Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 13 मानवीय करुणा की दिव्या चमक Textbook Exercise Questions and Answers. प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. उनके शोध ‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ के कुछ अध्याय ‘परिमल’ में पढ़े गए थे। उन्होंने ‘परिमल’ में भी कार्य किया। वे सदैव हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए चिंतित रहते थे। इसके लिए वे प्रत्येक मंच पर आवाज़ उठाते थे। उन्हें उन लोगों पर झुंझलाहट होती थी, जो हिंदी जानते हुए भी हिंदी का प्रयोग नहीं करते थे। इस तरह हम कह सकते हैं कि फ़ादर बुल्के का हिंदी के प्रति विशेष लगाव और प्रेम था। प्रश्न 4. किसी ने भी उन्हें कभी क्रोध में नहीं देखा था। वे सबके साथ प्यार व ममता से मिलते थे। जिससे एक बार मिलते थे, उससे रिश्ता बना लेते थे, फिर वे संबंध कभी नहीं तोड़ते थे। फ़ादर अपने से संबंधित सभी लोगों के घर, परिवार और उनकी दुख-तकलीफों की जानकारी रखते थे। दुख के समय उनके मुख से निकले दो शब्द जीवन में नया जोश भर देते थे। फ़ादर बुल्के का व्यक्तित्व वास्तव में देवदार की छाया के समान था। उनसे रिश्ता जोड़ने के बाद बड़े भाई के अपनत्व, ममता, प्यार और आशीर्वाद की कभी कमी नहीं होती थी। प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. (ख) लेखक के फ़ादर बुल्के से अंतरंग संबंध थे। फ़ादर बुल्के से मिलना और उनसे बात करना लेखक को अच्छा लगता था। फ़ादर ने उसके हर दुख-सुख में उसका साथ निभाया था। इसलिए लेखक को लगता है कि फ़ादर बुल्के को याद करना उनके लिए एकांत में उदास शांत संगीत सुनने जैसा है, जो अशांत मन को शांति प्रदान करता है। फ़ादर ने सदैव उनके अशांत मन को शांति प्रदान की थी। रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 8. प्रश्न 9. इसलिए लेखक के यह पूछने पर कि कैसी है आपकी जन्मभूमि? फ़ादर बुल्के ने तत्परता से जबाव दिया कि उनकी जन्मभूमि बहुत सुंदर है। यह उत्तर उनकी आत्मा की आवाज़ थी। हमें अपनी जन्मभूमि प्राणों से बढ़कर प्रिय है। जन्मभूमि में ही मनुष्य का उचित विकास होता है। उसकी आत्मा में अपनी जन्मभूमि की मिट्टी की महक होती है। जन्मभूमि से मनुष्य का रिश्ता उसके जन्म से शुरू होकर उसके मरणोपरांत तक रहता है। जन्मभूमि ही हमें हमारी पहचान, संस्कृति तथा सभ्यता से अवगत करवाती है। हमें अपनी जन्मभूमि के लिए कृतज्ञ होना चाहिए और उसकी रक्षा और सम्मान पर कभी आँच नहीं आने देनी चाहिए। भाषा-अध्ययन – प्रश्न 10. शीत प्रदेश में वास करने वाला व्यक्ति काँप-काँप कर जी लेता है, लेकिन जब उसके देश पर कोई संकट आता है तो वह अपनी जन्मभूमि पर प्राण न्योछावर कर देता है। ‘यह मेरा देश है’ कथन में कितनी मधुरता है। इसमें जो कुछ है, वह सब मेरा है। जो व्यक्ति ऐसी भावना से रहित है, उसके लिए ठीक ही कहा गया है – जिसको न निज गौरव तथा निज देश का
अभिमान है। मेरा महान देश भारत सब देशों का मुकुट है। इसका अतीत स्वर्णिम रहा है। एक समय था, जब इसे ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। प्रकृति ने इसे अपने अपार वैभव, शक्ति एवं सौंदर्य से विभूषित किया है। इसके आकाश के नीचे मानवीय प्रतिभा ने अपने सर्वोत्तम वरदानों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग किया है। इस देश के चिंतकों ने गूढतम प्रश्न की तह में पहुँचने का सफल प्रयास किया है। मेरा देश अति प्राचीन है। इसे सिंधु देश, आर्यावर्त, हिंदुस्तान भी कहते हैं। इसके उत्तर में ऊँचा हिमालय पर्वत इसके मुकुट के समान है। उसके पार तिब्बत तथा चीन हैं। दक्षिण में समुद्र इसके पाँव धोता है। श्रीलंका द्वीप वहाँ समीप ही है। उसका इतिहास भी भारत से संबद्ध है। पूर्व में बांग्लादेश और म्यांमार देश हैं। पश्चिम में पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, ईरान देश हैं। प्राचीन समय में तथा आज से दो हज़ार वर्ष पहले सम्राट अशोक के राज्यकाल में और उसके बाद भी गांधार (अफ़गानिस्तान) भारत का ही प्रांत था। कुछ सौ वर्षों पहले तक बाँग्लादेश, ब्रह्मदेश व पाकिस्तान भारत के ही अंग थे। इस देश पर अंग्रेजों ने आक्रमण करके यहाँ पर विदेशी राज्य स्थापित किया और इसे खूब लूटा। पर अब वे दुख भरे दिन बीत चुके हैं। हमारे देश के वीरों, सैनिकों, देशभक्तों और क्रांतिकारियों के त्याग व बलिदान से 15 अगस्त 1947 ई० को भारत स्वतंत्र होकर दिनों-दिन उन्नत और शक्तिशाली होता जा रहा है। 26 जनवरी, 1950 से भारत में नया संविधान लागू हुआ और यह ‘संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ बन गया। अनेक ज्वारभाटों का सामना करते हुए भी इसका सांस्कृतिक गौरव अक्षुण्ण रहा है। यहाँ गंगा, यमुना, सरयू, नर्मदा, कृष्णा, गोदावरी, सोन, सतलुज, व्यास, रावी आदि पवित्र नदियाँ बहती हैं, जो इस देश को सींचकर हरा-भरा करती हैं। इनमें स्नान कर देशवासी पुण्य लाभ उठाते हैं। यहाँ बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर-ये छह ऋतुएँ क्रमशः आती हैं। इस देश में अनेक तरह की जलवायु है। भाँति-भाँति के फल-फूल, वनस्पतियाँ, अन्न आदि यहाँ उत्पन्न होते हैं। इस देश को देखकर हृदय गदगद हो जाता है। यहाँ अनेक दर्शनीय स्थान हैं। यह एक विशाल देश है। इस समय इसकी जनसंख्या लगभग एक सौ पच्चीस करोड़ से अधिक हो गई है, जो संसार में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। यहाँ हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई आदि मतों के लोग परस्पर मिल-जुलकर रहते हैं। यहाँ हिंदी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, मराठी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, बाँग्ला, तमिल, तेलुगू आदि अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। दिल्ली इसकी राजधानी है। वहीं संसद भी है, जिसके लोकसभा और राज्यसभा दो अंग हैं। मेरे देश के प्रमुख राष्ट्रपति’ कहलाते हैं। एक उपराष्ट्रपति भी होता है। देश का शासन प्रधानमंत्री तथा उसका मंत्रिमंडल चलाता है। इस देश में विभिन्न राज्य या प्रदेश हैं, जहाँ विधानसभाएँ हैं। वहाँ मुख्यमंत्री और उसके मंत्रिमंडल द्वारा शासन होता है। यह धर्मनिरपेक्ष देश है। यहाँ बड़े धर्मात्मा, तपस्वी, त्यागी, परोपकारी, वीर, बलिदानी महापुरुष हुए हैं। यहाँ की स्त्रियाँ पतिव्रता, सती, साध्वी, वीरता और साहस की पुतलियाँ हैं। उन्होंने कई बार जौहर व्रत किए हैं। वे योग्य और दृढ़ शासक भी हो चुकी हैं और आज भी हैं। यहाँ के ध्रुव, प्रहलाद, लव-कुश, अभिमन्यु, हकीकतराय आदि बालकों ने अपने ऊँचे जीवनादर्शों से इस देश का नाम उज्ज्वल किया है। मेरा देश गौरवशाली है। इसका इतिहास सोने के अक्षरों में लिखा हुआ है। यह स्वर्ग के समान सभी सुखों को प्रदान करने में समर्थ है। मैं इस पर तन-मन-धन न्योछावर करने के लिए तत्पर रहता हूँ। मुझे अपने देश पर और अपने भारतीय होने पर गर्व है। प्रश्न 11. प्रिय मित्र, यदि आप भी हमारे साथ शिमला चलें तो यात्रा का आनंद आ जाएगा। आप किसी प्रकार का संकोच न करें। मेरे माता-पिताजी भी आपको देखकर बहुत प्रसन्न होंगे। आप शीघ्र ही अपने कार्यक्रम के बारे में सूचित करें। हमारा विचार जून के प्रथम सप्ताह में जाने का है। शिमला से लौटने
के बाद जम्मू-कश्मीर जाने का विचार है, जहाँ अनेक दर्शनीय स्थान हैं। जम्मू के पास कटरा में वैष्णो देवी का मंदिर मेरे आकर्षण का केंद्र है। मुझे अभी तक इस सुंदर भवन को देखने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। आशा है कि इस बार यह जिज्ञासा भी शांत हो जाएगी। आप अपने कार्यक्रम से शीघ्र ही सूचित करें। प्रश्न 12. पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. यह भी जानें – परिमल – निराला के प्रसिद्ध काव्य संकलन से प्रेरणा लेते हुए 10 दिसंबर 1944 को प्रयाग विश्वविद्यालय के साहित्यिक अभिरुचि रखने वाले कुछ उत्साही युवक मित्रों द्वारा परिमल समूह की स्थापना की गई। ‘परिमल’ द्वारा अखिल भारतीय स्तर की गोष्ठियाँ आयोजित की जाती थीं जिनमें कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक आदि पर खुली आलोचना और उन्मुक्त बहस की जाती। परिमल का कार्यक्षेत्र इलाहाबाद था। जौनपुर, मुंबई, मथुरा, पटना, कटनी में भी इसकी शाखाएँ रहीं। परिमल ने इलाहाबाद में साहित्य-चिंतन के प्रति नए दृष्टिकोण का न केवल निर्माण किया बल्कि शहर के वातावरण को एक साहित्यिक संस्कार देने का प्रयास भी किया। फ़ादर कामिल बुल्के (1909-1982) JAC Class 10 Hindi मानवीय करुणा की दिव्या चमक Important Questions and Answersप्रश्न 1. 2. व्यक्तित्व – फ़ादर बुल्के का व्यक्तित्व हर किसी के हृदय में अपनी छाप छोड़ता था। उनका रंग गोरा था। उनकी दाढ़ी भूरी थी, जिसमें सफ़ेदी की झलक भी दिखाई देती थी। उनकी आँखें नीली थीं। उनके चेहरे पर तेज़ था। उनका व्यक्तित्व उन्हें भीड़ – में अलग पहचान देता था। 3. शिक्षा – रेम्सचैपल शहर में जब उन्होंने संन्यास लिया उस समय वे इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में थे। भारत आकर उन्होंने कोलकाता से बी०ए०, इलाहाबाद से एम० ए० और प्रयाग विश्वविद्यालय से हिंदी में शोधकार्य किया। शोध का विषय था – ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’। 4. अध्यापन कार्य – फादर बुल्के सेंट जेवियर्स कॉलेज रांची में हिंदी तथा संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष थे। वहाँ उन्होंने अपना अंग्रेजी-हिंदी कोश लिखा, जो बहुत प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने बाइबिल का भी अनुवाद किया। 5. शांत स्वभाव-फ़ादर बुल्के शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। उन्हें कभी भी किसी ने क्रोध में नहीं देखा था। उनका शांत स्वभाव हर किसी को प्रभावित करता था। 6. ओजस्वी वाणी-फ़ादर बुल्के की वाणी ओजस्वी थी। उनके मुख से निकले दो सांत्वना के शब्द अँधेरे जीवन में रोशनी ला देते थे। उनके विचार ऐसे होते थे, जिन्हें कोई काट नहीं सकता था। 7. बड़े भाई की भूमिका में-फ़ादर बुल्के प्रत्येक व्यक्ति के लिए बड़े भाई की भूमिका में दिखाई देते थे। उनकी उपस्थिति में सभी कार्य शांति और सरलता से संपन्न होते थे। उनका वात्सल्य सबके लिए देवदार पेड़ की छाया के समान था। ‘परिमल’ में काम करते समय वहाँ का वातावरण एक परिवार की तरह था, जिसके बड़े सदस्य फ़ादर थे। वे बड़े भाई की तरह सबको सुझाव और राय देते थे। 8. मिलनसार-फ़ादर बुल्के मिलनसार व्यक्ति थे। वे जिससे एक बार रिश्ता बना लेते थे, उसे कभी नहीं तोड़ते थे। जब भी वे दिल्ली जाते, तो सबसे मिलकर आते थे; चाहे वह मिलना दो मिनट का होता था। 9. हिंदी भाषा के प्रति प्यार-फ़ादर बुल्के एक विदेशी होते हुए भी बहुत अपने थे। उनके अपनेपन का कारण था-उनका भारत, भारत की संस्कृति और भारतीय भाषा हिंदी से विशेष प्यार। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे और इसके लिए प्रयासरत भी रहते थे। उनकी हिंदी भाषा के प्रति चिंता प्रत्येक मंच पर स्पष्ट देखी जा सकती थी। उन्हें उस समय बहुत झुंझलाहट होती थी, जब हिंदी वाले ही हिंदी की उपेक्षा करते थे। उन्हें हिंदी भाषा और बोलियों से विशेष प्रेम था। 10. कष्टदायी मृत्यु-फ़ादर बुल्के शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। वे दूसरों के दुख से जल्दी दुखी हो जाते थे। जिन्होंने सदैव अपने स्वभाव से मिठास बाँटी थी, उसी की मृत्यु ज़हरबाद से हुई थी। उन्हें अंतिम समय में बहुत यातना सहन करनी पड़ी थी। उन्होंने अपने जीवन के सैंतालीस साल भारत में बिताए थे। मृत्यु के समय उनकी आयु तिहत्तर वर्ष थी। 18 अगस्त 1982 को दिल्ली में उनकी मृत्यु हुई। फ़ादर बुल्के का व्यक्तित्व तपती धूप में शीतलता प्रदान करने वाला था। इसलिए लेखक का उनको याद करना एक उदास शांत संगीत सुनने जैसा था। प्रश्न 2. हम लोगों को फ़ादर बुल्के के जीवन से यह संदेश लेना चाहिए कि जब एक विदेशी अनजान देश, अनजान लोगों और अनजान भाषा को अपना बना सकता है तो हम अपने देश, अपने लोगों और अपनी भाषा को अपना क्यों नहीं बना सकते? हमें अपने भारतीय होने पर गर्व होना चाहिए। अपने देश और उसकी राष्ट्रभाषा हिंदी के सम्मान की रक्षा के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. पठित गद्याश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए गद्यांश को पढ़कर प्रश्नों के सही उत्तर वाले विकल्प चुनिए
– (क) परिमल से आप क्या समझते हैं? (ख) फ़ादर को याद करना कैसा है? (ग) किनको देखना करुणा के जल में स्नान करने के
समान है? (घ) फ़ादर बुल्के की बातें क्या करने की प्रेरणा देती थी? (ङ) घर के उत्सवों में फ़ादर की क्या भूमिका रहती थी? उच्च चिंतन क्षमताओं एवं अभिव्यक्ति पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – पाठ पर आधारित प्रश्नों को पढ़कर सही उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (ख) फ़ादर ने ‘जिसेट संघ’ में दो वर्ष किस विषय की पढ़ाई की? (ग) फ़ादर की उपस्थिति किस वृक्ष की छाया के समान प्रतीत होती थी? (घ) फ़ादर कामिल बुल्के अकसर किसकी यादों में खो जाते थे? (ङ) फ़ादर ने किसके प्रसिद्ध
नाटक का रूपांतर हिंदी में किया? महत्वपूर्ण गद्यांशों के अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. फ़ादर को जहरबाद से नहीं मरना चाहिए था। जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त और कुछ नहीं था उसके लिए इस ज़हर का विधान क्यों हो? यह सवाल किस ईश्वर से पूछे ? प्रभु की आस्था ही जिसका अस्तित्व था। वह देह की इस यातना की परीक्षा की उम्र की आखिरी देहरी पर क्यों दें? अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : फ़ादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है। उनको देखना करुणा के निर्मल जल में स्नान करने जैसा था और उनसे बात करना कर्म के संकल्प से भरना था। मुझे ‘परिमल’ के वे दिन याद आते हैं जब हम सब एक पारिवारिक रिश्ते में बँधे जैसे थे जिसके बड़े फ़ादर बुल्के थे। हमारे हँसी-मज़ाक में वह निर्लिप्त शामिल रहते, हमारी गोष्ठियों में वह गंभीर बहस करते, हमारी रचनाओं पर बेबाक राय और सुझाव देते और हमारे घरों के किसी भी उत्सव और संस्कार में वह बड़े भाई और पुरोहित जैसे खड़े हो हमें अपने आशीषों से भर देते। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. लेखक के अनुसार फ़ादर बुल्के को देखने मात्र से ऐसा लगता था, जैसे उन्हें हम किसी पवित्र सरोवर के उज्ज्वल जल में स्नान करके पवित्र हो गए हों। उनसे बातचीत करना तथा उनकी बातें सुनना कर्म करने की प्रेरणा भर देता था। 3. ‘परिमल’ एक साहित्यिक संस्था थी। इसमें समय-समय पर साहित्यिक विचार गोष्ठियाँ आयोजित की जाती थीं, जिनमें तत्कालीन साहित्य की विभिन्न विधाओं पर चर्चा होती थी। इन गोष्ठियाँ में नए-पुराने सभी साहित्यकार अपने-अपने विचार व्यक्त करते थे। 4. घर के उत्सवों में फ़ादर बुल्के सबके साथ मिल-जुलकर उत्साहपूर्वक भाग लेते थे। वे एक बड़े भाई के समान अथवा एक पारिवारिक पुरोहित के समान सबको आशीर्वाद देते थे। उनके इस व्यवहार से सभी पुलकित हो उठते थे। 3. फ़ादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। कभी-कभी लगता है वह मन में संन्यासी नहीं थे। रिश्ता बनाते थे तो तोड़ते नहीं थे। दसियों साल बाद मिलने के बाद भी उसकी गंध महसूस होती थी। वह जब भी दिल्ली आते ज़रूर मिलते-खोजकर, समय निकालकर, गरमी, सरदी, बरसात झेलकर मिलते, चाहे दो मिनट के लिए ही सही। यह कौन संन्यासी करता है? अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. एक संन्यासी होते हुए भी फ़ादर बुल्के रिश्तों की गरिमा समझते थे। तथा रिश्तों को निभाना जानते थे। जिसके साथ उनका कोई संबंध बन जाता था, उसे वे अंतकाल तक निभाते थे। वे रिश्ते जोड़कर तोड़ते नहीं थे। 3. लेखक कहता है कि यदि फ़ादर बुल्के से कई वर्षों बाद मुलाकात होती थी, तो भी वे बड़ी प्रगाढ़ता से मिलते थे। उनके साथ जो रिश्ते थे, उसकी गहराई की सुगंध उस मिलन से महसूस होती थी। उनका अपनापन रिश्तों को और भी अधिक मज़बूती देता था। 4. लेखक बताता है कि फ़ादर बुल्के जब कभी दिल्ली आते थे, तो वे अपने व्यस्त कार्यक्रम में से समय निकालकर उससे मिलने अवश्य आते थे। इस प्रकार मिलने में चाहे उन्हें गरमी अथवा सरदी का सामना करना पड़ता, वे इसकी भी चिंता नहीं करते थे। उनकी इसी स्वभावगत विशेषता के कारण लेखक को कहना पड़ा कि मिलने के लिए ऐसा प्रयास कोई भी संन्यासी नहीं करता है। 4. उनकी चिंता हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। हर मंच में इसकी तकलीफ़ बयान करते, इसके लिए अकाट्य तर्क देते। बस इसी एक सवाल पर उन्हें झुंझलाते देखा है और हिंदी वालों द्वारा ही हिंदी की उपेक्षा पर दुख करते उन्हें पाया है। घर-परिवार के बारे में, निजी दुख-तकलीफ़ के बारे में पूछना उनका स्वभाव था और बड़े से बड़े दुख में उनके मुख से सांत्वना के जादू भरे दो शब्द सुनना एक ऐसी रोशनी से भर देता था जो किसी गहरी तपस्या से जनमती है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. फ़ादर बुल्के इसी प्रश्न पर झुंझलाते थे कि हिंदी को अपने ही देश में उचित स्थान नहीं मिल पा रहा। उन्हें इस बात पर बहुत दुख था कि स्वयं हिंदी वाले ही हिंदी की उपेक्षा कर रहे हैं। हिंदी वालों द्वारा हिंदी का अनादर तथा अनदेखी करने पर वे बहुत दुखी हो जाते थे। 3. इन पंक्तियों में लेखक ने फ़ादर बुल्के के स्वभाव का उल्लेख करते हुए कहा है कि वे जब भी किसी से मिलते थे, तो एक आत्मीय के रूप में उस व्यक्ति से उसके घर-परिवार, उसके सुख-दुख आदि के बारे में पूछते थे। 4. यदि कोई दुखी व्यक्ति फ़ादर बुल्के को अपनी दुखभरी कहानी सुनाता था, तो फ़ादर उस व्यक्ति को इस प्रकार से सांत्वना देते थे कि उस व्यक्ति को लगता था मानो उसके सभी कष्ट व दुख दूर हो गए हों। लेखक को लगता है कि फ़ादर ने किसी के दुख को दूर करने वाले सांत्वना के इन शब्दों को गहरी तपस्या से ही प्राप्त किया था। 5. इस तरह हमारे बीच से वह चला गया जो हममें से सबसे अधिक छायादार फल-फूल गंध से भरा और सबसे अलग, सबका होकर, सबसे ऊँचाई पर, मानवीय करुणा की दिव्य चमक में लहलहाता खड़ा था। जिसकी स्मृति हम सबके मन में जो उनके निकट थे किसी यज्ञ की पवित्र आग की आँच की तरह आजीवन बनी रहेगी। मैं उस पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धानत हूँ। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. लेखक के लिए फ़ादर बुल्के की स्मृति पवित्र भावनाओं से युक्त है। जैसे किसी यज्ञ की पवित्र अग्नि की तपस सदा अनुभव की जा सकती है, उसी प्रकार से लेखक के मन में भी फ़ादर की पुनीत स्मृति आजीवन बनी रहेगी। उनकी मानवीय करुणा ने लेखक के मन में यह भावना जागृत की है। 3. लेखक ने अपने इस आलेख ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ के माध्यम से फ़ादर को श्रद्धांजलि दी है। लेखक उनकी पवित्र एवं करुणामय जीवन-पद्धति से प्रभावित रहा है। 4. लेखक के लिए फ़ादर कामिल बुल्के मानवीय करुणा की दिव्य चमक के समान थे। वे लेखक के लिए बड़े भाई के समान मार्गदर्शक, आशीर्वाददाता तथा शुभचिंतक थे। लेखक को उन जैसा हिंदी-प्रेमी, संन्यासी होते हुए भी संबंधों को गरिमा प्रदान करने वाला, सबके सुख-दुख का साथी अन्य कोई नहीं दिखाई देता था। मानवीय करुणा की दिव्या चमक Summary in Hindiलेखक-परिचय : जीवन-नई कविता के सशक्त कवि तथा प्रतिभावान साहित्यकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में सन 1927 ई० हुआ था। सन 1949 ई० में इन्होंने इलाहाबाद से एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। इन्होंने कुछ वर्ष तक अध्यापन कार्य करने के पश्चात आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर के रूप में काम किया। इन्होंने ‘दिनमान’ में उपसंपादक तथा बच्चों की पत्रिका ‘पराग’ में संपादक के रूप में कार्य किया था। इन्हें ‘टियों पर टंगे लोग’ कविता-संग्रह पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ था। सन 1983 ई० में इनका निधन हो गया था। रचनाएँ – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने साहित्य की विभिन्न विधाओं को अपनी लेखनी से समृद्ध किया। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं – भाषा-शैली – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की भाषा-शैली अत्यंत सहज, सरल, व्यावहारिक, भावपूर्ण तथा प्रवाहमयी है। इन्होंने कहीं भी असाधारण अथवा कलिष्ट भाषा का प्रयोग नहीं किया है। मानवीय करुणा की दिव्य चमक इनका फ़ादर कामिल बुल्के से संबंधित संस्मरण है, जिसमें लेखक ने उनसे संबंधित कुछ अंतरंग प्रसंगों को उजागर किया है। फ़ादर की मृत्यु पर लेखक का यह कथन इसी ओर संकेत करता है-‘फ़ादर को ज़हरबाद से नहीं मरना चाहिए था। जिसकी रगों में दूसरे के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त कुछ नहीं था उसके लिए इस ज़हर का विधान क्यों?’ लेखक ने वात्सल्य, यातना, आकृति, साक्षी, वृत्त जैसे तत्सम शब्दों के साथ ही महसूस, ज़हर, छोर, सँकरी, कब्र जैसे विदेशी तथा देशज शब्दों का भी भरपूर प्रयोग किया है। लेखक ने भावपूर्ण शैली में फ़ादर को स्मरण करते हुए लिखा है-‘फ़ादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है। उनको देखना करुणा के निर्मल जल में स्नान करने जैसा था और उनसे बात करना कर्म के संकल्प से भरना था।’ लेखक ने फ़ादर से संबंधित अपनी स्मृतियों को अत्यंत सहज रूप से प्रस्तुत किया है। पाठ का सार : ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ पाठ के लेखक ‘सर्वेश्वर दयाल सक्सेना’ हैं। यह पाठ एक संस्मरण है। लेखक ने इस पाठ में फ़ादर कामिल बुल्के से संबंधित स्मृतियों का वर्णन किया है। फादर बुल्के ने अपनी जन्मभूमि रैम्सचैपल (बेल्जियम) को छोड़कर भारत को अपनी कार्यभूमि बनाया। उन्हें हिंदी भाषा और बोलियों से विशेष लगाव था। फ़ादर की मृत्यु जहरबाद से हुई थी। उनके साथ ऐसा होना ईश्वर का अन्याय था। इसका कारण यह था कि वे सारी उम्र दूसरों को अमृत सी मिठास देते रहे थे। उनका व्यक्तित्व ही नहीं अपितु स्वभाव भी साधुओं जैसा था। लेखक उन्हें पैंतीस सालों से जानता था। वे जहाँ भी रहे, अपने प्रियजनों पर ममता लुटाते रहे। फ़ादर को याद करना, देखना और सुनना-ये सबकुछ लेखक के मन में अजीब शांत-सी हलचल मचा देते थे। उसे ‘परिमल’ के वे दिन याद आते हैं, जब वह उनके साथ काम करता था। फादर बड़े भाई की भूमिका में सदैव सहायता के लिए तत्पर रहते थे। उनका वात्सल्य सबके लिए देवदार पेड़ की छाया के समान था। लेखक को यह समझ में नहीं आता कि वह फ़ादर की बात कहाँ से शुरू करे। फ़ादर जब भी मिलते थे, जोश में होते थे। उनमें प्यार और ममता कूट-कूटकर भरी हुई थी। किसी ने भी कभी उन्हें क्रोध में नहीं देखा था। फ़ादर बेल्जियम में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में थे, जब वे संन्यासी होकर भारत आ गए। उनका पूरा परिवार बेल्जियम के रैम्सचैपल में रहता था। भारत में रहते हुए वे अपनी जन्मभूमि रैम्सचैपल और अपनी माँ को प्रायः याद करते थे। वे अपने विषय में बताते थे कि उनकी माँ ने उनके बचपन में ही घोषणा कर दी थी कि यह लड़का हाथ से निकल गया है और उन्होंने अपनी माँ की बात पूरी कर दी। वे संन्यासी बनकर भारत के गिरजाघर में आ गए। आरंभ के दो साल उन्होंने धर्माचार की पढ़ाई की। इसके बाद 9-10 साल तक दार्जिलिंग में पढ़ाई की। कलकत्ता से उन्होंने बी० ए० तथा इलाहाबाद से एम०ए० किया था। वर्ष 1950 में उन्होंने अपना शोधकार्य प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से पूरा किया था। उनके शोधकार्य का विषय-‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ था। उन्होंने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लूबर्ड’ का हिंदी में ‘नीलपंछी’ नाम से रूपांतर किया। वे सेंट जेवियर्स कॉलेज रांची में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष रहे। यहाँ रहकर उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेजी-हिंदी कोश तैयार किया। उन्होंने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद भी किया। राँची में उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था। फादर बुल्के मन से नहीं अपितु संकल्प से संन्यासी थे। वे जिससे एक बार रिश्ता जोड़ लेते थे, उसे कभी नहीं तोड़ते थे। दिल्ली आकर कभी वे बिना मिले नहीं जाते थे। मिलने के लिए सभी प्रकार की तकलीफों को सहन कर लेते थे। ऐसा कोई भी संन्यासी नहीं करता था। