उपनिवेश से आप क्या समझते हैं - upanivesh se aap kya samajhate hain

उपनिवेश (कालोनी) किसी राज्य के बाहर की उस दूरस्थ बस्ती को कहते हैं जहाँ उस राज्य की जनता निवास करती है। किसी पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न राज्य (सावरेन स्टेट) के लोगों के अन्य देश की सीमा में जाकर बसने के स्थान के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है।

उपनिवेश से आप क्या समझते हैं - upanivesh se aap kya samajhate hain

परंतु साधारणत: अधिक संकुचित अर्थ में ही इस शब्द का प्रयोग होता है, विशेषकर निम्नलिखित दशाओं में :

(क) एक राज्य के निवासियों की अपने राज्य को भौगोलिक सीमाओं के बाहर अन्य स्थान पर बसी बस्ती को तब तक उपनिवेश कहते हैं, जब तक वह स्थान उस राज्य के ही प्रशासकीय क्षेत्र में आता हो, अथवा

(ख) कोई स्वतंत्र राष्ट्र, जो किसी अन्य (प्रधान) राष्ट्र की राष्ट्रीयता, प्रशासन, तथा आर्थिक एकता से घनिष्ठ संबंध रखता हो। उदाहरणार्थ, प्रथम श्रेणी के अंतर्गत त्यूतनिक उपनिवेश हैं जो बाल्टिक प्रांतों में स्थित हैं तथा इसी प्रकार के उपनिवेश बालकन प्रायद्वीप में भी हैं। दूसरी श्रेणी के उपनिवेश-और यही अधिक प्रचलित प्रयोग है-अफ्रीका अथवा आस्ट्रेलिया में अंग्रेजों के हैं।

उपनिवेश बनाने अथवा बसाने की प्रवृत्ति तथा ढंग[संपादित करें]

सभी उपनिवेश पहले से ही स्वंतंत्र थे; उपनिवेश बनाने अथवा बसाने की प्रवृत्ति तथा ढंग अनेक प्रकार के हैं, जैसे, राज्य की सीमा बढ़ाने का लोभ, व्यापार बढ़ाने की इच्छाएँ, धनवृद्धि का लोभ, दुष्कर कार्य करने की प्रवृत्ति, बढ़ती हुई जनंसख्या के भार को कम करने की इच्छा, राजनीतिक पदलोलुपता, विवशता, विद्रोहियों को देश से दूर रखने प्रधानत: सांघातिक एवं भीषण अपराधियों को देश से निष्कासित करने की आवश्यकता आदि मुख्य कारण ही उपनिवेशवाद को प्रोत्साहन देते रहे हैं। साधारण रूप में यह एक प्रवासी प्रवृत्ति का ही विकसित रूप है तथा उपनिवेश को एक प्रकार से प्रवासियों का स्थायी तथा व्यवस्थित रूप कहा जा सकता है।

इतिहास[संपादित करें]

उपनिवेशों की स्थापना ने विभिन्न समयों एवं क्षेत्रों में विभिन्न रूप धारण किए हैं। फिनीशियाइयों द्वारा भूमध्यसागर के तटवर्ती भागों में स्थापित उपनिवेश अपनी मातृभूति के व्यापारकेंद्रों के रूप में कार्य करते थे। विभिन्न ग्रीक समुदायों को उपनिवेश की स्थापना करने के लिए आर्थिक समस्याओं ने बाध्य किया जो अब, एथेंस के उपननिवेशों को छोड़कर, मातृभूमि से स्वतंत्र थे। रोम ने साम्राज्यरक्षा के लिए अपने नागरिकों के छोटे-छोटे उपनिवेशों की स्थापना विजित विदेशियों के बीच की थी। दक्षिण पूर्वी एशिया के भूभाग भारतीय बस्तियों से भरे पड़े थे, किंतु हिंदेशिया ऐस क्षेत्र, जो किसी समय बृहद् भारत के अंग थे, मातृभूमि स्वतंत्र थे।

