दक्षिण शैली का प्रसिद्ध चित्र कौन सा है? - dakshin shailee ka prasiddh chitr kaun sa hai?

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Published in Journal

Year: Apr, 2017
Volume: 13 / Issue: 1
Pages: 1285 - 1290 (6)
Publisher: Ignited Minds Journals
Source:
E-ISSN: 2230-7540
DOI:
Published URL: http://ignited.in/I/a/303851
Published On: Apr, 2017

Article Details

दक्षिण शैली की पल्लव काल एवं राष्ट्रकूट कालीन कला की प्रतिमाओं में चित्रित नारी | Original Article


  • दक्खिनी चित्र शैली: परिचय
  • दक्खिनी शैली पर अन्य शैलियों का प्रभाव
    • फारसी प्रभाव
    • चीनी प्रभाव
    • मुगल प्रभाव
    • राजस्थानी प्रभाव
    • पाश्चात्य प्रभाव
  • बीजापुर शैली
  • गोलकोण्डा शैली
  • अहमदनगर शैली

दक्खिनी चित्र शैली: परिचय

भारतीय चित्रकला के इतिहास की सुदीर्घ परम्परा एक लम्बे समय से दिखाई देती है। इसके प्रमाणिक उदाहरण गुफा चित्रों में प्रारम्भ होते हैं। आदि काल में कलाकार सीमित साधनों से ही सही शिलाओं पर ही आत्माभिव्यक्ति कर लेता था जो धीरे-धीरे शिलाओं से भित्ति चित्रों में परिवर्तित हुई।

दक्षिण में चालुक्य राजाओं का साम्राज्य काफी महत्वपूर्ण माना जाता था जिनके आश्रय में बादामी गुफाओं की रचना हुई परन्तु इसके पश्चात् राष्ट्रकूट राजाओं का आधिपत्य प्रारम्भ हो गया। इस राष्ट्रकूट साम्राज्य का आरम्भ 753 ई० में दन्तीवर्मन् के द्वारा हुआ।

इनकी राजधानी शोलापुर के पास मान्यखेत (Manyakhet) थी। राष्ट्रकूट राजा कला के विशिष्ट संरक्षक माने जाते थे। लगभग 200 वर्षों तक (10वीं शताब्दी के अन्त तक) दक्षिण (Deccan) में राष्ट्रकूट राजा समृद्ध शासन में कला का विकास करते रहे। इन राजाओं ने न केवल शैव, और वैष्णव परम्परा को बढ़ावा दिया वरन् जैन परम्परा को भी आश्रय दिया।

राजा कृष्ण प्रथम ने एलोरा के प्रसिद्ध कैलाश मन्दिर को बनवाया। इतिहास साक्षी है कि मुख्य रूप से प्राचीन भारतीय परम्परा का प्रतिनिधित्व 10वीं शताब्दी तक के भित्ति चित्रों से मिल जाता है।

ये चित्र लगभग 11-12 सौ वर्षों तक निरन्तर निर्मित होते रहे जिसमें विविध कालों में विभिन्न सम्राटों के आश्रय में अनेक प्रकार की शैलियों के माध्यम से हजारों चित्रों की रचना हुई। इसी प्रकार की एक शैली दक्षिण भारत में प्रचलित हुई।

विद्वानों के अनुसार अजन्ता की 9वीं तथा 10वीं गुफा की कुछ कलाकृतियों में दक्षिणी शैली के कुछ उदाहरण मिलते हैं। वैसे दक्षिणी शैली के बहुत कम प्रमाण मिलते हैं परन्तु फिर भी 10वीं से 14वीं शताब्दी के मध्य दक्षिणी शैली का जो भी योगदान है वह महत्वपूर्ण है। भित्ति चित्रों से लेकर राजपूत मुगल लघुचित्रों के मध्य दक्षिणी शैली (पूर्व में पाल शैली) एक कड़ी है।

भारतीय चित्रकला की लम्बी परम्परा में दक्षिणात्य शैलियों ने अपना निजत्व स्थापित कर मौलिक पद्धतियों का सन्निवेश किया जिसमें वहाँ की तत्कालीन संस्कृतियों ने अपना विशेष योगदान दिया। इसके अतिरिक्त आगे चलकर परवर्ती काल में इस शैली पर अन्य शैलियों का प्रभाव पड़ने लगा।

मूल रूप से दक्खिनी शैली दक्षिण के मुस्लिम साम्राज्य से सम्बन्धित है। वह विशाल मुस्लिम साम्राज्य जिसकी स्थापना बाबर ने की थी, अपने अन्तिम कालीन शासकों के आश्रय में आकर क्षीण होने लगा था और दिल्ली की विशाल सल्तनत को नकार कर प्रान्तीय शासकों ने स्वयं को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया था।

16वीं शताब्दी में मुगलों के आने से पहले भारत में बहुत सी मुस्लिम सल्तनत थी जिनमें सबसे अधिक शक्तिशाली दिल्ली सल्तनत थी और दक्षिण का क्षेत्र बहमनी सल्तनत के आधीन था। दक्खिनी कला परम्परा के क्षेत्र में बहमनी साम्राज्य का अपना एक विशिष्ट स्थान है जो अलाउद्दीन पर हसन बहमन शाह द्वारा 1347 ई० में स्थापित किया गया और 180 वर्षों तक 1526 ई० तक निरन्तर कार्यरत रहा।

इस साम्राज्य के कुछ प्रमुख शासक मुहम्मद शाह प्रथम, मुहम्मद शाह द्वितीय, फिरोजशाह अलाउद्दीन आदि हुए। बहमनी साम्राज्य के पश्चात् दक्षिण में पाँच सल्तनत बनीं। बीदर (बदरीशाह), विराट (इमादशाह) बीजापुर (आदिलशाह) अहमदनगर (निजामशाह) और गोलकुण्डा (कुतुबशाह)।

इन पाँच सल्तनतों में बीजापुर अहमदनगर और गोलकुण्डा में कला परम्परा दिखायी देती है। इन शासकों के आश्रय में कलाकारों, कवियों तथा संगीतकारों को राजकीय सम्मान प्राप्त था। यही कारण था कि लगभग 1650 ई० से लेकर 1750 ई. तक (100 वर्षों तक) दक्षिण भारत में कलाकी जो प्रगति हुई वह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण थी।

