मुगलकाल में मीर ए सांमा का क्या काम होना था? - mugalakaal mein meer e saamma ka kya kaam hona tha?

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प्रकाशक : चोपासनी-रिक्षासमिति जोधपुर भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा संचालित प्रादेिक भाषाग्रो के विकास सम्बन्धी योजना से सहायता ब्रात्त प्रयम्‌ संस्करण मुद्रक : हरिदत्त धानवी ध्री सुमेर प्रिटिग प्रस, जोधपुर प्रर य । ९ २०५ नर कई चितवे, करे परमेस्वर कां नर तो धारे सहज, करे भुसक्लं गुसाई रावण मन जाणतो, करू सीता पटराणी राड मंदोदरि हई, लक पुनि हुई विरांणी क्यौ न हुवो दस्तकध रौ, खाविंद राश्रखरां खरा कचि श्रोषश्रगयानी नर कहै, नन्वांरीतेराकरां -ग्रोषो श्रादौ अपनी बात राजस्थानो शब्दकोष के चतुथं खण्ड को प्रथम जिल्द सुहृदय पाठकों के सामने प्रस्तुतं करते हृए सुभे हषे है । वर्षो को लगनसेजो कायं सम्पन्न होता है, उसमें व्यवघानों की संख्या भी कम नहीं होतो 1 लेकिन हमारा कत्तव्य व्यवधानों से चिच लित होना नहीं है अपितु काये की गति को कायम रखते में निहित है। कोष के कायं को गति देते के लिए समित्तिकी ओर से ह्र सम्भव प्रयत क्ियिजारहैहैं। भ म इस उप समिति के पहले की उप समितिके सभी सदस्यों भौर भ्रध्यक्षो को धन्यवाद देता हं कि जिनके प्रयासों से यह्‌ कायं यहां तक भगे ब्रढ पाया। मुभे विहवास है कि कोष के विद्वान सम्पादक श्री सीतारौमजी लालस, चोपासनी रिक्षा समिति के उत्साही सदस्यों भौर राजस्थान सरकारके सहयोगसे यह कायं यथा-समय सम्पच्च हो सकेगा । प्रहकादसिह ग्रध्यक्ष उप-समिति राजस्थानी शब्द-कोष जोधपुर, व कोषाध्यक्, चौपासनी शिक्षा समिति, ३-१२-१९७३ जोधपुर । प्रकाशकीय चौपासनो लिक्षा समिति की विभिन्न गत्तिविधियों मे राजस्थानी शन्दकोष का प्रक्रशन भी एक महत्वपूर कायं है । यह कायं क्षक्षा समिति दारा संचालित्त राजस्यानी शोध संस्थान के अन्तगं प्रारम्भ किया गया चा परन्तु कालान्तरमें इत कायं के बृहद स्वषूप को देखते हुए इस कार्य करे संचालन के लिये शिक्षा सभित्तिने इस कार्यं मे विशेष रुचि रखने वाले श्रपने सदस्यो कौ एक उप-सयित्ति का गठन क्रिया । तव से शिक्षा-समिति कौ भ्रोर से यहु उप-समिति इस कायं की देखभाल कम्ती ह । तमय समय पर रिक्षा-समिति कीश्रोरसे इस समरितिके गठन में परिवतेन भी क्षयि गये ह परन्तु समिति के सभी सदस्यों ने यथा शक्ति दस कायेकोग्रागे बढाने का स्तुत्य प्रयास कियारहै। ह्म स्वर्गीय कर्नल इयामर्िहजी का श्राभार कमो नहीं भूल सकते जिन्होने हर प्रकार से इस कायें को गति देने में श्रपन्ा श्रसाघारणा योग दिया रहै! कोप कार्याज्िय के नियमित संचालन के लिये राजस्यान सरकार द्वारा श्राव्तंक श्रनुदानं दियर्जात्ता हतया कोपकी छाई व॒ कागज श्रादिके लिये राजस्यान सरकार एवं कैन्रीयं सरकार हारा गरैशेध्चर्तकर-प्रनुदान दिया जातारै। श्रन्य साधनोंसे भो प्र्थ-व्यव्रस्था की जातीहि। हम राजस्थान सरकार के भूतपूव शिष्टा मंत्री श्रो चंदनमलजी वंद तथा शिक्षा प्रायुक्त श्री महैन्रसिहजी के वड्‌ श्रामारी हैकि दुसर कायं के महत्व को ममते हुए उन्होने श्रपते कार्यकाल मे कोपको सरकारी ्रनुदान दिलवाने मे वड़ी उदारता ग्रौर सहूदयता से श्रपना महत्वपूर्ण सहयोग दिया । साथही कोप के सम्पादकश्री सीताराम लात्तसको, जोकिम्रवर ६१ व्पकेहो गयेर्हु, २ वर्प तकर श्रीर स्वेतनिक कार्य करने की स्वीकृति देनेकीनजोषकृपाकी है उसे भी हमारी एक वड़ो कठिनाई हल हो गई है । कोश के इस चतुथं खण्डक प्रथम जिल्दमेयसेलतकके वर्णं द्धप चुके है । श्रागे इसी खण्डके ३ भागप्रौर निकरलेगे जिनके सम्पादन का बहुत स्रा काये सम्पच्च हो चुका हैश्रीर हमे श्राल्ा है कि सरक्रार ग्रौर विन्न पाठका का सहयोग इसी प्रकार मिलता र्हातो २-३ वर्षो में यहु कार्यं पूरणाहो जायगा) ध कागज श्रौर छपाई को वदती हई मंहगाई के कारणा इस जित्दका मूल्य हमे रुपये रखना पड़ रह्‌! ₹। ग्न्त मँ हम पहले की उप-समित्तियो के सदस्यों ग्रीर श्रध्यक्षों तथा उन सभी सजञ्जनोंका प्राभार्‌ प्रकट करते ह, जिन्होनि इत मदृत्वरपूणो कर्ये में ्रपन। भ्रमूत्य सहयोग दिया है । प्र मतिह्‌ मत्री जोधपुर, २-१२-१६५७३. , उध-सतनिति राजस्थानी श्षव्द कोष व चौपासनी, शिक्षा समिति : ।} श्रो ॥ % निवेदन ‰ -ःदुहा सोरठाः- नारायण भूते नही, श्रपणी माया ईय । रोग पैल श्रोखद रचे, जगवाढा जगदीश ॥१॥ साच न वृदो होय, साच श्रमर संसारमें। कंतो धोवोकोय, श्रो सेवट प्रकटे 'उदय' ॥२॥ तेवा देदा समाज, धरती मे साचो धरम ! इण सूं पूरं भासत सकल मनोरथ सांवरो ॥३॥ सादिति री सेवाह्‌, सेवा देश समाज री । भ्रावे इए एवाह ईशर किरपा सू उदय ॥४॥ खत ऊना पदेश, उदयराज ऊजल श्रै 1 दीपै वांस देश, ज्यांरा सादित जगमग ॥५। भारत संसद में सन्‌ १६५० रे करीव देरी दूसरी सगला प्रन्तां री भासावां मानी गई उणां रे सामल राजस्थानी भाषाने नहीं मानीतो कुदरती तौर सूं राजस्थान मंश्रपणी मापा राजस्यानी नै मान्यता दिरावण सार श्रान्दोलन पत्रों मे शुरू हवो । राजस्थानी रे विरोधमे श्रक्सर श्रा बात कहीजतीके इण रो कोई श्राघुनिक कोश नहींहो। श्रो घाटो मिटावण सार म्ह सीतारामजी सालसने कयो क्योकि हुं जाणतो होके हिगलरा संग्रहुरो उणाने काफीं भ्रनुभव है। श्री सीतासमजी इणा कामसरारूतयारदौगयाने म्ह दोनु सामिलहोयने पुरा सहयोगशस्‌ मनत सूंकोक्ष रोकाम शुरु कियो ते दण मे ख्च॑री मदत री जरूरत हई तो उक्ता वावत म्है स्वर्गीय छक्र श्री भवानीसिहजी साहुव षार एटला पौकरणने श्ररज करी। इणां कृपा करने मंजूर करीने तारीख १-५-५१ सूं रुपीयारी मदद देणी चालू कर दीव । सीतारामजी मथारिया में लेखक राखने काम श्षब्द संग्रह्‌ री स्तिप कोपियां लिखावश रो चालू कर दीयो श्रीर्ह दोन तारीख १-५-५१ सू सन्‌ १६५२ रा श्राखिर तकं सामिल कोम क्यो जिणसरु कुल शब्द ११३००० स्लिप कोपिर्यांमें लिखीजीया फेर समय २५६ हेरफेरसं श्री पोकरण ठाकुर साहब रीसहायतावंददहौ गई, इण सूं सन्‌ १६५३ लगायत “सन्‌ १९५६ तक ४ साल तके कक्ष रो काम वंदरेयो। इण कोश नेपूरोकरण रीम्हांदोन्‌ रोलगनदही। म्ह करनल श्री स्पामरसिहुजी रोडलाने जून सन्‌ १६५६ मे कोल्ल मे सहायता देवख सार क!गद लिखियो उ्खणरो जवाव उणां तारीख २६-६-५६ रा कागदमं म्ह लिखियोके कोश साख मानार ₹० ५०) ३या४ सालतकया कोश पूरो होवे जटा तक्र दे सर्कला। परन्तु उणारा पिता करनलश्री श्रनोपसिहुजी वीमार हो गया इण वास्ते सहायता चाच होरोमें देरी हई । उणांरे स्वर्गवास होरोरे वादमे नवम्बर रा श्रन्त मेने दिसम्बर रा शुरूमे जोधपुर मे ही जद कर्नल श्री सराम्िहजी कोक री मदत वावत वातचीत करणने दोयवार म्ह\रे मकान पर श्राया म्रौर फिर षहायता देणी चालू कर दीवी, कौश रो काम उर्णा री सहायतासूं सन्‌ १६५७ री जनवरी सूं सीतारामजी जोधपुर में चालु कर दियो क्योकि जद उरं रो तवादलो जोषपृरमेंहोगयोहयो। जो एक लाख तेरह हजार श्ञब्दोंकी स्लिप कोपिर्यां पेली वणी हई हौ । इणतरे सव शाब्द ग्रक्षरवार क्ियाजाय नेखउणां प्रक्षरवार रजिस्टर में लि लिया गया इरातरे कोड सन्‌ १६५८ री माह्‌ मर्ईतकपुरोहौगयो। म्ह पेलीरी तरे सीतारामलीरेसाथहूर तरह रो सहयोगने मदत राखीतेकाम कियोश्रो कोप करनल शरौ सामसिहजी री रपीया रौ सहायता सू पूरो हो । इरे वाद प्रेस कापी वणावणा रो काम चान्नु हुवो ' उणरे खरचे रो प्रवन्ध ठकुरश्री गोरघनक्षहनी मेडतिया खानपुर वाला श्री कालावाडइ दरवारम्रुश्रीनीर्वाज छऊक्रुर साहवसू रुपियांरी सहायता सेने करायोने तरे दपण रो भवन्ध राजस्थानी सोघ संस्थान चोपासणी जोधपुरसु हृवोने तारीख ११-३-५६ ने सीतारामजी ते इण ॒सोध संस्थान दिक्षा विभागसूुलौनपरले लिया जदमसु वै इण संस्थानमें काम करण लागा । इण कोश ने तयार करावण॒ मेँ व्युत्पत्ति विभाग पूरो करावण॒ मे स्वर्गीय पं० नित्यानम्दजी शास्त्री जोधपुर की धरणी मतद ही दण वास्ते वेक्रठ्वासी विदवान ने घणा धन्यवाद देवां हा । तारीख २२-५-५७ ने लिख दय्या नीचे मुजव दोः- चांद वावडी ता० २२-५-५७ सीतारामजी लालस ने राजस्थानी कौश की रचना कोह । यहु भारी कठिन का्यंका यंच भी उदयराजजी उज्जवल यंत्री ,मेकेनिकल) के वल संचालित हुवा है। मने इसे देखा, इन्होंने प्रत्येक कशब्द श्रौर धातु को जांचकर उनके प्रयोज्य सव प्रकार के प्रयोगो को प्रदक्ित किया है क्योकि इन्होने संरकृत, प्राकृत, श्रपश्र ष विविध भाषाश्रों के वल पर यह्‌ कायं भार उठाया है। वीच वीचमें हूर समयमेरे साथ विचार विमन्ञं करते हए भ्रापने पूणं परिश्रम करके इसे रचा है । एसे कठिन कायेकोपार करनेमेंश्वीसीतारामजी कीही पूणंङ्ृपाने सहायता की है । श्राशाहै राजस्थानकी जनता इससे लाभ उठाकर इस कोश की चृटी की पूर्ती प परं संतुष्ट होगी प्रौर श्रम को समने वाते विद्षान कायं की प्रशंसाकरेभे। फकत-नित्यानन्द शात्रौ । इण तरे ननण विद्वविद्यालय सू डा० उन्ू° एस° एलन जो संपार री करीव चालीस भषाश्रों रो सानक्रार है ने ग्रनतरष्टीय स्यातीरा भापा ज्ञास्त्रीहै वे राजध्थानी भाषा रे ध्वनि विज्ञान संवधी जाव वोश्ोधररो कामस।रु सन्‌ १६५२ मे राजस्थान भ्रायाहाने जोधपुर में दोय मास ठहूरिया हाने भ।ष। रे निलसिले में म्हारे कने घणा भ्राता उणानि महे ने सीतारामजी दोन कोश वाली स्लिप कोपिया रायरे वस्ते म्हारे मकान पर दिलाई ही उणा महारो उत्साह बधायो उणां रो सम्मति नीचे मुजव हैः-- त 9173४ ०11 &< € 19७०4 € । 2 © १27७ ., 7 980 1 15 6260619१ 6\/5 07 00/18 10019165 {08 78 88851181 01600181 ज 5 (108\/18) (12/81 8710 5111 5119817) 18135 15 ०6५४ 10 06 00015160 82851181} [285 10019 16556116 8 56710४5 80 10) {06 ©01110818{1५6 5100 2 176 \/008- 01187 † {068 1000 -^1/81 1802065 वात 10५४ 81 [-291 {1 15 160 ४ {€ €५०९व ५५०६ न © 81851811 56101815 800 {€ 5100011 {617 01511915160 50015015, । ।८१०५५ ५/०॥ {16 ताीतणाच्ञ कभ 118५6 06561 {6 ५0618619 ज 11115 185}< 810 115 0 ना) 15 नवर्नठा € 8॥ {6 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रखी नह्‌ प्रदण मे भावखां प्रात री, निरखतां जाय है प्रत्त नीचो ॥४॥ वणई चारणोव्याकरण विघोवित्र, वसोगौ कोल्ल ही लाखसवदो। सीत रो परीश्वम प्रथग फलियो सिरे, रेयियो "उदय मिलन सकल सवदो ।॥।५॥। पोकरण भवानीसीह्‌ चपि प्रथम कोश रे हैत घन ख्चं कियो । ¶१३ता लाच इण स्मेरा फेर सू, स्यामसी सोडले कांम सीघौ ।\६॥ रोले स्मामपो सपूतो सिरोमरा, कमधजं भ्राज श्रखियाज कधी । वार विपरीति में हजारों खरचवे, दाद उजल "उदे" देस दीधी ॥ ७।। चारणो दोय मिल व्याकरण कोश रचि, वण्या नह्‌ बड कृवराज मिलियो । कमघा दोय मिलनं कियो मुभ काम जो, महीयो क्रियो नह बी भिलियो॥।८॥। कवित सूयंमल मिदण ने वनाया वस भास्कर, वूदी नृपराम ने खजाना खोल करक । सावल कविराज ने उिखाया इतिहा त्योही उदियापुर रान के कोप वलं घर के । सीताराम लालस ने की राजस्थानी कौ उदयराजं उज्जवल के योग दाक्ति भरकर | पोकरण भवानीर्िह्‌ स्यामसिह्‌ रीडला के कोप हित कोप वते दानी घन घरक । प्रति की प्रवल भाषा प्रतिष्ठित परंपरा विद्ुघन दीनमाल वीरपद वाला हे । दिक्षा को माध्यम निज प्रान्त हमे रखी नहीं होय कोटि जनता को दास गति डाला है । दुव्रत है मात्र भाषा वीर राजस्थान कैरी, प्रान्त का भधिप्य याते दित विदाजा है । जीवित उद्गी प्रीय राजस्थानी भ्रादामात्र, व्याकरण को याके वनेगे जिन्नाला है । 0109166 ४४ 5५. 81 5179) 50. ह° उदयरांज उज्वलं र 8 1१ न धो ७0 87} ©॥ 806 «811 न ॥.. ८1४1 ५४५७१. «06000४1. 2 ॥ 1 संकेत ओर चह सांकेतिकः स्प पूण नमि भ्रं° प्रग्रेजो भाषां प्र० प्रवी मापा प्ु० श्रकमक श्रक० 5० श्रकर्मक खूप श्नु अनुकरया श्रप० भ्रपश्चष् श्रत्प०, प्रत्पा० श्रत्मथं स्प रभ्य 3 श्रत्पय दव्र व्रानी मापा उप० उपसर्ग उदु शति उभमयलिगं कमं वा०, कमं वा> ₹<० कमवाच्य, रूप च्छि पिपा क्रि० प्रर क्या प्रकमक क्रि० प्र छिपा प्रयोग करिण प्रेण छिपा प्रररार्थक क्रि" वि ४ . च्छ्य विश्नेपयण क्रि० मर छ शिया सफकमक गु० ५९ गुजराती भाषा गोर र० गोरादि घीण खीनो भाषा जा० जापानी नापा {डि9 गद । तुण तुर्क भाषा पं० पंजावी भाषा पा० पाली भाषा पुर पृ्लिग प्तं» पुत्तगाली भाषा पुष पृषोदरादि प्र* प्रत्यय प्रा प्राफरत प्रे प्रेरगार्थक प्रे० स० प्रेरणाथक स्प फा० फारसी भाषा फ़रा० फछ्रंसीसी भापा व° वश वहुवचन भाव वा० भाव वाच्य भावि वा० रू० भाव चाच्य स्प च्चिर चिन्द्‌ का स्वरूप स्थान - र दाव्दकेभ्रागे दाव्द के श्रक्षरो के बीवमे सिर पर व्क शव्द के नीचे (००. शाब्द के दोनों श्रौर सिरो पर सकितिक खूप ° भू० 9 क्ि० भू का? 9 भू९ कृ° प्र म9 महम मह््वण मार सू० यी० रा० राज्‌ र[० त्र तं वु व° का० $° विश विलो व्पांण० दाकःण० सं° सं इउ० कट्‌ा० क्वृऽ पण ज० ि० ज्यो? दे० प्रा० भ्रुर प्राण ¢ सि० मु° भुट्‌ा० विण वि० पूणा नामं भूतकाल भूतकालिक किया भूतकालिक कृदन्त भूतकालिक प्रयोग मराठी मापा महत्ववाची शब्द भागयी भापा मूनानी भाषा यौमिक शब्द राजस्थानी भाषा राजस्थानी प्रत्यय खटिन भाषा वतमान कलि वतमान कालिक कृदन्त विक्षेपणं चिलोम स्याकरणं शकन्ब्वादि सस्कृतं संज्ञा उभर्यलिम ज्ञा पुत्लिग स्ता स्वरीलिग सकर्मक सकर्मक सूप स्वनाम स्त्रीलिग स्पेन भाप उदाहरण कहावत क्वचित प्रयोग जग्गौ खिडियौ ज्योतिप सम्बधी देखो भ्राचीन प्रयोम प्राचीन रूप मिाग्रौ मुहावरा विद्ेप विवरण यह शब्द कवितामें ही प्रयोग होताहै। यह ध्वनी-लोपिक चिन्ह है, जहां ह की ध्वनी लोप होती है वहां श्राताहै। उच्चारण की ध्वनी भिन्नता वतलाता है। व्यत्त वाचकः संज्ञ का सूचक {इन ्वडिड कौमा) सं्ल्त नाम श्रनैक9 श्रनेका० प्रमरत श्रु० भाण श्र० वचनिका 2० काण० उ० २० एका० ठ.जऽकाण्सं” क० कु० वो. कां०्दे° प्र गी» रा० गु० ० वं गो० <° डि° को० {इ० नाण माण टो० माण दण दा द° वि देवी पण्वण ग्रं ना० भा? न{० इ० कोऽ नाण दम नीण० प्र नणासी° पं०प० च प्० चु% चौ पा० भ्र पि भरण पीण ग्र° पे० रू० मा० दा दा० दा० स्या सी०्दे° भरभ्मा९ भि्प्र०, िष्द्र मा० फां० प्रर सन्दर्भ ग्रंथ सूची पूर्णा नाम श्रनेकार्थी कोप ग्रमरतं सागर श्रवघधान मारा प्रचलदास खीची री वेचन्िका ऊमरकाग्य उवित्तं रत्तनाफर एकाक्षरी नाम माठा रेतिहासिक जेन कान्य सग्रह कचिकूढ वोघ कार्हृडदे प्रवं गीत रामायण गुण रूपक वव गोगादे रूपक डिग कोश डिगद नाम माठ टोला मार दयालदास री ख्यात दटरपतं विलास देवियांरं धमं वद्धन ्रन्थावलि नाम मारा नागराज डिगठ कोक्ष नागदमण नीति प्रकार नणसी री ख्यात पंच पंडव चरित पद्धिनी चरित्र चपा पायु प्रकाल पिगदढ प्रकाद् पीरदान ग्रन्यावषटि पेम्सिह्‌ रूपकं वांकीदास ग्रन्यावकछि वांकीौदास री स्यात दीष्ठलदे रासौ भक्तमाल भिक्खु श्प्यान्त 32 भाघवानल काम कदला प्रवेध रचयिता का नाम उदयराम वारहठ महा० भ्रतापसिह्‌ जयधूर उदयराम वारहूठ शिवदाप्त गाड ऊमरदांन लाठस साधु सुन्दरशशि वीरभांण रतनु, उदयम बारहृठ संपा. प्रगरचन्द नाहटा उदयराम गरहठ पद्यनाभ प्रमृतलाल माथुर केसोदास गाढण पहाडइखां श्राढौ कविराजा मूरारीदान, व्रुदी हरराज कवि सम्पादकत्रय रामर्सिह्‌ तेवर, सूर्यकरण पारीके व नरोत्तमदास स्वाम दयाछदासर सिढायच सम्पादकं रावत सारस्वत सरदास वारह्‌ठ संपा० श्रगरचन्द नाहटा भ्रज्ञाते नागराज पिगछ सादयां भूला सगरांमरसिह्‌ मृहणोत मुहणोत नंणसी सालिमद्र सूरि कवि लब्घोदय मोडजी श्रासियौ हमीरदनि रतन "पीरदांन लालस प्रतापदान गाड नाकीदास -जंकीदास कवि नाल्ह्‌ ब्रह्मदास भीखणजी कविं गणपति मा मऽ मा० वचनिका- भीरां मेघ० मे० मन र्‌५ जठ धऽ ₹्‌० 59 २० वेचनिका र० हमीर रा० जे° रातौ रन्ज दद रां० रा० २1० 5० रा० चं* वि० रा० सा० पुण लर ¶प० ला० रा? लो० गी वं० भा० तण सण वि० कु वि० किण वीर मा वो० (२8 ^. वी० (<8 टी वेलि० चलि टी9 शा० हो° शि० प° शि० सु० 9 स्थ कुन स्‌० प्रु0 ह° ना मा ह्‌9 पु० वा० ट० र ह्‌ा° भा० मारवाड मदु मद्युमारी रिपोर माताजी री वचनिका मीरां बाई मेघदूत मेहाईमहिमा रघुवरजस प्रका रधुनाघ रूपक रतन विह महैसदासोत री वेषनिका रतना हमीर री वारता राड जंतस्ी रौ रासौ राउरजतसीरोद्धंद रांमरासौ राज र्पकः राठी वंस री विशत राजस्थानी साहित्य षम्रह लखपत पिगठ लावा रासो राजत्यानी सोकगीत वेध भ्किर्‌ वरणंक समुच्चय विनयकुमार कृति कुमुमाजिलि विदट्दसिणागार वीरमापर वीर सरतस वीर्‌ सतसई री टीका वेलि क्रिपन सकमणी री वेचि फिसन रकमणी री टीका दालि होत्र दिखर वंश्ोत्पत्ति दिवदान सुजस रूपक समय सुन्दर एति कुपुमांजलि सूरज प्रकादा हमीर नाम माघा सीहरीपुरुषजी की वाणी ह॒रिरस हालां कालां रा कूडलिया मुन्दी देवीभ्रप्ताद जती जयचन्द तारायणसिह भारी हिमलाजदन कवियौ किसनौ भ्राढौ मद्धारांम जग्गो खिडियौ महा० मानर्षिह्‌ जोधपुर श्रज्ञात वीद सजौ नगराजोत माघौदास दधवाडियौ वीरभांण रतन परजलात संग्रह, सम्पादनं स्वापि नरोत्तमदास हमीरदान रतनू गोपाटदान कवियौ संग्रह्‌ सम्पादन सूर्यमल मीस्षण सम्पादक भोगीलाल सिस्रा फविवर चिनयचंद्र कविराजे करशीदांन कवियौ चहादर ढाढी सूयमत मीसण किसोरदान वारहठ भ्रज्ञात भ्रात प्रज्ञात गोपाठदांन कवियौ लालदान वारहूठ महाकवि समयमुन्दर कविराजा करणीदान हमीरदांन रतेनू श्री हरीपुरुषजी ईसरदासर वारहूठ ^, [&। राजस्थानी सबद कांस | राजस्थानी हिन्दी वृहत्‌ कोक्च | { चतुथं खण्ड | ( प्रथम नित्द ) ४४५ यं ३६५१ ध्र । [का य-देवनागरी लिपिका २६ वाँ व्यंजन जिसका उच्चारण स्थान तालु है तथा जो यत्न भेदके अ्नुमार घोप, प्राणा भेद के प्रनुत्नार ग्रत्स- परारा तथा प्रयत्न मेद के अनुसार ईपल्स्पृष्ट है एवं स्थिति भेदके भ्रनूमार भ्रंतस्थ ह) य॑कछषा-रेखो "इच्छा" (<.भे.) उ०--करचि प्राण॒ केवियां, दसा श्रमरथि दृरवंद्ां । मु रिव वां सास्र, जाणा नरं तारिव पदां । --रा. रू यंत-सं. पु. [सं. यन्तृ] १. सारथी, गाड़ीवान । (डि. को.) २. परिचालक । यंता-वि. [न. यंतर] चलाने वाला । उ०-नियंता यंता ना चपट चित चिता भन चुके, प्रचेता चेता ना जियत हम प्रेता वन चुके । --ऊ. का. यंत्र-सं. पृ. [सं. प्रत्रम्‌] १ म्यीन, कल । उ०--गड कलाम जिम न , गरं पीति, सवर कपाट, लोहुमय भोगल, विजयहरी तणी पद्धति, यंत्र तणी स्रगी, दीकनौ ती परपरा; --त्रे स. २ श्रौजार्‌। २३ श्रर््र, हथियार । ४ वाद्य, चाजा । उ०-- यंत्र वजाया साजे क्र, कारीगर करतार । पंचोंका रसनाददहै, दादू वोलणहार। - (च. स.) दादू वांणी भ तावीज | ` उ०-पाध उपरे चकद्र तरवारियां रौषट्‌ रदीद्धं) पराग्ने प्रतीत री दियोडौ यंच पामे रहती ग्रीर महाराजा करणासिहजी री दीन्ही स्याघ्िासीगी सदा पाधरं माही र्दटती तिणमू सरीर री रक्षा रहती । --पदमर्मिह री वति ६ जादू, टोना । उ०--हिवे श्यांरं देस माहे धान चणा! वहवारियां र लाये म्न हुवौ । कट कोट, वगे, काद्य, पावर रा महाजन एकटा हुवा दौहनं एकं वरतीये नूं कल्यौ, जु “वान म्हाह्रं वणी । ज्यु करी, ज्यु वान रा पर्दूसा हवं 1" तारां महाजन मेह वंवायौ । ताहरां यंत्र लिचि अ्ररदहिस्णरंसींगमें यंत्र घालीयौ । धालिनं हिरण छछोडि द्वियी । -लाम्रे फूलांणी री वात य यं्रकार-सं. पु. [सं. यंत्र+कार] यंत्र को संचालन करने वाला, पकेनिक। यत्रणा-सं. स्त्री. [सं.] कष, पीड़ा । (ड. को.) यंत्रमाच्रका-सं. स्वरी. यौ. [सं. यंत्र +मावरका] ६४ कलाश्रों मे से एकं जिसमे यंवों का वनाना व उनका व्यवहार करना शामिल हि। यंत्रमुक्त-सं. पु. [सं.] एक प्रकार का श्र विद्येप । उ०-- कोदंड नुस चडाव्या, कुत कराग्नि कीव, द्री पायु परयु पटिम सक्ति करमुक्तं यंत्रसुक्त मुक्तामुक्त दुर्फोट तरवारि ग्रग्नि तेन नोहवद लुडि एवं विघ ग्रायुव विमेसि ढांचा भरिया, पत्तियुद्ध प्रचत्तिञं । --व,. स, यंत्रराज-रर. पु. [सं.] ग्रहो एवं तारों की गति जानने काएक यंत्र । य॑त्रवाद-सं. पु. [सं.] ७२ कलाभ्रोमे समे एकं । यं त्रवादी-वि. [सं.] यत्रवाद का ज्ञाता । उ०--वाणधर सुजांण चित्र-जांण घातुनिस्पत्तिजाण ज्योतिराजांण मेत्रत्रादी यंत्रचादौ तंत्रवादी धातुवादी भ्रंजनयादी खन्यवादी गजर्वद्य । । -- व, स. यत्रवाहफ-[सं.] मलीन चालक 1 उ०--राय पंवायणा राजा वट दह, डावदुं पयर मंत्रि, वीर पठंतार दीवटीया वयगरणा यंत्रवाहूक चमरहारि छंडायता मांगिक विन्नांणी सूयार्‌ सूडकर मसाहणी मीटावोला सरसतस्गा इसी मरभा रनद एतला देस तरणड प्रधिपति । --व. स. यत्रविया-सं. स्त्री. [सं.] मीन या कलो को यनाने या संचानित करने की विद्या । पद, यंदर-देग्वो दुद्र (रू. भे.) उ०--१ भीमक चमचाढ, केवियां का काठ! ग्ररजुनका वां, दुरज्यौवन का माण, रस विलास का यंद, वचनका हरचंद । सुमेर का भार, वूमेर का भंडार । भ्रनैकरगवानदांन वाका धका उडार्व दै, उ्दपुरका वाग र्म वारां वरजा द्चै। --वगसीराम पुरोहित री वात उ०-२ चद यंद समद हमा पी दीठ चोजां, कमोदनी गोम मध्यं लौकीक कवंद । यंदरा-१ देखो श्ंदिरा (रू, भे.) २ देखो द्धांणी' (रू. भे.) यदु, यदू-देखो “दुः (रू. भे.) (ग्र. मा.) यद्र-देखो शुद्र (रू. भे.) (ग्र. मा. ना. मा.) उ०--वारवेस जोम गाज गाछ्िया त्रिकूट-वासी, राजचील जाछिया यद्रनीत् कज तारी तेज स्स। कुमंगी वृक्मां यद्र दिया गिरंद काढा, वीर 'सिवा' वाढं रिमां रद्धिया विधूम । --ट्यमीचंद गिरय यंद्रजीत-इद्रे जीत (सू. भे.) ।यंदरपुर, यं्रपुरौ-देखो दरपुर, (ख. भे.) (ध्र. गा.) उ०--जुध वारगना वरं 'जोगावत' वेयि धडा येप्रपुर प्रनियी। मह चीटां सगां रिणामालां, कमधज कृटय ऊनद्री फिगर । --गीत हटीमीप जोगात्रत गौ यंद्रंण-देगो द्रः (रू. भे.) यंदरंणो-देग्वो “इद्रांणीः (स. भे.) (श्र. मा.) यंद्राचरज-देगो शद्रावस्ज' (र्‌, भे.) यंद्रावरध-देग्वो दद्रावध' (२. भे.) यंद्रासण-देमो ुद्रारण' (रू. भे.) उ०--'उदनी' "जगौ “साधव "करन' श्राफ, यंद्रासरा मेया कारणा श्रवाया 1 यवंनेता जसी भांतमु ववार, वर्वज्य यज साग कलं वाया । ---उजण र भगा रौ गीन यंद्रिय, यद्री-देमो %द्रिय' (र्‌. भे.) यंनाम-देष्वो €नांम' (र. भे.) (ए. का.) यंनांमी-वि. [प्र. ठनाम रा. प्र. ई.] दुनाम प्राप्त करने ब्राना | उ०~--श्रव्रादनि गवां मे विसांणां न वसया, उद्कीभी यनाम देसवारी चन पाया । | --नि.वं. यंवर~देखो श्रतरर (<. भे.) उ०--ग्राहु गयंद व्रि्वा लगा, वद वद दा पांगा। यंवर लगा, फेर मधं मह्रांण । उदम द्यौः --गज उद्धार यंम-सं, पु.-१ कपट, छल २ देखो "्यम' (स. भे.) य-सं.पु. सं.यः] १ गाड़ी, यनि, सवारी। २ हवा, चायु । ३ कीति,यश। ४ सम्मेलन । ५ यव, जौ। ६ चिजनी, वरिद्यूत । ७ रोक, रुकावट । 5 यमराज । € त्याग १०. योग । ११. संयम ! १२. प्रवादा, रोदानी ! १३. गगोया । १४. ईव्वर । १५. पुरुष । १६. छन्द शास्त मे यगणा करा मंञ्ित रूप । (एका.) वि.-जाने वाला । क्रि. वि.-पुनः, श्रीर्‌ । यक-देगो "एकं (रू.भे.) उ०--१ चव भ्रादे खटकटढ दुकढ, गुर यक पाय मत ग्रटवीममरं | गीत मौ जिण॒ ग्र॑त लघु सौ रांम गीत मती सयं । (ग्र. मा.) (एका.) (एका.) हरि ~~~ ग्ज मै ध्र ॥ ए त 7 1 1 1 २६५२ शश ल्क [8 त त | उ०--२ पर नवर्ट नय कैर्‌ धर, प्रन गर सेषु प्रये | येक नुन गोल्य उभ, मौ मिन्ध कपि समन | --- गस. यकद्मगी-वि, [ग. क-म] ६ एकग कता । २ निम मेत पकक निभा पननीद्धा । यप्‌ ष्टम. पु. [मं. ए कटवः सदनानि 1 पफता-देमो "एलना' (र. भ.) पकयारगो-देना "एत धारणी (५*.भ.) यवःलक, प्यलिग-~दना गाति" रभ.) उ<--- गण प्रदरारं गणौ भीम, यमरनि फा" -मोरनाद्रापियः (दि.न.गा.) चिता समद, साचार मते ठ, गरमा सावार, शदपति पानम्वार्‌ पद्यः श पवना, महिमा अवार्‌, पमी संगी भप । --दगमीराम प्रररितरी यफलास्त-देगो "एनान (स..) पकसोस, पफयोम-देणो "ककय (भ. भै. उण्--विप्रीमेगर लपरूय दीम, मषु यकवीत ग्िविफौ नदि) सनायीय सषु ननी मोद, तघु प्रतिक गुद्मी हौः) --र. प्र यदहुत्तर~देग्मो ट्तोतर' (स भ.) प उ०--वरिध पकटुत्तर छपय द, मतर गुर वधु दार 1 प्रय लिद्म गर पट व्र्न,वे तपर नाम निष्टार प प, 0 यकांयन-देगा “वयावन' (>=. भे.) उ०--भेवे' राज मया यफायन मान धरायी, मत्रा सीवःरी नं त्रमागौ । कः 1 सर्पन्‌ मर --धि, यं, यकार~मं. पु. [मं. यःक] १ यद धारत्र में 'पगणा' यणा नमि । २यवखंकरा नाम) पफायन-~देसो "टवयवन' (स. भे.) यकोन-सं. पु. [अ्र. यकीन] विव्यास, प्रतीति। उ०--{ दादू गल कटे कलमा भरं, प्रया विनारा दीन) पयो वक्त नमाज गुजारे, साचरित नही थकोन ] | --दाटूवाणी उ०--२ दादू मिदक मन्रूरी सांच गह, सावरित राग यकोन्‌ 1 मााप्टिव सो दिन लाद रह, मुरदा घ मिस्कीन । --दादूवांणी यक्ष-[स. यक्षः] देयो जक्ष (र. भे.) उ०--१ तद नौ नाय चौरासी सिद्ध कहु-जेये दोन्‌ ही परूखजनममं यक्ष था, सो वुवेर रे पार्त पर सुगात्रा था) --उाढाला मूर री बात यक्षकरहम ~~~ ~= ~~~ ३६९५३ यग्यवाह्‌ उ०--२ यक्ष राक्षस श्रु भूत पिसाचर, यहं तो हमं नहिं कोई 1 चारण | उ०--भाऊ दिली निगमवोध रा घाट उपर य्य करायौ, देवी री सिद्ध नाग श्र गंधरव, देव जात नहि होई । --ुग्वरांम जी महाराज यक्षकरहम-सं. पु. [सं. यक्नकदेमः] कपूर, ग्रगर, कस्तूरी एवं ककोल कौ वरावर मिलाने से वना लेप । उ०--कुकम तणा छंडा दीघा, पद्मिनी तणा पगर भरिया छर्‌, दमण कुरवक महमहड छद्‌, केतकी तणा समूह्‌, यक्षकरट्म तणा पोतां दीधां छं, कस्तूरी तणा स्तवक दीघां ट ---व. स. यक्षग्रह-सं. पु. यौ. [सं. यक्ष ग्रहः] १ पूगणानुसार एक प्रकार का कल्पित ग्रह्‌, जिसकी दणा लगने पर मनुप्य विक्षिप्त हो जाता दहै, २ प्रेत-तराधा। यक्षतर-सं. पु. यौ. [सं. यक्ष ~+ तर] वट-त्रृक्ष, वड्‌ का पेड । यक्षघुप-सं. पु. यी. [सं. वक्ष~+धूुप] गूगल, लोव्रानि । यक्षनायक-देनवो 'जस्ननाय.' (रू, भे.) यक्षपत, यक्षपति-देखो “जक्षपति' (रू. भे.) यक्षपुर, यक्षपुरी-देग्वो “जक्षमूरी' (रू. भे.) . यक्षराज-देस्नो 'जणखांसाज (र. भे.) यक्षरात्रि-देन्वो 'जनरात (रू, भे.) वक्षरूप-म. पू. [सं.| महादेव भ यक्षलोक-देखो “जक्षस्लोकः (रू. भे.) । यक्षवित, यक्नवित्त-मं. पृ. [सं. यक्ष ~+ वित्त] कञ्ुस, कपर । यक्षस्यद-सं. पु. यौ. [सं. यक्ष ~-स्थल] पुरागणानूसार नाम । यक्षाघिप, यक्षाधिपति-देग्ो जक्षाविप' (रू.भे.) यक्षावास-्ं. पु. यौ. [मं. यक्ष ~-ग्रावास] वट-वृक्ष । यक्षिणो-देवो जनवरी (रू.भे.) यक्षो-देग्ो जनि, जगी (ू.भे.) यक्षद्र~देसो “जग्वन्द्र' (रू. भे.) यकतेस्वर-देसो 'जघेसर' (रू. भे.) उ०--चक़्रवरतिरिद्धिः, चउद रत्न, नव निधान, सोल सहस्र यक्षेस्वर, ३२ मह्न नरवर, ३६ सहस्र कूर्लांगना, ३२ सहम्र वारागना । यलु-प. पु. [सं. छु] तीर्‌, वांणा । (ग्र. मा.) यलुग्रास्त-सं. प. यो. [मं. इषु ग्रास] वनुप । यद्युघीयत-सर. पू. यौ--तरकस 1 (नां. मा.) पगण-स. पृ. [सं.] छन्द-दास्त्र में ग्राठ गणोमेंमे एक, जिसमें प्रथम एक लधु एवं वादमेदो गुर होते ह, यगताठीस-देखो इवताटीस' (रू.भे.) यग्य-देवो “जिग (रू.भे.) ~~ त्रस्‌. (अ. मा.) (६. को.) एक तीथं का प्राया हुई-हमे भाऊ पाची दिखण नूं परौ जावै, दूज महीन श्राय साह सूंजंग करे तौ भाऊ री फर्तं हुवे । --वां. दा. स्या. यग्यकारी-सं. पु. [सं. यजनकारी] यज्ञे करने वाना । थग्यतु-सं. पू. [सं. यनकृतुः] विष्णु का नाम यग्यक्रिया-सं. स्व्री-१ यन॑ का काम) २ कमेकांड । यग्यकोप-सं. पु. [सं. यन्नकोप] रावणा के पक्ष का एक राक्षस, जो रामके द्वारा मारा गयाथा। यग्यदत्त सं. पु. [सं. यजदत्त}] १ कोपिल्य नगर का एक श्रग्नि-होति व्राह्मण, जिसके पुत्रका नाम गुानिधि था। २ भगदत्त राजा के पुत्र 'वञ्दत्त' काना्मांतर। ३ वसिष्णुकुलोत्यन्न एक ब्राह्मण, जो यज्ञकर्म मे निपुण था। ४. एक राजा, जो भविष्य पुरश के प्रनुसार गतानीक राजाकरा पदरथा। यग्यपति-सं. पु. [मं. यज्ञपति] १ विष्य भगवान, २ भगुकुलोत्पन्च एव, गोत्रकार्‌ । यग्यपसु-सं. पू. यौ. [सं. यज्ञ पशु] १ यजमे वलि दिया जनिवाना पद्यु । २ घोडा। 3३ वकरा। यग्यपात्र-स. पु. यौ. [सं- यन + पात्रम्‌| यज्ञमें काम श्रनि वाने पात्र) यग्यपाटठछ~स. पु. यौ. [स. यज्ञ~+-पाल] यन्न का संरक्षक । यग्यपुरुप-सं. पु. [सं. यन्न +-पुरुप ] विष्णु । यग्यवहु-स. पु- (सं. यज्ञवाहू] १ ्रग्नि का एक नाम २ शाल्मलि दवीप का ,एक राजा, जो भागवतं के प्रनुसार प्रियत्रत राजा का पूवर था! इसकी मत्ताका नाम वहिप्मती था। यग्यमाग-सं. प्रु. यौ. [सं. यन्न +भमाय] १ यज्ञ का वहु भाग (ग्रं) जो देवताभ्रों को दिया जाता है। २ इन्द्र भ्रादि देवता, जिन्हे उक्त श्रंण या भाग मिलता हैः। यग्यभाजन-सं. पु. यौ. [सं. यज्ञ +भाजन] यन्न मे काम प्राने वाले पात्र, वतन । यग्यमूमि-स. स्वी. यौ. [सं. यज्ञ~+ भूमि] वह स्थान जहां यज्ञ किया जाय । यग्परमडप-सं. पु. यौ. (सं. यन्न ~+ मंडप] यन हतु चनाया जनि वाला डप । यग्यमंडदट-सं. पु. यौ. [सं. यज्ञ +-मंडल | यज करने हेतु घेरा गया स्थान । यग्यमदिर-सं. पु. यी. [सं. यज्ञ + मंदिरम्‌] यज्ञशाला । यग्यमय-सं. पु. [सं. यज्ञमय | विष्णु । यग्यगूप-सं. पु. यौ. [सं. यन्न मूष] वांस या लकड़ी का वह्‌ वंभा जिक्ष के यज्ञ मे वलि दिए जनि वाले पद्युको वांधा जाता । यग्यवराह्‌-सं. पु. [सं यज्ञवराह्‌ | वराहरूपधारी श्री विष्णु का नामान्तर । यग्यवाहू-सं. पु. यौ. [सं. यज्ञ ~वाह्‌] १ यज्ञ करने वाला । यग्यवाह्न [रा २ कात्िकेय का एक श्रनुचर । ३ श्रगस्त्य कुलोत्पन्न एक गोत्रकार । ४ स्कंद का एक संनिक । यग्यवाहन-सं. पु. यौ. [सं. यज्ञ+-वाहन] १ विष्णु! २ ब्राह्मण । २ णिव । ४ यजेवाही, याज्िक 1 यग्यव्रक्ष-सं. पु. यौ. (सं. यजन ~+वृक्ष] वट-द्रृक्ष । यग्यसन्रू-सं. पु. [सं. यज्ञ शतु] एक राक्षम, भो संका निवामी वरं नामक राक्षस का भ्रनुगामी था। यग्यसरर-सं, पु. यौ. [सं. यत्न रारण] यज्नमण्ट्प । यग्यसाछा-देखो “जिगसाटाः (रू. भे.) यम्यसास्त्र-सं. पु. यौ. [सं. यज्ञ +यास्त्र] वहु शास्त्र, जिक्षमे यज्ञे एवं उसकी क्रिया का विवेचन हो । यग्यसील-सं. पु. [स. यन्न +गील] १ वहुजो यज्ञे करताहो। २ ब्राह्मण । यग्यसुकर-सं. पु. यौ. [सं. यन्न+गुकर] विष्णु । यग्यसुत्र-सं. पू. यौ. (सं. यक्ञ~+- सूच] जनेऊ, यञ्लोपवीत । यग्यसेन-सं. पु. [सं. यजेसेनः] १ पांचाल नरेश दूपद राजा का नामांतर । २ विष्णु । यग्यसेनी-देखो 'जग्यासेनी (रू. भे.) यग्यस्तभ~सं. पु. यो. [सं. यज्ञ~+स्तंभ| यज्ञ मे वलि दिये जाने वा पयु को वांधने का खंभा। यग्यस्थछ-सं. पु. यौ. (सं. यज्ञस्य] वह्‌ स्थान, जहां यत्न होता टो, यन्ञमंडप । पग्यहोता-सं. पु. [सं. यज्ञ~+होतू] १ यक्ञमे देवताग्रों का श्राह्लान करने वाला । २ मनूके एक पृत्रकानाम। यग्यहोत्र-सं. पु. [सं. यज्ञहोव्रृ] १ यज्ञमें देवत्ताश्रों का आह्वान करने वाला २ उत्तम मनुकेपुत्रौँमेंसे एक) यग्यांग-सं. पु. यौ. [सं. यज्ञ्ग्रंग] १ यज्ञ की सामग्री । २ विष्णु । ३ गूलर । ४ खदिर । यग्यात्मा-सं. पृ. [सं. यर्नात्मा] चिष्णु । यग्याधिपति-सं. प. [सं. यन्नाचिपत्ति] यन्न कै रवामी, चिष्णु 1 यग्यारम-देखोष्डगियारमौः (<. भे.) यग्यारि-सं. पु. [सं. यारि] १ जिव, महादेव । २ गाक्षम । २६५४ धर्तन यग्यारेक~-देलो !गियारे"क यग्पोपवीत-देरयो 'जग्योपवीत' यचरज-देमो “ग्रचरज' (म. भे.) यद्-प्रव्यय-चाहै 1 उ०--जांणायउ राजा थारीढ दहो जाणा, दुटु का मील्यां येक परांणा । जे किम यदं दूरी था, वृतह्‌ की वेदी, मीनं जंजीर । ---यी.द. (>. ओ.) (>. भर.) यजगम-देग “ग्रजगम' (=. भे.) पज-सं. षू. [सं.] १ विजय, जीत 1 २ चम््र विलेप) उ०-चलासया मसामा देवद्रम्य वंघानग फौटातग कलग फोफती पंचवरणा यज, दररंगी यज, मागवुरी यज, मदमजी सवागजी नुगरजी परी पटपाहू । (टि. को.) --व. स. यजदां-मं. पु--पारसियों के ग्रनृत्तार ईट्वरका एकेनाम। (मा, म.) यजन-देमो 'जजण' (र. भे.) उ०--मनन, यजन कर्‌ पिता धानं पाया, श्रमर ग्रसाध्यां अवनी पे श्राप प्राया । , --गी. रा. यजनकरता-पं. पु. [सं. यजनं कर्ता]. यज्ञ करने वाला । यजमांन-देसो जजर्मान' (रू. भ | यजमांनलोक~सं. पु. [सं. यजमानलोकः] वह्‌ लोक जिसमें यज करने चाले मृल्युपरांत निवास करने है । यजमांनी-देमो जजमांनता, जजमानी' (सू. भे.) यजार-देखो “उजारवंद' (र. भे.) उ०--सुरपी वनि सूथनि भारनकी, लटकी लर स्यांम यजारनकीौ 1 कुरती कचिया मखत्रूलन की, उर माठ चमेलिय पूलन कौ 1 --ता. रा. यजुरवेद-देखो "जजुवेद, जजुरवेद, (र. भे.) यज्ुरवेदी-देखौ जजुरवेदी' (रू. भे.) यजुरवेदीयौ-सं. पु. [सं. यजुरवेदिन्‌ ] यचुर्वेद का ज्ञाता । उ०-सघला सामक श्रथरवणी, यजुरवेदौया जां । रधवेदी सवि रयि चङ्या, पंडित पोकारि पुराण ! ---मा. का. प्र. यडग-देग्वो “श्रडिग' (रू. भे.) यण-देखो श्र' (रू. भे.) उ०--तिका यण वार प्रवतार सकती तणा, भाव भक्ती तणा घणा भका । फजर ग्रह राण तप तेज मूख फावियां, डावियां सू 'सीकांण' द्रूका । + -मे-म. यतन, यतन्न-देखो जतन' (रू. भे.) यतत्मामो उ०-गादहं दाध्यउ दम्ग करि, सामू कदु वचघ्र 1} करहउ ए दुद मन, खोड़उ करइ यतन्न 1 --दो. मा. यतमांमी-सं. पु. [म्र. उहतिमाम गा. प्र. ई] व्यवस्थापक --नेणसी यतलाक नवेस-सं, पु. एक राज्याविकागो --नणसी ` पतवत-क्रि. वि. इवर-उवर । उ०--जन हरिदास सतगुर्‌ सवद, म्र॑तरि लामा यांग! हरि मन हूरचा, यतवत लहे न जारा 1 हरि हिरत यत्ि-दे्वो 'जती' (सू. भे.) यतिदेवर~त. पु. [म] चृहा। यत्तिधरम-नं. पु. यी. [सं. यति~-चमं] स्नन्यास। यतिभेग, यतिश्रष्ट-मं- पु. यौ. [सं. यति~भंग या यतिच्रष्ट] खद ्रास््र मे वह्‌ दोप, जव चविसी दछंदर्मं यति उचित स्थानपर न होने कै कारणं लय या प्रवाह विगड़ जाता है। यतितस्तांतपन-सं. पु--त्ीन दिन का एक व्रत जिनमें केवल पंचगव्य ग्रौर्‌ कुण जन पीक्रर्‌ रहना पटना दै । यतो-स्व-१ वतना । स्म * २ देष्बो "जनीः (रू. भे.) यतीम-मं- पू. [त्र.] १ चह वालकं जिमके माना-पिता मर्‌ गेहं श्रना । २ पेमा चड़ मोती जोमरीप्मे एकी दोना टो) ३ व्रहुमूल्य रत्न । यतौमखानो-नं. पू. [अ. यतीम ~+ फा. चानः] वहु स्थान जहां ्रनाथ यालकों का पालन-पोपग होता रै, अ्रनाथानय । यतीस्वर-मं. पु. या. [सं. यति+ईदवर] योगीराज, यतिराज, यतीश्वर । २०--म्परीयुगप्र्वान यतीस्वर, देवतां हो हवं यफल दीह । नित्त व्रिजय ट्रम्व वंदित दीय, घरि भार्वं हो गाव घरमसीह्‌ (छ. वो.) --य. व. भ्र. यतौ-सव--१ टतना । उ०--१ जुव पाल" हुवो मन मोद जित्ती, ग्रन भूषन श्रावत व्याव यती । वरी रिव उगम सेन विधु, चंद ऊगम सूरजपाल सिधु | -- पा. प्र. ॐ--२ भ्राद तिक्रो यज श्रत में, टधक यु ग्ुलते ग्र॑क | ग्रकारादि कटिया यता, सम त्र्वरोट प्रसंकं । ~र, २८. २ जहा । यत्न~देग्या "जतन' (स, भ.) यच्र-देग्बो (जत्र (रू. भे.) ३६५५ यम यत्रतव्र~त्रव्य. [सं.] १ जहा-तहां, इवर-उचर्‌ । २ यहां-वहां सभी जगह, श्रनेक स्थानों पर्‌ । ३ कुद यहां, कद्ध वहां ! पथा-देखो "जया' (रू, भे.) उ०---कूच मरदन, कप्यड प्रवर, लीद नुरामी समरगरिण, भडतां कोड न भाग । नाग । सुहड यथा --मा. का. प्र. यथयाक्रम~देखो जयाक्रम' (रू. भे.) ययानियम-देग्वो 'जथानियम' (रू. भे.) यथापुरव-~ग्रव्य. [सं. यथा-पूर्वं] जमा षटूते धां ज्योका त्यों वेसा ही । पूर्ववत्‌, ययायोग्य-~देो 'जथाजोग' (रू. भे.) यथाविधि-देखो 'जथाविचि' (रू. भे.) ययासक्ति, ययासगती-देष्ो 'जथासकती' (र. भे.) ययोचित-ग्रव्य. [सं यथा-~+-उचित| जैसा उचित हौ वैसा । उपयुक्त । यदपि-दसखो 'जदपिः (रू. भे.) उ०--मौरांको प्रभु मांची दासी वाउ) दू धंधा रे मेरा फदा दुडाड । नूटेहि नेन विवेक का इरा। बुद्धिवद्र यदपि कर वहूनैरा । -मीरां यदा-देखो 'जद' (सू. भे.) उ०--एक दिने मरौ दो राजाजी यदा तदा, लोटो नी काम विसेस यीजी तौ तारया जगम को नही, तार जिणजी रौ धरम एक। --जयवांगी यदि-~देखो 'जदी' (स. भे.) यदू-देगो "जदु' (रू, भे.) यदुनंदन~देग्वो "जदुनंदण' (र. भे.) यदुनाय-देखो जदूनाथ' (रू. भे.) यदुपति-देग्वो "जदुपति' (रू. भे.) यदू सूप, यदुराज-सं. प, [सं. |-श्रीक्रष्ण । यदुव॑स देखो "जदुवेसः (रू. भे.) यदुवंस्मणि-मं- पु. यौ. [सं. यदु +-वंश~+-मरि] श्री कृष्ण । यदुवंसी-देखो जदुवंसी' (सू. भे.) यदुवर, यदुवीर-देसो "जदुवर, जदुवरीर' (रू. भे.) यद्यपि-देखो जदपि (रू. भे.) यधक-देखो ग्रधिकः (रू. भे.) यभ-१ देख्वो !इम (रू. भे.) उ०--दक समत ठ दाह, यभ वाज श्राह, गह नरनाह रघुनाश्र । रचरण गजगाह, =, ज. प. 111 ३९५५ क [1 1," मिष यम-सं. पु. [स. यमं] १ दमन्‌, निग्रह । २ नियंत्रण । ३ प्रात्म संयम । ॐ चित्त को धर्म में रखने वाले कर्मों का साधन) ५ योगकेम्राठश्रंगोंमेसे प्रथम । वि. वि.-योग के श्राठ ग्रंग निम्न हैः- (१ यम, २ नियम, ३ श्रासन, ४ प्राणायाम, ५ प्रत्माहार ६ धारणा, ७ ध्यानप्रीर ८ समाधि ६ एके साथ उत्पन्न व्चों कां जोड़ा) ७ देभ्वो जमः (रू. भे.) क्रि. वि.-१ पसे, इस प्रकार । उ०--१ भुगत वचन रणजीत यम भ्रागम ग्रमुर समाज । मनहु जुट्थ मातंग पर, लवि गमन्यौ सरगराज | --ला. रा. उ०-२ प्रथम त्रीय मत वार पट, श्र पद वियौ श्रठार । चौं पनरह मात रच, यम गाथा उ्ार। --र. ज, प्र. २ ज्यू, जमे। उ०--त्याहां जट तेद्‌ नि विरहि, लगाडुं प्रीतकरि यम नारि । गु भ्र॑सी कल धामि नही, राई धिक तेह॒नु ग्रवतार्‌ । -नदास्मांन यमक~देसो 'जमके' (रू. भे.) यमककरिणिक-सं. पु सेना में व्यूहरचना का प्रवन्वक । उ०--सौवरण-करिखिक देवकरिणिक मंडल करिखिक उष्टरकरिशिक ए्ष्टिकाकरिणिक घोडककरिणिक यसककरि णिक पुरोहितकरिशिक । --च. स. यमघट-१ देखो (जमघंरः' (रू. भे.) २ देग्बो जमघट्जोगः (र. भे.) यमचक्र-देसो जमचक्र' (रू, भे.) यमजातना-देखो "यमयातना! (रू. भे.) यमजित~वि. [सं] मृत्यु को जीतने वाला । मृघ्यजय । सं. पु.-िव, महदेव 1 यमणौ, यमवौ-देखो 'जीमणौ, जीमवी' (रू. भे.) उ०--पग न चापू पुरम कोएना, न यम्‌ कृहुनू छोख्य्‌ ` श्रन्न, वाट जो माधा प्रीउडा केरी, राण्वी तेहनि चरणि मंग । -नटाम्यांन यनियोड्-देखो जी मियोडी' (रू. भे.) (म्बी. यमियोड़ी) यमद ट~देगो जमदंडः (रू, भे.) यमदग्नि-देखो जमदग्नि" (रू. भे.) पमटूस-मं. पु. यौ. [मं. य्रगन-दूत्‌ु १ कौम्रा | माजन यो मजे भा नमो ज कक 1 क 1 पो षीरीगीीीणीरणगीयििरयी षि पौ के क~ = > २ नीसमिधोंमेंसेएक। ३ विदवामिद्र ऋपि क्रा एक पत्र । , ४८ वह्‌ घोड़ा जिसकेणनगीर का सग॒ द्वैत दही चिन्तु चारो र द्याम वणके हुं (प्रयु) (ना. दो.) ५ वह्‌ घोड़ा जिसके होट परस्पर न मिनतेहौ (ग्रघ्ुभ) (या. दो.) ६ देग्वोौ "जमदरते' (रू. भे.) यमनं. रवी.-मंगीतमं एकः राग वियेप । यमनक्षत्र-देखो 'जमनगतरः (स्‌. भे.) यसनाय, यसनाहू-देग्नौ जमन" (रू. भे.) यमपद-सं. पु--लाकः विगेप | । उ०-येटीमघु नट यावनी, यवपद्रटी यवानि । यक्नलता योसिम ह्रीं यमपद पानि पानि । | मा. का. प्र. यमपुर, यमपुरी-देखो जमपुर्‌' यममगिनी-देगो जममगनी' यमया-देखो ^जमयाः (रू. भे.) । यमयातना-सं. रत्री. यी. [मं. यम~+यातना] पृराणानुमार मृत्यु के वादयमद्ारदी जाने नानी यार्घ्ाया कृष्ट | ह ० भै०~यमजातना } यमराज-सं. पु. [सं.] १ एक प्रन्यकार, जिने "भारकरसंहिता के ग्रन्तगते ज्ञानारणवतंवर की रचना की-थी | (स्त. भे.) (रू. भे.) (दि. को.! २ देखो 'जमराज' (रू. भे.) उ०--यमरान उघारे, रांमण मारे, तेदह केस श्रम॑ताहै। कट्‌ वृद्ध किलंकी ईस उसंकी, कठ पूरण सीकंता है । ~र, ज. भ्र. यमल-सं. पु.-१ वादय यन्त्र विप | उ०-- एकि वलवुद्धि ग्रायुव्रद्धिकार सीतल सर ग्रप्यायकः पारी भ्रापतां तरसा चुर, एकि वीणा वेणु ख्रदंग यमल संच पटह कंसालप्रमुप ग्रगणपंचास्र वादिव्रस्वर्‌ सांभतावडुं मधुरः } --व.स. २ दैग्बौ जमल' (रू. भे.) उ०--स्रीरांम यमलां र्खमणी, दीसंत्ति सकल सर्प । नारद तुवर गीत गावई, विप्रदांन श्रघटरु 1 मंगछीक ग्रनैक वरत्या, विड़द चोल भटर । ध --्वमणी मंग यमलोक~देवौ 'जमलोक' (रू. भे.) यमवारौ-देखो 'जमारौ' (रू. भे.) उ०--रात हुई सट मासनी, चितवे मनरे मांयजी । दुख रादावा मणसरा, यमवास किम जायजी । --जयवांणी यमवाहून व १ भतत 099 यमवाहुन-देखो 'जमवाहेणा' (रू. भ.) यमहूता~देखो 'जमहुता (रू. भे.) यमहूर-देखो जमहूर' (₹ू. भे.) उ०--चंदणु कमलताल पृण मेव्टढ जात, चदरफाति ज्वनड, पुप्प स्या वल, हार भावड भ्रंगार, कदलीहर मानद यमह्र, जे जलनीकर्‌ ने उद्वेग करञ, जे सीत्तनोपचार इग विवर, उगि परि प्रज्वलित स्नेहपदल विरहानन दीपनेड । --व. स. यमालय-सं. पु- यौ. [सं. यम~-ग्रालय] यम॒ के रहने का स्यान, यमपुरी । यभि-से. पू. [सं] उन्दियाकोव्यमे ररनिवाना। स. स्व्री--यमुना नदी । (टि. को.) यमुना-देखो 'जमना' (रू. भे.) यमनोत्तरी-देखो 'जमनोतरी' (स. भे.) यमेस-सं. पु- [सं- यमे | भरणी नक्षत्र का नामान्तर्‌ 1 यसत-देखो श्रस्रतः (स. भे.) ययाति-सं. पू--र्प्ना सूप के पुत्र एवं राजा पुन्‌ के पिता, जिन विवह्‌ ुकाचा्य जी गीदरी मे हुभ्राथा। वि. वि.-ढन्हनि`थुकाचायं जी से जर्जर श्रवस्या को प्राप्त होने के प्रभियाप के कार्रा प्रपने पुत्र पृदम वौवनावस्था कोप्राप्न किया प्रीर पुरु फो जजर प्रवरस्या प्रदान कर्‌ १००० वपं तफ जीवन का सुख मोगा । श्रन्तमें पुरक धूनः यौवनविस्था लौीदटाकर्‌ उन सज्य-पद दिया एवं स्वयं ने वृद्धावम्था को प्रंगीकार्‌ किया] ययावर~देष्वो "यायावर (स. भे.) ययो-मे. पु--१ यिव ! २ वनि चद्राया जनि वाना घोडा । ३ धोडा। ८ माने, नान्ता | ५ वाद्रल्त । यरद, यर~देग्वो श्रि (रू. भे.) उ०--१ ग्बुलत रिव नयश मण, पंख पचर ग्वरर । उगमगतत यर घरुमत, भाज पर्वत उरर्‌। ~~, ज, पर, 3० ररक ज्राकर्‌ौ मान" भूपत तपे श्राजरी, धट दढ कढह्‌ समान धाता 1 पेमकस भरे मुन ममान ग्रौवड्‌ पमां, यसे मतत कसी श्रभमांन अरतिं | ॥ --चिमनजी श्राद्धी यरथार-दे्ो श्ररिथारः (र. भे.) उ०-चूग नदी मछ पटचार स~चीता, चखण काज ल्भ नह्‌ चारौ | "घो रजीयी' यरथाट धकावर, हाल गयौ दद्ध मेटण हारौ । --मुग्बजी वडियी २६५७ पवन थरहुर-देग्वो श्ररिट्र' (रू. भे.) ॐ०--दूसरा (माल! संग ्ियां चुतरंग दष्ट, यरहुरां मार संणां उवारं। रण भटा महन लुभा गदटने राठ्वड, सहन रमतां पड दहल सार्‌ । --कलत्यागादासंजी महू यरादौ-देन्यो ईइरादीः (रू. भे.) उ०्--दायावैर्‌कातो व्याहि वेदी दूर कीनां, भुथरी क्रा यरादा डायजा में छोड दीनां | --यि. व. यच्छ-देखो शृढा' (रू. भे.) उ०--१ कर्णा निाने कोदड कर्‌, नित चाण यद रीत नय। रुक दिनेस ओन लज रख, जग ्रवार ग्रौधेस जय । --र. ज. प्र. उ०--२ चार्णां वर्णा संकट सुरी, लाख वात श्रंजनननै। कमव यदे सीस रात्वरगा क्था, घरां खट्टां चपरां घर्तं --पा. भ्र. यटटवीस-मं. पृ. [मं. उस्ाी्] राजा, नृप (डि. को.) यद्रनाथ-मं. पु. [मं. इलानाय ] राजा, नुप (डि. को.) यदप्रभ-मं. पु. [सं. उलाप्रभा] नगर, घहरं (भ्र. मा.) यलम-देखो ^इतम (सू. भे.) उ०---उतन विलायते किलकता कोनिपुर श्राविया, ममो लंक मदरास मेदा । यलम बुर वदण॒ श्रंगरेन दारण यदा, भरतपुर उपरा हश्रा भेका। --कविराजा वांकीदास यलत्लाह्‌-देग्यो (दनल्ला (र. भे.) उ०-रदै पीरदोना मदत्ति तिहारी, यनत्लाह्‌ के हाथ है जीति दारी । --ता. रा. यद्शरुवन-सं" पू. [सं. इला +-वृनु ] पृथ्व्ीयृत्र मंगल । (ग्र. मा.) यवास. स्वरी [सं. दला] १ इनद्रकी राणी दृद््रारी । (ना. मा.) २ देयो ढा (रू. भे.) (श्र. मा.) उ०--फौजां देख न कीवी फौजां, दोण किया न चला उद्धा । शवां खाच ब्रड खेदे, उणहिज चूड गई यछा) -वा दा. यढाइन्द-सं. पू. [सं. घला -इ'द ] राजा, नुप | (ड. को.) यलापत, यलापति-सं. पु. [सं. इला -पति] राजा, नेप । यवनं. पु- [सं.] १ ङृष्टाके द्वारा मारे गए कालायवनः राजाका नामान्तर । २ हय राजा का एक साथी, जिसे सगर ने पर] जित किया था) ३ एक लोक समर्‌, जो गांधार देश के सीमा भाग मे स्थित श्ररिप्रा' एवं ्र्काणिय।' प्रदेशं में रहते थे । ४ देखो जवन (र. भ.) पवमध्य त क क कण यवमध्य-सं. पु. [सं. यव [मध्य] १ एक प्रकारका चाद्रायण ब्रते | उ०-कनकावलि रत्नावलि मुक्तावलि सिहवि क्रीडित महासिहाविक्री- डित गुणरतन संवत्सर भद्र महाभद्र भद्रोतर सर्वतोमद्र यवमध्य चंद्रायणा वजमध्य चंद्रायण ग्राचाम्ल वर्धमान । -व. स. २ पाच दिवस मे समाप्त होने बाला एक प्रकौर का यजे) ३. एक प्राचीन नपि । यवरोटिका-सं. स्त्री. सं. यव~रा. रोटिका] यवकी वनीरोटी या चपाती । उ०--एक्रं कुभोजनं ्नन्यत्तु प्रथम्‌ कवले मक्षिकापातः, एकुथिता रथा श्र॑तरगता कंसारिका, एका यवरोटिका श्रन्यत्काकभक्षिता च एक पकूला रथ्या ! --वे. स. यवागू-सं.पु. [सं.] जौया चावलका वह मांडजौ सड़ा कर कुद खदा कर दिया गया हो। यविनर-सं. पु. [सं.] १ द्रद्यकुलोत्पन्न एक सुविख्यात राजा, जो मत्स्य के भ्रनुसार श्रजमीढ राजा का, एवं भागवत, विष्य एवं वायुके भ्रनुसार द्विमीढ राजा कापृत्र था। २ उत्तर पंचाल देश का एक राजा, जो भागवत पुराण के श्रनूतस्तार भग्यस्व राजा का पुत्र था) यवियस-से. पु. [सं.] १ एक राजा,जो वायु के ग्रनुसार ऋक्ष राजा का पुत्र था। २ एक श्राचायं, जो वायुके एवं ब्रह्ांडके ्रनुसार, व्यासकी सामशिष्य परपरामें से हिरण्यनाभ कच्छपिका यिष्यथा। यस~सं. पु.-१ भोजन, भ्रन्न । २ सुतभदेवों मसे एक) ३ विकुठदेवोमेसेएक। ४ देखो जस' (<. भे.) यसङौ- देखो 'इसडौ' (रू. भे.) यस्नामिक~-वि. [सं. यशनामिक | यदास्वी । उ०--यसनांमिक क्रत्य ताहरु, पुरीसादाणी विरुट्‌, वामाकरुल वडभागीयौ, पारसनाय' मरु । जिन सासननी भूपति, वरद्धमांन जिनभांण, दूतम पंचम श्रारके, सकेल प्रवत्तं ग्रां । | --कयपियण यसव--सं. पु- [भ्र. यद्व | एक हरा कठोर पत्थर जो दिल षडकने की चिमारीके लिए ग्रौपवकूपमें काम श्रातता है। यसर्वत-पराम्वी । यस्स्कर-मं. पु. [सं. यजस्कर]| निवदेवों में मे एक) वि.-यशस्वी, यसस्वो-ेग्वो 'जम्वान! (स्र. भे.) ३६५८ ८ थ ०००० सा नो" जिः भिमो क ज 9 त आ म जक भ शनम ममु (9 क भक १०५ य पमी ८ 2 1 उ०--देव भ्रनाथनाथ जगप्ताथ चिभूवनस्वामी; विमनवाहन चक्षत यसस्वी-ग्रभिचेद्र-प्रसेनजित-मरुदेवनट श्रन्वयि नामि नरेर्वरकुल्न- नभस्थल-मयूसमाली । --व. रु, यसारत-देमो "सारी (रू, भे.) उ०--नमे कदम्मां तदि निजर, यक्तारत वरियांम । तदि षा वंखो मत्री, सभे तीन सत्लांम । "स ध, यवु-सं. ध. [सं. प्रयस्‌] लोहा) यसुमति-देखो जसुमती' (<, भे.) यसु -वि. [सं. याहशकम्‌] जसा । उ०-एणी पिरि चीतव (तां) तहां स्रसोवरनी तीरि, वर्टापति सुदरतां दी कनक यन्न सरीर) (ग्र. मा.) -नल्ाग्यान यसोदा-देग्बो 'जसोदा (र. भे.) यसोदानंदन-देखो 'जसोदनिंदः (<. भ.) यसोदेवी-से. स्तरी--ग्रनुवंगीय सम्राट ब्रहन्मनस के पत्नी । यसोघन-सं. पू--पांडवववेसीय दुम ख पांचाल नामक सजा का पृत्र | यसोधर-१ भूतकाल के १८्वे वीर्थकरु.न्म नाम । २ भविष्यतकाल के १६ वें तीथकर को नामः! ३ देखो "जसोधर' (रू. भे.) यसोधरा-देग्वो 'जसोवराः (रु. भे.) यस्टकुटी-सं. स्वी.-पहाड । (ग्र. मा.) यर्टि-सं. स्व्री-१. लकड़ी का शस्त्र । उ०--यस्टि सपन, पठमु, हल, मुसल, कुलिस, कातर, करपत्र, तरवारि, कुदाल, यंत्र, गोफल, डाहिणि, संडासिका, कुहाडी, द्धिपुम, इति छती दंडायुघानि । --व. स. यह-मव. [सं. इदं ] निकट की वभ्तु, व्यक्ति ग्रथवा विचार (संज्ञा) लिए प्रयुक्तं शब्द, जो वह का विपरीतार्थकः होता दै । रू० भे०-यह्‌, येह । यहां-क्रि. वि- [सं. उह] इस स्थान पर । यहि, यही-सवं.-निर्चित रूप से यह्‌, यह ही । <° भे०-यहु, येई, योई, योही, यौही । यही-क्रि. वि.-इस स्थान पर ही 1 रू. भे.-यांही । यहु-१ देखो धयही' (रू. भे.) उ०--कोध विरोव भरया सुर केविरे, निकलंक निरदोस्र यहु नित मेव रे । २ दैष्वो यहेण (<. भे.) यहद ३६५६ याग्यदत्त उ०--दाद्‌ सिर करवत वहै, भ्रंग परस नहि होइ । माहि क्टंजा | यांनी-देखो "याच (रू. भे.) काटियि, यहु व्यथा न जागो कोई । यान-प्रव्य--- मतलव यह है कि, प्रथत । --दादूवांरी रू. भे--- यांनी यहूद-सं. पू.-देग का नाम, जहां हजरत ईसा पदा हुए थे । यांम-देखो जांम' (रू. भे.) यहदी-स. प--१ यहद देव का निवासी 1 यामल-देखो "जमल (रू. भे.) २ उक्तदेव की एक जाति। याह-१ देसो "वहां" (रू. भे. } स. स्त्री. वहूद देद्य की भाषा) उ०--ते संतान तणी चिता करनु राजा याह, वि ०-य्रहुद देण का, यहूद देन सम्बन्यी । दमन नाम रितरा ग्रातु मदिर तेरि तांह्‌। यां--सवे०-१ इन । --नठास्यांन उ०-१ जिक्णनू मीरांरा मारण री निस्वय जणाद्‌ उरी वडा पुत्र कुभराज तिहु छोटी कन्टद्यां दोही वंधवांनूं वडी वरात र साथ वर्रानूं वुनाड मीं र मावण॒ जिसडौ एक वाड २ देो "यां" (रू. भे.) उ०- पचीसां चूं ही कूट मारिया, जांनीवास उपर जाय नै जांनियां नू बूट मारिया, जानी सोह्‌ मारिया, प्रात्र भाईलूंणौ थी जुदौ ही वायौ । --वृ. भा. उ०--२ विनं इग्यारम वरस भगति उपरि प्रभ भीजै। पिप्पठ तुरी पान राम यां उपरि रीजं। २ इन्टनि। उ०-? तद्र राव मेप्रेजी कहायौ, "गद ग्र मती घाटज्यौ, परं जाग. रीटदर्म घात" सूयां मानी नही । द. दा. 9 तठ खवर मेलणी, तितरं एकण॒ यांह र रजपूत कल्यौ --हुं जार्ईूसः तरक््यी तूं क्यूं कर जार्हस ? - नरसी -पी. श्रं, | यवा-सर्व.-यह उ°--{ मतवाला हो पोढ्ग्या, सुव-वुव दीन्ही भुल । पर हाथां रा हो गया, या हिटृदा में मूल । -- ग्रज्ञात्त । उ०-२ एतां श्राद दछतीम कट, सीस श्रजी' पत्त धार्‌ ।! हलचल्ली उ०--२ याकठतांदी पातसाह्‌ री सन सू वजीर रौ तीर मेदां घल, यां कल्नी तलवार 1 सा. र मवृर्वाण री छती रे पार्‌ फरुरौ | ३ इम । । --व. भा. क्रि. वि--१ इतस प्रकार, दस तरह्‌ । ॐ०--३ पक प्रंडी ब्रह्मकी, जा घट फिलमित जानि । उ०--१ लघु तै दीरघ पुन पलित, यां माचा इधकाय । त्यां दरे दीया उत्तिम साधकी, याही रीत पिद्नि। न वड किय धता", व महान वढाय। --ग्रनुभव वांणी --जतदांन वारहट क्रि. वि.-त्रथवा । उ०--२ महाराजा भांमी महद, नर मुर नागां नूर । कुस नही ॐ० सरव वंस तारणी, राम या भागीरथी । --रांमरासौ कंस केसर, थां दास ग्रक्र । -पी. ग्र. | याक-सं. पू.-हिमालय पटाड़ पर प्रायः तिव्वत में होने वाला एकं २ इसमे । चोपाया जानवर, जो वोरा ढोने के काम श्राता हे । उ०-लग मत्ता चौवीस छंद मत्त लेग, सुज यां ्रधिका मत | याकूत-सं. पु- [्र.] एक प्रकार कालालरंगकां वहुमुल्य पत्थर । उपद्धंद विसेखजं । वरण मत सम नहीं ग्रसम पद जांशाजै, व दां | याग-देखो 'जाग' (रू. भे.) (डि, को.) मिद्ध दंडकं मत्त व्वांगासै 1 यागवलक-देखो “याग्यवल्क्य' (रू. भे.) र. ज. प्र. | यागि-देखो जाग' (रू. भे.) ३ यहां । उ०--जो फलत पांमद्‌ तपसी सवे, जे फट ड वांद चछोडवै । जे फलं ॐ०-- तठ वीरमदेजी रे सांमा जोय पातमाहूजी फुरमाय क वीरम पाम कौषद्‌ यामि, जे फल भेटयां हृद्‌ प्रियागि । तुम श्रव तलक याही द. दा. -कां.दे.प्र र. भे. याह याग्य-सं. पु.-भृगुकुलोत्पन्न एक गोच्रकार । यानं पु. [सं- यानं |-१ सवारी, वाहन 1 याग्यतुर-सं. पू.-ऋपम नामक ग्रश्वमेव करते चाते राजा का पतक २ विमान । नाम ३ गति, चालं । याग्यदत्त-सं. पु.-वचिष्ठकुलोत्पन्न याज्ञवत्वय नामक क्रि. वि.-दन प्रकार, टम तरह्‌ । गोच्रकार का नामान्तर । पवमध्प १ न ११ रीती यचमध्य~सं. पु. [सं. यव मव्य] १ एक प्रकार का चाद्रायण ब्रत । उ०--कनकावलि रत्नावलि मुक्तावलि सिहविक्री डित महा्सिहाविक्री- डित गुणएरत्न संवत्सर भद्र महाभद्र॒भद्रोतर सव॑तोभद्र यथमध्य चंद्रायण वजमध्य चंद्रायणा श्राचाम्ल वरद्धरमान । --व. स. २ पांच दिवसं मे समाप्त होने बाला एक प्रकर का यन्न) ३. एक प्राचीनं नाप । यवरोटिका-सं. स्त्री. [सं. यव ~|-रा. रोटिका] यवकी वनीरोटी या चपाती । उ०--एक्रं कुभोजनं ्रन्यत्तु प्रथम कवले मक्षिकापातः, एकुथिता रथा श्रंतरगता कंसारिका, एका यवरोटिका भ्रन्यत्काकभक्षिता च एक पंकुला रथ्या । --व. स. थवागु-सं. पु. [सं.] जौया चावनका वहु मांडनजो सड़ा कर कुछ खदा कर दिया गया हो । यचिनर-सं. पु. [सं.] १ द्रृ्य.कुलोत्पन्न एक सुविख्यात राजा, जो मत्स्य के श्रनुसार ग्रजमीढ राजा का, एवं भागवत, विष्णा एवं चायु के ग्रनुसार द्विमीढ राजाका पुत्र था। २ उत्तर पंचाल देश काएक राजा, जो भागवत पुराण के प्रनुसारं भर्ग्यस्व राजा का पत्र था। यवियस-सं. पु. [सं.] १ एक राजा,जो वायु कै ग्रनुमार ऋक्ष राजा कापूत्र था। २ एक प्राचार्य, जो वायुंके एवं ब्रह्मांड के ग्रनुसार, व्यासकी सामयिप्य परपरामे से हिरण्यनाभ तऋपिका शिष्य था। यस-सं. पू.-१ भोजन, भ्रन्च ! २ सुतभदेवों मसे एक। २३ विकुठदेवोमेसे एक) ४ देखो जम" (रू. भे.) यसडी-देखो (दसड़ी' (<. भे.) यसनांमिफ-वि. |स. यक्षनामिक] यद्स्वी । उ०--यतस्तनांमिक क्त्य ताहरु, पुरीसादाणी विर्‌, वामाकुल वडभागीयौ, पारसनाथ' मर । जिन सासननौ भूपति, वरुदरमांन जिनभांण, दमम पंचम श्रारके, सकल प्रवत्तं श्ांरा । । --कवियण यसव--सं. पु. [म्र. यश्व | एक हरा कठोर पत्थर जौ दिलं घड़कने की विमारीके निए ग्रौपव रूपमे काम ग्राताहै। यसवेत-यदरास्वी । यसस्कर~मं. पू. सं. य्स्कर] निवदेवों मे मे एक वि.-यगस्वी, यसस्वो-देग्वो 'जसवांन' (रू. भे.) प कातककाकावाक 1 ीिि ि २९५८ यहु णयिीगौगैमीी उ०--देव ग्रनाथनाथ जगन्नाथ त्रिभुवनस्वामी; विमनवाहन चक्ुस्म॑त थसस्वी-प्रभिचंद्र-प्रसेनजित-मसुदेवनड प्रन्वयि नामि नरेर्वरकुत- नभस्थल-मयूसमाली । --व. स. यसारत-देखो !इसारी' (रू-भे.) उ०-नमे कदम्मां तदि निजर, यसारते वरियांम । तदि षाप्‌ वैठो मंत्री, सभ तीन सल्लांम । --सू.प्र. यसु-सं. पू. [सं. भ्यस्‌] तोदा यसुमति-देखो 'जसुमतीः (5. भे.) यसु -वि. [सं. याहशवम्‌ ] जसा । उ०--एणी पिरि चीतव (तां) ताहां मरोवरनी तीरि, वरटापति मुंदरतां दीष कनक यसु सरीर । (श्र. मा.) --नटास्यान यसोदा-देखो जसोदा' (रू. भे.) यसोदानंदन-देखो 'जसोदानंद' (रू. भे.) यसोदेवी-सं. स्वरी--्रनुवंगीय सम्राट वृहन्मनस की प्रत्नी | यसोधन~सं. पु.-पांडववंमीय दुमू ख पांचाल नामक राजा का पुर । यसोधर-१ भूतकाल के १८ वें तीर्थंकर.न्म नाम । २ भेविप्यतकाल के १६ वें तीर्थकर कानाम"। ३ देखो 'जसोघर' (र. भे.) यसोधरा-देखो जसोवरा (रू. भे.) पस्टकुटी-सं. स्त्री--पहाड । (भ्र. मा.) यस्टि-सं. स््री-१. लकड़ी का शस्त्र । उ०--यस्टि सपन, पठमु, हल, मृसल, कुलिस, कातर, करपत्र, तरवारि, कुदाल, यंत्र, गोफल, उदिणि, संडासिका, कुहाडी, हिम, इति छतीस दंडायुघानि । ~प यह्‌-सवे. [सं. इदं | निकट की वस्तु, व्यक्ति श्रथवा विचार (संज्ञा) के लिए प्रयुक्त शब्द, जो वहु का चिपरीतार्थवः होता है 1 5० भे ०-यह, येह । यहा-क्रि. वि. [सं. इहु] इस स्थान पर । यहि, यही-सवं-निदिचत रूप से यह्‌, यह्‌ ही । <° भे०-यहु, येई, यो, योही, यौही । यही क्रि. वि.-दइस स्थान पर ही । रू. भे.-यांही । यहु-१ देखो यही! (र. भे.) उ०---क्रोध विरोघ भरया मुर केविरे, निकलंक निरदोस यहु नित मेव रे । नधः वश्. २ देष्वो यह्‌ (रू.भे.) यहुद २६५६ याग्यदत्त उ०--दादू सिर करवत वहै, भ्रंग परस्तं नहि होइ) मांहिक्टजा यांनी-देखो "यन ( भे.) कायि, यह व्यया न जारो कोई । याँन-ग्रन्य--- मततव यह्‌ है कि, प्रथि । --दादूवांगी रू. भे.-- यानी पहुद-सं. पु-देन का नाम, जहां हनरतत ईमा पदा हृषु थे । ्ांम-देखो व (रू भे.) यहूदी-स. पु.-१ यहद देय का निवासी । यामल-देखौ जमल (रू. भे.) २ उक्त देदा की एक जाति। यांह्‌-१ देन्वो हां (र. भे.) स. स्वी.-३ यहद देदा की मापा । उ०--ते संतान ती चित्ता कृरनु राजा याह वि०-यहूद देय का, यहूद देय सम्बन्धी । दमन नामि रिसिई्ाग्राव्ु मंदिरतेग्मि ताह । | --नकास्यांन या--सव०-१ इन । | उ०-१ जिक्गानू मीरणंरा मारण रो निस्वय जगा उग्र वटी पुत्र कुभराज तिरं दोटौ कन्हड यां दोही वंववांनूं व्डी वरात र साथ वर्णनं वुलाइ मीर रे मावण जित्डी एक वादी जुदीदही वग्पायो। -वं. भा. <, क विर द्रग्यारस वम्स अगति उपरि प्रभ भीन 1 पिप्पद्ध तुवरी पान रांम यां ऊपरि रीजं। -पी. ग्र. २ इन्दोनि । उ०--१. तद्र राव मर्जी कद्ायौ, गड श्र मती घाटज्यौ, पर जागदः रीहदर्म पात सूयां मानी नही। --द. दा. उ०-२ एतां श्राद छतीम कृट, मीत श्रजौ' पतत धार । हतचत्नी मेद्यं वरा, यां भल्नी तन्तचार्‌ 1 ३ टस । क्रि. वि--!? इस प्रकार, उस तरह उ०--१ लघु तं दीरघ पून पलित, यां मात्रा वकाय ! त्यां द्धै न वड क्रिय शता, वड महान वद्राय। ---रा. स. ---जेतदांन वारहठ उ०--२ महाराजा मामी महद, नर मुर नागां नूर्‌ । कुद नहीं कंस केमर, यां दा श्रकसूर। २ टसम । उ०-लग मत्ता चौवीमर दधद मत्त नेखजै, गुज यां त्रधिका मत उपर्ंद विसेखजं । वरणा मत सम नहीं श्रमम पद जांयाजै, तर छदां मिद्ध दंटरक मत्त वन्वांगार्जं । -पी, ग्र. -र. ज. प्र. ३ यहां) उ०-- तटे वीरमदेजी र सांमा जोय पात्तसाह्जी फुरमायौ कँ वीरम तुम भ्रव तलकयांईदहीौ। द. दा. रू. भे. याह यानं पु- [सं. यानं |-१ सवारी, वाहन । २ विमान) ३ गति, चाल । क्रि. वि. प्रकार, ठम तरह । २ देखो यां' (न. भे.) उ०५--पचीसांन्‌ंही कूट मारिया, जानीवा्रं ऊपर जाय नै जानियां नूं वृूःट मारिया, जनी सोह्‌ मारिया, श्राव भाई लृणौ थी तठ खवर मेल णी, तितरे एकण॒ याहं र रजपूत क्यौ --टं जाईसः तरक्ह्यी प्तं क्यूं कर जास? -्ैणसी या-सव.-यह्‌ उ०--१ मतवाला हो पौट़ग्या, सुव-वुघ दीन्दी भूल । पर हायां रा दो गया, या हिट्रदा में सूल । -- ग्रज्ञात । उ०--२ याकटृतांही प्रतसाह्‌ री सन नं वजीर री तीर मंवृ्वांग री छाती रे पार फटी । --व. भा. उ०--२ एक श्रवडी ब्रहम की, जा घट किलमिल जानि । ठेरीया उत्तिमिसावकी,याही रीत पिद्यानि। --श्रनुभव वांणी क्रि. वि.-प्रथवा। उ०-सरव वंसतारणी, रामया भागीरथी । -रांमरासौ याक-~सं. पु.-हिमालय पहाड़ पर प्रायः तिन्वत में होने वाला एक चीपाया जानवर्‌, जो वौका ढोने के काम भ्राता है। यादूत-सं. पु* [अ.] एक प्रकार का लातरंगकां वहुमूल्य पत्यर । याग-देखो "जाग" (₹. भे.) (ड, को.) यागवलक-देखो “याग्यवत्व्य' (रू. भे.) यागि-देखो जाग" (रू. भे.) उ०-जो फल पांमद तपसी सवे, जे फट हुड बाद दोडर्वं । | ४१ जे फलं पामर कीघद् याजि, जे फल भेटयां हृ प्रियागि । | --का. दै- प. याग्य-स. पु-भृगुकुलोतसन्च एक गौच्रकार 1 याग्यतुर-सं. पुष नामके श्र्वमेव करने वान्ते राजा का पैतृक नाम | याग्यदत्त-सं. पु.-वगिष्टकुलोत्पत्त याज्ञवल्क्य नामकः गोत्रकार्‌ का नामान्तरं । याग्यवत्क्य याग्यवत्व्य-सं. पु-१ विदवामिन्र कुलोतन्न एक गौत्रकार । २ वशिष्ठ कुलोत्पन्न एक गोच्रकार । ३ एक प्राचां, जो व्यास की ऋक्रिष्य परपरा मसे बाप्कल नामक ऋषिका दिष्य था। ४ एक श्राचार्थ, जिसके श्राश्रय से विप्शुयदास्‌ नामक ब्राह्मण के वर, कल्कि नामक विष्णु का ग्यारहवां श्रवेतार उत्यन्न होने वालादै, ५ विद्वामित्र कै ब्रह्मवादी पुत्ोमे से एक। ६ एकः प्रसिद्धे ऋषपि, जो वं्म्पायन के शिष्य भरे । ७ राजा जनक के दरवार मेँ रहने वति एक ऋपि, जिनकी पत्नियों का नाम मत्रेयी एवं गार्गी यां। ८ योगीदवर याज्ञवल्क्य के वंशज, एक स्मृत्तिकार 1 याग्यसेनी-स. पु. [सं.] यक्ञसेन की पुत्री, द्रौपदी । याग्यिक-सं. पु. [सं.] यज्ञ करमेया करने वाला। याचक-देखो (जाचिकः (रू. भे.) याचनी-सं. पू--प्रमृकः वम्तु ममे दो-गेसी याचना करने वाला । (जन) याजक-सं. पु. [सं.] १ यन्न कराने वाला २ राजाका हाधी ) ३ मस्त हाथी! याजन-सं. स्वी. [सं. याजनं] यक्ञ की क्रिया याजि-सं. पु.-यन्न करने वाला । यातना-सं. स्त्री. [सं.] १ प्रत्यन्त गारीरिक कष्ट या पीडा । २ यमद्रारा पापियोंको दिया जाने वाला दण्ड । यातायात-सं- पु. यो. [सं. यात~-य्रायात] १ एक स्थान रो म्थान पर जाने फी क्रिया, गमनागमन, श्राना जाना । २ एक स्थान स दूसरे स्यान पर जाने का साघन। यातुधान-देखो 'जातुधांन' (रू. भे.) यात्र, यात्रा-देखो जातरा'ः (रू. मे.) उ०--१ सिद्ध वड्हि सदाई जी, दीष मुर दाई । प्रगटी पुण्या जी, जिणा यात्रा पाई। ॥ दूसरे ध. व. श्र. याच्राद्ध्‌-वि. (स. यात्रा--रा.प्र. द्‌] याच्री। उ०-- महाराज कोई याच्य जाद द सीते पहर हवी द । पदै धुप चद्िसी, तिखौ थी नगारौ हूवौ छ } कूच हसी ) --जेसा सरवहिया री वात यात्री-दे्बो 'जातरी' (रू. भे.) उ०--विता के्‌ मारणं माहि कलेस, प्राव केर यात्री नोक प्रसर ) गरे करम तियां मतभेव, दीन मुख वधि रिमभदेव । --घ.व. म्र. २६६० ~~ _-----------------------~~ पार्‌ यादसं. स्वी. [फो.] १ स्मरणा दाक्ति, स्मृति । २ स्मरण करमेकी क्रियाया भाव। क्रि. प्रकरणी, कराणी दिराणी, होगी । यादगार, यादगारी, यादमीर, यादगीरी-सं. स्वी. [फा. यादगार] स्मृति चिन्ह, स्मारक । उ०-इण सरायमें प्रावसौ रौ फट यादयीर रे वेगैर कुष्ट वाकी नहीं रहसे । --नी. प्र. पाददास्त-सं. स्त्री. [फा. याददाक्न]| १ स्मरण गक्ति, स्मृति । २ स्मरण्ण रखने के लिए लिखी हुई कई वात) यादवगसी-सं. पू.-राजा का एक विशेष प्रविकारी। यादम-सं. पृ. [श्र. भ्रादम| ग्रादमी, पुरुप । उ०--लाज सरम छोडी नं भागान कहुण लागा, यारौ कोई मुनि यादम लड तौतिण से लदियि पिगा षया जांणां कते ही जगमालि थे । --गींदोली री बात यादव-'देखो' जादव' (रू. भे.) ४ उ०--भावसिघ राठीडां रौ भारो मगवंतसिध नखूकां रौ भांशोज,, भारथसिष यादवं रौ भांशेज । -वां. दा. स्या. यादवकुक यादवकुलि-सं. पु. यौ. [सं. यादव ~-कुल] यादवे वंन । उ०--ग्रादिपुरुस श्रवत्तार धुरि, यादवकुलि जयवंत । श्रसुरवंस निकदीठ, ते प्रणम्‌ सीकंत । --करां. दे. प्र. यादवपत्ि-देखो जादवपत' (रू. भे.) उ०--यादवपत्ति जवि हो प्रभूजी ने वांदवा, नगरी द्वारिका सिणगार । घर धर माहे हो महोच्छव मंड रह्यौ, हरस सुं जावे नर नार । --जयवांणी यादववंश्-सं. पु.-यदु राजा का वं, जिसमे श्री ङ्प हृए ये । उ०--राजकुची ३६; सूरयवंस, सोमवेस, यादववंस, कद॑व, परमार, इध्वाक, चाहुमान, चालुक्य, मोरी, सेलार संघवः ""*“ यात्रू-सं. पु- [फा.] छोटे डीले-डौल का घोडा, टट । यायावर. पू. [सं.] १. इधर-उधर ध्रूमने वाला । २ एक स्थान पर टिक कर्‌ त रहने वाला जरत्कारं च्पि। २३ वह्‌ ब्राह्मण जिसके धर पर गाहुस्पत्य ग्रग्नि सदा प्रज्वलित रहती हो । ४ यवरी नामक नागकन्या के वंशज, चारणा । 5. भे.-पयावर । यार-सं. धू. [फा.] १ मित्र, दोस्त । पारी उ०--ग्रौ पतीत पावन प्रभु, इणारी करौ उचार। इगि रौनाम क्त्यांण छ, श्रौ श्ररिजण री यार। --पी. ग्र. २ साथी, मददगार । २ वह व्यक्ति जिसक्रा किसी म्री मे भ्रनुचित सम्बन्व हो उपपति ! उ०--मानजदा मन माहि राट सभं दिनराती, मानजादि मन माहि यार मूं ग्रकुलानी । --ऊ. का. ४ प्रेमी उ०--नन हमारे यार नु, रहीया उनि उनिभिः। हनीया न्यारा नां टव, मुलक्ाया न सुति । --ध्रनुमव वांगी यारो-सं. स्वी. [फा.] १ मित्रता, दोस्नी। उ०-- उण परवांसी माह उचारे, सुगतां मितर वहोतर सार । ञ्गाथी जो रां भड्‌ यारी, हवै कमेव मुज पंचहुजारी । 9 य निर. प्र--करगी, होगी च २ स्त्रो-पुर्प का प्रनृचित्त मम्वन्व । यष्टम. सत्रा. [तु.] घोड़ा, निट ग्रादि केः गर्दन के वाल } श्रयानं। उ०--१ कसता विजमंड कोदंट कां, यणा व्रा वेर जरां 1 सटा य जाछी दादी सुहावे, प्रिया नागवाद्धी नवे दाग पाव । --व. भा उ०---२ लस पति पद्धर्‌ पिद निमंक, कम कर वग्गनि कं यर्‌ यक । गृह क्च यालन कै भरि वत्य, मिततासित पीत क नादविकः सत्थ । --ला. रा. २ गदन) यालुक-स पु.-्रनन्त, श्रमीम । यावनी-सं. पु-करक यानि नामक ईव, रमां | उ०-येटीमधरु नटं यावनी, यवपन्नडी यवानि । यक्षनता योसिम टरा, यमपद धानि पानि । --मा. कां. प्र यत्क. पु. [स] १ निक्त नामक सृथिग्यात ग्रंथ का कर्ता, जो -जव्दाथतत््र' का परम नाता माना जाता & ; धि-पवे.-प्रे | उ०--ज्रग मिष्वि चमरी वन मांहां नाशा; कमनं मीन गयां व्रारि उदरीलाह चिनु गुण गाई खाघी हारि । --नद्धाम्ान २६६१ युक्ति पिञ-फ्रि. वि.--पेस!, पेसे । उ०-- नं खापरौ रात पोहर १ पाद्धली थकी ग्राव निजीक उर उतसरियी, जांणियौ “हंतौ कुसद्धं पडियौ, श्ट घडी १ वैसा" यिऊं उतर वटो; तितर्‌ धरती फाटण लागी, तर इण जांशियौ ग्रौीकासू द्वं द्ध) -नगामी धिम-देखो इभ" (रू. भे.) यिम-देनो ^उम' (सू. भे.) उ०--नारीमांहां यिम एक त्‌ंदि, पर्स मांहि तेह । विध्या नाद ग्रमूनक ए रत्न सरज्यां वेदि, --नद्रास्यांन पिमरत-देमो ्रमरत' (₹. भे.) उ०--ग्रमरत दय नह तिय प्रवर, विधु यिमरत न वथवांसा | कै जन ्रजगामर्‌ कःरग्ण, जस हूर पिमरत जांण। “~--~-र्‌, ज, प्र, पिहां-क्रि. चि.-यहां । उ०-नरव नामि देम मनोहर, वीरमेन वगुधेम । प्रांणीमात्र नहीं को दूनियु, यिहां वरमिम्ट नरेम । --नदास्यांन यो-सव.-यह्‌ । उ०--यौ वरखा रिति वौढवी, रीती भरद श्रदूद्‌ | हमि स्त ग्राधी वोच त्यौ, फेर प्रगटुयौ फद --रा. सू यु-देषबोधू! (रू. भे.) उ०--१ जोर्मागौ सोन रौ १ गाम मार तौ रायमनं जोधपुर रा गाम मार । युं रहता धकां इंयारी वेव चाल्तियौ जाद) --नग्णसी ॐ०--२ तर राठौड़ प्रिधीराज कूपावत जनमाल न कल्यौ-तु मत रोवं । परमेदवर कीयरौतौहूं कूपार पेट रौ जो युं चद्रयेन नु रोवा । --राव चद्रमेन री वात युमल-देग्वौ जमल' (रू. भे.) युक्त-१ देग्बो “जुकत' (र. भे.) २ देग्वो शुगत' (रू. भे.) यक्ति-सं. स्वी. [मं.] १ साहित्य मे एक श्रलंका र विशेष, जिसमें कई प्रपना रहस्य चछिपाने के लिये किसी क्रिया दारा भ्रन्य कौ वचन करे (ठगे) । ९ देखो “जुकतीः २ देग्वो जुगतीः (सू. भे.) (रू. भे.) पुतिगु न का 4 युक्तियुक्त, युक्तियुत-वि. [सं. युक्ति + युक्त | १ युक्ति संगत, ठीक, वाजिव । उ०--उत्यादि युक्तियुत वच उदार, सरकार सरवन भेजे सु ढार। पय वान करन पोरम प्रकास, पटंच्यी दद प्रौ रंगजेव पाम । --उ. का. युग-देखो "जुग' (रू. भे.) उ०--ग्रा वस्त्र याहारि ग्रोढमु तद्धि थासु म्प प्रकास। वस्त्र युगतेप्रापियां नि सीख दीधी भ्रास। --नकास्यांन युगति-देखो जुगनी' (रू. भे.) युगमंधर-देग्मो जुगमवरः' (स. भे.) ` उ --पूर विदेह विजय पृखलावती श्राटमी ठाम, पुडरीकणी नगरी तिहां खी सीमंघर्‌ रवाम, वप्र विजय पच्चीसमी विजयपुर नौ नाम, पच्छिम विदेह ्रीजौ युगमंधर की जं प्रणाम । --ध.व. ग्र. युग, युगल-देखो “जुग, (र<. भे.) उ०--उण श्रवसर सीक्रम्णजी, माने वंदन काज । ्रावे प्रगामी चरण युगल, वेढा स्री महाराज । --जयवांगी युगलियी-देखो "जुगलियौ' (स. भे.) उ०-त्रिण कोडा कोडि सागर सुखम वीय प्ररो, देह दो कोस दोई पल्ल श्रायु वरो । वोर परिमांणा श्राहार वीजं दिन, युगलीया मानवी एह कटिया जि । व. व. ग्र युगवर-देखो "जुगवर' (रू. भे.) उ०--युगवर "जंतर" जेहवउ, ख्पड 'वद्र-कुमार' पंच-नदी' सावी निणई, सुभ लगन सुभ वार। -प. जे. फा, युरत॑तक-देम्बे “जुगांत्तकः (स्‌. भे.) युगादि-देग्बो “जुगादि, जुगादी! (रू. भे.) युगादिदेव-सं. पृ. [मं.] सृष्टिके प्रारभ के देवता । उ० -समीहितारथकारी, सरवातिसयमरवम्वधारी, व्यवहार पर- मास्थप्रव्र्तिप्रथमावतार, संसारभयभीतभविकजनरक्षावच्योकूर, गरुगादिक्रतावतार्‌ स्रीयुगादिदेव | -व. स. युगेस-१ फलित ज्योतिप में गति के श्रनुसार्‌ वृहस्पति के साठ वर्पोके रालिचक्र मे पांच-र्पाच वपं के युगो के प्रधिपति। २ देग्वौो भजुगेस' रू. भे.) युगभमपद-मं. पु. [सं.] श्गारमें एकं श्रासन विेप। युतवेव-देष्ो शुतवेध' (स. भे.) २६६२ युतिस्ट-सं. पु--खप्पय छंद क्रा एक भेद, जिम इत गुर, ८६ लधघुमे ११४ वण या १५२ माप्राएंदोतीदटै। एमे भ्रजगम भी कनद] युत्य-देग्वो ूथ' (रू. भे.) उ०--फतयसिष कौ करि फन्‌, वहरे सुभट समाज । मनु गयंदनि युत्य हनि, प्राये धरहि स्रगराज । --ला. रा. युद्ध-देखो “जुच्' (म्ह. भे.) युद्धवाद-मं. पु. [मं.] ५८२ कलार््रामे से एक । युधिस्ठिर-देखो "जुचिस्टरः (स. भे.) युरोप-सं. पू. [ग्रं.| पूर्वी गोनद्धमे एथिया के पदिचिम में न्थित णक महाद्वीप । ० भे०-यूरप, ्रूरोप, योरोप 1 युरोपियन-मं. पु. [ब्रं] युरोपदेन का निवामी। वि.-युरोप महाट्रीप सं सम्ब्रन्वित, युरोप का। ० भेऽ-यूरोपियन, योरोपियन । युवक-वि. [सं.] १६ से ३५ वर्पो तक की म्रवस्या वाना जवन । युवत्ति, युवती-देखो "जुवति' (र. भ.) युवनास्रव-दे्वो “जुवनासव' (<. भे.) युवराज, युवराजकुमार-देन्यो “ जुवरार्ज ` तर्ज (<. भे.) । उ०--कुवर रूपवंत मुकरुमाल, सिवमभद्रनो वरगा मंभाल । राज चिता काम-कजि, जिने पदवी दी युवराज । --जयर्वांणी यरुवरासी-सं. स्त्री.-१ एक तीर्थं का नाम । उ०--वदरीनाथ केदार गंगोतरि, वैजनाथ कंनायी । पंचवटीं पपापूर स्क्मिशि, देव कपिन्‌ं युवरास्ती । --मीरा युवा-देग्वो जर्वांग' (<. भे.) उ०--गोपाकछ भगत्त-निवारगा ग्रव्भ, परम श्र्रतत परण्म सु प्रव्भ । सदा ्रप्रमाद जोगाणंद मिद्ध, नदीतर वाढ युवा नहि व्रद्ध । --ट्‌. र. युयावरणी-मं- स्त्री .-जवान स्त्री उ०--वय व्राठ विहाय युवावरणी, कटिवद्ध भयौ करनी करनी । विमनां ग्रनुराग विराग बह्यी, चितव्रत्तिय जोग प्रयोग चह्यौ । ~~ क युव्वन+स-देखो “जुवनासव' (रू. भे.) उ०--युत युव्वनास सेसट स्रवेस, निज हुवौ मांनधाता नरेम । पुर-करुसी्मान सृतवंस स्प, पुर कमुम्समु तरौ संभूत भूष 1 = यु-क्रि. वि.-१ टस प्रकार, एेसे । २६६३ येता >, ८2५) नि) „..._,_____~-----------~~~~~_~~___~_____~_~~_~_~~~_~~~~~~~~_~~~-_~~~___्‌्‌्‌_्‌___्‌-~~~_~_~__ उ०~--१ मत्र सक्ती मंत्र सू, ज्यों तीटी तै जाय । श्रभंग सं. स्त्री.-३ उक्त पहाड़ से निकलने वाली नदी । द्वाह ष्दुरंग' परू, लेगी प्राह वकाय । यूरोप-देखी युरोप' (रू. भे.) रा. रू. | गूरोपियन-देखो धुरोपियनः (रू. भे.) उ०--२ घडी उसा चरंवकर लागत घाय, ची चित रीस लेडीपत | गहु-देगौ श्भुथ' (र. भ.) चाय । मुरो कथ धेम कमं सधीर, धुरौ सग बोलत भर | गूही-देवो धुंदी (र. भे.) रणादीर 1 --पे, रू. उ०--ग्रटस वद्धाराजवीषरसरा धर मे दारू पी रोरी खाय ॐ०-३ थ करतां दिन उगौ। राव मातदेजी री फौज यारी सूय रणौ घर रौ काम परोपकार वीरता देस सेवा घ्रादिभ्राछछा ऊपर दौड । कामन करणामें व्रणा प्ूही वेत्त ऊमर गमावंदहै। --नरणमी --वी.स.टी. रूऽ भेऽ-यु 1 ये-सव. [यह्‌ काव. व.] समीपस्थ वम्तुभ्रों या प्राणियों के लिए ही- फ्रि. वि.-१ निरयक, निन्द्ष्य। प्रयुक्तं शव्द । उ०--उनदछास चौक में, चौमाना द मेदी मे; सियाद्धा रा | येई-देनवो यही (ङू.भे.) ग्रोरिये, पौदावौ म्हांरा जोडी रा रतन मियाचछौ राजन गुही | येड-म्रव्य.-यह्‌ भी। गिरी 1 येफ-देन्वो एकः (रू.भे ) __ नो. गी. उ०--ग्रोउगपुड येक येक पुड श्रसमर, हूति मूठ हात्त लिया । ० भेऽ~युदटी, बृदी । कोप वुघार थके तठ काटठा, दांणव भाति नव्री दघ्या । युय-देवो शुष" (रू. भे.) महाराणा हुम्मीरसिष री गीत पूयनाव-देो “ल्रुयनुषः (म. भे.) येकरा-देखी एकग (रः भे ) युयप-देमो शद्रुयप' (र. भे =, येकणि-क्रि. वि.-ग्रकेते मे, एकांत मे । यूय्धति-देखो शज्ुयपति' (स. भ॑.) उ०--राजा प्रादित येकि साथी, बाहे लागा पृद्धद् घनी घात । मयपाद्ध-देखो ्रूधपाट' (र भे.) नयनी सपमे स्वडौ, कोट कोमीसा श्रत न पार) पुनान-सं. पु.-यूरोप का एक देण, जौ एथिया के मवम श्रचिक पाम -वी.दे. पटृता ह । -देन्यां एकं (रू, भे.) येकली-दे्बो एकल" (रू. भे.) (स्त्री० येकली) वि-१ पूनान देका निवानी | पेटलो-वि. (स्री. येटनी) जितना । २ परूनान देन म सम्वन्वित । उ०--निद्रा वसि दि, सूती त्यन्रू, श्रा वनथी वीज वन भनु । युनादटेट-चि. [ब्र.] मिना हुमा, भ्र॑गुक्त ॥ जागी नदि देवि येटलि, कुःटनधुर जसि तेटसि । यूनादटेड क्िगडम-सं. पु. [्र.] श्राधुनिक दंगनैण्ट, जिममें इगर्नण्ड, युनानी-सं. स्त्री.-यरूुनान देश कौ भाषा । --नटढाख्यान म्काट्नेण्ड एवे ्रायरलण्ड शा मिल हं 1 येटीपधु-सं. स््री.-मर्लटी 1 यूनाइटेड स्टेटस-सं. पृ, [प्रं.] संयुक्तं राज्य, जिम द्धोटे-द्ोटे राज्य उ०--येठोमघु नदुः यावनी, यवपन्नठीं यवांनि। यक्षलता योसिम सम्मितित ह हरी यमपद पानि पानि। पूप्तयन-मं. स्परी. (श्र. कृ च्यक्तिय का किमी उद्य मे व्रनाधा ह सा. क. ध्र. हुग्रा संगठन, सेव । क ध ४ ूनिवरसिटी-स. स्वी. [श्र] उच्च कोटि की चिक्षा प्राप्त करने की उ०--ग्रभदान जेमांण वीकांण॒ श्रण्पै, तिका श्राज जोधांगा र राज सुस्था, विद्वविद्यालय । तप्प । प्राद्र श्रावड़ा नाम विद्यात येढा, इद्रवाई जिका येण यूनाफारम-सं. स्त्री. [श्रं.] किसी विचिष्ट समुदायके ल्िए्‌ निर्धारित ॥ > पालाकर, वर्दी । येता-क्रि. वि--जिस प्रकार, जैसे । कि. यूरप-देखखौ ध्युरोपः (स्‌. भे.) § ॥ उ०- दद पडदा पलक का, येता प्रतर हौद्‌। दादू विर ही पूराल-सं. पु.-१ एचिया व भूरोप के वीच में रित एक पहाड़ | राम विन, कयोकरि जीवं सोई । २ उक्त पादुके श्रास-पास का प्रदे । --दादूवांणी र ५ भ्न येती-सर्व. (स्वरी. येती ) इतना । (न उ०--१ वरुण॒ येतौ कठा श्रांणसू विचार, चवै ्मतरणमसूःमूह्‌ | चद्धियौ । करण दरियाव री रीत लख कंलपुर, पुरंदर भरण रौ चीत पडियौ } महाराणा राजर्सिहजी रो गीत उ०--२ डर सांखीधार ऊपर, श्रांण वधारे येती । नवकोरी मारवाड खगा नर, सीहै लीव सदेती । श्री श्रोसथांनजी री गीत येन-क्रि. वि.- १ जिस प्रकार जेप । २ जिप्तमे । पेलम-देखो “इलम' (रू. भे.) उ०--भावनगर को तुरक यक, सव तुरकन सिराज । वुःसती पटो विनोट कत, सव येलम उसताज । --ला. रा. येा-देखो "टटा! (रू. भे.) चेद्रापत, येद्रापति, येद्धापती-देखो “द्धापत' येह-देखो "यद्‌! (सू. भे.) येहडी-सर्व (स्वरी. येहड़ी) एेसा । उ०--येहडौ ज्याग ग्राहडा, दध्र तू घर वीयां न होय 1 दत देतां ग्रीखम दर्मांगी, सीत वदीत हू सगठोय । --जोगीदाय कवारियौ उ०--२ चंदवदनी मुख चोज हंस्गति चसिवी, द्‌विभाव गावत हवो दालवौ 1 तार जरी पोमाख वीच तन तेह, टदपुरी उशियार विराजं येहड़ी । (स. भे.) --वगसीरांम प्रहित री चति पेह्‌-प्रव्य .-१ यहां 1 २. रेमे । य~ सर्व.-१ इस । उ०्--भील दही भगत थारे भला, केये नां मौजां कर्‌ । दमं ूःमिः विरता दूय, यं र काजि श्रवतर्‌ । --पी. ग्र २ टन) यस-कि. वि.-पसा, दस प्रकार । उ०--दिन तौ चसे सकूविवा लागौ जेमे रिणा को देखें दाम को दणदहार संकूचं । --वेलि योरि. वि. (मं. एवमेव] १ इस प्रकार, एमे । उ०--१ यों क्यौ, तरं लाक पण श्रारे हुवौ । तरं तोत करनं राच नै लाडकं चड्मदि्या। रावछ लाठक नू खांसड़ी वाद्यो | -नणसी ३६६ पोगदश उ०--२ राट गिद्ध ज्यौ नंद को, गहण गिद्ध ज्यो सूर्‌ । कम्म निधौ यों जीव को, न विव लार्गं पूर । --दादू्वांगी २ उसी तरह, वसे दही। उ०--दादू चंतक देणि कर, लोटा लानं श्राद्र । यों मनगृगाद््री परकर्म, दादू लीजं लाद । --दादूर्वाणी सर्व.-उसके 1 उ०~--गोम सोम रम पीजिण, एती रमना होष्। दादु प्वाना प्रेम का, यों चिन च्रप्त न दी । [पोः --दादूव्राणा योँही-क्रि. वि.-१ इमी प्रकारमे,गेमदही 1 २ देग्बौश्यूदीः (सः. भे.) यो-देखो यी (सू. भे.) उ०--१ जु राति ग्रस दिन कौ संचि सव्या वंद उ । श्ररृए वाच श्रवस्था मोवन फी मंवि उड! ताते यो भाव लियो। --वेलि- टी. उ०--२ जदी रजयू्तांरी धघणौ दी रजपूतद ममजावं 1 पण॒ यो मानं नहीं| । ह, --पंचमार री व्रात योरई-देगो यही (स. भे.) ^ उ०--जनम मरण का कारणा यो, मूल वासना जांणा 1 ग्पनि ग्रग्नि कर जादी वाराना, जन्म मरण मिटांणा । --श्री मुखनांमजी महारज योग-देग्नो "जोग (रू. भे.) उ०-- श्रोष्ठा गोलन बोलीद रे, दिल मे रानी योग) वोच चोल वें हस्यारे, हाथ दै तानि जोग रे। --प. च. चौ. योगकन्या-सं. म्नी. [सं.] योदा के गर्भं से उत्पन्न वह्‌ कन्या नो मथुरा लाद गई शरी तथा जिसके विषय मे यह मान्यता हैक कंस ने उपे मारना चाहा था परन्तु व्र उड़ कर श्रास्मान प्र चली गई । योगज-सं. पु. [सं.] योग साघना कौ एक श्रवभ्या जिस्म योगी मं ग्रलौकिक वस्तुर्रों को प्रत्यक्ष कर दि्वाने की शक्तिथा जाती ह। योगजाच्रा-देखो "योगयात्रा' (रू. भे.) योगदंड-सं. पु. [सं.] योगीके हाथमे रखा जाने वाला डंडा । उ०--करतल कलितत योगदंड, स्कवप्रतिष्ठित योगपद प्रसावित-- प्रचंड चंडिकामं्र, पिसाचसाधन स्वतंत्र, साकिनीनिग्रह्‌ साहसिक रसायनध्रयोगरसिक, प्रदरसितवलिपलित, वस्ीकरणि भ्रमूढ, ल्त खडी चापदीप्रमुख विद्याकूतूहली श्र साघक, श्राकासपातालवंधक । ~न |; 1 भ योगदरसन योगदरसन-सं. पु. [सं. योगदशंन ] दर्थनकार महपि पतंजलि रचित योगसूत्र । . योगनाथ-सं. पु. [सं.] शिव । योगनिद्रा-देखो जोगनिद्रा' योगनिद्राद्‌-देखो “जोगनिद्राम्‌ योगनी-देखो जोगी (रू. भे.) योगनीद्ग्धारस, योगनीएकादसो-सं. स्वरी. [सं. योमिनिएकादमी | ्रापादु कृष्ण पक्न की एकादसी । योगपटू-सं. पु. यौ. [सं. योग पट] एक प्राचीन पहनावा, जो पीठ पर से जाकर कमर में वोचा जाता धा श्रीर जिससे धृटनां तक का ग्र॑ग ठका रहता था, योगियों का पहन।वा । उ०्--करतेल कलित योगदंड, स्कय प्रतिष्ठित योगपट्रः प्रमाचित प्रचंडचंडिका मंत्र । (र. भे. (=. भे.) --तव. स. योगपति-तं. पु. यी. [सं. योग~-पति] १ विष्णु । २ लिते) योगपदक~मं. पु. यु. [सं. योग~{-पदक] चारे प्रंगृल चौड़ा एक प्रकार का उत्तरीय वस्मजोा २. के समय पहना जाता है । यौगपाद-सं. पृ. यौ. [सं.] पेसा त्य जिसे भ्रमीष्ट की प्राप्िहो। (जन) योगपारग-सं. पु. यी. [स. योग -+-पारेग | दिव, महादेव । वि.-योग-सावन में प्रवीगा। योगपौठ-सं. स्वी. यौ. [सं. योग पीठः] देवताग्नों का योगासन । योगफटठ-सं. पु. यी. [सं. योग-~+-फल] दोयादोसे भ्रचिक राथियों को जोडनेसे प्राप्त होने वाली रायि । योगवट्-देनवो 'जोगवट' (रू. मे.) योगश्रस्ट-देखो "जोगश्रस्टः (रू. भे.) योगमाता-देयो ^जोगमाता' (रू. भे.) योगमाया-देखो "जोगमाया' (रू. भे.) उ०- वेदो चारण वकर गांम रैक देम मदि। वेद॑ र्‌ यदौ द्रव्य । सयणी वेटी । महासक्ति योगमाया । --मयगी री वात योगमाल~सं. स्तरी.--वदोत्तर कलाश्रो मे मे एक । --व. स. योगमूरतिधर-सं. पू. [सं. योग -{-मूर्तिवर] विव. महादेव । योगयात्रा-मं. पू. यो. [सं. योग-{-याच्रा] याव्राकै निए उपयुक्त योग (फलित ज्योतिप) 1 <° भे ०-योगजात्रा 1 योगराजगुगवछ-सं. पु. [सं. योगराज गुरगलः] गृग्गन प्रवान करद द्रव्यों के योग मे वनी हूर वात रोग नादाक एक प्रसिद्ध ग्रौपवि विप । २३६६५ योगाचार <° भे०-जोगराजगुगठ, जोगराजगूगछ । योगरूढ, योगरूढिि-सं पु. यौ. [सं. योग ~-खू्‌] दो शब्दों के योगसे वना वह्‌ चव्द, जो श्रपना सामान्य श्रयं ध्योडकर विदोप श्रं प्रकट करता ₹ै। योगरोचना. स्त्री. यौ. [सं. योगरोचना इन्द्रजाल करने वानोंका एकः विधेय प्रकारका तेप जिसको लगाने से भ्रादमी ग्रटद्य हो जता है) योगवांणी-सं. स्री. यौ. [सं. योग~-वाणी| योग का उपदेश । योगवांन-सं पु. [सं. योगवत्‌] योगी । योगवासिस्ट-मं. पु. [सं. योगवाचिष्ठ] वचिष्ठ मुनिका वनाया हृ्रा वेदान्त थास का णकः प्रसिद्ध ग्रन्य। ० भे°-जोगवासिसट, जोगवासिस्ट । योगवाही-सं. पृ. यौ. [सं. योग~}-व(हिन] भिन्न गणोकोदोया करई ग्रीपधिर्यो को एक में मिलने योग्य करने वाती प्रीपचि या द्रव्य । योगत्रत्ति-सं. स्वी. यौ. [सं. योग~वरृत्ति] योग के हारा प्राप्त होने वाली चित्त की वृत्ति। योगसक्ति, योगसगत्ती-देखो 'जोगसकतिः (रू. भे.) योगसस्तर, योगसाच््र-सं. पु. यौ. [सं. योग ~+-दास्त्र] पतंजलि क्षि हारा रचिते योग~-साधना पर एक ग्रन्थ । ८० भे०-जोगसास्त्र । योगसासतरी, योगत्तासत्री, योगसास्वी-सं. पए. यौ. [सं. योग ~-णास्त्री] योग-गणास्व्र का ज्ञाता । योगसिदध-सं. पु. यौ. [सं. योग~-सिद्ध] योग-श्ास्र की सिद्धि प्रात करलेने वाला योगी ५ योगत्तिद्धि, योग्तिधी-स. स्त्री. यी. [सं. योगसिद्धि] योगके द्वारा प्राप्त सिद्धि । ० भे०-जोगसिधी । योगसूत्र-सं. पू. यौ. [सं. योग सूत्र] पतंजलि हारा रचित योगशास्त्र के सू्रोंका संग्रह्‌ | योगांग-सं. पु. यौ. (मं. योग+ग्रग] योग के श्राठ श्रंग-यम, नियम, ग्रासन-प्रणायाम, प्रत्याहार, वारणा, ध्यान श्रीर समाधि । योगांत-सं- पु. [सं. योग ~ग्रन्त | ज्योतिष के ग्रनुसार मंगल म्रहुकी कक्षा के सातवे भाग का एक श्रंश। योांतराय-सं. पु. [सं. योग ~-ग्रन्तराय] श्रालस्य ग्रादि दस प्रकार की वाते, जो योग में विघ्न डालती ह, ० भे०-जोगांतराय । योगागम-सं. पु. यी. [सं. योग ~-श्रागम] योग~दर्शन । <° भे०-जोगागम । योगाचार-सं. पु. यौ. [सं. योग~-ग्राचार] १ योग का प्राचरण, योग-सावन । योगाभ्यास २ बौद्धो काएक सम्प्रदाय, जो महायान की शाखाभ्रौं मसे एक है, जिसके श्रनुमार दीखने वाले पदाथ शून्य है । योगाम्यास-सं. पु. यौ. [सं. योग ~-ग्रभ्यास] योग-शास्वानृसार योग का साधन । 5० भे०-जोगाभास, जोगाभ्यास । योगाभ्यासी-सं. पु. यौ. [सं. योग ग्रभ्यासी] योग कौ साधना करने वाला, योगी । <० भे०-जोगाभ्यासी । योगारूद-सं. पु. यी. [सं. योग~+-म्रारूढ] वह॒ जिसने ग्रपनी चित्त वृत्तियों का निरोव कर योगाभ्याय शुरू कर दिया हो । रू< भे०-जोगारूढ ! योगासन-सं. पु. यौ. [सं. योग + श्रामन| योग-सावन का एकं ग्रसने, योग कीमुद्राया ववने काद्धंग। ू० भे°-जोगासन 1 योगिरणी-सं. म्बी--देखो जोगणीः (रू. भे.) योगिणीपुर-देखो जोगखपुरः (रू. भे.) उ०-कीयो कूड सुरताण, सामि मोरउ ग्रहि वंध्यउ, पदमणिं द्यतु जाउ, काजि करणह्‌ समव! भलो न कीयो किरार, केम गहलोत वंधीजद, कीयो मंत मत्रीयां, राय राखवि त्रिय दीजडह। तदिन जीभ खंडवि मरउ, योगिखिपुर नवि दीखसउं 1 पदमिगी नारि हम उचरड, ग्र॑व कह सरगणागति पडहिसिड । --प. च. चौ. योगिनिद्रा-देखो जोगनिद्रा' योगिनी-देगवौ 'जोगगीः (रू. भे.) (रू. भे.) २९६६ ___ ~~~ ______________~______~___ ~~ स योजनगंघा य 1 0 0 कि त, स । 1 उ०--ग्रौर जिकेद्‌ विरोधीन था व्याह स्रीनारायणा को स्वष्प जांण्यौ । वेदकाप्ररथी थां । व्याह क्यौ मूरत वद वेद ग्रायौ योगीस्वरां जांण्यौ जोग तत योही । वेनि. योगीस्वसै-देग्वो योगेस्वरी' (र. भे.) योगेद्र-देयो जो्गिद' (र, भे.) योगे्त, योगेस्वर-~-देग्वो जोगीस' (रू. भे.) उ०--१ अमे योगेस्वरां कं माया कापटलदूरिवै्छ) नौही तौ रात्रिदरुरि दृद । अनर्‌ प्राणावांम योगेस्वरां का इदटै जोति प्रकास ह्री ¦ --वेति उ०--२्‌ न्ेपति तु मावव दीठउड, पीयु मावव-प्रेम । नारि निमेम धरी रही, जमि योगेस्वर जेम । --मा. का. प्र योगेस्वरी-सं. स्वी. [सं. योगेद्वरी | दर्णा, देवी ) <° भे०-जोगेसरी, जोगेम्वरी, योगीम्वरी । योग्य~वि, [सं.] १ उपयुक्त, ठीक ! उ०-मिवांरौ गढ सीह लेकः है, सरापियदढ जायगा है, श्रीर्‌ किली कड़तोड़ है जिणाम्रू राजवियां र रहण योग्य नहीं । । --नरासी ४ विद्या, शीत, ५ दर्यनीय, सुन्दर । ७ उचित, ठीक, मूनासिव । २ लायक, काविले। ३ प्रवीण, टोरियार) गुण, शक्ति भ्रादि समे संपन्न, श्रेष्ठ । ६ ग्रादरणीय, सम्माननीय । ० भे०-जोग्य । उ०--तव तुरी योगिनी, हुई प्रसिद्धि प्रसनी, ब्रह्म सद्र करि वाच | योग्यता-सं.स्त्री- [सिं.] १ योग्य दहने की श्रवस्या या माव। वाच निस्चल करि दीन्ही । जिहां हकारदइ मोहि, तोद्धि माच करि जांणाद्‌, श्रादि श्रत उतपत्ति, विपति ती सहु पीन ग्रास्थांन श्राप जोगिन हद्‌, विप्र पंथ भ्राश्रम करचउ, भ्राणांद भ्रंग ऊनट धरई, तव टीली गद संचरयय । २ क्षमता, सामर्थ्य। ३ लायकी, कावलियत। ४ विदरत्ता। ५ गण, सिफ्त। ६ ठीकं या प्रनुकूल होने का भाव, उपयुक्ता । ७ गाक्ति, साम्य, श्रीकात ! ८ वड्प्पन्च, महत्ता! € इज्जत, प्रतिष्ठा । | प. च. चो. | योजक-वि- [सं. ] जोडने या भिचने वाना ] योगिराज~सं. पु. [सं. योगी -+-राज] योगियों में श्रेष्ठ या वड़ा योगी । <० भे०--योगी राज । योगीद्र-देखो “जोगिद्र' (रू. भे.) योगी-देयो "जोगी (रू. भे.) योगीकु उ-सं. पु. [सं.] हिमालय का एक तीर्थं । रू० भे०-जोगीकु ड । योगोनाथ-सं. पु. [सं.] शिव, महादेव । <° भे०-जोगीनाथ | योगोराज-देखो योगिराज' योगस, योगीस्वर-देगयो "जोगीस' (रू. भे.) (रू, भे.) योजन-सं.पु. [सं.] दूरी काएकमाप,जोदो कोस, चारे कोस, या ग्राठ कोस का होताहै। उ०--भिक्छु प्रणगार निज नांम मन सुद्ध भणौ, तीन गच्छ त्रि राज त्रिभुवन त्तौ 1 वचन युप्ते वली नांम वाचंयमाः योजन वांणि सु गाज च्यारू गमा] | --घ.व, श्र. 5० भे०-जोजनं । योजनगधा-स. स्त्री. [सं.] १ व्यासमाता सत्यवती का नामान्तर। २ कस्नूरी। ३ सीता । ० भे ०-जोजनेगंधा । योजन! २३६६५ यौध ..___„~¬]]---------------------_--_-_-_-__~_ योजना-मं. स्त्री. [सं.] १ किसी कार्यं को निप्पन्न करने हतु प्रस्तावित २ एेती श्रीपव जिसके प्रयोग से योनि संकुचित हौ जाती दै । कार्यक्रम । २ व्यवस्था, श्रायोजन। ३ प्रस्ताव । ४ प्रयोग, | योनिसूढढ-सं. पु- [सं. योनिदुल] वहुत पीड़ा होने वाल्ला योनि का दस्तेमाल । योतिस-देखो “ज्योतिस (र. भे.) उ०--दिन थोडे दिल्ली गयौ, नगर ट्री जन नांम नाल! योतिं जां ग्रति वणौ मन । --प. च. चौ. योत्राडरणी, योत्राइवौ-क्रि. स. [सं. युज्‌ |-जुताना, युत्तवाना । उ०--रामसिघजी कन्द जाई प्रर कटिया । पारो स्यू म्टारा गाडा योच्राडि श्र म्हांहीनू नायिते भ्रवौ । ---द. वि. योत्राडियोड-भू. का. कृ.-जुताया टृग्रा । (स्वी. योव्राड्योड़ी) योनि-सं. स्वी. [सं.] १ स्त्रीको जननेन्िय, भन। २ उद्भव स्थान, जिनमे कोई बन्न पदाहो। ३ गान । ४ देह, गरी । ५ उक्त के प्रावार पर प्रप्य के विभागया वर्गे । वि. वि. पुणानुसार ८४ लाखे योनियां कहौ गई हु--जलचर ६ लाख, मनुष्य ४ लाख, स्यावर्‌ २७ लाख, कृमि ११ लाख, पक्षी १० लाव श्रौर चौपाये २३ लाव । £ जन्म | ७ जस, पानी । = भ्रतःकरणा । ६ पुरागानुसार्‌ कू दवीप की एक नदी । 5० भे०्~ञर, योनी । योनिकंद-सं. स्त्री. [सं.] योनिमेंषएक प्रकार की गांट होजानेका स्त्रयो का रोग, जिसमें रक्तया पीव निकलता रहता है । योनिजंत्र-देखो शयोनियंत्' (रू. भे.) योनिकूत-सं. पु. यी. [सं. योनि ~-पुल] योनि के श्रन्दर फी एक ऊमरी हूरई गांठ जिसके उपर एक दद दता जिसमे वीं गभदिय में जाता ह। योनिश्र स-सं. पु. [सं. योनिश्च श] गर्माणय का ग्रपनेस्थानसे कृदयु दृट जनि का योनि का एक रोग। योनिय॑च्र-सं. पु. [सं.] गया, कामाक्षा श्रादि कुद विशिष्ट तीर्थ स्थानों मयने हुए संकीणं मागं जिनमं से निकलने पर्‌ मोक्ष-प्राप्ति होना माना जाता ह्‌ । ० भे०-ग्रोनिजेत्र । योनिसकोचन-सं. पु. यी. [सं. योनि + संकोचनं] १ योनि को सिकोटने कौ क्रिया । एकं रोग । । योन्यासन-सं. पु. यौ. सं. योनि --म्राश्नन] योग के ८४ ग्रासनों के म्रन्तगत एक शरासन चिप जिसमे उपस्थ को संकुचित करके उन पर वयं पांव की णडी सम्यक प्रकार से स्थापित करके वाई जांघ पर दाहिने पांव को रखा जात्ता है तथा दोनों हाथो के ग्रगूठे, तजनी रौर मध्यमा से अ्रनूक्रमवार्‌ दोनों तरफके कान, ग्रंख ग्रौरनासापृटो कोवेदक्रिया जाता ्रौरदष्टि को भ्रमघ्य रखकर स्थिर होकर वेट जाता । इसमे इन्द्रिय, प्राण श्रीर्‌ नित्त कारयन हतार । योरोप-देन्वो "युरोप' (रू. भे.) योरोपियन-देग्वो “युरोमियन' (रू. भे.) योत्ता-सं. स्री. [ं. योपा] युवत्ती, नारी । योही-देखो "यरी (सू. भे.) उ०--योही भंवरजी सीकरी गाणी रौ देस, तानर थोडा सरवर वौ घणा नी म्हारा राज । --लो. गी. या-क्रि. वि.-पेसा, गम, इस प्रकार । उ०--द्छभारूप दवि पर्व, सरव चख वदन मरेगे। यौ लग्ने र्म रूप, श्रविर किर कागद श्रगगे | रा. स यौ-सव.-१ यह्‌ । उ०--ग्रव मोहि दग्म दिग्वाव माधवे, थौ ्रीसर लाभे दिन दिन धटतौ जाय माधवे, प्रीति घटः तो जिनि मिद्ध । नांदी । --ट्‌. पु वा. क्रि. वि.-२ पमे, इस प्रकार्‌ । उ०--१ दसस श्रभमाल' का प्रताप देयि दद्र का गरव भर्व) नरड्द की कीरति मणि मुरिट्ट्रयौ लज] -- सु, प्र. उ०--२ श्राद कठ चव ब्मक्रिवरां, ग्रत दोय रहरा! यौ सुरंध घट श्रव्या, विगडं कट वणाव | ~र, जे. + ० भे०-~-यो । योगिक-सं. पु. [सं.] १ वह शव्द जो प्रत्यय एवं प्रक्रतिसेवनादहो। २ ग्रहास्‌ माचा्रोकेच्छदों फी संजा । वि.-१ मिना टूश्रा, मिधित । २ योग ग्र्थात्‌ जोट मे सम्बन्धित । यौघ-देग्वो “जोध (रू. भे.) योपनियौ ३९६८ ~ उ०--राजा पूछे कुरा तमे रे, तव वसि ते कहे यौध । वनवत रा रजपूत धँ रे, तमे कीवी वात ग्रलोधौरे । यौवनियौ-देखो 'जोवन' (ग्रत्पा. ₹. भे.) --जययांणी उ०--चित्त धरज्यौ वरम चाहु, यौवनियी । प्रकी ।। च्यार्‌ दिनां री एहु चटक चछ, नेट नदीं निरवाह्‌ । यौवन, यौवण-देखो "जोवन' (र. भे.) उ०--१ भीम राइ स्वो मुणुरेःपत्रीनि पीडा समय ययु रे, श्रवला धरई यीर्वन। (५ --घ, व. ग्र. तन । विहिवानु -नदाम्यानं [| उ०-२मगुद्ह्‌तीन बद्धक श्रवस्या गाहमूग्रं द। न यौवरा ग्रापै जाग द| रसं. पु. [सं.] देवनागरी सिपि की वं मला --वेनि, री. गन सन्ताईमयां व्यंजन, जिसका उच्चारगा स्वर श्रीर्‌ व्यंजन के मध्यवर्ती तथा जीभकेग्रग्र भाग की मूर््ाके साथ बुद्धं हलकासा स्प कराने से होता टै) रक-वि. [सं. रंक, रद्धु] १ गरीव, निर्वन) उ०--१ जग मांही जसवंत रौ, सीधी हती सुभाव । दिन उज्ज नहि वदठतौ, रक मिद्धौ चारै राव । --ॐ. क. उ०--२ डोकरी कल्यौ-ग्रठ वा वात कोनीं भाया, सगां नै दुव एक सरीखौ मिं, चारै राजा द्द चार रक्त, लखपती सेट-साहूकार वड, चाह कोई तोटायनौ । उ०-३ ताजदार वटी तखत, रज में लो रंक हेफ गत, निरदय काठ निसंक । श्र चाद फोर --फुलवाड़ी । गिग दुवांनू ---यां * [81 ४ उ०-४ रों लेणालंक रा निसंक रा विभा राम, हाथां फौक रफ रालंक रादेण हार्‌ । २ दरिद्र, कंगाल | -२. ज, प्र. उ०--रकफ कुकवि दोनू रै, कोस हंत सौ कोस । श्रायां मुषन ग्रनक्रती, होए तणी नह रोम । २ भिग्वारी, फकीर्‌ । --वा, दा. उ०--माया पापनि पम करि, कीया कट्र्जं घाव । हरीग्रा वौह्‌ वढवंत कु, रंक न पहुंच राव । --ग्रनुभव वांणी रवै यौयन-देयो जोव्रन' (रू, नै.) उ०--यौवनं वय श्राव्यं थका, कीवी समाद श्रमिगम 1 दूय राजा नी पृचिका, श्रमायनी' दुगा नाम । --अपत्रंणी यौवनी-वि--यीवनमंपप्न, यौयनयुक्त । उ०--दाद्रू मन पगृ भया, सय गुणा गय विलाद। दकाया नवयौवनी, मन मृद्यत जाद । --ददूयासी योही-देनो पी (भे. ॐ, उ०-जोग प्रेय पग मति धरः, धर्‌ तो सीम उनारि। हुरेदान जन ब्रू कह, यही प्रर व्रिचारि [1 द्‌. पृ, ४ कृपगा, कूम । उ०---सानिक मिद्धीया चित नमी, हरीया होय बिहान । प्रन पटीया रंक फ, कोौटी चवद्धं लान! ॥ --प्रनृभव वाप ५ क्षया पटिति, भगा । ४ ६ नीच) उ०--तिनं रंक चंटासिरानरादकृ्धमी कन्या चिम नीतिर) --व, ना. ७ ग्रालसी, नृस्त। ८ उदासर, मुस्त । रू० भे०-रंकि, रवुः, रद्‌, रांक 1 प्रत्पा. रकी रकता-मं. स्त्री. [सं. र्क~-ताश्र.] १ गरीयी, नि्नता 1 २ $ृपरता, क्रूमी । २ नीचता । रकार-सं. स्मी.-? राम नाम का जाप, स्मरेरा । उ०--हुषुं गलतार रकार मृग दकष । तांतवा ग्राह चठ साह नटा । ~, वा. २ उक्तजाप करते समय मुह्‌ से निकलने वाली घ्वनि। उ ०--रसनां नग्व चख वीच र्भ, रोम रोम स्कार) जन हरीया सुय त्रम का, जहां नहीं पकार) -- अनुभव वाणा ३ राम-नाम। उ ०---मव श्रद्धर सहजां पर्दे, पटि पदि मिटा सनेहु । एक मवद रकार हुयं, हूरीया ्रगम श्रद्द । --स्रनुभव वांणी दि । | ३६६६ रकि~देखो “रंक! (रू. भे.) उ०-सस्ति-वयणी को सु'दरी, चाली चित्रा लंकि । चंद्रोदय चक्कवि मणी, रोयणि लागी रकि । -मा. कां. प्र. रक, रंह-सं. पु. [सं. रंकु] १ एक प्रकार का हरिण जिस्षकौ पीठ पर सफेद चित्तियां होती ह । २ मृग, हरिण । (ह्‌. नां. मा.) ३ देखो “रंक (रू. भे.) उ०--कुडल सरिसड लाव वालौ, रंकु लह्‌द जिम यण मम्लौ । तिरि दिरि दीय्ठ ुमिणड्‌ सूरो, श्रम्ह्‌ घरि ्राविड त्तद पूरौ - सानिभद्र सूरि. रको-देखो "रक (श्रत्पा. ₹. भे.) उ०-लोकं जठे रकौ नही, नंह सेका प्रथा । सोदयं जस डक घुर्‌, पावर वंकी, घाट ! --र्वा. दा. रगंगर, रगरगथि, सांगणी-सं. पु. [सं. रग~+ग्रंगयम्‌] १ रंगमंच, ग्रभिनय स्थन । २ उ०--नप प्रायस नही वर्‌ वेम, रंगंगरसि कीवड प्रवेस । --दीराणंद मूरी | २ युद्ध भूमि, र भूमि) रग-सं. पु. [फा., सं] १ दवय पदार्थ का वह गृण जो उसके श्राकारयासूपसते भिन्नदहोता है श्रीर्‌ जिसकी अनृभूति भ्रांसों सेकी जाती, वर । वि० वि०-व॑जानिकों ने यह्‌ सिद्ध किया है करि रंग वाम्तवमें प्रकाश्यकी किरणों मं ही होता दै ग्रौर वस्तु्रों के भिच्र रासायनिक गुणों के कार्णदही हमारी त्रांखों क उनका अ्रनुभेव वस्तुप्रो मे दोतारह्‌ । किसी वस्तु पर्‌ पटने वाले प्रकादा कै तीन भाग होते है-पहला वह्‌ माग जो परार्वत्तित हौ जातारहै, दूसरा जो वत्तिति हौ जातादै तथा तीसरा बह जो उस वस्तुद्वारा सोख लिया जाता दै। पलन्तु समी वस्तुग्नों मेये गुरा समान सत्प से नहीं होते! कुद्धपदाथं एसे होति ह जिनमें से प्रका परावत्तित नहीं होता-पा तो वत्तिति होता टै या सोख लिया जाता ह । जसे-गुद्र जल । णस पदाथं प्रायः चिना रंग के होते हु! जिन पदार्थो पर पड़ने वाला सारा प्रका परावत्तित हो जाता, वेष्वेत दिग्वाई्‌ पडते ह। जो पदार्थं ग्रपने ऊपर पटने वाला सारा प्रकाल सोख तेते हु, वै कानि दिगवार देते ह । प्रकाय क्रा विदनेपगा करने पर्‌ पाया गया कि उसमें श्रनेकं रंगों की किरनं मित्रती रह, जिनमें ये मात रंग मुस्र ह-वेगनी, नीला, । द्याम या श्रासमानी, हरा पीला, नारंगी श्रौर लाल । जवये सातो रंग मिलकर एक हो जाति हँ तव हमे सफेद दिखाई देते ई ग्रीर जवे इन सातोंमेंसे एक भी नहीं रहता, तव हम उसे काला कहते ह । किन्टीदोरंगोंके सम्मिश्रणसे एक तीसरा रगवन जाता है. श्रौर कुद रंग एक दूसरे के परिपूरक भी होते ह) वाजार मे मिलने वाली वुकनियों के नियम प्रका के नियमों से भिनघ्रदहोतेर्है। २ कुद विदिष्ट रास्नायनिक क्ियाभ्रो से वनाया जने वाला वह्‌ पदायं जिम द्रवमान करके किसी वस्तु, (विरेष कर्‌ वस्त्र) कों गगा जाता ह । (@010८!) उ०-१ चनं रगरेजा मे नहि चाहु, भल नहि सोभा भंग। ग्रलमित देग्विर्‌ जं भ्रंग्मे, राड कसूमल रंग। ॐ, कृ. उ०--२ धमीजं केसर चंदन घोल, रचीजै पूज सदा रंग रोल) ग्रवत्ने फुने धूप उव, दीयं सुगर वंदित रिखमभदेव । --घ. व. ग्र. उ०--३ नाई सिसकारी न्हाकतौ वोत्यौ-यू खांचौ काद्‌ श्रंदाता | केस कोर चिपक्योदा श्रोडाई ह। रंग देखो तौ भंवरां न मात करे । --फुननाटुी ३ षप, स्वम््प्‌ । उ०्-रमेतू रांमजुवाधरि रंग, तुहीज समंद तुहीज तरंग । ग्रनोग्रन मांय तुदाढ्धो प्रं, हमे न संताय छतौ थयौ हस । ४ शरीर का वा । उ०--गोचरस्प न रग न रेख, श्रगोचर ्रभ्नन वूप ग्रने्व। धिरा नभ धावर जंगम श्वान, महा पद ग्रापद मानं प्रमान । --ॐ. का. ५ छवि, नूर, सौन्दयं उ०--चदृतं जोवन स्म॒ चवे, पायल वाजं पाय। च्तैमुदर्‌ चीहर्ट, जांण पटा फर जाय । ---ग्रनात ६ रौनक, गशौभा, ठाट । ७ प्रनुराग, लगाव, इदकः । उ०-१ जठ किसतूरी पागांरावधं पर्छाण्या। णेतो निढर्‌ सा भवर रिया भिजमांन जांण्या । जे पारसी म॑ वोली, पनां ववाई दीनी, मन चायौ त्रायौ रंग भीनी। --पनां उ०--२ मादवगढ राजा सुधर, कुःवरी माद्रवणीह । दोलड्‌ तिश वहु प्रीति छट, ग्रति रंग नेह्‌ घशणीह्‌ । -- ठो. मा. ३६७० उ०--३ हरीया सो दिन वार निन, श्राय मिद्ध मतंग । धव तौ चरन उतर, लागा हरिका रंग । --प्रनुभव वमि उ०--४ समा एक राग रंग राता, प्रण॒ गयौ मुम रौमि मगच् मद मतवाद्धा प्रधा, रपर्रा स्याद वंदीजिये । --मी मुगर्यममी महायान उ०--५ पोतारीपरणी प्रिया, रते तिश मु स्ग। मीत प्रर न कर सही, पर स्प्री प्रसंग । | म. मग्र. ७ हप, श्रानन्द, मुभी, प्रसन्नता । उ०-१ राम गयं वनवास, सादि (म्हारी) काया कौ निगार, तुक्रसी करी माढा गय न्ग मग्ग । ने गये दे गये । --भीरां उ०--२ म.म. वाएमि घरीग्रा घटी, निद्धम परिनि निग । वांदधित पांमीड वत्लह्‌, हुं मवधारिमि रग । --मा,. का. प्र, म्दारा च्म म्हारे घर रहेसी रग कानी) -- नो. गी. गोटां जीम रंग करौ । --नुःवरमी सागलागी बारना उ०-“ स्म विग] व्याह, वेम विग रांमति, च्रुदरि विग ग्रह वास जिसी। सुरतां कटै कलियांणा समोश्रम, त्याग पर्य वक जलम तिस । उ०--३ ्रीरांका पिवजी घरांणवमतदहै, प्रदेय । ग्रौरां की तीज सुरभी होमी, उ०-४ ईव वरया लागीद्ध , -- प्रमान = रति क्रीड़ा, संभोग, मयुन, केनि ! उ०-१ राजा स्प न रीभिये, माधा वदु ण्यां सू रंग करो, (म्ह) धूद्‌ धमासा मांय। --जममादे प्रोहणी गी यात उ०--२ लोरां मांवगणल्ूचियौ, घोरां घण धर्राग्र। गांशीगरः रण मांण श्रव, प्याना भर्‌ मद पाय। नहि काय । बै -- भ्रलात उ०--३ श्रकवर स्ता राग सू, रंग त्रिया रमनद्ध। जौ उतपाते प्रग्ियौ, सो सुखियौ निस श्रद्ध | --सा. र. उ०--४ मेँ म्हांरा वालम सेलम्यां जी करई रंग दोत्यां रं वीच । वादी वस्संक्यू नीए, वीञजली चमकंक्यु नीषु) ~ ला, गी. उ०--५ राज पिणहकोकतकी ही सो म्ह तो जावस्यु 1 रंग भोग विलास करनं श्रलोप हुई । --वीरमदे सोनगरे री वात | | | 1 | | 1 | 1 ए क 0 8 00 11, 7, 1 ० १ 1 1 शा ता ` त त [ ~ च क ष भ = अण 1 क ॥॥ [यी 1 द, । नै {1 गृ 1 त शा इण नरम्‌ 1180 भ्र प्र ५ 4 ब एक भा, क शरमं सनम | 41 सक्को , ५6 {14 4/1 > 0, | (बौ १ 1; नै = द 2५ मपु 1); ५) [॥ २ ॐ 4 <~ गामा पिः ममि सपाय, सूयर्‌ सनद किय ॥ पर पय र त ए । र्ण सप्ायणना, चिर पर समः पनि द} ग 2५ --१ गण इनम >) युनगना गा, ११ नृष्य गा, मातन पयर्‌ । कटु दिप र्ग निनाद प्रपर । ~ द्धी सिमा सदय कटि ग्णटतिमृ दय्‌ मटुयं । सिषा साग्रः दुत शनत टयम, मत ४, लार्‌ विनुम्दपणय यम्पिति । उ --२ र्ग रुम {विषै [मिष्रं न, ॐ, प्र १२ श्रभिनगय 1 १२ गत, ममर | उ०- परय मुलाय पद्रीर्‌ उषणा, सन्तर दियर दिद सथ्य 9 र नाद गाद नंग दमती 6 | ॥ | भ्ण भतम 11 7 सम जगृ वास <. फ, १४ श्रभिनय फा रमान्‌, भ्नमन्‌ ) 3० यनि सद्गण जम रम दग गर्म, प्रनयं 4१2 पम उमंग प्रगप्रग | निनय सि चर मेम मग रं म, गर्म यपस्य गुरग चतुरेग ) स. प्र. १५ गभा न्यान। १६ य्या, गणिका । (प्र. भा.) १७ प्रामाद-प्रमोद, मनोर्मन । उ०-- रग रागव्राग ग्रंगरागनू न शरीरजं । पातिमाद्‌ ममर राह चिना ग्रीर्जं। --रा- १८ गुवेाव्रन्वा, यौवन । १६ मनौ मर्जी, मनकी मौज । उ०--१ यप्रवट चनं "जसी" गेदेचौ. हिमियौ ग्रहमं भुजां ददै 1 र्ग पारक न री राजा, राजा रंग श्राप ग --ग. इ. य. उ०-२ मागम फो यर्छ रौ नाव नहीं नेकं शाप अरप रं रग रदै। । घुःयरमी रांगाना री वार्यत रग ३६७१ २० नशा, मस्ती । उ०--ग्रपणाया कर्‌ एक जकौ वद चजुधसू श्रागौ। रेवत-नंणां विच-मुरार्‌ रंग न लागा । --मेघ २१ स्वभाव, प्रकृति २२ दशा, हालत, ढंग, म्रवस्या । उ०-श्रङ रह कासर वफादारी लेयस्यां । टालौ धरां हालां! सौ सूरं इसडी रंग खीवैरौ दीठौ, ञे सगा सू विकारपदाहो विगाड हवं 1 --मूरे खी फांवढोत री वात उ० -२ कुवरसी कटी तीज रं दिन ्रायसे तौ म्वरौ प कीं ठाव श्राऊ इरंतौग्रौरग द्ध) --वुःवरसी सांखला गी वार्ता २३ चाल-डाल, गतिविधि । उ०-मांणस्न एक ग्योखर र॑ गावि मेत्ह॒ खवर मंगार्ई-जे उदां र कितरोक लोक कण कुण काम रायौ । कानूं रंग विचार, सो मारी खवर नेष श्रावौ। सो मांणुस उर जाय खवर रंग देनव पाद्धी श्राय । ~ --मूरे ववं कांवद्टोत री वान २४ ठग, ब्रासार, हालात्त, वातावरगा । उ०-१ करनाठ वजावां जिण चरत सताव भ्रावज्यौ । नीं तौ देखो जसौ रंग वरतज्यौ --गीद गोपाठदासर री वारता उ०-२जे रग दीठीत्तौ क्जियौ कस्यां, नहीं तौ रंग देम वरत्स्यां । -भाटी मुदर्दास वीत्रूःयुरी री वारना २५ व्यवहार्‌ । उ०--तद मृत्सद्री रग फोड़ कही-दराकुमां, पटायत चाकर दश्वार राद्धी, श्रा कासू कटी । श्रठंतौ वकरी म्हार मार्वं हाथी द्धै । --ग्रमरषकिह गजमिहोत री वात २६ प्रभाव, श्रसर, रौव । उ० -१ दृद्धिया ग्रोनौ खावें पणा गौमदौ गांव रा श्राया कांम पूरा करगणा चार्व । पण॒ ्रटकढछ जरौ नंग, कैरी करुडावग रो रंग । --दसदोख उ०--२जेजनहरिकेर्गर्गे, सौीरगकदे न जाद) सदा सुरगे संत जन, रंग में रहे समाद्‌! - दादू्वांणी २७ गीर्व, प्रतिष्ठा, मान, दज्जत, 1 ६ उ० - वांधं ते वार्‌ किता वचिराव, विगौयी दांगाव केता व्राव | जीत्यौ तं वारः किता व्र् जंग, रहावगा तात जनेता रंग । ब द्‌. र. रग २८ घन्यवाद, साधुवाद, दावासी । उ०--१ रगदेऊ वां नरां कां रा पूरा काठा] रग देऊं वांनरां मादु देवण हिय मारा, 3. उ०--२ तद साहजादे ऊपर सू तरवार भलाई सो तेय गौड़ ग्राय पहुंची कहियौ-रंग छं, राठौड थां विनां हिदुवां री मरजाद सरम कए राख। यू कहि जाय पोर्हुच्यौ सी उ्योदी माह निसरतं नं वाहीसो खरंवे श्राय वाजी --प्रमरसिह्‌ गजसिहोत री वात उ०--दे कट पडियी ठाकर कनं, श्रपद्युर वरियौ म्रंग । संग लड़ी मुरतांण॒ रं, (उण) “शूपावत,' नँ रंग । --ग्रजात उ०--४ भट भडं के लड़थडं भारथ, ग्रडंके ग्रत । वड वड के देइहईं वीज, जई के जरदेत 1 श्रट्वडं के वड्हई श्रासत, जुटं के कज जत । विच समर हैकण धई राघव, वडं रंग विरदत । ---र्‌. ज. प्र. २६ कृषा, ग्रनुग्रह ३० जोय, श्राचेघ । उ०--ताजग् लाग्या ताजणा, मरां कं पटक्या वोन । रजगुनां के रंग चयौ, वं टृदक्या कावर लोग । --दुगजी जंवारजी री दावदछी २३१ युद्ध, लड़ाई) उ०--१ कहियी हंसि हाड कवर, गिरणौन मी जिम "गंग | भ्राज निसान जडां अ्ररर, स्पगौ मोन रंग । वे. भा. उ०-२ दोन ही माहिव म्हारी पीठ पायै खड़ा रहौ ललकारा करौ] चाकरां री रंग देष्वौ। | --मारवाड रा त्रमरावां री वारता युद्ध भूमि, रगांगन । पानी, जल । (ना. डि. को.) ३४ चौपड के ब्रेल मँ गोटियों की वह्‌ दथा, ग्रवम्धा (स्ग) जो जीत कौ प्रतीक मानी जाती है। २३५ तासकेपत्तोकेचाररंगोमें से कोई एक जौ काट माना जाता र| ३६ वह्‌ घोड़ा, जिसके मुव पर हरिन के मे रसंगके चकते होते ह। त (ग्रगुभ) ३७ तरह, , प्रकार । ॥ उ०--१ केहास विहं घज रंग कन्न 1 प्रतहास मौ रिप चहर प्रत्न । --य्‌. प्र. रग उ०-२ नितंग रिति प्र॑ग॒ करंग नादंग। स्म॒ तरंग ब्रह तर्ग रंगर) --म्‌. प्र. 3८ गगा नामक धातु] ३६ मुहागा । ४० किसी विद्ेप श्रवस्तर पर्‌ श्रफीम की मनुहारके समय, प्रभूत व विलक्षण या प्रादरणं कै कार्यं करने वत्ति किमी व्यक्ति की प्रमंसा में प्रा जनि वाता दोहा, सोरटा, द्प्पय इत्यादि । उ०-१ ईसखउमा प्ररवंग, भर्‌ प्यालौ ले भ॑गरौ1 रगहं व्मारथर' रग, उणा वेषा दं प्राप्ने । म्रमला रा उद्रग, गघियां धन्रियां चौगणां, रंग हो "भारथ रंग, उरा वेद्धा द प्रापनं गोभ्ठि चिगदर संग, प्याला मद पावं पिव! रगो “भारथ रग, उग वेदा दं श्रपितं | --ला. गा, वि० वि०-एक प्रथा ग्रनुसार मांगलिक प्रसरो पर्-विगेप कर दीपावली, होली व ग्र तृतीया इत्यादि पर राज दरबारो, ग्जवाड़ं या सामतो (उकुरोे) के यहां श्रमल गाला जाना था। उम समय राजाया ठाकुर मवं प्रथम ग्रपने चारगा-कवि को ग्रमल कौ मनुहार प्रपने हाथ मे करता शरा! तव वह्‌ कवि मनृहार नेन से पूवं उन व्यक्तियों की प्रणंसा में दोह या मौर कहता कि जिन्होने समाज हित, मात्र भूमि करी रक्षां या क्रिमी ग्रादणं के लिये श्रश्रवा म्बामीभक्तिमें ग्रदुभुत स्प मे प्राणोत्सगं वियाहो। जमे~-निमाजके ठाकुर मुरतांणरसिह पर मद्वारजा मानसिहकाकोपहृश्रा ग्रीर महाराजा ने ठाकुर की हवेली पर ग्रपनी मेना भेजकर तोपों से हमना कर दिया! उस समय संयोग वचय वहां एक रूपावत भाषा का राठौड़ राजपूत मुर्तांसासिह की हवेली पर प्राया हुवा था ग्रौरः उमने वहां की दाल चखानलीभध्री। उस दाल के वदले ग्रथवा उसमें चाये हए नमक का बदला चकन के निथे वह्‌ रूपावत महाराजा की मेना न लड़ा श्रीर्‌ ग्रपने प्राणो का उत्म्गे करते हृए वीर गति को प्राप्त ट्म्रा। इसलिये उपयु क्त ्रवसरों पर उम स्पावत की प्रधम मे दोहे कहे जानै है- कट पडियौ ठछाकर्‌ कने, प्रपुर वरिमा म्रंग। संग लदु्यी सुरताण र, (उण) ^्पावन' नै रंग । यि ही ग्रनेकों उदाहरण टतिहासमें ग्रीर भी मिलने) मुहाऽ-१ रम श्रागौ==किमी वम्र या चम्तु पर किमीरंग विणेप का लगना या चदढना। नथा ्राना। जोग ग्राना क्रोध भ्राना । गति प्राना । २ ग्ग उट्गौन्= धूप यादहवाके कार्मा किमी चम्त्रया पदार्थं का न्ग फौका पटना । होम-हवाम खौ वैट्ना। कान्ति था ग्राभाहीन होना 1 फीका पडना | ३६७२ रगदग _ ~~ ~~~ - ३ रंग जमौन्=वग्त्र या वस्तु पर कोई रंग ठीक वैटना। चिगी उत्सव काठाट जमणा। गति ग्राना। ४ रंग फिरणीन=पन मुटाव रोना! ग्रननर्‌ पटना । वभाव ्रतरेति या वातावरणा वरदत्तं जाना । । ५ रग फोटगौी गडा करना । करना । ६ गमं ग्राणीन्=मम्नी में ग्राना, प्रसन्न दियाई देना | जोयया श्रविम चाना, क्रोध करना । ७ रग रेगौन=प्रेम या मेल रहना, 2ज्जत श्रा मान रहना । ८ रंग लागगी प्रेम होना,. ईव्वर भक्ति म मन का लगना। किसी कायं की धून सवार्‌ होना । म्० भे --रगि, रगी। रंग-्रांरास-म. पु. [मं. न्ग~-श्रावास] संग महन, वेनि गृहे । उ०- जेधि रगश्रांमास, तेयि करीडति कुरगह । जेधि चपि वमता, तेधि उदुत व्रिहगह। क्रोध क्ररना। दुव्यवहार्‌ --ग. रू. वं. रगफार~मं. पु. [सं. रंगकारे] १ चिव्रकार्‌ । ८ उ० -रंगकार नेलाग विन, त्रिनु वरलर्‌ दरवेम । सार वंव "लावै" परसुर, पुर्‌ नहि करत प्रेम । । --ला. रा. २ यस्त्र रृगाई प्रादि क्रा कारं करम वानी एक जाति या वर्गं | । ३ उक्त जाति का व्यक्ति, रुगरेज। रगकेढ, रंगकेलि-सं. स्त्री. [सं. रंग~-केलि] १ रति क्रीडा, मंयुन 1 उ०--गुरू गुर दै चिर्जीव, जिणा जोड़ीकामेक । हं तरणी धू तरगा पिव, करनं रस रंगकेठ । --ग्रग्यात २ ग्रानन्द, मौज । रगक्षत्र-सं. पु. [सं.] ६ प्रभिनय स्थल, रंगमंच । २ युद्ध भूमि, रणक्नेत्र । | रगड़-देग्वो ^रघड़' (रू. भे.) रगजणणी, रगजननि-सं. स्त्री. [सं. रंग~-जननी] लाख, लाक्ष । (डि. को.) रगजोव-म. पु. [सं. रंग~[ जीवक] चिव्रकार 1 रगट-देग्वो "रचडः (रू. भे.) उ० -र्गट भट फुट श्रकुट मरकट } कृठट नट वट उद्छट कटकट । । - मु. प्र. रगढंग-म, पू--१ हालचान, प्रासार, हालात 1 २ व्यवहार, वर्ना [ रगौ ३६७३ । रगत ~~~ ३ चाद-डउाल, गतिविचि । ९ ४ सजावट, खट | उ०--निजर नाग्बी, भोमी ताकी पराः किमनजी कमर रं रंगदंग सू दीनी, लटह टूयग्यौ ) । --दमदोख ५ लक्षण-गुख । ४ रगौ, रंगवौ-फि. त्र.-१ लीन होना, तत्लीने दोना, तन्मय होना, ग्रनूरक्तं होना । उ०--१ मूनेसर मन, श्ननंग सुमति । रंभे वह्‌ भ्रंग, विं रग र्ति --रामरामो उ०--२ कारे स्वष्प कहू हरि रौ, सूप कहुगौ स्वरूप क्टुगो, रामया गा रग माहि रगियी रहुगौ। --गी. गा. उ०-३ मञेजनदरिकेग्ग रम, मोरंगकदं न जाद) मदा सुरण संत जन, रंगमें रद्र समाई । --दादूवांणी २ श्रासक्त होना, मोहित हाना 1 उ०-रही सथीरा राजवण, तरे न नांखी नीर । रगं मतत टगा रंगे, चंगौ भीजं चीर = -- ग्र्ञात ३ प्रोन-प्रोत होना | उ०--इमड्ा पित्ताराप्रतापमें जुदौ ही नाम कादणा रं काज पराई पुहवी ्रणगा वीर रसम रगियो । -वे, ना. ८रगमे युक्तं दोना) उ०--१ मरे नदीं भक मार, तिके जीवगा ने ताता । मारं जवां ममक, न्द्‌ रगिया नमे गाता । --ऊ. का. ५ भीराना 1 उ०--ऊमा धक ग्रनेकः स्रौण रंगाणा मूर नर। --रा.म् उ० --२ जुष दृरुग दंत चटिया जिता, विन पाड मृग्यं चक्री दद साह डोहि भ्रायी दुभ, वेदक रभिया वीजं । -- ग. प्र. करि. सं.-६ वन्यादि किकी पदार्थं को किमी रंग विेप था कर रगो में रगा, र्ग मे युक्तं करना । उ०--१ नोट, पज, कात लवेटे । वेगौ रंगं फाईं करट वार्‌ । --म्वरूपदाम उ० --२ नहरी टम कटै सुरीजे नाहर, तज वधिया गिरवाम उताठ ! रख ठंमां नित कर ऊथाछ्छा, भाला नित रंगे भुपाघ्ठ --रांमसिघहाडावूदी रौ गीत्त ७ श्रनुकूल करना । ८ प्रभावमें करना। ६ प्रेम मे फमाना। १० निरथक लिखना या किसी के विरुद्ध लिखना । रगगहार, हारी (हारी), रगरियौ --वि. । रगिग्रोडी, रगियोडी, रग्योडी --भू. का. कृ. । रगीजणी, रंगीजवी । --भाव वा./कम वा. । रगत-सं. स्त्री. [सं. रगत प्रव्य.] १ दशा, हालत, अनवस्था, ठंग । उ०--{१ राजाजी मू रीस रं पांखतुरत कीं नीं बोतीजियौ तौ वे धूक गिरता रह्या। श्रांम्यां कता रह्या। दीववांणजी श्रा रगत देस वारी मन री वात सम्या | --फलवाडी उ०-२ उररकारणलोगां रा मूडा मुकुका पड्ग्या। श्रा रगत देख मासी हंसी श्रायगी । --फुलवाडी उ० -३ पग जे भगवान मिनग्वनं भ्रापरी जषूरतां पौण वास्तं ई कमाई री सुमते देतौ तौ भ्राजं दुनियां री रगत ई दूजी व्दैती । --पुडवाड़ी उ०--४ वखन रं मगे~मागं दृनिया री रगत ई बदलती जाव । --वरम्गाट २ श्रानन्द, पज] उ०--प्रीत भरीर्ज नण विपी द्रगनीर न भ्रा्वं। ताप विजोगां ताय संजोगां रगत लावे । --मेघ ३ रंगं, वर्गा । उ --रग-विरगा चीर, प्रमोलण्व भूषण भारी । सुरा करता पान ज ्मनणा रगत न्यारी । -मेष ८ गोभा, छवि । उ०--धू दिम रद्ियां राज श्रमीणौ धर जां मोवं। तोरणा वनक समांसा, रूपा रगत टहोवं । --मेघ ५ सुर्खी, राभा. कान्ति, फक । ६ प्रभाव, छाप । ७ इच्छति कायं परं होने पर मिलने वाला सुख । उ०-डागेरीदढौकरीमां र चाव रूव में पान-कफूत मू संयत श्रां । -- दसदोम रगथद्ध च््---------------~ ८ संतोप, चैन, जान्ति। ज्यू०-उणानं वैठाने रंगत नीद । ६ मजलिस, गोष्टी, महफिल । उ०--एक नाथ मोनजी री दातारी सू रीर सावि मे भ्राम ही लगा वन्यौ! वम, सुलफं प्रर भांग री रगत चिडगीटं। --दमदोय १० ग्गमे युक्त होने की ददा, ग्रवस्था या भाव । (गा. म.) ११ रगार्दूका कार्यवदटग कायर करा पारिश्रमिक । रगथल्-देखो (गम्यः (र. भे.) उ०्--चंगाचीरवारियांधु पर, श्रखन युवारी बद्धा गुदर । रमत मात रगयदछ ऊपर, सूघा सिखर ग्रद्धग ग्रध््रफर्‌ । मा. वचनिका रगना~-स. स्त्री.-१ स्त्री, श्रीरत। (ट्‌. ना. मा.) २ रमणी, युदरी । रगनाय-सं. पु-१ विष्णु का एक नामान्तर । उ०-सरव परिगह सहित रंगनाथ जी रे रगनाथजी नू गंगाजछ चढावण॒ नू । मंदिर पारिया --वा- दा. स्यान २ एक तीथं स्थान । उ०--दिसि पूरव जगाथ, दिग्वण॒ रंगनाय विरार्ज। पदधिम दारकनाथ, उदव गहरे सद गाज । --गजउद्धारः रगनिवास-सं. पु--१ रंग महल, क्रीड़ा भवन, केलिगृह । अन्तः पुर । उ०--गीदोली गुजरात मू, प्रमपत री धी श्रांखा। राखी रगनिवास मै, तं जगमाल जुम्रां । --घा. दा. २ रति क्रीडाया भोग विलास का स्थत । रगपांचम-स . स्त्री.-चैत्र कृष्णा पंचमी । रगपीत-सं. पु. [सं. पीतरंगः] १ वृहरपति का एवः नाम।न्तर्‌ । श्र. मा, २ ब्रह्मा । । ॥ । रगधुर-सं. पु.-रंग महल, प्रन्ततुर । उ०--मारवाडमें परण्योड्ी, रंगपुर में रम्योटौ। मितश्‌ न दोस्ती, ग्रापौ न प्यार्‌ । --दसदोग रगविरंग, रंगचिरंगौ-वि. (स्वरी, ग्गविरंगी) विविव रंगों का, ग्रनेक रगों वाला । उ०--वत्तावश ग्राचठ रंग मजीठ, वंघाणौ चेहर काश्रौ रंग) वले कुम जाम किणा पुष गार, ह्वे सह धरती रनचिं --माभः २६७५४ कका र्गनृमि रगमवन-मं, पृ.-्रतःपुर, रेगमरत । रगभीनौ-रं. रत्री.-१ वेष्या, ग्डी | उ० पांगी म्‌ पोमाकर री, घरग्यी रंग व्रुमीतर। खौ र्मभीनी दूसरी, संगमनी नू मीभः। | --यां. दा. ट्वी उ०---घर श्रा मिद्व रस्मशौनी धरी | २ प्रमया गमामेंदट्रवी द रत्री । पि. स्मी.-! श्रनुराणिया रति ीटामे मग्न] उ०--प्रनरा माहि घटी प्रहर रात जानां वरीरमदे गीती, तका घगणी महेनित्रां र घुमर, ग्रामा री वीज, दरेगमीनी हन्णी, फ़तिग्रां > शठ ग्राय ऊभी रही । --पस्यारामिघ नगरान्‌ कालत नी वान २ र्गमे यु, जगम भरी हु, रगवाली । ग्गम भनी टूर । उ०्-पाणीमू्‌ पोमक सी, घ्रर््वौी गग धुपीय | यौ रगमोनी दूमरी रंगभीनी नू नी । --या. दा. ३ मुदरी 1 रगमीनौ-वि. (ग्री. रगभीनी) १.० पयारनि फ्ीदाम मग्न । उ०--१ सायवाजी म्हांर महत प्रयाग नं श्राज, किरपा करी मायवा महून पव्रारी । रगमीना रमराज । --रमीलराज गौ मीत उ०--२ सादौ मंगाययौ सागानैर्‌ रौ, श्रजी रगभीना राजाजी । --रमी्नराज री गीतं २ प्रमी, रसिकः । उ०--श्रावौ श्रावौ जी रंगमीना म्दार्‌ म्ल, प्यानौ तौ नियां हाजर्‌ ग्वदुी | --मीरां ३ रगसे युक्त, रंगवाना। ४ र्गये भीमा ह्म्रा | रगभू-देग्यो (रगभूमि' उ०्--इमा रगमू द्रं रा ग्र ऊना, सिट जिकां हठ पमी समना 1 उदं हाट की वंगड़ां दंत इना, मृहा्वं लिया रार्‌ रका समी सा। 8.1 रगमूति-सं. स्त्री.-्रादिवन मास की पूिमा की रात्रि । र गभूमि, र गमोनि, रगभोमौ, रगभौमि, रगमौमी-सं. म्यी. [सं. रग ~-भूमि] १ रंगमंच, श्रभिनय स्थत । उ०--चऊद राज कीवी रगसू्ि, ्रनेकि रूपि नचाविड करमि। नवर नव मुरां नव नव वेस, भमद श्रनारिज प्रारिज देस । --वर्तिग रगमत्ली ३६७५ र गरधियति २ रग वाना, नाय्य शाला । उ०- मुरग रगमोमिमें तन्गदैनेतानकी । दमक टोतकीन त्य्‌ धमक धुग्घरान का | --ॐ. का. उत्सवे मनानि का म्यान्‌) क्रोडा स्थल) युद्ध भूमि, रफकनेत्र | म्रम्बाड़ा ) महफित्ते 1 उ०--प्रथ्वीपे रगमौमि हद) पंगी ठै इ मेदटगर्‌ हे जु ्राखाडाकी सवे सामग्री ताट्फौ व 7 र << ल मेच्रमर्‌ हेरा) | -- वेनि. टी. र गमत्ली-नं. स्की. [मं.] यीन, वीगा | र गमहल, र गमह्ति-मे. पु. [मं. रंग +-फा. महन] रति क्रोडा करने का भवन, रंगपुर, श्रन्तः पुर उ०--१ मीच सीनौ नवन हृसियार्‌ राज श्रावौ रगमहल में वना क्यार ्रावां णार रेगमदहन मेभ्रावे प्राव त्राव्राजी री नाज महान भ्रावं नाञ्जी री नाजे राज किसे विध भ्रावां धारा मट्ल म) ि "णि कक सककाय १ भोग विलामिव्‌ --लो. गी उ९--२ तठा उपसंत करि राजान निलांमन रममहूल में प्रेम भड़ सानि ग्हीद्ध। सुरतात्त-स्रमयहुवौद्यै। महनां रीह्वा माणज । काचुत्रां रौ क्सद्छटी ! मोत्तियां री मा चटी । जसौ सुख गीर्लंका लूटी | टर मात मुख-मजं पौदिया 1 गा. सा. सं. उ०--२ पिक--वण्‌ जांख॒ वेणी पनंग, टिरणात्वी टेसा-गमसि । र गमहले सिघ्र राजान सुर, रमति राज-पृर्री रमणि । -गु-रू, वं. उ०--४ धर करि भ्रमन पदम चछर धारे! नु्दरि नवलापुरी निगार { रमहूलि दंपनि दूति राज, चक मुसतताधि, करम मनि दज 1 --गु. म. वं | २ श्रामोद-~प्रमोद च मनोरंजगा करने का र्थान | ० भर०-रगमे'ल । र गमांण-सं. पु.-भमोग चरिनास, रतिक्रीडा । °--लार्लाज हरौ ठाकुर हती सौ श्रव नहीदं । मायली सू रग्मांय हम्रा द| - लायी मेवाद्ी री वात ; र गमातौ-वि. (स्वरी. रंगमती) १ उन्मत, मस्त, प्रसन्न चित्त । | उ०--मद व्र्हती मदा मदा रगसाती। छे दूरगा देयगा धका । --लाखा फुनाणी रा मीत । २ रमिया, रसिक । र गमाट-~-सं- पु.-वीस मात्राका एकं मात्रिके छंद जिसके ्रन्त होता रह) उ०-- वीस मात्र पाये विमनं नवां श्रत्ति गुरुरेव ।! रगमाद्ध रूपक रा, इरा तकं रा उधेव । भे गुर --ल. पि. र गम"त-देनो “रंगमहस (रू. भे.) उ०--१ पग चाढ्ठा मे मटनता पून भस्यां ठाकर रगमष्ल में पयारचा ती ठकरांणी सी मूड उतरेग्यौ | --फुलवाड़ी जणियां वटी ही नाई नँ लागी तद दीवांसाजी कल्यौ उ०--२ रगम्लतमें पांच सातं पि्छारातां थका दइवंरवार जाव ग्रहां, बारे क्यु जावौ। --फुलवाड़ी र गर गीलौ~-वि. (न्वी. रंमर्मीली) १ दछैन-दखवीला, गौकीन | २ प्रेमी, रसिकः! उण मौमा रा निराणार, यणां रा मुख दायक} र्गरगीला फेमर्‌ रा क्यारा दोगा द्छत्रीना प्रासा व्यारा | -र, हमीर स्० भे०-रागरेगीलौ। र गरजवौ-देघो “रेगरेजी' (रू. भे.) उ०्-रगेटैक्िणि धारौ कुण चीर, केहि पथ रगरनवौ नित प्राय । उगूरी ब्राग दै दो, मुग्वावँ श्राय प्रवर माय । --सांभः र गरछियात्त, र गरढो-से. स्वी.-१ रतिीडा, संभोग । उ० - १ युवती जुव-जन भंवरा-मेवरी, मावत धमाद वहार मिद्धी। विर्धवेन ज्यौ प्रच मिन कृ होयगी, रमीलाराज मँ र गरन्छी । --रमीत्रें राजे री गीत ॐ०--२ श्रगदी्यांजणा री यसी, मूग तयी फटीयांह।) “्यारा' जमनी सू मिद्धे, कीजौी र गरद्छीयांह्‌ । -मयारामदग्जीरी बात २ ग्रानन्दोत्यव, हर्ष, चद्ी । उ०~-१ चणा भाद, मंगत जणां न गजी किया) घणी र गरदिपात पलक दरियावे री वात ॐ०--> घरी त्राजी रगरी मू राजम कीवी । लोग नगौ शुम टां मव्रोद्ी राचियौ | --करुवर्मी सांखला री वागना । रगरेनों रगरस "न ग ध्य्‌ । १ १ क 2 ता 1 1 1 1 1018४ क [1 "जवस ऋ भक # त १ [11 1 भि ~ ८०--३ श्रलिम पति वू करायौ रे, वेघौ दित्ती गढ प्रायो | रगरातौ-वि. [सं. रग~-रत] (म्प्री. रगरानी) धरि घरि गूडी उद्छलीयां रे, बहु मंगल धुनी र गरलीयां । । --पं. च. चौ. ३ प्रामोद-प्रमोद, मनोरंजन, मौज] उ०-- मुरधर नाह भूमेर मुरद्धर मामी । जुड़ श्राया जौ्वांण रचाई रगरठी। -- किसोरदांन वागहट ८ चैन, श्राराम, सुख, संतोप । ५ प्रेम, प्ननुराग। रू० भे ०-रंगरेश्र, रंगरेक्रि, रंगरेलि, रंगरेखी, रंगरोठ, रंगरोल, रगरोलि, रगरोलि, रगरोद्टी, रंगरोली, रगिरोल, रगिरोली, रगिरौील । मह ०-रंगगोली रगरस-सं. पु. यौ. [सं.] १ श्रानन्द, हं । २ श्रामोद-प्रमोद, मनोरंजन । ३ रतिक्रीडा, भोगविलास । ८ चोट जोड़े पान व मेहदी करो पीमकर वर-तरधुकेहाथ में रने की क्रिया याप्रथा) (पृप्करणा ब्राह्मण) रगरसियौ, र गरसीयौ-वि. [सं. रग-~-रसिकवः] १ प्रेमी, प्रियतम, रसिक । उ०--१ ग्र्या पराक्रम रूप गुण, दिल रा दाईदार्‌ । दृदफ हनरं हालियौ, र गरत्तियौ रिभकवार। -र्‌. हमीर उ०-- २ साकुर कसीया साज, र गरसीया ठाकुर लियां। श्रलंगां चडीयौ ग्राज, वालमीयी वाटां वहै । ४ -- पनां र गराग-देखो ^रागरंगः (रू. भे.) ०--१ जत रगराग कटाच्छु करे जदि। तरण गमदन कीव खाली तदि। --सू. प्र. उ०-२ रगराग श्रगर केसर प्रतर, उच्छवि छक श्रारांद श्रति। ग्रनपुरां श्रादि उदियापुरां, पररो कमधज छत्रपती । --सृु. प्र. । गग के प्रागे र'गराग नागर वेल को पान पसु नँ चवायौ च्चै । --वगसीरांम प्रोहित री वात । उ०--४ हमे भयारंम ने जसा" रगराण मासौदय। जका नं उ०-२ ्रंथकं प्रागे दरपा दीखायौ द्धै करायी द्यं दद्र भी वर्वांरौदं। रंगराग रौयोरौ लागौद्धै। विरह भोलौ | गौ द्यु । --मयारांम दरजीरी वात र गराज-सं. पु.-ताल के मृच्य साठभेदोमेसे एक। प्रम या भ्रनुगाग म लीन, प्रमासक्त। उ०~ १ मार मण्लां भ्रायौ पच गौ द मागत रात । श्रजी कारु सटरपटिया ग्रलयलिया नेग रौ मदमाती, रगरातौ संग साच! --रमोनगाज री गीन उ०--२ र गरातौ चीत करवट-हूर्‌ राजा, श्रवगं हुत उ्तरियी । तौ मुख दी लाव~-नियागी, विजा", जगन महु वीसरियी । --टमरदाम वार गोग विनाम यां रतिक्रीदा मे संलग्न, विलासी । उ० -- १ जातौ श्रां अठ, तीण करगा नातोह्‌ । रगरातौ निन दिनि रर, मद जोयन मानौ । र. टेमीर हाथी वहै, मुख रगरातौ मीच। मदमाती दती त्रीच । उ०-२ वद तुटराय हंस मृग्व कनी, व्रमवी मादान महर ३ दत द्ध्ीना, रगीला, रसिया, प्रेमी, रमिक। ४८ जोकिमीरेः प्रभवेमंटो। विमीमं प्रभावित दहो) उ०--रांगाजी (हो) म माधुन उ्म्रात्ती | (हो) म माधुन © 1 र गरास-सं. पु. [मं. रग रासन] ? रतिक्रीडा, भोग विलास, मवुन । उ०-जमलारीवेटीमू भ्रट बोहत रगरासरहुवौ । अठ रणा हीज दिनि श्ण र पेट भ्रास्रा रही । -- नसी ९1 ्रामोद-प्रमोद, मनोररजन । ३ उत्सव, श्रानन्द, हप । ४ नुत्य-गायन। ५ म्रेल-तमाशा । ६ रग का मेल । र गरूट-सं. पू. भ्र. रिक्रट]| नया भर्तीहोने वाला सिपाही, सनिकर। र गरेज-सं. पू. [फा.] (स्त्री. रंगरेजण, रंगरेजणी) १ वस्त्र रंगार्ई्‌का कायं करने वाली एक मुसलमान जाति । (मा. म.) २ उक्त जाति का व्यक्ति) उ०--्रने रगरेजण कटै-प्ररे कायर लंपट लोभी कुडा ठाकर दवणा रंगरेजण ही भुररदीदै। रे इण साक्नात सती रूपी धारा कपड़ा रंगता ग्रासत करणम पौसाकः मंगावसी जद म्हांरां दाछद्र गमाय देसी, सो टगने जीवत रांड करदी कायर । --वी.स. टी. र गरेजो-सं. पृ. (स्त्री. रंगरेजण) रंगरेज जाति का व्यक्ति । ) र गरे [१ १ 9 = „+ १ १ रीषिरणपिणषरयिषयषरिषिषषि उ०-चल रगरेना मे नहीं चाहु, भल नहि सोमा भग । श्रलमित देचिर ज्रं श्रंगमें, रांड कसू मल रंग । --ऊ. का. 5० भे०--रगरजवी । र गरेटा-सं. स्वी.-सिक्ख सम्प्रदाय कै श्रन्तगेत एक जाति विञ्नेष । उ०--चंडाठतेग व्रहादुर रे साथे काम श्राय, उण रा सिव र गरेटा कहावे “रगरेटा गुरू दा वेटा' । --वां. दा. स्यात र गरेद्ि, र गरेलि, र गरेटी-देग्यो “सगरी (र. भे.) उ०--१ कपड़ा भीनां कू मकु, भ्रलकां श्र॑तर्‌ उजेठ । चंद वदन्यां ग्राव चतुर्‌, रमणा जीत रगरेलि ! र गरे; ---पनां उ०--> चसीकरण छ स्यु तुभ पानड, अथवा मोहन वेनि । साच कटौतेश्र॑तर ग्वोनी, जिम थयद रगरेलि। उ ०---२ माहव न्याम समाद्र, महतं रहेतियां ) सड नीर सगव यरा र गरदं । क ` --वां. दा. स्यात उ०--४ महाराज सिलांमत्त, भ्रापरं तौ पृ्रहृवी द्य, सो रगरेढी हर्‌ दै । --रीमानु री वार्ता । र गरेली-देखो “रंगीलौ (रू, भे.) उ०-मांह रग रग मादा, कत न राखे फोय। ववं रगरेला पर चर्‌, सदा सावरतत सोय । --रवतसिह भारी र गसो, र गरोल, रगरो्ध, र गरोलि, र गरोद्टी, रगसरोली- देखो (गरी (म. भे.) उ०--१ ताजां श्रांणीगरां दही, परद्ै विलंव करौ नहि । करवा ्रांणीया रगशसरेल, कीरा-दुण वासीयौ घोन दहीवडा' वनाविया चोल, नायी राट ती भोल । --व.स उ०--२ सांभिरे माद्र सांभीरे, म्हारी सांभी हया रगरोल र। संघ सहु को हूरगिययउं, वार्‌ दीधा नवन तोल रे । -स. वुः उ०-े प्रग इग्यारे मड धृण्या सहैती है भ्राज धया रगरोल करि । --चि. कु. उ०--४ मुर जोड नित्ु येयरी, माता द्‌ हींचोने । नितु नितु मानि धूघरी, प्रम करी रगरोढ। --मा. का, प्र. ३६७७ र गस्थटठ उ०--५ त्रस्णा-पीडित तार्णी, पणिकर कुकम-रोछ । निरमन पांणी-नद' गणड, रुधिर तणा र गरो । --मां. का. प्र. र गयोली-१ देखो ^रमरटी' (मह. रू. भे.) उ०--भोजन भक्ति किवी उपरले माल, मध्यान्हु काल, केलं पत्र छाया इसा मंडप नतिपाया, निरमलं पांणीए पखाली, श्रागे मेती सोनांनी थाली, कीघा रगरोला, भाजा मेलीया सरूपा-सोनाना कचोला --व. स. २ देखो 'रगीली' (रू. भे.) र गली-देग्वो ^रगीली' (रू. भे.) उ०--भ्राज्या रगती तीजां पावा, हंसा समदर जव दोडी जी काई, जव क्षमदर्‌ चारी होय । लो. गी. र गवाई-देन्वो “सगाई (रू. भे.) र गवाग-रं. पु. [सं. रग~+-फा. वाग] वह्‌ उद्यान जहां केवल महिलाएं ही जा सकती टो, जनाना वाग । उ०--घोड़ौ दसौ तातती खडियी, दिन अग रगवाग निजरे पटर 1 --र. हमीर र सविद्ाधर-स. ु.-ताल के साट मूम्य भेदोंमेमे एवः । र गसाई-म. स्व्री.-रग स मुमज्नित करने की क्रिया| उ०--वर्‌ वेहड़ा वांद सोभा वणाई, वंदे तोरणां र गसाई वधार रच कुःभ सोव्रत्त थमा श्रे, वर ग्राद्रवै वंस सोत्र बेह --सु. भ्र. र गसाज-सं. पु. [फा.] १ वस्तुप्रो पर रंगाईया चित्रकारी का कार्थ करने वाला व्यक्ति । २ चित्रकार । २ रंग वनाने वान) र गसाजी-सं. म्बी. [फा.] १ रंग साज का कार्य । २ रगाईया चिरकारी) र गसाद्ध, र गसाछा-सं. स्वी. (मं. रग~-णाला | १ नाश्य याना ग्रभिनय कक्ष, ग्रभिनय स्थन, रंगमंच | उ०--माय जनानाम मलत कराया नै रगस्राद् कराई । -नेरासी २ वह्‌ स्थान जहां महफिल चगती उ० --प्रासोप रगसद् मे नाह्रसिघ राजसिघोत गद्धियोडा श्रमल स्‌ यरकडियी भरायो । --वा. दा. स्यात र गस्यव्-मं, पु. [से, र गस्थने] १ युद्ध स्थल । रगार्द उ०-- घोड नगर कै र'गस्थक मे जवनन मू संतान परलोकः पायौ । | --चं. भा. २ प्रभिनय स्थल, रंगमंच । ३ रीड स्थल, ्रामोद-प्रमोद गृह । ४ वह स्थान जहां रति क्रीड़ा की जाय । रू० भे०-रगथटठ । र गाई-सं. स्त्री-१ रंगने का कायं । २ उक्त कायं का पारिश्रमिक । रू० भे०-रंगवाई ! रगाउचिय, रगाउढठीय-देखो (रंगावठी' (रू. भे.) उ०--छ्कड़ी जरद्‌ सड श्रंगि छाई, रोपियड टोप सिरि "जत राट्‌" । राद जदति' पहरि र गाउदीय सज सट करि हाथद्ट मंकठीय 1 --रा- ज. सी, र गाणी, रगावौ-क्रि.र. (रगौ क्रि. का.प्र. रू.) १ रंगे का कार्य करवाना, रंगने के लिये प्रेरित करना, रंगाई कराना । २ किसीरंग में तरवतर या श्रोतप्रोत कराना, रग में दुत्रवाना । ३ किसीमे लीन या तल्लीन होने के लिये प्रेरित करना। ४ प्रम में फसवाना । ५ प्रभाव मे कराना, भ्रनुबूलं कराना । ६ व्यर्थया किसी के विरुद्ध लिखवाना। रंगाणहार, हारौ (हारी), रंगारियौ -वि.। रंगायोड़ी -भू. का, कृ. रगारईजणौ, रंगाईूनवौ । . कमं वा. । रगावणी, रंगाववी रू. भे. । र गाभरण-सं. पु.-ताल के मृन्य साठमभेदोंमें मे एक) (संगीत) र गायोड्-भू. का. कृ.-१ रंगने का कार्यं करवाया हुश्रा, रंगने के लिये प्रेरित किया हुश्रा, रंगाई कराया हृप्रा, २ किसीर्गमें तरवतर्‌ या श्रोतप्रोत कराया हुग्रा, रंग में दुवराया हरा. ३ किसीमे लीनया तल्लीन दने के लिये प्रेरित किया दट्ृग्रा. ४ प्रेममें फंसवाया हप्र. ५ प्रभाव में कराया हुमा, ग्रनुबूल कराया हरा. ६ किसके वरिसद्रया व्यर्थं लिखवाया टृश्रा। (स्त्री. रंगायोड़ी) र गार-सं. पु--९ प्रायः मेवाड़ श्रौर मोलवे में रहने वाली एकः राजगूत जाति । २ रगदेने वाला व्यक्ति उ०-काती राती हं थर, माघव केर नामि! रंग नशी रगारं परि, ऊकाल कुण कामि 1 मा. कां. प्र. ३६७४८ ~~~ रि भका जुद्ध करै बिन ही | रगा, रगाल-वि.-१ रगका, रंग सम्बन्मी । २ रगीन। २ गुगीना। रगालय-गं. पु. [मं. रंय{-ग्राय] १ स्थले । २ युद्ध भूमि, ररक्ष) र ग्टी-चि.-१ रंग का, न्ग सम्वन्धी | २ रंग मे युक्त, रंगीन । उ०--मष्टतै रगादढा मतीरिया जीमण़ मे घणा मुवाद ताग, उपर सू कावद्रिया गटकावगा नेदही जी जाय द्रै 1 नास्य चाले, गेगमच; र्मे --दमदोगः ३“ रंगल । र गावट-सं. स्प्री.-१रगने की क्रियामया भाव) २ रगा । र गावौ, रगावयौ-देया 'रगाणौ, रगात्रीः (र. भे.) रंगावरहार, हारी (हारी), रंगावशियौ ---धि,. 1 रगाविग्रौरौ, र्मावियोदो, रगाव्योटी --न्‌. का. कर. | रगावीजसौ, र्गावीजवौ । ~कम वा. । र गाव, रगावद्ि, र'गावदी-सं. पु.-१ एक प्रकार का कवच वित्रे । उ०~-- टोप रगावट गारकां, भिदटजां रज भरियांह्‌। राव पारे "पाल" पर्‌, पड वज पारिर्याह्‌ --पा, प्र. २ रान का कवच, उस्त्र। उ०--{१ जिरासान, जुम्राण करत जम्मजडटा । हद भ्रोप विटोप रगशाचद्धि सिद्ध खडा । जरादी, सुसमा वाव हायढठ, सुमात्रा करि गृ. र. व. उ०--२ र गावि सत्य हत्ये हत्य भूकरियाठा धू टोपं। जिया ते ज्ुमण वंवं कस्सण, सिद्धक जार सक्कोपं । --गु. र. वं. उ० -३ करि सिलहि जीणसनाना किलविक, धर टोप र गावि श्रसुर चविकः । --मा. वचनिका र गावियोङ्-देखो ^र गायोडौः (स्त्री. र गावियोद्धी) र गि-देषो ^रगः (रू. भे.) उ०--१ मात श्रांणंदद्‌ं भरी, उलट माष न श्रगि। सुपी सोविन-जीभडी, मलीड माघव रति। (रू. भे.) --मा. का. प्र. उ०--> प्राभा चित्र रचित तेगि रणि श्रनि भ्रनि, मणि दीपक करि सू मरि । मांडि रहै चद्रवा तरी मिसि, फणा सहसेई सहस- फणि । -- वेति. रगिफा एकाक क 17 वी भमः च क ० [1 1 उ०--३ मारवणि मनि रमि, वाट्ड तिरि श्रावी वह । कौ, एकणि संनि, तालि चरती दिद्धियां 1 --टो. मा. २देखोप्रगा (रू. भे.) रगिका-म. स्वी.-२त८ मात्राश्नों का एक मात्रिक छंद जिस्म १९ व १२ पर यति होती है । इसके अन्य नाम~सार लसित, नरेन्द्र श्रादि भीर्हू1 र निया-सं. स्व्री.-मृत पद्यु की उतारी हुई खाल को रगनेकाकायं करने वाली एक जाति या वर्ग । जय्य रंगर! (वौकानेर) र गियोडौ-मू. का. .-१ लीन, तल्लीन, तन्मय या भ्रनुरक्त हुवा हुग्रा. २ प्रासरक्तया मोहित हवा हृता ग्रोत-प्रीत ह्वा हन्ना. रंग से युक्त हेवा हुत्राः ^ मीगा हुग्रा. ९ विसीर्गवच्निपयाकई रगोंमं रगा हुभ्रा रग से युक्त किया दृग्रा. ७ श्रनुदूल क्वा हुत्राः ८ प्रभाव मे किया हुगरा. & प्रेमं फसाया हुभ्रा (स्त्री. रंगियोडी) रनिरोल, सगिरोती, श गिरील-देसो "रगरटी' (रू. भे.) ०--चंदन भरी कचोली ष्री) यनि रगिरोलो, प्रीसड रस धोली, हायि लिड पांन वुःली, पहिरणिि पीत पटली, कांचली कानी ग्राली, उढसि नवरंग फाली रूपनी चित्रमाली, ग्रही सीप्रालक । --व.रा [8 ए 1 [कवक 1 रगी-सं. स्त्री १ गार्दा, सरस्वती । २ गतमूली । ३ कैव्रति कौ लता) २८ वर्ण का एक वणिक छन्द विरेप। (पि. प्र.) ५ निसाणी चंद का एक भेद विदोप जिसकरे प्रत्येक चरण मे ६ गुर श्रौर्‌ ११ लघु वण होते द । वि.-१ टंसमुख, विनोद नीन । २ मनमौजी, मस्त । ३ दैन-द््रीचा, गौकीन । ४ सुदर, मनोहर । उ०-- च्ररम्म चिनांदेखो घरनीमे, भये किते हक भगी | धरम प्रताप घरापति वारत, रज्वांनी वहु रगी। (श्र. मा.) 1 [1 [णी (क ॐ. का. ० भे०~-रगि । ५ द्वो (र्गः (रू. भे.) रगीन-वि. [फा.] १ जिम पर कोई रगदार्‌, रगसे युक्त । २ चित्रित, नोमित। ३ चमत्कार पूर, ्रद्भुन । र्ग च्ढा हो, रगाहम्रा, २६७६ रगीलौ [ ______------_-_----------~~ > जो स्वभाव से विनोद श्रिय हो ग्रौर श्रामोद-~प्रमोद रुचि रखता हो । मस्त, मीजी । भ विलास प्रिय, विलासी । र गीली-सं. स्वी.-१ स्त्री, नारी । २ प्रेमिका, प्यारी । उ०--परगह्‌ ले वांषी पगां, सटी गूधर साय । हना रौ सारी हुकम, ह्रौ र गीलौ हाथ । --वा. दा. चि. स्नी.-१ हषं श्रीर्‌ म्रानन्द मे युक्त, मस्ती भरी । उ०--म्हारं श्राज रगीली रत, मनडारा म्हूरम प्रादय । मारया २ रगोंसे युक्त, विविव रगं वाली । उ०-रे मांवसिया म्हारं भ्राज रगीली गणगौर छंजी 1 --मीरां सूवनरत । ८ मजेदार, वदिया । उ०्-पींपींज्यू पिकर्वण, पीपटी वणं रगीली। देव दुर्कानां मिं, मूफत र मोत चंगीनी । -दसदेव ५ दछन-वीली, शौकीन । दनान, भ्रावारा । <° भे०-रगली । र गीलीटोडी-मं. स्वी.-सव शुद्ध स्वरों की सम्पूण जाति की एक रागिनी । (संगीत) र गीलौ-वि. (स्प्री. रगीली) १ रम भरा, रग से युक्त, रंगीन । २ ग्राकपक | उ०--रगोलौ चंग वाजणू, म्हारं वीरं जी म्ढायौ चंग वाजू" । म्हारी रेगरमंढकं नयीषए, रगीलौ चंग वाजणु | -लो. गी ३ श्रानन्द व मस्ती भरा, हपं व सुगी देने बाला । उ ०--वसंत पंचमी पच्छ, नीकटं काची केढा, बू पच दात॒ तणी रगीली सत री वेदां । --दसदेव ८ प्रेम व प्रनुराग ते युक्त, प्रिय, प्रेमी । उ०्--प्राप रगीता, सेज रगीली प्रर रगीलौ सारौ साध जी । -मीरां ५ मौजी, मस्त, विनोदी, रसिकः । ६ रगमेभीगादह्ृप्रा, रगसर मरायोर। ० भे०~र्‌ गरेलौ, । 1 रजन्‌ रगोचगौ ३६४० जा क्क क 1 ० 1 3, शि ^ ^ 1 0 1 प मीर वरिणी एस __ ____-_-_______--~~_--~_-~_-_-_-~~~~~~- र गोच॑मी-वि.-१ वद्िया, मजेदार । ७ विपत्ति, मृमीयत । र चकः-देखो ^रच' (रू. भे.) २ हर्पोन्मत्त, श्रानन्दिति । ३ मम्त, मौजी । र घड़ -सं. पु-- १ राजपूत । उ०्--जंगल जाट न छेडिये, हाट वीच किराट । रघड्‌ कदन छेडिय, जद तद करं विगाड्‌ । -- श्रग्यात २ एक राजपूत जाति जो श्राजकल मुसलमान हो गर्ह) वि.-१ युभट, भट, योद्धा, सेनिक, वीर, वहादुर्‌ । उ०--वग्बत हरीसिष वाहृदुर, ठावा द्रं भुज ठौड़्‌ । पातलं सग जुध प्रगटिया, रघड़ वतीम रठड । --जुगतीदांन देशी २ श्रडियल, श्रक्यड । रू० भे ०-र्‌गड़, र गट, रांगट, राघड़ । श्रत्पा--रांगड, रांघड़ी । र च-वि. [ं. न्यच, प्रा. णंच] १ श्रत्यल्प, म्रत्प, शोषा, किचित, तनिके । उ०-१ किल कंचन कमिनि त्याग करं, धन संचप्रपंच न रच धरं 1 --ऊ. का. उ०-२ वडी कट्ण पण पिता वियौ, कोट रचन कियौ विचार 1 धनूख चद कं मत चटी, म्हारौ राम भंवर भरतारे। --गी. रां. उ०-३ पयं कर मीटी पाक, जो श्रमरित सींचीजिये। उर कडवा श्रावः रच न मूकं राजिया । --किरपारांम उ०--४ हट दृद्री निग्रह्‌ करं, जोग जप तप ग्यांन। ह्रीया सहजां सवद का, रच न पावे ध्यान । --प्रनुभव वांखी २ तुच्छ, न्यून । सं. स्त्री-१ पावती, दुर्गा, देवी । रू० भे ०-र चकर । (क. कु. वो.) (म्र. मा.) उ०्--ग्रग्गं रचक दोसपै म्रतिदटन गाया । --व. भा, र जसं. पु. [फा०] १ दुल, गम। २ मृतक का दोक) ३ खेद, श्रफसोस । ४ विरता, फिकर । ५ दर्द, पीटा, संत्तप। ६ नाराजगी । ८ श्राघात, चोट । वि. [सं. रेज, रञ्ज] १ श्रनुरक्त, प्राक्त ) २ निप्न, संलग्न । ३ रगा हुग्रा। ८ प्रमप्न, सृण । उ०-जार्ू वरी जानवो, राम जमाई रज । नाग वडाटु जनक री, गार्ह वेद प्रगज । --र्‌. ज. भ्र. ० भे०~-रमि, रजी । ५ देग्बो रज (रू.भे.) रजक~सं. पू. [मं.] १ निप्रकार, चितया। २ लात चंदन) ३ सिन्दूर । - ८ एक प्रकार का हुरिन । मृग} उ०--पाद्य रजक मृदिर्याण काठ गोरे मग चरगोन जान पार्य । जहां देने तहां मारि गिरावं1 ^ (^ -- प्र. ५ पित्त के श्रन्तर्गत पेटकी ग्कश्रग्नि।! (मुश्रत) [फा.] ६ रगरेज, र गस्राज । ७ वन्दटरकया तोप की प्याली मँ रव््पी जनि वाली वान्दकी ोड़ी सी मात्रा 1 उ०--१ श्रि खगस्िग दम हंस श्रठ, सुणं न सवद गति नह सूक । दहु दां वदि हवै दिष्वाई, रजक कटां गौं रुप्रनार । सू. प्र. उ०--२ ईण भांत वात कतां तौ वार लागे । रजक जागी) कनां तोपन्वाना री ईक पलीती दागी । हर्‌ गोी चटी । --प्रतापसिषच स्होकमर्मिघ री ब्रात ८ ग्रमग्नि। उ०-- घडारौ धरणी पण॒ करई वार्‌ ग्रकेली ही सोहां मिया । सोर मे पण॒ रजक | ति भांत रजपूती री तीष रौ तस भख। --प्रतापसिघ म्होकमसिघ री वात वि.-१ रगने वाला, रग चाने वाला। २ र्जया उदासी मिटाने वाला । २३ हप या म्वुशी देने वाला, ग्रानन्द कारक । ४ उतेजना या प्रोत्साहन देने वाला । ५ भ्राकरपित या मोहित करने वाला) र जण-सं. पु. [सं. रञ्जनम्‌, प्रा. रजण १ रगने की किया या भ्रातर । रज २ चित्त को प्रसन्न करने की क्रियाया भाव। ३ श्रानन्द, हषं । ४ पित्त । ५ लाल चंदन की लकड । ६ मूज। ७ सोना, स्वश 1 ४८ जावर्फ्ल | ६ कमीत्ता नामक वृल्न । १० छप्पय छन्द का एक भेद जिसमें २१ गरव ११० लकु छर १५२ मात्राएं होती हँ 1 मतान्तर से छष्पय छन्द का वावनवां मेद जिसमे १६ गुरु तथा ११४ लघु कुल १५ मात्राएं होती ह। --र. ज. प्र. विरज यां उदासी मिटाने वाला, श्रनिन्द व खुणी देने वाला । उ०- १ मं्रीस्तर धरि श्रावीड सयल लीक रजण सुलक्छण॒ 1 पूर्व पण्य पसराउ च त्रिण्णि नारि विलस वि श्रक्खणि । ५ चक शैरारांद # --ट सूरी उ०--२ दचियां नं नुवना दातार । नय भंज्णा रजण अवतार । चृ. स्त <०--३ चंदा देह कपूर रस, सीतढट गग प्रवाद्‌ | मन रजण तन उल्हवण, कदं भिक सी नाह । --टो. मा. २ पालन-पोपण करने वाला 1 उ०--जगत छम जग सामि, जगत, रोपण जम रजण 1 जग वंदगा जग जेठ, जगत भेदणा जग भंजण्‌ । --पीरदान लाठस ३ वान्तिया संतोपदेने बाला । उ०- वाद भगी विदा भणी जी, पर रजण उपद्ेस 1 मन संवेग वरचड नहीं जी, किम संसार तरेस । --स. कु. =° भे ०-रजन रजणी-वि. (स्वरी. रजसी) १ प्रसन्न या या खल दने वाला । उ०--१ कोटि वरीसणौ लखधीर वडाकर राजिद, रूपक रजौ । वैर वाह्‌ लिश्रां दढ वादठ भूप खां दद भंजणौ । -ल. खुश करने वाला, प्रसन्न ३६८१ र्न ____ _ रजौ उ०--२ भाराणी दुख भंजो, गृण रजणौ गहीर । जान जान जगत रौ, साहिव कीवौ सीर । --वा. दा. २ रगने वाला । ३ श्राकर्पित करने वाना । उ०--गरव सत्रां गंजणां, रमा सूचित रजणा। भुजां सजोर भ॑जा, चदढाय सिभ चपि । ---र. ज. प्र. तृप्त करने वाला, तृप्त टोने वाला 1 ५ दीप्तिमानं करमे वाला । उ०--मारत भू भरतार, रजव्वट रजौ । अ्रवततरियो नर एक गनीमां गंजणौ । --किसोरदांन वारहूठ । रजसी, रजयौ-क्रि. ग्र. [सं. रजनम्‌] १ प्रसन्न होना, खुध होना, हपित टहौना 1 उ०--१ मुचि श्रा हुरि मंत्र वदन कजि श्रत विकस्सं। किय ग्रेट परवेस रजी पुरवेसन दरन्सं 1 --रा. र्‌ उ०--र लूणीएु फसले लाग देवी करी, रास्या श्रापणड्‌ पासी जी। मूड रही देगी रजिया, सहु को कह सा्रामौ जी । ----रा. चू. उ०-२ कल्यांगामस्न राय रनजिया टटर नगर मभार 1 मा गहञ्र उत्सव करट, वर्यौ जय जयकार । --करवि गृणा व्रिजय २ व्रप्त होना, संतुष्ट होना । उ०--१ गिं गद सादी सयछ सान्ज मन रजे कौनरनोटि कर्मैव, गूह गरजी ग्वत भजे । --गु.ष्ःवं उ०--२ लोक प्ृम्यान सहू भरयारे, रज्या राखी भूष । --स्रीपाल राम ३ मोहित दोना, मृग्य होना, ग्राकपित होना, री भना । उ०-१ सिंघल दीपे मूकि नें रे, भ्रायस हृश्रड प्रलोपरे। राना री मन रजीपी रेदेख्यी नगर स्रनोपरे। --प. च. चौ. उ०--२ जोतां नवरस एशि जुगि सविहु धुरि सिणगार। गागड' सुर-नर र जियई श्रवद्धा तसुं भ्राधार 1 ॥ --टो. मा, ४ शोभायमान होना, शोभित होना ! उ०-१ चादर हौज फुटहार नीर चलि, ग्रग्रत नदी श्राय किर ऊभलि । रजत सुजठ केटरक ग्र॑तरामे, केडक होद भर्या कूमकुम्मे । क रजत र जन-रेग्वो (रज र जवणौ, र जववौ-देग्वो रजगणौ, रःजवौः ऋ कक उ०--२ मज पग छह सातू' रिष स्याम, रजे पग छह जिसा वराम । देग्यै पग मेव करं दुडश्द, चरच्चं प्म निरम्म चंद | ५ उसलभना, फसना । ६ प्रभावित होना, प्रभाव में प्राना । ७ र गीजना, रगमय होना । ८ चमकना, दीत्तिमान होना । क्रि. स.-& प्रसन्न करना, खदा करना, श्रानन्द देना, दपंया खुरी देना । उ०--१ नयणां रौ श्रजन सांवरी म्हार हिवडा रौ रजरणहार। --गी. रो. उ०--२ भरती भूखां नी भावेठ भंजउ, राजि निज मवक तणा मन रजड राजि०। वि. कु. १० तृप्त करना, सतुष्ट करना । ११ श्राकपित करना, मुग्ध था मोहित करना, रीना 1 १२ चमकाना, दीक्षिमान करना 1 १३ प्रभावित करना, प्रभाव में लाना । १४ रगना,र्गसे युक्त करना, रग चद़ाना। १५ निर्भय करना, निदिचत केरना, भय मुक्त करना । उ०-मर गिरवर तारपदम श्रठारे, मेन उतार जगत समवै । भिड़ रावण भ॑ज गादिम गजै, श्रमरां रज ब्रहम प्रं । --र. ज. प्र. र्जण हार, हारौ (हारी), र्जणियौ --चि. । र जिग्रोड़ी, र जियोडी, र ज्योडी - भू. का. कु. । रजीजणौ, रजीजवौ 1 -भाव वा. कमं वा. । र जवौ, रजववौ । --सू. भे. । र जत-सं. स्थी. (सं. रज्‌) १ तक्ति, संतोप। उ०--१ भांणाजी कच्यौ-मामरी थ्न ई राड करियां विना रजत नीद्दै। धारा वेदा परिया तुडाता व्दैला, धू छेकी जावै जकी वात करं नी, क्यू विरथा श्राडी-डोढी सकती फिर । --फुलवाद़ी उ०--२ गविरेलोगांनं म्हँजांणू । णक री उव्कीम नी मनै जित ग्रान रजत ईनींष्धै। --फुलवादुी २ टिप, खुशी, श्रानन्द । (स. भे.) (रू, भे.) . उ०--कचगमउ श्र १३ क्लमु सिहरि सांणाड र'जदिश्रउ ) 1 ३६८२ र जचियोड्धौ-देखो "र चिगोटी' र जि-१ देखो "रज रजि जानमि - को-ककम४,१०० ४००१५ (गौ जगु सुतरणि तउ १४ तव तिब्ु (त्य) श्रायामि मउन्नट। । --फ़वि पह (र. भे.) (म्री. रजेवि्योड़ी) रजाट~ग्गा हप्र, लीन । उ०-१ टग्‌ वेश्म रजपूत वे, राजम गृण रजाट | मुमिगग्‌ लग्गा वीर्‌ सव, वीरां रौ कुंच्वार । प्री. म. उ०--२ भूप उछाहरां मार्ज महं तसिदां भ्ठ । रामेढा गरिां दई नाहरां र जार । --राजा रामर्िध हादा रौ मीत रजाणौ, रजावौ- क्रि. स. [^रजणौ' दिया काप्रे. .] १ प्रमच्र करना/कराना, हृषित करना कराना, श्रानन्दिन करनाकानां । २ तृप्त करना/कराना, संतुष्ट करनाकराना। ३ मोहितं करना/कराना, मुर करना/कराना, श्राकचित करना/कराना, रीना । ४ योभायमान करना/कराना, भित करनाकराना, सज्जित कराना! ५ उलतभ्वाना, फंमवःना! ६ प्रभावित कराना, प्रभाव मे लाना; ७ चमकाना, दीर्षिमान करना| कराना। = र्‌गमय कराना, रयाना। ह भय मुक्त करना कराना, निर्भर करना/कराना, निदिचत करना कराना । रजारहार, हारौ (हारी), रजाणियी --वि. । रजायोड़। - भू. का, त्र. । र जाईजणौ, र जाईजवी । कमं वा. । र जायोड़ो-मू. का. क्र. प्रमत्या हपित किया हु्राकराया हृत्रा. श्रानन्दित किया हूु्रा/कराया हु्रा. २ त्रृप्त किया हूग्रा/कराया टुम्रा, संनुप्ट किया हृग्रा/कराया हृग्रा. ३ मोहितया मुग्य क्रिया टुम्रा/कराया हुश्रा, श्राकरपित्त किया हुम्राकराया हु्रा, रीमाया टुश्रा. ४ गोभिन या गोभायमान किया हुग्रा/कराया हत्ा सङिजित किया हु्रा/कराया हुश्रा. ५ उलभवाया हुग्रा, फमवाया दुम्रा. £ प्रभावित किया हुश्रा/कराया हूश्रा, प्रभावमं लाया हुग्रा। ७ चमकाया दग्रा, दीत्तिमान क्रिया हू्राकराया ह्राः ८ रगमयकराया हरा, रगाया हन्ना. &€ भय मुक्त, निर्भय या निदिचत किया हृम्रा/कराया टृश्रा । (स्त्री. र जायोडी) (र. मे.) उ०--जिकां पार जोवतां वार लम्भ वरणंतां, त्ति सार श्रवतार ग्रणी गुण धार ग्रनंतां। वेदांणी तन मजि रजि अ्राभीच लगन्ने, धड़ सघर पद सज्जि धूप वर वासने । --रा. 5. २ देलौ "र्न (रू भे.) रित ज का र नित-वि. [सं.रन्ज्‌] १ रगमे युक्त, रगीन 1 २ भीगाहुम्रा, सनादहृग्रा। ३ रजसेभरा हुग्रा, धूलि धूसित। प्रेमं फसा हृम्रा, भ्रनुरक्त। ५ निक्त, संलग्न । र जियोडौ-भू. का. व्र.-१ प्रयत्न, वृण या टृपित हुवा टृग्रा. २ त्रप या संतुष्ट हुवा हुग्रा. ३ मोहित, मूग्वया प्राक्त हुवा त्रा, रीना हुद्रा. ४ योभित या णोभायमान हुवा हग्रा. ५ उलभ हुत्रा, फसा हूम्रा. ६ प्रभाव में घ्राया हुग्रा, भ्रभावित. ७ रगमय हुवा दृश्रा, रगा हृभ्रा. ८ चमका हु्रा, दीक्षिमान हुवा दुरा. ६ प्रसन्न या ब्वु् किया हूना, आनन्द, हषं या चृदी क्रिया दुत्रा. १० तृप्त या संतुष्ट किया हुश्रा- ११ अ्राकपित, मुग्ध या मोदित किया दर्रा, रीफाया हुमा. १२ चमकाया हु्रा, दीक्षिमान किया ह्र. १३ प्रभव में लाय्रा दग्रा, प्रभावित किया ह्भ्रा. १४ रगसेयुक्त किया ह्ुग्रा, र्ग चदृाया हुश्रा, रगा हुम्रा. १५ भय मूक्त या निर्भय किया हरा, निरिचित किया हुग्रा । (स्बी,. रजियोटी) रजिस. स्वी. [फा. रजि] १ किमी प्रकार की चित्ता, फिक्रिया उदासी। ` २ अप्रमत्ता) ३ नाराजगी । ४ मन मृटाव, मनोमानिस्य । ५ दात्रृता। र जो-१ देगो ^्ज' (र. भे.) उ०--१ रजी निकता स्वेत, वाट्टूमय योरा पीद्धा। चदं तर उजाम, स्पेली रातां सीरा । गे --दमदेव उ०-२ रजौ प्रासमांगादेकीच्द यौ दछ्राठी रहै, हट ती मृनिद्रा ब्द श्रत्ादी तमाम । -- मुखदान कवियौ उ०--3 नीं फनी | -फुनवाड़ी २ देण्वो “रंज (स. भ.) र जीदगी-सं. स्त्री. [फा.] १ रंजिवटहौने की श्रवन्था था भाव)! न्ति उद्रासी । ३ दुख, संताप, रज, गम । ८ वैमनस्य, गतरता । १ १ ए) रजीदौ-वि. [फा. रंजीदः] १ दृखी, संतप्त, गमगीन । २ नाराज, म्रप्रसत्न । ३ श्रमतुष्ट | [4 ॥ ३६८३२ ग्राख्ीनगर्‌ पोटररी रजीमू्‌ द्क्म्यो तौ ईवंमाट | र उवौ-मं. पृ. [सं. रंडः] १ वद्‌ पुमः रखा ._.._ ~ --.--~--~---~---~-----~-~-~~---~-------~---------------~------------------------- ` ~` ` ~ `` ~ रड-सं. स्वी. [सं. रंडः] १ वांभ केकोड़ा नामकं एके लता, जिसमें फल नहीं लगते । उ०-भाइकाना नाग तु, चदं व्रिलोती रड । वारू वली विद्यारथी, रर भग्णंतां भंड । --मा, का. प्र. २ देखो “राड (मट्‌. <. भे.) उ०-तिखरंवेटी नांम लीलां! सु वाढ रड। -देवजी वगड़ावतां री वात २ देखो श्रंटीः (सू. भे.) र डकारौ-मं. पु. [सं. रंडारा. कारौ] १ किसीस्त्री के सम्बोधन मे प्रयोग किया जाने वाला ग्रपदाव्द । उ०-सो सपूत हवं सो तौ पिणिमाता रा यतन कर श्नं कपत हवते ऊधा प्रवा बोन । मता नँ र'डकारा री गाठ वोर । [क 1 । ) , , "षणगीरीकीषीषषें ज र ५ --भि. रर. र डनी-१ देयो ^र्टी' (रू. भे.) उ०्-वना विहार तं वहै मना किये नहींमने। एसा महा ग्रभग्ग नित रडनी जनें। --ऊ. का. २ देयो “रांड' (रू. भै.) रडपोयौ-मं. पु. [सं.रंडा +-पोपवः; | वेदयश्ां का पोपगा करने वाना, व्यभिचारी । वेद्या गमन करने वाला । उ०--रडपोघां रा राजमें, श्ढगी भरमा रंत सूकां नित मीरा कर्‌, दंटन चुकां देत । ०9 ज 9 ~~ भ -ऊॐ. का. (रू. भे.) उ०--स्मसांन वसति, व्ररेभ गति, र'डमाला भूग्बणा, ग्रनेकि टूग्वण॒, इस्या ईस्वर तणी करतां भगति किम पांमीड्‌ मुगति ? र उमा, र उमाद्धा, र'उमाला-रेमरो (रदमाह --व. स. प॒ जिमकी स्क्ी मग चकीहो, चिवुर्‌ । ` २ वह्‌ पुम्प जिसको शादीन दौ मकी हौ, श्रविवाहित व्यक्ति। ० भे०-रंदुग्रौ, रंदूवौ | र'डा-ति.-१ मूर, ्रज्ञानी | उ०-निरगुण थी मरगुण हुश्रा, क्या जरौ रडा] -- केमोदास गाडगा २ देखो 'रांड' (<. भे.) उ०--१ मेलं पग मंडा भ्रग्र प्रवंडा, रडा प्रिय राचंदाष््ै। पह दुरम प्रमादी मुरमद मादी, महत पुरस माचंदा है| | । -- ॐ. का. रडातफ 0 9५ क पं स ०१ ह ~= ~> +~ ~~~ क्म = क उ०--२ जलि घलिजा रे जीभदी, जड न वखांणी नाधि । रडा तु मुचि रहिसि तु, बोलसि वीजां सारथि । -मा. का. प्र. ३ देषो “रडी' (रू. भे.) र डातक~वि.-विधवा स्वी के समान । उ०--जावक पावक जिम रडातक जीवं, सातां ठोडं सू चंडानकः मीवं । --ऊ,. का. र डापण, र'डापणौ-देवो "रडापौ' (रू. भे.) उ०--सूरां ग्णमें जाय के, लोहा करौ निसंक। ना मुभ चट र डापरौ, ना तुभः चं कठ क । --श्रग्यात र'डपो-सं. पृ.-१ विववा दौने की श्रवस्या या भाव, वैधव्य, विधवापन । उ०--१ वापड़ी भोढी-डाी क्िन्यावां नं कूडकं में नांखर वेगी सी विधवा वणादेव । सुवाग री नीं रडपि री चंवरी चां । --दसदोख उ०-२ यौसव्राग वारौ लगे, जद कायर भरतार)! रडापौ नाग भलौ, होय मूर सिरदार । -वी. स. टी, २ विधवा कास्ता जीवन, दुखी जीवन । उ०--दुख सतियां रौ सुण न दिलकी, व्रिलकी फिरं विचारी रे। घणी जीवतां देग्वी घरां मे, भोगं रडापौ भारीरे। -- ऊ. का, रू० भे०-र उपगा, रंडापणौ, रडपडौ र डपौ, रांडापौ रांडपौ । र डाद८ठ-१ देवो "रां" (मह्‌., <. भे.) उ०--कुटदहीन प्र॑म चरमा वितु'ड, वंवील उरद्र सिर महिष मुड। र खाद वाद विधुरे श्रसुभ्च, ल्या विहीन निर रक्त कुःभ। --ला. रा. २ देगो ^रढाठ, रढाणी' (मह. रू. भे.) र डाठौो-१ व्यभिचारी । २ दैगो रढाट, रटाटीौः (र. भे.) उ<--व्रनिया मणा सोधिया भीला भुरजाढछा भोम विगाह भोमिया श्राया ग्ररसाद्धा। पीहूर पाल' विग्वायतां घर वाटा । जिके वरिगादु जगत रा, रजपूत र'डाढा | --पा. प्र. र डि-देयी ^रडी' (रू. भे.) रडो-मं. स्थी. (नं. रट] १ चन नेकर्‌ नाचने गने वं संभोग कराने चाली स्त्री, वेघ्या। ३६८४ रदा २ वहु विववास्व्री जो व्यभिचार से धन कमाकर जीविका चलानी हो ] ३ स्त्रियोकी एक गाली । 5० भे०-र'ड, र'उनी, र डा, रडि। ४ देखो राड (रू. भे.) र डीजणौ, रडीजवौ-देखो 'रांडीज शौ, रांडीजवौ' र डीजियोड़ी-देखो रांडीजियोडी' (रू. भे.) र डीजियोडो-देखो "रांडीजियोडौ (रू. भे.) र'टीबाज~-वि. [सं. रंडा~+-फा. वाज] १ वेदयागामी, व्यभिचारी । उ०--भ्रडादही करदे भलौ, कदियक ग्रा्धौ काम । रडीबानां राखिया, नांमरदां रा सांस (रू. भे.) --प्रभूरदान ग्रात्तियौ र डीवाजी-सं. स्त्री.-१ ^रंडीवाज' होने की ग्रवस्था या भाव। २ रंडीयावेदयाके साथ किया जाने वाला संभोग, व्यभिचार । र इश्री, र इवौ-देखो "रंडवौ' (रू. भे.) र उपडी-देखो !रंडापौ' (रू. भे.) उ०--क्यो भेग्रीज चरिकटगढ, क्यों तूटै दस मीस। तोन दीन र डेयडौ, दछोडावण तेतीस । । --मेहौ गोदारो र'ढ-देष्वौ ^रद' (रू. भे.) (ग्र. मा. ह. ना. मा.) उ०--१ सत पराक्रम सरमां, मन्न म हुग्रा उदमाद । रोस एशिदां रढ त्रिया, हम्मीरां हठ वाद । --गु. रू. वं. रढरांण, रंढरांणौ-देवो “रढरांण' (रू. भे.) उ०--श भूषां रूप लाखौ' वंस भारा, राख रीति मामी रटरांण । --ल. पि. उ०-२ मलण मांण॒ प्रसुरांण रंढरांण वेदढीमणा, श्रं तारण दुनियांणा श्राभौ | | । --महेस वारहठ उ०--3 काढ माल क्रिर्लाणमल, धरणौ जोधांणा । ती गमभग्गा रायमिघ, रहै रटसंसा। -- द. दा. रढाद८ट, रढाल, रंढालछौ, रटालौ-देलो ^रढाठ' (रू. भे.) उ०--१ हवा तेरे वस हवी हिदूकार हरि हंस । राव राजा जां राणा राव रंटाद । --नेयासी उ०--२ मू, मंकट्‌ दौयरण मुख, कर लागौ वूःटाद्ध। वीकमसी वीमूत्रमौ, रतनी प्रदं रंढद्ध । --नणसी = क = श [॥ उ० -३ रांणौ दांणौ पूरव, रावल रण रदाल 1 भास्य मे योदा भि, रिणियोद्धा जिम काल । । षः -वःवा उ०--४ रणौ हे सचि राणो हे प्रति रंढाल । -प.च. चौ. उ०--५ सकतावत छलि धरणी सिघाठा, ब्राया चंपा वंस उजाद्ा ! रिणमनोत रिएताक् रटाव्रा भेला चांपावतां भूजान । --रा. ₹, उ०--६ सूर कहै गजसिघ नू, रजि धीर रंढठा) कटह्‌ करौ तदि केट्री", राय मंडं ग्रा । --सू- प्र. उ०--७ तवल वाज गजराज, सकवंध श्रकचर तणा, रहचिया मीर हां रदा । सतै अआ्राफाछिया भता सुरसां सू, का पंचा सोरार कालं । 1 --नगामी स्द्‌-देखरो शाद" ` (न. भे.) रंण-देखो ^रण' = (रू भः ध रंणफक्ण-देखो ^र्णभण' (रू. भे.) रंरायंभ-देवो 'र्णथंभ' (रू, भे.) र्त-देम्नो “त्त (रू. भे.) रति-ेो "र्ति' (रू. भे.) रतिदे, रतिदेव-सं. पु. (सं. रन्तिदेव] १ एक चन्द्रवंशी राजा, वड़ा दानी या श्रौ जिमने वहत मे यने विगर थे। (परौ रासिएिकः) २ विष्णु का एक नामान्तर । ० भ ०-रंतीदे, -रंतीदेव 1 सतिनदी-सं. स्त्री. [सं.] चंवल नदी । रंतीदे, र तीदेव-देग्बो “रंतिदेव (रू. भे.) =०-नमजौ च॑र हेत दिये मे श्रादर ्रांणौ। रतिदे भूकंत जिगन री कीरतत जांगौ । । --मेघ रद-देग्नो ^रघ्र (रू. भे.) उ०--पिड पिखणां रा गुड पट, उड गोल्यां रण॒ न्रूक । रंद जाणा वर्‌-दुरंग ग, वाधा थया बंदूक 1 --रेवतरसिह भादी रदौ, रंदबौ-क्रि. स. -१ लकड़ी को साफ करने के निये रदा फेरना, लकड़ी पर रदा लगाना । २ देषौ (रवौ, रचवौ' (रू, भे.) र धारौ र्दाई-सं. स््री.-१ रदा लगा कर लकड़ी को साफ करनेकीक्रियाया भावे । २ देखो “रवादं (स. भे.) र्दाणौ, रंदावौ-क्रि. स.-१ रवा लगा कर लकड़ी को चिकनीव साफ कराना । २ देखो "रंघारौ, रंधावौ' (रू. भे.) उ० --१ तेजाजी श्रो लापी रंदाऊ वार्वा लसपसी, उपर लीलोडा नारेठ । ---लो. गी. उ०--२ नरदल वा रे लापसड़ी रदाय, टेश्रोधणा वारीरे टंजा 1 --लो. गी. रंदायोडी-भू. का. कृ.-१ रदा लमवाया हृम्रा । २ देगनो "रंधायोड्ी' (रू. भे.) (स्त्री. रंदायोडी) रदेन, रदोज-देग्वो "रवी (सू. भे.) स्दौ-सं. पु.-१ वई का एक उपकरण जिगसे लकड़ी साफ व चिकनी चनाई जाती है 1 २ कमान की डोरी, प्रत्यञ्चा। ३ उट के पिद्छते पैरके उपरकेभागमं ४ उक्त रोग मे पीडति ऊट । रध-देग्वो ^रध्र (रू. भे.) रंधक-सं. पू. [मं.] रसोडया, वाव्ररची । वि.-ग्रनिष्ट कारकः । रधर, र॑घन-सं. पु.-१ रसोई या भोजन बनाने कौ क्रिया । २ स्त्रियो की चौसठ क्रलाश्रोमे मे एक। (व, स.) रधर, रघयौ-क्रि. श्र--गिचड़ी, खीच श्रादि का पकना । टेन वाला एक रोग । रदणौ, रंदवी (स. भे.) रघर-देन्वो ^रघ्र (र. भे.) उ०--कनंक भ्रंग रंग क्रति सोभ नाभ मुदग्‌ । मुनेस मोहसूप भोम, रास जगि रधर । 1, प्र ध रधांण-देगयो ^रवीण' (रू. भे.) उ०-पीमण ग्वांटण लीपणं, राधा स्धांसा। छ कूटी दछःकायनौ, जया करः जांगा 1 --घ. व. ग्र. रधारई-स. स्त्री.-किसी खाद पदाथ को पकाने की क्रियाया भाव । --रू. भे, र॑दा | रंधणी, रधावौ-ङ्रि. म.~-भोजन या कोई वादय पदार्थं पकाना, पकवान । रधायोडौ 4 ज 0 चत म कि म क म जनम = ध ~ उ०--१ मार रंधाणा देगा वेरायार श्रपारा। मूता व्यार किया सही, जाजे धरत भारा। पमं प्रो | प्र # उ०--२ तरै जगमालजी म नैजमी ग ग्पू्नां नी व्रात याः पराई । तरं लापरी, वाकुढा, निनद, दाद्धिया, मावुनियां पराई मगा मै-पांच प्रवा द्धः सै मगा घान रधायो। --जगमास मामापन गी यान उ०--३ जगा मेरी याये, उजन्या रंधायुं ये यार्न चागता । --मता.गी, --धि,. नु. १. ग. न्म्‌ या. --". भो. रधाश॒ हार, हारौ (हारी), रुपाणि रघायोट रघा णी, रघारजयी रदाणौ, रदाय, रंघावगौो, रचायी रधायोडौ-भू. का. कृ.-पकाया प्रा, पकवाया टृग्रा । (म्प्री-रंपायोडी) रधावणी, रधावयौ- देयो "रघा, रेघायोौ' (स~, भे.) उ०--ग्यीर रेधावं कारनिवः रेनापमर्यटीजे प्राय । -- गयमांणी रधावियोडीो- देयो ^रघायोलौ (. भे.) (ग्री. र॑पाविगोदी) रधियोडो-भू. का. कृ.-पका हु्रा, सीजा दश्रा | (म्री. रधियोडी) रधोर, रधेज स. पृ.- १ गिचदी, तसो, रतया अ्रादि पवार । २ ख्ण्टीरोटीकोद्धाष्टया पानीमे पका गेत्र यनाया जामे योनी साद्य पदाथं। ० भेऽ-रदेज, ग्दोज, रधांगा, राद्रगा, रांधगा | रध्रं. पु. [स.] १ चिट्रि, दद, सुराम । उ०--१ केहररा नग रंधस्रू, गज मोत्ियां निपान) सूरत कीरत वेन रा, चीज ववं श्रवदानं । --वो. श्य. उ०-२ येवे कवग भ्रूथांण वंध श्रसमान दवत रोसांगा अरन्यं । चग्व मवी रघ चछदै चकाम, उडता विहंग वेयं च्रकामि । {च # म्‌. २ गब्हूर, गुफा। उ०-१ दुखीवत भर वंदरां रधरदेगं। पेग्वी उटुता चक्वा हंस पेखं । --सू. प्र ३ दीवार्‌का वह्‌ छेद जिसमें मेतीर या चन्द्रकं फी गौनियां चला जाती थी, तीरकथ 1 ४ तरश, तुशीर्‌ | [0 ता १ 1 + #, "म =" 8 नम किये अ, =, नर ~ = ६६६५६ ज = स्त न्ध = अक + 4 [क >) क ॥ ~ गोनि, भगे | द्धि, यमी, दोव, 1 ९४ (1 पा धमद्यग गदनद | ~ भ< (र्दद) 7० भवय्‌, तथ्‌, क | श्य--दनौ न्मा (भम) न» शीर सवत मधं दम्‌ (नल नण, षुण "रोण पयर्‌ शर द 1 सीया सता श्रादीपौ दम नित सी क, श्य पट उकम अमु मुपे क्य) [8 4“ ~~~ {चतन {7 कैः बै 1 # च जनः ॥ + @' यः = ऋ ~ र्यो-म पए---१ रा भद ग्या ए, का वदप भीर दन क स 1918, कीः कः ॐ भथ कष ॥ । ॥ ; [1 २ गप्रा "१ दवन मणय द य कमश "^ ४-^ भेर्-ग्भौ, रनम. पृ, [नं. प्रारम्भ] १ पुष्पाय, सारम, श्राम्म उर गयषदः सर पनि सन्य म सम्प, भ [| प्टय पाणा रभ किदं । मू पभ (3५५ 8 { कुर्‌ ५१ #३। 1.13. .* भक क 1 मान एमी दरम मशद्नोदा, ससरत कव द | ॥. ज; = रभ "शा 9 १ २. युद्ध, मपर | उर --गृणि शाय चेरा नागन मम, पिग्पमसय साग नि रम । --मा. गननिदः ३ पयः प्रमार्‌ं एवं चण, नीर ट याम) ५ नोर का णट्टमा प्रायाड | ६ णः प्रये मल द्ररिनि । ७ मिपामुर्‌ फं पिना । (पौन = एनः नाजाजां धामुराजा का वृद भ, नाम प्रभाया) € पक राजाजो वरिविदनि गमामलपृयं भा) १० राम-मनाका एकः यामर | ११ गेभ-करभे नामः से दशानयोंम मै पकः) ० भरर) १२ देगा शरभाः (>. भे.) (भ. मा.) उ०-१ प्रति पटा सनी, किरि लष्रपी नानती, सरस्यनी सोनी. स्मि पारवनी, नवयौवनारेभ मिः पीजी रम] न्मी भाश ग! ---~प, मू. उ०-र नावि सर पांणी भरे, गोरी गात श्रनूप 1 ज्यां प्रागे पांगी भरर, रम भ्रतौविगकः श्प) उ० --३ पम सुनार जोगणी, माठ नुलार्‌ स्म) प्रा. द. र सगांस ३६८७ ररकार १ ._.__ ~ ----------------------~-------~--~--------~----~--------------~--------------------`---`-~-`` ~ ~ ~~~ ~ यंभ चल्ेवौ सोम रपि, पेखं व्योम शअ्रचंभ । --रा. र ६ वेद्या, रंडी । उ०--५ निततरी जंघसु करम निनूपम, रम खम विपरीत ७ उत्तर दिा) स्ख । जुग्रन्ि नाचि तनु गरम जेहवी, पयर व्रार्खणौ विदु । ८ कदली, केला । (डि. को.) --वेसि र<० भे ०-रव, रभ} उ०--\ लहत द्रव्व साख लाख, रंभ खंभ रोपियो । राणी, र॑मावौ-क्रि. भ्र. [सं. रणं] १ गाय कां योलना। "रजौ" नरि जेणवार, इद्र जेम ग्रोपियौ । उ०-- धेनू चगतोड़ी वों ख्रड़ घाती, ऊखां भरतोडी लोरां भट + क ग्राती । रातीवासै री माती रंभाती, जाया गोपा सं जाती उ० --७ लदनहती नाच नता, पवन संगीती पाय । जंमाती ) पसवावरदारी कर, रम विच वणराय । --चां. दा. ए उ०--= रमखंभकुजर मूड राजे, युग संघा जांमसी । २ ममत्व भाव से ुननकर दीटृना | | कंज पौहप कुरम चरणा कामा पिर नूपर प्रावली 1 रंभावरौ, सभाववौ, रमणी, राभवौ स. भे. -- मा. वेचनिका | , | 4 कनि रमगांण-मं० पु० [नं. गेमा-~+मायन| ग्रप्सराश्रों का गायन । 4 उ०-- तक नीसांणा गिरवांण हरग्बांगा ततन, र भात्तीज-सं. स्मी. [सं. रंभा त्रतीया] जष्ठ शुक्ला तृतीया । वितां सरसा संभगंर चात । र्‌. र चि. वि.-प्रताप जयन्ती भी इसी द्विन मनाई जानी है । (वी. वि.) रमा-सं. स्वरी. [से.] १ इन्द्रलोक की एक श्रप्मरा, जो नल कूवर की | रमापत, र मापति, र मापती-स. पू. [सं रभा~+पति] १ इन्द्र) स्त्री थी ग्रौर्‌ अरहठितीयमृदरीथी। यह्‌ केव्यप एवं प्राधा की (मर. मा.) पत्री थी। य्‌ २ करवेर पृ्र-नलवूवर ! “ उ०-१ नूकेसी उरवसी, चितेची मेना रंमा। र"माद्ध-देन्ो "र्भा ट्द्रलोक ग्रपद्यरा, इमी उगहारि श्रसंभा। । उ० ~ गढ्रमाक रमाम्‌" थाट्ध ग्रै । | ॥ 0. करमन मृद्धोठ भ्रूटाठ कद । --पा. प्र. उ०-२ हंसगमणएी, सब्व्यात पदमिखी, ग्राभं री वीज, । ४ न माद्व री श्राकास परी, मोत्यां सरी, सोना री कांव, किरत्यां रौ | श त [६ 91 (र गीं भूमकौ । इद्रलोक री श्रपद्धरा। स्प री रंभा) विराम री पूत्री। 2 + फुलवाड़ कुण पाव । ~ ॐ. काः, २ दृद्रलोक की परी, म्रप्सरा। (ना. मा.) र मौरू-वि. [सं. रंभा ~-उरः] कदली-त्रे् के तने के समान जेघावानी उ०--१ वाजिद तारा विमांण भाण तक ररह ्रचभा। सुन्दरी । तरार वदान्यं वरग च वरमान्या रमा । । उ ०-साधरव) डसी चाड मे सोती, प्रानन ग्र॑ंभौषू रमो रोती । | --र. ए --ऊ. का. उ०-२ श्रभमालः श्राप यि करि ग्रचडु, र मौ-देवो “रवौ (रू.भे.) वेप विहंडाय रमा वमह । 0 ग एवा स्थान प्र्‌ टिककर वो . पु.-वट्‌ साधु जा एके स्थान प्रर टिककर न रहताहौ 9 । रमनाजोगी । स्वच्छन्द रहने वाला साघ। उ०-नमौ ल्प नहा सवदा रसीली, नमी लच्छि रमा नमौ वीम म धक र त नं त न । उ०--र मतारांम एक रग रता, माया मोह वितं नहीं मता | तीन । नमौ मोही कमलम मृन् मूनी, उतिम माचसु लंदन थीरा, सो कहीं रा ४ नमो वोम धूतारणी संभ धूनी । ॥ ^ क शा --प्रनुभववांरा ५ मयदानव की षती व मंदोदी की माता । ` कः वता | रमाभ॑मा-देलो शरिमभिम' = (र. भ, 7 उ०-- र मामा, रमांभमा, शमा भंमां रम! उ०--घट भ देस्या एक प्रचा, प्रापौ श्रापी येन संमा । ठमका रमक क स्मकं मक्‌ । ~ रजःप्र. घट अ ग्बुत्हा केव नामा, वाचं साच ्रातम रामा र यणी, र यचौ--देषवौ "रणौ, रहयौ' (रू. भे.) -- ्रनुभेव वांणी | र"र कार-देवो “र्कार - (सू.भे.) ॥ र २६५८ उ०- हरिदास जन यू कहै, रर फार मूढ निज नमि । मूल मंत्र सतगुरू दिया, दुख मुख दीय दूर सराय । (> “^ (डि. को. कक रसं. पु. [सं. रः] १ पावक, ग्रग्नि, प्राग । २ काम पिपासा, कामामिनि। (एका.) ३ जलन । ४ गर्मी, ताप, श्रांचि । ५ प्रेम, स्नेह । ६ गति, वेग, चाले, रप़तार्‌ 1 ७ सोना, रवगां । रग करा संक्षिप्त स्पान्तर्‌ । वि ०-प्रखर, तीत्र, तेज । (सू. भे.) (जन) रग्र्यत-देग्वो ^रदयत' (रू. भे.) उ०-जिण॒ म श्राठ हजार सिरकार रा तवेदारनं दस हजार ४१ (पिगम्‌) रश्र-देखो ^रते' रश्रय्यत । --वां. दा. स्यात रद-१ देखो ^रड' (<. भे.) २ दैश्बो- ^रई' (र भे. ) ३ देग्वो ^रतिः (र<. भे.) रह", रद'शि-देखो ^श्यण' (रू. भे.) उ०--निरयियौ "मीम" मखे भट नारीय, देवता देवतां तरणौ डादरी। । विसन नर रहि री बाहु सूरति दि करतार नादौ --पी. ग्र. रइ-सं. पू-१ धैर्य, संतोप । उ०--सेवग स्टार "लखा -समोभ्रम, श्रविपति बीजां थया ग्रनूष । रष चिम करे ग्रचर्‌ नदि राव, रेवा नदी तणा गजरूप। --दगरदास वारहट २ देखो ^रति' (.मे.) उ०--जन्ह्‌ नरिदह्‌ केरी धुय, गंगानांमिरस्डसमन्त्य। उद्र नरवर सांमुहीय। -- सालिमद्र सूरि ३ देश्रो ^र' (रू.भे.) उ०--१ कोक पूरव भव संवंद्रयुरे, ग्राद्र मितल्यौ संजोग। भवितव्यता रह जोग मिलद् इस्या रे, वशियौ एम वियोग । --१. च. चौ. उ०--२ मया रद मेल करी रेल, सफल हव ्रवतार रे सनेही । --वि. बु. उ०--३ मारू व्रिहुं वरसं वडी, चंपा रह उणिहार सावुःमरी परगाविरयां, चानउ राजकुमार । ये ~ ~~~ ~~ ढो. मा. | रद्वास~दैलो ^रह्वास' रषटवापर उ०--४ उत्तर श्राजं सउत्तगछ, सीयपटेमी शट सोहागिण घर गश्रागग॒ढ, दोदाभिण रह्‌ घट । --द + प , ४ देग्बो र (रू. भे.) ५ देना ररह (म, भे) रदश्रत-देग्धरो 'रद्रयते' (र. भ.) रध्या-देन््ो ^स्यगा' (म. भे.) रदरणाहर देनो ^रत्नाकर्‌ । उ०--घगा श्रम्मि दुरिज्जण घटिय याद, रटणाहर वाध ओधि राट । जोचि मेवाट क्ाधियि जटाह। भंगवद्र दीघ मदर भट । । । --गा- ज. नी. रदणि-देमो “रयण' (स. भे.) उ०~-सा वादा प्री चित्तव, न्िगाभिग रयि विदा । तिमा हर हार परद्रव्य, ज्यू दीव वुभाद्र। --दटो. मा. रडन~-देग्यो ^र्यगा' (स. भे.) ॐ०--द्रग स्यामि वादरदेयि दावृरे रटेत रेस भरि रहन । चन मोर्‌ बोल्‌ पिच्छ डोलद, द्विरद म्यो पुनि नदन । 4 चं पि. यु, रदवारी-देग्वो "रयारी' (<. भे.) उ०--१ थां सूतां म्द चानिस्य, एह नितचिती हो । रदइनारी [ना चक 30 दोन कड, करहु श्राद्युंउ जोष 1 --टो. मा. उ०--२ राजडीडउ माथारत्र जे, नद कैव्हृगां रदइवारी वेउ । राउत भगी गया परि मुगी, वेगड मागद वामी ) वा 4.0: रदयत, रदयति-सं. स्य. [श्र. र्यत] प्रजा, रिश्राया, जनता । उ०--ग्रायौ भरथ श्रवव श्रभंग, मंड पावडी उतमंग 1 र्यत की श्रत उद्छरंग, रुम श्रावास जाय उमंग । --र. ₹, रू० भे ०-रग्रग्यत, रदग्रते, रर्द्यत, रएयत, रणेयत । रइवत्लह्‌-सं. पु. [सं. रतिवत्लभ] रति पति, कामदेव ! उ०-- नसो सिरि शूलि भद्‌ जो जुमह पहाणे । मलियउ जिणि जगि मल्तसल्ल रइवल्लह्‌ मां खौ । ---जिन पद्म सूरि (रू. भे.) \ दती ३६८६ रश्रोडी ता उ०-डिडर्वाणड पालटि धाइ दाद्‌ । रइवास राड । --रा. ज. सी. र्हण, रइटीण-वि. [सं. रति + हीन] जो रति-विदीन दो, कामेच्छा मे विरक्त दहो उ०--वत सुरी पाठ वलईइ जां नवि देख गंग । चउवीसं [वासं] रहइ जिमु रइहौीख [ग्रणंग] --सालिभद्र सूरि रईु-सं. स्वी.-१ दही विलोने को मयनी, मंथन-दण्ड । (डि. को.) उ०-१ श्रांरो चरुर श्रनुर्‌ नाग नेत्रं नहि, रात्ियौ जई मंदर रई। महण मये मू तीव महमहरा, तुम्हां किणो सीखव्या तद । -- वेति उ०--२ प्रंयीगिणि चीर रई कंरवस्ी, धर्‌ हट तार भमर गोघोख । दिरायर ऊगि एतसा दीवा, मोचियां वंध वंधियां मोख। - वेनि भूमी, चौकर ० भे०-रड, र्यी हि * ३ देखोश^त्रि (रूभे.) ४ देखो "रह (रू. भू.) र्ईय-देन्ो "रचित्त' (रू. भे.) उ०--सोवन ए रानि करेवि वंवव भ्रागलिड भिशंए्‌। मितह्‌ ए रद्य मणि चूड राय रह्‌ मभा रयरामएु। -सानिभन्र मूरि रर्ईयत-देगवो "रयत' (र. भे.) उ०-इसी जोर घानियौकं के जोर री महै वसिगा, कै जेतच्रमेरः री महिं वसिया । र्यत सरव गई] -र्नरसी रईवत-देखो "रवत (रः. भे.) रर्स-सं. पू. [श्र.] १ श्रमीर, घनवान, घनाद्त । उ०--नवसजी र काटजं में लाट ऊपडी-मेरी श्राज श्राः हानत जीवतादहीहुयगी ? केजंवार्ईही वरी वणग्यौ। पैः योग रईस श्र ह्वा रौ खायोदुौ कगौ कलीर्‌ । -दसरोख २ नाजुक, कनौमल । उ०--केर्द्‌दिनां सू पड़ा भावदहै। रईस किरणौ, चरा दिना तक रौकणौ वाजिव कोनीं । । --फुनवाड़ी | रएयत, रएेयत~देगयो '"रटयत रग्रोड़ी-ेो “रगो २ प्रतिष्ठित व्परक्ति) तीध कासिली ० वा "ष्ण गीधरीषिकिषीीं कएणीेशपीीशीिषधीशनि ४ रियासत का स्वामी, भुस्वामी, यास्क । ५ प्रव्यक्ष, प्रधान । 5० भे०-रहिस, रहीम । रउ-१ देखो ^र' (<. भे.) उ०--दादुर मोर्‌ करद्‌ ग्रति सोर, प्रीयुप्रीयु वोल्‌ ए व्रप्पीउ रउ । मेह॒रउ टवफड़ वियुरी कवक्रइ, कहउ क्यु करि ठ्ठर रहड हियरड । $इ स्‌. वुः. २्देखोप^्रौ' (ू.भे.) उ०--त्रीजड पुहरि उलांपियउ, ्रादवढा रउ धट । -टो. मा. रउतारई-देवो ^रावताई' (रू. भे.) रउद, रउ्टु-देनो “द्र (रू. भे.) उ० --चांपलउ तुरी दीपक्क चंक्ख, नाटारंभि नाचड्‌ खत नक्ख । साफरा खट्ग वाहा मुह्‌, रिशि किन चडिय भाजा रउ । --ग. ज. गी. रउद्व-१ देयो "रौद्र (र. भे.) २ देवो ^ (रू. भे.) रउद्र-१ देमो प्रद्र (ू.भे.) उ०-नीमांणा वाजि नरगा नकेरि, रद्र गति उउ'डि भरहर भेरि । मम््राडि सेन दानिया मस्त, माट्यर जांणि फाटा सपत्त । --रा. ज. मी. भ २ देवो कद्र (रू. भे.) उ०-- माड रद राइ मृह्िमूद मोडि, केद्टशि कटक्क तांणिया कोटि । कास्ट कलुछि जाग. काजि, रउद्रां दद तांशिय देवराजि । -रा. ज. सी, रउदि-१ देग्नो "मद्र (रू. भे.) उ० ~ रीखाइ रोड़ि वाजा रउद्वि, मेखष्ा जांसि मल्टी समद्र । मोटा गढ जीपिय हे मत्त, छह खंड स्िडदट्‌ सिरि सेड छतत । --रा. ज, सी. २ देग्बो श्रीद्र (रू. भे.) उ०--गहगहिय थाट वेऊ मरीठ, राठ्द्ि रउद्रि वाजियड रीठ । मूरा सधीर वाज सरोस, पटिकाक्र ऊडड जिर्ह पोस । -रा. ज. मी. (रू. भे.) (ग्रल्पा. €. भे.) .,,_____ _ -----_-_-_-_--~_--_-___-~~~~~~-~-_~~~~_~_~~~~~~_ ए ॥ ५ । + ~ @ भ रश्रीड रश्रोञ्चै-दे्वो "रसोडी' (रू. भे.) रफतंवर~सं. पु. [सं. रक्त~+-ग्रंवर] १ लाल रग कावस्त्र। २ गेरूभ्रा वस्त धारी संन्यारी या परिव्राजक | ३ सूयं, रवि । उ०-सिविता रवि सूर पतंग सही। रकतंवर श्रंवर ज्योत रही । --पा. प्र. रू०° भे०~-रातवर, (रू. भे.) (ना. मा.) उ०--रूड रक्त भारिया, मूड भासि खडगगां। कितां गरंग निरलंम, भडं भड प्ण करग्गां । रकत-१ देयो “रक्त --रा. मः २ देखो ^र्वत' (रू. भे.) रकतकद-सं. पु. [सं. रक्त ~-कन्दः| १ प्रवाल, मूगा। (ड, को.) २ लाल चंदन । ३ फेसर । रकतवीज-देखो ^ क्तवीज' (रू. भे.) उ०--दांनव महि रकतवीजादिक, मार लिया महमाई । --मे.म. ररतांक, रकतांग-देखो 'रक्तांग' (रू. भे.) (डि. को.) रकयौ-सं. पु. [म्र रकवः| क्षेत्रफल । रफम-से. स्वरी. [श्र. रकम] १ घन, दौलत, सम्पत्ति । । २ गहने, श्राभूपण । | उ०--दे गजराज तुरंग दरव, तोरा स्पत वसन्न। मूगत्तमाट रारपेच नग, रकमां सात रतन्न । --रा. छ ३ व्यापार मे लगा जने व्राली पूजी। उ०--श्रापर साथे म्हारे ई कमाई रौ जोग सज जा्व॑तौ कां भूडौ। भ्रापि सात हजार रिपियालगाय दी, चाकी री सगटी रकम री निम्मी म्रौ) ध एलवाड़ी ४ रुपया, पैसा । ५ धन कौ एक निदिचत मात्रा) ६ लगान, राजस्व कर । उ०--पेमनी वेडो च्योड़ं राज री रकमं रां ग्रायोड़ा ढाई हजार रिपियां री थनी भरियोड़ी मेल दी, दलाल-देवता र श्रा वगा नांखी श्रर्‌ कंयी कीं वत्ताले जावी सा। --दमदोग न्धिम च २६६० 416 ७ ग्रामदनी, म्राय | ८ छाप, महर्‌ । € लिमावट। १९ चलता-पूर्ज व्यक्ति, धूत, पागयण्डी । ० भेऽ~-रक्कम । मह. स. भे.-रकमांग । (लाक्रणियः) रकमांणा-देलो ^रकम' (मह. ८. भे.) उ०-जार भया मिध जम नासा, रट गर्दुतेरं स्कमांसा। निर परि सांग श्रौर का धारी, श्रपना माहिव गयौ विमारी 1 --ग्रनुनववांसी रपन-सं. पु--नियम, प्रथा, सामि, दन्तुर ! रकाय-र.स्मी. [फा.] १ ऊदटय्ा घोट की जीन का प्रविदान, पाग | उ०- नर्‌ डीर्‌ उनंग हनरुर्‌ किय । दर्‌वेमिय पाव रक्व दिय । ---रा. ईः ० भे०~रकाव, रके, रकेयी, र्तेतर । २ देनो “नायी (म. | रकावदार-सं. पू. [फा.] १ मिराई त्रनाने वाला कारीगर, टेतवाई 1 २ रकावियों मे खाना सजाने वाला, म्वानसामा । ३ किसी वददाहुया र्न के साय ग्ताना तेकर चनने वाला सौकर्‌ । रकाव पकड कर धोद पर्‌ चदान वाला रार्रप्त । रकावी-सं. स्त्री. [फा.] १ तस्तरी, प्ते । २ कटोरदान का ढक्कन । <° भे०~रकाव, रकेव, रकेवी | रकार-सं. पु. [सं.] १ ^र' वणं का बोधक श्रन्नर, र्‌ । ५ रांम नाम का पूर्वाक्षे । उ०--मनी मन मांह रकार मकार, लगा वकवः धूननकी ललकार ! --ऊ. का. २ छन्द शास्त्रे रगा नागक गणा कां संक्षिप्त रूप) -- पि, प्र. रकाव~देग्यो ^र्कावः (<. भे.) उ०--दण भांति तीसरा पोहोर वागां भ्रमल कीधा, श्रांखां रा गोख छांटि पाधां रा पेच जीवा । घोडां रा उवट तांणि रकायां पाव धारिय । --पनां रकेय [1 रकेव-१ देखो ^रकाव' (रू. भे.) उ०--सिलह पुर करि सूर, सस्व कसि पकड सावठे । पांव रकेवां परठि, वहसि चटिया ग्रतुरीव्रट । -सू.प्र. २ देखो 'स्तावीः (र. भे.) रकेवी-१ देखो "रकरावी' (सू. भे.) उ०-ताहरां पहिली जांणियौ कोई राज दिसा का रसणीजी दिसा समाचार च्रायौ । इम जारि अरर स्केयी हाथार्नयिदी। --द. वि. २ देग्बो “न्कावः (<. भे.) उ०-२ चटियौ मद्धर चह, रोप राम रकेव र । भो भंग पदेह्‌, निव नाटा रभ सूर्‌ उत' --गु. र. व. उ० -२ के रारे ऊवरा दके वञराज ह्रे्री । श्राम्टतां उत्तंग ग्रेग जुगि ल्ग रकेयी । ---रा. म. रक्कम-दवो "रकम (रू. भे.) +, उन्-तोरा सपत दृठ, म्र जवहर्‌ वर्‌ रक्कम । --रा. स. रव्केव-१ देनो ^र्काय' (स. भे.) उ०्-चई सेन चतुरंग गै मह्‌ कादौ न्द रम रक्फेव दे साहिजादौ । रकरा-वि.-रन्वने वाला । उ०--मिदि स्त्री पर्यान ्म, विवि दकं विच्चार । जठ रक्छण गढ जोवपृर्‌, फे र्क्व जोधार । गर. ट. व. २ देग्वो शरन्नग' (रू. भे.) रक्वरणी-देखो “रखेखौ' (स. भे.) उ०्-सांमरथ ममीवण रक राखं सस्णा, तसां ग्रापणा सदत तंक तेहा रजवद्रु रक्खरणा । ~र 0.9. (सू. भे.) ०-- १ किल्ते रक्लणहार नहि, राज भ्मली' श्रनभंग 1 रनालय' धद्ियौ, तुज्जि भरोस जंग । रक्टा, रक्डयौ-१ देखो (रवण, रायवौ' उ म --ला. रा. उ० --२ श्रायां वरम चहीतरं, सावसा सांव पवत । प्रायी धर मारू श्रजी, गुज्जर श्राणा रद्ख। 1, ३६६९ रर्पस्ती कानानानि उ०-३ पास्भ करण श्रारभ मे, लियण चंभ सोरभ-जस। रखपाठ मंडोवर्‌ राखिया, भरु दे रक्खं ग्रस । --गू- रू. व. उ० --४ कल्ह्‌ तुदा पित्र सौ, 'ग्रजमाल' उपंदा । जंदा रक्ंदा स्न, राजसा रशिंदा । रज्ज डिगंदा रिया प्र॑ब~-नयसर्दा, दिल्रुउमंदा श्रभ॑' दिह, तू खाट तिन्हदा । -- स्‌. प्र. उ०--५ कियो प्रभ नरप कूरमां, पावां नियौ वचाय) प्रभू परोन्वत रक्वियौ, जेम जतौ लाय । रा. स्त २ देखो 'र्वणौ, रस्ववौ' (र. भे.) रक्वणहार, दारौ (हारी), रक्खशियौ --चि, रविन्वग्रोट्ी, र्विखयोड्ी, रक्मयोडौ भु. का. कर. रकीजखौ, रक्वीजवी --कम वा. । रक्ठपाव्ट-देमो 'रक्नपात' (रू. भे.) उ०--रिगामल्ये धरा शुद्ध रक्ठपाद्ठ। गदकिगरं माद गोत्र गोवा । --रा. ज. गी. रक्ववाठौ-देगपे (वार (र. भे.) उ०--ट्रि गयग रल्थं तां हस्थं वाचि कच्थं वैशियं। वाजै सचाद्टौ कू भवाण्छौ, रक्छवाटरौ रंगायं । --रा. रू रक्परस-देग्वो “राक्षस' (रू. भे.) उ०---चिज्जि कल्य रे जनक तुव्य यद । मजव टोह रक्खस म्रप वीमद्ध --वं. भा. रक्यसी-स. स्त्री.-१ एक प्रकार की लिपि । उ०--हंम तिवी, भूय ल्िवी जक्वा तह रक्सीहु वोधव्या | उट्री जवि तुरक्की करी दविडी य क्िववियो | ~व. स. २ देग्बो ^राक्षप्र' (स्त्री. ) रक्वियोडी-१ देग्वौ 'राखियोडौ) (रू. भे.) २ देग्यो ^रचियोडी' (<. भे.) (स्च्री. रविग्वयोडी) रक्वी-१ देषो “रवी! (रू. भे.) उ०-तीनू जा मोच ग्रर काप कर्ता जावता हा कै सारम मे एक डोकरियौ घकियी ' वोन्धी पाग, योधी ई प्ंगरवी म्रर ठकरदिया घोती । वो ई चत । घाटी छग पिमे } चरूदतौ सेलर । खावें रक्खी टिर । हाथ में चिटिरौ। --फुनवडी रपा २ देखो रिति! (रू. भे.) रक्त (रक्त)-सं. पु. [सं. रक्त , रक्तः] १ जीव-जन्तुश्रो श्रौर प्राशियोौ के थरीर की नाडयो में वहने वाल्ालाल रंगका तरल पदाथ, घ्रून, लहु, सुषिर, दोित । उ०-- दैवी राखसं घोम रे रक्त रूती, देवी दरज्जटा विक्कटा जम्मदूती । देवी. २ लाल रंग। ३ केमर। ८ सिन्दूर । ५ लाल चदन) ६ वुःसुम) ७ श्रांवलि का पका हुग्रा फल) ८ कपत 1 & पुप्प, फूल १० ताश्र, तावा) ११ पतंग नामक वक्ष को कड़ी, १२ एक प्रकारका वेत । १३ एक म्ली वि्रेप | १४ एक जहरीला मेदक विगेप । १५ एक व्रिच्छरु विशेष । १६ प्रवाल । वि०~[सं. रक्त] १ रंगाहृश्रा, रंगीन) २ लाल रंग का, लाल, सुखं । ३ जिसका रंजन हरा हौ । ४ भ्रनुरक्त, श्रागक्त । ५ त्रिय, प्यारा, मारक । ६ मृन्दर, मनोन्न, मनोहर । ७ क्रीडा-ग्रिय, निलाड़ी | ८ दद्ध, म्बच्छ, स्पष्ट । ० भे ०--रकत, रगत, रगतर, रगति, रगत्त, रगत्तर, रगत, रणत रक्त, रत्र ) रक्तकट-~सं. प. [मं. रक्त-कण्टिन्‌] १ कोयन | २ येंगन) वि०-मधुर कण्ट चाना । (नां. मा.) रक्तफमटठ-सं, पु. [स.रक्त-{कमनः] लानरंगकरा कण्ल । ख. भे. -- रगत कमल, रक्तकास्ट-मं. पु. [से. रक्त-काष्ट] १ पतंग की नकदी | २ नान चदन । म्भ. --रगतकाम्य, ३६६२९ #ायकााणककगक क्क "ग्रिण मण मो मा भा-क क ग्क्पद् रक्तङस्ठ-सं. पु. [सं. रक्त-कऽ5] एकं प्रकार का रोगं जिस्म सारे एरीर मे जलन होती है । कभी कभी कुष्ठ कौ भांति गरीर गलने सगता है । विसप रोग । रू. भे. रक्तगभ-सं. स्त्री [सं. रक्तगर्भा] मेहदी । रक्तगरुल्म-सं-पु. [सं०| एक रोग जिससे गभादाय मे रक्त की गांठ यंव जाती है। --रगतकुमस्ट, रगतकोट । रू. भे. ---रगतगरल रक्तग्रीव-सं. पु. [सं.| १ कन्रूतर, २ राक्षस । रक्तचंचु-सं. पु. [सं-] तोता, शुक । ० भे ०--रगतचंचु, रगतचू च । रक्तचेदन-सं. पु. [सं.] लाल रंगका चदन) (ग्रमृत) <° भे ०--रगतचंदन, रतचंदणा, रतचंदन । रक्तता-सं. स्वी. (सं.| १ लालने की ग्रवस्था या भाव) २ लालिमा, लाई, सुर्खी । रक्तवु उ-सं. पु. [सं. रक्त तुडः] तोता, सुगमा । ० भे ° -- रगततु ड + + * हि ७ 1.2 4 ४ $ ग्री रक्तदता, रक्तद॑त्ता, रक्तदतिका-सं. स्वी. [सं. रक्त देता] युभग्रौर निशुभको खानैके लिये धारण कयि मये दुर्गाकेसूप का नमि, चडिका। उ०--दजं दिनं कंवर ती पटली मुरथपुर जाइ रक्तदंता रौ पूजन कीवौ । तं. भा 5० भे °--रगतदंता, रगतदंत्तिका, रगतदंती । रक्तधरा-सं. स्त्री. [सं.] स्क्तको धारणा करने वाती माग के भीतर की दूसरी कलाया शिल्ती। (वेके) रू० भेऽ--रगतधरा । रक्तनायक-सं. पू.-एक श्राभूपण्‌ विशेष । उ०---मध्यनायके क्रस्णनायक्र नीलनायक पीतनायक स्वेतनायक रक्तनयक व्रत्तनायक'" "` "इति म्राभरणानि । --त्‌, स्‌. रक्तनत्र-सं. पु.-१ कोयल, २ चकोर । ३ कवूतर, ४ सारस पक्षी| ८० भेऽ--रगतर्तत्र। रक्तपक्ष! रक्तपख-सं. पु. [सं रक्त पक्षः] गरुड । ० भेऽ --रगतपक्ष, रगत्तपश्च, रगतपांख । रक्तपात~-सं. धर. |सं.]| १ भयंकर मारकाट की दला । चुनी भगड्ा । २ सुन भिरनेकारोगया दया । प । रतपिड ..__--- ~. .---------------~----~------~---------------~--~------~------~----~----------- ~ --- --- ------------------- ~~ ₹० भे०--रगतपात रक्तपिड-सं. पु. [से.] प्रपनेही रक्तकै बनाए हए भरूलि पिड, जो यद्ध मे घायल होकर पडा हुश्रा वीर, ग्रपने पितरो को पिट दान केरने के लिए वनात्ता है । रू० भे०--रतपंड, रतपिड । रक्तपित, रक्तपित्त-सं. पु. [से. रक्तपित्त] १ एक प्रकारका रोगजो पित्त के कूपित होने से होता दै । इसमें मख, नाक, गुदा, योनि ग्रादि इन्द्र्यो से बून गिरने लगता हं । उ०--रक्तवात भस्मवाते, उस्णवात अग्तिवात नोद्वात लूुतिवात ेरखावात श्रामवात सोफवात विगंदयावात, कफवत्त साकिनीवात्त रक्तपित्त श्रम्लपित्त राजिकापित्त । --व. म. ० भे ०--रगतपित्त, रगनपित्त । रक्तपित्ती-ं. पु. [स. रक्तपित्त] रक्तपित्त का रोग । =° भे०-रगत्तपिति, रगत पित्त । रक्तप्रदर-सं. पु. [सं.] स्रियो के प्रदर रोग का एक भेद जितस्मे योनि » द्रारसे रक्त गिरता! ~» <० भे०--रगतप्रदर । र्तप्रमेह-सं. पु- [सं.] पुष्पो का एक रोग जिसके कारण पुरुप का पेशाव शुनके रंग का, यदबूदार व गरम प्राता दै। <° भे०--रगतप्रमट्‌ । रक्तवीज-सं. धु- [सं.] १ एकम्रचुर जो युभ-निद्युभे का सेनापति था । उ०--मूड चंड मरिसानुरमारे,सुभं निमुभ नकल संहार । जनमे चक्तवीम तन ज्यों ज्यो तं निरवीज क्ियंहनि यों त्यौ। -मे.म. चि. वि.-द्रसके सम्बन्ध मे णमा कटा जाता है किः उसके रक्त की प्रत्येक व्रूदजो धरती पर्‌ गिरती थी उससे एक राक्षस की उत्पत्ति होती यी । दुर्गाने इसके रक्तका गोप कर टसका विना किया! २ श्रनार, दाड्मि । | ० भे ०--रकरतवीज, रक्तवीज, रगतवीज, रगतवीज, रनमीज । रक्तमेरठ-स. पु. [सं. रक्तमंटल] एकः प्रकार्‌ का साप । 5० भे ०-रगतमंडठ । रक्तमोचन-सं. पु. [सं] यरीरसे रक्त का मोचन, निवारण रू० भे ०--रगतमोचन निवारण । रक्तलोचन-देखो “क्तनैत्र' | ३६९३ ~ रषतातिसार रक्तवरण-सं. धु. [स. रक्तवण] वीर वहूटी नामक लाल रंग का कीड़ा । <° भे०-रगतवरण रक्तवात-स. पृ, [सं] एक प्रकार फा रोग) उ०--प्रध रोगाः कास स्वाम, ज्वर भेगंदर्‌ गूत्म वात गट्लवात रक्तवात भेस्मवात उष्णवात म्रग्िवात तोहुवात --व. स. रक्तविदु-सं. पु. [सं.] १ किसी रत्न मे दिखाई देनेवाला एक प्रकार कालाले दाग । (दोप) २चुनकीब्रूद। ० भेऽ--रगतविदु। रक्तयीज-देखौ "रक्तयीज' (रू.भे.) रक्तव्रस्टि-म. स्त्री. [सं. रवतवृषि | रगके पानी की वर्षा । ` स० भे०-रगतग्ररिट । ग्रासमान मेदहौने वानी लान रक्तस्राव-स पु. [सं] १ रक्त का वहूना, रव्त-पतन। २-घोड़ांका एक रोग जिसमेषोटकीप्रांवोंसे रवत के समान लात र्गका पानी गिरने लगता दहै । =८० भे०--रगतसराव, रक्ताग-स. पू. [सं.] १ केसर । २ लानं चंदन । ३ भगत प्रहु । ८ धृतरा कृलोतत्न एक नाग जो जन्मेजय के सपं मत्रमें दगध टु ५ प्रवाल, मूगा। रू° भे ०-रकतांक, रकतांग, रेगतांग । रक्ता-प.स्त्री. [सं.] १ स्ंगीतमें पंचमस्वरकौ चार श्रुतियोमेमे दूसरी श्रुति । २ गजा का पीवा । ३ ला । ० भे०~रगत्ता । रक्ताकार-मं. पु. [सं.] मूगा, प्रवाल । रू० भे०-रगताकार्‌ । रक्ताचदछ-सं. पर. [सं, रक्ताचल ] उदियाचल पर्वत ) रक्तातिसार-सं. षु. [सं.] एक प्रकार का श्रतिसार (रोग) जिसमें पुन की दस्त लगती दों । ० भेऽ~रगतातिसार । रक्तीदपट ३६६४ रक्षत ___(-_- _ _-------------------------------------_ रक्तोत्पद्-सं. पू. सं. रक्तोत्पल | लाल र्ग का कमल । 5० भे०~-रगतोत्पठ । रक्ष, रक्स-सं. पु. [सं रक्ष] १ वचाव, रा, हिफाजत । २ रखवाली, चौकीदारी, चौकसी । ३ प्रासन, गासन । ४ छप्पय छन्द का साठवां भेद जिसमें ११ गुरू ग्रीर १३० लघु मात्राए' होती है । मतान्तरसे ११ गुरू एवं १२६ लघुं मात्राए भी मानी जातीर्है। इसका दूसरा नाम मनह्रभी है। ५ देवता । उ०--गुह्यक यक्ष रक्ष गंवरवह्‌, सिद्धे पिसाच भजत तव सरवह्‌ । --मे. म. वि.-१ रक्षा करने वाला, रक्षक । २ रश्ववाला, चौकीदार । । <° भे०~रयख, रच्छ । रक्षक-वि. [सं.] १ रक्षा करने वाला, वचाने वाला 1 उ०-करुणानिधांन कस्णामय नित निसकांमी। इस ग्रारय्यावरत्त को रक्षक ग्र॑तरयामी । --ॐ. का, २ पालन-पोपणा करने वाला । ३ चीकसी करने वाला । मं. पु.~चौकीदार, पहरेदार । =° भे ०-रच्क, रच्छिक, रद्यक । रक्षण-सं. पु.-१ रक्नाया हिफाजत करने की क्रियाया भाव । २ र्ना, हिफाजत । २३ सहारा, श्रासरा ४ पालन-पोपणा । वि.-रक्षा करने वाला, वचाने वाना । म्ूट० भे०-रवत्रण, रस्या । रक्षणकरता-वि. [सं. रक्षण ~+-कन्तं ] र्ना करने वाला, रक्षक । रक्षपाठ-सं. पु. [मं. रक्षपाल] १ जिसका काम रक्षा करना हो, रधक । २ चौकोदार्‌ । 5० भे ०~रक्खपाठ, रलपाठर, रद्पाढ + रक्षफठ-स. पू. [सं.] वेदट़ा । रू. भे.-रखफठ रक्षस-देगमो "सामः (सू. भे.) रक्षाम. स्त्री. [सं.] १ व्ह कायं या प्रयत्न जिसमे श्राघात, प्राक्रमरा, विनादा, मृद्यु श्रादिसे किमी का वचावं होता हौ । यचाव ग्राहिफाजतके लिये किया जाने वाला प्रयास, रक्षणा, मृरश्ना। उ०--१ जिण रविसू' रक्षा जग जांणी, परस ग्र॑स वंस प्रगर्टाणो जगमें वंस उग्र गुण जोई, क्रत रवि वंस समौ नह कोर । --ण' ३ उ०--२ श्रसनिकुमार्‌ श्रगनि वन श्राखी, देवनाथ महि वांमण॒ दाखौ। समंद प्रजापति श्रादि सुरेसर, क्म॑वां घरी तणी रक्षा कर । --रा. ह. २ सहारा, प्रास्तरा, गस्ण । ३ देख~-रेख, निगरानी । ४ गोद । ५ वच्चो को रोग, भूत-प्रेत, नजर प्रादि से वचाने के लिये वांता जाने वाला मन्व, सूत्र, तावीज, कंचच । ६ राग्बी का वंधन। ७ भस्म । ॥ रू० भे०-रच्छया, रच्छया, रच्छा, रद्िया । रक्षाप्रदीप-सं. पु. [सं.] भूत प्रेत या श्रन्य वाधा सेरक्नाके लिये जलाया जाने वाला दीपक (तंत्र) रक्षाब॑धन-सं. पु. [सं. रसा वंधनम्‌ {१ श्रावण शुक्ला पूणिमा क दिन मनाया जाने वाला हिन्दुश्रों का एक त्यीहार्‌ । इस दिन सभी वहने श्रपने भाव्यो के हाथोंमं राखी वांधतीर्ह। २ उक्त दिवस को वांधी जानि वाली राखी । रक्षाभरूसण-सं. पु. [सं. रक्नाभरपणम्‌] भूत प्रेत श्रादिसे रक्षाथं वाधा जाने वाला यनव, भरपण । रक्षामंगटठ-सं. पु. [सं. रक्नामंगलः] एक प्रकार का प्रनुष्ठान जो भूत-प्रेत, रोगादि के श्रनिष्ट से वचने के लिये किया जातादै। रक्षामण, रक्षामखि, रक्षामि-सं. स्री. [सं. रक्नामणिः] किसी ग्रह्‌ के प्रकोप से वचाव के लिये पहूनी जाने वाली कौर मसिया रत्न | रक्षारांम-देमो (रामरा (रू. भे.) उ०--त्रह्मा कवच पंजर विसनु, रक्षारांम वचाय । ईस तणौ वठ्‌ ऊखिया, प्रव्रर सीम लगायं । ---रा. रू रक्नावत-वि.-रभक, सहायक । रक्षित-वि--१ जिसकी रक्ना करली गरहौ । जौ खतरेमे वाह्रदहो। २ पालित, पोपित, प्रति पालित । ३ रववाली किया हुभ्रा, संरक्षण में तिया टुभ्रा | ४८ संभाला हृश्रा, व्यवस्थित किया हभ्रा | । ५ किमी काये विदोप या व्यक्ति विप के लिये निदिचित कनै रवखा हूश्रा ) (86561५66) ६ संचित । . रू० भे०-रग्विते, रचित । रख-१ देखो †रिसि' (रू. भे.) उ०--१ सुज दुर्लभ रखां वट सिधा साघकां, जोगीराजां दुलभ जग । --वा. दा. उ०--२ जतं एक तौ दद्रायणी नं श्रपच (द) रावकूष्सू ग्रायन रां नं जीमाड नै ग्यान चर्चा सुरान दहं वत वैकुढ जाती} --मयारांम दर्जी री वात २ देखो “रिव (रू. भे.) उ०--१ सुवन सौन सादृ, भूल वनचरं विचारं । जिसो चंद जम चेद, वीजं रख ब्रदस्माठं । --रा. म्ह रखडणौ, रखद्वौ-क्रि. भ.-उयर-उघर, मारा-मारा फिरना । रखडो-१ देषो "गाखड़ीः (दू. भे.) + सो = उ०-१ वीराम्हार माधा नं महमद ताज्या, म्हारी रखडी वंठ घडाज्यौ जी, म्हारं रिमक िमक भाती श्राज्यौ । -लो. गी. उ०--२ माथाने मंमद वनंडी प्रत्यौ ये हां ये वनी, रखडी की प्रविकः वहार, वनडी नै माव उहर्‌ को वजिसी। सो. गी. , २ देखो '्राी' (ग्रत्पा. सू. भे.) रख ए देखो (रक्रा (रू. भे.) रखणग्रातप-सं- प. [सं. श्रातप रक्षण | सूर्य, रवि । (नां. मा.) रयणी-सं. स्मी.-१ रण्नेकी क्रियाया भाव] २ रग्नेका दंग | रवरणौ-वि--१ रधा करने वाला ! २ रखने वाना । ० भे ०--रक्खौ । रख, रखवौ-देम्नो शखणौ, रा्षवौ' (स. भे.) उ०--{ रजनी सजनी महरी, तु रिज जुग चियारि । दिणएयर दीसतु रख, नीसत नयर्णां-वारि । । , -मा. का.प्र. रखगृहार, हारौ (हारी), रखरियौ -वि.] रखिग्रोड़ा, रवियोड्धी, र्यौ । --भर. का. कृ, । रखीजणौ, रग्वीजव्रौ । कर्म वा. । २६६५ "णी णौ क 7 1 र्खव रखत-सं. पु. [सं. व्यं] १ वन, द्रव्य । (ग्र. मा.) उ०--१ चालुक्य रौ रवत रहियौ जिकौ सौ समस्तदहीरका र्‌ कनं लुटवाय लीधौ 1 --वं. भा. उ०-२ सह्‌ र्खत तश्त सहेत, लूटे घछत्र निया । दित्तेस निजर दुफाठ महपति मेलिया । --सू. प्र. २ श्राभूपर, गहना, जेवर । उत्तराधिकार मे मिनी हूर सम्पत्ति । सामान 1 | स्वेण, सोना । : मोती । (ना. मा.) म. ऋक्षः] ७ नक्षत्र, तारा 1 [ सं. रक्षित] = रक्िन व्यक्ति । ६ रक्षिते भूमि) [सं. र्णं] १० र्ना, १९ रखचाली । १२ पालन-पोपगा । १३ परहेज । उ०-काया रत तपस्या कीर्ज, दान वर्तं धने सार दीजै, --व. च. ग्र. ४ 1 ४ - ० भे ऽ-रकत, रिकथ, रवत्त, र्वि । रखतत-वि.-रा करने वाला, रक्षक । रखत्त-देखो “रचत (₹. भे.) उ०-- प्रवीरा ककिरीस पौन, गज्जरा ज नौग्रही। हिमंकारं रखत्त टेस्त, भेद जांणि सोभदी । ˆ -म्‌. प्र. रखषष्ध-रेयो !रक्षपाठ' (रू. भे) उ०--"करन' तेजक्' कुटढट-कटाधारी नवे कोट । श्टराउत' सागवारी रेणा रपे ] --्नगासी रखफट-दे्यो “रक्षफः (र. भे.) (श्र. मा.) रखम-देखो "रिसभ' (रू, भे.) (ह्‌. नां. मा.) रखमंडव्ट-देखो "रिखमंड८' (रूऽभेऽ) रखव-देखो ररिसभः (रू. भे.) उ०-- रवर वा्जत्रू कामेदि दिखायसो कंसे खडज रखव मंधार मवम पंचम र्डूवंत निखाख सप्तसुरके श्रलाप करि कोकिल की वांसी से वोलतं ह| --सू. प्र. रखवाई रखवारई-सं. स्वी-१ रखने की क्रिया या भाव । २ रखने को मञदूरी । ३ देखो (रवाः (रू. भे.) रवाणी, रखवाबौ-देखो ^रवाणौ, रघार्व" (रू. भे.) ` रखवारू, रखवारौ-वि०--१ रा करने वाला । २ चौकसी करने वाला, चौकीदारी करने वाला । उ०--ग्वडग वंध नर खड़ा रहै, पौरं रखवारू । --पा. प्र. रखवाढ) रखवाल, रखवाद्रक, रखवालक-~देखो ^सुवाटछौ' (रू. भे.) उ०--१ एहबु भ्रायस लहड प्रधान, उदलपुरि ऊतारउांन । सरिसा एक सहस भाथाठ, राजडी मेच्हिड रखवाठ । --कां. दे. प्र. उ०-२ एहि भ्र॑तरि चीत वीनि वदिन (ल) भूपाल । मंदिर मांहां मि किम जवाइ हारि वहू र्खवाल । --नदास्यान उ०-३ साभलि वाचा मुभ भूपाल, दणि व्रणि भ्रछड' श्रम्हि रखवाल । --सालिभद्र सूरि रखवाद्ण, रखवालण-१ देखो ^रूवालोौ' (रू. भे.) उ०-इ कारणा “चांदय' हूत ्रखौ । रखवालण टेव्रोय कोट रखी । २ देखो "रखवाद्टी' (रू. भे,) उ०--रखवाटण रा चार भाई श्र उणरी बूढौ वापि धुराधुर दौडता प्राया 1 वाई तौ जवरौ ऊघौ कामि करियौ। प 1 --फुलवाड़ी रखवाठ्णी, रखवाठ्वौ-देखो 'रुखाट्णौ, रुखाठ्वौः (रू. भे.) उ०-१ तिण॒ मारी ताडका जिकण रिख मख रवादं । हण सुवाह्‌ मारीच पेज खित्रवट धम प्राठं । --र. ज. प्र. उ०-२ जो रखवाद्त जगत मै भाड़ जंवक मूढ । तौ करता त्रिभूवण॒ तणा, सिरजत नह्‌ सादु । वां. दा. उ०--३ महल कवा रखवालस्ये जी, कवण करसी सार । एकण जाया वाहिरो जी, सूनौ सहु संसार । ` -जयर्वांणी रखवाटठण हार, हारौ (हारी), रखवाटरियौ वि. । गव्रवाछिग्रोड़ी, रखवाच्ियोड, रखव्राछ्योड़ --भू. का. फू. रखवाटछीजरौ, रखवारीजवौ --कमं वा. ¦ रखवाटी-सं. स्व्री.-१ रक्षा, हिफाजत, वचाव । उ०-१ राज म्हारी रखवाठी करण दारदो तौ रक्षा करी । --पचदंडी री वारता ३६६६ रष्ाणौ ने क 0 न 9 09 धाः भ आ म क अग भमो नीम नमन २ निगरानी, चौकसी, चौीकीदारी । उ०-- लोही सीच्यी लीती राखी, म्ह मोती निपजाया । पाक्या जद तक की रलवाद्छी करमां ने संमलाया । --चेतमानम ३ निरीक्षा, देखरेख । ४ रववाली करने कौ मजदूरी | ५ निगरानी का काय । वि० स्त्रीऽ-रक्षा करने वाली, निगरानी करने वात्ती। ० भे०-रवाट्णा रखवाट्‌,, रखवाढठछ. , रखवाछी-देषो “मग्ाटौ' (^. भे.) उ०-- १ तहां राजा कटश लाग्यौ श्रवति री रखवढठी द । साजा री रवा द । --पचदडी री वारता उ ०-२ टढ रखवादौ सानं इनायत! | श्राशतन्वां ्रजमेर सिहायत । रखस-देखो ^राक्षम' (रू. भे.) रखांराज-देवो !रिसिराज' (र<. भे.) उ०--खरले सिद्धां ताच्ियां रु नचं वीर बेठा । रच गांन चाथ्ियां धूप रा रखांराज। न. --दुरगादत्त वारहट रवाई-सं स्वी-१ रज्वने कौ क्रियाया भावं । २ हिफाजत, रक्षा) ३ निगरानी, चोकसी । ४ उक्त कायं का पारिश्रमिक । | रखारी, रलावौ-क्रि. स. ('रख्णौ या राखणौ' क्रिया का प्रं. ₹.) १ किसी प्राधारया तल षर कि्षी वस्तुको रवाना, वरवाना, टिकवाना । रखने के लिए प्रेरित करना | २ नष्टहोने या विगड़ने से वचाव कराना । ३ रक्षा कराना, वचाने के लिए प्रेरित करना 1 ४ पालन कराना, पौपण कराना । ५ एकत्र, इक्दट्रा या संग्रहीत कराना) ६ युपूदं कराना । ७ श्रविकार में कराना, कन्जे मे कराना, श्रधीने कराना । ८ नियुक्त कराना 1 ६ सुकवाना । १० पकडताना | । ~ ११ चोट कराना) १२ वारगा कराना । १३ श्रारोपित कराना, ग्राक्षेप कराना | १४ लदवाना । |, रखायोडं २६६५७ रखे [र १५ कोई विपय विचा सार्थं प्रस्तुत करवाना, सामने रग्ववाना । १६ श्रावासकीद्रष्टिसे कफिसीको कहीं उहूरवाना, ठहराने की व्यवस्था कराना 1 १७ गहने या वस्तु गिरवी र्ग्यवाना, रहन धरवाना । १८ रखवाली, निगरानी या देखरेख कराना । १६ सामाजिक या पारिवारिक सम्बन्ध वनवाना । २० ्रवनंचिन कराना । र्राणहार, हारौ, (हारी), र्वासियो -- चि. । रयायोड --भू. का. कु. रमपाईजणौ, रम्ार्ईजव्रौ --कमवा.। रखवारौ, र्ववावी, रावणौ, रम्वाववौ 1 = भ. रखायोडो-भू. का. कृ.-१ किसी श्राघार्‌ या तल पर्‌ र्खवाया हुभ्रा, घरवाया हूभ्रा, टिकवाया हृश्रा, र्वने के लिये प्रेरिते किया ट्र. २ न होने या विगड्ने मे वचाव करायाहुग्रा- ३ रक्षा कराया श्रा, वचाने के लिये प्रेरिते किया दग्रा ४ पालन-पोपरं तराया हया. ५ एकत्र, कटरा या नंग्रहीत कराया दग्रा. + ६ मुपुदं कराया हृश्रा. ७र्क्यिकार में कराया श्रा, कव्जेमं कराया ह्ु्रा, श्रवन कराया हरा. ८ नियुक्त कराया हश्रा. ६ न्क्वाया हुग्रा- १० पकडवाया हुश्रा. १९१ चोट कराया टु्रा- १२ धारणा कराया हुभ्रा- १३ श्रारोपित्त कराया हमरा, ग्राकनेप कराया हुग्रा. १४ लदवाया हूग्रा- १५ विचाराथं प्रस्तुत करवाया दुरा, सामने रवाया हुग्रा (विषय). कीदषटि से ठहूरवाया हुग्रा. वरवाया हृग्रा (गहने प्रादि). १5८ रववाली, निगरानी या देख रेख केराया हूभ्रा. १६ सामाजिकिया पारिवारिक सम्बन्ध वनवाया हृग्रा- २० अ्रवलंव्रित कराया हूश्रा | न्त्री. रखायोड्धी) रखाद्र्‌., रताद -देग्यो "स्वादौ (र. भे.) उ० तिथ रग्ाटग्र दवि" थयौ धुर दोन पाच्रू श््रमरांणा' गयी । --पा. प्र रखावणौ, रखाववौ-देग्वो ^रखागौ, रपावौ' (ख. भे.) रग्वाचशरार, दारी (हारी), रम्वावशियौ । --वि. ] रखाविग्रोडी, रखाचियोद्ौ, रखाव्योड् । भू. का. क. । रग्राचीजगी, रवावीजवौ | -- - कर्म वा. । रखाचियोडी-देवो ^रखायोद्ौ' (रू. भे.) (स्त्री. रखावरियोड्धी) रखि-देष्वौ “रिस (सू. भे.) १६ ग्रावासं १७ गिरवी रखचाया हूभ्रा, रेहन उ०-- सड परिवारिदि सु" दलि हस्तिनागपुरि नगरि ग्रावदं | ग्रन्न दिवसि रिखि नारदह्‌ नारि कज्जि भ्रादेसु पांमदं । --सानिभद्र मूरि (रू. भे.) उ०-उरटं गजख' श्रातिय, श्र्भग दढ लिया प्रथाहां । राव दूर्वा जिम रचित, पेम न कियीौ पतिमाहां । रखित-१ देनो "रवतः --स्‌. प्र. २ देखो ^रक्ित' (स. भे.) रखियोडौ-देग्यो "रासियोटीः (रू भे.) (स्वी. रनियोडी ) रदिस~देग्वो 'रिखीस' (रू. भे.) रखी-र. स्वरी [सं. रकी] १ एकप्रकार का ्थलाजो कंवों पर इस प्रकार लटकाया जातादहैकिशरीरके दोनों ग्रौर नटकता रहै! इसके दोनो सिरो पर थैलियां वनी होती है) स्० भे०~रक्खी 1 २ देग्बो ररिमी' (म. भे.) ॐ०--१ तटं हक रखी तापता हृता । तरे श्राय पागडौ श्मांड नमसकार कीधौ । रखी सुनमांन दीघौ। तरं श्राप सुजक प्रगे मेलिग्रौ । ---कल्यांगासिह्‌ नगराजोत वादेल री वात रखीकेस-देखो 'रिसिकेस' (रू. भे.) उ०-- मेखला वस हादस प्रमां, मही जाम करनी महुमाय । रुषवाष्छी जंग वरा राय, कैदार द्वारका रखोफेस । वठ गंगा गोमती प्रागवेस । -- रांमदानि नालम । रखीराज-देखो रिसिराज' (रू. भे.) रखीसर, रखीसुर, रखीस्वर-देखो 'रिसीस्वर' (रू. भे.) उ०--१ जोन की प्ररणोदं मुग्व उपर प्रकासीद्छै। सूुरजकी उदं रखीयुर ध्यान करण लागा छै । जोवन कौ उद ऊर ऊन्तंग जागा दं । --वगसीरांम प्रोहित री बात उ०--र पमौ ग्र॑वारौ हूय गयौ चछै। जु रखीस्वर र सु संव्यावंदण को समय चूक चृकि जाय! रिखलीसर पणि गति श्रर दिनि री खवर नहीं पाचैद्धै। --येलि टी. र्वे-ग्रव्य.-१ कदाचित, गायद, संभवतः । उ०--जाति-समरर पांमियारे, वनै भाई दोन वानि । उतस्ता म चितवे रे, रखे पड़ नीलौ पान के । --जयवगिी रखेद्यी व ~~ ~ [० २ फेसानदहो) उ०--करी वू जाई नड लेज्यी मारूग्राडि नू पासु । पातिसाह्‌ पहर मुचि वौलड, वली रखे हृड हामू । र्का. दे. प्र. ३ कभी नदी) उ० -सजि व्यापार तु' पुजी सार, ्रटकलि ठाम देद उधार । रसे वधार रिण न रोग, लवण तीजंज्युः हसं न लोग । --ध, व. श्र ८ देखे 1 उ० ~ तठ रिमाढ. नँ हिरण याद श्रायौ रवे प्राज छक हुई हिरणा कुमदधं श्रावं तो भली । --रीसाछ-री वात ० भैरवं ] रखेट्ियोौ-सं. पु.-१ केवन राख लपेट कर घूमने वाला साधु, २ दोगी माधु । रवेल, रषेली-षं. स्त्री. वह्‌ स्वीजौ विना विवाह किये पत्नीके रूप मे पृरुप के पास रहे, उपपल्नी । रसेस. रखेसर, रवेसुर, रसेस्वर-देखो !रिसीस्वर' (रू, भे.) उ०-१ तरेमारग मे दरार श्राट। तठ गोतम रखेसर रौ चेली तपम्या कर्‌दछ। -रा.वं. वि. उ०-२ श्ररणौ श्राद तीरथ श्रठं श्ररण रवेसु रहता । तपस्यां करतां गंगाजी प्रगट हुवा । नसी उ०-२ ब्रह्मा कं टीकं तो मारीच १ प्राव्रेय२्‌ श्रगु ३ ग्रंगराज ४ पूलटकरत ५ पृलहुस्त ६ वासिस्ट ७ ए सात रखेस्वर हुवा । --रा. वंसावणी उ०--४ भांणी उत्तरदिम भथा श्राव नं मंटोवर रखेसवर तपस्या कीवी ति मु नाम मंडोवर कटीलजियौ | -नणसी रखं-देमो ^रये' (ख. भे.) उ०-नरकमरा भाई निरयि, साति कृत्रिमन मोई । उण हुंती रटिज्यो ग्रनग, करौ स्ख संग कोई । -- च. व. ग्र. रखोपौ-सं. पृ-रकना का स्थान । उ०--कोटृढ कोटड करां रखोपां, मोटा गडा चडाय्यरा । चाहू- ग्रामि चहं पामे मीति भला यंत्र मंडाय्या 1 कां. दे. प्र. रप्ो-न. पृ. [मे. ग्धा] १ पर्टेज) २ ग्घ, व्रचाव। ३६६४८ | रग "ीिशणिगषिरसगगणरिगिरीगणिःि रख्ख-देग्वो ^रछ' (रू. भे.) रण्चण-देखो (र्णः (रू. भे.) रख्ख णौ, रष्ववौ-देखो 'राखणौ, सखयुौ' (रू. भे.) उ०-- पंथी एक संदेमड़उ, भल मागम नउ भरःख 1 श्रातम तु पासड ग्रद्छह, ग्रा्ध्य रूड़ा रद्र | --टो. भा. र्वणहार, हारौ (हारी), रख्बरियौ ~वि.। रस्खिग्रोड़ी, रक््वियोड्ी, रख्व्योडौ । भु. का. कृ. । रस्खीजरौ, रण्खीजवौ । --कम वा. । रर्लियोडी-देखो (राग्वियोडी (रू. भे.) (स्त्री. रन्खियोड़ी) रख्यर-देवा रक्षणः (रू. भे.) र्या-देखो “रभा (रू. भे.) उ०-पणि केसवरायजी री रख्या करि समाधिया हीज्न रिया । श्राहल एक लिगार ही नाई] --द. वि. रग-सं. स्वरी" [फा.] १ शरीर के्रत्दर की नस, रक्तं सिरा, नाड़ी, स्नायु ) उ०--१ दे हय नाम हली हमगीर्‌ । सवी रग गोम चती मुख सीर्‌ | ॐ. का. उ०--२ जन हरीया सिवरन सहज, रमनां रग रद मांहि । रोम रोम ररकार हय, ममंकार मुख माहि ) --ग्रनुभववांमी मुहा०-१ रग दवणी ==ग्रपनी कमजोरी के कारण किसतीका सामना न कर सकना, दवना । २ रग फड़करणी ग्रान वाली श्रापत्ति कौ ग्रागंका हौना। ३ रग रग जांणणीन्=किसीके स्वभाव व प्रकृत्ति से पूर्णतया ग्रवगत दोना, भलीभांति जासना । ४ रग रण नाचशी =ुमी में भुमना, किसी श्रच्छी व्रात्या कायं से श्रव्यन्त हपित होना । ५ रग रण पिदछछंणगी देखो "गर्ग जांणरीः ६ रग रग फड़कणी ग्रावेव, गुस्सा, उत्तेजना, प्रसन्नता श्रादि के लक्षण प्रगट होना | रग रग वाढगी = टुकड़-दुकड़े करना, किसी दाम्त्र मे गरीर के श्रंग~प्रत्यग को काट केर मारना । रग रग में विस घुदढणौ किसी वात, घटना यां कार्यमे विक्षी प्रति मन में प्रतिगोधव उत्पन्न होना, फ्रोध व धुरा के भाव उग्र स्पमे प्रगट होना, मनमें ग्लानि पैदा दोना) । © ४॥। -42 ~= 1 ३९६६ रगडावियोड़ी १० रग रग सीतल होना तृप्त होना, सुखी होना, श्रानन्दिति | ` € व्य्थं तंग करना, परेशान करना । होना, मरना, अवसान होना, शान्त होना । ७ घसीट मे लिगवना ८ घसीटना 1 २ पत्तेकी नस) ३ ष्क प्रकार का मोटा ऊनी वस्व जो प्रोढृने के काम घ्राता हे । क ४५५ ॥ | ~ ० संभोग या मयुन करना । ४ देखो "रिगवेद' (डि. को.) । १. | रगडण हार, हारी (हारी), रगडणियी --वि. 5० ~ ) ₹ ५ 1 ॥ भ । _ रगडाडणी, रगड़ाडवी, रगड़ाण।, रगड़ावी, रगड़ावणौ रगड़ाववी रगड, रगडक-सं. स्त्री. [सं. घपंणम्‌| १ रगड़व कीक्रिया याभाव । ५ २ किन्दीदो वस्तुगरो, श्रमो या भ्रंग पर किसी वस्तु का टोने वाला रगदिश्नोडी, रगडियोड़ौ, रगढ्चोड़ी भू. का. कृ. घपण । रगदड़ीजरणौ, रगड़ी जवौ --कमम वा. 1 ३ उक्त घप॑रा स्ते भडने वाला निगान, चिन्ह । उनभ्भन, भगड़ा 1 ५ कटोर्‌ परिश्रम । < किसी गतिमान वस्तु का, चलते नमय किसीमे क्रिया जाने वाला स्पध । | रगडावौ-क्रि. स. [रगड्फौ' क्रिया का परे. 5<.] १ धपण कराना, पिक्षवाना । २ विन्दीदो वस्तुग्रोंयाग्नगोंका परस्पर स्पदं करवाना, प्रग का किसी वस्तु से स्पलं करवाना) ३ पिसवाना, धुटवाना 1 उ०-- तेज वमकतौ तावदी, चमक जाणा सांण। % श्रभ्यास के लिये किसी कार्यको वार वार कराना। ते ते रगडक श्रांवर्ता, लूग्मां नेवं प्राण॒ । --नू ५ परिश्रम कराना । ७ धिसाव । ६ व्यथं तंग करवाना, परेदान कस्वाना । रगृदौ-देग्यो 'रगटृकः (र>ॐ.) ७ घसीट मं लिख्वाना 1 ८ वसीटवाना । ६ मस्तवाना 1 १० संमोग या मयुन फराना 1 उ०--दूयी वेद्धा ये परस करणा र मिस ्रापराहाथनू उण स पग श्रमो नेय बोल्या-ग्रौ कोद गेष्णौ थोड़ौ ई ज्तौ धारा पग मे पजान" मोती जड़ी रिमजोलां में रगड़कौ लाग जावेला । श रगडाणहार, हारौ (दारी), रगड़ारियौ ` --ति. --फुलवाड़ी । । । रगड्योडुी भू. का. त्र रगडणौ, रगड़वी-ङ्रि. स्‌. [सं , चघपरणम्‌| १ वपण करना, धिसना । रगडाईजणौ, रगडार्दनवौ --कृमवां उ०- १ ग्रापरौ तवलौ ऊजटी कस्यी, कोरारी धार सिसई प्र रगड़ावरणी, रगड़ाववी भ रणड रगड़ सागीडी तीखी-तेज काटी । रगडायोद्-भू. का. कृ.-१ वपणं कराया दग्रा, चिसवाया हृग्रा. २ कन्दी वस्तु्रोकायाग्रगौका परस्पर स्पगं करवाया श्ना, ग्रंगका किप्री वस्तुसे स्पर्शं करवाया हुश्रा- ३ पिसवाया हु्रा, धुटताया हुश्रा. ४ किसी कार्ये कावार्‌ वार श्रभ्यास कराया हृश्रा. ५ परिश्रम कराया दुप्ना. ६ व्यये तंग करवाया टृप्रा, परेगान करवाया दग्रा. ७ घसीट मं लिषवाया टूग्रा ८ घसीटवाया हृश्रा. &. मस्षलवाया हृग्रा. १० संभोग या मुन के लिए प्रं रिति किया हुभ्रा | --दसादोख <०--२ उज्ी उत्तम रेत, ग्रोकछी मू ने प्राव । वेदी 'जिगां विवाह साज, मुभकार सजायं । ग्रह रेणुका राग्व दांत, निरमछ कर्‌ निरव, चासग़ वरतण॒ रपद, ऊजव घोरा दृख्व । --दसदेव २ किन्दींदो वस्तुप्रोयाश्नगोंका परपर स्पदा कराना, अ्गका किसी वचस्तुभे स्पगं कराना । (स्त्री. रगडायोड़ी ) २३ पीसना.घोटना । रगडावणी, रगड़ावतौ-देखो 'रगड़णौ, रगड्एवौः (रू. भे. ॐ श्रभ्यास्र के सिये किसी काये का वार्‌ वार करना] रगडावणहार, हारौ (हारी), रगड़ावणियौ -- वि, ५ परिश्रमं करना । रगडाविग्रोडधौ, रगड़ावियोडौ, रगडाव्योडी --भू. का. कर. उ०--राजी हया कांम मेँ रगड़, नराजियां करे नुक्मांणा 1 रगडावीजरौ, रग्डापीजव्री ~ कर्म वा. " दोटकियां मोटोडां दोडी, गिद्ौ सरीखां चाहौ माण । रगडावियोड्-देखो ^रगडायोड्ौ' (रू. भे.) -चंडीदान सद (स्त्री. रगड़ावियोड़ी) रगदियोडी _____( ~~~ रगड़योञ्-मू. का. कृ-१ घपंण॒ किया हुमा, धिसा ह्राः २ किन्हीं दो बम्तुगरों या प्ंगों का परस्पर स्पशं किया हुश्रा, श्रग का किसी वम्तु से स्पर्शं कराया हमरा. ३ पीसा हुप्रा घोटा हृश्रा. ४ किक्ती कार्य का वार वारं ग्रभ्यास किया हुख्रा. ५ परिश्रम किया हरा ६ व्यथे तंग किया हूग्रा, परेगान क्ियाहूग्रा. ७ घसीट में लिमा हृग्रा. ८ धसीटा ह्राः & मसला हुप्रा. १० संभोगया मेथुन पिया हु्रा । (स्त्री. रगड्योडुी) रग्डी-तव्रि.-रगड़ा या भगडा करने वाला, भगड्ावू । रगड़ौ-मं. पु.-१ भेगडा, ट्टा, फिमाद । उ०-~ पूयी कांपती सी वोली-ह ! म्द थानं कयौनी, मोटां-घोटाठ रे रग्डमेना पड़) --दसदोख २ उलभन, समस्मा, फट । उ०-- त्रिपुरी चौपुरी पंचा टः सतत नव पनरा जी । जोग विजोग संजोग भोग सव, मायामे रगड़ाजी। --श्री सुखरांमजी महाराज २ विपत्ति, श्रापत्ति, संकृट । उ०--व्रिणज विभौ हष हांसल विगड़ं, कुवद कमाई जगत करै | भगडौ लागे जिकां भू पडा, रगड् तलवां तरो रहै । --वां. दा. ४ निरन्तर किया जाति वाला श्रम! ५ रगड़ने की क्रिया या भावं। रगटछ, रगराठ-पं. पु--१ ऊट का रोग जिसमे उसके पिदे पैरकी नम्र ऊची चढ़ जाती है इससे उसका रपर व्ररावर नही टिक पाता) २ उक्तरोगमे पीटितिऊट) ३ ऊटोंका एक त्रवगुण । ४ देखो 'हगटादठ रगण-स. पु-१ छंद गस्वकेश्राठ गणोंमें मे एक गण या तीन ग्रक्षरो को वह्‌ शब्द (समूह) जिसका पहला व ग्रन्तिमि वर्णं दीर्ध होतार तथा मध्यकनलधु होतादहै। दसका सकेितिक स्प 55 पेमा होता ह 1 २ गजानन, गरो । (म्र. मां.) रगौ, रगवौ-ग्रि- न. १ रेगना, रेगते हुणु चलना । २ पथुकारभाना) रगत-देनो "र्त (>=. भे.) (अर. मा, द्‌.रना. मा.) उ०--१? यदना र्गत देवि यक वाट । चंद्रप्रहाम ग्रहै थक = नाद । म्‌. भ्र. ००० रगतगीज ग्ण ------ ~~ त्रपि । उ०-२ करं मुख रगत युवगत प्रालिम षणी, डारि दयु एकि थकी गढ चीतोड । राण सु पदमणी चिडी जिम पाकड़ं., क्वण हद्‌ कर हम तणी हौड । --प. च. चौ, उ० -२३ क्रोय रगत लोचन किया । --रामरासौ (रू. भे.) (रू.भे.) (रू. भे.) रगतकमछ-देखो ^रक्तकमद्ट' रगतकास्छ-देखो "्रक्तकास्ट' रगतक्रुस्ठ, रगतकोद्-देखो'रक्तकुरठ' (रू. भे.) (रू. भे.) रगतचंदण, रगतचंदन~-देखो ^रक्तचंदण' (रू. भे) (अ्रमरत) उ०--कृठ जनोई पाट की, रगतचंदन की पीली किंमाड। सीम सार की पाटली, ऊचा धरि धरि तौरणवार । -- ची. दे. रगतच्चु च-देखो ^रक्तचंचु' (रू. भे.) (ग्र. मा.) रगतजीभ-स. पु. [सं. रक्त जिह्वा] सिह । रगततु ड-देखो "रक्ततु ड" (रू८.) । रगतदता, रगतदतिका रगतदंतो-देखो “रक्तदंता' (रू. भे.) रगतधरा-देसो ^रक्तघरा" (रू. भे.) रगतधातु-सं. पु. [सं. रक्त ~-घानु] १ लाल रंग का कोई धातु, तावा। २ गेरू रगतधारा-सं. स्वी. [सं. रक्त-[-धारा] रक्तकी धारा । रगतगरुल्म-देयो "रक्तगुरम" रगतचंचु-देखो "रक्तचंचु' रगतनत्र-देखो 'रक्तनैत्र' (रू. भे.) रगत पद्टी-देखो "रगतवंसीः (रू. भे.) रगतपक्षः रगतपलख, रगतपांख~देखो “रक्तपक्ष' (<. भे.) रगतपात-देखो “रक्तपात' (रू. भे.) रगतपित, रगतपित्त-देखो ^रतपित्तः (रू. भे.) रगतपिचि, रगतपित्ती-देखो "रक्तपित्ती (रू. भे.) रगतप्रदर-देखो “रक्त प्रदर (रू. भे.) रगतप्रमेह्‌-देखौ “रक्त प्रमेह" (रू. भे.) रगतचवाटी-स स्वी.-दु् का एक नामान्तर । उ०--रगतवंवच्छि निमी खद्रराया,मुसु क्रपा कर महमाया)। --पी. ग्र. रगर्तावद्ू-सं. पु. [सं. रक्त विदू] रक्त की घ्रूद, कतरा) रगतवीज-देखो भक्तवीज' (रू. भे.) रगतग्त श्वे, 9 उ०-देवी धुम लोचन्न, हुंकार धौस्यौ, देवी जाड़वा में स्गतवीज ` सोख्यौ । --देवि, रगतभव-सं. पु. [सं. रक्तभव| मांस, ग्रामिप। (डि, को.) रगतभंडच-देश्वो "रक्तमंड्छ' - (रू. भे.) रगतमल-सं. पु. [सं. रक्त मल्ल] भैरव का एक नाम । उ०--काछा गौरा कंवर, रगतमल लांगौ कठ्वौ। मांश भद्र ट्नुमांन, कौडलौ नर्ससिघ फठवौ । --मा. वेचनिका रगतमोचन-देखो "रक्तमोचनः (रू. भ.) रगतर-देखो ^रक्त (रू. भे.) रगततवंसी-सं. पु.-एक प्रकार का विपला सपं । ~ ० भे°-रगतपंदछी । रगतवरण-देखो !रक्तवरण' (रू. भे.) रगर्ताविदु-देखो ^रक्तविदु' (रू. भ.) रगतवीज-देखो "रक्तवीज (रू. भे.) रगुतत्रस्टि-देखो ^रक्तत्रस्टिः {- भे.) रगतसंघक, रगतसिधक-सं. पु. [सं. रक्त~}-संध्यक] १ फुल, पुष्प | (द्‌. नां. मा.) २ लाल कमल 1 रगतसल्राव-देखो रक्तस्रावे" (रू. भे.) रगतांग-१ देखो "रक्तांग' (<. भे.) २ देखो ^रकर्ताम' (<' भे.) रगता-देखो “रक्ता (<. भे.) रगताकार-देखो 'रक्ताकार' (रू. भे.) रगतातिथ, रगतातिथी-देखो रिक्ताः (रू. भे.) उ०--घुरपया जीमणौ, वार धावर खरौ । रगतातिथ ने मेह भ्रण गाछ रौ। 7 --रुकमररी ह्र रगतात्तिसार-देखो °रक्तातिसार' (रू. भे.) स्गतादट~सं. पु. (सं. रक्त --ग्रालुच्‌| रक्त प्रवाह, खून की वासा । उ०--१ काढ लेैकाठ करठठछ जड्यो कमथ, ब्द विकरादछ रगताद वांई1 भा चकडाठ चगताठ चूनाढ भिद, ताछ गौ साठ भेर वरण तांई । -- तेजसी खिडियौ, रगतासुर-स. पु. (सं. रक्तासुर] एक श्रसूर । ४००९ रगदणं ~~~ ------- ~ ~~ ~~ न -~-~-~-------- उ०--रगतासुर श्रागै खद, भेला होय भुजाक। सांमंद्र मांह सांपरत, नदियां भिठं निराट.। --मा, वचमिका रगत्ति-देखो ^रक्त (रू. भे.) उ०--१ कावियारग मौहरा कर, रगं वां भसा रगति। जदि चादि मदां ज्वाढामुखी, स तांम तोपां सगति । -- सू. प्र. उ०--२ दवटे वाज जुतं दुजडां हथ, गिरा गिरीस पूजिवा गात । केवी रगति कम तिण॒ कारण, जुगति प्तौ मन करम दे जात | --राजसिध राटीड रगतेस-देखो ^रगतासुर' (रू. भे.) उ०--ंडीला दीस छकर, जोगिणि रिख खीञाई) भड मांभी रगतेस भड़ वकेतौ त्रंव संमाई । --मा. वचनतिका रगतोत्पव्ट-देखो ^रक्तोत्प्ट' (रू. भे.) रगत्त-देखो "रक्त" (<. भे.) उ०--१ केसर च्रुखी हारका, दिल्ली त्रुद रगत्त । थर्‌ पुराणां उग्रता, सिटी कुरांखां वत्त । स उ०---> भयांणख भेख सरां छ भार । दहं व धार रगत्त दुसार । -- मु. प्र, रगत्तर-देखो “रक्त (रू. भे.) उ०--श्रपाकर टोप वेगत्तर श्रंग, रंग तंह चकर रगत्तर रंग) -मे.म. रगत्यो-सं. पु.-१ बलिदन किया हृश्रा वहु वकरा जो प्रसूती गृहमे जच्चा के पंलग के नीचे भूमि में गाड दिया जाता है । ` उ०-वरा जोड दे जीव धर, समहर मंडौ सोय । ग्रज रगत्या रौदहैन अरज, काट गाड़ दे कोय । --रेवतसिह भारी २ चौसठ भरवोंमेमे एक। ० भे०-रिगतियौ, रिगत्यौ । रमत्र-देखो रक्त" (रू. भे.) उ०--चटच्चट पत्र रगन्र चटट्ि। समे त्रनुसार रमै चवसष्ट। --मे. म. रगदण-१ मोटी-ताजी व हृष्ट पृष्ट स्त्री) २ वेडौल व भह प्राकारकी स्त्री! उ०---वीजाचवण विव चित धरौ, हठ्वढ मत टोवौह्‌ । रगदण ज्यौ नह्‌ राजवशि, जीवित तो जोवोह्‌ 1 --र. हमीर 4 शः" रमठ रगदद्ट-वि.-वूःवडा । रगदोटौ, रगदोढबौ-१ वस्त्र या किसी चीज को मिहटरीया कीचड़ में मसलना, लथपथ करना । २ रगड़ना, मसलन । ३ पदछाडना, भकभोरना । रगदोधियोडी-मू्‌. का. कृ.-१ मिदटरी या कीचड़ मे लथपथ किया ग्रा. २ रगडा हृश्रा, मसला हुभ्ना. ३ पाडा हुभ्रा, भकभोरा हमरा । (स्त्री. रगदोकियोडी) रगवेव, रगवेद-देखौ “रिगवेद (र. भे.) रगी-सं. स्त्री.-१ सरस्वती । (भ्र. मा.) २ देखो "रग (रू. भे.) रगुवंसी-देखो ^रधुवंसीः (रू. भे.) उ०्-जाव्री मे कमछ जोयेवा, जगत चुहारं चुग्री जुग्रौ। रगुवंसीयां श्रत राटोड, हैक वठं भ्रवतार हुग्रौ | --दुरसौ श्राढो रग्ग-१ देखो ^रग' (रू. भे.) २ देखो ^राग' (रू. भे.) रण्युवीर-देग्वो "रघुवीर (रू. भे.) उ०--वष्टं पाय रणा तरी रग्घुवीरं । भिथल्तेसरं समीपं । ज्याग श्रि --सू. प्र, रग्त-देखो ^ख्त' (रू. भे.) उ०-देवी रग्त वंवाद् गमा रूडा) --देवि, रधु स~सं. पु.-देगो रर्गिवेद' । उ०---पटंत जोतकी पुराण, तारकेस के तवं । रघुस साम जुस प्रग्र च्यार वेद के चवं । --सू. प्र. रघु-सं. पु. [सं.] १ सूयवंशी एक प्रसिद्ध राजा जौ मम्राट दिलीप (दितीय) का पुत्र एवं श्रज राजा का पिता था। उ०-- संभ्रम दिलीप रधु चिप सकाज। रधुः र सुत श्रज राजाविराज । --सू. प्र. २ ददारथ नन्दन श्री रामचन्द्र, राम। उ०--१ विहं रघु लक्मण प्र बनाय) से जग चिस्वा्मित्र सदप्य । --ट्‌. र. ४००२ रधुभूप [न क उ०--२ ग्रज सुत दीह सपतमें श्राया । भ्रति रघुं जांन वणां ग्राया 1 --रांमरासौ २३ रधु राजा के वंशज) ४ देखो ^रघूवंस' <० भे°-रुघ । रघुईस-सं. पृ. [सं. रघुर्ईश | श्वी रामचंद्र भगवान । रू० भे ०-रघर्ईस रधुकुठ-सं. पु. सं. रधु~ कुल | रधु राजा का वं, कुल) रधुकुठतिलक-सं. पु.-श्री रामचन्द्र, श्रीराम । 5० भेऽ--रुघकुट८ तिलक रघुचंद-सं. पू. [सं. रघुचद| श्री रामचंद्र भगवान । ० भे०-रुषचंद । रधुदेव-सं. पू. [सं. रधुदेव | श्री रामचंद्र भगवान । र<० भे ०-रुघदेव । रघुनंद, रघुनंदण, रधुनदन-सं. पु. [सं. रघु नंदन] १ श्री रामचद्धः श्रीराम 1 (ना. मा- ) उ०-ये तौ पूत सपूत द द रघुवर जी। ईद्वरथे पितता वचन त्यौ पढ, हो रघुनंदन जी । --गी. रा. 5० भे ०--रुषनंद, रुघनदण॒, रघनदन, रघुनंदन । रघुनाथ-सं. पु. [सं.] १ श्री रामचन्द्र । उ०-भड परखणा भ्रूपाठ तांम भौ भ्रसि तासी । रामायण रधुनाथ, जोव परख कपि जार । २-ईरवर, परमेदवर रू० भे ०-रुघनाथ, रुषुनाशं । रधुनायक~-सं. प. [सं.] श्रीरामचन्द्र । उ०--नर च्यार ग्रसी नाच निकू, निज हरि श्रागठ नाचियी। जाचगौ जिकां रहियौ न जग, ज्यां रधुनायक जाचियौ । ~र ज. पर --सू. प्र रू० भे०--रुघनायक । रधुपत, रधुपति-सं. पु- [सं. रघुपति] श्री रामचन्द्र । उ०--१ तिलक छाप तुलिका माठ धारिया महाव । हरवछ लखमण हवौ शरभा" रघुपति च ग्रागढ । -- सु" प्र. ० भे०~-रघरूपति, रघूपती, रुघपति, सवपत्ती । रधुरूष-सं. पृ-श्री रामचंद्र भगवान । ० भे०~-रुघमूप । रघुवर रुबर-देखो “रघुवर (रू. भे.) (डि, को.) उ०--भूप रधुवर समत धनु सर । --र. ज. प्र. रधुबीर-देखो ररघुवीर' (ू.भे.) (ड. को.) रधुदद्र-सं. पु. [सं.] श्रौ रामचंद्र भगवान । ० भे०-रुघयंदे, रुघयंदि । रधुरांण-सं. ए. [सं. रधुराज] श्री रामचंद्र भगवन । रू० भे०-रधरांण । रधुरणी-स. स्वी. (सं. रघु" राज्ञी] सीता, जानकी । <° भे०-रधरांसी । | रघुरांम-सं. पु. (सं. रधुराम| श्री रामचंद्र भगवान । रू० भे ०--रुघरांम । रघुरज, रघुराइ, रघुराई, रधुराज, रघु राजा, रघुराय, रधुराया-सं पु. [सं. रघु-~-राज] १ श्री रामचन्द्र । उ०--१ सभा भप दसरथ सुत, रूप इमौ रघुरज । --रामरासौ उ० --२ राज मौह्रि उपत्िरधुराई । भिंड. जेण विव लखमण भाई 1 --सू. प्र. उ०--२ प्रस्तुति कर सव देवर सिधाया, जग में जय जय धुन छाई । श्रानेद भयौ भवन सारा मे, राज विराज्या रघुराई । --गी. रा. उ०--४ कठ सत ॒"कंत' जि जगणंत । रट रघुराय, थिर सुख थाय । --र.ज. प्र, उ०--५ राज तणी इच्छा र्धुराया, । भ्रखिल चराचर जीव उपाया । --ट्‌. र. २---दश्वर, परमेदवर । ३ विष्णु का नामान्तर । <° भे०~-रुघराई, रघराउ, रुघराज, रुधघराजा । रधुवंस-सं. पु. [सं. रधुवंश] १ इध्वाक्ुवंशीय राजा रघु का वंश । उ०--नमौ रुवं तणा रवि राम, विधूसण लंक वडा वरियांम । र. २ श्रीरामचंद्र) ३ ई्दवर, परमेरवर 1 [म र २ # ४ कालिदासं दरारा^रवित "रधुवंज' नामक महाकाव्य । 5० भे०-रुघवंस ४००३ ॥ रधुवंस कुमार-सं. पु. यौ. [सं. रघुवंश -{-कुमार] १ श्री रामचन्द्र । २ रघूुकेवेंदाका कोई रजकुमार। रधुवंसमणि~स. षु. [सं- रध्रुवंशमणि | श्री रामचन्द्र भगवान । <° भे ०~रुघवंसमणि । रधुवंसरव, रधुवंसरवि-सं. पु. [स. रधुरवंदारवि | श्री रामचंद्र भगवान । 5० भे ०~रुघवंसरव । रधुवसी-सं. पु. [सं. रघुवंशी| १ राजा रघु कै वंशा मे उत्पन्न व्यक्ति। २ श्री रामचन्द्र । ० भे ०-रगुवंसी, रुधवंसी । रधुवर-सं- पु. [सं.] १ रधुके वंश में धेष्ठ, श्री रामचन्द्र । उ०-१ नह ह्न होवेंहै नही, सो छव जोड स्मान की। मि वसौ 'मंदछ' मन मंदिरं, जोसखी रघुवर जानकी । --र. <. उ०-२थेतौपूत सपूत हो हो रधुवर जी। थे पिता वचन ल्यो पाठ, हो रघुनंदनजी । --गी. रा. उ०--३ लिच्मन जत्ती सील त्रत लेके, सांग्रत गश्रंग समाई । वरस चतुर दस वन रघुवर की, करी कठिन सिवकाई । --ऊ. का. २--ईंर्वर, परमेश्वर । ३ विष्णु । <° भेऽ-रघुवर, रुषवर । रधुवीर-सं. पु. [सं.] १ राजारघुकेकंदामें वीर व्यक्ति, श्री रामचन्ध ) २ विष्णु, ईद्वर । (डि. को.) २३ राम भ्राता लक्ष्म । रू° भे० रघुवीर, रघुवीर, रुववर, रुषवर, रुषवीर, रुघवीर्‌ । रधुवेदी-देखो †रिगवेदी' (रू. भे.) उ०-- सथला सामकं श्रथरवणी, यजुरवेदीया जांण । रधुवेदी सवि रथि चड्या, पंडित पोकारि पुराण । --मा. कां. प्र, रघुपति, रघुपती-देखो "रघुपति" (रू. भे.) उ०--१ सदा नित भ्रानंद नांम सहस्स । रघुपति उच्चि ग्रम्रत रस्स। ग न्‌, उ०--२ वदं मुनेस जेण वार, देखि भ्रुप वीनती । मखं सहाय काज मेलि, पृच्र तो रधृपती । | --सु. प्र. रड-सं. स्वी.-१ कर्गा-क्रन्दन । सड 88.21 रट्क्कगौ ____ ___ -_~_-~~ ~~~ बब २ सदन । ४ किसी वातकोसुननेया किसी व्यक्ति ग्रथवा वस्तुको दैसने ३ चित्लाहट । से मन में फरो, धृणा श्रादि विकार दा हौना। वरा ४ देरवो ^रडौ' (मह्‌. र. भेः) मालूम होना । ५ देखो ररड़ी' (मह्‌. रू. भे.) उ०-१ हाथरीचतर्‌ग्रर ण्यां ठमीद्ैकौ प्रांखमें थाती ई रडक्र-सं. स्त्री.-१ ककड, पुस या कोई कणा श्राव मे गिर जानेसे को रड्कं नीं । होने वाली पीड़ा । --वरसगाठ २ टक्कर उ०-२ भेा मिनांमेसदामु हु-हत्तौ हृतौ श्रायौरै, पणा उ०-रिण कणणगगा नाद खुररमांगा खवागां रड़क } वाजि ण॒ कंदी तौ श्रांख में घात्या नीं रडकं । णणण कड्या वंधां चड़क । --दमदोव ---महादान महद्र । | ५ ध्वनि या प्रावाज होना, व्रजना | ३ हमला । £ लुढकना, घुडकना । ४ ध्वनि विशेष, प्रावाज । उ०--प्रागे चठतां गढमु कांकरी एक रड्क्यौ सं नाहरी चमक उ०--रेवंतां बाजीया पोट रक धराधर धुजीय कोम वड़क। नं श्रावतांरमाथानं मृष्ट घाते ज्यु टोपमुडामें श्राय । --गो. रू. | राव ःरिडमल री वात ५ कसक । ७ परस्पर ठटकराना। ६ खरोच । ८ देखो ^रिडकणौ, रिडकवौ' (रू. भे.) ७ वैर्‌, वदला, दुदमनी । उ०्-दतरं मेँ बार र नजक पहुनिया सौ भसा रख्कती उ०-रगाव भेरी करतां तीन दिन हृयग्या 1 भाटां रा फिरतां मुं छं । । गोडा हट ग्या। खुरडा चिस्भ्या। लोगं थगयेटरा पंचां --कुवरसी सांखला री वाता मानै लड भिड़ श्राद्वी रडकां काटी । रड़क णहार, हारौ (हारी), रइ्कणियौ चि, । --दसदोग् रडकिश्रोड़, रड़कियोड़ौ, रड्क्योड़ौ --भु. का. कर. 1 ८ देग््रो 'रिडकः (रू. भे.) | रड़कोजणौ, रडकीजवौ भाव वा. । रडकणौ, रडकवौ-क्रि. ग्र.