साख नियंत्रण की कितनी विधियां होती है? - saakh niyantran kee kitanee vidhiyaan hotee hai?


साख नियंत्रण की विधियाँ


केन्द्रीय बैक साख को नियंत्रित करने के लिए अनेक विधियों का उपयोग करता है । अध्ययन की सरलता के लिए इन विधियों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है ।
यथा ( a ) परिमाणात्मक साख नियंत्रण और ( b ) गुणात्मक या चयनात्मक साख नियंत्रण ।
इन विधियों के अन्तर्गत उठाए जाने वाले कदमों की विस्तृत व्याख्या निम्न प्रकार है :

( A ) परिमाणात्मक साख नियंत्रण के उपाय ( Methods of Quantitative Credit Control ) परिमाणात्मक साख नियंत्रण के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक उन उपायों को अपनाती है जिनसे व्यापारिक बैंकों के नकद कोषों के परिमाण प्रभावित होते है । इन उपायों के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक मुख्यत :
( 1 ) बैंक दर ,
( 2 ) खुले बाजार को क्रियाएँ ।
( 3 ) परिवर्तनशील न्यूनतम कोषानुपात और ।
( 4 ) तरल कोषानुपात आदि विधियों के द्वारा साख को नियंत्रित करता है ।

इन विधियों का विस्तृत विवरण निम्न प्रकार है : -
बैंक दर या कटौती दर ( Bank Rate or Discount Rate ) - बैक दर को कटौती दर या पुनः कटौती दर भी कहते है । साख नियंत्रण की नीति के अन्तर्गत बैंक दर का प्रयोग लम्बे समय से किया जा रहा है । वर्तमान समय में विश्व के लगभग सभी केन्द्रीय बैंक इस रीति का प्रयोग कर रहे है । प्रो . काउचर ने ब्याज दर को परिभाषित करते हुए लिखा है , " बैक दर वह व्याज दर है जिस पर केन्द्रीय बैक अपने सदस्य बैकों को रुपया उधार देती है । " भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 49 के अनुसार - " बैक ऋण देता है । " दर वह दर है जिस पर केन्द्रीय बैक सदस्य बैंकों के प्रथम श्रेणी के विनियम विपत्रों को भुनाता है और उन्हें ऋण देता है
बैक दर का बाजार ब्याज दर से घनिष्ठ सम्बन्ध है । बैक दर सामान्यत : बाजार ब्याज दर से नीची होती है । बाजार ब्याज दर वह है जिस पर व्यापारिक बैक ग्राहक को ऋण देते है , जबकि बैक दर वह है जिस पर केन्द्रीय बैंक , अन्य बैंकों को ऋण देता है । अतः बैक दर बढ़ने पर बाजार ब्याज दर भी बढ़ जाती है जिससे व्यापारिक बैकों की साख महँगी हो जाती है । इससे विनियोक्ताओं का लाभ कम हो जाता है । अत : वे पूँजी की माँग कम कर देते है । इसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में मुद्रा संकुचन होने लगता है । इसके विपरीत , यदि केन्द्रीय बैंक अपनी दर को कम करता है तो बाजार ब्याज दर भी कम हो जाती है और व्यापारिक बैंकों की साख सस्ती हो जाती है । जिससे विनियोक्ताओं की साख की मांग बढ़ जाती है । इसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में मुद्रा प्रसार होने लगता है ।

( 2 )बैंक दर में परिवर्तन के प्रभाव ( Effects of Changes in Bank Rate ) - बैंक दर में परिवर्तन का देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रमुख प्रभाव निम्न प्रकार है -

