबकि अर्थशास्त्र एक विशिष्ट विज्ञान है। समाजशास्त्र मानव समाज के सभी पक्षों का समग्र रूप में अध्ययन करता है, जबकि अर्थशास्त्र मानव समाज के केवल आर्थिक पक्षों का ही अध्ययन करता है। ..

(iv) समाजशास्त्र में घटनाओं की वास्तविक और स्वतंत्र रूप से व्याख्या की जाती है, जबकि अर्थशास्त्र में प्रत्येक घटना का सम्बन्ध आर्थिक कारणों के साथ जोड़ा जाता है। समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में भी घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। 

इसका विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है -
(1) राजनीतिशास्त्र से आशय-राजनीतिशास्त्र वह सामाजिक विज्ञान है जो राजनीतिक संस्थाओं तथा मनुष्य के राजनीतिक व्यवहारों का अध्ययन करता है। इसकी रुचि मुख्यतः शक्ति व सत्ता के अध्ययन में है।

(2) समाजशास्त्र से आशय-समाजशास्त्र वह सामाजिक विज्ञान है जो मानव की क्रियाओं व व्यवहारों का अध्ययन समग्रता में करता है तथापि इसकी अधिक रुचि सामाजिक संस्थाओं या संस्थाओं के सामाजिक पक्षों के अध्ययन में है। सत्ता का अध्ययन समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में समाजशास्त्र में भी किया जाता है।

(3) समाजशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है-समाजशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। इसे निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है

  • व्यक्ति का सामाजिक और राजनीतिक जीवन इतना अधिक घुला-मिला होता है कि उन्हें अलग करके नहीं देखा जा सकता है। इसलिए दोनों विज्ञानों के लिए परस्पर सहयोग अति आवश्यक है।
  • समाजशास्त्री और राजनीतिशास्त्री दोनों ही एक-दूसरे के ज्ञान का उपयोग अपने-अपने विषय में करते हैं। इसीलिए गिडिंग्स ने लिखा है कि प्रत्येक राजनीतिशास्त्री समाजशास्त्री है और प्रत्येक समाजशास्त्री राजनीतिशास्त्री भी होता है।
  • वर्तमान में दोनों विषयों के परस्पर घनिष्ठ सम्बन्धों के कारण ही ज्ञान की एक नवीन शाखाराजनीतिक समाजशास्त्र का विकास हुआ है। वर्तमान में समाजशास्त्री व्यक्ति के राजनीतिक व्यवहारों का विश्लेषण कर रहे हैं।

(4) समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में अन्तर-यद्यपि समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है, तथापि दोनों एक ही नहीं हैं, इनमें निम्नलिखित अन्तर भी हैं

  1. समाजशास्त्र मानव समाज के सभी पक्षों का समग्र रूप में अध्ययन करता है, जबकि राजनीतिशास्त्र में केवल राज्य और शक्ति व सत्ता से सम्बन्धित मानव व्यवहार का ही अध्ययन किया जाता है।
  2. समाजशास्त्र मानव समाज में पाये जाने वाले सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है, जबकि राजनीतिशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के एक विशिष्ट स्वरूप राजनैतिक सम्बन्धों का ही अध्ययन करता है।
  3. समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है, जबकि राजनीतिशास्त्र एक विशेष विज्ञान है। 
  4. समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है, जबकि राजनीतिशास्त्र राजनीतिक-समाज का अध्ययन है।
  5. समाजशास्त्र समाज में व्यक्ति का अध्ययन एक सामाजिक प्राणी के रूप में करता है, जबकि राजनीतिशास्त्र व्यक्ति को एक नागरिक के रूप में देखता है।

प्रश्न 5. 
समाजशास्त्र का इतिहास व मनोविज्ञान से सम्बन्ध संक्षेप में लिखिये। 
उत्तर:
समाजशास्त्र और इतिहास समाजशास्त्र और इतिहास से सम्बन्ध का विश्लेषण निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है
(1) इतिहास से आशय-इतिहास भूतकालीन समाजों की विशिष्ट घटनाओं का कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर विश्लेषण करने वाला एक सामाजिक विज्ञान है। इतिहास उस क्रम को मालूम करने का प्रयास करता है जिस क्रम में घटनाएँ घटित हुई थीं। अतः यह मानव व्यवहार व समाज का समय के अनुसार क्रमबद्ध और व्यवस्थित ढंग से अध्ययन समाजशास्त्र कक्षा 11 भाग-1 करता है तथा भूतकालीन समाज व्यवस्था के अध्ययन-विश्लेषण तक ही अपने को सीमित रखता है। इस प्रकार इतिहास भूतकालीन समाजों व घटनाओं का क्रमबद्ध व व्यवस्थित अध्ययन है।

(2) समाजशास्त्र से आशय-समाजशास्त्र समकालीन घटनाओं व वर्तमान समाज-व्यवस्थाओं का अध्ययन करता है। यह भूतकालीन समाजों की पृष्ठभूमि में वर्तमान समाज का अध्ययन करता है।

(3) इतिहास और समाजशास्त्र के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है-इतिहास और समाजशास्त्र दोनों के . मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। इसका विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है
(i) समाजशास्त्र और इतिहास दोनों ही मानव-समाज, सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन करते हैं।

(ii) समाजशास्त्र में इतिहास द्वारा प्राप्त सामग्री का उपयोग किया जाता है। अगस्त कॉम्टे, स्पेन्सर, दुर्थीम आदि समाजशास्त्रियों ने अपने अध्ययनों में इतिहास से प्राप्त सामग्री का उपयोग किया है। सामाजिक मानवशास्त्र और समाजशास्त्र में तथ्यों एवं घटनाओं के विश्लेषण के लिए ऐतिहासिक पद्धति का भी उपयोग किया जाता है।

(iii) इतिहासकारों पर भी समाजशास्त्र का प्रभाव पाया जाता है। अनेक इतिहासकारों, जैसे टॉयनबी, स्पेंगलर आदि ने समाजशास्त्र के प्रभाव के फलस्वरूप सामाजिक इतिहास लिखा है जिसमें सामाजिक सम्बन्धों, प्रतिमानों, संस्थाओं एवं रूढ़ियों के क्रमिक विकास का अध्ययन किया गया है।

(iv) इतिहास भूतकालीन समाजों का अध्ययन करता है और समाजशास्त्र वर्तमान समाजों का अध्ययन करता है। किन्तु वर्तमान समाज को समझने के लिए भूतकालीन समाजों का समझना आवश्यक होता है और यह ज्ञान हमें इतिहास से मिलता है। भूतकाल के समाज को समझे बिना वर्तमान समाज का सही विश्लेषण नहीं किया जा सकता।

(v) दोनों सामाजिक विज्ञान हैं तथा दोनों ही मानवीय व्यवहारों व सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करते हैं।

(4) इतिहास तथा समाजशास्त्र में अन्तर-यद्यपि इतिहास और समाजशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है, तथापि दोनों विषय एक ही नहीं हैं, दोनों में पर्याप्त अन्तर हैं। इन अन्तरों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है
(i) इतिहासकार की रुचि किसी समय की एक विशिष्ट घटना के अध्ययन में होती है, जबकि समाजशास्त्री निरन्तर और नियमित होने वाली घटनाओं के अध्ययन में रुचि रखता है। अतः समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है और इतिहास एक विशिष्ट विज्ञान।

