निम्नलिखित में से कौन सामूहिक प्रतिनिधान के अध्ययन से सम्बन्धित है? - nimnalikhit mein se kaun saamoohik pratinidhaan ke adhyayan se sambandhit hai?

सामूहिक प्रतिनिधान

 ( Collective Representation )

‘ सामूहिक प्रतिनिधान ‘ DURKHEIM द्वारा प्रस्तुत प्रमुख अवधारणाओं में से एक है । इस अवधारणा का महत्त्व इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है कि दुर्थीम सामूहिक प्रतिनिधानों को ही समाजशास्त्र की वास्तविक विषय – वस्तु मानते हैं । वास्तविकता यह है कि सामूहिक प्रतिनिधान की अवधारणा को समझने से पहले सामूहिक चेतना ( Collective Consciousness ) की प्रकृति को समझना आवश्यक है क्योंकि सामूहिक चेतना ही सामूहिक प्रतिनिधानों को जन्म देती है । दुर्थीम ने अपनी पुस्तक ‘ समाज में श्रम – विभाजन ‘ के अन्तर्गत सामूहिक चेतना को परिभाषित करते हुए लिखा – कि , ” किसी समाज के सामान्य व्यक्तियों में पाये जाने वाले विश्वासों और भावनाओं की समग्रताही सामान्य चेतना अथवा सामूहिक चेतना होती है। 

इसका तात्पर्य है कि व्यक्तिगत चेतना तथा सामूहिक चेतना की प्रकृति एक – दूसरे से भिन्न है । व्यक्तिगत चेतना का निर्माण व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं , भावनाओं और विचारों से होता है लेकिन जब बहुत से लोगों की व्यक्तिगत चेतना एक समग्रता में बदल जाती है तब इसी को हम सामूहिक चेतना कहते हैं । इसे स्पष्ट करते हुए दुर्थीम ने बतलाया कि समूह में जब बहुत से लोग पारस्परिक अन्तक्रिया करते हैं और एक – दूसरे से विचारों का आदान – प्रदान करते हैं तब इससे एक ऐसी संयुक्त चेतना का निर्माण हो जाता है जिसकी प्रकृति व्यक्तिगत चेतना से बिल्कुल स्वतन्त्र लेकिन कहीं अधिक शक्तिशाली होती है । यह सामूहिक चेतना अपनी प्रकृति से व्यक्ति के लिए बाह्य ( exterior ) होती है क्योंकि फिर कोई अकेला व्यक्ति इसे न तो अधिक प्रभावित कर पाता है और न ही उससे पृथक रहकर व्यवहार कर सकता है । वास्तव में सामूहिक चेतना की यह प्रकृति ही सामूहिक प्रतिनिधान का वास्तविक स्रोत है ।सामूहिक चेतना के आधार पर निर्मित होने वाले सामूहिक प्रतिनिधानों की प्रकति को स्पष्ट करते हुए दुर्शीम ने बतलाया कि प्रत्येक समाज में कुछ ऐसे विचार और भावनाएं होती हैं जिन्हें उस समाज के सदस्य सदैव अपनाते हैं और उनमें भाग लेते हैं ।

यह विचार और भावनाएं व्यक्तिगत नहीं होती बल्कि इनमें सामूहिक इच्छा का समावेश होता है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि समाज में जब विभिन्न व्यक्ति एक – दूसरे से अन्तक्रिया करते हैं तब कुछ ऐसे प्रतीकों , व्यवहार के ढंगों तथा विचारों का विकास हो जाता है जो सम्पूर्ण समाज की विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले होते हैं । जिस विचार अथवा व्यवहार के ढंग को एक बार समूह की प्रतिनिधि विशेषता के रूप में देखा जाने लगता है उसे उस समाज के सभी सदस्य बिना किसी शंका अथवा विरोध के स्वीकार कर लेते हैं । सामान्य रूप से इन्हीं प्रतिनिधि विशेषताओं को सामूहिक प्रतिनिधान कहा जा सकता है । उदाहरण के लिए , विभिन्न अनुष्ठान , विश्वास , ज्ञान की श्रेणियाँ , धार्मिक व्यवस्थाएं तथा राष्ट्र – ध्वज समाज के सामुहिक विचारों को स्पष्ट करने वाले धार्मिक और राजनैतिक प्रतिनिधान हैं ।