  1. साख संकुचन एवं प्रसार ( Contraction & Expansion of Credit ) - बैक दर बढ़ने पर बाजार ब्याज दर भी बढ़ती है इससे विनियोक्ताओं के लिये ऋण महँगे हो जाते हैं । अत : पूँजी की माँग कम हो जाती है और अर्थव्यवस्था में साख का संकुचन होने लगता है । इसके विपरीत बैंक दर कम होने पर बाजार ब्याज दर कम हो जाती है , जिससे विनियोक्ताओं को ऋण सस्ते मिलते हैं । फलत : उनका लाभ बढ़ जाता है जिससे साख का प्रसार होने लगता है ।
  2. पूंजी के प्रवाह पर प्रभाव ( Effects on Flow of Capital ) - जब बैक दर में वृद्धि की जाती है तब बाजार ब्याज दर भी बढ़ जाती है । अत : विदेशी पूँजी अधिक लाभ कमाने के लिये देश में आने लगती है । इसके विपरीत , बैंक दर कम होने पर देश की पूँजी विदेशों में प्रवाहित होने लगती है ।
  3. विदेशी विनिमय दर पर प्रभाव ( Effects on Foreign Exchange Rate ) - बैंक दर में वृद्धि होने पर विदेशी पूँजी का आयात या प्रवाह बढ़ जाता है । इससे देश का भुगतान सन्तुलन पक्ष में हो जाता है और विनिमय दर भी अनुकूल हो जाती है । इसके विपरीत बैंक दर कम होने पर देशी पूंजी विदेशों को जाने लगती है जिसके परिणाम स्वरूप भुगतान सन्तुलन और विनिमय दर दोनों प्रतिकूल हो जाती है ।
  4. आन्तरिक कीमत स्तर पर प्रभाव ( Effects on Internal Price Level ) - बैंक दर में वृद्धि होने पर ऋणों की माँग कम होती है और चलन मुद्रा बैकों में पड़ी रह जाती है । इससे मुद्रा संकुचन हो जाता है और कीमतो का स्तर नीचा हो जाता है । इसके विपरीत , बैक दर कम होने पर प्रणों की मांग बढ़ती है और व्यापारिक बैक इसे पूरा करने के लिए साख का निर्माण करते है । इससे मुद्रा प्रसार होता है और कीमत स्तर ऊँचा हो जाता है ।
  5. रोजगार पर प्रभाव ( Effects on Employment ) - बैक दर में वृद्धि होने पर ऋण की माँग कम होती है । फलतः विनियोग कम होता है जिससे रोजगार के अवसर कम हो जाते हैं । इसके विपरीत बैक दर कम होने पर विनियोक्ता अधिक ऋण की मांग करते हैं । इससे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं ।
  6. आर्थिक क्रिया - कलापों पर प्रभाव ( Effects on Economic Activities ) - बैक दर में वृद्धि होने पर ऋण की माँग कम हो जाती है इससे मंदी उत्पन्न होती है और सम्पूर्ण आर्थिक क्रिया - कलापो में सुस्ती आ जाती है । इसके विपरीत , बैक दर के कम होने पर ऋणो की मांग बढ़ती है । इससे विनियोग , आय व रोजगार बढ़ता है और सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में तेजी आ जाती है ।

( 2 ) खुले बाजार की क्रियाएँ ( Open Market Operations ) : केन्द्रीय बैंक साख नियंत्रण के लिये खुले बाजार की क्रियाओं का प्रयोग करता है विस्तृत अर्थ में , जब केन्द्रीय बैंक किसी भी प्रकार की सम्पत्तियों जैसे - सरकारी प्रतिभूतियाँ , विदेशी विनिमय बिल , अन्य प्रतिभूतियाँ एवं ऋण पत्रों का क्रय विक्रय करता है तो उसे खुले बाजार की क्रिया कहते है । संकुचित अर्थ में , जब केन्द्रीय बैंक के द्वारा केवल सरकारी अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन प्रतिभूतियों का क्रय - विक्रय किया जाता है तो उसे खुले बाजार की क्रियाएँ कहते हैं । प्रतिभूतियों में ऋण पत्र , अंश पत्र , व्यावसायिक बिल आदि सम्मिलित किये जाते है ।
केन्द्रीय बैक साख नियंत्रण के लिये खुले बाजार की क्रियाओं का प्रयोग निम्न दो उद्देश्य से करता है :

  1. साख संकुचन ( Credit Contraction ) - जब केन्द्रीय बैक यह अनुभव करता है कि उससे सम्बद्ध बैंक बहुत अधिक मात्रा में साख का सृजन कर रहे है तब वह अपने पास की प्रतिभूतियाँ बाजार में बेचता है । इन प्रतिभूतियों को सम्बद्ध बैक खरीदते है । अत : पूँजी व्यापारिक बैंकों से केन्द्रीय बैंक में चली जाती है । इससे सम्बद्ध बैंको का नकद कोष राशि कम हो जाती है और उनकी साख सृजन की क्षमता घट जाती है । इस प्रकार केन्द्रीय बैंक स्फीति काल में प्रतिभूतियाँ बेचकर साख का संकुचन करता है ।
  2. साख का प्रसार ( Credit Expansion ) - जब केन्द्रीय बैक यह अनुभव करता है कि साख की वृद्धि से अर्थव्यवस्था मंदी से छुटकारा पा सकती है , तब वह सम्बद्ध बैंकों से प्रतिभूतियां खरीदता है । इससे केन्द्रीय बैंक के पास प्रतिभूतियाँ एवं सम्बद्ध बैंको के पास मुद्रा पहुंच जाती है जिससे उनकी साख निर्माण की क्षमता बढ़ जाती है ।