कला रचना के क्षेत्र में दक्षिण में तीन शैलियाँ दिखायी देती हैं। द्राविड़, बेसर और नागर।

“पहली पद्धति का जन्म दक्षिण में हुआ और वहीं के क्षेत्र में रहकर उसका विकास हुआ। नागर पद्धति जो ‘आर्यावर्त शैली’ के नाम से विश्रुत है, उत्तर भारत में निर्मित होकर दक्षिण में आयी। दक्षिण में नागर की अपेक्षा द्राविड़ की ही प्रमुखता रही। शिल्प कला के क्षेत्र में इस द्राविड शैली के कलाकारों ने बहुत ही उत्कृष्ट कृतियों का निर्माण किया जिनकी तुलना आर्य शैली के देवी देवताओं की भव्य आकृतियाँ भी नहीं कर पाती।”

वाचस्पति गैरोला

दक्खिनी दरबार के पूर्वी देशों तथा अफ्रीका आदि से व्यापारिक सम्बन्ध थे जिनकी संस्कृतियों का प्रभाव यहाँ पर भी आया। इस समय यहाँ पर तुर्की, ईरानी, अबसिनियन (Abyssinians) आदि सभी रहते थे।

इनमें से कुछ बहुत उच्च कोटि के कलाकार तथा Calligraphers थे। विद्वानों के अनुसार कलाकारों के आपसी सामञ्जस्य के कारण कभी-कभी ईरान में चित्रित कलाकृतियों तथा भारत में ईरान से आए कलाकारों द्वारा दक्खिन प्रान्त में जिन कलाकृतियों की रचना हुई उनमें अन्तर करना कठिन हो जाता है।

दक्खिनी शैली के चित्र देश-विदेश के विभिन्न संग्रहालयों में मिलते हैं। दृष्टान्त चित्रों के साथ-साथ इस शैली में स्फुट चित्रों की भी रचना की गयी। मोर हाशिम, रहोम, हैदर अली, इब्राहिम खान, मुहम्मद ताजाली, अली शाह आदि इस शैली के प्रमुख कलाकार थे जिन्होंने उत्तर, पूर्व तथा पश्चिम की विभिन्न शैलियों से भी समय-समय पर प्रेरणा ली।

यद्यपि दक्खिनी सल्तनतों के शासक आपस में युद्ध करते रहते थे। परन्तु साथ ही साथ कोई कोई विवाह के कारण एक दूसरे से गहन सम्बन्ध में जुड़े थे। बीजापुर के शासक अली आदिल शाह प्रथम की रानी अहमदनगर के हुसैन प्रथम की बहन थी। पारिवारिक सम्बन्धों के कारण अहमदनगर के बरहन दरबार से साहित्यकार तथा कलाकार बीजापुर के इब्राहिम के दरबार में आते जाते रहते थे।

18वीं शताब्दी में चित्रण की परम्परा आसफ जाही सल्तनत के संरक्षण में पल्लवित होने लगी। इस समय के एक प्रसिद्ध चित्रकार ताजाली अली शाह (Tajalli ali Shah) का नाम जाना जाता है। अलीशाह मात्र चित्रकार ही नहीं थे वरन् कवि तथा लेखक भी थे। इन्होंने निजाम-उल-मुल्क आसफ जाह द्वितीय का एक बहुत बड़ा व्यक्तिचित्र बनाया और उसे हीरों से सुसज्जित किया।

दक्खिनी शैली के अन्य चित्रों में भी मुगल के समान मानवाकृतियों को विविध प्रकार के आभूषणों तथा सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित किया गया है। मुगल सम्राटों द्वारा उस समय दक्खिन के राजाओं को उपहार स्वरूप बहुत प्रकार के आभूषण भेंट किए जाते थे। इस समय पुरूषों को जो पटका पहने चित्रित किया गया है इसमें सोने के माध्यम से की गयी कसीदाकारी अपना विशेष महत्व रखती है।

दक्खिनी शैली पर अन्य शैलियों का प्रभाव

फारसी प्रभाव

विभिन्न कालों में दक्खिनी शैली में निर्मित विविध चित्रों पर दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि इन पर कई देशी-विदेशी शैलियों का प्रभाव रहा। बीजापुर के आदिल शाही सल्तनत के संस्थापक युसुफ आदिलशाह ने रम (Rum in Asia Minor) से कई कलाकारों को बुलाया था।

इसके अतिरिक्त अहमदनगर में तुर्की की कला का प्रभाव पड़ा। तारीफ-ए-हुसैन शाही के कुछ चित्र इस प्रभाव के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। गोलकोण्डा के मुहम्मद कुली कुतुबशाह ने ईरान के शाह अब्बास से अपनी पुत्री का विवाह किया इस दौरान ईरान के बहुत से अधिकारियों का भारत से सम्बन्ध बना।

इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय तथा अबुल हसन तानाशाह के पास ईरानी चित्रों का एक बहुत बड़ा संग्रह था। इसी कारण नुजुम अल-उलूम के दृष्टान्त चित्रों पर फ़ारसी प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है।

भारतीय चित्रकला का सर्वेक्षण नामक लेख में वाचस्पति गैरोला भी इसकी पुष्टि करते हुए लिखते हैं, “ऐसा प्रतीत होता है कि पल्लव, चोल और बीजापुर के आदिलशाही राजवंशों का सम्बन्ध 13वीं 14वीं शताब्दी में सीधे फारस से था और सम्भवतया उन्होंने फारसी चित्रकारों को बुलाकर अपने रंगमहलों को चित्रों से सुसज्जित किया 14वीं, 15वीं शताब्दी तक के दक्षिणात्य चित्रों पर स्पष्टतया फारसी प्रभाव है।”

