महासागरीय जल का तापमान Drishti IAS - mahaasaagareey jal ka taapamaan drishti ias

उत्तर :

भूमिका:


महासागरीय जल भूमि की तरह सौर ऊर्जा के द्वारा गर्म होता है। स्थल की तुलना में जल के तापन व शीतलन की प्रक्रिया धीमी होती है।

विषय-वस्तु


विषय-वस्तु महासागरीय जल के तापमान वितरण को प्रभावित करने वाले कारक

1. अक्षांश: महासागरों के सतही जल का तापमान विषुवत वृत्त से ध्रुवों की ओर घटता जाता है क्योंकि ध्रुवों की ओर सौर्य विकिरण की मात्रा घटती जाती है।

2. स्थल एवं जल का असमान वितरण: उत्तरी गोलार्द्ध के महासागर स्थल के बहुत बड़े भाग से जुड़े होते हैं, जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध के महासागर स्थल के कम भाग से ही जुड़े हुए हैं।

3. सनातन पवनें: स्थल से महासागरों की तरफ जो पवनें बहती हैं, वे महासागरों के सतही गर्म जल को तट से दूर धकेल देती हैं, परिणामस्वरूप नीचे का ठंडा जल ऊपर आ जाता है जिसके कारण तापमान में विभिन्न देशांतरों में अंतर आ जाता है। इसके विपरीत महासागरों से स्थल की ओर चलने वाली पवनें गर्म जल को तट पर जमा कर देती हैं जिससे तापमान में वृद्धि हो जाती है।

4. महासागरीय धाराएँ: गर्म महासागरीय धाराओं के कारण ठंडे क्षेत्रों का तापमान बढ़ जाता है और ठंडी धाराओं के कारण गर्म महासागरीय क्षेत्रों का तापमान घट जाता है।

निष्कर्ष


अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखे-

उपर्युक्त सभी कारक महासागरीय धाराओं के तापमान को स्थानीय रूप से प्रभावित करते हैं। निम्न अक्षांशों में स्थित समुद्र जो कि घिरे हुए होते हैं उनका तापमान खुले समुद्रों की अपेक्षा अधिक होता है। दूसरी तरफ, हम पाते हैं कि उच्च अक्षांशों में स्थित घिरे हुए समुद्रों का तापमान खुले समुद्रों की अपेक्षा कम होता है।

 तापमान, लवणता एवं घनत्व महासागरीय जल के प्रमुख गुण है। इन गुणों में ऋतु एवं स्थान के अनुसार भेद पाया जाता है। महासागरीय जल के ये गुणधर्म विशाल जलराशियों के संचरण को प्रभावित करते हैं। अतः महासागरीय जल के परिसंचरण के अध्ययन में महासारीय जल के तापमान, लवणता तथा घनत्व का विशेष महत्व है। साथ ही महासागरीय जैव विविधता एवं अर्थव्यवस्था भी इन गुणधर्मों से प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होती हैं।

एक परिचय

तापमान महासागरीय जल का एक महत्वपूर्ण भौतिक गुण है। महासागरीय जल के तापमान में भी स्थलीय धरातल के समान विविधता पायी जाती है। विभिन्न अक्षांशों पर विभिन्न ऋतुओं में प्राप्त ऊर्जा की मात्रा में विविधता सूर्यातप पर निर्भर करती है। यह विशालकाय महासागरीय जलराशियों के संचरण तथा उनकी विशेषताओं को नियंत्रित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है। समुद्री जल में गहराई के अनुसार तापमान में भिन्नता पायी जाती है। गहराई बढ़ने के साथ-साथ तापमान में कमी होती जाती है। स्थल की तुलना में जल के तापन व शीतलन की प्रक्रिया धीमी होती है। इसका प्रमुख कारण जल की विशिष्ट ऊष्मा है, जो स्थल की तुलना में जल में अधिक होती है, इसी के परिणामस्वरूप स्थल की तुलना में जल के तापमान में वृद्धि हेतु अधिक मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है।

• महासागरीय जल के गर्म होने की दो मुख्य प्रक्रियाएँ हैं:

० सौर विकिरण का अवशोषण ० पृथ्वी के आतंरिक भाग से निर्मुक्त ऊष्मा द्वारा महासागरीय नितल के जल का गर्म होना महासागरीय जल के शीतलन की मुख्य प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं: ० समुद्री सतह से ऊष्मा का विकिरण

० संवहन

० वाष्पीकरण

महासागरीय जल के तापमान को प्रभावित करने वाले कारक

निम्नलिखित कारक महासागरीय जल के तापमान वितरण को प्रभावित करते हैं:

• अक्षांश: ध्रुवों की ओर प्रवेशी सौर विकिरण की मात्रा घटने के कारण (क्योंकि सूर्य की किरणें ध्रुवों की ओर तिरछी होती जाती हैं) महासागरों के सतही जल का तापमान विषुवत वृत्त से ध्रुवों की ओर घटता चला जाता है।

जल एवं स्थल के वितरण में असमानता या स्थल खंड का प्रभाव: उत्तरी गोलार्ध के महासागर दक्षिणी गोलार्ध के महासागरों की अपेक्षा स्थल के बहुत बड़े भाग से जुड़े होने के कारण अधिक मात्रा में ऊष्मा प्राप्त करते हैं।

प्रचलित पवनें: जब स्थल से सागर की ओर (अपतटीय पवनें) पवनें चलती हैं तो अपने साथ तट से सतही गर्म जल को सागर की ओर बहा ले जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप उसकी स्थानापूर्ति के लिए नीचे का ठंडा जल ऊपर की ओर आ जाता है। इसके विपरीत, जहाँ पर पवनें तट की ओर (अभितटीय पवनें) चलती हैं, वहाँ पर तट के निकट गर्म जलराशि एकत्रित हो जाती है, जिस कारण तापमान बढ़ जाता है। परिणामस्वरूप, तापमान में देशांतरीय अंतर उत्पन्न हो जाता है।

• महासागरीय धाराएँ: महासागरों की गर्म तथा ठंडी जलधाराएँ प्रभावित क्षेत्रों के तापक्रम को नियंत्रित करती हैं। गर्म महासागरीय धाराएँ ठंडे क्षेत्रों के तापमान को बढ़ा देती हैं, जबकि ठंडी धाराएँ गर्म महासागरीय क्षेत्रों में तापमान को कम कर देती हैं। जैसे- गल्फ स्ट्रीम (गर्म धारा) उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट तथा उत्तरी पश्चिमी यूरोप के पास सागरीय तापमान को बढ़ा देती है, जबकि लेब्रेडोर धारा (ठंडी धारा) के कारण उत्तरी अमेरिका के उत्तरी पूर्वी तट पर तापक्रम हिमांक के पास पहुँच जाता है। ये सभी कारक महासागरीय जल के तापमान को स्थानिक रूप से प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त लवणता, घनत्व, वाष्पीकरण की दर, अन्त: सागरीय कटक की अवस्थिति, स्थानीय मौसम, सागर की स्थिति तथा आकार आदि कारक भी तापमान के वितरण को प्रभावित करते है। निम्न अक्षांशों में स्थित भू-परिवेष्ठित समुद्रों का तापमान खुले समुद्रों की अपेक्षा अधिक होता है,

जबकि उच्च अक्षांशों में स्थित भू-परिवेष्ठित समुद्रों का तापमान खुले समुद्रों की अपेक्षा कम होता है। चूँकि महासागरों का आकार त्रिविमीय होता है, अत: तापमान के वितरण को समझने के लिए इसके अक्षांशीय विस्तार के साथ-साथ गहराई के साथ परिवर्तन को भी समझना आवश्यक है। महासागरीय जल के तापमान के वितरण का क्षैतिज तथा ऊध्वार्धर अध्ययन किया जाता है।

तापमान का क्षैतिज वितरण

सभी महासागरों का औसत वार्षिक तापमान लगभग 17.2°C माना गया है। उत्तरी एवं दक्षिणी गोलार्ध का औसत वार्षिक तापमान क्रमशः 19°C तथा 16°C के आस-पास होता है। यह भिन्नता उत्तरी एवं दक्षिणी गोलार्ध में स्थल एवं जल के असमान वितरण के कारण होती है।

