पृथ्वी के प्रथम राजा कौन थे? - prthvee ke pratham raaja kaun the?

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अभी तक क्रिकेट में सबसे पहला चक्रवर्ती सम्राट चषक ग्रेड उत्तर कुंजी कहते हैं तो मेरी से राज्य को एकदम की दुनिया का पहला माना जाता है लेकिन सिकंदर की सारी दुनिया को जीतने पाया था विनय राज करने वाला कभी कोई राजा तक हुआ नहीं जितनी सारी दुनिया पर राज किया सबसे पहला राजा सरगुन द ग्रेट जोगी सुमेरियन जैसा जितनी फायदा

abhi tak cricket mein sabse pehla chakravarti samrat chashak grade uttar kunji kehte hain toh meri se rajya ko ekdam ki duniya ka pehla mana jata hai lekin sikandar ki saree duniya ko jitne paya tha vinay raj karne vala kabhi koi raja tak hua nahi jitni saree duniya par raj kiya sabse pehla raja sargun the great jogi sumeriyan jaisa jitni fayda

उसकी दृष्टता से उसकी प्रजा अत्यन्त कष्ट पाने लगी । महर्षियों द्वारा राज पद पर अभिषिक्त होते ही उसने घोषणा कर दी कि “भगवान् यज्ञपुरूष मैं ही हूँ, मेरे अलावा यज्ञ आदि का भोक्ता और स्वामी हो ही कौन सकता है । इसलिये कभी कोई यज्ञ, दान और हवन आदि न करें आप लोग” । “महाराज ! आप ऐसी आज्ञा दीजिये, जिससे धर्म की हानि न हो” ।

प्रजापति वेन की घोषणा से आश्चर्य चकित होकर महर्षियों ने उसे समझाते हुए कहा । “आपका मंगल हो” । देखिये, हम बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा जो परम परमेश्वर श्री हरि की पूजा करेंगे, उसके फल का षष्ठांश आपको भी प्राप्त होगा । इस प्रकार यज्ञों द्वारा यज्ञपुरूष भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर हम लोगों के साथ आपकी भी आकांक्षाओं की पूर्ति करेंगे” ।

“मुझसे भी बढ़कर मेरा पूज्य कौन है”? घमंड में भरे वेन ने महर्षियों की उपेक्षा करते हुए कहा ‘‘जिसे आप सब यज्ञेश्वर मानते हो, वह ‘हरि’ कहलाने वाला कौन है? कृपा करने और दण्ड देने में समर्थ सभी देवता राजा के शरीर में निवास करते हैं, इसलिए राजा सर्वदेवमय है । इसलिये हे ब्राह्मणों ! मेरी आज्ञा का पालन हो । कोई भी दान, यज्ञ और हवन न करें आप लोग ।

मेरी आज्ञा का पालन ही आप लोगों का धर्म है” । “इस पापात्मा को मार डालो” । सर्वेश्वर हरि का निन्दा सुनकर क्रुद्ध महर्षियों ने मंत्रपुत्र कुशों द्वारा उसे मार डाला । पुत्रशोक से व्यथित, माता सुनीथा ने कुछ दिनों तक अपने पुत्र वेन का मृत शरीर सुरक्षित रखा और उधर राजा के बिना चोर-डाकुओं और लुटेरों के कारण सर्वत्र अराजकता व्याप्त हो गयी ।

सम्राट पृथु और उनकी पत्नी अर्चि का जन्म कैसे हुआ?

