साख नियंत्रण की विधियाँ Show केन्द्रीय बैक साख को नियंत्रित करने के लिए अनेक विधियों का उपयोग करता है । अध्ययन की सरलता के लिए इन विधियों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है । ( A ) परिमाणात्मक साख नियंत्रण के
उपाय ( Methods of Quantitative Credit Control ) परिमाणात्मक साख नियंत्रण के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक उन उपायों को अपनाती है जिनसे व्यापारिक बैंकों के नकद कोषों के परिमाण प्रभावित होते है । इन उपायों के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक मुख्यत : इन विधियों का विस्तृत विवरण निम्न प्रकार है : - ( 2 )बैंक दर में परिवर्तन के प्रभाव ( Effects of Changes in Bank Rate ) - बैंक दर में परिवर्तन का देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रमुख प्रभाव निम्न प्रकार है -
( 2 ) खुले बाजार की क्रियाएँ ( Open Market Operations ) : केन्द्रीय बैंक साख नियंत्रण के लिये खुले बाजार की क्रियाओं का प्रयोग करता है विस्तृत अर्थ में , जब केन्द्रीय बैंक किसी भी प्रकार की सम्पत्तियों जैसे - सरकारी प्रतिभूतियाँ , विदेशी विनिमय बिल , अन्य प्रतिभूतियाँ एवं ऋण पत्रों का क्रय विक्रय करता है तो उसे खुले बाजार की क्रिया कहते
है । संकुचित अर्थ में , जब केन्द्रीय बैंक के द्वारा केवल सरकारी अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन प्रतिभूतियों का क्रय - विक्रय किया जाता है तो उसे खुले बाजार की क्रियाएँ कहते हैं । प्रतिभूतियों में ऋण पत्र , अंश पत्र , व्यावसायिक बिल आदि सम्मिलित किये जाते है ।
खुले बाजार की क्रियाओं के उद्देश्य ( Objectives of open Market Operations )
( 3 ) परिवर्तनशील न्यूनतम कोषानुपात ( Variable Minimum Reserve Ratio ) : साख नियंत्रण की परिवर्तनशील न्यूनतम कोषानुपात विधि के प्रतिपादक प्रो . कीस है । सन् 1935 में अमेरिका ने इस रीति का प्रयोग किया । इसके बाद विश्व के लगभग सभी देशों की केन्द्रीय बैंको ने इस रीति को अपनाया । इस विधि के अनुसार " केन्द्रीय बैंक से सम्बद्ध समस्त बैंकों को अपनी कुल जमा का एक निश्चित प्रतिशत केन्द्रीय बैंक के पास जमा रखना पड़ता है । केन्द्रीय बैंक को इस जमा प्रतिशत में परिवर्तन का अधिकार होता है । जब केन्द्रीय बैंक देश में साख की मात्रा को कम करना चाहता है तो उक्त जमा प्रतिशत में वृद्धि कर देता है , जिससे बैंकों की साख निर्माण शक्ति सीमित हो जाती है । इसके विपरीत , जब साख की मात्रा में वृद्धि करना होती है तब नकद कोषों के प्रतिशत में कमी कर दी जाती है जिससे बैंकों की साख - निर्माण शक्ति बढ़ जाती है । इसे निम्न उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है । माना कि एक व्यापारिक बैंक में 10 लाख रुपये जमा है । यदि वह इस राशि का 5 प्रतिशत केन्द्रीय बैंक के पास जमा करता है तो उसे 50 हजार रुपये ( 5/100 x 10,00,000 ) की राशि केन्द्रीय बैंक के पास रखनी पड़ती है । इस प्रकार बैंक की साख निर्माण क्षमता 50 हजार रुपये कम हो जाती है , अर्थात् वह केवल 9.50 लाख रुपयों की साख का निर्माण कर सकता है । चूंकि केन्द्रीय बैंक को इस राशि के प्रतिशत में परिवर्तन करने का पूरा अधिकार होता है । अत : यदि