(ii) समाजशास्त्री आधुनिक या समकालीन समाजों व घटनाओं के अध्ययन में रुचि रखता है, जबकि इतिहासकार भूतकाल की घटनाओं के अध्ययन तक ही सीमित रहता है।

(iii) इतिहास भूतकालीन मूर्त तथ्यों का अध्ययन करता है, जबकि समाजशास्त्र अमूर्त तथ्यों व घटनाओं का अध्ययन करता है। पार्क के शब्दों में इतिहास मानव अनुभवों और मानव प्रकृति का मूर्त एवं समाजशास्त्र अमूर्त विज्ञान है। 

(iv) दोनों में पद्धतिशास्त्रीय अन्तर विद्यमान है। इतिहास की पद्धति ऐतिहासिक है जो कि विवरणात्मकता पर बल देती है। समाजशास्त्र की अध्ययन पद्धति विश्लेषणात्मक है। इसलिए समाजशास्त्र में वैज्ञानिक, विश्लेषणात्मक, ऐतिहासिक, तुलनात्मक एवं सांख्यिकीय पद्धतियों का उपयोग किया जाता है। 

वह कौन सा देश है जहां समाजशास्त्र विषय का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ था? - vah kaun sa desh hai jahaan samaajashaastr vishay ka adhyayan sarvapratham praarambh hua tha?

(v) समाजशास्त्र समाज के बारे में सामान्यीकरण करता है, जबकि इतिहास विशिष्टीकरण पर आधारित है।
समाजशास्त्र और मनोविज्ञान समाजशास्त्र और मनोविज्ञान के सम्बन्धों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है

(1) मनोविज्ञान से आशय-मनोविज्ञान को प्रायः मस्तिष्क और मानसिक प्रक्रियाओं का विज्ञान कहा जाता है जिसका केन्द्रीय अध्ययन-बिन्दु व्यक्ति तथा व्यक्तित्व है। यह मुख्यतः व्यक्ति के व्यवहार तथा व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं, जैसे—संवेगों, प्रेरकों, बोध तथा सीखना आदि का अध्ययन करना है। पारसन्स के अनुसार मनोविज्ञान व्यक्तित्व-व्यवस्था का वैज्ञानिक अध्ययन करता है।

(2) समाजशास्त्र-समाजशास्त्र सामाजिक-व्यवस्था का अध्ययन है। इसका केन्द्रीय विषय समाज और सामाजिक व्यवस्था है।

(3) मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में सम्बन्ध-मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यथा- 
(i) मनोविज्ञान मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है और समाजशास्त्र सामाजिक परिस्थितियों का। मानसिक प्रक्रियायें सामाजिक परिस्थितियों से और सामाजिक परिस्थितियाँ मानसिक प्रक्रियाओं से प्रभावित होती हैं । इसी संदर्भ में कहा जा सकता है कि दोनों विज्ञान परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं तथा एक-दूसरे के पूरक

(ii) सामाजिक मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन अन्य व्यक्तियों के संदर्भ में करता है। यह विज्ञान सामूहिक परिस्थितियों में व्यक्ति के अध्ययन से सम्बन्धित है। सामाजिक मनोविज्ञान में व्यक्ति और समाज दोनों का अध्ययन और व्याख्या की जाती है।

(iii) व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण का आधार केवल उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमताएँ ही नहीं हैं, बल्कि उसकी सामाजिक परिस्थितियाँ भी महत्त्वपूर्ण होती हैं। समाज, सभ्यता और संस्कृति के बीच ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण व विकास होता है। इस प्रकार सामाजिक मनोविज्ञान, मनोविज्ञान और समाजशास्त्र दोनों को संयुक्त करता है।

(4) मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में अन्तर-मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं
(i) मनोविज्ञान का सम्बन्ध व्यक्ति, व्यक्तित्व व्यवस्था और मानसिक क्रियाओं से है; जबकि समाजशास्त्र का सम्बन्ध समाज, सामाजिक प्रक्रियाओं एवं सामाजिक व्यवस्था से है।

(ii) विषय-क्षेत्र की दृष्टि से मनोविज्ञान का क्षेत्र समाजशास्त्र के क्षेत्र से सीमित है। मनोविज्ञान केवल व्यक्ति के मानसिक पक्षों का अध्ययन करता है, जबकि समाजशास्त्र समाज का समग्र रूप में अध्ययन करता है।

(iii) समाजशास्त्र के अध्ययन का केन्द्र-बिन्दु समाज और सामाजिक व्यवस्था है, जबकि मनोविज्ञान व्यक्ति और उसके व्यक्तित्व का अध्ययन करता है।

(iv) दोनों शास्त्रों की अध्ययन पद्धतियों में भी भिन्नता है। मनोविज्ञान में जहाँ मनोवैज्ञानिक परीक्षण, निरीक्षण एवं प्रयोग विशेष रूप से किये जाते हैं; वहाँ समाजशास्त्र में ऐतिहासिक, संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक, तुलनात्मक, सांख्यिकी, वैयक्तिक अध्ययन पद्धति आदि को अपनाया जाता है।

प्रश्न 6. 
समाजशास्त्र का सामाजिक मानव-विज्ञान से सम्बन्ध स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मानव विज्ञान-अधिकांश देशों में मानव विज्ञान में पुरातत्व विज्ञान, भौतिक मानव विज्ञान, सांस्कृतिक इतिहास, भाषा की विभिन्न शाखाएँ और 'सामान्य समाजों के जीवन के सभी पक्षों का अध्ययन शामिल किया जाता है। सामाजिक मानव विज्ञान-सामाजिक मानव विज्ञान, मानव विज्ञान की एक शाखा है। इसका सरोकार सरल समाजों का अध्ययन है। सामाजिक मानव विज्ञान सरल समाजों का समग्र अध्ययन करता है। यह समाजशास्त्र के अध्ययन के एकदम निकट है। सामाजिक मानव विज्ञान का विकास पश्चिम में उन दिनों हुआ जब यह माना जाता था कि पश्चिमी शिक्षित सामाजिक मानव विज्ञानियों ने गैर-यूरोपियन समाजों का अध्ययन किया जिनको प्रायः विजातीय, अशिष्ट और असभ्य समझा जाता था।

इन्होंने तटस्थ रूप से इन समाजों का अध्ययन किया। लेकिन अब समय बदल गया है। अब जनजातीय सरल समाजों के मूल निवासी अपने समाजों के बारे में बोलने लगे हैं तथा लिखने लगे हैं। दूसरे, आधुनिकता की प्रक्रिया में छोटे से छोटा गाँव भी भूमंडलीय प्रक्रियाओं से प्रभावित हुआ। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है-उपनिवेशवाद। ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौरान भारत के अत्यधिक दूरस्थ गाँवों में भी अनेक परिवर्तन आये, जैसे-प्रशासन और भूमि कानूनों में परिवर्तन, राजस्व उगाही में परिवर्तन तथा उनके उत्पादन उद्योगों का समाप्त होना आदि।