-१ ्रांख में कोई ककड, फुस या कण॒के रडक्कणौ, रड्क्कवौ । --रू-भे. गिरने मे ददं होना, चुभना, कसकना, खटकना । रड़कली-सं. स्त्री.-कोई छोटी पहाड़ी । २ मानभिकर दृष से कोई बात या घटना मन में वरावर खटकना, रड़कियोडौ-भु. का. कृ.-१ श्रां में चुभा हशर, कसका हरा, खटका माननिक कष्ट होना । हुश्रा. २ मानक्तिक कष्ट हुवा हुश्रा, मन में खटका हृप्रा. र०-१ जच्चा-राणीरौ डील तौ साजी-सूरौ, निरोगी श्र | ३ टक्कर हुवा हुग्रा, टक्कर लगा श्ना. ४ किसी बात के सुनने वादो र रपाणी ज्यू निरमट द्दैगौ, पगा मनर किणी खृणामें या किसी व्यक्ति श्रथवा वस्तु को देखने से क्रोव, धुणा रादि गक ठीड्‌ किरकर रडकती ही 1 विकार पेदा हुवा हुभ्रा;, बुरा मालुम हुवा हुग्रा. ५ परस्पर -- फुलवाड़ी टकराया हु्रा. ६ घ्वनि या श्रावाज हवा हृश्रा, वजा टुम्रा. ७ लुढका हुश्रा, घुड्का हुश्रा । ८ देखो 'रिडकरियोडौ' (रू. भे.) (स्वी. रडकरियोडी) रडक्करौ, रडक्कबौ-१ देवो "रडकणौ, रडकवौः (रू. भे.) उ०--१ पत्रजे खडक्कं पंगी वडक्कं कायरां प्रा । वड़वक्र उरेव छंड़ां रड्क्कं भर सीस । उ०-२ श्बुद गधेड़ा खाय, पेलां री वाड़ी पड । ग्रा श्रण~जुगती श्राय, रडकं चित में राजिया | --किरपारांम ३ टक्कर होना, टक्कर लगना । उ०--१ सो इतरी मार खावतौ हाथी लोप पाधरौ राव रं हाश्री कन्द ग्रायौसौरावराहाथीरे पादन पग र टसौ खग लगायौ --चिमनजी रौ. गीत सो हाड जाग्र रड्कियौ । उ०--२ देखतां गेहवौ जंग धडक्कं श्रागरी दिल्ली । ववी जेत माग रा रडक्कं वारंवार 1. | । | | | | । | --डादाद्टा सुर री यात मडक्कं खाग रा वाढ़ भडक्कं कयरां ड हमल्लां भाग रा माधा रड्क्कं हजार । --सूरजमल मीस २ देखो 'रिडकणौ, रिडकवौः (रू भे.) रडक्कणहार, हारौ (हारी), रडक्करियौ --चि. । रडक्किग्रोडौ, रड़क्कियो डौ, रडक्त्योड़ौ --भू. का. कृ. रडइक्कीजरौ, रडक्कीजवौ --भाव वा. (समी. रड्विकियोडी) रडड़ाट-सं. स्त्री. [श्रनु.]| घ्वनि विदोष। रडणौ, रड़बौ-क्रि. स. [सं. रद्‌ | १. रुदन करना, रोना । उ०्-चौरंग चूरिया वर सेत्त “चांद, भिडं नवलौ भांति । गोरडी काद गात गोखं, रडं गठती राति 1 -- चदा वीरमदेवौते मेडतिया रौ मीत २ चित्लाना, क्रन्दन करना । ३ कुचलना, रौँदना । ४ अव्यवस्थित करना, उथल पुथल करना । % युद्ध करना! स ६ प्रवाहित हना, वह्ना । ७ धुडकना, डौलना । ८ दूधका गमे होना । रइणहार, दारौ (हारी), रडइशियौ --वि. रडिग्रोड्धै, रडियोडी. रडयोडी --भु. का. क्र रड़ीजणौ, रडीजचौ, --भाव वा. रडणौ, रडवौ, रदणौ, रवौ --रू. भे. र्डद, रडटौ-सं. पू.-प्रत्यविक परिश्रम का कार्य । रडबड-स- सत्री .-१ सुट्क्ने या घुडकने की क्या या भाव । २ पदार्थो, चस्तुश्रो ्रादि की परस्पर टक्कर से उत्पन्न घ्वनि, ग्रावांज । ३ काय! ४ टक्कर, भिडन्त । ५ अ्रवारागर्दी। ६ कुचले जने की क्रिया या भाव । ० भे०--रड्व्वड़, रड़भड़, रड़व्व इ, रडवड, रडव्वड । रडबड़्णो, रडवडवौ-क्रि. ग्र. १ किसी चीज का इधर उघर लुढकना, ठोकरे वाना ) उ०--१ उलभ प्राखड, ड रडबड्‌, पंवे भड्पड्‌ वीर वडवड । --प्रतापसिध म्होकमरसिघ री वात ४००१ ८ (9 रडमलपरग उ०--२ दइत पडिसं घणा दडदडइ, ₹ड राकस तुड रडवड्‌ । खाग खासा वहै खड्खड, त्रिगडां त्रडत्रड्‌ । --पी. ग्र. २ इधर उवर मारा मारा फिरना, ज्रवारो घूमना, भटकना | उ०--सगपण॒ करतो थकौ, तू रडवड्यौ संसाररे। एक णएकरी जुनमे, तू उपनौ ग्रनेत वार रे! --जयवांगी ३ ध्वनि होना, ग्रावाज होना । ४ टक्रराना, भिडना । रडइवडण़हार, हारौ (हारी), रडवडरियौ -- वि. । रडवड्ग्रोडौ, रड़वडियोडौ, रडइवडयोडुौ -भू. का. कृ. रड वड़ीजरणौ, रडवड्मेजवौ -- भाव. वा. रडव्वड णौ, रंड्व्वड्वी, रडभडणौ, रइ भ्वी, रडइवड़ णौ, रडवडवी रडव उरौ, रडवडवौ । --रू. भे, रडवडाट-~-सं. स्त्री.-ष्वनि विेप । -<० भे.-रड़भडाट रडवड्योडो-मू. का. कृ.-१ उधर उर्‌ लुढका हृश्रा, ठोकरे खाया श्रा. २ इर उवर फिराहूश्रा, श्रवारा घूमा हूश्रा. ३ ध्वनि हवा हुभ्रा, भ्रावाज हवा ह्राः ४ टकराया हृश्रा, भिडाहुभ्रा। (स्वरी. रडवडि योड़ी) रडवो-सं. पु.-१ वरूढा व वदसूरत ऊट) २ मतीरा (हिन्दवानी) करा एसा फल जौ दूषित, विकृत या ग्रनुपयोगी हो । रडल्वड़-देखो “रड़वड (रू. भे.) रड्न्बड़णो, रडन्बड़वौ-देखो "रडवडणी, रड्व्रडवौ' (रू. भे.) उ०- रड्व्वड़ मु.उ पड चडि रूढ । तिसा विर सुड वर गज तु ड । रडव्यडियोड़-देखो "रडवडियोडौ (स्त्री. रडव्वड्योड़ी) रड मड़-देखो “रडवड' --रा. रू. (रू, भे.) (रू. भे.) रड़मड़णौ, रड़भड्बौ -देखो "रवौ, रड्वड्वौ' (रू. भे.) उ० --पिडत-पिडत ग्र साधु-साधु, साग हवं जद सागीडा लई- मगड़ । पण कदी भाईजेठमेंकदंही नीं रडभङ। --दसदोरव रडभमेडाट-देखो ^रडवेडाट' रड़भमडियोडी-देखो ^रडवडियोडीः (स्री. रुडभडियोडी) रुडमलपण, रड़मलपणौ-सं.. पु--वीरता, वहादुरी 1 (रू. भे.) (रू. भे.) #। र्दा ग्द ^ र [क पी ~ + [मी = ५ ए गि 2 , क १ का 1 राणा भि आमन न ककि न + ५, १०) ल = (4 ~ [ ग्ट्मान-देनये 'दिदटमात' {स न.) | ३ ककरीली पहाड़ी भूमि । गश्य्टतो, रदयद्यो-टेनयो "रटवट्माौ, रटूयट्यौः (रू. भे.) उ०--वाभणा ईसा २ करै रावठ जेसठ कपूरदेसर रौ पाठ कनं ¬ ०-- मुग्र चादर नाकृ चीजांनौ प्रीत रीटठोकयां | रडीसी थी उण कुंड रार्पाणी ऊपर संमत १२१२ रा सावर 1... > 4. ् ध । म गद्यं । --फुनवादी | वद १२ श्रादीतवार मूढ न्वत्र रावछ जेस जेसठमेर री राग न ६ ता मंडाई । --नेगसी 2५ --> {चित्र गट वप भट, मुट्‌ रडवयड्‌ धत्त । | धा न गदं > वेटद्य, नट्‌ गह्‌ भ्रट दुमत्ती। --रा.म्‌.; रू. भे~रडा, र । 4 ॥ ४ देन्वो "रड ग्रत्पा.-रडकवी, (=. भे.) + -: म्पानि यिना नोषटी, रद्यड्धो ममार । "रोर तिररा तय, ग्पान श्रपुरच्‌ वार्‌ | रडो-म. प.- १ टीना, मगस। --जयवांशी उ०-जद ब्राह्मण नाव इसी, एक सौ वीर वरस री ऊमरमे, तिरा जस नू क्यौ-म्हारा मेत कनं रडौ हं, जठ सरीक्रस््‌ गदा सू पाणी प्रगट कर पांडवांनू पायौ । < --८ प्णमंमं प्रागदिया ग्रादत्र प्रदिया पुज रगनासुर भरदा । म्फ रषटयहटिधा एन प्रारटिया रिम गाहुट जागा [व क 11 1141 ---वां. दा. स्यात मा. वचनिका २ दोरा पहाद । गद्य ष्णोद्ार, हामी (दारी), सटयटणियो --वि. ३ कंकरीता व ऊचा-नीचा पहाट्री भूगंड। रशमु{शध्रोग, न्वर्यो), रन्वरदपोट) -भू. का" कृ, स० भे०~-रटरी) गदयटानगया, ररुकद्जता न [सं. रवकः] १ वोधरी ग्ट्दट्िपोषट-दन्यो रष्वटिमोद (ख. भ.) मे. मप्री.-२ टक्कर, भिडत । । (>, >द्वद्धिनतो) स्दुप्वशु र्दा 'नण्यद' (स, भे.) 11591 (>. भे.) उ०--टहुकं डक च्रंवकवां कायरां ठेवा, क्रोव धक कीन नाग काला । ग्राय मकां रचक नीयं कृशा प्राहाडा, वगां रणं भचक कृमिग्रा> चादढा | ` --गुनमी श्रा चोट, ्राघात, प्रहार । ४ नदा, युद्ध । वि०--रचना करने वाला, रचने बाला, रचयिता । उ०--रथ रूपी मिजर रचक सक्छ नियंता सांमरौ | प्रौररौ दर नदी दर्‌ श्रवस रात दिवम उणा रांमरौ। ग्िपोषटो-भ ता. क ~ रोषा टूग्रा, स्न किरा दग्रा. २ क्रन्दन विल दपा, विन्ता्याद्रुप्रा. ३ वुचना द्रग्रा, रौद ट < कषम धृपनत पिवादरूग्रा, प्यवगि्यिन किया दग्रा. ५ युद्ध [श्व्त नपा ६ प्रवाहित ददा द्रुपा, वहा हृग्रा, ७ चुटका शसा, शना षा | [> ग्पार) नि, 1 स क ११ छ (अन ॐ. 180 रश्म. म्या} दीवा, ममम । व वि ०~रचने बाला 1 1 > रषी, गावि का मीन) ० म~ रच्नगा १ म "दत विदो, पा पिरत प्रीन 1 त । „ ^ ! रचराद्रजयासी-म. पु-टव्वर, परमात्मा 1 (नां. मा.) ---धनृभववागी प शा रखणा- दमा "रचनाः म. भ. 5 भ स्ट चरे, सर दिनि दाना-तणी | । 0 (क व साय म. यि ह पन्य 1 । ररी ~न. स्म्री.-१ रचनेकी द्रि प्रा भाव । ६ क ~ युन ठं =, २ ज्यनक्नट्ग। ` = शनम यन्य] ३ देनो "रचना (>. भे.) ^ ई + 8 53) ऊ = म, ~ क [क श्रनि श नवे १ (व भट ^ "१ श जो ण न्तर 1 क शष मां (नोद्म' ० शू रचरणो, माय त वड जाय । गदर भरट त ना पग्ह्री ददद । गमद, टीया सवि मृदराय । न्ददत्कं ठ पष्ट तराम > 9 ---श्रनृमयर्वाणी रची 0 पी त का म अ रचरौ-वि. (स्वी. रची) १ बनाने वाला, तयार करने वाला २ निर्माण करते वाला, सृष्टा । ३ उत्पल्च करने वाला, उत्पादक । ४ भ्युगार करने वाला, सजाने वाला ५ स्थापित करने वाला । ९ फलाने वाला । कुं करने वाला । ८ लगाने वाला ¦ & लेख लिखने वाला । १०८ निदिचत्त रने वालः! ११ एकच्र करने वाला । ० भे <--रच्चणौ । ८1 रचरणौ, रचबौ-क्रि. स. [सं. रचनं] १ वना कर तयार करनाया वेनाका } उ०--१ वेध्याइ याह्धि वदनं ज रचि व्याहारिसार इदन्‌ हरिकं ! तर लीधी तांहां वसि थ्ददि, मुख मनोहर करिऊ । --नेटाख्यान * उ०--२ वेदेवा विन खोड" परमेम्बर्‌ रचयो पूरुम । जक्षतं थारी जोड, नर दूजौ दीस तरीं ) --- ॐ का. २ सजन करना, निमणि करना । उ० --१ ईडी कनक ग्रचेह्‌ देह्‌ धरि हरि तिण दारे! स्च नाभ नीरज्ज, रज्ज श्रज प्रज गुण सारं ! -रा. रू. उ०--२ तास चरण सेवकं सदा रे, मधुकर पंकज जेम । प्रमुदित चित नीवचूपमुरे, रास रच्योमे एम। --वि. कृ. २३ उत्पादन कृरना, उत्पन्न करना 1 उ०--१ देखे भव॒ दरियाव, रचौपगो सूः स्री रमण) नरां ग्रपूरव नाव, नाविक विख निरभफर नदी । -- वां. द, ४ श्यूगार करना, सणाना 1 उ०-लाज वरद सील सुपेद जंघ् जुगत व्रत! रचि भ्रमास नवरंग, करे मधि चित्र देव दत । "८ १9 ५ म्धापित्त करना } उ०--जई रूखां मारू हुई, ठवडउ पड्यिउ तास । तड्‌ हती चंद कियद्‌, लड रचियड शआ्राकास } ॥ ॥ --टो. मा ६ फलाना। उऽ --१ साह किताके सरवगल, रचे फंद दिन रात । मच्छ गकछा-गद माहि वस, वच जावे हूर वात्त । --वां. दा. उ०--२ साची एक ब्रह्य की वाता, दुजी संकटठ श्रांन कौ जाता । जुग मां वौत रचं पाखंडा, एके न जां नाच अखंडा । --ग्रनुभववांरी ७ कद्ध करना । उ०--१ सतरं प्रकार नीं पूजा रच दै तिय माहीं सू तोने दस वीस रूपया देस्यां । --भि. द्र. उ०--२ कटह्‌ रघ दसकेध, नवग्रह वे निवारियौ । हवा धनुख गुण सवेद वहै, गतमद जग मद्गंध्‌ ¦ ५ --वां. दा, ० -२ रिण रचिया मारोद, रोए रिख छांडे गथा । उण घर तौ श्रागा-लगे, मरणं मंगकर होड ! ---मा. वचनिकां उ०--४ समरे उण रथै नव-सहसौ । मूर सहस भेदं नेव धानि ! -गु. रू. घं. ८ लगाना ) उ०--जेहा जीण जड़ाव, गजरगावा मिम कुश्ररगुर। रचि सपव हेय राव, दीघा तें लाखा दुरा, वरा. दा. ६ लेख लिखना, रचना करना । उ०-- भाखा व्रज मारू सुर्‌ भावा, भावा प्राक्रत जानि भर। पायौ रच रूपगां पेड, मेदाद्वी थारी महर । --वा. दा. १० निदिचत करना} १९ एकतरे करना) उ०--उणमे मरजीरी काद वात मर्जी री वात ऋतीतौ पंचायत्ती णापर रौ ग्रौमेकौ क्यु रचियौ 1 -- फ़ुलवाडी १२ देषौ 'राचणौ, राचवौ' (रू. भे.) उ०--१ उणदिन चू सगरा महल लोगांरी तवज्या करौ लागिया ्ररकरुवगनी नू इसा सुस कियाजे रच रहिया छै । --कुवरसी सांखला री नारता उ०-२ पांणी ल्यावै डोरि करि, हाथे भात पचाय। राजम तांमस रचि रद्य, सातिग नावे दाय । --ग्रनुभववांणी ग्चणहार, हारौ (हारी), रचरियौ --वि. । रचिग्रोड्ौ, रचिगोडौ, रच्योडी --भू. का. कृ. । रचीजगाौ, रचीजवोौ --कमं वा. । रच्चणौ, रच्चवं । --रू. भे. रचन-मं. म्यी.-१ रच्नेकी णया या याव । २ रचनेकादटग। उ०-- वचन रचन सुखज्यौ हिव, ्रांगी भाव प्रधानौरे। देज्यौ दान इसी परे, जेम लहौ तुम मांगौ र्‌। --वि. कु. रचना-सं. स्त्री. [सं.] १ रचनेया रचना करने की क्रिया या भाव । २ निर्माण या रचनाकरने की कला, कौलल । उ०-दरजी फाडदुदूलनू, सीव लिए सुधार। चण विधी रचना श्र, जांणं जांणणदहार्‌ --वां. दा. २ लीला; माया । उ०-रचना ईस्वर री ईम्वरता रोच । संमदम सद्धा विण संभव नहि मोचं । --ॐ. का. ४ निर्माण, सजन, सृष्टि, उत्पादन । ५ निमित या उत्पादित वस्तु । ६ वनात्रट, स्वरूप | ७ वनाने का ढंग, प्रकार । ८ सजावट, श्युगार। & कग विन्यास) १० व्यूह्‌, जाल, फ़दा । १९१ कट्पना । १२ कोर्ट नेव, काव्य~क्रति, प्रस्थ । १२३ स्थापित करने कौ क्रिया| १४ कायं, काम । उ०--भं थे भोढा-संकर वाज, दीन-~दखियां रा दुख मेटणा रो गुमान करौ! धारं वें ग्रा रचना व्दैतौ साव खुटगी । --फुलवाडी १५ विश्वकर्मां की पतनी का नामं । रचयिता-वि° [सं. रचयित] १ रचने वाला, निर्माण करने षार्ला २ निम्ने वाला, नेन्वकं 1 रचानी-देखो ^रद्टानीः रचाड़योडौ-देवो ^रचायोडी' र्चाणौ (रू. भे.) उ०-नाई रचानी खोलतौ खोलतौ केव लागौ वापजी, एक वात प्रैलाकंदू । इलाजर्की दोरौदहै। -फुलवादी रचाडगणौ, रचाडवौ-देखो "रचा, रचावौ' (₹. भे.) उ ०--केतां गजां पश्छाई, रचा वेत नरां कतां । ग्र्बाडं मचा वीर, विडं श्रपार्‌ । --युधमिह्‌ सिढायच रचाइणहार, हारौ (हारी), रचादणिगौ --वि. रचाडिग्रोडौ, रचाडियोडौ, रवा ्ौड़ौ --भू.काढ़. रचाडीजणौ, रचाड़ीजवोौ --कम वा. (रू. भे.) (स्त्री. रचाडियोड़ी } रचाशणौ, रचावौ-क्रि. स. ['रवणौ' किया काप्रे. रू. (ाचणुौ' न््यकाप्र. स्.] १ वनाकर तयार करवाना, वनवाना। २ सुजन कराना, सृष्टि कराना । ३ उत्पादन कराना, उत्पन्न कवद्धाना। ९ ४ प्मगार्‌ कराना, सजवाना । ५ स्थापित कराना । ६ फलवाना | ७ करने के लिये प्रेरितं करना, करवाना । उ०--१ वीर नाद सोई चंग बजार, रंग फाग प्रम जंग रचायौ। --ऊ, का. उ०--२ उकटिया उदियापुर ऊपर, मेवाडा मिलिया तिण मौप्तर । राणा कंवर धरी गुज रचायौ । प्रगट करं काद्‌ देस परायौ | --रा. ष ८ लगवाना । ६ लेख लिखवाना । १० निच्िचित्त कराना । ११ एकत कराना । १२ जमाना, , १३ ग्रायोजन करना । ` ऊ, का १४ रजित करना/कराना 1, उ०--वनड़ा महदडली दिन चार हाथ रचात्यौ. वनड़ा काजयिया दिन चार नण घुदात्यौ --लो. गी. १५ श्रनुरक्त करना/कराना 1 १६ दोभित करना/केराना । १७ प्रसन्न करना/कराना । १८ प्रभावित करना/कराना । स्वाणहार्‌, हारौ (हारी), रचारियौ --चि, न्न _ __--------__ रचायोडौ गचायोडी --भू. का, कृ. रचारजगणौ, रचार्ईनवोौ --कमे वा. रचाडणौ, रचाडवौ, रावणौ, रचाववौ --रू. भे. रचायोडौ-भू- का. कृ--१ वनाकर तैयार करवाया हुख्रा, बनवाया ह्राः २ सृजन कराया हुमा, बृष्टि कराया ह्राः ३ उत्पादन कराया हु्रा, उत्पन्न कराया ह्र. सजवाया हृग्रा- ५ स्थापित कराया हु्रा ६ लेख लिखवाया ह्राः कराया हुग्रा १४८ रंजित किया हरा । (स्त्री. रचायोड़ी) स्चावशी, रचावबौ-देखो 'स्वाणौ, स्वावौ' (रू. भे. ) उ०--१ भ्रायौ श्रायौ सांवणिया रो मासः सुस्रोजी वियाव रचाचियो । --लो. गी उ०२--परा व्याव रचा जड हीमत तौ किणी गी कोनीं । > व्याव रौ वुदवृदी तौ उठता सूगेमटग्यौ 1 । --पुलवाडी रवावणदार, हारौ (हारी), रचावणियौ --वि. रचाविश्रोड़ौ, र्चावियोडो, रचाव्योड़ी भू. काक्र. रचावीजणौ, रचावीजवी रचावियोडौ-देखो ^रचायोडो' (स्त्री. र्चावियोडी) रचित, रचिय-वि. [सं. रचित] १ रचा दग्रा, वनाया हृम्रा | निमित, सुलित । ३ उत्पादित । ४ सजाया ह्ख्रा, श्ुगारा हुता । न ६ (रू. भे.) १) लिख कर तेयार किया टमा! स्थापित । ० भे०-रू्दय । ध रचियोडौ-भू. का. कृ.-१ वनाकर तेयार किया हुश्ना, वनाया हघ्नाः २ निर्माण किया हृश्रा, निमित, सृजित. ३. उत्पन्न क्ियादह्त्रा, उत्पादित. ४ श्ुंगार किया द्रुग्रा, सजाया श्ना. ५ स्थापित किया हृ्रा. ६ फंलाया हन्ना. ७ कियाहुश्राः ८ लगाया हुग्रा.ः ६ लिखा हृम्रा, लिखित. १० निर्दिचत किया हुश्रा. ११ एकत्र किया हुग्रा । १२ देखो "राचियोडौ (स्त्री. रचियोडी) (रू. भे.) ४००६ ४ ्युगार कराया ह्राः ६ पफलवाया हुश्रा. ७ कुष्ठ करने के लिपेप्रेरित किया ह्राः ८ लगवा हुमा. १० निरिचत कराया हुम्रा. ११ एकत १२ जमाया टृम्रा. १३ भ्रायोजन किया इग्राः --क्म वा. रद्धरक रच्चवण-देखो “सवण (<. भे.) रच्चरौ-देखो “रच, (रू. भे.) उ०--धरती जेहा भरमा, नमणा जेदी केष । मज्जीटां जिम रच्चरा, दई सु सज्जण मेलि । --श्रग्यात रच्चरौ, रच्चवौ-१ देखो "रचणौ, स्वयो" (रू. भे.) २ देखो भयचणौ, राचवौ' (रू. भे.) रच्चियोडौ-१ देखो ^रचियोडो' (रू. भे.) २ देवो "राचियोडौः (रू. भे) (स्त्री. रच्चियोड़ी) रच्छ-देखो ^रक्ष' (रू. भे.) उ०- पाडिया जुघां विषच्छ, राम पाय सेव रच्छं । ग्रोरमर रूप भ्रच्छ, च्छ लच्छ लच्छः । ---र्‌ | ज न प 1 रच्छक-~देखो ^रश्नक' (रू. भे.) उ०-व्रछ के म्रगराज कुटढवट के प्रकर । पासी के रच्छ, धटवट के कोहर । -- रा. ₹. रच्छया, रच्छचा-देखो रक्षा (रू. भे.) उ०्-सो धिर राण काज क भूण साजिया । जडया रच्छचा जंत्र मनोज मुनि दिया । --वरा. दा. रच्छा-देखो "रक्षा (रू. भे.) उ०--म्हारी सच्छा कीज्यौदेमादेसाणा री राय। जग जननी जगदंव्रा घावठ वादी घाय। -राघवदास भादी रच्छिक-देखो "रक्षक! (रू. भे.) उ०्-पर दयुनी जगि रिण जीपियौ। दस महस रच्छिक दीपियौ । । --मू. भ्र. रच्छित-देस्बो "रक्षित' (रू, भे.) रच्छी-सं. स्त्री.-धलि, रज ? उ०--भुकियौ वेट्‌फड प्राघौ फरश्रावौ, हाथा तारी दणि लुकियौ नहि लाधौ । कच्छीयी करकर्‌ रच्छी रुछिजावं, तड्फं मच्छीतढ पच्छी पुजा । --ॐ. कृ1. र द्ुक~देग्वो "रक्षके" (रू. भे.) रज रदषा ९९ __,__~~_](------~-~-~---------_~~~[[[[___[_[______________________ रछपाठ-देखो "रक्षपाठ' (रू. भे.) हरिजन जांणीयै, जिसी राह की रज । ॥ --्रनुमववांराी उ०-१ श््रासफ्रन' तणौ "वीठल' तौ कहै एम । पातत रद्धपाठ 7, समि ु पर्थ्व | ग्रहियां खडग पांण । २ पृथ्व, भू ३ रात, रात्रि। --र्वा. दा, उ०--रज पठटे दिन ही घट, मूर ष्च्छ्रु छह! मूरांददा उ०--२ गद रद्धपाढ दूसरा गोकठ'! पाठ्ण सत्र दिली दढ ५ व च वोलिया, वंण पट्ट नाह । पुर । रावत तण भरोसे रां, संलां र्म हिदवौ सूर । -संग्रामसिहु चरुडावत रौ गीत --राव रिशमल सी वत्त रछत~देखो "राक्षसः (रू. भ.) ४ गौरव, प्रतिष्ठा, इज्जत, मर्यादा । उ०-भरयी पूर ग्रघ जगत श्रभावरा, प्रागम प्रत कोवी उ०--१ कमधज भुज निमज सकज मु सुपह कज । रां रज फिर श्रावण । जवर दूत मेले समुभावी, रद्धस श्रर्र समज रिणतुर र्डं । तो रावण । --गु. रू. व. -- र" र. उ०-र श्रापरी राख रज मुरग वसियौ श्र॑नौ'। राज विघ्र रदधानी-स. स्वी.-नाईकी वह्‌ दछोटी पेटीया .मंरुपा जिसमे हजामत भोगवं महाराजा । वनाने के उपकरण रहते ह 1 --श्रनोपर्सिह रौ गीत उ०-देसोतां री खाट, वैठं प्राय वरावरी. नाई किव निराट, ० भे०-रंज, रजि, रजी, रजि, रजी, रज्ज, रज्जी, रज्जु, रञ्च रानी सू राजिया। रय । --किरपाराम ५ कीति, यम 1 ध . । रदछाकरण-सं. स्त्री. १ माता, जननी । (भर. मा.) क 3 1 वि०-रक्षा करने वाला, र्षक । सत राग्रीटभ रज रासारण, रज राकोट तपौ महाा व । रछिक-देखो "रक्षकः (रू, भे.) | ध +. ६ चांदी, रजत । उ०--कुभ' रांरा वाठवक जुगत राजऊ न जांखं, राव जतन कजि त उ०-- सुभ सुभड मंत्रि कति लोक सव्व । दृति करति नजर घण है, रछिक चीतीडइ धरार । व = ४. --मू-प्र. रछिपाठ-सं. स्त्री. [सं. रक्ना-~-पालनम्‌] रक्षा सं. पु.-७ जल, पानी । उ०--कहयौ-सारा श्रै श्राय वसौ, जवनैर श्रापोरी रछिषाढ | ८ वादन, मेष । करसी । | & वाप्प, कोहरा । त १० स्तन पाई मादा प्रारियोंके योनिद्रारसे प्रतिमासं निकलने | वाला रक्त जो गर्भकाल में वंद रहता है । श्रार्तव। ्रनेका.) रचिया-देखो ^रक्षा' (रू. भे.) । ता दं ( उ०-तरुवर साखा मूढ विन, रज वीरज रहिता । श्रजरं ग्रमर उ ०--खितपति सुशं ग्रचिक ह्रखांणौ, ठीक वात निट्चौ ठहर ०--खितपति सुरौ श्रचिक , ठीक वात निहचौ ठहरोौ प्रतीत फठ, सौ दादू गहिता । जपियौ मधि कनियाले जावौ, करि रलिया पय पान करावौ। -- सू. प्र. | --दाटूवांणी | | | ११ पृप्परज, मकरंद, पराग) (डि. को.) रज-सं. स्वरी. [सं. रजस्‌] १ धूल, वालुरेत, गदं । १२ केसर । (श्र. मा., डि. को. ह्‌.र्नाः मा.) १२३ धामिकक्षेत्रमे, प्रकृति के तीन गुणो मे से दूसरा गुण उ०--१ गाद गयगांगण रजले गरणाटा। सावण सकी गौ रजोगुण । (सांख्य) । देती मर्णाटा । उ०-१ सत रज तम रस पच रहत रस, ता रस सू मन लागा । यश्रत जरं प्राणं रस पर्व, भरम गया भ भाया। --ट. ष. वा. --ॐ. कृ. उ०--र ग्रसं बुः मकजा गिन, श्राप होय निकज। हरीया ४०११ रजटासी उ०--२ सतगुख श्रविक सोई है ग्यांना, रज तम रोई श्रग्याना । रज तम गुण का वेग प्रचंडा, सत्वगुण ग्यांन नसाया । -खी सुखराम जी महाराज १४ भ्राकार, गगन । १५ धूल कां कणु, जरस उ०--१ तौ पण प्रताप में तौ, श्रतसर दाप वाधौ श्नकसं । रावे राण कां लेखे न रज, एक पांण॒ यंभ प्ररस ! --रा. रू, उ०--२ रण कर रज रज हए, रिव टके रज हंत । रजं ॒जेती घर ना दिये, रजं रज ष्ै रजत । --नाथूरांम महियारियौ १६ भ्र॑धकार । , १७ मानसिक अ्रन्वकार, ग्रज्नान । १८ मेल । १९ पाप। (ग्रनेका.) २० भुवन-लोक । २१ काति, श्राभा, नूर) । उ०--लोयणा लागरिया तरिरा लजवादछा। कोयणा काजछिया रल्िया रज वाटा) , --ऊ, का. २२ शीयं, पराक्रम, वीरता । उ०--मुख नहं नूर उचछाह्‌ मन, वकर नह्‌ कंध॒विरोख । मावडिया लोयण मही, रज हंदी नहं रेख 1 ---वा- दा. २३ रौव, प्रभाव । २४ क्षत्रित्व, रजपूती । (ग्रनेका.) उ० ~ पड्पंच करं न लाज जिकां विड, खोटौ लाभ कृलाभ खरौ । रज वेचवा न श्रायौ रांणौ, हाटां वीच "हमीर" हरी । पृथ्वीराज राठीड २५ क्षत्रिय, रजपूत । उ०-चेतं नह्‌ चारण चव्यं, रज वौ नह्‌ पिणं रर्ज। खाय खव खल सरूसडा, भोम जाय जिण॒ मटन । --रेवतसिह्‌ भादी । २६ राज्य, सत्ता) उ०-- १ ताहरां पत्तिसाह जी दिदृवां कानी देखि प्रर कहियौ जु राखो क्सुतौ रज रावणीद्ध। राजा द्ै, -द, वि. उ०-२ उमरावां दाखी प्रज, कसि करण रज काज । जगत ग्रद्छीनी जाणणे, सो मानी महाराज । --रा. रू. २७ टुकड़ा, खण्ड । उ०--१ निहसं खढां नवत्ल' खी, प्रग्मे दां दुकाल । हिच पड़यौ रज रज हवं, साद्‌ सूरज माल ! --रा. रू. २८ वीयेकोब्रुदया कतरा । उ०-तरुवर साखा मूष चिन, रज वीरज रहिता } श्रजर भ्रमर ग्रतीत्त फर, सौ दादर गहिता । ---दादूर्वांणी स. पु.-२६ एक सप्तपि, जो वसिष्ठ एवं ऊर्जा केपुर्रोमेसे एक था 1 २० धर नामक वसु का एक पुत्र । ३१ विरज राजा का पुत्र एक राजा! २३२ स्कंद का एक संनिक । ० भे०-रज्ज । रजक~-सं. पु. [सं.] (स्त्री. रजकी) १ वस्त्र धोने वाला धोवी) (डि. को.) उ०--श्ररि गज घटा पीठि पुटे इम । जठ सिल तटा रजकं पच्छुटं जिम । --सु. प्र. रू भेर--रजिक । २ देखो ^रिजकः (रू. भे.) उ०--कुवर तुहा सीकमठ, नित भकहग्तौ नूर । देखतडां दुख दुर व्है, पाय रजक सुख पूर) ---वा. दा. रजग-देखो रिजक (रू. भे.) उ०--काठ रहुंदा गाठ रजग रोजी जाकी | -केसोदास गाडण रजगरुण-देखो “रजोगुणः (रू. भे.) रजडवर, रजडमर-सं. पु. [सं. रजस्‌ -ग्राडंवर ] धूल या गरदं का गोटा, गरव्वारा जो भ्राकाश में छाकर प्रंधकार कर देता है । उ०-मिछं रजड्रर यु ब्रहमंड। भख्यौ यिचवांसुर तिमर % < । --ग्रज्ञात रनढांसी-सं. स्त्ी.-राजधानी | शाण ०५ रनेणी ४०१३ रभेनि _______(_-------------~-----------------_---_----~-~_-~~~~~~__ उ०-- ब्रहम दकवीस मंड तोरी रजढांणी । --केसौदास गाडण रजणी-देखो ^रजनी' (रू. भे.) रजणीचर-देषो (रजनीचर (रू. भे.) (<. भे.) उ०--१ रांमरजुतीमे रनु,रम नर्च रज राम । ह॒रीया जांमण प्रर मरण, जाह ताह हरि मु कांम। --ग्रनुमव वाणी रज णी, रजवौ-देयो ^राजसौ राजवीः उ०--२ राम सरला नरप कोय यदना रजे। दयात्रपत राम सम राम करां छनं । ---र. ज. प्र. रजतंत---सं. पृ. [सं. राज ~{-तत्व | शूरता, वीरता । रजत-सं. स्वरी. [सं. रजतम्‌] १ चांदी, ख्पा। ग्र.मा., डि. को. हु. ना. मां.) उ० --१ देव पित्तर इन सू उर, रसक तर किण रीत] हेम रजत पातर हरं, पातर करं पलीत । --वा. दा, 5०--२ वणि रतन हौदा वाधि, सोवनी रजत प्रसाधि । --सू. प्र. २ स्यं, सोना पृथ्वी, भूमी । स्वश, कचन 1 रक्त, रुधिर । हाथी दांत । कटहर । ८ दाकेद्रीप के ग्ररताचेल का नाम । ६ नक्षत्र । वि०~-१ लाल # (ईड, को.) २ शुभ्र, वेत । % (डि, को.) २३ चांदी का वना, सूपाहैला | ४ उज्ज्वलं | ० भे° -- रजित, रयय । रजतक्ूट-सं. पु. [सं.| मलय पर्व॑त की एक सौरी । रजत-धात, रजतधाता रजतधातु,-मं. पू. [मं. रजत धातु] १ स्वरा, (ग्र. मा. डि. को.) (ना. मा.) (श्र, मा.) 1 9 रट ^< ९ (पौराणिक) सोना । (ह्‌- नां. मा.! २ चांदी] रजताचद-सं. पृ. [मं. रजताचल] १ कँलान पर्वत । (डि. को.) , २ भ्रस्ताचल। स्जततात-मं. पु. [सं. रजतातः] मू, भानु । (क. कु. वो.) | रजताद्रि--सं. पू. [सं.] कलाल पर्वत । रजथांन-देखो "राजस्थान" (<. भे.) (रू. भे.) उ०्-मिणवर द्धर्‌ प्रवर गेन मन, तादटुधर रजधर 'सीघ' तरा] पूगी दद पतसाह्‌ परतां, फर कमदढ न सहस फणा । -- महाराणा प्रताप रौ गीते रजधरभम-सं. पु. [सं. राजवर्मः| १ क्षवित्व, रजपूती । उ०~-१ श्रासक्रन' तणां ननीवा' हरा वपिवण॒, रजधरम भार्‌ मुहडं रदायी । प्रथी सावार ब्रदधार्‌ द्योता पटर, प्रणी साघार्‌ तरद प्रव पायी । रजधर-~दे्नो (राजवरः --दुरगादास राठौर गीत उ०--२ रजघरम राग्वियी भूप 'रासा' हर्‌ 1 गजधरम राग्वियौ गरड गामी । --द. दा. २ वीरत्व, पराक्रम । ३ राज्यघमं। ४ देखो ^रजोधरमः (ख. भे.) ॥ (न रजधांणी, रजघांन, रजधांनी-देखो शराजधांनी' (सू. भे.) ^ उ०--१ पुर चठ चठ मुख ग्मन्नन पांगी । रिवी सोध लीवी र्जधांसी । --रा. र. उ०--२ धरम्म विनां देष्वो वर्णी में भयं किति हक भंगी। वरम प्रताप वरापति घारत, रजधांनौ वहूरंगी । .-ऊ. का, रजधारी-देग्वो ररजधर्‌' (र. भे.) रजन~-सं. स्वी.-वादल । (प्र. मा.) रजना-सं. स्व्री.-संगीत की एक मूच्छना। रजनि, रजनीम. स्वी. [सं. रजनी] १ रानि, निखा, रात । (श्र. मा.,डि.को., नां मा., ह्‌. नां. मा.) उ०--दादरू धरती को श्रम्वर्‌ कर, श्रम्यर धरती होद्‌। निस प्रधियारी दिन कर, दिन को रजनी सोद । --दादूवांणी २ ला, चाक्ना। ३ दत्दी । (ग्र, मा.) ४ जतुका नामक्र सता ५ दारू हृल्दी । ६ एक पौराणिक नदी | ७ हाश्री। ८ गदं । उ०--गुडियंत जह्‌ गडाड ए, सरजीत जांसि पहाडणए। मदगंव मद ऊमंड ए, हय पाई रजनी ऊहं ए) --गृ- रू. वं. ० भ्रे०-रजणी, रजीनी, रयणि, स्यणी, रयनि, रयनी । रजनीकर-सं. पु. [सं.| चन्द्रमा । रजनीचर-सं. पु. [सं.] १ चन्द्रमा, चाद । २ राक्षस, ब्रसुर । उ०-- देखि देखि दानव श्रति दारुन, राजिव नयन भये रोसारुन । रननीचरन करन निरमूढहि, सारदूढ चदि गहिय त्रियूढहि । -मे. म. ₹<० भे ०-रजणीचरः, रजनोत्ि-देखो "राजनीति (रू. भे.) उ०-तिए रौति सु वुद्धि घर्म सी तिकौ, धुरा हस्य ऊंडी घरं । जल वाली पालि वाव जर, काज रजनीति हि करं । --घ. व. भ्र. रजनीपत, रजनीपति, रजनीपतौ -सं. पु. [सं. रजनी -{-पति| चन्रमा । (डि. को.) (१. को. रजनीमुख-सं. पु. [सं.] सा्यकाल्सुध्या ॥ रजनोस-सं. पु. [सं. रजनीदा ] चन्द्रमा 1 उ०- तरवर नदियांख सुरसरी सुरतर सरपां गज णेरावत सेस सरां नखत रजनी मानसर, ्रवनीसां श्नोपम स्वधन । --र. र. रजपती, रजयत्ती-सं. पु. [रा. रज भूमि -[-सं. पति भूपति, राजा । उ०-- जो रचन जगपत्ती, लोतै श्रा भ्रमे त्रयलोकं । सोद सत्यं सद्रदं, रेखा सार ग्रंक रजपत्तो । --रा | २, रजपाट-देखो 'राजपाटः' (रू. भे.) उ०--हणै गज भूतकटद्‌ रजपाट, मड रिण दोयणं दे खग भाट । -पे. र. रजपूत-सं. पु. (स्री, रजपूतण) १ सिपादि, सैनिक । उ०--इसड़ी वातां सुणि भीमराजजी उठ मुजरौ कर कही वावाजी साहि हूं तो ग्रापरी स्जपूत चुं । मारवाड रा श्रमरावां री वात > योद्धा, भट, वीर्‌ । उ०--१ एक बुरहान पठांण वडौ रजपुत पहली राव मालदे र वास थौ । पद्यैछंड नं नागौररा वणी रै वासर वसीयौ थौ, सु बुरट्नि नै प्रिधीराज जी वणौ सुख थौ । कर ४०१३ ना री रजपूतण-देखो ^रजपूर्तांणी' रजपूतांणी-देखो ^राजपूरतांणीः --राव मालदं री वात रजपुतांणी उ०--२ रायर्बिह सां वीकौ ईडरियौ नं पठांण हवीव वडा रजपूत थासु वाजिया। --नरसी ३ श्रनुचर, सेवक । उ०--ताहरां दलं कष्या -वीरमजी भ्राज वाढ्मा दिन हिरा दिया छै। ये मांहरं गुद प्रावस्यो तो म्हे थारा दीड़ा करस्यां। धांहूरा रजपूत शां । --नरसी ४ देखो "राजपूत (रू. भे.) (डि. को.) उ० --१ रुचा खुदा रजपूत चिरांमण॒ मि्गा विया 1 वस्य मिट गया विक्ट सूद्र कुठ रद्गा सिटट्या । --ऊ. का. उ०--२ फेर पाद्धौ भ्रायने बोत्यौ-म्हारी मा क्यौ दै र्जपुत तो तेखै लेवें थणी दहे । --भि. द्र. (रू. भ.) उ०-पण धू" मांनजा भीमा । क्यु म्हारं दाय मसू एक रजपूतण तं रांड वणाव । --रातवासौ रजपूतपण, रजपूतपणौ-सं. पु*-त्रित्व, वीरत्व । उ०~-वित वाड धकं ब्रनरौ सुहवे। रजपूतपणौ तन रौ न रहै । --पा. प्र, रजपूतवट-सं. पु.-रजपूती का गौरव, क्षत्रित्व, वीरत्व । उ०्-तिसादहीवागांरावणाव, तिसादही मूचखछांरामरट, तिसा ही भुजां रा श्रामला, तिता ही पोरस रागा, तिसा ही कांमवट रा श्रग, तिसा ही रजपुतवट रा भ्राचार देख नं महाराजा राजेसर श्रजमे र थाणौ राखग्रा छ। ~ र्‌ [. मा. स. (रू. भे.) उ०--१ रजयपूतांणी रुच सीचांणी सिरखी ! नणां जट भरती - सैरणां थद निर्खी । --ऊ. का. उ०--२ जाया रजपुूतारियां, वीरत दीधी वेह्‌। प्रण॒ दियै पांणी पुग, जावा न दिये जेह्‌ । ---वां. दा. # रजपूतार क रजपूताई, रजपूती-देखो “राजपूती' (रू. भे.) (डि, को.) उ०--१ तरं कष्य, जैतसी भतीज, तु रजपुताई में सखरौ द, कल्यां वरं रौ बाहरू दै, तिक प्रौ वर पिर । --जेतसी ऊदावत री वात उ०--२ हरीया दुविध्या दूरि करि, पासी पकड़ एक । रजपरती जिसकी रहै, छाडि न जावं टेक । --प्रनुभवववांरी उ०--३ महिजातां चीचातां मदिढा, एे दूय मरण तां ग्रव्साण॒ । राखी रे किर्हिक रजपूती मरद हदु कौ मुस्लर्मास॒ । --वां. दा. रजवेद, रजवंध-सं. पु. [सं. रजवंध] १ मासिक धर्मे स्क जानकी स्थिति । २ देखो ^रजामंदः (रू. भे.) उ०-जयचंद हरा तो सिर जपू्‌' रजववंदं सव दिन रहुं। उण भाकर सू' राजस श्रगड, सौ सौ कोस दिसा चहं । --पा. प्र. रजवट-देखो "रजवट (रू. भे.) उ०--पन प्रचर पिसन पिक्छं न द्द रजवट वरदं रटरोर ट्द्ि। --ऊ. का. रगवनामी-सं, पु. [फा. रजमग~[-नामः] फारसी भाषा में श्रनूदित महाभारत का ग्र॑ध। उ०-भारत री तरजुमौ फारसी में श्रकेवर करायौ, नाम रजवनांमी । --वा. दा. स्यात्त रजवदछी, रजवली-सं. पृ.-१ राजा । (डि. को.) २ वीर, वहादुर। । रजवी-सं. पु.-१ साग प्रादि पनवानमें दी जाने बाली खटाई उ०--मांस उतार-उतार दुकडियां मे घातने दयै। भिरच धाणा मूठ नुग हृदी वेसयार्‌ दीजै । दही रो रजवी दीर्जरद। --रा.सा. सं. २ देखो "जमी" (रू. भे.) रजमडद-सं. पु.-वरूलि समूह, ध्रूल का गुव्वारा, मर्द के ब्रादल। उ०-हैमयं दीस नर लसकरां क्रह` दूर, वहै सिधुर कहर समर वंडा । ग्राहाडा संड रजमंउट प्रो्छादयौ, पहाडां श्रगम सर्‌ सुगम पटा । - महाराजा जमवंतरसिह रौ गीत ४० १४ रजयगा ए, गणगीत [या व री रजमी-सं. स्वी.-एक प्रकार की लाल रंगकी मिदर | रजमी-सं. पु.-१ साहस, पृश्पार्थ, वीरत्व 1 उ०--रजव रजमा पाद्या गुर दादू दस्यार्‌ | परं श्रवर्‌ का सुख ल्या, सनमुष्व स्िरजण॒ दार । ` --रजवदास जी महाराज २ दाक्ति, वल । उ०--क्या कहिए कटी कहा, रजमां रही मादि । सौ साहि क हाथिरहै,देती ग्रचिरज नांहि , --ह्‌. पू. वा. ३ रजोगुणा । 5० भे०~-रजवी । रजरोगी-वि.-राज्य प्राप्त करने की सच्छा बाना । उ०-जोगी कटु, भव भोगी कटौ, रजरोगी कहौ, की केसेषट ह) न्याई कटी, ग्रो श्रन्याई कटौ, कुकसाई कौ जग जेमेदु ह । --ऊ. का. रजवती-सं. स्वी. [सं. ऋतुमती ] रजस्वला रत्री । (स्मे) उ०--थारे धूषयिया में सौध सूरज ऊग्या। मारी र्जवड़ धू धियौ हीगां जद््ी | रजवड-१ देखो "राजव गा' ; -- तो. गी. २ देखो ^रजवाड़ी' (रू. भे.) रजवट, रजवटु-पं. पु.-क्षत्रित्व, रजपूती, वीरत्व । (डि. को.) उ०--१ तौ रघुराम रं रघुराम, रजवट धारियां रघुराम । --र. ज. प्र. उ०--२ श्रकवर हिर्यं उचाट, रात दिवम लाभी रह है| रजतर बट रामराट, पादप रागा प्रतापसी'। दुरो ग्रादी उ०---३ एकण दिसि रावदछ श्रनम्म, श्रालिमपति दिसि एनः । भभकारं वेहुं ुभर, राण रजवट टेक । | --प. च. चौ. उ०--४ विचव्रांसा कोट जमगणां विच गज भिडजां कीवां गरा । रजवट्र सा चडिया रथे, हिच पडिया अदा" हरा । रा. र. ० भे ०-रजेवट, रजवाट, रजब्वर । रजवण~देग्वो "राजवर" (<. भे.) उ०--वनदड़ी धारे एघूधटिए रकारण कजटी देसां सा हसती ट्याया म्हारी रजवण, धूधटियौ हीरां जश्यौ। मारूदेसां रां रजवार ४०११५ घडा ल्याया, म्हारी रजवण, वनड़ी हीरांए जडयौ मोत्यां ए जड्यौ । थारे धरूघटिए में चांद पवास्यौ म्हारी रजवण । -सो, गी रजवांए-सं. स्वी.-राजपूती, क्षत्रित्व । रजवाइत-सं. पु.-१ राज्यत्व, राजापन । सं. स्वरी.-२ राज्य करने की क्रियाया भाव । रजवाड, रजवाडौ-सं. पु.--१ रियासत या राज्य । उ०--१ तद संवत १५८८ जेठ वद ३ नै मानदे राव हुव । पण वडौ दृस्ट, मू साराद रजवाडां सू किसौ कियो 1 --द. दा. उ०--२ मूढी रौ पापा रनवाडांमें रेवणियौ स्यांणौ हाजरियौ राजनीत सू' रंग्योड-सुधर्योडौ मिनख ¦ ख्यात रर्‌ जत्ति न जास विडद अरर वडाई वन्वांणे । --दसदोख 5० भे०- रजवाड । रजवार-देग्वो ^रजवटः (रू. भे.) उ०-- खतः सुत ग्राउवे काट खग वजा, काट घर दठां रजवाट कैवं । ॥ "श~ ठा. सिवनाथर्सिह कूपांवत रौ गीत रजवाडी-देखो ^रजवाड़ी' (रू. भे.) उ०--रावां सिर-हर राव, राज सिर-हर रजवाडां 1 म धरहूर दैजमां संक क, धरह्र सीवाडां । -पनां रजवार-देखो !राजकुमार (रू. भे.) उ०--म्हारं मन वमियो भंवर, उर वसीयो रजवार । मो सूगणी रो सादिवौ, नीला को श्रसव्रार । --पनां रजव्वट-देखो "रजवटः' (रू. भे.) उ०--भारत भरू भरतार, रजव्वट रंजणौ । ग्रवतरियौ नर्‌ एक गनीमां गंज । -- किसोरदांन वारर रजस्क्ा-सं. स्वरी. [सं. रजम्वला] वह स्वरी जिसकी ऋतुमति की ग्रवस्या चल रही दहो । उ०-- १ रजस्वव्छा नारीह, कथा गोप किण सू कटू । समम हरि सारीह, सरम मरम री सवरा -- रामनाथ | उ०--२ लता जु पुहपवती चै । सु ए रजस्वढा कटी य । तांह सों पवन परस करं छं । इह मतवाचा कोश्रग --वेलिटी =-= <० भे०-रज्जसुढा । ~ रजा-सं. स्त्री. [म्र.] १ इच्छा, मरजी, मंसा। उ०---१ श्रमररिह गजर्सिहजी रं वड कुवर। सांचौररा चहुवांणां रौ दोहिती । सो गजसिहजी री रजा नहीं । ---श्रमरसिह राठौड री वात उ०--२ सी दीवांण रे भलां हुव ज्यु करज्यौ पिएण खनिजादां नं लिखीयौ द । प्राम तौ वरणीयां री रजा। ---राव रिडमलं री बात २ कृपा, दया, श्रनुग्रह । उ०--१ ररा मन रागिरजा मे रहिए, विन हरि रजा वहौत दख सहिए । --ह. पु. वां. उ०--२ राम बाढी रजा सीम ग्य्रीरं रहै णं मांणं कहै । कूगा व्यानं हुवा र. ज. प्र. उ०-२ हम खिजमत कदल, हम्म फरजनघ्न तुमार्‌ । हम सिरि ऊपरि रजा, हकम हम कीयी श्रारं । -गु. रू. वं. उ०--४ इव करतां घणा वरस वीतिया वाशाहरी रजा महरवांनी घी रहै । ---राठौड राजसिह्‌ री वारता ३ प्राज्ञा, हुक्म । उ०--१ घ्यावतां निजरतोसु धरे, तो निवांण निस्चै तिर। राजाधिराज तोरी रजा, ईसर चा सिर उपरं । --ह्‌. र. उ०-२ रजा तुम्हारी रांमक्हौल्यु मै कू । मन गहि पवन संवाहि श्रटक्रिं उलटी धरू । --ट्‌- पु. वां. उ०--३ रीस करी भावं रछियावत - (यत) गज भावं खर्‌ चाद गुलांम । माहरं सदा ताहरी माधव, रजा सजा सिर ऊपर राम । --प्रथीराजं राठौड ४ अनुमति, स्वीकृति, सहमति । । ५ दुद, रखसत । ६ खुदी, प्रसन्नता । ७ प्रशा, उम्मीद, चाह । ८ राजादोने का भाव । रजसत [काक्का व" १ रि गी रजादस-सं. स्त्री-१ प्राज्ञा, हुक्म । २ राज्यत्व | 5० भे०-रजायस्न । रजाई-स. स्वी-१ सर्दी के व्चाव के लिये रोदने का लिद्ाफ या खोना जिसमें रूई भरी हुई होती है 1 उ०--ग्यांन पथररौ घरियी गशृढां, मेती विद्या रजाद्रं मूढां । --ऊ. का, २ राज्य प्रथा | राज्यत्व । रजापण, रजापरणौ-मं. पु-१ हप, प्रसन्नता । २ सहमति । देखो (राजापगौ (रू. भे.) भे.) उ० -१ व्रादगाह देव वहत रजावंद हवी । --गौड गोपालदास री वारता रजावंद-देग्बौ ^रजाम्दः (रू, उ०-२ दसी रजावंद हृवौतीकौ क्यू वर्वांण करणो में नहीं प्राव । --कुचरमी सांखला री वारता (रू. भे. उ०--वादसाह नू चाहिये काम करं तिण मेँ रजावंदी प्रभूरी चारै मन नरी चाहीन कर्‌ । रजावदी-देयो ^रजामदीः --नी. प्र. रजावेध-देखो ^रजामंद' (र भे.) उ०--भीवंजी कल्यौ, पठांण रीसांणौ जायदछं, तिकी' इसां नै वरह वैली रखीर्ज, किण देक वेका श्राढौ श्राव, तिश सू श्र पादौ ल्माय, गोऽ जीमाय नं सीख देयां, गादौ रजावंध करि हसि हसाय न सीखद्यां न सीर करां । --जखड़ा मुखड़ा माटी री वात (रू. भे.) | उ०--सवर मुहे प्राज भरमल दही भरमल होयरही दै) भली टी रजावंधौ मगा नू हुई । रजावंधी-देग्ो ^रजामंदी' --कूवरसी सांवला री वारता रजामद-वि, [फा. सिजामंद] १ जो प्रसन्नया सञ्च दह्ये। उ०--ो जलाल मारांनू रीणः मौज जसा दीठा जिसी दीवी | साया रजामंद हुवा । --जलाल व्रूवना री वाति २ संतुष्ट । ३ जो किसी काय या व्रात्त पर्‌ सहमत हो, तयार हो । राजी । ८०१९ रिर्र्रो = ५ 1 8 2 ¡` ष ए. ष , ति 7 1, 1 १ क व, 1 0 क~ + =. ०--तरं वादसाह्‌ कहियौ-तुम जताल र पान्न जावीग्रौर छोटी रा नरि हमारे टहुरावौ तो हम रजामद ह। --जलात् यवना री वात ० भे०-र्जवंद, रजव ध, रज विद, स्मविव । रजामंदी-सं. स्री. [फा. रिजामंदी] १ ^रजामंद' होने कौ श्रवन्धा या भाव । २ प्रसन्नता, सुघ्ी । उण्-च्येक्यू.करेसो ममार रा भला व प्रभू री रजामंदी , नू करं । । + --नी. प्र. ३ महमति, भ्रनुमति । , उ०-- तौ वछद, कुत्तौ गोधू श्र भिनणख री रजामेदी सू ऊमर्‌ राश्री नवौ जमा खरचनव्दगी | । --पुःलवाड़ी ४ इच्छा, मर्जी। .रू० भे०-रजावंदी, रजार्वेधी । रजायस~-देवो ^रजादइस' (रू. ) = रजि-देखो ^रज' (रू. भे.) उ०-- नगा श्रि नाठ, वर्जं विकराल) धरा रजि योम, वरै उडि वोम । --सु.प्र. रजिक~-१ देखी “रजक (रू. भे.) उ०--वंव वंदूकां वंध, धुप दछोखां जलधारां । दिये फल दाम्बां, रजिक पाटिजं श्रपागां । -सू. भ्र. २ देग्बौ रिजक (रू. भे.) रजित-देषो ^रजत' (<. भे.) उ०--वड वड कुट वरियांम, साख पेतीस सकाजां । सुता दियस वासतं रजितत स्रीफढ समि राजां । --सू- प्र. रलजितमर्ई, रजितमय-वि.-१ चांदी का, चांदी सम्बन्धी | २ दवेत । रजियोडी-देखो "राजियोडौ, (रू. भे.) (स्त्री. रजियोड़ी) ` रजिस्टर-सं. प. [म्रं.] पेजिका, पुस्तिका ] रजिस्टरी-सं. स्वी. [भ्रं] १ राज्य कै नियमानुसार किसी सन्कारी ४०१७ रजोधरम रजिस्टार कार्यालय में प्रतिज्ञा-पत्र श्रादि को किसी पंजिका में दज कराने का | रजूु-! देखो ^रज्खू (रू. भे.) कार्यं । पंजीयन । २ डाकखाने मे, सामान्य दरसे ग्रधिक दामं देकर, पंजीकृत करा कर, भेजा जाने वाला पन्न, पासंल श्रादि। ३ किसी जमीन या मकान श्रादि की खरीद के दस्तावेज । रजिस्यार-सं. पु. [श्रं.] किसी विद्व वि्यालय, हाईकोर, वोडं भ्रादि के कार्यालय में होने वाला पंजीयक का पद । २ उक्त पद पर कार्यं करने वाला व्यक्ति। . ३ कानूनी दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने वाला प्रधिकारी । रजी-देखो ^रज (रू. भे.) उ०--१ उड तुरंग तेः रजौ समग्ग धावती श्रटे । करे छकांन चऋवती चिता, विद्यावती टे । (र. मा., ह्‌. नां. मा.) --ॐ. कं. उ०--२ द्र दोऊ दिस ्रावरे, सूर दमांमां देह । हरीया रिव छायौ रजो, प्रायां गया न छह । --ग्रनूभव वाणी उ०--३ कोसिक ज्याग शरभंग सिहायक, दांणव धायक दुधरी पाय रजी रघुराम परस्सत, श्रा व्रीय गौतम उघरी । ` - --र. ज. प्र उ०--४ मछह वग साव श्रुल, गुडिली यग मिदि गौधूल । उपर रजी धार प्रंधार, दौड़े खुरम रा दकार । । --गृ. <. वं. रजीडंट-देखो ररेजीडंट' (रू. भे.) ` रजीदानी-सं. स्वी. [सं. रजः-[-फा. दान रा. प्र. ई. स्यादि सुखाने के लिए वारीक रेत रखने का पात्र, जिसके ठक्कन मं चलनी कौ तरह छिद्र होते ह । वासूदानी । रजीनी-देखो "रजनी! (रू, भे.) रजु-१ देखो “रज्जुः (रू. भे.) २ देखो “रज्जू. (रू. भे.) रजुग्रात-सं. स्त्री. [श्र. स्ुम्रात ] १ मित्रता, मेल-जोल । उ०-- राव माहप रा वागड़ वणी 1 एेसदा चीतोड़ रा राणा री चाकरी करता प्चैसै दिलौरा पातसाहां सु पिण रजुभ्रात रवैद्य। --नंणसी २ लगाव, भुकाव। रजुता-सं. स्त्री.-१ रज्जरुदोनि की ग्रवस्थाया माव ॥ २ सरलता, सीघ्रापन ३ सहमति । उ०-१ रामरजूुतौमेंरन्ुर्मन रजु रज राम । हरीया जांमण ग्र मरण, जांह्‌ तांह हरि सू कांम। --्रनूुभव वांणी उ०--२ दोनु चितोड नु चालीया । चितोड जाइ रज हुवा । --चौवोली उ०--२ पी भीवराजजी घोड़ा ५० सू चढ दिल्ली गया । त पातसाह्‌ हमायू र पावां लागा। तद पातसाहजी चाकरी र्न किया) -द, दा उ०-४ पाखती भोमिया था व्यांनू मेत्दिया रौर भारिया . सो लोग सगा रजु हद गया । ---ठा. जे. २ देखो ^रज्जु' (रू. भे.) रजुवाकी-सं. स्व्री.-ऋणए कालेखा जोखाकरने के वाद ऋण की श्रवशिष्ट रहने वाली रकम । रजूनांमौ-स. पु. [ग्र. रजु~+-फा. नामः] स्वीकृति-पत्र, सहमति-पत्र । उ०-सं.१७१६ चत्र एक दिन भ्रालमगीर कहायी साहिजांन जीकंदर्महा व्थानू, जो हजरत पातसाही इनायत करण का मेरे तांई्‌ रजुनामा लिखदेवौ । --द. दा. 5० भे ०--रज्जुर्नांमौ । रजोकुदढट-स. पु--राज्य कुल । रजोगरुण-सं. पु. [सं.] धार्मिक क्षेत्र मे, प्रकृति के तीन गृणों मेस दुसरा गुण । इसकी भ्रभिव्यक्ति, सात्विक तथा ताममी त्रत्ति के वीचकी दजला होने पर होती दहै । उ०-रजोगुण ब्रहमगुर सातसी, तिकौ ग्यांन पतिसाह गिणी। तामसी रूप सकर तणौ पति गुणा मा रांम पिरि] --पी. ग्र. रू० भे०-रजगुरा । रजोगरुरणी-सं. पू.-१ ब्रह्मा । (ना. मां.) सं. स्त्री.-२ रजोगुण वाली च्रृत्ति या भावना। वि.-रजोगुगा के भाव वाला । उ०--भ्रवे इण वखतर्म वे रजपूत रजोगुणी राज राग रंगमें रंजीयोडा वीर है । --वी. स. टी. रजोदरसरा-सं. पु. [सं. रजो-दशेन] स्त्रियो की रजस्वला होने के ग्रवस्था या ददा । रजोधरम-सं- पु. [सं. रजोधर्म ] स्वियौ का मासिक वर्म । 5० भे९-रजधरम । रजोभूरती ___,-_-__-------------_-~-~~~~~~~~~ रजोमूरती-सं. पू. [मं. रजोमूरति] ब्रह्मा 1. उ०~-तुटही भीठणी मेख संभ मुव । रजोमुरती नेव तृही मदाच । --मे. म. रज्ज-१ -देग्बो "रज' (रू. भ.) उ०--१ माम तरौ वट सूरमा, रिमां गिरी तिल र्न । ऊथाछ ग्रजमाल चछ, भाक प्रागा सकज्ज । --रा. रू. उ०--२ गज्ज उधोदधिया रफ्न भू' गड्छा। धम मे परव दीपे किर्‌'धुवच्धा । --- गूर छ. व्र. उ०--3 दाछिया दहटरा परेन वंकी धड़ा । रज्जं उट रवी धों धूर । -म्‌. प्र. २ देषौ (राज्यः (रू. भे.) उ०--ग्रोरंग पतिसाही ग्रही, दहवटि करि दाराह्‌। रज्ज पियारा रज्जियां, भाई दुमियाराहे । । --घ. व. ग्र. (रू, भे, ) उ०--दवृ् पीत लोभयं, सुरूप वीज सरोभयं 1 निखंग पीठ रज्जयं, मुचाप पाशि सज्जं । रज्जरौ, रज्जवो-देग्वो 'राजणौ गाजवीः --र ज. प्र. रज्जधुल्ा~देखो "रजस्वला! (रू. भे.) रज्जियौ-देग्रो "राजवी' (ख. भे.) उ०--ग्रोर्ग पतिमाहि ग्रही, दहवटि करि.दाराह । - रञ्ज पियार। रज्जियां, भाई दुपियाराह घ. व. ग्र. रज्जी-१ देखो “रज (रू. भे.) | २ देग्बो “रज्जुः (सू. भे.) ३ देखो “रज्जु (स. भे.) ८ देग्मो धराज (रू. भे.) रज्जु-मं. पृ. [स.] १ रस्सी, डोरी, रम्सा। उ०--रज्जु विनवी न कूमर्‌, पदं कूप मार । --वि.कु २ वागदोर | ३ म्त्रिथोकेचिर्‌ की चोरी) ^< ्रीर्स्थ रंग विडोप ६१५४० ,, न 10 ~ ६०१४ रट [०1 ती ५ एक प्रमाशःविदेप ` (जन) वि. वि.-जंन मतानुसार ३, ५१, २७, ६७०, नने ` मणा के वजन को “एक भार' कहते दँ । दमे १००० भारका लोहे का गोला उसे कोर्ट देवता ऊचे स्थान से नीचे को डने, वह गोत्रा ६ माम, ६ दिन, ६ पहर ग्रीर्‌ ६षडी में जितना. क्षेत्र पार कर, उल्लंघन कर नीचे प्राव, उतनेक्षेत्रको एक रउजु प्रमाणं जगह कहते ह । ६ देग्यो ^रज' (र. भे.) ७ देखो रज्जुः (.भे.) ० भे०-रजु, रदु, रज्जी । रज्जुनांमी-देमो ^रजुनामौ' (र. भे.) रज्जु-वि.- १ प्रसन्न, स्वरो । २. सहमत, एकमत । ३ श्रनुकूल । ४ प्रत्यक्ष, सामने, स्त्वस्ट । ० भे०~रजु, र्जू, रज्जी । ५ देवो “रज्जु (र. भे.) स ^ ~ उ०--१ रज्जु मे सरप सीप माही रूपा, श्रन होता दै योई) तमगृण गू समान युमुक्ती, कटने मातर होई । । --स्री सुखरांमजी महाराज उ०->, तर जड़ मरपं दरा दिम्ट मिरी, गुद्ध रञ्ज अ्रातम धांणी । जाग्रत स्वप्न सुसुपती तुरीया, च्यारू ई भरम विलांरी । --स्री मुखरांमजी महाराज रटत-देखो "रट (रू. भे.) रटती-सं. स्त्री.-माघ कृष्णा चतुदंगी, जिस दिन सूरग्रोदिय समे पूर्वं स्नान करना उत्तम माना जाताह। रर-सं. स्वी.-१ ईदवरया दष्टके नामको वारवार्‌ उच्चारण कृरपे की क्रिया या भाव, ध्वनि, जप! उ०-रट हरि मुख पति , व्यान रहायी) मंजगा कर्‌ सिगार मंमायौ । । --रा. रू म किसी ङब्दका वार वार किया जाने वाला उच्चारण या उच्चारण करते हुए याद करनेःका श्रभ्यास । रटक~सं. सत्री.-१ मुकावला, सामना, भिड़ंत, टक्कर । उ० -- काठीगे ऊपर करं काइमि कटक । राकसां हृति रहमां॒ ' लीर्जं रटक । २ तीव्र गति से किया जाने वाला ्राक्रमण, हमला.। २ युर, लडाई, भगदा । ---पी. ग्र रटकयण उ० -- साहां तणी धरा सिर साट, रहता खाय तेतौ रटक । श्रत दिन पलां रने श्रापरा, करि माथं लेगौ कटकः ---राजा केयरीसिघ दोखावन रौ गीत्त क्रि. वि.~-४ चाव से) उ०--गुखा जीमतो गटक, प्रव नहि भावं वान । राव रोगतां रटक, जर्‌ नह सीरी ज्याने । --जुगतीदांन देथौ ० भे०--रटक्क, रटाका, टकः । ग्रत्पा०--रटकौ, रटक्कौ । ` रटक्णौ, रटकवौ-क्रि. स.-१ दौडना. भागना । ^ ॐ०--धाड़ा पाड कर रटके धरत, घने पटकं धरधूस) नठ्के साधू वन निराक्रा, सरटके मादा सूस । --ऊ. का. २ मुकावला करना, सामना करना, टक्कर लेना । ३ श्रारूमणा करना, हमला करना, किमी पर्‌ हट पड़ना ॥ युद्ध या लडाई करना । रटकणहार, हारौ (हारी), रटकरियौ --वि. ष रटकिश्रोडी, रटकियोडा, रटम्युडौ -भरुःका. कृ. रटकीजणौ, रटकोजव --केमं वा. रटक्कगौ, रटक्करवौ -- र. भे. रटक्ियोड्ौ-मू. का. कृ.-१ दौड़ा हृम्रा, भागा हुत्रा. २ मुकावला च्या हृश्रा, सामना किया हुग्रा, टक्कर नियाहृग्रा. २ अ्राक्रमणया हमला किया हृग्रा, किसी पर टूट कर पड़ा श्रा. ४ युद्ध या लड़ाई किया हरा । (स्त्री ° रटकियोडी) ररटकी-देखो ^रटक" रटवक-देग्वो ^रटक' (रू. भे.) (र. भे.) उ० - वधि चक्कं उचक्कत राह विय, करि टक्कं कटकः रटक्क किय । नू प्र रटक्कणी, रटक्कवौ-देग्धो ^रटकणौ, रटकव' (रू. भे.) रटक्कियोडौ-देखो ^रटकियोडौः (स्त्री. र्टक्कियोडी) र्टक्कौ-देखो "रटक' (रू. भ.) (ग्रत्पा., रू. भे.) उ०-~-१ रिमि-न रटक्कां राचरा, जंगी जडं न जंग । सिव जौगग मरू सगत, चिलखं लख वारंग । --रेवतसिह्‌ भारी उ०-२ भटक्कां हजारां वै, सरीग्वां वटक्कां फट! रटक्कां वटक्का, रिमां कर गाढं राव । --वुवसिह्‌ सिद्ायच ४०१६ रटरण, रररणी-स. स्व्ी.-१ रटने रट्यी कीक्छिया ग्रा भाव, रट, जाप । २ धोपरा । ३ जिव्हा, जीभ । (ग्र. मा.) ६ रटणौ, रटवौ-क्रि. मस. [सं. रटनम्‌] १ इष्टया ईद्वर के नाम का वार-वार्‌ उच्चारण कर्न भजन करना | जाप करना, जपन, रटचा । भगवत्‌ उ०--१ वनवे पुरख व्रडा प्ण धारी, खलक सिरोमण गुजस खटं । उमे दान ऊवमं श्राचां, राम रांम मृखे हूत रटं । र्‌ अ उ०--२ उदर भरणी घर धर प्रट, रटं नहीं छरीरांम । सूस करं कवडी सटे, ते गख घटे तमाम । --रवा. दा. उ० -३ म्रथ श्रोमक्रार श्रक्षर्‌ उचार, निस दिवस नामि रट राम रुम} --ऊ. क. उ०-४ राम रांम रसना रट सोई जुगमे साध । हरीया मिवरन सहज का, वाका मता श्रगाध । --ग्रनुमव वाणी २ किमी गव्दका वार वार्‌ उच्चारण करके याद करने का ग्रभ्यास करना । ३ किसी के गुरा गाना, कीति या यश्ोगान करना । ४ कट्ना, बोलना । उ०--१ इम सुणि जवाव श्रवरंग हूं, रावत जसवंत गा रै । नह्‌ दियां साह खावंद नरिद, सीस दियां च्रावंद सरह । '- सू. प्र. उ०-२ रटे हैक '"पदमौः "रतनावन' दूजौ ¶पदम' रटं दीलावत' । --सु- प्र. ५ विलाप करना, रुदन करना, रोना । उ०--१ लागी दलि ककि म८लयानिट नान त्रिगण परस्तं खथधां त्रिस् । रटति पूत मिनि मधप नखरा, मात च्रवति मधु दूव भिसि । पेलि उ०--२ राजस्यांन रट कविराज, कीरत दान कटांणी । गयौ जान हृत गुण ग्राहक, 'मान' हरौ माणी । --ऊ. का. ६ जीर से बोलना, चिल्लाना, चीखना | ७ घोपरा करना । ८ गजना । ६ भरुकना। ग्टण्हार, दारी (हारी), रटणियौ र --वि०। रिग्रोड़ो, रटियोड्ौ, रटचोड् -- भू. क [ [1 क्र [। रटारा ऋ रटीजरी, रटीजवौ --केम वा. --र<. भे. ग्ट, टवी, रट, रवव, रटांस-सं. स्त्री.-१ श्रनाज या फलादि कौ परटिपिक्वावेम्थरा । २ रध्नेकी ध्वनि । रटा-मं. स्त्री--टक्करगर उ०्-रिमांष्रू उथाकौ चंडीरीमरी रटारौ जायौ 1 भाल क्रिनांरईमरीजटा रौ जायौ भूत । --मूरजमढ मीम वि०--गायक, गने वाला । उ०--दती घटा छटा सय दामि, सर्वा पटां सिव्ठाव सर । कवि जस रटा थटा गुणा केकी, हरिदन छटा श्रजीत हूर । -- महाराजा मनििहजी रौ गीत रटाका~देखा "रटक' (<. भे.) उ०--ते भड़ा रटाकां पूर्‌ प्ररिदा ताडव्वा लागा, महावीर्‌ वीज मे पाडव्वा लागा मूट। --सुखदांन कविय रणौ, रटावौ-क्रि. स. ['रटणौ' क्रिया काप्रे. ङू.] इष्ट व ईदवर्‌ केनांमका वार वार उच्चारण कराना, जाप कराना, जपाना, रटाना । भगवत भजन कराना । २ किसी जव्द का वार्‌ वार उच्चारण करवा करयाद क्रराने कां ग्रभ्यास कराना । ३ किमीके गुण गनि या यणोगान करने कै लिये प्रेरित करना । ८ चलाना । ५ रुदन या विलाप कराना, सुनाना । ६ घोपणा कराना । रटाणहार, दारौ (हारी), रटाणियौ --वि. रटायोडी --भू. का, कृ. रटाटजगणो, ग्टारजवीो --कर्म वा. र्टावणौ, रटाववौ --र, भ. रटायोडौ-भू. का. कृ.-१ इष्टया ईब्वरकेनामका वार्‌ वार उच्चारण कगया दुश्रा, जाप कराया हुप्रा, रटाया दुश्रा, भगवत भजन कराया हरा. २ किसीके गुण या यथ गाने के लिये प्रेरित किया हुग्रा, 3 क्रिसी राब्दे कावार वार्‌ उच्चारण कराकर ग्राद करानेका ग्रभ्याम कराया हग्रा. ४ वोलाया ह्र. ५ स्दनया विलाप कराया हुमा, सनाया द्ूम्रा. ६ घोपणा कराया हुभ्रा ] (स्त्री, ग्टायोडी) रटावरणौ, रटाववी देयो "रटागौ, रटावी' (=. भे.) रटावगहार, दारी (दारी), रटावशियी --चि. | ४०२० रदुर्यड्‌ [मी मणीषी पि । 111 ति रटाविश्रोडी, रटावियोड, रटाव्योहरी --भू- कल. कर. । र्टावीजणौ, रटात्रीजवौ कर्म वा.) रटवियोडो-देखो ^रटायोडः (ख, भे.) (स्त्री. रटाधियोडी } रय्योड-भू- का. कृ.-१ इष्ट यां ईव्वर कै नाम का वार्‌-वार उच्चारण किया हूुश्रा, जाप क्रिया हुग्रा, जपा हमरा, रदा हु्रा, भगवत्‌ भजन किया दहृश्रा. २ प्रादे करने के लिये किसी शब्द का वार-वार उच्चारण किया ह्राः ३ किमीके गुरा, यगय कीति का गन क्रिया दग्रा. ४ कहा हृश्रा,. वौला हमरा, ५ विलापया रुदन किया हूुग्रा, रोयादहृश्रा. ६ जोर सेवोना ह्र, चीखा हृग्रा, चिल्लाया हूभ्रा. ७ घोपणा क्रिया हरा, ८ गर्जाहुश्रा- & भूकाटहृग्रा। (स्य. रटियोडी) रष्क -देखो ^रटक' (रू. भे.) उ०--रटूक तीराकी रची, धर्‌ श्रक्रकट चित धार। फिर दट कर कीधी फते, 'लाकटहूरट' की लार्‌ । क --जुगतीदांन देश रटुणौ, रटवौ-देगखो ^रट्णौ, रटवौ' (रू. भे.) उ०--री दिया रिडमाल नं, नव कोट वचरम नर। राव मुषा इम रद्य, कमयन जोड कर | टा. जुकारसिह्‌ मेडतियी रह्ियोडौ-देरयो "रदियोड्ौः (स्त्री. रद्वियोडी )} रदु. स्वी.-१ कडके की सर्दी, ' तेज सर्दी } (रू. भे.) २ देखो “राष्ट (रू. भे.) रट्ुवड़, रढुवर, रद्रोड, रद्र, रीड, रहौ र~देखो ^राखौड' (रू. भे.) उ०---१ भ्राज विहा रटरवड़, लडकी लकाद्धा । --सू. प्र. उ०--२ वंस प्रगट धिन भासकर, रट कुदवट रद्रोड । मल तो 'पातल' मुच्छ, वट, जग उप्रवट जम जौड्‌। --रजतदांन वारदूट उ०-> रनवंका ध्वजं घज धुर रहत । ह हत । कौन हम र्रर र्ठ _ ____ ~~~ रठ-वि.-द्रट्‌, मजन्रूत । रठ्ट-सं. स्तरी.-१ भारी वोभ के कारण गाड़ी या शकट से चलते समय निकलने वाली घ्वनि विदेप । २ तलवार । । उ०--"तेजलै' विय कर रठड भेष तुरी, वोम पड कठठ काय भटकती वीज । मूढौ वीरंमियो रट्टणी, रठ्ठवौ-ङ्रि. अ.-भारी वो के कारणं गाड़ी या शकट का चलते समय भ्रावाज करना । रल्ठाणौ, रठठावौ-क्रि. स.-पींसना, घसीटना । उ०--प्रादीग्रां डंगरां घातिग्रां चरू रख्डाविजे द॑ । तांह्‌ चरां रा निहाव्या सू पहाडे पडिसादानें रहिभ्रा छे । --रा. सा. सं, रण्ठायोड्-मू. का. कृ--घसीटा हृम्रा, धीमा हुप्रा । (स्त्री. रठठायोड़ी) रठ्ठियोडौ-भू. का. कृ.-श्रावाज किया हुप्रा । रठणौ, रठ्बौ-देखो "रट्णौ, रटवौ> (रू. भे.) (रू. भे.) रढावठ-स. स्त्री.-मारकाट, मारपीट । रठ्वड-देखो 'राठेड' रठोट-वि.-टढ, मजबूत 1 रटौर-देलो "राठौड' (रू. भे.) उ०--वाल वय हमै जयकार हवी रढीर रंग । जंग सग दन्द प्रग नांहि प्ररसायौ ह । ह --साधु सेवादास रड-देखो “रद! रटकवी-देग्वो “रडी' (स. भे.) (स्रल्पा., रू. भे.) उ०--ताहरां वेसवटै' कल्यौ, भाद्रवै री तरस रडकवी कनं चौगान मुर ग्राय उभौ रहं। ॥ --मूटवं सांगाचत री वात (रू. भे.) उ०--१ प्ीजई मूभड रडदइ वाल जिम सयरु संतावह । कमलिखि कांणणि मण समाधि सा किमड न पाम । रडणौ, रडबौ-देखो ^रदणौ, रडवौ' --सालिमद्र सूरि | रडु-देखो ^रढ' उ० -२ अ्रच्रदिणंतरि गिरिसिहरे राजा रमलि करेड। | कुंती करयल ग्रडवङ़्डि रडयड भीम रुडेड । --सालिभद्र सूरि ४०२१ र्ट उ ०--२ रोती रडती श्रावजं । --धरम पत्र उ०--४ राय रडड ग्रवनी पडड, वूःट्द्‌ च्रूटद्‌ वेणि । भ्रस्नूपात दम उल्लरइ, सवचछ न चुट सं णि । --मा. का. प्र. उ०--५ कापडीश्रा माहि कामिनी, सौ नर सूतउ भालि। काम-कंदला कटी रडड, श्रवर न वीजी प्रालि -मा.कां. प्र. उ०--६ भाद्रवडड सरोवर भियां, नीर निरंतर हौड । रिदयां- भीतरि हुं रड़, नीर निवारिन कोड्‌ । --मा. का. प्र. रडबड-देखो ^रइवंड' (रू. भे.) उ ०-तडफड साकुर हिज तु ड । रडवड उड गड़ां जिम रंड। -गो. ख. .| रडवडरणी, रडवडबौ-देखो “रड़वडणौ, रडवडवौ'! (रू. भे.) उ०-रडवडता गलीए मूभ्रा रे, मडा पञ्या ठाम ठम । गलि मांह थद्‌ गंदगी रे, द कुण नांखण॒ दांम । स. कु. रडव्वड-देखो "रडवड' (रू. भे.) उ०-भडीयड भाजि मरगड मूड । रडव्वड रणा करंडक रूड 1 --ग. <. व. रडा८ठ, रड्धी-देखो ^रढादढ, रडामौ' (रू. भे.) रडियोडी-देखो "रडियोडी' (रू, भे.) (स्त्री. रडियोड़ी) रडी-देखो ^रड़ी' (रू. भे.) उ०--राजा क्यौ, रडी साम्हीदह्‌ंतीत्तिका वात इये उपर भ्रांरा उभौ राख -मूठवे सांगावतरी वात रडी-देखो रड़ो' (रू-भे.) उ०--तू चं माघ कीयौह, गोव्दाटी प्रा रडौ । पैधर डिगीयौ पावडो, बडी दीहाडोह्‌ । -देपाछ धंधरी वात (रू. भे.) उ०--मारूवाडि का देसमहं, एक न जाई रु] कदिही होड | ग्रवसरण॒उ, कड फाकड कड्‌ तिह । { न रत ४८२५ र्द राकावााताचकगयकाककण्डका "9" "यिषा ाकयाकायकानय्रकावकण्णकक 9 पष रढ-स. पु.-१ हठ, जिद्‌ । उ०--२ मुर्ताणुमु दीर्वरागा संचित, तागा मर तुदामि | द पण उ०--१ तरं कांनड्देतोषगू ही कद्यौ~तरे गुण? म्ह गुण? जमददु पारा दासव, राग जिग रढरांण | पण॒ वैर्‌ रढ माड रही, --नयागी --नणसी २ वतवान, धक्तिक्षालती | उ०--चू डराव रिणमत्न, राड “जोभो' रटरसमणा । शूजौ' वाधौ उ० --र स्वी वालक पुहोवी धीर्‌, ए तिहूं एक सभाव । रढ 1 'ग गेव' (माल! गढ कोट पनदरुगा । नवि छाई श्राषगणी रे, भवे तौ घर जापर । | --प. च. चौ, -शु- ८. वर. ८ ठ्टी, जिदही। २ गर्वं, ग्रभिमान। ५ वीर, बहादुर । उ०--रेट मेटगा रांमण रदटेरांगा। --ट्‌.रना. गा. उ०--रकें पाच द्विया रढरंण दूयौ श्रमवर्‌ मधय रटृसंणु 1 २ प्रहुफार। (श्र. मा. ह्‌. नां. मा.) । --गो. म. ४ कण्ट, संकट | ५8 ५ वल, णक्ति, पीरुप । स्० भे०~र रागा, रदगंगरौ, रद्र, रद्टगव । वि--१ प्रान~वान वाला, महान, वड़ा । रटराय, रढरावण-देणो “रटरामग' (=. भ.) २ वीर्‌, वलवान । उ०--१ जुट रटराव वहम मोघ । ३ टद्‌, मजबूत --गो. म्‌. रं, रड, रु, रि, र्ट, रदु, रहर ला <° भे०-रढ, रड, रह, रि, र्ट, रद, रह । राट, रढाटौ-वि.-१ दटी, जिद 4 दशं रदवं ५ 51 | पां न र # ष १ । ॥, गं रढरणी, रदबौ-देखो !रडगी, रडवी (र. भे.) उ०-१ भाटक कोट दग्नौ जभार, रच भाराय राटी | उ०-र्े डाढ काटे वदं नाग रीस, वदघ्नं वहे सोढ पचास पडियां सीस पटं पानटमी । श्रनदर पलोधी भ्राद्धौ । वीस । काटी नागनी जुद्ध मातौ करसन, वही जम्मनां पुर रसिद्ूर --ग्राक्डदांन सालस व्रन्ने | उ०--२ गौड़ गौड, वंव टीट गराञ्रु, राद्ध सुरति मिरी ५ रटद्ध । दुनहणि जोय "वीद्छ' रौ दृनहौ, मन उलदी में उ०--२ सिरं धणी श्रासोप' दृभल भरहेढ तम दारण । रदे वरमाल । "न्ह" राम रौ, स्याम काम रौ सुयार्ण। -मरत्यांणदार राव 9 २ रीर, योद्धा । रढणहार, हारौ (हारी), ररि -वि.। उ०--१ राम तणौ रिखद्धोड रद्य वां वति वान रदिम्रोडी, रियो, रख्योडौ --भू. का. कृ. । धाराढां 1 मुदर' सुत श्वांमत' सिवाढा, रेणायर' (नयम रटढीजणौ, रदीजवी --कर्म वा. । रबनाद्या 1 रढरां, रढरामण, रढरांवणा-वि.-१ टद्‌, मजबूत, श्रदिग । नर ~ उ०--मुख्या नह केक त्यी नह्‌ माण । सद्या वे पुरथिया उ०--२ करमसिघ' कलिमत्थ, सके "राटसिघ' रटद्ा । वीद्रा ररा । विकमादत “भीम' भारमल भजाना । „ म प्र, घ्र. --लिग्गीदांन ऊज ` ३ दाक्तिधानी, कलवान । २ श्रपनी श्रान पर मरने वाला, टद्‌ प्रतिज्ञ । उ०--श्रंगद मेलियौ सद दूत श्रपंपर, वठ ग्रक्ां मजवूत्त वडाठौ । ॥ जं स जु + ४ म न उ०--१ पुरता गजी' लडण॒जुध सारा, हरी" तणां मौहरी वप निगार धूत चट वटी, रचे सभा श्रदभूत रढाछ्ौ। देजा्स । ग्रामी करन' ततणौ स्ठरयमरा, वाथ वमौ प्रग जिम । ~र. ८, चामर 1 ० भे०-रंडटठ, रंडाल्टी, रदा, रल, रामौ, र्ढालौ, रडाठ, स. रथाट्टी, रदिश्राद्धे, रद़्ीलीौ | रहि रहि-१ देखो ^रड़ी' (रू. भे.) २ देखो ^रढ' (रू. भे.) रटिग्राौ-देखो “रडाट' (रू. भे.) उ०- के काई्‌ कांमणा करय, रे रटिश्राढ्ा मित्त 1 तिणकी सुध भूली गई, चोरी सीधी चित्त । --दढो. मा. रटियोडी-देखो ^रडियोडी (<. भे.) (स्त्री. रदियोडी) रदीलौ-देखो "रडन्य' (रू. भे.) उ०-श्रालिम अ्रडीली रे किण दी परि टीलौरे। टोवंन रटीलौ तुरक गयौ गुते रे । --प. च. चौ. रद, रद्‌, रद्ढ-देखो “रट (<. भे.) उ०्-देवी रदढ रे रूप दमक रूटी । देवी सीलं रे सूप सोमित्र बरूही । -- देवि, स्णंकणौ, रणंकवो-देखो ^रणकरत, रणक्वौ' (रू. भे.) उ०-१ रशांकं तिकां घोररूड़ी रचा, सखणंकं फिनां भल्लरी रोर ठाई । । --चं. भा. उ०--२ सेत ककाधार्‌ धींग इंडाठां पंखागां खम, ररणंकं भेरी वीरूप सूरा भरं रीस । | राव सत्रसाढठ रौ गीत उ०--३ वट वीर तोपां सनां भणंका वज । ग्रच्छरां ररणंकं नगां नूपरां एवा 1 ` --चिमनजी री गीत - रणंकियोडी-भू. का. कृ~-व्वनि हुवा दहत्रा, ध्वनित । भक । (स्त्री. रणंकियोडी ) रणकौ-सं. पु.-किसी वाद्य या प्राभूपण कौ ध्वनि, भणकार 1 उ०्-येवीकटुवाधा कटर, ताविमंक ताधि्मक, रमा भमां ठमां यमां क्र्म एण रीत 1 रखका ऋणंका खाति भाति का रसाल सामा, राद्नादौ देख नाटक संगीत । | --ल. पि. रणंजय-सं. पु--सूयवंनी एक राजा । उ०--जिरष यप वह्नि नुजाव करतजय। जेण सुजाव नरेस रणंजय । -स्‌. प्र. ४०२३ रषा [की | 'रणताठ' (रू. भ.) उ०- राठौड़ रचेवा रणंताछ, वांमंग उहै वीजछा भाठ । वाध कंदील संव चिवांण, कोसीस भज दीना करवांण । --गु. र<. वं. रण-सं. पु. [सं. रणम्‌] १ युद्ध, समर, जंग । । उ०-१ पासश्राएकी लाज कुठ काज विचारौ। मेरारण मरणा कं जीवणा सुधार । --रा. रू. उ०--२ भपीथत' जयचंद प्रगट मार खाईरण मीटी। नवरोजी परनार दिली गछ गई सह दीटी । --ॐ. का. उ०--३ गाह गजराजां गुड़ं रुहिर मचावं कीच । ज्यां नवग्रह पाधरा, जे वंका रण वीच । --वा. दा. २ र॑ण क्षेत, समर भूमि, युद्ध का मंदान 1 उ०-सजै फौज काट्ठछ धरर घां नीसांण॒ धुर। भ्रनठ धुभ्रा रवण रण ऊजाथ। ---गु. <. व. ३ शोर गल, प्रावाज, ध्वनि । ४ वीरा कौ स्वर । ५ गति, चाल । ६ स्वर का श्रत्पतमश्रवल। ७ निर्जन वन । उ०--ग्रोपौ भ्रादी कहै ईसवर, नित राख चित थारौनांम। तु छती माय देवण सुख तू ही, रणां तणी वसती तू रांम। ---प्रोपौ श्रादी ८ लमक की मील! ६ वीणा वजाने का गज । [सं. ऋणं] १० व्रण, कर्जा । <° भ०--रंण, रणि, र्णी, रणु, रणौ, रन, रन्न, रिण, रिण । रणककरण-सं. पु.-१ एक प्रकारकावाजा जौराजा कौ सवारीके ग्रागे वजता था। वि० वि०-एक भते मे कुष्टं दत्ते पिरोयेदहोतेथ जिनको हिलने सेद्छन दछन की म्रावाज होती शरी । यह प्क राज चिन्ह माना जाता था। २ युद्ध के समय धारण किया जाने वाला ककण नामक ग्रभूपर विशेष । रणक-सं. स्वी.-१ पायल या नूपुर की ग्रावाज, भनकार । उ०--१ रंग पायलड़ी ररक भिदढी भणक मंजीर । चंगा चस्मां री चमक, सावन भमक सरीर । -- ग्रग्यान उ०--२ पायल री ररक रे समच दीवांणजी रीरूरू ऊभौ द) --फूलवाड़ी रणफगाौ । , १ २ किसी शम्व्रया वाद्य की भ्रावाज। उ०--रणक घंट ददराज गाजज्यु ही गज गाजत। सिर भ्र वु सिरताज, वीज उपमा ज विराजत । ~~ सू प. ३. याद, स्मरण । ₹० भेऽ--रणांक, रनक । रणकणौ, रणकवौ-~क्रि. भ्र.-१ किसी ध्राभूपण या वाद्य कौ छन-छन प्रावाज हना, फनकार होना, मधुर ध्वनि होना, यजना । ॐ०--१ नाचत रणकत नेउरी ए, विहं ्रागलि इद्र श्र तेउरी ए । टिगमिग जोव जम सहुए, रंगहि गुण गार्वं सुर वहुएु । क तर. स्त उ०--२ जार पग रा भगा भणी, स्यू विधियां रौ तेज 1 किकण रणकं कमर री, सिस वदनी री सेज । --प्रग्यात २ गस्त्र खनकने कीया टकराने की श्रावाज होना । ३3 रटने की श्रावाज होना । उ ०-रमणी वरहीनां निरख नवीनां, राम राम रणकंदा ह! यद्रेप रा कीटा फवतन फीटा, भवर गुफा भणकदा है । --ऊ, का. रणएकण हार, हारौ (हारी), रणकणियी वि रगकिग्रोडौ, रणकियोड़ौ, रणवयोडौ --भू. का. क्र, रणकीजरौ, रणकीजवी, --भाव वा, रणकणौ, र्क्व, रणणकणो, रणणंकयौ, रणणौ, ररावौ, रणवणरौ, रणवशायी, रनंकणौ, रनंकवौ --रू, भे, रणकारी, रणकायौ-क्रि. स.-१ किसी वाद्य या भ्राभूपण को वजाना | २ शस्व ग्रावाजं करना । ३ रटे लगाना । रणकाण हार, हारौ (हारी), रणकरारियौ --वि, रणनगयोड --भू. का. कर. ररकारईजणौ, रगाकार्रजव्री --कमं वा, रणाकारणी, रणकारवौ, रणकावणौ, रणाकाववौ --रू. भे. रणफायोड़ी-भर. का. कृ.-१ वजाया द्ृश्रा. (वाद्य या प्रामूपण) २ ग्रावाज क्रिया टृम्रा. (रास्व) ३ रट लगाया श्रा । (म्ग्री. रणकायोरी ) ररकार-मं. स्त्री. १ प्रामूपणा ग्रावाद्य की भनकार ) ॐ०--१ ठमके जां भर रणकार साथर दें । म्टाग घमा हताम्‌. सरदार संगत श्राद्धी नागै सा) --लो. गी. उ०--२ जय जय नंदा कै, सीय ठंडा रस मार्‌ । ४०२ ~ ररफावर भेर भूगल साथे, मरणाद्‌ रणकार । --साह्‌ लाधी २ ध्वनि, रट । ३ गुजने। ४ स्त्र के टकराने की प्रावाज । रू० भे०--रणुकार । ररणकाररणी, रणकारवी-देखो ^रणकाणौ, रणकावौ' (रू. भे.) उ०-भालर घंट जठं भणकारत, रावं हजार भिरा रणकारत । व्यान गिनांन प्रभु गृण घारत, स्याम सदा त्रपकांम सुवारतत। --ग्रग्यात ररकारियोड-देखो 'रणकायोड़ीः (स्त्री. रणकारियोड़ी) ` ररकारी-सं. पु.-१ श्राप या शास्र के सखनकने की प्रावा, भनकार । (रू. भे.) उ०~-१ रम भम विदियां रा वजता रणकाया। भम भम जेहरि रा उठता कणकारा । । ॥ --ऊ. का, उ०--२ रेसमी गाभां रासरणाटा उडावक्ती । गणां रा रणकारा पाडती । सौरम री भभरोढा विमेरती । । --फुलवाडी उ०--३ धूधरा राेड़ा रणकारा सुरस सारू हजार कानि ब्द तौ ही थोडा। एक एक ततकार माथ इदरापुरी रौ राज वारं तौ ही थोडी । --पूलवाड़ी उ०--४ नाई क्यौ-्रदाता, दत्त कांड गैणौ परयौ । डील हिनतां ई रणकारा उठे) --फुलवाड़ी २ रामनामकीरटयाजापसे होने वाली ध्वनि। ३ नगारेया वाद्य की ध्वनि । रणकालौ-वि.-युद्टोन्मत । उ०--किसौ काम श्रावण र्णकालौ, वां माथे मोड विलाली। भुजङंड पकड ऊहियौ भालौ, लेवा भचक रूषियो 'ताली' । --लालसिह्‌ राठौड़ रौ"गीत रणकावणी, रणकाववौ-देवो ^रणकाणौ, रणकावी' (ख. भे.) उ०--कथट कौट दहवह गमावडइ, नित नयवदि घटा ररकावह जी 1 --वि. कु. नयक रंरक्ावियोडौ ररारणक ~~ ~~~ ~~~ रणकावियोडौ-देखो ^रणकायोडौ' (रू. भे.) (स्वी. र्णकावियोड़ी) | रणकाहल-सं. पु.-युद्ध वाद्य विशेप 1 उ०--सरणाई सरतूर रणकाहल नफैरी तवल ग्रनेक भेर तशणे निरघोसि करी कटक सोभतू छ्‌ । ---वु, स्‌. रर्णाकयोडो-भू. का. कृ-१ भनकार, श्रावाज या व्यति हुवा हुत्रा (आभूपण, वाद्य) २ खनकने या टकरने से भ्रावाज हुवा हृत्रा. (दस्त्र) ३ रटने की भ्रावाज हुवा हुमा 1 (स्त्री. रणक्रियोड़ी) रणकोविद-वि.-युद्ध कला मे प्रवीण, रणकुमल । (र. भे.) उ०--डाट डाल वापी उ रे वथावा रा गीत गावण मंडिया । वां मीडा गीतां रै रकौ वादट श्रगा नींद सू जागने वटौ च्हियौ | रणकौ-दे्ो 'रगकारौः --फुलवाडी रगरक्षे्-सं. पु. [सं. रणकषेतरम्‌] छेका मैदान, रणभूमि । ० भे०-रणमेत । रणखण-सं. पू. [सं. रण~+-क्षण] युद्ध के समय 1 उ०--खगवाहौ मिन्ियो दर्म मिच्ियौ रणखसण परम्म । र्‌ा. स ररणयेत-देषो ^ररकेत्र' (रू. भे.) उ०- तैतवंघ वानत, मेढ रणवेत महतां । विना दिवाली वंध, जीर खाली मेमंतां 1 र्णगद्िघार-सं. पू-१ घायल । उ० - ग्रादौ रणगचियार उठायौ, लागि चर्जान श्रप्पपुर लायौ । --व. भा. वि.-२ रणोन्मत्त 1 उ०--श्रर च्यारिही भायां समेत माधांणी दाडी मुकर दसिहु गोड प्ररजुनसिघ राठौड़ रत्नसिह जिसड़ा जोधार काली रा कठढस ररागचियार होड हाधियां र माथ हाय कर्ता साधियां नी मांसा लगावता साहनादां रे समीप हालिया । --वं. भा. रणगहल, रणगहिलउ-वि--रणोन्मत्त, युद्धोन्मत्त । उ०--पंप नीरि पर्थं पवंग, श्रमिराड सखि श्रमहाय प्रग । हीरड सूरतां सतेजि उन्दई हाक, रणगहिलउ चडियड राइपालर । --रा. ज. सी. रणचंगी-वि.-युद्ध कला में प्रवीण, रण॒ कुशल । उ०-मांणीगर दातारम, रणचंगौ जस खग्ग । जायौ नहु श्रर जनमसी, जलाल जसौ न्ग । । -- जलाल व्रूवना री वात ररचरया-सं. स्त्री.-एक प्रकार को कला । (च. स.) रणखोड-सं. पु.-१ परमेदवर, ईज्वर । (ह्‌. नां. मा.) २ श्रीकृष्ण का एक नामान्तर। उ०--१ नमौ जदुराज हकद्धर-जोड । रंणायर-रूप नमौ रणच्ीड्‌ नमौ स्िसुपाठ मनावण संक, जरासंय जीपण सेन उजंक । --ह्‌.र. उ०--२ दीज्यौ म्ान हारिका को बास, रूडा ररदोडजी हो । --मीरां वि०--युद्ध से भागने वाला, कायर । 5० भे रिण॒द्छीड र्खजीत-वि. [सं.] युद्ध मे विजयी रहने वाला । रराजेव-सं. स्त्री. [स. रण~+फा. जेव] एक प्रकार की तनवार विञेप । उ०--उटी विलंद' दढ ग्रसुर,वधि मुगरवां जनेवां । पेसकवज खंजरां, जकड़ वणिया रखनजेवां । सू. प्र. ५ [} रणकरण, रणकण-स. स्वी. [भ्रव] व्वनि विशेष, भकनकार । उ०--घम धमत धूघरी, पाय नेउरी रणंशषण । डम उमंत उाकली ताढ ताटी वज्ज तय । -देवि. <° भे०-रणभण, रणभणकार, रणभणरण-सं. स्त्री. [अ्नु-] मधुर भफनकार । उ०--१ हार निगोदर वह्रखा, सखी नेउर रणभरणकार कि । --कां. दे. प्र. उ०--२ रभस नाद स्ुरमांण खागां रड़क, वाज खराचणण कडीयाल वंदी वडक ¦ महटादनि म रणभणरौ, रणणवौ-क्रि. अ्र.-मधुर ध्वनि होना । उ ०--मरहटरी गादहि किसिउः कू कुण वासद्र, मालवी वांछ किसिड मामयं मास॒ड, गोवर कीडड किमि भ्रमर जिम रणभणड =. ररभुणो-वि. जिससे मधुर भनकार्‌ निकलती हो । रखणंक-देखो ^रणकारः रणणंफणौ । ४०१६ रयाथंय ~~~ ~ वरम रणशणं कणौ, रणणंकवौ-देखो 'रखकणौ, गणकर्वा' (रू. मे.) उ०--सणणंकं सूरसांण खागधारां खणणकं । रणणंकं रणराग लम पावर भणणंकं । --वं, भा. रणणंकियोडी-देो !रराकियोडी' (रू. भे.) (स्त्री. रणणंकियोडी) रणएण-मं. स्त्री.-देमो ^रणाक। उ०--येड ये येह ठवति पाय, वेणु वगा करि यजाय । भे फफरिय लाय, रणएण रणणा नेउरी । मुरियाम सुर करि प्रणाम, मागति रव मुक्तिधांम । समयसुदर मजस नांम जय जय जय सांमरी । --म. कु. रणएणौ, रणएवौ-देखो ^रण॒कणौ, रणकवौ' (रू. भे.) रणत्तभं वर-सं. पू. [सं. रणस्तम्भ-पुर] १ राजस्थान का एक प्रदेन रणथंभोर (देतिहासिक) उ०--माहपुरौ वहडी ए सीसोदिया नू दिया । टोडौ मालपुरी 7 क्वाहं नू" दिया । रणतभंवर वालसे राचियो । कटं परगना नछ्कां नू दिया) गौड गोपाटदास री वारता २ उक्त प्रदेणका गया किला) उ०- गद ररतभेवर मे श्रावौ व्रिनायक करौ रज नीचीती विडददी । --लो. गी. ३ उक्तं किले में स्थित गरोशजी कौ मूति। ४ मांगलिक श्रवसो पर उक्तं गजानन के नाम पर गाया जाने चाला एके लोक गीत ररताठछ, रणतादि-मं. पु.-१ यद्र, संग्राम । (ह. ना. मा.) उ०-१ विकट रूप वीदणी, खुरम धघड कीध आआडवर्‌। लगन प्रव्व रताद, घमदछ-मंगठ सिधरू-सुर । गु. रू.व. उ०-२ ऊनं राव वमी वंस ऊने गोपाढ। दोनां तेम बरद्टी तोलि कीन रणता८ । । --चि., व. २ युद्ध स्थल, रणा भूमि। उ०--१ चने रत श्वा ररत द माचियौ। पमे किरणांर्‌ दसरा ममर खांचियी | --र्‌. रू. उ०--२ च्वितत पड्यौ नह्‌ पनचरां ग्वाधौ, पावक धट सकियौ नह्‌ प्रजलि । व्वीट्ल' मून तग्णी तने बढता, चिजड़ां लाग गयौ रताद । --ग्ररजुणं गौड री गीत उ०--३ चर गुरति निसाचर सपतत चार्‌, परि षट वयन्नर मसि पहार श्रारुहिय श्रम्मि वनियड श्रव, रणताद्धि र्यते देस स्प। --रा. ज. मी. <° भे०~रणंताद, रिरतान ग्रत्पा.--रगानताद्यी | ररातालौ-देग्वो ^रगताद्' (श्रत्पा., रू. भे.) ० ~ गड्क्कं जेगाटां नां कुडा भणंकं गोग, तोदं तजाठा ररगताद्धा मं नत्रीट। रावत सारगदेव रौ गीत रणतुर, रणतुर, रणतुर-मं. ¶ृ--एक ममर-वाद्य विगेप 1 उ०--१ ढोल तरणं टमदिमाट, पटह तगौ गरृमगुमाटि, रश्तुर तरो रणशरणारि घोडा तख हििमारि | | --पे. स. उ०-२ निज वांम कामी कामिनी वे, तड वेचक वयमा] ररतूर नेउर खडग वेखी, धनुस न्पी नयग मु! --वि, कु. उ०--२ विहं पयवे पाट पाः"ग्यां घोटा, विहं पणे रणतूरध वाजिवा नागां | । । == वः वः उ०--४ वजवाडड कोठी सहर वेव, हातिया ह्य भ्रागी हूरेव । नामिया समां मीहनटहि, रणतुर सहि पाखर रवदहि । --रा. ज. सी. रणात्कार-सं. पु.-गस्त प्रहार की ध्वनि । उ०- जिकें वासुकि नाग री तरह लगरलगाट करती मिलहूवंव री कड्या नू कतरती पिडमें पठतां रणत्कार पड़ी । -व. भा. रथव, ररायंवोर, रणथंभ, ररयंमोर-सं. पु. [सं. रण स्तम्भ] १ राजस्थान का रणधम्भोर प्रदेदा व इस प्रदेश का गद । उ०--१ वदियौ मुखेस "पती' वाढालौ, वंश्यौ सुरजन देख चट } गढ चित्तीड्‌ गरव तर गरजे, गाडी गी ररणथंब गढ । ---राव्रत पत्ता रौ गीत्त उ० --२ राड रणयंम ताह, जउहर जहर जेहूवा । कीधा भोजा कट केवरि, वत्ता वीस गुणाह ! | * --्र. वचनिका २ विजय स्भारक्‌ । वि.-युद्धको भराम केर रखने वाला योद्धा, वीर । उ०--जीव दियौ जमवंत जद, चमकं नोक द्रचंभ | थिर पर ररायंमणा 1 हि राजग्थांन रौ, थंभ गिरयौ रणथम 1 -- ऊ. का. =° भेऽ-रणायंभ, रनथभ ! रणथंमण-वि. [मं. रण स्तम्भन] योद्धा, वीर 1 उ०--घट 'पातल' उवजौ घौ, र्णयंमण राखोड । थै मरियां मू धारी, खाली रमी ठोड । का रणयद्र-सं. पु. (मं. रण॒ स्थात] १ युद्धकी शोभा, युद्ध की स्थिति 1 उ०-कंट घट गयौ खग भटर कटै । रथ घणा भट पास रहै । --पा. प्र. रणा यद-देखो ^ररम्यल (सू. भे.) स्फधीर-मं. पु.-१९ विष्णु, ईश्वर, परमेदवर । २ श्रीकृष्ण का एक नामान्तर्‌ । ३ योद्धा, दौर । वि.-रणमें चेयं रखने वाला । (डि. क्रो.) णके रशधीरोत-मं. पु-राठौडां की एक) उप यावा व॒ घस गासाका व्यक्ति | ररानंदीतूरच-सं. पु.-एक युदढध-वा्य या नमर्‌ वाच्च विगेप । (व. स.) ॥ 1 रणपखर-मं. पू-एक प्रकार का कवच । उ०- किमी किमी पामर, रणपखर जीणपमर गृडि पर्‌ । --कां.दे. प्र. रणग्रिय-सं. पु. [सं.] १ वाजपक्षी । २ विष्ण? रराबंकडौ, रणव॑कौ, रणार्वाकुरौ, रणर्वांकौ-वि- |स. रणवक्र] १ युद्ध कला मे प्रवीण 1 युद्ध~कुनल । २ वीर, योद्धा । सू० भे०--रणवेकी, रनवंकौ ररबुद्ध-वि.--युद्ध मे कुशल । रणमण, रणएमरए-सं. पु. [पनु | ध्वनि विशेष । उ०--राउल माहि रणम राय थयु पशि मंद । ब्राह्मण-वहुउ माभरट, सभा-तणउ ते चंद । --मा. कां. रफभमर, रणमांमर-वि. [मं. रण भ्रमरः] १ युद्धोन्मत । द ०२७ ` ररणरराट [9 [न [1 [व व अ १, गयीं ~~~ ~ उ०--“माहव' को किरती" ' दव महै, वाध लङण जिकौ खगं वहै! जतौ "वीक तणौ जोरावर, "भाऊ तणौ सिवौ रराभामर । ---रा. रू, २ युद्ध प्रिय । रणभूमि, रणमोम-सं. स्त्री. [सं. रणभूमि] लड़ाई का मेदान, युद्ध स्थल । उ०--मूर वाहर चट चारणां सुरहरी, इतं जस जितं भिरनार ग्राव । विहंड ख खीचियां तणा दढ विभाड, पोढियौ सेज रणभोम "पातर" । --वां. दा. ररामंडण-सं. पु. [सं. रणमंडनम्‌] युद्ध के प्राभूषपण, साज-सज्जा । वि०~युद्ध की गोभा वढाने बाला वीर) <° भे०-रणमांडण । ररमंडप-सं. पु. [सं. रणमंडपः] १ पृथ्वी भूमि। २ युद्ध स्थल, लडाई का मेदान । रणमंडा-सं. स्त्री.-पृथ्वी, भूमि । रणमत्त-सं. पु. [सं.] हाथी, गज । वि०--युद्ध का मतवाला। । ररामतल्ल-सं. पु. [सं] योद्धा, सुभट, वीर । ररमांडण-देखो 'रणमडण' (रू. भे.) रणमांनी-वि. [सं. रणमानिन्‌] वीर, वहादुर, पराक्रमी । (डि. को.) उ०--इर कुठ ही देवट श्रभिधांनी, मही भुजंग हौ रणमांनी । क जिणा रा देवड़ा काय, दानि समर श्रनुपम दरसाय । --वं. भा. ररणरंक-सं. पु-हाथी के दोनो दांतं (वाहूर दिखने वाले) के तीच का स्थान । रणरग-सं. पु. [सं] १ युद्ध की उमंग या उत्साह्‌। २ ममर भूमि, युद्धस्थल । २ युद्ध, संग्राम्‌ । रर ररणक-सं. पु--१ कामदेव का एक नाम । २ प्रवल इच्छा, पिपासा । ३ विकलता, धवराहट, स्वरा \ ४ देखो ^रणकार' रणररणाट, रर ररणारि-सं. स्वी.-किसी वाद्य की म्रावाज, ध्वनि खच्द । -रररक्षियो # 1 क मी का का ०. भ सण अक = ~ = ष उ०-- ढोल तशो ठमदिमाट, पटह तरो गुम॒गुमाटि, स्णतुर तरे. रणारराटि घोडा तरे हिसाटि। --व. स. रणरसियौ, रणरसु-वि. [सं. रणम्‌ {- रसिकः युद्ध रसिकः, पराक्रमी, वीर, योद्धा । उ०--१ सखी श्रमीरौ साहिवौ, जम सू मांडे जंग । श्रोठं भ्रंय न राही, रणरस्तियौ दं रंग । --वां. दा. उ०--२ तीच हृफी ऊर्ड करणु, श्ररजुनु पांमदुमू करि मरगु। गोसि ऊट वेड भूभवा, रणरसु जोड देवी देवा । ॥ --सालिभद्र मूरि रण राग-सं. स्त्री.-सिधु राग, वीर राग) उ०-दीनी सांवा रणराग दुहौ । हिक वार पावू मन मोद हवी । --पा, प्र, रणरीढ-वरि.-युद्ध मे तलवार चलाने वाला, योद्धा । । रणख्ह्‌, रणरूह्‌, वि.-जिसे युद्ध की उमंग हो, उत्साह हो । उ०--दिल्ली हुत दूह, अ्रकयर चट्ियौ एकदम । राण रसिकः रणरूह, पलट केम प्रतापसी । --टुरसौी श्राढौ रणसरोहि, रण रोही-सं- स्वी.-१ निजंन-वन, बून्य-जंगल, वीहड वन । उ०--गुणी सपत सुर गाथ, किय करिसव मूरख करन । जार सूनौ जाय, रणरोही मे राजिया । । --किरपारांम ० भे° रनरोई, रनरोहि, रनरोही । रणलक्ष्मी, रणलखमी, रणलिखमी-युद्ध मे विजय प्राप्त कराने वानी एक देवी, विजय लक्ष्मी । रणवंकौ-देग्वो "ररएवेंकौ' (रू. भे.) उ०--कर वागां नर भरुविया, तिजड परकरवं ताव । त्रगासंका ग्रागं इता, रणवंका उमराव । । रा. रू -रणावह-सं. पू.-१ क्षत्रित्व, वीरत्व । उ०--रिमराह्‌ तियार वंवं रणवह्ां शेम" समोश्चमि रोकि ख्यां । सूक रिमराह बहादर राजं, भार ग्रहै निय भूग्रवद्टां | गु. रू... २ युद्धका मामं। + ८०२५८ अ श 1 स एका त क क क ००००५०७ ज ननम ररणन्रती ए त 1 ० १ 1 1 5० भेऽ--ररावाट रणवणणी, रखवखवी-देन्वो "रणको, रणकवी' (ष. भे.) उ०-रणवरीधा सवि संख तूर श्रव प्राकपीट । दय गयवर सुरि खणीय रेणु ऊडीक जगु छखीड ! -मालिमद्रसूरि र्णवाई सं. पु.~-युद्ध की चुनती, । उ०--दिवस सत्तजां इण परि जाद्‌ तां ग्रच्चभरूको रणवाद्‌ । एतद्र भ्राविड कटक श्रपार्‌ पंडव धाया नेई हथियार । --सानिमद्र मूरि ० भे०~-रणवाद 1 रणवाट-देलो ^रणवद्ु (रू. भे.) उ०-- कटर स्वग भाटगणा वीर्‌ दूजा शरुमदट' माणा विरद फौजां गजां खभ । पारराश्रंभ रणएवार रा थेभ परा, धराटय राज गा मिमते रा थम) --सेरमिह्‌ मेडतिया नी गीत ररावाद-देखो "ररावा" (5. भे.) ॥ि रणवादी-वि.-योद्धा, कीर । ^ < ररण्वास-म. पु.-१ श्रन्तः पुर, रनिवास, जनानखाना ! उ०-१ परछछदशद्र मान श्रामेर वरु पवारघा, दिई जिगा नीव ग्रवदात दादी 1 करी घणा क्रा ररावास पवन करण, चरण रज रांणियां सीस चादी 1 --मे. म. उ०---२ च्रूदी महाराज चछव्रसालजी नै उदपुर रां ्रडसीजी मिकार रमतां चूक कर गोढी चलार्ट्‌सो मुरा श्राय गई, इतरे बूदी रणवास मे माचियौ गयौ. तद वारे माता कयौ ये सत मत करौ इण म्हारी दूष लजायौ । । । -वी.स. री. २ अ्रन्तः पुर मे रहने वाला स्त्री-समूदाय । उ०--पाती वाची श्रा तौ सजन समाज । पाती वाचीभ्रातौ भारौ ररवास | --गी. रां. ३ रानी। | उ०-- राजा निय रणवास ह+ श्रक्ी एक सु वत्त] यपमोभा ग्वत्री धरम, चित्र सोभा पतिब्रत्त। -गु.रू.वं. <° भे०--रणिवास, रनवास, रनिवास । रणब्रति, रणब्रती-मं. पु.-रौनिक, योदा । र्ासिष्गो ८०२६ ५ तग ~~ ~~~--------+~~- क व र्णा्िमगौ, रण्िधौ, रणत्तीगौ-सं. पु-१ युद्ध के समय वजाया जाने २ देखो रणः (रू. भे.) वाला एक वाद्य जो सींग का वना होता है। ३ देखो रेण! (रू.भे.) उ०--१ तुरी करनाठ रणसीगौ वाज र्यौ छ । ४ देखो “रिणी (रू. भे.) --रा.सा. स, उ०--२ दया रणसिघौ वाजियौ, जागौ जागी नरनार। गुगत नगर में चालणौ तुमे वगा हुयजौ व्यार रं । --जयवांखी रणसणौ, रणसणी-वि.-गृदढ में मूः मः कर वीरगति प्राप्त करने वाना) ( स. ५ ) रणस्यल-सं. पु. [सं.] युद्ध का मेदान, रणकेत्र । रू० भे ०-रणयद् । रणस्तंभ-देखो (रथम (र. भे.) रणांगण, रणांगन-सं. पु. [सं. रण ग्र गनं] रणभूमि, रणक्षत्र । रणांक-देखो ^रणाक' उ०--दुम ज्ररजन रणांगण रूथड, वांणा पंजरि घणा दद सवख ग्राकृलउ ग्रति सुयोधन हउ, कउणा जीव किहां कूण मूड । --सालिसूरि ॥# * =° भेऽ~रिणंगगष । रणि-१ देग्बो ^रण' (र. भे.) उ०--१ चापां धरणी मांडिया चाच, वी खठां सरिस खग वाहि । श्रड़यौ 'जरन' मेल्टियौ ऊमौ, पिय रणि पायौ पतिसाहि । -- विर्टदास चांपावत री गीत उ०--२ रामा श्रवतारि वहै रणि रावण, किसी सीख | । -- वेलि २ देखो "रेणा (रू. भे.) ३ देवो "रिश (रू. भे.) ४ देखो रिणी (स. भे.) । रणियु-देग्वो शरिखीः (र. भे.) उ०--तेहनि सुत नल नामि सुदर, जार मन्मथ यशियु | देव पितर नि मनुस्य तगौ रे, राय ट्ल्यु ते रणिषु | --नटाव्यांन रणिवाउल. रणिवाउलौ-वि. [सं. रणएवातुल | युद्धोन्मत । उ०--पटिली तुरक तणी उठवी, रणिवाउला विच्यूटा । घोड नाट देई हद्‌ नी, फोज मादि जई पुटा । --कां.दे. प्र. रणिवास-देखो ^र्णवास' रणी-वि.-१ योद्धा वीर्‌ । (रू. भे.) रणुकार-देखो (रणकार' (रू. भे.) उ०-रणुकार कीधघुनमसू, यू कर जीव जगीजेषएु। सलवणं सुची रुची वारके, सार प्रनहद को लीजे ए | --स्री सुखरांमजी महाराज रणु-देखो "रण (रू. भे.) उ०--करि करवालु जु करीड करणु समहरि रु माडद्‌ । फारक पायक तुरग, नाग नवि कोड छंडड । --सालिभद्र मूरि रणेोचर-सं. पु. [सं. रणचर] विष्णु । चि.-१ योद्धा, वीर । । २ मांसाहारी । रणेत-देखो ^रनेत' (रू. भे.) ररोस-सं. प. [सं. रणोभ] १ विष्णु । २ धिव । ॥ वि.--योद्धा, वीर । रणोई-सं. स्वी. [सं. रण-~+- रा. रोही = सुनसान] २ युद्धस्थल, रण भूमि। उ०-रणसेतांमेंउ्गं नाही दूव, कोई रणोई तो बोल प्राधी रातनेषए मोरी सडयां । --श्रग्यात <° भे ०-रिणोई, रिणोही । (रू. भे.) उ०--गायाम्है मांगिया पखं गुण, गढपति गांमां पतती गणौ । मोटा खत्री द्रवौ मेवाडा, राण खत्री वंस तरौ रणौ । रणौ-देखो ^रण' --दुरसी ग्राटौ रतंग-सं. पु.-रक्त, सून । उ०--१ रवदां खग वाहतौ रमावुत, रेणा पड़ भेदियी रतंग । भुजंग सूपेद लाल रंग भेदियी, भूनी ति ्राट भूयंग । -- चतुरा रांमावत रौ गीत उ०--खक कट सहता जरद खगं खतंग, खचछक घावां रतंग दरद व्वा 1 तठ लड्वा घड़ी सेल रीभव पतंग, मरद सुजड़ी जडी मतंग माथे । | --गुलावसिह्‌ चू डावत सय गीत वि. [स. रक्त {-ग्रंग] रक्तिम, लात । रतंनागर ४०३० | र्त [सं. रक्तः] ८ रक्त, शुन, रविर्‌ । उ०-१ उरं थग दात किरकाहूवं श्रम रा, चर्त जेम सावणु वहाठा । श्राप श्रापी वरी नौयनं श्रादियां, सदं रिण मदमना निराताठा | रतंनागर-देखो ^र्त्नाकर' (र. भे.) उ०--ए रतंनागर पास गोमती, जादव जगय्र नरेस । हरख वदन टुग्रा हरि जसी, कीधु ्रग्र प्रवेस । --रकमयि मंग -~-2, र # } न ॐ रतंवर-वि. [सं. रक्ताम्बर] रक्त वशं, लाल । उ०--क्य काजचछ जछ चते रार उंसियां रतंवर । म्रंग तरच ~~~ ~-- न 9 मजो ५ ~ 9-99-4 उ०--२ ददै टीचाठ रत साठ खटकं वसा । जुहु वटुं भटरदटु ग्रा श्रोढ न्हांसै सिर श्र॑वर । भङ्ाल । --नणमी --पा प्र. उ०--२३ भव~नार्‌ फिर रत पत्र भर, जुट वराके गिर्‌ कार्ट दाक जरे । --रा. स. रत-सं. पु. [सं. रतम्‌] १ रति-क्ीडा, मथन, संभोग । उ०--१ वीरपाठ साह्‌री वेदी गौरस्या विधवा वर्स तेरह री पुसकरजी उपर तप करती । नर्य वरस व्यार हुभ्रा जद जवरीसु | 1 + & | उ०--४ कठ्टी वे घटा कर काटाहणि, समृ श्रांमहौ सांमृही 1 | वीमक्दे उण सू रते कियौ। | । । जोगिरि श्रावी ग्राडंग जां, बरसे सत वेपुडी वहै । --तवेलि. वि. [स.रत] १ प्रममें फसा हुग्रा, प्रनूरक्त, ग्रायक्त। उ०--१ नारी नागिनि एक-सी, व्राधिनी वदरी बलाद्रु1 दादूजे नर रत भर्म, तिनका सरयस खाट 1 --ां. दा. स्यात उ०--२ रत ज्यू दत जाचक रसक, जांच वे कर जोड्‌। ननी भ॑रो नव नार ज्यू, मूढ फ्रपण मृख मोड) --्ा दया. टद वांणी २ प्रम, प्रीति, प्यार्‌। उ०-२ नग्गी हांम विलासं, विक्ती ग्रग्यात प्रात मय्यानं। [सं. रति] ३ कामदेव की स्त्री रत्ति। । सग्र॑कान निसीतं, रतं भूष च्रूुप मदनायं। ह. उ०--रावण ससा दिग्गज रूप दंडकवन र्म, निरलज सुपनखा | ~य" तिख॒ नाम नरक श्रनंग में! सीतानाथ भ्राम सार श्राई विण सम, २ मुग्घ, मोदित । भाट मकाति ्रदभुत नरम सुचि रत संभ्रमे] | २ मस्त, मग्न । --र, रू. उ०--१ महीना वारं होय गया, म्यारंमजी लां म रत दोय ४ गृप्तांग । | रदाद्ध। ५ हप, खी, श्रानन्द । --मयारांम दरजी री वात [स. रात्रि] ६ राचि, रात) | उ०--२ श्रंसेवनमें रत की, करत्तौ केलिं किनोद 1! निडर उ०--१ सो पीडः छदि हेथड, सरम पत्रीभते। जांण्‌' दोलौ थवौ विचरत सदा, संग लिये सव टोक्र | । जागवी, गठती ममम रत । ॥ --गज उद्धार --टो, मा ४ लीन, तल्लीन, तन्मय । उ०--२ मभि समदा वीट घर, जठ मू' जांमौ पत्त । किरी ग्रवगण उ०--१ रह रत ध्यान श्रठयासी रिक्ख, वहै नहं पार मब्रहुम्मा वरू भड़ी, कुरी मांफिम रत्त । लक्ख । । टो. मा --ह. र, ४८ ऋतु ५ ठ ५ उ०--२ राता तत चिता रत चिता रत, गिरि कंदरि घरि विन्द उ०---१ बाघ सिघ वितर घा, भट वीहूती चालरे) चाच | यंशा) निद्रावस जग एहु महानिसी, जामिर काँमिए जागरण । नद सालद्‌ वरमा रत पणुए्‌। ---वेलि --नच्वव्दती रास उ०-- २ भ्रह मत तज ईर भज ईसर, करणाकर सघर सुतन उ०--२ प्राची सव रत ग्रामणी, त्रिया करट सिगगार्‌ । जिका दसरथ कौ1 यक दिनि तन ऊधारण, रत कर चित्त चरण हिया न फारदी, दूर्‌ गया भरतार्‌ । रघुवर रे। । ॑ --दो. मा. , --र्‌, ज. भर, रतकील ४०२३१ रतनकचोहियौ कााकककक 9 राणायनि ५ प्रसच्च, सुदा । रतद्रग-देखो ‹रक्तनेच' (भ्र. मा.) ६ प्रिय! रतन-सं. पू.-१ सूर्यं, रवि । (ग्र. मा.) उ०--प्रौर वस्त रत नही मृह्धि भवं (हौ संणाजी) यह गुरूग्यान २ चन्द्रमा, शशि। (श्र. मा., ना. डि. को.) हमारा 1 --मीरां ३ उडगन,तारा। भ त उ०---रतनां छाई रात। --श्रग्याते उ०--१ सपेख अरग नग साखसी, रत रोस मारग राखेस्रा 1 तहं प न ४ ४ हग, नच, ्रंखे । (ना. डि, को.) नाक पांण विदद पाड, वां इक रघुवीर । --र्‌. र, . ध. ॥ [सं. रक्तम्‌, रक्तः] ८ लाल । उ०-- मौ सजन चालंतड़ं, रोय सेय ॒गम रतने । पडीया विसरा | । । न नौसरा, श्रांसु मोती ब्रन । "मी उ०--वावदहिया रत पिया, बोलह्‌ मधुरी वांणि । काद लवतड | माहि कर, परदेसी प्रि प्रांसि । -ढो. मा. ५ अमृत, सुवा । (खः मा, ठ. ना मा. 5० भू० -रति, रतत । ६ दाख । (भ्र. मा. ह्‌. ना. मा. ) रतकील, रतकीलर-सं. पु. [सं. रतकीलः] इवान, कृत्ता । (ज्र. मा.) ७ छप्पय छंद का बासख्वां भेद जिसमें & गुरू व॒ १३४ लधु होते हैँ । मतान्तर से १२ गुरुवे १२ ` रतखाछ, रतसाट्टौ-सं. पु. [सं. रक्तः+-रा. खाल] रुविर का नाला, क ध १२८ लघुभीहोतेर। दून कौ धारा । ८ एक छद विदेप जिसमे प्रथम दो जगण, एक सगण, एक नगण + 4 + < 9 त्‌ 1 घु-गुर टो न उ०-- १ पड वरजं घजां ऊपरं पाथर, सूर जमहर करं पड था श्रत लघु-गरु दोते हं । ५ म. ण > = = णोर * तारां \ पड परनाछ रतलाढ चीख पई, वीढि पड़ गौड़ गद्‌ & डिगल के वेलिया सभांणोर (छोटा सांणोर) छंद काएक भेद » पड वारां | ~> -- उ्दभांण हरभांगा गौड रौ गीत विन्ेप जिसके प्रथम हले मे ४ लघु ३० गुर्‌ कुल ६४ मात्रां उ०--२ रिचिया रणता कट किरमाठां, सीस युजानं ह 1 १ से शेप वालों मे ४ लघु ५८ गुरु कुल मूडाठा। चाल रतखद्मं तेण विचार, पंखणियाल ` ॥ कः । ॥ --पि. प्र. पोत । --मगतमाद्ट १० एक मात्रिक छंद विशेप जिसमें १३ मात्ाएटव श्रत गुरु-लघु त होता रै। ल रतग-सं. स्त्री.-कोयल । (श्र. मा.) "+. (र्‌. ज. प्र.) रतगुर-मं. पृ. [सं.] पति, खांविद 1 ० भे०-रतन्न, रतत्नि । रतचंदण, रतचंदन-देग्वो “रक्तचंदनः (र. भे.) ११ देखो ^रत्नः (रू. भे.) उ०-घणा रत हव फटा विछ घाट । पड़ रतचंदण जांगि उ०--१ मुरवर में पातल' मरद, इक्को रतन श्रमोलत । लोकां व स तः ने तो लादसी, मरियां पाध मोल । ऊ. का, रतजगौै-देखो 'रातीजोगौ' (रू.भे.) (मा.म) | उर पायौ जी म्ह तो संम रतन घन पायौ। रत्डउ-देखो "रातौ! (ग्रत्पा., र. भे.) | । --मीरां त (रू. भे.) ॐ० --३ सूरज खांखक रतन सल, पोहमी रिणा जद्ट पंक । कायर उ० -- दियौ गाजता गयंद, दियै तोखार विवह्‌ परि। दियं गांव कटक क्क दम, कुकवी सभा कठ । --वां. दा. कोठारि, दिय रतण यां भरि। --जगदेव पंवार्‌ री वौत उ०--४ भूप जड्ावं मुगट मभ, रोहणभिर उतपत्त । निस दीपग ॥ क 2 प्रतिनिय रतन, प्रभा ्रपूरव भ्त । बो लीः उ०--५ कृूभाथ८ मतां, भरिया वप गिर भाति । चद्र उ०--चरगा पारयां रतणाकर री धारा गोमत जोर। वजा छ तं चरत चरण गज रतन मै, वंगड़ वणिया दाति । पताका तटतट राजां कलर री भके भोर । -मीरां . --वां. दा. उ०-६ मोर मकट । रतदान-देखो ^रतिदांन' (रू. भे.) ॐ ९ भार्‌ मुकट वनमाढ, मक तुलसी नव मंजर । रुचि | ह) ¦ उद कठ रतन, तिलक मंजुल पीतांवर ¦ ८ उ०--एह समिए एक सख्रगन, सामी मिठी सुजान । दद्‌ सरग रा. रू. 1 ् ~ „ > रस॒ ६ रत्न कृर ¶ ह. रतदांन मोही, विरह संतावत वान । ० देखो ^रत्नकर (रू. भे.) (नां. मा., ह्‌. नां. मा. ) --कल्यांणसिह नगराजोत वाटेल री वात | रतनकचोचियौ, रतनकचोव्टौ-- सं, पु.-क्टोरा, प्याला । व | रतनकांवट ९१९ अ _____((__------------------------------------------- उ०--१ पेट गवां की जी लोभ, मिरगार्नणी जी राज, सूडी तौ रतनमालती-सं स्वी. १ एक प्रकार की लता) किय रततनकचोचियां जी, म्हांरा राज । --लो. मी. उ०--२ महंदी भीजै भीजै रतनकचोढं वीच । पेम॒रस॒मरहंदी २ उक्त लता का फुल! (श्र, मा.) रतनम-वि, [सं. रत्न-मय] रत्नो से युक्त । राचणी । --लो. गी. रतनकां वद, रतनकांबल-देषो ^रस्नकवलठः (रू. भे.) उ०--पचि वस्त्र पटिरावड, देवदूखित वस्व, रतनकायल, चीर, सोनशरी पामरी -खीरोदक खासा ब्रधोतरी""""* । --व. स. रततनकूट-देखो “रत्नदूट' (र. भे.) रतनगरम-देखो ^रत्नगरभः (रू. भे.) रतनगरमा-देखो "रत्नगरभा (रू. भे.) रतनगिरि, रतनभिरी-देखो ^रत्नगिरि' (रू. भे.) (श्र. मा. ह. न. मा.) रतनघर-देसो 'रत्नधर' (<. भे.) (पि. प्र.) रतनचंद्र-देखो ^रलचंद्र (रू. भे.) रतनचौक-~स. पु.-एक श्राभूपरा विशेय । उ०-जड़ाव रा वाजरूवंघ काकण रतनचीक श्रारसी वींटी विराज रही छ) वठँ चूड सोरी वंगड़ीदार विराजे, द, --रा. मा. सं. रतनजोत, रतनजोतियौ-सं. स्वी-- १ एक प्रकार की मगि। स. पु.-२ कादमीरव कुमाऊ की पहाडियोमे पाया जने वाला एक क्षुप विप ) ३ पुनर्नवा नामकक्ष्‌पर विङेप। ८ एक प्रकार का पौधा जिसके द्ूव के लगाने से तलवार का घाव मिर जाता र॑ उ०-जांराशिर रतनजोत रा, पय रौ प्रथक प्रभावे । यात करं घणा घाव वौ, घणा भरं श्री घाव । --रेवतमिह भारी रतनपारख-दसो ^गत्न परीक्षा (रू. भे.) रतनपारखी, रतनपारसू-देग्बो "रतून परीक्षकः (रू. भे.) रतनपेच-पं. पु.-िर मे पगड़ीके साथ घाररा करने का प्राभूपणा विहेप । उ०--मोतियां का तुरसा रततन्पेचरु के वीच देना दरमाण्‌ । मांनू नवग्रह पास तारा गण ग्राएु। -- मू. प्र. (सू, भे.) उ०--एतटट प्रतिरव सारथि श्रावड। करण तणु कुलु राउ जरावद् । मह गंगा उगमतद््‌ दीस नाधी रतनमरी मंजुस । रतनमरी- दग) ^रत्सभरिता' --सालिभद्रसूरि न~~ नानानना न~~ -~-- १ क १ व 1 9 गणिका 4 उ०--मूख सिख संवि तिलक रतनम मड्ति, गयौ जु हतौ पठि गछि। श्राय क्रिसन मांग मग श्राप, भाग कि जास भालियदि । -- वेति रतनरांणो-स. पु.-१ उमरकोट के सोढा राणा रतनसिह की यादमे गाया जाने वाला एक लौके गीत । रतनरासी-देखो ^रत्नरासिः (रू. भे.) रतनसान, रतनसांनु-देग्वो !रत्नसांनु' (रू. भे.) रतनसिहोत-सं. पु.-राठौडों की एक उपशाखा व इम गाखा का व्यक्ति) रतनांगरभ-देखो (रत्नगरभा' (<. भे.) (डि. को.) रतनांल्िय-सं. पु-१ एक मांसाहारी पक्षी जिसकी चोच लान होती है) उ०--भिर चंग तजे चड़ मर्गं ग्रही 1 रतनांलिय त्रंवर लाम रही । षा. प्र. २ रुधिर-नाली । रतनाकर, रतेनागर, रतनाधर-देखो "रत्नाकर (रू. भे.) (ग्र. मा. दि. नां. मा, ह्‌. नां. मा.) उ०--१ वय किसोर उतरे, जोर जोवन परग । प्रणमायौ ग्र॑वभै, ति किरि रतनाकरे तदं । नरा. ग" उ०-२ वदी ए म्हारी चाद दिपायौ रतनागर मु नीरज भरियौ वरप ने घेरीए लगायौ। -- ननो. गी. उ०--२ मर्थं रतनागर माहव मच्न। रभा यु पस्तायसु लीध रतन्न । -- मा. वचनिका उ०-४ करमसीहौ सत्री करम का उजागर । काम काम श्रवेसागा माम का रतनागर | -रा. सू. रतनार-वि.- १ नाल गरेग का, लान्‌ > सुर्खी निण्‌ हुए, मुखं । ू० भे०-रतिनार 1 सं. पु.~पुरुवंणीय रंतिभारं राजा का नामान्तर । रतनारा, रतनारी-सं. म्वी.-१ नानिमा, नाली । २ सूर्वी। रतना, रत्तनाछ्िय, रतनाष्ठी, रतनादीय, रतनाखौ-वि.-नाल, मुम्बै ' रतनावटी हि ___"__ .---------~---~--------~ ~~~] ब -~-~---~--~~~--~--~~~_~~_~_---~---~~~--~---------- उ०--१ जो जो भांवडियां जाती जतनठी। रौ रौ आ्रंखडियां राती रतना 1 उ०-२ धन धनदेव देव जगंनाथ 1 श्रमर काया रतनाठीय श्राख | --वी. दे" उ०--३ इण भाति री तूजी हलका ज्यौ लचकती, रतनाला लोचनां, श्रशिम्राका काजठ सारीजं छ । --रा. सा. सं. उ०--४ वांहुदीयां रतनाकीयां, छकी भद्‌ नेह । जण जण साथ न वोलही, मार सुगंव धशोह्‌ । --दोः मा. रतनावदी-देसखो "रत्नावली! (रू. भे.) (रू. भे) उ०--१ "वीक हर राउ सांभच्छि वचनन, रीसाद किया राता रतन्न । ऊससिय वोमि लागड प्रवीह्‌, सांभरिए कथने जइतसीह्‌ । --रा. ज. सी. उ० --२ राता किया रत्न, तं विद्यंइता दिन तिकण । विद्धुहा (श्र. मा.) रतन्न-१ देखो "रतन" मोती ब्र, वे श्रांसू सालं रजं --श्रग्यात २ देग्यो “रल (छ. भः) ° उ०--१ नमो कंस-केसि-विधुसण कन्द । रूकम्मणि-प्रांणा पुरुक्ख रतन्न । --ह. र. उ०--२ श्रगम श्रगोचर राख्िये, कर कर्‌ कोटि जतन्न1 दादू चना क्यों रह, जिस घट राम रतन्न। -- दादूवांरी उ०--३ जस गडा भरियौ जुई, जग सौ करौ जत्न। श्रौ त्राभर्णां श्राभरण, रतनां सिरं रत्न । --वां.दा, रतन्नगरमा, रतन्नग्रन्मा-देखो 'रत्नगरभा' (रूः भे) उ०--मुवपि सोढ स्रगार, लाज वग्रीसड लक्खं । खम्या धरम धीरज, सील संतो सतोगुण 1 रभा दे्वांगना, रतन्नगरभा पति रत्ती। गगा गवरि लिद्छम्मि,'जिसी सीतासतर्वेती । श्रबेराज वंम जसराज धू, धू जिमघारण नह फिरी, श्रमरेस' पुत्र जिण जमियौ, वन चहू्वांण कणगिरी । --ग.रू.वं. रतनासवोध-त. धृ.-सागर, समुद्र । । रतश्चि,-१ देखो ^रत्न' - (<. भे.) उ०--१ वरौ सरामलौ मात भीरो वसन्ने, तिसी श्रुवे जोत मोती रतन्च । | --रा. र. उ०-२ रमणी घणी रूपि रतन्नि, निरखी एकाएक प्रसंम। पणा जाढ्ोर नगर्‌ पदमनी, दीटी गउख्ि जांसि दामिनी । --टो. मा. २ देखो ^रतन' रतपड-देखो "रक्तपिडः (रू. भे.) (रू. भे.) ४०३३ --ॐ ५ क 11 रता उ०-पिड विहुंड वह भरत रतपंड । सि्हंड ध्वज मुख वयंड ध्वजसंड । --सु, प्र. रतपति, रतपतौ-देखो ^रतिपतिः (र<. भे.) (प्र. मा.) रतपरस-सं. पु. [सं. ऋतु-स्पशे] दवान, कृत्ता । (ग्र. मा.) रतपिड-देखो "रक्तपिडः (<. भे.) उ०--वठं वप वीजठ खंडविहुंड । रतपिड 1 पड धर ताम किया --सू. प्र. रतफट-सं. पु.-वट वध्र । (ग्र. मा.रना. मा., ह्‌. नां. मा.) रत्वेध-देखो ^रतिवंधः (रू, भे.) रतवीज-देखो ^रक्तवीज' (रू. भे.) रतमु हौी-वि. [सं. रक्त~+मूख]| १ लाल मुह्‌ वाला । २ जिसका मुख रक्त मे सना हो रतमेट्-देखो "रतिमेलः' (रू. भे.) रतरस-सं. पु. [सं. रतिरस] श्यंगार रस । प्रेमरम। रतराज-देखो रितुराज' (रू. भे.) रतट्‌-देग्वो “रताट.' (रू. भे.) । रतवंती-देखो “रतिवंती' (रू. भे.) रतवा-सं. स्वी--१ एक प्रकार की घास जो घोड़ों केलिये श्रच्छी समभी जाती है। २ गहु की फसल का एक रोग । ३ वालको का एक रोग, जिसके कारण ररीर पर लाल लाल फुसियांहो जाती ्हु। रतवब्राह्‌, रतवाहौ-देखो “रातीकाहौ (रू. भे.) उ०--१ रतवाह्‌ पावर पर“ । --पा. प्र. उ०--२, पडसां रतवाहै रवदां पर, श्रावं श्राप करीजौ ऊपर । रतवील-सं. पु-रवान, कृत्ता । (ग्र. मा.) # रतसांई-सं. पु. [सं. ऋतुस्वामी | कुत्ता, इवान । (ग्र. मा.) रतांजणि, रतांजणी-स. स्वी.-वनस्पति विदोष । उ०--१ रांमोडी नदं रासना रीगिणी रुद्र-जटाय । रंग रतांजनि रु मड, रनिवनि रंग धराय । - मा, का, प्र. उ०--२ रावण राग रतांजणी रवणी नइ रद्रा । रुकरूदंती रायसलि, रोहड रोहिणि लाख । -मा.का.प्र र्तानी-वि--लाल मुह्‌ वाली (भेड़) । रता--स. स्वी.-दक्ष प्रजापति की एक कन्या, जो धर्म पि की पत्नी थी। रताद्र जना 9 कजम 2 7 षयि वि.~्ननुरक्त, प्राशक्त, रत । रताठ, रताढ सं. पु--पिडालू नामक कंद, जिसकी तर्कारी वनती है । उ०--१ श्रमरकंद श्रादू श्रलां, सूरण सोक रताद । वच्छनाग वाकुःभियां, मेडागारी भाति । --मा. कां. प्र. उ०--२ श्रजरख जमीकंद रतष्. का विसतार। श्रवु नीवृ प्॑मीर करू का श्राचार। - म.प्र. ८० भे°-रतट्‌,. । रति-पं. स्वी. [सं.] १ घर्म क्रछिके पुत्र काम्देवकौी स्त्री, जौ दक्ष प्रजापति की पत्री थी । उ०--१ इक दिसं कान्ह दकं दिस राघा) रति मनमथ दों लख लाज । --रसीर्लराज री गीत उ०--२ वसुदेव पिता सुत धिया वासूदे, प्रदुमन सुत पित जगत पति । सासूदेवकी रामासु वहू, रामा सास्र वहू रति । --वेनि उ०--३ दीसती मनोहारिणी दसी की स्वरग श्रावी उरयसी, सुवरण्ण चंपक गोरी, इसीख प्राव गोरी, राजहंस ग्रति निः दीगती छइ रति, वचन विग्यांनवती सरस्वती । --व, मु. २ रति क्रीडा, कम क्रीड़ा, संभोग, मैथुन । उ०--१ संकुडित समसमा संध्या समयं, रति वंति र्खमणि रमणि । पथिक वधु द्विठि पंस पिया, कम पत्र मूरिज किरणि । -येलि उ०--२ मदिरतरि किया विणंतरि भिच्िवा, विचित्र समि समाब्रत ¦ कीच तिणि वीवाह संसक्रित, करण सु तणु रति संसक्रत । -- वेनि उ०-२ सध्याकौसमयहृग्रौै। क्रम्णजी रति वांदधद्चै। --वेलि री. ३ मेथुन या संभोग की इच्छा, काम वासना । उ०-येकतौतत चिता सो रता छ । परमेस्वर म्य लीन हृश्रा । श्र दूसरा रति सौं राता --वेलि टी. ४ प्रीति, प्रेस, श्रनुराग । ५. अ्रानन्द, तृप्ति, संतुष्टि 1 ६ भ्रिसीमेरतदटोनेकी दयाया भाव, श्राशक्ति। ७ कान्ति, दीर्भि, भ्राभा, सु दरता, छवि, नोभा । उ०--कुठ वैदही जनकजा रति कोटी श्रभिरांम । --श्रवधानि माढा ८ सौभाग्य | ६ गुत भेद, रह्म्य ) & ०२४ 1. ए ष 0, „कि रतिश्च क ७ नमो चः कमक, क = ^ 0 8, क त | 1 1 ^ श त 1 [कि , 1 1 1 1 क १०. धगर रमम स्थाई भाव । (मादि) ११ श्रलकापुरी को एक प्रप्मरा | १२ कऋषभदेव के वज, विभुराजा की पल्मी भरर पृथुधेशाकी माता । १३ सोना, प्रीपयिं श्रादि नौलने फा एकः नोन चिप्नेप। १८ धूुधयी । स्० भै०~-रंति, रद, रट, रर, रती, रत्ति 1 १५ देगो सतु (र्‌. भ.) उ०-१ साह्य स्याम समाक, महेन महेनियां । ष्ट नीरे सुमंध, धरा रगरेनियां । रति अ्रनुङढ विना घमां रद्ियांममा, मीयग दीस इदद्रलिवरु हं भमा । वा. दा. उ०--२ रति छह मेह ब्रगेद्‌ दूज स्यण! नैट्‌ रागखनजुगां पार ताद्‌ | --छत्तरसिट्‌ दादा रौ गोन ३ धरग्रवयर वद्र, छिपा प्रूमर्‌ भरदछाए्‌ । ग्ज श्रवर्‌ श्राव जेट रति जिम वदि प्रा । --पू. प्र. १६ देखो "रात (स. भे.) उ०-- राजा भरूलरि रांणियां, शोष ही भानि। किरि वेया फरिरतियां, चंदौ पूनम रति । गृ. न. वं. १७ देग्वौ ^रत' (र. भे) उ०--१ मुर्नसर मन भ्रनंग सुमति । रगे चद भ्नग विन सेम रति। | -रांमरामौ उ०--२ दीयादे दे षोढती, रहती पीया रत्ति! जनहरिया जम ग्रायकं, लेग्यौ रागं घि । --प्रनृभववांणी १८ देखो “रत्ती (र. मे.) रतिक-देग्वो ^रत्तीक' (रू. भे.) रतिकर-ति. [स.] १ श्रानन्द व गूग्दप्रद। २ कामी, विलासी, विलासप्रिय । म. पु.-कामी व्प्रक्ति) रतिकल्ह्‌-सं. पु. [म. रत्तिकलहम्‌] रतिक्रीटा, सभोग, मेथुन ! रतिफठा, रतिकला-मं. म्यी. १ धीङष्ण की एक प्राणसमी । २ मंथन कला! रतिकत~-सं. ¶. [सं.| रतिपति कामदेव । रतिका-स. स्वी. [स.] सगीतके क्रपम स्वर्‌ की एके व भ्रतिम श्रृति । रतिकोल-स. पु. [सं.] वूकर्‌, दवान । रतिकुहर-सं. पृ. [सं.] योनि, भग रतिकेि-सं. स्त्री.-मंभोग, मधुन । (द्‌. नां. मा.) रतिप्रिया ४०२३५ रतिरास रतिक्रिया-सं. स्वी.-संमोग, मंथन । रतिगरुण-सं. पु. [सं.] एक देवगंघवं जो, कदयप एवं प्राधा के पुत्रोमें सेएकथां। रतिग्रह-सं. पू. [स. रतिगरृह] १ योनि, भग । २ केलिगृह । रतिताल-सं. १.-संगीत मे ताल के साठ मूख्यभेदोंमेंसे एक । रतिदान-सं. पु--संभोग की भ्राकांभा वालीस्वीके साथ किया जाने वाला संभोग, मेथुन 1 उ ०-देवणनं रतिदांन जाच जाचरू फिर जाचू । रीावणा दिन रात नाच नाच फिर नाचू । --ऊ. का. ० भे०--रतदांन रतिनाग-पं. पु. [सं.] कामनास्वर के श्रनुसार सोलह प्रकार के रतिवंधों मेते एक) रतिनाथ, रत्िनायक-सं. पु. [सं] कामदेव । (डि. को.) रतिनार-सं. पू. [सं.] १ पुरुवंगीय रंतिभार राजा का नामान्तर। २ देग्वो “रतनार्‌' (रू. भे.) | रतिनाह-सं. पु. [सं. रतिनाथ] रततिपरति कामदेव । रतिपति, रत्तिपती-सं. पु. [सं. रतिपति] कामदेव ) उ०-१ श्रत परमन पसर पससिया श्रांवा, सुक पिक वोन सुखद सराग । रत्तिपति तांगौ वनुख जरे रुच, वरसांगौ देव॒ ज्यू वाग। --वां. दा. उ०--२ रतिपति रयि दिवस्न संतापति, व्यापति विरह दक्ख वियु दियु रे! राजुल कट्‌इ सखि सामि मुदर विणु, कटस टर रदृढ जियु जियु रे। --स' कु ० भे०~-रतपति, रतपती, रतीपति, रतीपती । रतिपद-सं. पु.-नव भ्रक्षर का एक वृत्त जिसमे प्रार्‌ लधु ग्रौर अन्त मे एक गुर होता है) ' ~ (र. ज. प्र.) रतिप्रिय-सं. पु. [सं.] कामदेव 1 वरि.~कामुक, विलासी । रतिप्रिया-वि. स्वरी. [सं.] कामुक (स्वी), प्रविक मैन या संभोग कराने वाली । सं. स्त्री.-रक्ति की एक मूतति (तांत्रिक) । रतिप्रीता-सं. स्वरी. [सं.] काम वासना में कामुक स्त्री रतिबंघ-सं. पु. [सं.] काम दम्ब के भरनुसार, मैयुन का एक ढंग 1 रतिवाह-देखो "रातीवाहौ' (ख. भे.) रत रहने वाली स्त्री, उ०--ग्रर वरूता वचता त्ीजा चतुरग नू चदछ-वि च हुवो जांसि ४ # 1 रतिबाह देर प्रचांणक ग्राद्‌ वादियौ । रतिभवन-सं. पू. [सं.] १ योनि, भग । २ मेथुन करने का स्थान, कक्ष केलिगृह्‌ । रू० भे ०-रतिभौन । रतिमाव-सं. पु. [सं.] १ शगार रस का स्थाई भाव (साहित्य) । २ प्रेम, प्रीति। ३ स्त्री पुरुप का परस्पर प्रेम । रतिमौन-देखो ^रतिभवन' (रू. भे.) रतिमदिर-सं. पु. [सं.] १ योनि, भग । २ वह्‌ स्थान जहां पर मंश्ुन या संभोग का कार्यं किया जाताह। केलिगह्‌ । रतिमित्र-स्‌- पु. [सं.] काम शास्वानुसार म॑प्रुन का एक भ्रासन । रतिमेन्र-सं. पु-मेथुन क्रिया । ० भे ०-रतमेट । रतिया-देखो “रातः (ग्रल्पा., <..भे.) उ०--पनरां दिनां रतिया पख एक पृजाई । - केसोदास गाड्ण रत्तियाव-सं. पु.-देखो "रातीवाहौः (रू. भे.) रतिरमण-सं. ए. [सं.] १ कामदेव । उ०--कुश्रर-कमला रति-रमण, मयण॒ महाभड नाम । पंकजि पूजिय पय-~कमठ, प्रथम जि करू प्रणाम । --मा. का. प्र. २ रतिकीडा। 5० भे०~रत्िरयरा ] रतिरयण-देलो ^रत्तिरमसण' --वं. भा. (रू. भे.) उ०--रतिरयण सुदि नर नारि रांमति, गाछि प्रमदति गावही । मुख गांन दिन निस स्वाम मंग, वण चंग वजावही । । | --रा. शू रतिराज, रतिराय-सं. पू.-कामदेव, मदन । उ०--१ कर गहि लीधी ढोलिये, सायथण कत सकाज | दाधां दाथ मीलावीयी, रति जाश रतिराज । -- पनां उ०--२ नवरंग सनेह प्राणद नव, उल परपु उभाठमसरू | रतिराज जोड नर रज्जिए, महाराज श्रभमादर' सू 1 भणि मड प्‌, उ०--३ त्रिणि वरस माहि निज प्रंणि साधि सधु मनावी श्रांख, पनर वरस पोढड राजान, रूपवंत रतिराय समांख । | -टो. मा. रतिरास-सं. पु--रति क्रीडा । उ०-- नह्‌ उन्हालु सीत रति, नहु पावस् प्रकासं । जिशि मंदिरि नवि जां णी, तिहा रमड रत्ि-रास ध --मा. कां. प्र. रतिलील त सतिलील-ं. पु.-संगीत मे ताल का एव भेद । | रतिलीला-सं. स्त्री. [सं.] स्तिफ़रोडा। रतिवंत-वि. (स्वी. रतिवंती) १ सुन्दर, र सुत्त, मनोरम । २ प्रियतम, प्रमी । ३ रसिक । # वलवान, क्तिशाली । रत्तिवंती-वि, स्त्री--१ प्रेममे युक्त, प्रममय । उ०-रत्ि्वती रति कर, राम स्नेही श्राव । दादू श्रवस्‌ श्रन्‌ भिक्त, यहु विरहनि का भाव। --दादूरवरांगौी २ सुन्दरी, रूपसी 1 २ प्रियतमा, प्र मिका । ~~ --*~ + ~ --- ~+ [1 ० भे०--रतवंती, रतिवर-सं. पु. [स.] कामदेव रत्तयरद्धन-सं. पू. [सं- रतिवर्धन] व्यक मे कद प्रकार की वग्तुर्रो कै ग्रोग से वनने वाला एक पुष्टिकारकः मोदक । रतिवल्लभ-सं. पु. [सं.] कामदेव, मदन । रतिबाउ-देलो "रातीवाहष (रू. भे.) उ०-- पाद्य पीलि पापौ करद्‌ कृूदु दीधडउ रतिवाउ । निटग्णीय पेच प॑च्नाल वाल श्रनु राखसि जाड) --सालिभद्रमूरि रतिवास, रतिवासौ रतिवाह रतिवाहौ-देखो 'रातीवाहौ' (रू. भे.) उ०--१ सायपुरं रतिवास जटे डेरा तज भागी । सफर जुथ स्मे, लोह दैकौ नह लागौ। वरस निनांणु विच, सूक्रत एकौ नह्‌ कीवौ, रांणौ श्रडसी छोड, षट रतनारौ तीधौ। देवसा कवर मरं दूसट, पदियौ वादौ पूजिय । मौकमा कमव मोटा मिनख, तै जीवर कामू क्यौ । --ग्ररजुनजी बारहट एकत्ककाकक व ` नि ० तट 1 उ०--२ श्र नागपुर रीलजा केमास नू भटाय श्रगिहेलपुर गजनवी रा श्रनीका मे रतिवाह देण बणाय हांकियौ बरुबौ । -- तवं. भा. उ--३ मेवामे रामेर, भरे कोचरमें शाका । रतिवाहा दं राज, प्रा वरि जाद प्राका। ` ~त. रतिविदग्धा-सं, स्त्री. [सं.] टस्तिनापुर्‌ कौ एक वेद्या । रतिसरवस्वा-सं. स्त्री. [सं. रतिसवस्वा] म्रीग्रष्ण गी एक प्राण सशी) रतिसाधन-सं. पु. [मं.] १ पुरुप का दिरन । २ मैथुन सम्वव्री साधन । रतिसास्त्र-सं. पु. [गं. रतिशाम्त्र | काम.दारत्र ) ४०३६ __ ~~~ तोप कको नो ननः नोन अम भ भज निनि # ` रतिसु वरस. पू. [सं.] कोम णागप्र कै प्रनु्ादि कः ब्रक्क्‌ ा रतिर््रध । रती-स. स्प्री.-१ घक्ति, २ देना “रत्ती य्न । (स. भे.) (श्र. मा.) उ०--१ टकः रती न्‌ हालि सोनी सवणा नाय नजावश लोभी करर, प्राथ साय प्रममाथ --्वा. दा. उ०--र महातमच्येय रतौ नहि गम्य 1 गयी निपमायम भय ग्रगम्य । -ऊ. का. उ०--३ साम्र ग्राह्‌ प्रामी, गयौ दूय माया} रत्ती मान साधी र्रीसूटवारा 1 --मगतमाद् उ०-- ट्रिजन मौन सोच्वौन रती न कीट ममाय । दगीया सकट नोह ज्यु, काट भर्पीरट्‌ वरचि | = श्रुतं वागी 3 दम्यो र्तिः (स. भे.) उ०---भूपाट भिघ यन सूषनी, दिमयार फीगन यह रतौ । अग लियां पौरस म्रासनी, ग्रकधेगा जुच अ्रणमंकर | --र. ज. भ्र. ४ देगो रान (=. भे.) उ० रिम द्ौद्िसी दिवम दग -रतीयां । मद्र सवरर्‌ पृष मेइतियां 1 -रा. सः रतौक-देखो 'रत्तीक' - (स. भ.) रतीपत्ति, रतीपती-देो "रतिपति' (स. भे.) उ०-विस॒च्र विमोह चिसच्व विग्यांन 1 रतीपति तातं प्रकत रतीयन, रतीपेक-देग्यो ^रतीकः (सू. भे.) उ०-१ ट्रीया लेख लिनलाट का, मेटचा, कभी नजाय। वा मं तिल भरिनां वभ, रतौयन घां धाय । --प्रनुभव वाणी कामी नर कं काम कौ, दरीया रतीयेक मुख याते गरथिकौ ऊप, मेर प्रवा दुः । --प्रनृमवर्यागी उ०-२ रतीवान~देखो “रतिवेत' उ०-- स्त ईम तो एक लेवधडंग, काटी कवक श्रोद्ियोड़, रतौवाट्ी जीवती जागती मूरती श्राय धमकी । (रू. भे.) उ०्--प्दधै राखीड क्रिर्लाणदासर रायमलोत रतीवाहौ मरात्न ५० तथा ६० सु दीयी। -- नरसी [० ---व्ररग्गदटि रतीवाही-देग्बो ^रातीवाही' रतुग्री-सं. पू-वरसात कौ मौसम में होने वाला एक पौधा, जिसके पत्तं छोटे व गोल दौते ह तथा एत पीले होने द । रतोपद-देखो भरक्तोत्पठः । 1 रतोर ४०३७ , रती रतोर~सं. पु-लाल मुह्‌ का वडा तहा । थाकी मारई, जांणि विल्रुवउ सीह! -टो.मा. रती-देखो ^रातौ' (<. भे.) उ०~-२ केर कुम विदारियौ, तोड़ दृहत्थां दंत । रुहिर कठा उ०--१ जौरौ करं फजीतीयां, रोय रोय रता नण । हरीया रत्तडी, मद तर त महकत । वा, दा, हरि विन जीवे कौ, सजन नां कोई सण) --ग्रनुभवर्वाणी उ०-३ के्रि मरू क्ठादयां रूहिरजन रत्तडियांह्‌ । उ०-२ रमता रांम एक रंग रता, माया मोह विख नहीं सता । उतिम साधु लदछन धोरा, मो कहीयै ग्रजरांमर वीरा, | -- श्नुभववांणी उ०--3 राण रौ लीव गुढवाड, समहर रतौ । मालगद्‌ वासि जिणि लीध गढ़ मेडतौ । --सु. प्र. उ०--४ मरद छती श्रापह्‌ मतौ, थप्पें मोरी थाप) रावत वर रतौ न्है, वौ रावत परताप । --प्रतापरसिघ म्होकमसिघ री वात रत्त-देखो “रक्त (रू. भे.) उ०--१ एक ्रसुर उव्रर, तांम भागी रक्त करतां 1 . काग मुख दिव चछ, नखा तद्वरं तरतां । --मा. वचनिका उ०-२ गडग्गड जोगणि रत गिकछत। दृडहड नारद रिक्ख 9 दसत । --ग. रू. वं. > उ०--३ मरदिया जेम जगमट्ल मल्ल । इण्डोलि ल्ल मारिय मृगत्ल 1 र८तठडइ रत्त सोखड सपत्त, सम्भकदइ सत्त विस्थरड वत्त । ---रा. ज. सी. उ०--४ धम्म मरेतरपाच्छ रे धन रत्त घुटक्के । २ देखो "रत" (रू. भे.) उ०--१ धरि पुटी घर .सांमहा, सहु जु्वांणा सत्थ 1 मन रक्त मनमत्थ सू, मन चाहु मनर््थ । गु. <. वं उ०--२ रत्ता सामी वरमसू, रामा कामि ही "रत्त। मन मोटा दिन पद्धरा, भड वका गहमत्त 1 --गृ. र. वं ३ देषो "रातः (रू. भे.) उ०-- मसिः समंदां वीट धर जक सु जामी, पत्त किगही "== ग्रवगुण क्ूभड़ी, कुरो मांमिम रत्त। --टो. मा. ४ देग्यो "रातौ (रू. भे.) रत्तउ-दरेखो (रातौ (रू. भे.) । उ०-ग्रहर रंग रत्तड हृवड्‌, मुख काजद् मसि-त्रन्न } जांण्य ग जाटल ग्र, तेण न दूकड मन्न । -टो.मा सतक-सं. पु.-लाल रंग का एक पर्थर विेप । (ग्वालियर) रत्तडी-देखो “रात (ग्रल्पा., 5. भे.) रत्तड़ौ-देग्घो "रातौ (ग्रल्पा. र. भे. उ०--१ तीखा लोयणा कटि कर, उर रत्तडा व्रिवीह्‌ ! टोना रतडउ-देखो “रातौ (स्वरी. रत्तड़ी) - --टा. का. (ग्रल्पा., <. भे.) उ०--क्षणु एेक जि रवि रत्तडउ, प्राथमतद्‌ श्राकासि। देवद्रं दुसट करि लिखि, तिम माहरि धरवासि। --पा. का. प्र. रत्तर-देखो ^रक्त' उ०--पि्यं मर रत्तर पत्तर पुर्‌, वगत्तर टोप उड खगवर -पे. स. रत्तव-देखो "रक्त! (रू. भे.) उ०--गयदा दन ऊथढठ- पशन गयंडोथठ, मृ नहीं सद्र दभ मड । रत्तद्ठ भट स्रखन वख खक्ठ रिखरीधलठ, जोध रिरामल अ्रपल जडं । --गु.रू.वं. रत्ति-१ देखो “रतिः (रू. भे.) २ देखो शरत्ती' (रू. भे.) २३ देखो ^रात' (रू. भे.) रत्ती-सं. स्त्री. [सं. रक्तिका] १ श्राठ चावलङके वरावर या माहे के म्राठवं श्न के वरावरका एक तोल जौ प्राय सोना जव हरा प्रादि तोलने मे काम भ्राता है। वि. वि.--मतान्तरसे छठा प्रंश भी माना जाता दै। २ उक्तमान का वार । २ उक्त मात्रा के वरावर सोना या ग्न्य पदार्थं । ८ चिरमीयाघरुधचीकादानाजो उक्त तौील के जाता हे। |स. रक्ती -५ ग्ोभा, छवि, कान्ति | उ० -पंगराज प्रमां प्रगट चद्धियौ शग्रभपत्ती' | सह जांरियौ संसार, राज भाटखाहष्ट रत्ती । वरावरर्‌ माना --सु, प्र. ६ प्रम, ्रनुराग। ०--परणिजे त्रिभुवन पत्ती, भगतवद्य्र एणा भक्ती । मेव किनिया रूपमन्ती, रांम सौं रत्तौ ¦ -पी. ग्र वि०-१ म्रत्यत्प, तनिक, किंचित, स्वमात्र । २ लाच, रक्ताभ । उ०--१ या मुख भटी श्राखनं, पगौ साहं दवार । श्ररज हुवंतां श्रसपती, कीथी रत्ती रार्‌ | --रा. रू जनके न ह 1 म । ॥ ॥। २ } {^ धि श ५ रसीकः +~ ज म श य मा मानक भा-क उ०--२ 'जगपत्ती' उण जोसमं, रत्ती श्राग समांख॒ । वनसपती, वटठ जाट्वा, कार तत्ती केवांख । ---रा, सू. २३ ग्रनुरक्त, भ्राश्ञक्त। ४ लीन । ५ देखो "रात (रू. मे.) रत्तीक-ति.-रत्तीभर, तनिक, थोडा सा। <० भे०--रत्िक, रतीक, रतीयेक । रत्ती- देखो (रातो (रू. भे.) उ०-१ रत्तातोनाम जिकर घणासू्प। कदन पडेनर सौभव 11 | =" ६ शः उ०--२ श्रकवेर तत्ता राग सु. रग त्रिया रस सद्ध। जो उतपात प्रगद्ियी, सो सुरियौ निस~प्रद्। --रा. रू उ०--२ नकेलां न के षशव गों नृखत्तां ! रसं वाधियं खोलिया कोप रक्तां । रा, रू. उ०--४ मेवाड़ी नीमे मरण, रत्ती रिण भिम्मार | लौह सवार भुज्जवठ, चछडं मोह्‌ संसार । --गू. र. वं. (र. भे.) उ०-रैकपे कायर प्रण च्छटगा वीरां हासं । भैचककं भूलोक रत्यां धेमायौ सु भां । । --वादरदानि दववाडियौ रत्थ्या-स. पु. [सं] मागं । रत्थ-देखे "रथ! उ०--वेरस वैरागी त्यागी तन तावै, वेला तेला विधि सहजां वग श्राव 1 पर्थ्या पाटण दं भिक्ष्याटण भाजी, र्थ्या करप लै चरपटवत राजी । --ऊॐ. का. रत्यी-देषो.^रथी' (रू. भे.) रत्थौ-देखो “रथ (रू. भे.) उ०--काठ भैरव रुद्र भद्र काठी, हरखि हसि दीध नारद्‌ ताढी । दसणमू दिय्ौ राठौड़ वत्थां, रवी रहता प्राकास्च रत्यां] -गू. <. ठं. रत्न-सं. पु. (स. १ श्राभूपणो मे जडने, कटहर वनाने या ग्रौपधियो में काम ग्रान वाले, विलिष्ट प्रकारके छोटे व चमकीते सनिज पदाये या पत्थर, जौ चड़ कीमती हते है। हीरे, जवाहूरात, मोती, मसियां श्रादि । वि. वि.-दर्नकी संस्या ५, ६ या १४ मानी जत्ती है) २ कोई श्रमूव्य व्रम्तु | ३ कोई सवं श्रेष्ट वस्तु । उ०--श्रवथो प्रमिद्ध प्रात्तपत्र मात्र भ्रारय्यन को, छव छत्र वारिनि नद्यू्र मूख मत्तक! जाता रहा लेके त्रौ श्रमोल रत्न ०२४ रत्मजटित भै दाता जसु") पोल में विवात्ता पायौ मोल सानधातता को। । --ऊ. का. ४ पुरुपों की ७२ कलार मं से एक । (बे, स.) ५ पांच, नौव चौदहकी संस्या। # वि०-१ जो श्रमूल्य हो । । २ जोसवंश्रष्ट्हो। २ पाचि, नौव चौदह । देग्वो (रतन त्रय' । ० भे०-रतग, रतन, रत्न, रत्तन्नि । रत्नकवछ, रनकंवल-सं. पु.-एक प्रकार का वस्व । उ०-- पद्‌ भला वर्त्र पहिरायाते कण कुर, देवे दृख्य॒वन्त्र रत्नकथल पांमडी खी रोदक मसज्जर चीरी बुलवुल चसमा श्रतलम लाहि प्ररांण खासा सेलां मूनमुल"" “4 --व. स. ० भे०--रतनकांवले, रतनकावल । रत्नकर-सं. पु- [सं.] कुवेर । रू० भे०-रतनकर ! र ( रत्नकूट-सं. पु. [सं] १ एक पव॑त का नाम । २ एक बोधिसत्व । ` (पौरागिक्र) ० भे०--रतनकूट । रत्नङूटा-स. स्त्री. [सं.] प्रति च््पि की पलियोमे से एक । रत्नगरम-सं. पु. [सं. रलगभैः] समुद्र, सागर रू° भे०-रतनगरभ । । रत्नगरभा-सं. स्त्री. [सं. रत्नगर्भा] १ प्रथ्वी, भूमि; २ नर र्त्त उत्पद्च करने वाली (स्वी) <° भे०--रतनगरभा, रतनागरभ, रतत्रगरभा, रतन्नग्रव्भा । रत्नणिरि-सं. पु. [सं.] तिहार का एक्‌ पर्वत । (एतिहासिक) ° भे०-~-रतनगिरि, रतनभिरी, रलनागरि, रत्नागिरि । रत्नग्रीव-सं. पु. [सं.] कांचन नगरी का एक राजा, जो विष्णु का परम भक्ते भा) । रत्नधर-सं. पु. [सं.] समुद्र, सागर) 5० भे ०~रत्नघर । रत्नचद्र-सं. पु. सं. ] रत्नों के प्रविष्टाता एक देवता । रत्नच्ुड-सं. पु. [सं.] पात्ताल लोक. का एक राजा । + रत्नजटित्त, रत्नजडिति-वि. [सं. रतनजयित | हए दों । जिसमे रतेजडें ॥ [1 रत्ननालक ४०३६ * रत्नागरि उ०-रत्मकरेड ऊघाडयौ, रत्नजटित छद हार । अओआ्रभरण वीजा धा, अरनोपम छद्‌ सार --नट८दवदत्ती रास रस्नजालक, रत्तजालि-सं. पु--एक प्रकार का ग्राभूपण । (व. स.) उ०- चंद्रावली मूर्यावली नक्षत्रावली सरोणीसूत्र काचीकलाप स्मना'किरीट चूडांमणि मुद्रानंतक दसमुद्रिका श्रंगुलीयक प्रगु्ला हेमजालक मरिजालक रत्नजालकं मानक । --व. स. रत्नत्रय-सं. पु.-जेन दयोनानुसार-सम्यक दलन, सम्यक ज्ञान व सम्यक चरित्र इन तीनो का समूह्‌ । रत्नदामा-सं. स्वी. [सं. रत्नदामा] राजा जनककीस्ी वेसीताकी माता का नाम। रत्नदोप-देखो "रतून प्रदीप रत्नधेनु-सं. स्वी. [सं. रत्न -{-धेनु] रत्नों की घनी गाय, जिसके दान का वड़ा माहात्म्य माना) रत्ननाम-सं. पु. (सं. विष्णु का एक नामान्तर्‌ । रत्ननिर्धान-वि. [मं. रत्ननिघानम्‌] जिसके पास रत्नों की निविहौो। उ०--किहां मातंग ग्रहागण किष्ां परावत, किहां दूरगत विपरि › किहां चितांमणि, किहां दग्ध मरु किहां कल्पतरु, किहां निर्धन संतान -किदहां रत्ननिर्धान, किहां ऊगवर किहां कमलसर, किरा मृनि सकल गुणावास । --व. स. रत्ननिधि-सं.पु. [सं.] १ समुद्र, सागर्‌। २ सुमेरू पवत 1 ३ चिष्णुं का एक नामान्तर। रत्नपरीक्षक-सं. पु. [सं.] रलौ की परीक्षा करने वाला जीहरी । रू० भे०-रतनपारवी, रतनपारगबु, गत्नपार, रतुनपारनि, रत्नपारखी । रतनपरीक्षा-सं. स्त्री. [मं.] १ पुम्पों की वरहत्तर कलापरो में से, एक । (व. स.) २ हीरे, पन्ने, जवाहूरात श्रादि की जांच कला । 5० मे ०-रतनपार्‌ख । । रत्नपारक्ष-देग्ो ^रत्नपरीक्षर्के (रू. भे.) उऽ-7कः समि चवद्ठा जवहूरी, एक्‌ जांगो टेम परीक्षा करी । वगा तिहा छद रत्नयारक्ष श्राट्क जोवा वडटा चक्ष । --नददवदंती रास रलनपारलि, रत्नपारखी-देखो !रत्नपरीक्षकः (रू. भे.) उ०--तेर पसाडइता, चऊद चडियात, पन पडंतार, सौल महा मसांसी, सतर श्राडणीय, श्रढार भरुभार, श्रगुणीस्र मांरिक्य विनांणी, वीरा रत्नपारखि, परिवारि वयु सभां वटो । --व. स, रत्नप्रदीप-सं. पु. [सं.] १ दीपक के समान प्रकादित रहने वाला एक कल्पित रल विशेष । पेसा माना जातादहै कि पाताल मे इसीसे प्रकाश रहता ह । २ रत्व का दीपकं । रत्नप्रमा-सं. स्वी. [स.] १ प्रथ्वी, भूमि । २ एक नरक । (जेन) रतुनवाहु-सं. पु. (सं. विष्णु का एक नामान्तर्‌ । रत्नमारिता-वि. स्वी. [सं. रतन भरिता, प्रा. रय भरिया] जो रलों से भरीहुईदहो, परिपुणं हो । रू० भे ०~रतनभरी । रत्नमाकया, रत्नमाढ्रा, रत्नमालिका-सं. स्त्री. [सं. रत्न माला] १ रत्नो काहार रत्नोकी माला, मणिमाला । २ राजा वलिक कन्याका नाम । रत्नमाटीो-सं. पु- [स. रत्नमालिन्‌] एक प्रकार के देवता (पौराणिक) रत्नरास्षि, रत्नरासी-सः पु- [सं. रत्न राशि] १ रत्नौकाडेर। २ समूद्र, सागर) 5० भे०-रतनरासी । र्नवसी-सं. स्त्री. [सं] पृथ्वी, भूमि। रत्नसानु-स. पु. (स. रत्नसानु] सुमेरू पवत का नाम । ० भे ०--रतनसांन, रतनसांनु । रत्नसागर-सं. पु. |स.] १ समुद्रमें वह स्थान जहां र्न निकलते ह] २ वहु समद्र जिसमें रत्न पाए जतिहौं। रत्नसाठा-सं. स्त्री. [सं रत्नलाला] १ वह स्थान या कक्ष जिममें रत्न रक्ये जाते हों) । २ वह महल जिसकी दीवारों मेँ रल जड़ष्टँ। रत्नांगद-सं. पु. [स.] पाड्य देश के वंगद राजा का नामान्तर्‌ । रत्ना-सं. स्त्री. [सं] यादवे राजा श्रक्नूर की पृत्नियौंमे से एक । रत्नाकर-सं. पु. [सं.] १ समृद्र, सागर्‌। रत्नोको खान । ३ गौतम बुद्ध का एक नामान्तर । ४ वात्मीकि ऋषि का पुराना नाम। (पौराशिक) ५-एक वेस्यनजो एक वैलकेद्वारा मारा गया था । (पौराणिक) ० भे०--रदणादइर, रतंनागर, रतनाकर, रतनागर, रतनाघर, स्यणागरः स्यणायर, रयणायर्‌, रेराद्र, रेणायर, रैणाडर, रेणाडर, रेणायर, रगावर । रत्नागररि, रत्नाभिरि-देखो ^रत्नगिरि' (रू. भे.) उ०-- भद्र जाती टेस्ती 'विध्याचल, राजहंस मनिसरोवरि, रत्नाच ड = चितामणि, सोहणाचलि, रत्न रत्नागरि प्रवरत्तद्...*..०.... ~व, स्‌. रलाचदढ-म. पू. [सं. रमूनाचल ] १ विहार का एक पर्व॑त (एतिहासिक) २ पटाट्‌ के रूपमे लगाया जाने वाला रत्नों का ढेर; जिसका दान करने का वा माहात्म्य हे । (पौरायिकः) रत्नाद्वि-सं. पु. [सं] एक पर्वत विरे । रतनाधिपति-मं. पु. [गं.] १ चनपति कुवेर । ० रत्न मम्पदा का मालिक । रत्नान मं पृ. [मं रत्नाभरुपण] पसा श्राभरुपणा जिसमे रत्न जड़ हो | रत्नावलि, रत्नावलि-गं. पु. [सं. रत्ावली] १ एक राजकन्या, जिम रत्नेव्वर नामक िवमंदिर्‌ मेंदिव की नृत्योपासना करने के कारण, पातान लोक का रल्नचूड नामक राजा पति केषूपमें प्राप्त टम्रा। २ एक प्रकार का त्रत । उ०~-जोगमिद्ध भद्र, महाभद्र भद्रोत्तर, सरवतो भद्र, रत्नावलि, तःनकावनि, मुक्तावलि, यवमध्य, वखमघ्य, चंद्रायण, सूरायण, वक्षोपचाम । तर, स. ३ दमो "रत्नावी' (स. भे.) रत्नावदठी, रत्नावली. स्त्री. [सं. रत्नावली] १ मणियों यो गर्लों कौ माना, हार । हार्‌ प्रद्र हार प्रलेव प्रालंव नवसर कटक ककण वेर नुपूर्‌ करण्ण वुल णकावती कनकावली रटनावली चर्रायली पत्रावली चंद्रावनी सुरयावन्ी। --च. स. उ --२ सुग भरि सूती मुद्रि, पनि मुपन मवराति । रगत चोल रत्नावली, व्रिउ ने कटृदष्‌ वातत । -- कवि चरम कीरति \ दीपक राग करी पत्र वधू एक रामिनी । (संगीत) ३ एवः ग्र्थ्नंकारे विप । उ ० -१ ° भे०-रतनावटी, रत्नावनि, र्यरावनी । रत्नोत्तमा-म. म्यो ~क तान्िकर देवी । रत्पव~रेगो “गातीवाी' (टि. फो.) गव्र~देग्यो "रक्त (र. भ.) 5०--१ पत्रांभरि रत्र दकौ हिक पांगा, श्रसौ करकंठ कटावत प्रसा । वरदरावन केटरि' कैरि वाग, नन्वायुघ गाजत भाजत नागं । --मे. म उ०--> "जम" पाटिया मेन भद नेनवंधा जिव, नर्म परमद मदेः सोदर शम । नवद पय भर रत्र पीन मयौ मक्रति, ०४० रथकरता ॥, प्रलिश्रठां तणा गुजारश्राग। -गु. रू. वं. रयंतर-सं. पु. [सं. रथन्तर] १ एक श्रग्नि जो पांचजन्य नामक ग्रगिनि का पुत्र था। २ एक साम जो मूतिमान स्वल्पमेंब्रह्या की सभा में उपरिथत् रहता था । रथतरो-सं स्वी. [सं. रथन्तर्या] १ पृर्वेणीय राजा माता । दुप्यंत की रथ-सं. पू. [सं.] १ पुराने जमनिकी एक प्रकार की सवारी जिसमें दौ या चार प्रिये होते ये ग्रौर जिषमेदोसे नैकर दम तक घोट जोते जाति धै । स्यंदन, । (ड. नां. मा.) उ० -२ जेतद्‌ वीर मस्तक प्रदरं तेतद्र कायर्‌ पमि पिडि चद, ` दाधथि दाधथि, चोडी चोड, रथ रथ पायक पायकटं । --व. म. २ एसी प्रकार कौ कोट गाड़ी, व्रहूल । ३ वाहन, सवारी । उ०--१ ह्र रथ माटी होय, सकत रथ होय पसरयांगौ । सितरथ देवं पूठ, घटे उतराध पयांणौ ॥ --चौथ वीह । उ०-२ राजा मांनथाता पृ्यै। कहो गण्ड-पंख तोन विसं वासते रोकियीद्ध। गरुडपंखकहै हुं उक्रुखं री रथ, मौ ऊपर प्रसवार्‌ हुबौ तौ ठाकुर री दरमणा करावद् ट्याङऊं । --चौवोती उ०-३ तुरियंद जिसा र्थ भ्रापताप। मुरथराव्रेत रा वक प्रमाप | --सू. प्र. ४ सप्त राज्य लक्षिमियोमंसमे एक 1 । उ०---करि तुरंग रथ प्रायक तेन भांडागार, ५. कौरटागार ६. ग ७ सप्तांग राज्य ल्मी | --य. स. ५ अ्रात्माका यान, दारीर 1 ६ सेना । ७ पैर, पग । ८ फ़ीड म्रा विहार का स्थान । ६ कनिष्ठा के मूले के पास होने वाना एक सामूद्रिक चिन्ह । उ०-मरिवंव्र तीन मशि जव प्राशि । मदं कच्छ कभ गज र्य मंढांणि। --म्‌. प्र १० किसी चट्ान को काट कर्‌ वनाया ह्र चिला मन्दिर । ११ छन्द वास्त्र के श्रनुसार इग के द्वितीय भेदका नाम) स० भे०~रत्थ, रथु, रध्य । श्रत्पा., रथड़ी । मह ० -=रत्थौ | रस्थकरता-मं. पु. (मं. रय कर्ता] १ वटर ` ` २ रथ वनाने चाना कारीगर्‌ | 1 # रथकार ४०४१ रथागधर „~. ~~~ नः ~ __________________~_____ ~ रथकार-सं, पु.-रय वनाने वाला, वद्ई । निकालते हँ । इस रथ को लोग स्वयं खीचते हं 1. | उ०--वस्वरकार विभूसणकार पुतार प्रस्व दि्लाकार स्थकार उ ०--तीरथ यात्रा, रथयात्रा सट्पंचासत्दिक्क्रुमारिकास्ता्- साच्यकार प्रतीहार द्ुरीकार छच्घार वांणदहीवर वागयर । घ्वजारोपण । व, स, क. वि. वि.-वोद्धो श्रीर्‌ जैनियो मे भी उनके देवताश्नों की स्थर यात्रा रथकारक-देग्यो “रथकार! (रू. भे.) निकाली जाती हं। उ० --मोरौ रिसि बलदेव मुनिसर, प्रतिवोध्या पश्रु वरग जी) रू० भे०-रथजातरा, रथजात्रा दान सुपार दियौ रथकारकः पांम्यड पाचमउ र्वरगजी । रथ रजी-स, स्व्री.-वसुदेव की पत्तियों मे से एक । स" $` | रथवर-सं. पु. [सं.] एक यादव राजा, जो भीमरस्थ राजा का रयकारतिक-सं. पु. [मं. कात्तिकेय-+-रयः] मोर, मनर 1 (ट्‌. ने †. मा.) पत्र था। रथकुमार-सं. पु-[सं.] मोर ,। (नां. मा.) रथवान-सं. पु. [सं रथवान्‌] १ स्थकोहांकने वाला, सारथी रय्रत-मं. पु. [सं. रथकृत] एक यक्ष, जो वात्र नामक प्रादित्य के उ०--मारत मं.अ्ररजुन के श्रागे, श्राय भ्ये रथान । उने साथ चतर माहमें भ्रमसा करतादै। ग्रपने कुठ को देखा, छुट गये तीर कर्मानि । --मीरां रथक्रात-सं. पु.-मंगीत -मं एक ताल । रथताह-मं. पु. [सं.] घोड़ा । रथखांनो-सं. पृ.-वद्‌ म्धान या कक्ष जहां रथ र्वे जाने है, , रथवाहक-सं. पू. [सं.] रथ को चलनि वाला | रथागार्‌ । रथवाहन-सं. पृ. [सं.] मत्स्य नरेग विराट क्रा एक भाई। रयडो-देखो "र्थ" (ग्रता. दू, भे.) ० भे०--रवादेण ६1 उ०--१ रथडा वहन जुपाट्या जी, उदा कसिया भार्‌ । [कश 10 रथत्रक्तमी, रथसातम-सं. स्वी. [सं. रथ सप्तमी] माघ शुक्ला सप्तमी । - मीरा रथसाछ, रथसादछा रथसाला-मं. स्वरी. [सं. रथयाना] वह्‌ कक्ष या उ०--२ राज म्हि रथडौ जुनाय दो दही, दे ग्रौम्हारां भर स्थान जहां रथ रक्वाजाता दहै, रथागार। जोड़ी रा भरतार भंवरजी यद्य जुनायदोदौी। नी. गी. उ०--जिन मंदिर धवल मंदिर राजकुलं देवकुन श्रटराल प्रासादमाल रयचरण-सं. पु, [सं.] चक्रवाक पक्षी । लेवसाल पौसधसाल रथसाला हस्तिसान तुरंगमान व्यायांमसाल रथचरघा-सं. स्त्री. [सं. रथचर्यां] एक प्रकार की विद्या । (व.म- ) टकसाल --व. स, रथजातरा, रयजाचा-देखो “रथयात्रा (<. भे.) रथसेन-सं. प. [सं] पाण्डव पक्ष का एक योद्धा, जि्के रथ के श्रदवों रयध्वज-सं. पु. [सं] विदेह देण के ' कृणव्वज~जनक' राजा वैः पिता । का रंग मटर के फल जसा था ग्रीर उनकी रोमावली उ्वेदलोहित चर्णकौी थी) र्थस्वन-सं. पु. [सं.] एक यक्ष, जो सिवर नामक सूर्यं के साथ ज्येष्ठ मास्म श्रमणा करता दहै। पु. [सं.रथ-[-ग्रग] १ रथयागाड़ीका कोर्ट भाग, प्रग । २ रथ का चक्रा, पहिया । रथध्वांन-से. पु.-वीर नामक श्रग्नि का नामान्तर्‌ ) रथपति-पं. पु. [सं.] रथ का नायक, रथी । रथप्रभु-सं. पु. [मं.] १ वीर नामक रग्नि का नामान्तर । २ स्य का मालिक) रयवाहण~देखो ^रथवाह्नः (रू. भे.) रथमोडण-~वि.-टात्र के रथ को पीछा धूमाने ब्राला । रथांग-सं, २ विष्णु का सुद्णेन चक्र । उ०--वांनखी र्थांग धार मेर विवु्ान पाणां, किन्नरां श्रम्मरां वि, । चवर वजमय ड, चिस्तीरण्ण परै उ० श्रय कुमार्‌ उद्रतम्कववंयुर, वमयं नुजादडः र नरां वरा श्रोपव सुधाव । वक्षः म्थल, रगारसिक, समर भरधुरि घवल, श्रतुलवल पराक्रम रथमोडण परदलण, मूर वीर्‌ । --व. स. --भगतराम दादा रौ गीत । $ ५ न ४. न्चृक्रत्‌ { क त ् (2२1 १ स्थधात्रा-सं. स्त्री. [सं.] श्रापाढ शुक्ला द्वितीया को मनाया जाने चक्रवाके नामक पक्षी 1 (डि. कौ ) 9 व्रलराम ध र ८: वाला एक पर्वं ¦! इसमे प्रायः जगच्नाथजी, वलरामजी ग्रौर ५ कुम्हार का चक । सुभद्राजीकी प्रतिमाग्नों को रथ प्रर सवार कराकर सवारी | रथांगधन~सं. १. [सं. | विष्मु | रयागपांति ४८०८१ 0. . ___.___.__ --- ---.-----~--------------~------~--------~-----~-~------------------ भन [प र्यागपांणि-सं. पु. [सं. रथांगपाग्ि] १ चिष्णु । 2 श्रीकृष्णा । रथाक्ष-मं. पु. [मं] स्कन्द का एक सनिक। रयाग्रणी-मं. पु. [सं.] रामचन्द्र के श्रस्वमेधीय श्रव्वके संरक्षण मं टात्रच्न के माथ जाने वाना एक योद्धा । रयानि, रथानी-मं. स्त्री. मिं. रथ~-ग्राती] रथो कौ पक्ति, कतार । उ०--नृरंग मातंग रयालि पाला, ते पारथने वारि हया पाला । व्ंणावनी कौरव नी वि संद, करड करप्रं वलर्वंड चंद) --सानिसूरि रथि? दसो न्थ (रू. भे.) उ०-मधना मामके प्रथरवरणी, यजुरवेदीया जाणा । रधुवेदी सवि रयि च्या, पंडिता पोकारि पृर्रागा। -मा. का. प्र. (र. भे.) रयी-~मं पृ. (मं. रथिन] १ रथयपर्‌ मवार होकर युद्ध केरनै वाना योद्धा । २ वहे रथपति ग्रोद्रा जो ग्रकेना दृजार्‌ योद्धारं मै गृद्ध कर गक्नाटो। 3 मारी | [१ तव | र ग" २ दम्यो ध्य्‌ उ०- श्र मटरीश्रुहं नय्रण श्रग जता, विमदर रानि की ग्रलक्र यक । वष्ी किरि वांकिया विरज, चंद रथी तार्टक चकर । --येनि ४ स्थ की सवारी करन वाला । ५ मुनक कै शव को ग्रन्तिम संम्कारके नियेने जानेदहैतु वाम या नकटी करा यनाया द्ूम्रा दता, मीटरी, उवयान। उ०--ट्रि द्रि उचार्‌ नर पर्‌, हण हैर वाम विममी ह्र। उण वार्‌ रथी नरष जयद, प्राप सुपामण श्राग्ही । --रा, स्‌, ६ लिता उ०-सीष्रीमू्‌ उतागनं रथी माथे मु्ांगियौ तौर खशागी मन नीं टिगियीौ | --फलवादुी र्० भ~ रल्थी, रचि । ७ दन्यो ष्ट्य" (रू. भ.) उण मीन ब्रन भीमम माव्यौ, वरनी व्याम वरटा 1 चूक क्रम्माने स्यौ चक्क को, मीने प्रताप संभार । --८. का. रथोनर-ग. वृ. [ग.] १ मनु वैवस्वत कूलोत्त्त पक राजा जो नाभाग वंशीय पृषद्रव्व सजाका पृत्र था। (पौरारिक) २ मौ्रायन शौन मूत्र में निद्रिष्ट एक प्राचार्य । ए रचु-दगय “भ (मन. भे.) रथ्य-देग्बो “र्थ रद-सं. पु. [सं.] १ दाति, दत । रदद्छदरमण-सं. पृ.-पःन्‌, ताम्बूल । रदर्दान उ०- नृ करीड गोिदि देवि रथु वरह ब्रुतउ। मारीड श्रगजृनि करणु कृटि रणि ग्रण भमत । - --सालिभद्र मुरी (रू. भे.) (ग्र. मा., हि. को. हु. ना. मा.) उ०--१ साह भुजा गंज समर्‌, समतां र सनेम । मद विणा पादी मेल्टियी, जिम्हग रद विणा जम । --वे. भा. उ०-२ प्राणद सु जु उदी उहास हास ग्रति, राजति रदे रिखपंति सुख । नयणा कमोदणि दीप नासिका, मेन केस रकेम मुख । -- वेति. उ०--३ दक श्रमर्‌ संग मतग श्रांनन, मेक मित र्द मटितं। प्रम नेत हैत दूर पूरित, पासन्नति सवपंटितं। रा. मः २ हाथी दाति उ०--्िधुर गाजे सिद्ध रा, प्राग्रं किर प्रास्राढ। णै तकियी भ्रासाह नू रद ग्रामादौ चाढ) वा. दा. ३ चीर-फाट्‌ ) ४ गवर्रोच। ५ वस्त्र विर्धोप। र ५ उ०--रदां फरदां मृसवगां चौपमीदां ललचवि । कंदं केठमी कांमरी, वेद हृदां वणाच । --परनां ६ दवेत ४ (ड. को.) ७ देखो र्ट्‌" (र. भे.) उ०--१ चाप वर्‌ हूर चापः जाप वयव जयपिया, उम रमि जुध कार्रा, ताम ग्रड{पिया। चद्यवर्‌ वत्य साथ तेज निज दह्‌ निया, रदे कर मद दुजरराम, ग्रववपुर्‌ भ्राविया। । --र. ज. प्र. [4 उ०-२ प्रटक हीण प्रसरपती, पापद्धिति ग्रौमर पायी । रद केरवा रज्जिर्या, दुर जही मद पायौ । --रा. छ. उ०--प्रापा मारिमरं जोकौई, हरि वर्णार्भं हटकन दोु। ग्रापा मारि मर्‌ जनै सदका, विन प्रपिंमूवामी स्दका) --त्रनुभववांरी रदएक~मं. पृ. गजानन, गगोग । रदयार-स. स्ी.-वृरुपो की वटृत्तर कनाश्रौ मेनेणएक। (व. स.) रदघर, रदच्छद, रदद्युव, रदद्यदन-मं, पू. [सं. रदगृह, रदच्छद, रदद्टद | ग्रो, होट । (श्र; मा. दि. को. ह्‌. ना. मा.) (प्र. मा.) रददान-सं. पू-रति एवे प्रम के समय दातोभ वकसकर दवाना जिसमे चिन्ह पट्‌ जाय) रदध्र ४०४२ श्त रदधर-सं. पु--ग्रोष्ठ; होट 1 (ह्‌. नां. मा.) रदन-सं. पु., [सं. रदनः] दतपंक्ति, दतसमूह्‌, दाति 1. (श्र. मा. डि. को., ह्‌. नां. मा.) उ०-रदन ददन वदन सस्प। --रांमरासौ रदनच्छद, रदनछठद, रदनदछदन-सं. पु. [सं. रदनः--ददः] श्रो (0 । रदेनवसन-सं. पु. [सं. रदन +-वसनम्‌] ग्रो, होर । (म्र. मा.) रदनावली-सं. स्त्री. [सं. रदनावति ] दतपेक्ति । उ०--कुद कली रदनावक्रौ, श्रदुभुत रधर प्रवाल ¦ सोचन देह सुहांमणी, निरमल ससिदल्छ भातत 1 --स. कु. रदनो सो-सं. स्मी.-१ लक्मी, गृह लक्ष्मी 1 उ०--भारी नांणां चिन दांणां चिन भूमे । धर री रदनोरी सदनां विन घूम! -ऊ. का. २ सुदन्ती, सुन्दरी । रदपट-म. पु. [सं.] श्रो, होर 1 रदबद-सं. पु.-धूल-मिल जाने कौ प्मवस्था । उ०--नापौ दरवार रे सरार लोगं सू रदवद हवी) मौलोग म्रारौ राजी रहै) -- नापे सांखला री वारत्ना (रू. भे.) उ०--१ पद्य नीवाव जुलफारखां री मारफत पातसाह मौजदीन सु रदबदल कराद्‌ । रायजी रुघनाथजी नु दीली मेलीया । | | --रा-वं. वि, , रदबदद्, रददवदव्ट-देखो ^रटोवदठ उ०-२ तद उगे क्यौ, थारा वणी नं दृढवती म्हांसू रदद्धबदटव्छ करि । --कह्वाट सरवहिया री वात उ०-२ गरव नु" मेदमद मुराद कटौ-राजा स लोगसु थ भ्रसनावे टौ! टणां री रदद्छवदद्छ थे करी । --नणसी रदसोही-सं. पर.-रक्तातिसरार्‌ । | रदि, र्दी-१ दायी, गज । २ देखो 'हिरदौ (रू. भे.) ‡ उ०--व्राहुकं वलतु वाणी वदि, गदे गद कठ दुख. ग्रति रदि। सती साचवि सील सुजात, कस्ट पडि करिमी वात [र --नव्ास्यान ३ देखो ^र्टी' (रू. भे.) र्दीफ-सं. पृ. [त्र.] १ घोड़े पर सवार के पी वैठने वाला व्यक्ति, ` २ गृजल मे काफिएु कै वाद प्राने वाला.बन्द या शव्द-समूह्‌ । स. स्व्री.-३ पीछे चलने वाली स्त्री । ४ षीद्ेकीभ्रोर की मेना । तिः | रदौ-देखो "हिरदौ' . (रू. भे.) उ०--१ सीत-पती कह, ग्रोघ श्रघं दह्‌ । देह म्रभं करि, राम रदे घरि। गातेत पामर, भूठ पयंवर, उतर सौ वित कायं गमावते। -र.ज. भ्र. २ देग्वो रदौ" (रू. भे.) रदोवदद्ट-देम्बो “रदौवदठ' (रू. मे.) रह-वि. [श्र.] १ निरस्त, खारिज, रद्‌ । उ०-ठाकर प्रापरी प्रारमें पटर करदियौतौ कांईनव्दै, वांखियौ ग्रापरी रकल प्रापे जद चावे तद उशन रह कर सकं । --पफुलवाडी २ जिसे निरयथक मान लिया गया टो, व्यथं, श्रप्रयोज्य 1 ३ परिवतित, वदला हुश्रा । ४ नापरसंद ५ दूपित्त । ९ हीन, न्यून । उ०--हाले दढ हद जांणि जढहु गयण गरद्‌ मिलि तद्‌ । फत्तं मिरि हद्‌, रंण रह रांवां मह्‌ धियः रह । - गु, र. व, ७ पराजित | । उ०- राजा दखिण चिराजियौ, गा दवणी हृद्‌ रह्‌! साह्‌ सुपारिस सांभढ् , की फत्तं सरहह्‌ । --गु.रू.व. ८ देखो. "रद (रू. भे.) उ०--उर कोप प्राणो श्रप्रमांसे सिद्ध जांरो सद्यं । श्रनोवै श्रखाडे गे उड़ा रूक काडं रदृयं --रा. रू. ९ देखो रुद्र (रू. भे.) रदी-वि. [भ्र. रदी] १ विक्त, दूषित । २ वेकार, खरावे । ३ जो उपयोगीन हो) ४ निम्नकोटी का, न्यून । ५ निकम्मा। सं° स्वरी°--पुराने प्रवर या फालतू कानों काडेर या समूह्‌ । रू० भे०--रदि, रदी । रदीखांनो-सं. पु. [श्र. रदी~फा. खानः] वहु स्थानया कक्ष जहां खराव या निकम्मी वस्तुए पटक दी जात्ती हैं| रहोवदव्-देखो “रहौवदल' (रू. भे.) रदौ-सं. पु.-१ कुच ऊंची उटी हुई किनारो का, पीतल या लोह का वड़ा थाल, जिसमे मिराई रक्छीजातीहै। ' - नटं ररर ` रहीवदट् २ दीवार की चुनाई मे पत्थर कौ एक पक्ति । ४ निर्जन वन की रक्षा करने वाली एक देवी । ३ मिदरीकीदिवारका चात्तेश्रोर से वरावर उठा हा भाग। रनिवास-देखो रणवास', (ङ भे.) ` २० भे०--रदौ ! रनेत-सं. पु--भाला । रोचदद-सं. म्यी. [श्र.] १ ग्रदल-बदल, हर-फेर । रन्न-देखो “रण (रू. मे.) २ विन्दीदो या श्रधिक वस्तुनो का परस्पर हीने वाला उ०-१ अनियत भिक्षा गोचरी, रन्न वघ्न काडसगनजेस्युःजी) स्थानान्तरण, टृस्तान्तरए । समभाव सत्र नइ मित्रं सु, संवेग सुद्ध धरस्यु जी, ० भे०-रदवदल, रदोवदठछ, रदौवद 1 ` --स. कु. रनंकसो, रनंकबौ-देखो 'ररकणी, रगकवौः (रू. भे.) उ०--२ पहाड कराड वन्न ए, रह कध र्न एे, उडति डाव ङवरे, रनंफियोडी-देखौ 'रणकियोडीः (षू. भे.) | लग (१) स्िलीण॒ ग्र॑वरे ) त ग. <. बं. (स्त्री. रनंकियोडी) रपचुतांणी-देखो 'राजपूतांरी' (रू. भे.) रन~देगो “रण (रू. भे.) (ग्र. मा.) । उ०-- तर श्रक्वाई कहयो, जुहार जुहार, पिण ग्रहणीं तौ उतारे ग्रापि नं जोर रपच्चुतांणी काई हखरी दीस छ, जांणौ पावादहर रौ हांह तो रपच्चुतांणी श्रमनं श्रापिने थारा हचि ऊपरां जीवतु नै हथियार वगह्या 1 --जखडा मुखड़ा भाटी री वात उ०्~-सीता लखमण साथ, परम ए पदवी पाई गोह्‌ भील गोविद, रहै रन मां रघुराई । --पी, भ्र. उ०--प्रज कवं तारं चिषे रन जंपं दिन रात । भ्रंग श्रागस केत | रपर-सं. स्त्री.-१ रपटने था फिसलने की क्रिया या भाव । जवो, भड्‌ ताग बरसात । न २ एेसा स्थान जहां से पाव रखते ही फिसल जाता हो । रनक-सं. पु.-१ लोटा । (श्र. मा.) ३ उतार, लाव । र २ लाश, चव 1 ४ देखो 'रपोट' (रू. भे.) | ३ देयो रणकः (रू. भे.) ५ देखो (लपट' (रू. भे. रणयंम-देषो ^र्णयंमीर' (रू. भे.) उ०्~-सो रजक री रपट। वाज री भषट । उ०---घायन वरिहायन लों संतत समर मांड । राखि रणथेन राज - ्रतापसिष म्टोकमसिथ री भाद । मौपन समाह्यौ नां 1 --सूरयमलत्ल मिस्रण॒ । । । ४ | । रपटक-सं. स्त्री--ञट की एक चाल विगेष । रनधोस-मं. पु. [से. हिरण्याघीण] १ कवेर । (डि, को.) उ०्-खारचदरीकाटी वरती पर ठकिर रा ऊट रपटक चाल सू जाय र्या हा । ठाकर ई लार्‌ धर मजलां, वर कुचलां मे हौ । --रातवामी रपटगी-वि. स्त्री--१ जिस पर्‌ से पांव या कोई वस्तु फिसल जाती हो। (स्थान) रनवेफौ-देयो ^रणवंकौ! (रू. भे.) उ०--रनवंका ध्वज धज धुर र्हंत, दै कोन हस रहर हंत । -उ. कां रन रोई, रनरोहि, रनरोही-देखो 'र्णरोदी' (रू. भे.) रनयास, रनवा-देग्पो 'रगवाम रू. भे. क (० । 1 ( ) उ०--ऊची नीची राहु रपटणी पांव नहीं ठहुराय। सोच-सोच --१ हट त्रादसाद्‌ ह हस्य, मरुधरा - > - उ०--१ देट वादमनाह्‌ नि परहि हस्य, मरुवराधीस रनवास पग वरू जतन से, वार बार टिम जाय। _ मीसं मत्य । ५ । ल २ ढालू, नीची 1 उ०-> नदश्री दृटोरौ राजा र रनवासर्हैतौ नाई तरी वहू ५ । चावां रपटणी, रपटवो-क्रि. प्र.-१ फिममलना । गुणीयौ 1 --चौवोली ॥ ५.५ व । (५ ८ उ०--वनी म्हेलामे ग्रोढीषए सेजामें धनसपुरी । वना उ०--2 रनयां महिते निकार रमांगौं । नकट सथान गयौ नानां 8 र ट ज (9 = । ग्रोढ र निकलीजीक चांनणी में र्पट परी! -लो.गी श 6 २ ~ ~ १. तीव्र एवं भ्रवाव गति से चलना । रनम, रनाराणी-त. स्त्री. १ युद्ध की देवी ८ ३ दौड़कर जानां या श्राना, दौडइना 1 उ०--पाद्धौ रौ षादौ गांव रपु, म्न के्‌ काम सारणा है| --फुतेतादी 11 २ दुर्गा का प्क नामान्तर । उ०--देवौ वेम्णवी ममी ब्रहमासी, दैवी दद्रणी चरणी रमाराम । --देवि. , ८ क्पटना, छलांग लगाना । रपटियोडो ४५४्‌ रव ~~ ~ =-= उ०-्रणगिण भेढ्ठा च्ठियोड़ा कन्रूडा जिण भांत मिनकीर रपटियां कानी कानी उड जावे, उणी भांत थारा वार ग्रायां हीया में एकठ च््योदी मगरी ब्रर्त कानी कोनी विखरगी । --फुलवाडी ५ घसीटना 1 रपटणहार, हारौ (हारी), रपटखियौ --वि. । रपदिश्नोडी, रपदियोडौ, रपस्योडी --भू. का. कर) रपटीजरणौ, रपटीजवौ --भाव. वा. । रफडणौ, रफडवयौ ---. भे. रपटियोडी-मू्‌. का. कृ.-१ फिमला हश्रा. २ तीव्र या भ्रवावगति से चना दग्रा. ३ दौड कर गया या श्राया त्राः दीडा हृग्रा. ४ भेपटा हृश्रा, छलांग लगाया टूप्रा. “ घमीटा हृश्रा | (स्त्री. रपटियोड़ी) रपुर-मं. पु. [मं. हरिपुर] स्वं । रपोर-सं. स्त्री. [भ्र. रिपोटं] १ नूचना, इत्तला । २ क्रिमौ घटनाया वारदात के सम्वन्थ मँ निषा जाने वाला प्रतिवेदन, जो किसी सरकारी श्रविकारी को प्रस्तुत किया * जाता है। 8 उ०--१ चीधरयां धांगौ में रपोट कर दी, पंचा मृद्जमां रो परचौ कटा दियी । --दसदोख उ०--> करगौ माथ पंचायत वौरट में रपौ कराई, वात जोर खायं। 1 --दसदोख ३ किसी कायं की प्रगति श्रादि का विन्तृत~-विवर्ण, कार्य- विवरणं । ४ रिप्यरी । <° भे०- रपट रफ-वि. [श्र] १ जिसमे चिकनाई या सफाई न हो, चुरदरा, (कागज, वस्त्रादि) २ जोनमूनेकेल्पमे विचारार्थं तयार किया गया हो, जिमे ग्रन्तिमि स्पन दियागयादहो। (नेव, विवरणादि) ३ जो नाजुकन दहो, कोमल नदौ । म.पु. [ख.] १ मचान, मंच । २ दग्वाजे का वडा ताके । ३ मोने-चादीके ग्राभूषणोंकी खुदाद्रं को साफ करने का एक लोहे का ग्रौजार्‌ । रफडणौ, रफडवो- फ्रि. स. [देशज | १ रगड़ना, मलना । उ०--१ सोद संग रस र॑, सावां सुदर भावं) काया कचन हुवे, रफट्‌ उण सू जेन्दावे।! --दसदेव उ०--२ भाख फाटी, तारा भड्चा श्र कूकडं वांग मारी, करौ रफड रफड़ मल मने न्दायौ-घोयौ प्रर मिट ातर मन रौ दियौ संजोयौ । २ देखो (रपटणौ, रपटवौ' --दसदोख (रू. भे.) रफडियोडी-भू. का. कृ.-१ रगडा भ्रा, मला हुश्रा 1 २ देखो ^रपटियोडी' (रू. भे.) (स्त्री. रफडियोड़ी ) रफतंद~-वि.-दूर किया हृप्रा । उ०--श्रासिकां रह कन्ज करदा, दिलं वजा रफतद । भ्रट्नह्‌ ग्रति नूर दीदम दिल हि दादू वंद. --दादूवांरी रफता, रफता, रफते-रफति-क्रि. वि. [फा. रफ्तः रफतः] १ धीरे-धीरे, टर्न; गर्न; । २ क्रमशः। <० भे ०-रफ्ता, रपता । रफनाठ-सं. म्त्री.-एक प्रकार कौ वन्दरूक । उ०--धुब सोर जुजरवा श्रत सवीर, तद चलं रांमसंगी त तीर। तमचा दुनाद्धी रफनाढ तांम 1 तद डं कुरावीणा तमाम । -पे. रू. रफा-वि. [्र. रफस्‌] १ पौछा हुश्रा, मिटाया हृश्रा, साफ किया हुमा । २ दूर किया हु्रा, हटाया हृश्रा। ३ निवत्त । ४ दान्त । ५ पूरणं किया हुभ्रा । ६ दवाया हूम्रा। रफादफा-वि. [अ्र.] १ मिटाया हुभ्रा, साफ किया हुग्रा । २ निपटाया हुश्रा, सम्पुणे किया हुत्रा । ३ तय किया हुग्रा। ४ दान्त किया हुग्रा। रपू-सं. पु. [फा.] १ भागनेकी क्रियाया भाव। २ कीमती वस्वोंमें, यदा कदा फटने पर, की जाने वाली एक सिलाई विक्ञेप । ३ उक्त सिलाई करने की क्रियाया भाव । वि.-चपत, गायव, ग्रलोप । रप्ता, रपता-देष्वो ^रफते-रफते' (रू. भे.) रपफी-मं. म्त्री.-गदे, धूलि, रज जो प्रायः ठ्वा में उडइती रहती है श्रौर वम्रो, वस्तुग्रों भ्रादि पर पड़ती रहूती है । (गेखावारी) रव-सं. पु. [श्र.] १ ई्वर, परमात्मा, खुदा, ब्रह्य, उ०--१ मूरग्व कथन न मांनियौ, लसियौ मुद लजाइ। तोनू रय न दियी तग्वत, दोनू रवत दिखाड । --वं. भा. उ---२ विरहन को वैरागसा, रब सा नां कोई रंग। हूर ह ++ "अभम कै ४०४६ रती उ०-काञ्च किसमिस रा कलेवा, दूव-रवद्ियां री दफारी, सेव ५५ रवकणो ____~_~_ ~~~ नसा हासा नही, सतसानां कोर्दसंग। --भ्रनुभववांणी २ पति। २ वड़ा भाई । ४ श्रभिभावक । ५ मालिक, स्वामी । उ०--दूजद 'मदू' देपाठ्दे, भाखं श्रा वांणी, भ्रपणावां धर श्रापणी काय देवां पाणी । एकणा घर दोय राजवी, रव नांह रहांणी । । --वी. मा, रू० भे ०~-रव्व । रवकणौ, रबकवौ-क्रि. श्र.~प्रवारा की भांति व्यथं घूमना, भटकना, मारा मारा फिरना। रवकियोड़ो-मू. का. कृ.-ग्रवारा की माति व्यथं घूमा हृुश्रा, भटका हरा मारामाराफिरा हृ्रा। (स्त्री. रवकियोड़ी ) रवकौ-सं. पु.-१ संकट, कष्ट । २ श्रवार घूमने की क्रिया या भाव, रवड़-सं. पु. [श्रं. रवर| १ वट जाति के एक्‌ वृक्षका सल्ला हुम्रा दधया इस दूष का वना पदाथ, जिससे चिलौने, वतन, स्यच टायर श्रादि भ्रनेक वस्तुएं वनती ह। यह्‌ न्म एवं लचीना होता ह । उ०--चौमासंमेचेटांरी, मारत मरं वें री ्रर गरीवां र पेट री सभ बरूभ टिकी नहीं रं सके । रवड री दडी दांई ठोकर मारं जकारं ही श्रां भाज भीर हुवै। --दसदोख २ उक्त पदां का कोई टुकड़ा या भ्रा । रवडकणौ, रवडकबो-क्रि. श्र.-मस का दौड़ना । रवडकौ-स. पु.-भंस प्रादिके दौडनेकी क्रिया या भाव। रवडणौ, रवड़वौ-क्रि. स.-१ किसी तरत पदाथं में कलद्धी श्रादि डान ' कर चारों ग्रोर फिराना। २ देखो ^रडवडणीौ, रडवडयौ' (रू. भे.) उ०--वी सिरावौ जात रौ वेलदार्‌ हौ! जेठ री वदती लाय मे वीर पच्चीस्त कोस गांव गांव रवडणा रे उपरांत ई उण सिरावा सू फेटौ नीं पडियौ । --पफूलवाड़ी रवदिोड़ो-भू. का. क.-१ किसी तरल पदार्थं में कलद्धी डालकर चारौं ग्रोर फिराया हु्रा । ॥ २ देखो 'रट्वडियोदौ (रू. भे.) (स्त्री. रबड्योडी) रवदडो-सं. स्वी.-दूव को ग्रोटाकर गादा एवं लच्छदार्‌ वनाति हुए चीनी मिनकर्‌ तयार किया जाने वाला व्यंजन, वर्मौधी | संतरां री मनवार, पांन-सिपारियां रा पुा,""““““ --दसदोख रयद-१ देखो "शुद्र (रू. भे.) २ देखो ^रोद्र॑ (रू. भे.) रवांण, रर्याणी-वि. [श्र. रव ~-रा. प्राशि] ईखवर क्रा परमेदवर्‌ का, खृदा का । उ०-दादू गाफिल दो वते श्रन्दर पीरी पु) तखत रवाणी वीच मे, पेरं तिन्ही वसु । --दाद्ूवांखी रवाव-से. स्व्री-१ सारगीकी तरह का एक प्रकार का वाद्य । उ०--१ नं इण वीण रयाव जिवूः वतीम्‌ जत्र तयार कर्न श्रौ दुहौ गाय । नरसी उ०--२ म्रदग ढोल मंगढी, राव तार सारली। वजंति वेरि वेरियं, भणांकि ककि भेरियं | ---रा. स. उ०--३ श्राइनं करहौी वाधि नं ऊपर पघारीया) देवं तौ संदली ऊपर रवाव पड़ीयौ छ । --लाखा फएूलांरी री वात २ भय, श्रातंक, रीव । २३ प्रभाव । ^ ॥ रवानियो-सं. प.-१ रवाव नामक वाजा वजाने वाला न्यक्ति। २ ढौलियो कौ एक नाखा जो उक्त वाजे (राव) पर गायन करती है। उ०--भिरासी नांम मरदांनौं तेगवहादुर रं साथ माराणौ, जिण रा मिरासी मर्दना पंथ रा सिख रवाबी र" --वां. दा. ख्यात रवारी-देखो रवार" (<. भे.) उ० -१ रह्िया रवारी जागरी वली वागुरी धाय । गण गाता गरव पारि, सतूग्रारी समवाय । मा.रका. प्र. उ०--२ जाट वांणीया सीरवी रजपूत वसं । धरती ह॒ढवा ३० गेत काठा कवेष्ठा । ग्ररट दढीवड़ा ८ । सेवज विणा हवे । तन्टाव मास ४ पाणी । वाहन्छीको नहीं। रवबारी लुभा री वसायौ, लु भडावासर कटहीजं । --- नरसी रवि-देग्लो “रवि (रू, भे.) रविलश्नालमीनां-सं. पु. [ब्र. रव्वुल श्रालमीन समम्त ब्रह्मांड का स्वामी, ईरवर्‌ । उ०--श्रनि चदे तुरां विकटां श्रगे, रिलश्रालर्मीनां रटै। वट खट रमण परे खगां, श्रसुरायण दल उपरी । सू. प्र. 5० भे०--रव्वलस्रालमीन । रवो-सं. स्त्री. [भ्र रवीश्र] १ वसंतच्छतु | २ उक्त ऋतुमें तयार हौकर कटने वाली फ़सलं र्व उ०-- चाव नाद्र पयत स्वी ) --मरणयी ३ द्वो (=. मे.) [धं न र ः ह बे छ [र उ०- रवा ध्व चेददू व्यान वरन । शरन दन न त्न 1 "त # 7 ` +. ४६ = र र्न्वो ४9 १ घ्द्र-2.ा ॐ [षौ एष्व प + 9 निनयन स्न्‌ न्‌ ^) ए ह. भुग्न 3 1 उ०-१{ यं 2 {4 विः 412 +) +] म, ८ भगु नातः र्व्तर रह्मन चन्र चमर्‌ टन वार दछट्ष्ट, भ्न रक्तं [प 1 1 ष्ट्रन्‌ भद्ध 1 प्र. यृ. उ०--> अन्ना णठः कनीम, रव्य रदेमनय म्भे! कहि नुदा भे [क > => सयानिक्क, रन्नमं जनद्‌ दकार 1 (म ग {र~ > तेतु = चभ [ 9 = द - पिव दद्‌ गणड दा उत. म रच्छ चहार्‌ | मन्् त 7 ११३ > ॥ि जकन २.० ट दण ३ पमु जा, नन्दन प्च 1 --रटूदय्न्य (क क न~ (क 1 ५ नदे, गपङूग्‌ नर्‌ टकर मेर्‌ 1 श्रन्नाी द रख्छनश्रालमोन 1 ह न क 6 (न 1 ० - श्वि चदन व्वुद न्दे 1 ॥ ह व्रिद्ध = क व्वा{निन कः ~ {मन क [{चृद्ध नदि {नृ सनननान. क 9 #॥ ~ ॐ. चप. रव्वाय->न्व न्याम {न्. म.) जनयो रव्ठागा शयन ध्प्पुन्द अ [ क पाकेट द्म म नवृरद्न् ~व २5 रच्ठारा चप्पल, दरद पक्रं मवक्म्‌ { नना चनद्कः --न. त्र (ह. त. म्मे.) नयन्त, न्य न्तयुटा नीक्‌ 1 [ क्वि रनम. न्ती- [न-] जीच्रता, जल्दी । #1 स्नेणक-नं- पु. {नि-] ततद द्त्पत्न एष नन जौ जननेजय कें स्तरमेमानायवावो। का.» + 7 - पौ कण क्न = [न नन्व कुरूण्कृष्कन ~ प रमक्ा-यच. पु.-रायन ठा क्वनि च्रश्रूपरम क्ये व्छेनि या थच्द! 2०-रमाो-नय्मां नमामम रमा-न्ध्ण न्तमा रमां! चमकत रमस्य श्वः रयस्न दमद 1 --र. न. श्र ¢ ह 1 क रमय. धू. [नि] 1 दुक, छरलन्द । > क्तयद्रद्र 1 [> 4 ५ 2 श्रद्‌ 1 747 -कून्न > १ ् न 27 ५ (नीपे न° गृ०~-र्मि 1 वि~? चुन्द, सनद 1 (ब्र. ना.) त्यन्य। > प्रानन्ददयत रत, यनीरजय 1 ~ {> १ । म्‌.) र मटर 1 6 0 ६ 4 ्ट०४७ कि षिण मरण ० 1 वि 1 1 10 1 १ 9 क 9० क्‌ जन 1 [ ण भो 1 1 | ^ स्मकं. नक? ध्वनि विष, रमजान. नवी. १ दरि, ग्ग्रन्छ्मङः # ये [का [न [न न (४ 2त--वपन च्य प्रात द्मदुयास्य, क्ट चदा साः चन तात्र | कष [ न्ग श्द्क्मरू 1 नूत क्न्य विये । २ पक्त ताने विष, तेउर्‌ पून द उ०-- रमक उताय गयः सविर नदगििया 1 क्व भिदं ननन न्यात्व्ररड्ा | न यल्रय च भाले षं ४ + न ॥। ए | { कै मृ. पु.-{ धमा, < 1 प्रग्र । *९ बष्ि छ १ किष { धं क. ड ति [र क, + 0 (न~) [+ (111 „१ शड्‌ 2-८्ाद्‌ न्दा = म्द खन्यत वन चदन { 7 दंन्छ श्रमे 0, ॐ ॥ [ । म्द ट \ दस्ता ९ श्रना भ "रगडा = रज्य {> श्न र्ना ट (1 इग = ध "व. य = ५ व्र ॥ श ( ठ स्न्‌ दन = श्रमर=यदडा ~ = भ्न ४ । हिः ४ (कि १.२ र ह । "दुन्‌ न द रमक्वी-देनते ननि (चये मनर ् म, ~. चै रमकोलौ । वि <> ~^) ६-2; 4 ~ (9 [8 4 ला-वि. (न्वी. रम्न्न्ी) छन-छ्च्य्ता, न्यया. गिन ४ १.1 चर्लाल क्त्य ५ क 1. = अ, क ड क र्न्न्ा < < ~+ *11.411 4 1*~41 च्‌ ग रमन्तो समदीनो उच्कोनी रीत च यद्य 1 -->, दम्य शश्र 1 यप रद्र भ क (= शर्मता 9; [णि उ०्-खगा पिकिठे दो नन्या ठी दमनं 1 चन रयं + [च दि 9 नवान्नम्‌ थ मोही नडं चावस 1 --न्वानरदन्ै गीन ॐ कन्म ट्या सन्कगदरद २ मर्ण्कः | ~ ५ च ९--म नप ५ न्स | रमनान-जं- पु. [ज्र-रनठन] णक अन्ड रदीना विधेय । टम यदिन घ मुचन्दनन न्ते # 1 ह 1 र रमलो्-देन्यो “दिनिन्ते (=. े.1 | रमन्ध्म-2न्यो (दिनन्ति श. से.) =०-? डाटा ददन दाकर ददेच्न्त रसाय सदर दे श्यै प णि कि नगगा | >; 31 अ (न नठच्च्नता 1 रनन्ध्न दरिध्िर्या «1 जुन नइ दस्ता च्छ्युक्(य 1 -->. खन. त रभ्‌ अ ५2 साद क [के १ प प्ज्वय ऋ्व्न सचा उण््न्यु रा- तध परदायदर न्दद््यन्य (द ० ननन, न =. | +भ व्क ॥ ध - नस्क चका नुक नन यात्र रमन्छ्मे कन्दी ऋड्। नश्य, (क | द वन्न सनन्द्न्या न ऋन्ता ; दय ॐ ~ ूमन्छमस्ट-> "1 (=. म.) उ०-रमप्त्मत चान न्नः < नीर ~ > ५ ० “ ~= ^ "ङ चय द | रकि दच्ग्य ~, > > ५ (4 ह इ ~ "~ { र ~~ 1 क { भ | चरत च्छ्म पार व शरनं [स [ । दु [५ +4 2 चन (4 [क |; | 1 4 भ र्‌ नू पट | --दि. य रमका-देखो "रमजां' (रू. भे.) रमभोट-देखो 'रिमभोट' (ख. भे.) उॐ०--१ वेध पवन हता वहै, भ्रम साज रमो । वीर्‌ पुत्री लीघां वकर, श्राव छो श्रो । ---कल्यांरासिदह्‌ नगराजोत वाढेल री वात उ० --२ सो सिणगार ठवियां थकां फलां रा चौ पहेरियां थकां टोय प्रशियाढां काजक ठांसियां थका वाका नणां री शोक नांखतती पायल र ठमकं सुः घरूधरे रै धमक सू विद्धियां रे छमकं सू' रमोढ करती ्रगूटा मोडती नखरा करती वाजारि चालि जाएरछं। --रा.सा.सं. उ०--२३ फीरी गिरिश्रे ऊपरि वाजणी पायल राघरूधरां रमरोट भगाक्रि्रा जसौ कठहंस रा वच्चा वकोर करि रहिग्रा छ। --रा-सा. स. उ०--४ सोवन कलस सुहांमणा जी, करी जरी रमभ्भोल) सहस दोय साव्रत करोजी, चित्र रचित चकडोलं । --प. च. चौ. रमभोढी-सं. पर-१ हमजोती । २ देखो 'रिमभोठ' (रू. भे.) रमट-सं. पु.-एके म्नेच्छ जाति जो मांधातृ के राज्य काल में उसके राज्य में वस्ती थी । रमड़णौ, रमड़वी-देखो ^रमणौ, रमवी' (रू. भे.) उ०--टोढ़ा कंघलोटा ज्रूटणनं धरम, महिली महिखी ज्यू वर मे रमड । --ऊ. का रमडोढ-~सं. पु--शत्रूदन, रिपुदल । उ०-काटरा जुवां घण वौढ दृजा किसन", भंड खग वाढ रमडोढ्ट शूडा । वीरवर भूजान भमतौढ पादी व, चोद रग कीयां समसेर शू डा' | --मेगमराज श्रादौ रमटोदढध~-वि.-सीधा, सादा । उ०-रोठ खोठ रमो भ्राखा, जीवां ह॒रष हिलोढ है । वोढ करे दछोढठ धमरोढा फोगां पोट किलो है । --दसदेव रमण-सं. पु. [सं.] १ हपे, ग्रानन्द या श्राह लाद देने वाली कोई क्रिया या घटना, क्रीडा, श्रामोदर प्रमोद! २ रतिक्रीडा, संभोग, मेथुन 1 उ०--१ महल मेज नह्‌ रमण उमाहै । चौकी खासन खिलबयति चारै । --सू. प्र. ३ कामदेव । 8 ४ पति, स्वामी, प्रीत्तम । (ज्र. मा. ह. नां. मा.) ४०.४४ मज क्म ७० ~~~ [नाक 71 1 रमणि-देखो भरमरणीः र्मी उ०-ललना रमणी सिगोमणी चिखमी) जासन रमण जामी जगत । --ट्‌, ना. मा, ५ ट्प, श्रानन्द । ६ विहार, श्रमण । ७ सूर्ये का सारथि श्रमण । ८ ्रण्डकोध । ६ वृूत्हा, कमर्‌ 1 १० एक वसु जौ धर नामक वतुकरापुत्र धा) ११ दो सगण एक छन्द विशेष । (र. ज. प्र.) १२ प्रथमदोत्तधु फिर एक गुर्‌ इस प्रकार तीन चर्णांका णक विक छन्द विदोष । (पि. प्र.) १३ योद्धा वीर। उ० --श्रनि चै तुरां विकटां श्रगै, रविलश्रानमीर्नां रटे । चवदढः खटं रमण भपटं खगा, ब्रमुरायण दठ ऊपटे। --मू-प्र. वि.-१ सुन्दर, मनोहर, मनोन । (ह्‌. ना. मा.) २ श्रानन्ददायक । उ०--कव सिनांन फर धूप कर, श्रधपतेने एकंत। रवे मंजीर सुणतां रमण, परी उडी नेम पंत । --पा. प्र. २ रमर करने वाला । ४ रमणा करने योग्य र ५ प्रिय, प्यारा । ६ देखो !रमरखीः ७ देखो "रमौ उ०--घर मेढं घमरसाण, राखस भ्राहेडं रमण । चंड मंडवे श्रता चदु, प्राजचछिता निज प्रां) --मा. वचनिका ० भे०-रवन । , (रू. भे.) ४ रमणक-सं. पु. [सं.] १ जम्ूद्धीप के एक खण्ड या वपं कानाम। २ उक्त खण्डका राजा) २ देखो “रमणीक (रू. भे.) (रू. भे.) ॐ०--१ ग्रति री इक विरद उचार, सुख उपर्जं सुज सुमति संभारे । राज रमणि महाराज रि भाव, भ्रति हित निर्ख हुरख उपजावं । --रा. सू. उ०--२ नेमजी हौ भगति रमणि मोद्य तुमे हो राजि, पिण तिणा मां नहि स्वाद । --वि. कू. रमणियौ-वि.-१ रमर करने वाला । २ खोलने वाला । ३ भोग विलास करने वाला । रमणी-सं. स्वरी. [स.] १ स्त्री, ग्रौरत, नारी 1 उ०--१ रमणी वरहीनां निरख नवीना, राम राम रणकंदा दै । „(¬ ]]------------------------------------------------------ कंद्रप रा कीटा फव्रतन फीटा, भंवरगफा भणकंदा दै। उ०--१ रमणं रमणा कार, स दक्र पूर सकाजा। नीवत्ि --ऊ. का चाजा निहंसि, रजां ढकं ग्रहुराजा ) --सू. प्र. उ०--२ रमणी जेह कृर्प स्यु कीये तास सरूप दौ । उ०-२ शओ्रीरहीश्रनेक राजभा राऊख्छ। सू साथ री धूमरोौ = कियां थकां रमणं सिर श्रां खड़ा हवा दै । ---रा. सा.सं २ रमण करने योग्धं युवत्ती, सुन्दर स्वरी 1 ४ जंगल, वन या मदान जहां पर्‌ प्रायः रमण॒या विचरण करते ०-- चोचं केटै जोरि करारि बावली । हरिहां रमणी तज हठ रहते ट चालि दूवाई रावद्धी । मा. वचनिका व्रि°-वेलने वाला । ३ पत्नी, प्रियतमा । रमणी, रमवौ-क्रि. स. [सं. रमणं] १ कोट वेल बेलना, वेलवूद उ०-- १ गत गवर कटि केहरी, रमणी हाटक रंग । कुच गिरवर करना, क्रोडा करना, मरेलना । नोय त कसट ने मग | --वां. दा, ६ ६ 4 9 . नोय कमठ, एह कुट न्ग | उ०-१ वांधरौउठे सभी छटनी र्यौ दछै। रात आधी गयां उ०--२ मनगमणी रमणी हृस्यु जी, सेवर्यु ताहरा पाय । सोभल रमरनु नीसरी, सु देवीजी री भाखरी गई । १ --नगासी ४ सुगन् त्राला । | = । र ध । -->२ पगत्यां न पायल लायमंवर्‌ म्हारे पगत्यां ने पायल ५ कर्गार्टकीय पद्रति की एक रागिनी। (संगीत । ४ लाय, हाजी म्दारा चिच्िया रतन जडाय, भवर्‌ म्न वेलण दो ६ साध्‌ संन्यासियों दारा की जाने वाली यात्रा! भ्रमण । ६ | 1. गगणगौर विलानला म्हानं रमण दो दिन चार। --लो. गी. 5० भे०-रमणि, रवनि, रवनी "1 रमणीक, रमणीय-- व्रि. [सं.] १ सुन्दर, मनोहर, मनोज्च । (म्र. मा. हू. ना. मा.) २ कोई नाटक या तमासा करना । उ ०-१ तीरथ जात समस्त, सकल सावां मिद संगा। रासं तमासा रमे, हट्स नाच हडदगा । --ॐ. का. ॐ "उ- १ रमणीक दीप पाव" रही, सिध श्रगमागम सूभसी । थान न पान तो थापना, 'पाल' प्रयी सह्‌ पजसी। -पा. प्र. उ० २ ग्रति श्रथिर चंचन श्राउखड, रमणीकं यौवन रूप) चक्रवर्ती सनतकूमार ज्यु, जीव जोई देह सरूपौ रे। उ०-२ लुगार्दरीङूण विना रववाठण, कवरांणी, महाररणी, ग्रर्‌ गूजरी री भ्रा रमत कूण रमतौ । --फुलवाडी ३ भोग विलास करना, रतिक्रीड़ा, संभोग या मैथुन करना, न वः १ अवद अ कका 1 2 ति कै --स. कु. रमणा करना । --३ ब्रिदं फूल मुगंवं, वंधे सारत्ति पांन मादिकं । रत्तं चक्ख + र > उ० ४ 6 न उ०-१ ताषहुरां गगानु भीतर एकं महल मेंराखी। अर गंगा म्रा दासं, न. । कही, “हु पातसा जीपीस, तं राते २ रमणा करने योग्य । ठ टय तेतग्रु रमीस । ईतर त थार मोहल मारि कोई नाईस | छर जर £ र ५ देपाल घधरी त उ०--दोयण रमणीय कवेसुर दासा, जय समर सुरतर निज जोत चति ग्रवय भूप दरम तो वां, अवनी मोदै रूप .उद्योत । --र. रू, उ० --२ परीणत स्वार उसास प्रभाव, त्रिया श्रिय पास पलोटत पाव । रमं रस रास विलास मुरंग, प्रम्पर्‌ प्रीतम प्रीत प्रसंग | म्‌. म्त्री.-९ स्त्री, सुन्दरी । । | 1 | ---@, का, २ प्रथम एक लघू वणं तदनन्तर तीन गुरु वरणं, प्रद्‌ क्रम चार्‌ | । 1 1 उ०--३ एक्तौ देवर म्हनि जी राखल्यौ दजी 8 दोरांणी । ठगी कदिये भायला तौ कोट चौथा देवर्‌ श्रावजी देवरिया प्यारा ए जीवौ देवर दछिनगारा रम रया पर नारियं । ~ लो 0 गी 0 उ०--४ दरूजी कींवस्र री वात नीं देख दीवांशजी सेनां रम्योडी रमणौ- सं. पु-१ विलीना ! लुगा्यां न मनही मन यादकरण लागा। कदास याद कर्य्या चेल का कोई उपकरणा, साधन । , , कीं निवास मिदं] --फुलवाड़ी @ ३ दिकार बेखने कामदान, विकारगाह । उ०--५ पिकावांण जांण वणी पनंग, हिरणाखी हंसा-गमरि । वार होने पर वनने वाला एक छन्द विक्षेप । उ० प्रथम लुघू मुर गुर पदे, स्वि चत्र फेरा ठीक । सहस व्यारि ¦ वरिणसौ सतरि, रूप छंद रमणीक । --स. वि. ` रमणीयता- सं. स्वरी [स.] सुन्दरता । रमौ "1 ॥. रग.महल सिध राजान सूर, रमति राज-पुत्री रमरि। १२ प्रनुरक्तं दाना, प्राणक्त होना, मोहित होना । --ग. सू. वं, १३ चारोंग्रौर्‌ मे लोकः प्रिय होना, व्यापकः होना | भोग विलासके लिये रह्‌ जाना, रहना । मन लग जाने के कारण कही ठहुरना, निवास करना, टिक्रना । ५ श्रानन्द करना, मौज करना ) १४ युद्ध करना, रणक्रोडा करना । उ०--वढे दीचाक तयौ रण्ढासि, पटर रेणु विं पीट । मस्थ्यर्‌ मंदणा उत्तर मौह, रमं रगा मीर ग्रत राटीड्‌। ६ दहिकारमें जंगली जानवरों को मारना, शिकार सेना --राठ अतसी रौ रामी उ०--१ एकदा प्रस्तावि राजा ब्रिथीराज सिकार नीसरीया। रमणदहार, हारौ (हारी), रमणियौ | ह सिकार रमता रमता एक दिन सवानग्वमे म्रा नीसरीया । रमिग्रोदी, रमियोडौ, रम्योद भू. का. ग्र. । --जांगढ. री वात रमीजी, रमीजवौ माव का. उ०--२ एक दिन गै समाजोग चछै। रावछ कांनिड़दे सिकार रम्मणौ, रम्मवी -->, भे. । छ चटिया स । सरव रजपूत माथ द । मालौ पण साथेदधं। सिकार रमी प्रर श्रपूठा वक्िया। -- नयासी ७ श्रानन्द पूवेके इधर उधर घूमना, भ्रमण करना, विहार करना | उ०--श्रसि चदि विस वनि रमं श्रकेली । चीकीदास खवास नं चेली । जठ वन जंतु रभतां जोवं । हरख उद्छाह ताम चित्त हव । -- सू. प्र. ८ साधु स्तोका विचरण करना, चला जाना । , रमतारांम-वि.-धूमने फिरने वाला, निरन्तर, भ्रमण करते रहने बाला, (5. भे.) उ०-१ वल्पणौ रमत में गमायौ, भर जोन श्रहकारी । वूढापा मं माक्रा नीधी, प्रव कूगा सुगेला थारी । -- भरग्यात उ०-२ इरण ससिरिये भाई रे साधं वलीवागर्‌ श्रटेप्राई त्तौ म्न श्री लयायी के म्ह लुकमीचवगी रीरमत ग्म ह| । - एफुलवादटी रमत-देग्यो “गंमत' उ०--१ श्रातम ग्यांन समुद्र श्रथागी। रमता परम हंसत व॑रागी । परिभ्रमश्रा करने वाला । 4 ध धर । 4 श्‌ । भजि [मि एह वड घात 8 । हरिहां जनहरिदाम हरि उ०-२ जाहरजुगजोगी है प्रणमोगी, श्रोघट घाट रमंदाहै। ०० भननिषु रमतारंम एह य ध पात ईं । दरिहां जनहरिदाम हरि ति रम्‌ दा रा ह ---ट. * , --श्नुभवर्वाणी परम उदार ग्रपार हमारा तातदै। ट. पु. वां त सं. पु.-१ ईश्वर, परमात्मा । & चुपके से कही चले जाना, गायव हौ जाना, श्रज्ञात स्थान पर चले जाना । लुप्त हो जाना। उ०--१ बू कहि गुर चेलौ रमियाने कष्यौतू चात्त मानीस नही, पण तिण वातत र श्रो सहनांण छो श्रौ थाप भ्राज सू पनरे दिम मरतो सोह साच मान । -नेरसी उ०--१ महस क्कामुरजने ऊगा, श्रंवं कं उगा ज्यु" पूगा! भूत प्रेत इाक्रिन उरे नाही, रमतारांम हमार मांही। - अनुभववांखी उ०-२ नमौ नमी रमतारांम नारायण निरसिघ, सकट ध ् निरंतरि नरहरि" “““"" --ह्‌. पु. वा. उ०--२ नगरेश्रादजोगी रम गयारे, मोमनप्रीतन पाह । का ६ भोढी भोढापन कीन्ही, राख्यौ नहीं विलमाइ । -मीरां ०३ वा उदां कर्‌ तौ पञ्चा भक मारो, मन लाग्यौ रमताराम मू । --मीरां १० किसीमेंया सवत्र व्याप्त दोना, मीज्जुद रहना, वर्तमान रहना समाना । उ०-१ रौमरोममेरमरयौदेच ग्रखंड दर्ई्व । रमतियी-देखो “रांमतिमौ (रू. भे.) उ०--१ ठे रिपिया दूनी ठौड घरदी-वानिं कूण खावं । म्हारा गु रमतिया ममं घणा । --फुनव।ड़ी -- र्‌, ज्‌, भ्र, उ०--र रमेभग्रापतु भ्रापमां, नमै श्रापनां प्राप । श्राप खवारे श्राप नां, साहिव निमो संताप । --पी.ग्र, उ०--२ भेह मांमौ म्न कां देसी, दादी ? लाद" । भट ?' ॥ ॥ ५ 1 ह [] ६ ) + # उ०--३ धट घट मांहै रम रही, तू सकठ म्री । जंगम थावर दुध, दही, रमतिया गणा । पातं ई?' हा, वेटा। -- वरसगाठ जेठा, तो विण को नाही । उ०--४ मोहि पिया ग्रवकं मिक्रौ, पलक न दछोटू वास ) रोम सोम मे रमि रह, चिव जिण॒ फलां वास । --र. हमीर ११ लीन होना, रगीजना, लिप्त होना । --गज उद्धार रमतु-स, पु.~-एक पक्षी विशेष । उ०-मीर सिकारू का हुन्नर्‌ नजर होत दहै। लगत्रू रमतु के ग्रातुरी । चरज सचां सो लाग म्रातुरी। --सू, प्र. रमयोडी रमयोडौ-देखो ^रमियोडौ' (रू. भे.) रमल-सं. पु. [ग्र.] ९ फलित ज्योतिष में भविप्य फल निकालने की एक विवियादढंग। चि. वि.-इसमे एक पासे को फेक कर उसकी विदि्यो को गणना की जाती है। तदनुमार फल निकाला जाता ह। २ उक्त फल निकालने की विद्या । रमलि, रमली-सं. स्री. [सं. रमरिका, प्रा. रमरिम्राःश्र. रमलिग्रा क्रीडा, चेल, विनोद 1 उ०--१ श्राह मनमाहि नरिदौ पारवि संभावद्‌। सइ दलि रमलि करतउ गंगा तडि श्रवद्‌ । --सालिभद्र सूरि उ०--२ जिसी रमलि कीजई रवाडी तिसी एक जेह दीष्ड ्राणंद हृ्रा । ` -व. स. उ०--३ कांमीय केतिक परिमलि, रमलि करइ वहु भगि, रमड रसालि तरुणएीय, करणीय नव नव र्गि। -- प्राचीन फागु-संग्रह्‌ २ रतिक्रीडा, संभोग, भोग । उ०--१ कंक व्ूडि श्रनद श्राभरण, हारं तेजि तप रवि किरण 1 केतक सरीसी रमलि करत गौरी गाद्‌ राग वसंत । ॐ --प्राचीन फागु-संग्रह उ०--२ दीपद ए राता कणयर दिणयर किरि श्रवततार । पारि पाडल परिमलि रमलि करद्‌ मधुकार। -- वनदेव गणि रमांदण-देखो !रांमायण' (रू. भे.) उ०--उभं पतिसाह भिडं श्रण-मंग । र्माइण भारथ ए रिण-जंग । --गृ. रू. वं. रमा-सं. स्त्री. [सं.] १ लक्ष्मी, कमला । (श्र.मा, ह्‌. नां. मा.) उ०--लोकमाता सिधु सुता स्री लिखमी, पदमा पदमालया प्रमा । प्रवर ग्रहै श्रस्थिया इंदिरा, रामा हरि वल्लभा रमा। -वेलि २ सीता। उ०--रमा हतासि सरणि रहाए । हथि रांमण चिय छह हराए । --सू* र. ३ दुर्गा । ॥ उ०--ग्रोरेम नमस्ते चंडका चंद्रभाक री नवीन श्राभा। छटा मणि माठ री भुजां रही. छाय । प्रारोहा लंकाठ रीक सत्रां धू काठ री श्राग, रमा ह्प जयौ काच पंचक री राय। ठ ---नवलजी लास ४ पलनी । ५ स्वामिनी । ४०५१ भली वाडी, रमाख्णो =-= ६ प्रजा । ७ सम्पत्ति, धन । ८ चंचलता । उ०-सकिगश्रंग उतंग ब्रहमास समा, रति वाह रेवंत सोह रमा । --मा. वचनिका रू० भे०~रमाय । रमाइण-देखो !रांमायण' (रू. भे.) रमाएकादसी-सं. स्वी.-कात्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादयी 1 रमाकत-सं. पु. [सं. रमाकान्त | १ व्रिष्णु। उ०--रमाकत ची वंक वे श्र ह रजी, लखे कांमसुरसांमची चाप लज्जी, त्रिं सोक चा ग्वाढछरं भ्र रीकौ, नरां भूप सोभा लख रूप नीक | -- -रा. ₹ू. २ राम। रमाक, रमाकेड, रमाकडो-वि. [सं. रम्‌-[-रा. प्र. ग्राक, श्राकंड़] खेलने मे निपुण, खिलाड़ी । रमाडणो, रमाडवौ-देखो ^रमाणौ, रमावौ' (रू. भे.) उ०-१ कथांतुदहीक्थक्रीडातु ही काम । रमाड मो प्म लाधौ हिव रांम। --ट्‌. र. उ०--२ गोपीनाथरा हाथ राया गदुदे, श्रही गारडी जांण छस्य श्रडदे । ्रही मूठ वाजीन जेही उपाड, रमे गारडी जेम काल्यै रमाड । --नागदमण रमाइणहार, हारी (हारी, रमाडरियौ रमाडिग्रोड़ौ, रमाडियोडी, रमाडयोडौ रमाडोजणौ, रमाड़ीजवी रमाडियोडौ-देखो ^रमायोडी' (स्त्री. रमायोडी) रमाचोर-सं. पु. [सं.] रावण । (ग्र. मा.) रमाज-वि. [भ्र. रम्माज] १ भेद जानने वाला, मेद वताने वाला । उ०--वाथे ऊचांणां सुमेर पार्थं तेरसा श्रचूक वां, रांरावाला राडि वें वेरसा रमाज । रिमंदा वेड जाडा सेरसा गजां रा गौड, सांमंतां स्मान राख येरसा समान्‌ । ---वि, 1 --भू. का. कृ. । - कमं वा. । (रू. भे.) --महाराज सनमांनसिघहाडारा जोधारां री गीत २ गुप्तचर, भेदिया । रमाडणौ, रमाडवौ-देखो ^रमाणौ, रमावौ' (रू. भे.) उ०--गुरि वीनविड श्रवसरि राउ सविं वेठां कर पसा । तुम्हि मंडावड नवउ भ्रखाडड नव नवे भंगि पूवर रमाडड । -सालिभद्र सूरि रमायोड़ [गी रमाडियोडी ज ०.७५ इ म ीषीषरिषोकं न~~ ~ वथवथकयकण्छया क षरि रमादियोडौ-देखो ^रमायोडी' (रू. भे.) रमाईजरणौ, रमारईजवौ --कर्म वा. 1 (स्वरी. रमाडियोडी) रमाइणौी, रमाडइवौ, रमाडशणौ, रमाडवौ, रमावणौ, रमाववौ रमाणौ, रमावो-क्रि. स. [“रमणौ'' क्रिया फाप्र. रू.] १ कोई सेल पिलाना, मेल भे लगाना, जिलाना । उ०--१ रिमिरूप रमाया ख सहि खाया गेम गमाया गुण गाया! विशिर्मासी धाया विलैवन लाया, श्राराधां नां सुखि ग्राया । --पी. ग्र. -- रू. भे. । रमाद-सं. पु. [स. रमा-~+-द| कुवेर । रमाधव-सं. पु. [स.] विष्णु 1 (ना. मा.) रमानंदः, रमानंदण, रमानंदन-सं. पू. [सं. रमानंद, रमानंदनः| कामदेव । (द्‌. नां. मा.) उ०-२ लेण कत श्रच्छरां मणाग माग प्रावा लागी । परां सूरां वीरां सू जमाया लागी प्रीत । ललक्का उचछ भरू चंडका रमावा लागी, गावा लागी जोगणी वीरांणा मंत्र गीत । \ रमानरेस-सं. पू. (सं. रमा नरेश | विष्णु । रमानाथ-सं. पु. [सं.] विष्णु | 1 मीरायाः --ुख्दान कवियौ उ० - नीत पंथ वर्तं वीडा जागी श्रजोध्यानाथ, हौीकवी मांखंगी २ कोई नाटक या तमासा कराना । २ मौज कराना, श्रानन्द कराना 1 ४ भोग विलास, रतिक्रीडा, संभोग या मंथन करने के लिगरे प्रेरित करना, रमणा कराना] क्रीड जादुनाथ हस । राजंगी सीमोद नाथ सदा चीत्त माथ राख, रभानाय रूप भूप प्र॑वरीग्व स्स । --हुकमीचंद निद्धि रमानिवास-सं. पु. [सं. रमा ~- निवास | विष्णु) रमापत, रमापति, रमापती-सं. पु. [सं. रमापति] विम्गु | | (डि. को.) उ०--रमदं रमापति रासि .ग्रांणिय प्रांपणद पासि। तीरि छनटर नवि दछीपद्‌ ए दीपद न्‌ ग्यनि प्रकासि। उ०--चाकर कहु वतकाविज्यौ, छागठ रघु हाथ। पग दात्र पोहरौ दविऊ, सेज रमार साथ । --वुवरसी सांवला री वारता ५ भोग विलास कै लिये रखना, कहीं ठहूराना, निवासं कराना, टिकाना | 4 --जयमेलर सुरि ६ धिकार कराना, शिकार खिलवाना । रमाबर-देष्वो ^रमावर' (रू.भे.) (नां. मा.) ७ घूमने, भ्रमण करने या विहार करनेके तिये प्रेरित कराना 1 | रमाय-देखो ^रमा' (रू. भे) < गायय कराना, लुप्त कराना । ६ लीन कराना, लिप्त कराना । १० भ्रनुकरूल करना, प्रपने प्रन्दर्‌ मिलना) ११ नव विवाहित वरके साथ उसके मुसराल मे सालिधरो प्रादि द्वारा मनोविनोद कराना । उ०-रटदै नित सेवे रमाय सूरेस, प्रादेस ग्रादेसम श्रादेम प्रादेस । २ [) र्‌, ¢ 1 रमायण-देवो ‹रांमायग' (रू. भे.) उ०--ग्रांन दसासू जव मन धाका, करम भरम संगि नागोगे | वि. वि.-दुसमे पहूलियां व कुद श्रटपरी वाते पृद्धी जात्ती है श्रौर राम रमायण का मतिव्राढा, ग्रा प्रीति पिच्छरेगे । वर्‌ द्वारा समुचित उत्तरनदेने पर हसी टिढठोली की जाती ह । न सक ९१ पु. ता. १२ वष्टन करना, परिवेष्टित करना, लेपन करना । रमायोड़ो-भू- का. क.-१ कोई बेल विनया हूग्रा, चेल में लगाया उ०--१ कानां विच गुडन गढ "विच सेठी अंग मभूत स्माय। दुध्रा. २ कोई नाटक या तमासा कराया ग्रा. ३ मीज कराया तुमदैरयां तिन .कन न पटतरहै, प्रिह श्र॑गणौ न सुहाय। हरा, श्रनन्द कराया हञ्ना. ४ भोग विलास, रतिक्रीड़ा, संभोग, ---मीरां उ०--२ गोपीचंद भरथरी के लाग्यो, तममे खाक रमाण जी) --मीरां १३ युलावा मं डालना, फंसलाना ) रमाणहार, हारी (हारो), रमाणियी रमाया --यि,. । --भू. का. कु. 1 न रायि १५ १ णस ' खिलवाया हुश्रा. मुन करने के लिये प्रेरित किया हुश्ना, रमण कराया हूम्रा. ५ भोग विलास के लिये रक्खा हुश्रा, कही ठहराया हुग्रा, निवास कराया ह्राः टिकाया हृश्रा. ६ गिकार्‌ कराया हृश्रा, शिकार ७ धरूमने, भ्रमण करने या विहार करमेके लिये प्रेरित किया दहुम्रा. ०८ गायव कराया हृप्रा, लुप्त कराया टृग्रा.ः € लीन किया हुमा, नित्त किया हृश्रा. १० प्रनुवूल किया हुमा, म्रपने श्रन्दर मिलाया हृश्रा. ११ नवे विवाहित वर रमारम _____,_(_-_-_------------------------~~ को सुसराल मे सालियों द्वारा मनौविनोद कराया ह्राः १२ वेष्ठन करिया हृञ्रा, पखिेष्ठित किया हमरा, नेषन किया ह्राः १३ भुलाया ह्राः फुम्लाया हन्ना । (स्त्री. रमायोडुी) रमारम, रमारमण-सं. पु. [सं. रमा +- रमण ] ल्ष्मीपति, विपु 1 रमाराव-सं. पु. [सं. रमाराज] विष्णु । उ०--रमाराव रा द्विया पाव राजा। व्रजं चाय दूरं घण-| रमूजा, रमु ां-देखो ^रमजां वाय चाजा । --रा. र. (<. भे.) उ०- १ टद धनु तणियौ श्रजव, चातुक धुन मन चाव । रमावणौ, रमाववौ-देगवो "माणौ, रमावौ' चीज न माव वाद्या, रतिया तीज रमाव । --वां. दा. उ०--२ श्रलावन मां जाइ मरी वजावं, राजा रमि नां ग्रोधि राधा रमावं पी. म्र रमावर-सं. पु. [स.] लक्ष्मीपति विष्णु | ० भे ०-रमावर्‌ । रसावियोडौ-देग्वो "रमायोडौ' (स्त्री. रमावियोड़ी) 2 रमावीज-म. पु. [स.] नक्ष्मीठीज नामक एक तांत्रिक मंत्र, श्री। (रू. भे.) रमास्यांम-मं. पु. [सं. रमा ~-स्वामी ] लक्ष्मीपति विष्णु 1 (रू. भे.) उ०-प्रमव्रारी वणी छः गीतां रा रमिभोढ लाम रह्मा द्धः रनिभोद्ध-दे्वो 'रिमभोक्र --जगमाल मालावत री वात रमियोडौ-भू. का. कृ.-१ कोई वेल खेला हुश्रा, वेलकूद किया हुग्रा, ` सेला टृप्रा- २ कोई नाटक यां तमासा कियाहुश्रा. ३ भोग विलास, रतिक्रीडा, संभोग या मेथुन किया हुश्रा, रमण किया हृभ्रा. ४ भोग विलास के लिये रहा हुश्रा, मन लग जनि के कारण कटी सटा हुभ्रा, निवास कियारा, टिका हन्ना. ५ प्रानन्दया मौज'कियाहृश्रा. ६ दिकार्‌ चेला हुग्राः ७ भ्रानन्द पूर्वक इधर्‌ उधर घूमा हृश्रा, भ्रमण किया हु्रा, विहार कियाटृम्रा. ८ चुपकेसे कठी गया टृभ्रा, गायव हवा हुप्रा। लुप्तहुवा हुत्रा. € सवत्र व्याप्त हवा हृश्रा, मौजूद रहा हृश्रा, वतमान रहा हृम्रा, समाया हृश्रा- १० लीन हुवा हृश्रा, निक्त हुवा श्रा, रगा हृ्रा ११ श्रनुरक्त, ग्रारक्तया मोहित हुवा हृश्रा. १२ चारों प्रर लोक प्रिय या व्यापक हवा हृग्रा | (स्री. रमियोड़ी) रमीर्हयी-१ देखो रम्यौ (र. भे.) उ०्-भली करी ते न्रावते, विरहामेरेश्रंग । एक रमीर््यौ रमि ४०४५३ | रस्मणौ रह्यौ, लगे न दूजा रंग । २ देखो "राम" [म्रत्पा. 5. भे.) रमीस-देखो "रमेस' (रू. भे.) उ०--रमीसःप्रमीस हणं श्रघरीस, तवं जस अ्रालम जेण तमांम । --भ्रनुमववांणी महा वद्छवान श्रभंग महीप, रटां जन लाज रयं रघुराम । --र.ज.प्र. (रू. भे.) ` उ०--ग्रर कयौ, 'महुरर्वान, रावठ मोसू घणी रमां कीवी । -द. दा. रमेकङी-सं. पु. [म. रम्‌~-प्र. एकट्ौ] उपकर । १ खिनीना, बेलने का उ०- मोती जडचा काकण वाछौ-हाथ धके करती वा श्रू री गक्राई वोली-~म्दारौ हाय इण मे पजायने व्तावौ । श्रौतौ ब्रणूती मजेदार रमेकडौ व्दैज्यू है! - -फुलवाड़ी २ योनि, भग । (वाजारू, ग्रामीण) [र ० भेऽ-रमकड रमेस-सं. पृ. [सं. रमेग] विष्णु । रू० भे०--रमीस, रममस । रमेस्वर-स. पु. [स. रमेदवर] विष्णु । रमेनी-सं. स्थी.-कवीर के वीजक का एकं भाग । (रू. भे.) उ०- तुम दरस फी ग्रास रमया, कव हरि दरस दिखा्वं। चरण कवठ की लगनि लगी नित, विन दरसणं दुख पाव । रमयो-देखो ‹रांमदयौ --मीरां २ देखो ^रांमः (ग्रत्पा., रू. भे.) रमस-देखो ^रमेस' (रू. भे.) रम्म-देखो "रम्य (<. भे.) उ०-सो घम्म रम्मजो गण सहिय, दनि सील तव भाव मड। मो भविय लोय तुम्हि पर करिय, नर भव श्रालिम नीगमद। --प्रभयतिक यति (रू. भे.) उ०--धर इक पाप धरं इक ध्रम्म, कर इक जीव कर एक क्रम्म्‌ रम्मणो, रम्मवी-देखो (रमौ, रमवौः सरज्ज श्राप त्रिधा संसार, हुवौ म श्राप ही रम्मणहार । -- ह. र. वि, | --मू. का. कृ. । रम्मणहार, हारौ (हारी), रम्मरियौ रम्मिग्रोड़ौ, रभ्मियोड़ौ, रम्म्योडौ स्मत्‌ छ ०४६ र्यणा „___~]------------------- रम्मीजसौ, रम्मीजवो --भाव वा. रम्मत-देम्बो “रांमत' (ङ. भे. ) रम्माल-वि. [ग्र.] -रमद' विद्या का जानने वाला, ज्योतिपौ । रम्य-वि. [सं.] १ जिसमे मन रमता हौ, रमणीय । २ मनोहर, मनोज्ञ, सुन्दर । २३ प्रिय । सं. पु. १ वीयं । २ चम्पां का पेड) ३ परवल की जड ४ वायु के सातभेदोंमेसे एक) रू. भे.--रम्म । | रम्या-सं. स्त्री. [सं.] १ मेरुकीनौ कन्याग्रों मे से पांचवी कन्या, जो “रम्यक' राजा की पत्नी थी । २ धैवतस्वरकी तीन श्रुतियोँमेसे श्रन्तिम श्रुति का नाम। (संगीत) ३ महेन्द्रवार्णी । ४ लक्ष्मणा नामक कद । ५ गंगा नदी । ६ रात, रात्रि) रय~सं. प. [सं.] १ पुरूरवस राजा का पत्र एक राजा) उ०-षपातल' पाशा क्रपांण री, स्यण विलोकं राड ! गरसरी जाक इद्र रौ, पड सीत पाहाड। --किसोरदांन वारहूट २- समुद्र । सं. स्त्री [सं. रजनी] ४ रात, रात्रि, निशा) उ०--१ रति रयरा सदि नरनारि रांमति गाधि प्रमदति गावही मृख गांन दिन निस स्वाम मंग वेण चंग व्जाक्हीी | -रा. उ०--२ जिण र्त व्रहु वादक भरद, नदियां नौर्‌ वहाय) तिण रुत साहिवि वत्लहा, मो किम रयण विहाय । -टो. मा. ५ पृथ्वी, भुमि। | उ०-रयर दियण॒ पाता न राखं, कनक व्रवणा रूधी कविद्ठास । महि पुडि गज दातारज मार, विस्तन किस पडि मां त्रास । --दुरमौ श्रा ६ धूलि, रजं । ७ मोतियो से स्वस्तिकादि कोशी जाने वाली रचना । <° भे०-रदंण, रदंणि, रदा, रद्शि, रदन, रेण, र॑ण । मह्‌ ०-रयराौ । २ स्वायंभुव मनवन्तर के वसिष्ठ च्छपिका पत्र एक प्रजापति । | रयणयत, रयणयत्ि-सं पु. [सं. रजनी -[-पति] १ चन्द्रमा, इयि) २ प्रवाह, वारा! ४ गति, वेग, तेजी 1 ५ उत्साह, घुन । ६ संतोप, सच्र। (भ्र. मा.) उ०--टंसा बुगां पटेतरी, वीषटटीयां परवांण । वग दछीलरीयां रय कर, ह्रीया हंस विलघांख । --ग्रनुभव वाणी ५ देखो "रज! (र. भे.) ८ देखो "व" (रू. भे.) रयण~सं. पु. [सं. रत्न प्रा. रयण] १ रल ) उ०-१ याडव। स्रंमलि बीनती, सूर देवरा साचि। पौन मद्रु इम जालविउ, रंक र्यण जिम राखि। --मा. कां. प्र ऽ०-- २ कापड माल श्रसंख, हेम मिणं रयण विभूखण। प्रिमद चंदन श्रमर, पान कप्पूरह्‌ ग्रस्सण॒ 1 २ राजा, नृपति । गु. <. वं, (डि, को.) उ०-गहमत गत श्रत ्रवर तत परगत, श्रत दुचित रत भरथ ग्रत । जगपत हित मुखदुति इणा भत जिम, प्रभूत हूवत दिन रयणपत । [रा. स्यण भूमि सं. पति] २ राजा, नृप । १ न्‌ । र ४ रयणमद, रयणमर्ई, रयणमए, स्यणसय-~वि. [स. रत्न मय, प्रा. रयणमर्ई| रत्नों से युक्त । उ०-सोवन ए रासि करेवि वंघव भ्रागलिउ गिं ए, मित्तह्‌ ए रयं मरिचूड राय रहदुं सभा रयणमए 1 राहि ए संत्ति जिराद नवउ प्रसाद्‌ करावीड ए, केचणा ए मणिमयः थंभ रयणमडइ चिव भरावीयां ए । ---सालिभ्र भूरि रयणा-सं. स्त्री. [सं. रयः--रा. प्र, णान्=गति] १ गति, चाल । उ०--कालं भार जु्रौ भाले, सीस श्रापारो सरव सही । रणा व्डं उवरे राणा, रवि रयणां ज्यां वात रही। -- म्रज्जा भाला री गीत २ रचना) रयणागर ना उ०--मयवखंध एक दसमद प्रंगड, पणयालीस श्रज्भयणा । परायालीस उदहस वलीपद, सहस संख्यात नीः रयणा । --वि." कु ३ देखो ^रखा' (रू. भे.) रयणागर, रयणायर, रयणायरू-देखो ^रल्नाकर (रू. भे.) उ०--१ घर वसियौ घणा नेद्‌, चीत न व्तियौ चरूडरा। रेह समै तौ रेह, स्यणागर र्हतू धिय । | -फेफांणंद री वात उ०--२ रासि रसाउलु चरी थुणीजड़, किम रयणायर दीय तरीजड्‌ । --सालिभद्र सूरि उ०--३ रयणायर पुरी रमा, डाटी कर्‌ दुरभाव । रयणायर ते द्वव, सूमा कैरी नाव । -वां.दा उ०--४ अनंतनाथ रा गुण श्रगम श्रनंता, सांभलजी सहु संता। रयणायर मे गिणती रये, मुनि न कटै मतिमता । घ. व, ग्र रयणावदी-देखो "रलावढठी' (रू. भ.) रयणि, रयणी-१ देखो "रजनी! ` (रू. भे.) उ०--१ पांड्या ई किडनी दव ज्रवाद्ु ज्याह्‌ | च्व रीकड्‌ ड पंखड़ी, रयणि न मेढ त्याह । --टो. मा. उ०--२ सुणीयें गजी ग्राजरी, र्थणी गर रे स्वे। रंग टीक पी, ए सूकनै दुखल सवं । -रीप्राट्‌ री वात ६, पूरक २ देखो “र्णा (रू. भे.) रथणीदरत-सं. पु. [सं. रसनी ~+ हत) सूयं, रवि । =०--सिविता रवि सूर पतंग सही, रकतंवर श्रंवर ज्योत रही 1 किरणाढछ प्रभाकर भां कटं । रयणीहत मित्र सुचित्र रह्‌ । --पा. प्र. रथणौ-देखो "रण (मह, र<. भे.) उ०--सद्गुर श्रावी समोसस्या, सांभनि नलणि श्रफयणौ जी । जात्ति भ्रमरण पांमियउ, संजम परम रयणौ जी) -स. कु रयत-~देखो "रय्यत' (<. भे.) उ०--गरथ तेत गोसेह्‌, रात दिवस रोसं रयत । मांय माय मोतेह्‌, मुनसी खोस मुरवरा । `-ऊ' का रयतदोस, रयगेस-सं. पू.-दूपित प्राहार लेने से वनने वाला दोप । (जेन) रयनाक-सं. पु--समुद्र, प्ागर ४०५ ररकार उ०--कवि शंग' श्रकव्वर श्रक्कभन (गरन) च्रप निपान सव वस करिय। राना प्रताप रयनाक मभ, छिन इव्वेत दछिन प्रच्छरिय ! -- कवि गंग रयनि, रयनी-देखो "रजनी (रू. भे.) रयय~देश्वो “रजतः (रू. भे.) (रू. भे.) उ०-नागयखेती नित चरड्‌, पांणी पीवड गंग। ढोला रयवारी कुद, करहृउ एक सुचंग । -टो. मा. भे.) उ०--१ महाराय! रयवाडी ये रमवांनौ रमवा भ्राज प्रभु, फुल रह्यौ ये वाग । उ०--२ म्रशिक रयवाडी चढयड पेखियड मुनि एकांत । वर रूप कांति मोहियउ, राय प्रई कटड रे विरतंत । -स. कु. रयवारी-देखो "सवारी रयवाडी-देखो ^रवाड़ी' (रू ज्ये लाग। --स्ीपाल रास रया-सं. स्त्री. [म्र. रिप्राया| प्रजा, जनता । उ०--१? गरीव र्या रौ तौ भगवांन माथा सु ई विस्वास उख्ग्यौहौ। चौई वातकरण री हीमत तौ किणीरीनींदही परा पीटियां सू विखा रा तायोड़ा प्रभ्यागत मन ई मन उण वुचमादी नं ई भगवान री ठौड़श्रापरा हिव मे थरप लियोौ। --फलवाड़ी उ०--२ क्यू मौत री मरजी मार्थ, जीवण री पड़गी हडताढठ। हिरणी वोली रया करं काई्‌, रखवाघ्टा रौ पड्ग्यौ काढ । -चेतमानखा रयासत-देखो "रियास्त (रू. भे.) रपिस्ठ-सं. पु. [सं. रस्ठ] १ कुवेर । [सं. रजस्थ] २ भ्रमति, प्राग । (रू. भे.) रयोसयौ-वि.-१ नेप, त्रवरिष्ठ । ' २ वचा-ख्‌चा)। रयी-देखो ^" (ड, को.) रय्यत-सं. स्वी. [म्र, रभ्रय्यत| प्रजा, जनता, रिग्राया । उ०--काविल कलाम कहियत करीम, रहूमांन इत्म रय्यत रहीम । --ऊ. का. रू. भे.-- रयत, रेत । ररकार-सं. पु. [सं. रकार] राम नाम की चघ्त्रनि, जप, माला) उ०-१ रटर रर्कार धार मन ईस्वर। तोद निधि पार उतारणतेम । श्री संसार्‌ श्रलप घन श्रोपा, जटठ-निधि तणा बुदवुदा जेम । --ग्रोपौ ग्राढी रर वि जनान ०७०१५५१ +~ जा ०-००-9 ० ७ च्छे च्छ चक = म 1 +न उ०--२ श्रति उतिम सिवरन सहज, नाभ कवठ श्रस्ान । तेम रोम रकार हुय, भाग वडं का डन । --प्रनुभयवांणी रू० भे०--रंरंकार । रर-सं. स्वरी. (प्रा. रड] रटन, रट । ररणौ, ररयौ-क्रि. स.-१ रटना, जपना । उ०--रसना पतसीत्त न कू ररियौ, भव इंड जिकांजमरं भरियौ । रसना पत्तसीत तणौ ररियौ, भव ढंट जिकां जम नां भरियौ । --र. ज. प्र. २ कहना, कथना । उ०--ररं ससा भायां रसा, वीर्‌ पिण न. महवीर । विग मां दक्र वाढणा, धर साचा रणवीर । --रेवतसिध भारी ३ वोलना । उ०--नप मांनके वंक सुभाव विलोकत नित्त की व्रति श्रचंभी धरं । चतुरानन ग्रान पठाव विचच्छन, तो उन जीभ नकार ररं | ---वा. दा, ररो-सं. पु.-१ रामनाम का प्रश्रम प्रक्षर्‌ । उ०--१ पोथी पुसतग टीपणौ, विद्या दरि वहाय । हरीया सवहि छाडिकं, ररे ममे चित लाय । --श्रनृभववांशी उ०-२ तीकम पालगर जन दैवत रौ सौ। रन दिनां मूग नाम ररौ सौ। --र. ज. भ्र. २ ^र' वणं या श्रक्षर। रद, रल~-स “पु.-तुच्छ, न्यून । उ०--१ भ्रासमृद्‌ धरहि धणिय दक्केक्कड कडि चीरि । दको रल जिम कादीषंड भ्राधमतरई सूरि। --मानिभद्र सूरि उ०-२ ग्रन्न दिवसि वंभणु मकरटव रल जिम विलवट्‌ पाट बुव । पृच्् भीमु करी एकतु प्राविउं दूस किसु भ्रचितु। -- सालिभद्र सूरि रटफ-सं, स्ती.-१ फिसलन । २ लपट । २ टुच्छा। रद्धकणो, रछकयौ-क्रि. र.-१ फिसलना, रपटना, सिसकना, सरकना । उ०-१ माता रं मन्दिर चढतां म्रालुडौ' रच्फ्यौ एमाय । तेटौ वजाजी रौ वेटौ सानूढौ लेश्रावे एे माय । ---लो. गी. [क उ०--२ खावासजी नं एकाएक विस्वासनी च्हियी के उण र पाखती ऊभी भ्रा कोई लुगाई वोलेदहै। जे एकर ई कोयलां श्रा वोली सुण तौ वोलणौ भूल जावे । गारं माय वोलीरा श्रायर रकता दीस! मूडांमें दाता री ठटीड जसी तारा खिवं। --फुलवाड़ी [1 | । ०४५६ [1 ग्छकणो > 1 ५ १ अ ३ ५० 1 च ऋ आ षि त ए 2. ति ष, स १ र न, "भन ५्‌७० ० भो कमी २ प्रगट होना, निकलना उ०~-१ वाधौ गवर रानियौतती ई उण न्गृट् मु माः द योन रक पट्िया --फूतयाद्र उ०--२ हिवद्में ग्रीस्योषो मन रो ग्रणुट्‌ दग प्राग सी म्प धारः माहांणी रदफः पेटर्वा । --पसव्राटी उ०-२ भोद्धा टावरनी गया्टुउगर्‌ मूश्टमू वोच रद्ध पट्ष्वा-देषु, म्हारी परदे पजायौ | कृषक पुरौ सा 1 --धुलवादटी ३ टना, गिरना, दृ्तकना | उ०--? कानी मासी श्र भरियांसी रे पमां हाये नगाय सिधरावती वेका गूगी श्रर गवासी गीप्रग्यांमु यस्क स्द्ाकः श्रामू रव्छफ प्रटघा । षवद उ०--२ कागद मावर नं जवर ऊनी जोयौ नौ पानी री प्याना जदी मोटी-पोटी ्रन्यां मं पाणौ देग्यौ । टप्‌ करन एवः वटवलतौ श्राम्‌ उमा रागाने माये कर्‌ रद्क्यौतौ वौ कयगद नांप नं ना्ग्यौ | ४ गोदेकै ममान नुद्नना । पुटकना ) ५ लटकना, तमना) --श्रमगर्‌ नूनी । # उ०-१ गोदा रदकती पाटी भवर श्रा सौ पटना दय ठकरांरी भचकं श्राडी फिरी । ` ~ एपरदी क छ, ++ सत उ०--२ प्वाधांमू एटैट रक्ता भडनागरा जाया क्रारेगमगौ नांव उजागर करता ग्नट्ा-भवर्‌ कैम -- पुनवाडी | + [1 [+ टै! उ०~->3 विमला कमद्धासी श्रमह्धा चेम ं री, कटिया रटत कमन्य केसां री। भगणा श्राभूख्ण मनना भगियौडी, वेढा मनवद्धित केढा करियोडी } ---ऊ. फ. वि० वि०--यहां “रद्लणौ' का दाच्दिक ्र्थं यद्यपि नटकेना टी होगा क्योकि केण मस्तके होकर्‌ कमरकीग्रोर्‌ लटक रहेरहै। तेकिन शब्द फी भावना को सममन क्तं निये यहां लरकते बानो मे होने वासी हस्क्त की भोर व्यान देना म्रावश्यक है । मस्तक की हरकत कै प्रनुसार वालों का हितना दूलना स्वाभाविकही दै ग्रोर वान हितलने के साथ साध पीठ, कमर प्रादि म्रगोक्नौ स्प करते है इससे उनमें एकः फिञ्मलन पदा होती रहती है श्रीर्‌ हितने दुलने से बालों मेँ लटकने व फिसलने की दोनों क्रियाएं साथ साथ होती है । श्रतः यहां “टकौ का श्रथ लटकना व॒ फिस्रलना मिधित्तषटपमें है । किमी सरुटीकेवंवीरन्सीकोभी लटकना माना जा सक्ताहै परन्तु वहां ररक काभाव नहीज्रा मकता । ६ किसी प्राधार पर लटक कर भ्रूमना, शूलना, हिलिना-इुलना । उ०--केहूरी लंक लग थग कदल, भदक पदम नग उग भरं। रटकाणोौ ए वात पलक्रि नख मंदियां, रकि हार उर उपरे, --पनां ७ वीरे वीरे वहना । उ०-सिदगती धरती री कटठजौ ठडी हैम व्दैगौ। चछवटती रेत रे माथे उरौढाक् पाणी रकण लागौ। । --पुलवाड़ी = प्ररथान करना, जाना । उ०--रद्क्या सेला मारू टठती सी रात, दिन तौ उगायौ रणी सोकरी रेदेसमे जी म्हारा राजे । --लो.गी. ६ मिटना, धरूमिल होना । उ०--ग्रलगा श्र८गा गांवड़ा, करडा करडा कोम । लूग्रां रछ्क्या ४ ०५७ - हुश्रा, द्रुलकाया हुभ्रा. रष्छच [मागता = 1 पाया ०11 र किरिकिििसििैं उ०--छापरियौ देख नै तंबरूडा तंरिया ए श्र॑वा, द्रु गरियं रखछकाई रेसम डोर । --लो. गी. र८काखहार, हारौ (हारी), रचकाणियौ रढ८्कायोड़ौ -भु. का. कृ. । --वि. । रडढकारईदजरो, रठकारईजवौ --कमं वा. 1 रठकावणौ, रठकाववौ -- रू. भे. | रछकायोड-भू. का. कृ.-१ फिसलाया हु्रा, रपटाया हु्रा, विसकाया हुमा, सरकाया हृभ्रा. २ प्रगट किया हरा, निकाला टृग्रा. ३ गेद के समान लुढकाया हृश्रा. ४ टपकाया हूग्रा, गिराया ५ लटकाया भ्रा. ६ किसी आघार पर लटका कर हिलाया हृश्रा. ७ वीरे पौरे वहाया हुग्रा ॥ ८ प्रस्थान कराया हुभ्रा, जाने के लिये प्रेरित किया हृम्रा. राहा, पर्थी कर॒ न दोस 1 € मिटाया इग्रा, धूमिल किया हृग्रा. १० हल्के हल्के हाथ रक्कगणहार, हारी (हारी), रठ८कणियौ --चि,. । फेरा टुभ्रा (ज्रनाज श्रादि पदाथ) ११ फलाया टृग्रा, ताना रक्रषिग्रो डा, रछकियोडौ, रद्रक्योड़ी --भू. का. कर. । ह्ग्रा । (स्त्री. रक्कायोड़ी } ने ख ८ रटकावं | रठ८कीजगौ, रटक्रीजतौ भाव वा, ] | रठकावणौ, रखकाववो 1 | १ ४1 (रू. भे.) र८कावणहार, हारौ (हारी), रद्कावणियौ --वि, रणौ, -ुय्यौ -रू.भे.। 1 ८ रठ८काविग्रोड़ौ, रलकावियोड्ी, रकाव्योडौ --भू. का. कृ, । रछकाणौ, रठकावौ-क्रि. स. [^रलकणौ' क्रिया काष्रे. <. १ रककावीजणौ, र८लकावीजवौ -- कम वा. । फिसलाना, रपटाना, खिसकश्ना, सरकाना 1 क ८ रठकावियोज्ञी-देखो ^रककायोडौ' . (रू. भे. ) > प्रगट करना, निकोलना (स्त्री. रव्छकावियोड़ी) ` रककियोडी-मू. का. कृ.-१ फिसला हुश्रा, रपटा हृ्रा, खिसका हरा, सरकाहृश्राः २ प्रगट हुवा हूग्रा, निकला हुभ्रा. ३ टपका हुग्रा, भिरा हुमा, द्रुनका हुभ्रा. ४ गेद के समान लुढका हृश्रा, उ०्--मन रो भेदजीव में राग्वी जगां जगां रठकारई्‌ ना) --ग जानन वर्मा (वादी) ३ गद के समान चुदकाना, धुडकाना । ४ टपकाना, गिराना, दलकाना । घृठका हुत्रा- ५ लटका हुभ्रा, नूमा हृुभ्रा- ई किसी भ्राधार उ०्-मेनी-मेनी ुन्दर गोरी | घोड़े रीलगांम। ग्रास तौ पर लटक कर भूमा हुभ्रा, भरूला हृग्रा, हिला-दुला हृग्रा. ७ धीरे रकाय कायर मोर्‌ ज्यू, जी म्हांरा राज) --लो. गी, घीरे वहादहूप्रा. प प्रस्थान किया हरा, गया हरा. € मिटा ५ लटकान1 | ६ किसी ग्राधार पर्‌ लटका कर हिलाना-दुवाना। ७ धीरे-वीरे वहाना । ८ प्रस्थान कराना, जाने के लिये प्ररित करना । ६ मिटाना, धूमिल करना । । उ०--चृन्रां फिर फिर रोहियां, रछकाया सं राह। पथ मेण भिस मारिया, पंथी दारुण दाह । - च १० श्रनाज केटेरमेंसे ग्रच्छा व साफ श्रनाज पृथक करनेके लिये उस पर हत्के हत्के हाथ फिराना। इसी प्रकारसे श्रन्य पदाथं भी । हस्रा, धूमिल हुवा हुश्रा । (म्बी. र्टकियोड़ी) रखको-सं. पु.-१ कभी-कभी श्राने वाला गीतल हवा का भौका । २ थोड़े समयके लिये होने वाली वरसात की भड़ी । उ०--चछिन एक चालौ परवा माण, दोय घड़ी जे र्छकौदेदे तो, ताली भर्‌ जाय श्राणा मांय। -लो. गी. र पानी या द्रव पदार्थं का हृत्का वहाव, प्रवाह्‌ | .; ४ दूसरी वार संच कर जावमें पानी दैने की एक्‌ क्रिया, ५ पतने गोवर का किया जाने वाला लेपन । रद्चद्छ-सं. पु.-वहाव, प्रवाह । उ०--- वल्कं वीज्ूजठ दुटकं कम्म, सु सर सावलछ भह ए । श्रडडे कांस कूटकं कम्म, सोरी र८चटं सन्छह्ट ए । । --गु. <, वं. उ०--उण भांत रामरूग दाथांसू रकाय छै। चण-वीण कांकरा काढजं दै । -रा. सा. सं, ११ फलाना, तानना । रणौ रणौ, रदवौ-क्रि. श्र.-१ मिलना, सम्मिलित होना । उ०--१ जे हृदया हंता सूश्रर दोद तौ हिद मुसलमान रि खावी। जोगादरहोयतो हिद मुसलमान रक खावी। --द. वि. ॐ०--२ गठ जोडौ तौ जुड््ौ पण॒ मन~मेढ. जोटी मित्री नहीं। मूढी लीवी श्र जुवांन। पेमजी श्रोष्टौ, गट मीगरियौ बूढी विररान । दो-दो दुख साग रटग्पा। --दसदोष हासण जिण सामने । रशणौ --केसरीसिह वारहूट ०--३ सिर भकिया सह्‌ साह, पंगत राह, फां किम तोनं 'फता' । उ०--४ पण छोटा-मोटा टावर श्र जुर्वान घरण कोड मू डाग रं संधमे रछं है। ---दसदोख २ मिश्रण होना, मिधित होना । उ०--घर जांणौ हला-ह्ला!र चछत्यी है। घर दद्ातोश्रारं रे लूण दाई रद्ग्या । --दसदोग्ब ४ धुलना, मिलना, रमना । उ०--१ र रही नेनमें नींद गृमांनीड़ा। तार नसं की मार्‌ चोलन की । --रसीलं राज्‌ रौ गीत ०--२ नागा नगर गयांह, मन मेद मिदिया नहीं) मिलिया विन मिियाह्‌, जासू मन रछिया नहीं । --भ्रग्यात उ०-२ उभे रौ विसवास जम्यौ श्रर दायर्ज-टीकं रौ मोल मोग्यौ न वम्यौ । सगं -सगे रौ र्यौ जी, मीठा हया ज्यू सक्कर घी। -दसदोख उ०-४ श्रव धणी खुस्याली हर्द दछ। राजाश्रर साहुरंग रद्तीया चछ! --वीजड वीजोगण री वात ४ समाना, भिलना, विलीन होना 1 उ०-१ ज्यु जठ वृरखो थमे रछियौ 1 ऊगी दूःपट काची । पीठो कीकर पड्ग्यौ करसा, थे वरती ने राची। --चेत मांनखा उ०--२ श्रादछोड़ा दिग श्राय, यौ श्राद्धा भेन्राहूवं। ज्यू सागर मे जाय, र्ठ नदी जठ रालिया। --किरपारांम उ० -२ रिण लड पड कृणियागरौ, विकट जोध दोढ्धी' वद्ध | 'सवढ' रो काम प्रायी (सुरिद" रांमजोतत मेभ रटे । --वखतौ खिडयौ उ०-४ सत गुर्‌ सेन दर्‌ जव ग्राके, जोत में जोत रढी। -मीरां ५ दोभित होना । उ*- रसिया नेणां र्छ र्यौ, काज्छे तीगवी कोर। किया ०५८ रदछणो [क अ वटाऊ कारण, चंदावदनी चौर । --प्रष्यात ६ प्रवेण पाना, पठना, धुगरना | उ०-१ प्यं धारां पाए मौत रमी प्रमरुपयां। उनष्ट गौ गोत बूदी समरं श्रायांगा | दमयं घृता वास मदगौ ग्रदोत दीह, चमं ददतां जोत नद्मौ चटू्रांगा। ---दुरगादत वरार्हः उ०-२ दक नैरा गांवां मे नागौ ए पद्व | उतरा चाव यत्तं मं रटनौ भटी । --टगदोण ७ पलना, दिनराना । उ०--कुजर्‌ ्रीढद रवि रलह, जाय न जाद जेह्‌ । [माथ नहः] गुशि मानिनी, निघ-विहणा तेह --मा. का. प्र ८ उद्यतकरे गिरना) उ०--घमंघम सत वमवकत घाव । रमटनम श्रच्छर भम राच) मिद्धं कर मूद्टु ग्ट वरमा, चंदी पतर रर रठं दहचाद्र) --मे. म. € लीन होना, मग्न होना । १० पड्ना) उ०--चूडी सवि चटकी गु, रलिड मृत्ताहूल-हृार । प्राभरगां ऊतरि पट्ट, वाट खमरई नहीं भार। --मा. कां. ध्र. ११ लगना, स्पध होना 1 उ०--ए्ण भांति मोत्यां रौ चाटौ करद) प्याताभी फिर द्ध जठ श्र॑तर म रद्िया यकार्जामां परिया द्यं । मांहौीमाहि यूलाव दिडकीजं -- पनां १२ वरसना, व्रेष्टि होना ) उ०--रल्वियौ जच सुरराज, धर श्र॑वर एकारः सु} करण भ्रभय ब्रज काज, भिरि मख धारचौ कान्हड । -- रामनाथ कवियौ १३ नष्ट दोना, वरवाद होना । १४ चिरना फटना । १५ ठलना उ०--रलीया है सखी रलियादिन नं रात । रहतां है सखि रतां हे दिवस वहनी । -प. च. चौ. (१४) १६ देखो ^रछकसौ, र८कवौ' (रू. भे.) उ०- मांग जड़यां गज मोतियां, कडयां रद ता केस 1 तारी हंस दे तीजणी, चाढी कामण वेस'। -- ग्रग्यात रठगणहार, हारौ (हारी), र्ययौ वि. 1 रदत ४०५६ रठछमिदठण रलिग्रोड्ी, रछियोड, रयोड़ी --भू. का. कृ. | उ०--खगां चदि धार हृएवि वि खण्ड, पडधर हदु मेद रठीजणौ, रीजवौ भाव वा प्रचंड । रछत्तछि नीर जिहीं रुहिराठ, खन्छाहकि जांसि कि भाद्रव 1 ~+ * खाट्ट 1 --तचनिका रछत्तल-देखो ^र८त्तठ' (रू. भे.) ट ॐ ४ छ. ध 4 र८त्तद्रण हा रद्त शि -- [च उ०-- खहा च्ल रतवं चाक । बीजां कां वीमट्टां त्राठ। रकत्तकरणार, हारो (हारी), यी वि. । गां गठां गां गह्। शिघट्धी कटां सकठां सहु । रछत्तणिग्रोड़ी, रखत्तणियोड़ौ, रकत्तचोड़ौ भू. काक्र. -गु.रू.वं. रकततगीजणौ, रठत्तकीजवौ --भाव. वा. रद्ठतदणौ, रदतलषौ-क्रि. अ्र.-१ फिमलना, रपटना । उ०-- रदत स्थ नई मगर्‌ कुजर्‌ प्रस्व जेहुवा कद --रुखमशि संगढट २ फलना । उ०--१ रुधिर्‌ घर्‌ रत्ती वहु नाच कमंघ महावछी । ग्रान कड्‌ ्रात्रावद्धी । -- भ्र. वेचनिका उ०--२ न्शिभ्रंगणि तेणि रुहिरं रछतचछिया । घ्णादहाय हूं पई घणा । ऊंघा पत्र वुदवुद जठ श्राकृति, तरि चालं जोगिणी नगा । --वेति उ० -३ कोड भड कचरिया रायमल कोपिये, जुड़ा मोटा फर "कुःभ' जायौ । रकतं रघर र्णमोम रहवियौ नही, ऊपटे नदी जद + मांह श्रायौ । महाराणा रायमत रौ गीत ३ गिरना, पड़ना, चरालायी होना । उ०--धृद्ियां घणोवणां गलिपाद्टं, रढतचिया पलां खक रोद । ्रसपति च्छा पञ्तां भ्राम्ही, सम्ही धार चस्यौ सीसोद। । --केसरि सिह सीसोदिग्रा रौ मीत रद्रतठणहार, हारी (हारी),रठतदरियौ -- वि. । रठतदिग्रोडौ, रछतदधियोडी, रनतच्रयोडी भू. का. कर. । रठतटठी जौ, रछतढीजवी -भाव. वा. ] रघ्टत्तटणौ, रछत्तठवौ --र< भे. । रवतद्ियोड़-मू. का. क.-१ फिसला हुग्रा, रपटा हूश्रा. २ फैला टुग्रा. ३ प्रवाहित हुवा हुग्रा, वहा दभ्रा. ४ घराशायी हुवा ट्र, गिरा हुमा, पड़ा श्रा । (स्त्री° रक्तचियोड़ी) रठतन्ी-देखो ^रटत्तट' (स.भे.) रठतठ-सं. स्व्री.-राठीड वीर गोगादे कौ तलवारका नाम । यह्‌ तलवार प्रहार के समय भटका लगने पर्‌ लम्बी फल जाती थी । उ०--श्रसे कव श्रोपग दीपत एम, जिका भड़ गोग रछत्तद् जेम । --पे, रू. क्रि. वि.~तीनव्र गतिसमे, वेगम से। रू० भे ०--रक्तट, रक्ती, रथी । रठत्तटणौ, रछत्तछवी-देखो "रतौ, रख्तरवौः (रू. भ.) रद्ठत्तछियोडो-देखो “रठतचछ्ियोडौः (स्त्री. रठत्तलियोड़ी ) रछछयछी-देखो ^रठछत्तठ' (रू, भे) (रू. भे.) उ०--जोपस वाकी जवारिका जण कीध जवाहर, गोगादे ने रठ्यद्टी दीधी कर मेहर -- (मा. म.) -- सवनी नाद्धम रटपट-सं. स्वरी.-१ हंसी, दिल्ली, मजाक, मश्ौन । २ उद्रण्डता, वदमाश्ी । वि.-१ उदृण्ड, वदमान । २ व्यथं, फालतू । उ०--पकवांन पलूसे रद्टेपट रूस, फरगट सु फेकंदा है । --ॐ. का. ३ श्रविद्वास पात्र) ४ लम्पट, वद चलन । ५ श्रावारा। 5० भे ०~-रुट्टपर 1 रटठमिढ-देखो ,रिक्रमिल' (रू. भे.) उ०--१ ज्यर्‌ पणी काटंत्युः देवादौ धोरं घोर वैवतौ क्यारां व्यारां रखछमिढठ जाव । -- फुलवाडी उ०--२ कदेन ल्याया भंवरजी सूतद्ीजी, हाजी ढोला । कदे वी बुणी नहीं खाट। क्देय न मूता रढमिढ्ठ सेन में जी, ग्रोजी पियाजी। प्रव घर प्राग्नौ, थांरी प्यारी उडीके महल मेजी। -लो.गी. उ०--२ भरुवटां रो श्रौ कुलरी मीठा सुर्‌ मे धरती री कूख वधविं के म्हारी जच्चा-रांणी नै रढ्मिट मीठा मीत सुखां । --फुलवाड़ी ॐ०-४ हती ठव्यां राजाजी कींवात पुणी चा उणा वगत चछ हंसौ श्राय जाव। वोली हंसी मेँ रछमिट जार्व । रछमिव्णो, रढमिवोौ-क्रि. ्र.-१ हिलना-मिलना, मिलना-~जुलना । उ०--चारकूट की वावड़ी, जी में सीतल नीर । श्रापां रछटनिल न्हायस्यां, म्हारी लाल नाद ग वीरं) -नो. गी, रद्मिद्धिपोडी २ फलना, फलकर समाना । उ०--व सोढा सूरज कीकर खिरिया घ्णरो म्यानीतीर्दै तीं जांणू, पणा वै धरती माथ चिरियां पेली पेली मगष्टी दृनियां मे वातां वरन रठछमिढाया । --एुलवाड़ी ३ सम्मिलित होना, मिधित होना । उ०--चीकणा गुलायी डील रौ परस पातां ई चादद्यं रोपांणी मोत्यां ज्यू जड्ग्यौ 1 कठा भहूला्मे भ्रण गिण मोती ई मोती रद्टमिलग्या । --फुनवाड़ी ४ धुल-मिल जाना । रछिमिदणी, रछिमिवौ रदमिरियोङ-भू. का. $-१ हिता-मिला, मिला-जुनला. २ फना हरा, फंलकर समाया हूना ३ सम्मिलित हुवा टूना, मिश्चित हुवा हरा. ४ घुला-मिता हुत्रा । (स्त्री. रमिचियोड़ी) रठरदछ-वि.-सुन्दर, मनोहर । उ०--रथां जद चित्र रछछरदछ, दृमच सरगावदछ प्रवल रद्र । ग्रचछ त्रिय वद महन पुरि यट. प्रघ दद्र वद्र रीभ इक पद| --र्‌. स. 1 ---रू. भे, रदरछठक, रछलद८टक-स.. स्त्री.-युन्दरता, चमक, श्राभा । प्रकाग । उ०--मुखचदनः पोप फूल मड, मुषहार लद र्छलछक हयौ | रखछायोडो-गरूु. का. करू. मिताया हुप्रा. प्रतपाटक वावा रोग प्रचाद्रक, जोगणि नाद्धक नेच जयौ । -- मा. वचनिका रदवदणौ, रदवलयो-देखो "र८मिलणौ, रठमिठवी (र. भे.) रछवलियोञ्धो-भू. का. कर.-देमो ^रक्रमिदलियोड़ी' (र. भे.) रव्मा~-सं. स्ी.-याद । उ०--थां छडांणे गया था सो वरस दूज श्राफ पद्ध भ्राया, शान दूज तीजै वरस रछा ्रावे द। --मारवाटरा प्रमराचां री वार्ता रद्टाणौ, रछायौ-क्रि. स. ['र८णौ' क्रियाकाप्रे.र.] १ मिताना। उ०-माथं काढा भंवर केसां रौ चीकणौ कड लौ, जांफं म्रणगिण भंवरा श्रापरौ काटयौस्म श्र विकणाई श्रां केसां मे रछाय नेचीता व्दैगा 1 --फुलवाड़ी २ मिश्रण करना, एक-~मेक करना । उण०्-गूद र सरागे पूजती चिदांमां न्हाक एकण साच टिया लाह साध्या, वाणां रं सागे कायफट्र, कमरकस्स, काचा गोदा, फली भिरचां रठछाय लाह वांघ्या 1 -- फुनयाड़ी ३ श्रात्म सात करना, समाहित करना, रमाना ) ४ लीन करना, मगन करना 1 2०६० [1 1 रट्टावणौ ५ चतन, प्रोलना ) उ०-१ चार्टूजी म्हांगप्श्रो, प्रथी दौ वाद माः कतद्टुधिये रा जान, कमर तो रद्धापी जामा सीर्‌े नो. गी. उ०--२ दो महीनांसु लिकरलिकः कष कै म्दरारा दीन मं ध्रात्तस्‌ पणी, पानि मर्‌ कषक पांगी मं रेद्धायनं पीत्रतीर्की ठकः वापर । --पुःलवानु ६ शोभि करना ७ पलाना, दिनिरवाना, विभेरना । ८ प्रवेद फरना/फराना, पटाना, पुमाना | ६ भिराना, परटकना ) १० वेरमाना, वृष्टि करना । १२ नेष्टेया वर्चादे करना । १२ चीरना, फाटना ) १३ रगदट्ना। १४ टपनमना । रद्धागादार, द्वारी (दानी), रद्धाजियं -- पि. 1 ग्दयोटरौ -- भू. का, कर. । ~यम्‌ १ ¦ पा. ) रभे. रदाहजणौ, रनार्ईदजनौ रट्धावगौ, ग्ट्याववौ २ मिप्गा किया हुमा, पव-मेकः किया दृय्रा. ३ ध्रात्मसान किया हृप्रा, समाहित कपि हुप्रा, रमाया हन्ना. लीन ल्व दन्ना, ` मगन किया टूर. ५ धूलाया द्रा, पोता हृश्रा. ६ शोभित क्रिया दग्रा. ७ फलाय हुश्रा, दितराया हृभ्रा, चिनेरा हूग्रा. < प्रवे कराया टुग्रा, पेठावा हृश्रा, घुनाया दग्रा. € गिदसया दग्रा, पटका हृश्रा- १० व्रगसाया हृश्रा, बृष्टि त्यि हूग्रा. ११ नष्टया वरवाद क्रिया हूग्रा. १२ वीरादहुश्रा, फाडा दूम्रा- १३ रगडा द्ग्रा. १४ रपकाया हुग्रा । (स्प्री. रखायोडी) रदछावटौ-वि.-मिधित 1 उ०-लोरमेंसूती राजी गी घणी नराजीमू नाट देखरमूटी मिचकोटृचयौ श्रर उडदू-फारसी रा ्रटपटा रावा उद्टरा-सुट्टा सवदां सू वात वा"र्‌ वोत्यौ --दसदोस रष्ठावणौ-- देखो (रछियां मणौ! (स. भे.) उ०्--मपना मेँप्नो माखूजी मन जो देन्यौ, मैष्नां रा यंभ रचछावणां जी । --लो. गी. (स्त्री. रावणी) रछावणौ, रावयौ--देखो राणी, रायः (रू. भे.) रर्सवियोडो (= नाम ~^ उ०--कालिदर ई पादा दरसण नीदिया। सेवट हाथ कटक श्रमू रद्वावती रक्ावती घरं प्राई । --फुलवाड़ी रकछावणहार, हारौ ( हारी), रखावशियौ --वि. रटाविग्रोडौ, रढ्ावियोड्ी, रब्यव्योड् -- भू. का. कृ. रद्ावीजसौ, रावी जवी --कमं वा. रदछावियोडौ-देखो "रकछायोडो' (रू. भे.) (स्त्री. र्छावियोड़ी) रचछि-देखो "रखी" (रू. भे.) उ०--१ जनक हर जानकी राज रट वहरंग । मुर वरखा पोहप चवि, नौवत धुरं निहंग । --रांमरांसी -उ०-२ रूखमरणी मनि. रद्धि भ्रंगी श्रमी द्धी, पदमे वाचा प्रति नाथ तूठा । --रुखमणी मग रलिश्रांमगड, रलिग्रांमख, रलिश्रांमणौ-देगो 'रल्िांमणौ' (रू. भे.) उ०--१ रांणपुरइ रलिश्रांमणड रे लाल, स्री श्रादीस्र्‌ देव मन मोहचड रे । --स. कु. उ०--२ यड दरिसण रलिम्रांमश प्रांमणु दमणु जाई । जिम मुम पहुंच श्राखडि, श्राखडिया न उसा । --स. कु. रछ्ठिमछि-देखो 'रिछसिटः (ट. भे.) उ०--पीया सु परी भयौ, हरीया रछिमछि चेल । मेर सांम सुहाग की, है ्रजरांमर वेल । --ग्ननूभववांणी रद्धिभिरणौ, रलिमिठबौ-देखो 'रटमिलणौ, रछमिलवौ' (रू. भे.) उ०--खोड़उ हुत डंभिज्यउ, वाच्य भख मरेसि । थे विहं सज्जणा रद्िमिल्यउ, हं विच दुख्ख सहसि । -टो. मा रढ्धमिचियोडो-देखो “रछमिच्वियोडौ"' (रू. भे.) (स्री. रछ्िमिच्ियोडी) ` रदिय, रलिय-देखो ^रठी' (रू. भे.) उ०--१ वत्तीस वद्ध नाडय घड, पत्ति पत्ति नच्चद रलिय। इयसिय रिद्धि पिेवि कर, दसणमदह्‌ मउ गड (श्य) गलिय। --ग्रभयतिकं यति उ० --२ सहजति निरुवम रूवधरु पंचई राजकुमार । तहविह मायडिय रलिय लगि काराविय मिणगार। प्राचीन फागू-संग्रह ---ऊॐ. क, रछियामणी, रलिर्पामणी, रदिपावणौ, रलियावणौ-वि. (स्त्री. रलियांमणी, रलि्यामणी } उ०--३ रदियां जायोडा गद्धियां मे रुकिया । = र १ सुन्दर, मनोहर, सुद्ावना । | ४०६१ ज ज 0 अ १ अ गयि रदलियाइतं [1 गीय ५-9-9० ता == उ०--१ सयां सियावर घरप्रायाहे, श्रवव नगर रचियांमणौ, सुख संपत छाया है । --गी. रा. उ०--२ रूपादौ रछिधांमणौ घोद्धागिर रौ थान । तर नीर्ण कर तटे, सिखर मेर समान । --दुरगादत्त वारहठ उ०--२ राजग्रही नगरी हो ग्रति रलियांमणी । गृणसिल' नामे वागजिशोसर । -जयवांणी २ श्रानन्द दायक, उत्साह ववंक । उ०--१ रति श्रनुवूक चिलास्र घां रदछियामणां । भीखग दीं द्द्रलित्रु हं भामां ¦ --वा. दा. उ०--२ संवत सोल ग्रठांशुग्रइः खावण पंचमी प्रजुवालदइ्‌ रे। रास भेण्यी रलियामणी ली समयसुदर गुणगाइरे। -स. कु. उ०--२े पनां विलकुढी कहै, श्रर्वं सुख पावणौ । भ्रावतां भ्राज वे दिन, रच्ियाविणोौ । -- पनां ३ मौज व मम्तीदेने वाला । उ०-- राज छोड्यड रलियामणो, तुम जांण्यड भ्रधिर संसार) वयरागे मन वाततियु, तुमे लीघड मयम भार। -- स. कु. ४ मोहुक, म्राकपंक । उ०--१ मूरति मोहन वेलड़ी, प्रगटी पुण्य पहर । रिखभ तणी रलियांमणो, प्रणमता सुख पूर । --स,. कु. उ०-२ मूरति श्रति र्लियांमणी, निरखण चाह नै । जेह्‌ करावं जातरा, साचा ते हिज सेरा । ५ मधुर, प्रिय । [आ ध्‌ ॥ त्‌. ग्र [/ उ०--१ विकर हो चोक्र चचर सरव्वच, सांमचछि पटहनी घोसणा मड प्रगट निवारयौी हौ तेह, वचन सुणी रलिांमरण)। --वि. कु. उ०--२ ते नदद्‌ हो करि सोल सिगार कि, गीत गायई रलियांमणा -स. कु. ५ ६ सुग्ी । उ०--सुख प्रामियौ सजरणां दक्ख धियौ दृजणां । लोक रछियांमणो लियं भामा । ७ श्रेष्ठ, उत्तम । उ०-दिन-दिन डोहला पुरतां, वोत्या पुरा मास । सुत्त जायौ रलियामण, सहनी पुगी श्रास । -गर. रू. वं. --वि. कु. ० भे०--रढावणं), रलिभ्रांमणएड, रलिभ्रांमणु, रलिम्रांमणौ रदटियावरणड, रछ्ियावशिय, रछ्ियावरौ, रढीश्रंमणू, रटीग्रांमणौ रखीयांमण, रलीयांमणौ, रदढ्ीयावणौ । | रछ्ियादइत, रछ्ियातत, रचियायत, रछियायित, रच्ियारत-सं. स्त्री. १ श्रानन्द, खुशी । रदिषाछ ४०६१९ नी १.1 [५ 3 9 १, ए श) त श | न नक नाः हिः चय्‌ सदुः कै त = -- # ऋ पृ ऋ भण + भ ॐ += न नः [ ° क , , क । + न न न १५१७ न ग [9 ~~ त 4 = चन ^ कम ॥॥ 1 षि [त 1 नथ प उ०--१ उटीने साह गई जोडी दौनू हाथ । तरिनय सहित | रल्नियावणउ, रदिवाचणिय, रच्ियव्णी-दैमौ “रदियांमरणो" (र. भे.) वंदना करी, मनमें शद्र रलियात । --जयर्वागी उ०--{ कान्हड वृ तिवुध्रम उ ग्मलि करन न्म, धग व्रगोगेशा उ०--२ रमता रावधिया रद्धियारत गोग, धुन में धुन लामी पुन रतिपायणउ धटुतय निरिविर समे । प्राचीन पामु-मग्रह्‌ मं सतसोधे। -उ.का, उ०-२ घरधरमं घीगां घणा, धर पर्‌ प्रमं महि) राग रंग २ लाट, व्यार । रदियाचणी, धर्‌ मामक घाट) --या. दा. बरि.-१ प्रसन्न, सुण, मुदित । उ०--३ भाज कवर्‌ रद्धियावणा, नयरगान्यह घन जीवगा जु । उ०--१ राव कल्यांणमलं प्रर सर्व राजनोकः दलह दृनहगि ---गी. रा. देसि द्रुणा रदियाइत हुमा । --दे. चि. उ०--४ भौतं भात रा रदियाचणा मदु पनम र्णं करतादा | उ०-२ पाणी सुगम कीयौ कुमर, जेह्‌ दृतौ दुरनंभ । रलियादत पनवारी सहु को थया, परीद्धी परिथल श्रंभे । -- वि. कु. (स्प्री, गद्धियावणी) उ०- कहू राजिमती रलियात भधकी, मृभः भाग वड | रदिपावत-देो 'रद्ियायन' (>. परो.) महिला मदसखी। --स.कृ, उ०--रीम करौ भान रदिपावत, गज भार्यं मेर चाष म्म । उ०-४ रलियाय राजा थयौ रे, साभनि तासं चनचन। नुमरी मारं सदा नहरी माहूय, मनामा सिर ऊपर सामि । ग्रध्यापक भणी >, नाख ग्म दीधौ घन । --स्रीपान रास --प्रथ्वीरान साटीड उ०--५ राज तम मयू" मिट, हमह्‌ मिद्धं युख~प्रात । ट्‌जरत रच्ियोद्-मू. फा. ृ.-१ मिना टरा. २ सम्मिलित दुवा दभ्रा. रचिपायित हमरा, हसि पृद्छी बुश्रछत । गृ. रु. वं. ३ मिश्रण हुवा द्मा. ८ पुला-मिला हृश्रा, स्मा हृता. २ उत्साहित । श्रागान्वित । ५ समाया दग्रा, प्राट्म नति हया हूग्रा. ६ पेकमेक द्वा दग्रा, उ०-समाचार सविस्तर क्या, पिगकछरराय ही गदुगद्या। णकः हुवा टृश्राः ४८ गोर्मितदव्छ हन्ना. < प्रवे पाया हूर, दाना नितु पृहचट परधान, रदछिपति ध्या चिति परान 1 पटा हया, घुमा दग्रा. € फला हन्ना, छित्तमाय्रा हुमा. --टो. मा. १० उष्टूल कर्‌ भिराहूश्राः ११ लीन द्रवा द्रा, मग्न हवा १ प्राक्त । दग्रा १२ पडा द्रा, १३ वरसां द्रा. शथनष्ट या वर्वाद दवा हुमा. १५ चिर हुग्रा, फटादहुग्रा। १६ देनो “ग्धकियोटोः (स. भे.) उ०--खंजन नेत्र विसाद्ध गति, नासिका दीपक लोग । दोसौ रद्धिपायत हषी, जे घर दीटी जोय ) --टो. मा. ४ अ (म्पी. रछियोदी) रू० भे०~रकियावत, ररीश्रा ठत, रदधीग्रारईइत, ररीश्रार्ईती, रटीश्रात | । ति ध र ' | रदी, रलो-सं स्वी. [स. रति, प्रा. रष्टया रली] १ इच्छा, कामना रचिग्राति, ऱ्ीयादत, रक्रीयार्दत, रछीयार्हूती, रक्ीयान, रद्धीयायत, | श । ) १ इच्छ ? रठीयाथित, ररीग्रावत । ि उ०-१ सुख कज श्रमीर श्रगजीत' सू, रस सयीर अ्रप्पण र्द्धी । रचिपालउ, रचा, रलियालौ-वि, (स्प्री. रचियाती) १ सुन्दर, ४ च्‌, ~ मनोहर । वातां श्रथाह्‌ जतं वरी, साहु नवावं सांमढौ 1 उ०--घांट्‌ विहं लटकाली, प्रति ग्रोपं लुब भुवाली हौ। र्दी --रा. र्‌ ने रलियाली हीणी करि चंपके डाली हो । --वि. कु. , उ०--२ चदन केसर चंपक कनी, प्रतिमा पूजी मन नी रती । २ प्रिय, प्यारा | । --स. धुः. उ०--२ श्रापरी रली चरश्षठी देवेद्र जन्माभिसेक करट, मेरं परवति मिली सुवरण्णर्प्य चस््रनी ब्रस्टि निरंतर करद. उ०--दुख महोदधि पाज, भव जस तार्ण जद्ाज,श्राजदहो गदर रे रलिधालड साहिव सेवियड्‌ जी । --वि. वुः. ३ प्रसन्न, खदा, भ्रानन्दिते । # # @ # ॐ --य. स. उ०--रामत रमता सूर भं रता रदिपदा]। २ उत्कंठा । --केमोदाम गाडण्‌ं ` उ०--१ दादू दरसन कौ री हमको वहत श्रपार । य्या जण सं. पु.-ुडवर्‌, परमेदवर 1 ` क्यदही मिदं, मेदोरप्रंणा श्रधार | --दादूत्रांणी रली ४०६३ रवीयारत __- _-~_-~_~_______-_________________-~__-__्‌-- उ०--२ चोली मड चरणा चीर सखरा, सुखडा सुसवदषए। रली रंग स्यु लड्‌ जसोद्रा, जांशद जेठ प्रसाद ए। --स. कु. ३ उमंग, उत्साह । उ०--१ सुखदृख पमं ते सहै दो जी, कौतकियां नो राव । मलयं मन नी स्ली तो प्ण सुविसेखे वली हौजी --वि, कु. उ०--र सुरिज्यइ गाजन नदण॒ सूर महावली । सही विचारी वात कोडक रिण री स्ली। --प. च. चौ. ४ उत्साह या उमंग पूर्वक किया जने वाला कायं । ५ भ्रानन्द, खुशी, हप 1 (अर. मा., ह. नां. मा.) उ०--१ छतीस राग छाजत्ती, निहाव धाव नोवत्ती 1 भजे विभा भैरवं, री कठी कठी रवं। --रा. रू उ०--२ क्रोडि वरीस मत्री खी करमचंद उत्सव करतत रली । समय सुःदर गुरू के पद पंकज, लीनौ जेम प्री । सुः उ०--३ रदी र्ग राग नाना विधि, सनि, मंड के छजं। पतिसू प्रीति जीतति- गुण दूना, वेणु गगन में वाजं । 9 उ०--४ कटक थया ग्रगिखत चहुं कोदां, सौच हुवौ मोटी „ सीसोदां । सहस त्रीस दढ देख सर्पाणौ, री करं मन जसिष राणं --रा. रू. उ०---५ चजां तोरणं सोहियं धाम घांमं। रढीररग वावायजें सीत रांमं। --सू. प्र. उ०--६ श्राजे रछी वधांमणा, श्राजे नवला नेह । सखी ग्रम्हीएी गोठ मदं, दूये बुठा मेह । -दौ. मा. ६ सेल, क्रीडा, रास । उ०--१९ रली रनीठ श्राविडउ माणिस माहि" एक दिवस | जादू । --वस्तिग उ०--२ श्रावौ सहेत्यां रढीकरांद, पर घर गव निवारि। --मीरां उ०--३ पृलिण॒रविशरुता फहरावजं पीतपट, भ्रावजै॑राप्तयठ व्रजनाथ श्राथ । कानि कवार विह्रि गछी ब्रज कुज री, सुभ रली कीजियं लाडली साथ । --वां. दा, ७ रतिक्रीड़ा, विलास, भोग । उ०--१ पदमणि लग-थग पाती, रथी तण छक रूप । साय धर कठी गुलाव सम, उघड मीठी श्रनूप --पनां उ०-२ दादा सार्श्नी उमर वाछी रं साथे री पूरण रं श्राणंद री म्हारं ई मन में रं" जाती । --पलवाडी उ०--३ धार राजाजी न॑ पृ्धतेजंके वे व्याव करण सारूत्यार चहैतोम्हन ₹ कीं ग्रांट कोनी । नीतर ठाली रचियां रं भरोस इण र्टीभ्रांमर, रच्छीश्रांमणौ-देखो ^रदियांमणौ' गवाडी सांम्ही मूडौ ई करियी तौ म्हारे पांडवां नं प्नोढली ई ही । -फुलवाड़ी उ०--४ दो दिन रीश्रंगम रछियां पाच वरसां ताईं फोड़ा घालेला। -फुलवाड़ी ८ मनौ रंजन, विनोद, मौज । ६ विहार । १० ठाट-वाट, वैभव । रू, भे.--रटि, रछिय, रलिय । (रू. भे.) उ० --१ सरव गुण जांणनद व॑सि वली भांखनई, वीर श्रवतरज्यौ चहूभ्रांएनइ ए 1 वली रद्टीश्रांमरा , श्ररवासन वीरम तउ, पांमिस्यू सोनिगिर नू वदसणड ए। -कां.दे. प्र. उ०-२ वनिता रूपे रलीश्रींमणी । --धरमपच्र (स्त्री. रटीप्रांमणी) रट्ीश्राइत, रदीश्राईत, रठीग्राईती, रठीभश्रात, रद्ीश्राति-देखो ^रलि- यायतः (रू. भे.) उ०--१ पहीरांमणी रं श्रणावौ, तेड़ौ नदं जादव राड ए। रुखम णी रद्टीश्रार्त, उल्टस श्रंगि न माई रे। --रुखमणी मंगठ उ०--२ चाउरि मंडी चतुरनदं, राय धयु रलीभ्राति । कड्‌ ब्रह्मा कट्‌ देव गुरु, क्षितिपति मंडद्र स्याति । --मा,. कां. प्र. रठीमण-वि ० प्रसन्न, खुश । उ०--कांमणीयां तौ तांणीयं कणं, मोहै दूजां तणां मण । 'राजडः राण रदै रछीमण, कसीयां जरदाठं कसण। --जोगीदास कवारीयौ रद्ीयांमण, रछीयांमणौ, रलीयांमण, रलीयांमणो-देखो' ररल्ियांमणौः (रू. भे.) उ०--१ फूलै फले रलीयांमणा, देखाडं है कुमरी प्रारांम । जल ना कुड सुहांमणा, लेड नं ठै तिहां नाम सुम । --वि, कु. उ०-२ राजवीयां ने साधि, प्राच्या हो राजकुमार रली्यांमणा। भ्रमरपुरी ग्रवतार, नगर विराजे हदो मनुस्य युहांमणा। --सीपालं रास (स्त्री. रठीयांमणी) रदीयादत, र्ीयारईत, रदीयाईती, रछीयात, र्थीयायत, रटछीयायित रटीयावत-देखो रट्ियायतः' (रू. -भे.) उ०--१ लंका जाचछि सीत सुचि लायी, ररीयार्ईूती कीधीस्री स्याम । -ठ. नां. मा. उ०--२ पोढउ ए पदवंव गरि, हृड-तणड्‌ मनि हीकः । रलीयायत र्द रीभविसु, राजकुमर र॑जीक । --मा, कां. प्र, उ०-३ राजा रढीयायत थउ, दीवड पंच पसाउ । उचित वली र्छीयावणौ ४०६४ सर्वणं = ~ श्रापिउ' घणड, श्चुकद नहीं कांड चाउ । -मा. कां. प्र. उ०-४ वेहू जणा रलीयायत थया, घा भव ना पपि ज गया । घरि तेदी नद दिद स्मान, सद्धा पूरवक दीधु दनि। --नट८दवदंती रास उ०--५ कवरनरूृडा चु मालम कीयी। मंडोवरसु राठोड़ां नाढर मेलीया छ । इसौ कंवर चूडौ साभ मन रछीयावत हुव । वधा कीजे छ! --राव रिणमल री वात रटछीयावणौ-देखो रलियांमणी! (रू. भे.) (स्त्री. रढीयवणी) रीरंग~-स. स्व्री.-खुरी व श्रानन्दे के उत्सव । उ०-दसौ कंवर चूडौ सांमढ मन में रलीयावतत हुवौ। वधाई कीजै द। वाजा वाज छै। रटीरंग होवं छै। --राव रिणमल रो वात रू. भे.--रंगरटठी । रष्टौ-वि. (स्त्री. रणी) १ कायर। २ श्रशक्त, कमजोर । सं. पू-१ ऊटकी एक चाल विदोप। २ देखो रको" (रू. भे.) रवंद-वि. १ तीव्र, तेज । | उ०-उत्तर श्राज स उत्तरउ, पाठे पडद्‌ रवंद। का वासंदर सेविय्‌, कड्‌ तरुणी कड मंद । -- टो. मा, २ कोलाहल युक्त । रव-सं स्वी. [सं.] १ भ्रावाज, ध्वनि, स्वर, दन्द । (ह्‌. नां. मा.) उ०---१ इगरिया हरिया हुए भरिया, प्रिया ताढ त्द्छायी | दादरिया करिया रव दीरघ, भीभरयां भरणायी । -लौ. गी. उ०--२ मिट श्रावत नौढ किं वोढ मही । जमना दढ वेढ समुद्र जही । उर माठ भणं कण ऊमरियं, पवंगां तुरियं रव पाखरियं । --रा. रू, उ०-३ छतीस राग छाजत्ती, निहाव घाव नोवतती । भज विमास भैरवं, रदी कठी कठी, रवं । -~ रा; =, २ गरुजार, गान, चहूचाहट, कलरव । उ०~--हांजी रामजी, करे सरोवर सरस, दरस रघुवीर राजी म्हांरा राम । हाजी रामजी, कोयन ने कठहंस, सारी सुक र्व करेजी महारा राम । --गी. रां. ३ गोरगुल, कोलाहल । उ०--भद्‌ श्रनड उड रय वाणि वहिमड़ । उरड़ श्रपहड़ दुजड़्‌ श्रोफड । -सू.प्र. ४ करुण क्रन्दन, चीख-पुकार 1 उ०--१ दाहा सव होता दैसोती, स्वाहा चव समसांरौ । श्राहा ह्व हृयग्यौ भ्ररियां उर, हाहा रव ॒हिदर्वांशौ । -~-ॐ. का. उ०--२ भरियी भादरवौ छाती पड़ भागौ, लगतां श्रासूुमें ग्रास भंड लागौ । छपनं घोरारव श्रारव रव छायौ, सुरज ससि मंब्छ गरव्वित गहाय । -- ॐ. का. ५ गजना, नाद । उ०--१ धनु भंजन रौरव घोर घणौ, विचछछायौ है मड ब्रह्मांड तणौ । -- गी, रां, उ० २ धरतीजुप्रथी तंसीस्यांमजु तर ब्रक्ष 1 जदधर मेघ गरज रव कीया । श्राप में भिद गया द्यै। लपटाय रद्याद्चै। --वेलि टी. ६ महीन धुनि, रज, गदं । उ०--१ गडि गडि गोद्धा नाछ्छि, विज खड्डं किरि श्रंवर ! श्रगन वाण उखं, योम धूहा रव उन्भर। गु. रू. वं. उ० --२ देसौत रवां धोय हाथ ऊजा कर विसायतां ऊपर विराजमान हवा द्य । --रा. सा. सं. ७ कणा, जरस । उ० - व्याकुटत भमंग॒ रव वदत धूदी रवण, शुर' रौ चटं तिण वार गजसाहु' । - ~-कत्यांणदास महद रू. भे.--रउ, रय । ८ दो लघु गणाके दुसरे भेदका नाम। & एक द्योटा कीडाजो पश्युप्री के शरीर पर चिपक कर शक्त चूसता रहता है । १० देखो “रवि (रू. भे.) (श्र. मा.) उ०-१ जमनाजा गंग मिषी, गंगजा मिद्धी समंदां। ग्राभा भरिया इद, साख पूरी स्व॒ चंदां। --महारांणा राजसिंह रौ गीत उ०-२ पग हाथ पड नस माथ परख, सग चाव सुरां रवं दाव लखं । श्रंग एक धकं तडइफं म्रसुरां, सिर चीर नरां व्रण सेलं सरां । --रा. रू. रवक~स्‌. स्वी.-१ वह स्थान या भरूमि जहां वर्षा का पानी एकत्र होने के कारण घास ग्रच्छी होती है । २ पेरंड काव्रक्ष । रवगा-सं. स्त्री. [पं.] नदी । रवजा-देखो “रविजा' (रू. भे.) रवण-सं. पू. [सं.] १ ञ्ट। २ कोयल । ३ फुल) ४ कासा नामक घातु] ५ पीतल । ६ शब्द, ध्वनि, श्रावाज, बोली । र उ०--१ हान हमस हंसा रवण, घणा दर्मा भरी धुरं । (ह. नां. मा.) (अ. मा.) रवण गजि लिया जाकोर गढ, चदियौ हय गय पक्रं । ` | --गु. <. वं, ७ धूलि, गदं । उ०- गदल व्योम ढंकं गरद, रवि लुक्कं धुरा रवण । अ्रालम्म प्यांणौ एण पर, कोप तेण भल्लं कवर । --रा, रू. ८ विदूषक । वि.-१ शब्द या श्रावाज केरनं वाला, शब्दायमान । २ चिल्लाने वाला, पुकारने वाला । ३ उष्ण, गरम, तपा हन्ना । ४ तीक्षण, उग्र । ५ चंचल, चपल । 5० भे०~-रवन्‌ । रवणक्र-सं. पु. [सं.] उट 1 (डि. को.) रवणरेती-सं. स्त्री.-यमूना के किनारे व गोकुल गांव के भ्रास पास की रेतीली भूमि) रवणि-सं. स्मी.-वनस्पति विद्ेप । उ०--रावण रंग रतांजणी, रवणी नद्‌ सद्राख। रुक रुदती ` रायसलि, रोहड रोहिणी लाख 1 --मा. का. प्र. रवणौ, रववबी-क्रि. स.-प्रावाज, करुना, योलना । रवओ-देखो ^रावत' (रू. भे.) रवतांडव-सं. पु. [सं. रवि ~+तांडव] १ सूर्यं का नग्न नृत्य, प्रलय नृत्य । उ०- कनकटल दिलीस काज, वै सरांवत परत वं । रकग्यो देखो राज, रवतांडव ज्यू राजिया। --किरपारंम २ नृत्य श्नौर संगीत, नाच-गान। रवताणी-देखो “रावतांखीः (रू. भे.) उ०--एक रवतांणी एक खतरांणी नारि । दोनां को व्रमलरावे राखी यक सारि । रवतारई-देखो !रावताई (रू. भे.) रवताघछ, रवताण्ौ-देखो 'रसवतारी' (रू. भे.) ` उ०--१ रां नजदीक जो होत रवताव्ट रिण, पिसणचौन लागत दाव पूरौ । --श्ररजुनरसिह चरू डावत रौ गीत उ०-२ भरामः तणौ रिणद्ोड रढाष्ां, धांधू वधि वाजण | धाराछ्ठां ! 'सुदर' सुत 'सांमत' सघा, "रणायर' 'लखमणः रवताला 1 -स. रू. उ०--३ इरा श्राभ छाव उड वघूढा गिरंदां वाढ, दाव घाव करदं कराद्धा जोम दीठ। श्रादेसां छाकियां जडं प्रठं काठ वाठ्रा श्राव, रवताक्ा ऊभा फोक खावें श्राकारीठ। --हुकमी चंद खिडियौ ! | रवत्तेस~देखो “रावतेस' (रू. भे.) ४०६५. -रि ( व रहि रवतौ-देखो ^रावत' (ग्रल्पा., रू. भे. ) उ०--१ पड वेध कूरम जदे रांण छठ "पीथो, खमा सर वीज जिम वहै खवतौ । जागरण भड़ा, भड़ छूट गोटां जरे, सूक भंड ङंडंहड रमं रवतौ । --उसर्राम रावठ उ०--२ सलह्पुर सज वज मंत्र पटी ग्रसटी सगत, खीज चत सांमटी वीज खवतौ । यर गढां जटी खग तोल श्रायौ श्रजन, रुद्र प्रेकादसी हटी रवतौ । --वद्रीदास खिडियौ रवत्ताट-सं. पु.