चीनी प्रभाव

दक्खिनी शैली के कुछ इस प्रकार के चित्र मिलते हैं जिसमें चीनी प्रभाव लक्षित होता है। चेस्टर बेट्टी (Chester Beatty) म्यूजियम में एक उसी प्रकार का चित्र है जिसमें एक नायिका पक्षी के साथ चित्रित है जिसके दोनों ओर अंकित फूलों का आलेखन चीनी पोर्सलिन की याद दिलाता है। चीनी पोर्सलिन की कलाकृतियों का बाजार पेटाबोली पर लगता था क्योंकि वहाँ बहुत से विदेशी व्यापारी रहते थे। इसी कारण गोलकोण्डा के पटचित्रों (Cotton) hargings) पर भी चीनी पोर्सलिन का प्रभाव लक्षित होता है।

मुगल प्रभाव

चीनी फारसी प्रभाव के अतिरिक्त दक्खिनी शैली पर मुगल प्रभाव भी लक्षित होता है क्योंकि यहाँ के शासकों का सम्बन्ध मुगल दरबार से था अहमदनगर के बरहन द्वितीय ने जब अपने भाई मुर्ताज प्रथम के विरूद्ध विद्रोह किया तो वहाँ से भाग कर उसने आठ वर्ष अकबर के दरबार में व्यतीत किए जिससे वह मुगल कलाकृतियों एवं कलाकारों के सम्पर्क में आए।

इसके अतिरिक्त मुगल चित्रकार फारूख वेग ने काफी वर्ष बीजापुर के दरबार में व्यतीत किए। फारूख बेग ने इब्राहिम आदिल शाह का एक व्यक्तिचित्र भी बनाया जो जहाँगीर की एलबम में था।

इस चित्र के मार्जिन पर लिखा था, “Portrait of Ibrahim Adil Khan of Deccan, Prince of Bijapur, who through his knowledge of music brought fame to Deccan and enlightenment to his people. He condescended to show favour to Farrukh Bag’s work by sitting for him in the year 1019 (A.D. 1610-11)”

मुगल प्रभाव का कारण दोनों सल्तनतों का आपस में मेल मिलाप था। दक्खिन के दो कलाकार मलिक अम्बर तथा मीर मोहम्मद ने मुगल दरबार में जाकर कार्य किया। एक दूसरे के दरबार में जाकर कलाकारों के कला रचना के अतिरिक्त मुगल सम्राटों ने दक्खिन के शासको को बहुमूल्य भेट दी उसमें बहुत से मुगल चित्र भी थे जहाँगीर ने 1618 ई० में बीजापुर के इब्राहिम आदिल शाह को अपना व्यक्ति चित्र भेजा।

राजस्थानी प्रभाव

मुगल प्रभाव के साथ ही राजस्थानी शैली का विकास भी हुआ अतः इस प्रभाव से भी दक्खिनी शैली के चित्र अछूते नहीं रह सके। गीत- गोविन्द पर आधारित बहुत से चित्र दक्खिन में पहुँचे जिनके प्रभाव से यहाँ भी राधाकृष्ण के चित्र बने।

इसी प्रकार का 18वीं शताब्दी का एक चित्र कृष्ण एवं गोपियों राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित है। चित्र के मध्य में कृष्ण चार गोपियों एवं गाय के साथ चित्रित है। कृष्ण के शरीर में गहरा सलेटी रंग भरा गया है। जिस पर श्वेत मोतियों को सज्जा बहुत सुन्दर है। गोपियों के वस्त्राभूषणों की सत्ता राजस्थानी शैली के समान है। इसी प्रकार का प्रभाव और भी बहुत से चित्रों में दिखायी देता है।

पाश्चात्य प्रभाव

इतना ही नहीं दक्खिनी सल्तनतों का पाश्चात्य देशों से भी सम्पर्क रहा इसलिए यहाँ के चित्र पाश्चात्य प्रभाव से भी अछूते नहीं रह सके। जेम्स स्टोरी ने 1583 ई० में एक कलाकृतियों की दुकान स्थापित की जो कि बीजापुर राजधानी से मात्र 150 मील दूर थी। डच और अंग्रेज इस दौरान ममूलीपट्टम क्षेत्र में आते थे।

इस समय की गोलकोण्डा की “वाल हैगिंग्स” पर ‘मैडोना एण्ड चाइल्ड’ विषय भी दिखायी देता है। इसके अतिरिक्त दक्खिनी लघु चित्रों में भी पाश्चात्य विषय दिखायी देते हैं। चेस्टरबेट्टी (Chester Beatty) संग्रह में ‘ए प्रिंस इन ए गार्डन (A prince in a garden) नामक इसी प्रकार का चित्र मिलता है।

इसमें एक राजकुमार फूल सूँघते हुए कुर्सी पर बैठे हुए चित्रित हैं, उसके पीछे एक नायिका है जिसने उसके कन्धे पर हाथ रखा हुआ है। इसके पीछे संगीत वाद्य लिए एक सहायिका अंकित है। राजकुमार के समक्ष एक नारी आकृति पाश्चात्य वस्त्रों में हैट लगाए हुए चित्रित है। उसके बाएँ हाथ में मंदिरा पात्र तथा पैरो में वैली है। दायीं ओर एक नायिका हिरण के साथ चित्रित है जिसने पारदर्शी वस्त्र धारण किए हुए हैं। इस नायिका तथा हिरण को देखने पर यह एक पृथक् चित्र प्रतीत होता है जैसा कि राजस्थानी शैली में कई स्थानों पर चित्रित है पृष्ठभूमि में वृक्ष का अंकन है जिस पर पक्षी बैठे हैं। बीजापुर में ऐसे और भी बहुत से चित्र हैं जिनमें यूरोपियन पेन्टिग्स की सम्पूर्ण पृष्ठभूमि भारतीय विषयों की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत है। इस प्रकार के कई चित्र हैदराबाद तथा साथ-साथ पूना के संग्रहों में देखे जा सकते हैं।

बीजापुर शैली

1490 ई० में युसुफ आदिलशाह ने बीजापुर की स्थापना की जो अकबर की भाँति उदारनीति वाले तथ्य कला के संरक्षक थे। इन्होंने साहित्य के अतिरिक्त चित्रकला के क्षेत्र में भी कलाकारों को प्रोत्साहन दिया यहाँ तक कि ईरान तथा तुर्की से उत्कृष्ट साहित्यकारों तथा कलाकारों को आमन्त्रित किया ताकि दक्खिनी कला परम्परा को नया आयाम मिल सके।