14वीं शताब्दी तथा उसके अनंतर यूरोप एशिया से आगे बढ़ गया तथा वाणिज्य एवं अन्वेषण द्वारा अटलांटिक, हिंद और प्रशांत महासागरों के आर पार उसने अपना अधिकार बढ़ा लिया। 16वीं शताब्दी में मध्य तथा दक्षिण अमरीका में स्पेन के साम्राज्य की स्थापना हुई। पुर्तगाल ने ब्राजील, भारत के पश्चिमी समुद्रतट तथा मसालोंवाले पूर्वी द्वीपसमूहों में अपना अड्डा जमाया। इन्हीं का अनुकरण कर, फ्रांस, इंग्लैंड एवं हालैंड ने उत्तरी अमरीका तथा पश्चिमी द्वीपसमूह में उपनिवेशों की तथा अफ्रीका के समुद्रतट पर, भारत तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया में व्यापारिक केंद्रों की स्थापना की। डेेनमार्क तथा स्वीडन निवासी भी, इन लोगों से पीछे नहीं रहे। किंतु मुख्य औपनिवेशिक शक्तियाँ इंग्लैंड, फ्रांस तथा हालैंड की ही सिद्ध हुई। इन तीनों के साम्राज्य में "सूर्य कभी नहीं अस्त होता था" तथा एशिया और अफ्रीका, मानव सभ्यता के आदि देश, के अधिकांश भागों पर, इनका अधिकार हो गया।

औद्योगिक क्रांति तथा आर्थिक रीतियों के नवीनतम रूपों के ढूँढ़ निकालने के साथ ही पश्चिम के राष्ट्रों में साम्राज्य के लिए छीना-झपटी चलती रही। यह एक लंबी कहानी है, जिसका वर्णन यहाँ नहीं किया जा सकता। किंतु इसक ज्ञान आवश्यक है कि जहाँ कहीं भी विस्तार की संभावना थी, पूँजीवाद अपने नए साम्राज्यवादी रूप में सामने आया। इसलिए जर्मनी, 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, संसार में अपने अस्तित्व के लिए भूमि चाहता था, अर्थात् दूसरे शब्दों में, उपनिवेश की लूट-खसोट में हिस्सा बँटाना चाहता था। इटली ने भी इस दौड़ में भाग लिया। रूस, सारे उत्तरी तथा मध्य एशिया में फैलकर, ब्रिटेन को भयभत करने लगा। संयुक्त अमरीका तक प्रत्यक्ष रूप से, जैसे फ़िलीपाइंस में तथा अन्य बहुत से क्षेत्रों पर, अप्रत्चक्ष रूप से शासन करने लगा। जापान ने पश्चिमी साम्राज्यवादियों से शिक्षा प्राप्त की तथा पहले कोरिया फिर संपूर्ण पूर्वी एशिया पर, अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहा। महान देश भारत, जो अंग्रेजों के प्रत्यक्ष अधिकार में था, तथा चीन, जो नाममात्र के लिए स्वतंत्र किंतु वस्तुत: कई शक्तियों की गुलामी में जकड़ा हुआ था, उपनिवेश प्रथा के मूर्त उदाहरण हैं। इतिहास के इस रूप की अन्य विशेषताएँ अफ्रीका के भीतरी भागों में प्रवेश, लाभदायक दासव्यापार की विभीषिका, उसकी भूमि का बँटवारा और प्रतिस्पर्धा, साम्राज्यवादियों द्वारा उसके साधनों का निर्दय शोषण आदि है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि भौगोलिक अनुसंधान तथा उपनिवेशों की स्थापना के लिए बहुत से लोगों में दुस्साहसिक कार्य के प्रति अनुराग तथा इसकी क्षमता आवश्यक थी, किंतु उपनिवेशस्थापन के पीछे दुस्साहस ही प्रमुख शक्तिस्रोत के रूप में नहीं था। व्यापारिक लाभ सबसे बड़ा कारण था तथा राज्यविस्तार के साथ व्यापार का विस्तार होने के कारण क्षेत्रीय विजय आवश्यक थी। बहुधा दूरस्थ उपनिवेशों के लिए यूरोप में युद्ध होते थे। इस तरह हालैंड ने पुर्तगाल को दक्षिण पूर्वी एशिया के पूर्वी द्वीपसमूह से निकाल बाहर किया। इंग्लैंड ने कैनाडा, भारत तथा अन्य स्थानों से फ्रांस को निकाल बाहर किया। जर्मन युद्धविशेषज्ञ फान मोल्तके ने एक बार कहा था, ""पूर्वी बाजार ने इतनी शक्ति संचित कर ली है कि वह युद्ध में सैन्य संचालन करने में भी समर्थ है।"" जब मैक्सिम द्वारा बंदूक का प्रसिद्ध आविष्कार हुआ, अन्वेषक स्टैन्ली (जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती डॉ॰ लिविंग्स्टन का पता अफ्रीका में लगाया) ने कहा था, "" यह एक आग्नेयास्त्र है जो मूर्तिपूजकों को दबाने में अमूल्य सिद्ध होगा।"" साम्राज्य के समर्थकों (यथा रुडयार्ड किपलिंग) द्वारा ""श्वेतों की जिम्मेदारी"" के रूप में एक पुराणरूढ़ दर्शन (मिथ्) ही प्रस्तुत कर लिया गया। "नेटिव" शब्द का प्रयोग "नियम रहित निम्नस्तर जाति" जिनका भाग्य ही श्वेतों द्वारा शासित होता था, के अपमानजनक अर्थ में होने लगा।

