साल था 2019, 2 जून को मेरा बारहवीं का रिजल्ट आ चुका था। छोटे शहरों या गांवों के जो बच्चे बड़े शहरों में पढ़ने के सपने देख पाते हैं और परिस्थितियां भी अनुकूल हो तो जरूर महानगरों के विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाना चाहते हैं। यह भी एक खराब संकेत है कि विश्वविद्यालयों में पढ़ना कुछ वर्ग के बच्चों के लिए ‘सपना’ होता है क्योंकि इस देश की तमाम सामाजिक, राजनrतिक व्यवस्था के साथ शिक्षा व्यवस्था का हाल बहुत बेहतर नहीं है। मैं उत्तर प्रदेश से आती हूं जहां की हालिया रिपोर्ट देखें तो यूजीसी के अनुसार सबसे ज़्यादा फेक यूनिवर्सिटीज इसी प्रदेश से निकली।
रिजल्ट आया, इतना मेरिट जरूर बना कि जब दिल्ली यूनिवर्सिटी के अलग-अलग कॉलेज की कट ऑफ लिस्ट सामने आई तब यूजीसी द्वारा घोषित डीयू के टॉप कॉलेज में 23 मई के आसपास दाखिला ले लिया गया। दाखिले की प्रक्रिया के साथ ही एक अलग तरह का संघर्ष शुरू हुआ। सुबह सात बजे दाखिले की प्रक्रिया पूरा करने के लिए कॉलेज में घुसे और फिर कागज़ात को लेकर एक कमरे से दूसरे कमरे में। कागज़ात की पहली प्रक्रिया में मेरे फॉर्म पर लाल स्याही से सबसे ऊपर एससी (शेड्यूल कास्ट) डाल दिया गया था। मुझे उसे पढ़कर बहुत अजीब लगा, आस-पास देखा तो सिर्फ मेरे साथ नहीं बल्कि सभी एससी, एसटी (ओबीसी के बारे में मुझे जानकारी नहीं है) बच्चों के फॉर्म्स पर यही लिखा हुआ था। फॉर्म पर इतना लिखे होने ने दूसरे कमरे में प्रक्रिया के लिए कमरे के बाहर लड़कियों की लंबी लाइन में लगा रहना दूभर कर दिया था। मुझसे आगे एक दलित लड़की ही खड़ी थी जिसके फॉर्म पर एससी लिखा देखते हुए कोई तथाकथित उच्च जाति की लड़की ने सवाल दागा, “तुम एससी हो? आरक्षण से आओगी, हो ही जाएगा एडमिशन।” मैं इतना सुनकर सुन्न थी लेकिन उस दलित लड़की ने उसे जवाब दिया कि वह अपने काम से काम रखे और फिर से लाइन में शांति छा गई लेकिन मैं कुछ नहीं बोली थी बल्कि अपना फॉर्म ऐसे मोड़ा कि वहां लाल स्याही से किसी को भी एससी लिखा हुआ न दिखे।
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आख़िर में दोपहर के तीन बजे तक प्रक्रिया पूरी हुई। इन कॉलेज के हॉस्टल में भी दाखिला मेरिट पर होता है और सीटें होती हैं बहुत कम। मेरे इतने अंक ज़रूर थे कि कॉलेज में दाखिला हो सके लेकिन इतने नहीं कि वहां के हॉस्टल में भी दाखिला हो सके। इसीलिए मैं, मेरी मां और मामा कैंपस एरिया के आसपास पीजी (पेइंग गेस्ट) रूम्स देखने निकले। किसी भी महानगर में यह मेरा पहला अनुभव था इससे पहले मैं कभी खुद के शहर में भी कहीं नहीं घूमी थी, इसीलिए हर कदम बहुत डर कर रखा जा रहा था। घर से पापा और बाकी पड़ोसियों ने कहकर भेजा था कि कोई जाति पूछे तो दलित मत बताना वरना रहने के लिए कमरा नहीं मिलेगा सो जिस मकान में कमरा देखने गए वहां के मकान मालिक ने जब घूमाकर पूछा कि किस कट ऑफ पर दाखिला हुआ है? सबसे ज्यादा कट ऑफ तो यानि जनरल, उससे कम तो एससी एसटी या ओबीसी वाला फॉर्मूला सवाल पूछते वक्त अपनाया जा रहा था तब मैंने अपने जीवन का पहला झूठ बोला। हालांकि तब मैं नहीं जानती थी कि एक झूठ मुझसे हर बार झूठ बुलवाएगा। मैंने कहा, “सबसे ज्यादा कट ऑफ” और वह समझ गया कि हम दलित नहीं किसी तथाकथित उच्च जाति से हैं जिसके बाद कमरा आसानी से मिल गया था।