समकालीन भूमंडलीय प्रक्रियाओं ने समूचे विश्व को छोटा कर दिया है। इन कारणों से इस मान्यता में अन्तर आया है कि एक सरल समाज सीमित समाज है, बल्कि इसमें भी परिवर्तन हो रहे हैं। सामाजिक मानव विज्ञान और समाजशास्त्र में अन्तर सामाजिक मानव विज्ञान और समाजशास्त्र में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं

(1) सामाजिक मानव विज्ञान की प्रवृत्ति सरल समाज के सभी पक्षों का एक समग्र में अध्ययन करने की होती थी। अभी तक सामाजिक मानव विज्ञान में क्षेत्रीय अध्ययन किये जाते रहे हैं; जैसे-अंडमान द्वीप समूह, नूअर अथवा मेलैनेसिया का अध्ययन आदि। दूसरी तरफ, समाजशास्त्री जटिल समाजों का अध्ययन करते हैं । अतः समाज के भागों, जैसे-नौकरशाही, धर्म या जाति या एक प्रक्रिया पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है।

(2) सामाजिक मानव विज्ञान की विशेषताएँ हैं-लम्बी क्षेत्रीय कार्य परम्परा, समुदाय में रहकर अध्ययन करना तथा अनुसंधान की नृजातीय पद्धतियों का उपयोग। दूसरी तरफ समाजशास्त्री प्रायः सांख्यिकी एवं प्रश्नावली विधि का प्रयोग करते हुए सर्वेक्षण पद्धति एवं संख्यात्मक आंकड़ों पर निर्भर करते हैं। 

दोनों में सम्बन्ध-
समाजशास्त्र और सामाजिक मानवशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। वर्तमान काल में भूमंडलीय प्रक्रिया ने आदिम सरल समाजों को अत्यधिक प्रभावित किया है तथा उनमें भी काफी परिवर्तन आए हैं तथा दोनों में अन्तर कम होते जा रहे हैं। भारतीय समाजशास्त्री अब जटिल भारतीय समाजों के अध्ययन के साथ-साथ जनजातियों का भी एक समग्र रूप में अध्ययन कर रहे हैं। परिवर्तन की इस तीव्रता में सरल समाज खत्म हो रहे हैं। यह डर बना हुआ है कि सरल समाजों के खत्म होने से सामाजिक मानव विज्ञान अपनी विशिष्टता खोकर समाजशास्त्र में मिल जायेगा। क्योकि. 

  1. आजकल पद्धतियों और तकनीकों को दोनों विषयों से लिया जाता है।
  2. राज्य और वैश्वीकरण के मानव विज्ञानी अध्ययन किए गए हैं जो कि सामाजिक मानव विज्ञान की परम्परागत विषय-वस्तु से एकदम अलग है। 
  3. समाजशास्त्र भी आधुनिक समाजों के अध्ययन हेतु संख्यात्मक एवं गुणात्मक तकनीकों, समष्टि और व्यष्टि उपागमों का उपयोग करता है। अतः स्पष्ट है कि समाजशास्त्र और सामाजिक मानव विज्ञान में अति निकट का सम्बन्ध रहा है। 

प्रश्न 7. 
समाजशास्त्र को परिभाषित करें तथा इसके विषय-क्षेत्र को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
समाजशास्त्र का अर्थ तथा परिभाषाएँ-
समाजशास्त्र मानव समाज का एक अन्तः सम्बन्धित समग्र के रूप में अध्ययन करता है तथा इस बात पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है कि किस तरह समाज और व्यक्ति एक-दूसरे से अन्तः क्रिया करते हैं । यह व्यक्तिगत समस्या और जनहित के मुद्दे के बीच के सम्बन्धों को भी स्पष्ट करता है। अतः समाजशास्त्र समाज का विधिवत अध्ययन करने वाला शास्त्र है। यह मनुष्य के सामाजिक जीवन, समूहों और समाजों तथा व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों का अध्ययन है।

समाजशास्त्र की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. किंग्सले डेविस के अनुसार, "समाजशास्त्र मानव-समाज का अध्ययन है।' 
  2. गिडिंग्स के अनुसार, "समाजशास्त्र समग्र रूप से समाज का क्रमबद्ध वर्णन और उसकी व्याख्या करता है।" 
  3. हाबहाउस के शब्दों में, "समाजशास्त्र मानव मस्तिष्क की अन्तः क्रियाओं का अध्ययन करता है।" 
  4. जॉनसन के अनुसार, "समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का विज्ञान है।"

अतः स्पष्ट है कि समाजशास्त्र मनुष्य के सामाजिक जीवन, समूहों और समाजों का अध्ययन है। एक सामाजिक प्राणी की तरह मनुष्य का व्यवहार इसकी विषय-वस्तु है। अन्य सामाजिक विज्ञान भी मनुष्य के व्यवहार, सामाजिक जीवन, समूहों का अध्ययन करते हैं । अतः समाजशास्त्र का मुख्य सरोकार उस तरीके से है जिसके तहत वे वास्तविक सभाओं में कार्य करते हैं। दूसरे शब्दों में समाजों का आनुभाविक अध्ययन समाजशास्त्रियों के अध्ययन का केन्द्रीय विषय है। समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के बारे में दो सम्प्रदाय प्रचलित हैं

1. स्वरूपात्मक सम्प्रदाय-स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के विशिष्ट स्वरूपों का अमूर्त दृष्टिकोण से अध्ययन करता है। इस सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थकों में जार्ज सिमैल टानीज, मैक्स वेबर आदि प्रमुख हैं। जार्ज सिमैल के अनुसार किसी भी सामाजिक घटना को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

  • सामाजिक सम्बन्धों की अन्तर्वस्तु 
  • सामाजिक सम्बन्धों का स्वरूप। 

वह कौन सा देश है जहां समाजशास्त्र विषय का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ था? - vah kaun sa desh hai jahaan samaajashaastr vishay ka adhyayan sarvapratham praarambh hua tha?

सिमैल के अनुसार सामाजिक सम्बन्धों की अन्तर्वस्तु का अध्ययन तो विभिन्न सामाजिक विज्ञानों में होता है, लेकिन सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन इन विज्ञानों में नहीं होता है। अतः समाजशास्त्र को विशेष विज्ञान बनाने के लिए इन्होंने इसके विषय-क्षेत्र के रूप में सामाजिक घटनाओं के स्वरूप को लिया है। इस सम्प्रदाय के मानने वालों के लिए अन्तर्वस्तु का कोई महत्त्व नहीं है। उदाहरण के लिए, किसी खाली ग्लास में पानी, शराब, दूध आदि कुछ भी भर दिया जाए, वह ग्लास का स्वरूप धारण कर लेता है।

ग्लास की विशेष आकृति या बनावट उसका स्वरूप है और उसमें भरा हुआ तरल पदार्थ उसकी अन्तर्वस्तु। इसी प्रकार सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूप और अन्तर्वस्तु में भी अन्तर पाया जाता है, जहाँ ये एक-दूसरे को प्रभावित नहीं करते। जॉर्ज सिमैल का मत है कि समाजशास्त्र में केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का ही अध्ययन किया जाता है। स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की आलोचना स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की आलोचना सोरोकिन तथा फीचर आदि विद्वानों ने की है जो निम्नलिखित हैं
(1) सीमित क्षेत्र-स्वरूपात्मक सम्प्रदाय ने समाजशास्त्र के क्षेत्र को संकुचित कर दिया है।