विकासशील पूँजीवादी शक्तियों को विस्तार एवं संचय के लिए निकास की आवश्यकता थी। अविकसित देशों के कच्चे मालों की उन्हें आवश्यकता थी। उन्हें ऐसे देशों की आवश्यकता अपने उत्पादित मालों के बाजार के रूप में थी और ऐसे क्षेत्रों के रूप में थी जहाँ अतिरिक्त पूँजी लगाई जा सके तथा उससे अकल्पित लाभ, अधीन देशों के मजदूरों का सरलता से शोषण हो सकने के कारण, निश्चित किया जा सके। प्रत्येक शक्तिस्रोत ऐस क्षेत्रों के एकमेव संनियंत्रक और एकाधिकारी होना चाहते थे। कभी कभी उपनिवेश खरीदे भी गए, कभी तलवार के बल तथा धोखे से, जैसे भारत में, जीने गए, कभी ऋण वसूलनेवाले अभियान का अंत, अधिकार के रूप में हुआ, कभी धर्मप्रचारकों के ऊपर आक्रमण अथवा हत्या ही, जैसे चीन में, विदेशी बस्ती की स्थापना का कारण बतलाई गई। कारण शक्तियों के बीच उपनिवेश के लिए आपसी स्पर्धा एवं ईष्र्या के विभिन्न असंख्य युद्ध विश्वयुद्ध से भी दुगुने व्यापक रूप में हुए हैं।

19वीं शताब्दी में, उपनिवेशी की स्वतंत्रता का आंदोलन प्रारंभ हुआ तथा कनाडा ऐस "श्वेत" उपनिवेशों ने, स्वशासन का अधिकार प्राप्त कर लिया। पश्चात् 20 वीं शताब्दी के प्रांरभ में भारत, बर्मा आदि देशों ने उपनिवेश का जुआ उतार फेंका और स्वतंत्र हो गए। किंतु तो भी संसार में अनेक देश उपनिवेश बने रहे। सन् 1960 में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने उपनिवेशवाद के खिलाफ अपना ऐतिहासिक घोषणापत्र जारी किया जिसके बाद साइप्रस, केनिया, गोवा तथा अनेक अफ्रीको देशों की मुक्ति संभव हुई। (हो.ना.मु.)