यह स्थिति देखकर ऋषि गण चिंतित हो गए | ऐसी परिस्थिति के बारे में शायद उन्होंने कल्पना नहीं की थी | वे ऋषि गण अत्यंत सामर्थ्यवान थे | उनकी वैज्ञानिक शक्तियों का आदर पितामह ब्रह्मा भी करते थे | वे राजमहल में गए, माता सुनीथा से उन्होंने वेन के शव के लिए आग्रह किया | फिर वेन का शव मिल जाने पर उन्होंने मन्त्रोउच्चारण पूर्वक वेन की दाहिनी जंघा का मन्थन शुरू किया ।

उस मंथन से जले ठूँठ के समान काला, अत्यन्त नाटा और छोटे मुख वाला एक पुरूष उत्पन्न हुआ । उसने अत्यन्त आतुरता से ब्राह्मणों से पूछा “मैं क्या करूँ?” “निषीद (बैठो) ! ब्राह्मणों ने उत्तर दिया । इस प्रकार से उस पुरुष का नाम निषीद हुआ । उक्त निषीदरूप शरीर द्वारा वेन का सम्पूर्ण पाप निकल गया । इसके बाद ब्राह्मणों ने पुत्र हीन राजा वेन की दोनों भुजाओं का अत्यन्त शक्तिशाली मन्त्रों से मंथन किया |

उस समय वहाँ ऐसा बवंडर उठा मानो सारी दिशाएं एक ही आयाम में विलीन हो गए हों | फिर उनसे एक स्त्री-पुरूष का जोड़ा प्रकट हुआ । “यह पुरूष भगवान् विष्णु की विश्वपालनी कला से प्रकट हुआ है” ऋषियों ने कहा । “और यह स्त्री उन परम पुरूष की शक्ति लक्ष्मी जी का अवतार है” । “अपनी सुकीर्ति का प्रथम-विस्तार करने के कारण यह यशस्वी पुरूष ‘पृथु’ नामक सम्राट होगा” ।

ऋषियों ने आगे बताया । “और इस सर्वशुभ लक्षण सम्पन्ना परम सुन्दरी का नाम ‘अर्चि’ होगा । यह सम्राट पृथु की धर्म पत्नी होगी” । पृथु के दाहिने हाथ में चक्र और चरणों में कमल का चिन्ह देखकर ऋषियों ने और बताया “पृथु के रूप में स्वयं श्री हरि का अंश अवतरित हुआ है और प्रभु की नित्य सहचरी लक्ष्मी जी ने ही अर्चि के रूप में धरती पर पदार्पण किया है” ।

“महात्माओ ! धर्म और अर्थ का दर्शन कराने वाली अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि मुझे स्वतः प्राप्त हो गयी है” । मेघ के समान अत्यंत गंभीर वाणी लिए इन्द्र के सदृश तेजस्वी नर श्रेष्ठ पृथु ने अपने प्राकट्य के समय से ही कवच धारण कर रखा था । उनकी कमर में तलवार बँधी थी, जिसमे विद्युत् बह रही थी । वे विचित्र अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे । उन्हें वेद-वेदान्तों का पूर्ण ज्ञान था । वे धनुर्वेद के भी विद्वान थे ।

उन्होंने हाथ जोड़कर ऋषियों से कहा “मुझे इस बुद्धि के द्वारा आप लोगों की कौन-सी सेवा करनी है? आप लोग आज्ञा प्रदान करें । मैं उसे अवश्य पूरी करूँगा” । तब वहाँ उपस्थित देवताओं और महर्षियों ने उनसे कहा “वेन नन्दन ! जिस कार्य में निश्चित रूप से धर्म की सिद्धि होती हो, उसे निर्भय होकर करो ।

ऋषियों द्वारा सम्राट पृथु को धर्माचरण करते हुए शासन करने का आदेश देना

प्रिय और अप्रिय का विचार छोड़कर, काम, क्रोध, लोभ और मान-अभिमान को दूर हटाकर समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखो । लोक में जो कोई भी मानवता के धर्म से विचलित हो, उसे सनातन धर्म पर दृष्टि रखते हुए अपने बाहुबल से परास्त करके दण्ड दो । साथी ही यह भी प्रतिज्ञा करो कि “मैं मन, वाणी और क्रिया द्वारा भूतलवर्ती ब्रह्मा (वेद) का निरन्तर पालन करूँगा ।