कॉलेज 20 जुलाई से शुरू होने थे, सो 18 जुलाई को मैं कमरे में शिफ्ट हुई जहां पहले से एक लड़की जो लॉ कर चुकी थी और ज्यूडिशियल सर्विसेज की तैयारी कर रही थी, पूजा (बदला हुआ नाम) के साथ मुझे कमरा शेयर करना था। मां, पापा मेरा सामान रखवाने के बाद वापस घर की ओर जा चुके थे। मैंने उस कमरे में कदम रखने से पहले कभी नहीं सोचा था कि हाल ही में अपने स्कूली जीवन के मानसिक उतार-चढ़ाव (मैं जिस स्कूल में नौवीं से बारहवीं तक पढ़ी वह आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का ऑल गर्ल्स स्कूल था क्योंकि शहर के और किसी स्कूल में ग्यारहवीं में आर्ट्स नहीं थी। यहां मैं तथाकथित उच्च जाति की लड़कियों से अलग लड़ाई लड़ती ही रही थी चाहे वह आरक्षण पर हो या जातिसूचक गालियों पर) अनुभव करने के बाद मुझे यहां भी बल्कि और बुरे अनुभव झेलने होंगे।
मां-पापा के जाने के एक घंटे के भीतर ही पूजा ने मुझसे सीधा मेरी जाति पूछी। मैं चुप रही, फिर उसने पूछा जनरल हो और मैंने सिर्फ़ हां में सर हिलाया तब उसने बताया कि वह ब्राह्मण है। मुझे जितना खराब उसके द्वारा मेरी जाति पूछने पर लगा उतना तो तब भी नहीं लगा था जब स्कूल में मेरी टीचर ने फॉर्म में भरने के लिए क्लास में जाति पूछी थी क्योंकि तब मैंने ऊंचे स्वर में एससी कहा था। लेकिन यहां मैं अकेली थी, झूठ बोलने के सिवाय और कोई ऑप्शन नज़र नहीं आया था। रात होते तक पीजी की अन्य लड़कियां ये जानने आईं कि कौन नई लड़की आई है। उन्होंने भी वही सवाल किया कि मैं किस जाति से हूं और मेरे बोलने से पहले पूजा ने कहा कि यह जनरल है। कभी-कभी लगता है कि अगर मैं जनरल की बजाय दलित बोलती तो क्या परिस्थिति होती? वे जो अप्रत्यक्ष तरीके से मानसिक रूप से प्रताड़ित करती रही थीं, वे मुझे सामने से अपने करतीं। इसीलिए जब-जब ये तर्क सुनाई देता है कि शहरों में जातिवाद नहीं है तब मैं कहना चाहती हूं कि जाति शहर या गांव वाली चीज नहीं है, वह इस देश के लोगों के दिमाग में रहती है, अब चाहे वही लोग शहर में रहे या गांव में उनका जातीय दंभ जस की तस बना रहता है।
घर से पापा और बाकी पड़ोसियों ने कहकर भेजा था कि कोई जाति पूछे तो दलित मत बताना वरना रहने के लिए कमरा नहीं मिलेगा सो जिस मकान में कमरा देखने गए वहां के मकान मालिक ने जब घूमाकर पूछा कि किस कट ऑफ पर दाखिला हुआ है? सबसे ज्यादा कट ऑफ तो यानि जनरल, उससे कम तो एससी एसटी या ओबीसी वाला फॉर्मूला सवाल पूछते वक्त अपनाया जा रहा था तब मैंने अपने जीवन का पहला झूठ बोला।
