Rajasthan Board RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 1 समाजशास्त्र एवं समाज Important Questions and Answers. RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 1 समाजशास्त्र एवं समाजबहुविकल्पात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें- निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन
छाँटिये- निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये
उत्तर:
प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न
4. प्रश्न 5. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9.
प्रश्न 10. प्रश्न 11.
प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18.
प्रश्न 19.
प्रश्न 20. प्रश्न 21. प्रश्न 22.
प्रश्न 23. प्रश्न 24. प्रश्न 25. प्रश्न 26. प्रश्न 27. प्रश्न 28. प्रश्न 29. प्रश्न 30. लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. (2) समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों, क्रियाओं तथा व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है, जबकि अर्थशास्त्र में आर्थिक सम्बन्धों, क्रियाओं व व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। (3) समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है, जबकि अर्थशास्त्र एक विशिष्ट विज्ञान है। (4) समाजशास्त्र में घटनाओं की वास्तविक और स्वतन्त्र रूप से व्याख्या की जाती है जबकि अर्थशास्त्र में प्रत्येक घटना का सम्बन्ध आर्थिक कारणों के साथ जोड़ा जाता है। प्रश्न 2. प्रश्न 3.
प्रश्न 4. प्रश्न 5.
प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8.
प्रश्न 9.
प्रश्न 10.
इससे स्पष्ट होता है कि समाजशास्त्र मानवशास्त्र का एक अन्तःसम्बन्धित समग्र के रूप में अध्ययन करता प्रश्न 11. इसका मुख्य कार्य व्यक्तिगत समस्याओं और सामाजिक संरचना के जनहित के मुद्दे के बीच है। जब किसी को व्यक्तिगत या अपने आस-पास के लोगों के साथ सम्बन्ध कठिनाइयों में पड़ जाते हैं, तब वह उसे प्रत्यक्ष या निजी रूप से ज्ञात सीमित सामाजिक दायरे में सुलझाता है। इन मुद्दों का सम्बन्ध व्यक्ति के निजी जीवन और स्थानीय वातावरण से होता है। उदाहरण के लिए समाजशास्त्रीय कल्पना एक गरीब की गरीबी को समझने और इसकी एक जनहित मुद्दे की तरह व्याख्या करने में इस प्रकार सहायता करती है कि समकालीन गरीबी का कारण वर्ग-समाज में असमानता की संरचना है और वे लोग इससे ज्यादा प्रभावित होते हैं जिनकी कार्य की अनियमितता दीर्घकालिक एवं मजदूरी कम है। प्रश्न
12. कुछ विलासिता की जिन्दगी बसर करते हैं, जबकि दूसरे थोड़े से पारिश्रमिक के बदले कठोर परिश्रम करते हैं। कुछ राजनीतिक रूप से शक्तिशाली हैं, लेकिन किसी भी चीज को प्रभावित नहीं कर सकते। कुछ के पास जिन्दगी में आगे बढ़ने के लिए अनेक अवसर हैं; जबकि अन्य के पास अवसरों का नितान्त अभाव है। कुछ के प्रति पुलिस का व्यवहार सम्मानजनक रहता है, जबकि अन्य कुछ के लिए अत्यन्त असम्मानजनक।" भारतीय समाज में असमानता के ये विभिन्न रूप हैं। प्रश्न 13. प्रश्न 14. (2) ज्ञानोदय-18वीं सदी में यूरोप में चले ज्ञानोदय नामक बौद्धिक आन्दोलन ने कारण और व्यक्तिवाद पर बल दिया और यह दृढ़ विश्वास विकसित किया कि प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धतियों द्वारा मानवीय पहलुओं का अध्ययन किया जा सकता है और करना चाहिए। उदाहरण के लिए इसके कारण यह स्पष्ट हुआ कि 'गरीबी' प्राकृतिक क्रिया नहीं है बल्कि एक सामाजिक समस्या है जो मानवीय उपेक्षा तथा शोषण का परिणाम है। इसलिए गरीबी का निराकरण किया जा सकता है। इस प्रकार ज्ञानोदय ने समाजशास्त्र में वैज्ञानिकता, कार्य और कारण सिद्धान्त का विकास किया तथा सामाजिक सर्वेक्षण, वर्गीकरण के द्वारा विश्लेषण पर बल दिया। यही कारण है कि प्रारम्भिक आधुनिक सामाजिक विचारक इस बात से सहमत थे कि ज्ञान में वृद्धि से सभी सामाजिक समस्याओं का समाधान सम्भव है। प्रश्न 15.
इन नगरों की विशेषता थी- प्रश्न 16. (2) पश्चिमी लेखकों द्वारा भारत के समाज का अध्ययन : सामाजिक मानव विज्ञान के रूप में भारत में समाजशास्त्र के विकास में सर्वप्रथम पश्चिमी लेखकों द्वारा भारतीय समाज का अध्ययन किया गया। इसमें इन लेखकों ने भारतीय समाज को पाश्चात्य समाज से एकदम भिन्न बताया। इन्होंने भारतीय गाँवों को अपरिवर्तनीय रूप में
चित्रित किया। उन्होंने 19वीं सदी के भारत में यूरोपियन समाजों का अतीत देखा। इन विद्वानों ने भारतीय समाज का अध्ययन 'सामाजिक मानव विज्ञान' के रूप में किया। (3) किसानों, सजातीय समूहों, सामाजिक वर्गों, प्राचीन सभ्यताओं की विशेषताओं तथा आधुनिक औद्योगिक समाजों का अध्ययन-भारतीय समाजशास्त्रियों ने भारतीय समाजशास्त्र को सामाजिक मानव विज्ञान के अध्ययन से आगे बढ़ाया। सामाजिक मानव-विज्ञान ने पहले आदिम लोगों के अध्ययन का ही स्थान ले रखा
था, धीरे-धीरे बदलकर किसानों, सजातीय समूहों, सामाजिक वर्गों, प्राचीन सभ्यताओं के विभिन्न पक्षों और विशेषताओं एवं आधुनिक औद्योगिक समाजों के अध्ययन पर आ गया। प्रश्न 17. इन सभी में कुछ हद तक साझी रुचियाँ हैं जिनका सभी सामाजिक शास्त्र अपने-अपने दृष्टिकोण से अध्ययन करते हैं। इस प्रकार समाजशास्त्र समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति और समाज की अन्तःक्रियाओं, सामाजिक संस्थाओं तथा सामाजिक संरचनाओं का अध्ययन करता है। यह किसी भी घटना, तथ्य या वस्तु का अध्ययन सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक सम्बन्धों तथा उन पर पड़ने वाले प्रभावों के सन्दर्भ में करता है। निबन्धात्मक प्रश्न प्रश्न 1. यथा प्रत्येक विज्ञान डबलरोटी के किसी एक पक्ष का अध्ययन करने के लिए विशिष्ट अवधारणाओं का प्रयोग करेगा, जैसे-अर्थशास्त्री डबलरोटी का अध्ययन एक उद्योग के रूप में करेगा, जिसमें वह उसके उत्पादन, मांग, उत्पादन लागत, क्रय-विक्रय मूल्य, लाभ अथवा हानि के संदर्भ में देखेगा; जबकि एक पोषाहार-वैज्ञानिक डबलरोटी का अध्ययन स्वास्थ्य पर उसके प्रभाव एवं पोषाहार के संदर्भ में करेगा। एक मनोवैज्ञानिक उसका अध्ययन व्यक्तियों की खानपान की आदतों और व्यवहारों के रूप में करेगा। इतिहासकार डबलरोटी की उत्पत्ति कब और कहाँ हुई तथा किस तरह विभिन्न देशों में इसे अपनाया गया अर्थात् ऐतिहासिक संदर्भ में उसका अध्ययन करेगा, जबकि समाजशास्त्री डबलरोटी का अध्ययन करते समय पति-पत्नी तथा परिवार के अन्य सदस्यों के मध्य सम्बन्धों की व्यवस्था तथा उस पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में विश्लेषण करेगा। समाजशास्त्री