• भूमध्य रेखा पर महासागरीय सतह का औसत तापमान लगभग 27°C अंकित किया जाता है, और इसके बाद उत्तर तथा दक्षिण ध्रुवों की ओर जाने पर तापमान क्रमिक ढंग से कम होता जाता है, तापमान में यह गिरावट सामान्यतः प्रति अक्षांश आगे बढ़ने पर 0.5°C की दर से कम होती जाती है। 20 डिग्री अक्षांश पर औसत तापमान 22°C, 40 डिग्री अक्षांश पर 14°C तथा ध्रुवों के नजदीक 0°C होता है।

• हालांकि उच्चतम तापमान विषुवत वृत्त पर नहीं बल्कि, इससे कुछ उत्तर की ओर अयन रेखाओं के समीपी भागों में अंकित किया जाता है, क्योंकि इन क्षेत्रों में आकाश खुला रहता है तथा वर्षा नगण्य होती है। उत्तरी गोलार्ध में स्थलीय भाग अधिक होने के कारण महासागरों का तापमान दक्षिणी गोलार्ध की अपेक्षा अधिक होता है।

तापमान का ऊध्वार्धर वितरण

• महासागरों का सर्वाधिक तापक्रम हमेशा उनकी ऊपरी सतहों पर होता है, क्योंकि ऊपरी सतह सूर्य की ऊष्मा को प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त करती हैं। यह ऊष्मा संवहन की प्रक्रिया के माध्यम से महासागरों के गहराई तक प्रवेश करती है। परिणामस्वरूप गहराई बढ़ने के साथ-साथ तापमान में कमी आने लगती है, लेकिन तापमान की यह ह्रास दर सभी गहराइयों पर एक समान नहीं होती। महासागरीय जल का तापीय पार्श्वचित्र महासागर के सतही जल एवं गहरी परतों के बीच सीमा क्षेत्र को दर्शाता है। यह सीमा समुद्री सतह से लगभग 100 से 400 मीटर नीचे प्रारंभ होती है एवं कई सौ मीटर नीचे तक जाती है। वह सीमा क्षेत्र जहाँ तापमान में तीव्र गिरावट आती है, ताप प्रवणता (थर्मोक्लाइन) कहलाती है। महासागरीय जल के कुल आयतन का लगभग 90% गहरे महासागर में ताप प्रवणता के नीचे पाया जाता है। इस क्षेत्र में तापमान 0°C तक पहुँच जाता है।

• मध्य एवं निम्न अक्षांशों में महासागरों के तापमान की संरचना को सतह से तली की ओर तीन परतों के रूप में विभाजित किया जाता है।

० पहली परत गर्म महासागरीय जल की सबसे ऊपरी परत होती है जो लगभग 300-400 मीटर मोटी होती है और इसका तापमान 20°C से 25°C के मध्य होता है। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में, यह परत पूरे वर्ष उपस्थित रहती है, जबकि मध्य अक्षांशों में यह केवल ग्रीष्म ऋतु में विकसित होती है।

दूसरी परत जिसे ताप प्रवणता परत (थर्मोक्लाइन) कहा जाता है, पहली परत के नीचे स्थित होती है। इसमें गहराई बढ़ने के साथ तापमान में तीव्र गिरावट आती है। यहाँ थर्मोक्लाइन की मोटाई 300 से 1,000 मीटर तक होती है।

तीसरी परत अत्यधिक ठंडी होती है तथा अगाध महासागरीय मैदान तक विस्तृत होती है। यहाँ तापमान 0°C के निकट होता है। आर्कटिक एवं अंटार्कटिक वृतों में, सतही जल का तापमान 0°C के निकट होता है, और इसलिए गहराई के साथ तापमान में बहुत कम परिवर्तन होता है। यहाँ ठंडे जल की केवल एक ही परत पाई जाती है जो सतह से महासागरीय तली तक विस्तृत होती है।

2. महासागरीय लवणता (Ocean Salinity)