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एक-दो दिन में कॉलेज भी शुरू हो चुका था। कॉलेज के माहौल ने डर और इनफिरियर्टी कॉम्प्लेक्स भर दिया था। सब लड़कियां धड़ा-धड़ अंग्रेजी बोलती थीं, मैं उस स्कूल से पढ़कर आ रही थी जहां संस्कृत और हिंदी में बोल-चाल थी और अंग्रेज़ी सिर्फ एक विषय लेकिन यहां अंग्रेजी ज्ञान का मापदंड था। कॉलेज में पहले दिन मैं सबसे आगे बैठी थी क्योंकि बीते सात आठ वर्षों से मैं किसी भी सूरत में पहली ही बेंच पर बैठती थी ताकि टीचर सवाल करे तो सबसे पहले जवाब मेरा हो। लेकिन यहां टीचर ने कॉपी पर पहले पन्ने की बजाय दूसरे पन्ने से लिखने पर पूरी क्लास के सामने पहले ही दिन बुरी तरह डांट दिया था जबकि मैंने आजतक अपनी स्कूली जीवन में कभी डांट नहीं खाई थी। यह मेरी गरिमा पर तो चोट थी ही साथ ही ये सोचकर देखिए कि इन विश्वविद्यालयों के अधिकांश अध्यापक क्लास में किसी डिक्टेटर से कम नहीं हैं जिन्हें लगता है कि क्लास का हर बच्चा अमीर, उच्च जाति और अंग्रेजी बोलने वाली ही क्लास से आता है और यहीं से इस देश के विश्वविद्यालयों में दलित, बहुजन, आदिवासी अल्पसंख्यक वर्ग का ‘एक्सक्लूजन’ शुरू हो जाता है।
टीचर की एक बेबुनियादी डांट का नतीजा यह हुआ कि सवाल करने वाली, सवालों के जवाब देने वाली लड़की दूसरे दिन से क्लास की आखिरी बेंच पर कोने में इसीलिए बैठने लगी ताकि उससे कोई सवाल नहीं किया जाए। मेरे अंदर का विश्वास और कॉलेज जीवन के सपने बुरी तरह ढह चुके थे। कॉलेज में हर रोज़ इस सबसे गुजरते हुए जब पीजी आती तो सामना एकदम सीधा होता था। एक दिन मैं अपने डॉक्यूमेंट्स को फाइल में रख रही थी कि मेरी फाइल में पहले से रखा बाबा साहब डॉक्टर आंबेडकर का पोर्ट्रेट फिसल कर फर्श पर जा गिरा। पूजा ने पोर्ट्रेट देखते ही पहला सवाल बहुत अजीब नफरती हंसी में दागा कि “भीम आर्मी वाली हो?” मैं इस सवाल से चौंकी, कुछ देर शांत रहने के बाद जवाब दिया कि जय भीम वाली हूं और हर लड़की को जय भीम वाली ही होना चाहिए। ये मेरा पहला ऐसा जवाब था जिसमें झूठ नहीं था। उसने बहस की और आखिर में मैं ही चुप हो गई।
जब-जब ये तर्क सुनाई देता है कि शहरों में जातिवाद नहीं है तब मैं कहना चाहती हूं कि जाति शहर या गांव वाली चीज नहीं है, वह इस देश के लोगों के दिमाग में रहती है, अब चाहे वही लोग शहर में रहें या गांव में उनका जातीय दंभ जस की तस बना रहता है।
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मुझे अभी तक यह आश्चर्य होता है कि कैसे तथाकथित उच्च जाति की लड़कियां डॉक्टर आंबेडकर को अभी तक स्वीकार नहीं कर पाईं, उन्हें आरक्षण दिखता है लेकिन जिस हिंदू कोड बिल के मंजूर न होने पर इस्तीफा दिया, महिलाओं की समाज में भागीदारी संवैधानिक तरीके से सुनिश्चित की उसे ये लड़कियां जातीय दंभ में नकार रही हैं। एक रात कमरे में पूजा की बाकी दोस्त उसके साथ खाना खाने आईं थीं। उनमें से एक लड़की लखनऊ की थी तो बात बहनजी मायावती तक पहुंची। मैं उस वक्त चुप अपनी किताब पढ़ रही थी लेकिन उनका हर शब्द सिर में घाव कर रहा था। खुद को नारीवादी करार देती इन लड़कियों ने बहनजी के अपमान मैं ऐसा कोई शब्द नहीं छोड़ा था जिसका इस्तेमाल उन्होंने नहीं किया था। मैं और सुन नहीं सकती थी तो कमरे के बाहर चली आई थी।