किसी घटना व वस्तु का अध्ययन सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक सम्बन्धों पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में करता है, यही समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य है। प्रो नरेन्द्र कुमार सिंघी ने इनके अन्तर को स्पष्ट करते हुए संदर्भ-परिधि पर बल दिया है। प्रो. सिंघी ने एक कुर्सी का उदाहरण देकर इसे स्पष्ट किया है (1) आर्थिक परिप्रेक्ष्य-एक अर्थशास्त्री कुर्सी का अध्ययन उसके क्रय-विक्रय मूल्य, लागत-मूल्य तथा लाभहानि के संदर्भ में करता है। इस प्रकार किसी घटना या वस्तु का अध्ययन आर्थिक परिप्रेक्ष्य में मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं व व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। (2) राजनीतिक परिप्रेक्ष्य-प्रो. सिंघी ने कहा है कि राजनीतिशास्त्री कुर्सी का अध्ययन शक्ति, सत्ता एवं सरकार के प्रतीक के संदर्भ में करता है। अर्थात् जब किसी घटना या वस्तु का अध्ययन शक्ति, सत्ता व सरकार, राज्य आदि के संदर्भ में किया जाता है, तो उसे राजनीतिक परिप्रेक्ष्य कहा जाता है। (3) समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य-एक समाजशास्त्री कुर्सी का अध्ययन एक प्रस्थिति प्रतीक के रूप में करता है। वह यह देखने का प्रयास करता है कि कुर्सी पर बैठने वाले व्यक्ति का पद क्या है, पद के अनुसार उसकी भूमिका क्या, है। आदि यही समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में किसी घटना या वस्तु का अध्ययन सामाजिक व्यवहारों तथा सामाजिक सम्बन्धों के संदर्भ में किया जाता है। (4) मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य-मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य वह है जब किसी व्यक्ति का अध्ययन उसके व्यक्तित्व के संदर्भ में किया जाता है। प्रश्न
2. इसी प्रकार वह एक डबलरोटी का अध्ययन पति-पत्नी तथा परिवार के अन्य सदस्यों के मध्य सम्बन्धों की व्यवस्था तथा उस पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में विश्लेषण करता है और वह एक कुर्सी का अध्ययन इस संदर्भ में करता है कि कुर्सी पर बैठने वाले व्यक्ति का पद (प्रस्थिति) क्या है, पद के अनुसार उसकी भूमिका क्या है तथा कुर्सी किस स्थान पर रखी हुई है? अतः विभिन्न कुर्सियाँ विभिन्न प्रस्थितियों के प्रतीक के रूप में देखी जाती हैं। उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य अध्ययन का एक विशिष्ट दृष्टिकोण है जिसके द्वारा हम विभिन्न सामाजिक घटनाओं, तथ्यों व वस्तुओं का अध्ययन कर सकते हैं। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत हम सामाजिक सम्बन्धों, दो या दो से अधिक व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों, उनसे उत्पन्न प्रभावों व उनके निर्माण की परिस्थितियों आदि का अध्ययन करते हैं। कोई भी घटना, तथ्य अथवा वस्तु सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक मूल्यों, प्रस्थिति, सामाजिक नियंत्रण एवं सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को किस रूप में प्रभावित करती है, आदि का अध्ययन समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत किया जाता है। ई. चिनोय, गुडे एवं हाट, लुंडबर्ग आदि विद्वानों ने समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के इसी पक्ष पर अधिक बल दिया है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की विशेषताएँ समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं (1) वैज्ञानिक प्रकृति-समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की प्रकृति वैज्ञानिक है। यह मानव मानव समाज का वैज्ञानिक पद्धतियों द्वारा कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर विश्लेषण करता है। लेकिन कुछ विद्वान समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की मानविकी प्रकृति को भी स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार समाजशास्त्र में क्या है, क्यों है, के साथ क्या होना चाहिए' और 'किसके लिए?' का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। (2) सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन-समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत मानव समाज का सामाजिक सम्बन्धों की जटिल व्यवस्था के रूप में अध्ययन किया जाता है। सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करते हुए दो या दो से अधिक व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों, उनमें सहयोग अथवा संघर्ष के सम्बन्धों, उनसे उत्पन्न प्रभावों तथा उनके निर्माण की परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाता है। (3) सामाजिक घटनाओं व तथ्यों का सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में विश्लेषण-समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य सामाजिक घटनाओं व तथ्यों आदि का विवेचन सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में करता है। इंकल्स ने लिखा है कि समाज में व्यक्ति सैकड़ों-हजारों प्रकार की क्रियायें प्रतिदिन करते हैं, उन क्रियाओं में एक व्यवस्था पायी जाती है। प्रत्येक व्यक्ति क्रियायें करते हुए दूसरे व्यक्ति के लक्ष्य प्राप्ति को सरल बनाता है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य व्यक्ति की सामाजिक अन्त:क्रियाओं व क्रियाओं का सामाजिक जीवन में व्यवस्था की दृष्टि से अध्ययन करता है। (4) सामाजिक सम्बन्धों आदि को प्रभावित करने के संदर्भ में अध्ययन-समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत कोई भी वस्तु, तथ्य अथवा घटना सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक मूल्यों, प्रस्थिति, सामाजिक प्रक्रिया, सामाजिक नियंत्रण व परिवर्तन आदि को कैसे प्रभावित करती है, का अध्ययन करता है। (5) सामाजिक अव्यवस्था का अध्ययन-समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत सामाजिक जीवन में व्याप्त व्यवस्था के साथ-साथ अव्यवस्था के जनित विचलित व्यवहारों, अपराधों, विघटनकारी सामाजिक समस्याओं आदि का भी अध्ययन किया जाता है। (6) सामाजिक अवधारणाओं के माध्यम से अध्ययन-किसी प्रस्थिति अथवा तथ्य का अध्ययन व विश्लेषण करते समय जब प्रस्थिति और भूमिका, सामाजिक समूह, सामाजिक स्तरीकरण, सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक संरचना व प्रकार्य आदि सामाजिक अवधारणाओं का प्रयोग किया जाता है, तो वह भी समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य है। प्रश्न 3.