लवणता समुद्री जल की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। महासागरीय जल विभिन्न प्रकार के लवणों का मिश्रण है। सागरीय जल के भार एवं उसमें घुले हुए पदार्थों के भार के अनुपात को सागरीय लवणता कहते हैं। सामान्य रूप में समुद्री लवणता को प्रति हजार ग्राम जल में स्थित लवण की मात्रा (0/oo) या ppt (parts-per-thousand) के रूप में दर्शाया जाता है।

• महासागरों की औसत लवणता लगभग 35 0/00 होती है। 24.7 0/00 लवणता को खारे जल का सीमांकन करने की उच्चतम सीमा माना जाता है। अधिक लवण युक्त समुद्र अपेक्षाकृत अधिक समय में जमता है। इसी प्रकार समुद्री जल का क्वथनांक भी सामान्य जल से अधिक होता है। चैलेंजर अभियान (1884) के दौरान समुद्री जल में 27 प्रकार के लवणों के घुले होने का पता लगाया गया। जिसमें से कुछ महत्वपूर्ण लवणों की मात्रा के अनुसार क्रम है; सोडियम क्लोराईड, मैग्नीशियम क्लोराईड, मैग्नीशियम सल्फेट, कैल्शियम सल्फेट, पोटैशियम सल्फेट तथा कैल्शियम कार्बोनेट। यद्यपि विभिन्न महासागरों में लवणों की कुल मात्रा में अंतर हो सकता है, लेकिन संरचना के अनुपात में सर्वत्र समानता होती है।

महासागरीय लवणता को प्रभावित करने वाले कारक

वाष्पीकरण: महासागरों के सतह के जल की लवणता मुख्यतः वाष्पीकरण पर निर्भर करती है। लवणता का वाष्पीकरण की क्रिया से सीधा संबंध है। जहाँ पर वाष्पीकरण की मात्रा अधिक होगी वहाँ पर लवणता की मात्रा में वृद्धि होगी। यही कारण है कि उष्ण मरुस्थलों के समीप समुद्री जल में लवणता अधिक होती है। वर्षण की अधिकता के कारण लवणता कम हो जाती है।

स्वच्छ जल की पूर्ति : महासागरों में स्वच्छ जल की लगातार पूर्ति होते रहने पर लवणता की मात्रा कम होती जाती है। उदाहरणस्वरूप वर्षण की अधिकता वाले क्षेत्रों में स्वच्छ जल की आपूर्ति के कारण लवणता कम हो जाती है। हिम के पिघलने से स्वच्छ जल लगातार प्राप्त होता है जिससे ऐसे क्षेत्रों में लवणता की मात्रा में कमी हो जाती है। इसी प्रकार तटीय क्षेत्रों में नदियों के द्वारा लाया गया जल लवणता को कम करने में योगदान करता है।

• पवन: पवन भी जल को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में स्थानांतरित कर लवणता के पुनर्वितरण को

प्रभावित करती हैं।

महासागरीय धाराएँ: महासागरीय धाराएँ भी लवणता को प्रभावित करती हैं। भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर प्रवाहित होने वाली धाराएँ अपने साथ अधिक लवणता वाला जल ले जाती हैं तथा ध्रुवों से भूमध्य रेखा की ओर प्रवाहित होने वाली धाराएँ अपने साथ कम लवणता वाला जल ले

जाती हैं। इस प्रकार धाराएँ लवणता के वितरण में भी परिवर्तन लाती है।

• उच्च वायुमंडलीय तथा प्रतिचक्रवातीय दशाओं के कारण समुद्री लवणता बढ़ती है। जल की लवणता, तापमान एवं घनत्व परस्पर संबंधित होते हैं। अतः तापमान अथवा घनत्व में किसी भी प्रकार का परिवर्तन किसी क्षेत्र की लवणता को प्रभावित करता है। तापमान की ही भांति लवणता के वितरण का भी क्षैतिज तथा ऊध्वार्धर अध्ययन किया जाता है।

लवणता का क्षैतिज वितरण

महासागरों में लवणता के क्षैतिज वितरण को समलवण रेखा (Isohaline) के माध्यम से दर्शाया जाता है। समलवण रेखा सागरों में समान लवणता वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखा है। लवणता का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है:

• खुले सागरों की लवणता:

० कर्क तथा मकर रेखा पर लवणता की मात्रा सबसे अधिक है। इसका कारण यह है कि यहाँ पर वर्षा की कमी के कारण नदियों की संख्या कम है जो कम मात्रा में मीठा पानी समुद्र में गिराती है। यहां पर आसमान साफ रहता है और वायु शुष्क होने के फलस्वरूप सागरीय जल का वाष्पीकरण अधिक मात्रा में होता है। अधिक वाष्पीकरण लवणता को बढ़ाता है।

० भूमध्य रेखा के निकट लवणता की मात्रा कम होती है। यहाँ पर भारी वर्षा के कारण अमेज़न तथा जायरे जैसी विशाल नदियाँ बड़ी मात्रा में स्वच्छ जल समुद्र में गिराती हैं। इस क्षेत्र में वायु में आर्द्रता अधिक होने के कारण वाष्पीकरण भी कम होता है।

० ध्रुवों के समीप लवणता की मात्रा कम होती है। यहाँ पर 20 से 30 0/0 लवणता होती है। क्योंकि यहाँ पर तापमान की कमी के कारण वाष्पीकरण कम होता है। इसके अतिरिक्त हिम के पिघलने से ताजा पानी समुद्रों को मिलता रहता है। आंशिक रूप से घिरे सागरों की लवणता

० भूमध्य सागर, लाल सागर तथा फारस की खाड़ी में लवणता की मात्रा बहुत अधिक है। इन क्षेत्रों में 37 से 41 0/00 लवणता पायी जाती है। इसका कारण यहाँ पर ग्रीष्म ऋतु में शुष्क वायु के प्रभाव से अधिक वाष्पीकरण का होना है। इसके अतिरिक्त यहाँ कोई बड़ी नदियाँ भी नहीं है जो मीठा पानी इन समुद्र में प्रवाहित करें।

० काले सागर में लवणता की मात्रा अपेक्षाकृत कम है। यहाँ पर 18 0/60 लवणता मिलती है। यहाँ पर कम तापमान के कारण वाष्पीकरण कम होता है। इसके अतिरिक्त डेन्यूब, नीपर तथा डॉन जैसी नदियाँ बड़ी मात्रा में स्वच्छ जल सागर में गिराती हैं।

बाल्टिक सागर में लवणता बहुत ही कम है। यहाँ स्वीडन तट के निकट 11 0/00 तथा बोथनियाँ की खाड़ी के निकट केवल 2 0/0 लवणता पायी जाती है। यहाँ तापमान कम होने के कारण वाष्पीकरण कम है। इसके अतिरिक्त हिम पिघलने तथा स्कैंडिनेविया के पहाड़ों से अनेक छोटी-छोटी नदियों के बाल्टिक सागर में गिरने से पर्याप्त मात्रा में स्वच्छ जल एकत्रित हो जाता है।

• अंतर्देशीय सागरों तथा झीलों की लवणता

० इनकी लवणता पर वाष्पीकरण, उच्च तापमान तथा स्वच्छ जलापूर्ति का प्रभाव पड़ता है। नदी के अपवाह से लवणता में कमी होती है तथा बाह्य जलापूर्ति क्षेत्र से सम्बन्ध नहीं होने पर लवणता की मात्रा बढ़ जाती है।

० अंतर्देशीय समुद्रों तथा झीलों की लवणता सामान्यतः बहुत अधिक होती है। संयुक्त राज्य अमेरिका के उटाह राज्य में ग्रेट साल्ट लेक में लवणता 220 0/00 है। जॉर्डन में मृत सागर की लवणता 238 0/oo तथा टर्की में वान झील की लवणता 330 0/00 है। वान झील तथा मृत सागर में अधिक लवणता के कारण जल का घनत्व इतना बढ़ गया है कि

यहां मनुष्य डूब नहीं सकता। इन क्षेत्रों में लवणता की अत्यधिक वृद्धि का कारण यहाँ अधिक वाष्पीकरण तथा जल की कमी है।