खुले बाजार की क्रियाओं के उद्देश्य ( Objectives of open Market Operations )

  1. पूँजी के निर्यात को रोकना ( To Control Flight of Capital ) - केन्द्रीय बैंक प्रतिभूतियों को बेचकर मुद्रा बाजार से मुद्राएँ सोख लेता है । इससे देश की पूँजी विदेशों में जाने से रुक जाती है ।
  2. साख का संकुचन एवं प्रसार ( Contraction & Expansion of Credit ) - खुले बाजार की क्रियाओं का मूल उद्देश्य अर्थव्यवस्था की आवश्यकतानुसार साख का संकुचन एवं प्रसार करना है । केन्द्रीय बैंक तेजी के समय प्रतिभूतियाँ बेचकर साख का संकुचन करता है , और मंदी के समय उन्हें क्रय करके साल का प्रसार करता है ।
  3. बैंक दर के लिये सहायक ( Conducive to Bank Rate ) - जब बैंक दर बढ़ने पर मुद्रा बाजार की अन्य संस्थाएँ जिनके पास काफी नकद कोष होने से बाजार ब्याज दर नहीं बढ़ता है तब केन्द्रीय बैंक बाजार में प्रतिभूतियाँ बेचकर बैंकों की अतिरिक्त राशि को कम कर देता है जिससे सम्बद्ध बैंक बाजार में ब्याज दर बढ़ाने के लिये बाध्य हो जाते हैं । प्रो . हाटे एवं प्रो . क्लार्क का मत है कि “ बैंक दर को सफल बनाने के लिये ही खुले बाजार की क्रियाओं का प्रयोग करना चाहिए । "
  4. स्वर्ण के आयात - निर्यात का नियमन करना ( To Regulate Import - Export of Gold ) स्वर्णमान बाले देशों में स्वर्ण का आयात होने पर मुद्रा का परिमाण और कीमत स्तर बढ़ जाता है तथा स्वर्ण के निर्यात से कीमत स्तर घट जाता है , किन्तु स्वर्ण की मात्रा के कारण कीमत स्तर में परिवर्तन होना देश के लिये उचित नहीं होता है । अत : केन्द्रीय बैंक प्रतिभूतियों का क्रय - विक्रय करके स्वर्ण आयात - निर्यात का नियमन करता है ।
  5. रतिभूतियों की कीमत में स्थिरता ( Stability in Securities Prices ) - सरकारी प्रतिभूतियों को आवश्यक होने पर केन्द्रीय बैंक उन्हें क्रय करता है । इसी प्रकार उनके भाव बढ़ने पर केन्द्रीय बैंक सरकारी प्रतिभूतियाँ बेचता है । इससे उनकी कीमत में स्थिरता बनी रहती है ।

( 3 ) परिवर्तनशील न्यूनतम कोषानुपात ( Variable Minimum Reserve Ratio ) : साख नियंत्रण की परिवर्तनशील न्यूनतम कोषानुपात विधि के प्रतिपादक प्रो . कीस है । सन् 1935 में अमेरिका ने इस रीति का प्रयोग किया । इसके बाद विश्व के लगभग सभी देशों की केन्द्रीय बैंको ने इस रीति को अपनाया । इस विधि के अनुसार " केन्द्रीय बैंक से सम्बद्ध समस्त बैंकों को अपनी कुल जमा का एक निश्चित प्रतिशत केन्द्रीय बैंक के पास जमा रखना पड़ता है । केन्द्रीय बैंक को इस जमा प्रतिशत में परिवर्तन का अधिकार होता है । जब केन्द्रीय बैंक देश में साख की मात्रा को कम करना चाहता है तो उक्त जमा प्रतिशत में वृद्धि कर देता है , जिससे बैंकों की साख निर्माण शक्ति सीमित हो जाती है । इसके विपरीत , जब साख की मात्रा में वृद्धि करना होती है तब नकद कोषों के प्रतिशत में कमी कर दी जाती है जिससे बैंकों की साख - निर्माण शक्ति बढ़ जाती है । इसे निम्न उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है ।