वैज्ञानिक अभिमुखन-अधिकांश समाजशास्त्री समाजशास्त्र के वैज्ञानिक अभिमुखन को स्वीकार करते हैं। वैज्ञानिक अभिमुखन से आशय यह है कि सामाजिक प्रघटनाओं का केवल वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाना चाहिए। वैज्ञानिक अभिमुखन के समर्थकों का मानना है मानवीय व्यवहार में कार्य-कारण सम्बन्ध पाया जाता है तथा इसके सम्बन्ध में भविष्यवाणी की जा सकती है। जॉनसन ने किसी भी वैज्ञानिक अध्ययन में चार बातों का होना आवश्यक माना है-
वैज्ञानिक अभिमुखन की प्रक्रिया के अन्तर्गत अध्ययनकर्ता को वैज्ञानिक अध्ययन पद्धति के आवश्यक चरणों, जैसे-समस्या का चुनाव प्राक्कल्पना का निर्माण; तथ्यों का संकलन, वर्गीकरण, सारणीयन तथा विश्लेषण; निष्कर्षीकरण, सामान्यीकरण एवं सिद्धान्तों का प्रतिपादन आदि कैसे किया जाये, इसके बारे में जानकारी दी जाती है। वैज्ञानिक रूप में समाजशास्त्री अध्ययन करते समय नैतिकतामुक्त अर्थात् पूर्णतया तटस्थ होते हैं। उनके लिए कोई भी सामाजिक घटना या तथ्य अच्छे या बुरे नहीं होते हैं। घटनाएँ 'जो हैं', 'जैसी हैं', उनका उसी रूप में अध्ययन व विश्लेषण तथा अध्ययनकर्ता के व्यक्तिगत मूल्यों का अध्ययन में समावेश न होना ही वैज्ञानिक अभिमुखन की विशेषता वैज्ञानिक अभिमुखन की विशेषताएँ समाजशास्त्र में वैज्ञानिक अभिमुखन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
वैज्ञानिक अभिमुखन के समर्थक समाजशास्त्र में वैज्ञानिक अभिमुखन के प्रमुख समर्थकों के विचारों को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है -
(2) हर्बर्ट स्पेंसर-हरबर्ट स्पेंसर ने कॉम्टे के वैज्ञानिक अभिमुखन के विचारों को आगे बढ़ाया। यथा
(3) इमाइल दुखीम-दुर्थीम के अनुसार यदि कोई समाजशास्त्री वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य के अनुसार सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करता है तो उसे सामाजिक तथ्यों को वस्तुओं के समान समझकर तथा सभी पूर्व-धारणाओं से मुक्त रहकर अध्ययन करना चाहिए। इनके अनुसार समाजशास्त्र एक प्रत्यक्ष, यथार्थ व आनुभविक विज्ञान है। दुर्थीम ने धर्म, श्रम-विभाजन, अपराध और आत्महत्या जैसी सामाजिक प्रघटनाओं का वैज्ञानिक आधार पर अध्ययन प्रस्तुत किया। (4) मैक्स वेबर-वेबर के अनुसार समाजशास्त्री को सामाजिक घटनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए केवल . 'क्या है' का अध्ययन करना चाहिए तथा मूल्यांकनात्मक निर्णयों अर्थात् 'क्या होना चाहिए' से बचना चाहिए। वेबर ने मानवीय सम्बन्धों व क्रियाओं के वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य से अध्ययन करने के लिए एक विशेष अध्ययन पद्धति 'वरस्तेहेन' (Verstehen) का विकास किया। वेबर ने सामाजिक क्रिया, आदर्श प्रारूप, सत्ता, नौकरशाही, धर्म का समाजशास्त्र तथा पूँजीवाद की अवधारणाओं का विकास किया है जिनके अध्ययन द्वारा समाजशास्त्रियों के ज्ञान का वैज्ञानिक अभिमुखन होता है। (5) टाल्कट पारसन्स-
(6) राबर्ट के. मर्टन-
प्रश्न 4. (2) अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र दोनों के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध है-अर्थशास्त्र व समाजशास्त्र दोनों परस्पर पूरक हैं, दोनों के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। यथा
(3) अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के मध्य अन्तर-यद्यपि अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध हैं, तथापि दोनों में
पर्याप्त अन्तर है। यथा (ii) अर्थशास्त्र में मानव के आर्थिक सम्बन्धों, क्रियाओं और व्यवहारों के अध्ययन पर बल दिया जाता है, जबकि समाजशास्त्र में मानव के सामाजिक सम्बन्धों, क्रियाओं और व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। (iii) समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है, जबकि अर्थशास्त्र एक विशिष्ट विज्ञान है। समाजशास्त्र मानव समाज के सभी पक्षों का समग्र रूप में अध्ययन करता है, जबकि अर्थशास्त्र मानव समाज के केवल आर्थिक पक्षों का ही अध्ययन करता है। .. (iv) समाजशास्त्र में घटनाओं की वास्तविक और स्वतंत्र रूप से व्याख्या की जाती है, जबकि अर्थशास्त्र में प्रत्येक घटना का सम्बन्ध आर्थिक कारणों के साथ जोड़ा जाता है। समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में भी घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। इसका विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के
अन्तर्गत किया गया है - (2) समाजशास्त्र से आशय-समाजशास्त्र वह सामाजिक विज्ञान है जो मानव की क्रियाओं व व्यवहारों का अध्ययन समग्रता में करता है तथापि इसकी अधिक रुचि सामाजिक संस्थाओं या संस्थाओं के सामाजिक पक्षों के अध्ययन में है। सत्ता का अध्ययन समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में समाजशास्त्र में भी किया जाता है। (3) समाजशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है-समाजशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। इसे निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है
(4) समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में अन्तर-यद्यपि समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है, तथापि दोनों एक ही नहीं हैं, इनमें निम्नलिखित अन्तर भी हैं