वेद में दण्ड नीति से सम्बन्ध रखने वाला जो नित्य धर्म बताया गया है, उसका मैं निश्शंक होकर पालन करूँगा । कभी स्वच्छन्द नही होऊँगा” । हे प्रभो ! साथ ही यह भी प्रतिज्ञा करो कि “जो ब्राह्मण धर्म का पालन करेगा वो मेरे लिये अदण्डनीय होगा तथा मैं सम्पूर्ण जगत को वर्ण संकरता और धर्म संकरता से बचाऊँगा” ।

“पूज्य महात्माओ” ! आदि सम्राट महाराज पृथु ने अत्यन्त विनम्र वाणी में ऋषियों के आज्ञा पालन का दृढ़ संकल्प व्यक्त करते हुए कहा-“महाभाग ब्राह्मण मरे लिये सदा वन्दनीय होंगे” । महाराज पृथु के दृढ़ आश्वासन से ऋषिगण अत्यन्त संतुष्ट हुए । उन्होंने महाराज पृथु का अभिषेक करने का निर्णय लिया । उस समय नदी, समुद्र, पर्वत, सर्प, गौ, पक्षी, मृग, स्वर्ग, पृथ्वी तथा अन्य सभी प्राणियों और देवताओं ने भी उन्हें बहुमूल्य उपहार दिये ।

सम्राट पृथु का बन्दीजनों को रिहा करना

फिर सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत महाराज पृथु का विधिवत राज्याभिषेक हुआ । उस समय महारानी अर्चि के साथ उनकी अदभुत शोभा हो रही थी । इसके बाद भविष्य द्रष्टा ऋषियों को प्रेरणा से बन्दीजनों (जो कारागार में बंद थे) को, जो केवल सनातन धर्म का पालन करने की वजह से बंदी बनाए गए थे, महाराज पृथु ने उन्हें रिहा किया ।

महाराज पृथु ने बन्दीजनों की प्रशंसा करते हुए उन्हें अभीष्ट वस्तुएँ देकर संतुष्ट किया; साथ ही उन्होने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णों, विशेष रूप से सेवकों, मन्त्रियों, पुरोहितो, पुरवासियों, देशवासियों तथा विभिन्न व्यवसायियों आदि का भी यथोचित आदर सत्कार किया । “महाराज ! हमारे प्राणों की रक्षा करें” । भूख से जर्जर, अत्यन्त कृशकाय प्रजाजनों ने आकर अपने सम्राट से प्रार्थना की ।

“हम पेट की भीषण ज्वाला यानी भूख से जल रहे हैं । आप हमारे अन्नदाता प्रभु बनाये गये हैं, हम आपके शरण हैं । आप अन्न की शीघ्र व्यवस्था कर हमारे प्राणों को बचा लें” । वेन के पाप आचरण से धरती का अन्न नष्ट हो गया था । अधिकतर जगहों पर दुर्भिक्ष, अकाल फैला हुआ था । प्राणप्रिय प्रजा के आत्र्तनाद से व्याकुल हुए आदि सम्राट महाराज सोचने लगे ।

सम्राट पृथु का पृथ्वी को आतंकित करना तथा उससे अन्न-जल, औषधि आदि का दोहन करना

‘हो न हो धरती ने ही अन्न एवं औषधियों को अपने भीतर छिपा लिया है’ । यह विचार मन में आते ही महाराज पृथु अपना ‘आजगव’ नामक दिव्य धनुष और दिव्य वाण लेकर अत्यन्त क्रोधपूर्वक स्त्री रुपी धरती पर प्रत्यन्चा चढ़ा दी । उन्हें अपने ऊपर अस्त्र उठाये देखकर धरती काँप उठी और भयभीत हो कर गौ का रूप धारण कर प्राण लेकर भागी ।

