विधि-विषय वस्तु को छात्रों के सामने अच्चे तरिके से या विधि से प्रस्तुत करना विधि कहलाती है। ,यह पुर्व नियोजित व अपरिवर्तनशील है। Show
प्रविधि-इसके अन्तर्गत काठिन्य निवारण को स्पष्ट करके विषय वस्तु का छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है।
सुक्ष्म शिक्षण –प्रर्वतक- D.W. एलिन ने 1963 में अमेरिका, 1970 में D.D.तिवाडी नें भारत में। सुक्ष्मशिक्षण को प्रकाशन मे लाने वाले पासी तथा शाह थे। सुक्ष्मशिक्षण का उद्येश्य-किसी एक विशेष कौशल मे दक्षता प्राप्त करना।
सुक्ष्मशिक्षण चक – 6 चरण होते है।1.पाठयोजना- 2.शिक्षण- 3.प्रतिपुष्ठि(पुनर्बलन)- 4.पुनः पाठयोजना 5.पुनः शिक्षण- 6.पुनः प्रतिपुष्ठि(पुनर्बलन)
शिक्षणसूत्र -9 (प्रर्वतक-हर्बटस्पेन्शर एवं कमेनियश)शिक्षणसूत्र उस धागे के समान होता है। जो अध्यापक अपने मस्तिष्क के ज्ञान के द्वारा छात्र के ज्ञान को केन्द्रित करता है। 1.सरल से कठिन की ओर- यह सूत्र मानव स्वाभाव पर आधारित है।इस सूत्र के माध्यम से बालक मे जिज्ञासा,रूचि तथा आत्मबल बढेगा। 2.ज्ञात से अज्ञात की ओर- यह सूत्र पूर्व ज्ञान पर आधारित है। अर्जित ज्ञानको आधार मानकर विषय-वस्त को स्पष्ट करना । 3.पूर्ण से अंश की ओर- सम्पूर्ण विषय को बालक के सामने प्रस्तुत करना तथा उसे लघु रूप में विषय वस्तु का स्पष्टीकरण करना है। इस शिक्षणसूत्र के द्वारा बालक के भावात्मक और कलात्मक,संज्ञानात्मक पर बल दिया जाता है। 4.विशिष्ट से सामान्य की ओर- विशिष्ट का अर्थ उदाहरण होता है। 5.सामान्य से विशिष्ट की ओर – इसमे अध्यापक बालको के समक्ष पहले नियम प्रस्तुत करेगा। बाद में नियम के माध्यम से उदाहरण प्रस्तुत करेगा। यह निगमन विधि का दुसरा रूप है। 6.प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर- इस शिक्षण सूत्र का दुसरा नाम मुर्त से अमूर्त की ओर है। इसे स्थूल से सुक्ष्म की ओर भी कहते है। 7.विश्लेषण से संश्लेषण की ओर- इस शिक्षण सूत्र मे अध्यापक छात्र को विस्तृत ज्ञान के आधार पर तथा सीमित ज्ञान के आधार पर विषय वस्तु का स्पष्टीकरण करता है। -विश्लेषण का अर्थ- पूर्ण से अंश की ओर है, -संश्लेषण का अर्थ- अंश से पूर्ण की ओर है 8.मनोविज्ञान से तार्किक की ओर- इसके अन्तर्गत बालक की अन्तक्रियाओं पर विशेषकर बल दिया जाता है। विषय वस्तु को पूर्ण रूप से स्पष्ट करने का यह सर्वश्रेष्ठ शिक्षणसूत्र है। 9.अनुभव से तर्क की ओर- मनोविज्ञान मे तार्किक को ही अनुभव से तर्क की ओर कहते है।
शिक्षणविधि की विशेषताएँ –1.इनके माध्यम से बालक व्यवहार में परिवर्तन होता है। 2.सजीव वातावरण प्रस्तुत करना चाहिए। 3.शिक्षणविधि करके सिखने पर आधारित होनी चाहिए। 4.शिक्षणविधि गतिशील होनी चाहिए न कि स्थिर होनी चाहिए। 5.वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना चाहिए। 6.बालक का सर्वांगिण विकास होना चाहिए।