माना कि एक व्यापारिक बैंक में 10 लाख रुपये जमा है । यदि वह इस राशि का 5 प्रतिशत केन्द्रीय बैंक के पास जमा करता है तो उसे 50 हजार रुपये ( 5/100 x 10,00,000 ) की राशि केन्द्रीय बैंक के पास रखनी पड़ती है । इस प्रकार बैंक की साख निर्माण क्षमता 50 हजार रुपये कम हो जाती है , अर्थात् वह केवल 9.50 लाख रुपयों की साख का निर्माण कर सकता है । चूंकि केन्द्रीय बैंक को इस राशि के प्रतिशत में परिवर्तन करने का पूरा अधिकार होता है । अत : यदि केन्द्रीय बैंक इस कोष की राशि 5 प्रतिशत से बढ़ाकर 10 प्रतिशत कर दे तो सम्बद्ध बैक को केन्द्रीय बैंक के पास एक लाख रुपये रखने पड़ते हैं । ऐसी दशा में बैंक की साख निर्माण क्षमता कम होकर केवल 9 लाख रुपये रह जायेगी । यह मुद्रा संकुचन की दशा होगी । इस दशा में साख संकुचन हो जायेगा । इसके विपरीत यदि केन्द्रीय बैंक परिवर्तनशील न्यूनतम कोष अनुपात घटाकर 2 प्रतिशत कर देती है तब बैक को केवल 20 हजार रुपये केन्द्रीय बैंक के कोष में जमा कराने पड़ेंगे । ऐसी दशा में उसकी साख निणि क्षमता 9 लाख 80 हजार रुपये रहेगी । यह मुद्रा स्फीति की प्रवृत्ति को बढ़ाएगी ।

( 4 ) तरल कोषानुपात ( Liquidity Ratio ) : साख नियंत्रण की इस विधि का आविष्कार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुआ । इस विधि में केन्द्रीय बैंक से सम्बद्ध बैंकों को अपनी जमा राशि का एक भाग तरल रूप में रखना पड़ता है । इस तरल मुद्रा के अन्तर्गत नकद राशि , अन्य बैंकों में जमा सरकारी प्रतिभूतियाँ आदि को सम्मिलित किया जाता है । कुछ देशों में तरलता का प्रतिशत कानून द्वारा निर्धारित किया जाता है । भारत में रिजर्व बैंक द्वारा तरल कोषानुपात निर्धारित किया जाता है । इस कोषानुपात में आवश्यकता के समय परिवर्तन भी किया जाता है । इस प्रकार सम्बद्ध बैंक द्वारा तरल मुद्रा के रूप में जितनी अधिक राशि रखी जाती है , बैंक की साख निर्माण क्षमता उतनी ही कम हो जाती है ।

( B ) गुणात्मक साख नियंत्रण के उपाय ( Methods of Qualitative Credit Control ) साख नियंत्रण की गुणात्मक रीति का प्रयोग , परिमाणात्मक रीति की तरह साख मुद्रा की समस्त मात्रा के नियमन के लिये नहीं किया जाता है वरन् इसका प्रयोग साख के उपयोग की दृष्टि से किया जाता है । दूसरे शब्दों में , इस रीति में इस बात पर जोर दिया जाता है कि साख की माँग किस उपयोग के लिये तथा किस वर्ग के द्वारा की जा रही है । गुणात्मक साख नियंत्रण की प्रमुख विधियां निम्न प्रकार है :
( 1 ) चयनात्मक साख नियंत्रण ( Selective Credit Control ) - जब केन्द्रीय बैंक की साख नियंत्रण विधियाँ कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विशिष्ट क्षेत्रों पर प्रभाव डालती हैं , तब उसे चयनात्मक साख नियंत्रण कहते हैं । कुछ प्रचलित मुख्य चयनात्मक साख नियंत्रण की विधियाँ निम्नलिखित है -