दिशा-विदशा, धरती-आकाश और सवर्ग तक धरती भागती गयी, लेकिन हर तरफ उसे धनुष की प्रत्यञचा पर अपनी तीक्ष्ण शर चढ़ाये, लाल आँखे किये अत्यन्त क्रुद्ध सम्राट पृथु दीखे । विवश होकर अपनी प्राण-रक्षा के लिये काँपती हुई धरती ने परम पराक्रमी महाराज पृथु से कहा “महाराज ! मुझे मारने पर आपको स्त्री-वध का पाप लगेगा” ।

पृथ्वी के प्रथम राजा कौन थे? - prthvee ke pratham raaja kaun the?
“जहाँ एक दुष्ट के वध से बहुतों की विपत्ति टल जाती हो”, कुपित पृथु ने पृथ्वी को उत्तर दिया, “सब सुखी होते हो, उसे मार डालना ही पुण्यप्रद है” । “नृपोत्तम” ! धरती बोली “मुझे मार देन पर आपकी प्रजा का आधार ही नष्ट हो जायगा” । “वसुधे ! अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने के कारण मैं तो तुझे मार ही डालूँगा” । प्रतापी महाराज पृथु ने उत्तर दिया । “फिर मैं अपने योगबल से प्रजा को धारण करूँगा” ।

“लोकरक्षक प्रभो” ! धरणी ने महाराज पृथु के चरणों में प्रणाम कर उनकी स्तुति की । फिर उसने कहा “पापात्माओं के द्वारा दुरूपयोग किये जाते देखकर मैंने बीजों को अपने में रोक लिया था । अधिक समय होने से वे मेरे उदर में पच गये हैं । आपकी इच्छा हो तो मैं उन्हें दुग्ध के रूप में दे सकती हूँ आप प्रजाहित के लिये ऐसा बछड़ा प्रस्तुत करें, जिससे वात्सल्यवश मैं उन्हें दुग्ध रूप से निकाल सकूँ” ।

“धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महाराज” ! धरती ने आगे कहा “एक बात और है । आप मुझे समतल करने का भी कष्ट करें, जिससे वर्षा ऋतु व्यतीत होने पर मेरे ऊपर इन्द्र का बरसाया जल सर्वत्र बना रहे । मेरी आर्द्रता सुरक्षित रहे, शुष्क न हो जाय । यह आपके लिये भी शुभकर होगा” । धरती के उपयोगी वचन सुनकर महाराज पृथु ने स्वायम्भुव मनु को बछड़ा बना कर, धरती का दोहन करके उससे औषधि-बीज-अन्नादि का उत्पादन किया ।

पृथ्वी के द्वारा सब कुछ प्रदान करने पर महाराज पृथु बड़े प्रसन्न हुए और अत्यधिक स्नहेवश उन्होंने सर्वकामदुधा पृथ्वी को अपनी कन्या के रूप में स्वीकार कर लिया । महाराज पृथु ने पृथ्वी को समतल भी कर दिया | सभी मन्वन्तरों में यह पृथ्वी ऊँची-नीची हो जाती है; अतः वेन कुमार पृथु ने धनुष की कोटि द्वारा चारों ओर से शिला समूहो को उखाड़ डाला और उन्हें एक स्थान पर संचित कर दिया, इसीलिये पर्वतों की लम्बाई, चैड़ाई और ऊँचाई बढ़ गयी । “इससे पूर्व पृथ्वी के समतल न होने से पुर और ग्राम आदि का कोई विभाग नहीं था ।

हे मैत्रेय! उस समय अन्न, गोरक्षा, कृषि और व्यापार का भी कोई क्रम न था । यह सब तो वेन पुत्र पृथु के समय से ही प्रारम्भ हुआ है” । महाराज पृथु के राज्य में सर्वत्र सुख-शान्ति थी । प्रजा सर्वथा निश्चिन्त रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करती थी । वहाँ रोग-शोक नाम की कोई वस्तु नहीं थी “महाराज पृथु के राज्य में किसी को बुढ़ापा, दुर्भिक्ष तथा आधि-व्याधि का कष्ट नहीं था ।