केन्द्रीय बैंक इस कोष की राशि 5 प्रतिशत से बढ़ाकर 10 प्रतिशत कर दे तो सम्बद्ध बैक को केन्द्रीय बैंक के पास एक लाख रुपये रखने पड़ते हैं । ऐसी दशा में बैंक की साख निर्माण क्षमता कम होकर केवल 9 लाख रुपये रह जायेगी । यह मुद्रा संकुचन की दशा होगी । इस दशा में साख संकुचन हो जायेगा । इसके विपरीत यदि केन्द्रीय बैंक परिवर्तनशील न्यूनतम कोष अनुपात घटाकर 2 प्रतिशत कर देती है तब बैक को केवल 20 हजार रुपये केन्द्रीय बैंक के कोष में जमा कराने पड़ेंगे । ऐसी दशा में उसकी साख निणि क्षमता 9 लाख 80 हजार रुपये रहेगी । यह मुद्रा स्फीति की प्रवृत्ति को बढ़ाएगी । ( 4 ) तरल कोषानुपात ( Liquidity Ratio ) : साख नियंत्रण की इस विधि का आविष्कार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुआ । इस विधि में केन्द्रीय बैंक से सम्बद्ध बैंकों को अपनी जमा राशि का एक भाग तरल रूप में रखना पड़ता है । इस तरल मुद्रा के अन्तर्गत नकद राशि , अन्य बैंकों में जमा सरकारी प्रतिभूतियाँ आदि को सम्मिलित किया जाता है । कुछ देशों में तरलता का प्रतिशत कानून द्वारा निर्धारित किया जाता है । भारत में रिजर्व बैंक द्वारा तरल कोषानुपात निर्धारित किया जाता है । इस कोषानुपात में आवश्यकता के समय परिवर्तन भी किया जाता है । इस प्रकार सम्बद्ध बैंक द्वारा तरल मुद्रा के रूप में जितनी अधिक राशि रखी जाती है , बैंक की साख निर्माण क्षमता उतनी ही कम हो जाती है । ( B ) गुणात्मक साख नियंत्रण के उपाय (
Methods of Qualitative Credit Control ) साख नियंत्रण की गुणात्मक रीति का प्रयोग , परिमाणात्मक रीति की तरह साख मुद्रा की समस्त मात्रा के नियमन के लिये नहीं किया जाता है वरन् इसका प्रयोग साख के उपयोग की दृष्टि से किया जाता है । दूसरे शब्दों में , इस रीति में इस बात पर जोर दिया जाता है कि साख की माँग किस उपयोग के लिये तथा किस वर्ग के द्वारा की जा रही है । गुणात्मक साख नियंत्रण की प्रमुख विधियां निम्न प्रकार है :
( 2 ) साख का राशनिंग ( Credit Rationing ) - केन्द्रीय बैंक अपने बैंकों का अन्तिम ऋणदाता होता है । अत : वह
परिस्थितियों के अनुसार व्यापारिक बैंकों को दिए जाने वाले ऋणों को नियंत्रित करता है । इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए केन्द्रीय बैंक ऋणों की अधिकतम सीमा निर्धारित कर सकता है या ऋणों का कोटा निर्धारित कर सकता है । केन्द्रीय बैंक साख के राशनिंग के लिए निम्न उपाय कर सकता है : ( 3 ) नैतिक दवाव ( Moral Suasion ) - केन्द्रीय बैंक का देश के व्यापारिक बैंको पर बहुत प्रभाव होता है , क्योंकि वह अन्तिम ऋणदाता के अलावा उनकी कार्यप्रणाली का निर्देशक एवं नियंत्रक होता है । अत : वह सम्बद्ध बैंकों को समझा - बुझा सकता है या नैतिक दबाव डाल सकता है । इसमें वह सटोरियो , भण्डार करने वालों को कम से कम साख देने की प्रार्थना कर सकता है । उसकी प्रार्थना को सम्बद्ध बैंक आदेश की तरह मानते है । नैतिक दबाव की रीति की सफलता के तत्व निम्नलिखित है -
( 4 ) प्रत्यक्ष कार्यवाही ( Direct Action ) - जब सम्बद्ध बैकों पर केन्द्रीय बैंक के नैतिक दबाव या समझाने का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है तब वह विवश होकर प्रत्यक्ष कार्यवाही करता है । प्रत्यक्ष कार्यवाही का अर्थ केन्द्रीय बैंक द्वारा