प्रभाव[संपादित करें]

दीर्घकालीन परंपरा के कारण उपनिवेशवाद का व्यवस्थित रूप प्रस्तुत हुआ है और उसके विभिन्न परिणाम स्पष्ट रूप से सामने आए हैं। शासित देश में लोकसेवकों के माध्यम से शासन हुआ है। इसी आधार पर "श्वेत पुरुषों के दायित्व" का सिद्धांत विकसित हुआ। शासितों में आत्मविश्वास का लोप सामान्य बात है। फलत: सर्वमान्य विश्वास की बात ही नहीं उठ सकती। सारा शासन अप्रत्यक्ष रूप से होता रहा है। शासन की भाषा बाहर से आने पर राष्ट्रीय भाषा का विकास अवरुद्ध हो जाता है। सरकारी पदों पर अल्पसंख्यकों की नियुक्ति का अनुपात असंतुलित किया गया है। शासन की क्रमबद्धता नष्ट होने से जनस्वीकृति जनमत, हितरक्षा आदि असंभव हैं। विकासहीनता में शासन यथास्थिति बनाए रखना चाहता है और रूढ़िवादिता एवं अनुदार परंपराओं का वह अभिभावक बन गया। आर्थिक विकास उतना ही हो सका जितना शासकों ने चाहा। आर्थिक शोषण में सारे लाभ शासक प्राप्त करते रहे हैं। आर्थिक नीति मूलत: कच्चे माल के निर्यात की और पक्के माल के आयात की रही है। इसी में मुक्त व्यापार आदि का सैद्धांतिक विश्लेषण हुआ है। शासकों के द्वारा उद्यागीकरण होने से उपनिवेश सदा शासक राष्ट्र के पूरक बने रहते हैं, उनका स्वयं आर्थिक व्यक्ति हो नहीं रहता। शासक शासित में भावी शत्रुता एवं हिंसा को राजनीति का बीजारोपण इसी व्यवस्था का फल है। फलत: उग्रता, ध्वंस, संघर्ष का मनोभाव बना है। उपनिवेश दरिद्रता, अशिक्षा, रोग, मानसिक हीनता आदि के प्रतीक बन जाते हैं।

दृष्टिकोण[संपादित करें]

इसकी व्याख्या प्रजातीय उच्चता के रूप में भी की गई है। फ्रांसीसी विचारकों ने उपनिवेशवाद को सभ्यता के विकास का साधन माना है। जॉन स्टुअर्ट मिल के अनुसार इस व्यवस्था ने पिछड़े देशों को उच्च देशों के संपर्क में आने का अवसर दिया है। लुगार्ड (1922) इसे दो दृष्टियो से प्रस्तुत करता है। उपनिवेशों के विकास का दायित्व श्रेष्ठ देश पर हो जाता है और उनको संकुचित स्थिति विश्व के संदर्भ में प्रमुख होती है। लेकिन भारतीय स्वतंत्रता और अफ्रेशियायी जागरण से इन मान्यताओं की चुनौतियाँ मिली हैं। पंचशील की नीति उपनिवेशवाद का अंतरराष्ट्रीय प्रतिवाद है और 1955 में बांदुंग प्रस्ताव इसका परिणाम। संयुक्त राष्ट्र का घोषणापत्र (1960) इसी की स्वीकृति है। इसमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, शेक्षणिक आदि सभी प्रकार के उपनिवेशवाद की निंदा की गई है। इसके साथ ही उपनविशेवाद ने नया रूप धारण किया है। विश्व को विकसित अविकसित जैसे भागों में बाँट दिया गया है। इसमें प्राविधिक, शैक्षणिक, सैनिक, सहायता आदि का कार्य उपनिवेश कर रहा है। इसे अभिनव उपनिवेशवाद कहा जाता है। इसका प्रतीक है अमरीका।

आर्थिक पक्ष[संपादित करें]

राजनीति से अधिक महत्वपूर्ण है आर्थिक पक्ष। इसकी व्यवस्था ऐडम स्मिथ की पुस्तक "वेल्थ आव नेशन्स" (1776) से प्रारंभ होती है। आर्थिक सिद्धांत से विभिन्न काल रहे हैं-1660 से पूर्ववर्ती, 1660 से 1776 तक, 1776 से 1870 तक, 1870 से आगे। बीसवीं शताब्दी में सभी प्रकार के उपनिवेशवाद की आलाचेनाएँ हुई हैं। इनमें मुख्य है माक्र्सवादी आलोचना। लेनिन ने उपनिवेशों का संस्थागत एवं अंरराष्ट्रीय स्वरूप प्रस्तुत करते हुए कहा कि साम्राज्यवाद का अंतिम चरण है "महाजनी पूँजीवाद।" प्रतिवादी विचारधारा जे.ए. हाब्सन (इंपीरियलिज़्म : ए स्टडी, 1902) ने प्रस्तुत की। उसके अनुसार यूरोप के विदेशों को स्वयं अपने देश में खर्च करना चाहिए। उपनिवेशवाद के प्रयोग के तीन स्तर हैं-प्रारंभ से 1830 तक, 1830 से 19वीं शती के अंत तक, 1890 से 1945 तक।