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे। वे हर सभा में हिंदी को सर्वोच्च भाषा बनाने की बात करते थे। वे उन लोगों पर झुंझलाते थे, जो हिंदी भाषा वाले होते हुए भी हिंदी की उपेक्षा करते थे। उनका स्वभाव सभी लोगों की दुख-तकलीफों में उनका साथ देता था। उनके मुँह से निकले सांत्वना के दो बोल जीवन में रोशनी भर देते थे। लेखक की जब पत्नी और पुत्र की मृत्यु हुई, उस समय फ़ादर ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, “हर मौत दिखाती है जीवन को नई राह।” लेखक को फ़ादर की बीमारी का पता नहीं चला। वह उनकी मृत्यु के बाद दिल्ली पहुंचा था। वे चिरशांति की अवस्था में लेटे थे। उनकी मृत्यु 18 अगस्त 1982 को हुई। उन्हें कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में ले जाया गया। उनके ताबूत के साथ रघुवंश जी, जैनेंद्र कुमार, डॉ० सत्य प्रकाश, अजित कुमार, डॉ० निर्मला जैन, विजयेंद्र स्नातक और रघुवंश जी का बेटा आदि थे। साथ में मसीही समुदाय के लोग तथा पादरीगण थे। सभी दुखी और उदास थे। उनका अंतिम संस्कार मसीही विधि से हुआ। उनकी अंतिम यात्रा में रोने वालों की कमी नहीं थी। इस तरह एक छायादार व फल-फूल गंध से भरा वृक्ष हम सबसे अलग हो गया। उनकी स्मृति जीवन भर यज्ञ की पवित्र अग्नि की आँच की तरह सबके मन में बनी रहेगी। लेखक उनकी पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धा से नतमस्तक है। कठिन शब्दों के अर्थ : देह – शरीर। यातना – कष्ट। परीक्षा – इम्तिहान। आकृति – आकार। साक्षी – गवाह। महसूस – अनुभव। निर्मल – साफ़, स्वच्छ। संकल्प – निश्चय। उत्सव – त्योहार, शुभ अवसर। आशीष – आशीर्वाद। वात्सल्य – ममता, प्यार। स्मृति – यादें। डूब जाना – खो जाना। सांत्वना – सहानुभूति। छोर – किनारा। वृत्त – घेरा। आवेश – जोश, उत्साह। जहरबाद – गैंग्रीन, एक तरह का ज़हरीला और कष्ट साध्य फोड़ा। आस्था – विश्वास, श्रद्धा। देहरी – दहलीज़। सँकरी – तंग। पादरी – ईसाई धर्म का पुरोहित या आचार्य। आतुर – अधीर, उत्सुक। निर्लिप्त – आसक्ति रहित, जो लिप्त न हो। आवेश – जोश, उत्साह। लबालब – भरा हुआ। गंध – महक। धर्माचार – धर्म का पालन या आचरण। रूपांतर – किसी वस्तु का बदला हुआ रूप। अकाट्य – जो कट न सके, जो बात काटी न जा सके। विरल – कम मिलने वाली। ताबूत – शव या मुरदा ले जाने वाला संदूक या बक्सा। करील – झाड़ी के रूप में उगने वाला एक कँटीला और बिना पत्ते का पौधा। गैरिक वसन – साधुओं द्वारा धारण किए जाने वाले गेरुए वस्त्र। श्रद्धानत – प्रेम और भक्तियुक्त पूज्यभाव। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 12 लखनवी अंदाज़ Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 12 लखनवी अंदाज़JAC Class 10 Hindi लखनवी अंदाज़ Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. लेखक को डिब्बे में देखकर नवाब को अपनी रईसी याद आने लगी। इसलिए उन्होंने खीरे को केवल सूंघकर ही खिड़की से बाहर फेंक दिया। नवाब साहब के ऐसा करने से लगता है कि वे दिखावे की जिंदगी जी रहे थे। वे दिखावा पसंद इनसान थे। इसी स्वभाव के कारण उन्होंने लेखक को देखकर खीरा खाना अपना अपमान समझा। प्रश्न 3. प्रश्न 4. उनकी ये सभी हरकतें इस पाठ को ‘अकड़ नवाब’ शीर्षक देने के लिए बिलकुल सही हैं। इसके अतिरिक्त लेखक ने इस निबंध का नाम ‘लखनवी अंदाज़’ रखा है, जो लखनऊ के नवाबों के जिंदगी जीने के अंदाज़ का वर्णन करता है। लखनवी अंदाज़’ के अतिरिक्त इस निबंध का नाम ‘नवाब की सनक’ हो सकता है। इस निबंध में लेखक ने एक नवाब की सनक का वर्णन किया है। नवाब एकांत में तो आम कार्य कर सकते हैं, लेकिन दूसरों के सामने आम कार्य करते समय उन्हें शर्म महसूस होती है। इसके लिए वे आम कार्य को भी खास बनाने का बेतुका प्रयत्न करते हैं। इस निबंध के अनुसार नवाब खीरे को बड़ी नज़ाकत और सलीके से खाने के लिए तैयार करता है। लेकिन नवाब उन खीरों को लेखक के सामने नहीं खाना चाहता, इसलिए केवल से कर ही खीरे को खिड़की से बाहर फेंक देता है। यह कार्य केवल सनकी लोग ही कर सकते हैं। रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 5. (ख) हम गाजर, टमाटर, मूली आदि चीजों को खाना पसंद करते हैं। इन चीजों को पहले धोकर पोंछ लेते हैं। फिर उन्हें चाकू से साफ़ करके पतली-पतली फाँकें कर लेते हैं। इसके बाद उन पर नमक और मसाला लगाकर खाने के लिए तैयार कर लेते हैं। खीरे के संबंध में नवाब साहब के व्यवहार को उनकी सनक कहा जा सकता है। आपने नवाबों की और भी सनकों बारे में पढ़ा-सुना होगा। किसी एक के बारे में लिखिए। उत्तर नवाब साहब द्वारा खीरे को खाने के लिए तैयार करना और फिर उसे केवल सूंघकर खिड़की के बाहर फेंक देना इसे नवाबी सनक कहा जा सकता है। इसी प्रकार हमने नवाबों की कई सनकों के बारे में सुना है। दो नवाब रेलवे स्टेशन पर गाड़ी पकड़ने के लिए जाते हैं। दोनों का एक ही डिब्बे के सामने आमना-सामना हो जाता है। नवाबों में शिष्टाचार का बहुत महत्व होता है। इसी शिष्टाचार के कारण दोनों नवाब एक-दूसरे को डिब्बे में पहले जाने की बात करते हैं। गाड़ी चलने को तैयार हो जाती है, परंतु उन दोनों में से कोई डिब्बे में पहले चढ़ने की पहल नहीं करता। उनकी शिष्टाचार की सनक ने उनकी गाड़ी निकाल दी, परंतु दोनों अपनी जगह से टस-से-मस नहीं हुए। प्रश्न 7. किसी-किसी व्यक्ति को सफ़ाई बहुत पसंद होती है। यदि उसके आस-पास का वातावरण बिखरा रहता है, तो वह चुपचाप सभी का काम करता रहता है; वह किसी से कुछ नहीं कहता। लोग उसको सफ़ाई-पसंद सनकी कहते हैं, परंतु वह फिर भी बिखरे हुए और गंदे सामान को साफ़ करके उचित स्थान पर रखता रहता है। उसकी इस आदत से लोगों में शर्मिंदगी का एहसास होता है और धीरे-धीरे वे भी अपनी आदतें सुधारने में लग जाते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि सनक का सकारात्मक रूप भी होता है। भाषा-अध्ययन – प्रश्न 8. पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. प्रश्न 2. सबसे अधिक प्रभाव बच्चों और बुजुर्गों पर पड़ता है। ऐसे ही गरमियों में गरमाहट देने वाली वस्तु का प्रयोग कम किया जाता है, क्योंकि वे शरीर के तापमान को बढ़ा देती हैं और व्यक्ति के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। सरदी में हम गर्म वस्तुओं तथा गरमी में ठंडी वस्तुओं का प्रयोग अधिक करते हैं। बरसात के दिनों में ऐसी वस्तुओं के प्रयोग से बचा जाता है, जो बद-बादी होती हैं। प्रश्न 3. प्रश्न 4. JAC Class 10 Hindi लखनवी अंदाज़ Important Questions and Answersप्रश्न 1. इसलिए अपने नवाबी अंदाज़ में लज़ीज रूप से तैयार खीरे को केवल सूंघकर खिड़की के बाहर फेंक देता है। नवाब के इस व्यवहार से लगता है कि वे आम लोगों जैसे कार्य एकांत में करना पसंद करते हैं। उन्हें लगता है कि कहीं किसी के देख लेने से उनकी शान में फर्क न आ जाए। आज का समाज भी ऐसी ही दिखावा पसंद संस्कृति का आदी हो गया है। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. इस तरह उन्होंने सारा खीरा बाहर फेंक दिया और लेखक को गर्व से देखा। उनके चेहरे से ऐसा लग रहा था, जैसे वे लेखक से कह रहे हों कि नवाबों के खीरा खाने का यह खानदानी रईसी तरीका है। यह तरीका देखकर लेखक सोचने लगा कि बिना खीरा खाए, केवल सूंघकर उसकी महक और स्वाद की कल्पना से तृप्ति का डकार आ सकता है, तो बिना विचार, घटना और पात्रों के इच्छा मात्र से ‘नई कहानी’ क्यों नहीं बन सकती। इसी सोच ने लेखक के ज्ञान-चक्षु खोल दिए। प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. पठित गद्यांश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए गद्यांश को पढ़कर प्रश्नों के सही उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (क) लखनऊ स्टेशन पर विक्रेता किसका इस्तेमाल का तरीका जानते हैं? (ख) खीरे
किसके पास थे? (ग) खीरा विक्रेता खीरे के साथ और क्या हाजिर करता था? (घ) लेखक कनखियों से देखकर किसके बारे में सोच रहे थे? (ङ) नवाब साहब की भाव-भंगिमा और जबड़ों के स्फुरण से क्या स्पष्ट था? उच्च चिंतन क्षमताओं एवं अभिव्यक्ति पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – पाठ पर आधारित प्रश्नों को पढ़कर सही उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (ख) लेखक की पुरानी आदत क्या करने की है? (ग) लखनऊ के खीरे की क्या विशेषता थी? (घ) लेखक ने खीरे को क्या माना है? महत्वपूर्ण गद्यांशों के अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. मुफस्सिल की पैसेंजर ट्रेन चल पड़ने की उतावली में फूंकार रही थी। आराम से सेकंड क्लास में जाने के लिए दाम अधिक लगते हैं। दूर तो जाना नहीं था। भीड़ से बचकर, एकांत में नयी कहानी के संबंध में सोच सकने और खिड़की से प्राकृतिक दृश्य देख सकने के लिए टिकट सेकंड क्लास का ही ले लिया। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. गाड़ी छूट रही थी। सेकंड क्लास के एक छोटे डिब्बे को खाली समझकर, ज़रा दौड़कर उसमें चढ़ गए। अनुमान के प्रतिकूल डिब्बा निर्जन नहीं था। एक बर्थ पर लखनऊ की नवाबी नस्ल के एक सफ़ेदपोश सज्जन बहुत सुविधा से पालथी मारे बैठे थे। सामने दो ताजे-चिकने खीरे तौलिए पर रखे थे। डिब्बे में हमारे सहसा कूद जाने से सज्जन की आँखों में एकांत चिंतन में विघ्न का असंतोष दिखाई दिया। सोचा, हो सकता है, यह भी कहानी के लिए सूझ की चिंता में हों या खीरे-जैसी अपदार्थ वस्तु का शौक करते देखे जाने के संकोच में हों। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 3. ठाली बैठे, कल्पना करते रहने की पुरानी आदत है। नवाब साहब की असुविधा और संकोच के कारण का अनुमान करने लगे। संभव है, नवाब साहब ने बिलकुल अकेले यात्रा कर सकने के अनुमान में किफ़ायत के विचार से सेकंड क्लास का टिकट खरीद लिया हो और अब गवारा न हो कि शहर का कोई सफ़ेदपोश उन्हें मँझले दर्जे में सफ़र करता देखे।… अकेले सफ़र का वक्त काटने के लिए ही खीरे खरीदे होंगे और अब किसी सफ़ेदपोश के सामने खीरा कैसे खाएँ? अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न 2. लेखक नवाब साहब के संकोच और असुविधा के कारण का अनुमान करने लगा। वह सोचने लगा कि नवाब साहब अकेले यात्रा करना चाहते होंगे। अधिक किराया खर्च न करना पड़े, इसलिए कुछ बचत करने के विचार से उन्होंने सेकंड क्लास का टिकट ले लिया होगा। अब उन्हें यह अच्छा नहीं लग रहा होगा कि शहर का कोई दूसरा सज्जन उन्हें इस प्रकार द्वितीय श्रेणी में यात्रा करते हुए देखे। 3. लेखक का विचार था कि एकांत में यात्रा करने के उद्देश्य से नवाब साहब ने सेकंड क्लास में यात्रा करना उचित समझा होगा। इसके अतिरिक्त प्रथम श्रेणी में किराया भी अधिक लगता है। सेकंड क्लास में एकांत भी मिल जाएगा और किराए की भी बचत हो जाएगी। 4. लेखक के विचार में नवाब साहब ने अकेले में सफ़र काटने के लिए खीरे खरीद लिए होंगे। अब वे खीरे इसलिए नहीं खा रहे थे, क्योंकि उन्हें लेखक के सामने खीरे जैसी मामूली वस्तु खाने में संकोच हो रहा था। 4. नवाब साहब ने सतृष्ण आँखों से नमक-मिर्च के संयोग से चमकती खीरे की फाँकों की ओर देखा। खिड़की के बाहर देखकर दीर्घ निश्वास लिया। खीरे की एक फाँक उठाकर होंठों तक ले गए। फाँक को सूंघा। स्वाद के आनंद में पलकें मुंद गईं। मुँह में भर आए पानी का घूट गले से उतर गया। तब नवाब साहब ने फाँक को खिड़की से बाहर छोड़ दिया। नवाब साहब खीरे की फाँकों को नाक के पास ले जाकर, वासना से रसास्वादन कर खिड़की के बार फेंकते गए। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 5. नवाब साहब ने खीरे की सब फाँकों को खिड़की के बाहर फेंककर तौलिए से हाथ और होंठ पोंछ लिए और गर्व से गुलाबी आँखों से हमारी ओर देख लिया, मानो कह रहे हों- यह है खानदानी रईसों का तरीका! नवाब साहब खीरे की तैयारी और इस्तेमाल से थककर लेट गए। हमें तसलीम में सिर खम कर लेना पड़ा-यह है खानदानी तहज़ीब, नफ़ासत और नज़ाकत! हम गौर कर रहे थे, खीरा इस्तेमाल करने के इस तरीके को खीरे की सुगंध और स्वाद की कल्पना से संतुष्ट होने का सूक्ष्म, नफ़ीस या एब्स्ट्रैक्ट तरीका ज़रूर कहा जा सकता है परंतु क्या ऐसे तरीके से उदर की तृप्ति भी हो सकती है? नवाब साहब की ओर से भरे पेट के ऊँचे डकार का शब्द सुनाई दिया और नवाब साहब ने हमारी ओर देखकर कह दिया, ‘खीरा लज़ीज़ होता है लेकिन होता है सकील, नामुराद मेदे पर बोझ डाल देता है।’ अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. नवाब साहब खीरे की एक फाँक उठाकर होंठों तक ले गए और उसे सूंघा। फाँक को सूंघने से मिले आनंद से उनकी पलकें बंद हो गईं। उनके मुँह में पानी भर आया, जिसे वे गटक गए। इसके बाद उन्होंने वह फाँक खिड़की से बाहर फेंक दी। ऐसा ही उन्होंने खीरे की अन्य फाँकों के साथ किया। नवाब साहब ने इस प्रकार से खीरे का इस्तेमाल किया। 3. लेखक को नवाब साहब द्वारा खीरे के इस्तेमाल की विधि पर अपना सिर झुकाना पड़ा कि किस प्रकार से अपनी खानदानी शिष्टता, स्वच्छता और कोमलता प्रदर्शित करते हुए नवाब साहब ने खीरे का मात्र सूंघकर आनंद लिया था। 4. लेखक विचार कर रहा था कि जिस प्रकार से नवाब साहब ने मात्र सूंघकर खीरे का आनंद लिया है, क्या इससे पेट की संतुष्टि हो सकती है? 5. नवाब साहब ने खीरा न खाने का कारण बताया कि खीरा होता तो स्वादिष्ट है, परंतु आसानी से पचता नहीं है। इसके सेवन से आमाशय पर बोझ पड़ता है, इसलिए वे खीरा नहीं खाते हैं। 6. नवाब साहब ने बड़े ही सलीके से कटे हुए तथा नमक-मिर्च लगे खीरे की फाँकों को उठाया, उसे सूंघा तथा खाने की बजाय उसे एक-एक करके खिड़की से बाहर फेंक दिया। तत्पश्चात वे ऐसा दर्शाने लगे जैसे खीरा खाने से उनका पेट भर गया हो। 7. नवाब साहब रसास्वादन के माध्यम से तृप्त होने के विचित्र तरीके से अपनी अमीरी को प्रकट करना चाहते थे। 8. नवाब साहब ने अपनी खीज मिटाने के लिए नमक-मिर्च लगी खीरे की फाँकों को सूंघा तथा एक-एक करके बाहर फेंकते रहे तथा खीरा न खाने का कारण यह बताया कि वह आमाशय पर बोझ डालता है। लखनवी अंदाज़ भगत Summary in Hindiलेखक-परिचय : जीवन – हिंदी के यशस्वी उपन्यासकार, कहानी लेखक एवं निबंधकार यशपाल का जन्म 1903 ई० में जाब के फ़िरोज़पुर छावनी में हआ था। इनके पिताजी हीरालाल हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिले के भुंपल गाँव के निवासी थे, जहाँ वे छोटी-सी दुकान चलाते थे। इनकी माता प्रेमा देवी एक अनाथालय में अध्यापिका थीं। माता स्वयं को शाम चौरासी के मंत्रियों की वंशज मानती थीं। संभवतः यही कारण है कि प्रेमा देवी नौकरी करके अलग रहने लगी थीं। पति की मृत्यु के पश्चात उनका कांगड़ा आना जाना प्रायः समाप्त हो गया था। यशपाल की प्रारंभिक शिक्षा कांगड़ा में हुई थी। माता उन्हें दयानंद सरस्वती का सच्चा सिपाही बनाना चाहती थी, इसलिए इन्हें पढ़ने के लिए गुरुकुल कांगड़ी में भेजा गया। लेकिन अस्वस्थता के कारण इन्हें गुरुकुल कांगड़ी छोड़ना पड़ा। इसके बाद इन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज से बी० ए० किया। यहीं पर रहते हुए यशपाल क्रांतिकारियों के संपर्क में आए। कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में इन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया। इन्होंने चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह तथा सुखदेव के साथ काम किया और अनेक बार जेल भी गए। चंद्रशेखर के बलिदान के पश्चात यशपाल ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी’ के कमांडर-इन-चीफ बने और अनेक क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया। वर्ष 1936 के पश्चात इनकी रुचि साम्यवादी विचारधारा में बढ़ी और इन्होंने लखनऊ से ‘विप्लव’ नामक पत्रिका निकालना प्रारंभ किया। साम्यवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए यशपाल ने निरंतर संघर्ष किया। यशपाल की शादी जेल में ही हुई थी। इन्होंने अनेक बार विदेशों में भ्रमण किया और अपने संस्मरण लिखे। ‘लोहे की दीवार के दोनों ओर’, ‘राह बीती’ तथा ‘स्वार्गोद्यान बिन साँप’ इनके यात्रा वर्णन हैं। दिसंबर 1952 में इन्होंने वियाना में हुए विश्व शांति कांग्रेस में भाग लिया था। सन 1976 ई० में इनकी मृत्यु हो गई। रचनाएँ – यशपाल मुख्यतः उपन्यासकार हैं। अमिता’, ‘दिव्या’, ‘झूठा सच’, ‘देशद्रोही’, ‘दादा कामरेड’ तथा ‘मेरी तेरी उसकी बात’ उनके प्रमुख उपन्यास हैं। इन्होंने दो सौ से अधिक कहानियाँ लिखी हैं। इनके प्रमुख कहानी-संग्रह ‘ज्ञान-दान’, ‘तर्क का तूफ़ान’, ‘पिंजरे की उड़ान’, ‘फूलों का कुर्ता’ आदि हैं। इनके निबंध ‘विप्लव’ तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे। इनके प्रसिद्ध निबंध संग्रह हैं-‘बीबी जी कहती हैं मेरा चेहरा रोबीला है’, ‘देखा सोचा-समझा’, ‘मार्क्सवाद’, ‘गांधीवाद की शव परीक्षा’, ‘राम राज्य की कथा’, ‘चक्कर क्लब’, ‘बात-बात में बात’, ‘न्याय का संघर्ष’, ‘जग का मुजरा’ आदि। भाषा-शैली – यशपाल ने अपनी रचनाओं में सहज एवं स्वाभाविक बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है। इनकी शैली भावपूर्ण, प्रवाहमयी, चित्रात्मक तथा वर्णनात्मक है। लखनवी अंदाज़’ इनकी पतनशील सामंती वर्ग पर कटाक्ष करने वाली रचना है। इसमें लेखक ने आत्मकथात्मक शैली का प्रयोग किया है। भाषा उर्दू शब्दों से मिश्रित बोलचाल की है; जैसे – ‘मुफस्सिल की पैसेंजर ट्रेन चल पड़ने की उतावली में फूंकार रही थीं।’ अन्यत्र भी इन्होंने सेकंड क्लास, सफ़ेदपोश, किफ़ायत, गुमान, मेदा, तसलीम, नफ़ासत, नज़ाकत, एवस्ट्रेक्ट, सकील जैसे विदेशी शब्दों का भरपूर प्रयोग किया है। कहीं-कहीं उदर, तृप्ति, प्लावित, स्फुरण जैसे तत्सम शब्द भी दिखाई दे जाते हैं। इन्होंने शब्दों के माध्यम से वस्तुस्थिति को सजीव रूप भी प्रदान किया है; जैसे-नवाब साहब की यह स्थिति – ‘नवाब साहब खीरे की एक फाँक उठाकर होंठों तक ले गए। फाँक को सूंघा। स्वाद के आनंद में पलकें मुंद गईं। मुँह में भर आए पानी का घुट गले से उतर गया।’ लेखक ने अपनी सहज भाषा-शैली में रचना को रोचक बना दिया है। पाठ का सार : ‘लखनवी अंदाज’ पाठ के लेखक यशपाल हैं। इस रचना के माध्यम से लेखक सिद्ध करना चाहता है कि बिना पात्रों व कथ्य के कहानी नहीं लिखी जा सकती, परंतु एक स्वतंत्र रचना का निरूपण किया जा सकता है। इसमें लेखक ने नवाबों के दिखावटी अंदाज़ का वर्णन किया है, जो वास्तविकता से संबंध नहीं रखता। आज के समाज में इस दिखावटी संस्कृति को सहज देखा जा सकता है। लेखक एकांत में नई कहानी पर सोच-विचार करना चाहता था। इसलिए सेकंड क्लास का किराया ज्यादा होते हुए भी उसी का टिकट लिया। सेकंड क्लास में कोई नहीं बैठता था। गाड़ी छटने वाली थी, इसलिए वह दौड़कर एक डिब्बे में चढ़ गया। जिस डिब्बे को वह खाली समझ रहा था, वहाँ पहले से ही नवाबी नस्ल के एक सज्जन पुरुष विराजमान थे। लेखक का उस डिब्बे में आना उन सज्जन को अच्छा नहीं लगा। नवाब के सामने तौलिए पर दो खीरे रखे थे। नवाब ने लेखक से बातचीत करना पसंद नहीं किया। लेखक नवाब के बारे में अनुमान लगाने लगा कि उसे उसका आना क्यों अच्छा नहीं लगा। अचानक नवाब ने लेखक से खीरे खाने के लिए पूछा। लेखक ने इनकार कर दिया। नवाब साहब ने दोनों खीरों को धोया; तौलिए से पोंछकर चाकू से दोनों सिरों को काटकर खीरे का झाग निकाला। वे खीरे को बड़े सलीके और नजाकत से संवार रहे थे। उन्होंने खीरों पर नमक-मिर्च लगाया। नवाब साहब का मुंह देखकर ऐसा लग रहा था कि खीरे की फांक देखकर। उनके मुँह में पानी आ रहा है। खीरे की सजावट देखकर खीरा खाने का लेखक का मन हो रहा था, परंतु वह पहले इनकार कर चुका था। इसलिए नवाब के दोबारा पूछने पर आत्मसम्मान के कारण उन्होंने इनकार कर दिया। नवाब साहब ने खीरे की फाँक उठाई, फाँक को होंठों तक ले गए। उसे सूंघा। खीरे के स्वाद के कारण मुँह में पानी भर गया था। परंतु नवाब। साहब ने फाँक को सँघकर खिड़की के बाहर फेंक दिया। नवाब साहब ने सभी फांकों को बारी-बारी से सूघा और खिड़की से बाहर फेंका दिया। बाद में नवाब साहब ने तौलिए से हाथ पोंछे और गर्व से लेखक की ओर देखा। ऐसा लग रहा था, जैसे कह रहे हों कि खानदानी रईसों का यह भी खाने का ढंग है। लेखक यह सोच रहा था कि खाने के इस ढंग ने क्या पेट की भूख को शांत किया होगा? इतने में नवाब साहब जोर से डकार लेते हैं। अंत में नवाब साहब कहते हैं कि खीरा खाने में तो अच्छा लगता है, परंतु अपच होने के कारण मैदे पर भारी पड़ता है। लेखक को लगता है कि यदि नवाब बिना खीरा खाए डकार ले सकता है, तो बिना घटना-पात्रों और विचार के कहानी क्यों नहीं लिखी जा सकती? कठिन शब्दों के अर्थ : मुफस्सिल – केंद्रस्थ नगर के इर्द-गिर्द के स्थान। सफ़ेदपोश – भद्र व्यक्ति, सज्जन पुरुष। किफ़ायत – मितव्यता। आदाब अर्ज़ – अभिवादन करना। गुमान – भ्रम। एहतियात – सावधानी। बुरक देना – छिड़क देना। स्फुरण – फड़कना, हिलना। प्लावित – पानी भर जाना। पनियाती – रसीली। मेदा – आमाशय। तसलीम – सम्मान में। खम – झुकाना। तहज़ीब – शिष्टता। लज़ीज – मजेदार, स्वादिष्ट। नफ़ासत – स्वच्छता। नज़ाकत – कोमलता। गौर करना – विचार करना। नफ़ीस – बढ़िया। एब्स्ट्रैक्ट – सूक्ष्म, जिसका भौतिक अस्तित्व न हो। सकील – आसानी से न पचने वाला। उदर – पेट। तृप्ति – संतुष्टि। इस्तेमाल – प्रयोग। रईस – अमीर। सुगंध – खुशबू, महक। पैसेंजर – यात्री। नस्ल – जाति। ठाली बैठना – खाली बैठना। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 11 बालगोबिन भगत Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 11 बालगोबिन भगतJAC Class 10 Hindi बालगोबिन भगत Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. उनमें साधुओं वाली सारी बातें थीं। वे कबीर को ‘साहब’ मानते थे; उन्हीं के गीत गाते रहते थे और उन्हीं के आदेशों पर चलते थे। वे कभी झठ नहीं बोलते थे और सदा खरा व्यवहार करते थे। हर बात साफ़-साफ़ करते थे; किसी से व्यर्थ झगड़ा नहीं करते थे। किसी की चीज़ को कभी छूते तक नहीं थे। वे दूसरों के खेत में शौच तक के लिए नहीं बैठते थे। उनके खेत में जो कुछ पैदा होता, उसे सिर पर रखकर चार कोस दूर कबीरपंथी मठ में ले जाते थे और प्रसाद रूप में जो कुछ मिलता, वहीं वापस ले आते थे। प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. उनकी पुत्रवधू ने ही अपने पति की चिता को अग्नि दी थी। उनकी जाति में विधवा के पुनर्विवाह को अनुचित नहीं मानते थे, परंतु उनकी पुत्रवधू इसके लिए तैयार नहीं थी। वह उन्हीं के पास रहकर उनकी सेवा करना चाहती थी। लेकिन उन्होंने उसे यौवन की ऊँच-नीच का ज्ञान करवाया और पुनर्विवाह के लिए तैयार किया। इससे हम कह सकते हैं कि बालगोबिन पुरानी सामाजिक मान्यताओं के समर्थक नहीं थे। वे अपने स्वार्थ की अपेक्षा दूसरों के हित का ध्यान रखते थे। प्रश्न 8. उनका सारा शरीर खेत की गीली मिट्टी से लथ-पथ है। जिस प्रकार उनकी उँगलियाँ धान के पौधों को एक-एक करके पंक्तिबद्ध रूप दे रही थीं, उसी प्रकार उनका कंठ उनकी संगीत शब्दावली को स्वरों के ताल से ऊपरनीचे कर रहा था। ऐसे लग रहा था, जैसे कि संगीत के कुछ स्वर ऊपर स्वर्ग की ओर जा रहे हैं और कुछ स्वर धरती पर खेतों में काम करने वाले लोगों के कानों में जा रहे हैं। उनका संगीत खेतों में काम करने वाले लोगों के तन में लय पैदा कर देता है, जिससे वहाँ का सारा वातावरण संगीतमय हो जाता है। रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 9. वे मृत्यु को दुख का नहीं बल्कि आनंद मनाने का अवसर मानते थे। कबीर ने आत्मा को परमात्मा की प्रेमिका बताया है, जो मृत्यु उपरांत अपने प्रियतम से जा मिलती है। बालगोबिन भगत ने कबीर की वाणी का पालन करते हुए अपने पुत्र के मृत शरीर को फूलों से सजाया और पास में दीपक जलाया। वे स्वयं भी पुत्र के मृत शरीर के पास बैठकर पिया मिलन के गीत गाने लगे। उन्होंने अपनी पुत्रवधू को भी रोने के लिए मना कर दिया था। इससे पता चलता है कि बालगोबिन भगत की कबीर पर अगाध श्रद्धा थी। प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. भगत ने बेटे के मोह में पड़कर शोक नहीं मनाया बल्कि उन्होंने उसकी मृत्यु को आनंद मनाने का अवसर बताया। वे शरीर के मोह में नहीं थे। वे मनुष्य की आत्मा से प्रेम करते थे। उनके अनुसार मृत्यु के बाद प्रेमिका रूपी आत्मा शरीर से निकलकर अपने प्रेमी रूपी परमात्मा से मिल जाती है। इसलिए उन्होंने बेटे मृत शरीर का श्रृंगार किया और मिलन के गीत गाए। भगत ने मृत्यु के सच को जान लिया था, इसलिए वे अपने बेटे के मोह में नहीं पड़े। उन्होंने अपनी पुत्रवधू को भी शोक मनाने से मना कर दिया था। भाषा-अध्ययन – प्रश्न 14. पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. सब तरफ़ बड़ीबड़ी दुकानें हैं; शोरूम हैं; गगनचुंबी इमारते हैं; बड़े-बड़े मल्टीप्लैक्स हैं; लंबी-लंबी गाड़ियों की भरमार है। यहाँ प्रकृति की सुंदरता नहीं है। कहीं-कहीं गमलों में कुछ पौधे अवश्य दिखाई दे जाते हैं, लेकिन पेड़ों का अभाव है। मेरे नगर से कुछ दूरी पर एक नदी है, पर वह बुरी तरह से प्रदूषित है। नगर के कारखानों का कचरा उसी में गिरता है। वास्तव में गाँव के साफ़-सुथरे वातावरण से मेरे नगर की कोई तुलना नहीं है। यह भी जानें प्रभातियाँ मुख्य रूप से बच्चों को जगाने के लिए गाई जाती हैं। प्रभाती में सूर्योदय से कुछ समय पूर्व से लेकर कुछ समय बाद तक का वर्णन होता है। प्रभातियों का भावक्षेत्र व्यापक और यथार्थ के अधिक निकट होता है। प्रभातियों या जागरण गीतों में केवल सुकोमल भावनाएँ ही नहीं वरन् वीरता, साहस और उत्साह की बातें भी कही जाती हैं। कुछ कवियों ने प्रभातियों में राष्ट्रीय चेतना और विकास की भावना पिरोने का प्रयास किया है। श्री शंभूदयाल सक्सेना द्वारा रचित एक प्रभाती – पलकें, खोलो, रैन सिरानी। JAC Class 10 Hindi बालगोबिन भगत Important Questions and Answersप्रश्न 1. अपने नियमों पर दृढ़ रहना, निजी आवश्यकताओं को सीमित करना, सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए प्रयत्नशील होना तथा मोह-माया के जाल से दूर रहने वाला व्यक्ति ही साधु हो सकता है। बालगोबिन भगत भगवान के निराकार रूप को मानते थे। उनके अनुसार उनका जो कुछ भी है, वह मालिक की देन है; उस पर उसी का अधिकार है। इसलिए वे अपने खेतों की पैदावार कबीर मठ में पहुँचा देते थे। बाद में प्रसाद के रूप में जो मिलता, उसी से अपना निर्वाह करते थे। उन्होंने अपने पुत्र की मृत्यु पर अपनी पुत्रवधू से सभी क्रिया-कर्म करवाए। वे समाज में प्रचलित मान्यताओं को नहीं मानते थे। उन्होंने पुत्रवधू को पुनर्विवाह के लिए उसके घर भेज दिया था। वे अपने निजी स्वार्थ के लिए कुछ नहीं करते थे। उनके सभी कार्य परहित में होते थे। वे अंत तक अपने बनाए नियमों में विश्वास करते हुए जीते रहे। उन्होंने आत्मा के वास्तविक रूप को पहचान लिया था। वे कहते थे कि अंत में आत्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है, इसलिए उसका मोह व्यर्थ है। व्यक्ति को अपनी मुक्ति के लिए परमात्मा से प्रेम करना चाहिए। इस पाठ के माध्यम से लेखक लोगों को पाखंडी साधुओं से सचेत करना चाहता है। पाठ हमें बताता है कि वास्तविक साधु वही होते हैं, जो समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत करें और समाज को पुरानी सड़ी-गली परंपराओं से मुक्त करवाएँ। प्रश्न 2. व्यक्तित्व – बालगोबिन भगत मँझोले कद के व्यक्ति थे। उनका रंग गोरा था। बाल सफ़ेद थे। वे लंबी दाढ़ी नहीं रखते थे। सफ़ेद बालों के कारण उनके चेहरे पर बहुत तेज़ था। वेशभूषा – बालगोबिन भगत बहुत कम कपड़े पहनते थे। उनके अनुसार शरीर पर उतने ही कपड़े पहनने चाहिए, जितने शरीर पर आवश्यक हों। वे कमर पर एक लँगोटी पहनते थे और सिर पर कनफटी टोपी पहनते थे। सरदियों में वे काली कमली ओढ़ते थे। मस्तक पर रामानंदी चंदन का टीका होता था। वह टीका नाक से शुरू होकर ऊपर तक जाता था। गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल माला होती थी। व्यवसाय – बालगोबिन भगत का काम खेतीबाड़ी था। वे एक किसान थे। वे अपने खेत में धान की फसल उगाते थे। कबीर के भक्त – बालगोबिन भगत गृहस्थ होते हुए भी साधु थे। उन्होंने अपने जीवन में कबीर का जीवन-वृत्त उतार रखा था। वे कबीर को अपना साहब मानते थे और उनकी शिक्षाओं पर अमल करते थे। उनके अनुसार उनका जो कुछ था, वह सब साहब (कबीर) की देन था। मधुर गायक – बालगोबिन भगत एक मधुर गायक थे। उनका गीत सुनने वाला व्यक्ति अपनी सुध-बुध खोकर उसी में खो जाता था। वे कबीर के पद इस ढंग से गाते थे कि ऐसे लगता था, मानो सभी पद जीवित हो उठे हों। बालगोबिन भगत के संगीत का जादू सबको झूमने के लिए मजबूर कर देता था। संतोषी वृत्ति के व्यक्ति – बालगोबिन भगत संतोषी वृत्ति के व्यक्ति थे। उनकी निजी आवश्यकताएँ सीमित थीं। उनके खेत में जो पैदावार होती थी, वे उसे कबीर के मठ में पहुँचा देते थे। वहाँ से जो प्रसाद के रूप में मिलता था, उसी में अपनी गहस्थी का निर्वाह करते थे। परमात्मा से प्रेम – बालगोबिन भगत भगवान के निराकार रूप को मानते थे। उनके अनुसार आत्मा की मुक्ति के लिए परमात्मा से प्रेम करना चाहिए। उन्होंने मृत्यु की यह सच्चाई जान ली थी कि अंत में शरीर में से आत्मा निकलकर परमात्मा में मिल जाती है। इसलिए परमात्मा से प्रेम करना चाहिए। मोहमाया से दूर – बालगोबिन भगत मोहमाया से दूर थे। उन्हें केवल परमात्मा से प्रेम था। वे मोहमाया के किसी भी बंधन में नहीं बँधते थे। जब उनके इकलौते बेटे की मृत्यु हुई, तो उन्होंने शोक मनाने की अपेक्षा उसे आनंद मनाने का अवसर माना। इस दिन उनके बेटे की आत्मा शरीर से मुक्त होकर परमात्मा से मिल गई थी। उन्होंने बेटे की मृत्यु के पश्चात उसकी पत्नी को भी उसके घर भेज दिया था, ताकि वह पुनर्विवाह कर सके। वे किसी प्रकार के मोह में नहीं पड़ना चाहते थे। नियमों पर दृढ़ – बालगोबिन भगत अपने बनाए नियमों पर दृढ़ थे। वे किसी से बिना पूछे उसकी वस्तु व्यवहार में लाना तो दूर, छूते भी नहीं थे। गंगा-स्नान जाते समय मार्ग में कुछ भी नहीं खाते थे। उन्हें आने-जाने में चार-पाँच दिन लग जाते थे। वे अपनी दिनचर्या का पालन बीमारी में भी नियमपूर्वक करते रहे। सामाजिक परंपराओं के विरोधी – बालगोबिन भगत सामाजिक परंपराओं के विरोधी थे। उन्होंने अपने बेटे की मृत्यु के सभी क्रिया-कर्म अपनी पुत्रवधू से करवाए थे। उन्होंने अपनी पुत्रवधू को पुनर्विवाह के लिए मजबूर किया था। वे उसे अपने पास रखकर उसके मन को मरता हुआ नहीं देख सकते थे। वे ऐसी सामाजिक मान्यताएँ नहीं मानते थे, जो किसी को दुख दें। बालगोबिन का चरित्र उनके साधुत्व को प्रकट करता है। प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. पठित गद्याश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए गद्यांश को पढ़कर प्रश्नों के सही उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (क) बेटे की चिता को अग्नि किसने दी? (ख) श्राद्ध की
अवधि के पूरा होते ही पतोहू को कहाँ भेजा दिया? (ग) ‘बेटे के क्रिया-कर्म में तूल नहीं किया’ से क्या आशय है? (घ) पति के निधन के पश्चात पतोहू भगत को छोड़कर क्यों नहीं जाना चाहती थी? (ङ) पतोहू के भाई से उसकी दूसरी शादी रचाने के
निर्देश में भगत की किस विचारधारा का परिचय मिलता है? उच्च चिंतन क्षमताओं एवं अभिव्यक्ति पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – पाठ पर आधारित प्रश्नों को पढ़कर सही उत्तर वाले विकल्प चुनिए (ख) बेटे की मृत्यु पर बालगोबिन आनंद मनाने की बात क्यों कहते हैं? (ग) भगत किसे अपना साहब मानते थे? (घ) बालगोबिन भगत की प्रभातफेरियाँ किस महीने से शुरू हो जाती थीं? महत्वपूर्ण गद्यांशों के अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. न जाने वह कौन-सी प्रेरणा थी, जिसने मेरे ब्राह्मण का गर्वोन्नत सिर उस तेली के निकट झुका दिया था। जब-जब वह सामने आता, मैं झुककर उससे राम-राम किए बिना नहीं रहता। माना, वे मेरे बचपन के दिन थे, किंतु ब्राह्मणता उस समय सोलहो कला से मुझ पर सवार थी। दोनों शाम संध्या की जाती, गायत्री का जाप होता, धूप-हवन जलाए जाते, चंदन-तिलक किया जाता और इन सारी चेष्टाओं से ‘ब्रह्म’ को जानकर पक्का ‘ब्राह्मण’ बनने की कोशिशें होती-ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः! अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. बचपन में लेखक ब्राह्मण धर्म के अनुसार पूजा-पाठ करता था। ब्राह्मण होने के कारण वह स्वयं को सबसे श्रेष्ठ मानता था। वह सुबह-शाम दोनों समय संध्या आदि करता था। 3. लेखक गर्वोन्नत इसलिए था, क्योंकि वह ब्राह्मण था। उसे ब्राह्मण द्वारा किए जाने वाले सभी कार्य; जैसे-पूजा-पाठ, संध्या, धूप-हवन करना, चंदन-तिलक लगाना आदि; सबकुछ आता था। इसलिए वह स्वयं को सबसे श्रेष्ठ समझकर गर्वोन्नत था। 4. लेखक का सिर बालगोबिन भगत के सामने झुक गया था। वह जब भी उन्हें देखता था, उन्हें झुककर राम-राम करता था। वह उनके गुणों के कारण उनसे प्रभावित था और उन्हें आदर-मान देता था। वे अत्यंत साधु प्रकृति के व्यक्ति थे। 5. इस कथन से तात्पर्य है कि लेखक स्वयं को पक्का ब्राह्मण समझता था। वह ब्राह्मण द्वारा किए गए सभी कार्य जैसे-पूजा-पाठ, संध्या, हवन आदि करता था। इस प्रकार वह स्वयं को इन साधनों के द्वारा ब्रह्म को जानने वाला पक्का ब्राह्मण समझता था। 6. जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्राह्मण है। 2. आसमान बादल से घिरा; धूप का
नाम नहीं। ठंडी पुरवाई चल रही। ऐसे ही समय आपके कानों में एक स्वर-तरंग झंकार-सी कर उठी। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. बालगोबिन भगत पूरी तरह कीचड़ से सने हुए अपने खेत में रोपनी कर रहे थे। वे धान के पौधों को पंक्तिबद्ध रूप से खेत में रोप रहे थे। 3. बालगोबिन भगत अपने खेत में रोपनी करते हुए उच्च स्वर में मधुर-गीत गा रहे थे। 4. बालगोबिन का संगीत सुनकर खेलते हुए बच्चे झूमने लगते थे। उनका संगीत सुनकर स्त्रियाँ गुनगुनाने लगती थीं; हलवाहों के पैर ताल से उठते लगते थे। खेतों में रोपनी करने वाले भी मंत्रमुग्ध होकर क्रम से कार्य करने लगते थे। इस प्रकार बालगोबिन भगत का संगीत सब पर जादू-सा कर देता था। 3. गरमियों में उनकी ‘संझा’ कितनी उमसभरी शाम को न शीतल करती! अपने घर के आँगन में आसन जमा बैठते। गाँव के उनके कुछ प्रेमी भी जुट जाते। खजड़ियों और करतालों की भरमार हो जाती। एक पद बालगोबिन भगत कह जाते, उनकी प्रेमी-मंडली उसे दहराती, तिहराती। धीरे-धीरे स्वर ऊँचा होने लगता-एक निश्चित ताल, एक निश्चित गति से। उस ताल-स्वर के चढ़ाव के साथ श्रोताओं के मन भी ऊपर उठने लगते। धीरे-धीरे मन तन पर हावी हो जाता। होते-होते, एक क्षण ऐसा आता कि बीच में खजड़ी लिए बालगोबिन भगत नाच रहे हैं और उनके साथ ही सबके तन और मन नृत्यशील हो उठे हैं। सारा आँगन नृत्य और संगीत से ओतप्रोत है! अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. प्रेमी-मंडली उन संगीत-प्रेमी लोगों की मंडली थी, जो बालगोबिन भगत के घर गरमियों की उमस भरी शाम के समय खंजड़ियाँ और करताल बजाकर उनके गाए पदों को दोहराते थे तथा वातावरण में उमस के स्थान पर शीतलता भर देते थे। 3. इस कथन का आशय है कि बालगोबिन भगत के गाए हुए पदों को दोहराते समय लोग इतने मग्न हो जाते थे कि वे अपने तन की सुध भूलकर मन से भक्ति रस में डूब जाते थे। उन्हें दीन-दुनिया की सुध नहीं रहती थी। वे मनोलोक में विचरण करने लगते थे। 4. इस प्रकार भक्ति-रस में लीन होकर वह क्षण आ जाता था, जब बालगोबिन भगत भावविभोर होकर खजड़ी बजाते हुए नाचने लगते थे तथा उनकी प्रेमी-मंडली के सदस्य भी उनके चारों ओर घेरा बनाकर नाचते थे। ऐसे समय में सारा वातावरण संगीत की ताल पर नाचता हुआ लगता था। 4. बेटे को आँगन में एक चटाई पर लिटाकर एक सफ़ेद कपड़े से ढाँक रखा है। वह कुछ फूल तो हमेशा ही रोपे रहते, उन फूलों में से कुछ तोड़कर उस पर बिखरा दिए हैं; फूल और तुलसीदल भी। सिरहाने एक चिराग जला रखा है। और, उसके सामने ज़मीन पर ही आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे हैं! वही पुराना स्वर, वही पुरानी तल्लीनता। घर में पतोहू रो रही है, जिसे गाँव की स्त्रियाँ चुप कराने की कोशिश कर रही हैं। किंतु, बालगोबिन भगत गाए जा रहे हैं! हाँ, गाते-गाते कभी-कभी पतोहू के नज़दीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते। आत्मा परमात्मा के पास चली गई, विरहिनी अपने प्रेमी से जा मिली, भला इससे बढ़कर आनंद की कौन बात? मैं कभी-कभी सोचता, यह पागल तो नहीं हो गए। किंतु नहीं, वह जो कुछ कह रहे थे उसमें उनका विश्वास बोल रहा था-वह चरम विश्वास जो हमेशा ही मृत्यु पर विजयी होता आया है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. वे अपने बेटे की मृत देह के सामने ज़मीन पर बैठकर गीत गाने लगे। 3. उन्होंने अपनी पतोहू को रोने से मना किया और कहा, कि आज रोने का नही, बल्कि उत्सव मनाने का दिन है, क्योंकि उसके पति की आत्मा अब परमात्मा से मिल गई है। 4. बालगोबिन का विचार था कि मरने के बाद आत्मा परमात्मा में जाकर लीन हो जाती है। परमात्मा रूपी प्रियतम के वियोग में भटकती हुई आत्मा मृत्यु के बाद अपने प्रिय से जा मिलती है। 5. लेखक को लगता था कि कहीं बालगोबिन पागल तो नहीं हो गए, क्योंकि वे अपने एकमात्र पुत्र की मृत्यु पर शोक की बजाय आनंद मना रहे हैं तथा अपनी पतोहू को भी रोने के स्थान पर उत्सव मनाने के लिए कह रहे हैं। उन्हें मृत्यु आनंद मनाने का अवसर लगता है। 5. बेटे के क्रिया-कर्म में तूल नहीं किया; पतोहू से ही आग दिलाई उसकी। किंतु ज्योंही श्राद्ध की अवधि पूरी हो गई, पतोहू के भाई को बुलाकर उसके साथ कर दिया, यह आदेश देते हुए कि इसकी दूसरी शादी कर देना। उनकी जाति में पुनर्विवाह कोई नई बात नहीं, किंतु पतोहू का आग्रह था कि वह यहीं रहकर भगतजी की सेवा-बंदगी में अपने वैधव्य के दिन गुज़ार देगी। लेकिन, भगतजी का कहना थानहीं, यह अभी जवान है, वासनाओं पर बरबस काबू रखने की उम्र नहीं है इसकी। मन मतंग है, कहीं इसने गलती से नीच-ऊँच में पैर रख दिए तो। नहीं-नहीं, तू जा। इधर पतोहू रो-रोकर कहती-मैं चली जाऊँगी तो बुढ़ापे में कौन आपके लिए भोजन बनाएगा, बीमार पड़े, तो कौन एक चुल्लू पानी भी देगा? मैं पैर पड़ती हूँ, मुझे अपने चरणों से अलग नहीं कीजिए! लेकिन भगत का निर्णय अटल था। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. श्राद्ध का समय समाप्त होते ही उन्होंने पतोहू के भाई को बुलाया और उसे अपनी बहन को साथ ले जाने के लिए कहा। उन्होंने उसके भाई को यह भी कहा कि अपनी बहन का दूसरा विवाह कर देना। 3. बालगोबिन भगत की पतोहू अपने भाई के साथ नहीं जाना चाहती थी; वह दूसरा विवाह भी नहीं करना चाहती थी। वह यहीं रहकर भगत जी की सेवा करना चाहती थी। वह उन्हें बुढ़ापे में बेसहारा छोड़कर नहीं जाना चाहती। वह उनके लिए खाना बनाना, बीमारी में देखभाल करना आदि कार्य करना चाहती थी। 4. बालगोबिन भगत के अनुसार पतोहू अभी जवान थी। उसके सामने सारा जीवन था, वह अकेले नहीं चल पाएगी। मनुष्य का मन चंचल होता है। वह भी कभी भटक सकती थी। इन सब बुराइयों से बचने के लिए ही वे अपनी पतोहू का विवाह कर देना चाहते थे। 5. इस कथन से भगत के चरित्र की दृढ़ता का पता चलता है कि वे अपनी कही हुई बात पर सदा अटल रहते थे। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। इसलिए वे अपनी पतोहू के तर्कों को नहीं मानते और उसे उसके भाई के साथ भेज देते हैं, जिससे वह उसका पुनर्विवाह करवा सके। बालगोबिन भगत Summary in Hindiलेखक-परिचय : जीवन – आधुनिक युग के निबंधकारों में श्री रामवृक्ष बेनीपुरी का महत्वपूर्ण स्थान है। इनका जन्म मुजफ्फरपुर जिले (बिहार) के बेनीपुर गाँव में सन 1899 ई० में हुआ। बचपन में ही इनके सिर से माता-पिता की छाया उठ गई थी। सन 1920 में गांधीजी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन प्रारंभ होने पर ये अध्ययन छोड़कर राष्ट्र-सेवा में लग गए। गांधीजी के दर्शन में इनकी विशेष आस्था थी। ‘रामचरितमानस’ के पठन-पाठन ने इन्हें साहित्य की ओर प्रेरित किया। स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लेने के कारण इन्हें अनेक बार जेल की यातनाएँ सहन करनी पड़ी। सन 1968 ई० में इनका देहावसान हो गया। रचनाएँ – पंद्रह वर्ष की अवस्था से ही ये पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखने लग गए थे। इन्होंने ‘बालक’, ‘तरुण भारत’, ‘किसान मित्र’, ‘नयी धारा’ आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। उपन्यास, नाटक, कहानी, यात्रा-विवरण, संस्मरण, निबंध आदि लगभग सभी गद्य विधाओं में बेनीपुरी जी की अनेक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इनका पूरा साहित्य ‘बेनीपुरी रचनावली’ के आठ खंडों में प्रकाशित हुआ है। ‘पतितों के देश में’ (उपन्यास); ‘चिता के फूल’ (कहानी); ‘माटी की मूरतें’, ‘नेत्रदान’ तथा ‘मन और विजेता’ (रेखाचित्र); अंबपाली’ (नाटक); ‘गेहूँ और गुलाब’ (निबंध और रेखाचित्र); ‘पैरों में पंख बाँधकर’ (यात्रा विवरण); ‘जंजीरें और दीवारें’ (संस्मरण) आदि इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। भाषा-शैली – इनकी भाषा ओजपूर्ण तथा सशक्त है। इसमें प्रांतीय शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। इन्होंने खड़ी बोली के परिष्टत रूप का प्रयोग किया है। इन्होंने सामान्य बोलचाल के शब्दों में तत्सम शब्दावली का सुंदर प्रयोग किया है। बाक्य रचना स्वाभाविक है। ‘बालगोबिन भगत’ इनके द्वारा रचित रेखाचित्र है, जिसमें लेखक ने एक ऐसे चरित्र का उद्घाटन किया है जो अपनले का लोकनायक है। उसने रूढ़ियों से ग्रस्त समाज से टक्कर लेकर अपने युग में सर्वत्र क्रांतिकारी पग उठाए हैं। अपने पुराना को अपनी मोह से अग्नि दिलवाई और उसे पुनर्विवाह करने के लिए कहा। इस रेखाचित्र में मनोवृत्ति, मात्र, कंठ, अकस्मात, आपल जैसे तत्सप्प शब्दों के साथ-साथ लँगोटी, जाड़ा, तूल, खजड़ी, पियवा, रोपनी आदि देशज शब्दों का भी खुलकर प्रयोग किया है। इनकी शैली भावपूर्ण, चित्रात्मक, विचारपूर्ण तथा कहीं-कहीं वर्णनात्मक हो गई है। कहीं-कहीं काव्यात्मक शैली के भी दर्शन होते हैं। जैसे… उनका यह गाना अँधेरे में अकस्मात कौंध उठने वाली बिजली की तरह किसे न चौंका देता?’ आषाढ़ के आगमन का वर्णन अत्यंत ही सजीवता लिए हुए है। जैसे – ‘आषाढ़ की रिमझिम है। समूचा गाँव खेतों में उतर पड़ा है। कहीं हल चल रहे हैं; कहीं रोपनी हो रही है। धान के पानी-भरे खेतों में बच्चे उछल रहे हैं। औरतें कलेवा लेकर मेंड़ पर बैठी हैं। आसमान बादलों से घिरा, धूप का नाम नहीं। ठंडी पुरवाई चल रही है।’ पाठ का सार : ‘बालगोबिन भगत’ के लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी हैं। इस रेखाचित्र के माध्यम से उन्होंने एक ऐसे संन्यासी का वर्णन किया है, जो वेशभूषा या बाह्य-आडंबरों से संन्यासी नहीं लगता था। लेखक के अनुसार उसके संन्यासी होने का आधार मानवीय जीवन के प्रति प्रेम था। वह वर्ण-व्यवस्था और सामाजिक रूढ़ियों का विरोधी था। इस रेखाचित्र के माध्यम से हमें ग्रामीण जीवन की झलक देखने को मिलती है। लेखक बचपन में स्वयं को पक्का ब्राह्मण मानता था। वह ब्राह्मण की पहचान करवाने वाली सभी क्रियाएँ करता था। वह इस बात पर विश्वास करता था कि ब्रह्म का ज्ञाता केवल ब्राह्मण होता है। लेकिन एक तेली के आगे लेखक का गर्व से ऊँचा सिर स्वयं ही झुक जाता था। हमारे समाज में तेली का यात्रा के समय मिलना अच्छा नहीं समझा जाता। बालगोबिन भगत साठ वर्ष के मँझोले कद के गोरे-चिट्ठे भी व्यक्ति थे। वे केवल कमर में एक लँगोटी तथा कबीरपंथियों वाली कनपटी टोपी पहनते थे। सरदियों में एक काली कमली ओढ़ते थे। मस्तक पर रामानंदी चंदन का टीका तथा गले में तुलसी की जड़ों की माला पहनते थे। बालगोबिन एक गृहस्थ व्यक्ति थे। उनके बेटा-बहू थे। वे खेती-बाड़ी का काम करते थे। बालगोबिन गृहस्थ होते हुए भी साधु थे। वे ‘कबीर’ की मान्यताओं को बहुत मानते थे। उन्हीं के गीतों को गाते थे। वे ‘कबीर’ को ‘साहब’ मानते थे। ‘कबीर की मान्यताओं के अनुसार वे न कभी झूठ बोलते थे, न किसी की चीज़ को हाथ लगाते थे और न ही बिना पूछे व्यवहार में लाते थे। उनकी हर चीज पर ‘साहब’ का अधिकार था। वे अपने खेत की पैदावार को सिर पर रख ‘कबीर’ के मठ पर जाते। उस पैदावार को भेट-स्वरूप चढ़ाते और जो कुछ प्रसाद के रूप में मिलता उसी में गुजारा करते थे। लेखक बालगोबिन भगत के गायन पर मुग्ध था। उनका गायन सदा सबको सुनने को मिलता था। आषाढ़ आते ही खेतों में धान की रोपाई शुरू हो जाती थी। पूरे गाँव के आदमी, औरतें और बच्चे खेतों में दिखाई देते थे। खेतों में रोपाई करते समय हर किसी के कानों में गाने का स्वर गूंजता रहता था। इसका कारण यह था कि बालगोबिन रोपाई करते समय गाना गाते थे। उनके कंठ से निकला एक-एक शब्द ऐसा लगता था, जैसे कुछ ऊपर स्वर्ग की ओर तो कुछ पृथ्वी की मिट्टी पर खड़े लोगों के कानों में जा रहे हैं। उनके संगीत से सारा वातावरण संगीतमय हो जाता था। सभी लोग एक ताल में एक क्रम में काम करने लगते थे। वे भादों की अँधेरी रातों में पिया के प्यार के गीत गाते थे। इन गीतों के अनुसार पिया साथ होते हुए भी प्रियतमा अपने को अकेली समझती है, इसलिए बिजली की चमक से चौंक उठती है। जब सारा संसार सो रहा होता था, उस समय बालगोबिन का संगीत जाग रहा होता था। बालगोबिन कार्तिक से फागुन तक प्रभाती गाया करते थे। वे सुबह अँधेरे में उठकर, दो मील चलकर नदी-स्नान करते थे। वापसी में गाँव के बाहर पोखरे पर वे अपनी खजड़ी लेकर बैठ जाते और गीत गाने लगते थे। लेखक को देर तक सोने की आदत थी, परंतु एक दिन उसकी आँख जल्दी खुल गई। वे माघ के दिन थे। बालगोबिन का संगीत लेखक को गाँव के बाहर पोखर पर ले गया। वे अपने संगीत में बहुत मस्त थे। उनके माथे पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं, लेकिन लेखक ठंड के मारे काँप रहा था। गरमियों में उमसभरी शाम को वे अपने गीतों से शीतल कर देते थे। उनके गीत लोगों के मन से होते हुए तन पर हावी हो जाते थे। वे भी बालगोबिन की तरह मस्ती में नाचने लगते थे। उनके घर का आँगन संगीत-भक्ति से ओत-प्रोत हो जाता था। सब लोगों ने बालगोबिन भगत की संगीत-साधना की चरम-सीमा उस दिन देखी, जिस दिन उनका इकलौता बेटा मरा था। उनका बेटा दिमागी तौर पर सुस्त था। बालगोबिन उस पर अधिक ध्यान देते थे। उनके अनुसार ऐसे लोगों को अधिक-देखभाल और प्यार की आवश्यकता होती है। उनके बेटे की बहू बहुत सुघड़ और सुशील थी। उसने आते ही घर के सारे काम को सँभाल लिया था। उसने बालगोबिन भगत को दुनियादारी से काफी सीमा तक मुक्त कर दिया था। जिस दिन बालगोबिन का लड़का मरा, सारा गाँव उसके घर इकट्ठा हो गया। बालगोबिन को देखकर सभी लोग हैरान थे। उन्होंने अपने बेटे को आँगन में चटाई पर लिटा रखा था। उस पर सफ़ेद कपड़ा दे रखा था। कुछ फूल और तुलसी के पत्ते उस पर बिखेर रखे थे। पास में ही वे आसन पर बैठे गीत गा रहे थे। कमरे में उनकी पुत्रवधू बैठी रो रही थी। वे बीचबीच में उसे चुप करवाते और कहते कि उसे रोना नहीं चाहिए। यह समय तो उत्सव मनाने का है। उनके बेटे की आत्मा परमात्मा में मिल गई है। आज प्रियतमा का अपने पिया से मिलन हो गया है। यह तो आनंद की बात है। लेखक को लग रहा था कि वे पागल हो गए हैं। उन्होंने अपने बेटे का क्रिया-कर्म अपने बेटे की बहू से करवाया था। श्राद्ध की अवधि पूरी होने पर उन्होंने बहू को उसके घर भेज दिया। उन्होंने उसके घरवालों को उसकी दूसरी शादी करवाने का आदेश दिया। बहू ने उनकी बात मानने से इनकार कर दिया। वह उनके पास रहकर उनकी सेवा करना चाहती थी। उसे इस बात की बहुत चिंता थी कि बुढ़ापे में उनका ध्यान कौन रखेगा। लेकिन बालगोबिन भगत अपने कारण बहू का जीवन खराब नहीं करना चाहते थे और वे जवानी में संन्यास लेने के विरुद्ध थे। इसलिए उन्होंने उसे घर छोड़ने की धमकी दी कि यदि वह अपने पिता के घर नहीं गई, तो वे घर छोड़कर चले जाएंगे। उनकी यह बात सुनकर बहू अपने घर चली गई। बालगोबिन भगत के स्वभाव के अनुरूप ही उनकी मृत्यु हुई। वे प्रतिवर्ष पैदल ही गंगा-स्नान के लिए जाते थे। गंगा-स्नान के बहाने वे संतों से मिलते थे। गंगा उनके गाँव से तीस कोस दूर थी। वे घर से ही खा-पीकर चलते थे और लौटकर घर पर ही आकर खाते थे। रास्ते भर । वे गाते-बजाते जाते थे। उनको आने-जाने में चार दिन लग जाते थे। अब वे बूढ़े हो गए थे, लेकिन उनका लंबा उपवास और गायन लगातार चलता था। इस बार वे गंगा-स्नान से लौटकर आए, तो उनकी तबीयत खराब थी। बुखार में भी नियम-व्रत नहीं तोड़े। लोगों ने उन्हें सबकुछ छोड़कर आराम करने के लिए कहा, परंतु वे हँसकर टाल देते थे। एक दिन उन्होंने संध्या को गीत गाए, लेकिन रात को जीवन की माला का धागा टूट गया। लोगों को सुबह बालगोबिन भगत के गीतों का स्वर सुनाई नहीं दिया, तो उन्होंने देखा कि उनके शरीर से आत्मा निकलकर : परमात्मा से मिल गई थी। कठिन शब्दों के अर्थ : गर्वोन्नत – गर्व से ऊँचा। सोलहो कला – पूरी तरह से। खामखाह – बेवजह। कौंध – चमक। मँझोला – न बहुत बड़ा न बहुत छोटा। चरम उत्कर्ष – बहुत ऊँचाई पर। कमली – कंबल, गर्म कपड़ा। पतोहू – पुत्रवधू/ पुत्र की स्त्री। रोपनी – धान की रोपाई। कलेवा – सवेरे का नाश्ता। पुरवाई – पूर्व की ओर से बहने वाली हवा। अधरतिया – आधी रात। खजड़ी – ढफली के आकार का छोटा वाद्य-यंत्र। निस्तब्धता – सन्नाटा। प्रभाती – प्रातःकाल गाया जाने वाला गीत। लोही – प्रात:काल की लालिमा। कुहासा – कोहरा, धुंध। आवृत – ढका हुआ। कुष्टा – एक प्रकार की नुकीली घास। बोदा – कम बुद्धि वाला। मतंग – बादल, मेघ। संबल – सहारा। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 10 नेताजी का चश्मा Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 10 नेताजी का चश्माJAC Class 10 Hindi नेताजी का चश्मा Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. (ख) हालदार साहब जब चौराहे से गुज़रे, तो न चाहते हुए भी उनकी नज़र नेताजी की मूर्ति की ओर चली गई। मूर्ति देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ, क्योंकि उस पर सरकंडे का चश्मा लगा हुआ था। यह देखकर हालदार साहब को उम्मीद हुई कि आज के बच्चे कल देश के निर्माण में सहायक होंगे और अब उन्हें कभी भी चौराहे पर नेताजी की बिना चश्मे वाली मूर्ति नहीं देखनी पड़ेगी। (ग) नेताजी की मूर्ति पर बच्चे के हाथ से बना सरकंडे का चश्मा देखकर हालदार साहब भावुक हो गए। पहले उन्हें ऐसा लग रहा था कि अब नेताजी की मूर्ति पर चश्मा लगाने वाला कोई नहीं रहा। इसलिए उन्होंने ड्राइवर को वहाँ रुकने से मना कर दिया था। परंतु जब उन्होंने मूर्ति पर सरकंडे का चश्मा देखा, तो उनका मन भावुक हो गया। उन्होंने नम आँखों से नेताजी की मूर्ति को प्रणाम किया। प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. नेताजी के प्रति उसके आदर-भाव ने ही पूरे कस्बे की इज्जत बचा रखी थी। पानवाले के मन में देश और देश के नेताओं के प्रति सम्मान नहीं था। उसे केवल अपना पान बेचने के लिए कोई-न-कोई मुद्दा चाहिए था। यदि ऐसे लोग देश के लिए कुछ कर नहीं सकते, तो उन्हें किसी की हँसी उड़ाने का भी अधिकार नहीं है। कैप्टन जैसे भी व्यक्तित्व का स्वामी था, उससे उसकी देश के प्रति कर्तव्य भावना कम नहीं होती थी। पानवाले को कैप्टन की हँसी नहीं उड़ानी चाहिए थी। रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 6. (ख) पानवाला जब भी कोई बात कहता था, उससे पहले वह मुँह का पान नीचे अवश्य थूकता था। पानवाले को कैप्टन के मरने का दुख था। इसलिए उसकी आँखें नम थीं। इससे पता चलता है कि पानवाले के मन में कैप्टन के प्रति आदर की भावना थी। (ग) मूर्तिकार नेताजी की मूर्ति का चश्मा बनाना भूल गया था। बिना चश्मे वाली मूर्ति कैप्टन को बहुत आहत करती थी। इसलिए वह मूर्ति पर अपने पास से चश्मा लगा देता था। जब भी मूर्ति से चश्मा उतारा जाता था, वह उसी समय उस पर दूसरा चश्मा लगा देता था। इससे पता चलता है कि कैप्टन में देश के नेताओं के प्रति आदर और सम्मान की भावना थी। प्रश्न 7. प्रश्न 8. (ख) हम अपने क्षेत्र के चौराहे पर लाल बहादुर शास्त्री की प्रतिमा लगवाना चाहेंगे। वे एक ऐसे व्यक्ति थे, जो अपनी मेहनत से देश के प्रधानमंत्री बने थे। उन्होंने आम व्यक्ति को यह अनुभव करवाया था कि उसकी भी देश के निर्माण में अहम भूमिका है। लाल बहादुर शास्त्री आम व्यक्ति की आवाज़ थे, इसलिए उनकी मूर्ति आम व्यक्ति को कुछ करने की प्रेरणा देगी। (ग) चौराहे पर लगी मूर्ति के प्रति हमारे और दूसरे लोगों के मन में आदर और सम्मान की भावना होनी चाहिए। हमें दूसरे लोगों को भी मूर्ति वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व से परिचित करवाना चाहिए। इसके लिए समय-समय पर वहाँ पर देशभक्ति के समागम होने चाहिए, जिससे आम व्यक्ति में देशभक्ति की भावना प्रबल हो। उस मूर्ति के सामने से जब भी निकलें, उसके आगे नतमस्तक हों। उनके द्वारा किए गए कार्यों को याद करके उन्हें अमल में लाने का प्रयत्न करें। प्रश्न 9. इसलिए जितना संभव हो, बिजली का उतना ही प्रयोग करना चाहिए। घरों में बिजली के पंखे, ट्यूबें खुली नहीं छोड़नी चाहिए। जब ज़रूरत न हो, तो इन्हें बंद कर देना चाहिए। पेट्रोल का उचित प्रयोग करने के लिए, जहाँ तक संभव हो निजी यातायात के साधनों का प्रयोग कम करना चाहिए। इसके स्थान पर सार्वजनिक यातायात के साधनों का अधिक प्रयोग करना चाहिए। इससे मनुष्य के धन की भी बचत होती है तथा पर्यावरण भी कम प्रदूषित होता है। ऐसे हमारे जीवन-जगत से जुड़े कई कार्य हैं, जिन्हें अमल में लाकर हम अपने देश-प्रेम का परिचय दे सकते हैं। प्रश्न 10. प्रश्न 11. भाषा-अध्ययन – प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. (ख) हमें अपने क्षेत्र के शिल्पकार, संगीतकार, चित्रकार एवं दूसरे कलाकारों को समय-समय पर प्रोत्साहन देना चाहिए। हम उन्हें अपनी कला दिखाने के लिए नए-नए अवसर दे सकते हैं। किसी त्योहार या राष्ट्रीय पर्व के अवसर पर इन लोगों को अपनी कला दिखाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। इनके प्रदर्शन के अनुरूप इन्हें प्रोत्साहन राशि देनी चाहिए, जिससे इनकी आर्थिक स्थिति सुधरे और वे अपनी कला में निखार लाए। क्षेत्र के धनवान इन लोगों की कला को आर्थिक रूप से प्रोत्साहित करके इन्हें आगे बढ़ने का अवसर दे सकते हैं। प्रश्न 2. विषय : विद्यालय परिसर एवं कक्षा के लिए सुझाव हेतु पत्र मान्यवर, प्रश्न 3. कई कॉलोनियाँ शहर से दूर होती हैं, इसलिए वहाँ के लोगों को अपनी छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिए इन फेरीवालों पर निर्भर रहना पड़ता है। ये फेरीवाले उन लोगों की ज़रूरतों का फ़ायदा उठाते हुए मनमाने मूल्यों पर वस्तु बेचते हैं। कई बार तो अधिक पैसे लेकर गंदा और घटिया माल बेच देते हैं। कई फेरीवाले अपराधिक तत्वों से मिलकर उन्हें ऐसे घरों की जानकारी देते हैं, जहाँ दिन में केवल बच्चे और बूढ़े होते हैं। फेरीवालों की मनमानी रोकने के लिए उन्हें नगरपालिका से जारी मूल्य-सूची दी जानी चाहिए। फेरीवालों के पास पहचान-पत्र और वस्तु बेचने का लाइसेंस होना चाहिए। प्रश्न 4. प्रश्न 5. नीचे दिए गए निबंध का अंश पढ़िए और समझिए कि गद्य की विविध विधाओं में एक ही भाव को अलग-अलग प्रकार से कैसे व्यक्त किया जा सकता है – देश-प्रेम देश-प्रेम है क्या? प्रेम ही तो है। इस प्रेम का आलंबन क्या है? सारा देश अर्थात मनुष्य, पशु, पक्षी, नदी, नाले, वन, पर्वत सहित सारी भूमि। यह प्रेम किस प्रकार का है? यह साहचर्यगत प्रेम है। जिनके बीच हम रहते हैं, जिन्हें बराबर आँखों से देखते हैं, जिनकी बातें बराबर सुनते रहते हैं, जिनका हमारा हर घड़ी का साथ रहता है, सारांश यह है कि जिनके सान्निध्य का हमें अभ्यास पड़ जाता है, उनके प्रति लोभ या राग हो सकता है। देश-प्रेम यदि वास्तव में अंत:करण का कोई भाव है तो यही हो सकता है। यदि यह नहीं है तो वह कोरी बकवास या किसी और भाव के संकेत के लिए गढ़ा हुआ शब्द है। यदि किसी को अपने देश से सचमुच प्रेम है तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, वन, पर्वत, नदी, निर्झर आदि सबसे प्रेम होगा, वह सबको चाहभरी दृष्टि से देखेगा; वह सबकी सुध करके विदेश में आँसू बहाएगा। जो यह भी नहीं जानते कि कोयल किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं सुनते कि चातक कहाँ चिल्लाता है, जो यह भी आँख भर नहीं देखते हैं कि आम प्रणय-सौरभपूर्ण मंजरियों से कैसे लदे हुए हैं, जो यह भी नहीं झाँकते कि किसानों के झोंपड़ों के भीतर क्या हो रहा है, वे यदि बस-बने-ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का परता बताकर देश-प्रेम का दावा करें तो उनसे पूछना चाहिए कि भाइयो! बिना रूप परिचय का यह प्रेम कैसा? जिनके दुख-सुख के तुम कभी साथी नहीं हुए उन्हें तुम सुखी देखना चाहते हो, यह कैसे समझे? उनसे कोसों दूर बैठे-बैठे, पड़े-पड़े या खड़े-खड़े तुम विलायती बोली में ‘अर्थशास्त्र’ की दुहाई दिया करो, पर प्रेम का नाम उसके साथ न घसीटो। प्रेम हिसाब-किताब नहीं है। हिसाब-किताब करने वाले भाड़े पर मिल सकते हैं, पर प्रेम करने वाले नहीं। हिसाब-किताब से देश की दशा का ज्ञान-मात्र हो सकता है। हित-चिंतन और हित-साधन की प्रवृत्ति कोरे ज्ञान से भिन्न है। वह मन के वेग या भाव पर अवलंबित है, उसका संबंध लोभ या प्रेम से है, जिसके बिना अन्य पक्ष में आवश्यक त्याग का उत्साह हो नहीं सकता। JAC Class 10 Hindi नेताजी का चश्मा Important Questions and Answersप्रश्न 1. उसे बिना चश्मे के नेताजी का व्यक्तित्व अधूरा लगता है, इसलिए वह उस मूर्ति पर अपने पास से चश्मा लगवा देता है। सब लोग उसका मज़ाक उड़ाते हैं। उसके मरने के बाद नेताजी की मूर्ति बिना चश्मे के चौराहे पर लगी रहती है। बिना चश्मे की मूर्ति हालदार साहब को भी दुखी कर देती है। वे ड्राइवर से चौराहे पर बिना रुके आगे बढ़ने को कहते हैं, लेकिन अचानक उनकी नज़र मूर्ति पर पड़ती है। उस पर किसी बच्चे द्वारा सरकंडे का बनाया चश्मा लगा हुआ था। यह दृश्य हालदार साहब को देशभक्ति की भावना से भर देता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि देश के निर्माण में करोड़ों गुमनाम व्यक्ति अपने-अपने ढंग से योगदान देते हैं। इस योगदान में बड़े ही नहीं अपितु बच्चे भी शामिल होते हैं। यही पाठ का उद्देश्य है। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. पठित गद्यांश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए गद्यांश को पढ़कर प्रश्नों के सही उत्तर वाले विकल्प चुनिए – हालदार साहब की आदत पड़ गई, हर बार कस्बे से गुज़रते समय चौराहे पर रुकना, पान खाना और मूर्ति को ध्यान से देखना। एक बार जब कौतूहल दुर्दमनीय हो उठा तो पानवाले से ही पूछ लिया, क्यों भई! क्या बात है? (क) कस्बे में से गुज़रते हुए हालदार साहब को कौन-सी आदत पड़ गई थी? (ख) पानवाला कैसा था? (ग) मूर्ति का चश्मा हर बार कौन बदल देता था? (घ) किसका प्रश्न सुनकर पानवाला हँसा? (ङ) चौराहे पर किसकी मूर्ति
लगी थी? उच्च चिंतन क्षमताओं एवं अभिव्यक्ति पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – पाठ पर आधारित प्रश्नों को पढ़कर सही उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (ख) नेताजी की प्रतिमा किससे निर्मित थी? (ग) हालदार साहब की आँखें क्यों भर आईं? (घ) ‘नेताजी का चश्मा’ गद्य पाठ के लेखक कौन हैं? महत्वपूर्ण गद्यांशों के अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. पूरी बात तो अब पता नहीं, लेकिन लगता है कि देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी नहीं होने और अच्छी मूर्ति की लागत अनुमान और उपलब्ध बजट से कहीं बहुत ज्यादा होने के कारण काफ़ी समय ऊहापोह और चिट्ठी-पत्री में बरबाद हुआ होगा और बोर्ड की शासनावधि समाप्त होने की घड़ियों में किसी स्थानीय कलाकार को ही अवसर देने का निर्णय किया होगा, और अंत में कस्बे के इकलौते हाई स्कूल के इकलौते ड्राइंग मास्टर-मान लीजिए मोतीलाल जी-को ही यह काम सौंप दिया गया होगा, जो महीने-भर में मूर्ति बनाकर ‘पटक देने’ का विश्वास दिला रहे थे। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न
: 2. इस दृष्टि से यह सफल और सराहनीय प्रयास था। केवल एक चीज़ की कसर थी जो देखते ही खटकती थी। नेताजी की आँखों पर चश्मा नहीं था। यानी चश्मा तो था, लेकिन संगमरमर का नहीं था। एक सामान्य और सचमुच के चश्मे का चौड़ा काला फ्रेम मूर्ति को पहना दिया गया था। हालदार साहब जब पहली बार इस कस्बे से गुज़रे और चौराहे पर पान खाने रुके तभी उन्होंने इसे लक्षित किया और उनके चेहरे पर एक कौतुकभरी मुसकान फैल गई। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 3. हालदार साहब की आदत पड़ गई, हर बार कस्बे से गुज़रते समय चौराहे पर रुकना, पान खाना और मूर्ति को ध्यान से देखना। एक बार जब कौतूहल दुर्दमनीय हो उठा तो पानवाले से ही पूछ लिया, क्यों भई! क्या बात है? यह तुम्हारे नेताजी का चश्मा हर बार बदल कैसे जाता है? पानवाले के खुद के मुँह में पान हुँसा हुआ था। वह एक काला मोटा और खुशमिज़ाज़ आदमी था। हालदार साहब का प्रश्न सुनकर वह आँखों-ही-आँखों में हँसा। उसकी तोंद थिरकी। पीछे घूमकर उसने दुकान के नीचे पान थूका और अपनी लाल-काली बत्तीसी दिखाकर बोला, कैप्टन चश्मेवाला करता है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 4. हालदार साहब को पानवाले द्वारा एक देशभक्त का इस तरह मज़ाक उड़ाया जाना अच्छा नहीं लगा। मुड़कर देखा तो अवाक रह गए। एक बेहद बूढ़ा मरियल-सा लँगड़ा आदमी सिर पर गांधी टोपी और आँखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में एक छोटी-सी संदूकची और दूसरे हाथ में एक बाँस पर टंगे बहुत-से चश्मे लिए अभी-अभी एक गली से निकला था और अब एक बंद दुकान के सहारे अपना बाँस टिका रहा था। तो इस बेचारे की दुकान भी नहीं! फेरी लगाता है! हालदार साहब चक्कर में पड़ गए। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर प्रश्न : 5. पान वाले के लिए एक मजेदार बात थी लेकिन हालदार साहब के लिए चकित और द्रवित करने वाली। यानी वह ठीक ही सोच रहे थे। मूर्ति के नीचे लिखा ‘मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल’ वाकई कस्बे का अध्यापक था। बेचारे ने महीने-भर में मूर्ति बनाकर पटक देने का वादा कर दिया होगा। बना भी ली होगी लेकिन पत्थर में पारदर्शी चश्मा कैसे बनाया जाए-काँचवाला- यह तय नहीं कर पाया होगा। या कोशिश की होगी और असफल रहा होगा। या बनाते-बनाते “कुछ और बारीकी’ के चक्कर में चष्ठमा टूट गया होगा। या पत्थर का चश्मा अलग से बनाकर फिट किया होगा और वह निकल गया होगा। उफ….! अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर प्रश्न : (ख) हालदार साहब की दृष्टि में कस्बे का अध्यापक बेचारा था। क्योंकि उसने कम समय और कम लागत में नेताजी की मूर्ति एक महीने में बनाकर लगा दी थी। संगमरमर की मूर्ति में काँचवाला चश्मा लगाने के लिए उसके पास समय नहीं रहा होगा। (ग) हालदार साहब सोच रहे थे कि मूर्तिकार ने पत्थर की मूर्ति पर पारदर्शी चश्मा बनाने की कोशिश की होगी परंतु सफल नहीं हो पाया होगा, चश्मे की बारीकी पर ध्यान देते हुए चश्मा टूट गया होगा या पत्थर का चश्मा अलग से बनाकर फिट किया होगा और वह निकल गया होगा। नेताजी का चश्मा Summary in Hindiलेखक-परिचय : जीवन – सुप्रसिद्ध कहानीकार स्वयं प्रकाश का जन्म मध्य प्रदेश के इंदौर नगर में सन् 1947 ई० को हुआ था। इन्होंने मैकेनिकल इंजीनियरिंग करने के पश्चात औद्योगिक प्रतिष्ठान में कार्य किया। सेवानिवृत्ति के बाद वे भोपाल में रहकर ‘वसुधा’ नामक पत्रिका का संपादन करने लगे हैं। इन्हें पहल सम्मान, बनमाली पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार आदि से सम्मानित किया गया है। रचनाएँ – स्वयं प्रकाश एक सशक्त कथाकार हैं। अब तक इनके तेरह कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं-‘सूरज कब निकलेगा’, ‘आएँगे अच्छे दिन भी’, ‘संधान’ आदि। इन्होंने उपन्यास भी लिखे हैं, जिनमें ईंधन’ तथा ‘बीच में विनय’ अत्यंत प्रसिद्ध हैं। भाषा-शैली – स्वयं प्रकाश का कथा साहित्य मध्यवर्गीय जीवन की सफल झाँकियाँ प्रस्तुत करता है। ‘नेताजी का चश्मा’ कहानी में लेखक ने देश के नेताओं के प्रति आम आदमी तथा बच्चों की श्रद्धा का सजीव अंकन किया है। लेखक की भाषा सहज तथा बोधगम्य है, जिसमें तत्सम शब्दों के साथ-साथ देशज शब्दों का भी प्रयोग किया गया है; जैसे – प्रयास, आहत, लक्षित, उपलब्ध, दुर्दमनीय आदि। इसी प्रकार से कंपनी, सिलसिला, बस्ट, कमसिन, चश्मा, आइडिया, ओरिजिनल जैसे विदेशी तथा गिराक, तोंद, सरकंडे जैसे देशज शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। इनकी शैली अत्यंत प्रभावपूर्ण, चित्रात्मक, संवादात्मक, भावपूर्ण तथा वर्णनात्मक है। पानवाले का यह शब्द चित्र उसे साक्षात आकार प्रदान कर देता है-‘वह एक काला मोटा और खुशमिजाज़ आदमी था।’ इसी प्रकार से कैप्टन की रूपरेखा इन शब्दों से स्पष्ट होती है-‘एक बेहद बूढ़ा मरियल-सा लँगड़ा आदमी सिर पर गांधी टोपी और आँखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में एक छोटी-सी संदूकची और दूसरे हाथ में एक बाँस पर टँगे बहुत-से चश्मे।’ इन आम बोलचाल के शब्दों में लेखक ने अपनी बात अत्यंत प्रभावी रूप से व्यक्त की है। पाठ का सार : ‘नेताजी का चश्मा’ पाठ के लेखक ‘स्वयं प्रकाश’ हैं। इस पाठ के माध्यम से लेखक ने देश के उन गुमनाम नागरिकों के महत्वपूर्ण योगदान का वर्णन किया है, जो देश के निर्माण में अपने-अपने ढंग से सक्रिय हैं। कैप्टन चश्मे वाले की देश-भक्ति भी उसके कस्बे तक सीमित थी। हालदार साहब कंपनी के काम से एक कस्बे में से हर पंद्रह दिन के बाद गुजरा करते थे। कस्बा सामान्य कस्बों जैसा था, जिसमें कुछ पक्के और कुछ कच्चे घर थे। लड़के-लड़कियों के लिए स्कूल था। एक नगरपालिका थी। नगरपालिका समय-समय पर कस्बे के विकास के लिए कार्य करती थी। एक बार नगरपालिका ने कस्बे के चौराहे पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की मूर्ति लगवाने का निश्चय किया। मूर्ति बनाने का कार्य कस्बे के स्कूल के ड्राइंग मास्टर मोतीलाल को दिया गया। मोतीलाल जी ने एक महीने में नेताजी की छाती तक की संगमरमर की मूर्ति तैयार कर दी। नगरपालिका ने वह मूर्ति चौराहे पर लगा दी। नेताजी की मूर्ति को देखकर लोगों में देश के लिए कुछ करने का उत्साह पैदा होता था। इस तरह नगरपालिका का लोगों में देश-भावना जागृत करने का यह प्रयास सफल तथा सराहनीय था। लेकिन मूर्ति देखने वालों को मूर्ति में एक कमी लगती थी। मूर्ति का चश्मा पत्थर का नहीं था, वह असली था। शायद मूर्ति बनाने वाला नेताजी का चश्मा बनाना भूल गया, इसलिए मूर्ति पर असली चश्मा लगा। दिया गया था। हालदार साहब जब पहली बार कस्बे से गुज़रे, तो उन्हें लोगों का यह प्रयास अच्छा लगा। उन्हें लगा कि लोगों में अपने नेताओं के प्रति आदर-सम्मान है। अगले दो-तीन बार वहाँ से गुजरने पर हालदार साहब को मूर्ति पर अलग चश्मा लगा मिलता था। यह देखकर वे आश्चर्यचकित थे। उन्होंने अपनी जिज्ञासा कम करने के लिए चौराहे पर बैठे पानवाले से पूछा कि हर बार मूर्ति का चश्मा कैसे बदल जाता है? पानवाले ने बताया कि नेताजी का चश्मा कैप्टन बदल देता है। जब कोई ग्राहक नेताजी की मूर्ति पर लगा चश्मा चाहता है, तो कैप्टन मूर्ति से चश्मा उतार कर ग्राहक को दे देता है और मूर्ति पर नया चश्मा लगा देता है। कैप्टन को नेताजी की चश्मे के बिना मूर्ति बुरी लगती थी। उसे चश्मे के बिना नेताजी का व्यक्तित्व अधूरा प्रतीत होता था, इसलिए वह अपने पास से एक चश्मा नेताजी की मूर्ति पर लगा देता था। पानवाले ने हालदार साहब को यह भी बताया कि मूर्तिकार मूर्ति का चश्मा बनाना भूल गया था। हालदार साहब को पानवाले को यह बात बहुत बुरी लगी। हालदार साहब कैप्टन चश्मे वाले से बहुत प्रभावित हुए थे, जिसने अपनी देशभक्ति से मूर्ति के अधूरेपन को पूरा किया था। उन्होंने पानवाले से कैप्टन के विषय में पूछा कि क्या वह नेताजी की फ़ौज का कोई सिपाही था। इस पर पानवाला मुसकरा पड़ा और बोला कि वह एक लँगड़ा है। वह फ़ौज में कैसे जा सकता है ? पानवाला हालदार साहब को कैप्टन दिखाता है। कैप्टन एक पतला-सा बूढ़ा व्यक्ति था। उसके पास एक संदूकची थी और एक बाँस था, जिस पर तरह-तरह के चश्मे टँगे थे। वह एक फेरी लगाने वाला था। जिस ढंग से पानवाले ने कैप्टन का परिचय दिया, वह ढंग हालदार साहब को बहुत बुरा लगा था। वे कैप्टन के विषय में बहुत कुछ जानना चाहते थे, परंतु पानवाला कुछ और बताने को तैयार नहीं था। हालदार साहब अगले दो साल तक कस्बे से गुजरते रहे और नेताजी की मूर्ति के बदलते चश्मे देखते रहे। एक बार हालदार साहब उधर से गुजरे, तो उन्हें नेताजी की मूर्ति पर चश्मा दिखाई नहीं दिया। उस दिन अधिकांश बाजार बंद था। अगली बार फिर हालदार साहब वहाँ से गुज़रे, तो उन्हें नेताजी की मूर्ति पर चश्मा दिखाई नहीं दिया। हालदार साहब ने पानवाले से पूछा कि नेताजी का चश्मा कहाँ गया? पानवाले ने उदास होकर बताया कि चश्मे वाला कैप्टन मर गया। हालदार साहब यह सुनकर चले गए। कैप्टन के मरने के बाद हालदार साहब यह सोचने लगे कि उस देश का भविष्य क्या होगा, जिसकी जनता देश का निर्माण करने वालों पर हँसती है। हालदार पंद्रह दिन बाद फिर उस कस्बे से गुजरे। उन्होंने पहले ही सोच लिया था कि वे चौराहे पर रुककर मूर्ति की तरफ़ नहीं देखेंगे। वे नेताजी की बिना चश्मे वाली मूर्ति नहीं देख सकते थे। परंतु जैसे ही वे नेताजी की मूर्ति के सामने से गुजरे, यह देखकर हैरान रह गए कि मूर्ति पर किसी बच्चे द्वारा बनाया सरकंडे का चश्मा रखा हुआ था। हालदार भावुक हो गए। उन्होंने बच्चों की भावना का सम्मान करने के लिए मूर्ति के सामने अटेंशन खड़े होकर नेताजी को प्रणाम किया। कठिन शब्दों के अर्थ : प्रतिमा – मूर्ति। मूर्तिकार – मूर्ति बनाने वाला। बस्ट – छाती। कमसिन – कम उमर का। रियल – असली। आइडिया – विचार। कौतुक – हैरानी, जिज्ञासा। प्रयास – कोशिश। चेंज करना – बदलना। सराहनीय – प्रशंसनीय। लक्षित – बतलाया हुआ, निर्दिष्ट। दुर्दमनीय – जिसका दमन न हो सके। प्रफुल्लता – प्रसन्नता। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 9 संगतकार Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 9 संगतकारJAC Class 10 Hindi संगतकार Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. सबसे पहला योगदान तो उसके माता-पिता और भाई ने दिया। उसके हरियाणा के करनाल में स्थित स्कूल और कॉलेज के शिक्षकों ने उसकी पढ़ाई में योगदान दिया। पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज, चंडीगढ़ ने उसकी शिक्षा में योगदान दिया। नासा ने सफलता प्राप्ति के लिए भरपूर योगदान दिया। न जाने कितने लोगों के योगदान को प्राप्त करके ही वह अपनी मंजिल तक पहुंची थी। योगदान फिर भी मिल जाता है, पर आत्मिक बल और परिश्रम की सबसे अधिक आवश्यकता होती है, तभी प्रसिद्धि की प्राप्ति होती है। प्रश्न 6. प्रश्न 7. रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 8. प्रश्न 9. कार्यक्रम आरंभ होने से पहले ही मंच की साज-सज्जा का दर्शक के मन पर जो स्थाई प्रभाव पड़ता है, उसका सीधा संबंध कार्यक्रम की प्रस्तुति पर होता है। इसलिए मंच सज्जाकार का विशिष्ट महत्व है। ध्वनि व्यवस्था करने वाले इलैक्ट्रीशियन का महत्व भी महत्वपूर्ण है। बिना उचित ध्वनि के कार्यक्रम संभव ही नहीं। पावरकट की स्थिति में जैनरेटर चलाने वाले की उपयोगिता अपने : आप ही दिखाई दे जाती है। किसी नृत्य-कार्यक्रम में मंच के पीछे से भूमिका बाँधने वाले और गायन प्रस्तुत करने वाले सहयोगी की आवश्यकता तो सदा रहती ही है। प्रश्न 10. मंच पर गाते और नृत्य करते कलाकार तो सभी को दिखाई देते हैं और इसलिए उनकी प्रतिभा की पहचान सभी को हो जाती है। लोग उनके लिए वाह-वाह करते हैं; तालियाँ बजाते हैं; उन्हें पुरस्कार देते हैं, पर उनके कार्यक्रम तैयार करने वाले उनके लिए गीत लिखने वाले; उनके संगतकार मंच के अंधेरे में ही छिपे रहते हैं। इसलिए अति प्रतिभावान संगतकार भी लोगों की भीड़ के सामने न आ पाने के कारण मुख्य या शीर्ष स्थान पर नहीं पहुँच पाते। पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. प्रश्न 2. नोटिस संगीत क्लब द्वारा शुक्रवार, 14 सितंबर को विद्यालय के सभागार में सायं 6.00 बजे संगीत संध्या का आयोजन किया जा रहा है। देशभर में ख्याति प्राप्त गायिकाएँ अपनी-अपनी स्वर माधुरी से विद्यालय के प्रांगण को सुवासित करने हेतु इसमें पधार रही हैं। आप अपने माता-पिता के साथ इसमें सादर आमंत्रित हैं। निर्धारित समय से पंद्रह मिनट पहले पहुँचकर आप अपना-अपना स्थान ग्रहण करने का कष्ट करें। डॉ० महीप शर्मा (ख) स्वर सम्राज्ञी कविता कृष्णमूर्ति को देशभर में ही ख्याति प्राप्त नहीं है अपितु इन्होंने विश्वभर में अपनी मधुर आवाज़ से सम्मान प्राप्त किया है। इनका नाम संगीत की पहचान बन चुका है। फ़िल्म संगीत में इनकी अपनी पहचान है। गायन में इनका कोई मुकाबला नहीं है। इनके साथ निपुण और कलावंत संगतकारों की पूरी टीम है। इस सभा में तबले पर हरीश शर्मा, सारंगी पर बेजू, हारमोनियम पर गुरविंद्र सिंह, ढोलक पर अविनाश चावला, मृदंगम पर रामानुज और बाँसुरी पर अखिलेश भट्टाचार्य गायिका का साथ देंगे। यह भी जानें – सरगम – संगीत के लिए सात स्वर तय किए गए हैं। वे हैं-षडज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। इन्हीं नामों के पहले अक्षर लेकर इन्हें सा, रे, गा, म, प, ध और नि कहा गया है। सप्तक – सप्तक का अर्थ है सात का समूह। सात शुद्ध स्वर हैं इसीलिए यह नाम पड़ा। लेकिन ध्वनि की ऊँचाई और निचाई के आधार पर संगीत में तीन तरह के सप्तक माने गए हैं। यदि साधारण ध्वनि है तो उसे ‘मध्य सप्तक’ कहेंगे और ध्वनि मध्य सप्तक से ऊपर है तो उसे ‘तार सप्तक’ कहेंगे तथा यदि ध्वनि मध्य सप्तक से नीचे है तो उसे ‘मंद्र सप्तक’ कहते हैं। JAC Class 10 Hindi संगतकार Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. पठित काव्यांश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए बहुविकल्पी प्रश्नों के उचित विकल्प चुनकर लिखिए – 1. तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला (क) मुख्य गायक जब ऊँचे स्वर में गाता है तो क्या होता है? (ख) जब मुख्य गायक निराश हो जाता है तो उसका साथ कौन देता है? (ग) किसकी आवाज़ में हिचक का भाव छिपा रहता है। (घ) संगतकार द्वारा अपनी आवाज़ को ऊँचा न उठाना क्या है? (ङ) ‘तारसप्तक’ कैसा स्वर है? काव्यबोध संबंधी बहुविकल्पी प्रश्न – काव्य पाठ पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्नों के उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (ख) पैदल चलकर’ से कवि किस ओर संकेत कर रहा है? (ग) मुख्य गायक/गायिका को ढाढ़स कौन बँधाता है? सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती शब्दार्थ संगतकार – मुख्य गायक के साथ गायन करने वाला या कोई वाद्य बजाने वाला। गरज – ऊँची गंभीर आवाज़। प्राचीनकाल – पुराना समय। अंतरा – स्थायी या टेक को छोड़कर गीत का चरण। जटिल – कठिन। तान – संगीत में स्वर का विस्तार। सरगम – संगीत के सात स्वर-सा, रे, ग, म, प, ध, नि। लाँघकर – पार करके। अनहद – परमात्मा से मिलने से पहले भक्त के कान में आने वाली आवाज़। समेटता – इकट्ठा करता। नौसिखिया – जिसने अभी सीखना आरंभ किया हो। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘संगतकार’ से ली गई हैं, जिसके रचयिता श्री मंगलेश डबराल हैं। कवि ने मुख्य गायक के साथ गाने वाले संगतकार की विशिष्टता का वर्णन करते हुए उसके महत्व को प्रतिपादित किया है। व्याख्या : कवि कहता है कि मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी-भरकम गाने के स्वर के साथ संगतकार की काँपती हुई-सी सुंदर और कमज़ोर आवाज़ मिल गई थी। शायद वह संगतकार गायक का छोटा भाई है या उसका कोई शिष्य है। हो सकता है कि वह कहीं दूर से पैदल चलकर संगीत की शिक्षा प्राप्त करने वाला गायक का अभावग्रस्त रिश्तेदार हो। वह संगतकार मुख्य गायक की ऊँची गंभीर आवाज़ में अपनी गूंज युगों से मिलाता आया है। अभावग्रस्त, जरूरतमंद और कमज़ोर सदा से ही निपुण और संपन्न की ऊँची आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाता रहा है। मुख्य गायक जब स्वर को लंबा खींच कर अंतरे की जटिल तानों के जंगल में खो जाता है; संगीत के रस में या संगीत के सुरों की अपनी सरगम की सीमा को पार कर ईश्वरीय आनंद की प्राप्ति में डूब जाता है और उसे अनहद का आनंददायक स्वर आलौकिक आनंद देने लगता है, तब संगतकार ही गीत के स्थायी को सँभाल कर अपने साथ रखता है। गीत को बिखरने से वही रोकता है। ऐसा लगता है, जैसे वही मुख्य गायक के पीछे छूट गए सामान को इकट्ठा कर रहा हो। संगतकार ही उस मुख्य गायक को उसका बचपन याद दिलाता है, जब उसने संगीत को नया-नया सीखना आरंभ किया था और उसने संगीत में निपुणता प्राप्त नहीं की थी। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. भटके स्वर को संगतकार कब सँभालता है और मुख्य गायक पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है? सादव सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. गायक के स्वर को सँभालने में कौन सहायक बनता है? उपमा – रूपक – उत्प्रेक्षा – जैसे समेटता हो ………. हुआ सामान। 2. तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला शब्दार्थ : सप्तक – संगीत के सात शुद्ध स्वर। तारसप्तक – मध्य सप्तक से ऊपर की ध्वनि। उत्साह – जोश। अस्त होना – डूबना, मंद पड़ना। राख जैसा कुछ गिरता हुआ – बुझता हुआ स्वर। ढाढ़स बँधाना – तसल्ली देना, सांत्वना देना। हिचक – झिझक। विफलता – असफलता। मनुष्यता – इंसानियत। प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ (भाग-2) में संकलित कविता ‘संगतकार’ से लिया गया है, जिसके रचयिता श्री मंगलेश डबराल हैं। कवि ने संगतकार के महत्व को प्रस्तुत किया है और माना है कि वह मुख्य गायक के गायन में सहायता ही नहीं देता बल्कि अपनी इंसानियत को भी प्रकट करता है। व्याख्या : कवि कहता है कि मुख्य गायक ऊँचे स्वर में गाता है। तब उसकी आवाज़ मध्य सप्तक से ऊपर उठकर तारसप्तक तक पहुँचती है, तो ध्वनि की उच्चता के कारण उसका गला बैठने लगता है। उसकी प्रेरणा उसका साथ छोड़ने लगती है और उसका उत्साह मंद पड़ने लगता है। उसका स्वर बुझने-सा लगता है और उसे प्रतीत होने लगता है कि वह ठीक प्रकार से गायन नहीं कर पाएगा। वह हतोत्साहित-सा हो जाता है। उसमें जब निराशा का भाव भरने लगता है, तब संगतकार उसे सांत्वना देता है; उसका हौसला बढ़ाता है। इससे मुख्य गायक का स्वर स्वयं ही कहीं से आ जाता है। वह फिर से उच्च स्वर में गाने लगता है। उसकी निराशा समाप्त हो जाती है। कभी-कभी संगतकार वैसे ही मुख्य गायक का साथ दे देता है। वह मुख्य गायक को यह अहसास करवाना चाहता है कि वह अकेला नहीं है। वह उसका साथ देने के लिए उसके साथ है। वह उसे गाकर यह भी बता देता है कि जिस राग को पहले गाया जा चुका है, उसे फिर से गाया जा सकता है। पर उसकी आवाज़ में हिचक का भाव अवश्य छिपा रहता है। उसे यह अवश्य लगता है कि उसे मुख्य गायक से संकेत मिले बिना नहीं गाना चाहिए। ऐसा भी हो सकता है कि वह अपने स्वर को मुख्य गायक के स्वर से ऊँचा उठाने की कोशिश नहीं करना चाहता। संगतकार के द्वारा अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की कोशिश उसकी असफलता नहीं मानी जानी चाहिए, बल्कि इसे तो उसकी इंसानियत समझना चाहिए। वह मनुष्यता के भावों को सामने रखकर और सोच-विचार कर अपने संगीत-गुरु की आवाज़ से अपनी आवाज़ को ऊँचा नहीं उठाना चाहता। उसमें श्रद्धा का भाव है, जो सराहनीय है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण में निहित भाव स्पष्ट कीजिए। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण का भाव स्पष्ट कीजिए। पुनरुक्ति प्रकाश – संदेह – संगतकार Summary in Hindiकवि-परिचय : एक पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित श्री मंगलेश डबराल हिंदी जगत के श्रेष्ठ कवि हैं। इनका जन्म सन 1948 में टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) के काफलपानी गाँव में हुआ था। इनकी शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई थी। दिल्ली आकर ये पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़ गए। इन्होंने हिंदी पेट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम किया। बाद में ये भारत भवन, भोपाल से प्रकाशित होने वाले पूर्वग्रह में सहायक संपादक के पद पर आसीन हुए। इन्होंने इलाहाबाद और लखनऊ में छपने वाले अमृत प्रभात में भी काम किया। सन 1983 में ये जनसत्ता समाचार-पत्र में साहित्य संपादक के पद पर सुशोभित हुए। इन्होंने कुछ समय तक सहारा समय का संपादन कार्य भी किया। आजकल श्री डबराल नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हुए हैं। रचनाएँ – अब तक श्री मंगलेश डबराल के चार काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं; वे हैं-‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’ तथा ‘आवाज़ भी एक जगह। भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, रूसी, स्पानी, जर्मन, पोल्स्की और बल्गारी भाषाओं में भी इनकी कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। कविता के अतिरिक्त साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति से संबंधित विभिन्न विषयों पर भी थे। नियमित रूप से लेखन करते रहे हैं। इनकी साहित्यिक उपलब्धियों पर इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार और पहल सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। इन्होंने केवल कवि के रूप में ही ख्याति प्राप्त नहीं की है, बल्कि एक अच्छे अनुवादक के रूप में भी नाम अर्जित किया है। विशेषताएँ – श्री मंगलेश की कविता में सामंती बोध और पूँजीवादी छल-छद्म का खुलकर विरोध किया गया है। इनकी विद्रोह भावना एक निश्चित दर्शन के स्तर पर व्यक्त हुई है। आज का मानव अधिक संघर्षशील है। उसे सामाजिक, आर्थिक, नैतिक आदि अनेक मोर्चा पर एक साथ संघर्ष करना पड़ता है। वह नई मर्यादाओं की स्थापना करना चाहता है। कवि ने इनकी आवाज़ को अपनी कविता में विशेष स्थान दिया है। इनकी कविता में अनुभूति और रागात्मकता विद्यमान है। इन्होंने पुरानी परंपराओं का विरोध किसी शोर-शराबे के साथ नहीं किया, बल्कि प्रतिपक्ष में एक सुंदर सपना रच कर प्रकट किया है। इनका सौंदर्य बोध सूक्ष्म है। सजग भाषा-दृष्टि इनकी कविता की प्रमुख विशेषता है। इन्होंने नए शब्दों को नए अर्थों के लिए प्रयुक्त किया है। इन्होंने बोलचाल के शब्दों का भी अधिक प्रयोग किया है। इन्होंने छंद विधान को परंपरागत आधार पर स्वीकार नहीं किया बल्कि उसे अपने इच्छित रूप में प्रस्तुत किया है। इन्होंने लय के बंधन का निर्वाह किया है और कुछ कोमल भावनाएँ इन्होंने अपनी कविता में बाँधी हैं। इन्होंने परंपरागत बिंबों की जगह नए बिंबों का निर्माण किया है। इनकी कविता में नए प्रतीकों की बड़ी संख्या है। सार्वभौम प्रतीकों की अपेक्षा इन्हें नए प्रतीकों के प्रति अधिक मोह है। इनकी भाषा पारदर्शी और सुंदर है। कविता का सार : ‘संगतकार’ कविता मुख्य गायक का साथ देने वाले संगतकार के महत्व और उसकी अनिवार्यता की ओर संकेत करती है। मुख्य गायक की सफलता में वह अति महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। संगतकार केवल गायन के क्षेत्र में ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि नाटक, फिल्म, संगीत, नृत्य आदि के लिए भी उपयोगी है। जब कोई मुख्य गायक अपने भारी स्वर में गाता है, तब संगतकार अपनी सुंदर कमजोर कॉपती आवाज से उसे और अधिक सुंदर बना देता है। युगों से संगतकार अपनी आवाज़ को मुख्य गायक के स्वर के साथ मिलाते रहे हैं। जब मुख्य गायक अंतरे की जटिल तान में खो चुका होता है या अपनी ही सरगम को लाँघ जाता है, तब संगतकार हो स्थायी को संभाल कर आगे बढ़ाता है। जैसे वह उसे उसका बचपन याद दिला रहा हो। वही मुख्य गायक के गिरते हुए स्वर को ढाढ़स बँधाता है। कभी-कभी वह उसे यह अहसास दिलाता है कि गाने वाला अकेला नहीं है, बल्कि वह उसका साथ दे रहा है जो राग पहले गाया जा चुका है, वह फिर से गाया जा सकता है। वह मुख्य गायक के समान अपने स्वर मनुष्यता समझना चाहिए। वह ऐसा करके मुख्य गायक के प्रति अपने हृदय का सम्मान प्रकट करता है। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 8 कन्यादान Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 8 कन्यादानJAC Class 10 Hindi कन्यादान Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. (ख) माँ ने बेटी को सचेत करना इसलिए ज़रूरी समझा क्योंकि उसे डर था कि कहीं वह भी अन्य बहुओं की तरह किसी की आग में अपना जीवन न खो दे। उसे किसी भी अवस्था में कमजोर नहीं बनना चाहिए। उसे कष्ट देने वालों के सामने उठ कर खड़ा हो जाना चाहिए। कोमलता नारी का शाश्वत गुण है, पर आज की परिस्थितियों में उसे कठोरता का पाठ अवश्य पढ़ लेना चाहिए ताकि किसी प्रकार की कठिनाई आने की स्थिति में उसका सामना कर सके। प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 6. पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. मैं लौटूंगी नहीं मैं एक जगी हुई स्त्री हूँ शृंगार के लिए पहने गहने उतार दिए हैं। वह जाग चुकी है। उसने अपने देश को आजाद कराने की राह देख ली है। वह अपना सबकुछ छोड़कर आज़ादी की राह पर आगे बढ़ गई है। वह वापस अपने घर नहीं लौटना चाहती। वह आज़ादी प्राप्त करने के लिए अड़ी हुई हैं। इस पंक्ति से स्त्री का क्रोध और मानसिक दृढ़ता का मनोभाव प्रकट हुआ है। उसने ज्ञान की प्राप्ति से ही ऐसा करना सीखा है। JAC Class 10 Hindi कन्यादान Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. पिठित काव्यांश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए बहुविकल्पी प्रश्नों के उचित विकल्प चुनकर लिखिए – कितना प्रामाणिक था उसका दुख (क) कवि ऋतुराज ने किसके दुखों को प्रामाणिक माना है? (ख) माँ को अपनी पुत्री कैसी पूँजी लगती है? (ग) पुत्री स्वभाव से कैसी थी? (घ) पुत्री को क्या पढ़ना नहीं आता था? (ङ) पाठिका किसे कहा गया है? काव्यबोध संबंधी बहुविकल्पी प्रश्न – काव्य पाठ पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्नों के उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (ख) किसके प्रति नारी का आकर्षण स्वाभाविक होता है? (ग) ‘लड़की होने से क्या तार्य है? सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर कितना प्रामाणिक था उसका दुख शब्दार्थ : वक्त – समय। अंतिम पूँजी – आखिरी संपत्ति। सयानी – समझदार। बांचना – पढ़ना। प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘कन्यादान’ से लिया गया है, जिसके रचयिता ऋतुराज हैं। वर्तमान समय में जीवन-मूल्य बदल गए हैं। माँ अपनी बेटी के लिए केवल भावुकता को महत्वपूर्ण नहीं मानती बल्कि अपने संचित अनुभवों की पीड़ा का ज्ञान भी उसे देना चाहती है। वह उसे भावी जीवन का यथार्थ पाठ पढ़ाना चाहती है। व्याख्या : कवि कहता है कि माँ ने अपना जीवन जीते हुए जिन दुखों को भोगा था; सहा था, कन्यादान के समय अपनी बेटी को वह सब समझाना और उसे इसकी जानकारी देना उसके लिए बहुत अधिक आवश्यक था। उसकी बेटी ही उसकी अंतिम संपत्ति थी। जीवन के सारे सुख-दुख वह अपनी बेटी के साथ ही बाँटती थी। चाहे वह बेटी का विवाह कर रही थी, पर अभी उसकी बेटी अधिक समझदार नहीं थी; उसने दुनियादारी को नहीं समझा था। वह अभी बहुत भोली और सीधी-सादी थी। वह दुखों की उपस्थिति को महसूस तो करती थी, लेकिन अभी उसे दुखों को भली-भाँति समझना और पढ़ना नहीं आता था। ऐसा लगता था कि अभी वह धुंधले प्रकाश में जीवन रूपी कविता की कुछ तुकों और कुछ लयबद्ध पंक्तियों को पढ़ना ही जानती थी, पर उनके अर्थ समझना उसे नहीं आता था अर्थात वह दुनियादारी की ऊँच-नीच को अभी भली-भाँति नहीं समझती थी। उसमें इतनी समझदारी नहीं आई थी कि वह दुनिया के भेदभावों को समझ कर स्वयं निर्णय कर सके। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोतर – 1. अवतरण में निहित भावार्थ स्पष्ट कीजिए। सदिय-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण के भाव को स्पष्ट कीजिए। 2. माँ ने कहा पानी में झाँककर शब्दार्थ : रीझना – आकृष्ट होना। आभूषण – गहने। भ्रमों – धोखों। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘कन्यादान’ से ली गई हैं, जिसके रचयिता ऋतुराज हैं। कवि ने आधुनिक युग में समाज में आए परिवर्तनों के आधार पर विवाह के समय माँ की ओर से बेटी को शिक्षा दी है; उसे सचेत किया है। आज के बदलते समाज में कोरे आदर्शों की कमजोरी का कोई महत्व शेष नहीं बचा है। व्याख्या : कवि के अनुसार माँ कन्यादान के समय अपनी लड़की को समझाते हुए कहती है कि पानी में झाँककर अपने चेहरे की सुंदरता की ओर केवल निहारते न रहना। केवल अपनी सुंदरता और बनाव-श्रृंगार की ओर ध्यान देना तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है, बल्कि परछाई दिखाने वाले उस पानी की गहराई के बारे में जान लेना आवश्यक है। जो पानी परछाई दिखाता है और सुंदरता के प्रति तुम्हें आकर्षित करता है, वह डूबने पर मृत्यु का कारण भी बन सकता है; उससे सावधान रहना। आग केवल रोटियाँ सेंकने के लिए होती है। वह जलने और जलकर मर जाने के लिए नहीं होती, इसलिए उसका शिकार न बनना। नारी जीवन को भ्रम में डालने वाले तरह-तरह के वस्त्र और गहने हैं। ये शाब्दिक धोखे हैं, जो स्त्री को जीवन में बाँध देने के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं। माँ ने अपनी लड़की को समझाते हुए कहा कि तुम लड़की बने रहना, पर कभी भी लड़की की तरह दिखाई न देना; सजग और सचेत रहना। समाज में व्याप्त परिवर्तनों को भली-भाँति समझना। यह संसार निर्मम है, इसलिए उसे भली-भाँति समझना। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण में निहित भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. कवि ने नारी को किनके प्रति सचेत किया है ? कन्यादान Summary in Hindiकवि-परिचय : आधुनिक युगबोध और यथार्थ के कवि ऋतुराज की नई कविता के क्षेत्र में विशिष्ट पहचान है। इनका जन्म सन 1940 में राजस्थान के भरतपुर में हुआ था। इन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। इन्होंने अध्ययन-अध्यापन को ही आजीविका का साधन बनाया था। चालीस वर्ष तक अंग्रेजी साहित्य पढ़ने-पढ़ाने के बाद अब ये सेवा-निवृत्त होकर जयपुर में रहते हैं। इन्होंने हिंदी कविता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है और अब तक इनकी आठ रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उनमें से प्रमुख हैं – एक मरणधर्मा और अन्य, पुल पर पानी, सुरत निरत, लीला मुखारविंद। साहित्य सेवा के लिए इन्हें सोमदत्त परिमल सम्मान, मीरा पुरस्कार, पहल सम्मान और बिहारी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। साहित्यिक विशेषताएँ – ऋतुराज ने अपनी कविता में आज के मानव की दशा को प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। इनकी कविता आधुनिकता, सामाजिक दायित्व, स्वाभिमान और विश्व-बंधुत्व की प्राप्ति से आलोकित है। इन्होंने न तो किसी को धूल बनाने की कोशिश की है और न ही हवा में ऊपर उठाने की। कवि अत्यंत सहज भाव से अन्याय, दमन, शोषण और रूढ़िग्रस्त जर्जर संस्कारों से जूझना चाहता है। कहीं-कहीं कवि की विद्रोह- भावना व्यक्त हुई है। कवि ने आज के मानव के संघर्ष को कविता में स्थान दिया है। वह नई मर्यादाओं की स्थापना के लिए आगे बढ़ने में विश्वास रखता है। उसने उन लोगों को अपनी कविता का आधार बनाया है, जिन्हें समाज में अधिक महत्व प्राप्त नहीं हुआ। ऋतुराज ने बड़ी-बड़ी दार्शनिक बातों को कहने की जगह दैनिक जीवन के अनुभव का यथार्थ प्रकट किया है। वे अपने आस-पास रोजमर्रा में घटित होने वाले सामाजिक शोषण और विडंबनाओं पर दृष्टि डालते हैं। इन्होंने परंपराओं से हटकर नए मूल्यों की स्थापना करने का प्रयत्न किया है। इनकी कविताओं में कोरी भावुकता नहीं है, बल्कि ये यथार्थ का दर्शन करने में सक्षम हैं – माँ ने कहा पानी में झाँककर कवि ने कृत्रिम भाषा का प्रयोग नहीं किया है। इनकी भाषा अपने वातावरण और लोक जीवन से जुड़ी हुई है। इन्होंने बिंबों का सजीव चित्रण किया है। इनकी भाषा में तत्सम और तद्भव शब्दावली का सहज समन्वित प्रयोग दिखाई देता है। कविता का सार : कवि ने ‘कन्यादान कविता में माँ-बेटी के आपसी संबंधों की घनिष्ठता को प्रतिपादित करते हुए नए सामाजिक मूल्यों को परिभाषित करने का प्रयत्न किया है। माँ अपनी युवा होती बेटी के लिए पहले कुछ और सोचती थी, पर सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन के कारण अब कुछ और सोचती है। पहले उसके मन में कुछ अलग तरह के डर के भाव छिपे हुए थे, पर अब उनकी दिशा और मात्रा बदल गई है। इसलिए वह अपनी बेटी को परंपरागत उपदेश नहीं देना चाहती। उसके आदर्शों में भी परिवर्तन आ गया है। बेटी ही माँ की अंतिम पूँजी होती है, क्योंकि वह उसके दुख-सुख की साथी होती है। बेटी अभी पूरी तरह से बड़ी नहीं हुई। वह भोली-भाली और सरल है। उसे सुखों का आभास तो होता है, पर उसे जीवन के दुखों की ठीक से पहचान नहीं है। वह धुंधले प्रकाश में कुछ तुक और लयबद्ध पंक्तियों को पढ़ने का प्रयास मात्र करती है। माँ ने उसे समझाते हुए कहा कि उसे जीवन में संभलकर रहना पड़ेगा। वह अपनी बेटी को पानी में झाँककर अपने ही चेहरे पर न रीझने और आग से बचकर रहने की सलाह देती है। आग रोटियाँ सेंकने के लिए होती है, न कि जलने के लिए। वस्त्रों और आभूषणों का लालच उसे जीवन के बंधन में डालने का कार्य करता है। माँ ने कहा कि उसे लड़की की तरह दिखाई नहीं देना चाहिए। उसे सजग, सचेत और दृढ होना चाहिए। जीवन की हर स्थिति का निर्भयतापूर्वक डटकर सामना करना आना चाहिए। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 7 छाया मत छूना Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 7 छाया मत छूनाJAC Class 10 Hindi छाया मत छूना Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 8. उपहार भी एक से बढ़कर एक थे। मैं खुशी से झूम उठा। आज भी मुझे वह घटना ऐसी लगती है, जैसे उसे घटित हुए कुछ ही देर हुई हो। मैं इस घटना को कभी नहीं भूल सकता। एक बार मैं पैदल स्कूल जा रहा था। एक नन्हा-सा पिल्ला मेरे पीछे-पीछे चलने लगा। मुझे उसका अपने पीछे आना अच्छा लगा। जब मैं स्कूल पहुँच गया, तो स्कूल के चौकीदार ने उसे भगा दिया। छुट्टी के बाद जैसे ही मैं बाहर निकला, वैसे ही न जाने कहाँ से वह भागता हुआ आया और फिर मेरे पीछे-पीछे मेरे घर तक आया। यह क्रम अगले दिन भी चला। इसके बाद महीना भर मेरा और उसका स्कूल जाना-आना एक साथ हुआ। इसके बाद मुझे नहीं पता कि अचानक वह पिल्ला कहाँ चला गया। मैंने उसे ढूँढ़ने की कोशिश की, पर फिर वह मुझे कहीं दिखाई नहीं दिया। इस घटना को अनेक वर्ष बीत चुके हैं, पर मुझे उसकी मधुर स्मृति कभी नहीं भूलती। प्रश्न 9. ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’ प्राय: माना जाता है कि धन सबसे कीमती वस्तु है, पर यदि ध्यान से सोचा जाए तो समय धन से भी अधिक उपयोगी और मूल्यवान है। धन से हर वस्तु खरीदी जा सकती है, पर समय नहीं खरीदा जा सकता। यह घड़ी की टिक-टिक के साथ भागता जाता है। यदि किसी बीमार व्यक्ति को समय पर उपचार न मिले, तो उसका जीवन नहीं बचाया जा सकता। यदि समय पर विद्यार्थी पढ़ाई न करें, तो वे परीक्षा में पास नहीं हो सकते। यदि किसान समय पर अपने खेत की सिंचाई न करे, तो उसे उपज प्राप्त नहीं हो सकती। रेलगाड़ी, बस, वायुयान आदि किसी के लिए प्रतीक्षा नहीं करते। समय चूक जाने पर वे अपने गंतव्य की ओर चले जाते हैं। यदि किसी उपलब्धि की हमें समय के बाद प्राप्ति हो भी जाती है, तो उसका कोई उपयोग नहीं रहता। फ़सल के सूख जाने के बाद वर्षा हो भी जाए तो उसका क्या लाभ? हमें चाहिए कि हम हर कार्य उचित समय पर ही करें, ताकि इससे समय की उपलब्धि की उपादेयता बनी रहे। पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. तुम्हें याद होगा कि मैंने अपने एक मित्र से तुम्हारा परिचय करवाया था, जब तुम पिछली छुट्टियों में घर आए थे। उसका नाम कपिल था। वह मेरी ही कक्षा में पढ़ता था और प्रायः मेरे घर आया करता था। वह होस्टल में रहता था। उसके माता-पिता किसी दूर के गाँव मम्मी-पापा उसे अपने बेटे के समान ही प्यार करते थे। यदि मेरे लिए वे बाजार से कुछ लाते थे, तो उसके लिए लाना नहीं भूलते थे। कहते थे कि कितना होनहार बच्चा है! होशियार है, मीठा बोलता है, भोला-भाला है। पिछले सप्ताह उसने अपने गाँव के कुछ लोगों के साथ मिलकर हमारे घर में चोरी कर ली। हमारा लगभग पाँच लाख रुपये का नुकसान हो गया है। उसे हमारे घर की एक-एक चीज़ पता थी। लगभग हर रोज़ वह हमारे घर आता था। अगले महीने रीमा दीदी की शादी है, इसलिए घर में उसके दहेज का नया सामान था; नकदी थी। वह सब चोरी चला गया। हमें तो विश्वास ही नहीं हुआ, जब पुलिस ने उसे उसके गाँव से पकड़कर हमारे सामने खड़ा कर दिया। उसने अपना अपराध