व्यापारिक बैंकों के विरुद्ध प्रतिरोधी कार्यवाही करना होता है । जब देश का कोई व्यापारिक बैंक केन्द्रीय बैंक के आदेशों की अवहेलना करता है या केन्द्रीय बैंक की साख सम्बन्धी नीति की सफलता में सहयोग नहीं देता है तब केन्द्रीय बैंक निम्न प्रकार से उसके लिये प्रत्यक्ष कार्यवाही करता है
( 5 ) विज्ञापन एवं प्रचार ( Publicity ) - आधुनिक युग में केन्द्रीय बैंक अपनी साख नियंत्रण की रीति को सफल बनाने के लिये विज्ञापन एवं प्रचार के माध्यम से विनियोक्ताओं एवं जनता का ध्यान अपनी साख नीति की तरफ आकर्षित करता है । किसी भी नीति को सफल बनाने के लिये जनमत तैयार करना आवश्यक होता है । जनमत निर्माण के लिये प्रचार एवं विज्ञापन आवश्यक साधन है , इसलिये केन्द्रीय बैक उच्च अधिकारियों , पत्रकार सम्मेलनों , विचार गोष्ठियों , संगोष्ठियों , सम्मेलनों एवं अन्य अवसरों पर साख नीति के बारे में बताता है । वह पत्र - पत्रिकाओं , पुस्तकों एवं लघु पुस्तिकाओं के माध्यम से देश के आर्थिक एवं मौद्रिक आँकड़े जनता के सामने प्रकाशित करता है । निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि साख नियंत्रण की परिमाणात्मक एवं गुणात्मक विधियों में से किसी एक विधि से वांछित सफलता नहीं मिलती है । ये दोनों रीतियाँ एक दूसरे की पूरक है । अत : दोनों का एक साथ प्रयोग करना अधिक लाभदायक होता है । फिर भी साख के प्रसार या संकुचन के लिये परिमाणात्मक विधियाँ एवं आर्थिक विकास के लिये गुणात्मक विधियाँ अधिक उपयोगी होती है । साख नियंत्रण की कौन सी विधियां हैं?(1) परिमाणात्मक नियंत्रण- (क) बैंक दर अथवा कटौती दर, (ख) खुले बाजार की क्रियायें, (ग) परिवर्तनशील न्यूनतम कोष दर, (घ) तरल कोषानुपात। (2) गुणात्मक विधियाँ- (क) चुने हुए साख नियंत्रण, (ख) साख की राशनिंग, (ग) नैतिक दबाव, (घ) विज्ञापन विधि, (ङ) प्रत्यक्ष कार्यवाही।
साख नियंत्रण के प्रमुख उद्देश्य क्या है?यह नीति सरकार तथा केंद्र बैंक की उस नियंत्रण नीति को कहा जाता है जिसके अंतर्गत कुछ निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मुद्रा की मात्राउसकी लागत तथा ब्याज दर तथा उसके उपयोग को नियंत्रित करने को उपाय किए जाते हैं। संकुचित अर्थों में मौद्रिक नीति से अभिप्राय केंद्रीय बैंक की साख नियंत्रण नीति से है।
साख नियंत्रण से आप क्या समझते हैं?(ix) साख नियंत्रण के चयनात्मक उपाय मुद्रा की पूर्ति को अर्थव्यवस्था के कुछ ही क्षेत्रों में प्रभावित करते हैं । (x) साख का राशनिंग चयनात्मक साख नियंत्रण का महत्वपूर्ण रूप है। वस्तु विनिमय प्रणाली विनिमय का एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें बिना मुद्रा के प्रयोग के वस्तुओं से वस्तुओं की अदला-बदली होती है।
साख की राशनिंग क्या है?केन्द्रीय बैंक द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों को बाजार में खरीदने-बेचने को ही खुले बाजार की क्रियाएँ कहा जाता है। साख की राशनिंग से क्या आशय है? उत्तर: केन्द्रीय बैंक द्वारा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के लिए साख की अधिकतम सीमा निर्धारित कर देना साख की राशनिंग कहलाता है।
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