  • कटौती दरें ( Discount Rates ) - सामान्यत : केन्द्रीय बैक विनिमय विपत्रों की पुनर्कटौती के लिये एक दर अपनाता है , किन्तु चयनात्मक साख नियंत्रण की विधि में अलग - अलग बिलों के लिये अलग - अलग पुनकटौती की दरें अपनाई जाती है , जैसे उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिये बैक कम कटौती दर रखे तथा कृषि के लिये ऊँची ।
  • ऋणों की जाँच ( Scrutiny of Loans ) - इस विधि के द्वारा कुछ आवश्यक एवं विशेष क्षेत्रों में ऋण को प्रोत्साहित एवं अन्य कम आवश्यक क्षेत्रों में ऋण को हतोत्साहित किया जाता है । उदाहरणार्थ केन्द्रीय बैंक वित्तीय संस्थाओं एवं व्यापारिक बैंकों को यह निर्देश दे सकता है कि खाद्यान्न एवं घासलेट पर वे कोई ऋण न दें और उर्वरकों पर अधिक ऋण दें ।
  • उपभोक्ता साख का नियमन ( Regulation of Consumer Credit ) - इस नीति का प्रमुख उद्देश्य उपभोक्ता वस्तुओं की माँग को नियंत्रित करना है जिससे वस्तुओं के भावों की वृद्धि को रोका जा सके और साख का अधिक विस्तार न हो । इस विधि में केन्द्रीय बैंक उपभोक्ता वस्तुओं , जैसे कार , टी.वी. फ्रीज , आदि कीमती वस्तुओं के किश्त द्वारा क्रय के लिये साख की अधिकतम सीमा तय करता है इसी प्रकार नकद राशि का प्रतिशत तथा ऋणों के भुगतान की रीति भी निश्चित कर देता है । स्फीति की दशा में साख को पूर्णत : बन्द भी किया जा सकता है ।
  • नकद कोषों में रियायत - इस रीति के अनुसार कुछ विशेष क्षेत्रों में विनिमय करने वाले बैको को उनके नकद कोषों के प्रतिशत में कमी करने या कोष रखने में रियायत दी जाती है । उदाहरणार्थ यदि सरकार सीमेंट उद्योग को प्रोत्साहन देना चाहती है तो केन्द्रीय बैंक यह घोषणा कर सकता है कि व्यापारिक बैक सीमेंट उद्योग को जितना ऋण देगे उतनी ही अधिक राशि केन्द्रीय बैंक में जमा मान ली जायेगी । इससे बैंक को सीमेंट उद्योग को उधार देने में प्रोत्साहन मिलेगा ।

( 2 ) साख का राशनिंग ( Credit Rationing ) - केन्द्रीय बैंक अपने बैंकों का अन्तिम ऋणदाता होता है । अत : वह परिस्थितियों के अनुसार व्यापारिक बैंकों को दिए जाने वाले ऋणों को नियंत्रित करता है । इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए केन्द्रीय बैंक ऋणों की अधिकतम सीमा निर्धारित कर सकता है या ऋणों का कोटा निर्धारित कर सकता है । केन्द्रीय बैंक साख के राशनिंग के लिए निम्न उपाय कर सकता है :
( i ) सभी बैंकों की पुनर्कटौती सुविधा को सीमित कर दिया जाता है ।
( ii ) सम्बद्ध बैंको की साख का कोटा निश्चित कर दिया जाता है । इस कोटे से अधिक साख उसे नहीं मिलती है ।
( iii ) सम्बद्ध बैंकों को पुनः भुनाने की सुविधा समाप्त कर दी जाती है ।

( 3 ) नैतिक दवाव ( Moral Suasion ) - केन्द्रीय बैंक का देश के व्यापारिक बैंको पर बहुत प्रभाव होता है , क्योंकि वह अन्तिम ऋणदाता के अलावा उनकी कार्यप्रणाली का निर्देशक एवं नियंत्रक होता है । अत : वह सम्बद्ध बैंकों को समझा - बुझा सकता है या नैतिक दबाव डाल सकता है । इसमें वह सटोरियो , भण्डार करने वालों को कम से कम साख देने की प्रार्थना कर सकता है । उसकी प्रार्थना को सम्बद्ध बैंक आदेश की तरह मानते है । नैतिक दबाव की रीति की सफलता के तत्व निम्नलिखित है -

  • केन्द्रीय बैंक का मुद्रा बाजार पर पूर्ण नियंत्रण एवं प्रभाव होना चाहिए ।
  • केन्द्रीय बैंक व अन्य बैंकों के मध्य सौहार्द एवं सद्भावना पूर्ण सम्बन्ध होना चाहिए ।
  • केन्द्रीय बैंक के पास पर्याप्त अधिकार होने चाहिए ।