युसुफ आदिल शाह के पुत्र अली आदिल शाह (1558-1580) थे। वह भी अपने पिता के समान महत्वाकाक्षी एवं कलाकारों का आदर करने वाले थे। 1570 ई० में इनके आश्रय में नुजूम-अल-उलूम नामक पोथी ग्रन्थ की रचना हुई जो चेस्टर वेट्टी संग्रह लंदन में सुरक्षित थी। इस पुस्तक में 876 चित्र, 140 नक्शे तथा तालिकाएँ थी।

चित्रों के विषय शस्त्रविद्या, हरित शास्त्र, तन्त्र मन्त्र तथा ज्योतिष से सम्बन्धित थे। इस पोथी ग्रन्थ में अनगिनत कलात्मक चित्रों की रचना है जिन पर दक्खिनी की निजी शैली तो है ही साथ ही साथ फारसी. अपभ्रंश आदि शैलियों का प्रभाव भी लक्षित होता है।

बीजापुर में निरन्तर आदिल शाह शासकों द्वारा कला को संरक्षण मिलता रहा। इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय (1580-1627 ई०) को चित्रण का बहुत शौक था। चित्रण के साथ-साथ इनकी रुचि संगीत में भी थी। वह ‘जगद्गुरू’ की उपाधि से विभूषित थे।

“बीजापुर का आदिल शाही वंश उत्कृष्ट कला प्रेमी होने के साथ-साथ साहित्य और संगीत का भी अनुरागी था। उसके शासन काल में मीरांजी, बुरहानुद्दीन तथा जानम जैसे सूफी सन्तों और नुसरती जैसे यशस्वी कवियों ने हिन्दीं में सुन्दर साहित्यिक ग्रन्थों का प्रणयन किया। इब्राहिम आदिल शाह (द्वितीय) जो कि “जगदगुरू” की उपाधि से विभूषित था, कुशल संगीतज्ञ भी था। ब्रजभाषा में लिखे हुए कृष्ण भक्त कवियों के पदों से बीजापुर का शाही महल सदा गुंजायमान रहता था। इब्राहिम की संगीत प्रियता और इसके हिन्दी प्रेम का चित्र 69 निजाम-उल-उलूम का एक पत्र, उज्जवल उदाहरण उसके द्वारा विरचित ‘नवरस’ नामक ग्रन्थ 1570 ई० बीजापुर है।”

-वाचस्पति गैरोला

निश्चित रूप से इब्राहिम रसिक प्रवृत्ति का था उन्होंने किताब-ए-नौरस (Kitab-i-Nauras) की रचना की। जिसमें उन्होंने हिन्दू देवी-देवताओं सरस्वती, गणेश तथा मुस्लिम सन्त, उनके प्रिय हाथी और वीणा एवं मोतीखान आदि को संदर्भित करके अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति दी है।

प्रथम गीत सरस्वती तथा गणेश वन्दना से सम्बन्धित है। साथ ही इन्होंने अपनी श्रद्धा सैयद मोहम्मद गदराज के लिए भी दर्शायी। कवि जुहूरी के अनुसार उन्होंने किताब-ए-नौरस का परिचय प्रस्तुत किया था, इस किताब का उद्देश्य भारतीय दर्शन तथा उसके नवरसों का दर्शन कराना था।

इब्राहिम शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद गायकी के कुशल विशेषज्ञ थे। उन्होंने हजारों दरवारी संगीतज्ञों को अपनी नयी नगरी नौरस पुर में आश्रय दिया। 1614 ई० में इब्राहिम लाहौर में प्रसिद्ध संगीतज्ञ बख्तर खान से मिले। इन्हें इनका संगीत अत्यन्त प्रिय लगा कि इन्होंने अपनी भांजी की शादी इनसे कर दी और अपने साथ ध्रुपद गायकों के लिए रख लिया।

इसके अतिरिक्त इन्हें हाथियों, हीरे जवाहरात तथा पक्षी पालन का भी शौक था। उन्होंने शतरंज जैसे खेल पर नवीन कलात्मक मूल्यों के शोध आलेख भी प्रस्तुत किए। संगीत में रूचि होने के कारण ही सम्भवतः उनके आश्रय में रागमाला सम्बन्धी बहुत सुन्दर चित्रों की रचना हुई।

इनके समय में व्यक्तिचित्र भी मिलते हैं जो प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम मुंबई, ब्रिटिश म्यूजियम तथा बीकानेर पैलेस आदि में संग्रहित हैं। इब्राहिम ने अकबर के समान हिन्दू कलाकारों का सम्मान किया तथा अपने पूर्वजों के फारसी प्रभाव को धीरे-धीरे समाप्त कर नवीनता की ओर अपने पग अग्रसर किए।

किन्तु यूरोपियन प्रभाव से इस समय के चित्र मुक्त नहीं हो पाए। ‘ए हॉर्स एण्ड ए ग्रूम (A horse and a groom) इसी प्रकार के चित्रों में से एक है जो 1605 ई० में चित्रित किया गया है। इस चित्र में एक नायक विशिष्ट रूप से सुसज्जित एक घोड़े की रस्सी को थामे हुए गतिशील मुद्रा में चित्रित है, पृष्ठभूमि हरे रंग की है तथा आकाश में नीले रंग की विभिन्न तानों में बादलों का आभास उत्पन्न किया गया है। अग्रभूमि में छोटे-छोटे कुछ पौधे चित्रित हैं जो चित्र के सौंदर्य को द्विगुणित कर रहे हैं।