राजा की ओर से रक्षा की समुचित व्यवस्था होने के कारण वहाँ कभी किसी को सर्पों, चोरों तथा आपस के लोगों से भय नहीं प्राप्त होता था” । इतना ही नहीं, विष्णु के अंश अवतार श्री पृथु के शासन में इच्छित वस्तुएँ स्वयं प्राप्त हो जाती थीं “पृथ्वी बिना जोते-बाये धान्य पकाने वाली थी । केवल चिन्ता मात्र से ही अन्न सिद्ध हो जाता था, गोएँ कामधेनु रूप थीं और पत्ते-पत्ते में मधु रहता था” ।

महाराज पृथु के चरणों में सारा जगत देवता के समान मस्तक झुकाता था । वे सागर की ओर जाते तो उसका जल स्थित हो जाता । पर्वत उन्हें मार्ग दे देते थे । उनके रथ की पताका सदा फहराती रही । सम्राट पृथु अत्यन्त धर्मात्मा तथा परम भगवद भक्त थे । उन्हें विषय भोगों की तनिक भी इच्छा नहीं थी । सासांरिक कामनाएँ उनका स्पर्श तक नहीं कर सकी थीं ।

सम्राट पृथु द्वारा इंद्र का पराभव

वे सदा श्री भगवान् को ही प्रसन्न रखना चाहते थें उन्होंने प्रभु को संतुष्ट करने के लिये मनु के ब्रह्मावर्त क्षेत्र में, जहाँ पुण्यतोया सरस्वती पूर्वमुखी होकर बहती थीं, सौ अश्वमेध यज्ञों की दीक्षा ली । श्री हरि की कृपा से उस यज्ञ अनुष्ठान से उनका बड़ा उत्कर्ष हुआ; किंतु यह बात देवराज इन्द को प्रिय नहीं लगी । सौ श्रौतयाग करने के फलस्वरूप ही जीव को इन्द्र पद प्राप्त होता है ।

इसलिए ऐसी स्थिति में दूसरा कोई ‘शतक्रतु’ हो जाय, यह उन्हे कैसे सहन होता । जब महाराज पृथु अन्तिम यज्ञ द्वारा यज्ञपति श्री भगवान् की आराधना कर रहे थे, इन्द्र ने यज्ञ का अश्व चुरा लिया । पाखण्ड से अनेक प्रकार के वेष बनाकर वे अश्व की चोरी करते और महर्षि अत्रि की आज्ञा से पृथु के महारथी पुत्र विजिताश्व उनसे अश्व छीन लाते ।

जब इन्द्र की दुष्टता का पता महाराज पृथु को चला, तब वे अत्यन्त कुपित हुए, उनके नेत्र लाल हो गये । उन्होंने इन्द्र को दण्ड देने के लिये धनुष उठाया और उस पर अपना तीक्ष्ण बाण रखा । “राजन् ! यज्ञ दीक्षा लेने पर शास्त्रविहीत यज्ञ पशु के अतिरिक्त अन्य किसी का वध उचित नहीं है” । ऋत्विजों ने असहाय पराक्रमी महाराज पृथु को रोकते हुए कहा ।

“इस यज्ञ में उपद्रव करने वाला आपका शत्रु इन्द्र आपकी सुकीर्ति से ही निस्तेज हो रहा है । हम अमोघ आवाहन-मन्त्रों के द्वारा उसे अग्नि में हवन कर भस्म कर देते हैं । आप यज्ञ में दीक्षित पुरूष की मर्यादा का निर्वाह करें” । यजमान महाराज पृथु से परामर्श करके याजकों ने क्रोध पूर्वक इन्द्र का आवाहन किया । वे इन्द्र से आहुति देना ही चाहते थे कि चतुर्मुख ब्रह्मा जी ने उपस्थित होकर उन्हें रोक दिया ।