शिक्षणविधियाँ तीन प्रकार की होती है (1) प्राचीन विधि/मौलिक विधि (2)नवीन विधि/अर्वाचीन विधि (3)नवीनतम विधि [1] प्राचीन विधि/मौलिक विधि -10 वे विधियाँ जो लार्ड मैकाले (1835) के भारत आने से पहले प्रचलित थी। यह दो प्रकार की है- 1. पाठशाला विधि 2. व्याकरण अनुवाद विधि {1} पाठशाला विधि-इस पद्वत्ति में छात्रों को विषयवस्तु स्पष्ट की जाती थी। पाठशाला विधियाँ-1.मौखिक विधि 2.परायण विधि 3.वादविवाद विधि 4.प्रश्नोत्तर विधि 5. सूत्र विधि 6. कथाकथन विधि 7. कक्षानायक विधि 8.भाषण विधि 9. व्याख्या विधि (1) मौखिक विधि- इस विधि को व्यक्तिगत विधि भी कहते है। इस विधि के अन्तर्गत छात्र विषय वस्तु को अध्यापक को सुनायेगा। और अध्यापक उनके दोषो को दूर करेगा। इस विधि मे कण्ठस्थीकरण पर बल दिया जाता है। (2) परायण विधि- परायण का वास्तविक अर्थ पाठ करना होता है। इस विधि के अन्तर्गत वैदिक मंत्रों का पाठ कराया जाता है। — इसमे रटने पर अधिक बल दिया जाता है। इस विधि का सबसे बड़ा दोष है अर्थ के अवबोधन(दोष) पर ध्यान नही दिया जाता है। (3) वादविवाद विधि- कण्ठस्थीकरण के साथ-साथ अवबोधन(दोष) पर ध्यान दिया जाता है। यह विधि करके सिखने पर बल देती है। -, सूक्ष्म विषय वस्तु को दल बनाकर स्पष्ट किया जाता है। – इसमे दल शिक्षण को महत्व दिया जाता है। (4) प्रश्नोत्तर विधि- अध्यापक प्रश्न पुछता है छात्र उत्तर देता है। – इस विधि के माध्यम से छात्र की अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास होता है (5) सूत्र विधि-यह विधि व्याकरण मे काम मेली जाती है। इस विधि के अन्तर्गत पहले छात्र को नियम बताये जाते है।बाद में उदाहरण बताये जाते है ।अर्थात यह निगमन विधि का दुसरा रूप है। सूक्ष्म विषय को स्पष्ट करने के लिए सूत्र विधि काम में ली जाती है। (6) कथाकथन विधि- इस विधि का प्रयोग विषय वस्तु के स्पष्टीकरण तथा रूचि उत्पादन के लिए शिक्षक पाठ के मध्य या अन्त में करता है। इस विधि के माध्यम से छात्र में नैतिक विकास होता है। C विषय वस्तु को रोचक व जिज्ञासा उत्पन्न करने के लिए उपयोगी विधि- (1) कथा कथन विधि (2) श्रव्य दृश्य सामग्री। (7) कथा नायक विधि- अध्यापक की अनुपस्थिति में छात्र कक्षा में अध्यापक की भूमिका निभाता है। – यह विधि निष्क्रिय विधि है। (8) भाषण विधि- कठिन शब्दों के स्पष्टीकरण के लिए यह विधि काम में ली जाती हैं। — यह विधि उच्चमाध्यमिक स्तर के लिए उपयोगी है। (9) व्याख्या विधि- यह विधि भाषण विधि का ही रूप है। छात्रों की शंका समाधान के लिए इस विधि का प्रयोग किया जाता हैं। भारतीय विद्यालयों में इस विधि का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है। व्याख्या के 6 अंग हैं 1. पदच्छेद (संधि विच्छेद) 2. पदोक्ति/पदार्थोक्ति (मुहावरें द्वारा बताना) 3. विग्रह 4. वाक्य योजना 5. आक्षेप (प्रेरक प्रसंगो के माध्यम से) 6. समाधान (10) व्याकरण विधि-व्याकरण को भाषा का प्राण तत्व कहते है। – पतमजली ने व्याकरण को शब्दानुशासन की संज्ञा दी है। इसके अन्तर्गत ध्वनि, वर्ण विचार, धातुरूप, शब्दरूप, संन्धि, समास, कारक आदी चिह्नों को पढ़ाने की विधि हैं। (11) व्याकरण अनुवाद विधि-