(2) स्वरूप और अन्तर्वस्त के बीच विभेद असंभव-सोरोकिन का कहना है कि स्वरूप और अन्तर्वस्तु का भेद सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों पर लागू नहीं किया जा सकता है। उस सामाजिक संस्था की कल्पना नहीं की जा सकती, जिसका स्वरूप उसके सदस्यों के बदल जाने के बाद भी नहीं बदलता।

(3) शुद्ध समाजशास्त्र बनाने का असफल प्रयास-स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के समर्थक समाजशास्त्र को अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों से पृथक्, एक स्वतंत्र और शुद्ध विज्ञान बनाना चाहते थे, जिसका होना संभव नहीं है। समाजशास्त्र अन्य सामाजिक विज्ञानों से अलग होकर अस्तित्वहीन हो जाएगा।

2. समन्वयात्मक सम्प्रदाय-समन्वयात्मक सम्प्रदाय के समर्थक विद्वान समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान का दर्जा देना चाहते हैं। ये विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के बीच पायी जाने वाली समानताओं, विशेषताओं का वैज्ञानिक अध्ययन करना ही समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र मानते हैं। इनके अनुसार सभी सामाजिक विज्ञान परस्पर सम्बन्धित हैं और एकदूसरे के विकास एवं प्रगति में सहयोग करते हैं। अतः इस सम्प्रदाय के अनुसार, समाजशास्त्र एक ऐसा विज्ञान है जो सम्पूर्ण मानव समाज को इकाई मानकर अध्ययन करता है और सभी सामाजिक विज्ञानों के मध्य समन्वय भी स्थापित करता है। इस सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक विद्वान हैं-हॉबहाउस, दुर्थीम और सोरोकिन। समन्वयात्मक सम्प्रदाय की आलोचना समन्वयात्मक सम्प्रदाय की प्रमुख आलोचनाओं को निम्नलिखित सूत्रों के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है

(1) समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र को विश्वकोश की तरह बना देना-समन्वयात्मक सम्प्रदाय ने समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र को एक विश्वकोश की तरह बना दिया है जिससे यह अन्य सामाजिक विज्ञानों की खिचड़ी बनकर रह गया है। दूसरे, सभी सामाजिक विज्ञानों के मध्य पाई जाने वाली विशेषताओं को ज्ञात करना बहुत कठिन कार्य है। इनके बीच समन्वय का कार्य तो कल्पना से भी परे है।

(2) स्वतंत्र अस्तित्व की समस्या-सभी सामाजिक विज्ञानों के बीच समन्वय स्थापित करते-करते यह अपना स्वतंत्र अस्तित्व खो देगा। परिणामस्वरूप यह एक मिश्रित विज्ञान बनकर रह जायेगा।

(3) अन्य सामाजिक विज्ञानों से इसके विषय-क्षेत्र को अलग करना आवश्यक-समाजशास्त्र को अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने के लिए, अन्य सामाजिक विज्ञानों से अपने विषय-क्षेत्र को अलग करना पड़ेगा। अगर समाजशास्त्र यह नहीं करेगा तो न तो इसके अध्ययन का दृष्टिकोण तय हो पायेगा और न ही इसकी कोई निश्चित पद्धति विकसित हो पायेगी।

(4) अन्य सामाजिक विज्ञानों पर आश्रित-समाजशास्त्र, सामान्य विज्ञान होने की स्थिति में अपनी स्वतंत्रता खोकर अन्य सामाजिक विज्ञानों पर आश्रित हो जायेगा।

प्रश्न 8. 
समाजशास्त्र के अर्थ और परिभाषा का विस्तारपूर्वक उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
समाजशास्त्र का अर्थ-शाब्दिक अर्थ में समाजशास्त्र दो शब्दों से मिलकर बना है, जिनमें से पहला शब्द 'सोशियस' (Socius) लैटिन तथा दूसरा शब्द 'लोगिया' (Logia) ग्रीक भाषा से लिया गया है। 'सोशियस' का अर्थ है—समाज और लोगिया' का अर्थ है-विज्ञान। इस प्रकार समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ 'समाज का शास्त्र' या 'समाज का विज्ञान' है।

कॉम्टे ने समाजशास्त्र को एक सामाजिक विज्ञान के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। उनके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक प्रघटनाओं के बारे में विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन करने वाला शास्त्र है। समाजशास्त्र की परिभाषा-विभिन्न समाजशास्त्रियों ने समाजशास्त्र की परिभाषा अपने-अपने ढंग से देने का प्रयास किया है। उनमें से कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1. किंग्सले डेविस के अनुसार, "समाजशास्त्र मानव समाज का अध्ययन है।" 
  2. गिडिंग्स के अनुसार, "समाजशास्त्र समग्र रूप से समाज का क्रमबद्ध वर्णन और व्याख्या है।" 
  3. हॉबहाउस के अनुसार, "समाजशास्त्र मानव मस्तिष्क की अन्तःक्रिया का अध्ययन करता है।" 
  4. मैक्स वेबर के मत में, "समाजशास्त्र प्रधानतः सामाजिक सम्बन्धों तथा कृतियों का अध्ययन है।" 
  5. जॉर्ज सिमैल के अनुसार, "समाजशास्त्र मानवीय अन्तःसम्बन्धों के स्वरूपों का विज्ञान है।" ।
  6. गिलिन और गिलिन के अनुसार, "समाजशास्त्र व्यापक अर्थ में व्यक्तियों के एक-दूसरे के सम्पर्क में आने के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली अन्तःक्रियाओं का अध्ययन कहा जा सकता है।"
  7. जॉनसन के अनुसार, "समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का विज्ञान है।" उक्त परिभाषाओं के आधार पर समाजशास्त्र को 'समाज के अध्ययन का विज्ञान' कहा जा सकता है। 

समाजशास्त्र की विशेषताएँ-
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर समाजशास्त्र की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई जा सकती हैं-
(1) यह मानव-समाज का विज्ञान है-समाजशास्त्र मानव-समाज का विज्ञान है। समाजशास्त्र समाज के किसी एक अंग का अध्ययन नहीं करता, बल्कि यह सम्पूर्ण समाज को एक इकाई मानकर, उसका अध्ययन करता है।

(2) यह सामाजिक संस्थाओं का विज्ञान है-समाजशास्त्र सामाजिक संस्थाओं का विज्ञान है। समाजशास्त्रीय विश्लेषण की विशिष्ट इकाई समाज है और परिवार, गिरिजाघर, पाठशाला, राजनीतिक दल आदि ऐसी संस्थाएँ हैं, जो समाजशास्त्र के अध्ययन की सामग्री हैं।

(3) समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है-समाजशास्त्र विभिन्न संस्थाओं के बीच स्थापित हो रहे सामाजिक सम्बन्धों का भी अध्ययन करता है, जैसे-पति-पत्नी के बीच का व्यवहार।।

(4) समाजशास्त्र सामाजिक अन्तःक्रियाओं का व्यवस्थित अध्ययन है-समाजशास्त्र अन्तःक्रियाओं का अध्ययन करता है। जब दो या दो से अधिक व्यक्ति या समूह जागरूक अवस्था में एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं, और एक-दूसरे के व्यवहारों को प्रभावित करते हैं, तो वह अन्तःक्रिया कहलाती है।

