राज्य की उत्पत्ति के बारे में मनु के क्या विचार हैं? - raajy kee utpatti ke baare mein manu ke kya vichaar hain?

(1)राजा के दैवी सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति ईश्वर के द्वारा की गई है। राजा को ईश्वर द्वारा राज्य को संचालित करने के लिए भेजा गया है। प्रजा का कर्तव्य है कि राजा का विरोध न करे क्योंकि वह ईश्वर का प्रतिनिधि है।

(2)राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धान्त प्राचीनतम सिद्धान्त है, जिसके अनुसार यह माना जाता है कि राज्य की स्थापना आरम्भ में ईश्वर द्वारा हुई।

(3) यहूदी धर्म-ग्रन्थों में उल्लेख है कि ईश्वर ने स्वयं आकर राज्य स्थापित किया; अन्य धर्मग्रन्थों के अनुसार ईश्वर ने किसी दैवी पुरूष को प्रेषित कर राज्य की रचना की। बाइबिल में उल्लेख है कि प्रत्येक आत्मा (मनुष्य) सर्वोच्च शक्तियों के अधीन हैं, क्योंकि सभी शक्तियों का स्रोत ईश्वर है।

(4)प्राचीन भारत में अधिकतर संस्थाओं की उत्पत्ति दैवी मानी जाती थी और राज्य की उत्पत्ति के विषय में भी ऐसी ही धारणा थी।

(5) प्राचीन भारत में राजा को देवांश माना जाता था, अर्थात् राजा की उत्पत्ति विभिन्न देवों के अंश से हुई है। इस सिद्धान्त का उल्लेख ऋग्वेद और यजुर्वेद आदि वैदिक साहित्य, ब्राह्मण ग्रन्थों, स्मृति साहित्य, महाभारत और प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है।

(6) मत्स्य पुराण में उल्लेख है कि ब्रह्मा ने राजा की सृष्टि की जिससे कि वह सभी प्राणियों की रक्षा कर सके।

(7) मनु ने यहाँ तक कहा कि बालक राजा का भी इस विचार से अपमान नहीं करना चाहिए कि वह साधारण मनुष्य होता हे। यह देवता है यद्यपि रूप में वह मनुष्य ही है।

(8)वेदों के अनुसार भी राजा को स्वयं इन्द्र समझना चाहिए और उसका इन्द्र के ही समान आदर करना चाहिए।

(9) महाभारत के शान्तिपर्व में यह वर्णन है कि प्राचीन काल में जब अराजकता फैली हुई थी, मनुष्यों ने आपस में एक समझौता किया और वे ब्र२ा(bhramha)के पास गये और प्रार्थना की कि वह किसी को राजा बना दें। ब्रह्मा ने मनु को प्रथम राजा बनाया।

(10)वैदिक परम्परा के अनुसार राजा में इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरूण, चन्द्र और कुबेर- विभिन्न देवों के अंश विद्यमान रहते हैं।

(11) परन्तु महाभारत के अनुसार कोई भी राजा केवल अभिषेक समारोह के उपरान्त ही राजा बनता है। इस विषय में दीक्षितर ने लिखा है- जबकि स्टूअर्ट राजाओं का दैवी अधिकार में विश्वास था, राजा की शि७ के विषय में हिन्दू संकल्पना यह थी कि प्रजा की रक्षा करना ईश्वर द्वारा विहित कर्तव्य है। प्रथम नाथ बनर्जी का विचार है कि केवल धार्मिक राजा ही दैवी समझा जाता था और राजा देवता नहीं वरन् 'नरदेवता' माना जाता था। परन्तु डॉ घोषाल ने शान्ति पर्व के अध्याय ५८ के अन्तिम श्लोक को उद्धृत करते हुए यह तर्क दिया है कि राजा केवल देवता नहीं वरन् देवता के तुल्य होता है।

प्राचीन भारत में प्रतिपादित दैवी सिद्धान्त सम्बन्धी विचारों की पाश्चात्य विचारों से तुलना करते हुए डॉ घोषाल ने कहा है-

पश्चिम में प्रतिपादित दैवी सिद्धान्त मुख्यतः ये हैं-

  • (१) राजतन्त्र ईश्वरकृत संस्था है।
  • (२) राजाओं को शासन का आनुवंशिक अधिकार है;
  • (३) राजा केवल ईश्वर के ही प्रति उत्तरदायी है;
  • (४) राजाओं का विरोध नहीं करना चाहिए; और
  • (५) राजतन्त्र ही शासन का अनन्य उचित रूप है।