उपनिवेशवाद में यूरोपीय देशों ने पूँजी के द्वारा "सर्वोच्च लाभ" प्राप्त किया है। उन्होंने एकाधिकारवादी पूँजीवाद को जन्म दिया है। अभिनव उपनिवेशवाद का तात्पर्य है आर्थिक दृष्टि से विकसित देशों के द्वारा अविकसित देशों का शोषण। पिछड़े देशों की सारी आर्थिक व्यवस्था उनपर निर्भर रहती है। उनमें विशेष व्यापारिक संबंध होते हैं। विदेशी पूंजी पर उन्हें निर्भर रहना पड़ता है। बाजार, विदेशी वस्तु, पूँजी, प्राविधिक कुशलता, अपने देश के लोगों को प्रशिक्षण देना सभी विकसित देशों के नियंत्रण में रहते हैं। इसी में "सहायता की राजनीति", "विदेशी पूँजी", "अंतरराष्ट्रीय एकीकरण", "आर्थिक संघटन", "अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियंत्रण", जैसी व्यवस्थाएँ विकसित हुई हैं। वस्तुत: विकसित और अविकसित देशों में अंतर्निहीत असंतुलन का परिणाम है "अभिनव उपनिवेशवाद"।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • उपनिवेशवाद
  • भाषाई साम्राज्यवाद (Linguistic Imperialism)

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • Non-Self-Governing Territories Listed by the United Nations General Assembly in 2002

उपनिवेश से आप क्या समझते?

उपनिवेश (कालोनी) किसी राज्य के बाहर की उस दूरस्थ बस्ती को कहते हैं जहाँ उस राज्य की जनता निवास करती है। किसी पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न राज्य (सावरेन स्टेट) के लोगों के अन्य देश की सीमा में जाकर बसने के स्थान के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है।

उपनिवेश कितने हैं?

तेरह उपनिवेश (अंग्रेज़ी: Thirteen Colonies) वे ब्रिटिश उपनिवेश थे जो पूर्वी उत्तर अमेरिका के अंध महासागर के तट पर सन् 1607 से 1733 तक स्थापित किये गए। इन उपनिवेशों ने 1776 में ब्रिटेन से स्वतंत्रता का ऐलान किया और केवल उपनिवेश न रहकर संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य बन गए।

उपनिवेशवाद से आप क्या समझते है उपनिवेशवाद के आरम्भ के प्रमुख कारणों की विवेचना कीजिये?

उपनिवेश के प्रारंभ होने का एक कारण निरंकुश राजतंत्रों का उदय भी था। यूरोप मे पुनर्जागरण के दौरान निरंकुश राजतंत्रों को उदित होने का अवसर मिला। इन शक्तिशाली राज्यों ने अपने देश की बढ़ती हुई जनसंख्या को बसाने और उत्पादित माल को खपाने के लिए उपनिवेशवाद नीति अपनानी प्रारंभ कर दी।

भारत का उपनिवेश क्या है?

औपनिवेशिक भारत, भारतीय उपमहाद्वीप का वह भूभाग है जिसपर यूरोपीय साम्राज्य था। भारत बहुत दिनों तक इंग्लैंड का उपनिवेश रहा है। सन 1600 ई में स्थापित यह कम्पनी मुगल शासन उत्तराधिकार बनी। प्रारंभ का उद्देश्य व्यापार करना तथा मुंबई कोलकाता और मद्रास के बंदरगाह से होकर शेष भारत में इसका संपर्क रहता था।