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दुर्थीम का कथन है कि किसी विशेषता को हम सामूहिक प्रतिनिधान मान सकते हैं अथवा नहीं , यह इस बात पर निर्भर होता है कि वह विशेषता सम्पूर्ण समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली है अथवा किसी एक छोटे से समूह की विशेषता को ही स्पष्ट करती है । इसका तात्पर्य है कि समाज में कोई विचार , व्यवहार का ढंग अथवा प्रतीक यदि समाज के बहुत बड़े भाग का प्रतिनिधित्व करता हो तो हम उसे सामूहिक प्रतिनिधान कह सकते हैं । इस आधार पर सामूहिक प्रतिनिधान को परिभाषित करते हुए दुीम ने लिखा है कि , ” सामूहिक प्रतिनिधान किसी समाज में औसत लोगों के विश्वासों और भावनाओं की वह सम्पूर्णता है जो एक विशेष व्यवस्था का निर्माण करती है तथा जिसका अपना एक पृथक अस्तित्व होता है । ” इनकी प्रकृति को स्पष्ट करते हुए दुर्थीम ने पुन : कहा कि “ सामूहिक प्रति निधान एक व्यापक क्षेत्र और लम्बी अवधि से सम्बन्धित विस्तृत सहयोग का परिणाम होते हैं , इनके निर्माण में असंख्य मस्तिष्कों का योगदान होता है तथा इनमें बहुत – सी पीढ़ियों के अनुभवों और संचित ज्ञान का समावेश पाया जाता है । ” उपयुक्त विवेचन से सामूहिक प्रतिनिधान की दो मुख्य विशेषताएं स्पष्ट होती हैं – ( क ) यह सम्पूर्ण समाज में फैले हुए होते हैं , तथा ( ख ) व्यक्ति पर इनका एक नियंत्रणकारी प्रभाव होता है । स्पष्ट है कि समाज की जिस विशेषता को हम सामूहिक प्रतिनिधान मानते हैं , उसका विस्तार किसी छोटे से क्षेत्र में नहाकर सम्पूर्ण समाज में होता है । दूसरी बात यह है कि सामाजिक संगठन को बनाये रखन तथा व्यक्तियों को विभिन्न संघर्षों से बचाने में इनकी विशेष भूमिका होने के कारण यह इतने शक्तिशाली हो जाते हैं कि व्यक्ति साधारणतया उनके विरुद्ध व्यवहार नह ‘ कर पाता । सामूहिक प्रतिनिधानों को पूरे समूह की स्वीकृति मिली होती है । इसक स्यस्प भी व्यक्ति अपना यह नैतिक दायित्व समझता है कि सामूहिक प्रतिनिधाना के अनुसार ही व्यवहार करे ।