-१ घोडा । २ घोडंकी टाप। ३ ग्रोद्धा, वीर । उ०-रवताढटा ग्राकारीठ --हकमीचंद सिडियौ भोक खावं र्वद-देखो “शद्र (रू, भे.) उ०--१ रगतासुर आगै रवद, भेशछा होय भुजाढ। सांम॑द्र मांह सपरत, नदियां मिद्धं निरा । --मा. वचनिका उ०--२ "लखौ' 'महेस' कटै विध लाखां ! रवद ग्रवंव वंध जिम राखां । --रा. . उ०--२ भ्रासक्रन तरणो "वीर्ढ' तणौ कटै एम, पात रदपार ग्रहियां खड्ग पांण। राजरी थापियौ राज न लहै रवद, धणी म्हे थापसां जकौ जोधांण। --चां. दा. उ०- ४ रवद "पिराग' देखि चिव रीधा । उरा श्राय गंग तटि- दीघा । --सू. प्र. रबदांण-देखो षड! (रू. भे.) | रवदां राव-सं. पू--यवन वादज्ञाह्‌ | रवदाद्ध-देखो “रद्र (रू. भे.) उ०--उजवक परजदियौ भ्रंग भ्रंग । रवदाहठ कीध चख चोट रंग । --सू्‌. प्र. रवहू-देखो “सद्र (रू. भे.) उ०--१ रंज "रतनागिर' देखि रवद, निसांण रुडं सहि वाजिव्र नह 1 --वचनिका उ०-२ पायं काढी छेडियी, दिल्ली खुद रवह्‌ । दुवौ म्रकव्वर प्रप्पियौ, हुवौ नगारे सह्‌ । --रा. रू. उ०--३ चतुरंग सेन श्रसंख्यां च्ल, हेमाचट्ट परवत किरि हत्लै । देम दगग्गे सेन रवद, किरि अछटिया सात समह्‌ । -~गु. =, व. उ०--४ सकज्जां श्रासुर संभ निसंभ, रवां नाथ वरं तिय रम) रवदि-देलो ' (रू. भे.) श. उ०--वजवाडउ कोठी सहर वेव, हालिया हृदय श्रागी हरेव । रय ५०६६ (1: िः [1817 त 7 त [0 ए श स, | 1. ऋ, १ ५ ५2५ न त ~ 0 वि क ५५ क ज कैक [मी 40 को$ = ४ पज नि कत द -9 क दम कभ, ८22 पोऽ मते-जनध, 2.६१ १1) गी ॥) प्रयेति । सदरिगण, गार्दराग । ८ गमी श्या" (>, भे.) रयानमो-म. स्यो. [का. रवनमी परम्म यने प्ख मत, प्रम्थानि 1 [॥। नामिया समांसा सीह नदि, रणतूर यदि पागर रयि । --रा. ज. भी, ५५५ रवद्र- देषो "रद्र (८. भे.) उ०~-विन्है दद प्राहरता यगाढ, रयद्रं रप दृप्‌ रगप्द्ध। षका पुडि पूज धुव प्रसर्माण॒, श्रदव्भत उकृद्धियी ग्रासंगा । --गु. स. च, रयाना-पि. [पत ग्यम] १ पसनद, प्न्य ऋदु युष्या | २ विदा टका एमा) ३ भेता हमरा, प्रचित 1 व्यानो. पू. [प्ा. ग्यानाु १ वृत, प्रमाय, प्रन्नः 1 २ यट पत्र निभतं धम्यानं स्मकं षान द्री मई) ६ यदु षमत शमम ओने दानि प्प माव म गपौन वविन्थि) ८ निनीयन्युङे याय मेती तमि पापी तुम द्वाहि मो रमर र< ने<-नेवद्नी | रपा-नि. [पा.] १ उनि, यिति उ०---टिमित हन ममाय 3, नमानि श्छ द | २ देयो ग्र (<. भे.) रवन- देसो रमण (रू. भे.) उ०---रासा मीत भगी रवन, युदर रिणा जीती भग) दिमीयद् भानि श्रावं दुरस, दम भिम गभ श्रागछ्छि भ्रम । --मा. यमनिः रवनांमी-देसो ^रचिनामी' (२, भे.) उ०्-श्रर कुजर दावं प्रालरियो, पिद मामी ्मर्छीकां पाड । सरग हुयौ हिमो मुर हय, चंद ममं रवर्नामौ नाट । --मानौ मादू रवनि, रवनौ-देयो 'रमरी' (र. भे.) रवन्नौ-देसो ‹रवानो' (स. भे.) रवमंडद्-~देपो ^रविमेड्ढ (स. भे.) रवमुखी-देखो ^रविमृमी' (स. भे.) उ०--उह्डहत कसम पूरत पराग, पत्नय दये पद्ध जय जाम) रवमुखी दाव्रदी पून परछास, नाफूरमा परगस प्राग पात्र । --मयारांमदन्मीसै मान रवरवौ-मं. प.-्ोलचाला, दवनदयवा, प्रभाव । ज्ू~प्नवार गरं मँ तावरौ रवरयौ है) सोगांने ताव भ्रार्वं। रयराया-वि, स्वी.-पृकारने पर्‌ दया करने वाती । दयालु । २ निष्ठित, प्द्िति । ३ जादि, प्रमद । ८ प्रनिद्ध, मदाटुर्‌ + मं. मी. [प्ल. नया] १ रमम, सोमा। { उ०--ननत रषा गद्रयान्‌ नमै, मारवा दतिदि। यि गुर वरदार्‌, कर्‌ एलमास भगकरि ! २ परम्परा, श्द्धि, प्रभा। १, भ्य २ एर्स्थ, पलपन, ममा] ० -- तर्‌ धवन हसन प्रज मी पीपा २,०००००} मटै मृतौ दग नु दीपौ प, न्पीया ५,८०८०९) लऊप्जतां री टीट छ । पर्छ पातमाहजी श्राप गाततिपजी नृ छएूरमापौ एतौ माजा रीर्या रगो] ---रम गनी ४ दया, कृषा । उ०--रवराया किहदटी परि री्ज, फतीप्रांसी भ्रादेय फसीर्जं। देवौ देवी रिवि खिचि दीजी, विहि कि श्रम्हां निरि मया करीजौ। -पी. मग्र. रचवंसी-दरेसो ^रविवरेमी' (र. भे.) उ०--चवतां राम मु्खांणा गयौ चव, भव दुख काट कीषभव्र) लव लागां किर राम रसण सव, रववंसी एम वहै रव। उ० चाट नियाडं उतत पाव यिय, स्याय कनया कर भिमर्‌ नर्स । सर्य तट र्मदर्षसी म्ण, राम रथा कर रम र । | | । | | | | | | ~~ मनम प्दष्‌ | | | --र. स. --मटारांणा दमीरसिह रौ नीत रवस-दसवो ^रहस्य' (<. भे.) , र्ू^ भेण्~र्वां। उ०--मारकंड रिख वाणी रवस, कही तेम जचद कद । | रयाकातर-स. न्यी.-स्यएगोसे के काम मे श्वाने चाना ले का एक भगवती भजन मोटी मगति, प्रासं सतां ऊमदै। उपकरण या भ्रौजार, जिसमे सोने चदीकेतार केषएकदही नष --मा. वचनिका कै द्योटे छोटे दके काटे जते है । रवसुत-देखो “रविसूत' - (रू. भे.) (भ्र, मा.) रवाकी-वि.-रटने वाला । | रवा-सं. स्यी. [फा.] १ प्राण । रयाड़ी-देरो "रवादी' (रू. भे.) २ वायु, प्रास चायु । रचाज-देसो 'स्विज' (र. भे.) वि.-१ श्रभ्यस्त । रचाडी-देगो 'रवाद्' (रू. भे.) र्दादार्‌ उ०--१ युख भरि वरस वहु वउलीग्रां, करी न सक्यड प्रासाद रवाडी गयि सांभरिउ, मनसिड धरई विसाद! -कल्यांणं उ० --२ वारे दरवाजे लोह्मि पोलि, जिसी रमलि कीजडइ रवाडी तिमी एक भेली वाड" । ~व. च. रवादार~वि.--जिसमे करण, दाने या रवे पड़ हों, दानेदार । रवायत-देखो ^रिञ्रायत' (रू. भे.) उ०- राजा कल्यी-जा घास न कोरड री निचिताई कौधी तो म्ह थासू' निपट धघणी गोर करिस्यां, हासल मांह रवायत केरस्यां । ---कहवार सरवहिया री वात रवाठ-सं. स्वरी .-देखो 'रवाठ' (रू. भे.) । -रवाढी, रवाष्टो-स. पु.-्राभ्रूपणो पर खुदाई या नक्कादी करनेका एक लोहे का प्रौजार, कोला । । रवि-सं. पु. [सं.] १ मू, ग्रादित्य । (नां. मा.) उ०--१ पत्र युवारं जोगणी, माठ सुवारे रभ । थभे चतेवौ सोम रवि, पेखं व्यौम अ्रचंभ। --रा. रू उ०-२ मिः श्रंग उत्तंग ब्रहमसि समा 1 रवि वाहुण रेवत सोह रमा । -- भा. वचनिकरा उ०--३ चन्बाड कूत चतां धणी चापड, रौद घड़ पद्छाइ ग्रचल , राखी । जीवतां -सिभ महासज वणियौ “जसौ समर चा करं रवि चंदसायी। --गु. <. वं. । २ श्रगिनि) रू० भे०~-रवि, रवी, रवे, रवी । ३ नायक । ४ जयद्रथ राजा का दोटा भाई। ‰ धृतराष्टरकोा एक पत्र । ६ स्गण॒के हितीय भेदका नाम (ऽऽ) (र.ज. प्र.) ७ वार्ह की संख्या । % (डि, को.) ८ श्र्लोक का वृक्ष । ६ श्राक। रविग्र॑स-सं. पु. [सं. रवि ~-्रंस] १ सूर्यं काभ्रंड। २ देखो ^रविवंस' उ० --कमधां गुर ऊसस वेण कँ । रविश्र॑स श्रजे धर सीम रहै, । --पा. प्र. रथिश्रंिय, रविश्र॑सी-देखो "रविवंसी' उ०-- कवल पत चरूटण वैण कल्या, रविश्र॑सिय श्रोठेम प्राय रह्या । --पा. प्र. रविउद, रविऊगे-सं. पु. [सं. रवि उदय] सूर्योदय । उ०--्राया रविर्गे "गोदंदः ऊपरि, ताता लोदी रातिमिया। प्रसि छौड रकेवां कूत्त ऊपाई, वाराठां काठं विया । "द्ध यु ) म्र 9 व ५ रधिोग रविकर-सं. पु. [स] सूयंकी किरणा । रधिकांतमणि-स. पु. [सं.] सूयेकान्त नामक एक मशि विदोष । रचिकिरण-सं. स्त्री. [सं.] सूयं की किरण, भ्रकाय । उ०--गई रविकिरण ग्रहै धई गहमहु रहरह्‌ कोद वह रहै रह्‌ । सुजु दूज पुरा नीसरे मूतौ, निसा पड़ी चालियौ नह्‌ । --वेनि रचिकुट-सं. पु. [सं.] १ सूर्यकुल । २ एक क्षत्रियवंश । रविचचल-सं. पु. [स. रविचंचल] कारी मे लोनाकं नामक तीं स्थल । रविचक्रं. पु. [सं.] १ सूयं मण्डल । २ सू्यके रथ का पहिया, चक्र" ३ फनिन ज्योतिष के प्रनुसार मनुष्य-गरीरके प्राकार का एक चक्र । ४ एक की सख्या । (ड. को.) रविचक्रतवछ, रविचक्रतेलि-सं. पु. [स. रवरिचक्र तलम्‌ | पृथ्वी मंडल, भूमंडल । उ०--१ साभि तिपुर संकर जिसौ, वांमण चपि पयाछ वल्धि। गजसिघ भीम गोडच्वियौ, तिसौ दीठ रविचक्रतछि । --गु. रू. वं. उ०--> उचरद विश्र एरिम वयण, लोग च्रिण्ट्‌ जीता तिरी । इसी नहीं रविचक्रतलि, महं नवे खंड देख्या फिरी। ~प. च. चौ. रविज-सं. पु. [सं.] १ गनिर्चर । २ यम। ३ कणं । ४ वालि । ५ सुग्रीव । ६ वैवस्वत मनु । ७ भ्रदिविनि कमार्‌ । रविनकेतु-सं. पु. [सं.] पृच्छल तारा जिसकी उत्पत्ति सू्यं से भानी गई हि। रविजा-सं. स्वरी. [सं.] यमुना नदी । रू० भे ०~-रवजा । रचिजत-स. स्त्री. [सं.] सूये की किरण । रविजोग-सं. पु. [सं रवियोगः ] सूयं नक्षत्र से चंद्र नक्षत्र तक ४/६९/६/ १०/१३/२० वां नक्षत्र तक वनने वाला योग । उ०--सिद्ध जोग रविजोग, सुद्ध दिनमान सह॒ सिसि। दिसा सूठ धय पठि, वदं जोगि वांमीं दिति | वि. वि-यह्‌ योग सव दोपौं का नाश करता है । (श्र. मा.) प्तः गु. ८, वै | 1 ५४ रवितनय रवितनय-सं. पु. [सं.] १ शनिक्चर्‌ । २ यमराज । ३ कर्णा । ४ वालि) ५ सुग्रीव । ६ वैवस्वत मनु! ७ ग्रहिवनिकुमार । ८० भे ०--रवितर । रवितनया-सं. स्त्री. [स.] १ यमूना नदी) २ सूर्यकी कन्या । रवितनूजा-सं स्ती. [सं.] यमृना नदी) रवितणं-देग्वौ ^रव्रितनय' (रू. भे.) रविणाव-~सं. पु. [फा.] पारसियो के प्रनुसार, मध्यान्ह्‌ का समय, जो १२वजेसे ३ वजे तक मानाजातादहैश्रौर टस समय वे दरूमरी वार नमाज पदमा करते ट। (मा. म.) रविदिन, रविदिवस-सं. पु. [सं.] मप्ताहु षा प्रथम दिन, रविवार, ग्रादित्यवार । रविनंद, रविनंदन-सं. पू. [सं. रवि ~+-नंदन] सूयं कां पुत्र । वि. वि.-देखो "रवितनयः उ०--१ ब्रहुसपति भवन दस्मं वखांणि। जिण हीज भवन रविनंद जांसि । --सू. भ्र. उ०--२ वप्पीह्‌ड जं महि कृद तिशि, नामिदं सहिर्नांण । ` रथिनंदन सहि नाम ह्लुड, कहि संतोस सूजांण । -- टीराणद सूरि रविनंदिनी-सं. स्त्री. [सं.] सूयं कीपूत्री, यमुना नदी। वि. वि.-देखौ ^रवितनप्रा रविनांम, रविनांमो-सं. पु-१ पेदवय, वैभव । उ ०--सुक्रिया भि जथ श्रनेक करं मुव 1 रविनांम नर्द सुरद तण रुव । --स्‌. प्र. २ प्रताप, शौर्य, कीत्ति। स० भे०~-रवर्नामौ । रचिपुत्र, रविपूत-सं पु. (मं. रवि पुत्र] मूर्ंकापृत्र । वि. वि.-देपो ^रवितनयः उ०--दछगां छगां घरि नगा, चद श्रासणां महावन ! राहसरूत रविपूत, धूत थापछिया धूरत । --मू. प्र. रू० भे०--रवीपूत । रविवंसमनि-सं. पु. [सं. रविवंमणि] मूर्यवंण का रत्न । उ०--प्रवल प्रकार तेज मानि" र्विवंसमनि, ताकी त्रासे सिवये जवन देस चरकं । ` --वां. दा. रविमंड-सं. १. [सं] १ मूके चारोग्नोर दिखाई देने वाता मंडला ४०६८ 1111 रि कि १ गदविदुता 8? क त ` का 1 {श त 1 ) 18 ष । क 19. 1 [1 [रि 2, 7 1 फार लान गोता, रवित्रिद्र | २ सूर्यं करी प्ररिधि। उ०--१ एक गया भगवा, गामि छन मेन्दै कुढ श्र] हैक मृगति साजोन, गया मेदे रविमदट। --मु.र. व. उ०--२ नहीं गया, मांच मृवा, रविमंदृष्ट र गे} जूक मवा रण म जिकर, गत-पंचमी गया --र्ा. दा. उ०--२ चहुयां चक्चरूरगा चुरण चदनी, मसनत महिर्म॑र् नम मंठद मदी । रेणु" रविमंङ् र्समी स्य॒ रोकी) तन मन प्रज कपत ढापत्त त्रयलोकी । --ऊ. का. ` रू० भे९ ~ रवम 1 रचिमणि-सं. स्री [सं] सूयकांत मशि। रविमुखी सं. पु.~-सूयमुगी नामकः पन । रू० भेऽ~रवमुगखी । रवियोडो-भू, का. ग्र-बोला हुत्रा, ग्रावाज क्रिया हुश्रा। (स्वी. रविग्रोदी) रवियो-सं. पृ. (नं. रवि ~-रा. प्र. यौ.] सत्ताईम नक्षत्रम मे कौ एक या प्रत्येक, जिसपर, मामकी कुंद्धश्रवयि [प्रायः १ मे १३ या १५ दिनतक) सूरये ग्थित रहता) मू्थंवे प्रभावं र्न वाला नक्षत्र । वि. वि.--दैमी नक्षत्र" ॥ रविरारई-सं. पु. [मं. रचिराज] सूय, रवि । रविवंस-सं. ¶ु- (सं. रवि्वंल | सूर्यं वंदा नामक एक क्षत्रिय वंदा । उ०--जगमें वम उग्र गुण जोट । करत रविव ममौ नह्‌ कोद। --रा. स्त. रविवंसी-वि. [सं. रवि-क्नी] सूर्यवंशी । ० भे ०--रवर्वसी । रविवार, रविवासर-सं. पु. [मं.] प्रत्येक सप्ताह का प्रथम दिन, जौ दनिवार कै वाद य सोमवार से पहले प्रत्रा) ` (रा, <.) रविसंकरांति, रविसक्राति-सं. स्त्री. (सं. रवि संक्रांति] सूर्ये का एक नक्षत्र मे दूसरे नक्षत्र पर जाने की अवस्था, सूर्यं संक्रमण! (ज्योतिष) रचिस-सं. स्त्री. [फा. रवि १ गति, चाल। २ नेली, तजं । २३ व्यवहारे, वर्तावि । ४ नालचलन, भावरा । रविसारयी-सं. पु. [सं. रविमारथि] सूरय रथ का सारथी, श्रु । रविसुश्रन, रविसुत-सं. पू. [सं. रविसूनु, रचिसुत | सूयं का पुत्र 1 चि, वि.--देग्वौ ^रवितनय' (ह. नां. मा.) ० भे ०-रवसूत, रवीयुत । र्वियुता-सं. रत्री. (मं. रवि{-सुता| सूर्यं क्री पुत्री, यमुना। षे रवद उ० --पुलिण रविसुता फटरावजं पीत्तपट, ग्राव रासथक व्रजनाथ ग्राथ । कान कवार विहरि गी ब्रन कूज री, सुभ री कीजिय लाउली साथ । --वा. दा. रवीद्‌-सं. पु. [सं. रवि +-इंदु] सूयं, चन्द्र । रवी-स. स्त्री. [देश.] १ गेहंके श्रटे को थोड़ से धी में भूनकर उसमे गुड़ का रस डाल कर पकाया ह्राः तरल हलुवा या पेय पदाय, गुलराव । २ देखो ^रवि' (रू. भे.) उ०--१ दिवं मेष सोभा इत्तौ भाठ छाज । स्वी पंतदे कुड क्रांति राजं । ---रा. रू उ०--२ हालिया एहडा धेर वकी घड़ा। रज्ज उदु रवी वोमतं धूव्छं । -सू- प्रः रवीपुत-देषो “रविपुत्र' (रू. भे.) रवीसुत-देग्बो ^रविसूत' (रू. भे.) रवेची-सं. स्वी--चारणकूलोत्पन्न एक देवी । उ०-दगरारौ मया तु द्गाय, रवेची तु ही नागांणराय। धूमड़ं ज्यान रतूज घाम, तमड तु हीज दुगरचतांम --रामदांन लालस 5० भे°-रवंची । रवेण-देखो 'रिवाज' (रू. भे.) रवेस-सं. प. [सं. रवि [ईस] १ सूयं । उ०--वामी दिस "वखतेस', जड मेडतिया जीमिणी । प्राफाड़ा साम्हौ श्रभौ", राजा मइण रवेस । --रा..२ ९ देखो ^रह्वास (रू. भे.) उ०- वसी तरी दहडी रेस, पहिरंति रजत ग्रहणा प्रेस । पीतलि सूद्रि रं सदा पासि, पंडिति एम कहि्रौ प्रकासि 1 --ल. पि रद॑-सं. स्तरी.-१ गाय, भैस भ्रादि मादा पयु की ऋतुमति होने कौ म्रवर्या 1 २ चेत या भूमि की, जोतने के वाद वौवाई योग्य होने को दशा । रवौ-सं. पु. [सं. रज, प्रा. स्र] १ किसी पदार्थं का छोटा कण, दाना, दाक्कर श्रादि का दाना) २ घुशुस्ग्रोंमे डाला जाने वाला छरा। रस-सं. पु. [सं.] १ किसी वस्तु का सार, तत्व शोरवा, जुस । उ०--श्रमलांरौं "रर कांदा रौ, रसः घर घर छण लागौ कूजडाःरा भाग खुलिया पण खुलिया । --फुलवाडी २ खानेकी वस्तु का स्वाद, जायका । ३ चस्का, स्वाद, लगाव उ०--धूरत दे धोखा बोडा वोखा, चोखा रस नाखंदा है । ॐ. कृ. ४०९६. रसं ४ श्रानन्द, हेपे,.खुशी । उ०-१ धरणौ रस रहियौ वडा बधावा हश्रा । --गौड गोपाठदासं री वारता उ०--२ री सांभढर राग, भीजं रस नह भचकं । नडी श्रावं नाग, पकड़ीजं छावड पड । --वां. दा. † उ०-३ साथ सग न सिरपाव दै, छोटां-मोटां सहं ने याद करि विदा किया । वड रस रदौ) --पलकदरियावे री वात उ०--४ रितु किहि दिवस सरस राति किहि सरस, किहि रस संध्या सुकवि कटंति । वे पख) सुवति विहं मास वे, वस्त ताइ सारिसलौ वहंति । --वेलि । ह ६ प्रेम, ्रनुराग, प्रीति । उ०--१ दृरवेस गयौ पतसाह दिती, उड मूखियभरूखिय वात दसी । सुणतां कमधां दक मान सही, रस वाध थयौ निस ग्राव रही । रा. ू उ०--२ तरे कल्य, भीवाजी, घरे सिधावे, पिण इण जखडा रौ सेत दिखावणौ पड़सी । नही तर थांहरं न माहरे रस रैली नहीं 1 --जखडा मुखडा भाटी री वात उ० -३ सु रांणा सुरजन रौ-वडौ वेटौ मोहिल, तिण सू सुरजन मयान करं। मांहौमांहि रस. काड नहीं । नं मोहिल वड रजपूत, मु वाप सौ वण, नहीं । --नणसी उ०-४ प्राप सूणौ जान करनं वेटं समधडं नू परणावणनू हालियौ । भली भात सू परणायौ । सगां चिहुंवां वडौ रस र्यौ । --पीव्वं चारणारी वात ७ रति क्रीडा, काम-केलि, संभोग 1 उ०-१ रमतां जगदीसर तणौ रहसि रस, मिथ्या वयं त तायु महै । सरसं रुखमणि तणो सहचरी, कहिया मू' मै तेम करै । --वेलि उ०--२ कुण जांणं रहियौ कठ, रस रमतौ इण रात । हारयौ थकियौ प्राइयौ, कीन्दि कच्‌ न वात । --जलाल तरूवना री बात ८ किसी विषय कां ग्रानन्द । ६ सुख का श्रनुभव, सुख । उ०-१ वरियांम ग्रहुमंद वाद, श्रमल जमावियौ। जिम श्रणवार, इछ रस श्रावियौ ।“ -सु. प्र. उ०--२ नकौ रस भागी नको रहत ॒न्यारा, नकौ श्राप हरता. न करता व्यौहारा । --्रनुभवर्वांणी १० काम-वासना, कामेच्छा । ११ मौज, मस्ती । उ ० --भ्रवे जलाल सादहिव नितका बुवना र॑ महल जाव । चार पिथ भप श्म ~~] ७७० पहर रत रमं घेत । धरणौ घणौ राग रंग रस होवं। । -जलाल वूवना री चात १२ उमंग, जोश, उत्साह, मनोवेग । १३ यौवन कालमें श्रनुराग का होने वाला संचार । १४ इन्द्रिय सुख) १५ मेल~जोल, मेल~-मिलाप, ताल~-मेल । उ०-१ मूसाने मंजार, हित कर वंढा हैकठा। सव जाणें संसार, रस नहे रहसी राजिया। --किरपारांम उ०--२ कीधी वहु पहिरावसी, राजवीयां नंरंग। रस रास्यौ जस संग्रह्यी, वाध्यौ प्रेम श्रभग । --सीपाल रासन उ०--२ तद पातमाहजी राजा वीख्छदाम र. उरं उजीर वमगसी उजर्वां नू मेलिया । प्ररुखरचनू रुपिया लाख दोय दराया प्रर लोदी खांनजहांर गौडांरे रस रर्दनहीं। -द. दा. १६ माधूये। १७ श्रनुराग, दया प्रादि कोमल वत्तियों के वशमेंरहनेकी ग्रवस्था या भाव। १८ इच्छा, भावना, भाव । उ०-वाजोटा ऊनरि गादी वंठी, राजकुश्ररि सिगार रस। दतर एव श्राली ले श्रावी, श्रानन भ्रागच्ि श्रादरस। -वेलि १६ साहित्यमे वह श्रानन्दात्मक चितवृत्ति या श्रनुभूतति जो विभाव, प्रनूभाव श्रीर संचारी मे युक्त किसी स्थाई भावके व्यंजित होने से षदा दोती है। २० साहित्यमे मानेजाने वनि दण रसौमेसेकौर्ईण्कया प्रत्येक । उ०--१ पत्र ग्रक्छर्‌ दछ्छ दढा जसम परिमर, नव रस तंतु त्रिवि श्रहीनिसि। मधुकर रसिक मु भगति मंजरी, मृगति फन फठे भुगति मिति । - वेलि उ०--२ प्रकठ ब्युमांणा यर्‌ रजी श्रवद्छादयौ, वाजै रस ग्रवागदछछ प्रब्रढ वाजा । फौज प्राग गजां वरग धजां फव, राज पंथ सुरगां सीर राजा। --गू. <. वं. उ०--२ घण पर्‌ तहवरखांन श्रहछायौ, विचित्र हुकौ लडतां रस वायौ । सिर हहिदवांणा तर रीसायौ, ग्रीरम पीट लगेहीज प्रायी। --रा, र्‌ २१ मृन्दरता, मनोनता, मनोहरता । २२ तौर, तरीका, ढंग 1 २३ गगा, विशेषता, महत्व } २४ गरीय्थ सप्त वातुग्रोंमेंम प्रथम व्रतु] २५ रक्त, रविर्‌ । उ०~-कमरु पर भार्‌ पट दं रस कचरफां, मचरकां सेस रा टलं माथा} ~~२्‌, म्र रस | २६ प्राणियोके शरीर से निकलने वाला कोर्ट तरल पदार्थ, पसीना श्रादि। २७ कोद तरल पदार्थ, जल, पानी । उ०-धरती राक्णाक्णमें हरख समायग्यौ । पान पानमें रत सांचरग्यौ । -- फुलवाड़ी । २८ किसी वनस्पति को वूट-पीट या निचोडइ कर निकाला जाने वाला जलीय प्रण] । २६९ शराव, मदिरा, श्रासव । २३० विप, जहुर । ३१ श्रमृत । उ०-१ राम नांम रस वेलडी, जन हरीया सीचंत। ऊगे ती हरि त्रम र्मे, विद्धं नहीं जावेंत । --प्रनुभववांणी उ०--२ मंत्र वंसीकर्‌ मानले, वाणी रस वरसंत । प्रमति वीणा प्रगट मुर, कोयल लाज कर्त --ग्रग्यात ३२ वीयं | २३ पारा । ३४ गोरस । उ०-गोरस लीजे नंदलाल, रस मांगौ रस्र लीजै । ३५ ` गंध रस । ॥ ३६ शिलारस । ३७ हिगल 1 | २३८ मोती | (ग्र. मा.) ३९ कोई खनिज पदार्थं | ४० धतुग्रौसे फूुक कर तयार किया हूश्रा मस्म । (वैद्यकं) ४१ घी, घृत । (ग्र. मा. ह्‌. नां. मा.) (डि. को. -मीरां उ०-खप्परभश्रो भैरव खप्पर भराप्रुः चापसी। जे उपर श्रो भैरव ऊपर रस रीजीघार। -लो.गी. ४२९ वह्‌ ग्रौपवि जो पारेयाकरिसी वातुकेयोग सेवनीहौ। (व्यक) ४३ उत्तम खाद्य पदार्थं | ` उ०--घानि पांणी रस चोरिया, ते भट्ट सिध क्षे्रौ जी। सत्र ज तलदटी साव नडं, पडला भट सघ चितौ जी । -स. कु. ४४ गूदा, सिगी] ४५ वनस्पती 4 , उ०्-गो खीर स्रवति रस धरा उदगिरति, सर पोदणिए धर सुखी । वी सरद स्रगसलोग वासिए, पितरे ही अत लोक प्री । --वेलि ८६ व्क्षोके तने या शरीर मे निकलने वाला तरल पदारथ, गद श्रादि। ४७ घोडे, उंट या हाथियों का एक रोग विलेप, जिसमे उनके वते रस से जहरीला पानी निकलने लग जाता हे । क्रि. प्र-उतरगाौ । ४८ मिश्री, गक्कर्‌, गुड ्रादि का मीठा पानी । ४६ स्वादिष्ट पदाथ । ५० चटनी, ममाला 1 ५१ गुण, तत्व, रूप, विगेपता । ५२ उक्त टृष्टिमे कोई वर्गे, विभाग, तरह्‌, भांति) ज्यू -एकरस, समरन । ५३ जीत, विजय । ५४ टार, पराजय (शा. हो.) उ०--१ राड गोठां री दूजे तीजे महीने हई, फौजां दोनू वडी जबरी सो रस खा्वं नहीं । --मारवाड रा श्रमरावां री वारता उ०--२ वडा प्रडपायत रजपूत घणा भाई । धरती सारी म॑ धाक । एकणा पास भादियां री राज । एकणा पासे जोढयां रो राज । एकण पारस सीहवाग, खीचियां रा राज! एक्ण पान पाहुरवा री राज । मटनेर मे पातसाही यांसौ । इतरां रं वीच खरढ रह, राजस कर । सो सारान्‌ रस ख॒वाय राणियौ। तंर पड़ी सारा संकौ राखे ` --कुवरसी मांखला री वारता ५५ ग्रानन्द स्वरूप ब्रह्म । (उप निपद्‌) 3 ५६ सेतया भूमि की जुताई के वाद वौवारईके योग्य होने वाली दणा । ७ फसल को परिपक्वावस्यां 1 उ०--"पाहड्‌' हरा श्रवर कुण पगे, “जुगत' ठया हामल री जौड्‌ । रस श्राई जांणी रजवाड्, रजवटः री ब्रेती राठोड। --लालरसिह राटीड रौ गीत ५८ पृथ्वी, धरती । (डि. को.) ५६९ वद, कावर, नियन््रण । उ०--१ सु कु वर 'जोगो' भोकौसो ठाकुर हृतौ । सु जोगा सु वरती रस नह भराई, नै चरती मांह महिलां रौ दखल हुवण लागी -नगणसी उ०--२ शेस" जीवतां धरती पातसाह रं रस पड़ी नहीं 1 --नणसी ६० कायरस्थो की एक प्रथा के श्रनुसार, मृत्तकर के पचे वारह्‌ दिनों तवः सगे मम्यन्धिसो को खिलाया जाने वाला भोजन जिसमं लपसी रोटी तथा चने या श्राव का साग होता है। (मा. म.) ६१ डिगल का एक मात्रिक चद जिसके प्रत्येक विषम पद में १६ व सम पद मे १२ माच्राएुः होती ह। ६२ दद शास्त्र मे एक लधु व एक गुरु का नाम) ६३ तीन लघुकै ढगण॒ के तृतीय भेद का नाम । (र. ज. पर.) (28. को.) ४०.७९ रसकपुर्‌ "जक ` [क पौण णी प ६४ रगा या सगण कौ संजा । ६५ छ की संख्या । % (दि. को ६६९ नौ की संख्या । * (डि. को वि.-१ कामयाव, उपयोगी । उ०--वाघ' कन्द सुरजजी री कही षोडां री वात थी तीसू चाह जिसौ घौडौ हुवौ पण "वाघ' करनं "रस हुड .जावतीौ --ठाकुर जेतसी री वारता २ श्रनुदूल, माफिक । उ०्-गधारेतौ रसर्वंटीड़ी वाण ही। म्फ नदी पांणीमें वटी । --एुलवाड़ २ नौ। दं! क्रि. वि.-१ वमे, कवने मे, ग्रघीन । उ० -१ सुण भूरसाह्‌' दछ्वठ सर्ग, राजा पौरसषू्परा। रत करे धरा गुजरात री, रायौ दक्र ऊपरा । --सू. प्र. उ०-२ सहर रा लोग कह्यौ-पातसाह्‌ रौ वडौ परताप, नवाव रौ वडौ भाग, भ्राज जगौ" ^रतनौ' मारां पातसाहजी रं गुजरात खरी रसं पड़ी । २ शीघ्र, जल्दी, तुरन्त । <ू० भे०-रसा, रसि, रम्स ग्रल्पा.--रसडी । रसउगद्छ-सं. पु.-वह्‌ पञ्चु जिप्के मुह से जुगाली करते समय रस नीचे गिरता हो । रू० भे०--रस श्रोगाढ, रसुगाटर, रसूगाढ । रसउत्तम-मं. पु. [सं. उत्तम~-रस] दूध । (डि, को.) रसउदमव सं. पु. [सं. रसडउद्धव] मोती । (ह. नां. मा.) रसउल्लाला-सं. पु.-२८ मात्रा का छंद विशेष जिसमें १५ व १३ प्र यति हती है । रसश्रोगाढछ-देखो “रसखउगाद' रसक-सं. पु. |स.] १ फिटकड़ी । २ देखो ^रसिक (<. भे.) उ०--१ रतज्यू दत जाचक, रसक जार्चवे कर जोड । ननौ भंणं नव नार ज्यू, मूट्‌ क्रपण मुख मोड़, --वा. दा. उ०--२ कही प्राजहूं पनरर्म दिन हरियाढी तीजरौ हंगांम है, जिण में राज जिसा रसक रिभ्वारांरौही काम है। --र. हमीर उ०-३ देव पितर इण सु उरे रसक तरं किण रोत। हेम रजत पातर हर, पातर करं पलीत । -वां- दा. रसकपुर-सं. पु. [सं. रसकपुंर] शुद्ध पारा, फिटकरी, सत॑घानमक वं कसीस के योग से वनने वाली एक रसीषधि, जौ रक्त चिकार --नणसी (ह. नां. मा.) (रू. भे.) रसरम नान ~~~ ~~ कुष्ठ, उपदंद श्रादि रोगोंमे काम प्राती है। (ग्र. मा.) रसकरम, रसकरम्म-सं. पु. [सं. रसकम्मे] पारे की सहायता से रसौपवि तैयार्‌ करने की एक प्रक्रिया 1 (वयक) रसफ-सं. पू-नौ मात्रा का एक मात्रिक छन्द जिसे प्रन्त मे" गरु होता हे। रसकस-सं. स््री.-१ स्वाभाविक स्थिति । उ०--उन्दाछा रे तपतं दिनां कासी रार्ठाव मेंखाटी छद, कचयच श्र उगटं ज्म वादछ रौ मन डौ उगटियौ के पाछौ रसकफस वठौ ई नी । --फएलवाड़ी २ सार्‌-तत्व) उ०--१ रसकस ती रस्तिया ते लियौ श्रव क्यु करं गिवार। --प्रग्यात उ०--२ रसकस्न दिवनी वरं, व्रइ ढोल्या र हैट 1 -फुलवाड़ी ३ प्रानन्द, मौज । उ०--काची केरी घर पकी, वाग पकी दहै दाख । पिय रसकसं दिन चार कौ चास सकं तौ चाख। --श्रग्यात रसफार-स. पु. [सं. रस~+कार] शराव वनाने वाला । उ० -सास्त्रकार, मत्रकार सुद्धकार उदीसकार ध्र्‌तिकार सूपकार करणीकार रसकार शीरकार सस्यक्रार, वस्वकार विभूसणकार पुतार्‌ प्रस्वनिक्षाकार...... --व. स. रस ङ-सं. पु. [स] प्रमृत का कुण्ड । उ०--राजा तपस्वी नू जगाय रसकरुड वतायौ । --सिधासण वतीसी रसकुछणी-सरं. स्त्री--घोट़ का एक. रोग विदेष जिसके कार्ण घौड़ेके शरीर पर वड ग्र॑थीदहौो ग्रौर उसमेंमे शून वहे । (शा. हो) रसकूपका, रसकूपिका-सं. स्त्री; [सं. रस कूपिका] योनि, भग उ०-जिसडी स्सकूपका जिसदी दी नाभ) म्रा श्रोपमा सरीग्ीः ठ्णमेटोटौन लाम) --र. हमीर रसकेि, रसकेी सं. स्त्री सं. रस~केनि| १ रति-क्रीडा, संभोग । २ दिल्लगी, हुसी-मजाक । ध रसफेसर, रसकेसरी-सं. स्वी. [सं. रस~{- केसर] १ कपूर्‌ । २ पारा, गन्धकः, सौग श्रादिकेयोगसे तंयार्‌ फी जाने वाली एके ओपयि । (वयक) रसग, रसगना रसगिना-स. स्वी. [मं. मन्ना] जिह्वा, जीभ । (म्र. मा., हु. ना. मा.) रसगाय, रस्गाया-सं. स्सी.-रसयुक्त गाथा, रमीली माथा | उ०-मोमतप्रमांगं कवि मछ कह्‌, मुक्वि वार ग्र॑धांण सुण । रसगाथ गीत पिगव् रच, गहर कटं रधुनाथ गृण । -र. रू. रसगुलियौ, रसगुल्लौ-मं. पृ.-गुलाव. जामुन के समान गोल ग्रौर्‌ चासनी मं षट एक मिठार्टजो दत्रे की वनती दै) ४० ७९ रसण क उ०-मिसरी मोतीपाक, भरट री इतरी श्वोडी 1 रमगलियां रं रूप, मधुर है, होडाहोडी । -दमदेव रसग्य-वि, [सं. रसज्ञ] १ कान्यःकं रस का ज्ञाता, काव्य मर्मन । २जौोरसकाज्ञाताहो, रस का जानने वाला । २ किसी विपय का पंडित । ४ पारदके योगसे रसायनिकःदवादयां वननित्राला । सं. पु.-१ समालोचकर । २ रप्ायनी | २ कचि । ४ वंद्य । रसग्यता-सं. स्त्री. [ख. रसता] १ रसन्न होने की श्रवस्था, भाव । २ पंडित । रसग्या-सं. स्वी. [सं. रसञ्चा] १ जीभ, जिन्दा । २ गगा। रसग्रथ-सं. पु. [सं. रस ग्रन्थ] १ श्यगाररसका ग्रन्थ या काव्य । उ०--कुमम तणा सर पांच कर, जगज्िश लीवौ जीत । ति. रौ सुभिरण करां, रस ग्रथां री रीत । -- र. हमीर २ वहे श्रथ जिसमें साहित्यिक रसो का विवेचन, किया गया हौ। रसघण-सं. स्वरी. [सं. घनस्सा{ इन्द्र की माया । रसघन सं. पु. श्रीकृष्णाचंद्र । वि०- स्वादिष्ट) २ रसदार, रसवाला । रसड़ो-१ दश्वो "रस" (अल्पा. ₹. भे.) उ०--१ मारव तणा ए ग्रोलंवा जाय वलाजी नेः कहु रे, थारी मारण पकी. वोर जिर । दोला रसंडौ चाखण. घर ग्राव, करहला घीमा चालौ राज । --लो. गी. उ०--२ मारवणतणाषणए भ्रोलंवा जाय होलाजीने कहीनेरे, थारी मारत्रस पाकी ग्रावा जिय । ढोला रसङौघोटण घर श्राव] छ --लो. गी. २ देखो ^रसोड़ौ (रू. भे.) रसचारी-वि.-रसन्ञ, रसों का ज्ञाता । उ०--मत सीं मंचवी, राग सीख रसचारी । सीख ध्रम कुट सकट, रीत सीख छत्रधारी । -- म्‌. प्र. रसजांणण-सं- स्त्री. [सं, रसन्ना] १ स्वादयारसका | श्रचुभवः करने वाली इन्ियं। ॥ (ग्र. मा.) २ जिब्हा (डि. को.) वि.-रसज्ञ.। रसण-सं. पु--१ सूयं, भागु । (ना. डि. करौ.) २ देन्वौ ^रसना' (रू. भे.) (त्र. मा.) उ०-? रसण निपाप करिस्न दम राघव) भरौ तुम गरा तारण रयाय [य दयि भव) --ह. र. उ०--२ चवतां रांम मुखी गयौ चव, भव दुख कां कीध भव 1 लव नागां फिर रांम रसण लव, रववंसी इम वहै रव । --र्‌. उ०--३ राखौ श्रार्म रस्ण रं, राघव नाम रसा । मुष माभ ग्रंणौ मत्ती, गिरां च्रत्रक ज्यू गाठ) --वरां. दा. उ०--४ मग मागर्‌ तजि मुद्ध भंमर कुण वेड घले । ग्रहि कमणा म्रोटवं कमणा रसण कर भल्लं । --रा. रू रस्णाण, रसणा-सं. स्त्री. [सं. रध्मि] १ किरण । करतां दिन घड़ी एक पाद्धनौ श्राय जाय पोती । --जंतमी उदावत री वात उ०-इसी भांति सामान र्यौ 1 सूरज रसणां मांहं र पृथ्वी । ३ क्षितिज 1 ४ देलौ ^रसनाः (रू. भे.) (डि, को.) उ०-१ जालम तखत कंचणा जांण्‌, पवरा पावड़ी निज पाण । राजाराम री रसर्णाण, प्रालम ब्रह्न वरती ग्रा । --र्‌. रू उ०--२ रसणा राम रट शम रट रमि रट । --र्‌. ज. प्र. उ०-२> वैरण रसणा वसः त्रसां तनताई। ्राभा प्रांगण री ग्रेन मांगण॒ राई । --ॐ. का. उ०--४ श्राततम ब्रह्म मंडा एक ग्रचंडा, विण रसणा गावंदा है । । --ग्रनुभववांणी रमणि-देखो "र्ना (ल. भ.) उ०--दग्रकार्‌ अ्रन्राहत श्रक्छर, सिद्धि बद्धिदेत्तास्द गुणोस्र । मंडक्ीकां मोदं कृषि मउड़ां, रसणि सर्वांस क्रति रार्उडां । --रा. ज. सी. रसणौ, रसवौ-क्रि. श्र. [सं. रसनं] १ पानीया क्रिसी द्रव पदाथं का धीरे घीरे वह्‌ना, रसना । २ टपकना, चूना । २३ रसमय होना, रसीजना, रर या स्वाद जमना । उ०-वंगद्धौएवोर, रसै ना मुरधरजेडा । खाटा बड़ निकाम मिटे ना सूर गदेड़ा। ` --दसदेव ८ वमे होना, कावर में दोना 1 ५ भ्रागक्त होना, श्रनुरक्त दौना । ६ प्रसन्र टौना, गृण होना । क्रि. स.-७ स्वाद लेना, रस नेना, रसास्वादनं करना । ठ चीना, चिल्लाना । उ०--वंवन देखी ससि सग सूकर मोक रसंत । पृच्छ प्र भ्राघोर्ण तोरण वारि पटुत । --जयगेगवर मूरि ०५७३ रसद ६ दहाडना, गजना । १० योरगुल करना, वोलना । ११ घ्वेनि करना । रसणहार, हारी (हारी), रमरि -- वि. । रसिग्रोडौ, रसि्योडौ, रस्योडी --भू. का. व्र. 1 रमीजणौ, रमीजवौ --भाव वा./केमं वा. । रसत-सं. पु. [सं- रसित] १ दव्द, व्वनि, ्रावाज। २ निर्घोष, गर्जन । उ०-- वाद मसत वयरंड, रसत मादः घहूरावं। दद्र धनुव प्राकार, फील भंडा फह्रायं । --मे. म. 1 [देज] ३ एक प्रकार का सरकारी कर । ४ देखो “रसद (रू. भे.) उ०--१ वंधियौ प्रकेवर वेर, रसत गैर रोकी रिपु । कंद मृद फ कर, पावे रांण श्रतापत्ती'। -दूरसौ ्रादौ उ०--२ मगर उदा" हरा महाव, वीटे खठ तूविया चहूवछ् । जवनां वीत चहं दिस जाव, ॐठ घटांण॒ रसत नह्‌ ्रावै । (मा. प. वि.) --रा. रू रसतन्मात्रा-सं. स्त्री. [सं.] सख्य के ग्रनुसार पांच तन्मा्राग्नों म्रा महत्तत्वों में सरे चौये तत्व-जन की तन्माता | रसतरग-सं. पु.-१ एक प्रकार का वाद्य विप । उ०---त्रतंग रित भ्रंग करंग नादंग । रसतस्ग वहु तरंग रगर्ग। -- सू. प्र. स. स्व्री--२ रम की लहर, हिल्नोर । रसतदढ, रसतलि-देखो “रसातद' (रू. भे.) रसता-सं. पु.--दुकानों पर लगने वाला ९क्म्र । उ०- कमंवां चौ मत करौ, करौ व्जारौ प्राय । राजा र्वाण्यां भोगवौ, रसता चौथ सवाय । --रा. रसतारव-सं. पू.-मेघ गर्जन के समान णब्द । (डि. नां. मा.) उ०-- गढ जंगम जंग समागम का, जुलमी प्रतिकाय धका जमका, सुघटा घट घाट घटा सरसं, रसतारव डांग पटा वर ।- मे. म, रसतौ, रसत्तौ-देखो “रास्तौ' (रू. भे.) उ०--१ जमलौ दिल रौ लालची, मन में फिर दलाल । घणी' वसत वेच नही, रसतौ पकड जमाल । --जमाल उ०--२ एक चित्त ऊजछा चठं सुभ नीत रसत्तं। एक नुन छटठर्वान वहू कोलाहल मत्तं । --रा. रू रसत्याग-सं. पु. [सं.] स्वादिष्ट पदार्थोकोत्याग कममेका व्रत । (जन) रसद~सं. स्त्री, [र.] १ कच्चा श्रनाज जो पकाकर खानेकेनियेहो, ग्वाने का प्रनाज । न न ण न भा जण ण रसटरपक ९) खाद्य पदार्थ, खादय सामग्री । ३ सैनिकों के प्रवास काल में साथ रहने वाली खाद्य सामग्री । 2 श्रंदा, हिस्सा, भाग । ५ वह ग्रंणया भाग जौ बंटवारे के प्रनुसार मिला हौ । सं. पु.-६ निकित्सक । ७ मव्ययुगीन एक गुप्तचर जौ किसी को विषादि विलाता था। वि.~-१ रसदायक, मजेदार, स्वादिष्ट । २ श्रानन्द दायक, हपंप्रद । रू० भे ०-रसत, रस्त । रसदायक, रसदायिनी, रसदायी-वि.~-१ ग्रानन्ददायक, प्रानन्ददायी, रमणीय । उ०--भासा संस्क्रत प्राक्रत भणंता, भूम भारती ए मरम) रसदायिनी सुदरी रमतां, सेज भ्रतरिख भूमिसम। -वेलि २ रसदार्‌ । ३ स्वादिष्ट । | रसदार-वि.-१ जिसमे रस हो, रस मे परिपूखं । २ स्वादिष्ट । ३ रमणीय) रसधातु-सं. पू. [सं.] १ पारद, पारय। २ णरीरम्थ सप्त धातुश्रोमेंमे प्रथम घातु रसधेनु-स. स्त्री. [सं.] गृड़ श्रादिसे वनी वह्‌ गाय जो दान की जाय। (पौराशिक) रसन, रसना-सं. स्त्री. [सं. रना, रसना] १ जिन्दा. जीभ) (डि. को. ह्‌. नां. मा.) उ०--१ नित 'किसन' किव रट नांम निरभे, रसन सरी रथधुरंम । - र. ज. प्र. उ०---२ श्राप नाम ठट ऊपरां, रसना राघव नामि । डी विवसू रासियी, पुरां जकां प्रणाम । --वा. दा. उ०--२ देख तमासा सुल्य म, नन सुरति का खोलि । जनहरीया रसना विनां वचन अ्र्ंडी वोलि । --श्रनुभववांणी २ व्राणी, प्रावाज । ऽ०--उपजावं प्रनुराग, कोयल भन हरत कर । कड़वौ लाभ फाग, रसना रा गुणा राजिया! --किरपारांम शखिडियौ ३ करधनी, मेखला, किकिणी । (श्र. मा.) उ० -भर्‌ स्रोरित पीरटि विभाग नयौ, कटिकौ चित लूरि नित्तव लयौ । रस्चि शूप जराव जरी रसना, मुक्ता हिम नीलम हीर पनां । . -ला. रा. , ४ चन्द्रहार, श्राभूपण)। (व. स.) ५ चमर वंद, कमर्‌ पेटी! | ६ रम्मी, टोरौ। मी ०५७८६ रसभरी व ~~~ 1 ~ ~ ~~~ ~~~ । ७ रास, लगाम । ठ हृठ्योग के प्रनुसार पिगला नाड़ी ] & वलगम, कफ । (ग्रमृत) १० प्रथम गुरुके णगण का नाम। वि.~रक्ताभ, लात । (ड. को.) रू० भे०-रसणा, रसणांग, रसणा, रसि, रस्सण । रसनाग्रह-सं. पु. [सं. रसना~+-गृह| मूख, मुह) (श्र. मा. ह्‌. नां. मा.) रसनालट, रसनालद्‌, रसनालीहु-सं. पू. [सं. रस्नाचिहू ] इवान, कुत्ता । (ह्‌. नां. मा.) रसनेन्द्रिथ-सं. स्वी. [सं, रसना इन्द्रिय] जिन्हा, जीभ । रसनोपमा-सं. स्री. [सं.] एक प्रकार का उपमा श्रनंकार्‌ जिसमें उपमाश्रों को खला वंघी होती दहै), रसश्च-देखो “रसना (रू, भे.) उ०--ॐऊ करसी चित सोच प्रसंश्नहु, सास उसासर संभार रसंर्‌ (र. अ. प्र.) कीरत स्ीवर्‌ भाख 'किसन्नह्‌", राव दिदे रघुराज | -र.ज. प्र. रसपति-सं. पु. [सं.] १ चन्द्रमा, गनि । २ श्णुगार रस्न। रसपरपटी-सं. स्वी. [सं. रसपपेटी| पारे को णोधं कर वनायी जाने वाली एक रसौपधि । (वद्यक) रसपरिच्चाश्र, रसपरित्याग-सं. पु. [सं. रस परित्याग] एक ब्रत जिसमें रस पदार्थो का परित्याग करिया नातादै। (जैन) रसपुर-वि.-१ वीर रस पूणं । उ०--सभं 'सिवडापत्ति" दारण सूर । पिरोहित केहुरियौ' रसपुर । ` -~-च्‌.भर. वि.~२ रस से परि पुरं । रसपोरद्धी-देखो "रसपोरी (ग्रल्पा., <. भे.) रसपोरी-सं. स्वी.~-१ घोडे का एक रोग विशेय जिसके कारण धोड़े के पिष्छे वैरो में कठोर प्रंथि्यां हो जाती हुं! (कला. हो.) २ हाथी का एक रोग जिसमे ह्ाथी के रीर पर पोटली सीहो जाती है। श्रत्पा., रसपोटली । रसनत्ती-सं. पु.-पुराने जमाने की तोप व वन्दूक चलनेका एक पलीता । रसवाय-~सं. धु -दाधियों का एक रोग, जिसमे हाथी के पेटमेंवायु वढ जती है ग्रीर हाथी वहत कष्ट पाता है) रसभरी-सं. स्वरी. [ब्रं. रप्सवेरी] १ लाल-पीला एकं स्वादिष्ट फल । २ उक्त फलका वना पेय पदाथ । ३ रस मे परिपूर्णं एक मिढठाई। वह मिराई जिसमे रस भरा टरा हौ) ¢ $ ॥ रसनाप रथनाव-सं. पु.-हायियों का एक रोय जिसमे हाथी के परमेँ सूजन | ग्रा जाती है, खे पीली पड जाती है, रंग पीला पड़ जाता है श्रौर | रस्रम्म-१ देखो 'रसम' वह्‌ ्रारामसेसो नहीं सकता । रसमंर-सं. पु. [सं.] गंधक मंहुर व हडके योग से वनाई जाने वाती एक रस्ौपधि 1 रसम॑त्री-सं. पु.-षलाहकार मंत्री, संधि कराने वलि मंत्री । उ०--राजकूप कांनूगौ लां । रसमंत्री मिलया राजा रा । --रा, रू. रसम. स्वी. [ब्र. रस्म] १ परंपरा, परिपाटी, नियम. प्रथा, रूटि 1 उ०--श्राद्‌ तिवार में सुगन, ग्रो देख अ्रमल विन दोघड़ा। भ्रा रसम फसाई श्रमलियां, तार न सोच टोघड़ा)। --ऊॐ. का. २ प्रचलित प्रथाके प्रनुस्रार दिया जाने वाला धन, नेग, दस्तूर । ` ३ करु, लगान। ४ वेतन, तनम्पाट्‌ ५ सत्कार । ६ देखो ^र्मि' (रू. भे.) (ग्र. मा.) उ०--१ वन सधन लसत मनु घन वस्राल, संचरं नाहि रवि रसम रास । --मयारांम दरजी री वात उ०--२ दू व्रां तोप लग्गीक्गण, स्प क डाचा सुखी । *रव्रि प्रः काज जण रसम, ज्वाद्ट काठ ज्वाढ्ा मुखी | -सू. प्र. 5० भे०-रसम्म, रस्म, रस्सम 1 रसमय-वि.-१ रस से परिपुरं, रस युक्त । उ०- मिलि प्रव साख प्रसाख रसमय श्रमिति मंजुर प्रंजुरे। रसहीन श्रनि तर सरव रेणा सीत छठ करति संचरे । -रारू २ मधुर, मीठा । उ०-कोई कुकवी जीभ सू, वां रसमय वांण॒ । कंच वि काटणौ, सो लोहारी खांण। -वां. दा. सं. पु.-मकरंद । (श्र, मा.) रसर्माण~सं. पु. [सं. रदिम] १ सूयं का प्रकाश, तेज 1 उ०--ग्रसौ तेज श्रप्रमांण “जोदांण' परत प्रापरौ, लीक नह रांण॒ सुरतांण लां । मगज चसमांण॒ ग्रह पाण म्रादम कमण, भाण रसर्मांण लग श्रां भागं, --तिलोकसी वारहठ २ स्यं की किरणा, रिम । रसमाता-सं. स्वी. [सं.] जिव्हा, जीभ । (डि. को.) रमि, रसमी-देखो ^रस्मि' (रू. भे.) (ह. ना. मा.) उ०- ऊपर सरद सुखद रिति आई, सुख धर्‌ नं पत उदत सवाई । सर्वर श्रचक चिमठ जद सोहै, मव पुरत विधुं रसमि विमोहे । रा. रू. रसमतरौ-सं. स्वरी. [सं.] स्वाद में वृद्धि करने बले दौ विभिन्न रसौं ०९७५ रसवत का मेल, मिलान । (रू. भे.) २ देखो ^रस्मि" (रू. भे.) उ०--१ दंडकाढ् करंगा तरेस सी गरोस दंत । सूर प्रं रसम्मां मेस सुघासार । --र. रू. उ०--> रोस मिं ग्रीखम रसम्म। चिता विडाछ नाहूर चसम्म । --वि. सं. रसयौ-सं. पु.-रस से उत्पन्न होने वाला कीड़ा । कोटाणु | रसरंग-सं. पु-१ राग-रंग, भ्रानन्द, उत्साह, खुशी । २ तीन यगणवम्रंतमे लघु मात्राका एकदंद। (ल. पि.) र्सरसाटि-सं. स्त्री--्रावाज या ध्वनि विशेष । उ०-~ ग्रसंस्य साहुणि चालते हते समुद्र सलिल सलसल्यां, घाट घमघमी,वाघरयाल वाजी, रथीक राउत तशे रसरसाटि रोहणगि- रिसिग रणरण्यां । --व. स. रसराज-सं. पु. [सं.]| १ पारद, पारा। २ पार, ताञ्र भस्मश्रौर गंघकके योगसे वनी एक रसौपध। (वंद्यक) ३ रसांजन, रसौत । ४ साहित्य मे श्यंगार रस) ५ रतिफल । उ०--धुरं युहांणी गाज मद्रंगा ताद धमकी, कठप तणा रसराज पियंततां कांम दमंकं । --मेघ रसरी-सं. स्वरी. [सं. रसना, प्रा. रसणा] डोरी, रस्सी | रसन्-सं. स्त्री. [देशज | छत पर च्नूना जमाने से पूवं मुरड जमाने की क्रिया । रसलीण, रसलीन-सं. पु--कति । (श्र. मा.) वि.-१ रस, प्रम, भ्रानन्द में लीन रहने वाला, मग्न रहने वाला । २ कामी, विलासी । रसलोभी, रसलोलुश्र, रसलोचुप-व्रि. [सं. रस~लोलुप] रसका लोभी रसिक, कामी । । उ०--लीयं तसु भ्रंग वास रसलोभी, रेवा जछि क्रत सौच रति. दखिरांनिढ प्रावतौ उतर दिसि, सापराघ पति जिम सरति, | | र -- वेति सं. पू.-भ्रमर, भंवरा । रसवंदछक-वि.-रस का इच्छुक । उ०-- विधि पाठक सुक सारस रसवंछक । कोविद खंजरीट गतिकार प्रगलभ लाग दाट पारेवा, विदुर वेस चक्रवाक विहार । | | -वेलि रसवत, रसवत-वि. [सं. रसवत्‌] (स्वरी. रसवती) १ जिसमें रस हो रसपूणं । । रसवतमन रसवतमन~सं. पू. सुन्दर । रसवति, रसवती-सं स्त्री. [सं.] १ रसोई घर, पाकशाला । २ स्वादिष्ट, जायकेदार 1 ३ भीगा हुभ्रा, नम, तर। ४ मनोहर, सुन्दर, मनो । ५ भाव पूणं । ६ प्रीति पूरं, प्रम मय। ७ प्रमी, रसिक । ८ रसन) ६ दिलचस्प, ग्राकपंक । (श्र. मा.) उ०--ग्रहमारी रसवती वरणब्र, पशि कसी एकि जे रसवती माह्रद ससरद्‌, देवांस धुरखि, उपनि मालि, प्रसन्न कालि, वार मंडप निषाया, पंचवरण्णा पटलां. --व. स. २ खाद्य सामग्री, भोजन । उ०--१ त वनि कांमूकि जाद पंचह्‌ पंडव कुणविं सउ । मंत्रह तणद उपाई्‌ श्ररजुनु श्रणडइ रसवती य। -सालिभद्र सूरी उ०--२ श्रगनि रतन थी सिद्धि हुवे, ते सुखि दीन दयालु मो। नवली नवली रसवती, चावल न वलि दालमो। -चि. कु. २ शाक, सन्जी । उ०-१ नेह चिना सी प्रीतडी, कट विना स्यउ गनि । लूरा विना सी रसवती, प्रतिमा विण स्यउ ध्यान । चि. कु, उ०--र रावल भगति भोजन तणी रे, सहूग्र कराई सभ] रूढो व्यंजन रसवती रे, प्रारोगण श्रालिम कज्ज रे) -प.च. चौ, उ०--३ जिम लवण हीण रसवती, व्याकरण रहित सरस्वती, गंघरहित चंदन, घ्नत रहित भोजन, खांड रहित पकवान, मान गदित दान, छंद रहित कवित, तेज रहित रवि, विवेक रहिते मनुस्य । --व. स, ४ पृथ्वी, भूमि, धरा। (ग्र. मा. ह. नां. मा.) ५ रामवेलि नामक लता । (श्र. मा.) ६ सम्पूणं जाति की एक रागिनी 1 (संगीत } वि.-१ रस भरी, रसपूं । २ रसीली, रंगीनी। ३ रमणी, सूदरी, प्रिया, ४ उ०-- सजनं ढोलाजी सोले सणगार । रसवती मैला ्रायी रे मद दकया धारी बोली प्यारी सा --लो. गी. ४ स्वादिष्ट, रुचिकर । .. । उ०--यथा प्राभरणि सुवण्णारत हीरा मुक्ताफलादि सरव संयोगी राजयौग्य श्राभरण, रसवतो भोजन सासि दालि घ्रत पक्कवान्नादि । ~~. से, ५ दिलचस्प 1 ०५१६ नामा ~~ ~---~-------------- ------------- ~ रसयेता रसवतीफकरम-सं. पु. [सं. रसवतीकमं | १ भोजन या रोटी वनाने की क्रिया । २.७२ कलाग्रो मे से एक । रसवतीग्रह-सं. पु. [सं. रसवतीगृह] १ पाक दाला, रसोई, रसीौड़ा । उ०-मज्जनमग्रहु वितेपन ग्रह्‌ प्रसायन ग्रह्‌, श्रलकार ग्रह, ग्रादर- सग्रह श्र॑तपूर ग्रह्‌, क्रीड़ाग्रहु रसवतीग्रहु भोजनग्रह श्रास्थान ग्रह कोस चैत्य प्राय मंदिर परिकरित विसाली प्रणाली चित्रसाली । --व. स. रसवत्ता-सं. स्त्री.~-१ रसीलापन, स्वाद । २ मीठास्न। ३ युन्दरता । ४ प्रसन्नता । रसवांन-सं. पु. [सं. रसवान्‌] किसी विशेष गण या शक्ति वाला पदाथ, जिसके कण या श्रंल का संयोग रसना से होने पर, विद्ेष श्रानन्द या स्वाद की प्रनुभूति होती है। चि.~रसदार, रसथुक्त, जिसमे रस दो 1 वे रसवाव-सं. पु. [सं.] १ साद्ित्य मे वह मत या सिद्धान्त, जिसके श्रनुसार काव्य मे ^रस' को प्रधानता को मानां जाता टै) २ रसे कौ वात, रसिकता की कऽत। ३ चड़ छाड ४. ७२ कलाग्रो मे से एक । रसवायी-चि. (स्त्री. रसवायी) १ उमंग, जोश से युक्त । उ०-विढवा प्रथम श्रणी रसदाया, ए म्रीक वणी कठ श्राया । ' श्चू डी" "मुकन' सुजाव सचेठी, भूप तण छि केहर' भेतटौ । --रा. रू. २ प्रसन्न, हपित 1 उ०-शिरय चील गोमायु विरक जंबू रसवाया। काक केक को गिरौ श्रास पठ संभट श्राया । --रा. रू. रसवाटौ-वि. [सं. रस~-श्रात्म] (स्त्री. रवी) १ रस से पृण, रसदार । २ जायकरदार, स्वादिष्ट। ३ दिलचस्म । ४ मधुर । । रू० भे०--रसाउलु, रस. रसन । रसयास-सं. पु.-ढग्ण के प्रथमभेद कानाम। (15) (पिगल) रसविरोध-सं. पु. [सं. रसविरोधः] वे विभिन्न रस जिनका मेल उचित नहीं माना जाता ह। .. (सुश्रत) रसविलास-सं. पु [सं. रस विलासं ] रतिक्रीड, मैधरुन ! उ०-रिभवारां रिभवार कमरां सिगार तीख चोख रौ राखणहार रसविलास रो चाखरहार । --र. हमीर रसवीर-देखो “वीररस (र. भे.) रसषेता, रलवेत्ता-वि. [सं.] रस मर्मज, रसज्ञ । रसवेलि रसवेलि-सं. स्व्री.-रस की वेल, लता । उ०-- वाही थी गुरावेलडी, वाही थी रसवेलि । पीड्‌ पीवी मारवी, चात्या सूती मेति । टो. मा. रससंस्कार-सं. पू--पारे के ग्रहारह्‌ प्रकार के संस्कार्‌ । (वयक) रससागर-सं. पु.-१ सात समुद्रोमे मे एक । (पौराणिक) २ पेमका सागर । रससत~-सं- पू--दूष, दुग्ध । (ग्र. मा.) रससार-सं. पु-१ बहद, मधु । २ विप, जहर) रससिगार-सं. पु.-श्छंगार रस । वि.-मघुर्‌ शर (डि.को.) रससिदूर-म. पु. [सं] पारे श्रौर गंवक के योग से वनने वाना एके रस 1 (वद्यक) रस्तिधु-देसो “रमसागर्‌! उ० ~ आंचि श्रांजि सिर गयत मारी, शरुमक गावत ब्रंचट जोरी । मीरा प्रभु रससिधु भकोरी, नवल हवि गिरधर नवल करिसौरी । [व --मीरां रसतिदि, रससिद्धो-सं. स्वी. [सं.] १ रसायन विद्या में कु्लता, निपुराता 1 1 * उ०--१ राजा कही-्रैवे { रससिद्धि देय । देवी तत्का किवाड्‌ खोन श्रंतरध्यांन हुई! --मिघास्रण वत्तीसी उ०--२ विक्रम विन च्यागी कहां, जे रससिद्धी पाय। कठ्णि परिन्नम कर्‌ सकट, तपसी दवियौ वताय । -सिघामण वत्तीसी रससेव-सं. पु.-वलराम का एकं नामान्तर । (ग्र. मा.) रसंण-क्रि. वि.-१ उचित ठंग पर, उपयुक्त स्थिति मे, मही रास्ते पर । उ०--विण साव वाच वखांणा भली विव, कंठ लगाय प्रमा करी । न भरं जद वात रर्साणनभ्रावै, माहपणौ किम हांम भरी । --मगतमाठ २ देखो "रसाय (रू. भे) रसांणो-सं. स्व्री--रसायन विद्या । रसांमणा-सं. स्वी. [सं. रदिम] मूर्यं की किरण, रषिम । उ०्-सधवर कर भभीन्वण रिव जम रसांमणा। भुजां रघुवर ग्रडर, लीजिये भामणा । --र. ज.प्र. रसा-सं. स्वी. [सं] १ प्रृथ्वी, वस्ती, धरा । (डि. को., ठ्‌ नां. मा.) उ०--१ राघव रयणायर रसा, सेस महैस्वर व॑ण । सुण वायौ निरिमुता, सोब्ीमोसुखर्दण। वां. दा. उ०--२ महा श्रो शरदा" चले रीस मत्ता । रसा काजि जदाः चेडी लाज रत्ता 1 --रा. रू. उ०--३ थारी श्राटस षपणारी नीददहै सो खोयदेसीने रसा। प्रयी सदा कंवारीदैसो वीर हवं जिकोई दण रो वींद ४ -वी. स. टी. £ ०७५ रसात २ दुनियां, जगत, संसार । उ०-१ रसा रूठो रूटौ अलख इक रूठी मत रहै । हमारी देख ना विरू निज लेखं वठ वहै । --ऊॐ. का. उ०--२ दोख निज दीह न दीसंरे, रसाश्रवरां पररी्ंरे! वात निज हाथ विगाडी रे, ्राई सोद पात ्रगाड़ी रे । --ऊ. का. ३ जिच्हा, जीम। ४ रसातल, पाताल । उ०--ग्रगह्न मास क्रतू ग्यौ श्राखी, पौ" त्रेताजुग वीती पालौ । दापुर माध महीनों दाखौ, ` रसा सिवायो श्रा चित राखौ। --ऊ. का. ५ नरके । [फा. रसाई| € वेग, गति । ७ देखो “रसः (रू. भे.) रसादण, रसाइन-देग्ो "रसाय (रू. भे.) रसा ई-सं. स्वी. [फा.] १ पहु, क्षमता । २ सुलह, संधि । रसाउवु-देखो ^रसंवाक्रौ' (र. भे.) उ०--रासि रसाउदु चरीउ धुणीजद। किम रयरायरु हीयद् तरीजड़ । -- सालिमद्र सुरि रसागर-सं. धू--एक प्रकार का घोड़ा, जिसका एक नत्र लाल होता ह तथा नत्र में नीले र्गके डोरेहोतेरह, साथी दूसरार्नत्र काला टोता टै) (ग्रञ्ुम) (या. हो.) रसाणौ, रसावौ-क्रि. स. ['रसणौ' क्रिया काप्र. रू.] १ पानी या किसी द्रेव पदार्थं को वीरे धीरे वहाना, रसाना । २ टपकाना । २ रसयुक्तं करना, स्वादिष्ट वनाना । ४ श्रादाक्त करना, ्रनुरक्त करना । ५ प्रसन्न करना, खडा करना । ६ वमे करना, ्रचिकार में करना । (मा. म.) उ०--कमवज पत भूषत करन", इम राज रसाया । सुभ जिण॒ कंवर श्रनोपरसिह्‌, छत श्रवढठां छाया । -द. दा. ७ रसास्वादनं कराना, चखाना । ८ गोरगुल कराना, वोलाना । € घ्वनिं कराना । रसाणदार, हारी (हारी), रसाणियौ --चि। रसायोडौ --भू- का. कृ. । रसारईजनणौ, रसार्दूजवी --कमं वा. रसातढठ, रसातदटि-सं. पु. [सं. रसातल] १ परथ्वी कै नीचे के सप्तलोकं मेसेद्टा लोक । (पौराणिक) २ पाताल । उ०--१ दादू भावं तहां चिपाष्यौ, साच न छना होड ! सेस रसादार ४०७८ का रसात गगन धु, परकट कहिये सड । --दादरर्वांरी उ०--२ श्राकास रसातद दिस प्रसट, पारावार समद्र पथ। जम जाढ दुसह जायं जहां, ग्रांणौ प्रहु मेरे ्ररथ । -रा. रू, ३ ्रधोलोक । उ०--१ राति रसात्तछ सात थरई, दिवस थयु युग च्यारि । उवेखिख नहु श्राथमई्‌, श्रादित श्रांखि ज वारि । -मा. का. प्र. उ०-२ साधु निरमठ मठनही, संम रम सम भाद्‌) दादू ग्रवगुण काढकेर, जीव रसातढ जाइ । --दादूर्वाणी उ०--३ ्रापभश्रापकू मारि करि, श्राप श्रापवू खाय । श्राप ग्रापणौ नास करि न्याय रसात जाय । --ह. पू. वा. ४ श्रधोगति, नाश, पतन । उ०-१ उर्व रोम उत्लेसं जोम श्रि करणा रसात! भजि तरिसद्धौ निज भाठ, कठा सोखण सत्र कम्मद्ठ । --रा. रू. उ०--२तूऊचा संच तिके, जग चाहूय जाय । मन खांचौ तू माढवां, जिके रसातदढ जाय । --ऊॐ, का. ५ पृथ्वी, भूमि, घरती। उ०-१ हरीया पंखी पंख विन, पडं रसातट्ि ग्राय । ऊउ्णकी मरवा नही, जीवत श्चितग थाय । ---ग्रनुभववांणी उ०-२ परवत सु पथर गिरयी, परयौ रसात श्राय । ह्रीया हरि की भगति विन, सोई नीचा जाय । --म्रनुभववांणी रू, भे.-रसतछ, रसति, रसादार-वि.-जिसमे रसयाशोरवा हो, रमदार) रसाधार~सं. पू. [स.] १ सूयं, रवि । २ दोपनाग । रसाधी-सं. स्ी.-भूमि, पृथ्वीमता ? उ० चितं होतौ चेतौ गहन नभ देत मन गसा। रसाधी क्यों रोती ह्‌. ह्‌. ह किम होती दुरदसा । ॐ. का. रप्तापत, रसापति-स. प. [सं. रसा-पति] राजा, नृप । (ड, को.) रसामास-स. पृ. सं. रस~+प्राभास] १ साहित्यमे किमी र्चनाकी वहु स्थिति जिसमे किसी रस विशेप का प्रभास मात्र हो ग्याहो ग्र्थात्‌ रस की परिपक्वता नही श्रा पादहये। २ मनमुटाव, वैमनस्य । उ०-नागौर पातक्षाह्‌ ्रकेयर जद मोटा राजा नं राव चंद्रसेणजी एक्‌ हुवा, रसामाव मेरियौ 1 -- वां. दा. स्यात रसायक-~देवो "रसाय" उ०--वर्ईइदराज के विसा, श्रीखधी उपादकं । तई रसायरी स्वधातु स्वच्छयं रसायकं । सूर प्र. रसायग-मं. पु. (सं. रसायन] १ जराव व्याविकौो मिटाने वाली ग्रौपध, जो पारेया किमी धातुके योगसे वना गई हौ । उ०-- कोई रसायण श्रौपच खाय कुरूप मू' सुरूप हुवौ । --पंचदंडी री वारता रसायगवल्त्र २ तविसे सोना वनानै की एक कल्पित्त विद्या । उ०-करण रसायण कडदिया, हरि चिरतां हमियाह्‌ । चृगलां ने गणिया चतुर, वर्म गिरं वसियाह । -वां. दा. ३ घातुश्रो की भस्म वनाने की एक विद्या । इससे एक वातुको दूसरी घातु मे भी वदला जा सकता है । (वयक) उ०-भणंत एक व्याकरण, वीर दस्ट के करं} तरक्कर नीति सासवांशि, एक॒ मुक्ख उच्चर । मारतं एक सव्व वात, केटवें रसायां । ्रगाध वैद राज राज श्रोखदी विचारणं । -गु. रू. वं. ४ वह्‌ विषय, क्षेत्र या तत्व जिसमे किसी प्रकारे रसया प्रानन्द को प्रापि होती हे। उ०-सरव रसायणमेंरसी, हर रसं समीनकाय। दुक तनं श्र॑तर मेरिहियां, सव तन कंचन थाय । -- ट्‌. र्‌. ५ इच्छित सिद्धि, मनोकामना की पूति । उ०-वेयावच दस प्रकार नी, करजौ चित्त लगाय। कांडयक रसायण ऊपे, दु दालिद्र दुरे जाय । -जयवांणी ६ परिपकववावस्था । उ०--गरढ पणे गुणकार, मार वहू वुद्धि रसायण ! विणा सं मल्लं वेसीया, गिरौ तिम चाकर गायनु । --घ. व. ग्र. र ७ रस काव्य । ५ उ०-नाद्ट्‌' रसायण नर भणड, राजा रद्यौ उडीसरई्‌ जाय । वाग-वांणीमौ वर दीपौ, स्रस्वी रसायण करू वरखांण। -वी. दे. ८ मधुर पेय रस) उ०-१ गूगेकागृड़का कटू, मन जांणतदहै खाइ। त्यो राम रसायण पीवतां, सो सुल कल्या न जाय । = --दादुर्वांणी उ०--२ जन हरिदास दोख तजि दुरभख, रांम रसायण पीव । तरूठे मेह पहम रति प्रलरै, परचै लागा जीवं । --ट्‌- पु. वां. £ उत्तम खाद्य पदार्थं । १० कृटि, कमर । ११ गस्ड पक्षी । १२ वहत्तर कलाग्रोमेसे एक । (व, स.) - <° भे ०-रसांण, रसाईइणा, रसाइन, रसायन । रसायणग्य-चि. [सं. रसायनन्न] रसायन क्रिया व विद्या का जानकार । र<ू० भे ०-रसायनग्य । रसायणविग्यांन-सं. पु. यौ. [सं. रसायन ~~ विज्ञान] पदार्थों में होने वाले गणो व तत्वों का विवेचन करने तथा पदार्थो के परस्पर योग से होने वाली प्रतिक्रिया एवं रूपान्तर देखने की विचियां सिद्धान्त । ₹<०-भे ०-रसायनविग्यांनं । रसायणसास्व-सं, ए. यौ. [सं. रसायन ~}-शास्व | १ वह्‌ धास्व जिसमें रसाथणी पदार्थो के गर, ततव श्रादि के विवेचन तथा पदार्थो के परस्पर योग सेहोने वाती प्रतिक्रियाभ्रों एवं रूपान्तरं को देखने की व॑लानिक विधियो का संग्रहो) २ वह्‌ पस्तकं जिसमे रसायन विन्ञानें को विधियो या सिद्धान्तो कासंग्रहूहो। 5० भे ०-रसायनसास्त । रसायणी-सं. स्त्री. [सं. रप्तायनी] १ कौ रस्ायनिकं श्रीपधि । उ०-- वरदराज के विसाटढ, श्रौषवी उपाडकं) तई रसायणी स्ववातु, स्वच्छयं रसायक ¦ --सु, प्र. २ उक्त ग्रोपचि वनाने को विचि या विदा । ३ उक्त विद्यया के जानने बाला वय या चिकित्सक । =° भे°-रसायनी 1 रस्रायन-देखो ^रसायण' (रू. भे.) उ०-१ राम रस्रापन पेम रस, फेना प्रीरन स्वाद । जन हरीया जं चखीया, चिस न भ्राव॑याद। --भ्रनुभववांणी उ०--२ श्रंग सकोमढ् पेम सरभर, चूप सर्म चतरग चितारौ। माघ सत्ती जत राग रसायन, सूर खिम्या कवि दास दतारो। --ग्रनुभववांणी *उ०--३ रसायन प्रयोग रसिक, भ्रदरसित वलिपलित, वसीकरणि श्रमढ, लक्ष खडी चापडी प्रमुख चिद्या कुतूहली म्र साधक, श्राकास पाताल ववक्‌ । --व. स. रसायनर्य-देखो ^रसायराग्यः (रू. भे.) रसायनचंदणा, रसायनचंदना-सं. स्वी.-वहत्तर कलाश्रों मेसे एक । (च. सः) (रू. भे.) (रू. भे.) रसायनविग्यांन-देखो “रसायणविग्यांन' रसायनसास्त-देखो "रसायरसास्त्र' रस्ायनी-देखो "रसायणी' (रू. भे.) रसाठ, रसाल-वि. [सं. रस --श्रालय] १ रसयुक्त, रसमय । २ मीठा, मधुर । उ०--१ ग्वाढ वाट रचि चार मंड, याजत वंसी रसा । --मीरां उ०--२ दादरूरंग भर चेलु पीव सौ, तहं वाजे वेरु रसाढ्ट। ग्रकल पाट पर वा स्वामी, प्रेम पिलवं लाल । -दादूवांणी उ०--द घट माही धडियाठ, श्राठ षौहर लागी रह । हरीया राग रभाठ, रग रग भीतर होत है) --प्रनुमवचांणी ३ ठ्डा, शीतल । उ०--मुख दीसै चिकसौ कमठ, चंदन वचनं रसाद्ट । हियडं जख कि करतरी, धरत चिन्ह एमद्ट । --पंच दंड री वारता ४ सुन्दर, मनोहर । मोहक । उ०--१ हंसी परी माधुरी सी चाल, ग्रति श्रदुभुत रूप रसाल । मार्ग मिध्यात उदाल । --वि. कुः. ०५७६ ` श्य उ ०-२ चंद्र-वदन अ्रभम-लोयणी जी, चपल लोचनी बाल । ह्री लकी रदु भाखणी जी, इद्राणी सी रूप रसाल । -जय्वंसी उ०--३ वाचंती श्रगम्म वेद नाचंती वजाहईं वीण! राचंती सुरग श्रग नाचती रसि) --मा. वचनिका उ०--४ राधा राणी संग लिये, गोपी निकट गवा । उपर कीजे ईदवर, सु'दर स्यांम रसाद्र । --गज उद्धार ५ प्रिय, प्यारा । उ०-ससि-वदन स्रगलोचना रे, हरि लंकी सुविस्राल। राजा माने प्रति धरणी रे, जीव सू श्रधिक रसाल । --जयवांणी ६ फलंदायक । उ०---राखो प्रागे रसणं र, राघव नाम रसाढठ। मुख मांभल्ठ प्राणौ मती, गिौ अ्रवकं ज्यू' गाढ । --वा. दा. ७ शुद्ध, स्वच्छ, निमंल । म जोज्च पूरणं । उ०-- विसा भाल कंवरा, रस छक्ति युत्थरे। ररह पद्म रेवत, सु देखते श्ररी डरे । --ऊ. का. ६ रसिक, प्रेमी । १० भ्राचन्ददायक, दिलं चस्प 1 उ०-- मु नाचतां भरह्‌ स्साल ए, स्यु जांणद मूरख ताल । --हीराणंद सूरि सं. पु.-१ रसमय या रसयुक्त पदां । २ भ्राम, प्राम्र। (भ्र. मा., डि. को.) द सेवे प्रादि फल, फ़ट। उ०--श्रयवा मेह खच करे रे लाल, ऊपर पड जाव काल सुविचारीरे। तोदेणौमोने मोकलौ रे लान । अटनी मांही रसाल सुविचारीरे) --जयवांणी ४ गन्ना। ५ त्तु विकेपमें हीने वाला फल । ६ कटहल । ७ कदर तृख। ८ वोलसर्‌ नामक गन्य द्रव्य । € ग्रमलवेत । १० हत्दी । ११ गेहूं । ,१२ वनस्पती विदोप । (सभा) १२३ जः स,त,य, रल श्रौर ७, ९. पर यति वाला एकं चंद विदरोप 1 १४ एक वणिक छंद विदेप जिसमे चार सगण व श्रत मेदो ल होते दै । (ल. वि.) ॥ (श्र. मा.) रसषदार „__-__]--------~-~-~------_---~~~~__~~~~~~~~~ उ०--पाए एकणि रुप पणि, चवदह्‌ सहस चमाछ । सगण च्यारि लघु दौड सुजि, रूपक नाम रसाढठ । --त. पि. [श्र. इर्माल, इरसाल] १५ भेट, सौगात । उ०--१ राव लाखणसीजी नं पादा परवानां लिसन श्रोटि नं सीख दीधी । रावजी नं रसाद्र मेली । --चवीरमदे सोनगरा री वात उ०--२ उठ वखतरसिह जी मेलियी भागु राद्की श्रावारी रसाढदार रसां लेय श्रायौ । -मारवाड रा श्रमरावांरी वारता १६ कर, महसूल, खिराज । उ०--१ तारां मांडवगढ र पातसाहु माणम चलाया । श्रादमीयां सागै एक कोड्‌ सपीया घातिया 1 श्रकल-कंव्रास" (मत-कंवास' सये दीया-वीच कोई पूद्ध तौ कल्या, मांडव र पातमाह विलादत रे पातसाह नु रसाढठ मेली चै] --रिणमल राठौड़ खावदि्यं री वात <° भे°~-रसावदढर । रसाक्दार, रसालदार-वि.-१ रसदार, रसयुक्त । उ०--उठे वखतसिहजी रौ मेलियौ भागु राकौ ्रवांरी रसघ्दार रसाठ लेय श्रायौ । --मारवाड रा अ्रमरावां री वारतां २ देखो 'रिसालदारः (रू. भे.) रसाठ.» रसाल, रसा, रसालौ-देखो ^रसवाटौ' (रू. भे.) उ०--१ संवत चौद पंच्यासीद ए वरचीड चरी रसाद्र ए1 --दीराणंद सूरी रसाल।-१ देखो रिसालौ' (रू. भे.) उ०--१ रायांनेर वय सौ वणायौ गा रावरू्प, श्रायी स्लीगोवाट वेल चां वंस ग्राव । हजारां रसाला वाह श्राडं दिखाया हाथ, नवी री कसमां कां वखांख नवार । --वां. दा. उ०--२ श्र सं० १७३६ मा'राज पदमसिध जादम राय दखणी सू भग कर काम श्राया तिणरी खवर मा'राज नू" हर्द तद उणांरौ रसालौ सारौ ग्रचैरयौ। --द. दा. २ देखो ^रसवाद्टौ' (रू. भे.) उ०-१ जव नटवां की साला रे, गावं गीत रसाला रे। -जय्वांणी उ०-२ निकल गया डाला रे, नहीं फन रसाला रे । ---जयवांरी रसावद्-सं. पु.-१. २४ मातर्न का एक मात्रिक छंद जिसमे १३व ११ मात्रा पर यति होती है) (रूपदीप पिगन) २ देखो ^रसाल' (र. भे.) रसास्वादी-वि. [सं. रमास्वादिन्‌] १ किती प्रकारे के रम का स्वाद लेने वाला 1 ०६० रचिकबरिहरी 1 २ किमी विषयं का श्रामन्द नेन वाना । ३ रसिक, रसिया । रस्ि--१ देखो ^रस' (स. भे.) उ०~-१ श्रवगति श्रम श्रगम गम कीया, नौग्रह्‌ ¶चदि गगन रम पीया। ता रत्ति मृनिजन रया समाय । तारसि मति च्लटिन जाय । --ट. पृ. वरा. उ०--२ लावट सार सुवा रनिका रक्षि तै सिचंति। प्रग वीये प्रगलोचना लोचना रंग चु्कंति । --जयमेसरे नरि उ०--२ राति विदहांणी एण रसि, प्रात द्वौ श्रमयार्‌ । मेश ग्रभंग महाव, श्रागहि संग प्रपार। रा. मः २ देखो “सी म, मे.) २ देग्वो ^रस्सी' (स्‌, भे.) रसिक-वि [सं. रमिकः| (म्परी. रसिका) १ किसी विधय का च्रच्छा जाता, मर्मज्ञ, काव्य ममन । २ गुणग्राही । २३ रमपान फरने बाला, रम तेमे वाला । उ०~नव दारां कार्तिक नवेला, ब्रलवत मग इधकाई। देस विचार दवार दसवें दिस, चिल्कुल राख वगाई 1 --ऊ. का. ४ विलासे प्रिय, मौनी, मस्त । । ५ रस लौलुप, लम्पट 1 उ०--विलद्धा ग्रंथ वाचं रस्िक न राच, छव छाती दछोवंदा ₹। निकमा नर नारी वारंवारी, विहारी वौलंदा है। -ॐ. का. ६. भावुक सहूदय । उ०--प्रथम नेह भीनौ महाक्रोध भीनौ पदै, लाम चमरी समर मोक लागे । रायकंवरी यरी जेण वाग रतिक, वरी घड़ कवारी तेण वारम । --वां. दा. ७ रसयुक्त, रसमय । ८ स्वादिष्ट, जायकेदार । & सुन्दर, मनोहर । सं. पू. १ प्रेमी व्यक्ति। २ सारस 1 ३ घोडा, ्रदव । ४ हाथी, गज । ५ एकरद विद्नेप। <ू० भे ०-रसक । रसिकता-स. स्वरी. [मं.] १ रसिकरहोने की म्रवस्थां या भाव) २ मौज, मस्ती । ३ परिहास, हंसी, ्रानन्द, हप । ४ सुन्दरता, मनोहरता । रसिकवबिहारो-सं. पु. यौ. [सं.] श्रीकृष्ण का एक नामान्तर । 1 # रसिका रसिका-सं. स्ती.-१ प्रत्येक चरणमे ११ लघु माच्राका एक मात्रिक छंद 1 (र. ज. प्र.) २ वहस्त्रीजो रास विलास व रमण कणने योग्य हो) उ०-लाधद्‌ सार सुवा रसिका रसि ते सचति । रग धरीये जग सोचना लोच ना रग च्रूकति । - जयमेखर सूरि ३ देखो “रसिकः स्त्री.) रसिकेस्वर-सं. पु. [सं. ऋपिकेडवर] श्रीङृण्ण । रस्ियापण, रस्ियापणोौ सं. पु. [स. रसिक-~†त्व] १ रमिकहोने की ग्रवस्था या भाव । २ रसिकता, गौक, मस्ती, मौज । ३ विलास्मिता । रसियौ-वि. [सं. रस~रा. प्र. इयौ, सं. रमिक] १ अनन्द या रम लेने वाला, रसिक । २ रसज्ञ, ममन । उ०्-मायाके रस रसिक रह, वात कहत दोय) म रसायग श्रजव है, पीव रसिया होय । ह्‌. पु. वां. ३ जिस्रको किसी कायं का विशेप घौकं हो, शौकीन । ौ उ०--१ मुह्‌ पतं पठं मोटा, चद्ोहा ने कान छोटा! सोने री | माखत कसीया, राजा हुव च्रदतां रतिया । --घ. व. ग्र. उ०--र प्रथी मुगते तरण फतं परी, हंसनायक परौ मनद हंसियौ । | "मान" हरं घाडई रे घाद जौवन मसत, राड रे वगत तरौ रस्तियौ । --महाराजा वहादरसिघ रौ मीत रति क्रीडा लोलुप, कामुक, विषयी, वेक्यागामी । | उ०--१ टंसियौ जग श्रास्रक हवी, वसियौ खोवश वीत । रत्ियौ नागी रांड सू, फसियौ हो फजीत । --वां. दा उ०--२ सो्वं श्रवगी सायवर, सूपनें दी नहे मंग । गणिकासू' | } | राखं गुसट, रसिया तोने रंग । --वां. दा. ५ हास परिहास करने वाला । ६ मस्त, मौजी । छल, दछवीला । ७ प्रिय, प्यारा उ०-- तुम हां ही रहौ राम रसिया, थारी सांवरी मुरति (मे) मन्‌ वस्षिया । -मीरां स. पु.-? पत्ति, प्रियतम उ०--१ प्यारा थांसू' पलक ही, वांछ नहीं विजोग । उरवसिया मो श्रावजौ, रसिया धारौ रोग । --वां. दा, उ०--२ ददवाद्ध वीच चमक जी तारा, सांज सम पीव लागेजीं प्यारा 1 कांई रे जवाव करू रसिया --लो. गी. .२ एक राजस्थानी लोक गीन । 5० भेऽ०-रसीयौ, रसो-सं. स्री. १ किसी घाव या फोड़ में पडने वाली पीव, मवाद। २ देखो. ^रस्सी' (रू. भे.) रू० भे०~रसि) ४५६८१ | रसीयौ-देखो ‹रस्ियौ रसीलौ रसीद-सं. स्री. [फा.] १ रूषये प्रादि की वसूली या श्रदायगी के वदले मे दी जाने वाली पहुंच, प्राति । प्राति सूचना । २ वहु पत्र या प्रमाण-पत्र, जिसमे उक्त प्रकार की प्राप्ति लिखकर दी जाती ह। उ०-इण वास्तं फाटकमें प्रायोडा रूढ८्ियार ठांढांरी रसीद काटण मै वानं पूरी दिक्कत रं'वती | --ग्रमस्तूनड़ी । रसीनौ-सं. पू--प्रेमी । उ०--ग्रवसिरिग्रायौ यार ्रसीनौ। भ्राज सु दिन भयौ भाग परवल, पायौ परम रसीनौ । --ग्रनूुभववांसी (रू. भे.) उ०--१ हरीया दिल सावित भया, चितवा निहचक हय । रसीया सोई जांणीयं, निज मन वसीया सोय । --म्रनुभववांरी उ० --२ श्राव्यौ मास वस॑तरे रसीयां रौ राजा! सुखदं साजा, तर होइ ताजा । --वि. कु. उ०--२ ग्रवसर देखी पापी सेठ भंडी द्रेठ, रामा धन नौ रसीथा रेलौ। --वि. कु. उ०--४ रमतां है सखि रमतां रूड़ी रीत, रसीयी हे सखी रस्तियौ पदमणि मन वेस्यौ जी । -- प. च. चौ, रसील-वि. [सं. रस~+-रा. प्र. ईल] रस युक्त, रसदार ¡ मीठा, मधुर । उ०--्िवरी कुठ भील कुचील सरीरी, चाखत वौर रसील संच । गहावत दील केरी नह गोविद, वीच भ्रंगीर मंजार वंच --भगतमाठ रसीलरे-वि. (स्त्री. रसीलणी) प्रमया आनन्द में निमग्न रहने वाला । मस्ते । . उ०--भरटे फल लीन्हे राम, प्रेम की प्रतीत जण । ऊंच नीच जनि नहि, रसं की रसीलणी । -मीरां रसीलापण, रसीलापणौ-सं. पू.-१ रसिक होने की श्रवस्था था भाव । २ रसयुक्त या रसमय होने की श्रवस्या या भाव] ३ विलास प्रियया कामूकहोने की श्नवस्था या भाव। रसीलो-वि. [ सं. रस~+रा. प्र. ईलौ ] (स्त्री. रसीली ) १ रसयुक्त, रसमय । २ स्वादिष्ट, जायकैदार। ३ मधुर । उ०--१ सोदागिण रंग रंगीली, तुः त्रेम महारस भौली, साभि म वात रसीली । --वि. कु. उ०--र नमौ रूप नदा सवदा रसीली, नमी लच्छि रंभा नमौ वौम लीली । --मा. वचनिका ४ दिचचस्प, मजेदार । ५ अ्रानन्द दायके । ६ विलास त्रिय, कामुक । ७ नाका, छवीला । रसुगाठ ६०८२९ रसोष्वार्‌ ____(_~( _------------------------------ रसुगाढ-देखो ^रसउगा>' रसुक-सं. पु--संवंघ, व्यवहार । रसोह-देखो "रसोई" ८ सुन्दर, मनोहर, कमनीय । उ०--१ सील सजीलौ शूप रसीलोौ, टल छवीलौ छाव । नील जदछज तन छटा निराढी, लवं लख काम लजार्चं । -गी. र उ०--२ वरतुछ सुखम कपो रसीली वाम रा । किया तयारी वेहू, दरप्पण॒ कामि रा) --वा. दा, ९ नाजुक, कोमल । उ०- दस इग्यारं बरसां री सरावोर रसीली उमरमे ई उण रौ मन श्रघोरी रं उनमांन ब्हैगौ। -- फुलवाड़ी १० प्रियतम, प्रेमी, रसिया, रसिके । उ०-कथ हरं निज कामणियां रा श्रंवर ढीला। भाम द्वी लाजन छोड लार रसीला। --मेच ११ रसन्च, म्मन्न। १२ सार युक्त । उ०-हिवडां धांरौीजाफौ रे'रवंरागदछं ताजौरे) पायौ धरम रसीलौ रे, रसे पड़ जाय दीलौ रे --जयवांणी (रू. भे.) उ०--प्राद्धया स्वभावनं रसुक नरमी मन रायणंमसू छं। -- नी. ध्र. रसुगाद्-देखो "रसउगाठ' (रू. भे.) रसुल-सं. पु. [श्र.] १ ईदवर का दूत) २ ईश्वर का श्रवतार। २ पैगंवर। ४ ईदवर । - उ०--हौ मोहि लागी प्रीत रसुं, नाव निमख नही भूल 1 --भ्रनुमभववांणी रसंद्र-सं. पु. [सं] पमरद, पारा। रसेस्वर-सं. पु. [सं. रसेश्वर] १ पारा, पारद ' २ छः दश्नोंसे श्रलग एक द्थेन कानाम। (रू. भे.) उ ०--१ गणपति गादह्‌ चारदइ, करतात कोट राड, सनीस्वर रसोह चाखडइ्‌, मगल सीखंड घसड । --त. स, उ०-२ श्रादित्म रसो तपद्‌, चंद्रमा घडी घडी भ्रग्रतं भरड, यम पांणी वहइ, सात समुद्र मांजणउ' कराव्‌ । --व. स. रसोडय-सं. पू.-१ भोजन वनने वाला व्यक्ति, वावर्ची । २ पाक शास्त्री । कारीगर। उ०--हरौ जावणदो। हूं काल रसोहयै नँ बुलायर त कर रसो्ईहया-देखो “रसोदयः रसोर्ई-र. स्त्री. [सं. रसवती] १ मोजनके रूपमे वनने वानी माय सामग्री, भोजन, खाना । उ०--१ ठाकर सगणी वतां रौ हुकारौी भर्वी, गृलाव रीमां धुप-दीप करौ । रसोई वशा, च्रूरमौ चर्यौ श्र भूत देवता री जगां तेजा"र चदायी । --दसदोग्य उ०-२ श्रटी वाप-त्रेटा रौ स्पाड़ी सपूरण च्दियी भ्र खटी मेखांरी री रसोई । गृ रौ करभरतौ मंगदढीक सीरौ व्रणायौ | सीर वणाई। मालपूवा काढा । प्रापट~खीच्या तद्या 1 वाजौश्या ढाठ थाट परसिया 1 --फुलवादी उ०-३ संपत री नह्‌ सोच सोच नह्‌ सरघा मोई) स्थान गई नह्‌ सोच, सोच नह्‌ घ्यान रसोई । --ऊ. का. २ वहु कक्ष जहां मोजन चनाया जाता है, रसोर्दधर, पाकथधाला 1 उ०-१ वेटी ांणीो पीवण सरार गियौ तौ परिगै रीतौ। रसोई मं गियौ तौ चूल्हा में वासदी रीनिणगरूनीं। -- फुलवाड़ उ० --२ कोई सुखियौ तौ माजना में कित्ती धरड घालंला-महाजन री रसोर्हमे लोहरा । थानं कीकर्‌ नीद श्राव श्र कीकर मुख लागे । --फुलवादह़ी, ३ देव मन्दिर, मटयाक्िमी ब्राह्मण को दी जाने वानी, श्राटा दालः घृत श्रादि भोजन सामग्री । उ०--ताहरां वाभा रसोई मांग । यौ। ताह्रां , कटै माता, रसोई देसु । --्रतापसिघं म्होकमरसिघ री वात <° भे ०--रसोड, रसोय । ग्रत्पा. रग्रोड़ी, रसोडी । रसोरईदखानौ, रसोरईघर-सं. पू~-वह्‌ कक्ष या स्यान जहां मोजन पक्राया जाता । पाकशाला । रसोर्हदार-सं. पु. [राज. रसोर्द~-फा. दार] १ भोजन या खाना वननेके लिये नियुक्त व्यक्ति, वावर्ची । ` उ०्-युकमालदीनेकमालदी री वैर इणांनू छना राखे । प्रापरा छछोख्वां सू" उपरत किया रासं दै। इरां र रसोर्हदार वांभण २ जुदा जुदा राखियादछ्धै। --र्तणसी २ विशेष प्रकार का भोजन वनाने वाला कारीगर, पाक गाोस्त्री । रसोर्हदारी-सं. स्यी.-१ व्यवसायिक रूप से भोजन वनाने का कार्य । २ वावर्चीं के रूपमेंकी जनि वाली नौकरी । रसोरईवरदार-सं. पु. [राज. रमोई-}-फा. वरदार] खाना लेजाने वाला व्यक्ति । (रू. भे ) उ०्-वारवाररा कारीगर रसोर्हया थमालिया। -दसदोख लेब्रला। रसोहयी पले-ग्री लंवर जोयीजै । चाव रुपिया पांच~ई | रसोड़दार-देखो ^रसोरूदार' लेवौ | -वरसगांठ 5० भे ०-रसोरई्यौ । उ०-तिण सम रसोडदार श्ररज कराई रसोडी तयार हृवौ छै । ---रवि रिरामल री वात श्मीडी रयोडी-देखो “रसोई (श्रत्पा. रू. भे.) रसोडौ-सं. पु. [राज.] १ पका हुग्रा खाना, भोजन 1 उ०--१ तिश सर्म रसोडदार्‌ अरजे कराई रसोडौ तयार हृवौ छ -- रावं रिणमल री वात उ०--२ मितां रंगा धरे महाराजा, ऊच्व प्रगट मिरे भ्रकाजा | जिमी वस्त नित श्रश्रत जोडा, राजं नव नव भात रसोडं ~ग, स. २ भोजम सामग्री, खाद्य सामग्री । उ०--श्रर सीम रसोडा प्रारभे, भल कजाक घोडां भडां। प्ररि खात अ्रकन्वर ऊपर, इसी भति ऊरष्वेडां । --रा. म्‌ ३ पाकयाला, रसोर्रषर । उ०--१ सीकरिकाधणी सो मूमि दौलतवांन संठा। सोमी मेवर्मिष जी कै रसोड श्रांगि वेठा 1 --शि. वं. उ०--र रसोई वैटोड़ा बुजीसा धरजिया, मत जाग्र जाया लङ री लार पए, भ्रन्नदाता भगड ज्रुजिया। --लो. गी, ० भे०-रग्रोडौ, रसडौ, रसोवड, रमोवडी, रसौडौ, रोड, रहौीडो । रप्नोत-देखो ^रस्ीत्त' (रू. 9.) रसोन-सं. पु. [सं.] लहसुन । उ०--रसोना दी मादी विलम नरपादी हित रन्यौ। नग्यौ स्वादौ स्वादी उपक्रत प्रमादी नहि नन््यौ । --ॐ. का. रसोपल-सं. पु. [सं.] मोती । रसोय-देवो “रसोई (रू. भे.) रसोयीईस-सं. पृ. [राज. रसोई~}- सं. ईय | पाकयाला का अधिकारी, जो पाकयाला कै कार्थकीदेख रेख करता ह! रसोई दारोगा । (डि. को.) रसोली-सं. स्त्री.-१ घौं का एक रोग विशे, जिन्नकै कारणं धो के वगनमे या पिद्धलीटागके टखने पर सुजन प्राजतीदहैया ग्रथी हो जाती रै! २ कानमे होने वाली एकः फुसी, फोड़) ३ श्रांख के ऊपर भोहौं के पास गिनटी निकलने के एक रोग । ८ दारीरके किसीगश्रगमे उस्न चली ग्रथी। उ०- माई मनद उपनी, एक ग्रसंमवर व्याधि । रिदयट्‌ रसोली विड धट, मन नहीं मोरि साधि । --मा. का. भ्र. <° भे०-रसौली । रसोचड़, रसोवडौ-देखो "रसोडी' (रू. भे. ) उ०-१ एकं दिनं मरमल नू कल्यौ, “उठे तौ दूध पावता ग्र भूल गया 1” तद अ्ररज कीवी, “जो म्ह जारी, ह्म कुचरजी धरं पारिया दै। रसोवडं मू श्रावतौ ह्मी) ^ - --कुवरसी सांखला री वारता ४०८३ । | | | [9 1 = व आ षा = रत्मि उ०--२ दरूजं परा रसोवडं खवास कारखाने गंगाजन वाला सारा हीसूहंमिग्‌युंसो सगा कहै खुसवेखुसरी दही कोई खवर नहीं । --नापं सांखनने री वारता क, ५.० उ०--३ तद केसरीसिह्‌ रसोवडौ करायी, जीमियौ । तरेमं सहर रौ लोग सोवी कररो नाग्यी। ---राठीडई ्रमरसिहि री वात उ०--४वनेजी री खातर भातदठे रंवावां, जीमण॒ रे मिसश्रायरे राय रसोवडे राय रसोवडे । --लो. गी. उ०--५५ रसोवड़ं थाट भोजन रवै, पण दछतीस परकार र 1 रात दिनि थाट थ्या रहै, जिकण "पेम जोधार रे । --पे. रू, रसति-देखो “रसौत' (रू. भे.) ध रसौ-मं. पु. (सं. रस] १ गुड, शक्कर या मिश्री कामीठां पानी, रस । २ अस, दोरवा । ३ देवो “स्स (रू. भे.) रसोडौ~देग्बो ^रमोडी' (रू. भे.) उ०-- राजा र रसौडे गया! मोडा गया । --कल्यांगासिह्‌ वादेन री वात रसीत-सं. पु. [सं. रसोदरभूत] दारू-दृल्दी की जड़ श्रीर्‌ लकड़ी कौ ग्रीटाकर्‌ ्रौर उसमें से निकले हृए रस को गादा करके तंयारकी जाने वाली एक प्रसिद्ध श्रौपचि । 5० भे०~रसोत । रसीली-देखो ^रसोली' (रू. भे.) रस्त-देखो ^रसदः (रू. भे.) उ०्--मासर तोपांरी वावंदूकां री राड हुयवौ करी। श्र रस्त वें कर दीनी ' तद जगरूप॑सिह विहारीदास लथैतेरां जोर्या नू रस्त पौह्चावण रौ कहायौ । --द. दा. रस्तागीर~देखो ^रास्तागीर्‌' (रू. भे.) उ०-- नदी नादा रे ऊपर पढ वंघा्वं तिसु रस्तागीर सगा प्रारांम उठावं सौ वणौ भलौ कांम द्धै । --नी. प्र. रस्तौ-देखो ^रास्तौ' (रू. भे.) ॐ०--१ प्ररु लाख दोय पोलिया रेतसः भराय नै हलौ किंयौसू गर वडी भगडौ हवी । ऊतौ-पैलौ हनारां लोक काम्‌ श्रायौ । ग्राखरे पोष्या खाई म नाख रस्तौ कियौ । द. दा. उ०--र रस्ते मे रस्ता खनव्त्रा खस्ता, हस्ता सुव हिनंदा ह । मसकरियां माड भड्वा भां, गुडा वाध गद्यंदा है। -ॐ. का. रस्म-१ देखो "रसम (रू. भे.) २ देखो ^रस्मिः (रू. भे.) रस्मि-सं. स्वरी. [सं. रदिम] १ किरणा, रदिम | २ ग्राभा, कान्ति, दीति । ३ प्रकाश्च 1 (नां. मा.] र्स्य ~ ०६८ सहु ४ वागडोर, लगाम । उण्-ताहर नयरि गो हरि वाती, देखि भ्रमि कटकिद् रह्‌ ५ रस्सी, डोरी । वाली । घाउ उत्तर नराधिप प्राग, ताह भलर सपसु लागद्। ६ श्रकुंस, चावुक । । --सालिभद्र मूरि <° भे०-रसम, रसमि, रसमी, रसम्म, रस्म । २ पेकान्त | स्य-वि. [सं.] रसवाला, रसदार । २ प्रेम, मेल} सं. पु.-१ सून, रक्त । ४ देयो ^राह्‌' (रू. भे.) २ शरीर का मांस । । उ०--गर्द रवि किरण ग्रहै यई गहमह्‌, गह सद्‌ कोड्‌ वह रट ३ देग्यौ रहस्य” (रू. भे.) रह । सुज दृज पुरा नीसर भूतौ, निसा पड़ी ` चानियौ नह । रस्त-देयो “रस' (रू. भे.) -- वेनि उ०-- पिय पग रस्स ब्रह्मा पूत । श्रप्रत्त सोरंम धु श्रवध्ुत । | रकढौ-देखो "रकौ" = (रू. भे.) ह, र. उ०--१ तद रावजी रहर सराय घोडा सरोलिया स्िलदर्खानौ रस्सण-~देखौ “रसना (रू, भे.) । लिया खरची लीवी । रहुकठां री गाडी दस एक थी सौ लीवी । रस्सम-देखो ^रसम' (रू. भे.) - नाप सांखते री वारता ७ 1 ४ (८। म २ कां ची. न लां 9 रहफट क ठप ॐ > वसांगाज ध, १ । उ०--जांरौ वौ न जायौ जमंहूत जाड, पुरे श्रढारे कियौ बूम ० दकां वेह ऊपर वसांगाजं द । पाड । रस्म समथ्थं क्यौ सन्नमरूतरे, ममंपाद गातां ग्रहे । ऋ र न = ३ केठठ जुट सहका चट ॒ना वां जंबू! रथ वहलां रस्सी-सं. स्त्री. [सं. रसना, प्रा. रसणा] १ सूत, मूज, सण श्रादिके 9 ८ "नः रेसों को बट कर वनाई हूर डोरी । रज्जुं । गुण) उ०--४ भिडज च्रुथ विज भाराध, सह॑स प्रार्‌ रहकटठां सार्थं | ० भेऽ रसि । - -स्‌. प्र. २ देखो “सीः (रू. भे.) । रहक्कणो, रहष्कवो-क्रि. स.-गाया जाना, गाना । रस्सो-सं. पु. |स. रसना, प्रा. रसणा] १ सूत, मूज, सण प्रादि के -केई ढोल कंसाठ, धरा ब्रहमंड धड़क्कौ । सुरणाये सालुढ रेसो या ततुप्रोंकावटा हुश्रा मोरा डोरा, रस्मा। राग सीधुग्रौ रहषकं । -पी. भ्र २ घोड़ांकौ एक विमारी। | रह्कियोड़ो-भू. का. कृ.-गाया दृश्रा 1 देशो ^रसी' (रू, भे.) (स्त्री. रह्विक्रियोड़ी) रहंचणो, रहंचवौ-देखो 'रहचणौ, रटचवौ' (रू. भे.) रहड़णी, रहडवौ-क्रि. स.-१ लूट-मार करना, लूटना ! उ०- करेवा देव तणा कोड काम, रहुंचं माहि महाजल राम । २ जीतन, प्रधिकार में करना । महामिड्‌ पस महाज मज्म, कियते जुद्ध प्रथम्मी कज्ज । उ० ~ श्राहंचि मीर श्रागरह श्राढ, रहडिया देस वाजा रुंडाइ | -ट्‌. र, पहिल खडगिग चाद्य पशंण, श्रगरड वयानड फेरि भ्रांण । रहंचियोडौ-देखो ^रह्चियोड़ौ | ( रू, भे ) -रा,. ज. सी (म्री. स्दचियौड़ी) | रहड़योडो-भू. का. कृ.-१ चुट मार किया हरा, लटा हृश्रा. २ प्रधि- रहंतणो, रहतवीौ-क्रि. स.-संहार करना, मारना । करत किय हृग्रा, जीता हरा । उ०्~--वीरम सु देपाठ वदतौ, श्ररी चं नहु ऊ वहीयौ। राव (स्त्री, रह्डियोड़ी) गाठोडां तण र्ते, राव जोर्ईदयां रण॒ रहीयौ । --द्‌दौ वारहठ | रहड.-देखो ^रहहूः (रू. भे.) रहंतियोडो-भू. का, कृ--मरा हृभ्रा, संहार किया हूग्रा । उॐ०-सेलां रा घमोड़ा पड द्धै । सेलां रा फट सरां रे मोर भानि (स्त्री. रहंतियोडी) भांजि रहिश्राद्धै। मूरांरेमोरभ्रूखावग ज्यों श्रसवार न घोड़ी रहंम-देखो “रहम (रू. भे.) ५ ग्राफछि रहिश्रा छ । सूम्ररां रीस्तिकार मांणीजैे दख! एकल . उ०--खांना उपर खीजियौ, चुदालम्म रहम ।' राजा नू जाडीर दाहिजं छ । रह. मंशाइन चछ । रह, भाति घाति नै चलता रतै, दीनौ साह हकं । गु. रू. वं ` कीज) ध ~ रहूरमान-देखौ "रहमान (रू. भे.) स्हच-देखो “रह्चण' (ङ. भे.) रहस. पृ. [सं. स्थ, प्रा. र] १ रय | उ०--धाद्‌ घांण उतर, खान सुरताण निघट्वा।! राव रांरा हृद ४ ` "च रहवक = ~~ ~~~ ~--- ~~ ~ ~ -- ~ न 9 म ना पादा -ना-ाना ० -.००अगग 3 ज ज -9 न> ०५ = रहूच, मीर उमराव अह्र । रह्वक-सं. पु.युद्ध, लडाई 1 उ०--तडां ग्रन तडं सीसोद कीवां तद्ध, रहचकां ररा सुरतांण रीधां । निधुरां पड़ाउ लियणा वेव मेहूरो, देहरा देहुरां चाढ दीघां । --उम्मेदमिह्‌ सिसोदिया रौ गीन ० भे०--रदहुच्चक, रहच्क्क्यः । रहुचट-म. स्त्री.--तेज दौड़ । रहचण-सं. स्त्री.-१ संहार, नाण ! २ कष्ट, दुख, विपत्ति 1 वि.-मारने वाला, संहार करने बाना । ० भे ०-रहच्वगसण । रह्चणौ, रह्चयौ-क्रि. स.-१ संहार करना, मार काट करना, मारना । उ०-१ वरजड मेवाड रायजीपं "मालवे तणा, तुरक दन रहचिया रायमल तीर । ्रसर घड तोड गओ्रोहाल मुहु उतरे, नदी नदियां मिद्धं रती नीर) --महारांणा रायमत्ल रौ गीत उ०--२ रावण द्रुम मेघ खर्‌ रह्चै, कथ स्तौ वेद परांशकंटी। वगसी मूषो भूप वीण, सररणागत हिति लंक सदी । ५ -- र. ज. भ्र. २-पराजित्त करना, हराना 1 उ०--तबल वाज गजराज सकवंध श्रकवर तरा, रहचिया मीर हालं रेखां! - नरसी) ३ वीरगति प्राप्त होना, मरना, सू खना । उ०--रिण रहचिया म रोय, रोप रिणा दछाडं गया। तौ ्रागा लै, मर्ण मंगद्टध दोय । --जखड़ा मुवा भाटी री ब्रात ्गाधघधर रह्चगा हार, हारौ (दारी), रहचण्ियी --वि. । रहचिग्रोडौ, रहचियोड़ौ, रह्च्योड़ौ = -- भ-का. कृ रहचीजणौ, रहुचीजवी कमे वा. | रहौ, रहचवौ, रहच्वणी, रहच्चवौ, रद्िचग्णौ, रिचो --र. भे. । रह्चाणो, रहचायौ-क्रि. स. [ रहचगरणौ' क्रि. का. भे. <.] १ सहार कराना, मार काट कराना, मरवाना । २ पराजित कराना, हरवाना । ' ३ वीर गति प्राप्त कराना! गहचाणएहार, हारौ (हारी), रहचाणियी --वि, । रह्चायोडौ --भू. का. कृ. 1. रहचार्दजरौ, रहचाईजवौ कर्म चा. । " रहचावरौ, रहुचाववौ --<. भे. । रह्चायोडी-म्‌. का. क.-१ संहार कराया हुग्रा, मार काट कराया हृग्रा, मरवाया हरा. २ पराजित कराया हृग्रा, हराया हृत्रा. रह ३ ठीर गति प्राप्त कराया टुप्रा ¦ (स्त्री, र्चा योड़ी) रह्चावणौ, रहुचाववौ-देखो “रहचारौ, रहचावौ (रू. भे.) हचावेणहार, हारी (हारी), रेहचावरियौ --वि. । रहचाविग्रोड़ौ, रटचापियोडी, रहचाव्योडौ --भू. का. ए. । चावीजगौ, रहंचावीजवौ --कर्म वा, , रहचावियोडौ-देखो ^रहुचायोड्', (रू. भे.) (स्त्री. रहचावियोडी ) रहचियोडा-मू- का. कृ -१ सहार किया हश्रा, माराह्ुश्रा. २ पराजित कियादु्रा- ३ कीरगति प्रात हुवा हुत्रा । (स्त्री. रह्चियोडी) रह्ष्चक, रहुच्चक्क-देखो “रट्‌ (रू. भे.) उ०--हजारां गढ वीद्ुढृ एक हौदां । रह्च्चक्क मात दु तककः रोदा । -- रा. रू , रहच्चण-देलो ^रहचण' (रू. भे.) रदच्चणी, रहच्चवौ-देखो ^रटचशणौ, रहचवौ (रू. भे.) उ० --१ मरोडं गजा कंध ब्रौडं मर, रहच्चं जिसा सिध मुक्की रवद्‌ । कसी गणं त्रीसटकी क्वाण, वटी भीम वरत्थां कटी पत्थ वागा 1 -- वेचनिका उ०--२ महा दिय मान करी गुहु मीत, तारं सह्‌ कीर कृदुव सहीत । करं कपि मित्र सूग्रीवे भुकाज । रहुच्च वाति दियौ कपि राज । --ह्‌. र. हच्च णहार, हारौ (हारी), रहच्चरियौ ---वि. । रहच्चिग्रोडौ, रहच्चियौही, रहच्च्योट भू. फा. कु. | रहच्चीजरौ, रह्च्चीजवौ --केमे वा. । रहच्चियोडो-देखो ‹रहचियोडी' (रू. भे.) (स्त्री. रहचियौडी) रहद्ह-सं. स्वी. महफिल, गोष्ठी । उ०--१ गठरी तयारी कीवी । श्रमना री रदछहं मंडीद्धै। भूरी, मेवती, कान्टौ, किसनागर, भ्रागराई, मरोडी, महरतोलौ लाभे ति माति रौ केसरियौ, पोतां घोचियौ, मनुहारां हवै द 1 | --डाठषठासूर री वात उ०--२ सिकार चदती वगत श्रमना री रह-छह्‌ मंदी । मनुद्रारां माथं मनृहारां हौवा द्ूकी । --फलवाड़ी रहट~देखो श्ररटः (रू. भे.) = उ०---१ भव २ भमते पार न पायौ, मोह रहट कौ माला । पावु ग्योनी तो श्रव पूद््‌, कव यह्‌ मिटय कसाला । --ध. व. ग्र. रहड्‌, रहड्श्र-स. पू--एक प्रकार की गाडी जिसमें भार लादा जाता द, दाकट । उ०-१ फोजां भ्रां भ्रातस चाल दै । जवरजंग नालि, किलकिला रहट्ण ४०८६ नालि, जंबूरनाढ, गजना, हथनाठ, सुतरनाढठ, कुहवर्वांण, रांम चंगी कई भांति भांति साश्रारावा रहडए घाती श्रावं च्चं। | ---रा. सा. सं. उ०-२ वौलोंको दिक्षित करने हतु वनाया गया गाड़ी नुमा चोदा वाहन । रू० भे०-रहड., र रहश्ण-वि.-रोकने वाला, श्रवरुद्ध॒ करने वाला । उ८०--राव राय रखपाढ, राव रहृडण रिम ॒राहां । राव कुरूप हराय, राव वरी पतसाहां । --रनगसी रहडणी, रहडवी-क्रि. स.~१ रोकना, प्रवर्दर करना । २ नाश करना, तहसनहृस करना । रहण-सं. पू.-पर, गृह्‌, ग्रावास । वि०-१ रहने वाला । २ देखो 'रहणी' (रू. भे.) उ०-१ रवाई गढ, पाणी गढ, कटक तणाउ गढ, वयरीभ्रवेस नही, हाधियां तणा दोवा नहीं, पाखरिया रहण नहीं । -व. स. उ०--२ पाधारिसिडउम राति वारणा वति पुरि रहण करउ। ताय तरद वहुमांनि हं ्राराधिसु तुम्ह्‌ पय। --सालिमद्र सूरि (ह्‌. नां. मा.) (भ्र. मा.) रहणाक~-सं. पू.-गृह, सदन, धर । रहुणि-देखो ^रहृणी' (रू. भे.) उ०--दादू रहुणि कवीर्‌ की, कठिन विसय यहु चाल । श्रधर्‌ एक सौ मि रहचा, जहां न भप काट । --दादूवांणी रहणी-प. स्त्री. [सं. रह] १ र्टनेकी क्रियाया भाव। २ रहने का ढंग, तौर-तरीका, चाल-ढाल, रहन-सहन । उ०--रहणी # जोगेस्वर वहणी मँ जगदीस । ग्रहणी भँ सिवनैत्र सहरी मे ग्रहीस । --रा. रू. ३ जीवन निर्वाह, व्यवहार, भ्राचरण । उ०--लुणीए फसते लाग देखी करी, राग्या श्रापणड्‌ पासोजी । रूढ रहण देखी रंजिया, सहु को कहइ सावासौ जी । - स. प ४ किसी विप सिद्धान्त या साधना को श्रपते जीवन में व्यावहा- रिकिरूपदेते हृए किया जाने वाला जीवन निर्वाह । गुद्ध भ्राचरण, मर्यादित जीवन 1 उ०--१ कणी प्रभ रौभे न कचु, रहण री राम । मुपने की सो होर भू, कोडीसरेनकांम । --ॐ,. का. उ०-२ कथि कथि कहुणी श्रगमकी, रहूणी र्या न जाय। ठरीया भेद विचार विन, चूण लख नहीं कायं । --ग्रनुभववांणी ०--३ उक्करस्टी रहूणी रहइ रिग्वि रूडउ रे, साघतड मुगति नउ पंथ रिख्ीसर्‌ रूडउ रे । - स. कु. ५ श्रावास, निवास, ठह्राव, विश्रामं । [द रणौ ६ निष्ठा, श्रद्धा । 5० भे ०~रहण, रहणि, रदहिि, रहिणी रणी 1 रहणौ, रहवौ-क्रि. र. [स. रह्‌ प्रा. र्ट १ विना किसी परिवर्तेन के एक ही स्थिति मे श्रवस्थान करना, रहना, एक र्म या ममरम प्रवस्था मे होना । उ०--१ भजन कर यकौ वड भागी, भजं नहि सो महा श्रभामी । लेवन लगन परम पद लागी । रात दिवस रहिये प्रनुरागी । „ --ॐऊ. का. उ० --२ जिम भविक रह मुतीरथ नष दरसनि वातार र्हद मत्यामनड्‌ संगमि..... .सुसिस्य रहद सदुगूगनड संयोगि -व. स. २ कहीं ठहूरना, टिकना, विश्राम करना । उ०--१ मड घोडा वेच्या घणा, रहिपड मास चियारि। राति दिवस टोल कन्हद्‌, रहूतञउ राज दूवारि । --द्ो. मा. उ०-२ वात सुणी षाद्धड वलद जां नवि देग्वद्‌ गंग । चडउवीसं [वासं] रहद जिम रददीणु [श्रगु] --सालिमद्र सूरि उ०-२ बु न्यात हीए॒ फीटा कुटठ, जिकं व्रिगाड जात रा) मम संण वात सुणज्यौ, मती रहण न दीज्यौ रात रा 1--ऊ. का. ३ चलते हुए फा रुकना, जति हृएु का रउह्रना 1.. उ०-१ वयो माठ्वरौ-तए४, रहियरउ साल्ट कुमार । प्रेम वंध्यउ प्री रह, जउ प्री चालशणहार । --टो. मा. उ० २ सासु वहूयन चाल पाड, ऊभउन रह षिन राउ। माड़ी योलइ सांमलि भीम, केती भुं वयरी नी सीम। --सालिभद्र सुरि ४ किसी क्रम का चलना वंद होना, स्कना । उ०--पिड जुड़वा भड़ पांच सौ, रहियां प्रडिग~ग्ररेस । कर्म॑ सज्ूफा कामि छद्र, दूजा श्राया देस । --रा. रू. ५ निवास करना, वसना । उ०--१ प्राडाद्धगर भूद धरणी सज्जण रह विदेस । मांगी तांगी पंख॒डी, केती वार लहैसं । --दो. मा. उ०--२ राय बीहंतइ तीण श्रवसरि दीधी तास चपेट। मकि धरिम रहिसीरेत्रू लंपट पुरु हंस पूरिउ पेट । -हीराणंद सूरी उ०-२ धर में समध्या घर रहौ, वन समध्या वन मांहि। हरिया घर वन समक, योलण कु कुं नाहि --भ्रनुभववांणी ६ मौजूद होना, वत्तं मान होना, विद्यमान रहना । उ०--१ जितं "जसौ" पह जीवियौ, थिर रहिया सुरथं । ग्रांगठ ही श्रवरंग' सू, पडियौ नह पाखांण । --यां. दा. उ०-२ पष्छद्‌ एह लक्ष्मी रहूड जउ वलतडउ उपकार न कीजद्रंत्ड क्रतघ्न हु्द...... । --व. स. उ०--३ हउ गाई वाली कुर्राय जाउ, वहइ लिकौ भूतलि वीरनांमउ' । रहृमूमु श्रागलि लेड वाख, दाग्वड' जिसिषुं युद्ध तर प्रमाणा । --सालि सूरि रहण |, उ०--४ करणी कीरतवंत री, रणा श्रत रहत। सव दानां रौ सेहरी, कीरत दान कट्‌त । ---ॐ. का. ७ स्थित होना, स्थापित होना, स्थिर होना । पावंद होना । उ०-१ प्रवलेवि समी कर पमि पथि ऊभी, रहती मद वहती रमणि । लज नोह लंगर लगाए, गय जिम श्री गयगमणि -- वेति उ०--२ तुभ रणांगणि कारणि कउण देउ, च्रपति तेडी भ्रागलि हे रहिड । कहिकि द्रोण कि भस्मि कि करण कड, समरिहौ हिवि तेडड कड सवइ । -- साति भूरि 5 किसी भ्राधार या सहारे पर प्रवर्थित रहना, ग्राधारित रहना । उ०-- वार वार्‌ वाखांरावे, सर श्रताप' संसार । मकौ रहै धर भ्रामर,श्रा धरतो श्राधार। --जनदांन वारहठ ६ किमी अ्रवस्था या स्थिति विन्ेपमें टोना। उ०-१ सालूरा पांणी चिना रहूह विलक्वा जेम । ढी माहिव सू कह, मो मन तो विख एम । --दढो. माः उ०--२ मन तन परमानंद में, मानद र्यौ सदीव । मात सुषवी ममार मे, जसवंत" नमी ने जीव । --ऊॐ. का. उ०--२ याभवजगमेयू खरौ, ज्यु कवद्टा जच्छ पामर । हरिया जहां मन राविर्य, जुरान जम का पास । --ग्रनुभववांणी १० सम्पकं मे श्राना, साथ रहना । उ०--दासीनादा दे दगा, पाम रहता पूर्‌ । री वीजं राणा, दासी जादा दुर । --वां. दा. ११ जीवन यापन करना, जीचित रहना, जीना । उ०--१ धरीया अ्रवतारू' श्रत न पारू, रहता एक रहुदा है । --भ्रनुभववांणी उ०--२ जहां पट्लवां जीभ सू, केकाउम कहियोह । प्र॑तक केहर प्रगर श्रौ, र्म्तम नंह्‌ रहियोह्‌ । --वां. दा. उ०--३ कोई कौम वसव्रे कोड कवि । जण भारियौ रहति जगि। --वेलि १२ वचना, शेप रहना । उ०--मोताहठ रहसी नही, हैवर हीर चमीर । जेहलिया जातां जुगां, वातां र्हमी वीर । --्वा. दा. १३ छुट जाना, रह्‌ जाना । पीये रह्‌ जाना । उ०--२ जन हरीया निर्कार कु, भजि पुहते भौ पार्‌ । से प्रास प्राकार कै, रिग ऊर्न वार । --्रनुभवर्वांणी १४ काम प्र लगना, नौकर होना । \ ज्यू -वौ कारखाना में रह गयौ । १५ चुपचाप समय विताना, शान्त र्द्ना । उ०--१ मेख राह निभाह्‌ कज, दिल्ली प्रीरंग माह । ज्यू सामं म्रजादसू, यू रहियी खम दाह । रा. स. ०६७ क यै रहत-देखो "रहित रहतो उ०--२ महि मोरां मंड्व करड, मनमथ श्रगि नमाद। हं एक~ नडी किम रहृड, मेह पधारउ माइ । --दो. मा. १६ किमी कायं मे लगा रहना, संलग्न होना । उ०--१ जुध दिल्ली रहिया जुड, रणायर' “रघपत्त' । मिर रार दठ सर्मिया, श्रौ रगसा' श्रतपत्त । --रा. रू. उ०--२ज्युषएद्गरसरमुहा,त्यू जद मज्जा हृति । चंपावाड़ी भमर ज्यउ, नयश लगाद्‌ रहति, --टो. मा- उ०--३ सावि कांड न सिरजिर्या, भ्र॑वर नागि रहत । वाट चलतां माल्ह्‌ प्रिव, ऊपर छांह करते । --दो. मा. १७ होना । उ०--१ सास्र दादौ मासुत्रां, राजी मयल रहत । माजीनू मीरां कटै, मोटा संतत महत । --वां. दा. उ०-२ वरे वेसन भर कि, मनमे रहौ मधीर्‌ । हरिया माहिष मा धरणी, पारि उतारे तीर! --म्नुमवर्वाणी उ०--२ प्रान मनोहर परिमत्‌, सुभट स्रि, विनोदीयाना विनोद, साम सौ [वो] लाना समूह, उचित बोनानी श्रोलि, कला वतनी क्रीडा भूमि, कूव्डानी कोडि वमाना विनोद, पुप्यवंत रहइ प्रमोद, वरीह विसाद, कवि ना कल्लोल, वादी नड विवाद, वेदेमिक विलास । --व. स, उ०--४ सोप्रद्‌ मरु महातपि प्रातपि रहृह॒ गंभीर । मोह तणा जग बवंवव वंष वद्धोडड धीर्‌ । -जयमेष्र सूरि रह णहार, हारी (हारी), रहणियौ -- वि. । रहिग्रोड, रहियोड़ी, रह्योड़ौ - भरु. का. कृ. । रहीजणौ, रहीजवी -भाव वा. । रयणौ, रंयवौ, रहवणौ, रहवयौ, रेणौ रवौ --रू. भे, (रू. भे.) उ०--१ विस्सा हाथ श्राव नदरी, भिस्सा जीव रहत । जीव सहित ते योगसा, प्ली जिन वांसी तदत । --जयवांरी उ३०--२ हरीग्राणेला को मिष्टं, चित चौथे विसरामि। ताप त्रिगुणं सुः रहत है, निज भगतां निहकाम । --ग्रनेभववांणी रहतिका-से. स्त्री.-प्रथा, परम्परा, रीति रिवाज, रूह । उ०- काहू के रसं रहतिका, काहू के रस कामि। काहु कै रस जोग का, हरिजन कै रस रांम। --ट. पू. वा. रहती-वि.-रहने वाला, न मिटने वाला, श्रमिट, श्रमर स्थाई । उ०--१ रहता सोई जांणीये, रहता मू मिद जाय। हरीया रहता रम विन, काठ घरात त्राय । --भ्रनुभववांसी उ ०--२ ऊ नांवज केवढठ, वड महावछ, रोम सोम उचरदा है| रहता सु रहता, है निज तता, न्यारा हूय निरवदा है । --ग्रनुभवर्वांणी म््9 ण ~ रहिती 1 रहन, रहनी-देमो ^्ट्णी (5. भे.) उ० -- १ रहन श्रनौसी रीति सहन स्वभाव मीव, कटून मनन कथा य्था तौर्‌ तन केः । उ०--२ विन जायी किनि धर्म रायौ, मोल नियौ श्र जती कटायौ । कटा भयौ जे जती कहाई । रहनी एकं रती नही राई । --प्रनुभववांखणी - ऊ. का, रहम-सं. पु. [अ्र.] १ त्रनुग्रहु, दया, कृपा । उ० -- विहृद हृदी रहम देख जमदहूत दहल । -केस्नोदाम गाद रमत, रहमति-मं. स्वरी. [श्र. र्हमत| दया, कर्णा, कपा, तरस । उ०--१ पद्य दमाहनू चाहीर्जग्रासा प्रसू री क्रषा री करं प्रौर हिम्मत रहमत रहीम री छ । --नी. प्र. उ०--२ घारेना गुर चरम कृ, डउारेना दुरमति 1 टारेला जम चोट कु, नारेला रहमि । --प्रनुभववांसी रह मदिल-वि. [श्र.] दयावान, कृपा करने वाला । तरस साने वाला। रहमदिलो-मं. स्त्री. [श्र.] १ “सहमदिन' होने की अ्रवस्था या भाव । २ दया, कर्णा, तरम । रहमांण, रदमांन-वि. [श्र. रहमान] दयालु, कृपालु, मेहुरर्वान 1 2० -- काविन कलाम कियत करीम, रहमान टतट्म रय्यत रहीम । -- ॐ. का. मं. पु.~द्वर, परमात्मा, खुदा । -०--१ दरीया जुग विड नीदीये, जा कुः भगतिनभाय। मे र्ता रहमोण मु ग्रौर्‌ न ग्रावे दाय । --म्ननुमववांणी 2०--२ हरीया हदं वीच मै, मुि मिव्या रहमान । परूरालिस दिया पटा, सर्व न ट सनि । --ग्रनुमव्रवांणी उ०--३ दादू द्विन प्रर वाहक मो श्रपना ईमान । मोई माव्रित गाभिय, जह देयं र्दूर्मान । ४ -- दादूर म्र भ०~-रहुमान, रहिमांण । रहमाण-प्रंत-चृ. [स्र. रदमान ~स प्रग] इत्वर काग्रंल, भगवान राम यय श्रघ्। उ ०--स्री मरमत्त मण॒पत्त नमसकार, दीजि्यं मुक वर्‌ बुध उदार । प्रवमांगा निच रहर्माण, श्रं वान्वांणा करू चप भाणवेम । --चवि सं. रटरट्-ग्रव्य. [श्रनु.] स्रः कर । ऽग रेवि किरण प्रहे श्रई मह्ह, रह्‌ रह्‌ कोड वह रह --वेनि | रह्म. पृ--र्नः, नुन) उ०-- रहत मेदौ राचियौ. रमि धरण विण निर्‌ नीस्र। रषद श्ण भु रम्य, मग मर्कः न पध मीम) र्ट | --रेवतसिद््‌ मारी | ४० =-+----क ०-०-०9 ० रह्वाप्त न्न ~~~ ~ रहण, रहल -सं. स्वी. [श्र.] १ पठते समय पुस्तक रेखन का एक ग्राधार जो लकड़ीकीदोष्द्टियोंको क्रोम नुमा (><) जोड कर वनाया जाता है) वि. वि.-उसमे दोनो पद्यां वीचमेम कचीनुमा जुडी होती जिसमे इसको चोला व समेटा जा सकता है 1 २ कातिक मास में चलने वाली मंद-मंद व॒ ठंडी-ठंडी पवन । ठण्डी हवा का एक हृत्कासा भोका 1 (नां. डि. को.) उ०--ठंडी रहव्ट चलाई हे राम । --लो. गी. ८० भे०--रहछि, रटृट्टी, रदिछ, र । रहि, रहढी-देवो ^रहद्ध' (र. भे.) उ०--श्रवरग श्राट भाट प्राद्धरिया, धड़ लूटिया भेद्धा वरग 1 वलि हैम जिम बाहडिग्रौ, सूक रहि दे फीक र्ण) --नाधौ साद्‌ रहद्ट्‌ -वि.~खाली, रिक्त । उ०--घर वमियौ घण नेह्‌, चीत न वस्धियौ चूटरा। रेह ममं तौ रेह्‌, रयणायर रह. थयौ । --फफांणंद री वात रहवह-म. पु. [मं, रथपति प्रा. रहृव्ड | रथ मेँ वेठने वाना, रथ पति । ४ उ०--नूरट रहवइ नरक रोड दंतरुमलि डर! प्ररजुन पाट पंड कटक हरतु कुशु वार 1 --सानिभद्र सूरि रहुवणी रह्ववौ-देखो ^रेहगौ, रहवौ' (रू. भे.) उ०-ग्रा उठे नाय रहै श्ररदहीड़ा करे1 रजपूतां तौ सीषौ मिठाईले जाय देवे । इये मांत रहूवै ।! --चीवोली रट्वर-सं. पु.-१ सोलकी कंय की एक याखा व इम यानवा का व्यक्ति । २ उत्तम रथ, मन्दरे रथ । - लख चौरासी मदिर हुवा । --व्र.म्त. उ०--हय गय रहूवर ज्लुजुवाए (<. भे.) रहवाठ-सं. स्नी. [फा. रहवार] धोड़े की एक चालं विदोप । <° भे०-र्‌वाढ । त रह्वास-स. धृ.-१ रहने की लनरिया या भाव, निवास, विश्राम । २' मकान, घर । ३ रहने का म्थान, निवास स्थान । उ०--भरमल भट्यो श्राप री रहुवास्र रौ उट कर राष्ियौ थौ । --कुवन्मी सखिला री वार्ता रहर्वाण-देखो रहावणः ४ विश्वाम करने का स्यान । उ०--टसी रहवास री जायगादेख न कुवरसी रौ मनं प्रसन्न हुवौ । --कुःवरमी मांसला री वार्ता ५ निजी महल, कमरा, ककन | रहवासि जम कि माभ म --५ -9 -भ००५० 2०६८६ रह्‌ाडणोौ उ०--१ तहर कुवर तो श्रा सौ उठ भ्र भ्रापरं रहवास श्रायौ परा उदास वहोत ह्रौ । -- नसी उ०-२ तद भरमल री रहूदास रं एक खिड़की कराई । -कू वरसी सांवला री वारता ६ श्रन्तःणुर, रनिवास । उ०--१ तठ रांणी देखवं सखी नू कल्यी-तु जादनं कहि, रंणी रहवास र॑ चहवच मांहै ह्वी । श्र रांणीतौश्नापरी कोटड़ी मांह दिप रही छ श्र सहैली जाय कही, राज, रांणीजी तौ रहवास रे चहवचं मांह हवा 1 -- वदी ठग राजा री वातत उ०--२ श्रादर स्रत सित ऊटियौ, प्रथम सुता परवार । प्रसवारी रा उपरा, ग्रस वादिया श्रपार) धडचव कनातां धारम, गौ रह्वास मभार, नूरमली ल्व ल्दामत, मौर फली तरवार । --रा. रू षू० भे ०-रदवास, रहूवासिि, रहवासी, रहास, रेवास्र, रवास । रहवा्ि, रहवासी-सं. पु--१ रहने वाला, निवासी । २ देखो ^रट्वास' (रू. भे.) उ०--साह्‌ गयौ दरगाह स्रु, निज रहुवासि श्रनेट । हितकर प्रोलाया हित, गौसल ग्रंतर गेह ५ --रा. रू. रह्स-१ देखो ^रह्सि" (रू. भे.) २ देखो 'रहस्य' (रू, भे.) उ०--१ गुनी गुन गायौ जस दछायी या जहान वीच, चार्‌ को उवार्‌ चाही रहस रचायौ तं । --ॐ. का. उ०--२ पवौ वेद पुराण, सोरी उण संसार मे। वातांततणा विनांण, रहस देलौ राजिया । --करिरपारांम 5० भे० रहसि, रहस्स, रहरसिमि । रहसर्णी, रहुसबौ-देसो "रहचणौ, रहचवौ' (रू. भे.) उ०--पिम' “मोहकम' ग्रजन' लाल' मोटे परव, नवच्छ' “ऊदो' 'जगौ' "जेत" हरनाय । 'मोमसी' 'वाहृदर' कसौरी' खी" "ˆ" ""भड, साम छट रहृप्तीया नहसीया साथ । -सतीदांन ब्रारहठ रहेसि-गु. [सं. रहस्‌] १ संभोग, मंथन, केलिरस्‌ । उ०--१ रमतां जगदीसर तण रहसि रस, मिथ्या वयण न तासु महे । सस्त सुखमणि तणी सहचरी, कहिया मु म तेम कटे । | -- वेलि उ०--२ स्रोण कील कम कम, किय करिमरां चडाण्‌। रचे मेज रिश- भोम, कसम श्ररि कमल विद्ाएु । नवस ॒तिक् सरबू त, सहै श्रन-मंव श्रचग्गद्ध । ` पांणा पयोहर कठ्ण, मर्थं मग करुभायद । विपरीत रहसि, वीरारस हि, रण दुभ हुड र्टुवड । सूती संग्राम करि सोण हर, भूष मारा संग्राम घड़। गु. रू. वं. २ रहस्य, भेद । <° भे ०-रह्‌स, रहस्सी । रहसियोड़ी-देखो ^रहचियोड़ौ' (स्त्री. रहसियोडी) रहस्य-सं. पू. [सं.] १ गुप्त भेद, गुप्त सूचना । उ०--प्राणांत पहुमि परिणाम यस्य, र्रर सकठ संवत रहस्य । टस्ताक्षर हरहु हिय हुलास, दुरद्रर दुरुहर 'दुरग्मदास' । --ऊ,. का. २ किसी विषयमे होने वाला वह॒ सूक्ष्म श्रथ जो सवं माधारण के सममे नहीं श्रातादहै। गूढां । उ०-जो भ्रामं चौरासी वंव रूपका के स्रव भेद नवरस श्रलंकार संजुगति एतौ सव ही सुवै मे प्राया पै एक खट-भाखा को जुदी जृदी रहस्य तौ कहां कहां किसी किमी केवीसुर पास दरसाई । --स्‌. प्र. ३ भमयाभेद की वात, गूढ बात ४ गोपनीय विपय, गोपनीय सिद्धान्त । ५ ईदवर एवं सृष्टि से सम्बन्धित गुप्त बार्ते जो्ञान चक्षु एवं साधना से जानी जा सक्ती है] (ग्रध्यात्मवाद) ६ एक तांतिक प्रयोग । - 5० भे ०-रवस, रस्य, रहस, रहस्स, रहिस । रदस्यमदिर-सं. ए. [सं. रहस्‌ मंदिरं] केलिगृह, रतिक्रीड़ा-गृह, सग- महल । उ०- सखीयां भ्रागे जाय केलिग्रह॒ कहुतां रहृस्यमंदिर सयन मंदिर तिहिकौ श्र गण मारजण कतां संवारयौ । -- पेलि टी. (रू. भे.) रहस्स-१ देखो "रहस्य' (रू. भे.) २ देखो 'रहसि (रू. भे.) रहस्सी-१ देखो शरटस्य (रू. भे.) २ देखो रहसि (रू. भे.) रहां-देखो ^र्टा' (रू. भे.) रहांण-सं. पु--१ गाच या मोहल्ले का वह्‌ स्थान जहां पर लोग गपशप करने के लिए एकत्रित होते ह । श्रथाई, वैठक | * उ०--द्िमं रतना चीता रौ गांव । विख रहांण सारीखौ । - नरसी <० भे०-रयांण । २ देखो 'रहणीः (रू. भे.) रहा-सं. स्वी.-क्रान, श्रवश्‌ । रू० भेण -रहां । रहाडणौ, रहाडवौ-देखो ^रहाणी, रहावौ' (रू. भे.) उ०--१ ए दृहार्म प्राचिया, रस नीत रौ रहड । सभा भरी मभ साभ, चिड जिको हिज चाड! --वां.दा. उ० -२ जे कलभ क्रीडिडे निरमल नरमदां जलि, तेह कूपिका ण्टाट्ियोडो ०६० रहावशो साना ~~~ जनि किम पूज भलि, जड ब्रसभ चरिउ हृद्‌ उक्षुवराडि, तसु रहायोड । --भू. का. ठृ. । वग्गि किम पूजड रहाटि, जेदै पीघड हृद इक्षुरस, तीह किम रहारईजगीौ, रहार्दजवौ --कर्म वा. । भावट्‌ लीवभ्स, जीहं हृदं दुध पासि, तीह किम माव लीव रहाडणौ रहाडवी, रहावखणौ, रहाववौ । ० ग्म, जीं हृ" दव पासि, तीह किम भावट छात्ति""" । | रहायोङी-भू. का. क.-१ विना किसी परिवतंन केएकही स्थितिमें वास ग्रवस्थान कराया हुश्रा, एक~रस या सम~रस श्रवस्थामं किथा रहादणहार, हारी (हारो); रहाईणियौ --वि. । दुमा. २ म्रस्थाई रूप से कहीं ठहराया हृग्रा, दिकाया दग्रा, रहाटिग्रोड़ौ, रहाडियोट़ौ, रहाट्चोड़ो -- मू. का. कु. । विश्राम कराया हृश्रा, ३ चलते हृए को रोका हृश्रा, जतिः हए रहाड़ीजणौ, रहादरीजवौ कमे वा. । को ठहराया हृ्रा. ४ किसीक्रमका चलना वंद किया हरा, रष्टादियोड्ी-देखो “ग्हायोष्टी' (रू. भे.) रोका द्राः ५ निवास कराया हुश्रा, वसाया हग्रा. £ मौज्ुद' (स्त्री. रहाडियोड़ी) किया ह्प्रा, उपस्थित क्या हुश्रा, विद्यमान रक्खा द्ुश्रा. रद्टाणौ, रहावौह-क्रि. स. [श्टणौ' क्रियाकारे. रू.] १ विना किसी ७ स्थित, स्थापितिया स्थिर किया हुश्रा, पावंद किया म्रा. परियत्तन कै एक ही स्थितिमे श्रवस्थान कराना, एकमग्स या ८ किसी श्रावार या सहुरे पर अ्रवस्थित रक्वा हुमा, ्राभारित ममरम ग्रचस्था में कराना) र्कला हश्रा. € किसी ग्रवस्था या स्थिति विशेप में किया = अ्रम्थरदस्पस कटी ठट्राना) टिकाना, विश्राम कराना | श्रा. १९० सम्पकंमे लाया श्रा, साय रक्सा हन्ना. १९ जीवन उ०--कमंय धड़ा पूरे बिलर्वाणी, पदियौ चाद मुरदधर पाणी । यापन कराया हुभ्रा, जीत्रित रक्खा हुश्रा. १२ छोड़ा हुश्रा, रख गा वर्‌ माह्‌ उदैपुर श्रायौ, श्राजमसा चीत्तौड रहायौ ! --रा. र दिया गया हवा. १३ वचाया ह्न, शेष रक्वा हुश्रा. १४ काम पर लगाया हृग्रा, नौकर रक्खा हृग्रा. १५ शांतया चुप चाप रक्खाहृम्राः १६ किसी कामें लगाकर रक्खा हृग्रा, संलग्न या व्यस्त किया हुप्रा. १७ श्रचधिकारमें या श्रघीन क्खा हृश्रा. ३ चलते हृए को रोकना, जाते हृए को ठहुराना । ८ किसी क्रम का चलना चद कराना, करना) रोकाना, रोकना) ५ निवास कराना, वसाना । १८ रक्खा हुग्रा] | उ<-गोरीसाह्‌ का व्रुनी हसेन नागोर श्राया । मेरे दादे प्रथीराजं (म्त्री, रहायोड़ी ) प्रणा ज्यां रहाया | -रा. रू ६ मौजूद करना, उपस्थित करना, विद्यमान र्ना । ७ स्थित, ग्धापितया स्थिर करना, पावंद करना । किसी ग्राघार्‌ था सहारे पर्‌ ग्रवस्थित रखना, भ्राधारित रशना किमी श्रवस्था या रिथत्ति चिन्नेप में करना । रहावण~स. स्त्री.-१ रहने की त्रिया या भाव) २ रहने का दढग, तरीका] ३ सभा, वैठक । वि.-१ रहने वाला/वाली, रहने योग्य ] 41 3 १० मम्पक मं लाना, साथ रना । उ०--कौधतं तिका राव-रंण जारी कमय, रहाचण वात सिर १९१ जीवन यापन कराना, जीवित रना । द्व राहा । जसा-ग्रखियात णे साहि मू शरटता, सार वकि चुटतां १२ द्द्‌ देना, रमदेना पातिसारहा । -- जसवं्तसिहे राटौट्‌ रौ गीत ` १३ वचाना, देप रगना 1 9... १८ काम पर्‌ लगाना, नौकर राना । उ०--गढ जाढ्धर राव्वियी, भंडारी मनल्प्‌ । श्रनमीत्यां नामिण १५ सनानि य चृप~-चाप रखना । इच्छा, भोमि रहावण भूप । --रा. श्ट १९ किन नायं मे लगा रना , संलग्न या व्यस्तं बरना । ८० भे०--रहवांसा । १५७ प्रविन्तार मे या ब्रधीन रखना । रहावणी-वि.-रखने वाला । उ०--नापामर किल्ला दयोटि वारे काम श्राया | कित्नौ मर उ ०--रीति र्टावणौ जी, ऊची प्रादरी कीरति कविकर जी। दनु राव ममा कं रहाया। निव पर मुद्‌ पस्सरी प्रघट प्राकमी जी, त्रवट वपि खरी वासौ लग १८ गग्यनां। वसेजी। -ल. पि. उ०---उद्छत्रा काज नस्की जादम,' धु ऊटी पतिवरतत तण च्म} | रहावणी, रहाववबौ-देखो रहाौ, रटावौ' (रू. मे.) ग्देरदि सगः पनि यानि दहषयो । मंजण कर सिएगार मंगायौ । उ०--१ ईदौ षद जिही प भ्रादर। सुर्‌ सुर धरम रहवण ण" स, मंभर्‌ । मारौ दद्ध भांजां पतसादी । नरां वन्वांणा वाच निरवाही । न्हागहार, हयै (दायो), रदासियौ --चि,। १1 रहावियोडी ४०६१ रहीम उ०--२ जस ल्ह रहावण जे सहल, मडयद भंजं महुवर | रहिय-देखो ^रहित' (रू. भे.) भाजमल्त' "मत्त" "गंगे कठी, रिरा दुभल्ल रट्रौड-हर 1 उ०--विरचई्‌ विपिन विचक्षण॒ तक्षण दस वि दसार। नवनव ४ ॐ -गु.रू. वं. निरमल भरुखण दख रहिय सिगार । ८. --जयसेखर उ०--३ कायय कस्य रहावणा साम कामि समराथ । काया त्यागी भ जयपेखर शरि केहरी नल दी माया नाथ । _ रा. रू. | रहियोड़ो-भर. का. छ.-१ विना किसीप के, एके ही स्थिति में त प्रवस्थान किया हरा, र्हा हृश्रा, एकरसया सम रस श्रवस्थामें रहावखहार, हारी (हारी), रहमवणियौ --वि.। रहाविग्रोड, रहा वियोडौ, रहाव्योडौ --भू. का. कर. । हुवा हृम्रा. २ श्रस्थाद रूप से कहीं ठहरा हृम्रा, टिका हुप्रा, रहावौजणौ, रहावीजवौ --कमं वा. । विश्राम क्रिया हुग्राः ३ चेलने से एकाह्ना, जाने से ठहरा द हृग्रा. ४ वंद हुवा हुश्रा, स्का हूश्रा। (क्रम) ५ निवास देतो “रहायो नै" दत # (स्वी, रहापियोडी) विद्यमान रहा हुभ्ना. ७ स्थित, स्थापित या स्थिर हुवा हुद्ा, च्टस-देलो 'रहवासः (रु. भे.) पावंद हुवा हुत्राः ८ किसी भ्राघार या सहारे पर श्रवस्थित रहा हुश्रा, ग्राघारित रहा हुश्रा. & किसी श्रवस्या या स्थिति विशेषं म हवा प्रा. १० सम्पकं मे प्राया हमरा, साथ रहा हा. ११ जीवन यापन क्रा हरा, जीवित रहा हुभ्रा, जीया हृच्रा. १२ वचा हुग्रा, शेपरहाहृ्राः १३ छटा हुमा, रहा हुग्रा, पी उ०--वागी परे, पाच वाँ, मुद्रा लवेटी सामवे, रजपूतां नं घोड़ा ऊट वगसीस्र करे, नै. मांहैतो कोड्‌ जाय नही, वारे टीज रहास कृरायनं र्यौ । -जखड़ा मुखडा भाटी री वात रहिचिणौ, रहिचवौ-देपो 'रह्चणी, रहचवीौ' (<. भे.) उ०--रामि जसहि रहिचीया पलंव बुसट मांपडियौ । मधुवन र्हा हन्ना काम पर लगा हरा, नौकर हुवा हृश्रा. मां माह्वा, लाग्व देतां सू लिय । -पी. ग्र. १५ ए समय विताया हृम्रा, शान्त रहा हरा. १६ किसी रहिविब्रीड-देवो ^रटचियोडौ' (रू. भे.) कायं में संलग्न हुवा हुप्रा. १७ हुवा इत्रा । (स्वी. रहिचियोड़ी) (स्म. रहियोड़ी) पहिणि, रहिणी-देखो "रही" (=. भे.) रहि-देखौ ^रहटः' (रू. भे.) उ०--एकरि रहिणि वटी मति ग्रसति, सामां सोह चटावण उ०--हैमत रिति लागी । सिर रिति री रूक रहिष् वागी । | पास । विद्दि उजादछ भाढ भूजाछ धजावंघ, भूपति भेद तदै । --रा. सा, सं. खट-भाख । --स. पि. रहिकन-देयो (रहस्य (र. भे उ०--१ जद सुसली वोल्यौ-सेहदी जागां छट नही । ज्यू साची रहति, [स] १ हीन, विहीन । ध सद्धा री रहिस वेठी पि श्रागला संहदा कृगुरु त्यांरौ संग उ०--भीवणजी स्वामी वोल्या-तिम ए घोवण॒ उन्हौ पाणी षं छोड नहीं 1 भि, दर, पिर समकित चरि रहित तिण सू' वणी वणा ब्राहमणी रा उ०--२ गदर कोट पर श्रमल रंग का चढत तिस वखत रंग-राज साथी है। --भि. द्र. के हौक (वे) रस रहिस की वात। ज्रम॒लू का चढाव सौभा २ वगर, विना । दरसात चरु. ध्र ` ` ३ ग्रमाव पूरं, ग्रपूणं । रहीम-सं. पु. [श्र.] १ ईदवर का एक नामान्तर, परमात्मा, खुदा । ४ पृयक, ग्रलग, मुक्त । उ०--एकादसी वरत हिदवांणं, रोजा ईद भया तुर्कासै । करि ५ 1 हुभ्रा, त्यक्त, छोड़ा हृभ्रा । करि ईद इग्यारसि रोजा, रांम रहीम न पाया खोजा । ॥ ५५४ । | | --भ्रनुभववांणी २ वाददयाहु श्रकवर के दरवार के एक मंसवदार, ग्रव्दूल रहीम ८० भे ०~रहुत, रहिय । खानखाना का कविताई उपनाम । रहितो-वेखो "हृतौ (रू. भे.) वि. विये एक श्रच्छे कविये। साहित्य जगत मेँ ग्राज भी रहिमाण-देखो "रदूमांस' (रू. भे.) दका नाम प्रमुख कवियों में गिना जाता है । उॐ०-दर््वांण सुरतांण दीवांण तु दीज देवा, मांडिया म॑डंस नि-दयायु, च के समंद मथार । कुर्वाणा रहिमाण कर्ण पाशा कै, शरापरी उ०--काव्रिल कलाम कियत करीम, रहमान इल्म रय्यत स्हौम । कल्याण दांण उग्रसेन श्रांख॒ । --पी. ग्र. बः ऊ श क रहस ऋ 2. 1 ^ 2 क 0 0 ए [1 [ 0 ॥॥ [110 ) षं रहीस-देखो "रईस" (रू. भे.) उ०-महिमा महीस ते सहीस लो सुनी है मुख । मारू धराधीन् की रहीस सून रीसेना। --ऊॐ. का. रहो, रहीडी-देलौ ^रसोडी' (र. भे.) रह्यी-सद्यौ-वि. [ब्रनु.] यचा-खुचा, रहा-सहा, भ्रवजिष्ठ, प । र-देखो "रा (रू. भे.) उ०---पदिमिसां श्राव तू ल्याव पांडव प्रभरू, महमहण ताहूरा ग्रसंख मेढा । वांधिया काद वटिराड रां वेलियां, भूघरा करो पहिल्ाद भेला । --पी. ग्र. रंहणि-देखो ‹रांयर' (रू. भे.) उ०-नीलां नारिगां, रगड दीसतां स्रुरंयां, पाकी नीकोनी रांइणि, प्ीसी भांदणि, दाडिमनी कली, खातां पृजद्‌ रली । --व,. स. रांक~-वि. [सं. रक] १ कायर, उरपोकः, भीरू । उ०--एक वीर तनु रोम उध्रसद्‌, एक रांक रिण माहि नीसरड हैय देव कणि दुरमत्ति दीधी, एउ ग्रौखग ्रह्मय कांड लीषी । --सालिभद्र सूरि २ देखो “रंक (रू. भे.) उ०--१ राजीया केर दीर्वांण राक, सुर कोडि तीम मुर करं सांक । प्रणमंति नाग श्रनेक पीर, साहिवी नमौ सांमढ सरीर) -पी. ग्र. उ०--२ श्रगनि फल, सती रौ नाठंर, काली रौ वेहडौ, रुटीभ्रारां रौ जोड़, राकां रौ माठ्वौ, कुग्रारी घड़ा रौ वींद) --रा.सा. स. र†कडौ-देखो "रंक (म्रत्पा., र. भे.) | उ०--कलठप्या कोडि किनंक, लीला ही लाभ नहीं! मो राक रतेन, दियौ दया करी देवजी ¦ --वीत्हीजी रकफमुहा-सं. पु.-पेवार राजपूत वंश की एक शाखा । रकावत-स. पु-ऋर्वेदी ब्राह्मणों को एक जाति जो साधु, स्वामि नाम से संबोधित की जातीरै। रग~-सं. स्मी.-१ मकान, महल किले श्रादि की नींव 1 उ०-१ पर्छ धणौ साथ राखियौ। घणा घोडा लिया। गढ घातण री राग रोपाई भीत हण लामी। -नैणसी उ०--२ तदाव किलांणसागर राणी हाडीजी नांम जसरगदेजी हाडी माहाराज सी जसवंतसिघजी री रांणी बूदी राराव छतरसालजी री वेदी सं० १७२० रा वंसाख सुद १५ राग मांडी नं सं. १७३० रा जेठ सुद प्रतसटा हुई 1 -- मारवाड री ख्यात २ दरार) ३ वनरूलववंरके पृक्षकी छाल, जो शराव वनाने तथां चमडा कमाने के काम श्राती रै । ४ एक वृक्ष विक्षेप, वेर का वृक्षे । 2०६९२ एकाकार | र न जत क्क्‌ ककण त कः त आ वणमि = न कि ॥. श इ, <०--१ रावण रग रतांजरी, रवी नु शद्रा । म्क स्वती रायसलि, रोहड रोहिणी लास । मा. कांरप्र. उ०--२ रामोडी नद रासना, रीगिणि स्द्र-जटाय। रग रतांजयि रमी, रनि वनिरग धराय) --मा. का. प्र. ५ देखो “रन (ङ. भे.) उ०्-र्वध वूक्ड वंक महा कवटा । उद्छछनं कुर्टांछि जिवि ग्रवछछछा । श्रवलक्व एेराकी चमां अजगरी । रांग दावत नाचेत मोर रणी । -- मा, वचनिका रांगड़-देखो ^रघड" (रू. भे.) रांगडापण, रांगड़पणौ-सं. पु.-वीरत्व, योद्धापन । । उ०-जागियां ठोर सिधु गावं जांगड़ा, लटगा रणा खगा वीर हकं । भेर तण जटं पीघा प्रमन भांगडा, जो मरद रागरडापणौ भखकं । --मायोसिह सक्तावत रौ गीत † रागडी-देखो "रंघड़' (्रत्पा., रू. भे.) उ०--साकुरं ऊपड़ी वागां हिकं श्रालमां सारी, हग मार .तेक नं दिखाया भारी हाय । वेठीगारां रांगड़ांयू धमार वातां, नगारां वागतां गाम बरिया निघाथ। --विसनसिघ राखीड्‌ रौ गीतं रागजङ्-स. स्व्री.-तरेर वृक्ष की जड । (शोखावारी) ४ उ०--र्धा रांगजड रग, वणावं दारू देमां। मृटकवत मन मतवा, कोटड़चां हुवं हमेसां ! -दमदेव वि..वि.-यह्‌ स्ौपवमे मी काम श्रतीदह। रांगटौ-रेखो "रू गटी' (रू. भे.) रांगणवाय-सं. स्वी. [सं. रिग] एक प्रकार्‌ का वात रोग जिक्तसे कमर्‌ दूल्हो श्रीरटांगमें ददं होतार, गृन्नसी। 5० भे ०-रीगरावाव, रीघणवाव । रगरंगीलो-देखो 'रंगरगीलौ' (<. भ.) उ०-गुडी तेरी रांगरगीली तकली चक्करदार। चोखौ वण्यौ दमडकौ तेरौ, वूकंडिये रौ लार । --लो. गी. (स्त्री. संगरंगीली) रांगलौ-वि.~-रगदार, रंगीन । उ०्-चरखौतोले त्यु भंवरजी रांगलौ जी, हां जी दोक्ञा) पटौ लाल गुलाल । --लो. गी. राग-क्रि. वि.-१ सही रास्ते पर) उ०--म्हं माठं ऊमीश्रां सगां नं धणाई्‌ वरजिया। किणी भाव नीं मान्यातौ म्ह गोफण रा सटीड उडाया।! दो श्रसवासां रं दिगली च्हियां पणे रगे आया। --फुलवाद्ी २ वशमे, कारू मे, प्रभावमें। उ०--नांनी पोटाय पोटाय, विलमाय-बिलमाय हार थाकी पण दस वरपां रौ बाठ-~हठ रगं नीं भ्रायौ सौ नी भ्रायौ। । --फुलवाडी (श्रमरत) राग ४०६३ रांड क्याकंबरु ? म्हारी डोकरी गोरर्मिटी इयं ऊपर म्हारौजोरकौ चालं नीं।' डोकरी बोली-नाखं कनी रांड रा,क्यु रांभट , करट? --वरस्गांठ । राभो-सं. पु--१ समस्या, उलभन । उ०्--पुटियौ तो लियां दियां वेठौ हौ) कैवण लागौ--रेडी एक कावढक रांभौ पड्ग्यौ । सात समंदरां पारलोग इरा वात री ३ सामान्य दज्लाया ग्रवस्थामे, साधारण स्थितिमे। रांगौ-सं. पु. [सं. रग] श्वेतं रंग की एकं भ्रत्यन्त मुलायम घातुजो वहूत चमकीली होतीदहै ग्रौर जिसकी वर्तेनों पर कलई्‌ की जती है 1 राध, राघडी-देवो "रघड' (र. भे.) उ०--१ चसस्कं दत चरग्वी चलाय, मिज रया दिवाना भंग खाय) रांघड़ा यछीरास्जग राज, गगला जोड रा करय गाज । --पे. सू - उ०--२ टायथ्या भिरदारां रामाथा देयां प्छ ई्थे चलाय दीडी उटायी। रे राषड़ां राकाम तो रांघड़ां नं ई छाजं। --फुलवाड़ी रांचणो, राचनौ-क्रि. अ्र.-१ सड डे तकना, लालायित होना । किसी क्म एक-टकः देग्ते रहना । उ०्-पमती म्मांणां लग पूगा श्र हालत पातर रे घरं रांचतौ फिरं । - फुलवादी २ चोरीकरनेया हृट्पनेकी दृष्टि मे ताकना, घात लगाना । उ०--१ जार तसौ गुण जाय, रात पई जद रांचवा । ठग कोद साधु याय, मादा ग्रहि “मोतिया । -रायसिह साद उ०--२ दूमरां जेम नह रांचियौ देव नै, श्ररस रौ व्वांचियौ यक रायौ । लांघड़ी कपी ज्यू राम लायौ लड, नडं जिम शचुहारौ' भ्रात लायी । --वुवजी श्रासियौ उ०--३ दातार टै जिर मसू घन नहीं घन विनां महल वणं नही सूरवीर पणा सू वन री कुमी नही जि सु धाड़ायत राचौया चै खाणार पणार जिर सू घन जम हवै नहीं तद एेवास वयौ नहीं --वी. स. टी. ३ किसी वात्त का ध्यान देना, व्यान रखना । उ०- सह राच जन सादियां, मत वहरौ कर मान 1 कौड़ी पग नेवर भक, मणक सुर भगवांन । --र.ज,.प्र. ४ देखो (राचणौ, राचवौ' (<. भे.) रंचणहार, हारौ (हारी), रांचखियौ --वि.। रांचिग्रोडौ, रांचियोड, राच्योड़ --भू. का. कृ. । रचीजणौ, रांचीजवौ --भाव वा. 1 रांचियोडौ-मू. का. कृ.-१ खड़े खड़े तका हच्रा, लालावित हवा दुम्रा, किसीकोषकं टक देषा हृत्रा. २ चोरी करने याहे की ष्टि मे ताका हुश्रा, घात्त लगाया दुम्नाः ३ किमी चातका ध्यान दिया हुम्ना, व्यान रक्खा ग्रा । ४ देमो 'राचियोडीः (ख. भे.) (स्वरी. रांचियोडी ) राभेट-सं, स्तरी.-तकरार, विवाद, कंमट । उ०--मा राज ! वारानामें जचाष्र श्रारछना कयां देवौहौी॥ | रारलौ-देग्बौ राटी! राटो-वि. (स्वी. राटी) १ मुडा हश्रा, टेढ़ा । लेखी जेव सारू भेठा च्हिया के दुनिया मे मिनख घणादैके लुगायां घरी । -- फुलवाड़ी २ व्यवधान, विघ्न, ग्रडचम, वाधा उ०-१ थे निरति सु सोवी म्द इणा सनमन मे की राशौ नीं पटकरूला) इण सगाई में रांभौ पटकियां म्हारी सीख मेषपैता राकौ पडं। --फुलवाड़ी उ०--२ धू डोकरी इत्तीउरायदी तौप््ै की रांकी ङ्नीं र्यौ } --फुलवाडी (म्रत्पा., र. भे.) २ टटा फिसाद करने वाला । (ग्रल्पा. रांरलौ) राड. स्त्री. [सं- रण्डा, रडा] १ वह्‌ स्वी जिसका पति मर गया 18 विधवा स्त्री । उ०--१ हाथ भटक किभकार हंस, नाथन तें नांमजी 1 भव भांड दसे भरतारसु, रांड भली श्र रांमजी। --ऊ. का, उ०--र चल रंगरेजा में नहि चाहं, भल नहि सोभा भंग। श्रलमित देखिर जन ्रगमे, रांड कमुमल रग । --ऊॐ, का. २ वंश्या, रदी, पतुरिया । उ०--हंसियौ जग भ्रासक हुए, वसियौ खौवण वीत । रसियौ नागी राड सू, फसियौ होण फजीत । --वां. दा, ३ व्यभिचारिणी स्वी, कुल्टा नारी । उ०--जुरती नहि प्रावन जावन की, फुरती नहि राड फसावन की 1 परवाह न पाट पटंवर की, ्रघ चाह सु कंवरश्नवर की । ---ऊ. का, स्वीक निए एक भरी गाली । उ०--१ लाव तमाचरु लाव' पाव पुढचैनन पावै) राड सूयगी राड' जुलम सव रेन जगावै। ऊ. का. उ०--२ जद दसा धरमी वोत्या-द्या २ स्यु पृकारौद्धी। दया रांड पड़ी उखरनी मे लोर ) -भि. द्र. ` उ०--३ पेट रा जाया ई धावं रां गुलाम वराग्या । पच्च प निद्धमियां क्रु वारे। राड रातनं तन मेँ कीडा पड, --फुनवाड़ी ५ स्त्री जाति के लिये एक भहा सम्बोधन ) ९ वह्‌ गाथा छंद जिसमें जगरा' का श्रभावं हो । र{रणी उ०-जगणा विनासो रंड गणीजे। किणी माभ सौगाहान कीजे | --र. ज. प्र. =° भे०-रंडनी, रंडा, रंडी, रंडो 1 प्रत्या, रांडोली-~-मह्‌ °~रंड, रखाद । रादणी, रांटवौ-क्रि. स. [सं. रण्डा] किम्नीस्त्री के पत्तिकोमार कर विधवा वनाना । उ०-- रवण मन जांखियौ करू सीता पटयंणी । रांडी मंदोदरी लंक पुनि हुई विरणी । --ग्रोपौ रादौ र†उापौ-देखो 'रडापौ (रू. भे.) रां वरणौ, रांडाववौ-देखो 'रंडणौ, रांटवौ' | राडियौ-वि-१ स्त्री-लोलुप । उ०--दाम री भाम फैली दुकर, भव सारं न भांटिपौ । छिता परर इता गुण छोड द, रांड न छौड रांदियो | --ऊ. का. २ श्रपोग्य, नामद, कायर्‌ 1 उ०्-गोरी री कमाई खासी रडिपारेःहां ए गोरी, कं मांघीकृं मणियार ।म्हैछी वेदा साहूकारराजी। -- लो. गी. रांदी-देनो ^संडः (रू. भे.) उ० १ पाचि पटे मद्वि भीमि भिडी ऊपाडी रीस! नवि मार्डि खद माड वयशि जिम नवि दीसड रांडी भयणि । -सालिभद्रसूरि उ०-२ भभ ब्राग हुवा जोतिगी, भ्रा' तौ श्रई वात वरतगी। राम भगति विन ब्दैमी भांडी, मवं कुः परणायां रांडी। --ग्रनुभववांणी राडीरड-स. स्वी.-विधवा स्त्री! उ०-वा वणी रं मरणारी सृणावणी, वौमांरौ रोचणौ, वौ रांडीरड रौ भेख- --फुलवाड़ी रंडीरोणे, रंखेसेवण-सं. पु.-व्यथं की टांय-टांय, भ्रनर्मल प्रलाप । ग्रपना रोना हूर किमी के मम्भूखरोनेकौ क्रियाया भावे। उ०--म्है थारौमरम भुणा सारूश्राईहु प षैलला थोडी सौ म्हारौ रंडी-रोवणो-सेबू ला । --पुलवादी रा दत्पी-देखो 'रांडोतौ' (रू. भे.) राडेपौ-देखो रेटापौ' (र. भे.) उ०-वडि विशा वादन कीर्जं राणा, श्रथग नर्पते पांणी। राज गयौ रांडेषो श्रायौ, भणं मंदोदर रागी । -मेहोजी गोदारौ रारखलयो-देन्यो 'रंडोतौः (र. भे.) रागोली-देमो “रंड' (ग्रत्पा.; रू. भे.) उ०--नेा रा मोगन कर, भ मानै सुण भुत । रमत दला री रमे, रांडोली रा पूत । -वां. दा. रोतो, रोरोत्यौ-वि.~म्नियौं केसे स्वभाव वाना, कायर, नामर्द॑, श्रयोग्य | उना नारी ना नह, भ्रद विचलना दीस रपत 1 कारजसरेमं काय, रखता सु राजिया) --किरपारांम ष्ट०९द संण-सं. पु. (सं. राट] १ राजा, नृप रागक २ जिसकीस्वी मर गरहौ । रू० भे ०-रांइत्यौ, रांडोलियौ, राद रांद्‌-सं. पु.-मोटा, रस्सा । उ०--१ साखत रद्मूजकी, भीनी कर मरोड। हरीया गूर विन वहि गया, केता लाव करोड़ । --ग्रनुभव्वांणी उ०--२ तुरत वंवावी राद्रमेषएु, जेह्‌नाहाथने पाय । नगरी मांह वाहिरे ए,फेरी जे त्रु काय) --जय्वांणी उ०--२ तदमूज ऊठ दोयरी मंगायी नं जाडा जाडा राद वंटाया प्ररयीचर्मे हाथ रे श्रांतरं लकड़ी रा गाता दिया रसां वीच। । ---द. दा. उ०--४ पञ्च राव जंतसौ जिण भुरजां दिसा धरती नीचे री धी, तिरा दिता रादू तखा ने च्रुणकरण करमयीनू नै उणा रौ साथ गढ उपर चाद्धिग्री | --नगासी =<० भे०~-रदू (ड. को., डि. नां. मा.) उ०--वचिखे प्रारंण मुखे के्वांरा, खसे खुरसांण मरुष्वर रांण --राउ जेंतसी रो रासौ २ रावणा, दशानन उ०--१ सांमद उलहौ भोम निर, कं राण प्रगट राम दह < ---रा. स. उ०-२ विचित्रां दिग्रा विद्छाड, भार्वं हशि भमर्वानिए 1 जांणि कि वाग विधुसिभ्रा, रंण तणा कपिराद्‌ | -वेचनिका उ०--३ हुई लेकमें बू व श्राया हकार । मंत्री संग रा सात्त हुज्जार मार ! श्रलौ' रंण रौ पूत जरौ श्राय, घरी करूधि तेनु हण मान घायौ | --सू. प्र, २३ स्वामी, मालिक । ॐ०--१ पाड, चकारा पांण, हमखौ वित ले हटिर्यो । रे कवर री राण, भ्राज कटी गी श्रावडाः । --पा, प्र, उ०--२ सेखाचतां रंण खशां संज खेल । पाद्धी सवदीव पलेटण॒ ठेल । सवै नर ॒ग्रासत कोक प्रभेण । रिपु बहु “ज्वार हृण्या विच जग) भ्रम्यति ४ देखो रणौ" (मह. ङ. भे.) ` उ०--मांभी मोह मराट, पातल' र॑ण प्रवाडमल । दुजड़ां किय द्रहवाट, दढ मग दांणव तणा । --सूरायचजी टापरयौ उ०--२ श्रोरां ने श्रासांण, हाकां हरवल हालौ । किम हालं कुटठट- रण, हरवले सादा होकिया । --केसरीसिह वारदृठ उ०--३ श्रालापें रमि यारदरू श्रकवरि, दीं धीस खट कुटि दाख ! रांण सेम वुधा सत्र रावणा, रागिन पांतिरियी प्रहिराड) --गोरयन वोगसौ रंणकरा) रणकिया, रांरकष्या-मं म्वी.-सोलकी वंदा की एके शासा । रारलभांण ६०६५ र{णोशंण ५ ~~~ ~--~---------- ~~ ~ रांणखमांण, रंणखुमांण-सं. पु. यौ.-खोटे वड़े जलाशय । , ९ श्र अ | उ०--दू व्वा व्या राण-लमांण मिरे विना मिरगी एकलड़ी । | रषखावत, राणावत्त-स" धु^-९ महाराणा उदयसिंह के वंध कौ एक मिरगौ छोड गयौ वनलंड माय, मिरगी ने एकलड़ी । --लो. गी. दाखा, सीसोदिया वंश की एक शाखाव इस शाखा करा व्यक्ति। रांणदे-सं. स्त्री--सूर्येदेव की पत्नी । उ०--जगमाल उदर्िघोत र वंस रा रांणावत १ कांनावतं २ कद उ०--इतयरा मे भक्ते कमल तेज रौ पुज निसचर निरदख्ण वाहाभ्युरताणोत राजवत ३ राठटोड चांदावत ४“ का्रिगर्दत रौ केटणा वौम रौ सिगार श्रोटण श्रंचार फाभीजोत --वा, दा. म्यात कासिव वंस रौ उ्योत्त रांणदे रौ नाह मासकर देवाध वोनिया। २ राठौड़ कीं एकयावा व इम यावा का व्यक्ति । --मा. वचनिका <° भे०-राणवत, रणपर-सं. पु.-एक प्राचीन नगर विशेष का नाम । २ देखो (राणी (रू. भे.) ` उ०-्ूनृगढ चांपानेर मांडवगढ, ्रणहलपर पाट्‌, रांणपर राणो-सं. स्वरी. [स. राज्ञी; प्रा- राणी] £ किसीराजाया राणाकी वीसलनगर वदुदरू ""“*` त स्त्री, रानी | रोंणवांख-वि.-१ निपुण, दध । उ०--१ वेड ॒वंस उपनी वडी रांणी भादियांणी, बोनी राजा २ चतुर, बृदधिमान । हंत जिका पूरं ब्रत जांणी। -रा. रू ३ टट, पक्का 1 उ०--२ गिरमीं गिरीं मे गिरवं मुडियोड़ा, नान्दी ठरू ज्यू ४ पूरं स्वस्य । गोडा जुडियोडा। कुलटा साची ब्द द्रुकरांणी कूड़ी। पदं राणदत-देखो ‹रांणावत्त (रू. भे.) पडदायत राणी मू रूडीं । --ॐ. का. राणवालो-वि. महाराणा का, महाराणा से सम्बन्धित, महाराणा के २ तादा का वह्‌ पत्ता जिसिपरम्त्रीकी तस्वीर हो! योग्य 1 ति | ३ स्वामिनी, भालकिन । उ०-१ श्रभा' ग्रादि उमराव्र रांणवाछछा मन रक्ये। वरणा दुद्र ४ एक प्रकारका व्वा ऋतु मे होने वाला कीर वि्ेप। यनवंत, उसी “ग्रगजीतः' निरक्खं 1 --रा. रू ₹<० भे०-रांणि । उ०--२ श््रमरसी' रीत श्रवरंम' ती श्रादरी, चिव्रगढृ तणी | रंणोजणियी, रांणोजायौ~सं. पु--१ राणी की कृक्षि से पैदा होने वाना पराद्‌ तजी चाल । सामद्रोहां हमरा रांणवादछा सुपह्‌, रांण पाराथियौ राजबुत्रः राजकुमार । वियौ रिड्माल ! --दुरगादासर राठीड़्‌ ग्रासकरणौत रौ गीत २ राजपूत, क्षतिय । राणा-सं. स्त्री. सि. राट ]१ भिन्त २ राजवंश का उपटंकजो उन उ०--सुखियो श्रागम सत्र, रौ, प्रर जड़ निज देण । राणीजाया राज वंगो के शासकके नामके साथ लिखाया बोला जाता है । किम रद, विरुद घरम कुठ वंण ¦ -वी.स. २ देखो “राना (रू. भे.) रांणीपद, रांणीपदीौ-सं. पु.-समी रनियों में प्रमुख होने का सम्मान रांणाई-सं. स्वी.-१ स्रांण' होने की श्रवस्या या भाव। या श्रधिकार । रानी का पद । २ राणा को पद या पदवी । । उ०--१ लिखलमी रं बेटा दोय हुभ्रा-वाघौ, नरौ । वडा जोरावर उ०-- संवत १६१६ रा माद्रवा वद ३ सीसोदिया सगर उ्दैसिघोत हरा । सातल र छोरू न हनौ । ताहरां टीकौ सूजेजी नू दियौ \ . रौ जनम । पातसाह्‌ जहांगीर मया कर श्रजमेर, नागोर चित्तोड दे राणीपद लिखमी चू दियौ । -नैणसी रांणाई दीनी । --बा. दा. ख्यात उ० -२ राणी सी पतापदेजी रे रांणीपदा रौ दसतरर सुः राणी ३ राणा पद का गौरव, स्वाभिमान। # स्ीहाडीजी तरु रणीपदा रौ वंरौ दियौ । --मारवाड्‌ री ख्यात राजा होने वाली श्रवस्था या भाव, राजत्व। रांणीमगाभाट-सं. पु-करेवल रानियों की ससुराल में नामावली निषने उ०--पद्धं मूयाज रावेठ हृवौ । रतनसी नू रांणाई रौ विरद । की वृत्ति करने वाला भाट । --नणमी | रांखेराव-सं. पू.-महाराखा । राणादे-देखो "रांणदे' (रू. भे.) रांणेस-सं. पु-१ राजाग्रों में श्रेष्ठ, महाराजाधिराज । रणापति-सं. पू--राणदेवी का पति, सूयं भगवानु, सूयं । . २ महाराणा । रांणापण, रांणापणो-पं. पु.-१ वीरता, बहादृरी । रांणोरांण-सं. पु.-समी प्रमुव व प्रतिष्ठित व्यक्तियों का समूह । ,, २ देखो “रंणाईः | वि.~समस्त, सव । संणाराव-सं-पु.-१. महाराणा । रू०° भे०~रांणौसंण । राणो ८ [9 स 1 त 1 रांणौ-सं. पु. (म. राट्‌] (स्त्री रणी) १ राणा पदवी धारी राजवंश का राजा। २ उदयपुर के राजाग्रों का उपटंक, पदवी, उपावि । ३ उदयपुर का राजवख्च) ४ उदयपुर का राजा, महारांखा। उ० --१ थाटपति मेवाड़ थांणौ रचे, निजरा दीव राणं 1 वापहूं चवेगुणी गजी, गुमर धरियौ विये "गाजी । --सु. प्र. उ०--२ परवत पई प्छछाड़या, मेरौ चाचग देवे । कुमक्रण रणौ कियौ, त्रहयौ 'रयण' भ्रजेव । --वां. दा. उ०-३ जुष दिल्ली रहिया जुड, ^रणायर' ^रुषपत्त' ! सिर राण दल सर्किया, ग्रौरंगसाह्‌ श्रसपत्त । --रा. रू. ५ राजा, नृप । उ०--१ परतसास्री श्रक्वर वरणघ्रु, पणि कस्या एक पातसा लीश्रकवर अओंत्रूदुवीप मांहइ प्रवरत्ततु छड, श्रन्य॒ पराय रांरा, मोटा मीर मालिक माहभिड खान, खोजा, सरकषिल साहणा, ते सघला करद सेवा,.....1 --व. स. उ०-२ री सुण चंद्रावत राणी । सांम साथ कज सवण सुहांसी । --रा. <. उ०--३ तु हीज राजा रामचंदत्ु रावण रणा । -- केसोदसि गाड ६ रावण, ददानन । उ०-रांणं सतती हरण मारीच पठाया 1 -केसौदास गाड ७ नक्करारची, होली । (दरू डाड, जयपुर) उ०--रांणी एक जुटी दोय राज का दरोगा । पारासुर वंसी दोय हुक हुक होगा । -- शि. चं. रू० भे०-रत्नौ । मह्‌ ०-राण । राणो रांण-देखो ^रांणोरांण' (रू. भे) उ०--सिसिपाढ संक्यौ चित्त चमवयौ, जरासंवि नइ जां 1 हिव मांहरा हाय जोज्यौ, मिढी रांणौरांण । --सुकमणी मंगठ रातो-वि.-श्रत्यन्त ही क्षीणकाय, मडियल, कुशतन । उ०--वीनदिनांमे ारौसांसितो ब्रांख्या में श्रायग्यौ। हाथी वदै जडो डील हौ, थाक रांतीव्दै ज्यु व्दैगी। --फुलवाड़ी रादा-स. स्वी.-राटौड वंदा की एक उपदाखा । रादौ-सं. पु--राठौड वंश की रादा शाखा का व्यक्ति । रापण-सं. स्त्री-१ पकाने की क्रिया या भाव, पकाने की विधि 1 उ०-ते महाजन जीमतां वशां कर, फ्लांणा माम री राधण देखी । श्रमकडिये महर्‌ नी राधा दमी! पिर दती चतुराद कोह देखी नही 1 --भि.द्र. २ देखो ^रवीराः (ङ. भे.) रंघरषदछठ-सं. स्व्री- यौ--मादी शुक्ल पक्न की छड । ५९६ रापटेवर 1 पौ पिणोीगीपििषपोपििं नि रांधणां-सीधणां-सं. पु. यौ.-मोजन-सामग्री, खाद्य पदार्थं । भोजन के रूप - तयार वस्तुएं 1 उ०--कुधररि महा कुहाडि सदा घरद्‌ श्राटोप, वदटी भरतार दिडइ्‌ निरोप, डोइला हठं किकि घरद््‌, मुहि साम्ही चीवर वरद्‌ रांध्णां-सीघणां नितु श्रणाहर करद, सकल दिवस सूञ्रर जिम --व. स. रांघणौ, रांधवौ-क्रि. स. [सं. रधनं] १ चावल, खिचड़ी, भोजन, खाना श्रादि पकाना, पक्वान्न वनाना । उ०--१ दच्िया राधं दल्वल्िया हढवांसै, वेचण वींदरियां ईवरियां आरं । लादी भारी नै ग्रोढावौ लेती, दुरबख वारी ने बोढावौ देती । --ऊ. का. उ०--२ जाह्रां भगति हुई सु चावन्मं र ग्रौसांवण घु घौडा ऊठ पाया, इतरा चावल राधा । ~ जांगढ री वात उ०-३ सो एके दिन देपाठ घाड़ लेनं भ्रावतौ हूतौ । सो हरल री श्राप रं तकाव उपर गोठ कीवी अठ मांस रांधौ। चवठ रांघा । श्र रोटा हवं द । -देपाछषघध री वात्त २ कष्ट देना, तंग करना, यातना देना । उ०--१ श्रौगुणगारा श्रीर, व्दुखदायी सारी दुनी । चोदू चाकर चोर, राधं छाती राजिया । --किरपारांम ४ उ०--२ म्हुनं देखियौ तौ डोकरी म्हार मार्थं उलक्मी । किंडकि- डियां चावती वोली-तडकं तडकं श्रौ लंणायत रांधशण नं चटरग्यौ । -फुलवाड़ी ` रांघणहार, हारौ (हारी), रंधणियौ -- वि. । रांधिश्रोड़ौ, रांधियोडी, राव्योडौ --भू. का. कृ. । रांघीजणौ, रांघीजवौ --कमे वा, 1 राधियोडौ-भू. का. कृ.--१ पकाया हुश्रा, पका कर वनाया हृश्ना- २ कष्ट दिया हुभ्रा, तंग किया हन्ना, यातना दिया हु्रा । (स्त्री. रांधियोड़ी) रान-सं. स्त्री. [फा. रान] १ जंघा, जांध। [सं. भ्रारण्य | २ वन, जगल । उ०--मोटां र पिण॒ कस्ट मे, जतन नेह सह॒ जाय । रतिं रमणी रानि र, नांखि गयौ नच्छराय 1 --घ.व. ग्र. ३ देखो 'रांखः (रू. भे.) उ०-यां विचार वण वर्त, तेज सू सममेर तोल । मूद्धके रोम व्योम कू उदं, रान केश्राए जमन सेट । | --रा. ख. रानठ-सं. स्त्री.-सूयं करी पत्नी । 5० भे ०-रांनि, रांनिल्ल रानिव्पति, रानव्पती-सं. पु~-सूयं, भानु, रवि । (श्र. मा.) रनठवर, रानटसुवर-सं. पु. [राज. रानठ सं. वर] सूर्य, भानु (नां. मा. ह्‌. ना. मां.) ४ ई क 1 ए. क 3, रल ` ४०६७ राम ` <० भे ०--रानिल्लवर | रंसस-सं. स्वी.-एक प्रकार की घास । राना-सं. स्वी.-१ सूयकीपत्नीयास्त्री) राम-सं. पु. [सं. राम] १ ईदवर, परमात्मा, (नां. मा.) उ०--कूरंमी कमथन्ज सू, भ्रोपं वामं भ्रंग । रवि रांनए ससि उ०--१ रांम नांम सदा वांणी, राम नाम सदा कथा । रामंनमि रोहिणी, सूरपत्ि सचि किर संग) -रा. र. सदा सन्द, ते सवद, सुक्यारया । --ह. र. २ देखो (संणा (रू. भे.) | उ०्-२हररांम रराम गिर हरसे, जग में गरं जेमल म दरसं | रानापत, रनापति-सं. पू.-सूय, रवि ! (ना. हि. को.) --ऊ. काः रानिल रांनित्ल-देखो “संनटठः (र<. भे.) उ०-एतू श्रागिदं उपनु, भरामि जि वरसद ग्रंगि । रानिल किम रगि रम्‌, सूरिज केरड संयि । --मा.का.प्र. राँनिल्लवर-देखो “रांनस्वरः' (र. भे.) उ०--सहिस-किरण सिर संचरड, नहु सरयांसर जेम । रानिल्लवर शू नहीं, ्रचला पीडड़ एम । --मा. कां. प्र. रानी-देखो "राणी (.भे.) ` रनुडी-सं. प.-एक प्रकार का घोड़ा । (णा. हो.) रपस. स्व्री.-जलादाय का जल समाप्त होने पर निकलने वाली ऊपरी तह की चिकनी श्रौर पतली मिदर | उ०--रवड़ी जिसडी संप, पंचास्रत पाणी पालर । मोल मढा स्या, चीकनी च्रूटौ कालर्‌ 1 > -- दसदेव रापडो-सं. पु. [देगज] १ पतते लोह्‌ का वना छोटा गडसा, एक कपि उपकरण । (शेखावाटी) २ देखो "संपौ' (ग्रत्पा. ₹. भे.) रांपलौ-देखो "रपौ (ग्रस्या., <. भे.) रापी-सं. स्मीः मोचियों का चमडा तरश्ने, काटने मरौर साफ करने काएक श्रौजारजो खृरपीके श्राकारकाहौताहै। रांपौ-से. पु.-वह्‌ व्यक्ति जोषैरमें वातं रोगके कारण कोई कायं करने में ग्रसमथंदहो। ग्रत्पा०~रांपडौ, रापलौ, रांफल-सं° स्त्री-१ वहत मे लोगो की भगदड । २ लडाई, फिसाद । रफठणी, रांफठयौ-देम्वो श्राफठणौ, भ्राफय्वौ' उ०--भड खाटरा प्रभत्त सकोदहा साफ ¦ लै जरमन परलोक रहन्वं रांफटं । । --किसोर्दान बारहड रफदिपोडौ-देखो श््राफक्ियोडीः (स्त्री. रंफटियोडी) रमणो, रांभवी-देखो 'रभारौ, रंमाचौ' (रू. भे.) उ०--१ मौ गायां मरसीह्‌, सुण पाव श्राखं सगत । व्रण दिन री तरसीह्‌ । राभि घांवलराव उत । ~ ---पा. प्र. उ०--२ दादी साम्‌, पोतियां जुवाईनं देखणा म तरसी भ्र हाथ री कांपती दो श्रागठयां एक भ्रांख रे एड-छेहं देय" र॒ रसोई री वारी सू ऊलढी, जंणौ सुवाड़ी गाय लुवारे टोधडियै पर सामी है, ---दप्दोख उ०--३ जेसलमेरी जोड, प्रवर भटि्यांणी श्राखं 1 उर प्रचेत इण काम, रांमत्यां हेत न राखं। --रा. र्‌ उ०--४ वीतु नन्ही एकोजि ब्रह्म, पठां जस कासू कासू प्रम । रीभावां तुभ किसी विधि राम, पूजीजै कीज केम प्रणाम । -पी. ग्र. उ०--५ मिदर में जाय हाथ जोडनं बौ ठाकुरजी नं माथौ निवावण लागौ उण षै्ला ई उणरी निजर कनाकंद सू भरियोड़ौ थाठां रं प्रसाद माथ पड़ी ) मूडामें राम नांव रं वदं लाद सट्वटठ्ण लागी । --फुलवाड़ी २ ब्रह उ०--रांम सकठ म रमि र्या, हाजरि खड़ा हसरुर । हरीया श्रध न देख, चु ह दिस ऊगा सूर्‌ । --ग्रनुभवर्वांणी मुहा०-१ रांमकहणौ == मरना, मृत्यु को प्राप्त होना! २ रांमजणि--जिसे राम ही जानता है, मनुष्य की जनकारी में न ही । ३ रांमनिकठटणौ--ग्ररक्त या क्षीण होना, श्रीहूत होना, मरणा- सन्न होना । मति भ्रष्ट होना, ईमान समाप्त होना । ४ रांम वोलणौ कोई अ्रच्छी वात किसीके मुह मे स्वतः प्रगट होना, मरना ५ राम राम करणौन्-रामनामसेकिसी का श्रभिवादन करना, जसे-तंसे समय गुजारना । ६ रांमसरण होणौ =ईवर की शरण मं जाना प्रयाति म॒त्युरो प्राप्त होना, मरना । ३ विष्णु का एक नामान्तर ४ भूं वंशी राजा दणरथ के पच श्र रामचन्द्रे जो विष्णु के श्रवततार मने गयेर्ह। (श्र, मा., नां. मा.) उ०--१ उणवार तहव्वर जोर इसौ, जुध राम दल्टां सिर कुभि जिसौ 1 --रा. र, उ०-२ निमौ र्धनंदण रास नरेस । सत्रधरा सांच लखमरण मेस । ~ पी. ग्र. उ०--२ केसरीसिध रामसिघ सवलसिधके जाए रांम्वांणसे प्रचूक रोद्र छोभ पाए) --रा. रू उ०--४ श्रसुर मार त्रु श्रातमा, निमौतुहारा नाम । मारैतां' समप मगति, राकस तारं रम 1 --पी. ग्र ५ श्रीकृष्ण के वड भाई वलराम, का नामान्तर। रापश्रजीर 8 नानायोनि [क काकवाच्ककक 9 पि न प्रश्युराम । श्रीक्रष्णा, एमाम ) घोटा) एक मृग वि्ेष । मारतत्व 1 मान । धत्ति, सामथ्यं } योग्यना । मृद कै लिये प्रयुक्त हने वाला एक सम्बोधन । ज्यू~म्हारौ रम तो श्रै काष्टं प्राया । १५ वर्ग । १६ श्रयोकः वृक्ष । १७ हरितिकी, हर्द 1 (श्र, मा.) १८ एक माचिकं छुद्र जिसके प्रस्येक चर्या १७ मात्रां होती द वश्रतम यग होतादै। {६ देगमौ "रामदेव" । वि०-{ गुन्दर, मनोहर, श्रभिराम । प्रमम्न फरनं वानां, प्रानन्द्‌ दायक । दवेत, सफेद । # (दि. को.) ८ प्रप्णा वु, एयाम । # श्र, मा ह्‌. तां मा.) ग्रत्पा०-रमी्यौ, रमयी, रामट्श्रौ, रंमघ्यौ, रामौ, रामयौ, गगूटौ, रमी, । अ $ ॐ न रमश्रंजोर-तं. पु, यौ.-पाकर्‌ वृक । मंमध्रसर्याण-ग. पु-एक पधा पिच्रेप जिसके फल एवं पत्तो मे श्रजा- वाष््नकी गं श्रती ईै। । र{मद्प्रो, संमषटयो-मं. पु-१ रामदेव पीर नजौ स्गीचा के टकर प्रसमालनजी के पुप्रये। उ०-- रमर श्रजमात रौ प्रानमजी री यार्‌ । मांभिद्धिै कि भां मी, परिया तणी पुकार । --पी, ग्र. ० मेर~र्मदयौ, रमीर्दूयी, रमेयौ, मयौ । > दषो "संम (श्रत्पा., २, भे.) रमषचेटी-म. रत्री. ईदयर्‌ का न्याम । उ०--मुग म प्रीत गवाय, दृं मुग्र टदा द्विव । जके फहसी जाग, रमिफचेष्े सजिया) --किरपारांम रासयठी-सं. रत्री.-भरय रागकी स्त्री, फकः गभिनी 1 (ममी) रामपिियो-देगो (संगनियी' (₹, भे.) रमरो-ग. स्त्री. किसो संत फी धिष्या । गमकष्टी- गं. पु.-१ एनः प्रकार्‌ का यद्धिया केना । २ ग्राम फी पक जाति दरम. पु-दक्निमा का फक प्राीन नीथ । रपम. पू.-एम प्रानोनि सीं शल साम । (पौराणिक) (पौरागिक) , ४०६६ पपि री वि 1 4 8 ` क का त रावननणी ग्मि भक रामगंमा-सं. स्ती.-फत्ौन कै पास गंगा मे मिलने वाली एक नदी । उ०-देवीनांम भागीरथी नाम गंगा, देवी गंडकी गोगरा रामिगंगा। --देवि रामगिरि-सं. पू. नागपुरके पास काक पटह जो श्राजकल रामटेक फहूलाता दै । ` २ एक राग विदोष। (संगीत) रमगीता-सं. स्वी.-१ एक मात्रिक दुद विश्ेप। २ वेदान्तका एके दछधोटा ग्रन्थ रांमङ-देग्वो "संम! (म्रत्पा., <. भे. ) रामिचग, रमिचगा, रामचगी, रामचगीय~सं. स््री.-एक प्रकार की वंटूष उ०--१ धव नाढा भड़ा भड़ी घटावटी पूजं वरा । चुटं वांरा- गोढी, रांमचंगिया चद्योह्‌ । --रा. रू. उ०--२ सो जोय नू रामचंगी वांणारीखवरनभध्रीसौनैदा चाचिया प्राया । कू वरसी सांखला री वारता। | उ०--३ सज र[मिचिय सार, तेद्‌ करत भरत तयार । कैट करत पामर काज, सव टोप वकतर साज । --पे, स (र. ज. प्र,) -उ०-४ जवर जग नात्या रां निहा उपडिर्नं रहीग्राद्य। गज नाल्यां सृत्तर नार्या, जन्रुरा न्यां, रांमचंगी दथनात्या रा चण- गाट वाजं छ] --रा. सा. म. २ एक प्रकार की तोप) उ०--एकं दिन भुजांख साह ढाल दोय श्रसल गेडारी श्री, त्तिक निजर कीधी । तरे वडी रमचंगी रौ , गौढी वाहि दीटी, तिकौ चपटी होय पडियी, पिगा दल रं रंग री चिटक उत्तरी नही । --कह्वाट स॒र्वददिये री वात रांमच॑व, रामचंद्र, रांमचं्र त-स, षु. [ सं. रामचन्द्र] १ सूर्यवंनीय राजा दणरथ कै बरे पुत्र ^राम' जो एक भ्रादये पुय, श्रादणं पति व श्रादर्गं राजाभ्रे प्रौर जिन्हौने एक वचन, एक पत्नी त्र एक रण, छन व्रतो का निष्छाूर्वक श्राचरेशा किया । उ०--प्रतापि लंक, गुरुजन विनय रामचंद्र, साहमि विक्रमादित्य, त्यागलीला करण्णा, वेचन प्रतिस्टां युधिस्ठिर --व. म. २ ईयर, परमेदृवर, परमात्मा (नां. मा.) रामचरण-स. पू--पादपुरा रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रवर्तक एकः साधु जौ वरपारामं फे लिप्यभश्रे | रामचरित-मानस-स. पृ. [सं.] गोस्वामी तुतसीदासजी दाया रचित भ्रति परसिद्ध एवं प्रत्यन्त लोक प्रिय वामिक ग्रन्थ, जिसमें श्रीराम वे जीवन चरित्र फा वरन रामचिदी-सं. रप्री.~-मद्धसियां पकट्‌ कर साने वाला एक जल पक्षी रामजणी-सं. स्परी--१ हिन्द वेष्या, रखी] (मा. म.) उ०--रामजणी श्र फंवरी, परातरदेवं पांम। दै वाधगा यनं हेयः री, रां श्रमी राम । --वा. दा, २ यटुरणी जियके पतिका ष्तानद्ो। ।, र₹†{पजय ० भे०-रांमजनी, रांमजन-सं. पु--ईदवर का भक्त, संत, साधु । ॐ०-१ जन हरीया माया सव, खाया जुग संसार । एक न सखाया रांमजन, सतगुर कं प्राधार । --ग्रनुभववाणी उ०--२ राम कह से रांमजन, हूरीया दूजा भे । दुनीयां सेती दोसती, घरे संत सु धेख । --श्रनुभववांणी रांमजननी-सं. स्त्री. [सं. रामजननी] १ राम की माता कौगत्या। (रामायण) २ वलराम की माता रोहिणी । रामजनी-देखो रामजी (<. भे.) उ० -दोरि किते पतनी श्रपनी, मन रांमजनी मुख के श्रभिलामे । मत्त कित्ते मदिरा मद हु वम नीद कितेक लखं रित भाखं । -- फतहकरणा ऊन रांमजयंती-सं. स्त्री. [सं. रामजयंती ] रामनवमी रांमजांमुन-सं. पू-मंकोते कद का एक प्रकारका जामुन का वृक्ष । रंमजो-~सं. पु.-ईदवर का एक श्रादर युक्तं सम्बोधन । उ०-जन हरीया ऊर्म घरी, खेत न व्वंड कोयं । जाह रू्खवाठा , रामजी, मान वंकौ होय । --ग्रनुभवर्वांणी रामजी री गाय-सं. स्त्री. वीरवहुटी, इद्रवधु 1 रांमनोत, रांमजोती-सं. स्त्री. [सं. रामज्योत्ति]| १ ब्रह्म का प्रकाल । ब्रह्म ज्योति । उ०-लीवा नाम नीठ नीठ म्रनेक जनमां लगां, श्रभं धांम पारव ठाम वैङुट श्रदोत्त । दे रीठ संग्राम वामां घडी हैक भाज देही, जोधा मठं रंम रा स्नेही रांमनोत। -- साधां रौ गीत > मोक्ष, मुक्ति । संमभार-सं. पु.-एक बड़ी कारी जिसके एक लंबी हटी नगी होती रामिकोढ-देखो ^रिम भोटः (र. भे.) रामटेक, रामरेकरी-सं. स्त्री.-एक पहाडी । वि० वि०-देखो “रांमभिरि रांमण-देखो 'रांवण' (रू. भे.) उ०--काज प्रहोणौ दही कर, एह प्रक्रत खचठश्रग। रांमण पठियौ राम दिस, कर सोब्रनौ कुर ग । --वां. दा. रांमणखंड, रमणखंड-देखो ^रांवणखंडौ' रामणगदु-देखो राव ए॒गद' (रू. भे.) रांमणगांजौ-स. पु-एक प्रकारका भाला या जेल) उ०--तठां उपरात्ति करि नं राजान सिलांमति श्रसवारी वाग उपाडि किलकिला ज्यो ऊपाडि ऊपाडि हेमरां नाखीजे द! भूसणां उपर वरटी चमकिनै रही छ रंमणगांजा मेला रा धमोडा पडिनं रहीश्राद्य। रांमणरिप, रंमणरिपु-देखो ^रावणरिपु' (र. भे.) (रू, भे.) 1 ४०६६ --रा. सा. स. + श ~~~ ~~~ ~~~ -----~-------- ~` `` --~---------~ ~` ~~~ ~~ ~ [| 1 9 रांमणहत्थौ, रांमणहयथियौ, रांमणहयौ-सं. पू. [सं. रवण~+ हस्तं | एकं प्रकार कातार वाद्य विदेप। <० भे०-रांवणह्थौ । रांमणारि-देखो 'राविसारि (रू. भ.) (ना. मा.) रांमणि-देखो ^रांवण' (रू. भे.) रांमणी, रामवौ-देखो (रमणौ, रमवौ' (रू. भे.) उ०-रति रयण॒ सुदिनर नारि रांमति गाटि प्रमुदित गावही। मुख गांन, दिने निस स्वांम मंग वंण चग व्जावही। --रा. रू. रांमत-सं. स्वरी. [स. रम्यति, प्रा. रम्मति] १ क्रीडा, खेल । उ०--१ पित मौ वाघौ पाटणी, रांमत रिभवारं । उम रामश सुशि श्र गदह्‌, खट वायक खार । - सु. प्र उ०-२ वृूःत ग्राहावतौ टढहतौ केवियां, त्रजड़ रांमत रमे कमव त्यारा। गजण' रे नांजियां बाज मचती गहण, म्मुर' ह्र ग्राभर्ण पूर सारा। २ मनोविनोद । ३ हसी, मजाक, ठिठोली । उ०--१ मारवणी नांशियीभ्रौतोश्रौर पथीद्ै। मीमांमोसु रांमत करं छ। --टो. मा. उ०-२ मु पहलीतो श्रा वात श्रदावत री हर्द थी, तर तौ सारांही जांणियौ थौ-े साका वंहनेद थकां रांमत करं । नते श्रा वात रायिघ हालतां कही तरं तौ सार ही जांणियौ-ज ग्रावात्त साची हुई । कोई उपाव उपद्रव हू्ईसी । -- नरसी उ०-> दठ करण नू राजपुतां निराठ मन्हा कियौजे वडा सरदार शरसी कोई करै नही दै। कृंड़ीसूतौ रांमत मसकरी साचीस्रु गठदधै। --भादीसुदरदास वीकूपुरीरीवारता ४ भ्रभिनय, नाटकं । उ०-१ लुगाईरीद्चूण विना रखवाठण कवरांणी, प्रर गरूजरीरी भ्रा रांमत कुण रमतौ) उ०-२मांइण रांमतमूतौ म्हारौ जीव साफ फाटग्यौ। थार प्रागे म्हारी वसनी चाल, नीतर महै तौ कर्द न्टाय छती । काद लुगाई रौ जलम फगत इण रमत सारू ई व्हियौ है । --फुलवाड़ी उ०--े श्रावं जाय ग्रपार, ग्रीधां पठ भरि भरि गलां। किर नटवाढठां गोटका, विचरं रांमत वार्‌। ५ तमा, सेल | उ०--१ श्रर माचि माहैं रावच्िया रमत रमता हृता सीधा. रौ साथ रमत दैग्वणा नू गयौ हृतौ । --नेणमी उ० -२ तुम वेठे रांमत लौ, नह्‌ वेवत्त प्र-पीर । मो ५। छ कीजे मही, भले भले रघुवीर ! ग रू. वं. महाररी नवथ. --गअ द्ध रमत -फुलवाडी 1 रामतद्णी १०० रीमनने कन ~~~ --------- ~ ६ नौरी का देल । उ०--दुवबाह्‌ ्रलाडाजीत वाडा रामदूत । --र,. ज. प्र. ७ चौपड श्रादि का गेल, चूत क्रीड़ा) रामदे-देसो "रांमदेव' (रू. भे.) उ०--रांमत चौपड राज री, है विक वार हजार! धण सूयी उ०--राउत रिणिसी रांसदे वडिमि धिरोरी वाह । सगाई तू धक, घरमराज विरकार। --रांमनाथ कनियौ संधा सिरं, नेतब्दे रौ नाह्‌ । --पी. म्र. ० भ०--रमत, रम्मत, रमति, रांमती । रामदेरी-देखो ^रांमदेवरी (रू. भे.) रामतर्णी-सं. स्वी. यौ. [सं.रमतस्णी [ १ श्री रामचन्द्र की पलनी सीता। २ मफेद गुलव, सेवती । रामतारक-सं. पू. यौ. [सं. रामतारक] रामोपासक लोगों द्वस जपा जाने वाता मंत्र, धरां रामाय नमः| रामति-देयो (संमतः (रू. भे.) उ०-१ लघु लधु मर्‌ कर धनक लघु, लघुं वय वाक लार । उ०-कोस १ साथ गया, उठ जाय ऊतरीया, वात विगत करसं सीजी रासाथनं सीखदी। राजारौ उरौ रामदेरं हवी, --नेणसी रांमदेव-सं. प.-१ प्रसिद्धि तुवर वंशीय श्रनगपाल जी कै वंगज ग्रजमालजी कै सुपृत्र रामदेव, जो सिद्ध पुरुष (पीर) माने (नहि म, गीला राजुमार , ग्येर्हु। । स = वि. वि.~-उनका जन्म संवत १४६१ में हुभ्रा प्नौर संवत १५१६ में उ०--२ नल्‌ ते रांमत्ति नवि यजद्‌, दरद्‌ नकराय रे 1 पास्ता ये समाधिस्थ हुए । इनकी समाधि पोकरण (राजस्थान कै पड श्रचला तव, वृर्‌ सविसेषवु थाई । - नठदवद॑ती रास जोधपुर जिलेमे) से नौ मील दरूररहै। इनके ्नुयायी प्रायः उ०--२ रांमति रमती द्रू्तीयां, कन्या कुंवारी धाय । रतवत श्रनुमुचित्त जाति के लोग जो इन्हें ईइवर का श्रवतार मानते ह) पीद्धे रमण की, हरीया प्यास मिटाय। --ग्रनूभववांणी २ उक्तं पुरुप को सम्बोधित कर गाया जाने बाला लोक गीतं । रामतियौ-सं. पु-१ येलने का उपकरण यरा साधन, खिनीना । ३ उक्त पुरुषके श्रनुयायी लोगों का सम्प्रदाय । २ योनि, भग (वाजारू) ४ श्रीरामचन्द्र । । ० भेऽ-रमकियी, रमतियो, रामकियौ । 5० भे ऽ-रांमदे, रांमदं । रामती-देम्यो "संमतः (रू. भे.) रामदेवरौ, रामदेषवरो-सं. पु.-१ रामदेवजी का समाचिस्थान, मन्दिर 1 रंमतोरथ-म. पु. [सं. रामतीर्थ] रामगिरि नामक स्थान। देवालय । रामतोर-नं. म्थी--भिडी नामक फली जिसकी सन्जी बनाई जाती है । २ उक्त नाम का गोव ) संमदरसं. पु. [स. रामदल| १ श्री रामचन्द्रे की वानेर~सेना। ० भे०.-रां देरै | २ कोद विशाल मना जिका मुकावला करना कटिन हो । संमदो न्तमदेनः (ख. मे.) रामदवार्ई-देमो 'रांमदुग्राई (रू. भे.) | = रंमदवारौ-मं. पृ. [सं. राम-द्रारा] समस्नेही सम्प्रदाय के साधुप्नों | रामदारो-देनो "संमदवास (रू. भे.) के गहने का स्यान, मकान) रामधरम-स. पू.-! दृद्यर को साक्षी वनानेकीक्रियाया भावं) ० मे०-रामदुवारौ, रमद्रारी ! । २ ्रपनी मयादा मे रहने की श्रवस्था या भाव। संमदात-म. पु. (मं. समदा] १ श्री रामचन्द्र का दास, हनुमान । उ०-- चालं कृ री चान, राम्रधरम धास्या रहै) दुखियां पर २ दक्षिण भारत के एक प्रमिद्र महात्मा जो दिवाजी के गुषूथे, दयाठछ, भव क्यू विगड़ं भरिया ¦ -रतलांम नरेस वटव त्विह यममृ-गृर राणदास 1 २३ ईमान । रोपदद्रार, रामद्रवाई-मं. म्यी. श्रीराम की लपथ, ईश्वर की ० भे०-रांमश्रम । सौगन्ध 1 रांमधाम-सं. पू. [सं. राम-वाम] १ वह्‌ लोक जहां ईद्वर रामसूपं २ रामनाम रो दुहाई । मे निव्य चिराजमानं रहते है, साकेत धाम, श्रयोव्या । र° मे०-रांमदवाई, रांमदुह्‌ाई । २ ्वकुण्ड। दामदरुदारो-देसो संमदवारौ (रू. भे.) रामध्रम-~देखो (रमिधरमः (<. भे.) उ०--लोग दातत नांडघरा दहै, वं संमदुवारा श्रर॒िदर्‌ | समन, रमनमी, रमनयमो-म, स्वी. [सं रामनवमी चैर क्लां भं चोरी मारु हायनी घान) --फुलवाड़ी नवमी कौ त्थि, जिस दिन श्री रामचन्द्र का जन्महृ्राथा। रामदृदार-दमो 'संमदुग्राद (र. भे.) एक पर्वं दिन। रमदून-मे. प. [मं. रमदूत| दुनुमाननजी 1 5० भे०~रांमनांमी, संमनोमी, रंमनौमी । ` रामनामी रामनांमो-सं. स्त्री.-१ राम नाम छपा हुत्रा कोई दुपट्राया चादर जिसको प्रायः विध्वा स्त्रियां श्रोढा करती है! २ गले में पहनने का एक स्वणंहार विदेप जिसे प्रायः विघव्राए पहनती है! - ४१०१ क रामवाड़ी २ देखो !रांमदयौ (रू. भे.) रामरक्षा-सं. स्वी. [सं. रामरक्षा] विश्वामित्र द्वारा रचित श्वी राम का एक स्तोत्र । ङ<० भे०~रक्षारांम । ३ सोने चादीके आभूषणों पर रेखाग्रों की खुदाई रने का | रांमरज-सं. स्वरी. वैप्णव लोगो के तिलकः लगाने कौ एक प्रकार की कीला । (स्वरंकार) ४ देखो (रांमनवमीः (रू. भे.) रामनोमी, रांमनौमी-देखो "रामनवमी रंमपद-सं. पु.-मोक्न, मूक्ति । क्रि. प्र.-पाणौ, मिठणौ । रांमपयोध-सं. पु. [सं. राम पयोधि] राम के यद रूपी समुद्र । उ०-- श्राद्धी कीध रसोह्‌, रस ने साहित-र्सिधु रौ । जग सह्‌ पिय जिसोह्‌, सपक रांमपयोध रंख । --उत्तमचंद भंडारी रांमपुर-सं. पु.-१ श्रयोध्या नगरी । २ स्वम, वकुण्ठ। रंमपुरा-सं. स्त्री--एक प्रकार की वन्दरुक । रांमपुरी-सं. स्व्री--१ अयोध्या नगरी) २ स्वगलोक, वकुण्ठ । ¢ * ३ एक प्रकार की तलवार । रामपुरीकत्ती-सं .स्व्री-तलवार के आकार की एक कत्ता विशेष । रामप्रिया-सं -स्ी--श्री सीताजी 1 (नां. मा.) रांमफट-सं. प.-सीताफल, सरीफा । ह. भे.) उ०--खरबूजा जग सह जाय रे, सौ श्रसोक रमर सदं । समठ सरीस तज ्रान सुख, दाख रांमफटठ सेव दे । --र.ज. प्र रमफटठी-सं .स्व्री.-ग्वार की सूखी हुई फठी, जिसे तेल मेँ तलकर मिच मसाले लगाकर खाया जाता है । रांमर्वाम-सं सनी. [स. राम~-वामा] श्रीराम कौ पल॒ श्री सीताजी । रांमबांस-सं. प.-१ एक प्रकार का वास्त । २ केवडे या केतकी की जाति का एक पौधा। राममक्त-स. पु.-१ श्वी राम का उपासक कोरर व्यक्ति। २ हनुमान 1 रंमभीच-सं. पू--टनुमान का एक नामान्तर । रमभोग-सं. पु--१ एक प्रकार का चावल । २ एक प्रकारका ्राम। श्री रामको भोग (चद्ाया) लगाया जाने वाला पदाथ । (नां. मा.) रांममत्र-स. पु.-्यं रामायः नमः नामक मत्र । राममन-सं. पु. [सं. राममन] हनुमान । (श्र. मा.) रमयौ-सं. प.-१ कान्य छंद का एक भेद विदेप । २ देखो रामः (ग्रल्पा., <. भे.) (वि. ध्र.) पीली मिदर । रांमरमी-से. स्व्री.-दीपावली व होली के दूसरे दिन परस्पर मिलकर किया जाने वाल्ला ग्रभिवादन, प्रणाम ग्रदि। रांमरस-सं. पु.-१ नमक । उ०--मही मही मिरची पीसी, दियौ रांमरस न्टाख। तेलरौ म्द दचकण दीनौ, दीन्ही हांडी चदढाय, यौ पंचमेटं रौ साग, देवतडां नै भी नाय भिदं जी राज । -लो गी. २ रांम की भक्ति। | उ०-१ रहौ वीवरे रांमरस, प्रनरथ धणौ ग्रलंत। याहिजदहै घ्रम श्रातमा, पे तीरथ रे तंत । --वां. दा. उ०-२ सतगुर भागी भरमना, निहूचै पायौ नाम । हरीया घट म रांमरस, क्या कूडं सु काम । --ग्रनुभवववांसी ३ राम की भक्ति रूपी म्रमृत 1 उ०--हरीये पीया रांमरस, श्राद्र पौहूर श्रभंग। श्रौर किसी कु पावती, करे हमारा संग । --ग्रनुभववांणी रांमरांम-सं. पु.-१ परस्पर मिलने पर इसी गनब्द को बोलते हुए किया जाने वाला श्रभिवादन, दुग्रासलाम, प्रणाम, नमस्कार । (हिन्दू) २ रामनाम की माला, जाप । रांमराज, रामराज्य-सं. प. [सं. राम~+राज्य] १ श्री रामचन्ध का दासन, जिसमे प्रजा को वहत श्राराम मिला प्रौर संस्कृति का विकास हुम्रा 1 २ एेसा शासन जिसकी उपमा श्री रामचन्द्र के शासनसेकी जाती ह । सुखदायी शासन । उ०--वारा हरचंद रा वहै, रांमराज री रीत । कृममां दाई कनक रा, पुहमी वटं प्रवीत । --वां.दा. | रांमलवण-सं. पु-सांभर नमक । रांमलाल-सं. पु.-एक म।रवाड़ी लोक गीत । रामलोला-सं. स्तरी--१ श्री रामचन्द्र के जीवन-चरिव पर्‌ किया जाने वाला नाटक । २ एक मात्रिक छंद विदेप जिसके प्र्येक चरण मे २० मात्राए तथा ग्न्त मे एक जगण होता है। रांमवट-सं. पु--पड्हार वंदा की एक शाखा । रांमवाड़ो-सं. पु-परिचमि भारत का एक तीथं स्थान | उ०--वनं रामचंद्र वसं रांमवाडे । सरपास कोटेमर्‌ सग चा -- नु. प्र. ष त ॥ १ (षि रामर्रगी वकाश पी 8 # र॑ससंगी-१ देखो ^रामचगी' उ०--धुव सोर जुजरवा ग्रत सधीर, तद चलं रामसंगी र-तीर । २ देखो 'रांमससा' रमसला-सं. पु. (सं. सुग्रीव । रांमसनेह्‌-सं- पु. [सं. रामस्नेह] राम कौ भक्ति । उ०्- नही धिर दहन गेह न गेह 1 रही चिर यष्यहु रामसनेह्‌ । ---ठ, पम, रांमसनेही-स. पु. [सं. रामस्नेही] १ राजम्थान का एक प्रसिद्ध साघु सम्प्रदाय, जिसका श्राविर्भाव श्री हुरिसामदासजी महारज (सीयल) से माना जाताद्‌। वि. वि.-संत साहिर्यमें प्रमुख सतोंकी रचनाग्रो मेसा प्रतीत होता है कि यह सम्प्रदाय रामानन्द की वप्णव परम्परा के श्रन्तगत ग्राता है। ग्रनुभववांणी भू. पृ. २८) रामावत सम्प्रदाय फी शिष्य परम्परामें श्री जेमलदास्जी दिव्य पत्य हए, जिन्हामे सगुणोपासना को निगुण की शरोर प्ररत विया श्रौर ^राम रामः को मूल मंत्र स्वीकार किया । नका यह्‌ प्रयास ही एस सम्प्रदाय का वीज माना जातादहै। श्री जेमलदास भी कै मुर्यदिप्यश्नी हरीसमदास जी मे इस सम्प्रदाय फो श्रौपचारिक प्रतीष्ठा फी । भ्रतः ध्रीहुरीरामदासजी द्वारा दरस सम्प्रदाय का श्राविभवि सीयलसे हुग्रा 1 भींयल मे रामसनेही सम्प्रदाय का मुस्य पोर प्राज भी वर्तमान है। श्रीह्रीरामदसनजी के मुरयशिष्य श्री रामदासजीने इस सम्प्रदाय का प्रत्यधिक प्रचार-प्रसार क्रिया ग्रौर सेडापम्राममे एक पीठ फी स्थापना कीलजोप्राजमभी वतमान है । सीयल एवं वेडापा के भ्रतिरिक्तं शादुपुरा वरेण मे दो पीटठश्रौर ई, जिनके मूल पुरुप क्रमशः रामचरणजी तथा दरियवे जी महाराज माने जाते ह1 इस सम्प्रदाय के साधुया ग्रनुयायी का प्रमुख उदेश्य रामनाम" की माला जपना ही हता है 1 २ उक्त सम्प्रदायका श्रनुयायी साधु) उ०-सव जुग विघ्या जेवरी, निरवंधन नहीं कोय । जने हरीया निरवंघ है, रांमसनेही होय । --श्रनुभववांणी ३ वह्‌ व्यक्ति जो उक्त सम्प्रदाय का प्रनुयायी हो) चि०~-राम से स्नेह रखने वाला । संमसरण-सं. पु. [सं. रामदारणः] स्वगंवास, मोक्ष । वि०्-जो ईदवर की शर्ण मे चला गया हो, स्व्गेवासीहो गयादो। उ०--१ जांहसं कितरं हके वरस ददौ रांमसरण हुवौ, ताहरां भोज वूदी श्रायौ । भोज नू पातसाह्‌ धरती दीधी। -नैणसी उ०--२ पच्चीस बरसां रौ परण्यो-पांत्यी मोय्यार कारी बेटी ४१०२ कथो के भना, म = जे मीमा शिकननये अनिन ग्नं श्र धीनणी म विमा वाये दराज्ण ना पोर्न रमिसरण प्रमी । --पुतवादश्र रामस रीत. सत्री.-एमः चिद्या गो नाम । उ० ~ ग्रागरि जक निरम उरप भ्रति पिधनि, मरननतरः विरि लियत गरू ! रामसर गूमरी ति रट दमा माल चद चन] --येनि रमसाप-सप. पू.-षल विदोषं 1 उ० द्रुम दामी चमक केरा दारा । सद्नून मीताफम संमा । --धग््ात रामरागर-स. पु.-१ पानीकीचष्टी मारी जिन्त लम्बी ददी लमीं होती ₹। नटे गृहच गहय पके पाप विनके ऊपर पन्ने का ए द्त्यालगाहोततादटूतया मौ दूय, शीर श्रादि सरल पदार्थं परोमने के काम श्रत्तादटै। १3, रांमसापीर-देणो (समदेव! रामपिला-म. वु. [स. ससद्चिता] गयाफी षक पहु (तीर्यं) 1 रामसेदु-स. पू. [सं. राम सेतु] दलि मँ रामेपवर तीर्थं के शराये, समुद्र मे पडी हुई चटान, मिमे रावणा पर्‌ चडाटु क समय श्रीरामं दारा चनाया हृभ्रा पुल (रोतु) माना जाताद। रांभाण-देसो ^रंमायण' (₹. भे.) रांमा-स. स्री. [ं. रामा] १ समी) उ०--१ लाक माता ्षिधुसुता खी लिखमी, पदमा पदमातया प्रमा ! भ्रवर ग्रहे प्रस्थिरा दिर, रामा ह्रिवल्लभा रमा, --वैेलि उ०-२ रामा कदितां लक्ष्मीजी तिहिको श्रवत्तार । ताकठ नाम रकमणी । "धक २ स्ममणी 1 ` ३ सीता । ४ राघा। भ सुन्दर स्त्री । उ०--रतांसामी धरम रामाकांमदही रत्त । भन मोटा दिन पद्धरा, भड वका गहेमत्त । --गु. रू. वं, ६ परमिका, प्रयसती। ७ भार्या, पत्नी, स्मी। < सती-साध्वी स्ती। ६ गायन विद्यामे निप स्नी। १० कात्तिक कृष्णा एकादशी । ११ नदी। । १२ श्रार्याया माहा छन्द का १७ वां भेद । इसमे १७ गुरं ग्रौर ३५ लधु वरो होते दै श्रीर कुल ५७ मव्राए होती! (ल. पि.) रमाट्ण र†मादण-देखो “रामाय (रू. भे.) उ०-रांमादण ही राम कीयड जे हती कन्टृड । सकति विहुण स्याम विटण न होयडइ्‌ वीस-ट्यि । -- ग्र. चचनिका - रांमातुटसी-से. स्वी--वुलसी का एक भेद, जिसके उठ्ल का रग सकेदी लिये हुए हरा होता है । रामिदेवी-सं. रयी.-एक देवी विरदोप । उ०--च्यार फुढदेवी सहाय हुई । समणदेवी सरीर लादौ कीयौ सांमरादेवी सरीर हलवौ कियौ २, रांनदेवी सरीर म्रभंगं कीनौ --रा. वंशावली रांमानंद-स. पु.-१ एक प्रसिद्ध वैष्णव ्राचायं जो यमावत नामक सम्प्रदाय के प्रवत्तंक थे । २ इनके द्वारा चलाया हु्रा सम्प्रदाय । रांमानंदी-सं. पू. रामानंद" सम्प्रदाय का श्रनुयायी । वि०~रामानन्द का, रामानन्द सम्बन्धी । रामानुजं. पु. [सं. राम~-प्रनुज] १ श्रीराम का छोटा भाई सृक्मणां 1 (श्र. मा. जां. मा.) २ भरत, चात्रूध्न । ३ वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवत्तुक एक प्रमिद्ध श्राचायं जिन्होनि वेदा- * त्तसार, वेदांतदीप तथा वेदार्थसंग्रह्‌ नामक ग्रन्योंकी रचनाकी थी 1 इनका स्वर्गेवास ११९४ (संवत) मं हृग्रा । ४ उक्त प्राचां द्वारा चलाया हूना सम्प्रदाय । रंमानुजी-सं. पु.-उक्त सम्प्रदाय का श्रनुयायी । वि०~-रामनुज का, रामानुज सम्बन्यी । रांसाश्रत-सं. पु--ईदवर । (ना. मा.) रंमायण~-सं. स्त्री. [सं. रामायण] १ बात्मिकी ऋपि दारा रचित एक परति प्रसिद्ध वामिक ग्रंथ, जिसमें श्रीरामचन्द्र के जीवन~-चरित्रका वणन है। उ०-लंक जिम वाद ग्रहूमंद लियण, लख गोट, ड़ लागियौ । वमरीर प्रभायण जुध विखम, जुध रामायण जागियौ) -सू-प्र. र<ू० भे०-रमांदण, रमाइण, रमायण, रामांण, रांमाइणा । २ जीवन गाया । उ०~म्हारी रामायण री द्रृट-पुट कड्या थनं वताई, इण सु म्हारौ जीव हक व्ह्यौ । --फुतवाड़ी ३ व्यर्थं का प्रवचने । (व्यंग) उ०--विरियांणी वोली-ये ती म्ह पूरी वात ईनीं केवण दी, वीचमें ई धारी रामायण वांचणी चल्लुकरदी। --फुलवाड़ी रांमायणी-वि. [सं. रामायणी] रामायण का, रामायण सम्बन्धी । संमावत-सं. पू.-१ श्राचाये रामानन्द द्वारा चलाया हुश्रा एके वैष्णव सम्प्रदाय । २ उक्त सम्प्रदाय का भ्रनुयायी । रामात्तामा-सं. धु. ९ च्रभिवादन, द्रा सलाम । ४१०२ आणक शयथण उ०--रणछोडं रांमासांमा करने चिलम प्राघी करतां पृछचौ-सेशं सिरावण करौ तौ थोड़ौ माखण नँ सोगरौ लाय दु । --रातवासौ २ दीपावली व होली त्यौहारोंके दूसरे दिन परस्पर मिल कर किया जनि वाने वाला प्रभिवादन, भेट, प्रणाम भ्रादि (हिन्दू) उ०--उण मौकं दिवाढी रौ तिवार होवणमसु मारण नँ घणा कोड सु नवा नवा कपड़ा पैराया । कोना मे नगदार लूग हाथां में सोनारीमा्यांश्ररपगां मे कांकफरिया घालिया) रामासांमा रं दिन वाद श्रोस, काजल घाल श्र लीलाड मां निजर री कौ टीकौ लगाय नं वास ग्वाडमें तसढीम करण वास्त भेजियौ ..... । --श्रमर चूनडी रामूडा-१ देखो "रामः (श्रत्पा., <. भे.) उ०--ग्रोजी ग्रो, मने रामूडा रौ टेवदियौ घड़ादे, मोरी माय, सूवर्‌ रमवा र्मे जास्यू । --लो. गी. रामेस्वर-सं. पु. [सं. रामेश्वर] दकिण भारत में समृद्र तट पर स्थित गिव जिग (तीथं) जो हन्द्रो के चार प्रमुख तीर्थोमें से एक माना जाता है। रामोडी-सं. स्वी--वनस्पती विदेष उ०--रांमोडी नदं रासना रीगणि शद्र-जटाय। राग रतांजणि रू मंडी, रनिवनि रंग धराय । --मा. का. भ्र. रामी-१ देखो ^रंमः (ग्रत्पा., <. भे.) २ देखो रामदेव उ०--"गोगौ' मोगौ हूय गोरंघा भिरियौ, "तेजौ" मोली पड़नेजौ लै तिरियौ । पीरां पतधीरां पली धर धायौ, उणा दिन समी डर सांमौ नहि श्रायौ | --ऊॐ. का. रामोपीर-देखो रामदेव उ०- पीढी सु जोधांपती, प्रात हुवौ श्रसवार । दरसेवा सुभ देहरी रांमोौपीर उदार । -रा. रू. रपकवर-१ देखो ‹रायकुवरः' (रू. भे.) २ देखो 'राजकुमार' (रू.भे.) रधिकवरी-१ देखो “रायकंवरी' (रू. भे.) २ देखो (राजकुमारी (रू. भे.) रपर, रायन-सं. स्वरी-१ नीमसे वड़े श्राकार का वृक्ष जिसके पत्त पीपल के पत्ते से मिलते जुलते होते हैँ ग्रौर फल मीडे तथा लकड़ी मजन्रूत होती है । उ०-पाडर पुन रायन तरु तमार, तहां सरु वकायनं सरसतार । चदन श्रमरतोया कुद चार, सीत्ताफॐ चपक श्रु श्रनार्‌ । --मयार्राम दरज्री री वात २ उक्त वक्ष का फलं । उ०--१ श्रखरोट चारोली केला रपण, नाचैर दाख ५;५. साख 1 त्‌, स्‌, ५५ १, 1 ४1५ ५१०५४ ष्टह । + 2 नशद" भक, दत्य दन्य, सवप नीलस्य, । उ०--मियदाविहारी सीमुखरी रमांनारीरज। पह द्टमयारी १-८ -ग श, दणय म्ददर दन्न) ~व, ~. । मिच्छ भासे मांस दारी मपी, धनु जेगावारी संवणारी जदाघारी कज 2 भ, गद, सन्ये, गड । | म । -र. ज. ष्‌, वदा दा "मवी १५. २.) ¦ २ शव्यट्‌, परमेदयर। + कत कतदकान ~स ग्वरटी शनि चिम कन्यानिपं } 5० भैर-रामणारि, न्वणारि 1 = > द {४} "0. ¦ समोलो-वि. (म्री, संमीनी) १ र्न परश, सनीचा। चु ईः ग्न भम्‌ १ गाश स कृदिति दयामन, ना शशं धा ¡ टदधरय नन्दम्‌ [ ॥ णकः परर कषर्‌ करस्य १ 4५ { ना 1 क्छ :61 भ्दक ध्‌ {नद} च्म सतः द + [ह दम णीन नुजापु भिद, दम्य विय मगन ~ र भविदद' कवम्‌} स + दष् द्व ण भुता, कया मैत "पतर 1 ई, ह "न £ #+ {: १११ १) भ्र (ङ्कः = ध ४1 # शस्टभ # 4१४१४ + ११५०६ # १ {९ 9 # ग्यम ६1 पम + । ; । ५, १ इ पं `. द 4 ॥ ब ; त दके प एम, प्प रपण मंर्‌-तिर 1 --{्मिनौ धादौ दुर कु श्त शट 4 कष्य (दद्‌ त र्दन वतत ददा 1 ॥ , 3 ४ + 7 न 119) ५) र र्मु ४1 £ {* ~ शर क पोप शतनो-ग, प. 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(ना. मा.) (ग. भे.) 2०--१ (लित नित्यता गदगद, नाकम र गदगद । मुट्‌ इध पन्य नीपरजट्, सवते यादिति मुम गंपम्‌ } नद शययपी चरम र पटी कटके, पेलि विगामी हस्वि। स श्रनडरि ददि, एयर दम्प द्धि । गा. न्म. ध्र. (*. भ.) | १1, +. ॥ श्न १ । न्व अ «< # द°. पा २ देन्य "गामि (=. भे.) (न. मा.) ४ दस्म श्नेयः (=. भे) < शन्ते "गह {*. भ.) मे "गोटी (>. भे.) ए -गधषोष नुन शर अट्‌ ग्द) "श्र, प्र, (>. भ. धिनि द्या शपमरीणोपु 1 (र, भ.) कपटः दयु भदो, माप्य यणु श्रा 1 {दितिं ‡ ॥॥ प कि {६ =, {4 तद [श वृ स, दि गदि दिग्ध । मा. कव. # # | श्रै कन क ॥,) सरु न्त, जद दन्द स्न | शुष्य 3: रारद्िप कुर कारि दुखी ? सरसिइ किम संयोग । --मा. का. प्र. राद दिप, राह दिवसं. पु. [सं. रात्रिन्दिवं] रात~दिन । राइ-सं. पु. [सं. राजा, प्रा. राश्रा, राया] १ राजा नृप! उ०-१ भ्रास्य ऊमा देवड़ी, साभि पिगठ राद । विरह वियापी मारु, नहि राखण कठं दाई । ---टो. मा. उ०--२ पाल्टणसी पृहविहि रहय, श्रनि समहूया सरग्गि । तिशि वेना हीया मरी राद राइ रोवण लग्मि) --ग्र. वचनिका उ०--३ वई चिति कीरति खाटणा श्रांक्ण वार । सिरोमणि राइ सहाद संसार सवार । --ल. पि. उ०--४ ्रांपणी राद फैराइ आ्रंणा। मममेर साहि मुरितांण सांण ) -रा.ज. सी. उ०-५ तूडि-तांस श्रमर' सूरिजना तण, साम काम वाहण सुजड ! राखिया राइ राठीौटवे, बुमरां पानि उता मुहृड । --गु. र. वं. २ छोटा राजा, मद्दार, मामत । सं. स्त्री. [सं. राजिः] ३ कतार्‌, पक्ति । उ०-लागि दलि कटि मद्ययांनिल लागे, त्रिगुण परमते सुधा °व्रिस्न । रदति पूतं मिमि मधुप स्ख राइ, माते स्रवति मधु दूध मिमि । --वेनि £ रात्रि, रात। उ०-पाद्धिली रांत उवद नहो, तावक यद्र सावधान । राह पायद्छत काउमग करी द्वी, देव चांदट नुम व्यनि --म. कुः. ति.--श्रेष्ठ, उत्तम ० भे०~राह, राद, रायि, रायी | रादृश्रगण, रादग्रांगण-सं. पृ. [सं- राज ग्रगण| राज प्रसाद का ्रांगन, प्रग 1 उ०--१ सृहडा खव श्रंग चेंग दिग्गवर्‌, राद्श्रगण सीमे ए। मधूकर गुजार डंवरी माम, परिमढ चास लोभषए्‌। -गु. रू. यं. उ०-२ कडि लंदण केहरी, जंध जाणा जाछघर । राडइश्रांगण गति क्रमति, हस किरि मांण-सरोवर्‌ । -ग. रू. व. रादु श्र, रादकु वर-१ देखो ^रायक वर (<. भे.) २ देखो “राजकुमारः (ल. भे.) ` रादकु श्रि, राद्कु वरि-१ देखो “सयकवरी' (रू. भे.) २ देखो "राजकूमारीः (सू. भे.) उ०-करमू्‌ करि कुकुःम तिलकृ, चाढं चावछ भाल । कुःश्रर चवावे राहकु'वरि, ने सोत्रन म थाढठ । --गृ. रू. वं, राइगण~सं. पु--रात्रिगणा, रातदिन का समूह्‌ । राईड्य-देखो ररेडियौ' (रू. भे.) रादजादौ-देखो (रायजादी' (रू. भे.) -४१०४ 7 क गि आ "8 पकाना वका 00००००0० 0) मी पि पपपििषिपरीषिीपेरीीषणरीषषषियिषिणणीषगि उ०-१ मदछरीकां सिर मद्छरियी, राद्रजादौ राठौड । वर पुराणा वाया, करं नवल्ली दौड । --र, रू. वं. उ०--२ राइजादं ग्रोपम राठ्वड, विहवे पक्व निरमल्रा। चद्व त कुमर विय चांद जिम, कूवरां-गुर चढती कटा । गु <. व. उ०-२ इण भांत ऊजचं पतित्रत री पारणहार, ऊजढी सखि- ग्रारी टोढी सू राजहंस राइजादी । --रा. सा. सं. (स्त्री. राडजादी) राइजी-देखो ^रायजी' (रू. मे.) उ०-वादइसी रीयां त्राय डेरा कीया तरे मसन ठहूरी तरे कवरजी सीग्रभेसघजी नु ने राजी स्री रुगनाथजी नु साथे दीना । तरं वासी पाष्टी सद्‌ । --रा. वं. चि. रादठौड-देखो "राठौड़" (रू. भे.) उ०--टेलिग्रे प्रघाने राइछौड । मालद जिम वोनिय वंसि मौड। --रा. ज. सी. रादण, राइणि, राइणी-देखो ‹रायग' (रू. भे.) उ०--१ राइणि तल पगला नम्या मन मोह्यउरे, श्रदवुद श्रादि जिणंद लाल मन मोह्यउ रे । --स. कु. उ०--र सदा फठांशि निब श्रांणि, राइणी महूम्रडा । कट्दार जंवुई्‌ नारंग, रग वाग हश्रडा । -- गु. रू. म. राइती-देखो ^रायतौः (रू. भे.) राष्टफठ-सं. स्त्री.-एक घोड़ेदार्‌ विलायती वन्दूक । ० भे०~रायफट । राइवेल, रादवेल्लि-देखो ^रायवेल' (रूभे.) उ०--१ नितंव कटोरा सा । जंघाक्दटीरौ ग्रम्‌) प्रग ब्रंगुद्धि राइवेलि री कटि । --पलवादड़ी राहवर~देखो !रायवर' (रू, भे.) राइवेलि, राइवेली-देखो "रायवेल' (रू. भे.) उ०--पग श्र॑गुली राइवेच्छिरीकशीहीरासानष, श्रारीमा ज्यों भावि रहिश्राद। -रा. सा. सं, राइह र-देखो "रायहर" (रू. भे.) उ०--१ व्यामोह वर वीर घर-धर सत दषे घणाउ । श्राय राईहर श्राप~र्‌ड समहरि शग्रचक' स-घीर । -- ग्र. वचनिका उ०-२ वसुदेव कुमार तणौ मुख वीस, पुण सुरौ जण श्राय पर ग्रो रुखमणी ती वर श्राय, हर म करौ श्रनि राइहुर । ---वैचि राई-सं. स्त्री. [सं. राजिका, प्रा. राइम्रा] १ बहत छोटी सरसों जिसका दाना काला होत्ता है) इसका म्वादं चरपरा होता है । . उ०-१ वना पसारी रे जादजौ जी व्ठासे त्याजौ राद री पृडी। वना वागां में जाजोजी वडासे लाजौ मिर्च हरी! -नो.गी. शर ए + क । ६ 3 तम गमम्‌ एम निर्‌ | उदर्‌ दह्‌ नुगा उतार । ---गा. र. 3 दथ हु दर दः ५१ शना श्त्मी ज ! राई लूग्णं क्थ ४ पम स्वयः ~प वरम्न मन्ता स पार्ता ‡ १२ [नन ४५१५१ २ थै दन्त सवग 9 नू न+ १ न्‌ जदि) = ् ग्द --- रमन मद निकामे पर्‌ एमा न्ट ५. 1/1 01 गर वयुषा, दिन्नो (रमम, साग्यरं ममी फयर, ॥। क २9 म शह म ४२ 1 मय दस 0 र ८१ ॥॥ १ ६ १५ (श + { [0 ४4 १){६४५{ >), शष 1 1 + क ४ 4 च १ १ ४५ शह भो भोदार्‌ । <नौ. भौ. क # च ४. (^ {^ ५.) क -+#42 3. [+ ए व श्व) ० ~ शद धमु पृ ग्नो (द्‌ सदयन्या म्‌ कागद ष १, ५५१ 4 ॥ 9. कु [00 च १ 3 3, सि 1 44 {६१ 2 ४6 एषम्‌ श 1, | 9 |) [1 ह 9 89 १1 1 भ ++ 9 न; त ॥] ह +) 2 = # [) ५ क ध (१.१ =^ (८ ॐ ॥ न) [२। # ॥ 0 . म * = ५ नप द शु द, सोमप गिम भदभ्य न्वै {1 १1 , १. ~. र नै १८ ८.१ पन्द्‌ = १ सू न्ष | ॥; >+ ४५९ ४१.६२. ५५ १८.६३ [1 ( [। # 1 जै भः नै ५“ ‰ १ र # धक द हणभ ४१ क शर 4 ४, दन्यो प 5 48 ७५, त्म न “ > ५+५ क्र अ १ ‰¶* $ “+ ई = । #ै द { ५. $, , 11 भै (५ द ॥ नि लैः ४ ह४..८ ~ चष ^ च ई ^ द५८्न्क ¢ #। ~+ ध क 1, [ ड = ता" ए = = प कलु नदन्‌ दरथः दस # । # 2 „०९११६ क अ शच > ओः | „५ 9 [1 ५, ३ क === 2 {95 इव र द ॥ # + न अ + ¢ [। (शिकः { ई ५“ ~$ 4 1 ४1 र क 8, ध कै ५ (+) ॥ + ङ्‌ ध 2" + ष धि [ नी त्‌ ४ वै + श = + र १ = 1 ॥। (4 4 पण कय दु क कूर (कदन दो कदू द , {५०९६ १, 1 ति 1) | कि 1 न -क्न ४२ ४ रारवश |, कं का च | पपे पर पीमेरंग ङे दोषै है) साटृण-देग्मो 'रांयग (र. भे.) 5०--१ प्रतरं चंदफ भर सिमररगिरी, सेतर दास्णा भूसा) त्वरो द्रनन् द्वारि मिनि पाठर, राहेण स्म्य जवामा। --तर्कमणी मंगच्र नीकोत्यां राईण, --व.न. उ०--र प्रीति नारी पातली, गद्चूजां गौरा, मी फएनहूनि प्रमा । रा्तन-म. ए. [मं. राजा ~-तनय] राजवस । उ०--१ पद्ंसोदटी न्‌ एद लागो-याव्छ कौन्दे तसेवद्धी राष्ट रौ नाहर प्रायौद्धेसु पछी केर्म्यां तो रार्ेतना महि चुरा दमस्य । --नणसी 2०--२ नरं श्छ्यौ-प्णो म्हारी बृं वारं पनत पाश्ये। मोन गोप मा फियीौ । सारे रार्ईतन गृणियौ। --नरासी रारतो-रेो (रायती' (र. भे.) उ० --१ छम दधमाती भाजी, नमसमातां गीभदां गुदुमेती पती, मिय भरी गादिमी, बार ईटरी, ग्ड साहा, संदरी सागरी ~य. स. राक्र (रायवर्‌' (र. भे) उ९--ष्टोयत नु मतत अणि रार कलौषए, माम छ्वटीदार पोपद्ान हुक्म हुवेसदार, सम्या उव्यी कित्तेदार भार भतीजा मृद परिवार... ,., --लो, गीः सरमाोर-नं. प-नदयेरी फ पृक्ष क फन, दौ बीर । शद्नोपण-मं. एू.-रापि भोगल (नि) राय-देयीौ (गा उ०--स्प द्मरणस्य यकद नसा रुपा ममयं मीणा भमर्य नण भासया | --पी. श, गर्हम. वरू.-राट त पग का विश्रमन्नो मंगत्‌ कामना कैश निधि क्ति के तषट पारे जातै्िग (पर प्रथा) । रास -रष्यो "याययर (>, भ.) र -- सपद शरदो राट्‌ भन्द्‌ क्था गल} यमो = कलप्राण यू कर्पा । [12.119 |, #. > 1 . 31 # पिरद ~प, ग. ण्याय, ता, - १ स्वयरण, | ग्नेय समी १५ ठद्ि प्क, पिमो भ शरोम्‌ सगण द पुरं पदा । भमा श्य सरः सिया | ससा दरपनदाम करापमष्ण भरट ॥ ५ ४ 1111} =-= द श ४14 11 गद शम भदश 5} 1 गृ ~ 4 474३ न 4 ॐ [ब : र .॥ ओ ह ॐ { 1 ध, पच ~ पवया कद प्रतत ककय वपुर रि स ददः द्य ए १ ++ 29 + दे पू, ८ २ २९१५, क ९ .+** ई राड - ४१०७ ५५ ॥ } उ०--वली धन राईसर मांडव, जाव कौटुम्बी सत्थवाहौीरे। ते वीर कने घर छोडने, साधु होयनेखेलाहौ रे) --जयववांणी राउ-सं. पु. [सं. राजा, पा. सश्र] राजा, नृप । उ०--१ नितु नितु रार ्रहेडड चट्नद्‌ । रोमि चडी रांणी इम बुल्लद्‌ । --सालिभेद्र मूरि उ०-२> गाठ्डड उदियड चडउ'ड राउ, वेगड़्ड सांड वीरम वियाउ । --र, ज. सी. उ०--३ नरवर नठराजा तश, ढोलेड कु वर श्रनूप । रणि राड पिगठ-तरी, रीश्री देखे रूप । -टो. मा. उ०--४ चूडराव रिणामल्ल, राउ नजोवौ' रढरांमण । सूनौ वाव" शंगेव' !पाल' गड कोट पलदटधग । --गु. <. यं. ० भे०--राऊ, राप । राउत-देग्वो “रावतः (र. भे.) उ०--१ राउतां पति राउत, पातिसाहां रानररहवर्‌ कुजर घडा पछछाड़ां ! चेद जसनांमौ चाडां । --वचनिकां उ०--२ पडट्‌ः वंध चलवलडइ' चिध सीगिणी गुण सांघट्‌ । गद्रंवरि गवर तुरगि तुरग राउत रण॒ रूषडं । -- सालिभद्र सूरि उ० --३ तिहा नगर म्ये फिसा लोक वसद । भणद राय राणा । मंडलीक 1 महाघर । मउद्वर सांमंतत । सेलुत । वर वीर्‌ । राउत पायक 1 डडिमायन । --समा गउतजाई-संः स्व्री.-वीरांगना । राउतवट-देखो (रावतवर' (रू. भे.) राउति-देखो "रावत' (रू. भे.) उ०--देव तड प्रासादि चहुं दिसि राउति दीधादहाथे। करी सनांन घरी सिरि तुलसी, सरण करयउ सोमनाथ । --कां.दे.प्र. २ देखो “रवती (रू. भे.) राउत्त-देखो “रावतः (<. भे.) उ०--१ च ड राउ दिय उल चाड 1 राउत्त प्रापहै श्राप राउ। | ---रा. ज. सी. उ०--> रात्ता गात वंवाढ रगत्त । करमर वाहि किया करवत्त | --गु. <. वं. राउर, राउरी-देखो "रावठो' (सू. भे.) रार, राउल-१ देखो ^रावढ (रू. भे.) उ०--१ सौ जांशणि राचद् मल्लीनाय पुत्र रं छनं जोयां नू कादरी दीवा । - वं. भा. उ०--२ नवर गढ मूः वसिवा ठाड मागडं राउठ हंसु पस्राउ | दह प्राभ्य जस कीरति सुणी, पिगठ राजा भेटण भणी । । -टो.मा उ०--३ सान भणद्-कुणि कारणि भ्राव्या, कहड तुम्हारउ काज । कद्‌ प्रवांन राउल श्राएसट्र, कटक जोएस्य्‌ भ्राज । -कां.दे. प्र. | वा 111 रीषि यगय राटी, राउली-देखो ^रावदटी' राॐ-देखो राड राए-देखो “रास राकस-देखो "राक्षस राकसि-देखो "राक्षसी राकसिया-सं. पू.-चौहान राजपूत वंदा की एक शाद्या । राकतियौ-सं. पु.-उक्त शाखा का व्यक्ति) | राकसी, राकस्सी-देखो “राक्षसीः उ०--४ द्रव्य उपारजिउं कूणहं तणौ स्वास्ति न हुई, कूणहिनी द्रव्य उपारजिडं चोर हि उपगरडइं, कु. राउल उपगरहि, कृ. द्रव्य म्रग्नि उपद्रव... ... --व, स. २ देखो (रावी (रू. भे.) उ०---राउल माहि रण भाण राय ययु पणि मंद 1 ब्राह्यण-वटर सभिरद सभा-तणड ते चंद । --मा. कां. प्र. (रू. भे.) उ०--स्वांमि ! जु सनमूख हसि, तु तां राउलि रानि | वयरी वांकु स्यु करि, ्राहां ऊमट्द्‌ निवांनि । --मा. काँ. प्र. (र- मे.) उ०--१ परगछ्ठि पिगठ रा, नक राजा नरवरे नयरे! श्रदिठा टूरिद्धा ये, सगाई दर्ईय सजोगे । --टो. मा, उ०--२ एक राऊ थप्पटण्‌, एक रावं ऊथप्पर॒ । एक रावे गद्‌ लियण, एक रायां गढ त्रप्पा । --गु. रू. व. (र. भे.) उ० -{१ रद्र रूप राए दीन, सुरताण नाम दल थंभण । हदु मुसलमां णौ, विरदावियौ जोव विरद॑तां | --गू. रू. वं उ८० -२ केस जरा घौवण॒ करं, घोढा श्रत ही धोय। भ्र॑तक राए ए चतां, दातन मला होय । --वां. दा. (रू. भे.) (नां. मा.) उ०--१ निरवीज करू राकस निक्रर, मेहः फिकर चिलोक मिण । धारू वभीख लंका वणी, तोह दसरथ राव तणा] -र्‌. रू, उ०--२ नमो कुभेण-तणा-मूज-काल । नमी कुठे-राकस वंस- खंगाढठ । -- ट्‌, ८ (स्वी. राकसण, राकसणी) राकसराय-सं. पु. (सं. राक्षस~{राजा]| दशानन, रावण, लेकेश । (डि, को.) राकसरोकण-सं. पु.-राक्षसों का संहार करने वाला, विष्णु, भीकृष्रा, श्री रामचन्द्र श्रादि। राकसवांगी-सं. स्वी. प्रकारकीभापा मेने एक, पिलाची भाषा , (नां. मा.) राकसामयकर-स. पु.-१ ईङ्वर, भगवान । २ श्री रामचन्द्र । (नां. मा.) ३ श्रीरृष्ा । (रू. भे.) (रू. भे.) उ०--१ तज राकसी देह वहै दिव्य तासं वधं देवलोकं किया जेगा तासं । -- सू प्र. ६, 2 4 <+ , १.४. १०८ शराद् [वाककताकययाताकाकरकाककाककककाग्काि षि १ ८ २०--२ दीया ममि मचा, भूत रफसी सांस । पोट मस जिसमें कन्या के लिये उभय पक्ष में युद्ध होतार । भिनादमी, सगुम चद्म अरजस्‌ । --ग्रनुमवरवांणी , ५ साठ संवत्सरो मे से उनचासवां संवत्सर । ‡<--3 दः लका दगगषावि, स्प भाया रारस्सी 1 वहूतरी सत्तरि ६ वार व नक्षत्रों सम्बन्धी वनने वाले रत योगों में मे पचीसवां म, मान लयम द्ठस्सी । --गु । योग । (उ्योतिप) र, दापन-स. ग्नो. [ स. रका] १ पूणिमाकौ रात्रि, पूनम की, ७ गंचक व पारेके योगसे वनने वाला एक रस! (कंथक) गान 1 । ८ एकं देव जाति । 5०--{ उदिवामर्‌ उमियौ, इदु राकां श्रविर्चां 1! र्ग कुर्ग ० भरे ०~-रक्खस, रक्पस, रक्षस, -रखस, रस्त, राकस, राखस, र्नमो, पाठ काघी श्ररयां | --कीत्ट्जी चारण राखचु। साक्षसकेदी-सं. पु-राक्षसो को कंद करने वाला, इच । (ना. हि. को.) राक्षसो-वि.--१ राक्षस का, राक्षस सम्बन्धी । २ राक्षसो के श्रनुरूप, भ्रमानुपिकं। सं. स्त्री.-१ राक्षस जाति कीस्त्ी। 2<--२ नौ कलेषाम छ सौद शति नर्द्‌} राका कतां पूरणिमा सदये ठम चंद्रमा नोह मुन हप्र । --वेलि टी. = => चकः कन ज ण द" ---२ गरद्ट, मनर, मष, सतप, दयय्मग, समीतट । प्रात प्निम मव ठेठ एरका, विग्रह्‌ राका मिद्ध । --र.ज. प्र. २ कोर्द्‌क्रर या दृष्ट प्रकृति कीस्त्री। > शूिमिमा फो तिकि, एक्‌ प्रवे-दिन) 9 क 6 । । <° भे०-रच्सी, राकसि, राकसी, राकस्सी, राक्षिसी, रसि, 2० -- उम्पुर वधं प्रमोपिया, प्रमु दरस परमांणि। चंद्र त दनि गमद चह, गढ राका निम जरि । -- मू. प्र. ह । ह त । „, ¦ राक्षा-सं. स्त्रो. [सं. लाक्षा] लाख, लाह, ज . कौ. ठ < ~ रर ठोप लप वटमणा क्धेम्‌, सन्म माम निज गामि रालिस्ती-ेसं )) १ नरी । ५ 2 ऋ । ( । | ० | द्यो "राक्षर रू. भे. मृगये 1 न्दे नेजग्‌ नगो ममिंद हूर, राफा निस सामदर्य। . # ( व --मू.भ्र. उ०-भूटि भ्रूविय महीत्तलिं रोली। काटिवा चसन कध > बिमा णो घद्विष्टाप्री देवी । । हीयाली । श्रतराचि यई राक्षिसी रली, तीरद हृरद हिव दोश्रत ४ राति, गन । चासी । ५ ष युदनि तो पटूत-परत स्जन्यना हरहु । ६ पडा रोन। ७ नार त मूपनना कौ माक्त। राएनथतः, श्ारापति-र. वृ. (मं. यका पत्ति] चन्रमा । (डि. कौ.) --सालि सूरि राद, रायंदौ-वि.-रक्षय, । उ०--पूठी वामं दाहिरी, प्राग प्रमगै वांण । राजां "गाजी साहः नू, रापंदौ रहमांणा 1 --गु. <. व. स-नि स्पोमतरा जाति वपि तारजं 1 राक्तापति निकलकफ | रासं. स्मी-१ किसी वस्तु या पदार्थं के वित्कुत्र जल जाने के षाद धि य । --‰. १ प्रवचिष्ट रहने वाला तत्व या श्रा, मस्म, मस्मि, राख। 2 , , 1 उग्र हाव्य घौ ही समक्राव, पण सिरमेंगग चढायेदौ, २ ष्टमा । (श्र. मा. ना. दि, का.) मुर्वी कतिर ! मानं कद ! माथे राण घात रासीदै। 2--- दरी रन्‌ पीनर्‌, विना हिव ही कद । राट म्र --दमटोगं परत म, सम निर्‌ म निम । ~ध. दा. किक द: ~ र मद्ध श्रपदात, समुर पन्‌ प्रद सदा) वन्ध साची थन, ¶्म शट सय सम + ---2{ टा. दरि. प्र.-करणी, दोणी । गृह्ा०--१ रापव्टणी==प्रवकुद्धनष्ट दौ जाना। ठट वाट च नक समाप्त ठो चाना । प्रतिष्टा या गौरव समाप्त हौ नाना}, 4 (ध. मा.) २ रा फकरी, रान वेमाणी किती व्यक्ति, कायं या वन्तु के प्रति वृर करना, भ्रव्रहेतना फरना । च 2 मार्थं मे गाग घात्नममी =वराम्य सेना, श्रपने कतव्य कैः प्रति उदामीन होना, निर्धन दोना) २ धून, गन । द्दात. द, [मि] (की, सक्षम १ प्ट मानय उनि विद्यष गो (वर शरमस्य म वन्यम एरय भनुध्य दैव, पितन्‌ ध्यदिरी श्ल शनन द + | १ शि १ त 7 1 11 1 „1 त 1 0 प र शर्‌ श (43 ध्ये {न ६५ निद १, श्भुः त श्राद्ध ५ द-- नद्यां रा रयिकः येवा, श्रयत मग यका | दैन १ प : निवादद्रार्‌ दनय दिक, विलेपुः राय दगाई । -->. फा, न्ट धम द्कणद म दमद म हक विधः (शष्नम~पिवाह) मटन्-गाणट, रामु, समेष । यु न्‌ ११ }. 0 + १ ५ 9५1 < > + ५ 1 ८ न ग्वेन रादउशियौ ४१०९ सगणो रखउडियौ-वि.-जिसकी इज्जत चली गदु हो, निर्लज्ज, वेशम, ० भे०-रखडी । नालायक । ५ देखो ^राखी' (रू. भे.) उ०-१ श्रौटाठ, पेट दा जाया ईम्हारं मरण री वाट न्हाठं । पणा आरी छाती माथं तौ वंदी हाले वीस वरां तार्ईमूग दछंला। राखउडियां- नैश्राई दुरासीस देर के म्हनं संता ज्यू बुढापे थानं ई थारा कुरकिया संतावं । -- फुलवाड़ी उ०-२ विरियांरी कल्यौ-देखौ राखजउडिया री सित्या निकटी । केर श्री हडमांनजी रौ पुजारी वाज । बावेरियां री गढाई चरतां इण न लाज को आराद्‌ नीं । --एुलवाड़ी सं. पु.-एक देगी गाली । उ०--ग्रवं म्हनं सगढली बात तावी, कठं राखउडिपौ पालौ वेगौ नीं व जावं । -फुलवाड़ी राखडी-सं. पु.-१ िर का प्राभूषण विद्ेप, चुड़ामणि। उ०--साजां सोल सिगार, सोना रौ राखडां। सांवच्वांसू प्रीत, ग्रौरां सू भ्राखडां । --मीरां २ देखो “राख (मह्‌, रू. भे.) रावडी-सं. स्त्री. [सं. रक्षिका, प्रा. रक्खिग्रा] १ सुहागिनी स्त्रियों के सिर (मस्तिष्क) पर घण करने का एक स्वर्णाभरूपण। (व. स.) उ०--१ पहिरणि गजवड फालंडी ए श्रोढवि नवरंग घाटडी ए। करग्रलि चरूडी खलक्रती ए सिरि सोवन राखड़ी भलकती ए । --हीराखंद सूरि उ०-२ पटली ब्रह्म-गन्यांन, हरी वर राखड़ी ! पहरि सुवागण नारि, फरोखं श्राखडी । --मीरां उ०--३ जीण म्हारी वारे रतनां नजडाद्य्‌ थारी राखडी, हीरां जडां धारौ टार । --लो. गी. २ शीडपूल । ३ रका-सूत्र, गंडा, ताघीज । उ०--१ भाठा जितरा देव पूज्या, राखड़ी माद्या ई कराया, गांव रा गुरांस्ता खने इलाज ई करायी श्र जोधपुर जाय'र डाक्टसां री छाती में रुपिया ई वालिया पण.गरज कांई सजी कोयनी । --रात वासौ उ०-२ ताहरां कवरी कही सिद्ध प्रागा इसी राखड़ी कराई । जे वांधीजं तौ श्रादमी हवं । --चौवोली उ०-३ वार वार मानुस जनम, पांमसी नहीं रे गिवार। डोरा डडा राखड़ी, जत्र तंत्र निवार। --जयवांणी ४ खरीफकी फसलकेप्रारम मे ऊट कै मर्दनमेंश्रौरर्रल के के सीगों के चारों श्रोर वाधा जाने वाला रेशमया सूतके गृच्छोदार घागा जो मांगलिक माना जात्ता है। उ०-कंणा भ्राखदियां ्रूडा दं कां । कवैष्ा वठधवां रं राखडिर्याग वांघं । --ऊ. का. १, उ०--व्रडलौ श्रायौ श्रायौ राखडियां (रौ) कह्वार। कुण नं वांघं श्रौ धारे राखद्धी । --लो. गी. रावड़ोडोरो-सं. पु.-१ रक्ा-वंघन के दिन वाधा जाने वाला सूत्र, राखी । २ गडा, तावीज। राखडीपुनम-देखो "राखीपुनम' (<. भे.) रावण-वि.--रखने वाला, रक्षा करने वाला । उ०--'जगड़' रांश दीघा जिता, गेवर हैवर गांम। श्रव पातां देसी इता, प कूण राखण नाम । -वां.दा. स. स्वी.-~-रखने की क्रिया याभाव । रालणमगत-सं. पु.-भक्तो कौ रक्षा करने वाला, ईखवर । (ना, मां.) रालरीप्रण-सं. पु-प्राणो की रक्षा करने वाला कवच, जाली । (डि. को.) राखणौ-वि.-रखने वाला । उ०--भली राखणौ रीति लाखौ भूजाठ । भडां रूप भुषाद्ट लीला- भृग्राठ। -ल. पि. रावणौ, राखवौ-क्रि. स. [सं. रक्षणं] १ किसी श्राघार या तल पर किसी वस्तु को ठहूराना, टिकाना, रखना, धरना । २ नष्टनदहोनेदेना, विगडने न देना, रक्षा करना, वचाना, उवारना । उ०--१ भ्रार्य दक्छण इछा, लेड इलकार तुरगम । राजर्सिघ राखियौ कोट रखवाठ दुरंगम । --गु. रू. वं. उ०--२ भ्रसुर वोलियौ कुत्रोल, पतसाह्‌ मुह भ्रागठी, राज विर सत्री धरम कमस राख । --कैसोदास गाडरण उ०-३ हरीया क्या पष्ठताईये, राप श्रौर कं काज । राखणहारा रांमजी,. लोके सकल की लाज । --भ्रनूभववांणी उ०--४ मेतं रूप भीमौ" किसन", चाप" नाहरखांन चव । "केह्री' पड “पातावतां, राख नांम लग चद रव । --रा. शू. उ०--५ किणही क्यौ सूव्रमेंसाधर नें जीव राला क्या । --भि- द्र. ३ पालन करना, पोप करना । ४ श्रपने श्रधिकार में करना, कन्ञे मेँ करना । उ०--१ राखणहारा राखि त्र, श्राप भ्रापरौो हाथि। भी फिरि मन चाले नह, उठी श्रौर के साधि । -- ह. पु. वां. उ०--२ रामजी री माक्रा रं वासदी लगाय वणी सूः छातं वचायोड़ी गजी दाय में रवती तौ महन एे दिन नीं देखरा पडता 1 -फलवाडी ५ सुपुदं करना, सपना । ॐ ज ७ ॐ ॥ राणो ४११० राखदपी ९ एकत्र करना, इका करना, संग्रहीत करना, मिलाना । ७ नियुक्त करना, तनात करना, काम पर लगाना । उ०--हुटर जड दियौ, सेत खड लियौ । ऊंट लीने), हाढी रादयो व्हाम करी श्र सेत बुहायौ । --दसदोख ८ जानै न देना, रोक रखना, ठह राना, रोकना, गतिरोध करना । उ०--१ पुडी चडियौ "जसौ" सीस पतसराहा, सुभट जौत भेजवा सक । रच कदढ त्रिरा पहर राखियौ तरण मंड नट कुड तक --जगन्नाथ साद्‌ उ ०--२ धावउ धावउहै सखी, को दावंशि को लाज । साहिव महाक चालियउ, जद कठ रांखद ग्राज । -टो. मा. ६ कुद करने न देना, रोकना, व्जेन करना, मना करना । उ०--१ राणी जठती “उरदै' राखी । सुख नवे कोट किया जग साखी 1 ---रा. रू. उ०--२ तिहिवारा हं सघलानि मारते रोतीदेखीनेनारी। सू कीजै जो, वीरा माहारा, तमौ ज राखौ वारी) --नटठास्यांन १० श्राश्रय देना, प्रश्रय देना, संरक्षण देना । उ०--१ दामोदर दीजं मती, कायर काठ वास । सरणं राख सूर र, तेथ न न्यापे त्रास । -- वां. दा. उ०--२ हुरमां राख श्र्॑तरे, उडदाविगण दुद। हाजेर सिजमत काररो, मुख नाजर हुसमंद । न उ०--३ तेरे तौ ्रास्रान सव, मेरं वौहत जरूर । हरीयै कूः करि श्रापनौ, राखी राम हजुर। ---भ्रनुभववांणी ११ श्राचास्कीदटष्टिसे किसी को कहीं ठहूराना, टिकाना, वसाना । उ०--१ माधव तुम्हैम चालसिउ, गोरी जंपड्‌ गज्छ) भु फराविसि भु टरू, मांहि राछिसि तुञ्भः । --मां. का. प्र. उ०--२ कटि तु काल्िज-मांहां वरू” रासु हृदय-मभारि । मूफनि मूकी माघव, पग्र रखे पवारि । -मा.रका. प्र. उ०-३ विधि सहित वधाव वाजित्र वार्तं, भिन भिन श्रभिन वांणि मुख भाखि) करं मगति राजान क्रिसन ची, राज रमरि रुखमिखि ग्रह॒ राखि । --वेलिं १२ धारण करना, वहन करना, स्वीकार करना, मानना । उ०-लोक लाज कुल की मरजादा, यामे एक न राखुगी। -मीरां १३ चोट करना! । १४ आरोपित करना, मढना, थोपना, लादना । १५ रेहन या गिरवी रखना । १६ सामने लाना, भ्रागे रखना, प्ररतुत करना । .१७ पारिवारिक या सामाजिक सम्बन्वे बनाना, मेल-मुलाकात र्वना, सम्पकं रखना । उ०--दणी भत्ति मिनख रं हाथां लगायोड़ी लाय मे- लुगाई ज |` राखदृषी-सं, पु.-चीता, तेदुग्रा । दिन रात सिल्गे त्तौ ई मिनख सू नातौती उण नै राखणी ई पडला । - फुलवाड़ी १८५ रखवाली करना, व्यान रखना, चौकसी करना । उ०--म्हारे हाटे श्राप भर्ताद्‌ उतस्यां । म्हारी थेली राखी । णड घन चौर ते जावतातोम्हारा च्यारवेटा कुवारा रदिता। --भि, द्र. १६ श्रवलंवित करना, ्रावारित करना । उ०-- १ श्राधी रोटी उपरंजे कोई राख मंन । हरीया हरि का हय रदै, भूख त्रिखा नहीं तंन । ---भ्रनूभववांणी २० निभाना, पालन करना । उ०- १ रितु गामी व्दै सील राचियौ पृत्रोत्यत्ति फल पाई { पति पतनी दम्पति पयि प्यारी, नवल! देह निभाई । --ऊ. का. उ०--२ ठीक सील इक राखणी मन करि निज श्रनुरूल । --वि. कु. २१ कुच तयार कर रखना । उ०--१ जाठी मगि चदि चदि पंथी जवे, भुतव्रसि सुतन मन तसु भिनति । लिखि रचे काग रनंख लेव, मसि काजछ श्रम मिलित । --वेठि उ०--२ सीखावि सखी राखो श्राखं सुलि, रांणी यृद्धै रुखमणी । ग्राज कहौ तो श्राप जाइ श्राब्रु, भ॑व जात्र भ्रेविका तरणी । -वेलि २२ करना) ज्यु --विस्वासर राखणौ; भरोसौ राखणौ, गरव राखणौ उ०--१ जिर वखत मे पड़सी जरां कोडी रं नह कांमरौ। तन चाल लगी मेटी तिका राख भरोसौ रांम री। --ऊ. का. उ०--२ दादौ सा गुमांनसिधजी इयां रौ घणौ लाड राखता हा । छोटी ऊमर में ही व्याह कर दियौ हो । ` -दसदोख २२३ रखना । उन्-श्हांश्ररनां' दोनू मोखममें राखर उकारसूः हंकारौ मरचौग्रर मृडं मू उठर रावं कानी मूढ मोडचौ। --दसदोषख उ०-म वीच. वानर व्याढ चित, गंडक गरदभ गोल। रे ग्रठगाहिज राखणा श्रौ उपदेस श्रमोल 1 -वां. दा. उ०--३ मनि संकांणी मारुवी, सृणसड राखह कंत । हंसतां प्रीसू वीनवेड, साभि प्री विरवत । --टो. मा. राखेणहार, दारौ (हारी), राखशियौ --वि. । राखियोडो --मू. का. क. । रसाखीजणौ, राखीजनौ --कमं वा. । रक्खणौ, रक्ववौ, रखौ,. रवौ, रर्खणौ, रस्खनौ ---रू. भे, । (ड. को.) रशिवरण २ रखने काढग। राखवरण, राखवरणौ-वि.-जिसका रग या वणं राख के समान हौ, द्याम, काला । सं. पु.-एक प्रकार का घोड़ा । राखस्त-देखो “राक्षस (रू. भे.) (ना. मा.) उ०--१ राखसां पथ रांम महल श्राकास रेण, मचीरां रा सल सामी मांडी युष मल । पी. ग्र. उ०--२ चलं राजकुमार पिता ची, ससण पाय सहत्लं । रावण सहत धरां खक राखस दारुण, दंत दहल्लं । --र. रू. उ०--३ तद पूलमती वोली रे मानवी तु अठे कामु श्रायौ। ग्रहे रास प्रायौ तौ तने मारसी । --चौवोली उ०--४ जावतां जावतां देखे तो कासर एक पटाड मांहै राखत, राखसणो रं गोड मायौ दे सूतोद्। -चीौतोची (स्वी. राखसणी, राखसी) रखसपुरि-सं. स्वी. [सं. रलस ~-पुरी] १ राक्षसो का नगर । उ०-- द्र रद्द रहतू पुरस, विज्जमालि ते लहुडउ भाउ । चपल भरी नड काटिड राइ, रोति चडिउ राखसपुरि जाइ । 9 -सालिभद्र सूरि २ लंका! सखसि, राखसी-देखो ^राक्षसी' (रू. भे.) उ०-१ क्रत्या राखस्ि तणीय जि सही, भीति वाली ऊभी रही! मणि मालानु पाया नीर, पाचद हया प्रकट सरीर) --सालिभद्र सूरि उ०-२ संपेख श्रग नग साख सी, रत रोस मारग राखसी । तिह नाके पांण विदद ताड, वाणं इक रघुवीर । --र. रू. राखसु-देखो "राक्षसः (रू. भे.) उ०--एतदं रासु रोस्ि जलंतु ्रावद फूड फेकार करतु । वेटी बूसट मारद जांम भीमु मिडेवा ऊचल्डि तम । -सालिभद्र सूरि रासियोडो-भू. का. कृ.-१ किसी श्रावार्‌ या तल पर ठहराया हृभ्रा, टिकाया हृश्रा, रक्खा हृ्रा, वराद्श्रा- २ नष्टन होने दिया हृश्रा, वरिगडने न दिया हूम्रा, वचाय हुश्रा, उवारा हरा, रक्षित. ३ पालन क्रिया हूग्रा, पोपगा किया हूश्रा. ४ श्रविकरार या कन्जे मे किया हृश्रा. ५ सुपुदं किया हुत्रा, सौपा हुश्रा. ६ एकत्र, इवह्ाय्रा संग्रहीत किया हृश्रा, मिलाया हुश्रा. ७ नियुक्त या तेनात किया हु्रा, काम पर लगाया हुश्रा. ८ जानेन दिया हु्रा, रोक रक्खा हुभ्रा, ठहराया हु्रा, मत्तिरोव किया हुग्रा. ६ कु करनेसे रोकाया भना किया हुग्रा, वजित. १० ्राश्रय, प्रश्चय या संरक्षण दिया हग्ना- १९१ श्रावसकोदृष्टिसे कहीं ठहराया या दिकाया हुग्रा, व्ताया हुप्रा. १२ धारणया वहन किया हुश्रा, स्वीकार क्रिया हुम्रा, मानादहूश्ना. १३ चोट किया हृग्रा. १४ ४१११ रासो श्रारोपित किया हृम्रा, मढा हृश्रा, थोपा हुम्रा, लादा हुभ्रा रेहन या गिरवी रक्खा हुश्रा. १६ सामने या भ्रागे.लाया हरा, प्रस्तुत किया हृश्रा, १७ पारिवारिक या सामाजिक सम्बन्ध वनाया हुभ्रा, मेल-मुलाकात रक्खा हृश्रा, सम्पकं रक्सा हुग्रा- १८ रखवाली किया हुभ्रा, व्यान रक्खा हुभ्रा, चौकसी किया हुम्रा. १९ श्रवलंवित या श्राधारित किया हृग्रा, २० निभाया हृग्रा, पालन किया ह्राः २१ कृं तयार कर रक्खाहुभ्रा. २२ किया हुप्रा. २३ रक्खा हुश्रा. (स्त्री. राखियोडी ) राखी-सं. स्त्री. १ श्रावण शुक्ला पुणिमा को तिथि, जिस दिन हिन्दू श्रो मे, वहने श्रपने भाद्रयो के तथा प्रोहित्त-त्राहमस अपने यजमानौ के हाथ की कलाई के मंगल-सूत्र (रभ्ना-वंघन) वांघते है । वि° वि०-हिन्दुम्नो मे यह्‌ पव दिन मनाजताहं ग्रौर इस दिन वड़ा त्यौहार मनाया जाता है। ब्राह्यणा इस दिन तर्पण करके जनेऊ चदलते हं । २ उक्त दिन को वावा जाने वाला मंगल-सूत्र, रक्षा-वंधन । ३ गंडा-तावीज, १५ ग्रत्पा०--रखडी, राखडी, राखीपूनम-सं. स्त्री. [सं. रक्नापूणिमा] श्रावण सुक्ला पणिमा की तिथि जिस दिन रक्षा वंवन का स्यीहार मनाया जाता ह, 5० भे ०--राखड़ीपुनम, राखीवंघ, रालीवंघण-सं. पु. सं. | रक्नाकंघनम्‌ ] रक्ना बंधन, रक्षा-सुत्, मंगल सूत्र । राखीवघ माई, राखी मार्ई-सं. पु.-जिसको राखी बांध करभाई्‌ वना लिया गया हो) राखु डौ, राखेडी-देखो "राख (मह. <. भे.) राखोडि्या, राखोडौ-देखो "राख (मह्‌. 5. भे.) उ०-जेहा केहा ज्याम्‌, हैवर राखोडा हवै । ताजी दीजै व्याग, जस लीजं सोई जगन । --्वां. दा. वि०-रान्ब से श्रोत-प्रोत्त, राख से लिप्त, लिपट हृश्रा संन्यासी फक्कटु । राखौ-सं. पू.-किसी रोग के निवारणार्थं मनुष्य (या किसी जानवर कै भी) के रीर परलोहैकौ गमं सलाका से, लगाया जाने वाला डाम। उ०--्रठ रांणीजी प्रागे इरः कहियौजु कुवरनीनू खृधा न ला्गसुम्टे जांणां छां । एक गांहि छै, गिटक एक र मान सू भूख लागण नहीं देती छ । जाहरां नीव्रू जवडी हसी ताहरां दलपतजी रा दु्मणांन्रू दोहरी होसी । पण क्याल तेजसी वडी वेदं छ, प्राज घनंतर छ, ति कन्हां मूग हैक हैक जवडा राखा च्यारि दिराड़ीजे तौ समाधि हवै । --द. चि. ५) न 1 शणमी रागंगी-वि.~गायक, ग्वंया । राग-सं. [सं.] १ अनुराग, प्रेम, स्नेह, प्यार । (ग्र.मा. ह्‌. नां. मा.) उ०--१ वडी घन वेम, म खोय मूदेस ) चवां चित चेत, पुणौ मत प्रेत ! भां वन भाग रघुन्वर राग । ---र.ज, प्र, उ०--२ भ्रंग सकोमठ पेम सर भर, चूप सभं चतरग चितारौ। साध सती जत राग रसायन, सूर चिम्या कवि दास दतारौ। --नुभववांणी --उ० ३ मुग्ब करि किम कृहृतद्‌ वणे, जे तुम्ह॒ मेती राग । ते मन जांणी तेह नौ, लागी जिण विधि लागरे। -षप.च. चौ. उ०--४ फल कंडूवा राण देस ना, भ्राण्यौ मन सुभं व्यानौ रे। -जयवांसी २ ममत्व, ममता, मोह 1 उ०--१ मनि जांण्यौ जहुर ज दियौ, राग देस फल जोयौ रे । भांणेजाने राजमें दियौ, पुत्र उपर राग होयौ रे! -जयवांणी उ०--२ काम न ऊढं कलना, रागन किन यु दोख। जन ह्रिया, उन संत कू, जीवत कटीयं मोख । ३ लगाव, सम्बन्ध । --्रनुभववांणी उ०--टिपस करे लेवा ठका, नहीं मन माह तेह) राग करे दा सु रख, गणिका अवगुण गेह । --घ.व. ग्र. ४. म्राकषता । उ०--ईसान चूण माहि हृतौ रेकास्टक नमि वाम्‌ पान फलै करि सोभतौ रे, दीठां उपै राग । --जयवांणी ५ श्रद्धा, भक्ति, ग्रास्था, विषश्वास । उ०--१ कियद पूजा भ्रनद प्रभावनारे, धरियडइ सद्गुरू उपरि राग रे। --चि,. कु. उ०-- र हंस कर मीरां पीय गर्हे प्रभू प्रसाद।'पर्‌ राग । उच्चौ एक रांणांजी भेयी, उसमे कारा नाग । --मीरां £ मधुन कौ भावना । उ०--१ श्रकवर त्ता रागमसू, रग चत्रिया रस लद । जो उतपात प्रगद्टियौ, सो सुणियौ निस श्रद्ध । --रा. रू. उ ०-२ श्राज सखी सपनतर दीठ, राग वचूरे राजा प्यगे वर्दट । ` -वी.दे. ७ उच्छा, ग्रमिलापा, कामना । ५ उ०--माया तजि ग्या ब्रह्यही दरमे, क्रिया वाद्ठकृ दारई। रागत्याग रभिमान न कोई, श्राय सरूप सदार । --खी मुखरांमजी महाराज ८ राग रग उ०-१ ह्रीया रागन रीभवौ, वेदन विद्या पाठ } काया जामी एकली, साथे खफण काठ । --अ्रनुभववांखी उ०--२ घट माही घट़ीयाठर, भ्राठ पौहूर लागी रहै। हरीया ` , ४११२ रगं राग रसाठ, रग रग भीतर होत है। ९ मनमे होने वाली कोई सुखद प्रनुभरति । १० सुन्दरता, खुवसूरती । ११ भ्राभा, चटा, कान्ति, गोभा । उ०--डाभ~श्रणी-जल-विदवौ ए, जैसी संभा तौ राग) सुपन दरसन नी श्रोपमा ए, सडन पडन ए लागं | ---जयर्वांणी १२ टप, सशी, श्रानन्द । १३ मनोरंजन । १४ वातोमें ली जने वाली चुटकी, व्यंग । १५ भाव, ग्राशय ज्यू--रोवणा में राग दै । १६ खेद, शोक । १७ ईर्ष्या, देप, डाह्‌ । १८ क्लेश, पीड़ा । १६ क्रोध, गुस्सा । २० ग्रहुग्रश एवं न्यास स्वरो का वहु कृलात्मक प्रयोग, जिससे सुनने वाले का मन श्रनुरंजित हो स्के। या ध्वनि की वहु चिरिण्ट रचना जो स्वर एवं हण विभूषित हो श्रीर जोश्रांसी के चित्त को रंजित करता हो । (संगीत) ४ उ०--१ स्वतंत्र व्रत्यसाढछ मे नितंविनीं नच नहीं । सुहागिनी स्वराग राग रागनी रचे नहीं। -- ऊ. का. उ०--> रीं सांभव राग, भीजं रस नहु भ॑वकौ। डौ श्रावं नाग, पकड़ीजं छावड़ पडं । --ग्रनुभववांसी --घा, दा. ॐ०--३ तड्‌ लाग गयौ संग भाग तण, सुध ही भ्रकव्वर राग सुखे । --रा. रू. २१ छत्तीस राग-रागनियौमे से कोई एक 1 (संगीत्त) उ०--{ ताल भ्रस्ट द्वादस तवचन, सोढह भेद संगीत रागं छत्तीसह्‌ रागणी, पंच उकति सूप्रवीत । -- मु. प्र. उ०--र घट र्भ रास रच्यौ नर नारी, श्राय ही नाच की गति- दारी) प्रत्तरि नाचे पाच परचीसु, गावे शरणम राग छतीयु । --म्रनुभववांणी २२ किसी वाद्य से निकलने वाली तान, घुन, लय । (संगीत) उ०--१ विन पाचवां जांह्‌ नाचिवौ, विरा कर ताछ वजाय। चिना राग रीभायवौ, विनां कठ भुर गाय, --सनुभववांसी उ०--२ दिन प्राथमियां पद्य ई पौजारा रं घरतांतध्रू-ट धु-षट री राग श्रलापततीही। -फुलवाड़ २३ श्रवाज, स्वर, दाव्द, घ्वनि। २४ स्रात्मा का मूर्छा रूपी परिणाम । (जेन) २५ रग) २६. लाल रेग, लाखी रंग । शागकर २७ ललाई, लालिमा । उ०-तुम्ह्सुः लागडउ नेहलउ, जांण॒ मजीष्ड राग । पटूकूल फाटः धके, रहे त्रागासुलागौरे1 -प, च. चौ. २८ दाथ का कवच । उ०--पौरस्स नकर पंडव प्रमांणि, तण ववं सूस्तण कसण ताणि । श्रोपंत राग हाथां श्रनोप, तुडतांख सीस रोपंत टोप । । --गृ. <. वे. २६ छोटा हरिण । उ०-तिके किणभांतरा हिरण दै? काढा वडा वेगड चछ, मुरडां र॑ डारमें मेघ हय रह्यादछधं महि राग दं निके कूद उदटं दं --रा. सा. सं. वि. वि.-कृष्णा हिरण कै युवा वच्चे को "राग" कटा जाता हे। इसका रग जन्म से दयाम नही होता । इसकी द्यामत श्राय के साथ साथ वदती रहती हे 1 ३० घोडा । (नां. डि. को-) ३१ राजा) २३२ सूर्य । # > ३३ चन्द्रमा । ३४ पैर में लगाने का श्रलता । ३५ एक वणं वृत्त विशेष जिसके प्रत्येक चरणा मे १३ वणं होते ह। सं. स्त्री.-३६ दछकी सस्या । वि.-छ | ० भे०~-रगग 1 - ग्रत्पा---रागटी । रागकर-सं. पृ.-एक प्रकार का रत्न । रागड़-तं. पु.-१ मेना) उ०~-खड़ौ लांगड़ौ धीर वीराधि बेतू। करं रागं खागडां राह केतू 1 ˆ -मे. म. २ वडीडभ्रका काला हरिण ग्रत्पा०-रागड़ौ । रागडो-देखो "रागड़' (ग्रत्पा., रू. भे.) रागजांगङ्ौ-सं. पू.-वीर रस पूणं राग, सिधुराग । उ०--जवर ग्रभग जुध सुभट भ्रंग कडां जरां जड़ । प्रगट हृद राग~-जांगड़ी हाका पडं । --विसनदाम वारहूठ रागजोगिया-सं. स्त्री~-एक राग विदोष 1 रागण, रागणी-सं. स्त्री. (सं. रागिणी रागिनी । (सगीत) वि. वि--इनकी संख्या ३६ मानी ग्ईहै। श्रर्थाव ३६ प्रकार की रागिनियां होती ह % (डि. को.) (व. स.) १ किसी राग की स्त्री, ` ६११३ २ कोई राग जिसकी एक निदिचत स्वरावली हो । २३ चतुरस्त्री। ४ मेनाको वडी कन्या) ५ जयश्री नामक लक्ष्मी । ६ स्वेच्छाचारिणी, या दछिनाल स्त्री । ७ छत्तीस की संख्या । र वि. १~स्नेह या प्रेम करने वाती, भ्रनुरक्त । उ०--चित चोखौ चहु नारि नो रे, गणवती कहुवाय । प्रिउ ऊपरि श्रति रागणी, ते कथन न लोपं काय । --वि. कु. २ छत्तीस । 5<० भे ०-रागनि, रागिणी, रागिनी । रागणी, रागवौ-क्रि. स.-१ किसी राग या रागिनी को अ्रलापना, साघना, गाना । २ भ्रनुराग या प्रेम करना । क्रि. श्र.-३ भ्रनुरक्त या श्रागक्त होना । ४ लीन होना, लिप्त होना । रागरहार, दारौ (हारी), रगणियौ --वि,. । रागिश्रोड़ी, रागियोड़ौ राग्योडी --भू. का, कृ. । रागीजणौ, रागीजवौ । -- कमं वा./भाव वा. । रागदोख, रागदोस, रागद स-सं. पु. यौ. [सं. रागद्वेष] १ प्रेम व रप्या श्रादि मन के विकार, रागद्रेप। उ०--नकौ रागदोखं, नकौ वंध मोखा । नकौ घाटि वां, नकौ श्राध श्रोखा | --श्रनभववांणी २ दछल-कपट, पक्ष-पात । उ०--श्रातम ध्यानी भ्रागरौ, जारे वीकानिर । रागदौल गुजरात मे, तिदके जेसलठ्मेर । --ग्रग्यात रागनि-सं. स्त्री.-१ जांघ, जंघा, रान । उ०--उडं नभ रागनि लग्ग दछ्लोह्‌, मनप्फत पंच वरच्छनि वोह । --ला. रा, २ देखो (रागणीः (रू. भे.) उ०--पृनि पारन पाठ पठावन मे, गुणग्यानि न रागनि गावनमें। --ॐ. का. रागवागेस्वरी-सं. स्त्री. यौ. [सं. राग बागेदवरी] छकत्तीस राग रागि- नियोँमे से एक राग विद्ोष । रागमाठा-सं. स्त्री.-१ समान रूप वाली विभिन्न रागो का मिधित रूप । २ रागो के देवमय स्वरूप का काव्यात्मक वर्णान एवं चिव्रात्मक श्रंकन । रागरंग-सं. पु--१ प्रानन्द, प्रसन्नता, खुशी । १ उ०--१ रागरग उचछरग रचांणा, वाग राईके वाकी] सोग.---~ ( रागरग ॥ पै रगश्ज्यु ४११४ प्रथाग सिधु बिच सारा, त्याग पधारण ताकी । --अॐ. का, २ श्रानंद व सुकली का उत्सव । उ०--तरं श्रसवारी कर काठीयंद्रह स्िधाया। रागरगण हवं छं छडवडा विलवत रा साथसु' ्व॑ठा च॑ --राव रिणामल रौ वात २ श्रामोद-प्रमोद, त्रेल, क्रीड़ा, मनोरंजन । हास-विलास, मौज मस्ती] उ०-१ करत एक दान पुन्नि, जिग होम जप्पषएु। करते एक रागरग मोहिए सरप्प ए । गु. रू. वं. उ०--२ जक दिनदही कींरौ सोनी उडवि, रागरेगमेंजा परार गमावं ह| ---देसदोख उ०--३ हमेसां सुधा मे गरकाव रहै । कलावत तवायफां, सात ` चाकर राखिया! रागस्ण मे मस्त रहै। --जलाल बुबना रौ वात ३ नत्य-गायन । उ०--१ श्रनेक पद्मणी श्रव्रास, रूप भोमि रच्चए्‌ ¦ श्रनेक रागरणं श्रोप, चतकार नच्चए । --सू. प्र. उ०--२ वाजंत्र वजत विसा, रस रागरग रसाठं । मिद मर सुकिया वाम, क्रत रूप रति.जिम काम । --सू. प्र. ४ ररतिक्रीडा । उ०्~-भरमलकन्दै र्हीमसो दोनू ही रागरगं हंसिया खेलिया मन प्रसन्न हृवौ । --कुःवरसी सांखला री वारता ० भे०-रगराग रागरस्जु-सं. पु. कामदेव । (डि. को.) रागरस-सं. पु.-१ हंसी, खरी, परानन्दे । २ श्रामोद-प्रमोद, हास विलास) ३ नाच~गान । रागतता-सं. स्त्री.-कामदेव की स्थी, रति । रागढी-देखो "साग (ग्रल्पा., र. भे.) उ०-१ मंद गती तप तेज कम, छटी राग्िर्था । पूरा दिन चू पोप्वियां, प्रगटी वादचछियां 1 श्च, उ०-२ उकारलेवंही, सागीडी मूसावदही अरर रागी गुण गावत्ती गेलै वै ही । ---दसदोख रागलौ-वि. (स्त्री. रागली) जिसके मन में राग हो, राग-देष, मोह करने वाला । रगवडाव्ठी-सं. पु--वीर रस पूरा राग, सिधु राम । उ०-मारू भद्‌ चदिश्रा मद्धर, करिवा भारथ कत्य ! रागंवडाटठा वज्जिश्रां, सको सचाला सत्थ । --वचनिका रागां रढ, रा्मारक्ी-सं. स्व्री.-हसी-खुशी, श्रामौद-प्रमोद व क्रीडा से मिलने काला रस, तृप्ति । रागि-देलौ रागी रागिणी, रागिनी-देखो !राग्णी' (रू. भे.) रागु-देखौ “रागः शगु उ०--ऊंधानूधा कर फेरा उदव, यनड़गौ वनड़ी वर मनड़ी मुरकफा्व । रसम वेरस वस रागांरछ रीं! दुलहणि दुलहन दावांनढ दीस । --ऊ. का. रागाउर, रागातुर-वि. [सं. राग~-ग्रातुर] प्रेम, मोह, हास्~विलास प्रादि के लिये व्याकुल, प्रातुर । उ०--साभलि एहवा वचन कुमार, रगातुर हुगौ तिणवार्‌ । एहूवी छ गुणव ती जेह्‌, मदालसा हुसद नहीं तेद । - चि. कु. (रू. भे.) उ०-१ हुं भ्रीयुडा तुक रागिणी, त्‌ का हदय कठोर। चंद चकोर ती परि, मान्यउ तरु मन मोर । --स. कु. उ०--२ राति दिवस तोरी रागिणी, रालु हृदयः मारि रे। सीत तावडहु सहु सह्‌,तु छद प्रण श्रावार रे! -स-कु. उ०-२ प्रीतमसू ग्रति रागिणी रे, रूपवंत भर्भिरांम। --जयर्वांणी रागी-वि. [सं. रागिन्‌] (स्त्री. रागणी, रागिणी) १ राग से युक्त । उ०--जाग्यो जेन चंद सागी, तीभागी रागी जन धरम । वैरागी पुण्या जागी अविकं उचछठाह्‌ । --घ. य. भ्र. २ मोह-मायामें फसा हुश्रा | उ०--१ दुख सुख का कारण मन जीता, सो जनह वरांगी । कै सुखरांम सुरौ भाई साधां, म्रौर सवी है रागी । । --ली सुखरांमजी महाराज उ०--२ सातिनाथ सोभागी हौ लाल, सोलम जिन सागीदहो। 'विनयचंद्र' रागी हो लाल, जयौतु वडभागीदहो। -वि. कु. २ ईर्प्याचु, द्वेष करने वाला । उ०--ह्रजीमल सेठ रागी थयौ जद रुधनाथजी से उरजोजी साधु मोटौ ग्रोलियौ लइ वांचवा लागी --मि. द्र. ४ ग्रनुरक्त, श्रारक्त, मोहित । ४ विषय वासना में लीन, कामी । ६ प्रेमी, ्रनुरागी । ७ प्रेम पुणे, प्रीति पुरं । ८ लाल रंग का, लाल सुखं | ६ रगा हुश्रा, रजित। सं. पृ.-१ श्रशोक व्रक्ष । २ मंडवा या मकरा नामकं कदश्न 1 २ दछमात्राकाद्धंद। ४ अ्रभ्रुपणोमे गोल चक्रनुमा खुदाई करने का लौहैका एक ग्रौजार 1 5० भेऽ~-रागि । {| (रू. भे.) शाधव ४११५ ` राङ्क साया ~~~ उ०--कीजई श्रवसरि श्रवसरि नवरस्नि राग वसंत । तरुणी द | उ०--२ नगां श्राकर तणी रूप हर मणी निज । रूप कुठ दिवा- दोलारस सारस भमद्‌ हसंत । --जयसेखर सूरि कर तौ राघो । -२, ज. प्र. राघवस. पु. [सं.] १ परमेश्वर, ईडवर । (ह- ना. मा.) उ०-३ कीजे वारणा छिव काम कौटिक, दीन दुख दाधौ । साभाव _ उ०-१ ते प्रातेही हरतणा,जे नर्नांम लियंत। से जमडंडा सरण-सवार स्रीवर, राज रो राधो । --र.ज. प्र, परहरे, राघव सरण रहत । --ह, र, उ०--४ सही सेस लाखंमणां घारि सोवा । जगदीस राघौ सकी उ०--२ राप नाम इल उपरा, रसना राघव नांम । डी विव देव जोधा । -- सू. प्र. सू राखियौ, पुरखां जकां प्रणाम । वा. दा. | राड-सं. स्त्री. [सं. रारि, श्रा. राडि] १ युद्ध, गडा, समर। (ग्र. मा.) उ०--३ निमौ नर्सस्तघ तुहारौ नाम, कियौ परिढ्ठाद णौ सिध उ०--१ तोयवी गिरराज तारे, प्रगट कर कपि सेन पारं । रची कौम } कियौ तं राघव रूप कषर, चत्रभूज दंत हुवौ चकनूर । लका राड्‌ । ---र. ज. प्र, पी. भ्र. उ०--२ कोतक'सो मडे भाल कपी, धारां हय सुण जं राड थपी । २ विष्णु का एक नामान्तर्‌ । धिर थाटां म जग राड थपी, करस्य निरवीजा भाठ कपी । उ०-- राघव रयणायर रसा, सेस महेस्वर वण । सुण वघायौ --र. रू. गिरि सुता, सो ष्टौ मो सुख दंण । -वां. दा. उ०-२३ धाड़ पुकार पड़ लाखि घाड़ । रवि उदय श्रस्त लग पंच २ ददरथ नन्दन श्री रामचन्द्र । राड्‌) --रा. रू उ०--१ राघव उमंग हम हंस र्ट, लेनू खगां वतंग रो। उ०--४ चीवारां लाखीक चाडतौ, किलम पंचाहर कयां कर्‌ । रिम दशौ प्रान पुरू री, जुह्व ्रवाडी जंग रो। --रः रू. राढ़ विभाड़ सौहिय) राजा, भ्ररकक ज्भर ई छ फाड यर। उ०-२ रांमचंद्रनें सील इख के, कसर न राखी कार्‌ । रावन ॥ +. २ कठ्‌, गृहु-कठह । 9 वस खोय के राघव, विजय निसान वजाई । --ऊ. का. श र वर र मही सीटी बसै, वसं नफ रि उ०--१ इर साग तीजी लुगाई री गिरं । वा हुनारां मे टठकी उ०-३ वैर महीं तोरौ वसं, वसं नफौ नह वंक । सिया विर = क ३ । र्‌ त ह्‌ । ट ही । राडरौतौ उण नै फगत मिस चाहीजतौ। वांणिया रतौ राघव सह्य, रार पलटी संक । = ८ नाकां दम कर दियौ । --फुलवाड़ी ४ रघु का वंडवर। | गजं | ५ श्रज। उ०--२ रोग श्रगन श्रं राड जाणा श्रलप कीजे जतन । वधियां प्च विगाड, रोक्यौ रहै न राजिया --किरपारांम ६ एक वडी जाति की मद्धली। ३ तकरार, हुज्जत । रू० भे०-राघवि, राघव्व, राघौ । त्वी थतौ ॐ०--१ मासीसे सम मती, पण जोर कई करती । नित जणा सवरा सं. भु. [सं राघव +-राजा] ९ श्री रमचन । जणा सू राड्‌ करयां के लसियां काट हाय श्रावं --फुलवाड़ी ९ इववर 1 उ०-२ भांणजी कहुयौ-मासी यनं ई राड करियां विना रजत उ०--संत सिहाड, राघवराई वौ हरि गावौ पै उध पावौ । नी व्दे। थारा वेटा पटिया तुडाता व्दैला, भू छेक जावे जकी . न । वात करनी, क्यु विस्था श्राडी-डोढी खसती फिरं । --फुलवाड़ी - राघवानंदी-सं. पु-वैष्णव संप्रदाय कीएक भाला व इस शाखाका ४ दिक्कत, समस्या, रगडा । अनुयायी । उ०--चोरां रती श्राज नामी सुगनब्डिया। नर माल चौड मि राघवि-देखो म्राघव' (रू. भे.) जावेतौ कई चाहीजं! सेठंणी राड जड़ी ईवात कोरी राघवेद-सं. पु. [सं. राघव --दइनदर] रधुवंशियो मे इन्द्र, श्री रामचन्द्र । नी । -फुलवाड़ राधवेस-सं. पु. [सं. राघव -{-ईश | श्री रामचन्द्र । ५ दरार । उ०-सदा नमत श्रोधराय, पायधरू सुरेसरे। वदां नरेस श्रांन उ०--वण घण साच वधाय, नह्‌ फुट पाहड़्‌ निवड । जड़ कोमकर कुण, जोड़ राघवस रे । -र. ज. प्र. भिद जाय, राड्‌ पड़ जद राजिया । -किरपारम । राघवौ-देखो "राघव" (ग्रत्पा., रू. भे.) ६ शपि, वदद्म्रा 1 राघन्व, राघौ-देखो ‹राघव' (रू. भे.) (डि. को.) रू० भे०--राडि, राड़ी, रार, रारि, रारी उ०--१ स्मांणौ तू महीं घणस्यांम, राघन्व भ्रम्हीरौ श्रातम | राङक-सं. पु.-योद्धा, वीर । संम -ह. र. । वि०--कठहत्रिय, भगड़ाब्र | ४ राडगारो राडगायै-देखो !राडीगार (र, भे.) उ०--१ सो जतन तौ घणा दही किया पिणा उहां रौ लोग सडगारो सो भिट गयौ मारवाड राश्रमरावां री चारता उ०--२ पर्य हिसार रौ फौजदार चढ्‌ श्रादयौ सौ भागियौ इसा जालम राषगारा वदा सरद राजपूत था । ---ठाकुर जयतसी री वारता राङ्थंम-सं. पु.-योद्धा, वीर 1 राइद्रह-सं. स्व्री.-१ राठेडो की एक उप-गाखा । उ०--मू वालीत देवढ्ा (डा) संघट्ट, दवि वोडा वासा देवद । राडद्रहां सोढां मद्धरीकां, सेव ग्रही भिचि मसि सरोकां । १1 २ देखो “राडवरा, उ०--मिठ दढ प्रचछ राडद्रहु मार । सार प्रसर साचोर संधारं। --रा. रू. राडधड़ा, राडधरा-सं. स्त्री.-तरडमेर जिते के एक क्षेत्र विप का प्राचीन नामजो राड क्पिकेनाम परषडाथा। (मा. म.) वि० वि०-इस प्रदेश के घोड़े विया माने जाते"ये । राडधरी-वि, स्व्री--राद्द्रहु की, राड़द्रहु सम्बन्वी । उ०--रामाजीरी स्कुरांणी राडधरी जिग री रावजी नू कह्यौ रावजी नू बाहूर काटी । --वां. दा, स्यात राङजीत, राड़ाजीत, राडाजीतौ-वि. (स्त्री. राड़जीतसी) युद्धम विजयः प्राप्त करने वाला, योद्धा, वीर । । उ०--उकधां नमाय कधा संवा रा विरद श्रादू, तौरा जोमरटां वाछां वचचेरे सराह । "भवानेस' हरा राडांजीत राण बारां मारी, समंदरां वारपारां तुहाठी सराह । राडि-देखो "राड" (रू. भे.) उ०--१ चपि नसां मांहि चकनरुर, हय, सरघा दूर क्िघायगी । खित राहि समं किय खव्रियां, वाड सेत नं खायमी । --ऊॐ. का. उ०--२ खयल्ल देह छेदती, भ्र.हां कोकंड भेदती । धनंखरी सु घाडि धाडि. रति मांडं कीर राहि) , ~ मा. वचेनिका उ०--३ देवि द्रूपदिय राहि साभकठी, हायि तेद हथीयार श्राविढी भीमू मीर इम कौचद्‌ कूट, तेद्‌ ्रागसी न कोई छटइ । २ देखो-~"राडी' . (रू. भे.) राह्गार, राडिगारौ-देखो “राडीगारौः (रू. भे.) उ०--मारं वैरियां श्रघूटी ग्राव भूषां खांडियौ मांण, तेग धारं नकौ पारा द्यादियौ तमम । वीर रावे छां जाग तांडियौ दला र वैर, राह्िगार उमेली मांडियौ “जोगीरांम' । --वनजी खिडियौ शदो-वि.-१ लड़ाई या भगड़ा करने वाला, फगड़ाल्रू । २ जवरदस्त, जोरदार । ४११६ [ककायां --गोरदान भरासियी | रचैणो ३ योद्धा, वीर। उ०--१ खीचीकुलं शूदो' श्रि खावरेण। राद्ी दलह हुवो वद्र रविणा) --व. भा. उ०--२ इक पड रीट गोद्यां श्रतर, देखि स्टा कमधज राडिया। भूखण्ट वचं जिम देखि भख, श्राया वागा उपाडिया ! --सू- प्र ४ देखो "राड्‌ (रू. भे.) (ह, ना. मा.) उ०--राव विन फिरंग भेल क्वण राडयां ¦ (जिण रौ) भं नवनाडि्यां वीच भंमरी | -रावत जोधर्सिह्‌ कोठरिया रौ गीत ० भे०--राडि , राड्ीगार, राद्ेगारो-१ योद्धा, वीर उ०--१ रीगार चहुभ्रांण जाती राड थोव राखी । सादी चंद- सूर जेते वातां माह सूर । -रावत जोवर्िह्‌ कोठारिया री गीत उ०--२ चद लकं कूरमां निवावां, वोत्तं वांका तेण जवावां 1 कोट धर सामान श्रकारा, गरट किया भड र्धीमाराः | --रा. ह २ कतहु प्रिय, कगड़ालू रू. भै.--राडगार, राडिगार, राड्गारी राडौ-देखो ^राड' (मह. ह भे.) उ०--राड सालु श्रस्यगां वेव वधः सोवां रायजादां, सतारा उचछाजां न्ह उमेडं सजीत ! घोर वेला प्रथम्मी श्रंणतां सूत दैक धारे, ग्रासमान फाटे थंभ लगायौ श्रजीत' । --भ्रजीतर्सिह्‌ चरू डावत रौ गीत राच-देखो "राः (रू. भे.) राचणी-वि. स्तध्री.-{१ जिसका रग श्रच्छा व गहरा जमतादहौ, रजित होने वाली |. उ०- मह्दी वायी-वायी वाठ.डा री रेत । पेमरस महंदी राचणी 1 मंदी सींची सींची जक जमनारे नीर, पेमरस महंदी राचणी । -लो. गी. २ शोभा देने वाली, सुन्दर लगने वाली, चिलने वाली, निखरने वाती । उ०-पनां रे सरीसी धारी घण राचणो श्रो राज। राज ढोला राखो नी थारे मुखड़ रे मांय। --लो. गी. ३ श्रतुरजित होने वाली। सं. स्प्री.-मेहदी । उ०--हरसा मेरावालार, कुण तो र गरू धैलै बाई री. सीस । प्रोदरका रं लोद्या, कुण तो मांडेगौ हाथां राचणी । --लो. गी. राचगो-वि. (स्त्री. राचणी) रंजित होने वाला, रंजित 'होकर खिलने वाला, जमने वाला } उ०--भ्रेम विहूणी' प्रीति, जोए मन न ठरं जसा} रस विर पनि रीति, संग न श्राव सराचणौ । --जसराज | राचौ, राचबौ.क्रि. श्र. [ सं. रक्तिति प्रा. रच्चद ] १ किसी रग म) राचगौ ४११७ राय ४ ~¬ ~~~ ~ का किसी वस्या वरतु पर वठना, जमना, जमकर कर चमकना । २ मेहदीके रंग से रंजित होना, मेंहदी का रंग वखिलना। उ०--मौराकीन रौ लघौ, गलावी चीर श्रर कसूमल चोढी रौ सोणौ पैसन ! हायां रे राच्योड़ी मदी हीगयय्‌. री टीकी, गज- गज लावा, वांसवषठी सू सरगद्ट वाठ) --दसदोख ¦ रचित होना, रंगजाना । उ० - रिचि सिचि सवही दासी, जोड हाथ खडी! इनके र्ग राचे नहि कवहु, ग्रातम जांण जुड़ी । -- न्ती सुखरांमजी महाराज अनुरक्त होना, भ्रागक्त होना, प्रेम के रंग में रंगीजना। उ०--१ राम राजे रसा शूपरे, नेतवंवी वरा नूपरे। सीत वाट्धौ पती साचरे, रे मनाजेणाहु राचरे। --र. ज. प्र. उ०--२ नर राचोम्हैनालखी,तू कत लख्यौ यूजाणं। पट कूरांण रीतौ र्यौ, राच्यौ नहु रमाणा । --ग्रग्यात उ०--३ पति वरता सो जांणीयै, हरीया पति सू हैक रांम विनां राच नहीं, श्नावौ जाय म्रनेक 1 --ग्रनुभवववांणी उ०--४ रयणाहर रयणे भरचड, गंभीर सु दर रीति । राजहसा राघट्‌ नटी, मांन सरोवर प्रीति,। --स. कु. उ०--५ घ्रताची श्रागलि नौचसि, मनेका गुण गाई राचस्सि। रट सुख पामि मुदरी, सुरपति नि भरत्तारज वरी) -नलास्यांन ५ लीन होना, मगन होना, मस्त होना 1 उ०-साखीरे भांण नसापत सारे, कीव महाजुध कौत सकाम । साच तकी कृज साधां सारत, राच महीपसु रमण राम --र.ज.प्र उ०--२ हदि वैठा हदि की कै, वेद पुरानां वाचि1 हरीया वेहद वावरा, रह्या रांम मु राचि। --भ्रनूभववांी उ०--४ स्ीरंम चरण चित राचियौ, जन दूजौ हे नहि अराव दाय । --गी. रा. ६ लिष्ठ होना, उलना, फस्रना । उ०--१ साच भूठ भूठ साच राचतौ रहौ । रूप दू कुनवि नावि नावतौ रह्यौ 1 --ॐ. का. उ० --२ मेहल पिलंगादिक श्रथिर छ, सोतो श्राया भ्रापरो हाथ ्र्पिं मोग महि राची र्या, प्राप समौ प्रथ्वीनाय । --जयवांखी उ०-२ तं भद्रक परिणाम थी जी, सुविसेखं मन लाय) उपरत ग्राडंबरंजी, राचि रह्यौ मुरभाय। --ति. कु. ७ प्रभावान्वित होना, प्रभावमें प्राना! ` उ०-तरुणएी जिर वनवांन तजि, तजियौ वेसर विभाग । चारुदत द्विज ही चरै, राचौ गण प्रनूराग । -वं, भा. ८ शोभित होना, शोभा देना, फवना । ---च्ल [व ० गि | उ०--१ म्हारा जांमणा जाया मावज रे राचं रे विद्धिया वाजणा --लो. गी. उ०-२ मूरमेंफोग महस, रेत भसमी पर राच} चांद ब्रागिया माथ, जटा लासूडा जांचे । --दश्षदेव ६ प्रसन्न होना, ख होना । उ०-१ चारण भद्रां वांभणां, वयण सुणावे सूव। थे राजी सनमांन सू, दीं राचंद्रव । --वां. दा. उ०--२ मुखमें कदन राचिये, दुख नां रहियं रोय 4 श्रजे घोरा दीहड़ा, की जांशु की होय! --ग्रग्यात १० पलना, छा जाना । ०-१ माच खाग काटा राच तवादईद्धं खडां माध । रत्रा ग्राटपाटां नदी वहाई रोस्नाग । -मूरजमल मीसण राचरहार, हारौ (हारी), राचरियौ --वि. 1 राचिग्रोड़ी, राचियोड़ी, राच्योड्ौ --भू. का. कृ. । राचीजरणौ, राचीजवौ -भाव वा. । रातौ, रातवौ ---. भे. । राचियोड़ो-मू. का. कृ.-१ वस्त्र या वस्तुपर वडा हुश्रा, जमा हमरा, जमकर चमकाहुश्रा. (रंग) २ मेहदी के रग से रजित हुवा हुग्रा, मेहदी का र्ग बिलाहुश्रा, 3 रजित हुवा हुग्रा, रगा गया हुभ्रा. ४ श्रनुरक्तया ्रागक्त हुवा हग्रा, प्रेमकेरगमें रगाहु्राः ५ लीन, मग्न या मस्त हुवा हृश्रा. ९ लिप्त हुवा दुश्रा, उलकाहश्रा, फसा हुश्रा. ७ प्रभावान्वित हुवा प्रमाव में श्राया दहृग्रा. ०८ दौमित्त हुवा ६ प्रसन्नया खुदा हुवा हुभ्रा. छाया हूग्रा । (स्त्री. राचियोड़ी) राचोड़ी-स. स्त्री.-१ वढरईके ग्रौजार रखने की पेरी। २ देखो “रद्ानी' (<. भे.) रू० भे०~-राद्ोडी । राचोडो-देखो ^राचियोडी' (रू. भे.) (स्वी. राचोड़ी) रासं. प. [स.रक्न] (रक्षा प्रयोजनं त्रस्य तद रक्षम्‌) १ किसी कारीगर के काम प्राने वाला ग्रौजार, उपकरण या साधनं । उ०--{१ खय्या माथ पररा गाभा वामे डोला, तेजायमें घड़या-घाट खोगाहा। श्रां में रायु प्रर मोी-करोवामें भाति-भांत रा न्हांना-मोटा सचा मेल्या पड्चाहै। --दसदोख उ० --२ प्रर हरांमखोर तेजप्ती वेद वेव एकां मि श्र कारी न महूरत प्छ, प्राप माहै सिरचद तेजसी मिढी मसलत करी ग्रर डांभ रौ राद्धं एकं जिनस रौ घड़ायौ | ह्म्रा, टुग्रा, फत्रा हुभ्रा. १० व्याप्त हुवा हूश्रा, फला हुश्रा, -द,. चि, २ दिन । उ०्-सव्रू मू दिल साफ, सेणाभ दोखी सदा। वेटा सार वाप, राद्ध घस्या क्यों राजिया | £ २ प्रस्-शस्व। रष्टनी [णी रू० भे०~-राच। राछछछीनी-देखो "रदछछानी' (रू. भे.) रा्पीष्-सं, पु.-देषो 'रछापु जी उ०--दढोर-डंगर, थोडौ षणौ गणौ गांटौ रापो श्र दोनू' भूषड़ा, जिका रण्ड रातदिन एक करनं बडी मृस्किन सू" वरणाया हा, सगका ईसं रा ब्दैगा। भरुपड़ा रा वारणां माथं राज रा चेषा लागग्या | -- रातवासौ राद्ापू जोसं. स्म्री. यौ.-? किती कार्यं में उपयोग किये जाने वि श्रोजार या उपकरण । २ गृहस्थ सम्बन्यी सम्पूण सामान । उ०-भूव सु मिलया । रा्ा-पुजी वेच-वेच'र सारी पठछरा्ली । मूघौ त्यावे ग्ररसूधौ वेदै उपज श्र खर्च री लीक नी ग्वेचं --दसदोख (मि. प्राथाप्‌ जी) रा्टङी-१ देखो “राचोडीः (रू, भे.) २ देखो ^स्छनी' (रू. भे.) राजद, राजंद्र-देखो ^राजद्रः (रू. भे.) उ०-१ पएेस रमणसेजांग्रतर,सू्ढौ धणा रो षस्प) राजद रौ हिति निरखवे, एेनक दप अनूप । --परनां उ०-२ नमौ जप तप्प तिता जोगिदः राजा स्रीराम तमौ राजद । ट्‌" र उ०-३ तुर गां पाखरां सिवहां साखतां, राजंद एहा योल रहावं । मोहकमियौ मेवासां माथ, ऊगे विहारौ चोकस श्रावं । ---म्टोकमसिघ रारौट्‌ रौ गीत उ०--४ श्रगुहार श्रखाडी इद्र रौ, जोघह-पुर दद्रा-पुरी ) 'गजमिघः' इद्र राजद्र गति, सरव इद्र सामग्गरी । -गु. रू. वं. राजंसी-चि. [सं. राज्य-वंनी] राज वंगी,) राजा के खानदान का । उ०-सुरा पान भांमुख संदैत, करी गोट तिण ठौड्‌ । रातत सरोवर पर र्या, राजसी राठौड़) --पा, प्र. राज-सं. पु. [सं- राज्य] १ किसी राजाके श्रघीन रहने वाला देश, जनपद, राज्य । उ०--१ सवकू छंडभज्यौ माहि कूः गुर की सरश गर्ई। रांणाजी रौ शज त्यागौ संतत मृख श्राइ गई 1 --मीरां २ शासन, सत्ता, हकूमत, राज्य । ५ । उ०--१ रावे रांमचंद सिध रै! सिध भांनीदास यी! भांनीदास हरज रौ टीकं वैठौ। मास १० दिन २० राज कियौ। पच राज फिरियी । --नणसी उ०--२ ्रकवर लेख प्रमां, तहवर सहत राज लोरभारो । प्राती चिते श्रचीतीः विणसण गा (का) 2 बुद्धि विपरीती। --रा, रू ४११५४ ककय क 11 यं राज उ०-३ वजा केता फेर वेस, विता तः फा सीत्य कत । राजा उग्रमेणा मम॑पे राज, करं जद तसा निधय मेनन । --द्‌. र. उ०--४ मन बुद्धि चित्त ्रहूफार्‌ मति, ममरंनि तनांप्रे्रह् सकति । रहमांगण तुहारौ ग्रटत राज, यीटना हिमं मिगगार्‌ वाज । --पा. ग्र. उ०--५ सवार-सिष्यां तीनू भेदा वैठनं नरूमी-सूसी सायनं मायं टादौ पाणी पीर्नातौ म्टानिं जिं मुरग रौ राज नायी | --फुलवादरी ३ णासन करने वाली सम्या, प्रगामन, सरकार प्रसास मण्ट्ने/। उ०-१ रान रंश्रांन्पणांगरूतौ मुमट दीस के श्रव श्रपोरी माया श्रनि ई स्पात्रणी पटना} भगम रां चारे साय ट श्रपाने ई परौ पडला । --फएुलवादी उ० --२ पोहुरा देवणिपा पयोदा भ्रष्िमी पोहया दैवं श्र राजं करा वाता राज कर) --फुतवाटी ८ कृ करने की सामर्य्यं या श्रधिकःर्‌ 1 ५ प्रगासने या गासन करने की श्रयचि, गासने~-ान, राज्य कालं । ^ १ १ [र # ब उ०~--क्रत पूरण वधिय कठ. रीत दवापुर राज । वंस हस ग्रवतंम विध, '्रभसाह्‌' महाराज । --रा. ₹. ६ प्रभाव, प्रभुत्व, नियंत्रण ! उ०--ग्रोउ' सोऽ सवद की, सहजां सुरी ग्रवाज । जनहूरीया ' इन ऊपर, रर कार का राज । --प्रनुनववांणी [सं. राज्‌, राजन्‌ | ७ राजा! (टि. नां- मा.) उ०--१ राज भगीरथ संम, जुजण्ट जस जस जणा जपं । कीधां मोटा काम, नाम रहै जद" नरां । --वा. दा. उ० -रे द्रपदी रहहं प्रोलग कीज, तू कन्हं हिव दोहं गमीजद्‌ ! जांन राजं सह्‌ पांव दौड, भू ह्रद श्रवरठांमन कोई --सालिसूरि ८ पति, प्रियतम) उ०--१ ऊची चेढ चट गोखडे, ऊंची ऊती होम । जोऊ भारग राज रौ, श्रावण किण दिन होय! . --्रग्यात उ०--२, सिकारां रम र्यौ म्रौ राज । चंगा वाज रजे श्रसवार्रा, सगर भ्रलवेलौ साज ) --रसीत्तेराज रौ गीते उ०---३ श्र व तजडइ नहि कोदलां, सरवर सालूरंह । राज हिवद मा पांतरउ, श्रा धणं चठ श्रवरांह्‌ । --दो. मा. ६ स्वामी, मालिक | उ०्-णांरीधणरी भेजी श्रठे राई जी, थांरी वणरा कागद साथ । भवर, थे वांच तेवौ, महारा राज। --लो. गी. रजभ्रण १० राजाया किमी प्रतिष्टित व्यक्ति के लिये सम्मान-सूचके सम्बो- | धन्‌ शब्द, श्रीमान 1 उ०--१ तरे दमनी दछोकरी वोनी, राज इसी वातत मूढा मांहि सु | व्य्‌ काटौद्धौ --पंचदंडी री वारता उ०--२ ताह पादूजी कल्यौ-रान प्राप विराजौ 1 हं ले प्रा्दूस । । -- नरसी ११ राजाया राज्य से सम्बन्धित व्यक्तियों, विषयोया तत्वों के नामके पूर्वे लगने वाला छब्द ज्यू --राजवेद, राजकवि, रानमहल, राजदूत । १२ धमराज । १३ केवि 1 . १४ तामीर्‌ का कार्यं करने वाला मिस्य, चित्पौ । १५ दीपक वुषने की क्रिया, ग्रवस्थाया भाव । १६ अपरा 1 १७ गीत की तय 1 उ०--सुरौभ्रौ मंवर । म्हाने सपनौ सो श्रायौ जी राज । सपना रौ श्रय वतावौ जी राज । कहौ रे गौरी यानं किण विध श्राय जी राज सपना रौ भ्ररय वताची जी राज --लो. गी. [फा. राज] १८ गुप्त वति, भेद, रदस्य । सवे ०-श्राप, श्रीमान उ०--१ रान तणी इच्छा रधुराया। खिल चराचर जीव उपाया । --ह. र. उ०--२ तरे भाव्यि सारां कद्यौ- दर्म राजे कही सुकरां। --नैएसी उ०--३ निरघन के धन राजदहौ, निर्बल के बढ राज । राज विना हुम दीन को, कौन सुधारे काज) --गजडदटार वि०-१ त्रिय, प्यारा। उ०्-तूछै,एकुरनां, भायेली, तू दछधरम री वेण) एक संदेसौ, ए बाई म्हारी, ले उडी, ए म्हारी राज, कुरजां म्टारो पीव मिदखादेषए) --तो, गी. २ प्रमूख, मुख्य । रू० भे०- राजि, रायु । राजभ्रग-सं. पु--मंत्री । (डि. नां. मा.) राजदद-देखो ^राजेद्र' (रू, भे.) (डि. को.) राजवर, राजकंवार-१ देखो !