प्रश्न 5. (2) समाजशास्त्र से आशय-समाजशास्त्र समकालीन घटनाओं व वर्तमान समाज-व्यवस्थाओं का अध्ययन करता है। यह भूतकालीन समाजों की पृष्ठभूमि में वर्तमान समाज का अध्ययन करता है। (3) इतिहास और समाजशास्त्र के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है-इतिहास और समाजशास्त्र दोनों के . मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। इसका विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है (ii) समाजशास्त्र में इतिहास द्वारा प्राप्त सामग्री का उपयोग किया जाता है। अगस्त कॉम्टे, स्पेन्सर, दुर्थीम आदि समाजशास्त्रियों ने अपने अध्ययनों में इतिहास से प्राप्त सामग्री का उपयोग किया है। सामाजिक मानवशास्त्र और समाजशास्त्र में तथ्यों एवं घटनाओं के विश्लेषण के लिए ऐतिहासिक पद्धति का भी उपयोग किया जाता है। (iii) इतिहासकारों पर भी समाजशास्त्र का प्रभाव पाया जाता है। अनेक इतिहासकारों, जैसे टॉयनबी, स्पेंगलर आदि ने समाजशास्त्र के प्रभाव के फलस्वरूप सामाजिक इतिहास लिखा है जिसमें सामाजिक सम्बन्धों, प्रतिमानों, संस्थाओं एवं रूढ़ियों के क्रमिक विकास का अध्ययन किया गया है। (iv) इतिहास भूतकालीन समाजों का अध्ययन करता है और समाजशास्त्र वर्तमान समाजों का अध्ययन करता है। किन्तु वर्तमान समाज को समझने के लिए भूतकालीन समाजों का समझना आवश्यक होता है और यह ज्ञान हमें इतिहास से मिलता है। भूतकाल के समाज को समझे बिना वर्तमान समाज का सही विश्लेषण नहीं किया जा सकता। (v) दोनों सामाजिक विज्ञान हैं तथा दोनों ही मानवीय व्यवहारों व सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करते हैं। (4) इतिहास तथा समाजशास्त्र में अन्तर-यद्यपि इतिहास और समाजशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है, तथापि दोनों विषय एक ही नहीं हैं, दोनों में पर्याप्त
अन्तर हैं। इन अन्तरों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है (ii) समाजशास्त्री आधुनिक या समकालीन समाजों व घटनाओं के अध्ययन में रुचि रखता है, जबकि इतिहासकार भूतकाल की घटनाओं के अध्ययन तक ही सीमित रहता है। (iii) इतिहास भूतकालीन मूर्त तथ्यों का अध्ययन करता है, जबकि समाजशास्त्र अमूर्त तथ्यों व घटनाओं का अध्ययन करता है। पार्क के शब्दों में इतिहास मानव अनुभवों और मानव प्रकृति का मूर्त एवं समाजशास्त्र अमूर्त विज्ञान है। (iv) दोनों में पद्धतिशास्त्रीय अन्तर विद्यमान है। इतिहास की पद्धति ऐतिहासिक है जो कि विवरणात्मकता पर बल देती है। समाजशास्त्र की अध्ययन पद्धति विश्लेषणात्मक है। इसलिए समाजशास्त्र में वैज्ञानिक, विश्लेषणात्मक, ऐतिहासिक, तुलनात्मक एवं सांख्यिकीय पद्धतियों का उपयोग किया जाता है। (v) समाजशास्त्र समाज के बारे में सामान्यीकरण करता है, जबकि इतिहास विशिष्टीकरण पर आधारित है। (1) मनोविज्ञान से आशय-मनोविज्ञान को प्रायः मस्तिष्क और मानसिक प्रक्रियाओं का विज्ञान कहा जाता है जिसका केन्द्रीय अध्ययन-बिन्दु व्यक्ति तथा व्यक्तित्व है। यह मुख्यतः व्यक्ति के व्यवहार तथा व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं, जैसे—संवेगों, प्रेरकों, बोध तथा सीखना आदि का अध्ययन करना है। पारसन्स के अनुसार मनोविज्ञान व्यक्तित्व-व्यवस्था का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। (2) समाजशास्त्र-समाजशास्त्र सामाजिक-व्यवस्था का अध्ययन है। इसका केन्द्रीय विषय समाज और सामाजिक व्यवस्था है। (3) मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में सम्बन्ध-मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यथा- (ii) सामाजिक मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन अन्य व्यक्तियों के संदर्भ में करता है। यह विज्ञान सामूहिक परिस्थितियों में व्यक्ति के अध्ययन से सम्बन्धित है। सामाजिक मनोविज्ञान में व्यक्ति और समाज दोनों का अध्ययन और व्याख्या की जाती है। (iii) व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण का आधार केवल उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमताएँ ही नहीं हैं, बल्कि उसकी सामाजिक परिस्थितियाँ भी महत्त्वपूर्ण होती हैं। समाज, सभ्यता और संस्कृति के बीच ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण व विकास होता है। इस प्रकार सामाजिक मनोविज्ञान, मनोविज्ञान और समाजशास्त्र दोनों को संयुक्त करता है। (4) मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में अन्तर-मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं (ii) विषय-क्षेत्र की दृष्टि से मनोविज्ञान का क्षेत्र समाजशास्त्र के क्षेत्र से सीमित है। मनोविज्ञान केवल व्यक्ति के मानसिक पक्षों का अध्ययन करता है, जबकि समाजशास्त्र समाज का समग्र रूप में अध्ययन करता है। (iii) समाजशास्त्र के अध्ययन का केन्द्र-बिन्दु समाज और सामाजिक व्यवस्था है, जबकि मनोविज्ञान व्यक्ति और उसके व्यक्तित्व का अध्ययन करता है। (iv) दोनों शास्त्रों की अध्ययन पद्धतियों में भी भिन्नता है। मनोविज्ञान में जहाँ मनोवैज्ञानिक परीक्षण, निरीक्षण एवं प्रयोग विशेष रूप से किये जाते हैं; वहाँ समाजशास्त्र में ऐतिहासिक, संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक, तुलनात्मक, सांख्यिकी, वैयक्तिक अध्ययन पद्धति आदि को अपनाया जाता है। प्रश्न 6. इन्होंने तटस्थ रूप से इन समाजों का अध्ययन किया। लेकिन अब समय बदल गया है। अब जनजातीय सरल समाजों के मूल निवासी अपने समाजों के बारे में बोलने लगे हैं तथा लिखने लगे हैं। दूसरे, आधुनिकता की प्रक्रिया में छोटे से छोटा गाँव भी भूमंडलीय प्रक्रियाओं से प्रभावित हुआ। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है-उपनिवेशवाद। ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौरान भारत के अत्यधिक दूरस्थ गाँवों में भी अनेक परिवर्तन आये, जैसे-प्रशासन और भूमि कानूनों में परिवर्तन, राजस्व उगाही में परिवर्तन तथा उनके उत्पादन उद्योगों का समाप्त होना आदि। समकालीन भूमंडलीय प्रक्रियाओं ने समूचे विश्व को छोटा कर दिया है। इन कारणों से इस मान्यता में अन्तर आया है कि एक सरल समाज सीमित समाज है, बल्कि इसमें भी परिवर्तन हो रहे हैं। सामाजिक मानव विज्ञान और समाजशास्त्र में अन्तर सामाजिक मानव विज्ञान और समाजशास्त्र में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं (1) सामाजिक मानव विज्ञान की प्रवृत्ति सरल समाज के सभी पक्षों का एक समग्र में अध्ययन करने की होती थी। अभी तक सामाजिक मानव विज्ञान में क्षेत्रीय अध्ययन किये जाते रहे हैं; जैसे-अंडमान द्वीप समूह, नूअर अथवा मेलैनेसिया का अध्ययन आदि। दूसरी तरफ, समाजशास्त्री जटिल समाजों का अध्ययन करते हैं । अतः समाज के भागों, जैसे-नौकरशाही, धर्म या जाति या एक प्रक्रिया पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। (2) सामाजिक मानव विज्ञान की विशेषताएँ हैं-लम्बी क्षेत्रीय कार्य परम्परा, समुदाय में रहकर अध्ययन करना तथा अनुसंधान की नृजातीय पद्धतियों का उपयोग। दूसरी तरफ समाजशास्त्री प्रायः सांख्यिकी एवं प्रश्नावली विधि का प्रयोग करते हुए सर्वेक्षण पद्धति एवं संख्यात्मक आंकड़ों पर निर्भर करते हैं। दोनों में सम्बन्ध-
प्रश्न 7. समाजशास्त्र की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
अतः स्पष्ट है कि समाजशास्त्र मनुष्य के सामाजिक जीवन, समूहों और समाजों का अध्ययन है। एक सामाजिक प्राणी की तरह मनुष्य का व्यवहार इसकी विषय-वस्तु है। अन्य सामाजिक विज्ञान भी मनुष्य के व्यवहार, सामाजिक जीवन, समूहों का अध्ययन करते हैं । अतः समाजशास्त्र का मुख्य सरोकार उस तरीके से है जिसके तहत वे वास्तविक सभाओं में कार्य करते हैं। दूसरे शब्दों में समाजों का आनुभाविक अध्ययन समाजशास्त्रियों के अध्ययन का केन्द्रीय विषय है। समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के बारे में दो सम्प्रदाय प्रचलित हैं 1. स्वरूपात्मक सम्प्रदाय-स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के विशिष्ट स्वरूपों का अमूर्त दृष्टिकोण से अध्ययन करता है। इस सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थकों में जार्ज सिमैल टानीज, मैक्स वेबर आदि प्रमुख हैं। जार्ज सिमैल के अनुसार किसी भी सामाजिक घटना को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
सिमैल के अनुसार सामाजिक सम्बन्धों की अन्तर्वस्तु का अध्ययन तो विभिन्न सामाजिक विज्ञानों में होता है, लेकिन सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन इन विज्ञानों में नहीं होता है। अतः समाजशास्त्र को विशेष विज्ञान बनाने के लिए इन्होंने इसके विषय-क्षेत्र के रूप में सामाजिक घटनाओं के स्वरूप को लिया है। इस सम्प्रदाय के मानने वालों के लिए अन्तर्वस्तु का कोई महत्त्व नहीं है। उदाहरण के लिए, किसी खाली ग्लास में पानी, शराब, दूध आदि कुछ भी भर दिया जाए, वह ग्लास का स्वरूप धारण कर लेता है। ग्लास की विशेष आकृति या बनावट उसका स्वरूप है और उसमें भरा हुआ तरल पदार्थ उसकी अन्तर्वस्तु। इसी प्रकार सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूप और अन्तर्वस्तु में भी अन्तर पाया जाता है, जहाँ ये एक-दूसरे को प्रभावित नहीं करते। जॉर्ज सिमैल का मत है कि समाजशास्त्र में केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का ही अध्ययन किया जाता है। स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की
आलोचना स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की आलोचना सोरोकिन तथा फीचर आदि विद्वानों ने की है जो निम्नलिखित हैं (2) स्वरूप और अन्तर्वस्त के बीच विभेद असंभव-सोरोकिन का कहना है कि स्वरूप और अन्तर्वस्तु का भेद सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों पर लागू नहीं किया जा सकता है। उस सामाजिक संस्था की कल्पना नहीं की जा सकती, जिसका स्वरूप उसके सदस्यों के बदल जाने के बाद भी नहीं बदलता। (3) शुद्ध समाजशास्त्र बनाने का असफल प्रयास-स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के समर्थक समाजशास्त्र को अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों से पृथक्, एक स्वतंत्र और शुद्ध विज्ञान बनाना चाहते थे, जिसका होना संभव नहीं है। समाजशास्त्र अन्य सामाजिक विज्ञानों से अलग होकर अस्तित्वहीन हो जाएगा। 2. समन्वयात्मक सम्प्रदाय-समन्वयात्मक सम्प्रदाय के समर्थक विद्वान समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान का दर्जा देना चाहते हैं। ये विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के बीच पायी जाने वाली समानताओं, विशेषताओं का वैज्ञानिक अध्ययन करना ही समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र मानते हैं। इनके अनुसार सभी सामाजिक विज्ञान परस्पर सम्बन्धित हैं और एकदूसरे के विकास एवं प्रगति में सहयोग करते हैं। अतः इस सम्प्रदाय के अनुसार, समाजशास्त्र एक ऐसा विज्ञान है जो सम्पूर्ण मानव समाज को इकाई मानकर अध्ययन करता है और सभी सामाजिक विज्ञानों के मध्य समन्वय भी स्थापित करता है। इस सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक विद्वान हैं-हॉबहाउस, दुर्थीम और सोरोकिन। समन्वयात्मक सम्प्रदाय की आलोचना समन्वयात्मक सम्प्रदाय की प्रमुख आलोचनाओं को निम्नलिखित सूत्रों के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है (1) समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र को विश्वकोश की तरह बना देना-समन्वयात्मक सम्प्रदाय ने समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र को एक विश्वकोश की तरह बना दिया है जिससे यह अन्य सामाजिक विज्ञानों की खिचड़ी बनकर रह गया है। दूसरे, सभी सामाजिक विज्ञानों के मध्य पाई जाने वाली विशेषताओं को ज्ञात करना बहुत कठिन कार्य है। इनके बीच समन्वय का कार्य तो कल्पना से भी परे है। (2) स्वतंत्र अस्तित्व की समस्या-सभी सामाजिक विज्ञानों के बीच समन्वय स्थापित करते-करते यह अपना स्वतंत्र अस्तित्व खो देगा। परिणामस्वरूप यह एक मिश्रित विज्ञान बनकर रह जायेगा। (3) अन्य सामाजिक विज्ञानों से इसके विषय-क्षेत्र को अलग करना आवश्यक-समाजशास्त्र को अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने के लिए, अन्य सामाजिक विज्ञानों से अपने विषय-क्षेत्र को अलग करना पड़ेगा। अगर समाजशास्त्र यह नहीं करेगा तो न तो इसके अध्ययन का दृष्टिकोण तय हो पायेगा और न ही इसकी कोई निश्चित पद्धति विकसित हो पायेगी। (4) अन्य सामाजिक विज्ञानों पर आश्रित-समाजशास्त्र, सामान्य विज्ञान होने की स्थिति में अपनी स्वतंत्रता खोकर अन्य सामाजिक विज्ञानों पर आश्रित हो जायेगा। प्रश्न