इनके समय में जो व्यक्ति चित्र बनाए गए वो ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में माने जाते हैं। 1620 ई० का ग्वाश से बना चित्र ‘ए मुल्ला विद टू पारट्रिज्स’ (A Mulla with two Partridges) बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें मुल्ला को ग्रे दाढ़ी में बनाया गया है जो कि बीजापुर दरबार का कोई मन्त्री है। इस मुल्ला ने पीले रंग का लम्बा जामा, ओकर रंग का शाल, सफेद पगड़ी तथा नारंगी जूते पहने हैं। दो तीतर अग्रभूमि में दाना चुगते हुए चित्रित हैं। पृष्ठभूमि में परम्परागत रूप के बादल बने हैं। इस चित्र को निर्मित करने वाले कलाकार के अन्य चित्रों में भी इसी प्रकार की विशेषताएँ दिखायी देती हैं।

इसके अतिरिक्त इखलास खान के व्यक्तिचित्र जो कि चाँद मुहम्मद द्वारा बनाए गए बीजापुर में व्यक्तिचित्रण परम्परा के क्षेत्र में एक नवीन अध्याय को जोड़ते हैं। इखलास खान के इस चित्र में उन्हें मैदान में दाएँ हाथ में तलवार लिए हुए दर्शाया गया है। वायाँ हाथ शील्ड पर है जो काले रंग की है, दो तलवार शील्ड के पीछे हैं, कमर के पटके में एक कटार लगा है। यह चित्र 1640 ई० का है परन्तु 1650 ई० के एक व्यक्तिचित्र में उन्हें योद्धा के स्थान पर दरबारी के वेश में बनाया है। इस चित्र में मुख पर गौरव और आयु की परिपक्वता स्पष्ट दिखाई देती है। इखलास खान आदिल शाह साम्राज्य में एक अवसीनियम (Abyssinian) अफसर था।

इन व्यक्ति चित्रों में कलाकार की सूक्ष्म दृष्टि अत्यन्त विशिष्ट है। यह सूक्ष्म दृष्टि कहीं उसे यथार्थ प्रस्तुतीकरण में सहायता देती है तो कहीं काल्पनिकता में इस संदर्भ में मुहम्मद खान का बना सुल्तान मुहम्मद आदिल शाह द्वितीय का व्यक्तिचित्र उत्कृष्ट है वह एक खिड़की के भीतर खड़े हैं, हाथ में एक मणि तथा हुक्के का पाइप है।

उसके दरबारी सैयद नूर अल्लाह बाहर चित्रित है जो उनसे किसी पत्र सम्बन्धी बातचीत कर रहे हैं, पत्र उनके हाथ में है। वास्तु की सज्जा अलंकारिक तथा कलात्मक है। व्यक्ति चित्रों की श्रृंखला के अन्तर्गत इब्राहिम का एक व्यक्तिचित्र लगभग 1615 ई० का है जिसमें उन्हें हाथ में करतार (wooden clappers) लिए हुए खड़ी हुई मुद्रा में चित्रित किया गया है।

इब्राहिम की आकृति को यथार्थ प्रस्तुत करने में उनकी वेशभूषा एवं मुख के भावों के अंकन में कलाकार को सिद्धहस्त तूलिका के दर्शन होते हैं। पृष्ठभूमि में अलंकारिक वृक्ष तथा अग्रभूमि में कुमुदनियों का अंकन एक प्रफुल्ल वातावरण प्रदान करता है। चित्र में कुछ हद तक मुगल प्रभाव लक्षित होता है मुख्य रूप से वास्तु के अंकन में जिस प्रकार मुगल शैलों में हाथी पर सवार सम्राटों के चित्रों को दर्शाया गया है इसी प्रकार दक्खिनी शैली में भी शासकों के भव्य-वैभव को प्रदर्शित करते हुए व्यक्तिचित्र बनाए गए हैं।

‘मुहम्मद आदिल शाह एण्ड हिज मिनिस्टर इखलासखान राइडिंग एन एलीफैन्ट’ (Muhammad Adil Shah and his Minister Ikhlas Khan riding an elephant) नामक चित्र बीजापुर में 1650 ई० में बनाया गया पृष्ठभूमि सपाट धूमिल नील वर्ण से बनायी गयी है जिस पर गहरे सलेटी रंग से आभूषणों से सुसज्जित हाथी को बनाया गया है। उसके ऊपर मुहम्मद आदिल शाह तथा उनके पीछे उनके मंत्री इखलास खान बैठे हैं। वस्त्रों एवं आभूषणों की कलात्मक सज्जा जहाँ एक ओर शासक के गौरवशाली व्यक्तित्व को सूचित करती हैं वहीं कलाकार की तूलिका की पकड़ तथा वर्ण सामंजस्य के क्षेत्र में उसकी दक्षता को भी प्रदर्शित करती है।

1687 ई० में बीजापुर की रियासत पर मुगल शासक औरंगजेब का अधिकार हो गया जिससे दक्षिण में आदिलशाह सल्तनत धीरे-धीरे समाप्त होती गयी जिसने लगभग 200 वर्षों तक बीजापुर में शासन किया था।

बीजापुर के आदिल शाही शासक अत्यन्त महत्वाकांक्षी, सुरुचि-सम्पन्न कला एवं साहित्य के क्षेत्र में प्रतिभावान् थे। कला जगत में मात्र चित्रण ही नहीं इन शासकों ने वास्तु रचना के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किया। इसी लिए यह माना जाता है कि इस समय बीजापुर में बहुत सुन्दर भव्य एवं कलात्मक भवनों की रचना हुई जो कि निःसन्देह दर्शनीय हैं।

इसी सन्दर्भ में यमुना तट पर स्थित बीजापुर का विशाल दुर्ग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त अन्य इमारतों में गोल गुम्बज, इब्राहिम रोजा, जामा मस्जिद, महता महल आदि हैं। इन भवनों की रचना में आदिलशाही शासकों की समन्वयवादी उदार नीति के दर्शन होते हैं क्योंकि इन इमारतों की रचना में हिन्दू-मुस्लिम कलाकारों ने मिल कर कार्य किया है।

चित्रण एवं वास्तु रचना की एक अटूट परम्परा के अतिरिक्त दक्खिन में संगीत एवं साहित्य का भी महत्वपूर्ण प्रचार हुआ क्योंकि आदिल शाही शासक संगीत तथा साहित्य में रूचि रखते थे। इनके समय में बुरहानुद्दीन जानम तथा नुसरतो रचनाकारों द्वारा सुन्दर एवं काव्यात्मक साहित्यिक रचनाओं का प्रणयन किया गया।