राजकुमारि' (रू. भे.) २ देखो (राजकृमार' उ०--१ महाराज तणी चिता मिरे, विध इण भ्राज विचारियां | सुभ काज वार रहसी सिवर, राजकृवर पावारियां 1 -रा. ₹, उ ०-> मरण जनम चौ सट पिट्ण, सौ सलभब्है संभार) जंम ४११६ ॥ । जिन को ~~ ५ ~ ~ जि 9 9 ॥,॥ राजकु श्र मौ सट भंजं जिसौ, कौसठ राजकंवार । - --र, ज. प्र. (स्त्री, राजकवरी, राजकवारी) राजक वरी, राजकवारी-देखो (राजकुमारी, (रू. भे.) उ०--नेह्‌ निज रीभेरी वति चितनाषरी, प्रम गवरी तण नाहि पायौ । राजकवरी जिका चदढी चंवरी रही, श्राप भेवरी तणी पीठ ्रायौ। --गिरवरदनि साद्‌ राजकथा-सं. स्त्री. [सं.] १ राजाभ्रों का उतिहास, तवारीख । २ राजनीतिक चर्चा । उ०-रोटी चरखी राम, प्रतरौ मुतदछव श्रापरौ। की डोकग्यिां काम, राजेफया सु राजिया। -किरपारांम राजकदव-सं. पु. [स.] १ कुट्ट वड भ्रौर स्वादिष्ट फलों वाला एक प्रकार्‌ कदेव का वृक्ष । २ उक्तवृक्ष काफल | राजकन्या-सं. स्वी. [सं] राजा की पुत्री, राजकुमारी ! 5० भे०~-रायकन्ना । राजकमटा-स. स्री. [सं. सज-कमला] राज्य लक्ष्मी । उ०--पाठ गजां पांच दोमजां प्रिथमी, जां लगमेर मेला! तां लग कृमधज्ज राज वचिजी, व्दै मुगते राजकम्छा। -गु. रू. वं, राजकर-सं. पु. [सं.] राजा दाराप्रजा से लिया जने वाला कर, महसूल । 1 राजकरता-वि. [सं. राज्यकनृं ] राज्य करने वाला, राज्य का घासक । सं. पु.-ब्रहु व्यक्ति जो किती राज्य के सहासन पर किसी को वैठाने या उतारने की क्षमता रखता हो । (रू. भे.) (रू. भे.) राजकाज-सं. पू. यौ.-राज्य के काम काज, शासन सम्बन्धी कार्यं । उ०--प्राज्निवाद द्विज री उचार, रजकफाज सिवन्हौ राजा र। --सू. प्र. राजकवार-१ देखो "राजकुमारः २ देखो "राजकुमारी! राजकार-सं. पु.~-राज्य क्मचारौ । उ० -- मेत्रिमहामंत्री ग्रहवाहुक स्ीकरशिक व्ययकरशि राजकार वरमायिक सोवेरण्णक्करशि""““" --व. म. राजकारिज-सं. पु.~-राज्य व शासन सम्वन्वी कार्यं । उ०--देवीसिघ वालादही प्रणामे राज पायौ । काकं बुदढसिघजी राजकारिजे नं जमायौ । राजफिरिया-सं. स्त्री. [सं. राज्य-क्रिया] राजनीति । <° भे०-राजक्रिया राजकु श्रर-१ देखो | राजकुमारी) --यथि. व. (रू. भे.) राजफुश्रर 1 म णीपिषषीषििो (र. भे.) जाः नम, काक 9 मिन २ देखो "राजकुमार (स्त्री. राजकृश्ररी) राजकु श्ररि, राजकु श्ररी-देखो (राजगुमारी' (रू. भे.) ॥ उ०--१ राजकु श्ररि देखी नर्‌ हसी पूखी वात सवे तिण जसी । ण॒ परि जांणी सधलउ भेउ दौरउ वांधि पमि वलि तेउ । --दीराणद सूरि उ०--२ संग सखी सील कुढ वैस समांगी, पेयि कठी पदिमरी परि । राजति राजकुःश्ररी राय-श्रंगण, उडीयण पीरज श्रव हरि। --वेलि राजकु श्रार-१ देखो "राजकुमारी' (र. भे.) उ०--तठा उपरति करि नै राजान सिलांमत्ति जिके रायजादी राजकुश्रार दँत्यारी खवास्यां देही री श्रारासि करदं । --रा, सा. सं. २ देषो “राजकुमार (रू. भे.) (स्त्री, राजकुश्रारी) राजकु श्रारी-देखो "राजकुमारी! (रू. भे.) उ०--दइणा भांत ऊजं पतिग्रत री पाठणहार ऊजणठी सख्िभ्रांरी टोढी मू' राजहंस राइजादी राजयुःश्रारी भरे चडी ऋं | --रा. सा. सं. राजकु वर, राजकु वार-१ देखो 'राजकुमारी' (<, भे.) २ देखो (राजकुमारः (ख. भे.) उ०--१ परभात हयौ तद नायण कही राजकुवर जी कट। ताहरां श्यं कही कुवर्‌ तौ रातं मूवी । सु रातोरात्त राकस उछाय ते गया । --भोवो्ती उ०--२ मोज महरा मूरत मयण, लोयण लाज श्रपार । जेहल राजकु वार जिम, कुरा श्रन राजकु वार । धां. दा. (स्त्री. राजबुःवरी, राजव वारी) राजकु वरी, राजकु वारी, राजकुभ्रारि, राजक्श्रारी-देग्वो ^राजकुमारी (रू. भे.) उ०-वाललीला माहि राजकुश्रारि द्रुलडिया रमे चद्‌ । --वेलि दी. राजकुमार-सं. पु, [सं.] (स्त्री. राजकुमारी) राजा का पुत्र, राजकुमार । रू० भे०-रांयक वर, रादवु श्र, रादकू वर, राजक वर, राजक वार, गाजकवार, राजकु श्रर, राजकु श्रार, राजकु वर, राजकु वार, राय- कवर, रायबू श्रर, रायवूयर, रायांकवर्‌ । राजकुमारी-सं. स्वी. [सं.] रजाकी पत्री, राजकुमारी। ` ₹<० भे°~-रांयक वरी, राद्रकु प्ररि, रादकू वरि, राजक वरी, राज- कवारी, राजकुंश्ररि, राजकुंश्ररी, राजकुश्रार, राजगुःश्रारि, राजकु वरी, राजकरुवारी, राजगुश्रारि, राजकुग्रारी, रायक'वरी, ४१२० राजकुट्ट, राजकुल-सं. पू. [सं. राज्य-वुत] १ सनष क ोपपीीिकीरौ किं [1 मौ पौ पि 1 ति ^ रायवुः वरी । राजा का वश, राजा. का कुल, राज्वंश्ष 1 उ०-- मामदसामाता कै उदर्‌ रहै महिमा ते, राजपद पायं या कहावं राजकुठ मं । --ऊ. का. २ राजा का दरवार, न्यायालये] उ०्-जिन मंदिर धवल मदिर राजकुले देवमुत्रं श्रट्रा्त प्रसादमाल सेयसान्‌ श्रौरधमासं रथसाल। --घ. म. ० भे०-राजक्रुकि, राजकृद्धी, गाजकुली । राजकुदि, राजकुट्धी, रानकलि, राजुती-वि.~राजा के क्र्यकरा, राना का वश्षज राजव फा) स. वु-१ राजवय । उ०-तिण नगरी र॑ विय राजा भौज राज्यं करर । श््तीस राजकुढी राजास गोवा कर्‌ । --चाौयीली २ राजाके परिवार्‌ का सदस्य । ३ देयो ^राजकृट' (८, भे.) उ०--१ स्रट-प्रीस वस राजक्रुढी तिरोमरि सुरज वसी दाजानं मारवाह रानव कोट री ठकुर जद्धायोढ राज-~पदवीः भोगवुं 1 --रा. मा. सं उ०-२ क्षण एक जाद्‌ प्रायुवसालां, क्षण एक जार्‌ वाहरि, क्षण एकं जाइ राजकूलि, क्षण एक जाई देवकुलि, क्षय एक जा राजवारिकां, क्षण एक जाई वाटिकां, इसी फ्रीडा करट) अ. राजकोलाहल-से. पु -संगीत मे ताले का एक भेद विरेष । राजक्रिपा-देखो (राजकिरिया' (रू. भे.) राजखग-सं. पु. (सं. चगराज] गरड । उ०--टुवं गाज गजराज घजराज ठडहड हूरव, भिं कर साज भड़ जिकं भागं । विकर श्ररिराज श्रहिखज री वरौयरि, उद पंख राजखग उकर श्रा्गं । --रावदेवीसिध सेसावत रौ भीत राजग-सं. पुः [देजश] राठीडवश की एक उपयथाखाव इस उप ष्ाखा का व्यक्ति । वि.-राज्यगामी । राजगत, राजगति, राजगत्ति-स. स्मी.-१ राजनीत्ति। न उ०र-विराजर्मान राजयांन कमंघज्ज भूपत्ती 1 जुगत्ति राजगत्ति. जारि, इद्र श्रमरावती। --गृ. <. वं. २ राज्य या शासन को गति-विचि। ३ भग्यि की श्ररदय गति । राजगदही-सं. स्त्री. [सं] १ राजरसिहासन । २ रात्याभिपेक, राज्याधिकार 1 रू० भे०-राजगादी, राजगीदी । रागहैली राजगहैलौ-वि.-प्रीत की वावल । उ०- मिद ग्रधेरी रैण सुरेली, मोरा गावं मल्दार। राजगहैली र संग मांणौ, सरस तीज री रत । --रसीलै राज रौ गीत राजगादी-देखो “संजगदी' (रू. भे.) राजगिरि-सं. पु. [सं.] मगध देश का एक पर्वत । राजमीदी-देखो !राजगदी' (<. भे.) उ०--प्रोत री वूख सू जलमियो राजगीदी रौ हकदार नी श्ररव्यावरी वू जलमियौ राज रौ हूकदार दहै, --पफुलवाड़ी राजगोर, राजगौरी-सं. पु.-वह्‌ कारीगर जो मकान वनानि का काये करता हो । दिलत्पी । राजगुर, राजगुरू-सं. पु--१ राज्य पुरोहित । उ०-जैतारण था कोस ४ उगवण मांह, दत्त राव जैतसी ऊदावत रौ त्रि. वरसंघ पीथावते जातत राजगुर चु 1 मोरवी वडी प्रोत राजा उदीत दोया चु एे सेत दीया । --नंणसी २ राजाका गुरु! 5० भे०~रायगुर, रार्यागुर । राजग्रह-सं. पु- (स. राज मृद] शएज-महल, राजा का महल । देख वधारईदार । किया ववाया (एतिहासिक) उ०-कदाहां उच्छव किया राजग्रह्‌, राणी कियौ क्िगार । --रा. रू. ू० भरे ०-रायमिह्‌, रायघर्‌ । राजघ्रनीका-सं. स्वी--रामवेलि नामक लता । (ग्र. मा.) राजड-सं. पु-१ भाटी वंश की एक काला जो श्राजकल मुसलमान हौ गई है) | २ लगा जाति की एक साखा विशेष । “ (मा. म.) राजडा-स. स्प्री.~-राजवाई नामक एक देवी 1 | उ०~-लकाटौ चड़ चान जंघाल लेल । हली राजड़ा ज्यों | प्रथीतज हलं । मे. म. | राजचंपक, राजचंपौ-सं. पु. (स. राजचंपक] पृप्नाग का पुष्प एक | प्रकार का ष्रुल, सुल्ताना चंपा । राजचील-सं. पु. [सं. राज~।- रज. चील न=्=सपं | शेपनाग ¦ उ०- वासयेत जोम गाज गाया श्रू वासी । राजचील | जाछिया तारी तेज रूप । कुमी कुछसां यद्र ढालिया गरंद | काटा, दर शषिवा' वाठ सिमां मार लिया वधस) | --हुकमीचद खिडियौ | राजचरडामणि-सं. स्वरी. [सं] संगीत के ताल के साठमभेदोमे से एक । | राजर्जामुन-सं. पु-जामुन की एक जाति विदेप । राजजोग-देखो "राजयोगः (रू. भे.) । राजठोड़-सं. स्वरी.-राजघानी । | राजणो, राजबो-क्रि, श्र [सं. राज्‌] १ श्रासीन होना, वैठना । राज (तिलफः 1 उ०--ब्रह्मासिव इद्रादि दे, रानि खरं कर जोर । सिघासण श्राणा करिये, राजत जुगक किंसोर । --गज उद्धार्‌ २ शोभित होना, शोमा देना । उ०--१ मद सिलल तणां चांटा दियं नीलम, राजि सुधर चांटा पदमराग । श्रडग पग मांड । राधारमण, नग समौ विलंद मग विप गगन मग नाग । --वा- दा. उ०--२ राजति श्रति एण पदाति कूज स्व । हंस माक वधि लास हय । ढासि खज्रि पि ठका, गिरिवर सिणमारिया गय 1 --वेलि उ०--३ जंग वोर सुहावणि राजे, फिर सकति री श्रां । मद ओ भ्रापू श्राप विराजो, भकटठ ऊगौ भाण । --राधवदास भादी ३ सुन्दर लगना । उ०--१ संग सखी सील कुठ वेस समांणी, पेखि ककरी पदिमणी परि । राजति राजकु नरि राय श्र गण, उडीयण वीरज श्रव हरि । --वेलि # ४ चमकना ) उ०--१ श्राणाद सू जु उदी उहास हास प्रति, राजति रद रिखपति रुख । नयश कमोदणि दीप नासिका, मेन केस राकरेस मूख । --वेनि उ०--२ रूप खडग श्रदभूत दुति राजे 1 तडित सिकाव घौम । तराजं 1 --म्‌.प्र. ५ सज्य करना, शासन करना । उ०---ददिखणा दिसिदेस वरिदरमति दीपति, पुर दीपत्ि भ्रति कुःदण॒ पुर । राजति एक भीखमक राजा, सिरहरं ब्रहि नर प्रसर सुर । --वेलि राजणहार, हारौ (हारी), राजणियौ --वि. | राजिग्मोडौ, राजियोडौ, राज्योडीौ --भू- का. फु. 1 राजीजसणौ, राजीजबौ --भाव वा. । रजौ, रजवौ, रज्जणौ, रज्जयौ --रू. भे. । राजत-देखो “राजित (रू. भे.) राजतरमिणी-म. स्त्री. [स.] संस्कत का एक प्रनिद्ध एतिहासिक ग्रथ, जिसकी रचना काष्मीर निवासी क्ल्टण केट्रारा की गई, एना माना जातां है । राजतरुणी-सं. स्वरी. [सं.| सफेद गुलाव्र की एक लता जिसके फुल ।वटे एवं वेत होते ईह, वड सेवती । राजतिलफ, राजतीलक-सं. प- [सं. राजतिलक]| १ किमी राज्य कै राजसिहासन पर नए व्यक्ति को राजा यनानेके लिये, मसम्मान वैठनि की प्रक्रिया, राज्यार्भिपेक । > उक्त श्रवसर्‌ पर, नए राजा के मस्तक पर्‌, विधि पर्वक किया जाने वालां तिलक । | राजतीमु्रा उ०-- वीभीद्धन कु राजतोलक दिय, मुकति माठ पहराई 1 --रुखमणि मंगल ३ उक्त समयमे नए राजा के सम्मान में मनाया जाने वाला उरसव । रू० भे ०-राउ्य तिलक । राजतीमुद्रा-सं. स्वी.-चांदी का सिक्का, रोप्य मद्रा । राजतेज-स. पु.-१ राज्य या सत्ता का जोर, प्रभाव, रोव, शक्ति । उ०-- नकी राजतेजं नकी देसपती । नकौ गढ छाजा नकी द्वारि हसती । --ग्रनुभववांणी २ राजसी पदार्थो या वस्तुश्रं का ठाट-वाट, चमक-दमकं 1 सजयंभ-सं. पु. [सं. राज्य स्तम्भ] १ वह व्यक्ति (मंत्री या सामत) जो किसी रारय की समस्त व्यवस्था का उत्तरदायीही, रस्यिका स्तंभ माना जाने वाला व्यक्ति! उ०--राजयंम मंत्रियां, राज रच्छिक उमरानां । राजार वहू कुरव, राजे जसधर कविरावां । -- सू. प्र. २ राजा, नृप 1 राज्ांण, राजयांन-देखो (राजस्थान (रू. भे.) उ०--१ सूश्राप वडीरेखरागांम दीठाचावो तो हूं सारा जायु छ, सूरगांम चाही जिसा हू वतासू, पण श्राप राज्थान वांघणौ किसी जागा विचारियीहै ? --द. दा, उ०-२ तरे जोगिये इतरौ कर॒ वतायौ-यारी साहवी राजयांन लाखडी करं नै जोभियां रौ भ्रास्ण धीणोद कर्‌ । - नसी उ०--३ विणजारं रं सदाई हषे, इसो वहनी करि चालतौ चालततौ गिरनार री तछह्री पावासर महै राज्यानि छ, तटे श्राय पडियौ । --कह्वाट सरवहिये री वातत शजयाट-सं. पु.-राजसी-टार चाट, राज्य वैभव । राजवड-सं. पू--१ राज्य या शसन का दण्ड विधान । २ राज्य की ्राज्ञानुसार भरा जाने वाला दण्ड । ३ सजा । राजवरवार-सं पू.-१ किसी रज्यया राजाकी वह्‌ सभाया. वैठक जिसमे र्य के राजा सहित सभी मंची एवं सामंत उपस्थित होते ह श्रौर जिसके दवारा शासन का संचालन किया जाताहै। राजा की सभा। , उ०--१ लाधरराम राजदरवार रौ इतौ वडौ निघडक चौघरी होवतां थकां भी, सूत-पलीत, डोरा-ङंडा, देर्ई-देवता श्र डाकण- स्यारीर कदंदही कूड़ा नीं वता्वै। --दसदोख उ०--२ राजाजी फरमायौ के बीज रे चांदरी सुसियां मनायां पद्यं वं राज-दरदरवार सू पाधरा पोह॒रं चढ-जावं । --फुलवाड़ी २ चहु स्यान या कक्ष, जहां उक्त सभा वेठती है या जुडती है! ३ राजा की अ्रदालत, कचहरी । १२२ __ ~, -----~---_-_--~_~_~~_~_~_~_-~~-~_~~~-~~~~~_~~~~-----------------~--- (रू. भे.) उ०-धाली टापर्‌ वाग मुजि, कक्यउ राजृघ्रारि। करृहृद फिया टहूकड़ा, निद्रां जामि नारि । -टो. मा. राभदलारी-सं. स्त्री.~-राजा कौ कन्यां, राजकुमारी । राजदवार, राजवृश्रार~देखो "राजदरार' उ०--दूलह्‌ सिर भिर राजदुलारी । करे चमर कन्या कोमारी। २, स, राजदुवार-देखो ^राजद्रारः' (<, भे.) उ०-१ वाजा वाजिया जिणवार्‌, दीपं हरख राजदुवार । = र्‌. क, उ०--२ पग राजा चरू मित्यउ, सउदागर त्िणिवार। राजद्वार इ तेदियड, श्रादर करं श्रपार । -टो. मा. राजदरूत-स. पु. [सं.] १ किसी राजा याराज्यका वह व्यक्ति जौ दूसरे देदा में श्रपने राज्य का प्रत्तिनिधित्व करता हो । २ वह्‌ व्यक्ति जो श्रपने राजा का कोई विन्ेप संदेश तेकर किसी ग्रन्य राजा के पास्रजतादहि। राजा का संदेश्च वाहकः 1 ३ राजाज्ञा प्रसारित करने वाल्ला कमचारी । राजद्रोहु-सं. पु. [सं.] १ किसी दूच्यकी प्रजाया सेना दाय, राजा या प्रशासने कै विरूद्ध किया जाने वाला विद्रोह, वगावत । २ ेसे कायं जो वगावत की संनामे ्राते हों श्रौर जिनमे राज्य का श्रहित होता टो । राज्रोही-वि. [सं. राजद्रोहिन्‌] १ विद्रोह्‌या वगावत करने वाला, राजद्रोह्‌ करने वाला २ वागी। राजद्वार, राजदा रो-सं. पु. [सं. राजद्वारम्‌] १ राजमहल का दरवाजा । उ०--१ सुकीर नासिका सरूप, वेसर नीत सजियं । सुरू गुरुर ` भोम सुक्र, राजहार राजिं ) -सू. प्र. उ०--२ गज कोटि राजहारौ, मिदरउतंग महल श्रटाला । संपेख धांम वांम, विसक्रमा विश्रम .भवेत 1 --गु. रू. ज. २ राजा का दरबार, राज-~दरवार , २ श्रदालत्त, कचहूरी, न्यायालय । रू° भे०-राजदवार, राजदुभ्रार, राजदुवार । राजहारिक, राजहारी-सं. पु--राज्यपदूधिकारी विष । उ०- कोस्टाकारिक पारिग्रहिक, प्रतिहार चतुद्धरिक कार्टिक राजहारिक संधि विग्रहिक भांडपति स्स्टि। --व. स. रानधणी-~सं. पु. [सं. राज धनिक] १ किसी राज्य का स्वामी, नृप, राजा । | उ०--१ बल पर हरं वना बध वोलै, सनस श्रसा राख धरसूत रांण तुहाली पोट रायमल, राजधणी सेवं रजपूत । --महारांणा रायमल रौ गीत ॥ ण __ ______ ` ४१२३ ` राजपारट उ०--२ निज वण सुणखत फक उपै, गुर वंसावदी अरघ करि । वोह राजघणी गज वाज हृद हरत लै मचकू द चर । --रा. वंसावसली ४ वहत्तर कला्रो मे से एक । (व. स.) ० भे०-रजनीति । । [सं.] १ राजनीति सम्वन्धी । २ राजनीति जानने वाला । राजनील-सं. पु. [सं-] मरकतमणि, पन्ना । । राजन्य-सं. पु. [सं.] १ क्षत्रिय) २ सरदार, सामन्त । राजपंख, राजपंछ-सं. पु [सं. पक्षिराज] गरुड । २ राज्य का श्रविपति । राजधर-सं. पु.-१ राजा, नूप । (डि. को.) २ भादी वंश कौ एक साखा) रू० भे०~-रजधर, राजोधर, राजौधर रायघर । राजधरम, राजधरम्म-सं. पु. [सं. राज-घम्म] १ राजा का कर्तव्य, धमं 1 २ वह्‌ धर्म, जिमे राजाद्रास "राजधर्म" घोपित किया गया हो 1 ३ महाभारत का वह्‌ विभाग, जिसमे राजा के कर्तव्यो का उल्लेख है । रानघानो-सं, स्वी. [सं. राज -।-धानी | किसी देश्या राज्य के राजा ` या शासक के रटने का प्रधान-नगर, वह नगः या स्यान, जहां देदा या राज्य के शासन काकेन््र हो । 5० भे०-रजधांणी, रजधान, रज्घानी, रायहारी । राजन-सं. पु. [सं. राजन्‌] १ राजा, चृ । उ०--जय वाखांख राजपंद वाजं › श्रलख भुय घण सुरौ इम । राणा श्रवर घणा दिन रहसी, जुग जुग पंगी चंग जिम । -- महाराणा अगतर्सिव रौ गीत राजपंय-सं. पु. [सं. राजपथ ] किसी राज्य या नगर का प्रमुख मार्ग, राज मागे । <° भे०-राजपय । राजपट-सं. पु--१ एक तस्व विरोप । उ०--मेघाडंवर नवपद घोतपद् राजपटं गजवडि हंसवडि बवोरि- श्ावडी, ऊमावडी । २ देखो "राजपाटः' (रू. भे.) राजपत्ति-सं. पु. (सं.] १ राजा, सम्राटः नृपति । २ राज्य का श्रचिपति, शासक । राजपत्नी-स. स्त्री. [सं.] राजा की पत्नी, रानी, साम्राज्ञी । राजपत्री-सं, पु. [सं. राजपत्रिन्‌] पक्षीराज गस्ड्‌ । ॐ समेट --- व्‌. स. उ०--राजन मे सुर राज सष्नी, महा राजन मे महाराज समेढ्ट । * पाज श्रपाहिजि सरव समाज सु, पुतन जहाज मिं भव पलं । --ॐ. का. २ पति, प्रियतम । उ०--१ राजन चाल्या चाकरी, कायि धर वंटूक \ केतौ साग त्ते चलौ, के कर डाली दो दुक । -लो. गी. उ०--१ जोमंगी भंडीस ज्याग श्रायी ज्यू चंडीस जायौ, र्नपत्री ग्रायौ थंडीस व्याछ् रेस ग्रोडंडीस ग्रसीसतौ लांगडौ कपीस ग्रायौ, कोडंडीस कसीसतौ श्रायौ गरंडाकेस । । --टक मीचंद खिडियौ उ०--२ पूरा माप श्राह गांठ वेग भाटां राजपत्नी । दूजौ शगौड़' क्रीत साटां तुराटां देवाठ 1 --क. कु. बो. राजपथ-देखो (राजपथ (रू. भे.) । राजपद-सं. पु. [सं.] १ राजाका पद, राजाका श्रधिकार, राजत्व । उ०--२ अनाकार वापर, चौमासा रा मामा रे, सियामारा मनि लेड चात्यौ म्हांसा जोड़ी सा 1 |रतन सियाटौ राजन मू ही भियो जी। --लो. गी. राजनोत, राजनीति-सं. स्वी. [सं. राजनीति] १ किसी राजा या लासक द्वास, राज्य की रभा श्रातरिक सुव्यवस्था एवं शाति र्रने के लिये वनाई गर्द शासन की पद्धति, विचि, नियम या कानून । इसमे साम, दाम, दण्ड ग्रौरभेद इन चारोंका समावेश | किया जाता हे। उ०--मास दस माताके उदर रहै महिमा ते, राजपद पावेया उ०---१ इष राजनीत जा ग्रनेक । वर मंत्र-सकति कविता कहावै राजकुढ में 1 ॥ विवेक । | --सू. प्र. २ कम कीमत का हीरा, उ०--र मूढी रौ पापा रजवाड़ं में रेवणियौ स्याणौ हाजरियी राजपद्धति-सं. स्वौ. [सं] १ दासन प्रणाली, शासन विधि । राजनीत सू" रश्योड़ौ-सुधरयोड़ौ मिनख । = --दसदोख २ राजनीति । २ कूटनीति, भेद नीति, गुप्त नीति 1 २ राजमाग राजपथ । ३ वर्दमान के राजनैतिक दलं की दलगत नीति । राजपाट-सं. पु. [स. राज्य+-पद्रः ] १ राज्य सिंहासन, राजगदी । उ०--डिपटी साष्व्नयेही कै" देवता-केसा व ! लोग म्हारी उ०- मंडोवरगद राव चूडौजी राज करं । तिण रं १४ कवर । दूडी ही सिकायत करैहै)रम्दैकीरीदही पालटी मे भागनीं तिण मे राजपाट टीकायत राव रिणमलजी । ल्यूः श्ररना कोई राजनीत फेला । --दसदोख --राव रिणिमल री वात रारपाच्र ,___-_- ~~~] ब्‌] २ राजा के श्रधिकार, राजत्व। - ४१२ रातिवगती उ०--ञंदा वाई मन सममे, जावौ श्रपरौ धाम । राजपाट भोगौ तुम्ही, हमे न तासू काम । रू० भे ०~रजपाट, राजपद । राजपाच्र-सं. पू. (सं.] एक वे विगेष । -- मीरा उ० ~ कंदारई देमाली कलाली गोली गवाल पसूयाल राजपाचत्र विद्यापात्र विनोदपात्र । राजपाठछ, राजपाल-सं. ¶.-१ एक राजवंन । ---व, स. उ०-गोहिल गुहलिपुत्रक घान्यपाल राजपाल ग्रनंग निकुभ दविकर कालामृह दापिक हण हरियर डोसमार । २ देखो ^राज्यपाठ' (र. भे.) राजपिड-सं. पु-राजा का दिया हुप्रा पिड, भ्राहदार । त्‌. स । उ०-राज्पिड सुक्रकार, एहवे न लेवे ग्राहार। मरदन नहीं करे ए, दांतण परिहरेए। --जयवांसी राजयुत्र-सं. पु- [सं-] (स्त्री. राजपुत्री) १ राजा का पुत्र, राजकुमार । उ०--श्रथ कुमार, उद्धत्स्कववंवुर, वख, मय' भूजादड, विस्तीरण्ण वक्षः स्थल, रण॒ रसिकु, समर भर घुरि धवल, श्रतुलवलपराक्रम, र्य मोडण, परदलण, सूर वीर, धीर सौँडीर इस राजपुत्र कुमर । २ राजपूत, क्षत्रिय । २ चुघ ग्रह्‌ ० भे°-रायपुत्त, रायपुत्र | राजपुत्री-सं. पु. [सं.] १ राजा की कन्या, राजकुमारी । २ क्षत्रिय कन्या । ० भे०~-रायपृत्रिय, रायपूत्री | तस राजपुरुस-सं. पु. (सं. राजपुरूष] १ राजा धरानेया राजाके वंदा का को व्यक्ति। राज्य कमचारी। ३ ग्रमात्य, मंत्री । राजपुस्पो-मं. पु. (सं. राजपृष्पी ] वन~मल्लिका, जातिपुष्प । रजपुत~सं. पु. [सं. राज ~पर, प्रा, राजपृत्त] (स्वरी. राजपूतश, राजयपूतांणी) १ क्षत्रिय-जाति, क्षत्रिय-वंश । चि. वि -्रार्या की वर्ण व्यवस्थाके ग्रनुसार देश की.द्ा्तन व्यवम्था क्षत्रियो को सर्पी गई थो 1 राज्य के शासक को राजाकहा जाताथा) राजा कै पत्र एवं वंदाजों को राजपुत्र कहा जाता या 1 राजपृच्र गब्द को प्रयोग, कोटित्य श्र्थं शास्य, कालीदास , के नाटक, याणा भद्रके ग्रंथों तया प्राचीन दिलालेखों में राज~ वंमी्यो के चतिए्‌ कहा गया ह) राजा के वंग या राजवंशीय होने के कारण, कालान्तर मे सम्पूणं क्षविय जाति का "राजपुत्र प्रप्र या राजस्थानी में "पूतः शब्द वना श्रौर मुसलमानों के दासन काल मेँ क्षत्रियो को "राजपूत" कहा जाने लगा । यह जाति वड़ी वहुादुर श्रौर पराक्रमी रहीदहै। जन्म भूमि को रभ्नातथाकुल गौरव की रक्षा, इस जाति का विगेप गृण रहा हे) २ उक्तजातिका व्यक्ति ३ योद्धा, वीर) ४ देखो “रजपूतः (रू. भे.) ० भे ०-राजपुत्र । राजपतांखी-सं. स्तरी.-राजपूत जाति की स्त्री) <° भे०-रजपूतण, रजपूतांणी, रपचूतांणी ¦ राजपुतानी-सं. पू.-भारत के उत्तर परिचिम कां एक प्रान्त जो भ्राज राजस्थान कहलात्ता है 1 न्रिटिश शासनं काल में यहां विभिन्न राजाग्रों की रियासतं थीं । राजपूतार्ई, राजपूती-सं. स्त्री.-१ राजपूत होने की श्रवस्या या भावं २ राजपूत जाति का गौरव, क्षत्रित्व । उ०--तरे उमरावां भेठा होय नै मसलत कीधी 1 भांरोज ऊ्ग राजपूताई मांह धूठ -नांखी । -- कहूवाट सरवहिये री बात ३ शौर्य, पराक्रम, वहादुरी । ^ <° भे०~-रजपूताई, रजपूती । (1 राजवण, राजवणि-देखो ^राजवण' (रू. भे.) उ०-रती न जाश राजवणि, दिल मिष्या जे दूर । रहसी उ कपुर रा, वकर नहीं कपुर । --र. हमीर राजबन्ट-सं. पू.-राज्य, शासन या सत्ता का वल, शासन-राक्ति)। उ०-'जसराजः मरण जोधा" हरा, सूक सम्रौधा राजबढ। छित लाज दिली महाराज छट, इद पडिया रासे प्रचट । --रा. रू, राजवाई-सं. स्त्री.-सस्राट श्रकेवर की समकालीन एक देवीजो उदयराज चारण कीपृत्रीथी। इसे राजल देवी भीकटतेह। राजवाड़ो-स. स्व्री- [सं. राज-वारिका] किसी राजा का उद्यान! राजभंडार्‌-सं. पु. [सं. राज-भंडार] १ किसी राज्य का खजाना, राजकोश । २ वह्‌ कक्ष जिसमें खाद्य सामग्री संग्रहीत रहती है । राजभक्त-सं. पू.-राना का स्वामीभक्त श्रनुचर। <° भे०-राज भगत । राजमक्ति-सं. स्त्री--किसी राजाकै प्रति किया जाने वाला प्रेम, भक्ति, श्रद्धा । रू०° भे०-राजभगती । राजमगत-देखो "राजमक्त' (ङ. भे.) , पर्यायवाची सम्योघन वन गया । श्रतः संस्कृत पुत्र" प्राकृत पृत्त' से | राजभगत्ती-देखो "राज भक्ति' ` (रू. भे.) वाना रश (वत्‌ राजभवन-स. पु. [सं.] १ राजमर्हल, रा जप्रासाद । २ जन्मपत्री मे दसवां स्थान) उ०- निरव चै रिपु ग्रह ससिनंदण, कुक भ्त सुख भ्ररी निकंदण । राजमवन सुर गुर सुभ राज, विव एक छात्र शरण विराजं 1 --रा. रू. राजभोग-सं. पु. [सं.] १ देव मन्दिरो या देवालयों मे मव्यान्ह के तमय भगवान की मूति के श्रागे चढाया जाने वाला नेवैय, जिसमें नाना प्रकार की भिठाद्यां एवः भोजन सामग्री होती है, वड़ा भोग उ०--राजभोग श्ररोगौ गिरवर सन्पुख राख्यौ थाल जी। मीरां दासी चरण उपासी, कीर वेग निहाल जी । --मीरां २ देव मूरति के श्रागे चटाया जाने बाला न्वद्य, प्रसाद्‌ 1 ३ एक प्रकार को मिठाई । + राजा हास लिया जनि वाला कपि उपज का एक निर्धारित प्रर <° भे*-रायमोग । राजमंडकर, राजमंडल-सं. पु. (सं. राज-मंडल] किसी ग्नोरके राज्यो का समूह्‌ । राजनरण-देखो "रार्जमारग' (रू) भे.) ° उ०-- मुख राजमग जठ सच, वणि कुसमगर तिण वीच । प्रति हाट दांम प्रकास, सोरम कुल सुवास 1 --रा- ₹ राजमद-सं. पु. [सं.] शासन या सत्ता के प्रभाव से होने वाला गवं, प्रहुंकार, राज्य का नशा । उ०-राजाजी नं गुमान ह राजमरा८-सं. पु. [स. राज-मराल] राजर्दस । राजमल-सं, पु--राठीडो की एक उपसालः । राजमहल, राजमहलि-सं. ए-राजा का महल, राज-प्रासाद । रू० भे ०-राजमे ल । राजमारम, राजमारगि-सं. पु. [सं. राजमार्गे] राज्य या नभर का मुख्य मार्गे, मुख्य सडक । उ०--१ श्रय नमर, प्रासाद प्रतोली राजकुल देवकु त्रिक चउक चस्चर राजमारगि गंधिकापण.....' । --व. स. उ०-२ मठ विहार प्रपा मंटप चिक चतुस्क चत्वर चतुस्पद राजमार्ग गंविकापण" "` ` --व. स. ू० भे०-राजमग 1 राजमिदर-सं. पु. सं. राज मन्दिर] १ राजमहल, राजत्रासात । राज्यके चारों उ०--रमै हसै नरिदरं, मार रार्जािदरं करे उष्टाह सुविकिया, पचास सात से श्रिया । --सू- प्र, २ राजमहल मे बना देवमन्दिर या देवालय 1 जमैष्ल~देखो "राजमहलः 1 (रू. भे } ४१२१ ग्रापरी प्रीत वि्चैई श्रापरे शसजमव रौ धरणौ --पफुलवाड़ी राजराभित्वर उ०--१ मिदर ई गुलावसरागर ऊपर १ राजमैष्लां मेँ। १ लाल चावे र पिदर कनं । --मारवाडरी स्यात उ०--२ रा्तमेष्ल मे श्रावियां रकारण खंख वणौ उड, इग कारण नगर र चारू मेर दस दस को तांई राजाजी दोवडी लगावणी चाव । -- फुलवाड़ी राजन्निगांक-सं. पु. [सं. राजमुगांकः। यमा रोगमें दिया जनिं वाला एक मिश्चरस । (वंद्यक) राजयोग-सं. पु. [सं.] १ श्रष्टाग योग, जिसका प्रतिपादन पतंजनि ने ग्रपने योगदास्त्रमें किया है । मूल योग । उ०--र्नहि कोई करना नदीं श्रकरना, नहि कोई म्हारा थारा) साखी एक सकठ में व्यापक, राजयोग विस्तारा । --श्रनूभववांणी २ जन्म कुण्डली में होने वाला ग्रहो का एक विष योग, जिससे व्यक्ति का राजा या राजा तुल्य होना लक्षित होता हे 1 (फलित) 5० भे °-राजजोग । राजरय-~सं. पु. [स.] राजा कास्य) उ०्--वेग लीयै मूटी वाव । राजस्य पंखां राव मगा ऊरध मंड 1 सेस श्राठ भीत खंड । --गु. रू. व. तज रमणी-सं. स्वी. [सं.] राजरानी 1 उ०--१ विल्करुढे राजरमणी वदन, निरे रूप नरय'द रो । जांसीं विकास प्राम जछज, देखि प्रकास दुडिद रौ । --रा. रू. उ०--२ रण-वास राज रमणी, सुरज किरणा तुल सोभा । फएूलीक कांम वल्ली, करि मज्मे कामि श्राराम । --गु. रू. वं. राजरसतौ-देखो (राजपथः राजरसि-देखो 'राजरिसि (रू. भे.) उ०्--विग्रह राज राज्यपदस्थापना वसरविक स्वरयस्ः प्रकाम, रारि परमारहत घरमात्मा"ˆ***“ । ~य, चः रा्राणो-सं. स्व्री.-१ राजा की रानी, महारानी । २ देवी, दुर्गा । उ०--धिर धान थांभां श्रतीय श्रच॑भा रूप रंभा भटकती! भजि भवानी जगत जानी घी राजरांणी सरस्वती । -मा. वचनिका राजराज, राजराजा-सं" पु. [सं.] १ कवेर का एक नामान्तर्‌ । ॥ (ग्र. मा. नां.मा., ह्‌. ना. मा.) २ राजाग्रों का राजा, राजदवर। २३ सम्राट) ४ चन्द्रमा । राजराज खाखडी-सं. पु -वच्यों का एक देदी वेल । राजरानेसर-देखो "राज राजेस्वर (रू. भे.) (स्त्री. राजराजेसरी) राजराजेसरी-देखो "राजरजेस्वरी' (रू. भे.) राजरनिस्वर-तं" धु" (सं. राजराजेश्वर) (स्वरी. राजराजेश्वरी) राजाश्र मे श्रे, सम्राट । रादराजेस्वरो ४१२६ राजवण ~~] उ०--दाघे वार वार दिल्लेसुर, सरीमहाराज राञ्चराजेस्वर । ग्रौर उमीर सकौ च्रप श्राव, जोधां नाथ हूते मिढ जावे ।--रा. रू. स० भे०-राजराजेसर्‌ । राजराजेस्वरी-सं. म्री. [सं. राजराजेदवरी ] महारानी, पटरानी, सास्राज्ञी । र० भे ०-राजराजसरी, राजरिख, राजरिखि-देखो "साजरिसि' (<. भे.) उ०-राट्‌ दसरथ म्राए रार्जारख। --रांमरासौ राजरिद्धि, राजरिघ-से. स्त्री. [सं. राज-ऋद्धि] राज्य की समृद्धि, राज्य का वभव, राज्य लक्ष्मी । ॥ उ०--राजरिदधि सह समुदाय जीहुं चत्ति एक वसइ जिणनाह्‌ । -- वस्तिग राजरिसि, राजरिसी-सं. पु. [सं. राजप] १ वह ऋषि जिसका जन्म राजकूुल या क्षत्रिय वमे हुग्राहो। २ पुरूरवस, जनक, विर्वामित्र, ऋतुप्णं । ० भे०-राजरमि, राजरिख, राजरिखि, राजस्सी, रायरिख, रायरिसि, रायरिसी । राजरीत, राजरीति-सं. स्वी. १ राज्य या गासन की पद्धति, राजनीति २ राज्य परिवार की परम्परा] ३ शामक वग के व्यवहारका ढंग । राजरोग-स. प. [स.] १ राज यक्षमाया क्षय रोग । २ कोड ग्रपाच्य रोग । राजरोगी-वि.-राजरोग से पीडित रोगी । राजल~-सं, स्त्री. राजवाई्‌ नामकः एक देवी । स्° भेऽ~राजुन 1 राजलक्षण-मं. पू.-यहत्तर कलाग्रों मेम एक । (व. स.) राजलक्ष्मी, राजलदमी-मं. स्त्री. [मं. राजलक्ष्मी] राज्यश्ची, राज्यका वं भव । रू० भे०-राज्यलध्मी, राज्यनिदमी । राजलोकः, राजलोग-ं. पु. [मं. रज-लोक] { महारानी, रानी, रानी ममूह्‌ | उ०--१ कुमौ परणियौ। हथढवौ दछौडियौ, प्रर कूरभं कटयौ मोनू विदा दयौ । तांहरां क्यौजी-दोय पोहर रहौ, राजलोक कटै द्य। -- नरसी उ०--२ चहुवा इम चहुमंत्र॒ उचारे । पट सांमछि निजे महल पधारे । ब्रमः राजलोक मुर वीजं । करं प्रज मन्द सुजि कीर्ज। --सू.प्र. राजलोक रिम दूरा वीस पड़दायत्त प्यारी । मंग सहली च्यार्‌ श्रगन सि््रानं उचवारी। --रा. छ. २ श्रन्तःपुर, रनिवाम। 2 ५ ~~ 2 न ज-४० उ०-- तिस भीवं गोठ जीम न श्रस्वार होय पिउसंधी नं रानलोक मे मेली, म्रापी परकास्यौ | --जखड़ा मुखड़ा भारी री वात ३ परिजन, परिग्रह । उ० --१ हिवि राजा श्रजयपाठछ कन्दैः राजा मांनधाता रहै] ग्रजयपाठऊ मामी छं, माम्यां रा मजरा करं ! एकं दिन राजा श्रजय पाठ रौ राजलोक रांणी रं रं एकठो हयौ छै । --चौवोली उ०--२ राव मनोहर्दास धरणी वेढ जीती । संमत १७०६ रा मिगसरमेंकाठकियौ। वेटौको न हृतौ, पद्ध भाटिया वीजं राजलोग, भाटी रांमचंदसिघोत नू टीकौ दियौ। -नंरसी राजवंस-सं. पु. [सं. राजवंश] राजा का वंन । उ०--वदं महल तीस राजवंश कमव नगारा ब्रहृ किय । दह पड़ श्रवरां देसोतां, थार सहल स्कार धिर्यं । --ुवी मुहती राजवट-स. स्त्री.-१ हकूमत, सत्ता । उ०--१ तठा पठं वरिहाहां सू दावौ मांग रीमनमें राख, सु धरणौ साथ राखियौ । घणा घोड़ा पायगाह्‌ किया । वडी राजवट जमती गई । --नणसी ॐ०--२ तठा उपरांति करिन राजान सिलांमति तिण॒ राजान री राजवर च्यार ठिकाण विराजमान दीस द। -रा. स. सं. २ क्षतित्व, षीरत्व । उ०--परती म्हारौ एके लौ पुगसी सो मारीजसी पतीनेजांण सू वरमू तौ सरं तीं राजवट. रजपूती रा मारम उलटा दै। --वी. स. टी, ३ डिगल फे कुडलिया छद का एक भेद विशेष । राजवण-सं. स्त्री-१ राजकुमारी । उ०-जो मांगे देवर जमु, जीरं हाथाढं, ^रारल' मांग राजवण भाभी वरमा । भवगूण भूतु नही, घ्रमपाज विचार । कहियौ जद करिसमीरदे, चढ़ क्रोध वडा | --वी. मा. २ रानी । ३ पत्नी, स्त्री, प्रियतमा । उ०-१ हांणएराजगोरी काची केसर पीग्रौ, है रावण प्यारी फाचोकेसरपीग्रौ। हे म्हारी सदाहे सवाग धरनार, सदर गोरी । काची कैसर पीश्रीदहो। -- सो, गी. उॐ०-२ माखर्डौ मठर घरश्रायौदहे मारवणी, करीन तयारी उठ म्हारी राजवण धार । व्रिदली दौ भाठ संवार श्रलवेलडी, भ्रणीयाछा नैरां श्रंजन री श्रसी । --रसीले राज रौ गीत उ०-२ रहौ सवीरा राजवण, तखन नांसौ नीर। रगौ मत इण रंगे, चंगौ मीजै चीर। --यग्यात उ०-४ रंग री वातां राजचण टोष्टौ मति कर टेक । मन सुद कर म्हांसु मया ्रडवी छयौडौ एेक । --पनां राजवनो ४ १२७ राजस [म । रका सीं ० मेऽ-रजवर, राज बण, राजवणि म्हारी जोड री रे गदां र) राजवी रे रिडमल राव । -लो. गी. राजवनौ-सं. पु. (स्त्री. राजवनी) १ राजकुमार 1 । ^ जमलं। प्रहर खरी गांव ॥ तते घोड़ी एल नंन २ प्रिय, प्यारा, प्रियतम भराय, तरे वैर देकर दीडी तर जमनानू खव्रर इरः कोई रावी उ० = वरणा धर पल्लही, कलि पनां करतार ! श्रौ चित्राम सौ | रै । घर ग्रहश वैहरियां घोड़ा ऊपर वेसुध हुवौ छै 1 -नणसी ग्रापना, राजवनौ रिभबार । । _ पनां उ०--२ नच राजा श्रादर दियउ, जड राजवियां जोग । ह । देसवास सवि रावठा, श्रद्‌ घोड़ा भ्रड लोग । -- टो. मा, राजवरग-सं° १० |स राज्य वर्गः] १ गासक समदाय, शास्सक वग । त 4 स वाची कागद ऊसिया, जान सजी तत्काल ---जयवांणी ३ राज्य या राज दरत्रार मेँ महत्वपूरण पदो पर कारये करने वाला, दल, समूहं या वर्गे विशेष । वि० वि०-- राजस्थान में अ्रधिकांन साज्यों मे श्रोसवाल जाति के कुद वं को राज्य के महत्वपूणं पद जये, दीवान, वक्षी, फौज- दक्षौ, दीवार, व्रक्षी, सेनापति प्रादि मिते रहे है । जिनको उन्न | वड़ी योग्यता--दक्षतः व उत्तरदायित्व से निभाया है ग्रतः इनी | जात्तिया दल के व्यक्तियों को उच्च पद मिलते रहै । कालान्तर | म इस दलके व्यक्तियों ने राज्य की नौकरी करना एक-गौरव कौ | वात समौ थी श्रौर इम जाति के ह व्यक्ति प्रायः राज्य मे | छोटे श्रौर वडे पदों पर कायं करते रहै ह । वंश परम्परागत राज्य | | । 1 | | ॥ ¦ ॥ | २ रांजाकेवंगकाया राज घराने का व्यक्ति, राजपुरुष । उ०--१ रांणी जाया राजव्यां, सहजां विहार । तूकारौ तारीफियां, वरसी सोना षार । --वां. दा. उ०--२ सु जगमाल सिकार्‌ चिदियौ, तरं धड्सी ऊमीयथी सु जृहारन कियौ 1 तरौ रावद्जी न्‌ जगमाल श्राय कल्यौ-जु माव मांह ्राज इसड़ रजपूत श्राय दय, सु कंती कोई गिवार छं, कं कोर्टूकं राजवी रेघररौद्ररूक्छ। --नरसी ३ राजेक्ष्वर, मम्राट । उ०--१ ताहरी पत्री नौ ते वर जांणजं जी । महीना नं ग्र॑तर मिलस्परं तेह हो । सम मं „की नौकरी करने तथा राज्य सत्ता श्रौर गासक कै निकट रहने के | ह दो 1 समस्त राजा नौ चास्यं राजवी जीतन प्रताप गि र + ५ न प्रे कारण लोग इनको "राजवरमी' कह कर संयोधन करने लग गये। प्रखंड श्र हौ । चि ४ राज्य वभव, राज्य सुख उ०-२ हमे कसी हसी, बडा वडा राजवीयां र माही प्रतिस्ठा व ५ चटसी । __-पचदं उ०--साजवरग मरने चु नहि चदहिय, रामजी मिटरणारी म्हार मन ~ पंचदंडी री वारता ४ ० भे०- राजिव । ~ मे लग रही । ॥ साजवेद-सं° प° [सं. राज-्वद्य] राजाया राज घराने के लिये नियुक्त वेद्य, मुख्य वंद्य, वे्यराज । उ०- नी, नी, राजवेद नं बुलावं जडी का वात । थं राजवेद मूं कम थोडीरईहै। यं इं जचगी तौ थने पूञ लियौ। -फुलवाड़ी राजवरनी-वि° [सं° राज्य वर्मृः--रा० प्र० र| १ गासक समुदाय का, नामक वेगे का! २ राजकुल का, राजवंश का । स० पु०्--वह्‌ वग या दल चिरेप जिसका कदा परम्परागतं राज्य दी नौकरी करनेकाहीपेशारहा दहै) वि० वि०-देखो, (याजवरगः 5० भे० राजव्रगी । साजव्यास-सं० पु० [सं०] राज दरवार का ज्योतिपि) उ०-- पाडोसियां रं घर रा किणी मोध्यार नं भेज राजन्या जी ने बुलाया । राजव्रगी- देखो, ^राजवरगी' (रू. भे.) | राजसंसद-सं° स्व्री° [सं.]- वह्‌ सभायासंस्याजो राज्य के शासन | की सम्पूण व्यवस्था करती है । राजे-सभा । . ह 1 राजस-सं० स्व्री° [सं.] १ राज्य, हुदूमत, दासन, सत्ता | --फुलवाडी राजवाटिका-सं० स्वरी [सं०] राजा का उद्यान । फलवा उ०-- क्षरा एक जाद्‌ देवकरुलि, क्षण एक जाद राजवाटिकां क्षण एक जाद्‌ वाटिकां, इसी क्रीडा करई । - -व.स, राजवाह-सं० प° [सं°] घोड़ा, प्रसव । राजविद्या-सं° स्वी० [सं०] राजनीति । | राजविरोहसं* पु० [संन] राज्य या दासन के विरुढ-करिया जाने उ० १ विविघ घाम पुर्‌ ग्राम वसां हे, माली राजक पूरव महै) वाला विद्रोह, वगावत । (2 सेतरांम सकवंवः नरेसर । छ (ठा) लग राजस पूरव भ्र॑तर । तसविद्रोही-वि० [सं०] राज्यमें विद्रोह करने वाला, वागी । . -रा. रू. सजयिहुंग, रालविहंगी-सं ° पु° -- राजहस 1 - उ०-२ एक वरस रहि श्राप री राजस वांध फेर श्राप बादसाह्‌ राजव, सजनीय-सं० पु० [सं. राज्‌ +र. प्र. वी] १ राजा, नृपति । री दृद्रूर गयौ । --ठा, जती री वार्ता उ०--सायणिया रं पेलड़े मास रिडमल धुडला मोलवरे।हांरे उ०--३ सो एक दिन जंगठ रा गंवा रौ एक रजपूत पटर गांब राखस [ग परशियौ थौ सो सासरं गयौ । उठ खीचियां रा गवि ग्रर राजस खरां री । --कवरसी सांखला री वार्ता उ०-- ४ चित समंद धांनिक चौडरे' । कमधज्ज राजस दम करं । --मू. प्र. २. राजघ्ानी । उ०-श्रग्रज हूं तो सेव श्रभ्यासी, पारकेत सिव तणौ उपासी । इण कजि मूक नवौ पुर्‌ प्रापौ, सिव स्यान मौ राजत थापौ | --सू. प्र. २. शासन~काल, राज्य-काल । उ०-१ ब्रा कामां माही समयौ राजप्त रौ खोद्यौ तिणिसू पादसाही खोई । --नीणप्रर उ०-२. रही स्वद्धुद रेत तब राजस, सुम श्रमंद सुखिग्रारी । श्राणंद कद एक दम उरग्यौ, 'तखत' नंद श्रवतारी -अॐ° का० ४. राजसी ठाट-बाट से किया जनि वाला जीवनेयापने 1 उ०-१ सो इण भांत जलाल गहरी मौज श्राणंद सू रहै । फला री त्तिवारा दारू पीर लाल रहे । दिन रात सारौ साध मतवादौ छकियौ रहै । सो इण भांत जलाल राजस करं । -- जलाल वूवना री वात उ०--२. श्रडधु लाग रेया, वव वाजेही । धररा लोग राजस करं हा । कमाईमे सर्फ श्रर वरकत ही -- दसदोख उ०--३, वाता कर दिन पौहूर चढतां भ जाई रावजी करनं जीमं । दरवार रौ काम कर दोपौहूरं भरमल रं जाय पोहं। इण तरं राजस सुख करं 1 --कुवरसी सांखला री बारता ५. सुख भोग, भोग-विलास । उ०--सावण भ्रायौ. सायवा, वधौ पाग सुरंग । महल बैठ राजस करौ. सीला चरं तुरग । --भ्रग्यात “६, काम फ्रीडा, मथन । उ०्-मंगछ वारे मंड कर, परणी श्रांशो कंय) सेजा चढ राजस किया, पूरं मन सूं कय) ७ राज्य (शोत्रकी ष्टिम) उ०-नाव तिर नहं नीर में, निवघ्छां नावेडियांह्‌। राजस नंह्‌ सावत रहै, मिनखो मावडियांह 1 ८. राजा, नृप । उ०--१ प्रण किथां षदं षाद्यौ नहीं फिस्णौ, राजस रै मोटौ गृण हठ नूं जांणजं । --नी° प्र उ०--२. वर मोन प्रापत नहीं सुण साची दीवांण॒ । राजस संगति ह. करी तींसू मन पह््चांण । --श्रगपात -त्रा० दा० --नापं सखिते री यारता ६. राजत्वं \ . १०. राजसभा, रज देरवार्‌ । २४ शाशसना जान जिनो -न क प ्कनिोनकोणनिनिन) कनो ोक ०? पिना गणिः 9 प मय += किमो, ११. रजोगण 1 उ० -१ महुतत्व यकौ श्रहुंकार नीपनौ 1 ्रहकार थिह. प्रकार किय । एवः सात्विक । वीजीौ राजस । तीजौ तमिस्र । सास्िक ग्रहंकार थी मनु श्र देवता इद्विर्या करा श्रधिम्टाता नीपना । --द० वि० उ०--२. पांणी ल्यावं डोरि करि, हायि भात पचाय । राजस तापस रचि र्यो, सात्तिग नवं दाय । --प्रनुमव्वांणी उ०--१. दादर राजस कर उत्पत्ति कर, शात्विकृ कर प्रतिपा । तांमस कर परक कर, निरगुणा कौतिक हूर । --दादू्णी १२. रजोगण म उत्पन्न, रजोगुणा मम्वन्वी, रजोगुणी । १३. श्रविदा । १४. छोच । <० भे०-- राजर्स, ाजिम्स । राजसगरुण- सं० पु०--रजोगुर । उ० ~ एणा वेच्छ रजपूत वे, राजसगुण रजाट । सुमिरण लाग्गा वीर्‌ सव, वीरां रौ कुठ वार । राजपतठाट~सं* धूर--राजमी वभव । राजसत्ता-सण स्वी० [सं.] किसीद्य की सवं प्रमूत्व घासन यक्त सरकार। राजस्षयांन -देसो (राजस्थान {. म) उ०-१ धिर ते राजस्थान महि इक घुर भोम सांमय । --वी. स. एके श्रां भ्रखंड. खंडण माण प्रस नव खंडं 1 --रा० रू उ०--२. सूम मिट घ्रन सहर मे, सहर उजाड समान । जो “जेहौ' वन में मिक, वन ही राजस्थान 1 नां. दा राजसयानी-देखो "राजस्थांनी' (रू. भे ) राजसघारी-वि. ~ पौरूपवान, वीरत्ववाला । उ०-राव माटनलोगां नूं घणा दानि मानि दीन्हा । वौ ही सेघार राजत्तघारौ सिष्दिवतत हवी । -कबरसी सांखला री वारता राजसनगर-सं. पु. - राजधानी, रजघानी का नगर । उ०--मालौ' राजसनगर मे सोचत' जेत्त' तिर्वांण । थान सेड्‌ "वीरम" धपे, जग जाह्र घण जांख 1 -वी. मा. राजसमा-सं. स्वी.--१. राजाम्रों की सभा, राजाश्रों की मजलिस । उ०--राणसमा के भषण दिल के उदार ! विरद के भारं समसेर बह्ादरू के समसेष् के चितारे। मू. भ. २. देखो 'राजदरवार' उ*- विया विलासि सुणी ए वाशि, ततखिणी पडहड छविख सुजांरि । राजसभां प्रणामी भ्रूपाठ, लिपि वाची इम भरणीय रसाल 1 --हीराणंद सूरि ₹{जसमरं [ऋः ३. देखो "राज्यसभा" (रू. भे.) ` राजसमंद-सं.पु.-कांकरोली के पास वना एक वड़ा तालाव( उदयपुर) । राजसमाज-सं. पु.--१. नृप मण्डली, राजा लोग । २. शासक-वगे । साजसर-देखो "राजसमद' उ०--रचतां इसौ राजसर रांणा, लेखौ जग रो कवण लहे । श्रस सूरज वहतौ श्राघंतर, वेम पम मांडतौ वहे । -- महाराणा राजसिव रौ गीत राजसरप-सं० पु० | सं. रान-सपं| दो मह्‌ वाला प्षप। राजसवंकौ-वि०-- १ राजनीति मे निपुण एवं दक्ष । ग्रच्छा सज नीतिज्ञ । दासन करने में निपुणा, शक्तिशाली । उ०--सुत च्या सेकस रे, कृ मे किरणाढा । राजसवका रास्वंड, वर वीर वडाटा 1 ---वी.मा रार्नासहासन-सं० पु [सं.] राजा के वेठने का सिंहासन, राजगदी । 5० भे०-राजसीघासण, राजासन । राजसिरी-सं० स्थी [सं. राज्य शै] राज्य लक्ष्मी । राजसींधासण- देखो, “राजसिहासण' (रू. भे. ) राजसो-चि ०--१ राजाग्रों के योग्य, राजाग्नो के समान । २ राजाभ्रों जसी शान-शौकत व वैभव वाला! ३ जिसमे रजोगुण की प्रधानता हौ, रजोगुणी । ४ रजोगुणी वृत्ति वाला । <° भे०--राजस्सी । राजसीद्रत्ती-सं० स्व्री°--एेसी प्रवृत्ति जिसमे रजोगुण की हो, रजोगुणी वृत्ति । राजसुजगन-सं° पुण [सं, राजसूयः राजसूय यज्ञे] राजसूय यज्ञ । उ०--सराजसुजगनां जीत प्रवाड़ा कायवा रज, दाखं धाड़ा दसू दसा क्रीत्तरा ददम । एहड़ा हमीर हेका-प्रालमां जहानि श्रे, पलां नीर चाडा भोका विजाई "दमः --दंगजी गाडण । राजसुर- देखो "राजेस्वर' (रू. भे. ) राजस्‌, राजसुय-सं° पु० [सं° राज सूयः] वड़े वड़ रांजाश्रौ दारा किया जाने वाला एक प्रकार का यज्ञ विदोप । इसके करने से वद्‌ राजा चक्रवर्ती पद का श्रचिकारी होता था। उ०--श्रचियौ जिण जिग राजसु, मेयं कर वठ मंद । पत कनौज दख पागरौ, जग जाहर जचद । वाद उ०--२ चरा सुधेनु दूय दूय दूय दूय घूं घरं 1 फ़तू समान राजसुय भूय भूय भू कर 1 --ऊ. का राजस्यांन-सं° प०--[सं. राजस्थान] १ भारत वषं का एक प्रान्त, जो जहस देया के पदिचमोत्तर्‌ भागमें है श्रौर जिसकी राजधानी जयपुर नगरमे है) २ बहुत से राज्यों या रियासतों वाला प्रदेश, राजपूताना । ३ राजधानी । उ०--१ इतरं गोहिलां पिण अ्रालोच कियौ--जौ राटोड जौरावर सिरां श्राय राजस्थान माव्य । जोक ललौ-पतौी कीजंतौ रिग सगीज । --नंणसी ॐ०--२ तरं भीवंजी गुर सूं श्ररज करि क्यौ, गरूजी, हुकम करो तौ श्रठासूं कोस तीन ऊपर म्हारौ राजस्थान रौ पाटण गावत माताभारईदैये कहौतौ कुटंवजाच्रा करि ग्राऊ। --जखडा मुखडा भाटी री बात ४ राज्य । 5० भे०--रजथांन, राजथांण, राजान, राजसथान, रायन । राजत्थांनी-वि०- राजस्थान का, राजस्थान सम्वन्धी । सं० पु०--१ राजस्थान प्रदेश का निवासी । सं० स्नीऽ->२ राजस्थान प्रदेदाकौो मरुय। डिगल भाषा । २ इस प्रदेश की वोनी। राजस्स- देखो "राजस" (रू. मे.) उ०्-मास तीन वावीस दिन, पतारीस वरस्य । ग्रमरापुर वसियौ श्रजीौ', राजा कर राजस्स । --या. रू. राजस्सी--१ देखो, "राजसी (ख. मे.) २ देखो "राजरिसि' (<. भे.) उ०--राजा सुणि तेडं राजस्सी, जोव मंत्री समी जोतस्सी । थटपति चहं हुत मंत्र थपियी, जनमंती कनिया जुध जपियौ । --सू. प्र. राजहंस-सं प° [सं.| १ प्रायः कीलो के किनारे रहने वाला व भुण्ड वना कर उड़ने वाला एक प्रकारका हंस । इसकी चोच व पैर लाल होते ह । इसे सोना पक्षी भी कहते है । उ०-- १ राजहस पंखी रहँ रे लाल, मांन सयोवर मांहि रे सो०। त्िण पंखी नी पांखडी रे लाल, ते देखी पत्िसाहि रे सो० । प. च. चौ. उ०--२ कमलां रो धरणौ सांघणौ मेढ है, तठं राजहंस, कठहंसां री इधकी कठ है । वतक सरदा घरट हंजा मूरगा पयां भ्या तर है, सारसां रौ टोठ जकं भगोर करं है! --र० हमीर २ एक प्रकार की लता जिसके पल पीले होते ह! यह्‌ जलाशयो या नदी किनारे पर होती है! यह्‌ खण्डी होती है । उ०--चुगलां जीभ न चालही, पर उपगार प्रसंग । नह्‌ नीपजही नील सूं, राजहंस रो रंग । -वां, दा. २. मालव, मनोहर वश्रीराग के मेल से वनने वाला एक संकर राग) (संगीत) शजान राजान -- देवो 'राजा' (5. भे.) (ह. नां मा.) उ०--१ एणी परि वोला मुनि सांभलि तरू राजान । एक मन प्रसन्न करीति प्रापण रे । --नटास्यांन उ०--२ सउदागर पिगल भिल्यउ, बहुत दियु सनर्मांन । रात-दविवस प्रेमद्‌ मिन्यउ, इम पिगद राजानि । --दो. मा. राजान-सिलमति--देखो "दरू र-सत्तांमत' उ०--हर्भै तठा उपरांति करि नं राजान-सिललांमति एकांसि प्म्ताव महाराजा श्री राजेमररा परमागा शआ्रवूगढ रा मंडवरि प्राया द॑। रा. सा. स. रषजा-सं. पु. [सं. राजन्‌] (स्त्री रणी) १. किसी देल, जनषदया | राज्य का श्रचिपति, स्वामी. मालिक, राजा, प्रधान शासक । (ह. नां. मा.) उ०--?. राणां राजां रावा, उर पड सोच ्रधाह्‌ जग वाकौ “जसराज' रौ, घुरियौ श्रीरंगसाह्‌ । --रा. ल. उ०--२ राजा जुवराजक्रुमार रजेस्वर महामंडतेस्वर सांमंत लधघुसामत तलवर तत्रपाल चतुरमीतिक ताडकपति मत्रि महामत्रि ्रह्वाहक ``" त उ०--३. राजा तम समी श्रन राजां, होड कियां नृप त्रिया हू्मं ) पांणी-ह्‌ड प्रदरं दोहं पासा, नासा नार जिहुंह नकसे । --सादयौ भूली नृप । राज्य का २ स्वामी, मार्चिकं । ३ क्षत्रिय 1 ४ युधिष्ट्रिका एक नाम) ५ इन्द्रक्म एक्‌ नाम| ६ चन्द्रमा) (ना. डि. को.) ७ उत्लु पक्षी| उ०--भरव डाची भरणी, दुगडियौ मान दिरी्ज | जे राजा जीमणौ, पोहर दैकण ठहरीज । ८ य्न । ६ वीये, शुक्र । १० पति, प्रियत्तम या प्यारे के लिये किया जनि वाला एक सम्बोधन । ११ ताश का वह्‌ पत्ता जिस पर राजाकाचित्र.हो). १२ श्रग्रेजी सरकार टार रसो व जमीदारो कोदी जानि वाली एक उपाधि । १३ धनवान व समृद्धिलाली व्यक्ति 1 १४८ राजा की उपषत्नी की संतान (पृर्प) को द्विया जाने उपर्टकं या पदवी 1 (जयपृर) वि०--१ उदार, दानी । २ जिसे साजा तुल्य माना जाता हो, राजा कै समान) पा. परर ४१३० ₹1जदते उ०--दरीया हीदं ऊपर, रावत वाट रीट । मारेश्यौ राजा मोटक्‌, पद्यौ तफ पीट । --प्रनुभववाणी सू० भे०--रज्जी, यप्रा, राईग्रा, रर्जान, राया । ग्रत्पा०-राजीौ, रायौ । राजार्द-पं. स्प्री-१ राजाहोने की म्रवरथा या भवि, राजस्य । उ०--रानाई कटीजं किना पातसाही धारी राम । -रपी.्र. २ राजाका पद, राजा के अरधिकनर्‌ 1 उ०-- मायपृरे राजार्हं मारतमिघजी पायी । --वा. दा. स्यति ३ शामन, हकूमत । उ०-- राजा राटर्मिह सवतं १६६१५ राजारई पाई । नाराणदयाम पातावत रौ दोहीतो) --नगमी रू० भे ०-- राजोई, राजाधिकारी-सं० प° [मं.] १ राज्य फा श्रधिकारी, राजा । २ न्यायालयमें वैठ कर न्याय करने वाला, न्यायाधीड, विनाग्‌- पति । राजाधिराज-मं* पु० [सं.] ? राङ्ाग्रो का राजा, सम्राट, राजेव्वर्‌ । उ०--राजाधिराज माध्राज गम । ते ताज मीस श्रालम तमाम । --र. ज. प्र. २ मृगल कालमेंदेक्षी राजाश्रौं को दिया जाने वाना मम्मान- सूचक पद । राजाषण, राजापरणो-सं० पु [सं. राजस्व] १ राजाटोने की श्रवम्धा या भाव, राजत्व । २ राजा का पद, राजा के ्रधिक्रार। <० भे०--रजापण, रजःपणौ, राजापि, राजापत्ती-सं० पु [सं. रानन्‌ पति] राजाग्रौ का राजा, सम्राट, राजेदवर । उ०--मन-भावे चालं खध्रीवट मार्ग, वीरत दाव घडा वरं । राजा- पती "जसौ" महाराजा, कमध मुहावं जक कर। --नाथौ त्तद राजाराज-सं० पु०--१ चन्द्रमा, दादि । (डि. को.) २ दृत्रेर। ३ राजेदवर, सस्नाट । राजालावु-सं० पु [सं.] एक प्रकार काकरु. । राजावरी-स० ¶ु०-जयपुर जिलान्तगंत एक भरू-भाग } रानावत-सं० पु०-कद्वाहा वंशकौो एक गाखा व उस शालला्का व्यक्ति । उ०-जगमाल उदंसिघोत रं कंस रा रांणावत १, कानवतत २, कद्छवाहा युरतांोत राजवत ३, राखोड चांदावेत ४, णे व्यार. राजावर्त ____~_] ~~~ उमराव साहपुरं । --वां. दा. ख्यात राजावरत्त-सं० प° [सं. राजावर्तं] एक प्रकार का रल जिसे लाजवदं कृटते > । राजावलछी-सं० स्त्री° [सं. राजन्‌~+-श्रवली] १. राजवंशावली, किसी राजा के वंदा की विगत । २ किसी सभाया दरवार वे राजाग्रों कौ पक्ति ४ राजासन-देखो "राजसिहासन' रिद, राजिदर, राजिदौ, राजिद्र, राजिद्रौ -देखो "राजेन्दर" (रू. भे.) उ०--१ म्हारी वारईजी रौ कई छ हवाल, राजिद चालं चाकरी --लो.गी, उ०--२ भिठ्डा राजिद भ्ल रहौ, इक मानौ मोरी वात्त । मदिर करौ मौ ऊपरे, जिम न हुवे उत्तपात । --वि. कू. उ०~-३ गजि फरसि श्रसपती, भांलि वानं मृदप्फर । मखवाद्छा मंडल कर्‌ सगद्टा राजिदर । र उ०--४ सोढा संणा मनं म्हारे पीहरियं पहुचाय, रजदा ढोला, प्नोरडीतौ श्रावं म्हासय वामोसा री । = उ०--५ मेद-पाट राजिद्र, देखि सरहद दौद्धौ । गुडवांण मेटिहियौ अ 'भीम' रांणी चीतौडं 1 --ग- <. वं उ०--६ साह समंद सूरौ ईस्वर, म्रवतार देव राजद । - गृ. <. ष. राजि -१ देखो 'राज' (रू. भे.) उ०--१ ताहरां महाराजाधिराज महाराजा ल्ली रायरसिघजी वीडौ कालियौ । राजि विदा हूम्रा। --द. वि उ०--२ श्रमंग मचछरीक इरा भांति सूं ऊचर, मुदो माहरो कोम माथ । वस हतां कयौ, रानि श्रपच्छर वरौ, सरम, थे हुवी इदलोक सायं । --लिखमीदास व्यास उ०--२३येतोभूखानी भावठ भज, राजि निज सेवक तणा मन रंजउ राजि , म्हारा मननी रासा पूरौ । राजि म्हारा कठिन करम दल चूरउ । --वि. कु. उ०--४ ताहरां सोढी कटै-राजि पधारौ छौ, हुं तो राव दरसण विणां म्रन नदीं खांवती, ताहयं शरोढण रौ पीरतांवर दीन्हौ, यौ देखिज्यो । --लाखा फुलांणी री वात देखो 'राजी' (रू. भे.) | राजिउ-सं. पु--एक प्रकार का वस्त्र । उ०-सारीयी तिलवाक् गरव्मसूमू राजिड वयराजीडउं मदहिदउरउं तीतत्रागिउं"" ˆ" --व, स. राजिक-वि.--[ श्न. राजिक] पालन-पोपण करने वाला [य उ०- दाद्‌ राजिक रिजक लीये खड़ा, देवे हायो हाथ 1 पूरक पूरा --दादूवांणी न पास है, सदा हमारे साय । ४१३१ घजी सं. पू---ईदवर, परमात्मा । राजिकापित्त-सं. पु. एक्र प्रकारका रोग। उ०--श्रांमवात सौफवात विगंद्ावात कफवात साकिनीवात रक्तपित्त प्रम्लपित्त रालिकापित्त'""““" --व, भ. राजित-वि. [सं.] सुशोभित, गोभित । उ०--प्रधर सुघारस मुरी राजित, उर वैजंती माढ । कद्र धंटिका कटितट सोभित. नूपूर सन्द रसाढ । --मीरं रू. भै.-- राजत राजिम-देखो ^राजा' (रू, भ.) उ०-घांणौ रिखिस्लग कहै विप्र एह्‌। मृगता ही दुव रानिम मेह्‌ 1 --रामरासौ राजियउ-देखो ^राजियौ' (रू. भे.) उ०-एक दिवस सुंदर रूप देखी, राजा चित्त विचारियउ । भोगवुं निम तिम करी भउजाई, राज करड तिहां राजियड --स. कु. राजियौडो-- भू. का. कृ. १ वडा हुग्ना श्रासीन. २. मोभित हुवा हश्रा. ३ सुंदर लगाहग्रा. ४ चमका हृग्रा. ५ राज्य क्रिया हुञ्रा, शासन किया हुम्रा । (स्त्री. राजियोडी) राजियो-सं. पु. [सं. राज्‌] १ राज्य का स्वामी, राजा! उ०-१ जहौ मिथिला नगरी रौ राजियौ --जयवांणी उ०--२ तिर समह युग प्रधान जगि राजियौ। स्री स्रजिन चंद तेजे सवायौ । ~य वः २ राजाके वंग का, राजा का वंदाज। रू. भे.--राजियउ, राजीयो, 1 ३. कविवर कृपाराम खिडिया का श्रनुचर, जिसको सम्बोधन करते हुए सोरठ रचे गये जो “राजिया के सौरठे” कटे जाते है । राजिल-सं. पु. [सं. राजिल] एके प्रकार का सपं जो भयकर विर्षला होता है! (ग्रमरत) २ विपरहित श्रौर सीघे सर्पा की एक जात्ति या इस जातिकां सर्पं । राजिव- १ देखो "राजीव" (रू. भे.) २. देखी !राजवी' (रू. भे.) राजींद, रार्जाद्र-देखो ^राजेद्र' (<. भे.) ०--एेकयियि श्रो मारूजी, करला पादा जी मोड.राजींदा टोला ग्रो घरी ब्रावं म्हारी माय री। --लो. गी, राजी-वि० [भ्र.] १ प्रसन्न, खुश, भ्रानत्दित । उ०- देखो भ्राद श्रनादसूं, राज द्द स्नीराम । सतारा संसारं [, रासो किसडा सारं काम । --भगतमाढठ उ०--२ पितारौ हुकम सुरा चौगुणा पाचियौ, वजाया धराते स्वरा वाजा 1 हूतौ राजी तरं हैक राजा हृतौ, रीसीयौ साहुतौ विनं राजा । --द. दा. उ०-२३ एह ्रणख चै श्रापणौ जी, सदा न चलस्य रे एम। करि मुक नद्ध राजी हिवेजी, जिम वाधड्‌ वहु प्रेम \ -वि,. वु २ महूस्वांन, कृपादु । उ०- ना पीडयां नं सुधराईसू दवावतौ वोल्यौ--नीं वापजी, ग्री ती वै'म इजम्हारं माथे मत करौ कानां सुरी सौ पाद्ची होगं निकछं ईनीं। उणा वास्तं ई तौ राजाजी म्दारं मार्थं इत्ता राजी ₹ह॑। --फुलवाड़ी ३ भ्रनुकूल, पक्ष.मं। । ४ किसीकार्यकौकरनेया वात कौ मानने के लिये तैयार, प्रस्तुत सहमत, सम्मत । उ०--१ म्तौ उण नाकं काम वास्तं नटी जकौ इण मृड तौ पादौ हंकारौ नीं भरियौ । कांबदियां सूं मार मारन म्हारी डील लीलौ चम कर दियौ पर॒म्हँ राजौनींब्ही। --पफुलवाड़ी उ०--२ वौनांनीमां र पाखती प्राय रिसांणौ करतौ ब्दै ज्यू वील्यी--म्हार पला ई उरनं टोगड़ी वताय दी। पण वाएकली देखण सारू कीकर राजी न्दी --फलवाडी उ°--३ वा तड्कनं कल्यी--म्दूनं समफावेण म श्राया ३, पता थारा हीया माथ हाथ धरन सोचौ के एकाएक वेटा त दिसावर भेजणा सारू ये रजो च्हिया तौ च्हिया इन कीकर । --फलवाड़ी ५ संतुष्ट । उ° --१ सूंदरदास भती सांचौ सिरदार सारी वात मांही साय । सर्याणौ समभणौ । मांरासां री बैठणहार सौ लोग सारौ जीव टेक ग्बडौ रह । सगा सजी । --भाटी सुंदरदास वीकुपुरी री वारता उ०--२ सोनग' घोकौ संभरमसुण जौखौ निज साथ । दाह मिरी राजी थयौ, श्रौरगस्राह्‌ समाव । --रा. रू. ६ मस्त, मग्न) उ०---१ वाजी पर माजी चट वेठं, च्ट राजी विन दोस्त 1 परह सवार श्राप न्द पाजी, दं ताजी सिर दोस । --ॐ. का. उ०--२ मतो राजी भर्ईूमेरे मन मे, मोहि पिया भि इक दिन म ८ ११ --मीरां ७. निरोग स्वस्थ । `स. स्वरी [सं.] १ पक्ति, कतार । । उ०--ग्चं लार गुंजार रौनेव राजी । भगांणएा भंड रोव श्रोत्र भाजी । --वं. भा. २ रेग्या, लकीर । ४१२२ रायु 5० भे०~रानि । | राजीखुश्ञी-वि° १ प्रसन्न, युय, श्रानन्द में। २ चेनसे, श्रारामसे। सं० स्वरी० १ प्रसन्नता, खुगी । २ चन, श्राराम, कुशलता । उ०--सा्ा वारं श्राया, राजी-घुक्षी पृद्ी श्ररपागौ परकड्^र वैखया । --दसदोख राजीड़-सं ° पु० [सं. रजरा. प्र, उड़ौ] १ प्रति, प्रियतम) उ०-- १: उठ महारा राजीडा दान दयौ, थारे हई दछं घरम की रात, भालर वाजे राजा राम की। --लो. गी. उ०--२ पान सुपारी धारे हाथ, जौसीडाने बूजन राजीड़ाकी वर गई | । --लो. गी. २ राजा, नुप । (ग्रल्पा. 5. भे.) राजीनांमौ-स० ¶० [फा० राजी नामः] १ किक्षी विवादया भगे को समाप्त करने के लिये, वादी व प्रतिवादी द्वारा सुलह करके लिखा जाने वाला संधि-पत्र, सुलह्‌-नामा २ स्वीकृति-पचर 1 राजीपी-सं° प०--१ हपं प्रसन्नता या खुशी द्टोने की श्रवस्या या मवि । उ०--तद कही लोग राजप मौ कर दुक छे कना व॑राजी दकं छ । --ठाकरर जेतसी री वारा राजीवाजी-वि० प्रसन्न, खुश राजीमति, राजीमती-सं° स्ची०--एक राजकुमारी, जिसका सम्ब॑घ नेमीनाथके साथदहुश्राथापरन्ञादीन हौ सकी । उ०--करविता कालिदास नी, विघ्नापहारता परस्वनाथ नी, श्रप्र- कपता स्री वीरनी, निरसनता टंढण कुमारनी, वाचा धर्नानी, सील प्रभाव राजीमती तणउ । --व. स. राजीयो --देखोराजियौ' (<. भे.) उ०--१ वेढ वडाई राजीयां सूरौ दछ सिगार । मेल घमंका सिर सरै, श्रावं जव दइकतार्‌ । --श्रनभवर्वाणी राजीव-सं० पु० [सं.] १ नील कमल, कमल । (ग्र. मा उ०--चछउ भन छोटी दहु श्रौड घछाजं । विच पाट राजीव माजी विराजं । --मे. म. २ हाधी। ३ एक प्रकार का सारस । ४ एकं प्रकार का मृग जिसके पीठ पर्‌ घारिथांहोतीरहु। ५. रया-मद्धली । ० भे०--राजिव । ना. मा.) | राञ्-देखो (राज' (ङ. भे.) राजीबलोचन ४१३३ राजपसभा ___,_-_-_-__]-~---~-------------------- उ०--राज तुम्हार पृत्तु तुम्हा रउ, अ्ज्जीउ गंभे किसुं विचार । राजौधर- देखो ^राजघर' (<. भ. } --सालिभद्र सूरि राजीवलोचन-वि०--जिसके तत्र कमल के समान सुन्दर हो । उ०--उपत्ति-खपत्ति-प्रकत्ति-प्रसंग, राजीवलोचन जां घुव रंग । --ट्‌- र. राजुल--१ देखो "राजल" (रू. भे.) २ देखो “सजमति' रा्जेद-स० पु० [सं. राजेन्द्र] १ राजाभ्रो का राजा, सत्राट, राजेश््वर । २ ईन्द्र । ४ ३ पत्ति, प्रियतम । ४ किसी प्रिय व्यक्ति के लिये श्रादर युक्त सम्बोधन । ० भ०- राजद, राजंद्र, राजटृद, राजिद, राजिदर, राजिदी, राजिद्र, राजिद्रौ, राजीद, राजीद्र, राज्यद, राज्यद्र, राज्यद्री | राजिस, राजेसर, राजेस्वर, रजेस्वुर, राजेमुर-सं° प° [सं. राजेरवर | १ राजाम्नौ का राजा, मञ्राट, राजाधिराज, राजेश्वर । (डि. को.) उ०--न्रवद्धेख राजे जनिस श्राया । विदेहैस सांम्दैस श्रां ॐ „+ वघाया । --सू. प्र. उ०--२ रुधपति हरां जोड राजेसर, गयद हरण हरर गाढां गुर । --रा. €. उ०--३ तिरा रजेसर राजारे महाराणी महामाया पटरांणी तिण शा पेट रौ नीपनौ कश्मर गुर पाट पत्ति कूंश्रर स्री राजान कुश्रर पदौ भौगवे। --रा-सा.सं. उ०--४ गुण धारी सुविचारीरेलौ, म्हारा रजेसर जीरेलौ। --वि. कु. उ०--५ सुखदाता सरणायां, निज संतां जानुकी नायक । दस सिर भंज दुवाहं, साहं जग क्रीत्त राजेस्वर --र. ज. प्र. २ इन्द्र। ङ. भे.--राजसुरः राजोई- देखो "राजाई' (ङ. भे.) उ०--“सोभाग' सुजाव चाढ पृश्रार उदार सोभा, गोखां हैट लागा मदां करीजे श्रग्राज । साय चत्र धारयां राजा राण दीघां सुरा, राजोई श्राथांण भूरा क्रोड जुगां राज ! --राव सवाई केसवदास परमार रौ गीत राजोघर-देखो 'राजघर' ( <. भे. राजौ- देखो "राजा" (ग्रत्पा., रू. भे.) उ०--१ वेसण नाहि बुलावणौ, नही वचन रो साजौरे। माहुरी प्रायां की राखी नही, हं दीन दुली को राजौरे।! -जयवांणी उ०--२ एक दिन एकाति प्राव ए, प्रार्यना करइ राजौ जी । --स. कु. १. [णाय क " ˆ _____---------~~~~~ राज्यं-देखो "राज्य" (रू. भे.) उ०--समाचारेण विस्वासः, प्रभ्यासेन चिदा, न्यायेन राज्यं, श्रौचित्येन महत्वं,ग्रौदास्यं ण प्रमूत्वं --व. स. राच्यंद, राज्यद्र-देखो "रा्जेद्र (<. भे.) उ०--१ ठादी जे राज्यंद भिढद, यूं दाखविया जाड । जोवण हस्ती मद चढचञ, प्रंकुस लइ धरि श्राई। --टो. मा. उ०-२ काढा दव वढ चाढे सक्रोघ । जोग्यद्र रूप राज्यंद्र जोध । - सू. प्र. राञ्य-सं० पु० [सं.] १ वह देद, राज्य या प्रदेश जो किसी एक राजा के शासन या स्वामित्वमेंहो। २ शासन, हुबूमत 1 उ०--प्रथम श्रचठदास खीची गढ गागुरन को घणी। गढ गागुरन राज्य करद । --लाली मेवाड़ी री वात ३ शासन या हकूमत के ्रधिकार । स्व भे. -राज्यं 1 राज्यकव्छा-स. स्वी. [स. राक्य~|-कला] १ शासन करने की पद्धति, प्रणाली, विधि। २ राजनीति । राज्यकाठ-सं. पु. [सं. राज्यकाल] किसी राजा या दासकके हृदूमत को श्रवधि, शासन-कालं । राज्यतिलक-देखो ^राजतिलक' (र. भे.) उ०-- गोतम गौत्री थापना करि, राज्यतिलकफ करि, रास्टेस्वर राजा ने विदा कियो) -- रा. वदावली राज्यपाढछ-सं. पू. [स- रज्यपाल] १ प्रजातन्त्रा्मके या मसदीय प्रणाली के श्रन्त्गत, दे के प्रत्यक राज्य या प्रान्त के लिए वनाय हुश्रा प्रघान शासक का पद) (गवर्नर) २ उक्त पद पर नियुक्त व्यक्ति, जो राष्टपति द्वार मनोनीत क्रिया जाता है । 5० भेऽ -राजपाटठ राज्यतक्ष्मी, राज्यलिछमी-देखो “राजलक्ष्मी (रू. भे.) राज्यलोम-सं पु. १ राज्य या सत्ताका लोभ । २ कोर्द्‌वडा लोभ । ३ उच्चाकांक्षा। राज्य~व्यवस्था-सं. स्वरी. [सं | शासन करने का दंग, शासन का विधान, राज्य का नियम । राज्यसमा-सं. स्वी° सं. [स.] भारतीय संसद का एक सदन, उच्वसदन, श्रपर हाउस ।--वि. वि.-यह्‌ लोक सभा से भ्रतिरिक्त एक सदन ठै जिसके ग्रधिकांय सदस्य राज्यों की विधान सभाग्रो ४ राञ्यार्भिसेक र ट्रारा चूनकर भेजे जाते है । धथ सदस्यो का मनोनयन राष्टरपति द्वारा किया जाताहै। लोक सभाद्रारा पारित किया हृम्रा वितं इस सभा सभी पारित होना जष्टरी है) ८० भेर-राजसभा, राज्यायिक-देखो ^राजतिलक रा्ज्येदौ, राज्येद्रौ--देखो "राजेंद्र" (श्रत्पा., रू भे.) उ०--र्येद्र जोग्येद्री संगी मांसरथ नेह एकंगौ । लेख सेव सुदत्तं प्रासंगी नटव लेखंती । -रा. रू. राट-संपु १--राजा, नृप) (ह्‌. नां. मा.) | उ०--भजिं जात प्रजा मय वात भगेष्टा, पाटणा तुंश्रर कृप पुरे वदगूजगर जाट श्रहीर तजे वट, दाट लगा पुर राट दुरं -या ल. २ प्रधान या श्रेष्ट व्यक्ति । ३ देश, राष्ट, राज्य ! (सभा) उ ०--खहर गये व्रत दुज्जड, सहर करे दहुकाट । प्राधा धांणां "प्रजन" रा, लुट विरडाणा रार । -रा रू. रू भे.-राद। । । राटफ-स. पु.- १ गम्तर-प्रहार। सं. स्त्री.--र शस्त्रप्रहार की ध्वनि) ३ युद्ध के नगाडे की घ्वनि। उ०--त्र॑वारक राटक सुण श्रसि नाटक, रचतता माहु रण॒ राहू जम साह सा जचता। --किसोर्रसिट् ॥ राटणी-सं. स्त्री-- वाद्य की प्रावाज, व्वनि। उ०-राटरी तवल्लां सोरां रचायौ पवेरौ राग । पाटणी हिद्वां गोरं मचायौ पीस । । -- दुरगादत्त वारहृठ रारपषट-वि. नष्ट श्रष्ट। उ० - मडिया सनाह्‌ तन तुरग जीण, हय गया मृगढ दुख दहल हीण । पड कट थाट दुल राटपार । दिल्ली जटं दलं वद्धं दाट । न --रा राटो-सं. म्त्री-साघारणया सामान्यस्तरी। उ०--क्रिहा भीति नद किहां घ्राटी र? किहां रंभा नई किहां राटी । ग्र॑तर दसद एवद्कु, किरा दूय किदं छासि खाटी रं 1 --नढदवदेती रास राटिस्वरो-सं. स्त्री.- राठौड़ कौ कुल देवी । । उ०--चक्तेस्वरी यट स्थानि ररेस्यगै तथा रट! पवणी सप्त मात्र, नागरोची नमस्तुते । --पा, प्र. राटू--देखो “राष्ट (रू. भे.) राठ-सं. पू.--१ नाटी वंशा से निकली हुई एक मुसलमान जा ति। उ०--१ केलणभाटीरावेटा दोय घीरौ १, खुमाण २, मृक्सलमांन ४१३ नि भ गोषीमषीषिनि राटो हुवा ज्यांस वंस रा राठ। --वा. दा. ख्यात उ०--२ जग खोसिय फोचिय मीर जता। निर वव सराहिय राट छता । --पा. प्र. २ एकप्राचीनं राजर्वंघ । ३ एक प्रकार का मजबूत पौचा 1 राठ्उड-~देखो "राटीोड' (रू. भे.) उ०--मंडलीकां मोसं कुटि मउडां, र्मणि सुयांसि करीति राठटरडां । --रा. ज. सी. राठरोठ-सं. स््ी.-१ रस्य प्रहार! उ० खतं कुराट (काट राठरीठ वगे समे, जम पाठ प्रं्तकाडी ग्रनाठ जुश्रांण । सतास हजार भ्राठ लौदलाट श्राया सज, [ "तसा! रा तीन सं साठ नीरज श्रारंस । --पटाद्सां श्रारी २ यस्व्रप्रहारकी व्वरनि। ० भे० राठररीट राव्वड्‌, राठवड-देखो "राठौड़" (रू. भ.) उ०--१ निजर परक राठ्वङ््‌, श्रकवर तेज दिद ! जांखं व्यीम विमा, सम, भोम प्रग्यौदद। ` --रा. र. उ०-२ जचद हुवौ दठ पांगल्टो, श्रसी लाख साहुण सरस) छत्तीस वंस राजनकुटी, वडौ वंस राठदड धर ! -स. वंधावली राठारोट-देखो 'राठरीठ' (र. भे.) उ०--कंवांण पीये भ्रुरस नाद्‌ नुवईं कंड्, रद॑श् चाव खड़ासुर सुल सीदां दीठ । खड धाड तोड़ चापौ मारणौ नही छौ वीनां सुत गैघड़ा वदारणी छौ उड राढारीठ । | --ठा. जेतसिह्‌ आयवे रौ मीत राङसण, राठसेण-सं. स्वी. [स. राष्टृश्येना ] ससौडों की कुलदेवी । उ०-वाणानुं रिखीस्वरभश्राग्यादी, ते म्हारी घषणी सेवा करी 1 स्दै तनुं मेवाड रौ राज महादेवजी देवीजी प्रसन्न कर दिखायी छ । इण ठीड एकलिग प्रकट हुवा चै । श्रौर देवी राशसणरछै ति रीतं घी सेवा करणै 1 --रसी राठेड-देखो -राठोड' (<. भे.} उ०-रिण राखोडां प्राधिभ्रा, भादी अरग श्रभंग 1 इ दछय भ्ल ऊखिया, घल्ते वां निहंग । --रा. राठेडो-वि.-देखो ^राटीडी' (<. भे.) उ०--जला जी मार, राजां मांयलौ राज भली राठोडी हो भिरया- नरी रा जलाल । | क -लो.गी, राले-सं. प--रीद की हडः । उ०्-तर मास १० पुरणहृवा । तरे राजा रौ वासि सुं राठौ फाडन वालक काढठीयौ ने पारी वध्यौ -रा.वं. वि, म न राठौड ४१२५ रातय न राठौड़-सं. पु. [सं. राष्ट्ृवर] १ एक प्रसिद्ध क्षत्रिय राज-वंडा, जिनका | २ संकेट । रतंक--देषो ^रातंग' (रू. भे.) | मल राज्य दक्षिणम था श्रौर वहां से गुजरात, | राजपुताना, मालवा, मघ्ये प्रदेश, गया, वदायुं श्रादि मँ इनक करई स्वतन्व राज्य स्थापित हुए । इस वंश की व्युत्पत्ति के विषय में काफी चड़ मतान्तर है । प्राचीन शिला लेखों एवं वंशावलियों के प्राधार पर कुछ विद्वान इन्हे रामचन्द्र के द्वितीय पुत्र कुश के वंशज प्रथात्‌ सुयवंशी मानते है, परन्तु कुछ विद्वान “रट” यदुवशषी से इनकी व्युत्पत्ति मान कर इनको चद्रवंशी मानते है । चद्धरकला नगरी के राजा यवनसुत की रीढ्‌से वालक मानध)ता की उत्पत्ति एवं उसके वंशज राठौड कहलाने की एक प्रतीकात्मक कथा भी उ०--छोह छक रातंक यका छावतां, गुमर वगड़ावतां रूपगादं | धमोड़ा तडा श्रवरी घडा धावताश्चम सगतावतां नूर चां! --माधोसिह्‌ सक्तावत रौ गीत रातंलियो-- देखो ^रातांलियौ' (रू. भे.) रातंसली-स. स्वी.-१ चील रूपधारी देवी । उ०-- श्रयो सगति प्रनत, प्रगट किया सारी प्रथी | मुदरद्ठो ममत रातंलौ तू हीज रिग । --मा. वचनिका सवं प्रचलित है! उ०--राठडां पणा कल्लियौ, चप ्रगजीत' निमत्त } सुख तहवर्‌ उर छीजियौ, श्रत खीजियौ दुरत्त । २ उक्तवंग का व्यक््ति। ₹० भे०--रटुवड़, रद्रुवर. रद्र, रोर, रटीड, रद्र, रठ्वड, रठीर, राश्रठोड़, राइरीड, राठउड़, राठ्वड, राठवड, राठोड, रारौर । ---रा. लो. राक़डव-सं, प. [सं. राष्ट्रपति] राठीड वदा का राजा) उ०--सुख जिके इद्र मुगतं सरगि, जिकं सुक्ख स्रव भौगर्चं। ग्रवतार वीर राजा इमौ, गजपति' राठौडवं । --गु. रू. वं. रालौडो-वि.--राठटोडों का, रारौडों संवंघी । उ०्--वनी ए धारी राठौड़ी धरती म्हारा चलता धुडला हारा --रा. ले. सं. स्व्री.--१ साफा वांधने का दंग विज्ञेप 1 उ० -रग-रंग री पोसाखां इनायत करं दै, नै माता घोडा उडणा ताजी उपर फीण करावं छ.1 राठोड़ी वंव वधाव द्यौ ऊपर वाला वदी तुररा सिर पेच वंधीजे द । पनां २. राठीड़ों कौ हकूमत या सत्ता । मृहा०--राठौड़ी चलाणी = ग्रपनी इच्छानुसार कायं करना था करवाना, रोव गालिव करना 1 रू. भे. राठोडी राटौर-देखो (राटोड' (रू. भे.) राद, रादा-सं. स्री.-१ जिह, हठ । २ योभा, छवि । (नां. मा. ह्‌. नां. मा.) राढामणि, राढांमणी-सं. स्त्री- काच की मरि । राटढी-वि. हटीली, जिदिली । स. स्त्री.--१ लड़ाई, भगडा, युद्ध 1 उ° -- बाढी वहतांह, राढाली त्रम्भमक रुड । साढाठी सहतां, डाढाढछी ऊपर करं । -- महाराज वखतावरसिह (ग्रलवरः) २ देखो "रातंगः रातग-सं, पु.- १ गिद्ध । उ०--थंम जंगा वोम बार जोडतौ रातंगां थाट । तोडतौ मातंगां घाट रोड़तौ त्रांवाट 1 -हुकमौचद बिडियौ २ चील) ३ लाल चोच वाला मांसाहारी पक्षी । रातव, रातंबर-देखो “रकतंवर' (रू. भे. ) (ना. डि. कौ.,ना.मा ) उ०--१ तेरह लोह रंग रातंवर, पह श्रां श्रग्र सेत पटाभर । पोहचि तठ सिक्का पौढाण । इम पण पूर भरथ प्रग्र श्रां | --सु. प्र. उ०--२ घण भेरी परह्र हुई सिधु सुर दूका कूजर कोट ढह । गीधियां ह्‌ हृवर छायौ श्रैवर, रथ रातंचर त रि रहै । -ग. रू. व. उ०--३ इद लौक एेरापति दध करं खल गोडवि श्रार गेह । सपतास रातंवर सानि ग्रसंमर रोह्‌डछ घारेह । -मा. चचनिका रातवरी-वि. [सं. रक्त प्रवर] रक्त वकी, लाल | उ०--रोव्टसी ्रलदठां चखां रातंवरी | ककायां मरू त्यां जसौ गज केह्री । --हा. भा. रातभर--देखो ^रकरतंवर्‌' (रू. भे.) उ०--यम देवाय मघ्य दीन जुहे दहं मम्मर्‌ । श्रालवाल भरि सोन भई प्रतिमा रातंवर । --ला. रा. रात- सं. स्तनी. [सं. रात्रि ¡ सायंकाल से प्रातः काले तक का समय राति, निशा, रजनी | (डि. को.) उ०--१ रात दिवस होवे मन राजी, निर पराई नारी । पठण पढावण मोसर पायीप्ुक गयौ विभवचारी । उ०--र रात ठलनं लागी, जद भा'राजा घम मे वख्यं वियां ने घणा उदास श्रर मूढी उतारचां जोया । रू. भे.--रति, रती रत्त, र्ति, राति, राती, रातु, भ्रत्पा.--रतियां, रत्तड़ी, रातड, रातडली, रातड़ी, रातउ-सं. पु.--१ एक वस्त्र विशेष | --ऊॐ. का, । फुसी --दसदोख रातू । रातडि, रातडी । रा्तकडाह ४१३६ रातिराजा ___ ~~~ ~ उ०--वहूमूलं धूणोलियं मीणीयं कालं परटडञं रातञं फूटडउं मूपडती मेघावली मेघडंवरर पद्मावलि पद्मोत्तर इत्यादि वस्त्राणि । --पव. स. २ देग्वो "रातौ (रू. भे.) उ०-भणाद कोम साचठ कियउ, नवलड राचटड़ नो । मँ मिल्हिवि संजम सिरिदहि, जड रात, मणिराउ । --जिनपय मरि रातकडाहउ-सं. पू.- एक प्रकार का वस्त्र । उ० --कशणवीर सौवश्चच्छलेखं मनेत्र नीलं नेत्र रातफकडहड वड- गीं कल्ही गुरूडसन्नाह्‌" " " "“ ““ --व. स. रातड-सं. स्वी.--१ लालिमा, ललाई । उ०--ग्रसुभ सुकन श्रव रे, दाह दिन दिग रातड़ दीं । --मा. वचनिका | २ देखो "रात" (श्रल्पा., रू. भे.) | रातड़ली - देखो “रात' (ग्रल्पा., ₹. भे.) | उ० - कट्‌ वसियौ कान्हा रातडली । | प्ररे तेरे मुख विच श्रांखे मोहे वासड़ली । रातडमुखां-वि.- लाल मुह्‌ वाली/वाला, रक्त-मुखी । उ० प्रापणं गात्त काय ररि कमठ उपरां । चापड़ं रातड़ा भरुखां श्रांमिख चरां । रातदियौ-स. पू---१ एक श्रयुर का नाम। --मीरां "कष् हा. भ # उ०-रमते इंगरराय, भ्रंग वाखलौ उव।रे । र रमते ङंगरराय, मेक रातडियौ मारे \ --ठा. केसरीसिह्‌ मनांणा २ गिद्ध । ३ देखो "रातौ (ग्रह्पा., <. भे.) जज = क, का) क अ क रातडो देखो "रात' (ग्रत्पा., <. भे.) उ०--१ रातड़ी सवाई हो रंमजी वहि गर, पल पल छीजै गात । करणां सुरि करणामई, महलि पारो दहो नाय । -ट्‌. षु. वां. उ०--२ एहौ उजटी रातड़ी, किण दुसमण दी वाढ । पड़ी जच मै मवन मे. प्रीतम विन वेदाल । -- जलाल त्रूवना री बात उ०--३ तारां तौ छाई दोला रातडी रे कोई फलदां तो छाई ढोला सेज 1 --लो. गी. रातडो-देखो "रातौ' (ग्रत्पा., रू. भे.) उ०--१ पाका विव मधु ममार, ग्रोपित विद्रुम जांणारे। मामोल्या जिम रतड़ा रे, श्रवर घुधारस गांश र। --प. च. चौ, उ०--२ ऊजटी वार पतसाह्‌ घड प्राहरं । मेलियौ रातडी नीर रातय -देखो “रातिव' (रू. भे.) “ "मान" । --मानर्सिह्‌ सक्तावत रौ गीत्त रातजगण-सं. १.--१ वुत्ता, एवान 1 (श्र. मा.) २ रात्रिको जगने की क्रिया याभाव) रातजागौ- देखो 'रातीजौगौ' (रू. भे. ) रातडि, रातडी- देखो ^रात' (भ्रल्पा., स. भे.) उ०-- १ काजट मांह काटिमा, रगत्ति राति जेम । सुखि प्रीरडा तिम मारु, पृ॑जरि पमरिख प्रेम । -मा. कां. प्र. उ०--२ कां रे काली सतडी, धिर रही यानक जोय । श्रम्हनहं मा, या. ग्र 1 1# तू श्राणा, समद सिडं संकरनी होय । रातणीौ, रातवी- देखो ^राचणो, राचवौ' (रू. भे) उ० - पटे हम सव बुद्धं किया, मरम केरम संसार्‌ । दादू श्रनुभव उपजी, रातं सिरजन हार । --दादूवांणी रातदिन-सं. षु. [सं रात्रिदिवं, रात्रिदिवा] १ चौवीमन घंटोका समयया समय की म्रवयि जिसमे, रात-दिन पूरे व्यतीत होतेह) २ प्रति-दिन, नित्य । उ०--१ सगा घोड़ा नूं रातव दिराय ताजा किया । --कुवरसी सांखला रौ वारता उ०--२ नाडी भ्राया सेह भरिया, ज श्रलायदी जायगां देख नं श्रमल पाणो करण न उतरीया। जठंघोडां नतौ राततचरकी पींडियां खृवाय ने काय कीया । --पनां रातमिण-सं. पु, [सं. रत्रि~-मणि] चनमा । रातमुख, रातमुखी-सं. पु. [सं. रक्तमुख ] मुसलमान, यवन । उ०--घर धुजवी घरा पुड धुवते, धरट धाय धरा . घेरविया । रातमूखा गोहं श्र राख, ्रावघ वारे श्रोरविया । --मदटारांणा खेतसिह रौ गीत वि.->+ लाल मुख वाला, रक्तमूखी । रातरतन-सं पृ. [सं. राति ~{- रतन] चन्द्रमा, शि ! रातरली -- देखो “रात उ०-कहां वसियौ कान्हा रातरली । भ्र तेरे मृख विच श्रावं मौ वासरली । --मीरां रातरांणी-सं.स्त्री. १ एक पौधा विदोप जिसके फुल राति में सगं देते ह| उ०-- चंपौ, कवडी, केतकी, मोगरी, जुर्द, कवठ, गृलाव, रपततरांणी करर, गुलमोर ०3 --फुलवाडी २ उक्त पौधेके पलोंका वना इत्र । (ड. को.) रातराजा-सं. पु.-राति का राजा उल्लरू-पक्नी । उ ०--विग्रहु-वाजा पर वढर, करता जण काजाह । रा जाता राजा ५ रतिरी न रह्‌, र्या रात राजाह्‌ । - खेतसिहं रातरी-देखो ^राति' (रू. भे.) रातरोखछौ-सं. पु. रातति का प्राक्रमणा, रात्रिका भगडा। रातछ, रातल-सं. स्त्री.--१ गिद्ध, गिद्धनी । उ०--१ केवी भ्रुप रायरप्षिव कोपीवं । जड खांगां मह्‌ कव जुवा । रातछ सुरंग हुई भखती रत । हाली भार सुरुग हुवा | -द. दा उ०--? परि सौक भौक रातद्टग्रपार । वजि सौके काच चक्र विखमवार । --सू. प्र. २ मादा ञट)। ख. भे.- रातत्ल, रातगी-वि. १ लालरंगका)। २ क्रुध, कोचित । सं. पु,--उट 1 रातत्ल - देखो "रातढ' (र भे.) उ०--ए ड मंड रातल्ल, विड सत खंड परव । गरूड सार गछ भर, छेडि पठ लोयण भक्ल । --रा. रू, रुत्तवासी-वि.--१ रात्रि विश्राम करने वाला। २ केवल राधि में ही रहने वाला, रातत तके ही ठहरने वाला 1 सं. पु.--रातिका विश्राम । उ०--श्रर दोनूं एकं पंजरं में घातिया । पीय रातवासी भेम रया 1 श्र प्रात रं वखत संहर में वेच श्रायौ । --द. दा. रातवासौ, रा्तवाह, रातवाहौ--देखो ‹रातीवासौ (रू. भे ) (डि. को.) उ०--१ म्हैकरेश्रागा छ, याद करिस्यी जददही रातवासं श्राप करनं देखस्यी । --मारवाड रा अरमरावां री वारां उ०-२ म्हंतौ र्यी तरस ओ्रोटख लियौ पण॒ श्रठं कोई सराय है कांड, जो रातवासौ लेवरौ दै । --रातनासौ उ०-३ घरमसाछ रौ सवार-सिध्या फस वाड्दौ काटे । मारग चातता टाबर निसंक राततवासौ तेवता । --फूलवाड़ी रातविरात-सं. पु--- रात्रिका समय रातांियौ-वि. सं. पु. (स्त्री. रात्तंखी, रातांखी) भ्रारक्त नेत्रवाला, लाल नेत्र वाला, सिह, शेर 1 । उ०- तियो, प्रधाप वेग, होफरेल रातांखियो, सांप पांखियो क धाप डांखियौ संटीर । ताप खाई मगदढाग्रखाहु, भ्रमाप तेज, कुमारां सिगार श्राप वलायौ कंटीर--प्रतापसिह राठौड़ रौ गीत रू. भे.--रातंखियौ रातादेई-वि. सी.-- माता के लिएु प्रयुक्त दने वाला विदेपणं शब्द । , उ०-१ जठ हर जामी वावौ मांगी, रात्तदेर्ई भाय । कान्ह कृवर ३७ रातिधास सौ वीरौ मागां, रार्ईसी भोजाई । --लो. गी. उ०--२ चुडलौ चित्तरादे,एहांएु म्हारी रतादेई माय । भ्राद्‌णए सांवणिया री तौज, वाई पहरसी । --लो. गी. राततापात-सं. स्वरी. [सं. रक्तपत्र| रंगनाल नाम पौधा विशगेप । रातिदी-देखो ^रातीवौ' (रू. भे.) उ०--ज्यानं परक्िया तीन सोनार रात रा रा्तिदी नै दिनि रा दीसंईनीं। | --फुलवाड़ी रू. भे.) उ०--१ राति विदियौ इसी भाति नरव रण, सम-समी मार दैतो सवांही । --किसनौ श्रादढौ उ०-२ राति दिवस जे जायं छं, पाद्या नावडइ तेहौ जी । चिणं खिण ब्रूटद्‌ श्राउखं, खीर पडड वलि देहौ जी । -- स. कु. देग्बो “राती' (रू. भे.) रातिचरस. षु [सं. रात्रि--चर्‌] निशाचर, राक्षस) रातिजागर देखो "रातीजागर' (रू. भे.) (ह. नां. मा.) रातिव-सं-पु [श्र.]१ घोड़.कुतते प्रादि पालतू पञुग्रों को नियमित खिलाया जाने वाता पौष्टिक खाद्य पदाथं जो चारे से म्रतिरिक्त होता है। उ०-- १ ताहरां नरवद जी वंहलिया २ मोल लिया। सौ वैहल जोड़ने नितं फेर, भूय चाद रातिव द । --नेणसी उ०--२ उदं रे चटणनू काचिण घोड़ी हती तिरैनूं रातिव ग्रणायौ जवां रौ भ्राटौ भ्र गढ दीनौ । --उदं उगमणावतरी वात २ पौष्टिक खाद्य पदाथं की नियमितली जाने वाली खुराक ३ मांस । रू. भे.- रातय, रातिव्वघ-सं- पु.- पौष्टिक भोजन की प्रतिदिन की खुराक । उ०-- तार रहित मघ पत्र ताजा । रातिववंध भख नित राजा । -- सू. प्र. रातिवास, रातिवासतौ, रात्तिवाहि, रातिवाहौ--देखो 'रातीवासौ" (रू. भे ) ०--१ युं वात चीत करतां सातिवास लीयौ हर दौड श्राय रही तदि दोन्‌ पोटहि र्या । | राति-देखो "रात" ( (नां. मा.) --टो. म्रा, उ०--२' गोधरुखक समे परणीया ।- रात्तिवातं पोदीया । प्रभाते गुखपाठ ओ वरसाण नं गढ जालौर ने श्राया | --वीरमदे सोनगरे री वात उ०--३ तदी माताजी रीभ्राग्या हृत्‌ रातिवाहौ देय म्ह ९ थारी मदद छां । ठाकुर जेतसी री वारतां उ ०--४ हेरा करं डरा हणौ, रातिवाहै राजो रे। मुगल धां तिहां मारिया, सवल सूटाणां सानौ रे । --प. च. चौ. रातींदी ४१३८ गातिचाट्‌ ॥ „णप पीकर प ) पि [क । उ०- ५ रात्तिवाहि चिय्यि दानि राउ, घा घा मे मस्नावि य०--ष्टर भगवान पल्य गौ नाम कौययण मान दीरा-भानी धाउ। --रा. ज. गी, जद््पा विषारणा मायं निराज्या हि नमा म धनापन 1 प्रास्या ध { वतु > न ¶ता- पदमा) रातींदौ, रातीधौ-सं. पु. [सं. रतिश्रय] एकः प्रकार फा ने्रग ती-घौट । पवमान जिसमें रोगी को सूर्यास्त के वाद दिना वंद टो जाता दै प्रया रतोजयद, रातीजमो--देणो "यतीनोपो' (रः, न.) धूधला दिखाई देता ई (श्रमरत) उ---१ माति पहिरगा पवेमरि प्रागी मन उष्म, पर्‌ मामः =<. भे.--“राततिदी' स्रवद पनयद भमि । रतीजगष् प्रायड ताजा नुगत नंन, मोत {न शमय पापः श्र {६ त =. रात्री-वि. स्मी.--१ ताल । गान गगरा पाव ग्रति र्म सोमे 1 7. गु. उ०--र जोत्तदी टीपम म निर्-मोतद समाक, कौोनक्री दूय सेवता उ०--१ रातौ कानी री पोतटियाम्डी। ऊनी तोव्धियां वगला त | ^ ९ धनेन नोन्‌ कर्‌ । पानरनमम्मत, धम शती गम मेममुार मे उडी । =. का, न | ® छ. + क ४ १ १ { शः] ५ दरगे क त उ०--? नाणे वरे वड नहं, उलभ लेग प्रत्व । रातौ पार्घा््या व रो तणा चुल्व समस्त्थ । गा, दा. | रातौजयार-मं. गप्री.--सात न्म पी अयाद्‌ । नः प्रद्र दिशोद् | उ ०->3 स्त्री स्वभाव लाडणठउ, साड ध्राटगा पुःमिध पट्णठ, | सतोजागणर-म. धृ. [मं गावि जगन] एता, दान | {प्र मा.) दुरजन दृम्ट स्वजन सिष्ट श्रानि तती, धादटु रतौ । --वःग. { रात्तीजागो, रातोजुगौ, रातौनोगौ-तं. पू. (निं. गधि {-जागनरराम्‌ |] | । # ॥ „> † उ ०--४ स्याम सनेसौ कवहु न दीनी, जनि बू गुभःयानो । ऊच । व 4 4 ह । ति £ | षी रा ¦ १ दय, देयि-देधनोपा भलोप्रनद्न फन मरे विद्‌, दवातम या चष्ट चद पंथ निहार, रोय रोय ्रनगिया रातीहो। गीरा | त मित क 1 ध 8 । ¦ उनकी मुतिः मम्मुग बरक, किया खान काना सति नागरन, २ रगी हुई, रजित । जनमे उनः र कनोनन न ४ ४ निगमं उनका स्तुति, प्रा्नाणे त्था नमजन-यः द्वा उ०--१ भेर यौवन मा मती, पिण्जेन घरम्‌ सै राती। न सकं ¦ क ॥ देखि मिध्याती, जिर दूर कीया मुरापाती । ---वि. कुः. › ना विधि कधा रासीय € यर ज , वरग ध भः किनि उ < --म्टी विदि शरीधा सतोरणा, हमीवस्छनद मारौजो ॥ पटमयं उ०--२ सयीरीमेतो गिरघरके रंग रातौ । पनरंगमराचोगा } ~. [त 41. £. ५ ( । पनि पटगविगा, नट सवत ~~. ध्‌, प. र्गाद, भं भुरषृट मेलन जाती । ततं | फाला परिरावगी, महू संघने सदाम जी । प. पर २ पिवाहादि उन्मवों पर भ्रौरनों द्वार मागन मोलि दुरे ३ अनुरक्त, श्राघक्तं। < ४ क्या जनं चाना रारि-जापर्न । उ० -१ मन मोहन सुंदरि माती रे, रहै पथ भरतारे रातो रे | सम्पगी 0 ११7७ 1.7, क > ७ र ॥ खं ०.१ मारय पटरग ध्रवसमर भ्रागापम इय ह यरे पिर तेसाद़ीरे, ती पिण सह्‌ श्रै उादीरे। -य य. च०--१ मान निः रग श्चय ५ ॥ १ । (८ पर ० प ध गड ततर तण द ~ मौय ` धन वहूर्भम , प्मत्ति उद्धव गर । मोन, गीत गानं उ०--र पीव मित्या जीऊं सरीरे,नांतर तजिहृं देष्ट 1 दामी मीस ' ध ् ५ । ति # ध... त + दु गयं ग रोल त्र. म्त. रांम रातौ, हेरि विन किसी सनेह । -मीरा | व व न उ ० --२ गोरणा निम गौरा री चतत परणीयगय रे साम पर्‌ जाय । > .3 * क ~ 1 री परणोजसः 7 र ससर र्‌ राततम रा री उ०--१ श्रोत वटी एकली, करं सगनार्ई कामौ रे। रातौ रस ॥ ष भ ७ च ¢ ॥ (8 शि ५ = गर 4। + वि ४ ग र्‌ रुन ह] सूता । म्टा चगास ४ र्‌ 1 न्न र्‌ ५ ५७, भीनी ररै, छोड नहीं निज ठंमौ रे । --घ.व. ग्र 9 भ । ४ वाहूर री द्योत वाजियो। --यी. स. टी. उ०--२ नारी मिरगा नयन, रंग रेमा रस राती। यद सुकीमल धतो नथ वि. गु रू. भे---रतजगौ, रातजगं, रतिजगी । । ` ~` | रातीव।सौ, रातोयाहौ--देमो "रतीवासौ' (र. ने.) ५ ऋद्ध, क्रोचित। ॥ 4 व उ ०-१ रातीषणस्त री माती रमाती, जाया गोपा सं जती संभाती रू. भे.--राति, / ~~)“ ४ ६ देखो "रत (र. भे.) उ०--१ भई कम्टी यामा, व्यसन मन ६ शलारादा भामा स्रत भरं | । ४ राती मारं न तन जारे नह मरे उ० --२ प राटीड कीलांणदाम रापमतोतं स्तीबाहो मांणत्त । ध # ५० तथा ६० सुं दीयौ --नंएसी --ऊ. का. उ०--२ राती महल पोदृण गयौ ! ग्रो गुव नै हुकम हुवौ } चारि रातीभजी- सं. स््री- मांस! पहर रात भरौ उलंगिया । परभात लाख एक रौ इनांम | रातिवाहु, रातीवाय, रातीवास, रातीवासतौ, रातीवाह्‌' रातीवाहिः हुवो । - पलक परियाव री वात | रातीवाही-सं. पु---[सं. रापि-+-वस==्राच्छा-दने+-घन = राचरिवास, रातीषांदी-सं. स्वी-- लाल रंग की एक प्रकार की मिरी विदोप । सं. राचि ~-वान्=ग्राघात, प्रहार] १ रात्रिकोक्ियां जाने याला रातीचोचछ-वि. - लाल सुखं । ग्राक्रमण या हमला । ५. न्न ४१३६ रातु उ०-१ दीधी सीश्र पातसाह इ घणी फौज करज्यौ श्रापापरणी | वचन दीं जालउरड राय, कटक न श्रावड रातीवाय -कां.दे.प्र उ०-२ परवतसिघ देव्रड़यै मेहाजद्ोत राव कला रौ भाई कल्याण दासजी रातीवासिो दियी जद मारांणौ। --वां. दा. ख्यात एक खाति पूरव श्रम्हांरी, कटक चिहुं दिसि जोस्यूं मनजांणिस्यु वरांसु वीतु, रातीवाहु देस्यू । --कां. दे. प्र. | उ०--४ ताहरां रात पोहर १ गई. तारां इयां ठाकरां रातीवाह दियौ । ताहरां हैमं सीमाढोत जाह पहली तोडि कनात, भांज धांभौ, ग्र मुगल नूंघाव कियी। मारन मारी कलह लीघी। - णमी उ०--५ तद जोधुररा विगाटु कपेजी कीया। घरां गांव मारिया । धरौ 'थांरौ भूविया। कटकां नुं रातीवाह्‌ दीया। "णी उ ० - नए --राव मालदेवजी री वात (सं. रात्रि-+-वसन्-निवासन] २ राति कोकिया जने वाला विश्वाम, पड़ाव, निवास । रू. भे.--रतियत्र, रतिवाउ, रतिवाम, रत्तिवासाौ, रतिवाह्‌, रतिवाही,, रातवसि, रातवाह, रातव्राहौ, रातिवास, रातिवासौ 9 रातिवाही, रातीवासौ, रातीघ्राही । रातु, रातू्‌--१ देखो !रातौ' (₹. भे.) उ०-जेह्‌ना, गृणा जह्‌नद्‌ हद्‌ ट वसद, ते देवी तेहुना नयखा हसद्‌ । जे उपरि प्रांरी रातु धणड, नाम मेत्ट्ढ कहु किम तेह तठ । --नल्दवदंती रास २ देखो "रात" (रू भे.) उ०--१ रात्‌ दे रोड़ा नरूला खड़ा. दुछियारा दीप्तदा है! मोठी मःडकावै पोटी पावै, टोढी सूँ टमदा। --ऊॐ. का रातरूलो-वि. (स्त्री. रात्रूनी) रक्तवर्णं, लाल । उ०-पीलौ तौ श्रोढ सूरज नीं पूज्यौ । रातुलौ श्रोढ जटवा नीं पूजी ए माता संणकदे। --लो.गी शातेरर्गि-वि. - क्रोवित | उ०-सुट-सुठ सरे हुई । लोगां कानि पएरंसी करी वात वीन रे वाप कन गई 1 फफ मांरसियी गिवार्व') समौ रतंरीगं म्रायग्यौ | रातोंरात-देखो “रातोरात' (रू.भे.) , उ०्-तदसाराभ्रमराव मेढा होय राजान्‌ काढियौसो सौ श्रसवारां सू रातोरात देसणोक सल माताजी सा पावां श्राइयी। --मारवाड रा श्रमरावां री वारता रातोकोट-सं. पू-- जेसलमेर जिलान्तगत पोकरणा, ग्राम का कोट किला, गदं । रसतोड~-सं. स्ना.- १ ललाई, लालिमा । उ०--उण री श्राख्यां में जोयौ १ हाल रीस श्रर रातोड मिदीनीं ही 1 श्रांल्यां थोड़ी सूस्योड़ी दीनी । --फुलवाडी २ किसी दर्द या फोडेके स्थान की ललाई। राततोचदण-सं. पु [सं. रक्त~+चदन] लाल चंदन । वि.--रक्तवर्ण. लाल । £ (डि. को.) रातोदरग- देखो 'रातोकोट' रातोवव-वि---गहूरा लाल, रक्ताभे । रातोमाती-वि.- हप्ट-पृष्ट, ह्रा-क्टा, मोटा ताजा । रातोरात-क्रि. वि.-रातही रत मे. रात के रहुते-रंहते । उ०-१ जठ हणं कोट दुतटं श्राया । श्रटं खट्वे रौ उनाव हतौ सु ग्रटग्राय रातो-रत सूता । --नेरसती उ०--२ ताहरां ठयं कही कवर तौ रातं मूवौ । सु रातोरात राकस उटाय ले गया। -- चौवोली रू. भे.--रातोरात, रात्युरात राती-वि. [स. रक्त, प्रा. र्त] (स्त्री रती) १ रक्तवर्णं, लाल, सुखं । उ०-- १ जठछजछ सरवति जन्छ काजल ऊज, पीठा हक राता पटेल । ्राधी-फरं मेव ऊधसता, महाराज राजं मैल । -वेलि उ०--२ बीद्डतां ई स्जगणां, राता किया रतन्न । वारां विहं चिदं नांखिया, श्रासू मोती-व्रन्न । -- ढो. मा, उ०--३ वाठक-कन्हैया नं त्रजांणा ई थोड़ी वणी रीस ग्रायमी । मृडो रातौ व्हैगौ । २ रंगा हृश्रा, रंजित । उ०--दादू विसय विकार सौ, जव लग मन राता । तव लग चित न ग्रावही, वरिभुवन परति दाता । --दादूवांणी ३ लालरगसेरगाहुश्रा। उ०--श्रति घणु ताहो चीर न पहि्रिवा, न करू कयै स्नान । वलि न विच्छा हो पलनी सेजड़ी, न लहुं केह मान \ -वि, तू. ४ श्रासक्त, भ्रनुरक्तं। ॥ उ०--१ गाएक राग रंग रात, प्रण गयौ सुरा रीभिये। -- सी सुखरांमजी महाराज उ०--र दादु राता राम का, पीव प्रेम श्रधाई्‌ । मतवाटठा दीदार का, मागं मुक्ति वलाड ५ तल्लीन, मरन 1 उ०--१ मदका माता मद पीर्य, सौ मदवा नही जानि ।हृरीमा रता राम रस, मन मत्तवादा मानि । --भ्रनुभववांसी उ०--९ राम भजन सू राता, महत भागजे मान । ज्यां सारीखौ जग मे, उत्तम न जां ग्रनि। --फुलवाडी --दादूवांणी -र. ज. प्र उ०--३ राता तत॒ चितारत चितारत, गिरि कदरि घरि विन्द गणा । निद्रावस्ष जग एह महानिसि जामिए कामिंए जागरण । --वेलिं रातौ ॐ रातौदीटह्‌ [म [` [1 ६ उन्मत्त, मदमस्त्‌ 1 उ०--१ रातो भूक विगम वच रोर, जव्ररप्रमौ कु जोम । मौ ऊभां संकर चौ फोमंड, तांरा भीच किण तोषं! --र. ष, ७ प्रसन्न, सुश । उ०-- तीरथ वरत सव मांइ उनी, तहां चां जाहि ठम संसार राता, साच देस नांहि । -- प्‌. पु. या, ८ उलभा हुमा, फसा हुभ्रा, संलग्न । उ०--१ समभि नहि काद्‌ निज पय रातो रहं, ए भरग्याग मिध्यात पंचम कट । --ध. य. प्र. उ०--२ परपंच रातौ प्राशियौ, हरिस्‌ नाहि देत 1 पर यमि पडयौ विगरचसी, भ्रव सूं चेत श्रचेत । --ट्‌. पृ. या. सं. पु. [सं. रक्तं | रक्त, ष्रुन उ०--दुस्ट सहज समुदाय, गृण कुच जांय, रातौ पीं राजिया । र. भे.-- रतौ, रत्त, रत्तउ, रती, रातय, रातु, रातु । ग्रत्पा.--रतडउ, रत्तो रत्तउउ, रातद्टियौ, रातषट । दो श्रवगुणा गहै । मोग चदु ---प्रण्यात रात्तोदीह्‌ - देवो "रातदिन' (र. भ.) उ०--जैनूं जीहा रतीदीहा जी जंपौ । कती ने कौनाना हतार कंपौ । --र. ज. भ्र. रात्य--देखो राति" (रू. भे.) रात्य्‌-कि. वि.- १ रतम) उ०-- १ जलाजी मारू. रत्यु घण रो पेटडनौ भत दृस्यीटा मिरगानेणी रा जलाल 1 --सलो, गी. उ०-२ ठाकर ठाला ठेठ, स्फरांणी गिरयर चिसी । फरं विरम रा कौट, रात्यूं सूता राजिया --किरपारांम २ देखो "रात्रि (ङ. भे.) रत्यु रत-देखो "रातोरात' (<, भे.) उ०--वापदी बूढी डोकरी मोयां सं पकट्योटी पणी रोई श्रर वेह हूयगी । पण धन रा धायोड़ा गवेद्‌ केवै-तेनर श्रावं भ्र पारव करं ह । समलं डांम वाल देवौ श्र रात्ुरत्तष्यैरं धरां नाम श्नावौ । --दसदोख राध्रि-सं. स्त्री. [सं.] १ संध्या सेप्रातः काल तक फा समय, निशा, रजनी (डि. को.) उ०--विवाहादिक सुख रीरच्रिदोरी लखावं श्रमे समीं साभ मनुख मूया ते दुखं री रात्रि घणी मोटी नखारवं । थि २ रात की श्रचिष्ठात्री एक देवी । ३ निराशापूणं ्रवस्था, या स्थिति रू, भू.--राच्री । (लाक्षणिक) राच्रिफार-सं. पु. [सं.| चन्द्रमा, शनि । ४१.४० [ त 1 स केन शाषनम्‌ [ क ` ष 7, [1 2 1 त 1 व्ल र 91 कै - ~+ ज [ ल अर क 0म्‌, चवि ठ कम्व्य च ०५, च के # क ह । रात्रिचर-म. ¶ृ. [म.] धम, निधाचः 1 उ ्ोरद्या नर रात्रिलरम्यु मरि ग मनम्‌ मष्टा) माद्रिव पासी परगट कौपरड, महू खणे मपरमा | श्रि गर र्‌ मे.--रा्नर, दात्रिस-सं. धु, [ग.] तादा, नक्षत्र 1 रात्रिवट-रा, पू. [ग रप्ति] निधाचर, गद्य । {टि फ.) राप्रो- देशा "रात्रि" (र. भै) (न). भा.) ० --स्यामीती वोत्या-राकत्री मेपू परठत्ता दम्यौ जद दण री दपाक्िमिरदै ? भि. द्र. रात्रचयर-ेग्यो 'गात्रिसर' {न भै.) उ०--ते रात्रवर परनि चिटन परिक यदनं विकासे । विन्पम्‌ एष्रन वालन, ष्टौ सागि करत । --वि, पु. राद-गं. पु.-- सी पाव यापो मित्लने याना गंदापानी, से गृ्ट पीताय गाढा होता रै, पीव, मकाद । उ०~-कानी मामी पर अटियागोर्‌ दुग ई कपर मीस) राठमभरपा तीर्नांरा फटता दन्टफोर वृद्धा, दमीका मनत । पुरब रू, भे.-- राप, रापि, राघ्य । गट०, रार, राध, साधौ, रादनी-म. न्त्री. [ स. द्धादनी] { विरनी, विचुत्त (ना. मा. ना. मा.) २ यञ) रादरशो-सं. ¶.--दणग "राद' (महर. भे.) उ<--प्राज री वक्वको मोर धारी फाती मामी तै माफ करज्यं । सित्तर परसां रो रादरड पाज धोटटौ सौ दृटने वारं प्रायौ । --फुदयाडी सा'दारीो-देगो 'राट्दारी' (षू. भे.) उ०-सारारै मुरधर ष्ट सारी, भूषां प्र॑गरेजां व्रद मारी । भ्राज्‌ "वभत" भ्रवतारी, रणव नोज मरे राश्शसे। रावीङो-देगो 'राद' (मह्‌. ₹. भे.} राध-सं. पु. [सिं. राधः] १ वंदा मास्काएकनाम। {डि को.) २ ज्येष्ठुमासकानाम । (डि. को.) ३ भराम । ४ देखो "राद! (<. भे.) उ०्-वतरणीलोही राध नी, ति रौ तीसौनीर। त्रिणि में दुवा तेह ने, छिन दिन होय सरीर । --अय्वंरी राधड-देसो "राद" (मह्‌, <. भे.) राधमास-सं. पु.-वेगाख मास (डि. को.) रधा [रै ४१४६१ रपः रा 9 भा ना क + राधा-सं. स्वी. [सं.] १ श्रीकृष्ण की एकं सुविस्यात प्राण सखी जो | राधावलम, राधावत्लम-सं. पु. [सं. राधा] १ श्रीकृष्ा ' (ग्र. मा.) वृपभानु गोप की कन्या थी । उ०्-वडा भड माधा राधा वंद, नमं पमि लागौ इद नरिद। --पी. ग्र. वि, वि.--पुराणो में इते गोलोकवासी श्रीकृष्ण की पत्नी भी माना) २ विष्णु की सृष्टि उपक्रारक पांच शक्तियों में से एक । ३ अ्रधिरथ सूत की पत्नी, जिसने कण का पालन-पोषर क्रिया था) उ०-्रतिरयि सारथि तहि वस्षए राय तण्ड धरि सूक्त । राधा नामिहि तश्रु घरणि, करणु भुं तसु पृत्त॒ । -सालिभद्र सूरि ४ विजली, विद्युत । ५ वंशाच मास को पूणिमा। ६ विशाखा नक्षत्र । ७ समृद्धि, सफलता 1 ८ विष्णुक्रांता नामक एक लता । € ग्रावला ) १० एक वणं वृत्त जिसके प्र्येक चरर मे रगण, तगर, मगणा - श्रौर यग तथा एक गुर होता टै । रू. भे.---रावाई, राधि, राधिका, राधे । राधा भ्रस्टमी, रावा श्राठम-सं. स्त्री. [सं. राघा~-म्रष्ठमी] भाद्रपद शुक्ला प्रष्ठमी की त्तिथि जिक्ष दिन राधा का जन्म होना माना जाता द । ङ. मे---राघास्टमी । रावारई-देखो (रावा! (ह. भे.) उ०--राघाई स्कमण श्रौर सतमांमा, कुन्जा कां (थार) संग पट । मीरां के प्रभु गिरधर नागर, तुम सुमरां सूं म्हांकौ संकट कट । --मीरां राधाकात-स. पू. [स-] श्री कृष्ण राधाकुड-सं. पु.-त्रज में गोवर्वन पवत के निकट का एक सरोवर 1 राघातनय-सं. पु. [सं.] राजा कणो । (श्र. मा., ह्‌. ना. मा.) राधारमण-सं. पु. [सं.] श्री कृष्ण 1 उ०-मद सिलल तणां चांटा हियं नीलम, राजिया शुवर चटा पदम राग । श्रडग पग मांड राधा-रमण उडायौ, नग समौ विलंद. . मग विप गगन मग नाग । --वा. दा. राधावर-स. पृ. [स.] १ श्रीकृष्ण । । उ०्-थारी दव प्यारी लागे राज, राधावर महाराज । रतन जरित सिर पेच कलंगी, केसरिया सब साज । --मीरां २ श्री विष्णु) (डि. को.) (पो २ श्रीविष्णु । राघावल्लभो-सं प--१ एक व॑ष्णवी सम्प्रदाय ) २ उक्तं सम्प्रदाय का ग्रनुगामी। राधावेध, राघावेधु, राधवेधौ, राघवधी-स. ¶.--१ प्रजन ' (स्र. मा, ह-ना. मा.) २ वहत्तर कलाश्रौमें से एक । (व. स.) ३ लक्ष्य परतीरम्रादि लगनेकीकियाया ढग। उ०--१ राधावेधु सु श्ररजुनि साचि, मनचीतिउ वरु लाडीय लाघड। जां मेल्दि गति श्ररञजुन माल, दीसइ पांचह गलि समकाल । -सालिभद्र सूरि उ०--२ त्रिभुवन जय पताका लेवी. चलचक्रांतराल्लिं राधायेध करेव्रउ, जइव्रत मुद्रां संवेरउ । --व. स. उ०--२ जिम वेस्वानर मध्य प्रवेस करी न सकट, जिन राधाचेध साधि न सक्‌, जिम पांणी पोटल वांधी न सकं, जिम वायनड कौ घट भरी न सकीड्‌ । - व. स. रू. भे---राहावेहु । राधास्टमी--१ देखो ^रावाग्रस्टमी' (रू. भ.) राधि--१ देखो “राधा' (रू. रू.) २ देखो 'राद' (रू. भे.) राधिका-सं.स्त्री. [सं] १ एक मात्रिक द्द जिसके प्रत्येकं चरण में १३ भ्रीर € के विश्रामसे २२ मात्राएंहोती है) २ देखो ^राघाः (रू.मे) । उ०--राधिका क्ररस्ण रास, ब्रदावन ब्रज विलास । गिनका गज ग्रजामेल गीघ, पद गाता | --उ. का. राधेम-सं. धू. [सं.] १ राजा करण का एक नामान्तर । उ०--मागणां निवाजं रीभां, राधेय तराजै मांमी । क्रोवंगी समासं रूप धनंजे क्रपांण । भूङंडां प्रजान वाढौ विरा प्रायांख॒ भूरी, “माघवेस' राजं वीजौ यनीमां मथांण । --किसनसिह्‌ वारहर २ भ्रगद। ` राघौ--देखो “राद (मह., <. भे ) उ०--पचेद्रिय काय मांय रे फसियौ, उत्करस्टौ सात श्राठ भय वस्षियौ । पिड ्रसुच उदारिक लोही राघौ । राध्य -देखो ^राद' {<. भे.) -जयवांरी रात, राप्तीनदी-सं. स्तरी.-एक नदी जो धघवलगिरि पर्वत कौ परदिचमि ढल से निकल कर करनाली की प्रोर होती हुई गोरखपुर जिले मे घाघरा नदी मेँ जाकर मिल जाती है । (वीर विनोद) . राफ-सं. स्त्री.--१ मुंह्‌कावह भाग, स्थान या कोना, जहां दोनी होर र{फरो क ५ = [1 त ` 2 [न "== क 1 21 ("पौ ५ मिलते ह । हेडों का परस्मर मिलने का संधि स्थान । उ०-व्याहुरौ नावौ काना पडियौ, हाय सूंकाचद्रुट र दकड्‌ हुयग्यौ । दलाल सामी मूढौ दीलौ करयो, रपफां तिङा जद स्या चाल पड़ी । --दरसदौख २ फन । उ०--नाग मंडछ मेवाड निरतौ, कमधज गरड फिर कौरवं । कूभकरन सिर सकं न कि. जा उर राफ महाजद पल । - वादर्‌ सुरौ उ० --२ किह किह काली नागना, राति ऊमटद्‌ साफ । वनस्पति प्रजयति पड, तेह ना मह नी वाफ। --मा. क. प्र. ३ यवन, मुसलमान । उ०-गदढ गढ राफ राफ मेर गह, रेण खत्री धरम चाज ग्ररेम । पडर वेस नादम्रगा पीणग, तेमन श्रायौी 'पती' नरेम। - महाराणा प्रतापतिह्‌ री गीत सफजी-देखो "राफसी' (रू. भ | उ०--चढे सेख चंदवछां, मुगल चर गोलज गों । रच गोट राकजी, सयद, पाठांण हरोढां । - सू. प्र राफट-रोढ, राफट रोदियी, साफटरोक्ीयो, राफट रोढो-- सं. पृ--गड्‌- यड, श्रन्यवस्था । उ०--धरमराज रीस मे पग पटकता कवगा लागा-प्रवै म्ह कोद कैवं श्रर काट नीं केवृं। चिना व्वार्तं नूरग-नग्क रौ न्याव कीकर फः । थें रती सगौ राफट-रीदधिषौ कर दिशौ ' फुनवाड़ी राफसो-सं. प.- एक मृसलमान या यवन जाति व इस जाति का व्यक्ति | 4 = 9 #ि। [॥ उ०--रवदस्यांमकेरूमके, सुनी राफसी मोग । माद्‌ टकम चौ स्रवण, सूर सोनिया सकोय । --रा. "श, रू, भे.- राफ़जी । राफौ-सं. पु.-१ उटोकाएक रोग । उसमे ऊट्‌ कै श्रिरी पर्‌ कै तलै मे सूजन श्राकर उसमें मवाद पड़ जाता ह। २ उक्त रोगसे पीडित । राम-सं. स्वी.-१ वाजरी, जवारया मक्कीश्रादिके श्रटे को दाच्च मे पका कर घनाया जाने वाला एक पेय पदार्थं । उ०- १ परियां राव न पावही, पड़ी वीज उरा पौट । ऊ फटसौ रहजौ श्रडग, दूघां दह्धियां छौठ । --वां, दा. उ०-२ नीत रीत सूमां नहीं सवाव । समां धरे सुगाढ, में रधं रसोई राव । --चां. दा, २ श्रांच पर पका कर गादा किया हृश्रागन्नकारसजो गृडसे पतला व शीरेसे गाढा होतार) १ रवडी । % फोट गाढा पेयः पदाथ 1 ज म क = = भ ण म = नन म [1 ४१४२ राय { शि + भ ~ = ग्रत्पा, राप्रदरी, राघडयो, रावद्ियी-मं. पु.-प्राटा कर्‌ गाढा क्रिया दग्रा दूव । उ०्--सौ ग्राष्टी खामी रोटी कर न छी गाट्रसा द्रुघ) रायदटयौ करर मांह लोग मिस्षरी धति गुवद्रीमां ह्ाप्रं जीमण मोक । माम राव्णीरीवत रावदि्यो-षारो- सं. पृ. कटो नामक पेय याक । रावषी- देग्बो ^रावर ( ्रल्पा,, €, भे.) उ०-१ नी घाटा पीव राव्डी,षे सोढा रोटी खाय । वौ वर्‌ टाठी माता गोर, म्ह धनि पजण॒ श्राय --सो. गी. उ ०-२ वापी महिनी गर सबद्धी पीवी जद क्ट जायन ठीक दुई । पण उण रीगोरी वांमद्धीषर्‌ द्वारका रीष्ा्पार्‌ ज्यु रावद्टी दपा रेयगी। --रातवासौ रायगण, रायगणि, रायगणी--देग्बो 'राय््रागरा' (षु. भे.) उ०--१ सउदागर्‌ खवातन्‌ पृष्ट नद्‌ तिणा मन्न । दीपद रापेगर मही, कवरी कचन ब्रन । दो. मा. उ०--२ चाउदडा हुरीग्रड डीष्टीया, वेगि करी स्याणि गया 1 जय- वना थादव वीहल्ल, नर निषुभप्निरया गेद्ित्ल । --का- दे. उ ०--२३ हियड्ट ताहरट्ह रषी ! थण हर्नं थट्‌ वके । श्रलग घरडट़ श्रालिगतां, रायगणि जिम रक) --मा. कां. प्र. उ०--४ रायंगणी संग कुमदनरूठे, हाथ नरै हिदूयेराव । कदी राघव भनी कारी, दतिं सिरमी ऊपर डाव । --ह्री भूर वारहृडं राय-स. पृ. [सं. राजा, प्रा. राश्रा] { राजा, नृष। (डि. को.) उ०--१ यछ न ग्रनड उवटटैश्रान का, नेखां दीं सहै नवाय । गरौ करतार श्रावियौ कर्तां, मोटे रौ मेवाडी राग्र। -- महाराणा नाला रौ गीत उ०--र रीभियौ ग्रहं दसरस्थ राय ) ग्रव्तार धूः दरा ग्रह्‌ श्राय। । --सु. प्र. उ०--३ श्रात्मा ग्रस्थान भ्रातुर, विग्ह विखहूर राय । मन भया व्य।कुटढ कत्र मिठोरगे, सकट व्यापी राय । --ट. प. वा. उ०--४ कमलापति कंवल्य श्रि, चौद भूव्रननु राय । परि प्रह तटं पजतु, मत्र तणा महिमाय । मा. कां. प्र. उ०--५ नयराह श्रागलि गयउ कुरंग, राय चींति जां टयउ विरंगू। --सालिभद्र सूरि २ स्वामि, मालिक । उ०--श्रीदेम नमस्ते चंडकरा चंद्रभाठ री नवीन श्राभा, छटा मणि- माठ री भूजाटां रही छाय । प्रारोहा लंकाठरीकः स्त्रां काठ रीश्राग, रमा खूप जयी काद्ध पंचाढछरौी राथ । । --नवलजी लास ३ धन, द्रव्य । उ०--सोदी प्रथिन सुहाय ग्नो, दुभढ, श्राय किम दाय । रूकलेय रार्ष्र॑प्षण ४१८३ रापजसख ना ग ` चणा रायदे, गदते कुन गमाय। ४ राजा, महाराजा बडे गासकों हारा र्पो, श्रीमानो को दी जने वाली एक उपाधि । ५ भादी वंश कौ एक शाखा । (वां. दा. स्यात) ६ कायस्थों का एक सम्बोचन या उपाधि 1 ७ कंगाली कायस्यो ऊा एक भेद ) ८ दरार। उ०--चित गयी चहुं चालि दिस्त, एक पडी भ्रण राप । हरीया वाड़ी पुल ज्यू, लेग्यौ पौण लुडाय । --भ्ननुमववांणी [अ. सए} & सलाह, सम्मति, त्रगिमत परामरं। १० विचार, स्याल । रू. भे.--रंय, रायद्चगरा, रायघ्रंगणि, रायश्रगणो, रायश्रागम--स. वृ. [सं. सज~ प्रगनं, अंगण] १ राजमहल का चक, राजमहल का श्रागण । २०--१ तडा उपरति करि नँ राजान सिलांमति श्रनेक रामं र्ग वधाद्‌ वाटिज दै । रायन्रंगण घोलहरं गेही घां मंगकाचर गीत नाद चंभाद्ची गावं छ! --रा.सा.सं. उ०--२ लटि फते मडां निद्रां लिये, सश्कि नौवत नंद तिश समे। "वौकः राज रौ+चूडौ श्रमर सदाह । --पा, प्र. उ०--४ ताहरां जियै वहू रौ वारोहुंती, सु मार रोकि ऊभी। --रैवतिह माटी | रायकंवरी-देलो “राजकुमारी' (रू. भे.) दायकुश्रर, रायकूंयर--१ देखो "राजकुमारः (रू. भे.) उ०--गुरु परिक्लदई्‌ गुरु परिक्खद् ग्रत्नदीहमि । दुरयोवन पमु सवि रायकयर वण माहि लेविखु --सालिभद्र सूरि २ देखो राजकुमारी (<. भे.) | रायकेढ्-सं. पु.-एक प्रकार का केले का पौधा, केले की एक जाति । उ०--मेहको ममोलौ, वावनौ चंदण, सोढमी सोनौ, रायकेढ को ग्रभ, हंस को वच्चौ । --लाली मेवाड़ी री वात राययाती-सं पु.- राजा का वदरई । जच्चा रणीं को पिलंग । | | उ० - रायखाती केने वेग वुलायं । | --लो. गी. वणाव, जी सज 1 रायगिह्‌ ~ देखो "राजग्रह' (रू, भे.) रायगुर-१ देलो 'रा्यागुर' (रू. भे.) उ०्-हाधां श्र वसी हृए वसि हा्मा, वाह ग्रणी खत्री ले वाढ । राघव काढी तरौ रायगुर, दात विसेख किए जमदाढ । --हरीसूर वारहठ २ देखो "राजगुरु (<. भे.) त भां शप्रभौ' रायश्रांगण उण मै । -स्‌.प्र. सगतं मांस वान्रक परमौ रायश्रांगण चख व रमे । सू. प्र. | रायघर--देखो "राजग्रह' (रू. भ.) उ०-३ राय््रागन चौपड रभो, महिलां सरव सुदाह्‌। रखमी उ०--हींदवां छात दोय वात ल हालियी, वाद ग्यौ श्रांक जग दुह वां ! हसत हव हीडता देखसौ रायघर, कोटियां खजाना सुण कानि | --दुरसो भ्रादो ज्यु हरदाम पाली रात रौ वाहृडियौ, ताहरां कह्यो-सासूजी ¦ | । रायचपेली-सं. स्वी. [सं. राज ~+ चम्पा ~+ वल्ली | एक प्रसिद्ध लता हरदाम वादी छ । मामू पण ऊभीहंती! सु ऊपरां मूं हरदास उतरियौ । सु राय-ग्रगण माद मार्ग 1 ताहे राय-घ्रांगण मे हर- दासं आयौ, ताहसरां सेखैरी मा भीतर तेडायी - नणसी ह. मै --रायंगणा, सयंगणि, रायगणौ, रायामण, रायकंथर - १ दृल्हा । सू. भे.--रांयकवर, राडकूंप्रर, राद्कुवर्‌ । २ देखो ' राजकुमारः (रू. भे.) उ०--रायष्ुवर चद्धियौ पाडिये, सुपने पनरमे देख्यी रे 1 गज जिम जिन चरम छोढने, ्रीर चरम वितेखौ रे । -जयवाणी (स्त्री. रायकवरी) रायकवरी-सं. स्वी.-१ दृच्हिनि। ह. भे.--रायकंवरी, सादकग्ररि, साद्कवरि २ देखो "राजकुमारी' (ङ. भे.) जिसके पीलापन लिए सफेद रंग के छोटे छट सुगंवदार एल लगते है । उ०्-सोटौ रांणौ रांयच्पेली रौ पुल, मुपल केठ. कमठी । महक लागौ चंपेली रौ फुल, लसकण लागी केठ. कमिटी । --लो. गी. {1 रायचंपौ-सं. पु. - एक वृक्ष विेष । उ०--१ सजन श्रायाहे सखी, धानं कुण कर्हियाह्‌ । रायचंषा रा पलं ज्यं महले महमदहियाह्‌ -टो. मा. उ०--२ रसकस दिवष्ौ वं, षड दोल्या रेहिर । सूगराने नुगसै मारयौ, रायचंपा र हैटे । -फुलवाडी रायचोफ, रायचौकू-पं. पू.--राज महल का चौक, राज महल का प्रांगरा । उ०-- प्रथम नेह भीनौ महाक्रोच भीन पर्छ, लाभ चमरी समर | रायजण-स. पु---राजा। मनेक लाम । रायकंररी वरी जेण वागे रसिक, वरी घड़ कवारी तेण वार । --वां. दा. रायकन्ना--देखो "राजकन्या" (ए. भ.) उ० सरण रायजण चरण वाखांसा मन करं सिध, दनि वाखांणा कव रसण देवी । कठढाधर वदन वाखांणा तरणी कर, करे रण | करग वाखांणा केवी । ---टकमी चंद खिडियौ र{प्डापो जा ककि 4) रायजादी-त, स्मी. [सं. राज +फा. जाद, रा. प्र. ई.] १ शाट्जादी ।. उ०--भरुरे स्रग-नयणी भरं रे, मेह तणी स्त मोरां । जगण पूठ दिया रायजादी, धूमर उपरर घोरां । --ग्रमरसिह राठौड़ रौ भीत २ राजकुमारी । उ०- तठा उपरांत करि राजान सिलांमति उवं चतुरंग रायजादी क्रितीयां रौ भूविष्वौ मोतीभ्रां री लड़ी हवे तिरा भांति री ऊजन्ी गोरगीर्रा -रया सास. ३ दुत्हिनि ! रायजादी, रायजाधौ-सं. पु. [सं. राज फा. जादः] (स्त्री. रायजादी) १ राजा का वृत्र, राजकुमार । उ०--१ कोमंडा भणंकं गुणां उड तीर केवरांण, श्ररावां धड्कं किना फार श्रासमांण । जांमढा उद्धर छडा रायजादी सादिजादां, “ग्रौरंगा' "मराद" "सतौ तेवड़ श्रारांण । --राव सव्रसाठ रौ गीत उ०--> सीख मारौ अक्षी रमै, संमत संसत्र । जौख माणे श्री रायजाधी । --महाराजा वहादरसिव रौ गोत २ दत्टा, वर । उ०--रायजादौ चुर लु पाछौ जोव, जायु म्हारी जान मैं माव्रोसा पधार । -- लो. गी, रू. भे.--"राइजादी' रायजो-षं. पु.--१ कायस्थों का एक सम्मान सूचक दन्द) २ देखो (राय' {. भे.) रू. भे.-राठजी, रापजोप~स. पु.-राजाग्रों पर्‌ विजय प्राप्त करने वाला, राजाविराज । रायडोडी-सं. स्वी.- राजमहल का द्वार । छ्यीदी | उ० -- रायडोडी राजा दनी रे लाल, वली खुर्सांणी मेव । दाडिम दाख सोहामणा रे लाल, खरन्रूजास्युं टेव । --प. च. चो. रायण, रायणि-तं. धू. [सं. राजादनी, प्रा, रयणी] १ एक प्रकारका वृक्ष विगेप । उ०-१ ग्रावा रौ पेड़, महुवा रौ पेड, रायण रौ पेड़, श्रामली री पेड, गुजरात में करस्णी धीत गिरे । -- वां. दा. स्यात उ० --२ वर विलसडं श्रलवेसर केषर दौटि सुवेस ' श्रव पुगदं ऊत्त- रायणि रायणि फलिय ग्रसे 1 --जयमेखर सूरि २ उक्त वृक्ष के फल । उ --नीलां नासा, रमि दीसता मुरगा, नीकोली रसयण, ते प्रीसी मन भाद, दाडिम नी कुली, खातां पूजं सती, नि मजा निग्र्ोड, द्रात नइ वदाम, केट्‌ कागदी कंड्‌ स्याम्‌“ --व. स. रायतेली-सं. प---राजा का तेली । उ०--रायतेलीके नेवेग वुजवि, जच्या रणी की सोड भवौ जी राज । 01 19 ८१४४ ५.५ 4 रायतौ-पं. पु. [सं. राजिकाक्त, राजीत] ददी, छष्ट या मदं मे, नमक- मिर्च जीरा श्रादि मसाने डाल कर द्योक लमा कर यनाया जानै वाला एक पेय पदां । उ०--{१ सीरी पड़ी रायतौ, रोटा चाय मांस । सूलायवी सूं करं सदा, सास एक हि रास । --कूवरसी सांखला री वारता उ०--२ श्राथण चावल्-मंगां री खीचड़ी अ्घ-पाव धी सूंमय- मथ "र गटकावं प्रर वड़ी-कटी रा रापतांसूं रजं है, -देसदोख रू, भे. रादती, राई, रायथन--देखो (राजस्थनि' (ङ. भे.) उ०-- सव्र रपर्यानि उथापसा । निरजगोर राय सहाय करि थाप । --रा. रू रायधर--देखो ^राजवर' (रू. भ.) (वां. दा. स्यात) रायपसेणिय, रायपसेणियौ, रायपतेणी, रायपसेणीद, रायसेणीय-सं. धु.-- राजप्रदनी नामक सूत्र, (जन) उ०--२ रायपसेणिया वीय उपांग मै, दोद्‌ हज्जार श्रसहेत्तर मन गर्म । --घ. वे. भ्र. उ०--२ रायपसेणी सूत्रे, राध्र प्रदेसी ना माव 1 सूरयावंदेव मरने हृवौ, धरम तरो परमाय । -- जयर्वासी उ०-े द्रे] <. भे.--रायप्पसेणरदज्जं । प्रत्तिमा पूजी सुर सुरियो भटे, राथपस्तेणीपए ब्रक्नर लाभ- । --स. कृ, रापपाढठोत-सं. पु.-- राठीडोंकौ एक उप याखा व इस वाखा का व्यक्ति | रायपुत्त, रायपुत्र देखो “राजपूत (रू. भे.) (स्त्री. रायपृत्ती, रायपुत्री) सयपुच्रिय, रायधुत्री--देखो "राजपुत्री" (<. भे.) उ०्---श्रोप दीपसश्नारती ल्प देशव रायपुत्रिय । जिसौ रामपुर जनक दरसि श्रभिसंम श्रहधितिय । --रा. ङ सायप्पत्तेनद्ज्ज- देखो ^रायपसेणी' (रू. भे.) रायफचछ--देखो ^राद्फछ' (रू. भे.) उ०--लोह्‌ रं फाटक श्रा सिपाही रायफलां पिसतोलां कांत उटायां तण्योड़ा गेडा करार । --दसदीाख रायपफूल-सं. पु---दाथ का प्राभरुषण विरेष । रयव-सं. स्वी.-एक नदी जौ वासवा की मख्य नदी माही की सहायक नदी मानी अत्तीदहै। -- (वी. चि.) रादवर-देसो ^रायवर' (रू. भे.) उ०~--लाठली री चीर ववज्यौ, रायवर रौ वागौ-मोदिपौ । -- सोक गीतं शयवहाद्रुर ४१८४५ रारपांगरुर -------~~--~---------~--*-~--~-----------------------~--------------------------------- ~` - ~ रायवहादुर-तं. पु.-त्रिटिदा शासन कालम भारतके रसो या सरः कारी श्रधिकारियोको दी जाने वाली एक उपाधि । - राययेल, रायवेली-देखो "रायवेल' (ङ, भे. ) (म्र. मा.) रायवोर-सं. पू.--कडवोर के ्राकार के छोटे वोर । रायनोग-देखो "राजभोगः (र. भे.) उ०--रायमोग गरडा तणीरे साल, सादी सख री साति 1 देवजीर परक भला रे लाल, दिल मानै ते दालि। -प. च. चौ रायमल, रायनलोत-सं. पू.--राठोड वंग की एक उप दाला व॒ इम गाखा का व्यक्ति। रायरांणा-- देखो ^रावरांणा' (ङ. भे.) उ०--तेड़ा वि मोटा रायरांणा, रचौ मंडप माट । । --स्ग्मणी मंग रायरसोई, रापरसोयी-सं. स्त्री.--पाकनगाला, रसोई । उ०-१ जद म्ह रायरसोई त्रा चौकौ दियो सजाय मणभररा म्ह माडा पोया वडी एक रांघी द्धं दाठ मारूणी घरी कमावणी --लो. गी , उ० -२ जदर्म्ूजाऊ रायरसोयौ माजन री सुच श्रावं । कुण जीम म्हारी राय रसोई कुण म्हारौ भोजन सरावै -लो.गी रायरातीभःगो-मसं. पु---एके प्रकार का लोकगीत । उ०-थाटठक्यि मे खाजा, म्हारौ वाप दिली रौ राजा ' रायराती- भवी, पटियार राती भवौ -लो.गीो राय रायांन-सं. स्त्री. [स. राज राज] रर्सो, सरकारी कमचासियोंवे जमीदारों को मुगलों हारा दी जाने चाली एकं उपाचि। (मगलकाल) रायरिन्व, रायरित्ि, रायरिसी--देखो 'राजरिसि' (रू. भे.) --रांमरासौ रायरो-स. पु--गेहंकेदेरमे, एक घास विदेप का होने वाला दाना उ.---राय संतोखं रायरिख, प्रोहित सीख प्रमांण॒ । ~- जोरार्दके प्राकार का हौतादहै भ्रौर गेहुकी फसलकेसाथदी उम जाता, रापलोम--देखो 'लोमंजदराव' ` रायलोम प्रधान ` समथ । राजा मित्र कन्दै दसरथ। --रांमरासो उ०--मेत्द रापवनो-स. पु--१ दृट्टा, वर । उ०्--दद रे देवतां ने नारेक वधास्यां, रायवनौ परणावस्यां । -लो. गी २राजा। रायवर-सं. पु. [सं. राज-वर] १ वड़ा राजा, महाराजा । २ पति, खाविद। ३ दल्हा,वर्‌। ˆ~ ~ ~ ख. भे.---रादइवर, रार, राईवर, रायवर । रावविमाड, रायविभाड-वि.-राजाभ्रों को पर।जित करनं वाला । (वांकीदास) राययेल-सं. स्वी.--सुगंचित पलों वाली एक लता विशेष , (ज्र. मा.) रू. भे.--राटवेल, रादवेलि, राइवेल, रायवेल, रायवेलि । रायवक्‌ठ-सं. पु. [सं. वकुठ-राज ]वकुण्ठ का राजा या पति श्री व्रिप्सा । रायसालि-सं. पु.-व्र्न विगेप । उ०-रावस राग रतांजणी, रवणी नडं स्द्राख । रकर्दती रायसलि, रोहड रोहिरि लाख } --मा. कां. प्र. रायस्ताहव-सं. ¶.--त्रिरिग शासन काल में भारतीय रर्ईसो, जनमीदारों व सरकारी कर्मचारियों को दी जाने वानी उपाचि । रायसेण-सं. पु--एकं प्रकार का वृक्ष। उ०--चिद्खुर गदी लेमूड़ी, केसूला निर्णी मोछसिरी फरवास रायसेण मटूवरा हाक कृभरा कीकर्‌ दरूला भुकर्न रहचा द॑ । -रा स. सं. रायहस्--देखो “राजहंसः (<. भे.) उ०--खावण ऊजल पुनिम, स्री जिनवर हरिं । माता कुषि सरोवरद्‌, भ्रवतरियउ रायहुंस । --स. कु. चयहर-स. पु.-- राजां का वंशज, राजा (डि. नां. मा.) ०--१ ट्ग्रा दल राजानां दखत रायहर, जट प्रीत वसन वहै जास । -जवान जी श्राटौ ए प्रनि रायहर घरं श्रोडिया, खान जिहां सिर लोह यख ) पाड़व षड़मा ऊपरां पडियौ, राव कूुरंम करिलकिलां रुख । --ईमरदास साट्‌ रायहांणी-देखो 'राज्ांनी' (रू. भे.) रावर्हीदवो-सं. पु.- हिन्दुस्तान या हिन्दृश्नों का राजा । रायांकवर--देखो “राजकुमारः (रू. भे.) रा्यांगण--देखो 'रायग्रांगण' (रू. भे.) उ०--राजटार स्यांगण जइ नड, भीतरी भेद जणायी । --रुखमरी मंगढ रायागरुर-स. प.-राजाग्नों में श्रेष्ट राजा, सञार । ०--रोहणियाढठ सं रा्यांगुर, भ्रा श्रमुर उतार धां । श्रवा वन वार्‌ ग्राडी, चुदांलम धातं चू्मांण । -महाराणासागा री गीत रायि ४१८६ रष्टभों [वा इ त-ना = पक । "षणी न रा'रीत--देखो "याहरीत' (€. भे.) रारौ-सं. पु.-राजा,नृप। (जेन) रू. भे. रायगुर २ देखो 'राजगुर' (र<. भे.) रा्यातिलक-सं. पु.--१ राजानो के तिलक, श्रेष्ठ-~राजा । रा८, रात-सं. स्वी.--१ दक्षिगी भारत में पाया जानें वाता, मदा- उ०--परियां श्रधक कहां किम पातलं" रायांतिलक हींदवां रां । -- महाराणा प्रतापसिह्‌ रौ गीत २ देखो (राजतिलक' राांराव-सं. पु.-- मुगल काल मेँ भारतीय रर्दसौ व सरकारी कर्मचा- रसियंकोदी जाने वाली एक पदवी । उ०-रायांराच साधि ^रुधपत्ति' । भंटारी मत्िसागर भत्ती । --- २. रू. राया-स. स्वी.-१ सोतेकी कंय की एषः लाखा । २ देखो 'राजा' (रू. भे.) रायातन~सं. पु.--राजा, नृप । राधि, रयी-देखो "राद" (रू. भे.) उ०--एिवी वारता रायि करि छि, एटि श्राच्यु मुनि । त्रहुदस्व तां नाम तेहि (नं. हर्ख्यौ) भूपति मनि] --नठाख्यान रायौ --देखो "राजा (र्षा. रू भे.) उ०--जीव-काया न्यारा कल्या, तव वोत्यी घ रायौ रे 1 चित्त नर योग्य च, हं जाऊं चलायौ रे। --जयवांणी रारग, रार, रारि, रारो-तं. स्वरी [सं. राजृन्=दीप्तौ रात्रिका] १ नेत्र, ्रांख। ग्र. मा.+ ना डि. कफो.) उ०-१ धारणां उमां रगा विमांणंगा सोक याज, रारगा ग्रमंगां भडां दर्ममां रौ सतार | पनंगां विहगं ढंगां नारमां श्रभीच पड़ा, सारगां खतंगां श्रंगा मातंगां धू सार। उ०--२ तवहत्थौ मत्थौ वडी, रोस भटक्के रार । श्री कभायण उपशय, हाथठ वाहणहार । --वा. दा. उ०--३ यां मूख भटी श्रां, पूगौ खाह्‌ दवार । श्ररज हृवतां म्रसपती, कीवी रत्ती सर । --रा. रू उ०--४ कहि कं नेहौ कौ करां, राम कमदरी रारि) करे पुकारां पीर कवि, ग्रौ वाराह उधारि। | --पी, प्र. उ०-५ रोड वजि हैवरां श्राभि धकि रारियां, वजर भाला खेवण त्रभागौ वारियां । -- जालमसिघ मेडतिया री गीत उ०--९ रारियां सुभट तुटं द्मंग रीर रा । त्रिलोचणा जिसा सुरै नयण॒ तीसरा । --र.ज. प्र. उ०--७ ऊपाड नर वाहणां, प्रासी सौ ताद्रूत । रारीत्रन्नां चो गुख, साह ण्व जमदूत । -- नैणसी २ वृद्ध मादा ऊट । ३ देखो "राइ" (रू, भे.) राटक-सं. पु.--वृभ, पेड । --यद्रीदास खिडियौ वहार एक वड़ा वृक्ष । २ उक्त वक्ष कोचीरनेसे निकलने वाला रमदार प्रदाय या निर्यस, जो श्रौपवो, मसालों भ्रादिमें कामभश्रातादहै तया सुर्गवके लिये जल्ाया जाता ह) ३ वच्चोंयाब्रूढोंकेमुह से टपकने वाली लसदार्‌ धूककीत्रूद। ४ एकं रोग वियेप। उ०-ताप शन्निपात जांणी ग्रतीसार संग्रहाणि, फीटौ विव रात पाड गोला मुन खणदै। दहीपा-सेग सास खात सविर प्रवह्‌ रूप, सीसं पीड रोग प्रू जेते रोग नन दह) --घ. व. ग्र. ५५ ग्राचाज, ध्वनि । ६ पशुश्रो का एक रोग विशेष । र. भे.- रचि! (म्र. मा.) रालड-देखो ^राली' (मह्‌. रू. भे.) उ०--खर ऊर लुं, माकण मांचां भिरिया, जु मरियां गोर्दशं, कान मिलि भियां, रालडं फटेडा, पग भरिड साडलउ, धरसाला भृरिखं घुंटण^" "^ˆ" व स॒. राटणो, रावी, रालणी, रालवो-क्रि. स.--१ भ्रोदना, दकना । उ०--१ मा मोरी, सूत्या श्रक भंवर सुजासा 1 वार्दजी रं वीरं मुख पर्‌ दुपटौ रादौ | --तो. गी. उ०-२ रोद्रणी वीदणी चेटडां रायां । म्घर तंवोत मूग हृत रा्टं। --दुरमी ग्राढी २ विद्धाना, फलाना, छ्टितराना । उ०--ठाकर हींग, दौत्या माधं फुल रादधता कंवणा लागा--श्राज. तौ धारं भाग रौ वचियौ पण बचिप्रौ। --फलयाडी ३ पहनना, धार करना । उ०--किणरी गूर्जौमे पाग वाजं । क्णि राजामा रष्टय रे लोय ) साच सतरी चेला पाग वर्ावौ ) त्याग रा जामा रछावी रे लीय) --सी हरिरांमजी महाराज ४ ऊपर से गिराना, पटकना, डालना, फेकना । उ०--१ राजा इतरी सुण वै चारू रतन वांव, छान ऊंची फर घर माहीं रा दीन्हा । - सिघासन वत्तीसी उ०--> मौने सृंप्यौ कवल जजालषए । फरसी दीधी हठी राल ए। --जग्रयांसी उ०--> तेवं ग्रवटा लाज, सवदा हूय वटो सकौ । गरढ सभा पर गाज, सुरतां रा्ो सांवरा । --रांमनाथ कविधौ राठखनोलौ ४१४७ राव ५ ठहाना। मह्‌.-रालड । उ० -भलौ भाई सेखा रार विर सारकी मीत । सारं सिर | राव-सं. धु. [सं. रजा प्रा, राया] १ राजा, नुप, श्रविपति । (डि, नां. छांवणी मारकी सोज सोज । --गिरवरदांन कचियौ मा., ह. नां. मा.) #, ६ चलाना, फेफ़ना । उ०--परंडयौ चारण चोमर हंदौ स्याल, राजाकी राणी पासा राछिया जी) -- लो. गी. ७ खिलाने या उपभोग कराने की दण्ट्मि कोई चीज किसी के श्रागे डालना, रखना, देना । उ० --दैखै तो एक मड नदी माहीं कहती प्राव! मो राजा नदी माहीं उतरतींन्‌ काढठवची की जांघ चीर रतन हाथ लिया मड पयावरी नूं राच्ियौ । -- सिघासन वत्तीसी ८ द्वूलकाना, टपकाना, वहाना । उ०--१ वीदणी श्रासू राठ्ती बोली -तौ श्रव म्हारा जीवशा मेडकीमारनीं। मस्यांकी सार निगे भ्रावंतौ व्यान राखजौ। --फलवाड़ी उ ०--२ उव उव भर श्राया नैण हजारी दोला ' श्रांसू त्तौ र्ध हरिव मोरज्य्‌ जी महारा राज, लीनी पना मार हिवडं लगाय, हजारी ढोला । श्रांसू तौ पद्यौ जी पेच म्‌ू जी म्हारा राज! --लो. गी. & लगाना, देना । उ०--दीज्यौ दीज्यौ सासूजी म्नि सीख, सहेल्यां हलौ रायौ जीम्हासया सज । लो गी. १० रखना, धरना 1 उ०-किण रौ गुरुजी में ्िघासण ढाट््‌. । किण री मादी राढ रे लोय । जरणा जगत चेला सिघासणा ढाद्टौ । ग्यान री गादी रादौ रे लोय। --ल्री हरिरांमजी महाराज राटणहार, हारी (हारी), राट्णियौो--वि०। राद्धिग्रोडा, राद्िपोडौ, राठयोडौ --भूऽका०क्रु० । . रादीजणौ, राठीजबौ--कमं वा० । राकरावोलौ-स. पु.--१ उपद्रव, उत्पात । उ०--राछावोढठं रात रा, पटलं यस्त पधार । भियां घड़सी मारिया, वेश्रां प्राग्ढवच्यार। ` ` -वीमा, २ शोरगुल, हत्ला-गुत्ला । रादि -१ देखो "राढ" (र. भे.) राली-सं. स्वी. - विद्याने या ्रोढने की गुदड़ो । उ०--रासी नही श्रो गूदडौ नही ग्रौं । श्रो तौ भ्रोहै बारा सा८ाजी रौ तिलक पद्धुवडौ । लो. गी वि०-कोायर, उरपोक, ग्रगक्त। उ० -१ एक राठ धप्पद्‌र, एके रावा ऊथप्पणा । एक राव गढ वियण एक रावां गढ प्रपपण । एक राव परिभवरा, एक्‌ रावां पडि गाहणा, एक राव जडगमण, एक राऊ सरणी रक्खण । इक राव रक करि रोव, एकौ श्रावण धियौ, कमधज ब्रजामि "गजः केसरी, श्रागि खाद्‌ इम ऊचियी। --गु. र<. वं. उ०--२ ए सारस कहिजई्‌ पसू पंखी केरा राव । उवं योत्या सर ऊपरद्‌ थां कधी श्रणुराव । --टो. मा, उ०--३ चाठकां लीधि चाकं चहोड़ि, ज्यां दीष सूता कर विद जोडि 1 ^तीड' इहं विव जुध खगां ताव, रजवट पाधौरे पंच राव । --सु. प्र. २ स्वामी, मालिक) उ०--भली करजौ स्गोचा राराव,म्हे तो खड मांणसियां हा, सिरा सू दाथ जोडतौ-जीडतौ चौधरी वोल्यौ । -रातवासौ ३ सरदार, सा्म॑त। उ०-नांणो गुर नांणौ इसट, नांणौ राणौ-राव) नांणा विन प्यारौ न कौ, साहा जातत सुभाव । --वां. दा. ४ राजपुताने के कुष्ठं राजाग्रीं का उपटंक या पद्‌ । उ° -फरमायौ'-हं थारी वहन छः । तू म्हारी भारईूद्धै तूं खातर जमे राखै। हं तोनूं म्होटौ करीस ।' सिवान राव रौ चिताव देरायौ । --नेणसी ५ रईस, श्रमीर। उ०--१ राजी राव रंक भूप, नारिही परख राजी । भरूठ सों विनाई वाजी, खुखी म्राप खाढठ र्म । -- श्रनुभववांणी उ० --२ राव रंक हिद रवद, गोलां सगां गेह । सागै जात सुणां- मियां, च्ुदर दिखावे छेह्‌ । --वां. दा. उ०--३ हरीया पाटनपुर नगर, राव रंक नही भप । श्रलख श्रभंगी ग्रापरहै, नारिन पुरवा रूप) --श्रनुभवर्वांणी ६ वंदीजन, भाट । [सं. राव] ७ शब्द, ग्रावाज, ध्वनि । (अ.मा. ह्‌ नां. मा.) ८ चीख, चीत्तार । उ०--एह्‌ कारि न मदं पणि मारिञ, मारत श्रनदं रागिसी ~ ४ वारिडि। तूं कन्दं रही राव करेवा, भ्राज दीह मुभ नाह मरेवा। । --सालिसूरी ६ नाद, गर्जना । १० गूंजार । ११ घोड़े की एक गति विशेष । । १२ छोटे प्राकार का एक पेड विभ्ेप जिसकी लकड़ी की छडियां रयत [+र वनाई जाती ह, ग्रत्पा.- रावी, रावउत-सं. पु. [सं. राज-~-पृत्र| राजकुमार, राजा का पृत्र। उ०--पूरण परवाडीह्‌ भरडारोसू सवद जथ । मवदिन सवा- डीह रहजं घांधटठ रावउत । --पा. प्र. रावड़, रावड्ी-सं. पू---धूल के महीन कणजो ्रनाज में मिल जाति हं। उ०--वाटी वृभ्रां हिये रमा, नण रेत रौ रावद्ियौ | --चेतमानिखौ रचजादौ-सं. पु.--राजकुमार्‌ । उ०--साहजादां समरूप, भोपत सूत चदढती भरण ¦ रावजादां रौ रूप, सारंग कंवरा सिरं । ---पा. प्र. रावट--देखो 'रावत' (कू. भे.) उ०--खाटा थाट दहीजेम सारम, रीदां मर्थं वांकड्ौ यावट। - दूदा नगराजोत रौ गीत रावटी-सं. स्त्री. [सं. राज-कुटी | १ राजा महाराजाश्रौ काएकः सुना ह्वादार महल । बरारहदरी । उ०--रावटी पुरंणीहो गर्ईुजे, हाजी कोई टपकश लाग्या सू । ग्रव घर ग्रावौ गौरी का सायवाने। "~तो. शीः उ०--२ ऊंचीसीमेडी रावटी, वेमे माटी को सोवै ए मचीत। म्हारि रंग वनडं रा सेवरा। लो. गी, २ एक प्रकारका छोटा तंव । । उ०-- श्रपपका खड़ी हई छ । तू, सांमीग्रांखा, सिरादइचा, रावरी, वाडि समेत करणारी, गरूर तांणीश्रा छै । --रा.सा.सं. उ०--२ कपड कोट उज्जढ बह कीजे । वर वगदा रावरटी वणीर्जं। | -- सू. प्र. रू. भे. रांवटी । सवडी-सं. स्वरी. (सं. राव +ड. प्र.] १ फरियाद, पुकार) उ०--तुभ ऊपरि मोरी ्रासड़ी, किम जाटस ममः रातड़ी। कटि श्रागलि करू राचडी, चर कमलं की दासडी । ~ नलदवदंती रास २ देखो *रावदडी' (रू. भे.) रावण--देखो रावणा' (₹ू. भे.) उ०--१ श्रसुर मारि इंदजीत मेघ गहि रावण मारं) निसचर नीचा नाखि, सत्र इदत्तणा संघार । --पी. भ्र उ०--२ फरयौसकांम, भज्यौसरांम । कोईही कामि करां-करां नहीं कर्णौ, भट कर ही लेणौ चाहिजै । लार राख्यौडा कामां खातर मरती विरियां रावण ही मोकनरौ पिद्धतावौ करतौ मर्यौ 1 -- दसदोख रावणखंड, रावणंडां दैखो 'रांवशखंड' (रू. भे.) 241. द्यत्रत ~= मि णि म गगरैवीषरिं उ०--१ व्यान इनायत जोधपुर, वटौ राचणखंड । प्रयुत परमे पास्ररा, जंग मेन प्रचंड । ---रा. उ०--२ मानौ दृदीव्रेतौी रावणखडा, धाभ येतमी ग्रासायच"*। --रावचंद्रमेण गबा रावणरिष, रावणरिपुं -देखो 'रांवणरिपृ' (रू.भे.) (ह.ना.मा.) उ०्-नामि नाव चद्धियौ हं जगन्रप। रपे हवं डोन्‌ रावण-रिप ! ~" र्‌, रावणसिर-सं. पु--ददा की स्या । # (डि, को.) रावणा-सं. स्वी. -- एक जाति विदाप जिसे सदस्य राजा-महायजामों कैः यहां सेवा चाकरी क्रिया-करते थे । रावणारि- देष्यो ^र॑वशणारि' (<. भे.) रावणि-स. पु.--१ रावण का धृत्र, मेधन।द। २ देखो ^रावेण' (रू. भे.) राबणो-सं. ¶ु.- रावणा जाति का व्यक्ति । सावत-सं. प. (सं. राजपुत्र, प्रा राज-षृत्त] १ राजा, नृष। २ छटा राजा। उ०--सायेतां चुहड संमता, धररदेतां जोधा वन्धवतां । भाजीमगाह' सिरं गर्मतां, रांणो-रांणो मिटं रावतां। --गु. =. वं. ३ सामत । उ०--रहै किमि पासि भौ राखियां रावेतां । स्यामि रं कामि हवेत जिता सांवतां । --टा. का. ४ योद्धा, वीर, द्रूरवीर । उ०-१ दोनों भाई मेढा हवा ! राव जोधेजी कही कांघन तूं वडा रावतद्धे 1 --नपि सांखले री वारता उ०--२ तिल तिल जुधहुवौ सगां मृख तुर, चूण न सके वेहू करां सचप । रावत कमद्ट काज सिव रचियौ, सहसा श्रजजुख तण सषूप । --महाराम महू उ० --३ धिन वे रावत वीरपे, भागा रावतियांह । धारा म्रिर्यां म धरत, चखमुख चोट कियाह्‌ । --वां. दा. उ०--४ भट खग जवनं केवट वड माड । पांच हजार रावतां पाड । सु, प्र. ५. राजा महाराजाश्रं द्वारा सामंतोको दी जाने वाली एक पदवी) ६ एक व्यवसायिक जाति जिसका मख्य कायं दौने-पत्तल बनाना है, वारीदार । (मा. म.) ७ पति, प्रियतम उ०---दासी कुण विलमायौ पु, रावत नदीं स्नायौ न्नव तक वार्गो) -लौ. गी. रू. भे.-- रवत. राउत, राउत्ति, राउत्त, रावर, रावत्त । श्रत्पा.,- रवती, रावत्तियौ । रचितबर रावतबट- देखो "रावतवट' (रू. भे.) उ०--१ निगम निवांण तणाह्‌, नागद्रहा नर हर ज्युहीं । रावत- जट राह, विड श्ण खट प्रतापसी । --सूरायच टापरियो उ०--२ सेखावत्त रावतबट साजे, सतन वदादर समर सगाह्‌ । फौजां तणौ मुदी नह फिरियौ, गिरियौ बीच करं गजगाह्‌ । --केसरीर्सिघ सेखावत रौ गीत रावत्तरियां-देखो "रावत्रियां' (रू. भ.) (मा. म.) रावतरी-- सं. स्वी.--सोने व चांदी के ब्राभरूषणों मे लगाया जाने वाला जोड 1 रादतवंस-सं पू-- क्षत्रिय वंश । उ० - वंद पग रावलवंस विसुद्ध । सेवे पग चारण किल्नर सिद्ध । --ह्‌. र. राचतवट-सं. पु.- १ क्षत्रि, वीरत्व । उ०-- चदं रिण ॒जिके पृरजं रिणि चाचरि, सुजडे पिसणां पाडि निर । वीटांणा निके रहै रावतवट, माभी परवत मेर गिर्‌ । गु. रू. वं. २ शामन, सत्ता, हकूमत । * रू. भे.--राउतवट, रावतवट 1 रावतांणौ-सं. स्त्री.--राजपूत जाति फी स्वी, राजपूतानी । रू. भे.-रवतांणी, रावताई-सं. स्वी.--'रावत' नामक पदवी । उ०--तरं मेवाड़ पायौ राणा भ्रमरसिध नुं दीयौ । सगर नुं रावताई दीवी । पूरव मँ जागीरी दीवी । रू. भे.--रउताई, रवताई । --नंणसी रावताठौ-सं, पु. [सं. राजयएत्र, प्रा. राश्रपूत्त, अ्रप.-रावत +-श्राणो | योद्धा, वीर । उ०--दीषं भुजाई देव मे का, रणौ राणि रावताढा । भडा ट्व भाटकलठा भ्राठो पहर । --गु.रू.वं रू. भ.-रवताठ, रवताद्छौ, रिवताठ, रिवताठौ । रावतिया-देखो "रावत्रियां' (रू. भ.) रादत्तियौ-- देखो "रावतः (श्रल्पा.) (<. भे.) उ०--१ काकौ वारौ कूपंदे भाई भारतमल्ल । घोडौ - वांरं नव- लतखौ रावतियौ रिडम्ल 1 -- रिडमल्ल खावडिया री वाति उ०--२ रावत्तिया पग ॒रोपसी, वतलासी यह वाध, वौह्मा पाटा बांधा, ्राछौ हसी भ्राघ। --रत्रा. दा. रादती- सं. स्वी. -१ रावतटहोने की अ्रवस्थाया भाव । ` २ रावत को उपाधि, पदवी ) . ४१४६ क अ रावत्रियां रू. भे.-राउती, रातवेस- सं० पु०---१ राजा, नृप, राजाश्रो मे श्रेष्ठ । २ वीर योद्धा ! वीर सरोमणि 5० भे ०~रवतेस, रावत्तेस, रावत्त-- देखो "रावत" (रू० भे ०) उ०-१ श्वालौ' भालौ ऊत्लियां, रिण कालौ रावत्त । जुव वाली वेली जिहां, तेजाः सुजावत । रा. रू. उ०~ कै हवसी कन्नडा, केड पार्क फरीवर । के राजाके राव, केड्‌ रावत्त वहादर । -गु र<. वं. रावत्तस-- देखो ^रावतेस' (<. भे.) रावन्निया- सं. स्त्री, ब. व.-- लोक देवियों का एक समूह । चि. चि.~ इनके सम्बन्य मे एक ेतिहासिक कथा पार्ट जातीदहै, जो टस प्रकार हैः- प्रतिहारोके वंश में मंडोवर का भ्र॑तिम राजा राणा रूपडा हुभ्रा इससे तुर्कोने मंडोव्रर छीन लिया तव वह्‌ श्रपने दल-ल सहित जँसलमेर के गवि वारू ग्रौर चायणमें गया 1 वहां "्ुच' गाखाके भाटियो का शासन था । राणाने इन भारियों से ग्रपने लिये रहने की जगह मांगी श्रौर इसके वदले भाटिथों को ग्रपनी वेरियां व्याहने का प्रस्ताव किया | भारी इस पर सहमत हो गये तव राणाने १४ लड़कियों की सगाई भायियोंसे कर दी । जिनमे १ राणा को वेटी £ उसके भार्यो की तथा ७ लड- कियां भील व मेघवालोंकी थी । त्रव राणा ने भा्ि्योंसे दगा करने के लिये उन्हुं वरात लेकर बुलाया श्रौर पूरी वरात को एक वाड में ठहराया 1 उस वाङ्मे राणाने पहूलेसे ही वारूदकी सुरंगे चिदछादीथी। राणाने विवाह ्रादि की रस्म पूरी करने ~ कै लिये उन लडकियोक्ो भी उस वाङ्‌ भं भेज विया श्रौर रात को मौका पाकर सुरंगोमेश्राग लगा कर उन कुवारी लड़कियों सहित भारियों को जलाकर भस्म कर डाला | इन लडकियों ने मरते समय राणा को शाप दिया कि “तुमने हमको दाग लगाकर घोलेसे माराहै। ग्रतः तुमभीरेसे ही नष्टहो जाग्रोगे ।" एसा माना जाताहै किये लड़कियां देवगति को प्राप्त हुई शरीर कालान्तर में रुशोचे गांव के रावतसर तालाव से प्रगट होकर उन्दोने लोगों को परवचे दिये तथा “रावतरियां" नाम से प्रसिद्ध हुई । राजपूत व नीच जाति के लोग इनको मानते ह । इनके पुजारी भील होते है. गुडका मीठा दतिया जिते “लड़्कचछः' कहते हँ" तथा वकरा इनका भोग माना जाता है । रावत्रियाजी केथानमें सात सात खड़ी मूत्तिया ऊजली श्रौर “भेली” रावत्रियां की, श्रलग श्रलग खुदी हुई होती ह। ' इसका श्राशय यह है कि जो सात लड़कियां उज्जवल जाति की थीं वे “ऊजलियां” के नामसेतथा सात जो तीच जातिकौी थी वे ^मेलडियां” के नाममे प्रसिद्ध हई । ____ _-_~__-_-__~___________~______्‌्‌ रावनागां ४११० ऊजली रावत्रियां जो उज्वल श्रौर मेली रावेत्रियां नीचजाति के लोग-लुगार्दयों के सिर पर चढ़कर, वेलती, बोलत्ती ग्री वकरती' हं ) उपरक्त कथा का दतिहास में कोई पुष्ट प्रमाण नदीं पाया जाता । एसी दा में यह्‌ कथा ज्गश्रृति के प्रावार पर चलपड़ीदहै। एेसा प्रतीत होत्ता है । वास्तव में "रावचियां पौराणिकं लोकं देवियां हौ हे, जिनके विपय में विस्तृत त्रिवर्ण मावलि्यांमें दियाजा चुका है 1 देखे ^मावत्तियां' र. भे.--रावतरियां, रावति्यां रावनागां-सं. पू. [सं. नाग-राज | येप नाग । उ०-- युते पोठां भित लागा, नमे मस्तक रावनागां । महर थंभे गया मार्गा, तुरी वागा तांस । --र. ई. राचमारू-स. प.-- १ मरू प्रदेय का राजा, श्रधिपति । राटौड राजा। उ०--मोटा पह सहन रावमारू, इद्र दृहुत्थौ करं फिर री ) श्रम लोगो उपरा न राव, सुंदाठमा हिष्यई खीज । --चतरौ मोतीसर २ पति, प्रियतम । रावराज्‌ा-सं. पु--१ राजपुतान के कुष राजाप्रो की एक उपायि । उ०--रावराजा र ग्रमीर, करे सेवा जोड कर! श्रम कीव धर इती, सरां तोरां सर संभर। --सू. ध्र. २ जोधपुर के रागज्यकुल के उप्र व्यक्ति की उपाचिजो राजा की उपप्लि की संतान हो) ३ उक्त उपाधि धारी व्यक्ति। रावरो -देग्वौ "रावो (रू. भे.) - उश०-त्रादश्रो व्रिवाद को सवाद तै भहूयौ } रावरौ निनाद ॐ पाट्‌ ज्युं गयौ । --ॐ. का. पवक, रावल. पु, (मं. लाकुलि] {१ राजपुत्ाना कै कुदं "एजाश्रो की एकः उपाधि । । । वि. वि.--रावद्, नाथ-सम्प्रदाय' की एक वदी गाखा है। यह्‌ दारा वश्ठुतः 'ताकुलीय पाुपत सम्प्रदाय" की उत्तराधिकायै ह । प्राचीने काल में दुत प्रदेश (राजस्थान) प्र उक्त साकुतीय सम्प्र देय का श्रत्यधिक प्रमाव रहा । करई प्रसिद्ध राजवंग शुनके ्रनु- यायी ह गये । जिसमे (१)मेवाड के राजमुल-दसके श्रन्तमंत वप्पा- रावढ प्रसिद्ध रजा श्रा, जिसने यह्‌ उपाधि वारण की,जौ टस सम्प्रदाय फा श्रनुयाय्री होने की चौत्क्र है) (२) ग्राव के परमार । (३) जालौर के चौहान । (४) चुद्रवा (जैसलमेर) क मारी---दनमं राजा देवराज को योगी रतननाथ ने राजतिलक करव “रावट' उपाचिदीथी। (५) दसी प्रकार मालाणी फे मत्लीनाय ने भी रतरननाय से रवछ' उपाधि प्राप्तकी थी, त्यादि । वाद मँ यह उपाधि परम्परागत हो गई श्रीर्‌ राजवंश के राव "भीरी णी 0 वंशजो तथा कतिपय राजवंश वारा भी यह्‌ उपाधि चारसकी जाने लगी । श्रतः मूल ङ्प मे यह्‌ एक साम्ध्रदायिक उयाधिदटै, जो राजव के साथ लगाते रने से काचन्तर मेँ यास्क (राजा) के लिये भी एक उपावि वन गर । (६) कच्छ व जामनगर के जाडेचा भादियों कौ उपाधि भी रावढदहै। २ उक्त उपाधिवारी राजा या शासकं । उ०-१ जोगप्रौ जगतरसिवरौवेटौ्ै वचुवर्िष रौ दयोटौ भाद तिसू जसम प्रखसिध पायौ ¦ वड परतापीक रवद हवी । वरस ४० राज किय । --नणसी उरते सौ लाख समापिया, रावघठ लालच ष्ठ । सांस सीचांणा जिस, जेथ दुखं जढठदृह --वां. दा. उ०--३ जत देधी जतो' जागहढ, उदियाराम तणौ दद प्राग । मिखयड़ छात कलौ दढ माह, रावद्छं प्रणी थयौ कुठ रहि । -- रा. रू. उ०-४ कमि षणाल्लीरांमना, कीया सखी हृखमंत रावत । तिमहु ली रवद तणा, करस्युं काम ग्र्नत रावत । --प, च. चौ. ३ नाय-सम्ध्रदाय की राव शछाखा व इस्त शाखा कायोगीयां साधु | € उ०--१ वाईम्हारं नैना रावद्ट भेव । व स्वामी वहो जयधा, ग्रव ही श्रंजन रेख । --मीरां उ०--\ देव कहै राव पृष्छावी । मौय भ्रावै नहीं श्रवरको दावौ । निचिम्मै जोगी नं संन्यासीं, मिद्धिम्यै तापस तीरथवासी ) | --जांभौ ४ भिक्षा-चृत्ति करते वाते जोगी जो नाद वजा कर, तथा विभिन्न वोचियां बोल कर भिक्षा-तरृत्ति करते हँ । (मा. म.) | स. राजकु, प्रा. राश्रज्ल] ५ चारणो के पाचको का एक व या जाति) उ०--? वेस्या सुख भोगे पति वरता व्यावी, एर घं ई्वर री ईस्वरता श्रावी । सावछ भुर साधक सुख सूं नह सोया, सकुनीं सकुनाक्छ रावद्ट बकं रोया । --ऊ. का. वि. वि.---इस जाति या वर्गं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दतिहास भिलता है । इस जाति के व्यक्ति बरूनागढ की ` चूडासभा यादव णाखाकेक्षव्रियदहै ग्रौरे महाराज नौव्ख की संतान 1 एक वार्‌ जुनोगढ कै नरेश राव मण्डलिक ने चारणा जातिकी नागवाई, जो देवि का श्रवतार मानी जाती शी, की पुत्रवधुको कुदष्टि से देखा । इस पर नागवार्ईने कूद होकर रावं माण्डलिक को पुमत्वहीन होने का गाप दिय श्रीर समूची चूडासमा आखा को राज्यच्युत कर दिया । इस शापे ग्रसित होने पर मांडतिकः ने नागवाट्‌ से बहुत कषमा-याचना व ग्रनुनय-विनय की! तव देवी ने उसको नपूंसत्व से मुक्त कर दिया ग्रौर कहा कि तेरी संतान चारण की याचता करेगी भ्रौर उनकफौ दिफानि के लिये, उनके रावद्टर्‌ ` 2९५९ वट्टो ~~~ सम्मुख गाना-वजाना व सेल तमाशा करेगी । रतः तब से वे चारणो के याचक हुए । | रावल प्रायः चारणो के भ्रतिरिक्त किसी अन्यके सामने तमाशा नहीं करते रौर यदि कारणवद्य करना पडे तो वहां किमी चारणा की उपस्थिति अ्निवायं है । ६ उक्त जाति का व्यक्ति । ७ प्रवान-सरदार । ८ वद्रीनारायण के प्रधान पडे की उपाधि । & मथुरा के निकट एक गांव का नाम जहां राधिका का जन्म हम्राथा। १० एक ब्रदिण॒ वं । रू. भ.--राउठ, राउल । रावदइ-देखो "रावलौ' (रू. भे.) उ०--दासी सरिसा भिणां हंसीउ । मून राबढड तु मती जाद । --ची. दे, रावठगन-सं. पु. |स. राजकुल --गणख] १ राज परिवारके लोग, उ०--ताहसं राठी कहयौ--ग्रौ लड़को छचधारी राजा हुसी । ताहरां ॐ रावल्गनभेठौहुवौ। --नणसी २ वह मोहल्ला या स्थान जहां राजाया जागीरदार के भाई ब्रन्धुश्रो के निवास स्थान हौं। रावासा-सं. पु. किमी सगे सम्बन्वियो, कीस्त्री माताया वेटी के निये एकं श्रादर युक्तं सम्बोधन । (चारण) रावद्धा- सर्व.-- श्रापके । उ०~ वते हूं सुरौ रावछा पाव वदू) श्री नाव उत्रास्वा ग्राव द | व ५. म्र. रावलछाई- सं० स््री-१ रावल हीने की श्रवस्थाया सवि! २ रावल की पदवी । उ०-- पातसाह्‌ चढ लुद्रवा ऊपर प्रायौ । रावठल भोजदे वाज काम श्रायौ । पातसाह सारौ सहर लूटियौ 1 राव रौ घर भार जेल नं दियौ । जेमलमेर माधे टीकौ काढ राच दी 1 । --नगासी रावल्ि--देखो ^रावद्ी' (रू. भे.) उ०-- रावचि होक किनरे जाॐ, तुमो हिवडासे साज मीरांकैप्रभुश्रीरन कौ राखौ श्रवतो लाज । -मीरां रावचछियौ, रावलियौ--१ देखो "राव! (५) (ग्रता रू. भे.) उ० -१ श्र गांव महै रावचछिया रमत रमता हंता । सीवलां री साय रमत देखणा गयौ हतौ रर त वेका सुषियारदे नीसरी। -- नरसी उ०--२ रावल्िया रमत समै, मावडियौ ले मांग । तौ रतना पात्तर तणौ, सखरौ लावे सांग । --वां. दा. ३ एक साहुकार री हवेली मंहृढै रावलियां तमासौ मांडयौ जद साहुकार वर्यौ । इण ठाम तमासौ मत करौ । --भि. द्र. २ देखो ^रावलौ' (्रत्पा., ₹. भे.) उ०्-सुमररौ जीम्हारा धरर राजा,सासुजी द्रुकरांणी जी । सुसरौ जी रौ हुकम कोटड़चां चालं, सास रौ रावद्ियां जी । --लो. गी. वि.- १ ठाकर (सागन्त) की, ठाकुर सम्बन्धी । <. भे.-र वलि, रावटं -सं. पु---१ मध्यम पुरुप के लिए प्रयुक्त होने वाना प्रदर सूचकं सर्वनाम शब्द । २ राजा, ठाकुर या जागीरदार । उ०-डांग नीची नांख नँ साफौ रावढं पगमे धर नं ऊभौ वहैगौ । --रातवासौ ३ ग्रन्तःपुर, जनानी उ्यौटी सर्व.--्राप, श्रीमान्‌ । वि.--्रापके । उ०-१ राणी करै-रावटठं गंगारि जाति काड करणी छे नहीं, रावटं विमाह्‌ कर्णौ च) --चौवोली उ०--२ ताहरां राखायत एक दिन लाखंजी नूं पु्धियौ-मांमाजी पराज ठाकुरः रीक्रपा कर ग्रर रावठं सोह थोक छं श्र धरती वरकरारद्छै। -नणसी राज दरवार मे, श्रन्तःपुर । ह रावढ्ोत-सं. पु.-१ भाटी राजपूतों को एक उप शावा । २ ट्सदउपश्ाखा काव्यक्ति) उ०-रावठोत परतापसी, उरजनौत श्रजत्रेस' जादव जंगां जीपवा संगां धया नरेस । वि रावच्छी, रावलौ-सं. पु. [सं. राजकुल] १ किसी राजा, ठाकुर या जागीरदार का महल, राजमहल । राज गृह । उ०--सिरदारां रो पणी उतरग्यौ। थर थर ध्रुजता, सिसका- सियां भरता नागा-तड्ग रावदां कानी वहीर च्िया । --फुलवाड़ी २ राज-दरवार । | उ०--वन कारण वांवव वदे, धन तौड़ाव नेह रे। धन रोकार्व रावल, धन छिदावं देह रे । ३ श्रन्तः पुर, रनिवसि। उ०--१ नृ दरुकरांणीसा रावं पग घरवा, श्रांणंद रा करणा रया । ॥ -दसदोख उ०~ २ व्पारयास्भू ६ रभाषपर्‌ मार्‌ ज्यादा पड़ी उण री चीखां ठेट रावन्म मे मुरीजी जद दया, ठकुरंणी हकम देय स उणानि द्डाय दी। १ थ ॥ि | -रातवासो उ =. चात री सुरघुर बवांशियौ सुरी तौ वौ माय रावा मे सीधौो ठकरांणीसा रे पाश्ती गियौ | -फुलवाड़ी -जयर्वाणी रवगाह्य १९९ । च ~ ~~~ ~~ ~ ~~ --~ ~~~ वि०~ प्रापिका । जादर पोती पट सारली श्रगहल नेत्र रवेर्ड -सांकारावछं म्वी उ०-१ कयन किया सो कवरजी सिर माये घरम्यां ।म्हे तो हुकमी फुल पगर कणावीरउं पोत्तिडं'* ˆ“ ~व, स, राच्या कृटम्यौ सौ कम्स्यां 1 | -पनां देयो !सव' (ब्रत्पा., 5. भे.) उ०-२ नदधसजा श्रादर दियउ, जठ राजवियां जोग । देस वास उ०-राजा येद राण सुणौ श्रन रवौ, , ^रतन' कटै भड़ भ्रमर मति रावद्टा, रह घोड़ा श्रद्‌ लोग 1 टो. मा. रहावौ 1 गाटवरा मत्त मान गमावौ, खत्री धरम वांट धन खावौ | उ०-३ महाराज, पटसी लीजो, म्डां मे तकमीर पड़ी, मोड़ श्राय -- कूपावत रतनसिह्‌ ग्द माफ कौज । ह रावो चाकर ूंचरुक पद, तकपीर माफ | रास सं. पु. [सं०] १ वह्‌ नत्य. लीला या क्रीड़ा जौ श्री हृष्ण करगी । --पलकः दरियावे री यात ने ब्रज को गोपिकाश्रों के साथ मिसे कर किया था! उ०-४ तांहरां सोदी कट, राजि पारी षौ, हतौ राट दरसण ०-४ तारां सोढ क, र टं त ए उ०-- राधिका कस्ण रा व्रदाचन व्रज विलास । गिनका गजे विनां म्रन नदरी खांवती। तांहरां श्रोदण रौ पीतांवर दीन्हौ। ग्रजामेल, गीध पद गता । --ऊ. का. -लाखा पफूलाणी रो वात ् . ~. । २ मौपलोगो की एक क्रीड़ा, जिसमे वे वृत्ताकार होकर नाच- २. ठाकृर्‌ साहव, सरकारी । । ह ष (> भूत गान करते ह । (प्राचीन) उ०-१ राचद्छौ साय फटौघी प्रायौ, भाः वदि १२ फलोवीधादू ध # ३ उक्त श्रादगयसेही `वृत्ताकार होकर किया जाने वाला नाच- कीयो । --नणसी ध गान । । उ०--२ भावी उणा वगत कोट में गियीड़ौ हो । राद्टा घोड़ा- क धिया ‰ उ०--१ विन करताल उफ विन तुरा, पग विन पातरि नाचे। ध्ोदियां री कादियां र टेका-ट्रका देव॒ माष । --फुलवाडी श्रखंड मडल में रास रच्यौ है, नांह मेरा मन राच--श्रनुभववांरी ङ. भे.-- राउर, राठरी, रावल । र त ध उ०--२ पदिमनी हस्तिनी चित्रणी नारी लीलावती रमरई मुरारि रावसाहुय-सं. पू--त्रिटि यासन कालमें र्द वश्रमीरसोको डी जाने सोल सहस वनद मिली श्रानस्द, रातत भासि गाई मोव्यद। वाती एक उपाचि । | | -- प्राचीन फागु-सं्‌ सचां राव-पं. पु. राजाश्रों का सजा, सम्राट । उ०--३ साता दीप रास रमं सातं धरूघरिया वमकांणी । वीर रावा-सं. स्प्री.- गायों के रंभने का दाब्द, पुकार । ` परदंग वजावं डरू, गावं भ्रन्नत वांणी | --राघवदास भादी ४ नृत्य । उ०--फरं साद सोषु गई प्राज करनी कठ, चोर गार्यां लिया जाय चौटे । केरा चापड़ा घरे रावा कर, देव रावां तणी मदत्त दौई । --गोपीनाय गाडण रावाई-मं. म्य्री.-१ "सवः या राजादहोने की श्रवस्या या भाव) ५ सेल, क्रीड़ा, अभिनय । उ०--कदल्टी चील सीप पिक केरी, नृपति प्रजादि श्रासं बहुतेरी । वणी धरा नव उच्छव वारा, प्रतिनिसं रास विलास श्रपारा। । रा, 5: उ०-२ भीमश्रा वत्त मुणी तरे श्रापरौ साथे जाय साहवी ६ हास-विलास । सखी । माल विन रौ धरी हुवौ । रावा रौ टीकौ कादियौ । ७ काव्य] --नणमी ६ कोलाहल, शौर गुच । २ राव कापट या उपावि। १० जोर की च्वनिया नन्द । उ०--परद्ध म्राप चदन पृछ गयौ, तरं रागांगदे री यैर कद्चौ- ११ वाणी । धारेचारौ मानत्तरे करी । तर राव केल्दण कल्यौ--प्राज तौ श्वर्ई १२ तेरह मात्रा्रों का एकः तात्तं । (संगीत) गा नामनर रौ मोटूरत क्र, सवारे मीजौ सासतर फरस्यां। (सं. रना, रदिम, प्रा°रम्सी, श्रप. रस्सि,]--१३.वागटोर, लगाम, --नणसी चाग । ३ धामन, द्रुगृमत । राज्य । । । उ०-!१ घोटा री राप्न फणकारी के धोडौ तौ पारी भूलरा रे उल गाटीद्‌ नूरजमनं त्रिराजते घमां दही च्यर्‌ किया, विशा माय कंदग्यौ | --फुतवादट्ी गौत रायाई्‌ पातमाद्‌ कलान्‌ दीघी । --रायसंद्रमेणा री वात उ०--२ रातां फणाकारतां ई रथ रा घोटा श्रागे विया 1 गवाम. स्थो, मं. दरावनी] पदिविमी पडवि या पाक्ि्नान सें वह्ने | --फुलवादी पाठी पदः मद्री । | १ वनो को गांधने कीं रस्सी। रविटठ-मं. पू----एवः प्रार्‌ का वेम्ध। उ०--मूतढछ नाधा सर नासां गरण॒कारी । फुरणी दू'वातां रासा उ पटुत, हीरवदि गजवटि नीलवटि मेवप्रीयदि मोवनवदधि| करुकार 1 -ॐ० का रासचफर ४१५३ रासायमिफ इन्द्राज किया जाता दह) ३ उक्तं प्रपत्र कं प्राघार पर समय-ममय परे मिलने चाना सामान या सामान को निदिचत मात्रा । ४ खाने-पीने का सामान, रसदं 1 रासना -देग्वो "रास्ना" (रू. भे.) उ०-रामोड़ी नड्‌ रासना, रीगणिणी सद्र-जटाप । राग रतांजणि रमंडी, रनिवनि रंग वराय । --मा. कां. प्र. १५ घोडे की चाल विन्ेप | १६ रस्सी, डोरी । १७ जंजीर, शुखंला १८ प्रत्यंचा, डोर । उ०-- दसत चाप श्रं रास दसत्ता, महाप्रवढ नदि सुजढ भमत्तां । वरपति गोठ हसरोढ तोप धुरि, पूटि पहाड़ दुरंग तारापुरि । -मू.प्रः १९ तिलो को फटकार कर निकाला जाने वाला भूमा । [सं. रालि] २० खलिहन में श्रनाज का दरर। २१ बारह्‌की सख्या । # २२ देखो "रासि" (रू.भे.) उ० --१ भख पृहुचावं भरुधरौ, श्रजगर र श्रनय्यास 1 किम भरलौ सतां “क्रिसन' सेभरतां सुख रास । --र.ज. प्र. उ०--२ रसा सुर सूगति मे सुख रास, दसा ्िठगौ गरु जेमलदाम । सदा चित्त चन हरी पद सेव, दया कर सेन करी गुर्देव 1 रासनित्य-स. पु. सं. रास-नुत्य | एक प्रकार्‌ का नृत्य व्रिगेप | वि० चि०--देखो "रात रासपुनम, रात्षपुरणिमा-स, स्वरी. (सं. रासपुशिमा] मार्गभीपं मास को पूखिमा! एसा मानाजाताहै कि श्रीकृष्ण ने इसी दिन रास क्रीड़ा प्रारमकी थी। रासच, रासम~-स. प. [सं. रासभ] (रकी. रासभणी) गधा, गरदैम । [काकवत णपिर प 9 --ऊ का. रू. भे.-रासव, रासिवि। उ ०-३ नाच गाय कर्‌ निलजता, गर्च वप भूगरया र्प्च । मार रासमणो-सं. स्थी, --गधी, गदही निजारा मोहियौ, हज मरे दास । --र्वां. दा. । ४ त हि हज भमर द रसिमूमि-स. स्वी. [सं.] रासक्रीडा करने का स्थान | रू. भे.--र्‌ । । र ध रास्मडउव्-सं. पु. [सं. रास-मण्डल ] १ वह स्थान जहा पर श्रीङृष्ठा ॐ त (ल भ) रामक्रोडा किया करतेथे। रासचक्र ~ देम्षौी शसामिचक्र (रू. भे. ध ५ २ रासक्रीडा करने वालों का समूह्‌ । रासडलो -देसो "रास! (ग्रत्पा.,स्‌. भे.) ३ रासश्ीडा करने वालो का अभिनय । रासतत-स. स्त्री. - रियासत, रज्य । चददिणी रौ राति री चलीनाइदै) --रा.सा.सं. राक्षतो-स. स्त्री मित्रता, दोस्ती । रासतीक--वि०- मित्रता करने वाला । | रासट-सं. पृ. [सं. राष्ट्‌ ] देश, मृतक, राष्ट ! (ह.ना. मा.) | उ०--साथं सदैलियां री टोढी यो रासमंख्ठ रमणा र ग्रौचाह | | रासमंडट्री-सं. स्त्री. --रास क्रीडा करने वालों का ममाज, टोली या 1 | संघ । रातौ - देखो "याम्तौ' (षट. भे | ं ई ॑ तौ" ( ध ) ता रासरमण-सं. पु. [सं.] १ ईव्वर, परमेव्वर। (ह्‌. नां. मा.) रासयन्ट-सं. पु. [सं. रास ~+ स्थल] १ रंगकशासा, नृत्य गाला । २ श्रीकृष्ण । - २ क्रीडा स्थल) उ० - पुलिगग॒ रविसुता फहरावजं पीतपट, श्रावं रासथघय त्रजनाथ प्राथ । कान कवार विहरि गी ब्रज कजरी, सुभ री कीजिये | लाइली साथ) --वा दा. रासषारी-सं. प.-[सं. रास धारिन्‌] १ श्रीकृप्ण । २ श्रीकृष्ण की रासलीला का श्रभिनय करने बाला व्यक्ति । रासलीला-सं. स्त्री. [सं.] १ वह्‌ नृत्य, ्रभिनयया क्रीड़ा जो श्रीकृप्रा ने व्रजकीगोपियौंकेसंगमेंकीथी। | २ उक्तके श्राधार पर किया जाने वाला श्रभिनय या नाटक । | ससव-देखो 'रासभ' (5. मे.) | उ०-- रास पुर्‌ पलांण कर कोई हसत्त वंधावे ! । --केसौदास गाडसा रासन-सं. पु.--१ देश में खाद्य पदार्थो की मात्रा सीमित हीने की दशा | रासविलास-सं. पु. [सं.] रासक्रीडा । मेप्रता को उचित दामों पर उचित मात्रामें वे पदार्थं उपलन्ध | रासविहारी-सं. पु. [सं.] १ श्रीकृष्ण । कराने के लिये, सरकारद्रारा कीजने वाली व्यवस्था! वितरण २ ईदवर, प्रमेदवर । प्रणाली । (इसी प्रकार प्रन्य पदां भी जौ देनिक उपयोगके हों 1} | रसायण, रासायन--वि. [सं. रासायन] रसायन का या रसायनं २ उक्त व्यवस्था के श्रन्तर्गत, सरकार हारा प्रव्येक परिवारको दिया सम्बन्धी । जाने वाला एक प्रपत्र (काढ), जिसमें परिवार के सदस्यों को | रास्तायनिक-वि. [सं.] १ रसायन शास्र का, रसायन शास्त्र सम्बन्धी संस्था व नाम लिवे होति है श्रौर सामान के वितरणं के समय उसमें २ रसायन शास्त्रका ज्ञाता) ४१५४ शास्ट रातति ~~ ~~ ~~ ~~~ ~ ~ ~ ~ ~ ~= ~ रसितं, स्वी. [सं. राधि] १ किसी वस्तु का देर, समूह्‌, पज, राधि । उपरोधि पंडव ए रास रसाउलु ए । --सालिभद्र भूरि संग्रह्‌ । रासेस्वरी- सं. स्त्री. [सं. रासेदवरी| राधा! उ०--सौवन ए रासि करेवि वंधव ्रागलिड गिरणं ए ' ॥ रासौ-सं. पु.--१ वह प्यमय रचना या. काव्य जिसमें युद्धौ तथा ~ सालिभद्र सूर त . २ कोई रेसी सष्या जिसके लिये जोड, बाकी, गुणा, भाग किया वरत व विस्तृत क टौ गया हो| (गरित्त) २ उक्त काव्यका पुस्तक याग्र॑थ। ३ किसी का उत्तराधिकारी । ४ क्रान्ति वृत के वारह तारा-समूहं जो, मेष, वप, मिथुन, केक, सिह, कन्या, तुला, बरुदिचक, धन मकर, कम ॒ग्रीर्‌ मीन कह जाते ह (ज्योतिष) उ ०--दिन रात सम तुल रातति, दिन करसरकि प्मनुक्रमि सर्वरी । सिय जीत परति गुण परखि चखि, सुख सकस पि जिम सुदरी | --रा. षट. ५ वारहु की संस्या। #‰ रू. भे.-- रा", रासी । ६ देषो ^रास' (रू. भे.) उ०-१ श्रस्व चलाव्या मंत्र भणी, ते गरुड तणी गति चालि | वाहुक सज्ज धर्ईूनि विद्रु रासि भेद सू कालि) -नलस्यांन उ०-२ जुं सहरी श्रह नय रग जता, विसहर रासि कि ग्रलक २३ युद्ध, लडाई । उ०-उडकारा डाकणिं करे, राक्षस देवद रासौरे। सुडतणी माला रच, ऊमयापति उत्लासौ रे। --प, च. चौ. ४ तकरार, विवाद, फमट, वसेडा । ५ श्रव्यवस्था । उ०--नीं दाद-फरियाद श्र नीं कीं मुणवाई। दिन वीतं सौ वत्तौ। ग्रांघा पीं ने कुत्ता खावें । जवर रुदियार रासौ मचियौ । --फुलवाड़ी ६ उलभन, चक्कर, समस्या उ०--१ वापनं रोवती देवनं र्नन्यी ईमारी छती में मृडो घाल ने रोवण लाग्यौ) उणा नठानींपडीकेग्रो कोई रसौदटै। --रातवासौ उ०--२ लुगायां रौ चकचक खं राग वदलठग्यौ । है मावड़ी-एुक वक्र । वाली किरि वांकिया विराजं, चंद रथी ताटंक चक्र । ई उरियार रादोधणी ! कूर साचौ, कुण कूड़ौ] ग्री कांड - पेलि रासौ श्रौ कई कोतक ? कोई कठी न्हाटी, न कोई कटठीनं रािचन्र-सं. पु. [सं. रारि चक्र] १ मेष, वृष भ्रादि रादियों का चक्र न्दादी । --फुलवाड़ी या मंडल , (उयोतिप) ७ सेल, तमाशा, लीला । ^ २ ग्रहोके चलने का मागं या चक्र । उ०-? महारांणी रापग तौ वारणा मार्थं ई चिपर्या। वा र. भे.--रासचक्र । चोली बोली ग्रांस्यां फाडती श्रौ रासौदेती री! ~ फुलवाड़ी उ ०--२ ठाकरसा कीं कंवणा लागा तौ पेठ ठीमर वणन कहयौ- श्रा वात किणी रं सांमी चौडं नीं करणी चादृ) पांचवं कान ई. भराक पड़गी तौ रासौ विगड़ जवेला । --फुलवाड़ी ८ ठग । उ०--१ जे राजा रौ मूंडी मौषी री गती मेँ ्रजवं तो दुनिया रौ राक्षौ ई विगड़ जावैला । --फूलवाद़ी उ० -२ प्रीय कटपिप्रा नीं त्रादकछ वरतैना । नीं वीजचछ्ियां पठकेना । नीं सूरज उगला श्र नीं चाँद । कृदरत रौ सगन्टौ रासौ ई परवार जाला । -- फुलवादी रू. भे.-- रासु । राष्ट, रास्टृ-सं. पुः [सं. राष्ट] १ राज्य, साभ्राज्य । रासिनांम-सं. पू. [सं. रारि-नामन्‌] किसी शिशुके जन्मके समयकी रारि के श्रनुसार होने वाला नाम । (फलितं ज्योतिष) रात्तिप-सं. पु. [सं. रालिप] किमी रानि का श्रधिपति देवता । ` रातिवि-देशखो "रासभः (5. भे.) (ह्‌. नां. मा.) रातिमाग-सं. पु. [सं. राक्षिभाग| ज्योतिष में किसी राणिकाभाग या म्रंश। रासिमोग-सं. पु. [सं. राध्ि-भोग] विमी ग्रह्‌ काकिमरी राथिमें कुच फाल तक रहने की श्रवस्या । (ज्योनिप) रासी-देमो 'रासि' (रू. भे.) उ०्-दूवमं रोधसीधौमे खासी, कसगीज्यूं हुगी जांणौ. उघड्गी रासी । --दसरदोख „ 1 उ०-स्वास पासवान क्रपापात्र भ्रत्य राष्ट भर । युधर युचाघठ सभ्य सवको सुहायौ तू । ---ऊ. का. २वह्‌क्षेत्र या भ्रू भाग जिसमे एक सी भौगोलिक स्थिति. तथा जिसमे वसने वते लोगों कौ भाप, सरकरति, धमे, तथा रीति-रिवाज एक से हो । देल, मल्क, ने णन ! # [ रासोक-वि.माधारण, मामूली । राभू--देमो “रसौ' (रू. भे.) उ०--पुनिम पगमूिद सानिभद्रए सूरिहि नींपीउणएु । देवचंद्र साषटकूटं [० 0 २111।11 का कका माक णीषापिषरगीरििषपरिषपपिषयषगषाष [न क ---~“ २३ देश्च, मुल्क । (भ्र. मा.) (समभा) ४ किसी एक ही लान या शासन विघानके श्रवीन रहने वे लोगों का समूह्‌ ५ देराव्यापी वाघा, उपद्रव, ईत्ति । ६ पुरुरवा के वंगज काशीराजा का पत्र एक राजा । रू. भे.--रदु । रास्टकूट-सं. पु. [सं. राष्टकूट | एक भेत्रिय राजवंश, राठोड । उ०--प्रतिहार लव्वक रास्टकूट सक करवट कारट पाल चादिल "वती त. सू. रस्ट्पत्ति-सं. पु. [सं. राष्ट्पति] प्रजातन्त्रात्मक या संवानिक प्रणाली के श्रन्तगते किसी देश का सर्वेच्चि गास्रक । रास्ट्पाठ-सं. पु. [सं. रण्टूपालक] १ राजा 1. २ कसरका एक भाई) रास्ट्भगी-सं. पु. [सं. राष्ट भंगी] वह्‌ घोडा लिप्की पीठ पर भंवरी (चक्र) हो रास्ट्भेद-सं. पू. [सं राष्ट भेद] प्राचीन भारत की एक राजनीति, जिसके द्वारा चत्र राजा के राज्य मे विद्रोह करवाया जातादे) र्टृवासी-सं. पू. [सं. राष्ट वासिन्‌] १ देख का निवासी, देववासी । २ परदेशी । रास्ट्‌ विप्लव-सं. पु. [म. राष्ट्र चिप्लव] किमी देघमे होने वाला चिद्रोहू, गदर, वलवा । रस्टीय-वि. [सं. राष्ट्रीय] राष्ट का, राष्ट सम्वन्धी । रास्तागी र-सं. पु --रास्ते पर चनने वाला, राहमीर्‌, पथिक । र. भे.--रस्तागीर रास्नौ-सं- पु. [फा. रास्तः] १ मागे, पथ, राह । मुदहा०-१ राम्ती करणी मार्ग या पश्र या मंजिनं पूरी होना, मजिल तय होना, यात्रा का समय भ्रासानी से पूरा हीना। २ राम्तौ काटणौन्=्याम्ता पार्‌ करना, मंजिल तय करना। यात्रा पूरी करना। ३ रास्ती देखणो=-द्तजार्‌ करना, रास्ते चलं पड़ना । ४ राम्तौ पकड़ी = रास्ते चलना, कही चले जाना! ५ रास्तौ वताणौ जाने के लिये कटुना, सही माग वतना, माम गेन करना । ६ राम्तै लाणौ उचित मागे पर चलने का कहना, सुधारना । २ परपरा, रीति, प्रथा । ३ तरकीव, उपाय, तरीका 1 =, भे.--- रसती, रमत्तौ, रस्तौ, रासतौ । रास्ना-सं. स्त्री. [सं.] १ गंधनाकुली नामकः काष्ट श्रौषधि विदेप। ४१५१५ रह्‌ २ रद्र की प्रधान पत्नी रू. भे.- राना 1 रहस. स्वी. [फा.] १ मागे, रास्ता, पथ । उ०-१ पद्यं सोरभ पातसाहजी रा डरा हुवा । तद राह माहि सी क्वरजी जाय पातसाहूजी र पावे लागा । --र्नणसी उ०--२ नहीं गया मांच मुवा, रविमंडठ र राहु । जु मुवा र्ण मं जिके, गतप॑चमी गयाह्‌ । --वां. दा. २ परपरा, प्रथा, रीति-रिवाज, कायदा । उ०-१ साह ब्द श्रसाह्‌, चाहु दाह तं सहयौ । राहु छोड श्रहा त्‌ कुराह क्यूं गयो। --ॐ. का. उ०-२ जदीवेग्रोरथासु तौ श्रपिके घरां ऊटि गया श्रम्‌ कुभार- कुमारी लड़का तीनू रोते है । जदी राहि क्या, रे ये काहा हुवा ? इतनी वार तौ सादी होती थी ग्रु अ्रवै येह रो लगा । सो इनके येह ई राह होयगा । मेढ कूं रों होयगे । त | --राहव साहब री वात ३ धामिक सम्प्रदाय, पंथ । उ०--१ में राहु निभाह॒ कज, दिल्ली अ्रौरंगसाह्‌ । ज्युं सामद्र ग्रजादसू, यूं रहियौ खम दाह । --रा. रू. उ०--२ फिरग प्रढेः जठ फंलियौ, तज दृह राहां टेक । पान प्रख-वड 'पदम' रौ, ऊचौ रहियौ एक 1 --राघोदास साद उ०--३ करवा एक राह मन कीघौ । लेख प्रमांण घेख व्रत लीघौ । -- रा. रू, ४ धर्म, कर्तव्य । ०-- १ 'जगतसी' श्रमरसी' 'उदसी' जेहवौ, दछातपत केम कुठ सह्‌ छाड । रण सीसोदियौ टेक भाले रै, एक पतसाह सुं कंध ग्राड । -- गोविद वारहू उ०--२ केटरि' किये सांभढौ, ए खत्रीपण राह । बोल न जाए सूरिमा, काया जाद्‌ त जाह । गू. छ. काय, केम | उ०--ग्राकास मे खेती करणी प्रसंभव, भ्राकास मे चेती करने बौज धरती मे वावणौ उलटौ राह छै । --वी. स. री ६ प्रतीक्षा, इंतजार | उ५--{ तनकात्यागू कापड़ा जी, ऊगंते परभात। खडी जोवती राहुमें जी, सतगुरू पो ग्राय। --मीरा उ०--२ हुं तः जोऊ जोऊं रामजी री राहु । कदतौ श्रावेला स्वामी सांवरौ । ७ प्राया, उम्मीद । ८ प्रयत, यत्न, कोशिन । ६ युक्ति, तरकीव, उपाय । १० तरह, भांति, प्रकार । उ०--१ (राजीः भिटृत सूरिमा यह । विसनावत्त सीहूकः राह । -गी. रा. सिधु. (1 - हर ४१५६ . राह्रीत उ०--२ घोर धमंकी परां छोनी तदढ छाया । रंग विरगे साहू के गजं गहु लगाया --वे, भा. ११ तौर, तरीक्रा, ढंग । १२ मस्तक, सिर । १३ घोडे की एक चाल विशेष । रू. भे.-रह्‌, रा, श्रत्पा.+-राहडी, मह्‌, राहडी, १४ देखो "राहु" (रू. भे.) (श्र. मा.) उ०-१ पृणं निञ्रुम श्ररज मत प्राजौ। सनि रवि राहु फेत दन साजो । --सू. प्र. उ०--२ खड़ौ लांगड़ौ वीर वीरायि बेतू। करं रागड़ां छागड़ं सत्‌ कैत । --मे. म. उ०-३ ग्रतर दीसइ एव्‌, किहां चद्रमा किहं राहु रे, प्रतर दीस एवद्‌ ्राकं छाया ब्रन छह रे --नटदवदती रास राहसर्च-सं. पू.--किसी यात्रा में जाते समयमागेमेंहोने वाला व्यय । । । राहगीर-सं. पु. [फा.] रस्ते चलने वाला पथिक, राही, वात्र, मुसाफिर 1 राहुड-सं. स्नी--- १ सव्या, राम । उ०--पद्चै प्रोष्ठ रांणी दकार । पधं राहृड़ वेका ताईं मांह तेजसी वासे हुवौ श्रायौ । --नरासी सं. पू.--२ भारी वंशेको एक शाखा । राहडी-स. स्त्री. - १ रस्सी, डोरी, रज्जु । उ०--१ दोन्‌ धरणियां नै राहड्यां सूं वांघ काठा जरू करचा । -फएलवाड़ी उ०--२ म्र कोई टोर-डांगर तौ कौनीं जकौ म्हनं राहडी थमाय दूजा रे लारे करौ । -फुलवाडी मट्‌.-राहडौ । २ देखो ‹राह' (म्रत्पा., ₹€. भे.) राहडोत-सं. पु.--राहड' राखा का भाटी राजपुन्‌ । रहर --१ रह्‌" (मह्‌. र. भे.) उ०--ग्रद्गा श्रचगा गांवडा, करडा करटा कोस | लूश्रां रढ्क्या राहृडा, पंथी कुण नं दोस । --चलू. २ देखो राहडी' (मह. <. भे.) राहिचक, राहचकौ, राहचक्र-सं. पू.--युद्र, लडाई । उ०--१ मुहणोत सुंदर्दास जेमदोत गांव कवद्धं सीध सींवटां रा श्रादमी कट पंचमं जणा मारिया, पचीस सती हर्द । वडौ राह्चक हुवौ । | --वां. दा. स्यात उ०--२ याज फोजा गजां वीच लोकां वकी, हुवकं ऊव्रकां कत हाकौ हको । “जसौ' ने कनि" जगमाल पीयौ' जिकर । चोट होढी द हुवा सूक राह्चफे । --कानिसिह सक्तावत रौ गीत रू, भे. - राहाचरक) राहाचरक्क । राहजनी-सं. स्त्रीः [फा.] साह चलते पथिको कोचरुटने कीक्रियाया भाव, चुट-खसोट, वटमारी । । राहणो-सं. ¶.-- परिग्रह्‌, दरयारी । उ०-१ राणौ वातां यु कटर लागौ, जो प्रासी चौक्सके नही तदउण रं मान दनि र ग्रहसांण सूं दतरी श्रोती प्रोहित राख गयौ, "जो कुंवरसी जीरीव्सलगां तौ हर भांत ्नासी ।' वाकी सारौ सहर देस राहणो वरजणामें छै । -कुवरसी सखिला री वारता उ०-२ कवर रा मोहलां सिखाव दियौ। वीजौ पर कामदां साहुकासं राज र राहो श्रमरावां ठकुरां सारां वाई दी । --कुंवरसी सांखला री वार्ता रहण, राहवो-क्रि- स.--१ युद्ध करना, लड़ाई करना । २ मारना, सहार करना । ३ उदट्‌ड पदुको ठीक करना) राहत-सं. स्वी. [श्र.] चन, श्राराम, सुख । राहदार~वि.- राह नामक चाल से चलने वाला । (धडा) उ०--१ रांणी वदं राहदार धड़े चढी थकी नरसधरी पण म्प्ाह कर । --राजा नर्षिघ री वात उ०--२ एेवियां म लागति उदार्‌ 1 दूति तीर वेग के राहुूदार। --सू. प्र. सं. पु.--[फा.] १ चौकीदार, प्रहरी । | २ रस्तेपरभ्रामैजने वाने से कर वभ्ुल करने वाला व्यक्ति) राहदारो-सं. स्थी --१ चौकीदारी। २ रहं पर श्राने-जाने वालोसे कर वसूल करने की क्रिया) रू. भे.- रादारी । राहरवधो-सं. स्त्री. -विचार-विमर्न, सनाह-मशत्रिरा । उ०-पञ्यं जिण जोध पौकरार सगल पड़ी, धरं नहीं श्ररज पत्ति साह धीटौ राहबधौ हृद्‌ रलं कों रोक, देवं जसवंत रौ साय दील । --ध. व. ग्र. राहूवारी-देखो ^रवारी' (ङ. भे.) राहुवेधी-देखो (राहवेवी' (रू. भे.) उ०--१ वीजौ मांएस रहवेधी दै । जगे सू थानं रात-दिन ध्रचौ हयेसी । --नापे सांलठ री वारता उ०--२ महाराजा वखतत्सिह्‌ वडी बुद्धिमान राजा थी । राहुवेधी थौ । साम, दाम, दंड, भेद चारू वतमें निपुण धौ । -मारवाड रा श्रमरावां री वारता राहरीत, राहरीति-सं. स्त्री--१ परपर, प्रथा, रूढी, रिवाज । २ व्यवहार, प्राचार । रट्स्द ४१५५७ ' र्ट ३ लेन-देन । ५ चतुर, प्रवीणा, निपुण । २ द्विषौ । --राव मालदेरी वात २ मागे मे वाघाएुं उत्पन्न करने वाला । ॥ . राह्त-वि, --रा रह ॐ समान । ॐ०--२ मेषौ टीकं वैठौ ! रांणौ मेधौ हुवौ । वड रजपूत, वडौ ¶० ~ 1 ~-~ १.९ ५ ॥ & ह तरवारियीौ, वडौ राहवेधी, वडी जोरावर । -- नसं उ०-- छां छगां घरि नगा, चढं प्रासां महावत । राहुख्त रवि ६ वड़ा वीर, वड़ा योद्धा । त, दुत यापलिया घुसत । क, उ०--सांगौ वडवज नीवज वसती, वडौ राहुवेधी रजपूत थौ राहलणौ, रहलयो- क्रि. स --राह्‌ पर लाना, सीधा करना । --नैणसी राहलियीद्-भु. का. कृ.---राद्‌ पर लाया हुश्रा, सीवा किया दन्ना । ७ राहु रोकने वाला । (स्त्री. राहचियोडी) <. भे.--राहयेधी, राहावेवी । राहवणो, संहव्यो-क्रि. स.--- राह पर चलना । । रष्हाड-स. वु---फगडा, लडाई ! सनक सगां सुजा ततत व उ०-- सनक तण भुज, पारीसा पातल' तण । तं राहुविया हुवौ । --प्रतापमल देवडा री वारता राण, एकण हता ऊदवत । -- सूरायच टापर्या । राहृए्वरक, राहाचरक्क--देखो राहचक' (रू. भे.) [ सं, रक्नापयति, प्रा. रक्वाचद्‌] ३ रक्षा करना । - पटवः शं मारि = उ०--१ वीर हर तिल्तक डि सादइदांया वज्ज क उ०--१ परत राखं पंडवां, प्रव कर मांभि उपाये) गजपत पत ॥ ट्‌ वावाड्या, साददांणा वज्ज कटक | । 1 | 4 | "गज्सिह' कियौ भिंड गज दम, रिण संग्रांम साहाचरकं । रहद, ग्रनत खगपत चदे भ्राए । --जग) सिडियौ न -ग-रू. वं. उ ०-२ प्भणड र्षिलु राउ*माद्‌म श्ररणदई तहि कच्छ) नि चउंड षा हम श्रर्णद तुह कर य उ०--२ चडंडराउ चड्य मोहिल्ल चीति । राहाचरवक देखाछि घरि पादां जायउ लोक सहूयद्‌ राहुवउ । -- सालिभद्र सूरि तेति रीति । --रा.ज. सी. राहूवियोडो-मू. का. क.--! राह परचला हु्रा. २ रत्ति, ध्या या परम्परा के प्रनृमारचला हूश्रा, रीत्ति निभाया हा. ३ रक्रा राहाली-वि. स्तरी.--१ युद कराने वाली । २ सहया मागे धारण करने वाली किया हुभ्रा । (स्त्री. राहृवियौड़ी ) र द र करने बालौ । राह्देधी-वि.-- १ लुटेरा डाकू । सहाला-वि,-- १ राह पर चलने वाला) २ चूःटनीतिज्ञ 1 दाव पेच जानने वाला । २ रोतिया परंपरा के म्रनुसार चलने वाला । 1 उ९--१ राव मालदे राह्वेधी ठकूरदछ। सु नागौर दीौलत्तीयान्‌ं ३ न्याय प्रिय । कटाडीयौ--- राव, वीरमदे म्हां साथ छ । वडा-वडा रजपूत सारा ४ चरित्रवान्‌ । वीरमदे कने छै । वीरमदे थांहांरी हाधीलायां रहैदधैयेही ५ श्राह" चाल से चलने वासा । (घोड़ा) वांस श्राय मेडतौ मारौ नं वीरमदे रा माखस चचौ-चचौ सारौ वेद | राहावेधौ-देखो -राह्वेथी' (<. भे. ) करले जवौ । -गेएसी ीरमदे | र्‌? | | एम उ०--१ पिण रा. वीरमदे साहावेषी हजार वात पातसाह्‌ नँ उ०-२ पीदं सांगजी रौ भाई भारमलजी वडी राहुवेधी हुवौ । सुणाई श्रगलौ मायलौ सहल कर दीखायौ | ी तिकँ रतनी रा भाई म्रासकरण नृं फोरियौ नं कयौ, “राज धांहूरौ उ०--२ रांणौ रणहावेधी देवीदास हतौ, तद ही सममः गयौ-- है श्रु रतनसी तौ रातत दिने दारू मे मतवालौ धकौ गर महलां इज वीजी मारियौ राव रं साथ सीवांणौ लियौ हिमे नं रहै च। ---द. दा. मारसी । | १ ३ दूरदर्शी राहवेहु-देखो !रावावेध' ख. भे. } उ०--सुगरढारालौग सारी वात सांखला रायक्ती न जाय कै उ०--तीणं परीक्षां गुर तरी प्रूगड एकु जु पत्थ छं! सु रायक्नी राहवेधौ छ! रायसी धरती लेण ऊपर निजर स्िखवद्‌ मच्छ देविर हत्् । ४ च प्छ । रादावह तउ -- नरसी --नरासी रासैदै। --नेणसी --सालिभद्र सुरि ' & नीति निपुण, नीतिज्ञ सहि, रष्टी-स. एु- [फा] राह्गौर, पथिक, मुमाफिर, याभी. । उ०--मूदराज रौ हाल हृकम हुवौ सु मृढराज वडौ राहुवेधी, द, | राहीया--देखो “चधा वीज काकौ रावंवणा द्धं -न ण्स -सं.१्‌. [सं ग्रहं ते रज काकौ न्रांघौ वलायरावंवणा द्यं नणसी । राहु-सं. पृ. [सं.] १ नवग्रहों मंसे एक ग्रह जो पुराणागुसार विप्र. रट ए्सण ११ १ व 1 1 ीीरगीणरीिषपियीषाषिरीपषषोिि पि ीिपणरिपिरें ककन जज भामो कि आ > कछ ग ऋ ॥ + चित्त कै वीयं श्रीर सिहिका के गभे से उतपन्न हृश्राथा। उ०--राहु केत रिख श्ररुण, नवे प्रह साति करं नित। --्हःरः २उक्तनाम का दानव जो प्रच्छन्न रूपमे श्रमृतं पान करने कफे वादं रह वकेतुदोग्रहके रूपमे परिवतित हौ भया । ३ ग्रहण) <. भे.-- राह, राहू ) ४ रोह नामक मदसी । राटप्रस्ण, राहुग्रसन-सं. पु. [सं. राहु- ग्रसनं] १ मूयं या चन्द्र का राहुकेद्ास ग्रसा जनि की श्रवस्या या भाव! २ ब्रह्ख। राहप्रास-सं. पु. [सं.| ग्रहण । राटदरसण-सं पु. [स'. राहु +-दन , ग्रहण । राहुभेदी-सं. पू. [सं. राह + भेदिन | विष्णु । राहुरष्न-सं. पू. [स.] राहु के दोप का शमन करने वाली गोमेद मरि । साहुल-सं. पु. [सं.] गौतम बुद्ध का पृत्‌ \ राहुसूतक-तं. पू. [सं.] ग्रहण । राहु-वि.--१ काला । २ दवेत । ‰ ३ देखो "राहु" (<. भे.) उ०~- ग्रहुण-वेलादं गल-समां, पट्टसी पाणी माहि । र्दी मंत्र जपद्‌ रह, साहु तए जिहां छदि । --मा. कां. प्र. राहडो-सं. पू.--एक प्रकार का घोड़ा जिसके हौठ धटे हीते ह (श्रशुभ) रपसं. स्त्री. [श्र.] १ श्रगरुठी, मृद्विका । २ श्रंगूठी या चूडी के श्रनुसार कोद गोलाकार वस्तु! रिछी-सं. स्व्री.-देखो 'रीदखी' (र<. भे.) रिदधिया--देखो ^रक्ना' (5. भे.) उ०-म्हारो वेटौ राजारं साग भिनख ई द्टैला। वौ श्रकरमी श्र श्रन्यादयां सूं रया री र्या करला । खुद परजा रौ षणी नीं होय उण रौ चाकर ब्दैला । --फुलवाड़ी र्जिक~-देखो 'रिजालौ' (ख. भे.) उ०-- रिजक प्याला सोरही काना जगमग ) यारो परल काठदी, उवा्रानढ जमगे । ।--ला. रा. रिजाठौ-वि--देखो 'रिजातौ' (5. भे.) | उ०--हिसार या लोग महा {रिजाल सो कुंडी वात्ता रा फड़ लगायं पग दुडाय दिया । -- मारवाड़ दा श्रमरावा री वार्ता रिणी, सिभिवौ - देलो 'रोमणौ, रीणयौ' (रू. भे.) शन रि भवार, रिभफवारो--देखो ररिफवार (ङ. भे.) रिकाणौ, रिकाक-देो ^रीफाणी, रीकावो' (रूम) स्भिायौद्ध-- देखो "रीकायोडी' (<. भे.) (स्वी. रिफायोडी) स्किदन-~सं. स्मी.-- मोदित, मुग्ध या श्राकपित करने की क्रिया यां भावं। उ०-नरतत मोर पपर्दथा वों, मदन नरेस ररिण्ावनं वार । ---रसीचं राज री गीत स्डी-सं. स्री. - चह गाय, जिसके सींग उपर न उत्कर पीठकी भोर हुए दह्येते हैष ललाट चौड़ा होता है तथा जिसका रग लाल वं चित्ततवरा होता है । रेडी । रि-सं. स्वरी. [सं.] १ चलनेयाजानेकीक्रिया याभाव) २ देखो र" (रू. भे.) उ०--धिगुरििगुरियिग दव विलापु, पंचह्‌ पंडवं हुड वश चायु । --सालिभद्र सूरि रिग्मायत-पं. स्त्री. [श्र.] १ नियमादि किसी कारण-वक्ष फी जानें । 8 वाली शिथिलता, दील, घुट । क २क्रिमी कावंमेंदी जाने बाली सहूलियत, चिसप्ि कार्य की गर्ता कम हो सके, राहत । ३ भ्रनुग्रह, न्माई या कोमलता का व्यवहार । उ०--एक दिन वादसाह उमरावां सूं कही भ्राज तलक रयत री रिप्रायतत भें थौ, भ्राज पदं रिप्रायत वरतरफकरू द्यु जौ मस लत होय तौ प्रावौ रेयत्त नुं लुट लेवां, रयत र कुछ न रहण देवा ) --नी. प्र. ४ पक्षपात 1 । ५ व्शेपसरूपसे किया जाने वाला स्याल, व्यान । ६ वरतुके मूल्यमेकी जाने वाली कमी या चुट 1 ई. भे. - रवायत्त, रियायत्त रिश्राया-तं स्वी. [ग्र. प्राया] प्रजा, जनता। स्ठि--देखो ^रौ' (रू. भे.) उ०--दउढ वरस री मालूवी, त्विह वरसा {रउ कत 1 उणा रउ जवन वहि गयउ, तूं किंडं जोन वंत } -- दो. मा. रिक-देखो .रिख' (रू. भ.) रिषत, रिकतक-देखी 'रिक्त' (<. भे.) रिकता--१ देखो "रिक्तता" (रू. भे.) उ०--चमकता डागठ गोडा चिक्र विकता । जंतु जठ रिक्ता सिकता में सिकता 1 --ऊ. का. २ देखो "रिक्ता" (<. भे.) रकता तिथ ४१५६ , स्ख न ~~ ~ ~~~ ~ <~ रिकत्रा तिथ-देखो रिक्ता! रिकथ-देखो "रिक्थ (5. भे.) . . (ह. नां. मा.) रिकसा--१ देखो रिक्षा" {रू भे.) ५ \ २ देखो ^रक्षा' (<. भे.) | रिकसौ-सं. पु.-तीन पियो की सारईकिल नुमा गाडी जिसमे पीछे दो प्रादमियों को वैठाकर एक आदमी चला सकता ह । 4 1 1 रिकाब-सं. पु. [अ.] १ सवारीका ऊट । उ०-वरकंदाज १००० अलाहधा । १२६८३ ' रिकाव, श्रासांमी' } १७६ । ६५६४ जागीरी सुघा भ्रासांमी । -नंणसी २ देखो "रकाव' (<. भे.) रिकावी-देखो "रकावी' (<. भे.) रिकारो--"रेकारो' (<. भे.) उ०-- तुकारे रिकारे जिकोरे तमासु, आया भ्राज सौ माफ कीं श्रमासू 1 . -- ना. द. रिक्व -१ देखो रिसि' (रू मे ) उ०--१ रदै रत व्यान श्रठ्यासुी रिक्ल । लद नंह्‌ पार ब्रहम्मा शवक्ख । । --ह्‌. र. उ०--२ गडग्ग्ड जोगि रतत भिदट॑त ।' हडहड नारद रिक् ट्संत । - । --गु. <. चं. २ देखो "रिख' (र<. भे.) रिक्ठम-देखो'.रिसभ' (5. भे.) उ०--राव वैकंठ घनंतर रिक्खभ, गरुडार्ट विसन प्रसणीग्रभ । ॥ इ ~~, ग, {रिक्वि-देखो 'रिसि' (ङ. भे.) - उ०-हडाहड रिक्लि हुए हर हार । जयज्जय जोगि किद्ध जिग्रार। ध , -वचनिका रिक्त-वि. [सं.] १ लाली किया टमा, रीता 1 २ रहित, विहीन । उ०--कुठटीन भ्रंग चरमा वितुड, वंवीठ उरद्ध सिर महिस मुड 1 रंडाक वाठ विधुरे ग्रसुभ्र, लज्या विहीन सिर रक्ति कूभ। -ला. रा. 1 ~ ४ खोखला, थोथा । ५ विभक्त, वियुक्त 1: : ६ मोहताज, गरीव, निधन । सं. पु. [स. रिक्त] १ साली या रिक्त स्थान। २ वन, जगल । ३ भ्राकाश। रिख-सं. प. [सं. ऋक्ष] १ तारे, नक्षत्र | र<. भे.-रिकत, रिकतक । रिक्तता-सं. स्री. [सं. रिक्त।-ताप्र.] १ रिक्त या खाली होने कौ दरा, ्रवस्था या भावं । २ गुजाईश, अनवकाश । ३ खोखेलापनं । ४ दुन्यता । ५ गरीवी, निधनता । ६ विहीनता की दशा । =. भे.--रिकता । | रिक्ता-सं. स्वी. [सं.] चतुर्थी, नवमी श्रौर चतुदशी की तिथियां, जो शुभ कायं के लिये वजित मनी गई है। (फलिते ज्योतिष) वि. स्वी- विहीन । र<. भ.-रिकता, रिगता रिक्तारक-सं. प. [सं. रिक्ताकं] चतुर्थी, नवमी, या चतुदंशी की वह तिथि जो रविवार को पड़ती है। रिक्थ-सं. स्वी. [सं. ऋक्थम्‌ ] १ घन सम्पत्ति । २ वह सम्पत्ति जो उत्तराधिकारमें मिलीहो। ३ स्वरं, सोना । ५ व्यापारयालेन देन में लगी हई पनी । <. भे.- रिकथ, रिखथ । रिक्न-१ देखो "रिसि' (ङ. भे.) उ०- रिक्ष तेड़ौ ब्रक्ष ्रांणौ, सयल भार श्रढार । प्रथम पीपल साग सीसमई, श्रांमली श्रधिकार। --र्कमणी मगट २ देखो रिख' (रू. भे.) | रिक्षा-सं. स्वी. (सं. सिक्षा] १ ज्‌ंक्राग्रंडा, लीख, लिक्षा। २ चारया ्राठ तुसुरेणु के बरावर की एक तल । रू. भे.--रिकिसा । ३ देखो ^रक्ना' (<, भे.) उ०--ग्रहरा सेवन दु सिक्षा, सीखी संजमनी रिक्षा। --केवि सार #। रिक्षास्त्रे-सं. पु.-- एक प्रकार का प्रस्तर ) उ०-- नागास्त्रं गुरुडास्त्र सवरत्तकास्व्र॒मेधास्त्र॒॒प्रलयकालास्त रिक्षास्च श्राग्नेयास्त्र वारुणास्मे दांनवास््र °... --व, स रिखभ- देखी रिसम' (र<. भे.) क उ०-नमौ रसि तापस-रूप रिख । नमौ भ्रवतारं उदार ग्रसंम । --हु, र, (भ्र. मा.) उ०--१ राह केत रिख श्ररुण, नवं ग्रह साति करं नित । -- ह्‌, र. रिखश्रंव --ठ. र. उ०-२ महि प्रगदि रास विलास मंग, श्रमठं रेण स्रकासए। सीभंति रिख गणा चंद्र सोभा, किरण जगमग कासषए। -रा. २ सूर्यं। (ना. मा.) [सं. ऋषि] ३ सत की संख्या । उ०--प्रासाठऊ सुद नवमि, गुण श्रागे रिख (१७३७) लेख । जिके समत्सर जोधधुर, समहर थयौ विसेख । --रा. रू. रू. भे.--रख, रिक, रिक्ख, रिक्ष, रिख, रिख्ख । ग्रत्मा.+-रिखडउ, रिखडौ । ४ वन, जंगत । (म्र. मा.) उ०-रिखि वद्र श्रनं श्ररवद तणा, तप कर कर तन तजियौ। मौकमा कमव मोटा मिनख, ते जीव ^र कासं कियौ । --भ्ररजुन जी वारहूठ ५ वट वृक्ष 1 (नां. मा.) ६ रामदेव के उपासक वग का नाम। ७ रीस, गुस्सा । उ०-ना रिख करणौ है मलौ, धीर धारिये चित्त । भोढौ टावर वेसमभ, ग्यांन न वीरं चित्त -सूरे खीवे कांवदोत्त री वात्त ८ देखो 'रिसि' (<. भे.) (ग्र. मा. नां, मा.) उ०--१ जोड पांण महिपत्त जप, को रिख श्राग्या कीज | श्राग्या एक सुखौ चप भ्रागम, संग उभ सुत दीजे । --रा. रू, उ०--२ पदमण रिख श्रसमांन पहूती । पां विनां जिहान पदीं । --र.जे. प्र. उ०--३ ने हारीत रिख विमान वस चालत थौ सु वापान्‌ तेड्यां थीसु मोरी भ्रायौ, सु प्य वापा नुं रथ वसतां वाह ली, वापा री देह हाय दस वधी । --नैणसी उ०--४ हद श्रोपमां तेण रिख हासां । पवन शरुतं किर फुलै पासा । --सु. भ्र. (मा. म.) रिखश्र॑ल-सं. पू.--तीन श्रथवा सात र्त्र । उ०-लधू मध्य र्गण फट ग्रतक पत पवनं लख, तात ग्रतु जरा तन रगत श्रातंख । रधेसुर श्रंगारख भेड पण रौद्र रस, उजेणी पतं कुठ सद्र रिखश्रख । --र. र. रिखगण-सं, पु. [सं. त्छ््षः] तारा, उडगन । उ०--फडां करिमाढठ रिखग्ग फटंत । पटं भरद धाठ निहाउ पडंत। गु. रू रज. पसउ, रिखष्टो- देखो 'रिसि' (ब्रत्पा., ₹. भे.) उ०-१ टिदड्उ रमत थकउ, चात्यउ चंचलं चित्त रे! उताव- लइ श्राव्यउ श्रयोच्या, राजे चेवा निभित्त रे), --स. कु. उ०-र२ न भरदन जौरूलच्या नहीं जावत, मस्तक मूंडित कन्न फटा । श्रचरिज्ज भया मोहि देख नहीं एह, कख दृकांरा देखउ | ४१६० [कवत २ णगि रिम रिखडा । २ देखो रिख' (ग्रल्पा. र. भे.) रिखथ--देखो (रिक्थ (रू. भे.) रिखदेव-सं. पु. - शिव, महादेव । उ०--पतित न्हाय वदै पीतप, दिपै निकट रिखदैव । नचं मूगत (ह्‌. ना. मा.) नटनार ज्यु, स्ीगंमा तट सेव । --्वा. दा. रू. भे.-रितिदेवं । रिखधुनि-सं. स्वी. [सं. ऋषि +ध्वनि] गंगानदी । (ह्‌, नां. मा.) रिखपतति-सं. स्री. [सं. ऋक्ष पंक्ति] नक्षत्रौ की पंक्ति, कतार । उ०-भश्राणदसु जु उदौ उदहास हास भ्रति, राजति रद रिखपंति रुख । नय कमीदणी दीप नासिका, मेन केस राके मृख । --वेलि रिखपत, रिखपति-सं. प्‌. [सं. ऋपि-पति] वऋपि-धेष्ट, ऋषिराज, मुनिराज 1 | उ०-पचवटी पहुंता सुण रिखपत, उमंग सगद्टा ्राविया । प्रफु- लंत पकज जांण खटपद, हये यू ह्रखाविया । --रा. सू. रिखपांचम--देखो "रिसिपांचम' (ङ्‌, भे. ) रिखपुनम-देखो 'रितिपूरणिमा' (रू. भे.) ॐ०--सीकर र धघणी सेखावत देवीसिघभायां नूंसाथ ले खाद । 4 केजियौ कियौ रिखपुनम रं दिन । --र्वा. दा. स्यात रिखव-सं. पु. [स. ऋष्वः] १ इन्द्र । (नां. डि, को.) २ सूर्ये1 ३ श्रमिनि। रू. भे.-रिखव । ४ देखो "रिसभ' (<. भे.) उ० -- कूरम मछ रिखब कपिल, खोघी श्रग्नत खाड । मगतवद्ल तै भांजिया, ` हर्णाकुस रा हाड । --प१ी. भ्र. रिखबदेव-देखो ^रिसभदेव' (रू. भे.) उ०--प्रीतम ्रासी पांवणौ, उग्यासी भ्रायांख। सुपनौ प्रायौ है सखी, रिखव्देव री श्रांण । --पनां रिलभ--देखो शरिसम' (रू.भे.) (भ्र. मा. ह्‌. नां. मा.) उ०--१ नाभि सुत्त नमौ रिखम नरेम, वरीयांम वाध नरत्िघ वेस । वाह्‌ हो वाहं वांमण वडाठ, दुज राम नमौ दीनां दयाल । पी. उ०-२ ववला नं माता घणा, वले छोटी शिग्रडियां जांण र लाल । दोनू वरावर दीसता, तूं एहवा रिम प्रांण रे। - जयवांणी उ०-- ३ पांचमो रिखव नाम, पूरं सव इच्छा काम । कम चनु काम कभ कीने सन मादि मादि। -वि. कु. १ र्खिमजिन उ० -४ खड्ग रिखभ गंधार, मदि पंचहम निखादह । सरिस कठ सुर-सपत, गीत संगीत प्रलापह्‌ । -- गू, रू. य॑. रिखमजिन - देखो 'रिसभजिन' (₹ू. भे. (स. कु.) रिखभदेव-देखो "रिसभदेव' (रू. मे.) (नां. मा.) उ०--१ पत्र श्रगनिष्वज, पत्र नाभिराजा, मोरादे भार्या पत्र रिखभदेव 1 दिखभदेव भारया-२, सुनंदा १, सुमंगठा २। | -- रा. वंशावली उ०--२ सुरासुर सरव करं जसु सेव, दिये सुख वंदित रिखमदेव ¦ --घ. व, भ्र. रिखमधुज-सं. पु. [सं. ऋषमघ्वज | शिव, महादेव । रिखमानन-सं. पु. [सं. ऋषपमान्न] सातवे धिरहमान का नाम । रिखिमंउक-सं. पु. [स. ऋक्ष मण्डल] १ नक्षत्र मण्डल, तारा मण्डल, ग्राकाडा, नभ । २ तारे, नक्षत्र । र. भे-- रख मंड । ३ देखो रिखमंडटी' (रू. भे.) रिखमंटढी-सं. पु. [सं. ~-चछपि-मषृडली] १ ऋपि-समूह, मुनि महा- °त्माश्नौं की मण्डली । २ हंस । (अ. मा) रू. भे.-रिखमंडव्ट । रिखमातंग-सं पु - मातंग ऋषि । रिखमूक-देघो रिस्यमूक' (रू. भे.) उ०--रधुराजा ! रे रघुराजा { रिखसुक गिडंद दराजा । --र. रू. रिखयंद-सं. पु. [सं. ऋपि-इन्द्र] ऋपिद्वर, मुनिद्वर्‌ । रिखय-देखो रिसि' (<. भे.) उ०--रिखिय भख कर रखवाढ, तारी रिख धरणी चरणा रज हता 1 --र. ज. प्र. रिखथा-सं. पू. [सं. ऋषि] वांभी जातिकेवे लोग जो रामदेवजीकी श्रधिक भक्ति रखते ह । (मा. म.) रिखसंण, र्विराज-- देखो रिसिराज' (रू. भे.) उ०--१ तहक नीसांण भिरवांण॒ हुर्वान तन, चितां सरसां रंभ- गांसा चाधौ । निडर रिखरांण गणपांण वीणा न्च, भां रथतांण घमरसांण॒ माठ । ` --र. रू. उ०-२ नमी नमौ सिच साध, नमौ स्खिराज मुनिवर । नमौ नमौ पित मात, नमौ खव देव पुरंदर । --उदोजी सण रिखरानि-सं. स्वी. [सं. ऋषक्ष-राजि] तारों को पक्ति । रिखराय - देखो 'रिसिराज' (<. भे.) ४१६१ रिखि _.-------~~----------~--~~-----~----~-----~------------------*-----~-----------~----~------------- -- ---- --~ उ०--यों वरखा रितु उतरी, श्रावी सरद सभाय! पिन्नेमुर्‌ कीलं प्रसन, पोखीञं रिखराय । --रा, रिखिद-१ देखो ^रिखव' (रू. भे.) २ देखो रिसभ' (<. भे.) रिखवर-देसो रिसिवर' (₹. भे.) उ०-दधि पियण रिखवर जांि भ्रण उर, समर जाठणा तिकर सकर । चूरच्रिण तर पसर वनचर. कना मेण तिमर रवि कर 1 --रा, रू. रिखवरणी-देखो !रिसिवरणी' (रू. भे.) उ०--पं रज रिखवरणी गतिपाई, पठ तरणी भीवर तिरवाई। भरणा सीता रघुवर रघुवर सीता, सत्ता रघुवर भण भाई -- र. ज. प्र. रिखत्रत-देखो "रिसित्रत' (रू. भे.) उ०--इम करतां रंभ कोड इलाजा । रिखग्रत चित डिगयी नह- राजा 1 --सु. प्र. रिखसपत्त- देखो स प्तरिसि' (रू. भे.) उ०-सपत चिर॑जी {रिखसपत, सो मी सचीयारा । --केसौदामर गाडसप रिखसर-देखो 'रिसीस्वर' (<. भे.) उ०-- भ्राम चीथे श्राय, राज तजता रजेसर, वेटा नँ जुवराज देर, हो जाता रिखसर । --ग्ररजुन जी वारहूठ रिखसात-देखो सपतरिसि' (<. भे.) उ०--सपत दीप रिखत्तात, सात्‌ समंद । नवड्‌ नीय ही हाथ जोई नरिदु रिखस्त-सं. प. [ सं. ऋषि-ग्रस्थि] वच । रिखहैसर-देखो "रिसिस्वर' (<. भे ) उ० - सव्रुजं नायक वीनति सांभली, स्री रिखहेसतर स्वाम । दीन दयाल तुम्हाने दाखिवृ, भ्र॑तर वीत्तम घ्रांम | --ध.व. ग्र. रिखि-देखो "रिसि' (5. भे.) (्र.मा.) उ०--१ तरं हारीत रिचि महादेवजी रौ ध्यान कोयो, उग्र स्तुत करी, तिख॒ यी पहाड़ प्रथ्वी फाड़ नं ज्योतिरलिग स्री एक लिगजी प्रगट हुवा 1 -पी. ग्र (नां. मा.) - नसी उ०--२ त्रिजड़ भ्रावाह्‌ ¢किंसनेस' हर "विसन' तण, पिखि हडटड हस समर रीधी । --दलपत सा । च] उ०--३ वग रिदी राजान चु पावसि वैठा। सुर सूता धि मोर सर । चात्तक रटे वलाहिक चंचठ, हरि सिणगारं ग्रवहुर । -वेलि २ देखो !रिख' (रू. भे.) रिचियौ .__._. ...--------~---~-------------~-~~---~-------------~-~---~-~~~~~~-------------~-~-~~~~---~~-------------- -- -~ उ०--उच लगन लखि रिखि उरथि, सरव कण प्राचिय सुरधि। . रचि कनक वेह सरग, श्रौपति नव खे भ्रंग । ---स. रू. रिखियौ-स. प.--रामदेव जी का भक्त “रिया” चमार जाति का व्यक्ति 1 रिचि राज, रिखिराय-देखो रिमिराज' (<. भे.) उ०--१ वोधि लता कापी पापीमं तेडाव्यी रिखिरज मी। --सीपाल रास उ० २ सांभल चित्त भ्रति हुरखित हुवौ रे, रथ पर वसी श्राय । मुनि वादिने वाणी सांभले रे, उपदे दे रिखिराय । --जयवांणी रिखी-देखो रिसि' (रू. भे.) उ०-१ कोटन रिखी सील के कारन, परम मुक्ति जिन पाद । ऊमरदांन श्रव सील भ्रात, पर हूर नार पराई। ---ऊ. का. उ०--२ रज पाय परस जिम नार रिखी, तज देह सिला दिनि मांह तरी । --र.ज.प्र. दिलीग्रस्त--देखो ^रिसिस्रस्त' (रू. भे.) रिखीकेस, रिखीकेसू--देखो रिसीकेस' (<. भे.) (श्र. मा.) उ०--१ समवाद रिखीकेस पाधरौ संभारियौ क, सिवा देणा गाथ रौ उचारियौ सरस्स। वीदडेवौ साथर प्रमाद भ्र विचारियौ, दूजा गोपीनाथ रौ जुहास्य दरस्स। --साहिवौ सुरतांरियौ उ०-२ वेद मे वियाता हरी सत रौ चंदेम वाच, माधवन द्यो प्रोप रिखीकेस सांप । --भगत्तरांम हाडा रौ गीत रिखीपंचमी, टिखीपाचम-देखो !रिसिपांचम' (रू. भे.) दिखीमूक - देखो !रिस्यमूक' (रू. भे.) उ० - रिखीमूक कर नवरता, पूज सगत जगपाटठ । सद्ठ कूच करवा सरमे, वाजं तहक तमाल । = रिखीराज, रिखीराय - देखो 'रिसिराज' (रू. भे.) (ग्र. मा.) उ०-१ सूरा पुर फाटां माची श्रकूटं उवं संभ स्राची तान लावे रंभा रचावं संगीत । रिखीराज वाव वीण॒ प्रवीण हरख्लां रतौ गाव मुखा चौमटी भ्रंगूढां रथां गीत । उ०--२ मास खमस नट्‌ पाररद्, पटिसाभ्यञ रिलीराय । सालि- भद्र सृ भोगवडइ, दांन तणड्‌ सुषमाय । --स. कु. रिपौस, रिखीस्र, रिखीचुर, रिखीस्वर-देपो ररिसीस्वर' (रू. भे.) उ०--१ देदीधीस {िखीसर ईस रजयते सेव पारायण! पायं कंज “कियन्न रकि सरणं श्राणंद कारायां । ---र, ज. प्र उ०--२ एवाट पग ऊभेउ रष्यठ रिवी श्टृड रे, सूरजि सामी द्रस्टि दिलीसरर रूढउ रे। -स. कु, उ०-३ वापा री रिखीम्वर वाह्‌ फानी हाथ दस वापा रौ डील ४१६२ --यद्रीदास खिडियी वधियी । -नणसी उ०--४ मारग विख भेदा होय न सक्या नगर मांहि पठातव दस्यौ भाई एकठा होय पठा । सजन दुरजन नर नारी नाग रिखी- स्वर राजा समस्त देख लागा । -- वेति टी. रिचू-देखो !रिसि' (ङ. भे.) उ०--चार निगमूं की उक्त सपतादि रिदं के गण रिख पतनियां। --र. रू रि्खद-देखरा 'रिसीद्र' (रू. भे.) उ०-रिखें तेडं सुस्ररी दमरथ ! --रां. रा. रिखेत्त, रिखेसर. रिखेसुर, रिसेस्वर-देग्वो रिसीस्वर' {रू. भे) (श्र. मा.) | उ०--१ रट नृपेस हौ रिखेस, श्राप एह उच्चरी 1 पय॑स राम नीर पेखि पेखि, मीन ज्यां परी । -- सु. प्र. उ० -२ सहस्र श्रव्यामी रिखेसर, श्रणवर ब्रह्मा ईस! मिखिया मेठं सांभिर, सुर कोड त्रेतीस ) -पी. ग्रा उ०-३ श्राएसु गलम रिखेसुर श्रखि। --रां. रा. उ०--४ भयंकर रूप भुजां जुध भार । देर्णे ख भूप भणे वनि- हार । खगरूखण खेटक भेटत खाग ^रिषेस्वर' वीण कणक्शण राग । --मे. म, रिषल--१ देखो ^रिसि' (रू. भे.) उ०्-वडा सिव रिख भरी जसवास ) बवरछित्तौ प्रौवख॒ रेवा खस) --मा. वच्निका २ देखो ,रिख' (ङ. भे.) रिख्या -देखो ^रक्षा' (रू. भे.) उ०--१ श्रासण॒ गूढ कष पण श्रासुरः ज्याग विवुंसे जावे । रिख्या त्राट करे जो राघव, थाट संपूर्ण थावं। --र. रू उ०--२ पद्य देवी ऊपर लाघ पाच दसं क्रिया । देवी प्रसन हर, कल्यी--तूटी, मांग । तरं कल्यौ --गद करणा दीजं गढ़ री रज रिख्या करी | --नेणसी रिद्यावत~-वि. [स. रभा ~-वत्‌] रक्षा करने वाला । उ०--मटादेवजी तौ रिख्याचंत त्युं खपत्ि पिण सूपी । पादुला जीव वधता देख तरे श्रागला जीव खपाय देवं --रा. वंस्ावली रिग-देखो “रिगवेद' {. भे.) रिगिरोढ-सं. स्त्री.--हंसी, मजाक । उ०--रमता कर रिगरोढट, खूंदता मारग दहार्लं । खट्टा रूसिया खोद, धाव खाई दे धार्त | ---दरसदेव रिगिणौ, {रमवी-क्रि. म्र.--ललचाना, भींकना । उ०--पेर्‌ सवक गजराज, केहर पल गजर्कां करं } सौ सट कर कम- रितगणो ॥ ४१६१ रिडमेल्ल काज, रिगता ही रह राजिया । रिगतौ, रिगतवौ--रू. भे. रिगतणी, रिगतबौ--देखो र्गौ, रिगवौः (रू. भे.) रिगतमिच्छा-सं. स्ती---मामूली वस्तुभ्रों के लिए-वार वार भीख मांगने को क्रियाया माव । रिगता-देखो ररिक्ता' (रू. भे.) रिगतियोडौ-भू. का. कृ.--लालायित हुवा हुमा, कौका हुश्रा । (स्त्री. रिगतियोड़ी) रिगतियो, सिगितौ-सं. पू--देखो ^रगत्यौ (<. भे.) रिगदोढणौ, {रिगदोदमौ - देखो ^रगदोठणौ, रगदोढवौ' (<. भे.) {रगदोख्ियोडौ - देखो "रगदोल्ियोडौ' (रू. भे.) (स्त्री-रिगदोलियोड़ी) रिगरिगाड़-सं. स्त्री.--हिचकिचाहट, पिक । रिगल-सं. स्ी--हंसी, दितल्लगी, मजाक, ठ्ठा । उ०--तुरंत विगाड ताह, परगुन स्वाद स्वल्पने } मित्राई पय माह, रिगिल खटाई राजिया । ॥ --किरपारांम रिभवेद-स. पु, [सं. ऋग्वेद | चारवेदोंमेसेएकः, त्ग्वेद । रू. भ.--रग, रगवेद, रगवेद, रिग, रुग, रुवेद, रुघन्व 1 रिगवेदी-वि.- [सं. तऋग्वेदिन्‌ | ऋग्वेद का जानने वाला, ऋग्वेद काज्लाता। रू. भे.--रधुवेदी । रिगसरणौ, रिगसवौ-क्रि. सं. [सं. रिख] १ गरीरयाशरीरकेभ्रंगको धसीटते हे धीरे वीरे चलना, खिसकना, सरकना, रेगना । उ०--१ कितरारैकां कातिग तुर गया छ । तिक रसिगसता थका लफ लफ कोट र जाय जाय कटारी लावे छ । --प्रतापर्षिघ म्होकमसिघ री वात उ०--२ दिन ५५६ गुदरीया ताहरां एक दिन दोपहूर री वरियां खीमौ रिगसतोौ रिगस्तती श्रायो । -- चौनोली २ चलायमान होना, गतिमान होना । उ०्--चटमें गंगा गोमती, तां विच किया सिर्नानि। जन हुरीया मन रिगसीया, ऊंचा घर भ्रसमांन । --श्रनूभववांणी 3 चना, तनना, तनाव खाना । उ०--श्रौर गांठ खुल जात है, जहे लग पूरौ हाथ । प्रीत गांठ नैणां घटी, रिगस रिगस ग्रड जाय । - श्रग्यात ४ धूमना, टहलना । रिगसणहार, हारो (हारी), रिगस्तणियौ--वि° रिगसिश्रोडो रिगस्तियौडी, रिगस्योडो-भ्रू° का° क०। --किरपारांम नयनयनरभ- रिगसीजणोौ, रिगसीजबौ-- कर्म वा० । रिगसियोड़ी-भू- का. कृ.--१ शरीर को घसीटते हुए चला हु्रा, सरका हुग्रा, खिसका, हुम्र।, रंगा हुभ्रा मान हुवा हुश्रा. टहला हश्रा । (स्ती रिगसियोडी) रिड़-सं. पु.-१ भस के बोलने का शब्द । २ चलायमान हुवा हुञ्रा, गति ३ खिचा हुम्रा, तना हुग्रा- ४ धूमादहुभ्रा, उ०--मेस्यां रिडकं रिङ्‌ गायां रंभावै । प्राणी तिरखातुर पांणी कणा पाच । २ ककरीली भूमि । ३ समूह, भीड़ 1 ४ युद्ध, टटा । रिडक-स. स्प्री.-मेस के योलने की श्रावाज। र, भे.--रड़क । (5 ॐ * क्य | रिडकणौ, रिडकवौ-क्रि. स.-१ मस का बोलना । उ०--भेस्यां रिड़कं रिड मायां रभाववै। श्रागी तिरखातुर पांणी कुरा पाव । २ लुढकना, घुडकना । रड़करणौ, रड़कवौ-- रू. भे. रिड़कली-सं. स्त्री.--छोटी पहाड़ी । मह. रिडकलौ । र्डिकली- देखो 'रिडकली' (मह्‌., रू. भे.) रिडणौ, रिडवौ-क्रि. स.--१ नगाङे या ढोल का वजानां । २ युद्ध करना । रिडमल-सं. पु. [सं. स्ण-मल्ल ] १ योद्धा, वीर । २ जौघपुर के संस्थापक राव जोधाजी के पिता का नाम । उ०--रिड़मल ने मरुघर थठवट रौ, राज दियौ वगसाय । ॐ # का, --राघवदास भादी ३ राव रिडमल राठौड़ के वंशजो की एक शाखा या उस शाखा का व्यक्ति । रू. भे.--रडमल, रडमाल, रिडमल्ल, रिडमाल । रिडमलवट-सं. स्तरी.-- शूरता, बहादुरी । रिडमलोत-सं. पू-राठौड राजपूतों की एक बाखा का व्यक्ति) रिड़मल्ल, रिड़माल--देखो 'रिडमल' (र. मे.) उ०-१ न है गं रथ पायक हैसल्लां, मिलिया द जोधां रिड्मल्लां । महि मेडतं संभाठं मारू, सि खडिया दिल्ली पूर सारू।-रा. उपशासा व इस उप ३ रिष्ारिटि ४१६४ रिजक काणाम न~~ उ०--२ “वखत' सुत श्राञवै काट खग वजाई, काट धण द्ग रजवाट केवं 1 मुर्थरा ढाल मम विर॑ग रंग मिटायो, सुरग सा| ियी रिडमाल भर्व" । --ठाकुर स्िवनाथतरिघ कुपावत रो मीत, रिद्ारिट्-सं. स्त्री. [श्रनु.] एक ध्वनि विश्चेप । | क्रि. वि.- लगातार, कमदयः । | <. भे.-रिडोरिड । | रिडी-देखो "रडी' (रू. भे.) । स्डिरिड्‌-देलो `रिड़ारिड (रू. मे.) | रिड्यौ-क्रि. वि.--श्रपने श्राप गिरा हू्रा। । उ०--वेरौ तौ पाड़ं, ग्रो देवरिया, नारी-मरद को} नारीदहोयतौ , पडदा रिट््ा फल खाय । मरद हवं तौ तोड़ फुल गलाव रौ 1 | = सो, गी. रिचा-सं. स्त्री. [सं. उट्वा] १ वेद मंत्र जो पद्य.मय हो, वेद स्तोत्र । २ व्ऋण्वेदकी ््चा। ३ श्रट्र्वेद । ४ चमक, कान्ति 1 ५ प्रदंसा। रिच्छफ- देखो ^रक्षक' (रू. भे.) उ०--ग्रभे गंज रिच्छक, सरणागत, संताभव भंजणा संसार । मद उपमां जितरी तौ साज, तितरी ही दछाजं करतार -र. 5. रच्छ, रिचा, रिच्छया- देखो ^रक्ना' (<. भे.) उ०--उरारी रिच्छया देवता, सेवया पीर प्र्थान। त्यां श्रणचीती संप, मुसकट मे प्रासन । --रा. रू. रिद “रक्षक! (<. भे.) पिदिपाद्-देसो 'रश्षपाठ' (सु. भे.) उ०--१ देतियां जोत उदोत करि दोवडुी, लोवदटीया दहं सीख लीधौ । ताक्वां रिजक {िदछपाठ सायर तणा, कंवरि भुरजा हं रिद्ध फीयी। --मे.भ. उ८--२ भोजन कारणा भेय, जद्यवं साभ सवार । रोज ग्रह शिद्धपाद्ट, वाडती वा" र लार्‌) -- दसदेव रिद्पादटो-देगो 'रमपाद्ध' (ग्र्या. ८. भै.) उ०--यनमेतौ चिड्यां चुचाई, कव्या वोत्या कारं । मीं के रमु निरथर नागर. सव संतन रिदष -- मीरां रिद्य्पा-देगो रमा" (रू. भ.) उ०-१ मामी त्त प्रतिव्यम सार, कांमद्धातमय्रये रिदछधया म्यर्‌ । पिन एफ रस मृमः नोक धाय, जायी कण जोम कुमटः घाय। ---पा. भ्र. उ०--र प्रभुकोध्यांन घरं रही, एति की र्दा काज । तातं क्री निवाज कं, दिव्यं देह महराज) -- गजयउद्धार रिजक-सं पु. [म्र. रिज्क] १ भ्राजिविका, रोजी, जीवने व्रत्ति। उ०--१ दादु रोजी रामह, राजिक रिजक हमार ! दादु उस पर- साद सों, पोख्या सव परिवारे । --दादूवांणी उ०--२ म्हारं रिजक री सोगन कास री सपनौ देख्यां प्छ तौ म्हामै ग्रर विरमाजी मे फींलांवौ चोडौ फरक निभे नीं श्राय | --फुलवाडी . २ श्रामदनी, श्राय । उ०-१ धारा घर खंची जचवारा, सोवा रिजक चिना हय सारा! ग्रसुरां मूलक मेष श्रोष्टंणा, थया सचत सहर पुर थाणा --रा. रू. उ०--२ सीख दाप्वौ सास्त्र सहु, भ्रागम ग्यांन ग्रह्‌ । साड रे हार्थ सही, मीच {जक नं मेह । मीच रिजक नं मेह, एह्‌ द वातां ऊंडी, कासुं भरट कट्यां, हाथ परमे्षर हंडी । -ध.व.गर ३ रोरी, भोजन । उ० -रजपूतांणी रहै रिजक विन, धरम पतीव्रत धारी रे। विदरांणी परदां में वटी, किञ्षव कमार्वं सारीरे। - ऊ. का ४ श्र, श्रनांज । । € ५ सेवा-चाकरी या नौकरी में मिलने वाली जागीर्‌। उ०--१ तद ठाकर म्रापर शायां रजपूतां सं सला करी । श्रम्‌ कयौ, “जन्म ज्रणतौदेह्‌रौ सवंधदछयुं परा ग्राद्ध परव पर मरियां नाम रहै” । तद भायां सारांईकयौजौ मोटौ परवह तथा घणा राठोड़ांदणां नू ईमान वदढ नं पकड़ाया है। सरम्राषां इरा वदछ मरांत्ती इसौ परव मिं नही, तथा श्रापणं वीकानेर री सिजिक्तौ नहींहै पणा जोधपुर राजा छं ज्यु वीकानिर रा चणी -दनदा उ०--२ नमक्षकार सूरां नरां, विरद नरे वरम्मं । रिजक उना सांम रौ, पाट सांम धरम्म। --वां. दा. ६ प्रतिष्टा) ०--रजयुन तौ पलक मुजरे वार्तं उमर सारीसोवं।सु्ये म्ह मोहृड कने भला भला कामि कीया द्धं । श्रव काट कीं ? इया माह (कमी) हुमी, रिजक घटसी, 1 ~ जतमाल पुगार री वात ७ घन, द्रव्य । । उ०-तःह्रां रेतरांमजी केटुक दिन श्रठ रहिर्नं राजास विदाकीवी चयं ! राजा वठं दन-दायजौ धरणौ रिजक दे श्रर विदा दीवी। -- नरसी ८ चदिया किर्मक्रा वारूदजोतौप या तोड़ादार बन्दुक के कानि मे भरा जता । षू. भे. --रजक, रजग, रजिक रिजक रिजकि, रिजक्फ़, रिजग, रिजिकः, रजकः {िजकणौ रिजकणौ, रिजिकवौ-क्रि. अ्र.-- प्राप्त होना, वदा होना, लिखा होना । उ०--रेयत के जसी ? हूं व्याह जोग थोड़ौ ही हं ? हमें व्याह कर्‌ परौ !रव्यूं कौरौ ही भव वि्गाडः ? कवर तौ करमडंमें रिजक्योड़ौ ही कोनी । --दसदोख रिजकर्दाणी, रिजकदानी-सं. स्री.--वंहूक यातोप योडने का वाल्द रखने कौ डिविया 1 रिजिकि-देखो रिजक" (ङ. भे.) उ०--जीव नव खंड रा रिजकि मागं चुग्रौ ¡ मेह करि गावडई घास मागे । --पी. म्र. रिजक्क, रिजग-देखोः "रिजक (रू. भे.) उ०-दिपावत हाय न लेत उदक्क । रकां वद लेत पवित्र रिजक्क । --सू. प्र. रिजगो-सं. पु--स्िचाई से उत्पन्न किया जाने वाला एक पत्तीदार घास जिसे ज्यादातर घोड़ो को खिलाया जाता है । रिजनिमट-देखो -रेजिमेट' (रू. भ.) उ. --संन रिजमट ग्रसंख पलय्णां तगो संग । भड़ तिलंग वग किलग तखा भिदिया । ४ -- कविराजा वांकीदास सिजिरव-वि. [श्रं. रिजवं| किस्ती के लिये श्रारलित, रक्षित, सुरक्षित । रिजिरयेतन-सं- पु. [श्र. रिजर्वेशन] रक्षित या सुरक्षित करने की क्रिय। या भाव, ग्रारक्षण॒ । उ०्-इमी कुटेममें भीमजी रा ऊठ भाडईं करवा रौ मतल्व सुरसा रौ रिजरवेसनं करवा ह । ---रातवासौ रिजल्ट-सं. पु. [श्र रिजल्ट] १ परिणाम, नतीजा | २ परीक्षा-फल। ` रिजवार-देखो 'रिफवार' (रू. भे.) उ०--१ नेद्‌ नीभावण सण लख, वैण वंघ्याह्‌ जिरावार्‌ ¦! तन ल्याया मन भेट करि, रीभो तौ सिजिवार। --पनां उ०--२ साथ लीना श्र लागणा लोयणां देखि रिजिवार श्रव छ। --पनां रिजाटी-स. स्त्ी.--वदमाश ग्रौरत, वदचलन श्रौरत । उ०-इवदहींजे बाहिर होयस्यांतीसं तोक कुचरड्ौ करस्य जे रिजिटीथी सौ किहीं र सार्थं परी गई । --करुवरसी सांख्य री वारता रिजालो-वि. (स्त्री. रिजाल) १ वदमाश, नीच । उ०्-सौभ्रागे सूं दस्तूर दसौदीजे यै के जसौ मांणस हवै जसी ही सोभतत राख, तिसां सूं ही इक्ठाप्र प्यार रां । कजिये रौ सरदार होसी सौ कजिये रौ मांस कन्दे राखसं । रिजाना लक्षण १६४ रि्षषथ्ार होसी सौ रिजाठा भड्वां नूं कन्द राखसी, वेधारसी । -महाराजा पदमसिह्‌ री वात २ धत, चालाक । र. भे.--रिजालौ । रिजिक -- देखो ^रिजिक' (रू. भे.) उ०--परमेसर थारी पहुंच, निमौ निमौ निरवांण । सिहि जीवानां साहिवा, रिजिक दीय रदहूमांख । --पी. ग्र. रिज, रिजू--१ देखो ^रग्जु' (रू. भे.) २ देखो ^रज्जू' (रू. भे.) उ०-- श्रजक्त श्र्र घच्च घतत विख पीवती ब्रहुचौ । रिज दलील पोलकं की जलील जीवतौ रहौ । --ऊ. का. रिज्जणो, रिज्जवो- देखो री कणौ, रीभवौ' (रू. भे.) उ०--घररि वस्रक्कड्‌ पडड्‌ देवि राजन विहूलघल । रोग्रद्‌ रिजज्द वेम रूवु वहु मन्नद निप्फलु । --राजमेखर सूरि रिज्नियोड़ो -देखो "रीभियोडौ' (<. भे.) (स्त्री. रिज्जियोड़ी) रिकिकवार, रिभवार-वि.-- १ रीभने वाला, मुग्ध होने वाला । उ०--१ रिकवारां रिभवार, कवरा रौ सिणगार । तीख चोख रौ राखणटार, रस विलास रौ चाखण॒ हार। --र. हमीर उ० -२ यातनकीर्म वीणा बजाऊं, रग रग वांवं तार। समभ बूम मिढ जाय दुलारी, जद री रिभिवार । ` -मीरां २ प्रसन्न होने वाला, खुश होने वाला । उ०-- सूरज हिदिवांण रौ, गाड तोल रौ गिरंदह । रूपक री रिभ- वारश्रने ल्प रौ भ्रनंगह्‌ । - सू. भ्र. ३ मस्त, मतवाला । उ०--१ मारुडी छ स्वार म्हारी भ्राली हे । जाय सलाम कृ ग्रालोजा ने कुरनस वार हजार । --लो. गी. उ०--२ रगराती रढ्ियावणौ, हितरस्र चाखणाहार } उड पदमन हित भ्रावियी, रसिक भंवर रिभवार। --र. मीर ४ रसिक । ५ उदार चित्त, दातार । उ०--१ भूपा सिव वन भूपत्ती, रिभवार कीरत वड रती । श्रग लियां पौर श्रासती, ्रवधेस जुव भ्रणसंक --र. ज. प्र. ६ कृपा या भ्रनुग्रह॒ करने वात्‌ । उ०-तौ रिभ्वार जी रिभवार्‌ भगवत गावतां रिभफवार । ~-भगतमाद्ध छ. भ.--रि भवार, रिजवार, रीभवार रीजवार, रीभवार । ग्रत्पा.-रिभ्वारी। रिभ्वाणौ [क १ णगि रिभवाणौ, रिकवावौ- देखो 'रीकाणौ, रीभावी' (सू. भे.) उ०--जीभ दीधी जिकं क्रीत स्रीवर जपौ। होट मूमुकाय रिभवाय पातक हरा । हाथ दीघा जिकौ जोड़ श्रागद्ध ह्री, उदर परसाद चरणा-ग्रम्रत श्राचरा। पाय दीवा जिकं "किसन' | पर-दशछ, फिर नाच राघव श्रागे सफठछ कर तने नरा 1 --र.ज.प्र. रिभवारी-संः स्वी.--१ रिभवार होने की ग्रवस्था या भाव) रिश्राणो, रिकावौ- देखो ^रीकाणौ, रीभ्मवौ' (रू. भे.) उ०--१ तांहरां वीह कही धन्यं व्कूरांणी नृं ज्िणि कुवरजी नूं इसा रिभाइया । --कवरसी सांखला री वारता उ०--२ तात को रिभायी त्योही भ्रानद भ्राघायात्‌। --ऊ.फा. रिभकाणहार, हारो (हाये), रिक्ाणियौ -वि० रिभायोडो--भू° का० कृ० ' रिार्ईजणो, रिभाद्जववी--कमं वा. रिकायोड़ो- देखो ^रीकायोडौ' (₹. भे ) (स्तनी. रिभायोडी) रिकरावणो, रिक्ाववी- देखो .रीफाणो, रीफावी' (र. भे.) 2 त वा ) श उ०-१ मात्रा दडक वररिया, इरा विध, दुद उदार्‌ 1 (किरन' रिभ्ावणं जस कियो, रामचद रिरवार । --र. ज. प्र. उ०--२े काती, महीन दीवादठी श्रावं वेटा, ्ररखउणरेदो दिन पेष्लां भ्रावे घन तेरस । सेट साहुकार उण दिन सगठोई गणौ गांटीर पसा-टक्का वारे काट श्रर्‌ दरवाजा वंद कर्म रातरा 1 9 ए ` क ए १) लिद्धमी नं सिच । --रानवासौ , उ० --३ राज रमणि महाराज रिभ्ववं } ग्रति हित निरख हरख ¦ उपजात 1 --रा. रू. ' रिभावणहार, हारौ (हारी), रिभावणियो--चि. , रिभाविश्रोड, रिश्ातियोडी, रि राव्य - भू. का. कृ. । रिभावियोड़ो-देखो 'रीकायोड़ौ' (रू. भे.) (स्त्री. रिभफावियोडी) रिद-देलो 'रीठ' (रू. भे) उ०--पन प्रवर पिसन पिके न पिद रजवट ब्द र्रीरद्टरि। ¦ | । स्भिावीजणौ, रिभकरावीजवौ - कर्मवा. | --ऊ. का. ` प्टुनिमि-सं. पु--जनियों के वावसे श्ररिहन्त, रिष्ट नेमिनाथ । ठ, स्ठि- १ देखो ^रीठ' (रू. भे) ही भला त वप्पड्ा, धरणि न मृक्कड्‌ पाद्‌ । -द). मा. ४१६६ रिणकाती [र टसं. स्त्री. धूमग्रभा नामक नकं (जन) रिड-सं. पृ. - कष्ट, दुख । उ० -मारू, धांकट देसड्द्ट एक न -भाजद रिट | ऊचाष्टक प्रवरण, कड फाकठ, कड तिद । -- दो. मा. रिट्-मं. स्त्री.- भेड्‌) रिरगरण, रिखगणि --देखो ^र्णागण' (रू. भे.) उ०--१ कूर परंडव कटठहिया, उभे कृर-गमेत रिंगण । हग्रौ जमि भारत्थ, खपे ग्रदद्ारह्‌ खोस । --गु. स. व्र. उ०--२ सड मुं रदवदर्‌ रिरंगणि, लोही तणा प्रवाह । ऊं हायि प्रयुर पोका।रद्‌, पाववदि पाडटड घाह्‌ । --का.दे.प्र, रिण-सं. पु. [सं. कण| १ कर्जा, उवार्‌ । उ०--१ रिण राखियौ घौ राजनि, मिढटसां नक्रं मुभ. मन) कर उरण "वूभेणः कन्मोयर, रांश श्रढारट्‌ रायदूर । --दुरौ मादौ उ०--२ रौग मोक दुत पाप रिण, ए मतकरो प्रतरेस । रट श्रनीत ग्रनीत विरा, दाता हदं देत, --ां. दा. २ दुर्ग, किला ३ जल 1 ४ भूमि। ५ देव चऋषपि ज्रौर पितरों के उटश्य स्ते किया जाने वाला यज्ञ। ॥ ६ वेद्राध्ययन ग्रीर सन्तानोत्पत्ति नामफ़ कर्तत्र्य । रू. भेरि, रणी, रिणाउ, रिनि। ` मद्‌.-- ररौ । २ देसी ^र्ण' (रू भे.) उ०--१ रिणमालीत कटै रिण ष्या, ग्रचड़ त्तियागी बोल ट्सौ । सरह विडार किसौ जीवरन्म, केर स्यां सायकरिसो। -द.दा. उ०--२ रिणनहंभीनी रवर मृ. मद सूं गोठ मभार । मा मादद्िया मुहु, व्रधा कियौ विस्तर । --वां. दा. उ०--३ यान पकड निग्र मौ प्राणौ । रिण गुण पर संभाठ --रा. रू. (अर. मा.) गांखौ ] रिण श्रसेल-वि.-यृद्ध में पीन दृटन वाला वीर, योद्धा । रिणउ - १ देखो 'रिणि (<. भे.) उ०-श्रवसर देखी अ्रधिक्रउ ग्रोद्धर व्याज लीजद दीजड, देस देसना श्ररण पृद्धीद, जीरण्ण रिणउं दांधं पांजरे करी दीजट, --व. स. २ देखो ^रण' (रू. भे) 1 , रिणिका-सं. स्वी. ~ एक ध्वनिं विदोप 1 ¦ रिणकालो-- देखी "रणकालौ' (रू. भे.) उ०--श्रति धरण ऊनिमि प्रावियडउ, भाभी रिटि भडवादट्‌ । वग | उ० -- "वालौ' भासौ भल्लियां, रिखकसली राचत्त । जुध वी वैली जिहां, तेजा" सूजावत्त । --रा. रू. रिशकाहल रा रिणकाहल-सं. पु.- युद्ध का वाद्य विदे । उ०--कीवउ कूच पीयांण॒डइ नवड, श्रावयां कटक धांण से सवद चिह्‌ पहुरे रिणकाहल देई, कटक तोरकड्‌ विलगा जदं । - काः दे. प्र. रिणखंम- देखो 'रणथंभ' (रू. भे.) उ०--त्‌ राजा रिणखंभ घीर्‌ दढ धंभ वरावर । नवकोटी सवी, तेरे साखां उज्जागर । --गु.रू.वं. रिणखेत, रिराखेति, रिरसेत्रि -देखो 'रणाक्षेत्र' (रू. भे.) उ०--१ श्रई तौ रिणखेत में सूवणौ पडसी, प्ररं भोठ्ा बवाड़वी थनं किण भरमायौहैसौ इणधरमे सूटणरी उमंग करनं प्रायो ग्रठे सूरवीररौ धर छै मार नांखंला । --वी. म. टी. उ०-२ ते राजा नरपिधदास सारीखा। वतीस सहस साह {वेति मेल्हि चाल्यड । --ग्र. वचनिका उ०--२ साव्छ सीह मलिकज हृता, प्राणद वंदि कस्वा जीवता । दीं इभ्य अरम्हारइ नेतरि, सादी मलिक पडिउ रिणसेत्रि । -कां.दे.प्र. रिणलर्-स. पृ---युद्धस्यद्ट, युद्धभूमि । उ० ~ उपडी वाग श्ररजणणष्टुरी, सूर घीर सत प्राग । तिण दीं रदै ' दरूगर” तगौ, "राघवः भाटी रिणछढं । --गु. रू. व. (ना. डि. को.) रिणगहिलौ -देखो ^रणगदहिलड' (षट. भे.) रिणगजण-सं. पू.--वोड़ा, श्रदव । पहिला । गदर गंज ऊखिय --रा.ज. सी. उ०--पड़ ऊपडिग्रइ पहिल रिणगहिला । रिणघोर-सं. पु-- रणा नाद, समर-नाद,। उ०-- कड श्रोरड बाहड रिणघोर, जरूभद रांणी जाया जोर । लालचद कहै समभ सूर, दोन्यूं दल वीरारस् पुर । --प.च. चौ िणदछोड - देखो 'र्ण्टोड' (रू. मे.) उ०--पह्‌ चे जारि दथ छिन पाज रिणद्योड दरस कजि मह्‌- राज । --सू. प्र. २ ईइदवर। उ०--पीरदास एम दाखं प्रभु, कूडं काट्दै ककिना । रिणदछोडराय हो राघवा, रक समाप रींकेना । रिणदोडराय-सं. पु. -१ श्रीकृष्य । -पी.ग्र. रिणजंग-सं. पु.- युद्ध । उ०--प्रिथग मेक संग्राम, कियो महिकर म्राधांखह । वियौ कीव रिणजंग, दिख कटकं मेल्टांणाह्‌ । गू. रू. वं. रिणडोहण-वि.--युद्ध का च्रानद लूटने वाला, योद्धा । ४१६७ रिणधीर उ०- सीसीदौ "कल्या णा, रहै रावत निर्भमण । हरीदास रटुववड, रै कचरी रिणडो्हण 1 --ग. रू. व्‌. रिणडांण-सं. पु. [सं. स्णस्थान] युद्ध स्थल, रण॒ क्षेत्र । उ०--१ श्रावटियौी एकोहटा, दे दुरहटा मेत्दांण ! सांभर प्रायौ ग्रापरा, गा सोे रिखढांण | --गु. रू. वं. उ०-२ तीन भंडारी नीवडे, मुहतौ पडं सुजांण॒ । फौजदार वरि- यांम भड, (तंमौ' पड़ रिणटांण --गु- <. वं. रिणततली-देखो "रतत" (रू. भे.) रिणताठ-देखो ^रणताठ' (रू. भे.) (श्र. मा.) क्के उ०-१ विकराढ जोम छकिया वहै, देव मनिख ग्रहि नंह उर्‌ । रणत ग्रा मारे रवद, कट चाट पकड करं -सु. प्र. उ० --२ रिणताठ क व।जंत रीठ, दांराव वरग पड़त दीठ । घड़ धड्छं किलव धारां धिरौठ, हई जत जत पहितूं हिगीढ । --मा. वचनिका रणतो - देग्वो 'रणताठ' (ग्रत्पा., ङ. भे.) उ०--किम खावौ टाठा किसन", ते वडि रिणताठा । हवं हुक्म ती साह रा, रहूचां रवदाद्या । --सु- प्र. रिणतुटो-वि.- युद्ध स्थल मे मरने वाला । उ०--रिणतुटा सूरा भला, फाटा भना केपास । भागा भला श्रवीलणा, लागा चंदणावाम । --श्ररयात रिणत्रुर-देखो "रणतूर' (रू. भे.) उ० -कोट विनं मठ वंटे कलावतः, चौपट कर वीं चकनूर 1 म्रग्राजिया श्रणखनं ऊपर, तीडाहरं तणा रिणतुर । -द.दा. रिणयमे, रिणथंमर, रिणिथमोर-देखो (रणथंव' (रू. भे.) उ०--१ म्रीरग सुद्ध वंघव मुंह प्रागढ, थाटां विच रिणयंव थयौ । दरियर्‌ कहँ श्रचूँभौ देखौ, कमघज श्राकारीठ किय । --सुजांणसिघ राठौड रौ गीत उ०--२ हृवौ रिण्यंम निम साथ विमुहै हुवे, त्रिदिव मनव हवा तिणि तमासं । सांमध्रम दाखि केसव तण सीवनी, वरेगौ रभम सूरलोक वासे । --गिरधरदासं केसोदासोत मेडतिया रौ गीत उ० -२े श्राया साह श्रलावदी, विढ्‌ कटकां सूं वीर । मांभी रिणथंमर मृश्रौ, हठ निरवाह्‌ हमीर । --वां. दा. उ०--४ रिणथंभोर हमीर रांण चहुवांण सभर का । --दुरगादत्त वारहठ रिणथल--देखो ^रणस्थल' (रू. भे.) उ०-कटि कमल खट, उष्टक पडि, तडि तड लल थह रिणथत --प्रतापसिच म्होकमर्सिघ री वात रिणघौर- देखो "रणवीरः (रू. भे.) उ०-- पुर श्रवयसरं हूय निज पगां, मुनि वहै श्राल्रम मारां । संग रिणदेध रांम लक्ष्मणा कुमर दसरथ, धरम धूज रिणधीर । --र' ₹ रिणवंध-सं, पु.-- योदा, भट । उ०-पडे सामा से पांच, कमघ सोलंखी सो खंत। चावडां गुरण- ताटीस, रहं {रिणवंघ रिरवट । --रा, वं. वि. रिणभिक्षण-सं. पू. [स. र्ण भक्षण] लोहा । (ग्र. मा.) रिणथुद, रिणमूमि, रिणमोम--देखो 'र्णभूमि' (<. भे.) उ०-१ खगहृए खंडं खंड किरि उंडीह्‌ड, एिणिभरुड रीहड रत रिडै। वीहारी वडि वडि तूटं घडि घडि, श्रशियां चडि चडि श्रव्भ ग्रडं | -गू.रू. वं. उ०--रे हवसी दर हाकियौ, मार कमव कलठि-मूढं । गया छाड रिणमूम, जांणि पंखी हुड उत्ते । --ग. ₹. व. उ०-२ सोण भील कमकर्म, किय करिमरां चडाएु । रच सेज रिणमोम, कुसम श्ररि कमठ विद्खाए 1 --गू. रू. व. रिणमंडप- देखो ^रण॒मंडप' (रू. भे.) (ना. डि. को.) रिणमल-सं. स्व्ी.-१ देवी. दाक्ति । उ०-जेत कमंव कर जोडियां, जीहा एह जपत्त । करनट रिणमल वाचरी पाट करी त्रिसक्त --राव जेतसरी २ राव रणमल्ल के वंशजो कीएकं शाखाया टस द्ाखा का व्यक्ति । उ०--मारू जोधां रिणमलां भतत सग्रौधां भार। जांण हर्‌ घावण मत, द्रोण उठावणं वार। --रा. रू, ३ देखो 'र्णमत्ल' (रू. भे.) रू. भे--रिणमल्न, रिणम्मल । रिणमलोतत-सं. पु---राटोडवंश की एक उपरासाया इस शाखां का व्यक्ति । रिणमल्ल-१ देखो ^रणमत्ल' (रू. भ.) उ०-- सुखि जोव वेण भाखंत संभ, रिणमल्ल मांख आंरियं रंभ । -- मा, वचनिका २ देखो ^रिणमल' (<. भे.) । रिणमल-सं- पू--राटौड रिणमल के वंशजो की एक गाखा का व्यक्ति। उ०--एे भाटी दढ श्रागला, खल गंजणा दठ ढाल । मिराल सवोभा मे सृ, यां हृता रिणमाल । --रा. ए रिणम्मल-१ देखो ^रणमत्ल' (रू. भे.) २ देखो रिणमल (रू.भे.) उ०--वणि जोध रिणम्मल भ्राठवढा, करगे वल्छवंत तरतत कटा । जुघवार सिरे उमराव जिता, तनुत्रं घणी कज पांण॒ तिता 1 --रा. छ, दारा या इस १६ ~ र ~~~ त््तिषार रिणयोद्धा-सं. पु. [सं.] योद्धा, वीर । उ०-खांणौ दांणौ पूर्व, राव रण॒ रंढालं । भारथ में योद्धा भि, रिणयोद्धा जिम काल । --प. च. चौ. रिणराव-स. पु.--महावीर। उ०--“रासौ' कलियांण' तणौ रिणराव । घणा जुध वीच करं खगं घाव! सू. प्र. रिणरिण-सं. स्वरी---दुख भरी भ्रावाज, कराहने का शब्द 1 उ०-हाथां हूकलिया लटकंता लोटा, रिणरिण रकता सुपनं में रोटा । --ऊॐ. का रिणरिद्धट, रिणरीधट, रिणरीघद-वि.-- युद्ध से रीभने वाला, युद्धोन्मत, योद्धा । उ०--१ भ्राखडं जलिक सहा श्रावटियक, रिणरिदध जीपंति रिणं। सूरातन जिकं सदस वकर सूरा, पह सादा पंचादणं गु- रू. वं उ०--२ राणी मम रोइ "पिथौ' रिणर्यीयट, रिणगा छाडितिकं भड्‌ रोड । घरण शूक रिणमाल तरी धरि, हुवे मरण तिम मंगठ होड) -- प्रिथीराज राखीड रौ गीत उ०--२३ "वीकांहुरौ' सांभठं विवनौ हाथी हियेनं वलो हारि रिणरीधद रहियौ रिण माह, माकी मूवौ मांभियां मारि । --श्रासौ पिढायच रिणवर, रिणवरि, रिणवट -देखो ^रणवट' (ङ. भे.) उ०-१ पडसामासे पांच, कमय सोलंखी सौ खंत 1 चावडां गुरा- ताठीस, रह रिणएवंघ रिणवर । ---रा. वं. चि. उ<-> साल्ट सोभतु ते सभरगणि, लखण सेभटउ वीज । रिणवटि रहि श्रजेसी माल्ट्ण, माहि मूलिगउ प्रीजद । --कां. दै. प्र. उ०--३ भ्रासक्रन्न द्रढ मन्न, रतन जेही रिणवट्ां । परगद्भां दाख्वं, वारहद्रां कुलवदां । --रा रू. रिणवत, रिणवत्त, रिणवत्ता-सं. स्वी. [सं. रणं ~ वार्ता] युद्ध सम्बन्धी वार्ता । उ०--रिणवत्तां रत्ता रहै, सकता' "वीर" सुतन्न । जोडं सांम्हा ईस तणा, रिण जगदास प्रसन्न) --रा, रू. रिणवाउलौ -देखो (रणगहिलिंड' उ०-एक तणा वांचव भरतार, एक तणा फूटरा कमार । जेजे हता रिणवाउला, एक तणा मास्या माला । --कां.दे. प्र. रिणवाट--देखो "रवद" (₹. भे.) उ०-पोएे तिरसर पर्छाटं भारा, घूमाडइ रीदां दौमर घांण। दुवाहा जोव जुटे रिणवाट, घडद्धै घाड मचे धर घाट । --मा. चचनिकां ए रिषत रिणवास-देखो ^रणावस' (<. भे.) उ०-तुम कारण दूत रमिरा, सूना सांभर का रिणवास ¦ सूना चउरा चउखंडी, सूना मंदिर मटठक विलासि । |, -वी. दे. रिणसाल-सं. पु. [ स. रणशल्य ] १ योद्धा, वीर । २ युद्ध, गडा (ग्र. मा.) रिणत्तीग- देखो 'र्णसीगौ' (रू. भे.) उ०्-न क्यों कान छेदियै, न क्यो गलि-ताम लगायं। न क्यों नाद नीसांण, न क्यों रिणत्तीग वजाय । --मूरजनदास पूनियौ रिणसेक-स. स्त्री-- युद्ध भूमि । उ०- तरं श्रापरी कुख्देवता सांभरादेवी श्राराघी । तरं देवी श्रा तरं श्र कीवी-महारान तौ रिण्सेक पोठयादच, राज मोटादछौ, वस री सरम राजनं छै, पादै पुत्र नही, वसनं राज मिल्यां ही गयौ । --रा. वंसावली रिणसोर-सं. पु---युद्ध का कोलाहल, युद्ध का शोरगुल । उ०--म्रातस् घोर भिलियौ ब्रधार। रिणसोरजोर हूय रोद्रकार । --गु. रू. व रिणसोही-वि---युद्ध का उनच्छुक । @ उ०- रिणसोहा रिणसूरमावीकीौ सोम वखांणि । नायक पायक भृड निवड ररि भज श्रारणि । - हा. का रिणाई-वि. [सं. ऋण-[-रा- प्र. प्राई| १ ऋणदाता, कजंदेने वाला। उ०-दिन जही रिणी रिणार्द दरसणि, क्रमिक्तमि लागा संबु- ट्िणी । मीहि दछुडं ग्र कास पोस निसि, प्रीढा करसि पंगुरिणि । --वेलि २ देखो ^रणोई' (रू. भे.) रिणायर-देखो ^रत्नाकर' (<. भे.) उ०्--पातिसाह्‌ राघव, श्राय उभा तटि सादर । कर मंत्र चेत्तन्न, कटके लंघीद्‌ रिणायर। --प. च. चौ. रिणि- १ देखो रिणी" (रू. भे.) २ देखो “रण' (<. भे.) उ०--१ वडं कानि दढ थभ “गजसाह्‌" द८ तोड़ वदं, दछात्रपति कमव रे वौल छाय । रूकि पतिसाह दछ राजते रायियौ, भिड़ पतसराह रिण तिदहिज भाज । --चेतसी लाठस उ०-२ समभण जोग धणा र्थि साभण ददि भिगि जिम रिमां चट देस । वरद दियण लियण जस वाचा, भड़ सेवी" राजे भूते । --नाधौ वारहठ रिणिखेत, रिणिखेन्नि- देखो ^र्णक्षेत्र' (रू. भे.) उ०--१ वाथ वार्था पड वाख वांणा वणर, भिलिक मिलिक भि म्रसरां मरण । वाजिया भला रिणखेत मां वीरवर, गाजिया रामचंद किलंग करता गमर। -पी. ग्र. ४१६६ र्ति च उ०--२ प्रदू्खांन एकलड नाण्ड, जे तउ सपरांणउ । सादी मलिक ऊत्ररउ मोटउ, ते रिणसेति मरांणड । --कां. दे. प्र. रिणिताढ, रिणितादी- देखो ^रणताल' (रू. भे.) उ०- त्रिगुण किलग रिणिताढठ चिन्दैद भिडिसे श्रतढी व । तरू ग्रारं धरिगडां विलै चिदहिसं नर विमद) --पी. ग्र रिणिरित-देखो .रिणीरितु' (5. भे.) रिणिवट -देखो “रणवद्रु' (रू. भे.) उ०-खग भपट वे थपट यट खट खट, विकट भअरविग्रट चिदं रिगि- वट । -ल. पि. रिणी-वि. [सं. णी ] १ जिसने कजँ लिया हो, कर्जदार । उ०--दिन जेठी रिणी रिणाई दरसशि, क्रमि क्रमि लागा सकु- डिरि । नीठि छड श्राकास पोप निस्ि, प्रीढा करसणि पंगुरिणि । --वेलि २ जिस पर कोई श्रहमान हो, श्रहूसान मंद । ३ उपकार मानने वाला, कृतच्च । रू. भे.--रणि, रणियु, रणी, रिणि । ४ देखो ^रण' (रू. भे) रिणीरित, रिणीरितु-सं. स्वी. - ग्रीष्म ऋतु, जव गर्मी श्रधिक होती है ग्रौर जंगल में घास का पूरा भ्रमाव होता है। 5. भे.---रिणरित । रिणोद, {रणोई, रिणोही--१ देखो 'र्णोई' (रू. भे.) उ०--१ तिख समीय केडक जोगेसर श्रकल पय हींगुठा जंफरस रावे था। तिकं रिणो देखि वाता कर दै, भाई भाई, रजपृता- णियां धवड़ी रं खरौ रा लोहां वाय पौटियाद्ै, ग्नौ सुर भीवा र कान श्रायो । -जखड़ा मखड़ा भारी री वात उ०--वीभरं तरे के मीर वजरं विकर. तण खग फरहुर वीर ताटी , क्र घर रिणोहौ वीरहाका करै, ग्रजेही भीमड़ा तीर वाठी। --कुंभकरण साद २ देखो !रिणाई' (रू. भे.) रिणी -१ देखो ^रण' (रू. भे.) उ०--परगना महि इतरा रिखे लख खारी हवै । -- नरसी २ देलो रिण (रू. भे.) उ०--रोगियौ श्राप मायै रिणो, रोज दुख सुल नहीं सती । मोहनी देखि घरमसी महा, जांसौ तोह न हज जती । न्ध, वश. रिति-१ देखो रितु (रू. भे) उ०--१ सविण श्रायौ साहिवा, मोर हृश्रा महूमंत ¦ इण रित पीयर मोकटठं, कठण॒ हियारौ केत । --श्रग्यात 1 रितपरण ~न न न्---~- उ०--२ दस माप्त समापित गरभ दीव रित । मन व्याकुठ मधुकर मुररंति । कट्णि वेशि कोकिल मिि वूजति, वनसपती प्रसवती वसंति । --वेलि उ० --२ रित वसंत प्रीखमत्‌ ही, वरखा रित प्राई्‌ । सरद हैम ससि तूं सकटढ, खट रित महमाई । -- गज उद्धार २ देखो "रतिः (रू. भे.) उ०--ढोलौ रूप श्रनंग मे, मारू रित श्रवतार । भिढीया वेहुं रग- महल, कुमरी राजकुमार । -टो. मा. २ रति! उ०-वजि ्रदग चंग रंग उपग वारंग । अ्रनंग दवि चंग उमंग प्रग श्रग । नृतंग रित भ्रंग श्रंग करग नादंग । रसतर्ग वह तरंग रगरंग। -- सू. प्र. रितपरण-देखो रितुपरण' (<. भे.) रितपति, रितपतो-देखो "रितुपति' (<. भे.) (ह. नां. मा.) रितपरस--देखो 'रितुपरस' (<, भे.) (ह. नां. मा.) रितमांन-सं. पु.-- कामदेव । (श्र. मा.) रितरमण-देखो रितुरमण' (<. भे.) उ०--श्रावंत्त घोर श्रवारर्म, सोर चौर माच सधण । घोम-रिख जांखि धंहुर रच, जोजण-गंधा रितरमण । --गु.रू. वं. रितराज, रितराव-देखो "रितुराज' (5. भे.) (भ्र. मा.) उ०---सिव मूनिराव सेव इम सां । इम रितराज समं श्राराधं । (म स्‌. +° रितवज-देखो "रित्विजे' (<. भे.) रितवसंत-सं. स्त्री.- वसंत ऋतु । उ०--रित वसंत सोभंत श्रव तर मंजर श्रोपं। राः ख, रितवियौ-वि.-- निवल, श्रशक्त, कमजोर । रितवीर-सं. पू. [सं. रिक्त-वीर] तरकस । (ग्र. मा.) रितसांई-सं. पू. [सं. ऋतु-स्वांमी ] दरवान, कूकर । (ह्‌. नां. मा.) रितहेमत-सं. स्वी.--देमंत चछतु । रितावणौ, रितावयो-क्रि. स.-खाली करना, रिक्त करना । उ०--उवस वासे वस्या उजाडई, सहर करे दोय घरियौ । रीता छाल छल्या रिताव, समंद करं खीलरियौ । --जांभौ रिति--१ देखो "रितु" (रू. भे.) उ०--१ माहु मास व्रतानि, ्ररक वटो उतरादणि । सकट पल्य रिति सिसिरि, महा सुभ जोग मिरोमरि । -ल. पि. उ०--२ ससव जु वाछकपणौ सोई तौ ससिर रिति हई । सीत रितिसुतौ वतीतदहो गयी, -- वेति टी. २ देषो "रीति' (रू. भे.) नि उ०--्रावउ हौ इस रिति हित सदं यदू कुल चंद । दयउ मोहि प्रम श्रानंद । --वि, कु. ४१७० स्ति ३ देखो ^रति' (<, भ.) उ०~-निस वसियौ सुख ग्रह्‌ निज, वावे रमणि विलास । श्रस्ज करं मुख श्रौरतां, हित रिति गरम ह्लास । --रा. र. रितिपातटि-सं. पु---ऋतु परिवर्तन ! उ०-सूरज कठ्सि वठो सु कनि श्रायौ 1 रितिपालटि होए लागी । --वेलि. टी. रितिफढ, रितिफल-सं. पू. [सं. ऋतु {फलम्‌ ] ऋतु कै श्रनुमार होने वाला फल । उ* ~ रितिफल जेजे स्यटां, ते नैवेयं सार मरकलीद माधव करद्‌, मधुकर-परि भ्राहार । -मा. का. प्र. रिति राद, रितिराउ, रितिराज- देखो "रितुराज' (रू. भे.) ॐ°--१ रितिराइ कहतां वसंत तें कं पत्ना करि जन मनुस्य श्रागि सो सपरस करता था सु तें दुखतें रता हमरा । --वेति टी. उ०--२ हिवद्‌ रितिराउ कटतां वसंत रिति सखूपियौ ओवन सु ग्रापणा नाना प्रकार गुण गति मति सरित यौँपरिगह ले भ्रायौ । --वेति टी. उ०---२ तठा उपरांति राजांन तिलांमति रितिराज वसंत वैमाख मास रा ममंगठाचार्‌ विमाहरा सुख विलास करतां सरद रित श्रा = ¢ दध । --रा.सा. वां. रिती-देखो "रीति" (5. भे.) रितु-सं. स्त्री. [सं. ऋतु] १ ऋतु, मौसम । उ०--१ माते गयंद घने गरजे धन की रितु मानौ घटा घहरानी । वंक! निसान लगे फट्रांन पिसाचम्प्रेत उमंग सी श्रानी। | --र्वा. दा. उ०---२ गंग यमुना चमर दाल, छइ रितु पुस्प पुरं सरस्वती वीणां वादं, तुवर गीत गाई, रंभा तिलोत्तमा नाच, नारद ताल घरदु.““"“* -- व. स. उ०--३ छ रितु मांहि चिन विन,ए रितु रूड़ी वसंत । दवदती नू जणी रतिइ ठरीउ वेहनूं चीत । --नटदवदंती रास ख०-४ छड रितु वारं मास गणि श्रायौ फेर बसंत । सो रितु मूभ यताइ दे, तिय न सुहावं कत । --ग्रग्यात वि. वि.-- प्राकृतिक दशाग्रौ मे होने वाले परिवर्तनों के भ्रनुसार मौसम की स्थिति भी वदली रहती है । प्रत्येक वपं प्र्थात्‌ वारह्‌ मास में मुख्यतया तीन प्रकार कौ स्थवितियां श्राती ह-(१) सर्दी (२) गर्मी तथा (३) वर्पा। भारत-वपंमें क्पंभरकी मौसम का वर्गीकरण करके इसे छ भागों मे विभक्त किया गया है । प्रत्येक भाग की ग्रवधि दो मासक मानी दै श्रौर प्रत्येक भाग को एक “ऋतु्‌" माना है । इस प्रकार वयं में कुल घ ऋतुएं होती है, जिनके नाम दस प्रकार ह--वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त शरीर शिदिर 1 २ जलवायु, प्रावोहूवा । ३ ग्रव्ट-प्रवत्तक-काल । रितुकाट ४१७१ रिदय ४ उपयुक्त या ठीक समय । निर्धारित समय । उ०--उऊनमि श्राई्‌ वदी, ढोलउ श्रायउ चित्त! यौ बरसद्र रितु भ्रापणी, नइण हमारे नित्त । -टो.मा. ५ रजोदरेन । ६ रजोदशंन के उपरान्त का समय जो गर्भाधान के लिये उपयुक्त कालं होता है । ७ प्रकारा, चमक । ८ सत्य या उच्च वृत्ति से किया जाने वाला निर्वाह । ६ द्धैकी संख्या) £ (डि को.) र. भे--- रति, रित, रिति, रितु, स्त, रुति, रत्ति, रुत्ती । रितुकाठ-सं. पु. [सं. ऋतु काठ] १ रजस्वला होने का समय । (स्त्री) २ रजो द्घन के वाद १६ दिनोंका समय जवस्वी गभे धारण करने की स्थितिमे होती दहै। रितुरमन-सं. पु. (सं. ऋतु-गमन| ऋतु कालम किया जाने वाला संमोग या मंदुन ! रितुगामी-वि. [सं ऋतु-गामिन्‌ ] ममय या काल के भ्रनुसार स्त्री ससे कृरने वाला । उ०-रितुांमी ब्द सील युखियौ, पत्रोत्पत्ति फक पाई! परति * पतनी दंपति पिये प्यारी, नवला नेह निभाई । -उ,. का. रितुचरय्या-सं. स्वरी. [सं. च््तु-चर्य्या] किसी मौसम के भ्रचुदूल किया जाने वाला ग्राहार-विहार । एितुवान-स. पु. [सं. ऋतु दान] १ ऋतुमती स्त्री के साय सतान की इच्छा से किया जाने वाला संभोग । २ गर्भाघान को क्रिया । रितुपति-स. पु. [सं. ऋतु-पति) वसत । उ० तञ ग्रवतरिउ रितुपति तपति सु मन्मथ पूरि। जिम नारीय निरीक्षिण दक्षिणा मेल्ट्इ सूरि । --जयसेखर सूरि रू. भे.--रितपति, रितपती 1 रितुषरण-सं. पु. [स. व्ऋतु-पणं ] इध्वाकर वरीय राजा श्रयुतायु का पुत्र जोत क्रीडा में भ्रत्यन्त निपुण था 1 इसने भ्रापाद स्थितिमे नल राजा की सहायत्ताकी थी, स. भे--रितपरण । रितुपरस-सं. पु. सं. ऋतु-स्पवं ] भ्वान, कृत्ता । (ग्र. मा.) र<. भे---रतपरस रितुमती-सं. स्वी, [सं. ऋतु-मती ] रजस्वला स्त्री, (मादा पर्यु भी) उ०--वीं सम भूच्ण रितुमतौ हई थी सो भंडण नं भ्रासा रही । महीना पूरा हृश्रा जद चील्दर पांच जाया 1--डाढाढ्ा सूर री वातं रितुराइ, रितुराउ, रितुराज-सं. पु. [ सं. ऋघ्तुराज] वसंत । उ०--१ भरिया तरु पृहप वहै दुटा भर । कामि वाण ग्रहिया | रितेज-सं. पू. [सं. रिक्‌-तेज] तारा । रित्रुपरण - देग्वो 'रितुपरण' (रू. भे) करगि । वदि रित्ुराइ पसाई वेसन्नर, जण भुरड़ीतौ रहै जगि। --वेलि उ०--२ मीहि मनडउ म्रवधि, रितुराड वसंतनड प्रणधि, उद्यान वन भांहि श्रांशणिउ, विलासीए वलांणिड" “` --व. स. उ०-२३ स्वी भ्रमीणौ साहिवौ, वांकम सूं भरियोह्‌ 1 रणं विकसं रितुराज म, ज्यूँ तरवर हूरियौह्‌ । -वां. दा. रू. भे.