(5) समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का अध्ययन है-जॉनसन ने समाजशास्त्र को सामाजिक समूहों का विज्ञान बताया है। यहाँ सामाजिक समूह का तात्पर्य व्यक्तियों के समूह से नहीं है वरन् व्यक्तियों के मध्य उत्पन्न होने वाली अन्तःक्रियाओं की व्यवस्था से है। जॉनसन के अनुसार, समूह के निर्माण में सामाजिक अन्तःक्रियायें आधारभूत इकाई के रूप में कार्य करती हैं।

(6) समाजशास्त्र सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन करता है-सामाजिक व्यवस्था वह क्रिया है जिसके कारण समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और समाज में स्थायित्व आता है। समाजशास्त्र समाज को इस संदर्भ में जानने का प्रयास करता है कि सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कौनसे तत्त्व उत्तरदायी हैं। अगर सामाजिक अव्यवस्था उत्पन्न हो रही है तो उसके कारण जानने और समझने का प्रयास भी समाजशास्त्र की परिधि में सम्पन्न होता है।

प्रश्न 9. 
समाजशास्त्र क्या है? समाजशास्त्र की वैज्ञानिक पद्धति की व्याख्या कीजिये। 
उत्तर:
समाजशास्त्र क्या है?-(इसका उत्तर प्रश्न संख्या 8 के उत्तर में दिया जा चुका है।) समाजशास्त्र की वैज्ञानिक पद्धति समाजशास्त्र के जन्म के समय से ही अगस्त कॉम्टे तथा उनके समर्थक अन्य समाजशास्त्री इस विषय को विज्ञान के रूप में स्थापित करना चाहते थे। इन समाजशास्त्रियों को प्राकृतिक विज्ञानों के अध्ययन की वैज्ञानिक पद्धति, सामाजिक विज्ञानों में वस्तुनिष्ठता और मूल्य निरपेक्षता स्थापित करने के लिए प्रेरित करती रही। वैज्ञानिक अनुसंधान व्यवस्थित, क्रमबद्ध और कुछ खास चरणों से सम्पन्न होता है। इस अध्ययन में आरम्भ से अन्तिम चरण तक अनुसंधानकर्ता को एक निश्चित प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है। इन चरणों को विभिन्न सामाजिक वैज्ञानिकों ने अलग-अलग तरीके से बताने का प्रयास किया है।

पी. वी. यंग ने समाजशास्त्र की वैज्ञानिक पद्धति के अग्रलिखित चार प्रमुख चरणों का उल्लेख किया है कार्यवाहक उपकल्पना का निर्माण-कोई भी अध्ययन प्रारंभ करने से पहले शोधकर्ता के मस्तिष्क में उस समस्या के विवरण का होना अति आवश्यक है, जिसका कि वह अध्ययन करना चाहता है। इसे ही उपकल्पना का निर्माण या समस्या का कथन कहते हैं। कार्यवाहक उपकल्पना पर ही शोधकर्ता वैज्ञानिक विधि से कार्य करना प्रारंभ करता है। उपकल्पना विभिन्न प्रकार की हो सकती है। इसी उपकल्पना की सत्यता की जाँच शोधकर्ता वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग द्वारा करता है।

वह कौन सा देश है जहां समाजशास्त्र विषय का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ था? - vah kaun sa desh hai jahaan samaajashaastr vishay ka adhyayan sarvapratham praarambh hua tha?

(2) सामग्री का अवलोकन व संग्रहण-वैज्ञानिक पद्धति के दूसरे चरण में उपकल्पना या समस्या से सम्बन्धित तथ्यों का संकलन किया जाता है। ये तथ्य अवलोकन, साक्षात्कार, अनुसूची या प्रश्नावली आदि प्रविधियों के प्रयोग से एकत्र किए जाते हैं। तथ्य संकलन की प्रविधि का चयन उपकल्पना के अनुसार किया जाता है। अगर अध्ययन में परीक्षण संभव होता है तो वैज्ञानिक, कारकों को नियंत्रित करके उनकी मात्रा को घटा-बढ़ा कर परीक्षण करता है।

(3) तथ्यों का वर्गीकरण एवं सारणीयन-वैज्ञानिक पद्धति का तीसरा चरण तथ्य संकलन के पश्चात् आरंभ होता है। इस चरण में प्राप्त तथ्यों का वर्गीकरण तथा सारणीयन किया जाता है। तथ्यों को विभिन्न वर्गों या संघों में बांटा जाता है तथा इनके गुणों के आधार पर एकत्र तथ्यों को सारणी के रूप में क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित किया जाता है। सामग्री का सारणीयन करने से उसका वर्णन करना सुगम हो जाता है। 

(4) सामान्यीकरण तथा सिद्धान्त का निर्माण-वैज्ञानिक पद्धति का चौथा चरण सामान्यीकरण या निष्कर्ष का होता है। सामान्यीकरण का आशय प्राप्त तथ्यों के आधार पर किसी सामान्य नियम को ज्ञात करने से है। यदि प्रथम चरण में उपकल्पना का निर्माण किया गया है, तो वैज्ञानिक यहाँ उपकल्पना से सम्बन्धित परिणाम सिद्धान्त रूप में प्रस्तुत करता है। उपकल्पना यदि सत्यापित हो जाती है तो वह सिद्धान्त बन जाती है। उपर्युक्त चार चरणों से गुजरने के बाद ही कोई शोधकर्ता अपने अध्ययन को वैज्ञानिक कह सकता है।

(5) प्रतिवेदन लेखन-उक्त चरणों से गुजरने के बाद वैज्ञानिक का कर्तव्य हो जाता है कि वह प्रतिवेदन लिखे, अर्थात् वह प्रारंभ से लेकर अन्त तक की सम्पूर्ण अनुसंधान प्रक्रिया को उसी स्वरूप में प्रस्तुत करे। अगर अन्य वैज्ञानिक अध्ययन की प्रामाणिकता, विश्वसनीयता एवं सत्यापन की जाँच करना चाहे तो वह प्रतिवेदन में दिए गए तथ्यों की जाँच कर सकता है।

प्रश्न 10. 
समाजशास्त्र की प्रकृति तथा विषय-क्षेत्र की व्याख्या कीजिये। 
उत्तर:
समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति समाजशास्त्र की प्रकृति वैज्ञानिक है। इसकी वैज्ञानिक प्रकृति इस अर्थ में है कि यह अन्वेषण के लिए वस्तुनिष्ठता एवं व्यवस्थित-सिद्धान्तों का सहारा लेती है। यह सामाजिक वास्तविकता का मूल्यांकन एवं विश्लेषण आनुभविक सिद्धान्तों के आधार पर करती है, लेकिन समाजशास्त्र की विषय-वस्तु प्राकृतिक विज्ञानों से भिन्न होने के कारण यह प्राकृतिक विज्ञानों के उपकरणों का प्रयोग नहीं करता है। इसकी विषय-वस्तु मानव-व्यवहार है जो अधिक लचीला तथा परिवर्तनशील होता है। समाजशास्त्र की प्रकृति वैज्ञानिक है। इसका विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है. 