कबूल कर लिया है, पर न तो उसके साथी पुलिस की पकड़ में आए हैं और न ही हमारा सामान बरामद हुआ। शायद हमारा सामान हमें वापस मिल जाए। उसकी शक्ल कितनी भोली थी, पर वह मन का कितना काला निकला! सच है कि हम लोगों के बारे में सोचते कुछ हैं, वे निकलते कुछ हैं। अच्छा, बाकी बातें अगली बार। प्रश्न 2. यह भी जानें – प्रसिद्ध गीत ‘We shall overcome’ का हिंदी अनुवाद ‘हम होंगे कामयाब’ शीर्षक से कवि गिरिजाकुमार माथुर ने किया है। सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. छाया मत छूना शब्दार्थ : छाया – भ्रम, दुविधा, पुरानी सुखद बातें। दूना – दोगुना। सुरंग – रंग-बिरंगी। सुधियाँ – यादें। सुहावनी – सुंदर। छवियों की चित्रगंध – चित्र की स्मृति के साथ उसके आस-पास की गंध का अनुभव। मनभावनी – मन को अच्छी लगने वाली। तन-सुगंध – शरीर की सुगंध। शेष – बाकी, पीछे। यामिनी – तारों भरी चाँदनी रात। कुंतल – लंबे बाल। छुअन – स्पर्श। प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य–पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता छाया मत छूना से लिया गया है, जिसके रचयिता गिरिजाकुमार माथुर हैं। कवि ने पुरानी सुखद बातों को बार-बार याद करने को उचित नहीं माना, क्योंकि ऐसा करने से जीवन में आए दुख दोगुने हो जाते हैं। व्याख्या : कवि कहता है कि हे मेरे मन! तू पुरानी सुख भरी यादों को बार-बार अपने मन में मत ला; उन्हें याद मत कर। ऐसा करने से मन में छिपा दुख बढ़कर दोगुना हो जाएगा। हम मनुष्यों के जीवन में न जाने कितनी सुख भरी यादें होती हैं। वे सुखद रंग-बिरंगी छवियों की झलक और उनके आस-पास मधुर यादों की गंध सदा मन को मोहती हैं। वे सदा अच्छी लगती हैं। जब सुखद समय बीत जाता है, तब केवल शरीर की मादक-मोहक सुगंध ही यादों में शेष रह जाती है। जब तारों से भरी सुखद चाँदनी रात बीत जाती है, तब यादें शेष रह जाती हैं। लंबे सुंदर बालों में लगे फूलों की याद ही चाँदनी के समान मन में छाई रहती हैं। सुख भरे समय में भूल से किया गया एक स्पर्श भी जीवित क्षण के समान सुंदर और मादक प्रतीत होता है। उसे भुलाने की बात मन में कभी नहीं आती। वही सुखद पल जीवन के लिए सुखदायी बनकर मन में छिपा रहता है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण में निहित भावार्थ को स्पष्ट कीजिए। बोर्ड परीक्षा में पूछे गए प्रश्नोत्तर – (क) ‘छाया मत छूना’-कवि ने ऐसा क्यों कहा? सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. भाव स्पष्ट कीजिए। उपमा – 2. छाया मत छूना शब्दार्थ : वैभव – संपदा, धन-दौलत, संपत्ति। सरमाया – पूँजी। प्रभुता का शरणे बिंब – बड़प्पन का अहसास। भरमाया – भ्रम में पड़ना। मृगतृष्णा – भ्रम, धोखा। चंद्रिका – चाँदनी। कृष्णा – काली, अमावस्या। यथार्थ – वास्तविक। कठिन – मुश्किल। पूजन – पूजा। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘छाया मत छूना’ से ली गई हैं, जिसके रचयिता श्री गिरिजाकुमार माथुर हैं। कवि का मानना है कि जीवन में दुख और सुख तो आते रहते हैं, पर दुख की घड़ियों में सुखों को याद नहीं करना चाहिए। व्याख्या : कवि कहता है कि हे मेरे मन! जीवन में आने वाले दुखों के समय छायारूपी सुख को मत छूना, क्योंकि इससे दुख कम नहीं होता बल्कि वह दोगुना बढ़ जाता है। मेरे जीवन में न तो शान-शौकत है और न ही धन-दौलत; न तो मान-सम्मान है और न ही किसी प्रकार की पूँजी। श्रेष्ठता और प्रभुता की प्राप्ति की इच्छा केवल धोखे के पीछे भागना है। जो नहीं है, उसे प्राप्त करने की इच्छा है। हर सुख के पीछे दुख छिपा होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे चाँदनी रात के पीछे अमावस्या की अंधेरी रात छिपी रहती है। हे मेरे मन! जो अति कठिन सच्चाई है; वास्तविकता है, तू उसकी पूजा कर। उसे प्राप्त करने का प्रयत्न कर। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण में निहित भावार्थ स्पष्ट
कीजिए। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. भाव व्यक्त कीजिए। तद्भव – 9. छायावादी। 10. अनुप्रास – 11. (i) रात कृष्णा – (ii) छाया – (ii) चंद्रिका – (iv) मृगतृष्णा – (v)
दौड़ना – (vi) कृष्णा – 3. छाया मत छूना शब्दार्थ : दुविधा-हत साहस – साहस होते हुए भी दुविधा-ग्रस्त रहना। पंथ – रास्ता। शरद-रात – सर्दियों की रात। भविष्य वरण – आने वाले समय के सुखों का चुनाव। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘छाया मत छूना’ से ली गई हैं, जिसके रचयिता श्री गिरिजाकुमार, माथुर हैं। कवि ने प्रेरणा दी है कि पुराने सुखों की याद में हर पल डूबे रहना उचित नहीं है। इससे जीवन में दुखों की छाया बढ़ती है। परिश्रम करते हुए भविष्य को सँवारने की चेष्टा करना ही सदा अच्छा होता है। व्याख्या : कवि कहता है कि हे मेरे मन ! दुख और निराशा की घड़ियों में बीते हुए सुखों को याद मत कर। ऐसा करने से वर्तमान के दुख बढ़ जाते हैं। हम अपने जीवन में अकारण ही निराशा के भावों से भरे रहते हैं। साहस होते हुए भी दुविधा से ग्रस्त रहते हैं। हमें अपने जीवन की राह दिखाई नहीं देती। भौतिक धन-दौलत से हम शारीरिक सुख-उपभोग तो प्राप्त कर लेते हैं, पर हमारे मन में व्याप्त दुखों का अंत नहीं होता। हमारे मन में दुख के भाव इतने अधिक हैं कि सुखों के आने का पता ही नहीं चलता। शरद् ऋतु के साफ़-स्वच्छ आकाश में रात के समय चाँदरूपी सुख की चाँदनी दिखाई ही नहीं देती। मन की निराशा उसे प्रकट नहीं होने देती। बसंत ऋतु बीत जाने पर यदि फूल खिला भी, तो उसका क्या लाभ। भाव है कि किसी सुख के बीत जाने पर यदि उसका आभास हुआ भी, तो उसका कोई लाभ नहीं है। हे मन! तुम्हें जो जीवन में अभी तक नहीं मिला उसे भविष्य में प्राप्त कर; परिश्रम कर और सुख-दुख से दूर होकर मनचाहा प्राप्त कर। तू दुख की घड़ियों में सुख के क्षणों को याद मत कर। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण में निहित भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. भाव स्पष्ट कीजिए। तद्भव – 10. चाँद, शरद-रात, फूल, बसंत, छाया। प्रश्न – JAC Class 10 Hindi छाया मत छूना Important Questions and Answersप्रश्न 1. जीवन में सुख दुख आते हैं, लेकिन दुख की घड़ियों में हम सुखों को याद करके अपनी पीड़ा को बढ़ा लेते हैं। जीवन में केवल मधुर सपने नहीं हैं, इसमें कठोरता भी बसती है। हमें पुरानी बातों को भुलाकर मज़बूत कदमों से भविष्य की ओर बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए। क्या हुआ जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर? जो न मिला भूल उसे कर तू भविष्य वरण। जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम अपने लक्ष्य की ओर दृष्टि जमाए रखें और आगे बढ़ते जाएँ, न कि पिछले सुखों को याद कर आँसू बहाते रहे। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. पिठित काव्यांश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए बहुविकल्पी प्रश्नों के उचित विकल्प चुनकर लिखिए – 1. छाया मत छूना (क) दुख के समय में किन यादों से मन और दुखी हो जाता है? (ख) कवि का जीवन कैसा है? (ग) प्रभुता की इच्छा क्या है? (घ) ‘हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है’ से कवि का क्या तात्पर्य है? (ङ) कवि किसकी पूजा के लिए प्रेरित करता है? काव्यबोध संबंधी बहुविकल्पी प्रश्न – काव्य पाठ पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्नों के उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (क) ‘छाया’ से कवि का क्या तात्पर्य है? (ख) ‘चाँदनी’ किसका प्रतीक है? (ग) ‘यामिनी बीतने’ से कवि का क्या तात्पर्य है? (घ) कवि को क्या नहीं दिखाई देता? छाया मत छूना Summary in Hindiकवि-परिचय : गिरिजाकुमार माथुर आधुनिक युग के प्रतिभा-संपन्न रचनाकार थे। ये प्रमुख रूप से प्रयोगवादी कवि माने जाते हैं, लेकिन इनकी कविताएँ मात्र प्रयोग के लिए न होकर जीवन की यथार्थ अनुभूति के चित्रण के लिए हैं। कोमलता एवं मधुरता के प्रति आकर्षक होने के कारण माथुर जी की कविता में छायावादी शैली का सौंदर्य भी प्राप्त होता है। माथुर जी का जन्म मध्यप्रदेश राज्य के गुना नामक स्थान पर सन 1918 ई० में हुआ था। इनके पिता ब्रज भाषा के प्रसिद्ध कवि थे। परिवार का स्तर साधारण था। यही कारण है कि इनकी कविताओं एवं नाटकों में प्रायः सामान्य स्तर के जीवन का ही चित्रण रहता है। इनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर हुई। इन्होंने एम०ए०, एल०एल०बी० तक शिक्षा प्राप्त की। माथुर जी ने झाँसी में रहकर आकाशवाणी में भी कार्य किया। वे दूरदर्शन से भी संबंधित रहे। सन 1994 ई० में इनका निधन हो गया। माथुर जी में कविता लिखने की प्रतिभा जन्मजात थी। पहले यह प्रतिभा कविता पढ़ने की अत्यधिक रुचि के रूप में प्रकट हुई। बाद में इन्होंने केवल 13 वर्ष की आयु में ही कविता लिखनी आरंभ कर दी। इनकी प्रमुख रचनाएँ मंजीर, नाश और निर्माण, धूप के दान, भीतरी नदी की यात्रा, शिलापंख चमकीले हैं। ‘पृथ्वी-कल्प’ इनका प्रतीकात्मक नाट्य-काव्य, जन्म कैद नाटक तथा नई कविता सीमाएँ और संभावनाएँ इनके द्वारा लिखित आलोचनात्मक रचनाएँ हैं। माथुर जी ने रेडियो फ़ीचर, गीति नाट्य और प्रतीकात्मक नाटकों की भी रचना की है। माथुर जी एक भावुक कलाकार हैं। इनकी रचनाओं में व्यक्तिगत अनुभूतियों की बहुलता है। सरसता, मधुरता, सौंदर्य और प्रेम के प्रति आकर्षण इनकी कविताओं की अन्य प्रमुख विशेषताएँ हैं। इनकी कुछ कविताओं में यथार्थपरक दृष्टि का भी उन्मेष है। जीवन के कटु और मधुर रूप का भी चित्रण है। इनकी कविता पर छायावाद का स्पष्ट प्रभाव है। इन्होंने रोमांस और संताप के भावों को अपनी कविता में स्थान दिया है। इन्होंने संवेदना और पीड़ा के भावों को महत्वपूर्ण माना है। इनमें प्रकृति के प्रति विशेष लगाव-सा है। मानवीकरण करते हुए इन्होंने प्रकृति से संबंधित अनेक चित्र बनाए हैं कंटकित बेरी करौंदे, महकते हैं झाब झोरे। सुन्न हैं, सागौन वन के, कान जैसे पात चौड़े॥ दूह, टीले टौरियों पर, धूप-सूखी घास भूरी। हाड़ टूटे देह कुबड़ी, चुप पड़ी है गैल बूढ़ी॥ कवि ने अपनी कविता में स्थान-स्थान पर आँचलिक शब्दावली का सहज-स्वाभाविक प्रयोग किया है। इन्होंने विषय की मौलिकता को बनाए रखने के लिए विशेष वातावरण की सृष्टि की है। इन्होंने मुक्त छंद में ध्वनि साम्य के प्रयोग के कारण तुक के बिना भी कविता में संगीतात्मकता को उत्पन्न किया है। उनकी कविताओं में भाषा के दो रंग विद्यमान हैं। जहाँ रोमानी कविताओं में ये छोटी-छोटी ध्वनि वाले शब्दों का प्रयोग करते हैं, वहाँ क्लासिक स्वभाव वाली कविताओं में लंबी और गंभीर ध्वनि वाले शब्दों को महत्व देते हैं। इनकी भाषा प्रयोगवादी कविता के लिए अनुकूल है। इन्होंने नए प्रतीकों, बिंबों और उपमानों का प्रयोग किया है। इन्होंने देशी-विदेशी शब्दों का भी खुलकर प्रयोग किया है हाँडियाँ, मचिया, कठौते, लट्ठ, गूदड़, बैल, बक्खर। राख, गोबर, चरी, औंगन, लेज, रस्सी, हल, कुल्हाड़ी। सूत की मोटी फताई, चका, हंसिया और गाड़ी। कवि की भाषा सहज और सरल है। उसमें सरसता विद्यमान है। कवि ने जहाँ भी अलंकारों का प्रयोग किया है, वे अति स्वाभाविक है। वर्णनात्मक शैली से इन्हें विशेष लगाव है। कविता का सार : छाया मत छूना कविता मानव-जीवन के संदर्भो से जुड़ी हुई है। हमारे जीवन में सुख आते हैं, तो दुख भी अपने रंग दिखाते हैं। मनुष्य को सुख अच्छे लगते हैं, तो दुख परेशान करने वाले। व्यक्ति पुराने सुखों को याद करके वर्तमान के दुखों को और अधिक बढ़ा लेते हैं। कवि की दृष्टि में ऐसा करना उचित नहीं है। इससे दुखों की मात्रा बढ़ जाती है। सुख हमें सदा अच्छे लगते हैं। उनके द्वारा मिली प्रसन्नताएँ मन पर देर तक छायी रहती हैं। प्रेम भरे क्षण भुलाने की कोशिश करने पर भी भूलते नहीं हैं। लेकिन मनुष्य सुखों के पीछे जितना अधिक भागता है, उतना ही अधिक भ्रम के जाल में उलझता जाता है। हर सुख के बाद दुख अवश्य आता है। हर चाँदनी के बाद अमावस्या भी छिपी होती है। मनुष्य को जीवन की वास्तविकता को समझना चाहिए; उसे स्वीकार करना चाहिए। मनुष्य के मन में छिपा साहस का भाव जब छिप जाता है, तो उसे जीवन की राह दिखाई नहीं देती। मानव मन में छिपे दुखों की सीमा का तो पता ही नहीं है। हर व्यक्ति को जीवन में सबकुछ नहीं मिलता। जो हमें वर्तमान में प्राप्त हो गया है, हमें इसी में संतुष्ट होना चाहिए। जो अभी प्राप्त नहीं हुआ, उसे भविष्य में प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन पुरानी यादों से स्वयं को चिपकाए रखने का कोई लाभ नहीं है। उनसे दुख बढ़ते हैं, घटते नहीं। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 6 यह दंतुरहित मुस्कान और फसल Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 6 यह दंतुरहित मुस्कान और फसलJAC Class 10 Hindi यह दंतुरहित मुस्कान और फसल Textbook Questions and Answers1. यह दंतुरित मुसकान प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. वह उसकी मोहक ‘दंतुरित मुसकान’ पर मंत्र-मुग्ध है। बच्चा उसे पहचानना चाहता है, पर पहचान नहीं पाता। उसने कवि को पहली बार देखा है, इसलिए वह कनखियों से अतिथि को देखकर मुस्कराता है। कवि को लगता है कि इस बच्चे की मुसकान पत्थर को भी पिघला देने की क्षमता रखती है। कठोर-से-कठोर व्यक्ति भी इसकी मोहक मुसकान पर स्वयं को न्योछावर कर सकता है। पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. वह मुस्कराई अवश्य, पर वहाँ से आगे नहीं बढ़ी। मैं अपनी जगह से उठकर जैसे ही उसकी तरफ़ बढ़ी, वह झट से भीतर भाग गई। मैं वापस अपनी जगह पर आकर बैठ गई। कुछ देर बाद मैंने फिर उधर देखा, तो वह वहीं खड़ी थी। मेरी सहेली ने उसे बुलाया, तो वह हमारे पास आ गई। मैंने उसे पुचकारा; उसका नाम पूछा। वह चुप रही; बस धीरे-धीरे मुस्काती रही। मैंने उससे पूछा कि क्या उसे गाना आता है, तो उसने हाँ में सिर हिलाया और फिर धीरे से पूछा कि क्या वह गाना सुनाए? मेरे हाँ कहने के बाद उसने गाना शुरू किया और एक के बाद एक न जाने कितनी देर तक वह आधे-अधूरे गाने गाती रही; ठुमकती रही। उसकी झिझक दूर हो गई थी। जब मैं चलने लगी, तो वह मेरी उँगली थाम कर मेरे साथ चलने को तैयार थी। कुछ देर पहले मुझसे शर्माने और झिझकने वाली सलोनी अब मेरे साथ थी। उसके चेहरे पर झिझक के भाव नहीं थे; उसके व्यवहार में भय नहीं था। वह बहुत मीठा और अच्छा बोलती थी। प्रश्न 2. 2. फसल प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. रचमा और अभिव्यक्ति – प्रश्न 5. (ख) वर्तमान जीवन-शैली मिट्टी को प्रदूषित कर रही है। जाने-अनजाने तरह-तरह के रासायनिक पदार्थ इसमें मिलाए जाते हैं, जिस कारण इसके गुण बदल जाते हैं। उद्योग-धंधे और प्रदूषित जल इसे बिगाड़ रहे हैं । तरह-तरह के कीटनाशक इसे खराब कर रहे हैं। इनके प्रयोग से भले ही हमें फसल कुछ अधिक प्राप्त हो जाती है, पर इससे मिट्टी की प्रकृति बदल रही है। (ग) मिट्टी के अपने स्वाभाविक गुण-धर्म को छोड़ देने से जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि मिट्टी फसल उगाने का गुण-धर्म त्याग दे, तो हमारा जीवन असंभव-सा हो जाएगा क्योंकि सभी प्राणियों का जीवन फसल पर ही निर्भर करता है। (घ) मिट्टी के गुण-धर्म को पोषित करने में हमारी भूमिका अति महत्वपूर्ण हो सकती है। हम इसे प्रदूषित होने से बचा सकते हैं। इसमें मिलाए जाने वाले रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, खरपतवार नाशियों के स्थान पर हम प्राकृतिक पदार्थों का प्रयोग कर सकते हैं। इसमें मिलने वाले औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों की रोकथाम कर सकते हैं। पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. विषय : सुदृढ़ कृषि-व्यवस्था हेतु सुझाव मान्यवर, सुदृढ़ कृषि-व्यवस्था के लिए खेती योग्य अधिकतर भूमि पर हमें फसल उगाने की योजनाएँ बनानी चाहिए। परंपरागत पद्धति को त्यागकर वैज्ञानिक आधार पर खेती करनी चाहिए। हमें समझना होगा कि हर खेत की मिट्टी एक-सी फसल उगाने योग्य नहीं होती। इसलिए कृषि-संस्थानों से मिट्टी की परख करवाकर हमें जान लेना चाहिए कि वह किस प्रकार की फसल के लिए अधिक उपयोगी है। यदि उसमें किसी विशेष तत्व की कमी है, तो उसे रासायनिक पदार्थों के प्रयोग से पूरा करना चाहिए। हमें फसल के लिए उन्नत और संकरण से प्राप्त बीज ही बोने चाहिए, जो कृषि-संस्थानों से प्राप्त हो जाते हैं। समय-समय पर मान्यता प्राप्त खरपतवार नाशियों और कीटनाशियों का प्रयोग करना चाहिए। सिंचाई के लिए परंपरागत तरीके छोड़कर स्पिंरकरज़ का प्रयोग करना चाहिए। इससे सारे खेत की सिंचाई एक समान होती है। उर्वरकों के साथ-साथ कंपोस्ट और वर्मीकंपोस्ट का प्रयोग करना चाहिए। इससे फसल की प्राप्ति अच्छी होती है। सुदृढ़ कृषि-व्यवस्था के अंतर्गत फूलों की खेती की ओर भी ध्यान देना चाहिए। वर्षभर में केवल दो फसलों पर निर्भर न रहकर तीन-चार अंतराफसलें प्राप्त करनी चाहिए। कीटनाशियों के उचित प्रयोग से भी हम अपनी फसलों को नष्ट होने से बचा सकते हैं। आशा है कि आप अपने प्रतिष्ठित समाचार-पत्र में इन सुझावों को अवश्य स्थान देंगे। प्रश्न 2. JAC Class 10 Hindi यह दंतुरहित मुस्कान और फसल Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12 प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. पठित धनाश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए बहुविकल्पी प्रश्नों के उचित विकल्प चुनकर लिखिए – 1. तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान (क) प्रस्तुत काव्यांश में कवि किसे संबोधित कर रहा है? (ख) बच्चे का अंग-प्रत्यंग कैसा है? (ग) बच्चे की मुसकान किसका संदेश देती है? (घ) कवि के अनुसार कठिन पाषाण किस प्रकार पिघला होगा? (ङ) बच्चे के स्पर्श से कौन-से फूल झड़ने लगेंगे? 2. हजार-हज़ार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म फसल क्या है? (ख) फसल किसका जादू है? (ग) फसल किसके स्पर्श की महिमा है? (घ) कवि ने मिट्टी की किन विशेषताओं को प्रकट किया
है? (ङ) फसल किसका रूपांतर है? काव्यबोध संबंधी बहुविकल्पी प्रश्न – काव्य पाठ पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्नों के उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (क) कवि और बच्चे के बीच का माध्यम कौन है? (ख) ‘मधुपर्क’ किसका प्रतीक है? (ग) कवि के अनुसार फसल क्या है? (घ) फसल को थिरकना कौन सिखाता है? यह दंतुरहित मुस्कान और फसल Summary in Hindiकवि-परिचय : वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’ जो ‘नागार्जुन’ के नाम से विख्यात हुए, हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध प्रगतिशील कवि एवं कथाकार हैं। आधनिक कबीर के रूप में विख्यात नागार्जन घुमंत व्यक्ति थे। इनका जन्म 1911 में बिहार के दरभंगा जिले के सतलखा गाँव में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय संस्कृत पाठशाला में हुई थी। बाद में ये संस्कृत अध्ययन के लिए बनारस और कोलकाता भी गए। सन 1936 में नागार्जुन अध्ययन के लिए श्रीलंका गए और वहीं बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए। वर्ष 1938 में वे स्वदेश वापस आ गए। नागार्जुन अपने घुमक्कड़पन और फक्कड़पन के लिए प्रसिद्ध रहे। शिक्षा-प्राप्ति के दौरान उनकी भेंट मैथिली के प्रकांड पंडित सीताराम झा से हुई और उन्होंने उनसे भाषा, छंद, अलंकार आदि का विशेष ज्ञान प्राप्त किया। बनारस में रहते हुए नागार्जुन संस्कृत के साथ-साथ मैथिली में भी साहित्य-रचना करने लगे। बीस वर्ष की अवस्था में नागार्जुन का विवाह हुआ। लेकिन अध्ययन, घुमक्कड़ी और राजनीति में रुचि होने के कारण ये परिवार की देख-रेख नहीं कर सके। नागार्जुन के चार पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं। मैथिल समाज में उन्हें समुचित आदर नहीं मिला; क्योंकि एक तो वे समुद्र पार की यात्रा कर आए थे, दूसरे संन्यास भ्रष्ट थे और तीसरे बौद्ध होने के कारण उनकी खान-पान की पवित्रता नष्ट हो गई थी। वर्ष 1941 में नागार्जुन पुनः घर लौटे। लगभग पाँच दशक तक इन्होंने अनेक हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के बाद 5 नवंबर, 1998 को नागार्जुन का देहांत हुआ। साहित्य-रचना-नागार्जुन ने वर्ष 1935 में हिंदी मासिक ‘दीपक’ में काम किया तथा वर्ष 1942-43 में ‘विश्व बंधु’ साप्ताहिक का संपादन किया। ये अपनी मातृभाषा मैथिली में ‘यात्री’ उपनाम से रचना करते थे। इनके कविता-संग्रह ‘चित्रा’ से मैथिली में नवीन भाव बौद्ध का प्रारंभ माना जाता है। संस्कृत में चाणक्य उपनाम से इन्होंने अनेक कविताएँ लिखीं। वर्ष 1930 से विधिवत लेखन करते हुए नागार्जुन ने हिंदी को महत्वपूर्ण रचनाएँ दीं…’ सतरंगे पंखों वाली’, ‘प्यासी पथराई आँखें’, ‘युगधारा’, ‘तालाब की मछलियाँ’, ‘हज़ार-हजार बाहों वाली’, ‘तुमने कहा था’, ‘पुरानी जूतियों का कोरस’, ‘आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने’, ‘रत्नगर्भा’, ‘ऐसे भी हम क्या, ऐसे भी तुम क्या’, ‘पका है कटहल’, ‘मैं मिलटरी का बूढ़ा घोड़ा’ तथा ‘भस्मांकुर’। नागार्जुन के उपन्यासों में ‘बलचनमा’, ‘रतिनाथ की चाची’, ‘कुंभीपाक’, ‘उग्रतारा’, ‘जमनिया का बाबा’ तथा ‘उग्रतारा’ प्रमुख है। नागार्जुन का संपूर्ण साहित्य सात खंडों में प्रकाशित हो चुका है। सन 1956 में प्रकाशित ‘युगधारा’ में कवि ने अपना परिचय निम्न शब्दों में दिया है – ‘पैदा हुआ था मैं दीन-हीन अपठित किसी कृषक-कुल में काव्य-सौंदर्य – नागार्जुन की कविता राष्ट्रीय-चेतना की कविता है, जिसमें राष्ट्रीय आंदोलनों की धड़कन सुनाई पड़ती है। व्यंग्यात्मकता उनकी कविता का अभिन्न अंग है। ‘प्यासी पथराई आँखें’, ‘हिम कसमों का चंचरीक’ तथा ‘फाहियान के वंशधर’ आदि कविताएँ राष्ट्रीय भावों से ओत-प्रोत हैं। मातृभूमि के प्रति उनका प्रेम निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त हुआ – है ‘भारत माता के गालों पर कसकर पड़ा तमाचा है। नागार्जुन अपनी कविता में वामपंथी विचारधारा को लेकर आए। वे प्रगतिशील जनवादी कवि थे। उन्होंने जनता के सुख-दुख; उसके संघर्ष और कष्ट; उसकी आस्था और जिजीविषा को अपने काव्य में व्यक्त किया है। सामाजिक अन्याय, शोषण, जड़ता, अंधविश्वास, ढोंग, पाखंड आदि के विरोध में नागार्जुन ने बहुत लिखा। नागार्जुन ने ‘पोस्टर कविता’ के रूप में व्यंग्यात्मक राजनीतिक कविताएँ वर्ष 1965 के आपातकाल में लिखीं। राजनीतिक आंदोलनों के कारण ये अनेक बार जेल भी गए। नागार्जुन की कविताओं में गहन राजनीतिक समझ दिखाई देती है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर इन्होंने अनेक रचनाएँ लिखी हैं। मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े होने पर भी इनके काव्य में वैचारिक कट्टरता नहीं है। कवि का ग्रामीण संस्कार भी इनकी कविताओं में व्यक्त हुआ है। नागार्जुन घुमक्कड़ थे, इसलिए देश-विदेश के अनेक सुंदर स्थानों के शब्द-चित्र इनकी कविताओं में हैं। प्रकृति से जुड़ी इनकी कविताएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। ‘बादल को घिरते देखा है’ तथा ‘घन कुरंग’ जैसी कविताएँ बहुत सुंदर हैं। नागार्जुन के काव्य-विषय जीवन से लिए गए हैं, इसलिए रिक्शा खींचते गरीब के पाँवों में फटी बिवाइयाँ भी वहाँ हैं; फटी बनियान और टपकता कटहल भी उनका काव्य विषय बना है। काव्य-भाषा – नागार्जुन की काव्य-भाषा भावों का अनुसरण करती है। तत्सम शब्दावली के साथ तद्भव और देशी-विदेशी शब्द आवश्यकतानुसार प्रयुक्त हुए हैं। मुहावरों का सटीक प्रयोग इनके काव्य की विशेषता है; यथा – वतन बेचकर पंडित नेहरू फूले नहीं समाते हैं। नागार्जुन की कविता बिंबात्मक है। हिरण की तरह उछलते-कूदते बादल का बिंब देखिए – ‘नभ में चौकड़ियाँ भरे भले नागार्जुन ने मधुर गीत भी लिखे हैं और मुक्त छंद में काव्य-रचना भी की है। इन्होंने प्रणय, प्रकृति, राजनीति और देश-प्रेम पर कविताएँ लिखी। हैं। इनकी कविताओं का स्वर मानवतावादी है। प्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा के शब्दों में-“इनकी कविताएँ दिल पर चोट करने वाली हैं; कर्तव्य की याद दिलाने वाली हैं और राह दिखाने वाली भी हैं।” नागार्जुन मित्रों के लिए नागा बाबा थे। समाज, राजनीति, धर्म तथा साहित्य में एक साथ संघर्ष करने वाला हिंदी का यह कवि अद्भुत था, क्योंकि कवि के विवेक पर यह किसी तरह का बंधन स्वीकार नहीं करता था। नागार्जुन मानते थे कि पार्टी देश और समाज से बड़ी नहीं होती, इसलिए वामपंथियों ने इन्हें अंततः ठुकरा दिया। वर्ष 1962 में इन्होंने ० चीन विरोधी कविताएँ लिखीं और वर्ष 1965 में आपातकाल विरोधी कविताएँ लिखीं। इन्होंने जय प्रकाश आंदोलन का भी खुलकर साथ दिया था। नागार्जुन कोमल भावनाओं के कवि भी थे। जब संन्यासी जीवन काटकर बरसों बाद गृहस्थ बने, पत्नी की उम्र ढल चुकी थी। उसकी पीड़ा पर कविता लिखी ‘प्रत्यावर्तन’ अर्थात लौटना। इसमें पत्नी की दशा पर लिखा – ‘हृदय में पीड़ा दृगों में लिए पानी। 