० कैस्पियन सागर भी अंत: समुद्र है, किंतु इसमें वोल्गा तथा युराल नदियाँ पर्याप्त मात्रा में मीठा जल लाकर प्रवाहित करती हैं। अतः यहाँ पर केवल 14 से 17 0/00 तक ही लवणता रहती है।

लवणता का ऊध्वार्धर वितरण

गहराई के साथ लवणता में परिवर्तन होता है, परन्तु इसमें परिवर्तन महासागरों की अक्षांशीय स्थिति पर भी निर्भर करता है। सामान्यतः गहराई में वृद्धि के साथ लवणता कम होती जाती है। सतह की लवणता जल के हिम या वाष्प रूप में परिवर्तित हो जाने के कारण बढ़ जाती है या स्वच्छ जल के मिल जाने से कम हो जाती है। गहराई में लवणता लगभग नियत होती है, क्योंकि वहाँ किसी प्रकार से जल का ह्रास या लवण की मात्रा में वृद्धि नहीं होती। अतः महासागरों के सतही एवं गहरे क्षेत्रों के बीच लवणता में स्पष्ट अंतर होता है। लवणता साधारणतः गहराई में वृद्धि के साथ कम होती जाती है तथा एक स्पष्ट क्षेत्र, जिसे हैलोक्लाईन (Halocline) कहा जाता है, वहाँ यह तीव्रता से बढ़ती है।

• लवणता समुद्री जल के घनत्व को प्रभावित करती है तथा महासागरीय जल के स्तरीकरण को प्रभावित करती है। यदि अन्य कारक स्थिर रहें तो समुद्री जल की बढ़ती लवणता उसके घनत्व को बढ़ाने में सहयोग करती है। उच्च लवणता युक्त समुद्री जल प्रायः कम लवणता युक्त जल के नीचे बैठ जाता है। इससे महासागर में लवणता का स्तरीकरण होता है।

समुद्री लवणता के लंबवत वितरण की प्रवृतियों का विवरण निम्नवत है:

• उच्च अक्षांशों में स्थित शीत कटिबंधीय महासागरों में 300 से 1000 मीटर की गहराई तक लवणता में वृद्धि होती है परंतु 1000 मीटर गहराई के नीचे लवणता लगभग स्थिर रहती है।

• निम्न अक्षांशों अर्थात उष्णकटिबंधीय समुद्रों में 300 से 1000 मीटर की गहराई तक लवणता में ह्रास होता है, परंतु इसके नीचे लवणता स्थिर रहती है। यहाँ महासागरीय जल की सबसे ऊपरी सतह में अधिकतम लवणता होती है। इस तरह स्पष्ट है कि 300 मीटर 1000 मीटर की गहराई में लवणता में तीव्र परिवर्तन होता है इस परत को हैलोक्लाईन कहते हैं।

3. महासागरीय जल का घनत्व

• घनत्व सागरीय जल का अति महत्वपूर्ण भौतिक गुण है, जिस पर सागरीय जल का अधोगमन तथा क्षैतिज गतियां निर्भर करती हैं। सामान्य नियमानुसार अपेक्षाकृत कम घनत्व वाला हल्का सागरीय जल तैरता है तथा उसमें क्षैतिज गति होती है, जबकि अधिक घनत्व वाला भारी सागरीय जल अधोगमित होता है।

• किसी भी तत्व के प्रति इकाई आयतन के द्रव्यमान (mass) की मात्रा को घनत्व कहते है तथा इसका मापन प्रायः प्रति घन सेण्टीमीटर आयतन में ग्राम (g/cm3) में किया जाता है। 40 सेण्टीग्रेड तापमान पर शुद्ध जल का घनत्व 1.00 g/cm3 होता है।

• महासागरीय जल में कई तत्व घुले रहते हैं, जिससे इसका घनत्व शुद्ध जल के घनत्व से अधिक होता है। वास्तव में महासागरीय जल का औसत घनत्व 1.0278 g/cm3 (1.02677 g/cm3) होता है। जो कि शुद्ध जल के घनत्व से 2 से 3 प्रतिशत अधिक है। सागरीय जल के घनत्व में सामान्यतः सागरीय जल के तापमान में कमी होने पर वृद्धि होती है।