( 4 ) प्रत्यक्ष कार्यवाही ( Direct Action ) - जब सम्बद्ध बैकों पर केन्द्रीय बैंक के नैतिक दबाव या समझाने का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है तब वह विवश होकर प्रत्यक्ष कार्यवाही करता है । प्रत्यक्ष कार्यवाही का अर्थ केन्द्रीय बैंक द्वारा व्यापारिक बैंकों के विरुद्ध प्रतिरोधी कार्यवाही करना होता है । जब देश का कोई व्यापारिक बैंक केन्द्रीय बैंक के आदेशों की अवहेलना करता है या केन्द्रीय बैंक की साख सम्बन्धी नीति की सफलता में सहयोग नहीं देता है तब केन्द्रीय बैंक निम्न प्रकार से उसके लिये प्रत्यक्ष कार्यवाही करता है

  1. उनके विपत्रों को भुनाने से इन्कार कर देता है ।
  2. उन्हें ऋण देने से मना कर देता है ।
  3. उनसे मौद्रिक दण्ड वसूल करता है  ।

( 5 ) विज्ञापन एवं प्रचार ( Publicity ) - आधुनिक युग में केन्द्रीय बैंक अपनी साख नियंत्रण की रीति को सफल बनाने के लिये विज्ञापन एवं प्रचार के माध्यम से विनियोक्ताओं एवं जनता का ध्यान अपनी साख नीति की तरफ आकर्षित करता है । किसी भी नीति को सफल बनाने के लिये जनमत तैयार करना आवश्यक होता है । जनमत निर्माण के लिये प्रचार एवं विज्ञापन आवश्यक साधन है , इसलिये केन्द्रीय बैक उच्च अधिकारियों , पत्रकार सम्मेलनों , विचार गोष्ठियों , संगोष्ठियों , सम्मेलनों एवं अन्य अवसरों पर साख नीति के बारे में बताता है । वह पत्र - पत्रिकाओं , पुस्तकों एवं लघु पुस्तिकाओं के माध्यम से देश के आर्थिक एवं मौद्रिक आँकड़े जनता के सामने प्रकाशित करता है । निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि साख नियंत्रण की परिमाणात्मक एवं गुणात्मक विधियों में से किसी एक विधि से वांछित सफलता नहीं मिलती है । ये दोनों रीतियाँ एक दूसरे की पूरक है । अत : दोनों का एक साथ प्रयोग करना अधिक लाभदायक होता है । फिर भी साख के प्रसार या संकुचन के लिये परिमाणात्मक विधियाँ एवं आर्थिक विकास के लिये गुणात्मक विधियाँ अधिक उपयोगी होती है ।

साख नियंत्रण की कौन सी विधियां हैं?

(1) परिमाणात्मक नियंत्रण- (क) बैंक दर अथवा कटौती दर, (ख) खुले बाजार की क्रियायें, (ग) परिवर्तनशील न्यूनतम कोष दर, (घ) तरल कोषानुपात। (2) गुणात्मक विधियाँ- (क) चुने हुए साख नियंत्रण, (ख) साख की राशनिंग, (ग) नैतिक दबाव, (घ) विज्ञापन विधि, (ङ) प्रत्यक्ष कार्यवाही।

साख नियंत्रण के प्रमुख उद्देश्य क्या है?

यह नीति सरकार तथा केंद्र बैंक की उस नियंत्रण नीति को कहा जाता है जिसके अंतर्गत कुछ निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मुद्रा की मात्राउसकी लागत तथा ब्याज दर तथा उसके उपयोग को नियंत्रित करने को उपाय किए जाते हैं। संकुचित अर्थों में मौद्रिक नीति से अभिप्राय केंद्रीय बैंक की साख नियंत्रण नीति से है।

साख नियंत्रण से आप क्या समझते हैं?

(ix) साख नियंत्रण के चयनात्मक उपाय मुद्रा की पूर्ति को अर्थव्यवस्था के कुछ ही क्षेत्रों में प्रभावित करते हैं । (x) साख का राशनिंग चयनात्मक साख नियंत्रण का महत्वपूर्ण रूप है। वस्तु विनिमय प्रणाली विनिमय का एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें बिना मुद्रा के प्रयोग के वस्तुओं से वस्तुओं की अदला-बदली होती है।

साख की राशनिंग क्या है?

केन्द्रीय बैंक द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों को बाजार में खरीदने-बेचने को ही खुले बाजार की क्रियाएँ कहा जाता है। साख की राशनिंग से क्या आशय है? उत्तर: केन्द्रीय बैंक द्वारा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के लिए साख की अधिकतम सीमा निर्धारित कर देना साख की राशनिंग कहलाता है।