विधाता ने आदि सम्राट महाराज पृथु से कहा “राजन ! यज्ञसंज्ञक इन्द्र तो श्री भगवान् की ही मूर्ति हैं । यज्ञ के द्वारा आप जिन देवताओं को संतुष्ट कर रहे हैं, वे इन्द्र के ही अंग हैं । आप तो श्री हरि के अनन्य भक्त हैं । आपको तो मोक्ष प्राप्त करना है । अतएव आपको इन्द्र पर क्रोध नहीं करना चाहिये । आप यज्ञ बन्द कर दीजिये” । श्री ब्रह्मा जी के इस प्रकार समझााने पर महाराज पृथु ने यज्ञ की वहीं पूर्णहुति कर दी ।

भगवान् विष्णु का सम्राट पृथु पर प्रसन्न होना तथा उन्हें मनोवान्छित वरदान देना

उनकी सहिष्णुता, विनय एवं निष्काम भक्ति से भगवान् विष्णु बड़े प्रसन्न हुए । भक्त वत्सल प्रभु इन्द्र के साथ वहाँ उपस्थित हो गये । इन्द्र अपने कर्मों से लज्जित होकर महाराज पृथु के चरणों में गिरना ही चाहते थे कि महाराज ने उन्हें अत्यन्त प्रीतिपूर्वक हृदय से लगा लिया और उनके मन की मलिनता दूर कर दी । महाराज पृथु ने त्रैलोक्य सुन्दर, भुवन मोहन भगवान् विष्णु की ओर देखा तो उनके आनन्द की सीमा नहीं रही ।

नेत्रों में जल भर आने के कारण वे प्रभु का दर्शन नहीं कर पा रहे थे । श्री भगवान् उन्हें ज्ञान, वैराग्य तथा राजनीति के गूढ़ रहस्यों को बताते हुए कहा “राजन ! तुम्हारें गुणों और स्वभाव ने मुझकों वश में कर लिया है; अतः तुम्हें जो इच्छा हो, वही वर मुझसे माँग लो । उन क्षमा आदि गुणों से रहित यज्ञ, तप अथवा योग के द्वारा मुझको पाना सरल नहीं है; मैं तो उन्हीं के हृदय में रहता हूँ, जिनके चित्त में समता रहती है” ।

प्रभु के चरण कमल वसुन्धरा को स्पर्श कर रहे थे । उनका एक कर कमल गरूड़ जी के कन्धे पर था । महाराज पृथु ने अश्रु पोंछकर प्रभु के मुखारविन्द की ओर देखते हुए अत्यन्त विनय के साथ कहा “मोक्षपति प्रभो ! आप वर देने वाले ब्रह्मादि देवताओं को भी वर देने में समर्थ हैं । कोई भी बुद्धिमान पुरूष आपसे देहाभिमानियों के भोगने योग्य विषयों को कैसे माँग सकता है? वे तो नारकी जीवों को भी मिलते ही हैं ।

अतः मै इन तुच्छ विषयों को आपसे नहीं माँगता । मुझे तो उस मोक्ष पद की भी इच्छा नहीं है, जिसमें महापुरूषों के हृदय से उनके मुख द्वारा निकला हुआ आपके चरण कमलों का मकरन्द नहीं है-जहाँ आपकी कीर्ति-कथा सुनने का सुख नहीं मिलता । इसलिये मेरी तो यही प्रार्थना है कि आप मुझे दस हजार कान दे दीजिये, जिनसे मैं आपके लीला-गुणों को सुनता ही रहूँ” । “तुम्हारी अनुरक्ति मुझ में बनी रहे” !