इसके अतिरिक्त कुछ काल्पनिक आकृतियों की भी संरचना की गयी जैसे रूहानी (The Ruhanis are feminine images personifying the unseen powers of the world) नुजुम-अल-उलम के 36वें अध्याय में इस प्रकार की रूहानी नारी, आकृतियों का वर्णन मिलता है।

बीजापुर शैली में ही बना रूहानी साया का एक चित्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है जिसमें एक रूहानी को वीणा तथा शंख हाथ में लिए हुए बैठी मुद्रा में बनाया गया है। यह चित्र 1570 ई० का अली आदिल शाह के समय में निर्मित हुआ। पृष्ठभूमि सपाट है जिसमें लहलहाते वृक्ष तथा छोटी-छोटी घास को सम्पूर्ण क्षेत्र दिखाया गया है। इस चित्र पश्चिम भारतीय शैली का प्रभाव है।

इसी प्रकार अन्य चित्रों भी प्रभाव देखा है जिसमें मोतीचन्द के अनुसार, … [pointed small mouth, almond shaped eyes, the eye-comers extending the and double chin of women in Deccan painting strongly us of Western Indian tradition. किसी-किसी चित्र दूसरी आँख चेहरे की बाह्य रेखा में ‘स्पेस’ में न बनाकर चित्रित किया है जिसका उदाहरण वरहन निज़ाम शाह का चित्र प्रस्तुत करता है।

गोलकोण्डा शैली

गोलकोण्डा 1512 ई० तक एक स्वतन्त्र सल्तनत के रूप जानी जाती थी और 16वीं शताब्दी के अन्तिम दौर में दक्खिनी राजाओं में यह सबसे अधिक समृद्धशाली सल्तनत के रूप में जानी जाती थी जिसका कारण था समुद्री तट की ओर से विदेशों से व्यापारिक विकास का होना।

इब्राहिम कुतुबशाह ने 1550 ई० से 1580 ई० तक शासन किया। इसके पश्चात् इनके पुत्र मोहम्मद कुली कुतुबशाह ने 1580 बागडोर संभाली। इनकी पत्नी भागमती के सम्मान एक नयी राजधानी हैदराबाद का 1589 निर्माण गया। साथ ही मौहम्मद कुली ने प्रसिद्ध इमारत चार मीनार का निर्माण कराया।

फारस से इस शाही परिवार के मधुर सम्बन्ध थे इन्हीं के समय में पाँच चित्र हफीज के दीवान के अन्दर से प्राप्त जो इस समय ब्रिटिश म्यूजियम में हैं। इन चित्रों से एक में एक युवा शासक को सिंहासन पर बैठे हुए दिखाया गया है जिसने गोलकोण्डा दरबार की शाही पोशाक पहनी हुई है।

स्वर्ण चित्र प्रयोग चित्र का संयोजन सम्मात्रिक तथा वास्तु पृथक् प्रकार का इस समय तक चित्रों में मुगल प्रभाव नहीं दिखाई देता है।

परन्तु आगे चलकर धीरे-धीरे गोलकोण्डा के चित्र अन्य प्रभावों से युक्त होने लगे। मौहम्मद के पश्चात् उनका भतीजा मौहम्मद कुतुबशाह (1611-1626) शासनाधीन हुआ। इन्होंने हैदराबाद में मक्का का निर्माण कराया। वह घोड़ों बहुत शौकीन थे। इनके प्रारम्भिक समय का एक प्रसिद्ध व्यक्तिचित्र मिलता जिसमें वह दीवान पर बैठे हुए हैं। इसका अलंकारिक आलेखन अत्यंत उत्तम है। धीरे-धीरे इस समय के चित्रों पर मुगल प्रभाव आने लगा मुख्य रूप दरबारियों वस्त्रों में।

सिंहासन के समीप स्वर्ण रखे हैं। विद्वान ऐसा मानते हैं कि मोहम्मद कुतुबशाह के समय में 1605-1615 ई0 के मध्य भारत के महान कलाकारों में गिने जाने वाले कलाकार कार्य कर रहे थे। इस समय के कलाकारों में मौहम्मद अली का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता था।

इन्हीं के द्वारा ‘पोएट इन ए गार्डन’ (Poet in a garden) नामक चित्र बनाया गया। इस चित्र में एक बुजुर्ग कवि हरी घास पर एक पुस्तक बाएँ हाथ में लिए तथा दायाँ हाथ अपनी दाढ़ी पर रखे कुछ सोचने की मुद्रा में बैठा है। समीप ही पेन का डिब्बा, लिखने के लिए पुस्तिका (writing wallet) मदिरा पात्र तथा स्वर्ण कप रखा है। नोले रंग की पृष्ठभूमि में श्वेत, गुलाबी तथा हल्के नीले रंग के सुन्दर एवं कलात्मक फूलों का चित्रण है।

गोलकोण्डा के प्रारम्भिक चित्रों की तुलना में इन चित्रों में लय की सृष्टि स्पष्ट दिखाई देती है। गोलकोण्डा में बहुत से शाही जुलुसो के चित्र भी मिलते हैं जैसे कि मुगल शैली में चित्रित हैं। अब्दुल्ला कुतुबशाह के समय के बने हुए इस प्रकार के चित्र बहुत उत्कृष्ट है। अबुल हसन तानाशाह के समय में भी कला की काफी उन्नति हुई।

इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय तथा अबुल हसन ताना शाह के पास फारसी चित्रों का एक बहुत बड़ा संग्रह था। इसी कारण नजुम-अल-उलम के दृष्टान्त चित्रों पर फारसी प्रभाव लक्षित होता है। कुछ चित्रों पर मुगल प्रभाव भी दिखायी देता है। तानाशाह का व्यक्तिचित्र इसी प्रकार का उदाहरण प्रस्तुत करता है तानाशाह ने शाही कढ़ाईदार वस्त्र, लाल प्रिन्टिड पगड़ी तथा आभूषण धारण किए हुए हैं।