सागरीय जल के घनत्व के नियंत्रक कारक

तापमान: तापमान तथा घनत्व में सामान्यतया व्युत्क्रमानुपाती सम्बन्ध होता हैं। सागरीय जल की सतह द्वारा अधिक सूर्यातप की प्राप्ति से जल का तापीय प्रसार (thermal expansion) होता हैं जिसके कारण सागरीय जल के घनत्व में कमी होती हैं। इसके विपरीत कम सूर्यातप प्राप्ति से जल ठंडा होकर सिकुड़ता है तथा तापीय संकुचन (thermal contraction) होता हैं, जिसके कारण सागरीय जल का घनत्व बढ़ता है। इस प्रकार गर्म जल का आयतन अधिक होता है। परन्तु कम घनत्व के कारण वह ठंडे परन्तु भारी जल के ऊपर आसानी से तैरता है।

लवणता: सागरीय जल की लवणता (salinity) एवं घनत्व में सीधा सम्बन्ध होता है। सामान्यतया

अधिक लवणता होने पर सागरीय जल का धनत्व बढ़ता हैं, तथा कम होने पर घटता है।

दबाव: दबाव तथा सागरीय जल के घनत्व में सीधा धनात्मक सम्बन्ध होता है। सामान्यतया बढ़ते दबाव के साथ घनत्व में वृद्धि होती जाती है। तथा दबाव के घटने पर जल का घनत्व भी कम होता जाता है।

महासागरीय जल के घनत्व का स्तरीकरण

महासागरीय जल के घनत्व की दृष्टि से ऊपरी सतह से तली तक जल की 3 परतें या स्तर (strata) दृष्टीगोचर होते हैं:

• न्यूनतम घनत्व की ऊपरी परत,

• तीव्र घनत्व परिवर्तन या तीव्र घनत्व प्रवणता की मध्यवर्ती पाइनोक्लाइन (pycnocline) परत, तथा

• अधिकतम किन्तु समान घनत्व वाली निचली परत।

उष्ण एवं उपोष्णकटिबन्धीय महासागरों में 300 से 1000 मीटर गहराई वाले भाग, जिसमें सागरीय जल के घनत्व में तेजी से परिवर्तन (वृद्धि) होता है, को पाइक्लोक्लाइन कहते हैं। थर्मोक्लाइन, पाइक्रोक्लाइन तथा हैलोक्लाइन लगभग एक ही गहराई मण्डल (300-1000 मीटर) में अवस्थित होती

महासागरीय जल का तापमान कितना होता है?

उत्तरी एवं दक्षिणी गोलार्ध का औसत वार्षिक तापमान क्रमश: 19 डिग्री से० तथा 16 डिग्री से ० के आस-पास होता है। यह भिन्नता उत्तरी एवं दक्षिणी गोलार्थों में स्थल एवं जल के असमान वितरण के कारण होती है। चित्र 13.4 में महासागरीय सतह के तापमान के स्थानिक प्रारूप को दिखाया गया है।

विश्व की सबसे गर्म जलधारा कौन सी है?

फाकलैंड की धारा: ठंडी जलधारा है।

महासागरीय जल की गति को प्रभावित करने वाले कारक कौन कौन से हैं?

चित्र 14.1 : तरंगों की गति एवं जलीय अणु —. तरंगें गति करती हैं, क्योंकि वायु जल को प्रवाहित करती है जबकि गुरुत्वाकर्षण बल तरंगों के शिखरों को नीचे की ओर खींचता है। गिरता हुआ जल पहले वाले गर्त को ऊपर की ओर धकेलता है एवं तरंग नये स्थिति में गति करती हैं। तरंगों के नीचे जल की गति वृत्ताकार होती है।

महासागरों का जल क्या है?

बर्तन से जल निकालने के बाद शेष जल, लवणीय जल को दर्शाता है, जो महासागर एवं समुद्र में पाया जाता है। यह जल उपभोग के लिए उपयुक्त नहीं है। यह लवणीय जल (नमक युक्त) होता है।