--रतराज, रितराज, रितराव, रितिराद्‌, रितिराठ, रिति- राज, स्तिराई । रितुवंती, रितुवती-सं. स्त्री. [सं. ऋतुमती ] रजस्ला । रितुसनान, रिवुस्नान-सं. पु. [सं- ऋ्तु-स्नान | रजस्वला होने के चौथे दिन किया जाने वाला स्नान । रितू- देखो ररितु' (<. भे.) उॐ०-ह्रनाय "कान्ह सोजत जग कर काम श्राया श्रडतीस (१७३८) वरखा रितु । --रा. रू. --शत्र. मा. उ०--पुत्र तासु रित्रुपरण वुचि प्रकास । सूत जासु रित्रुपरण र सुदास । --सू.प्र. रित्विज-सं. पु. [स. ऋत्विज्‌ | यज्ञ मे पुरोहितके रूपमे कायं करने वाला व्यक्ति। यज्ञ करने वाला । ये सावारणतया चार होते ह ग्रौर वडे यज्ञ मे ऋत्विजो की संख्या १६ होती है, रू. भे.-रितविज । रिद-सं. पु. [सं. हृद | १ जलाशय, सरोवर, तालाव । उ०-- रामानुज रिदं गुपत रखावें, सिडियौ नीर वास सरसां । मांहि सवाल जाल नहि माव, पमे विन छांटौ नहि पाव । --ऊॐ. का. २ भील । ३ ध्वनि, भ्र'याज । ४ किरण 1 ५ देखो दहिरदौ' (<. भे) रिद्य-देखो 'हिरदी' (रू. भे.) उ०-१ ब्रह्मा विसन ईमर सुवर, केसव एक त्रय वथ किय रिदय निलाट श्रि नाभिहू, वद्या चिसन महेस धिय । --रा. वंसावसी उ०--२ कोदलि कालि माधव, मुभनडं मिलइ जांणि । राखी रीस रिदय-महि, मूढ ! मराविसि वाशि ! -मा. का. भ्र. उ०--३ माई 1 मफनड्‌ ऊपनी एक श्रसंमव व्याधि । {दयं रसोली विड्‌ थद्‌, मन नही मोरि सापि । --मा. कां. प्र, उ०-४ भाद्रवडड्‌ सरोवर भरिया, नीर निरंतर होय । रिदया- भीतरि हुं रहु, नीर निवारि न कोट्‌ | --मा. काँ. प्र. रिवो ४१७२ रिध [त उ०-५ तनु तरणा सरखु हवु, ब्रूटड स्वे हिचोलि । वनिता तुभनदं वागस्यद्‌, रहि रिद्या नी खोलि । --मा. का. प्र. प्दि- देखो 'हिरदौ' (<. मे.) उ०--१ तेज वुमेर रिदी व्ण तारी । भूप्रंग तेज उदर वण मारी । --मा. वचनिका उ०--२ रेस चित रहै चौपरि र्म, हात दाव सृंवारी। यु राखत हरि नांव रिदींर्म, तौ जुग पारि उतारी) --ग्रनुभववांणी उ०--३ स्याम भकं तांम सुखी, दांम भजे ग्रीर दुखी । सीतपती गाच सदा, राख जिकौ ध्यान रिदा। --र.ज, प्रः रिदध-स. पु. [सं. ऋद्ध] १ विष्णु का एक नामान्तर २ देखो ^रिद्धि' (र. भे.) उ०--१ जुवारौ घर रिद्ध कस, माक कंठे हार । गहूला मां वचेवडी, कुद वे कती यार्‌ । --पंचदंडी री वारता उ०--२ हरम कवीला रिद्ध तर, साथे मीर प्रचंड । इं वांसं कर चत्तियौ, श्रासा खड विखंड 1 --रा. रू, उ०--२ नठ राजा नरवर रै, श्राद्ध सिद्ध श्रपार । भली श्रनोपम भांमिणी, सुख मांसा संसार 1 --ढो. मा. उ०--४ दरसांण॒ भद्रराय स्दितणौ, श्रभिमांन कीधौ श्राप । इद्र ने परी लगावियौ, धरम तणो परताप 1 --जयवांणी उ०--५ ताहरां राजा स्याम सुंदर दीठीो, “ठे भल्यां नहीं । विरक्त दुई न ऊठि चालीयौ, राज-रिद्ध सव छेडि नं चलीयी । --स्यांमसुदर री वात रिद्धि-रां स्वरी. [सं. ऋद्धि, प्रा. रिद्धि] १ ल्मी देवी । २ परवती देवी । ३ कुवेर की पत्नी जो नल वूवरे की माता थी । ॐ गगोक्ष की ग्रनुचरी एक देवी । ५ वरुण की पत्नी । ६ एकः श्रलौकिक शक्ति। ७ धन, द्रव्य, सम्पत्ति, निधि, पूंजी । उ०-१ रस्दिनरमांगर सिद्धि नमग, मुक्ति नमांगू चडाई। साधु संगत मागत हं देवा, क्रपा कर यगसाई। -- सी सुखरांमजी महाराज उ०--२ एतली धन तौ दीक्षं नही, क्यारई थी काढ दं सही, तेह नं पासे छ कांड सिद्धि, खरचतां चट नदं रिद्धि -वि.कु. उ०--३ पुश्र कलत्र घर यौवन रिद्धि, देव लोक नी श्रनंती सिद्धि! संसार मांहि खड सह सतंभ, जिण सासण एक दद दुर्लभ । -- वस्तिग ८ पेदव, वैभव । £ सफलता । १० वृद्धि, वदढोतरी 1 ११ पणंता। १२ एक लता विदोप, जिसका कद श्रौपघ के काम भ्राता है। १४ वयक में श्रष् वं के श्न्तर्गत एक श्रौपचि । १५ श्रार्याया गाथा छन्द का भेद विशेप जिसमें प्रथम चरण में ६ दीवं वणं सहित १२ मावराएं द्ित्तीयं चरणामें श्राठ दीं श्रौर दो हस्व सहित १६ मात्राएं तृतीय चरणमें ६ दीर्घं वणं सहित १२ मात्राएं- श्रीर चतुथं चरण मे ७ सात दीघं वणं एक हृस्व सहित १५ माव्राएं कुल ५७ मात्रा काद्धंद विशेप। रू. भ.--रिदढ, रिद्धी, रिध, रिषि, रिवी, रिधु, रिधु, रीध, रिष्चि, रुद्धि । रिदिवत, रिद्धिवती--धन एवं वमव का स्वामी । उ०--वीर कटै सुण गोयमा, भय नहीं पर चक्र नौ कोय । तिहां ुमुख' याथापति, ए हती रिदधिक॑तौ सोय । -जयर्वांणी रू. भे. - रिघवंत । रिद्धिसिदि-स स्वी. [सं. ऋद्धि-सिद्धि] १ गणो की दो पत्नियां, ऋद्धि एवं सिद्धि । ये घन, समृद्धि श्रीर सफलता प्राप्त कराने वाली दो देवियां मानी जाती है) २ सभी प्रकार कौ समृद्धि, वभ श्रौर घन-दौलत की परिपत्र की श्रवस्था । र द्रव्य, समृद्धि । रू. भे.--रिघस्तिव, रिधिसिधि । रिद्धी-देखो रिद्धि" (रू. भे.) उ०--१ मेव कूवर जिम महिमा कीवी, ग्यात्ता में प्रसिद्धीजी। माता पिताएम्राग्या दीधी, महोच्छव कियौ श्रति रिद्धी जी। --जयवांणी उ०-र ध्यान साथ सिद्धी जसे ग्यान साथ रिद्धी गेह, नीती साध निद्ध नव सेस रघुराईके। --ऊ. का. रिद्धा-देषो 'रिद्धी' (मह. रू. भे.) उ०-ए संसार श्रसार छइ, दछोडड राज नद्‌ रिद्धौ जी । तप संजय तुमह श्रादर, सीघ्र लहउ जिम सिद्धौ जी) --स. यु. १6 रिध-सं. पु.-- १ तरह, भांति, प्रकार । उ०- सुजड-हथा “्वांडराउ" समोश्रम विधि वी रात्तन वैर विधि । रोपे जर्ई पवंगि श्रासण रिध, रिि तई भजे राज रिचि। -गृ. र<. व. २ घर, मकान । ३ वडेभोजमें सर्वप्रथम निकाल कर सुरक्षित रक्खा जाने वाला भोजन का ग्र्य। । ४ देखो "रिद्धि" (रू. भे.) (ना. मा. ह. नां. मा.) उ०-१ दियण बुद्धि रिध सिद्ध, विघन छेदन लंत्रोदर । नार्िध 1 रिधदाताः हणमंत, भ्रचक्छ नहं खंड श्रम्मर । -गु. <. व॑. उ०--२ राख संप जिका घन राख, वांकौ दां साच विव। न्याय नीमडं जितं नीमडं, राज चदं ज्यां तंसी रिध । --रवा. दा. उ०--३ धिगु पुरोहित रिष तज नीसरयौ 1 भरुपत रे धन लावण रौ काम] --जयवांणी रिघदाता-वि.- दानी । उ०्-नाकारौ जांखं नही, उमौ जा लग प्राय 1 ` रिघदाता रेसां- मेयौ, उणत्त श्नं श्रनाय , -रेसमीयं री वात रिधवत-देखो 'रिदधिवंत (र. भे.) उ०--भदलपुर माहे वसे जी, ^नग' सेठ रिघवंत । “सुलसा' तेदने मारिया जी, रूप मे घणी सोहत । -- जयवांणी रिघसार-वि.-घनवान, अमीर रिधस्षिध -देखो रिद्धि सिद्धि" (ङ. भे.) उ०-१ समाप वांभण नां रिधत्तिघ, दमोदर दान बड़ी तं दीध 1 -पी. भ्र. उ०--२ सहजां जोग जुगती भी सहजां, सहजां रिधसिघ दासी । सहजां भिगन व्यान धनि लागु, सहज मिल्या ग्रभिनासी । ध्र --श्रनुमव वाणी रिवि--देखो °रिद्धि' (<. भे.) उ०-१ जेि जई नल राजा ज्याच्युते बीजी वारनवि मागि । श्रनेक्य यग्य करी धन खरचूं तोहि रिधिन मापि -- नठा्यान उ०-२ राजा रिषि छंड श्रापणडदं ईण परि एूरजई मन की श्रास --वी. दे. उ०--३ दीपौ वाठकिसन्न तण, पण ऊधरं विभ्रास । साथ लियां रिपिामरी, नव दही रिद्ध निवास । रल रिधिसिधि-देखो "रिदिसिद्धि' (₹. भे.) उ०-रिधिस्तिधि सव ही दासी, जोई दाथ खडी । इनके रंग राचे नहीं कवं, श्रात्तम जण जुड़ी । --सी सुखरांमजी महाराजं रिघी- देखो 'रिद्धि' (5. भे.) रिघीतिघी--देखो ^रिदि सिदि' (रू. भे.) रिधीत्तिधीदाता-सं. प.-१ गणेश, गजानन । सं. स्त्री.-२ लक्ष्मी । रिधु, रिधरू-सं. पु.-- १ निदचय । उ०-सटकोय साजत करी सुभडां विरद कल वरिर्याम \ कुट जनक कूमरी व्याह्‌ करपी, रिव वरसी रांम। --र. शह. वि.--प्रटल, स्थिर । उ०--१ सार आचार कुठ भार घरियां सरिद, सुतण सादूल' | रिपपतंग-सं- धु. [पंतग+रिपु] दीपक । जमि दीद सां 1 रदहीनी एतला धोक फादम रिषु. पव | रिपवठो-स. पु.-- एन्द्र । ई १५३ रिपब्द्टी __„_._„___ ~~~ ~~~ --------------------~---~---~-------------------------- ~ ------- ~ ---~-------~------~--~--~---------~---~-~- नौला" तणौ चचन राजं 1 --नाथौ साद्‌ उ०-- पठ दूरगं वडा धातिया प्रवाडा, कवेसुर बात जुग च्यार कहुमी । रांण चीतौड रौ राज पायौ रिव वडा राठौड़ रौ श्रांक वहसी । --दुरगादास राठौड़ री मीत २ रिद्धि वाला, धनवान, समृद्धिशलाली 1 उ०--शरिधू गोत कनवज्ज रहायौ । श्राप चमू संग दरस श्रायो । प्रसन करं जिण सारंग पांणी, एकण छत्र घरा घर भरंणी । --रा.रू उ०-२ रिध साज पाता भदा काजिदखूपा, इकां एक वाध श्रनूपे प्रनूपा । --रा. स. ३ उत्तम, श्रेष्ठ । 9 . उ०--गोयेद' "मगवानौ' फतौ", ए धांघल्न उदार 1 रेणायर प्रोहित रबु, याद्टदास सिकदार | --रा- छू. क्रि. चि.- १ हमेशा, प्रतिदिन, नित्य, उ०-जोय दिन वीज वंद जगत जेराने, रिधर वदं तने सुजस रोडं। तितर गण इवक वाखांसाजे ताहरा, जांणजं किसी विध चद जोड । --र. रू. २ देखो रिद्धि" (ख. भ.) उ०--प्रइयौ सगति प्रनत, प्रगट क्या सारी प्रथी । मुंदराठी ममत रातंखी तुं हीज रिवु। -- मा. वचनिका रिष्वि-देखो "रिद्धि" (<. भे.) सिनि- देखो ^रण' (<. भे.) उ०--मारी तुज्ज भरोस्र। रिनि मे थित वापे रद्धा। खीची लीनी खोस सारीमो वाली सुर। २ देखो रिण' (₹. भे.) रिप-देखो "रिपु" (रू. भे.) (ग्र.मा. ह्‌. नां. मा.) उ०--१ सत्थनको वक हत्य के, नां जीपे छक मत्त । ज पाम रिप संग्रहै, तप हुता छत्रपत्त ` --रा. छ. उ०-२ सुजड हथा शचवांडराउ' समोश्रम, विधि वीरातन वैर विधि। रौपे जई पवगि प्राण रिध, रिप तई मंखरै राज रिपि। --गर- रू. वं. --पा. भ्र. रिपदयौ-देलो ^स्पयौ' (रू. भे.) उ०-- गजर मस्या पांच रिपहया, वीं पकड़ाया सात । गूजरकौ नं राजी करक, मींडौ ल्याया टाक ! --डंगजी जवारजी री छावनी रिपनार-वि---यन्रु के च्रागे नही भुकने वाला । उ०--रिपनाट परमढ हाट रावठ, धरण परधर धाट । पित्त-पाट- राखण पाटपत, नृप काट हूत निराट । --र्नणसी (नां. मा.) (ना. ड. को.) रिपयो ~~ रिपयौ--देखो ^रपयौ' (₹<. भे.) । १ रिपव-देखो "रिपु" (<. भे.) । ^ रिपियो-देखो ^रपयौ' (र. भे.) । उ०--१ रिपिया हाय वसू कर परार पद्य व्याह री वात कया । --दसदोख उ०--२ इतरौ कहि रिपिया पांच छडीदार नं इ्नांमरा देय विदा कियौ । --पलक दसियाव री वात रिपु, स्पुगग-स. पु. [सं. रिपुः] १ शत्रु, वैरी, दुरमन । उ०--१ करि सारत श्रत दच्वि ईख नरपत्ति प्राडंवर । सिर स्कर दौडियौ, जांण कोपे रिपुं सवर । --रा. सू. उ०--२ सादर श्रमगठ सिह सावज, ग्रीठ केट्र मयंद रिपुं गज । वाण बाघ लंकाढठ वनरज, दोख गम दाढाठ । -गु. र<. वं. उ०-३ जरा रिपु भेसज के दिग जाय । महाजन जामा मरण मिटायं । --ॐउ, का. उ०--४ भूप श्रनम्मी भाव्वा, घण रिपु करण संहार । ए कूरम इठ पर उभे, जनम्या दग जुहार 1 -इगजी जवारजी रौ गीत उ०-५ रिपुग्ग देत्य केस सी, श्रजेत सुत्लती रहै । .विजेत वीर वंस्‌ की विनेत धल्लती बहे । --ॐ, का, २ गुणोंकीटष्टिसे वह वस्तु जो किसी भ्रन्य वस्तु के प्रभाव या गुणों को नष्ट करने की क्षमता रखती हो । ३ जन्म कुण्डली मे लगन से छठा स्थान । रू. भे.--रिप, रिपव । रिपुता-सं. स्वी. [सं. रिपु-~प्र-ता] १ शत्रुहन की श्रवस्थाया भाव) २ दृरमनी, रात्रूता, वैरभाव । रिपुप्रताप-सं. पर--शतरु का प्रताप, प्रभाव, रोव ) , वि.-गमे) * (ड. को.) रिपू-देस्नो "रिपु (रू. भे.) उ०-कांमरिपुक्‌ सीलसू मारवा, लोभ कूं मारया त्याग कोधकू श्राय, संतोख. मपेस्या, मोह्‌ क्‌ ले वैराग । 2. --सी सुलरामजी महाराज रिप्ियौ -देखो ^रपयौ' (र. भे.) | रिवकणौ, रिवकवो-क्रि. समइवर उधर भ्रावारा फिरना, घूमना । रिवकौ-सं पु--कष्ट, तकलीफ । रिबिणौ, {िविबो-क्रि. श्र.--१ कष्ट पाना, तकलीफ पाना । २ व्याकुल होना, चस्त होना 1 ३ तडफना, छेटपरना । रिवियोडौ-भू. का. क.--१ कष्ट पाया हुश्रा, तकलीफ पाया हुभा. २ व्याकुल हवा हुग्रा, त्रस्तं हुवां हृभ्रा. ३ तड़फा हा, चट- ४ १७४ , पटाया हूग्रा । , (स्वरी. रिवियोड़ी) रिभ, रिसं पु. [सं, ऋभु] देवत्रा । (न. मा, ह्‌. ना. मा.) रिभरकी, रिभुसी~स.*पु. [स. छमृक्षिन ] इन्द । (शर. सा, ह- ना. मा) ,रिमंद, रिम-सं. पु. [सं. श्ररिम| शत्रु, त्मनः, वरी (श्र. मा.) ' उ०-१ वाये ऊंचांणा सुमेर पाथं तेरसां भ्रचूुक वांण॒ । रांणवाढरा" , राडि येवं वेरसा- रमाज। रिमदा उवे जाह त्ेरसा गजांरा , गौड़, सांमतां स्मान राख येरम्रा समाज । । -- सनमांनसिघ हाडा रौ गीत, उ०-२ तीर कवांणां तोकि, रिमां उपर रीस । गणां पोस नत्रीठ, पीठ चेटक खग पांरां । --मे. म, <. भे--रिमि । रमक किमक-देखो रिमकिमक' (,भे.) उ०--म्हारं रिमककिमक भाती श्राज्यौ । वीरा, म्हारे काना ने पत्ता लास्यौ | । --लो. गी. , रिमजोढ-देखो "रिम" (₹<. भे.) उ०्- भ्रौ कोई गणौ थोडी ई टै जकौ थांरा पगमें पजाव्‌ं । मोती जड़ी रिमनो्ां रं रगडकीौ लाग जावैला । -फुलवाही रिमशिम-सं. स्त्री. [ग्रनु.] १ छोरटी-खोरी वृदो मे धीरे घीरे होने वाली वरसात, वर्षा की हत्की फूटार 1 उ०-मन रो भेद लुकाती, नेणां श्रांसूडा द८काती । रिमिम ग्राव चिरखा वीनसी । --चेतमांनखी २ षैरोंकी पायल या नूपुर श्रादि की घ्वनि। | , उ०-रिमकिम रिमणिम विदिया वाजे । ठनक ठनकं वाज , पायलड़ी । होढी श्राई ए । प --लो. गी. ३ घ्वनि, शव्द, भनकार। । । उ०--१ श्रासी ग्रो वाजी । पाल भंवर री जान कोड, रिमभिम , करता श्रासी करला-घोडला, ए मोरी सदयां । -लो. गी. उ०--२ भटहढ छकड़ा पासरां रिमक्िम, अ्रलवछता भ्रसवार उभा) दहं दलि वीचि वाजिया दमांमां, सामं तौ उपरं सुभा । . । --युभराज गौड रौ मीत क्रि. वि.-१ छोटी-दोदी वृदो मे, धीरे-घीरे । उ०--रेवड वाकं रौ श्रलगोजौ गृज उय्यौ। रिमकिम-रिमसिम मेवलौ वरस । श्रत॑में ही अ्रचाण॒ चकौ पून रौ एक लहरौ श्रायौ , भ्र वादी उडगी । -कन्टैयालाल संखियौ रू, भे.---रमांफमा, रममम । रिमकोढ-स- स्त्री.--१ स्त्रियों के पावो में पहनने कौ धुंघुरूदार चूडी, [| || पायल, नूपुर । उ०- रंगरंगरी पोसाकां करि श्रावं छे । जिके ्रपछ्राकासा रिपभ्िमक मूल दरसावं छं 1 धघमकतां रिमभोढां गोर कनं श्राद्‌ 1! -पनां उ०--२ श्रा रिमर्रोद्ठां री रिम्मां-भिम्मां रणक सुणीजी । इण रणक सूं ऊंचौकींनादनीं। --फुलवाड़ी २ मस्तीमे घूमनेकी क्रियाया भाव । उ०--किरडा कर रिमशोढ, डोल उब्टयां रंग चौकठ । ऊदरियां री ग्रोठ कोठ विल जड़ा ट्टोतं । --दसदेवे रू. भे.--रमजोट, रमभोठ, रम्ोढी, रमिभोठ, राम कोठ, रिम- जोठ । रिमकिमक-से. स्त्री.--पायल, नूपुर या घृघरू प्रादि की ध्वनि, नकार, ध्वनि । । ङ. भ.--रमफमक, रिमककिमेक, सुमकमुमक । रिमणो--देखो 'रमरखी' (<. भे.) रिमयाटन्रुर-वि.--शन्रुदल का संहारक । उ०--"राजौ' निराट रिमयाटनच्रूर सांवकर' सूतन्न ऊजनी सूर । ग्रभनमौ भोज श्रणन्बूट चा । घण कोपि त्राव घड वरण घाद । --गृ. रू. वे. रिमपथल्ल-वि. - गान्रुदल को गिराने वाला, पराजित करने वाला । के उ०--"देदौ' भिडंत दाठक्क मल्ल । “रांणावत' ष्क रिमपयत्ल 1 ` -गु.ख्-व. रिमराह-सं. पु.--गव्रुश्रो के लिये राहुरूप । शच्रुप्नो के लिए काल ` सूप। उ०--१ पठ सरटा पततिसाह, कर्‌ भ्रावध वाह किलंव । मारहृ्थे मरि मारिरे, रिण गौदौ सिमिराह्‌ । --वचनिका उ०--२ हाथ खट पटकं केह्री हृठमल, रायसाल दूजौ रिमराह्‌ । चौं येतत श्रखाईं ग्रणचटठ, वांकड़मल श्रोखटठ सखगवाह्‌ । -- ठाकुर नवलेसिध सेखावत रौ गीत ॐ०--२३ रिण -दूल्टौ रिमराह्‌, इद थपूं उथपूं । प्रकह कटंरी करे, श्रवस पदमिण तूं रपुं । -- मा. वचनिका उ०--४ थह कोट ऊथाप धरा थरस्लं, रिम रेषां रेमे रिमराह्‌ । रायांपाद् वसे रढ-रामण, वाघां दहं विच वाराह्‌ । --राव राययाठ रौ गीत रू. भे.--रिभांराहः रिमिरहु, रिम्भराह्‌ । रिमरेसौ-वि.--र्रग्रो को पराजित करने वाला । उ०--थह कोट ऊथाप घस थरसलै, रिमरेसां रेसे रिम-राह्‌ 1 रा्या-पाढ्ध वसं रढ-रांमण, वाधां दहं विच वाराह । --राव रायपाद्ट रौ गीत रिमहर, रिमहरि, रिमहसे-वि.--- शत्रु वंदाज, शत्रु । उ०-ऊभस्तौ तुरी अ्नागौ प्रस्मरि, समहरि भगत सिवा सिव ई १७५ रिभ्नराह्‌ साज रिमहरि रूहिरि मृड “रतना! हूर, कुट वट करं इसट वट काज । -- महाराजा राजति राठौड रिमां राह-देखो रिमराह्‌' (₹. भे) उ०- देवडौ “ग्र॑चठ” दोमज दुवाह्‌, "रावत्त' समोश्रम रिमांराह्‌ । “ङगरे” मेर" “परवत” “माठ, ्ररवह्‌ श्रडार-गिरि उजाद । ) | --गृ. <. वं. रिमासाल-वि.गतुभ्रों के लिये शल्य रूप । उ०-- महाजोर शवाला' ्रनं जतमालां, धरौ भ्रग्र वागा खगे जंग ढालां । रिमांसाल पातां “भदा ढाल 'खू्पा' जुडं 'उहड' वंकड़ा भार जपा । --रा. रू. रिमि--देखो !रिम' (<. भे.) उ०--रिमि रूप रमाया खठ सहि खाया गेम माया गरा गाया। धिणीयांणी धाया विलंव न लाया ब्राराधां नां सुखि श्राया । --पी, ग्र, रिमिकिमि -देखो ९रिमक्षिम' (र<. भे.) उ०-रिमिक्िमि रिमििमि भिकिम कंसाल कररि कररि करि घट पट ताल 1 भरर्‌ भरर सिरिभेरिश्र साद पाथडीउ श्रालवीद नाद । --हीराणंद सूरि रिमणो, रिमवो-देखो “रमणो, रमवौ' (रू. भे.) उ०--दईव दर्ईतां सरिति धरिणि हेटी दिये, लाद्िवर दर्त रौ मांस कडपे लिए समदरं परा पांनि वड़रं सूत्रं, जोरावर दर्ईत सांभलौ रिनियोौ जुं । --पी. ग्र. रिमिराह-देखो रिमराह' (रू. भे.) उ०-- साध गरीव सुघारिसे, रिमां तरणौ रिमिराह । पिडतां पाट पघारिसे, पचिम तणौ पतिसाह --पी. ग्र. रिमुकत, रिमुक्त-स- पृ. [सं. ऋमृक्त] ४६ कषेत्रपालोमेंसे ८ वां त्र पाल । रिमेस-सं. पु--शव्रुशनो का श्रधिपति। ०--दां खुर खंडतं चापडं धज दसं देस, पूर भै रिमेस करे, दरवेस वेस नूर चिकतेस ववे सखीण कै लंकेस नूर, धिवेसूर हिदरा दिनेस कमंघेस । -देवारकादास्न दववाडियौ रिभ्म--देखो ¶रिम' (रू. भे.) उ०-- (महा) मौड मृूरवर तणां खलां दलं मौडतां, दौड़ पतिसाह्‌ सुः करं दावा । रौड़ रमतां थकां चौड रिम्म च्रुरतां, ठीड्‌ ही ठौड राठैड ठावा। रिम्मसह-- देखो 'रिमरह्‌' (रू. भे.) उ०~--रतनसी चईनउ रिम्मराह्‌ । सांकड़्डदे सत्रां सामी सनाह्‌ । --रा. ज. सी, ~व, व, ग्र. रिर्याण रियांण-सं. पु-- १ सगाई ठहरने पर वधू के पितादारा ग्रफीम गलाकर ग्रपने भां वंघो व संमंधियों को पिलाने की रस्म । (वामी) २ श्रथाई, वटक । रियार्ई-देखो रिहाई (<. भ.) रियवेल-सं स्त्री---एक लता विदोप । उ०--सोनजुह्‌ रियावेल चंवेल चवेली के फुलवाद मोगरे की महक गुलाव फुल्‌ कौ सुगृघ जवाद । --सू्‌. धर, रियायत-देखो "रिश्रायत' (रू. भे.) रियासत-सं. स्त्री. [श्र.] १ भारतम व्रिटिश-शासन के ्रन्तगंत देशी राजाश्रों के राज्य । २ वह्‌धरैत्र जो किसी एक राजा के शासन में हो । राज्य । रू. भे.--रयासत । रियासती-वि.-रियासत का, रियासत सम्बन्वी । रिरयोडौ-देखो "रीरायोडो' (शू भे.) (स्त्री. रिरायोड़ी) रिरावणी, रिराववौ-देखो (रीराणौ, रीरावी' (< भे.) उ°--भुवाठी खावतौ फिरं। घर धरगेडा कारै। भिनखांमें रिसवे, लीलड़ी काढ । गब्हायांरी गरज कर, वकीलतां सूं वेभम राखे । - दसदोख रिरावियोड़ौ--देखो "रीरायोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. रिरावियोडी) रिठ-सं. पु.- मिलने या एक होने की श्रवस्या या भाव । रिलिकियी-सं. पु.-फटे पुराने वस्त्रों (चियड़ों) कौ वनी हृरद घोरी ग्रही । रिटणौ, रिढवौ- देखो ^र८णौ, रख्वौ' (रू. भे.) उ०-१ रामनाम रग रिव्ठ कामिनि कुंग किठ, मोडनके संग माजनौ -गमातौ । --ऊ. का. उ०--२ पड चख नीर र्दः प्रथमीज, भूवा उर भीडव लीन भतीज । -पा. प्र. रिठणहार, हारी (हारी), रिढ्णियो - वि. । रि्िश्रोडी, रिचियोडो, रिख्योडो--भू. का. क. । रिद्ीजणो, रिठीजवौ -भावे वा. । रिछमिढ-क्रि. वि--हिलमिल कर, सम्मिलित रूप मे, एक साथ । उ०--दसडी ववावौ सायवा, मोल मंगायदो जी । देवर-जेठाण्यां रिट भिढ गावस्यांजी। ---लो, मी, रू, भे.---रख्मिट, रलमल । रिदनिठगी, रिटमिववी-देखो 'रखमिट णौ, रठमिठबो (रू, भे.) ४१७६ रिषाम उ०--तूटं घर सांवी लगे, सूनं महूत चिराग । ठा राजद रिढ्मि, ग्राइयौ मित एेराक । --फुलवाड़ी रिढमिलियोडो -- देखो ^रठमिल्योडी' (रू. भ.) (स्त्री. रिठमिष्योडी) रिदाणौ, रिठावौ -देखो "राणी, रखावौ' (रू. भे.) उ०--१ वेठ्क करौ तौ मुवा चांदणी रिक्ाऊंरे। प्रेमदही प्रताप सूवा भांभरी वजाऊंरे। --मीरां रिढायोडी-देखो ^रखछायोड़ौः (₹5, भे.) (स्त्री. रिकछायोडी) रिल्वियोड्-देखो 'रव्योड़ौ' (रू भे.) (स्वरी. रिदियोड़ी (<. भे } रिव-१ देखो ^रवि' (रू. भे.) उ०--१ कमठ भार कसमस्स, दाद वाराह खडक्कं ! मंड मेर मेखठा घमस धृष्टी रिव ठक्कँ । --गु. रू. व. उ०--२ सवन्मं सांड निवन साधारण. ब्रव तरू सांगा वर्धीर। किव रांणा कीवा कंलपुरा, हिदिवांणा रिव विया हमीर । --हरिदास वारण उ ०--२े तिवर गया रिव तेज तं, तेज गया निस पात । हरीया ग्यांन विचारते, होय करम का नास । --भ्रनुभवर्वांणी २ देखो ^र्व' (<. भे.) उ०--रांक सां कर रिव परी केरी, सूमवातदं मेल्ही फेरी । तीणि बात मनि हउ लाजडउं, सन्य कौरव तयो नवि भाज । -- साति सुरि सिवता, रिवताढौ ~ देखो "रावतानौ' (रू. भे.) उ० - सुरतां इम तांखिया धांसाहर, कोटं लग छविया कटक । ऊभा पणां न देसी इजत, रिवतष्ठी लेसी रटक । --बल्टवंतसिह हाडा रौ गीत रिवमंडकछ-देखो "रविमंडढ' (<. भे.} उ०--है-खुर रज उछी रजी लग्गी रिवमंख । चडी सेस सिर- त्थ, पुहवि गाहट पग्गां तठ । ग. <. न. रिवदास--देखो 'रेदास' (<. भ") उ०्--यासू दाप्त कविरा नांनग, काढ 'र जाट कटी) यासं जन रिवदास उधरिये, मीरां वाक्त वनी । --्रनुमववांखी रिववंसी--देखो "रविवंसी' (<, भे.) उ०--रिडमल पाट जोव रिववंसी ! इठ रखवाटठ ययौ प्रम भ्रेसी । गे 40 | रिवाज-सं, पु. [अर.] प्रया, रीत्ति, रस्म) रू, भे.--रवाज, रवेज । --रिसपष्ेव रिवी-देखो ^रवि' (₹ू. भे.) रिवीसूुत - देखो ^रवितनय' रिस्श्र-देखो "रिति" (रू. भे.) रिसगारो-वि.-- कोची स्वभाव का। उ०--सखीवौ रिसगारौ धरणौ, हं समकाऊं जाय) फिकर करो ना ठाकुर, मन महं धीरज लाय । --सूरं खीवै कांधठोत री वात रिसणी, रिसवो-क्रि. अर. [सं. रसनं] १ द्रवे पदार्थं का धीरे धीरे वहूनां, रसना । २ टपकना, चूना, रना । (जेन) उ०--१ वेदा न वतद्ायौ, कीं जवाव नी मित्य । ठौड ठौड्‌ लोई रसतो हौ । गाभा भीर कीर व्दैगाहा। --फुलवाड़ी उ०-२ श्रयं दीवांणजी रा होट सूज्योडा, लोह रिस, वोलतां तकलीफ इज ब्दैला, भ्रापरौ हुकमष्दै तौ म्ह ्ररज करद्‌। -फुलवाड़ी ९ समाना, श्रात्मसात होना । ऊद०-वेक्छ. रेत रालांठाधोशमेविरघा रौर्पांणी रसि ज्यं उण राज री रया रे भ्र॑तस मे सगठा श्रकरम श्रन्याव फर, वुड़कौ द नीं ऊठ । --फुलवाडी रिसणहार, हारौ (हारी), रिसणियौ--वि.। रिनिश्रोडी, रिसियोडो, रिस्योडो- भु. का. कर. । रिसीजणोौ, रिसीजबगौ--माव वा. 1 रिसततेदार--देखो रिस्तेदार' (₹. भे.) रिसतो-देखो ^रिस्तौ (5. भे.) रिसपत--देखो 'रिस्वत' (रू. भे.) ॥ उ०्-नांम रिसिपत को मिरायौ है रियासत सौं । साफ इनसाफ होत संत म्री भ्रस्त कौ। --कविराजा मूरारीदांन रिसपततसोर-देखो !रिस्वतखोर' (रू. भ.) रिसपतखोरी- देखो ररिस्वतखोरी' (र. भ.) रिसपतियौ, रिसपती--देखो "रिस्वती' (रू. भे.) उ०--मावी वस पडिया दूख भुगतौ, जुजमांना जिण रौ कीं जोर । सिर साट लीधी धर सूरा, चाटं रिसपतिया चं चौर। --भ्रग्यात रिसषपत्त-देखो 'रिस्वत' (रू. भे.) उ०---भूप जसवता ब्द न चिता सुख सत्ता नेत । जमा स्ुब्र जत्ता रिसपत्त कान पत्तार्म। रिसबत-देखो ^रिस्वत' (रू. भे.) रिस्रबतखोर-देखलो ^रिस्वतखोर' (रू. भे.) स्सिबतखोरी-देखो "रिस्वतसोरी' (रू. भे.) रिसम-सं. पु. [सं. ऋषभः] १ नामि तया मरुदेवी का पुत्र एक राजा जिसको यज नामक इन्द्र ने प्रपनी कन्या जयन्ती व्याहि थी । वि. वि.--जयन्ती से इसके सौ पुत्र हुवे जिनमे मरत सवसे श्रेष्ठ था । इसने श्रपने राज्यकोनौ खण्डो मेँ विभक्त करके श्रपने नौ पुश्ोकोदे दिया ग्रौर स्वयं ससारसे विरक्त हो गया! इसने प्रजा को धर्मानकूल वनाया भ्रौर पूत्रो को ब्रह्म विद्या का उपदेश दिया । इसने परिचमी भारत में जन धर्मं का प्रचार किया। २ विष्णुके २४ग्रवतारोमें एक, जो दक्ष सावेशि मन्वन्तरमें ग्रायुष्मान वे भ्रंवुघाराके पत्रकेरूपमें हुवा । २ व्यास के नित्रृत्ति मागे का प्रसार करने केलिये होने वाला शिवे का एक श्रवतार, जो वाराह कत्प कै वैवस्वतं मनवन्तर के ग्रन्तगेत हन्ना । पराशर, गं, भागेव, गिरीश इनके शिष्य हुवे । ४ इन्द्र रादित्य का पुत्र । ५ स्वरोचिष मन्वंतर के सप्तं ऋषियोंभें से एक । ६ इन्द्र ग्रौर पोलोमी के तीन पृत्रोंमेसे एक। ७ चन्द्रवंश काएक राजा, जो कौस्वोंके पक्षमें लडाथा। ८ कुश्वंश के राजा कुशाग्र का पुत्र जो सत्यहित का पिताधा। € मेर पर्वत के पास का एक पर्व॑त १० तारा, नक्षत्र । ११ सप्तस्वरो मसे दरूसरास्वरनजौ वड़ाश्युभ माना जाता है। इप्रके उच्चारण मे नामि से पवन उठकर तालव्य एवं जिह्वा के परग्रभागसेे श्रवरुद्ध होता है । इसका स्वर स्थान मस्तक है | १२ पद्रहवां कल्प, जहां से षभ स्वर की उत्पत्ति हुई । १३ साड । १४ वेल । १५ रामकी सेना का वानर्‌। [सं. च्ष्व ] १६ इन्द्र । १७ श्रम्ति 1 [वि.] उत्तम, श्रेष्ठ । रू. भे.--रखभ, रखव, रिक्खभ, रिखंभ, रिखव, रिखभ, रिखव, रिसह्‌ । रिस्िमक~सं. पु. [सं. ऋषभक] श्रष्ठवर्गय प्रौषधियों के श्रन्त॑त एक श्रोषयि विशेष । (ग्रमरत) रिसमनिन-सं- पु.-जेनियों के एक तीर्थकर । रू. भे.-रिखभजिन । - जुगतीदान देथौ | दिसभदेव-सं. पु. [सं. ऋषमदेव] विष्णु के चौबीस श्रवतासेंमें से एक वि. वि.-देखो "रिसभः' रू. भे.-रिखभदेव, रिखवदेव, रुखभदेव । रिसभधुज ई १७६ रिरिच रिस्रमधुन-सं. पु. [सं. ऋषम-ध्वज | शिव, महादेव । रिसवत -देखो "रिस्वत' (रू. भे.) रिसवतलोर-देखो °रिस्वतखोर' (5. भे.) उ०-ऊजड खेडाब्हाभेडाब्हाश्रोया । राजी साधु व्हा खठ रिसवतखोरा । --ऊ. का. रिसिवतलल्लोरी -देखो .रिस्वतखोरी' (<. भे.) रिसह्‌ - देखो "रिसभ' (<. भे.) उ०-- कदय श्रावूय डंगरि जादसिखं, रिसह नेमि तणा गृण गाइ- सिखं । - जयसेखर सूरि रिसहेसर रिसहैसरू-देखो 'रिसीस्वर' (<. भे.) उ०--१ करम वरस लगे रिसहेसर, उदक नयामे श्रन्न ! करमें जिननें जोड गिमारे, खीला रोप्या कमन । वृ. स्त. उ०--२ सेत्रज नायक वीनति सांमलौ, सी रिसहेसरू स्वांम दीन दयाल तुम्हारे दाखिवृं, श्रतर यीतगप्रम । -घ.व.ग्र रिर्साण, रिसांणौ--वि. [सं.रिप्‌यारूप्‌ ] (स्वी. रिसांणी) नाराज, नाखुश । उ०्~-तौ रांणौँं हंसकर कही जे पहलां ही या वात क्यों नं कही । इर वात वदं भला रिसांण रहिया । - नाप सांखनले री वारता २ जिसकी क्रोध करने की म्रादत है, क्रोघी स्वभावका, रूटनेकी प्रादत वाला 1 उ०--्नानर श्रनदं वीधी खाधउ, कांणी ्रनद्‌ रिसांणी, साप श्रनद पेखालउ, कादम श्ननदं कंटालद ""** --व. स सं. पु.--९ गस्साकरनेयासखूठ्नेकी क्रियाया भाव । मान करने का माव। उ०-तद वा टावर री गाई मंडी मस्कोर रिसांणौ करती न्है ज्युं वोली-येतोकतानींके पग पादी निकठ ई कोनीं। - फलवाड़ी २ फ्रोघ, गुस्सा, मान । ०-नितरीमारस्‌ंश्रातीश्रायवा हवेली सं रिसांणो करन वारं निकलगी पण श्रव लुगाई री जात जाव तौ कठं जार्वं । -- फलवाडी 5. भ.~--रींणो, रीयाणौ, रींसणो, रीसांणौ, रीतणौ, स्सणौ रूपांणौ । रिसाघाती-सं. पु.--शत्रु, वरी । (ह्‌. नां. मा.) रिसाणो, रिणावो-देग्वौ 'रौसाणौ, रीसावौ' (षू. रिसाण हार, हासौ (हारी), रिसाणियो- वि. रिसायोडौ | रिसार्नणौ, रिसाईजवौ--भाव वा. ` रिसायल-वि.-- क्रोधी स्वमाव का, गुस्तल। --भू- का. क़. रिसायोडो-देखो "रीसायोडी' (रू. भे.) (स्वी. रिसयोडी) रिसालदार-सं. पु. [श्र.] १ श्रह्वारोही सेनाके एक दल का नायक २ उक्त नायक का पद्‌ । रू. भे.-रसालदार । रिसालो-सं. पु. [श्र. रसालः] १ श्रदवारोही सेना । २ संनिकों की टुकड़ी । ३ सेना, फौज । उ०--जंगी रसाला हलंतां प्र, सांमंद हिलोढां जहा । छात-रंगी हसम्मां, भर्तां काठ चोट । --राधोदास साद ४ रावणा राजपूतों के लिये प्रयोग में भ्रानि वाला शब्द । वि.-गुस्संल, क्रोधी । उ०--पोयणियां मुख श्रो पृचसी रवि कोडद्टौ । हायन थांमौ मेष मांनसी रीस रिसाष्टौ | -- मेघ ङ. भे.--रसाठ,, रसाल, रसालौ । रि्ि-सं. पुः [सं. ऋषि; प्रा. रिसि| १ तपस्वी, मुनि, संन्यासी, ऋषि । उ०--१ सिसमार चक्र द्ुव विण सुतौ, भजन कुरा रिति ग्ण भ्रमरा । श्रगमं साह श्रवरंग सू, कमेधां विण चाढ्छौ कवा । --रा. छ. °--२ सड परिवारिहि सूं दलिहि हस्तिनाग परि नगरि भ्रावड्‌ । ्रन्न दिवस्ति रिति नारदह्‌ नारि कज्जि श्रादेसु पांमड । --सालिभद्र सूरि उ०--३ सरव सिरोमरि होवण॒ सारू, लागा करण लडाई । मोक्ष गियोड़ा रसि मुनियां मे, श्रव विच टांग श्रडाई। --ऊ. का वि. वि.--इनकी राजपि, महर्षि, देवि, ब्रह्मि श्रादि श्रेणियां भीरहै। २ श्रुति, सत्य प्रौर तप में पूणं निरत रहने वाला मंत्र दृष्टा, वेद मत्रोंका श्राचार्य। ३ श्रचुप्ठानादि कमं बतलाने वले सूतौ का रचयिता । ४ नारद, मुनि। ५ वृहस्पति । ६ एके देव जाति । ७ हर्ट्ररके श्रागे का एक तीर्थ, ऋषिकेडा। ८ प्रकादय की किरन। ६ मत्स्य विशेष । रू. भे.--रक्खी, रख, रखि, रखी, रिक्ख, रिक्खि, रिक्ष, रिख रिखि, रिखी, रिख, रिख्ठ, रिसभ्र, रिसी, री । ग्रत्पा.~रिखड़खठ, रिखड्ौ | रिसिश्रस्त-सं. पु. [सं. ऋपि-प्रस्त] उत्तर भ्रौर वायव्यः कै मध्य की रियत दिशा, जिधर सप्पि भ्रस्त होते ह । ङ. भे.-रिसीग्रस्त, रिसीभ्रस्त । रि्िक-सं. स्त्री, [सं. रिपीक] तलवार । रि्िकेस-देखो रिसीकेस' (रू. भे.) रिसिदत्ता-सं. स्त्री.--एक सती विशेष । (जेन) उ०--रिसिदत्ता परणी घरि भ्राव्यउ, सुख भोगवड सुविवेक रे । --स. कु. रििदेव- देखो ^रिखदेव' (रू. भे.} रित्िपुनम, रित्िपुरणिमा-सं. स्ती.- श्राव, शुक्ला, परिमा । रू. भे.--रिखपूनम । रितिप्रतत्य-सं. पु.--ऋषपियों दवारा वनये हुए गास्व। उ० --धिरा उथत्य थच्थ तें विथत्य थत्यते वहु । रिसिप्रतत्य तत्य के प्रतत्य तत्य तं रहें । रिसियोड़ी-भू. का. कृ.--१ धीरे धीरे वहा हुभ्रा, रसा हुभ्रा. २ टपका ---ॐ. का. हुश्रा, चवा हुग्रा. ०(स्त्री. रि्ियोड़ी) रि्िराई, रिसिराज, {प्त्तियय-स. पु. [सं. ऋपि-राज] नारदादि वडे- ३ श्रात्मसात हुवा हु्रा, समाया हुम्रा । डे ऋपि। उ०-दुरवुद्धिकीसंगसे श्रागे ही विगड़घा, वड़ा वड़ा रि्तिराई। म जिग्यासु जनहंतेराः दुर वुद्धि दूर रखाई। -सी मुखरामजी महाराज ङ. भे.-रखांराय, रलीराज, रिखरांण, रिखराज, रिखिराज, रिखिराय, रिखीराज, रिखीराय, रीखाराज । रिसिवर-सं. पु.- ऋषिश्च ष्ठ, श्रेष्ठ ऋषि । इ. मे--रिखवर्‌ । रिसिवरणी-सं. स्वरी. [सं. ऋृपि-वणिनी] गौत्तम ऋषि की पल्ली श्रहुल्या 1 । रू. भे.--रिखवरणी 1 रिसिव्रत-सं. पु. ऋषपियों की तपस्या, साधना । रू. भे.-रिखव्रत 1 रिसिमुदन-सं. पू--४& क्षेत्रपालो मे से सातवां क्षेत्रपाल । रिसोद, रिसीद-सं. पु. [सं. ऋषि ~ इन्द्र] ऋषियों में श्रेष्ठ । रू. भे.-रिखेद्र । रिसी-देखो "रिसि' (<. भे.) उ०--१ थमं ई थोड़ी घणी तौ श्रकलब्दैलाकेजे पुरांणा रिसी मुनि माया री ताङ्णानी करता तौ गिरस्ती मियां ई साघू- सन्यासियां नँ वन रा दरसण नी करावता । --फुलवाड़ी उ०--२ श्रदमत्तउ रिसीजे रम्यउ, जल मांहैहोवांषघीमाटीनी ४१७६ रिस्तेमंद पाल । तिरती मुकी कादली, तदं तारया हो तेहनइ तत्काल । --स. कु. रिसीग्रस्त - देखो ररिसिग्रस्त' (रू. भे.) रिसीकुल्या-सं. स्वी. [सं. ऋषिकुल्या ] एक पौराणिक नदी का नाम 1 रिसीकेस-सं. पु. [स. हूपीकेश ] १ विष्णु का एक नाम, ईदवर ! (नां. मा.) २ श्रीकृष्ण का एक नामान्तेर्‌ । ३ एक तीथं का नाम। रू. भे.--रिखीकेस, रखीकेस, रखीकेसर, रिखीकेसू, रीखीकेस । रिसीपचमी, रिसीपांचम-सं. स्त्री. [सं. ऋषि पच्चमी] भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष कौ पंचमी । इस दिन स्तिया जलाश्चयों पर जाकर ऋपि ग्रौर पितरृतपंण करती श्रौर मणीया ग्रन्न का भोजन करती ह| रू. भे.--रिखपांचम, रिखीपंचमी, रिखीपांचम। रिसीमूक--देखो 'रिस्यमूक' (रू. भे.) रिसीस, प्सीसर, रिसीस्वर-सं. पु. [सं. ऋपीश, ऋपीश्वर] ऋषियों मे श्रष्ठ, ऋपीश्वर । उ०-उण कही मे एक जंग मे घरमसाटा वरवाइ थी उठँ गरमी र मौसम में एक रिसीस्वर श्राय छायाम वड सुख पायौ व्डाहौयजन्पौषणावचनस्‌ंप्रभुनं विनतीकरी। -नींप्र रू. भे.--रखीस, रखीसर, रखीमुर्‌, रखीस्वर, राखेस, राखेसर, रलेभुर, रखेस्वर, रिखसर, रिखहेसरू, रिखीस, रिखीसर, रिखीसुर, रिखीस्वर, रिखेस, रिखेस र, रिखेसुर, रितेस्वर, रिसहेसर, रिसहेसरू, रिहेसर, रिहैसरू, रीखीय, स्वेसर । रिस्क-सं. स्त्री.--१ जोखम, खतरा । २ जिम्मेदारी, उत्तरदायित्व, भार । रिसीस्र ग-- देखो “चिगी रिसि' (रू. भे.) रिस्ट-सं. पु. [सं. रिष्टं] १ सौभाग्य, समृद्धि, एेक्वयं । २ श्रनिष्ट, हानि, नाश । ३ दुभग्यि, श्रभाग। ४ पाप। ५ उपद्रव । स्ट, रिस्टि-सं. स्म. [सं. रिष्टिः] तलवार । रिस्तेदार-सं. पु. [फा. रिक्तःदार] १ नातेदार, सम्बन्धी | २ वंशज, वंधु-वांघवे | <. भे.---रिसतेदार रिस्तदारी-सं. प. [फा. रिरतः दारी] नाता, रिदता, सम्बन्व । रिस्तेमंद-सं. पु. [ फा. रिदतेमंद 1 सम्बन्ी, नातेदार । ये रिस्तो -------______-_~_~__~_~_~_~_~_~~_[-___[___________~____-_-_-_~~_~___--~~~_~_~--]ब]ब]बबबब-ब---्‌-~-~-~-~्‌~्‌~ब~ब]~]~-]--~~ रिस्तौ-सं. प. [फा. रितः] १ नाता, सम्बन्य, लगाव । २ किसी प्रकार का सम्पकं । रू. भे.--रिसतौ । रिस्यमूक-सं. पृ. [सं. ऋष्यमूक] दक्षिण का एक पर्वत जिस पर श्रीराम श्रीर्‌ सूग्रीव की मिता हई थी रू. भे.--रिखमूकर, रिखीमूक, रिसीमूक । रिस्वत-सं. स्त्री. [फा. रिदवत | किसी को कर्तेव्यच्युतं करके नियम विरुद्ध कायं करवा कर, श्रपना स्वाथं सिद्ध करने के लिये, कार्य- कर्तां को ग्रनुचित स्पसे दिया जने वाला धन या सामाने, घूम, उत्कोच 1 रू. भे. निसपत, निसवत, निस्पत, निस्वत, रिसपत, रिसपत्त, रिसवत, रिषक्त । रिस्वतखोर-वि. [फा. रिर्वतखोर| रिष्वत, धूस या उत्कोच लेने वाला । स. भे.--रि स्पत सोर, रिसवतखोर, रिसवततखोर । {िस्वतखोरी-स, स्त्री. [फा. रिद्वत खोरी] रि्वत तेने की श्रिया यां भाव । धूसखोरी । र<. भे.-रिसपत खोरी, रिसवत खोरी । रिस्वतियी, रिस्वती-वि.--रिद्वत लेने वाला घूस खाने वाला । रूट, भे.--निसपत्तियौ, रिसपतियौ, रिसपती । रिहृणो, रिहियौ--देखो “रह णौ, रहवौ' (रू. भे.) | रिहा-वि. [फा. रहा] १९ वधन मृक्त, कंदसेद्युटा त्रा । २ मुक्त । रिहार्ई-सं. स्त्री- मुक्ति द्ुटकारा । रू. भे.--रियार । रिहैसर, रिहैसर, रिहैसरू-देखो रिसीर्‌वर' (रू. भे.) उ०-- मुम मन उलट भ्रति धरणौ रे, सो दिन सफल गिरेस । स्वण्मी स्री रिहैसर, जव नये निरखेस ॥ -- वृ. स्त. रीकणौ, रीकयो-क्रि. स.-- १ रोना, विलाप करना । उ०--१ ठाद तांभाई केरटिया दकं, रोटीपांसी न टीगरिया रकं । चित पर घोरारव श्राकर वरचावै, घर घर नर नायक लायक धव- राव । --ॐ का. उ०--२ बरड्दिं रं विद सिरदार रकण लागी जणां कह्यौ-हाल कांई ब्दी, श्रवा ई डाढे। दोवेव्रा वटं श्रावृंला, सावचेती करणी न्द उत्ती कर लेजं ! --फुलवाडी २ दुखी होना, कषणा करना, रंज करना । ४१५८० रागिपोडी. वमवक रहयौ तौ उण राज रा लोग-वाग मरणां रौ हरख मनार्वला श्रर- जलम मार्थं रोवला-रीकेला । -फुलवाडी ३ वट्वड़ाना ) । उ०--दा्थां हुकलिया लटकता लोटा, रिण रिण रीकता सुपनंमें ` रोटा 1 --ऊ. का. रांकणहार, हारौ (हारी), रीकणियो- वि. । रीकिग्रोडी, संफियोड़ो, रीक्योड़ो- भू. का. कृ 1 रोकोजणौ, रीकीजवो--कर्म वा. । रोगौ, रीगवौ - रू. भे. । । रीकाणौ, रोकावो-क्रि. स. [“रीक्णौ' त्रि. कात्रे. ₹<] १ खलाना, विलाप कराना । २ दुखी करना, करुणा या रंज कराना । रकाणहार, हारो (हारी), रीकाणियौ--वि. । रकियोड़ो-मू. का. कृ. । रीकाईदजणोौ, रीकार्दजवो -- कमं वा. 1 रीगाणौ, रीगावौ-- र. भे. । रीकायोड़ौ-भू. का. कृ.-- १ सला हुश्रा, विलाप कराया ह््ा । २ दुखी किया हुश्रा, करुणा या रंज कराया हुम्रा । (स्नी. रीकायोड़ी) रफियोड़ो-भरु. का. कृ.- १ रोया हृश्रा, विलाप कियाहूभ्रा. २ दुखी हवा हुश्रा, कर्णा किया हुग्रा, रंज क्रिया हृश्रा । | (स्वी रींकियोड़ी) रीखण-सं. पु. टिड्धिका छोटा वच्चा। रू. भे.-रीखर । रीगटियौ, रीगरौ-वि.- कृदाकाय, पतला-दवला । रीगणवाव, रीगणवाव- देखो “रांगणवाय” (रू. भे.) रीगणि, रीगणी-सं. स्वी.- एक प्रकार की श्रौपधि, भूर रीगणी । रू. भे.-रीगिणि, रीगिणी । रीगणौ-स. पु. - वंगन, वृ ताक । रू. भे --रीगणौ । रीगणौ, रीगवी-देखो 'रीकणी, रींकवौ' (ख. भे.) सीगाणौ, रीगावौ--देखो !रीकाणौ, रीकाणौ' (रू, भे.) रीगायोड़ौ ~ देखो ^रींकायोड़ौ' (रू. भे. } (स्वी. रीगायोड़ी) रगिणि, रीगिणो-देखो 'रीगणी' (रू. भे.} उ०--रांमोडी नदं रासना, रीगिणि स्दर-जटाय। राग रतांजरि रुमडी, रनि वनि रंग घसाय । -मा.कां. प्र, उ०्~--र्यः मांयरी माय सी) जे थोडा वरस श्रौ इज टादौ | रीगियोड़ो--देखौ “रीकियोडौ' (रू. भे.) रीगी „~~~ ~ ~~~ (स्त्री. रीगियोडी) सपो-सं. स्ती --िकार किए हुए वरग का शिर । रीगौ-सं. पु.--द्रव पदाथको घारा। संघणवाय, रीघणवाव-देखो 'रांगएवाय' (रू. भे.) रख -स. पु. [स. ऋक्ष, प्रा. रिच्छी, रिछ] (स्वी, रींखडी, रीद्टी) १ एक चौपाया जंगली जानवर, जिसके समस्त दारीर पर लम्बे- लम्बे वाल होते रै । भाच, च्छल । उ०--१ सघ व्याघ्र जग री वानरा सुहरा सामरा घोर रे। ग्राहेडी को श्रंत्यज श्रावि म्लेच्छ भयंकर चोर रे। -नलाख्यांन उ०--२ वेरं सिकार मांहि ससा, लुंकड़ी, सीह, रो, स्याल री, श्ननेक हिरण प्रादि देश्ररभेक्रा हुया च) --द. वि. २ जाम्बवान का एक नाम । जामवत । उ०-- महाराज तण कहिजे कंस मामी, नरकासुर वेटौ निज नेह । सुसर रीं स्खमयौ साढी, श्रविगत तण गनाइति एह । -पी. ग्र वि.-ङृष्ण वर, काला । # (ड. को.) रू. भे.--रीद् 1 भ्रत्पा. --रीखीभरौ 1 रीचंडो-सं, स्व्री.--१ श्री कृष्ण की एक पत्नी जो जाम्बवान क पत्री थी । जाम्बवती । ०--कालिद्री विदा भद्रा कं्ररी, कहि लस्रमणा क्िपाठ रे । रीखडी नाग जीती निमौ, परटसांणं प्रतिषाठ र। --पी, ग्र, २ मादा भालू, मादा री) रू. भे. - रीड । रीषत, रीखपति-सं. पु. [सं. ऋक्ष-पति | जाम्बवंत । रू. भे.-रीद्पत, रीदछपति । रोखराज-सं. पु. [सं. ऋक्ष-राज | जाम्बर्वेत रू. भे.--रीद्धरौज । सी, रलीट-सं. स्व्री.-१ वृणि का वादल जो वर्षां के दिनों में कोहरे की तरह उचे स्थानो मे छा जाता हं । कोहरा, धुव 1 उ०--१ रजी घोम सूं वीरिभ्रा गज्ज राजं वडं ग्रत्रडेजांणि रीं विराजै । भ्यांणंक भैभीत सोभंत भारं, क्रमं जाणि रावी निसा श्र॑घकार्‌ 1 -- वचनिका उ०--२ पिक करं कोह्‌क रींखी चढ़ी पहाडां वाजतीौ, रहयौ प्म तरौ वाव । पंथ सीतढ हुवा हुई लीली षृहव, "र्जा" दीनं श्रजा' मारवाराव । - सवठजी लाठस २ पशुम की मम्ती जिसके कारण वे दौड़ दूःद कर प्रसच्च होते है । ३ मस्ती । ङ. भे.-रिछी, रीदी 1 ४१८१ री वियोडौ रखी पावर-सं. पु.- घोडे के गर्दन के वंवा रटने वाला चमडे या कपडे का उपकरणा जो री्ठुके मुखके प्रकारका होता है । रीज- देखो "रीक' (<. भे.) । उ०--राजावां री रीज, सुखदाई सारं सुणी । खावद थारी खीज, जग निहणल करती जसा'। - ॐ. का. रीजणौ, रीजवौ - देखो 'रीकणौ, री भवौ' (रू. भे.) उ०-१ रंग राग वागप्रंगरागसूं न रचि, पातिसाह्‌ महमदसाह्‌ चिता म दछीजं । --रा. रू, उ० --२ साधां ऊपरि साहिवा, रीजौ राधवड़ा } रेवत चढ नं रांमडा श्रावं ग्रालमडा । -पी.ग्र. रीजणहार, हारौ (हारी), रीजणियौ-- वि. । रीजिश्रोडौ, रीजियोडौ, रीज्यीड़ी - भू, का. कृ. । रींजीजणौ, रीजीजवौ -- कमं वा. । रीजियोडी-मू. का. कृ.--देखो 'रीजियोड़ी' (रू. भे.) (स्त्री. रीजियोडी ) रीभि- देखो "रीः (<. भे.) उ०--पीरदास एम दासं प्रभु, कूड कार्है काकनां । रिणद्धोड राय हो राघवा, रीं सपाय रांकनां । -पी. ग्र. रीभणी, रीभिवौ- देखो "रीकणौ, रीफत्ौ' (रू. भे.) उ०-- १ भालीजे री सेजां में री रहली 1 कहि रे मिजाज कर रसिया । --लो. गी. उ०-२ जिनजी क्‌ देखि मेरउ मन रीड री । तीन धैत्र ऊपर सोहइ, श्राप इद्र चामर वींभई री । --स. कुः उ०-२ श्राखी रात ठ्दोड़ी लाडी री चाकरी में गुजारे, भ्रंख्यां मा'खर काडं है । पण श्रा बनडी कद रभि? टिरडाका करं ठीडा देवे ह । -दसदोख उ०-४ सम हीर सरदार, राजी चित क्योंसूं रहै, भूमि तणा भरतार, रीं गुण सूं राजिया । -किरपारांम रीकणहार, हारी (हारी); रीरुणियो- चि. । रीभ्िगरोडी. रीभियोडी, रीस्योडो- भू. का. कृ. । रींशीजणो, रींशीजवक्--कमं वा. । रीभवणी, रीभववौ--देखो 'रोभणौ, री कवौ (रू. भे.) उ° --दीयं किमु दलदरी, सवल रींवीयौ संता । सगलौ ही संसार घरं ्रास घनवंता। रीकिवार-देखो 'रिभवार' (रू. भे.) ~घ. व. म्र. रू०--ग्रजा मेरा सांवरा नवेला सिरदार, वेपरवांही श्रौर चाह भर्या महीडा । समश्वार रीँवार 1 -रसीतै राज रौ गीत संभवियोडो- देखो "रीभियोडौ" (रू, भरे ) रीाणो ˆ ४१य्र्‌ रीजफ ऋायकाकााकगककवयकककाकण्कागदकक ण १ ११ -णीगििककषषष (स्त्री. रीं कवियोडी) रौकाणी, रीकावी-देलो "री फारौ, रीभावौ' (रू. भे.) उ०्-धघटम सिवर एक श्रटला, मुजरा श्रातम कोया पला 1 रोम सोम ररंकार वमाया, एक श्ररीभन बू रीकाया। 4 -श्नुभव्वांणी री ाणहार, हारौ (हारी), रीाणियौ-वि,. । रीं फायोडो- भू. का. कृ. । रीभारजणौ, रीभार्ईूजवो-- क्म वा, । ह री ्रायोडो--देखो 'रीकायोड़ौ' (रू. भे.) (स्री. रीभकयोडी) रीरि. प.-- कच्ची ककड । रू. भे.-- रीर । रणौ, रीयांणौ, रींसणौ रीसाणी- देखो रिसाणौ (रू. भे.) | से-सं. स्त्री. [सं.] १ गति, चाल । २ वहाव, प्रवाह । २ ध्वनि, रव्द । ४ वध, हृत्या (एका) | विभ.-की । उ०--१ फेर वग्ग तुरंग री, तोते खग्ग करग्ग । रिण पण ऊमगे लगे, ^रेणायर' गयरांग । ---रा. रू, उ०--२ ग्रभवास टा परा जमवाढठा प्रासं ग्यांन । श्रापरा पां री राखे पीरदास श्रास । --पी, ग्र. रौव-देखो 'रि्ि' (रू. भे.) उ०--उपड वजर गगन दुरसि ` श्राभड, भरे घट पण॒ श्ररण रं भाय । थाट साहा समंद लंक वाणा थया, रील जेहीं पिया वृहदी तर राय । --राव सव्रसाढ रौ गीत रीलण-देखो ^रीखण' (<, भे.) रीखांराज-देखो 'रिसिराज' (रू. भे.) | उ०--सूरा पूर भटा माची ध्रकूटं उवं संभू, साची तान ला रभा मचावे संगीत । रीलांराज- वाव वीण प्रवीण हरखा रतौ, गाव सूखा चोटी ्रगौटी रूखां गीत । --वदरीदांन खिडियौ रसीकेस-देखो 'रिसीकेस' (रू. भे.) (ह.नां. मा.) रोलीस-देखो 'रिसीस' (€. भे.) रोष्या-देलो “रक्षा (रू. भे.) उ०--वाह्‌ सुग्रीव रीरूपा उटी वंकरी, उठी चोकी विह्पाक्ष प्रातंक री 1 समसजं चोटवे तरफ निरमंकरी, रात दिन वजै घड्ालं निमलंकरी) --र. रू. रीगरौ--पर. प---युवा हरिण । उ०-मांहै रागे जिके नूद-ज्चछ, चै रीग्टाहिरण च्छ, सुरे ग्राइ हिरी मै चेचता फिर दं। सवौ हिरण निव्रठं न पेचे छं । --रा. सा, स. रोगणौ-देखो 'रीगणो' (<. भे.) री? देसो "री" (रू. भे.) उ०--१ जरख रौद वह्ाख, सिवा सत लस्स मलक्का । साक डायशि सकति, काठ भैरव काठक्का । गु. रू. यं. उ०--२ एक हस्ति प्रारुही व्रम्षभ प्रस. उण्ट्‌ विगत्ति । सरभ चील सरादूठ रीद्धं वंदर तर रत्ती । --रा. 5. रीखड़ी-देखो ^रींखड़ी' (र. भे.) उ०--भ्रगे कांड रीखडी श्रांणी, मगत वद्ध वात भांखी । जादिवं री श्रकलि जांणी, मेघडी मारी ! --पी,. म्र रोद्छपत, रीदपति--देखो ^रीद्पति' (<. भे.) रोराज--देखो 'रीद्यराज' (<. भे.) रोचा-देखो "रक्षा" (रू. भे.) रीखी-देखो 'रीद्धी' (रू. भे.) उ०--तठा उपरान्ति करि नं राजान सिलांमति उग्रां गज राजां श्रागे गडां चरखी दारू शआ्ररावा युटि नं रहियादछं। जरि घूघटं पहाड़ पाखती रीचछौ लाग रही छं । - रा. सः स. रीदीभश्रा-सं. पु.-- १ एक प्रकार का सिह्‌ । उ०--तठा उपरांति करि नं राजान सिलांमति बेडा सिकारी सिंघी, सादूक, पराठा, केरी नवहधथां, कटीरीग्रां, सीदीश्रा, तेलिग्रा, तींदूला, लकीरिग्रा, वचेरिया, चीतरा, अंति भांति, जाति जातिरा, नाहर सांक्टं जडिग्रा रहड.ए गाड वंठा, कसत्ता कंण- णता, वृंवाड़ करतां वहै छँ । --रा.सा. सं, २ देखो (री! (ग्रत्पा, रू. भे.) रीजंट-स. पु. [भ्र.] १ किसी राजा की श्रवयस्क श्रवस्या या श्रयोग्यता की दद्या में राज्य का प्रवन्व करने वाला प्रबन्धक । रीजंसी-सं, स्वी-- १ रीजेट का कायं, शासत्‌ । २ रीर्जेटका पद) रीन -देखो "री (रू. भे.) उ०--१ दांत दमक ग्रहुर दुत, जांण चमक वीज । ज्यांरी धुन लागी रहै, रहै तपोधन रीज । --वां. दा. उ०-२ सुर दक्खं जं जें सवद, रस ग्रदभुत लख रीज । ईढ कर खग सुं शरभा, वजर न चकरन वीज । ---रा.रू, रीजडी-देखो "री (ग्रल्पा., ङ. भे.) रौजक-देखो "रिजक" (रू. भे.) । उ०--रावतां वंदूकां उठाई, जीकौ वंदुकां कीरीक भांत री यै। सात सात विलंद री, ग्रकल वां इसरी, सो सो तासा सरजं री कसी । रोजणी लुकमांन रा हाथ री करी । नेखमा वाज नारंजा । पर लोकही वरस, रजक जागीकीनां लागी हीसं। सामी करी कनां काढ रो सूत) --पनां रीजणौ, रीजवी- देखो 'रीभणौ, रीभवौ' (र. भे.) उ०--१ किसन तूनां हिरम कासू कहीं । रहै कोप नह कोप रक्तं न रीं । --पी. म्र. उ०--२ रीञ्यां देवै न मौज, चूक्यां चट चेतौ करं । जा ठाकर री चोज, रती न श्रावं राजिया 1 --किरपारांम रीजणहार, हारौ (हारी); रीजणियो--वि. रोनिग्रोडी, रीजियोड, रीनज्योडा-- भू. का. क. रोजीजणी, रीजीजगो--भाव वा, रोजवणोौ, रीजवचौ - देखो 'रीभकणौ, रीमवौ' (रू. भे.) उ०-- सी महिपति मान रीजवं गुणस्रज, कवि समराथ दसौ नहि कोय 1 मान" समाप लाख मागां, 'जसा' गजन' रा, विरदां जोय । । --वां. दा. रीजबार-देखो 'रिभवार' (<. भे.) उ०-जिण भांत ग्रापनं तौ इडर पोहोचावस्यां। म्द ग्रठे काम ग्रास्यां । रजपूती रा रीजवारां नं जीलं चडढावस्यां । -पनां रीजवियोडौ-देखो ^रीकियोडी' (ङ. भे.) (स्त्री. रीजवियोडी) ह रीनाणीौ, रोजावौ - देवो 'रीफाणौ, रीभावौ'। रीजाणहार, हारौ (हारी), रीजाणियौ --वि. । रीजायोडौ-- भू. का. क. । सेजार्ईजणौ, रीजारईजकौ--कमं वा, । ~ रीनायोङी- देवो ररीभायोडी' (<. भे.) (स्त्री. रीजायोडी) रीजावणौ, रीजाववौ-देखो री काणो, रीकावौ' (रू. भे.) उ०--रीजावं कमवां राजा नै, वीदग केहौ उकति विस्राल । “विज।' हरौ सौसहंस वरीसे, भूप विरद परियां राभाक। -वां.दा. रीजावियोडी-देखो 'रीकायोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. रीजावियोड़ी) रीजियोड़ौ- देखो “रीभियोडी' (रू. भे.) (स्त्री. रीजियोड़ी) ॥ रीभ-सं. स्वी. [सं. ऋद्धि, प्रा. रिञ्ि| १ प्रसन्न, खुशया मुग्ध होने कीक्रियाया भाव) २ प्रसन्नता, सुभी, हषं । उ०--१ वटि नहि घन वांखियौ, पाटे घन कर वाति । री करे ४१८३ रौशूणौ ताठी दिए, हंस दिखा दांत । --वां. दा. उ०--२ सोग संताप सुख दुख दुनियां भरी, करत श्रकाज कहि कोण काजा । श्रौरकी री श्रणखीज तं क्या पडी, अ्रापणी रीभका सुव छाजा। --ग्रनुभववांणी उ०--२ एेसी व्रिघ पंडत राज चातुरय कठा प्रवी सिलोकूं का प्रवध श्रनेक विघ विमढ वाणी सं उच्चरं जिनूंसं रीभसी माहा- राज कनक जग्योपवीत चाया । -सू. प्र ३ पुरस्कार, दट्‌नाम। उ०-१ साह श्रवरग फे पासया समंभ्राव॑। सौ तौ मनसं री इनांम मन वंदा पाव । --रा. रू. उ०-२ णे ब्रूवे म वात उचारी। तहि हवि तूभ रीभ इकतारी --सु. भ्र. उ०--२३ ई भात सूं एवच्ियौ देख तै पाष्धौ श्राय न॑ राजाजी नू सारा समाचार कहिया-महाराज सिलांमतं, सी गोरखनाथ जी तपसांय वीराजीयादछयैजी । सुरान राजाजी सवालाख री सीः दीवी । --रीसाट्‌ रीवारता ४ दान, वख्शीभ । उ०--१ रांक सरिस दे रीभ, ग्रसिल कांड खीज कर श्रति। वौ विहठ हं बुरी, पीर सां रीस किसी पति। --पी, भ्र, उ०--२ कर फते कमवज्ज, करं वह्‌ री कवैसां । करि गुण परख सकाज, देस देसां परदेसां । --सु.भ्र उ०--३ दातारां इक दाय, श्राय नहीजोभ्राप ₹। का व्याज कराय, रीभप्ररीदे राजिया। ५ उदारता) उ०- पुकवि निवाजं सोमसी, भरुप रीभ जस भाख । पाल दिय) परमारवे, साठ गांव सौ लाख । ६ ग्रनुग्रह्‌, कृपा । । ०-देस अ ही ग्रोटी नूं सीख देर विपत्ति रा महारव मग्न मांगच्वियांणी > परया ग्राम रा ठाकुर रोहडिया 1 1 1 0 इ रही श्रर थोडा दिनां मे वडा विस्वास र साथ महानस री मालिक हो चारण री चाकरी में चित लगाई चातुराई री रीभ चही । --किरपारांम --वा. दा, -वं, भा. र. भे.-- रीज, री, रीज, रीभुः रीभण-वि-- मोहित या मुग्व होने वाला । उ०~- पर ध रौ भण करहला, नीधरिया धर श्राव । वीजां एक भन्रूकड़ा, वेलां एकौ सावे । रोभणो-वि.-- १ सुन होने वाला, प्रसनच्च होने वाला । ० -\ भट चारण गुण भरी, तिकां रीभणौ सतीषौ । माया ऊयांमखं, सवण वरस सरीखौ । मु. प्र --प्रग्यांत रीकणौ उ०--२ तुरगा कन्यंदां वांवराट्‌ भडां रांम ताखा । निखंगां रीभणा वाड जानकी नरेस ) --र, ज. प्र, २ मोहित होने वाला, मूग्व होने वाला । री भणी, रीभवौ-क्रि, ग्र. [सं. ष्‌, प्रा. रिज्भद्र| १ प्रसप्र होना, खु होना । | उ०--१ कणी प्रभु रकेन कच्यु, रहणी रोके राम । सुषने कीसौम्होर स्‌, कोडी सरेन काम । --ऊ. का उ०--२ कदियौ सकति जेम॒दुज किय । भ्रति रीं छत्रपति ऊमह्यो । - सू. प्र. उ०--२ तद पातसाह री हृञ्ुर गया । दूर्यं करनं चिदया हृतीसु दिखाई । पात्तसाद्‌ रीय । -- नरसी २ मोहित होना, मुग्ध होना । उ०--१ नरवर नठराजा-तणड ढोल कुंवर प्ननूष । राणि राड पिगढ तणी, रीभी देखे रूप 1 - ढो. मा. उ ०--२ पीह्‌ नृत गान चंद्रका पे । दित रीभ्ियी वाग चित्रि देवे 1 --सू. प्र. ३ मस्त होना, ममन होना । उ०--१ सखी श्रमीणौ साद्ितौ, निर्म कधी नाग । सिर रा मिण सांमध्रम, रीक्तं सिधु राग। --वां. दा. उ०--२ ह्रीया रागन रीभवयी, वेदन विद्या पाठ । काया जास एकली, साधं खफण॒ काठ । --भ्नुभव्वांणी ४ तुष्टमान होना । उ०--१ रो दिया रिडमालने, नव कोट नु नर। राव मयां इम र्यौ, कमवज जोडं कर । -- ठाकुर जुकारर्सिह्‌ मेडतियौ उ० --२ सुखि भरा श्ररज वोन लद्धीस । श्रादू मौ सेवभ अवचि दस । रीभियोौ श्रं दसरत्य राय, श्रवतार वरू दण ग्रह॒ जाय । -- सू, प्र. ५ उर्म॑गित हना, उत्साहित होना । उ०-जद करूदलि भूभउं सस्वर नदु सनानि सूकडं। त मनि ग्रति रीड पाप रेखा न वी कठं 1. -- साति सूरिः ६ प्रेम हप श्रादि से पुलकित होना । उ०-निगरभर तरुवर सघ छांह निसि, पृहपित ग्रति दीप गर प्स । मौरित प्रव री रोमंचित्त, हूरखि विकास कम कृत हास । -- वेलि. सीभणहार, हासं (दास), रीणियौ--वि. रीचिग्रोद्धे, रीकियोड़ी, रीद्योड़ - भू. का. कृ. रीम्रीजणौ, रीकौजवी- माव वा, रिमिणी, रिकवौ, रीजणौ, रीजवौ, रीकणौ, रीफवौ, रींकवणौ, रींमववौ, रीजणौ, रीजवौ, रीजवणौ रीजववौ, रीभवणौ, रीभ- ववौ, रीघणौ, रौधवौो । 2१-१, गो कायो योधान रीभदट-वि.- १ प्रसप्न होने वाला, सुदा होने वाला । ` २ मोदितया मुग्ध होने वाला । ३ जानने वाता । उ०--गूढ जिकं गुरुमंत्र ज्यं, चुगली सवण सूर्नत । सागता रोग नदी, ढोली सीस धुरांत। --वा. दा. ४ दातार, दानी । रोभवणी, रीभववी --देवो !रीमरौ, रो भवौ" (स. भे.) उ०--१ ऊं लोहा बरूर भाल, मुर्‌ न जाय सरक्क । च्रं गजां दातू- सा, रण रीश्वं अरक्क । --र्वा. दा. उ०--२ दृहा गरदा गीत स्यु. कवित कथा वहु माति । रीक्वियौ रणौ चतुर, क्रीड़ा केलि करति । --प. च. चौ. उ०--२३ काचीक्टीन हैदियौ, गुणेन रिभवरियोहु) हनी वारी करहलौ गहमाती गमियोह्‌ । ---ग्रग्याते रोकवार--देखो 'रिकवार' (रू. भे.) उ०--्रसं तमास श्रनेक माति भांति पात्तिमाहटुं की दसत्रूरी की निकार । हौसनायकां की जीवन सीमहाराजाजी की रोभ्वार “ श्रातुसु के घमके वाशु की चोर 1, --मू. भ्र. रीमवारगी-सं. स्वी.--१ रिकवार हने की स्रवस्याया भाव! ^ २ दान करने कौ प्रवृत्ति, दान कर्ने का स्वमावे। रीकवियोडौ-देवो "रीभियोडौ' (र. भे.) । (सप्र. री कवियोदी) रो भविहापत-वि. [राज-री क -- सं. विहापतं दान] दातार, दानी । (स्र. मा.) रीकाणो, रीकावौ-क्रि. सं. [रीभणौ' कि.का प्रे. ₹.]} १ प्रसन्न करना, खुदा करना । २ मोहित करना, मस्त करना । ३ मस्त करना, भग्न करना । उ०--विन पावां जाह नाचिवौ, विरा कर ताद वजाय ! विनां राग रौकायबौ, विनां कट सुर गाय ।. --ग्रनूमववांणी ४ तुष्टमान होने के लिए प्रेरित करना । ५ उमगित करना, उत्साहित करना ! ३ पुलकित करना रीभाणहार, हारौ, (हारी), रीशाणियौ-वि. रोभायोडो- भू. का. कर. ` `` रोकार्टजनणी, री भारईजवो-- क्म वा. । रिणी, रिभकावौ, रिभवारौ, रिकवावी, रिभवारणौ, रिभवारयीौ रिकाणौ, रिभावौ, रिकावणौ, रिकाववौ, रीजाणौ, रीजावौ, रीजावौ, रीजाववी, रीफावणौ, री्ाववौ 1. भे, --रू. भे. | रोकायोड्ञ-मू.का.क.--१ प्रसन्न किया हूृभ्रा, सुश्च क्रिया हृश्रा. २ मोहित | भन न्भ केः नः वैन = रीभद्ठ-- ° किया हुग्रा, मुग्ब करिया हुश्रा. ३ मस्त किया हुम्ना, मग्न किया ह्र, ४ तुष्टमान होने के लिए प्रेरित कियाहुश्रा. ५ उमंगित किया हृभ्रा, उत्साहित किया हूम्रा ६ पुलकायमान किया हृत्रा। (स्वी. रीभायोडी) री्राठ, रीका , रोाठौ-वि.-- १ खु च प्रसन्न होने वाला । २ मोहित व मृुग्व होने वाला । ३ उदार, दानो 1 ४ रसिकं । रीक्रावणी, रीभाववौ-देखो ^रीफाणौ, री फावौ' (रू. भे.) उ०--१ देवण ने रतिदान जाच जाचूं फिर जच । रीविण दिन रात नाच नाच फिर नाचूं 1 --ऊ. का. उ०--२ वाय पसावज ताठ वजावै, सुर गु गाय जगत रीकावं। --भ्रनुभववांणी उ०--३ गंगा राग इलाप कर कोई राव रभाव । --केसोदास गाडणं उ०--४ भलां परमेस्वर विना श्रा गूजरी किण सुं प्रीत कर सकं । „ फगत श्राप रीभ्ाचण सार ईश्दण रौ जलम व्दियी ' -- फलवा रीश्ावणहार, हारी (हारी), रीशावणियो-- वि. । रीकाविश्रोडी, रीश्ावियोड, रीशछव्योड़ो--भू. का. कृ. । री ावीजणौ, रीकावीजवौ --कमं वा. । रीावियोडौ- देखो "री कायोड़ौ' (रू. भे.) (स्त्री. रीशावियोड़ी) रीियोडी, रोकीयोडो-भू. का. इ.-- १ प्रसन्न हवा दभ्रा, सुन हवा टृश्रा. २ मोहितया मुग्ब हुवा दभ्रा. ३ मस्तया मन्न हुवा हशर. ४ तुष्टमान हुवा हन्ना. ५ उमंगित या उत्साहित हुवा हृश्रा. ६ पुलकित हुवा हमरा. (स्त्री. रीभियोड़ी) रैभु-देखो "री (रू. भे.) उ०--वेउ हूंफ वेड वाकर वादं राय तणा मनि री उपाद्‌ । चरणि धसक्कड्‌ गाजडइ गयणु, हारि जीतद्‌ जय जय वयणु । --सालिभद्र सूरि रीकौ-वि.-रीभने वाला 1 रीटौ--देखो 'रीटौ' (रू. भे.) रीठ-सं. पू. [स. रिष्ट प्रा, रिठ] युद्ध, समर । (डि, को.) उ०- १ दभ श्रराव तांम दवाणां, श्रगनि चटु घर भिर ग्रस मांणां । दूगम रीठ गोगां दरसाई, वीरभद्र जिम घटा वणां । -सृु.प्र. उ०--२ एक घड़ी धारं कंडी, रीठ पड़ी रिण वार । दोन दूयण ४१८५ रीस __(__(_((¬ ]]]-------------_--~~- 'प्रजीत' रा, समहर थया संघार 1 --रा. रू, उ०--३ भृंडण ई विकराल चंडी रौ ूप वारयां रीठ वजायौ पणा वजायौ । --पुलवाड़ी [सं. रिष्टिः] २ तलवार । उ०--१ जात सुभाव न जाय, रंगड के वोदौ हवं । भ्रारण वाज्यां श्राय, रीठ बजाई राजिया । --किरपाराम उ०-२ पिसण पीठ खग जौ जड”, पिसण॒ जडं मौ पीठ । किसूं नफौ कह कांमणी, राड वजायां रौठ | --वां, दा. उ० --३ हरीया हौदं ऊपर, रावत वाई रौठ। मारयौ राजा मोह कु, पडयौ तलपफ़्ं पीठ । --अ्नुभववांणी ३ शस्त्र । ४ छास्तर प्रहार, भ्राघात । उ०--१ गड्क्कं जगाठां नागं कुंडाढां भरंके गोण । तोडवं तेजाढां रणंताकां मे नत्रीठ । दढ्टां पेलां वाढं सजे दंताटां ढाहते दिये । रावतौ वंगाठां मां्थं करम्माटां रीठ । --रावत सारगदेव रौ गीत उ०-२ पड उत्तवंग चदं तन पीठ। रीदाठां भीक किरमल्ल रीठ । -- मा. वचनिका उ०--३ गाव नजीक वे हुई, सु वडौ तोह रौ रीठ पडियौ । भ्र उलौ-प"लौ घणौ साथ काम भ्रायौ। - नरसी ५ शास्त्र प्रहार से उत्पन्न ध्वनि । शब्द, श्रावाज | उ०--१ हरवल शगजवंध' हुवौ, ्रमर' लडियौ उण वारां। सेडेचां दिखणियां, रीठ वागौ खग धारां । --सू. प्र. उ०--२ ताहरां पावुजी खेत वहारं लड़ाई कीतव्री। वडौ रीड वाजियौ । ताहूसं पावूजी काम श्राया | -- नरसी उ०-३ सो पोह्र एक तक ॒रीठ वाजियौ 1 --कूवरसी सांखला री वारता उ०-४ निहसंति जोध नव्रीटठि। रिण सूक वायरि रीर) वे निहस सेन निसंक, किरि राम रांमण॒ लंक । - गु. रू. वं. ६ भ्रसल्य शीत, सर्दी । उ ° -- उत्तर श्राज स उत्तरउ, पाक्ड पडिसी रीढ । दोहागिरा-घट सांमुह्‌उ, सौहागिण री पीठ । रू. भे.-- रिट, रिठ, रिरि, रीस्ण। महू. रीठौ । रोठ्ण-देखो "रीठ' (ख. भे.) उ०--फिर दोला ग्रठगा फिरंग, रण॒ मोढ्ा पड़ राम । श्रोला नह्‌ ले श्राउवौ, गोढा रीरुण गाम | --्रग्यात रोठौ-सं. प.-- १ एक वड़ा ऊंगली वृक्ष । २ इस वृक्ष काफल जो वेरके बरावर होताहै। ३ देखो "रीठ' (मह्‌, रू. भे.) -टो. मा, र । ४१६६ रते टदा ^ ~ ~~ ~~~ ~~ ~~~ ~ ~ ५९ उ० -सिघां सावता सहेत श्राखाई सोहिमौ, राग सिधु चजजे खाग रीठी । समर भूषा श्रादेस करतां सहु, दव्य मादस मादस दीठो । --महेसदास राटौड रौ भीत रीढ, रीढकफ-सं. पु. [सं. रीढकः] १ मनुष्य श्रादि कुं विदिष्ट प्राणियों के शरीरके पृष्ठभागमें गदेनसे कमरत्तककी सीधी मोटी हड़ी जो पसलियों से जुड़ी रहती है । मेखूदंड । उ०--दमड़ौ वचन सुरि विरोध री क्रोध विसारि विजय सूर री जोडायत कर मे कटार कालि साह ववण रं काज रीढक रं समीप श्रापरी पीठ फाडि नेत्र-मूढ मूरच्छित वालक नूं" --वं. भा. २ किसी वात या विपय का मूल श्राधार्‌। ३ नार, सहार) ४ फक श्रौरचायु से वजने चलि वाद्यो मे स्वर वनाने वाली वस्तु । रीटढणो, रीटबौ-क्रि. स.--मर्यादा का उल्लंघन करना, श्रवन्ञा करना । रीदा-सं. स्व्री.-हठ, जिद्‌, दुराग्रह । उ०--सा्यौ हठ वप्पवस विरुद वढावन कों । रावन कों रीढा दं सिटावन को साद्यौ नां । -- महाकवि सूर्यमल्ल रीदियोडौ-भू. का. कृ.-- हठ या जिद्‌ किया हुभ्रा, दुराग्रह किया हृश्रा । (स्त्री. रीद्ियोड़ी) रीणयंवर-देखो 'रणथंवोर' (<. भ.) उ०--प्द्वै दिन २ भ्रजभेरर्ह्‌नं साहजहां सीणयंवर री पाखती होप श्रागर भ्रायौ। -- नरसी रीणवास--देखो "रणएवासः (रू. भे.) उ०--याप्या साहा वर तुरी । धाप्या मंदिर धरि कविलास। याप्या चौरा चरखखडि 1 वाप्या सांभरि का रीणवास्त। -वी.दे. रीणायर--देखो "रत्नाकर' (<. भे.) उ० थमा निवांण॒ करि नर काय लोड नीर । नाढं खों न मिद, रीणायर वीणि हीर। --वील्ौजी रीणौ--१ देखो "रण' (श्रत्पा. रू. भे.) उ०--फीणौ करह कहुकीयौ, रणो ममि कराह । जार पएूलांणी कााटीयी, ऊमाहीयी घरांह्‌ । -लाखा पुलांणी री वात २ देखो 'रिसांणौ' (<. भे.) रोत-सं. स्प्री. [सं. रीत्तिः] १ प्रथा, रस्म, रिवाज, परम्परा, रीत्ति। उ०--१ एकः फहै श्राप रे, कियौ मत स्वार कज्जं । एक कहै श्रर- गंम, रोत्‌ भ्रण प्रीत सु रज्ज । उ०-- २ पैलीवैः दिहाल की वातत नै डढी चौखी वतव, जिकादही न पद्य वीं बात री माड़ी चुगली करण लाग ज्यावे । दुनियां रौ इसी घारौदहै, इसी रीत । जगती राभा जाठ है, पापा रा लषचेह पंपाठहै) ~ दसदोख उ०--२ ससतर सुं नहीं देदीय, पावक लगे न सीत । हरीया एेसी ब्रह्य कौ, उद बद कहीये रीत । --श्रनुमववांरी २ तौर, तरीका, ढंग, विधि। ॐ०- १ साथ "सवाई तंडियौ "जोध" हर जंसाह्‌' । रीत विविध मनुहार री, ्रति उद्धरी श्रधाह्‌ 1 --रा. ख. उ०--२ राज काज रीत नीत बूभती रही । वार श्रांधरे कि यार सुती रही । --ठ. का, ३ नियम, कायदा । उ०-१ श्रारा मांहिथीलापसी त्यायासौतौ उणांरा टोढारी रोत रह पिणानेममें दरद रहूयौ । काल कर गयी विरा काची पणी पधी नही । --चि. द्र. उ०-२ सिस सेती सतगुर कटै, परापरी की रीत। ग्रीर मरम क्‌ छाडिदे, रामनांमस्‌ प्रीत । --ग्ननुभववांणी ४ स्वभाव, अ्रादत, प्रकृति । उ०--१ राव रंक धघनश्रौर, सूरवीर गुणवान सट । जात तद्ग नह्‌ जोर, रीत तरणौ गणा राजिया ! --किरपारांम उ०--२ सुर सती श्र साघकी, हूरीया हेकौ रीत)! ऊत्या तन सांम कजि, हरिजन हरि की प्रीत । ---प्रनुमववांणी ५ मर्यादा । उ०- कठण रीत रजपूत कुट, खाय कमार खाय ) श्रौर कमाई भ्रादर गोलौ भगडं गाय । --वां. दा. ६ स्थित्ति। # उ०--क्रत पूरण वधियी कठ, रीत दवापुर राज । वंस हंस श्रव- तंस विघ, श्र्भ॑साह' महाराज । --रा., रू. ७ धार्मिक विधान । उ०-किणिसूंजे पग्र रतरा, वांधणहार छ श्र वादसाद्‌ उण रा चलाव हारदसौ हिमायत कस्ण हार उण री रीत रौ कहियौ चै! | 2 ८ वर पक्षकीश्रोरसे कन्या के पिता को, कन्या का सम्बन्ध करै के उपलक्ष मे दिया जाने वाला, घन, रपय भ्रादि 1 उ०--वर कन्या सनमन सर्म, तुलतं मानु तराज 1 वर टकौ (जद) रीकौ चरत, वर गुर रीत रिवाज । --उभयराज रू. भे-- रिति, रिती, रीति, रीत्ती । रोतसांत~-सं. स्त्री.- तौर, तरीका, दंग, रीति । रोत रिवाज~सं. पु.---रस्मो रिवाज, प्रथा, परम्परा । उ०-जुग री जांणकारी राखततौ थकौ श्रापरं गांवडैभे मांडी रीत रिवाजां मिटावण न नौ जुवांनां रौ सुर कर है --दसदोख रीतकगी रोतवणौ, रीतववौ-क्रि. श्र.- खाली होना, रिक्त होना । उ० - भर्या सरवर रीतवं रीता जल भारं । -कसोदास गाडण रीतविषोडौ-भू. का. कृ.-खाली हुवा हु्रा 1 (स्वी. रीतवियोड़ी) रीतहड, रीतहर, रीतहरी-सं. स्वी.--शकुन शास्व के श्रनुसार ऊघ ॐ दिशाका नाम। वि. चि.-देखो "दिसा चक्र । उ०-- १ दीख-दहीया कोहर फुसलवं वरणाऊं चांमु । १ उत्तर नु- घरीयारी मेल. वीकनिर था । १ रीतहड-वाप कीरखड री वा सीव पुडीयाछठ सीरड़ सीव । --नणसी उ०--२ हासलपूर खुर्द सोते था कोस € रोतहड कण मां है । जाट खारोढ वं । --नणसी उ० --३ खुटली कोस € रोतहुर कूण मां है 1 जाट पलीवान वसं । -- नसी उ ०--४ हरसीयाहडौ सोभत धा कोस ७ रीतहरक्ुणमां है। जाट वांखिया खारोठ वस्तं । --नणसी उ०-- ५ गोधेलाव कोस ४ रीतहरी कण माहे । जाट वसं । ॐ 9. गी रीति, रीती-सं. स्वी. [सं. रीतिः] १ गीतया गायन की लय, तज । उ० - सदा प्रिया चु प्रीति रोति, गीत सारणी नहीं । निसास रोज श्रंननी, उरोज वारणी नही । --ऊ का. २ सस्रत सादहित्यमें किसी वियय का वरन करनेमें वर्णोकी वह्‌ योजना जिसमे मनोज, प्रसादे या माधुयं श्राता हो । यहु चार भरकारकी मानी गई है) ३ राजस्थानी या हिन्दी साहित्य की मघ्य युगीन काव्य रचना की प्रणाली या शती विशेष जो श्राचार्यौँ हारा निरुपित शास्त्रीय नियमों, लक्षणो श्रादि पर निभेरथी | श्रौर जिसमे वणं मत्री, प्रलंकार जथा उक्ति, विगल (छन्द शास्र), रस श्रादि का पूरा ध्यान रखा जाता था! इस प्रकार के ग्रंथों के नाम, रीति ग्रन्थ कह्‌- लातेये। जैसे राजस्थानी म रघुनाथ रूपक, रघुवर-जस-प्रकास श्रादि। देखो" रीत' (रू. भे.) उ० --१ रोकी ते कुरीति रोति सुरीति को फोकी साथ, ताकत त्रिलोकी एेसौ मत श्रवगाह्यो ते । --ऊ. का. उ०--२ दान देन सिख्यी श्रोन राखन कौ सीख्यौ दिन्य, सीख्यौ थान ग्यान मान मृद्ध सीस्यौतू 1 साहस सरीर सीख्यौ नीर ष्टीर प्रीति सीष्यौ, सीख्यौ वीर रीति वड वीर बुद्धि सीख्यों तू । --ऊ. का. उ०-३ रीतो को लिहाज विपरीत ना लिहाज रास्यौ, राख्यौ मान मानिकं न हान वीच रस्यौतं। --ॐ. का. ४१६७ रीधणो रीतोड-सं, पु. [सं. रिक्त] ^मेलवे कुएमें चरस खाली होने के वाद वलो के लौटने का रास्ता । चि. वि.--देखो "मैलवौ' । रोती-वि. [सं. रिक्त] (स्त्री. रीती) १ रिक्त, खाली) उ०-१ वरसि केवेन माहि वीता, ग्यान गोविद रूप गीता। राकसां रा नेस रीता, भरातम भ्रजीता । -पी. ग्र. उ०-२ खाटी दाटी रहि गई, कुद्ची न चाली साधि अजन हरिया नर दीन विन, हाल्यौ रीतं हाथि 1 ~ ्रनुभववांणीं उ०--२ म्रादि श्रनादि जीवड़ौ, भभियौ चङ गति माय । श्ररहूट घटिकानी पर, भरि श्रावं सती जाय! --जयवांणी २ श्रज्ञ, श्रज्ञानी । उ०-नर राचीम्हैन ली, त्रु कत लस्यौ सुजान । पढ कुरांण रतौ रहौ, राच्यौ नहीं रहमान । -- भ्रज्ञात ३ परवद, पराधीन, मोहताज । उ०--रांमनामन चेत्तियौ, श्राठ्सं करि करि श्रंग। हूरीया सँ रीता रद्य, सरां कूकर संमर। --श्रनुभववांणी ४ गरीव, निधन, कमाल । ५ हताड, निराद ¦ उ०-खठ चीघात विखम सी खोस, वायक तोपां रह्यौ वणाय । दुरंग न दीघौ दस सहस, पात गयौ रीतौ पततसाय । -महारांणा क्रुभारी गीत ६ रदित, विहीन । रीघ--देखो रिद्धि" (<. भे.) उ०-भीवे मन मांह जाण्यौ वावड़ी माह किसूं कर| यां जारा वरंडी रा चेकड़ा मांहै जोव । तटे देख तौ ग्रस््री छै! देख न॑ मायौ घृणे दं) ने जांण्यौ परमेस्वर राघर माह घरी रीधछै त भराजोम्हारे वेरदोयनं इण रै पेट रौ कोई नग नीप तौ हं पृथ्वी माहे श्रमर होवृ । --जखड़ा मुखड़ा भारी री वात रीधणो, रीधनौ-देखो 'रोकणौ, री कवी (रू. भे ) उ०--१ खरम योड़ वोह नफौ साप, वीसर मती श्रनोखी वातं । रै प्रसन्न एं श्रायस रीं, छात सिघां नरपतियां छात । - वां दा. उ०--२ मिया बंका राठवड्‌, चित हित दाख वचाव । सुख जाडौ कीघौ सर्गे, रीधौ ह्ाडौ राव। -रा. रू, ग्रावा ठकिया निरखि, रीधौ चाठक राव) -वां. दां ॐ०--४ रायघण॒ रात दिन सजनठ सूं नजरां सं जोवतो रहै पणश्रौ जारो नहींभ्रावैरद्धीकै मारी ठ! इयर रूप पर रघौ रहै । ॥ --राथवण भारी री वारतां उ०--५ रवद पिराग देखि चिव रीधा, उरा प्राय गंग तरि दीघा। ` “~^ “रीत री यल ४१८६८ रोल पटर जवन सवज पौसाकां, रसि चहुंवे चटिया एराकां 1 -- पू. भर. उ०--६ नरपति रहियौ अजँनगर, परम रिदं घर प्रीत । रीधौ भूप विनाम स, कीयो चंत विनीत । = रा उ०--७ निजर नमौ सरसंघ, फोप दांव सिर कीघौ 1 लाधा थास लमा, रांम भगतां पिरि रीधौ पी. ग्र. उ०--८ तवे मू श्रदल्या गणका तराई रयं वोर भीलणी तणा खाय रोषौ । करां ताडका मार उधार सामी, करां ग्रीव वाटी यट स्राध कीचोौ। --र. ज. प्र. उ०--& राजा देसि कतूटृछ रोधो, दुगम जांणि चित सोचन कीधौ ) घार्ण वीर ताम इम धघरियौ, देखं मूक भूप नं उरियौ । -- सू. प्र. रोधणहार, हारौ (हारी), रीघणियी --वि. । रीघिग्रोडो, रीधियोडो, रोष्योडो- भू. का. क. । रीधोजणी, रीघीजवो-- भाव वा. । रीपल-देसो 'रीमन' (रू. भे) उ०---१ सागलां कलां श्रोखलां खोव, धायलां मलां धरूमलां घोव 1 रौधलां रितां ऊजां रक्त, गउथलां भडां भड खटा गत्त 1 --गु. र. वं. रोम~मे. स्मी--१ वीस दस्ते फागनों की गही । २ तलयार्‌ । (ना. डि. को) रोर्याणो-देसो 'रिरंणौ (रू. भ.) रोर-सं. स्त्री.-? प्रलाप । उ०--१ रौर करट दसद, वसद्र ऊध्रसद भ्रंग । क्षणु खीजड क्षणु माहि क्माक्षणि गहिसुं षणु चंग --मा. कां. प्र. उ०--२ तिहा स्पछी तं विह्वल, सिद्धि न सानि सरीर । काम- फत्ता कही कही, सेनु पादड्‌ रीर । --मा. कांप्र. । रो यरौ-तं. पू.--ददं भरी भ्रावाज, कराह । उ०-? पद स्वामी जी पधास्वा ! धसक सूं ताव चद श्रायौ । गाम दरमणा करवा श्रा! जदे स्वामी जी पृद्छयौ। कांई्‌ थयो? म्‌ व्यु दोनेदह। जदे रीतटाकरती कह स्वामीजी श्राप रौ पवा- रणौ हयौ से मोने ताव चड़ गयौ । --भि, द्र. रोराष्णो, सौराष्यौ- देयो (रोरणौ, रोरावौः (रू. भे.) सपेराणौ, रोरायो- फ्रि. श्र १ गिडविदाना। उ०--{ लि तिरसे मुख जोय, निस्चं दय कटौ नहीं । काटन दै वित्त कोय, रोचयां सृं याजिया। --किरपारम २ मदन क्त्टना, सेना। 2 दुरम प्रमट करना) रीरापहयर, हारो (हतै), रीरयाधिपौ- वि. । रोप्णोशो-- भू. का. क. । रीराट्नपौ, रोराईनयो-- माय दा. । [9 ) षि | ऋ अ अ त य्‌ ~~ रीरखडणौ, रीराडवौ, रीरारौ, रीरावौ, रीरावौ, रीराचवौ रू. भे. । रीरायोडी-भू. का. कृ.-- १ गिडगिड़ाया हृश्ना. २ सदन किया हुमा. ३ दुःख वरन किया हु. (स्त्री. रीरायोडी) रीरावणो, रीराववो--देखो !रीराणौ रीरावौ' (रू.भे.) - उ०--१ भावे नहीज मात,लागं विणज विडावणौ । रीरा दिर्नरात रोस्यां वदं राजिया । --किरपाराम उ०--२ धरन संका वीर, रीरावां रात्यू दिवस । सबली माहि सरीर, वेदन त्ारी वीरा । -- यींभरे ्रहीर ही वात री राचणहार, हारो (हारी), रीरवदणियौ-वि.। रौराविग्रोड़ी, रीरावियोड़ी, रीराव्योड़ो--भू- का. कृ. । रो रावीजणी, रोरावीजवौ--भाव वा. । रीरावियोड--देखो !रीरयोड़ौ' (रू. भे.} (स्त्री. रीरावियोड़ी) रोरो-सं. पु. [सं. रिरी] १ पीतल । उ०--१ जड लाधउ जिनघरम निरव्याज तठ श्रनेरदई मि किञ्षिखं काज, जउ लाधी सुवरण्ण तरीं कोडितु रीरी पहिरवां हइ खोडि । . -व. स. उ०--२ कहां रीरी किहां वरकरय, किहां दीव किहं भांण ! सामिणि मम तुक भ्रतरं, ए एवडं प्रमांण । -हीराणंद सूरि रोरीया-सं- स्वी.- १ गिडगिडाना, विलविलाना । उ०--१ वाजवा लागी सुमट तशी कौटकडि, नाचेवा लागा घड़कर्वंघ, पडिवा लागा ध्वजविध, प्रहार जरजर कंजर षडद््‌, सूना सा तुरंगम तडफडडं मारडीता गजेन्द्र प्रारडदं, रीरीया करता राउत हयिग्रार हारइ। --व, स, रोप. स्वी. सहसा या रह्‌ रह्‌ कर उघ्ने वाली वह्‌ पीड़ा या दर्द जिसके कारण शारीर का भीतरी भाग चीरताहुश्रा प्रतीत हौताहै, हुल । उ०--१ सांवौ सांवौ दवायौ। हाल जच्चारेपेटमें रीठा हातती ही 1 टील चभक चभक करतौ ही । --फुलवादी उ०-२ कंतौभश्राव घड़ी षे्ती वरा दांत किटकिट वाजता हा, हाटकं मे रीं ऊव्तीही। --फुलवाड़ी ,. क्रि. प्र.-ऊटणी, चलणी, चालणी, हातणी । २ शीतल वायु की लहर । [स भे.--रीटी 1 सोल-स. स्वी.-१ प्लास्टिक का फीता जिस पर किसी नाटक या येल कै प्रतिद्छायासमक चिव हत्त ह ज्रौर जिसे मदीन पर चदा ५ र रोटी कर, पद पर उन चित्रो के प्रतित्रिब देवे जाते ह| उ०-१ सपनं री घटना सिनेमे री घुंवढी रीलरी दायी एक ग्रंखियां र राग फुरती सं घूमगी । --वरसगांठ २ वारीक ग्रौर पक्के डोरे का गदा । रीरी-देखो "रीठ' (र. भे.) रोव~सं. स्वरी. [सं. रवः] हाहाकार, करूणा क्रदन । उ०-- १ जोय चक्तवर्ता भ्राठमउ, संभूम नउ जीव । स्ातमियड नरकइ गयउ, करतडउ मुख रोव । -स. कृ. उ०--२ किरिया करतां दोहिली जी श्रालम श्रांणडइ्‌ जीव । धरम पखडई घंधट पडयौजी नर कडक करस्यई रीव । --स. कु. २ पीडा, कष्ठ । उ०--मोह्‌ मयं सरिखूं कहिउरे धारिउ दींडदइ्‌ जीवे । परवसि धयु ते नपि जांणद श्रण॒ नरक र दोहिली रच । -स. कु. ३ चित्ताहूर 1 उ०-रीव करदं वलि तरफलौ रे जिय थोडे जव मीन । --वि. कु. महू+-रीवौ । र | रोर्वणो, रीववौ-क्रि. श्र.--रोना, रुदन करना । उ०--१ सव्रद भलका तन सहै, मना न श्रांणं संक । रावत सोहि मरि रहै, हरिया रीवं रंक । --ग्रनुभववांणी २ कराहुना । उ०-सवद मारकौ मारियौ, रीवं सास उसास। ह्रिया वाहिर वोलिकं, काटि न संवं वास । --ग्रनुभववांणी रीवौ - देखो "रीव" (मह. 5. भे.) उ०-त तु मूक नामूकूं गही, ति परि नाटकी जीवो जी। परमाहम्मी खख मूकइ नहीं, तिहां पड्यउते करद्‌ रीवौ जी । --स. कु. रीस-सं. स्वी. [सं. रिष्‌ या रोप्‌] १ क्रोध, गुस्सा, कोप। . उ०-१ उगा मुख वारह्‌ दीत उदार, भिड़े तिरवार मुंद्यार . भुंहार । जौए जुघ रीस चदढी वरजाभि, उठी घ्रत सीचिय जांशिक प्रागि। -सू.प्र. उ०-२ काचड़गारा उपरा, रांमतणी है रीश्न । काचडगारा चूडचा, विगड़ विसावीस । --वां. दा. क्रि. प्र.--श्रंणी, ऊठणी, करणी, चटी । २ उह, ईर्प्या । रू. भे. - रीसौ । रीसडली-देखो "रीस (श्रत्पा., <. भे.) रौसट, रीसटा८, रीसटियी, रीसटी, रीसह-वि.- कोप या फ्रोघ करने वाला, कोची, गुस्सेल । ४१९८६ रीसोद उ०--१ भूरेजीरं वेटौवेरसी वरस भ्राठरौ खीविंरंवेटौ जागर वरसदस रोसो सयां श्र वेरसी रौ सभाव वादी रीसटसो सारा जां । --सूरं खीवि कांचलौत री वात उ०--२ वलि रीसर वांखियौ दूत वोलं इम डलं । -चघ.व. ग्र. रीसणौ, रीसवो-क्रि. प्र. [सं. रिया रूप] १ करव होना, खफा होना। उ०--लखी; तोपां सालुढी, पुटी पलटण्यां परतां । संगीना सावलां, प्राम दछायौ ग्रखङतां । तीर कमांखां तोकि रिमां उपर रोसराणां । तरांणां पोसर नव्रीठ, पीठ खेटक खग पाणां -मे.म, क्रि. स.-२ क्रोध करना, कोप करना । उ०--दोख निज दीहन दीसैरे, रमा श्रवरां पर रीसैरे\ वात निज हाथ विगाडी रे श्रई सोई पांत श्रगाडी रे ॥ कका रीसवंतौ-वि. [स््री. रीसवंती] १ क्रद्ध स्वभाववाला, कोवी । रोसवाडणी, रीसवाडवी- देखो "रीसाणौ रीसावौः (ङ. भे.) उ०-तद रावत रिणधीर नं सतौ' एक था। पद्ध स्तं रिण- घीरही नं रीस्तवाडियौ ! तर रिणवीर ही मेवाड श्रायी । --राव रिणमल री वात रीरसाणउ, रीसांगो-देखो "रिसांगौ' । उ० - सु किणीक वास्तं रीसांणौ हुवौ तरं छाडनं श्रहमदावाद रा धणी रं चाक्र मूसाखांन तिर कनं गियौ । -नणसी रीसाणी, रीसावो-क्रि. स.--१ क्रोव करना, कोप करना } क्रि. भ्र.--वुपित होना, क्रद्ध होना, रोसायोड़ौ-भु- का. कृ. -क्रौध किया हु. २ इषित हवा ह्रः । (स्वी. रीसायोड़ी) रीसाठ, रोसाद्‌ -वि.--क्रोव करने वाला, गृस्सा करने वाला । २ डाह्‌ करने वाला, ईर्ष्या करने वाला । रीसावणी, रीसाववौ - देषो 'रीसाणी, रीसावौ' (रू. भे.) उ०--१ सांच कहिया थकां स्याम रीसावस्यौ कहं वा वात साची कहायो । पड्दढी मांय जे न हतौ जोवपुर, श्राप र॑ कहौ करिण रीत ग्रायी | --सवाईसिह्‌ चांपावत री गीत रीसावियोड़ी- देखो 'रीसायोढ्ौ" (रू. मे.) (स्वी. रीसावियोड़ी) रीतियोडी-भू का, कृ.- क्रोध किया हुश्रा, क्रूव । (स्त्री. रीसियोढी) रोसोद-वि.--१ क्रोव करने वाला, कोप करने वाला । उ०--नाराजां ्रारांण भली वीजदी सिलाव नेजां, दुह फौनां उलढठी दारणा मद्री दीठ । लड़का रीसोद श्राडी चौड ४ लागी, राड चौडे सीसोदां गनीमां वासी री । । --वद्रीदास्न खिडियौ #: धाड धाखं रेषो ४१६० सुमे ॥॥ 0 ~~~ ~~ ~~~ ^~ ~~~ रोसौ--देसो "रोस" (र. भे.) उ०--्षमां धरम पटली खरौ, दम भाख्यौ जगदीसौ रं 1 क्षमां रमो तौ जीतसो, मत रासो कोई रीसौ र) --जय्वांणी य-द 'सेम' (<. मे.) रः श्रादछ्ठी--देखो "रोमावमी' (<. भे.) दश्री --देगो "रोम" (रू. भे.) द'द-सं. पु. सं. रण्डः, रण्टम्‌ | १ दिर यन्य शरीर, विना दिर काधड्‌ कचरध | उ०--१ गौद्‌ राजा श्ररजुगर्षिव वरियां रा थाट चिसोटिि्वेंडा गजां रं चाचर चंद्रहास चलाई संकडां सूरांनूं साथी करि महारद्र री माढ्ामें श्रापरा मुंडरो मेर चढादरुड थकौभीवारामेतिल तिल पद्चरां री पाती पुद्गल राचि दस्टलोक पूगौ। --वं. भा. उ०--२ संधार मार लकार सेन, मिन सार धार भ्रंघार मेन) धट्मृद् गंटयं रंड घवक, करमाठ वह किरि काठ चक्क । --गू. रू. यं. २ तेसा रीर जिसके हाथ पांव क्ट गये) ३ चिर, मस्तकं । (्र.मा.) | उ०--पट्रफाट कट्‌ कट्‌, काट कौरड, दधुर लवइ, ताड तडतड 1 या द्ुट बद, सौक सदसद्‌, फुट फिफरड़, कलिज ड फंड । भ्रतद्‌ उधर, लोकः तदथर्‌, उद्भ प्राखट्‌, रट रड़वड । पंख भट पट. बीर वष्ट वड्‌, श्रद्युर श्रहवड़, धरा धडटड, इसौ मचि ्रारांण 1 --प्रतापरिच म्होकमरसिघ री वात यौ.--र् टमा, ई डमादा ॥ ३ युद्ध के समय वजाया जाने वाला एक प्रकारका वाद्य विदोप। स=. भे.- रूट, श्रत्पा-- रहली, रूखनी, मह्‌ रू'उल । र माष, ए टमादटफा, र टमाटा-सं. स्प्री.-युद्ध मे वीरगति प्रापि यीराफेधिरोकी मादा जिसे महदेव श्रपने ग्ते में धारण फरते है । उ०~-१ पवां मकि स्रोण वहै श्रणपार, जटा ग जांणिक धारः हजार । यध॑वर जेम सिचं विकराछ, मंडे गदि माठ जिका श इमाद्ट । - सु. भर. उ5--२ सा कर दिवं पिर मूत वत्ता का, कारं किलकार स्त नरपते द्र कटका । मरं जरघारभु कयां श्डमद्टका, प्रान भ सी{दिया सिप तं प्रारत 1 --जोरजी चांपायत रौ गीत ॐ०--२ वरंगन कट षर्‌ वरमा, स्कां उटि सीय नटं रडमाद । ष्रपष्ददुर्‌ मुद जोर हिन घाप, जद रव वेटि षकमस्रमि जय । --सू. प्र. २०--# वदती खटपो वनपेसर सग्यौ । चदी सिय काटी त्म दत भ्यौ । तििमादिमिः मेपरी ध्माता, णिरं श्रत ततावदी प्ग्यः एट { --ला. रा. [हु पि भि अ रू. भे.--रु'उमाठ, रुडमाटठा, रडमाटी, रुडाबलठ, सुडावठी, रूउमाठ रुडमण्छी-सं. पू.-१ रूढोंया िरोकी माहा घारणा करने वाला, शिव, महादेव । स. स्त्री.-२ महाचंडो, रणचंडी, दुर्गा । ३ देखो “स्‌'उमालाः (र. भे.) उ०-चौतरप्फां सतारेस चम्‌ वरंतेस चाली, पत्र पुर कामी हकं पाष्ठी रत्र पीध। त्प कान ताठी वज्र सिधां जच खुल तारी, किल्लकी कपाढठी रुडमाछी मेर कध 1! -करणीरदान कवियौ रु डम्‌ड-वि.--मुंडे हुए शिरका, मंडित । रं डठ-देखो 'रुढ' (मह्‌. रू. भे.) उ०--मटकं काट प्रौमड़ी शौर, फेरी फुरंत फारक्क फौर। ताडलां दयां दूगढ्टां हुक, ₹ उवा रुलां सीकलां स्क । - गु. ₹. वं. रु उहार-देखो ममुंडमाढा' । । उ०-मेमंता विभाड रथ्थी प्राहां रंगां भाराथर्मै, महावंकी बार पांव अ्रचल्लां मांडीस । वारुवार भूतढेस ले सडहार भार वश, प्रथीनाथ जह्‌ वार फाटक पाडीत । -भगतरराम हाडा री फ़त रु डावट, रु'डावटछी--देखो ^₹'डमाछा' (रू, भे.) । उ०-- ग्घ भयंकर जत सदाजुघ, संग वद्‌ किव मौन सम्प 1 ज्यु भस्मी तन व्याढठ रु'डावठ, हैत हाद्य कंठ करप्पं 1. --क. कु. बो. र टिका-सं. स्त्री. [सं.] युद्ध शमि, युद्ध स्थल 1 र दणी, रु दवौ-क्रि. श्र.-१ पैरों तले कृचला जाना । २ देखो शरूदणौ, दवौ (रू. भे.) ३ देखो ^रुधरौ, रुघवी' (रू. भे.) स दवाणौ, रववाबौ-क्रि, स.--परों तते कुचलवाना, रोदवाना र दियोढौ-- १ देखो 'रूदियोद्धी' (रू. भे.) २ देखो 'रूधियोडी' (रू. भे.) (स्त्री. रुदियोडी) रध-देखो शध (रू. भे.) र पमो, र धची -देयो (र चरौ, रू घवौ' (र. भे.) उ०--१ चंदन तापद ससि जढ्यद्‌, पवन कर्‌ प्रकार । भेह तखां मण रुपिया, श्रहौ रेश्रासौ मास) --मा. का. प्र, उ०--२ दरि दधिश्रार दलावतां, मुक त्यह रचि वद्धि! त मुभ सीवदं श्रावि्जै. नाकि घणा जिवि घट्ट । -मा.र्का. प्र. ग धियोष्ौ -देखो 'रूचियोट्ौ' (स. भे.) (रवी. रचियोटी) श्म. स्वी.--एक प्रकार फी इरी सन्नी विमेप। ् ₹'वालली उ०--रांमोड़ी नडं रासना, रीगणि रुदर जटाय । राग रांजणी ` रु'मडी, रनि वनि रंग धराय । --मा.का.प्र. | रु वाठो-देखो "रोमावली" (रू. भे.) ¦ उ०--१ अराज म्हारं मन मायली बात परी, रुवाद्ी रसीक्लती वरा हे । - दसदोख । स्प्रडे, स्प्रडो--देखो 'रूडी' (रू. भे.) | उ०--१ जिन वांणी द स्ग्रडी। --घरम पन | उ०--२ राजकुमार भ्रमं रश्रडा । --घरम पत्र (स्वरी. सग्रडी, स्प्रडी) | रुप्राव-देखो "रोव (<. भे.) | स्ग्रामाट-सं- पु.-- १ ख्माल (ङ. भे.) उ०-उरं मोर के सास श्रभ्यास श्रांरी, वडा दूह पतारिया पील- वारी ! गंडां मार वसारिश्रा नीठ गजं, स्ग्रामाठ फर करं भाडि रजें। --वचनिका २ देखो “रोमावढी' (रू. भे.) स्प्रामष्टी-देखो /रोमावटठी' (<. भे.) सुद--{ देखो '₹चि' (रू. भे.) ४ २ देखो ई (रू. भे-) रूहर--देखो -.रविर' (ङ. भे.) ररई-सं. स््री.--१ देखो ^रुचि' (रू. भे.) २ देखो '<ई' (< भे.) रुर्ई्दार-देखो 'रूईदार' (₹<. भे.) रश्रोड़ी-- देखो "रसोई' (<. भे.) एक--देखो “रूक' (रू. भे.) उ०~-वरगन कठ धरे वरमाठ, रकां उदी सीस चढं र'उमाद्ध । -- सू. ० जा ~ भज क-म» = ~न सकड--देखो “ल्क! (मह्‌. ₹. भे.) सकणी-सं. स्त्री.--रोक, वंघन, स्कावर । उ०--श्रर श्रेक दिन दिली मा'राज पदमर्षिघजी वां जंपीघजी रा कंवर रामसीधंजी श्रं दोय सिरदार सेल कर्ण नं गया हा तरे स्कणीमे श्राय गया -द. दा. स्कणौ, रकबौ-क्रि. भ्र.--१ रास्ता भ्रादि ठीकन मिलने के कारण ठहर जाना, श्रागे न वद्‌ सकन, श्रवरुद्ध होना, ्रटकना । २ श्रपनी इच्छासे ही ठहुर जाना, श्रगाड़ी न वदना । ३ किसी कार्य का श्रमे न चलना, चलते हुए कार्यं कावंद हो जना! ४१९९१ रुकमकेस ४ किसी चलते हए क्रम या सिलसिले का अ्रवरुद्ध होना, वंद होना । ५ किसी कायेका वीचमेंही वन्द हौ जाना, काम श्रागेन हयेना) ६ मेथुन या सहवास के समय पुरुष का एेसी श्रवस्थामे हना कि उसका वी्यपातनहो। रुकणहार, हारो (हारो), सकणियो- वि, सकिभ्रोड़ो, रुकियोड़ी, स्क्योडो- भू. का. कृ. । सकोजणौ, रुकोजवौ-- भाव वा. 1 रुकनावाद-सं. पु. [फा- सक्नावाद] १ मृसतलमानों का एक तीर्थं स्थान । (बां. दा. ख्यात) २ ईरानमे रीराज के पास वह्ने वाली नदी। रुकमगद--देखो “स्वमागद' (रू. भे.) सकम-सं. पू. [सं. सक्मन्‌ | १ स्वरं, सोना । (श्र. मा., ह्‌. ना. मा. ) उ०--१ विव विघभ्राभरुलणां जवाहर, लख वगसै जस सुद्रढ लियो । पिलासार पलट भ्रंग सुकवि, कमध स्कमकर रकम कियौ । --मांनजी लास उ०--२ जग पुड्‌ जगा' पालां जंगम, रिमहर माथ धात रह । रुकमां जोख जोखियां राणा, पडियौ जो दिली पह । महाराणा जगतरस्िह्‌ री गीत [ सं. खकमी | २ विदभं देशाधिपति भीप्मक राजाके सव से वरे पुत्रकानाम। उ०-- पच पुत्र ताइ छठी सृपुत्री, करर र्कम कहि विमद कथ । सुकमवाहु श्रनं रुकमाढ्टी, सकमकेस श्न रकमरथ ! --वेलि र< भे.-रुकमौ, सुकूम, सुकरमी, सुखम । भ्रत्पा.-- रकम, रकमरियौ, रकमयौ, सकर्मयौ, रुवमदयौ । २ लखपत विग के ग्रनुसार एक मात्रिक छंद विशेष । सकमइयो- देखो रूकम' (<. भे.) उ०--१ रकमद्यो पेलि तपत श्रारणि रणि, पेखि र्कमणी जठ भरसन › तरु लोहार वाम कर निय तण, माहव किड सांडी मन । वेत्ति । उ०--२ रुकमइयो सिसपाटठ बुलायौ, नहि मुख देखं वाक । धांका विड्द क्रू लोग हसेगौ, जिव जार्व॑गौ म्हांकौ | -मीरां रकूमकर-सं. पु. यौ. [सं. रकम कर] पारस । उ०--विध विध श्राभूवणां जवाहर, लख वगर जस सुद्रढ लियौ । सिलासार पलट श्रंग सुकवि, कमंघ सकमकर र्कम कियौ । । -- मानजी लास रुकमकारक-सं. पु. [सं. सक्मकारक] सोना, स्वर्णं । रकमकेस-सं. पु. [सं. सक्मकेश | विदर्भ देशाचिपति भीष्मक राजा के पाच पृत्रोमे से चतुर्थं पत्र का नाम। ॐ०-- तिहि राजा के पांच पुत्र छटी पुत्री । एक कड नान सकम । रंकमण ४१६२ श्वी ------~--------------------~------------------------- ~ 000 दूजौ शकमवाह्‌ । तीजौ स्वमाढी । सौषो रफमपेस । चि. पि.~-रेगो "गम" (६) --येति री. वि. वि.~देखोखवःम' (२) रुफमण-देखो (तकमणी' (5, भे.) उ०--१ यही गज वारीह्‌, तू रमण प्यारी तख दसी दरि म्हारीह्‌, घञवंधी धारी नहीं --रांमनाय एवि उ०--२ राधाई स्कमण श्रौर सतभामा, गुज्जा काट (थार) मंग पटे । गीरां केप्रगु पिरधरनागर, तुम गुमरांमूं म्टाको मेक फट । +~ (६4 रफकमणकंत, रकमणफय-म. पु. यो. (र. रिमिणीकात | १ सुय्वर, परमे- दवर । (ट्‌. ना.मा) २ श्रीकृष्ण । रुकमणवरण-मं. पु. यौ. [मं. स्तिमणी वरणा] श्री दृष्या 1 (श्र, मा.) सफमणि-देसो 'रकमणी' (<. भे.) उ०--१ परि प्रसरीसीय भादर ए मदद पाडि युषानि) जप ए रमरि भिरोमणी, स्कमणि रांसिय रो्ि। --जयमेगर गूरि उ०--२ यौ सिसपाल चदेरी की राजा, पूली सादि भर्गो । मीरा कैय्‌ स्कमणि कहत रै, याको ही विडद सखगो । नशी सफमणियौ--देसो 'रुकम' (श्रत्पा. रभे. } उ०-दहांएस्राजन भीकमजी री वीय रकमणिया री कटि वेनदी केरिया लीक्रस्ण री नार। -- तो. मी. रकमणिरमण-सं. पू. यौ. [सं. रकिमिणी रमण] श्री एृष्ण । सरंकमणिवींद-सं. पु. यौ. [सं स्विमणी-विद] श्री एरष्ण॒ । रकमणिहार-सं. पु. यौ. [सं. सविमणी हार] १ विष्णु । (डि. ना. मा.) २ श्रीकृष्ण । रकमणी-सं. स्वरी. [सं. सुविमिरी] विदर्भ देशाधिपति भीष्मक राजा की लक्ष्मी के प्र॑ंश से उलसन्न कन्या जो श्रीकृष्ण की पररानी पी। उ०-एक ्रधकार हिदू तुरक ईखतां, जकी तौ चात संसार जांणी ! किसन धरि सकमणी ते गयौ कवारी, भग्रमरः रं क्टोधर परशि श्रंणी । --फमौ नाई रू. भे---रुकमण, रुकमरि, स्कमिणी, रकम्मरि, रकंम्मरी, सुकमणी, रुक्मिणी, रुलमसि, रुखमरी, रखमनी, रुयम्मणी, रसखि- मिखी, रूकमरी, सूकमणी । रफमवाहु-सं. पु. (सं. स्वमवाहूु] विद्म देदएविपत्ति भीप्मफ राजा के पाच पुत्रोपमे से तुत्तीय पृच्रकानाम। रफपपुर -रा. पृ. (गं. रतगदुर] पुराणानुतार गन्द निदाय समने नगर गयनाम। दयगपाी-मं पु. [मं.ग्केममातिन्‌ विदम्‌ दृलायिदवि भीक रार फः धानय पुलक नुम | वि. वि.-दैे "पण" (२) रफमयो--दगो "गमम" (मत्या. २. भे.) गपमरय-रं. धू. (मि. ववमस्य विद्म दापित भीपान डाके दूरे पुतन नाप । वि. पि.-दरेणो "्फम' (२) दपमागर~- देयो “दनममिर' {= भे.) रपमिणो--दमो 'रतमसी' (न, भे.) स्फमियो--देगो "येम" (पत्या, र. म उ०~-रफमिपा रो गीत मरी जस्या रोणी गदनद सीफरन्णमी गी मार पररिया ~न, रफमयौ--रेगो "स्वम (धत्पा; स. भे.) उर--गकल अयन करता मस्लामय, विने फु गु रफमया, तदं षीय मा रपामो - दन्यो “स्क्म (२, भे.) स्थाप प । गती अ. 4. 10 उथान यानं म्हारी सममा व्रणन दीम एग दिम । ल्प तावप्रे म्टुरौ मकम यौ, माय मिद्धायेगौ । --से. मी. स्फम्मणि- दगो ^्कमणी' (२. ने.) उ०-- नमी केतति पिदुंरण पन्द्‌ 1 रङम्मि प्रसि दुर्य रतन्न र्यःर्दतो-्. प--एक प्रकार फन वध्र विद्नेप 1 उ०~-रोयण राग रताजणी, रयशणी नदं रद्य । यश्टदती रापततसि ठट सोदिणि लास । सा. का. श्र. रु्याणो, सक्याबो--देएो (रकण, रकायी' (र. भे.) रफवायोडो-नूु. फा. कृ.- दसो ^स्कायोरौ, रेकायोटौ' ( (स्थी. रकवायोही) रकगत, स्यरत--देसो 'रवसत' (रू. भे.) उ०--१ तीमूंक्हीतौ काहू ससौ" र्कसत देनौयंहीख्यं- बुलाया । । --मारवाद दा अरमरावां री वार्ता उ०-रेसो खर्वी या फरमां रे पटूर्तं पटी तद दण रफस्त लीवी । --ठा. जंतसी रो वारता 1 त = 96 क्‌ रू. भे.) । रफाणी, सफाचौ-क्रि. रा. [भ्यो क्रि. का. परे] १ रोकने काकाम दूसरे दारा फरवाना 1 सकायोषो -. _--------~-------------~----------------------------- ~ ---`---~---~-------~----- `` २ चलता हृश्रा काम या सिलसिला वंद करवाना, रुकवाना । रुकवाणौ, सकवावौ-- रू. भे. 1 स्कायोडौ-मू. का. कृ.--१ दूसरे दारा स्कवया हुश्रा, रोकने का काम दूरे दवारा करवाया हुभ्रा. २ चलता हुमा काम या सिलसिला वद करवाया हुभ्रा, सुकवाया हृम्रा । (स्त्री. रुकायोडी) रकाव, रकावट-सं. स्वी.- १ रुकने का काये, ्रवस्था याभाव, ग्रटकाव, अ्रवरोघ, रोक । उ०-- श्रमी म्रमी भाय रा वासी श्रापभश्रापरी बोलो में घाट योल ग्रौर सुरणिया घाट ममं । किणी भांत री रुकावट श्राडी नी श्राव । --फुलवाडी २ वहु पदाथंया वातजो रोककेस्पमे हो, बाधाया विघ्न के स्पमें होने वाली वात्तिया काम । ३ मलावरोव, कठ्ज 1 ४ स्तन्मन । सकियोडौ-मू. का. क़, --१ रास्ता प्रादि ठक न मिलने के कारण ठहरा हृश्रा, श्रागे न बढा हु्रा, म्रटका हुग्रा ग्रगाड़ीन वटा 9 हरा, ठहरा हग्रा (श्रपनी इच्छा म). ३ चलता हृत्रा काय वन्द हवा हरा. ४ चलता ट्र क्रम या सिलसिला रवरद्ध हवा तम्रा, ५ वीच में ही वन्द हुवा हूश्ना, श्रागेनहीवढा हुमा ६ संमोगया मैयुन के समय स्खलन न हुवा हुभ्रा, रुका हन्ना) (स्त्री. ठकियोड़ी) रुकुम, सुकुमी देखो 'सकम' (रू. भे.) सकी, स्वकौ-सं पु. [श्र. सक्कश्नः] १ छोटा प्र या चिद्धी, परजा, परचा । चिदी, पत्र । ०- पद्ध राव गाजी कयौ 'जेतसी कृषे नू वुलावौ ।' तद जतसौी कयौ, “प्राप रकौ लिखा दीजै" हूं ई कागद मेल सूं । पं गागजी स्करौ लिंखियौ । --द, दा. ३ प्रमारा-पत्र, सनद । उ०--१ श्र ब्रदावन वा गिरा ऊपर मिदर था सौ दाय टीना । तद गोरधन नाथजी न गुसाई जी लेय नं श्रविर पवारिया । ग्रह ई पातसाहजीराभयसूं सया नही 1 पीय ्रव्यासू ठाकररजी नृं उदैषुर रे गांव सीहा पधारिया ! तठ राणा राज- {्िचजी समां श्राय दरसण कियौ । श्रु सिहाड किताई गवां सूं निजर कीवी वा रकौ लिख दीनौ कं लाख सीसोदिया रामाथा भेर द्ध । -द. दा उ०--२ रकौ चं तुम हाथ, प्रीत वचन माहि लिखुंजी । जाद्‌ पड पर हाथ, म्रालम इम वचनं नही जी । -प. च्‌. चौ ४१९३ रफ्सत ४ प्रेम पत्र । उ०-मालण छवडीदेय नँ पाद्धी श्रा्ई। तद सुखं फिकरवान होय उण नू वतलाई। कांम सक्को थौ सो गूमायौ। कतौद्ई पलां मे गिर पडियी होड । जिण हूं कहां ही जायन छवड़ी जौद्‌ । उठे फलां मे सक्कौ रतना पायौ । श्राप वांच चतर नं वचायौ उनमांन कियौ मुरौ जांण लियौ । ह्म जवाव रौ रक्की वायौ जिण॒ म दिल री सनेह जखणायौ । सांचा पण रहियौ सरस, लेखौ समभ तियौह्‌ 1 श्राप दियौ जद श्राप नृ, दिल म्ह पहुल दियौह्‌ । -र. हमीर ५ कटृणा या कजं लेते समय लिखा जाने वाला ऋणप ॥ रक्व-१ देखो "स्ख (रू. भे.) उ०-या सज्जणा सुख परिया, दूर गया सह्‌ दक्ख 1 दट्छ नवेपट्लव डह्डदै, ज्यी जट पायां रुक्स । -रा. रू. २ देखो ^रुख' (र<. भे.) उ०-१ चोढम्मे सुकल मूक्खं चख, वयम्‌ कूपं परचंडं । भारत्य वत्य पत्थं मीम, माकी मेरे ब्रहुमडं। --गु. <. व. उ०--२ राठोड राड श्रसमान सक्ख, सीचियौ त्रित किरि सुरा मुकघ् । -गू. रू. घे, रवमणी -देखो .रुकमणी' (<. भे.) उ०-नमौ निरगुण सगख नारियण निम नरा वीर सुदहिद्रा तणा रुफमणी तरणा वर । -पी. ग्र. खकमांगद-सं. पु. [सं.] एक इक्ष्वाकू वंशीय राजा जौ ऋतुघ्वज राजा कापृत्रथा । इसको पत्नीका नाम विव्यावली एवं पुत्रका नाम घर्मा गद धा । उ० - सषमांगद राजा हव उ, गुरुमति ग्यान प्रकास 1 त्रवला किर भ्रादरिउ, पुव कृरेवा नास्त । --मा. कां. प्र. वि. वि.-- मोहनी नामक श्रप्सरा के कहने से यह्‌ श्रपने पूवर धर्मा- गदकाशिरकाटनेकै लिए तयारहोगया। इतनेमें श्रीविषप्या ने साक्षात्‌ प्रकट होकर इस कृत्य से इस परावृत कर दिया । रू. भ--रुकमंगद, स्कमांगद, रुखमांगद । रक्मिणि-देखो रकमणी' (रू. भे.) उ °--पंचवटी पंपापुर सविमणी, देव कपिल युवरासी । सैमखार सर गीरिख मिसरिख, कामी पाप-विनासी । सक्सत-देखो “रखसत' (रू. भे.) उ०-१ महीने छं री र्फ्सत दीवी। विदा रौ हाथी सिरोपाव फेर दियो । -गोपालदास गौड री वारतां ०--२ सगा सलाम कर स्क्सत हुवा । इश तरह महाराज मुजरो केर विदा हुम्रा। -- महाराजा जयसिंह श्रामेर राधणी री वारता -मीरां १६ „,___ ~~~ रव -सं. स्वी. [फा. स्ख] १ कपोत, गाल । २ क्रोध, कोप। (श्र.मा.) ` 3 चहरे का भाव, चेष्टाया श्राय । उ०--१ सत्र सारत समधा सव कोट, जडलग वह गई संग जिनोई । मृहकम रुख चख जां कमाठी, सिर चलते केवांण संभाछी । --रा. छ. उ० -२ दीवांणजी तौ ई रुख नीं मठी । होढं सीक जाडा सुर मे कट्चौ-म्ह जाण्यौ के राजाजी कोई काम भेज्यौ दीसे। --फुलवाडी उ०--३ काका वावा भ्रात कवि, हुवे दर रुख हैर । संत महत्त न. स॒चरं, पातर र पगफेर। ४ मनोभाव । उ०--उण री सुख देखण साक दीवांखजी जांणा करर श्रंडी वात करीही। पणवा ती प्ताव इज भोठी निकटठी। बोली-घरटी फेरण री कोई मेहणी थोड़ी ई लागे, नवौ चीदणी न ई फेरणी पर । --फलवाड़ी ५ दुष्टा | उ०--१ थेटमूं भायां यकां जयरसिहजी री स्ख श्रीरेगजेवसू ही रही । --महाराजा जयरसिह्‌ श्रमिर रा वणी री वारता उ०--२ चिगतां उषेल पखरं चरित, रकल मेढ श्रमे रुष ! वघ वेव यण खढ वांस ज्जं, दाह जठं उर साह दुख। -रा. रू. ६ कृपा हृष्टि, महूरवासी । उ०--१ वडी कृं्रर श्रमरसिह। वडी मोटी सिरदार मांटीपशै रौ श्रवःसोत्ती पर पहाराज री सुख नहीं । --ठा. राजरसिह री वारता उ०--२ तिका सिरदया श्व होय हरितौ तणी, किणीदिनिने लागे जिकां श्रातंक । --र. ज. प्र. ७ सामनेयाभ्रागेका भाग) ८ शतरंज की विद्तीया हाथी नाम मोस । £ प्रकार, तरह, भांति । उ०-१ रीमवाला नयणा महोदपतरणी रुख, खीजवाछरा नयण॒ वीज रौ सेल 1 --यखतौ खिडियौ उ०--२ पड़ उसताज श्राहुसा श्रसपत, दुजडं देती खां दुख 1 केस केस संवियोौ केढपुरा, रावढ श्र॑वर तशी रुख । -- महाराणा ग्रमररसिह्‌ रौ गीत उ०-३ उण ठाम तपे हाड श्रनद्‌, वृर गढ ते जावद प्रमुख । संताप चितौट्‌ सिर, रहियौ एकल वाध रुख । --वं. मा. वि.-- समान, सश्दय, तुत्य । उ०-१ प्राणदयुजु उदौ उहास हास ग्रति, राजति रद रिखपंति रख । नयण॒ कमोदणि दीप नासिका, मेन केस रकेस “मुख । --वेलि ---वा. व्यः ४१६८ रुखमो [ककण 1 रकग उ०--२ मशियां र्यण॒ श्रमो, रोप श्रशियां मोती रुख । ~ व. न्‌, क्रि. वि.--ग्रोर, तरफ, सामने । ॐ०- म्द वाने श्राली वरजिया दे, रघुवर रुख मत जोय । सुख री सीख भुणी नह्‌ जद, वटी तन मन सोय । --गी. रा. देखो “खूखो' (रू. भ.) उ०--ग्रत कोप मुखां चख रोस श्रडं । फट श्राग लगीं किर दूग भई । अपततं रसणा रुख वाण जुई, हित वादट बीज सरोस हई । --रा. रू. रू. भे.--र्व्ख । रखभदेव-देखो रिसमदेव' (ङ. भे.) उ०--देवतःव वरण्णएावीद्‌ तख स्री सरवग्य तणउ, सुख तउ सिद्धि तड, केरभ्मक्षपणा तठ सुक्ल व्यान तणी, भ्रायुस्थिति घ्री रुखभदेव तरी" * "1 --व, म, रखम--देखो ^हकम' (<. भे. उ०-सामिरे रुखम साता काटा काटठा जिकौ कांच्द्‌ । संवारं स्िघाठा चाई कसं वाटा भेख । --पी. ग्र, ध ८ रुखमदेयो सुखमर्हयौ -देखो ^सकम' (श्रत्पा., ₹. भे.) छ उ०--चूडामंडण चुडाप्रणिजी, भीमक घरि श्रवतार । वंधव रुखमर्हयो मलौ जी, मत्रीसर मंत्रीसार । --रकमणीमंगद्ट रुवमणि - देखो ^तकमणी' (ङ. भे.) रखमरिवर-सं. पु. यौ. [सं. रुविमणी +- वर] श्री कृष् । उ०-यारीघर गिरधर वहि रुखमणिवर, चत्रभुज नरहर समर चित ॥ ---{ि, प्र, रमणो, र्खलमनी -देखो ्कमरणी' (रू. भे.) उ०--१ ज्यु हैमाचठ कं घरे पारवती, उयूं जनकः राजा कै सीता भीखम क वरं रुखमणी जनम लीघौ ज्यू भ्राप्के धरं जप्तं जनमी दै! । --मयारंम दरजी री वात उ०--२ श्रालिम साह पारवती श्रोपै, स्खमणी रांणी पासि रहै । श्रौ गंगसांम विराजं श्राद्ध, देख जिहां रा दद्र दहै) -पी.ग्र. रुखमांगद-देखो “हव्मांगद' (<. भे.) उ० - १ सृु्रसन होय सामा सारदा, विमछ सर श्राखर चं वयए । कटिजुग सखमांगद रख कमघज, राजां वाखांणीति "रणः 1 -- ददौ विसराढ उ०--२ भली कमारी भगत, किसन सरिखौ ले कीधौ , रुखमांगद ना रास, दान वकंठ रौ दीघौ । --पी. प्र. रवमी-देखो ^सकम' (ङ. भे.) उ०--दखमी ई सुडां मावीयदं, दोडावियै जौ श्राजि । कर्‌ बध रुढमीणी कपौ प्रास ्रापौ, भीमं नी वहु लाज । --र्कमरी मंगठ रुखमोणी, रुखमीनी, रुखम्मणी-देखो 'रकमरणी' (रू. भे.) उ०--१ रांनांदं मिक्ियी सूरिज भरतार 1 रु्खमीणी मिल्ियौ क्रस्ण भ्राधार । -वी. दे, उ०-२ अ्रगियारह्‌ गुर पार्यं एकरि, तवे मालती नांमद्धंद तिणि । भरणियौ पिगढ तेमतूं ही मणि, राखि रिदं भरतारि रलम्मणी । -पि. प्र, रुखठएी, सुखटनो-क्रि. म्र.- १ र्ना होना । उ०-येत में ऊभौ श्रडवौ कार ग्रापरे श्रापं चेत रुखाठं है ? खेत तौ उण रे कारण मतं ई सुखच्छं है । --फुलवाडी २ निशरानी या चौकर्ती होना । रुखट्णहार, हारौ (हरो), रुखकठ्णियी-- वि. । रुखल्िश्रोडी, रखचक्ियोड़ौ, रुखठघोड - भू. का. क्र. । रुखनीजणौ, रुतलीजनौ-- भावं वा. । रुखल्ियोडो-भू. का कृ. १ रक्षा हुवा हुभ्रा. २ निगरानी या चौरकसी हुवा हु्रा । (स्वरी. रुखटद्ियोडी) रववादठ--१ देखो †रखवाठी' (र<. भे.) ¬ २ देखो ^रुखाढौ' (र. भेः) » उ०-तिण वेका तारण तरण, गिरधारी गोपाठ । मिचियौ उर श्रम मेटवा, हद धम रुखचाद । --रा, रू. रखवाछणोौ, रुखवाठवो ~ देखो ^श्वाठणौ, सुाठवौ' (र. भे.) उ०--वाड करी रखवाछन वाड वेतनं खाय । राजा ङट॑ र॑त न, कूक किस घर जाय । --श्रगयात रुखवाटठणहार, हारी (हारी); सुखवाटठग्ी--वि. । रुववाद्विश्रोड़ो, रखवाछियोडी, रुखवाठ्योडो - भू. का. कृ. । रुखवाटीजणौ, रुखवाटीजवोौ--- कम वा. । रखवाद्ियोडी- देखो ^रुखालियौडौ' (र<. भे.} (स्त्री. रुखवाच्ियोडी) रुखवाटी- देखो "रखवाढठी' (रू.भे.) उ०-सारा भेदा हृद लेय देख्यौ तौ कोट री कुवर्जीरीसोमा दै, श्रापणी रुखवादढछी होयसी । -- सु दरदास वी कृधुरी भाटी री वारता रुतवाटो- देखो 'रखाठो' (<. भे )} रुवसत-सं. स्त्री. [श्र. रुख्पत] १ विदा होने कौ क्रिया या भाव । २ नौकरी, सेवा श्रादिसे मिलने वाती ब्रल्पकालीन द्री या भ्रवकाश । ३ अनुमति, परवानगी । क्रि. प्र---दैणी, पाणी, मिखणी, लेखी, होणी । रू. भे.--सकसत, रुवसत । रखसति, रवसतौ-वि. [श्र. रुख्सत +र. प्र. ई.] १ जिसे रुखसत या ४१६५ रखास्रण ग्रवकाश मिलाहो। उ०--श्रव गणगोरयां श्रावसां, कोदौ एम करार । दिन उगाविया देस नै, रुखसति राजकंबार । --प्नां २ रुखसत सम्बन्धी, सुखसत का । सं. स्वी.-१ विदाई, रुखसत । २ पितृघरसे कन्या का ससुरालमें जाने की क्रियाया भाव । (मुसल मान) ३ उक्त विदाई के समय कन्या या दामाद को दिया जानेवाला धन । (मुसलमान) रुखांनी-सं. स्वी.- १ वदद का एक भ्रीजार विल्ेप । २ संगतरादो को टंकी रुखादं-सं. स्त्री.-- १ सुखा होने की क्रिया या भाव, रुखावरट, रुखापन । उ०--गायन भीन सुरावलि में गहि, ज्यं वधिरादर वीन वजाई पल दियौ नकट कर में फिर, रीस करी रुख राख रुखाई । --ऊ, का. २ व्यवहार ग्रादि कौ कठोरता याः नीरसता । रखानलठ-सं स्वी. [सं. रोपानल] फ्रोधागिनि, क्रोधानल । रखापण, रुवापणो-देखो ^रुखाई' रखारुखी-सं. स्वी.- १ लिहाज । उ०--डोकरी कल्यौ - तोई वापड़ौ थारा सूं इ्र--संकां मरतौ कवं कोनीं । रुलारुखी राख । साची पुद्धौ ती श्रौ मुगट श्र हार पाडुवां नं प्नोपे जड़ी मिनखां नँ श्रोष ई नीं सक! --पुलवाडी क्वाणो, रुवव्वो--क्रि. स. [सं. रक्ष] १ रक्षा करना 1 उ०--१ दोवारतौ घर्मै सातौ लागतौ वचियौ। लोम जीतण वास्तेसौ भांतराकठाप करंला,पणश्रपानं श्रपां रौधर तौ रसाटणौ ई पडला । --फुलवाडी उ०--२ नाज उग्यो जद डंगर घेरघा, टीवां वठ रुखाटयौ 1 दीडी उडज्या श्र सेत प्रायो । ---लो, मी, २ निगरानी या चौकसी करना या रखना । उ०--खेत से ऊभौ भ्रवौ कई प्रापरं श्राप चेत रुखाढरं है देत पौ उणरं कारण मते ई रख्ठं है । पण तोई पंथियां नं रावणं वास्तं ग्रडवा रौ ठागौ जरूरी है । --फुलवाड़ी उ०--र गोरी म्हारी ग्रं ! हरियाठोौ सखक्रीजं क्यूं ? युं म्हारा सायव ! यूंजीयूं। -लो, गी. रखठ्णहार, हारौ, (हारी), रखादरणियौ- वि, । रुखादिग्रोडी, सुखादयो, रखाठ्योडो- भू. का. ङ. । रुखटीजणी, ख्वादीजकौ-- कर्म, वा, । रखवाल्णौ, रखवाद्धत्री, रुखवाछणौ, रुखवाटवौ, रूसवाट्णौ , रूखवाठवौ-- र<, भे, । रलालियोडो रखाद्ियोड़ौ-भू. का. कृ. १ रला किया दग्रा. रक्षित. २ निगरानी या चौकसी रखी हुई या की हुई । (स्त्री. स्खादियोड़ी) रखाटी-वि, [सं. रक्षा] १ रक्षा करने वाला, रक्षक । उ०-भोजन करणी भूल खोल, बरूढा लारी खड़मडं । हैठं हालौ चालौ मणी, सटा रुखाठी रडभड । -- दसदेव २ देखो “र्खवाटी' (रू. भे.) उ०-१ भूयरी की स्ाढठी काज धांणा मे रखायौ । माथौ काट कोला कौ श्रमरसरनाय भ्रायौ। -- शि, व. उ०---२ काट करां गीगलारीमांकमाई्‌ करणीतौसोरीहि परण घन री र्खाठी करणी दौरी है) -- फुलवाड़ी रलदो-सं. पु. (सं. रक्ष] १ रघाकरनेका कारये याभाव) २ निगरानी, चौकसी, चौकीदारी । ३ निगरानी का कायं । ४ रखवाती करने का पारिश्रमिक 1 वि. (म्री. रुखाढी) १ रका करने वाला, रक्षक । उ०- सुध हीणा सिरदार, मत हीणा राख मिनख । श्रस श्रध ग्र पवार, रांम रखाघ्ठी राजिया । --किरपाररांम २ निगरानी करने वाला, चौकसी केरे वाला । उ०-- याङ्ग श्रावं मावर्टं रौ, पड़ण॒लागज्या पद्धौ । हिमास्‌ होड करण न, ऊमौ चेत सला । --चेतमांनखौ <. भे.--रखवाठ, रखवाठक, स्खवाठण॒, रखवाकि,., रखवारी, रख, रखा. , राठी, रुखवाढठ, रुखवाटौ, सुखादौ । रघावट, रुखाहृट-सं. स्व्री.--रुखाई, रूखापन । रुविता-्र. स्त्री, [सं. क्पिता| रोप या,.क्रोध करने वाली नायिका । रुव भिणी--देखो 'रकमणी' (रू भे.) रुी-देसो “र ' (रू. भे.) रए्रीस्यर, रखेस्वर-देखो 'रिसीस्वर' (रू. भे.) उ०--्रहि रमर श्ेस्वर नर प्रसर, पह्चि तुम दास प्रषठ। हु महिस्विांण माया हिरम, वदण मुभ दीजै विमल । --पी, ग्र द्यौ-वि. [स्त्री. ठ्खी] १ विना, रहित) उ०--जिण री पठ श्राप थाट लीधां कंकाटी भ्राई्‌ तरं सगत सिघजी खीची कहुचौ-देखां माजी कासू दियौ । तरं शाद सोत्र नै दिखायो । तरं सगत््िह एक भ्रांख दिसी सुखौ द ! तर देखती परास यीतिका्रागुद्धी वालि ने काटि यालमां है मैली नँ कट्यौ मोमाजी होड नदीं षिण टतरी दुगंणी म्हारीही ने पधार । --जगदेव पवार री वात ह १६६ रगनाप २. देखौ 'ल्खौ' (र. भे.) र्ग-सं. पू. [सं. सुण] १ वीमार रोगी। २ रोग, वीमारी 1 (डि. को., हु. नां. मा.) ३ पीड़ा, ददं । (्र.मा.) ४ तीरोके चलनेसेया पक्षियों के उडनेसे होने बाली घ्वनि विेष। उ०--वींगड़ा भालोडां रा बूम पडिश्राद । सवाये मेहरोजोरि सोक वाजे तिख भांति पलां री रुग वाजिनं रही द) --रा.सा.सं ५ देखो "रिगवेद' (रू. भे.) रुगड़ - देखो ^रुगड' (ख. भे.) उ०- भ्राज काल रा सावडा, व्याज बुहार्ण वेस । राज मांय भग रुगड, लाज न भ्रावे लेस । --ॐ. का. रुगट-सं. स्त्री. खेल में किया जाने वाला कपट य! वेरईूमानी, सगरी । रू. भे.--रुगटी, रोंगट, रोगरदटी । रुगटाठ-वि. १ सेल में कपट या वेईमानी करे वाला । २ धृतं, चालाक। | ३ कपटी । ४ देखो 'रगटाद' (रू. भे.) =" रगटी - १. देखो "ल्गट' (रू. भे.) २ देखो ^रुगरढ (<. भे.) ३ देखो ^रगटाठ' (रू. भे ) रुगड~वि.--१ मूर्ख, नासम्‌ । उ०--गह भरियौ गजराज, मह॒ मास्टर प्रापण मतं। कुकरिया येकाज, रणड भुस क्यूं राजिया । --किरपारम २ दुष, पतित, नीच । उ०--न्याय न जांण्यौ नितुर, निलज जांणी नहि नीती 1 निज नारी व्रतनेम, सुगड श्रांणी नही रीती । ऊ का. रू. भे.- रूगड । सुगण~-वि. [सं. रुग्ण] १ जो रोगग्रस्त हौ, रोगी, बीमार । २ जिसके शरीरमें किसी प्रकारका दुपित विकार हो | रुगणत्ता-स्त्री. [सं. रुग्णता] वीमारी, रोग । सगदवंसी-सं. पु.-एक प्रकार का भयंकर विप॑ला सपं जिसका फन प्रीर पछ दोनों काले रंगके होते है। खगनाय--देखो ^रघुनाथ' (रू. भे.) उ०--स्री रामाग्नवतारमें सी `र्गनायजी सी सीताजी लिद्धमरजी सुग्रीव, वभीसरा, हनुमान तथा दूनी सेना साथै लै न लंका सुं रावणं मार नं पुसप-वीमांख वीराजनै श्र स्नीमंडतेस्वरजी री पुजा पाद्या पघारता कौवी नं पेना साथे णी थी तिणसुं भी मे दरसणा रगं टृणो हुवै नहीत्तरे सी रुगनायनजीरी सी महादेवजी रीश्रग्यासुं कंकर सव संकर हुवा सु प्रीत रौ इक भाखरमे सारा लिगाकाररा दरः सण हुवा, तरं सेन्या सारी नं दरसणा हुवा 1 --नंणसी रग टुगौ-स. पु. - काम चलाऊ पदां । वि.--खिन्नचित्त, उदासीन । रग्धो-चुग्धौ-वि---स्रवरिष्ट, वचा हुम्रा । उ०-मा रं खनं कई्‌रूग्धौ चुग्घौ हौ जिकौ दादी रं ग्रौसर, वाप रं किरिया-करम प्रर चंदू री जिन्दौईमे लेखं लाग चुकी हौ । --वरसगांठ र्व-सं. पु. [सं. ऋट्रवेद | देखो 'रिगवेद' उ०--रु सांमदेद वाचंत विप्र नखतेत्त राय जद च्प्प । दीसंत दुयंग पददेव गत्ति, दीवांण वडौ वड देसपत्ति । -गु.रू.वं. २ देखो ^रधु' (र<. भे.) रुधईस-देखो "रघुरईस' (रू. भे.) रघकुटतिलक -देखो ^रघुकु८तिलक' (₹. भे.) रुधुचद--देलो ^रधघुचंद' (5 भे.) रुघदेव- देखो “रघुदेव (र. भे.) 3 रुधनंद, रुघनंदण, रुधनंदन--देखो ^रधुनंदन' (रू. भे.) उ० --रुघनंदण रघनाथ, निमी रुघपति नरेसर । रुयराभा रधराछ, भूतभव भेख विसंभर । -पी. ग्र. सरघनाय, रुधनाथु-देखो ^रघुनाथ' (रू. भे.) (त्र. मा, नां. मा.) उ०--१ लावी वाहां रावठी, मौ सिर दीजं हाथ । तात जड तांणी जता, राख लियौ रुघनाय । --गज उद्धार उ०--१ रघनंदण रघनाथ, निमौ सुपति नरेसर सुषराजा रुपराठ, भूत भव भेख विसंभर । --पी. ग्र. रघनायक-देसौ रघुनायकः (रू. भे.) उ०--इम'जवाव सुरि भ्रसुर, सिज कमवज खेवायक । श्रंग दवात उथपि्या, निद जाणा रघनायक । --सू- प्र. रुधपत, रुधपति रुघपत्ि-देखो ^रघूपति' (<, भे.) उ०--रुधनदणा रघनाथ, निमौ रुघपति नरेसर । रुधराजा सघराउ, भूतभव भेख विसंमर । पी. भ्र. रुघवर--देखो "रघुवर" (रू. भे.) (ग्र. मा.) रुघभूप-देखो ^रघुभूप' (रू. भे.) (म्र. मा.) रुघयंद, रुधयंदि- देखो ^रथघुरदद्र (<. भे.) रुधघरज- देखो ^रघुरज' (<. भे ) रुधरांण--देखो ^रघुरांण' (<. भे.) . खुप रांणो- देखो '^रघुरंणी' (रू. भे.) (ग्र. मा. नां. मा.) ह १६७ रुडकियोड़ रुधराम-देखो ^रघुरांम' (रू. भे.) उ०-नारसिघ थारौ नाम फरसरांम निवा, देखतां दुवारिका घाम सदारं दांम। सत्य राम रुघरांम लिखमी वामं सहेत, गोविद तुहारौ भल वकूठ री ग्रामि । --पी. ग्र. रुघराइ, रुधरार्ई, रुधराउ, रुधराज, रुधराजा-देखो ^रघुराज' (र. भे.) उ०--रुघनंदण रघनाथ, निमौ रुघपति नरेसर । रुधराजा रुघरौउ, भूतभव भेख विसंभर । --पी, ग्र. रुघवस --देखो ^रधुवंस' (ख. भे ) (नां. मा.) रुघवंस्मणि, रघवसमणी-देखो "रधुवंसमणि' (<. भे.) (म्र. मा.) रुघवंसरव, रुघवंस्रवि-देखो ^रघुवंसरवि' (<. भे.) (श्र. मा.) रुघवंसी- देखो ^रघुवमी' (रू. भे.) उ० --रुधवंसी राठीोड हर, तेरह साख क्मंघ । विमर सक्ती वरण्वां, वघ रूपक वध । --गु. <. व. रघवर -- देखो "रघुवर' (रू. भे.) (नां. मा.) ` उ०-- राजा रम मनोहरं रघवर, सीता वरं सुंदरं । कोसल्या दसरत्य रावॐ श्र, पत्ती ्रजोध्या पुरं । --पि. प्र. रुघवीर- देखो ^रघुवीर' (र< भे.) (अ. मा., नां. मा.) उ० -वड़ीठ्ग धरत ग्रहौ रुघवीर, सही त्रु एकलमल सघीर। भ्रदयौ गुरड़स तणा असवार, महा मधु कीटक रांमण॒ मार । -पी. ग्र. रुधवेद-देखो ^रिगवेद' (ङ. भे.) (म्र. मा.) रुधुनदन-देखो "रघुनंदनः (रू, भे.) (नां. मा.) रघुनाथ - देखो ^रघूनाथ' (रू. भे.) (नां. मा.) रुड, रुडक-स. स्वी.- १ नगाड़ं की भ्रावाज या ध्वनि । २ तेज गति से भागने को क्रियां | ३ वीरशरसकेरागकी लय या श्रालाप्‌ ) रुडकणौ, रडकवो-क्रि. भ्र.-- १ लुटकना 1 २ देखो “रुडणौ, रुडवौ' (रू. भे.) रुड़काणो, रुडकावौ-क्रि. स.--१ लुढकाना । २ देखो ^रुडाणौ, रंडावौ' (रू. भे.) र्डकायोड-भु. का. कृ.--१ लुढकाया हभ । २ देखो “रुडायोडौ' (<. भे.) (स्वी. रुडकायोडी) रुड्कियोड़ो-भू. का. कृ.-- लुढ्का हुभ्रा । २ देवो 'रूडियोड़ौ' (रू, भे.) (स्वी. रुडकियोड़ी) [पी ॥ कीणर ` "१५७१५०० [नि (~ ररणो ट [काणक षाषे रुदणौ, र्डयो-क्रि. र. नगाड का वजना । ऊ०--१ गढ पलटे गाह गिरवर धूपिया धक धुण घर । ^रासे' तणा सुजस रा रुडिया, समिर्यांखं उपर सथर । --द, दा. उ०-२ जडक्कं खाग रा वजे ठेलिया केपनी जंग, मारू धरा रा ते चिया सारामात 1 काहु ख्डंतां जागी हाकं निराताना काद्धी, प्रं काट वादी ज्वा सवाई शगोपाढ।' --विसनर्सिघ राठीड री गीतं उ०-३ गुमूड गरिमादिक ग्यांन गुनाङ्य, रुड़ रुड़ त्रंवक ध्यान घनाढय । ब्रव वसुधा विन व्याज विचित्र, महाजन पुन्य जनेस्वर मित्र । --ॐ. का, २ गुडकना, चक्कर काटना, घूमना । ३ वीररमके रागका ग्रालाप होना, गायन होना । उ ०- रुं क्िववौ राग, गुडं हत्लां गज ठल्ला । खलं उथल्लां खाग, वरी वगतर वरघल्लां । --ऊ. क. र्दन करना, रोना । रुडणहार, हारौ (हारी), रुडणियौ- वि. 1 रदग्रोडी, रुडियोडुी, ख्ट्योडो-- भू. का. कृ. । रटीजणौ, रुडीजवौ - भाव वा. । रुडणी, रुटवौ, स्डणौ, रूडवीौ, रूडणौ, रूडयो - रू. मे, । रुट्पाणो, रुडपावौ--देखो ^रडाणौ, रुडावी' (ङ. भे.) उ०--ताडा भरियोड़ा नडा निजराता, गाडा गुडकाता पैड़ा रुंड्‌- पाता । लाख एूलांणीं कीणां सुर वेता, डीधा माडीणां उव उव धुनि देता । ्‌ --ॐ. का. रडपायोडो--देन्वौ ^रुडायोटौ' (€. भे.) (स्वरी. रुडपायोड़ी) र्डवाणो, रुडवावौ-क्रि. स. [सुटो क्रिया कापर. ₹5.] १ शटराणौ पायं फिसी श्रन्य से करवाना । २ नगारादि किसी श्रन्य द्वारा वजवाना। राणो, रडायो-क्रि. स.--१ नमारादि वजाना | २ वीर ररापूणं राग का भ्रालाष्‌ करना । ३ गुटाना, चक्कर कटाना, घुमानां 1 ४ रलाना, सदन कराना । र्ड्ाणहार, हारौ (हारी), ण्डाणियो--वि. । रुढापोडो- भू. का. डः. ! डार्ईजनणी, खटानईवी--कम वा. । द्डकाणो, रुडकावो, रुडपाणौ, रुट्पावौ रटाबणौ, र्डाववौ, र्यणो, मदढावौ, रूडविणौ, सूटाववौ - ङ. भे. । स्टयोटो-धर. का. कृ.--१ नगारादि वजाया हुम्रा. २ वीररसरपूर्ण राग प्रलापा याभावा प्राः ३ गुड़ाया हृभ्रा, चवर कटाया हृश्रा, [` क ~; ६१६८ घुमाया हृम्रा। (स्त्री. रंडायोड़ी) रुडावणी, रडाववौ- देखो ^रडाणौ, रुडावौ' (र<. भे.) उ०--धुवां घोर भ्रातसां भछा रौ रुडावणौ वुंसा, सेना मुडावौ - खां उका रौ साइत । छारी कनां ह इटा रौ कोट छोडवणौ, तुडावर्ण भ्रूखा वाघ गद्या री तादत । --महादांन महू. रुट्योडी-भू. का. कृ.- १ नगाड़ा वजा हृ्रा. २ गृडका हु्ा, चक्कर काटा हृश्रा, धूमा हृश्रा. ४ वीररसकेरागका प्रालाप हवा हु्रा. ४ रुदन किया हुग्रा, रोया टृप्रा 1 (स्त्री, रुडियोडी) रुड़ा-देखो “रूड' (रू. भे.) उ०--जीव श्रम्हारं जोखिता { ते थापणि तुम्ू-णस्ि । रखंतु रुडी परि, पंजर भमद प्रवासि । --मा. कां. प्र. (स्त्री. रुडी) रुच~-स. ¶- [सं.] १ वायु के श्रनुसार सुनीथ राजा के पुत्र कानाम्‌) २ श्रभिलापा, सुचि । | उ०-जो रस ्रंगी भूल जावै. रुच वरणंत भ्रनंग रसं । प्रक्रत विपजिय अठ पाये, प्रक्रत रसाठ वन परस । प दा वि.--सुन्दर, मनोहर । (अ. मा.) उ०--सतियां म्हासतियां कर्ता तन सोहै, मधुरी वाणी मुख परारी मनमौहै । रजपूर्ताणी सच सीचाणीं सिरसी, मरां जद्ट भरती संणां यट निरी । --ॐ- का. देखो ^रुचि' (रू. भे.) उ०--मली श्रत ग्रदतार मन, ख्च जस तणौ रहै न। तन काढी कचुक तरौ, कचुक सेत सहै न । --वां. दा. र्चक-सं. पु. [सं. स्वकः] १ पुराणानुसार सुमेरुपवंत के निकट का पवत । > २ भागवत के श्रनुसार एक यादव राजा जो उसनस राजा का पुत्र था। ३ इक्ष्वाकु वंलीय मरक राजा कानाम्‌) ४ मणिभद्र एवं पुण्यजनी के पुत्रौ मसे एक पृद्रकानाम। ५ वास्तु विद्या के श्रनुसार पैसा भवन जिसके चारैंश्रोरकेभ्रालिदं मेरे पूवंश्रौर पदिचम कासर्वथानष्टहौ गया हो तथा उत्तरश्रीर दक्षिण के पूराल्पसेज्यौंकात्योंहौो। ६ धर, मकान) {श्र. मा.) ७ जेनियो के श्रनुसार हरिव के एक पर्वत का नामं । 5 घोडे को पहिनाए्‌ जाने वालि भ्राभरपण 1 ६ दक्षिणा दिया । ^ १० कफन्रूतर । रचण) [सं. रुचवकंम] ११ कंठमे धारण करने का श्राभपण, हार, पृष्प- हार । वि. [सं. चक] १ पसन्द भ्रानि वाला, प्रसन्नकारक, रोचक । २ स्वादिष्ट, जायकेदार। स्चवणौ, रुचवौ- क्रि. अर.- १ त्रिय तथा प्यारा लगना, भला लयना । उ° -क्रपणां जस भावै कटे, विधि विमुखां नूं वेद । वाका भोजन नह्‌ सुच, ज्यां र वप ज्वर सेद । --्वां. दा. २ रुचि के ब्रनुवूल होना । ३ श्रानन्द मय होना, रुचि युक्तं होना । रचर-१ देखो ' रुचिरः (रू. भे.) (म्र.मा.) २ देखो “इचिकर' (रू. भे.) (श्र. मा.) रचवप, रचावप-सं पु. [सं. स्दवपु ] रक्त, खन, धिर । (ख. मा.) सुचि-सं. पु. [सं.] १ एक प्रजापति जो ब्रह्मा के मनसे उतपन्न हु्रा या । इसकी पत्नी का नाम त्राकूति घा। सं. स्वरी. [सं. रचिः] २ किरण । ह्‌. नां. मा.) २ शोभा, सुन्दरता । 9 & श्राभा, प्रकाश, दीप्ति, चमक । उ०--वपु स्याम सुंदर मेघ रुचि, फवि तडित पीत्त वटंवर्‌ । सुज । वाम चाप निखंग कटि, तट दच्छु कर भ्रांमत सरं । (ग्र. मा. नां. मा. --र.ज. प्र. ५ श्रभिलापा, इच्छा, कामना 1 ०-भ्वख चंच, मन श्रचक्न कमक चख भुहां ब्रटीग्रम । तनं ऊजद पति रतत, रूप भरता रुचि मंभठ । --गु. स. व. ७ श्रलकापुरी की एक प्रप्सरा का नाम ॥ ८ श्रप्तरा। ६ पसंदगी, ग्रभिरुचि । उ०-- नहीं मोती माला नहि न छक हाला सुचि नहीं । नहीं नारी प्यारी वचन, छिदगारी सुचि नदीं । --ॐ. का, वि.- मनोहर, सुन्दर । उ०--मोर मुकुट वन माढ, माठ तुढप्ती तव मंजर । रचि कूड कल रतन, तिलक मंजुल पिर्तांवर । ---रा. छू. रू. भे.--रुट, रई, स्च । रुचिकर, रुचिकारक, रचिकारी-वि. [सं.] १ अरमिरुचि उत्पन्न करने वाला ! २ स्वादिष्ट, जायकेदार 1 ३ भ्रु वटानि वाला । सुचिधांम-सं. पु. [सं. रचि +- धामन्‌ | सूर्य, भानु! (ड. को.) ४१९६ रमयार ____ _ ____-_~_~_~__-~_~_~~_~______~_~_~_____~__~_~____~__~_~_~_~__~_-_-_-_-____-्‌-_-~~-~-~] ~~~] {ब{ब्‌{्‌{्‌ू्‌ू्‌ू्‌ू्‌ू्‌ू{्‌ौ्‌ौूौ{््‌{ू्‌ूौ---~-~-] रचिभरता-सं. पु. [सं. रुचिभव्रं ] सूय, भानु । रचियोडी-भू. का. कृ.--१ प्रिय तथा प्यारा लगा हुश्रा. २ रुचिके ग्रनुकूल हुवा हुग्रा. ३ प्रानन्दमप्र हुवा हुग्रा, रचियुक्त हुवा हुमा ! (स्वरी. रुचियोडी) रुचिसती-सं. स्वी. [सं.] श्री कृष्ण भगवान की नानी तथा महाराज उग्रसेन को रानीकानामजो वसुदेव की सास थी। रचिर-सं. पु. [स.] १ श्री कृष्ण के पत्र सेत्रजित केपूव्र का नाम। २ कुशूवंशीय राचिक राजा का नाम। ३ केसर। वि.--१ सुन्दर, मनोहर । उ०--१ एक रचिर गरिका उठे, सुभ गुण सील समांन - वं. भा. उ०--२ सोभि जान सरदार, ख्प प्रणपार विराजं । रतन निकरि किरि, रुचिर भौमि वंरागर भ्राजं । --रा. रू. २ श्रच्छा, भता । ३ मीठा, मवुर। रचिरा-सं. स्त्री.-१ एक प्रकारका वृत जिसके प्रत्येक चरण र्भ जगरः, भगरा, सगण, जगण श्रौर प्रत में गुरु होता है) २ सूर्रियाद्छंदका दूसरा नाम| ९ केसर) (ड. को.) रुचिरोमा-स. स्वरी. [सं.] स्कंद कौ ग्रनुचरी एक मारिका का नाम । स्ज-सं. पु. [सं सुञ्‌, सुजा] १ रोग, वीमारी । (डि. को.) २ पीड, वेदना । (ग्र. मा. हु. नां. मा.) रजक -देखो "रिजक" (5. भे.) उ०--१तरश्राप कटीजे-श्राप सखरी कही, मुँ पणा उदम करसां | तर दैक दीहाड रजपूतांणी सरं कहियो म्ह हमै परभोम रुजक र ग्रांट हालां तौ वेठा काहु करां । तरं हालण लागौ । --कत्यांणसिघ नगराजोत वाढेल री वात उ०--२ पद कलियांणसिघ सुकन मनवंछत लै, ककड जाए उभा रहै घर सुमाचार दीन्हा । पदं रजपूतांणी घौ हरस सोक दासी ले कलवौ रजक लं टच्रुर श्राई। --कत्यांणसिघ नगराजोत वाटेल री वात रुजगार -देखो "रोजमार' (ख. भ.) उ०१ “रुजगार खोल लं वाला फरीद ।' सजगर प्रवं करिसा रया 3 माजी ! वखत वलग, स देवं जिकौ ये दियौ } --वरसगांठ उ०--२ घण मूघा मोती मत उछका, रोयां रुजगार मिट कोनी व्ह लखपतियां रो राज जठ, भूखां री पेट पौ कोनी । --चेतमांनखां उ०--३ राज माहे च्यार मास रौ सउनगार श्रगाऊदौतौ रहं । -पचमाररी वात ६२०० रणरुणभो ~ ~~~ ~~ ~~~ उ०--४ उण देस री विहारी जाऊं जठं माथा मोल विकाय ग्ररथात जिर सिरदार कन रुजगार ने, सिर देण साट, भूरवीर रहैरै, वी देस धिन्न है। -वी. स. दी. स्जा-सं. स्त्री. [सं.] रोग वीमारी। रजु-दैखो ^रज्जर' (<. भे.) रमणी-पं. स्त्री- लवी चोच वाली एक प्रकार की छोटी चिड्या जिसकी छाती सफेद ग्रौर पीठ काली होती दहै) रुभणौ, रकवौ-क्रि. श्र.--ग्रवसद्ध होना, र्कना । (ड को.) उ०--रजी श्ररवक विद्‌ ए, पूरणा लगकंचंद ए) कुरंग सिच रुभे, मरति मञ्ि मुञ्म ए), --गु. रू. व, सकियोडो-मू का. कर. [स्वी. रुभियोड़ी| श्रवरुद हवा हुमा, स्का हुम्रा। रुट-सं.पु (सं. स्ट] सूठ्नेकी क्रिया या भाव, क्रोच, कोप, गुस्सा । (भ्र. मा.) रू. भे.--रुठ। रुटरणी, रुटवौ -देखो ^रूठणौ, रूठ्वौ' (रू. भे.) उ०--यां विचार वेण वौ्लं, तेज सं समसेर तोल । मूख कं रोम व्योमकं उद्र, रानके प्राएु जमररानसेर्टरं। --रा. रुदियोडौ -देखो ^रूवियोड़ौ' (रू. भे.) (स्त्री. रुद्ियोडी) रुठ-देखो ^रुट' (रू. भे.) राणी, रुडावो-क्रि. स. [रुटणौ क्रि. का.प्रे. रू] रूटने में प्रवृत्त करना/कराना, नाराज करना|कराना । रठायोड-भू. का. कृ.- कुपित किया हुश्ना 1 (स्वरी. रुठायोड़ी) रडणो, सुडवी - देखो ‹डणौ, रुडवौ' (रू. भे ) उ०--१ पंचसद दमांम पूर संडे इड रिणतूर । प्रमांखं मेघ पड्भर (पडर), हैरान हुवे गू. रू. वं. उ०--र कमघज भुज निमज सकज सुसुषपह्‌ कज, राख रये रिणतूर रटे 1 दम्मांमां गरज वहै ब्रज दौमज, गज पाताडेक भुरज गड ! --गु. रू. वं. उ०--२ प्रन्नदिणंतरि गिरि तिहर, राजा रमलि करेद ) कुंती करमल म्रडवडिउ, रडयड भीमू रुडेह --सालिमद्र सूरि रुखाणौ, रुडावो, रडावणी, रडावयौ- देखो “रड़ाणौ, रुड़ावौ' (रू. भे.) रुडावियोड़ो-देखो 'रुडायोड़ो (<. भे.) (स्त्री. सुदावियोडी) रुडियोडो--देखो 'रुडियोडौ' (ख. भे.) (स्वरी. रुटियोड़ी) रुणंजण- देखो 'रणभण' (<, भे.) रुणखउणरणो, रुणरउणवो-क्रि. श्र.-मीरयी का मण्डराना ) उ०-- सेवदर जसुपय साव श्रहे, पंकय महृश्रर रणउणह ए । धनु धन जै नरनारि ग्रै, नित नितु प्रभु गुण गण धुरदषएु । ए. जे. का. रुणक-त. स्त्री --१ याद, स्मृति) र इच्छा । ६ एक प्रकार कौ ध्वनि विद्ेप, भनकार] रुणकभरुणक-सं. स्त्री,--नुपुर श्रादि से उत्पन्न रुनरभुन छब्द या ध्वनि । रुणजुण--१ देखो “रणभृुख' (रू. भे.) उ०-रांमजी श्राप घौं परसवार, सकमण॒ नं स्णाञ्ुण वैल चुपाय --लो. गी. २ देखो ^रणभण' (<. भे.) सणभणणो, रुणभ्णबो-देखो 'त्णभुखणौ, रुण मुखवो' (ह. भे.) उ०--र्कानि वजावं वांसुरी, गोपी नाच ताली छंदकं। पाए नेवर्‌ रुणभण, हस हस रांमत रम भ्रां कँ । --जयर्वृणी रुणकणियोड़ो--देखो ^रुफमुखियोडी" (रू. भे ) (स्त्री. सुणफणियोडी) रुणश्रुण - १ देखो ररणभण' (रू. भे.) २ देखो 'र्णमभुःण' (रू. भे.) उ०--१ वार्ईजी क्रं श्राय र गाडूलौ, कार म्हारं रुणभुण वैल र नीमीढीडा । | --लो. गी. उ. --२ सुण्णं चेल भंवरजी ! मैव्णं जी, हां जी ढला! वर ज्याञ सुरही-रा वेल । --लो. गी. सुणश्रुणकणो, रुणश्रुणकवौ -देखो ुणभुखणौ, रुणमरुएवौ' (रू. भे.) उ०--रणका रुंगभणकेह्‌, राय श्रांगण रमियौ नहीं । तौ पहिरस केम पगेह्‌, वेड नेवरी वरीरउत । --वीरमदे सौनगरा री वात रणशुणकियोडो-देखो “रुणभुरियोडौ' (ू. भे.) (स्वी. रुणभुणकियोडी) रुणभुणणौ, रुणश्रुणवौ-क्रि. शअ.--नुपूर प्रादि आरभरपणो से ध्वनिं उत्पन्न हीना, घ्वनि होना, सुनभुन की ध्वनि होना । उ०--१ करयर्तं ककण मणि मकारे, जादर फालीय हपिरण ए} श्रहुर तंबीलीय द्रुपदी वाल, पाए नेउर सुण्णं ए 1 --सालिभद्र भूरि रणभुणियोडी उ०--२ वाइ पड़ह्‌ पखावज पूर, ढोल तिसारा वाजं रिणत्रुर । वीर घंटा तिहा रुणसुणदह, मेषाडंवर दत्र सिर दीयौ राय । --नी. दे. रणक्छुणहार, हासौ (हारो), रणस्ुणियौ --वि० । रुणशुणिश्रोड़ो, रुणभुणियोड़ौ, रुणभुण्योडो- मू. का. कृ. । रुणभुणीजणौ, रुण्ुणोजकौ - माव वा. । रुणभ्रणणी, रणसणवी, रुणभुणकणो, रुणुणकवो--रू. भे. । रुणभुणियोडो-भू. का. कृ. नुपुर प्रादि भ्राभूपणो से ाव्द उत्पन्न हुवा हस्रा, रन भन का दाब्द हुवा हूग्रा । (स्त्री. रुणभुखियोडी) रुणश्ुणिया-वि.--र्नक्ुन कौ घ्वनि उत्पन्न करने वाला । सं. पु.--१ एक राजस्थानी लोक गीत 1 २ वन्यो के खेलने का एके चिलौना विरोषं । उ०-ए ढोल ढोलंता यू केयौ रुणभरुखियौ लं । सायवे लाल चूड पेराय, जाजौ मरवौ लं । --लो. गी. रुणा-सं. स्त्री. [सं.] सरस्वती नदी की एक सहायक नदी । रुणादठीं-देखो 'रोमावटी' (ख. भे) रुणै-स. स्वरी.--घोढों की जाति विघ्नेप । रुमौ--देखो 'र्गौ' (रू. भे.). रत-सं. स्त्री.--१ रई (कपास) । उ०- रत प्रति चदणा कपूर, स समरसांण समाई । विविध ग्रमित सुचि वसत, चेहग्नि निमति चलाई । --रा. रू. २ देखो "रितु" (5. भे.) उ०--१ म्द मगरा मोरिया, काकर्‌ चण कर्त । स्त ्रायां बोलां नहीं, हीया फूट मरत । --प्रग्यात उ० -२ परण चाल्यादछछ मवरजी, गोरडी जीहां जी ढोला, हो गई जोध जवान । विलस की रत चाल्या चाकरी जीःग्रोजी म्दारा लाल नखद राश्रौ वीर, मत ना सिघाचौ पुरव री चाकरी जी। --लो. गी. उ०--३ फागुण मासि वसंत सत, प्रायउ जद न सुखेसि । चाच- रिकद्‌ भिस सेलति, होढी भंपवेसि । -टो- मा. उ०-४ मांह राग दै, जिकं कूद-ऊचछं छँ-रीगटा हिरण द, सु सत श्रा हिरणी न वेचता फिर छ 1 सवठो हिरण निवटं न चेचं 1 -रा.सा.सं. रतवौ-सं. पु. [ज्र. सत्वः] १ वह्‌ ऊंची श्रौर अच्छी स्थिति जिसमें समाज की श्रोर्‌ से यथेष्ट श्रादर, प्रतिष्ठाया सत्कारहो। २ राज्य या गासन की सेवा मे मिलने वाला ऊचा पद । ३ रोव । उ०--१ थार श्रर स्तव्य सूं पूरी करड़ावण रं साथै 'राजदरवार सूं ४२०१ सह्वीणा पोहरी देवण सार वहीर व्हिया । --फुलवाड़ी उ०-२ श्रौती म्ह राजा री दीवांण हूं 1 जवावमें कीं गुमेज ग्रर सतवा रो पुट हौ) --फुलवाडी ४ वड़ाई, महत्ता, श्रेऽ्ठता । रति - देखो रितु (रू. भे.) उ०--१ घर करि श्रमल पदम छत्र धार, सुंदरि नवलापुरी सिगार । र्गमहलि दंपति दृत्ति राजे, छक मुसताकि काम रति चाज । --सु. प्र. उ०-२ जिण सुति वग पावस लियद, घरणि न मेल्ट्द्‌ पाइ । तिण रुति साहिव वत्लहा, कोड दिसावर जाइ । --टो. मा. उ०--३ जिण रति वहु पावस करइ, वावहियड वौलंत । तिण रति साह्िव वल्लहा, कौ मंदिर मेल्हुंत । --टो. मा. उ०-४ दवं मासां मरजाद लंग रुतं एक रहाद्‌, रतियां दोय हुवदियां, इक काठ वोढाई । --केसौदास गाडण रतिरारई-देखो 'रितुराज' (रू. भे.) सत्ति, रत्ती-देखो "रितु" (<. भे.) उ०--सीयाछद ते सी पडईइ, उन्हाठ्द चरू वाद्‌ । वरसाढठद्‌ भद चीकणी, चालण रत्ति न काड्‌ । -ठो. मा. स्दती - देखो शशद्रवंती' (र. भे.) रदन-सं. पु [स.] १ रोनेकीक्रियाया भाव । उ०-- वीतां पहर कवर विग्रहियौ, करि वह्‌ रुदन हैक भरत कहियौ । घरपति सणि तिल सोचन धारं, विघ करि पांण समस्या वारं। -तु. प्र. २ रोने से उत्पन्न श्ब्दयया प्रावा । उ०-- जनमे नगत करूरं जिस्‌, तिण नूं वन नांसं दुख ति स । जिर सुखि रुदन दया मनि जांणी, ग्राम रिख माया जित ग्रांरी । ख्दर-१ देखो ^सद्र' (रू. भे.) २ देखो “रुधिरः (रू. भे.) रुदरांणी-देखो “सदरांणी' (रू. भे.) रुदराख, रुधराछ-देखो द्राक्ष' (रू. भे.) रुदित-वि. [सं] १ रोता हुप्रा। २ न्याकुलं । ३ दुखी! रुह्‌-देखो ^श्द्र' (रू. भे.) सट्वीणा--देखो 'स्द्रवीणा' (रू. भे.) उ०--सीमंडक राव सार, षहूवीणा मणंकार, तंत मि घोर तार, भ्रांमा व्रिट्ख । --गु.ख.वं -सु.प्र. र्दुणी रुहांभी-देखो 'स्रांरी' (<, भे.) उ०--सूरज प्र फरप्र, पेट कता उपप्नौ, पवनं पूत द्रात, उदर प्रंभनी उपस्नो । ईर पूय सर-मुकत, पुद्र जनमे र्हांण, राप्य दसरथ प्र, जणो कउसल्या रांणी । --ग्. र. न. रुढ-वि. [सं.] १ जिसकी चात या गतिवेदहो गरदो, वंद । २्स्कायारुकाहुग्रा. ३ धिराया या पेरादट्ृप्रा. ४ पक्ट्र हुमा. रुणो, रद्धचौ--देलो "< घौ, रू घयी' (र्‌. भे.) उ०-केवलि वयण जु पूख्ड धाद, जड गवि प्राय्पा परंट्यराप 1 पछी भीमि कथा प्रवंधूवणि जाई यग रापमु चट्‌, - रानिभद्र गरूरि रद्धियोड़ो- देखो "रू घियोडुौ' (र. भे.) (स्प्री, रुद्धियोदी) रुद्धा-वि. स्त्री.--१ रोकने वाली । २ मिटाने वाली । उऽ--देवी नाम भागीरधी नाम गंगा, रेवी गंदकी गोगा राम गंगा । देवी सरमती जम्मनां सरी सिद्धा, देवी पिवेती वत्रिस्परी ताप रुद्धा । मि, रुदि-देखली 'रिद्धि' (र. भे.) उ०--सवत श्रढार दग्यारमे, प्रतिष्ठा लीव मध्य । श्र्वः लावक दुढकी, वुकत्या खर्वी रद्धि। --पामियगा रद-सं. पु. [सं. सद्र] १ सृष्टिक प्रारम्भमें ब्रहाकी भृकृरी न | उत्पक्न एक प्रकारके देवतानजोक्रोधस्पमानेगयेदहुततथाजिनने भूत, ब्रेत, पिद्याचादि उत्पन्न कहे जाते ह 1 दुनक्री संप्या मी ग्यारह मानी गहै परन्तु सवे प्रथम श्रधर्वेवेद मे इनके निम्नक्ियित्त सात नामही पाये जाते ह । यथा--१ ईशान, २ भव, ३ रवे, ८ पशु- पति ५ उग्र ६ रद्रश्रौर ७ महादेव) पुराणों मे श्रष्टस्द्रों कीनामावलीषद्टी गर्दै जौ घतपध ब्राह्मण की नामावसी से मिचत्ती जुलती है । इन ग्रन्थों कै श्रनूसार बरह्मा ते जन्म प्राप्त होने परये रोदन करते हुए इधर उधर भट- कने लगे । तत्पश्चात्‌ एनके हारा प्राथना करने पर ब्रह्मा ने षन ग्राठ वि्िद्च नाम पल्नियां एवं निवास स्थान श्रादि प्रदाने क्रिये, प्रमुख पुराणों मे से विष्णु, माकडेय, वायु एवं स्कंद पुराण श्रष्टमूति महादेव की नामावली प्राप्त ह । इन पुराणो से प्राप्त सुद्र की पल्नियो, सन्तानो, निवास स्थानों रादि की तालिका निम्न प्रकार है- गिरय 1 7 (नि 11 १७ [पि य थ म मा नि 9 क 9 ० म अ नोना ननन ५०५८. ५५ ४२९२ षी (मो थन मतत त शानत द सकामतः र पत कक 9 6 कोरकिते च नभ [,91,98 1 1 , 0 म कछ के जोकि ोकन--# को 9 कैन कि ्‌ | | | | मन परण 1 िििििीििि [9 पी # 84 दक वि 01, 00 ि । | नियामः रथान क व= गन शको [| रद्र प भाम | पलना ` मनीन 1 2 2 त १ ता श 0 ॥ ^) + 9 ॐ क । 6 क १ ग्द नुच पमाया १ पन्यम | वर भीत ३०४५० 9 ७ मकम ऋक ५.०अ४११ 1 का | ) 1 १7, स 2 त 1 8 1 1 २९ भय । ठा (उषा) | 14 ५५ ३ धयं (लिव)! विक्रमी | मंग मही पदु प्रत्ति | (तिया | मनोप यापु 7» ^) । [1 8 7 1 ॥ [क क ति 1 1 ५ भीम | रयाटा (सवप). स्क | प्राभि व | ९ ॥ स्म पाको 0 ॥ ॥ 1 ७ उग्र 1 ¡ मतान पशय श्य 4 ६ (711 9 व, 0 त त 7, 1 1, रा भा । भक न्नः 4 क्ष म = 9 7फारय गरमा पद पुराणो प्राप मर्य शद्रा है श्नु उनकी उत्पति श्रय स्तो नुव, कहौ धरोर म होने फी मया समाई मद्‌ रैम परनन एम द मे प्राप एफादश स्ट कौ नामाविषी तक मु मुरी म्प 1 उनममे मुस्प ३ प्रतार प्रा नामि दमं प्रफमर स्पन्द पुरान म~ भुतय, २ नीतरद, ३ म्पनिनि # वरदान, ५ ्पवक, ६ महातल" ७ भग्य, < मुरेवु्य, € समिम एवं १९ ग्म! रमा स्वारदु यता ग > म्रहाभारत--! मगव्पाप, २ घ्व, ३ निक्त्ति, ४ प्तेकपास, ५ भरहिषृघन्य, ६ पिनाकिनि, ७ ददन, < ईष्वर, २ सभानिन १० न्याम, ११ सव) [0 चन्् भागवत फे प्रनपार-१मन्य्‌, २ मन्‌ | मटृत्‌, ५ विव, ६ चरह्तध्यज, ७ उग्ररेनत्‌ १० यामदेय, १९ चुत्तप्वज + मिनत्‌ (सेम), ४ भव, ६ कात, उप्यक्त ग्रन्थों के श्रतिरिक्तश्रन्य पुराणोंमे प्राप्त एुक्ादध श्रीं फेनाम एवं पाठभेद एत्र प्रकार मिततेर्है-१ भर्जेकपात (श्र, एकपात, श्रपात्‌), २ श्रहिर्वुचन्य, ३ ईश्वर (सुरवर, चि्वेसर' धपराजित, शास्तृ, त्वष्ट्र) ४ फपालिन्‌, ५ कपदिनः £ व्यम्बक (दहन, दमन, उग्र, वड, महातेजस्‌, विलोहित, हवन), ७ बहुरूप (विदित, निष्डति, महेष्यर), ८ पिनाकिनि (भीम), ६ मृगव्याव (रेवत, परंतप), १० वृपाकपि (विरूपाक्ष, भग), ११ स्थाणु, (शंभु, श्ट, जयंत, महत, श्रयोनिस, हर, भव, दार्व, श्रत; सर्वसंज्ञ, संध्य एवं सर्प) । रुद्रश्रातमज ४२०३ † रद्रमा्ट २ भगवन शंकरकाएकसरू्पजो कामदेव को भस्म करते समय एवं दक्ष यक्ष विध्वंस करते समय उन्होनि धारण क्रिया था। ३ महादेव या शिच का एके नाम । (ड. को.) & शनिरचर । (ग्र. मा.) ५ घोडेके कणं मूल पर होने वाली मौरी (चक्र) जो विजय चिल माना जाता है । (शा. हो.) ६ ग्यारह कौ संख्याया ग्यारह 1 ७ वटवृक्ष। (अ. मा.) । वि.-८ मर्यकर्‌, भयावह्‌ । । & देखो ^रृविर' (ङ. भे.) (डि. को.) उ०--सक भट चठ सिकार, सरक छना सांभर मृश्रर । च्रव ग्रमेख रुद्र धार, कमयजं पीरां को कव्रर । --गो. र. १० देखो 'रौद्र' (रू. भे.) र. भे.--रउट्‌, रद्ध, रद्र, रखद्रि, रवद, रवद, रवद्‌ रवि रवद्र, रुट्‌ । मह--रवदांण, रुद्रौ । रद्रश्रातमज-देखो नन्द्रातमज' (5. भे.) स्रक्‌ - देखो “स्द्राक्ष' (रू. भे.) > शद्रकडो-सं. पु. यौ. [सं. खद्रः-+-कटकः] महादेव हारा मस्मासुर्‌ क दिया जाने वाला कड़ा । उ०--१ जग सारौ जांखं जोवपुरा, चौरंग तणी वार प्रणनचूक । जडतां लाख दोयगणां जाठं सदकडा सारीखौ रूके । --रुवौ मुहतौ उ०-२ श्द्रकड़ाच्यं र्कं रद, दृजणां धरम दरवार । तो हत्यां तखतेसं तख, व्रिरिन जाय वछिहार्‌ । --क्रिदोरदानि वारहट र्दरकरण-~सं. पु. [सं. स्द्रकं ] तीये विदेष का नाम) उ०--श्रम्रतकेस्वर ग्रति भलुं, शुदरकरण कणवीर । मधुकेस्वर जिमलिग तिम, वडवामुश वरि वीर । --मा. का. प्र. रद्रकटस-सं. पु. यी. [सं. सुद्रकलशः] ग्रहं रादि की शान्ति के लिए स्थापित किया जाने वाला कलय । खद्रकाठी-सं स्त्री. [सं. सद्रकाली] दुर्गा या दक्ति की एकं मूति । ख््रकोट, सदकोटि-सं. पु.--एक प्राचीन तीथं जिसमें रद्रों क्रा निवास मानां जात्ताहे। उ०-सिद्धकरणा गोकरण पण. सव्रकोट महाकोट । गुरजेस्वर जिहां गरज्जना, महिमा केरी मोट 1 --मा. का. प्र. रुदरकड-सं. पु.-- वज स्थित एक तीथं का नाम , खगण-सं. पु. [सं.] दिव के पायेद या गख जिनको संख्या तीस करोड़ मानी गदु है। ख्रगरभ-सं. पु [से. रद्रगमे] प्रभति, श्राग। रद्रधरणी-स, पु. [सं. दद्र गृहिनी] पावती, ऊमा । ! उ०-रद्रधरणी जपे सोमढी सद्र) भ्राज सगे ते लिया श्रनेक । जंसिघ धूय तणौ धू जोतां, ऊमर भर मो जुडियौ एक । । --गोरवन बोगसौ स्व्रधांण-~सं. पु---संहार, घ्वेस । उ०--तोर जंगां तुरंगं जसूंत' जौम काढतूं ही, घावां क्रोध गाढं तूंही रच श्द्रघांण। --हकमीचंद विडियौ खद्रज-सं. पु. [सं.| पारा । वि.--रुद्र से उत्पत्च। रुद्रजटा, सुद्रजटाय-सं. स्त्री.--१ दस्द्रके चिर के वाल, महादेवे केक्विर के वाल । । २ एक प्रकार का क्षुप विक्षेप जित्तके पत्ते मयुर्‌ यिखाके समान होते है । उ०~-रांमोडी चदं रासना, रीगणि खनटाय । रांग रतांजणी, रुमडी, रनिवनि रग धराय । --मा. कां. प्र. ३ सौीफ। ४ इसरोल । स्द्रतनय-सं. पु. [सं.] १ जन हरिवंश के श्रनुसार तीसरे श्रीकृष्एछका एक नाम । २ स्वामी कातिकेय। रद्रतद्ट-सं- पु [सं. प्द्रताल्न] सोत मात्रा का अदेय करा एक ताल विगेप। खद्रतेज-सं पु. [सं.] स्वामी कात्तिकेयं का एक नाम) खद्र्यानक-सं. पु. यौ. [सं. रुदरस्यान] क्रैलाश पर्व॑त । रद्रपत, रद्र पति-स.[सं. सद्रपति] १ यिव, महादेव । २ वादशाह्‌ । रु्रपत्नी-सं. स्त्री. [सं.] १ दुर्माका एक नाम । सद्रप्रपाग-सं. पु---गद्वाल जिले के भ्रन्तगंत एक तीथं का नाम। रद्रप्रिया-सं. स्त्री. [सं.] १ पवंती | २ हरीत की, हदे । सुद्रवीसी- देखो 'सद्रवीसी' (रू. भे.) श्द्रसु, स्द्रमुमि-सं. स्त्री. यौ. [सं.] दमशान, मरघट । सदरभ रवी-सं. स्वरी. [सं] दुर्गां की एक मूरति । सद्रमाढ्ठ -- १ देखो ^सद्रमाठ्य' (₹. भे.) २ देखो रद्रमाढा' (रू. भे.) ३ देखो "ठ उमाद्रा रद्रमादकफा ____~_(_--]---_-~~________________________`[_`_`_`______ रुद्रमाठका--देखो “ख्मारा' (₹ू. भे.) उ०--तूरौ वोम वाट निराताढ सों विदधौ तारौ, केता द्टौ पीरांण श्रालखां ताक वप । कोप रद्रमाछ्फा विहंगनाथ चुटी किना, रूटौ गौरां माथ प्रं काठटकोसोरूप)। --गिरवरर्दान कचियौ रुदरेमादय-सं. पु.-एक तीथं का नाम । उ०--श्रदृहास उजेणीद मरु जपन परर । रद्रमछय सिद्धत्रम, रमिसर सिरिचंद । --मा. का. प्र. रू. भे.--शुद्रमाठ । सद्रमा्रा-तं स्वी. [सं. सद्रमालिका, शद्रमाला] ९ विव के ग्तेर्भे लिपटे रहने वाला, सपे, सपि । २ मुण्डमाठा । रू. भे.--रुद्रमाठ, शद्रमालका ) सद्र रसस--देखो 'रद्ररस' (र. भे.) (डि. को.) रुद्र रंणी--देखो रुद्राणी! (<. भे.) रुद्र तय, सद्र राव-सं. पु. [सं. श्रराज| १ महादेव, शिव । २ वादज्ञाह्‌ । रुद्र रोदन-सं. पु. [सं.] स्वश, सोना । रुद्ररीमा-सं. स््री.--कातिकेय की एके मातृकां का नाम । रुद्रलता-स. स्त्री. [सं.] रद्रजटा। रुद्रलोक-सं. पु. [सं.] शट्रव रद्रगण के निवास कास्थान। सद्रवंती-सं. स्त्री. [सं.] एक प्रसिद्ध वनोपयि जिसको गणाना दिव्यीपचि वर्गं मे की जाती टे । र<. भे.--रुदती । रद्रवदन-सं. पु, [सं.] १ सद्रके मुख जिनकी संस्या पांच मानी जाती है । २ पांच की संख्याया श्ंक । । रुद्रवाचा-सं. स्त्री. [सं.] वहं वचनं जो. सदैव सत्य रहना हौ, सत्य- वचन । उ०--तरें इण देवराजं क्यौ-ग्रह्मवाचा, शद्रवाचा हं दिनं दोय माय विचारनं मागीस 1 --नैरासी रुद्रवोणा-स. स्त्री.-एक प्रकार की पुराने दंगकौ वीणा, नारदवीखा । रू. भे.--रुट्वीरा स्द्रवीसी-सं. स्त्री.--साठ संवत्ससे मसे भ्रन्तिम वीस संवत्सें का समूह्‌ जो ग्रमांगछिक श्रौर कण्टप्रद कहा गया है, श्द्रविणंति । रू. भे.--रुद्रवीसी रुद्रसावरणी-सं. पु. [सं. शुदरसावणि ] वारहवे मन्वंतर का श्रधिपति मनु २०४ दा, जौ भव राजामृन पच था) , ख्रसुदरी-सं. स्त्री. [सं.] दुर्गा की एक भूति । रुद्र्प्राणी, दद्रणी-सं. रत्री. (सं. श्द्ाणी] १ श्द्रश्रथति धिव कीं पत्नी, पार्वेती, धिवा । (डि. को.) उ ०--१ सीतासी रागी वेद वाणी, सारग पाणी साम । मीढ न मघवांणी वट ब्रह्माणी, नहीं शाणी नामि -र. ज. प्र. उ०-२ लक्ष्मी श्द्राणो त्रह्मारी युमिषट, सादर्‌ भुयस बघ्रांी । --राघधवदास मादी २ रद्रजटा नामक लता। ३ संगीतमं एक प्रकार की रागिनी। ४ ग्यारह वर्पो की कन्या का नाम) रू. भे.--र्दरांणी, शुटांणी, मद्र रांखी । रुद्राक्ष, रद्रा, रदछ-सं. पु. (सं. सद्राक्ष] एकः प्रकारका व्रक्ष विदोष जिसके फलो के वीजो की जपने तयाकेठमे वारणकरने की माला वनाई जाती है । उ०--१ मध्यानि ्मे विराजमान व्यान में धुनी । रद्रक्षि माठ पान मे मद्रा उनभुनी । --मे. म. उ०--> रावण राग रतांजणी, रवगी नश्‌ शद्रा । रुक स्थती रायसली, रोहड रोहिणी राख । ---मा. कां. प्र. उ०--३ सोम धूपं खेव सतवार्‌, एक मुग्वी ह्राद श्रघारं । यीजी घूंप सेवि तिण॒ वेलं, मभ दांहिणा-वरत संख मेले । --सु.प्र. रू. भे~--रुदराख, रुदराद्ध ! रुद्राक्षमाट, दव्राक्षमावा (सं, स्त्री. यौ. | रुद्राक्ष के चीजों की बनी माला , विशेष । रुद्रायण-सं. पु. [सं. रद्र+रा. प्र. अयण] यवन, मुसलमान । उ०--श्रणी सर सावठ पूटत ऊक, रद्रायण वाह्‌ करे धरण रूक । भयांणख भेख सरां चंड भार, दुहुवकछ धार रगत्त दुसार । सु. प्र. रुद्रातमज-सं.. पू. [सं. शुद्रात्मज] स्वामी कात्िकेय । (नां. मा., ह्‌. नां. मा.) रू. भे.--रुदरश्रात्तमजं । रुद्ररि-सं. पु. [मं.] कामदेव, मदन । रुदराठट-वि. पु. [सं. रुद्र +-श्रालुच] सद्र का, रुद्र सम्बन्धी । सं. पु.--१ महादेव, शिवं ! २ यवन, मू्तलम(न । ३ देखो ^रुधिर' (₹. भे.) | रुद्र, रुद्राट्ट्‌-वि. [सं. रद्र-=भयंकर-+य., प्र. लु] भयंकर, भयावह्‌ | र्प्रव्रत्ि उ०--श्रंग ग्रास मोडतौ, नण धोशतौ निद्राठ. । कर रहदी रंगियां, रोस भरियौ सत्राच -पा. प्र. सद्रावास-सं. पु. ] सं. सदर +-स्रावास] शिव के निवास स्थान, काशी, कौलाश, रमशानादि 1 रुदरी-सं. स्त्री. [सं.] १ सद्र सम्बन्धी वेद मवों कालघु संग्रह जिसमें सुद्र देवता के मंत्र श्रधिक ग्रौर विद्रिष्टरूप से संग्रहितरहैः (वेदके रुद्रानुवाक या अधमर्येणसूक्त की ग्यारह प्रावृत्तियां ) जिनका पाट शुम माना जाता है। २ एक प्रकारकी वीखा। रुद्रौ -देखो “रद्र (महः; <. भे.) उ०-सिधांणा दभा रदौ, वचि पयाढ सरग इद्र । रट्ोड वीर वसुधा, व्रिभेवखं छमा चतुरह्‌ । --गु.रू. वं. धक्क-देखो "हविर (रू. भे.) उ०--ह्व पंड लडक्क हर्त, खग मल्ल कड्क्क तड्क्क खुलं । भक भवक्र रुधक्क खट८क भलं, दक दक्क वकं जव थक्क दलं । --पा. प्र. रधर-देखो “धिर (रू. भे.) 3 ड --वठ्हिया भूख सरव छिकारी, ब्रहि कांकलि पृषहपां ग्रहि- नां 1 चोढ रुधर मद पिय सचाढी, विकट करं नाटक विकराठी । ` -- सू. प्र. रुधराठ -देखो रुचिर" (मह; र. भे.) रुधिर-सं. . पु. [सं.] १ प्राणियों, ङीववासियों के रीर का रक्त, गोरित, सून । (अर. मा; डि. को.) उ०--१ दम इकः निसा श्रमावस श्रावी, लाल रुधिर सरिता चप लाची 1 उभ तटां भ रीठ अराव, फाटा सीस कमठ बहु फावं। -सू.प्र. उ०-२ रुधिर सेत माह एकटी हप्र चै । श्रर ऊपर जु रुधिर कीब्रूद पड) त्यांहकी जु ऊँची ब्द उच्छं छं । मु चोटीयाढी कटावै ! इहै चोसखि योगसि हई । --वेलि टी. २ रक्तवरं। विलाल 1 रू. भ. - रुदर, रद्रा, रुधक्क, सदिर, रूहिर, रुहि, रूही । मह्‌.--रुषराठ, सधिराठ, श्हिराल, रूहराठ । रउविरगु्म-सं पु. [सं. रधिरगुल्म] स्त्रियों का एक प्रकार का रोय विोप जिसमे उनके पेट में एक प्रकार का गोला धरूमता रहता है । (दरस राजस्थानी में छोड भी कहते है) रुधिरांध-सं.पु-एक नरक कानाम। रुधिरानन-सं पु. [ सं. रुधिरानन] मंगलग्रहु को वक्रगति विशेष । (उ्योतिष) ४२०५ सुपणो _____ ~~~] ~~~] रू, भे.--रहिणाख । रुधिराठ-देखो “रुधिर' (मह, <. भे.) उ०-गजसीस पड़े धड़ पड गात, पड़या किर पाहुड वज परत । गिख घापं पटचर मंस गाठ, खटछकिया घा रधर खार । --सु. प्र. रुधिरासन--सं. पु" [सं. रुधिराशन] १. श्री रामचन्द्र भगवान हारा मारा जाने वाला खर राक्षस का एक सेनापति । २ राक्षस, श्रसुर 1 ३ खटमल, जौक, मच्छरादि । सपदयौ- देखो ^रपयौ' (रू. भे.) उ०-धपणौ उच्छव करि मंगत जरां री धरी भ्रासीस दे करि, करहु, केकांण, सोना, सावदह्े, रुपदया, महरा घणी दे, चीत्रोडि रौ मेव कहाई । -द. वि. रपट -देखो ^रुपयौ' (म्रत्पा; ₹<. भे.) उ०--इसी म्हारी लावी सीरख कोनीं। थें जांौ-ई-हौ श्रा जाय, र मने भिं तौ खाली पंदरस्पटरीहीरहै। -वरमर्गाठ रपणी, रपवी-क्रि. म्र.-१ किसी कड़ीया नुकीली चीजका किसी पदाथ मे घसना, गड्ना । उ०-१ नगरमे वड़तां ई चारू कानी डीगौ परकोटौ देख्यौ, तौ वांरंइवरजरौपारनीं र्यौ । चारू दिसां सांमी भरपूर डीगा दरवाजा । दरवाजा रं भाला रसष्यौडा किवाड | --फुलवाड़ी उ०-२ सो इका सिलं ठोयकरने प्रायौद्यै। सो रांमदासजी प्रावता रं वरदछी वाही । सो इकौ धोडौ कूटनै वरछी जात्ती थकी धरतीमे रपी । --रा, सा. स. २ जमीन के श्रन्दर खोदे हुए गड मे गाडा जाना । ज्यू ; मेढा मे फडो सुपण । ३ किसी पदार्थं काकु भ्रंश जमीन कै भ्रंदर इस प्रकार जमना या स्थापित होना कि वहु पदार्थं वहां स्थिति हो जाय । ४ खड़ा होना, रिकना, सुकना, ठहरना 1 उ०--१ माय पधारौ, उठं ई कां रुपग्या । --फलवाड़ी उ०-२ खुटा री गठाई रप्योडा ऊमा र्या । पद्ध वाम काल फुरती सूं घोड़ा माये वैठा ! -फुलवाडी ५ सदा एक हौ दशा, रूप या स्थिति में होना, निश्चल होना । उ०--रम्दँ तौ यानं निरं प्रावा जांणिया । सामी भातत री मीठाद्यां सजियोड़ी पडी श्रर थे पूतदढ्ी री गलाई रप्योडा घटा । प्रख्या सांमी हाय वमर भिठादयां प्च थे वनि खावौ क्यं नीं । | --फुलवाडी ६ दढता पूवव मुकरावल। करने हतु एक स्थान पर टिकना, उटना । रुपयो उ०--१ वरती चवदह्‌ वरस, पड इठढ वेध श्रपारा, विकट लोग वदलियौ, सोच लागौ उर सारां। कानी कनी कहु, दाय कंपनी उर दीधौ, खोज खजानौ खास, लुट श्रेरणपुर लीधौ । वजराग फट लागा वहै, घके दिली दिस धाउवं । महाराज सखीज लेवा मदत, ग्रायर रुपिया श्राउवं ॥ --गिरवरदांने कवियौ उ०--२ लार मान' वाहुर लियां, भड जग जाहर भूप। श्रोखा थाहर उपरा, रुपियो नाहर रूप । -मटहादान महद्‌ रुपणहार, हारो (हारी), स्पणियौ-वि. 1 रुपिग्रोङौ, रुपियोड, रुप्योडो- भू. का. कृ. । रपीजणौ, रपीजवौ--भाव वा. 1 रुपयो-स. पु. [सं रूप्यक] १ चादी का सिक्का विदोप। ऊ०्-घरमे रामजी रजी हौवतां थकां सेट सेखणीन इण वात रौ वड दृखहोके उणांरं कोई संतान ही नी । कोसिस करणं मेसेठां पाद्य को राखीनी। भाटा जितरा देव पूज्या, राखडी मादघिया ई कराया, गांव रा गुररासा सनं इलाज ई करायौ श्र जोधपुर जायर डक्टरां री दतती में रुपया वालिया परण गरज कांड सजी कोयनी । --रातवासौ २ पुराने ६४ पैसे तथा नएसौ पसे कानोर)। ३ धन-दालत । रू. भे.-रिपद्यौ, रिषियूप, रिपियौ, रिप्पियौ, रुपियौ, रूपीयी, रूपेयी । ग्रत्पा.--रुपटी, हपटियौ । रुपियोडी-भू. का. कृ.- १ किसी नुकीली चीज का किसी पदा्थंमें यसाया गडा हुश्रा. २ जमीनकेश्रंदर गहरु मे गडा हरा. ३ किसी पदाथं का कुद श्रद्र जमीन में गड़ाहुश्रा, स्थितहुवा हृश्रा. ४ खड़ा हुवा हृश्रा, टिका हुभ्रा. ५ टटतापूवेक एक स्थान पर डटा हु्रा. ६ सदाएकहीदशा, रूपया स्थित्तिमें हुवा हुश्ना, निश्चल हुवा हुभ्रा. (स्वी. रूपयोडी) रुपियो -देखो ^रुपयौ' (षू. भे.) उ०--दाछ्द धर दकौ हवी, परसि न श्राव पाच । रपिया हौ रोकड़ा, सोरा श्रावं सास । 3) सपेरण-देखो स्पेरण' (रू. भे.) स्पेलौ-वि. [स्ती. स्पेली ] १ दवेत प्रकाश युक्त । उ०--चांदं तखं उजास, श्पेली रातां सीद । --दसदेव २ रपहला । सवाई-सं. स्वरी [श्र.] १ उदु फारसौमे एकं प्रकार की मूक्तके कचिता जिसमे चार पभिसराहोतेदहै। - ४२०६ ___ ~~~ ~~~ -~-~--- श्द्मी, २ एक प्रकार का तराना गाना। रमहरी-सं. प.--एक प्रकार का घोटा । उ०--रमहरी हृसनावाद राति, जिण श्ररव माय यदि नौष जाति । -- सू. प्र. रमकभुमक-देखो ^रिमिमक' (ए. भे.) रमाचित-देखो ^रोमाचित' (₹ू. भे.) रमा-सं. स्पी.--सुग्रीव की पत्नीकानाम। रुमापुर, रुमापुरो-सं. स्री. सभर नगर का प्राचीन नाम। (विं. भा.) रमौ - देखो (हमाल (रू. भे.) रुरुप्रो-स. पु.--एक प्रकार का वड़ा उत्ल्रु । खरक--१ देखो /रुरुक' (<. भे.) २ देसो रष" ३ देखो ^ररूक' रुर-सं. पु. [सं रुरः] मृग विरोप । २ कस्तुरी मृग) २ दुर्गा द्वारा मारा जनि वाला राक्षस विरेप । ४ रामराम शब्द को ध्वनि विनेप। उ०--१ रुर वोनन के विसवास रए, गुर्‌ गोलन कै हम पास ग । ॐ. का. रुरुक-सं. प---१ विजयसूर का पचर, सूयंवंशी एक राजा का नाम । उ०--१ संप्नभ सुदेव चप विजयस, पुव जास रुरक तय तेज पुर्‌ । -स्‌. भ्र. रू, भे.-- रुरक । रुरुभरव-सं. पु.-दुर्गा की पूजा के समय पूजा जाने वाला भैरव विदोप । रररियौ-सं. पु---मारवाड्‌ राज्यान्तर्गतत चलने वाला सिक्का विक्तोष । (प्राचीन) सकण, स्टकबो--देखो “रव्कणौ, रकौ! (रू. भे ) रुद्णी, रुढवो, रल गी, रुलवौ-क्रि. अ. [सं' लुलनम्‌ ] १ स्रवस्था स्थिति या हालत का बोचनीय होना, वरवाद होना 1 उ०-१ रंडपोखां रा राज मे, र्टगी भखां रेत। सूंकां नित सीरा करं, दंड न चूकां देत । ` --ऊ. का. उ०--२ कंदोई वारी मोठी वातां सुण न पलातौ हसियौ पर्चै कल्यौ - काला भिनखा, म्ह यूं मिठाई खावृं तौ म्हारी घर वरवादनींन्दर जवं! म्हूकाठौख्ढनी जाव । --फुलवाड़ी २ श्रच्छी या ठीक श्रवस्थासे दुरावस्था या बुरी स्थिति को प्राप होना, विगडना । | उ०- १ कनकठ दिली सकाज, वे सावत पखरंतवे । रटटग्थौ देखौ स्ट्णौ राज, रव-तांडव ज्यु राजिया । --किरप।रांम उ०--२ जिसौ दधि खेवट हीण निहाज, रुं तिम पत्र विहृ राज । । --रांमरासौ ३ मन या विचार का शान्त न रहना, इधर उधर जाना, भटकना। दितरना, फलना, विखर्ना । उ०--१ इता में जोइया हुय भेदा, कर किचकिची पाछा चिरिया, सो श्राय भिलीया । सो इसौ रीठवागौ, सो न भूतौ न मवसते' दीठांदही वणा श्राव । घरी तरवारयां रा वांड उच्छं छ । घणा सेल श्रावोसते नीसरं च । धणां रा फीफर वोलरह्याद्धं 1 श्रता व्रां रक रही दै । -- कुवरसी सांखला री वारता उ०-रिणंगण हैकां रंत रुठ त हस्त दांतां हिक हिदुढत ! लड हिक लावे लोहसे लोध, जमर्हृढ टेक उठे हिक जोघ। --ग. रू. घे. ५ इवर उवर होना, तितर वितर होना, विखरना । उ०-१ वाह पदम खठ पदम विहारे, वाह्‌ पदम हथ पदम उचार रिणघण धाद मुंग जिम रुछिया, पिया कत्ता चिता खद पुखिया 1 --सू. प्र. ६ धोखे या भ्रम में पडकर निौदेचत तत्तव पर न पटुंचना । उ०-१ भ्रालोयणा लीवां पड जी, रुटं पसार । रपी लक्मणा महासती जी, एह्‌ सुण्यउ अधिकार । --स. कु. उ०-२ राच रहा मिच्या मत मांही, ए रुं जीव चारू गति माही । भूलांरं प्राणौ ठंमी, सुमरो क्लीसीमंवर स्वामी ॥ -- जयवांगी ७ घुसना, प्रवि होना । उ०-दाथा जोड़ी करनं चीगिरद दोद्धा फिर गया 1 गोटी तीर वाहरी लागिया ! जद मूंडण पांचूं चील्हर धाती भ्रागं लेय इसा तावसरंनीसरीसौकाती यह माहं दीठी थी का फौज माही रुढछततौ ही दीटी सौ षाढा नूं पाल पाघरी । -- डाढाठा सुर री वात = श्रनिरिचत श्राचरणहीन श्रवांदछनीय जीवन होना 1 उ०्-वौ घोडा रीरास फणकारी। मुठकतौ मुक्तौ भ्रूलरा र माय घोड़ी द्धोड दियौ 1 मार कूकारोढ्ौ मच्यी । एक जणी री पींडी घोडारासुरसूं चींथीजगी। पींडी श्र कठजौ दौनूं चर- वण लागा । सुभाव रीग्राकरी ही । रीस में दात पीसती वोली- खटती लायोडी रा डीकराश्रेडा नाजोगानीं व्दैलातौ किणरा ल्वंला । --फुलवाड़ी ६ निरुटद्य इवर-उवर मारा मारा फिरना । १० स्थायी श्रावास्या स्थानके श्रभावमें कभी कही-कभमी कहीं भटकते फिरना । ११ इघर उघर पड़ा होना श्रथवा उठाई पटका छोड़ा फंकी होना 1 ४२०७ रुष्टाणौ १२ युद्धके वाजे का वजना । उ०--१ रुचि काहुल चरंवाठ, तुरहि भेरि नकेरि रहि, प्रारोहै गरेराकियां, मिलिया पंय भूलाठ । --वचनिका १३ दुदशाग्रस्त होकर इधर उधर भटकना, मारा मारा फिरना । उ०--१ मांस मुरघरिया मांक सम मगा, कोडीकोडी रा करिया स्म संगा । उाढी मृंछाढा उन्थियां मे इक्या, रच्छियां जायोड़ा गलियां में रुटिया । --ऊॐ. का. उ०-२ पहमण पांणी जावत प्रात, रुदती भ्रावत श्राघी रात। विल्लखा टावर जोवं वाट, धिनोधर वाट धिनोवर धाट । --रगेरेली वीटू १४ लटक कर वार वार इधर उवर हिलना । उ०-१ धरां मह जामा प्रतरर्मं तिलवाय कीधां तिकांरा वघ छती उपरास खोल दीधाद्यं। जिके खुल रयाद्धै। घणा मौति- यां री माठा नं जवाहरा राजा उर ऊपर र्ठ रह्याद्ये) --प्रतापसिघ स्टोकमरसिध री वात १५ देखो रकण, रठकवौ' (रू, भे.) ॐ०-- मांग जडचां गजमोतिया, कड्या ख्ठंता केस । ताष्टी हस दे तीजणी, वाटी कामा वेस । -- पनां रूट्णौ, रूठवौ -रू.भेः र्व्पट-सं- प.- १ श्रव्यवस्थित । उ०--ग्रेडो सेभौ तौ राज थपियां पदै ई नीं व्ियौ । सगां पाना मे ग्रेक इन परवांनौ लिष्योडो हौ । - इण रुढपट राज मे सोना रौ सूरज ऊगण वाको इजहै। --फुलवाड़ी २ देखो 'रल्पट (रू. भे.) रटयी--१ देखो "रूढौ (्रल्पा. रू. भे.) उ०--हुवे न बुणहार, जाणे कुण किमत जर । विन ग्राहुक व्यौपार, रुत्यौ गिणीजं राजिया । --किरपारांम रुढ्ठारई-सं, स्वी.--१ रीने की क्रिया या भाव । २ श्रव्यवस्था। रव्मणी, सकावौ-क्रि. स.--१ भ्रच्ी श्रवस्या या स्थिति से बुरी स्थिति को प्राप्त कराना, विगड़ाना । । उ० महाराजा श्ररजी सुणहु, स्रु सक्टठ मिल साथ दीन्हौ राज रुढ्ाय सव, कीन्हौ मोहि नाथ । -सिघासण वत्तीप्ती २ स्थिति, हालत, श्रवस्या, श्रादि को शोचनीय या वरवाद कराना 1 ३ दछितराना, फलानां । ४ तितर वितर कराना, विखराना । ५ धुसाना, प्रविष्ट कराना । 1 ++ रुखयोडौ ~] ६ युद्ध का वाजा वजाना) ७ रुदन कराना, रुला । सायोडो-मू. का. क.--१ श्रच्छी या ठीक स्थितिसे वुरोीया खराव स्थितिमें पहुंचाया हुश्रा। २ छित्तरायाया फलायादहुभ्रा। ३ तितर-वीतर कराया हुभ्रा ८ प्रविष्ट कराया ह्भ्रा, घुसायादह्ुम्रा। ५ यृद्धका वाद्य बजाया द्रा । ६ रुदन कराया हुम्रा, सुछाया हुग्रा । (स्वी. रछयोडी) रुद्धिश्राउत, रलिश्राउत्ि-देखो ^रल्िाईत' (₹. भे.) विखराया हस्रा । उ०--पाप करी जीव नरके जादू, परमाधरमी सचियाउति व्याईवार जोग्रता हुश्रा घणा दीह, भद्र तम्ि भ्राव्या माहरा सीह्‌। --घर्तिग शुछियांमणी- देखो ^रव्ि्यामणौ' (रू- भे.) उ०--वकुल कीरती ्रागद धरी, वंस विसुद्ध वखांण । राजहंस रचियामर्णा, सोनिगिरा चहभांए । -कांदे.प्र. (स्त्री. रुिर्यामखी) शदियाईइत - देखो ^रछ्ियाइत' (<. भे ) उ०--१ भगडड भागउ गीरिर्या, देल पूरी सच्च । मार रुद्धि- याद्रत हुई, पांमी प्रीय परस्ख 1 -टो. मा, रुचियार-वि.-- १ बदमाश, लुच्चा, लफ़रषा 1 उ०--श्रवै कर तौ हाजरियौ कांई करं 1 उणरा रुछियार साथीडा उण मोसा मारता--फिट रं नादार ! घरियां री मृद रौ वाठ वण्योडी फिरं प्रर एक भांवणकी ई थार कारू मेंनीं श्राई। ढाकणी मे नाक दुवोय मर क्यु नीं जवं । --रातवासौ २ जिसके रहने या निवास करने का रौर स्किनान हो| ३ दुष्ट, नीच, पाजी । ४जो इवर-उधर विना मतलये घूमता फिरता हये । ५ चरित्रहीन, व्यभिचारी । ६ वह (परशु) जो फसलोंको हानि पहुंचाता व उत्पात मचाता फिरता हो । उ०्--वसीरा लोकांरा चेत ऊमा खारईजे । सु लोकवती रौ भाखरसी श्रागे नित-प्रत पुकार धाले ) ताहरां माखरसी नूं छाजु ग्रोल्मा तो धा दही दिरावे, पण रुदियार घण हुवौ सु रह नही ` --नंणमी ७ जिसका कोई सहारयान दहो, श्राश्रयहीन । - रदियारगी-सं. स्त्री. -- १ वदचलनी, लंपटता । उ०--मन री छ्ट-प्रपंच रे इ उरा धरम, निवद्रापणी उ्णरी ४०६ ट्टो जात, श्रोष्धाई उणरी न्यात, रकियारगी उणरी कुट श्र फिटोन- पणौ उणरी खांपदह। २ गड़वड्ी, श्रव्यवस्था । ३ वदमागी, च्चा । ४ भ्रावाराहोने की त्रवस्था या भाव, प्रावारगी | --फुनवादी रुलियाररासा-- १ श्रराजकता । उ०-दीवांण बौद्धं दोपार वाद्वा करे । राजरा श्र॑लकार्‌ चीडं वाड नटं । नीं दाद-फरियाद श्ररनी कीं सुशवा्ईट। दिन चीते सौ वत्तौ । ग्रांधां पीये नै कृत्ता खां ! जवर रचिपाररातसौ ˆ मियो । --फुलवादी २ भ्रव्यवस्या । उ०-कोई केव के वापनं भवारामे घात राजमीदी दावली कोई कवं के वापनं विस देय मरवाय च्हाकियी । दोनूं छोटा भाढर्यांनं दस्र निकाली दे दियी । सगदं राजमें श्टियाररासौ मचाय रास्यी है । -फुलवाड़ी रुटिपारी-सं. म्व्ी.-तंपटता, वदचलनी, व्यभिचार । २ श्रावारापन। रुदधियारी-सं. पु. - गड़वड़ी, प्रव्यवस्था । उ०-देखौ भ्राजादी रौ रुदियारौ मचियौ जायौ, नाडा पैली नाकः कटायौ } रुटछीश्रांमणो--देखो 'रव्ियांमणो' (ङ. भे.) उ०- जीद वसइ जालउरउ कान्ह, राजरिदधि छई इद्र समान । रांमपीति श्रति शुटी्रांमणी, चिद पोलि तलहरी तणी । ^ । नितोतांई्‌ वेट -फुलवादी --्का, टे. प्र. (स्त्री, रुरीभ्रांमणी) रुटियोडो-भू. का. कृ.-१ वरवाद हुवा हृच्रा । २ अच्छी या ठीक ग्रवश्या से बुरी स्थिति मे पहुंचा हुश्रा। ३ इवरउवर भटका हुम्रा- ४ इघर उधर, तितर वितरहुवराह्श्रा। ५ चितरा या विखराहुश्रा। ६ धुसा हुग्रा, प्रविष्ट हृवादहृग्रा। ७ श्रमे पड़कर इवर उधर भटका हुभ्रा, निद््चित तत्व पर न पर्चा हुश्रा. ८ प्राचरणहीन हुवा हृभ्रा. € निरुह्य इवर उधर भटका हृत्रा- १० स्थायी श्रावस्त या स्थानक प्रभावे भटका हुभ्रा. ११ दुर्दशाग्रस्त होकर फिराहश्रा. १२ लटक्ते हए दिला हृत्रा. १३ युद्ध का वाद्य वजा हृ्रा. १४ देखो “रूटौ' (ब्रत्पा. रू. भे.) रुठी, रली -देखो “रटो' (रू. भे.) उ०--नीकोली रायण, प्रीसीमन भादण दाडिमनी कुली खाता पूजं रुली । । --व, स, रुदियायत ४२०५६ रुहिरं ~~~ =-= रुढीपायत-देखो ^रल्ियाइत' (रू. भे.) उ०--खंजण नख मुरा गति, नासा दीषका लोय 1 ढोलौ रुढीया- यत हुवौ, जव घणा दीठौ जोय | --दो. मा. रुटेट-१ श्रावारा । २ व्यभिचारी, चरित्रहीन । ३ वह्‌ जिसका विद्वाम न किया जा सके । रटौ-वि. [म्बरी. रूढी] १ वह्‌ जिसका मालिक या स्वामीनहो, धिना मालिक का 1 २ वह्‌ जिसकी कोई निगरानी न रखता हये, विना निगरा न का) ३ अ्रावादीहीन, निजेन । & श्रावारा ! ५ चरित्रहीन, ६ व्यथे, फिजुल । ग्रत्पा;ः--र्व्टयौ, स्च्वियी, रुट्य्यौ 1 रुढी - देखी “रूढौ (ग्रत्पा; रू. भे.) उ०--१ रुढा खुखया रजपूत, विरांमण मिढगा विटक्रा । वस्य मि गया विकठ, सूद्र वू रुक्मा सट्टा 1 --ऊ. का. रुन देखो रणौ । उ०--वै न्‌ सहनांणी दिखा एक एक दिखाठं तीं राजा चौपड जीप, तहां र्वा चुकं ग्नौ उपाव छे । --पंच दंडी री वारता रुवाच - देयो "रौव' (र. मे.) रसतम --देखो रुस्तम (<. भे.) रसतमी-देखो “रुम्तमी' (<. भे.) रसनाई-सं. स्री. [फा. रोदानाई] १ चमक दमक । उ०--दहं दल्यां वलि हुवे दिखाई, रजक भढ गोढां रुसनाद्वं । -- सू. प्र. २ प्रकाश, रोशनी । उ०--१ जिस वखत स्रीमहाराज सव लोकं कौ स्सनाई का मृजरा लेकरि राजर्मिदर पवार । ' -मू. प्र. उ०--२ पीढचोसा श्रढार्दानीश्रां री ख्सनार्ई्‌ लागि रहिद्यै"। तेजपुंज श्रासप भ्रारोगीने छं । --रा. सा. सं. ३ श्रानद, हप, खुगी । उ०--तठ कवर भ्रा वात मुख घणी खुस्याठ हुवौ 1 र्पौया पांच ऊपर सुं इनाम नांखिया प्रर साथसारन्‌, कट्यौ, ठकरुरां तयारी करौ। घोडा जीणा करावी ज्यू चढा। सग्मर मारले भ्रावां । पर- भात गोठ में नवी रसनई श्राणा वपरांवा सताकवी करौ । भुय श्रस्गी है! --कुवरसी सांखला री वारता र स्याही । उ०्- र्का कलम रुर रुसनायां, ब्राहव घेत खता करग्रेद। सहिर-देखो ^रुधिर' (ङ. भे.) ज्याज माय केता सर वाङ, काटा माय कितांदे कंद) --वुधजी ब्रासियी रू. भे.--रोसनाई । ससभदेव-देखो ^रि समदेव! (रू. भे.) रसा - देखो ^रसा' (रू. भे.) (श्र, मा.) रसाणौ, रसावौ-क्रि. म्र.- क्रुद्ध होना कुपित होना, नाराज होना । उ०--ताहरा हरदास कल्यौ, कूरनपूत । म्है म्हारौ पडि ही वडायौ । ताहरां हरदास विना धाव सारा हुवां रुसायन हालियौ । वास छोडियौ । --नंरसी रस्ट-वि. [सं. रुष्ट ] नाराज, ग्रभ्रगन्न, कुपित । रुस्टता-सं. स्त्री. सं. रुष्टता | भ्रप्रसन्नता, नाराजगी 1 सस्टपुस्ट-वि. [स.. हृष्पुटष्ता | मोटा ताजा, हृष्ट-पुष्ट 1 रुस्टि-सं. स्त्री, [सं. रुष्ट] कोप, गुस्सा, क्रोध । रस्तक-सं. पु.-एक प्रकार की मिठाई विरोष 1 उ०--गुंद वड़ा पायात्तणारे लाल, प्रावा रायण श्रांण । ररुतक रा दांणा भला रे लाल, गृंदपाके सूख खांण । --प. च. चौ, रुस्तम-सं. पु.--१ फारस का एक प्राचीन पहलवान । २ कोई वहत वडा वीर व्यक्ति । उ०-देवीदास रुस्तम ज्यं जंग कर काम प्रायो । -वां. दा. च्या. रस्तमी-सं. स्त्री.-- वीरता, वहादुरी । रुहपत-सं. स्त्रो. [सं. पत्रुह | पृथ्वी, धरती । (ग्र. मा.) रुहराठ-देखो (रुधिर' मह्‌., (रू, भे.) उ०--हिय चाड पछठाड सराड़ हृ, भड पाड उडाड चहाड भड़ी । श्रसवार विना त्रस जुं इसी, सुहराठ हुड रणरंग ह | । --पा. प्र. रुहराली-सं स्त्री. [सं. रुधिर ~-ग्रालुच्‌ ] रक्त सम्बन्धी, रक्त की । उ०--वडी मसीत ईदगावाढठी । रत सूवरां तण रहरा । --रा.रू. रुटाड, रुहाडि-सं. स्वी.--१ मनोरथ, मनोकामना । उ०--१ रे साजन तुर मन तणी, पहुचसिई सघढी रुहाडि । परि नवि मोरा मन तणा, जांणौ म्होरे पेलाडि। -जयवत सूरि उ०--२ पूग ढोलौ पाहुणी, रहियौ सास्रवाडि । पनरा दिहाडा पदमणी, मांरि मनां सुहाडि 1 रू, भे.--्टाड । रुहितास-सं---देखो “रसोहितास' (रू. भे.) . रुहिनाट-सं* पु---रक्त का नाला । उ०--पड़ं रुहिनाठ तणा परनाठछ, खल्कत जांशिक भैरव खाल । --सु. प्र. -दो,मा, उ०--१ तडिच तडलल हे रिण धट, रहि र रठतठछ प्र्ठड पड़ [ +) ^ 2 म [२३ ~+ [ रहिर्णण ४२१९० रूखडो ~ ~~ ~ ~ --~---~--- ~---~--~ ~ ~ - श्रचट् जुवट श्रशियल जुडं करिवा जेत 1 --प्रताप्षिव म्होकमसिघ री वात उ०--२ जोगण पहली खाय पछ, करं उतावछ काय । भर प्रर वात्है रहर, देसी कत धपाय । --वी. स. रुहिसंणण--देखो धिरांननः' (रू. भे.) रहिराव-सं. पु. [सं. रुधिराख्य | एक प्रकार का रल या मणि । उहिराढ--देखो ^रुधिर' (मह., रू. भे.) उ०--१ धरा पड़ वेधि रगे श्रहि थो, छित रुहिराछ तणो भ्रति दी । --सू. प्र. २०--२ भिलक्किय दीन दहं जूधपूर, हलक्किय वेटि विमानानि हर । किलविकय जुग्णनि सव्द कराछ, खछविकय भूमि कितं रुहि- राट । --ना. रा. रुहुला- देखो ररुहेला' (र. भे.) उ०-वार्‌ वीरे वरांसिद्‌, रुला राज में खोहि ) प्रवरा श्राप उताव्री, महिपति पडिसिय मोटि । -मा.कां. प्र. सहैलखंड-सं. प. --रुदेला पानो के वसने का प्रव कै उत्तर-पद््विम का एकः प्रदेस। सहैला-सं. स्वी--पठा्नो की एक शाखां । रसं. पु.--देखो ^रूई' (₹. भे.) उ०- कहे सीमुखां राणं जोधां करारा, देणू पद्ध रू घ्रत वांधौ हृजारां । सू. प्र. २ देखो (तेम (रू. भे) उ०-२ पेट भार हिरण्या वहै, र्यौ न श्रोटौ कोय ।रूश्रांरूश्रां नीसरे, लुग्रां सूरा लोय ॥ --लू उ०-३ भिनख री मसर्जादा सूं लुगाई री मरजादा मेठनीं लावे । मानं के मिनखरं कारण लुगाई न भ्रापरी मरजाका निभा- वण री किणी दिसु कोर्ईद्युटनींहै। लुगाई रौ रू रू मिनख रं खरं पेखड़ीजियोड़ी है --फएुलवाड़ मुहा--ू रू फाटणौ == ग्रत्धिक ददं होना } रू र कपौ =मयभीत होना । रू रू ऊभौ ब्हैणौ रोमांच हीना । | रू' फाटणी -=सहम जाना । रू प्राटी-सं. स्त्री--- काति, दीति, श्रोज । वि.--१ सुदर, मनोहर । उ०--वांहडियां रू श्राियां घणा वंफं नयगेह्‌ । जणा जसा साथन वोल ही, मारू वहतत गुह 1 -टो. मा. र<. भे.--षू वाटी 1 २ देखौ "रोमावरी' (. भे ) उ०-१ नस श्री श्र जादी । भरपूर रूश्राटोौ डी । --विजयदांन देयौ उ० -२ ऊंची नीची सरवरिया री पाठ, जठ ने ऊजदठी रूपौ नीप । रूपौ सीह पाच वरी रं पाव, श्श्राा पीरडसे रूपौ हृद सोह । --लो. गी, २ सदर, मनोहूर, कांतिवान । र<. भे.--रू वारी रश्रावद् - देखो ^सोमावली' (रू. भे.) रू ख-~सं. पू. [सं. वृक्ष] १ पेड प्क्ष । उ०-- १ वौल्यो ~ नांनी-मां म्हनं ई सात गलगरुला तणनं दे । म ई गुलगरला रौरूख उगवला । ढालां माधं वड नित्त गृलगुला खावृला । --फुतवाड़ी उ०--२ हिवडा भीतर पस करी, उगौ सञ्जणा रूख। नित्त सूखे नित पल्लवे, नित नित नवलता दख ! --श्रग्यात उ०-३ तांहरा एकं खख हैटीही जाजम विद्धायनं दीनं सिरदार सूता -नंणसी रू. भे.---रुक्ख, स्ख, सूखी रोख) ग्रत्पा.-- रू लड़ी, रूखडियौ, रू खद्ौ, रू खडी, रोखडी । + { मह्‌-रूखड। ८ रू खड़-स. पू.-- १ दरियाई नारियल का खप्पर लेकर श्रलख' कहू कर्‌ भीग्व मांगने वराते एक प्रकारे के भिश्चुकोका दल)! २ देवो *रूख' (मह्‌; ₹. भे.) ॥ रू खड्यौ-वि.--१ वृक्षो पर्‌ वमि करने वाला) सं. पु.--१ बदर) २ मूग्वं । ३ देग्वो "रूष" (म्रत्पा; र<, भे.) रू वड़लौ-सं. पु--- १ देखो रूख' (ग्रत्पा. रू. भे.) उ० -- १ चुगनचिड़ी सूरज नं पूदछयौ गिरजां नँ कंकर 1 घोरां पू रूखड़ला, लार्सा तै अगिनिरी काठ । -- चेत्तनमांनसरा रू खडी-सं. स्त्री -- १ जडी-वुटी । रू खौ -- देखो “रू ख' (श्रत्पा; र<. भे.) उ०--१ तठ पंयी गठ पुल फक, सिर पंछी न समाय! श्रौ हिन हरियौ रू खडी, सूकौ ट्‌ कृहाय । --ग्रग्यात उ०--२ जे मावित मवतव्यता रे हां, न चलं तात उपाय ! जेह्वौ वाव रूखडौ रे हां, तेहवा हीज फल वायं । --वि, कु. उ०--२ सरवौ व्दुतौ कान लगा सुण, माटी थनं बुलावं है" नेरा हवी तौ देख रू खडा, धरती हात हिलार्वं है । --चेतमांनखा रश्राटी-वि. (सं. रोम~-ग्रानुच] (स्ती. श्रा) रौमयुक्त, ' रूखडो- देखो 'रूख' (श्रल्पा. रू. भे.) रोम पूरा । उ०--ते धन्य ते वनस्पती, ब्रक्षत्णी धन्य छाया रे । धन्य ए रू खराद्‌ सघलां रूखडा, जिहां वदठा नलजी राया रे । --न-दवयेती रास रूखराद, रू खरार्-सं. स्त्री. [सं. वृक्ष~+राजि] १ वृक्षों कीकतार। २ चनेस्पत्ि। उ०--१ रटति पूत मिसि मधुप रूखराइ, मात स्रवति मधु दूब मिसि। | --वेलि रू खां-सिणगार-स. पु. [स- व्रक्ष~-म्फगार] १ चंदन । (द्‌. नां. मा.) रूखावली-सं. स्त्री. [सं. वृक्ष ~+- ग्रवलि ] १ वनस्पति 1 र उ०--१ रूखावदिया पल्लव फुटा । विणा ्रकुर हुश्रा धरती नीली दीसं लागी । सु मानौ प्रथमी नीला वस्त्र ञ्व्याद्। --वेलिं रूखावान्यो, ङ वाल्ो-सं. पु १ [स. वृक्ष --्रालुच] वंदर 1 रू'सी-सृ. स्त्री.-देसो ^€ख' (रू! भे.) उ०--मारगि मोटा इंगरा, नदं बाहुला विभेग्वी । जलचर खेचर भूमिचर, वसुवारूघी रूल) --मा. कां. क. रूग-देखो "रू गतौ' (र. भे.) उ०--१ रांमत्यारावठगा ङग, मोटा मोटा दिख्या दूग । ह --म्रज्ञात रूगरौ--देखौ "रू गतौ' (<. भे.) ₹ू"गरटादी-से. स्वी.-मेंड । रू गतौ-- १ रोम, रोग्रा,. केड । उ०--१ नाई मिसखरी करतां वोत्यौ-वां टाटा सिस्दारांर माथे त्रेक ई रूगतौ नीं है तौई वोखौ-खायगा। ~ फुलवाड़ी उ०-२ इतरा मेतीन मालम कौकर ई सांकठ निकठगी श्र हडडड,. ङ वम्मीड करती पटरी भ्रांगणापर।जेमम्टर फुरतीसे श्रागौ नी सरक जावतौतौ चटणी-चटणी""“ “ग्रो एमां { रूगता ऊमा व्हैरया प्रर उण चौवरी री गोडौ काठौ पकड़ लियी। --रातवासौ र,भे.--रूग, रूगरौ । रूगी-सं. स्त्री.- समक । उ०--१ संगी दिग राग समाज सुरावट, मनरूगीगो काज मरे मृगी हैक गिण नह्‌ मार, पगौ राग श्रवाज परे। | -- ठा. गंभीरसिह रो गीत रूगोली-सं. वि. [स्त्री रूगीली] १ सनक को श्रादत या स्वभाव वाला, सनक । रूग-सं. पु.--ग्रभ्र.वद, प्रसू । उ०--१ वनफठ प्रापु ब्रक्षथी,जु तुहि भावि । द्रामणी देखी तुभनिर्मूह्लिरूगर प्रावि, --नलास्यान रू चौ---वि. [मी रू ची] वहु जिसके पांव तिर पडते हो । रभसं, पु.-१ एक प्रकार का कटीला वृक्ष जिसका पका\फल खाने ४२११ रूदणौ से वकेरी मर जातीहं। ग्रत्पा.,-- फट, < फड़ौ । रूभडो-देखो "रू भ' (ग्रत्पा., रू. भे.) (अलवर) रू भट - १ भभट, भमेला । देखो ^" (म्रत्पा , ₹<. भे.) र ठ~सं. पु-- लकड । उ०-१ लते भड़ां रटाकां धूर भ्ररिदा ताडव्वा लागा, महावीर खीज मे पाडव्वा लागा मूठ । वीर वे सतावां जहां दूवारा काड्व्वा लागा, रोजगारा खत्ती ज्यू फाड्व्वा लामा शठ । --सुखदान कवियौ. ₹ूड-१ देवो ˆ₹उ' (रू. भे.) उ०-१ उर ङूडन की माठ विराज, कर खप्पर विवधारी। सुमरू देवी को वणी जो, विद्यया वुव श्रपारी। --रुकमणी मंगठ २ पिमिल के प्रनुपार एक मात्रिक छद विशेष । रू'डमाघछ-देखो “र डमाठ' (रू. भे) उ०-१ दीठा नयण त्रिरि मूख पांचड, केपिल जटा सुविस्राल । रू डमा दीठी करि तुंवा दीठञ ब्रह्म कपाठ --कां. दे. प्र, रूउकौो--देखो "ूड (श्रल्पा; 5, भे.) उ०--१ तांडटां दलं डंगठा टक, रूडढां रूढ सीकटठां रूक । --गृ.रू.वं. रू'ण-देखो “रूयः (रू. भे.) (ह. नां. मा.) रू णभमूण--१ देखो ^रणंरुणए' (5. भे.) उ०--भ्रोढण लालर ऊमदा, रति सचि रे रूप रूणभरुण करती राजव, ्राइ पिलंग श्रनूप । --स्रग्यात रू णभूणणी, र णमूःएवी -देखो ^रणभुएणौ, रुणभूुएवौ (रू. भे.) उ०-नेपुरां नांदडुं रूणरूणद्‌, वहुविविव प्रतिरव भेख । --सकमरी-मंगरट रूतणौ, र< तवौ-देखो रू दणौ, रू दवौ (रू. भे.) रू ताणो, रू तावो-देखो 'रूदाणौ, रूदावौ' (रू. भे.) रूतायोड़-्रु- का. कृ.- देखो “रू दायोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. ङ तावियोडी) रूतावणो, र ताववो - देखो 'रूदाणौ, रूदावौ' (रू. भे.) रूताचियोडी- देलौ "ङ दायोड़ौ' (रू. भे.) (स्त्री रू ताडियोडी) रू तियोड़ो-देखो "रू दियोड' (रू. भे.) रू तोड-सं. पु.--१ वाल के जडसे हट जाने पर होने वासरा फोडा। रू दणो, र दवो-क्रि. स. पैरों तलं कुचलना । २ मसलना । । [ कायो णे वावी न नयद् प £ ॥ रू दद्णौ ४२१२ रूबडो न न मर ३ श्रधिकार मे करना, कन्जे करना! ४ रोकना । रूदणहार, हारौ (हारी), रूदणियौ-- वि. । रूदिश्रोडो, रू दियीडी, रू दयोड़ - मू. का. कृ. । रू'दीजणौ, रूदीजवौ --कमे वा, । रू"ददणौ, रू दठवौ--देखो 'रू दरौ, रू दवी' (रू. भे.) उ०--दतरं सूश्रर वटं फोज स्‌ भिध्ियौ सौ सारी फौज फरौटतौ "ददतौ फिर छं । इसी तरह घणौ कजियौ कर पार हुवौ । -दाढठरासूर री वात रू'दाडणौ, रूदाडवो- देखो शरू दाणौ, रूदावौ (<. भे.) रू"दाडणहार, हरौ (हारी), ङ दाडणियो-- वि, । रू'दाड्ोडो, रू दाडियोड़ी, रू दाडयोडौ -भू० का० क० । रूदाडीजणौ, रू दाडीजवौ-कमं० वा०। रू'दाणी, रूदावी-[रूदणौ क्ति. प्रे. <.] १ परो तते कुचलाना 1 २ मसलाना। ३ ग्रधिकारया कन्जे कराना । ४ रोकाना । रू दाणहार, हारो (हारी) रूदाणियौ- वि. । रू वायोड़ो--भरू° का० क० । ` दार्ईजणो, ₹'दारईजवो- करम वा० | रूताणौ, शूतावौ, रूदाइणौ, रूदादवौ, रूदाव्णौ, रूदाववौ । 9 रू दायोडो-भू. का. कृ.--१ परो तते कुचलाया हृभ्रा. २ मसलाया हरा. ३ श्रधिकार या कन्जा कराया हृश्रा. ४ रोकाया हृश्रा. (स्त्री. रूदायोड़ी) रूदावणौ, ङदावबौ -देखो 'रूदाणौ, रूदावौ' (रू. भे.) रू दावणहार हारौ (हारो) रू'दावणियौ--वि° । रू दाविग्रोड़ो, रू दावियोडो, रूदान्यीडौ--भू०° का० कृ० । रूदावीजणौ, रू दावीजवौ --करमं वा० । रू'धणो, र धवौ-क्रि. स. [सं. स्रवरुहनम्‌ ] १ रोकना । उ०--१ ग्व पट्ट लेचरां वीर नारद खिले, ऊपरा ऊपरी गडलां ऊथलं । चाय गुरु श्रचठ' दादौ तको मच्‌चने, पत्तसाही कटक रू'धियौ "पात्तते' । --सवतावत प्रतापसिह्‌ रौ गीत उ०-२ लाख नेस लुटिजं, देस कीजे फुड ऊं वं । जितौ भ्रुक हुय जाय रूक साहे पथ रूघे) एक मार चूरियां भार परवारन भाष । कर एकं पौकार दिली वाजार चिचाटं । --रा. रू २ ग्राच्छादित करना । उ०--१ मारगि मोटा दुंगरा, नद वाहा चिसेली 1 जलचर स्ैचर भूमिचर, वसुघारूधो स्खी। --मा. कां. प्र, ३ विचारो मे उलभना, फएस॒ना 1 उ०--१ मार्रूत तौ पाद्या त्रापरं मंसोवामें सूधग्याश्रर टावर ग्रापरी श्रवूा-प्रीतमे तायां र सामं विचरतां विचारता वानं ऊंग प्रायगी । --फुलवादो & पेरन्‌, श्रवेप्टित करना । ठ उ०--मूग्रर सूतौ नीद भर, भूंड्णा पोहा देह्‌। ऊठौ नाय निदा- टवा, घररूधौ वोडह्‌ । --दाद्ाठा सूररी वति उ०--१ जन्म लगड जेहनां धन लीजड, तेह चाडि मग्रामि। कद्‌ श्राप प्रांण उगारचा, ₹ूध्यउ मेह्णयउ स्वामि। --कां.दे.प्र, ५ रोदना, मसलना । ` उ०--१ दाढनौ तृड सूं वणा नँ इ. उलाढ उलाढ हैटे यरकाया हाथी गृडया ्रसवारा ने रूधता न्हाय द्ुटा । --फलवाडी रू घणहार, हारो (हारी) रूघणियौ--चि० । रू धिश्रोड, ङ धियोड़, रूध्योडी- भरू का० क° । रू धीजणो, रू धीजकी -- कमं वा० | रू घाडणो, र घाडयौ- देखो शू घाणौ, रूघावौ' (रू. भे.) रू धाड्णहार, हारौ (हारी) रूधाडइणियो--वि० । ८ धाड्श्रोड़, रू धाड्याडौ, रूपाडयोडो--भू० का० कु० । रू धाड़ीजणो, 5 धाडीजवौ - कर्म वा०। ॥ रूधाणो, रूघावौ-क्रि. स. [रूयणौ क्रि. प्रे. <.] १ रोकाना। २ प्राच्छादित कराना । । ८ ३ विचारों में उलभाना। ४ मसलाना ) रूधाखहार, हारौ (हारी), < घाणियो--वि. । रूधायोडो- भू. का. कृ. । रू धार्दजणो, रू धारईनको-- कर्म वा. । रू वाडणौ, रू घाडवौ, रूघावणौ, रूघावत्रौ--रू.भे. । रू धायोडो-मूु° का० कृ०--१ रौकाया हृश्रा २ श्राच्छादित कराया हेश्रा. ३ विचारों में उलक्राया हुग्रा. ८ रौदाया या मसलायः हुम्रा. (स्त्री. रूधायोडी) । रू घावणो, रू धाववौ - देखो रू धारौ, रूधावौ' (रू. भे.) रू धावणहार, हारौ (हारी), रूधावणियौ -वि०) रू धाविश्रोडो, रू घावियोडो, रू धान्पोडो- भू० का० कृ० | रूधावीजणो, रू घावीजवो--कमं वा० । रू घावियोड़ो- देखो ^रू घायोडौ' (षू. भे.) (स्त्री. शू घाचियोडी } रू धियोड़ो-भू. का. वर.--१ रोका हृभ्रा. २ भ्राच्छादित क्रिया हृश्रा. , ३ विचायं में उलम्ा हुश्रा. ४ ग्रविष्टिति किया दहृश्रा. ५ मसला हुभ्रा. (स्त्री. रूधियोडी) . रून--१ रोने कौ श्रवस्या या भावे) रू वड़ी-सु. स्त्री.-१ रीर से विकृत खून कौ राहुर निकालने का $ सूज ४२१३ र उपकरण । २ फोडा, फुन्ी । रूवरौ-सं. पु.--एक चिदेष जाति का घोड़ा । उ०--१ कनूजदेस ना कुलथा । मघ्यदेस ना महूयडा । देवगिरा । देवगिरा देखाऊ ! रूढरा । देवाण॒ । संश्रांणी । पांरीपंथा । --का. दे. भ्र. रूम-देखो रोम' (<. भे.) उ०--गुरु गंग गोला गुरु, गुर गिढकां रौ मल । रूम स्ममेंयुं रमं ज्यं जरवां मे तेल 1 --ऊ. का, रूस-वि.-सरद्य, समान उ०--रावढ वापा जक्तौ रायगुर, रीस खीज सूरपतरीरूस,। दस सहंसा जेहौ नह्‌ दूनी, सक्ती करं गढा रा सूंस 1 - वाख्जी सोदौ सं. स्त्री. - १ तरह, प्रकार, भांति 1 उ०-टणकारां ग वंदा कालरी कणंकार टोपां, धारां पुल चौसरां गठां रा जांगी घँस । रुण्ड नच्च मोती थाठ आरती उतार रभा, ङ्द गोती गनीमां चस्न्वं इसी रूस । ` -ऊमेदरांम मादू २ शोमा, छवि, संदरता । उ०--१ कल फदमू के लंगर मारी कनक की हंस । जवाहर के ऊ जेह्र दीपमालाको रूस । --र. रू. उ०-२ रूस सहर री गांमड, भ्राजं वरियौ श्रोर । हाथानं हण हाथियों, कौघा पंजर कोर । --वी. स. २३ इच्या, चाह । उ०--२ भपट चमर दव दछांह न केलं, चेच वसंत गुलाल न सेल । हित करि वाग ूस नह्‌ हात, चादर हौज फुंदार न चालं । -म्‌ प्र. ४ क्रोव, गुस्सा । उ०्-राजा कियौन रूस, धनत्ं ददिया वाडवी । मावत मद मे सूस, मूंमल सुवे माद्यां । --श्रग्यात ५ खाद्य पदार्थं । उ०-संदरि परूस्या सालणा रे लाल, हिवि पकवाने हस 1 खारिक निमजा खोपरा रे लाल, प्रीसतां रूडी रूस । --प. च. चौ, रूसणो-सं.- देखो ररिसांणौ' (रू. भ.) रूसणो, रूसबौ--देखो 'रीसणौ, रीसवीौ' (र<. भे.) उ०--१ घत दछ मूगढ कीध विवंम, स्द्रणणा दन्न तण जिग रूस। -- सु. प्र. रू सणहार, हारो (हारी), रू सणियो --वि० । रूतिश्रोडी, < 'सियोड़, रू व्योडो--भु° का० ० । रूसीजरौ, रसीजवो --भाव० वा० । ह सदार-वि.--१ यानदार, सुन्दर ठसकदार । उ०--१ तद दासी मोजड़ी लेनं माहि गई । कद्यौ-"“वेगम साह्वि 1 प्राप दीनु पातिसाहां के फरजन हौ, तिको निपट सू.चूपसूं रू सदार मोजड़ी पगां पेहूरौ हौ 1" --वीरमदे सोनगरा री वात रू साडणो, रू साडवो- देखो "< साणौ, रू सावौ' (रू. भे.) र साइणहार, हारौ (हारी), र साडणियौ- वि. । रू साडिग्रोड, रू साडियोडी, रू साउयोडौ--भू० का० ० । रू साड़ीजणो, रू साड़ोजवौ- भाव ० वा०। रू साणो, रू सावौ-क्रि. स.--१ कूपित करना, क्रुध करना । २ नाराज करना । रू साखहार, हारी (हासे) ₹ङसाणियौ-वि०। रू सायोड़ो--भू० का० क० । रू सर्हजणा, रू सार्ईदनवौ--कर्म वा० । रू साडणौ, रूसाडवौ, रू सावी, रूसाववौ रू सायोड़ौ-भू. का. क.-१ कूच किया हुग्रा. (स्त्री. रूसायौडी ) रू सावणो, < साववौ-देखो "रू साणौ, रू सावी" (रू. भे.) रू सावणहार, हारो (हारी) ङ सावणियौ-वि० । रू साचिग्रोड़ी, रूसोवियोड़ौ, रूसाव्योडी -भू° का० ० । रू सावीजणौ, रू सावीजवौ-- कम वा० । रू सावियोड्- देखो रू सायोड़ी' (रू. भे.) (स्त्री. रू सावियोडी) रू सियौ-सं. पु.- १ श्रनाजकेदढेरके चारों तरफ लगाई जाने व्राली। खाई । ---=5,9 भेण २ नाराज किया हुश्रा. उ०--१ रमता कर रिगटोढ खुंदता मारग खोद, घाव खाई दे धारलं । २ एक प्रकारका घास । रूसौ-सं. पु.--१ प्रेत । उ०--१ इम कहन दोनू हाथ मोहडं उपर व्यौ केर ने कहीयौ, भेह्‌ ्रुठा तद पांणी पीयौ हंतौ । इय सुरान वरधछी सूस ऊभी कीवी । - मांडणसी कंपावत री बात रूह -- १ देखो "ल्ह" (रू. भे.) उ०--१ सूरत कै भयांणख जमराणुः के जोस, जगर्‌ के जालम तीरमदाजूं के सिरपोस । रूह के सुरख चमरू क मजार, रोसके भाटाहृठ अ्रातस के श्रंगार । --सु. घ्र. ₹<--१ देखो "रोम" (5. भे.) उ०--१ कागर धूवरा, मोट पूठे रा, छोटे षींडांरा, भमर पृछछरा, भुवरियं रू रा, चोर्वमे रंगरा, लांधियै सिंघ ज्यं लकां चदिया थका, भागा गाडा ज्यू वठ्ठाट करता थका वस्या स्यं काला करता थका, मातं हाथी ज्यू हकारा करता थका) (खींची गंगेव नींवावतरौ दो-पृह॒रौ हाने । खट रूकिया, -दसदोख 2, [+ १ क ४ ण १.११ २ देयो ^लई' (रू. भे.) उ०--१ ताहरां दीव ऊपरां श्रागीयौ वेताल वोलियौ-- परिल लौहरौ घडीयौ दीवौ 1 माहि घातियौ तेल 1 रू री वाट जगाई । --चौवोली सग्रदठ, रुप्रडउ, स्ग्रडु, ङ श्रड़ौ, सूग्रडौ--देखो “ख्डो' (रू. भे.) उ०--१ करहा तं मनि रुश्रडउ, वेच्यां करद्‌ विष्टौह्‌ 1 श्रजइ युग्रारइ वप्पड़ा, नही ज क्रंमिरा मोह्‌ 1 --दटो. मा, उ०--२ रवि ! ताहू रथ रूश्रडउ, भ्राघड पादछउ वालि । म्रेकद् पटटड ऊयत्यू, त हिजि रहिउ तरीयासि । --मा. का. प्र. उ ०-३ मुख पखलिवा गयु प्रीउडउ, ग्रावतु हुसीडइ कत र्प्रडड । वाट्‌ जो नारी तिहा, मभ मूंकीनडइ नल गय्‌. किदां । --नल-दवदती रास उ० - ४ नामि विवर ग्रति स्प्रषुं वणु नलीग्रारदइ पेटि । उन्नत उर विसाल पण, भल तद सकदन भेरि, --मा.कां प्र. उ०- ५ चरइ्‌ मेलडी सकर द्राख, ग्रति स्ग्रडा तुरंगम लाख । पांगीहारि पोचीश्रा मृम्रार, दासदी कोलां सख न पार । --कां.दे. प्र. उ०--९ सदा फलांखि निवु श्रांणी राटणी महूग्रडा कल्हार जंबुरई नारेग रग वाग र्ग्रडा। --गु. 5. वे. उ०-७ एकवीस छत्र चांमर लड़, छपने कोडि लक्ष्मी वसंड 1 पातसाहु मदाफर रोडरमल्ल, रगि सपि सूश्रडड हमड । -व.स, ८ परि कसिठ एकि ञे सासू तणुं समार ? करि कंकर मोवरणमि चूडी रूपद्‌ रंभा ग्रति इग्रडी । ~व. स. ((म्ध्री. स्ग्रडी, स्ग्रडी) लई-पं. स्त्री.-१ कपास के डोडेया कोल्ल मे से निकलने वाले वारीक रेणोकाधुग्रा! । उ०-१ एणी पिरिते रजनी वीती, थयूं प्रात काल जी नालं भागां सोषी कादि, र्यां श्र दि वाल जी । --नलाव्यांन रू. भे.--रू रू; र्ड । मदार-वि.--१ रूईकेसमान, २ जिममे म्ई मरी गर्ूहो। रउ-स. पु.-१ एक सिक्का विद्धे । उ०-१ ग्र॑तर दीसइ एवडु नवडड सोनर्ईउ उ रे ¦ भ्र॑तर दीसखद्‌ एवदू जेवडडठ वाप नड फूड रे। --नल्‌-दवदंती २ गायों का समूह्‌, गोुण्ट । उ०-रुख न्गधउ रणाग्णि मूकड्‌ तेह नामु निनुखी जगा धुकड गायत्री यछसि ज नमर्‌ नास वीर माहि सु १३द्‌ पशि दास] --सालि सूरि श्यः-सं. स्ग्री.--१ तलवार, दरुपणा । (डि.को हू. नां. मा.) उ०--१ महा जुपड मत्त, घमो ्रावरत्चं स्के उट रीटं गुडेजोष ४२१४ रू्वमणी ग्रीटं । -गु.रू.वं. उ०--२ तोडिष्ंदी तोडियौ निहंग चदियौ पडि नाद्छौ 1 मढ विक- राद्टी जण" सूक वलि लियौ रनाघ्टौ । -- स्‌, प्र. रू. भे.- रुक । यौ.- रूकचालक, स्कचाठो, सूक भड़ी, रूक भल, रूकट्‌थ महू.--रूकड़ । रूकड़-देखो 'रूक' (मह. <. भे.) | उ०--१ रक. रुक ती रा-र्कड़ां, मूख मूख वीर्रा मोढ। पूचाढा हेकण परख, दछ मेँ प्रवढ दरोढ । --वी. स. उ० --२ घणी लाज वीटियी वाज मेलिया नत्रीठ । दहु रौर र्कडा, रीठ उडियौ गरीठ । --वगतौ खिड्यौ रूकचलाक, स्फचालक-वि. यौ.-- १ योद्धा, वीर । उ०--१ क्रोधार महतां कथा राखवा समदा कंडे, व्रीहथां राम स्यू मारीच सुबाहु । मारगी कदीम रूकचलाक भारथा मुड़, दयाल मारगी तथां आ्आहुडे दुर्बाह । --दादूपेश्री साधां रौ गीत रूकचाठो-या. सं. पु. यौ. --१ युद्ध) उ०-१ रिणमलां के जोड़े जंगी महावाह्‌ भादी जाके वंस पठे र्कचच्ठं ही की पाटी । --रा. म. र्कभडी-सं. स्वी. यौ.--तलवारों का प्रहार । | ह उ०-१ तछवाड़ौ यांणौ तरै, मूं वंधव साथ । दीसथां षर्‌ वाजसी, रूफभड़ो श्रध-रात । --वी.मा. रूकभल-वि. यौ - खड्गधारी, तलवारधारी, योद्धा, वीर । उ०--ग्राया भड भाटी दौढी ग्राडा रावत दौढा रूकभल। --ग. <, व. रूफमणी-देखो ^रकमरी' (<. भे.) उ०-१ देवर शूकमण हंसं हरि निमावे श्रनेको रे। भादत्‌ं निमावी न सकं, तिणसूं उरता ने पररी एकौरे! --जयवांणी रूकरस-सं. पु. यो,- युद्ध, संग्राम । उ०--१ स्फकरस राठोट गुरड प्रगटी गंणाग । ~ग. रूवं. रूकसश्रोधा-वि. यौ.-- १ तलवार घारण करने वालों के वंश, योद्धा । उ० जसराज मरण "जोधा" हरा रूकसश्रोधा राजव । छित लाज दिली महाराज छट, इट पडिया रासे म्रचद् । --रा. रू. रूकहत्य, सूकहत्थो, रूकह्थ, रूकहयी-वि- यौ. [सं. रूक +- हन्त] २ जिसके हाथ में तलवार हो, चड्ग्‌ धारी । उ०--१ सूक्हय पेखिमरौ हाच जसराज रा, ठिवतां पाव धीरा दियौ ठाकुर -- हा. भा. उ ०--२ उदी कहर! तसौ पड चारा 'मांनावत्त' । रूकहुथौ घनराज वाज पडियौ वीकावत्‌ 1 --रा. ष. सक्मणी-देखो ^स्कमरणी! (ङ. भे ) उ०-देवी स्क्मणोसत्पतुं कान मोहै। देवी कांनरेस्पतुं गोपि माहं । ---देवि [3६ ४२१५ रुख-सं. प.-देखो “रुल' (<. भे.) उ०--१ तौ नापो कटी-थांहरी ख्ख किण वात उपर । प्यार हुवे तो ब्राद्धौकंनाहूव तौ न्ना । नापे साखते री वारता उ०--र करटं पीतपद्र, सुवंधे सुषदः गतं पंचमुखं चने चाप रूखं । --र. ज. प्र. उ०--३ गेट सुं मायां थकां जयमिह्‌ जी री रूख प्रौरंगजव सूं रही । -- महाराजा जयर्सिह्‌ श्रामेर रावणी री वारता २ देवो '€ख' (रू.भे.) उ० --१ पणी ज्रारत कारणों वाके पांड परिजेदहयी । चंदन केरा रख ज्यूँ चरणां लिपटीजं । --मीरां रुखडौ -देखो “रू ख' (ग्रत्पा-, र. भे.) उ०--१ तन दुख नीर तडाग, रोज विहगम ₹ूखड़ौ । विसन सलीमुख चाग, जरा वरक ऊतर जवल । --वां. दा. स्खापण, रूखापणो - देवो 'रलाई रुवाौ-देखो 'र्वाटी' (रू. भ.) रुषि, रली -देखो "रिति" (<. भे.) ख्वो-वि.--१ जिसमे चिकनाहट या स्निग्वता की कमी हो । २ खुरदरा। ५ ३ जिसमे चिकने पदां न पडे टां । जोग्रप्रिय व नीरस दहो । ५ जिसमें ग्रात्मीयता उदारता ग्रादि गुणों का अ्रभाव हौ ६ उदासीन, विरक्त । रूडउ, रूडी-वि. [स्वी. रूड़ी ] १ सर्वोत्तम, सर्वोत्कृष्ट । उ०--१ तू स्वामी प्रिथुराज ताहरौ, वकि वीजा को करे विलाग । रूढौ जिको प्रताप रावली, भूडौ जिकौ ग्रमीण भाग 1 --प्रिथीराज राठीड उ०--२ रामचंद्र करसी रूड़ी सग्छी विध स्ीरंग । भगतां-पत भूधरवणी, चाढण रूप सुचंग , --ट्‌. र. उ०--२३ करणीगर रूडा करै, करत विनंत्र न काय । मार उपाव मेदनी, मृहूरत हेकण माय । --द. र. २ वदिया, श्रेष्ठ 1 | उ०--१ ताहसां श्रौ लगन ठेलि भ्र कटाड्यौ राजाजी नू श्रर रांणीजी न-कंवर जी कारी ग्रजे रूडा सर्ति री नही हई । | ` --द वि. उ०--२ रूठर कटै श्रतर नह कूड, तूठ न देऊ तार । पठ फिराय पीनमी जपै, गावी ऊठ मिवार । --ऊ, का. ३ समध, सक्षम उ०--१ रायौ रूट सीसीतांवर स्वामी राजं । भाराथां साखां दैतां थौका भाज । 8 --र. ज. प्र. ४ श्राकपक, मोहक ' । उ०-१ र्या संमरादोय चिर््ामरूड़ा, च्मा-सस एकौ बियो | सरव चूडा । ५ श्रेष्ठ कूल का, कुलीन । उ०--१ तरं राव ददै विचार दीटो-जु ग्रा डावड़ी पणं कवारी नग्न पण रूडी रजपूतदछै। तरै प्रापरी दीकररी वाऊ भेलछनू परणारई, -नेणसी ६ योग्य, चतुर, दक्ष । उ०-१ ताहरां मोहल दीटौ कराड्क ग्रौर नवी वरती खाट्‌ । तिण ऊपर मांणस दोय रूड्‌। श्रापरा मेल्हिया । -- नरसी उ०--२ सुदेवराज लुद्रवौ लेण रा दाव-घाव घडंद्यै । तरं पहली तौ पवारासूं मास ४ कागटवाई कीवी, काद्‌ श्रवीरी भली वम्तु च्हैसु मेलं । तिणां साथे श्रापरं धर मांहैरूडं रा भ्रादमी मेले । --नरसी ७ पावन, पवित्र । उ० -- १ गढ चित्तौड नां रहा, नहीं रहणका जोग । वसस्यां रूड दारका, जहां हरि भगतां का भोग । -मीरां ८ स्वादिष्ट, सचिकर। उ०-१ खारिक निमजा खोपरारे लाल प्रीता खू्डी स्स) --र. ज. प्र, उ०--२ विववापशि पहरइ त्रूडी, राव रसोई रांधड्‌ रूडी । । कवि गणु विजय ६ सिद्धिदायक । उ०--१ ग्रहण वेका गद समां, पडसी पांणएी माही । रूडौ मत जप्‌ रहड, राह तणी जिहा छांहि 1 ॥ ---मा, काँ. प्र. १० श्रेयस्कर, उत्कृष्टतर, वहुत्तर । उ०--१ कुलटा साची व्दै द्रुकरांणी कूडी, पड़दं पड़दायत रांणी सृ रूडो। | --ऊॐ. का. ११ स्वस्थ, तंदुरुस्त । उ०--१ उठ कवर गजसिघजी न्‌ सीतट्रा नीसरी। कंवरजीरौ डील रूडी नदीं तरे माटी गोयंददास मोहणदास न कवरजी र ऊपर वारियौ । ` १२ सुन्दर, मनोहर । उ०-१ रूपरूड्ी गुणा वायरी रोहिड़ारी फुल । उ०--२ लांकालौ चृडौ घणौ रूडौ चमके है, देह जांणा दामणेही दमके है ; --नशसी ---र, हमीर उ० --३ वणाहार विराजिया, सोघ्रन में चूडी ¦ केठ्सरी चंपह्‌ कठी, राजं गति रूड़ी । --गजटद्धार धश उ०-- परव देस नरेसर भणीई, ईस्वर नउ वरदान । सरिस चह निन्याण्‌, राजा जो रूडी दीसड जान । । १३ जवरदस्त । तिकां वारतांनूंतौ क त दिलां लानू तौ कठा तक दीजै दाद । प्रणा माहिलांरी रौ रज- त 0 91१ क इ. = १ क ि थ (नो 2 । रूठणोौ पूती हद सूं ज्याद । जिकै इए गजव न्‌ चाहने पांहृणा करं । जिके पिण इसडा ईज होय जिको पाणी रौ लोय्यो रूढां हीज भरं । --प्रतपरसिघ म्होकमसिघ री वात १४ प्यास, प्रिय । उ०--१ धशा दिनां री प्रीती, किम मुभ चंडी जाय । रूड्ा राजिद परखज्यो, जीवृं ज्यां लग काय । --वात रीस री १५ उपयुक्त, उचित । उ०--१ ताहरां रहींगोढं कहियौ-प्रथीराजजी । श्राप तरवार वगसी म्न, सो यौ । ताहसं प्रथीराजजी कहयौ --रे हिगोढा रूडी वेका माहे मांगी । -नणसी १६ श्रनोखा, भ्रदुभूत, विचित्र । उ०~--१ एक तो वडी लड़ाई जीपजे । तव रू प्रारांद होय चै। श्रर एक रूड़ौ विवाह हौय छ । तव रूडी प्रणंदहुयेै) सु दुन्यौ ही श्राणंद एक ही दिन भेला हुप्रा । --वेलि क्रि. वि.-१ वहादुरीसे, वीरतासे। उ०--१ राजि कांटा लिये पधारि उत्तरिया । उठा हैक दौड़ करा- डवा सोर मारियौ । ते सोलेकी "वीरो' । रूडी मूधो । -द.वि. २ श्रच्छी तरह से, उर्चित प्रकारसे। उ०--१ श्राप नाम इक्र उपरा, रसना राघव नाम । रूडौ विध सू रखियी, पुरां जिकां प्रणाम । ` --वां. दा. <० भे०--रूग्रडय, सूश्रडउ, प्र्‌, रूश्रडौ, रूग्रड, ख्यडौ, स्यडो, स्वौ, स्वडीौ । रूठणौ, रूठसनौ-क्रि. प्र.-- १ कूपित होना । उ०-१ भोम भार भस्लियौ, खडग कल्तै खुमांखं । किया सेन संघार जांणि रूढ जमररांणं । --गु. रू, वं. उ०--२ युरम कहै मन वंघ वकर, ्रातुर न हूड्‌ ्रधीर । कादर हुवां न च्ुटि है, जव रूढो जहुगीर । २ श्रप्रश्न्न होना । रूटणहार, हारौ (हाय) रूढणियौ --वि । रठिप्रोडो, रूष्यिोडी, रूठयोडो-भू० का० ० । रूटोजणो, रूटीजवौ--भाव वा० । सूढाहणो, रूठाडवौ -देखो 'रूठाणौ, रूठावौः रूठाड्णहार, हारी (हारो) र्खाडणियो--वि० । रठाडिग्रोडी, रूटाड्योडौ, स्डाडघोड़ो--मू° का० क० 1 खठाडीजणी, टाडीजयो - कमे वा० । ~यु. सः ५ बं # ४२१९६ का क रूण रूटाडियोडौ- देखो 'रूठायोडी' (<. भे.) रूठाणी, रूटावौ-क्रि. स.-- १ कुपित या नाराज करना । २ श्रषरसन्न करना । रूटाणहार, हय (हप्र) स्खाणिया--वि° । रूटायोड़ो-भू° का० ०1 रूठार्हनणौ, रूटार्दजवौ-- कमं वा० 1 रूठाडणौ, रूठाडवौ, रूठावरी, रूठाववौ--5ू० भे० । रुठयो्-भू. का. क.- १ कुपित किया हठुश्रा- २ श्रप्रसन्न किया ह्या. . (स्वी. रूठायोडी) र्ठावणो, रूठाववौ - देखो ^र्ठणौ, रूटावो' (रू. भे.) रूठावणहार, हारो (हारी) रूडावणियो--वि० । रूठाचिग्रोड़ो, रूठावियोड़, रूठाव्योडौ - भर का० ० । रूठावबीोजण, रूठातीजणो--कमं वा० । रूञावियोडौ- देखो 'र्ठायोडौ" (रू. भे.) (स्त्री. रूटावियोडी) रूष्योड़ो-भू० का० क०-- १ कुषित हवा हुभ्रा. २ ्रप्रसन्न हुवा हुश्रा । रूढोडो-वि. [स्वी. रूटोड़ी ] १ नारप्न श्रप्रसन्न हुवा हृ्रा. २ क्रोध किया हु्रा । रूडीयाढ-वि.-- १ वजने वाला । उ०--१ खाथा सूर खडीयाठ, त्रिंकं रूडीयाल तवलां, चाकां ग्ररि चडियाल, हक भिंडोयाल हमलां 1 --पनां रूडी -देखो “रूडौ' {रू. भे.) उ०--एक परदेसी जांण द्रे कांईजेहनोरूडौरूडौघाटरे) ---वि. कु. (स्त्री. ख्डी) रूढ-यीवना-सं. स्वी. [सं. प्रारूढयोवना] १ पणं यौवन प्रा नायिका । रूढां. स्वी. [सं. रूढ-~{टाप्‌ | १ लक्षणा शब्द चक्ति के दौ प्रमुख भेदार्मे से एक। रूढि, रूढी-सं. स्त्री. [स. रुढि] १ प्रथा, चाल, परम्परा । २ विचार, ३ निदचय । ४ सादित्य मं प्रयुक्त वह्‌ दव्द जो श्रपने शब्दके रूढ म्र्थंका बोध कराताहै। रूरंभण-देखो रणंभण' (रू. भे.) उ०--रूणभण नेवर हूर रभ, उठे हसि नारद होय भ्रचंभ । ~ --सू, भ्र. २ देखो रूण भा (र<. भे.) रूण-सं. स्ती.-- १ भूत्य, भाव, कीमते । रूणभुग ४२१७ उ०्-धन रौ दैत्ंईबोल दे, यं रूणमुजवकं दो! श्रे रामर छोड जट्ट ! वोल-नीं ग्राघडौ-ई । चार रुपिया । --वरसगांठ २ मनोमाव नूचके चहुरा, या मृंहकी रु) रूणदरुण-सं- ¶.-- १ वह रथ जिसके परियों (चक्का) मे धुघुर लगे होते हं) तथा चलते समय सू्णरुण की व्वनि करतादह। र. भे.--रुणजुण, रुणमुण । २ देखो ^र्णभुण' (रू. भे.) ख्णभुणि-देखो 'रणंए" उ०--१ मन करि मधुकरि रूणभुणि नोभणि रहण सुहाइ सूपकटीर ५ दद्य पदाथ या वस्तु । ६ प्रकृति, स्वभाव, ्रादत। ७ घोभा । (नां. मा.) ८ विदोप्‌ प्रकार कौ प्रकृति मे "युक्त सरीर । ज्यः व'रूपियौ । ६ दारीर, देह्‌ 1 (श्र. मा.) १० कायं विनेप की निदिचत श्रौर्‌ व्यवस्थित पदति या प्रणाली, ठग प्रकार ११ आरकृति । उ०-१ हरिणासी कठ श्र॑तरिख हती, विव क्प प्रगटी बहिरि । मलयानिल क्षण महरी थाहरी क्षण इकू वाइ । - जयसेखर सूरि कठ मोतियां सुरि द्रि कोरति. कठसरी सरसती किरि । - वेदि रुणावव्टी-देखो ^रोमावली' (रू. भे.) १२ र्चना। ५ | ू उ०--१ मारु कुच युग कथिनि, रति कंच कठस लार । | = 3०, वीदं धरा माल दूनी दयी देते रूप । मावव हरम रूणादलटी चिचमे वणी, खिम न दंत श्राघार । ढो. भा. भरकास म, क्षि ताहर। स्वल्प । -ह्‌. र. 5 १ (३ दान्देया वरा कास्वस्पया प्राकार । रुरेचौ-तं. पु.--१ प्रसिद्ध सिद्ध परप रामदेव त्वर का निवास १४ वृक्ष। (्.मा.) | स्यान । । १५ रूपा, रौप्य, चांदी । उ०-१ निवाणत्री भरेतनीर, ख्पकूभहमरा) ममत जोवनं मनोजं, नह्‌ कत नेम रा । --सू. प्र १६ तुल्यता, वरावरी । १७ दोलघधृका नाम । (पिगल) १८ साद्दयता, समानता, प्रतिकृति । | उ०-१ प्रथीकरणा धिरवेद पुराणां, करम जिकां वद हीण कुरणां ।यो जगम रवि वस उजागर, प्रगटे रूप भूप परमेस्वर्‌ । रूणो-सं. पु.-- १ ऊचे स्वानां पर चढने कै लिए सीष्यिों के स्षवत्त पूर्‌ का चौथा. पत्थर । 2 २ णतरज का एक मोहरा रूपतर-वि,. [सं. स्प प्रतर] १ सू्षका वदलना, दूसरे सू्पकीप्रास्ति, स्पांतरण 1 उ०-- जस्र देसंतर्‌ जावही, सूपतर व्र हंत । काठ तर न कठढीजगौ, जेहा तुं जांणंत । । -- वा. दा. २ प्राप्त होने वाला दूसरा स्प । | --रा. सू स्य-सं, पु. [सं. रूप] १ सदर्य, सूंदरता 1 (ग्र. मा.} | १५ प्राकार । उ०--१ श्रो रूप धरौ रायत्रंगरा, चौकी मुकत कणा केसर उ०्-गोचरस्पनरंगन रेख ्रगोचर श्रत कूप श्रनेख। ----ॐ. का, चेनग तर्‌ मंजर फटटमाला तोरण, सोहै दार मेढ श्रत सज्जणा 1 = 1 २१ लक्षण, पहिचान । उ ०--२ रांमचद्र करसी रूडा, सगद्धी विध न्रीरगं । भगतपत भूवर | उ०--वड ठेड रारीड ग्राखिश्रात राखी कड़ी, जोरवर जौध जम- घरी, चादढण कूप सुचंग । अ दाद जमरा। मलावत दिली-पत देख मियो, श्रमी तिणा वार उ०-२ रूप रकामश्रारभ रांमविद्याप्ररजण। -गु-रू.वं. रास्ूप श्रमराः। --गु. रू. घं. वि. - १ सुन्दर, मनोहर । २ समान, वरावेर्‌, तुल्य । | | २ पदार्थं विनेष कावह्‌ बाह्य गणया विदोपता (रग ग्रादिसे | भिन्न) जिसमे उसकी बनावट का पता चल जाता है, पिड शरीर श्रादि की रचनाया वनावर । | ३ गक्ल, सूरत । उ०-१ मृंडच्टौ लाइक बूरा, राम सरीखौ श्प । ब्रह्य संत गुर रू. भे.--ख्पु, ख्य, स्व । हत कवडी, ईसरदास ्रनूप । -पी.ग्र. मह~+-- रूपां । उ०--र देश्ठीने तन नहो कोधौ पारिखौ, ख्पडं परि दिसं है, | स्पकटीर-सं. पू.--१ नृ सिहावतार ¦ उत्तम सारिखौ 1 --वि. कु. उ०--१ नमो करुणाकर र्परकटीर, नमौ ४ प्रकारे, भेद, भाति । रघुव्ौर 1 ० --समूदित साप समारत सूं, द॑तरुसठ मूमल रूप दुर्‌ड । -मे, म्‌. वर लच्छि तणा न्न ह्‌. + ~ ~ ४ 3 न रूपकं ४२१६८ स्प ~~~ ~~~ ~~ ~ र्पफ-सं. पु. [सं. रूपकम्‌] १ वह्‌ काव्य या भ्र्य जिसमें किसी महान योद्धा का चरित्र चित्रण हो । उ०--१ ग्रथ राजरजेस्वर महाराजाधिराज स्रीद्धत्रपति प्रिथि- पति रघुवससिरताज महाराज सीखीसलीखीद्वी भ्रमसिधजी रौ रूपक सुरजप्रकास कविया करणीर्दान विजरं मोत रौ कियो । --यू. प्र. उ०--२ रुधवंसी राठौड हर, तेरह साख कमंध । विमर संकत्ती वरणवा, वधे रूपक वंध । --गु. रू. वं २ कान्य, कविता । उ०--कटै वारौ" घधवाड, श्रसुर भ्रसि घफं चढाऊं । तिसी काट रूपका, जिमी खग काट वजाऊ । --सु. भ्र. उ०-२ तिकी पांवडं पांवडं श्रस्वमेध रौ फढ पावां । चोख तीखरी वातां काम श्रायां पद्वु ङूपकां मांहै गवावां श्रु मक्त जावां ही जावां। --प्रतापसिष स्टोकमसिघ री वात ३ डिगठ गीत (छंद) विप जिसकी संख्या ८४ मानी जाती है । उ०-१ लप कवित नरहरि छप्प, सूरजमल कै दद । गहरी कमक 'गरोसरी", रूपक हुकमीचंद । ~ श्रग्यात उ०--२ मन मह॒रण गभीर मत, गुरम्रात चुरागूर । चौरासी रूपक सममः, खट भाख वहोत्तर । --पाघरुदान ्रासियो ४ वणिक वृतया मात्रिक छंद । उ०-१ पाए एकणिं रूप परि, चवदह्‌ सहस चमा । सगण च्यारि लघु दोड सुजि, रूपक नाम रसाठ --ल. पि. उ० -२ पनरह मात्रं जगणा पर, एक चरण इहिनांण । चवा रूपक चौपद्‌, भणि, लखपत्ति कूठ भाण । --वं पि. ५ कोति, यंश | उ०--प्रविता पार्वती, कनां कमला सावे्री । जमना गंगा जिसी चद्र-भागा सरसत्ती । चंद्रभांणः सधु चंद्रा वदनि, चंद्रावत सीसो- दणी, पक चडावण रामपुरी, इघक रूप द्वद्रायणी । - गू. <. चं. ६ प्रगंसात्मक कविता । | उ०-१ श्र्रारे तयासि, चेत मास नम स्याम } रूपक व्वंक' वणावियौ, षव्र पचीसी नाम । --र्वा. दा. १० टृदय काव्य, नाटक । । उ०-१ प्राप सवसे श्राग्‌ वीजूंजढ वाह । द्वकं धणी भ्रौर तीसरा न जास । प्रसं गु ग्रनेक कचि कहां लग चखार) \ व्यार प्रकार की जगति सात रूपकं के विधान । पंच प्रकार की गति प्रस्टाविधांन 1 -- सू, भर. वि. वि.-साहित्यदपण ने रूपक {दुक्य काव्य यानाटक) के दस भेद मनि) ८ किसीरूप की वनाई हुई मूति या प्रतिकृति । ॥ ६ चांदी का वनाकठमे धारणं करने का प्राभूयण चिदेप। [ सं. रूप्यकं | १० रूपया नामक सिक्का । १० चदी। ११ साहित्य में एक प्रकार का श्रयलिंकार्‌ जहां उपमावाचके पुवं निपेधसूचक शब्दं के विना दही उपमेयका को वर्णन किया जातां ह । वि० वि० सके सांगरूपक, श्रभेद स्पक तद्रुपक श्रादि कटू भेद ह| मुहा-रूपक वांधरौः वदरा चढ़ा कर प्रालंकारिकः भाषा मे वरन करनां १२- एक पौरारिक दिव भक्त राक्षस का नाम, जित्तके पृच्रका नाम संपति था । ये दोनो श्रन्याय्य हाया संपति उपाजन कर, वहू दिव उपासना मे व्यथं करते थे 1 द्म कारणां सरणा कै याद दिव के मानस प्र वीरभद्रने न्ह कहा श्रगने जन्म मे तुम चोर बनोगे, किन्तु दिव भ॑क्तिके कारण तुम्हारा उद्धार दोगा) रू. भे.- पकड, सूपक्क, रूपंग । रूपकउ- देखो 'रूपक' (रू. भे.) उ०--मास्वणी मृहवंन्न, ब्रादित्ताहुं उञ्जठी । सोद #ंरतड सोवन्न, जो गछ्ि पिरद रूपकठ । दो. मा. रूपकरण-सं. पु.-- १ एक प्रकार क्त घोड़ा । ूपाकातिस्योक्ति [सं, रूपकातिदयोक्ति] १ वह्‌ श्रलेकार जिसमें उर्षमेय के चिनाही केवल उपमान का उपमेय से श्रभेद बतलाया जाय यर्याति उपमानके कयन हारा ही उपमेय का वौघ कराया जाता रूपकार-स. पु. [सं सूपकार] दित्पी । उ०--गीतकार वातकरर नृत्यकार पाडकार तुडिकार्‌ प्रतिकार " "* “* "सूपकार । --व. स. रूपकीस-सं. पु. [सं कीसरूप] १ हनुमान । उ०-१ करां जोड श्पकीस, साम पायनांम सीस ' वं चाट मह्‌'वीर, कुदियौ किसीस ॥ -- र, रू, रुपवकं - देखो 'रूपक' (रू. भे.) उ०--२ वीस मात्र पाये विमल, नवां श्रंत्ि गुरु टेव । रंगमाढठ रूपक्क रा, इरण तक्के रा उवेवे ॥ -च. पि. रूपक्राता-सं. स्वी-- १ सच्ह्‌ ग्रक्षरो' का एक वशंवरत्त । रूपग - देखो “रूपक (रू. भे.) (श्र. मा.) उ०--१ सुकवि "मान शगोकुठ' सुकवि, स्प सुखि वहू रीघ । "गज" होय सुरतर गहर, दोय भाटां लख दीघ । --सु. प्र. उ०--२ भाखा ब्रज मारू सुरभाखा, प्राकृत जनि भर . पायौ रच रूपगां पडो, मेहाही थारी महर । । --वां. दा. उ०--२ श्राखरां समंद थागण प्रथाह्‌ । रूपगां चत्र छती राग। । वि.सं. उ०--४ शूपग जस रधुनाथ, रट समौ गजगत सोय । --र. ज, भ्र, रूपगजोडी ४२१६ रूपह्री = रूपगजोडो-सं. पु-- १ कवि रूपमादी-सं. स्व्री.--€ गुर श्रथवा तीन मगा का वणिक द । उ०--१ प्रमता समंद कडां लग पूगी, श्रोपम मडां ्ररोडां । | रूपमिण-सं. पु. [सं. रूपमरि] १ तारा (ग्र. मा ) जगदाता पोसाक न जोजे, जोजे सूपगजोडां । -- सिवर्सिह मेडतिया रौ गीत | , दतां ० रूपरासिक-सं. पू.--१ चह घोड़ा जिनका पिद्धला वाया पर सफेद रूपधरविता-सं. स्त्री. [सं. रूपगपिता] अपने त्प का गवं या श्रभिमान रूपरासिक-सं. पु.--१ वट्‌ घोड़ा जिमका पिद्धला वया पर सफेद ठी रूपराय-स. पु.--१ चांदी के.समानरंगका घोड़ा । रखने वाली नायिका (साहित्य) (युम) (सा. दो.) रुपग्रह-सं. प [सं.] नेत्र, नयनः त्रख (डि. को.) रूपरासी-वि-- मदर, मनोद्र रूपघर-सं. धु यौ. [स रूपगृह्‌ | १ रूपनिवान, मदर । उ०--१ पिया समीप रूपरात्ति, दामि श्रामि पामियं । भरे प्रकास [सं. सेप्यगृह ] २ खजाना, कोप । लीखदोत, दीपि जोत्ति मासियं । ==सः ॐ: ख्पचतुरदसी, रूपचवदस-सं. स्री. [सं. रूपचतुर्दणी ] कात्तिक वदी चौदस, । रूपरेखा, रूपरेह्‌-सं. स्वी [सं. ख्परेखा ] १ किमी कार्य के संवंघमे चट प्रमूख नरक-चतुदमी । वात जो उसके स्थूल सूप की सूचक होती है तथा उसके संक्षिप्त र्पजोवनी-सं. स्यी. [ सं. क्पजीवनी | जिसकी जीविका कां प्राश्य विवरण कासारंयके रूपमे हौता। केवल रूप (सदय) ही टो, रडी, वेद्या । २ वहु ग्र॑कन या रेखाश्रों दारा श्रंकित चित्र जिसमे किसी पदां रूपटियो--देखो “द्पयौ' (ल्पा. रू. भे.) के श्राकार प्रकार कास्यून जान रेवां त्रादिकेष्पमेंदहोताटै ! उ०्-वैर गममं फेवरियौ लाद वै री पगड़ी मेंरोकट् स्प- स्पल-सं. स्वी-१ देखो 'रुपौ' (रू. भे.) उ०-- १ माक फिरे ज्यू पनड़ी वाज, फिर काकियौ डोरी । प्रो पाणी भरे घड़लियां, श्रागे हाले धोरो । रूपल रेत रं । सयौ । --लो. गी. रूपणं. पू. [सं. रूपणम्‌} १ ग्रासंक्रारिक वणन । २ अन्वेषण, श्रनुसंधान । -चेत मनी रूपण -वि- स््री.--रूप वारण करने वाली । हपवंत-वि, [स सुपवद्‌] (ल्मी. खयवती) १ भुन्दर, मनोहर, सू- ५1 सूरत, रूपवान ! उ०--१ दया रूपी दिवलौ करौ, संवेग रूपणी वाट । समगत ज्योत ग 0 0 ० उजवाल ले, मिथ्या श्रंवोरौ जाय फाट। --जयवाणी < --कुःवरसी सांखला. री वारता र<. भे.-- रूपनी, सू्पिरी । उ ०-२ नेड्‌ मंढलि काई नारी रूपवत हूय राज कूर्मारी । ख्पदे-सं. स्वी.--देखो श्पारेल' (स. भे.) , - टो. मा. उ०--मुरवी दिसां वृषी, रय वृघटठी भयंकर । चड़ खूपदे २ शरीर्वारी । सवद, तरल मुरजा सर्हातर । --पा- प्र. रू. भे -रूवव । रूपधर-वि.- सूप धारण करने वाला 1 रूपयती, रूपवती-वि, स्वी. [मं. रुपवती ] १ सुंदरी, सुंदर । रू. भे.--स्वधर 1 उ०--१ द्रपदी वह्नि नदं तदि वइटी, क्षिवासण वतीसी ख्पवंती र्पनाय-स. पू--पाव्र राठौड़ के गुरु का नाम । तिण॒ कीचक दीढी | --सालि सूरि उ०--रूपनाथ गुर्‌ 'पाल' रौ, सुणी यसी म्ह स्यात । -पा.प्र. उ०-२ उचज्जण नगर महाराज वीर विक्रमदित्य राज करे! उण 1 न 1 १ रूपका भण्डार । रं ह्र एक कटठावत श्राय । तीं के साय एक परम रूपवती स्त्री उ०._ नमौ कर्एाकर रूपनिधांन, नमौ स्त्र संतत तो मुभिर्याण॒ । परर एक परुत श्री । --सिघासण वत्तीसी --ह. र र<. भे.- स्ववद्‌ । [ रूपव-सं. पु.- १ सगीतमे सात माव्रश्रोका ताल चिप । रुपुफः ं द्धा वीर्‌ 1 ड. नां. मा. § ज-सं. पु. १ यद्ध, ( ) रूपवन-सं. पु--१ चदन (नां. मा.) ख्पमांन-वि. [सं. रूषवान | १ सुंदर, खुवसूर्त । रूपवांन-वि. [सं. रूपवत] १ मुंदर मनोटूर स्यमारा-सं, स्त्री.-१ एक मात्रिक छद जिसके प्रत्येक चरण म १४ | रूपसिहोत-सं. थु.-- १ राठौड़ वंश की एक उपदा ठ दाखायाट्सथशाखाका ग्रौर्‌ १० के विराम से २४ मात्राय होती 1 व्यक्ति ल्पनाठा-नीसांणी-सं. -स्त्ी.-१ प्रल्येक चरण मं ३२ माश्रायं रूपली -सं, स्वरी. [सं. ख्यश्री ] १ संपूरणं जाति की एक संकर राभिनी १६ पर यति वाला मात्रिक छंद विदोष । | रूपह्रो-वि.--१ स्पकौोवनीया जिसपरल्पाचदादहृश्राहो। वि. वि.--दसका दूसरा नाम हंसगत मी दै 1 | उ०--१ घोड़ा सातसौ श्रव समदा भंवर, गंगाजदछ संजवं कुम्मेद र्पांण 1 २ २ © रूपौ .._ .__ ~ ~~-~----~--~-------~~--~------------~----------------~--------- ~~~ ~~~ ~~~ 1 ग्रौर गुलदारी फुलवारी तयार कराया, त्यांर सुनहरी, रूपहरी साग सात साज सरजाय। । --जलाल ब्रुवना री वात र्पांण --देखो^र्प' (मह्‌. रू. भे.) उ०-१ भ्रूल न ज रवद्छी एह सपांण । रुपा देखो ^स्पावत' (₹. भे.) रपाजीवा-सं. स्त्री. [सं.] १ वेश्या, रंडी । (अर. मा.) उ०--१ तिण़ रौ एकं सक्रार तदि, जांमिप वय घन जोर । रूपाजीवा स्री, जिख मुखियौ भ्रति सोर । --वं. भा. र्पामाली-सं- स्वी. [सं. स्प्यमाक्षिक्रा] १ एक प्रकार का खनिज पदाथ “ जो प्रायः ग्रौपधियों में भस्म सना कर्‌ प्रयोग लिया जाता है । --गजं उदार (श्रमरत) रुपारासत- सं. स्प्री.-१ दक्षिणा दिला श्रौर श्राग्नेय दिश्लाके मध्यकं दिया 1 उ०-१ दद््ारी जाती सहर था कोस ५ द! केवड़ारीनाठ सहर सूं कोणा सूपारास मांह द । -र्नरासी उ०-२ वृंदी कोम ६५ तथा ७० उगवण था क्यूं ई डव्री रूपा- रासमे। --नणसी ्पारेल-त. म्प्री.-१ पक प्रकार की चिडिया विदोप जिसके यत्राके समय शकृन {ए जते है । ₹<. भे.--रूपदे । २ ग्रीष्म क्तु में च्तने वाली तेज हवा याभ्रांधी के कारण उड़ने. वाली गदे । ३ वातचक्र । ट पालह्री-स. स्व्री.--१ स्वयो के धारण करने का आभरूपण विशेष । (व. स.) सपाट --१ देयो '्पाटो' (मह. 5. भे.) उ०- १ ग्रच्छर घणा रूपा किनोलां, कोल करंता । मादौ श्रागद यन्न, सुभागी चौढ भरता । -मेष स्पटी-विः [स. सूपं +प्रालुच्‌] (स्त्री. रूपाटी) १ सुन्दर, मनोहर ) उ०-- १ सूपाद्टी रधियांमणौ, घौल्ागिर रौ थान । तर नीभरण मकर चठ, भिग्र्‌ मेर स्मान । --दुरगादत्त वाहुरठ उ०-- २चिल्केसोनेरा चीलिरिया, वधगी या ङूपाटी पाल कुपनौ मिःशरौ टृन्िय राज, गुदक्छ्ती चग श्रममांनी दाल --सांज महू. सपाट श्पायत-गं.पू.-रठोदट्‌वंघे की एक उपलासायाड़स यासा का व्यक्ति) लपिका-मे. स्त्री. [स] स्वेन पुष्पका मदार का पौघा | (म्रमरत) ग्व्रिणी-म. नप्री. (म. म्पिमसी ध्रा. स्प्पिणी] १ श्री कृष्ण करी पत्नी र्पिमफी । उ०--९ प्ररे मदूनूदनु जउ म भरा, र्पिणि वयग सुगो नेमिकूमय, मुह्‌ वभु पाणिग्णहृणु मनवे । --ममयुर उ९-२ पेयो पटूतड महि वमतु, प्रतउर वेट । वहू परि केमवु नेनि मटिनुं ठन देति करद । रांशिय दपि पमृह्‌, दुनुम प्राभ- | . दहाजर करं द्धै श्रे | स्पो-पं. पु. (मिं. सूप्यं] १ चोदी, रजत, रूपा । रणा करति, नियवर देवर देह नेह गहिकि मंडतति । --जयसिह्‌ सूरि २ देखो ˆरूपणी' (र. भे.) रूपी-वि, [सं.] ।स्त्री. रूपणी रूपिणी) वाला । सद्य । रूपाय --देखो 'रूपयौ' (रू. भे.) उ० -ग्रटं श्राय वधार्ईदार ्रोटी जाग. मेलीयौ सो जाय पोहुतौ । सारा समाचार खीवसी जीन्‌ क्या, सो सुरा सादियांसखा वजाया वांमरां नूं रूपीय दीया, भोजन करायौ । --क्‌वरसी सांखला री वारता १ रूप या ्राकार प्रकार २ सूपघारी, सुंदर, मनोहर! ३ तुत्य, समान, रूपु -१ देखो 'रूप' (रू. भे.) उ० -कतादिवि नउं लिविउंसरूपु देखी ` चि्रांमि । मोहिड पु नरिदु चति ग्रति लीव कामि । --सालिभद्रे सूरि २ देखो 'रूपौ' (रू. भे.) रूपद्रिय-सं. पु. [सं.| नेच, नयन, श्रांख । रूपेटो-सं. पु. (सं. रुप्यं +-रा, विशेष । उ०--१ वीजं हस बोलतौ, जद, घणां दिनसूं मिलत । कुसटा- यत्त पद्धतौ, श्रमल स्पेटां गछतौ । --श्ररयुण जी वारहट रू, भे.--रूपीटौ प्र. एटौ] चांदी का वना प्याला १ । च रूपेरण-सं. स्त्री.--१ वहं तलवार जिसकी मूठ पर चांदी की पतली तह चदी हो । -रूपेस्वर-स. पु. [सं. रूपेद्वर] १ एक शिव लिग । रूपेस्वरी-सं. स्त्री.-१ एक देवी का नाम 1. रूपयौ -देखो ^रूपयौ' (रू. भे.) उ०-करतव नह्‌ राजी क्षण, राजी स्पयांह्‌ । कंडवौ दासन कूटं- विय, प्रामणडां प१३यांह्‌ । --वां. दा, रूपोटौ--देखो 'खूपेटी' (<. भे.) उ०--१ कुवरजी सुरत देख देख थकत हवै छ । वडारण कन्हं खडी पवन कर्यै । इतामें कूवरसी वडारण नृं फुरमायौ जो रूपोटौ मे पांणी धाल ल्याव। --कवरसी सांखला री वार्ता उ०--२ दण भतिरी भांग काद तयार कीजं छं । कसू्रानूं होत्तनायक पवन करै, सूरूपोटांमें चियां खवास पासेवांसा --रा. सा. सं, (ग्र, मा. नां. मा, द. नां. मा.) उ ०--१ ऊंची नीची मरवरिया री पाठ जठ नं उजद्धौश्पो तीपजे 1 षट्पौ सोहे पद्रूजी धणी रे पाव, म्श्राछार्पीडा मे ू्पौ रूबकार ४२९१ र्व हद सोहे । --पावू रायवठ उ०--चडे उजवकी रौद्र रूमी फिरंगी । चड मुगढ पद्ंण संद उ०--२ वीजो दस्यति । कि तार केहतां रूपौ हृड्‌ । किना इ संगी । --गु. रू. वं. ताराद्) -वेलि टी. । समीभुरौ-सं. प.--एक प्रकार की तलवार । २ हस) रुथ--देखो “रूप' (रू. भे.) ३ दवेत वां का अ्रदवं । उ०--जन्ह्‌ तरिदह्‌ केरी धय, गगा नामि रद्‌ प्रम ङ्य ऊट्‌ नरवड रू. भे. - रूपल ! सामुहीय । --सालिभद्र सूरि ४ देखो "खूप' (र. भे.) रूयडो- देखो ^रूडौ' (र. भे.) उ०--उग्रमेन-राय कन्याका, रे राजमती वहु सूपौ । सील युगो उ०--१ रहणो स्यड़ौ ध्यान रे । (धरम पत्र) करो सोभती रे, चतुराई वहु चृंपौ । --जय्वांणी रूबकार-सं. पु. [फा.] १ अदालत मे उपस्थित होने का भ्राजा पत्र । श्रादेश-पत्र ! २ सामने उपस्थित होने की किया या भाव । रूबकारी-सं स्त्री. [फा.] १ मुकटमे की पेक्षी या कायेवाही ! २ किसी के सामने उपस्थित होने की क्रियाया भव! स््ररू-क्रि. वि. [फा.] १ प्रत्यक्ष, सामने, सम्मुख) उ०-१ श्रु मालमं करवाया पातसाहनी र कू्वरू दारासाह नू हाजर किय । जांखणियौ राजी हसी । --द. दा. स्म ~स. पु. [फा.] १ एक देदा का डम) ग्र.] २ कमरा, कक्ष 1 ३ देखो “सोम (रू. भे.) उ०--ग्रवर्‌ ही इणरी गारी एक एक वातत रूम स्म जीम ट्वं नें जये दिन रात । --र. छ. रूमा-सं. स्वी-- नमक की खान। रूमाल-सं. पु. [फा-] हाय मुंह श्रादि पोर्न के काम श्राने वाला कपड़े का चौकरोर टकड़ा जिसकी किनारे ्िली होती । हाथ में याजेवमेरखा जातादह) उ०--१ ढाल खंवं ठठ्कती, मूठ तरवार ग्रहौ कर । कर दूज रूमाल धके कामी डोर धर । --पा. भ्र. उ०--२ भेली सुंदर गौरी धोड री लगाम, त्रसू तौ पुचिया हरि- ये सू्माल सू 1 -सो. गी. २ पायजामे की सियानी 1 रूमाली-स. स्त्री.-- १ एक प्रकार का छोटा रूमाल । २ संगोर । स्मी-स. स्ी.--१ एक प्रकारकी द्री । (जो रोम की वनी होती है +) उ०--दरधां सूं यणीजं चमू इरी किण भांतरी छ । पेप्कवज चफचकी रूमी विलायती स्यानां माहा काठने च । --खीची गगेव नीव्रावत रौ दौ-पह्री स. पू.-२ घोड़ा (23. को.) ३ रोमदेशका घोड़ा । उ० --हुरम्मजि केची मुकरांसी खंघार हरेवी खुरसांणी । प्रारव्वी रूमी उजवक्का, समहदी सभर केदक्का ॥ ग. रू. चं. ४ रोमदेश का निवासी, व्यक्ति । उ०--२ नेमी पररोवा चालिया, म्हारी सहियर सूयडो जादव जान हे दछप्पन कोड़ी यादव मित्या म्हा. श्रति घणा ग्रादर मान हे! --स. कु. उ०-- ३ इन्द्रांरी गायद गीत हे, बाजा वाजंइ्‌ ग्रति धरा म्ह. र्यड़ी सगण्ी रीत हे । -- स, कू. (स्वी. ख्यड़ी) सूय, रू्यडौ -देखो 'रूडौ' (रू. भे.) उ०--१ नाभि-विवर ग्रति ख्य, उपरि त्रिणि प्रवाह । मुनिवर माघ प्रयाग माहा, जे नाहिडं ते नाहि) --मा. कां. प्र. उ०-२ धनवंतरि तुभ थि ख्यडी, विरूढ टली विकधी 1 संग था तइ सरजि उ सनि, सुरतं करति समाधि । --मा. का. प्र. रूक्-सं. पु [भ.-] १ लकोर खींचनेकाङंडा। २ उक्त डडेके सहारे से कागज पर खीची शई सीधी लकोर या रेखा । ३ कायदा, नियम ४ देखो ^रीठ (रू. भे.) रूढणी, रूठवौ- देखो .रुटणौ, सुठवौ' (रू. भे.) उ० -- लक्ष्मी तणड भाग्य, श्रमनि देवता नौ वान, रूपिणि उणयं सस्थान; कंठ नवस्रहार रूकतदं, जिम दीटी चित्त मांहि पदी, इसि वाला । -व, सु. रूढठदार-वि.- १ निस पर लकीरे खीची हूर्ई हो । रूत्रियोड- देखो .रुच्टियोड़ी' (रू. भे.) (स्त्री. रूल्ियोडी ) ख्छीयारो जोड-वि.--१ भटकने वलि को प्रश्रय देने वाला, विद्व हुए को मिलाने बाला । उ०--लाखां रो लोड[उ रढीयारो-जोड राकां रौ माठवौ ्रधरि- यां रौ घणी । --वीरमदे सोनगरारी बात रूको-सं. पु--१ छोटा वातचक्र, वगरूला । २ कमर व पेरों के विकृत हो जानेस ठीक न चलने वाला व्यक्ति । रूव--देखो "रूप' (ङ. भे.) उ०-जइ पड़ठिसि भास" जिणिद वसि, नाणवंत निम्मल रयणा । न सु घणुहरु वाण न रू नहि न ख्य पियुं हद्‌ हृहमयण । --कविपल्ह्‌ रूवड्उ, रूवड्ो, रूवडउ, स्वडौ-देखो 'रूड्ौ' (र. भे. ) श्यप ४२२२ रे ~~~ ---- --~-- ~ ~ - -~~--~ उ०--१ नयनी स्पमें रख्वडौ कोट कोसीसांप्र॑तन पार्‌ । देवर ट स्यट्र प्रहित जोवटह पौली पगार । उ०-र कुमरी रूपै स्वीये धर श्रगरा वटी. 1 दीठी राजा सेल तिय तिणा चित्ता पेटी । --वु. स्र (गत्र, स्वदी, स्वटी) रयय--१ देमो 'र्पवत' (स. भे) (जन) स्वधर्‌- ९ दमो (ल्पधरः (र. भे.) (जन) स्वयदह-- दमो 'स्पवती' (रु. भे.) (जन) रप्र. पू.-- £ एरिया के उत्तर में फला हृप्रा देग । उ०--मिनयां घणां न मान, मान रहे हैक] मनां । जीतौ जुव जापान, स्स तरो बढ राजिया । --फतंकरणा उज्वठ २ दन्यो स" (र्‌. भे.) स्सणौ देगो 'रिमिणौ' (र. भे.) उ०--१ सूप'टतरीज मांणकर, जितौ ज प्रादे वरुण । घडी घटी र शसणी, तू मनासी कूणा । -- प्रात उ०--२ जोधन गयौ म भली दुष्ट, सिररीटटढी वलाय । जण जगी री स्सणौ.श्रीदुख सदह्यौन जाय। ग्रज्ञात उ०--२ माया री वात सुण्यां मेठजी न निवाम मिदप्रौ । वानत फालम्‌ दीम ज्यू दीमनौ हौ. मैः जनिद्यमीजी न दरूजी ठौड्‌ प्रावदहैला नी 1 नद प्रक दिन नार्‌ ग्री रसणौ क्यूं करौ | --फुलवादी रमणो स्सवौ--देमो "रमणी रीसवौ, (रू भे.) उ०~-नेती चोढा म मनमोठा में, रौद्रम व्टंदाहै । प्रकवांन परम गछ समं फरगट्‌ मुप फकंदा द) --ऊ का. म्रणहार, हारौ (हरी) स्सणियौ -वि० 1 स्िश्रोषटी सतियो स्स्योङी--भू० का० गृ०। स्सोजणो श्सीजयौ- माय वा० । श्री-वि.--म्मदेयणा। ग. पर.--१ मदे का निवासी । (व्यक्ति) ० समदेध्फी मापा । ष्ट-स. म्यी, [भ्र.] १ श्रात्मा। उ - १ जीये तेल विलन्न म, जीये गंध फुलन्न । जीये मामन धीर्‌ भे, घ्य रव्य र्हुम्न 1 --दादूव्ाणी उ०-- द्ये रव्वम्हुन्न,मे जीये रहु रगन्नं । जीये जरौसूरमें ठडो चद्र यमन्न) देवरी 2 प्राणायायु | २ केप यार्‌ काम्यया हम्रा भ्ररक 1 ८ अदयार्‌ यत व्रट्न पयित पू्नोमे नाया द्रम रत्र) ५, ग प्रकर कौ मस्द्ी वित्तेप 1 राध -- दशी शविरः (ख. मे") २ --ग्रमाद् एणा मगा दधी । रहुराट दृः कर परा गी । --पा. प्र, --वी, दे. | रूहाड-देखो ^र्हाड' (रू. भे.) उ०--१ जे खाविद निराठ भ्रावरूसूं राखिया, पेट काठ घपाया मारवाड री रूहाड़ मिट गई, तिखमुं इण माहिलौ कोई रहे नहीं । --्रमरसिह गजर्िहोत री वात रूहि--१ देखो रुविर' (₹. भे.) रूहिचाठ-सं. पु--- १ एक प्रकार का घोड़ा । र<. भे.--ख्टीचाठ । रूहिर-देखो “रुचिर' {<. भे.) रूही- देखो ^रुविर' (र. भे.) रूहीचाद - देखो रूहिचाद्ट' (र<. भे.) (ना. डि. को ) रगणो, रंगवौ -देखो "रगौ, रगवौ' (रू. भे.) रगणहार, हप्र (हारी), रगणियो-वि० । रगिग्रोड़, रगियोडौ, रग्योड--भू० का० ० । रेगीजणो, रंगीजवौ --भाव वा०। रेण-देखो 'रयण' (<, भे.) रेखको-देणो ,रणकी' (रू. भे ) रेण - देखो "रेणु! (रू. भे.) , र्रप. स्व्री.--१ विना मन के लङ्क (चोरे वच्चे) का धीरे ध्यीरे रुदन । २ घकभक । रवत-देग्बो "रेवत (रू. भे.) उ०--रेवत चदन रांमडा श्रावं ग्रालमटा । (रू. भे.) --पी, ग्र. रेवतियां--देखौ ^रावतव्रियां रेवती--देगो ^रेवती' (र. भे.) रेयह्टर-वि---श्रघीन. मातहत । उ०--सेन मेल मिव पुरी, फौज वेर धांसोहूर । जत दत्य कटि मत्य, स्राथि भाटी रिण घोयर्‌ ' कटि इम पटिगी रे (ण.), धणी श्रहुार्‌ भिरंदर । लाया षाड रकेव, कीघ मदछरीक रंहुवर । राठौढु्‌ कुरर पक्र रवंद, कवण (क) समवड करं । जमदाद्र छोड विज्जं लई, कना राड श्ररवह्‌ ₹ं । -गु. र. यं. रे-मं. पु.-१ निद्रया नीच कार्यं । २ मुखर । ३ मेद कष्ट । ष्ट नभ । ५ काग, कोौश्रा । (एका) प्रच्य - सम्बीधनात्पकः श्रव्यय, श्रे 1 उ०--१ रे! मठर्पी जा परौ, पिणवट पाट ऊठ! कोट मार चलावक्षी, भेर जोवन फी मूट। --श्रसात 2० --२ वीजदिवां चह्‌ना वहनि, ग्रामट श्रानष्ट कौटि। कदरे रेकारौ ` ४२२३ रेख व क रेकारौ--देखो ^रेकारौ' (रू. भे.) रेव-सं. स्वरी. [सं. रेखा] १ लकीर, रेखा । असीपे प्राकृतिक चन्दे जो मनुप्य के भावी जीवन कै गयुभ ग्रीर श्रणुभ फल वताने मे सहायक होते ह । मिट्ञढी सज्जना, कस कचूकी छोडि । --टो. मा. उ०--३ वलि वंव- समरथि रथे वेसारी, स्यामा कर साह सु- करि 1 बाहर रे बाहर कोई छ वर) हरि ह्रिणाग्वी जाइ हरि । - पेलि ह. भे.--रद, रि । उ०--१ तमा, तमाई मत कर, बोले मह संभाठ । नाहर श्र रजपूतने, रेकारं री गाठ । --ग्र्ञात उ०-२ को स्वभाव रेकारौ वदै, चटकी तुरत चढत । वरोध विसेध यचारू केता, श्राव किम भव श्रत 1 ---घ. व, ग्र. उ०-- १ छकी हीरां मदन छकि, वण बुध सदन वीमेख । चंद वदन मुटढकण दमक, रदन तडत फी रेख । ---वगसीरम प्रोहित री वति उ०--२ सांवण श्रावण कह गया, करग्या कौल ग्रनैक 1 गिणतां गिरातां चिस गई, ग्रगच्ां री रेख । --प्रग्यात २ मनुप्यकी हुयेली या परोके तलवे मे वने हृए टे मेदे श्रथवा उ०- श्रमोल तोल मोल कँ प्रचोल चो्ध ग्र॑ल के, ग्रडोठ डो कथ रा रसाल छत्ति मू्थरै, रहै पदग्ग रेल तं मु देख त श्री उर । ॐ. कृ, 1 ३ मूल्य, कीमत । उ०--तद सत्रुसाठ कही- महाराज माफ करौ, मोन हुकम दीजं दूतरी सुणएत सुवां श्राप वोग उठाई सौ बेराणी समसेर नांम घोड़ी स॒वारीमे थौ, वडी रेख रौ वड घोड़ी यौ । महाराजा पदमतसिहजी री बात % श्राय, ्रामदनी 1 उ०--१ सींधल वाघौ वीदा रौ वीदी मूजा रौ, सूजौ सीहा रौ, सीह भंडा री गाव कवलां । १,५००) रेख । ---व, दा. स्यात उ०--२ सींघल सांवलदास मांनसींहावत रौ । १०,०००} रेख । | --घा. दा. ख्यात उ०--३ संवत १७१४ उजेणी री वेढ पूरं ल)दै पडियौ पैल उषा- ड्यौ 1 परध स्ीजी चणौ न्रादर्‌ कर पटौ रू० ८०००) रेख लवेरौ घणा गवास । भोपाठ वधारं दी । --नणसी ५ राजस्थान के जांमीरदासें से जागीर की निदिचत श्राय पर लिया जाने वाला कर विष्ये 1 भि वि०- दस करका रिवाज सवं प्रथम ्रकवर वाद लाह के समय चला धा । इसलिए मारवाड राज्यान्तगंत यह्‌ कर स्वं प्रथम सवाद राजा शूरसिहजी के समय . चला । उन दिनों जागीरदारों को मारवाड नरेशो के साथः, वाद- दाही कार्यो हेतु मारवाड से बाहर गुदो में भाग लेना पड़ता था । इसी लिए उनसे "चाकरी" (सेवा) के ्रलावा किसी प्रकार का ्रन्य कर नहीं लिया जाता था। राजपूत सरदारो को जागीर देने का मुख्य प्रयोजन यही था कि वे महाराज कीतरफसे युद्धम भागलेकरशत्रुको दण्ड देने में सहायक हों । किन्तु विजयरसिहजी के समय मारवाड का सम्बन्व मुगल वादशाहत से द्रट गया ग्रौर ठीक इसी समय मरहटों का उपद्रव उठ खडा हुग्रा, उस सरमय दस नवीन उपद्रव को दवाने हतु जोधपुर दरवार कोश्ूपयों को प्रावश्यकता प्रतीत हई । इस लिए महाराजा श्री विजयसि्जी ने वि. स. १८१२ मे जागीरदारों पर वाहर युद्धो में भाग लेने के वदले प्राप्त श्रामदनी पर प्रति हजार तीन सौ रुपयों के हिसाव से "मताः लवा' नामक कर लगाया गया । यह्‌ कर कड वार लगाया गया मगर इसकी दर उ सौ से कम श्रावश्यकतानूसार घटती वढती रहती थी । ग्रौर डेढ सौ से कम प्रौर पांच सौ से श्रधिक कमी नही लिया गया था। महाराजा भीमर्सिहजी के समय कर प्रतिहजार्‌ तीनसौ रुपयों के हिसावसेदो वार वसूल किया गया था । महाराजा मानरसिहजी कै समय जयपुर कौ चढाई के पचात प्रमीरखां को स्पये देने हेतु प्रतिहजार तीन सौ स्पये के हिसाव सेलगाएुग्ये । यहीकरररेल' के स्पमेंवि. स. १८६४ से राज्य के विशेष खच हेतु हर पांचवे वपं प्रति हजार दो सौसेतीन सौ रूपये तक जागीरदारी से लेना एक नियम सा घना दिया गयाथा । वि. स. १८६६ में पोलिरिकल एजेंट कौ सलाह से प्रति वषं प्रतिहजार की जागीर पर प्रस्सी रूपये रेख स्वरूप लेना निदिचत किया गया । किन्तु एक दो वषं वाद जागीरदारोंने देना बन्द कर दिया । चि. स. १६०१ मे महाराजा तखतर्सिहजी के समय महता लक्ष्मीचन्द नै "रेख" कर वसूल करने का प्रवन्ध किया । किन्तू इसमे सफलता नही हई । अनन्तम वि. स. १६०६ में पचोली यनसरूप ने जो उस समय फौजदारी श्रदालत' का हाकिम था, महाराजा की श्राज्ञानुसार जागीरदारों से प्रति हजार भ्रस्सी रूपये प्रति वपं रेख स्वरूप देने का दस्तावेज लिखव लिया । जिस पर पोकरण, श्राउवा, भ्रासौप, नींवाज,रीयां श्रौर कुचामनकेसरदासें ने दस्तखत किये । । यद्यपि 'रेख~ कर मुत्सदियों व॒ खवास पासवान श्रादि से भी लिया जाता था मगर उसकी शरहु (दर) भिन्न थी। ६ प्रतिष्ठा, इज्जत, मान । उ०--खीजीया यवन ल्यं जींजीया सुटि, वेचलां वीजीयां रत खाली । प्रण जोघांण र पाजीया पीजीया, रेख ॒"दुरगदास राटोड' राखी । -ध.व, ग्रं (क "व्यौ ~~~ ~+ ~~ रेखग २२४ रेगिस्तान ` ___----------------------_----__-______ ७ सीन्दयं श्रथवा नेत्र हितां नेत्र मे वनाद्‌ गई काजल कीरेखा या लकोर। उ०-काजछ भिरि धार रेख कानछ करि, कटि मेखला पयोधि कटि । मांमोलौ विदुलौ क्‌ कू मे, प्रथिमी दीध निलाट पटी । --वेलि उ०--२ वीजचछ्ियां चहछावहटि, ग्राम श्रामई भ्रेके । कदी मिम्‌ उण सादिवा, कर काजल री रेख । --श्रग्यात ८ प्राकार, भ्राकृति, सूरत । उ०--१ निरालंव निरलेप, जगत गुर प्र॑तरजांमी । सूप रेख विण राम, नाम जिण रौ घरनांमी । --मे. म, उ०-२ गोचरसूपन रंगन रेख, ग्रगोचर श्रमृत चूप ग्रलेख । थिरा नम थावर जंगम धान, महा पद प्रापद मानि श्रमानि। --ॐ. का, & सीमा, हृद । उ०-टतरं जाटां रौ राज तौड कंवरजी वीकंजी, वा कांषठजी वडौ राज वीकनिर रीवांच्ियी 1 सरवरेख हजार तीन गावांमे फेरी 1 --द. दा. १० भाग्य, प्रारव्व। यौ.--करमरेख 1 ठ०--जो रचना जगपत्ती, लोते श्रा श्रमं चरयलोकं सौद सत्य सद्रढरेखा सार भ्रंकं रजपत्ती । --रा. रू. ११ देखो-*रेखा' (रू. भे.) र<. भे.--रेह, रेहा रेखग-सं. पू.- दिर, मस्तक । उ०--“सूर"“ तं सुरसरी तण सर, मांनव विहंडिया वजाव मार । रण॒ रेखग मेद्ठा कर रचिया, सिव धर घर सिवपुरी ्िणगार --किसनी म्राढी रेवडी-देखो -- रेखः (ग्रत्पा 5. भे.) उ०--काटी रे काटी काजव्ियिरी रेखड़ी हां जी रे काठोडी काठ में चमके वीजटी । --लो. गी. रेवती-सं. पू. (फा. रेखतः] एक प्रकार की कविता या -षटन्द रचना जो खुरी दारा प्रचलित की गई है। वि. वि.