धीरे-धीरे गोलकोण्डा में व्यक्ति चित्रण की यह परम्परा अत्यन्त सुदृढ़ हो गयी। कुतुबशाही शासन के अन्तिम दौर में शाह और उनके दरबारियों के बहुत से प्रभावशाली व्यक्तिचित्र निर्मित हुए।

मसूलीपट्टम से पाश्चात्य देशों के व्यापारिक सम्बन्ध थे। डच ने 1605 ई० में तथा अंग्रेजों ने 1611 ई० में यहाँ व्यापार प्रारम्भ किया यूरोपियन भारत में सोना-चाँदी लेकर आते और कपड़ा खरीद कर मलायन द्वीप समूह पर ले जाते जिसे बदल कर मसाले प्राप्त कर जहाज से यूरोप भेज देते।

इसमें से दो तिहाई कपड़े पर कलाकार चित्रण कार्य करते थे। गोलकोण्डा में पोथी तथा दृष्टान्त चित्रण के साथ-साथ बहुत सुन्दर पेन्टिड हैंगिग्स’ की रचना की गयी जो अपने आप में अद्भुत सौंदर्य को समेटे हैं। ‘पेन्टिड हैंगिग्स’ की यह परम्परा पिरार्ड दी लावल (Petaboli) मसूलीपट्टम की ओर देहाती क्षेत्रों में दिखाई देती है।

इन ‘वाल हैंगिग्स’ की ओर प्रथम बार 1610 ई० में मालद्वीप के शासक के महल में प्राप्त कर फ्रांसिसि यात्री पिरार्ड डे लावल (Pyrard de Laval) ने ध्यान आकर्षित कराया। इन ‘बाल हैंगिग्स’ को यूरोप भी ले जाया गया किन्तु धीरे-धीरे 1620 ई० के बाद यूरोपियन को यह कपड़े पर बने चित्र पर्याप्त रूप से नहीं प्राप्त हो सके क्योंकि इनकी और ईरानों तथा मुगल शासकों का ध्यान आकर्षित हो गया।

गोलकोण्डा से यह ‘वाल हैंगिग्स’ ईरान जाने लगे तथा इसके बदले में ईरान से घोड़े भारत आने लगे। इन वाल हैंगिग्स’ में प्रयुक्त होने वाले वस्त्रों के रचयिता हिन्दू- ‘क्राफ्ट्समेन’ के परिवार थे। एक-एक हौंगग्स को पूरा होने में लगभग तीन माह का समय लगता था। मसूलीपट्टम नगर के ही किनारे अंग्रेजों की कार्यशाला भी थी। जिसके अध्यक्ष विलियम मैथवोल्ड (William Methwold) थे।

इस कार्यशाला में पर्ल के आभूषण बनाए जाते थे ऐसे बहुत से चित्र मिलते हैं जिनमें पात्रों को इस प्रकार के आभूषण पहने हुए दर्शाया गया है। गोलकोण्डा शैली का एक चित्र ‘ए प्रिन्स हॉकिंग’ (A prince hawking) एक महत्वपूर्ण चित्र है जो 1610 ई० में निर्मित हुआ।

इस चित्र में एक घोड़े पर एक राजकुमार दर्शाया है जिसने हरे रंग का जामा, लम्बा पटका तथा पूर्णतः आलंकारिक पटका पहना हुआ है। वह मुड़कर एक चीनार वृक्ष को देख रहा है जहाँ बहुत से पक्षी बैठे हैं। जिन्हें बाज अपना शिकार बनाना चाहता है जो उसके दाएँ हाथ पर बैठा है।

उसके आगे आगे एक सईस जा रहा है जिसके हाथ में तलवार तथा कुल्हाड़ी है तथा कपड़े का एक बंडल उसके कन्धे पर है। एक शिकारी कुत्ता साथ चल रहा है। पृष्ठभूमि में सफेद रंग का वास्तु तथा उसके पीछे भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्रों को बनाया गया है। चित्र के ऊपर की ओर दाँयी ओर आग की लपटों जैसे कुछ आकार बने हैं।

भवनों के आगे फारसी प्रभाव युक्त चट्टानें हैं जिसमें से जल की धारा निकल कर नीचे की ओर अग्रभूमि का निर्माण करती है। चित्र की सम्पूर्ण भूमि को रंग बिरंगे फूलों से भरा गया हैं आकाश में चीनी परम्परा में बादलों का आलेखन है।

17वीं शताब्दी में मुगल शासकों का उद्देश्य दक्खिन के विविध क्षेत्रों को जीतने का हो गया। धीरे-धीरे औरंगजेब के मुगल सिंहासन संभालने पर दक्खिन का काफी भाग मुगलों के आधीन हो गया। 1686 ई० में बीजापुर तथा 1687 ई० में गोलकोण्डा मुगलों के आधीन हो गया 1640-1680 के मध्य ऐसे बहुत से चित्र बने जिनमें मुगल-दक्खिनी शैली को एक साथ देखा जा सकता है तथा कुछ चित्रों में मुगल दक्खिनी के साथ-साथ राजपूत शैली का भी सामञ्जस्य है जैसा कि ‘एट द वैल’ (At the well) नामक चित्र में।

अहमदनगर शैली

अहमदनगर निजाम शाह (1490 ई०-1633 ई०) की राजधानी थी जो कि दक्खिन के उत्तरी भाग में है। बीजापुर तथा गोलकोण्डा की तुलना में यहाँ सीमित चित्रों की रचना हुई। सन् 1565 ई० में तालिकोटा के युद्ध के पश्चात् अहमदनगर के निजाम हुसैन शाह की मृत्यु हो गयी। उनकी बेगम सुल्ताना अपने पुत्र मुर्ताज प्रथम के लिए शासक बनी जिनका शासन हुमायूँ की देखरेख में था।