8. कॉम्टे ने समाजशास्त्र को एक सामाजिक विज्ञान के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। उनके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक प्रघटनाओं के बारे में विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन करने वाला शास्त्र है। समाजशास्त्र की परिभाषा-विभिन्न समाजशास्त्रियों ने समाजशास्त्र की परिभाषा अपने-अपने ढंग से देने का प्रयास किया है। उनमें से कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
समाजशास्त्र की विशेषताएँ- (2) यह सामाजिक संस्थाओं का विज्ञान है-समाजशास्त्र सामाजिक संस्थाओं का विज्ञान है। समाजशास्त्रीय विश्लेषण की विशिष्ट इकाई समाज है और परिवार, गिरिजाघर, पाठशाला, राजनीतिक दल आदि ऐसी संस्थाएँ हैं, जो समाजशास्त्र के अध्ययन की सामग्री हैं। (3) समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है-समाजशास्त्र विभिन्न संस्थाओं के बीच स्थापित हो रहे सामाजिक सम्बन्धों का भी अध्ययन करता है, जैसे-पति-पत्नी के बीच का व्यवहार।। (4) समाजशास्त्र सामाजिक अन्तःक्रियाओं का व्यवस्थित अध्ययन है-समाजशास्त्र अन्तःक्रियाओं का अध्ययन करता है। जब दो या दो से अधिक व्यक्ति या समूह जागरूक अवस्था में एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं, और एक-दूसरे के व्यवहारों को प्रभावित करते हैं, तो वह अन्तःक्रिया कहलाती है। (5) समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का अध्ययन है-जॉनसन ने समाजशास्त्र को सामाजिक समूहों का विज्ञान बताया है। यहाँ सामाजिक समूह का तात्पर्य व्यक्तियों के समूह से नहीं है वरन् व्यक्तियों के मध्य उत्पन्न होने वाली अन्तःक्रियाओं की व्यवस्था से है। जॉनसन के अनुसार, समूह के निर्माण में सामाजिक अन्तःक्रियायें आधारभूत इकाई के रूप में कार्य करती हैं। (6) समाजशास्त्र सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन करता है-सामाजिक व्यवस्था वह क्रिया है जिसके कारण समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और समाज में स्थायित्व आता है। समाजशास्त्र समाज को इस संदर्भ में जानने का प्रयास करता है कि सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कौनसे तत्त्व उत्तरदायी हैं। अगर सामाजिक अव्यवस्था उत्पन्न हो रही है तो उसके कारण जानने और समझने का प्रयास भी समाजशास्त्र की परिधि में सम्पन्न होता है। प्रश्न 9. पी. वी. यंग ने समाजशास्त्र की वैज्ञानिक पद्धति के अग्रलिखित चार प्रमुख चरणों का उल्लेख किया है कार्यवाहक उपकल्पना का निर्माण-कोई भी अध्ययन प्रारंभ करने से पहले शोधकर्ता के मस्तिष्क में उस समस्या के विवरण का होना अति आवश्यक है, जिसका कि वह अध्ययन करना चाहता है। इसे ही उपकल्पना का निर्माण या समस्या का कथन कहते हैं। कार्यवाहक उपकल्पना पर ही शोधकर्ता वैज्ञानिक विधि से कार्य करना प्रारंभ करता है। उपकल्पना विभिन्न प्रकार की हो सकती है। इसी उपकल्पना की सत्यता की जाँच शोधकर्ता वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग द्वारा करता है। (2) सामग्री का अवलोकन व संग्रहण-वैज्ञानिक पद्धति के दूसरे चरण में उपकल्पना या समस्या से सम्बन्धित तथ्यों का संकलन किया जाता है। ये तथ्य अवलोकन, साक्षात्कार, अनुसूची या प्रश्नावली आदि प्रविधियों के प्रयोग से एकत्र किए जाते हैं। तथ्य संकलन की प्रविधि का चयन उपकल्पना के अनुसार किया जाता है। अगर अध्ययन में परीक्षण संभव होता है तो वैज्ञानिक, कारकों को नियंत्रित करके उनकी मात्रा को घटा-बढ़ा कर परीक्षण करता है। (3) तथ्यों का वर्गीकरण एवं सारणीयन-वैज्ञानिक पद्धति का तीसरा चरण तथ्य संकलन के पश्चात् आरंभ होता है। इस चरण में प्राप्त तथ्यों का वर्गीकरण तथा सारणीयन किया जाता है। तथ्यों को विभिन्न वर्गों या संघों में बांटा जाता है तथा इनके गुणों के आधार पर एकत्र तथ्यों को सारणी के रूप में क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित किया जाता है। सामग्री का सारणीयन करने से उसका वर्णन करना सुगम हो जाता है। (4) सामान्यीकरण तथा सिद्धान्त का निर्माण-वैज्ञानिक पद्धति का चौथा चरण सामान्यीकरण या निष्कर्ष का होता है। सामान्यीकरण का आशय प्राप्त तथ्यों के आधार पर किसी सामान्य नियम को ज्ञात करने से है। यदि प्रथम चरण में उपकल्पना का निर्माण किया गया है, तो वैज्ञानिक यहाँ उपकल्पना से सम्बन्धित परिणाम सिद्धान्त रूप में प्रस्तुत करता है। उपकल्पना यदि सत्यापित हो जाती है तो वह सिद्धान्त बन जाती है। उपर्युक्त चार चरणों से गुजरने के बाद ही कोई शोधकर्ता अपने अध्ययन को वैज्ञानिक कह सकता है। (5) प्रतिवेदन लेखन-उक्त चरणों से गुजरने के बाद वैज्ञानिक का कर्तव्य हो जाता है कि वह प्रतिवेदन लिखे, अर्थात् वह प्रारंभ से लेकर अन्त तक की सम्पूर्ण अनुसंधान प्रक्रिया को उसी स्वरूप में प्रस्तुत करे। अगर अन्य वैज्ञानिक अध्ययन की प्रामाणिकता, विश्वसनीयता एवं सत्यापन की जाँच करना चाहे तो वह प्रतिवेदन में दिए गए तथ्यों की जाँच कर सकता है। प्रश्न