- इसमे फारसी श्रौर भारतीय छन्द शास्यो की श्रनेक चातों (तान, लय श्रादि) का स्मिश्रण होता था। रेलौ--देसो ^रकन्टौ' (रू. भे.) उ०-१ कमाण रौ भ्राडो हाथ सूं पकड़ उठाय ऊंची ग्राम्ही सम्टी फेर देख उहीज वखत रेखन में मेल्हं दीन्दी । --ठकूर जेतसी री वारता उ०--२ लाम मृंडांकीरे हुंकाई तोप दिल्ली रे वादस्या, श्रौ पलां री रे जुजुरया रेखा । नीः गीः | रेखांकन-सं. पु. [सं. रेखा -{-ग्रंकन ] चित्र वनाति समय चित्र को रूप- रेखा वनाने हेतु रेखाएं भ्रंकित करना । रेखांकित-वि. [सं. रेखा --प्रंकिति] १ जो रेखाग्रो से वना हुम्रा हौ । २ रेखांकन किया हुभ्रा हो । रेखांस-सं पु- [सं. रेखा +-प्रंश] १ देशान्तर (भुगोल का) । २ यामोत्तर वत्त का कोद भ्रंश, द्राधिांस । रेखा-सं. स्त्री. [सं] १ लवा श्रौर पतला वनाया हुश्राया श्राप ही श्राप वना हुश्रा चिन्ह, लकीर ! २ किसी ठोस पदाथं के तल पर बनाया हुश्रा लकीरनुमा चिन्ह । २३ वह्‌ कतिपितत लकोर जो प्रारम्भ में भारतीय ज्योतिषी श्रक्षांस सूचित करने के लिए सुमेर पवंत से उज्जयिनी होती हुई लंका तक खींची हुई मानते थे । वि. वि.-देखो ररेख्रामूमि' ! ४ गिनती, ञयुमार। ५ देखो रेख' (रू. भे.) रू. भे.--रेहा । रेखागणित-सं. स्त्री. [सं.] ज्यांमित । रेखारूमि-सं. स््ी-- प्राचीन समय मे श्रक्षांस स्थिर करने के लिए सुमेरु पवत से उज्जयिनी होती हुई लंका तक गई हई रेखा के्श्रास पास पड़ने वाला प्रदेश या भ्रुमि। रेली-म. स्व्री.--रामदेवजी के ्रनन्य भक्त भांभी (रिखिया) जाति की स्वी उ०--वारट भरोग्वे विस, कादम हदं कोटि । रेखी वटी राज मां, रांणी करिसं रोट । --पी.ग्र - रेग-सं. स्त्री. [फा.] वालुका,रेत, । रेगर~सं. पू.-- १ चमडा रंगनेका कायं करने वाली एक श्रनुसूचित जातिया इस जाति का व्यक्ति विशेष । (मा. म.) उ०-र गंवि गयो ग्रह रेगर.के गल, वंध गयौ ्रहू्ेध विगास्यी । पीनसकाय के पास कपुर, घस्यौ कवि ऊपर तौ ह्य हास्यौ । - ऊ. का. उ०--२ रगीलौ चंग वाजणु म्हारं वीरेजी मंढायौ चंग वाजगू । म्हारो रेगर मंउक्र लायी प्रे, रंगीली चंग वाजणु । -लो. गी. वि. वि.--१ देखो-जयियौ' (२) ये कहीं चंग भ्रादि मढने का कायं भी करते है 1 <. भे. रंगर रेगिसतांन--देखो--रेगिस्तानः (रू. भे.) रेगिसतांनी-देखो--रेगिस्तांनी' (रू. भे.) रेगिसथान-- देखो--'रेगिस्तांन' (<. भे.) रेगिसयानी- देखो - रेगिस्तांनी' (रू. भे.) रेगिस्तान-सं. पु. [सं. रेगिस्तान] १ मरस्थल, परभति, रेगिस्तानी इु्लरकिं 1 रू, भे. रेगिसतान, रेगिसतथांन, रेजिस्थान । रेगिस्तानी $ ५, रेगिस्तानी - वि. [फा. रेगिस्तानी] १ रेगिस्तान का, रेगिस्तान से सम्बन्धित । रू. भे, रेगिस्थांनी रेशिस्थांन--देखो--^रेभिस्तांन' (रू. भे.) रेगिस्यानी-देखो--रेगिस्तांनी' (रू. भे.) रेडणीौ, रेडबो-क्रि- स.--१ वहाना, टपकाना । उ०-- इम सिखांमण देई करी, रंणी कुटुंब क्वीला केडं रं । दीर वादी पादा वलया, मोहै आख्या आंसू रेड र। । --जयवांणी २ गिराना, डालना, उडेलना । उ०--ताहरं मालदं दीलौ । सू प्यालौ सयणी मालदं नूं दियौ । ताहसं मालदँ प्यालौ लियौ सयणी रं वास्तं । ताहसं मृ लायो वीजौ वागे मांहै रेडियी । --सयणी री वात ३ भगाना) उ०-१ छके जोमसुं जाय जमरराणसा छेडिया, लड़ श्रि रेडिया चेव लागा 1 मिडे भाराय ्रणपार दठ भाजिया, वीर भागौ नहीं सारवामा । --र. रू. उ०--२ टाक काठ रूपी डाच उवेडं कटार उद्वां, मीमनाद भेडं रेड अगयंदा गंभीर । श्राह तेडं पेड धीर देवीक्षिष वाला, केडं लाग तुदं दछडं उंखियौ करठीर 1 --गीत कवर दीलतर्षिव हाडा रौ ४ नगाडा भ्रादि वाजा वजाना । । उ०--वानै नकीवां श्रतादढी हाक हरोढां जलेव वघे, उरोणां उछाह्‌ मड करोत श्रथाह्‌ । कौह हाका खड लोग रेड वंव जस काथ, रदूव्छो रोस माथं यड रांमसाह । ` --सूरजमल मीस ५ मवेशीके दल को श्रगाडी हांकना, चलाना । रेडण हार, हारौ (हारी), रेडणियो--वि० ! रेडिश्रोडी, रेडियोडौ, रेडयोड़ो--ू० .का० ० । रेडीजणौ, रेडीजवौ --कर्मे० वा1० । रेडणौ रेडबौ--० भे० 1 रेडाणौ रेडाबौ-प्र. रू.--१ वहवाना, टपकवाना । २ भगवाना } ३ गिरवाना, उलवाना, उडलवाना । $ नगाड़ा श्रादि वजवाना । ५ मेवेरियों के समूह को श्रगाड़ी हंकवाना, चलवाना । रेडाणहार, हासै (हारी), रेडाणियौ-वि° रेडायोडो-भू० का० कृ०। रेडावीजणौ, रेडावीजबौ--कमं वा० । रेडाणौ, रेडावौ, रेडावणौ, रेडाववौ, रेडावणी, रेडाववौ -रू० भे ० । रेडायोडौ-भू- का. कृ.--वहाया हृ्रा, टपकाया हन्ना २ भगाया ४२२१ रेजकी _,~_(_]_-_-_--------~~~ हुभ्रा. ३ भिरवाया हुम्रा, उलवाया ह्राः ४ नगाड़ा ग्रादि वाद्य वजावा हुभ्रा. ५ मवेशियों के भुण्ड को हुकाया हु. (स्त्री. रेडायोडी) रेडाणौ, रेडावौ, रेडावणौ, रेडावबौ--रू. भे. । रेडावणौ, रेड़ाववौ--देखो ररेडाणौ, रेडावा (रू. भे ) रेडावणहार, हारौ (हारी), रेडावखियो--वि० । रेडाविश्रोड, रेडावियोडौ, रेवान्योडो-भ्र° का० ० । रेडावीजणौ, रेड़ावीजबौ--कमं वा०। रेडावियोडौ --देखो "रेडायोड़ौ' (रू. भे.) (म्त्री रेडावियोडी) रेडियोडी-मू. का. कृ.-१ वहाया हृत्रा. टपकाया हुभ्रा. २ भिराया हुग्रा, डाला हृ्रा. ३ भगाया हुभ्रा- ४ नगाड़ादि वाद्य वजाया ग्रा. हांका दृश्रा, भ्रामे चलाया हभ्रा. (मवेश्ली दल) (स्त्री रेडियोड़ी) रेडियौ -देखो ^रेडियो' (र भे.) रेडंबौ, रेडूवौ-सं. प.--१ खराव श्राकृति वाला, विकृत हिदवानी, मतीरा 1 रेचक-वि.[सं.] १ दस्तावर, दस्त लाने वाला । २ फेफडों को साफ या स्वच्छ करने वाला । सं. पु. [स. रेचकः] १ सांस को विधिपूवेकं बाहर निकालने की प्राणायाम की तीसरी क्रिया । । उ०--१ निज श्राठ जोग प्रभ्याल ग्रहनिस, सघं सुरधर जुगम रवि सस । करं रेचक पूरक कभक, वहै दम सिरठंम। -र.ज.प्र. उ०-२ रेचक कतं तारौ कभक ठार, पूरक भ्रांणं फिर पाया । कायान क्रस्टै कामन द्रस्टे, सजक चस्टं सील सती। -पा. प्र. २ जमाल गोटा । ३ विरेचन श्रौपपि विशेष । ४ चचल चित्तकोएकाग्रनया वशमे करने वाला ध्यान 1 उ०- नाभि कमलं थी पवनं निसारया, रेचक ध्यान चपल मन मार्या । घट भीतर किया घट श्राकारा.नामि पवन कभक श्राकारा । -स. कु रेवन-सं. पू. [सं. रेचनम्‌] १ मलस्थली सराफ करने की क्रिया याभाव २ मल, विष्टा) ३ दस्त लाने की ग्रौषधि । ४ इवास बाहर निकालने की क्रिया । रेच्य-सं. पु. [सं.] १ प्राणायाम में वाहर निकालने की वायु । २ जुलाव 1 रेजकौ, रेजगारो, रेजगी-सं. स्त्री. [फा. रेजगारी, रेजगी] १ रुपये के मूल्य भें मिलने वाले छोटे २ सक्को का समूह । २ छोटे सङ्क । 1 ~+ ~~ ~~~ = == ~ ~+ ~ ~~ ---- ~ ~न ~-------- +~ ~+ ~ एकाकाविनीक ा 7 भवकान्‌ रक | छ ककः त्क रेजमाद् ३ चांदी, सोनांके तारके छोटे २ टुकड़ \ । रेजमाल-सं. पु. [फा. रेगमाल | एक प्रकार का काच के युरादे से लपेट खुर्दरा कागज जो लकड़ी श्रादि का श्ुरदरापन मिटाने में काम श्राता ₹। रेजलो-सं. पु.--थकान, थकावट । उ०--तद जलाल बादशाह नूं श्रारोगण सारू माम लायी श्रौर प्रज करी, भामूजी, घोडा सूं खेद हुवौ छ मान्ुम ्ररोगौ जो चेद रौ रेजलौ दूर होवे --जलाल बूवनारी चात रेजीडेट-सं. पु. [श्र.] वह राजकीय श्रधिक्रारी जो ब्रिटिश शासनकाल में देसी राज्यों में वहां के शासन श्रादि पर दृष्टि रखने के लिए ग्रमात्यकेरूपमें रखा जताथा । वासामात्य । र. भे.-रजीडट । रेजीभेट-सं. स्वी. [श्र.] सेना का एक भाग, रिजिमिट । रेजौ-सं. पु. [फा. रेजः] १ वहुमूल्य कपड़ का थान या खंड । २ हायके कते देशी सूत क्रा वना मोटा कपड़ा उ०-गरठा जीमता गटक, भ्रंव नहि भावं वानं । राव रोगतां रटक्‌ जरं नह सीरौ ज्याने। पठता नगे पाय, मोल वड वृंट मंगाव। पट रेजा पटुरता, श्रतलसां दाय न श्राव । श्रनाथी भाग ग्राया श्रै, ग्रातम जां श्रापसी । क्मंघ कैर्‌ लोहु कचन किया, पारस भूप 'प्रतापसी" | --जुगतीदांनजी देथौ ३ सुनारोंका लोहे का श्रायताकार वना सांचा विशेष जिसमे गले हए सोने य चादौ को डलं कर दछ्डके श्राकारका वनाति है। ४ वेश्या वृति कराने कै उह्यसे कुटनी द्वारा पाली पौपी लडकी । रेट-सं. स्त्री. [श्रं.] १ भाव, दर । २ गति, चाले 1 ३ एक प्रकार का वस्त्र विद्ोष। _ उ०---हवड राजा परिवारं प्रति वस्त्र श्रापदु......पटणी परपद पचवरण टीट नील्नवटां कवटां घौत्त वटं मुहिवटं, नारी दोटी घरी करठपीठ पाघडी, वींडी रेट चूनड़ी पातलसाडी । --च. स. रेरणो, रेटव्ये-क्रि. स.- १ धारण करना, पहुनना } उ०--फाली भली श्रोणि भ्रंग रेट्इ श्रावी रही जु तुरणी वरिभटइ । हं देलौ देतां पडी जि खेट, जाणड विदेसी मू कतं भेट्इ । - प्राचीन फागु-संग्रह्‌ २ मिटाना, रह करना । उ०्--लाग वाग रेट कीन्ही, सूट काहुकीन लीन्ही। भ्नारी बुद्धी भीनी, भूती धन्य जस धारी तू । --ऊ, का. ३ श्राज्ञा, नियम प्रथा रीति श्रादि का पालन न करते हुए विरोध करना । रेदणदार, ह्ये (हारो). रेरटर्णणयी--वि° । रेटिश्रोड, रेटियोडी, रेव्योडौ-भू० का० ० । रेटीजणो, रेरीजयौ--कमं वा० । ४२२६ ~~~ ~~ ~~~ रेखाडणौ, रेशड़बौ-देखो 'रेटाणौ, रेटावौ' (रू. भे.) रेटाणी, रेटावो-प्रे. <.- १ धारणा कराना, पटूनाना । २ भिटाना, रह्‌ कराना । ३ प्राज्ञा, नियम, प्रथा, रीति श्रादि का श्रतिक्रमणं कराना । रेदाणहार, हारौ, (हारी), रेराणियौ --वि०। रेटायोडी - भू० का० कु०। रेटीजनणौ, रेटीजबौ - कमं वा० । रेटाइणौ, रेदाड्वौ, रेटाचणोौ. रेटावच्नौ - ₹<* भे ० । रेटावणौ, रेटाववौ --१ देखो 'रेटाएौ, रेटावौ' (रू. भे.) रेटावणहार, हारै {हासी), रेरावणियौ--वि० । रेटाविश्रोड़, रेटावियोडी, रेरीनव्यीडीो--भू० का० कृ० । ` रेटावोजणौ, रेटावौजवौ-- कमे वा० । रेदियोड्धी-नरू. का. कृ.--१ वारण किया हुप्रा. २ मिटाया हु्ा, रट्‌ किया हुश्रा. ३ उत्लघन या ्रतिक्रमण किया हुश्रा. (स्त्री. रेदियोडी) ॥ रेटौ-सं. प.-१ पराजित करने की क्रियाया भाव। उ०--१ भूल लियां धट जांनिया, हयलेवे सेटौ । सावौ श्रवरत साभि मारतम भेटी । फाफां भरे कवलियौ, रूकां वट रेरौ । ४ -वी.षपा. रेडणौ, रेडवौ - देखो 'रेडणौ, रेडवौ' (रू. भे.) उ०--१ तद डोकरी योली-वेटा धणी परी उजडतौ देखि चाकर न कटै, सु चाकर काहिरौ?सुतो हरामखोर! धरणी रौ पारी ईटजं तटं ्रापरो लोह रेड । भ्र ग्रा वात जिमद्धै तिम मालम करौ । --वरसे तिलोकसी री वाति रेणौ, रेडानौ- देखो "रेणौ, रेडावौः (रू. भे.) उ०--१ तद राजा कही, भमोनू तौ तिस लागी हती, सौ ऊपर सुं पणी रा टिवका पडता हृता, सो मँ नीचं कटोरो माडियौ हृतौ, सो दूने ही वरीयां रेडायौ तद म मारीयौ। --वात वृदीस्गणराजारी रेडी-वि.-- १ सिगना, छोटे कृद का । २ देसो--रेदौ (रू. भे.) रेढ-स. स्त्री.--१ जिद, हर । । उ०--सिरदे दारे मदार सिर हक वेड वंदे । संक न माने ओीदरौ नह्‌ रेढ खसंदे । --पा. प्र. रेढो-सं. पु.- १ सृम्ररका बच्चा। उ०-मूंडा पूरा लोहां चिक रही छै! व्डौ रेटौ पाद्धौ फिरियौ । प्रक घडी तांई मारी फौज, थाम राखी । -डउाटानौ सूर रू. भे.--रेडौ रेण-देस्वो-- रयण' (रू. भे.) (हु. नां मा) उ०--१ गरव्व्रीर रेण भई भांत केशं ¦ सुखि सेख तत्थ कहे ताम रेणका २२७ रेफा ना कथ्यं । --र. ज. प्र. उ०--२ चित वडपण सुभ चितवण, वजर लीक मम वणा । गाढ स्यामध्रम धरण गह्‌, रहण पतौ' दिन रेण । --जंतदान वारहठ उ०--३ श्रहल्या पद रेण उधरी, कियौ निरे कीर । विभी. खरक लंक वगसी, साथ राख सीर । --भगतमाठ उ०--४ दुनियां वरदायक सेव सिहायक, रेण किसी चप राम सौ जी 1 --र. ज. प्र. रेणका--देवो 'रेणका' (ड. को.) उ०--१ लंगरी राव रूकां रटकं लेणका, भलो श्रगजीत' ऊमराव भीमे का, वजाई नारद तणी वैणका रजाइ पलंग रस लद रंग रेणका । --महादान महू उ०--२ विभाडी रेणका वड़ी कीधौ विधन, जमदगिनि तण पर- मेस मांडं जिगिन । --पी. श्र. रेणकी- देखो ‹रएकी' (रू. भे.) रेणदार-सं. पु. [फा. रेहनदार] १ वह॒ जिसके पास कोई जायदाद रेहन रक्खी हो । रेएनामो-सं. पु. [फा.] रेहन की शते लिशवा हृत्रा कामजं । रेण्लिल-सं. पु. [फा.] निरव, वंघक, रेह्‌न । रेणव-सं. पु. [सं. रेणवह] चारणो का एक पर्यायवाची शन्द । उ ०--पडगनां रेणवां तां इम पाठज, सीर संभा वडां सेवी । साद सापू तणा घणां संमाछिया, दाखलजे नाथ ची मदत देवी । --गीत करणीजी रौ २ कवि, कोव्यकार । (श्र. मा.) उ०- मत्त सतावन खव गाथा मह्‌, कठा तीस पुरवा प्रघ कह । वीस सात कट उतर अरर विच, रेणव प्रेम छद गाथौ रच । --र. ज. ` रू. भे.--रेण्‌ । रेणवा-सं. पु.-ाला वहा की एक शाखा । रेणा, रेणा- देखो 'रेणुका' (ङ. भे.) उ०्--ग्रौ श्रलाह श्रणधाह्‌, नियौ जम रेणां जायौ । देजां सरिसि धर दिय, अ्रसख जिगि करवा श्रायौ । --पी, म्र. २ देखो ^रेणा' (रू. भे.) उ०--१ खत्री वंस वार किता तं सेस, रेणा ले दीधी विप्रा रेस। -- न उ०- २ मिदि श्रव साख प्रस्राख रसमय, श्नमिति मंजुर प्रजुरं । रसहीन श्रनि तर सरव रेणा, सीत खट क्रति संचरं । -रा. रू. रेणदे-देखो "रांणदेः उ०-१ घोद्रौ जी धोल्ठौ कड करो सहेल्या भ घोढ्ा राणी रेणादे --लो. गी. (ह नां- मा.) रा दति) रेणाधर-सं. पु. [सं. रत्नघर] १ समद्र । रेणाचिखमी-सं स्त्ी.-- १ सेना, फोज 1 रेणि, रेणी-देखो रेणु" (रू. भे.) रेणायर-देखो “रत्नाकरः (रू. भे.) उ०--१ वाम तण वास्त, राम मधियौ रेणायर । दर्ईतांरातिण दिवस, वहत मन मोरहै वायर । --पी. ग्र. (श्र. मा. नां. मा.) उ०--वाजीय च्रंवक गृहिर निसांण दिणय रौ रेणि हि खइड ए 1 पहूतउ जांणीडउ पंडु नरिदु द्रूपदु षहुचए सामहो ए । ` --सालिभद्र सूरी उ०--२ सभ तेरह धुर फेर दस, जांखौ निस्त्रेणी । रिख नारी तरगी हरी, परसत पग रेणी । --र, ज. प्र. रेख-सं. पु. [सं. रेणुः] १ एक इक्ष्वाकु वंशीय राजा, जिसके दुसरे नाम प्रसेनजितः प्रसेन एवं सूवेणु भी थे इसकी पुत्री का नाम रेका भीधाजो परश्चुरामकी माता तथा जमदगिनि ऋषिको पत्नी थी । सं. स्त्री.-२ वालुरेत, धूल, रज 1 ३ पृथ्वी, भूमि। (डि. को.) ङ. भे.--रंण्‌, रेण 1 रेशका-सं. स्त्री. [सं.] इषष्वाकूवंशीय रेणु (प्रसेनजित्‌) राजा की पुत्री, जमदग्नि महपि की पल्ली तथा परञ्युराम की माता थी । उ०्--देवी रेणुकां सूपे रांमजाया। दैवीरांमरंषू्पखनघ्ी खपाया । । -देचि, वि० वि०-कालिका पुराण में इसे चिदभं राजा प्रसेनजित की कन्या कहा गया है । महामारत के श्रनुसार इसका जन्म कमल से हुभ्रा एवं इसके पिता तथा भाई का नाम क्रमशः सोमप एवं रेणुथा। सोमप रजाके दारा इसका पालन-पोषण होने के कारण संभवतः उसे इसका पिता कहा गया होगा । रेणुका पुराण के भ्रनुसार रेणु राजा ने कन्या-कामेष्ठि यज्ञ किया 1 यन्न कुण्ड से इसकी उत्पत्ति हूर थी । इसका स्वयंवर भागीरथी क्षेत्र में हुश्रा, जहां पर जमदग्नि ऋषि ने इसका वरण किया । इसके परिग्रहण के समय इन्द्र ने काम- धेनु, कल्पतरु, चितामणि एवं पारस श्रादि विभिन्न श्रमुल्य पदार्थं मेंट क्यि। एक वार जमदग्नि वाणक्षेपण का कायं कर रहै ये। उस समय वाण वापिस लानेका कायं इसे सौपागयाथा। एक दिनि वाणलाने मे इसे कुं विलम्बहौो गया जिस कारण क्रध होकर जमदम्तिने श्रपने पत्र परद्युराम को इसका हिर चेदन के लिए कहा । परदुराम ने पिता की श्रा्ञा श्रनुसार इसका वध किया एवं तत्पङ्चात जमदग्नि से श्राग्रह॒ कर इसे पुनर्जीवित कराया । मतांतर से यही कथा इस प्रकार भी मिलती है! एक वार्‌ राजा चित्ररथ कोस्त्रीके संग क्रीड़ा करते देख इसके मने कु विकार उत्पन्न हृश्रा जिससे क्रुध हो जमदम्ति ने परशुराम द्वास रेण एम रथः _ ---.---~-------~~~-----*~--~-------~----~---~-~------~------------------- ~~~ (निणेणीगधगिणीगमी मीश मि णगि गी मौ ज खः जक भनि कज नकि -= 9०“ नो-> =, क) भो भः नो म ०९५ अथौ अ २.9 के्‌ दरसका वध करवा दिया । तत्पद्चात परघयुराम ने जमदग्नि से ही दरस पुनर्जीवित करा दिया । कहते ह कि यह्‌ कमल से उत्यघ्र श्रयोनिजा थी । प्रसेनजित द्रराके पोक पित्ता ये कहीं कहीं इसके पिता का नाम रेणु महपि भी लिखा मिलता ईह 1 २ पृथ्वी । (ड. को.) ३ वालू, रेत) ४ रज, धूलि । स. पु.--५ सद्याद्वि पर्वत का एक तीयं स्यान । रू. भे.--रेणका, रेणा, रेणा, रेणका । रेण, रेरा--१ देलौ रेणु (रू. भे.) (टि. को.) उ०--रेण रवि मंडन्ध.रसमी रय रोकौ । तन मन प्रज कापित दापित चयलोकौ । ८ --ऊॐ. कां देखो °रेएव' (र<. भे.) उ०--श्रसपतियां उतवंग सू, उचा छतर उतार ) राणो दीघा रेशा 'सांगौ' जग- साघार । --वां, दा रेत-सं. स्त्री -१ धूल, रज । उ० -जाग्या सोद जांरियै, हरिया हरि कै.देत , हरिवेमुम सुं जागिया, ता मुख पडुक्ती रेत । --श्रनुभववांणी २ पृथी, भूमि। । उ० --टरिय। सामी पतमषी, माया माही हैत । कवरं गाड रेत मे, श्रौर वीया दैत । --्रनुमव्ांखी रू. भे--रेती, रंत, रति, रती । श्रत्पा.-रेतडली ! मह.--रेतरडी, रेतूड, रेत्रडौ, रेतोडौ, रेतौ । ३ देखो "रय्यत' (रू. भे.) उ०--१ रंड पोखां रा राजमे, श्ठगी भूवं रेत । मूकां नित्त सीरा कर, दंड न्‌ चूकां देत ॥ --ऊॐ. का. ८ देखो रेतस" (रू. भे.) ५ देखो "रती" (रू. भे.) रेतकड-सं. पू. [सं. रेतः कुड] १ एक नरक कानाम, रेत युत्या 1: २ कुमाय के पास का एक तीथं स्थान) रेतडली- देखो ^रेत' (श्रत्पा; ₹<. भे.) उ०--म्टांरी श्रावड्ल्यां रौ तारौ दुलारी प्यारौदह मृुरुधर देस सोन रं डंगर ज्यू चमक रेतङ्ली रा टेर) लो. गमी रेतणी, रेतवौ-क्रि. स.--१ रेती नामक श्रौजार सेक्रिसी पदार्थके खुरदरे तल को रगड़ कर काटना । २ किसी नी वार वाली चीज से रगड्‌ कर किसी चीज को काटना ! त्रि. श्र.-> घोडे का वीयं पात्त होना या स्खलनं हीनाः 1 (श्र, मा. ह्‌. नां. मा.} ,. #॥1 9) ४ऊटका कोमले भूमि पर वटकररतमे र॒हृलाने से वीवषत ना जिसमे वह्‌ श्रशक्त दहो जातादहै। ५ रतया भूमि परवेटे वटे वेधावक्ररनेगैडंटकी मूत्रेन्धिये प्रर धोध श्राना, उट का मूत्रेन्िय ते पीटिति हौना। रेतणटहार, हारी (हारी), रेतणियो --वि° | रेतिश्रोषटौ, रेतियोडो, रेत्योटौ-मू° का ° । रेतीजणो, रेतीजवौ-- माव वाण०्(कर्म वा०। रेतरद्ञ देखो - 'रेत' (मद्‌. रू. भे.) रेतस-~सं. पु. [रा- रेतस्‌ ] वीर्य, शुर (दि. को.) रू. भे--रेत । रेतियोडी-ू.का..--१ पदार्थं विद्वेष का रेती नामक श्रौजार से युरद- रापन मिटाया ह्र. २ फेनी धार याते ग्रीजारननै रगद्‌कर कौ पदाय काटा दभ्रा. ३ स्गलन हुवा श्रा (षोडा) । ४ कोमत भूमि पर वर कर सदहृलनि से स्पलन हवा दभ्रा (ऊट) ५ रेत या भूरि पर वेट वटे पेदाव कनन सि सु्रेन्धिय रोग स्ने पीडित हुवा ह्र । (ऊट) रेती-सं. स्यी---१ एक प्रकार का दानेदार्‌ श्रीजार चिक्षे जित से रगडं कर पदार्था फा तत चिकना मिया जाताहै। २ नदी कै वीचोव्रीच टापू की वहु जमीन जो जव क भ्रवा घटने परं यां मंद पष्ने पर उपर निकल प्रातीहै) नदीका टापू } उ०-? नदी माह पम पसि श्रर पोत्यां कियां । नदी महि पमे पसि श्रर रेती पारिया । भ्रोयि रमणा लागा । -द. वि. रेतीलौ-वि. (स्त्री. रेतीती) १ एेसा स्थान जहां पर्‌ रेते रथिक हो 1 २ वह्‌ जिसमे वालूःया रेत प्रधिकदो। रेत, रेट - देखो ^रेत' (मह्‌. <. भे.) उ०-दोला जी करहलौ धान्यौ र मैक्यौ रे रेवुड र माय 1 काटयौ दवि पग रो ताक, कड्‌ पूगी छिन रं माय | --लो.गी. रेतोडी, रेतौ -देखो -'रेत' (मह्‌. <. भे.) | उ०-न्हानी सी एके टोपी, माहं धाल्यी सपेतौ । जतम पण॒ कर राखजौ, नहीं तौ पडला रेती । --भि.द्र रेपदछ-सं. स्त्री. १ श्रावदड्‌ देवी की एक वहिन कानाम। उ०--मटा श्रदभूत जच उपमां. जसोमति पूत.नर्चं फणा गांश । गंज दक रेप लांग गहत्ल, मारे बोहो मीर श्रमीर मुगल्ल । रू. भे. रेफली -मे. म. रफ-सं.पु [स.रेफः] १ र श्रक्षर का वहु स्पजौ भ्रन्य अ्रक्षरकै र पूवं श्राने पर उसके ऊपर रहता है । २ ^र' ग्रक्षर। ३ ध्वनि विदोषं ) रेफी -देखो--रेपद्ट' (रू. भे.) रेवाव--देखो “रवाव' (रू. भे.) रेषारी ४२२६ रेलणौ = उ०--साह तौ उरं थौ श्र ए भरोखे नीचे ्रोलगण लागो ते राजा अरर रंणी पोढीया छै 1 तद्‌ इहा गावते रेवा री तार तोड्‌ नांखी । --ठाकवुरे साह री वात रेवास- देखो "रेवारी (रू. भे.) उ०--१ रेवारी कावरने वारी रे, गूजर दरजियाने वाजारो । कीरतन्या गाम करासी रे, हृश्रौ कीर कंजरौ घासी । --जयर्वांणी (स्त्री. रेवारण) रेयण--१ देखो "रयण' (रू. भे.) उ०-- श्रमे दाय पांणी मि दा, कादमं गहणं । दम पुडि उड रेयरए कौतुह कोड त्रियासा । --गु. रू. वं. २ देखो "रजनी' (रू. भ.) रेर्याण-सं. पु- १ मुसलमान । उ०--१ संभर ससत उडे डिडवाणौ, भटनर पडे भर्गाणा । राणां तुभः भये रेयांणा, थर हरिया सहं थाणा ध --महाराणा कभा रो गीत २ देखो "रंयांण' (<. भे.) स्स-सं. स्त्री-१ राम शन्द की ध्वनि । उ०-रम राम रसा रटे+ वासर वेरश्रवेर । भ्रट््या पदन 9 श्रावसी, संम तणी मुख रर । -- ह्‌. र. रेस, रेरवौ-सं. पु --वड़ा उल्लू पक्षी । रेक-सं. प---प्रातः काल का गायन, गायन । उ०-- क्र उनाछं हुरिया पता, चिड़कौल्यां च्य चग कर । कुर दसिया कुत्ता विल्वा, चढ रेच रग रढ भग करं । -- दसदेव रेत-सं. स्त्री. [श्रं] भाप व डीजल तेल से लोह की पटरी पर चलने वाली गाडी, रेलगाड़ी । उ०--नहीं तार नहिटेमदै, नहीं त्ती मर्तं, मारवाड री रेल । २ वटाव, घास) २ एेसा खेत जिसमें वर्षा के पानी फा भराव होताहो श्रौर सिचाई के गहू, चनो की फसल भी होती हो । उ. सी्वांराः था कोस ६ उत्तर दिसी कभार वसे रंवारी रजयपूत, वसै 1 पाही खडं छै । ऊनाढी करै तितरी हवं रेल मादे सवज घरणा हवं । --रतणसी + वर्पपके पानी का वहाव विशेष जिससे भूमिमे पानी समान ह्पसे फल जातादै तथा भमर जाता है जिससे उस भूमिमें विना सिंचाई के गेहव चनो की फसल होती है । ॥ उ०--१ जैतारण था कोस १ अथस महि । जाटन वामि वसं ! वरती हलवा ३० वेत काठा मिया 1 ऊनांली श्ररट १० ठीवडा २ हवै । पहली प्रागेवा वाढी रेल श्रावती । चिणा हुवे । --नणसी मे तेल) श्रा चालं मनरे ---भ्रग्यात उ०--२ तकाव मास ४ पाणी । कोहर १ सागरी मीढठौ। सल श्रागेवा वादी श्रावं । --नणसी उ०-३ रेल जैतारणा बाढी ्राथण माहै वहं) श्रसल खालसा रौ गांव पातु गुजर रौ वसायौ । --नणसी ५ ्राधिक्य, भरमार, उ०-- कर कठ- खग कंठ, कदणरी, सेल वाछक बेल । भाभी भादी भंजसी, रण श्रौ विषणा रेल । --रंवतसिह भारी रेलगाडी- देखो ^रेल' (१) रेलचोदा-सं. स्त्री.--१ रतिक्रीडा का ग्रानंद। २ संभोग के कारण नवोढा की योनि मे रक्त निकलने कौ क्रिया कौ भाव) रेल ठेल-देखो ^रेलपेल' स्लणो रेलबौ-क्रि. श्र.-- £ जल प्रवाह का पृथ्वी पर कंल जाना । २ भूमिका वपां जल के प्रवाह से युक्त होना । उ०--१ जल ब्ूठा थल रेलिया, वसधा नीतं वेस । मगौ सीखां म्यारजी. देखां मूरयर देस । -- दरजी मयाराम री वात्त उ०--२ डंगर पाणी श्राव तिणा ता वेत ३० रलौ । सेवज गहू हवं । -- नसी उ० - ३ चेत निपट सखरा भुणी्यांसा वादौ वाहनौ दातल री सीम मे रली । तेठे सवज गहू १५० मणा तथा २०० री ठोड़ । -- नसी ३ जल प्रवाह का गतिमान हौना या वहना ` उ०-जिन प्रतिमा निश्चय पणड्‌, सरस सुवारस रेलि । चितामणि सुर तरु सभी, श्रथवा मोहन वेलि । --वि, कू. ४ भमीगोना 1 उ०-१ ढवन देयं पग ठसकणी, खित वेकछ. खिसकाय । रेल रेल निज रगत हंत, जोघा पग्ग जमाय । -रेवतर्सिह भाटी ५ वर्पाका भूमि को जल से भीमोना, तरवतर करना । उ०--श्ररहट कूप तमांम, उमर लगन हुवे इति । जलहर एकी जाम, रेल सव जग राजिया । --किरपारांम ६ देना, श्रपण करना! उ ० --शगर्हाणी' "जला" करन" भोज माधव गणां, सुपातां रेल द्रव हलाई सलता । भामणां हु लेऊ कहे सह॒ जग भला, चहीला दान रा कीया चलता । --माघोसिह्‌ उदावत रौ गीत ७ तीव्र जलभ्रवाह का श्रपने साथ वहा ले जाना) ८ चलना, वहना । उ०--ग्रावीयां अ्रलजड घरणड, ग्रालस मांह्‌ड गंग 1 रेलि भ्राविउ रंक घरि, मद-मातड मातंग । -मा.का, प्र. & नट होना, मिट जाना । उ०-कु० खट खरड गडद, कु° वाट पंड्ड, कु भूमि सड्द्‌ रेलत कुः० रेलिजाइ कु० वाणएउव्र खाद्‌ । --व. स. रेलणहार, हारौ (हारै), रेल णियौ-चि० । रेलिश्रोडी, रेलियोड, रेल्योडी--मू० का० ठु° । रेलीजणौ, रेलीजवौ--कमं वा० । भाव वा०) रेलत~सं. स्त्री. [श्र. रिहलत म॒त्यु । उ०--१ हमीदां री रेलत नागौर मे हुई । नेख टमीदुदीन नागोरी री रेलत दिल्नी में हुई । जवन कह सातं हमीदां री रेलत॒नागौर्‌ मे हती ती नागौर खुर्द मक्कौ होय जतौ । --र्वा. दा. स्याति रेख्पेदट, रेतपेल-- १ मीड़माइ, वकपवक्करा । २ भरमार, भ्रधिकता । ह. भे.- रेटापेद्धि । रेलवे-सं.“स्वी.--१ रेल का विभाग, या मकमा । २ रेने की विष्ट हुई पटरियां जिन पर रेल गाड़ी चलती है। रेकछपिठी-देखो ^रेग्पेक' (रू. भे.) उ०-परतर पूरा थारी पेम, रंग री रद्टपिछि -प्रदम भगत रेलियोडो-भर. का, कृ.--१ पृथ्वी पर फला हुश्रा जल प्रवाहु- २ वर्प जल के प्रवाहुसे युक्त हुवा हूश्रा। ३ जल प्रवाह गतिमान हुवा हुप्रा. ४ भीगोया हूम्रा. ५ वर्प हारा तरवततर किया हुभ्रा. ६ दिया हृश्रा, श्रपण किया दहृश्रा. ७ तीव्र जल प्रवाह का ग्रपने साथ वहायाहुप्रा. ८ च्ला हुवा, वहा ह्ृश्रा, & नष्ट हुवा हुम्रा, मिटा हुभ्रा। (स्वरी. रेलियोड़ी) रेदटी-स- स्त्री.--१ शीतल वायुं प्रवाह्‌ । २ वारीक धूलि कौ तह्‌, कणा} उ०--पेसट हाधरी प्री रकारण वेरौ खुदणौ द्ूभरदह्ंगी। -- फुलवाडी ३ गेहंके पौयोंकीजड़ोमेहोने वाला एक प्रकारका रोग। रेलि -- यारा, प्रवाह । उ०-- परी प्रग इ्यारनी सहेली हे मुभ मन मंडप वेलि सीचू नेह्‌ रसद करी सहली हे श्ननुभव रसनी रेलि । --वि. कु. रेलौ-सं. पु.--१ जल या किसी तरल पदां का बहाव या प्रवाह । उ०-१ गम्‌ वारी सगलड मोहोयड, साचा मोहणं वेली जी) साभमलता स॒हूनद्‌ युग्व संपजड, जांणि श्रभी रस रेलौ जी । --पे.जै. का. घ. उ०--र ्रौर श्रकल उपाय, कर्‌ ब्रा्टी भंडीन कर्‌ । जग सह्‌ चास्यी जाय. रेला की ज्युं राजिया। --किरपारांम २ तवता वजाने का एक देम चिनेप जिसमंकुद्ध विक्षेप प्रकारके मुर ग्रौर हलके बोत्न जाये जति है । ३ भीड़, जमघट 1 ४२२०५ रेवति „____,_,,___]]_____-----------_~_-~~~~~~~~~__-~_~_~_~_~_~~~~__~_~_~____~_~_~__~_~~_~_~_~_____ रेवंत-प. पू---ग्रदय के रूप उत्पन्न हुवे हुए एक स्के धूत्रकानाम। वरि० वि-पु संज्ञा (छाया) नामके मूयंकी पत्नीके उदर से उत्पन्न हुश्रा। इसके श्रद्वके रूपमे उतपन्नहोने का कारण था कि सूर्यपत्नी संन्ना वडवा (घोदी) का रूपं धारणा किये हए थी । यह शनिदचर का भाद था। दमे गृह्यकों का श्राविपत्य मिला । मतान्तर से इमे प्रदो का ग्राधिपत्य मिलाथा। रजा लोग तोरण प्रान्तमें प्रतिमा या वट में सूये पूजाको विधिके प्रनुसार इसकी पूजा भी कर, एेसा कालिका पुराणा मे लिखा मिलता है । २ घोड़ा, श्ररव ) (डि. को.) रू, भे.--रदवतत, रेवत, रेवत, रवत । रेव-सं. स्वी. [सं. रव] १ ददभरी ग्रावाज, चीव 1 \ २ गिडगिड़ने का शव्द । उ०--रणा भाज कर्‌ रेव, जीवश्‌ कज केता निकं । दीधौ सिर जगदेव, महि जमन राख मोतिवा । -- रायह्‌ साद ३ रार्याति वंशीय एक राजा का नाम| रेवड-सं. पु.-भेडों व वकृरियों का दल या भुण्ट । उ०--१ जमनाजी के वायं उर्व, रेवड्‌ चरती जाय । नजर पड़ी करण्यं मीरा की, जदं योत्यौ ' राय । --डंगजी री छली उ०--२ ग्वद्या रे ग्वाद्धा भाई, रेवड़ थारी हद्व हांक । लाड- लिया जंतराई रौ पिचररग पेची सेह भर 1 --लो. गी. प्रत्पा.+--रेवदटियो। रेवडा-सं. स्त्री.--वद्धी श्रौर मोटी रेवडी। रेवडियो- देखी ररेवड' (श्रत्पा. ङ. भे.} उ०--हाय गंगेर्ण गेदिया भवना सिध रेवडियौ चरावानं जाय याईरौ वीरौ वाममें। --लो. गी. रेवड़ी-स. स्वी.--पंगी हुई चीनी या गुडकी एक प्रकार की टिकिया जिस पर सफेद तिल चिपर्काए जाते दहै । रेवट-सं. पु. [सं. रेवटः] १ दभ्षिणावतं शंख । २ युक्रर, सुश्रर। रेवत-सं. पु. [सं.] १ गर्याति वेदीय रेव राजा कानामजो रोहिणी पुत्र वलराम कै दवसुर तया रेवती के पिता यथे । - वि. वि.-ये कुरास्थली (द्वारका) के राजाथे। २ एके राजाकानामजो वायु पुराण के प्रनुस्ार कपोत रोमन राजा का पृत्रथा। ३ एकाद श्द्रोमेंसरे एक) ४ देसो रेवत" (स. भे.) रेवतचीणो-सं. स्त्री---एक प्रकार का छोटा धुप जिक्षका कदं या जड़ ग्रौपध प्रयोग में लिया जाता ह । (ग्रमरत) रवति, रेवती-सं. स्वी. [सं. रेवती] १ रेवत्त मनु की माताका नाम) ~~ -- ~ -~ ~ च रवतीभव ४२२१ रेव कि कक २ राजा रेवत की पुत्री तथा वलरामजी की पत्नी जिससे वलराम ठै, रेवाकंफर । --वा. दा. स्यात के निंगठ श्रौर उल्मुक नामक दो पुत्र उत्पन्न हृएये । रेवाड़ी- देखो--'रवाडी' (रू, भे.) वि. वि.- राजा रेवत श्रपनी पुत्री के लिए सवं गुण सम्पन्न योग्य वर की खोज में श्रपनी पत्री को साथ लेकर ब्रह्म लोक गये) उस समय वहां पर गीत श्रौर नृत्य होने के कारण राजा रेवत को उ०--प्रति ऊंचा श्रावाम,पजद सर्‌ प्राम, वसड़ जहां पित दइ ख णि मंडित,जहां भोगी करद्‌ रेवाड़ी, इसी विसाल बाड़ी । दो एक क्षण वहां सुकना पड़ा । राजा रेवत का निवेदन सून कर्‌ | ~ ॥ = रहय ने कहा कि श्रापको अरहा रहते हृए सत्ताई चतुपुंग व्यत हो रेवाडीएकादसो-देखो-"रवाडी एकादसी (ङ. भे.) गये है । श्रव दवापुर युग में भगवान का श्रनावनार बलराम हारका | रेवाड़ो-सं. पुमो व बकरियां के रखने का रथान । मे रहते है । इस नारीरत्नं को उन पुरुप श्रेष्ट वलरामजी को | रेवानद, रेवानदी-पं. स्व्री.-- नर्मदा नदी । दीजिये 1 ब्रह्मा को वंदना कर श्रपनी सुकुमारी तरी का पाणिग्रहण र. भे. रंवानद, रवानद, रवानदी । वलरामकेसाय फर दिया 1 बलराम की मृत्यु होने पर रेवती भी रवाट--१ देखो “सहव, (र. भ.) उनके साथ चितामे श्रगिनि प्रवेश कर सती हूर्ई्‌थी, त २ महपिं भरद्वाज की वहन जो ्रव्यन्त कुरूप धी ग्रौर भरद्राज ने २ देखो--^रेवाढ' (रू. भे.) प्रपतने कठ नामक शिष्य को विवाहमेंदीथी । यह्‌ गोदावरी में | रेवास, रेवासौ देषो --रट्वास' (रू. भ.) स्नान कर्‌ कै रूपवती हो गई । जहां पर स्नान करके इसने सौन्दय | रेत-सं. स्वरी. [सं. सज या रिप] १ पराजय, टार । प्राप्न किया था वहु स्थान रेवती नामक तीथे हौ गया उ०--मेछ थयौ संघं मरै, "रेणा! देतां रेस । श्र भिचियौ दिन # श्रदिनी श्रादि सत्ताईस नक्षत्रों के श्रन्तगेत अन्तिम नक्षत्र । उजठे) क्यों निक 'महेस' | =, इसका श्रविष्ठाता पूपा नामक मयं है । उ०--२ मडियौ जुध मेडते, रिण प्रसियांदे रेस । तन भड़ी ५ एकं मातृका का नाम] तरवारियां, मुडियौ नही "महे" । -महेसदास कूपावत रौ दूह ६ एक वालग्रहु वित्ेप जो वच्चोंकोदुखदेताहै। उ०--२ ज्वार ग" दीधी जरू, रिपुवां इण विव रेत रणवं <. भे.--रेवत्ति ग्रौ इचरज रयौ, सुण जुव वात 'महेस' । रेवतीभव-सं. पु. [सं.] गनिश्चर 1 (डि. को.) -द्गजी जवारजी रौ दौ रेवतीरमण, रेवतीरवण-सं. पुः [सं. रेवतीरमण] रेवती से रमण २ नाश, सहार । करने वाने, श्री वलराम का एक नाम । उ०--१ तः रघनाथ तणौ 'ुरतेस' रिमांखग काट करे घण रू. भे.--रेवतीरमण, रेवतीर्वण रेस । --सू. प्र. रेवर-स. पु.-पंवार वंग कौ एक गाखाया इम शाखा का व्यक्ति । उ०--२ प्रणसंख्या मेट प्रयुरांणौ, रावण कुः म्राद खट रेष । रेवल-सं. पु.--दीवार की सतह की समानता वतपने वाना एक लकद्ौ निडर किया सुरनर नागां ने, प्राचां तौ भांमी प्रवधेस । --र. रू. का श्रौजार जिसके वीचमें पारा भरा र्हतादे। ३ सजा, दण्ड । ॥ | रेवांण- देखो --रेयांण' (रू. भे.) न ॥ 1 गहै छ केस, & र्‌ । -- रामनाथ कविय रेवा-सं. स्त्री. [सं.] नमेदा नदी का एक नाम । ४ दवाकत, दवाव । उ०--सीयै तु शरंग वास रस लोभी, रेवा जनि क्रत सीच रति । उ०-देस उगाह रेस द, घ्रावे पेम दरत्व। मार लियौ खग माल- दध्िणानिद श्रावत्तौ उत्तर दविसि, सापराथ पति जिम सरति । पुर, भ्रासुर पकड़ कुतुज्व । --रा, रू. = ५ दात्य, कृसके । वि. वि.- इस नदीमें लिव ल्लिगों की उत्पत्ति होती दे जिन्हं ति नमेदेदवर कहते दै । या, धुहड दुषु जोघांया । शरूट्‌ड' दुह्‌ जोधांणा, सुमेर सुरेस सौ । र. भे.--रवा सुपह महापित साथ, रिमांउररस सौ । समहर हरण्व सवाय, रेबाउत्तन-सं. पु.--हायी, गज । (डि. को.) वुलाय वहादरां । ऊकल्विया श्रारांणा, तरस्सं चद तरां। रेवाकंकर-सं. पु.- नर्मदा यारेवानदीर्मेसे निकलने वाले रिव कौ -करिमोरदान बारटठ मूत्ति की तरह के पत्थर्‌ । ९ क्षति, हानि । उ०- नर्मदा रौ ग्रेक देस वारा-क्षेत्र है जे वांणनाथ मिव नीसर उ०--्वायः जाव कमव वरदायक, रेणव वरणान देवं स्स । ४ [कायु + ज + ज -ना्। रेसफोरस ऋक्व गणिणणरिरेषोषाषषी जामी कमंघ कलपतर जेहौ, नांमीनवा समापण नैस । --याध्िह्‌ चांदावत रौ गीत ७ भय, भ्रातंफ । ८ जिसके चिना कार्यं की उत्पत्तिन ही सके, हेतु, कारणा । उ०--मेहां बूटा श्रन वह, थढ तादा ज रे । करसणा पाका कणा खिरा, तद कड वठणा करेस । -टो. मा. ६ निधनता, कगाली, दास्द्रियं । उ०--'वीरम' हरौ वसू वड दाता, रेणव वरणा भिटावण॒ रेस । नवसहसौ श्रघपत नेठवियी, दस सहस वर सेवा देस । -राव लूशकरण रौ गीत १० चाह, श्च्छा । उ०--१ परिसदा सुण पादी गई, वलिया क्रस्णलि नरेस 1 गज कुमार वैरागियौ, लागी धरमनी रेस --जययांखी उ०-२ धरम करी भि प्रंखिया, दे सतगुरु उपदेस । साधु सावक ब्रत श्रादरी, राखौदयानी रेख । --जयवांणी ११ रहस्य, तात्विक ज्ञान । उ०--जीवा चेतौ रे रुत्यौ श्रनंतौ काल, भ्राद ग्रनाद रौप्राशियौ, जीवा चेतौ रे, जीवा चेती रे र्यौ श्रग्यानी याल, समफित रेस म जारियौ, जीवा चेतौ रे। [श्रं.] १२ जाति। १३ धुडद)ड्‌ । वि.--किचित, जरा । क्रि. चि. - लिए । रू भे.-रेसि, मह्‌ ;-रेसौ रेसकोरस, रेसफोस-सं. पु. [श्रं. रेसकोसं] १ धावन पथ । # 1 २ श्रदवधावन भूमि, घृडदीड का मैदान । उ०-रात दिवस के रेसकोसमे, वाजी लाव वणाव । जाकी पार कोई हूय जावे, वेनिग पोस्ट बतावे । --ऊ, का, रेसण-वि.--१ मारने वाला, सहार करने वाला उ० --१ तारण जणा दसरथ तण, रेसण देत सरीसा रमण । वहनांमी खाट्णा विरद, धिर करि लंक वभीखण धापरा। --पि. प्र, २ पराजित करने वाला, पराजय देते वाला । रेसणौ, रेसवो-क्रि. स.- १ पराजित करना, हराना । उ०--१ श्रलीमन सूर रौ वंस कौधौ श्रसत्त, रेस रीपू विज त्रंबर रुदिग्रा 1 लाट जनरल जर्मैढ करनेढ लख, जाट रं किलं जम- जाठ जुडिया । --कविराजा वांकीदास उ०-२ विधांसद रेस राकस वंस, कीयौ दहु कंच कीयौतं कंप । -- पी, ग्र, ४२२३२ रसभ-स --जयवांणी । रभम २ मारना, मंदार करना । उ०--१ फर्िरांम प्राउय ग्रहिमौ करगु धविकः रेचिया सत्री लागी श्ररयु । --ि. भ्र. उ०--र्‌ कृटाजेम यजां मजं यटा त्रिवधी क्रिया, निर्या युरर्थागर गोर्घांण लाजा । रेसवा विपुर जे्िघ ऊषर रच, स्प महेम वय- तेस राजा । --फीरत्दान बारह ३ मिटाना, नालं करना । उ०--किसन फिसन कहि किमन, हम वदु षाय हरे म । किमन किसन कहि फिसन, करिसन कत्यांएा करं से! करिसन कटुता फिसन, देवं दरसण देस । किमन फिञ्न क्रिपाट) रमि परत्तिगिरनं र । पी, श्र. रेस्णहार, हास (हारी), रेसणियौ--वि०। रेत्िश्रोरो, रियो), रेत्योशो-मू० का० ० । रेसोजणौ, रेसीजयो - कर्म ब्रा०। | का. रयम] १ एकः प्रकार का वारीक, चमकीला, चिकना श्रौर मुलायमद्दुतंतु या रेशा विच्ेप जिसे कपट बुने जाते हं) उ०--१ रसम री जात कवटा केम ग गुलायी नख । --फुलवाडुी चि, वि.-यह्‌ ततुया रेशा विशेष प्रकार के कीट के को भरसके रोग्रोमे तयार दहता दै । रेणमके कीरै पत्त कटू जातेर्हु श्रीर्‌ करट प्रकारके होति हई जंम--विलायती, मदरासी या कनादी चीनी, शअ्रराकानी श्रासामी इत्यादि । चीनी, दनु प्रौर वडे पित्र का रेशम भ्रत्युत्तम होना) ये कौट तितली की जाति के होते है । इनके कट काया कत्प होते ह! श्रंडा फुट जाने पर ये वडे पिल्नु क ्राकारकेहोते श्रीररग्तेर्ह। एस श्रवरथा में ये प्र्तियां वहन खाते हँ । शहतूत की पत्ती शून कौ बहुत प्रिय ग्रौर रुचिकर टोती र । दरे वैवड़ेचावमे खाति ह) ये पित्र वद्‌ कर कोश वनाकर उसे भीतर दहो जाते इस समयये कोया कहलाते ह । कोणके भीतर ही यह कीड़ा व तंतु निकलता है जिसे रेदाम कहते हैँ । कोश के भीतर रहने का समय जवर पुरादहो जाता है तव कीडा रेसम को काटता हृश्रा निकल कर उड़ जाता है परन्तु कीडों को पालने वाते तने दक्ष होते हँ करि कोयो को गमं पानीमें डाल कर मार डालते हु ्रौर तत्पदचात ऊपर का रेदाम उतार कर ले लेते हैं, २ उपयुक्त रेशमके यने वस्व डोरा, रस्सी श्रादि। उ०--१ गाजं घण युण गावौ, प्याला भर मद पाव । मूले रेसम रंग मड, कोटा देर भुलाव । -वा. दा. उ०--२ प्रत सोभत रेसम लृंव करं, धूरवा किर फुलिय संभः धरे | ` रा, रू. उ०--२ प्रासे पासे लालां जड़ा विचमेरेसम रा एूदा म्हारौ गौर बंद लृंबाठो । । --तो. गी. 1 ६ रेसभियी पययि-कोसय, कोपा, पाट 1. ३ तलवार,"खडग (ना. डि. को.) रेसमियो-सं. प.-१ रोगियों की रुग्णावस्था मे वाजरी के ग्राटे का ्रांच. पर पका कृर दिया जाने वाला पेय पदायं । २ एक प्रकार का घोडा विशेष । ३ शीत कालीन तीक्ष्ण वायु वि.-१ रेशम का; रेशम संवंधी.। २ देखो "रसम" (ग्रत्पा; र. भे.) उ०--होटडला-मुमल रा रेसभियार तारज्य्‌ं।हौ जी रे दांतडला उजक् दंती रा दाडइम वीज च्य 1. -लो. गी. रेसमी-वि. [फा. रेशम-|-रा. प्र. ई.] १ रेगम का वना हुभ्रा. उ०--धोा कड़प सं काटा कराया श्र श्रोपता रेसभी कपड़ा सिलाया । । -दसदोख २ रेसम के समान चिकना या मुलायम (सूत, डोरा प्रादि) उ०--सूतसुरत पसम पीठ सूरत खतम, रे्मी गलफ साखत. रचीतौ । श्रंग पसम सुलफ-ग्राघी कियां ऊटियौ, चख कुलफ खूठियां मलफ चीतौ ! । --महादांन महडू २ कोमल, मुलायम । उ०-षछोटौ पण तीखौ नाक । छरी दछोटी फुरणियां । श्रवरूक त्र निरमठ नण । छोटी रेसमी मूफाड 1 छोटा र हाथ श्र छोटा छोटा पगल्या । ---फुलवाड़ी रेसमौधाट-सं. पु--एक प्रकार का वस्व विशेष । उ०-्रांगणडते तु नील रतन तण, ऊपरलद मालि, मर्घ्यान्दि कालि, केलि प्रदं ह्याया, इत्या मंडप नीपाया तल्‌ मांड्या पार, उपरि पाथरया रेसमी घार। --व. स. रसमी भद्रव-सं. पु---एक प्रकार का वस्व विद्रोप | उ०--म्रतलस, खासु कमसु भरव, मिरचु भरव, रेसमी भरव । --व. स. रेसवाडौ--सं. पु. [स. रिल् ~+ हिसायाम्‌ ==रेसवाट मौसमी बुखार । रेि-देखो रेस" (रू. भे.) उ० --१ सुरि श्रागम नगर सऊजम, रुखभिणि करसन वघावेण रेति । लह्रिउं लियं जांणि लहरीरव, राका दिन दरसण राकेस । -वेलि उ०--र इछ राइ करन वारउ कि ईद, गुणियणां ग्रहै वाधा गरईूद । ताकुश्रां रसि सोभाग त्ति । हिदवद् राइ दीन्हा हसत्ति । --र. ज. सी. उ०--३ चांदलां करि चांद्रियउ, मोरु वयख सुरौ जि! एक देसु मादर, वालभ रेसि कटै जि । प्राचीन फागु-संग्रहं रेसौ-सं. पु. [फा. रेशः] १ पौघो की. छाल श्रादि से निकलने वाला महीन तंतु याघागा । ४२३२ र रह्‌ | २ वह तंतु जिससेशरीर का मांस तथा कुटु श्रौर भ्रंग वनते है। ३ -बुनावट के रूप मे कोई एेसा तत्व जिसके ततु या सूत पृथक किये जाते हां । । ४ रारीरस्थ नश्च । ५. अंश । उ०--वापजी कांड प्रज करू, म्हारौ वाप साव इज भोखौ श्र भ्रवरूक लोग उणनं श्रघवावल्छौ इन समं उणरौ थोडौ षणौ रेसो म्हामेभ्राग्यौ । --फुलवाड़ी ६ हिस्सा, भाग । । उ०--वातां सुण सुण नं लोगां री श्रकल चकरीजगी ) श्रंडी म्रकल रौ हजारवौ रेसौ ई हाथ प्राय जावै तौ निहाल ब्द जवै । । --फुलवाड़ी ७ सृदक्ष्मातिसूष्ष्म भ्रंश । उ०-- वापड़ा नाक श्राखरां रौ घसकौ ई.कांई केव मासी भांण- जिया रं उण श्रणंदरौ रेसौ ई परगट कर सकं ¦ वाणी श्र ग्राखसांस्‌ं परं रौ भ्राणंददहौी वौ --फुलवाडी ८ लहर, प्रवाह । ६ देखो ^रेस' (११) (मह्‌. <. भे.) उ०-नेम भणी परणायवार, मांग क्रस्ण नरेसौ । “उग्रसेण' राय इम करैर, एक सुणौ हमारी रसौ । --जयवांणी रेक्षियोडो-्रु- का. कृ.-१ पराजित क्या हुमा, हराया हृग्रा. २ माराहृप्नाः संहारक्िया हृश्रा. ३ मिटाया हृश्रा. ४ कोप किया श्रा. क्रोध क्रिया हृश्रा । (स्त्री रेसियोडी) रेह-सं. स्त्री. [सं. रेखा] १ कपट, घोखा । उ०-- ढाल वखांणी तेरमी, विनयचंदर तजि रेह ह , ते तिम हिज करि जांणज्यो, मत प्राणौ सदेह है । २ सन्देह, रक । उ०--ते छे भगव श्रंगमां, किम मन ग्रांणड रह्‌ मर्ग्यांनी । एक सदय गुण तूं करइ, सूत्र वदुल नउ लोप भ्रग्यांनी । ३ कलक, दाग । --वि, कु. --वि, कु. उ०--कमढ्ट वि नांमियां दंडवत चिन किया, वक्ञाई प्रथी सिर सुजस वाजा । विरद विण छटोडिया कृजस विश बुलायां, रेह विख लगायां गयौ राजा) - महाराजा केरणरसिह री गीत 1 धूलि; कण उ०--खुरिसांण खडंग, उदी खुरेह्‌, रवि छायउ श्र॑वर रजी रेह 1 चमराां पाश्रं ऊडि चीव, गदल त्रिक्ल मूमद गईव । -रा. जः सी. ५ परिखा, खाई । उ०-- चम चित्त नासां गुडं वक्र चाडा, गयां संक प॑म छेक ख + रेहडली ४२२८ रगभी ___ ~~~ ---------- गाडा । कवी तेह जे राचिया रेहु मूःद, सये दांण लवा प्रगांमांण सूदं । --यं. भा. चि.--९ फिचित, ले्षमाग्र) थोष्ठा । उ०--घाट सुरेगौ गोरियां, श्रादरू फटुवत एह । पदमणियां हृमरोट व्टै, राख मसंसौ रह्‌ । --यां, दा. ७ देखो--रिख' { <. भे.) उ०--१ कुसल प्राह्ण दद कष्ट छद, निसत्व॒निरदय निक्लप, धूरत्त माहि रेह । श्रवला नारी तेहनदर, नलद पीघु छह 1 -नदटदवदती रास उ०-२ ते भणी पुत्र द ताहराजी, सुलसा रा नही एह । मुनि भासित म्रखानही जी, न टलं फरमनी रेह्‌ । --जयवांणी उ०-२ वावहिया निल पसिया, मगरि ज काटी रेह । मति पाव- स सुणि विरहणी, तकफि तठफि जिख देहे । --यो. मा उ०-४ धन्‌ घटा गरजित छटा तरजित्त भयं जरजित गेह । टव टवकि टबकत वकि मव्रकत, विचि विचि वीज की रेह्‌। धि, धुः. उ०--५ भंड भंखौ नह जरे, ना पिह्‌लोपे रेहु। त्णिमूं ठहर तू, दंदं मचादं मेह । टदा सूर रीषत रू. भे.-रेहा। रेहेडली-सं. स्वी---धूल । उ०्-फदा में मोडां र॑ फ़ंसगौ रठखगौ रेहृडली । भेक धरंता फीदी भूडी,* कुववां केहडली । --ऊ. का. रेहण-सं. प.--कीट, मेल । उ०- प्रगट कहै समल पतौ, भ्रचद्र श्रचद कर श्रग \ कायर रेहण कठ गथा, दीपं कनक दुरग । --्वा. दा. रेहणी, रेहबौ-ि. श्र.--लोभित होना ) उ*--लवगि मरसभर कूवडिय, जतु नाहिय रेह! मयणाराय किर विजयशखंभ जसु ऊ सोदर । --जिनपदम सूरि रेहणहार, हारो (हारी), रेहसियौ--वि० । रेहिग्रोडी, रेहियौडी, रह्योडी -- भू° का० कृ० । रेहीजणो, रेहीजवबौ--भाव वा० । रेहणौ, रेहव्यो~क्रि- स.-- पराजित करना, हराना । उ०--१ मेवाडां जोधद् मलय माण, रेहछिय सेति कमेण रांण सछखहर वलिय सुरितांणसत्ल, मेवाड़ गाहि ऊग्राहि मल्त । --रा. ज.सी. उ०--२ सीवक संधार बोल उतार, मेले दठ कलि मूठ । खागे सूमांणां रेहछि रणा, निज धांणा नाइूढ । गु. रू. वं. उ०--३ घजवड़ पांण लियां खव्र घोड, रेहद्धिपा मोहिल राटोड । मेवासी राव जोधं पिदिया, दोमज भाज निरी सिर दद्धिया | - नयासी रेट्ठटणहार, हारौ (सै), रेहयणियो- वि ० । रेहदिप्रोशटौ, रेटछिपोष, रेहर्पो-नू° फा ० 1 रेहुटीजणो, रेदुटीनगौ-- कमं पा० । रेटटियोडो-मू. फा. म.--पराजित किया हध्रा, हराया द्रा 1 (रप्री. रेट्य्ियोटी) रेहा-१ रेणो ^रेणा' (र. भे.) २ देषो °र्ट्' (रू, नै.) उ०-१ पद्ठिया रहा वृष्ट नह, येहा वायवः प्रह । चजेहा जहा नही त्यागी केषा तेद्‌ 1 --यां. दा. उ०--२ जीह्ां हरि चटा नागी ज्वांह्‌, विनो नही भय सोकं त्याह । भगं गुण तूमः तणा मग्वान, जाव पलि व्यद तणा गमान । ~, र्‌. ३ देणो--प्रे' (रू भे.) उ० --वेहा लिग मोटा वरणा, रहा हीन रहत । पाति श्रेटा पन लहै, जदा घन जहवत । --र्या. दा. रोहिणो-देणो--"रोहिएी' (रू. भे.) । उ०-- तत्य मगद्ारि ववहृषरि चटांमरि. निव्ांण्‌ माहु यन श्दपा- छो 1 'वारला' गेहिणी तासु मृण रहिणो, रमणि गणि दिष्पाष जाभु भालौ --ममनदरन्‌ र--देणो--र' (८. भे.) उ०--श्रला पहूुवी रं ऊपरा चौक पूरौ, श्रना चीणामण चीख स महल चूरौ । श्रना महा सतांन तोफांन मोहे, श्रला तरिधारे सटगसां दरईत त्ोडं । -पी. भ्र. रषी, रकवौ करि. भ्र.--गधे फा वोलना ) र्कणहार, हारौ (हारी), रकणियौ - वि. । रकिश्मोषौ रफियोडी, रक्योङौ -मू. का. इ. । रकीजणौ, रफीजवयो -- माव वा. । रेकणौ रेकयौ-- रू. भे. । रकियोडो-मू्‌- का. छृ.--गपे का वोला हृश्रा, श्रावाज फिया हुश्रा । (स्प्री. रं कियोडी) रग~सं. स्व्री--रेगने की क्रिया या भाव) रेगणो, रगवौ-क्रि. श्र. -१ भूमि के साथ पेट स्पदां करते हुए खिसकते ए या सरक्ते हुए सरीसृप जनवरो फा चलना, गभन करनाया श्रागे बढना । २ भरुमिके साय पेट सटा करहा्ो परोके वल मनुष्यों या बच्चो का चलना या प्रागे वना । रगणहार, हारौ (हार), रंगणियौ-- वि. \ रगिग्रोडो, रभियोडी, रयोडो - भर. का. कृ. । रगोजरणौ, रमीजवो--साच वा. । रंगर, स्गबो-रू. भे, । , रेगियोड रंशियोडौ-भू. का,क.---१ भूमिके साथपेट स्पशं करते हुए खिसकते या सरक्ते हए सरीसुप जानवर कां चला हुभ्रा, गमन किया दहुभ्रा याश्रागेवढ़ाहु्रा. २ भूमिके साथ पेटसटाकर हाथों परो के वल मनुष्य या व्वा चला हुश्रा या प्रागे वढा हुआ । (स्वरी. रगियोडी) रेट- देखो--्ररट' (रू. भे.) रेडियौ--देखो--रंडौ' {श्रत्पा; रू. भे.) र॑डी-सं, स्त्री.--श्रजमेर की तरफ पायी जने वाली एके प्रकार की नस्ल :विक्ेप कौ गाय जिसके सींग नीचे कीश्रोर सके होतेह, रेडी-सं. पु. [स्त्री. रंडी] वह्‌ वल जिसके सींग नीचे कौ तरफ भुके हुए ह्यते ई । रंगश-देखो--“स्यण' (रू. भे.) उ०-- १ विरह खटहुकौ रंण दिन, ह॒रीया सालं मोहि । का तुकि मिठीया भाजिसी, का मुषि भिढीयां तोहि । --्रनुमववांणी उ०--२ माया वादघ्ठ विजटठी मारं चमक चमंक । ह्रीया हरिजन उवरं, राता रेण समंक । --ग्रनुभववांखी रणको-सं. पु.- राजस्थानी साहित्य मे एक छद विशेष जिसमे प्रत्येक कचरण मे ३२ मात्राए होती ह तथा क्रमशः६,&, ६ प्रौर ८ मात्राश्रों पर यति दती ई। दके चार चरणोंमें कुल १२८ माव्राएं होती है । रणायर--देखो-- "रत्नाकरः (रू. भे.) उ०--सामं्र हु वुह्‌ सुज सायर, रैणसुत ज नघ रेणायर । सुडलं गोदीरव सायर, महण घण महरांस । -- महाराजा श्री गजसींवजी रौ गीत रेणं- देखो --'रेणु' (रू. भे.) उ०--वासप नैणांसं निकर मूख वाफां, रणः एडी पर फांटोड़ी राफा, धुर धरर धूजता थुडतां थाकोड़ा, पीटा पडियोड़ा पिक्िया पाकोड़ा । --ऊ. का. रणो, रेबौ- देवो "रही, रहौ" (रू. भे.) उ०-- १ सायवा म्हानूं थांरी लार लै जावौला वौ, रसराजसंग रंण दीश्रारच्र । रस सुहांणं री दिखावौ लावौ सायवा. } -रसीले राज रौ गीत उ०--२ घर हाठरा भाई वेदा मन्न सदा क्रवता रेता-वदरीजी जाव, श्रडसठ तीरथ न्हावौ । धरम पुतन करौ, माढा भिखियौ फेरौ -- दसदोख उ०--३ वेदा पोता न्यारा हया, भाई भतीजां ऊजन्ा रमि राम करया । नौकरी दृटी श्र गांव गरज ट्टी । लोगां री मींट ठंडी नहीं रेयी ! --दसदोख रदो-सं. स्त्री.--१ खरवृजे की काटी हुई पतली सी फांक । रेन-देखो--"रयणः (रू. भे.) ४२९१५ ~ = ~ =-= +^ ^ ~ _- ~~~ --“~---------- ~ ~~ ~~ ~~~ ~ ~~ -------------^~~ ए रंफारौ उ०--१ जनहरीया सत सवद म, सुरिल रत दिय पोय। माया कौ डर को नही, रहौ निसंसं होय । --श्रनुभव वांणी उ०--२ जिन श्रौ तीकं घन दीया, तिन कं लेखं लाय । माया सपनौ रन करौ, हरीया जाय विलाय । --भ्ननुमववांणी उ०--३ सेफरीयां सन्य सूंदरी, रमं राम दिन रन । उर परमानंद उपजे, स्रव श्रौरन कौ दुख देन । --भ्रनुभववांणी रवण, रवनौ-देखो--^रहणौ, रहवौ' (रू. भे.) उ०-- ठाकर भोपाठ सिघजी, गांव रा भोगता श्र जमीदार है 1 इयां रौ धरांणौ वडौ मालदार रेवती ्रायौ है । -दसदोख रवतत--देखो-'रेवत' (<, भे.) उ०-१ इक धारण तौ जिम चित प्राव, पूजं भेख जिकौ वर पा । सुणि चप करं प्रणाम सकाजा, रेवत चि श्राए जुधि राजा । --सु.प्र. उ० --२ सुखि खवर से दव्टवन् सका, रेवत . सिणगारं गजां राज । जगमग करि दरगह्‌ नग जहुर, पुर करं चित्र ग्रौछछाड़ पूर । -सु. प्र. रहट--देखो --श्ररट' (ख. भे.) र-स. पु. [सं.] १ धन, द्रव्य । (ना. मा, ह्‌. नां. मा.) रू. भे.--रा । २ राजा, च्रप । ३ सुसखघर । ४ स्यांमरंग । (एका) ५ संतोप, घय । ग्रव्य०-के। उ०--१ फतियो फिरितं फौज मां, भंडा र उरि भाहि । डोहा करिसं दीनियौ, मुस रे धर मांहि । -पी, ग्र उ०-२ कोईदूयणी सौ जायो श्री न्याव सञ्टावरियौ लावौ ई नीं । हचां हुचां पाघरा राजाजी रं गोडं वहीर ष्टा । --फुलवाड़ी रू. भे, --रद, रं कसं. प. श्रं. | पुस्तकं प्रादि रखने के लिए खचि का बना हम्रा ढांचा । रेकलियौ-देखो--“रकली' (ब्रत्पा;. रू. मे.) रकन्डौ-सं. पु- (सं. रेखा गतौ | १ वह छकड़ा जिस पर बहत सी वंद लगी होती है । २ एक प्रकारक छोटी गाड़ी जौ सवारीके काम श्राती है । यह्‌ प्रायः वलो हारा खींची जाती है श्रौर किसी किसी पर मंडप भी वना होता है 1 ३ एक प्रकारकीतोपनजोर्वलो, या घोड़ो द्वारा खीची जाती है । रू. भे.--रहकव्टौ, रेकन्टौ, रेखढ्टौ 1 व्रत्पा--रेकलियौ, रंवचियौ रकारौ-सं. पु--- (म्नो या नीच वचन) श्रे" या "तू" कहुकर ब्ररिष्टता + „~ ~~~ रफेट पूर्वक संवोघन करने फी क्रिया या भाव। उ०--१ बांका व्रिखफट नीपजै, ज्यौ विस तररीखठ यूं दुर्ज्ण री जीभडी, रंफाचै कं गाठ 1 --या. दा. उ०--२ जीकासौ श्रम्रतज्युं ही, मावे जगनुं भाकठ 1 ट रकायै ष्राक पय, गर यरावर गाठ 1 ---सा. दा. रू. भे.--रिकारौ, रेकारौ रेफेट-सं. पु. [श्र] १ एक प्रकारका डंटा जिसका प्रागे फा भाग या हिस्सा प्रायः वत्तृलाकार होता है । यह टनित कै तेत में गेद मारन के कामश्राताहे। २ व्ानिक परिक्षणों हेतु भ्राकाश मे वहत ऊंचाई तफ जा सकने वाला श्राकाश वाख के श्राकार का एक वहत चदु यन्प्र । रू. भे---राकेट रवदिपौ-देखलो--"रकलौ' (श्रत्पा., <. भे.) रेवनरौ-देखो--रेककौ' (₹. भे.) रेगर-देखो--ररगर' (<. भे.) (मा. म.) रंज-सं. ¶.-- वह सेत जिसमें वर्पाके दिनोंमें वर्पाती पानी भर जाता हो श्रीर उसमें रथी की फसल श्रच्छी होती हो! उ०--वांरीया रजपूत वांमण य ! रज रा मेत २० सेवज, फोहर ८ मीठा । -- नसी रेड्‌-देखो--'रहइ्‌' (<. भे.) रंडौ-स. प.--वड़ा पत्थर । (शोषावाटी) रंण-सं. पु, -- १ राज्य । उ०-१ सूर जग्गं सुम समय, भूम अनन जु सुमावां । रण सभां राव, मिटं श्रटफाव वधावां । ~शु, ख. उ०--२ गाहिया पिसण घणा वेर श्रञग्राहिया) मात गमियौ छितं करत हर मोड़ । कड़ी राव श्रोपियौी वादियौ वीकपुर, र'ण रप- वाठ कलियांण राले । --नगराज हमीर सूजावत री गीत २ देखो "रयण' (रू. भे.) +उ०--१ 'सेख' तजौ दशर समर, रेण वंट करहिक रायौ । तमँ विद्ध कुठ तरौ, मिखौ चित खंत पिटावौ | सप्र. उ०--२ चकवा चाकर चोर, रण विघ्ोवा राखिया । भ्रव मिट जावे श्रौर, (तौ) जतनां राख जेठवा । -जेखवां उ०--३ परिलइ पोहरे रेण कँ, दिवला श्रंवर दुल । घण कसतूरी हद्र रही, प्रिव चष रौ फूल 1 ---टो. भा. ३ देखो ररेणु' (रू. भे.) (श्र. मा.) उ०--१ विस्वाभित्र रं ज्याग सोभा वधारी, त्रिया रेण ष हत गोतम्म तारी । पति राप हूं देह पाई पलां, जिका दिव्य देहा हुई सत्तर जणं 1 -सू. भर. उ०--२ रचे लार गुंजार रोलव राजी, भगांणां भडां रोध प्रौ लव | ४२३६ रशारं भोजी नोत के, कामान ओदो) निधनता) भ यकन मिण पजक भाजी । चरगाह द्ूगरो दण प्ररि, षीके कं सीकर प रार । ~~~, शा. उ०--३ धाम मौरा पोवुर्णा फा तुमः गृणा + इड दिसुना रण फण, धाप न सव्मी स्या 1 ८ देयो "गहणी" (२. मे.) रणका-देमो 'रेगुका' (स. भै.) उ० द्री मेत पानि धानत एम, मकरी कोण गतं सितौ ह पार्थं । मदोमत्त दाप दूते हीमा मर, तिषौ रण वृत्र दीम जे । ~ म्‌, प्र. रणपत, रणति, रणपती-- देषो ^रयरापति" (स. रणप-प्. पु.- दमो 'स्यगा' (स. भ.) ॐ०--दुरि गयगा ररथं तागा रटने पापि माद्री पःभवाद्टो, रवपदाल्टी रथय । २ देगो “रगा (र भे.) र णयर--देगो !रनामरर' (स. मे.) (य. मा.) (अक ° र. ॥ करकैः ४१० पत्य यिय! फा ~ग. म्र, रणा-सं, स्ी.--{ पृथ्वी, भूमि। ॐ*--१ यमुधा रोगा सूरगी, सुरियां धन चित्मुरी संप्रा! फंड चप महायो, दुष रती हृद््रगुणरतदटे । गृ. म. च. उ०--२ मतो गमः कोधो जरं राणा माता, न्मा चात ्मीर्गरां तेम शाता 1 रणा वं थार निम्‌ मोदि रामा, कपी नीत्त ष्टौ फर षट्‌ फाजा 1 -- मू. प्र. २ र्न । ऊ०-- मि द्रवं पमे मोद माध, रणा हीर मोती भर सष सच । श्रोपं गोत्तिनौ लागा टना अपात तिक गण सागोत्त र भोमि तास) --सु. भ्र. [सं. स्न] ३ पूलि, फणा, वादु, रेत } उ०--१ गुटंयां सटेता दती नवि कीरे, च्छं पाय रेणा तरी रण्पु- वोर । भिथन्नेमरं ज्याग प्राग्‌ समीपे, दवा शूप भ्राए मिट नात दीप) भ्‌, प्र. उ०-२ पटना तुरा पाय पायाछ वाया, छितं रज्ज रणा उरं वोम घ्या ' चलता एसा मीर तीर चलाव, प्सी नीवतता सिगग सार न पावं। ---र. वचनिख [सं. रजनी ] रात, रात्रि} रेणादर-देसो "रत्नाकर" (रू. मे.) उ०--१ दद्र छभा किर भ्रमर, निडर राठौड निर्म नर! पह रंगा- हर पसर, घणी नवकोट छिहतर । --गू. र<. व. उ०--र भ्रुमंउ भेकपे, जांण रंणादर पटौ । प्रर काठ कलि- पत, प्रथी उतपात प्रगट । --गर-रू.-य,. रंणादे-देखो !रांणर्द' (रू. भे.) उ०--पीढटी पीढी कां्करौग्र, पीडीश्रा चिं फीरी दाद; रंणापत ` - रेवारी ~ ~ पीठो मुरजजी रौ घोडलौ से, पीठौ बहू रणाद रौ चीर । । -लो. गी. सणापत, रेखापति, रंणापती-सं. पु.--देखो "रयणपत' (रू. भे.) उ०-रणापती लखमसी रांखौ, जगमालम जेसी धर जण । भगवतसीह भांणंगसी श्ररा्ग, प्रथीसिग गरमेर प्रमांण । । -- महादान महडू रेषायर--देखो "रत्नाकर {रू. भे.) उ०--१ माहं गज दां, कोध कादम्म सरोवर । नह्‌ चूुटा जम न्यां, जहां संगम रणायर , --गु- <. वं. उ०--२ नमी जदुराज हठदर-जोड, रंणायर-रूप नमौ रण्छोड । तमौ सिसुपाढ मनावण॒ संक, जरासंय जीपणा सेन उजंक । --ट्‌. र, उ०--३ सवदी लग कोड स्रजाद रायसिघ, गहवंत रेणायर वड गास । ऊपर लहर सवाई श्रपतै, छिलतं छतरिया मननं छत । - । --द. रंणावर-देखो "रत्नाकर" (रू. भे.) उ०--कण मुक्ता घन कोस, भरि पणं प्रपत चिना --किरपाराम । दी्जं ॥ कासु दोस, रेरणावर न राजिया०। रंणावछि, रणावठी-सं. स्वरी. [सं. रजनी ] रात, रात्रि । सणि, सेणका, रंणो-से. स्त्री. [सं. रजनी] रातत, रात्रि । २०--१ श्रनत घाट घट मांहि रणि दिन घड़त टै, कचन हिरदा माहि काच लं जडइत ह --ह्‌. पु. वां. उ०--२ विडंगां खड सात्रव ्राय वगौ, निद्राट्‌्र नाहर नींद लमौ । दसी दन जींदय दाव दियी, श्रघररणि री चांदोई ग्राथ- मियौ । --पा. प्र. उ०--२ विलम न कीजै वीर रंणिका जांम है हरि हां जन हरि- दास निरमट रंग स्रभंग श्रजव विसरंम है) --ट. पु. वां. उ०--४ पहर चारू सहज वीता, भयो मूढ गमाय । गयौ वासर रंणी श्राई, नर चल्यौ खोटा खाय । --ह. पु, वा. र'णो-देलो रही" रू. भे.) उ०--जिंतर श्र नेडा जाय कहर लागिया जौ ठाकुर कटै छं कौं रमौ राखता था । जै पाच क्यौ वैठ रिया सीधा मोहडां वात कराहान। --सुंदरदास भादी विकूपुरी रौ बात रेणीचर-सं. पु. [सं. रजर्न।चर] निशाचर, राक्षस । ॥ वि.--१ रात को भक्षण करने वाला 1 २ रात कौ विचरण करने वाला । रेणोपत, रंणीपति, रंणीपती-देखो 'रयणापति' (रू. भे.) उ०- मिं मुनी महारुद्र, भिन्॒चंद्रणण भ्रच्छर । मिक्रं पंख ग्रामंख, मिं रेणीपति श्रम्मर । षि 9 > चदे न --म्‌ा. वचनिका र'णौ, र वो- देखो 'रदणौ, रहवौ' (रू. भे.) उ०--१ सोचे है--जुवान ₹ लारं सोक वणर रे"णौ चौली, कदं ही तौ सोन रौ सूरन ऊं । पण ब्रुं रौ घणी वणर र "णो खोटौ जमारौ धुखतौ ही जावे, वलं ही नहीं । --दसदोख उ०--२ गद संख श्र पींपकछामोक जिता श्रोखदां मे तौ वोत मारयां पड़्यौ ही रे'णौ चाही । -- दसदोख रंत, रंति, रेती-१ देखो ^रय्यत' (रू. भे.) उ०--१ पहु सभर लगि सामंद पाजा, रहसी दास दोय श्रनि राजा । कुठ पतीस सेव खव करसी, भूपति रंत जेम दड भरसी । - सु. प्र. उ०--२ ग्रौर क्रिया सव रंत रहै, तीरथ वरत समेतत । इस नगरी मे रेत वसत है, गुरु दिलासा देत -ल्ी हरिरंमजी महाराज उ०--२ राजा भयौ रंति रंति भई राजा, उपरि श्रासण किया । रीतु पलस्या रस फीका लाै, एकै रसि वसि जीया 1 --ह. पु. व, उ०--४ किस पर पररेजह नांम कोय, है त्रसपति इम हां रति होय । श्रयसै कोई दँ उदं प्रनेक, को गजनी मांडव श्चादि केक । बल भ्र, २ देखो "रेत' (₹<. भे.) उ. श्रीर क्रिया सव रंतदहै, तीरथ वरत समेत। इस नगरीमें रंत वसत है, गुरु दिलासा देत । -सरी हरिरांमजी महाराज रंदासी--देखो "राहदारी" (र. भे.) रेदास-सं. पू.--रामानन्दजी का चमार जाति का एक दिष्य जौ प्रसिद्ध हरि भक्त था , उ०--कहां लीन सुकदेव, कहां पीपा रंदासं । दादू साचा क्यों चिषे, सकठ लोक परकास । -दाद्रवांरी ङ. भे.--रविदास 1 रंदासी-सं. पु.--रामानन्दजी के दिष्य रेदास द्वारा चलाये गये सम्प्र- दायके श्रनुयायी । रन, रनि-देखो ^रयणा' (रू. भे.) उ०--दादू विरहनि कुरलं कूज ज्या, निस दिन तठ्फत जाइ । रांम सनेही कारण, रोवत रंनि विहाइ । --दादूर्वाणी रवारण-सं, स््री.--रवारी जाति कीस्त्ी। उ०--श्रवै हव्वै चालतौं दीठौ । पद रेवारण ढोलाजी कनं श्राय नीसरी तद ढोलाजी नं पचियौ राज.कठा सूँ पधारिया श्रां करं । पघारस्यौ 1 --टो. मा. रेवारी-सं. पु. [स्वरी. रवारण] मेड, वकरियां, व ऊंट चराने का व्य- वसाय करने वाली एक जाति विदे था उक्त जात्ति का व्यक्ति) | (मा. म.) उ०-१ किणं ई रवारियां र॑वाड़ां री सरण लीवी, किर (क द नवौ श 4 प भन ङु भीलां रा भूपा संभौत्यातौ कोई रा पग ठेठ चेतांरी वाजरियां मे जावेता टिकिया । --रातवासो उ०--२ श्रव ढोलौ बेदल थका हठ्वं ढ्व चलीया जाय छ ईसं सभ राएक रवार रधार्ण न लीयां श्रावं दै, --टो, मा. उ०-३ मुलतान रे मारग रौ घाड़ो श्रावं सो रात्त-दिन श्रस्नवार ग्रोटी दोडवौ करं । रबारिथांरादो सौञ्ठ दण दीज कमि ऊपर लाभिया रहै च्च) --सूरे खी काधढीत री वात रू. भे.--रदवारी, रवारी, रयवारी, राहयारी । श्रत्पा; --रन्वारी । रंबूद, रूदचौ-वि.-१ भोला डाला, भोला ! (ढा) २ वह्‌ जिसे सूर्योदय श्रौर सूर्यास्त कागुद्मी इलमनदहो। रहिदूत 1 र'म--देखो "रहम" (रू. भे.) उ० करणी री वातां फाजलवडेर'म सूं सुणी । ग्रजीज दिते सू भ्रापरी कोड में जगां दीनी श्र धीरज वंधायौ । --द्षदीख रं'मत-देखो ^रहमत' (रू. भे.) रे'म दिल-देखो ^रहमदिल' (रू. भे.) रेयत--देखो ^रय्यत' (<. भे.) उ०--१ ठाकरां खंखासो करतां थकां कंयो-हं सेवरौ वांध'र चाल सूं जद लोग हुंसाई हुसी । रयत कं जांणसी । -दसदोषख उ०--२ इण वास्तं रयत पणा श्रदव न लोप सकस) -नी. प्र. उ०--३ दज सीयासत खलक छोटा नै रयत रीत्त यी सौ पहली भोति तौ वाचं । --नी. प्र. रपांरा-सं. स्वी.- वह स्थान जहां पर्‌ गाविके लोग वड कृर एकत्रित होकर गप्प शप्प करते हैँ ्रौरभश्रफीमव गोष्ठी भी वहीं करतेरहै, वैठके, प्रथाई ! र. भे.--रेथांर । रथ्यत - देखो ^रय्यत' (रू. भे.) रे, रंठी-सं. स्त्री.-ठंडी हवा या शीतल हवा का भका । ॐ०---१ नरद-भोजाई भीजां, श्रम्मा, चोड चोधटै जी, टंदर राजा श्रम्मा मोरी, कोपियी श्रै, ठ्डी वी चाल रंढ 1 --सो. गी. उ०--२ चारा मिखतोडी सजनीं चितचावे, तारा गिखतोड़ी रजनीं वितवावें । रोमक श्री मे प्रावेस प्र.भ, सीकी री से चीस- छया सू । --ऊ. का. स. भे.-रछो। रष्टो-सं. पु.--कलंक्र, दोष । २ देखो “र८' (ख. भे.) रंबत--देखो 'रवत' (र. भे.) उ०-- १ 'सुराउत' डावि छती सार, मलेपियौ मयंद गति गयंद ४२३८ न रवाटीएकादसी मार । रवतत वंदि राठीड राव, चद्वियौ परडि पागड पाव । -गु. ₹<. च, उ०--२ भेलुं लोह प्रनेक मिलाऊ, म्रश्णा होय भजरा कजिं श्रां) रंत सहित होय रातंवर, कर सलाम रगियं किरमर ! -सू. प्र र॑वणौ, रंवयौ--देखो ^रहणौ, रहय" (€. भे.) उ०--१ एक जतन सत एष, कूकर कुर्मघ कमांरासां । छेड़ न सीरं चेह, रवण दीजं राजियः । --किरपारम उ०--२ वौ चोर हुमेसांकीं न कीं श्रंडी वेद वातां करतौ ई रवतो! - -- फुलेवादट्ी उ० -२ पीट्िया रं रोगीदइणएचांदरौनींतती पूरौ उजास 1 फगत ग्रपांराहुनररेश्राटी देव जड़ी चांदणी। नींव्दैतीतौ कांड कमी रवती । --पफुनवाडी रेवत --१ देखो "रवंन' (र<. भे.) २ देग्वौ “र्वतक' (रू. भे") उ०-संख मुखिष्टं जिणि पूरिय मूरिय हरि मनि जंपु, टोल टल- क्क्‌ रवतत दयत मनि श्राकपु । --जयसेखर भूरि रवतक-सं. पु, [सं ] गिरनार्‌ नामक पव॑त जो गुजरात प्रान्त मे श्राधू- निक जूनागद्‌ के पादै । इसी पवेत पर भर्जुनने वलाम की वहन सुमद्राका हस्ण श्रोकृष्स की श्रनूमति से, साधुवेषमे, चिन्रोत्सव में कियाथा। २ प्रियव्रत कै पुत्र तथा पांचवें मन्वन्तरके मनुकानाम। रू. भे.--रंवत । रवत्तीरमण, रवतीरवण-देखो भ्रेवतीरमशण' {. भे.) उ०--रवतीरमण सुत रोहणी, निराढ'व निरव नर। काठ घण पुत वंघच किसन, मयस रूप मदमांखागर । --पी. ग्र. रवांणनद, रवांणनवी - देखो 'रेवानदी' (रू. भे.) उ०-माछछां मह॒रांण मोरां मेह भिणधरां मठँ तर, गयंदां रवांण- नद पाठं वड गात्र । पाठं रितत-राव रूखां एागासर हंसं षाम, पाणां कत्यांण राच पाठं कचि पात्र! --गश्रासौ वारहड रवा--देखो 'रेवा' (<. भे.) उ०-रवा तटि वीरा, रान स्पराभिरंदां ! करक मुल्ावार रा केक पीर रा समद्रा । --सु.प्र रवाड्ो-सं. स्वी.-- चांदी सोने के पत्तरो या भोल के लक्डी का बना एक पालकोनुमा वाहन जिसमे प्रायः भगवान की सवारी निकलता करती दहै । रू, भे.--रटवाड़ी, रयवाडी, रवाद़ी, रेवाड़ी । रवाडीएकादसी-सं. स्वी. [ राज. रेवाड़ी सं. एकादशी] भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी जितत दिन भगवान को सिहासनारूढ कृरके वाय नगाड़ों के साथ जलादायपरलते जाया जाता है) रू. भे.-रेवाड़ी-एकादसी 1 रंवाढ्ठ +~ ४२३६ रोकड रवाढछ-सं. पु.--१ जागीरदार द्वारा खलिहान मे अपना हिस्सा लेने के वाद किसान के लिए खोडे हुए ्रनाज कौ राद २ देखो "रहुवादछट' (रू. भे.) रवास, रंबासौ -देखो "सहवास" (रू. भे.) | उ०-फाकौ सगां दिर, कातर तारे कांचढ । चर चरियां रोचादः फिडकलां फवती हाच , टीडी रौ मुदांम, जतन चिडकोल्या चौठौ । लटां संट रवात्त, घास फूं रो कोटो । --दसदेव उ०--२ मोकटौ मांण पावती, धरौ श्रादर दिरांवती, जद दही ती वीकासं जिसौ वास घछलोड"र, कां कोसां कुक माव रौ रवासन मजर केरयौहौ।. -- दसदोख उ०--३ विणा धांव खारी विखम, कोक. रं रेवास ! भिर री घरती नं गयौ, ्राणंद हए उदास 1 --पा. प्र. उ०--४ सीस्यौ कोट रंवासौ, खंडलौ तौ द्ंडाया । वारा गांव स्यांमां ने, ताया सो रहाया 1 --शि. व. रहृड, रंहड. , रहहू-देखो रह (<. भ.) रहणौ, रहवौ--रहणौ, रहवौ' (<. भे.) उ०--१ भाजा हुजदारां कल्यौ- जी, ये व्कुराई करौ) पण म्हान्‌ कहौ नाहीं । सावास, जु उतरि्यं पटे यानि गंम माह रहण रेवां छं । # --नरणसी रहछ-सं. स्त्री.--१ शीतल वायु प्रवाह्‌ 1 २ देखो "रह (रू. भे.) रासं. पु--एक प्रकारका घास विबोप ।. रोख-देखो “रू ख' (<. भे.) । उ०--म्हारे देसमे वाग व्रणं श्ररवागांमें रोल घणा) -नी. प्र. रोंखडो-देखो “ूख' (ब्रस्पा; 5 भे.) उ०--मोटा पुरुसा कही छै सरम धरम रे सेंखड़ा रीडाढठी दै) | --नी. ष. रो-सं. पु.--१ उदर, पेट. २ वाल, रोमावली. ३ ऋषि, मुनि ४ विमारी, रणता. ५ त्रसना। (एका.) ६ देखो रौ (रू. भे.) उ०--१ कालिका तुं हिज कवारी काया, मचा पारवती महमाई । सावतरी सीता सुर स्मणि, साधूडंरोहुवं सिहाई। -पी.ग्र उ०--२ सूपनखा रो खमरण, नाक वाद्यो निम नरि । निमौ ग्रकछि रुघनाथ, प्रनत पंचवटी ऊपरि 1 --पी. ग्र, रोश्रणौ, रोग्रवौ-देखो "रोवणौ, रोववौ' (रू. भे.) उ०--रोश्रती रमणि भीमि निवारी, मूं दिखाडि पशि जीणडइ त्‌ं मारी । काटि लोचन. करी ग्रणीयाछठो, श्रांरीज पिसुन ग्ररजनि साढा 1 --सालिमूरि रोघ्रावणौ, रोश्रावक्ष- देखो ^रोवाणौ, रोवावौ' (रू. भे.) उ०--एक नवि रह्इ पहर नइ घडी, एक भ्राढोर्ड्‌ शराडी पडी । थ्यु विखवाद पान नइ फलि, एक रोश्रावि मृह्‌.मि मुलि। । | --कां.दे. प्र, रोश्रावियोडौ -देखो "रोवायोडी' (रू. भ.) (सवर. रोग्रावियोडी) | रोइणी - देखो "रोहिणी" (रू. भे.) रोई-देखो “रोही (र. भे.) उ०--करड मचकूर चल कव चौभौ, जात मुरार हृजरुर जठ। रथवासण भरर रयौ विच रोई, त्रुट ययौ महमूर तः । -- भगतमाढछ सोईड-देखो 'रोहिडौ' (रू. भे.) रोरईतास-देखो "रोहितास! (रू भे.) रोक-सं. स्व्ी--१ रुकावट डालनेकी क्रियाया भाव) २ रुकावट डालने वाली वात, वस्तु या तत्व । ३ तिपेघ, मनाही ~ ` ४ प्र्तिवन्व । ५ कंद । उ०-तरे क्यौ “इरौ म्हारी बढ वारे इजत पाड़ी मोनूं रोक माह कियौ । --नणसी ६ देखो "रोकड (रू. भे.) उ०--१ कोरा ्रजन कमव री, हाथी निजर तुरंग । हीर जवाहर रोक रिव, भूषण वमण॒ सुरग | --रा. ङ. उ०-२ लाटौ करणा कामदार श्नावौ तरं प्रारी, घी, दांणौ लाभे सु लेसी। सेकलेणक्‌ं न पाव ¦ --नणसी उ०-३ तनं रोक रुपया देन्य, पीद्रौद्यंतेरी माय) तेरी र यहुवड ने देस्यू जाढी की कढवाय । --लो. गी. रू. भे--- रोका । रोकड-सं. स्वी. [व. घ. रोकड़ा| ! वहु रकम जिसमे से प्राय-वच्यय होता हि, नकद रुपया । उ०--१ दिन दिन लेखश हाथ, म्हारी सुंदर गौरी रे। सांजडली पडी र, रोकड सारता ही राज । --लो. गी. उ०-२ तीन लक्ष द्रव रोकड, चच उच्च पच्चीसं । निपट विनं घारी निजर, चपति निवारी रीस । --रा. रू. उ०-२३ रीछलं तमान, दाम दं रोड़ा । हैकड भंडा लगे, हाथ मे होकड़ा । --ऊ. का, २ मूल-घन, पृजी । ३ नकद रूपये देकर किया जाने वाला सौडा, व्यवहार, क्रय-विक्रय । ४ नकदी सौदोका नेखा नौखा रखने की वही, रोकड वही । ५ धवन, सम्पत्ति । --<. भे.--रोकः रोकड, रोकड । १, 9 ग +९५ १ रौकफडबही ~~ ~ ~ ~ ---- 7 ---~~-~- -- -~ रीकडबही-सं, स्त्री--नकद रषये कै लेन देन का हिस्राव लिखने की वही । रोकडवाफी-स. स्त्री---किसो निदिचत समय परर श्राय को जोड़ कर प्रीर उसमे से व्यय घटने के उपरान्त हाथ में वची रहने चाली रोकड या नकद रूपया । रोकडविक्री-सं. स्त्ी.-- नकद रुपया लेकर कौ गई विक्री । रोकड्भंडार-सं, प.--राज्य का साधारणा खजाना । रोकड्भंडारी-सं. पु---खजानची । रोकडियौ-स. पु.--नकद रुपये रखने वाला, खजांची । उ०--कमठांणं मार्थं मूनीम-रोकडिया छोड श्र फुलेचंदगी श्राप दिसावर कानी फाकं है । नामून रारूखश्रोपरेयारै --दसदोख रोकड़ी-देखो ^रोकड, (रू. भे.) उ०-१ पांच सौ रुपया रोकड़ी, वीस मण मिठाई मृत्सहियां हाथ उरं मेद्टी । -- गोपाठदास गौड री वारता उ०-२ वैर गूकंमें मेवरियी लाह, वैरी पागडी में रोकडी रुपटियौ, होढी ब्राई ए । --लो. गी. रोकड़ो (वहु व.-रोकड़ा) देखो "रोकड (रू. भे.) उ०--१ जां वेहला राजकंवार करौ ना भुवा वार्ईश्रारती । श्रार- तियां मे रूपयौ रोकड, प्रीर मंगाश्नी वाला चचूनडी । --लो. गी. उ०--२ राज, श्रा सपनामेंईनीं जारी कं म्द मूजी हूं । वधार रा पूरा समचार सुरियां प्ली रईर्म्ह्नं उण नै सिरो पाव श्र इक्कीस रिपिया रोकडा दिया । --फलवाडी उ०--३ दाढठद धर दोढौ हवे, परशि न श्राव पास! रुपिया हवं रोकड, सोरा श्रावं सास। --ऊ. का. सेकण-देखो रोक" (र<. भे.) रोकणो, रोकबौ-क्रि. स.--१ त्रधिकारतः बलात्‌ या भयसेकरिसीको भ्रागे जाने से रोकना, रुकावट डालना 1 उ०--१ तेज मे नाहूरलां नाहर से हाथू, ग्रौर श्रमरेस' गहै ज्रास- मान वाथूं । प्रागके जंन्याती रौकं नाग की सी नाई, सेल साहेटवाठ त वीटा दे वांई । --रा. ख. उ०--२ समभायौ समं नही, श्रंघौ मयौ श्रगौर । जम रोकेगौ दार नव, निकसन क्‌ नहीं सीर । --्रनुमववांणी २ किसीकोकोर्ई कार्ययापक्रियान करने देनाया किसी के कायं या क्रिया मे वाधा डालना। उ०--१ मयद वपव मोतिया, हेमां लांघणियांह्‌ । रहै नरी जुघ रोकिया, म्रौ घारां प्रणियांह्‌ 1 --वा. दा. उ०--२ नर नाहर कमघज निडर,है छंढ बढ हंसियार । कम कोट पातल' कर, है कुण रोकणह्‌(र 1 -- ॐ. का. ३ श्रादेश, प्राथना, वल प्रयोग श्रादिके द्वारा किसी केमार्गमें २४०५ रोकाणौ कोई एेसी वाघा या रुकावट खड़ी करना कि वहूश्रागे नजा सके। उ०--वांना वंधां रोकतौी सोक्तौ गौढां सरावढली, काठी चवा प्रोक्तौ संभाटी सोरण काज । ऊधु तोक्तौ मेण मावांणी' मफोकतौ ऊंडा । श्रायौ सूघौ कोकतौ कठी ने कालौ भ्राज । --जसौ श्राढौ ४ किसी प्रकार के चलते हुएक्रमयाप्रथाकोश्रगिन वढृने देना, वन्द करवा देना । उ०--रोको तं कुरीति रीति, सुरीतिको भोकी साथ । ताकत त्रिलोकी एसो, मत श्रवगाह्यी तं । --ॐ. का. ५ त्रिसी म्राघात या प्रहार को वीचमेही रोकने हेतु किती बचाव देः दास्व्र या उपकरणा का प्रयोग करना। ६ किसी प्रकारके नियंत्रण या श्रधिकार में रखना । उ०--केई दिनां सृं पड़ा भाव) रर्दस किरांणौ दहै, घणा दिना तक रोकणौ वाजिव कोनी । वेचां तौ वत्ती वात है। -फुलवाडी ७ किसी प्रकारसे वज्ञ मे रण्वना। ८ कैद में रखना या चन्द करना उ०--वारूवार श्रनस्मी कव नेत-वांघा, सांमध्रमी मीच जम्पी सुखादौ सीर । भफोखणौ द्धौ गंधडां छ्टखंडां सीस जाडं कड, केसरी न रोको छौ बाषटधौ । कंटीर । -किरपारांम कटठियौ ६ मना करना । उ० - तेरा कोई नहि रोकणहार, मगन होय मीरां चली । लाज सरम दु को मरजादा, सिर सेद्रूर करी । मान अपमान दोऊ घर पटक, निकली हूं ग्यान गदी । -मीरां १० श्रवरुद्ध करना । उ०--१ वीष्छडतां ही सज्जरा, क्यां ही कहण न लघ्य । तिणा वेलां कंठ रोकियउ, जांणाक ्िधी खघ्य । -दढी मा. उ०--२ नाद चिद कु उलटि कं, रोकं दसवें वार । जनह्रीया सुण सहज की, इन कू सुधि न सार , --श्रनूभववांणी रोकखहार, हारौ (हारी), रोकणियौ - चवि० 1 रोकिग्रोड, रोकियोड, रोक्पोडौ भू० काण कृऽ । रोकीजणौ, रोकीजवौ--कमं वा० । रोकाई-सं. स्त्री.-- रोकने की क्रिया या भाव । २ देग्वो "वार रोकाई' । रोकाणौ, रोकाबौ-क्रि. सण [स्कणौ व रोकेणौ, क्रिया का. प्रे. रू] १ किसी दूसरे के श्रधिकार, वलात्‌ याभयसेकिसीकोभ्नागे ~ जानै से सकाना, सकावट उलाना । २ किसी श्नन्यकोक्िसीके काये मे वाधा डालने हेतु प्रेरित करता । २ किसी तीसरे पक्ष के प्रादे, भ्रार्थना, बल प्रयोग श्रादिके दारा किसीकेमगंमें कोई रेसी वाधा खडी करने को प्रेरित करना न्न ______-------------- २४१ | रोखायत ` ५, क्रिया मे वाधा डाला हूम्रा.ः ३ श्रादेश, प्रार्थना, वल प्रयोग श्रादि के द्वारा किसी के माग में कोई सी वाघा या सकाचट खडी कराया हृश्रा होना कि वह्‌ ग्रागेन जा सके. ४ किसी प्रकार के चलते हुए क्रमयाप्रथाको गरामे न वदने दिया हु्रा, चन्द किया त्रा. ५ किसी श्राघात या प्रहार को वीच मे ही रोकने हेतु किसी वचाव के शास्र या उपकरणा का प्रयोग किया हुश्रा- ९ किसी प्रकारके नियंत्रण यां अ्रधिकारमे रखा हुग्राः 9 किसी प्रकार से वशम रखा हुश्रा. ८ कंदमेंरखायाबन्द किया हस्रा. & मना करिया हुगना. १० श्रवरुदध किया हृता । (स्त्री. रोकियोडी) | [सं. रोष +्रंग-+ ई] १ जोदा बाला, जोशीला, उत्साही । उ०-घानमाढी पाडा हुकमां चाडा सीख घणी, शेखंगी उपाडा द्रोण भुजां राह दूत । दसा ञचेड जाडा धसी माह वावराड़ा, दुवाह्‌ ग्रखाडाजीत वाडा रामदूत ! --र, ज. प्र. २ क्रोघ करने वाला, रोश वालाः क्रोधीला । उ०--अरध्ियांमणां धाट रौ गुलाली रहै सौख श्राठ्लौ, उसां सालो केका फत खाट रौ श्रधुत रोखंमी जलाली सत्रा थाट रौ वखेर राद्ध, प्रथीनाथ वाग्डौ माली जच्ाट रौ पूत । --राजा वक्रतरसिव रो गीत कि वह्‌ श्रागे नजा सके) + किसी केद्वारा किसी प्रकार के चलते हए क्रम या प्रथा को श्रागे न वढने देना, बन्द कस्वा देना 1 ५ किसी को किसी प्रकार से नियंत्रण या अविकार मे रखने को प्रेरितं करना । ६ किसी प्रकारसे वशमें रखने को प्रेरित करना ) ७ कैद मे वन्दं कराना । ८ मना कराना 1 £ श्रवरुद्ध कराना । रोकाणहार, हारौ (हारी) रोकणियौ -वि ° 1 रोकायोडी --भू० का० ० रोकारजणी, सोकाईजवौ -- कमं वा०। सोकावणौ, रोकाववौ--रू० भे० । सेकायत-वि ०--१ सोकने वाला, रसकावट डालने वाला! उ०--सीस्वद्‌ भुजां तोकायतां सावना, रां रोकायतां श्ररक रीः । राया भडज धक नयस रोखायतां, वीच कोकायर्ता "यण! वीज । -- रांमकरण मदड. २ कंदमे वन्द करने वाला । रोकश्नोडौ-भू० का० कू° --१ किव दूसरे के ग्रयिकार, वलात्‌ या मय से किसीकोस्रागे जाने से रुकाया हुमा, स्कात्रट लाया हुमा. २ किसी भ्रन्य कौ किसी के कायंमें वाघा डालने हेतु प्रेरित किया हृश्रा- ३ किसी तीसरे पक्ष के श्रादेडा, प्रार्थना, वल प्रयोग श्रादिके द्वारा किसी .के मार्गे मे कोई एसी वावा खड़ी करने को प्रेरित किया हृश्रा होना कि वह्‌ ग्रागे न जा सके. ४ किसीके द्वारा किसी प्रकारके चलते हृएं क्रम या रथा को भ्रागे न वढने दिया हुद्रा, वन्द कराया भ्रा. ^ किसी को किसी प्रकार से लियत्रण या श्रचिकारमें रखने कौ प्रेरित किया हृभ्रा- ९ किसी प्रकारसे वशम रखने को प्रेरित क्रिया हुताः ७ कद मे बन्द कराया हृश्रा- ८ मना कराया ह्राः £ श्रवस कराया हु्रा। (स्त्री. रोकायोड़ी) रोकावणौ, रोकावबौ-देखो भ्रोकाणौ, रोकावी' (रू. भे.) रोकावणहार, हारे (हारी), रोकावणियी--वि० सोकाविश्नोडौ, सेकावियोडी, रोकान्योडी-भू० का० ० । रोकावोजणौी, रोकावीजवोौ --कम वा०। रोकावियोडौ--देखो 'रोकायोड़ो' (रू. भे.) (स्त्री. रोकावियोडी) रोकियोदी--भू. का. कृ.--१ अ्रविकारत : बलात या भव से किसी को रू. भे.--रोसंगी ! सोल -- देखो "रोस' (रू. भे.) (श्र. मा.) उ०--१ उरवसि सची वाह गकि प्राणं, जियां रोख पाथर सम जांरौ } इम करतां रभ कोड इलाजा, रिख व्रत चित डिगियौ नह्‌ राजा । -- सू. प्र. उ०--२ वह घड़ मीन रुधिर उद्र बुडि, श्रगनि ख्प किलकिला पड उडि । मास पहाड़ वहै जिण माहै, श्रगनि रोख तिरं पर श्रणथाहै । -- सू. भ्र. सेखांनढ -देखो "रोसानठ' (रू. भे.) रोखाणो, रोखावौ-क्रि. भ्र.--कुपित होना, क्रोचित होना उ० _ जक उणहीज वेका नवी नवी रीका मोजां पावे । जको म्हौ- कम्विघ सारो सराजांम श्रांणएनै दीढठौ । सोग्रौ तौ सदाई रोखातौ न निरकूरतौ दीठी । --प्रतापरसिघ म्होकमसिघ री वात रोखागहार, हारौ (हास), रोखाणियौ--वि° । रोखायोड़ो-भू° का० कृ०। रोखारई्जणौ, रोखाईजवौ-- भाव वा० । रोखायत-वि. [सं. रोप~-रा. प्र. श्रायत] क्रोध करने वाला, कुपित टोने वाला । उ०--सीसर वद्‌ भुजां तोकायतां सावठां, रखां रोकायतां श्ररक ग्रो जानि सेका हृश्रा, रुकावट डाला ह्राः ^ किसीको रीभः । राछिया भडज धक नया रोखायतां, वीच फोकायतां "र्यण' कोई का्यंयाक्रिया नकरनेदिया हृश्रा म्रा किसी के कार्यया। | । 0 ~. --रांमकरणं महड . ~ >> ~ 99 -क 9 मे क ककण भेण क + 7 ४ 1 7 क ० अ 9 स का 52 त वि [1 ~~~ + ~= =+ ~ = ज रोचि रोलि, रोखी-वि. [सं. रोपिन्‌] १ क्रोघालु, क्रोधी । २ र्प्या करने वाला, ईर्प्याचु । रोग~सं. पु. [सं. रोगः] १ बीमारी) उ०-१ रोग सोक दूख पापरिण, श्रं मत करौ प्रवे | रही ग्रनीत श्रतीत विण, दाता हंद देस । --वा. दा. उ०-२ समापत भोग न रोग न सोग, जपंत निकेवद्ध केवट जोग । प्रत्यागम भौ लिव भक्ति प्रदीप, समागम सो तिव सक्ति समीप । --ॐ. का. २ पीडा, कष्ठ । २३ कलक, दाग। उ०--परणः घी पतसाह री, रजवट लागे रोग । चर श्रपष्ठर वीरम कहै, जांणौ सुरपुर जोग । --वां. दा, ४ व्यसन, श्रादत, स्वभाव । उ०--सरूपोत म्है थानः सावढ श्रोढखिया कोनी । म्हुन खुद नँ ई वातांरौरोगकीं चणौदजरै। खासी श्रचेढौ कर दियौ। --फुलवाडी (ह्‌. नां. मा.) ५ भेद-भाव । उ०--'जसवत' केतौ जाच्न, ले जावौ सव सोश । उत्तम मद्धम श्रघम रौ, राख्यीएकन रोग । --ऊ, का, ६ सात प्रकार के चौघडयो में तीसरा । (्रयुभ) वि, वि.-देखो "चौघडियी' रू. भे.- रोगस रोगकारक-वि. [सं.] वीमारी उत्पन्न करने वाला । | सोगग्रस्त-वि. [सं.] बीमारी या रोग से पीडित, बीमार) रोगचव्टो-सं पू.-- रोग का उपद्रव, वीमारी, महामारी । उ०--गड़ा पड़ वीगडं नहीं हरभिज गहूं, चड़ापड़ न श्रावं रोग-चष्ठी न फलं घड़ाधड़ लाय महमदनगर, भडाभड भवानी वोल भाद्धौ । -- खेतसी वारहूठ रोगण-सं. स्व्री--१ रोग-ग्रस्त स्व्री। २ देखो "योग" (रू. भे.) उ०--श्रंग रोगण मेटि ढकं पर ग्रोगर, क्रति श्रमोचणा रीति कियौ । प्रतपाठक वाद्छक रोग प्रजाठक, जोगशि चादकनेच जयौ । --किरपारांम २३ देग्यो "रोगन" (रू. भे.) रो गन-सं. पू. [श्र. रोगन] १ चिकनाई, स्निग्ध पदा तेल, घी । २ धी] उ०-१ क्परणां री मतवाट की, करसणा खारच खेत। नीर विलीखौ है नही, दत ग्रन रोगन हेत । --यां. दा. उ०-२ पिसटांख पमाला मोकला, भ्राटा रोपन अथडा' उदार चित कुमेर रा, कर भंडार खुला खुला रूडा | -वम्वतौ खिड्यौ ४२४२ रोगनी उ०-३ परूसवारं को ऊरड ठामिठखांम सं लमी। चंढी भोग ग्रनाजं के गंजू पर रोगन की दछौढ्छ वरी । - सू. प्र ३ लकड़ी या लोहे की वस्तुर्रों पर चमक लनेदहतु लगाया जनि वाला स्पिरिट, चमडे, रूमीमस्तगी श्रादिके योग से वनने वाला एक प्रकार का घोल, वारनिश, पोलिश्च । ४ मिद्री के वरतनों श्रादि पर चढाने कालाखश्रादिसे यना दटृभ्रा मसाला । ५ तेल । ६ त्रादामका तेल । रू. भे.-रोगण, रोगान । रोगनदार-वि.--[ फा. | जिन्न पर रोगन क्या हुभ्राहो। रोगनासक-वि. [सं. रोगनाञ्चक] रोग का नाण करने वाला, व्याधि को दूर करने वाला । रोगनिदान-सं. पु. [सं. रोगनिदान] किसी वीमारी के लक्षण भ्रौर उत्पत्ति कै कारण श्रादि की पहचान । रोगनिवारक-वि---वीमारी को उत्पन्न नदीं होने देने वाला । उ०-नमी हरि श्राप घनंतर होय, नमौ सव रोगनिवारक्‌ कोय) नमौ ध्रम-देह विसंभर धार, नमौ धर व्यापिय सोय मुरार । . द्र रोगनी-वि, -- जिस पर रोगन चढाहूश्राहो। उ०--घड्‌ पडं सि घमसांण, प्रजठत मुगछ पठांण ) रोगनी खभ चिताम्‌, विकराकछ कक विराम । सू, प्र. रोगलो-देखो “रोगी' (ग्रत्पा. ङ. भे.) (स्वी. रोगली) रोगवाठे-वि.--रोगीला, रोगी, वमार) - (डि. को.) रोगहर, रोगहारी-वि-- रोग को मिटाने वाला । (डि. को.) स. पु.-१ वद्य, चिकित्सक । | उ०-लायौ जाय रोगहूर लांगौ, पिलंग सहतौ सुण प्रवछ ! दें जाग रीं कपि ददा, दुह सोढा रांमदढठ । २ एक प्रकार का रत्नं विशेष । उ०-मरकत करकेतन पद्मराग पुस्पराग वजर वदस्य सूरयकाति नील महानील इद्रलील सवकर विभकर ज्वरहुर रोगहूर सलहर विसह्र हरिमणि चूनडी"ˆ"*" भ --व. स. रोगांन-देखो "रोगन (रू. भे ) उ०--भांति भांति के पकवान भति भातिकं श्रनाज । रोगान मसालं स सूलं की सीक वणावं । अनेक भातिकेसागतित्नकापार न पाव । --सू. प्र. रोगानी-चि. [श्र.] स्नेहयुक्त, घी या तेल में वना हृभ्रा पदाथ । उ०--मांति भांति का मसाला रोगांनी रोसनी केसरिया चक्खी भाति माति की मिठाई -सू. प्र. स रोगातुर ४२४३ रेडी रोगातुर-वि.- रोग से भ्रातुर, वीमारी से पीडति) रोगित्त-वि.-- रोगी, वीमार। (डि को.) रोगिय-देखो रोगी" (ङ. भे.) रोगियौ-देखो "रोगी" (अल्पा. रू. भे.) रोढणौ-वि- [स्त्री. रोडणी] १ रोकने वाला, अवरुद्ध करने वाला । , २ वजामे वाला । उ०--हण्‌ जिसा किंकरा पधारे, कं कंकरा हल्ला । जुंधा जीते श्रनंक रा, रोडणा जोवार । ---र. ज. प्र. उ०--रोगियौ श्राप माथै रिणौ, रोज दुख सुख नही रती । मोहनी रोड्णो, रोड्वौ-क्रि. स.--१ नगाड्, ढोल, श्रादि बजाना । देखि धरमसी महा, जांखं तोदन हज जती । --ध्‌. व. ग्र. रोगिल-देखो "रोगी (<. भे.) उ० -- कूमरि मंगावी मीनति करी, दीन्ही ऊमादं कश्ररी । काली ग्रजीन मानी वातत, रोगिल देस गंड गुजरात । दो. मा. रोगी-वि. [सं. रोगिन्‌] रोग से पीडित, व्याधिग्रस्त, वीमार। (ड, को.) उ०--१ जुगति विनां जोगी मृंवा, रोगो श्रोखद खाय । नवि श्रोखदी वाहिरौ, जीवन कंसं धाय । --्रनुभववांखी उ०--वैद मूंवा रोगी मूंवा मवा जुग जेहन! हरीया हरिजन मूवा, हिरदं हरि फा व्यनि । --प्रनूभववांणी उ०-३ पीलिया रोमी इणचांद रौनीतौ पूरी उजाखं। ॐ फ़गतग्रपांरा हुनर रं शराडी देवं जडी चांदी । नीं वैत तौ कोई कमी रवती । --फुलवाडी ङ. भे.-रोगिय 1 ग्रत्पा;ः-रोगलौ, रोगियौ, रोगि, रोगीयौ, रोगीलौ । रोगोयौ-देखो “येगी (रू. भे.) उ०-१ एक ग्रोखदी वाहिरौ, विरह विधा नहीं जायं । जन हरीया जुग रोगीया, श्रनत श्रोखदी सराय 1 --श्रनुभेववांणी उ० --२ हरीया सव जुग रोगीया, ग्रोखद खाय न एक । एकं । भ्रोखद वाहिरौ, मरि मरि जां हिं अनेक । --भ्रतुभवर्वांणी रोगोलौ -देखो "रोगी" (रू. भे.) उ०--रहिया रोगीलादह्‌, वोहछी विधा वियापियां । वेदनि वौच- रि्यांह, तूं दारू भिदखियौ देवजी । --वोत्हीजी (स्वी. रोगीती) रो-सं. पु.--१ नमारा, नक्कास। सं. स्वी.-२ कंद, वन्दीखाना 1 [श्र.] ३ सड़क, रास्वा, राजपथ । वि.- रोकने बाला, वाघा उपस्थित करने वाला } देखो "रोड" (मह्‌; ङ. भे.) रू. भे---रोड । रोड़क-स. पु.--घावा, हमला । उ०--तद जांणीजे धाव जवरौ, नहीं तौ मोहनरसिह इसा लोहा नूं छोड करईक तखत दरी पठ कन्दी खड्ाथा त्यां सांम्ही सडक कीन्ही । --महाराजा पदमरसिहजी री वातत ^-^ ~~ “~~~ - न 0 नभ [त 1 भन ~ 9 + ए १५ ~= चन [1 य ' अ न ~. ~ उ०--१ नमौ तुभ प्रातम सकति दुरंग श्रनड़ां नण, रिमां दं काट तंवाट रोड ' हौड करता जिकं लड हाथुं कियी, जिकं हाजर खडा हाथ जौडं। -दुरगादास श्रासकरणौत राठीड री गीत उ०--२ रोड वंवीलां श्ररावां सोर धमावं जागियौ रोस, सेस धु नमावै कड लागियौ संजाट । भ्रुप उदछाहुरां सां महंडां तरिदां भेड, रमिड़ गरिदां छेडं नाहरां रंजाट । -- महारावे राजा रांमरसिघ हाडा रौ मीत उ०--२ एकं सहस मुखि त्रिरा श्रधारं, वचिया नवेन भूप भड वारं । रण करि फं वरंवक डंड रोड जोए कूवर सीस धड़ जोड । --सू- प्र. २ रोकना, श्रवरुद्ध करना । उ०--मन तौ उणरौ हवा रं साग उडउतौ, उजास र भेष्टौ पलकतौ, चदणी साथं कोला खावतौी श्रर वादं र मार्थं हीडतौ, पण काया उरी गवाड़ी री कार रं मांय रोड्चोड़ी ही । --फुलवड़ी ३ पेरना, भ्रावेष्टिति करना । उ०--१ एकौ लाखां श्रांगर्मे, सीह कहीजं सोय । सुरां जेथी रदं, कठ हुछ तेथी होय । --हा. का. उ०--२ कुरुदक श्रति मोड बंण॒नी कोडि धोडडं, रशि नरवड रोडडं एह नूं मान मोड । --सालिसूरि ४ वोलना, कहना । उ०--रातौ शुभः विखम वच रोड, जवर इसौ कृण जोमंड, मौ ऊभां संकर चौ कोमंड, तांरा भीच करिण तोड । --र. रू, रोड़णहार, हारौ (हारी), रोडणियौ--वि° रोडिश्रोडो, रोडियोञ्ध, रोव्योडो--भू० का० कृ० । रोड़ोजणो, रोड़ीजवौ--कमं बा० 1 सोडियोडी-भू का. क. - १ ध्वनि उतपन्न करिया हुश्रा, चजाया हश्रा. २ रोका हुषा, प्रवर किया हुश्रा. ३ घेरा हरा, भ्रवेष्ठित किया हुश्रा. ४ बोला हु्रा, कहा हृश्रा ) (स्वी. रोडियोडी) रोड़ी-स. स्व्री.-- १ जहां, मोवर, पच, पखाना भ्रादि खालते है । उ०-- मूख रोड़ी रं मांहिली, पर काचडा पुरीख । परकर रोडी खव पर, से चंडाल सरीख । --वां. दा. २ नमाडेया दुंदभिकी घ्वनि। |, ^ --चनण-ध् तेरी “ “४९४४ ~~ "ज छा ता 2 उ? ---गडदै गयंद करता गोड, सुंडता दर्मामां हुय रोडि'1 द्रम्मी एक । + = 1. वाजे घोड़ा दौडि, पत्थर पंथां भाज पौड़ । , --गु. र. वं. ४ गोरोचन । , ५। - ३ एक प्रकार का.वाद्य विदेष। , ५ घोडेकी गदन के वालो का भरुड़ा।,, उ०~--१ जोड़ी हदा घोर जम, रोड़ी हदा रवि । हुं-पचहारी स्वरी. सं.--६ सृन्दरी,स्तरी।, लसी" वारी बालम श्राव । |, --वौ. स रोचनो -सु वी. १ , गोरोचन ॥, । उ०--२ चडं वेल वरियांम, सुजढ त ग्रागठ चंचल । गरजि नाद | २ वसुदेव की एकु पत्नी का त्राम्‌, जो राजा देवककी कन्या थी, गंभीर, रोड रिणतूर व्र॑वागठ । ॥ --ग. रू. वं. इसके हेम एवं हैमांगद नामक दो पुत्र हृए ये । उ०-३ ववेक नीसांण रोड तूरारव, भेरी गृहीर सह्‌ ए) वरधू ३ विदर्भराज रुविमन्‌ की पौत्री, जोकृष्णा के पौत्र श्रनिरढकी नफेर डोड सहनाई, जांणक मेषं नद ए । गु. रूवं. | पर्टनी्वौ भ सैकां विवाह भोजकटपुर मे सम्पन्न हृग्राया। रोड्-सं, पु.- १ पत्थर या ईट करा वड़ा देलां। , । ५. कमल । ^ ॥ कुरूप, पसतूरी काय वुल । सवर घण सुरूप ५ सुंदरीस्तीप. १ 8 ॥ उ०--कल्ठी घणी कुरूप; कसतूरी कांटा तुलं । सक्कर धणी सुरूप, ० रोडां तुल राजिया । . - -किरपारम | रोचमांन-वि. [सं. रोचमान | १ चमकता श्रा, चमकीला । २ विघन, वाघा, संकट 1, - २ मनोर न्दरं प्रिय 1१ ३ देखो खडी (र<. भे.) उ०--मतौ धारि पूरव्व वन्नीत मेले, पचीसेकं रीड कपी साथ पेल 1 रमा वेस सात वली उत्तराघ, चिन कोडी यक्कोस जं धार सं. स्त्री--१ घोडे की गर्दन पर कीं एक भंवरी । (शा. हो) सं ` पुप-+२ एक राजा, जोः ग्रडवग्रीव नामक श्रसुर के श्रं से उत्पन्न हूश्रा था । - ॥ क्ती ४ 4 1, वाधं | -सू.प्र. ३ राज्य जो भारतीय युद्ध मे द्रोणके हारामारा गया था। रू. भे.---रोड़ी, रोढो । रोचि, रोची-सं. स्वरी. नसं. रोचिर्घु].१ -दीप्ी, कान्ति, प्राभा। & मह.-5. भे रोड । २ चारों श्रोर फली हुई शोभा । ३ किरण, रदिम । । उ०-पखं जारज म कौ श्रनेरां पतगरं. करं सोभाग श्रातम सकत कोड । हरे विकटोरिया रवी रोचीःहुवौ, रजं तण खुद बढ ग रूप राटीड । । --किसोरदांन वारह्‌ठ रोज-सं. पु. [सं. रुदन ] १ रूदने"रोना-पीटना । ०--श्रवरूक वना रौ उरियारौदेखुं तौ म्हारं सछीका ऊठ 1 घोड़ी माथंटेल ने पाधौ श्राय दातारौ पर्छ तौ महन मतं ई रोज ` रोड-मोडो-सं पु -युदध लड़ा, मगडा कलह । उ०-ताहरां सिखरो तमकि श्र घोडं प्रसवार हुवौ । त्ाहरां " भीटिग हाथी हूय श्रा श्रथिं फिरियौ ।सवठा 'रोडा-मोड हुभ्रा । ' ` -मैरसी रोचक--वि, [सं.] १ रुचिकारक, रचने ' वाला, ` ्रच्छा लगने वाला, प्रिय । ॥ २ मनोरंजन करने वाला, मनोरंजक । ति ~ ५ १# श कना, रोचकता-सं. स्वी.--रचिकर्‌ या मनोरम होन की श्रवस्या या भाव, 0 ^, मनोहरता । । ि ५ ४, भ ” - + ०---१ तन दख नीर तडाग, सेज विहंगम रूखडी ' विन रोचणो, रोचवो~क्रि. ्र.--सोभायमान होना फवना ॥ सती पृख वाग, जरा बरक उतर जवल । भौ चवा दा उ ० --परतख पग जठती पेखं नह पाई डंगर "वदती -न॑देखं दुखदाई । रचनां र्ईस्वर > री ईस्वरता रोच, संमदम सद्धं धरिण संभव नह्‌ सोचं । , -ॐ. का रोचणहार, हारो (हारी), सेचणियो--ब्रि० । रोचिग्रोड़ो, येचियोडौ, रोच्योड़ो भू० का० कृ०। , रोचीजणो, रोचीजवोौ--भाव वा० । . रोचन-वि.-[स.] १ शोमाप्रद, दीस्िमान, मनोहर, प्रिय । २ पाकस्थली सम्वन्वी । उ०-->२ महिमत देता मोज, घर वठां घोड़ा घणा । रोच्यां केरी रोज, निजरां देयौ नोपला ... . --प्रग्यात [फा. रोज | ३ दिन, दिवस. उ०--१ तद कोटवार क्यौ, “श्रे हिरण तुमारानही है, च्रे तो हमार यहां वौहत रोज संह, जो तुम कहते हौ तीन रोजहूवा दै | सौ भूठंदहौ ^" --द. द्रा. | + उ .--२, कमणत कही, “म पेखा यलम देवंगा, सो इनका तीर हाथी मांयन ग्रटकंगा ।'"-सौःग्रवेषरो्तीर वाव है सो दोय सं. पु. [ सं. रोचनं, रोचनः], ३. कामदेव .के पांच. .वाणो मसे | 5 +भ्व्यार रोन-हुग्रा । श्ररया- करवां समाई । --राहव साहक"री वात वष { ॥4 श ५1. 4 रोजगार रव्य --४ प्रतिदिन, हमेशा । उ०--१ आआ्लिगी निज हुरदयसरोज, घर घणु प्रेमं रोज ! समा- दिसति भूपति कत्यांख, कुसलं श्रत वरत्तइ सुवि्हांण । --वि. कु. उ०--२ जनहरीया जहां जाईयं, `पखापखी नही काय । मूवां सोग न्‌ सोदरौ, रोजन रोव भ्राय। --म्रनुभववांणी ५ देखो-^योभ' (रू. भे.) रू. भे--रोजि, रोजी । रोजगार-सं. पू.-- १ कायं, वन्धा, पेडा । उ०--वरसौ, तिलोकसी, ददौ, रायपाल रावढ जेसल कन्द रहै ) इण नूं सवणीपरं रौ रोजगार जिसड़ौ सवण हवं, तिसडौ श्राय मालम करं । । --तिलोकसी भारी री वात २ जीवोकौपाजेन करने के लिये किया गया कार्य, व्यापार । ३ वाणिज्य, व्यापार, व्यवसाय, ४ वेतन, तनस्वाह्‌ । उ०--१ ह्म गाव संसरामि रौ प्रा सतेमसानं वटौ सेरा श्र दिल्ली म पातसाहजीरी चाकरी वोड़ां हजार एक सूं करता हाप वगसीसूं वणं नहीं! सू रोजगार मिट नहीं वरस दस हुवा ब्रस्वाव चेच खाघौ । -द. दा उ०-२ ताहरां रिणधीर पण कटक कियौ । रोजगार सारान्‌ चृकायौ । रजपूरतां सारा ही कद्यौ--याहरं साथ छां । - नरसी उ०--३ ताहुरां राजा पडवौ केरियौ--जो चोर म्हारं मुजरे ग्र्वेतौ चोरी री तकसीर साफ करू, सिरकाररी रोजगार कर देवं । --राजा भोज प्रर खाफर चोररी व्रात ५ दिन भरे कयि गये परिम का पारिश्रमिक, मजदुरी । ६ देखो "रोजी" (रू. भे.) उ०-तिणसू पुण्य रं ठिकाणौ कर उण रा मिनल पूजाप्रभू री ' नृ राख, ति रा रोजगार री भली माति खनरलेय। -नी.प्र, रोजगारो-सं. पु. [फा. रोजगारी] १ व्यापारी, सौदागर । २ देखो 'रोजमार' (रू. भे.) उ०-- दज पाठसाच्धा स्थापित कर पंडित तालवेदल्म रोजगारो वंठणै तिकँ धरम सास्र जे खलक नृं भणा्व तिण रौ पृण्य उण नू होय । --नी. प्र. रोजगारो-सं. पु.--रोजगार पर कायं करने वाला व्यक्ति । उ०--लं भड़ं रटाकां पूर भ्ररिदा ताडव्वा लागा, महावीर खीज मे पाडव्वा लागा मृट्‌ । वीर वैसतावा जहां दवारा काडव्वा लागा, रोजगारा खाती ज्यू फाड़व्वा लागा रूढ । -- सुखदांन कवियौ रोजनांमचो, रोजनांमौ~स. पु. [फा. रोजनामचः] १ प्रतिदिन के काये का विवरण लिखने की पुस्तक ! उ०--वता, म्हारे इण दख रौ रोजनांमचौ दुनियां री सगद्टी ४२४५ रोजीदार वहियां मे किरी जुग परी ष्ठ सके कांड । वेटी ] म्हारी अमर पायां विना इण दख रौ मरम धारं हीयं परस नीं करला ! --फुलवाडी २ प्रतिदिन कै श्राय-व्यय का विवरण लिखने की पुस्तकं । रोजमेव्ट-स. पु.--१ हमेशां के नकद लेन देन का विवरण रखनेकी वही । २ द॑निक हिसाव का मिलान । रोजानिा-क्रि- वि. [फा. रोजानः] नित्य, प्रतिदिन, टमेशां रोजाईद-स. स्वरी. [फा. रोनः+ग्र. ईद] मुसलमानों की रोजो के एेन वाद भ्राने वाली ईद, ईदृल फित्तर । रोजायत्त-स. पुः - मुसलमान । (डि. को.) उ०--रोजायतां तणे नव रोज, जेथ मुरसाणां जणौ जण । हीर नाथ दिली चदहाट, "पतौ न खर्च खत्रीपणा ! --प्रथवीराज राठौड़ वि.-- रोजा रखने वाला । रोजि--१ देखो “रोज' (₹ू. भे.) उ०--ग्रासथांन सदवटा अ्रासता, संसत परखद समिति समानि । समिजा गोहि छमा सुजि सोहै, रोजि हुव चरचा त्रजराज । -ट्‌, ना. मा. २ देखो "रोजी" (रू. भे.) । रोजिना--देखो "रोजीना' (रू. भे.) रोजी-सं. स्वी. [फा] १ नित्य का भोजन, जीवन निर्वाह का ग्रवलम्व । उ०---भिपाही श्ररज कीवी जरम सिपाही छां सेनी ₹षमां चाकसे रौ उरादौ राखां दं । --टूव््ची जौदयं रीवारता र॑ जीविका] | ३ तनख्वाह्‌ । उ०--तदं दीवान नौ मृहूरौ करय दियौव रुपया वब्रीस हजार दिवाय रोजी ची श्री सौ चूकती दिराई । -ट्ण्ण्ची जोय री वारता ४ प्रारन्ध, भाग्य | उ०--दादू रोजी रांम है, राजिक रिजक हमार । दाद्‌ उम परसाद सौ, पोस्या सव परिवार । -- दादूवांणी ५ देषो - "रोज (रू. मे.) । उ०--कमरात की, “मे एेसा यलम देर्वृगा, सो इनका तीर हाथी मायन श्रटकगा। “मो श्रव रोजीतीर वाव॑) सो दोय-च्यार रोज हुवा । श्रु या कवांण समाई । --राह्व-साहव री वात रू. भे--रोलि रोजीदार-सं. पु. [फा.] १ वह्‌ व्यक्ति जित रोजाना खर्च रुपया मिलता हो । कश भ प्के भ स गन ~ त =+ ति 1 ~ "+ क-म क रोजीनदार ४२४६ रोर „~ _]--------------~~_________~_____[_[_[_________-_~_~_~~_~_____ २ ह्‌ व्यक्ति जो किसो रोजी (नौकरी) मँ लगा हो, नौकरीदार 1 रोजीनदार-सं. प--दनिक मजदूरी लेकर कार्यं करने वाला, मजूर । उ०--पछ रिपिया ढसौ रोज खरच रौ सक्को मेलियो, सो नाकारौ मेटिहियौ, कही म्ह तौ सोजीनदार नही, गहं तौ कजिये रा धणी छां, वावेजी रा दरमण कस्णीनंही श्राया छां । - सूरे सीव कांधलीत रौ वात रोजीना-वि.- निच्य का, रोज का । उ०-- तद राजा वोत मेहरान हूय, गाव श्रेक पट दियौ, रुपिया पांच ५) रोजोना कर दिया । राजा भोज श्र खापरंचोर रो वति क्रि वि.- नित्य, प्रतिदिन, सदव । उ०--१ श्राप सोजीना कहता हा म्हारा कत नेप्रतौ वधंदहै सो श्राज इण जुद्ध मं देख लेरावौ श्राप रौ देवर इतरा वधिया जि रौ प्रताप हाथीयां रा दति उघेलं है । -वी स. टी. उ०-२ यौ लिखिया रोजीना श्रावं, सरव दिली री विगत सुणावं । वाघी ह्र मुहुकम री वार, सदां दार फिर हित साधे । --रा. छ. उ०--३ करणरसिघजी श्रीरंगावाद विरजं है । उठं करणपुरर्म स्री करनीजी रौ पिदर करायौ। सू प्रजेस श्रारोग्ण रौ रोजीना 1 --द. दा. उ०--४ रोजीना श्रापस में वेढां हूर्व, सु सारा डीलां कट निवडि- या । मोहिलां री ठकुराई निवढी पड़ी । -- नरसी रू. भे.-रोजिना, रौजीनी रोजीनी-देखो "रोजीना' (<. भे.) उ०--श्रौर महा पुरुषां रे रणं नृं टोर वणाव उवं उठे श्रारांम सूं रहै उणारे खांणं पीणं श्र पहस्णौ रौ रोजीना करं तौ पुण्य पहोचं । -नी. प्र. रोजीविगाड़-सं. पू. - जीविका निर्वाहि कै लगे हुए साधन को छोड़ने वाला, निकम्मा, निखटु, । रोजु-देखो-“रोजौ' (रू. भे.) उ०--जे नितु रोज करद, नितह्‌ निम्माज गृंजारदरं । पंच चखत ममधरदं, घणी जं एक संभारं । --व, स. रोजेदार~सं. पु [फा. रोने~+-दार] रोजा रखने वाचा. मुसलमान । (मा. म.) रोजौ-सं. प.--१ व्रत. उपवास । उ०-संघ्योपासन तजि वांग माज, निस दिवस वृ्रु रोजा निवाज । सामरत्य मिह्‌ हम नहि खगा, गौ मासि नाम पै देत गाछ्ठि --ऊ. का. २ मृ्षलमानो द्वारा रमजान के महीने मेरखाजाने वाल्ा ३० दिन का व्रत, उपवास जिसके श्र॑तिम दिनं चन्द्रदशेन होने परर ईद होती टै। उ०--१ रोजा तीस दिनं का राखे, सारं पंच निवाजा। मन ग्रपना कूं मार नाही, मार मरगी ताजा) --ग्रनुमववांणी उ०--२ पांच वखत करि वंदगी, रोजाराखो तीम्रजी। देव दसुंव टं नहीं सही विसौवा वीस्त । ह --दीन नुदरदी ३ देखो ^रौजौ' (रू. भे.) । उ०--पीर वहवुलहक रौ रोज मूलतनि राकिलामे। पीरसताह्‌ कुल श्रालम रोही रोजौ मृल्तान राका मेदै। ~ वा. दा. स्यात्त रू. भे.-रोजु । रोसं. स्त्री. [स्ती. रोड़ी] १ नर नील गाय । उ०--१ सूत्र संवर समा सीभ्राठ फिरडं ्रहिडी तीह ना काल । हरिण रोक जद दीठडं किमई्‌, श्रागलि मरण ति पांमद्रं तिमद । -वस्तिग उ०--२ दस दस्स कोस मुकांम इरा, युरम चेल सिकार ए । संधरं नाहर रो प्तांवर, श्ररस पंखभ्ठतार ए । -- गु. श वं. उ०--३ गरदां धर्‌ प्रवर गृाच्ियौ, घमछछा्मिर दुंगर वृंधुखियौ 1 कटकां विच मीर सिकार कर, भ्रिघ नाहर संवर रो मरं । --गु. र. वं. २ नील गाय के मिलते जुलते रग का एक घोडा विदोप । रू. भे.--- रोज, रोभौ । ग्रत्पा.,- रोड । रोभूडो--देखो सो' (ग्रत्पा;- 5. भे.) उ०-- १ काटवा कुही करडी कियाह्‌, हांसला हरेवी नइ हनाह्‌ । येभड़ा महृड़ा पीत रंग, तोरकी केवि ताजी तुरंग । --रा. ज. सी. उ०-२ बड़ वेग उडत मघ गरुड 'वेत, कागडा केक भोहा कमेत । रोभडा केक भसमये रंग, तांमडा केयक नुकरा तुरग -पे. रू. (स्त्री. रोफदुी) । रोभौ-देखो "रो्' (रू. भे.) उ० ~ रोभी निला गंगाजल, हंसला नण काजक! शर॑स सेयाहा ग्रञउव, खग रोहल हान्रूव । --गु. <. वं. रोट-सं. पु.--१ मोटी रोरी, वडी रोरी । उ०--१ भोगवं कू जुन, खून गन ते भरौ । काम चून को रोट, न लून की करी । --ऊ. का. उ०--२ वारट भकरोखं वंसिसे, काम हद कौटि । "रखी" वडी राज मा, रांणी करिसं सेट । -पी. म्र. उ० -३ खाय रोर जद टस होयग्या, दीना पलंग दढाय। कुरड च __ ___ __ ------------ + कुरड़ हङ्घो ठर्ट्ावै, गूदडा दिया प्रकडाय । मारुणी घणा कमावणी । ` --लो, गो. २ प्रत्येक मंगलवार व शनिदचसर्वार के दिन हनुमानजी को चढाई जाते वाली वड़ी व मोटी रोटी । ङ. भे--रोटी, रोठ । रोटकौ--देखो 'रोटौ' (अ्रल्पा- ₹- भे-) रोटडी- देखो रोटी' (ग्रल्पा- ₹. भे.) रोटाक-वि'--१ ज्यादा भोजन करने वाला 1 २ दूसरों के घर जाकर भोजन करने वाला । सेसे-सं. स्तरी.--१ चक्ले पर गेहूं, जो ञ्रादि कै ्रटेकोवेल वना हुई चपाती जो श्राच पर सेक कर भोजन के रूप मे खाई जाती है । ड०--जद हाठीडा घर चै श्राया, दीना थाठ लमाय। सेर-सेर दूचड़लौ घाल्यौ, दो-दो सेव्यां माय । मारूणी, घणी कमावणी । ॥ --लो. गी. २ उक्त खाद्य पदा थ के सिवा, चावल, दालः तरकारी श्रादि के साथ एकं समय प्रायः एक सज्य वनाई जाने वाली कु विदिष्ट चीजें, रसोई । । उ०- दोय रुपिया रा गेहुं मेल्या श्रधेली ना मुंग श्रनं एक रूपयां रौ घी मेल्यौ । कल्यौ महाजन ग्राव जिणां नै पदसा ले रोटियां कर घालवीौ कर । --भि. द्र. ३ भोजन, खाना । =०--१ ह्रीया हक तिद्धांसीर्य, ग्रनहक सुं क्या काम 1! जो कुलि सहजां देत है, स्जिक रोटीर्या राम 1 --ग्रनुभववांणी उ०--२ जेठ मदी ४ सनीवार मुःनैखसी रण चालीयी कोस ४ गाव, लोहवै पोकरण र दिन घडी ४ चढतां पोक- गांव रोटी खाघी ! --नणसी सेकणी । हासे मिलने वाला तरि, प्र.--कःरणी, वाणी, जीमणी, पकांणी, ४ उक्त प्रकार्‌ की चीजें खाने देतु किसीकेय निमंत्रण । क्रि. प्र.--द॑णी, कणी 1 ५ संपत्ति, धन दौलत । उ०--जगमे दीढौ जोय, हैक प्रगट विवहार मे । श्रौर न मोटी कोय, सेटी मोरी राजिया । --किरपाराम ग्रत्पा;ः--रोरडी । रोटीराव, सेटेराव-वि.-- १ मेहमानो की अच्छी श्रातिथ्य सत्कार करने वाला 1 उ०--१ परण भीमजी रे कडेर री कमांस दूजी तरं री ही 1 व | खात्तिर करने वाला, सोसै-सं. पु.--१ मावे के रोडरण सेटीराव श्र तरवाररा वणी हा। एीद्यां लग उणा रे धरं ग्रायोड़ौ मेहमांण भूग्बौ कौ गयौ नी । --रातवासौ उ०--२ सोनगरौ श्रक्खराज रिणाधीरोत वडौ रजपुत । पाली पट वालीसां सींधलां सं वडा-वडा काम जीतिया वडी दातार, वड जार, रोटेराव वडी चडां रौ खाटहार । संवत्‌ १६०० रो वेद काम त्रायौ | ---राव मालदेव री वात २ वभव सस्पन्च, घनाडय । पेडे के प्राकार का प्रमारो पर सेका हु्रा गेहं का. गोठ रोटा, वाटा । उ०--१ रूकां भात गोचिया रोख, सुजड़ा धीरत सोहितां सार । सारा सरां सावढां सूं, श्रण-रुचता परसिया भ्रणपार । --सादं सेखावत रौ गीत उ०--२ सो एक दिन देपाठ घाड़ौ लेनं प्रावंतौ । सो हरख री घ्राप ₹ तद्व ऊपर गोठ कीवी । श्रठ मांसःरंघौ । चावठ रांवा । श्र गोरा हवं) -- देषपाढ घंच री वातत वि, वि.--यह प्रायः दाल के साथ खाया जाता है । इसका चूरमा भी वनता है। २ तुरन्त की व्याही हइ गाय, मैसया वकरीकादूधजो गरम करने पर जम जातादहै। ३ रहंट के चक्रके वीच वाले लकड़ी के स्तम्भ के नीचे रक्खा जाने वाले लोहे का उपकरणं । वि.-टेढा 1 देखो--“रोट' (रू. भे.) सह्‌.---रोठ । ग्रल्पा.--रोटकौ । सोट--१ देखो --'रोट' (< भे.) २ देखो --"रोटौ' (मह. 5. भे.) रोड-सं. पु.--१ वोये हुए श्रनाज के श्रकुरित हने पर तेज वर्पाके होने से श्रनाज कै पौव का विकृत हौना। २ छोटा घोड़ा 1 । वि.--१ दोगला, वणेसंकर । २ मूख । उ०--तन खत रोड डो्लं तिकं, उर प्रतर सू ग्राफट । इम पिमण॒ घंट पेदु उमग, होकां दीठा हाफ । ३ देखो 'रोड' (ङ. भ.) र<, भे.--रोदढ । श्रत्पा.--रोडियी । -ॐ. कृ. सतेडणौ, रोडवौ--देखो °रोडणौ. रोडवो' (रू. भे.) उ०--१ ताहरा राजा नरसंव रे साथ सींवठ, सोटखी, हाडा , --- [वा 1 क = ~~ ५ ~= = = च रोदियोशै [1 पि 0 त-न न ममि-गिकननि - -न-क गाचररसी, राव सरव नगारौ रोडता कोट माह म्राया। - राजा नरि री वाति उ०--२ तरनिकर मोडतड, वस्लिगहन त्रोडतउ, पाखांरा रोडतउ, मुढादंडि श्राच्छौडतउ, गि रिनदी व्रिलीडतउ, महाभद्र डोहुतउ,""“ # 99 @@ ७ @ $> "~यु. स्‌, रोटणहार, हारौ (हारी), रोडणियौ-वि० । रोटिग्रोड़ी, रोटियोडौ, रोच्योडी --भू० का० कु० 1 रोटीजरी, सोडीजवौ--कमं वा० } रोटियोञ्ै--देखो--"रोडियोड़ो' (रू. भे.) (म्त्री. रोदियोडी) रोदियौ-देमो--"रोड' (ग्रत्पा. स. भे.) उ०--पिगणं ताड कवां हंता प्रगट, मीक पृठापर पड़ जाभी । मठानरवम रहता ठर मोदिया, रोट्ियिा मार सरू रहै राजी । --पीरदान श्राढी रोशै-वि.-१ टोटे कद का, सिना । म, भे, -रोढ)ौ २ देखो-'रोडौी' (रू. भे.) 1 क +~ ॐ जांणार्द 4 उ०-कदीड जागाद रोड, सोनी जांणद सोनाकडां, कदो र वारुवड़ां हन जां णद्‌ क्षी र+मत्स्य जांणड नीर, मृख जांणड मीठा द्रस्टि जांद दी । -व, स. रोट-देगो--“रोड' (रू. भे.) उ०--१ ग्रसली री ग्रीलाद, बरुन करण्यां न करे ग्वता । वाह वादोवाद, रोढ दुनातां राजिया । --किरपारांम उ०--२ याकरग्पां रोद घोडईं चदिगरौ ््टच्च। --्राकृर्‌ जतसी री वारता रोदणो, रोटवौ-क्रि. म.- १ काटना । २ मष्ट करना. नाध करुना । उ०---हरि तणे माचि फे गीं र्यानरे हमरा, भगत महवित्ति रिषि ष्दनीन वानी भूग्रा ।वाचरिग्री स्मद घर्‌ श्रमुर्‌ रौ वादियौ, रांम- सयेद श्राति रकम घणौ रोद्धिग्रौ । --पी. ग्र. रोटणहा ८, हारौ (हारी), रोढणियौ--वि. 1 रोटिग्रोली, रोदियोढौ, रोदयोहौ-- भू. का. क्र. । रोङीजणो, रोदढीजयवौ- कर्म. त्रा. 1 रोदियोढो~नू. खा. कृ--१ कटादटृश्रा. र्नाथ यानष्ट किया हू्रा। (म्प्री- रोद्ियोद्री) रोरौ--! देगो--रोडी' (र. भे.) ठ० -- हिव राजा प्राप ग्रान तक्राव ऊपर वेदी चेजौ कर । टतरै म जममराद रोद्धाश्रांणि नार्मं | २४८ --जमम ओओदगी गी वातत ¦ ,५-जनानारन 9णय् २ देखो--"रोड' (्रत्पा; रू. भे.) ` रोण-सं. स्त्री. [सं. रवण] घ्वनिः भ्रावाज' । उ०-गरज्जं दमांमा गजं थाट गुडिया, रिणंतुर्मे भेर नीसण रुडिया । श्रसंमांन सृं सीस लागा श्रभगां, हुए पक्खरां रोण दहाहूलि तुरगा । गु. रू, वं. रोणकियी, रोणकी-देखो -"रोवणकौ' (र. भे.) (स्त्री. रोणकी) रोणौ-देलो--.रोवणौ' (रू. भे.) रोणौ, रोबो-देलो--“रोवणौ, रोववौ' (रू. भे.) उ०-१ रिण रचियां मा रोर, रोएे रिण दछंड गया । इणावरती ग्रागा लग, मरणा मंगढ होड । -- मा. वचनिका उ०-र परछछवेटीरनीतौमांनं हुक्म फरमाव्ण री कीं वात करी भ्र नीं उणरी छाती में मृडो धालनं रोई) -फुलवाड़ी उ ३ भूखन लागद्‌ं भाव सिउ, तरसं न दीठातोय। वारी त रह विचि किसी, श्रांखि रही रहि रोय । --मा. कां प्र, रोतासढौ-सं. पु.- मोतियों से जडा हम्रा छत्र । उ०--लखीजं श्रसी भांति श्राकेादा लागौ, भवानी खडा पां लीं त्रमागौ । हमेसां रहै सत्रू री सीस हाथ, मुखं रत्र॒रोतासढौ चत्र माथं। --मे. म. रोदगी-वि,--१ जवरदस्त, भयंकर । २ क्रोधपूरण, क्रोधयुक्त । \ रोद-देखो "रौद्र" (रू. भे.) (डि को.) उ०--१ समोश्रम 'गोकट' पात" साह, विभाडत रोद खड़ा हन- वाह्‌ 1 महाभड सूर "फतावत' मान, तेगां कट रोद ! हणं मस- तान 1 । | --म्‌. भ्र. उ०--२ पुलियां घणां घां गधि पाठं, रद्टतलिया पैलां खक रोद । श्रसपति दनं पडतां श्रांम्ही, साम्ही वार्‌ चयौ मीस्तोद 1 । -- रावत केषरीसिघ सीसोदिया रौ गीत उ०--२ कपौ 'उगर' तठ ग्रत कीड, उदियार्सिघ जेही पिणा श्रोडं । रोदा कटकः श्रटकिया राह, शांवढ' सूत जुटी पएतसाहै । -रा. रू. उ०-४ रंग भौम उत्तंग सुढाठं, रोदां मास्त मूकं मांणा। मदमूकः मरहावद्ध प्रम परच्वद्ट, वारामास वसांगा । --मा. वचनिका रोदकार-देखो-"रीद्रकार' (<. भे.) उ०-रोदकार श्ररड़ाच, पड गोदा श्रणपारां । ग्ड श्रति गज भद्‌ टोम, योम मिदि घटा श्रघारां - स्‌. भ्र. रादन-सं- पृ. [सं. रोदनम्‌] १ रोने कीक्रियाया माव, स्दन, क्रन्दन, विलाप । उ०्-विकथा चार कीधी वत्ति, मेव्या पंच प्रमाद 1 इच्ट वियोग = ५ . सेदराव -देखो--"रीद्रराव' (रू. भे.) 1 गदयत दइ. पडयां किया, रोदन विसेवाद २ आंसू । # रोदपत, रोदपति-देपो--रौद्रपतः (रू. भे.) --सुरज कलंग न तौ पत समहर, पहुव ऊजास कर॒ खडपाड़ ॥ रणां रोदपत पत - रांनौ स्कृ, राजा सरस न मंड राड । -- चावडदांन वारहृठ ॥1 २ देखो --द्रपत' (रू. भे.) | र उ०-रेवत चटिया रीदराव, वज जंत्रकं भेरी । मागन लाधे भाण रथ, रज उवर्‌ पेरी । --लूरकरणं कवियौ ~ रोवसी-वि. [सं.] स्वगं प्रौर पृथ्वी का। › रोदाठ-देखो "रौद्र" (<. भे.) ग्ने उ०--१ बालां वांधियां वडानां भडां त्र॑माढमं घुरंता चौड, गव टाढां काटी घडां मेदियां गरीठ । भ्रभगा ग्रौरेगवालां दिली वाला वेव ग्राट, रोदालां लकाम वागौ किरम्माढां रीठ। न --साहिजादां री वेढ रौ गीत - उ०-२ मद्राट रदढाठछ रोसुट मनं, विकराट वडाठ जौ काठ- % वनं । ठंचाठ भुजाढ रोदाढ ददै, सत वीरसांए सूर सुधीर सहै । शि --पा. प्र. रोद्र देखो रद्र (रू. भे.) ` । ०--१ श्रखाहर' वाहत खाग उनम, जडं जिम भारथं दारुण जग । वद्धोवछ लूवत रोद ब्रजाम, भिड़ सुजि सूर हुव दुय भाय । ~ 10 ~ ` प° --२ जगरांम विजायत काज जुद्ध सोद्र सं खडी भ्रादर विरुद्ध । -तामठः व यजसा महा सुर, ग्रारभ कुम सुत च्वि ग्रहूुर । --रा. रू उ ०--३ केमरीसिघ रांम्िघ सवलमिध के' जाए, ` राम भाण से ग्रचूक सोद्र छोम पाए । भाविव सव्धं का माडण सवाई, प्रौखाह्‌ सी लागे जाक साह्‌ की लडाई । ` --रा. रू. । रोद्रणी, रोद्राणी-स. स्त्री.- १ यवन सेना, मुसलमानो की सेना । उ०-- मृडं नव तेरही नवे ग्रह मादिग्रा, ब्राह्मणं फिर नारद - विचाढं । रोद्रणी वीदणी दछोहडां रालियां, रुर तवोढ मुख हंत राट । ति --दुरसौ श्राटौ २ मुसलमान की स्घ्री, यवन स्त्री ३ श्रसूर सेना । ४ देखो--रद्रांणी' (रू. भे.) । £ रोद्रंयणि, रोद्रायणी, रोद्रायणि;, रोद्रायणी-सं. स्व्री.--१ मूसलागनों की सेना, यवन सेना! 1 १८} 1 ६; जलाशयो या नद्विप्रो कारवां ) नषे जनी [षी ९1: रोप २ -मूसलमान की स्वरी, यवनस्व्री1 `` ३ श्रसुर सेना) उ०---घरि कौपं करणां प्रेहं घजवड़ रूप रचि रोद्रापणी-) जठ चिमछ करं मंज, चरणा चीर धीर चंद्रायणी । --मा, वचनिका ` "1*{~ ४ देखो शद्रांणी' (<. भे.) रोधसं. स्वी. [सं. रोधः] १ रोक, रुकावट उ०--१--टछं दील लागा घरां फील टत्ां, हठ नीठि पाद्क्क हृत्लां हूमल्लां । तिकां श्रम्ग हैरव कं छल तट, छकार्या सूरा रोध र खेल द्ृट । --व. भा. 'उ०--२ दूसरे बुरे न र्हा, सोषतं दियौ । प्रापने बुरं पं अही, क्रोधना क्रियौ) --ऊ. का. भ प्रडचन अटकाव 1 उ०-सोघ सौधं गुरा सारसी, रोधं वोध बुघ रास! मृगधां करण प्रयोधमति, कवि कुठ वोध प्रकास । --क. कु. चो. [सं. प-] ३ भ्रावेश, जोश 1 । ४ क्रोव, गुस्सा । - [सं. रोघस्‌ | ‰ किनारा, तट । (ग्र. मा.) 1 उ०--निज सिर दं नागारजणा, क्रियौ समर कर क्रोष । प्राटणा पतं भाजं पड, रेवा सागर रोध । ह - रवां. दा. ४ रोधक~वि.~ कावर पैदा करने वाला, रोकने वाला । रोधणौ, रोघवौ-क्रि. स.--१ रुकावट पैदा करना, रोकना । २१ कंद करना, वन्दी धनाना 1 उ०--पति ्रलवर करि कोप, रामनाथ कवि सोधियौ ।-पग श्रंगद ज्यूं रोप, छत्रधरः पता च्ुडावियौ । --रवादांन रतनु रोधणहारःहारौ (हारी), रोधणियो-वि०} >` रोधिश्रोड़, रोचियोङौ, रोध्योडौ-भू० का० कु°। रोधीजणोौ, रोघधीजबौ--कमं वा०। 8 रोधांण-सं. पु--- संहार, नाश । उ०-ज्वाला वाठ नेत मीन केत ज्यं पचातां जयौ, रूकां हर ॒रचाततां दलं विखेस्मी रोधांण । राहां दहं वीच एक श्रनम्मी "वीनस" राजा, जांियौ जिहान जम्भी ठांमतां जोधा । † , , -हकमीचंद सिडियौ सेधियोडौ-भू. का. कृ.--१ स्कावट पैदा किया हग्रा, श्रवरुद्ध किया हुश्रा.“ २ कंद किय हुश्रा, वन्दी वनाया हृश्रा } (स्त्री. रोधियोडी)} ‹ - < रोप-सं. पू. [सं.] वांश, तीर । (हिः नां. मा. ह्‌. नां. मा.) शोणध उ०-१ मशिर्यां रया श्रमोल, रोप श्ररियां मोती रुख । सोहत धरिया सीप, मिठं ्रसिवर फरियां मुख । --वं. मा. उ०--२ तिकां हित हैत दगी नंह तोप, रही वजि रीर विहं वछ रोप । जिका सणणंकि भणकिय जेह्‌, सुवा मड भुम्मि हुवा धड़ सेह । --मे. म. २ छिद्र, विवर्‌ । सं. स्त्री.--२३ प्याज, मिरचं ्रादि के पौषे विरोपको एक स्थानं से उखाड़ कर दूसरे स्थान पर लेगाने की क्रिया या भाव। ४ उक्त उदेश्य से उषाडे गये पौघे । ५ स्थिर रहने की क्रियाया भाव) रोपण-सं. पु. [सं. रोप] १ तीर, वाण । (श्र. मा.» ह्‌. नां. मा") [सं. रोपणं] २ रोपनेकी क्रियाया भाव । उ०-जगत ठाम जग सांमि,रोपण जग रंजण। जग वद॒ अग जेठ, जगत भेदण जग भंजण । पी. ग्र, ३ धाव पुरनेकीया धाव मरने की त्रिया । (अ्रमरत) ४ धाव पुरने हतु लगाई जाने वाली दवा । वि.-रोपने वाला । | रोपणो- सं. स्वी.-- १ फाल्गुन माघ की स्मृति मा होलिका संकेत के निमित्त माध मास की पुणिमा को जगज्नसे काटकर लाया हूग्रा वह्‌ शमी वक्ष जो गांव के मुख्य द्वार पर खडा किया जाता है । ॐ०--श्ररध ऊरघ विच रूपी रोपणी पांचुई गहर रमो री । तीन गणारो फागुण कीजे, वसत पचीस करो री । --सी हरिरामजी महाराज वि. वि.-करई गांवों मे यह्‌ गांव के चौहूटे पर कही मुख्य द्वार पर, कही होली जलाने के स्यान पर खड़ी को जातीरहै । २ रोपने का कार्य । रोपणो रोपबो-क्रि, स.- १ स्थिर करना, पांव जमाना 1 उ०-१ रावतिया परग रोपसी वतक्ामी थह वाघ । बौोहखां पाटा वाधा, श्राद्धो होसी श्राघ । --वां. दा उ०-२ पर गढ लेणा रोप पग, श्रि सिर देणा तोड़ । धरा हंत नहि धापणौ, खृंदालमां न खोड । --वां. दा, उ०-२ जितं करं हेट पाहुणौ, इतं कर हट एह्‌ । पग धिर रोषं पाहुरी, ए हुए श्रसनेह्‌ । रां. दा उ०-४ पातसाह्‌ रो घुनी प्राग भी म्होवतखां देवगढ़ हीज सरणे रहियी । दूजा राजा रांखा राव सो तौ पातसाहां सू कोई न -रोषं पाव । ~ प्रतापक्षिघ म्होकमरसिध री वात २ ठानना, निर्चय कृरता । उ०--१ रोपी श्रकवर राड्‌, कोट भई नह्‌ कांगरं । पटकं हायर सीद्‌ पर, वादठ ब्द नह्‌ विगाड। --वां. दा. २५०५ 11111 1 पा ययपर षणि न षयेणरणिि णि रोषाणौ ॐऽ-- २ इतरी कह मोहकमसिह नु थथोपियौ! ष्ण ओतौ कोपियौ सौ कोपियौ । मुहडं श्रण-माप रौ रोस व्यापियौ) मन मांहि भीलडं नुं मारण रौ दावे रोषियौ । --प्रतापसिघ म्होकमरसिघ री वात उ०--३ एक तौ नगारो षरियां रातनाडं वाजे श्रौ, दूजोडौ नमायी धरियां ठेट वाजश्रीके कगडौ रोपियौ। वावा भगडौ रोपियी, गौरां रा माथा केवरा लीधौ श्रौ के भगडौ सेषियौ। --लो. गी. ३ किसी कड़ी या नुकीली चीज को किसी पदां मेँ चसानाया गडानां । उ०--१ वार प्रधियावणी वीर किलक वके, धीठ कठठं धड़ दीठ धोढं । सार माचा तणौ निजड़ हरनाथ सुत, रोपियौ पटा- भर सीम रौरं । ---विजदांन साद उ०--२ श्रौपम नयस धिखंतां श्रारण, दाख सूर "विहारी" दारण । हाथियां तणा जगी हवदां मे, रोप सेल घडा रवदां मे ¦ -सू. प्र. ४ किसी पदाथ का कुठ भ्रंश या भाग जमीन के श्रन्दर इस प्रकार जमाना या स्थापित करना कि वह पदाथ वहं स्थित हो जाय । उ०-ह्रीया चौरी चहुं दिस सत व्रत सोप्या थंभ। हरि हय- ठवौ हरख सू, किरत कमाई कमभ । --्रनुभव्ररी ५ खड़ा करना, टिकाना, रोकना, ठहराना 1 ६ दुदट्ता पूरवेक मूकावला केरने हेतु एक स्थान पर टिकाना, डटाना । ७ वीज रखना, वोना 1 ८ पौघा जमीन मे गाडना, किसी पौधे को एक स्थान से उखाडकर दूसरे स्थान में जमाना, स्थापित्त करना । उ०-उपसम तरुवर रोपड़, सोपदं मनसंदेह । मूक्ति तणड पंथ दाखिय, राखिय च्रिभुवन रेह । -जयसेखर सूरि £ सम्बन्ध स्थापित करना। उ०-- लोपं हीदू लाज, सगण रोव तुरक सूं । आरज कुढ री प्राज, पूंजी रण प्रतापसौ । -दुरसौ श्रष्टी १० धारण करना, पह्नना । उ०--पोरस्स नकु पडव-म्रमांरि, तव वधं दूय क्ण तांणि ' भ्रोपत राग हाथां भ्रनोप, तुडतांण सीस रोपंत टोप। --गु. <. वं. ११ मकान, भवन श्रादि की नीव लगाना) रोपणहार, हारौ (हारी), रोप्णियो--वि० । रोपिश्रोडौ, रोपियोडौ, रोप्योडौ-भरू० का० कु०। रोपीजणो, रोपीजवौ-कमं वा०1 रोपाणौ, रोषावौ-क्रि. स. [स्पणौ व रोपणौ क्रिया कापर. रू] १ स्थिर करवाना, पवि जमवाना + रोपाडणीं ४२५१ रोचिधोडधी [मर २ निद्चवय करवाना । पर जमवाया हुश्रा, स्थापित्त करवाया हुश्रा, पौधां जमीन में ३ किसीकडीया नुकीली चीज को किसी पदाथं मे घंस्वाना, गड़वाया हुञ्रा. € रखवाया हुश्रा- १० धार कर्वाया हन्ना गडवाना । पहनाया हुभ्रा. ११ मकान भवन श्रादि कौ नीव दिलवाया हुभ्रा. १२ सम्बंघ स्थापित करवाया हुग्रा. = शया भाग जमीनमे इस प्रकार जम- ४ किसी पदार्थे का कु श्रशया भागनज द (स्त्री. रोषायोडी) वाना या स्थापित करवाना कि वहु पदाथं वहां पर स्थित्त हौ जाय । रोषौवणौ, रोपावबौ-देखो-रोपाणौ, रोपावो (रू. भे.) ५ खड़ा करवाना, टिकवाना, स्कवाना, उहराना । रोपावणहार, हारी (हारी), रोपाव णियौ--वि. । रोपाविश्रोड़ी, रौपावियोड़ौ, रोपान्योडो- मू. का, फु. । रोपावीजणौ, रोपावीजवौ--कमं वा. । रोपावियोड़-देखौ-^रोपायोडौः (र. भे.) (स्त्री. रौपावियोडी) ९ टृदतापूवेक मुकेोवला करने हतु एकं स्थान पर टिक्तराना, उटवाना । ७ वीज रखवाना, वुवाना ॥ ८ किसी पौधे को एक स्थान से उन्वड्व्रा कर दूसरे म्थनि पर जम- वाना, स्थापित्त करवाना, पौवा जमीन में गडवाना । रोपियोड़ी-भू. का. कृ.--१ स्थिर क्षिया हुध्रा, पावि जमाया हृप्रा, २ ६ र्खवाना । ठाना या निर्चय किया हुश्रा. ३ किसीक्ड़ी या नुकीली चीज को किसी पदाथं में घंसाया हृश्रा, गड़ाया हग्रा. ४ किसी पदार्थं का कुछ श्रंशया भाग जमीन के श्रन्दर इसे प्रकार अमाया या स्थापित किया हुग्रा हौना कि वह्‌ पदार्थं वहां स्थित रहै । ५ खड़ा १० धार्‌णा करवाना, वटूनवाना 1 ११ मकान, भवन ग्रादि कौ नीवे दिलवाना । उ०-पदछ वणौ साथ राखियौ । धरा घोड़ा लिग्रा। मढ धातर किया हृश्रा, दिकाया हुश्रा, रोका हुभ्रा, व्हराया हुग्रा. ६ दढता करी रंग रोपाई । भीत हण लागा, सु उठे लेड देवतःमु भीत दीहां री वेक मुकावला करने हेतु एके स्थान पर टिकाया हूग्रा,उटाया हुग्रा. कर तिसड़ी राते री पाड़ नांखं वाज श्रायौ \ -नंणसौ ७ वीजरखा हु्ा, वोया हुग्रा- ८ किमी पौधे को एक स्थानसे १२ सम्बच स्थापित करवाना । उखाड़कर दसरे स्थान मे जमाया हृश्ना, स्थापित किया हृ्रा. रोपाणहार, हारी (हारी), रोपाणियौ --वि. । & रखा हुश्रा. १० घारण किया हुश्रा- पहना हुश्रा, ११ मकान, रौपायोडौ -मू का. ऊ. | भवन श्रादि की नीव लगाया हृभ्रा. १२ सम्बन्य स्थापित रोपार्ईहजणी, रोपारईजयो ~ कर्म वा. । । किया हुश्रा । रोपाडगौ, रोपाड़वौ, रोपावणौ, रोपोवचौ । (< भे.) (स्त्री. रोपियोड़ी) रोयाड़णो, रोपाडवौ-देखो--रोपाणौ, रोपाचौ' (रू. भे.) रोब-स. पृ. [फा.] १ घ्रातंकं दाव । रोपाडइणहार, हारौ (हारी), रौपाडणियी - वि. । २ प्रताप, तेज । रोपाटिश्रोडौ, रोपाडियोडौ, रोपाड्योड़-मू का कृ.) ३ धाक, उर । सोपाड़ीजणो, रोपाड़ीजवौ--कर्म वा. ' ङ. मे.--रीव । रोषाडिोङौ-देखो (्योपायोड़ौ" (रू. भे.) | रोवणौ, रोववौ- देखो ‹रोवणी, रोववौ' (कू. भे.) (स्त्री. रोपाडियोडौ) ॥ | उ०-स्वांत को सुसांति, साति सोवण करयं । घोवनं न कीन डो-भू. का. क.-- १ स्थिर करवाया हुमा, पावि जमचाया ह्र ` ताहि, रोवव्‌ं परौ । त , "~-ॐर का, २ निङ्चय करवाया हरा. ३ किसी पदां का कु श्रं या रोवणहार, हारौ (हारी), रो्णियौ--वि० । भ भाग जमीनमें दस प्रकार जमव्राया या स्थापित करवाया हुश्रा रोचिश्रोड़ी, रोवियोडो, रोन्योड्ै--भू० का० क० । हीना कि वहु पदाथं वहा परस्थितहौग्या हो. ४ किसी कड़ी रो्रीजणौ, रोवीजवौ --कमं वा० । या नुकोली चीज को किसी पदाथ में घंसवाया श्रा, गड़वाया ह्राः ५ खड़ा करवाया हुम्रा, रिकवाया हुत्रा, सकवायां हुश्रा, ठ्टराया हुम्रा. ६ इटतापूवेक मुकावला करने हेतु एके स्यान पर ट्कवाया हुश्रा, डट्वाया हृत्ना. ७ वीज रखवाया ह्र, बुवाया | रोधियोड़-देलो --^रोवियोडौ' (र. भे.) इम. ८ किसी पौधेको एक स्थान से उखडवा कर दूसरे स्थान (स्त्री. रोवियोड़ी) रोवदार-वि. [ब्र-+-फा.] जिसकी घाक है । जिसका चह्रा तेज है । रू, भे.--रीवदार रोबीलो रोबीलौ-वि.--१ जिसका रोव हो । २ जिसकी धाक हो । ३ जिसका चेहरा रोवदार हो । ९ रू. भे.---“रीवीलौ' (स्त्री. रोवीली) येक, सेमो-सं. पू.-१ आपत्ति, कष्ट, तकलीफ । उ०--१ पहली कियां उपाय, दव दुसमर श्रांमय दर । प्रचंड हृवां घस वाय, रोभा घाते राजिया । --किरपाराम उ०--२ धरा खोभा त गावा, पिसणां रोभाषाड । जं सोमा जोधौ लिर्यं, घर थोभा वणा धाड । --रेवतसिह्‌ भारी उ०--३ वेरा वैरागर सागर सम सोभा, रीती गागरलं नागरतिय रोभा। धावं द्रगधारा दारा मूख धोवे, जीवन संजीवन जीवन धन जोव । ॐ. पम, रोमंच-देखो--“रोमांच' (रू. भे.) उ०-रोमचश्रंगचघोमसूप, ब्रह्मतेज मेवं ।जटाम मंदा जटागि, श्राग नेत्र ऊफरो । -- स. प्र. रोमंचणौ, रोपंचवो-क्रि. श्र.- १ रोमांचित होना । उ०--१ एतला देख श्रचिरज हुव, सोमंचे सुर नर खव । सुप्रसाद कीष जं सिध तं, टगमग चारै चवखयं । लक्ष भार उ०-२ जिनवर भत्ति समृल्लसिय, रोमेचिय नियश्रंग । नाना विधि करि वरेणवुं, श्रांणी मनि हघछठरंग ) --स, वर. रोमंचणहार, हारी (हारी); रोम॑चणियौ- वि. । रोमचिग्रोड, रोमचियोडौ, रोषच्योडौ-- भू. का कृ. । रोमचीजणो, रोमेचीजयो - भाव वा. । रोमंचियोडो-भू. का. कृ.- रो्मांचित हुवा हुभ्रा । (स्त्री. रोमचियोष्धी) रोम- सं. पु. [सं. रोमन्‌] १ शरीर पर के महीन वाल, सोमा । (भर. मा.) उ०- १ छप्रपति हैत सह॑स गुण छाज, वीरभद्र गख तठ विराजै । रोम जटा ऊमा विकराला काल्यं रोम रोम प्रहि काढला । --चू. धर. उ०--२ सो मुरख संसार, कपट जिशां प्राग करं । हरि सह जाणएणहार, रोम रोम री राजिया । --किरपारांम उ०--२ काय निपाप करिस इम केसव, दंडवत करं त्रूभ दयता. दवे । रोम रोमतौ नाम रहावि, इम करती हरि-चरणां श्राविस । --ट्‌, र. उ०-४ रोम रोम श्रांमय रहे, पगं॒पग सकट पुर) दुनियां सूं नजदीक दुख, दुनियां सं सुख दुर 1 --बो. दा. ४२८२ रोपमश्रुर री रू. भे.-- र, सप्र, सप्री, एम, २, ई + स्न्म। २ छेद, छिद्र 1 ३ दारीरकैः बालां के चिद्ध जिनमे म बास निकले स्ट । उ०~-वध्यौ वछ घी गत कज विकार, प्रमा परिपूर्णा प्रेम प्रकति । हरय हय नाम हती हूममीर, मवी रग सेम मुती नुत भीर । --ॐ. फा, उ०-२ श्रपेदे एक ररेफार फी, रोम सोम धुनि रीय । ननहुरी- पयाजातनलगौ, ता तन जागी सोय 1 --प्नुभयवांणी ४ जले, पाणी । ५ स्मदेश्। उ०-- "पर्णा चुकमण बुवः तोल सिहल दमिन प्रगेनन वित्तेत पररा पस लउप हासो मरमोम-हिम रोमप्रम्गा,.,... । ~व. प. ६ ख्मदेदामें उत्पन्न पोटा, ७ धोडा] उ०--चठं उमेद यु श्रोपम चद, दिवं दढ प्नोरन तारम ब्रद । श्रभगिय रोम हुवौ श्रसवार, दिप चहूवांण सूर्कान उदार । --्ति. यु. ङ, भे.-- षमी ष ८ ह्रड़, हर, हरीतकी । (ह्‌. नां. मा.) ६ एकद्वीपका नाम । (सभा) रोम्कंद, शेमकंदी-सं. पु.--प्रत्येफ चर्ण मे ८ सगण फा टिगय + 8 (राभम्थानी) का एक छेद विक्षेप जिममे क्रमशः ६, £, ८ श्रौर 4 वर्णो परे यति होती हं मौर श्रन्तिम चरणके दूसरे दद कै चतुर्थ चरण मे पुनरावृत्ति होती है । एक परे छन्द मे ३२ सगण होते ह । रोमक~-सं. पु.--१ नमक जो समिर भौस के पानी मे उ्पत्न हुश्रा हो । २ रोमदेगया उक्त देश फा निवासी । , ३ ज्योतिष सिद्धान्त फा एक भेद । रोमकूप-सं. पु, [सं. रोमन्‌ ~+-कूपः] शरीर की चमड़ीपरकेवेच्िद्र जिनमेसे वाल निकते हए होते ह! रोमकेसर~सं. पु. [सं. रोमन्‌ -{-केशर या केसरं] चंवर, चामर रोमगुच्छ-सं. प. - चवर, चामर । सोमचरमा-सं. पू. वह्‌ वतन जो ऊट के चमडेका वना हुन्रा होता है) उ०--सर्वगि सीस मूंडित पिहाल, मग लोपि जातत बाममांग व्याल त्रत पाथर सोमचरमा निहार, कम हीन रजके द्विजे दैमकार 1 --ला. रा. रोमद्धर~सं. प.--१ मृति । २ शारीरिक कान्ति, शोभा । रोमणक्षाच उ०-पिलांण री साजत ऊयी दीटी । तरं छनं च विडं महै दीरी वाजी रं वर री सवी दीस द्ध । नाक री डंडी, श्रांख्यां, निलाड डील सोमच्यर देखि सही कवरजीरही च । -- जगदेव पवार री वत्ति रोमणकाच-सं. पु.--एक प्रकार का ब्राईना विदोष । उ०-राजा सु प्रतीहारि निवेदितं मारगश हुंतउ श्रास्थानि मंडपि प्रेस करह, तां आराग किसिउ श्ररथदेषड, रोभणकाच छलि, वहु वहुल ककम तउ छडउ दीघडउ," `“ ˆ“ --व, स. रोमत-सं. प.--लालायित्त होनिकी न्याया भाव रोमनकंथलिक-सं. पु.-- सार्य का एक सम्प्रदाय तथा उस सम्प्रदाय काव्यक्ति 1 रोमपट~ सं. पु. यौ.--उनमे वना दुश्रा कपड़ा, ऊनी कपडा । रोमवद्ध-वि. या.--रोग्रोमेषुनाया चधा हृ ) सं. ¶.-१ उनकी त्रनी हुई कोई चीज । २ ऊनी कपड़ा 1 रोमभृमि-से. स्त्री. यौ. [सं. रोषन्‌ --भूमिः] चमड़ा, चमं । रोम्ाइ, रोमराजी-सं. स्वरी. यौ.“[ सरं, रोमनु ~-राजिः या राजीः | १ रोमो कौ पक्ति, रोमावलि । उ०--१ कंचन भें सोपांन सुपेखित, रोमराद उलसाई । श्रागे एक भूवन श्रति संदर, वसुधा जांणि देसाई । 9 उ०--> कवीमर कटै जिका सुण लैणी, पिण कठं त्रिवछी न कठे तिरी जौदजं है । --र हमीर रोमलता-सं. स्त्री. [स खेमन्‌ ~- सताः] रोमों की पंक्ति, रोमावली । रोमांच-सं. पु. [रोमन्‌ --ग्राञ्य] ्रानन्द, श्रार्चयें या मेय श्रादि के कारणा शरीरके रश्नों का उभर जानाया खडेदहौ जाना । उ०--लेरा थमौ चिसरांम नीचगिर परवत माथे । धरा पुहुपां रोमांच मिलता कदमां सार्थं । गंधं खोह्‌, सुगंव विलाससं कामणि- यां र, मद छक्र जोवन पूर जतावं यख परां र । ---भेच क्रि. प्र.-होरौ रू. भे.--रोमव रोमांचित-वि. [सं रोमन्‌ +-भ्रस्चित ] जिसके ग्रानन्द. ग्रार्चयं या मय श्रादिके करणा शरीरके रोगटे खडेदहो गये हों, हित, पुलकित । उ०--प्राणद लग्र रोमांचित श्रासू, वाचक गदगद कठेन वशं । काग करि दीधौ करणाकरि, तिखि तिखि हीज ब्राहमण तस 1 --वेलि रू. भे.--रुमांचित रोमाति-स॒. पु. [सं. रोमन्‌ ~-ग्रन्त] हथेली की पीठ के वाल । रोमांतिका-स. स्वरी, [सं.] प्रायः वच्चो को दोन वाला एक प्रकारका ४२५९३ रोर रोग विशेष जोकि चेचकरोग कीतरह काहोता ₹। (श्रमरत) रोमाछी, रोमावठ, रोमावलि, रोमावढी-सं. स्री [सं. रोमन्‌~+-श्राली, ग्रावचति, श्रवलौ| १ रोषं की पक्ति या कतार । श्र. मा, डि. को; ह्‌. नां. मा.) २ पेटके वीचों वीच नामिसे उपरकी ग्रीर गई हुई सोर््रोकी पक्ति, रोमराजी । उ ०--सुच्छम रोमावटछि सुखद, घरणी उक्ति विचार । साप्रति रस सिणगार री, येल कियौ विस्तार) --वां, दा. २ शरीर के वालं । उ०-१ वसतु रोमाठ्ठी कवन, थक खाली तुज विनां। ल्खांसे चोचाठी कल कि, व साट ्रज किनां। --ऊ. का उ०-२ रोमावली डील री उभरी निजर श्रावण लागी । --कुवेरसी सांखला री वारता वि.--र सुंदर, रूपमयी । उ०-पीडल्ियां रोमालियांहोजीं,व री जांध देवढकेरौ थाम 1 है गवरल, रुडौ है नजारो तीखी है नणां रौ । --लो. गी. रू भे.-- र्‌ ग्राटी, रू वाटी, सग्रामाठ, स््रामाटी, ग्री) त्राव, रु ्रावटी, रुचाटी, रूणावटी रोमि-देखो --‡रोम' (₹<. भे.) रोयङी-देखो--'रोहिडौ' (र. भे.) सोयण-देखो--^रोदिणी' (ख. भे.) उ०-सिगस्र वावन वजियौ, रोयण तपीनजेठ । कथाम वां भृषड़, रहसां वडला हठ । - ग्रज्ञान रोयणी-देखो--'रोहिणी' (<. भे.) रोयणीपत, रोयणीपत्ति, रोयणीपत्ी-देखो "रोहिएीपति' (र. भ.) रोयतस-देखो “रोहितास' (ख. भे.) रोर-सं. पू.- १ कंगाली, नि्घेनता । उ०-१ सिर जोर खग दते संजा, पहु रोर श्रंसय पंजणा। मड जुघ प्रसतां मंजखा, रघुराज संतां रजरा । -र.-ज.प्र. उ०--२ कवी कीत दाखं जिता सोर कपे, श्रनेकां कुमरा जिता माल श्राप । अपं डायजं भूप श्रन्नेकं भ्रत्थं, राजा श्रौधि पथं चर दासरत्थ । सू. प्र. उ०--२ रज रीति रह वंस वाट वहै श्रि थार दहै प्रविश्राटः इसौ । प्रथ लाख श्रये कवि रोर कर्प, जगिनाम थप करन भोज जिसौ । ल. ति. २ दुः, कृष्ट । उ०--खल्क तारण तरण खनं संडण खतम, रोर जरा विंड 0. भयोिन रोरप्रचार सुखद सरसे । सियावर तू सौ तुही दाखं सकी, दूसरौ समौवड़ न की दरसं । --र, रू. २३ काला, इ्यामवणे । ४ तरल हुवा । उ०--श्रोगण मेटणाहार, श्रमोलख श्रोखद इण में । गृद घण गुण- कार, श्रव्यय सक्तिटिजिणमें छि भँ पीड दंटाय, हाड हरोड़ा सांव । बटौ वादक वरी, रोर जन्या नं रांवं। ---दसदेव [ सं. रवण] ५ कोलाहल, शौरगुल 1 ६ कोतुहल । ७ देखो-“रोड' (र. भे.) रू, भे.--रोरि । रोरप्रचार-सं. पु.-- दुःख, कष्ट । % (डि. को.) % (डि. को.) रोरव-सं. पु.--१ कंगाली, निधनता, दारिद्रच, निघ । उ०--कवियरणां सनातन जांण नव कर, दोर रोरव तणौ हरं रहौ । गयौ किण दिन श्रहढ प्रथी घण गजौ, किन रा पोतरा तणौ कहौ । --कविराजा वांकीदासजी २ देखो ^रीरव' रू. भे. । रोरहर-सं. पू.-- राजा, नृप, (डि. को.) रोरह्रणाठछ-वि.- १ दुःखो को मेटने वाला । २ दातार, उदारमना । उ०-चीर' तो नर वीर वड, तरण सूप तेजाठ । “चंद' प्रवाडा जग चव, हुवौ सेरहूरणाद । --किसनजी दधवादियौ रोरांफुर-सं, पु--कणष्ट, दुख । उ०--वलठदां गाडां सल पाडां प्र वोरा । च्छटा डोरांतर गोरांकुर छोरा । करणा दरपावं केटा वरकडियां । जूती फारोडी वधी जवड्यां । --ऊ. का. रोरि--! देखो ^रोर' (रू. भे.) उ०-भगवती ्रावौ भाई, मूक मदते चीमह्‌माई । नित पट प्रहस मेनाम, त्यां रोरि भंजि विरराम -- मा. वचनिका २ देखो ^रोढी' (रू. भे.) रोरी-देखो "रोी' (रू. भे.) उ०--वीणा डफ महुयरि वंस वजाय णु, रोरी करी मुख पंचम राग । तरुणी तरुण विरहि जण दुतरणि, फागुण घरि घरि सेल फाग। --वेति उ०--२ भ्रवीर गृलाल उटावत रोरी, उफ दुदभी वाजत थोड़ी थोडी --मीरां रोलंव-सं. पू. [सं. रोलम्ब] १ भौरा, भ्रमर) ह्‌. ना. मा.) (श्र. मा; ना.मा. ४२५ रोद्टनिदोट उ०-१ रयं लार गुंजार रोलंव राजी, भर्गाणां भडां रोध श्रो लघ भाजी । -वं, भा. उ०-२ हर समरौद्ोसी हरी, जीति जमरी कंग । करे उदिम रोलंव कर, भमरौ कीटी श्चग। --र. ज. प्र. रोद, रोल-सं. स्वी.-१ ध्वनि, म्रावाज । “ˆ उ०~-१ धुरा खड़त सभर धरीहे, तिम वजत रोढधुधर तणीह्‌ । --पा, प्र. उ०-२ त्यां पांतरं वडी छत्र पडियौ, वोट्णा गदां श्रथग ज८- वो । नेवर रोद्ध किया स्रगर्नरी, रागी कियौ ने पाखर रो) --राया मांड्ण री भीत २ स्वरियोंकेषरोमे धारण करने काष्टे घुग्धर्दार एक भ्राभू- पण विद्ये 1 ३ दल, समूह । उ० --१ पार वहुणा पंखिया, राजहंस ना रो ! उचा नीचा उडता, काशा करद्‌ मकोल । --मा. का. प्र, ४ उवटन, लेप । उ०--श्रागन्रि भेटिद उरवसी, घसी मु चंदन घोढ । को सज्जन कोडे करई, कुंकुम केरा रोढ । --मा. कांध्प्र. ५ युद्ध । उ०-ख्कां रोढ दरोठ दक, भम लगौ भुगोढ । चौक नजर “पतल, चै. हाहूल सिव हिलोट ) --किसोरदाम वारहठ £ चायो गोर उपद्रवेव फसल को हानि पहुचाने वाला पथु, ह्रहाया । ७ चिह्लाहट, शोरगल । ८ भय, श्रातंक, उर । ६ उपद्रव, उत्त । वि.-१ प्रावारा फिरने वाला, उ०-रोट व्है फो डावाडोलमें रह्यो । मानम्पे प्रमोल गोठ मोठ में र्यो । ० २ यदचलन,. चरित्रहीन । % उस्पाती, उपद्रेवी उ८०-१ रोढं विगाडे राज नृं, मोद विगाड़ माल । मर्म म्म सर- दार री, चुगल विगाडं चाल । --वा., दा. ५ देखो--^रीढ' (रू. भे.) उ०--वौखौ श्राय श्रभागै वैठै, रस पान प्रिय रोद्ध ) मरुव र लान तन भिरा, स्या तुरत तमौढ । --ॐ. का. रोदमिदोट-सं. स्वी.-१ वने यनाए कायया पदार्थं को नप्टकरनेयां मिटानेकी क्रियाया भाव | निनिजे रोलड़ „~~ ~--__~_-~~_~~---~-----__--~_~_~_~~_~~_~_~_~_~~_~~~_~_~_~__~_~_~~__~_~_ ~ ___________-~~~~_~~्‌्‌_ब बब उ०-- चोद किरण मिल पवन सू, टीवा करी किलोढ । पीढं वाद खोजल, लुश्रा रोटगिदोढ । - -लू रोलड-सं. पु.--१ उर्वरा राक्ति वढाने हेतु कु समय विना जताई वुवाई के खेत को छोड़ने को क्रिया । २ उक्त प्रकार से परती छोड़ी हुई जमीन या सेत । इजराश्र रेण, रोढणौ-वि. [स्त्री. रौट्णी] १ विष्वं करने वाला, संहार करने वाला, मारने वाला । उ०--१ नमौ पहु सायर वाव पाज नमौ रिपु-रावण-रोढण राज - ह. र. उ०--२ रहच खां दठ रोद्णा वीर उं वरियांम । (किचनरः 'पातल' र करां, लंदन तणी लगाम । --किसोरदांन वारहुठ रोटणौ, रोढवौ, रोलणौ, रोलबौ- क्रि. स.-- १ वजाना, ध्वनि युक्त करना । उ०--रमभम पाखर रोढती, चम धम पौड़ घम्म । धम धम पाचू धीरषै, खम खम घोड़ी खम्म --पा. प्र. २ प्रहार करना । उ०--१ तिलगां णां धरा सिदतोड, स्क धणां सिर रोढं । शरतां पाड पौदियौ कमवज, वाका थाट विरो । ` --युधजी प्रासियौ ३ गमा देना, पिटाना, नाज करना 1 उ०-जीत दढ सरि हने राजा, वाजतां रणजीत वाजा 1 रव "ईदी" मांण रोक भीम गयंदां हुत भेढ -- सू. प्र. & मारना, संहार करना ॥ उ०--१ खरां हैमरां भड़ं पीथल' चे खेडिया, दूरत गत चेरियां फिर दोढं । रूकड पंण ऊफडांखिया रोदिया, धोलिया घकाया दीह्‌ घोट । --दलौ मोतीसर उ०--२ रौढत रिमां धड़ रामच॑ंदे। संग्राम" सत्त सूरत कंद । -गु रू. व. उ०--३ "जंतमाल' शरण पाले वीद मेवाड तणी धड़ । स्िचि्यांरी सोकति “भांण' रोियां भडां घड । -गु. रू. वं. १ फकना । | उ०्--श्रारणः के खग पारहोयजावेहै। फटे घड़ श्राफठ्ते है ज्वाकानठ ज्यां जक्ते है! ईक पहल ज्योग्‌ पर चढाई्‌ रों । टे दंस पडे जाणं मंजीड वोचं । -सू. प्र. ६ गिराना, डालना । उ०- भूटि भूविय महितलि रोली, काटिव वरन कीधं हीयाली ! म्र॑तरालि थद राक्षिसि राद्वी, तीणड इई हिव रोग्रत चाखी । -सालिसूरि ४२१५ रोलर ७ विखेरना । । उ०-हार ्रोडती, वलय मोडती, ्राभरण भांजती, चस्त्र गाजती, किकणी कलपु छोडती, माथड फोडती वक्षस्थल ताडती, कूतल कलाप रोलती सकज्जल वाप्प जलि कचूक सींचती 1 --व. स. ८ श्राच्छादित करना, ढकना । उ०-धूलि नदं तिमिर ग्र॑वर रोलिड, सूरय विव मसि महि कि बोल । श्रस्ववार फिरतां न सूभद्‌, ए रणांगणि किसी परि भूकद । --साति सूरि क्रि. श्र.--& भयभीत होना, केपायमान होना । उ०-तेज प्रभूता मौ गुमानसिहे तर्‌, रोस घण छं खंड सरसां रों, जावता चटढं दादा जियां रवण जुध, प्राविया वचण॒वे तुभः ग्रोढं । --महाराजा मांनेरसिह्‌ रौ गीत १० लुढकना, दुलकेना । उ०--धुलि मिचतीय भलमलीय सयल दिसि दिणयरु छाईउ गयौ दुरहि द्रम द्रमीय सुरवरि जसु गारईउ पाडद्‌ विध कवध वंघ धर मंडलि रोलइ वाशि विनाशि किवांणि केवि श्ररीमण पंवोलइ्‌ ! --सालिभद्र सूरि ११ पतन होना, गिरना । उ०-दवु न भिणईदेवु पुण्य नड्‌ पापु संतापु सुयणह्‌ करद्‌ पुण्य- हीन जिम राय रोल -सालिभद्र सूरि १२ तलवार, भाला म्रादि शस्तको हाथ मे पकड कर धुमाना। उ०--टेल्हतौ गजां है-थाट लागा भ्रट, रीर वामां खां दुव राहां । जोव 'जसराज' पूगौ भलौ च्रुजवौ, सेल रों दहं पतिसाहां 1 -- गु. रू. व. रोठणद्यैर, हारौ (हारी), रोखुणियौ-- वि. ) रोदधिग्रोड़ी, रोलियोड, रोठयोड-- भ का. कृ. । रोीजणौ, रोटोजयौ---कमं, भाव वा. । रोठवणौ, रोठ्ववी, रोचणौ, रौचवो, रौढ्वणौ, रौटखववौ-- रू. भे. रोद्दट, रोणदटु-सं. स्वी.- १ अरव्यतस्था 1 उ०-करंन संका कोय, गाव-चणी संभड गि रेत बरावर होय, रोदट मे राजिया । --किरपारांम २ गफलतः, व्यर्थं 1 उ०्-सजंगांमे्रदगीद्ौ टामं पाराथ जहो, मार्थं राव लीघौ रोढद्रां मे मथोग । छवी वट्‌ तेस खां थटां में हकालणौ छौ,जिकौ सेज सदाम न भांजणौ छौ जोग । -- रामकरण मेह २३ ग्रस्ताववानी । ४ तेल, तमाशा, हंसी मजाक । रोलर-सं प--१ सडक पर कंकर व मद्री दवाकर सडक कौ समतलं करने वाला वलन जो खीचा या इंजन लगाकर चलाया जाता है । रोट-रिगरेट दाम ३ दछामे की मलीन में वटु वरेलन जिमनेश्रध्षरो पर रपादो लगती ह, रोदरिगरेठ, रोद-रिगरोढी - १ मखी, एंशी मजामः । उ० --सारी दिन धर्ह, गप्णां नार्थं प्रर सार्ग-सामं भायपानयां री रोद्र-रिगिरो,षछी तथा नि-गि ही फर्तां नी सकं । --एगादोण रोद्धवणौ, रोटषयौ-देसो--'रोठणौ रोद्टयौ' (र. ने.) उ० --१ धड धटण चट्‌, वदन वाच, पुर पंटोतंट + रि फोप कीषुं जषएत तीघूं रेठव्पां र्णयरंट । ---दफमणी मग्ध उ०--२ जमटढ प्राग कस जमरांसा, पग साषठ रोदटयि पाए) ६ प्रसि ताम चह टक योह, लिघी तह खात पनायणा मोह । --यु. भ्र, रोदा, रोला-स. पु.--१ स्थ्रियोंके धरण फरने गल प्राभूपण विप्ेष। (व. स.) रोढ्धागार, रोटखागारी-वि.- १ कसह्‌ प्रिय, गगद्ान 1 रोद्टासौ-स. प.--१ हुल्तट्‌, शोर गुल । उ०-सहरमें रोरी! हिद मुसतमानां रौदमौ कनी फनी । प्रत्लाहो श्रकवरकं र मुमलमानां एकद्न्टरूरी दु्पनिभे लाय --गरमगाटः रोद्धारोट, रोट्टायोे दितं. स्प्ी.--१ मय, श्रातंकया दिमी प्रकार मी घवराहट, श्रादि के कारणा मीडया जनममूद मे दीने वाली हसयल, सखलवनी 1 उ०-पहर हैक तग पोट जटी रही जोपांण री । गढ्रमें रोष्टासोट्ध मती मचा भीमड़ा । --भीमजी रौ दुहौ रोहि, रौठी, रोल, रोली-सं. स्प्री.--१ गेह फी फयतको नमने वाला एक रोम विशेष जिसमे गेह कीं "नति" मे लास वुकनी संगा चूर निकलता है । उ०्--कदंतो टाफर तारौ लाटपौ, कर्द लाटग्यौ वोध्रौ । कदं तौ घरी दावयौ पडग्यौ, कदे श्रायगी रोटी । --तेतमानगां समादी । २ विघ्न, वाघा । उ०्-राज फरम में पड्गी रोढी, मनं मरम मरजादा मोरी 1 कड़ी सरम फला री कोठी, हूयगी परम घरम कीहोटी। -ॐ. का ˆ उ०-- २ पालदी वसि रहियौ वस्ति, घण घंणां मीत द्रुटा घरा । धातती रोचि श्राई्‌ धर, जीव सण गोली जुरा । --सूरजनजी ३ श्वम, संश्चम। उ०-जपद्‌ ए रमणि सिरोमणि सकमणि रांणीय रोति) रहि यहि वहनि उततावली पावलि माहि म टढोल्लि। -जय्ेलर सूरि ४ हत्दीश्ररचूनेके योगसे वना एक प्रकारका चूण जो पयिघ्र माना जाता ह । ४२५६ 1 वि पदि ^ व [च 2 1 क 1 2 धक क ह क 5, 1 त \ ए, श +, ॥, कि श 1 १, 1 कष) (01, श १ 2 9, त १ 1 त, 9 ए ` त व, "छ? ९, ण, भवी ५+ न्त + -४ ककल च क 5 11 == कन्ये ५ ~ ^ ने ५ #ह ५ र ॥ + + 1, 01 ति 1 १ 7 । # ग, भ.गी, सेरी । रोढी, रोसौ-सं. पृ. एकः शद णिदि द्विनके चाने के प ११--१३ यनि मै २४.२८ माप्तं यनी ४ । २ हरिपदं विगतः क पनुधार्‌ एवः मोर्‌ विदच्‌ । ३ दमो --'गोटी' (ग. भै.) 2० युध मामाश्रय, द्रम श्रय रोद्धा । प, पतद्धा हनि पोत्रा 1 | उ०--२ पमग यण्द्धि गुणन धमाप, सेद्ध ममि, मेकिपि मग्नं राय । र 1, गित्रा म द्यः भ, न र. उ०--३ त्यम मपे गतये कट्‌ प्रयाग्‌ बह रार अदयं ग दारयाट्‌ हसो वद ध्रापा -- यानम म श्रना री शम्या सोम साना, ग्प्रामा 1 र्द्म, रना ) रोवण-धि.-- १ ग. ¶ृ ~~ रोप्णपन-वि.- १ पलपर्‌, दरणोड | रोवगकाटटी, रोपप्फिपो, रोक्गाको-{द.--{ म्द्नना, गोता) उ-- राजाजी षो कोदादोरग्न दकम स्ये भयत निदा । सोवरतठा होय केण सायापागा मीषद याप. प परद्वां मृ पिट द्ष्के } -- दनद) उरे मीवरो उक्गाद्िपीयो णै चदा गुणां भं परोरौ-मोरो मंगेगो गोद न्डागियौ । मपर रोत्णभषटो दमं सपमी नै मग्ो-प्रट तौ रिया फनी | -- पुनाः २ रोने पाता भदन मन्मन चाया । ३ जोधीघ्रनेदट्‌नापरे)। स, भ. रणादौ रोवणो-धि.-१ रोनेवाता, ग्पाना । मंपु --१ रने छपिया भातरः ष्ठन, रोना । उ०--भोनाफी दृठ ठमुरा. रोद्या दयेन राह 1 गेह ररीजे रो्णो, देह गी दहु --पी. म. २ दुख, कष्ट, तकलीफ 1 उ० --"वायौ' मटर सामी देगने पोषो मुटकियी । प्रतु दो ग्रैव सेना फरल कंवणा लागौ श्रा एटगारी मावा एणी नति ष्टलिपा करं ) उगारं मगा चष्ट री पनौ पर्‌ जार्वततौ प्ुरोयणोरं निरा चतिरौ 1 --पुःलवाड्ी रोवणो, रोवषो-क्रि. भ. [सं. रोदनमू-प्रा, रोश्रन] १ कष्ट मे पीडित व्यक्ति फा फेसी स्वितिमे होना नि उपक नेत्रो रो श्राम्‌ यहने लम , जाय 1 सदन करना । उ०-१ वा विधवा सोनारी मृंडासुं केयनतौकीं नी दरसायौ राक-टदछ्धाक रोवती रेवतो सगल सोनौ श्रेकट करनं भतीजां र न“ ~ 1 (प रोवाकूकौ ४२५७ रोस नाना 1 म सामी कोपरियां री दिगली र उनमांन खिड़क दियौ । -फुलवाडी जदजात रा, काम पताका काय । कामि पताका काय, उदज उ०--२ भूर्वा री ग्रेक खोदी ग्रादत ही केवा मरियोडा घणी री ्रकड़ा । राजस तजि चित रोच क सोकेयां संकडा --वां. दा. यादं श्रावतां ई रेवती घी । उणरा नांम नँ भरती । --पुलवाडी २ सुख, भ्राराम । ३ देखो "रौस' (रू. भे.) | "रोस' (रू, भे.) उ०--१ समि; थाट चटिया सूर, रोसंग प्रंग गरूर । श्रकेषर्‌ बहादर २ वक्षस्थल पर मुष्ठिका प्रहार करते हए रोना, विलाप करना । ३ किसी प्रकार के कष्ट, क्षति, हानि के लिए दुःखी होना उ०-- माजी रोवे माय, वापजी रोव वार । भाई रोव भला, सुण नही किणरं सारं । बद वद कडवा वेण, संण सोवं सिर खावें । दुसमण प्राय, चुघ कथ १ जमाय 1 -सू. प्र ताली देत, हंसं जीवै हरखावं । लि अ्रमल कियौ देखो जुलम, उ०--२ सावत" रौ सुरतांण, ताम वहसं खग तोल । रग लाल रोसंग, बोढ लोयण करि बोले । -सू.प्र. कामण रोवे कांमनं । गाव गिरौ नही गेले मै, ज्यं गेलौ गिखे न गांमने। । --ऊ. का. | रोततंगी-देखो 'रोखंगी' (रू. भे-) रोस-सं पु. [सं. रोष] १ कोप, क्रोघ, गुस्सा । (ग्र. मा.) उ०--१ करं प्रगट दोस खंडण॒ करू, घीठ रोस मत घारज्यौ । „, {सी बात पर कुट, चिढ कर इस प्रकार की शक्ल बनाना कि मानो वच्चे की तरह्‌ व॑ठ कर रोता हो 1 रोवखहार, हारौ (हारी) कन -वि. । ग्राज रौ वखत भूंडौ श्रमल, बडपण राज विचारज्यौ । --ऊ. का. विश्रोडो वियोड ड वम * कृ, * | ज ह व 1 रो मू ^ उ०--२ कर सिलांम त्रय वार, ताम श्रालम्म महातप । श्रोप जोस रोवीजणी, रोवीजब(-- भान ~ श्रसमांा, वधे किर रोस महावप । ---रा. रू. रोच्रणो, ोग्रवौ, सेणौ, रोबौ--रू- भे. ' रोवाकूकौ - जोर २ से रोना, फट २ कर रोना 1 4 ॐ । 9 -सियां +उ०--गोपाठ जोरसूं देलौ मारियो- काकाजी' ङण ग्रा लोली ्रर पाठी सदारी वास्ते मीच ली। घर में रोवाक्रूकोी मचग्यौ । --वयरसर्गांठ १ सेवाडणौ, रोबाडबौ -देखो ^रोवाणो रोवावौ' (रू. भे.) =०. तरं राठौड़ प्रिथीराज कृंपावत जैतमाल जैसावत नू कह्य-तू मत रों । परमेस्वरक्रियौतौ ह कुंपारेषेटरो जी चद्रसेन नू रोवाड़ः । -- राव चद्रसेण री वात २ क्रोध जोक श्रादिसे होने वाली नेत्र की ललाई, उवाल, उफान । उ०--१ नवहत्थौ मल्थौ वड़ो, रोस भटक्कं रार । श्रौ कुभाथल उपरा, हाय वाहुणहार । -वा, दा. ॥ उ०--२ भरत कोप मुखां+चख रोस चड़ । कठ श्राग लगी, किरद्रुग डं । -रा. रू. उ०--२ श्रपनी क्वान श्रालमसा हाथ दीनी, डाढी नोस हाथ दीनी रार रोस भीनी। ३ कुढन, डाह्‌, रध्या । ४ वैर, शत्रुता, दुदमनी । ५ जोडा, ्रावेग । - रा. र<. रोवाडणहार, हारौ, (हारो), रोदाडइणियौ --वि. । रोवाडिग्रोडी, सोवाडियोड, रोवाडयोडौ--मू० का० ० । रोवाडीजणौ, रोवाड़ीजनोौ --कमं वा. । सवाडियोडो-देखो--'रोवायोड़, (रू. भे ) (स्त्री. रोवाडियोडी) , रोवागौ, रोवावौ - १ तेसा काम या कार्थं करना जिससे कोई रोने लग ॥ ) उ०--रावता रोस वाहत रूक, इक इक्क धाव दोय दोय हुक । --ग. ङ. व. ६ फोड़ा फुन्सी रादि का जौरमें राना, पीड़ा का वढना । ७ खुशी, हषं । उ०--१ वसता हर्या वाग विच, होती रोस हजार । विया ऊ जाय. हीज वांकला, मादू श्राय मजार । २ दूसरे को रोने मे प्रवृत करना, स्लाना 1 सोवाणहार, हारौ (हारी), रोवाणियौ-वि०। रोवायोडी-भू० का० $° । रोवाङ्जणौ, रोवाईजबौ-- कमे वा० । रोन्राणौ, रोश्राबौ, रोवाडणौ, रोवाडवौ--रू° भे० । रोस-सं. पू. - १ वैभव, एेद्वयं 1 --वा. दा. ८ मकान के भीतरकी रोर दीवारमें चारों श्रोर श्रथवा द्वार पर लगने वाला वह्‌ लवा चौड़ा मोटा पत्थर निसके नीचे तोडी भी लगी रहती है । वि. वि.-वालकोनी प्रायः इसी को कहते है । ६ प्रकाश, रोनी । | । उ०-रात पडो जद ग्रातरौ, भूल्यौ सारादोम । पीटठोपग उ०--भमणि रा सुकुमार भुज, साहव गकं नुहाय ) जण नाट | मुव रौ, गयौ सूरन मामी सेस , ट रोसो ४२५८ रोता „____( __-------------------------------------------- \ र. भे.~-रोख---ग्रत्पा., रोमौ \ मह्‌. ₹<. भे.---“रोसांख' रोस्णो-देखो 'रिसांणौ (रू. भे. उ०--१ हमै सारणा सारा रो्तणौ मंजावण नूभेढा हुवा । नैं पांतियां नांच गोठ जीमिया पीड्य मलकी खनं श्रादमी मलियौ । --द. दा. उ०--२ तद ऊमादं कल्यौ रावजी.भरमल रं वास पधारौर्मे सूं कोई काम नहीं । इहां श्राप, माह रावजी ऊमादं रोसणो हुवो । --ऊमादे भियांणी री वत्त उ०-३ सेंणा सेती रौसणो, त्रसां सुं गु! साम सनेहीनां कीया, भ्रौरं रहय भ्रट. । --ह्रिरांदास महाराज रोसणी, रोसवौ --१ तंग करना, कष्ट देना । उ०--गरथ लेत गोसह, रात दिवम रोसं रयत । माय माय मोर्तंह्‌, मूनक्री खों मूरवरा । --ॐ,. का. उ०-२ रेण लट्‌ विण कुटंव रोसियां, हृवौ सीहायत तेण ह्र । सत नह्‌ ^रट्चिया' समहर, कठं" दरं भारथ कर। --सिढायच किमनौ २ वाधना, कसना । ३ कोप करना, क्रो करना । ४ मारना, काटना । रोसधर-वि. [म. हप ~-घर] १ कोप करने वाला, रोस करने वाला । सं. पु.--२ इन्द्र॒ (डि. को.) २ वहु मकान जिसमे ^रोस' लगे हए हों । रोसन~-वि. [फा. रोडन] १ जलता हुभ्रा, प्रदीप्त । ३ वह्‌ (मवनादि) जिसमें खव चहल-पहल धानंद मंगल हौ । ४ यद्ावान, कीतिवान । ५ प्रसिद्ध, विख्यात, मशहूर । ६ प्रकट, जाहिर, विदित । सू. भे--रौसन । रोसनचौकी-त. स्पी. [फा- रोशलनचौकी]| १ सहनाईं नामक वाद्य समूह्‌ । २ नफीरी नामकः वाद्य । सेसनदंन-स. पु. {का. रोशनदान] १ कक्ष (कमरा) की उपरकी दीवारमं वना टम्रा छोटा खुला स्थान जिसमे से प्रका श्रौर पवन श्राता हो । रोसनार्- देखो “रसनाई' (र. भे.) उ०--१ इतरा में रोसनार्ई. री वखत महाराज जयस्सिघ जी पधास्या 1 -मटाराज जयसिह्‌ ्रमेर रावणी री वारता उ०--२ इतरा में रोसनाह.हुई, वडारण उठ मुजरौ कियौ + - --कवरसी साला री वारता रोसनी-सं. स्वरी. [फा. रोशनी] १ उजाला; प्रकाडा ) २ मांगलिक ग्रवसर्यो पर वहूतसे दीपक जलाकर किया जाने वाला प्रकाड । ३ चिराग, दीपक । ४. एक प्रकार के शहतूत } उ०--करमला रेसमी नांरगी पेवंदू का हुनर श्रदभूत । रोनी हम- रानी सुरखानी सहतूत । -- सू. प्र. ५ देखो-"रौसनी' (₹. भे.) रो्ांण देखो - "रोस" (मह. ङ. भे.) उ०-वे वे कर्वांण.भूथांण. वंध, ग्रसमान छिवतत रोस्ांण अरघ । चख मष्टी रघ द्र. चकास, उडता विहंग वेधे अ्रकास | - वि. सं. रोसाग~वि. [सं. रोप --ग्रग्नि] १ जोगीला, श्रोजस्वी ।' उ०-माचं खाग काटां राच तंवाई छ-खंडां मार्थं, रत्रा श्राट-पाटां नदी वहाई रोसाग । पाय थादां जंग रूपी" कुवांरां नवाई पाणाः सत्रारां वेदियौ धाटा सवाई 'सोभागः । --भूरजमल्ल मिश्रण 4 रोसनलठ-वि.- पूर्णं प्र विग युक्त, जोशपूणं ॥ ¢ उ०- मृण वण खग तोल, सेस उव्यौ रोसाजचछछ । करमाखंद पर वान, श्राय दादी हाथोगद । उसस कर श्राद्धे, वीर पायक वकारं । साथ लियां सांवलां, पाल गंजवं पधार 1 --पा.भ्र. रोसानट-सं. पु. [सं. रोप-~{-ग्रनल] १ एेसा विकट या भयंकरक्रोव जो ग्रग्नि की तरहु नष्ट करदेताहो । क्रोवागिनि । रोसारी-वि. [सं. रोप~+भश्ररि] १ कत्रु दल षर कोप करने वाला । क्रोध वाला । । उ ०--मो दढ सिंघ समान, रवद भांजण रोक्षारी । -ग्रहुर रमर श्रावियो, जांरा तन पक्खरवारी । --रा. रू. २ जोशीला, वीर । उ०--देख मग ग्रवदल्ल, फौज ग्रराचल्ल श्रफारी। हांक काम पुरवा, "राम" वल्ियौ सेसारी । --रा. रू, रोता, रोसाठौ-- १ क्रोध वाला, क्रोधी । उ०--तुडतांण पण कामा तंत, चं राम राम जीहा जपत) रोसाठ हृग्रा विकराढठ रीस, पडिया लग वाह दात पीस) ग. रू. वं. २ तेजस्वी, पराक्रमी । । उ०--२ चश्च माक विकराठ चंच, कठ चाल प्रगट दाढाल कच । रोस मिदढं ग्रीखम रसम्म, चिता विटा नाहर चैसम्म। --वि. सं. रेसावणौ ४२५६ रोहणाचद ताक मस उ०-रांवण रंग रतांजणी, खणी नड शद्रा 1. रूक रुदंती राय- सली, रोहड रोहिणि लाख । -- मा.रका.प्र. | पु. [सं. रोहणः] १ वीयं, शुक्र । उ०--२ कुरवंसी कर चाढ्रौ, सव रोसाला, भीठ वडाद्मं भोपारां । रिया रिएिताढ, कट किरमाका, सीस भुजाठां सूडान । --भगतमाटठ रोसावणौ, रोसाववौ-क्रि. स. [रोसाणौ कि का. प्र. ₹.] १ सरवाना, कटवाना ! उ०--वकरिया रोसावै कूकडा कटावे श्र दारूडी-मारूडी तौ उडती दही रवर । --दसदोख २ वंघवाना, कसवाना ! ३ क्रोघ करवाना । रोसावखहार, हारौ (हारी); रोसादधणियी--वि०। सेसाविग्नोज्ञै, रोसावियोडी, रोसाव्योड़ो --भू° का० ०) रोसावीजणौ, रोसावीजवौ--कमं वा०। रोतिया-सं. स्नी.--चौदटान वंश को एक उपशाखा । रोस्ियौ-सं. पु - चौहान वंश की रोसिया शाखा का व्यक्ति । सेसीलौ, रोसेल, रोसेल-वि. (स्त्री. रोसीली" रोली) १ जोदावाला, जोश्लीला । २ निर्भय निर्भीक, निडर । ऊउ०--१ जानकी नायक जंग म, रोसेल वीरत रंगे! विरदत जस रथ धमक बंका, निमी दसरथनंद 1 --र. ज. प्र. २ कोघीला, क्रोधी 1 । ग्रकवर वस हुवा 1 रोसौलोौ --दुरसौ म्राढी उ० सुख हित स्याढ समाज, हिद मगराज, पजं न रण प्रतापसी । ३ तेजस्वी, पराक्रमी । रोस--१ देखो "रोस (रू. भे.) उ०-- शमे मारं हे कियो, केहौ कीजे सोसो रे) दोस जिकौ मुक वचन नो, कीज किणसु रोसो रे! --प. च. चौ. उ०--२ सखी री रायौ महीनो श्रव पोसो रंग रमं सहु तजि सेसो । दीनौ मुभ जादव दोसो, सवलौ तिण कार्ण सोसो हो लाल । --घ. व. ग्र रोह-सं. पु.--१ रास्ता, मागे 1 [सं. रोघ | २ रोक, रुकावट । उ०--१ जांणीय दुरयोधनि वाह ब्राह्या रहदं किमइ ते तुरियान साद्या । किरी रद्या रात रोह मांडी, जाई जिसिद्‌ श्ररजन द्रेठि घ्डि । उ०--२ खुरसांण लंक पती खहा, खेव वेध ॒व्रूहा खडग । पति- साह दढा पाघर हु्नौ, राड रोहु मुर मासलग। गु. रू, वं. रोहन-सं. स्त्री--१ नैव, नयन 1 (डि, को.) सेहड - देखो "रोहिड़ौ' (मद., रू. भे.) -सालिमूरि २ देखो “रोहणमिरीः उ०--१ खिसतां निज खांण थी, रय कहै सांभलि रोहण । प्ररं गरम उपना, महिर थारी मन मोहरा । --ध. व. ग्र. उ०--२ धारा धरस्य धारा संख्या, भूतले रेणुका कण ना समुद्र नीर विदु संख्या, रोहणे रतन संख्या न । - व. स, ३ देखो "रोहिणी" (<. भे.) उ०--१ रोहण तपै न मिरगला वाज, श्रादरा प्रणवित्या गाजे । --म्रग्यात उ०--२ रोहण वाजै भिरगला त्व, राजा भूमे परजा सपं । --ग्रग्यात उ०--३ श्रदीतवार घटी ३३/१० रोहण नक्षत्र २६/१६ रात्र गत घटी ५/० समयौ माराज स्री भ्रनुपसिघजी चद्रावत रुख्मांगदे जी रा दोहिता माजी रौ नाम कमठे । --द. दा. रोहगगिर, रोहणगिरि-सं. ¶. [सं. रोहणः--भिरि] एक पर्वत का ताम जहा पररत्न माणिक्य प्रादि प्राप्तोति हीं, उ०--श्रसंख्य साहणि चालते हूते समु द्रसलिल सलसर्व्या, घाट धम- घमी घाघरयाल वाजी, रथीक राउत तरो रसरसाटि रोहणभिरि रणरण्या । -व. स. उ०--२ भूप जडावं मुकट मभ, रोहुणगिर उतपत्त । निस दीपक प्रतिनिधि रतनः प्रभा भ्रपूरव भक्त 1 --ां. दा. रोहणचल--१ देखो “रोहणीगिरि' (रू. भे.) सोहणदे-स. स्त्री. [सं. रोहरणदेवी ] १ चन्द्रमा को पत्नी रोहिणी । उ०--१ वाडी वाड़ी भवरौ भिणकं रं सुरंगलौ, चद्रमाजी रौ पाग विराज र सुरेगलौ सुरेगलौ । रोहृणदे धिर पिर निरखं रं सूरेगलौ सुरेगलौ । - लो. गी. उ०--२ राणी रोहणदे हींडण वेय्या घरती न भेले भार । च॑र माजी श्रे ललकारौ दियौ, श्रौ हिडौ गयौ निगनार। -लो. गी. रोहणदम-स. पू. [स. रोहणः-{-द्रुमः] १ चंदन (ड. को,) रू. भे.-रोहिणीद्रम रोहणधव-सं. पु. [सं रोदिणघव] १ चद्रमा, चदि! (श्र. मा., हु. नां. मा) रोहणप-सं. पु. [सं. रोहण] १ चंदन । रोहणाचटढ-देखो ^रोहणगिरि' उ०--१ हा सोभाग्यभवन सस्नेहमन, हा त्रियस्वंजन, हा परोप- रोहणि कार वत्सल गुरारटन रो्हृणाचल, हा जग॑दमूण गतदूतख । ~व, स्‌ उ०--२ लिसउ नवा कत्पतरक्षनउ पोर हृद, रोहणाचल नी भूमि जिसड रत्ननउ भ्रकरुरउ हइ । --व. स. रोहुणि-देखो "रोहिणी! (रू. भ.) उ०--निस्िपति नारी मोहनगारी, रोहणि नद्‌ रंग रातो । प्रभू करणी परण तजि तरुणि, श्रदभत गण करि मात्तौ । -वि. कृ रोहणियाल-वि.--शघ्रुदल को रोकने वाला । उ०--रोहणियाल स रायांगुर, घाये श्रसुर उतारं धांण । श्रवठा वाल न घारं शराडी, खृंदाढम धार्त घ्मांण' --रांणा सांगा रौ गीत रोहएणी-देखो 'रोहिणी' (रू. मे.) (श्र. मा., ह्‌. ना. मा.) रोहणीजोग--देखो 'रोहणीयोग' (<. भे.) रोहणीवर-देखो 'रोहिणीवर' (र<. भे.) रोहणीसिदढधयोग-देखो 'रोहिणीयोग' ) (ना. डि, को.) उ०--श्रालमगीर रौ जन्म स. १६७५ मिगरस्र यद १ एुरट १८/२० रोहणीसिद्धयोय । --द. दा, रोहणेय-देखो “रोदहिरोय' (रू. भे.) (श्र. मा., ह. नां. मा.) रोहणौ, रोहबौ-क्रि. स.-- १ रोकना श्रवरुद्ध करना 1 उ०-२ रोहे "पातल' रांण, जां तसलीम न प्रादरं । हिद मुस्सल- माण, एक नहीं तां दोय है । --सूरायचजी टापरियी २ मारना, संहार करना । उ०--१ कठ. माभ हैम पंथ डोहिता सुभद्रा काढी, निहाटी सोहिता नेत्र जारी खनं नाम । ्रसुरंण येहिता दोहिता देवी "वेद" वाठी, नोहिता त्रभेद वारी डाढारी नमाम 1 ' --नवलजी लाछस उ०-२ महाराज श्राजानभूज राम रधुवंसमरण, राड रश्मि ज्ुष श्रवनाड रोहै, गढां गह्‌ गंजणा । वार निरघार श्राघार भ्राधार भ्रालम वरी, भिड, दठ भंजणा । र ज. प्र. ३ घेरना, श्रावेष्ठित करता । । उ०--'सोमा' हर तिलक सीचतौ सावर, करतौ खग दीना कर । रिण रोहियो घौ राठोई' चीवौ एक्रलवाड चर । -दुरसौ आदौ रोहरहार, हारो (हारी), रोहणियौ--वि० । रोहिश्रोडो, रोहियोडौ -भू० का० कु०। रोहीजणौ, रोहीजबौ--कमे वा० । रोहतास-देखो “रोहितास' (रू. भे.) रोहर-देखो "रुधिर' (रू. भे.) उ०--१ प्रम सीसनप्रामै पल नह्‌ पंलण, रोहर न धर पर| (श्र. मा. ह्‌- ना. मा.) 1 ˆ ४२६० रटियौ 1 ईसरदास तणौ वप श्राय, श्रामय सण धारां ग्रटधियौ । परदार रारौद री मीन रोहुराठ-देसो “स्थिरः (मह्‌, ९. भे.} उ०~-कोठ वया सरः तौ चष्ट, श्रव वटं दीनं उयादठा । खा रोहरादढ गाठ चिच पदक , मदं गरामं वीय भाला) -- उम्ममिह्‌ राटीदट्‌ तै मौत रोहलौ-स. पु.--रग विदोपका घोड़ा) उ०--रोकी नीलौ गंगाजठ हंसला नण काजद 1 श्र मरा श्रज्य खेग रहता हाघ्रूव । रोहुवा्त-स. प.-एकफ प्रकार को घोषा । ---गृ. स. व, उ०- तेज सुरग गव्दूरा कारातोरा सुरमागा यणा दयाया रोहवाल स्ढमाल तोरका मदकोरा पीदा नाटिजा उराहा मेसहा येकाशा । -व. स. रोहि-स. पृ. [सं. रोहः] १ मृण विष । २ व्ृक्ष। २३ चीज । ४ देषो "रोही" (रू. भे.) , रोहिडो-सं. प.--१ एकः वृ विषेप । उ० -ग्ररफ श्राउल तिणासिरा, सिम रोहि रोदिण । इद्र श्रवरस श्रासिद्रो, श्ररस्यज वकादरा । --स्कमणी मंगद 5. भे.-- रोर्ड, रोयडौ, येहीटौ मह्‌.--रोहड 1 रोहिण-सं. पु.--१ एकः प्रकार का चक्ष विशेष । २ देखो 'रोहिणी' (<. भे.) रोहिणगिर - देखो 'रोहणगिरि' (रू. भे ) रोहिणी-सं. स्वी. [सं.] १ गौ, गाय (प्र. मा., ह्‌. ना. मा.) \ २ विजली, विद्यत ।. ३ त्वचा की छटी परत 1 (म्रमरत) ४ चसुदेव की धर्मपत्नी जौ वलदेव की माता थी 1 ५५ चन्द्रमा को पत्नी, जो दक्ष प्रजापति की कन्या थी) उ०-कूरंमी कमधलमस्‌ श्रोपे वामे श्रंग । रवि राना ससि रोहिणी, सुरपति सचि किर संग । --रा. रू ६ कृष्णा की पल्नियो में से एक । ७ हिरण्यकशिपु के पत्नी । ८ जनों की एक देवी । & एेपी क्न्याजोहल हीमे रजस्वला होने वाली हौ (स्मृति) १० धैवत स्वर की तीन भ्रत्तियोमेंसे तीसरी भ्रति । १९१९ पचितारोंसे मिलकरवना रथ की शआरकृति का सत्ताईम ‡, \ तक्षतो मे चौथा नक्षत्र (ज्र. मा.) १२ एक प्रकार का भयंकर संक्रामक रोग जिसमें ज्वर के साथ गले मे पीडाहोतीरहै, (श्रमरत) र, भे.--रोदणी, रोयण, रोयणी, रोहण, रोहणि, रोहणी, रोहिण, रोहिणि । रोहिणी-प्राठम-सं. स्वी. (सं. रोहिणी श्रष्ठमी ] भाद्रपद मान्न के कृष्णा पक्ष की श्रष्ठमी निस्त दिन चन्द्रमा रोहिणी नत्र मे होता दै । रोहिणीजोग- देखो ^रोहिणीयोगः (रू. भे.) सोहिणीतप-सं. पु-एक प्रकार का त्रत विदेष । (जन) व. स. रोहिणीदम--देखो “रोहरद्रुमः (रू. भे.) (नां. मा; ह- नां. मा. ) सोहिणीषत, रोहि णीपति, सेहिणीपतो-सं, प. [स. रोहिणीपति | १ चद्रमा। २ वलराम के पिता वसुदेव. रू. मे.--रोयणीपत, रोयणीपति, रोयणीपती । रोहिणीवर--देखो "रोदिणीवरः (र. भे.) । रोहिणोयोग-सं पु. [सं.] श्रापाढ के कृष्ण पल्ल मे रोहिणी का चन्द्रमाके साय होने वाला योग । रि %. भे. रोदहिणीजोग रोहिणोरमण-सं. पु. यौ, (सं. रोहिणीरमणः] १ चंद्रमा, २ साह, ३ वसुदेव 1 रोहिणीवर-सं. पु--९ चंद्रमा ।. २ साड) ३ वसुदेव 1 रू. भे.-रोहिरीवर 1 रोहिणीवलंम, रोहिणीवलह्लभ-सं. प. [स- रोहिणी वल्लभे] चंद्रमा रोदिखेय-सं. पु. (सं. रीहिरेय] १ रोहिनी का पुत्र बलराम । र<. भे.--रोहरेय , । रोहित-वि. [सं. रोहितम्‌] लाल रंग का। सं पु. [सं. रोहितः ] १ एक प्रकारका मृग । २. एक प्रकार का वृक्ष विशेष । ३ मदधली विदोष । ४ लाल रग । ५ लोमडी । ६ देखो "रोहितास रोहितबाह, रोहितबाह्‌-सं. प. [सं. रोहित +- वाह्‌ श्रव] १ ग्राग । (डि, को.) रोहितास-सं. पु. [सं. रोहिताश्व ] १ प्रगिनि, ग्राग । (नां-मा; ह्‌. नां. मा.) ४२६१ रोह्णी-श्राठम रोही २ वसुदेव का रोहिणी से उत्पन्न पुत्र । ३ सत्यवादी हरिश्चचंद्र के पृत्र कानाम। उ०--सतव्रत सुत हरिचंद सत जिहाज, रोहितास चंद सुतं महा- राज । रोहितास तणं हित चंचुराय, तप शुत सुदेव तप भां ताय । -- सू. ङ, भ.-- सेईतास, रोयतास, रुहितास, रोहितास, रोहीतास । रोर्हिनी-देखो 'रोदहिणी' (रू. भे.) रोहिलौ-सं, पु--एक प्रकार का वाद्य । उ०--डफ स्वंजरी दूतार, विखम रोहिला वजावै । पसतौ श्ररवी पाड, गजल कड्खा वह्‌ गावै । किवढ्ा सिजदा कर, किलम उच्चर कुरांणी 1 जांणि प्रेत जागिया, महारिण काट मसांणी । --सू. प्र. रोहिस-सं. पु. [सं. रोदिप | १ एक प्रकार मृग चिदोप । २ एक प्रकार की महली । ३ एक प्रकार का घास जिसकी जड़ सुगंवित होती हे । रोही-वि. [सं. रोहिन्‌] (स्वी. रोहिणी) १ ऊपर चढठने वाला, उपर कीश्रोर जाने वाला । सं. पु.--१ एक प्रकार का हिरन, मृग । २ रोहिडा नामक वृक्ष । ३ रोह नामक म्टली । ४ रीद्‌कीहडी। उ०--“सगतीर्बिह' तरवार वाही सो प्रेमसिह घोट फेरते रे लागी घोडे र खोगीर वढकर रोही रीहाडी वेठ गयी जिण सूं घोड़ो भुस हय गयौ । -- मारवाड रा भ्रमरावां रीवारता ५ वन, जगढ । उ०--गुण ग्रौगुण जिण गांव, सुरौ न कोड सांमढं । उण नगरी विच नांव, रोही म्राच्छी राजिया । --किरपारांम उ०--२ इतरामें रोही माही एक थोरी सिकार र पां हिरणी मुहृडा श्रागे लियां श्राव । -- रामदत्त साह री वारता रोहीड़ौ - देखौ "रोहिङ' (रू. भे) रोहीतास -देखौ ^सेहितास' (<. भे.) रोहीस--देखो "रोहिस' (ग्रमरत) रोहौ-सं. पु---१ घेरा, श्रक्रमण.। २ क्रोध, गृस्सा। ३ वमनस्य । ४ युद्ध । वि.- रोकने वाला, थांमने वाला । 0 ९ वा सामहा, राह तोरिया भिडज्जां । दढ रोहा साद्ध्‌>2, कर्‌ दोहा कमधज्जां । विना खग्ग मेरियां, वरह कुरा मग्ग रभ ~~~ ~ - विचा । जामी ह्क्कां जांण, लाय लागी उना । -रा, रू रो भ--देखो "€ ऊ" (रू. भे.) रौभट-सं. पु.--१ युद्ध, लड़ाई । | उ०--१ रांम थट फट फपट रौँकट, प्ट वज्धर-कुधट, उपट । ~ रंगट भट फुट श्रकुट मरकट, कुट नटवट उष्टट कटकट 1 सू. प्र. उ०--२ रोस उपद्भां रीभिटां, वहौ धटां वथारं । कोटि श्रसुर भपटां करै, श्रंगद एकारं । -म्‌.प्र. रू. भे.--रांकट । रीद-देखो "रौद्र (रू. मे.) उ.--१ “ग्रासउत' तणी श्राकाय देख श्रकठ, साहजहां सुतन पटकं घराौ सीं । रीस सुज हृती मन नींव" हूर. उपरा, दां सीस काची रोस । --सवटटौ सादर उ०--२ जठ गजसाह" करन्न' सुजाव.विमाडत मेद्यं खगां वनराव । जुं खग फट श्रनावत' “जंत' वहादर रंदि हणी विरदत । --मु. प्र. रीदग--देखो !रौद्र' (र<. भे.) रीदिणी, रीदवौ-देखो शरू दणौ, ूदवौ' (रू. भे.) रादाठ-देखो "रद्र (मह्‌., <. भे.) उ०--श्रारावां उच्छ श्रातस काढ मंड किर भाद्रव मेह मंकाट । पर उतवग चदं तन पीठ, रोँदाद्धां फीक किरमत्त रीट। --मा. वचनिका रदियोडो-देखो “रू दियोढौ' (रू. भे.) (स्वरी. रीदियोडी' (<. भे.) रोधणो, रौपवी -देखो 'ङ दण, रू दवौ' (रू, भे.) उ०-खिनखिलं मेचरा वीर नारद खिले, उऊपरां ऊपरी गढलां ऊनं । चाय उर श्रचढ दादौ तिक किम चट, पातिपाही कटक राधिया पातं 1 --परतापक्लिघ संगतावत रौ गीत राधियोडो-देखो-"र दियोटौ' (र. भे.) (स्प्री. सधियोडी) रस-स. पु.- १ रहस्य, गुप्त तत्व । उ०--१ प्रनाततम क्या जाणसी, रांम मजन की रीस । श्रदू कँ रिव श्राज्ियां, हरीया देखण ससि । | ~ प्रनूभववांखी उ०--र्‌ रांम महाराज की रोति जाग नही, हीति करि पयर पूजत पाजी । श्रगम श्रग्याच कं साघ मूरा लहै, पय पूरा गहै गहै मरद गाजी । --ग्रनुमवर्वांरी २ केलि, क्रीडा । ४२६२ सीदं उॐ०--१ सव ही काजढठ सारिया, करि करिमन कीर्ति । मिटी पियारी पीच सुं, हरीयान्यारी रत्रि। --श्रनुमव्वांणी उ०--२ सुनि वातां सखियन चिन, करत कवारी हसि । द्रीया पीव विन पररतरियां, होय नियारी रसि। --ग्रनमचवांसी ३ समानता, वदावरी । उ०--दुस्मन दूर दहै, सव दुनियांमे हवम मंद्भूरदै। मगर्रंकी मगररी दफं करत ह, छत्रवारी कीसी रसस धरतहु । बड वट छत्रपति गदपति देसोतत डंटा करते ह । -उपाघ्याय रामविजय ४ देखो--'रोस' (<. भे.) रौ-सं. पूु.--पष्टी विमक्ति का चिन्ह! उ०--? जवर्नांरा दद्धं वीज्जुमठं, देव भतं कुट देस रौ। इर मांण खगे वट ऊजठं, मिं जोत मुकनेसं री । --रा. रू उ०-२ सखी श्रमीणा कथरी, रंग दीतौ श्राचंत । कटी हुक वगतरा, नडी नडी नाचंत | -टा. का. =. भे---रउ, रिख । रोगन -देखो “रोगन' (र. भे.) रौगनी - देखो 'येगनी' (रू. भे.) रौड़-सं. पृ---१ युद, लड़ाई । ¢ उ०-- (महा) मोट मुरधर तणा सटां दढ मौढतां, दौड पत्तिसाह्‌ सुं करं दावा । रौड़ रमतां थकां चौड रिम्म चरतां, टौड ही ठौड राठोड ठावा। --ध.व. ग्र २ देखो ^रोड़' (ख. भे.) 5. भे--- रौर । रोडो-स. पु.-१ अपर । २ मादा, उट । ३ देखो "रोदौ' (<. भे.) रजो-सं. पू. श्र. रीज-]| १ उदयन, वाग २ हरा भरा मदन) २३ वह्‌ इमारत जो किमी पीर, सरदार या बादबाह्‌ कीकत्र करे ऊपर बनी हुई ह । ५ ख. भे.-रोजौ | रीर --१ देखो "रौमट' (रू. भे.) २ देखो “रांफट' (रू. भे.) रोणो-स्. पू. (सं. श्रारण्य] वन, रनः, जंगल 1 उ०--भिर चोर मारग्ग जोर प्रगट व्यापारां,. वधि वसती रन वनं वेद्ध वरती उदारां । वडं क्रोध विसतारे रद्ध सावर धर्‌ रौणा, जर किध सहता तटं गरजंत विलीएा । --रा, ङ, रौद-देगवो ^रोद्र' (रू. भे.) ४२१६३ उ०--१ हजार गुडं वीदं एक हदा, रर्चक्कं मातौ चुट तक्क सदं । सिपायां सिरं सार वाज सचाठ, व्व दांमणी सौ प्रणी भूप बटौ । --रा. रू. उ०--२ सूर रौ कुरव्व साह्माति भांति कोच माव । देखतां स राह दोड, रौद खान भूप राव । --सू. प्र. उ०--३ श्रीनाड़ रगत श्रसुरांण ग्रौट, कौकद रौद चालत कोट । घूमरा नण ऊटंत वाड, प्रारभत दैत सेना पहाड। -- मा, वचनिका उ०--* पोए तिरसूढ पद्छाटै प्रां, माड रोदां दौम धांण । टुवाह्‌ जोध जुटं रिणवाट, घडदछै घाड़ मच घर धाट । च --मा. वचनिका रौदघड, रौदधडा-स- स्त्री.-- मुसलमानों की सेना, यवन सेना । उ०--१ चखाई कुत चखतां वणी चापडं, रौदघड पाड भ्रचढ राखी । जीवतां श्विम महाराज बणियौ "जसो, समर चा कृरं रवि चंद साखी । महाराजा जसवंतर्सिह्‌ जी रौ उ०--२ गाजां वाजां श्र गेंद ग्ड, जुडै न भ्वादौ रोदघड़ं ! जै जुडसी “्वांदौ' रोदघड़ा, गाज न वाज न गंद गडां । ॥॥ 8 ~+ % ~ चांदा वीरमर्दवौत राठौड़ रौ गीत रीदाट-देखो "रोद्र' (मह, र<. भे.) उ०--१ ढाहंतौ कालां ठेचा्गं, रौदाठां पौचाटौ राजा । वडा वरद वीका वादा वह दूजौ वीक ॥ -वी्‌ दूदौ उ०--२ रवताछ रौदाढ रोसाछ महारिण, क्रा खंडाठ म्राताठ कर । मिलमाठ कंवाढठ करा पडं मडि, धरु मकि माठ जटा घरे । --सू. भ्र. राद्र-वि. [सं] १ सद्र से संवधित, सद्र संवधी, स्द्रका, सद्र की तरह । २ श्रत्यन्त उग्र, प्रचण्ड भीषण या विकट 1 उ० - हय रौद्र ठ्क्कं प्रेद लक्कं जं किलवक जौगणी . वंका गरज्जं खड़ग वज्ज सक्ति रज्जं सक्कणी 1 --रा रू. सं. पु- [सं. रौद्रम्‌ | १ क्रोध, गुस्सा, रोप । २ भयकरता, भीपरता । २ यमराज । [सं. रोद्रः] ४ किसी प्रकार का ब्रत्याचार्‌ अन्याय श्रता प्रादि का व्यवहार देखकर उसका प्रतिकार करने या रोकने के लिए मने क्रो से उत्पन्न होने वाला भाव वि्ेष, रोद्ररस (साहित्य) उ०--जुहै भूष जगं, रसै रोद्र रंगं सयदूंण सूरं, किलम्मं करूरं । --सू. प्र. १ गर्मी, तेजी 1 ६ श्रसुर, राक्षस । रौनक ७ जंगली जाति का मनुष्य, म्लेच्छ । ८ यवन, मुसलमान । उ०-तेखा पाख लूटिया, घोड़ा ऊठ दरव्व । रौद्र प्रचार संघा- रिया, सार मार सरव्चर । --रा. रू. रू. भे.--रउद, रउ, रडद्ध रवद, रवद, रवद्‌, रवि, रवद्र, सुद्र, रोद, रोघ्रः रौद 1 मह्‌.--रवदांण, रवदाछ, रोदाल, रौदाठ, रौदाढ, रीद्रव, रौद्रां, रौद्राइण, रोद्रायण । रखद्र सौद्रकार-सं. स्वरी, [सं. रौद्रकार] १ भयंकर म्नावाजया ध्वनि । रू. भै.--रोदकार । सेद्रकेतु-सं. पु. [सं म्ाकादा के पूर्य दक्षिणा में सूल के श्रग्र भागके समान कपासी, रक्न (रूखा) रौर ताश्नवणं किरणो से युक्त एक केतु । (ज्योतिष) रौद्रपत, रोौद्रपत्ति-सं. पु--वाददाह्‌ । र. भे.--रोदपत, रोदपति । रौद्रराव-सं. पु---वादशाह । रू. भे.--रोदराव । सद्रव-देखो "रौद्रः (मह्‌ भे.) उ०--१ खगां भट वाहत रौद्रव खुर । सभ जुध भारथ संभ्रम सूर । - सू. भ्र. उ०--२ सौद्रव दुख सुख विघन सुण रिख । खंडित सेव कीव हेकणि पख । --सू. प्र. उ०--३ श्ररडाव घोर श्रंवार सौद्रव रूपरा। रवि ताम ग्रीखम रूप, भड सह उपरा । --सू. प्र. रीद्र-सम्प्रदाधथ-सं. पु.--रुट्र को मानने बाला सम्प्रदाय विशेष । रोद्रप-देखो "रौद्र" (मह्‌, रू. भे.) उ०--रौद्रंण भचक भालां गरीठ, घारक्क वहै गज वाज धीठ। --सू. धु. रौद्रादण, रोद्राधण, रौद्राट-सं पु.--९ वादशाह्‌ । उ०--१ धूवा रव दव वोम सेहारव डंवर खरा । क्रमते रौद्राइण कियी, व्योम विचाढं व्योम 1 --वचनिका उ०-२ रचि फोजां रोद्राठ, हैवर नर वहति हृसति मांडण इद्र ड मांडि यौ, वादछ किर वरसाद्ट । २ देखो 'रोद्र' (मह्‌. <. भे.) रोद्री-स. स्वी. [स.] १ हिव की पत्नी पावती । २ सगीतमें मांघारस्वरकी दो भ्रुतियोंमे से पहली श्रति। सतैनक-स. स्वी. [श्र. रौनक] १ सुंदर वणं, श्राकृति या खूप । २ चमक दमक के कारण होने बाली दोभाया सुंदरता । -वचनिका रोव म्‌ किये जमो नि का-9 क मक भ अ नि ¢ = जः णन 11 नमनो जजान मा किनका कि ता ३ प्रस्न-मुख तोगों फी चहल पटल । रौव--देखो "रोव (<. भे.) रौवदार--देसो “सेबदार' (<. भे.) रौयीलौ - देखो 'रोवीलौ' (<. भे.) रौर-सं. स्प्री.--१ मादा ऊंट, ञुटनी । २ देखो भ्रोर' (रू. भे.) उ०्--श्रजा दहण गज दषणं फिया श्रत, उरग तुरग नर्‌ द्टणा उधौर । श्रातम दहण फिया श्रवपतिर्य, राणा जरी न दहिया रौर । -- साखा जगत्तिह रे मीत तीरव-सं. पु. [सं. रौरवः] एवकीस प्रकारके नरको म सपएकनरकर का नाम । वि. (सं. रौरव] भयकर, भयावह । रू. भे.-रोरव । रौद-सं. स्त्री.--१ हंमी, मजायः, दित्तगी । उ०--लपसी लपकावं तपरी तायै, श्रापा मींच उख्यादै। चेली चोद्धांमे मन मों, रोटांमरस्ट्दादै। ॐ. फ २ देखो "रीटो' (महू रू. भे.) उ०--१ पिडु नूर दिली धर साहूजहाषुर चीत सगं हर प्रात चदु 1 दरक मूठ जडं नारनीक उसे, पौछि दिती दुम रौढ पट । म र, य्‌, उ०--२ दरणहणिया दटोढां गोमे गोढां दुरगावीर दृश्रा दोह्यं चौपट मुख चौं भाज भोलां रवदां सवदा मार्च रौढां 1 --मा. वचनिका | | | ३ देखो "रोद (ईइ. भे.) उ०--धमस पाखरां रो गणाग धूजे धरा, नडं गजयाट पहा नमिया । गुरट़ श्रनरध' तणी कटुप लागी गहां.गदपती नाग दह्‌- वाट गमिया । , राजा श्रनिरुढसिघ रौ गीत रोधि, रोसं, स्वी.--देखो "रो, (श्रत्पा. २. भे. उ०-जांणि रे जांणि जुग माहि जन सूरिवा। दोय दठछ वीचमें रोदि घां । , --प्रनूभववांणी रौद्णो, रोदवयौ-क्रि स.--१ हजम करना, प॑चाना । उ०--दक भाटी श्रावखी, पिव दुव्वार सरावां । सां श्राधा मं, चोट नुकढ मै फवावां । उंट सहत करि दुरत, रवद काचा यद रोढं 1 मण वार्ह मुदगरा, त्रणां जेही ऊ तोते । मोट परत्र जम भूपरे, विड जां णे श्रहि पांखिया । विण मुरसव॑घ भक्खी विखम श्रध कंध उपडांखिया । -मू- भर. २ घोडेकी पीठ को खुरहरे से साफ करना ।. उ०--१ डाच लर्गंणां उद, एसा पंडवां श्रपारां । रोष्ठे -पसम ४२९४ १८11 गरदरा, मटट पाप्म प्रपां 1 प्रग नुद व्रि पात नन्त धराम्भां । दरिया मम मप, रट पु दमम्मा | सकलि दिनि बुत्ी समै, तंम रेमम मग सन्विपा । ककलट मोद उष्णा दका, उम एष्या पवि प्रगिया। ~य" भ्र ३ मिश्रा मन्यना। ४ भरना मैरेय पर टाथ पन हष चटिया अनति क पृष्व नरना । ५ श्रोत करना, मानना । ६ दो (रोद्रणो, रोट्रपौ' (र. मे.) ८० - मनां श्रमणा शादधतो सपा) मीर म्पष्श शटि मद्र 1 रामरेद्ूमोचद सीरी, गद्ुली द्धा गदम्‌ फ --मदमिष उशा रो पोत रोना, हारो (है), रौढनिपौ - पिर । गोटिप्रोढी, रोद्धिपषो, रोठयोषो- नूर कार ४०1 रीष्टीजणौ, रौटोमवौ - फम्‌ यार । रोदणौ, रोद, रदवो, रौदधथयो- ० #०। रौद्टवणो, रोदधवयो-- देयो "गीदधगौ, रोटी" (=. भ.) उ०--१ तोत्र फर्‌ पिम उनमू, श्राचम माहं रीस श्यं रतानर रिग रीद्टष । पणणं जष्ट ---भा. वनि उ०--२ निट मुत मृद्धं प्रणी मुवदार, परं हय रौद्धविपौ नद परार । गर्तं मृण चौद दधिं ग्रहमंदर, "पत" पम कलिपो परय । --मू. प्र. रोटो-ग. पु.--१ युद, सगद्रा, समर्‌ 1 उ--१ तागा तेजसी कयौ प्रीतौ मान्त, ने करमचंद डीषौ दै? तद सांगेजी पयी.' जी रणानूं सादर मत देगी! म्ह भेटं पगा रौदटाक्ियारहै, मू श्रादमी पडौमरदानौहै) -- द, श. उ०--२ पद्ध गट री पाज लद्द हुई, जरं जवद्य ङौ सीतार- वान जी ताजुजी केसरतरानि जी नंदात्ताजे फोम श्राया) ध्ौरदही साय काम श्राया तथा धायते हुवा । नं राजनी-मुंतौ जालोर रा रोढामे काम भ्रायौ | --नणसी “ ऊ०--प ऊपर पीस सहु भ्रासाई, पांत सदस वाग उपाडं 1 जुटे वागि रायत न्प जौला, रौटठा हषः माहि दो रौद्धा। --मू. प्र. २ विद्रोह । उ०--धोटा रोव घास नं टवसिया रोवे दांणांनं ।चुरजा में टुकरराण्यां रोव, जामिणा जाया नं क रौढो वापरियौ, या" या' रौढ्टौ ्रापरियौ, देसमे प्रग्रेज प्रायौर, फ रोरौ वापरियौ । -लो.गी ३ उपद्रव, उत्पात, वसेद! उ०-भ्रेक डवडी वोत्ती--श्रंदाता, भ्रापरं राज री म्र पछ जा जो-० ण भ त= नू, भि ज कि ह 9 | नो त द 144 रौस ग्रादमी म्हारी. वग्धी लूटली 1 चार हाजंसिया श्रर दो डावड्या तै राहदिवां सूं वाव ्रापरं स्थं लेय । प्राथणा . दरवाजा सू पांच कोस आतर श्रौ रौढो व्ठियौ सगौ मणौ गांटौ, रोकड़ा रिपिया श्र मोहरा गी जकौ सवाय मे । --फुलवाडी ॐ विगल प्रकाश्च के श्रनूसार प्रथम यग्ख, तग्रस फिर रगण प्रर श्रत मे मगण सहित एक गुर वणं छंद विशेप । भ शोर गुल, हल्ला । उ०--१ रातां जागण रौ जंगढ में रोढी, हांणी दांणी मे फिरतौ हिढोढौ 1 पाबरू हरवरू रा सुरता परवाडा, धृणता चर माथा चुणता घर घाड़ा । --ऊ. का. उ०--२ कूञ्रां सामां श्रावतां्डरे न श्रव रौटां । चेच्यां में टस्य पड, काढा दिन घोरां । --लू ६ देखो (रोढौ' (रू. भे.) सैप-सं. स्त्री.--मांति, प्रकार, तरह 1 उ०--जोख एम जो्ांण, री मंड महाराजा । वागां गोठ । सम उच्छाहं सकाजा । रच रौस रीसरी, कटा वहतरि अ्रधिकारां। रमै कमव रा्जिद्र, रौर रौसरी सिकारां। जेठी कुरंग मदभर्‌ जुट, होय इनांमां हृत्तरां । फ्रीड़ा विलास विधविध कर, श्रभीः इद ग्राडवरा । --सू. प्र. ॥ । ॐ ल- नागरी वणौ माला का श्रद्ाईसवां वरं लिसका उच्चारण दत स्थान है 1 इसके उच्चारण मं संवार, नाद ग्रौर घोप प्रयतत लगते है । यह पार्विक, धोप, वरस्स्य, म्रत्पप्रण दै, लं-सं. पु.-१ लोक २ वचन > छल । (एका.) लंक-सं. स्व्ी.--१ कटि, कमर । (म्र. मा, ) उ०- दादी रंग उजढ भाढठ सिदूर, प्यार्ला मतवाठ नसौ मरपुर । लोई सिर फावत घाव लंक, चमूं पर सवक सू चमंक 1 --मे. म. उ०--२ डीमू लंक मराछि गय, पिक-सर एही णि । दोला रदी मास, जेहा हं निवांणि । , -दो° मा० उ०--३ दाढ गरहां भारिया, ग्रंग जरां दण । स्प मरहां मीर सव, लंक करदा तूण । --रा. रू. सं. पु.--२ देर, राशि, समूह्‌ । ३ कलह, भगडा, लडाई । त्रि. प्र.--लगणौ, लगाणौ, लागणौ । वि.--१ पतली, कृश (कटि) उ०-- गति गयंद, जंघ केिग्रभ, केहरि जिम कटि लंक हरि | विद्म धर, मारू-श्रकुटि मयंक । न्दो. उ०--२ कडि लंक चित्रा जंतर जाण्यौ, जंघ कदढ्धी यंभ । पींडी तिमु सोहूरई, जारं कनक महावछि रग । --स्कमरीं मंगट ३ वहुत, भ्रधिक, श्रत्यधिक । ४२६५ ® _ _______ ~~~ लंकदीपं २ देखो "रोस (रू. भे.) उ०-वरालां धौम चख रौस चाठां विद, तखत दीली तणौ तांमन्धौ तेम । "जसावतः तणा खग तेज माहि. जदं , जवन खल कीट भ्रातस भवक्कं जेम । ` “ -- महाराजा भ्रजीतर्सिघ राटौड रौ गीत रीसन--देखो "रोसन" (रू. भे.) रौसनर्दान-देखो “रोसनदान' (रू. भे.) रौसनाई -- देखो 'रुसनाईः (रू. भ.) उ०--कायमखां सद सेख बोले श्रलीहार । तीन पौहुरू का भ्राफताफ राठौड़ पर रौसनाई ठह्रावे । चौथे पहर कौ रौसनाई सव प्रालम पर प्राव । -- सु. प्र. रौसनी-सं. स्त्री---१ सकेद रंग की मिठाई विशेष । उ०--भंति भाति का मसाला रोगांनी रौसनीं केसरियां चक्खी भांति भांति की मिठाई । मेव की पूलाव भ्रनेक राई । --सू. प्र. २ देखो ^रोसनी' (रू. भ.) रौसा८ठ-देखो "रोसाठ' (रू. भे.) उ०--चर्खां चीठ रौसाढ भादा भपट चापडं क्रोधतां प्रागरा दिली क जलं 1 --महाराजा श्रजीतर्सिहं रौ गीत ल ४ देखो "तंका' (रू. भे.) (ड. को.) उ०-१ दादे ईसरदासियौ, कटक केण न कोय । रामहि राम रटंतडां, लंक विभीषण जोय । --ह० र० उ०--२ एक वार मेल्हौ श्रंगदं, महि लंक मभार । दई हुकम भ्रंगद दियौ, वप तांम वधार । --सु° प्र उ०--३ ऊघमतां कोठार श्रखूटत, नीर समंदजुनक्र नमे ।करण' टरा लंक हृतौ प्रभाकर हेमाठं श्रावियो हमं । --जोगीदासर कवारियौ र. भे. लंक, लक्क, लक्कि, लांक । लंकक-वि.- लंका काया लका सम्बन्धी । लंक-टकटा-सं. स्त्री.-१ सूकेस नामक राक्षसकीमातानजो कि विद्यत केस की पुत्रीथी । ॥ २ संघ्याकी कृन्या का नाम । लंकणी-सं. स्वी. [सं. लंकिनी] एक राक्षसी जिन्त हनुमान जीने लंका प्रवेश के समय मुष्ठिका प्रहारसे गिरादियाथा । ख. भे--लकिणीं । लंकदाह-सं. पु. [सं. लंका दाहिनु] लंका कौ जलाने वाना हनुमान । (ग्र. मा.) लंकदीप-देखो (लका' । तलंकनाय लंकनाय-~देवो- (तकानायः {₹. भे.) संकनायक-देखो--+लंकानायक' (5. भे.) लंकप-सं. पु. [सं. लंकपः] १ राव्य । उ०- पर वहु ठोर वमीलनि वंव, नच मनु लंकप काठ कुटव । निवालनि धपिय लेत उकार, किते सद तोपनि फट पहार । -ला० राण २ विमीपण 1 लंफपत, लंफपति, तफपती-देखो--'तंकापति' (रू. भे.) (डि. को.) उ०- १ जस जीवण श्रपजस मरणा, कर देखो सव कोय 1 कटा लंकपत ले गयो, कहा करणा गयो खोय । --ग्रन्नातत उ०--२ जोधाजोघ लेकपत जेहा, ए नवकोट तणा चछ एटा ॥ -रा०रू० ४२६६ लंकापुरो करने वाला, श्री रामचन्द्र । (ग्र. मा., ना. मा.) संकादहण-सं. पु.--१ ईदइवर, परमेदवर । (नां. मा.) २ भगवान श्रीरामचन्द्र ¦ ३ देखो लंकादाही' (ङ. भे.) लंकादाह्‌ लंकादाही-सं. पु---श्रीहनुमान । (त्र. मा.) रू. भे.- लंकादहरं लंकादीप-देखो "लंका लंकादु, लंकादू-देखी ^लंकाधू" (रू. भे.) लंकाध-स. पु. [सं. लंका~-घ्रव] लंका केश्रौर की दिश्चा, दक्षिण दिश्या) र<, भे.-लंकाद उ०--३ भेले सेन्या देतां मार्ण, पांरी उपर वाव पाजं । कीवौ | लकाघु, लकाष्ू-स. पु. |स. लंका घ्नूव] १ दक्षिणिधर्‌व। येरू सीता काररा, राणी लंकपत्ती चौ राजं । --पपि० प्र संकपुरो-- देनो लंका" । उ०--लंकपुरी यं सोषे सियार, एतौ सुक्षम रूप सुजांण, हनुमत हासं रे 1 -गी० रा० संकलियण-देग्यो "लंकालियण' (रू. भे.) लंफवरोस-देग्यो (लंकावरीम' (रू. भे.) उ०-मेम हिमालय सग सुरगय हय नय पय दरस । रुद्र सिलोचयं रग, जय जयं ल्ंफयरीस्र जस । --र्या० दा० लंफो-स. स्ी.- १ भारतके दक्षिणका एक द्वीप जहां रामायसाके ग्रनूसार रावणं राज्य करता था । उ५--प्रचिप इटे ग्रजमेर नूं, चदधियो सेभर सीस । सिर लंका किर सामघणा, रांम विचारी रीस । --रा, रू. पर्याय---करुनणापुर, परटपुरी 1 मृहा---१ लका ने मदद दिखारी =सग्ड व्ययित के समक्ष तुच्छ कन्तु पर गत्र करना । २ लकाम 'दालिद्री हौणौ=ग्रच्छी जगह पर, उच्चकूलमें या माग्यक्षालिया में युरा श्रयवा हतमाग्य होना 1 २ सकाकेश्रोर्‌ कौ दिा, दक्षिणा दिशा) ३ भारत फा दक्षिणाचत देश। ४ वेव्या। स. भे.-- तंफ, संदक, लेकिकः 1 लंकाञू-वि, [म. लंका-रा.प्र- ऊ] संका फी श्रोरकी दिथा का। परि. वि---दक्षिरादिघ्ाकी श्रौ संफाद--देमो "लेका (रू. भे.) लंकादतो-गं. पृ यो. [स लेका दत्त-दा- प्र. ई] लंका का दान | वि.--१ दक्षिरा दिश्या का, दक्षिण दिशा सम्बन्धी । क्रि.वि.--१ दक्षिण दिगा की त्रोर्‌ । रू. भे.--लंकादु, लंकादू । + लकानाथ-स. पु. यौ. [सं.] १ रावा) २ विभीपण) ॥ € रू. भे.-- तंकनाय, लंकानादह्‌ ) लकानायक-सं. पु. [सं ] १ रावणा) २ विभीपण। रू. भे.--लंकनायक 1 लंकानगरी--देखो लंका" 1 उ०--श्रय रावणा, लंकानगरी राजर्घानि, चित्रकटगढ, श्रनेक ग्रभौहिणी दद्ध“ । --व. तस. लंकानाह--देखो लंकानाथ' {<. भे.) लंकापतत, लकापति, लकापती~सं. पु, [सं. लंकापति] १ संका का स्वामी लंका का राजा, रवण (श्र. मा, डि, को.) उ० -- १ लंकापति रावण घणी, सात समंद विच वस्ती फेर । --यी, दे. उ०--२ गरवे कियो लंकपित्ति रावणा, हुक हुक कर शरा । --मीरां रू" मे. ~ नंकपत, सं कति, लंकयती । लंकापुरी - देखो (लंका उ०--प्रमरावती स्मान, श्रलकापुरी प्रततिस्परद्ध्मान, लंकापुरी सरवागीरा बुर ग्रामि निवासत ने कटै वाक, जिं समुद जगत्तीय यानि प्राकार सागर प्रमांरा वादिकावलयावतार, श्रमरनमरी प्रकार सहोदर निखकर इड नगर । --व. स. लंकापु तेल्‌टक बनव" _ लंकापुरोलुंटाक-वि, [सं. लंकापुरी + लुंटाक लंकापुरी- को लूटने वाला 1 लंकाबरीस-देखो लं कावरीस' [रू. भे. | लंकारि, लकारी-सं. पु. [सं. लंका +-ग्ररि| श्री रामचन्द्र । लंका-सतै-तोरणियौ ~ देखो तोरण' (७) लंकाठ-स. पु. [सं. लंका ~-्रालुच्‌ ] १ श्री रामचन्द्र । उ०-- लंका सेवग तू साग भ्रात लिछमण खठां भागौ । पती कुछ स्वार्थी पांगौ, करण प्रषह निकंद । रज. भ, २ रावं । उ०--१ तरवार खण खण तूट तण, पर मंत्र भण भण रसण वणः गहवगां जण जण श्रगणगण, मुर भवखण कपण लगण मर लंकाठं धूजिय लंक । --र- रू. उ०--२ पर पाठ ब्रह्मा श्राप चौ पण, श्रसुरं गाठ । इम उलट कमद्धा कदम-श्रायौ, पूरी लंक .प्रजाठ । तो लंक जी लकि कप उर वह्लियौ लंकाठ 1 --र. रू. ३ विभीषण । ४ सिह्‌+ शेर । % उ०--१ ग्रोरेम नमस्ते चडका च॑द्रभाठ री नवीन श्राभा, खटा माढरी भुजायां रही छाय । प्रारोहा लका रीकसत्रांधूफाठरी प्राग, रमा सूप जयौ काछ-पचाठ री राय । --नवठजी लाटसं उ०--२ पकरासण भ्रंग भखै भर पेट, भेढा उतमंग सदा सिव भेट । न्लाला' कर थापलि कंच लंकाठ, ्फुलां' सिध सग भरावत फा । --रा- रू. उ० --३ सवं भूस सीह ज्यं, चटिया मुहि चुगलाक ' गिलमां उमर गिद्ध गयौ, ज्यां स्रग श्राठ संका । --र. रू. ५ राजा। ६ अ्रगस्त्य तारा) [सं. लंक] ७ ललाट, भाल 1 उ०--भूज विसाठ लंकाल, वरण काढा सुंदरं । भरि मातं भाद्रवे, जांसि ऊगौ भासंकर । --गू. रू. व. ८ राक्षस । उ०-सेना उतरे समंद पार पदम्मे श्रठारह संह वहस्से निसांण किनां गाजियौ वारांण। वेद वाण दए लाल ङंडाला लंका वजे, ्रसुरां सुरांह मांह मांचियौ प्रारण । --जोरावरसिघ वि.--१ वीर, योद्धा ! उ०--१ रणखेती रजत री वीर न भूलं वाठ । वारह्‌ वर्सा लंकालियण-सं. पु.- १ परमेश्वर । 1 वापरौ, लहै वर लंकोढ । --घी. स. उ०--२ इगताठौ रा जेठसुद, तीज हुत्रौ रिणताढ । टाः भाटी जग मे, कमंधां छल लकाढठ । -रा. रू. २. भयंकर, भयानक, भीपरण उ०-जिकेद्दुफ (पु) ण, दद कंद तां गठं निकसे! जुघ प्रवीण रढरां; पांणःव्यां दूरि पियासे । जिके छत्र गज मत्तः जत्र त्यां हये श्रलम्गा । जिके काठ लंकाढठ लुढं लुक पयेष्लग्गा । पुरन पष्ठिम उत्तर दखिण, कीती रेणां खमन । श्रखंराज अररक ओरोहो- सियो, हुयं नरंद हालोहले । -नणसी ३ जवरदस्त, जोरावर । । ४ लंका का, लंका संम्बन्धी । ५ दक्षिण दिशा का, दक्षिण दिशा सम्बन्धी । मह.-लंकारौ, लंकालौ । (ह. नां. मा.) २ रामचन्द्र) रू. भे.-- 'लंकलियणः लंकावरीस-वि., [सं. लंका-{[-रा. वरीस] लंका वाला, लंका प्रदानं करने वाला 1 का दान करने सं. पु --श्री रामचंद्र भगवान । (ह्‌. नां. मा.) ङ. भे.-- लंकव रीस, लंकावरीस लंका्टौ, लंकालौ-सं- पु--देखो 'लकाठ' (मह्‌. रू. भे.) उ० --"वीक' हर सीह मार करतौ वसू, श्रभंग श्रर-त्रद तौ 'सीस श्राया । लाग गयणाग भुज तोल खग लंकाठा, जाग हो जाग कलि- याण जाया । --पदमा साद उ०-२ वाठरुकिसन पति छंढ वांहारौ, लाल' जोड़ दठछ ढाट. लंकष्ठो । सामि सनाह जिता विच सार्था, हुरकिसनोत महावठ हाथां । , लंकिणी--देखो 'लंकणी" (रू. भे.) लंकियौ-सं. प.-एक तारा. विशेष. । लंकी-वि.-- १ सिह के समान कश कमर वाली, पतली, कमर वाली । उ०--१ कुच पाकौ नारंगियां, सुपारी सा कठोर. । पान सरीखौ पेट । केसर लंकी । नामी मडक गुलाव रौ फल. ! -- रा. रू. --फुलवाडी उ०--२ नख सूले चोटी लगे, तन छवि माहतर। लुठ-मिढ केहूर लंकियां, लांवं नीर भरत. । --त[. दा. सं. प.-१ कवूतर 1 उ०-- वरचि दीप बेवडा, कठी केवड़ा कनोती । लंकी धजरं श्रलोल वजरमरि मोल विचोती }.---. र ५ २ एक विशेष प्रकार ˆ “~; \ [ 1 ४ --मे. म. # < भै "= ०५१४>-५.५.अ. विध ल 1 1 जक ५4५ लंकीः 1, # # = लंकीली -__((_ _---------~----------_____~________`_____~________~_~ उ०--१ श्रौ पड़ रवि भ्रंग, चंमर भमर सुर चंम्भर। केकी ग्रीव कसस्सि, तिकर लंकी कब्चरुतर 1 -- सूर अ उ० --२ तिके किणहैक भांतरी कवांण छ । श्रसल सींग, सेर- जवान खांचतां वडवडाट केर, कायर दैख भागे, श्रढार टकर चिल लाग, लंको कचरूतर री गरदन ज्यं वांकी। तिके वाह्‌ मे धालीञं च| --्ज॑तसी ऊदावक्ष री वातत २३ सिह । ४ वीर, यौद्धा। ५ एक प्रकार का ताम्बूल । ६ देखो "लंक" (₹. भे.) उ०-१ भण लकी महा दीसदए नारि, सरस क्रंठ सोहांयणउ । -वी.दे. उ०--२ श्राभा फदपटमप्रंग क चंदे चीरियां । दरियाई धुज देह, हरं मग हीरियां । लटकण॒ कोला लेह्‌ क वेसर वंकियां । भरिया भुषण भार, लचङ्कुत लंकियां । --र हमीर लंकीली-वि. स्त्री.--१ सुन्दर कमर बाली । उ०--ग्रय कवरी र पत्री सिधश्ची लग्न री लड़ी, जीव री जडी, सजीली फवीली लजीली, छवीली, रमकीली, लंकोली, कमकीली वकीली लटकीली चकीली चटकीली वततीस लदखणी । --र. हमीर लंफत्र-सं. पू. [स. लंका ~+ इन्द्र] १ रावणा । उ०- राजा प्रतापि लंकद्र, सत्य वाचा हुरिस्वंद्र, साहसिक चिक्रमा- दिव्य । -व, स, २ विभीपर । लंकेस, लकेसर, लफेसरि, लंकेसरी लकेसुर, लकेसुरि, लंकेसुरी, लंके- स्वर, ले फेस्वरी-सं. पु. [सं. लंका ~+ ईड, लंका -{-ईर्वर ] १ रावण । -नां-मा उ०-१ सुर तजौ चित वरतौ श्रसोके, लंफेस हण सुख करां लोक । -- सू. प्र उ०--२ वकं वय लंकेस विभीसर, म्है तौ भुजवल मिता । वांणी त्रिथा हुव रेःवीरा, चित भ्रधकांणी चिता ~~ र्‌» २८, उ०-२ लकेसर लंक गयौ वातेय 1 -रांमरासौ उ०--४ लंफेसुरि जीतता चेवेलोक --रामरासौ २ विभीषण । + उ०--उवें वार वन्भीखरणौ चाति श्राय, लखे ते हमान पावां ४२६८ , तगरे उ०-ऊमर दीटी मष्ट डीभ् जेहि लंक्षिक । जाणे हर सिरि पलड़ा, डाकं चटी उह्किका । - टो. मा. २ देखो ^लंका' (रू. भे.) लव -वडे वांस पर येत करने वाली नर जाति । उ०-- भढ (दु) मोजिग वहु भटर नदर्‌ वौलइ विषरूदाठी । लंख मंख सेलंति खग्र, कर देता ताठी । --विजयसिह मूरि लग-~सं. प.--१ देखो “लिग' (रू. भे.) उ०-नरूपरेखलेख भेख तेख तौ निर्जरणं । न रंग ्रंग संग मंग संग ढंग संजरं । --र. ज. भ्र. २ देखो भलांग' (<. भे.) लगड - देखो (लंगडौ' (मह. <. भे.) लंगडाणौ, लंगडावौ-क्रि. वि.-दोनों श्रयवा चारो पैरोका बरावरन जमना । कुष्ट लचका कर या लंगडा कर चलना । लगड़ावणहार, हारो (हास), लंगडावणियो--वि,. । लंगड़योडौ - भू. का. कृ. । लंगडाईजनणौ, लंगडार्ईजवौ-- भाव वा. । लंगडी-चि.--१ वाव्तिशाली, वली । सं. ए.--२ एक प्रकार का छंद । ३ हनूमान । सं. स्त्री.--४ घोडे की एक चाल विषेप । उ०--दुडकी, कदम, ग्बोछ श्रर नाच री लंगड़ी चालां धुराधुर में जाखी जित्तौ पारंगत व्हैगौ । घोड़ोतो वादछ री मंसा परवाण हकम वजावती । --फुलवाड़ी ५ देखो लंगरी' (रू. भे.) लंग, लंगडो-सं. पु.-१ एक प्रकारका श्राम। वि. [फा. लंग] (स्त्री. लंगड़ी) २ जिसका एक पांव क्षत हौ गयादौ, कामन करता हो । ३ परमे विकारया कष्ट के कारण जो ठीक से न चल पाता हो । ४ कोई एकं श्राघार विकार युक्तया नष्टदहोनेसेजो भली प्रकार श्रथवा सीधा खडा न रह्‌ पातादहो। ५ क्षतिग्रस्तहोनेयादहूुटनेकेकारणणजौर्पर टेढा दहो गया हो, मूड गया हो रू. भे.--लांगड़ी; लां गौ, लांघडौ, लांघ । मह्‌.-लंगड़ । लगायौ । प्रणामिस वैभाखणं भूप येनूं, जपे श्राव लकेस सीरांम | लंगर-वि.--१ वहूत श्रधिक । जेनू । ३ अगस्त्य नामक तारा । --सू. भ्र. लंक्क, लविक-- १ देखो 'लंक' (रू. भे.) उ०- थेट छोड ववां थोक, मह श्र दीधं हासढ मोक । सातु ईतरी नह्‌ सोकं, लंगर सुखी सगठा लोक । --र, रू. २ भारी, वजनदार) लंगर ३ दुष्ट, निर्लज्ज, ढीठ । उ०-संगर लोग लोभ सीं लागे, वौले सदा उन्हींकी भीर) जोर जुल्म वीच वटपारे, रादि भ्र॑त उनही सौसीर । -दादूवांणी ४ नटखट, श्रारती सं. ¶.--१ सांकल, श्युखला । उ०--१ श्रासत सगत उयरा श्राचा, जस जालम्‌ श्रमाल जिसौ लोह दोय ताद्य लौह लंगर, ग्री 'लालौ' लोहार यसौ --लाल सिह राठौड रौ गीत २ हाथीकेचारों पैरोमें वांधी जाने वाली सांकल। उ०-१ डग वेडियां दुलद्रु, लगा चहुं पग लंगर । भ्राकासी सारसी, करं ्राग्राज भयंकर । --सू प्र. उ०--२ सुजस घंटा वीर पुड्‌ सादा, लंगर रठीठां क्रपण लग । सत्र भ॑ज थटां निवाजण सकव्यां, जोस ऊपटां गयंद जग , --उदीतसिह्‌ सीसोदिया रौ गीत उ०-२ भ्रवलंवि सखी कर पमि पणि ऊभी, रहती मद वहती रमणी । लाज लोह लंगरे लगाए, गय जिम राणी मय गमणी। -- पेलि. , , 9२ वधन । उ०-- १ कवसटछ सुता राजकंवार, क्रत जन काज रा। दरसं चां दत खग दोय लंगर लाज रा । --र. ज. प्र. उ०--२ लंगर लज्जा रा तरफगर लाडा, गोरख मायां रा गाहििड रा गाडा। --ऊ. का. ४ पेरोमे चारण कियाजेवालासोना या वादी काप्रामूपण॒ विदोप । ५ जदाज श्रीर्‌ नाव श्रादि को व्हराने के लिए लोहैकावनादटृप्रा वहुत वडा कांटा जिसे समुद्रयावडी नदी में जहाजपरसे गिराकर जहाज को पानी पर स्थिर रखा जातादहै। ० -नेहा समद वीच नाव लगीदहै, वालन लगत वही जति प्रकेली । लाज को लंगर द्भुट गयोौहै, वही जात विना दामकी चेरी । -मीरां ६ लोह की वनी वहु वजनदार श्यवला जिसे श्रपराधी कै पैसेमें इसलिए वांवते ह कि वहु भागन जाए । ७ वद्‌ मोटा रस्सा जो जहाजों प्र्‌ काम मे लाया जाता है । ८ पक्की सिलाई से पूवे दूर दूर पर डले जाने वाले कच्चे टके, कच्ची सिलाई । & कतार, पवित । उ०-परस लसकर धरर थरर कायर पिजर, लहर श्रातस लंगर ` मर लागौ । जोरवर दोयगां भ जवर दोहं, वेध जा वजर खग ग्रजर गत गसस्-वागौ 1 ` -पहाडखां श्राटौ # १ १ ४२६९६ लंगरी - १० समूह्‌, भंड । उ०-नहं भरूलौ वात सुमेत्रा नंदण, छटोह श्रनाहक देले! वे सिय सोष हिमे भड भ्रव, लंगर फोजांतेले) --र ११ फौज, सेना। उ०--१ माथा हालं सेस मह्‌, पड़ भार यणपार । कूच करे श्राया कठठ, लंगर लीघां लार । लार लंगर लियौ पदम दस श्राठ कप । तोय घर कूल चप जोसं ताजा । --र. रू. उ०--२ “यागौ वागौ' राड्‌ रा, भुज कति भर भार। कठी निस ग्राया कष्ठ, लंगरलीवां लार) -वी मा. १२ वीर, यीद्धा। उ०--्ररि ग्रिग्रौ जड़ हंत उषाड, साकुर वोरी हाक सरै ! ल्हास करं फौजां वड लंगर, कीध नीनांसा समर कर। --लालसिह्‌ राठौड़ रौ गीत १३ भोजन । १४ गरीरवो, या याचको ्रादि को वाटा जानि वाला भोजन । उ०--दरवारस्‌ गरीव गृर्बौनू खैरायत लंगर व॑र लाभियौ। --कूवरसी सांखला री वारता १५ भोजनालय, भोजनशाला । १६ मंदिरमे लटक्राया या किसी पदयुके गलं मेँ वधे जाने वाते घटे के अ्रन्दर वीच मे लटकने वाला घातु का गुटका, लोलक् , वि. वि.-इस गृटके का निचला शिरा मोटा होता है श्रीर ऊपरी दिरेमें चेद होता है । यह घंटे के श्रन्दर वीचों वीच लटकता रहता हे प्रर घंटे के हिलनेकेसाय ही हितकर घंटे के श्न्दर वलि भागसे टकराता है जिससे ध्वनि उत्पन्न होती है । लंगरखानि-सं. पु. [फा. लंगरखाना | १ दीनो व दरिद्रो को भोजन वाट का स्थान । उ०--लंगरखानावेगरहै, ठ पारन पाई) 'मान' धियौ येठराव टै, जचंद सवाई । --वी- मा. लंगरगाह-सं. पु.--१ समृद्रेया यदडीनदी के किनारे का वह्‌ स्थान जहां पर लंगर गिराकर जहाज ठह्राये जाते है , लंगरलार~ विः ~ पंक्तिब्रद, पेक्तियुक्त । क्रि. वि.-- क्रमदाः, लगातार । लगरारई-सं. स्वरी.--{ गतान. दीठयादृष्टहोनेकी प्रवस्था, क्रियाया भाव, दात्तानी, गरारत, टिठाङ दुष्टता । उ०--१ ग्रौगुगा वहत सीन नहि साची, वहत करी लंगराई । सौ- कणि सकढ वेरती थाकी, (पीव) परकट सेज बुलाई । ॥ -- हु. पु. व, लेगरो-वि.--१ योद्धा, वीर । उ०--१ लंगरो रिम सेन लाडौ, गुमर धारक लाज गाडौ | इ लंमरोरावे ४२७० लंगोलार ~ ~ ~~~ क = < ~ ~~~ ~~~ =-= मड कुभेणा श्राडौ, शुक जाडौ भुम जाडौ । --र, रू. उ०--२ लंगरी खगाय पंण ष्डुग' ने च्ुडाय लायौ, सोभा तिहूं थाना साख पायौ सूर चन्द 1 पायौ फतं “ज्वार' नाम रहायौ छंवतौ प्रभा, वापौ श्रासर्मान लागी श्रायौ नेतवंव । --दूंगजी रो गीत २ सेनापति । यौ.-लंगरीराव 1 ३ देखो ^लंगड़ी' । तंगरीराव - योद्धा, वीर ॥ । उ०्-लंगरीराव रूकां रटक लेणका, मलौ श्रंगजीत' “उमराव भीमेरा का। -- महादान मेहड.. लंगदछ- देखो "लांगढ' (रू. भे.) लंगस~- देखो 'लगस' (रू. भे.) उ०-- लंणस ऊपटां फौज गज यटां भूजनग लहर, सूरतन ठहर जक गहर साजा । प्रथीपत श्रमौ' श्रायौ उलट छत्रपती, रोद सरविलंदः पर समद राजा । -- महाराजा श्रभय्सिह री गीत उ०--२ लोहरी लहरि नभ गहूर परस लंग्त, वार चक्रधार तिण वार दीघा । विलयौ वार समराय जढ दठ विगरि, कूभः' सुतजेमि सूत (नाय! कीघा 1 - राव सच्रसाल रौ गीत उ०--३ तुरत श्रेक खरं रतने, लंगस तोड़ लड़ंग । श्रभंग भूप उ्वावरां, वड गज वाज विडंग । --कल्यांणसिह नगराजोत वषि री वात लंगा-~सं. पु--एक मुसलमान गायकः जाति । ल॑गार-सं. स्व्री.-- पक्ति, कतार । लंमी-स. स्प्री. [फा. लग] कुदती का एक दाव जिससे ठंग लंगड़ी करम प्रतिदन्दधी को टंग श्रडाकर मिराया जाता है । ` लंगूर-स. पु. [सं. लांगूलिन्‌] (स्वी. लंगूरी) १ साधारण वंदर सेकु वड़ा काति मृंह्‌ व लवी दूम वाला वंदर। उ०--वदला मां श्रेक श्रचपटा लंगर रौ वासौ । श्रटीनं धांचण तै केर श्रायी न उठी वौ उणारौ कोथद्ियौ उचकाय लीनौ । -- फुलवाडी २ चपन चंचल वालको केलिए प्रयोगमे लाया जाने वाला दाबव्द । उ०्-मां, घणौ लडाय, थं इण संगरुरनं इतार देवला । तिना मापा रौ नेह प्रर लाड पद्ध फोड़ा धार्लंला । छोरी दिन-दिन पर- चार । --पूलवाड़ी ३ देषो 'लागूठी' (रू. भे.) (डि. को.) रू. भे.--लंगुल, लंगूल श्रत्पा. ~ लंगूरियौ लंगूरियो-देसौ “लंगर (म्रत्पा; र. भे.) लंग री-सं. स्त्री, [सं. लंघन] १ उद्ल उष्टल कर चलने वाली धोडेकी एक चाल । २ चुराए हुए पशुश्रों को दूंढ लाने पर उसको दिया जाने वाला ईनाम । वि.-३ लंगर का, लंगर सम्बन्वी । लगुल-१ देखो "लांगरठ' (रू.भे.) (डि. को.) २ देखो "लागरूठी' (रू. भे.) (श्र. मा. नां. मा.) लंगोचा-स. पु--१ कीमेसे भर कर तली हई जानवर की भ्रात, कलमा, गुलाम । लयोट-सं. स्वी. [सं. लिग~-पट या रा. ग्रोट] १ प्रायः लम्बी पद्री कै श्राकार का श्रथवा तिकोना सिला एक वस्त्र विशेप जौ केवल उपस्थ ढकने के लिए कमर में वांघा जाता है । उ०--तन लाल गुलाल प्रवाल तर, मल भोग नितंव नितंव मरे। कसिया तन घोट ल गोट कसी, विसियारस श्र॑तर वीच वसी । | # --ऊॐ. का. मुहा० लंगोटी रौ ढीलौ == वह्‌ व्यक्ति जो श्रवसर प्राने परस्त्री गमन करने मेन संकुचाताहो। लंगोट रौ सांचौ कभी भी परस्त्री गमनन करने वाला व्यक्ति । श्रत्पा,-ल गोरी 1 | ¢ मह्‌.- लंगोटौ । | ल गोटबंद, ल गोरवबंध-वि-- सदव के लिए जिसने स्त्री गमन, या परस्त्री के साथसंभोगन करनेके लिषएप्रणकररखादहो, उ०--ल गोट्ब॑ध वाला सहं, लाल चिद्य भुदराढ वणि ! श्रौभिके वीर सहं जागिया, भगवंती नीपा भशि । --मां- वचनिका ल गोटियीयार-सं. पु. यौ.-- वचपन का मित्र । लंगोरी-सं. स्तरी.- १ वह्‌ छोटा लगोट जो प्रायः वच्चो के उपस्थ एवं गुदा कने हेतु कमर में बांधा जता । मृहा- लंगोटी में मस्त जिस के पास कद्ध भीनेहौो फिर भी सदैव पसन्न रहने वाला । २ काष्टनी, कोपीन । लंगेटै,- देखो "लंगोट' (मह्‌. र<. भे.) उ०--१ सिन्यांसी नागा श्रवधरुता, मगवा वसतरं भ्रंग वभूता । जटा त गोटा सतर धारी, भ्रापन मारं श्रौरां मारी - ग्रनुभववांणी उ०--२ लाल ल गोरी तिलक सिदुर कौ, बैठा वजरंग श्रासण ठाद) -लो. गी. लंगोर-सं. पू---योद्धा, बहादुर । उ०--धोडा वांवं धुमरां, तोड़ा दए टकोर। नाद्रा लिए कटादयां लड़वा कजे लंगोर । --पा, प्र. लंगेलार-वि.~- १ मदाः । लंग २ पंक्तिवद्ध । लंगो-१ लंगा जाति का व्यक्ति । २ देखो लांगौः उ०-- वरदं श्रंगदेस' हुवा जोध व॑का । लंगा भोकरं भोक प्राजाढ लंका । - सु. प्र. लंधक-वि. [सं. लंघ] १ लांगने वाला, उल्लधन करने वाला 1 २ नियम तोडने वाला । संघण-देखो लाघण' (रू. भे ) उ०--१ सुर टोला करहउ कह, मो मनि मोटी भ्रास । करां कपठ मवि चरू, लंघण पड़डइ पचास । -टो. मा. उ०-२ हंसा विडद विचारं, चृ्गेतो मोती चग । नितरा करणा लंघणा, जींणौ कि्तंक जुग्म ) --ग्र्नात्त लंघणियौ- देखो 'लांवखि्यौ' (रू. भे.) लंघणीक-देखो (लांघणीक' (रू. भे.) उ० --मण, सरद, चकित, नि, रत्िपतिह्‌, चणक मंदह्‌ चलत । मिथ कुवरि, सीता सुतन, कवि एती ग्रोपम कृत । --र, ज. प्र. ५ लंघणु, लंघवबौ --देखो 'लांघणौ, लणैवो' (रू. भे.) उ०- १ भिल्ल नरिद खटततीस जात, जोमिद्र जागा टिल्लै जमात। लंघी स्रजाद दध लहर लेत, खामीवंधघ चदिया वीर खेत । --वि. सं, उ०-२ कफं चञउ नइ पंखड़ी, थांकड विनडउ वहेति) सायर लंघी प्री मिदढउ, प्री मिकि पादी देि। क उ०--२ वेवौ दुंद न वीस्रर, ध्चंद' तणौ ह्रनाथ । पथ अ्रलम्गौ ल "घर्तं, लारा लग्गौ साथ । --रा, रू. उ०--४ हणमतत पं त्रांनर प्रवर, केवण॒ कुदि ल घं महण । --शु. <. वं. उ०--५ छोटा छोड करता छो, नामे सीस नरेषन्‌ । लघे रात ग्रणंद ग्रलेखं, सो युख नहीं सूरेख नूं । --र. छ, ल घणहार, हारी (हारी), ल घणियौ--वि. । ल घि्नोडे, ल धियोड, ल ध्योड-भू- का. कृ. । ल 'घीजणौ, ल'घीजवौ -- कमं चा. । ल घने-देखो “लांघण' (रू. भे.) ल घाडणौ, ल घाडवौ-देखो लंघाणौ, लंघावौ' (षू. भे.) लघाडियोड़ी-देखो 'लधायोडी' (रू. भे.} (स्त्री. लंधाड्योड, त धाणियौ- देखो 'लांघणएियौ' (रू. भे.) उ०- केरी मरणा जौहरी चौ कटेड, विद्धुधियां लंगर ल'घाणि् वाघ ।खाग थारी गयौ सादिजादा खड, सखान-जादा गयौ वांहृतो खाग। --लालसिह सोढकी रौ मीत्त ४२७१ लंदन लंघ।णौ, लघावो-क्रि. स. [तंघणौ या चाधिणी क्रिया का प्रे, ₹. | लंघने काकाम किमी से करवाना । लघाणहार, हारौ (हास), लंघाणियौ-वि० 1 लंघायोङ्--मू० का० ० । लं घार्जणो, संघाईजवौ -- कम वा० वि. वि.---देखो लांघसणौ, लांघवौ' ल वाडइणौ, लंघाडवौ, लघावौ, लघाववौ (रू. भे.} लंघावणोी, लंघाचवौ-देखो लंवाणौ, नंवावौ' (रू. भे.) कोई पार लंघावं। --केसौदास गाड्ण ल घावणहार, हारौ (हारो), ल घावणियी--वि, । उ०--गाडर पद्ध विल्लव कर लंघाविग्रोडौ, लंघावियोड, लंघन्योज्ञ- भू. का. कृ. । लंघावीजर्णा, लंघावीजवौ-- कमं वा. । ल घौवियोड़ौ--देखो "ल घायोडौ' (रू. भे.) (स्वरी. ल घावियोड़ी) ल घौ-वि, [सं. ल चन] भूखा । उ०--कड़ीयां लघा कैहुरी, गज राज चलारां 1 नित॑वां दीर्जं ग्रोपमा, वीणार वंहारां। --मयारांम दरजी री वात ल चणो, ल"चवौ-- देखो "ललचणौ, ललचवौ' (रू. भे.) उ०- रसं भाघुरं पी जभीरी विजोरा, भुकं साख पलां फलां मारी कोरा । सनी सी मधरु दाख ग्रनारसेवा, दियी प्रणि लचैसुधा जांणि देवा । -रा. रू, ल चणहार, हारौ (हारी), ल चणियो- पि, । ल चिग्नोडी, ल चियोड़ो, ल च्योडी- भू. का. कृ. ! ल चीजणौ, ल चीजवौ- भाव वा. । च्छण, ठच्छुन, लंचछन--१ देखो "लक्षण (रू. भे.) उ०--न्यात मिली जीपण, कीवी, मिल पास कुमर नामज दीधी | नागतणी लंदण जांणी, सीपास भजौ पुरसा दानी । -जयवांणी २ देग्वो "लक्ष्मण (रू. भे.) ३ देखौ लांछन" (रू. भे) उ०--१ साल्ह कूर सृडउ कह, माठ्वणी मुख जोड । प्रां तजस पदमणी, लंचण देस्यड लोड । --टो. मो, उ०--र रिह लगि वोरिउ उल्लस्‌ मु भवपंकि पठ्या जन तारिसिई्‌ । --जयसेखर सूरि लंछन-- १ देषो लक्षए' (रू. भे.) उ०- १ खड्ग लंखन त्प तेज ग्रंडित, अ्रिहुंत तीन भुवन श्रवे- लंपरी रू. भे.-लवंड लांड । ¢ लंडण-देखो "लंदन" (<. भे.) $ लंडी-सं. स्वरी.-- कुलटा, ददचरित्रा स्त्री । ल इरो-वि. [स्त्री. लहरी] १ विना पृदंका, लिसकी पृं'कटी हुड लद ४२७२ रा 1 तंस । समय सुंदर करै मेरौ मन लिनौ, जिन चरणं जिम मानस रिद्न । ट्स । --स. कु. उ०--२ सीस मानता देवाधिपती, सससिहर एहवं जांणी । विनय चंद्र प्रभू चरणां लागी, लंछन नउ मिस्र ग्री । --वि. कु. २ देखो "लांछन! (<. भे.) देखो (लध्मण' (<. भे. ३ ण' (रू. भ.) # संदी -स्वभाव ध उ० - परण पुलस हारा ्रापरं लंद्ा सार बरुढं भायलं नवलजी रा पग पकड़ लेसी तथा भूल स्िकार जासौ । --दसदोख लंजा-सं. स्त्री.--१ लक्ष्मी 1 उ०--श्रोजी येटा थारे कहै की गुमराई जी स्यांमसुंदर थार लंजा सी लुगार्ईजी । --लो. गी. २ धन, दौलत । उ०--पदमरि पुंगढ री ऊगढठ गढ भ्रा, लंजा हुंजादं गंजा ग्रह लागे । महितदढ मगजाई मेते थठ मेली, चेली महिमा मतत महिला दक तेली । --ॐ. का. २ सीता। ४ वेटया। ५ व्यभिचारिणी, कुटिनी, कुलटा । लंजी, संभो-वि. [स्त्री. लंजा, लंजी, लका, लंमी] १ सुन्दर 1 उ०-उदियापुर लजा सहर, मांखस घण मोलाह्‌ । दे फाला पाणी भर्‌, ्राई्यौ पिद्धीलाह्‌ । -मटादान मेहड. २ सुनरूमार्‌ । ३ गौकीन्‌, ग्रलवेला । | उ०--व्रेवते प्रोटीन हलौ मारियौ पए, लंजाश्रौटी एलौ, घड़डयौ उखगावतो जाव, बालाजी श्रौ) लो. गी. ४ रमिक, रसिया । उ०--तठां उपरांति करि नं भोगिग्रा भमर लंजा छयल । हुसनाक जुबान निजर वाज वाजार मांदै ऊभा जोहां खाय द । --राजांन राउत रौ वाते वणाव , स. भे. -लांजौ ५ लंपट। सं. पु.--६ हंस लेठ-वि.--१ दुष्ट, कृतघ्न । उ०-निनाद वंध ग्रंवके दूकय ब्रोटतं । नर्द महान लंठ संठके कुकंठ घोटते मदे । --ऊ का. २ मूर, उजडू । ठठई-म. स्पी---तंड टोने की श्रवस्या या भाव, लंठ्यनन लंड-सं. पु. [न. लड़ उ्मेन्नरे ==उछालना ऊपर फेंकना] पृरूपेद्रिय, लत - देखो लता" (रू. भे.) लंतग-सं. पु.--देवलौक (जन) ल'दन, ल धन-सं स्त्री--१ इग्लडकी राजधानी का शहर । उ०--त्यां हृदी तरवार पमा पतसाहूरं । ल'दन धराई लाय निखढठ नर नाहर । --किसोरदांन वारहठ उ० --२ प्रतापीक जग चावौ "पाततल', दुनियांमेंज्यूं सूर दिपे। ल घन धरणी जांण व ल्याकत, जन जसलेवण खडौतपं। --जुगतीदांन देथा । रू. मे.--ल उण । ल प-सं. पु--१ खनिज तल, भिर का तेल । २ देखो लेप (रू. भे.) ३ देखो लाप! (रू. भे.) लंपक-सं. पु.--*१ लामधम देश जो काबुल नदी के उत्तरीतटप्ररै)। रू. भे.--लंवकः लंपर-वि. [सं.] १ व्यभिचारी, विपयी, कामूक | उ०-लंपट खट लुच्चा वीज्‌ वुच्चा, टुच्चां परा टोकंदा है } चाकर रा चाकर ठाकर ठौकर, वाकर वण योकंदा टै 1 --ॐ. का. २ एेयाशी। ३ लालची । ४ श्रनुरक्त, लीन! उ०--विसं सुखने सारू दारू दीधौ, पण इसी सूरवीर सौ उण समं वर हीज याद कियां पण विस्यमे लंपटन हुश्री । -वी. स. टी. ५ उपपत्ति, यार) र<. भे.--लंपरी । ह{परता-सं. स्त्री.-१ लंपट होने का भावया श्रवस्था1 २ कुकमें, व्यभिचार । लंपरी-देखो "लेपट' (रू. भे.) उ०--१ माठा करतव लंपटी, ग्रति घणा! ते तौ तक्षण कीजे नीची रे) -जयवांखी लं पाक ४२७३ लंवतडंग न्क ________-_------------------------- लपाक-~पु. सं. [सं.] लंपट, दुराचारी । २ पुराणों मे वशित उत्तर पदिचमी भारतवषे का मूरंड नामक देरा 1 लपौ-सं. स्तरी.--१ गोटा किनारी कौ एक किस्म जो ग्रोढने के लगाई जाती है । । ल॑पौ - देखो न्लांपौ' (रू. भे.) ल'फणौ, ल फबौ-क्रि. श्र. [सं ल फ] कूदना, छर्लाग ल गाना ! उ०--वेग सुरंगम्‌ ग्रति विहद, प्राक्रम तन भरपरर्‌ । गढ सफल संप्यी भिगन, लंप्यौ जांण ल शूर । --वगसीरांम पुोहित री वात ल फणहार, हासै (हारी), ल'फणियो - वि. । लं फिश्रोडी, ल'कफियोडी, ल पयोडो--भू- का. क. । च'फोजरौ, ल फोजवौ - भाव वा. । ल'फियोडी--क्ूदा हुग्रा, छलांग लगाया हुत्रा । (स्त्री. लंफियोडी) ल व-सं. पु. (सं.] १ कृष्ण हासा मारा जाने वाला एक | प्रलवासुर । २ खर नामक देत्य का भाद इक प्रसर । ३ एक प्राचीन मुनि । ४ शुद्ध राग का एक भेद । ५ ग्रहों की एक प्रकार की गति (ज्योतिष) । ६ वहरेखाजो किसी रेखा पर खड़ी ग्रोर सीधी गिरती हो, ७ दूरी, फासला । उ०-किला मे लब धरणी पड़ती तिणसूं गोपा पौ रं उरली तरफ स चोकैढ्ाव र परली तरफ भैरूपोठ नं वुरज ग्रौर फेर नवौ कराई । रू. भे--लवक । --मारवाड री ख्यात लंबड-देखो "लांवौ' (रू. भे ) उ०्- रोरी वीखन श्रापडां, लावी लाज मरेह 1 सयण वटाउ वा रे, लंब साद करेह्‌ 1 --टो. मा. लंव-कचुक-सं. स्त्री. [सं.] प्रायः विघवा स्त्रियो के पहनने की श्रंगिया । लंवक-सं. पु.-फलित ज्योतिप के योग जिनकी संख्या १५ है । देखो शलंब' १, २, (रू. भे.) उ०--ताड वृक्ष श्रसूल्या कन््‌उ, सिकटा सुर संघारया । नड कूवड नई भंमण कराव्या, खड खड लावक मारया । --र्वमएी मंग देखो ^लंपक' (रू. भे.) रू. भे-- लंवुक । लंबश्च, संबकरण-वि. [सं. लंव [कणं] १ लम्बे कानों वाला, जिसके कनि लम्बे हों। २ मुखं । उ०--विवक्रि वक्र दु श्रवक्र चन्न चेंठतं वँ 1 विवन्न लंवकन्न के दुकन्न एंठते वहै । --ऊ. का. संर पु.--१ गवा (ड. को.) २ विलाव, ३ हाथी, ४ वकरा, ५ खरगोश, ६ रक्षस । लंवकराडियी-वि. [सं. लव -+-रा. कराड़ी गरदन ] लंबी गदेन वाला । उ०--करहा लंवकरादिश्रा, वेवेप्रगुढ कन्न । रातिज चीन्हौ वेलडी, तिख लाखीसणा पन्च । --ढो. मा. सं. पु.--ऊट । लंवग्रौव-सं. पु- [सं.] उट । उ०--वांणां भरिया लंबग्रौवा वरौ, सीसांण सोरांण श्रपार सुशं , --विनय-रासौ वि.-लंवी गदेन बाला । लंवडाणौ, लंवडाबौ-क्रि. स--उदण्ड गाय, सस ्रादि पञुग्रों को सेत म चरने हतु लम्बे रस्से से बांघना या वाघ कर छोड़ देना । लंवडाणहार, हारी (हासी), टबडाणियौ--वि° । लबड़ायोड -भू° का० ० । लंबडार्ईजणौ, लंवड़ारईजवौ --कमं वा० । लंवराणौ, लंवरावौ, लवेडणौ, लंबेडवौ, लविडणो, लविडवी -रू. भे. लंवडायोड्-मू- का. कृ.--उदृण्ड गाय, मेस श्रादि पशुग्रों कोवेतमें चरने हेतु लवे रस्से से वाधा या वांघकर छोड़ा हुभ्रा। (स्त्री. लंवड़ायोडी) लंवखड-देखो 'लांमछड' (रू. भे.) उ०--चछटे लंवचड ताड तड तड्‌ । वांण चट वड़ सौक पड़ सड । --प्रतापसिघ म्हौकमसिव री वातं लंवजीभी-वि. [सं. चंव-}- जिह्वा] १ जिसकी जीभलंवी हो । २ वाचाल, वातुनी । लंवत-देखो ^लंवित' (<. भे.) उ०-चमर धार परवार, करी श्रांमर परिक्रमा । भूज लंचत ङंडोत, वया व्रत पेख ब्रहुम्मा । --रा, रू. लंबतडंग, लंबघड़ग-वि.- ताड के समान लम्बा, वहत लम्वा । उ०--१ वलिराजा पूरा जिग किया, तवे इद्र हेत हरि श्राया । पाव पताक सीस अ्रसर्मांना, लंवतडंग कहाया } -ह्‌. पु. वां. उ०-२ इत्तं ईमें तौ श्रेक लंवधडंग काठी काव ग्रोदियोडी रति- वाठी जीवती जागती मूरती प्राय धमकी । --वरसगांठ रू. भे.- लंबौ-तड्ग, लांवौ-तडग । लंवपयोधरां (¬ ---------------~---~------------------~~~~ लंवपयोधरा-सं. स्त्री.--कातिकेय की एक मालका का नाम । लंवमांण-वि. [सं. लंबमान] दुर तक फलाया गया हुभ्रा । लेवर-देखी "नंवर' {रू. भे.) लंवरदार-देखो नंवरदार' (र. भे.) लंवराणौ, लंवरावौ--देखो (लंवडाणौ, लंवड़ावौ' (5. भे.) लंव राणहार, हारी (हारी); लंवराणिघौ--वि° । लंवरायोडो-भू° का० कु०) लंव राईदजणी, लंवरार्ईजयी-- कमं वा०। लंवहत, लवहय, लंबहात, लंवहाथ--देखो "लांवाहाय' (ङ. भे.) लंवहोटी-वि.- जिसके होठ लवे हो । लंवार्-सं. स््री-१ लवा होने की श्रवस्था या भाव, सलम्वापन। २ किसी वस्तु का सवपते लवा ्रायाम यापक), लं बाणी, लंवायौ-क्रि स. १ लम्वा करना । २ द्रुत करना) लंवाणहार, हारी (हारी), लंबाणियो-वि० । लंवायोड़ो-भू ० काण करु०। लंवाक्ष्जणौ, लंवार्हजवौ--कमे वा०। लेवायत-चि, [सं.] १ लंवायमानं । उ०--श्रर श्रागे देवराज रौ रचियौ श्राठ हाथ उद्धत, भ्राठ हाथ लंवायत, वत्तीस पूतदढी सहित चन्द्रकांत मणिमय एक सिघास्रण॒ कोई प्रासाद री पीठ-भर खोदतां कटियौ तिकौ दही श्राप ₹ भद्रास्ण वणायौ । -वं. भा. २ लम्वा। लंवाहात, चबाहाय-देखो (लांवाहाथ' (र. भे.) लंविका-पं, स्वी, [सं.] गले के श्रंदर की घंटी, कोभ्रा। लंचित-भू. का. कृ. [सं.] १ लवा किया हरा. २ निद्वय किया हुश्रा. ३ विचार स्थिगित किया द्श्रा. ४ लटकता हुग्रा. ५ भूलता हुश्रा. £ लंवकेशूपमें श्राया हुश्रा. ७ श्रावारित, प्राधित, टिका हु्रा । सं. पु--- मांस, गोत । <. भे.--"लंवत' लंवो-देखो "लावी" (रू. भ.) लयीकांची--देखो (लांवीकांचदी' (रू. भे.) लंयी वायारी-देखो लावी वायारी' (रू. भे.) लंवुक-वि.- देखो (लेवक' {ू. भे.) लबु" यवौ-देखी लांवौ' (सू. भे.) ४२७ प) क क 7, "न मीरयिरषणीरौगणीीिषगीपोगिषयगिकीष यकौ उ०-यौ मन मवं वसं तन वं्री" गवेन करं कव द्यौरिय तंवी । --प्ननुभववी (स्त्री. लंवी) तवेडणी, लवेडवौ - देखो 'चंवड़ाणौ, चंवडावौ' (रू. भे.) लंवेडगहार, हारौ (हारी), लवेडणियौ- वि ० । लवेटिग्रोडी, लेवेडियोडी, लेवेडयोदधो-भू० का० कः० । लवेड्+जणी, लवेडीजवी -- कमं वा० 1 लवेडिपोड्-देखो 'तंव्रडायोडी' (रू. भे.) (स्त्री. लंवेडियोडी) लबौखी-देखो ^लांवौ' (ग्रस्मा,. रू. भे.) लेवोतडग, लंवोतडंग देखो 'लंवतडंग' (र. भे.) लंबोदर-सं. पु. [सं. लंव + उदर] १ जिसका पेट बड़ा दो । २ भोजन भट) ३ गजानन, गणो । (श्र. मा. डि" को. ह्‌. नां. मा.) उ०--गढ जोवांण ्रभौ' गजपत्ती, गृ गाऊ दूनी मदपत्तौ । लंवोदर सारद हित लीर्ज, दास जांणा मोहि वांरी दीर्जं। --रा. <, रू. भे.--'लंवोवर' । ९ ग्रत्पा.+--लंबोदरी । लंबोदरो --देखो लबोदर" [श्रत्पा रू. भे.) लंवोव र -- देखो 'लंयोदर' (<. भ.) उ०-सिभ्र गवरि सुतनं वारण उसण मेक लंवोवर । --रांमरासौ लेबो-देखो लावी" (<. भे.) उ० -गोरी पीडी पर ऊघड़ता गोडा । तंबी वीखां द तेतोडी लोडा । (स्वी. लंवी) लंवस्ट-सं. प. [सं. लंयोष्ठ] १ उट) २.४९ क्षेतपालों में से ४४ वां क्षत्रपाल । लंभ-स. पु. [सं. लंमक्त] १ घन, दौलत) --ॐ. कृ उ०-१ पारभकरयरा श्रारमभ मे, लियण लंम सोरंभ जघ । रखपाटट मंडोवर राखिया, भू डंडे रक्सं श्रडस , --गु. रू. वं, उ०--२ लभ चगासिजं कोडी लाख, भेदगर खट भाख । गू. ₹<. वं, लंहगौ-देखो "लहंगौ' (<. भे.) ल-सं. पु. [सं.] १ इन्द्र, २ चिन्ह, ३ पैर। ४ छद शास्म लघु मात्रा का संकेते । सं. स्वी--५ पृथ्वी! (एका) (एका) लयौ | ४२७ लइयौ-सं. पु-देखो 'लेखक्र' {अ्रल्पा., रू. भे.) (जन) लई-सं. स्त्री--१ लक्ष्मी, २ एक पीवा विेष । उ०-जिकौ थे किसा नदीजांणौहौ, फोग है जिती धरती शरारी है, श्र साजी वा लई दहै, जिती धरती म्हारीहै। -द. दा, ३ देखो लेई' (रू. भे.) लउडौ -देखो ^लकडो' (<. भे.) उ०-- एक तउ माल हूंतउ पडण पडिवडं । ग्रनैरडं वली उपरि माथद्‌ लउडा नउ धा) - पष्टी शतक लउवौ--देखो ^लावौ' (ङ. भे.) उ०-- तीतर लउचा वाटवड्‌, वैदांणी बुगलाह्‌ । लखं पंखीकण उड़ रहया, वा-वा जी वा-वाहू 1 --गजञउद्धार लउस-स. पु.- देश पिदोष । (व. स. लक-~-सं. पु.--१ पसलियों श्रौर कटिके मघ्यकाभाग। उ०--भांमरं पं रा, भूवरियेरू रा, चोग्में रंग रा, लांधियं सीह ज्यं लकां चटिया थका, मागा गाडा ज्यु वठढठाठ करता थका,“ “1 ॐ- खीची गंगेव नींवावत रौ दौपारौ लकड -देखो (लकड़ौ' (मह. र<. भे.) उ०्-पीद्धं सं. १५९२ चत वद २ नं सखीकरनी जी भ्रापरे हाथसुं गुमारौ क्रियौ, चिनां तगारी । न जाढ्ारा लकड दिया ऊपर । -द. दा २ देखो ४लकडी' उ०--जाय जगरतमें धम जगवे, प्राप धमकीं गम न पा्च। मेदी विना भरम का भंडा, हाथ लोह लकड का डंडा । --प्रनुभववांणी लकडकी --देखो "लकड़ी" (अल्पा. ङ. भे.) लकडी-सं. स्त्री. [सं. लुटः या लगुडः] १ पेड. फाडी रादि की “` ष्भान के नीचेकावह्‌ ठोस भागो जलाने, ईमारत या इमारती सामान वननेमे प्रयुक्त हता है, काष्ठ । उ०--१ तठा उपरायंत हिस्णखुलछै सु जां घोवी रं धर कपड़ा मोकढ्ा करिया छं । मांस उतार-उतार टूकडियां मे घातर्ज दै, भिरच धांणा सूंड हढदी वेसवार दीं छै । दहीरौ रजत्ौ दीज छ । लकड़ी री कठौती में सुदवक राजँ द । --खींची गंगेव नींवावत रौ दौपह्रौ उ०--२ जड खिण॒ काटी लकंड़ी तौ ईत कुपठ काहि 1 हरिया केरन पांगर, इसी ब्राढटणी वादि । --ग्रनुभववांणी २ पेड फाडी भ्रादि फे तनोंएव शाखार््रों कावहं ठोस मभागजो चुल्दै प्रादि मे जलने देतु कामम ्रातादहै, ई्वन। लकलकणों [ 1 ~ -~ ~ ~~ ाा उ० वडाई भरीजग्यौ । वाप मरग्यौ लकड्यां रा भारिया टोवतौ ढौवती, तीरथ केरयौ न वरत । -दसदोख मुहा.-- १ लकड़ी दणौ--शव को चिता पर रख कर जलाना । या. जलती चिता पर लकड़ी डालना । २ लकड़ी होणखौ -सूख कर लकड़ी जसा कठोर होना ! रीर कुड या क्षी होना । ३ कुद्धं विशिष्ट पेड की वह्‌ लम्बी एवं पृततली शाखा जो श्रात्म- रक्नाथं या बृद्धावस्था में सहायताथं रखी जाती है । मुहा.- लकड़ी चलाणौ--ग्रालमरक्नाथ लकड़ी को कलात्मक दठंगसे चारों भ्रोर धुमाना। २ लकड़ी चलौ या चालणी-किन्हींदो पक्षों में लकड द्वारा लडाई प्रारभ टो जाना। रू. भे--लकवंकडा, लाकडी । मह्‌. - लकड, लकड, लक्कड्‌ । ग्रत्पा+ लकड़की लकड़ीकार-सं. प.- सुथार, वढ्ई । लकड़-सं. पु.--१ लकड़ी का मोटा लदवा, लक्कड़ उ०--जद स्वांमीनी वोल्या-लक्डानं पणी में न्दांख्यां ऊचौ म्रावेती कुण दही व्यवे नहीं पि हलकापणां रा योग सूं तिरं । -मि द्र, २ देखो 'लकड़ी' {मह्‌ र. भे.) उ०--तिण रूपियां री जायगा लेय नं लकडा री खटकड कीवी । भि. द्र. मृहा.-- १ वक करणौ == करिसी कायं के सम्पादनार्थं किसी कौ वार्‌ वार तंग करना । २ लकड़ौ फसणौ विघ्न या वाघा पडना । ३ लकड़ो फसाणौ विघ्न या वाचा डालना । रू. भे-- लउडो, लाकडौ, लाकद्यौ । मह.+-- लकड, लद्रड, ल।कड, लाकड । ग्रत्पा., --लाकडियौ, लाकडियौ । लकमनि-देखो श्लुकर्मान' (रू. भे.) लकलक-स. पु. -१ सापो, कृत्तो मनुप्यों की वार-वारव श्ीच्रतासे जीभ हिलने की क्रिया । २ वक-भक केरने की क्रियाया भाव सू, शः --चिकलिक | लकलकणौ, लकलकवो-क्रि. श्र.--तलवार श्रादि तेज वार बाते हथि- यारोंका ग्रति तोत्र गत्ति से ऊउप्र-नीचे, दयि-कयि चमकत दवे चलना । ` लकलकणहार, हारौ (हारी), लकलकणियो--वि० । लकलकिग्रोड्ौ, लकलक्ियोडौ, लकलक्योड़ी-भू° का० कु० । लकल कियोड लकलकीजणौ, लकसकीजवी-- भाव वा० । लकलव्कणौ, लकलवक वौ --ू० भेऽ । लफलक्ियोड़ी-भू. का. कृ.--तलवार श्रादि तेज धार वाति हथियारों का श्रति तीव्र गति से उऊपर-नीचे, दाये-वाये चमकते हुवे चला हरा । (स्त्री. लकलकियोड़ी) लकलक्कणौ, लकलक्कवौ - देखो 'लकलकणौ, लकलकवी' (ह. भे.) उ०-लकलक्कं वरघछछी लगत छदिद्ाय छक्के । लकलक्कणहार, हारौ (हारी), लकलक्कणियौ--चि० । लकलभिकश्रोस, लकलप्कियोडौ, लकलक्क्योडो-भू० का० कृण । लकलन्कीजर्णा, लकलक्कीज्वौ-- भाव वा० । त्त वे * भ | ५ लकलदिकयोडो -- देखो (लकलकियोडौ' (ू. भे.) (स्त्री. लकलद्कियोडी) लकवो-सं. पू. [ म्र. लकवा| एक प्रकारका वति रोग जिसमे रोगीका मह य्ढा हो जाता है, रदित । उ०-सूी देवं सहज, वेयदं फांसी देखी । मिरी लकवें माहि, उभय ग्र॑तर भ्रवरेखौ । --ॐ. का. लकार-सं. पु. [सं.] १ संस्कृत व्याकरण फे काल, जो दस मने गये हैं| २ लवणं या ग्रक्षर के लिए प्रयुक्त होने वाता शन्द। लकारी-सं. प.- मुसलमानों मेँ सैम्यद वंश की एक शाखा । उ०-सिघ में लकारी सदयदांरी मानता विसेस है) --चा. दा. ख्यात लकोर-सं. स्री. [सं. रेखा] १ लम्वराईु के प्राकार मेँ वनाया हूश्रा कोई चिन्ह या म्राकरति। ज्युं--कागद मार्थं लकीर खींचणी ।` २ पक्ति, कतार । ज्यं -गिलासां रौ एक लकीर । ३ लम्बे समयसे चली रा रही परम्परा, प्रणाली, प्रथाया रीत्ि। मुहा--१ लकीर बूटणी या पीटणी एक ही वात को वार- चार दोहुराना, वककर करना, रूडिवादी होना । २ लकीर रौ फकरीर हौणौ ==रूटियो का भ्रंधानुकरण करना । लकीरिश्रौ, लकोरियी-सं. पू.--एक प्रकार का सिह की जात्ति का हिसिक जानवर जिसके शरीर पर रेखाएं होती ह 1 उ० तठ उपरांत करि ने राजान सिलांमति वडा सिकरारी मिघदछी, सद्रूढ, पटाला; केहरी नवहथा, कंटीरीश्रां, रीदीभ्रा, तेलिग्रा, तींदूला, लकीरिश्रा वघेरिग्रा, चीतरा, भांति भातिरा जाति जाति रा, नाहर सांकठछ जडिग्रा रहदुग्रे गाड, वंठा, कसता कणणता, वृंवाइ करता वहै छे । --रा. सा. सं, के ४२७५६ सयक लकुट-गां. पू. [सं. लकरुटः | लकद्धी । उ०--कमछ मुगट गाही करं पीत्तपट वांधकट, भ्रात वद्ध हाय दै लुट भाद्धौ । कूगद्धियाप्रीड सिर विक्रट श्राग्राज कर, कट्छियौ कानि नटयज काद्ध | --वां. दा. लफदर-सं. पू.-१ बन्दर । २ यन्दुककी कठ (श्रौजान्‌) विद्रेप जिसकी छोर से वन्दुक चरूटती है । ३ बुच्या, लफगा, वरदमादया । उ०-खांरानं पीर श्राघा ग्विसक, लागा लपक तक्गदरा 1 एम ग्रमल तमाग्बू है उभे, एकग विल स ऊंटूरा। --ऊ. का. लकोणौ, लकोकौ- देखो 'लुकाणौ, लुकावौ' (रू. ने.) उ०--१ संपतसूंश्या श्र चौड नीं त्राया। श्रापरा वनन लको'र खायौ भ्ररमे्व॑रारूख वाच्या) -दमदोषठ लकोणहार, हागौ (हारी); लकोणियौ--वि० । लकोयोड-मू° का० क्र०। लकोईजणो, लकोर्ूननौ -कम वा०। लकोयोड़ो--देखो `चुकायोड़ो' (रू. भे.) (स्त्री. लकोयोडी) लफोवणौ, लकोववौ -देखो लुकारौ, लुकावौ' (<. भे.) उ०--घोला खों काच कचंटी हरदम हाथां ही में राख । देखशिर्यां सं संकती लको है, पण ठोडी रे चिगदा घालतौ ही जावै है! > -दसदोख लफोव णहार हार (हारी), लकोवणियौ--वि० । लकोविश्रोड़ो, लकोवियोड़ौ, लकोव्योडो--मू° का? कृ०। लकोवीजणौ, लकोवीजवो-- कम वा० 1 लकोवियोडी-देखो "लुकायोड़' (रू. भे.) (स्त्री. लकोवियोडी) लक्ु-सं. स्वी.--१ ललकार, हाक । उ०--हुय रद्र हङ्ग ग्रेह ल्क जं किलङ्क जौयणी । कंका गरज्ज खड़ग चज्जे सक्ति रज्जं स्णी । -- रा. रू. लवकड़-वि.--मूखं । उ०--पाधरौ कवं है--वेटे नं सङ्कु रौ मद्रु कर लियौ है, करा पुटा, जिकौ इयं ने वेदी देवे । --वरसगांठ २ देखो "लकड़ी' (मह्‌; र. भे.) ३ देषो "लकड़ौ' (मह्‌ , रू. भे.) उ०--लक्कड मे दीधी, हवी धररौ धोरी रं । घाम फस छोंणा देन, फक दियौ जिम दोषी रे। --जयवांणी लक्कड़ी - देवो ^लक्रडी' (रू. भे.) उ०--म्न ढोली विया, लृगै-लक्कड्यिह्‌ 1 म्ह पिउ्जी मारिया लक्षण न ___ _____ _----------------- ४२७७ चंपारं कय्ियिह्‌ । -दढो. मा. उ०-२ श्राग मिद गयौ लक्खी विणजारौ लै कितरं निस्वन भास्यौ रे जाय । --लो. गी. । - देखो 'लक्लीविखजारोः लक्ीविणजासै [सं. लक्ष+-वाणिज्यकर] विणजारा " जाति का वह्‌ व्यक्ति जिसके पास व्यवसाय करने के लिए एक लाख चल हीं। वि. वि.- विणजारा जिसको वाठदिया भी कहते ईह प्राचीन काल मं यातायात्त के साधनों के रभाव के कारण ये लोग वलौ की पीठ पर सामान, माल, श्रसवाव लाद कर प्रायः सुदूर प्रातो मं विक्रीके लिए जातेये। इप्त प्रकार जिस विणजारे के पास कम से कम एक लाख वल होते थे उत्ते लक्खी विणजास कहते थे । रू. भे.-लखीविणजारो उ० -त्ये हाय लक्कडी लाकर मुख पडे ग्रलेखं । लिचपचती कडि लाक, लाज मन माहि न लेखं --ध. व. ग्र. लक्ख -देखो "लक्ष' (रू. भ.) | उ०--१ रहै रतव्यांन स्रव्यासी रिक्ल, लहै नहं पार ब्रहुम्मा लक्ख । सदा जस नव्व कहे मुख सेस, ग्रादेस श्रदेस श्रादेस ग्रादेस्त । --ह्‌- र. उ०--२ विसन्न निपाय किती एक वार, ब्रहम्मा हाच दियौ वोपार । श्रापाणी इच्छा श्राप श्रलकव, लिया श्रवतार चौरासी लक्ख 1 --ट्‌. र. लक्र--१ देखो "लक्षण' (रू. भे.) उ०--सुलतांन पठाई, दूरं आई, मल फंती ज्यं पाव घरं। तेरा पांच लकण, सरव सुलक्खण, सैनांणी ज्यं याद करे। --लो. गी. २ देखो लक्ष्मणः (रू. भे.) उ०--विहुं रधु लक्षण पुत्र वुलायः सं जग विस्वामित्र सहाय 1 जनंक तणौ वदि जोयौ उयाग भारी धनु कटु सीय विसाग।\ 9 = लक्ष-वि. [सं. लक्षं] सौ हजार, लखि । उ०्- तीन लक्ष द्रव॒ रोकड़ा, चंचकर उच्च पचीस। निपट विनं घारी निजर, पति निवारी रीस । --रा. रू. सं. पु.--लाख की संख्या । रू. भे.-- लक्ख, लर्विंख, लख लख, सच्छ, लछ, लाख । ३ देवो देखो लक्ष्य' (रू. भे.) ति त लक्षक-सं. पु. [सं] संवंव या प्रयोजन मे ज्रपना प्रथं सूचित करने लकषठणिण-स. प.