(1) वैज्ञानिक पद्धति के चरणों का प्रयोग-कोई भी विषय वैज्ञानिक तभी कहला सकता है, जब वह अपने अध्ययन के दौरान वैज्ञानिक पद्धति के चरणों का प्रयोग करे। इस दृष्टि से समाजशास्त्र भी वैज्ञानिक कहा जा सकता है, क्योंकि इसका अध्ययन भी वैज्ञानिक पद्धति के विभिन्न चरणों द्वारा सम्पन्न होता है। वैज्ञानिक पद्धति के ये चरण हैं-उपकल्पना का निर्माण, तथ्यों का अवलोकन, संकलन, वर्गीकरण, सारणीयन, विश्लेषण तथा सामान्यीकरण आदि। गुडे तथा हॉट के अनुसार, "समाजशास्त्र में समस्या का अध्ययन ही क्रमबद्ध और व्यवस्थित रूप में नहीं किया जाता बल्कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का निर्माण भी किया जाता है।"

(2)समस्या के चार मौलिक चरणों को ध्यान में रखना-आर. के. मुखर्जी के अनुसार समाजशास्त्र वास्तविकता और सत्यता को जानने के लिए समस्या के चार मौलिक चरणों को ध्यान में रखता है। ये चरण हैं-

  • क्या है? 
  • कैसे है? 
  • क्यों है? तथा 
  • क्या होगा? ।

समाजशास्त्रीय शोध में सामाजिक क्रियाओं का क्या है, कैसे है और क्यों है को ध्यान में रखा जाता है, उनका वर्णन किया जाता है तथा उनकी व्याख्या की जाती है। साथ ही कारकों के कारण-प्रभाव-विश्लेषण के आधार पर 'क्या होगा?' का भी विवेचन किया जाता है। समाजशास्त्र में क्या होना चाहिए, क्या अच्छा है, क्या बुरा है, पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

(3) विज्ञान के तीन प्रमुख लक्षणों का प्रयोग-वैज्ञानिक पद्धति में तीन प्रमुख बातों को ध्यान में रखा जाता है, जिसके कारण यह विज्ञान की परिधि में आती है। ये लक्षण निम्नलिखित हैं -
(i) कारणता-किसी भी परिस्थिति के पीछे कुछ खास कारण होते हैं और उन कारणों के फलस्वरूप समाज या प्रकृति पर प्रभाव पड़ता है। इसे ही हम कारणता कहते हैं।

(ii) आनुभविकता-विज्ञान के अन्तर्गत वैसे ही तथ्यों का अध्ययन किया जाता है, जिसे अध्ययनकर्ता स्वयं अपनी इन्द्रियों की सहायता से एकत्र एवं अवलोकन करता है। ऐसे अध्ययन आनुभविक होते हैं। 

(ii) सार्वभौमिकता-विज्ञान द्वारा किये गए अध्ययन सार्वभौमिक होते हैं। समय, स्थान तथा परिस्थिति में परिवर्तन के बावजूद भी विज्ञान के निष्कर्षों में परिवर्तन नहीं आते। अगर विज्ञान के निष्कर्षों को उसी वैज्ञानिक पद्धति के चरणों का पालन करते हुए दुबारा जांचा जाए तो निष्कर्ष सदैव समान आते हैं। समाजशास्त्र के अध्ययन के दौरान विज्ञान के ये तीन लक्षण-कारणता, आनुभविकता और कुछ हद तक सार्वभौमिकता भी समाजशास्त्रीय निष्कर्षों में पायी जाती है। उपर्युक्त आधारों पर विद्वानों ने समाजशास्त्रीय अध्ययनों की प्रकृति को भी वैज्ञानिक माना है। लेकिन इसकी प्रकृति 'शुद्ध विज्ञान' की न होकर 'सामाजिक विज्ञान' की है। समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र-[समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र का विवेचन प्रश्न संख्या 7 के उत्तर में किया जा चुका है।]

प्रश्न 11. 
'भारत में समाजशास्त्र का उदय' विषय पर एक लेख लिखिये। 
उत्तर:
भारत में समाजशास्त्र का उदय समाजशास्त्र विषय का जन्म 200 वर्ष पूर्व का है, जब अगस्त कॉम्टे ने इसे एक पृथक् विज्ञान के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। भारत में समाजशास्त्र का औपचारिक शुभारंभ अन्य देशों की तुलना में बहुत बाद में हुआ। यूरोप में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही आधुनिक समाजशास्त्र का प्रारंभ हो चुका था। 20वीं सदी के प्रारंभ में अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी व इंग्लैंड ने भी समाजशास्त्रीय अध्ययनों में तेजी से प्रगति प्रारंभ कर दी थी। भारत में समाजशास्त्र का औपचारिक शुभारंभ 1919 से माना जाता है। यथा(अ) 1919 से 1923 तक भारत में समाजशास्त्र का विकास
(1) 1919 में पहली बार एक विषय के रूप में समाजशास्त्र को बम्बई विश्वविद्यालय में प्रो. पैट्रिक गिड्स की देखरेख में पढ़ाना प्रारंभ हुआ। 

(2) 1921 में लखनऊ विश्वविद्यालय ने समाजशास्त्र विषय को मान्यता प्रदान की तथा समाजशास्त्र के पहले भारतीय विद्वान डॉ. राधाकमल मुकर्जी को समाजशास्त्र का प्रोफेसर व विभागाध्यक्ष नियुक्त किया गया।

(3) 1923 में मैसूर व आंध्र विश्वविद्यालय में भी समाजशास्त्र का अध्ययन प्रारंभ हुआ। अभी तक इन विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र की स्थापना एक अलग विषय के रूप में नहीं हो पायी थी। बम्बई विश्वविद्यालय में इसे नागरिकशास्त्र के साथ तथा लखनऊ विश्वविद्यालय में इसे अर्थशास्त्र के साथ सम्बद्ध किया गया था। 

(ब) 1923 से 1947 तक भारत में समाजशास्त्र की विकास यात्रा- सन् 1923 से लेकर स्वतंत्रता से पहले किन्हीं कारणों से भारत में समाजशास्त्र का न तो अधिक विस्तार ही हुआ और न ही इस विषय के पृथक् महत्त्व को ही स्वीकार किया गया। फलस्वरूप सन् 1946 तक इस विषय की विकास यात्रा रुकसी गयी। 

(स) स्वतंत्रता के बाद भारत में समाजशास्त्र का विकास स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समाजशास्त्र का विकास बहुत तीव्र गति से आरंभ हुआ। यथा

(1) सन् 1947 के बाद उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा बिहार आदि राज्यों के विभिन्न विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की गई तथा इसे एक पृथक् विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा। इसके अतिरिक्त दिल्ली, गुजरात, नागपुर, बड़ौदा, कर्नाटक, पंजाब, चेन्नई, कुरुक्षेत्र, उत्तकल विश्वविद्यालयों में भी समाजशास्त्र विषय ने तेजी से लोकप्रियता प्राप्त की।
(2) अनेक स्थानों पर समाजशास्त्री अनुसंधान केन्द्रों की भी स्थापना की गई। इनमें जे. के. इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशियोलॉजी एण्ड सोशल वर्क्स, लखनऊ; यटा इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल साइन्सेज, मुंबई तथा इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल साइन्स, आगरा आदि प्रमुख हैं। यहाँ समाजशास्त्रीय शोधकर्ताओं के लिए शोध की व्यवस्था भी की गई। 