वास्तव में सामूहिक प्रतिनिधान सम्पूर्ण समूह के लिए आदर्श होते हैं । इसके फलस्वरूप इनके अन्दर एक नैतिक शक्ति का समावेश हो जाता है । पार्सस्स ( Parsons ) ने दुखीम द्वारा प्रस्तुत सामुहिक प्रतिनिधान की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए इसका ‘ व्यक्तिगत प्रतिनिधान ( individual representa tion ) से अन्तर स्पष्ट किया है । पार्सन्स के शब्दों में , ” व्यक्तिगत प्रतिनिधान एक व्यक्ति की उस विशेषता को स्पष्ट करते हैं जिनके अनुसार वह अपनी बाहरी दुनियाँ को बहुत कुछ स्वतन्त्र मानकर अपनी इच्छानुसार सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न करता है । इसके विपरीत , सामूहिक प्रतिनिधान व्यक्ति का सामाजिक पर्यावरण है जिसके बाहर जा सकना उसके लिए न केवल कठिन होता है बल्कि वह उसे अपने व्यवहारों का मानदण्ड भी समझने लगता है । ” इससे पुनः स्पष्ट होता है कि सामूहिक प्रतिनिधान में एक ऐसी सामूहिक चेतना का समावेश होता है जो व्यक्ति को विचार और व्यवहार के प्रत्येक क्षेत्र में प्रभावित करती है । इस आधार पर दुखीम ने यह निष्कर्ष दिया कि यदि हम किसी समाज के सामूहिक प्रतिनिधानों का अध्ययन कर लें तो हम उस समाज की आधारभूत विशेषताओं को समझ सकते हैं । दूसरी बात यह है कि व्यक्तिगत व्यवहार क्योंकि सामूहिक प्रतिनिधानों से ही प्रभावित होते हैं , अत : इनसे सम्बन्धित व्यवहारों के लिए व्यक्ति को उत्तरदायी न समझकर सम्पूर्ण समाज को उत्तरदायी मानना चाहिए । इस दृष्टिकोण से यदि हम किसी समाज में धर्म , विभिन्न संगठनों , सामाजिक उपव्यस्थाओं तथा आत्महत्या जैसे व्यवहार को समझना चाहते हों तो उन्हें सामूहिक प्रतिनिधानों के सन्दर्भ में ही समझना आवश्यक होगा । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि दुर्वीम द्वारा प्रस्तुत सामूहिक प्रतिनिधान की अवधारणा उनके द्वारा बतलाये गये सामाजिक तथ्यों के विश्लेषण पर ही आधारित है ।

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 समालोचना – समाजशास्त्र की विषय – वस्तु के रूप में सामूहिक प्रतिनिधित्व की अवधारणा दुखीम का एक महत्त्वपूर्ण योगदान है लेकिन अनेक आधारों पर कुछ चिद्वान इसकी व्यावहारिकता को स्वीकार नहीं करते । ( 1 ) टाई का कथन है कि यह बात उचित प्रतीत नहीं होती कि सामूहिक प्रतिनिधान व्यक्ति से बाह्य और व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण हैं । वास्तव में व्यक्ति को अलग करके समाज को ही समझ सकना कठिन है , फिर व्यक्ति की अवहेलना करके सामूहिक प्रतिनिधानों को – किस प्रकार अधिक महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है । ( 2 ) टा . यह भी मानते हैं कि व्यक्ति पर सामूहिक प्रतिनिधान का बाध्यतामूलक प्रभाव होना भी बहुत सन्देहपूर्ण Bा यदि यह मान लिया जाय कि व्यक्ति का प्रत्येक व्यवहार सामूहिक प्रतिनिधानों सहा निति तोला है तो समाज में पारस्परिक सहयोग , स्वतंत्रता तथा स्वेच्छा का का कोई महत्त्व ही नहीं रह जायेगा । ( 3 ) सॉरोकिन का कथन है कि दुर्थीम द्वारा प्रस्तुत सामूहिक प्रतिनिधान की अवधारणा इतनी रहस्यपूर्ण है कि केवल इसी के आधार पर सामाजिक जीवन तथा व्यक्तिगत व्यवहारों की विवेचना नहीं की सकती । इन आलोचनाओं के पश्चात् भी यह स्वीकार करना होगा कि दुर्वीम ने सामहिक प्रतिनिधान की अवधारणा के द्वारा कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रतिमानों के अध्ययन पर बल दिया जिनके आधार पर किसी समाज तथा वैयक्तिक व्यवहारों की विशेषता को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है ।

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सामूहिक प्रतिनिधान की अवधारणा किसकी है?

दर्खाइम ने सामूहिक प्रतिनिधान की प्रथम परिभाषा अपनी पुस्तक “आत्महत्या" (सुइसाइड) में बताई है कि वास्तव में सामाजिक जीवन प्रतीकों का बना हुआ है।

दुर्खीम के अनुसार सामूहिक प्रतिनिधित्व का क्या प्रतीक है?

डेविड एमील दुर्ख़ाइम (1858-1917) को आधुनिक समाजशास्त्र का संस्थापक और समाज-वैज्ञानिक शब्दावली में दुनिया का पहला अधिकारिक समाजशास्त्री माना जाता है। अध्ययन की विश्वविद्यालयी व्यवस्था में वे समाजशास्त्र के पहले प्रोफ़ेसर भी थे।