***परन्तु प्राचीन भारत में दैवी सिद्धान्त के सम्बन्ध में भिन्न धारणाएँ थीं। प्राचीन भारतीय विचारक यह नहीं मानते कि राजा केवल ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है इसके विपरित स्मृतियों की धारणा तो यह है कि राजा धर्म और कानूनों के अधीन होता है। मनु और भीष्म ने बुरे राजा के विरूद्ध विरोध को न्यायोचित ठहराया है। अन्त में प्राचीन भारतीय सिद्धान्त में ऐसा कोई समानान्तर सिद्धान्त नहीं है कि जन्म प्राप्त अधिकार छीना नहीं जा सकता। ग्रन्थों में अनेक राजाओं के उदाहरण है जिन्हें उनकी प्रजा ने सिंहासन से अलग किया।

आधुनिक राजशास्त्री दैवी सिद्धान्त को बुद्धिसंगत नहीं मानते और इसे सर्वथा त्याग दिया गया है। वास्तव में आज के युग में तो राजतन्त्र का स्थान ही प्रजातन्त्र अथवा अन्य प्रकार के सरकारों ने ले लिया है।

दैवी सिद्धान्त सम्बन्धि मनु के विचार[संपादित करें]

राजा, मनु के राजनीतिक विचारों का केन्द्र-बिन्दु है। मनु ने अनेक देवताओं के सारभूत नित्य अंश को लेकर राजा की सृष्टि करने का जो उल्लेख किया है उससे राज की दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त में विश्वास प्रकट होता है। चूंकि राजा में दैवी अंश व्याप्त है, अतः यह अपेक्षित है कि प्रजा उसका कभी अपमान न करें। राजा से द्वेष करने का अर्थ स्वयं का विनाश करना है। मनुस्मृति में यह भी लिखा गया है कि विभिन्न देवता राजा के शरीर में प्रविष्ट होते हैं। इस प्रकार राजा स्वयं महान् देवता बन जाता है।

मनुस्मृति के सातवें अध्याय में राजधर्म का प्रतिपादन करते हुए राज्य की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार सृष्टि की प्रारम्भिक अवस्था बड़ी भयंकर थी, उस समय न राज्य था और न ही राजा था और इनके अभाव में दण्ड-व्यवस्था का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। राज्य के अभाव में सर्वत्र अन्याय, अराजकता, असंतोष, अव्यवस्था का वातावरण बना हुआ था। अर्थात् मत्स्य न्याय की स्थिति व्याप्त थी।

राजा की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त को प्रामाणिक रूप देने के लिए मनु ने यहां तक कहा है कि राजा आठ लोकपालों के अन्न तत्त्वों से निर्मित हुआ है। जिसके फलस्वरूप उसमें देवीय गुण एवं शक्ति का समावेश हुआ है। ईश्वर ने समस्त संसार की रक्षा के लिए निर्मित वायु, यम, वरुण, सूर्य, अग्नि, इन्द्र तथा कुबेर के सर्वोत्तम अंशों के संयोग से राजा का निर्माण किया है। मनु के शब्दों में,

मनु के द्वारा रचा गया एक पवित्र ग्रंथ मनुस्मृति हैं। जिसे मनु संहिता एवं मानव धर्म शास्त्र आदि नामों से जाना जाता है। मनु द्वारा रक्षा गया यह ग्रंथ बहुत प्राचीन ग्रंथ है जिसमें सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था का उल्लेख किया है। मनु के निम्न राजनीतिक विचार हैं

1: राज्य की उत्पत्ति का दिव्य सिद्धांत = उन्होंने अपने राजनीतिक विचार में ना राज्य की उत्पत्ति के देवेश सिद्धांत का समर्थन किया है उनके अनुसार राज्य की उत्पत्ति समाज में सुशासन तथा व्यवस्था बनाएं रखने के लिए हुई। उनके अनुसार जिस समय कोई राजा नहीं था। उस समय चारों और भय व आतंक का साम्राज्य था। चारों और लोग पीड़ित हैं। उस समय समाज में कोई भी व्यवस्था नहीं थी। तथा अराजकता का अंत करने तथा संसार की रक्षा के लिए भगवान ने राजा को बनाया। भगवान ने देवराज इंद्र, वायु देव, सूर्य देव, वरुण देव, अग्नि देव, चंद्रदेव, यमदेव, तथा कुबेर देव इन आठों देवताओं के गुणों को मिलाकर राजा का निर्माण किया। उनका मानना था कि राजा में इन 8 देवताओं के गुण होते हैं। इसलिए मनु ने राजा के पद को सदा पवित्र माना है। 