पूजा जब भी अपने परिवार से लेकर दोस्तों से बात करती मैं हमेशा दो-दो घंटे कमरे के बाहर रहती थी क्योंकि उसकी बातों में हिंदुत्व, जातिवाद के अलावा कुछ नहीं था वहीं उसकी बातें मुझे मानसिक रूप से परेशान करने लगी थीं। एक अचानक कभी रात में वह कहने लगती कि “मुझे अपनी जाति पर गर्व है, आशिका तुम्हें भी होना चाहिए, हर किसी को होना चाहिए।” मुझे पता था कि ये गलत है लेकिन समझ नहीं आता था कि मैं उससे क्या तर्क करूं इसीलिए फेसबुक पर ही लिखती थी कि “जाति गर्व करने की चीज नहीं है” तो कभी एकाएक वह पूछती कि “मैं आस्तिक क्यों नहीं हूं?” मैं ज्यादा बहस में न पड़ते हुए बात टाल देती लेकिन वह अपनी आस्तिकता को सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी। वह हमेशा बताती कि वह इतनी बड़ी शाकाहारी है कि जिस रोड पर मीट की दुकान हो वहां से गुजरती नहीं है, जो मीट खाता हो यहां तक के अंडे भी खाता हो तो उनसे नाता नहीं रखती क्योंकि वह ब्राह्मण है और ये उसके धर्म के खिलाफ है। तब मैं यही सोचती कि शोषण करना इनके धर्म के खिलाफ क्यों नहीं है!?
दलित लोगों का कहीं बाहर खुद को ‘जनरल’ बताना कोई रोमांचक कदम नहीं होता बल्कि यह अपनी अस्मिता को दांव पर लगाकर शोषण थोड़ा कम होगा सोचकर सिर्फ जीने और रहने भर के लिए कड़ा संघर्ष होता है जहां हम चीखकर कहना चाहते हैं कि “हम दलित हैं और हमारे शोषक सवर्ण जातियां हैं” लेकिन दबी आवाज में जनरल होकर शोषण से बचना चाहते हैं।
कॉलेज में चुप रहकर क्लास कर आना ही मेरी सामान्य स्थिति बन चुकी थी लेकिन ये सब मेरे अंदर कोलाहल पैदा कर रहा था। मैं रोज शाम को अपने किसी दोस्त को कॉल करती और यही बताती कि कैसे सवर्ण जातियों का रवैया सिर दर्द है, कैसे कॉलेज मुझे मेरा अलग होना महसूस करवाता है, कैसे कॉलेज के सभी सोसाइटी बोर्ड को देखते वक्त मालूम हुआ कि ऑल गर्ल्स तथाकथित टॉप कॉलेज में बाबा साहेब से संबंधित कोई भी स्टडी सर्किल नहीं है। जो व्यक्ति इन संस्थानों मैं सबसे पहले दिखना चाहिए उसके कोई साक्ष्य इन संस्थानों मैं नहीं मिलते सिवाय यूजीसी द्वारा निर्धारित इक्वल ऑपर्च्युनिटी सेल्स के। ‘एक्सक्लूजन’ का यह एहसास मानसिक तौर पर जो झटके देता है उसे दलित, बहुजन, आदिवासी संघर्ष के एलाई बनने वाले सवर्ण कभी महसूस नहीं कर सकते और यह एक्सक्लूजन मुझे आज अपने स्नातक के तीसरे वर्ष में भी भारी तरीके से महसूस होता है।
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जब लोग एलिट या अमीर दलित का तर्क जातिवाद खत्म हो चुकने के फेवर में देते हैं तब एक और घटना मेरे मानस पटल पर उभरती है। करीबन दो महीने बाद एक नई लड़की का पीजी में मेरे कमरे से चिपके दूसरे कमरे में आना हुआ था। वह लड़की भी दलित थी लेकिन मेरी ही तरह सबको जनरल ही बताया था। पूजा उसकी बात करते वक्त मुझसे पूछती है कि “जो नई लड़की आई है वह दलित है ना?” मैंने कहा “नहीं” तब पूजा कहती है कि “नहीं, वो झूठ कह रही है वह दलित ही है।” मैंने पूजा से पूछा कि वह इतनी आश्वस्त कैसे है? तब वह कहती है, “उसने नई लड़की के कपड़े पहनने के ढंग से ये जाना कि वह दलित है।” इस बात ने मेरे पैरों तले जमीन खिसका दी थी। पूजा ने जब लड़की के कपड़ों से उसे दलित मान लिया था तबसे पूजा ने उस लड़की से हमेशा के लिए बात बंद कर दी थी।