[2] नवीन विधि/अर्वाचीन विधि –वे विधियाँ जो लार्ड मैकाले (1835) के भारत आने के बाद प्रचलित थी। विधियाँ- 1.पाठ्य पुस्तक विधि 2. प्रत्यक्ष विधि 3.विश्लेषणात्मक विधि 4.हर्बटीय पंचपदी प्रणाली 5.मूल्यांकन विधि 6.संरचनात्मक उपागम विधि
(1.)पाठ्य पुस्तक विधि- प्रवर्तक- डॉ. वेस्ट महोदय
(2) प्रत्यक्ष विधि- प्रवर्तक- V.P.वोकिल -,
(3.) विश्लेषणात्मक विधि-पूर्ण से अंश की ओर इस विधि में विषय वस्तु को पूर्ण रूप से छात्रों के सामने स्पष्ट प्रस्तुत कर दिया जाता है। -, यह विधि विशेष रूप से व्याकरण व कथापाठ के लिए उपयोगी है। (4) हर्बटीय पंचपदी प्रणाली- प्रवर्तक-फैडरिक हर्बट स्पेन्शरपाठयोजना निर्माण के लिए यह सर्वश्रेष्ठ विधि है। इस विधि में फैडरिक हर्बट स्पेन्शर ने चार सोपान दिये थे। 1. स्पष्टता (प्रस्तावना,प्रस्तुतीकरण-सिलर व रेन ने इसमें जोडे । 2. सहयोग/तुलना 3. व्यवस्था/सामान्यीकरण 4. व्यवहारिक/प्रयोग इसविधि में संशोधन कर फैडरिक हर्बट स्पेन्शर ने पाँच सोपान दिये थे। 1. प्रस्तावना (पाठोपस्थापन) 2. प्रस्तुतीकरण (विषयोपस्थापन) 3. तुलना 4. सामान्यीकरण 5. प्रयोग 1. प्रस्तावना (पाठोपस्थापन)-
2. प्रस्तुतीकरण (विषयोपस्थापन)-
3. तुलना-इसका मुख्य उद्देश्य विषय वस्तु को सार रूप में स्पष्ट करना। – इसमें बोध प्रश्न, अभ्यास प्रश्न, विचारविश्लेषणात्मक प्रश्न, आदि है। -, गद्य-पद्य में इसे अध्यापककथन कहा जाता है। – व्याकरण में नियमितिकरण/नियमीकरण कहा जाता है। प्रयोग- इसका मुख्य उद्देश्य छात्रों के लिए किये गये ज्ञान को स्थायी करना है। → इसमें अधिगम का व्यावहारीकरण किया जाता है। – अर्थात् नवार्जित ज्ञान को व्यवहार में लाना। — इसमें ग्रहकार्य, मूल्यांकन प्रश्न, पुनरावृत्ति प्रश्न आदि है। संस्कृत की सर्वश्रेष्ठ विधि कौन सी है?प्रत्यक्ष विधि- प्रवर्तक- संस्कृत शिक्षण की यह सर्वश्रेष्ठ विधि है ।
संस्कृत में पद्य शिक्षण की सर्वश्रेष्ठ विधि कौन सी है?पद्य शिक्षण का सर्वश्रेष्ठ वाचन सस्वर वाचन है। रसानुभूति, काव्य का रसास्वादन, सौन्दर्यानुभूति, भवानुभूति, चतुर्वर्ग फलप्राप्ति का उद्देश्य करना।
संस्कृत शिक्षण की सबसे प्राचीन विधि कौन सी है?स्पष्टीकरण - पारायण विधि यह प्राचीनतम (सबसे प्राचीन) विधि है। यह एक प्राचीन विधि है। यह विधि कंठस्थीकरण पर जोर देती है। सस्वर पाठ करना भी इसी विधि का अंग है।
व्याकरण शिक्षण की सर्वश्रेष्ठ विधि कौन सी है?व्याकरण शिक्षण की सर्वश्रेष्ठ विधि आगमन निगमन विधि है। यह प्राचीनकाल में पाणिनि, पतंजलि ने क्रमश: स्वीकार की है। वर्तमान समय में आगमन निगमन विधि का प्रयोग करके व्याकरण शिक्षण सुग्राह्य किया जाता है। इस विधि के दो सोपान है - आगमन एवं निगमन।
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