इनके शासन काल में (1565 ई०-1569 ई०) एक प्रसिद्ध ईरानी काव्य रचना हुई जिसमें हुसैन की विजय एवं विवाह सम्बन्धी वर्णन था उसका शीर्षक था तारीफ-ए-हुसैन शाही। इससे सम्बन्धित एक चित्र भारत इतिहास संशोधक मण्डल पूना में सुरक्षित है जिसका शीर्षक है ‘किंग सीटिंग ऑन द थ्रोन’ जिसमें छापेदार, गद्देदार आसन पर शेख जैसा राजा बैठा है परन्तु उसके सिर पर मुकुट न होकर गोल टोपी है।

बाँयी ओर तीन तथा दाँयी ओर 2 स्त्रियाँ चित्रित हैं जो वस्त्राभूषणों तथा सज्जा से मालवा शैली से साम्य रखती हैं। वास्तु में आलेखन का अत्यधिक प्रयोग तथा प्राथमिक चटख रंग योजना है। तारीफ-ए-हुसैन शाही ग्रन्थ के चित्रों में फारसी प्रभाव दिखायी देता है। मुख्य रूप से सुनहरी आकाश, अलंकार तथा वनस्पति आलेखन में।

बरहन द्वितीय हुसैन शाह के सबसे छोटे पुत्र थे जिसने अपने बड़े भाई मुर्ताज के विरूद्ध विद्रोह कर दिया बाद में 1583 ई० में वह भाग कर अकबर के दरबार में चला गया परन्तु कुछ वर्षों बाद वह 1591 ई० में पुनः वापिस अहमदनगर आ गया। बरहन का राज्य काल यद्यपि बहुत उत्कृष्ट नहीं था। परन्तु फिर भी उनके समय में कलाकारों ने अनेक कलाकृतियों की रचना की अनेक विद्वान् उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे।

विख्यात इतिहासकार फेरिश्ता (Ferishta) तथा जुहूरी (Zuhuri) को भी इनका आश्रय मिला। इसलिए जुहूरी ने अपनी प्रसिद्ध रचना साकी नामा (Book of the cup Bearer) बरहन को समर्पित की। कुछ समय पश्चात् वह बीजापुर चले गये। दक्षिण की अन्य शैलियों के समान अहमदनगर में भी रागमाला सम्बन्धी चित्रों की रचना हुई। इसी श्रृंखला का एक चित्र ‘हिंडोल राग’ नेशनल म्यूजियम, नयी दिल्ली में सुरक्षित है।

यह चित्र 1580 ई०-1590 ई० के मध्य का है जिसकी विशेषताएँ लौर चन्दा तथा चौर पञ्चाशिका के चित्रों से साम्य रखती हैं। चित्र में लय का सुन्दर सृजन है। अग्रभूमि में सितारें की आकृति में छोटा सा तालाब चित्रित है जैसा कि फारसी शैली में। दाँयी ओर से दो नायिकाएँ पिचकारी से ‘सैफरन’ रंग का पानी बीच में बैठे नायक-नायिका पर डाल रही हैं।

झूले की रस्सियाँ एक विशाल वृक्ष के मध्य से निकल रही हैं। मध्य में लगभग श्वेत सपाट भूमि पर छोटे-छोटे रंगीन पौधे बनाए गए हैं। बाँयी ओर एक नायिका वीणा जैसा कुछ वाद्य बजा रही है जिसकी ओर नायक-नायिका केन्द्रित हैं।

सन् 1600 तक अहमदनगर दक्षिण के संरक्षकों के आश्रय में रहा परन्तु सन् 1601 ई० में यहाँ अकबर का अधिकार हो गया और निजी विशेषताओं के अतिरिक्त यहाँ के चित्रों पर यूरोपीय प्रभाव भी लक्षित होने लगा।

इन चित्रों में कहीं भारतीय विषयों में पात्रों के पाश्चात्य वस्त्रों तथा पृष्ठभूमि को अतिरिक्त यथार्थ शैली में बनाया गया है और कहीं पाश्चात्य विषयों को भारतीय परिवेश में दर्शाया गया है। इसी प्रकार के कुछ प्रसिद्ध चित्र ‘ए. यूरोपियन लेडी विद ए डॉग’, ‘द वर्जिन मैरी विद द इन्फैन्ट तथा नेटीविटी’ आदि हैं।

दक्षिणी शैली का प्रसिद्ध चित्र कौन सा है?

दक्षिण भारत में चित्रकला अपने जटिल चित्रकारी चमकीले रंगों के लिए प्रसिद्ध हैं। दक्षिण भारत में चित्रकला की कई शैली हैं जैसे मैसूर, तंजौर, नायक, चोल आदि। कांचीपुरम में कैलाशनाथ मंदिर के क्षेत्र की दीवार में स्थापित करने के लिए छोटे मंदिरों में पल्लव काल के चित्र मौजूद हैं।

दक्षिणी शैली का मुख्य विषय क्या था?

बीजापुरी चित्रों में चेहरा चमकदार, पृष्ठभूमि सादी, हरी तान वाली एवं अग्रभूमि में कमी - कुमार फूलों की बिछावट दक्षिण में छपे प्रसिद्ध पर्दों की तरह की गई है। अहमदनगर चित्रशैली में पुरुषों को जामा, पायजामा व लम्बा पटका पहने चित्रित किया गया है।

कोटा शैली का प्रसिद्ध चित्र कौन सा है?

हाड़ोती चित्र शैली में " कोटा ,बूंदी और कोटा संभाग के क्षेत्र हाड़ोती चित्रकला के अंतरगत आते हे ,यह हाड़ोती शैली कहलाती हे। राव भवसिंह का शासन काल इस शैली का स्वर्ण काल माना जाता हे राजस्थान में पशु पक्षी का सर्वधिक चित्रण इसी शैली में हुआ हे मयूर ,हाथी ,शेर ,हिरण ,प्रमुख हे।

राजस्थान की सबसे प्राचीन चित्र शैली कौन सी है?

राजस्थान में उपलब्ध सर्वाधिक प्राचिनतम चित्रित ग्रंथ जैसलमेर भंडार में 1060 ई. के 'ओध निर्युक्ति वृत्ति' एवं 'दस वैकालिका सूत्र चूर्णी' मिले हैं। राजस्थान की चित्रकला शैली पर गुजरात तथा कश्मीर की शैलियों का प्रभाव रहा है