1. यह दंतुरित मुसकान कविता का सार : कवि किसी ऐसे छोटे बच्चे की मुसकान को देखकर अपार प्रसन्न है, जिसके मुंह में अभी छोटे-छोटे दाँत निकले हैं। कवि को उसकी मुसकान जीवन का संदेश प्रतीत होती है। उस मुसकान के सामने कठोर-से-कठोर मन भी पिघल सकता है। उसकी मुसकान तो किसी मृतक में भी नई जान फूंक सकती है। धूल-मिट्टी से सना हुआ नन्हा-सा बच्चा ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कमल का सुंदर-कोमल फूल तालाब छोड़कर झोंपड़ी में खिल उठा हो। उसे छूकर पत्थर भी जल बन जाता है; उसे छूकर शेफालिका के फूल झड़ने लगते हैं। नन्हा-सा बच्चा कवि को नहीं पहचान पाया, इसलिए एकटक उसकी तरफ देखता रहा। कवि मानता है कि उस बच्चे की मोहिनी छवि और उसके संदर दांतों को वह उसकी मां के कारण देख पाया था। वह मां धन्य है और बच्चे की मुसकान भी धन्य है। वह स्वयं इधर-उधर जाने वाला प्रवासी । था, इसलिए उसकी पहचान नन्हे बच्चे के साथ नहीं हो सकी। जब उसकी माँ कहती, तब वह कनखियों से कवि की ओर देखता और उसकी छोटे-छोटे दाँतों से सजी मसकान कवि के मन को मोह लेती। सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – जात शब्दार्थ : दंतुरित – बच्चों के नए-नए दाँत। मृतक – मरा हुआ। धूलि-धूसर – धूल-मिट्टी। गात – शरीर के अंग-प्रत्यंग। जलजात – कमल का फूल। परस – स्पर्श। पाषाण – चट्टान, पत्थर। अनिमेष – बिना पलक झपकाए लगातार देखना। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘यह दंतुरित मुसकान’ से ली गई हैं। इसके रचयिता कवि नागार्जुन हैं ! घुमक्कड़ स्वभाव का होने के कारण कवि जगह-जगह घूमता रहता था। उसने जब अपने छोटे-से बच्चे के मुँह में छोटे-छोटे दाँत देखे तो उसे अपार प्रसन्नता हुई। उसने अपने भावों को अनेक बिंबों के माध्यम से प्रकट किया। व्याख्या : कवि छोटे-से बच्चे को संबोधित करता हुआ कहता है कि तुम्हारे छोटे-छोटे दाँतों से सजे मुँह की मुसकान इतनी आकर्षक है कि वह मृतकों में भी जान डालने की क्षमता रखती है। वह जीवन का संदेश देती है। तुम्हारे शरीर का अंग-प्रत्यंग धूल-मिट्टी से सना हुआ है। मुझे ऐसा लगता है कि तुम तालाब को छोड़कर मेरी निर्धन की झोपड़ी में खिलने वाले कमल हो। वह तालाब भी पहले पत्थर होगा, पर तुम्हारे प्राणों का स्पर्श पाकर वह पिघल गया होगा और जल बन गया होगा। चाहे वह बाँस हो या बबूल, पर तुम से छूकर उससे भी शेफालिका के कोमल फूल झड़ने लगते हैं। कवि उस बच्चे से पूछता है कि क्या उसने उसे पहचाना है या नहीं। क्या तुम बिना पलकें झपकाए हैरानी से लगातार मेरी ओर देखते ही रहोगे? क्या तुम थक गए हो? कवि कहता है कि यदि वह उसे पहले पहचान नहीं पाया तो भी कोई बात नहीं। भाव है कि वह अभी बहुत छोटा है, पर वह बहुत भोला-भाला और सुंदर है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न :
11. चाक्षुक बिंब।
2. यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज शब्दार्थ : चिर प्रवासी – लंबे समय तक बाहर रहने वाला। इतर – दूसरा ! मधुपर्क – दही, घी, शहद, जल और दूध का मिश्रण, जो देवता और अतिथि के सामने रखा जाता है। इसे पंचामृत भी कहते हैं। बच्चे को जीवन देने वाला आत्मीयता की मिठास से युक्त माँ का प्यार। कनखी – तिरछी निगाह से देखना। अतिथि – मेहमान। संपर्क – संबंध: छविमान – सुंदर। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) से ली गई हैं। ये पंक्तियाँ नागार्जुन के द्वारा रचित कविता ‘यह दंतुरित मुसकान’ में निहित हैं। कवि लंबे समय तक कहीं बाहर रहने के पश्चात वापस अपने घर लौटा था और उसने अपने बच्चे के छोटे-छोटे दाँतों की सुंदर चमक से शोभायमान मुसकान को देखा था। इससे उसे अपार प्रसन्नता हुई थी। व्याख्या : कवि कहता है कि हे सुंदर दाँतों वाले बच्चे ! यदि तुम्हारी माँ तुम्हारे और मेरे बीच माध्यम न बनी होती, तो मैं कभी भी तुम्हें और तुम्हारी सुंदर मुसकान को देख न पाता और न ही तुम्हें जान पाता। तुम धन्य हो और तुम्हारो माँ भी धन्य है। मैं तुम दोनों का आभारी हूँ। मैं लंबे समय से बाहर था, इसलिए मैं तुम्हारे लिए कोई दूसरा हूँ। मेरे प्यारे बच्चे ! मैं तुम्हारे लिए मेहमान की तरह हूँ, इसलिए तुम्हारा मेरे साथ कोई संबंध नहीं रहा; तुम्हारे लिए मैं अनजाना-सा हूँ। मेरी अनुपस्थिति में तुम्हारी माँ ही आत्मीयतापूर्वक तुम्हारा पालन-पोषण करती रही। तुम्हें अपना प्यार प्रदान करती रही। वही तुम्हारा पंचामृत से पालन-पोषण करती रही। तुम मुझे देखकर हैरान से थे और मेरी ओर कनखियों से देख रहे थे। जब कभी अचानक तुम्हारी और मेरी दृष्टि मिल जाती थी, तो मुझे तुम्हारे मुँह में तुम्हारे चमकते हुए सुंदर दाँतों से युक्त मुसकान दिखाई दे जाती है। सच ही मुझे तुम्हारी दूधिया दाँतों से सजी मुसकान बहुत सुंदर लगती है। मैं तुम्हारी मुसकान पर मुग्ध हूँ। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. फसल किविता का सार : फसलें हमारे जीवन की आधार हैं। ‘फसल’ शब्द सुनते ही हमारी आँखों के सामने खेतीं में लहलहाती फसलें आ जाती हैं। फसल को पैदा करने के लिए न जाने कितने तत्व और कितने हाथों का परिश्रम लगता है। फसल प्रकृति और मनुष्य के आपसी सहयोग से ही संभव होती है। न जाने कितनी नदियों का पानी और लाखों-करोड़ों हाथों का परिश्रम इसे उत्पन्न करता है। खेतों की उपजाऊ मिट्टी इसे शक्ति देती है; सूर्य की किरणें इसे जीवन देती हैं और हवा इसे धिरकना सिखाती है। फसल अनेक दुश्य-अदृश्य शक्तियों के मिले-जुले बल के कारण उत्पन्न होती है। सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य सराहना से बंधी प्रश्नोत्तर – 1. एक के नहीं, शब्दार्थ
: ढेर – बहुत-सी। कोटि – करोड़ों। स्पर्श – छूना। गरिमा – गौरव। गुण धर्म – विशेषताएँ। संदली – चंदन की। रूपांतर – परिवर्तन। व्याख्या : कवि कहता है कि फसल को उत्पन्न करने के लिए एक-दो नहीं बल्कि अनेक नदियों से प्राप्त होने वाला पानी अपना जादुई प्रभाव दिखाता है। उसी पानी के कारण यह पनपती है; बढ़ती है। इसे उगाने के लिए किसी एक या दो व्यक्ति के नहीं, बल्कि लाखों-करोड़ों हाथों के द्वारा छूने की गरिमा छिपी हुई है। यह लाखों-करोड़ों इनसानों के परिश्रम का परिणाम है। इसमें एक-दो खेतों की मिट्टी नहीं प्रयुक्त हुई। इसमें हजारों खेतों की उपजाऊ मिट्टी की विशेषताएँ छिपी हुई हैं। मिट्टी का गुण-धर्म इसमें छिपा हुआ है। फसल क्या है ? यह तो नदियों के द्वारा लाए गए पानी का जादू है, जिसने इसे उपजाने में सहायता दी। इसमें न जाने कितने लोगों के हाथों का परिश्रम छिपा है। यह उन हाथों की महिमा का परिणाम है। भूरी-काली-संदली मिट्टी की विशेषताएँ इसमें विद्यमान हैं। यह सूर्य की किरणों का फसल के रूप में पनी किरणों से उसे बढ़ाया है। जीवन दिया है। हवा ने इसे थिरकने और इधर-उधर डोलने का गुण प्रदान किया है। भाव यह है कि फसल प्रकृति और मनुष्य के सामूहिक प्रयत्नों का परिणाम है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : तद्भव – 10. नदियों के पानी का जादू है वह।
प्रश्न – अनुप्रास –
Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 5 उत्साह और अट नहीं रही Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 5 उत्साह और अट नहीं रहीJAC Class 10 Hindi उत्साह और अट नहीं रही Textbook Questions and Answers1. उत्साह प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4.
रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 5. पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. 2. अट नहीं रही है। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रकृति ही कवि को कल्पना की ऊँची उड़ान भरने के लिए प्रेरित करती है और उसकी रचनाओं में सर्वत्र दिखाई देती है। प्रकृति की व्यापकता ही कवि के मन में तरह-तरह की कल्पनाओं को जन्म देती है। वन का प्रत्येक पेड़-पौधा इसी सुंदरता से भरकर शोभा देता है। प्रकृति की व्यापकता नैसर्गिक सौंदर्य का मूल आधार है। प्रश्न 4. प्रश्न 5. 1. भाषागत कोमलता – उनकी भाषा में एकरसता की कमी है। उन्होंने सरल, व्यावहारिक, सुबोध, सौष्ठव प्रधान और अलंकृत भाषा का प्रयोग
: विकल विकल, उन्मन थे उन्मन शीतल कर दो – 2. कोमलता-निराला की कविताओं में कोमलता है। उन्होंने विशिष्ट शब्दों के प्रयोग से कोमलता को उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की है – घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ! 3. शब्दों की मधुर योजना – निराला ने अन्य छायावादी कवियों की तरह भाषा को भाषानुसारिणी बनाने के लिए शब्दों की मधुर योजना की है। यथा – शिशु पाते हैं माताओं के 4. लाक्षणिक प्रयोग – निराला की भाषा में लाक्षणिक प्रयोग भरे पड़े हैं। उन्होंने परंपरा के प्रति अपने विरोध-भाव को प्रकट करते समय भी लाक्षणिकता का प्रयोग किया था – कठिन श्रंखला बज-बजाकर 5. संगीतात्मकता – छायावादी कवियों की तरह निराला ने भी प्रायः तुक के संगीत का प्रयोग नहीं किया था और उसके स्थान पर लय-संगीत को अपनाया था। उन्हें संगीत का अच्छा ज्ञान था। कविता में उनकी यह विशेषता स्थान-स्थान पर दिखाई देती है – कहीं पड़ी है उर में 6. चित्रात्मकता – निराला ने शब्दों के बल पर भाव चित्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने बादलों का ऐसा शब्द चित्र खींचा है कि वे काले घुघराले बालों के समान आँखों के सामने झूमते-गरजते-चमकते से प्रतीत होने लगते हैं। 7. लोकगीतों जैसी भाषा – निराला ने अनेक गीतों की भाषा लोकगीतों के समान प्रयुक्त की है। कहीं-कहीं उन्होंने कजली और गज़ल भी लिखी हैं। इसमें कवि ने देशज शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है अट नहीं रही है आभा फागुन की तन सट नहीं रही है। 8. मुक्त छंद – निराला ने मुख्य रूप से अपनी भावनाओं को मुक्त छंद में प्रकट किया है। उन्होंने छंद से मुक्त रहकर अपने काव्य की रचना की है। इनके मुक्त छंद को अनेक लोगों ने खंड छंद, केंचुआ छंद, रबड़ छंद, कंगारू छंद आदि नाम दिए हैं। 9. अलंकार योजना – कवि ने समान रूप से शब्दालंकारों और अर्थालंकारों का प्रयोग किया है। इससे इनके काव्य में सुंदरता की वृद्धि हुई है। वास्तव में निराला ने मौलिक-शिल्प योजना को महत्व दिया है, जिस कारण साहित्य में उनकी अपनी ही पहचान है। रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 6. पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. फूटे हैं आमों में बौर – भर गये मोती के झाग, JAC Class 10 Hindi उत्साह और अट नहीं रही Important Questions and Answersप्रश्न 1. शिशु पाते हैं माताओं के कवि ने बादलों के माध्यम से विद्रोह के स्वर को ऊँचा उठाया है। वे समझते थे कि इसी रास्ते पर चलकर समाज का कल्याण किया जा सकता है – विकल विकल, उन्मन थे उन्मन, वास्तव में निराला जीवनपर्यंत कविता के माध्यम से विद्रोह और संघर्ष के स्वर को प्रकट करते रहे थे। प्रश्न 2. प्रश्न 3. कहीं साँस लेते हो, कवि निराला को प्रकृति के कण-कण में ईश्वरीय सत्ता की छवि के दर्शन होते हैं। उन्हें प्रकृति के आँचल में छिपे उसी परमात्मा का रूप दिखाई देता है। प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. तप्त
धरा, जब से फिर सामाजिक विषमताओं को देखकर कवि निराला का मन खिन्न हो जाता है। उसके मन में वेदना और निराशा के भाव भर जाते हैं। प्रश्न 8. बादल, गरजो! प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. पठित काव्यांश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए बहुविकल्पी प्रश्नों के उचित विकल्प चुनकर लिखिए – 1. विकल विकल, उन्मन थे उन्मन (क) प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने किसका आह्वान किया है? (ख) विकल और उन्मन कौन थे? (ग) बादल किसका प्रतीक हैं? (घ) प्रस्तुत काव्यांश किस कविता से लिया गया है? (ङ) कवि ने ‘निदाघ’ से किस ओर संकेत किया है? 2. कहीं साँस लेते हो, (क) कविता में किस माह के सौंदर्य का चित्रण है? (ख) पत्तों से लदी डाल पर किन रंगों की छटा बिखरी हुई है? (ग) कवि का साँस लेने से क्या तात्पर्य है? (घ) कवि की आँख कहाँ से हट नहीं रही? (ङ) प्रस्तुत कविता के कवि कौन हैं? काव्यबोध संबंधी बहुविकल्पी प्रश्न – काव्य पाठ पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्नों के उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (क)
बादलों को किसके समान सुंदर कहा गया है? (ख) कवि ने बादलों के माध्यम से किसका आह्वान किया है? (ग) ‘अट नहीं रही है’ कविता में पाट-पाट पर क्या बिखरा है? (घ) कवि ने बादल को क्या कहा है? सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. उत्साह बादल, गरजो! शब्दार्थ : गगन – आकाश। धाराधर – मूसलाधार, लगातार। ललित – सुंदर। विद्युत-छवि – बिजली की चमक (शोभा)। उर – हृदय, भीतर। कवि – स्रष्टा। विकल – व्याकुल। उन्मन – अनमना, उदास। निदाघ – गरमी का ताप। तप्त – गर्म। धरा – पृथ्वी! अनंत – आकाश। प्रसंग : प्रस्तुत कविता ‘उत्साह’ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित की गई है, जिसके रचयिता सप्रसिदध छायावादी कवि श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हैं। कवि ने अपनी कविता में बादलों का आह्वान किया है कि वे पीड़ित-प्यासे लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करें। उन्होंने बादलों को नए अंकुर के लिए विध्वंस और क्रांति चेतना को संभव करने वाला भी माना है। व्याख्या : कवि बादलों से गरज-बरस कर सारे संसार को नया जीवन देने की प्रेरणा देते हुए कहता है कि बादलो! तुम गरजो। तुम सारे आकाश को घेरकर मूसलाधार वर्षा करो; घनघोर बरसो। हे बादलो! तुम अत्यंत सुंदर हो। तुम्हारा स्वरूप सुंदर काले घुघराले बालों के समान है तथा तुम अबोध बालकों की मधुर कल्पना के समान पाले गए हो। तुम हृदय में बिजली की शोभा धारण करते हो। तुम नवीन सृष्टि करने वाले हो। तुम जलरूपी नया जीवन देने वाले हो और तुम्हारे भीतर वज्रपात करने की अपार शक्ति छिपी हुई है। तुम इस संसार को नवीन प्रेरणा और जीवन प्रदान कर दो। बादलो! तुम गरजो और सबमें नया जीवन भर दो। गरमी के तेज ताप के कारण धरती के सारे लोग बहुत ल्याकुल और बेचैन हैं, वे उदास हो रहे हैं। अरे बादलो! तुम सीमाहीन आकाश में पता नहीं किस ओर से आकर सब तरफ़ फैल गए हो। तुम इस गरमी के ताप से तपी हुई धरती को बरसकर शीतलता प्रदान करो। हे बादलो! तुम गरज-गरज कर बरसो और फिर धरती को शीतल करो! अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न :
मानवीकरण –
पुनरुक्ति प्रकाश – उपमा – 2. अट नहीं रही है। अट नहीं रही है शब्दार्थ : अट – समाना, प्रविष्ट। आभा – चमक, सौंदर्य। नभ – आकाश। उर – हृदय। मंद – धीमी। पुष्प-माल – फूलों की माला। पाट-पाट -जगह-जगह। शोभा-श्री – सौंदर्य से भरपूर। पट – समा नहीं रही है। प्रसंग : प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित है, जिसके रचयिता छायावादी काव्यधारा के प्रमुख कवि श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हैं। इसे मूल रूप से उनकी काव्य-रचना ‘राग-विराग’ में संकलित किया गया है। कवि ने इसमें फागुन की मादकता को प्रकट किया है, जिसकी सुंदरता और उल्लास सभी दिशाओं में फैला हुआ है। व्याख्या : कवि कहता है कि फागुन की यह सुंदरता शरीर में किसी भी से प्रकार समा नहीं पा रही है। वह प्रकृति के कण-कण से फूट रही है। अपने रहस्यवादी भावों को प्रकट करते हुए कवि कहता है कि हे प्रिय! पता नहीं तुम कहाँ बैठकर अपनी साँस के द्वारा प्रकृति के कोने-कोने को सुगंध से भर रहे हो। तुम कल्पना के आकाश में ऊँचा उड़ने तुम्हारी के लिए मन को पंख प्रदान करते हो। तुम मन में तरह-तरह की कल्पनाओं को जन्म देते हो। सब तरफ़ तुम्हारी सुंदरता ही व्याप्त है। वह अत्यधिक आकर्षक और सुंदर है। कवि कहता है कि मैं उसकी ओर से अपनी आँख हटाना चाहता हूँ, पर वह वहाँ से हट नहीं पा रही। इस सुंदरता में मन बँधकर रह गया है। पेड़ों की सभी डालियाँ पत्तों से पूरी तरह से लद गई हैं। कहीं तो पत्ते हरे हैं और कहीं कोंपलों में लाली छाई है। उनके बीच सुंदर-सुगंधित फूल खिल रहे हैं। ऐसा लगता है कि उनके कंठों में सुगंध से भरे फूलों की मालाएँ पड़ी हैं। हे प्रिय! तुम जगह-जगह शोभा के वैभव को कूट-कूटकर भर रहे हो पर वह अपनी पुष्पलता के कारण उसमें समा नहीं पा रही और चारों ओर बिखरी पड़ी है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सिौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न :
विशेषोक्ति –
पुनरुक्ति प्रकाश – मानवीकरण –
उत्साह और अट नहीं रही Summary in Hindiकवि-परिचय : हिंदी साहित्य जगत में ‘महाप्राण निराला’ नाम से प्रसिद्ध सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म सन 1899 ई० में बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता रामसहाय त्रिपाठी उत्तर-प्रदेश के उन्नाव जिले के गाँव गढ़ाकोला के निवासी थे। वे तत्कालीन महिषादल रियासत में कोषाध्यक्ष थे। जब निराला जी तीन वर्ष के थे, तो इनकी माता का देहावसान हो गया था। इनकी अधिकांश शिक्षा घर पर ही हुई। इन्होंने बाँग्ला, संस्कृत, अंग्रेजी, हिंदी आदि में रचित साहित्य का गहन अध्ययन किया था। पारिवारिक उत्तरदायित्वों को वहन करने के लिए इन्होंने महिषादल रियासत में नौकरी प्रारंभ की, किंतु कुछ कारणों से त्याग-पत्र देकर वहाँ से चले आए। कुछ समय तक वे रामकृष्ण मिशन कलकत्ता (कोलकाता) के पत्र ‘समन्वय’ का संपादन करते रहे। बाद में इन्होंने ‘मतवाला’ पत्रिका का संपादन भी किया। 15 अगस्त 1961 ई० को इनका देहावसान हो गया। निराला जी अत्यंत उदार, स्वाभिमानी, अध्ययनशील, प्रकृति-प्रेमी तथा त्यागी व्यक्ति थे। वे स्वयं संगीत-प्रेमी थे। अतिथि-सत्कार करने में वे अत्यंत संतोष का अनुभव करते थे। वे विद्रोही प्रवृत्ति तथा पुरातन में नवीनता का समावेश करने वाले साहित्यकार थे। रचनाएँ – निराला जी बहमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। इन्होंने गद्य और पद्य दोनों में लिखा। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं – काव्य रचनाएँ-अनामिका, परिमल, गीतिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अपरा,
अराधना, अर्चना, तुलसीदास, सरोज स्मृति, राम की शक्ति-पूजा, राग-विराग, वर्षा गीत आदि। अनुवाद – आनंदपाठ, कपाल कुंडला, चंद्रशेखर, दुर्गेश नंदिगी, कृष्णकांत का विल, युगलांगुलीय, रजनी, देवी चौधरानी, राधा रानी, विष वृक्ष, राजसिंह, महाभारत आदि। साहित्यिक विशेषताएँ-निराला जी हिंदी की छायावादी कविता के आधार-स्तंभ माने जाते हैं, किंतु इनकी कविता में छायावाद के अतिरिक्त प्रगतिवादी तथा प्रयोगवादी कविता की विशेषताएँ भी परिलक्षित होती हैं। इनके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं – 1. वैयक्तिकता – छायावादी कवियों के समान निराला के काव्य में भी वैयक्तिकता की अभिव्यक्ति है। जूही की कली, हिंदी के सुमनों के प्रति, मैं अकेला, राम की शक्ति-पूजा, विफल वासना, स्नेह निर्झर बह गया है, सरोज-स्मृति आदि अनेक कविताओं में हमें निराला की वैयक्तिक भावना की सफल अभिव्यक्ति मिलती है। 2. निराशा, वेदना, दुखवाद एवं करुणा की विवृत्ति-छायावादी कवि वेदना एवं दुख को जीवन का सर्वस्व मानते हैं। निराला जी ने वेदना एवं दुखवाद को कई प्रकार से प्रकट किया है। इसका मूल हेतु जीवन की निराशा है – “दिए हैं मैंने जगत को फूल फल, किया है अपनी प्रभा से चकित-चल, सामाजिक विषमताओं को देखकर कवि निराला का मन खिन्न हो जाता है। उनके मन में वेदना और निराशा के भाव भर जाते हैं। 3. प्रकृति-चित्रण-निराला ने प्रकृति पर सर्वत्र चेतना का आरोप किया है। उनकी दृष्टि में बादल, प्रपात, यमुना-सभी कुछ चेतना है। वे यमुना से पूछते हैं – “तू किस विस्मृत की वीणा से,
उठ उठ कर कातर झंकार। 4. मानवतावादी जीवन-दर्शन – निराला के काव्य में मानवतावादी जीवन-दर्शन की अभिव्यक्ति हुई है। बादल राग’ में कवि समाज की विषमता से पीड़ित होकर कहता है – “विप्लव रव से छोटे ही हैं शोभा पाते। ‘तोड़ती पत्थर’ तथा ‘भिक्षुक’ जैसी कविताओं में निराला जी ने मानव में छिपे हुए देवता का दर्शन किया है। यथा – “ठहरो अहो मेरे हृदय में है