2: राज्य के 7 अंक = मनु के अनुसार स्वामी, मंत्री, राष्ट्र, कोष, दुर्ग, मित्र, और दण्ड  राज्य के महत्वपूर्ण अंग है मिलकर एक संगठन को सप्तांग राज्य कहलाता है। मनु ने राज्य में राजा को 7 अंको में सबसे महत्वपूर्ण माना है।

3: आदर्श राजा के विशेषताएं = मनु के अनुसार राजा को मुख्य कार्य प्रजा की रक्षा तथा उनका कल्याण करना होता है। राजा को भली-भांति कार्य करने के लिए राजा में कुछ गुण होना अति आवश्यक है। राजा को एक विद्वान न्याय तथा लोकप्रिय होना जरूरी है। 

4: मंत्रीपरिषद = मनु के अनुसार केवल एक व्यक्ति ही महान कार्य करने में असफल होता है। तो फिर यह राजा बिना किसी सहायता के राज्य का संचालन नहीं कर सकता। राजा को सलाह मंत्रणा करने के लिए एक बुद्धिमान लोगों कि एक परिषद का गठन होना आवश्यक है। 

5: राज्य के कार्य = मनु के अनुसार राज्य में शांति स्थापित करने व राज्य के बाहरी आक्रमण से राष्ट्र की रक्षा करना अति आवश्यक हैं। और राष्ट्र की प्रजा के पारस्परिक विवादों का निवारण करना आवश्यक होता है। इसके अलावा राष्ट्र के आंतरिक मूल्य का नियंत्रण करना। ब्राह्मणों को दान, ज्ञान को बढ़ावा देना, अपराधियों को दंड देना, वैश्य और शुद्र को कर्तव्य पालन हेतु मजबूर करना, तथा अपंग, स्त्रियों, बूढ़ों, और अवयस्कों की रक्षा करना राज्य का महत्वपूर्ण कार्य है।

6: कानून और न्याय की व्यवस्था = मनु के अनुसार कानून का निर्माण करने के लिए एक परिषद का गठन करना। तथा व्यवस्था के अलावा जनता अपने संस्थाओं द्वारा खुद अपने नियम बनाने की छूट हो। कुल, जाति, श्रेणी, इसी प्रकार की  संस्थाएं हो। सभी संस्था राजा द्वारा स्वीकृति हो। तथा उनका पालन करती हो मनु के अनुसार परिसर में सदस्यों की संख्या 10 हो किंतु रचना के आधार बौद्धिक हो ना की संख्या। 

7: प्रशासनिक व्यवस्था = मनु के अनुसार प्रशासन को सही रूप से चलाने के लिए गांवों एवं शहरों आदि को बांट देना चाहिए। राजा को दो व चार और 100 गांव के मध्य अपना राज्य स्थापित करना चाहिए। तथा गांव की रक्षा तथा देखरेख के लिए एक ग्रामीण मंत्री की स्थापना का प्रावधान हो। तथा नगरों में न्याय पुलिस वह गुप्ता की स्थापना करनी चाहिए। 

8: दंड = मनु के अनुसार किसी भी व्यक्ति में देवीक तथा असूरी दोनों प्रकार की प्रवृतियां होती हैं। दैविक प्रवृतियां मनुष्य को शांत, उत्तम, दूसरों के अधिकारों का ध्यान, दूसरों के सुख के बारे में सोचता हो। किंतु आसुरी प्रवृत्तियों में वह स्वार्थ सिद्धि के लिए दूसरों का ध्यान ना रखने के लिए तथा दूसरों के अधिकारों को हड़पने का प्रोत्साहन करता हो। जिससे कि समाज में क्रोध, अशांति, और द्वेष, अव्यवस्था की भावना पैदा होती हैं। जो कि एक उत्तम राष्ट्र हेतु अनुचित है। तथा लोगों में आसुरी प्रवृत्तियों के नियंत्रण हेतु दंड का प्रावधान बनाया गया है। जिससे कि लोग गलत कार्य करने पर उस व्यक्ति को दंड मिल सके।

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