10. (1) वैज्ञानिक पद्धति के चरणों का प्रयोग-कोई भी विषय वैज्ञानिक तभी कहला सकता है, जब वह अपने अध्ययन के दौरान वैज्ञानिक पद्धति के चरणों का प्रयोग करे। इस दृष्टि से समाजशास्त्र भी वैज्ञानिक कहा जा सकता है, क्योंकि इसका अध्ययन भी वैज्ञानिक पद्धति के विभिन्न चरणों द्वारा सम्पन्न होता है। वैज्ञानिक पद्धति के ये चरण हैं-उपकल्पना का निर्माण, तथ्यों का अवलोकन, संकलन, वर्गीकरण, सारणीयन, विश्लेषण तथा सामान्यीकरण आदि। गुडे तथा हॉट के अनुसार, "समाजशास्त्र में समस्या का अध्ययन ही क्रमबद्ध और व्यवस्थित रूप में नहीं किया जाता बल्कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का निर्माण भी किया जाता है।" (2)समस्या के चार मौलिक चरणों को ध्यान में रखना-आर. के. मुखर्जी के अनुसार समाजशास्त्र वास्तविकता और सत्यता को जानने के लिए समस्या के चार मौलिक चरणों को ध्यान में रखता है। ये चरण हैं-
समाजशास्त्रीय शोध में सामाजिक क्रियाओं का क्या है, कैसे है और क्यों है को ध्यान में रखा जाता है, उनका वर्णन किया जाता है तथा उनकी व्याख्या की जाती है। साथ ही कारकों के कारण-प्रभाव-विश्लेषण के आधार पर 'क्या होगा?' का भी विवेचन किया जाता है। समाजशास्त्र में क्या होना चाहिए, क्या अच्छा है, क्या बुरा है, पर ध्यान नहीं दिया जाता है। (3) विज्ञान के तीन प्रमुख लक्षणों का प्रयोग-वैज्ञानिक पद्धति में तीन प्रमुख बातों को ध्यान में रखा जाता है, जिसके
कारण यह विज्ञान की परिधि में आती है। ये लक्षण निम्नलिखित हैं - (ii) आनुभविकता-विज्ञान के अन्तर्गत वैसे ही तथ्यों का अध्ययन किया जाता है, जिसे अध्ययनकर्ता स्वयं अपनी इन्द्रियों की सहायता से एकत्र एवं अवलोकन करता है। ऐसे अध्ययन आनुभविक होते हैं। (ii) सार्वभौमिकता-विज्ञान द्वारा किये गए अध्ययन सार्वभौमिक होते हैं। समय, स्थान तथा परिस्थिति में परिवर्तन के बावजूद भी विज्ञान के निष्कर्षों में परिवर्तन नहीं आते। अगर विज्ञान के निष्कर्षों को उसी वैज्ञानिक पद्धति के चरणों का पालन करते हुए दुबारा जांचा जाए तो निष्कर्ष सदैव समान आते हैं। समाजशास्त्र के अध्ययन के दौरान विज्ञान के ये तीन लक्षण-कारणता, आनुभविकता और कुछ हद तक सार्वभौमिकता भी समाजशास्त्रीय निष्कर्षों में पायी जाती है। उपर्युक्त आधारों पर विद्वानों ने समाजशास्त्रीय अध्ययनों की प्रकृति को भी वैज्ञानिक माना है। लेकिन इसकी प्रकृति 'शुद्ध विज्ञान' की न होकर 'सामाजिक विज्ञान' की है। समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र-[समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र का विवेचन प्रश्न संख्या 7 के उत्तर में किया जा चुका है।] प्रश्न 11. (2) 1921 में लखनऊ विश्वविद्यालय ने समाजशास्त्र विषय को मान्यता प्रदान की तथा समाजशास्त्र के पहले भारतीय विद्वान डॉ. राधाकमल मुकर्जी को समाजशास्त्र का प्रोफेसर व विभागाध्यक्ष नियुक्त किया गया। (3) 1923 में मैसूर व आंध्र विश्वविद्यालय में भी समाजशास्त्र का अध्ययन प्रारंभ हुआ। अभी तक इन विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र की स्थापना एक अलग विषय के रूप में नहीं हो पायी थी। बम्बई विश्वविद्यालय में इसे नागरिकशास्त्र के साथ तथा लखनऊ विश्वविद्यालय में इसे अर्थशास्त्र के साथ सम्बद्ध किया गया था। (ब) 1923 से 1947 तक भारत में समाजशास्त्र की विकास यात्रा- सन् 1923 से लेकर स्वतंत्रता से पहले किन्हीं कारणों से भारत में समाजशास्त्र का न तो अधिक विस्तार ही हुआ और न ही इस विषय के पृथक् महत्त्व को ही स्वीकार किया गया। फलस्वरूप सन् 1946 तक इस विषय की विकास यात्रा रुकसी गयी। (स) स्वतंत्रता के बाद भारत में समाजशास्त्र का विकास स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समाजशास्त्र का विकास बहुत तीव्र गति से आरंभ हुआ। यथा (1) सन् 1947 के बाद उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा बिहार आदि राज्यों के विभिन्न विश्वविद्यालयों में
समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की गई तथा इसे एक पृथक् विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा। इसके अतिरिक्त दिल्ली, गुजरात, नागपुर, बड़ौदा, कर्नाटक, पंजाब, चेन्नई, कुरुक्षेत्र, उत्तकल विश्वविद्यालयों में भी समाजशास्त्र विषय ने तेजी से लोकप्रियता प्राप्त की। (द) वर्तमान स्थिति- इस सबके बावजूद भारत में अभी तक समाजशास्त्र का वास्तविक अर्थों में अभ्युदय नहीं हो पाया है। अपने उदय से लेकर वर्तमान तक, भारतीय समाजशास्त्र के विकास में सबसे बड़ी बाधा, पाश्चात्य देशों के प्रति आकर्षण की भावना और उन पर ही आश्रित बने रहने की प्रवृत्ति है। भारतीय समाजशास्त्रीय विषय क्षेत्र भारत में समाजशास्त्र और सामाजिक मानव विज्ञान के बीच कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं है जो कि बहुत सारे पाश्चात्य देशों में इन दोनों विषयों की एक विशेषता के रूप में विद्यमान है। भारत में समाजशास्त्रीय अध्ययनों में जनजातीय समाजों, किसानों, सजातीय समूहों, सामाजिक वर्गों तथा आधुनिक औद्योगिक समाजों का अध्ययन किया जाता है। प्रश्न 12. इसके पूर्व समाज का अध्ययन 'सामाजिक-भौतिकी' (Social-physics) के अन्तर्गत किया जाता था। अतः 19वीं सदी में समाजशास्त्र, प्राचीनतम सामाजिक विज्ञान की आधुनिकतम एवं नवीन शाखा के रूप में उदित हुआ, जिसकी आवश्यकता जटिल समाजों एवं विभिन्न सामाजिक प्रघटनाओं को समझने के लिए महसूस की गई। अतः समाजशास्त्र एक आधुनिक सामाजिक विज्ञान है और यह एक शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है। शाब्दिक अर्थ में समाजशास्त्र Socius तथा Logia शब्द से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है-समाज का विज्ञान। कॉम्टे के अनुसार, समाजशास्त्र सामाजिक प्रघटनाओं के बारे में विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन करने वाला शास्त्र है। यह मानव-समाज का विज्ञान है तथा सामाजिक संस्थाओं का विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है; सामाजिक अन्तःक्रियाओं का व्यवस्थित अध्ययन है, सामाजिक समूहों तथा सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन करता है। समाजशास्त्र के उद्भव के कारण समाज के अध्ययन के लिए एक नवीन सामाजिक विज्ञान 'समाजशास्त्र' का उद्भव 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुआ। इसके उद्भव के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे (1) पूँजीवाद का प्रारंभ-18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ। समाज सामन्तवादी व्यवस्था से पूँजीवादी व्यवस्था में प्रवेश कर गया। सन् 1789 की फ्रांस की क्रांति ने आम आदमी की विचारधारा में परिवर्तन का सूत्रपात किया। पहली बार स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व का विचार उभरकर सामने आया और लोग अपने अधिकारों के बारे में सजग होने लगे। (2) औद्योगिक क्रांति-सन् 1800 में इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रांति ने सामाजिक परिवर्तन को तीव्र गति प्रदान की। बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना हुई और सामाजिक-व्यवस्था प्रदत्त से अर्जित में परिवर्तित होने लगी। सामन्तों और शासकों का आधिपत्य कम होने लगा। व्यक्तिगत गुणों का महत्त्व बढ़ा। (3) नगरीकरण-उद्योगों की आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए लोगों का गाँव से औद्योगिक स्थापना स्थल की ओर प्रस्थान होने लगा। इससे नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई और लोग शहरों के भीड़ भरे वातावरण में रहने लगे। एक नए प्रकार की सामाजिक व्यवस्था तथा सोच का विकास हुआ। (4) संचार के साधनों में उन्नति-पूँजीवाद, औद्योगीकरण तथा नगरीकरण के परिणामस्वरूप संचार के साधनों में भी अपूर्व उन्नति होने लगी। (5) नवीन सामाजिक समस्याओं का जन्म-औद्योगीकरण, नगरीकरण अपने साथ नवीन सामाजिक समस्याओं को लेकर आए। मलिन बस्तियाँ बढ़ीं और कारखाने के कामगारों के जीवन विपरीत रूप से प्रभावित हुए। परम्परागत व्यवसाय नष्ट हो गये। यद्यपि समाज की नई सामाजिक संरचना बनी, लेकिन यह नवीन सामाजिक समस्याओं को जन्म लेने से नहीं रोक सकी। (6) अध्ययन हेतु नवीन विषय की आवश्यकता-उस समय हो रही समाज की उथल-पुथल का व्यवस्थित रूप से अध्ययन करने के लिए एक ऐसे सामाजिक विज्ञान की आवश्यकता महसूस हुई जो मनुष्य की विभिन्न गतिविधियों, परिवर्तनों तथा समस्याओं का एक विषय के अन्तर्गत ही अध्ययन कर सके। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए सन् 1838 में समाजशास्त्र की स्थापना हुई। प्रश्न 13.
(ब) आधुनिक समाजों के
प्रकार-जैसे-औद्योगीकृत समाज। (2) उद्विकासवाद-डार्विन के जीव विकास के विचारों का आरंभिक समाजशास्त्रीय विचारों पर दृढ़ प्रभाव पड़ा। इसके तहत समाज की जीवित जैववाद (जीवित प्राणी) से तुलना की जाती थी और इसके क्रमबद्ध विकास को चरणों में तलाशने के प्रयास किये जाते थे जिनकी जैविकी जीवन से तुलना की जा सकती थी। इस प्रकार समाज को सावयव की तरह व्यवस्था के भागों के रूप में देखने के तरीके की पद्धति विकसित हुई, जिसमें व्यवस्था का प्रत्येक अंग एक खास (विशिष्ट) कार्य का निष्पादन करता है। इस विचार ने सामाजिक संस्थाओं, जैसे-परिवार या स्कूल एवं सामाजिक संरचनाओं, जैसे-स्तरीकरण आदि के अध्ययन को बहुत प्रभावित किया। इन बौद्धिक विचारों ने समाजशास्त्र में आनुभविक वास्तविकता के अध्ययन पर बल दिया। (3) ज्ञानोदय-ज्ञानोदय, एक यूरोपीय बौद्धिक आन्दोलन है जो 17वीं सदी के अंतिम वर्षों तथा 18वीं सदी में चला। इसने कार्य-कारण सम्बन्ध और व्यक्तिवाद पर बल दिया। उस समय यह विश्वास भी दृढ़ हो गया था कि प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धतियों द्वारा मानवीय पहलुओं का अध्ययन किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, गरीबी, जो अभी तक एक प्राकृतिक क्रिया के रूप में मानी जाती थी, उसे सामाजिक समस्या के रूप में देखना आरम्भ किया, जो कि मानवीय उपेक्षा और शोषण का परिणाम है। इसके अध्ययन का दूसरा तरीका यह था कि सामाजिक सर्वेक्षण किया जाये। यह इस विचार पर आधारित था कि मानवीय प्रक्रियाओं को मापा जा सकता है और इनका वर्गीकरण किया जा सकता है। प्रारंभिक आधुनिक काल के विचारक इसी कारण इस बात से सहमत थे कि ज्ञान में वृद्धि से सभी सामाजिक बुराइयों का समाधान संभव है। अतः यह दृष्टिकोण विकसित हुआ कि समाजशास्त्र मानव कल्याण में योगदान करेगा। (ब) भौतिक मुददों की समाजशास्त्र की रचना में भूमिका- (2) घड़ी के अनुसार समय के महत्त्व का बढ़ना-नये पूँजीवादी औद्योगिक समाजों में घड़ी के अनुसार समय का महत्त्व बढ़ गया तथा यह सामाजिक संगठन का आधार बन गया। फलस्वरूप 19वीं सदी में मजदूरों की बढ़ती संख्या ने तेजी से घड़ी और कलैंडर के अनुसार अपने को ढालना शुरू किया। कारखानों के उत्पादन ने श्रम को वस्तु बना दिया। इससे समय की पाबंदी, एक तरह की स्थिर रफ्तार, कार्य करने के निश्चित घंटे और हफ्ते के दिन निर्धारित हो गये। साथ ही घड़ी के कार्य करने की अनिवार्यता पैदा कर दी। नियोक्ता और कर्मचारी दोनों के लिए समय अब धन बन गया, जो खर्च हो जाता है। उपर्युक्त बौद्धिक विचारों तथा भौतिक मुद्दों ने पूँजीवादी औद्योगिक समाज में पूर्ववर्ती समाज से अनेक परिवर्तन कर दिये। नयी सामाजिक संस्थाओं तथा संरचनाओं का विकास हुआ; इससे नवीन सामाजिक समस्यायें सामने आईं। जिनको देखने-समझने के दृष्टिकोणों में परिवर्तन आया तथा इन समस्याओं को नवीन दृष्टिकोणों के प्रकाश में अध्ययन करने के लिए एक नवीन शास्त्र समाजशास्त्र का विकास हुआ। |