इस प्रकार वरदान देकर महाराज पृथु द्वारा पूजित श्री भगवान् अपने धाम को पधारे । आदिराज महाराज पृथु ने गंगा-यमुना के मध्यवर्ती क्षेत्र प्रयागराज को अपनी निवास भूमि बना लिया था । वे सर्वथा अनासक्त भाव से तत्परतापूर्वक प्रजा का पालन करते थे । वे अनेक प्रकार के महोत्सव किया करते थे । एक बार एक महासत्र में देवता, ब्रह्मर्षि और राजर्षि भी उपस्थित थे ।

उन सबका यथायोग्य स्वागत-सत्कार करने के उपरान्त परम भागवत महाराज पृथु ने सबके सम्मुख अपनी प्रजा को उपदेश देते हुए कहा “प्रिय प्रजानन ! अपने इस राजा के पारमार्थिक हित के लिये आप लोग परस्पर दोष दृष्टि छोड़कर हृदय से सर्वेश्वर प्रभु को स्मरण करते हुए अपने-अपने कर्तव्य का पालन करते रहिये । आपका स्वार्थ भी इसी में है और इस प्रकार मुझ पर भी आपका परम अनुग्रह होगा ।

इस पृथ्वी तल पर मेरे जो प्रजाजन सर्वगुरू श्री हरि की निष्ठापूर्वक अपने-अपने धर्मों के द्वारा निरन्तर पूजा करते हैं, उनकी मुझ पर बड़ी कृपा है” । भगवान् की महिमा का निरूपण करने के साथ ही उन्होंने क्लेशों की निविृत्ति तथा मोक्ष-प्राप्ति का साधन भी भगवद भजन ही बताया । उन्होंने सबको धर्म का उपदेश किया और अन्त में अपनी अभिलाषा व्यक्त की कि ‘ब्राह्मण-कुल’, गोवंश और भक्तों के सहित भगवान् मुझ पर सदा प्रसन्न रहें” । सभी महाराज पृथु की प्रशंसा करने लगे ।

सम्राट पृथु की सभा में सनक-सनन्दन आदि ऋषियों का उपस्थित होना तथा उन्हें आशीर्वाद देना

उसी समय वहाँ लोगों ने आकाश से सूर्य के समान तेजस्वी चार सिद्धों को उतरते देखा । परम पराक्रमी महाराज पृथु ने सनकादि कुमारों को पहचान कर इन्हें श्रेष्ठ स्वर्णासन पर बैठाया और श्रद्धा-भक्ति पूर्ण हृदय से उनकी विधिवत पूजा की । फिर उनके चरणोदक को अपने मस्तक पर चढ़ाया और हाथ जोड़कर अत्यन्त विनयपूर्वक् उन्होंने सनकादि से कहा “प्रभो !

पृथ्वी के प्रथम राजा कौन थे? - prthvee ke pratham raaja kaun the?
आपने मेरे यहाँ पधारने की कृपा कर मेरा बड़ा ही उपकार किया है । मैं आपके प्रति आभार किन शब्दों में व्यक्त करूँ? अब आप दयापूर्वक यह बताने का कष्ट करें कि इस धरती पर प्रणी का किस प्रकार सुगमता से कल्याण हो सकता है ।

महाराज पृथु पर अत्यन्त प्रसन्न होकर सनकादि कुमारों ने उन्हें धन और इन्द्रियों के विषयों के चिन्तन का त्याग कर भगवान् की भक्ति करने का सदुपदेश दिया ।

“आप लोगों के उपकार का बदला भला, मैं कैसे दे सकता हूँ” । सनकादि के अमृतमय उपदेशों से उपकृत महाराज पृथु ने उनकी स्तुति था पूजा की और वे आत्म ज्ञानियों में श्रेष्ठ सनकादि महाराज के शील-गुण की सराहना करते हुए सबके सामने ही आकाश मार्ग से प्रस्थित हुए । इस प्रकार प्रजा के जीवन-निर्वाह की पूरी व्यवस्था तथा साधु जनोचित धर्म का पालन करते हुए महाराज पृथु की आयु ढलने लगी ।

सम्राट पृथु का अपनी पत्नी अर्चि के साथ समस्त भौतिक ऐश्वर्य तथा सुख का त्याग करते हुए जंगल की ओर प्रयाण करना तथा अंत में उन दोनों का मोक्ष प्राप्त करना