(द) वर्तमान स्थिति-
वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व के समाजशास्त्री समुदाय में भारतीय समाजशास्त्री अपना स्थान रखते हैं। साथ ही भारतीय समाज, वैज्ञानिक अध्ययन के लिए सारे विश्व के समाजशास्त्रियों के दृष्टिकोण में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। आज विदेशी समाजशास्त्री भी भारतीय समाज को अपने अध्ययन का विषय-क्षेत्र बनाने में रुचि दिखा रहे हैं। डॉ. राधाकमल मुकर्जी, डॉ. डी. पी. मुकर्जी, प्रो. ए. के. सरन, डी. एन. मजूमदार, के. एम. कापड़िया, जी. एस. घुरिये, पी. एन. प्रभु, एस. सी. दुबे, एम. एन. श्रीनिवास, ए. आर. देसाई, इरावती कर्वे, आंद्रे बेते तथा योगेन्द्रसिंह के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं जिन्होंने भारत में समाजशास्त्र के विकास के लिए अध्यापन और शोध दोनों ही कार्य किये हैं।

वह कौन सा देश है जहां समाजशास्त्र विषय का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ था? - vah kaun sa desh hai jahaan samaajashaastr vishay ka adhyayan sarvapratham praarambh hua tha?

इस सबके बावजूद भारत में अभी तक समाजशास्त्र का वास्तविक अर्थों में अभ्युदय नहीं हो पाया है। अपने उदय से लेकर वर्तमान तक, भारतीय समाजशास्त्र के विकास में सबसे बड़ी बाधा, पाश्चात्य देशों के प्रति आकर्षण की भावना और उन पर ही आश्रित बने रहने की प्रवृत्ति है। भारतीय समाजशास्त्रीय विषय क्षेत्र भारत में समाजशास्त्र और सामाजिक मानव विज्ञान के बीच कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं है जो कि बहुत सारे पाश्चात्य देशों में इन दोनों विषयों की एक विशेषता के रूप में विद्यमान है। भारत में समाजशास्त्रीय अध्ययनों में जनजातीय समाजों, किसानों, सजातीय समूहों, सामाजिक वर्गों तथा आधुनिक औद्योगिक समाजों का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 12. 
समाजशास्त्र का परिचय दीजिये और इसके उद्भव के कारण बताइये।
उत्तर:
समाजशास्त्र का परिचय-19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हो रहे सामाजिक उथल-पुथल (औद्योगीकरण, नगरीकरण, पूँजीवाद तथा मलिन बस्तियाँ एवं कामगारों की समस्यायें आदि) तथा परिवर्तनों को जानने-समझने तथा उनकी वैज्ञानिक व्याख्या करने के लिए, एक ऐसे सामाजिक विज्ञान की आवश्यकता हुई, जो मनुष्य की समस्त सामाजिक गतिविधियों का अध्ययन एक ही विषय के अन्तर्गत कर सके। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु सन् 1838 में अगस्त कॉम्टे ने सामाजिक विज्ञान की उस शाखा का विकास किया, जो समाजशास्त्र के नाम से जानी गई। अगस्त कॉम्टे ही ऐसे पहले विद्वान थे जिन्होंने समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग 'मानव-समूह विज्ञान' के संदर्भ में किया।

इसके पूर्व समाज का अध्ययन 'सामाजिक-भौतिकी' (Social-physics) के अन्तर्गत किया जाता था। अतः 19वीं सदी में समाजशास्त्र, प्राचीनतम सामाजिक विज्ञान की आधुनिकतम एवं नवीन शाखा के रूप में उदित हुआ, जिसकी आवश्यकता जटिल समाजों एवं विभिन्न सामाजिक प्रघटनाओं को समझने के लिए महसूस की गई। अतः समाजशास्त्र एक आधुनिक सामाजिक विज्ञान है और यह एक शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है। शाब्दिक अर्थ में समाजशास्त्र Socius तथा Logia शब्द से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है-समाज का विज्ञान।

कॉम्टे के अनुसार, समाजशास्त्र सामाजिक प्रघटनाओं के बारे में विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन करने वाला शास्त्र है। यह मानव-समाज का विज्ञान है तथा सामाजिक संस्थाओं का विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है; सामाजिक अन्तःक्रियाओं का व्यवस्थित अध्ययन है, सामाजिक समूहों तथा सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन करता है। समाजशास्त्र के उद्भव के कारण समाज के अध्ययन के लिए एक नवीन सामाजिक विज्ञान 'समाजशास्त्र' का उद्भव 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुआ। इसके उद्भव के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे

(1) पूँजीवाद का प्रारंभ-18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ। समाज सामन्तवादी व्यवस्था से पूँजीवादी व्यवस्था में प्रवेश कर गया। सन् 1789 की फ्रांस की क्रांति ने आम आदमी की विचारधारा में परिवर्तन का सूत्रपात किया। पहली बार स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व का विचार उभरकर सामने आया और लोग अपने अधिकारों के बारे में सजग होने लगे।

(2) औद्योगिक क्रांति-सन् 1800 में इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रांति ने सामाजिक परिवर्तन को तीव्र गति प्रदान की। बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना हुई और सामाजिक-व्यवस्था प्रदत्त से अर्जित में परिवर्तित होने लगी। सामन्तों और शासकों का आधिपत्य कम होने लगा। व्यक्तिगत गुणों का महत्त्व बढ़ा।

(3) नगरीकरण-उद्योगों की आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए लोगों का गाँव से औद्योगिक स्थापना स्थल की ओर प्रस्थान होने लगा। इससे नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई और लोग शहरों के भीड़ भरे वातावरण में रहने लगे। एक नए प्रकार की सामाजिक व्यवस्था तथा सोच का विकास हुआ।

(4) संचार के साधनों में उन्नति-पूँजीवाद, औद्योगीकरण तथा नगरीकरण के परिणामस्वरूप संचार के साधनों में भी अपूर्व उन्नति होने लगी।

(5) नवीन सामाजिक समस्याओं का जन्म-औद्योगीकरण, नगरीकरण अपने साथ नवीन सामाजिक समस्याओं को लेकर आए। मलिन बस्तियाँ बढ़ीं और कारखाने के कामगारों के जीवन विपरीत रूप से प्रभावित हुए। परम्परागत व्यवसाय नष्ट हो गये। यद्यपि समाज की नई सामाजिक संरचना बनी, लेकिन यह नवीन सामाजिक समस्याओं को जन्म लेने से नहीं रोक सकी।

(6) अध्ययन हेतु नवीन विषय की आवश्यकता-उस समय हो रही समाज की उथल-पुथल का व्यवस्थित रूप से अध्ययन करने के लिए एक ऐसे सामाजिक विज्ञान की आवश्यकता महसूस हुई जो मनुष्य की विभिन्न गतिविधियों, परिवर्तनों तथा समस्याओं का एक विषय के अन्तर्गत ही अध्ययन कर सके। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए सन् 1838 में समाजशास्त्र की स्थापना हुई।