-- का ज्ञाता 1 वाला शव्द । उ०--विसम छंद लकखणिण सत्थ श्रत्थत्थ विसालह्‌ । जिणवल्लह्‌ तिवत 0 उ०--१ चंद ग्रलंक्ृत चाह द्वै नदी, वांह गदै नहि पुस्तक वाचं । गुरुभत्तिदंतु, पयडउ कालिकालद्‌ । -एे.. ज. का. स. लक्षक ल्य कहां अविघाकथ. वाच्यह वाचक नाच न नावं 1 --ऊ. का. उ० -२ के जलिक रसक जण अयौ नायिक्रा भेद जणाय दीजं ह, तिण र्थ रस री साभ मूरत ही वणाब दीजं है, सुकिया, परकिया सामान्यादि भेद प्रभेद लक्षक वखांखिजँ है, तिणां में धुनि, व्यजना, लक्षणा, श्रलंकार, भाव, श्रनुभाव, संचारी, सथायी पिणा वचन भास जांणीजै है । । --र. हमीर वि.--१ देखने या दिखाने वाला दर्शक । २ जता देने वाला, चेताने वाला । लक्खणौ, लक्लवौ -देखो "ललणौ, लखयी' (ङ. भे.) उ०--रटत जेम सुर सेर, मीर घण घोर परक्खं 1 सरवर जठ पूरियै, भेख हस्व सुख लक्खं 1 --रा. ₹. लक्वणहार, हारौ (हारी); लक्खणिग्रौ--वि० 1 लक्षिलश्रोडौ, लक्लियोडौ, लक्स्योड़ो--भू° का० 8० । लकलीजणौ, लक्लीजवौ --कम वा० । लक्लारौ--देखो 'लखलारो' (रू. भे.) (ड. को.) लपिख--१ देखो "लक्ष" (रू, भे.) लक्षण-सं. पु. [सं.] १ किसी पदार्थं या वस्तुका वह्‌ गुण या विशे- उ०-ग्रेकद्‌ वच्नि वसंत, ग्रे वड श्र॑तर काइ । सीह कवटी नह्‌ पता जिससे वह पट्चाना जाय । लहइ, गदवर लकि विका । --न्न, वचनिका २ देखो "लखी' (रू. भे.) लस्वियोडी-देखो (लस्योडो' (रू. भे.) (स्त्री. लक्खियोड़ी) २ किसी व्यक्तियाप्राणीका वह्‌ गुण या विदोपता जो म्न्य मेनटो। ३ किसी रोगके सूचक दरीरमें दिखाईदेने वाले चिह्धु 1 ज्यूं-निकान्म रा एहीज वक्षण व्दै। लक्षसी- देखो "लखी" (रू. भे.) ४ सामुद्रिक विद्या के प्रनुसार शरीरके किसी भ्रंग पर रष्टिगत उ०--श्चटयौ मीर काठ. हयं वे विर्व, मनौ मेक मंगा यतं थाठ युम यः ग्रशुम चह ' नच्च । चडयौ पीरवांनं यततं वाज लक्खी, जिनो रहे पीर चोवीस ५ चाल-चलन, कमं 1 परखी । ला. रा. , ६ स्वभाव, श्रादत। लक्षणवंत ४२७८ लक्ष्मण (~ -~- ~ ~ ~ ~- ~ उ०-- ताहुरां थारा साथी फहिसी, हालौ तयार ! पणि तृं हुं कट तेन्‌ साधं ल्याए । जिकौ ईय लक्षणे हुवे, तीयं नं त्याए । --कावटं जोर्हयौ नं तीडी खर री व्रात ७ पुरुप के शरीरके श्रगोंके दयुम चिन्हया संकेत जो ३२ माने गए ह- पांच श्रंग दीध--दोनौं नेच, दादी, जानु श्रौर नासिका । पांच श्रंग सूक््म--त्वचा, के, दात, श्रगुलियां रौर श्रगुलियों की गुदं । तीन श्रंग हूस्व--ग्रीवा, जंघा, मूत्रेन्दिय। तीन श्रंग गंभीर--स्वर, अ्रन्त.करण श्रीर नाभ) छु: स्थान ऊचे-- वक्षस्थल, उदर, मुख, ललाट, क्रा श्रौर हाथ । सात स्थान लाल-दोनों हाथ, दोनों श्रांखों के कोने, तालु, जिब्हा श्रधर श्रौर नख । तीन स्थान विस्तीणे--ललाट, कटि श्रौर वक्षस्थलं । ८ बुद्धी, श्रक्ल । ६ चमत्कार, करामात। १० साहित्य में शब्दो, पदों, वाक्यों रादि की रेसी परिभाषाया व्याख्या जिसमे उसको वास्तविक स्थिति का स्वरूप प्रकट होता ३ । . उ०--कफेदट जिकं रसक जाणा ज्यौ नायिका भेद जणाय दीं है, तिण मेरसरी सा मूरतः-दी वणाय दीने है, सुकिया, परकिया सांमान्यादि भेद प्रभेद लक्षण लक्षक वखाणीजं है, तिणां में धनि, व्यंजना, लक्षएण श्रलंकार भाव, प्रनुभाच संचारी, सथायी पिखा यचनाभास जांणीजं है । --र. हमीर ११ वत्तीस्त की सख्या । % १२ देखो लध्मण' (रू. भे.) <. भे.- लं च्छ, ल॑च्छन. लंद्ण, लंटन, लक्खण, लखण, लखन, लखयर, लखिण, लख्वर, लच्छं, लच्छणा, लच्छन, ल्ट, लदछरा, लदछधन । लक्षणवंत, लक्षणवंती-वि, [सं. लक्षणवत] १ शुभ गुणों से युक्त । २ बुद्धिमान, चतुर । ष. भे.-लसखरवत, लखरवतौ लक्षणहीन~सं. पु.[सं. | १ वह जिसमे लक्षणन हो। रू. भे.-लद्णदहीन लक्षणा-सं. स्त्री -काव्य मे दाव्द की तीन शव्तियोंमे वहु दूसरी शप्त जिसमें मुख्य श्रयं के वाधितं होने पर रुदि म्रथवा प्रयोजन कै कारण उसका साधारण मे भिन्न श्रीर वास्तविक श्रर्थं प्रकटं टोतारै 1 यह्‌दोप्रकार की होती दै-निष्ढ ग्रौर प्रयोजनवती । उ०---कर्द जिकं रसक जांण ज्यौ नायिका भेव जाय दीजैर्है तिणमेंरसरी साग मूरतही वणाय दीजं दह, सुकिया, परक्िया सांमान्यादि भेद प्रभेद लक्षा. लक्षक वखां णीजं है, त्तिणां में धुनि, व्यंजना, लक्षणा, ग्रलंकार, भाव, श्रनुभाव, संचारी, स्थायी पिण वचनाभास जांरीजे है । --र, हमीर लक्षणौ-वि, [सं.लक्षणी] १ सक्षणोसे युक्त, लक्षणों वाला । उ० - १ राजानि कुग्रर वत्तीस लक्षर्णी छ । तिकं कहै दध । --रा. सा. सं. उ०--२ भूपत क्यूं चिता करौ, वरसा होवे नांहि । वत्तीस लक्षणौ पुरुष वलि, हौ तौ वरसा होय । -- सिघासण वत्तीसी २ समभ्दार। रू. भे.-लखणौ, लख्णी, लच्छणौ । लक्षवरीस-लाख रुपयों का पुरस्कार देने वाला । रू. भ~ लखवरीस, लखवरीस, लास वरीस' लाखवरीस । लक्षिता-सं. स्व्री.-- वहु परकीया नायिका जिसका गुप्त पर-पुरुस प्रेम ग्रभिग्यक्ति द्वारा प्रकेट हौ जाय । लक्षेसरी, लक्षेस्व री-सं, पु. [सं. लक्ष ~+ईइवर रा. प्र. ई] लाख रुपयों ( का मालिक, लखपति । ८ उ०-१? काम कंदला { न कीजीड, कूडी माया कोडि । लक्षेसरी लहि लोरिउ, तु श्राप तद्‌ खोड । --मा. का, प्र. उ०--२ जं चिद कलास परवत सिख वाद, इसा सरवग्य देव तमा प्रासाद । करदं उल्लास, लक्षोस्वरी कोर्टिघ्वज तणा श्रावासं ) --रा. रा. सं. रू. भे.--लसेसरी, लसेस्वरी, लाखेरी । लक्ष्मण-सं. पु. [स. लक्मणः] १ रघुकंजी राजा दशरथ की रानी सुमित्रा के गभं से उत्पन्न एकं पुत्र, जो राम व भरतस दोरा था। (श्र. मा.। पर्या.--ग्रनंत वाठजती रधृवंसमणि, रामानुज रुधवीर, सुतदसरथ, सुमत्रसूत, सोमिघ्री, सेस । २ दर्योवन का एक पुत्र जिसकी श्रं री कौरव सेना में “स्थसत्तम' धी । । ३ प्रंगिरसकुलोत्पश्च एक मंत्रकार । ४ श्री कर्णीदेवी के एक पृच्रकानाम। ५ सारस । ६ नाग । वि.-भागर्यवान 1 र<, भे.--लंदछणा, लकल, लक्षण, लखण,-ल मण्णा, लखन, लखमण, नखम्मणा, लजिण, लखिणउ, लखिन, लख्बण, लच्छ, लच्छण, लच्छन, लच्छमण, लद, लए, लषन, लदछमरा, लचछमन, लक्ष्पणा लद्म्मन, लद्िमनः, लिष्टमनं । - लाखण, लाखमण, लिखमणः लिदमणा, लक्ष्मणा-सं. स्त्री. [सं.] १ एक प्रकार का पौधा विशेष जो पर्वतो पर कहीं २ उत्पन्न होता ह! वि. वि.- इसके पत्ते चौड होते है! उन पर लाल लाल चंदन के समान वंदे सी होती है । इसका कद ग्रोपवियोंके काम मेंलिया जाता है । २ भद्रदेश के राजा की कन्या जौ कष्ण कीःपत्नी थी । ३ एक अप्सरा जो कदयप मुनी की कन्या थी । ४ दुष्यन्त राजा की प्रथम पत्नी जिसे जाखी सामान्तर भौ प्राप्त था । लक्मी-सं. स्त्री. [सं.] १ भगवान विष्णु कौ पलनी जो घन- सम्पत्ति की श्रधिष्ठात्री देवी मानी जत्तीहै1 (डि. को.) पर्याय.- श्रा, इंदरा, ई, कमला, चपला, छीरोदघजा, नारायणी, पदमा, प्रभा, भा, भुजायत, मा, रमा, रामा, लोकमःता, विसन- प्रिया, वेढावटधी, सुखदा, स्यामां, स्त्री हरि-वांम वि. वि.--लक्ष्मी चार प्रकार क मानी गईहै। १) राज्य ल्मी (२) गृह्‌ लक्ष्मी (३) विजय ल्मी (४) भोग्य लक्ष्मी । चन-सम्पत्ति, दौलत । सीता का नाम । दुर्गा देवी का एक नाम । रुक्मणी का एक नाम । दोभा, सौन्दयं । भाग्यशाली स्त्री जो बन-घान्य वहाती है । < ग्रहुस्वामिनी के लिए प्रयुक्त आदर सूचक शब्द या सम्बोधन । & हल्दी । १० वीर पत्नी 1 ११ समी वृक्ष । १२ भस्मी, राख। १३ मद्री, धूल । १४ सफेद तुलसी । ४ १५ ऋद्धि नामक ग्रौपवि। १६ वृद्धि नामक ग्रौपचि । ` १७ श्राय (गाधा) छन्द का एक भेद विजेप जिसमे २७ दीघ श्रौर तीन हृस्व वणं सहित कुःल तीस वणं होते हैं । १८ एक प्रकार का वणैव्रत जिसके प्रत्येक चरणमेंदो र्शण॒ एक गुर श्रौर एक लघु वणं होता हे । < ^< ^< ५ ५ रू, भे.--लखमी, लखम्मी, लखिमी, लम्खपी, लच्छं लच्छमी, ४२७६ लक्ष्मीपति ` -------------------_ लच्छि, लच्छी, लद्ध, लदमी, लद्धवि, ल्वी, लघि, ली, लाच्छ, लाच्छी, लाद, लाछि, लाठी लिखमी, लिच्छमी लिदेमीः लि द्धम्मी, लीद्म्मि लीद्धम्मी 11 लक्ष्मीक, लक्ष्मीकांत-सं. पु. यौ. [सं. लक्ष्मी [काति] १ विष्णु भगवान्‌ । र. भे.--लखमीकत, लखमीकांत, लंदछमीकंत, लचछमीकांत, लिदखमी- कत, लिष्छमीकांत, चिद्छम्मीकंत लिदम्मीकांत । लक्ष्मीकारी-सं. पु. यौ. [सं, लक्ष्मी +कारिन्‌] धन-सम्पत्ति प्रदान करने वाला । लक्ष्मीरोदी-सं. स्री संगीत में कोमल स्वरों वली एक प्रकार की संकर राभिनी। लक्ष्ीततत-सं. स्वी. [लक्ष्मी तात] समृद्र । रू. भे.-लखमीतात लक्ष्मीता-सं. स्वी. ]सं. सष्मीताल] १ संगीनमें १८ मात्राम्नों का एक ताल । २ श्रीताल नामकं एक वृक्ष । लक्ष्मीधर-सं. पु. यौ. [सं. लक्ष्म ~|-धर] १ विष्णु, नारायण । २ स्रग्विणी छंदका दूसरा साम। वि.--घनाल्य. घनवान । र<. भै.-सदछमीधर । लक्ष्मीनाय-सं. पु. [सं. लक्ष्मी नाथ] विष्णु । रू. भे.-लसलमीनाथ, लच्छिनाथ, लदछकीनाथ, लिखमीनाथ, चिख- मीना, लिच्छमीनाथ लिच्छमीनाह्‌, लिदछधमीनाथ, लिदमीनाहि. लक्ष्मीनाराप्ण-सं. पु. यौ. [सं. लक्ष्मी -{-नारायगा] १ लक्ष्मी श्रौर नारायण की युगल मूति । २ वहुत'काले रंग के एक प्रकार के शालिग्राम जिनके एकश्रोर्‌ चार चक्र वने होते ह, लक्ष्मीजना्दन । रू. भे. -लिखमीनारायण, लिद्धमीनारायणा लक्ष्मीनिधि-सं. पू.-- राजा जनक का एक पुत्र । (रामायण) लक्ष्मीनिवास-सं. पु---१ वह घोडा जिसका शरीर लाल टो किन्तु दाहिना कान सकेद हो (शुभ) २ विष्णु, नारायण ! <. भे.- लच्छिनिवासं लक्षमीर्ासिह-सं. 4. [सं. लक्षमीनृरसिहि] एक प्रकार कै विष्णु जिन पर दो चक्र श्रीर्‌ एक वनमाला वनी होती है । लक्ष्मीपति-सं. पु. यौ. [सं लक्ष्मी +-पत्ति] १ विष्णु. नारायण । २ श्रीकृष्ण । लक्ष्मीपुत्र ,. _ _----------~------~---------~-~-~--~*~------------ -----~~---------------~~---~--- ~ २ राजा । ४ सुपारी का पेड) ५ लवंग का वृक्ष । वि.-घनवान, श्रमीर 1 रू. भे.-लखमीपत, लखमीपति, लखमीपती, लचछमीपत, ल छमीपति, लष्छमीपती, लिच्छमीपति, लिद्धमीपत्ती । लक्ष्मीपु्-सं. पू. यौ. [सं. समी +-पृ्र] १ कामदेव, भ्रनंग । २ घोडा, ्रदरव । वि.-- धनवान, श्रमीर । लक्ष्मीभरतार-सं. पु यौ. [सं. लक्ष्मी ~-भवृ | विष्णु । रू. मे.-- लच्छिभरतार, लच्छिश्रतार, लचिमरतार, लषछीभरतार, लिखमीमरतार ) लक्ष्मीरमण-सं. पु. यौ. [सं. ल्मी +-स्मण] विष्णु. नारायणा । रू. भे.-लखमीरमर । लक्ष्मीवंत, लक्ष्मीवत्‌-सं.पु.यौ. [सं. लक्ष्मी +-वत्‌ ] १ विष्णु, नारायण । २ धनी व्यक्ति, श्रमीर। ३ श्रश्वत्थ या पीपल का पेड) ४ कटह्ले का पेड । रू. भे.-लिखमीवंत, लिख्मीवंत । लक्ष्मीवर-स, पु. यौ [सं. लक्ष्मी~+-वर] १ विष्णु का नामान्तर । २ कृष्णका एक नाम) ३ परमेश्वर, ईरवर । ङ. भे.--लखमीवर, लखमीवर, लच्छिवर, लर, लष्टवर, लद्- मीवर, लदछिवर, लछीवर, लाद्यवर, लादिवर, लादछिवर, लाद्यीवर, लादछ्चीवर, लिखमीवर, लिखमीवर, लिचिमीवर, त्निखिमीवर, लिच्छमीवर, लिद्धमीवर, लिद्धमीवर । लक्ष्मीवान-सं. प. [सं* लक्ष्मीवत | १ विष्णु २ श्रीकृष्ण । वि.--१ षनवान, धनाठ्य २ सुंदर, मनोहर , र. भे.-लदछीवांन । लक्ष्मीवत्लभ-सं. पु. यौ. [स. लक्ष्मी वल्लभ] विष्णु. नारायणा । लकष्मीस-सं, प. यौ. [सं. लक्ष्मी +-ईय ] १ विष्णु, तारायस॒ । २ सीतापति रामचन्द्र । ३ धनाव्य व्यक्ति, ग्रमीर । रू. भे.-लखमीस, लदछमीस, ललछीस, सिदमीस 1 लक्ष्मीसहज-वि. [सं. समी + सहज] ९ समुद्र मंथन के समय लक्ष्मी के साथ उत्पन्न होने वाला रत्न । ४२८० + {4 रा. वु---१ चनमा २ कपूर । ३ इन्द्र का घोटा । ४ भख । सक्ष्य-सं, पु. [सं. ल्यं] १ नित्न। ज्युं--चिदी ने तक्ष्य साधने तीर चलायौ । २ उहुश्य । ३ प्राचीन कालम श्रस्त्रोश्रादि फो एक प्रकार फा सूर्‌ 1 ४ श्रच्य की लक्षणा धक्तिके दासा निकलने भाला श्रथ । र<. भे.-- तक्ष, लपु, तस्य, लच्य, सद्य तक्ष्यता-सं. स्त्री.-लक्ष्य होने का भावे या धर्म, सेध्यत्य। लक्ष्यमेद, सक्ष्यवेध-सं. पु. यौ. [गं. ल्यं --मेदनं, लध्य~-वेधन्‌|] तेजी से उट्तेया चनतेटृए्‌ पक्षीया जीव पर्‌ नि्ाना लगाने की क्रिया । लक्ष्यारय-स, पु. [सं. लध्यायं ] छब्द फी नक्षणा क्ति मे निकेतने वानां श्रथ। लस-देखो (लक्ष' (र. भे.) ~~~ --- ~~ ना 99 न 1 र टै ५. उ०-- मिट भ्रंग वगत्तर्‌ पक्यर भ, मज सार्‌ गडा लय दवक्‌ सम । ~र. २७, | २ देमो (लाग्वपसाव' | उ०--१ प्रम लाम ममपियौ, कवी संकर चारठ करे । लम्वपति | वारठ लाच, दीध दूनी करिवर । तीजौ लप तिणवार, श्रना । भादा कर ग्रप्मं । भण ताराचंद भाट, भौज लघ चयय समप्पं । | == । लखचोरासी-सं. धु. [स, सक्ष~+चौरसी] १ पुराणोंके श्रनुमार माने | जाने वाती ८४ लाख योनियां } 1 । । | 1 1 उ० --१ हरीया दाता राम है, तखचौरासी माहि । खावण कुं जन मुख दिया, सो क्यु देसी नांहि । --ग्रनुभववांणी वि. वि.-देखो योनि" लवण-~त. पु.- १ देखो लक्षण' (5. भे.) (ट्‌. नां- मा.) उ० -- १ लखण वतीसं मासरूवी, निधि चनमा निलाट । काया कुक्‌ जेहवी, कटि कहर स घाट । -टो. मा. उ०--पद्यं तौ म्हनं इण वराग श्ररथांरा श्रां ठाकुरजी में कीं लखण दीक्ियानीं । --फुलवाडी उ०--३ पखवाड़ी वित्यां चौघरणा सार्थं तीन दिना रौ भातौ वाघ लागी तौ चौधरी मुलखकने कियौ-चावी श्रा काई गेलाई करं । हाल तांई्‌ धरी रा लवण सावद ग्रोठखिया कोनीं दीस --फुलवाडी २ देखो "लक्ष्मण (रू. भे.) लखणवत २ देखो "लक्ष्पण उ०--तायक लखण पयव तेथी । वायक रोस विरुता, रै नर वीर जनकं मुखहुंता । जप न राघव जेथौ । । --र.ज. प्र. लसलणदंत, ललणवंतौ --१ देखो 'लध्णवंत' (रू. भे.) उ०--१ काया सोहई कचण वरणी, सोहइ हाधे सखर समरणी । लखणदंतौः मोहण वैली, हंसं हरावई गजगेति गेली । --सखी जिनराज सूरि देखो "लक्षणौ (रू. भे.) ० ~ वावद्ा राजाजी इत्तौ मूंडं लगाय लियौ के क्ण तं ईनीं वारं । छोटा-मोटा रौ कायदौ ई नीं राखे 1 खास गिडक लखणो ' । --फलवाडी लखणो - ९ लखणौ, लखवौ-क्रि. श्र. [सं. लक्ष.] १ दिखना । द०--भिरि जांसि चरण लहि लखत गोम, वटक इछ दरस दछडि व्योप । ---रा. ₹. २ मानुम हनी, प्रतीत होना । क्रि. स.--३ देखना । उ०--१ सता ताड वेषे प्रभू रैक+साथ, हिचौमं सतां जोजनां दुद्‌ सथं । ललं रोम रारपांण रौ चाप लीवौ, कठट वाचि हता न सूग्रीव कीधौ । 4 उ० -२ धिरजौ श्रायौ मेडतै, मारे गांव महेव । 'सवद्टो' भूख सिह ज्यु, अ्रसुरां लख वेव --रा समभना, जानना, ताडना ॥ उ०--१ सतगुरु सन्द वड़ा कुरसांणी, जिख तिण लख्या न जावे जो लखसी कोड्‌ संत सूरमा, नूर में नूर समाव । --लीहरिरांमजी महाराज उ०-२ पदै श्रपदै सारथा, जोन श्रातम लख । सिल कोरी सादी श्रवा, दोन्‌ ही हवख पख । --ग्रलौ उ०--३ धर रस्यामा सरिति स्यामतर जटठचर, + घृंवे गदि वाहां घाति । रमि तिणि संध्या वंदन भला, रिग्विय न लख सक्तं दिन राति । ५ श्राभास होना, श्ननुमान होना । ६ देवो (लिखरौ, लिखवौ' (रू. भे.) उ०--१ णा भांत स्यरी-पुरूस रौ हाल श्राप लखस्यौ । त ---पनां ललणहार, हरौ (हारी), लखणियौ --वि० \ लछ्रोडी, लखियोडौ, लस्योडौ -भू० का० क०। ललीजणौ, ललीजयौ -- भाव वा० कमं वा० । लक्खण, सकंलवौ --ू० भे लखण्ण ` देखो (लक्ष्मण' (<. भे.) -- वेर लखमीपत उ०-- नमौ म्रवश्रत्त भगत्त श्रछेह्‌, नमौ सतरुष्न-भरत सतेह । नमी घक-पख-सहोवर-घञ्ज, गुणादि"ग्रतीत लखण्ण-स्नग्रज्ज । --ह- र. २ देखो "लक्षणः (रू. भे.) लखन--१ देल्लो लक्ष्मण' (रू. भे.) उ०--रांम ललन प्रर भरत मघ्रुहुन, अ्रगवांणी हनुमान । मीरां के प्रभू रांम सियावर, तुम हौ कृपा निर्घान । --मीरां २ देखो ^लक्षण' (रू. भे.) लखपत, लखयत्ति, लखपती, लखपत्ती, लखप्पति, लख्खपति-सं. पु. [सं. लक्ष +-पत्ति] (स्वी. लखपत, लग्वपतशणी) १ कुवेर ॥ २ वह्‌ व्धक्ति जिसके पास लाख रूपये हो । उ०--! ्रगरवालां रं घरसूंतौ एक दो श्रादमी इक्यांतरं श्रावै-जावै है । वड कड्ंबौ, लखपती श्रादमी कंटरोल, कचेडी सफाखाना श्रर सभा-सोसाइटी रा कांम पड़ता ही रेवं । --दसदोग्व उ०--२ उड-गया रेसमी गदरावे, रालीरेरंजनहींलागी। श्रा फिर कामेत लडाभूम, लखपतणी मरगी लड्यडती । -चेत मांनखौ ३ लाखा फुलांणी'के नाम से गाया जने वाना एक लोक गीत। र. भे.-लाखपत, लाखपति, लाखपती, लाखपत्ति, लाखपत्ती ललवरीस-देखो "लक्षवरीस' (र. भे.) लखमण -देखो "लक्ष्मण" (रू. भे.) उ०-- राज मौहरि उपति रधुराई, भिड. जेण विध लखमण भाई । भिडि खढ थाट करू जुध भका, रावण जेम विलंद' दढ रूकां । सू. प्र. ललमणा-- देषो 'लक्ष्मणा' (रू. भे.) लखमी -देखो “लक्ष्मी' (रू. भे.) (ड. को.) उ०--प्रभ विराजं परमपद, तहां प्रापणौ धाम । लखमीवर लखमी सहित, सारे सतां काम 1 --गजउद्धार लखमीकत, लखमोकात-देखो ` लक्ष्मीकांत" (रू, भे.) उ०--समरथ सगलइ ही कामद्‌ रे, तास भ्रात इंगरसी नांमइ रे । भागचद वडड भागवत रे, मन मोटड्‌ लखमीकाति । --पु, च्‌, चौ. लखमीतात -- देखो 'लक्ष्मीतात' (<. भे.) (डि. को.) लखमौनाथ--देखो 'लक्ष्मीनाय' (रू. भे.) उ०-- तहां विराजत दै सदा, लखमी लखमीनष्य । पलक श्रेक विदुरं नही, रहै निरंतर साथ। लखमीनारायण --देखो "लक्ष्मीनारायणः (रू. भे.) लखमीपत, लखमीपत्ति, लखमीपती-देखो "लक्ष्मीपति" (रू. भे.) ---गजयउद्धार्‌ ले्मीयर [१ [व 1 क 7 1 त "म 1 1 ति ए, 0 स सि / त, द भ निकः लक्ष्मीवर--देलो तध्मीयर' (€, भे.) ०--वोहो सोह भूष मुभदां चकसि, स्रीह्ं तण साह्िपी 1१ क्रोध मय्‌ मार्थं किना, ल्मीवर नंदः तिषो । ए. भे.) लखमीवर ~ देलो 'लक्ष्मीवर्‌' (*.भे.) तहा प्राणौ पाग 1 समीप सगभी --गतउदार्‌ लघवमीरमण-रेरो (तध्मीरमगा उ०--गप्रमू विराज परमपद सहित, सारे संता कमि । लखमीस- देयो 'लष्मीम' (र. भे.) लप मोलो-वि. [सं. सक्ष ~ मूल्यं] (भग्र. लयमोनी) १ लान भ्पये गैः मोल का। उ०-तिरामांयटोर्‌ रसम तगी, पय चकित मंजून किप । ग्रठपौर प्रापे रटवा श्रनक) सं्मोसी मादा सिपौ । --रमगा प्रपाम लखम्मण-देयो (लध्मणा' (र. भे.) उ०-वाटण सीत लियां दक वानर, पाज ममदः परदिशा पाथर्‌ । रेस येसण द्वंसाव रागा, सेय पणी मनं सीर प्यम्मण। णीः पि, प्व, लखम्मी-देखो 'लध्मी' (रू. भे.) उ०-- दामोदर तूभः दकं द्रगपाठ कितादका पारन जी काट । उमातोपारभ्रगम्म, मरने, लयम्मी त्रूभःन जए नेम । म्न र्‌. लखवरीस--देलो 'लक्षवरी' (रू. भे.) उ०--पोरस सपूर कौधां परम, लपयरीस दुनियां लः विच शग्रजमानः' रौ, दस ट्प श्रयो प्रभौ) # मो.) ललाई-सं. स्व्री.-दिग्वमे या जताने की पिया या भाय । भी 1 प्रेयनान --ययतो यिष्य लग्ववान-सं. पु-- मुय, भानु । (ट ललाउ-सं. पु. [सं. सक्ष ] तक्ष, पहचान ¦ लखाडणो, लखाडयौ -देखो लग्ाणौ, लवाबौ' (इः. भे.) लखाइणहार, हारौ (हारी), लखाडणियी--वि° । लखाटिग्रोटी, तछाडियोडी, लखादचोडो-मू० का० शुः० । लखाड़ीजरौ, लखाङोजवयौ - कम वा० । लवाडियोड-देखो 'तखायोडी' (रू. भे.) (स्त्री. लणादियोडी) ल्वाणौ, लखाचौ-क्रि, स.--१ दिखाना । उ०-- गुरुजी गोविद लखाया ए, लखिया ताय भवंया निज ग्रनूभेय 1 परकट गाया ए। --सी सुखरांमजी महाराज २ समभाना, वतलाना । ४२५९१ | ह + | क जय" कन्या दोक > ०४ प्न क 99 ण ० कः + तत 2 ह । [श 1 श १ 1 क ८ ण क्न ~ [३ [ अ व अ > १ 3 1 ० धरम पित्वा दिवि दिष्ट, सनमुर मयम + ---पगयदाम गाय गूलता समाना, सोदयुप कगन, प्रमीत गगना 1 ८ भ्न गगना, दनान करन । | ५ नगद सा पष त अगत सरण्यन) विः. प, भामाम्‌ हनः, प्रतीत द्रत 1 ०१ पोपप को ने सष्पयो तैः म्णा मपि सह धयं दस्यौ, धद रध्य (311 उ०--- पलो टद: मदु वर पह द दन्पपो | -- पीतता तथ्राणदर, हानं (हास), पलापो पिर) सप्यापाषए्-- शुर कनन श्र । तवाहम्नो, सापह्जपौ-- कम पा ) सष्दाष्पी, सम्याह्णो, रन्पदसीर गम्यायनो -- =, ‰. सप्पोषो-र. फा. वर. -- १ दिन्वयः दुधा, समन्तत पा वततापा प्रा, ३ पतास्माया (पा, सुण ऋगा स्तीति पयायः ट्श. ४ धामासि या चनूमान कमा पदप्ाः ५ गर्वो माद्याङटमे गमित कराया हषा. ५ अामास दूर दपा] (म्प्र, समाया) । | धपताररा-रं. एू-- परध विदय । येत द्विमैत ॥ मुदि भिक "~~, र, उ० ~ सश्ारसा म समगण्ा, भः मभया गट, मौ पाम दिनि उनन्‌ । स. भे. --"नापारम' रपी. (स. नाक्षा-फतरिनि] ताणं की भूदि यतानि मे याहि विसेथ 1 सध्ारा-द म्रधन्‌ फा वयतमापं करने पासी पः परोगर्‌ सशराय कतार । ---जयर्पाणी उप तो गोदाम संपातं र सतपारौ-मं, पू.-लमारा याति कत स्प्धिः। उ९ तेसो पपठ नाग, लागु नदिय सुंदर नरसी । तस्रा नायम । सांवौ दैक ताक, नदर, नणामी क. भ.---“नवयारोौः लसाव-मं. स्प्री.-जानकारी । उ०--१ ऊजटा वणाय किया ऊनी चदणी मिलि गर्त सू श्रागली सचिप्रोनुं जावती समै नही" पाय नहीं पडती | रा. सा. सं. उ०--२ भ्राज हुं जाय, देमि रफ करि भाऊ. जितरं पाव मतां करौ । --पलक्‌ दरिपाच री वात उ०-२ तदे पड्दौ छोड दियौ । भरम श्रागियां हूय भीतर गर । रो चकम री धुघी माहै दोन चरायर हात, सो तलावयही नुन .. तलाक्ट ४२८३ सल्ख पडियौ । भीतर जाय मुहर रौ मुंहडौ खोल भीत्तर वाडियौ । -- कंवरसी सांखला री बारता लखावट--देखो 'लिखावट' (रू. भे.) उ०~ चला सदं “ग्रगजीत' ग्रहीयौ जकौ, लखावट भ्रागद्टा जकां लार । सरासने खेवजे टला हमला सको, थटं भुज सवाई गुला' थार । -जसजी श्राटी लखादणी, लखावबौ-देखो 'लखाणौ लखावौ' (<. भे.) उ०--उकराी सारू ऊजढठा'दिन तौ काटी ग्रधारी रातां ज्यं वण- ग्या श्र काढी रातां उणनं सूरज सूं सवाई उजटी लखाबण लागी । -- फएलवाड़ी उ०-२ वाट-कन्हैया योडौ चरो ओ्रोपरौ लखावता के मास्ीनं वेव्मा-विसेक रौ वै'म व्हैतौ तौ सतत वेढा श्रवारने , लूं भिर्च करती 1 --फुलवाड़ी लखावणहार, हारै (हारो), लखावणियो--वि० । लखाविश्रोड़ी, लखावियोडी, तखाव्योडी-भू० का० क० । लखावोजणीौ, लखावीजवी--कमं वा० 1, लखावियोड - १ देखो 'लखायोड्ौ' (<. भे.) % देखो 'लिखायोडौ" (रू. भे.) ` (स्वी. लंखावियोडी) लचिण, लदिणउ--१ देखो लक्ष्षण' (€. भ.) उ०-राघच पास पिनाक र, ग्राए लद्चिण निज ¦ --रांमरासौ २ देखो न्लक्षण' (रू. भ.) लखित-स. पु.--पुरुप की ७२ कलश्रं मेँ से प्रथम । (व. स.) चश लखिन--देखो "लक्ष्मण' (रू. भे.) उ०-सत्रधन लखिन श्रातस दोय । लखिमो -- देखो 'लद्मौ' (<. भे.) उ०-सुर नर नाग तीन्यो लोक जाकी सेवा करं सौरई इहु वासदेव क्रस्णजी । जा सरुखमणी दंसु लिखमी । त्‌ं ग्रह्‌ सगाई वरजियौ । --रांमरासौ वेली. टौ. लचियोडी-मू. का. क.-१ द्खिा हेप्रा. २ देखा हुग्रा. ३ समा हा, जाना हृश्रा ताड हुश्रा भाषा हृग्रा, ४ पतता लगा हप्र, मालुम हुवा हृश्रा, प्रतीत हुवा हुभ्रा. ५ प्रभास हुवा श्रा, ्रनुमान हवा हुत्रा. टुश्रा, सचेत हुवा हुम्रा. ७ देखो 'लिखियोडी' (रू. भे.) (स्वी. 'लखियोडीः) लखो-सं. पु.--१ एक खाप प्रकारके रगकाघोडा | ६ सविधान, हुवा उ०- मोती सुरंग केमेत, लखी श्रदलख फुलवारी । रंग जडाव हमरग, हरी सुनहरी हजारी । --स्‌. प्र. २ दीवार चुने का पेशा करने वाली एकं मूस्तलमान जाति विदोप । (डीडवाना) ३ उक्तं जाति का व्यक्ति, ४ देखो !लक्लीविणजारीः वि.--१ लाख के समुन रंग वाला । रू. भे. लकि, लक्वी, लाखी ! लखीणो--देखो 'लाखीणौ' (<. भे.) £ उ०--ऊरि चोडौ कडि पातलौ, माहीं कौं जीमणी श्रंवी ) कारी तिल भमर जिसौ, सीस तिलक उगतर-विहांख । पाय लखीणी मोचरणी, मृद्धं करिवाण छं डावड हाथी । --ची. दे, उ०-२ उलिगाणा दिन लेखे ई मत लाई, दिन दिन एक लखीणौ जाई । जाई जोवन चन मसलं ई हाथ, जोवन नवि ग्िण॒ददिनिन रातति 1 --वी.दे. (स्त्री. लखीरी) लघीवाढठदियौ, लखीविणजारौ--देखो 'लक्खीविणजारौ' (5. भे.) उ०-तो भीखरणाजी नें किम काढा, हाकम द्रस्टात्ति दियौ विजय- सींवजी रौ राज है मोती बाद्स्दियौ । तिरं लाख्र वढद तिसृ लखीवाढठदियौ वाजतौ । तं चूण लेवा मारवाड में भ्रावत्तौ । --भि. द्र. लघु -देखो ^लक्ष्य' (र. भे.) उ०- सा्गुं मित्हि करि तालखू्ख सिरि लघु देविणु तीणं परीक्षां गुर तरणी पूगउ एकू जु पत्यु राहावेह तउ प्िखवद मच्छ देविरु हेत्य । -सालिभेद्र सूरि तखेर-सं- पु--१ चौरासी प्रकारके चौहृटोमें से एक प्रकार का चौहटा विशेप 1 (सभा) २ देखो (लाखेर' (<. भे.) लवेसरी, लवेस्वरी- देखो 'लक्षेसरी' (ङ. भे.) उ०-१ श्राठवा म उत्तमोजी इरराणी वोत्पोः भीखणजी थे देवरां निसेधौ छौ । पिख श्रागै त्तौ वडा-वडा लवेसरी कौरेसरी त्यां देवलं कराया । --भि. द्र. उ०-२ सु भमलौ राज जांशणिनं। द्रव्य उयेछियौ द्धै! वारं काटि मांड्यौदै!एजुचंपाफुल्यादै।सुएलसेस्वरोदै' त्यांरनाल उपरि दीवा वटं चै। - वेति टी. लख्ख--देखो "लक्ष (रू, भे.) उ०--खंजर नेत विसाल गय, चाही लागद्‌ चल । एकण सारद मारुवी, देह एराकी लस्ख । --ढो. मा. लर्ण „~~~ लरुखण--१ देखो (लक्षण! (₹. भे.) उ०--चिणा तेज श्ररक जिप छक जहर, सुंदर भ्रयीण॒ द्रातार सूर्‌ । ४२८४ 1431 1) भ कोर नेये ४ गाय, राट । स~, भे,-- सग, तगत, दर्मा, नमि, तमी, स्म, तरण, सर्गो) चवि दत्रपती श्रमी" खवर बुटढ दछतीस, वहत्तर कला लस्ठण वतीस । | सगह-प्रव्प.--१ के कारणा, मे 1 --वि, स. २ दैखो "लक्ष्मण" (ख. भेः) लर्वमी --देखो "लध्मी' (रू. भे.) उ०--देवी सप्तमी श्रस्टमी नोम नूजा, देवी चोय चौदस्ता पूनम्म पूजा । देवरी सरसत्ती सषटवमी महाकाठी, देवी कपर विश्णु ब्रहम्मा केमाछी । दैवि, लदय-- १ कपट, छल (ह्‌. ना. मा.) वि.--२ देखो तक्ष्य' (<, भे.) लद्यण--देखो "लक्षण' (<. भे.) उ०--१ कागठल हायि वेतां ही महा आणंद उपज्यौ । रोमभांचित होए लागौ । श्रास्यां आंसू श्रावण लागा । कंठ कं विसे गदगृद वाणि दद एश्रतिदहीं हरस को लस्यण द --येनि टी. उ०-२ मर भाख लस्यण देय टस्य राजं रस्यणा रीति रद्धि। | | | नाम श्रंमर गाढ गंमर जोव संमर जीत गद । कोट गंजगा माणा पंजण धूरि भज वाट, पर्‌ दम पत्नणो भूल बल्तण चस चत्लग वाट । -त. पि. लण्यणी-देग्यो "लक्षणौ (रू. भे.) उ०--लम्रयीर वड़ा गुण लस्यणो, पहु पाच पपात परिपणौ। कुठ ग्रीपम कौट करम रौ, धरित्री श्रवतार वरमरौ) -न. पि. लग~सं. गप्री.-१ लगे हए होने कौ श्रवस्या या भाव । २ लग्न, लाग। ३ प्रेम, प्रनुराग। ४ किसी मकानके उपरी भाग करारा प्यान जह सेवूदकर दूसरे मकानमेजा सके) ५. मकान की दीवार की ऊंचाई । ६ एक लोहे का भ्रौजार विप, जो जमीनमें जडे हुए दो पत्यरों को श्रलग करनेमे काम भ्राता है] ७ फ व छतत के वीच की उवा । प्रव्य.--१ तक, पर्यत । उ०--गोढवाड घर गाह, पहला पाली मार । वूटी मही श्रजमेर लग, फटी देस पुकार । --रा. सू. उ०-२ श्ररभ्राप जिसा राजकुमार रौ इण तरह श्रा लग श्रावणौ भ्ररथ विहुणौ खटावं नहीं । --वं. भा, २ वास्ते, लिए । ३ निकट, पास 1 कष उ०--१ प्रनप्रजे रमयेत्‌ नट परि सदम दृद सेट सग श्रनि तीरययाप्रा प्रामाद संवमक्ति दनादिक श्रनेदः पृष्य करी मरी कन्दा रिः गुगनिर जाट { पुष्टी शत्रु उ०--२ विजन माद्टिविरदूड विचारि, दन्ति तुये गवं चादि) प्रग्यानि कसट लमेद मीय जाः, विदू लाम देवस माहि । 2 २ रे,द्राय। उ०-१ तिणि ध्रयमरि योवागड पंडित, गन्टटने फ्‌ पान्‌" । धिनम लग मोनद पन सागर, 'ननिमुनठ पटितराज'' 1 --द्रीदगाद भूरि उ०--२ प्रवण तगह पदि किमिदंन फोर, रध्य वनि याट महू पोष । द्रव्य चण पु महिमा जसि, जगिपामाण्डटुनु मदनानि - रीर दरि ३ लगातार ४ देनो "नग" (र. भे.) ॥ =०--१ टाम सद्र तप पिय धमिन) श्री श्रते यमेत निघात । निव सिव निव हिज पत मक्त, प्रय न काट सीरी यति । माद्रेय पास्य्ती री वेनि सग-सं. पु.-- १ गयो पर्‌ पानी सादने का लकी काः यना दज । देयो (तगट' (<. भे.) उ०-१ नगार दक टकौ चागो रै. मीर मिकारां न हफकम हूपौ ९. । छं 1 बाज, जुररा, गुही, वहूरी, सिकरा, लग, चिदरफ वुरमती साय तीर्ज द्ध) ---रा. मा. श. रू. भे. लगह्ु । लगड़कोड़ी सं-वि--१ मांसे कुकमं करने वाला) लगटौ- देखो 'लगतौ' (ख. भे.) (स्त्री. लगटी) लगड --एक प्रकार का पक्षी विशेप जो पक्षियों का िकार कसनेमें सदहुयता करता ह , उ०--१ चोवड़ां ऊपर निपकद्युट छं) वुरजां ऊपर लगड द्र छ! कुलेगां ऊपर कही चुट च ' रेण भंत देक्रौत राजेतर पिक्रार सेल छ । --रा. सा. स. उ०-२ सींचांु समली वली, पुकारी फणि जांणि । लगड ते मेलि करि, माघव मुभ नदं प्ररि -मा. का. प्र. लगथगणीं लगड ४२८५ २ देखो "लगड" (मह. 5. भे.) लगतर--देखो “लिगतर' (<. भे.) रू. भे.-- लगड, लग, लमत, ल गत लगत्‌ं, लगतूु - देखो "लगड' (रू. भे.) लगड्‌-प'. पु.--१ देखो "लगड (रू. भे.) उ०्-मीर सिकारू का हूर नजर होता दै। लगतूं रमतु के २ देखो "लगड' (रू. भे.) प्रातुरी 1 चरज सचां सो लाग श्रातुरी । -- मू. प्र. ३ देखो 'लगडौ' (<. भे.) लगतौ-वि. (स्त्री. लगती) १ लगा हुश्रा, संलग्न । लगडो-सं. पु. [सं. सक्रुट] १ पुरूपेन्दरिय, धिरन उ०--१ कोट मांह पाणी कोई नहीं । कोट सांक्ड़ौसो छं । तिणएमें रू. भे -- लगड । लाव तछाव कोट लगती हीन छै । -सोजत रं मंडल री वात मह्‌. लगड उ०--२ खीरे सृ घणी मनुहार कीवी पणं उवौ गादी ऊपर नहीं मुहा. लगडां री फोड़ी सोन पुटचली माता का पुत्र, रंडी का वैदियौ । गादीसं ही लगतौ म्होंडा श्रगे वंठियौ । वेटा । --सूरे खीवं कांवदछोत री वात लगण-सं, पु.--छतीस प्रकार के ग्रस्त्र-शस्त्ो मे से एक । उ०--तेलह्‌ त्रिसूल सांठो घकोवली वंसहडि कड़ लगण । भूकत चहुलि सूलो चटक, दं डायुघ छव्रीस रण । --रा. सा. सं. लग॑णौ, लगवौ-क्रि. म्र.--देखो ' लागणौ, लागवौ' (रू. भे' ) उ०--१ भरियौ भादरवौ खाली पड़ भागौ । लगतां भ्रासू मे ्रांसू मड लागौ । पनं घोरारव श्रारव रव चछायौ । सूरज ससिमंडलछ २ निकट, पास । उ०्-सोभत था कोस ठ मगरे लगती, नावरा था कोस १ श्रागे। हुल जिण' री बडी ठकूराई हुई । --नणसी २ पीलिलगा ह्ुप्रा। उ०-- दीय दिन लगती ही फौज श्राई । पदै वेडं फौजां री भरणी मिी 1 % निरतर, लगातार । गरच्वित गणणायौ 1 ॐ --ॐ. का. गट) नीं पच्छो तौ | ५ ५ त उ०-१ पण सौदी नां प्य दिन लग > य०-२ श्रम्हं विसराढं श्राविय), लगि च्या हिन लार । कटक † >. तौवौ तीन दिनि लगतौ ई उठ र = टवग्य ~ फलवा सुणि भ्रंगद कटै, पित तू प्रकार । - सू. भ्र. ५ । ताई 5 रोतं व उ०-२ महतौ हजार वरसां ताईं लगती ई रोवृं तोईक्रिणीनं उ०--३ लोग महालिन वूभियौ जी ग्रो, कूण्याजी रा कुढवहु जायः ^ 4 र तनो ॥ म्हारं दुख रौ मरम नीं समभा सक्‌ 1 --पुलवाडी चडली तोटक चं द्रावद्ी, थार । नजर लगेगी मोरी वाह्‌, राजीडा । | ५ साथ दही सराय । कं लो. गी. ६ गे य ५ ५ उ०-१ सू गज्सिवजी तौ भ्रागई इणां सूं विराजी हुता । श्रू उ०--४ उणा वेका वकर श्रग्गढा, दक राठोड़्‌ दुवाह्‌ 1 मघ थया लगतौ श्रमरसिघजी सूंकांम वण प्रायौ ! लंग ग्रण --- रा २ सीसौदिया, लगी लाय अ्रणथाह्‌ । र - राजा सल्ीकरणसिघजी उ०--५ केरे चग्ग तुरंग री, तोले खग्ग कर्ण । रिणएपण उमग उ०--२ विवाह वडा हरस सूं हृवौ । माघवर्षिघजी दायजौ सखरौ लै, रंणायर गयणंग । --रा. छ. दियौ । लगता ही पद्चै किलाय रं ठाकुर कुसछसिध री पोती नुं उ०--६ चरणा कमठ की लगन लगी नित, विन दरण व्याह । -- मारवाड रा प्रमरावां री वारता ट्ख पावै । मीरा प्रभ दरस दीज्यौ, भ्रानंद वरण्यं न जावै । | लगथग-सं. स्तरी.--१ लचक, लचकनि । --मीरां उ०--१ पदमणि लगयग पातदटी, रखी तणा छक रूप । सायवण उ०--७ वन वैली भलां चद भिरवदरी, घराभेख के धारो । कठ गुलाव स मठी श्रनूप | पनां ४ ५ ---- केर - ष्ये वित नह लग्यौ समर चरणां, नह जव लग निसतारौ --र. रू ५ २ केटर लंक ध लगयग कदल, भठकि पदम नग उग भर । ग्रं वात पट्कि नख मैदियां, रकि हार उर ऊपरं । --पनां लगणहएर, हारौ (हारी), लगणियौ -वि° लपिग्रोडी, लमियोडी, लग्योडौ-भू० का० कृ० 1 लगीजणौ, लगोजवो - भाव वा०। लगत-देखो 'लग' (रू. भे.) उ०- परं सावत रावेटा राव वलूजी रे सांचोर रही, सु ख्यात मे विगत श्रावसी 1 नँ संमत १६६५ लगत राज रेया तण री विगत हेटे उतारी च । - नसी. लगयगणौ,लगयगवौ- क्रि. ्र.--१ किसी लम्बी कोमल चीज पर वजन या दवाव के परिणामस्वरूप मध्य भागे भुकना या मुड़ जाना, लचकना । २ चलते समय कमर का थोड़ा भकना, लचकना या मूडनाजौ सौदयसूचक माना जाता है! उ०--१ हरखं रतना हालवी, लगयगती करि लाज । कीधा साज उद्ाहरा, कस तोडण रें काज । -र. हमीर लगयगियोडो ४२९८६ लगवाडइणौ ____---------_--_--_-________________________~_____-________-----_----_--_____~_-_-___--_--_-_--___---_-___--___----_---~-~-~___ उ०--२ मुहं भ्रागै मालकी, कहती खमकारां । धस वख प्राव ढोलियं लगथगथी लारां । मद-चकीया म्यांरांमजी, तुम होय तयारां । --मयारांम दरजी री वत्ति उ०--३ श्राटस्ष आख्यां ऊपर, करती चछ कटिर्यांह । लगयगती करती लजां, श्रलकां उधियांह्‌ 1 --र. हमीर लगथगणहार, हारौ (हारी), लगथंगणियौ -वि. । लगयगिग्रोडी, लगथगियोड़ी, लगथग्योडो--भ. का. कृ. । लगथगीजरौ, लगथगीजवौ--भाव वा. । लगयगियोड़ो-भू. का. कृ.- १ दवाव यावजन के कारण मुका या मुडा हृम्रा (कोमल पदाथं). २ चलते समय नाजुकता वश्च कमर भुकप्या हुश्रा (स्वरी. लगथगियोड़ी) लगन-सं. पू.-१ लगमे की क्रिया या भाव। २ मन को एकाग्र चित्त करके ध्यान लगाने की श्रवस्था या भाव) एकाग्रचित से घ्यान लगाने की श्रवस्थाया भाव, धुन, लौ) उ०-१ सुख सागर की सेन वताई, मेरा श्रंतर जांण॒ रया । लगन मगन सतगुरु कर दीना, वेगम देस गया । --हरिरामदास्रजी महाराज उ०--२ विक्याजीह्रि प्यारीजी रे हाथ विक्या। क्रपा करौजी मै सोही सिरधारां, सौभा देख छवया । जा दिन तं मेरी लगन लगी दे, श्रौरने द्वार तकया! --मीरां ३ प्रेम प्यार, प्रीति। उ०--१ एसी लगन लगाय कहां तूं जासी । तुम देख्यां विन कठ न पड़त दै, तलफ तलफ जिय जासी । --मीरां उ०~-२ छोड दं कर्मया चीर हमारी, कोर जरीकी काना मेरी चट । मीर के प्रभ्रु भिरघर नागर, लागी लगन काना नहि द्टे 1 --मीरां उ०-३ श्रंगरी लगन लागणी जारी । यां री लगन लागा पदयतौ न द्ुटसी तिकं तार वांच्यासं कदेनतूटसी। --र. हमीर ४ चाह, इच्छा । उ०-१ चरण कमठ की लगन लगी नित, विन दरसण दुख पावै । मीरांकुँ प्रभू दरसण दीज्यौ, भ्रानंद वरण्युं न जार्वं। --मीरां उ०--२ रात दिवस हदाजर रह, रसमंग्रारुडीह्‌ ! लख जाव दिल री लगन, चातुर चत्तरूडीह्‌ । --र, हमीर ४ देसो 'लग्न' (रू. भे.) उ०--नुम दिन सुभ मुह्रत मुभ वार सुभे लमन सुभ वेढा माहि श्रांखि पाट सिघासण विराजमान किया द्य) --रा.सा. सं, उ०-२ त्रिणि दीह लगन वेवा ग्रडातै, घणः किसूं कदिजं श्राधात । पूजा मिि भ्रावित्ति पुरखोतम, प्रंविकाठय नयर भ्रारात) --वेलि, उ०--३ इतरं कंवर रं विवाह सारू चित्रगढ रा राव 'लखपत' री कवरी "चिच्रतेखा' तणौ टीकौ लगन श्रायी । --र. हमीर रू. भे.-लगनि, लगन्य, लगन, लिगन, लिगन्न लगन पत्रिका, लगन पन्नी- देखो "लग्नपत्र' (रू. भे.) लगनयार-सं. पु--१ श्रीमाली ब्राहणणों में विवाह का रिवाज जिसमें विवाह से ८-१० दिन पहुले वर-पक्ष के य्ह एक भोज होता है। एस के भ्रनुसार वधु के भार्ईू-वहनोंकफो प्रथम (प्रहुते) भोजन खिला कर तत्पश्चात श्रन्य सम्बन्वियों को चिलाया जाता है । दसं रदम की विकेपता यहूहैकि इस्त दिनं चावल व सत्जी प्रविक- मे वनवाई जातीदहै। (मा. म.) नोट -यह्‌ रदम केवलं शहरो तक ही सीमित है । लगनि, लगन्य-देखो (लगन' (₹<. भे.) उ०-लगनि लगी ह्री नवि सु, हरिया श्र॑तर मांहि । मने वाहुरली मिट गर, तन की सुधि बुधि नांहि । --श्रनुभववांसी लगभग-श्रव्य.--समय, संस्या मान ्रादि की ग्रनुमानित अ्रववि या मात्रा का वहत कुदं निदिचत भाव प्रकट करने वाला श्रव्यय शब्द ५ लगर-वि.--स्फुति वाला, फरतीला, चंचल । लगरो-वि.--फटा हुमा वस्त्र । लग र्यो-सं. पु.-एक फाडी विशेष, जो ईवनकेषूप में काम ्राती है । रू. भे.-लिंगरयौ २ देखो 'लिगरू' (अल्पा; र. भे.) लगलगाट-सं. स्त्री. - लपलपाहूट । उ०--जिकं वासुकि नाग री तरह लगलगाट करती सिह वैव ' रौ कडियां नूं कतरती पिडमें वंठतां रणत्कार पड़ी! -वं. भा. लगलगी-सं. स्वी--किसी के विरुद्ध उत्तेजित करने या भड्काने की क्रिया । क्रि. प्र.- करणी रू, भे--लगेलगे, लिगेलिगे । लगवाद-सं. स्वरी. [सं. लग्न ~{-वाढ (वृद्धि)] परुषया स्वी का किसी ग्र्य स्त्रीया पुरूष से अ्रनुचित संवंघ । २ पति कै श्रतिरिक्तस्त्रीका दूसरे व्यक्ति से ्रनुचित संबंध । ३ सौव। लगवाडणो, लगचाड़बौ-- देखो (ल गवौ, लगवावौ' (रू. भे.) लगवाडइणहार, हारो (हारी), लगबाडणियौ-- वि. 1 लगवाडश्रोड़, लगवाड्योड, लगवाड्चोड्ी - भर. का. कु. । लगवाडोजणो, लयवङ्ीजयो -- कमं वा. । लगवाड्पोडौ ४२८७ = लगवाडियोडौ- देखो 'लगवायोड़ौ' (रू. भे.) (स्त्री लगवाडियोडी) लगवा, लगवावौ-.कि. स. {[लग्णौ या लगाणौ करिका. प्रे. रू. १ स्पदं कराना, द्ुवाना । २ भिलवाना, जुडवाना, सटवाना । ज्यू. क्िवाड रं कूटौ लगवाणौ, घर मे विजकी लगवाणी । ३ खर्च करवाना, व्यतीत करवाना । ४ नियोजित करवाना । ५ श्रनुभव करवाना, श्रनुभरूति कराना । ६ श्रारम्भ करवाना, शुरू कराना । ७ पौलवाना, पसरवाना, विखरवाना । ८ किसी वस्तु का दूसरी वस्तु मे इस प्रकार लाकर मिलवाना कि वह्‌ उपभोग योग्य वन जाय! & किसी तरल पदाथ काले करवाना । १० इकटु करवाना, सम्मिलित करवाना । ११ भ्राघात करवाना, चोट पहुंचवाना । १२ पेड- पौवे श्रादि का प्रारोपण करवाना । १३ जन समूह्‌ को इकटा होनेभ्मे प्रवृत्त करवाना । > १४ प्रभाव्र या प्रसर करवाना । १५ किसी वात या विषय मे किसी व्यक्ति पर श्रारोप करवाना । १६ प्रज्वलित करवाना । १७ किसी कायं में प्रवृत करवाना । १८ किसी भ्रनिष्ठ या कष्टदायक वति क्य किसी से सम्बन्ध करवाना । १६ किसी श्रावरण या निरोवके द्वारा किसी विभागया ` को दछिपवाना या वंद कराना । २० किसी पदार्थं या वस्तु का सुनियोजित एवं नियमित रूप से प्रस्तुत करवाना । २१ धारदार या तीक्ष्ण चीज की नोक याधार शरीर में चुभवाना या गद्वाना । २२ भानसिक स्थिति का किसी ग्रोर प्रवृत करवाना । २३ घटित करवाना } 9 २४ गरित के होत्र मे कोई क्रिया ठीक ग्रौर पूरी तरह करवाना । २५ आर्थिक क्षीर मे किसी दातव्य राशि का निदिचत करवाना । २६ अनृगमतन करवाना ॥ २७ पीय लगवाना 1 २८ श्रन्तगंत करवाना 1 २६ प्रभावित कराना । ३० श्रन्तिम श्रवस्या मे पटहुववाना 1 लगवायोड ॐ ३१ किसी वस्तु का दूसरी वस्तु पर जड़वाना, टकवाना, सट वाना, वंठवाना । ३२ श्राभित करवाना 1 ३३ श्रादी करवाना । ३४ श्रभ्यस्त करवाना । ३५ किसी रूप मे सम्मिलित करवाना । ३६ किसी वातया काम को घटित करवाना। ३७ लाक्षणिक रूप में किसी मुख्यतः घामिक क्षेत मे कोई प्रनिष्ठ वात्त या कार्यं किसी के श्रनिवायं श्प से करवाना, पटकाना । २३८ किसी प्रकार की क्रिया की पणता, सिद्धी या स्थापना कृरवाना । ३६ किसी प्रकार के उपयोग या व्यवहार के लिए श्रपेक्षित या प्रावश्यक करवाना । ० किसी को वदनताम करवाना । ४१ श्रंकित करवाना । ४२ श्रनुसरण करवाना । ४३ क्रमानुसार लगवाना । ४४ मुन या संभोग करवाना । ४५ किसी स्त्री के साथ श्र्तिक सम्बन्ध करवाना । लगवाणहार, हारी (हारी), लगवाणियौ--वि.। लगवायोडौ - भू. का. क. । लगवार्ईजणौ, लगवार्ईजनवौ-- कमं वा. । लगवाडणौ, लगवाडइवी, लगवावणौ, लगवाववौ - <. भे. । लगवायोड-भू. का. कृ.-- १ स्पदं कराया हश्रा, द्ुवाया हुभ्रा, सम्पकं कराया हुश्रा. २ भिलवाया हूम्रा, जुडवाया हुश्रा, सटवाया हृश्रा. ३ खचं करवाया हुश्रा, व्यतीत करवाया हुश्रा, ४ नियौ. जित करवाया हृ्ना ५ श्रनुभव करवाया ह्र, प्रनुभूति करवाया हुभ्रा. £ फंलवाया हुश्रा, विखरवाया हुभ्रा. ७ किसीवस्तु का दूसरी मे इस प्रकार मिलवाया हुग्रा कि वहु उपयोग लायक वन गर्ईहो, 5 किसी तरल पदाथं का लेप करवाया हरा. € शामिल या सम्मिलित करवाया हृच्रा- १९ प्राधात करवाया हश्रा चोट पहुंचाया हुश्रा- ११ भ्रारम्मया शयु करवाया हुत्रा. ४ १२ वृक्षारोपण करवाया हुग्रा. १३ जनसमुह्‌ को इकटा हने में प्रवत करवाया हृश्राः १४ प्रभाव या प्रसर करवाया हृश्रा. १५ किसी वातया विषय मे किसी व्यक्ति पर्‌ श्रारोप या प्रयोग करवा- याहुश्राः १६ प्रज्वलित करवाया हृभ्रा. १७ किसी कार्ये प्रवृत करवाया हुभ्रा, १८ किसी म्रनिष्ट या कष्ट्दायक वातका किसी से सम्बन्व करवाया हूश्रा. १६ किसी श्रावरणा या निरोव त ४२८८ स्णाण _____,_( ]-----------------_~_~~~~~~-~~~~~___~____ के द्वारा किसी विभाग या प्रकोष्ठ को दिपवाया हृश्रा, वद करवाया | लगस~मं- पु-- १ वादल-समू रा. २० किसी वस्तु या पदां को समुचित या नियमित स्प उ०--१ वरन वरन रा वादद्टा, तमस चद्व ने लाव 1 यित से प्रस्तुत करवाया हृग्रा. २१ धारदारया तीक्ष्ण चौज कौ नोक करती जक्मय या, मतत षट्‌ वेमी ग्राव । पा. म, याधारको शरीर में गड़्वाया हूुम्रा, चुभवाया हुभ्रा- २२ मान. सिक स्थिति को किसी श्रौर प्रवृत्त करवाया हृश्रा. २३ घटित करवाया हृश्रा. २४ गणित के क्षैप्र मेँ फिसी त्रिया का टीकग्रीर उ० --२ नागजी द्यद्योहा जणं वादलां रा लगप् पवन जोरू चालीश्रा जाश्रेद्धं) दण भात्तियुं गजराज मृदृद्या श्रागं ही दुन द । दोहा करता हमला खाता वहु च । --रा, सा. म. पुरी तरह करवाया हया. २५ ्रायथिकक्षंत्र में किसी दातव्य राधि कता निर्दिचत करवाया ह्राः २६ श्रनुगमन करवाया 'हु्रा. २७ पिद्धै लगवाया हृश्रा. २८ भ्रन्तगतं करवाया ग्रा. २६ प्रमा चित करवाया हृश्रा. ३० श्रतिम श्रवस्या मे पहुचाया दहृश्रा ३१ किसी वस्तुका दूसरी पर जडवाया भ्रा, टकवाया दग्रा, सट्याया हुश्रा, विढठाया ह्र, ३२ ्राधित करवाया हूश्रा. ३३ करि लगस, तिय काद यद्ध तायत । २ समूह, दल । उ०--१ दुटवा वधं फौजां लग्न, धमस तुरा माज धरा । मिष चली प्रजा भगे मग, लग दिली लग प्रागस। --रा. उ०--२ हृतौ सपद हसीन, प्रव गढ मिः ग्रजरायन 1 सोक त्रिदा -- नू. प्र ग्रादी करवाया हश्रा. ३४ श्रभ्यस्त करवाया हुश्रा. ३५ किसी रूप मेँ सम्मिलित करवाया हुभा. ३६ फिसीवतिया काम को घटित करवाया हुभ्रा. ३७ लाक्षणिक स्प मे किसी मुख्यतः घामिकक्षेत्र में कोड श्ननिष्ठ वात या कयं किसी के ्रनिवायं संप से करवाया हुश्रा. ३८ किसी प्रकार की क्रियाकी पूर्णता, सिद्धी या स्थापना करवाई हुई । ३६ किसी प्रकार के उपयोगया व्यवहार के लिए ग्रपेक्षित करवाया हुश्रा. ४० किसी को बदनाम करवाया हृश्रा. ४१ प्रंकित करवाया हुश्रा. ४२ श्रनुसरण कर वाया हृश्रा. ४३ क्रमानुसार लगाया हश्रा. ४४ मधुन या पंमोग करवाया हुश्रा- ४५ किसी स्त्री के साथ भ्रनैत्तिक सम्बन्ध कश्वराया हुग्रा । उ०--३ एनं चिमरीर दल सैः विकट भिर कमर्‌ पेर फीजंके लगस चौतरफ क्र फेर । --मु. प्र. ३ फोज, मेना, दल । उ०-लसां दखणाद रा लगस श्राया लटा, पयोनिय श्रगस मुनि जेम पजं । सां'म धापठ कहै राव उगती समीं, दुध्रा "कांवट' जमी खंवौ दीर्जं । --प्ररयुनसिह्‌ चूंावत रौ गीत ४ म्रपिकता, प्रचुरता । ^ ५ एक साय, साथ-साथ । ६ कलार, पेक्तिव्द्ध 1 ई वि. - लम्बायमान । <, भे. - लंगस, लगस्स (स्त्री. लगवायोडी) लगस्स-देखो "ल गस' (रू. भे.) लगवाद्-स, पू-- १ दार के ्रतिरिक्त श्रन्दर जाने का मार्गे, ऊरी उ०-लोहां भट वाढत रौद लगस्स, "दादर" पीथलस्त वगस्स । मागं) “राघावत' अ्राणंद्मिष दुूवाह्‌, विभात मृग्गद्ध वीजटठ वाह २ किसीस्तरीका पर पुरुपया किसी पुरुषका किसी परस्त्री ग्रनु- --सू, प्र. चिन स्वंव्टीनैकी क्रियाया भाव । वि. -१ लगा हमरा । लगां-ग्रव्य.-देखो लग' (१) (रू. भे.) उ०-- १ श्रंगजितमल्ल हूत उ, वदिव्र द तणड जयजयाकारि चालडइ, जांणांद किरि ब्राह्णांड छूटड लगउं, नक्षच चटी भुं पडटं लगा गिरि सिखर खडहृडइ लगा । --व. स. लगांण-देखो "ल गांम' (रू. भे.) २ विलासी, कामुक । ३ पदधा करने वाला । ४ सहारा देने वाला, सहायक । लगवावणौ, लगवाववौ-- देखो लगवाणौ, लंगवावौ' (रू. भे.) लगवावणहार, हासे (हारी), लगचावखियी-- वि. । लगवाचिश्रोड़, लगवावियोङ़ौ, लगवाव्योडो-- भू. का, क. । लगवावीजणौ, लगवावीजवो क्म वा. । लगवावियोडौ --देखो लगवायोडौ' (रू. भे.) (स्प्री. लगवावियोड़ी) उ०--१ दं उवर टकर ढाहै दुरंण, तदि दृह दढा इसा तुरंग । ्रतति लौख लोह पतिध्रमी श्रांण, लहि ठम ठांम चारं लगांण। -सू. प्र. उ०--२ लगी न रहै तिल हैक लगांण, जरह मर्‌ कटं जंगमासा । सदा सिव तांम लिये खठ सीस, स्री क्षप चंड दतं श्रसीस । | --सू.भ्र. २ देखो 'लगांन' (रू. भे.) लगाम [यकव लगांन~स. पु. लगांमो--देखो 'लगांम' (रू. भे.) लगा-क्रि. वि.-- १ तक, पयेन्त । ॥ वाला कर, भू-राजस्व । ङ, भे.--लगांण, लम्गाख । किये जानि वाले घोडे के मह मे लगाया जाने वाला वहं लोह का वना उपकरण विशेष जो घोडे को रोकने व॒ इवर उधर मोडने मे सहायक्र होता है. रास, वाग । उ०--१ नीं जणा ष्टार भिर सूके जावे} ठाकर घोड़ी री लगाम थमी । गुलाव री मां ग्रां सांमी 1 --दसदोख उ०--२ काहू पयंपौ केवियां, घव विन सुनौ घाम । भ्राञ पीठी ऊपर, लेखं हाथ लगाम । --मुकनदान खिडियौ २ रोकना, थामना 1 वि. धि.-एक प्रकार की रस्म जित्तके ्रनुसार वरात चठढते समय लहे की वहन दुल्दे के घोडे की लमाम पकड क रोकती है । ३ कोई फेसी वात या चीज जो किकी को नियंत्रण मे रखती हो 1 उ०-रहच खठां दक रोठणा, वीर उ वरिर्याम । किचनर पातल र करां, लंदन तणी लगाम 1 > ---किसोरदान वारह॒ठ °मुहा०--ल्गांम लगाणी ==वोलना वंद करना । र. भे.-लगांण, ल्गामी, लग्गांण । उ०-- चौकडं चित धारि चौकस, लगांमी लिव लाय । परेमकी पहरि पाखर, श्रगम दिस कू घ्याय । --ग्रनुभववांणी लगावण-सं पु.--१ लगाने की क्रियाया माव 1 २ वह्‌ खा्य-पदाथे, जिससे रोटी लगा कर खाई जाय । उ०- तरं किलाखदासजी फेर श्ररज कीवी के म्हारं घरमे तो लगाव रौ तेह है नहीं न भाभाजी काकाजी दाम देवं नहीं । --नणसी र<. भे.-लगावण उ०--श्रसा रण राजेस' कमस कोवा श्रकठ, कोड जुग लगा नह्‌ जाय कल्िया । पाठ जोय हैमरा गर्व गदढीया पटल, टा जोय सयंद रा गरव टचछिया। --जोगीदास कवारियीौ लगाडणौ, लगाड़वौ--देखो । लगाणौ, लगाव" (रू. भे.) उ०--१ साल्ह्‌ चलंतदइ परय्यिा, अगण वीखडियांह्‌ । सो मद हयर्‌ लगाडिया, भरि भरि मूठडियांह । --दटो. मा. उ०--२ जिकै वेद सूरति ब्राह्मण दु श्ररणी भ्रगनि लगा होम कर छै 1 घौ गौघ्रत न कपूर रो प्राहुति दीजे छ । --रा. सा.सं. [कं नक" गणं --१ किसानों दारा जमींदार या सरकार को दिया जाने सगाणो लगाडणहार, हारौ (हारी), लगाडइणियौ - वि. । लमादिश्रोडौ, लमाडियोडौ, लगाड़योड़ो- भ्रु. का. क. 1 लगाडोजणौ, लगाडीजवौ -कमं वा. । ल्गाम-सं, स्व्री.[फा.] १ तागा वर्मी श्रादि मेँ जोति जाने वाले प्रथवा सवारी लगाडियोड़ौ-मू का. कृ-- देखो (लगायोडौ" (रू. भे.) (स्त्री लगाडियोड़ी) लगाणौ, लगावो-क्रि. स.--१ स्पदं करना, द्युना, सम्पक मे करना । उ०--१ प्रहर श्रहर लगाई, तनं तन मेछिया । (परिहा) जांणि क गांघी हाट, जुवानं भेच्िा । , --टो. मा. उ०-देस्यां म्हारं वीरे नं वुलाय, लसी थानं हिवड लगाय । इस विघ भुगतौ ए भोजाईइ म्हारी जाडनं । --तो. गी. २ मिलाना, जोड़ना, सटाना । उ०--१ श्रवलंवि सखी कर पगि पि ऊभी, रहती मद वहती रमणि । लाज लोह लंगर लगाए, गय जिम श्रांणी गयगमरि । । --वेदधि उ०--२ श्र पचास ही घोड़ं नँ सूना चछोडि तिकारं हाने माला लगा जनक र श्रागे प्रणाम पुरवक माथौ नमायौ । ३ शामिल करना, सम्मिलित करना । ॐ किसी तरल पदाथ कालेप करना, मलना | वं वं , भा # उ०--१ इगा भांतरी श्रगरजौ स्पंया रूपोटां मांहै घात भ्रांख हाजर कीज छै । श्रगरजौ लगाद्रजं दै । --रा.सा. सं. उ० --२ मोतीपृड री सीपरा प्यालां में घात हाजर कीजे! सूंवौ वगलां लगाइच छं । ५ चिपकाना, लिपटाना 1 -र्‌ार सा ( स ५ उ०--फोफलिया रूपरा लागा छ 1 फठां उपर वनात रा मुखमल रा चकारा लगायत्तं छै ६ पटुचाना 1 ७ खचं कराना, व्यय कराना । ८ किसी वस्तुको दूसरी मे इस प्रकार मिलाना करि वह्‌ उपयोगमें लने योग्य, वन जाय। ६ मालूम या प्रतीत कराना, श्रनुमव कराना। १० भ्राघात करना या चोट, पहुचाना । उ०-मारू मन चिता धरद्‌, करह्ड्‌ कव लगादहं । करहड उव्यउ उतांमकछउ, साल्ह्‌ ्रचम थाइ 1 -टो. मा. ११ किसी वस्तुके शरीर से स्पशं कराकर जलन या खाज उत्पन्न करना । दयं -भिरचां लगाणी, पांव लगासी । १२ नियोजित्त करना । १३ (१) प्रस्फुटित करना, प्रंकुरितं करना । १३ {२} उगाना 1 उ ०--१ श्रासतरखान मन धोखौ प्रायौ, लोभ विना दख वाग -रा. सा. स, लगा लगायौ । श्रसुरां तरां उकत उपजाई, वातां लालच तरी वता । --रा. रू. उ०--२ सोनजी दौ पीप भटठं लगादियाभ्रर विभ्रांसयग्दराही पक्का चिरा दिया ) --दसदोख १४ प्रतीत करना । १५ वहत से जनेसमुदाय को एकत्रित करना । १६ प्रमावया श्रघर करना। १७ किसी वात या विपय में किसी व्यक्ति को ्रारोपित करना । १८ प्रज्वलित करना 1 उ०--ग्रागि लगाई जठ बुभ, सो फिर सीतल थाय । हरीया यार्त ग्रधिक दै, श्रहूं न मेस्या जाय । -- अरनुभववांणी १६ किसी प्रनिष्ठया कष्ट दायक याति का किसी ते सम्बन्य करना या सम्पकं मे लाना । २० किती वस्तु या पदार्थं को नियमित एवं यथोचित रूप मेँ प्रस्तुत करना । | उ०--भडोष्टी चाफतं री घर कलावरूत रेषम र कार्चोभी र काम रो, गुजरात रं कारीगररी कीवी छै! तकिया लगादजे द। --रा, सा. सं, २१ किसी कायं में प्रवृत करना । २२ श्रारस्मया शुरू करना २२ किसी श्रावरणया निरोधक द्वारा किसी विभाग या प्रकोष्ठ को दछिपाना या वंद करना । २४ फंलाना या पसारनः, व्रिसेरना । २५ धारदार या नुकोली चीजकीनोक या धार को दारीर में गड़ानाया चुभाना । २६ किसी के माथ एेसा व्यवहार करना जिससे वहु कुट या चिद्‌ । २७ किसी वस्तु को श्रन्य के संसर्गं में लाकर उस्षका उचित प्रभाव या फल दिखानां । २८ मानसिक स्थिति का किसी श्रोर प्रवृत करना । उ०--ज्यं ए डगर संहा, ज्यं जइ सज्जण हंति) चंपावाडी भमर यङ, नय लगाई रहती । --टो. मा. २६ करना, (पहूंचाना) । उ०-मेरा वेड लगाय दीज्यौ पार, प्रभ्ूजी श्ररज- कू छ्रू। या भवमेंर्ये वहू दख, संसा सोम गिमार.। --मीरां ३० जुडना, जोडना । उ०--२ जमल के घर जनम लियौहै, राणा त पराई । साचा सनेही म्हारं राम संतजन, जासू प्रीति लगाई । --पीरां ३१ भ्रनुगमन करना) ३२ ग्रन्तर्गत करना । ४२६० लेगायोड ए ष्राशिषेीषाणररेरिकिीषरि नभि कि ममयम २३ श्राधित करना) ३४ श्रादी करना, श्रभ्यस्तं करना । ३५ किसी वात या कम को घटित करना ३६ लाक्षशिक रूप मे किसी मुस्यतः घाभिक क्षेत्र मे कोई श्रनिष्ट यात या कमे, काय, किसी कै भ्रनिवायं रूप से जिम्मे पड़ना । ३७ किसी प्रकारे कौ सिद्धी या स्थापना करना । ३८ किसी प्रकार के उपयोग या व्यवहार के लिए प्रेषितं या श्रावद्यक करना । २६ श्राथिक सत्र मे किसी दातव्य रारि को निरिचत करनाथा हिस्पेमे करना । ४० गणितकेक्षेत्रमे किसी क्रिया को ठीक श्रौर पुण करना । ४१ क्रमानुसार पारी लगाना, नम्बर मे रखना । ४२ मूल्यांकन करना । | ४३ श्रकित या चिन्हिति करना ,। य स्त्री के साथ प्रसंग, मयुन या संभोग करना । ४१५ पीछा करना । उ०--दइसा सुवरां रा मोरां उपरां राजाना घोड़ा लगाया च॑। --रा. सा. सं. ४६ किसी स्त्री के साथ ग्रनर््तिकं सम्बन्ध स्थापित कराना) लगाणहार, हार (हारो), लगाणियो-- वि, लगायोड़ो- मू. का. कृ. । लगारईजणो, लगार्हजवौ - कमे वा, । लमगाडणे, लाडवा, लमाव्णौ, लमगाव्वौ, लग्गाड्णी, लम्गाडचौ, लग्याणो, लग्गाचौ, लगगावसो, लग्माववौ,--रू. भे. । लगाय, लगायतत-श्रव्य.--१ लगाकर, से । उ०-- १ गोपाल-पोट सूं लगाय फते-पोढ सदौ कोट न॑ फर्त॑पोढ खास मारान जन्िर सूं पारिया तदं स. १७७४ में करायी । -- नरसी उ०--२ दीवांण फतंखांजी रे समंत १७३०८ रा श्रासोज सु लगायत समंत १७४० रा माहा युद १५ सुदी रयो । -नणासी लगायोडौ-भू. का. कृ.-१ स्पदां किया हुश्रा, सम्पकं मे लाया हुत्ना. र मिलाया हुश्रा, जोड़ा हुभ्रा, सटाया हृश्रा. ३ शामिल किया हृश्रा, सम्मिलित्त क्रिया ह्राः ४ चिपकाया हूना, लिपटाया हृश्ा, ५ सचं किया हूना, व्यय क्रिया हृश्रा. ६ नियोजित क्रिया हुभ्रा. ७ (१) श्रंकुरिति किया हुग्रा, प्रस्फुट्ति किया हृ्रा ७ (२) उगाया हृश्रा। ८ अ्रनुभव किया हप्रा, प्रनुभत्ति किया हृप्रा. & प्रतीत किया श्रा. १० प्रतत कियाहृत्ना. ११ श्रारभ्म व शुरू किया हुश्रा. १२ फेलाया हुश्रा, पसारा हुग्रा, विदेसा हरा. १२ किसी वस्तु को दुसरी में दत प्रकार मिलाया हुश्रा कि जिससे वेह उपयोग लायक वन गह! १४ फिसी तरल पदार्थं काले लगार ४२६९ लगावणौ म वियाहुश्रा. १५ श्राघात किया ह्राः चोट पहुंचाया हु्रा. {६ किसी वस्तु के हारीर से स्पद करके जलन या खाज उलन किया हुमा. १७ श्रधिक ताप से खाच पदार्थंको तली मे जमाया या चिपकाया हुमा. १८ वृक्षारोपण किया हुभ्रा- १६ ज नसमुदाय को इकदुा किया हुग्रा. २० प्रभाव या श्रस्र किया हृम्रा- २१ भ्रनुगमन किया हृभ्रा. २२ प्रज्वलित किया हुम्रा, २३ किसी कार्य मे प्रवृत किया हरा. २४ किसी वात या विपय में किसी व्यक्ति पर श्रारोपया प्रयोग किया हमरा. २५ किसी ्रनिष्ट या कष्टदायक वाति का किसी से सम्बन्व कराया हृघ्रा या सम्पकं मँ लाया ह्राः २९ किसी ग्रावस्ण या निरोघ द्वारा किसी विभाग या प्रकोष्ट को दछिपाया हुश्रा या वन्द किया हृग्राः २७ पीट किया हृश्रा- २८ अन्तगेत कियाहृम्रा. २६ प्राश्चित किया हु्रा. २० श्रादी किया हुमा प्रभ्यस्त किया हु्रा- ३१ किसी वस्तु या पदार्थे को नियमित एवं यथोचित रूप मेँ प्रस्तुत किया हुश्रा. ३२ धार्दार्या नुकीली चीज की नौकया घार शरीरम चुभाया हुश्रा, गड़ाया ह्राः ३२ किसी ते इस प्रकारं व्यधहार कराया हृश्रा कि जिससे वह्‌ कुरे या चिदे. ३४ मानसिक स्थिति को किसी ्रौर प्रवृत किया ३५ किया हुश्रा. (पहुंचाया हुन) २६ मूल्यांकन किया हृत्रा ३७ गणित के क्षत्र में किसी क्रिया का ठीक ग्रौर पूरी तरह उतरा -हुग्रा. ३८ ग्राथिक ्ै्र मे किसी दातत्य राक्षि को निदिचत किया हुभ्रा, हिस्से मे दिया हुत्ना- २३६ किसी प्रकार के उपयोग या व्यवहार के लिए श्रावक््यक किया हन्ना ४९ श्रकित या वन्दित किया हुश्ना. ४१ खाद्य पदार्थौ के सम्बन्व मे तेज राच (ज्राग) कै फलस्वरूप पकाये जाने वाले पदार्थं का वरतेन के पेदे तले जमाय। या चिपकाया हरा. ४२ श्ननुसस्ण किया हृत्रा ४९ किसी स््रीके साथ श्रनतिक सम्बन्य किया हु्रा. स्वी कै साय मैथुन या सभोग किया हुमा । (स्वी. लगयोडी) लगार-वि.--किचितः, थोड़ा, लेदमात्र । उ०--१ श्रादि म्रन्थ रं सीश्रक्षर सुकवि कटै बुधि सार । तं प्रग दूखण तिता, ल्ग न हैक लगार । -सू. भ्र, उ०--२ रत्तातौ नांम निकै रहमांण, जिका नह्‌ व्यापं भ्रावा- जाणा । भरौ गण तोरा लच्छि-भ्रतार लै नहं त्यां तन पाप लगार । --हु. र. रू. भे.--लिगार, लिमारद, लिगारि, लिगारी, लिमारं लिमीक, लिगीयर लगालगी-सं. स्त्री---क्रमवद्धता 1 लगाव, लगावट-सं. पु.--१ लगे हुए टोने की श्रवस्या या भाव ॥ २ किले, गढ श्रादिकी दीवार का वह्‌ स्थान जहां से वपन्तो श्रासानी से प्रवेदा फर सके । उ०--पहर एक गोली व्ही पण वाहरला जांणोड था सो उवे लगाव री जायगं जांखौथासोवींठंव सूं वड्‌ गया । मारवाड रा श्रमरावां री वारता ३ सवंघ । उ०--लुगायां री खाप तौ भ्रेक पण प्रीत री खा्पा न्यारी \ चौ तौ नेह श्रर लगाव ई दूजी भाति रौहै 1 वादक रा मन मे दपटियोडीौ विरा रौ नेह फुफकार नै फण ऊंचौ करय । --फुलवाड़ी ४ दिलचस्पी, गौक । ५ पक्षपात । र. भे---तगगाव 1 लयावण-देखो 'लगांवण' (रू. भे.) लमावणी-सं. स््री.--लड़ाने भिडनि की क्रिया या माव) उ०-ज्युं श्राचार तो सुद्ध पालणी श्राव नदीं तिणसूंश्राचार नी स्थाय सद्धा री चर्वा दछोडने लोकां सूं लगावणी वातां करं । --भिवसखु लगावणौ, लगाववौ--देखो 'लगाणौ लगाव" (ङ. भे.) उ०--१ म्हारी वार्दजी ने वग बुलावौ, म्दारं साठ साथीड्ा लगाव । मँ घाय चतुरभूज थारी, थारी खेलण की वछ्हारी । -सो, गी. उ०--२ दाणवां तणा फाटिगा डाचा, वाचा नह्‌ ऊपड विचार । ग्रणभंग 'सिवौ' खाग उषाड, हालियौ ल क लगवणहार । --जोगीदासचास्ण उ०-३ उवी चाकी फिरांवता, लारली गनी त्यांवता श्र व्याह -सावा में श्रेगी राता । कोड-कूसट र कामांमें हाथ लगावणो दी माड़ी मानता । --दसदोख उ०--४ हमं "व्याह करपरौ'रक्य्‌ं कीरो ही भव विगाद्ू | कंवर तौ करमड मे रिजकयोड़ा ही कोनी । नीं तौ हुं बूढी हूं क ? द्रुकरां- प्यारी कमी £? कोर काम रौ क्यूं छिम्मौ लगावां 1 --दसदोख उ०--५ ठंडा होरी रौ ोड़ौ-वणौहीभौ नींहै वेटी ने घडी-घड़ी संभा, मूढौ दकं है । कानि लगाव, मोदं कनी तकं दै । --दसदोख उ०--६ चौवरी रा सिखायोडा लोग छेलको चेलेकी लगावरां जुट ग्या । --दसदोख उ०--७ श्राप खरच ते जावौ ! चारण र रच मतां लगाव । चारणा रा हीडा करता जाज्यो 1 --जंसे सरवदहिये री वात लगावणहार, हारी (हारी), चमावणियी--वि० । लगाविग्रोड़ौ, लगावियोडी, लगाव्योञ्ो--म्‌० का० कू०1 लगावीजरणो, लगावीजबो-- कमं वा. । + “म्न +^ ~~ ({1। लगाचियोडी ४२६२ लणणौ १ त त) ~~~ ~~~ ---~= ~~ --- ~- [ 1) शि उ० --२ भड तुरंग वीशणार, चड़ भारी गज कैसर । फौज लं फलि, दीव परराठां पस्सर । --गु.र. वं, उ०--३ दस जोयण लगे जिय री देही, व्रनवतां जोवतां विस्तार। इउं हिज वार तणा ऊपर, इसडा ब्र वाधिया उधार ॥ । --महादेव पारवती री वेलि उ०-४ जिण गजपिध पाट सिवर जांमठ, वटौ जसवतर्षिघ महाव । वारौ चण्त जिव वरतायौ, सुरां घरम तहां लगे सवाय । --रा. रू. लगावियोडो--देखो 'लमायोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. लगावियोड़ी) लगात्रू-वि. लगाने वाला 1 उ०--पणा सोनजी श्रीरा सुनार दांई नहीं । फा सूधी मांरास दिल री दरियाव श्र खरच रो पुरो लगाब्ु | --दसदोख तमगि-देखो 'लग' (र.भे.) उ०--ढाढी एक संदेसड़उ, ढोतइ्‌ लमि लइ जाय । जोवण फट त्रावडी, पाछि न वंवउ कांड । -ढो. मा. उ०--२ हाकलि श्रसि हरवकी, श्रणी दढ "विलंद' उडाठं । खग भाट सेलतौ, जगि हवदां लगि जाऊ । --सु, प्र. लमियोडो-देखो "लाभियोड़ी' (रू. भे.) (स्त्री. ल गियोडी) लगी-पं. स्त्री.-१ कलह, लडाई । २ लडर्ह्‌के लिए उकप्नाने की क्रिया] क्रि. प्र.--लगाणी रू. भे.-लग्णी ३ देखो लग' (रू. भे.) उ०--साठ लाख वरसा "लगी पाली सगली श्रायोजी 1 सप्तमी वदि श्रासाड नी, सिद्ध थया जिनरायौजी । -स. कु. लगरुता-देखो (लघुता' (₹ू. भे.) | लगुड~सं, प. [सं* लगुडः] १ छड़ी, लकड़ी, लाठी (व. स.) सगुद्ट-देखौ "लागु" (रू. भे.) (ड. को.) लगुवेस्-देखो "लघवे, (<. भे.) लगू-देखो (लग्ग (रू. भे.) लगेलगे-क्रि. वि.-१ किसीको पी लगानेके लिए कटै जाने वाले उत्तेजनात्मकं शब्द 1 उ०-सिकारी ऊमौ थक्रियौ लगे लगे कर कर गंडकड़ौ पहुंच गादड नँ फाड़ नांसं ज्यं महाराज खड़ां थकां लगेलगे कीज्यौ, श्राफ लड्से 1 --मारवाड रा श्रमरावां रीवारता २ कुत्ते को उकसाने की क्रिया । उ ०---सिकारो ऊभी थकियौ लगेलगे कहु कर गंडकड़ी पहुंच गादङ नं फाड़ नां । -- मारवाड रा श्रमरावां री वारता क्रि. प्र.-करणी। देखो 'लगल्तगी' (र<. भे.) ते -देपो "लग' (<. भे.) उ०--१ पर भोम लई समंदां ल्ग, राठौर साका रहै 1 गह्य वं गोहिता तगौ, वैद सद्ग महि संग्रह । गु. <. द॑. | ल्ट --देखो 'लगभग' उ०--१ तीस घाट सौ वरसां र सभैटगं पूगी हं" मदनं तौ सुख नांव इण श्रमणी रौ ई भ्रायौ । --पफुलवाड़ी २ निकट, .पास । लगोवग-क्रि. वि.-- १ वरावर । उ०--गांव रे काज दीवांण राखी गूसट, लगोवग श्राय निज कान लागा । चाटगा हजार साल चोतीसरी, नीरखले घान री वं नागा 1 -उमरदान लारम २ देखो (लगमय' लगोलग, लगोलगि-क्रि. वि.--१ ह/गातार, निरन्तर 1 । उ०--१ दीवांणजी मरिसखरी करता वोल्या --म्ह्नेः कीं दुतांम देवौ तौ लगोलग तीन दिनां तांई रात नीद्छ्णद्‌ं। --फुलवाड़ी उ०-२ वरस वींच्यारिन मेहु वरखि, पड धर काठ लगोलभि पचि । -- रामरा लगौ-विः (स्त्री. लगी) संलग्न, लगा हूश्ना । उ०-पंथ लगौ मुरघर पाय, तज दिली चतं ताय । सुण वात कमव सुर्यान, वक मूष घर वटवांन । --रा. <. लग-देखो (लग' (रू. भे ) उ०--!? प्रवाहै खडग्गं डं हत्य षग्गं, लहै जण भ्रारा धरं काठ लग्ग । मुड़ साठ साल्ट पे मूडक्कं, भड़ां श्रोभडां सांड ज्यौ माड भुके । -रा. रू. उ०--२ चौथी गाल देने पाद्य लए, उलटी वका धमां करं ए । वलं इषड़ी चलाव रग ए, खाच दरवारां लग ए । -जयर्वांणी ल ग्बणौ, लग्गवौ -- देखो "लागणौ, लागवौ' (रू. भे.) उ०--१ दहु वलां तोप लगी दगण, रूप काठ डाचा रुखी । रवि प्रं काज जाणे रसम, ज्वाछ काढ ज्वाछामुली । -सू. प्र. उ०--२ उमराव चाव लगौ दरस, स्प निहारं निनर भर। श्रनमेख द्रस्टि पेखंत दैवि, मीन चंद्र भ्रतिविवपर। -रा. रू. उ०--३ जौर्घौ भमांन' कल्यांण' तरा, गौ तन वारां -लग्ग । भड सौ पडिया भाण रा, श्रन ऊपदट्या वग्ग । --रा. रू. लगणो ४२६३ लग्न नं # उ०--४ भाटी "रम" `मूकन्न' तण, इण दिस लम श्राय । पाठ पुती पडी पूर, दी डोहढी जलाय । --रा. रू. लग्गीजणी, लग्गीजवो- भाव वा, ) गगन --१ देखो 'लगन' (रू. भे.) <०- ५ स्णिमलोत रणि वज्जियौ, पुंदरः हरि! सुजाव । | ` उ०-युहडां करि चजुहार सव्वांही, राज मटैल राज पधू-प्रांही । सहसां ले पड्यौ समर, घट सो लग्गा घाव । --रा. रू. राजा पद्धारं रथियांही, मुख हंसत राव लग्न महि 1 उ०-६ सौ तुरंग सारा, भडां ग्ररभेग समेढा । मीट पड़ी --गु. रू. वं. मेद्धिया, घड़ी नह्‌ लमा वेला । -- रा. रू. २ देखो "लग्न" (रू. भे.) लग्गांण--१ देखो 'लगांम' (<. भे.) २ दश्वो 'लगंन' (<. भे.) लग्गाडणौ, लग्गाडवौ--देखो (लमाणौ, लगावौ' (रू. भे.) लगाडणहार, हारौ (हारी), लशाड़णियौ--वि. । लग्गाडिग्नोड़ी, लगाडियोड़ी, लगाडयोड़ --भू. का. क. लग्गाडीजणी, लग्गड़ीजवी -- कम वा. । लग्गाडियोड़ी - देखो "लगायोड़ौ" (रू. भे.) (स्त्री. लग्गाडियोड़ी) लम्गाणौ, लगगाबौ --देखो "लगौ, लगावौ' (रू. भे.) उ०--७ मुहृकम लग्गौ मेडते, ज्या दणियर पर पेख । श्रापडियौ घर लूटतां, बाहर गहर सेख । ---रा. ड. उ०--पवेघौ दुंद न वीसरं ्वंद' तणौ हरनाय । पंथ श्रगौ लांगत्ता, लारा लग्गौ साय । -रा. रू. उ०--& जण भलठक्की जाममी, पले दग्गी ना । हाडं दुरजण- सल्ल र, तमे लग्गी तिण काठ । --रा. रू. उ०--१० श्रम्हां मन म्रचरिज भयउ सजियां श्राखडद्‌ एम ! तद ग्रणदिद्रा सज्जा, कि कर लग्गा पेम ) --दो. मा. उ०--११ जिम जिम सच्जण संभरदइ, तिम तिम लग्गइ तीर । पंख हवई तौ जाद मिलि, मनां वंघाडां चीर । टो. मा. | 1 | वणि द व उ. --जग लोक वांणा सीस जवन, षटं ब्रहम मूख पारसी 1 दित देव -~ ज्जर ऊ च०- १२ जिि देसे सज्जण वसइ, पत।ए ऊ ञव शरष हम्ा, काद लमा श्रारसी । ० तश्रा लगौ मो लग्गसी, ऊ ही लाखपसाउ । - दो. मा. लग्गाणहार, हारौ (हारी), लम्गाणियौ -वि० । लग्गायोडो-भू० का० कु०। लगादईजणी, लग्गाईजवौ--कमं वा० 1 लगायौड़ी - देखो (नमगायोड़ौ' (€. भे.) (स्त्री. लग्मायोडी) लग्ग।व - देवो "लगाव" (रू. भे.) उ०--१३ संदेसै ही घर भरयउ, कड श्रंगि कड वार । भ्रव सिज लग्गा दीहडा, सेई मिखडद्‌ गंवार , --टो. मा. उ०-- ४ रह रह सुंदरि माठ करि हव्फठ लग्गी काइ । डम दिरावड करहलउ, सेकतां मरि जाद्‌ । -- टो. मा. उ०--१५ श्रंमि श्रभोखण श्रच्छियउ, तन सोवन सगछाद । माल ग्रवा-मउर जिम, कर लग्गड कूमटाड्‌ । --टो. मा. ् लग्न(वणौ, सगगोचवौ- देखो (लगाणौ, लगावौ' (₹ू. भे.) उ» -१६ श्रहर ्रमोखण ठंकियउ, सौ नयणं स लार्य 1 मार लस्गावणहार, हारौ (हारी), लगावणियो--वि० । पका श्रव च्य" मरइ ज लग्गे वाय । = लग्गाविग्नोडौ, लस्गावियोड, लगगब्ोज्ै--भू° का० ० । उ०-१७ सुहिणा हं तद्व दाही, तोन दद्वियड ग्रिण । सव लग्गाबीजरणौ, लग्मावीजवौ - कमं वा० । जोयण साजण वसद, सूती थी गछ ल्म । -ढो. मा, लग्गावियोड़ौ-देखो लगायोड़ौ' (रू. भे.) (स्त्री. लग्गावियोड़ी) लगी -देखो "लगी" (. भे.) उ०-- १६ किलमांरा हले सुरताण कोप,उलटं समंद सम दृद म्रोप लगाव सने साता । क ॥ लगा हश्रा, संलग्न कमवजां श्र॑ग ऊतंग कस्स, रिण लसगा जग्गा वीर रस्स 1 ९ हस्रा सलन्त | ३ लीन, भ्रनुरक्त । उ०-१८ दूज्जोहण धर घरि सामि, सिक्ख रडतीय मग्गड्‌ । धम्मुपुत्त बयेण पुर, इंद पृत्‌, तिणि मग्गि लग्ग । गक पं, पं क - -रा. रू. ष्ये ॐ गौं ४ कि. वि.---४ लमाता 3 उ०--२० उर निस्वास प्रमुक्कं, भगगौ ज्यास चीत साश्नमं। य र, निरतर । ट ०५ + ५ २८ भे-लगू चता उद्वेगो, लग्मी श्रसग वस घास । --रा. €, | | लग्गणहार, ह्रौ (हारी), लग्गणियौ--वि. । लग्न-सं. पु. [सं. लग्नम्‌] १ दिन का उतना श्रंय जितने मे किसी लगिश्रोडो, लग्गियोडौ, लग््योड़ो -भु- का. ° । ध एक रादि का उदय रहता है । (ज्योतिष) लग्नकंडली ४२९४ लधुता ~~~ ~~~ ~~ ~~ ~ ~~~ ~ ~ ~ षय २ मांगलिक कार्य करने का शुभ मुहूतं! उ०--१ सोही स्वीकार करि गोवा रीदोही दृहितानु साथ तेर राजकुमार दैवीसिह ऊमरथुंरौ श्रद्‌ पिताहु-प्रच्छन्न श्रापरी प्राराश्रिया छोटी कुमरी गोडी मदनाग्ती नू बुलाई भ्रनेक उचित वाडा वणा श्रापरा श्रमात्य नूं वंवावदं वरणदूत देर उपयमरं उचित उपहार एकठौ कराइ लग्न पूचछियौ । जठं नाम करि देल्ह द्विज गणकराज दाधीच व्यास इण रीति कियौ । -वं. भा. उ०--२ पदन निव घणौ श्रादर सनमांन देनं वीजं दिन चटीया सो लगन रं दिन जालोरश्राया। -वीरमदं सोनगरा री बात ३ वहु समय जव सूर्यं किसी राशि में प्रवेदा करता है । ङ. भे - लगन, लिगन, लिगन्न । लग्नक्‌ंडठी-सं. स्वी. [सं. लग्न +-कृंडली ] किसी के जन्म के समय ग्रहों कौ राक्षियों की स्थिति जानने का चक्र या कूडली, जन्म- कूडली । लग्नदड-सं. पु.[सं.] संगीतमे वादन के समय स्वरकै मुख्य ग्रंशको श्रलग न होने देकर उनका सुंदरता से संयोग करने कौ क्रिया । लग्नदिन-सं. पु. [सं. लग्नं +-दिनं ] विवाह के लिए निरिचत दिने। लग्न-पत्र-सं. पू. यौ. [सं.] वह पत्र जिसमें ववाहिकि कृत्यो क व्यौरे- वार विवर्णो रू. भे.- लगनपतिका, लगनपत्री, लग्नपत्रिका । लः्नपत्रिका-सं स्त्री. देखो 'लग्नप्' (रू. भे.) लग्नायु-सं. स्त्री. यौ. [सं- लग्न +ग्रायु] फलित ज्योतिप में लग्न- कुंडली के प्रनुसार स्थिर होने वाली श्रायु। लगनेस-सं. पु. यौ. [सं' लग्न ~+ ईश] चह ग्रह॒जोलग्न का स्वामी हो) लष्नोदय-सं. पू. यौ [सं. लग्न [उदय] किसी लग्नके उदय होतेका समय 1 ८ लघमा-देखो "लेधिमा' (रू. भे.) लधिमा~सं. स्वी. [सं. लघिमन्‌] १ श्राठ सिदधियोमेंसे चौथी द्धि, जिसके प्राप्त होने पर मनुष्य वहतत छोटा एवं हत्का खूप धारण कर सकता टह । (उ, को, ह्‌. नां. मा.) २ हत्कापन. लधुता । उ०--लक-तणी लघिमा धरणी, तउ नीपायुं सीह । तुय नितंव समां घरी, सुद्र कहि निसि-दीह्‌ । -मा. कां. प्र. रू. भे--लघमा, लघुमा । लधु-वि.- किसी की तुलना में द्ोटा । उ०--इक कहत गिरवर एह, दरसंत सव लघु देह । स्रव वरणा वासा सरीर, इम कहत दुरत श्रधीर } --रा. रू. २ तुच्छ, भिन्न । उ०--सिव संभव सिव रूप सुरेघुर, सिव गर दिय श्रणभं कय सुर ) ग्रति लघु तिकौ सरण तक श्रावः" ““' --सू. प्र, २३ हत्का। ४ तनिक, थोडा । ५ दुवला, पतला, कमजोर | क्रि, वि.--गीघ्न, सत्वर । सं. पु. [सं. लघुः|] १ समयका एक परिणाम, जिसमें १५ क्षण होते है । २ ज्योत्तिप में हस्त, ्रदविवनी ग्रौर पुष्य, इन तीन नक्षत्रों के समूहं का नाम। २ तीन प्रकार. के प्राणायाम में से धारह मत्रश्रों का प्रणायाम 1 ४ व्याकरणे एकही मात्रा वाला स्वर, द्धस्व स्वर) ५ दछोटा भाई । (ह. ना. मा.) रू भे.--लहु, लह्‌, लाड, लु, लुघवि, वुधु, लोग्रडी, लोड, लोहड़ी, लोह °, लौडो,. लौडौ, लौहडौ, तौटहडौ, लवड़, हरौ, लहुं डौ, लहुप्रडउ, लहुश्र, लहुडिभ्रौ, लहृडौ, लहृडउ, लहुं, लहुडी, लहोडौ, लोडियौ, टटोड्यौ 1 लधुश्रक-सं. पु. [सं. लघु -{-्रंक | “वह्‌ वणं जिसमें एक ही माच्राहो, एक मात्रिक । उ ०--किवलौ पिच्छ कटै, लहु लधुश्रंक लहावें । ग्णिं छंद वस गुरु कवी, लघु चार कटावे 1 --र. रू. लघुश्रसण-स पु.- गरुड । (ना. डि. को.) लधुककोल-सं. पु. [सं. लघु {-ककोल ] साधारण कंकोल से दछोटा एक प्रकार का कंकोल । , । । लधुगण-सं. पु"--श्रदिवनी, पुष्य एवं हस्त, तीनों नक्षत्र का समूह्‌ । लधुचंदन-सं. पु.- म्रगर नामक सुगंधित लकड़ी । लघुचितविलास-सं. पु.--डिगल (मरुभाषा) का एक गीत छंद चिङ्ैप । लधुचित्त-वि. [सं. लघु + चित्त] दुर्वंल या चंचलं मन वाला ।. लधुच्डक-सं. पू.-- वस्त्र विशेषं । . त उ०-लघुच्रुडके मुक्त'चुडक सुवरणनचुडक मोतीसरी करगीं कंकणी पादवेष्टके पोलरकवरिक चतुसरेक नवसरक भ्रस्तादसरक इति प्राभ- ररानि । --व. स. लघुतमसमापवरत -देखो 'लघृत्तमसमापवरत्य' (रू. भे.) लघुता, लघुताई-सं. स्त्री.--१ छोटापन । ॐ०--१ सुत “धांव केसर वाग सही, जम जेर मावर नाग जेही । लधुता दुख गोवडिया८ लख, चिक रोस मुराडियं प्ल धिखै । -पा.प्र. २ तुच्छता, निम्नता । [० [अ क + ">~ =+ र लघुतुपक न ॥ ४२६५ लडग ~ उ०--१ नाहि जागत नहि सुता, नष्टि वै जीवत नर्हि वै मरता । नहि दीरघ नहि लघुता, चेतन ब्रह्य राप लग्विता । --श्री हरिरांमजी महाराज उ०-२ जैमे काठ की पुतक्री को कारीगर करं । फिर कारीगर को पती चित्रणं चाहे। ते्ै परमेस्वर करमकरत्ता मून उपायौ । अरर हौ परमेस्वर कौ गुण कल्यौ चाहं । ग्र थकरत्ता इ प्रापणी लघुता करं छं । -- वेलि ३ हल्कापन, नीचता 1 ४ दुर्वलता, कमजोरी । रू. भे.- लगता । लघूतुपक-सं. स्त्री. [सं. लधु तुपुक| एक प्रकार की दौटी वंदूकः तमंचा \ लघृत्तमसमापवरत्थ-सं. पु. [सं. लधुतमसमःपवत्य॑] वह्‌ छोटी स छोटी संख्या जो दोया श्रधिक संद्यासे पूरी र्‌ विमा जित हये जाय । । रू. भे.-- लघुतमसमापवरत । लघुर्व-सं, पु. [स.] १ छोटापन, लघुता । २ हल्कापन ! र १३ तुच्छता। लघुदंती-सं. पु.-प्रथम लघुसे पाच मात्राकानाम्‌ | वि.--छटे दात वाला । लघुनजर-सं. पु. यौ. (सं. लधु-+फा. नजर] हाथी । रू. भे. लघुर्निजर । (ना. ड. को, लघुनाठीक-सं- पु.-- छप्पय छंद का एक भेद विदोष जिसके प्रथम चार चरणा १८; १८ वणं के श्रौर श्र॑तिम टो चर्ण २२, २२ व केटोतेरह। उ० - श्रखर श्रठारह चरण चव, वे चर्णा वावीस । कवित लघुनाछीक कही, वरणत सरव कवी 1 ` -र. ज. प्र. लघुनिजर-- देखो (लघुनजरः (र भे.) लधुनोत-सं. पु.-पेराव, मूत्र ! (जन) लधुपंचक, लघूपचमूढ-सं. पु. शालीपर्णी पिटवन कटाई , छोटी) कटेहरी (बड़ी) शरीर गोखरू इन पाचों की जड़ो का समूहुया समिश्रण । (वेदक) लघुपण-सं. पु---छोटापनः, लघुता । उ०-- पड कृवियण वयण वडपण, श्रोप भिरा सम करण । श्रि जण खव कूवयणा तजं समभण दियण॒ लघुपण दाव , --रा. रू. लघुपाक-पं पु.यौ [सं. लघु~+पाक] { सहज ही पक जनि वालाः खाद्य पदां । लचुवंधव-सं. पु. यौ. [सं. लघु] वंवव] उस्रमें छोटे सिद्तिदार या मा्‌ । लघुभोजराज-सं पु.--श्रीवस्तुपाल के २४ विरुदो मे पांचवां विरुद । (व. स.) लघुमति-स. पु. यौ. [सं. लघु +-मति] छौटी बु्धिवाला, मूख । लघुमांण-सं. पु-- लधु । उ०- मिद्ध चवथी पचमी, जिकां ग्रत गुरू जांण। श्रनुप्रास की प्राठ तुक, मिढं ग्रत लघुरमांण । --र.ज. प्र. लघुमान-सं. पु.--नायक को किसी दूसरी स्त्री से वातचीत भ्रादि करते देखकर नायिका के मन में होने वाला रोप । लघुमा- देखो 'लचिमा' (रू. भे.) (ग्र. मा. डि. को. ह्‌. नां. मा.) लघुवय-सं. स्वरी. यौ. सं. लघु -{-वय] छोटी उस्र । रू. भे.- लहुवय लघुवयत्त, लधुवेस-सं. पु. [सं, लघु-{-वथस्‌] १ छोटी उश्र वाला । उ०--लघूुवेसां देवौ! दलौ, सुत जसकरण सकञ्ज । श्राप मटा- वण 'खेम' लै, नेम लियौ धर कञ्ज । रा. रू, २ वालक । (ह. नां. मा.) रू. भे--लगुवेस । लघुसंका-सं. स्वी. [सं. लघु + गंका| मूत्रोत्सगं, पेशाव करना । उ० -पतिसाहजी हुकम कियौ पेसरू्खान नू तूं जाइ प्रर उस रेती माह श्रावखांन रौ तंव वाचि । ग्रोधि पातिसाहुनी लधुसंका कौ । --द. वि. क्रि. प्र --करणी. लागणी । लघुसांमंत-सं. पु. [सं. लघु +-सामत | च्लोटा राजा । उ०--र्जा जुवराजकुमार राजेस्वर महामंडलेस्वर स्रामंत लघु- सामंत तलवर तत्रपाल चतुरमीतिक ताडकपति मंत्रि मह्मत्रि ग्रहवाहक । ~व. स, लघुहस्त-सं. पु [सं. ] शिध्रात्तिल्िघ्र याण चलाने वाला व्यक्ति । - २ दछीटे हाथ वाला । लडंग-वि.--१ लम्बा २ लम्वायमाने। | सं. पु.--१ घोड़ा, प्रर्व । उ०-घरि वटका ही भ्राविस्यद्‌, लास लिया लडग । ति णिमद्‌ लेस्यां टाछ्िमा, वांकड़ मुहा विडंग । २ कतार, पंक्ति) उ०-१ पड जांगियां श्रखमी रौद विखंमी नीहाव पड, र॑ण घोम लागी बौम रुके पंख राह । तेडे रथ गिरंभां रा रंभा रा लङ्ग तूटै, साहा वेह सीस चट वल्यावंध साह । --राव सत्रसाढ रौ गीत --टो. मा. लखत ४२६६ उ०--२ लडंग लाख तुंग तंग, , संग जंग हत्लयै । चढे कि वे प्राकुठ, समुद्र मेढ चट्लयं । --रा. रू. ३ फोर्जो की दुका, दल । उ०-ट्म फरतं तोप का गोढा ज्यं श्रा । जिर पर ठंमठंम सेती फौजुं कै लडग घाए 1 ` --सू- प्र. ४ फीलाव, विस्तार । उ०-तखि फौज तुंग लंग अर्वंघ किर दधि भ्रंग । वांसि सूरय पायक बरद जग जांणा दढ जयचंद --रा. रू, ५ ‰्‌ढ, समुद्र) उ०~-- ददवा मदरा छाकिया, स्हो श्राया सिर्दार । विडंगा चटिया वीरवल, लड़गां प्राया लार । -- पनां रू. भे.-लडंग । लडत-सं. स्त्री-- लड़ाई, भिड़ंत, मुकावला । तड-सं. स्वी-१ एक दूसरी से लगकर लम्वाकार मे व्यवस्थित रूपसे गयी हुई वस्तुश्रों का समूह्‌, मामा उ०-१ उमड़ घटा घन देखिके, चढ़ी श्रा पर वाठ मोतिन लड मुख मे लई, कारण कोण जमाल । --जमाल उ०-२ हींडा वादी हिडाय, विजदी चंवर दढय। लागी चिरखा री कड, जां मोतीडां री लड । --चेतमानखौ २ पक्तिमे लगे हुए फुलोंका डी के ्राकार का गुच्छा। ३ रेखा, पक्ति, कतार्‌ । उ०--धुरवा धरणी लग लौढा लं धावे, जीमणा जीमणानं मोडा जिम वाव । मोरा श्रनुमोदित लोरां लड लागी, नीफर नव नीरद भमनां भव भाजी। --ऊ का. ४ रस्सी। उ०~-पीठ पर वंणी उचटती तिजर श्रावेहै, केव रं पान जां नागा लफलफा जावे है । उचकती श्रलकाचली मे मुख दण भात सोभा देवे है, मानू नाग लड़ा रं हींडं चद्‌ फोटातेवं है। --र. हमीर १ युद्ध, लडाई। (हि. को.) £ संगीत वायो पर गतकैएकही दुकडेको वार-वार वजाने की क्रिया रू. भे.- लड़ी लङकपण, लडकपणो-सं. ¶.-- १ वात्यावस्या । २ लड्कोका सा श्राचरण, चंचलता। क्रि. प्रकरण), दिखाणौ लडकवुदधि-सं. स्व्री- बालकों जसी वुद्धि । तलडकार्ई-सं. स्वी--लड़कपन, नादानी ! तटकौ-सं, पू. (स्त्री. लडकी] १ छोटी श्रवस्या का वालक । लडखडावणौ २ पुत्र, येटा (ड. को.) लडक्कणी, लड्कंकवौ-क्रि. भ्र.-- परस्पर टकराना, भिडना । उ०-मदही चौ घड्वकी तर लड्क्कं सेस रा माथा, खड्क्कं हूडक्कं काढी कड़क्कं खांणास । भट्क्कौ कटारां पेस॒रुडक्कं मूंडड़ा जरे, वडक्के क्रगठा कड़ा जड़क्कं वांरास । । -- गीत वादररसिघ मेडतिया रौ लडवडणो, खडखवडवो- देखो "लडखडाणौ, लडखडावौ' (ङ, भे.) उ०--१ रम्हतौ ईरानं श्रठे वरियी पण ईणरी कटारीतौ कोट नं जाय जाय चरै छं । ईशा भांत पड़ता लडत्ता लडखडता नीसर- शियां लगायर्नं चटं द्यं । --प्रतपर्िघ म्होकमरसिव री वति उ०--२ सरपकीजीभन्यूं परं श्री भलका कर । कंलदकं लडखड, थक्या उलटा पड़ । -देःपु.वा. उ०--२ उड गयारेसमी गदरावे रलौ रज न्हीं लागी। भ्रा फिरे कमिता लडारूम, लखपतणी मरगी लडखड्ती । --चेतमांनखां लडखडाडणौ, लडखड्ाडवौ- देखो `लडखडाणो, लडखडावौ' (र, भे.) लडलड़ाड्योडौ --देखो 'लड़खड़ायोडू (रू. भे.) (स्त्री. लडइखडाडियोड़ी) ८ लडवडणो, लडखडाकी-क्रि. श्र.- १ टगमगाना, डिगना। उ०- नाटक गीत तमासौ देण, तुरत हरकस्‌ं जाईरे। धरम कथा साघां रं दरभ्नन, जातां पग लडखडाई रे । --जयवांणी २ कांपना, धुजना, यर्याना । क्रि. स.-३ भय दिखाना । उ०--इतरामे वेरसी प्राय लोगां न्‌ लडखड़ाया सो मांणस कांप रहा द्य । -सूरं वींवं कांवलोत री बात लइखवड्ाखहार, हारी (हरी), लडइखड(गणियो - वि ० । लडखडायोडो - भ्रु० का० कु०, लंडवड्ार्ईइज णो, लडखडार्हननो- भाव वा०, कर्म वा० लडवडणौ, ल इवडवी, लडवडाडगणी, लडखडाडयी, लडखडावणौ, लडखड़ाववो, लुडखुडाणो, वुडलुडावौ -<० भे° । । लड़खङ्ायोड़ो-मू० का क०--१ उगमगाया भ्रा, डिगा ग्रा २ कापा हृश्रा, धुजा हुग्रा, थर्सया हृभ्ना. ३ भय दिखलाया श्रा, रोव गालित्र किया हूम्रा. (स्त्री. लडखडायोडी) लड़खड़ावणौ, लइखड़ाववौ- देखो "लडखडाणौ, लडखवड़ावौ' (₹. भे.) लडखडावणहार, हारो (हारी), लडइखडावणियो-- वि ० । लड़खवड्ाविश्रोड़ी, लड खड़ावियो ड़, लड़वड़ानव्योडौ - भू° का० कृ° लडखडावीजणी, लडखड़ावीजवो - भाव वा०, कर्म वा० | ++ >~ ग जक भन जि [1 (र ~= श्र लडवडार्वियोडी लडवड़ावियोड- देखो 'लडखडायोडौ' (₹. भे.) (स्त्री. लडखड़ावियोड़ी } लड़ड-क्रि. वि. (श्रनु.) लगातार, निरन्तर । उ०--घोडा री ग्रसवारी श्रं दूव र पाण वौ तौ लडइ-लड़ड वथतौ ई गियौ । -- फूलवाड़ी र. भे.-लरड़ तेडभडणौ, लड़भडग-क्रि. श्र.-- वकभ्क करना, वड़वड़ाना । उ०--इम लड़भडती वाहुडी, पूटी उर पिछनाय 1 चक करतौ छर्ना गयद, जारा चिन नूं जाय । --र. मीर लडभ्डियोडो-मू. का. कृ.--वकमक क्रिया हुमा, वड़वडाया हृ्रा । (रत्री. लडकडियोड) लड्णी, तडगौ-क्रि. स. करना, लड़ना । [सं. रणम्‌] १ शस्त्रास्त्रं द्वारा युद्ध - उ०-१ पिड़्‌ सार धार सिला ग्रपार, वानत श्रत विश वार चार जुघ लड़ भिं नह खड जग, धिर पडं सड केर पवि संगर) --रा. स. उ०-२ करण प्रताप सुरां च्छ कषा, लड्वा कटक समूहा श्लीधा । भ्रति सहस विकटा श्रसवारा, बाग उपाडि लड़ जि वास । -सू. भ्र. उ०-३ उट पग हात किरका हुव भ्रंग रा, वहै रतजेम साव वहाटखा । ब्राप श्रापौ वरी जोय ने श्राडियां, लड रिण भला भना निराताघ्ा । --र, र. २ शारीरिक, श्रापिक, वौद्धिक वल प्रयोग से विपक्षी को परास्त करने या नीचा दिखने कौ क्रिया करना । ३ बहुत करना, हुज्जत करना । ख ईरष्या-माव से कलह करना, फगडनां 1 उ०--पिडत-पिडत श्रर साघु-साघु, सामे हुवे जद सागीडा लङ भगडं । --दसदोख ५ टकराना, भिड्ना \ उ० -केर चड़ विन पानडां, रोकं लृग्रां रोर । सुण सुंसाता जोर- सू, भूते हिरणां होस । व्ह ६ विपेते जन्तुश्नों का डंक मारना । उ०--१ पनग लड कीड़ा पदी, सड कफड़ौ दुख संग । जग चुगलां रो जीभड़ी, वायस भख विहग । --वा. दा. उ०--२ नाथूरांमजी र खटमल लडयी, वाकी लूटी के दाफड्‌ पडियौ । रे खटमल सोवा दं॑वादस्य।ई दरोगा सोयवा दं । { --लो, गी. ७ कुपिते या नाराज होना । ८ २६९७ लडथडाणौ उ०--होय विरगी नार, उंगरां विचदै वयुं खडी। कराई यारो पोहुर इर, कांई्‌ धरां सासू लड़ी) -- लो. गो. ८ एसी स्थिति में होना जिसमे किसी कायं के सम्पादन मपरं परिश्रम लग गया हो । ज्युं--काम रं माय दिमाग लडरौ । & एसी स्थिति में पहुंचना, जिसमे किसी प्रकार की श्रनुचूनता या समयन सिद्ध होता द्धो) लडणहएर, हारी (हारी), चडणियी-- वि. । लड्ग्रोड़ौ, लडियोडौ, लडयोडो- भू. का. कृ. 1 लड़ीजणौ, लङडीजवौ-- भावे वा. । लडण, लडवौ- <. भे. । लडत्यडणौ, लडइत्यडवौ- देखो "लड़थड़णी, लडयडवौ" (रू, भे.) लडइत्यडगहार, हारो (हामी), लडत्यडणियौ--वि० । लडत्यड्ग्रोड़, लडत्यड्पोड, लडत्यडयोड़--भू° का० कृ० । ल खत्यडोजणो, लडइत्यड़ीजवो,- माव वा०। लडत्थडयोड़ी --देखो 'लडथड्योड़ौ' (<. भे.) (स्त्री. लडत्यडियोड़ी) लडयडणी, लड़यडवौ -देखो "लडथडाणौ, लडथड़ाकौ' (<. भे.) उ०--१ भाख विन भ्ररावां ग्रामि मार्थं कड, लड़यडं श्र मैणानि लागो । ऋपेटा भाग किलां कर फोवरे, नाग जिम राम रौखाग नागौ । -भीमसिधव हाडा रौ गीतं उ०--२ हाथ उंडौ कालियौ जी, चलती लडयडे देह । दांत से णी खोढी पडीजी, भ्रापद पडियी नेह । -जयवांणी उ०--३ कोधा तिमको कहइ नही, जीभ लड़यड़ ऋरठ । कारी भागौ श्रागुटी, खो मीजद श्रंगूठ । --स. कु. उ ०--४ फड़ श्रनड़ उड रव वांणि वहि ड़, उरड़ श्रपहृड दुभ॒ड़ ग्रोभड । कर डमर गड़ वरुड कर धड़, लुडत तडफड़ श्ुटत लडथड्‌ । -- सू. प्र. लड़थडणहार, हारै (हरी), लड़यडणियौ--वि, । लडयटिश्रोड़ी, लडयडियोडी, लडयडग्योडी- भू. का. ऊ. । लडयड़ीजणौ, लडयडीजवौ--भाव वा. । लडयड्ाडणो, लड़यडाडबौ-- देखो 'नडयड़ाणौ लडथडावौ' (रू, भे.) लड़यडाडियोडो --देखो लडथङ्ायोडौ' (<. भे.) (स्त्री. लडथड़ाडियोडी } लडयङडणौ, लडयडवौ-क्रि. श्र. --१ डिगमिगाना । २ भय श्रादिके कारण जीभ का कपिना । लडयङाणहार, हारी (हारी), लडयडाणियौ -- वि, । लडयडायोडौ -- भु. का. क. । ग्ट --~ ~~~ ------- --~-~~-- [ अनि । १ 7 ~~~ तडयडयोद ~] ~~~ लडयदार्हजणो, तडवडारईजवी--भाव वा. । लदत्यदणौ, लदत्यड्यो, लडयडणौ, लडयडवौ, लड्यङाडणी, सटवदादयौ, लडथडणौ, लडयड्वौ, लडयडावणौ, लडयड्वचो --रऽ. भे. । लड़यडायोडौ-भू. का. ृ.-- १ डिगमिगाया हृभ्रा. २ भय श्रादि के कारण जीम का कापा हन्ना । (स्त्री. लड़यडायोदी) ल्यङ्ावणो, लडयड़ाववौ-देपो "लडथड़ाणौ, लढ्यड़ावौ' (रू. भे.) तडयड़ावणहार, हारौ (हारी), लडयडावणियौ-वि ० 1 तडयडाचिग्रोडु, लड़यड़गवियोडौ, लडयड्ाव्योडो -भू०° का० कृ? लडथड्+वीजणी, लडयड़ावौजवौ- भावके वा० | लड़यड एवियोडी- देखो (लडथडायोडौ' (रू. भे.) (स्प्री. लड़यड्‌!वियोडी ) लडयर-देसो 'लडथट' (<. भ.) तड्दादो-स. पु.-प्रपितामह्‌ का पिता । लड्वा, तदधौ-वि. (स्त्री. लढ्दी, लड्धी) १ हण्ट पृष्ट, युवा । २ मस्ताना, मूपतसोर । उ०--वापड़ो मग्रूने ती टुकड़ा-य ई सांसा श्र श्रठीनं ग्रे लडध) भांग-वूदी छं श्रर माल उडावे । --वरक्तगाठ लडगेता-त. द. (स्त्री. तड्पोती ) पौत्र का लड़का । तद्मूरत--गले का भ्राभूपरा विदोप । लदलुंव, तडल्‌म, लदतृभो-देखो 'लडाल्‌ंठ" (रू. भे.) उ०-फव कानन मोती मुगाट फव, लदु्लुव वनी चित्त चाव तुचं । फमधेसत श्रद्धा प्रस त्यार किया, लखमोत श्रमोलक साथ लिया । --वेख्तावर मोतीसर तलडांतुंय, तडाभन-देखो (लडालृव' (रू. भे.) लटाई-सं. स्वी. १ लने की क्रिया याभाव । २ दास्प्रोने (त्रु को पराजित.करनेदहैतु) स्यक्षंत्र म किया जाने वाला संप, संग्राम, युद्ध) उ०-१ फर धृक धर कज्ज, सकते दाव रावाई । मघ मरियड़ राटद्रद्धि, करे दहनी लडाई । ~र उ०--२ धा चमुर भाज गागांणी, मादेचौ चदियौ 'मुकनांरी' सामां मृं केषट तटार्ई, सार प्रथम साकिया निपा --रा. र. ३ उन-साप्रारण मं एवः दूषरे के साथ मारपीट फरने का प्रयत्न । रि. प्र--परणी, नदरी 1 शारीरिक, श्रायिकः द यौद्धिकः चस गे एक एक दूसरे कोदवानेया गीरा दिनि पा प्रय । ४२९८ लशाणो ५ एक-दूसरे के वीच वाद-विवाद या गाली-गलोच होने की श्रवस्था । ६ वमनस्य, शचुता, ग्रनवन । ७ प्रतिस्पर्वा, । । ८ टक्कर, सिडत । यौ. लडाई-खोर रू. भे.- लडाई लड़ाईखोर, लडार्दखो रौ-वि.-- १ लड़ाई करने वाला } २ कलहु-प्रिय । लड़क, वड़ाफो, लड़ाकू, लडाके-वि.- १ लडाई करते धाला, योद्धा वीर। उ०-- १ गाज नगारा चिमक खग, वरसत बाजत डाक । घटा नहीं श्रा कामि री, श्राव फौज लेंडाक | --ग्रज्ञात उ०--२ चर्‌ठा करत खप्पराक चंडी, राग वज श्रयराक । रिणदछाक चढ रिव पताकं राघव, लख सहित लडाक । --र. ज. प्र. उ०-२ खांगीवंघ खद गयंद खुराकी, नाकी नह्‌ मेल्ही नह॒राछ । सीह लडाकी लड़ण सतुभौ, उाकी ठह उभौ डाढाढ , ^ -- महादान मेहड, २ कुदतती लडने वाला, मल्ल-योद्धा । लड्।इणी, लडाड्वौ - देखो 'लडाणौ लडावीौ' (रू. भे.) लडाडणदार, हारौ (हार), लङाडणियौ- चि. । लडाटिग्रोडी, लडादियोडी-- भू. का. कृ. । लडाडीनणौ, लडाडीजबौ-- क्म वा. । लडाडियोदौ- देखो 'लडायोड़ौ' (रू. भे.) (स्वरी. लडाडियोड़ी) लङ़ाशुय, लडाभम, लडभरुम-देखो "लड़ालुंच' (रू, भे.) उ०--१ ्रावूवाछा दइ समारोह में पूराूरा कष्डा श्र वैभी घाघरा, श्रीटणी, कुदृती, काची, इत्याद पैर कर भ्रौर पूरा ` मां गावं सूं लडाभ्टूम चुगायां री सुंदरता री परख व्ह, -ह्रावद उ०--२ उड गया रेसमी गदरावे, रालीरं रजनहीं लामी। म्रा फिरं कांमेतण लड्ाकरूम, लखपततणी मरगी लड़थडती । --चेतमानिखौ उ०--३ वीदणी घ्रपूटी होय मंडी उघाद्‌ वैटगी ¦ ऊंचौ जयौ । पतद्टी पतली लीली-चेर लदुाच्रूम सांगरियां ई सांगरियां । देतां ई कोयां में टाटोक्ाई वापस्गी । -फुलवाडी लडणो, लढावौ-क्रि.स. (लडणी छरिया काग्रः रू.) - १ मस्व द्वारा युद्ध मे प्रतरृत करना, लड़ना 1 तडायोडो ` लडायोडौ-मू. का. कृ.--शस्त्रास्त्रो हारा युद्ध मे प्रत्रत्त कराया २ ्ारीरिक, वौद्धिक एवं प्राधिक वल प्रयोग से दात्र को परास्त करने या नीचा दिखाने हेतु प्रवृत्त करना । ३ वहस या हुस्जत करना । दर्प्या-भाव से कलह कराना, भगडाना । ५ विपे जन्तुग्रो से डक मराना । ६ टकराना, भिडाना ' ७ कुपित या नाराज कराना । ८ किसी कायं के सम्पादन हेतु विकटतम परिस्थितियों कां सामना करना, पूरो परिश्रम कराना । उ०--घरम श्रर पुल्ल राकोमां वास्ते केड काप करए पड़ 1 ग्रणती ग्रकल लडाणी पड़ । -- पलवाडी ६ किसी प्रकार की श्रनुकूलता या समथेन प्राप्त करने हेतु किसी प्रकारका इदारा या संकेतं करना । ज्यं--प्रांख लडाणी । १० श्रपना कोर भ्रंग दूसरे के मामने लाकर वरावरी कराना) ११ मुकावला करानाप्र त्तिस्पर्घा कराना । लडाणहार, हारौ (हारी), लडाणियौ - वि. । लद्ायोडा-- भू. का. कृ. । ४ ्रडा्ईनणं, लडारईनबौ-- कमे. वा. । लडाडणौ, लडाड्वौ, लडावणौ, लडावो --<. भे. । लडाववौ, लङाणौ, लडाया हृश्रा.- २ शारीरिक बौद्धिक एव भ्राविक वल-प्रयोगसे विपक्षी कौ परास्त करने या नीचा दिखाने टतु प्रवृत्त कराया हुत्राः ३ वहस या हज्जत कराया दग्रा ४ दप्यफ भाव से कलहं कराया हूश्रा, मगडाया हृ्रा- ५ टकराया हप्र भिड़ाया हृश्रा । ` ६ कुपित यः नाराज कराया हृप्रा- ७ विपे जन्तुग्रों से डंक मरवाया हृश्रा. ८ किसी कायं के सम्पादन हेतु विकटतम परिस्थितियों का सामना कराया हृश्रा, पूणं परिश्रम कराया ह्र. ९ किसी प्रकार की श्रनुकरूलता या समर्थन भ्राप्त करने हतु कोड संकेत किया हरा. १० श्रपना कोई भ्रंग दूसरेके सामने लाकर वरावरी कराया हृश्रा १९१ मुकाव्ला कराया हन्ना, प्रतिस्पर्धा कराया हृश्रा । (स्त्री. लड़ायोडी) लडालंव--देखो 'लडालूंव' (रू. भे.) उ०- तठ उषरात करि ने राजान्‌ कुमारी जान धणं श्राडवर सू हाथी घोड़ा वहील सुखासण रथ पायकरा वणाव क्रियां बचेल जानियारं साथ लिया धर मोती जङ्ाव जरकसी सूं लडार्लव हृता द! --रा. सा. सं लडालब, लडालूम, लड्ालुंब-वि.--१ प्राभूपणो से सुसज्जित । ४२६६ लहड्यिडौ [ष उ०--१ सवै गरंग उत्तंग सालोत साखी, लड्ालूव कीवी थको श्रंण लाखी, । “ह॒री” होड ब्रारूढ ते वार ह्लं, चठ पीठ ऊंचास के इद च्ल । --दह्री पिगढ प्रवंव उ०- २ लाख वसीसै भोज तू, कवित्त नवा कटणांह 1 लड़ालूव वशियौ विहद, गढपत जस गहणांह्‌ । --वां. दा २ फल-फूलों से श्राच्छादित, युक्तं । उ०-- लडालंम डात्यां लमूटं जांणौ भवर भूटणा । म्रोयण मे लसकर लुगायां, खाणा चुमणा चूटणा । --दसदेव ङ. भे.-- ललं, लडलूंम, लडलूंमौ, लड़लूव,. लड़ाभम' लडामू, लडाभूम, लड़ाभरम, लड़ा लूम, लड़ा लव । लडावणी, लडाववौ-- देखो 'लडाणौ, लडावौ' (रू. भे.) उ०--१ वां उणनं विलमावए सारू, राजी करण सार ग्राखी रात श्र श्राखै दिन श्रकल लङ्ावती पणा कीं तोजी वैटीनीं। - फुलवाड़ी उ०--उणराधरमें तौ नितरी दाताकसी श्रर पाड़ौसियां रे श्रेडौ वांशिया र ऊभी श्राडी नीं माई । वौ दोनां नं लड़ावण री प्रटकढठ विचारणं लागी । --पुलवाड़ी उ०--३ सुखासण पालखी चोडाछ रथ पाईइक वणि नं रहीया छै । कटकार खुर पडि न रदीश्रा छं । हाथी लडावीजे द॑ । --रा. सा. सं. लडावणहार, हारौ (हारी), लङ्ावणियौ -वि० । लडाविग्रोडौ, लडावियोडौ, लडाव्योड़ो--भर° व1० ० । लडावीजणौ, लड़ावीजवौ--कमे वा० । लडावियोडौ--देलो “लङ्गयोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. लडावियोड़ी) लडियंग-सं, स्वी.-- पक्ति, समुह । उ०--३ पुण प्राजद्धं श्रगनि पूरं पवन, लद्यंग धाद धवर लोचन । देवी हकार किय भसम दैत, जालिम संघार जुध जत जेत 7 --मा वचनिका लडियाल-देखो" लडीयाल' (रू. भे.) लडियोडी-भू. का. कृ.-- १ दास्त्रास्त्ों दारा युद्ध किया हुभ्रा, लड़ा हुम्रा. २ दारीरिक, श्रा्थिक एवं वौद्धिक वल प्रयोग से विपक्षी को परास्त करेया नीचा दिखाने का प्रयत्न किया हृुभ्रा. ३ वहसया हुज्जत किया हुश्रा. ४ इर्प्या भव से भगड़ा या कलह किया हुश्रा ५ टकराया हुश्रा, भिंडा हुभ्रा. ६ त्रिपेले जन्तुग्रों द्वारा डंक मारा हुभ्रा. ७ कुपित हुवा हूश्रा, नाराज हुवा दुश्रा. ८ एेसी परिस्थिति में हवा हु्रा जिसमें किसी कार्य के सम्पादन मेंपूर्णं परिश्रम लग गया दहो । (स्त्री. लडियोड़ी ) सद्िपी (¬ ]---------------__ लदियो-सं. ¶.-१ "सीप या शिणिया' नामक पौवे की वनी हद रस्सी २ भेड का यच्चा । सडी-सं. स्त्री.- येल, लता । उ०--शटी भूठ न वोलियै, सांची वात कहत । लड़ी पड़ी जं चेत मे, टाटा टोर चरेत । --जलाल बूवना री वात २ भद्‌) ३ देयो सड" (<. भे.) लष्टोया-वि.--वीर, यौद्धा, लदाकू ) उ०--ग्रनमी कंद फीजां श्राफटतौ, कावलतौ दढ तौ कूरम 1 यढ लडीयाठ “मांन' श्रपणाई', जं खल दा भीड़ीयाठ जम । --चांवडदांनजी धघघवाडियौ सू. भे.--लडियादछ, लडीयाढ । लडेत~वि.-- योद्धा, वीर, लड़ाकू । उ० -- पिलत दष इम वहै सार, ऊवडे कड़ी वगतर श्रपार । सामत लडेत खडं संग्राम, रिण गहर गयौ भ्रस तोर रम । --रा. रू, लटोकड्-वि. स्वी -कतहु-प्रिय, लड़ाई करने या कराने वाला । सशो एरो-पु. (स्वी. लदोकड़ी) कलहु-प्रिय, भगडालरु, लडाई -करने वाला 1 उ०--वदोडईं वीरेजी री गवरां दं लद्धकड़ी नार राय सांमतडी री लेवेली म्हारं मामे जी सु मोरचौ। -लो. गी. स्ट, भे.-लटोकडी । सच -देरगो 'लचकः' (रू. भे.) लचफ-सं. स्प्री.--१ तचकने की क्रिया या भाव । उ०--एय धुकि लचकफ सीस श्रहि वाधा, चंद कटक खड्या कटठ- चाद्धा । जगत छत्रदिस दियं जवार्वा, सौ विमाह्‌ कि समर सतायां --सू. प्र. २ किमी यस्तु के दवती या सकती रहने का गुण । ३ श्रंगमें भटका पद्नेसेदहोने वाला दर्दया रोग । क्रि, प्र.--त्रासी, सारी । म. भे.--लच, लनक्क लचफणि- सं. रत्री.-तचक या लचीलापन । तचकणो-वि. (स्त्री. लचक्णी ) लचकने या भुकने वाला । लचफणी, तचकयो-्रि. प्र.--१ किसी लम्ये या कोमल पदार्थं के मघ्य भाग फा श्रधिक वोके कारगर मुकना या मुना । उ० -भ्रामा मल पट श्रंगक चंदं चीरियां, दरिया्द घुज देह धरं टम घीस्िवां 1 तटकणा कोता लेट्‌कं वेसर वंकियां, भरिय। भख भार्मः खचरं लंकियां | --र. हमीर ६२३०० लचकाशौ २ दवना, नीचे मुकना । उ०~-डइद्रने चंद्र नार्मद चित चमकीया, धड्हृडयौ सेसनें धरा घज । लचकरि किचकिच करं पीठ कूरम तणी हलहल मेर दिगदंत कूज । -पं.च. चौ, ३ स्त्रियों का चलते समय कोमलत्तावड कमर्‌ का थोड़ा भकना जो सौन्दयं सूचक होता है । उ०-- वाचि वाक्ि नं गांठ दीजं । इण भांतरी तजौ हलका ज्यौ लचकती रतना लोचना श्रिभ्राढा काज़ठ सारीने छं । । --रा. सा.सं. ४ गति सील या स्थित पदां या व्यक्ति का किसी दूसरी दिशा की श्रोर उन्मूख या प्रवृत्त होना, मूडना । ॥ उ०--मचकं हिड मचोठता, लचकं भौणौ लंक । तन दमकं दांमणिहि तिहि, मुखड़ौ जांण मयंक । --र. हमीर ५ किसी लचीले पदाथ कावायु के संसगं से हिलना, लहल- हाना । उ०--गोरे कचन गात पर, श्रंगिया रंग श्रनार । लेगौं सोहै लचकतौ लह्रयौ लफादार । --श्रग्यात लचकणहार, हारौ (हारी), लचकणियो- वि. । लचर्विश्रोडी, लचकियोडो, लल्क्योडो - मू. का. कृ. । लचकीनणी, लचकौोजवो- भाव वा. । । लचक्कणीौ, लचक्कवौ, ल चणी, लचकौ-र. भे. 1 लचकांणौ-वि.-- (स्त्री. लचकांणी) लञ्जित, शमिन्दा । उ०--१ तृं भीखरणजी री निदाकरंदहै। जदश्रौर वायां बोली; भीखणनजीरछए हीज । तीवा रं लचकांणी पड़्ण घर में न्हास गई । --भि. द्र. उ०-२ वारं ठवत।ई डोकरी राजाजी रे साम्ही देखन कैवण लागी -मन रा साच न लुकावणौ, सुद श्रुठ बोलणौ श्ररभ्रुठा चाकर राखणा म्हारी जांणमे राजाजी रीश्रा खास एदका्‌ हि) राजाजी लचकांणां होय श्राख्यां नीची करली । --पफुलवाडी क्रि. प्र.--पडणौ । रू. भे.-लद्धकां णौ, लजकांण, लजखांणौ । लचकाडणौ, लचकाडबी- देखो 'लचकाणौ, लचकावी' (रू. भे.) ल चकाडणहार, हारी (हरी), लचकाडइणियो--वि० । लचकाडिश्रोड़ा, लचकाड्योटो, लचकाड्चयोद्ध -मू० का० कृ । लचकाडीजरौ, सचकाडीजवौ -- कमं वा० 1 लचकाड्टियोडी -देखो (लचकायोडी' (<. भे.) (स्त्री. तचकाड्योडी) लचकाणी, लचकाधौ- क्रि. स.-१ चतते समय स्त्रियो का नखरे से कमर को भुकाना ) उ०--कर मूख दे लचकाय कट, ममक चलं सुर फीरा । मावद्यौ महिला णी, मारं रोज मतीरा 1 --वा. दा कजधछ्कै किक ्क = तचार ४२०१ लचलचौ २ किमी लम्बे या कोमल पदार्थं के मव्य भागंका ग्रचिकं वजन के कारण काना । ३ दवाना या नीचे मुक्ताना 1 लचकाणहार, हारौ (हारो), ल चकाणियौ-वि, । लचकायोडौ- मू. का. क. । तघकारईजणौ, लचकारईजवौ -- क्म वा. । लचकाडणौ, लचन्ता्वो, लचक्तावणो, लया, लचाडणो, लचाडवौ, लचणौः लचावी, चचावणौ | सलचावव्य --रू. भे. । तदकार-सं. स्यरी.- लचकने की प्रियाया जाव भुकाव, लचन । | उ०--वलोचणी ज्यं लचकार करती वकी, इण भांतरी कम णां उणटीज दस्वतांरी साखां मूं नागयजं छ 1 --रा.सा सं. लचकावणौ, लचकाववौ- देखो 'लचकारणौ, लचकावौ' (रू. भे.) लचकावगहार, हारौ (हारी), ल चकूपव णियौ --वि. । लचकाविश्रोड्ौ, लचकाव्योडो, लचकाष्योडौ- मू. का. कृ. 1 ल चकावीजणो, लचकावीजवौ - कमं वा. । लदचकावियोद्ी--देखो (लचकायोडी' (रू. भे) (ट्री लचकावियोडी) ४ लचकियोडौ-भू. का. कृ. {स्त्र. लचक्रियोदी) १ किमी लम्बे या कोमल पदार्थं का मल्य माग श्रचिक वौफकेकारणा मुह्य या फुट हुमा. २ दवाह्रभ्राया नीचे भुकराहुत्रा स्त्रियो का चलते समय कोमलता वदा कमर का थोडा मुका ह्भ्रा हीना जो सौटर्य-सूचक होताहै- ४ गतिशील या, न्थित पदार्थं या व्ण्क्तिका जसी दूमरी दिवा कौ ग्रोर उन्मुख या भ्रवृत्त हृ, हु्रा, मुडा हुग्रा. ^ किसी लचीतते पदार्थं का वायुके संसगसे हिला हूग्रा, चहलहाया हुमा ' लचकीलौ-वि, [स्प्री. लचकीनी ] जो सहज हीमे लचक या द्र जता हो, लचकदार । लचकौ-पं. पु.--१ लचकने कीक्रियाया भाव, उ०--डाढाद्टी ब्रेक हाथी रै मुर री सांव मे खग री खठकाई जकी मुर रौ खालड़ौ श्र मसि चीरं हाड जाय रड्कियौ । हाथी लचकौ खाय घमीड करतौ घरस्यां श्रय पड्यौ । -- फुलवाड़ी २ लचकने के कारण होने वाली चोट या मोच 1 २ लदा) उ०--१ उलो म्हारा मारू वर्ना कगोनी क्तवौ, फणां तौ बाया वनटा लूंजी रौ ल चकौ इसड कलैवौ थारा माताजी करावे ! --लो. गी. उ० त वेटा-वेटी तौ लारे दोणा ही हा, पणं भंवरी तो सगां सू लाडरी ल चकौ, गुणा रौ गाडौ सौ पद्छती रेयी । --दसदोख लचसावमो, लचलांणौ | लचक्क- देखो "लचकः (< भे.) उ०--चणां रग भ धुमड़ी च्रटी उमंडी मेहरी घटा, घरं रीत उलट तेह री करं वेक ! सो तचक्के हार कुच्चां उपटं देहरो सोमा, लचरकां मचक्कयै भीरी केटरी मौ लंक । -र. हमीर त चक्फणौ, लचक्कवो -देग्वो "ल घकग्णौ, लचकवौ, (र. भे } उ०--हय हिदनि हक्किय वीर क्िलक्किय मोर भभक्क्यि शरोर दहं । पिर सेम लचक्किय भुभि भचक्कतिव, कोल मचक्किय दत कट । --चा. रा. लचत्कणहार, हारौ (हारी) लचक्कणियौ -वि. । लचपिकश्रोडौ. लचपिकयोडो, लचक्क्योड़ - भरु. का. कृ. । लचक्कीलणी, लचक्कीजवौ - भाव वा. । ल चपिक्योड - देखो 'लचकियोडौ' (<. भे.) (स्त्रो. लचक्कियोडी) लचखांणौ --देखो "लचकः (रू. भे.) उ---जद शरोर साव स्वांमीजी कानी देखन हंसवा लामा । पदं साधां कल्यो पूजनं पग सरकायौ । जद लचखांणो पड्या च्रनं पगां ्राय लागा । -भि. द्रे. (स्त्री. लचखांणी) लचणी, लचवौ -देखो 'लचकणौ, लचकवौ, (<. भे.) उ० - १ लच नाग रा सीसर गज टलां तोपां ल्ग, हचं नह्‌ भरी छक देख हवता ! स्चै मन पाय रुगनाथ रा सीगलठी, स्वं कण सर प्रस्ना जूव रवता । --मेघराज राटी उ०--२ घंमब्टौ माघरौ पहरीजं है, लहरियौ ्रोदियां जिण म तन मन लहरीजै है । लंक जिका लचे है, तिण हुं कटि मेखला र्च॑टहै। --र. हमीर लचपच-वि. --१ तरवतर । २ पिलपिला । रू. भे.-लिचपिच । लयपचौ-वि. -- ग्रधिक द्रव्य पदाथं वाला खाद्य पदाथ । लचपच्च-क्रि. वि--लपकती हुई, लपलपाती हुई उ०--वाही रांण प्रतापसी वरद्धी लचपच्चांह । जांणक मागण नीसरी, मुहं भरियौ वच्चांह्‌ । --ग्रग्यात <. भे.-लचलचो, लघपस, सिंचपिचौ लचरकौ-सं. पु.--हिलने, डोलने या भुलने कौ क्रिया या भाव । उ०-जिणांरी किलंगियां जिके लचरका लेतीसी, तिके जां पाला नूं फाला देतीसी । --र. हमीर लचलचौ-वि.-१ लचकने वाला, लचीला 1 ) ~ = ज 9 + लचककेिदार ४२०२ लच्छी ` ______((---------------------- २ देखो (लचपची' (रू. भे.) सचाकेदार-वि.-वदिया, उम्दा । लचाडणौ, लचाडवौ--देखो 'लचकाणौ, लचकावौ' (रू. भे.) लचारियोडो --देसौ 'लचकायौड़ौ' (रू. भे.) (स्त्री. लचाडियोडी) ल चाणौ, लचावी- देखो 'लचकाणी, लचकावौ' (रू. भे.) लचाणहार, हारै (हारी). लचाणियौ -वि०) लचायोञ्--भू° का० ०1 लचाईजणौ, तचाईजवौ--कमे वा० ) ल चायोडौ - देखो 'लचकायोडौ' (ङ. भे.) (स्त्री. लचायोडी) तचावणी. लचाववौ -देखो (लचकाणौ, लचकावौ' (रू भे) उ०-तीजरियां हीडा मचा्वं है, लंक लचावं है। बीज रौ सिखाव, नै मेह रौ भिठाव ¦ मही पफुहारां वरस रहीरहै, तीजण्यां ही इण भांत दरस रही हं! --र. हमीर लचावणहार, हारी (हारी), लचौवणियीौ-वि०। लचादिश्रोडी, लचावियोडी, लचान्योड़ौ-मू°० का० कृ° । ल चाएवीजणी, ल चावीजवौ - कमं वा० 1 लचावियोड-देखो 'लचकायोड' (र. भे.) (स्त्री लचावियोडी) लचोरी-सं. पु.- लचकने की क्रिया या भाव, लचक । उ०-लोभांणी नवोढ नैह नसा रा कचोदढा तेती, भासं श्रंग प्रचोढ सचोढा लेती भाव । करां मक्रकेत रे लचोछा लेती तूजी क्न, नक्र रं मचौटां सू होरा लेती नाव । लच्वर-क्रि. वि.--दीपक के बुभने की क्रिया या श्रवस्या । उ०- तेल जटं तौ जदती है गती, दिवरा भलमल सीय रांम। जल गयातेल र वु गई वाती, लच्चर लच्चर होय रांम। -मीरां तच्छ--१ देखो ललण' (<. भे-) २ देपो न्लक्ष'(खूभे.) ३ देसो "तघ्मी' (<. भे.) देगो (लध्मण' (ख. भे.) ५ देगो लस्य" (<. भे.) तलच्छण---? देरयो (क्षर । (स. भे.) उ०-१ चरणी उपमा सार, विचारि विचच्ां । लियां सही श्रवतार, वतीसां लच्छणां । --गं. दा. --र, हमीर |" उ०--र श्र भांविर्यारया लच्छणरहै, ईसररी गवर ब्ज्य बण- ठ्ण र मटका करती फिरं रै । --रातवासौ २ देखो “लक्ष्मण' (रू. भे.) लच्छणौ -देखो 'लक्षणौ' (रू. भे.) उ०--स्वस्ति सी श्वंद्रगढ' सुभ स्यान ्ननेके श्रोपमा लाइक ब्राज- मान प्यारी सजीली फवीली छवीली नपसीवी रसीली चकीली ककीली श्रंगीली रगीली वंकीली रंकीली रमकीलौ समकीली चट- कीली जीव री जडी लगन री लड़ी वत्ती लच्छणी चौसठ केला विचच्छिणी कैलरस क्यारी प्रीतम प्रांणप्यारी जोगिसरदं री ताजीम । --र. हमीर (स्त्री. लच्छणी) लच्छन--१ देखो "लक्षण (₹<. भे.) २ देखो "लक्ष्मण" (<. भे.) लच्छुमभग-वि.--१ धनवान, भ्रमीर (डि. को.) २ देखो 'लक्ष्मण' (रू. भे.) लच्छमी -देखो (लक्ष्मी' (ङ. भे.) लच्छि - देखो "लच्छी" (रू.भे.) ध उ० -- १ अ्रपरणसरण श्रभंग, ब्रहम मुरारी सवगह्‌ । सर्कर पवन सक्ति, भ्रवनि ध्रम लच्छि प्रनंगह्‌ । --ट. र. उ०--२ वडं रूप वाही जक लच्छि वीजी, चरियहु लोक मांहीन को नार तीजी । सुण वात मारीच निं सिधाए, उभे दैत ममौ यु भांरोज श्राए । --स्‌. प्र. २ देखो लक्ष्मी (रू. भे.) \ लच्छिनाथ- देखो 'लक्ष्मीनाथः (रू. भे.) लच्छिनिवास-देखो ^लक्ष्मीनिवस' (रू. भे} लच्छिभर्तार, लच्दश्रतार -देखो लक्ष्मीभरतार' (र<. भे.) उ०--रत्ता तौ नाम जिकं रहमान, जिकं नंह थायै श्रावाजांणा । भणं गुण तोरा लच्छिश्रतार, लगे नहं त्या तन पाप लगार। --ह. र. लच्छिवर-देखो ^लक्ष्मीवर' (रू. भे.) उ०-मुख मंद हास श्रारंदमय, श्राराचित श्रि नर श्रमर। दडव्रत तूक मारण दयत, वारण तारण लच्छिवर ) -सू. प्र. लच्छी--१ सूत, रेशम, ऊन श्रादि की लिपटी हई गुच्छी । उ०-१ पेट ज लच्छी पाट की, तितंव नारियल जां । मदनां- कुस कौ जायगा, त्रिवली सीप सर्मांण । | --कूवरसी सांखला री वारता उ०-२ श्रवरांराखकरूट परसंदहै, दिल री मोह चौ दरस है। प्रीतम रालपेटा री पाट लच्छी वार वार माथे धरं है, न चंगन २०२ लद्धि ~ ~~ ~~~ ~~ ~~~ लच्छीवर करहै। छाती हौ चिपावैदहै, चिणचिणर्मै देखेहैन चिण र्मे | लछन-१ देखो लक्ष्मण (रू. भे.) ५ चिपवे है । --र. हमीर रू, भे--लच्छि, लदछी २ देखो ग्लक्ष्मी' (<. भे.) उ०--१ ले लच्छी मरददहुरी, गूजर खंड ग्री । प्राय महालच्छी चरण, सींग नमायौ सीस । --रवां. दा. उ०--२ लच्छी रिद्धी बुद्धी, सजा विद्या खंम्या । लहदेवी गौरी धात्री कवि स चरणा खार्या । -र ज. भ्र. लच्छीवर-देखो 'लक्ष्मीवर' (र. भे.) _ लच्छीवाठापुत-सं. पु.- घोड़ा, ररव (डि. को.) लच्छेदार-वि,--१ गुच्छोवाला । २ रुचिकर, मजेदार । लच्छी -देखो ^लघछी' (ङ. मे.) उ०--ग्रवे जलाल बूबना सूं सीख कीवी । तरं भरोखा सूं रमसरा लच्छं सू उतरियौ । --जलाल वूत्रना री वात लघछ- १ देखो 'लक्षण' (रू. भे.) २ देखो "लक्ष्मी' (रू. भे.) 1 उ०*-१ हुव श्राव दुरबार धर वार धुम हसत, च्यार परकार लद ण्डं चाह 1 जग दीयो भला करतार चारण जनप, मान माहा- राज रो वार माह , --सगरांम सादर उ०--२ भिव बुव तिय लद लाभ सुत, गवरी पत्र गरोस । महा- रूपं मंगठ करण, समरे सुर नर सेस । --गजयउद्धार ३ देखो "लक्ष्मण" (रू. भे.) (अ. मा.) ४ देखो "लक्ष (<. भे.) ५ देखो 'लक्ष्य' (ङ. भे.) लदछधकांणौ--देखो (लचकांरो' (<. भे.) --उ०- सेटौ कीघौ सायण, म्यारी मैहला मांय । लद्धकांणौ पडियौ "लघौ कारीलगीनकाय। -मयारांम दरजी री वात (स्त्री. लछकांणी) लषछठण-१ देखो 'लक्षण' (<. भे.) उ०-१ वाक्य दोसर प्रतिकूल वरण वद, प्रगट वरण जिणारस प्रतकूत । सुघ लद्धण मति भ्ररुच हए सुरा, मति विरुष रस व्रतहत मूढ । --र्वा. दा. उ ०--२ पतिनव्रना नेह श्रपार, सकि सोढ सरस सिगार । वहु कठा लदछण वत्तीस, सि म्राभरण खट तीस । --सू. प्र. २ देखो लक्ष्मण" (ङ, भे.) लचछणहीन-देखो 'लक्षणहीन' (<, भे.) उ०--जियां ही संग जात्यां में सुनार लदुणहीण श्रर वेविसवासी -- दसदोख गिण्यौ जाव है ! २ देखो 'लक्षण' (रू. भे.) लदछुवर-देखो 'लक्ष्मीवर' (<. भे.) उ०-१ वड़ा भाग ज्यारी चिस, लद्धुवर प्ररणां लाग 1 पाव रम गुरा प्रीतसू, ्राठ पहर श्रनुराग । --र. ज. प्र. लष्ुमण- देखो "लक्ष्मण' (रू. भे.) (अ. मा. ना. मा.) उ०--१ तदि नृप पग वंदि मुनि तणा, क्रोधज छिमा कराय । साथ दिया लद्नण सहित, रछया कज रघुराय । --सू-प्र. उ०--२ ्रधपत बाख ग्रस, पडियी म्रपच्लर पेट मे । तद लद्धमण ग्रवतंस, रतन कवर पाद रह्यी । -- प. भ्र. लदछमणक्ूलो-सं. पु. -हपिकेश के प्रागे वद्रीनारायणा के मागमेभ्रानै वाला एक पुल, जो तीर्थं स्थान माना जताहै। लछमणसाही-प्र. पु---र्वासिवाडा राज्य का सिक्का विरोष । लदछधमन-देखो "लक्ष्मण" (रू. भे ) लदछमी-देखो (लक्ष्मी (रू. भे.} उ०-गढ सं तौ मींरंवाई्‌ उत्रथाजी, हाथ मगद कौ याढ। श्रौराके ती श्रनगन लद्धुभी च्राप फिरी कषां | --मीरा लदछनीकत्त, लदछमीकांत- देखो (लक्ष्मीकातः' (रू. भे ) उ०-सेस श्रारवढ कोयन जां, जाको श्रादिने ग्रत 1 महा प्रमं ~ च्है जात हि सज्या, पठ लदछ्धनीकंता। --स्कपमणि मग लदमीधर-देखो "लक्ष्भीधर' (रू. भे ) लद्धमोपत्त, लद्धमीपति, लदछमपती--देखो लक्ष्मीपति" (र<. भे.) उ० लदछमीपत रे केर वसं पाच प्रक परर्वांण। पहलौ श्राखर छोडकर, दीजं चतर सुजारा । --ग्रज्ात लदछमोवर-देखो (लक्ष्मीवर' (रू. भे.) उ०-लचछमीवर गहर करौ, ठीलन कीलं जांण । म्राचौ एक उस।स मे, तुम्है भगत की श्राया । --गजउद्धार लदछछमीवा्ट-स. पु. यौ. [सं ल्मी ~ सं. श्रालुच] धनवान, श्रमीर। (डि. को.) लचछमीस्--देखो 'लक्ष्मीस' (रू. मे } लछम्मण--देखो "लक्ष्मण (रू. भे.) लघछवर-देखो शलक्ष्मीवर' (रू. भे.) उ०--लदछ्धवर धनंख साथ तेज निज हर लिया! रद कर मद दूजरांम अ्रवधपुर श्राविया। --र, ज. प्र, लदछवि, लद्वी-देखो शलक्ष्मी' (रू. भे.) लचछि -देखो "लष्मी' (रू. भे.) देनो “लद्धी' (रू. भे.) लदिपति । ४२० लजभौ ~~~ ------------- ~ -------~-------~------------- लदिपति--देलो 'लक्मीपति' (रू. भे.) उ०--"जगरूप' सधु जगनाथ-कढ, पदमणि किरि सूरज प्रभा। वनीतौ वुलीणा कुरम वडी, परम लदछिपती वल्लभा । --गर.रू. व लदिवर-देखो "नक्ष्मीवर' (<. भे.) लचिभरतार-देखो ^लक्ष्मीभरतार' (रू. भे.) उ०--करतार लचछिभरतार कान्हड केसवं, जगदिस जत जुरार श्रोपम जादवं ! महारांख वाधण रांण मारण रांमणं, निरकारि घ्याद्‌ प्रनाथ नाथ निरंजण । --पि.भ्र. लिन -देखो लक्ष्मणः (र<. भ.) उ०्-घटहीमेंगंगाघटही में जमना, घट धटदै प्रविनासी । घट ही में पुसकर श्रौ लोपेस्वर, लद्धिभन कुंवर विलासी । -मीरां लद्धी --१ देखो 'लक्ष्मी' (रू. भे.) वि उ०-१ लघछीरा चहन धणं वीज वाटी लपटर । क्रोघ ममता नता मूढ तज रं कपट । --र, ज. प्र. उ०--२ लदछधी रूप सीता प्रभ राम लीला, कवीपुत्र दासं नही जेण कौला । श्रगे बालमीकां जिसा गाय श्राया, गुणां तास सपेनि चदोख गाया । -सू. प्र. २ देवो (लच्छी' (रू. भे.) लघछीधर-सं. पु.--१ वारह्‌ श्रक्षर का वणिक द्द जिसके प्रत्येक चरण में ४ रग होते है २ देखो "लक्ष्मीधर' (<. भे.) लदछधीनाय -देखो 'लक्ष्मीनाथ' (रू. भे.) उ०--पहाराज श्रौधेस प्राघार संता, वार खारी रख लाज वेषौ ! हरी काज पं श्रासरा दीह हैक, लदछीनाय दी सेवगां लक लेखौ । --र. ज. प्र. लघछीवर-देखो "लश्मीवर' (<, भे.) उ०--वेल त्रु जिकां वेली लद्लीचर, हृश्रौ श्रधिराज घर जिमां हाणी । निरखतां "मान' नंद तु क्रांमत नखत, चप जगतपत नरपत गत हैक जाखी -जादूरांम जी भ्रादौ लद्धीभरतार -देखो (लक्ष्मीभरतार' (रू. भ.) लखछीवर-देखो "लक्ष्मीवर' (रू. भे.) उ०- नमी रघुनाथ, सघीर सनाथ । गणां गजगाह, दसांनन दाह । भभीखण श्राय, सु श्रास्रय पाय । ब्रवी जिणा रक, लघछीचर लंक । --र. ज, प्र, लदछीवांन~-देखो "लक्ष्मीवान" (रू. भे.) उ०--तरे श्राप पागड़ो छंडियौ । ईग्रानू वौहत लछीर्वान,देख ते श्चमिश्रौ । तरं साराही श्राय भिलिया। --कल्यांरासिघ वाटेल री वात । लदछीस - देयो 'लक्मीस' (र. भे.) उ०--युरि सुरां श्रस्ज वोत लीः श्रादू यौ सेवग श्रवयि दस । रोगियौ श्रहं दसरत्य राय, श्रवतार धष ध्या प्रह श्राय। सू प्र. २ श्रीरामचन्द्र । उ०--वेटक फरसधर विकरराठ चेक ग्रयक मा, सुज जि कधा राम नरेस सूयसंकसा । लह्रे टेक दीधी तद्धी यानिक संकमा। सुज पय नमे प्रविरक सीस सुरण घ्रसंके सा) -- र. ज. प्र. २३ धनवान व्यक्ति। ^ लद्धौ-सं. पु.-१ रंगीन रेसम फी टोरियोंका गया ग्रा मोटा रस्ता विगोष। उ० --सठ सनेद्‌ जीरण वसन, जतन करतां जाय । सजन प्रीत रेमम ल्या, घुठतते घुदटत धुठ जाय | --अग्थात २ किसी उवते हए या पकाए्‌ माद्य पदां के वारीक रदो । ३ चांदीकेतारकावनारप्रीकेपरका ्राभूपरा। ४ हाथमे एक साय एके जसी पहने जाने वाली चूड्याका समूह्‌ ५ हाथी की गर्दन के चारौम्रोर शोभा कै लिए वंवा जाने वाला रगीन रस्ता विगेप लज-देसो "लज्जा' (८. भे.) । उ० १ वतीस लसण चौमठ कटा, प्रायेरी उत्तम सहन । कूरंम सपे मुख कमल, सरद दन्द पावत लज । --गु.रू.व. उ०--२ मचे वेढ विकराल जरमन इुंगल्‌ मारकं, पड सम धारकां पीठ प्रभौ । पजावण फारका पीठ नदय पता", सारकां गढां लज धीठ साभ । --किगोरदांन वारहठ लजकांणी, लजलांणी ~ देग्बो लचकांणौ' (र<. भे.) उ०--१ सू हमै जां श्रजांण हों है, सहेलियां हौ चार्तं लागी तिरदछी निजर कंवर हमीरनूं जोवंदहै। सु हम चमक चवद॑त हूय लजर्काणी पडगड्‌, जां णं ्रंगमाहीज वडगई । --र. हमीर उ०--२ मोवन लजखांणौ हो र वोलियौ-काका 1 मनं कूड ऊपर चंडी चरणी च्डं कूडे-रौ काकी मंडी" र लीलापग 1 -वरसगांठ (स्त्री लजकांणी, लजवां णी) लजणी-सं स्त्री.-लाजाठ, का पौघा । लजणौ, लजवी -देसो 'लजणौ' लाजवौ' (र. भे.) उ०--१ घरा सार धज, लोह होढी लजं । ताप वीर तजे, ईस रस ऊपर्ज । = उ०--२ यी सिसपाल्‌ चंदेरी कौ राजा, कूड़ी साख भरंगौ ' मीरां करै युं सकमरि कहत है, थांकौ ही विडद लजमो । --मीरां लजदार न ~ ^ ज = "न क लजणहार, हारी (हावी), लजणियौ वि० 1 लजिग्रोड़ी, लजियोडो, लज्योडो-भू° का० $° । लजीसणी, लजीजवौ-- भाव वा० । लजदार-सं, पु.--१ जिसमें कुछ लज्जा हो, खमिला 1 उ०--घडच घाडायतां भोग मगण॒ घनौ, कठह्‌ सवना लढा हत राखण कनौ । वनी लजदार घर सथर प्रतपौ वनौ, पतव्रता नार भरतार रमीयौ पन) । । --महार्दान महडः लजरख-वि. [सं. लज ~+- रख ] इज्जत या लक्जा रखने चाला । (श्र. मा.) सं. पू.---वस्वर । लजसराह-सं. पु. यौ. [सं, लज्‌ + राह | लज्जा का मागे । उ०--सू मजेज खमि समि जेज जुचि काजन रक्खी । सूर सगाहं सिपाह्‌ ताहि लजराह्‌ सु दक्डी । रा. ड. लजवाढ्टौ-वि०-- (स्त्री. लजवाढी) लज्जा वाला लज्जानील्ल । लजाडणौ, लजाडवो- देखो (लजाणौ, लजावौ' (रू. भे.) लजाडणहार, हारौ (हारी), लजाडणियौ -- वि० 1 लजाडिग्रोड़ी , लजर्गडयोडौ, लजाडचोडौ- मू का. कृ. 1 लजाड़ीजण), खनाडीजयौ-- कमं खै 1 लजाडियोडौ - देखो (लजायौडौ' (ङ भे.) (स्त्री. लजाडियोडी) । ललनाणौ-वि० (स्वी लजाणी ) लज्जित करने वाला । उ०--१ सहणी सवरी हं सखी, दो उर उल्टी दाद्‌ ! दूव लजाणौ पूत सम, वलयं लजाणो नाहं -वी. स. रू भे.-लजावणौ 1 लजाणौ, लजावी-क्रि. स.-- १ लज्जित करना, सापिदा करना ! उ०--१ श्रां हाथां लेव बाडा ग्वीलां नं ई लजाया । -- फुलवाडी उ०--२ पदै मोतीरंमजी चौधरी कल्यो--उठी परीं म्हानं लजावौ । --भिव्खु लजाणहार, हरो (हारी), लजाणियौ- वि. । लजायोड़ौ - भू. का. कृ । लजार्ईजणौ, लजाईजवौ - कमं वा, । लजाडणो, लजाडवौ, लजावणौ, लजाववौ लज्जाडणो, लज्जाडवी, लस्जाणी, लञ्जाचौ लज्जावणो, लज्जाववौ--रू. भे. लजाथंभ- वि. धौ. [स. लज्जा ~+-स्तम्म) इज्जत, लज्जा का रखवाला, रक्षक 1 उ०--'जसौ' हालियो श्रागरा हंत ज्यारां, लियां साहरा उवरा सव्व लारां । कमंधां वडां कूरमां साथ कीवा, लजायंभे सीसोदियां लाथिलीवां | --र, वचनिका ६३०१ 1 १ [1 षय लनियोड | वि. [सं. लज्जा -{-धुर] लज्जावांन, शर्मिला । लजायोडो-भू. का. क. -लय्जित किया हृश्रा, शमिदा किया हरा । (स्त्री लजायोड़ी) लजाल, लजाढ्-वि. [सं. लज्जाट्‌.:| लज्जा वाला रामिला । उ०--उतरी फिकर व्यं कर द । थारी किसी क श्रवार त्तो मोकटी फिर ड! त्‌तोद्धैजनमकी ही लजादू -- पनां स. पु.--एक प्रकार का पौवा विदोप जिसके पतते छंक्रिरया खर के समान हेते है फूल गुलावी मिधित नीले र्ग के होते है ग्रोर जड लाल होती है । इसे द्रूने से यह सिकुड जाती है श्रर फिर फल जाती है 1 यद कािदार श्रौर विना कटिदार दौ तरट्‌ की होती हे । इसे ्र्दमूई भी कहते ह ¦ उ०--सारी हैक सरीसियां, तोल हैक तुलंह । पात लजाठ._ री परो ला्गां हाथ चुढह्‌। -र, हमीर रू. भे. लज्जाट्‌, लज्जाठ. लाजलज्जाढ. लाजा. । लजालूपण, ल नालूपणौ-सं. पु.--लज्जा रखने का भाव, लज्जा दामं । उ०--हम इतरं लिखमीद्छस भ्रायौ । मू रतनां घणी उणमणी रहै । पण॒ लजालूपणां म पडदौ वहे ! लजावंत-देखो "लज्जावत' (<. भे.) (स्त्री. लजावती) लजावंती-वि. स्त्री --१ लज्जानील, चर्मीली | २ देखो 'लजाठ,. रू. भे.--लाजवती, लाजवती <. भे.-लाजवत लज्जा्ीस, -र. हमीर लजावण, लजावणौ - देखो 'लजाणौ' (रू. भे.) लजावणौ, लजाचवी --१ देखो 'लजाणौ, लजावौ' (र. भे.) उ०-१ हदातां री सुकमारता जां कमठ ना । जिका हालती लजावै हंस रीगतन्‌ं। र. हमीर उ० -२ हृद रे जीव निढक्जतूं निकस्यु जात न तोहि । प्रिय विद्कुडत निक्रस्यऊ नही, रह्यउ लजावण मोहि । -टो. मा. २ देखो 'लाजणौ, लाजवौ' (रू. भे.) लजावणहार, हारं (हारी), लजावणियौ-वि । लजाविग्रोड़ा, लजावियोड़ी, लनान्योडी- भू. का. कृ. । लनावीजणी, लजावीजवौ--कमं वा. । लजावियोडो-देखो लजायोडौ' (र. भे.) (स्वरी. लजावियोड़ी) लजियोदौ-देखो ^लाजियोडौ' (ङ. भे.) लजीज ४२०६ लट ~ ` __----_------__-_-________`____________________{_`_______ (स्त्री, लजियोड़ी) लज्जायोडौ--भूु° काण कुण । लजीज~वि. [ग्र.] बदिया स्वाद वाला, स्वादिष्ट । | लज्जार्दजणौ, लज्जार्ईूजवौ--कर्म वा०। लजीलौ-वि.-- (स्वी. लजीली) १ लज्जावाला, शिला । लज्जायोदौ-देलो (लजायौदो' (रू. भे.) उ०--१ रंग लजीलां लोयणां, वाह धिवि गुंघट प्रोट । सूकं न (स्री, लञ्जायोदी) भीरा चीरर्भे, चच तिरद्धी चोट । --पनां | लज्जाप्रद-वि, [सं.| जिसमे लज्जा उत्पन्न द्रौ, लज्जाजनक। उ०--र स्वास्ति खी श्वंद्रगढ' सुम स्थान श्रनेक श्रोपमा लाक | लन्नाढु, लज्जाद्यू-देखो !लजाढ.' (र. भे.) व्राज्मान प्यारी सजीली लजीली फवीली च्रीली नसीली रसीती | लज्नावंत-चि, [सं. लज्जा +-वत्‌| (स्वी, लज्जावती) १ चज्जा वाना, चकीती ककीली श्रंगीली रंगीली वंकीलीˆ""*“1-- र. हमीर रामिला । लञ्जन--देखो "लाज" (रू. भे.) उ०--लञ्जावंत निद कटै वाई ! सुखौ म्हारया लाल । ऊॐ०--१ किणि गकि घालूं घूधरा, किरि मूख बाहुं लज्ज -- श्रीपात रासं ववण भलेरउ करहलड, मूच मिकावद्‌ भ्रज्ज । -ढो. मा. रू, भे.--लजावंत उ०--२ सकती वांवै वीदुक्ी, दीली मेत्दे लज्ज । सरटी पेट न | लज्जावणौ, लज्जावयौ - १ देखो लजाणौ, लजावी' (रू. भे.) लेटि, भंव न मेकउं श्रज्ज । -टो-मा. उ०--निज सीस नमं जठ निग्गर्मे, पुरौ सीस वीभ्रापरौ । लघु उ०--३ चंदहरा विय चंद सम, दुंद वधारण कञ्जे । वाधे दिन ठ हए लन्नावियी, नाम सिव साद रौ । गु. दिन सांम छल, श्राराघं कठ लज्ज । सा. र २ देखो लाज लाजवौ' (रू, भे.) उ०-४ चूतरौ फतमल वोलिया, सकतीपुरा सकज्ज । लज्ज न लज्जावणहार, हारी (हारी), लज्जावणियो-वि° । घारं सांम छ, त्यां रजवद्रु न लज्ज । --रा- रू. लज्जाविश्रोडी, सज्जाचियोङो, लज्जाव्योडी- भर° का० फ० । लज्जणी, लञ्जवी -देखो 'लाजणौ, लाजवौ' (<. भे.) लज्जावीजणौ, लज्जावीज्ी -- कर्म वा०। ‹ उ०--भीम कहै भूल नदी, वेलयौ खत्र-घौड । मो मग्गे सीसोद हर, | लज्जावती-वि.-- लज्जाश्षील, शर्मन । गढ लज्ज चीतौड । --गु. रू. वं. | लज्जावान-वि---लज्जा वाला, दार्मदार । लञ्जत-सं. स्वी. [श्र.] १ खाने-पीने की वस्तुश्रों का स्वाद, जायक्रा । | लन्ताचियोञ्ै-देखो 'लजायोड़ौ' (रू. भे.) २ भ्रनिन्द) (स्त्री. लज्जाव्योडी) लज्जतदार-वि, [श्र. लज्जत ~+ फा. दार] १ जिसमें लज्जते हौ, लज्जत वाला, जायकेदार । २ श्रानन्ददायकं । लज्जा--१ चौवीस गुर £ लघु का एक मात्रिके छन्द (गाथा) २ देखो 'लाज' (रू. भे.) उ०-१ वांह चंदन सुगम सेव्य, भावे संचारिक ववड्‌ । तेच्रीस लज्जासील-चि.- लज्जा वाला, शर्मीला । लज्जूु-वि.- लज्जा व।ला, इज्जतवाला । लज्ज्या, लज्या-देखो "लाज' (<. भे.) उ०--१ सिचि गुलिक वेग पर सक्ति पाव । धजराज मुकट खग- राज धाव । वसि लोह यदन रसि सरस वेख । वर्ज्या अजाद किरि महण लेख । --रा, रू. उं०- श्रत्प त्र? ञ्जा सिया ~ „^ रौ स रौ समूह्‌ नाक शूप त म धियौ जुवौ । -वं. भा. ॥ क 1 र पर्याय--त्रीड़ा, त्तपा, सकूुचणा, संकोच । कासं, स्वी! वैच, मनका । (घ, भा,) ॥ लज्जाडणी, लज्जाडवौ- देखो 'लजाणौ, लजावौ' (रू. भे.} २ निपरीत लक्खा से निर्लज्ज लज्जाड्ोडी-देखो लजायोड़ौ' (रू. भे.) लट-सं. स्वी. [सं- लट्वा | १ नीचे लटकता हृुश्रा सिरके कुछ वालो का (स्त्री. लज्जाडियोडी } समुह, श्रलक, जुल्फ । लज्जाणौ, लज्जनावौ--१ देखो लजाणौ, लजावौ' (रू. भे.) उ०-सांकडं मारगि्यं सरमाय, घृंघट प्रोटडी श्रदकाय ! गई धरण २ देखो "लाखी, ताजवौ (रू. भे.) सरवरिये री तीर, शुको कट काठी लट दिरकाय । --सांमः लज्जाणहार, हारौ (हारी); लज्जाणियी--वि० । २ सिर के उसमे हए वालों का गुच्छा । लरक 1. ३ रंगे वाला एक लम्बा कीड़ा । उ०-दीदी रौ मुदाम जतन चिड़्कोल्यां चोढौ । लटा सूट रवास, घास- फा रौ कोठो । --दस देव वि.--१ दुवंल काय, कृशकाय । २ देखो 'लठ' (ङ. भ.) ३ देखो (्लद्ौ' (मह्‌. <. भे.) रू. भे.-लटी, चदु । (श्र. मा) लटक, लटकउ-सं. पु.--१ लटकने की क्रिया या भाव, भुकाव्‌ । २ शरीरके श्रंगो की लुभावनी गति या चेष्टा । ३ वात करते या गाते समय दीखने वाले श्रंगोंकी कोमल भाव- भगिमा। ्रल्पा.+-लटकौ लटकजुहार-सं. स्तरी.--्रभिवादन, प्रणाम । उ०--वाड तौ पिय जाया गाद्ूलौ, खंटचां घोखां रा जोत । वीरौ तौभ्रायौ स्यां कांकडं, गोरीडा सूं लटकचजुहार। प्म लो. गी. लटकण-सं. पु --१ लटकने की क्रिया या भाव । ॥ , २ लटकती हुई वस्तु । ३ मंदिर मे लट्काया या किसी पशुके गलेमें वांधे जाने वलि घटे के श्रन्दर वीच में लटकने वाला धातु का गृटका, लर्‌ या लोलक 1 चि. वि.--मि. लाठ । ४ लुभावनी चाल) ५ नाक में पहना जाने वाला श्राभूपण विशेष । उ०--१ लोयण जिणरा लागणा, पलकां विच पद्छकेह्‌ । लटकण मोती लियां, टीली तथ ठककेह्‌ । --र. हमीर उ०-२ तिण लव्कण रा मोती नूं कोका दीं हैः अधरां री माई सू मूंमियां रौ रेग कीजै! जौ कदंच मोती री भाई ग्रवर चरं है, तो पिण बीडी रौ चुनो लागौ जण पृच्छा री करं है। -र. हमीर उ०-३ रामा भल पट श्रंग क चंदं चीरियां, दरियाई धज देह चरं डमं धीरियां । लटकण कोला लेह क वेसर वंकियां, भरिया भुखणं भार क लचकं लंकियां । --र. हमीर ६ कान मे पहना जाने वाला ्राभ्रपण जो लटकता रहता है! ७ सिदुर पुष्पी नामक क्षुप विशेष । रू. भ. लटकन । लटकरौ, लटकवौ-क्रि. स्र. [सं. लडन] १ किसी पदार्थे या व्यक्तिका ठेसी श्रवस्या म होना कि उसका एक सिरा उपरलमा याभ्रटका हुख्रा हो तथा दूसरा रवर में भूलता हो 1 २०५७ लरकाणौ उ०- ज्यारा लटकदार लपेटा पर छौगा लटक रह्या है, ्रलवलिया ग्रां में स्रगमानैरियां रा चीत श्रटक रह्याहै। तुररां रातार पठकं है, पाघां स॒ लटपटिया पेच खां पर्‌ लटक है । -र. हमीर २ सुकना । उ०--१ परम गुरू के सरण जाऊ, करू प्रणाम सिर लट्को । जेठ वहू की काण न मानू, पड़ी वंघट पर पटकी । --मीरां उ०--र्‌ नीची घंण करियां दोनूं जणां रथ सूं दें उतरिया तौ वारे कानां डोकरी री भ्रावाज सुरीजी--ग्राज दोनां रा माथा लटकियोड़ा कीकर है । --पफुलवाडी ३ किसी वात या विपयमें निर्णय या श्रभीष्ट सिद्धिके च्रभावमें दुविघा में पड़ना। ४ वंचित होना । लटकणहार, हारौ (हारी), लटकणियौ--वि° । लटकिश्रोडौ, लरकियोड़ी, लरक्यौडो- भू का० क० । लटकीजणौ, लटकीजवोौ --भाव वा०। लटक्कणोौ, लटक्कवौ -- ० भे० । लटकदार-वि.-- १ लटक युक्त, लटकपुणं । उ०-ज्य'रां लटका लपेटा पर घोगा लटक र्या है, ्रलवलिया ग्राटां में ्रगनंणियां रा चीत श्रटके रह्यारै। --र, हमीर वि. वि.-देखो "लटक लटकन --देखो 'लटकण' (ङ. भे.) लटकाडणौ, लटक्ाडवयौ-देखो (लटका, लटकावौ (रू. भे.) लटकाडणहार, हारो (हारी), लटकाड़णियौ--वि० । । लटकाडिग्रोडी, लटकाडियोडी, लटकाड्योडो-भू° का० क० । लटकाडीजणौ. लटकाडीजबौ---कमं वा० । लटकाडियोञ्ञै - देखो 'लटकायोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. लटकाडियोडी } लटकाणौ, लटकावोौ-क्रि. स.--१ किसी वस्तु या व्यक्ति को एेसी स्थित्ति मे करना कि उसका एक छोर ऊपर किसी से लगा (ठंगा) हो ग्रौर ग्रघर भूलता हौ, भुलाना, टांगना । उ०-- किरचा फांक्यांरी कोली, बीड़ी-सिगरेटां री उवी श्रर वेटरी, वाजारी पेटी रासभियां रं पेटां माथं लटकायां खोड मे विसायत खानौ सौ विसायां फिरंदहै। २ भुकाना। ३ किसी कायं के पणं करने में विलम्ब कराना, इंतजार कराना । ४ वंचित रखना । लरकाणहार, ठार (हारी); लटकाणियौ--वि० 1 लटरकायोडी--भू० का० कृ० 1 --दसदोख लटकायोडी ४३०८ लटकार्ईजणो, लटकार्जवी -- कर्म वा० । लटकाडणौ, दटकाड़वी, तटकावणौ, लटकावबौ--ङू० भे० ' लटकायोडौ-मू. का. कृ.--१ किमी वस्तु या व्यक्ति को सी स्थिति मे किया ट्ृश्रा कि उक्षकाएक घोर तौ कहीं लगा (दगा) हो प्रर दूसरा नीचे कीभश्रौर श्रघर करुलता हो, भुलाया हृश्रा, रगा हु्रा, २ भुकायात्प्रा. ३ किसी का्यके पूणं करने में देर किया हया. ४ वेचित रखा हुश्रा. (स्त्री. लटक्रायोडी) लटका लटका, लटकाणठी, लटकालौ-वि. (स्त्री. लटकाटी, लटकाली) १ लटकना ह्रा, लटकने वाना । उ०-- वेग वीजणियां वेध विगताढछ. लट्‌>े चोतां रा खजा लटकाठ्‌ । राती कानी री पोतडियां डी, ऊनी लोवड्यां वगलां मे ऊडी । --ऊ का, २ सुन्दर उ०--१ वांह विहु लटफाठी ग्रति श्रोपे लूव भुवाली टो) षूडी ने रलियाली हीी कर चंपक डाली हो । --वि. कु, उ०-२ भलौ वण्यौ मुखडा नउ मटकी, श्रांवड़ली श्रगियाली । लटकालौ साहिव देखी नई! तौ सुं लागी तालीरे --वि. कु. लटकावण, तटकाववौ-देखो (लटकाणौ, लरकावौ' (<. भे } लटकावणहार, हारौ (हारो), लटकावणियौ -वि०। लटकाविग्रोड़ी, लटकाविणेडो, लटकाव्योडी- भू० का० कृ०। लरकावीजणी, लटकावीजवी -- कर्मं वा० । लटकावियोडी ~ दसो लटक्रायोडौ' (<, भे.) (मत्री. लटकावियोडी) लटकियोडो-भू. का. कृ.--१ कोर पदाथं या व्यक्ति पेसी श्रवस्यामें ट्वा हुग्रा फ्रि उस्नका एक सिरा ऊपरलगा (दंगा) हौ तथा दूसरा प्रघरमे प्रूलताहो. २ भुकाहूम्रा. ३ किसी वात या विषय मे, निखेय या ग्रभीष्ट सिद्धि के श्रभाव में दुविवामें पड़ा हु्रा. ४ परीक्नामे ग्रसफल हुवा हुम्रा. ५ वंचित हुवा हुग्रा । (स्त्री. लटकियोडी } लटकोलो-वि. (स्वी. लटकीती) १ वह्‌ जिसकी चाल में लटक हौ, नखरे वाला । २ सुन्दर, मनोहर । तटकौ-सं. पू--१ गतिया चाल में पाई जाने वाली स्वाभाविक लचका । २ भुक्नेकी क्रिया या माव, सलाम, श्रभिवादन। उ०-- १ िजमतदार दोद्‌ व्यार पासद्यै। जाहसं ई्यौ दीरी राजा ऊमो, ताहूरां श्रारनं लरकौ कियौ। -- स्यांमसुंदर रो चात लटक्कणोौ १, उ०--२ एतलं हाट रौ घरी श्राय । पेडी न नमस्कार करी थोड़ौ लटकफौ साधां नई कयौ । -भि. द्र उ०-२ श्रकवर गरवन श्ण, हीर सह चाकर हुवा । दीठौ कोई दीर्वांण, करतौ लटका कटहृडं । --दुरसौ म्राढो क्रि. प्र--करणो ३ श्रंगों के संचालन हारा किया गया संकेत या अभिव्यक्ति । उ०--१ डोकरी धाटी रा लटका करनं नाई री कृंटियां काढती वोली- मानो, धां लोयां री मरजी श्राव ज्यू ग्रेक दूजा री वात मानि | -- फलवाड़ी उ०-२ जटं कर नीकं न्ठैकरही नोग हाथ जोड्-नोड त्र रम- राम कर । करट रांम-रम र सागे, काका, वावां रौ संवोवनही लगावै । मालारांम ही पाद्धौ उथलौ सवोधन लगा^र देवे केव रंम-राम भाई नस रं लटकं रौ ठाट-वाट घणौ सुवावरौ लागे । --दसटोख ४ नखरा, चोचला । उ० -- १ पटको दं दोहौ पलीौ, श्रटकौ चित उठछाय । करि लटका श्रावं कने, कटकी सो वहि जाय । --र. हमीर उ०-२ करि लटरकौ ऊभी भन, भ्रा दछदगारी त्राय । केमर नीर ्वरक न, कहौ चर जार काय । --र. हमीर ५ वात चीत में पाया जाने वाला स्वरों का विदोप उतार-चटाव। ज्यूं- वात रौ लटकी ईन्यारौदहै। ६ हल्की नींद, भपक्री ! उ०--१ चौकौ उठाय पड़ी पिलंग पर पड़ती नँ लटकौ श्रायौ मेरा स्याम, लटक प्रायौ जी लटक प्रायी जी स्याम जगायी क्यंनींजी लटकौ भ्रायौ, --लो. गी, उ०-२ दासी न केलं जंवाई म्हारी वादी न भेल । वै तौ मेतं जी वाई राजकवार रौ लटकौ श्रावतौ जी । --लो. गी. ८ केलि, क्रीडा । उ०-षए यौवन ना दिनं च्यार, लटकौ छ इरा संसार, कालांतरं नि भलीवार । --वि. कु. € संगीत की च्वनिसे ढरीगंगो पर होने वाली प्र तिन्निया ! १० मंत्र-तंत्र या चिकत्सा श्रादिके क्षेत्र में कोई देरी युक्ति जिससे कीघ्र ्रभीष्ट सिद्धि होती हो । ११ एेसा श्रस्फुट गायन जिसको सुनकर चित्त प्रसन्न होता हो । १२ देखो (लटक' (ग्रत्पा., रू. भे.) लद्कणौ, लरद्गौ-देखो (लटकणौ, लटकवौ' (रू. भे.) उ०--१ ससक्कं नगार वंघ लटक्कं नागरा सीस, प्राग राभ्रंगार तोपां भटक्कं श्रवाज 1 राखियी खंगार दूजाखागरापांरसं रघू, लरक््कियोडो |) 2 9 ररा वाठी वाघरा संगार जेम राजे । --भीमसिह्‌ चंडावेत रौ गीत उ० --२ रज काखी किरणा, कमल जहराछ लटक्कं । चो माठ चापड़, कमंघ रवदाठ कटक्कं 1 --सु. प्र. उ<-३ लदक्फय सीस भटक्कवय लाम, ग्रटक्क्य सास भटक्कय प्राग । भटक्कय ग्वाग ्वटदकेय जाव, गटक्कय प्रीण गुदर गुलाव । - पे. रू. लटज्कणहार, हारो (हारी), लटक्कणियो--वि° 1 लर क्किश्रोड़. लट किकियोडी, लटक्क्योडी--भू° का० ०1 लटक्कीजणौ, लटक्कोजगै -- भव वा०। लटविकयोडी--देखो 'लटक्रियोडौ' (रू. भे ) (स्त्री, लटच्कियोडी) लटणौ, लटवौ-क्रि भ्र.--१ दवना, भकना 1 उ०-ईइता हालिया थाटते मारं ग्रागा, लट सेमरा मीम कामि लागा । छद्ोहा कपी घूमरा एम चटा, फर्व जांण॒कोरेक सामं फटा । - सू. प्र. २ शीधिल या क्षीरा होना 1 उ०--सादरछी किरा दही समे, लच्थिौ लांधरियौहु, तौ पिशा नहु सौवण तकँ, हूत षर हरणियौह्‌ --वां दा. लटपट, लटपटार-सं. स्वी.-१ खुधामदखोरी, लल्लो-चप्पों की वाते । उ०--दाव ध्रोहृड माड ग्वत, लटपट करके लाय ।' वटी क्डाई वाशिया, घन लेएौ घीजाय । ---वा. दा. ३ हिलने इलने की किया उ०--श्रेकर विसूदरारी पृंछवाढीत्तौवानिरी ताछ श्रांगणामें लटपट-लटपट करनी री' 1 --फुनेवाडी ४ श्राकपक या मनोहर (चाल) । उ०-- ठाकर री लटयट चालसः लोग उरा न ग्राघा सूं ईज ग्रो लेवता श्रर मितां ईज केवता--जे माताजी री टाकररां | । । --रातवासौ ५ चलने से उप्र ध्वनि या अ्राबाज । उ० - इतरौ सुखता इज दो एक वीक्णद्छोरा तौ हिरण्यं रे ज्यं कानि ऊँचा करन पड़ भागा । श्र लारली नागी-तडंग पनटणा पण लटपट-लटपट करपी "वाढं वरटी थारा कान' ) जांखं चिडियां मे 2८2 पड़्चौ । -- प्रमरचूंनडी क्रि. वि.--लीध्र, जल्दी । उ० --कटपट छोड जगत का कामा, लटपट चरणां लागौ । सिर पर तीर लांधिया चावौ, तौ कर सतगुरु जीरौ सागौ। --श्रनुभववांखी लटपटाणो, लटपराकौ-क्रि. श्र.---९ तडफना, छरपटाना 1 ४२०६ लटपिर २ खुशामदे करना । २ ग्रनुरक्तं होना, लुभाना । लटपटाणहार, हारौ (हारी); लटपटाणियौ--वि०। लटपटायोजञो--भू० का० ० । लटपटार्ईदजणौ, लटपटाईजवौ - भाव वा० ) लेटपटायोडी-नू. का. कर, खुशामदे किया हुमा, (स्त्री. लटपटायोड़ी } लटपटियौ--देखो (लटपटी' (ग्रत्पा., रू. भे.) उ०-१ लटपटिया पेचां मे उक्रशिया थका । मोत्तियां रीलडांरा पेच उघडि र्या है । --पनां उ०-र२तुररां रातार पकी है. पाघां रा लट्पटिया पेच खवां पर्‌ लट्कं है। --र. हमीर उ०--३ सर्ध्यां कुश्च, भ्रं लागे छैश्रमीर। किश उटर्गणी स भवर जी । लटपटिया सिर पेच पाग रा, भृंहु कवांण-सीत्पणी रा निमांणी रा। --रसीलं राज रा गीत १ छंटपटाया हृश्रा, तड़फड़ाया हृप्रा. २ ३ श्रनुरक्त हुवा हरा, लुभाया हृभ्रा । लरपरी-वि.--वेढगा, श्रटपटा, श्रस्तव्यस्त । उ०--लटष्टा पेच सिर कठ मोती लड़ा, खटपटा भिजाजी पन खावे ' पगां कंचन पहर दिखावं पटपटा, जुघ वगत भटपटा भाग जावे । --उदभांणा वारहृठ २ खुदामदी । ३ जोई कौ तरह गाढाहो। ग्रत्पा.+-- लरपटियोौ लटवा-स. स्वरी.-- खुशामद, चाटुकारिता । उ०--एक करं नई बीनणी राकोड, दृजी करं श्रांख म्रद बवढौ मोड । पेलड़ौ लटवए करे-दाय जोड़े । वीजी यूं सुजावै, माथौ फोडं । --दसदोख लटांचटा-वि.--गुत्थमगुट्या । उ०-- काठ हुकंमि जिम काठ रा, किकर कड्रारं । होय लांच हिचं, विकटां वाकारं --भू. प्र रू. भे.--लड्ांचदटरां । ल्टण-सं. स्वरी.--१ सामान रखने के लिए कमरेमे छत से कटं नीचे दीवार में लगाया जाने वाला लम्बा पत्थर या काठ । लटा-सं. पु. (3. व.}- चाल) उ०--ऊमटी घटा, बादला होड एकठा, पड़ई छटा, भाजद्‌ भटा भीजदइ लस । -रा. सा. सं. लटपट-सं. स््री--१ वदधनकीक्रियाया भाव, वेधन के ऊपर श्राने वाला वधन । लरापरी वि.-टृट्‌, सजच्रूत (कधन ) उ०--म्हारे प्रांगण खूंटी करको, जें कं रस्म डोर वंटाय~रस्िया तौ दीली वांवूं सायवौ, कस कर नखदोई्‌ जी रा हाथ-~रसिया मतौ विच-विचवार्ई्जीराहाथ-रसियारमे तौ ज्यू ज्यं हृलधवृं ढोरर्नःयैत्तो तीनू लटपट होय-रसिया. । -लो. गी लटापरी-सं. स्त्री,--सुधभामद । लटपुरी -२ देखो 'लटापोरी' (रू. भे.) उ०-्राव जका तरवार दें श्रव, सगा मती मन माहि सांक । लट पुरी घणी कर लावी, पीर जछछधर हुता पाकर । --गोगदेजी रौ गीत लटापोट-देखो श्लोरपोट' (रू. भे.) लटपोरी-षं. स्नी---सुशामद, मनुहार, श्राग्रह्‌ 1 उ०--{ नाई लटापोरियां करनं घणी ई माफी मांगी । परु डोकरी र साम्ही देखन क्यौ - ग्रे देखो कांई ही । भ्रंदाता स्ीमूख सूं फरमाय दियौ, मागण व्ह जकी मांग लीजो। --फुलवाड़ी उ०--२ ननी थोर प्रर लटापोरियां कर करनं का च्हैगी, पणा वादढ नीं तौ कर्लवो करयौ, नीं रोरी खाद ्रर नीं रात रा व्रा, करयी । --फुलवाड़ी 5. भे. लटापुरी। लटार†-सं. पु. (व. व.) वालो या केशों की लटी। उ०-- परदेस मे वोपार कर खुल्ल लांग री घोती षरं । केसरिया पाघर्वाधे । चौड़ा वाटको सो मूडौ, दीदी लटासं सी दाढी, मोती सा दांत श्र ऊज) सभाव । --दसरोख लरारी-सं. धू.-- किसान ने कृपि उपजमें से निदिचत भाग या हिस्सा तेने वाला व्यक्ति उ०--हाकम नटार रे, विराजारा सोदारा रे । पटवारी कूतारारे, संगा भोमियारे। --जयवांणी लटछी-सं. स्त्री.-- वाला युक्त । उ०--वःसंता विजमंड कौदंड कंवा, वणाव व्रथा वैर जं जेरवंधा। सटा याल जारी लरष्छी सुहावे, प्रिया नागवादठी लवं दाग पाव । --व. भा. लटिश्राढ-देष्रो "लटियाठ' (रू. भे.) लटिया-सं. पृ. (व. व.) मिर्‌ के उल हुएु वालों का गृच्छा। उ०--रीसतौ एसी श्रावेदै कं रांड रया लटिया तोडने नांखद्‌ं। --ग्रमर चुनड़ी लरिघ्राढी, लटियाठ, लटियाल्यि-सं. पु.--१ भैरव काणक नाम। उ०--लियां पत्र पेज भरौ लटियाद्ट, वणे तप तेज खमा घटि- याट । दुव चठ चंचन पारा दगाज, हवै कुर्वं कवी हिगद्टाज । --मे. भ. ४२१० लटूमणौ २ पुष्प, फुल । ३ वड्धी श्रयाल वाला (घोडा) उ०--वडा खठ वेचत सावढ वाह्‌, लिये लि याद तुरी कपी लाह! जुडे घज मेल पड़े जवने, दस रवि ताम, भोका भमुक्रदेस' । = सू प्र, सं. स्त्री.-४ एक देवी का नाम) उ०--१ महमाया तुही चांमंडमाय, डीढ्वं्त प्रारंभ सूं सीहाय। लटियाछ तुंही लख वीरद लए, वाचाइ धुंदी सांच वैण । --रामदान लाटस उ०--र क्रमनार गताम वरात करी, फिर श्रादिय देवल ग्रान फरी' लटियाद्िप जोगण॒ साय लिया, ककश्रटए रूप विष्प क्रियां । "दः प, प्र ५ एक प्रकारकी भांग) उ०--१ तिका किण भांत री भांग सुध काका पूरशि वासिग नाग माथे री नीपनी सिव री गूफा मांह नीपनी, थोहूर रं वीडं री, भाखर र खुडरी, सूरं री पांख, परडरी श्रांख, रोज मारि, रिव मारि, लरि श्राद्धी वापर खाची वटे नां भ्रावं ! --रा. सा. सं. वि--१ जटाघारी, जटावलि । रू. भे.-- लटिश्राढठ, लटयादधिय, लरियाढल लटियान्मि-वि.- जटाधारी, जटा वाला). सं. पु --भग्वे लदी-सं. स्वी--१ भटी वात, गप्प । २ वैद्या । ३ साधु स्व्ी। ४ केश या डोरों श्रादि का उल हुभ्रा लम्बाकार गुच्छा। उ०-- कालौ श्रगवांणी करी, गोरी जं री गेल । धमक कटियां घुधरा लटियां तेल फुलेल 1 जी मेहाई थारा वार्दसा री करीजं उवेल । --मे. म. ५ घोडे के गदन के वाल, घोडे की श्रयालं 1 उ०-ताहूरां सिखरं चिदेरी पकड़ी, घोड कन्दै श्रायी ताह सिखरं लठी पकड़ने चदि गयौ श्रौर विद्छैरी दोडी 1 ---उदं उगमणावत री वात वि.-१ वलवान, जवरदस्त । २ देखो 'लट' (रू. भ.) लट्मणो, लदुंमवौ-क्रि. श्र.--१ किसी चस्तु का मामूली श्राश्चय लेकर टिकाव करना या लटकना 1 ज्युं-- गाडी लारं लटूमणौ । २ किसी वस्तुका एक रस्िरा दूसरे से लगाकर प्रवर लटकना । ॥ | [1 1 लट्‌नियोड़ौ ३ स्नेह मै गले मे वांह्‌ डालकर लटकना या भूमना। उ०--मासीसू कम काली भाएजी ईइनीही। वातौ ऊभी ऊभी ही श्रवरूफ टावररी गाई मासीरं गठढं लटुंम उणरा हचठ चंग लागगौ । --फुलेवाड़ लद्‌मणहर, हारौ (हारी), लदुमणियो--वि° । लदटमिश्रोडी, लट्‌मियोड, चरुम्योडो--भू० का० ० ) लद्‌मीजणौ, लद्मीजवौ -- माच वा० 1 लट मियोडौ-भू. का. कृ.-- १ किसी वस्तु का मामरली श्राश्रय लेकर टिकाव किया ह्ृग्राया लटकाया हुश्रा. २ किसी वस्तु का एक सिरा दूसरे से लगाकर श्रधर लटका हृभ्रा. ३ स्नेहसे गलेमें वाह डालकर लटका हुश्राया भूमा दहुप्रा। (स्वी. लटुमियोडी) लहु -देखो "लट. (रू. भे.) लट - १ देखो लट (रू. भे.) उॐ०--१ पदा उत्तारं पेट री लद्भं मारं श्रर चालतौ कातीसरौ घाप-वापष्र कर है 1 -- दसदोख उ०-२ रोटी फलका दही मडका, रोट वादियां घृति । फोगलासृ सूकी लकड्यां, लद कातं सूत्तियौ । -- दसदेव “ २ देखो लद्री' (महु, <. भे) लट्च -देखी 'लटांचदरां' (ङ. भे.) उ०--कुर पंडव जीहा भ्रमर, कल रक्लण कथ्थां। लट्च लृवियां वेदल भर वध्थां । -- लूणएक्ररण कवियौ लट. -सं. प.-१ लकड़ी का गोलाकार एक विलीना, जिसमे लगी कील पर डोरी लपेट कर उसे घुमाया जाता है । २ मोहित, फिदा। उ०-श्टेढान हुं जगी ट्ट. ललचायै मत ाए्‌ वद्र. । पडत मूरख कीं परिखा, सगलां ने मत कटहि्जं सरखा । --घ.व. भ्र. उ०--२ निजर नांखी मोमी ताकी पण॒ किसनजी कमरे र रगठंग सूं टीलौ, लट. हुयस्यौ । --दसदोख क्रि. प्र.--व्हैणौ, करणौ रू. भे.-- लट्‌ लद्री-सं. प-१ कुत्ता, स्वान ! (डि. को.) रू. भे.- लद मह्‌-- लट्‌, लद लहु-देखो "लठ' (र<. भे.) । उ०--१ वभ्रुन बुद्धि वैत नीज मान पान है जमां । धुमाय लद टु जाम हौ फिरौ धमां घमां । --ॐ. का. लर्याज उने संप दियौ भ्र मूं ई एक मोटी द्रौ भ्रर णक उंडौ िरंशौ ले^र ऊपर मोयग्यौ । --रातवास) लटुबाज-वि.-लाटी से लड वाला, लठंत । रू. भे.-- लघ्वाज, लाटीवाज । लद्ुवाजी-सं. स्वी.-- लकड़ी से होने वाली लड़ाई । रू. भे.- लल्त्राजी । लटुभारती-वि.-- १ लकड़ी चलाने में दक्ष । २ उट्‌ ड, उत्पती। रू. भे.--लठ्मारती । लष्ुभार-वि.- १ उद्‌ड व्यक्ति) २ (कथन या वाह) जिसमे विनय, नश्रता एवं सौजन्य का पुण ग्रभाव दहो रू. भे. - लठमार । ल्ट -देखो लाटी" (र. भे) उ०--पटाठा हृठाद्ा महागात पुरा, सरणा सगाहा सकोपा सनूरां। सलीना कन्हं ककव प्राण साह, लियां हाय ल्ट समां सेन रहै । --रा. रू, लद्रौ-सं. पु--- १ लकड़ी का व्रहुत वड़ा, मोटा खड, क्हतीर । रू भे.--लाटीौ २ मोटा कपडा विश्चेष । उ०--मटिया श्रांटाच्छौ पोतियौ, काटा छाप लह रौ धोतियौ श्रर जान्छोर रे टकी री प्रगरखी ठाकर री वारौमास्न री पोसाक ही । --रातवासीं २ भेडिया । (शेखावाटी) ४ देखो "लद" (<. भे.) [< भे--- लद 1 लटचाल्िय--देखो लटियादछ' (रू, भे ) लरठ-चि.-- १ हप्ट-पुष्ट, बलिष्ठ 1 २ मजबूत, जघरदस्त । ३ मूखं, वेवयूफ । स. पू.--१ घडा । उ०--कमाढा लदं छव्वत्या द्रव्यं कोडी, सकदा लठ भार ज्यों टस जोडी विमारेम प्राचंभ राटौड्वाढा, महि दछेलिवा अमर मेधघमाटखा । | २ भेडिया (नगेखावारी) ३ लारठी। <, भे.-- लट, लद ~~ रा स, उ०--२ वाविया नं नीचं प्रांगण मे सुवाय नं एक मजवूत लद | लब्वाज- देखो 'लद्रुवाज' (रू. भे.) लठ्भारती ४२१२९ ~~~ -4- ~ - नठमारती-देमो ^लटरुमास्ती' लटमार--देसो (लद्रुमार' (रू. भ.) उ०--मरदा कोय वाग कतत मुरडी, श्रस चालव "पाल" कियौ उरडी । ठ वात प्रमा फिर श्राय ठग, लठमार प्र्वानांय सीस लग । ~तो धः लठायन-वि.--लदु वाज, लकडी चलाने वाला । उ०--पाग भद्द दंड रमे रणा प्राग, नाग फण नमे कर समत्र नागा , कठा तग कवादी व्यहू रचना कर, लठावन तणा भद्‌ ललन लागा । --कविराजा वाकोदास च्टीन्तस-देग्ये लारोकलः (रू भे.) लठेत-स पु--- कड़ी चलाने वाला व्यक्ति, लद्रुवारी । लद्ी-म पु. १ मकान कौद्छतत मे लगाया जान वाला भारी लम्बरा पत्यर-पाट, भारोट या काठटका गदृतीर। २ देमो "नद्ध" (रू भे.) उ०--ग्रांगरौं में सीयोडी वोरया रौ त्िरपाछ विष्छयोडी हो, छात माथे तावी द्रं री वोती ताण्योड़ी ही 1 -- दसदोष लङग-देमो लड्ग' (ह. भे.) लडणौ, तडयो-क्रि, भ्र.--१ प्यार किया जाना, दुलार किया जाना। उ०--१ वच्छः सासुरा तणी इसी स्थिति जांणावी, सुसर उवे- ग्द, जठ नीचं देखद्व, वर पुरा लडड, देवर नड, जेठांणी कुसद, देग्रराणी हन, नणंद नखरावद्‌, सासू काम करावद्‌ । --व. स. २ देमो 'लदरौ, लद्वी' (रू. भे.) तडणहार, ह प (हरी), लडणियौ -वि० 1 लरिग्रोडौ, ल।टयोड, लडयोडौ -भू० काण कु°। लटीनणी, लडीजवौ -- माव वा० । उत्यट~व्रि.--पूमता हूम्रा । उ०--वटन्यरड वीजठ वार वहत, लडत्यड सकर सीस लहत । मटुरभःद ्रीकड ग्रावध म्र, लडल्लट लागे लोह सुभद्र ' खडवं वड पंडा गट खड, धडय्वड हुता ध्रःह्‌ पठंत । -गु. रू वं. लदयट-लडने वालों का समह्‌ । उ०- ध्रु नाचे भड वड फींफड, नोदे लटयट लौहि लडं । श्रय दद्ध वड चद द्रई हृढ~वड, जोवं घड तड श्रनड रद । --गु. रू. व. लदयटणी, लडयडयौ -देग्वो 'लठयद्णौ, लड्यड्वौ' (रू. भे.) उ०--तिबुरां गरा साधरां मूर,प करां थरा संघरां पूर । लौहडां लर लदवड्ां लोट वेहदं चदा मरगदां वोट । गर. रू. वं. सेदयदिपोडी-देमो 'लखथद््ियोदटौ' (रू. भे.) (रप्री. लदव्रियोरी) लटत्तट-स. स्प्रा.-- नस्तव प्रहर कौ घ्वति। उ०-वडव्वड वीज धार वहत, लडत्थड संकर सीस लहत । भाडज्मड श्री कड प्रावध भद्रु, लडत्लड लागे लोह सुभद्र । --गु. <. य. रू. भे.--लडालइ । लडवडणो, लडवटवौ-क्रि, श्र.--लटकना । उ०-कोट गी वाकी नकी, जिर नयन विसात । लाद पडे टाठ लडवड, इसी यणायौ गात । ~ श्रीपाल रास लडवडियोड़ौ-भू का कृ. लटषा हुप्रा | (मत्री. लडवडिगणेडी) लडसडणौ लडउसडी-क्रि. श्र. ~- भूमते हुए या मस्ती मे चलना ' उ०--१ लडउदहियतणी लडसडउतीय, धर्तीय नाव रसाल ' नेहग- हिल्लय हियदुला, प्रियदला जंपइ वाल । --मेरनंदन उ० --२ तदनंतर लाता लडस्तडता इसा पृण्यवंत, लीलां कामदेव जिसा, श्रारोभिवा वदा । तदनंतरं त्राट वाटा वादी कचोला कचलोलवटी सीप सूनवटी प्रगुणी हई । तदनतर लडहीग्र, लडमड- तीयं, लीलावतीग्रं सुवरण्णमय करव्रदं वरवतीभ्रं, खलकतद्‌, चूड भलकतं कक णि, ढलकतद्‌ सीथ, सीति गंवोदकि हस्तोदकु दीर्घां । । ७ --व. स. लडहि-वि,. [सं. लटम | सुन्दर । उ०-१ पेखवि वर श्र'वंतु सह्य, राजल इम जंपड्‌, लोयणा धुव त करिन देवि, वरु प्राव संपद्‌ । लाडिय लडहिय गडखि चडवि, पच्चक्यु श्रणांगौ, जोवड़ त्रिय सव्वंगु चंगु, मति पावइ्‌ रगौ । | --जयसिह्‌ सूरि रू. भे,- ल डरी । लडहियतण, लडहियतगि, लउहियतणी-सं. स्वी. [सं. लटभिकत्वन| सुन्दरता । उ०- लडहियतणि लडस्रडतीय, घडतीय भाव रसाल । नेहुगदत्लिय हियदुला, प्रियदुला जंपड्‌ वाल । --मेरतंदन लडउही-देखो "लडदहि' (<. भे.) उ०-तदनंतस त्राट वाट वाटी कचोलां कचोलेवटी सीप मूनवटी प्रगुणी हू । तदनेनरु लडहीभ्र, लउसडतीयं, लीलावतीश्रं सूवरण्ण- मय करवरद्ं वरवतीश्रं, खलकतदं चूडदरु, फलकतं कंकशणि, दलकतद्‌ दाधथि, सीति गवोदक्रि हृस्तोदकु दीघां । -व. स. लडलुंब--देखो (ल डालूंव' (रू. भे.) लडाई -देखो लडाई" (रू. भे.) उ०--जोवा रिणमाल दहं दठ च्रुटा, पूरि लडाद्यं जोर पडी । पाट हाड द्धा रखा, पटयालग हप्र भारथ हैक घडी । --- ग्‌, २5, वं. पिनाक णी लडाडणौ ४३१३ लठ 7 र लडाडणौ, लडाड़वौ- देखो 'लडाणौ, लडावौ' (रू. भे )} लडाडणहार, हारौ (हारो), लडाडखियौ --वि० । लेडाड्ग्रोडी, लडडियोडी, तडाङ्योडो - भू° को० ० । लडाडीज भ, लडाडीजवौ - कमं वा० । लडाडय)ड़ौ - देखो 'लडायोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. लडाड्योडी) लडायौ, लडानै-क्रि स. - १ लाडउ-प्यार करना, दुलार करना । उ० -हिति बिश प्यारा सन्जणां, छढ करि छेतरियाह्‌ । पहिली लाड लडाई कड, पाई परिहेरियादह्‌ । -- दो. मा. उ०-२ फरर जस हाथिया हातलेवौ फव, जड़लगां-वंटे रण पतंग जाडा 1 वनी साहं तणी घडा नवजोव्रनी, लडाई भली जग पलंग लाडा । --महाराजा राजसिह्‌ री मीत २ फससलाना) २ देखो लड़ा, लडावो' (रू. भे.) लडाणहार, हारो (हारी), लडाणियौ--वि° । लडोयोडो--भू° का० $° । लडार्जणी, लडार्दजवौ-- कमं वा० । , लडाड्खो, लडाडवौ, लडाचणौ,भ्नडावबो - रू. भे. । लडायत, लडायती-वि. (स्त्री. लडायती) प्यारा, दूलारा , ल डायोडो-मू का. कर. १ प्यर्‌ करिया हु्रा, दुलार किया हुग्रा । २ फुसतलाया ह्र । २३ देखो 'लडायःडौ' (<. भे.) (स्त्री. लडायोडी) लडालड-देषव) 'लडल्लड' (<. भे.) लडालौ-वि. (म्बी. लडाली) प्यारा, दूलारा । लडावणौ, लडाववबौ-देखो 'लडाणौ, लडावौ' (रू. भे.) उ०--१ लाड लाडी जाय लडावण, गत्युं श्रोलग सारं जन ह्रिरांम फिर मन फीरी, घ्यनि हरि कावारं । --ग्रनुमववांणी उ०-२ म्हारा केप श्रवस थार कठं केसां सूं उजढा है, पण म्हथारा उजासमे नीं पुग पद्यैथु म्हूने कित्ती ई लडवे ती काई्‌ व्हे। -- पूलवाडी लडाचिया-घ. स्वरी.--योडों की एके जाति चिदोप । उ०-- घोटक जाति, केहाडा, नीलडा, हरियाडा, सेसहा, हडाराहा कोणा, भरयणा, ताइ, तुरगी, ऊधसीया, नीधसीया, डाटकीया डोटकिया, खेलविया, मल्हाविया, लडाविया पुलाविया, सरला, तरला, खौोटकरणा, एकरणा । लडावियोज्ञै-देलो 'लडायोडौ' (रू. भे.) =. देखो 'लडायोड़ौ' (र. भे.) (स्री. लडायोडी) लडियोडी-भू. का. कृ.- १ नाडयाप्यार हवा हूुश्रा. २लडाहुम्रा। (स्त्री. लडियोड़ी) लडीड-सं. पू. [श्रनु.] १ दास्म प्रहारकी ध्वनि) २ प्रहार, चोट । उ०-? परं श्रेक फेर लडीड उणरी कडियां माथं ब्राचेस जरकायौ जको कुत्ता सूं तौ वोवाडो ई नीं च्ह्यौ । -- एलवाडी उ०--२ भावी तौ दकौ जकौ लडीड-ल डीड उणनं दूटनौ ई गियौ, मरियां पर्धईको ठवियौ नीं । --पलवाड़ी लडीड देखो लडीड' (मह , रू. भे.) क्रि प्र.--चेपरणौ, धरणौ, मेलणौ, लगाणौ । ल डीयाद-- १ देग्वो "लड! उ०-जडियाल खंजर जमङंड जडं, वांधिवे वे वडियालसी । रडि- याल रूप देखे रंभा, न्ह हीर लडीयाछसी । --पनां २ देखो 'लड़ीयाल' (रू. भे.) लडइूककार-सर. प. [सं. | लड़. वनाने वाला । उ०--कास्यकार मगिकार पूगीलतांबूलिक मालिक सौत्रिक लदू- ककार कादुकिकार कग्णकार वंस्याकार चरमकार मल्लक खलक्र धान्य खलके वाटके वादिका वापी पुष्करणी क्रीडातडाग सरोवर । --व, स. रू,भे.-लद्ूयार लद्ूयार-सं पु.-देखो 'लद्ुककार' (र. भे.) उ० ~ श्रथ नगर, प्रासाद प्रतोली राजकुल देवकुल त्रिके चउक चच्चर राजमारमि गांधिकापण दोमिकापरणा कणहट सूपकारहट्र फोफलहट॒तादूलिकटट्र मालौ लदूयार सीवरण्णिक मारिकदद कक्ारा । ~व, स, लडउत-वि.-लाडउ-प्यार से इतराया हृश्रा । लडोकञ्ै-- त्रिय, प्यारा! २ देखो "लड़की" (रू. भे.) (स्त्री. लंडोकडी) लइ-सं. पु -देखो लाड' (ङ. भे.) उ०--करहां जाया केहां जनमिया, कहूं लडाया लड्‌ + काह्‌ जा कटी खाड मे, जाय पड़गे हृ लइ.-- देखो (लाद (रू. भे.) लद-क्रि. वि. -१ लोटपोट ' उ०--खवां-लच चुडाठं हका हाथां परूसतती श्र गीता-मामवत प्रज्ञात लसहक्णो ४३१४ ` लताड वाक प्रीणीत रा पाठ करती थकी श्रार्खं वास री लुमायां न रम्यान दती-रंती! | लगियार, लणिहार-वि.- देखो "लंरियार' (रू. भे.) धपा र दढ कर देती, लोकाचार सूं लढ कर देती --दसदोख लटकणो, वढकवो-क्रि. प्र.-देखो (लुढकणौ, लुटकवौ' (रू. भे } लढकणहार, हारी (हारो), लढकणियौ -- वि° । लटकिग्रोड, लढफियोडी, लठक्योडो-भू° का० ० । लटकोजसी, लटकीजवो- भाव वा०। लठकाडणौ, लठकाडवौ--देखो (लढकारणौ, लदकावौ' (रू. भे.) देखो "ुढकाणौ, चुढकावी' (रू. भे.) लठकाडियोड - १ देखी लढकायोडी' (<. भे.) २ देखो '"लुढकायोडो' (<. भे.) (स्त्री. लढकाडियोडी) लदढकाणी, चढकयी-क्रि. स.- १ लिपेटना । उ०-एक हाथ री ग्रांगद्यी मे गमा-जमना हाठी वींदी श्रर दोन पगांरंग्रगखामे घरण दारण वेगी काढा कासा डोरा लढकायोड़ा है । -दसदोख देखो "लटका, चुढकावौ' (रू. भे.) लढकाणहार, हारो (हारी), लढकाणियो--वि० 1 लढकायोड- भू० का० करु०॥ लठकार्दनणी, लटकाईजवी--कमं चा० । लढकाड़णी, लढकाडवी, लटकावणौ, लदकावबौ-- रू, भे. । लटकायोडो-भर. का. क.- १ देखो "लुढकायोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. लटकायोडी) लटकावणौ, लटकाववौ--देखो "लठकाणौ, लटठकावौ' (<. भे.) २ लुटकाणो, लुढकावौ' (<. भे ) लटकावियोदटी-देखो 'लढकायोड़ी' (रू. भे.) देखो "लुटकायोडौ' (र. भे.) (स्त्रो. लदकावियोधी) लठाक-सं, पू.- वह व्यक्तिजो छंद वेष बनाकर किसी सामुहिक भोज मे भोजन कर प्राचे । (जयपुर) लटार-सं. पु.- कायस्य जाति मं विवाहके च्छे दिनवधरु पक्षकी श्रोर से वर-पक्ष को दिया जाने वाला वडा भोज । (मा. म.) वि- वि.-यह्‌ भोज श्रनिवार्य नहीं है श्रतः समं व्यक्ति ही दै पातादटै। लदो-सं. पु-- १ वंलगादी 1 (मेवात) २ वेलगाह़ीमेसे घान ग्रादि वस्तुनां को गिरने से वचानेकेहैतु- लगाया जाने वाला वस्त्र! उ०-कुरण थारी कुरा थारौ रए, काली रांणी श्रायौ लणिहूार। कूण करै वहू जाव, कुण्यांरं खिनाई जावौ बापकं । --लो. गी. लणणो, लणवा--देलो 'लुणणौ, लुखवौ' (रू. भे.) उ०--लिसड गुरू तिस्ड अभ्यास, जिसी दीख तिसी सीखः लिसउ श्राहार तिक्षउ निहार, जिस वावियड्‌ तिस्षउ लवइ तिसडं कमा इयई, तिस प्रामीयई । --व. स. लणीहार-देखो 'लणिहार' (रू. भे.) उ०--टढोलाई ढोला भरयौ रं लाल करवाई करवा गुवाड इसड़ो कलम कोनहींजी म्हारी लाड को लणीहार सनेही डोला 1 -लो. गी. लत-सं. स्वी. [श्र. इह्नत] १ बुरी अ्रादत, म्रादत। उ०--१ लोगां पूदियौ -योरी के वाव ? चौ श्रापरी लत परां वेड़ाई सूं उत्तर दियौ-- को वताऊनी । -- फुलवाडी उ०--२ दिल अनजढ नर ऊज लखि न ऊजठ सिर लेसीय। दीलत दौलत मिकठिनि, लगी दौलत द्विढलेखीय । -र.ज. प्र. २ देखो ^लात' (<. भे.) रू. भे.-'लत्त' लत्तखोर, लतखोरौ-वि.--१ बुरी शादत बाला । २ लात खाने वाला, नीच । लता-सं. स्वी. [सं.] १ कोमल व पत्तली शाखाग्रों वाला पौघा विक्ेष जो किसी श्राश्रयके द्वारा ऊपरकी ग्रोर चठजातारहै। या घरा- तल पर ही फल जाता है, वैल । उ०-१ लोक विदेसांसूं घरं श्रार्वे, लता विरछछां रौ मिठण जे च्छु ग्राढी । रसराज श्रं छोड चं ग्रापाने, किस्रा हिया रा कंथ म्हारी 1 ग्राली । --रसीले राज रा गीत उ०--२ खीह॒र परहुर श्रवरन, मत संभार श्रयांरा । तरु चंडं लागी लता, पत्यर चे गछ जाणा । --र्‌, र. रू. भे.- लत, लत्ता, लया । लताश्र॑त-सं. पु. य}. [सं. लता~-म्र॑त] पृष्प, फल । (भ्र.मा.ह्‌. नां. मा). लताकर-सं. स्वरी. -नृत्यमें हाथ हलिने की एक क्रिया 1 लताकस्तूरिका, लताकस्तुरि-सं. स्वी.- दक्षिण भारत में होने वाला एक पौघा जिसका उपयोम वंद्क भें होता है । लताग्रह, लताघर-सं. पु. यौ. [सं. लता~+-गृह] तताश्रों से मंडप की तरह्‌ दाया हरा स्थान । लताड-स. स्त्री.-- १ लताडनं की क्रियाया भाव २ गहरी डंट, फटकार । क्रि, प्र.--दणी, पड्णी, खाणी । 5» भे.--लतेड' ॥ ॥ * ~¬ { ॐ ॥। द र, ‡* ५ |: ॥॥ र लताडणो ४२३१५ लत्थबत्य ~ लताइणी, लताडवौ-क्रि. स.-- १ लातों से कृचलनाः रोदना लातों से मारना । ३ फटकारना, उटिता । उ०--१ वदनांमी कर' र दूज कठे ही नदीं परणीजणं देवणरौ डराव दिखास्यी । चढत लोहौ ने धरणी लांणत सू लताड्योौ -- दसदोख उ०--२ जद नवलजी श्रापरे जवांईरी कृूडी मदा तथा वार्‌ चटसी । श्रागं जाकर पुलस हाढं नै लताडसी, श्रोढमो देसी । --दसदोख ४ भला वुरा कहना, शरमिन्दा करना । ५ हैरान करना 1 लताडणहार, हारौ (हारी), लताडणियो-- वि. । लताडिगश्रोड़ी, लताडियोडौ, लताडयोड़ौ--भू. का. कृ. । लताडीजणौ, लताडीजवौ -- कमे वा. । लताडियोडी-भर. का. कृ.-- १ लातों से कुचला ह्राः यौदा हुश्रा. २ लातोंसे माराहृश्रा. ३ फंटकाराहुभ्रा, डंटा हृग्राः ४ मला- वुरा कहा हरा, शमिदा किया हुच्राः ५ हैरान किया दटुग्रा (स्त्री. लत।ड्योड़ी) क लत्ीभवन-[ सं. लता -+-मवन ] - लतां के छाजन से वना लताकज लतामंडप-सं..षु. यौ. [सं. लता +-मडप ]--लताश्रों से ग्राच्छादित मंडप या स्थान । लतामंड्-सं. पु. यौ. [सं. लता ~+-मंडल ] लताग्रो का भंड । लतामणि-सं. प. यौ. [सं. लता-+मणि | मूंगा? प्रवाल । लतावेस्ट-सं. पु. यौ. [सं. लता -{-वेष्ट ] १ कामदास्तर मे वणित सोलह प्रकार के रतिवन्वों में से तीसरा । २ पुराणों के श्रनुसार दवारकापुरी के पास का एक पर्वत । वि.~-लताग्रों से धिराहृप्रा । लतावेस्टण-सं पु. यौ. [सं. लता-+-वेष्टण ] एक प्रकार का भ्रालिगन । (कामशास्त्र) लत¶साघन-सं. पु. यौ. [सं. लता साघन] एक तंत्रोक्त साधना जिसका प्रधान अधिकरणं लता श्र्थात स्व्ीरहै। लतिका-सं. स्त्री.- दोटी लता । उ०-- पल्लव लतिका रूप डाच्विया डाक मार्थं । भ्रोपे वेल श्रगूर ग्ट नादं साथ । - दसदेव लतियापण, लतियापणौ-सं. पु---गुदा मथुन या ्रभ्राकृतिक मधुन करने का व्यसन 1 लत्तयौ-पं. पु.-वह जिसे गुदा मधुन कराने की लत्त टौ । (मा. म.) लती-देखो (लत्ती' (<. भे.) लतीफौ-सं. पु. [अ्र. लतीष़ा] हास्य रस को कोड वात, चूटकला । लतेड-देखो 'लताइ' (रू. भ.) उ०्-दीवांखजी री कीं दाव नीं घात्यो । वकु री लतेड्‌ सुण लचकांणां पडग्या । - फुलवाड़ी लतेडणीौ, लतेडवौ - देखो ^लताडणौ, लताइवी' (रू. भे.) लतेडणहार, हारौ (हारी), लतेडणियौ--वि. । लतेडिश्रोडी, लतेडियोडौ, ततेडयोडा-- भू. का, कृ. । लतेडीजणी, सतेडीजवी - कमं वा. । लतेडियोडौ-देखो "लताडियोड़ौ' (रू. भे.) (स्त्री. लतेडियोडी) लत्त-- १ दैखो “लत' (र< भे.) उ०--गज मद चाचर घूदतां, लग पड़ नीला लत्त । समर तडपफ सहली, मद भरियौ मेमत्त ! -रेवतसिह्‌ भारी २ देखो (लत्ती' (रू. भे.) उ०--जिकं जपे हरि नांम, जियां मन सासो भग्य। जिकं जप हरि नाम, जियां जम लत्त न लग्ग । ज, चि, सत्ता-सं. स्त्री.- विवाहादि मुहूर्तम होने वते दशष्ोपौं में से एक दोप । उ०--१ लत्तादि दो दस लस, श्रल्प निवह सोपण श्र । वदियौ द्विजेण सव सुभ विफठ, कुठ दुलह समता कठं । -- वं. ण. वि. चि.-ये दश दोप निम्नर्हु- १ लत्ताः २ पात ३ युति ४ वेव ५ यामित्र ६ बुव पंचक ७ एका्गल ठ उपग्रह € दग्धातियि १० क्रांति साम्य) २ देखो 'लनता' (रू. भे ) लत्ती-सं. स्वरी---१ प्शुशरो द्वारा पेरसे किया जाने वाला प्रहार स्राघात । | २ चलते या दौड़ते व्यक्ति के परमे इस प्रकार पांव श्रडानिकी क्रिया कि वह्‌ लडखड़ा कर गिर जाय । । क्रि. प्र. मारणी, लगाणी । <, भे.- ल्त लत्ती-सं. पू. [स. लक्तक ] (व. व. लत्ता} १ फटा पुराना कपड़ा, चिथड† । २ पहनने के वस्त्र । # यौ. कपड(-लृत्ता 1 लत्यवत्य, लत्यवथ्य-देखो लथवथ' (रू. भे.) उ०--घड लगि सार उठं रत घार, उगी फट धिव कि कव ग्रपार। हुए इक सत्थ विना खग हत्थ, स्रष्टं लत्यवत्य विना कं मत्य । -रा, र, लत्यापत्यि ४३१६ तवहियिश „~~~ लत्थापत्थि - देखो 'लथवय' (स. भे.) उ०-र्‌ वू(भावटां पताम नर्या हैम दहता कोप, हावद्यं दधि्वां घटम दोदूता ट्त । टाथ ममां फोन दू रोह्नां सथोवर्ष्यां दय, पाट श्रषरादरूजौ मती" नौहु्यां पटेत्‌ । -- माराय राया रायन्विटु दादा रो मीन लदणी, सदयो-क्रि. श्र [मं. नय्व्‌] भार्‌ या चसन युक टाना । उ०--ग्रह्यासीयउ श्रनन श्रांणि, करद वलि सुदंगा काट । लागी लत्यपतिथ किस्य धास्यद्‌ हो साई) --स. बः. लव्यौवत्य, लतथौवय, लत्यौत्र्य, लत्योचत्यांण-देसो 'लययथ' (रः. भे.) उ०--१ मत्ता दुभ लत्यौवत्यां धारा घम गौम मच्च, घीरवाज ख्य वीम नच्च श घाद । धाय सल्ताहोदां ब्द छडाटां हुत चीरे घूमे, रासन्लां रीदां ग्द हमल्लां दलं राड । उ०~-प्रिनग जमारे श्राय, रामजी दा गुगुभूना 1 कद दान सगः राम, दरी रम कटू चु ) गृद्धा फौटद्र एसा, धरी स्टोन मार --तकमीचंद पिदधियौ टोकी मोरा रं चित्ते, ऊपर लदस्री मार । उपर सथ्यी नार्‌ गधा उ०--२ ग्राम्हौ-साम्हा प्राहुड, लत्यौवस्याणं, धाका मूका चाजियां, टोवीद्टा रुला , ~ ममरममद्राम गाजें गयणांणं । विढतां पाच हजार चग, वीता वर्ण, मांग-मांग २ भारौ वरतुग्रो फा यादन श्रादि पर रेखा जाना । वर वोलिया मधु-कोटय दारा 1 ---गज-उद्धार्‌ उ०--रवारी ना सौर्या स्टार भीर, र्य धारी धुट्ना नां उ०--३ वहै हाथ रावतां रा श्रावधां छतीम यहे, कण्‌, रहं शारा लदै । गती घर ग्रस्त गंयार, लदिया तौ पृदरना प्ष्याना ष्टं । चा वार्खांण साच फव्य । प्राविरा वद्या रवतादढा श्र दंताठा भ्रया, मो. मी. वाहृरू धरा रा लड पड लत्योयत्थ । --हाटा कद्छवाहा रौ मीत उ०--४ नीर सरां मेहा धरां, सारण हंसा सथ्य । वेचि तरां नारी नरां, वखिया लत्थीवय्य । --पनां ३ िमीवम्तुने परिपूरिव या धूमे होना, ग्राच्यादित्त ए्ोना ! उ्युं-गेणां ग्‌ नदगाौ, पलां मूं सदगौ । ८ किमी व्यक्तिपर फिमीभारीपन्नुका य्या जानीया वरम -वि.-१ किसी तरल पदाथ से भीगा भरादहृग्रा र लयपय-वि.--१ फिसी तरल पदाथ सेभीगाहुश्राया नस हरा) वजन के सपमे डना । २ मिद्धो, काच भ्रादिसे सना हुत्ना। ॥ | ५ व्पतीत्त होना, फानातीत होरा । । ॥ तन 8. क. उ ° --पीठधां यती, सदी लद जाकी वया सोत वारौ नाचौ सदर क सेना रमी) --टमरदाीपं लयचत्य) लयवथ-संश्ू.-- १ दो जीवों पश्ुग्रो या व्यक्तियेःमं लडाई होते ६ गमनं कर जाना, चते जाना 1 समय की वह्‌ स्थिति निससेवे एक द्रूसरे को कसकर दवाएु या उ०--{ व्रिणजारौ भाया को तोभी, साभि पटा यौ लद जाननी पकडे रहते ह । . 1 मभेरी-कोरी टीवड्प्नां दढ जो । -सो. गी. २ पति | पत्नी या, प्रिय प्रेयसी के प्रेमादिगन की क्रिया या भाव, उ०--२ विणनारीएु हव हमर यौनं तारौ चद जासौ । सुरत-प्रसंग उ०--रे पिय सोगन राजरी, पोटो तेजं खेल । विलकुल लथग्थां ^ वि च नूर, मोन ठीली मेल । ७ श्रधिकभार यादान्ित्वरै भ । --सुगुना सनरूसाल री वात लदणहार, हारौ (हारी), सः । रू. भे.--तत्यवस्थ, लत्थवथ, लत्थवथ्य, लतथोपर्थि, लस्योवल्य लदि्रोड़ी, लदियोड, दु र लल्थौवथ, लत्थौवत्यांण, लशुवत्थ, लयुवय, लयुवथ्य, लयौयत्य, लदणो, लद्वौ, लदणो, लद्धवो, --ू. भे. । लथौवव, लथीवत्थ, सुत्थवत्य, लुथवत्य, लुथवथ, लुथवध्य, लूथवथ्थ, | लदपड्-सं, धु--लम्ये कानां वाला । लुथवाथ, थव्य चोयवत्थ । लदास्~-वि.--ल।दने वालो । लयांडइणो, सयांडइचौ- देखो ^लत्रादणौ, तताड़वोौ' (षू. भे. ) सं. पू--तदाव, भराव) लयाडियोड़ो- देखो ^लताडियोड़ी" (स्त्री लयाडियोड़ी) (रू. भे.) लदाइणो, लदाडवी--देसो (लदाणौ, लदावी' (रू. भे.) ल्टुवत्य, लथुवय--९ देखो लयवय' (र. भे.) लदाडणहार, हारो (हारी), नदाड़णियो- वि° 1 लयडणो, लयेडवो--देखो (लताडणौ, लताडयौ' (रू. भे.) लदाडिग्रोड़, ल दादियोड, लदाडघोञ्ो-भू° काण ° । लयौवत्य, लयौवय, लयौवथ्य -देखो (लथवय' (रू. भे.) ल दाड़ीजण, लदाड्ीजवौ-- कमं वा०। उ०--१ नजरू का निहार पं का दाव । कदम का कुरत ोरयूं | लदाद्ोड़ो -देखौ लदायोड़)' (रू. भे) ' का घाव । जंड तेहै डोरी लोकय होय जावै । --सू. प्र (स्वी, लदाडियोड़ी) लदाणो ४११७ लद्धणौ __ __ „~ __-_------_--__-~_-~-~_~____ {_{{--- उ०--३ विरजारा र, लोभीजैर्य होती थारे साथ, गोडी देर लदावती, विणजारा र । विणजारी ए लोभण तोडयौ चनरिये रौ रूख तोड़ सती वा होय रही --लो. गी. लदावणहार, हारौ (हारी), लदावणियौ--वि. । लदाणो, लदानौ-क्रि. स. [लदणौ या लाद्णौ क्रि का, प्र. ङ. | १ भार या वजन से युक्त कराना । ट २ भारी वस्तुग्रों को वाहन श्रादि पर रखाना | ३ किसी वस्तु से परिपूरित, पूणंया युक्त कराना, ग्राच्छादित कराना। लदाविश्रोडी, लदावियोड़ौ, लदाव्योड़ौ- भु. काः क. । „ किसी व्यक्ति पर किसी भारी वस्तु को रखाना या वोः के रूप लदावीजणौ, ल दावीजयौ -- कमं वा. 1 मे पटकवाना 1 | --देलो "लदायोड़ौ' (रू. भे.) (स्वी. लदावरियोडी) १. व्यतीत करवां देना । । ल दाणहार, हौरी (हारी) ल दाखियो-वि. । लदायोडो-- भू. का. कृ. । ल दाईजणौ, ल दाईजवौ-- कमे वा. 1 लदाडणौ, लद्ाडकौ, ल दावणौ, लदावदौ -रू भे. । लदायोडी-भू. का. कृ.-१ भार या वजन स युक्त कराया हुत्राः २ भारी वस्तुश्रों को वाहन प्रादि पररखाया हृत्राः र किसी वस्तु से परिपूरित या पूणं कराया ग्रा, माच्छा दित कराया हुश्रा- ४ , किसी व्यक्ति पर किसी भासी वस्तु को रखाया या वो के रूपमे पटकवाया हरा. ५ व्यतीत किया हुमा, कालातीत किया दहुग्रा। (स्त्री. लदायोड़ी) ल दश्यै-षं. पु -गुदा-दार । लदियोड-मू. का. का.--१ भार या वजन से युक्त हुवा हुप्ना. २ भारी वस्तुग्रों का वाहनों श्रादि पर रष्वा हुश्रा.ः ३ किसी वस्तुमे परिपूरित, पूणं या युक्त हुवा हुत्रा. ४ किष व्यक्ति पर भारी वस्तु से दवा हृप्रा. ५ व्यतीतया कालातीत हुवा म्रा. ७ ्रविक कार्य-भार या दायित्व से दवा हरा. (स्त्री. लदियोड़ी) लदणौ, लहुबौ-देखो "लदणौ, लदवौ' (रू- भे.) । उ०--१ हुग्रौ नगारी दूसरौ, भेर भणंकं सद्‌ । सव भ्रातुर जण दठ सकट, करण मयंदा लह । --रा. रू. उ०--२ सिलह संदूक सलीतं वहु, लहं उट चलाए णदं । लारोलार कतासां हत्ती, काती जांण कुरङ्भां चल्ली । ता | --गु. रू. वं. उ०--इतरौ नाहरी सवद ॥ += कन र्‌ 1 | लदणहार, हारी (हारी), लदणियी-वि° । । लगाय उन पड, तिस त्हस ॐङ।1 । ।तका ध टीकं 9 न लटिश्रोड, लदियोडौ, लद्योड़ौ भ्रु का क०। लदारा कानी पार उतरी । 9 लहीजणो, लदहीजवौ --कमं वा०। वि.-लदने वाला । लदियोज्ो--देखो "लदियोडो' (रू. भे.) सं. प.-१ लादनेकीक्रिगिया भाव । श (स्त्री. लदहियोडी) २ वो, भार) # ॥ , __ _ । लह्‌.-वि.-- वह्‌ पञ्यु जिन्न पर माल लादा जात्ताहै। उ०--१ लक प्रताव तावदं लदाव कौ लदावणी सदेव वेरि मींच ह 2 वीच मींच को सदावनी । =-= कः उ०--ठकरमदादो दौ उट राखतो रायौ । एक मोटौ लद. ऊंट श्र दूजोड़ो कवौ पांगठ । --रातवासौ लद्ध-वि.--१ मुग्व, मोहित । ३ छत पाटने की एक क्रिया जिसमें चिना घरनयाकडीकेईटया पत्यर की जोडाई की जाती है। लदवणौ-वि. (स्वी. लदावणी)--लदाने वाला । उ०--लसे प्रताव तावदे लदाव को लदावणी, सदव वरि मीच दीच मीच को सदावणी । भिरं ग्रभित्ति भित्ति को सुज्ज को अवावणी, विनां प्रस्वेद वित्त को कुरोर हा कमावणी । --ऊ. का. लदाचणौ, लदाववौ--देखो "लदाणौ, लदावौ' (रू. भे.) उ०~--१ सूता सच्रियां सुख भर नीद, वाहर हेली, भंवर इण मारियौ। श्रौ च गौरी रेवारी रौ पूत, करटा लदावण हलौ उ०-१ श्रकवर रत्ताराग सं. रंगच्रिया रम लद्ध । जौँ उतपात प्रगद्वियौ, सो सुखियौ निस ग्रद्ध। [सं. लब्ध] २ भिलाहू्रा। । -रू भे.---लिद्ध लद्धणौ लद्धवौ-देखो लाभणौ, लाभकौ' (रू. भे } उ०--१ या श्रक्खै जगपत्ती', छत्री उद्धार धार तीरत्ये 1 सो लद्धौ ग्रवसांणौ, सद्धौ घौर वीर "चतुरेस' । रा. छ. उ ०--२ तद्धा भोग वारगना धूरजटी माठ लद्धा, वापं चंदी सौर न्र्‌, स+ मारयो । -लो. गी. व + लद्धा मासं धिन्नौ धिन्न 1 घडा भार गौम लद्धा वावन श्राष्टार लद्धा उ०--२ काती भट्ट दांती फेरी, लासू वनरा वाडतां । भग्‌ रामतेज धांम लदा दूसरं ^रतन्न' | जुगत लादां लदावेै. टिगलां टौकौ काढतां । --दसदेव † --राव सत्रसाढ र गीतं लद्धियोडौ । ४२१८ तपड्कनौ ~ ~-~ ~ - -~ - ~ २ देखो 'तदणौ, वदबौ' (रू, भे.) हाजरियौ कातती महीना रा कुत्ता ज्यू लपकयौ पग नजीक ्रावतां लद्धणदार, हरो (हारी), लद्धणियौ-- वि, । दज रंभा उणारा मृडा पर थच्च करन धरूकद्ियौ। -रातत्रासौ लद्धिश्रोड़ी, लद्धियोडी, लदडोडौ--मू. का. ए. । २ शीघ्रता से जाना, ग्रामे वढना । लद्धीजणौ लद्धौजवो --भाव वा. ३ तेजीसे भ्राना तदधियोडी- देलौ श्लाभियोड़ी, (र, भे.) उ०-चिशणेक लागी ग्रांसङी, चाची ठ्दी वाय} श्ररक उगणा दिम । । ऊगियौ, लपको पाछधी लाय । दर २ देखो "लदियोडी' (रू. भे.) (स्वरी. लद्धियोड़ी) लधणौ, तधवौ-देखो (लाभी, बाभवौ' (रू. भे.) ल पकणहार, हार (हारी), लपकणियो - वि. । लपकिश्रोड़†, लपक्ियोडौ, लपक्योड़ी -भू. का, क. । लपकोजणी, लपकोजवो- माव वा. 1 लघ्धणौ लध्धवौ- देखो 'लाभणौ, लाभवौ' (₹, भे.) लपकाणी, लपकावौ -रू. भे. उ०--१ वीतां ही सज्जा, क्यांही कण न लघ्घ । तिण | लपकाडणौ. लपकाडवौ - देखो `लपकाणौ, लपकावौ (ख. भे.) = 1 { त्म , मा 1 पि वेका कंठ रोकियउ, जाणक सधी खध्व ) ध लपकाडणाहार, हारौ (हारी), लपकाड़णियो- वि. । उ०--२ ढोला मारवणी मुर, तदं सारडी न लध्व । दीवा-केरौ लपकाडीश्रोडी, लपकाडियोडौ, लपकाड्योडो--मू. का. कृ. । वाटि जिम, खोडी-खोडी दध्व । - ढो. मा. क 2 २ लपकाडीजणौ, लपकाड़ोजवी--कर्म वा. । लप-सं. स्वी १ श्रगुलियों व श्रगूढे को भिलाकर गहरी की हई हेली, | लपकाडियोडौ - देवो (लपकायोडौ (रू. भे.) करतलपुट, श्राधी प्रंजली, पसर । > १५५ ४. २ उतनी वस्तु जितनी उक्त एक संपुरमे ्रातीहो । (स्वी. लपकाड़योड़ी) उ०--१ वसु पूंगलपति रोकियौ वावक्छ, दिय लप चावां त्रास | लपकाणो, लपकावौ-क्रि. स.--१ घाना देख ¦ श्राप जद पंवडा दिया उनतावद्छा, सावन्छं करी जद रावं र. भे. लपकाडखौ, तपकाड़वौ, तषक्राव्णी, तप्काववौ ४ सें । ~ सेतमौ वारठ २ देखो (लपक, लपकवौ' (₹ू. भे.) ३ किसी लचीली छडी या वेत को हिलाने से उत्पप्न शब्द । ४ वचरद्धी तरवार श्रादि की चमक व गति। ५ घ्वनि विदोष । मुहा. लप-लप करणौ-वीच-वीच में बोलना । क्रि. वि.--१ शीघ्रता से। ज्यु.-व्टी तौ लप देतीरौ उठयौ । | उ०--१ भपटी नह्‌ श्रांख भवकाई, लेगी नह लपका नं । लख लांरात मिनकी न लगी, उण वेढा नहु श्रार्ून। -ऊ का, लपकाणहार, हारो (हारी), लपकाणियौ- वि. ! लपकायोड -भू. का. कर. 1 लपकार्ूजनणौ, लपकार्जबौ -- कम वाभाव वा. । लेपकाचणो, लपकाचवौ ~ देखो (लपकाराौ, लपकावौ' (रू. मे.) उ०-१ मिरधा जांण भलपिया, लप चीत्तौ लाई । रघा "वाचा उ०-- लसी लपकावं तपसी ताव, भ्रापा सीच उषंदा है) चेली रिण रिहा, स्ि तेग रचाई । , --वी भा. चोढा मन मोदाम, रोठा में ष्छ्दा है) ----छ, का. उ०--२ भव्यांणी तौ जारो इणरी ई वाट न्दाठती ब्दै, बोली लपकायगहार, हारौ (हारी), लपकावणियौ -वि. । योली लप वहीर व्हैगी । -- फुलवाड़ी लपकाविग्रोडा, लपकावियोडी, लपकान्योडौ ~ भु. का. कृ. । रू. भे--- लपक, लफ, लिप, लुप । लपकार्टजणौ, लपकाइजवौ -- कर्म, भाव वा. 1 लपक~-सं. स्वी - १ वमक, कांति ) लपकौ-सं. पू.--वीच कीच में श्रषिक बोलने की क्रिया, वाचालता । २ देखी (लप' (रू. भे.) । उ०- राजाजी चिडता थका कल्यौ, थू लपका मतं कर । दीवांणं लपकणो, लपकवौ-क्रि.ग्र-- किसी वरतु की प्राप्नि हतु सहमा उछ्कर वरखियां प्ली घणी श्रकल लड़ा्ईतौ माथा री नतां तिड जार्वला जाना, कपटना, लेपकना । --फुलवाडी उ०-१ वौ जाट पगरखियां रं तैल चुपड़ण सारू थोवली रं गलं क्रि. प्र--करणौ सवैटी ई हौ क्रं कृत्तौ लपकने चार सौगरा उचकाय लिया। रू. भे.-लपूकौ -- फुलवाड़ी २ वड़ा ग्रास । उ०-र वौ उण नं खेच र भूपा में लिजावणौ चाव हौ, पा | लपड़-दैखो “लप्पड्‌' (रू. भे.) रंभा एक जोर रौ भटक दियौ श्रर खट करतां हाय दछड़ाय दियौ | लपड़कनौ, लपड़कन्नौ-बि. (स्वरी. लपडकनी ) -- लम्बे कानों वाला । षिः ष 1 । क १. लपडो -४२३१६ | लपरटावणो ~ ~ लपड - देखो (लफड़ौ' (रू. भे.) । उ०.-_ सङ्ीयट वाग सिरूज, वीच सरसाविया । सज वसंत नीसांण, तपचप-सं, स्त्री.-१ वीच-वीच मेँ व्यथं बोलने क्ीक्ियाया भाव। दद्रा दरसाविया । पोहपां सुगंघ श्रपार, लपटि तर वाम है, परिहा कौ सुरपुर कैलास, मदन रति धाम दे। --पनां २ चंचलतां । क्रि, प्र.-करणी २ स्पशं करना, दूना । र. भे.--लपभःप उ०--१ कटै सिर सूर चट धड़ केक, उभ हय हक पड़त भ्रनेक । पड पग हाथ धरा लपटंत, किढा किर राखस्न वा करत । --सू. प्र. उ०--२ वाद्‌ पंखरा जोरसूं नीला घास घरती सूं लपट ने रहिश्ना छै । श्रासर्मान र फेर जितरा जिनावर विडी कमेड़ी काट माहि लपचडौ, लपचेड..› लपचेडी - देखो 'लफडौ" (रूः भे } , उ०--१ पैली वैः विहाल की वात नं उदी चौली वता, जिका ही पदै वीं वात री माड़ी चुगली करण लाग ज्याय । दुनियां रो इसौ घारीौ है, इसी रीत है । जगती रा भूठा जालदहै,पापां स ग्राव छै) तितरा कपटं सूँ मारिश्राजवदछै।! --रा.सा. स. लपचेड,. पंपाढ दे । ए ३ श्रालिगन करना । उ०--२ व्यां "रा वैगरणी, {विचावल्छा, रुढ्पट, लपचेड्‌. भ्र जार % लिक होना । भायेला भोर पटा तथा सुव खावे पीवे है । --दसदोख उ०--१ श्रषर कठी मे वैस करि, भवसी रह्यौ लपटि । जनहरीया लपचोी, लपचोली-वि.- लालची, लोभी । जव जीवक्ौ, सांसौ गयौ समटि। --श्रनुभववांणी लपभप-क्रि, वि.--१ लालटेन या विद्यत पिंड के श्रपने श्राप बुभते ५ संलगन हीना । समय होने वाली क्रिया । - प्रस क विरख सूं, हरीया रही लपटि । जंसं माया २ देखो (लपचप' (<. भे.) रह्म सु, कंस जाय विटि । -भ्रनुभववांणी लपटणहार, हारो (हारी), लपटणियौ--वि° ' लपटिश्रोडी, लपरियोड, लपटघोडो--भु० का० क० । लपटीजणौ, लपरीजगे -- भाव वा० लिपरणौ, लिपटवौ- 5० भे० । लपटाडणी, लपटाड्वौी ~ देखो "लपटाणौ, लपटावौ' (रू. भे.) लपटाडयोडी-देखो लपटायोड़ो' (रू. भे,} (स्त्री. लपटाडियोड़ी) लपटाणौ, लपटाबौ-क्रि स.-१ चिपकाना, तेप कराना । २ किसी एक चीजका दूषरी चीज पर चारों तरफ दस रकार चिपकाना, लिषटाना या संलग्न. करवाना कि श्रासानीसे श्रलगन कर सके । ३ स्पशं कराना, चप्राना । | ४ श्रालिगन कराना लपटणहार, हारी (हारी), लपराणियो --वि० । लपटायोडौ- भू का० कु०। लपटराईजणौ, लपटार्हजवौ - कमं वा०। लपटाडणौ, लपटाड़वौ, लपरावणोौ, लपराववौ, लिपटाडणौ, लिपटाडवौ, लिपटावणौ, लिपराववी--5० भे० । । लपटायोडौ-देखो “लिपट योडौ' (रू. भे.) (स्त्री. लपटायोड़ी) लपरटणो, लपटवौ-करि ्र.--१ किसी एक चीज का दूसरी चीज के | लपटावणौ, लपटावबौ--देखो 'लपटाणौ, लपटावौ' (र. भे.) नासो तरफ इस प्रकार चिपकना, संलग्न होना कि श्रासानीसे लपरावणहार, हारै (हारी), लपरावणियी--वि, । ग्रलगन दहो सके । लपटाविग्रोडी, लपटावियोड, लपटान्योङी- भू. का. कृ. । लपट-सं. स्व्री.-श्राग दहकने पर जलती हुई वायु का उठने स्तूप । भ्राग की लौ, ्रग्ति-क्षिखषै । =०--लपटं मरता वासदी नै ठार जंडौ सी पडन लागौ । --पफलवाड़ी २ दीप्ति, कान्ति, शोभा । उ०्- प्रग २ मेच्िव री लपटां उपर श्रदधैह्‌, पातली निराट तौ पिणं लागै समर सी देहं । --र. हमीर ३ प्रभाव. श्रसर 1 उ०-- वात मुदौ सचियां विगर, लागे लट न लेख । उहकं न चित्त दुढावज्यौ, श्रौ इम उपदेस । -र. हमीर ॐ तलवार (श्र.मा.) ५ वायुका फोका। ६ गंघयुक्त वायु का रोका । उ०-- ग्राम देख तौ नीवौ सिवालोत सात-बीसी सादना री साय सू भूलं छ । तिकं केवड़ा, चपेल, प्ररगजा री पाणी मांह लपटां प्राव॑) केसररारगसू पणी वद गयौ, रग फिर गयौ छ । ` -वीरमदे सोतगरा री वात ७ चमक 1 , | उ०--लद्धीसा चहन घणा वीज वाली लपट । क्रोध ममता नता मूढ तज रं कपट । --र, ज. प्र लपटपवियोडौ ए 9 लपटावीजणी, लपटावीजवौ-- कमं वा. । लपटावियोडौ-- देखो 'लपटयोड्' (5. भे.) (म्व्री. नपटावियोडी) लपसै-सं. पू.--१ प्राटे कोघृतसे सेक कर गृडया दाक्करश्रीर पानी के सयोग से चनाया हुग्ना पेय पदाथ । २ वाजरीके ग्राटेको सेक कर बनाया गया तरल पेय पदाथ । लपणी, लपयौ -देखो शलपकणौ, लपकव्रौ' (ङ. भे.) लपणहार, हारौ (हारै), लणियो --वि° । लपिग्रोड्ै, लपियोडी, लप्योडी--भू० का० ° 1 लपीजणोौ, लपीजवौ - भाव वा०। लपतरौ-स. पु-- मास सहित त्वचा का टुकड़ा । उ०-परणा वा पूगी-पूगी जितरं ती एक तरवार ठाकर री भजौ फोड'र कनपड़ा रौ लपतरौ उखेलती खांवा तके जाय पूगी । --रातवासौ . २ देखो लिगतर' (रू. भे.) लपतािपता-- लु कना, दिपना 1 उ०~-घर मडणा श्रात रन गमियौ, काटयजं भड ऊकटठतौ कपियौ 1 ' लपता हिपत! संह जांण लिया, भ्रतरं समू खट ग्रौठटखिय। । प्‌. प्र, लपतोढणौी, लपतोढयौ-क्रि. भ्र.-- लथपथ होना । उ० --वौ दौड्णरौ मनकरियौ प्ण पगतौ उठे डं नीं । घगं घग लोई सूं उणरौ मृंडौ लपतोीजगौ । -- फुलवाड़ी क्रि. स.-२ लथपथ करना । लपतोढणहार, हारी (हरी); लपतोठढणियी- वि. । लपतोरिग्रोडी, लपतोधियोडो, लपतोढयोडो--भू. का. कृ. ' लपतोढीजणी, लपत्तोीजवयोौ -- कमं वा.।भाव वा. । लपतोटियोडा-भू. का. कृ.-- १ लथपथ या तरवयतर किया हृम्रा. २ लथपथ या तरवतर्‌ हुवा हरा । (स्त्री. लपतोदधियोडी) लपत्तडइ-वि.--फटा-पुराना, जीणं-रीख । लपन-सं. पु. [सं.] १ मुह, मुख । (ह्‌. नां. मा.) २ भाषण, कथन । । लपना-सं. पु [सं. लपन] जीभ, जिह्वा । उ०-जीभडली चण वरजी न जाय, इव घणा जरीए गोरी,थे वस राखो ए तपना श्रापकी जी राज । --लो. गी. लपर-वि.--वाचाल, वातूनी । उ०--खीच मुफत रौ खाय, करडावण डंकर धणी । लपर घणौ तपरयाय, रांड ऊचकसी राजिया | ४२२० तलपथ्ठको श्रत्पा.-लपरी लपरक-सं. पु---१ सपं श्रादिका महे से जीम वार-वार निकालने की क्रिया। २ वार-वार वीच में वौचनेकी क्रिया । ३ निरथेक वात कह्ने का कार्य । ४ जीभ से चाटने से उत्पन्न घ्वनि। लपरकौ-सं. पु, (वव. लपरका) १ बार-वार वीच मे वोलने की श्रादतं। २ जीमसे चाटनेकी क्रिया) उ०--१ थुं दण वात रो तूमार देखणी चाव तौ रात रा सूतोडा या काठ्जा माथ जीभ सा दो-तीन लपरका लज! --फुलवाड़ी ` करि, प्र,~--लंणौ । र<, भे.--सपदलको । लपरणा, लपरवौ-क्रि. थ्र.-१ जिष्दाका वारवार वाहूर निकलना व मुह्‌ मे जाना । २ जीभ से चाटना। लपरणहणर, हारौ (हारी), लपरणियौ--वि° 1 लपरिगश्रोड, लपरियोडी, लपरयोड--भू० का० क० । लपरीजणी, लपशीजवौ---श््व वा० 1 लपरार्द-सं. स्त्री. -१ वाचालता, लवारपना । उ०--ग्रदतार दता दीठा श्रवर, वौह करता वकवाद र! मकमा कमंघ मोटा मिनख, लपरार्ई सै दादर --ग्ररजुणजी वारठ २ चापलूमी। उ०-- तरं जगदेव करै, कांड ज्यादा दीठी हुव तौ कटू नं भटा लपराई करणी श्रावं नहीं 1 -जगदेव परंवाररी वात लपराणो, लपरावी-क्रि. स.- १ वार-वार वीच में बोलना । २ सपं प्रादि का वार-वार जीभ निकालना व वापिस मुहुमें डालना । ३ निरथक वात्त कहना 1 उ० --खीच मूफत रौ खाय, करडावण इकर घणी । लपर घणौ लपराय, रांड ऊचकसी राजिया । --किरपारांम लपराणहार शार (हरी), लपराणियौ--वि,. । लपरायोडो- भू. का. कृ, । लपरार्हजणी, लपरारईनबौ-- कमं वा. । लपरौ -देखो शलपरः उ०--भ्रोी बोली हां पंजाव में वडणीौ पड़ी । वरं एक जमी जगां श्रर पांती-पोढी हां लपरं सं लां री दछोरौी दाय श्रायौ । --दसदोल (स्त्री, लपरी) --किरपारांम | लपटकौ-देखो ^लपरकौ' (रू. भे.) लपलप उ०- पद्ध कोतवाल घणौ वाद करौ तौ लक्खं त वारां मृडा साम्ही पग कर्णौ ई पड़यौ 1 कोतवा2 निसंक लपदका लेय लेय उणरी.पगथढठी जीभ सू चाटण लागौ । --फुलवाडी लपलप-सं, स्वी.--१ वार वार वोलने की क्रिया । २ जीभ से पेय पदार्थं पीने वाले जानवरों के मुख से उत्पन्न ध्वनि । लपलपाट -- १ लपलपाने की क्रिया या भाव 1 २ किसी चमकीली वस्तु को हिलाने से उत्पन्ने चमक । ३ व्यर्थं की वकवाद, वकभक । लपसी-देखो (लापसी' (रू. भे.) उ०- १ लपतसी लपकार्वं तपसी ताके, भ्रापा सीच उखंदा रहै । चेली चलां मे मन मोममे रोमांमेरूठ्दा हे । --ॐ. का. लपाक-क्रि. वि.--शीघ्रता से, तुरत , उ०--लुच्छि लुकि लपक कोटा लिवै, ऊचा नीचा श्रावता । नमीं नमी ताक श्रमली निलज, जमीं लगावे जावता । --ऊ,. का. लपादार--१ वह्‌ वस्त्र जिसमें सुंदर चमकीला लप्पा लगा हो । उ०--१ गोरं कचन गात पर, प्रंगिया रंग श्रनार 1 लहंणौ सोहै लूचकती, लहर्यी लपादार । --र. हमीर ङ. भे.- लर्वदार, शलप्येदार, लफादार्‌ । लपालप, लपालपी-क्रि. वि. --क्ीघ्रता से, ऋटपट, तेज गति से । उ०--थोड़ी ताढ तांई सगा मुखिया आख्यां मीचने वेठा तौ वौ लपालप सगठा सपा र लाय लमायदी। ~ फुलवाड़ी २ देखो "लपलप' <०--सगद्धौ पूण श्रावता पण दुणएटएी बजाय र टरकत । ग्यान रा श्राश्रीदांण हयोड़ा हा 1 पराये दुःख मे पड़ने री चेतना होती, रप कौ हीनी । खाली मूं री लपालपी ही । --वरसगाठ पौ -देखौ "लप्पौ' (म्रल्पा. रू. भे.) लपुकौ--देखो (लपकौ' (रू. भे.) लयेक-वि. [लप--एक ] करीव एक पसर मे समा जावै इतना । लपेट, लपेटण-स. स्वी- १ लपेटे की क्रियाया भाव । २ लपेटने योग्य पदार्थं का एक चक्रुर, फेरा या वंचन 1 ३ वह निशान जो किसी वस्तु को लपेटते या तहु करते समय उसके मोड़ पर वन जाता दे) & एंठन्‌, वल, मोड़ 1 ५ चेरा, परिधि! ६ उलन, फंसाव, पकड़, वंघन, चक्कर । ७ कुरती का एक पेंच । तपेटणी-सं. स्वरी. लपेटन नामक जुलाहौं की लकड़ी । ४३२१ 7 ल्पेटियोडी छ म लपेट, लपेटवौ-क्रि, स.--१ किसी वस्तु को दूसरी वस्तु के चारों ग्रोर धुमाकर इस प्रकार वांना कि उसका कख या पणं भाग ढक जाय, परिवेष्टित करना । उ०--म्हांरी मारूडौ रमं छ सकार, सघन वन भ्गरा श्रलवे- लियौ हाथ बंदूक लपेटे जामगी, कमर कसी तरवार्‌ । --रसीलै राज गा गीत्त २ कपडा-कागज श्रादि मे वन्द करना, ढकना, ग्रावेप्टित करना । उ०--ताहरां सिगढा सखायौ 1 कल्यौ जी कपडं लपेटि नांखि यौ । ताह लयपेटि न जंगल मे नाखि श्राया । देवजी वगड़ावत री वात ३ बेर कर रखना, चारों भ्रोरसे घेराव करना । उ०--गज मत्यां री दांमणी, मुखडं सोभा देत ! जांणं तारा पत मि, राख्यौ चंद लपेट । ~~ ्रन्नात ४ वणाव, श्युगार कराना । उ०--थाका हंस री टोढी, निवाय री होढी, घणौ हाट न चीरमां लपैटी थकी विराजमान हीइ मै रही, --रा. सा. सं. ५ कारू में करना, वश मे करना । ६ उलन या भट मे फसाना । ७ भ्राच्छादित करना, ठकना । उ० - वरियांम सिलह पोसां विच, भुजा श्रमे" नम भेदियौ । तदि जांण भां ग्रीष्म तणौ, काठी घटा लपेदियोौ । --सू. प्र. ८ किसी वस्तु का लेप करना, पोतना । उ०--मंडी महल चिणावतं, उपरि कठी लपेर ! चित चिणावत - ऊटिगै, लगी काठ की फेट। --्रनुभवववांणी लपेट णहार, हारौ (हारो),लपेटणियौ --वि. । लपेरिश्रोी. लपेदियोडो, लपेटचौङा- भू. का. कृ, । लपेटीचणी, लपेटीजवौ-- कमं वा. । लपेटमौ-वि.- १ जो लपेट कर वनायां गया हौ । २ जिसके ऊपर कु लपेटा हो । # ३ लपेटने योग्य । ४ घुमावदार या चक्करदार, गूढ़ व्यंग्य । लपेटियोडौ-भू. का. क.--१ किसी वस्तु को दुसरी वस्तु के चासोँश्रोर घुमाकर इस प्रकार वाघा ग्रा कि उसका कृद्धभ्रंशया पूरं भाग ठक जाय. २ कपड़ा कागज श्रादि में वन्द करिया हुमा, ठका हु्रा, श्रावेष्टिति किया हुप्रा. ३ कारु में किया हृश्रा, वदा में किया हुभ्रा- ४ चारोंग्रोर से घेराव कियाहृप्रा. ५ उलन या टमं फंसाया ह्राः ६ किती वस्तु का लेप किया हृश्रा. ७ ्राच्छादित किया हु्रा, ठका हुभ्रा. हु्रा. ८ श्युगार कराया लपे्टियी ४३२२ - लफट ___(~_]]---------------_---___~~____~______________~______ (स्त्री. लपेदियोड़ी) लपेटियौ - देखो 'लपेटी' (रू. भे.) उ०-श्रामै धरती साम्हौ जोव तौ वीरमदं ने हाथी लपेटीया मे छ । तिस फसेखै वैठ हाथ पसार नं वीरमदं ने ऊंचौ लीघी। 1 --वीरमदं सोनगरा री वात लपेरौ-सं. पु.-- १ दाम्पत्य-सूव्र वधन । २ सिर पर लपेटा जाने वाला कपड़ा, साफा, पगड़ी । उ०--१ इसी भात वरस पाच सीतां लागा । मार्थं केसां रौ भूली रह नै उपरां लपेटौ वाव । वागौ, चिलकता वगतर परं । --जखड़ा मूखडा भाटी री वात उ०--२ मत करे सोच सोढी महुढ, सीस त्पेटी सूपियो । सग लोक साथ रेसां सदा, कृमघज चढता यूं कियो । --वसख्तावरजी मोतीसर ३ टोपके नीचे वांघने का कपड़ा। उ०--जुधघ चदियौ जगमालदं, कर टोप लपेट । वगतर कूटा वीडीया, घक पोरस चेटी 1 --वी. मा ४ पडयन्व्र, जाल । ५ चक्कर, दात्र । उ०-पण सेठांणी पादौ कोई जवाव द्यौ नही, सायद उंघीज गई ही । सेठ ई उण्वा, वत्ती वुकाई, प्राठामे नाछाघलोड कियौ श्र रणद्ोडा न लपेट में लेवण री तरकीवां सौचता-सोचता सीयग्या । --रातवासौ हा. लपेटा मे श्रावीनचक्कुर या घोतेमें श्राना 1 लपेटा में चैणौ --चष्टुर मे फप्ताना । वि.--लपेटा हुश्रा, बांधा हुश्रा । र<. भे.-लपेटियौ लपदार-देखो ^लपादार' (रू. भे.) उ०-सखि लाल चूंनरिया चमकं हरी हरी कंचुकिया तनै, लेगा गुल श्रनार तापर तपं दार नथनी कंटसिरी चुरियां चमक तेसं ही नूपर चरनन फमकं । --रसीलराज रौ गीत लपोड, लपोड़ो, लपोडी, लपोढ-वि.-- मूख, नासम । उ०-१ धन रौ मोद श्रायग्यौ, मनडी उघाड खायग्यौ । जार पूजत श्रादमी, लपोडी"र जिद चेतत श्रायग्यौ 1 - दसदोखं लपौ-देखो प्प (ख. भे.) उ०-साद्‌डो भमगाद्यौ सांगानेर रौ, श्रजी रंग भीना स्नाजी ग्रागण कटारी भांत प्रनोखी, लाग्यौ छ चपा चहुं फेर रौ । --रसीले राज रौ गीत लपौलप-क्रि. वि.--१ दीघ्नता से, जल्दी-जल्दी । उ०-सूरजरीखीभ सूं डरता सगव्ठा तारां लपौलप वडा होवण लागा जक ब्दैताद गिया। --फुलवाड़ी म लप्पड़-सं, स्त्री.-हयेली से किया हुश्रा श्राघात, यप्पड्, तमाचा 1 <. भे.--लपड । लप्पादार-देखो 'लपादार' (<. भे.) लप्पौ-सं. स्वी --१ महौीनतम, रजकण या धूलि । २ देखो लप्पौ' (श्रत्पा. ₹* भे.) लप्पेदार--देखो लषादार' (ङ. भे.) लप्पी-सं पु.-चदी यासोनाकेतार (गोटा) कीषटरीजो कपडेके किनारे पर लगाई जाती हे । २५ भे. --लपौ ॥ ग्रल्पा.+- लपी, लप्पी । लफर्गा-वि. [फा. लफग | १ दुदचरित्र, हीन । २ लंपट, व्यभिचारी । ३ लुच्चा, वदमाश । उ०-वीन रं वाप रौ एक साथी वराती लफमौ बोत्यौ -- दायजौ कठं मेत्यौ है ? --दसदोख ४ चोर, लुटेरा । उ०--म्है तौ घोठौ-घोढौ दुव जांणनं भरौसौ करलियौ।प्रौतौ साचांणी दूष ई निकटियौ जे कोर लफगौ व्ैती तौ कंडौक लाहिरौ सजत । --फुलवाडी लफ-देखो लप' (रू. भ.) लफस-सं. पु.--१ वंघन। उ०-मिनख रं हीयं ग्रोम्‌ रौ लफड़ नीं रवै तौ कित्तौ सावढ 1 ग्रा श्रो तौ जायं श्र॑स ई काठ न्हाकंला । --फुलवाडी २ सांसारिक भमर, प्रपच ॥ उ०्-वेटा घन री जड इणी भांत हरी व्टिया करं 1 घन रं सिवाय मिनख रा सं लफड़ा विरथा है । -- फुलवाडी ३ भूत प्रेत, रोतान । ४ श्राफत, इल्लत, वला । रू. भे.- लपड, लपचडी, लपचेड़. , लपचेड़ौ, लफरो लफलफणो, लफलफवो- देखो (लपकणौ, लपकवौ' -(<. भे.) उ०-- १ सांड रोरङ्यां टोड, कोड कर कांट किटाछी । लफ लफ लेत युगा, संत खेजडला डी । --दसदेव उ०--२ तिकौ पण वाक री तरह्‌गोटांरदही व्ठछ ध्यावे] कितरारहैकां कातिगतूट गया द्ध । त्िकं रिगसता थका लफ लफ कोट रे जाय जाय कटारी लगाव द) --प्रतापरसिघ म्होकमसिघ री वात लफज-देसो 'लप्ज' (रू. भे.) | लतफरंट- देखो "लेपटीनेट' (₹ू.भे.) लफरट्करनल लफट्टगवरनर- देखो लेपटी्नेटगवरनर' (5. भे.) लफटंट जनरल ~ देखो लेपटीनेट जनरल' (<. भे.) लफरो- देखो 'लफड़ी' (रू. भे.) उ०-१ श्तौ श्रपां मिनखांरंसौ लफयरहै, दूजा जीवां नै्रंडी ऊंवीवातांसूकींलेरोदेणौनीं। --फुलवाडी उ०--२ दौड़े छानी दूतिर्या, लफरा जिण र लख । श्राप ती कर भ्रंजसियौ, रसियौ पडदे राखे । --वां. दा. लफाटार-देखो "लपादार' (रू. भे.) लप्ज--सं. पु. [ग्र. लप्ज] १ शब्द, गोच । २ वात। २ केचन्‌! <, भे. लफज, लवज, लव्ज । लवकर, लचफबौ-क्रि. प्र.-- भक्षणा करना, माना । उ०-१ उंच मुख सूं उट, चट चट लंगा लवं गलर गर गटकाय, डोलती डागां वकं । --दसदेव उ०--२ वीज भवक, मेह टवकं, हीया दवके, पांणी भभकं, नदी उबकं वनचर लबकं, भ्राभौ श्रवक्‌ । --रा.सा. सं. सवकणहार, हारो (हार), लवकणियी - वि, । लवकिग्रोडी, लवकियोड, लवक्योडौ- भु. का. कृ. । लबकीजणो, लबकीजनो - कमं व, 1 लबकियोडी-भू. का. कृ.--भक्षण किया भ्रा खाया हुग्रा । (स्त्री. लवकियोडी) लबकौ-सं. पु.- मोटा प्रास,लौदा। उ०-- दही रायते दक, मोकठी निम्र देवं । ललचावै सुरराज, भाज लप लबकौ लेव । --दसदेव २. श्रानन्द, रस । लबड्काणौ, लबडकावौ-क्रि. स.- १ परेलान या तंग करना । २ परिश्रम कराना । ३ फटकारना, दूतकारना ) लवडकाणहूषर, हारौ (हारी), लवडकाणियौ -- वि. । लवड़कायोड-- भू. का. कृ. । लबडकार्द्त णो, लवडकार्जवी-- कमे वा. । लवडकावणौ, लवड़कावनौ-- रू. भे. । लबड़कायोडी-भू, का. क---परेलान यातंग किया हुषा. २ परिश्रम करवाया हरा. ३ फटकारा हुत्रा, दुत्तारा हृग्रा । (स्वी. लवडकायोडी) ल वड़कावणो, लवड़कावबौ- देखो शलवद्काणौ, लकडकावौः (रू. भे.) लबडकावणवहार, हारौ (हारी), लवडकावणियौ- वि, । ४२२३ लदलमी लवडकाविभ्रोड, लवडकावियोडी, लवडकान्योञ्-- भू. का. कृ. । लवडकावीजणी, लवडफावीजयौ-- कमं वा. । लवड्णौ, त वड़वौ-क्रि. स.--फटकारना, उंरना । लवडणहार, हासौ (हारी), लवडणियौ -- वि. । लवडिश्रोड, लवड्योडौ, लबड़योड़ो-- भू. का. कृ. । लयडोजणो, लवड़ीच् वौ --कमे वा. । त॑बडाक-वि.- वाचाल, वकवादी । 1 उ०--समर टिली कर रसम नू, लस ग्राव रबडाक | मूं थकां मूंडत जिकं, नाक थकां विण नाक 1 --वां. दा. लवडियोड़ो-भू. का. कृ.-फटकारा हुभ्रा, डाटा ह्र । (स्त्री. लवडयोडी) लवज-देखो "लप्ज' (रू. भे.) लवयव--देखो (लवालव' (रू, भे.) लवयवणी, रावथनवो-क्रि. अ.--१ पूणं भरा जाना, लवालव होना । २ उगमगाना, लड़खडाना ! उ० -- भ्राज ज सूती निसह भरी, प्रिय जगाई श्राद्‌ । विरह भू्यौगम की उसी, टाबथवतो गछ लाई । -दो. मा. हाबयबणहार, हारो (हारी), लवयवणियौ-- वि, । लवयविश्रोडौ, लवथचियोडी, लबयव्योज्ो--भू. का. ऊ. । टलवयवौजणौ, लवयवीजवौ -- भावं वा. । लवथवियोड़ो-मू का, कृ.--१ पुं भरा हश्रा, लवालव । २ उगम- गाया हुश्रा । स्त्री. लवथवियोडी) रवद-वि.-- मुलायम. कोमल, नम्र । ` उन्-षरती रौ जित्ती वार काछजौ चीरीज वांरियां लागे उक्ती वत्ती ने व्ठै, साख फं । उणी भांत बादल र लवद-लवदं व्ह्यि काठजा में नानी रा बोल ऊगता गिया श्र साग रा सामे फटता गिया । --फुलवाड़ी लवधघणौ, लवधबौ-क्रि. स. [सं. लब्वं ] प्राप्त करना, पाना । उ०--१ चक नदी सर परवते, मु, ल्व मुनि जाय । चैत्य जुहारइ सासतां, अ्रारांद श्रग न माय । --स, कु. उ०--२ पण श्रपणौ नहीं पाले, घरिमी धीरन धार। लाद हरि लब्यड ल्या, तजिया दहस व्यार 1 --घ. व. ग्र. लव रो--देखो “लपर' (स्त्री. लवरी) सवलबी-सं. स्वी.--वंदुक, पिस्तौल, तमंचा श्रादि मे लगा वह॒ खटका जिसको खीचने से वंदूक का घोड़ा गिरता है । रू. भे.- लवलवी । लरलवौ ४६३२४ लेग्बवरण लवलबौ-वि,- किसी तरल पदाथं से तरवतर । लवांणा-सं. पु.- मुसलमान भाटों को एक जात । लवाड़ो-रेखो लवालीः (<. भे.) लवाड-देखो 'लवाटी' (महु. ₹. भे.) उ०-निरधन उवंडतती मसांणाखंभ,खाटरौती ही नाग, धर्‌. वोलद तौ लबाड वाउलौ न बोलद तौ मृंगड । --व, स, टवादौ-सं. पु. [फा. लवादः] जाड में पहनने का रूईदार चौगा, दगला । लवायचौ-सं. पु. [फा. लवाचः] कृत्तं श्रादि पर पहनने फा वस्त्र विशेष । उ०--१ तो ही तद रिणमलां र घरं इसड़ी वडावड हुती । लबा- यचौ सिभ्राष्ठं जेताजी रौ मेलियौ पहरता। --रावे मालदं री वातत उ०--२ वहादुर्तधिजी रं नागौरी धमाकौ खवां मे रतौ । लोहरी मूठ रातं ना री तलवार गलठडवं रहती । श्रघोड़ी रौ गठडवौ रहतौ । नव पलां रो मीथौ रहतौ। दस पलां रौ लबायची लवार-देखो 'लवारी' (मह. र<. भे.) लबारी, लबा, लबाल-देखो शलवाढठी' (रू. भे.) उ०--१ हम नहि चलं तुमार धरन कौ, तुम हौ वहत लवारी । मीरां कँ प्रभु गिरधर नागर, चरन फमल विहारी । - मीरां उ०--२ न करं वहु हास्य लबाल, फलहौ घणः काल । उसेलौ मती करौ ण, दभन कदागरौए। --जयवांणी , उ° --३ राड निप्रतादिक एहवी, दीधी दुरासी रे गाल । भृंडी गाल कुलक्षणी, निसं दिन करं लबाल 1 -- जयवांणी (स्त्री, लवारण) लबालब-वि. [फा लव] १ मुंह या किनारे तक भरा हुभ्रा, छलकता हभ्रा । रू, भ.--लवथव । लनाढी-वि.- १ श्रधिक वाते करे वाला, वाचाल । २ भिथ्यावादी, भूठा, गप्पी । रू. भे. -लवाडी, लवारी, लबाठ, लवोछ, लवोल, लवास, लावाटी, लिवादटी । मह्‌.- लवाड, लवार्‌ । लन्रुकणी, लबुकनो-क्रि, श्र.--ह्रा-मरा होना, लहलहाना । उ०--यठ मध्यद्‌ जढ-वाह्िरी, कांई लबृकौ दूरि ! भीटा-बोला घण -षहा, सज्जण मूक्या दरि । -टो. मा. लवूकणहार, हारौ (हारो), लब्रुकणियौ --वि० । (मा. म.) लबर्िश्रोड़ी, लब्ूकियोङी, तदक्योङ्--भू° का० कृ० 1 लवुकोजणौ, लवृकीजनौ - भाव वा० । लब्‌फियोडी-भू. का. कृ.- लदेतहाया हृश्रा । (स्री. लबूकियोडी) लब्‌र-सं. ए--नाखुनों से नौचने की क्रियाया भाव। क्रि. प्र.-भरणौ। लब्‌रणौ, लब्‌रबौ-क्रि. स.-नास्ुनो से नौचना। उ०--ग्रेडा श्रन्याई राजा सूं बदलो नी लिरीजे जित्तं रौ इक- छापी सुख महन ठीड ठौड सूं लब्रूर 1 --फुलवादुी २ छीनना, पटना | उ०--थारं कीं भंदी-मली व्दैगीतौ इण लिंचछमी नं लोग लबर लत्रूर खाय जावंला 1 --पुलवाड़ी लब्रूरणहार, हारो (हारी), लब्रुरणियौ- वि. । लबरुरिश्रोडौ, लबुररियोडो, तन्‌ रयोश--भू. का. कृ. । लब्‌ रीजणौ, लब्‌ रीजवी--कमं वा. 1 लबूस्योडी-मू. का. क.--१ नाचुनों से नौचा हुभ्रा। २ छीना हुश्रा । (स्त्री. लव्रूरियोड़ी) ८ लवोढ, लवोल --देखो 'लवाठी' (रू. भे.) उ०-ऊंचौ तौ एरंड, खाटरी तोहि नाग, पणौ भोष्टौ लांफु, वहु वोलं ती लबोढ्छा । घणौ जी्म तौ भूखौ योडी जीमे तौ श्रमोगियौ । --रा. सा. सं. लन्न-देखो "लपज' (रू. भे.) उ०-पण कसाई्‌ रीनीचे जात, फेर श्रौरगजेवी वादसाही सो भ्राधा हुवा वहै । सो मुह सूं गेरलन्न वोलियाश्रर गायन्‌ पछ्छाड़ी। --मदाराजा पदमरसिह्‌ री बात ~ लन्ध-वि.-- १ मिला हुभ्रा, प्राप्त | यौो.--लन्व काम, लन्ध-प्रतिस्ठित, लन्धवरणे । २ कमाया हरा, उपाजित । ३ गरित्तमे भाग करने परे प्राप्त भागफल 1 ४ स्मृतिके श्रनुसार दस प्रकारके दासोमें से एक दास । लन्धक-सं. प.-१ राजपूतों के ३६ कुली में से एक । उ०--राजकुली ३६, सूुरयवंस, सोमवंस, यादववंस, कदेव, परमार इक्ष्वाक, चाहुमान, चाघ्युक्य, मोरी, सेलार, संधव, विदक, चापोत्कट प्रतिहार, लन्धक, राष्टकूट, सक, करवट, कारट, पाल, चांदिल, गोदहिल, गुहिल पत्रक धान्यपाल, राजपाल, श्रनंग, निकुभ दधिकर, कालामुह्‌, दापिक, हणा, हरियर, डोसमार । ---व. स. लब्षवरण-सं. पु. यौ. [सं. सन्ध [वणं] पंडित, ज्ञाती । लल्धि ख. भे.-लवघवरया, लवघवरण । लन्धि-स. स्त्री-- £ प्रात-होने कौ म्रवस्था या मावे, प्राप्ति) २ लाभ, फायदा । -३ (गणित) मे मागफल । ४ शुभ प्रध्यवसाय तथा उक्कृष्ट तप, संयम फे प्राचेरणसे तत्तत्कमं का क्षय श्रौर क्षयोपडम होकर श्रात्मा मे उन्न एक विदोेप शक्तिजो २<प्रकारकी मानी गई है! उ०-- गौतम गणधर गुण निलौ, लव्वि णौ भडार । चवदे सौ वावन सट, नयता जय जयकार्‌ । --जयवारी रू. भे.--लवयि लब्धिवत-वि, [सं] जिसने लव्धि प्राप्त करली हो| उ०--कुसल करण सरी कमल मुखिद, स्री जिनपदम सूरि सुखकंद । लव्धिवंत स्री लव्धि सूरीम, सी जिनचंद.नमूं निस-दीस । --स. कु. वि. वि.-देखो 'लच्वि' लग्भणौ, लव्मकी - देखो 'लाभणौ, लामवौ' (र, भे.) उ०--१ ग्रालम मोरा ग्रोगुरु, साहि तमः गुह 1 वृंद-विरंक्ला > रा-क, धाघ न लल्मौ त्याह । --हु. र. उ०-२ रवर श्रापाणी छमा, कीषौ वरि विचार) पोरस पार न ल्भ ही, उत्तर पथ प्रपार । -गु. रू. वं. लन्भराहार, हारौ (हारी), लन्भणियो--वि० । लट्मिग्रोड़ी, लस्मियोडी, लन्म्योडो -भरु० काण कृ० | लरमोजणी, लव्मीजवौ--कमं वा० ` लट्भियोडा -देखो 'लाभियोडी' (रू. भे.) (स्त्री. लन्भियोडी ) लभणौ, लभवी-देखो 'लाभणौ, लाभवौ' (रू. भे } उ०--सुग्ि कहै सुभडु मची यकठ, लड़ी वी मौ सम लभौ । सुण एम चयण “श्रगजीतः सुत, ्रजरायल वोलं श्रमो --सू.श्र. लमणहार, हारो (हारी), लभणियौ--वि°। लभिश्रोडौ, लमियोडी, लम्योडौ-भू० का कृ० । लभीजणौ, लभीजबीौ--कमं वा०। लभस~-सं. स्वरी.-- १ चोडा वाघने की रस्सी। २ घन-दौलत । २ याचके) लनियोड़ो-भू- का. कृ.--देखो लाभियोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. लभियोडी) लभी-वि.--१ लाभ, फायदा । 1 २ मिला हुभ्रा, प्राप्त 1 । ४९२५ लय लस्मणौ, लभ्मवी--देखो लाभणौ, लामवौ' (कू. भे.) उ०--१ मूर मौलि न जांशियौ, भ्रा श्रोडां री पत्ति । पदमन लम्भ पदमणी, जसमल नेहि गत्ति।! --जक्षमा ग्रोडणी री वात उ०-२ पतिसाह नमौ पारभयं, संन श्रसंख्या लम्भेयं । इम किया राम भ्रारंभयं, धुंवदिया धर श्रञ्भय । गृ. रू... लम्मणहार, हारै (हारी), लम्मणियो--वि० 1 लभ्मभिश्रोड़ौ, लभ्भियोड, लम्म्योडो--भू० का० कु०। लम्भोजणौ, लम्मीजवौ--कमं वा० । लस्मियोड-देखो लाभियोडौ' (रू. भ.) (स्त्री. लभ्मियोडी) लमचड-सं. पू--१ भाला या वरदछा। २ सांग। ३ देखो ^लांमदड (र<. भे.) व्रि.--श्रधिक लम्बा व पतला । 'लमभम -देखो 'रिमशिम' (र<. भे.) उ०--ग्रौर दही भूला रा भरुला लमभम करता फुल वागन ग्राव है लहरिया गावै है । गहरौ गहकं है, डेडरा उहुकं है 1 --र. हमीर लमटगी-वि.-लम्वी टांगों वाला । लमतडग - देखो 'लंवतडंग' (रू. भे.) लमेक-क्रि. चि. [भर. लमहः-{-ग- एक | कुंच समय तक, क्षण भर । लय-पं पृ.-१ विनाश, समाप्षि। उ०--करता ग्रकरता निरगुण माई, जाग्रतत स्वप्न सुसूष्ती तांई। दन तीनो का मन श्रभिमानी, उत्पत्ति यिति लय मनमानी । --सुखरामजी महाराज २ एक पदाथ का दूमरे में पणं विलीन होना, समा जाना 1 ३ अनुराग या लग्न के कारण एकाग्रचित्‌ या मग्न होना । उ०-संमव को भ्रनुभौ घरि जाते, मिटं ममता समता रस जाग । पाप संताप मिटे तवर ही जव, श्रापसु श्राप्ही की लय लागी । --घ. व. ग्र. ४ किसी कायं काश्रागे कारण में ममाविष्ट होना या फिर कारणा के रूपमे परिणित हो जाना । ५ सष्िका ताश, प्रलय । ६ लोप, विनाक्च । ७ यमसमा मे उपत्थित एक प्राचीन नरेशं । सं. स्त्री.--८ संगीत एव कविता में गति सामज्जस्य रखने वाला तत्त्व, जो कृत्तियो (कविता-पाठ, गायन नृत्यादि) मे आपेक्षिक उतार-चढाव को नियमित रते हए उसे कोमलता, माधुयं एवं सौन्दर्यं प्रदान करता है | यण „(~ ]]------------~~~~___ ४२२६ +1(# 1 ॥) वि, वि.--कविता गीतों (गायन) श्रादि कै स्वर-उच्चार्णा मे जो | लरद़ो-सं. स्वी.--१ मादा भेड्‌ । समय लगता है वही लय है तथा जिसे नियन्वित एवं संयम रखने के लिए ताल का सहारा लिया जातादहे, & गीत कौ धुन, गाने कास्वर। १० संगीतमें गतिक विचारसेगनेकादंग या प्रकार निसके तीन भेद कहे गये ह -विलंवित, मध्य, द्रत । ११ वार्तालाप के समय रन्दो के उतार-चढाव की दृष्टि से बोलने का ढंग या क्रिया, लहूजा । उ०--इतरी युणतां ईज श्रादतन ठाकर रौ एक हाय चट मूखां माथे जाय पगतौ श्ररजँ माथंजोर देयनं ठाकर लवी लयसूं वौलताजैऽ55555 माताजी री --रातवासो १२ श्रवसर, मौका । रू, भे.--लौ । लयरख-सं. स्त्री. [सं. तयन] १ लय होने को ्रवस्था, क्रिया या भाव। २ भ्रारयाम, विश्राम। ३ विश्वाम गृह्‌ । ४ गुफा, कन्दरा । लयता-सं. स्त्री.-१ वयदहोने की क्रिया या भाव, समाति, नाश । उ०-सिवे सक्ति का सव विस्तारा, ब्रह्मा कीट लग कररे । इनमें ई उत्पति र्थिति श्र लयता, निज स्वरूप निरपख रे । , -सुखरांमजी महाराज लयनपुन्न-सं. पू. यौ. [सं. तयन ~-पुण्य | जगह या स्थानादि दान में देनेसेहौनि वाला पुण्य। (जन) लयलीन-~-वि. यौ. [सं. लय + लीन] १ किसीके प्रेम मे मरन, लीन, भ्रादाक्त । उ० --माया-जद्ट-माहि मच्छरिउ, लागि रहि लयलीन । गंगा- तटि मूकी गली, हं मारित्ति मन-मीन । --मा. फा. भ्र. २ लगा हुश्रा, फसा हुश्रा । उ०-- महारो महारौ करि घन मेलव्‌, लोभ वसे लय-लीन । नरक तां घर चूं छ“ नवनवा, दरणमें मेख न मीन । -ध.व. ग्र ३ देखो (लवलीन' (रू. भे.) लया-देखो "तता" (रू. भे.) (जन) लयाकत - देखो 'लियाकत' (रू. भे.) लरड़ -- १ देखो (लडढ़' (रू. मे.) उ ° --श्रंदाता, श्राप किमतौ विस्वास्र करौला-दत्तौ ऊंची प्रेलम के फगत दोय घड़ी में वेत-बेत लांबा वाठ श्राय जावं ¦ सेवां उयुं लरड- लरड वधं । --फुलवाडी लरडतो -देखो (लरडी" लरटियो-सं. पु.--१ मेड का यच्चा । २ देखो तरडौ' (ग्रत्पा., ₹, भे ) २ लाक्षरिक श्रयं मे भ्रषेडस्प्री के लिए प्रयुक्त शव्द । मुहा.-१ लरदी वणणौ कायर वनना, डरपोक बनना । २ लरड़ी मार्थं उन कुण छोड =गरीव का सब दोपणा करते ह । लरङो-सं. पु. (स्वी. लर्डी) १ नर भेद । उ०--व्हा ब्ग इणार हाथां न्याव? श्री न्याव निवेदण जोग ग्रकल व्हैती तौ तडौ लियां लरद्ियां रं लार ढरर-ढरर करतो कषय रवडतौ । -- फुलवाडी २ लाक्षणिक श्रथ में श्रधेड व्यक्ति के लिए प्रयुक्त दाब्द 1 ज्यू -मोटी सारौ लरड्ौ च्टियी हं । ग्रत्पा+-लरडियौ, लरडियौ । लरज-सं. पु.- सितारकेद्छःतारयोमेसे पांचवा तार। लरडियौी-देखो "लरडी' (ग्रत्पा, रू. भे.) लरखी-देखो ^लरडी' (<. भे.) (स्त्री. लरडी) लयराह-पं. प~ सोलकी वंद के क्षत्रियो कौ एक शाखा । । (वां दा. स्यात) लरियाढ-देखो ^लरियाठ' (ङ. भे.)} उ०-दसे में भागेमुर मंगायजंद्ै। सूकिण भाति । केसर री क्यारी दोलल्ी, वासग-माथा री ! योहर रावीड़ा री, भाखर रा खुडा री, भरं मोर री,कार्ठं पांनरी श्राव्रु रा विहृ री, भमरमार, भिरघमाढ लरियाढ चिदियाल, चोटडियाठ । --रा.सा, सं. लद्छ-स. स्त्री - १ उत्कंठा, प्राना 1 लल-सं. स्प्री.--१ श्रत्यिक ठंडी वायु । २ वुद्धि विचार । २ शक्ति का श्रंश्च 1 ४ शुभ लक्षण या गुण । लघ््क-स. स्वी.-- १ लचकः, मोच । २ भकाव। उ०-मकोडौ केवं मां गुड़ री भेली त्याऊ, तेरी टांगां री लक तौकंवंरहीटहै, -दसदोख ललक-पं. स्वी ~ १ गहरी श्रमिलाषा । र २ सोच, लचक, भुकाव । ३ प्रोत्साहित करने की क्रियाया भाव । उ०--१ कलक वीरां ललक भडां श्रहंकारीयां, धारीया खत्रीवट घड़ धुरं । कठ्राधर फावियौ ईस वाटं कमदछ, भुजा यम ठाियौ दरंग भूर । --पीरदांन श्राढी ललकणो ` ४६२७ ललकारण्ते उ०--२ तौ श्रारवखा हाथी र होदं वरौ ललकां करं है वा फास कतेद, हाथ ललकतह, सीतल गगोदकरि हस्तोदक दीधां । कनं है । --द. दा. =. ४ गायन कौ तीखी वे ऊँची ध्वनि । ललकणहार, हारो, (हारी), चलकणिथी-- वि. । उ०--१ लाग सिघवां ललक, खलकं हक वक धूं वित । करणा दुक ललकिश्रोड़ी, ललक्गियोड, ललक्योड़ो--मू. का. कृ. । केवियां, रूक रणा रहत रूक रत । -- मिरबरदांन कविय जलकोजणो, ललकीजवौ --माच वा. 1 उ० --२ सहन!इन लामी ललक क्िधु सुणवाया । -व. भा. ललक्षकणो, ललक्कवौ, लद्क्कणौ, लदक्कवौ-- र<. भे. । ५ पक्षियों का मधुर कलरव, मीठी ध्वनि । ललकार-सं. पु---१ युद्ध में दी जने वाली प्रोत्साहन युक्त प्रावाज । उ० --धुमडं कांठठ श्राय, चदढी घनघोर को । ललक्ां कोयल लार, उ०--व्रित लौजत, सामक श्रठ्व्ां, दुरवेस चङ श्र जोस दढा । किलक्रा मोर की । -- महादान मेहड. हलकार भड़ां ललकार हुवे, चगथा मुख तेज सरेज चुवं । रू. भे.--ललक्क । ~स र, २ रणाग्णमेख्चेस्वरसे किया जाने घाला युद्ध, श्राब्हान, लढकणौ, चरख्कबौ-क्रि- भ्र. ~ १ सुकना, लचकना, मोड़ खाना । उ०-सोढी रांणौ राय चंपेी रो फूल, मूमल्त केठ. कांमटी । महकण॒ लाग्यौ चपेली रौ फुल, लव्कण लागी फे. कांमठी । हाका । उ०-- वड रावत ऊमसिया तिणा वेना, एम सुखं भुज श्रांमठतता । ललकार हृवौ भड भ्रावे लासां, छौडं तेज तुरी लिता । --लो. मी. | २ देखो (ललकणौ, ललकमबौ' (<. भे. - गुज ₹<, व 2 । ) २ कोलाहल, शब्दधोप । । लठकणहार, हारौ (हारी), लठकणियो--वि० । , ४ लढकिश्रोडी, लठकियोडो, लघक्योडो --भू० का० कृ० ) उ०--सरकं के गज धक सक्ती, रंज धुंघटठी कोटठाहढ रत्ती । भलटकोजणो, तद्कीजनवौ--माव'व। ० 1 ग्रति वल व्रखभे जुट श्रपारां लगर प्रव कट ललफारां । ---रा. <. ललकणो, ललकबौ-कि- श्र.--१ तीक्ष्ण स्वरे से गायन करना । स ४ गायन मे ऊंची व तीक्ष्ण ध्वनि । २ तेज व प्रवर ट्वा की घ्वनि होना 1 उ०-ललकत जाभलियां वाजरानं लागी भरखां मरतोडी खलकत पड़ भा 1 चोरा थठ ग्रिहरा तिल खेढवत तर्ज । बढी चंलीनं साधु ज्यौ वरन । --ऊ. का. उ०--गहणां मे लड़ाभूतर हुयोडी लुगायां री चण लुहर री लल्‌. कारमं जिणटेम सांमनं बाढी लंणा नं जवाव देवणनं श्रा वदती तौ उणा र पगां र धम्मीडां सं घरती धून लागती 1 --रातवासौ ३ गजना, दहा डना । ह ५ उत्साहित करनेकी ष्व्रनि, हमला बढाने को श्रावाज। उ०-- माच घमचक मचक श्र्ठुक दहं मांभियां, तोड़ सांकठ ललक सीह चरूटा । साचटां हलां वीज्रुजाखां साफ, जोध रिणमा जमाल सटा । --सेरसिह कूसलसिह्‌ रौ गीत & दीला पडना। उ०--भ्राज वा ललकार सुणीजी । पीदियां सूं दन्योड़ा श्रभ्यागत प्रेक जत्थ समखरी खाय मायौ तांण्यौ । --फुनवाड़ी ६ वायु का प्रवाह । उ० - भातं पहल मगाविय, लग्नां ललकारां । जोढ़ां कृश्रां श्राचिया, उ ०--दियं गादियौ हार, तुररा तूटा तार 1 नखां री रेख, दून । हि (+. & घोढां दोषारां । --लू, चद रं वेख । पेच ललक्िया, सिरपेच दठकिया । कवर ज्यं ज्य रस री वगत जपं "रतना'रौत्यं त्यु श्रंग कर्प । --र. हमीर ५ शीघ्रनासे किसी की रक्षा के लिए दौडना। ध नीरवांणी कजाक, हलकार दहं वक बाज हाक । धानक टकार भव्छकार ध्रोह्‌, ललकार मार प्रणपार लोह । ७ तेज भ्रावाज, ऊंची प्रावाज | उ०--हृतौ हिदर्वां तणौ धरम सूरा" हरौ, सवछ चिता पदी देस सारं । दुख मरूघर तणा रसै हिव देखस्या, ललकिथा दैव जसवंत --वि, स. लार) -घ.व, ग्र मह्‌.+--ललकारौ ६ देखो 'लढठकणौ, ललखकवौ' (रु. भे,) ललकारणो, ललकारबो- क्रि, स.--? युद्ध भगडे या प्रतियोगिता के उ०-- पद्मिनि हस्तिनी संखिनी चित्रिणी एह्वी स्त्री सोल गार लिए उच्च स्वर में श्रान्हान करता । मारी, सुवरणमड्‌ करवद्‌ ढलकेतदइ, चुडइ खलकतद्‌, ककण भल- उ०--१ सत्रां दट मूग संयद सेख, वणं ग्रह बाज फवरूतर येख । ललश्ारियोडी ४ ~ ~~ ____-~--___--~-~_--_-~_-~_~__~_~_~___-___-_-_~_~_-~-_~__-~_~_-_~_~___-~-~~_~__-___~__~_-_-_--~--- ~ सरां श्रप्रमांण पठांरा संहारि, लिया कर सल नरां ललकारि । ध; मर उ०--२ तद कुवरसी पू लागि सारे साथ नूं ललफारं चै) --कूंवरसी सांखला रौ चात ३ जोदा दिलाना, उत्तेजित करना । उ०-वड़ी खपरियां रातीरव्यर्तौमूठमें द्ये श्रीर तरकस दोय होदां में द । राव राजपूतां नूं विरदार्वं ललकार छं, मौ घोड़ां रा सवार हाथी सूं पांवडां वीस-तीस श्रमल-वगल अभा दय । --टाढद्रा सूरे रीषत उ०--२ श्रवर संवर विशा संवर ्रकुावं, जटेहूर वदियां चिन जचियां जिय जावै । तोरा लं सुरां मोरां ललकार, पसू पदि्योदुा ध्रांसू पठकारं 1 --ऊ, का. ४ चुनौती देना । उ०--नांनीमांश्रर गमी्जडी अ्रखगिण, श्रतेशं सुगायां र सागे करोड़ श्रन्याव उणानं ललकारण लागा । --फुलवाड़ी ५ तेजी से हांकना, चलाना 1 उ०~-देवर म्हांरा, थे छी निपट नादान जी म्हारा ये द्धौ निपट नादान जी, थांरी लीलडि्यां तलकारौ, म्ह वाला जीर्न धोखस्यां । --लो. गी. ६ सतक करना, सावधानं करना । उ०--म्हानं गिणजौ मूढ, ग्रमलियां श्रांगणगारां, करण पर उप- कार, लार यनि ललकारां । निज कीन्ही थे नास, कटौ किण रक्षा करस्य, वात खरी है परण, मीत विन नाहक मरस्य । --ऊ. का. ललकारणहार, हार (हारी), ललकारणियो-- वि. । ललकारिश्रोड़ी, ललकारियोड़, ललकारयोड़ी -- भ. का, कृ. । ललकारोजणो, ललकारोजवो ~ कर्म वा. । ललकारियोड़ो-्रुः क). कृ.--? युद्ध या प्रतियोगिता के लिए उच्च स्वरसे श्राब्हान किया हृुद्रा. २ जोश दिलाया हुग्रा, उेजित कियादहुश्रा. ३ चुनीती दिया हृश्रा. ४ तेजी 9 टाका या चलाया हुग्राः ५ सतक किया हश्रा, सावधान फिया दृशा (स्त्री. ललकारियोडी) | ललकफारो-सं. पु. (व. व, ललकारा) १ भरते को हिलाने दुलाने हेतु दिया जाने वाला धक्का 1 उ०--रंणी रेणवं हीडण वैठया, धरती न मेलं भार, श्रोजी सूरजजौ ललकारो दिश्रौ, ग्री ह्डौ गयौ गिगनार्‌, ग्रोजी वन खंड मे हिडोढौ मांडचौ, रसम री पट डोर, श्रोगी । --लो. मी. २ देखो (ललकार' (मह. रू. भे.) | (2, ,. 31 उ०~--१ दोन री साहिब म्हारी षीठगाद्धखदा रही, तरसकाराकये चाकरं री रंग देखी । --मारवाट्‌ र उमरार्यां री वारना उ०-->२ सो भँ रटकती मुम छ । नजीक्र गां भरमल रौ यौन सशियौ जो ऊमी चलफारा कर्‌ दछ--'फतांणी मश दोरटु । प्प्वाणी रीकटीष्टोटदौ। --युःवरसो माग्यला ग वार्ता लटक्रियोदधी-नू. का. ¢. १ लयफा हृघ्रा, कका दश्च, मोद मागा ^ द्धा २ देमो लतकायोष्टौ' (२. भे.) (म्पी. लद्धकरियोदी) ललपियोशो-मू. का. वकर.-१ उंवाच २ उत्साहित किया हश्रा, जीय किया हुश्रा. ४ ललक्रारा दग्रा फे लिष् दोड़ हुश्रा । ६ दैमो (तटकियीटुौ' (२. भे.) (स्प्री. तलकियोद्री) तेज न्यर्‌ मे गायन किमा दग्रा, दिलाया द्रा. ३ प्राक्रमसा ५ शीघ्रनामेकिसीकी रक्षा सदटटकौ-सं. पू.-- मस्ती में भूमने की क्रिया या माव) उ०--१ अं राजा दगा मात "लका देता फिर तौवेराजाई 23 । ~ फुनवाड़ी २ लमनेया मुने की द्वियाया माव । उ०--जसरी सुन पगदं लद ने जार्य, हीरा माणक सव हका व्ह जा्वं । चिनयिन्‌ दाता जग सानां मग धाया, जननी जमधारी वारी जिणा जाया । य ॐ ५ सभ ् ललकौ-सं. प.--गायन को तेज च्वनि या लहर । <. भ~ सलक्करौ । ललष्ु-देखो (लनके' (र. भे.) उ० - ह्व मुख ललष्ठु कलक दती, मवे लके धरई चसे लकय लली । भड़ ग्वह्ल्‌ क्रगल्ल वगह्ल नड, धड़ लज्लं पगल् नहघ्च धडं 1 । ~प, पु, सलदषकणो, लद्यकयी- देखो (ललकणौ, लसलकवौ' (5. भे.) उ०-- लद्धश्कं गजां पोगरां नाट लोमा, यसक्क मुता सूरमां माण सोभा 1 गुड्‌ वदां ग्रागद्धात्तोप गाडा, जठ वाख गोटी सरजांम जाडा । ॥ सू. प्र. लल्ुरणै, ललक्रुयोौ - देखो 'ललकशौ, ललकवौ' (रू भे } उ -- तुरकांसा तलक्किय हिन्दु तलक्रिकिय हूर हल विकय हेरि वर 1 कर सेल भद्धविकय इल ददपिकयं खाक खरूदिकय स्लोन भर्‌ 1 --सा. रा. ललक्कणहार, हारौ (हारो), ललक्कणियौ--वि० । ललक्कश्रोडी, ललविकयोड़ो, ललक्क्योड़ी- भू° का० कृ° । ललक्कीजणो, ललक्कोजनो--भाव वा० । लटक्कियोडौ ४३२६ लठचावणौ = ३ श्राशक्त होना, मोहित होना । उ०--हृय नार सुगणा, मिचियौ मण्णा, दांणव परा ए दग्गा । ललचायौ रमणा, नाचण लग्गा, सीस करग्णा विणसंतू । --मगतमाल एेखा कार्यं करना किं जिससे किसी के मनमें कोई वस्तु प्राप्त करने हेतु लोभ या लालच उत्पन्न हो । उ०्- वेग सिकंदर वचन सवाई, जवन इनायत तणएौ जमाई । इणरं कौल मिल्ण कं श्राया, लेखे रीत किता ललचाया। = = लद८क्कणहार, हसै (हारी); लदक्कणियी--वि° । लछषिकश्रोडौ, लटक्कियोडौ, लद्क्वयोडी-भू° का० क°। लदछक्कीजणौ, लढक्कीजव- भाव वा०॥ लदछषिकियोडो--देखो 'ललकियोडौ' (रू, भे.) (स्त्री. लढविकियोडी) ललषिकयोडौ--देखो 'ललकियोड़ौ (रू. भे. ) (स्त्री. ललकिकियोडी) ललक्कौ--देखो 'ललकौ' (रू. भे.) उ०._ तेण कत श्रच्छसा रौणांग माग श्रावा लागी, पूरा सुरां वीरं सू जमावा लागी प्रीत । ललक्का उचछ भरू चंडका रमवा ` लागी, गावा लागी जोगणी वीरण मंत्र गीत । --सुखदांन कवियी तलचणौ, ललचबी-क्रि. ्र.--१ लालच म पडना, लोभ उत्पन्न होना । उ०--हियै बसाई हरखसू, मधुसूदन महासज । नर जिणसूं लल च॑ नहीं, सो त्रिभुश्रण सिरताज । --वां. दा. २ किसी प्रिय वस्तुको प्राप्त करने हतु ्रघीर होना, लालायितं होना । ३ श्रालक्त या मोहित होना ।, +उ०- ननां लोभी रं बहृरि सकं नहि प्राय \ रोम रोम नल सिख स्र निरखत, लल रहै ललचाय । | ललचणहार, हारौ (हारी) ललचणियी--वि.1 ललचिश्रोडी, ललचियोडौ, ललच्योड़ी- भू. का. छ. । ललचीजणी, ललचीलबौ --भाव वा. । लंचणी, लंचयौ, ललच्चणोौ, ललच्वबौ--रू. भे. । ललचाडणौ, ललचाडनो-देखो न्ललवाणौ, ललचाबौ' (<. भे.) ललचाडणहार, हारै (हारो) ललचाडणियौ--वि. । ललचाडिश्रोडी, ललचाडियोडौ, ललचाडचोडो-- भू. का. क । सललचाडोजणो, ललचाड़ीजवौ -भाव वा. । लल चाडियोड्ौ - देखो 'ललचायोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. ललचाडियोडी) ललच।री, ललचाबौ-क्रि. अ. - १ लालच या लोभ मे पड़ना । उ०--लोभै ललर्चाणा थकौ, मत लानि लप, काच तकं सिर उपर करसी चय्पद्रां । ले जासी इक छिन भे ज्यं वाउ छलदा, राहगीर संघ्या समं सवे इकटट्ा । -च.व, भ्र. २ कोर प्रिय वस्तु की प्रापि हेतु श्रघीर होना, लालायित होना । उ०--१ मैनां लोभी र बहुरि स्क नहि श्राय । रोम रोम नख- सिख सव निरखत, ललच रहै ललचाय । =~जीरं ध । --पनां उ०-२ तौ भुज पर दिली तखत, भ्ररि क्यूं तक्कत श्राय! फीट ललचावणौ, ललघाववौ- देखो ललचाणी, ललचावौ' (रू. भे.) पड़ घर ग्या फकत, चित जरमन ललचाय । ~ संतर्दनं वारहठ उ०--१ सकठ चढावं सीस, दांन धरम जिणरौ न त । ५ उमंगित होना, उमगयुक्त होना । क्रि. ख.-६ शपते रंग-खूप या हाव-भाव से किसी कौ मोहित करना या ग्रासक्त करना । ललचाणहार, हारौ (हारी), ललचाणियौ -- वि. । ~ ललचयोडी- भू, का. कृ. । ललचारङ्जनणौ, ललचारईजवो--कमं वा. 1 ललचाइणोौ, ललचाडवौ, ललचावणौ, ललचाववौ, ललच्चणौ, ललच्चबौ - रू. भे. । ललचायोडौ-भू का. क --१ लालच या लोभमें पड़ाहूग्रा. २ कोई प्रिय वम्तु प्राप्त करने हेतु श्रवीर हुवा हश्रा, लालायित हुवा हुग्रा ३ श्राशक्त दवा हु्रा, मोहित हुवा हरा. ४ एसा कायं करा ह्र कि जिससे किसी के मन मे कोई वस्तु प्राप्त करने के लिए लोभ या लानच उत्पन्न हौ । ५ किसीप्रिय वस्तुकी प्राप्ति के विए श्रघीर या लालायित किया हुभ्रा. ६ उमंमित हुवा हृ्रा, ७ ग्रपने रंग-ष्प या हाव-भावसे किसीको मोहितक्िया हुभ्रा या ग्राशक्तं किया हुश्रा 1 (स्त्री. ललचायोड़ी) ललचावण, ललचावणी-सं. स्त्री--ललचने की क्रिया या माव, लाला- यित होने की क्रियाया माव । उ०--खवास श्राय कंवर नं हकोकत कही । वावनां चंनरा के विर ग्रहे रूप मिज तौ सही 1 जरं कवर मनमें तौ श्रा वात धणी चारी चौडे नटवा की सूरत दरसाईइ , पाठौ जवाब दियौ ्रमार तौ ह नई रस्या, कहस्यौ तौ वावडता श्रवस्या । म्हांकौ तौ तीज कौ वचन द, जीस्‌ं पावा जास्यां, मनमेतीप्रा बात । प्रौ मे तौ लाखां ही, वातां मिराइजं । कवाही तौ सरू पण यां कि ललचा- - चावणी देखी ही चादीजं । खवास पनां नं या हकीकत कही । सुण- तांद जांण्यौ मनकीहूसमन में ही रही । ललचावियोडौ 1 १ णौ १ खिताव यगसीसः, लेवण किम ललचवसी | --फेसरीत्िह वारर उ०--२ मौड़ं मल मौडे हीतठछ हतवाली, पीत परण नं सीत सत वाढठी । लुच्जा ललचावं तालच धिन लागे, लोचण जय मोचण सोचण चिण लाये । --ऊ. का, उ०--३ सुणौ वयण भ्रंगद कटठह्‌, सुभड़ सरसाविया, थरक जदछ थाट जिम त्रिकट जण थाविया। चाठ वावं धुरा दनुज ललच।- विया, श्रंतवप श्रकपन समर सज च्राविया । र, रू. ललचावणहार, हारी (हारी); ललचवणियो -वि. 1 ललचाविश्रोड़ो, ललचाचियोडौ, ललचग्योडौ -भू. का. कृ. । ललचावीजणौ, ललचावीजवो -- भावकम वा. । ललचाचियोडी - देखो "ललवषायोड़ो' (रू. भे.) (स्त्री. ललचावियोडी) ललवियोडौ-भू. का. कृ.--१ लालच या लोभम षड़ादहुग्रा. २ कोर प्रिय वस्तु प्राप्त करने हेतु लालायित हुवा हुभ्रा. ३ भ्राशक्त हुवा हरा, मोहित हुवा हुभ्रा । (स्त्री. ललवियोड़ी) ललच्चणौ, ललच्चगै--१ देखो 'ललचणौ, ललचवौ' (रू. भे.) २ देखो 'ललचाणौ, ललचावौ' (रू. भे.) उ०--सीहां थाहर सीहरू, हवा न इचरज होए । कांम “पताः कमधरज रा, सुणण ललच्चं स्रोण 1 --किसोरदानि वारहुढ ललघ्रचियोड़ौ देखो 'ललच्ियोड़ी' (रू. भे.) २ देखो मललचायोड़ो' (रू. भे.) (स्प्री. ललच्चियोडी) ललणा-देखो "ललना" (रू. भे } उ० --ग्वाड विचारं पीपी ललणा, ललाजीजेका द श्रडवड्‌ पान, प्यारी लागी कुठवेहु ललणा --लो. गी. लदछ८णौ, लग्वौ-देखो 'लुरखुणौ, लुक्रौ' (रू. भे.) उ०--वंका मड मुरघर चिचै, वकं लद्धं तज वंक । “पातल' ताय तपायने, सीधा किया सणके । -- चिमनदानं रतनू उ --२ श्रहुप सिर लठ भ्रचठ चछ यछ, वाजं हुकढ कठठ चल- वछठ । खट्ट चट्वठ सरित खन हूढ, समल पटलगछ लीघ सामि । --र, ज, प्र लदछणहार, हारौ (हारी), लटठटरिपौ-- वि. 1 लदविश्रोड़, चचिपोडौ, लख्योङ-भू. का. कृ. 1 ललढीजणौ, ललौजवबी--भाव वा. लछियोडौ -देखो नुियोड़ी' (रू. भे.) | (स्त्री, लल्ियोड़ी) ४२३३० ` लेवराणौ णो (किप पिपोयीतीी ,8 1 1 ललत-देखो (ललितः (€. भे.) (श्र. मा.) उ०--१ लुघ चवदह पायं लतत, यचि गुर प्रतिं वताड । गुण सांगछि रीजं गुणी, सर्हा एगा सुमाढ । ` -पिःप्र. उ०--र नव नव भांति पुल नवी, पेनि भावि त भ्रति मोलवी । ततत गरभेसर तक्षणवंत, मध माधव रमि वस्त । ~ प्राचीन फागु-मग्रह्‌ लततमुकुट-सं. पु.-ष्गितका एक गीतो कुली या ्टद के समान ही दोहे के वाद वरिभरगी जोदृकर र्चा जातारहै। ह्िदी मे टुसरका दूसरा नाम व्रिमंगी मीहे । उ०--भरा दोहै पर ददे त्रिमगी, व्रिपविलोकण सार । वतत मुफुट सो गीत मुलक्षण, वरण “मं विचार । ---र. <. रू, भे. - ललितमूुकुट 1 ललता -देसो "ललिता (₹ू. भे.) उ०-पीदोटं श्रारई्‌ प्रगट, हीरां उच्छय देत । की द्रगनि पितौ. कता, ललता भन हर तेते । --यगसीररम प्रहित री वात लतलना-सं. स्परी. [सं.] १ स्प्री, रमणी (ख. मा. हु. नां. मा.) उ०-चंगश्रनं मुख चंग वजार्वं, उटावं गुताल । लालन ज तजी ललनां, तिणा कौ कवा हवार्व । -घ. व्‌. ग्र. २ जिव्हा 1 ३ एक वणेचरत्त जिसके प्रत्येकं चरण मे भगण, मग्ण भ्रौरदो सगण होते ह । रू. भे.-ललणा, ललूना ललपत-सं. स्व्ी.--खुशामद, चादूकारी । लव्भख-सं. पु.--- मांस ? उ०--लछभख सावज लेवतां, होय लत्यौ चत्त । साते हाय कटा- रिया, मत वाह वत्तं । । --वी. मा. लतयांगी-वि.-तलितांगी । उ०--रूप निरोपमी मेदनी, श्राद्धा कापड भीर लंक । ललयांगी धन कुवली, भ्रहिरष बाढा निरमट दत ) --वी. दे. ललरणी, लल रबौ-क्रि. स.-- १ लडखडति हुए बोलना । उ०- वहै म सेल कटं खग वीज, खट्धां खग कट करं घर खीज 1 उमा घड्‌ केयक सीस उडत, लुटं ललरं श्रि जेम लुडंत 1 श्र (न 0 प्र. २ तुतलाना) रू, भे.-ललराणौ, लल रायौ, ललरावणीौ, ललराववीौ ललराणौ, लल राबौ--देखो 'ललरणौ, ललरवौ' (रू. भे.) लल राणहार, इारौ (हाते); ललराणियो--वि.। लल रायोडी--भू. का, कृ, । ललरायोडौ लल राङ्जणौ, लल रार्दजवो-- भाव वा. । ललराथोडौ-म. का. कृ.-- १ लइखडति हए बोला हभ्रा" ९ तुतलाया हु्रा\ (स्त्री. ललरायोड़ी) लल रावणो, ललसाववी -देखो ललंर्णौ ललरवौ' (रू भे.) उ०- कर कंवै लोयणा कर, मुख ललरावे जीह । मावद्या जुव मे मिध, पुगमतापण रा दीह --वां. दा. लल रवणहार, हारौ (हारी). लल राबणियो-- वि. । ललराविगम्रोडो, ललरावियोड़ौः ललरव्यौडो- भू का. इ. ललरावीजणौ, ललरावीजवौ--कमं वा. । ललरावियोडौ - देखो "ललरयोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. ललरावियोड़ी) लदवल-सं. स्त्री.-- मूडने की क्रिया) उ०- चख ग्रारण धिखता रूप चो, क्रीडा करत मधुकर कपो पोगरप लाग लढवल प्रनूप, राग रस रीकिया नाग रूप) -सू. प्र. ~ द८वलछणौ, ल्वछवी -- १ कोमल ,व लचिली वस्तु का मुडते हुए *ह्िलिना । उ०--१ ल८खवढ्रता पोगसां पाय खलदहन्ता लंगर, कटटट्ठता चख माठ, चोढ मलहकता चाचर । धरा चठ धघकडद, करे फकार कराधा, ग्रहि उखं नैतूढ, तूढ जिम मूढ तराना । - सू. प्र. २ मस्तीसे भ्रूमना । ००--वरबरतों उमरा तुरा त्रापतां श्रताई, लब्चकत। सिधूरां त्र॑वट वाजतां त्रघाई 1 जांमभियां जागी, बहुत लागणी वंदूर्का, भरलकतां सावं, चहं कानियां श्रचूर्का । --वखतौ खिडियौ ३ लचकनां ) । उ०--भीगार भाति भल्ली भड्ज्जि, लक्चछ्छद ग्र॑ग ॒लेजम्म लिज्ज । वीदड़ढ चड्य हद्‌ खव्रीवटु, दोखियां सीसि देवा दवदु । -रा.ज. सी. लवली, ललवलउ, ललवलौ-वि. --कोमल, सुन्दर.) उ०--१ लछवकठ भेवै ल८कता, सुथर डील सुर्च॑ग । भारतवारी भौम पर, नसल नागोरी रंग ) ` - नारायणसिह सांदू उ०-२ ग्रह्‌ नव जुव्वण नेमिकुमरू जादव कुल घवलौ ! काजल सामल ललवलउ, सुललिय मुह कमलं । प्राचीन फागुन-संग्रह्‌ रू. भे.--लल्लवर 1 लंटवलियी-वि.--श्रलवैला, शौकीन । उ० श्राप रोख वैठिया, लव्वचिय! सिरदार । हाजर रहती ह्मण ननुम च + ५ > च = # ~ ४२२१ ललाट व गोरडी, सज सोढा सिणागार । जी उमराव थांरी सूरत प्यारी ला म्हारा राज । लो. गी. ललांम-सं. पु. [स. ललामः] १ घोड़ा । [सं. ललामम्‌ ] २ घोडे को पहनाए जाने वाला गहना या त्राभूपण ॥ ३ घोडे या सिह की गदेन के वाल 1 वि. [सं. ललाम] १ सृन्दर, रमग्ीय । उ०--१ साथ करं 'सिवदत्त' रौ, घन चंद्रा सुरर्धाम 1 गण सीता सत्वर गई, लं गर्ह ललाम । --वं. भा. उ०--२ हरियौ भरियी घान, उत्तरे सदा सतोढी 1 टिगला लगे ललाप धोर घन देव॒ पोल । --दसदेवे २ श्रेष्ठ उत्तम । २ प्रधान, मुख्य । % लालरगका। देग्बो लीलांम' (<. भे.) उ० ~ गायां-स्यां, साढयां "र्ऊंट वोरा लेग्या श्र तरवार-वन्दूकां ललाम हुयगी । --दसदोख लला-सं. पु.--१ गक प्रकार के फुल का पधा । उ०--सिव तिसदा बरख मदार सार लला जाफरा रायवली गुलाव छद केवडा केतकी जाय घाव --भ्रग्यात २ देखो लालौ' (रू. भे ) उ०--१ जानं वाला हौ लला, फरियाद हमारी सुराजा । छत्तियां परः विरहागन भडदा, मुखडं सं मुखडा मिलाजा । -रसीलै राज ललाई-सं. स्त्री.