“अब मुझे अंतिम पुरूषार्थ-मोक्ष के लिये प्रयत्न करना चाहिये” । यों विचार कर उन्होंने अपनी पुत्रीरूपा पृथ्वी का भार अपने पुत्र को सौंप दिया और अपनी सहधर्मिणी अर्चि के साथ वे तपस्या के लिये वन मे चले गये । वहाँ महाराज पृथु ने अत्यन्त कठोर तपस्या करते हुए सनकादि के उपदेश के अनुसार श्री भगवान् में चित्त स्थिर कर लिया ।

पृथ्वी के प्रथम राजा कौन थे? - prthvee ke pratham raaja kaun the?
इस प्रकार अपने परम आराध्य श्री हरि में मन लगाकर एक दिन आसन पर बैठे-बैठै ही उन्होंने योग धारणा के द्वारा अपना भौतिक कलेवर त्याग दिया । अपने पुण्यमय पति के तपःकाल मे उनकी सुकुमारी महारानी अर्चि ने अत्यन्त दुर्बल होते हुए भी उनकी प्रत्येक रीति से सेवा की । वे निर्जन वन में समिधा एकत्र करतीं; कुश, पुष्प और फल एकत्र करतीं और पवित्र जल लाकर पति की साधना में सतत योगदान करती रहीं ।

जब उन्होंने पति के निष्प्राण शरीर को देखा, तब वे करूण विलाप करने लगीं । कुछ देर के बाद परम पराक्रमी आदिराज महाराज पृथु की महारानी अर्चि ने धैर्य धारण कर लकड़ियाँ एकत्र कीं और समीपस्थ पर्वत पर चिता तैयार की । फिर पति के निर्जीव शरीर को स्नान कराकर उसे चिता पर रख दिया । इसके बाद उन्होंने स्वयं स्नान कर अपने पति को जलांजलि दी ।

फिर अंतरिक्ष में उपस्थित देवताओं की वन्दना कर उन्होंने चिता की तीन बार परिक्रमा की और स्वयं भी प्रजवलित अग्नि में प्रविष्ट हो गयीं । महारानी अर्चि को अपने वीर पति पृथु का अनुगमन करते देख सहस्रों वरदायिनी देवियों ने उनकी स्तुति की । वहाँ देववाद्य बजने लगे और आकाश से सुमन-वृष्टि होने लगी । देवांगनाओं ने परम सती महारानी अर्चि की प्रशंसा करते हुए कहा “अवश्य ही अपने अचिन्त्य कर्म के प्रभाव से यह सती हमें भी लाँघकर अपने पति के साथ उच्चतर लोकों को जा रही है ।

इस लोक में कुछ ही दिनों का जीवन होने पर भी जो लोग भगवान् परम पद की प्राप्ति कराने वाला आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, उनके लिये संसार में और कौन पदार्थ दुर्लर्भ है” । पृथ्वी पर महाराज पृथु जैस आदि राजा थे, महारानी अर्चि भी उसी प्रकार पति के साथ सहमरण करने वाली प्रथम सती थीं |

दुनिया का सबसे पहला राजा कौन था?

पृथु राजा वेन के पुत्र थे। भूमण्डल पर सर्वप्रथम सर्वांगीण रूप से राजशासन स्थापित करने के कारण उन्हें पृथ्वी का प्रथम राजा माना गया है।

राजा पृथ्वी के पिता का क्या नाम था?

पृथ्वीराज चौहान के पिता का नाम सम्राट सोमेश्वर था

धरती पर सबसे बड़ा राजा कौन है?

सम्राट अशोक का मौर्य साम्राज्य भारत का सबसे बड़ा साम्राज्य और सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था।

पूरे विश्व का राजा कौन था?

विश्व का पहला राजा कौन था? - Quora. विस्व का पहला राजा मनु को माना जाता है . सनातन धर्म के अनुसार मनु संसार के प्रथम पुरुष थे। मनु का जन्म आज से लगभग 19700 साल पूर्व हुआ था प्रथम मनु का नाम स्वयंभुव मनु था, जिनके संग प्रथम स्त्री थी शतरूपा।