प्रश्न 13. 
समाजशास्त्र की रचना में बौद्धिक विचार तथा भौतिक मुददों की भूमिका की विवेचना कीजिये। 
उत्तर:
(अ) बौद्धिक विचारों की समाजशास्त्र की रचना में भूमिका-
समाजशास्त्र की रचना में बौद्धिक विचारों की भूमिका का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया-
(1) सामाजिक विकास की दृष्टि से समाजों के वर्गीकरण का दृष्टिकोण-प्राकृतिक विकास के वैज्ञानिक सिद्धान्तों और प्राचीन यात्रियों द्वारा पूर्व आधुनिक सभ्यताओं की खोज से प्रभावित होकर उपनिवेशी प्रशासकों, समाजशास्त्रियों एवं सामाजिक मानव विज्ञानियों में समाजों के बारे में इस दृष्टिकोण से विचार किया कि उनका विभिन्न प्रकारों में वर्गीकरण किया जाये ताकि सामाजिक विकास के विभिन्न चरणों को पहचाना जा सके। ये लक्षण 19वीं सदी के आरंभिक समाजशास्त्रियों, जैसे-आगस्त कॉम्टे, कार्ल मार्क्स एवं हरबर्ट स्पेंसर के कार्यों में पुनः दृष्टिगोचर हुए। इस आधार पर विभिन्न तरह के समाजों का वर्गीकरण किया गया। जैसे
(अ) आधुनिक काल से पहले के समाजों के प्रकार

  1. शिकारी टोलियाँ एवं संग्रहकर्ता, 
  2. चरवाहे एवं कृषक
  3. कृषक एवं गैर-औद्योगिक सभ्यताएँ। 

(ब) आधुनिक समाजों के प्रकार-जैसे-औद्योगीकृत समाज।
इस प्रकार के क्रमिक विकास का दर्शन यह मानता था कि पश्चिमी संसार आवश्यक रूप से ज्यादा प्रगतिशील एवं सभ्य था। गैर-पश्चिमी समाज को अशिष्ट और कम विकसित समझा जाता था। भारतीय औपनिवेशिक अनुभव को भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए।

(2) उद्विकासवाद-डार्विन के जीव विकास के विचारों का आरंभिक समाजशास्त्रीय विचारों पर दृढ़ प्रभाव पड़ा। इसके तहत समाज की जीवित जैववाद (जीवित प्राणी) से तुलना की जाती थी और इसके क्रमबद्ध विकास को चरणों में तलाशने के प्रयास किये जाते थे जिनकी जैविकी जीवन से तुलना की जा सकती थी। इस प्रकार समाज को सावयव की तरह व्यवस्था के भागों के रूप में देखने के तरीके की पद्धति विकसित हुई, जिसमें व्यवस्था का प्रत्येक अंग एक खास (विशिष्ट) कार्य का निष्पादन करता है। इस विचार ने सामाजिक संस्थाओं, जैसे-परिवार या स्कूल एवं सामाजिक संरचनाओं, जैसे-स्तरीकरण आदि के अध्ययन को बहुत प्रभावित किया। इन बौद्धिक विचारों ने समाजशास्त्र में आनुभविक वास्तविकता के अध्ययन पर बल दिया।

(3) ज्ञानोदय-ज्ञानोदय, एक यूरोपीय बौद्धिक आन्दोलन है जो 17वीं सदी के अंतिम वर्षों तथा 18वीं सदी में चला। इसने कार्य-कारण सम्बन्ध और व्यक्तिवाद पर बल दिया। उस समय यह विश्वास भी दृढ़ हो गया था कि प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धतियों द्वारा मानवीय पहलुओं का अध्ययन किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, गरीबी, जो अभी तक एक प्राकृतिक क्रिया के रूप में मानी जाती थी, उसे सामाजिक समस्या के रूप में देखना आरम्भ किया, जो कि मानवीय उपेक्षा और शोषण का परिणाम है।

इसके अध्ययन का दूसरा तरीका यह था कि सामाजिक सर्वेक्षण किया जाये। यह इस विचार पर आधारित था कि मानवीय प्रक्रियाओं को मापा जा सकता है और इनका वर्गीकरण किया जा सकता है। प्रारंभिक आधुनिक काल के विचारक इसी कारण इस बात से सहमत थे कि ज्ञान में वृद्धि से सभी सामाजिक बुराइयों का समाधान संभव है। अतः यह दृष्टिकोण विकसित हुआ कि समाजशास्त्र मानव कल्याण में योगदान करेगा।

वह कौन सा देश है जहां समाजशास्त्र विषय का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ था? - vah kaun sa desh hai jahaan samaajashaastr vishay ka adhyayan sarvapratham praarambh hua tha?

(ब) भौतिक मुददों की समाजशास्त्र की रचना में भूमिका-
समाजशास्त्र की रचना में जिन भौतिक मुद्दों की प्रमुख भूमिका रही, वे निम्नलिखित हैं-
(1) औद्योगिक क्रांति तथा पूँजीवाद-औद्योगिक क्रांति पूँजीवाद पर आधारित थी। औद्योगिक उत्पादन की उन्नति के पीछे यही पूँजीवादी व्यवस्था एक प्रमुख शक्ति थी। पूँजीवाद में नयी अभिवृत्तियाँ एवं संस्थाएँ विकसित हुईं, जैसे-लाभ आधारित उत्पादन, बाजारों की उत्पादन में प्रमुख साधन की भूमिका, माल, सेवाएँ तथा श्रम का वस्तु बन जाना आदि। इंग्लैंड औद्योगिक क्रांति का केन्द्र था। पूँजीवादी व्यवस्था में श्रम की प्रतिष्ठा कम हो गई, प्रदूषण फैलाने वाले नये औद्योगिक नगरों का विस्तार हुआ तथा भीड़भाड़ वाली गन्दी बस्तियाँ पनपीं। इससे एक नये प्रकार की सामाजिक अन्तःक्रिया का जन्म हुआ।

(2) घड़ी के अनुसार समय के महत्त्व का बढ़ना-नये पूँजीवादी औद्योगिक समाजों में घड़ी के अनुसार समय का महत्त्व बढ़ गया तथा यह सामाजिक संगठन का आधार बन गया। फलस्वरूप 19वीं सदी में मजदूरों की बढ़ती संख्या ने तेजी से घड़ी और कलैंडर के अनुसार अपने को ढालना शुरू किया। कारखानों के उत्पादन ने श्रम को वस्तु बना दिया। इससे समय की पाबंदी, एक तरह की स्थिर रफ्तार, कार्य करने के निश्चित घंटे और हफ्ते के दिन निर्धारित हो गये।

साथ ही घड़ी के कार्य करने की अनिवार्यता पैदा कर दी। नियोक्ता और कर्मचारी दोनों के लिए समय अब धन बन गया, जो खर्च हो जाता है। उपर्युक्त बौद्धिक विचारों तथा भौतिक मुद्दों ने पूँजीवादी औद्योगिक समाज में पूर्ववर्ती समाज से अनेक परिवर्तन कर दिये। नयी सामाजिक संस्थाओं तथा संरचनाओं का विकास हुआ; इससे नवीन सामाजिक समस्यायें सामने आईं। जिनको देखने-समझने के दृष्टिकोणों में परिवर्तन आया तथा इन समस्याओं को नवीन दृष्टिकोणों के प्रकाश में अध्ययन करने के लिए एक नवीन शास्त्र समाजशास्त्र का विकास हुआ।