अमृत, मैं सींच दूंगा 5. नारी का विविध एवं नवीन रूपों में चित्रण – नारी के प्रति उनके हृदय में गहरी सहानुभूति है। कहीं वह जीवन की सहचरी एवं प्रेयसी है और कहीं उन्हें वह प्रकृति में व्याप्त होकर अलौकिक भावों से अभिभूत करती हुई दिखाई देती है। कहीं वे उसके दिव्यदर्शन की झलक पाते हैं और कहीं नारी को लक्ष्य करके वे कवि प्रेमोन्माद की अस्फुट मनोवृत्ति का चित्रण करते हैं। ‘तोड़ती पत्थर’ कविता में ‘मज़दूरिनी’ के प्रति गहरी सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए निराला यह लिखना नहीं भूलते हैं कि – “श्याम तन, भर बंधा यौवन…, 6. सामाजिक चेतना – निराला जी चाहते हैं कि समाज का प्रत्येक प्राणी सुखी हो। निराला ने अपने प्रसिद्ध वंदना गीत ‘वीणा वादिनी वर दे’ में प्रार्थना की है कि मानव-समाज में नवीन शक्तियों का आविर्भाव हो, जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्य का पालन कर सके। निराला ने अपनी पैनी दृष्टि से समाज के सच्चे रूप को देखा था और अपने गरीब जीवन को सहा था। 7. देश-प्रेम की अभिव्यक्ति – देश के सांस्कृतिक पतन की ओर निराला जी ने बड़ी ओजस्विनी भाषा में इंगित किए हैं। इनका कहना है कि देश के भाग्याकाश को विदेशी शासक के राहू ने ग्रस रखा है। वे चाहते हैं कि किस प्रकार देश का भाग्योदय हो और भारतीय जन-मन आनंद-विभोर हो उठे। भारती वंदना, जागो फिर एक बार, तुलसीदास, छत्रपति शिवाजी का पत्र आदि कविताओं में निराला जी ने देश-भक्ति के भाव प्रकट किए हैं। 8. विद्रोह का स्वर एवं स्वच्छंदता – अन्य छायावादी कवियों की अपेक्षा निराला जी कहीं अधिक विद्रोही एवं स्वच्छंदता के प्रेमी थे। वस्तुतः वे जीवनपर्यंत विद्रोह एवं संघर्ष ही करते रहे। अपनी संस्कृति का दंभ भरने वालों को ललकारते हुए निराला जी ने लिखा है-‘हज़ार वर्ष से सलाम ठोकते-ठोकते नाक में दम हो गया, अपनी संस्कृति लिए फिरते हैं। ऐसे लोग संसार की तरफ़ से आँखें बंदकर अपने ही विवर में व्याघ्र बन बैठे रहते हैं। अपनी ही दिशा में ऊँट बनकर चलते हैं।’ 9. कला पक्ष-निराला जी ने अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए जिस छंद को चुना है, उसे मुक्त छंद कहा जाता है। काव्य के कला पक्ष के अंतर्गत हम मुक्तक छंद को निराला की सबसे बड़ी देन कह सकते हैं। निराला की भाषा की प्रमुख विशेषताएँ कोमलता, शब्दों की मधुर योजना, भाषा का लाक्षणिक प्रयोग, संगीतात्मकता, चित्रात्मकता, प्रकृतिजन्य प्रतीकों की प्रचुरता आदि हैं। निराला को संगीत शास्त्र का अच्छा ज्ञान था। वे स्वयं भी अच्छे गायक थे। उनकी कविता में संगीतात्मकता का सुंदर निर्वाह मिलता है। कविता का सार : करते हुए निराला जी ने बादलों के माध्यम से अपने भावों को प्रकट किया है। कविता में बादल एक ओर भूखे-प्यासे और पीड़ित लोगों की इच्छाओं-आकांक्षाओं को पूरा करते दिखाए गए हैं, तो दूसरी ओर उसे नए अंकुर के लिए विध्वंस, विप्लव और क्रांति की चेतना को वाले तत्व के रूप में प्रस्तुत किया है। कवि ने जीवन को व्यापक और समग्र दृष्टि से देखते हुए अपने मन की कल्पना और क्रांति चेतना की ओर ध्यान दिया है। साहित्य की सामाजिक परिवर्तन में सदा ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। कवि बादलों से गरज-गरजकर : बरसने की बात कहता है। सुंदर और काले बादल अबोध बालकों की कल्पना के समान हैं। वे नई सृष्टि की रचना करते हैं। उनके भीतर वज्रपात की शक्ति छिपी हुई है। कवि बादलों का आह्वान करता है कि वे बरसकर गरमी के ताप से तपी हुई धरती को शीतलता प्रदान करें। अट नहीं रही है-निराला जी ने अपनी इस रहस्यवादी कविता में फागुन मास की मादकता का सुंदर चित्रण किया है। जब व्यक्ति के मन में प्रसन्नता हो, तो हर तरफ़ फागुन की सुंदरता और उल्लास भरा रूप ही दिखाई देता है। कवि को सारी प्रकृति में सुंदरता फूटती-सी प्रतीत होतो है; उसके कोने-कोने में सुगंध प्रतीत होती है। इससे मन में तरह-तरह की लेती हैं। वनों के सभी पेड़ नए-नए पत्तों से लद गए हैं। वे पत्ते कहीं हरे हैं, तो कहीं केवल कोंपलों के रूप में लाल हैं। उनके बीच में सुगंधित फूल खिल रहे हैं। सारे वन का वैभव अति आकर्षक और मधुर है। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 4 आत्मकथ्य Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 4 आत्मकथ्यJAC Class 10 Hindi आत्मकथ्य Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. (ख) कवि का प्रियतम अति सुंदर था। उसकी गालों पर मस्ती भरी लाली छाई हुई थी। उसकी सुंदर छाया में प्रेमभरी भोर भी अपने सुहाग की मधुरिमा प्राप्त करती थी। प्रश्न 5. प्रश्न 6. जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में। कवि ने तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग किया है, जिससे शब्दों पर उनकी पकड़ का पता चलता है। 2. भाषा की लाक्षणिकता-लाक्षणिकता प्रसाद जी के काव्य की महत्वपूर्ण विशेषता है। इसके द्वारा कवि ने अपने सूक्ष्म भावों को सहजता से प्रकट किया है – सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म-कथा? 3. भाषा की प्रतीकात्मकता-कवि ने अपनी कविता में प्रतीकात्मकता का भी अधिक प्रयोग किया है। उन्होंने प्रकृति-जगत से अपने अधिकांश प्रतीकों का प्रयोग किया है – मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी, ‘मधुप’ मनरूपी भँवरा है, जो ‘गुनगुना’ कर भावों को प्रकट करता है। मुरझाकर गिरती ‘पत्तियाँ’ नश्वरता की प्रतीक हैं। कवि ने अपनी इस कविता में ‘अनंत-नीलिमा’, ‘गागर रीति’, ‘उज्ज्वल गाथा’, ‘चाँदनी रातों की’, ‘अनुरागिनी उषा’, ‘स्मृति पाथेय’, ‘थके पथिक’, ‘सीवन को उधेड़’, ‘कंथा’ आदि प्रतीकात्मक शब्दों का सहज-सुंदर प्रयोग किया है। -भाषा की चित्रमयता-प्रसाद की इस कविता की एक अनुपम विशेषता है-‘चित्रमयता’। कवि ने इसके द्वारा पाठक के सामने एक चित्र-सा प्रस्तुत किया है। इससे कविता में बिंब उपस्थित करने में सफलता मिली है। 5. भाषा की संगीतात्मकता – इस कविता में संगीतात्मकता का तत्व निश्चित रूप से विद्यमान है। इसका कारण यह है कि कवि को नाद, लय और छंद तीनों का अच्छा ज्ञान था। स्वरमैत्री ने संगीतात्मकता को उत्पन्न करने में सहायता प्रदान की है – छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ? 6. भाषा की आलंकारिकता – भाषा को सजाने और प्रभावपूर्ण बनाने के लिए प्रसाद ने अपनी कविता में जगह-जगह अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया है – 7. मधुर-शब्द योजना – कवि को शब्दों की अंतरात्मा की सूक्ष्म पहचान है। जो शब्द जहाँ ठीक लगता है, कवि ने इसका वहीं प्रयोग किया है – उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की। इन पंक्तियों में ‘पाथेय’, ‘पथिक’, ‘पंथा’, ‘सीवन’, ‘कंथा’ आदि अत्यंत सटीक और सार्थक शब्द हैं, जो विशेष भावों को व्यक्त करते हैं। प्रश्न 7. प्रिय की हँसी का स्रोत उसके जीवन के कण-कण को सराबोर किए रहता था, पर वह कल्पना मात्र था। जब तक सपना आँखों के सामने छाया रहा, तब तक वह प्रसन्नता से भरा रहा; पर स्वप्न के समाप्त होते ही जीवन की वास्तविकता उसके सामने आ गई। उसकी आनंद-कल्पना अधूरी रह गई। उसका प्रिय अपार सौंदर्य का स्वामी था। उसके गालों की सौंदर्य-लालिमा के सामने उषा की लालिमा भी फीकी थी, पर अब वह दृश्य ही बदल गया है। रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 8. तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती। वे प्रेमी-हृदय थे। उन्हें किसी से प्रेम था, पर वे उसके प्रेम को पा नहीं सके। वे स्वभाव से ऐसे थे कि न तो अपनी पीड़ा दूसरों के सामने प्रकट करना चाहते थे और न ही किसी की हँसी उड़ाना चाहते थे। वे दूसरों को अपने छोटे-से जीवन की कहानियाँ नहीं सुनाना चाहते थे। वे अपनी पीड़ा को अपने हृदय में समेटकर रखना चाहते थे। प्रश्न 9. इसे पढ़ने से देश-विदेश में घूमने और स्थान-स्थान के ज्ञान को प्राप्त करने की प्रेरणा मिलेगी, विभिन्न क्षेत्रों के जीवन और रीति-रिवाजों को समझने की क्षमता मिलेगी। इसके अतिरिक्त मैं हरिवंशराय बच्चन की ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ और ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर’ पढ़ना चाहूँगा। इनसे एक महान लेखक और कवि के जीवन को निकट से जानने का अवसर मिलेगा। प्रश्न 10. मेरे कारण मेरे नगर और मेरे देश का नाम ख्याति प्राप्त करे। कल्पना चावला इस संसार में आईं और चली गईं। उनका धरती पर आना तो सामान्य था, पर यहाँ से जाना सामान्य नहीं था। आज उन्हें हमारा देश ही नहीं सारा संसार जानता है। उनके कारण उनके पैतृक शहर करनाल का नाम अब सभी की जुबान पर है। मैं भी चाहती हूँ कि अपने जीवन में मैं इतना परिश्रम करूँ कि मुझे विशेष पहचान मिले। मैं अपने माता-पिता के साथ-साथ अपने देश की कीर्ति का कारण बनूँ। पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. प्रश्न 2. यह भी जानें – प्रगतिशील चेतना की साहित्यिक मासिक पत्रिका हंस प्रेमचंद ने सन 1930 से 1936 तक निकाली थी। पुनः सन 1956 से यह साहित्यिक पत्रिका निकल रही है और इसके संपादक राजेंद्र यादव हैं। बनारसीदास जैन कृत अर्धकथानक हिंदी की पहली आत्मकथा मानी जाती है। इसकी रचना सन 1641 में हुई और यह पद्यात्मक है। आत्मकथ्य का एक अन्य रूप यह भी देखें – मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ। – कवि बच्चन की आत्म-परिचय सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी, शब्दार्थ : मधुप – भँवरा, मनरूपी भँवरा। घनी – अत्यधिक। अनंत नीलिमा – अंतहीन विस्तार। असंख्य – अनगिनत; जिसकी गणना न की जा सके। मलिन – मैला। उपहास – मज़ाक। दुर्बलता – कमज़ोरी। गागर रीति – खाली घड़ा, ऐसा मन जिसमें कोई भाव नहीं। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘आत्मकथ्य’ से ली गई है। जिसके रचयिता छायावादी काव्य के प्रवर्तक श्री जयशंकर प्रसाद हैं। इसके माध्यम से कवि ने कहा है कि उनके जीवन में ऐसा कुछ भी विशेष नहीं है जो औरों को कुछ सरस दे पाए। व्याख्या : कवि कहता है कि जीवनरूपी उपवन में उसका मनरूपी भँवरा गुनगुना कर न जाने अपनी कौन-सी कहानी कह जाता है। उस कहानी से किसी को सुख मिलता है या दुख, वह नहीं जानता। लेकिन इतना अवश्य है कि आज उपवन में कितनी अधिक पत्तियाँ मुरझाकर झड़ रही हैं। कवि का स्वर निराशा के भावों से भरा है। उसे केवल दुख और पीड़ारूपी मुरझाई पत्तियाँ ही दिखाई देती हैं। उसकी न जाने कितनी इच्छाएँ पूरी हुए बिना ही मन में घुटकर रह गईं। उचित परिस्थितियों और वातावरण को न पाकर वे समय से पहले ही पीले-सूखे पत्तों की तरह मुरझाकर मिट गईं। जीवन के अंतहीन गंभीर विस्तार में जीवन के असंख्य इतिहास रचे जाते हैं। वे बीती हुई निराशा भरी बातें कवि की स्थिति और पीड़ा पर व्यंग्य करती हैं; उसका उपहास उड़ाती हैं और कवि चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता। वह अपने जीवन की विवशताओं के सामने असहाय है; हताश है। उसकी पीड़ा भरी जिंदगी के बारे में जानने की इच्छा रखने वालों से वह दुख भरे स्वर में पूछता है कि उसकी पीड़ा और विवशता को देखकर भी क्या वे चाहते हैं कि कवि अपनी पीड़ा, दुर्बलता और अपने पर बीती दुखभरी कहानी को फिर से सुनाए; फिर से दोहराए ? क्या उसकी पीड़ा देखकर नहीं समझी जा सकती? जब तुम उसकी जीवनरूपी खाली गागर को देखोगे, तो क्या तुम्हें उसे देख-सुनकर सुख प्राप्त होगा? मेरे हताश और निराशा से भरे अभावपूर्ण मन में कोई ऐसा भाव नहीं है, जिसे दूसरों को सुनाया जा सके। अर्धग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तरी – प्रश्न : रूपकातिशयोक्ति
– 2. किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले शब्दार्थ : विडंबना – निराश करना, उपहास का विषय। प्रवंचना – धोखा। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘आत्मकथ्य’ से ली गई है। जिसके रचयिता छायावादी काव्यधारा के प्रवर्तक श्री जयशंकर प्रसाद हैं। उन्हें ‘हंस’ नामक पत्रिका के लिए आत्मकथा लिखने के लिए कहा गया था, लेकिन कवि को ऐसा प्रतीत होता है कि वे अति साधारण हैं और उनके जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे पढ़-सुनकर लोग वाह-वाह कर उठे। कवि ने यथार्थ के साथ-साथ अपने विनम्र भावों को प्रकट किया है। व्याख्या : जो लोग कवि की दुखपूर्ण कथा को सुनना चाहते हैं, कवि उनसे कहता है कि उसकी कथा सुनकर कहीं वे यह न समझने लगे कि वही उसकी जीवनरूपी गागर को खाली करने वाले थे। वे सब अपने आपको समझें; स्वयं को पहचानें। वे उसके भावों के रस को प्राप्त कर अपने आप को भरने वाले थे। अरे सरल मन वालो! यह उपहास और निराशा का विषय है कि मैं तुम्हारी हँसी उड़ाऊँ। मैं अपने दवारा की गई गलतियों या दूसरों के द्वारा दिए गए धोखों को क्यों प्रकट करूँ ? आत्मकथा के नाम से मुझे अपनी या औरों की बातें जग-जाहिर नहीं करनी। कवि कहता है कि उसके जीवन में पूर्ण रूप से पीड़ा और निराशा की कालिमा नहीं है; उसमें मधुर चाँदनी रातों की मीठी स्मृतियाँ भी हैं, पर वह उन उज्ज्वल गाथाओं को कैसे गाए और वह उन्हें क्यों प्रकट करे? वह अपने जीवन के कोमल पक्षों में सभी को भागीदार नहीं बनाना चाहता, क्योंकि वे उसकी निजी यादें हैं। वह अपनी मधुर स्मृतियों में सबकी साझेदारी नहीं चाहता। वह कभी अपनों के साथ खिलखिलाकर हँसा था; मीठी बातों में डूबा था और उसका हृदय प्रसन्नता से भर उठा था-उन क्षणों को वह औरों को क्यों बताए? अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौदर्य सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : अनुप्रास – 3. मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया। शब्दार्थ : स्वप्न – सपना। मुसक्या कर – मुस्कुराकर। अरुण-कपोलों – लाल गालों। मतवाली – मस्ती भरी। अनुरागिनी उषा – प्रेमभरी भोर । निज – अपना। स्मृति पाथेय – स्मृति रूपी सहारा। पथिक – मुसाफ़िर; यात्री। पंथा – रास्ता, राह। सीवन – सिलाई। कंथा – गुदड़ी, अंतर्मन। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावादी कवि श्री जयशंकर प्रसाद के द्वारा रचित कविता ‘आत्मकथ्य’ से ली गई हैं। कवि ने अपने जीवन की कहानी किसी को न सुनाने के बारे में सोचा था, क्योंकि उसे लगता था कि उसके जीवन में कुछ भी ऐसा सुखद नहीं था, जो किसी को सुख दे सके। उसके पास केवल सुखद यादें अवश्य थीं। व्याख्या : कवि कहता है कि उसे अपने जीवन में कभी किसी सुख की प्राप्ति नहीं हुई। सपने में जिस सुख को अनुभव कर वह नींद से जाग गया था, वह भी उसे प्राप्त नहीं हुआ। वह सुख देने वाला उसके आलिंगन में आते-आते धीरे से मुस्कुराकर उससे दूर हो गया; उसे प्राप्त नहीं हुआ। जो सपने में सुख और प्रेम का आधार बना था, वह अपार सुंदर और मोहक था। उसके लाल-गुलाबी गालों की मस्ती भरी छाया में प्रेम भरी भोर अपने सुहाग की मिठास भरी मनोहरता को लेकर प्रकट हो गई थी। भाव यह है कि उसके गालों में प्रात:कालीन लाली और शोभा विद्यमान थी। जीवन की लंबी राह पर थककर चूर हुए कविरूपी यात्री की स्मृतियों में केवल वही एक सहारा थी। उसकी यादें ही उसकी थकान को कुछ कम करती थीं। कवि नहीं चाहता कि उसकी मधुर यादों के आधार को कोई जाने। वह पूछता है कि क्या उसके अंतर्मन रूपी गुदड़ी की सिलाई को उधेड़कर उस छिपे रहस्य को आप देखना चाहेंगे? भाव यह है कि कवि उस रहस्य को अपने भीतर सँभालकर रखना चाहता है; उसे व्यक्त नहीं करना चाहता। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : पुनरुक्ति प्रकाश – आलिंगन में आते-आते अनुप्रास 4. छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ ? शब्दार्थ : कथाएँ – कहानियाँ। मौन – चुप। आत्मकथा – अपनी कहानी। व्यथा – पीड़ा। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावादी काव्यधारा के प्रवर्तक श्री जयशंकर प्रसाद के द्वारा रचित कविता ‘आत्मकथ्य’ से ली गई हैं। कवि से कहा गया था कि वह अपनी आत्मकथा लिखे, ताकि सभी उससे परिचित हो सकें। लेकिन कवि को लगता है कि उसकी जीवनी में कुछ भी ऐसा विशेष नहीं है, जिससे दूसरों को सुख प्राप्त हो सके। व्याख्या : कवि कहता है कि उसका जीवन छोटा-सा है; सुखों से रहित है, इसलिए वह उससे संबंधित बड़ी-बड़ी कहानियाँ किस प्रकार सुनाए? वह अपनी कहानी सुनाने की अपेक्षा चुप रहकर औरों की कहानियों को सुनना अधिक अच्छा मानता है। वह उनकी कहानियों से कुछ पाना चाहता है। वह पूछता है कि लोग उसकी कहानी को सुनकर क्या करेंगे? उसकी जीवन कहानी सीधी-सादी और भोली-भाली थी, जिसमें कोई भी विशेष आकर्षण नहीं था। उसे लगता है कि अभी अपनी कहानी सुनाने का अवसर भी अनुकूल नहीं है। उसकी मौन पीड़ा अभी थकी-हारी सो रही है; उसके मन में छिपी हुई है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : JAC Class 10 Hindi आत्मकथ्य Important Questions and Answersप्रश्न 1. स्वयं पुराना और घिसा-पिटा कपड़ा पहनकर भी हमें नए कपड़े लेकर देने का प्रयत्न करते हैं। उन्होंने हमें अच्छे संस्कार दिए हैं और कभी किसी के सामने हाथ न फैलाने की शिक्षा दी है। पढ़ाई-लिखाई के साथ मुझे व्यायाम करने और कुश्ती लड़ने का शौक है। मैं अपने स्कूल की ओर से कई बार कुश्ती प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले चुका हूँ और मैंने स्कूल के लिए कई पुरस्कार जीते हैं। पढ़ाई में भी मैं अच्छा हूँ। कक्षा में पहला या दूसरा स्थान प्राप्त कर लेता हूँ, जिस कारण माता-पिता के साथ-साथ अपने अध्यापकों की आँखों का भी तारा हूँ। मेरे सहपाठियों और मेरे मोहल्ले के लड़कों को मेरे साथ खेलना और बातें करना अच्छा लगता है। ईश्वर के प्रति मेरी अटूट आस्था है। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. आत्मकथ्य Summary in Hindiकवि-परिचय : जयशंकर
प्रसाद आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रतिभावान कवि माने जाते हैं। ये छायावाद के प्रवर्तक थे। इन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, आलोचना आदि हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई। इनका जन्म सन 1889 ई० में काशी के सुंघनी साहू नामक प्रसिद्ध वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता देवी प्रसाद साहू काव्य-प्रेमी थे। जब उनका देहांत हुआ, तब प्रसाद की आयु केवल आठ वर्ष की थी। परिवारजन की मृत्यु, आत्म-संकट, पत्नी वियोग आदि कष्टों को झेलते हुए भी ये काव्य-साधना में लीन रहे। तपेदिक के कारण इनका देहांत 15 नवंबर
1937 में हुआ। 1. स्वदेश-प्रेम – प्रसाद का स्वदेश-प्रेम सौंदर्य के अछूते चित्रों के रूप में व्यक्त हुआ है। संपूर्ण भारत उनके लिए सौंदर्य का भंडार है। 2. प्रकृति-चित्रण छायावादी कवियों का मनचाहा शरणस्थल प्रकृति ही रही है। प्रकृति को मानवीय रूप में देखना और उससे प्यार करना उनके काव्य में मुख्य रूप से अंकित है। प्रकृति को प्रसाद ने अपने काव्य की पृष्ठभूमि न मानकर सहचरी माना है और उसका सजीव चित्रण किया है। कोलाहल में भरी इस दुनिया से भागकर कवि प्रकृति की गोद में शरण लेना चाहता है, इसलिए वह लिखता है – ‘ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे। 3. रहस्यवाद – छायावादी कवि रहस्यवादी हैं और प्रकृति में प्रभु के दर्शन करते हैं। प्रसाद के काव्य में रहस्यवादी तत्व पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। जिज्ञासा, प्रेम, विरह तथा मिलन की सीढ़ियों से गुजरने वाली ईश्वर-प्रेम की भावना का कवि ने वर्णन किया है। ईश्वर के अस्तित्व के विषय में जिज्ञासा व्यक्त करता हुआ कवि कहता है – ‘हे अनंत रमणीय! कौन तुम? प्रेम के सौंदर्य के साथ-साथ प्रसाद के काव्य में विश्व-बंधुत्व, सर्व जन हिताय तथा व्यापक मानवतावाद से ओत-प्रोत रचनाएँ भी हैं ! प्रसाद मूलत: आंतरिक अनुभूतियों के कवि हैं, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि उनका काव्य समकालीन हलचलों को अनदेखा करता है। प्रसाद की कविता मानव में ईश्वर और ईश्वर में मानव को देखती है। 4. भाषा-शैली – प्रसाद की भाषा-शैली परिष्कृत, स्वाभाविक, तत्सम शब्दावली प्रधान एवं सरस है। छोटे-छोटे पदों में गंभीर भाव भर देना और उनमें संगीत लय का विधान करना प्रसाद की शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं। देश-प्रेम की रचनाओं में ओज गुण प्रधान शब्दावली, शृंगार रस प्रधान रचनाओं में माधुर्य-गुण से युक्त शब्दावली तथा सामान्यतः प्रसाद गुणयुक्त शब्दावली का प्रयोग किया गया है। शब्द-चित्रों की सुंदर योजना प्रसाद की रचनाओं में रहती है। इनकी रचनाओं में अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। प्रसाद की कविताओं में शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रामाणिक रूप मिलता है। इनकी काव्य-भाषा कहीं पर सरल तथा कहीं पर क्लिष्ट एवं तत्सम शब्दावली प्रधान है। स्वाभाविकता एवं प्रवाह उनकी भाषा की विशेषता है। भाषा भावानुकल है, इसलिए तत्सम शब्द भी स्वाभाविक लगते हैं। उनकी रचनाओं में मुहावरे बहुत कम हैं। 5. संगीतात्मकता – संगीतात्मकता उनके काव्य का प्रमुख स्वर है ! संगीत की स्वर-लहरी पद-पद पर झलकती है। ‘कामायनी’, ‘आँस’, ‘लहर’, ‘झरना’ सभी कविताएँ गेय हैं। कविता का सार : मुंशी प्रेमचंद ने अपनी पत्रिका ‘हंस’ में छापने के लिए श्री जयशंकर प्रसाद से आत्मकथा लिखने का आग्रह किया था, पर उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया। उन्होंने आत्मकथा न लिखकर ‘आत्मकथ्य’ कविता लिखी थी, जो सन 1932 में ‘हंस’ में छपी। कवि ने इस कविता में जीवन के यथार्थ को प्रकट करने के साथ-साथ उन अनेक अभावों को भी लिखा था, जिन्हें उन्होंने झेला था। उनका कहना था कि उनका जीवन किसी भी सामान्य व्यक्ति के जीवन की तरह सरल और सीधा था जिसमें कुछ भी विशेष नहीं था, वह लोगों की वाहवाही लूटने और उन्हें रोचक लगने वाला नहीं था। जीवनरूपी उपवन में मनरूपी भँवरा गुनगुना कर चाहे अपनी कहानी कहता हो, पर उसके आसपास पेड़-पौधों की न जाने कितनी पत्तियाँ मुरझाकर बिखरती रहती हैं। इस नीले आकाश के नीचे न जाने कितने जीवन-इतिहास रचे जाते हैं, पर ये व्यंग्य से भरे होने के कारण पीड़ा को प्रकट करते हैं। क्या इन्हें सुनकर सुख पाया जा सकता है? मेरा जीवन तो खाली गागर के समान व्यर्थ है, अभावग्रस्त है। इस संसार में व्यक्ति स्वार्थ भरा जीवन जीते हैं। वे दूसरों के सुखों को छीनकर स्वयं सुखी होना चाहते हैं। यह जीवन की विडंबना है। कवि दूसरों के धोखे और अपनी पीड़ा की कहानी नहीं सुनाना चाहता। वह नहीं समझता कि उसके पास दूसरों को सुनाने के लिए मीठी बातें हैं। उसे अपने जीवन में सुख प्रदान करने वाली मीठी-अच्छी बातें दिखाई नहीं देतीं। उसे प्राप्त होने वाले सुख आधे रास्ते से ही दूर हो जाते हैं। उसकी यादें थके हुए यात्री के समान हैं, जिसमें कहीं सुखद यादें नहीं हैं। कोई भी उसके मन में छिपी दुखभरी बातों को क्यों जानना चाहेगा! उसके छोटे-से जीवन में बड़ी उपलब्धियाँ नहीं हैं। इसलिए कवि अपनी कहानियाँ न सुनाकर केवल दूसरों की बातें सुनना चाहता है। वह चुप रहना चाहता है। कवि को अपनी आत्मकथा भोली-भाली और सीधी-सादी प्रतीत होती है। उसके हृदय में छिपी हुई पीड़ाएँ मौन-भाव से थककर सो गई थीं, जिन्हें कवि जगाना उचित नहीं समझता। वह नहीं चाहता कि कोई उसके जीवन के कष्टों को जाने। मातुल कौन है?मातुल इस नाटक का एक महत्वपूर्ण पात्र हैं । वह कालिदास के वंश का प्रसिद्ध पुरुष है ,वह एक अच्छा कवि है। कालिदास को कविता लिखना वह ही सिखाता है। मातुल कालिदास का अभिभावक है इसलिए कालिदास पर अपना पूर्ण अधिकार समझता है।
आषाढ़ का एक दिन नाटक का मुख्य पात्र कौन है?नाटक के प्रमुख पुरूष पात्र हैं-कालिदास, विलोम, मातुल और निक्षेप और प्रमुख नारी पात्र हैं मल्लिका, अम्बिका, प्रियंगुमंजरी आदि। दन्तुल, रंगिणी, संगिणी, अनुस्वार और अनुनासिक आदि गौण पात्र हैं। आचार्य वररूचि और गुप्त-वंश सम्राट सूच्य पात्र हैं। कालिदास दुर्बल चरित्र का व्यक्ति है।
लोग मातुल की वंदना क्यों करना चाहते थे?लोग मातुल की तो क्या मातुल के शरीर से उतरे वस्त्रों तक की वंदना करने को प्रस्तुत थे। और मैं बार-बार अपने को छू कर देखता था कि मेरा शरीर हाड़-मांस का ही है या चिकने पत्थर का हो गया है, जैसे मंदिरों में देवी-देवताओं का होता है।...
आषाढ़ का एक दिन में नाटककार है किसका चरित्र चित्रण किया है?कालिदास भी अपवाद नहीं है। वह अहं की सजीव मूर्ति है। वह उज्जयिनी जाकर अपनी व्यक्तिवादी चेतना का अनुभव करता है। वह मल्लिका के सामने स्वीकार करता है-“मन में कहीं यह आशंका थी कि वह वातावरण मुझे छा लेगा और मेरे जीवन की दिशा बदल देगा और यह शंका निराधार नहीं थी।” इस प्रकार कालिदास का चरित्र प्रवृत्तियों की ओर संकेत करता है।
|