लोग तर्क देते हैं कि सरनेम हटाने से जातिवाद नहीं होगा लेकिन इस घटना के बाद मैं कहती हूं कि कपड़ों से, खाने से, क्षेत्र से जातिवादी लोग किसी का दलित होना पहचानते हैं क्योंकि सांस्कृतिक रूप से दलित हर मसले में पीछे हैं, आर्थिक रूप से कमजोर हैं इसीलिए कोई अमीर सवर्ण जब दो हजार की क्रीम मंगाता है तब उसी दो हजार रुपए में कोई दलित बच्चा ऐसे महानगरों में अपना पूरा महीने का खर्च निकालता है। पिछड़नेपन का कारण ये सवर्ण नहीं समझते लेकिन “आरक्षण वाले सवर्णों की सीट खा जाते हैं” पर अद्भुत रिसर्च करके बैठे हैं। दलित लोगों का कहीं बाहर खुद को ‘जनरल’ बताना कोई रोमांचक कदम नहीं होता बल्कि यह अपनी अस्मिता को दांव पर लगाकर शोषण थोड़ा कम होगा सोचकर सिर्फ जीने और रहने भर के लिए कड़ा संघर्ष होता है जहां हम चीखकर कहना चाहते हैं कि “हम दलित हैं और हमारे शोषक सवर्ण जातियां हैं” लेकिन दबी आवाज में जनरल होकर शोषण से बचना चाहते हैं। मैं अपने अनुभव से यह जरूर कहना चाहती हूं कि अस्मिता छुपाकर भी शोषण वही रहता है लेकिन न बोल पाना दमघोटूं साबित होता है इसीलिए ये बिलकुल ठीक विकल्प नहीं है कि जाति अस्मिता को छिपाया जाए, हिम्मत करते हुए अस्मिता के साथ पूरी व्यवस्था से लड़ना होगा।
लेकिन इन सभी अनुभवों ने धीरे-धीरे मेरे अंदर हिम्मत और विद्रोह भर दिया था। करीबन छह महीने लगातार यही सबसे गुजरने के बाद मैं बोलने लगी थी कि वे लड़कियां कितनी जातिवादी और दोहरे स्वभाव की हैं। लेकिन इतना परेशान जरूर किया जा चुका था कि मैंने छह सात महीने बाद वह कमरा छोड़ दिया और पूजा को व्हाट्सएप पर जय भीम लिखने के बाद हमेशा के लिए जीवन से निकाल दिया। उसे निकालने के साथ मैंने अपनी अस्मिता के साथ घटे झूठ को भी बाहर निकालकर ‘आइडेंटिटी असर्शन’ का रास्ता अपनाया। मैंने अपने कॉलेज में अपने समुदाय की लड़कियों से सीधे तौर पर “जय भीम” से संबोधित करना शुरू किया, एंटी कास्ट डिस्कोर्स को कुछ ही लड़कियों के बीच सही लेकिन शुरू किया। आज जब मैं स्नातक के तीसरे वर्ष में हूं तब पूरी क्लास की लड़कियां अच्छे से जानती हैं कि मैं एंटी कास्ट हूं। मैं टीचर्स से अब सवाल करती हूं हालांकि एक्सक्लूजन महसूस करना जस का तस है लेकिन मैंने अपने लड़ने को मजबूत किया है। जितने भी दलित बहुजन आदिवासी बच्चे इन शहरों में पढ़ने रहने आए हैं या सोच रहे हैं और अगर आप मेरा यह लेख पढ़ रहे हैं तब कहना चाहती हूं कि हिम्मत से आइडेंटिटी असेर्ट करिए, किसी भी शोषक जातियों में इतना दम नहीं होना चाहिए कि वे हमारा जीना दुश्वार कर दें। लड़ाई लंबी है और हमें हारना नहीं है।