-- लालिमा । उ०-पिद्धली दो पहर रातमेचोरोके उरसे्नींद भी न ्रारई गरेतेमें पूरव की तरफ प्रास्मा मे ललाई दिखाई 1 । -- दुरगादत्त वारहठ लद्लाक-क्रि. वि.--१ लचक के साथ, लचकता से) उ ० --थोथी करड़ावण राखणवाढा जंगी ख चरड चरड उथद्टी- जण लागा 1 लुरताई राखणवाठा क्वद्धा वांटका श्ररी-उरी लछ्ाक-लदाक लुक पण वारौ कीं नीं विगडं । - फुलवाडी ललाड -देखो 'ललाट' (रू. भे.) | मुहा. तिलक री वेढा ललाड पाची करणौ = ग्रवसर खो देना । ललाट-सं. पु. (सं. ललाटं | १ माथा, मस्तक, भाल । उ०-तठे ्रागवौ खागर्हू छाग तोड़, चंडी कालिका मातरं स्रोण चोडे । लगावै सवे सेस त्रिदी ललाटां, करं फेर दविलाम पासी कृपाटां । मे.म २ भाग्य, तकदीर। (डि. को) । ३ भाग्यमे लिखी हर्‌ बात । सतट परद्र पर्याय माठ, भोवरी, श्रलिक, ताटौ, मोधि, नसीव, करम, भाग, तक्दीर, चाचरे, ग्रट्टीकं, =. भे.--नलाड, नलद्ठ, निलाड, निकाड़ी, निलाट, निलारी, निलाड, निढाडी, निल्छ्ट, ललाड, ललारी, लिलाड, लिलाडी, लिलाट, लिलार श्रत्पा.--लिलादडी, लीलाडी । यौ.-- ललाट-पटठ, ततार-पट , ललाट-पद्विका, ललाट-रेखा, ललार- लेख । तलट-पटट-स. पु. यौ. [स. ललाट {पटल | - माये का तल, भाल । उलार-रेखा-सं. स्वी. यो. [सं. ललाट +-रेखा |-माग्य की रेखा; प्रारव्य । ललाराक्षि-सं. स्त्री. [सं.] एक राक्षसी जो श्रशोक वन मे सीता के संरख्षणा हेतु नियुक्तं की गर्द थी। ललारि देखो "ललाट" (रू, भे.) उ०--रा्जानर्जान संगिहुताजु राजा, कहैसु दीष ललटि कर। दूरा नयर कि कोरणं दीसै, घवकाभिरि किना धवछ्हर । -वेढी ललाणो, ललाबौ-देखो ललावणौ, ललाववौ' (रू, भे.) ललाणहार, हारो (हारी) ललाणियौ - वि । लतापोडो-मू का क. । ललार्नणी, लदान --माव वा, । सतयपोडो-देसो ललावियडो' (रू. भे.) (स्त्री. ललायोडी) सलटावट-सं. स्त्री कना क्रिया का भाव। उ० -गदटोवढ देक चटा वख गूंध, लद्ावट हैक लुट हद्‌ लंय चछठव्वठ हैक हुभ्रा ब्रन चो, घारां महि हैक दियं घमो -- गू. <. य. तलावणो, लत्तावदौ-क्रि. स.-टिलाना, फसलाना 1 उ०--रठं र माये वोहसां नंदवाणं रो करज, लेवै सु वोहरौ रोज मागर श्राव । ताहुरां रढो करै, "भ्राजं देवां काल देवां । इणा भात ोहरां नू रोज सलाद वोह्रौ १ करै, “रोया नूं काहू दवावां'। -- वात रठं गवी री तलावणहार, हारो (हारो), चलावणियो - वि। ललाविग्रोडी, ललावियोडे, ललाच्योडो--भू. का. छर, । लकायीजणो, सलावीजयो--कमं वा, । सलाणौ, वलावे - रू. भे. 1 । लतावियोढो-श्र. फा. कृ.--टिताया हूश्ा, फुसवाया टूश्रा 1 (स्री. चलावियोडी) ४३३२ ललिता चेष्टा जितम सुकुमारता के साथर्भौ. श्रांख, हाथ, पैर श्रादि भ्रंग हिलाये जति है | २ एक विषम व वृत्ते जिसके पहले चरणा मे समर, जगा, सगणव लघु, दुसरे मे नगर, सगर, जगण व गुरू तीसरे मे नगरा, नगण, सगर श्रौर चौथे मे सगण, जगरः, सगणा जगण होता है । ३ संगोतमे षाडव जातिका एकरागजोसैरव राग कापुत्रः कहा गया है भ्रौर जिसमें निषाद स्वर नहीं लगता तथा धवत श्रौर गाधार के भ्रतिरिक्त ग्रौर सव स्वर कोमल लगते हैं । ४ एक गौण ्र्थालेकार, जिसमें कोई वात छायाकैरूप में कही जाती ह । ५ एक वाशिक छंद जिसके प्रथम ्राठ वौ पर्‌ यत्ति प्रर फिर १४ (मनु)--१-- १५ वणं पर यति होती है। ६ वालक | ७ एके गंघवे जो शाप के कारणा राक्षस्न हृश्रा तथा "कामदा" एका- दशी का ब्रत करनेसे शाप मुक्तो गया । चि---१ सुन्दर, कमनीय, मनोहर । (श्र. मा. हु. नां. मां.) उ०--१ मधुर वचन छवि चंद मुख, ऊम्गं उरज ऊतेग । तीलेवर दाक ललित, सुभ कंचन-गिर सरग । ( -- वगसीराम प्रोहित री त्रात उ०--२ लल्लितत लजीलौ छै. सुभग सजीलौ छै मनोहर इरी मुरत, कांमणगारी सियावर म्हांने निरव दं सखि प्यारी ! "धः गी, रा. २ शुभ, कल्याणप्रद । उ ०--मवसतति ना भय दुख भजर, पंचम गति दातार रे । तिभू चननाय ललित, गुण तोरा, गावड देव गंधार रे । --स, कु. रू. भे.--ललतः, ललिय । यी.--ललित-कठा, ललित्त-कांता, लकित-गरभेसर, ललित-त्रिभंगी, लचित-पद, ललित-लता । ललतितकाता-सं. स्त्री. यौ. [सं, ललित -{-कांता | दुर्गा, देवी । ललितकीस्वर-सं. पु-- हनुमान, पवनसुत । (ड. कौ.) लितगरमेसर-तस., पु. [सं. ललित गर्भेध्वर] मनोहर गर्भेखवर । उ०--नवनवे लीला विलास रमड, मुह्‌ पि जिमि, कलि पृ पहरइ, खडोखलि तरां पांणी लहरद, ललितगरभेसर द्रव्य श्रवनि- स्वर, सालिमद्राचतार, मद (न) मृद्रावतार, श्रक्लांत तंबोल ममरद्‌, पंच प्रकारि विसयसुख श्रमाणाद, उभि श्रायमिख काद्‌ न जांशद्‌ जाट्‌ । ~व, स. ललितमकुट--देखो (ललतमूकूट' (<. भे.) तलिततता-सं. स््ी.-- माधवी । श्र. मा.) सक्नित-मं- ए. [सं नितं] १ ्गार-रस में कामिक हाव या प्रम | त्तस. स्वी. [सं.] १ राधिका की मूल्य श्रार सखियोंमें से एक । ललिताई ५ ४२३३३ ल्ब च्यु ~ ---------------~-~~--~-~-~-~- ~~~ ~-~-~---~-~-~------------~-------~------ ~~ -----~----------~---~--- ~ ~` ~~~ ~` * उ०--कह्‌त ललिता वैद वुलांङ, श्रावं "नंद कौ प्यारौ । वौ श्रायां `| सलूना- देखो ललना' (रू. भे.) दुख नाहि रहेगी, है मोहि पतियारी । --मीरां २ दस्र कन्या सती का नामात्र । ३ कृष्ण की पल्नियोमे से एक। रौर रग्णदहोते है| ५ संगीत में एक प्रकार की रागिनी। ६ रमणी । ७ स्वेच्छाचारिणीस्त्री। ८ कस्तूरी, मुर्क । ६ दर्गादेवीका रूप) रू. भै ललता, तलित्ता । ललितारई-सं. स्वी.- सद्य, सुन्दर । ललितपंचमी-पं, स्त्री. यौ. [सं. ललिता {पचमी | भरादिवन के शुक्ल पक्ष की पंचमी, जिस दिन पार्वती की पूजा होती है ¦ ललितासस्टीो-सं. स्त्री. यौ. [सं. ललिता~+पष्ठी] भाद्रपद कृष्ण पक्षकी पष्ठी, जिस दिन पावती की पुजा होती है। ललिप्नसक्तमी, ललितासातम-[सं. ललितासप्तभी | --माद्रषद शुक्ल पक्ष को सप्तमी 1 ललितोपपा-सं. स्त्री. यौ. [सं. ललित्त~{- उपमा] एक प्रकार का मर्था लकार जिसमें उपमेय श्रौर उपमान के समतावाचक पदों का प्रयोग न करके एेसे पदों का प्रयोग किया जाता है जिनसे समता, मुका- वला भ्रादि के भाव प्रकटं होते हैं । । ललिक्ता-देखो “ललिता' (रू. भे.) उ०--वप सोढठह सिगार वनित्ता, लखण वत्ती संजुगत ललित्ता 1 सोभा सारिख शरण सचित्ता, दीव मंदर राज दृहित्ता 1 -- ग. <, वें ललित्य-सं. पु. [सं.] १ एक राजाजो वायु के श्रनुसार इद्रसख श्रथवा विद्योपरिचरवसु राजाकापृत्र था। २ कौरवो के पृक्ष का एक राजा जिसने अभिमन्यू पर वाणोंकी वर्पाकी थी! ३ एक लोक समुहजो भारतीय युद्ध मेँ त्रिगरतेरान सुरर्मन के साथ उपस्थित था एवं कौरवो के पक्ष मे शामिल था । उन्होने ग्रजुन को मारने की प्रतिज्ञा कौी.थी पर म्रन्त में प्रजन मे इनका वघ किया) ललिय-देखो लतितः (ङ. भे-) लनूडी-देखो ालौ' (ब्रल्पा. (रू. भे.) , उ०-पान पुल न्‌ लाडलौ, लालन लीला थान! जीव तूं, कोमल केलि समान । ललडौः श्रति लत्तू-देखो (लालौ" (ङ. भे. --जयवणी । लल्लू चप्पू-देखो "ललोचंपी' (रू, भे.) ` उ०--१ वके दीनताके कितं व॑न टेरे, कवीतं परं काफरां हत्य “मेरे । परे चित्युर भूमि जाके विलूना, कहा कंद जानि हमारे लेलूना । ~~ ला, रा ४ एक प्रकार का वरवृत्त जिसके प्रत्येक चरण मे तगण जगण | `ललोचंपी-सं. स्वी.--किसी को प्रसन्न या प्नुकूल रखने हेतु कटी जाने वाली चिकनी-चुषड़ी वात, खुशामद । उ०--रियासत रा पागी नूं प रोर्व, भ्ररजन मोजी राखौज कुण जोव । पग पाछा पड पूरी. ललोचंपी रासं । -- दसदोख क्रि. प्र.--करणी, राखी । रू. भे.--लट्लूचयप्पू । मह्‌.-लल्लोचंपौ, लल्लौचप्पौ । १ खुशामद 1 उ०--१ भले भलौ बुर बुरी, ललोपती लजौ नहीं । प्रभ उचार प्रेम पेख, नेम को तजौ नहीं । --ऊॐ. का. उ०-२ जो कही री दछौकरी-सहेली क्यु दुरटराटौ करै न्नोप्राप डरे जाय ललोपती मूनहारां कर श्रावं । मनांत की सृ पड न देवे! एमी स्यांणी समामी सौ सारौ राहणौ राजी । --कुवरसी सांखला री वारता उ० -३ प्रमोभीं रावज्नी कन्है जातौ थौ! तिततरे ्रभानु कल्यौ म्हारी लाख दुगांणी इण विव रीलेहणी छसु देता 'जावौ । सु ग्र तौ ललोपती घणी करी । - राव मालदे री वात्त ललोचपी, ललोचप्पौ--देखो "ललोचंपी' (मह्‌. ₹. भे.) ललोपत्तौ-क्रि. वि.--१ चित्ता पता, वेखवर । २ देखो (^तलोचंपी . । । उ०--इतरं गोहिलां पिण॒श्रालोच कियौ--जो रालैड ओरावर सिरां प्राय राजस्थान मायौ! जो कूं ललौयतौ - कीचैतो दिग सकीजे । | -- नरसी ललौ-सं. प---१ ल वणं या ्रक्षर । २ देखो लालौ' (रू. भे.) र, भे.--लल्लयं । लत्ल-देखो लल ' (रू. भे.) लत्लउ--देखो (ललौ' (रू. भे.) उ०-- वायस वीजड नाम, ते ्रागह्ि ललड उवद । जइ तं हुव सुजांण, तउ तू वहिरड मोकद्धै । -टो-मा, लत्लवच ~ देखो (लव्वद' (<. भे.) उ०--१ सेन में सव्वं, हई हीलोह्टा, जंण ॒निध्येजछ्, पू पाइदठां मल्दप मगल, सूह लत्लवलां, श्रागद्धी ऊजठा, सेत-दातू- सछा । -गु.रू.वं लवंग. लवंग-सं. पु. [सं.] लवंग नामक वृक्ष श्रौर उसकी कलियां या फुल । (श्रमरत) (श्र. मा.) उ०--१ भाग त्रु पंकज पर भेष , मघ पान छगुण रस मेढ । पाव भाग घरि लवम प्रमांरी, भाघ भाग अगाश्रंक प्ररो । --सू. भ्र. उ०-२ कुण ही पत्लांण्या भ्रा होडा, कैद करहि चडी द्य दहं दिति दौड़ा । के मृचि यांश तंबोढ लवंग-डोडा । --रा.सा. सं. उ०--३ वायक लवंग मसाला बे, जीभ सकर मीठम जेमं। सौहडां कज कौड़ां परसा" सुत, भ्राखर तणौ रामर प्रेम । -तसरांम रावल २ पुरुष व स्त्रियों के कानों में पहनने के श्राभरूषण विशेष 1 उ०--मरद पवसाख भूस कडा मूंदी, क्रंठ डोरौ मूरति लवंग काना । तेषा समोश्रम खुडद गेढा तण, थान जाहर थयौ राज- धानां । --मे. म. २ श्रौरतो के नाक में पहनने का श्राभूष्रा। रू. भे.-लवंगि, लविग, ल्वींग, लाय, लिवंग, लिविग, लंग लीग । लवंगादिन्रूरण-सं, पु, [सं. सवेगादिनूणं ] वैद्यक मे एक चूं विशेष । वि. वि.-लौग कपुर, इलायची, दालचीनी, नागकेशर, जायफल खस सौठ, काला जीरा, पीपल; श्रमर, वंशयोचन; जटा- मांसी, नीला कमल, सफेद चंदन, तगर, नेत्रवाला श्रौर शीतल मिचं सव सम भाग मिलाकर यह्‌ चूण वनाया जाता है । लचंगादिवरी-सं. स्त्री [सं.]१ वेयक मे एक गोली विकशेप जो खासी रोग मे सेवन की जाती है। वि. वि.--लौग यहैडं की छल श्रौर काली भिचै १-१ तोला तथा कत्था ३ तोला भिला वचूल कीलके क्वाथमे ६ धटे खरल केर मटर के समान गोलियां वनार्ई्‌ जाती है। लवमि-देखो "लवंग" (₹ू. भे.) उ०--लाज-लज्जाढ्. लक्ष्मणा, लृंणी लसन ल्वंगि । लीलावती लकड़ी, लाहि लकीरी संभि ! -मा. का. प्र. लवंड-सं. पु.-१ दीवा से उतरी चने की पपड़ी, लेवड़ा । उ०-जड पापी गरभद श्रावद्‌, तद मात विहाला खावद्‌। कड ठिकिरि न खाइ खंड, कटं खायर्‌ भीतं लवंड ) -एे. जे. फा. सं. २ देखो "लंड' (रू. भे.) लव-सं. स्वी. [सं. लवः] १ भेड्‌ की उने । २ भेडकी उन उतारने का कार्य । ३ बहुत थोड़ी सी मातरा, लेक्ञ मात्र । ४२२४ ऋ सुवण उ०--श्रर कतराक मूढ भाट विद्या रौ लव पाय नव रत्न मप्रायौ जिकौ वेताठभेटर त्रन्‌ भी भौट कटै । --र्वं. भा. ४ कवि । (श्र. मा.) ५ पंडित । (भ्र. मा.) ६ कलिकां एक मानजो ३९ निमेप का भाना जाता है। (डि. षो.) उ०-जिण कालं चठ जोर, जग श्राहखणि जाडेचां 1 पुहवि कच्छं पंचाठ, गंलि लीधी पटं पेचां । श्रधिप मीमरे श्रमण, विजय कीवा कई वारां । भड़ सात्रव धर भेटि) किया धड़ पार कटारां! उण सहदेव रण श्रग्रणी, लं वढ साध चडत्य लव । गरदाय सिविर दीधौ गरट, जांमिक परा लीघौ सजवं । व. भा. ७ रामचन्द्रकेदो पुत्रम से कनिष्ट पुत्र कानाम। ८ लवा नामक चिडिया। सं. लवं - € लवंग, लग 1 १० सुरागाय कौ पृटके चात जिसकी चवर वनाई जाती है । ११ जायफ़ल 1 १२ मौका, प्रवसर। [श्रं.] १३ प्यार, मोहृग्यत । १४ देखो "लिव (रू. भे.) ‹ उ०--१ राजा कोड निनारावं, ठेलं वकर । तिश कारणजोमी हृश्रा, लिव सूं लवे लाई; --फैसोदास गाडणं उ० -२ नर हर समरतां नह्‌ वीतं नांखौ, लवसूं तिकौ न तेवं। परनारी निरस कर प्रीतां, दाम हजारां देवं । --र. रू. वि. - १ किचित, सू्ष्म ! (ग्र. मा.) २ समान, सहस्य । २ श्रत्यन्त श्रत्प परिमाण । ` लवक्रव-वि.-- भयभीत । उ०--दटठ सुरितांण जांण इंगरि दव, कपी धरा प्रज हद लवक्रव । श्रह्‌ सुरितांणं भावियञ भ्रवेथरि, करन तणा ऊखिय गज केसरि । --रा. ज.सी लवडो-सं. पु-देखो लंड' (<. भे.) २ देखो लघुः (अत्पा. रू. भे.) लवण-सं. पु. [सं. लवं | १ नमक । (डि. को.) उ० - जिम लवण रहित रसवती, वचन रहित सरस्वती, कंठ रहित गायन 1 | --रा.सा- सं, [ सं. लवणः] २ मधुवन (भ्राधुतिक मधुरा) निवासी एक राक्षस जो मधु नामक राक्षस का पुत्र था तथा जिसका शत्रुष्नने वध किया था । चि. वि.-देखो लवासुर 1 ३ समूद्र, सागर । (डि. नां. मा.) ४ एक्‌ नरक कानाम। १ ५ ४ चै ` ________---------------- वि. [सं. लवख] १ नमकीन, खारा । २ लावण्ययुक्त, सुन्दरं । =, भे.-- लवन, लृंण, लूण, लीण लवणजंन-सं. पु. यौ. [सं. लवण + यंत्र ] के मुह्‌ जोड़कर वनाया हु्रा एक यंत्र नमक भरा होता है 1 लवणत्रयं. पु. यो. [स. लवणा ~-त्रय] सेंधव, विट, तीन प्रकार के नमक का समूह्‌ । (वैक) लवणघेनु-से. स्वी. [सं. लवण +-धनु ] नमक के देरके खूप मे निर्मित एक कल्पित गाय जिसके दान का बड़ा माहात्म्य है । श्नौपध 'वनाने 'हेतु दो बर्तेनो विक्ञेष जिसमें एक वतन मे (वेक) ग्रीर संचल इनं (पौराणिक) खवणमास्कर-सं. पु--एक प्रकार का पाचकं चूर जो, मदाग्नि मे सेवन किया जाता है) वि. वि.- इसके वनानि मे समुन्द्र नमक ८ तोला, काला नमक तोला, काच लवण, सेधा नमक, धनिया, पीपल, पीपलामूल, जीरा, तेज-पात, नागकेसर तालीसपत्र, श्रम्लवेत, सव २-२ तोला, कालीभिर्च, जीरा, सोंठ, तीनों १-१ तोला अननारदाना ४ तोला, इलायची ओर दालचीनी प्राघा-म्राघा तोला लेकर सवको मिला- कर बूट कर वारीक चूण किया जाता है । लवणवरस-सं. पु. [सं. लवणव्ष] कुश दीप के अन्तग॑त एक खंड 1 (पौराणिक) लदणतभंद, लवणसमुद्र-सं. पु. यौ. [सं. लवण ¬-समुद्र| धुराणानुसार सात समृन््ो मे से खारे पानी का समुद्र 1 † उ०--एहवौ जंबू दीप महागढ जेम गिरिदि । सवाई रूपं दोदइ्‌ लख जोयण लवणसमंद । -घ.व. भ्र लवणौतक-सं. पु. यौ. [सं. लवण +-भ्र॑तक | १ लवणायुर नामक दत्य को मारने वाला, शच्रुघ्न । २ नीबू । लवणा-सं. स्त्री--१ दीति, भ्रामा, कान्ति । २ देलौ "लवल्या' (रू. भे.) लवणाई-सं. स्त्री--१ लूणी नदी का एक नाम । २ सुन्दरता, लावण्यता । लवणाचल-सं. पु. [सं. लवण ~+ भ्रचल)--१ पहाङ्‌ के रूपमे लगाया नमक हेर जिसका दान देते का वड़ा माहात्म्य है (पौराणिक) लवणाकार-सं. पु. यौ. सं. लवण प्राकार] -समुद्रण सागर। लयणालय-सं. पु. यौ. (सं. लवण श्रालय] लवणासुर नामक दत्य कौ बघार गई मधुपुरी जिसे श्रव मथुरा कहते है । ४२३२५ | लवणौ लवभासुर-सं. पु. [सं.| मधुराक्षस का पुत्र जो लंकापति रावण कौ मौसी कुंमीनसी का पत्र था। वि. वि.--मधु राक्षस मे कठोर तपस्या करके भगवान शिव शंकर से एक शूल नामक शस्व प्राप्त किया या जो भगवान शिवं के वरदान से लवणासुरकी प्राप्तहो गया थां । इस शूल के यल से दूने देव, दानव श्रौर मनुष्यो को जीत लिया था प्रर प्रजेय वन गया था । प्रसिद्ध राजा मानधाता का भी वघ इसने किया था। महपिगण इसके भ्रत्याचार से पीडति होकर मर्यदिापुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र भगवान की शरण गये 1 तव भगवन राम मर्हासज ते शान्रुघ्न को लवणासुर काव करने के लिए भेजा । जिस समय .लवणासुर के हाथ में शंकर द्वारा प्रदत्त यूल न था तव शनु्न ने इसका वघ कर दिया । यह्‌ मथुरा का राजा था जिसका दूसरा नाम मधुपुरी भीहै। लवणामुर का संहार कर शातुध्न मधुराका राजा वना। लबणिम, लवणिसा-सं, स्त्री. [स. लवरिमन्‌] १ सुन्दरता, सौन्दयं । उ०-- १ मनमथी ठवीय पयोहर, मोहरसावलि तुंग । लवणिम भरीय परकुरीय, परीय राभि नितंब । -- प्राचीन फागर-संग्रह उ०--२ रूपवंत गुण लवणिमा रे, विद्या प्रभूता सार । मदना कारण छै सहू रे, पिण मदन कर लिगार । --श्रीपाल रास लवशोस्वर-सं. पु. [सं. लवरोश्वर] महादेव का एक नाम) उ०--लवरेस्वर रीक्रपासूं पांच सं मानां में ग्रमल कियौ। पावागढ रा, सूतरांमपुर रा राघणपुर रा गाव वीरपूरा दवाया। | --वां, दा. स्यात लवणोद, लवणोदक, लयणोदधि-सं. पु. यौ. [सं. लवणा -}-उदक, लवण --उदचि]--१ समुद्रः सागर! (ड. को.) उ०- मध्य साग लवणोदधि ने रह्या, जिहां लंक कहवाय, सादणी द्रव्य उपावण साथे मानवी, त्यांसुपूरीरेप्रीत। -वि, कु. लवणौी-सं. प---१ कनपटी । ४ उ०--ञ्नगी धनुस वात जव जांशियं, दीं खट डंभ क्रिया पिहि- चांखियं । दौ लवर दोष्‌ पाय एक पनि ताठर्व, परिहा गदड़ी उपरि, . एक इर विध चालवं । २ एक प्रकारका घास । लवणौ, लवचौ-क्रि. श्र. [सं. लवनं प्रा. लव] १ पक्षियों का ध्वनि करता, बोलना । उ०-- १ वीज खवद्र चातुक लवद, दादुर तिमरी तेख । विरूहणीश्रां तति वेदना, ल्लावणं सरद विसेख । --मा. कां, प्र, उ०--२ श्रंखि निमांणी क्या करद्‌, कडवा लवह निलज्ज । सउ जोद्न साहिब वसइ, सो किम प्रावदमप्रज्ज। -दी.मां २ गायका रभाना। । ३ कुत का भौकना । उ०--१ हरीया माकट सुकरा, दोठं की परि एक । गयंद चले गय श्रापनी, दूकर लवौ भ्रनेक । | --ध्‌, व, भ्र, -भ्रनुभववांणी लकधवरस ४२२३६ " लवर ~ ~~ ~~~ ~~ ~ ~ ~~~ ~~~ उ०--र हाथी हींडत देख, वूकररिया लव-लव कर । वडपण तण विवेक, फ्रोध न श्रांसो किसनिया । --किसनिया ४ मटक का टरनिा । | उ०-ग्रोडांमण गर जैत चीह्‌ पपीह्‌ वडां सिरदर। लवं दादुरा करं, भली वौहु भौकर । --पा. प्र. ५ भेड की उन कृतरना) ६ फड़कना । उ०-१ श्रावेरू जर््ूनि चीतवि, लोचन माहारू डवि वि । जो रहि हसि टलवली, सूनरपि भ्राव्यु पादु वलि। -- नलास्यान लवणहार, हारौ (हारी), लवणियो-वि । लविग्रोड्ी, लवियोड़ो, लव्योड़ो - भू. का. कृ, 1 लवीजणौ, लवीजनो -- भाव वा. । लवधवरण-देखो 'लन्ववरण' (रू. भे.) (ह. नां. मा.) लवधुलउ, लवधुलौ-वि. [सं. लुन्व | १ श्रासक्त, युग्ध 1 उ०-कोदल कलिरवि वासर, मंजरिया सहकार । कुसुम तणदं रसि लवधुला, भमर करदं णकार । -- प्राचीन फागु-संग्रह लवन-सं. स्वी.--छेदने की क्रियाया भाव। उ०-रंगाणी मुक मतिए रंगइ, समकित नी सहिनांणी । कुमति कमलिनी लवन क्रपांणी, दुख तिल पील धांणी रे। -वि. कु. २ ठेवो 'लवण' (रू, भे.) लवना--देखो लवत्या' (<, भे.) लवनान- देखो 'लोवांन' (र<, भे.) उ०-भरौ सत मत्त गयंदनि सोर, करौ फिर पीठ मदत्तिय श्रोर । हकी सव तोपन जु लमाय; धुनी लवर्बानि पताकनि छाय । क | ॥ -ला. रा. लवरू-सं. पु.--एक पक्षी विशेष । उ०--मन लवरू के पंख है, उनमनि चढ़ श्रकास पग रह पूरे साचर्कं, रोप र्या हरि दास । , -दादुवांणी लवल-सं. स्वी. श्नग्नि की ज्वाला , ५ उ०- कोद जांण इम कहै, लवल चंदणा सम॒ लग्ग । परस सती सरीर, वणे तद नीर घरे । ` --रा. रू. लवलवी-देखो 'लवलवी' (रू. भे.) | लवटी-सं. पू.--१ हरफखोरी नाम का वृक्ष या उसका फल । २ एके विपमवरं वृत जिसके पहले, दूसरे, तीसरे श्रौर चौये चरण मे क्रमश १६, १२, ८ ग्रौर २० वणं होते हैं । ^ ३ एक लता विशेष । ‡ ¢ उ०--नैरति प्रसरि निरधणा गिरि नीर, धणी भज धणा पयो- घर । भोते वाड्‌ किया तर फंवर, लवष्टी दहन कि नु लहर --वेनि लवलीन-वि. [स. लय-{[-लीन| १ तत्लीन, तन्मय, मरन । उ०--१ गुफा ध्यांन लवलीन भिरोवर, ताढी सुति उष्य तपेमुर! जारी निसा श्रमावसत ज८धर, माद्रव ममट घटा मयंकर । --सू. प्र, उ०-२ हथणी वरस हजार लग, सान पान नही कीन । जित क्रियौ गजराज जुध, हुरि-चरणां लवलीन । -¶ज उद्धार २ देखो लयलीन' <. भे.- लौलीरा । लवलेस-सं. पु. [सं. लवं +तेश] श्रत्यन्त श्रत्प परिणाम या मात्रा, किचित्‌ । उ०्~--श्रावं इण मासा धरमल, वयरा सगाई वेस। दग्ध श्रगण वद दुगरारी, लागे नहु लयलेस । --र. रू. लवल्या-सं. स्नी.--१ वगन, तन्मयता, एकाग्ता | २ अरभिलापा, इच्छा रू. भे.- लवणा, लवना । | 8 लवाजमौ, लवाजीवौ-स. पु. [श्र, लवाजिम]- १. राजा महारापा की सवारी के साथदोमा वढाने हेतु रहने वाला ठाट वाट व॒ साज सज्जा का सामान (मा. म.) उ०--१ लवाजमे सूं कूवर जसवंतसिहे जी नूं परणीजणौ मेलिया । --ठाकरुर राजसिहु जी री वारता उ०--२ थारौ घरांणौ धणौ श्रा्टौ पणा नखं तवाजमौ नहीं । श्रर भ्राज लवाजमो विके! रवैये खेती करौ 1 -पंचमाररी बात २ सामान, सामग्री । ` उ०--१ जोधपुरमे चाकर रा पेदियारा टका १२ रोज १ रा पार्व॑। वीजौ लवाजमौ राणी हव सु'वीजा महलां सुं वीवड़ा में टोपावं . दस्त्रच्च । | -- नेरसी उ०-२ सखी कवरजी नुं कवरपदा रा गांव लवाजमौ दीश्रौ गाव वीसछपुर सु मे संवत १७२४ रा उनी था दीश्रौ नै र. १ .रोजीना माहावदी सुं कर दीयौ वागा वा लवाजमौ सारौ सिरकार था पाव तिण रौ जौधपुर री जमेवंधी ममंडियौ द --र्तरासी <. भे.--लाजमौ | तलवार-सं. पु.-१ पयु का छौटा वच्चा । (ह्‌. नां. मा.) उ०--१ सारी गड निकस गर यमुना, लेकर संग लवारं । ग्वाटठ-बाक् सव द्वार ठाई, ठईदार तिहारं । -मीरां उ०--२ तन खेती में चरिचरिजावै, है नहीं मेरे सार र। मिरघा एक पांच है हिरन, लारि पचीस्र लवारंरे। ध --प्रनुभवर्वांणी लंवारको गरत्पा. --लवारियौ, लवारी, लृवार, लुवारकी, सुवारियी, चुवारो २ देखो श्लुहार' (रू. भे.) उ०-वाज लोहरा सांतरा, ताढा करण तयार । किसी सारा कांभरौ, लीनं सुगड़ जलवार । -रमण प्रकाल लवारकौ-- १ देखो लवार' (<. भे.) २ देखो लुहार' (अल्पा. रू. भे.) (स्त्री. लवारकी) लवारणव-सं, पु. [सं, लवाणंव] ४६ क्षैत्रपालो मेसे रवां क्षेत्रपाल । लवारचालातरी-देखो "चुहारखाती' (ख. भे.) लवारियो, लवारौ--१ देखो “लुहार' (ग्रल्पा. ₹. भे.) २ देखो (लवार' (अ्रल्पा., <. भे.) लवावसप्पी, लवावस्रपी-सं. पू.--वह जो कमे-बन्धन को उत्पन्न केरने वाले कर्मो के श्रनुष्ठानसे दूर रहता हो । (जन) ल्विग, लवींग - देखो लवंग" (<. भे) उ०--१ भ्रारासनड चूनउ, इमी खांडी । कपूर लविगा इलायची खदिर-वटिका सहित वीडां कीषां, मख वासि दीघां -व.स. उ०--२ -लीव लचिगहू लसणीश्न, लीवोई लोवन बुलट लासा लीवर, लभिथगमि लांदां पान । -मा. का. प्र. लवीरी --१ एक प्रकार की सन्नी 1. उ०--लाज-लज्जालु लक्ष्मणा, चूंणी लसन ल्वंगि । लीलावती लुंकडी, लाहि लवीरी संगि । --मा. का. प्र. तवेस-सं- पु--देखो "लिवास' (रू. भे.) उ०-अ्गदेव कहायी, गणौ, पोस्ाख, घोड़ी, राजा रौ लाजमौ नही न पाठौ तौ इते लवेस्र (लिवास) चालणी श्रावं नही) --जगदेव पवार री बात उ०--२ इयां वठं देखने क्यौ भाभी जे हिवं ईडौ थाहरं मुंहडा श्रागे प्रांखिस्यां तौ धारं मृडा भ्राजं तौ जीमस्यां ताहरां साहूकार हश्रा वड लवेस करि थांहिरं स करि वहिल उर त्यार करि । --चौवौली लवं--देखो ^लव' १२ उ०-वोत्यौ--न्रा वात तौ वीलिया खवास री नोड़ायत र जोग ईकरी) थुं साची प्रकर तौ वैमाता ई श्राय भिंड तौ लवं ईइनीं लागणदे। --फलवाडी लवो-सं. पु --१ पतली रस्सी (डोरी) से वंधा पीतल या लोह का वना वहू उपकरणं जो इमारत वनाते समय दीवार मापने मे काम भ्राता है) २ एक वृक्ष जिसकी कलम वनती है । ३ भूननेसे पला हुत्रा भ्रनाज का दाना । २३७ लप्र ४ तीत्तर से छोटा उसी जाति का एक पक्षी विकहेष । उ०--१ दूसरी मांस न्यारी-त्यारौ वणायर्जं छै । धा मसाला दीजर दं ।लवां रौ मांस होसनाकयुधारदै। -रासा.सं. ङ. भे.- लावी लस-सं. पु. [सं. लस्‌] १ एक वस्तु दूसरी के चिपकने का गुण, चिपतचिपाहुट ॥ सं. स्त्री.-२ लम्बी लकीर । वि.-- लम्बा, पतला प्रर संकरा । लसफर, लसकरि-सं. पु. [फा. लदकर] १ सेना, फौज । उ०--१ सिलम टोप सूंघौ सिर भड़ियौ, पटर ह चूडामणि पड़यौ 1 करि जय धर नगर मभि लसकर, श्रटकं॑नह भिद्धियौ वरियावर । सु. भ्र. उ०--र ताहरां रांम्षिवि जीमुंहे रा भारीत्णिनूंकह्यौक्यं नहीं । श्राय लसकर मांहै गया । -द, वि. उ०-३ लाखां लसकर लार, धरमराजे जिसड़ौ घणी । मारत ` वाठौ भार. भीमा प्रजन रं भुजां । --सरूपदास २ बहुत से व्यक्तियों का समुह, दलं ! उ०--१ लड़ालूम डाकचां लमूटे, जां भवरक भूदा । प्रोयण॒ मे लसकर लुगाया, छां चुगणां चटा । --दसदेव उ०--२ भिव्डा सा भोजन वहू वह्वड़दे जिम, श्रायौ पितरं रौ लसकर जोमग्यौ । ठंडडा सा पांणी वहू लाडलदै पियावै, श्रायौ पितरां री लसकर पी गयौ । -लो. गी. ३ फौज की साज-सङ्जा का सामान | उ०--४ सुरसिहज साहयवां कवरेनी क्नीगजसिष जी नै हुकम दीयौ के पातसाह्‌ सलामत श्रापनै जाढ्रोर सांचोर इनायत कीया हैसभूुथे सारौ साथ चं जाक्ोर जार्द्जौ 1 नँ जालौर जायन गद्य कर जाढ्रोर लीजी । तरंजोवपुर सुं फौज लसकर सैर कवरजी खी गजस जी न स्तिरदारां भें राठौड़ राजक्षिव जी खीमावत सोवायत ले'र जोर भ्राया नै गांव गुदरं डेरा किया । - नरसी ४ सेना का पड़ाव, छावनी । ५ जहाज में कायं करने वालों का दल । ६ भाला, वरद्छा | ७ लुटेरा । उ०--१ श्रधिक धरा काठ उकारं श्रवगाहतां चसकरां तसकरा पट्चा लार । धग गच्छराज रौ ध्यान मन घ्यावतां विकट संद्कुट सह्‌ निकट वारं । -घ.व, ग्रं उ०--२ जाग जोगी भय दुस्र नह व्या, पासे. ईस पयार } लसकर तस्कर कोय नं लागै, चार पोर नीसतारं, -मालौ साद्‌ लसकियो ननन ~ ~ र<. भे.-- वसकरी, लंपक्घर, लस्कर, लहसंकर, त्हसकर ग्रत्पा+--लसकरियौ, तहसकरियौ लसकरियौ-सं. प.--१ पति, खाविद उ०--१ जाय लसकरिया नेयूं कहै-थारं घर वनड़ी'रौ व्याव सौदागर मरहंदी राचणी । --लो. गो. उ०--२ ऊंची तौ खीवै ढोला वीज्वी, नीची तौ खी दयं निं जी ढोला श्रोजी गोरी या लंसकरिया श्रोठ.ड़ी लगायर कोठे साल्या जी । -लो.गी २ प्रियतम, प्रेमी । क ५ २ लदकर मेँ रहने वाला, संनिक, फौजी । ४ शौकीन । ५. देखो 'लसकर' (श्रल्पा. ₹, भे.) लस्करी-सं. पु.-- १ सेनापति । २ जहाज सम्वन्धी । ३ देखो लसकर' (र<. भे.) ४ उ०-सुरितांण तरा सेलार सकंख, लखभूलई ऊपरि लूंवि लक्ख । छेलियउ सेतसी खग्ग छोहि, लसकरी लाख ऊपरदइ लोहि । --रा.ज.सी लसष्रकर-देखो 'लसकर' (<. भे.) उ०--ग्रटक पार हता जोरावर, श्राया गयद खरीदण श्रासुर । विह दृशां सरदार वहादर, लारां वार हजार लसम्कर --सु, प्र. उ०--२ परडं जोध जरदेत, पडे वरहास सपक्खर । पड़ं वांण एक लक्ख, सीर 'जिहंगीर' लसफ्कर । गु. र<. वं. ` उ०--प वैधियौ महवेचौ "विजौ,' सारां सूं श्रवसांण । खेम लसक्कर खान रा प्रोया सेल प्रमांण । --रा, रू. लसडकी-सं. प.--१ रगड, खरौच । २ धक्का, भटका । ३ लाक्षशिक त्र्थं मे किसी काये-सिद्धि हेतु दिया जाने वाला सहारा या मदद । क्रि. प्र.--सागरौ ८ युशामद, चापलूसी 1 क्रि. प्र. लगाणौ स. भे. (लसरकौः प, लसण-सं. प,--१ प्याज के समान छोटी व सफेद गांठ व उसका पौधा वि. वि.--एक पौवा विरेष ' जिसको पत्तियं (कुपले) प्याज के समान होती है तथा इसकी जड गांठ की तरह होती है । मांसष्टारी वर्गे इसका श्रचधिक सेवन करते ह । इसकी गंध वहत उग्र हती रै, दसी शरण हि्दुग्रों मेँ प्रायः वैष्णव इलक्रा सेवन नही करते । ~ व्यक में यह्‌ वहूत लामदायक कहा गया है । = ठै ५ १४२२४ : क्प्रणौ उ०-१ वीह. चंदण वावनौ, था लसणके संग । हरीयाग्रानि कुवासनौ, करं वास कुभंग । , ~ भ्नुभववांणी उ०--२ गाजर मूला गिरमिरि, पिडालु नही नाहि लपषण लसाई इंगली, तिज परवत ग्रवगाहि । ` --मा. कां. प्र २ जन्मसे दरीर पर श्रंकित लाल रंगका दाग या चिन्ह, सक्षणा 1 ३ मानक का एक दोप जिसे संस्कृत मे श्रयोभकः कहते है । ४ धूुमिल रग का एक वहूमूत्य रत्न या पत्थर । ' । र. भे.-लसरि, लसन, वहण, लहसर, लहसुन, लहस्टन, ल्दसरा 1 ग्रल्पा.- लसरियो, लसणीश्रौ, लसुशियौ । लसणि-सं स्वरी --१ हाव-माव । । उ०--१ भ्राकरखण वसीकरण उनमादक, परठि द्रविण सोखर सरपंच । चितवणि हसि लसणि तरि संकुचणि, सुंदरि दवारि देहुरा संच । : ~ वेछि २ देखो (लसः (रू. भे.) + अः लसणिर्याह्ग-सं. स्त्री. यौ.-एक प्रकार की वनावटी हग । - लसणियौ- देखो "लसर" {श्रत्पा., <. भे.) । उ०--१ लप्तणिया नील भंदक्क, दुजि वंस गौमेदक्क ।० चत्र श्रसी जाति उचार, जिण वार लुटि जुहार । ` --सू.प्र. उ०--२ प्रघटठ परोजा नीलवी, मुक्ताफढ ता माहि । "लसत हसत से लसणिया, सोभा कही न जायं । -गजˆरउद्धार लसणी-१ एक प्रकार की गाय विहेष ।. उ०- कपठा कवी नै वारं पुचकारे, लाखर लाखरभ्र भ्राखर मन मारं । हांसी वांसीसी सूकी हिय हारं, ससी लसणी तख द्रे द- सणीं सारं । ४१८ "ॐ. का, २ घर,दर। लसणीश्रौ देखो (लसण' (श्रत्पा. <. भे.) उ०-लीव लविगह लसशीश्रा, सींबोई्‌ लोवांन । सूट लासा लीवरू, लगिथगमि लां पांन 1 --मा. कां. प्र. लसणो, लसबौ-क्रि. भ्र.--१ शोभित होना, शोभा देना 1 उ०-१ करि सिह वाराह र तुंड केती, लसं ग्राह चक्री मखी बाह लेती । लगां नागी जागणी नींद लोपं, श्रगां दागरी लागी भाय ग्रोपं । । --वं. भा, ३ युद्ध स्थल से भाग जाना। ष ॥ उ०-१ समर दिलोकर सांम नं, लस श्रावं लवडाक । मंद थकरां मंडत लिक, नाक, थकां विन नाक । --वां. दा. उ०--२ पाड्यौ भीम खागां पछटि,, गयौ खुरम लसति कुरंग गति , गहतंत एम जीतौ गजण', पूर घर जोर्घाणपति। ---मू.प्र. लसन उ०--२ लसियौ निवाव कटिया किलम, गहं नूप घरि गजगाह्‌ रौ 1 लसकरीखान लूट लियौ, सोवौ श्रौरंगसाह्‌ रौ । --सू. भ्र. ३ लज्जित होना, शरमिन्दा होना । उ०--मूरल कथन न मांनियौ, लक्षियो मं लजाई । तोनूं रव नं दियौ तखत, दोन रखत दिखाइ । --वं. भा. लसखहार, हारौ (हारी), लसणियी -वि० । लतिश्नोडो, लस्ियोडौ, लस्योडो -भू° का० ० । ` लसीजणौ, लसीजव - भाव वा० । लसन - देखो 'लसण' (रू. भे.) उ०--लाज-लज्जालरू लक्ष्मणा, सूँएी लसन लवंगि । लीलावती लंकडी, लाहि लरीरी संगि । --मा. कां.ष्र. लसपस--देलो 'लचपच' (रू. भे.) उ०-- टोला यां जोगी म्दांजोगौ करियौ (रे) कसार, धारं ( नं) जीभण नं लसपस लापसी । -लो. गी. लसरकौ- देखो 'लसड्कौ' (रू. भे.) लसलसाट, लसलसाहट-सं. स््री.--लसीला होने का भाव, चिपचिपाहूट लसलसाणी, लसलसावी-क्रि. ्र.--लुप से युक्त होने के कारण चिषकना, चिप-चिप करना 1 लसलसाणहार, हासौ (द्यी), लसलसाणियी -वि० 1 लसलसायोडी -भू० का० ° । लसलसारनणौ, लसलसाईजवौ--माव व° ५ लसलसायोड़ी-मू का. कृ--१ चिप-चिप किया हशर । (स्त्री. लसलस्तायोड़ी) लसलसौ-वि. [श्ननु ] लसदार, लसीला, चिपचिपा । लसाढरपौ, लसाडवी-- देखो 'लसाणौ, लाबौः (र<, भे.) लसाडणहार, हारौ (हरो), लसाडणियौ -वि० । लसाडिग्रोड़ी, लसाडियोडो, लसाडचयोडौ -भू° का० ० । लसाडीजणो, लसाडीजबौ--कमे वा० 1 लसाडियोड़ी--देखो लसायोड़ी' (र. भे.) (स्वी. लसाडियोडी) लसाणो, लसाबो-क्रि. स.- १ शोभित करन। । २ पराजित कर्के भागने में प्रवृत्त करना । ३ शारदा करना, फीका पटकना । 2 लिप्त करना । उ०--जिहां सुद ्रासय भूमि पटली, सोहियद यिरवाय । तिहां र्याति दरसन थंम श्नुभव, दिव्य भाउ लसाय । --वि, कु. लसाणहार, हारी (हारो) लसणियी-वि, । लसायोडौ--मू. का. कृ. 1 लसाशजणएौ, लसाईनवौ-- कमं वा. । ४२३२६ लहंगौ [ऋ म लसाडणौ, लसाडबौ, लसावणो, लसावतौ-<. भे, । लसायोडौ-मू. का. कृ.--१ शोभित क्रियादहृप्रा। २ शमिदा किया हरा, फीका पटका हृत्रा. ३ लिप्त किया हु्रा। (स्त्री. लसायोडी) लसायणो, लसोवबौ-- देखो (लसाणौ, लसावौ' (रू. भे.) लसावणहार, हारै (हारी), लसावणियौ -वि. 1 लसाविश्रोडी, लसावियोडी, लसान्योड़ो- भू. का. क. । लसावीजणौ, लसावीजवौ--कमं वा. । लसावियोडी-भू. का. क.--देखो "लसायोड़ौ' (<. भे.) (स्वरी. लसावियोड़ी) लसियोडौ-मू. का. कृ.--१ शोभित हुवा हमरा, शोभायमान हुवा हुमा. २ पराजित होकर भागाहूश्राः ३ शतसिदा हुवा हुभ्रा, फोका पड़ा हस्रा । (स्त्री. लसियोड़ी) लसी-सं. स्री - १ चिपचिपाहट, चेप , २ देखो 'लस्सी' (रू. भे.) लसीका-सं. पु. [सं. लसिका] १ भूक, लार । लसीलौ-वि.--१ चिपचिपा । २ सुन्दर, शोभायुक्त लसुणियौ - देखो 'लसण' (ग्रत्पा. ₹. भे.) लसूवौ-स. पु.- १ लालिमा । उ०- नासिका मे वेसर शरसी छवि पारव, जांणं मुखमें मोती लसूवौ छिरकाव छ । मानूं फूका दे मदन जगावे 1 पनां लस्तोख-सं. पु-१ गोल-गोल पत्तियों वाला एक वृक्ष जिसके फल वेर के समान होति हूं २ उक्त पेड के फल । र. भे.--लिसोडा, लेसुवौ, लेसुड़ौ, व्टेसवौ । लूकर--देखो “लसकर' (रू. भ.) उ०-१? इतरौ माल दरवेसां नूं नहीं दियौ चाहिजं । लस्फर विगर सांमांन नहीं रहै । -नी.प्र उ०--२ नीठसे दीष दूनांण नेक, श्राठमे दीह ताजीम एक 1 वदढवा दल दिखणी तेण वार, भ्राविया लियां लस्कर श्रपार । | --वि. सं. लस्सी-सं. स्वरी.- यछ, मदु, दूध, दही में पानी मिलाकर वनाया हुश्रा गाढा पेय पदायं । र. भे.-लसी । | लहंगौ-सं. प---कटि के नीचे के भ्रंग को ढकने वाला चेरदार स्पियों का पहनावा जो कमर पर इजारवन्द हारा कसं कर पटह्ना जाता है, लंहरी ..__, -------_----_--___________-________-____ लहंगा, घाघरा (ड. को.) उ०--हरी जरी का लहंगा सोवै, फुलभड़ी की सारी । श्रनवट ऊपर विदिया सो, नय सोवे भलकां री । -- मीरा रू. भे.--तेहंगो, लतंगौ । लंहरी देखो लहरी" (<. भे.) लंहरिश्रौ, लंहरीश्रौ -देखो (तहरियौ' (रू. भे.) उ०--भटकति कंठ गोदरी, लहंरीघ्रां मोती सार । भांणिक मया तं सदल सोहं, ऊरि एकावढ हार । -खूकमणी मगट लहक-सं. स्पी.--१ शोभा, सुन्दरता । उ०--रतन में राखड़ी वेणी वासग जडी, सूभरा वांहृदी लहुक लोडं । स्वाति नों विदलौ नास्तिका निरभयौ, भ्राज भ्रात्यंगन क्रस्त क्रोड । --फमणी मंगद्ट २ लहकने की फ्रिया याभाव) ३ ठंग या तरीका । ४ गायन की लय । ५ देखो (लहकौ' (ग्रत्पा., रू. भे.) लहफणौ, लहकवौ-ति. श्र. [सं. लसत ~†-कृत प्रा. लदेद्धिश्र] १ किसी हलके पदाथ, कागज, वस्त्र श्रादिकाहवामें फर फर शव्द करते उडना, फरहराना, फरफराना 1 । उ०-! सग्ा नर तिण पासं श्राव, देखि घजा लहकांणी । उत्तमकुमर तिहां निज वातां, भाखी चित्त सुहांणी । -वि. कु. उ०-२ ध्वज प्रताका लहुकर्ई, पुस्प परिमल वहकरई । नाच पात्र, राज भवनि श्रावदं श्रक्षत पात्र । --रा. सा. स. २ लटकना, भूलना 1 उ०--फुलहरौ श्रति फावतौ, पदं लहकं फुल । महकं परिमठ फल महा, इग्यारमी पूज भ्रमूल । --ध.व. भ्र. ३ हिलते हुए लटकना, लुद्कना 1 उ०--१ नवजोवन नारी भिली, उरि लहुकदं है नवसरहार । हगमण स्रगलोभ्रणी, मृदि वोलद हे मंगलचार। --रीरणंद सूरि उ०-२ सोल कला सुंदरि ससिवयणी' चेपकयन्नी वाल । काजल सांमल लहकइ वेणी, चंचल नयशएा विसाल । -हीराणंद सूरि ४ हवा का चलना, भोके भ्राना। ५ मस्ती से चलना, मस्त चाल से चलना । उ०--लुखती लफती लहकती, श्रलवेलण चिवि अच्छं । वालम रसियौ वण रद्य, वेली छयौ विरच्छं । --र, हमीर ६ श्रा कौ लपटें निकलना । ७ लंगडते हुए चलना । ८ संहलहाना । ६ श्रभिलापा करना, चाहना । ` ४२३४० तहका १० कटाक्ष करना । ११ सपसपाना, तचकना । लहफणहार, हारी (हारी), सहृकणियो-- वि० 1 लहफि्रोटौ, तहफिणोड़ो, सष््फ्पोडो-- भरु का० ° । लहषोजणीौ, लहकोजवी-- माव वा० । लहुमुखलण, तटफुरलवी, तटुकफणी सहक्कबो, तहरफणो, तटहरकवो -- र. भे. लहफडउ-सं. पू. [सं, लसत ~- कृत प्रा. लहर्निकप्र ] कटा । लहकाडणौ, लहकाडवौ--देसो लहकाणौ, तहकायौ' (ख. मे. ) लदफाड्योड्-देखो तहुकायोट्ी' (रू. भे.) (स्त्री. सहकाडियोदडी) तहकाणो, लहफाबो-क्रि, स. (लहकणौ फा पे. =.) १ भति पिलाना, लहराना । २ लटकाना, नुलाना 1 २ हवा के कोके टेना। ४ श्राग को लपटे निकालना । लहलदह्‌ाना । £ श्रभिलापा कराना । ८ ७ लंगडत हुए चलना । लहकाणहार, हारौ (हासे) लहकाणिपी --वि० 1 लहकायोडौ-मू० का ° , लह्कार्दजण, लहुकार्ईजवौ -- कमं वा०।भावे वा. । लहुकाडणो, लहक।डवौ, लहकावणौ, लहकावगै - र, भे. । लहकायोडौ-भू. का. क --१ लहराया हु्रा. कोते विलाया हूग्रा. २ लटकाया हृभ्रा, भुलाया हृश्राः ३ हवाके कोते दिया हृभा. ४ ग्राग कौ लपर्टे निकाला ह्राः ५ लंगडाते हए चला हग्रा. ६ लहलहाया हु्रा. ७ भ्रभिलापां कराया हृश्रा. ८ कटाक्ष कराया हुभ्रा । (स्त्री. लहकायोडी) लहकावणी, लहकाववौ -देखो 'लहकाणौ, लहकावौ' (रू. भे.) उ०-तिमरी याविया, पदसारा मोटेद मंडांण कराचिया, जागी ढोल लरि संख वादित्र वेजाविया । विहं पासं पटवूल तणा नेजा लहुकाविया, पागि-पामि खेला नचाविया, त्रिया तोरण वघाविया 1 --रा. सा. सं. लहकावणहार, हार (हारी), लहुकावणियौ-- वि. । लहकाविग्रोड, लहकावियोड़ो, लहकाव्योडौ- मू. का. क. । लहकावीजणौ, लहष्तावीजवौ-- कमं वः. । लहकावियोडो- देखो 'लहकायोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. लहकावियोडी) न्क _ ______------------- लहक्योडौ-भू. का. क.--१ लहरा हमरा, ये खाया ह्र, २ लटका ४३४१ | देखो '्त'णौ" (म्रल्पा.” रू. भे.) -लहर १ हश्रा, भुला हृश्राः ३ हवा क्ते मोखे मे वहा दग्रा. ४ श्राग की | लहणौ-देखो नं'णी' (रू. भे.) लपे निकला हा. ५ लंगडाते हुए चला हुत्रा ६ लहलहाया हरा. ७ प्रमिलापा किया हृश्रा, चाहा हुभ्रा । (स्त्री. लहकियोड़ी ) लह्कुडलणी, लहकरुडलवौ -देखो 'लह्कणौ, लह्कवौ' (र. भे.) उ०--वंकुडियाली मुंह, भरि भुवणु भमाडडइ । लाडी लोयण लहकुडलद, सुर सम्गह पाड । --प्राचीन फागु संग्रह लहृकुडलणहार, हारौ (हारी), लहकरडलणियौ-चि° ! लहकुउलिश्रोडौ, लहकरुडलियोड़, लह्कुडल्योड़ो--भू° का० क० । लहकूडलीज णौ, लहकूडलीजवौ-- भाव वा० । लहकुडलियोडो- देखो 'लहकियोडौ' (रू. भे.) (स्तनी. लहकुडलियोडी) लहकौ-सं. पु--- १ लक, प्रभास । २ ठंग, तरीका । ङ. भे.--लहक्र, ल'कौ । लहङ्कणौ, लहङ्कनौ ~ देखो 'लहकणु, लहकवी' (<. भे.) » 2०. -१ चयदि चड़ चहं दिसि चड़, थर थर ाणदार उर कप । कमधघज करि घरि लोह लहद्खहः विवहुर बृवेग्र वुंवभ्र वक्कुड्‌ । --ररणमह्न छद उ०--२ सज्जणिया ववलाद्‌ करि, गउस चटी लहर । भरिया नयण कटोर ज्य, मुधा हु उल्क । -टो. मा, उ०--३ महा श्रणुदहू पंछी उहुक्कं गहक्कं मोर, खाट सो चहुकवौ वसौ हसै कूप वेल । समीर री भरूलपरटा महक्कवं जेण सम, त्रच्छधू लहक्कं जरौ चांमीर री वेल । --र. हमीर लहङ्किपोडी- देखो 'लहकियोढौ' (रू. भे.\ - (स्त्री. लदद्धियोडी ) लह्चा--देलो 'लैष्वाठ' (रू. भे.) लहेजौ-सं. पु. [ग्र. लह.जः] १ वात करने या वोलने का ठंग, तरीका २ स्वर, प्रावाज, लय (गायन मं) ३ श्रल्प काल, क्षं । ॥ि रू. भे.--र्त'जौ लहण-वि.--१ लेने वाला । उ०--१ श्रपणी लाटी संपति जगत कू खुलावं । लख लहण सवा- लख विद्रव विरद बूलावं 1 --सू. प्र. २ देखो 'लसण' (रू. भे.) लहणायत-सं. पु. -देखो 'लैणायत' (र. भे.) उ० --१ धरमसीह कटै सात, सात दुव जायन सदणा । दीस घर मे दलिद, लोक वलि माग लहणा.। ` --घ. व. ग्र. उ०--२ कवडी रा लहणां मही, राये ट कुर रोक । पाग कांख मांफल लिया, लंड वजारी लोक । ॥ -वा. दा. लहणौ, लहवौ -देखो "लख, लयौ" (रू. भे.) उ०--१ उपज श्रहोनिस श्रापश्रपमे, रूखमणि क्रिप्तन सरलं रति । कह वेलिं वर लहै कुभारी, परणि पूत सुहाग पति । -वेलि उ०-२ श्रायोपित हार घा थयौ श्रतर, ऊरस्थछि कूंभस्थदि ग्राज । सु-जु मोती लहि न लहर सोभा, रज तिणि सिर नाखड्‌ गजराज 1 -वेलि उ०--३ जिरि दीह पाछउ पड़, टापर पड़ तुरिर्याह 1 तियां दिहांरी गोरडी, दिन दिन लाख लहांइ । --टो. मा. उ०--४ प्रीतम-हूती वादहिरी, कवडी ही न लहांइ । जव देखूं घर- ग्रागणद्‌, लावे मोल लहांडइ 1 --टो. मा. उ०--५ जि दिन ढोजउ श्रावियउ, तिण॒ श्रगलुणी रात । माङ सुहिणज लहि कल्यठ, सखिया सूं परभात । --टो. मा. उ०--६ श्र भ्रोर भी भाई भतीजा वडा वडा रजपूतवट रा सुभाव लीघा थका रावत प्रतापाच री हृजुरी रहै । वडी वडी रीकां मौजा हमेसा लहे । --प्रतापरसिघ म्होकमरसिघ री वात उ०--७ नले जाण्यं हं जीतीस सही, ए व्रसभ हारवा प्रात्बु ग्रही, कही भालणः ग्रभिमान' ज वदि, पणि काले तशि गति को नवि लहु । --नलाख्यनि उ०--८ तद्‌ दिख राजा तणह साठ ताय पत्री, साठ हजार कवर सिरदार । नव खंड रा भूपाल नमडइ जिग, परग्रहुं लह तिय कुण पार । --महादेव पारवती रो वेलि लहण्यौ-देखौ 'ले 'एौ' (श्रल्पा., रू. भे } लहयोडी-देखो 'लियोड' (रू. भे.) (स्त्री. लहयोडी) लहर-~सं. स्वी. [सं. लहरिः, लहरी] १ तरल पदार्थो के ऊपरि तलमें ह्वा लगने पर उस तल से उत्पन्न होने बाली वक्राकार रेखाए तरंग, हिलोर । (ड. को.) उ०- १ जगजीत जोधांण के दरियाव कंसे । श्रभंसागर वाछसमंद दोऊः मांनसगोवर जंसे। श्रत्ितके समूद्र तसे लहरू के प्रवाह छाज 1 --सू. प्र, उ०-२ हंसा कटै रं उेडरा, सायर लहूरन दिट्। ज्यां नोर न चक्खिया, (त्या) काचरिया ही भिद्‌ । --श्रग्यात पर्याय. उभेल, उतकलिका, उरमी, वेक, भंगि, हिलोढ } “ लहर ४३४२. लंहरणी ~ द ॥ २ पौधों के समुह पर हवा कै भोकि से उत्पन्न मतिया कृपन । उयू--चौवरी गवं मे उठती लदरां देख ^र घणौ राजी व्हेतौ 1 ३ सहसा मन मे जागृत होने वाली इच्छा, मन की मौज । उ०-श्रालम हाथ रौ रधुनाथ श्रचरिज, श्रवध भूप श्रसंक। दिल गहर दीधी सरण हित दतत, लहर हेकणं लंक । । --र, ज. प्र. ४ मन में उठने वाली श्रवेग पणं प्रवृत्ति, श्रावश्च, जोश । उ०--ससकरां फिरं भ्रण पाव चढतौ लहर, भ्रालमां दाव भव्णां ग्रलोडं । समद क्वाह तणौ वरण सुकजं, माघहर तणा खग ठ मुहोडं । --राव दुरजरसाल हाडा रौ गीत ५ क्षण, पल । उ०-- सदा प्रसन्न कव सदन सीतछ्छ नजर सूपेखं, मनवंछत करे टेकं लहर मांय । न देख भाव भगती दिसा (करनला^सनातन धरम लेखं करं साय । --मा. बचनिका ६ मादक या विषाक्त पदाथं कै सेवन करने से शरीर मे उत्पतन प्रतिक्रिया, नशे को तरंग । उ०--विविघ प्रकारे भोजन हृता, जीमतां भराई लहर । राय प- एसी जाणियी, इण रांणी दीपौ जहर 1 -- जय्वांणी ७ श्रनुराग, प्रेम । उ०- कहत ललिता वंद वुलाऊॐ, श्रावं नदकोप्यारौ। वो श्रायां दख नाहि रहैगौ, है मोदि पतियारौ । वेद भ्रायकर हात जो पक- घौ, रोग ह भारौ । परम पुरस की लहर व्यापी, उस गयौ कारो । --मीरां ८ पवन का भोका, वायु का कोका । उ०-१ उत्तर श्राजसर उत्तरश्, वाजडइ लहर भ्रसाधि । संजोगणी सोहामरद, विजोगणी ग्रंग दाचि । -टो. मा. उ०-२ नैरंति प्रसरि निरघण भिरि नीकर, घणी भज घण पयो- घर । भोले वाद्‌ किया तरु भंखर, लवी दहन कि लू लहर 1 । -वेलि € गंध-युक्तं वायु, महक । क्रि. प्र.--प्रारी १० कृपा, पहर । उ०- लहर केर लहर कर विटक धर लगड, पहर कर कच्छोरौ निज पर्गामां । शक उमकार समकार कर डरवां । महर कर महर कर मामा --गजौ खिडियौ १९१ भ्रानन्द, सुखभोग । श्यूं- सहर री लहरां लेवणी । १२ सिरके वालो, वस्वोको रगाईतयाखाटकी वुनार्र्मेंदहोमे ^ ~~ | वाला वक्र रेाकन ! उ०--प्रगरसेवंहै सुगंव देर्वहै। संघौ सधीनजं दै, सीतियांरी सीसियां ऊषीजं है । चौरी करं है, तिण भ्राम नाय्ण री पौटी फिर है! गुंयवामें पटृदटै लहर, तठ कटौ कुण सरकं व्र) --र. हमीर १३ महिलाध्रो के कनको भ्राभूपण विष्नेप । १४ स्फुट गायन की क्रिया, रागी करने की सरिया । १५ पराण फे श्रनूुसार निप्फलीयदशखके बोलने कौ ध्वनि) उ०--तद संख लहर दीवी, रांडतूं ई्यनृं ्यौँमारं? हं धारे प्राफं भ्रायौ दधु । --वूठी ठग राजा री बात रू. भे.- लहरांण, लहरि, लद्री, लह्रीय, सहर, चहिरी, सं"र, लेर। प्रत्पा.--लहरकौ, लतदहरो लह्रकणी, लहरफबौ -- देखो 'लहकणौ, लहकवौ' (<. भ.) उ०- मोठ वाजरी सूं येत लहर, वण-वण हरियाढी छापी । स्त श्रायी, रे पपच्चिया, तेरे वोलण री सुतभश्रायी। -लो. गी. लह रकणहार, हारो (हारी), लहरकणिपौ-- वि, । लह रफिभ्रो, लहरफियोड, लहूरक्योडो-- भू. का. क. । लह्रकोजणो, लहुरकीजवौ- भाव वा. । ¶ लहरक्रियोड्--देखो लदहकियोडौ' (<. भ.) (स्त्री. लह्रकियोडी) लहरकी-देखो 'लह्र' (प्रत्पा,, र. भे.) लंहरण, लहरबो- १ धनपटा युक्त हो करसना, वर्पा होना । उ०--सांवण तो लहरौ मादवौ £, वरस च्यारू कट । म्हारा मारूला सांवण लहरयौ रं । --लो. गी, २ मंडराना, भूमना । उ०--विदिसा जग विख्यात राज रीनगरी जातां, सगा भोगं विलास पावसौ प्रीत जतातां । वेत्रवती जढ पीय लहरतौ घ गर- जतां, ज्यू मूख भह विलास श्रवर घण पान करता) -मेष ३ समूद्र में तरगें उठना, तरगित्त होना । ४ प्रसन्न होना, पित होना । उ०--श्रषरांरंरंग दीजै है, तिलक फी है। घुंमाटौ गाधरौ पटरी है, लहरियौ ग्रोढियां जिम तन मन लहरीं है ५ तरलं पदाथं में हवा के फोके से हल-चल होना, लहर उठना 1 ६ किसी लचीले पदाथ फा वायु के संसर्गं से हिलना, लहर्लंहाना । ७ किसी कालहरोंके रूपमे उठना, चलना या भ्रागे बढना उ०--वाड़ा मेँ लाय लागी जिणरी लहूरावती लंपटां कर रे माच्ियं लागण दरुकी । --फुलवाडी लहरर ४३४२ लह्रियौ स ~-- ८ दोभित होना, फवना । लहराड्योडौ --१ देखो ^लह्रायोडौ' (र. भ.) & मादक या विषैले पदार्थं के प्रभाव में श्राना। १० श्रनुराग या प्रेम मे लीन होना, भ्रचुरक्त होना । ११ मन मे उमये, इच्छाएं उठना । १२ किसी वस्तुको वायुं के वेग मे उडते रहने के विए छीड देना, तरगित करना । लह्रणहार, हारौ (हाय), लह्रणियौ-- वि. ! लहरिश्रोड़ौ, लहरियोड़ो, लहर्योडो -भू का- छ । लहयोजणौ, लह रजनौ - भाव वा. । लहराडणौ, लहराडवौ, लहराणो, लह रावौ, लहरावणी, लहराववो, लैराणौ, लैराबौ--रू. भे. । लहरदार-वि. [सं. लहरिः+फा. दार] १ जिसकी बनावट लहरों जंसी हो 1 २ लिस पर लहसें जसी श्राकृति वनी हो । रू. भ.--सैरदार, लरियादार। लहरनिभ, लहरनिधि-सं. पु. यौ. [सं लहरि.-{-निधि] समद्र, सागर, उ०- दनुज श्रावियौ' छं हियं दोयणां, लाल मुल दसूं भटकं श्रसन लोयशां । राम समौ घस दंभ रिण रोपे, लहरनिध चनं जए हदां लोपनं । --र, ₹. लहरबंबाढ-वि.-- वड़ा दातारः उदार-चित । महान उदार, उ०--घनदेधरदे घाम दे, निब कर निहाल दिल दधि में दातार रे, लहर लहुरववाट 1 --रवतसिह भारी लहरसंख-सं. प. पुराणों कै ्रनुसार वह शखः जो श्र्थ-सिद्धि नही करता हो 1 उ०--तद समभूद्रजी कही, ती भर्ला, यै रहीं मांणक कछ, ले श्रर इसडौ तौ सख कोई नही ।' तद कांमदारं कटी, महाराज एक लहरसंख छै, सो दीं --वरूढी ठगराजा री वात लहसंण-वि.-- १ लहरो से युक्त । उ०--रजर्घानी उच्छव रहसि, मणि दीपक ग्रप्रमांण । सूयं महल सिगारिया, सोरभी लहरराण। --रा. र<. २ देखो ^लदह्र' (रू. भे.) लहराज-सं. पु.--शेष नाग ! उ०--ल् सर सोए जगम लहराज, सजे भ्रंग जांण कसुंवल साज । जमातिय जोध जमातिस जान, वजे सुर क्िघव राग विधान । २ देखो लहरियोडौ' (<. भे.) (स्त्री. लहराडियोडी) लहरणौ, लहरावौ~क्रि, स.--१ भंडा भ्रादि का हवा में लहराना। २ देखो (लह्रणौ, लहरवौ' (रू. भे.) लहराणहर, हारौ (हारी), लहराणियौ-वि° । लहुरायोङ्ो-भू० का० ० । लहराइनणो, लहराइजवौ - भाव वा० /कमं वा. । लहरायोडौ - देखो "लह्रियोड़ौ' (रू. भे.) (स्त्री. लहरायोड़ी ) लहरोवणोी, लहराववौ --१ देखो 'लहरणौ, लहरवौ' (रू. भे.) उ०- वादक रामनमे मांत-भांतरं फुलांरा श्रणगिण वगीचा लहरावण लागा । र २ देखो "लहराणौ, लहरावौ' (रू, भे.) न लहरष्वणहार, हारौ (हारी), लहरावणियौ -- वि. । लहराविश्रोडी, लहरावियोड़ौ, लहरान्योडौ-- भू. का. क. । लहरानीजणौ, लहरावीजवौ--कमं/माव वा. । लहरावियोडो-देखो (लहरायोडी' (रू. भे.) (स्त्री. लहरावियोडी) लहरि-देखो "लहर (₹. भे.) उ०--१ चिहुर ज से ब्रह्न, लहरि लग्ग केवांणह । ग्रोडणि कमठशि पत्र, भ्रमर गृ नीसांणह्‌ । --गु.र.वं. उ०-२ सीमहाराज राजेस्वर, ्रर्भसाह्‌ नरनाह प्रमेसुर । प्रायो सूत मागध कत्रद्र के भाय, दान की लहरि समुद्र तँ सवाय । --रा. रू. उ०--३ इम चह्वाण प्रव दढ परोप, लहरि म्रजाद जांशि दधि लोप । जां छपन कोड जचछ जाणा, मंडि उमंडं वरसण धमाल 1 उ०--४ पीव पीवर्मे रदं रात दिन, दजी सुचि बुधि न विरह्‌-भवेग मेरौ उसं कठं जौ लहरि हाहुठ जागी री । -मीरां उ०-५ भवग मिठं मठ्यागरी, लहरि विसम की मेट । साव सदा मिक करत है, राम नांम सुत भेट । --प्रनुभववांणी उ०-६ निज मन विसह्र विरह विस, उर विच लागी श्नि। पेम लहरि पल पल उर, हरीया निरभं जानि । --्रनुभववांणी सु. भ्र. | लहरियादार-वि--- वह जिसमे लहर के समान वहत सी टेढी-मेदी सहराइणो, लहराङ्वौ -१ देल 'लहूरणौ, लहरवौ' (रू. भे.) २ देखो "लहराणौ, लहरात्रौ' (रू. भ.) लहराडणहार, हारौ (हारो) लहराडणियौ-वि० । लहशदिग्नोड़ी, लहराडियोड, लहराडयोड़ी--भू° का० ० । लहराडीजगणौ, लह राडोजनौ --कमं वा० । रेखाएं हं लहरियौ-सं पु---१ लहर को तरह टेढी-मेढी रेखाग्नों का समूह । ज्यूं-- लहरिया भांत बुराई । २ स्त्रियो के ग्रोढने तथा पुरुषों के सिर पर वाने घने विष जिसमे रंग-विरंगी घारिये होती ह । का एक वस्त्र तहरी ४३४४ लहलहाड्णो ~ ---~ ~~~ ~ --- ~~~ ~~~ ~~ { सि उ०~--१ धरी वैर घाघर गरके पिसचाजी गोटा ! लपदार लहरियी इधक सुल रहा भ्रंगोटा । । --र. हमीर उ०-२ श्रसीएटकांकोम्हारौ लहरियी जी, कोई मोहर-मोह्र गज भांत राज, लहुरयौ, लेदयौ जी । --लो. गी. ३ राजस्थानी में एक लोक गीत । उ०--प्रौर ही भूलयाभूल लमकम करता श्रुलवाग, मे प्रावेदहै, लहरिया गावं है । र. हमीर चि.-लहरो बाला, लहरो युक्त । रू. भे.-लह्रिग्री, लहरीश्रौ, लहरीयौ, लहुस्यौ, लेरियौ, लंरियौ, संरयौ, लरौ ! लहूरी-वि.-- १ वह्‌ जिसमे लहर हो, लहर वाला । उ०- लहरी दरियाव व्रवण दत लाखां, कौरतयुण श्रायौ सौ कोस । पड त्‌ रांणा पारथीयां, ्दीपा' इण कथ्जुग नं दोस । --ग्रोपौ -प्राटौ २ समृद्र, सागर्‌। उ०--खुरमर समंदी~मच्छ जिम, लहरी लक्ख दनांह ! चञियं पाणी सामुहौ, सुरतांणी फौर्जांह्‌ । ग. रू. वं, ३ दातार, दानी। , उ०-१ दछोकरी श्राविनं पूचियौ । तरं एकण चाकरं कल्यौ- साखि राठौड़, नीवौ सिवालौत, लाच्रां रौ लोडाडउ) वडौ भोका, सेणां रो सेहुरौ दुस्मण रौ साल्‌, जातां-मरतां रौ साथी, लाखा री वहरै । --वीरमदं सोनगरा री वात ४ श्रविंडा या जोदावाला, जोशीला 1 ५ प्रफुट्लित "रहने वाला, खुंश-मिजाज । £ देखो (लहर (रू. भे.) -उ०-लह्री साय॒र-संदिया, ब्रुठ्उ-संदड वाव । वीच्रुडिया सजण चदि किं ताढउ ताव । --टो. मा लहरीग्रा-देखो 'लहरियौ' (रू. भे.) लहरीय--देखो.'लह्र' (रू. भे,) ` - {4 ४ लहरीयी--देखो "लहरियौ' (<. भे.) ` (रा. सा.) ल्हरोरव, लहरीरबण-सं. पु. [सं] समृद्र, सागर । (श्र. मा. हू. नं. मा.) ' ॐ०-१ रटे भागीरथी सुखौ वहरीरवण, लाल रग रुधिर चौ नीर (लागी । कठह्‌ तटि गवड़ है गं भड्ं कचरिया, भिंड पूरव तौ साह भागी 1 --प्रनिरुढसिघ गौड़ रौ गीत , उ०--र यारी श्रणी जीमणी श्रो लहरीरवण अजा किर लोपं । सांम्है श्रणी गिं श्रि सल्ला, मासर्हथां जोवां रिडमल्लां । } ५ 4 -~--* र्‌. उ वि. १ वहु जिसमें लहर उठ्ती हो । उ ०-आतसवाजी गायां, भ्रातवां श्रनमंघ । गडडं गोढी नादलियां किरि लहरोरव सिध.। --गु. रु. च. २ उदार, दातार, उ०--लाखी लहूरीरव नांम खंड नवपाट रौ रखपाछ । बहु जांरा महाव श्राघरव, उज्जल दीपिश्रौ विरदाट। --त. पि. लहरीस-स. पू. यौ. [स. लहरिः ~+-ईश] १ समूद्र, सागर । `` उ०--साकिया राज राणां सकट, श्रकठ, पर चिलियौ भ्रसुर । लहरीस जांण वारी लहै, गरज निवारी सीम गुर । -रा. २ जोश या प्राविश-युक्त ' ३ उमंग या उत्साह वाला। लहरीसमंद-सं. पु. यो. समूद्र, सागर । वि.- दानवीर उदार। उ०--सरणसाधार यदतार लहरीसमंद, कर श्रदतार नर मीढ केहा ' रार लज धार संसार सारौ रट, जुगट गढ वीखोरण हार तेहा । ॥ --गलजी श्रो लहरो-सं. प-देखो लधु' (रू. भ.) -उ०--सिह्‌ सिचाणौ सापुरुष, श्रं लहुरा न कहाय । वडौ जिरनाविर मारकं, चिन में लेय उठाय । --प्रगयात २ देखो (लहर' (म्रत्पा. ₹. भे.) उ०--रिमकिम रिमकिम ्मवलौ वरस अर्तमेंही श्रचांणचूकर पून रौ एक लहरी भ्रायौ श्रर वादछरी उडगी । --कन्दैयां लाल सेवियो लहस्थौ--देखो 'लहरिय' (रू. भे.) -उ०--१ गोरे कंचन यात परे श्रगियां रंग श्रनार । लहंगौ सोहै लचकतौ, लहस्यौ लपादार । --र. हमीर उ०--२ लहर्यौ तौ लै दो गोरी का सायवा जी, कोई थांरी घण ने लहरयौ री चावजी लह्रयौलेदोनजी। -लो-भी. लहल-स. पु--सगीत में एक प्रकार काराग जो दीपकराग का पुत्र माना जाता है ।. लहलहणी, लहलहबी -देखो "नहलहाणी, लहलहावौ' (रू. भे.) ` उ०-लहलहती नाच लता, प्रवन सगीती पाय । पेखा-वरदारी कर, रभ चिच वणराय । | --वां.दा उ०--२ करदं उल्लास, लचेस्वरी कोटिष्वज तणा श्रावान । ग्रान दद्‌ मन, गरूडं राज भवन । उपारी भ्रखंड । घ्वजपट लहुलहूद प्रचंड । --रा.सा सं. लहलहणहार, हारौ (हारी), लहवहणियौ - वि ० । लहलहिग्रोड़ी, लहलदियोडौ, लहलद्योङ्--भू० का० कृ० 1 लहलहीजणौ, लहलहीजबनो -- माव वा० । लहलहाडइ णी, लहलहाडवौ --देखो "लहलदटाणौ, लहलहावौ (5. भे.) लहलदाडणहार, दारी (हारी), लहलदहग्डणियो--वि० । लहलहाडिग्रोड़ी, हलहाडियोड़, लहलहाट्चोड्ी- प° का० ० । लहलहाडीज णौ, लह वहाडीजवौ -- कमं वा० । ए ए लहल हाडियोडो ४२८४५ लह र लहलहाडियोडी -देखो 'लहलहायोडौ' (ङ. भे.) गरवाय गरवाय --हाहुल हमीर री वात (स्वी. लहलहाडियोडी) लहलहाणौ, लहलहावौ-क्रि; भ्र.- १ हवा के प्रवाह से पौधे के उपरी भाग का हितलना, लह्राना \ २ किसी लचीली वस्तु का इवा के भोकि के साथ हिलना या उडना । ३ पुल-पत्तियो से हरा भरा होना, प ह्ववित होना, खिलना । ४ सूखे हुए पौधे का नवीन पत्तों से हरा-भरा होना, पनपना 1 ५ प्रफुल्लित होना, ग्रानन्दित होना । ६ दुवले शरीरका फिरसे स्वस्थया हुष्ट-पुष्ट होना । क्रि स.--७ प्रपुट्लित करना, भ्रानंदित करना ८ दुवले पतले शरीर को फिर से स्वस्थ या हष्ट-पुष्ट कर्न । लहलहाणहार, हारी (हारी), लहलहाणियौ-वि 1 लहलहायोडो-- भू. का. कृ. । लहुलहारईजणो, लहलहार्ईजवौ-- भावकम वा. । लहलहणौ, लहलदहवौः लहलहाडणीौ, लहलहण्डवो, लहलहए्वणौ, लहलहाववौ, ललहाणो, लंलहवौ*- रू. भे. । लहलहायोडौ-मु- का. क.--१ हवा के मके से पौधे का उपरी भाग दिला हृग्रा. २ कोई लचीला पदाथ हवा के साथ हिला या उड़ा हुग्रा. ३ परल-पत्तियों से ठरा-भरा हुवा ह्राः पल्लवित. ४ सूखा हुमा पौवा नवीन पत्तो से हरभरा हुवा हप्र पनपा हु्रा. ५ प्रफु्ित या प्रानंदित हुवा म्रा £ दुबला शरीर फिरसे स्वस्थ या हृष्ट-पुष्ट हुवा हरा. ७ प्रफुष्ित किया हुभ्रा- ८ दुवले दारीर को फिर से स्वस्थ या हृष्ट-पृष्ट किया हुश्रा 1 (स्त्री. लहलदायोडी) लहलहावणोौ, लहलहाववौ--देखो "लहलहाणौ, लहलहावौ' (रू. भे.) लहलहादणहार, हारौ (हारी). लहलहावणिध्यै- वि. । लहलहाविश्रोड़ी, लहलहावियोड, लहलहान्योडो - भू. का. कृ. । लहलहावीजगो, लहलहावीजबौ --मावकमं वा. । लहलहावियोडौ- देखो 'लहलदहायोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. लहलहामियोड़ी) लहलहियोड्--देखो लहलहायोडो' १ से ६ (रू. भे.) (स्वरी. लहलदियोड़ी) लहबवह-स.. स्वी.--युद्ध में भैरव या युद्ध देवता की श्रावाज । लहवाणो, लहवाबो-क्रि. श्र.- छोटा होना, लघु हना । उ०-पण घोडौ उराकी द्ध! रवीयांणं चद, एेराकं वीजं वड्‌ वीजं, प्रात गाज, सापुरस वेण पहिली तो लवाय लहुवाय पीच्ध लहवाणहार, हारौ (हारी), लह्वाणियौ--वि । लह्वायोडौ ~ भू. का, कृ. । लहबारईजणौ, लहव।रईनवो -- माव वा. । लहवायोडौ-भ. का. कृ.- छोटा हुवा हुद्रा । (स्त्री. लहवायोड़ी } लहसण--देखो 'लसण' (रू. भे.) लहसणौ, लहसवो-क्रि. भ्र.--प्राप्त होना, मिलना । उ०-१ घट मै एक हक दै ग्रला,लहसी माग जिन्दा भला। ग्रौडं सों जप प्रनंफा, घटम किया संप-ग्रसपा। --्रनुभववांणी क्रि. स.-लेना प्राप्त करना । लहसणहार, हा सै (हारो), लहसणियौ--वि० । लहसिश्रोडौ, लहसियोडौ, लहस्योड़--भ्रू° का० ० । लहसीजणौ, लहसीजवो-- भाव वा० । लहसियोडौ-भू. का. कृ.-१ प्राप्त हुवा हृभ्रा, मिला हुभ्रा । २ लिया हृम्माः प्राप्त किया हुम्रा । (स्त्री. लहस्षियोडी) लहसुन - देखो 'लसण' (रू, भे.) लहि-श्रव्य.- तक, पर्यत । लहिहुयौ-सं. पू.--एक विशेष जाति का घोड़ा । उ०-मल्ह्‌डा, हरीयडा, सरेखंडा, टूककना, खेत्र खुरासांणी । वाह- उदेसना, वोरीया, लहिया, गंगेदिया, हंसजादर, उडणश्नमर, ऊधस्या फौरणा, चपल चरण विस्तीरण सा्विहोत्र प्रतिस्या सिद्ध । --कां. दे. प्र. लहिर, लहिरी-- देखो "लहर (रू. भे.) उ०--१ तीन प्रकार रौ पवन वाज छै । सीत, मंद, सू्गंघ श्रनेक परिमठ भोला खार्‌ लहिरले दं । --र, वचनिवा उ०--२ मलयाचल मूकी करी, मारुत श्रावियड जेह्‌ । वैसाखि वासिग-जिसिउ, लहिर लगाडद्‌ तेह । --मा. कां. घ्र. उ०-२ ढीला हं तु वाहिरी, भील गद्य तद्टाद्‌ । ऊजघ् काला नाग जि, लहिरीते ले खाय । -टो. मा. लहीखोकणौ-सं. पु.--प्रसव के पांचवे दिन स्नानादि स्वच्छता के रूपमे किया जाने वाला संस्कार । लहृडो-देखो "लघु" (रू. भे } लहु-सं. पु---१ शीघ्र कायं करने वाला । २ दत्का। लहृश्रा त ~~~ पणमयी ३ निस्सार । श्रव्य.--तक, पयत । देखो "लघु" (रू. भे.) उ० -हेम वरनी टैमगिर, चाठी लवे येस । कंथ चिहूणी कौमणी, सांचौ कहि सदेस । -- मा. वद्निकां लहश्रा-सं, पु.--१ माटी वेल फी एक श्लाघा । २ सौलह मात्रा का मात्रिक छद जिसके श्रन्तमे गुरुटी । लहृडियौ, लहृडौ, लहृडउ, लह, तहडो-देलो 'तधु" (रू. भे.) (उ.र.) उ०--१ पप्र दोय "गजपति" र, सूर दातार सधीर। वटो रमर लहुष्टौ "जसौ, वडं नखत नरवीर । --रू. प्र. उ०--२ तद वायर पृद्धीयौ, सू कहै नहीं । तहधी वाद्ररी पारी हती । तिका पद्ध पिण कटे नही । - वात पीठ्व चारण री उ०-३ ि्रीवट जे साहस्र धीर, मालदेव छ सहुडउ वीर । जिसी प्रीति लखमण नद्‌ राम, राज श्रनरेद एह्यी माम । --फां दे. भ्र. उ०--४ जणा मंत्री मूसाहिवां मतौ उपाय वीरा तहृष्िपा भान्‌ राजतिलके दीनं । --त्िघासण वत्तीमी उ०--५ पिगल राय कहावियौ, ढोला पाष्टो श्राव । मारू तहुडी चहिनिदी, तोहि भणी परणाव । --टो. मा, (स्वी. लहृडी, लहुडी) लहूयय ~~ देखो 'लघुवय' (<. भे.) उ०--सिरिवत साहि सुतम्न, माता सिरिया देवी नंदणौ । वष्राभि लहुवय लिद्ध संजय, भविय जण श्राणंदणौ । --स. षु. लहु--देखो "लघु" (₹. भे.) उ०--{ गरलसहोदर ! गगनचर । लंदछनघर लहू-ब्रद ) श्राविम माह्रद श्रगणद्‌, उद्प श्रधारद्‌ खद्ध । मा. का. प्र. उ०--२ किवी विच्छ करट सहु लघु श्रंक हाव । मिणं दैर वस गुरु कवी, लघु चार काचे । --र. ₹, लटहश्रडउ, लहृडौ -देखो लघु (श्रत्पा. <. भे.) उ०-१ नान्हड ए स्वामी लहृश्रडउ लघु वांधव गुरा करी छद्‌ यडउ 1 भाई त्तमारू स्वामी एह एहसिख तमे म देसि छह । -- नल दवदती रास उ०-२ वडां वतु पहिल कर लहूडा पछ्छइ लगार । तेहनद सीस पटावीर्‌, माघव किसिड विचार । --मा. कां. प्र. लहैरी-सं. पू--समृद्र, सागर । वि.--लह्रं वाला, सह्रदार । ४३४६ शिषो 1 रौरवी 2 1. 1 जेव उतु 2 ५६) कको भ पो 9५9, जपेत क == दु आजनने कवक उ०--ध्रवं विनती हषः "दिगो वाटी, जिका ष्यानिद कन फाति पजादटी । सुरी पदू्ण भ्रुगाट लच्छी" शग दरूसरो गभ सागद्र श्रस्छठी | ---मे, म. लरैरो-सं. प--एकः प्रौटा भदा-वद्धार पीवा, गो पजा, दक्षिण गुराव मौर राजन्थान में यूत धता । तहोटा-षं. पु.- १ दम्प्रप्रहार । उ०-- यीं जी मदारांसाजद णाम व्मेरा माई र सदोष्ानागा राच दरण री देरी जमती वार्‌ यीजराजी रं मारं पटी । --पारयाष् रो स्याति २ देखो "नाद्‌ (र. भे.) ३ देखो लपु (रू. ने.) तष्टं. ¶.--१ एक ऋषि, यो भुज्यु क्रौपि का पित्ताया) तद्यणो, तद्गौ-देसो नण, तरोः (र. भे.) लघ्यणटहार, ह्रौ {ह्री}, सद्य णिपो--चि, 1 लष्ोदौ--मू. का, फू. । तद्यीजणौ, लद्योजपो-- कमं वा. लद्योडो -देमो 'तलियोटौ' (रू. म.) (र्प्री. लष््ोी) । लाे-वि.-वयी, वामर । उ०~--हो मेरी भ्रानि फस्कौ करई, पीव प्रिटणा क ताईं । पीव प्यार क) पंथ निहारत, मनतन नुं मर छारी) --ध्रनुमभववांसी लांक-सं. पु---१ देषो ग्वृग' (रू. मे.) २ देखो (लंक' (₹ू. भे.) उ०--जिसरी कमत कोम नाल तिती वाहृतता, जिभिउ ह तणौ लांक तित्ति मध्य देस, जिसा केलि ना स्तम तिता ये ऊर... । --व. स. लकड - देखो (लांफी' (भरत्पा., र. भे.) लांफो-प, स्प्रो.--सोप्ररी। रू. भे.-- लू, तूकातु, लूंगती, सोका प्रत्पा---लाकड, लकड़ी, लुकडी, लूकदी, सुकड़ी वि.--कायर, उरपोक । लांकोमूको-सं- पु.--प्र-पुष्पहीन एक प्रकार का उदूभिज जिसके श्रन्दर यदनरू निकलत्ती है । रू. भे.--लकीमूटढौ लांकोला-वि. (स्त्री, लांकीली) १ सुन्दर । उ०--लांकोली रू पिस धरणौ रूड़ौ चमक है, देही तिका जारी दाम हीज दमके है । जि प्रग जावकसुंधारी ही भारदह, इण नाजकता रौ किकी पार है) --र, हमीर लांगदचकर लको ४३८७ + २ रंगीन । लागडो- १ देखो (लागी (ग्रल्या., रू. भे, ) † लांको-सं. पु. (स्त्री. लांकी) नर-लोमड़ी । स+ भे. -- लुको लाखरगणौ, लांखनी-क्रि. स.--गिराना, डालना, फकना । - उ०- १ टलवलईइ जिम निरजालि माचिली, वलवलईइ भ्रति भ्रमि वली वली । भख लांखइ लावर श्राकुलउ, विरहि विह्वल वांतर वाउलेउ। --सालिसूरि उ०--र पटोल भूमि वाहिरियई, चीतवीया पासा पड़, उं करतां पाधर थाई, लक्ष्मी वारि लांदं श्रनद्‌ं ऊपरवाडि पयस, इसि , दिहाडउ भल । ˆ --घ. स. लीखणहार, हारौ (हारी), लांखणियौ--चि० । › - लांखिश्रोडी, लावियोङ्ौ, लांख्योडौ-भू° का० कृ० 1. लांबीजणौ, लांसीजवौ -कमं वा९। . लाचियोडौ-भू. का. कृ.--सिरायाहृश्रा, डाला हुत्रा, फेका हृ । - (स्त्री. लांखियोडी } 1 लांग-सं. स्वरी. १ श्रावड्‌ देवी कौ एक वहिनिक्षानाम। २ घोतीया लंगोट वांधते समय जाघोंके वीचमेंसे निकाल कर कमर मे खोसा जाने वाला लगोश्या घोती काभाग । उ०--दत्यादिक मोथी श्रादति रा ग्रस्य, थोथी थठवट रा यलिया वेयचछिया । ढीली लांगां राढेरा इल्काता, टोषड़ टुकडां राखेरा खटकाता । --ॐ. का, ३ धोत्तीकी किनार। उ०-तठा उपरांयत सिरदारां देसोतां तावम भरुतणरी हंस करं छै । लाल लागी री पोता पहर चै । ' घडनांवां वणायजं चै । ॥ - रासा. स, #1 , श्रत्पा,. लांगडीः २३ देखो 'लवंग' (र. भे.) | उ०~-तिण भाग साक मसाला मंगायजं छु । जायफठ, लगि, इकछायची, भिरच, चिरहाढी श्रजूं नागकेसर भमर टठंटी तज तमाठ- पन्न तंबोक प्रतसंथी } । --रा. सा. सं <. भे.- लंग लागड़-सं. पु. [सं. लागलं ] १ सप्र, वराह । (श्र. मा.) ˆ २ देखो "लागल" (रू. भे.) ` | उ०--सीहरा ककछाधारी भ्रगर सावता", वकछाकारी हरा धार बरूतौ ¦ , मुरड़ भाजड़ पड खाय ांगड़ मठा, जकण लांगड़ ऊरड़ श्राय सूती । --भ्राउवा ठाकर हरनायरसिह्‌ रौ गीत ३ देखो 'लांगी' (मह्‌. <. भे.) ४ देखो "लंगडो' (मह, <. भे.) लगडग्रसत्र-स. पु.--सूम्रर, वराह्‌ । लागङो-देखो ^लांग' (म्रत्पा.+ `<, भे.) (भ्र. मा.) (श्र. मा. डि. को.) उ०-१ गदाले खड़ो लंगड़ी श्रग्र गांमी, भले मात ह्गीठ हिगोढ भांमी । मुखीं मँ जिका श्रादि अ्रन्नादि माई, भ्रवत्तारले --मे.म. उ०--२ जागड़ा भडां सत्र वीर सर गवीक्ञं, ताप पड़ कांगड़ा लंक तांई । पर गां सागड़ा दयण श्रायौ उदन, नागघ्हु लांगडा चीर नाई । ` --वद्रीदास्र सिडियौ उ०-२ नामी भिरंदां लागड़ा विनां भरु-डंडां चढावं न कौ । तवां ' रंमवनान कौ उडावे त्र-ताप 1 निस्ना, राका विनां वे सामुद्र वढावे, न कौ, पातां नैस तौ विनां कौ बढाव श्रतापः। -कीरतसिह्‌ खिडियो ममिड़ा धाम श्रा | \ २ देखो लगे" (<. भे.) ~ उ०-१ भगवानदास भाराय भल्लः, "वगडी' तखत्त श्राखाडमल्ल । लगड हरु लिम लिय वाथ, श्नोगम ला श्रख्भग नाथ । र -गु. र<, व, उ०--२ नोमंडी भंडीस उ्याग भ्रायौ जिङं चंडीस जायी, राजपत्री ग्रायौ जीऊ थंडीस व्या रेस । श्रोडडी श्रपीसतौ लगड कपीस श्राय, कोडंडी कसीसतौ क श्रायौ गुड़ाकेस । --हुकमीचंद खिडियौ उ०--२ तं पाट वाघ" वंगड़ी तलत्त, वाघ" सुतन भढ वांकंडौ । भगवान उह भ्रसमान गुज, हेक हमत लागड़ो। -गु. रू. व. लांगटियौ-स. पु.--वाजरीके भ्राटे को पानी मे मिलाकर श्राच भ्रं पका कर वनाथा हुग्रा खाच पदाथ । ॥, लांगडो-सं. पु.-चकमक परत्थरके साथ लगी हर्द खोदी सूत या खीप कीरस्सी, जोभश्राग ललने के काम भ्राती है । लागण - देखो ^लांघण' (<. भे } | ल्लांगदारःत्रि.--लांग वाली । # उ०--एक पगमे चांदी री तांती भव श्रर एक कान री उपरली लो में खरा मत्यां री मांमा-मुरकी लटक ¦ करिनारी हाढी लागदार घोती तथा पागदी में ताव रौ माददियौ वांध्रोडौ है । | | ` -दसदोख लाग्-स. पु" [सं. लागलं | १ सेत जोतने का हल । (ड, को, ) २ एक देल का नाम । उ०-- कीर कास्मीर द्रविड गउड जांड लाड लगि जाग ठ2खस पार स्व जादव नेपाल श्रग वंग कलिग तलिग, माग" °" ९ रू. भे---लगठ, लांगड़ लांगदचकर,!लागटचक्र-सं. धु. [सं. लांगलमू-+- चक्र] फलित ज्योतिपमें हल के भ्राकार का एक चक्र जिसके वारा भावी फसल के वारेमें जाना जाताहै। व. स, तागलधुजं ४१४६ लागदघुन, लांगछष्वन-सं. पु. यौ. [सं. लांगतं-+-ध्वज] वलराग, हलधर । लांगठी-सं. पु. [सं. लांगलिन्‌] १ यत्तराम, हलधर 1 २ नारियल का पेड । ३ स्प, सापि । ४ पुराणों मेएकनदीका नाम) ५ चपभके नामक श्रष्टवगे की श्रौपपि । ६ देखो लागरढी' (रू. भे.) लांगरीस-सं. पु. यौ. [सं. लांगतं~-ईय] १ बलराम, मतमद्र 1 २ दिवलिग। लागु, सांगुल, लागरूल-सं. पु. [सं. लागलं] १ प्ट, दुम । उ०--गलद घंट गयंद-तई, पस्विम वंध्या पस । लोडता लागु घंटा, श्रादसी श्रवनेस । -- मा. का. प्र, २ वन्दर, वानर) (ह्‌. नां. मा.) ३ शिदन, जिननेन्दरीय) (हि. को.) [से लागलं ] छ हत के भाकार का एक प्रकौर फा दास्य । उ०--चाप चक्र, नाराच, भ्ररद्वचंद्र, श्रसिपव्र, करपध, क्षुरप्र, क्षुरिका, करवाल, कृत, सल्ल, वावल्ञ, भल्ल, सत्यल, व्रिसूल, सक्ति, सर, तोमर, भूरवि, श्ररढमुरयि,,परसु, पास, पटटिस, दस, लगुलः मुसल, मुखंदि, मुग्दर, लगुड, गदा, दड, भिडमाच, गांगीव, विस्फो- टक, वचर, तसुवारि, प्रमुख सट्धरंसद्‌ डायुधानि । --प. सं. १ देखो लंगर (5. भे.) लागरठी-भं. पु. [सं. लागरूलिन्‌| १ वेन्दर, वानर । २ लंगर) ३ हनुमान, पवनसुत । रू. भे.-संगूल, लागली । लगिरी-सं, पु. -फड-वेरी के पत्तो सरिप्त कटे हुए सूम कटं व उठलों का समूहय देर) लागोदर-सं. प,--एक मारवाड़ी गीत । लांगौ-सं. पु. (सं. लागरूलिन्‌] १ बन्दर, वानर । २ लंगूर। २ हनुमान, पघनसुत । शपनिप्नो भागौ ) श्रदत गन पिरद तुदत करये पर्ता, र्या अने दिर तुरत पतग । --नष्जीरागीत ५ सार, बहादुर) उ०--गाय गायं भरी वंगा रोष्ला सिया गौरा, यफीषत्पादही जंगां यजाद वांणाग्र । ऊग दीह सापो विय" श्रापियौ "दने वद्ध, तायां पण फोधा चंदीलानान यना 1 ---संकरदानि सामि ६ देखो संगर" (र. भे.) उ०--करं उव राव दुसर्‌ कटार वष्ट कटि द्ार्णरी जिण पार। लगौ हृणमंत पराग्रमे नमि, द्वियं नह्‌ हार जत्ति चप देमि । -- मूर प्र. सू. भै. तंगौ ग्रत्पा. तगर, लसोगदोौ सांपडो--देमो 'तंगदौ' {स. भे.) उ०--दरूयरां जेम नह रांवियौ रेख न, प्रस रौ दाजियौ यकौ ध्रायो 1 लाटी कपी ज्यु संम लापौ लटह, नट जिम शजुदरूारौ चात लायो --द्रुधयी श्राति सोधण -म. पु. [सं. संधने] १ भूलारह्ने को श्रवल्यायासिवा। उ०--१ (साली श्रा मोहर धापं कने किण ष्टी सूत चेटां प्रवे नूं कठेक योनी राद्धी हूतौ सु भ्राज गृढादा लोग नुं लांपण पट्तौ जांरानं मोनंदीद्य। --नणसी उ०--> हरिया लांघण साधकं, जच किनी न जाय युं तांघरियो केरी, मूवां पयं न खाय! --ध्रनूभववांणी २ उपवास या ब्रत रूस क प्रिया । उ०- प्छ देवी ऊपर लाघण पांच दस किया) देवी प्रसन्न हुरई1 कल्यौ--तूटी, मांग । -- नरसी क्रि. प्र.-करणौ, पड्णी, होरौ । ३ लांघनेया फांदनेकी क्रियाया भाव। ४ घोदेफी एक प्रकार की चातलं विद्ठोप ५ सीमाके वादहिरहोनेकी शिया या भाव। र<. भे.--लंघरण, लधन, लांगणा, लांधन । उ०--१ लायौ जाय रोगहर लगौ, पिलंग सहतौ सुरा प्रवल । | लाघणिभ्रौ, लांधणियो-वि, [सं. लंघने रा पु. इयौ] १ जिसे कु देखे जग री कपि दोढा, दुसह्‌ सोढा रांमद्छ । -र. रू. उ०-- २ तंकाठ सेवेग तुभ लागी, न्नात लिमा खटां-भांयौ । पती-कूट स्वारथी पांगौ, करण प्रसह निकेद । --र, ज. भर. ४ भरव । उ०-- कारा गौरा कवर, रगतमले लांगौ क्टवो । माणा भद हनुमान, कौडइलौ नरसिषि फटछवौ । - मा. वचनिका उ०-२ कट में वद, तांमापत्र करा द, भरत खंड सरा द रोर भी नहीं खायादहो, भखा ) ०--१ श्रगिश्रां अपरं एलां र चीसर पह्रिश्रां लांघणिद्मां सिव री कटी, लंक धड़ चड़ रद्विभ्ौ छै ! पान सारिखौ पेट पातम प्रभ्रित सी नाभी कुंडली माहि पांरी पीतां ठल्कतौ दी दै। (न रा. सा. स. उ०--२ तठा उपरांत्ति करि नं राजान िलांमति हमं राजान कामि रा श्रुखिया, लांघणिया सीह ज्यौ धापाछ्छिनै रिया द्धै) जणं लांघगीकं लाचो का मदन-मयंद पञछठाड़ीजं द । कादौ जिमधुरि करि न रिया दछ। --रा..सा.सं. उ०--३ हरिया लांघण साधकं, जाचं किनी न जाज ॥ यु लांघणियौ केहरी, मूवा पद न खाय । --ग्रनुभववांणी २ कूद फर या फलाग मार कर एकं ग्रोर से दूसरी भ्रोर पंहुचने वाला 1 ङ. भ.--लंवरियौ, लंघारियौ लाधणोक-वि. । -- १ जिसने कुं न खाया हो, भूखा । २ कुशोदर । र. मे---लंघणीक र लाघणौ-वि. (स्त्री. लांधणी) १ जिसने कुछ नही खाया हो, भूखा । २ लांधने वाला, उल्लंघन करने वाला । | लांघणौ, लांघवौ-क्रि. स. [सं. लंघनम्‌ | १ उग भर करः चल करया किसी वादन के द्वारा किसी स्थान को पार करना, दूसरे सिरे पर पहुंच जाना । उ०--१ जव देही भीतर रूखमणीजी श्राया । तव देही लांघता पग ्राघौ दीयौ। ते जेहडि पग कौ खीक्रस्णजी की नजरि पडी । ए - वेलि उ०--२ थल कतार लांघण धटे, लँ जिहाज जठ प्र॑त । भोढी छठी वाणी, बेटा धूत जणंत 1 --वां. दा. २ छलांग भरकर या कूद कर किसी पदार्थ, नाला, कूप श्रादि के उपर से होकर दूसरे सिरे पर प्च जाना । उ०--१ सागर तीर भिक संपाती, कहे लक मे सिया दिखाती । जामवंत हनुमत श्रराै, सागर लांधण री विध साधे । -- गी, रा. उ०--२ लांघी चांवल पीठी हौ खाट, डांवी देवी जीमणी (सिय) माल । उवी महासत्ति फँ करद, डवा सारस, स्यंघ, सियाढ 1 --ती, दे, ३ इस गति से जाना कि रास्ता शीघ्र पार करके गंतव्यं स्थान पर पट्चा जा सके । उ०्-राजा न॑ देख सो सूग्रर भागियौ । राजा पीष्धौ कियौ 1 वन नदी परवत लघती-लांघती सूग्रर एक वडी गुफा माही पटो । । --सिघासंण वत्तीसी „ किसौ खाद्य-पदा्थं के ऊपर गुजरना, जो कि श्रनुचिते माना जाताहै) ५ सीमाके वाहिरदहोनाया जाना । ६ व्यतीत करना या होना । ७ त्यागना, छोडना । लांघणहार, हारौ (हारी), लांघणियौ-- वि, 1 म १) #1 क ¢ लापिश्रोङी, लांधियोङी, ल््योडो--भू. का. कृ. । । लाघीजणीौ, लांघौजकौ-कमं वा. 1 लंघणी, लंघनौ - <. भे. । लांघन - दैखो 'लाघण' (₹. भे.) लांधियोज्ञौ-भू. का. ृ.--१ ङग भरकर, चलकर या किसी वाहन के हारा किसी स्थान को पार किया हुश्रा, दुसरे पिरे पर पर्वा हुभ्रा, २ छलांग भरकर या कूद कर किश्षी पदाथ, नाला, कूप श्रादि के ऊपर से होकर दूसरे सिरे पर पहुंचा हुश्रा ३ इस गतिसेगया हुग्रा कि रास्ता शीघ्र पार करके गंतव्यं स्थान पर पर्टुवा हृग्रा- ४ किसी खाद्य पदार्थं के उपरसे होकर गुजरा हप्र, जोकि ग्रनुचित माना जाताहै- ५ सीमा के बाहिरि गया हु्रा. ६ व्य- तीत कियाहृश्राया हुवा हुप्ना. ७ त्याग किया हुत्रा, छोड़ा हुश्रा । (स्त्री. लांधियोड़ी) लांधियौ-देखो (लांधरियौ' (र<. भे.) उ०--भांमरं पृं रा, भुवरिये रू रा, चोढ्र्मं रंग रा, लांधियं सीह ख्यं लंकां चटिया थका, भागा गाडा ज्यूं वठठाठ करता थका वेस्या ज्यु फाला करता थका, मातं हाथी ज्यू हकारा करता थका 1 दसा ऊट भेकजं छ । लांघौ--१ "लांगौ' (रू. भे.) २ देखो "लंग्डौ' (रू. भे.) लांच-सं. स्त्री.-- कमी, भ्रभाव । २ दोष, कलंक । ३ धूस, रिद्वत । ४ वाधा, कठिनाई । ५ भुकाव । ६ दगा, फरेवे । उ०--क्षत्री लांच ग्राही हसी, वचन कही नट जासीरे। दगा दगी घणा खेलसी, विस्वास घाती थाक्ीरे। --जयवाणी क्रि. वि.-७ किचित शका । उ०-लाज न किम रण लांच लग, खग्ग न वाही खांच । समर चद्‌ श्रस पट समे, खाविद पह्रौ खांच । --रवतरसिह मादी लाचण, लांचन -देखो “लां छनः (रू. भे.) लाची-पं, स्वी--- विलम्ब, देरी । लाचौ-सं. पु--१ उत्तम श्रेणी काधास, जो बुवाई करते समय विशेष परिश्रम करने पर वलो के लिए संग्रहित किया जाता ह या सुरक्षित रखा जाता है 1 | उ०-१ सखुटौ वीज कण लांच खड सखुटौ, छुपनं प्रठयागम पावन पड़ टौ । फीका चैःरा पड़ फीका द्रग फेर, हाहा ऊंडा दिन भंडा भय हैर 1 --ऊ. का उ०--२ करता मांचा दे लाचां वूतरिया, उतरता श्रासाढां मंदा -रा. सा, सं. लोकसे ४१३५० 1 उतरिया । संणा संकट मे बंकट सव राया, घाटा धूटियोटा , त्ांल-वि, (स, नुख्कः या लंटाकः] (स्त्री. तांडी} १ जवस्दस्त, धूघट धघवराया । --ऊ, फा, जोरदार । २ खच मँ कमो पति फे लिए लिया भाने वाला कर्‌ । उ०--वणावौ श्राप वातां वडी, सपं हवं किम सींदरौ । सनद उ०--महमंद वारे लोकां नं १८ करलगा। से फटी (प्रथम) थयौ सातौ सदा, जांणां ध्णाकौ "जींद" रौ । --पा,्र, दांस, (वीज) पृठी, हव्गत, भोम, भेट, तलार, सुसौ वधां- २ शक्तिशाली, वलवान 1 मणौ लाग, मठनौ साग, वठ, लांचौ, षोडा-यारसा, फवारनी संखड़ो, पाघदी-यरोड्‌, ठोरनी चरा, बाड़ी नी लग, कटी पाकी उ०-१ पह चाटक धने्वंतपुररलाट सूट चियाह्‌ । कोट नेदी कवेरजा, लाग श्रौर काजीनी लाम । --न॑णसी सेमा खडा क्ियाह्‌ । -- वां. दा. वि.-(स्म्री. लाची) खराव, श्रुभ । उ०--ए तारां साहू कूकियौ, उत्वे योतियौ-₹र ! लोकां देवौ, उ०-ताहुरां पादूजी क्यौ जु-्दीनू सुगन साचा श्रा छै । तेषू लाठौ थफौ खोस द॑) --पलकः दरियाव री यात म्हे रातौरात घरां जव्रस्यां । --्रएसी महा. लाड रौ डोकी ई दांग फाईं=सचवल श्राधित्त निर्वेल भी सवयलों से कम नहीं होते ! लांदण, लांछन-सं, पु. [सं. लक्षण] १ दाग, धव्या । २ निन्दनीय श्रथवा कुकमं करने पर चरित्र परर लगने पाला कलंक । || [न म श्ये म 9 [4 र. भे.--लंचण, लंचन, लंदए, लंछन, लांचण, लां चन । गीर' "खुरम' उभ दलं, उभे फोप्र प्रतर रहै, --गृ. ष. वं. ५ उत्कंठा, लालसा ३ वीर, पहादुर । उ०-लाभसी विगत लांडा भलां, नसं नाच श्रायौ नै । जिह = क लांजउ-सं, पु -एक देश का नाम । , + ष्टं द्वत । भ नि 2, 99 श्रारईरल उ०-देस सस्या; श्रादिदं श्रयोध्या नगरी, उखामंडल, ग्राम च्यारि उ०--प्रापरो सरीर घणौ निरोगौ र्वे, म्हारी श्रारईल लारी कोडि, वलवत्ता देस ३ कोटि, खुरसांणा ग्राम कोडि १, गाजण १ । क्ख ३२ लक्ष, कनूज ३६ लक्ष, चौड १४ तक्ष, घांगादरू १४ लक्ष, द्रविड ६ टद्‌, मजदूत) १२ लक्ष, विशु १ तक्ष, लाज १ तक्ष, वद्राट १० सहत । ७ जौश्रकार, भार एवं विस्तारके प्रनुसार वड़ा हो, विदाल, ~व, स. भारी, विं स्तृत । लाठ-सं, १.-- १ गाय, वल, भे प्रादि पदयुप्रों का समूह्‌ । ऊपरलौ भारी) --फएलवादी उ०-२ जिणगांवरीश्रा बतहै उणरा ठाकर भेक वांरिया मयं खी करतौ उण रा पाडौस मे गवि-वांभी नै तलै उ०-१ हीर चीरदैम तार घड़ी में विराण होती, लाखां द्रव चिभौ सवे हाथी घोड़ा लांठ । णाम घाम भूठा लांखौ धेधं भरूठा लाया, नदां भार रं मिरग रे पड़ी वायस री गांठ। --म्रोपौ भ्रादौ थाढ्धौ देय उणा रे नांव पटौ कर दिय - फुल वादी उ०~-२ काना करमांस्‌ रंगा गछ रीता, साचा सोने रा वाललिया उ०---प३ सकर भगवान भांग रौ श्रेक साठौ तृंदौ गिट नं वोल्या- वीता । गोरं खाली हय खाच्ां री गाल, लेग्यौ लूंखापण वांठां री यार साय घूमणामेभ्रौ ईजतौ उररहै। --पूलवाड़ी लाठा। --ऊ. का. २ देखो 'लांटो' (मह्‌. ₹. भे.) लाटार्ह-सं, स्व्री.-- १ जवरदस्ती । २ सीनाजोरी, पयादती । रू. भे. लृ खाई 1 लालपण, लांडापणौ, लांठापी-स, प.-- १ जबरदस्ती, बलात्‌ 1 उ०-काचा करमां सूरा गढ रीता! साचा सोना रावाट लिया वीता) गौरं खाली हय खालां री गांठां । सैग्यौ लृंटापण लाला री लार 1 --ॐ. का. २ सीनाजोरी, ज्यादती । रू. भे.--लृठपणा, दूंटापणौ उ०--४ वेक. रेत रा लांठा घोरामें विरखा रौ पांणी रितं ज्यृं उण राज री रेया र श्रेतस में सगव्ा भकरम भ्रन्याच फर, वुड़कौ नीं ॐ । --फुलवादी ८ प्रतिष्ठित, सम्मानेनीय। उ०-लांखा लांठा मौतचिर वेढा कुवेका दही दूध रौ मिस लेय गुजरी रं धरं भ्रावता संकता कोली । । --फुलवाडी ६ जोभ्रायुमे वड़ा हो, युवा, नौजवान । उ०-१ भूंडण भ्रांसु ठल्कावती वोली--यारी दहं रंजोखौ व्हियां कीकर इण येह रौ श्राणंद धिर र' सक › म्तौ शां चीत्हरां ने जाय म्हारौ फरजन उतारियौ ! प्रवं थे श्रां पाटठ-पोस लां । लाजौ-देखो 'लंजौ' (₹. भे.) उ०-१ धृंद रौधेरौसीनासूं लाठी) निचली तंग हठ्कौर्म करौ । --फुलवाडी लाड न ____-_--------------------- उ०--२ म्ह वांनै घणा ई समाया के प्रवे तौ सवर साव साजौ सूरौ ब्दैगौ दहै, पींडारौ ब्है ज्यु माच्योडीहै । भ्र भाचरिया ई भरपूर लाठी व्देगा । -- फुलवाड़ी १०-दीघे, लम्बा । उ०--१ सेलंणी आराडौ खोल बौली--वीरा, थारी उमर तौ लाटी । --पूनवाड़ी उ०--२ सौरी दौरौ दस वरसां रौ तौ गडकः पाड सकां पणं तीस वरस तौ म्हानै जुग जित्ता लाड लाव । -- फुलवाड़ी ११ श्रत्यधिक, ग्रत्यन्त, वहत । उ०--१ पणाव्णसूं कांडव्दै। कंवररं हाथां तोरण रौ जोग सजणौ, श्रा इन तौ सवसं लांटी खुश रीवात है। --पुलवाड़ी उ०--२ म्हारं वास्तं इण सू लांठे हर री वात दुनियां में दूनी कींनीं द्द सकं । --फुलवाड़ी उ०--३ दोना कानला वैरी मचग्या । लोही सूं लढा सचम्या । --दसदोखं १२ महान, बड़ा, समथे, सक्षम २ ई वेग श्रायौ न निजर रं वेग जावतौ दीस्यौ --फुलवाड़ी उ०-सांप पवन रं मारण वाढ्ा सूं तारण बाढौ लाड । १३ महत्वपूरौ ! उ० --विना सोच्यां ई तुरत जवाव दियौ--ग्रदाता, ग्री काम ग्रापनै छोटी निग रावे ! इण सूं लाठी काम तौ दु्नियांमेड्‌ कं द्ूजो नी वदै सकं । --फुलवाडी १३ श्रेण्ठ, उत्तम, वेहृत्तर । =०- खरा र सिवाय थे कोई दूजी वात जण ई हौ { हजार वार सममनाय दियो तौ ई थार सममे नीं श्राव के इण दुनिया मे कमाई कर्णां सृ लाठी कीं पुन्ननींहै प्रर खस्वणासू लाठी कीं दूजौ पापनींदै। -- पलवाडी १४ खराव, वदतर १५ जो सख्या, मान, मात्रा में रीर से वढ करटो, १६ वयस्क, वालिग 1 उ०--उणारी भोढ्प माथं हसता थका चोत्या-इत्ता लढा व्हैगा तौ ई थारी मन तौ टावर रौ गाई साव मोक --फूलवाडी १७ कठिन, मूद्किल 1 १८ भ्राधिक दृष्टि से सम्पन्न, वनी 1 र. भे.--लूटो, लौट लांड-वि.--१ जबरदस्त, जोरदार । २ शक्तिशाली, वलवान्‌ 1 लांपौ ३ देखो 'लंड' (मह्‌., रू. भे.) लांण-देखो "लायण' (रू. भ.) लांणत, लांणति-सं. स्ती.--१ धिक्कार, फटकार, भत्संना। उ०--१ ताह वीसग्देजी विसनदास नूं कल्यौ “लागत द थानं ! सांगमराव थाम घणी कीवी । --नणसी उ०--२ पटी नही मांख भवकाद, लेगी नह्‌ लपकाई नं । लख लांणतत मिनकी च लागी, उणा वेच्ठा नह आआईनं। --ऊ. क. उ०--३ तरं देवडां कट्यी, "ठाकुर, श्रापां ही रजपूत छा, ज्यां री धरती पनरह दिन हवा श्नोर राठौड़ मारै-नूटे छ ! लांणत छं धान थे ही रजपूत कहावौ छौ ? --तीडं छाडावत री वात रू. भे.--नांनत, नांनती, लानत, लांनती । लांणौ-स. पु.--एक प्रकार का पौधा विज्ञेष । लानत, लांनती- देखो /लांखत' (रू. भे.) उ० -१ पातर हंता प्रीत कर, भ्रा उलां ्ररोग। श्राखर प ताया ग्रे, लानतदेदे लोग) --वां. दा. उ०-२ कहै कंय नू दहं कुठ उजी कामी, गज। धजां फौजां लोह्‌ लान । नीसरं तिक नर तिकां लानत विर्यं, लारलावेस नूं लाज लागे । --वीरस्त्री रौ गीत लाप-सं. पु.-एक प्रकार का घास, जो सवसे घटिया, निक्रम्माव श्रनुपयोगी माना जाता है । उ०-घण घण साचां घाय, नहं फुट पाहृड निवड । जठं लाप पस लग जाय, राड्‌ पड़ं जद राजिया । रू भे.--लंप श्रल्पा.--लांपडी, लांपड़ौ, लांपत्ियौ, लांपलौ लापडी, लांपडौ, लांपचियौ, लांपन्टी- देखो (लाप (ग्रल्पा. ₹ भे.) उ० खींपा पीपा फोग, मुरट बुई वरणावं । भुरट लांपड़ी लुठं, गजवे वेलां गरणावं 1 हरियौ भरियौ घान, ऊतरे सदा सतोलौ । दिगला ल्म चलांम, घोर घन देव पोली । --दसदेव लांपी-सं पु. [स. ज्वालाप] १ दाह क्रिया के समय्रारंभ में जलाया जाने वाला पूला (पुभ्राल) जिमे जलाकर चितां श्रग्नि प्रज्वलित की जातीहै। उ०-१ तद दोलैजी काठ भेदौ करनं श्रारोर्ग ‡ । पर लांपौ देण रौ हुकम कियौ | त न उ०-२ अ्रन्रण चच्चरा चिता चिाई, नारेढां मे दाग, श्रारवार फिर जाट लोटि्य, लांपौ दियौ लगाय । -किरपारांम --ङंगजी जवारजी री छावली क्रि. प्र -देणी, लगाणौ मुहा.-लांपी लागणौ == नष्ट होना । लांपौ लमाणणौ==नष्ट करना । २ शव-दाह्‌ केण स्नम्नि | लपु २३ श्रग्नि, श्राग। ५ निलंजतापूणं बात, ग्रह्लील वात । उ०; लोक सहं लांपां लवं, चित्त न राखि ठाहि। फायुणना गुण स्या कहु ? विस्रा वसवा माहि । --मा. का. प्र. वि.--निलेंज । उ०--चिरा श्रपराघद्र्‌ विप्र नहं, कहु-किम काढउं भ्राज । जांच उधाड्उ श्रापरीं, लापा ! तुम्ह्‌ नहीं लाज । --मा. का. प्र. लाफु, लार, लांफो-वि.-- ! सीवा-सादा, सरल स्वमाव का उ०--ऊंचौ तो एरंड, खाटरो तोहि नाग, घणौ भोष्रो लांफु, वहू चौले तो लवोठ ' घण जी तौ भूख, थोड़ौ जीमे तौ भ्रभोगियौ। | --सभा २ च्चा, लफणा। लांव-सं. स््री.--भ्रवधि की ष्टि से लम्बाई । . उ०--हुं बीसदयौ ते वेदिठा, म्हातु वरस वार की लाव 1 कंड म्हारइ हीरा उगहई, नहीं तो गोरी { तिजहुं पराण । -ची. दे, लावक भूवक-सं. पू. [भ्रनु.] गृच्छा । उ०--१ सखी मोत्यां रा लांबक श्टूवक्ता, किस्तुरी वांदड मान 1 जाय वादौ तरपतियां र, मेहब्टां मे छतरपति सा, -लोगी. वि.- पूणं श्यगार युक्त (श्राभूषणों से सुसन्जित) । | उ०--लांकभषवक लाडली, श्रंग टेर श्रपारां। जण पुल्मं हाली "जसां", सजीयां सिणगारां 1 -- मयाराम दरजी री वात रू. भे.--लूंवकभूःवक, च्रुमकभूमक । लावडधकं-सं. स्वी.-- नाराजगी प्रकट करने की क्रिया । उ०--सेठ धरं प्राता ईपे्तातौ वींनशी माथे श्रुता खीमिया उने घी ई लांवड़घकं ली । -- पुलव!।डी क्रि. पर.-लेणी ^ लांवच्ंड--देखो 'लांमछड' (<. भे.) उ० - बुगियसी वणियां घरी, भूज बल "पाल" गडांह्‌ 1 ले लघका लाहोरणी, द लांवछंडांह । पा. प्र. लांवतूव, लाकालूंव- देखो लूंयलूव' (रू. भे } लांवाहाथ-सं. पू. [स लंब ~+-हस्त] १ एसा हाथ जिसकी पहुच या प्रभाव वहू दूर तक दहो) २ चहुर्दाव या चाल जिससे अ्रधिकाधिक स्वायं सिद्धि हेती | हो 1 रू. भे" - लंवहत, लंवहय, लवहात, लेवहाथ, लंबाहात, लंव।हाथ । लावी-१ देखो 'चवीकांचद्टी' । २ देखो लांस स्त्री.) ४२३५२ „~~~ ~~~ ~~~ --~_~_~_-~-~-_~~_ लाना <. भे.-लंवी । लांवीकाचट्ी, लांवीवांयांरी-सं. स्ी.-- विधवा स्त्रियों के पह्निनिके लिए लंवी वरहो की कंचुकी । रू, भे.--लंवीकांचदी लविडणी, लविड्वौ - देखो "लव्रडाणौ, लंवडवौ' (रू. भे.) लविडणहार, हारौ (हारी), लविडणियौ-- वि. । लवेडिग्रोड, लविड्ियोडौ, लविडयोड़ -- भू. का. कृ. । लविड़ीजण, लवेडोजखौी-- कमं वा, । लवेडियोडो- देखो `लंवडायोडी' (रू भे.) (स्त्री. लयविडियोड़ी) लावेडी-सं. पू.-किसी उद््‌ण्ड गाय, वेल, भस ग्रादिकेवेत में चरने देने के लिए वाघा गया लम्बा रस्सा। वि. वि.-एेसे पशु को पूनः शीघ्र ध्रकडने के लिए इस प्रकार रस्ता वाधा जाता है) मि.--ग्रोरावौ लां बोडी -देखो 'लांवौ' (ग्रत्पा.+ रू. भे ) उ०--थृंदै कुण ? सत्र सं लाँगोड़ौ जमदूत वोल्यौ - एक्‌, ऊं वारौ । -- रातवामौ (स्त्री. लावोड़ी ) लांगो-वि. [सं. लंव | (स्त्री. लांवी) १ वहु पदार्थं जिसके एक सिरेसे दूसरे सिरे तकं काफी प्रन्तर हो, लम्बा । उ.-१ लावा मारग दरि घर, विचर श्रौवट घाट । हरि दरसन क्रिम पाहूं, हरिया दुरलभ वाट । --प्रनुभवववांणी उ०--२ घण सोन-ल्पे में गरकाव कीवी थकी । नकसटार जारं गोडियं नाग लावी कीवी द्ध) --रा. सा. सं. २ वह्‌जो ऊचा्ईूमे काफी ऊपर उठा हृुश्रा हौ । उ०--ग्रो वंवोई मे मजदुरी खातर श्रायोड़ी हौ । वाधियौ छः फुट रौ लांब पूजततौ अवांन । -- रातवासौ २ वह्‌ जो भ्रवकाड, काल भ्रादिकीदष्टि से नाप याभानमें ग्रधिक ह्ये । उ०--पण इण सूं कांड व्है } दूजा मिनखां र वास्तं तौ त्रेक पलक नूं वेसी मीत रौ वगतनींद्ै, पराम्हारी मौत रौ वगत तौ सित्तर वरसां धरणी लांबौ-लड़ाक व्टरैगौ । --फुलवाडी मुहा--लांवौ होखौ == १ बहुत समय तक न लौटना) २ मृत हौ जाना । ३ चिसक कर चले जाना । लांवौ करण १ किसी को खिसका देना! कि वह्‌ जमीन पर वेसुघ लेट जाय) २ उतना मारना ३ किसी कार्यं के समापन लांसौ-तड्ग मे वहुत समय ले लेना । ४ विस्तार एवं श्रायतन की द्ष्टिसे किसी निरदिचत मापका। ज्युं -दसं गज लवौ कपडौ, पांच गज लवौ सांप, वीस गज लावी पगड़ी) ५ जिसका विस्तार साधारण मापसे श्रधिक हो, रीष । ज्य्‌- लावी कथा, लांवौ खच । ६ चह पदाथं जो पूरे विस्तारमें फलादहृश्रादहय। उ०--भ्राज धरा दस उनम्यउ, काली धड़ सखरांह । उवा धश देसी श्रो वा, कर केर लांबौ बाह 1 --ढो. मा. रू. भे.- लंवउ, लवर, लवौ भ्रत्पा.--लंबोडो, लांवोडुौ लांबौ-तडंग- देखो लं्रतड़ग' (ख. भे.) लम-सं. पु-- युद्ध, लडाई, उ०--घण विरथा घण गाजणा, चित नह संक छटाय ' लाम लोटा भ मड लगा, फवं खा फंटाय । रवति भादी लांमदछड-सं. स्त्री. प्राचीन समय की वह्‌ वंदरुकं जो पलीता (ब्रागकी वत्ती} लगाने से चलती थी । त्ि.- वह्‌ जो बहुत श्रविक लवा । रू. भे.--लंवचछड, ल मघछठंड, लांवद्ंड । लांनरं--देखो 'लांवसा' (<. भे.) ति लांमणीजणौ, लांमणीजनौ-- देखो ^लांवणीजरणौ, लविणीजवौ (रू. भे.) लामणोजणहार, हारो (हारी); लांमणीजणियौी - वि. । लांमणीनिग्रोडौ, लांमणीजियोड़ो, लामणीज्योड़ो--भू. का, कृ. । लांमणीनियोड्- देखो 'लांवशणिलियोडौ' (<. भे.) (स्री लामणीजियोडी) लांभौ-स. पु.--१ मंगोलियां या तिच्वत में बौद्धो के घर्माचिार्यं, जो कई भ्रंशो मे राजनंतिक नेताभी होते है। २ ऊंट की तरह पायुर करने वाला धास-भक्षी एक जन्तु । वि.--२ हल्का । उ०--वात म वोलिसि लाम, जा मीनति सिरनांमि, इम भिद रति सुणि सामी, पांमीडं सुख एह नामि ! --स्रागम मारिक्य ४ देखो "लांगौ' (₹<. भे.) लांयणी-देखो 'लाइणौ' (<. भे.) उ०--घर धर लागौ लायणी, धर धर धाह पकार । जनहूरीया घर प्राण्णौ, रसं सो हुसीयार 1 करि. प्र.-लगरणौ, लागणो । लांवग-सं. स्त्री.--१ स्त्रियों के लहंगे, पेदीकोट या व।चरे का निचला भाग या किनारा! ४२५३ लाह २ ऋतुमती स्वयो केपासम्रानिया स्पशंमे कुठ वरतुप्रों या विमारियो मेँ लगने वाला दोष जिससे उनमें विकार उत्पन्न हौ जातादहै। ज्य्‌-पापद्धं मे लवण लागणी क्रि. प्र-- करणी, फडणी, फाडणी लागी, हौणी । 5. भे.-लांमणा, लावरा । लांवणीजणौ, लवणीजवो-क्रि. म.--१ ऋतुमती स्वरीके पास श्राने या स्पशं से किसी वस्तु का विक्त ह्ये जाना ! | २ कुछ विजिष्ट विमारियों मे ऋतुमत्ती स्त्री के निकट श्राया सम्पकं के कारण व्रिमासियोंकाखग्र रूप धारण कर देना। ज्यू ~ ्रंखियां लांवखीजणी । लावणीजणहार, हारौ (हारी), लविणीजणियौ-- वि, ! लवणीजिग्रोड़ौ, सावणीनियोड्ी, लांवणीज्योज्ञी - भू. का. ङ. । लांमणीजणी, लांमणीजगै-- ङ, भे. । लांबणिजियोड़ी-भ्रु, का. कृ.- १ ऋतुमती स्त्री के पास श्राने सेया स्पशं से विकृत हुवा हरा. २ कुछ विरिष्ट विमारियों मे ्तुमती स्त्रीके निकट श्राने या सम्पकंसेरोगकाउग्र रूप धारणः किया हृभ्रा । (स्त्री. लांवरीजियोडी) लांवणो-सं पु.--१ शादी या खुशी के भ्रवसर पर सम्बन्धियो श्रयवा परिचित व्यक्तियों के यहां भेजी जाने वाली भिडा ईया गुड़ श्रादि वस्तु ! २ देखो (लवणौ' (रू. भे.) लावसुहौ-सं- पु.-एक प्रकार का श्रशुभ घोड़ा । लांहण -देखो हलाहर' (रू. भे.) उ०--२५१२ माहाजना री लांहृण । ला-१ रक्त सून) २ रंग ६ लक्ष्मी । (एका.) ग्र--७ कानून, नियम । ५ कु शब्द के साथ लगने वाला प्रत्यय जो श्रभाव या कमी को सुचित करता है । [1 - नरसी २३ नालिका ४स्वीके वाल ५ रति ज्यू - लाजवाव, लापरवाह्‌ । £ देखो 'लाह' (रू. भे.) -श्रनुभववांी | लाहइ-देखो "लाय" (रू. भे.) उ०-- १ वाजं सीत्तछ वाय, लै भाल लाद री, वरसि चमर घीज, दास इण ताइ री । --र. हमीर उ०--२ आगे विरह बलाद्‌ जिका वणी लाइ र डो, तिण॒ मेटध "लाहक्‌ ४३५४ लाक ४ नं "रतना" श्राई परावस् री दो । सोर्धथा निध श्रंजस री जडी, त्यांरं साग ई निध हु हाजर खडी । --र. हमीर लादक--देखो 'लायक' (रू. भे.) उ०-१ दुरस (किसन' लख दोद, लहे श्राटां जस लाष्टफ 1 गाटण “केसव' गुरो, व्रवे पंचम लख वादक । --सु. प्र. उ०--२ दादू लाक हम नही, हरि कै दरसन जोग। विन देसे मर जाहिगे, पिव के विरहं वियोग । --दाटूर्वाणी उ०--३ त्‌ सरहरां लिय, तुंहिज सरददां ल्क । तूं सरां घणी, तुंहिज सरहटां नारक । -- गु. रू. वं. उ०--४ रूपक रख्यण लाक लस्य, पात्र परीखण लद्यपती । रीति रहावण प्रीति कहावणा मौज महाघण मोट मती ।-ल. पि. लोहक --देखो लायकी' (रू. भ.) लादणौ-स'. पु.--प्रगिनिरकाड, घ्ाग । रू. भे.-लांयणो, लारईणौ, लायणौ क्ादणौ, लादवौ- क्रि. स.--स्पशं कराना, लगाना उ०--१ भ्राज सूती निसह्‌ भरि, प्रीय जगाई श्रद्‌ । विरह भूरयंगम की उसी, लवथवतीं गढ लाद । ` --टो. मा, उ०--२ लादयां लंगरां पैखि पदटाकरां, डील भोष्ठो षडं कूंजरां डंगरां । गज ऊघोल्िया रज सू गडरा, घोममै पव दीपे किर घूधन्य । --गु. रु. बं. देखो (ला, लायौ (रू, भे.) उ०--१ ससनेही सजण मिद्ध्या, रयणा रही रस लाद । चहं पहूरे चटक ड किय, वैरणि गई विहाद्‌ । -टो. मा. उ०--२ दादू भाती पाये पयु पिरी, हासं लाइन वेर) साय सभोई दल्लियो, पोइ पसंदो केर । -- दादूव्ाणी उ०-३ सकल लाणद तूं गुण केवली, विम ग्रम्हासि त घोल वली । इण परिरं जगदीस्वरू घ्यादयद्‌, स्तवन नदं भिसि अलग लादमद्‌ । -- जयस्रेखर सूरि लादणहार, हारी (हारी), लष्रणियौ- वि, । लाष्श्रोड़ी, लादहयोडौ, -- भू. का. कु, । लार््नणौ, लार्ूजवी - कमं वा. 1 लादयोड़ो--भू. का. कृ.-- १ स्पशं कराया हुभ्रा, लगाया हुभ्रा । २ देखो लायोड़ौ' (<. भे.) (स्वरी. लाह्योडी) लद्न-सं. स्वी. [श्र] १ पंक्ति, कतार । २ रेल की.पटरी) ३ घरोंकी पक्ति ज्यूं-- पुलिस लादन । ४ रेखाः, लकीर ! ५ प्रकृति, स्वभाव । । उ्यं- किणि लादन रौ श्रादमी दहै) ६ पेशा,) व्यवसाय । उ्युं--प्राप किण नषएनमेहो। <, भे. तेण, तेण, संन । लादइव्र री-सं. स्यी. [श्र.] पस्तकालय 1 लादसेस-स. पृ. [भ्र.] १ किसी कार्यं फरने हतु दिवा जने वाना श्रनु- मतिपत्र । २ भ्रनुमति, श्रनुशा 1 २, भे. --तसंस चार्ई-वि.-- (स्फी. लां, लाय) १ येचारा, गीष) उ०--“ला्ई" वार्ह महीनां-सूं निकमौ चटी, घरमे टावर्टोढटी कर ^र₹ ५-६ जीव खावण॒ वादा । --वरसगांठ [सं. लात] २ ग्रहण किया हुश्राः श्रपनायाह्ुश्रा 1 ३ देखो "लाह" (र. भे.) । ४ देखो लाय" (र. भे.) लार्दणो-देखो (लादणौ' (इ. भे.) लार्रांड-वि --१ कमजोर, दरपीक । ० २ वेचारा, प्रस्रहाय। २३ विगडधा हु, वेकार्‌ | ज्यू--लार्ईराड मांमलौ कर दियौ । ४ मूख । लाउवौ--देखो "लावौ' (रू. भे.) लारडो--देखो "लासू' (<. भे.) लाऊभेषो, लारुकाऊ-सं. प.--हर समय फु प्राप्ति करने की साला, लोभ । । लाएडो-देखो "लाड़ायो' (रू. भे.) . लाकड़--१ लकड़ी का कदा । २ देखो शलकफदौ' (मह्‌. < भे.) उ०--१ खड सटा जंग, खुटिगा लकड ईदण । पांणी सटा रहे, कूप वापी लेखं कुरा । --गु. रू. वं. उ०-२ हेकिणहार पाल' सुत हु, श्रचरज गया वहै श्र॑तरेख । लागवां सीस न दोहे लाकड, लाकडि लोह छोहौ लागेक । -- मानसिह्‌ कल्याणोत कद्धवाहा रौ गीत उ०--२ यठ्ण लिया नह्‌ गोरघन काण लाकड विया, दृजड़ लागी रहो कंतीक देह । भडां ज्यां छंडालां मांहि घट भांजियी, चडां ज्यां दागियौ भडां श्रण देह 1 -गोरघनत्सिह्‌ हाडा रौ गीतं लाकड़-देखो 'जकंड़ी' (रू. भे.) लाकडियौ उ०--१ हांकणहार पाठ सुत हुवे श्रचरज गयण वहै श्र॑तरेख । लागवां सीस न ठोहै लाकड्‌, लाकडि लोही छोहौ लागेक । ४२५५ = = ^ लाख ___ ~~~ इससे वे अ्रपने पैर के तलवे श्रौरं ग्रौष्ट रगती थीं, जसे ग्राजकल गुलाल परो पर लगाती । --मानसिघ कल्याणोत कचवाहा रो गीत ¦ पु. यौ. [सं. लाक्षा-{गृह] दुर्योधन द्वारा पांडवों को लाक्य -- १ सरुवकला नामक घास या ग्रीषधि । रै २ देखो "लकड" (श्रत्पा. रू. भे. } लाकी- देखो "लकड़ी" (<. भे.) उ०~-गुण विन ठाकर टीकरी, गुण विन मीत गवार 1 गुणं विन चंदण लाक्तड़ी, गख विन नार कुनार । -- ्रज्ञात उ०--२ नह्‌ पंचा जाय लकड़ी नासै, घणां जोर सज विया घरां ) चाडी करे कचेडी चद्धि्या, नीर उतरं तुरत नरां 1-र्वा. दा. लाकड़ौ -देलो 'लकड़ौ (रू. भे-) लाकड--देखो "लकड़ी" (मह. ₹<. भे.) उ०--१ तेल रौ कडाहौ उकठं छ । श्रगर ॒रा लाक्ड देठै धुखं छ --चौवोली उ०- २ दिन लागा गिर बुल, पड देवास प्रणी पर । तरवर --पा. प्र. लाकड होय, सूख जावे सिरु सर । लाकडि-देलो "लकड़ी" (ङ. भे.) ॐ लाकडियौ- देखो 'लकड़ौ" (ग्रल्पा., ङ. भे.) लाकडी--देखो "लकड़ी" (रू. भे.) उ०- लावी दादी हय लाकडी. वेड वाज जुवा संघ।ण । प्रवत्र जनोई गद्‌ पहर नद, ग्रायउ विप्र जाचण ग्रापांण 1 --महादेव पारवती री वेलि लाकडौ-- देखो "लकड़ी" (रू. भे.) लाकिनी-सं. स्वी. मांस योगिनी, देवी काएक रूप । लाकेट-सं. पु. [श्र] गले कौ जंजीर मं लटक्ता ठत एक स्वं ग्राभूपण । लाकी-सं. पू.-- श्रावादी के पास का चिन्हित ऊँचा स्थान । लाक्षकी-सं. स्त्री. [सं ] जानकीजी का एक नाम । लाक्षगिक-सं. पु.--१ लक्षण जानने वाला व्यक्ति । २ एक मात्रिक खद जिसके प्रत्येक चरर मे २२ मात्रां होती ह । वि.--१ लक्षण सम्बन्धी । ~ २ लक्षणो से युक्त! ३ वह्‌ जिससे लक्षण प्रकट हो । गौरा्थवाची । ५ जो शब्द की लक्षणा-शक्ति पर ग्राघारित हो 1 लाक्षा-सं. स्त्री. [सं.] एक प्रकार का लाल रग, महावर । वि, वि.- प्राचीन काल में यह्‌ स्वियों के श्युंगार की सामग्री था) # 0 ~~ जलाने के निमित्त तिमित लाख का घर। वि. वि.-- पाण्डु की मृत्यौपरांत जव पाण्डव हस्तिनापुर मे रहते थे तव दुर्योधनादि कौरव उनको प्रनेक कष्ट देते ये ग्रौर मार डालने तक की कोरिनं करते ये । प्रजा को युवराज युधिष्ठर का प्रादर, प्यार देख दुर्योघन के हृदय मं ईर््या पदा हृद । धृतरष् की ्रनुमति लेकर, जो पुत्र स्नेह से विव्ये, वारणावत में लाख, घास, वासि श्रादि जल्दी से प्राग लगने वाली चीजों से वने, ऊपर से वहत सुन्दर ग्रौर मजबूत, लाक्षागृह पुरोचन मंत्री की देखरेख नं वनवाया श्रौर उसमे रहने के लिए पाचों पाण्डवो को भेज दिया 1 इस निष्ट्रुर कृत्य का पता विदुर को लगा ग्रोर मय नामक प्रसुर से उसमे से निकलने हेतु रहस्य मय भू-गभै से एक मागं बनवाया श्रौर पाण्डवोंको सूचनादी। जिस दिन लाक्षाग्रहुमें गाग लगने वाली थी उस दिन एक वृद्धा श्रपने पाचों पृ्रौके साथ श्रतियिके रूप मै वहां भ्राकर सोये । दुर्योधन कौ कुटिलता का पता लगने पर भीम अ्रपने भाईयों व माता कुन्ती को गुप्त मागं सेने गये श्रौर जंगल मे पहुंचे । लाक्षागह में वह्‌ वृद्धा श्रौर उसके पाचों पृत्र जल मरे। छः लाशों को देखकर कौरवो ने समभ लिया कि पाण्डव कुन्ती सहित जल मरे हैँ ! मतान्तर से उस घर म श्नाग भीमने लगायी थी ग्रौर उस वद्धाके साथ पुरोचन मंत्री भीजल मराथा। यह स्थान श्राज इलाहावाद जिले में हृडिया स्टेशन के पास गंगातट पर है जिसका कु भ्रंश श्रव मी त्रवशेष है । रू. भे.--लाखहरइ, लाखदहरू, लाखहरे, लाखाग्रह्‌, लाखाघर लाक्षादैल, लाक्षादितल-सं. पु. [सं.] वंद्यक मे एक प्रकार का तेल । लाघंमण - देखो 'लक्ष्मण' (र<. भ.) उ०-जुड राम लालरंमणां काजि जेता, दुवे रूप मांनिक्ख ज भ्राख दता । पु केरि वन्भीखणौ जोडि पाणे, जोधा वंदरा येनरां्य न जांणे 1 - सू. प्र. लालसं. स्वी. [सं. लक्षा] १ एक प्रकार का लाल पदाथं जो करई ` प्रकार के वृक्षौ की टहनियों पर लाख कीड़ों की प्रङृत्िक क्रियाश्रों से वनता रहै । (डि को.) वि. चि.-- यह श्रीरतों के चूडियां वनानि, के भ्रतिरिक्त पत्थर व लोहे को जोड़ने व रंग श्रादि वनानेके काम श्राता दे । यौ.--लाखाग्रह्‌ । - रू. भे. लाखा । २ एक पेड विरेप । उ०-रावण॒ रांग रतांजणी, रवणी नद्‌ रद्राख । सुकरुदंति रायसि, रोहड रोहिणि लाख । --मा.का, प्र. लाल्ण ४२५६ कलिव (क ० "9 ० -रणसिकशषिषषकषकषससषषकसिषदिि वि.- जहतः श्रत्यधिक । उ० -१ दरजै लाचार हौय वेटी न कंवणौ ई पड्यी--विना किणी रं वतायां समण रीवातहीजकीरई्‌थेःनीं समम सक्या ती पच्च म्हारं लाल समावणासूं ई श्रापरी सममे नीं श्रावंता । -- फुलवाड़ी उ०-२ जोसीडा नलाख ववार, भ्रव घर प्राये स्याम । श्राजि श्रानंद उमंगि भयो है, जीव तहे सुख घाम । --मींरां २ देखो 'लक्ष' (ङ. मे.) उ०-१ लाखा एक लाखमसा, जो ला मेदं देखे। लाख जोड लीन्हे याते, कोड कूं न लेखे । --रा. रू. उ०--२ ढाल हवै जीदं धकं, लाखां लोह लिर्याह्‌ । सादा रंग तोन सदा, जमा जायलि्यांह्‌ । --पा. प्र. लाण-देखो लक्मण' (रू. भे } लासणउ-देखो 'लाखीणौ' (र. भे.) उ०--उटी ! उदी ! गोरी करि सिगार, लाखणड काचवञउ नव- सर हार । पीहरनु चोरी नवरगी, वावन चंदन श्र॑ग सखहाई। -वी. दे. लाल्रपत, लापति, लाखपती, लाखपत्ति, लाखपत्ती-देखो -लश्वपति, (रू. भे) उ०-उदं प्रक्र ऊगहुत मणे लक्ख मही, सीत साह लाखपत्ति, कवि क्रोड दीवुही 1 गु. रू. वं. लादपसाउ, लाखपसाव-सं. पु. यौ. [सं लक्ष~प्रस्राद] चारणा कवियों की एृत्तियों तथा उनके दारा विये गये महतपूरं कार्यो पर प्रसन्न होकर राजा, महाराजाश्रां दारा दिया जने वाला एक लाख रुपये का पुरण्करार यां भेट । उ०--१ जिणि देसे सजणा वसद, तिणि दिसि वजदवाउ। उग्र लगे मौ चग्णसी, ऊ ही लाखपक्ताउ । --टो. मां उ०--२ गाम श्राठ वार्ह गयंद, पनरद्‌ लग्खपसाव । गुण पाता. री गजर, दीघा दिल दरियवि । -सू.प्र. वि वि. प्राचीन कालमेंयह्‌ नकद रूप में दिया जाता था, कालान्तर मे लाख पप्ताव के पुरष्कारमे हाथी, घोडे, वस्त्र, ्राभू- पर श्रादि के श्रतिरिक्तकेमसे कम एके हजारसे पांच हुनार त्क की वापिकं श्राय कौ जगीरमीहोतीथीजो कि पुरण्कारकी पूति हेतु होते थे । <. भे.--लार्वापमाउ, लाखापिसाव । लाववरीसर -देग्वो न्लक्षवरीस' (रू. भे.) लायमण-देखौ "लक्ष्मण (रू. मे.) लाखर, लारी -देश्लो "लयेरी' (रू. भे.) उ०--कपट्धा कवी न वारं पुचकार, लार लखर श्रं पाखर मन मारे ! हांसी वांसीसी सकी हिय हारे, ससणीं लसणी तख ह दसणीं सारं 1 --ऊ का. २ देखो (लासेरी' (रू. भे.) लाखलखीणी-सं. स्मी.- स्वियौ के श्रोढने का वहूत मूत्यवान यस्व विक्षेप । लाखवरीस-देखो (ल्व रीस' (रू. भे.) उ०--श्राठ यगण चौदस श्रखर, चवि मात्रा चाठीस। दूए भुजगी छंद दखि, लसरपति लाखव रीस । -- स. पि. लाखहुरद, ताखहर, लाखह्रे -देखो 'लाक्लाग्रह्‌' (<. भे.) उ०--१ राति चालड्‌ राड मामि, सुरगह कणवि सउ, दिय पुरोहितु दाउ, लाखहरद, विसनर ठवद्‌ ! --सालिभद्र सूरि उ०--२ साधीउ पच्छा भीमि, परोहितु लाखहरे, मेल्दीउ दीधु पीयांणु, केडड श्रावी पुणु मिक्ए । --सालिमद्र भूरि उ०-३ धिगुरिघिगु रि धिग देवचिलायु, पंचह्‌ पडव हृद वण- वासु । उतदइं लाखहूरु परिजठड उतद मीमि जु केडदई मिद्‌ । --सालिभद्र सूरि लाखांणी-स. धु.-चिवाह मंडप मे भावरों के उपरांत दुर्टे का विवाह मंडप के वाहुर जत्ते समय ढोली द्वारा गाया जानै वाते लाख्ा-- फलांणी नामक लोकं गीत पर दिया जाने वाला पुरष्कार 1 र गद €. ड । पि उ०--पच्छम रा गांवां वीद चवरी सूं परणीज उत्तरं जद, चारणां र.रीत दहै, लाखौ फूलांणी गवीर्ज, रपियौ गायक पावै । ऊ ल(खांगी रौ रुपियौ कटूगवं । -- बां. दा, ख्यात वि.-लाख से सम्बन्वित ' लाखर्पिस्ताउ, लाखांपसाव--देखो साखपसाव' (रू. भे.) उ० - नौवत वजाय जीत्यौ नरिद्र, विरदाय विरद वोले कर्विद्र 1 रीियौ दिया कमवज राव, सासयां गजां लालांपसाव ।- वि. सं. लाला--देखो लाख' १ (रू. भे.) (डि. को.) लालाग्रह, लाखाघर-- देखो "लाक्षाग्रहु' (ङ. भे.) उ०--१ किता वेर पांडव ऊपर कीव, लााग्रहु कता काटे लीव । दुमासन क्रन्न गगेव दुजोण, खपे कूरखेत ग्रढार श्रखोण 1 -हु. र. उ०--२ लाखाग्रह री लाय, तं पंडवं राख्या त दिन । वडा किया वन माय, सायन छोढ्यौ सांवरा। ` --रांमनाथ कविय लाखारस-देखो लखारस' (5. भे.) उ०--खासौ दुकडी जामसादइ मुलतांनी तपाद सालु मुगीपटण ताखो स्लीसाप तासतो चुनड़ी चोरसो लाखारस दुरदांमी जामावाड कचियौ । --व. स. लासावरट-सं. पू.--वाद्मेर जिले के भ्रन्तर्गत सिवाना नामक गांवकै किलि कानाम। उ०--जुव हुवणवं लागी । वीजं दिन पराद्िली पहर कोट लीवौ 1 लाखावत श्रादमी लाख कम श्राया ' उणा पैण्लां तियौ र्नाम पातिसाह्‌ लाखावट दियौ सातल सोम री वात ०--२ भ्माल' हरौ गढ सीसर मरत, मजन गल्िया मलोम८ । लाखावट तुहाछौ लोई, जां लधियौ गंग जठ । --दूदी प्रासियो लाखावत-सं. पु.-राठोड्‌ वंश कौ एक उप चाखा । लाखिक- देखो 'लालीकः' (रू. भे.) उ०--दृध्घार पटा खांडा दुवाढ, \जमद्रूत श्रवाहै जम्म-दाढ । करिया लाखिकं लोट केकां, पाखरां सहित विया पलां । --गू. रू. वं लािराज-वि.--कर-मृक्त । (मा. म.) लाखी, लालीक-सं. पु---देखो "लाखीकउ उ०-जै जया सवद विदण भणे, वयो राजा वामहा । लाखीक खडे श्रकवर लिया, दुरगे दक्छण सामहा । --रा. रू वि.- १ .लाख रुपये के मूत्य का । उ०--१ निकल मिरडां लार, गेठेली सूकी सांकढ 1 घर कोटा र भ्येय पडी लद लकडयां वाखढठ । टेका कडियां वाघ टोवता घर पर श्री । फो हंदी फसल, भैरीवां गायक लाली । -- दस्षदेव घोड़ा सखरा श्राया राज --हाहुल हमीर री वात उ०-२ देखने राजा नं कहीयौ, हजारी छ पण लाखी कोई नही ॥ उ०--३ ज्यां श्रागे फैरजे, वडा लाखीक वछेरा, ज्यां दरगहं नितं दिय, कोड सुख इद्रह्‌ केरा । --जगी | उ०--४ लालीक वरीसण लाखौजी, भूषाठ निरेहण भाखौजी । जाईज वडा गुण जाजी, प्रा प्रियमाद प्रमांणेजी । --ल- पि. २ लाख की संख्याका। उ०्- साव साख मिदि भाख, लाख लाखीक लसक्रर । च्यारि चक्क नवखंड, हिल फौजां गज डंवर 1 --र. वचनिका लाख रुपयों वाला, लखपति । उ०_- लालीक मिलद्‌ मांडही लोक, चउहदु हाट माणिक्क चौक ! ` श्र॑तरी गख ऊजद्रा श्रोप, श्रम्मली कोट खाई श्रछोप। --रा. ज. सी, र<. भे.-लाविखक ५ देखो लखी' (१) (रू. भे.) लाखोकठ, लादीकौ-वि.--१ लाख रुपये के मूल्य का । उ०--साम्हा श्रस साहस, साह सिया वर चूकां \ सारभ्रोप सावका, पूप सेद्यौ वंदूकां 1 लालीकां उपरा चटे भड़ लक्ख सचे । जांख जटी चत्लिया, कभ सुरतटीं सचेलं 1 --रा. र २ सरवेश्रेण्ठ, भ्र्युत्तम । ४२१५७ लालीणो ____-------_--------_--~_~_ ~ उ० - पोतई संखिणी पदभिणी वेख लक्ष्मीनिर्घान कणर्स अड लाखीकड दीवौ प्रज्वल, कोटि ध्वज लहलहह "ˆ *“*“1 ~व. स. ३ लाख (लाक्षा) का। लालीणी-सं. स्वी.--१ नव-विवाहित दुल्हन के चूड के नीचे पदिन जानि वाली लाख कौ चूड़ी । वि -२ चुडे के नीचे लाख की चूड़ी पहिनी हुई नव-विवाहित कन्या । लालीरौ-वि. [सं. लक्षम्‌] (स्त्री. लखीणी) १ लाख सूपये के मूल्य का । २ उत्तम गुण वाला, श्रेष्ठ । उ०--१ लाडी लार्खीणीं धारां धूंवाती, पीवर उधां री पारां पय पाती । भाखा-ीणां भड एवड़ ले भ्राता, घाया धीणारा गोधन रा घाता । --ॐ, का. उ०--२ सुण रे सुवा लालीणौ, त्‌ं म्हारं पीवरजायरे। --लो, गी. उ०--२३ सारस मरतौ जोय, सारसणी मरसी सही । लालीगणी ग्रा लोय, जग मेँ रहुसी भजेव्वा । -जेठ्वा रा दहा उ०--४ करहा संव करादिश्राः वे वे्रंगुल कन्न । राति ज चीन्ही वैलडी, तिख लाखीणा पन्न । -दटो. मा. ३ पवित्र, पावन. पाक । उ०--१ सिघा सिघावौ सिध करौ, रहजौ श्रपणीदाय। इण लाखीणी जीभ सृं, जावौ क्यौ न जाय । ४ बहुमूल्य, कीमती ! -- श्र्ात उ०--कडिये कटारौ घरमी रे वांकड़ौ सोरघ्डी तरवार ग्रो, पाय लाखीणी धरमी रे मोजडी हलते रातादेपावमो। -लो. गी. ५ श्राल्हाद, हषं, खुशी संवंधी, श्राराम संवंघी, सौखीय । उ०--१ सुहाग री लाखीणी रात वींद वींदणी नं सीख री वात वताईके वा घर-घर नीं वासदी लावण सारू जार्वं श्रर नीं करद परींडौ रीतौ राखं । --फुलवाड़ी उ०~-२ श्रंडी लालीणी रातां में दिन जातां कांड वार लाभं । चिम- स्यां रं समच दिन बीतण लागा । घौ ई विणज वध्यौ । घरी ई वोरगत वधी । घणौ ई मान वध्यौ । --फुलवाडी ६ दुलभ । | उ०--१ कवि एम समयसुंदर कहे, लाखणो श्रवसर लद्यौ । वामु- पूज्य सरण भ्राव्यउ वही, लांछन मिति लागी र्यौ । -स. कु ७ श्रमूल्य । उ०--योडौ कुण करं भरोसौ थारी, वीसां ई वातां लख वरा 1 लूटे तो विन कुण लाखीणौ जोवन सरखौ रतन जुरा । -श्रोपौ भ्रा <. भे.- लखी, लाखणय ५ लाघरे ४३१५ # लागणियौ ____(___-_-------------------------- लाघृटौ-देखो (लाखोटौ' (<. भे.) `. लासेक-~वि.--एक लख के लगभग । लवेसै-देखो 'लाखोरौ' (रू. भे.) लावेर-१ देखो ^लाचेरी' (रू. भे.) २ देखो (लासेरौ' (<. भे.) लासेरियो- देखो "लाखेरी" (म्रल्पा., <. भे.) लासेरो-सं. स्त्री.--१ हत्का लाल रंग लिये हए श्याम वणं की गाय या वकेरी । रू. भे.-लाखर, लाखरी, लावेर लादेरौ-सं पु. [स्नी. लदेरी] १ हल्का लाल रंग लिये हुए श्याम वणं का घोडाया व॑ल। रू. भे.--लाखर, लाखरि प्रत्पा,.--लासेरियौ लावेसरी, लावेस्वरी-देखो लक्षेसरी' (रू. भे.) उ०--प्रनेक सत्रुकार सत्त धरम रा राखणाहार खंराइतां रा करण- हार घजवघी कोड़ीघंज लाचेसरी दौलतिवंत चौरंग लिखमी रा लाडिला लोक वडा वापारी वहुवारिया सोदागर वहरांमसंद साहु- कार घणा सुख चनस्‌ वस च| --रा. सा. सं. लालोटौ-सं. पु.--१ तालाव के मुख्य घाट के वित्करुल सामने (यानि विपरित दिशामें) खोदी गई मिटटी डालनेसे वना हुश्रा ऊंचा ठेर । उ०-पीद्छोला री पाखती दीवांण रा मोहल कोट सहर च, मोहलां सू निजीक तकाव पीचछोला माहि लाखोटा री ठोड़ तकाव वीच रांश ग्रमरसिह्‌ बादठ मोहल कराया छ \ | -नंणसी २ किसी वस्तुको लाख से चिपकाने की क्रियाया ठंग । उ०-सो इरा तरे कागद लिख थैली में घात लालोटौ कर प्रोहित नृं सोपीयौ । प्रोहित वहीर हुवौ । -कुवरसी सांखला री वारता रू. भे.- लाघुटी, लाघेरौ । लावोपूलांणी-सं, पु.--लाखापफुलांणी नामक एक यादव की प्रगंसामें गाया जाने वाला एक लोक भीत । उ०-- नाडा भेरियोडा नैडा निजराता, गाडा गुडकाता पडा रुड़- ` पाता 1 लासंफूलांगी कींसां सुर लेता, डीधा गाडीणा उव इव धुनि देता । --ऊ का, लासौ-सं. पु--एक प्रकार का रंग विशेष 1 लाग-सं. स्वी.-१ लगनेको क्रियाया भाव । उ०-तन जोवनं दिन चार के, तुं तन पहली त्याग । नही तौ तोक्‌ त्यागसी, हरीया रहौ न लाग । --भ्रनुभववांणी . २ श्रनुराग, प्रेम, मोहव्वत । | उ०-जिण भांत सूरज न धूप, इण भांत विरह नै लागरौ एक रूप । चाग री सोभा हाती चदटियां जिसी, चाण । चिना जिके पयादां समान जांरी गिरती ही किसी । --र. हमीर ३ लगन, लौ ) उ०--दो कुट त्याग भई वैरागण, श्राप मिव की लाग (के काज) मीरां के प्रभु कव र मिद्धोगे, कुवज्या प्राई काट याद) -मीरां ४ इच्छा, चाह्‌ । उ०-मिथ्या द्रस्टि देव सूं, घरियड पूरउ राग । प्रथ तणड ग्रनरथ कियउ, देखी नइ निज लाग । --वि. कु. ५ सम्बन्ध, सम्पक ] ६ रईर््या । उ०--ग्रौदृहीक्रुवर कहीयौता पां लोग सरव कुंवर सुंलाग करं । तद लोकांत्तौ राजारी छोटी राणी नुं भखायान कहीजो वीरर्भांणना कढावौ तौ राज थारी ह्व । --चौबोली ७ मौका, भ्रनुकूल परिस्थिति 1 उ०--पिरिकटंजु पीह्रि जाइ, भ्राज घछिषए लाग, सुख पामि सुंदरि, मु मोकलु थाइ पागथ -- नास्यां ८ तेण । ` वि. वि.-देखो नेग ६ दक्षिणा । उ०-गुरूजी ने गरं कर थापिया ने कयौ, इण देस माह मांहरी जेत हसी ती मांहुरां पत्र पोता मांहरी साख रा हसी सौ राज नं गरु कर मांनसीनं व्याहुरौ लाग, चवरी रौ लागभाग दीवौ, जोड़ो खीरोदक रौ, जायं परियं गुरुजी नै देसी । --रा. व. वि. १०५ शाक विशेष म दिया जाने वाला वेसन का मिश्रण या पुट । ११ लगान, भूमि-कृर । १२ किसी नशे भ्रादिका व्यसन । क्रि. प्र--लागणौ १३ एके प्रकार्‌ का नृत्य । १४ प्रतिस्पर्वा, होड । वि. - योग्य, काविल । क्रि. वि.--लिए, वास्ते । (वं, भा.) लागट-सं- पु.- वह्‌ ऊट जिसके पैर श्रौर ईडर परस्पर रगड़ खते हं । ग्रौर पैर के निरन्तर रगड़ से होने वाला धाव) <. भे.- लागत लागरखियौ--देखो लाग्णौ' (ग्रल्पा.+ रू. भे.) उ०--१ राज एं तौ मोत्यां रा दातार जववांई म्हुनै घणाई # व ~ [3१ लागणौ सवाव । राज तौ लागणियं नयनां स वाईरा स्याम । जवांई म्ह प्याय लागे हौ ) -लो. गी. उ०--२ भ्राखी जगदीस्वर साधणं श्रभिलाखी, राखी वांवण री ईस्वर नह राखी 1 लोयण लगणिया तरियां लजवाढा, कोयण काजघलिया रछिया र्जवाढा 1 --ऊ. का. (स्त्री. लागणी) | लागणो-वि. (स्त्री. लागणी) १ मारने वाला, चोट पहुचाने वाला 1 उ०-- त्रेत रा सहंसी सदी सावात जागणी पाड, मेका सोभागरी गाढौ भरोसौ अचूक । तोल प्रथागणौ पा्वं सवदां दाग्णी तोप, दरिया लागणी हीये नागणी वदरक --चंडजी वारद्ट २ श्राक्थित करने वाला, मोहित करने वाला 1 उ०--चोटी वादी चमक लोदणां लागी, फणधर जिसडं फल नवी कड नागणी 1 श्रढकां वठ श्रद्ुत्त छवंती छक्तियां, उकती गंग भ्रंग कता जण तत्तिरयां । --र. हमीर उ०--२ सोन री राड निलाड र कपर दीना \ कुरा रौ | सहैल्यां रौ हवोढौ । साथ लीना नर लागणा लोयणां । -परना ३ लगने वाला 1 ६ ४ देखो "लागट 1 श्रल्पा.-- लागरियौ । लामणौ, लागनौ-क्रि. श्र.--१ स्पशं होना, दूना । उ०--१ पि मन माहि मरावटै, बढ घणौ, उणरो डील दूचलटी हूतौ जाय, तिण समं मेरारं को एक ग्रायी सु भिट्णनुं प्रायो छ, तिरं मेरौ पगे लागौ । -- नरसी उ०- २ इम वागा लागा श्रसमांां, कृतां धमक काट केवांणां जभदढ खंजर श्रम्होषम्द्‌ जडया, लूथव्ां जेटी जिम लड्या 1 --सु. प्र. २ वचिपकना, लिपटना 1 उ०--१ सलीहर परहर भ्रवर नू, मत संभरे भ्रयांण । तरु ड लागी लता, पत्यर चे गठ जण । --ट्‌. र. उ०--र वीज न देख चहह्ियां, प्री परदेस ॒गर्याह॒ । श्रापण लीय मवुक्कड़ागर्णि लागी सहरांह । -टो. मा. ` उ०--३ सुपनई प्रीतम मुक मिल्चा, ह लागी यलि रोद 1 उरपत पलक न खोलही. मतिदहि वि्छोदह्‌उ होई 1 -टो. मा. ३ पहुंचना । उभ--घर वहतां पुर मारतां, माडल लामा श्राय । दूदौ साम्है पूरियौ, लड़ स्रमांमे श्राय --रा, ख. सर्च होना, व्यतीत हीना 1 ४२५६ ५०० ५ लागणो उ०--१ जोवपुरौ चटियो जरा, ईखण पुरं ग्रजमेर \ लागी मिठतां खानं सूं, एक महूरत वेर । -- रा, ङ. उ०--२ घड़ी दोय श्रावतां पलक दोय जावतां, साथण्यां में सारो दिन लागे ए मिरगा्नणी थारं विना जिवड़ौ भरयौ डोले । --लो. गी. > ५ नियोजित होना । उ०--१ जोधांसौ लमा रहै, भाटी हरदासोत । मिढ देवीजर मारियौ, सेद्ध गया लख मौत । --रा. रू. उ०-२ गोरीए, वाका तो परण्या परदेस वांकी तो लागी नोकरी, श्रो मेरी नार वाकी तो लागी, नोकरी, म्रोमेरीनार -नो- गी. ६ प्रस्फुटित होना, प्रंकुरित होना, खिलना । ७ फल पुल युक्त होना । ज्यू--मतीरौ लागणो, वोर लागा । उ०--१ सायवा म्हारेदैवागमें चंपेलड़ी जी राज, जं कं लाग्या छ वोढा घोटा फुल, प्यारा लागी भाभी नं देवर लाडला जी रांज। --लो. गी. उ०--२ कासी करवत सिर सहै, गदं हिमां देहु 1 हरीया निज फल दरि है, लाम फूल वनेहं । ८ श्रनुभव होना, भ्रनुभूति होना । उ०--१ देवर, म्हारी घोती घोवं ए वलाय गौरं पच पर सरदी लागच्यौ जी राज । -लो. गी. उ०--२ चंपा-केरी पांखड़ी, गधं नवसर हार । जड -गठ पहर पीव विन, तउ लागे ्रंगार। --प्रनुभववांखी - टो. मा ४ उ०-३ विणजारा र, लोमी, लादयौ छं मगरां जी वो, पेटमें टकौ लागियौ, विरजारा २1 --लो, मी उ०--४ टकौ लागतां ई ठाकर श्रठटी-उटी जोयी 1 -फुलवाड़ी £ प्रतीत होना । उ०--१ लागे साद सहांमणड, नस भर कुंकडियांह । जठ पोद्‌- णिए दाहय, कहड त पंगठ जाह । --टो. मा. उ०--२ फूरियौ भादरवौ धुरियौ नह फीको, नीरद रज स्नाय लान नह्‌ नीको । ---ॐ, कृ. १० प्रवृत होना । उ ०--"रतना' मद मे मत्त निसंक हुई थी तिणा रा संकोज हं सकण लागी, लाज रे मार भ्रांखियां मुकण चामी । --र, दमीर ११ श्रारम्भे होना, शुरू होना । उ०--१ तेतले समदइ-फुटेवा लागा कपाठ मंड, भाजेवा लागा घनुरमंउठ । जाएवा लागा स्िस्खंड, पटवा लागी खांडा तरणी 7 ४ 1, तागरौ ____(~~] ~~~ सड । वालिवा लागी भटनी काटकड़ी, नाचेवा लागा धड्-कवंध पाड़्वा लागा घ्वज चिघ, प्रहार जरजनर कुंजर पड । --रा. सा. सं, उ०-२ श्रारेभ भ कियौ जेणि उपायौ, मावण गुणनिधिहं निगुण । किरि कठचीत्र पूतछी निजकरि, चीत्रारं लागी चित्रण । --वेटी १२ प्रारम्भ होने के पद्चात लम्बी श्रवधि तक चलने वाजा काय काल, समय । उ ०-१ लागते व॑साख री, वीज श्री चद्वंड । राम कियौ मिढठ "केह री", करी जिही सतखंड । --रा, <, उ०--२ उतरतौ श्रासोज श्र लागती कती । बाजसियां सांगोषांग पाकौडी । वांस वांस ताठ डोका श्र हाथ-हाय भर पिरटा । दांणा देलौ तौ जां परड रा डोढा । --भ्रमरचुंनडी १३ फलन, पसरना । उ०-१ माया प्सरो श्राग ज्य, धर घर लागी जाय । जनहूरीया दा नहीं, मन तन हरि सु लाय। --श्रनुभववांणी उ०--२ भ्राकास उपरे प्रवीर नं गुलाल री प्रवरं बवरी लाग रही छ । --रा. सा. सं, १४ किसी भ्रनिष्ठ या कष्टदायक पात काकिसी से सम्बन्ध होना या उसके सम्पकं में भ्राना। उ०--भूत रौ जमारौ सारथक च्हियौ। वीदणी नं लगणरौ विचार श्रातां ई भूतन पाष्ौ चेतौ च्हियी । लाग्यां तौ श्रा दुख पावला । --फएुलवाड़ी उ०--२ म्दँम्हारा मनसूं साची वात कीकर लुकावतौ) इण प्ली घणी ई लुगायांरं डीलमेंलाग लाग वाने घणौ ई दख दियौ, पण म्हारा मन रीश्रदी ग्ततौ कदं ई नी विगडी। -- फुलवाड़ी १५ होना । उ०-१ पाखती श्ररटारी भीगड़ि चींग रडि पडि नरहीद्धै। उदा री खटाकौ लामिन रहिभ्रौ दय ---रा.सा- सं, उ०--२ दारू रा दाव वीच-वीच लीजै! गोदधियां री खाटखड लागनं र्हीं । -रा. सा, सं. उ०--प श्रंगरि जठ तिरप उरप भ्रलि पिश्रति, माहू्त चक्र किरि लिंयत मरू । रांमसरी खुमरी लागी रट, धया माठ चंद घरू । --वेली १६ मानसिक स्थिति का किसी श्रोर प्रवृत होना 1 उ०--१ माह्‌ महारस मयण स, ग्रति उलह्इ श्रनंग । मो मन लागौ मारव, देखर, पूग द्ग 1 --ढो. मा. सागतोौ उ०--२ मनमभीष्ागातनमभी तागा, ज्यो वामण ग्ड धागा रे मीरा के प्रग गिरधर नागर, भाग हमारा जागा रे --मीरां उ०-- पचन टीत श्रयोल मुख, चंचढ होय न चित । जनहूरिया मन धिर भया, लिव लागी नित प्रित । --श्रनुभववांणी १७ जुडना या होना । उ०~-हुं थने पृद्धु वालमा, प्रीत्त कता मण हौय । लागतद़तेखौ नही, हरी रंक नं होय । --लो. गी. १८ श्रनुगमन (पिदधे) होना, उ०--पिया गया परदे मे, नैणां टपकं नीर । भ्रट शराव पीव री, जीवड़ौ घरं न धीर । जी उमराव थार लरथ्यां लागी श्रावं म्टाराराज । --सो. गी. १९ श्रन्तर्गत होना) उ०--प्रणहलवाडा पर्ण नं गवि ४५६ लां य त्िणि में ६ तपो १ गांव ५२ सीघपुर छ । २, २५००० पचीस हजार उपजतां री नंडनं पाटण'तौ भ्रागं वदी ठौड्‌ हूती । - नरसी २० पीछे पड्ना, होना । उ०--१ गिर-गोचर वतार्व^“मोढां नं भरमावं श्र गंगा नं चट़ावं । लुगायां न ठम, पीरा श्रेटंभ्ररलारे लागदै। -दसदोष २१ प्रभावित होना) उ०-हरीया सो दिन वार धिन, श्राय भिढठं सत संग) श्रबतौ चं न उतरे, लागा हरिकारंग --ग्रनुभववांएी २२ श्रन्तिम श्रवस्या में होना । ज्यू -सूरज भ्रायमरा लागौ, जानवर मरण लागी । २३ किसी वस्तुका दूसरी पर जडा जाना, टाका जाना, वेठाया जानाया सटाया जाना । उ०--१ सु नमचाकिणा मातरा छ? वीटीचा चौगांनिया, धणं वनात रा लपेदिया, सालु रा लपेरिया, वोयदार रामटिया, चत रा, कलाघ्रूत रे कामरा, सोर्नख्पं रवटांरा, रूपं रा कुलावा लागा थका, सोन री टृटी, रूपं री चिलमपोस च॑] --रा.-सा.सं. उ०-२ सू श्राभरण पहर चै । जरकसी सादी, श्रत्तलक्षी चरणौ, केसरी भ्र॑गिया, धसं विरांखपुरं री कोर पट लागां थका । --रा. सा. सं. २४ भ्राधित होना , ज्यू - रोली हरेक जात रं लारं लागौडादै। २५ प्रज्वलित होना, जलना । उ०--फेर हुकम हुवे छ । महतावांरौ चांदणौ हुव , स महितावां पचास सव सांवठी ही लागी च) = रा रत २६ श्रादी होना । लागमीं उय्‌ं--चाय, दारू लागणौ 1 २७ किसी तल पर किसी गाढे तरल पदार्थका लेप भ्रादिके रूप मे पौता जाना । उयुं-ेदी लागी" रंग लागणौ, कीचड़ लागणो 1 २८ श्रभ्पस्त होना । २६ किसी रूप में सम्मिलित होना । उयं--पोथी मे परिसिस्ट लागणो । २० किसी श्रावस्छ या निरोध के कारस्‌ किसी विभाग या प्रकोष्ठ का ठक जाना या दिप जाना । ज्युं--ग्राडी लागणौ, श्रां लागणी । ३१ किसी चीज कारेसे क्रम से ्राना कि उसका यथोचित उप- योग हो सके । ज्यु--हाट लागी । ३२ धारदार या नुकीले पदार्थं का शरीरमें गढना, धंसना, चुमना । उयूं-नख लागणौः हुढवांणी लागणी, छरी लागणी, तरवार लागणी उ०--१ दीटी रूपाङढी म्ह ई घणिर्या, पण इसी याही ज | सी श्रंरियां । जि भांत खतंग रा वांण लागां पद्य हरं हीज प्रण । ह --र. हमीर उ०--२ कुवरसी रं हाथ रो तीर जिर ₹ लागै, सो घोडे रे मांह पार नीर जाव 1 श्रसवाररे लागे जं माहा पाखरा भीं नहीं । सो पूठ लागा भारता जावे छ । --कुवरसी सांखला री वारता उ०-२ वस राखौ जीम कट इम वाको", कड़वा वोल्यां प्रभत किसी) सोह तणी तरवार न लागे, जीम तणी तरवार जिसी । --वां, दा. ३३ किसी पदार्थं का उपयोग में प्रयुक्त होने पर श्रपना प्रमाव दिखाना । ठयं - दवा लागणी २४ मंडरना, छा जाना) उ०--तांवलि काद्‌ न सिरजिर्था, प्रवर लं गी रहत । वाट चलता सारह्‌ प्रिय, ऊपर खह करत ) -दढो, भा. ३५ किसी विषयमे या व्यक्ति पर किसी वात या वस्तुका म्रारोप या प्रयोग होना । ज्यं -कलंक लागणीौ, धारा लागणी । ३६ लाक्षणिक रूप मे किसी मुख्यतः धार्मिक श्र मे कोई प्रनिष्ठ बात या कारय किसी के ग्रनिवाये रूपसे जिम्मे पड़ना । ज्यू --पाप लागणौ, दोप लागणौ, सूतक लागणौ । ३७ जान पड़ना, मालुम होना । उ०-्वां र एक कानी मोटर री लेण चाल री' धीरे धीरे) लग जांणौ कीड़ौ नगरौ जाग गयौ । --ग्रमर चूनड़ी ३८ किसी कामया वात का घटित होना । ४२६१ स लागणौ उयू--गरंण लाग्णौ, मोग लागरणौ, ठेर लागणौ 1 ३९ किसी प्रकारकी क्रिया की पूरणंता सिद्धि या स्थापना होना । ञ्बू-होड लागणी 1 ४० किसी प्रकारके उपयोग या व्यवहार कै लिए प्रपेक्षित या ग्रावद्यक होना 1 उय्‌--घरमें दौ मण घान महीना र लागला! ४१ पारिवारिक सम्बन्धया रिक्ते के विचार से किसी के साथ किसी रूप में सम्बद्ध होना । ज्यु भाई, वंन या देवर लागे । ४२ गणित के क्षत्र में कोई क्रिया ठीक ्रौर पूणं उतरना । ज्यूं--जोड लगाणी ४३ श्राथिक क्षत्र मे श्रनिवायं रूपसे किसी प्रकार का दायित्व देना या निरदिचत्त होना, हिस्से लगाना । ज्यू -व्याज लागणौ, चूगीलागणी ४४ पेड पोधौँ के सम्बन्ध मेँ किसी स्थान पर जमकर जीवित रहना, ्रफुत्लित हीना, पलना । ज्यू -गुलाव लागणी, नीव, पिपल, वड़लौ लागणौ ४ घोडे, ऊंट, वैल भ्रादि के सम्बन्व में किसी प्रकारके दवाव या संघर्षं के कारण घाव उत्पन्न होना, गलने या सड्ने की क्रिसी क्रिया का श्रारम्म होना ञयू*--वलद रे घवांवी लागी, घोड़ा रं पीठ लागणी ४५ किसी पदार्थं में एेते किटाणु उत्पन्न हौमां या वाहुरसे प्राकर सम्मिलित होना जिससे उक्त वस्तु किसी प्रकारसे नष्ट होती रै । ज्यू ~ गवां रे खुपरयौ लागणौ, भ्राटा मेँ इलियां लागणी, ५६ खाद्य पदार्थो के सम्बन्ध में तेजम्नांच (श्राग) के कारणा पकाये जाने वाति पदार्थं का वतन के पदे मे जमना, चिपकना या सट जाना । ज्यू -खीच लागणौ, दूब लागणो, रोटी लागी ४७ श्राघात होना, चोट पहुंचना । ज्यू -सोनार रे घरं बड़तांई वारौत रौ भचीड़ लागौ । ४८ किसी के साथ टेसा व्यवहार दीना कि वहु उससे कुदं या चिडे । ज्यू-भरडौ लागणौ। ४९ क्रमानुसार वारी भ्राना, नम्बर श्राना | ज्यू --कर्चंडी में मुकदमौ लागणौ, डाकखाना मँ रजिस्टरी न पारसल लागरी 1 ५० श्रंकित या निदिचत होना । ज्यू --मौ'र लागणी, श्रांक लागणौ ५९१ किसीस्वीके साथ ग्रनंतिक सम्बन्ध होना । लागत ४२३६ लागि =" --- ^~ [पी वि 1 1 ष्का त ~ ^~ = म भ ~----~~ ---~~ ~= ~~ न ज्यू - न्दी उण लुगाड र लागोड़ौ लागम-- देखो "लाग' } ५२ किसी वस्तु के मरीरमे स्प होने से जलन ग्रा खाज उत्पन्न उ०-थोड़ी देर वाद फरीदं कयौ--माजी 1! तमावू-रौ टक्कौ होना) दिरावौ नी । “श्रे राड-रा! श्री फेर कायरौ खागमौ लगायौ ? ज्यू --मिरचां लागी, केव॑च लागी ! --वरसमाठ ५२ स्व्रीके साथ १ संभोग होना । लागल्पेट-सं. पु.--१ दुराव, चिपाव । ५४ घोडेका घोड़ी मे संभोग होना । चा ₹ महीन माह ४ २ किसी वातमें ्रप्रत्यक्षरूपसेजुडा या लगा हुश्रा वत्व, या उ०--१ चौधरी कल्यौ, सांवण रं महीने महै समृ र तीर ध घोडा वांधीजं श्र रात री पौहरी दीजं । जद घोड़ी री पुच्छ महा- भाल नीसरं तद जांणजं जठ घोडौ लामो । -- राव रिणमल राठौड खावडियं री वात उ०--मु कालां चारण समुद्रसेप भरण गया हुता, सु ईइयां एक घोड़ी लीवी लेनं समृद्र र काठ श्राय उतरिया । ताहरां तेजल उ०्--वातीश्रावं ज्यु, जका वोल्ल उकछिया, वै ई विना लाग- लपेट रं पावरा खटकाय दिया । -- फूलवाडी २ कपट, छल । उ०--घरो हरख सू विना लागलपैट रे विदा किया! --कुवरसी साखला रौ वारता घोड़ो नीसरनं घोड़ी नू लागौ 1 --नणसी सम्बन्ध, लगाव । लागणहार, हारौ (हारी), लागणियो--वि. । ॥ ५ लागिम्रोञ, लगियोडौ, लाग्योड- भ्र. का. कु. ! लागन-सं. पु.- वरी, शतु । लागीजणौ, लागीजवौ- भाव वा. । उ०--हांकणहार पाठ' सृत हवै, श्रचरज गयणा वहै भ्र॑तरेख लगणौ, लग्वौ, लग्गणोौ, लग्वौ--रू. भे. । लागवां सीस न दोहै लाकड़, लाकडि लोहो दोहे लागेक लागत-सं. स्त्री.--१ व्यय, खच । -ठ मानसिघ कल्यांणोत कद्धवाहा रौ गीत उ०्-मेरां त कद्छौः--श्रठे उत्तम घर नहीं सोरम यानै लागत | लागवग--देखो 'लागवाग' (रू. भे.) । दादा श्रत श्रं उत्तम घर विनां रोटी पांणी री श्रमखाई पड़) ऊॐ०--१ फीटन कौ फेट दीन्ही, मरम परम मेट दीन्ही, भूमि भूष मिद्व भेट दीन्ही, एेमौ उपकारी त । लगवाग रेट कीन्ही, लूट काहू की २ किसी वस्तु के वनाने या किसी श्रवस्र विशेष पर खच की न लीन्ही, भारी बुद्धि भीनी भती, घन्य जसधारी तू । --ऊ. का. जाने पाली धनराशि , उ०--२ लागवाग दापे विना, व्यासू हवं न तांन । कद इक कहं ज्यू-मर्कान वणाव मे दस हजार रीपिया री लागत है 1 लडकी करावसी, 'जीदे' तणी जवान । पा. प्र. मे पाच हजार रिपिया रौ लागत है । लापियोड़ो-भर. का. कृ. (स्त्री. लागियोड़ी) १ स्पश हवा हप्र, चुप्रा { ॥ (व ३ देषो शलागट' (रू भे.) हुश्रा. २ चिपका ह्राः लिपटा हुमा. ३ पहुवा हुभ्रा. ४ खचं लागती-स. स्वी.-- सम्बन्ध, रिता 1 । हुवा हु्रा, व्यतीत हुवा श्रा. ५ नियोजित हुवा हु्ना. ६ प्रस लागदार-स. प.- १ नेग लेने वाला, नेगदार । पुटित हुवा हुश्रा, अरंङ्रिति हुवा हमा. ७ म्मनुभव हवा हरा, उ०--ग्रौर ही इर पर्ईसी-टको सारा नेगियां लागदारां नू दिवौ । नुभि हवी हर = प्रतीत हुवा हन्ना. € परवृत्तं हुवा हभ. र १० श्रारम्भ हवा हश्रा, शुर हुवा हृम्रा. । १९१ प्रारम्भ हीने के वनी पर्चात्‌ लम्बी म्रवयि तक चला हरा कायेकाल, समय, केला टुभ्रा, पसराहृभ्रा- १२ किसी श्रनिष्टया कष्टदायक वात्तका ३ करयाटेक्सदेने वाला। क | किसीसेसंवव हुवा हुग्रा या उसके सम्पकंमें श्राया हृश्रा. १३ लागवाग, लागनाग-सं- पु.-- १ लगान, कर, टेक्स । हुवा हुम्रा. १४ मानसिकं स्थिति काकिसी श्रोरं प्रवृत्त हुवा हुभ्रा २ दक्षिरा । १५ जुडा हुग्रा या हुवा हुप्रा. १६ भ्रनुगमन हुवा ह्र, उ०-- राणां रो पूरोहित पालीवद १ नं सिवड़ पुरोहित प्रटीसू पीछा हुवा इुग्रा. १७ प्रन्तगेत हुवा हुभ्रा. १८ पीछे पड़ा हुमा. ग्रीर ४ ब्राहाा ज्ुना विद्या पात्र वेद पठं । लागवाग दीजै! १९ प्रमावित्त हुवा हृश्रा- २० ग्रन्तिमि श्रवस्थामें हुवा हृश्रा. | --राव रिणमन री बात २१ किसी वस्तु का दूसरी वस्तु पर जड़ा ग्रा, टाका हृभ्रा, वैठाया ३ दस्तूर, नेग । हृभ्राया सटाया हुश्रा. २२ प्राश्ित हुवा हुश्रा. २३ प्रज्वलित ख. भे.--लागवाग क | हवा दुश्रा. २४ श्रादी हुवा हूश्रा. २५ किसी तल पर किसी लागियोडो गाहे तरल पदार्थं कालेप श्रादि के रूप में पोता हुप्रा. २६ मरभ्यस्त हुवा हुभ्रा. २७ करिसी रूप मे सम्मिलित हुवा हुभ्रा. २८ किसी श्रावरण या विरोध के कारणं कोई विभाय या प्रकोष्ठ ढकादहु्रायाचिा हुमा २६ किसी चीज कारे क्रमसे श्राया हुग्रा होना कि उसका यथोचितं उपयोग हो सके. ३० धारदार या नुकीला पदार्थं दारीरमे गढाहृप्राः धंसा हुग्रा, तनुभा हमरा. ३१ किसी पदार्थं का उपयोग मे प्रयुक्त हुवे होने पर श्रषना प्रभाव दिखाया ग्रा. ३२ किसी विषय मेया भ्यक्ति पर किसी वात या वस्तु काश्रारोपया प्रयोग हुवा दुध्रा" २९ लाक्षणिक सूपमें उ०--२ हायि हृवौ संग्राम तणी हर, धिये कट्‌ तौ प्रकट धियौ । लागरुवां मडपां दियतां लागै, कमवज साबठ पनंग कियो । - -नादण वारहठ उ०--३ ऊर्म कुम न लीनं श्रसुरां, लागुवां पडियां पचे लयी । गढ़ गागरौरि गउ-त्री ग्रहतां, गांग का ऊपरं गयी । । -- कमा खीची रौ गीत २ पी पड़ने वाला । । उ०--१ रणौ जगमाल राव मानसि रौ जमाई हुव । सु वरती रौ लागू हुवौ ; सिरोही जयमाल विजय कधी । किसी सुर्यतः धामिक कनेत्र मे कोर श्रनिष्ठ वात या कायं किसी के ग्रतिवायं खूप से जिम्मे पड़ा हुत्राः रे किसी काम या वात का घटित हवा हुमा- ३ किसी प्रकारकी क्रिया को पूणता, सिद्धी या स्थापना हुवा हृत्रा. २९ किसी प्रकार के उपयोग या व्यवहार के लिए श्रपेक्षित या श्रावद्यक हुवा हुत्राः ३७ पारि- वारिक सम्बन्व या रिद्तेके विचारसेकिसीके साथ किषीकेरूपमें किसी कै साथ सम्बद्ध हुवा हृश्रा. ३८ गणित के क्षेत्र मे कोई क्रिया ठीक श्रीर पूणं उतरी हुई. ३६ ग्राथिक क्षेत्र मे अ्रनिवायं हू से किसी प्रकार का दायित्व दिया हुप्रा, निदिचत हवा त्रा या हिस्से लगा हृश्रा. ४० पेड््पोधों के सम्बन्ध मे किसी स्थान श्र जम कर जीवित रहा हृश्ना, फला हुमरा, पला हुम्ना- ४१ चोड ऊंट, वैल श्रादि के सम्बन्व में किसी प्रकार के दवाव या संघषं के कारण धाव उत्पन्न हुवा हुश्रा, गलने या सडने की किसी क्रियाका श्रारम्म हवा हुश्रा- ४२ किसी पदार्थ मे रेसते किटाणु उत्पन्न हुवा हुश्रा या बाहर से भ्राकर सम्मिलित हुवा हूग्रा जिससे उक्त वस्तु खाए जने से या किसी प्रकार सेन्ट होती है. ४३ खाद्य पदार्थो के सम्बन्व मै तेज श्रांच (श्राग) के कारणा पकाये जाने वाले पदार्थं का बर्तन के पेदे मे जमा हुवा हुश्ना, चिपक हुवा हृत्राया ससा हुवा हृश्राः ४४ प्नाघात हवा ठत्रा, चोट पहुंची हुई. प किसी के साथ एेसा व्यवहार हुवा हृश्रा होना कि वह्‌ उससे कुटे या चिई. ४६ क्रमानुसार वारी श्राई हुई या नम्बर श्राया हुम्रा „७ अकित या निरिचत हुवा हुश्रा. ४८ किसी वस्तु के ररीर से स्प हवा हृश्रा होने से जलन या खुजली उलयत्त हवी हुई. ४६ किसी स्त्री के साथ श्रनैतिक सम्बन्व, हुवा हृश्रा. ° भ्रनुक्तर्ण हुवा हृग्रा. ५१ किसी स्वी के साथ प्रसंग, मेथुन या संभोग हुवा हुमो. ५२ धोडेका धोदी मे संभोग हुवा हुश्रा. ५३ मल युक्त ह्वा हुध्रा. ५४ मालूम हुवा दत्र. ^^ मंडराया हुश्रा, छाया हुभ्रा । राव चंद्रसेन री वात ३ कायम, मुकरेर । उ०- ठीक तौ धु उण रौ वापरहै। बडौ खतरनाक छोरी दहै । उण माथेतीनसौदो परोल व्दैग्यौ है, वचणौ मुसकल रहै। --प्रमरचू नडी ४ लगने योग्य । ५ प्रयुक्त होने योग्य 1 लागोहौ -देखो "लागियोढौ' (₹ू. भे.) = चतुरभूजजी रं भोग लागोड़ी थाठ सूरजमलजी र भोग लागे, पच्य श्रो थाक ठकूर जी रा रसौवड़ा दाखढ ह्व । | --वा.दा. ख्यात उ०--२ महल र नीसरणी लागोड़ी राव ऊंची खेच लिवी । महल रा किवाड श्राडा जडया जिखि सु रावनू मार सक्रिया नहीं। --वा. दा. स्यात्त. (स्त्री. लागोड़ी) लाघव-सं. पू. [सं. लाघवं] १ लघु, छोटा! उ०-१ देवी काचछिका मा नमौ मद्र काढी, दैवी दूरमा लाघव चारिताढी । देवी दांणवां काठ सुरपाढठ देवी, देवी साधकं सिघ सेवी । ` (८ उ०--२ मुख मंग ` नाम उचार सदा, तन कै प्रघ श्रोघन दाघव रे । हनमंत विभीखन भान तने, जिन कीन वडे, जन लाघव रे । न्‌, अज्‌, ध, २ कमी, अ्रत्पता। ३ दस प्रकार के यति धर्मो के श्रन्तगत पाचवां यति धर्म, उ०-खंति मुति भ्रज्जव महव, लाघवे पांचमो जां । नित लागु, लागू-वि,--१ वरी, दमन । वखांण्या मूनिराज ने, भगवंत सरी वरधर्मान । उ०-- १ ष्दला' रौ दौलतावाद टल्लं दिया, वादं भाजि दिखण ४ हल्कापन । --जयवांणी नाद वागौ । दीह सिवरात री भांत दीढी दर, लोगुवां इसौ गुर ५ तेजी, दीघ्रता । कान लागौ । --राव महिसदास्‌ राठौड़ रो गीत | ६ हाथ की सफाई या चालाकी 1 ५ लाडवा ४२६४ ताज ~~] ७ संक्षिप्ता । ८ श्रसम्मान, श्रप्रतिष्ठा | लाडयाड, लाडवाडियी - देखो (लारवाढ, लारवाल्ियौ' {₹<. मे.) उ० ~ पूलकंवर र कानां भणक षाडवा विना ई वौ श्रठी-उटी भाई गनायतां सू ठत्तियौ भिडाय प्रक श्रघवरूढ वामी सु नात्तौ कर लियौ । नातायत वांमणी रे साथं पुलकंवर रं साईनी श्रेक लाड़वाड़ छोरी श्राई लाडवाड़ री श्रेक श्रां मेंचिम श्र दूगोड़ी में फरुलौ । --फुलवाड़ी लाडायौ-सं. पु. (स्वरी. लाड़ाई) १ कपड़ा, सूतादि पर मुंह मार कर खाने की श्रादत वाला पश्च] २ चिना श्रामंध्रण या मनृहार कै जाकर भोजन करने वाला व्यक्ति । <, भे.-लाएडो, लाडेवौ लाड, ला'डौ, लायेडौ, त्यादौ, । लवौ -देखो "लाड़ायौ" (रू. भे,) लाङ--१ बद्ध, बढा । २ देखो (लाड़ायौ' (रू. भे.) लागार-वि, [भ्र.] १ विवद, मजबूर । उ०--ग्रास्यां बलतीही। रजी रकारण निज्या साव परवारि- योड़ीही। दरजं लाचार होय सेठजी नं वहीरद्हैशौ ई पड़यौ। --फुलवाड़ी २ दीन, दुखी । ३ श्रसमधं, प्रसहाय 1 लाचारमी, लाचारो-सं. स्त्री.-- १ विवदता मजबूरी ! उ०- बेटी) म्हारी श्रा भूढावण थार वस्ते श्रण्‌ती मूषी पडला, श्रा जांण॒तां थकां ईम्हं थने विखाराञंडावेरा्मे थरकाब्रु, थू म्हारी इण लाचारीनं सम्फटैकेनी । -- फुलवाडी २ भ्रसमथता । उ०- दीडा दोडी कर गिण गिण दख गरं । दाया जोडी कर जिण तिश मूख हिरं । छंदागारी चिव प्यारी पृम्वंती, कर कर लाचोसै हारी कुखवंती । ३ दीनावस्था, 5, भे.--लचारी | लण्छ्‌, लच्छी, ला -देखो (लक्ष्मीः (रू. भे.) उ०--१ धरम कियां सुख होय, लाच लिदधमी वन पारव । घरम उत्तिम फु प्रवेतरे, जछम दाल्िदि नहीं श्राव 1 --वील्टौजी उ०-१ दसमौ वरस उतरतां ई तौ मार्दत पीटा हाथ करने पराई करण री चिता करणलागा । नीं श्रांगणी मावती श्रीं भिगन प्क ॐ, सा, | | मे) छाद्य श्र लाष्ध मागण री कंडी मेहणी । सगपणा मां सगपण श्रावण लागा। --फुलवाडी लादवर-देखो (लष्मीवर' (ख. भे.) (ड, को.) लाघ्छरी-सं. प.-- वस्त्र विद्रेप । उ०-पी्तावर चादर रक्तावरनेर््रावर खासरी सालुर चौनदहिगं नीचुहूरां जरजरी मलवारो लादछधरी श्रवौत्तरी श्रमरी गंगापासै। ~ वु. [‡0 लादछधवर-देखो लघमीवर' (₹, भे) (डि. को.) उ०--गज ग्राह विन्द दही तारिया, सरक सी लाकर । ्रजमाल चरण वंदणा करे, धन तौ लीला चक्रधर । --गजखद्धार लाघि-देखो 'लकष्मी' (<. भे.) उ०-१ क्री विण श्राकर शि, पसू चौपदी धरणी । ग्रनेक संपदा उपाउ, लादि चतुरांगणो --गु. रू. वं. उ०-२ गौरी सण कातद्‌, लाद वस्तु सातड, नारद हैरखं करदः नव खडि फिर, घनद यकन भंडारेखं करद्‌, इसि रावणा नरेस्येर । "च्‌ स, उ०--३ कटि कुण श्रापणां मंदिर मांहि, साचि उवेखर्ई श्रावती ए । तीण मांनीय ते सवि वात धुरा, मनि ए इसु चीतवड ए। --हीराणद सूरि उ०--४ गरथ पांमी गुण कीजे इम कहै गंगौ, साहमी साधु पुपूत्र संतोखीजं स्रगौ 1 लिखने, लादि, करहु धरम लाहत्यौ, परिहां संची राच्यासंणम्रपां न स्वाद स्रौ । --च. व. श्र. उ०-५ सरस वाना मगढ कीध सजट थल, प्रगट पुहुवी निपट प्रेम प्रघठा 1 लह्कती लादि वद्धि लील लोकी लही, सुध मन करे घधरम-सीट सगद्छा । --घ.व, ग्र. लादछिनर, लाचछिवर---देखो लक्ष्मीवर' (रू. भे.) । लादय -देखो "ल्मी' (<. भे.) लाछीवर, लाछीवर -देखो लक्ष्मीवर' (ङ. भे.) लाष्टुबाई-स. स्वी. चारण वंणौत्पतघ्र एक देवी चिश्षेप । लाज-सं स्री. [सं. लज्जा] १ भ्रन्तकरण की वृत्ति विेप जिसमे स्वामावतः या किकी निन्दनीय श्राचरण की भावना के कारण दूसरों के समक्ष वृत्तियां संकचित हो जाती ह मुह से बात नहीं निकलती, चेष्टा मन्द पड़ जाती ह, सिर वृष्टि नीची हो जाती दे, लज्जा, शमं । उ०--१ नारयणरानांममसु लोक मरत जो लाज । चरूडंला बुव घायरा, जल विच द्ीड जहाज । --ह्‌. र. उ०-२ तद वार शर॑स पुरसां त्णी श्राय वी जग ऊपरा 1 महाराज तरीं छठ मारवा, धारी लाज मुर्रा । --रा. रू. न्क श्त "कीः केः ^ लाजणी २ मान, प्रतिष्ठा, इज्जत । २ मर्यादा । उ०--१ किय भीम हत कमधज्जै, सूर उदं श्राव दढ सज्जं । दोन्‌ तरफ लान कुट दाखौ, रूकां जोर सरीखौ राखौ। -स. ङ उ०--२ तन मन वन सव अररपन कीनू* छा कुछ की लाज 1 दो कुठ त्याग मड वराग, अ्रषि मिलण की लाज [के काज] । --मीरां लगाम, नेकेल, ताग । उ०--१ सजि कसणा, करि लाज ब्रहिः चदियउ साल्ट्कुमार । करद करंकउ खवर सुणि, निद्रा जागी नार -टो. मा उ०--२ धावउ घावउहे सखी, को दांवणि को लाज 1 साटिव म्हाकड चालियउ, जइ कञ रखेद श्राज । ~ टो. मा. २ रस्सी। रू. भे.-- लज, लज्ज, लज्जा, लज्ज्या, लज्या, लाजा, त। लाजी : मह्‌.- लाज । लाजणौ, लाजवौ-क्रि. अ. लज्जित हीनाः शभिन्दा दोना, संकुचित ह्यैना 1 उ०-- १ वडौ बोल खाटियौ । तठा पछ रावत मेव परणीजियौ यौ सु श्रायौ 1 वात सुरी । गाढो लानियी 1 -- नरसी उ०-२ वह सव दद्‌ लाजती न वोलइ, कहिस्यद्‌ वटं श्रनेरी काय) ग्रागणड्‌ कड माहरड अ्रायउ, जाणइ ष्रड रिखीपमर जाद्‌ 1 महादेव पारवती री वेलि उ०--3 दीधा मसि मंदिरं कातिग दीपक, सूत्री समांणियां माहि सुख । भीतर थका वाहिर इम भासं मनि लाजति सुहाग मूख । --वेलि २ सम्मान, प्रतिष्ठा, स्तरया शोभा मे तुलनात्मक पतन होना 1 हल्का लगना, नीचा दिखना । उ०--१ जिस श्रवास की सीदियूं के ऊपर रगदार सवच पप्षमीन पायंदाज रान्न । सो कैसौ लिसकी सोभा के देख ते नील घन सधन के वट लाच । --स्‌ प्र. लाजणहार, हारौ (हारी), लाजखियी --वि०। लाजिन्रोडी, लानियोडी, लाख्योड़ी --भू° का० ०) लाजीजणी, लाजीजवौ -भाव वा०। लजनणौ, जवौ, लजणी. लजावी, लजावणौ, लजाचकौ, लज्जणी, लज्जवी, लज्जाणो, लज्जावौ, तज्जञावणी, लज्जादवौ--रू. भे. । लाजम, लानमी--देखो "लाजिमी' (रू. भे.) उ०--१ ताद्यां भिढ वैटोय वंव तनू, मरण हव लाजम जग 4 द. "त ५ 34 1५4 ज 6 ५ 1 २. ट भ | = ४२६५ धा | | लाजा मनं । परदेसिय श्वुढोय' “जींद' परा, दुरदी वित लेसिय देवटः रा। --पा प्र. उ० --२ एक तौ जिकौ काम प्रारंभ कर तिण रौ निराह करणी परापरं जुम्म लाजमी जारी । -नी.प्र लाजमी-सं. पु. - १ सभ्यता, विष्टता । २ देखो 'लवाजमौ' (<. भे.) उ०--१ तद ख।फरी राजा रं द्वार्‌ वड लाजमें पोप्नाख सुं जाय मूजरौ किथौ । --राजा भोज श्रर खाफरं चोर री वात उ०--२ तरं जगदेव नै कहायी, कंवरजी जान न तयारी कौज्यो । जगदेव केहायी-गे'णो, पोसाख, घोड़ौ, राजा रो लाजमौ न्हीनं पाठौ तौ इस लवेस(लिवास्र} चालणी श्राव नदीं । --जगदेव पंवाररी वात उ० -३ तरै भाला रं वीहाहुवौ सौ कालीन श्रौ भ्रायो । माली पीह्र श्राई तरे लाजम सूं हलाई । --कुवरसी सांखला री वारता लाजलज्जलू-देखो "लजाग.' (<. भे.) उ०--लाजलन्जाद्ध्‌ लक्ष्मणा, लृंणी लपन लं वंगि । लीलावती लुंकड़ी, लाहि लवीरी संमि । --मा. का. प्र. लाजवंत- देखो लजावत' (रू. भे.) (स्त्री. लाजवंती) लाजवंती, लाजवती -देखो "ल नावंती' (₹. भे.) उ०--श्रागलि पितमात रम॑ती श्रंगणि, काम विरराम दिप।इणा काज । लाजवती भ्रमि एह्‌ लाज विचि, लाज करती त्राव लाज । , --त्रेलि लाजवरद-सं. पु [घं. राजवत्तक] १ एक कीमती पत्यरया रत्न । २ द्विलायती नील जो गंवक के मेल ने वनता ठं श्रौर्‌ वहुत वदहटिया तथा गहरा होता दै । उ०--लाजवरद सील सुपेद, जंघाठ जगत ब्रत । रचि भ्रमाम नवरंग, कर मचि चित्र देव क्रत । रा. रू! लाजवरदी-वि. [फा. ] लाजवर्‌द के रग का, हत्के नीले रगकरा। लाजवाव-वि. [फा.] १ जो उत्तर न दे सके, निरुत्तर २ प्रनुपम, श्रद्वितीय, वेजोड्‌ । लाजा--देखो 'लाज' (रू-भे उ०--१ नाकीज्यौ संखा नरां, काचौ वीजौ कम ! रासं लाजा संतरी, राजा साचौ राम) रज. प्र, उ०--२ कान सुण कूण कवीदां काजा, लानां वातत रह किम लाजा ' पोटी नाथ धरम सत पाजा, राखी रीत रिडमलां राजा । --भव्रूतसिवजी रौ गीत लाजामखी ४६६६ 1142 हि 1 11 स लाजाप्रुली-सं. स्ी.--गुस फी थमंया सर्जा । २ मृतराणमे एयाय नाम, नहं श्रध पतमद्याद, मव दादि नगर 1 [पर. साद ९ धट पृनत दिनी द्या देत ण मद्वि तः 1 वि.- लज्जिते या पानिदा रहने वानी । | लाजादू देखो तजाट्‌/ (रू. भे.) उ०--१ टीरा हिगमगता प्रारी मुत दुखी, तिग्द्धी भकनिपा वरटी सी तुलती । दुसवढ ताजा सामे दी, मोम भृणद्, व्पाट. विन वीं । 4 1 उ०--अमीगन रुर रोयंन फी श्रयत, रेष कित प्र | कटि) साट दमम जग्म ब्यक मग उट वि पम | तद्धा । सिरा द्यषद्ा (र १, गुः १ # { एत नेर 1 1 ५ ^ --२ लाजाद्ध्‌ गुल विगन मे, सग कुद्रि माहि उवणोट । माच ¦ व ; । ए ॥ र वी ॥ ॥ ४ ो छश्च | ८ यकन मा साता क्म कठ मपु पा विरात को एर माप र्य डया मिनगां मही, यतीनाम गोट । ---या. म. | र ¢ . । | पनाया मीनाम न्ति म । लाजाद्रूपरए, लाजादूषणौ-दैयो "लजादुपरा' (>. ने.) | 1 । ५ सद, भूद । रि न लाज ह ध (, ॥ [१ लि 0 "५५९ उ०-- रम हजार नद्या दमम्‌, दतु सीः ग पाट स्पा त्म्य उ०-केहूरी ता जमगेगण मयनं कंदद्धि, युश्र फर जोदियां गष } दोहा । पुकार जवानी, नेम दिम पारी, तानि पाम, शमं यारि लोहं । --निनमदान न्याम मा लय, ररम प्राये शर्‌ ॥ 1 1 ६ सदानु ममिज प्रददा । ५७ एनः स्थायिक खि प दमो व्या लाजिम, लाजिमी-वि. [अ] १ उचित, गुनानिवर । ८ फफ) श्र +; (र कः रौ । ) [1 प्राम २ श्रावदयक, जरूरी । उ ~ यददः दो पनम सयमी दमनी ठ्य त्णी च मोटा प्राम र ।,#॥ 2, : ^ #॥ 5३ >) 1९ हा 1 4 कः 9 धू ‡ सकरी, सिरु ५९४] १। दिवि 1 4 #। “4 { ड 1 ४१ 3 12. (1411 ५५ #^॥ { , ^4* | |) । 1 ॥ ॥ ३ निभर) न ॐ णेः [3 = गै ॐ ऊ शौ दाः पाम ल णम न्या रदा यान्य प्व । वर्स्यी धरम गग्दार्‌ । गुयनञो दे ग्द्धम्‌ मं नाद दयदो- मर पालम शामन ल्यृयता प्न टेयमो ? ~~ टदसोत उ०--संणां ममलत येम करम मही, मणां मसलन नं वैन क | दीलतमंदा री कियो दं पराद्धे व्रादमाहु ऊपर साजिमद्वं 1 -- नी. ध. ६ नटन ग दव \ ‡ | उ०--दण्र्‌ साटेप्‌ नौ मगा नददी मरवा दना) न्ट पाग सू, भ.-ताजम, लाजमी । लाजियोडौ-भरू. का. एृ.--१ द्म या लज्जा किया प्रा, नमिति 1 ह 1 पग पीपा । पमा वागन षम दीनान प्रादय कलार न्‌ चट २ सम्मान, प्रत्तष्टाया स्तरमें निष्न (पतन) हुवा द्रुप्रा 1 (स्त्री. लाजियोडी) लाजो-सं. पु--१ एक प्रदेणं जिसे नल साजा मे विजय क्रिया धा। कि, [९ नरवरः) --तिनोरमो गरम मह्ीरैश्र 234 विः, प्र. सश्एगां : १० व मरद्ार्‌। उ० -मलय [सगव कोद्रव नर श्र॑ष्य, स्रीपरवत द्रायिद नयु यन्य) वैरोट त्तापी लाजी धार, सीवैदरभ पाटनं श्रति मार । -- नटदवदंनी-राम [ग. नाटः] १९ वरान कपा, जीणो चम्त्र 1 व्रि.- दात्तिधकी, जचन्दन्त । उ०--नोम्यौ कमायौ प्रर ग्दयौ, कीरौ री उर-मौनीं सन्यौ। २ देखो लाज' (<. भे. । क । । “9 योजक! र दमी च्या, नुभि र ष्रनं रक्पानर तप्यं लाट लाजुकाजू-सं. पू-वारात फी सूचना कन्ापक्ष कै घर परददने लिए जानेवाने, वर कैः व्रहुनोई या भांसाजे को कन्या पक्ष फी मोर से दिया जाने वाला एक नेग । (दाहिमा ब्रह्मण) लाजौ ~ देखो (लाज' (मह्‌ , ड. भे.) ह, वांमग-वांगियाम्‌ं केषाट ङं । --दमदोस २ देयो ^नाटी' (महु.+ रः. भे.) ३ देशो "लाट" (र. भे.) लाटणो-मं. स्फी." रसिन भं साफ़ द्यि हए धान ओ पितरा करने का एक उपकरणा चिधेप । २ सलिदानमेंछृपिडगजमेंमे जामीरदार द्वारा प्रपना दहिन्मा लेनैकी क्रियाया दरंग | उ०--पूदधं कारिज पय नमी, कहौ जराया फिणाकाजौ र, ' लानचंद' कटै तस श्रीदं, जस मुष हूय लाजौ र 1 पं. च. नौ. लाट-सं.पु-१ देदाका नाम । उ०--लाट विरद सिधु देस सहु, केकटं प्ररधजांण। मारां ॥ लाटणो, लाटवौ-क्रि. से. [सं. लाटनम्‌] १ मलिहानमे ते यागीर्दार पचवीस देस भरतमे भ्रारभ प्रान । --व्र. स्त. या शासक दरा कृपि उपज (श्रनाज) का निदिचत हिन्सालेना या लाटी ४२३६७ १) वसूल करना । । उ०--१ कदं तौ पडग्यौ काढ श्रमागौ, गिण-गिण काढयौ दो" । कदै तौ ठाकर लाटी लाव्यौ कदं लाटग्यौ वो'री । --चेतमांनखो उ०--२ श्रनत ब्रातमा श्रौरन जा्च खं वहत सुख पाया । निज तत तिकौ लाट्तां लीयौ, लार लोक घपाया। --ह पु. वा. २ कर्जंदाता द्वारा कजं वसूल करना । उ०्--कदंतौ पड्गौ काक श्रभागौ, गिण गिण काट्यौ दो"रौ । कदं तौ ठाकर लाटी लाच्यौ, कदे लारग्यौ वोरो । --चेतमानखौ लाटणहार, हारौ (हारी), लाटणियौ--वि° । लाटिश्रोङ्ी, लाटियोडो, लाट्योड़ो-भ्रू° का° ° । लारीजणीौ, लाटीजवी -- कमं वा० । लाटरी-सं. स्त्री. [ब्रं.] रादिया वस्तुके रूपमे पुरस्कार देने की वहु योजना जिसमें तच्चिमित्त विके हुए टिकिट या कूपन की संस्या कौ चिट डालकर विजेता का नाम निदिचत्त किया जाता है ' उ०-भोभरमें ठंड पाणी सौ पड्ग्यौ, लाटी रं इनाम दाद कुंवर वेगी कान खड़ा कर लीना। --दसदोख क्रिः प्र.-स्राणी, खुलएी, खोणी, लगाणी, लागणी । लाटसा'ब, लाटसाहव-ं. पु [श्रं. लाडं साहिव | दिल्ली का वादइसरांय लाटानुप्रास-सं. पु.-एक श्रनुप्रास श्रलंकार जिसमें चाब्दं की पुनरुक्ति होती है, पर श्रन्वय करने पर वाक्याथ में भेद हो जाता दै। लाटियोडो-भू. का. कृ.--१ खलिहान मे जागीर्दार या सिक कृपि उपज (श्रनाज) का निदिचत दिस्सा लिया हृभ्रा या वसूल किया हुश्रा। २ ऋणदाता द्वारा खलिहानमें कजं वसुल किया ह्या । लाटियौ-सं. पु.--उस चक्र की धुरी जिसके सहारे कृण से चडस निकाला जाता है 1 लाटषाहु-वि.-- १ उरपोक, कायर । उ०--ता पै घो मोरवी सौ विगाड कियौ हृतौ, सु मोरवी दौीरमर्गांम रा थांणा रौ साथ श्रजांणजक रौ घोधां माथ तट पडियौ, मांणास हजार तीन, तिणख मांखस ७०० मारिया, वीजा ` लाहूपाहू हृता सु नास गया । --नणसी २ कमजोर, ्रक्ञक्त 1 उ०~-देखौ, कं क्री होड तौ हवै कोय नीं, स्ििरदार ! पिण म्हारी जांण मे तौ कंई सू लाहुपाह्‌ कोरवांनीं। -वरसर्गांठ ३ साघारण। उ०--ताहूरां राजा साथ लाहुषाह्‌ ग्रादमी मेल राजानं मजल पोहचायौ श्रौर लोक सनै उभौ रियो । | - नररप्िघ राजा री वात | सोई । लाट ४ तुच्छ, नगण्य 1 लाटौ-स. पु-- १ खलिहान । उ०्--दैवट चौधरण श्राय नै उणरौ विचार तोड़यौ-श्राज युं ठाडा होय न कयां बैठा हौ ? रोटी खायनं लाट चालण रौ विचारकोय नी कांड ? ---रातवासौ २ खलिहान में पड़ी ग्रन्न-रादि । उ०--कर्दं तो पडग्यौ काठ श्रभागौ, गिण गिण कल्यौ दोरो। कदं तौ ठाकर लारौ लाय्यौ, कदं लाटग्यौ वो'री। -चेतमांनखी ३ हिस्सा, वंटवारा । उ०-१ सूर खटा सिर साखती, हरीया भ्राज" क काठ! लाटी लूटं लोभीयां, हकं भ्रायौ हाि। --्ननुभववाणी उ०-२ अगम लाटौ लीयां निगम संसा नही, राज तपतेज उर नाहि कोई । दास हरियंम ऊ देस म्रदेजगर, श्राप कमायश्रर खाय --्ननुभववांणी क्रि. प्र.--काटणौ, लाटा मूदा.--लाटा ऊं ई नहीं घापं जका चारा ऊं कार घापसी भ्रत्य न्त लोभी । लार-सं. स्त्री -१ मोटा व ऊचाखंभाया स्तम्भ । २ कपास से रूई पृथक करने के चरखे का एक काष्ट का मोटा उप- करण जिसके साथ एक लोहे को छड लगी रहती है । इसमें कपास फंसाने से विनौला भूमिपर गिर जातादै प्रौर रूद्‌ परेथक हो जाती, ३ काष्ट का एक प्रकार कामोटाव लमन्वालदा जो कोल की कुंडी के मध्यमे लगा रहता है, जिसके घूमने से तथा दवाव पड़ने से कोल्टर मे डले हुए पदाथं पेले जाते ह । | ४ रहट मे वांगडौ तथा उवङौ से सम्बद्ध लकड़ी का एक मोट लद्रा जिसके घूमने से डावड़े मे लगी माल घूमतीदहै। वि. वि.-१ देखो !डावडौ" २ देखो ववांगड़ौः ५ लकड़ी का मोटा लद्भा जो कच्चे मकानों की छाजन में लम्बा लमा रहता है 1 उ०--फश्सा टाटा ठाट, लाठ घरकोट वणाव । ठंढा पड़वा छान, कोडवा ठाढ चढावं ! ६ देखो ^लाट' (रू. भे.) --दसदेव उ०--कंठीर काटकं द्ुटं सांकठां राटकं किना, मेध चम्‌ थाट कै भररेहां सत्रां मीच । केवांण भाटकं वाढ भाटिया भरुरियां केषां विमाड़यिा लाट कं वूरिया वोरां वीच । --संकरदान सामो ७ देखो "लाठी! (रू. भे } + (न क रा लाल लालसं. स्त्री.--एक जाति विद्नेप । उ०--मणीयार सोनार कुंभार ठटठार लोहार तलाल पटोखिया पटसुत्रीया माली तंबोलौ हरमेखलिया जोगी भोगी वद्रागी नट विट खुट खरड लाठा माठा र्गाचार्य"" “1 --व.स. लाठी-सं. स्वी. [सं. यष्टी, प्रा. लहरी] १ पतली लेवी लकड़ी । मुहा--जिण री लाटी उण री भै =दाक्ति सवपिरि । रू. भे.--लद्री । मह्‌.- लाट, लाठ । २ सुम षर होने वाला घौडेका रोग चिदोप। (शा. हौ.) लानीभल, लाटीभत्ल--हाथ में लाठी रखने वाला, लट्रुवाज । रू. भे.-लटीभल । लाटीवाज-देखो ^लद्रुवाज' (रू. भे.) लाठी -देखो "लद्ौ' (रू. भे.) उ०- तांगड़ रा रस्ता उपर लेय चदिया वे उपर दोय लांस काठा वांधिया । --ठाकर जेतसी री वारता लाड-सं. पु. [सं. लाड थपथपाना, थपकी देना] १ वच्चो को प्रसन्न करने हतु किया जाने वाला स्नेह पणं व्यवहार, दुलार । उ०-जीग्रो, घणा मुढलं पिव पालि, तौ दोय जणा मतौ ए उपाद्यौ जी । जी पिया, जं म्हार जलमेगौ पूत, तौ फिसड़ा लाड लडास्योजी । --तो. गी. उ०-२ राजुखां रश्रेक भतीजी श्राठ यादसं वरसांरौद्धै। मुंदडं लाड लगायोडौ, वडौ लाड कुमायौ 1 - सूरं खींवै कांवद्टीत री वात २ प्यार, प्रेम। उ०--दहित विण प्यारा सच्जणां, छठ करि देतरियाह्‌ । पहिली लाड लडाद कड्‌, पाच्च परहूरियाह्‌ । -टो. मा. क्रि. प्र.--भ्राणौ, करणौ, लगाणौ, लडाणौ । ३ एकदेश कानाम। उ०--१ कीर कास्मीर द्रविड गड जाड लाड लांगछ जांगछ खस पारस्व, जादव नेपाल भ्रंग वंग कलिग*“। व. स. उ०~२ २७२ गाजण, ३४ कनूज, १८ लक्ष वाण्‌ मालवउ, & लक्ष गीड, ९ करु, & डाहल, ७० सहस गुजराति, £ सहस सोरठ, ४० जेजाहुत, २४ सहस गंगपार, २१ लाड देस, १४ सहस्र व्यालकुण नभियाड । -व. स. <. भे. लड़ 1 । साडउ-देखो लाडो' (रू. भे.) उ०--गंगाजढ श्रघर भीलियद्‌ पिलत, दोमति जिम वालं | ४३६५ (~ ]]]-------------------------------------------------~~~-~ लाश्गहैसो 1 पीपी दरवार , साड नवद किनां ताली, वदं सुथट मिदर धुविचार । महादेव पारवती री वेति ताडकडी, लाटकसो-देखो "लाडकौ' (ग्रत्पा, ,ह. भे.) (स्प्री. लाडकडली, लादकडी, लादटकलती) लाडफवायौ-वि. (स्थी, ताडका) १ जिसका वहूत लाट या प्यार हो, प्यारा. दुर्तारा। <. भे: - लाडायौ । लाटफियी-देखो लाटकौ' (श्रत्पा ₹, भे.) उ०--वांधोडी फमरां श्रौ धुजीसा, नहीं खो, लाज म्हारी लाटफियौ मांमाढ, भोमियाजी गड सरुजिया 1 --लो. शी. लाखको-वि. स्त्री.--प्यारी, दुलारी । उ०--हुं लुकिड रं लाडकी, टिह्ग्डी द्रि पीर्यांणा । माह भमड तुद्यारडा, पजर पृरद्र भ्रांण, मा. का. प्र. लारकोड-स. पु.--सुणी, हूर्पं । उ०-१ वापडं वदां वेटी नं जापौ करायी हौ, दोहितं जाये रा लाडकोड कर्ताहा । -- दसदोग्व उ०-२ वरस तीन रं "प्रतरं वकं कंवर हवी । तिणरौनांम जगधव्रढ दीघौ ! घणा लाडकोड कीजे द्य । राजा री रीका लीं द । --जगदेव पवार री वात लाडकौ-वि. (स्वरी. लाडकी) जिसका वहत श्रधिक प्यारया दुलार दहो, प्यारा, दूलारा 1 उ०--१ मारंवेटौ एकाएक हौव्ण सूं घरौ शलाडकौ ) --रातवासौ उ०-२ घर रा काम कज सूं निवडनं उणं जेहूता जवरजीनं पकड़ लियौ । खोदा में विठायनं लाड करण लागी--म्हारी लाडकौ वेट, म्हारी समणो वेटी, म्हासौ नेनक्रियौ वीरौ, धरणौ हुसियार, घणौ फूटरीौ, श्र चुच्चकारतां एक वाल्टौ दे दियौ 1 --श्रमर चूनडी रू. भे.--लाडिकू, लाडिकौ । श्रत्पा.~लाडकडी, लाडकलौ, लाडकियौ । लाडखानी-सं* पु--कवाहा वंश कौ शेखाचत शाखा कै ग्रन्तगत एक उपशाखाया इस शाखा का व्यक्ति । च्ये+ उ०-जेसा सांमद्टाती कास्ठी सं लोग भ्रायौ, ऊने चाडखांनी भायपां का भी चिनायी। -सि. वं. लाडगहेलौ, लाडगे'लौ-वि.- (स्वी. लाडगहेली, लाडगेली) वहु जौ भ्रधिक लाडके कारण नटखटया उदुडहोगया दहो) उ०-सोल लर गार सख्या, बीजा कांम तिज्या, सुजांण सहली, लाडगहेली, हंस गतदइं चालती, गजगततई माहुलती । --वे. स. लाडडो ˆ ४३६६ ल्ली ~ ~~~ लाडडी-देखो ^लाडलो' (रू. भे.) ०- हैरान हुम्रा हिदू तुरक, भ्राया लोह न भ्राडड । गजगाह्‌ भीम' गाजी" हुप्रौ, व्याहुक लाडी लाडड । -गु.रू.वं लाडग-सं. पु. [सं. लालन] १ सुन्दर पति । उ०--१ लाडण वानि चडावीड ए, परिणेवा तोरणि श्रावीउणए लाडी हिव सिणगारीद ए, वर पीठी देह उतारीद ए । --हीराणंद सुरि उ०--२ एक वार मोरी वीनतडी सुणि सुंदर लाडण ₹ । लाञ्ण नइ मांडण नारिनद्‌ नाहलु ए 1 --नट८दवदती रास सं. स्वरी. [सं. लालन, प्रा. लाडणी ] २ पत्नी । उ०--लाडीय कोटं कुभुमह्‌ माल लाडीय लोचन श्रति श्ररियाल । लादीय नयरौ काजल रेह, सहजिहि लाडण सोवन देट्‌ । - सालिभद्र सूरि वि.--लाडला, प्यारा । उ०्-विखजारी ए क लोभः गोद लियौ लाडण पूतः घर-घर बूत वा फिर, विखजारी ए । -लो. गी. लाडणउ, लाडणो-सं. पु.--१ ऊट फ तंग के साथ लटकने वाला पल के श्राकार का गुच्छा, २ श्रीरतोंके फेटिएु (घाघरा) कै नाडेके साथ भी गृच्छा रहता हं । २ देखो “लाडलौ' (रू. भे.) उ०--१ समुद्र खारउ, बाउल कटालउः सरपं काल, वाउ वायणड, जन वोलणउ, सुणह भसणउ ससउ नासणउ रणड लेणज, स्त्री स्वभाव लाडणउ, साड वाड, कुमित्र फाडणय, दरजन दुस्ट, स्वजन सिस्ट, श्रागि ताती, घाहु राती । -व. स. उ०--२ लाडेकोडे लाडणौ, लाडी परण्यौ जेह्‌ । विसमय रपाम्यौ श्रति घणी, देखी कमर तेह । -टो. मा, (स्त्री. लाडणी) लाडरणौ, लाडवी-कि. स.-लाड करना, प्यार करना । लाडबारई-सं. स््री.-एक देवी का नाम । लाडल-वि.- प्यारा, दुलारा । उ०--१ भल चेली गनगौर सुंदर गीरी, भल पूजौ गनगौर ¦ हो जी धान देव लाडल पूत, श्र॑तस प्यारी भल खेलौ गनगौर । -लो. गी. ०--२ म्हारी लाडली वेटी थं दुहाग री चिता मत करज्य। -फलवाडी लादलडौ-देखो 'लाडलौ' (रू. भे.) | उ०-१ प्रक श्राव गूगठ की वास सुगंधी, कुण सुवागणा, गणपत पूजियो । गरपत पूजं लाडलडं री माय सूवाग्ण, ज्या घर विडद उंतावटी 1 -लो.गी उ० -२ ठोली का चढ ढोलदं रणी गढ सरवरिये री पाठां जी। ज्यां सुर म्हारं बाप के, रांणी लाडलड़ी ननसाला जी । -लो गी उ०--३ घी भर दिवलौ वहू लाडली संजोवे; प्रायौ पितरा रौ लसकर च्यानणौ । --लो. गी. (स्त्री. लाडलडेती, लाडलड़ी) लाड्दं - देखो "लाडली" (रू. भे.) उ०--मिषडा सा भोजन वहू वहवड्दै जिमाव, भ्रायौ पितरं रौ लसकर जीमग्यौ 1 ठंडड़ा सा पांणी वहू लाडठदं पिया, श्रायी पितरा रौ लस्षकर पी गयौ लाडलियो देखो "लाडलौ' (ब्रत्पा., रू. भे.) लाडलिवी-सं. स्वी. - एक प्रकार की लिपि। (डि. को.) उ०--रांणी रतनागर तरणी, श्रांणी पते' प्रनूप । बूणी सिरखी लाडली, मोग "जसवंत" भूप । - चिमलदांन रतनू २ दुल्हिनि, नव-वधु । (ड, को.) उ०-१ श्रेक भ्रारतडं जसदेरईग्रो विनायकः लाडली री भ्रा भेण न! म्रेक जीभडली जस देई श्रौ विनायक, लाडली रीदादी मायनं। --लो, गी. उ०-२ छठी तौ वासौ केरां जी वसियौ, फेरामें ्वैव्या लाडौ लाडली । म्हारी लाडली को चीर बघज्यौ, रार््वर को वागौ वीरौ । -तो. गी. ३ राधिका । । उ०--पुलिरा रविसूता फह्रावजं पीतपट, भ्रावजं रासषथकठ व्रजनाथ श्राय । कानि कवार विहरि गढी ब्रज कूंजरी, सभ रढी कीजिय लाडली साथ । स्त्री. वि.- प्यारी, दुलारी । लाडलो-सं. पु. (स्त्री. लाडली) १ पति २ दुल्हा। (ड. को.) वि.- प्यारा, प्रिय, दूलारा । लाडली-सं. स्त्री. -१ पत्नी, भार्या । --वा. दा. (डि. को ) उ०-१ -मूडण ग्रास थांमती वोली--म्हारा लाडलां, इण वात रौ सोच यथे ग्राह्यौ करियौ । --फलवाड़ी उ०--२ मात कटै सूत सामी, संयम दुक्कर श्रपार। तुं लीला रौ लाडलौ, सुख विलसौ संसार । --जयवांखी उ०-३ मेवाड दंढाड जीं ही हाड़ौती माव मोढौ, दौरा काठ चक्रसौोकिणीन श्राव दाय । भातं किसौतौ विनां पायाट ` लाडवो „__ __________~____________-_~_~_~_~_ ~] ब जाती कल भांपा, लाडली पगुढी चापा श्रगुढी लयाय । --सूरजमल भीष्ण रू. भे.--लाडडौ, लाडणड, लाडणीौ, लाडिलउ, लाडली । श्रत्पा.+-लाडेलडौ, लाडलियौ मह्‌.- लाउल, लाडेलो । लाडवौ -देखो लाइ" (र<. भे.) उ०-एकण॒ नँ तुस टोका जी, परा पेटन थाय । एकण रं र लाडवा जी, वैठा भाण के माय । --जयर्वाणी लाडांणी-देखो लाउखानी उ०--जूदियौ ज्यु राम जोध चाडांी प्रवूट ज्वाढा, धकं वे गिरां परां बाढी सघीठ । घटिया माणी जारो सांकठा मयंद सूनी, ऊठिया लाडांणी प्रं काठ री श्रंगीठ । --सुखदांन कवियो लाडपौ --देखो लाडकवायौ' (<. भ.) (स्वरी, लाडाई) लाडिक्‌, लाडिकौ--देखो 'लाडकौ' (र<, भे.) उ०- (सेजि) सूता करिण लागती, हंस्पिद्धं तलाई, .डाभ पा (धरी) नि सूयि छि एह्‌ लाडिका माई। --नठटाख्यांन लाडिलउ, लाडिलौ- देखो "लाडली" (रू, भे.) उ०--१ श्राह सुंदर रूप मुहामणड, सिवा देवी मात मल्हार श्राह नवयौवन भर ्रावियउ, लाड्लिउ नेम कुमार । -स. कु, उ०-२ तुम वीरा में वहनड़ी, लाडिली धरणी सांभरी कौ राच । तु उड़ीसा को धरणी, थार उलिगांणंड धरि बेगि पठाव । --धी, दे, उ०-२ तिण इण परि कीधौ हास जौ, श्रावौ ₹ वाई वेस्या लाडिलीरेलो। --वि. कु. उ०--४ मीरा हरि की लाडिली जी, तुम मीरांके स्याम मीरां के प्रभु भिरघर नागर, दरसण श्यी म्हारं राम । सुरत निजनांमसे लागी जी। --मीरां उ०--५ हरिजन हरि को लाइक, लीवलीणा न दूना लाड । | --प्रनुभववांणी (स्त्री, लादिली) लारी-सं. स्व्री.--१ पत्नी, स्वी । (डि, को.) उ०--१ धारी लाडी सा कागद मेहलियौ, म्हारं संजां रा सिण- गार घरे श्रावौ श्रो जुंकारजी, भगडं किण विध जंजिया । -सो. गी. उ०--२ लाडीजी रा मुख रा वोलणा री तरह, चल री श्रनोखी देखी मा रमै । कां चितवन रसराज नणां री, रसीद भृहांरी रेख । --रसीलंराज रा गीत & १७० लाड २ दुल्हन, नव-वधु । (डि, फो.) उ०--१ वर लाडी मोतियां वधाय, श्रति भ्राएंद विनोद श्रति। मंगद्धाचार सिवपुरी मारु गरूडी "ऊरी दव गति । महादेव पारवती रो वेति उ०-२ पुट करे पंखणी श्रपछर षृंवणौ । धार तोरण श्री वंदं खग धौड । विकट लाड़ी वणी बीद वांकौ विवेक, "म्यक" री परणजे वांधियौ मौड । --दुरसी ग्राढौ ३ राज्य के सामतं व जागीरदारके घराने की सधवा के लिए भ्रादर सूचक एवं सम्बोधन सुचके दाब्दे 1 उ०--कूवरजी लाडी जी साहिवा मजरी करवादयौ' छं 1 --कुवरसी सांखला री वात ४ पुप्री, वेटी 1 उ०--म्हारी लाड सात भायां कौ भरा म्हारा पिवजी, कोद ऊमी सोवं श्रांगरी जी । टोका मांला हसती क्युं ना हारा म्हारा पीवजी, म्हारी राजकवर क्यु हारिया जी । --लो. गी. ५ वच्चो के लिए उपयुक्त पयर सूचक सम्बोधन । (बीकानेर) वि.- प्यारी, दुलारी । ^ उ०- प्रभणं पितु मात पूत मत पांतरि, सुरनर नाग कर जसुसेव 1 लिखमी समी सुकमणी लाड, चासुदेव सम सुत वसुदेव । -वेलि लाड, ल।इू-सं. पु.--? गंदके प्राकार की गोकललाकार मिठाई । उ०--१ पदै पिरीस्ियां खाजा जांरौ देहसंना दछाजा, चहु सुणं साभा, गरमागरम ताजा । पद्ध श्राया लोड, तं किसी जात रा? त्‌. स उ०--२ वोदा रं भ्राडा वह, सोदा मिन संग । भरुकोडा भंवता फिर, लाड खावें लेग । --ऊॐ. का. मुहा. (क) मन राला खाचणा-=मनदही मन किसी लाम की कल्पना करना । (ख) लाह री कौर की खारी की मीरी==लादू की कौनसी कौर खारी श्रौर कौनसी मीटी--संतानमें से कौनसा त्रिय श्रौर कौनसा श्रप्रिय यानि चरावर) २ एकं प्यार-सूचक सम्बोधन । उ०-लारलीवेठाद्रुटरीसूं र्वार्नं च्या जद री वात है-पुणचौ काठो पकड़ लियौ श्रर घट करती कांवछी वदार नांस्ली ! इण उपरांत ई हसनं वोल्या-- वौ रोज गावौ लिकी चाकरी वाौ गीत ती एकर सुएायदौ नीं लाह । प्राजतौ मदं सांचांरी चाकरी मायं वेहीर च्हियौ हं - कालौडी तौ कांठ्ठढ राज ऊपड़ी, कार्‌ मोरड़ी छायं रौ वरस मेह, भंवर भल चढजी राज, चाकरी" ˆ "“ लाडढौ लात र कक् काईश्वौ तौ संध ए राज लापसी, कांई चढौ तौ वाजरियौ खीच, भंवर भल चटढजौ राजा चाकरी"**1 म्हारी आस्यां मे पाणी श्रायग्यौ हौ तौ ईम्दै मुकक नै कट्यौ- गीत री चेली कडी तौ पूरी करता पवारौ- एक टकारीए राज चाकरी, कांई लाख रुपिया री घर री नार, संवर भले चटजौ राज, चाकरी" --श्रमर चृंनड़ी ङ. भे.-- लड. लाडवो । श्रत्पा+--लाद्ूडौ । मह-- लाइव । लाड्डौ- देखो 'लाड्‌' (ग्रल्पा” रू. भे.) उ०--१ महलां मे जातां गोरी रा सायवा, प्यारी घण पं लाडडा कुण भारा म्हारा राज । --लो. गी. उ०--२ तीजौ मास उलपस्य ए जच्चा नीचं मन जाय । चौथो मास उलरियौ ए जच्वा लाद्भूडं मन जाय ए । --लो. गी. लाङ्व-देखो "लाद" (मह, रू. भे.) लाडेललड़, लाडेलौ - देवो !लाडलौ' {ल्पा › स भे.) उ०--१ सुणौ नरद लाडेलड़ी, श्रे रं भावजका वोल, साठां लिखौ ना साथीडा, हंस हंस लो र तमोढ, इण साथीडां रं यौ गज मोतीडाराहार) --लो. गी, उ०--२ कंवर लाडेलड रा वावौजी भल। छे, महंगे मुलाई ग्रो- राज । --लो. गी. उ०--३ दूत वूभत नगर पर्ईव्या, पढ वतव लाडेली रं वाप की, ऊंची सी मँड़ी लाल क्िवाडी, केठ मंवबरकं राजीड़ा रे वारण । --लो. गी. (स्त्री. लाडली, लाडिलड़ी) लाडेसर~वि.--वह जो श्रधिक व्यार एवं दुलार मिल जानेके कारणं उदृण्ड प्रौर नघ्लट हौ गया हो। उ०-- वाढ घोढा हयग्या, सगाई नीं हई । लोग लुक-नुक ठाली- मूली छिठिकारी वतायै । उलाड़ी, उमागी श्रर खुरड्-पगी केवंहै। लण्डेसर-वोदरडी, गतराडी तथा नुगरी 1 --दसदोख लाडी-सं. पु.-- १ दुल्हा, वीद, वर 1 (ड. को.) उ०--१ मोटर धीरं धीर हांक डाद्वर वनड़ौ छ नादान क लाड दै नादान ! --लो. गी. उ०--२ मह मह्‌ सुगं चिक्रुस म्ण, जीतण तप श्रहमड्‌ सई) जह मह॒ विवाह लाडां जुडण, हांडा धरधर गहमह हई -वं. भा. २ पति, प्रियतम । उ०-- लाडौ लाडी जाय लडावण, रात्य ग्रोकग सारं । जन इरि राम फिर मन फीरी, व्याननदहरिकाघारर' - श्रनुभववांणी ३ मालिक, पति, स्वामी 1 उ०--१ त्रटै घाव तूं, भिडं रु डमुंडं । लड फोज लाडा, उड लोह म्राडा । --सू. प्र. उ०--२ दहुंव पटां लागौ खग दान, गोड खक करणां गरद । लख द मिल्यां दकां चौ लाडौ, हाथी हाडौ मसत हद । --महाराज छत्तरसिघ रौ गीत वि.- प्यारा, दुलारा । उ०--वाठपरी पूख खावती खावती धापती ई कोनीं 1 भ्राज पादी हर श्रायगी । लाडी वेटी, थारी काली मासी नंथोडा पूखती खवाड । -पफूलवाडी रू. भे.---लाडडउ । लाढ-सं. प. - प्रासुक प्राहार से निर्वाहं करने वाला । लाणौ, लावी-क्रि. स.--१ कोई वस्तु म्रपने साथ लेकर श्राना। उ०-इणा भांत रौ पहठलडौ तोडं रौ धातौ, सु दारू केसरिया गुलाविया रा दाव दीजे छै, मजरा कीज छै । मूनहारां हुवे छ। मतवाद्वा हुयं चै । उपरा उण भांत रांसूढां रौ धाठ वीचमें लाया द --रा. सा. सं. २ प्रत्यक्ष करना, उपस्थित करना 1 उ०--ग्रहर श्रभोखण दंकियउ, सो नयण रंग लाय । माह पक्का श्रव ज्यू, फरद् ज लग्ग वाय । --दो. मा, २३ उत्पन्न करना) लाणहार, हारी (हारी), लाणियौ- वि. 1 लायोडी- भू. का. कृ. । लार्जणौ, लारजवौ -- कर्म वा. । लाइणौ, लाइव, लावगौ, लावक, त्याणौ, त्याबी, तल्वावणौ ल्याववी- रू. भे. 1 । लात-~सं. स्त्री.-पांव, पैर । २ पैर से क्रिया जाने वाला श्राघात, प्रहार, पदाघात। उ० --^रिणमाद' ऊठि नरसिंघ रुख, पय ग्रहि लात पदछाडिया । लोहाछ श्रठारहि पिड लगां, पिसण श्रठारह पाडिया । --सू. भ्र उ०-२ हिरण्या डागठं री छत माथ लाते मारयां वमी जाव लारली वातां काल्जौ बालण र्नं लारे लागी श्राव) - ददी उ०--३ श्रा वात माठी कही । ताहरां माठीं नं सातल चावस वायौ । लात सो भांज किमाडनं माहैवागमेंषंटी । माटी तौ पाघरो राव सूज कन्दे पुकारू गयौ । -- सातल जोधावत री वात क्रि. प्र.-पड़रणी, मारणी, लगाणी, वाहुणी । मुहा.--१ लात खाणी मार खाना, पिटना । की ५५, ६. ४३७२ लादौ लातेर ~ ~~~ ~~~ ~ ~ ~ 1 २ लात मारणी-= (क) पञ्युस्नों का दूष दुहते समय पैर से लात ५ फटकारना 1 मार कर दुर हट जाना । ` लातरणहार, हारौ (हारी), लातररियौ-वि० । (ख) तुच्छ सममः कर उपेक्षा या अ्रवहेलना लात्तरिश्रोड, लातरियोढडौ, लातस्योडो--भू० का० कृ° । करना । लातरीजणी, लातरीजवौ- माव वा०। उयु--नौकरी रं लात मारणी, संपत्ति र लत्त मारणी 1 लातरियोड़-भू. का. कृ. (स्त्री. लातरियोडी) १ हैरान हुवा हुश्रा, द लातां राश्रूत वातां सूं नीं मानणा==विनस्र व्यवहार की श्रपेक्षा २ पथ-श्रष्ट हुवा हरा. २३ शमिदा हुवा ग्रा, ललित हवा हृप्रा. न करना । ४ हारा हृग्रा. ५ फटकारा हुभ्रा। रू. भे.--लत । लातरी-सं. पु, (व. व. लाततरा) हिदवानी या ककड का सूखा छिलका । लातर~सं. स्व्री-- फटकार । लाद-सं. स्प्री.--१ किसी पदाथं का वह्‌ बोभा जोप्शु कौ पीठ पर उ०्-रांमाश्रभिरामा कांमातुर रोव, हडमल हृडदंगी सेजां में लद करले जाता, सोवै । ललनां लातरियां खातसियां खारी, भड्वी भगतरियां २ टपर भ्रुसाके वधे हृएचार बवोरोंका समृह्‌या घास के पातरियां प्यारी । --ऊ, का. पुश्रालों का गुर ¦ लातरणी-वि. (स्त्री. लातरणी ) १ थकने वाला, हैरान होने वाला । “३ चमडेका वना वड़ा जल पात्र । उ० वृंठां वीतोड़ा जारकं जाता, लादां विसनोई उंशं पर २ पथ श्रष्ट होने वाला 1 व | ध लाता । ढांचां खचां सूं कटठसां जद ढारा, जोगी जंभ रा घुरता ३ शरमिदा होने वाला । % हारने वाला । जमवारा । 2.10 ५ फटकारने वाला। ४ देखो (लीद' (रू. भे.) प्रत्पा.-रू. भे.- लादड़ी । “ | लातरणौ, लातरयो-क्रि. श्र.--१ थकना, हैरान होना । । | उ०--१ तो पिण स्वांमीजी राति मे बलांण वाच जे वायेचा | च ५: स्वरी. सवारी के उपयोगी एवं वोरा लादे जाने वलि परु टोलक वजावे । गावं । व्खांण॒ में विघ्न पाडं। जद भायां कद्यौ- की पीठ। महाराज ! दूजी जायगां उतरौ । स्वांमीजी बोत्या-खेतसीजी नव उ०--उर ढाल शरसा, कूकड़ कव तंसा अख पांणी मोती तवा दिक्षित है सो देखां परीखह्‌ खमवा किसरायक सेँा है ) कितरायक लिलाड्‌ का वेठा तरवां, ज भ्रंजकठ पीव, कनोती लय दीव । मगर दिना वेदौ कियौ परै वावेद्धा लात्तर गया । भि. द्र. सादक श्री, घोटी पडी । पठ वाथां न माव॑, पृद्धी चवर दावे । उ०--२ फेर स्वांमीजी पृछछयौ-साधु प्राहार कर, सौ चोखौ के फी वल्‌ जैसी, काठ नारंगी तंसी । श्र॑स्ा धोडे राव चाकरां र दाथांमे काठणा। रा, सा, स. खोट ? जीवणजी वोत्यौ -साधु श्राहार करं, ते खोटी काम, त्यागे ते चोखौ काम 1 दिशां श्रादि जातां मिन्ध जद स्वमीजी पृदध जीवनजी ! खोट काम कौवौ के कर्णौ है । इम वार वार पूतां | लाद्ड़ी--देखौ लाद (्रल्पा र. भे.) वि.-लादने या सवारी के उपयुक्त । लातरियो । --भि. द्र. उ०--सिर सेमां ज्यु सुढ भ्रमीरां दरी डाढी, गरीवां रे ना गडंपांव २ पय-्रष्ट होना । । जुत्यां किन वाढी । भीठकिया भरणाय घरोरी उवार घार्ल, तीं दिन भडकाय लादडी भर चं हाते --दसदेव उ०-धिर रप हिदुस्थान, लातरग्या मग लोभ-लग 1! माता भमि # ० ५ मान, पूर्जं रांण प्रतापसी । --दुरसौ श्राढौ | लादणभारः-सं. पु गधा, खर । ग्र. मा.) ३ शमिन्दा होना, लज्जित होना 1 लादणी, लादवो-क्रि, स.--१ किसी वाहन या पञ विकोष की पीठको उ०--१ िणरोद्‌येटौ मारौ, किण रो भाई मारौ, किण रौ भारयां जन से युक्त करना । ६ ही चाप मारौ 1 ह्र मे मयंकार मंडयौ । नगरी नां लोक उ०--१ ऊट भया वह्‌ वोज उठाया, परदेसां कू लाद पठाया 1 साहृकार नैं निदवा लागा तिण र घरं जाय रोवा लागा--रं पापी चांदी पडं कीड़ा वोह खावे, कडवा ट्च च्यु दुख पाव थारे वन घौ हतौ तौ ूवा मे कृं सही न्दास्पौ । चौर चायनं --ऊटोजी नण म्दारा मनुस्य मराया । साहुकार लातरियौ । सहर दछोडनं दू उ०--२ वांखियोौ तौ सुय रह्यौ । सूतां भाख फाटी । तद उटीया। गाम जाय चस्यो 1 --भि. द्र. तणं सारसु पहली रणौ उदि म पौटीयौ एकलं हीज लादीयौ । ४ टारना। पदं वाणीयां ही लादीयौ । -- रलौ गढवै री वात लादियोडी . ४३७३ लापड्ौ २ भारी वस्तुप्रों का वाहनो, प्ञुग्रो ग्रादि पर रखना, चढानाया मरना । | उ०--येह पुराणा छोड प्रयाण, वाठदि लादि सवेरियां जम के ग्राए पकड़ चलाए, वारी पूगी तेरियां । -रंदास धत्तरवाक् ३ किसी वस्तुसे परिपूरितं या पुं युक्त करना, श्राच्छादित करना 1 ज्युं-गणां सू लादणौ 1 ४ किसी की इच्छा के विपरीत श्रचिक काये या दायित्व से वोशिल करना । ५ कुश्ती मे विपक्षी को श्रपनी पीठ पर उठा लेना । लादणहार, हारौ (हारी), लादणियौ-वि० । लादिग्रोडौ, लादियोङ्ी, लाद्योडौ -भू° का० ० । लाएदीजणौ, लादीजनौ--कमं वा० । लादियोडी-भू. का. कृ.--१ किसी वाहन या पड विशेष कौ पीठ को भार या वजन से युक्त किया हु्रा. २ भारी वस्तुग्रों का वाहनों, पश्र श्रादि पर रखा हृश्रा, चढ़ाया हृभ्रा, भराहुभ्रा.- ३ किसी वस्तु से परिपूरित या पूणं युक्त किया, श्राच्छादित किया हृश्रा. ४ किसी इच्छा के विपरीतः ब्रविक कार्यं या दायित्व से गोकिल किया हुभ्रा. ५ कुदती लते समय विपक्षी को श्रपनी पीठ पर उखाया हुश्रा! (स्त्री. लादियोड़ी) लादियौ-सं. पु - १ घोड़ा-घोड़ी के मल (लीद) त्यागने का भ्रवयव । (मेवाड़) २ देखो (लादौ (्रत्पा. रू. भे.) रू, भे.--लायौ । लादी-सं. स्वरी.--१ चौडा-चौकोर परत्यर । २ लकड़ी, घास श्रादि का छोटा ग्र । उ०-ददिया राये दछ्वलिया हव्वांणं । वेरा बीदरियां ई्घ- खियां श्रां । लादी भारी नं श्रोगवौ लेती, दुरवख वारी नैं चोढावौ देती 1 --ॐऊ का. लावौ-सं, पु.--१ ऊंट, गधा या सिर ्रादि पर विक्रयार्थं लाया जाने वाला लकदियों (दंघन) का गह्ुर । उ०--१ काती भं दांती फेरी, लासूवन रा वाडतां। भाड जुगतत लादां लदावं, दिगलां टोकी काढतां । --दसदेव उ०--२ लादौ नाखोजमग्यौ । डोकरी प्सा देवर लागी । इत्त-ई मे दो लकडियां न्यारी पड़ी दीसी} गरज र' वोली-ग्रे लक्यां कोनाखंनी कोई? --वरसगांठ २ वजन, चोभ 1 ३ श्रोस, शवनम्‌ । क्रि, प्र.--नांखरणौ, पडणौ, भरणी, लद, लादणौ ग्रत्पा.+-सादियौ लाद्यौ-देखो लादियौ (5. भे.) लाधणो, लाधवौ-देखो 'लाभणौ, लाभवौ' (रू. भे.) उ० --१ हीलाकर हिणके ईटा हय भ्रावा, लीला भगवत री लीला नहीं लाधा । ढाठां छाठांतर सांत्तर ठलियोड़ा । वैठा नीरा- तर अ्रनिर वरियोडा 1 --ऊॐ. का. उ०--२ सार तरस्सं सरमां, सारा साहसवंत । सुजड लां साम छ, वां तेज श्रनेत । --रा, रू. उ०-२ पधघरावि त्रिया वामं प्रभणार्व, वाच परस्पर जेथा विधि । लाधी वेला मांगी साघी, निगम पाठक न्वं निधि) --वेलि उ०--४ च्यारू जणा भ्रेकणसागं घोड़ा सं हेटै करंद्या जास हीरां मोत्यां रौ कोई ्रमोलक खजांनौ लाघग्यौ स्ट । --फुलवाड़ी उ०--५ भींटा वखेर्था, दतां माथे श्रलेवरा चाया, माची मार्थं सूती उस्ती गलाव री मां अ्रगादी तोडती लाधी । -दसदोख उ०--९ वंभ मिसि वदंतु घु वीजौ, कही खयि संभटी कथ । लिखमी श्राप नमे पाद्‌ लागी, श्रचरिज कौ लाधं श्रथ । --वेलि लाधणहार, हारो (हारी), लाधणियौ--वि० 1 लाधिश्रोड़, लाधियोड्ध, लाच्योडौ-भू० का० कु° । लाघीजणो, लाधीजवौ- माव वा०। लाधियोड़ी-देखो "लाभियोड़ौ' (रू. भे.) (स्वी. लाचियोडी) लापड़-देलो ^ लापड्ौ' (मह्‌. रू. भे.) उ ०-- धटी लापड़ गीचांचर चिन चुटी, खांडी वांडी सव खावणा धिन सटी । वेडां व्यायोड़ी खेडा में खसं । कोमठ काछडियः वादडिया वांसं । --ऊ. का. सपड़्कनौ-सं. पु. (स्वी. लापड्कनी) लवे कान वाला पदु । लापडियौ - देखो "लापडो' (ग्रल्पा., रू. भे.) लपड़-वि. (स्त्री. लापड़ी) वड़ा रौर लम्बा (कान) उ०--तठा उपरत्ति करिनं राजान सिलांमति काटी कूतरा. लाहोरी कतरा, विलात्ती कतरा लोमी, लाढ्मी जीभ रा, वदिमें पृ रा, लापडं कान रा, दाडमी दंत रा, सिव रा हय रा, केहुरी कव 1 ध (1 । ऋष रा. सा. सर सं. पु--१ वड श्रीर्‌ लवे कानों वालापञ्यु । २ मोटकोपानोमे दुत्रानेकै लिए उस पर्वांधे हृएु पत्थर के ४२७४ लामणौ लापता नीचे लगा हुग्रा चमडे का ठकड़ा । ग्रत्पा..--लापडियौ मह.+-लापड लापता-वि, [श्र ला.~+रा. भ्र. पता] १ वह जिसका पता न हो, खोया हुभ्रा । २ जान-बू कर कही चपा हरा, गायव । उ०-जे किरी घरगोडिया रजपूत र सागे उण रौ व्याव च्हियौ च्छतौतौ नीं वा इत्ता दिन मसा पर्वाणं लापत र पाती भ्ररन इण भांत लापतं रह्यां पचै पाठी गाव में पग धर सकती । -- फुलवाड़ी ३ पत्र श्रादि जिस पर पतान लिखा दहो 1 लापर--देखो (लोफर' (रू. भे.) उ०--सीकरि फी गादी न्याय नीति राज कीनां ! भंडा चोर लापरनं प्रण दंड दीनां । ---शि, वं लापरपण, लापरपणौ- देखो 'लोफरपणौ' (र. भे.) उ०--श्राखर बावन करं श्रेकठा, तं कागढ लिख कीना त्यार। लापरपणौ कियौ तौ लड्सू, चिडसूं दियूं न कोडी च्यार । -- वां. दा. ख्यात लपस्वा-वि, [श्र. ला-|-फा. परवाह] १ जिसे किसी वात की चिन्ता याफिक्रिन हो, निर्िचन्त । २ श्रसावघान ) र<. भे.-लापरवाह्‌ । लापरवाई-स. स्त्री. [ श्र. ला ~-फा. परवाह +-रा. प्र- ई.] निरिचन्तता, वेफिक्रो । उ०--१ भावण रा तरियोडा लिलाड में तिरा सठ देख न सेठ सम्या के निसांखौ ठर लागौदहै । वं भट माचा सूं उभा व्हिया । लापरवाई सूं वोल्यां--नीं मानं तौ बात कीं कोनी श्रर मानि तौधघणौर्दहें) --फुलवाडी २ श्रसावघानी 1 र. भे.-- लापरवाही ! लापरवाह्‌ - देषो 'लापरवा' (<. भे.) लापरवाही-देखो "लापरवाई' (रू. भे.) लापदौ देखो (लांप' (<. भे.) लाप्षडी- देखो 'लापसी' (श्रल्पा., 5. भे.) उ०--१ नणदट-वाम्री रे लापसड़ी रंघाय, श्रो घण वारी रे देवरजी छिनगाढा रे चेवर छांटमा, श्रो राज । --लो, मी. लापसी, लाप, लाफसी-सं. स्वी. [सं- लस्सिका] गहु के दलिये का यनाया हुश्रा एक प्रकार का मीठा व्यजन) षन ____ उ०-१ छट प्रहर दिवस कं, हुई ज जीमरवार } मन चावढठ तन लापसी, णज घी की धार। --टढो. मा, उ०-र चंपला की डार सूवा, पीजरी वंषाऊं रे, घ्नत घेवर सोलमां, लापसी परसा रे । -मीरां उ०--३े वडार ई नातं गोव नृत्य, सोनजी रात सुख री नींद सूत्यौ । लाफसी र' घी रौ धृव नूतौ कर दियौ है । --द्तदोख रू. भे.~-लपसी भ्रत्पा.,- लापसडी लाव-देखो 'लाभ' (रू. भे.) लाबष्ठी-देखो "लवाढी' (रू. भे.) लाभंकर-देखो 'लाभकर' (<. भे.) उ०-तिथ तेरस पख तरणि, वार सुभ करणा चंद्र वर) एकादस ग्रह ग्ररक, लगन कन्या लाभकर । --रा. रू. लाभ-सं. प. [सं लम्‌] १ प्राप्ति। २ हित ध उ०--लियां नाम मुख लाम, व्याधि दुख भ्राधि न व्यापे। कुल सज्जण धिर करे, ररी वडपरा ऊथापे 1 --रा. रू. ३ सुश्रवसर। ‹ उ०--'चतुर' कहै "रामंग' री, ग्रहं भुजा वक श्राम । मरण न पायौ धार मुह्‌, तिकौ गमायौ लाम । --रा, रू. ४ फल, नतीजा । ५ उपकार, भलाई । ६ व्याज का घन। ७ व्यापारमें होने वाला मूनाफा। ८ श्रानन्द, मौज । उ०--दुसमणां लाम दानां दहरा, खुली न कानां खिडकरिया । नर परम घरम ब्रू नही, हुक सूः हिडकियां । --ॐ. का & सात प्रकार के चौघडिये में से चौथा चौधड्यिा, जो शुभ माना जत्ति?॥ १० फायदा, मुनाफा । रू. भे.-- लाव, लाह्‌, लाहु, लाहौ । लाभकर, लामकारक, लामकारी--वि.-- १ वह्‌ जिससे लाभ होता हो) २ श्रीषवभ्रादि क्षेत्र मे गुण करते वाला, फायदेमन्द । रू. भे.- लाभकर लाभणो, लाभवौ-क्रि. स. [सं. लन्धं] १ प्राप्त करना, पाना, मिलना) उ०--१ ढोला, सायर मांणजे, फीणी पासच्ियांह । कदं लाभे हर पूजियां, हमारे गचियांह्‌ । --टो. मा. उ०--२ हरीया श्राघी लाभतां, सारी सुरिति न धारि ! लूखी रूखी खाय के, साई नवि संभार । --म्रनुभववांणी पा 1 उ०--३ माग्या ला जव चरा, मांगी लृभै जवार । मांग्या साजन किम मिठँ, गहली गूढ गवार) प्रज्ञात २ जानना, पहचानना 1 ३ प्राप्त होना । ४२.७५ लायपूल्टौ वसंत पाच्यं री परमछ नीं, उन्नाठं री लाय हं, --दसदोख उ०--२ जीवणादाता वादल्यां, थां पूं जीवण पाय । मल लुग्रां वाजौ किती, मुरघर सहसी लाय । --लू रू. भे. - लाद, लाई । श्रचानक सामना होने पर किसी विशिष्ट स्थिति मे मिलनाया | [अ. लाइक | १ सुयोग्य । देखना । क्रि. श्र.--५ सूना, उपजना । ६ लाम होना, फायदा होना 1 लाभणहार, हरो (हीरी), लाभणियौ- वि, । लाभिश्रोडी, लाभियोड़ी, लाम्योड़ो--भू- का. ₹. । लाभीजणौ, लाभोजवौ -कमं वा. माव वा. । लद्धणो, लद्धबौ, लघणौ, लघवो, लघ्धणौ, लघ्धवौ, लम्भ, लव्मवौ, लभणौ, लभी, लम्भणोौ लम्भवौ, लाघणौ, लाधवो, लाहणौ, लाहवौ -- रू. भे. । लामस्यान-सं. पु, यौ. [सं. लम्‌-{स्यान ] जन्मक्ुडली मे लग्न से ग्यारहूवां स्थान । (फलित ज्योतिष) लामातयय-सं. पु. [सं.] जैन मतानुसार एक श्रन्तराव कमं जिसके उदय होने से मनुष्यके लाभ में विघ्न पड़ता है । लाभियोडो-मू. का. कर (स्त्री. लाभियोडी) १ प्राप्त किया हृभ्रा, पाया हुमा, मिला हुश्रा- २ जना त्रा, पह्चाना हुश्रा- ३ प्राप्त ह्वा हृश्रा. ४ श्रचानक सामना होने पर किसी विदिष्ट स्थितिमें मिला हृश्रा या देखा हुभ्नाः ५ सुजा हमा, उपजा हुश्रा. ६ लाभ हुवा हुम्रा, फायदा हवा हमरा । लाय-सं. स्त्री. [स.. श्रलात, घ्रा. म्रलार ] १ दावानल, भ्रागः श्रम्नि 1 उ०--१ उण वेढा वढठ श्रग्गठा, दठ राटौड दुबाहु । मेष थया सीसोदियां, लगी लाय अ्रणयाह्‌ । न्त उ०- २ श्रजा ₹ जगाई जका सवाई सवाई ऊट, लाख दलठां विरौठं वुायै न ज्वाका लाय) कूर्मा सीसोधां हाडां चहूवांणां सारा केत, धजां नेजां गजां सधी ले गयौ घकाय । --राजाधिराज वखतर्सिघ रौ गीत क्रि, प्र.-लगणी मुहा---लाय लागणी == १ जलना, मस्म होना, अगति कांड होना । २ नष्ट होना । ३ जल्दी होना । (मचना) ३ कं चिगाड या नष्ट होना 1 २ लपट, ज्वाला । ३ जलनेकी क्रियाया भाव) - प्रचण्ड गर्मी! उ०- श्राज वेमजी र मायै सृं मुरी दलाल री मांङ्योड़ी मूढी हाढी मोवणी सीवी साफ हवे, नीकं है, जणं श्रा मूढी तौ उ०-- "मोटा तौ थेँ करसौ जद हसा, हणं तौ (निसा नाख'र) रसं ईटन्काश्रषरधूडसूं ई हीण हां+ “कण केवह? थां जिसा लायक सिरदार किताक दहै --वरसगांठ २ उचित, ठीके । ३ गुणवान, गुणी । % समथ । उ०--डांढा ताभां केरडिया दीक, रोटी पांणी नं टीगरिया रीकं । चित पर घोरारव भ्राकर वरचार्वे, धर घर नर नायकं लायक घवरावं । ---ऊ, का, ५ भला, सीधा 1 सं. पु.-मंत्ी। (नां डि.को.) रू भे.-- लाइक, लायङ्घ लायकी-सं. स्त्री. [श्र. लायक~+- रा. प्र. ई. लायक हौनेका भावया श्रवस्था, योग्यता 1 उ०--श्रा थांरी लायकीहै। वाकी कणैई म्र चोकं दीसिया पधारौ, पदै देखौ म्हारा भाद कांई्‌ कंवदै? --वरसगांठ लायक्रु- देखो "लायक" (रू. भे.) उ०--डंगरपुर वांखवाड़ाह्‌ देस, पाटवी रण राखीह्‌ पेस । लायङ्क लूरपृर ग्रह लर्गांण, राय कंवर दीव छालक्क राण । -वि. स. लायकठ-स. स्त्री. यौ. [स. श्रलात~{-ज्लावा] प्राग को लपट, ज्वाला । #॥ लायण - देखो (लांख' (र<. भे.) उ०्-लिखमी घरमे दीया संजोया । पूजन सारू चावल कक कटिया । श्रौर तौ लायण कनं हो-ई कां । ६ लायणौ-देखो 'लाच्णौ' (रू. भे.) -- परमार लायपाय-सं. स्वरी.--१ चिन्ता, घवराहर, वेचंनी । उ०-श्रेक पखवाड़ा तांड्‌ गांवरा कोई समचार नी श्राया तौ ठाकरसा र ई लायपाय लागी । इत्ता दिन तौ दूजे तीजै सम॑चारां र सार्थं आदमी ईश्रावता पणश्रां पदर दिनांमेतौ कोई खवर ई नींली। २ प्रा्चिकी लालसा) उ०--दृनियां रौ घन दुनियां रे पाखती ई रेवण दौ, त्रिरथा लायपायमेकींश्रंणीं लांणीनीं। --पफूलवाडी लायपृष्ठौ-वि.--ग्रति क्रोघ-पूणं, उग्र । --फुलवाडी तायते ४२७६ लायल-~वि. [श्रं.] स्वामिभक्तः राजभक्त । लायलटी-सं. स्परी. [श्र.] सजभक्ति, स्वामिभक्ति । लायोडो-मू. का. $.--१ कोई वस्तु श्रपने साथ लेकर भ्राया हप्रा. २ प्रत्यक्ष किया हृश्रा, समक्ष उपस्थित किया हृश्राः ३ उत्पन्न किया हु्रा । (स्प्री, लायोडी) ला'यौ-देखो ^त्दासियी' (<. भे.) लार-सं. पु.--एक प्रकार की लाय विशेपजो किसान से खलिहानमें जागीरदार का हिस्साले लिए जाने के वाद ली जाती थी) क्रि. वि. [सं. लहर] १ पे । उ०-१ लधु लधु सर कर धनक लधु, लघु वय वालक लार । रामंति सरन तटि रम, कीटा राजकुमार । --सू. प्र. उ०--२ कंवर रं साथ "रतना" री निजर इया भात वहै है, भागीरथ र लार गंगधार वहै जिण भांत उपमा लरहैहै। वदं कितरी हैक दुर दूरवीण लगाई, सारा हौ वधती सनेह री सगाई । - र. हमीर मुहा.-लार द्रुटरी == सम्बन्ध हुटना । २ साथ, संग। (डि. को.) उ०-जात पांत कुल कूटम कबीलौ, साधु ही परवारदै । मीरांके प्रमु गिरधरनागर, रमस्यां साधां रीलारषहै। -मीरां ३ लिए, कारण । लारड-पं. पु. [्रं. लाडं] १ स्वामी, मालिक । २ भ्धिकारी, श्रफुसर। ३ दुगर्लण्ड के जागीरदारो या रर्ईसों कोसम्राटद्वारादी जाने वाली एक भ्रादर-सूचक उपाचि । ॥ लारणौ-सं. पु---प्राम-युवतियों के लम्बा श्रधोवस्त्र पहनने पर उसके ऊपर कसने की लम्वी डोरी । सारलडो-देसो 'लास्लौ' (र. भे.) उ०--ज्य्‌ं लारलडा वह्‌ गया, वरतमांण॒ वह्‌ ज्याय 1 काठ कटत मे कठ रद््या, ठीक न विस्रना छाय । --भ्रज्ञात (स्त्री. लारलडी) लारलेवार-देखो 'लारवार' (रू. भे.) लारली-वि. (स्त्री. लारली) पी का, पिद्धला । उ०-१ देखौ विगड़ी देहु, टोट विगड़गौ देष्वौ 1 विगड गई सव चात, लारतौते कुणतेखौ । --ऊ. का. उ०-२ कदं ही इसौ जमांनौ हौ जकौ लुगाई नातं ल्यांवता जद धर हद्ा तो पलीपोत मृडो ही नीं देखता । थावररी रातर्नं पोर दई घरां सेयर वदता म्र धर हाढा मिनख घर दछोडष^्र वारे निकेढ जाता। ऊंधी चाकी फिरावता,) लारली गढी त्यांवता म्रर व्याहु-सावां में श्रछगी राखता । --दसदोख २ वीता हरा, विगत । + उ०--१ हिरण्यं डाग री छत माथे लात मार्यां वगी जावे, लारली वातां काढठजौ वाठ्ण न लार लागी श्राव है । -दसदोख उ०-२ कीरं सार-मायातेरा तीन नांव, फरसियो, फरसौ श्र फरसरांम । लारला दिन भूलग्यौ । ~ दसदोख उ०--३ ग्रमे कीकर सठटणी श्रावं । कण जाणे कुण दाव-घाव करयौ । मेडी तौ लारलां चार वरसां सूं भिरं ? इण नंनी श्रगेजियां तौ हवेली री लाज ई भिढठ जावैला -फ़लवाङी ३ वाद वाला, वाद का। उ०--१ इसौ विचार राजा कनकरथ नै श्रेकांत में ले पथधियो-- महाराज सांच कहौ, नेठतौ साच कल्यां तपावस हसी । लारली सरव बात कहु । --पलके दरियाव री बात ४ वचा हु, श्रवक्षिष्ठ । उ०-श्रांलुगायां रेघणानीतौद्धहांचलतौ वणावणा हा। दो चूधं जित्तं च्यांरू' दं लारला चूं चूं करे। -- फुलवग्डी ५ पहले वाला, पूवेका। ^ ह उ०-१ लारतां खुटाई्‌ अंडी तौ म्ह लुगायां होय नं ईनीं खुटावां । --फएुलवाड़ी उ०-२ कटै कथन्‌ दुहु कुठ उजली कांमणी, गजां धजां फौजां लोह लागे । नीप्तरं तिके नर तिका लांनती दियं । लास्ला वंन गाठ लागे । -वीर स्त्री रौ गीत ६ पूवं जन्म का। उ०--१ धृ री कमाई खावरिया श्र लोग भाठा नं पूज, मिनख तै घुरकारं, राजा नै परमेस्वर जांखौ श्रर खुदौखुद नं लारल करमां रौ फ मानं । -- फुलवाड़ी उ०--२ पण कोई भ्राम हौय मरणा वास्तं वकारं ईतौ! ग्रंडी मौत सं लारलौ जपारौ ई सारथक व्है। -- फुलवाड़ी ४७ नीचे का, निचला । उ०-- चौधरी रं घरं मोटे मंज रे माच माथ थांणौदार हुकमी- दोनजी हौकौ डर्डकाय रेया हा । लांवौ डील, वटवां वाठ, रम तौ तवं र लारलं पीदनंदही लारं छोड रंयौहै। --दसदोख ५ भ्रतिरिक्त, श्रलावा। ज्य्‌-म्हारं साथ चालौ जिकी वात करौ, लारली वात जावणदो। श्रत्पा--लारलड़ी लारवाछ, लारवाछियौ-सं. पु.-विधवा स्त्री का वहु लडका या लडकी जिसे वह्‌ पनविवाह करने पर श्नपने साथ नए पतिकेष्ररते जाती टै । स -~---~~- ~~ ~----~- ~-~ ~~---~ ~~--~~---- --~--~~---~~ -~-~-~~ ~ 1 लारा लार, लारा, लारि, लारियां, लारी, लारीयां देखो 'लार' (रू. भ.) ४२.७७ ङ. भे.--लाडवाड, लइवाडियौ, लारलेवाठ । उ०--१ कलह विल ता दिन बह्यौ, लारां श्रु कल' लाय । भ्रांणि मिल्यौ "जगतेस' सृं, यम जुघ करिय उपाय । -ला. रा. उ०--२ हरीय मन हसती भया, जगत चूकसा लारि 1 हरिजन क भावे नहीं, मौक रह्या भूख मारि । --भ्रनुभववांणी उ०-३ हरिया केता वहि गया, कीया करम कं लारि । धिल चंषं घन वचरम, व्यान सव नही धारि) --ग्ननुभवर्वांसी उ०-* वाणीं लिखि गया साघ विचारी, मुकति हुवे मन मारिया । मारणमें निति दही कखमारौ, लज मारौ कुठ लारियां । --ॐ. का. उ०--५ लियां नव लाख थंड सुचार्ण लारिया, खड्ग ऊभारियां ख्रां खाक । वीदगां विकट दुख पड जिण बारिया, घावढी- घारियां तुरत धावं 1 --ठाकूर जुंफारसिह मेडतियौ उ०--६ भोजन करणौ भूल चेलं, बढा लारौ खड़भई, देठे हाट चालो भै, रुढा रुलाढी रडमडं । --दसदेव बु०--७ वात विसटाय््‌, फिरिया' जिकण वारीयां, भटी कह “सादु छक भारीयां । घणी मपां सस्ण मर्ण संक-घारीयां, लाज मन चरं "जेसांण' गद्‌ लारीयां । - --जसजी श्रादुौ - लार-क्रि. वि.-पीदे 1 उ०--१ श्रम विसटाक्रं श्रावियौ, लगि ज्यां हिज लाएरं । कटक सुखि श्रंगद कटै, पित तु प्रकारे । --सू प्र. उ०--२ सूकी सुदररणीं फाडां रं सारोलाघौ विदरांणीं वाड़ां रं लार । सद व्रत करतोड़ी बरणासलम सेवा, काटे मरतोडी रेवा तट फेवा । --ऊॐ. का. उ०--३ श्रं साच वोल जातातौ पदै धादौ ई कांई वात रौहौ। व्हा, व्दैगौ इण र हायां न्याव ! श्रंडी न्याव निवेडन जोग भ्रकल ैती तौ तौ लियां लरडियां रे लारं ठरर-ढरर करतौ क्यं रबडती } --फुलवाडी २ वादमे)। उ०--पग पाघ्ठा पड पूरी ललौ-चम्पौ राख । नदीं तो लार सृं लावी पैरायदयं 1 ` -दसदोख ३ मरणोपरान्त, मृत्योपरान्त । उ०--१ लार एक लिचियं नांव रौ न्हांनौ पौतौ श्र वींरी विधवा मार्यी। --दसदोख ४ वु्टुकरलेनेके वाद । उ०- लार राष्योडा कामां खातर मरती विरियां रावण ही मोकटटौ पिद्धतावौ करतौ मर्यो 1 --दसदोख लार ती ५ वद्‌ कर । उ०-- सथराई श्रर खामचीपणौ तौ मांसी सूं लार ही) - एलवाड़ी ९ साथमें। । उ०--१ वधी भटी बापडा ले जासी की लार । क्रपण नं निसदिन करै, प्रो नाहर परमार । --भोपाठदान सादर उ०--२ "गजन' वड कौ 'गेडंवर तद मू हुकम दियौ सुरतांण । लसकर खच्वर दौ लारं भ्राज श्रटक पर फेूभ्रांण। - मालौ साद्‌ मुदा.- लारं श्रांणौ ==पलनी रूप होना । लार लागणौ पीट पड़ना, श्राधित होना | रू. भे.-लरां, लार, लारा, लारि, लाग्यिं, लारी, लारीयां, लारोवरि, लारोवरी, लारौ, लारचां, लाहरां लाहरे, लर, लर, लैरियां, लेरचां । लार-लार-क्रि. वि.-पीद्े-पीद्ये । उ०्- नाई र लारंलारं सगा लोग के्‌ वेढा श्रंदातारीजैजं कार वोली । भ्रंदाता र माथेनसारी तौ जाणे भ्रुत ई सवार व्दैगौ । --फुलवाडी ङ. भे.-लारोलार, लारोलारि लारीलार, लारोलारि-क्रि. वि.- १ एकं के वादं एक, फ़्मशः । उ०--१ सिलह संटूक सलीतं वई, लद उट चलाए भिड़ । लारोलार कतारं हल्ली, काती जांण करमां चल्ली । -- गु. रू. वं. उ०---२ हरीया जुग लोपे नही, कुव श्रपने की कार । पड वांध्यां ऊंठ ज्य, लारोलारि कतार । --अनुभववांसी २ निरन्तर) ३ देखो "लार लार" (रू. भे.) उ०-लारोलार लगाव्यौ जी, टि मराखी काय । केढटवणी करयो इसीं जी, जिम वाहरिन दीखाय। -प. च. चौ. लाचेवरि, लारोवरी -देखो ^लारे' (र. भे.) उ०-लारोवरि ग्रप चिरत्रांम किं लिखिया, निहखरता नरवर नर 1 मांखण चोरी न हवं माहव, महियारी न हुव महर । -वैलि लारो-सं. पू---१ पीछे पड़ने या पीदा करने की क्रिया या माव । २ पीदा) उ०-१ रोणो-ई दै तौ ग्रेक दिन भेदौ-ई, मनं रोय-घोय' र लासै खोडौ । --वरसगांर उ०-२ खासी भाय तांई्‌ लारी करं । पणा कृचमादी रौ कीं पतौ नीं पडयौ । ~ ५ ॥ -- फुलवादी ३ पृष्ठे भाग, पीव काभाग । , “लास्यां ४२७८ लालक्षणोर 11 % देखो लार" (<. भे.) ~ उ०्-जलंमः सुधारौ जंम्‌ वहै लारौ याडौ सक्ठ विकारा भ्रौ संसार चिहर की वाजी, देखौ सोचि विचारा । -ऊदौजी देण लारघा-देलो "लार" (रू. भे.) उ०-ए जी सरदार थारी धण लारयां लागी श्रावं मेरी जान, उमरावनजी श्रो रसिया । --लो. गी. लालंखर, लालंवर-वि.--रक्तवणं युक्त, पुरा लाल । उ०-कंवर र पलकां पीक, श्रघरां काजछ री लीक । श्राठस श्रग, भाव श्रलता रीरग । लालंखर नण, चटविचलठ वैण! दहि गदियौ हार, तुररा रात्रटा तार। -र. हमीर उ०--२ बोट करं श्रसमर रत वोहां, लालंवर हय पुरां लोहां । सत्र विंड खुरसांण सकाजा, मुजरो करू एम महाराजा । --सू. प्र. उ०--२ लालंवर नण भ्रनं मुख लाल, उपे वप तेज समुद्र उकाठ । "नं सू ° सं. पु.--सूरज, सूयं । ( मि. रातवर ) † भ लाढ्-सं. स्वी. [सं. लाला] १ पतला तारजेसामुंहं मसे निकलने वाला धूक । (डि. को.) उ०-डावी श्रांख थोडी - टेडी रवती श्रर डावौ होठ टीलौ रवण सं हरदयम लाछ- पड़ती रवती । --रातवासौ मृहा--- लाढ टपकणी, लाठ पड़ी मुंह मेँ पानी श्राना, लाला- चित होना। । । २ मन्दिरमे लटकायाया किसी प्ड्युकेगले मेँ वापे जाने वाले घण्टेके श्रन्दर वीच में लटकने वाला घातु का गुटका, लंगर या लोलक । उ०-मांड पीवइ कण राठज लद विहुणी वाज दय षंट। ईसी सकति तिहां देव की, चोर नाहर नहीं देव कद.पंय -वी.दे, ३ चौपाये परयु्रों के मुंह का एक रोग विशेष । लालसं. पू-- ९ पत्र, वेटा । २ .वालक, लड़का १ ३ श्रीकृष्ण का एक नाम) ४ एक प्यार श्रीर वात्सल्य भरा सम्बोधन सूचक शन्द । उ०--१ तेल फुलेल मद व।टल् श्री मरू, श्रोर चोय्याद्धा नाठेर, श्रो लाल ।्मद्धू घरम की वैनदी, श्रो भरू, तृं मेरौ समरथ माई श्रो लाल । -लो. गी. उ०--२ मुरला लाल,ये छी जवाई म्हारं मां परली मेमद ग्रो, मेद्तिया श्रो लाल, कमघनजिया श्रो लाल, ये ष्टी जंवाई, म्हारं कानां परता कुडढ, मुरला लाल । --लो, गी. उ०-३ या त्यौ राजाजी थांरी नोकरी जी राज, यौ त्यौ साथीडां थांरी देस रे पपदया रं लाल । -लो. गी. उ०--४ पहली प्रीत करौ पीतव स्‌, पीदं छाडि विकारी । जन' हरिराम करत ह्रिजी सुं लाल पुकार हमारी । ` --म्रनुभववांणी ५ एक प्रकार का पक्षी विशेष जो प्रायः जलाश्चय के पास रहता है । उ०-जांणी दूसरी घटा छै । दरखतां ऊपर मोर कुहक रह्या च । सुवा केढ करं द । तूती बोल रही छ । लाल हाक मार रह्यौ च॑ । -रा. सा.सं, ६ ताश के पत्तोमे चाररगोमेसेएकरगया उक्त रंग का पत्ता! ७ भगियों (हरिजनो) के गुरु । ८ खेल मे पहले जीता हुवा खिलाडी! ` सं. स्ी.-£ मानिक, रत्न । उ०--म्हारं नवधा नथ सुहावणी, सविलडौ टै मोत्यां विचली लाल । म्हारं फुल भुमका फव रह्या, सांवलडौ है भरूमर री लुम । ~^ -मीरां ग्रत्पा-- लालड़ी | १०, भूरापन्‌ लिए हुए लाल रंग की एक प्रसिद्ध छोटी चिडिवा । ११ श्री करनीदेवीजी की बहिनिकानाम। ` १२ वच्चो के खेल विशेष मे" जीती हई वाजी का नाम) ल्य्‌-एक लाल माथं करणी । [स. लालसा] १३ इच्छा, चाह । उ०--स्वयंवर चि तेहन, तांहां जाय छि भषाढ्छ । पांमव्‌ं वसि दवति, श्रासा तणी छि लाल । --नटाख्यांन वि.- १ रक्त वणां का। (डि, को.) उ०-उडत गुलाल लाल भयं वादछ, बरसत रग श्रपाररे। घट के सव पट खोल दियं है, लोकलाज सवं ररे) -मीरां २ फ्रोचयुक्त, भ्रावेदामें । मुहा-- लाल होणौ = कोध में श्राना, श्रावेश् मे श्राना। ३ खेल मे सवस पटले जीता हृम्रा । ४ भिय, प्यारा । उ०- ऊंचौ घालूं पालणौ, यौ जक जमना क तीर । भोरौ देसी सायवोौ, म्हारी लाल नणद कौ वीर । गीगा सोज्या मेरा लाल । # ~ लो, गी, रू. भे.- लत्ल लालकणेर, लालकनेर~सं. स्त्री.-- एक पेड़ विशेष, जिसके एल गुलाव के फुल जसे होते है। उ०-सोरभां केसर श्रगर, रहै जायफ फल लालकणेरां श्रर समी, फिर कटु कटू वनद । --गज-ठद्धार लालकबण अ ल्ालकवबांण, लालकमांण-सं- स्वरी---एक प्रकार का धनु | उ०--१ मृदा हाथ ज केरिया, सेचू लालकर्वाण -फोजां केर पतस्याह की, तो राहव मूषि जांण । --राहव-साहव री वात उ०--र वहिलउ ग्राए वल्लहा, नागर चतुर सुजाणं । कुम विं घण विलखी फिर, गुण विन ॒लालक्माण । -टो. मा. लालकी-सं. स्ती- जीभ, जिद \ उ०--दिल कहै न धारू देणहिक दोकड़ो लालकी श्रणुता कर लपका । --श्रग्यात २ देखो भ्लाली' (ग्रल्पा., ङ. भे.) लालकेसियौ-सं. पु --एक प्रकार का ्रश्लील लोकगीत । वि.--रसिक 1 मि.-केसियौ 1 लालडी-देखो "लाल' (ग्रत्पा., ₹. भे.) उ०-वाजी वुलावं है, सनस खुलावे दै ! प्यारी री लालड़ी प्रीतम रो हीरौ 1 प्यारी री चृंदडीं प्रीतम रौ चीरौ रात्यं चौपड रमौ भेर, प्यारी रीश्रांमकेरी प्रीतम रौ केढठो । पासौ जीत न पासौ हार दनूं वातां मतलव सारं । - र. हमीर लालडौ-वि. (स्वरी. लालड़ी) लाल रंग का। लालचंदन-सं. पू.- मंसूर प्रान्त व श्ररकाट मे बहुतायत सेदहोने व लाल सग का चंदन, जिसका पेड लम्बाई मे चोट होता दहै, रक्तचंदन 1 लालच-पं, पु. {सं. लालसा] १ को वस्तु प्राप्त करने की अ्रत्यघिक लालसा या इच्छा, जो श्रनुचित या श्ररोभनीयता के कारण प्रकट न की जा सके, लोलुप्तापूणं लोम । उ०--१ ज्यु ज्यू लालच खार जठ, सेवे दुरमत संग । धवांका' स्रत त्युं त्युं ववै, चसा तणी तर्ग । --वां. दा. उ०--२ मो मुख मोड दीतक हतवान, पीतठ प॑रणनं सीतठ सततवाढी । लुच्चा ललचावे लालच चिन लाम, लोचण जनल- मोच सोच खिण लागे 1 --ऊ. का. उ०--३ कापुरसां फिट कायरां, जीवण लालच जरयाहं । म्ररि देखं प्रारंण भे, व्रण मूख मांठ स्याह । --वां. दा. रू. भे.-लालन्च लालचल, लालनक्व-सं पु. (स्त्री. लालचक्ली, लालचखी) भसा 1 (डि. को.) लालचर-देखो 'लालचुट' (छ. भे.) लालचांच-सं. पु.--तोता, सुग्गा । (डि. को.) लातचियौ-वि.-- १ लाल रग वाला । ४२.७६ लालटेण २ देखो "लालची' (श्रल्पा. रू. भे.) उ०-- लालचिया निरधार तिहां रे, मानि हुकम तिहां जाय मेरे ¦ देखि दरीयौ इम कटै रे, खोदे कुण खुदाय मेरे । -प. च. चौ. लालची-वि.--लालच करने वाला, लोमी । उ०--सगुरा सत सयम रहै, सन्मुख सिरजनहार । निगुरा लोभी लालची, भृंचे विसय विकार । --दादूवांणी ग्रत्पा.+ - लालचियौ । लालचीणी-सं. पु.--सिर पर लाल चिटकियां व सफेद शरोर वाला एक प्रकार का कवूतर्‌ । लालच्रुट-वि.--म्रत्यधिक्‌ लाल । उ०--पकं टठंल्यां ईट, वचनो, सुरखी हुटकीपूल घुट । ठंठरया लुहारा सारा, लोह चढावें लालचरुट । -दक्षदेव रू. भे. लालचट । लालचोढ-वि.,--१ गहरा लाल । २ फ्रोधित, श्रावेशयुक्त । लालच्च-देखो "लालच (रू. भे.) उ०--वादल देखी जव श्रावती, तव सुचित विसम भयु, लालच्व नारि निरखुं हवइ, तु मोहि सुर साहस गयौ । --प. च. चौ. लालजटा-सं. पु.- मर्गा । उ०--लालजटा धुनी वोलियौ, स्याठ सुरां कर सोच 1 कामण साराक्देनरको, लस्यो वदन को लोच। --पनां लालजी-सं. पू.--१ किसी सम्मानित घर के युवक, राजकुमार तथा कुमारके लिए प्रयोग किया जाने वाला सम्मान सूचकं दान्द उ०-१ रावजी वातां सुण राजी हुवा । जिसंमारी वडारण ग्राई, १ रावजी सुं मुजरौ. केर श्ररज कीवी-लालजी नुं भीतर वोलादं द्वु । --कुवरसी सांखला यी वार्ता उ०-२ जदी दछोकरी गई । सो श्राप घोड़ा चढता था, नितरं जाय करि कट्या, (लालजी, वार्दजी बुलाती है ॥' जदी पागडामें सं पग काढठटचा पीद्धा अरर मांही श्राया, श्राय करि सलांम करी। --राहव-साहव री वात २ राजा के उप-पत्ती कौ सन्तान (पुरुप) के लिए प्रयुक्त होने या किया जाने वाला सम्मान-सूचक शब्द । (जयपुर) ३ पति कैलधु भ्राता (देवर) व नरद के पुत्र (नांणदा) के लिप्‌ प्रयुक्त किया जाने वाला सम्मान सूचक शब्द । | | ( चारणा राजपुत) लालटेण, 1 स्वौ [शि] भिदी कै तेल से जलने वाला वह्‌ उपकरण जिसमे तेल भरने क्रा स्थान एव वत्ती लगी रहूती ह वक 9 षीं लतण ~ ^-^ ~ ~ तथा काच पारदर्शी पदार्थं का भ्रावर्ण (गोला) लगा रहता है, कंडील । उ०--दोय जणा;प्रेक कर्क ठटठती श्रौस्था-रौ श्र भ्रेक मोरियार जिकौ र हाथ में लालटेण, वारणौ खोल र हड़वड़ावतां खाधाखाया टुर पडया । ---वरसर्गांठ लालण-सं. प.-- १ श्रत्यन्त स्नेह, चलाड्-प्यार । २ प्यारा वच्चा। रूूभे. लालन लालणौ, लालबौ-क्रि, स---१ लाउ-प्यार करना । उ०--१ वेटी घर संमुहउ पाठ चालद्‌, दारिद्र वाट देखाढद, जाउं वाली ताउ, हुई लाली पाली । --व. स. उ०--२ वेटी घर सम्महौी पाड चालद्‌, दरिद्र वाट दिखाडइद्1। जां हुई वालि, ताउं हृद ललि पाली । --रा. सा. सं. २ देखो लोढणौ, लोटवौ' लाल्तणहार, हारौ (हारी), लालणियौ-वि. 1 ' लालिश्रोड, लालियोडौ. लात्योड़ौ --मू. का. फ. 1 लालीजणौ, लालीजवौ--कमं वा. । लालतातौी-वि--क्रौचित, नाराज । उ०--इतरं समय हुवां सो यक्ष श्राय कन्या पास वटो 1 राजा खगं लेय, साम्है यक्ष देख, लालतातौ हुवौ -- सिघासय वत्तीसी लालधना-सं. स्त्री [सं. लालघ्वजा] १ श्री करनीजी, भेरूजी च हनु मानजी की ध्वजा 1 २ लाल रंग की पत्ताका। लालन-देखो (लाल' (रू. भे.) उ०-रपान फुल नू, जीव तुंकोमल केलि समान । ललूडी श्रति लाडलौ, लालन लीला थान । -जयवांणी जालपांणी-सं. स्वी.--दराव, मदिरा । । लालपिलको-सं. पु.--सकफेद दुम व सफेद उनो वाला एक प्रकारका कतर । लालपोस-सं. पु.- हरिजन, भंगी । लालपएूल-~सं. स्ी.-ग्रनार, दाडम । लालजव-वि.--म्रत्यचिक लाल रग का, गहरा लाल 1 लालबजार, लालबाग, लालवाजार-सं, पु.--वेद्याग्रों का मोहल्ला । ५ उ०्-सुंणीन दीढी भ्राज भ्रेसी संसारे, वरा भगतसा घा थाट कं लालवजार मे । -- महादान मेहड. लालबुभङ्कड-सं. ए.--वह जो किसी विषय में श्रनभिज्ञ होते हृष भी ध्रनुमान या श्रदकल द्वारा समस्या का हुल दंढता ह । लालब्रुरज~सं. प.-- कपडो की धुलाई करने पर श्रधिकर कान्ति के लिए * #। ४१८० लाषरणौ प्रयुक्त किया जाने वाला एक प्रकार का पाउटर, नील । लालबेग-सं, प.--१ परो बाला एक लात रग का कीड़ा विदोप । २ मूसलमान भंगी । ३ मेहतरों (हरिजन) के एक कसित पीर । लालयेगी-सं. पु.-तालवेग का भ्रनूुयायी हरिजन । लालमन-सं. पु.--१ श्री कृष्य 1 २ लाल शरीर, हरे ठेन, गलावी वोच व काली दुम वाला एक प्रकार का तोता! लालमिरच-पं. स्वरी. यौ.-१ एक प्रकार का क्षुप के समान पधा जिसके सफेद रंग के फुल एवं फली के भ्राकार के फस लगते है जो श्रपवक श्रवस्या में ह्रे एवं पकने पर पीले होकर लाल हो जतिर्ह। भिरच छोटी, वदी, देशी, देदान्तरीय श्रनेक प्रकारको होती दै! २ उक्त पौधे की फली खाने मे तीक्ष्ण (चरकी) एवं कटु स्वाद वाली होती है एवं जिते सन्जी व नमकीनव्यंजनों में प्रयुक्त किया जाताहै। लालमी-वि. [सं. लाला~+रा. मी.] जिससे लारा खपकती हो, श्रधिक लारा युक्त । | उ०्-तठा उपगत करि न राजान सिलामति कावती दूतस, लाहोरी कूतरा, विलाती वतरा, लोलमी, लालमौ जीभ रा, वति- मे पृ रा, ल।पडं कान रा, दाड़मी दत रा, ्िष रा हय रा, केहरी कंच रा, कांफर रोमरा, कै विनारोमरा, इण भांत रा वूःतेरा। -रा.स. सं. लालमरुरगा-सं. पृ. यौ.-एक प्रकार का पौघाया उक्त पौषे कके फुल मयुर शिखा, जो श्रौषचि के काममेंश्राताहै। २ एकं प्रकार का पहाड़ी पक्षी जिसका शिकार किया जाता है। लालमूलौ-सं. स्वी. श्लगम, शलजम । । लालमेह-सं. पु.--रक्त प्रमेह नामक पुरुषों का एक रोग विदोप । लालर-सं. स््ी.--१ विधवा स्तयो के श्रोढृने का एक वस्त्र विशेष । २ व्यथं को वक्वाद । लालरणो, लालरबौ - १ देखो 'ललरणौ, ललरवौः (रू. भे.) उ०--१ श्रे कितरा-प्रेक ठाकुर घरे हालिया । घोडं श्राया लाल्तरता थका! तरं श्रापसमे घोड़ा ग्रोटसै नहीं । श्रौ कहै--यांह रौ ठकुरे ! भ्रौ घोड़ौ है । श्रापस मेँ लालरण लागा । । --प्रतापमत देवडा री बात उॐ०--२ लड़खडाती पड़ती लालरती, मेल मांण सिर संबर मरती । गी श््रभमठढ' श्रगी पड़ गच्छियां, मरमट मूक मरां मिच्िां । --द्वारकादास् दघवाडियी ० -३ वीरमदं छेडयौ किनां मुचकंद 'जगायौ । रिण हूवियौ लातरयोडौ २८१ लाद्धिपौ विकरौढ, दोहं धाडवियां दौड़ा, वहै गजर वांणास, घभर ऊर कू त घमोड़ा । सोहं चकं लालरं, रुधिर धकधक वराठां, ग्रोयण भ्रा उछि, रंग कठं वरमालां । चाडता उरां तुरंग चपट, बहसंता वांवाडता, भाडता कलम सधां भिलम पिसण खगां भट पातां 1 --पनां उ०--४ सेलां हियां दुसार, लोह वाह लालरता । वीखरता वावरां, श्रगुट फाटा हौफरता । --सु. भ्र. लालरणहार, हासे (हारौ), लालरणियौ -वि० । लालरिश्रोड, लललरियोडो, लालरयोडो-भू° का० कृ० । लालरीजणौ, लाल सेजवौ-- माव वा०1 लालस्यीडी --१ देखो 'ललरियोड़ी' (ू' भे.) (स्त्री. लालरियोडी) लाला-सं. स्त्री.- श्री करनी देवी जी की वह्नि । उ०--प्ठास्ण श्रंग भसं भर पेट, भेला उतंग सदा सिव भेट 1 लालां कर॒ थापलि कघ लंका, फलां सिध संग भरावत फाद्ठ । --मे. म्‌. लाला-सं. पु---१ कायस्थं के लिए सम्मान सूचक सम्बोधन ।(मा. म.) २ माहेश्वरी व भ्रप्रवालश्रादि महाजनो के लिए सम्मान- सूचक सम्बोधन । (गंगानगर, दीकानेर) ३ स्नेह सूचक सम्बोधन । ४ प्यारा, प्रिय । व. व.--५ भ्रव, दारिद्रता। उ०-वेमारी में तौ भं दरधको खरच लागे । भाग प्रायग्यौ, रोट्यां री ही लाता पड्ग्या । - दसदोख सं. स्त्री -\ ध्यान, समाधि। लालरियौ-सं. पु. (व. व. लालरिया) १ खुडामद, जी ह्रुरी । उ०--१ रोयनं श्रांख्या रौ भरम ममावणौ । चणा नी, दोय वीसी त रकां माथं चढायनं लाय द तौ पञ्च देख सगढाई कड़ा लालयरिया स = । त्वं । -- फुलवाडी लालाटि-षं. पू.-- १ भृगुकुलोसन्न एक गोत्रकार । | उ०--२ ड्द णी फालरिया ड, पांणी पालरिया पीवेण २ देखो ललांट' (रू. भे.) पद्छखाडं । लोरीदं पोल लालरिया लेती, दड़खिलं खोड नं | लालाटिक-सं ए. [सं. लालाटिकः] १ सावधान श्रनुचर । हालसिया देत्ती । --ऊ. का. लाचरी-सं. स्वी.-- चमडी । उ०--माथडं घवलडं देहु जाजरी, वांकड वांस भ्रूवदरं लालरी । घर हंत नवि क्याहदं जाइ, सघल। कुटु व ऊभीठउ थ!ईइ । ७ देखो "लालसा" (रू. भे.) २ निष्ल्ला। ३ एक प्रकार का श्रालिगन विदोप 1 चि. [सं. ललाटिकं] १ माल सम्बन्ी । २ भाग्य पर निर्भर रहने वाला । --वस्तिग ३ निरथंक, नीच, कमीना लालसर-सं. पू.--लाल रग की गदेन एवं सिर वाला एक पक्षी । लालाभक्त-सं. पु.--एक नरके का ताम । (पौरास्िक) लाटठसा, लालसा-सं, स्वरी. [सं. लालसा] १ किसी वस्तु को प्राप्त करने | लालाभक्ष-सं. पु*--एक नरक विशेष जहांवेनोग भेजे नातेहैजो की इच्छा, लिप्ता, उत्पुकता । भगवान को विना भोग लगाये या प्रतिथियों को भुखा रलकर उ०--जुजव्छ वाटी मरजादा निभाई । वोत्यौ - म्द चुगायां री स्वयं पेट भर भोजन कर लेते हु! (पुराण) चाम र मांयलौ सूद्म जीव हूं वारी प्रीत रौ घणी हु 1 विज | लालास्तरव, लालास्तव, लालाघ्रव, लालालाव-प, स्थी, १ भकडी । ग्रर कमाई विच म्ह हैत-प्रीत री लता वत्ती है ) --फुलवाडी २ गभिणीस्नीके मनमें होने वाती अभिलाषा, साघ। २ मकड़ी का जाला । श क ३ गहसे लर गिरने की क्रिया । लालसागर-सं. पु---ग्ररब श्रौर ग्रक्रिका के वीच पड़ने वाला भारतीय लालिना-सं. स्वी.--नलाई, सूल श्रस्स महासागर का श्रं, जिसका पानी कुदं चलाई देतादहै | | ५ पता ॥ | लाछियोड़ो -देखो "लोषियोडौ" (र. भे. ) लालसारी-सं पु.- वह्‌ पुनर्नवा जिसका पत्ता एकश्रोरसेलालरगका तर, लायो ते, ^ | लाचियोडी) कर साललिखी-सं. पु.-मुपा , ला क छोटे वच्चोंके वक्ष स्थल पर वांवा जाने वाना लातसी-वि.--लालसा या श्रभिलापा करने वाला । ` लालसुरग-वि.--गहूरा लाल । २ ग्वार के डंठल व पत्तियां । २ देखो लादौ" (्रत्पा. रू. भे.) लाटी [ककव ती क का ज 92 ००७५० कि दो चमो भोक्‌ "क = जनमत ० ० पज न कक कै ध श + कमर ५ क्न ० भे च म किर च न्न च कन्थ ति [मि ४१३८२ काग उ०्~-मुउणही वादघ्ठांसूं घोषं रा लापा छांटजं द । फेर | तान्रु, वारूशो--१ देणे (तातो' (धरस्य, स नै.) नादला खखोढ उणदहीज तद्छावररपाणीमस्‌ छण भरद) --रा, रा, सं. लाट्री-सं. स्वी.--१ बाजरी व ज्वार की यालों पर्‌ दाना पट्नैमे पूवे ्राने वाला सफेद सा पदाथ, फूतरी । २ भूमे का वह भाग जो श्रनाज निकालते समय द्वासे उड फर्‌ दूर दकट्राहो जातादहै) ३ देश्वो "त्याद्ी' (रू. भे.) उ०--डावा लाढी जिमगणी मलारी तंदर मरं भारं, नीरमरि हिद सवी गाद, सप्खंणु द्ोदु, रामु धोरी । --व. म. लाली-सं. स्त्री -१ लाल होने का भाव या श्रवस्या, ललाई, गरी उ०-सावरिया महानि भांग पिलाई, मेरी प्रगियां मं तातो द्धा) काह री कदी (राधा) काहैराघोटा, फाषहैरी नुवाफौ वेणाई। । -मारां उ०~-र२ दण श्रधरां रामिठासरीतौ वात कुरा कटै, मूगियां री लालीतौयांरीदलालीमें वहै। श्राद्धोटी मफाटु किसद्ीकः सो है, श्रौ मंदहासि किएनृं न मोटे है। --र हमीर २ प्रतिष्ठा, इज्जत । + उ०-धनरी धू हुयगी, माया रा कोयला वराग्या । श्रव प्रजन रे पमां पूगी, लाली तेष हुगी । -दरादोप ३ जीभ, जवान । उ०--टोटां रो सिणगार 1 लाली री किकाटट। पशमन रीतो भेद ई प्रगम। -- फुलयवादी ४ रौनक, शोभा । प्रत्पा.--लालकी 1 लालुरणी, लालुरवौ--देखो 'ललरणौ, ललरवो' (रू. भे.) उ०--१ लड हिक लालुरता छकि लोह्‌, पड हिक पादक ऊठ दछोदि । श्रावं हिक बाह खाग उभारि, मुखां हिक जोध कहै मारि मारि! -गु. र<. वं. उ०--२ लाुर हैक हेकां दिसा लोडता । काठ ना वाथ घाते निसा कोडता । --हरि पिगरछ प्रवन्व उ०- र श्ररस हंत उतर, एक वर श्रच्छर वरिया । एक पड़ लोह, लोह छक्का लालुरिया । --गु. <. वं. लाचुरणहार, हारौ (हारी) लाचुरणियौ--वि° । लातुरिग्रोड़ी, लाचुरियोड, लालुस्योञ्-भू° का० कृ । लाुरीजणौ, लालुरीजवो- भाव वा० ) लालुरियोडो-देखो 'ललरियौड़ौ' (रू, भे.) (स्त्री, लालुरियोडी) । उ०--१ दनां शछछोगार्छा द्रा पटो, फिरतां पिःगतां सो पफ फुटीट्ा । लाच्रू सोकं रा पात्ता जय गोणा, वाया वर्ता रा जता पग जता । -- ऊ. एः. उ० --२ लानृष्टा! हरि मूर हरि यंदरमा, नालाष्टरायर्‌ हरी परिनि धोर्‌ प्रघार । ---भी. र. तानव. रप्री,--एक प्रकार्‌ की तलधार्‌ 1 तद्धौ-सं. १.-१ पोट के मह शी मोरी मेंनीचकी प्रर चमी ट षट्को पटरी जिसका दुसरा हिमा तंयमे त्मा गहनादै। उ०-न्पा रा षामा । गुरेमी नमे 1 फनी लगाम 1 नुतो साष्ट । --षुतवादर २ घोटके मुहुके दोर्ना द्रोर्‌ । उ०-प्रठ सराहिगादौ मोमा तच्छव उपदि प्राय उत्तरपीपोदरीका लाला ददप । प्रस्भाला परिहाय दीयां सदा । --रहव साहू त व्यन रतया. -- साद्धियी, नात्य लाती-स. पु.-१ पत्र, येटा। भे, उ० --चरतं नोर मोदिया वेटौ, वमद हरौ याप पु । मृदा तनं योत्र मीठी, सातौ वूं टत वदे 1 --ट्ग्क्ाजदान किमी २ लडका, लिद्यु । । २ वच्चो के लिप्‌ गनेहपूा सम्बोपन । ४ कायस्य माटिश्यरी, म्रग्रवाल धयादि जातियों के व्यक्तियों के लि्‌ सम्मानस्रूचक सम्योवन । (गमानगर, ीकानिर) उ०-लालो वरां सूं मानीजतौ भ्रादमी, नगद पीस्रौतौ श्नं धरौ नीं पण मांस मूलाक्राते उतरादं इलाकं में वड्‌ पीपल्ठ दार पाकी पड़ रयौ ही । मालमता श्र जगां सेठ र षां, खदा सुरी रतीश्राूही। --दसदोसं श्रल्पा-,- ललृुडौ, लनौ, लल्लू, लात्यौ ५ ल श्रक्षरया वशो । उ०-लधुनीति लोभम लिग लिग लहरि, लाल सीख वलि सात्हरा । ले भ्राट्‌ साय साते लता, जिका फा कीधी जरा । -ध.व. ग्र लादौ ~ देखो "लाटौ' (अत्पा,. <. मे.) लारहरणौ, लात्हुरग-देखो (ललरणौ, ललरवौ (<. भे.) उ०-तुरी करनाठ स्णसीगौ वाज र्या छ । सहनाय मांह खंभायची हूय रही छं । साय सारौ ग्रमलां सूं लात्हुस्तौ थकौ वहै छं) --रा. सा. सं. लात्हरणहार, हारो (हारी), लाद्ट्रणियौ - वि. । | लल्ह्रिश्रोी, ल'त्हरियोड़ो, लान्ह्स्योडी-- भू. का. कृ. । लव्ह रीजणी, लाह रीजवो- माव वा. 1 क्न ~~~ लारहरियोडौ- देखो 'ललरियोडौ' (<. भे.) (स्त्री. लाल्हरियोडी) लात्हरियौ-स. पु-- एक प्रकार का पौघा विक्षेप जिसे ऊंठ चाव से खाते हैँ । लाव-सं. स्वरी.-१ चमडेया जुट का चना मोटा रस्सा, जो प्रायः दूए से चरस खीचने के काम भ्राता है । | उ०--श््रणंदौ' कूप पैसतां श्राऊ, तूटी लाव तिसार। भुखग ल्प वरा वीस-मजाठी, जुडी वरत र जार । --कि्ोरर्सिहं वारहस्पत्य स. पु.--२ लाम । उ०--१ नेन नपेमनप्रीत हरिप्रावन कहै स्िघाव । ह्रिया परहरि हित विन. वा घरि लादन साव । --म्रनुभवर्वाणी उ०--२ हसैया प्याला पेम का, पीया भरि अरि दाव । श्रौर श्रमल किस कांम का, लीयां लावनत साच ॥ --स्रनुभववांणी लावक-सं. पु. [सं. लावकः] एक प्रकार का पक्षौ विशेष । (सभा) वि.--१ लने वाला। २ काटने वाला लावकि-वि.-- योग्य, लायक । उ० --्रल्यमांम निरलोम दाक्षिण्य पर दया पर मया पर क्षमा शचावोली हितवोली मितयोली ऊपजावकि लावक्रि द्रावकि सम- यती मानयती सतीमिती भ्रनुरक्ति सक्ती" “1 --व स. लावङ्ी-पं. पु.-लोमडी । उ०--लावडौ, हरणइ, सिह, सियाठ, पहुत समीहोज्यौ लोवा सीयमाढ । घन हरिणाखी ईम कई, निहचई ग्रोढग चालणार । --वी.दे. लावण-सं. पु--१ गायन विशेष । उ०-गायण तर करै चरत गावै, लावण वांसि ग्रनेक लगाव । टके दछौह जोवनां खाक पृहप त्तणी वणी पौसाकां । --सू. प्र. २ तमकीन पदार्थं । उ०--रूप श्रधूरय पेखीयौ, लावण लादु श्री पकर्वान । सेना सहित राज जीमीयौ, राई भतीजौ भोज दे वहू्मांन । --वी.दे. ३ वहु नमकीन पदां जिससे लगाकर रोरी खाई जाय, लगाव । चि.--१ नमकीन । २ देखो लावा" (₹<. भे.) उ०--घर हाढी पर भज, दात भीचै 1 वापडी दर्तिं मे लावण लिया रात-दिन पांखी पीसणौ कर! --दसदोख लावगता-देखो (लावण्यता' (रू. भे.) लावणी-सं, स्व--१ मने काएकप्रकारकाखंदया गीत, स्याल । २ मतान्तरसे तारक छंद का एक भेद विशेप जिसमे लघु गुर का कोई भेद नही होता । ४३८२ लावा [सं. लव] ३ सेतो मे फसल काटने कीं क्रिया । उ०- खेत जायर कर्द ही श्रांत नहीं देख्यौ जकी लुगाई, नि्नांण- लावणी री मञ्जुरी करे, भाजी वर्गे । -दसदोख लाबणियौ, लावबणोयौ-सं. पु.--एक प्रकार के वेर विशेष उ०--भमरावे फट परहुरं, निस वद लाख कठोर । की राता दीस नहीं, ज्यं लावणीया वोर. --्रज्ञात लावणौ-सं. पु.--मांगलिक श्रवसर या वहु के पहर से श्रागमन पर कुटुम्वियों मे वाटा जाने वाला खाद्योपहार या मिष्टान्न । लावणी, लाबबौ-देखो (लाणी, लावौ' (रू. भे.) उ०--१ कडा! र जर चाढँ, वाठ्टी, दुकड़या वगे । टाथं ही लार्व, हाफं ही उठावं । --दसदोख उ०--२ श्ररजे पछ ईयत पतौ नीं पडियौ ती म्हनं किसौ मोल लावणौ हे। -- पुलवाही लावण्ण, "लावण्य, लावण्यता-सं. पु. [सं. ल।वण्यता] १ सुन्दरता, सलोनापन । उ०--सीख-पसा करि स्वामिनं, सिं करिवा श्रिकार 1 हूं मति- हीणी मानिनी लावण्य हीं लगार । --मा. कां. प्र. २ चातुर्य, सुघडता । ३ लावण का धमं या भाव, नमकीनपन । रू. भे.-लावरह्‌, लावणत्ा, लावन्न, लावन्य लावण्यवती-सं. स्ती.--१ रथंतर कल्प के राजा पृष्पवाहन की पत्ती का नाम। २ सुन्दर श्रंगों वाली स्त्री। लावन्च, लावन्य ~ देखो "लावण्य (र. भे.) उ०-नमौ लख कंद्रप कोटि लाव, नमौ हरि मारण रूप मदन्न। वदन्न उलासित नेत्र विसाल, मकुट किरीर श्रखं गढ माठ ।--हु.र. लावर-सं. पु.--क्रोव युक्त वाणी, कटु-शव्द । उ०--टलवलद्‌ जिम निरजलि माचिटी, वटवदछद्‌ ग्रति अ्रंभि वदी । फखदइ लांखड्‌ लावर भ्राकुढउ, विरहि वाउदउ । ग्ट्ल वांतर -सालिमूरि लावरी-स. पु.-- कुत्ता, इवान । लावल्द-वि. [अ्र.] निःसंतान । लावत्दी-सं. स्त्री--निःसंतानावस्या | लावांणक-सं. पु.-एक प्राचीन स्थल विशेष जो मथुरा के पास ३) लावा-वि.~खराव, बुरा 1 उ०--१ काढ्ठी घवढ्ट कहाय नह्‌, घोढौ घवढ कहाय 1 जो काटौ घुर सुपण, लावा लखण न जाय । --वां. दा. उ०-२ लाव लखशणां रौ दस दस सूत देवै। उतमलखणां रौ (रोखावटी) लावाटठी ४२८६ साह „__,,--~~] ~~~ परैकौ उर सैवं । धुर वर वावर भंडण कर साध । वामा वीज | नै थावर गछ वांधं। ठ व लावाटी-सं, स्त्री.- लम्बी लकड़ी का रहंट का एक उपकरण जो चक्र पर लगाकर वलौ की प्रोर वढाया जाता है। लावातूत्र-सं. स्त्री.- इधर उधर की बाति करने की क्रिया, लवालीपन । उ०-म करे रवि सांम्हौ मलमूत्र, लखण म करीजे लावाचूत्रे। पाप तजे तुं सकजं पूत्र, सांभाल्जि सुभ सास्त्र सूत्र । --धघ. व. ग्र लवारिस-सं. पु. यौ. [भ्र.] १ जिसका कोई उत्तराधिकारी या वासिसि नहीं हो 1 २ जिसका कोई स्वामी या मालिकन दो । लावारिसी-वि.-जिसका कोर प्रधिकारीनदटहो। लावौ-सं. पृ. [सं. लवा] १ लावा नामक पक्षी । उ०-- १ सित्तर खान वहौतर मीरा, श्राइस दाखं सास श्रधीरां। दरद पण करख वाज लख दावं, देखौ तावौ श्रांख दिखा । -- रा, =, उ०-२ लावा तितर लार, हर कोर्ट द्वाका करं । पिहां तणी सिकार, रमरणौ मुसकल राजिया । --किरपारांम [सं. लाभ] २ श्रानन्द, मौज । क्रि. प्र--लेणौ । ३ लाम) ४ वहुयापत्रीको ससुरालसेलानेया ले जाने वाला व्यक्ति। ५ ज्वालामुखी पर्व॑तो के मुख से व्रिस्फोट होने पर निकलने वाला राख, पत्यर श्रौर घातु श्रादि मिला हुभ्रा द्रव पदाथ । १ बुरा शकुन । ङ. मे.- चरवौ, लाह । लात-सं. स्मी.-१ मृत शरीर, दाव । उ०--भाग सूं ्रचाचुंक रौ कोई पाड़ोसी करनश्रायौ श्ररराजीरी प्रववदछी लास ने उवारी । --दसदोख २ काष्ठ-निर्मित पायेदार एक प्रकार का उपकरण जिसमें पञचुश्रों को चरने हतु भती डाली जाती है । (मेवात) ३ दल, समूह्‌ । उ०--वड रावत ऊसकिया तिण वेका, एम सुरं भुज श्रांमक्तां ललकार हृवौ भड श्रावं लासां, छोड तेज तुरी चिता । --गु. <, वं. ३ देखो शट्टास' (<. भे.) ४ देखो "लास" (रू. भे.) उ०--लकदी धारी रीढ, लास रोमावद्ठ लं'रां । दिस्सा मठ ढमदढेर, ठ जठ ठंडा वेया । -दसदेव र<. भे,-त्टास लासक-सं, धु. [सं.] (स्त्री, लास्की) १ मोर, मयूर) २ मटका, घडा । ३ नाचने वाला | ४ एक प्रकार का रोग विदो जिसमे शरीर काकोर्श्रंग वरावर दिलता-दुलता न हो । लासरियेगादौ-सं. पु.--वह युवक जिसके मृदो केयालन निकले हों। लासरीफ-वि. [प्र.] विना किसी सहायक के, निःसहाय , उ५ ~ तोहीन श्रदालत श्रल-कितीक, लिल्ला वज्रुद ह लासरीकं। मालुम मुलायजे करह मा्‌, श्रालिम ह श्रालिमगीर श्राप । । --ऊ. का. लासलूसणौ-क्ि. वि. पो छी विया, पोच | लासियो-देखो 'त्टासियौ' (ङ. भे.) लामसु-सं. पू. -फोग वृक्ष की पतली सलाख या रहनी, वृक्ष के तार । उ०--काती भक दांती फेरी, लप्र वन रा वाडतां । कड जुगत लादां लदावं, दिगलां टो काढतां । । --दसदेव रू. भे.-- लास | श्रत्पा+--लाङ्ड़ी, लासूडी, लाहुडो, लाहृडौ । ^ लासुडौ - देखो "लामू" (म्रत्पा., ₹<. भे.) ट उ०--पाढौ १३ प्रयोग, भंड लासड़ा नीचं । श्रारत-वुभुक्षित परु, खोडमें खारी वीच । --दसदेव लास्य-सं. पु. [सं.] एक प्रकार का नृत्य विदेप जिसमें हाव-भावों व श्रेगविन्यासो से प्रेम की भावनां प्रकट की जती हुं । लास्यप्रिया-सं. स्वरी.--एक देवी जिसे लास्य नामक नृत्मविनोद प्रिय है। लाह-सं. प. (व. व. लाहा) १ घुड-दौड में छलांग मारकर प्रागे निकल जाने वाला घोड़ा । स. स्त्री.-२ छलांग, कूद । उ०-सो घोड़ी उच्छती, लाहा भरती श्राव छै सो जां श्राकास नही ठोकरां मारतीश्रावेद्यै। -सूरे खीवकांघढ्धौत री वात [सं. लाक्षा] ३ लाख, चपड़ी । ४ देखो (लाभ' (रू. भे.) उ०--१ हर मत छाडं रं हिया, लिया चै जौ लाह । दिल सार्च॑ तेडो दिया, नेडौ लिद्धमी नाह । --र, जभ्र. उ०--२ जन हरिदास हरि सुमरतां, सवर घरि सदा उदछाहु । तव थी सौ मति श्रव नहीं, तव तोट श्रव लाह । -ह्‌- धु. वां. उ०--२ जोड़ी सरि जिने, ते परणं है यौवन सै लाह । विचि माह यई डोकरी, तिहां कीघौ हे गंघरव वीवाह्‌। -वि. कु. न्ब __ ____ ___----------- ५ देखो 'त्दास' (<. भे.) र<. भे.--ला लाहउयी-देखो लाहोरी (रू. भे.) लाहण-सं. स्व्री.--एक जाति विशेष । (नरसी ) ङ. भे.- लांहण, लाहिण, लाहीण । लाहणौ, लाहबौ - देखो 'लाभखौ, लाभवौ' (ङ. भे.) उ०--एक श्रमोनिक वस्त का, विरला विणजणहार 1 जनहरीय। सो विणजसी, लाह ्रत न पार्‌) लाहणहार, हारौ (हारी), लाहणियौ -वि° \ लाहिश्रोड़ो, लाहिडी, लाह्योड़ो -भ° का० &० । लाहीजणौ, लाहीजवौ --भाव वा०। --म्रनुभववांणी लाहरणौ, लाहरबौ --देखो ष्वलरणौै, ललरवौ' (रू. भे.) उ० इण मातर चादणौ में जीमण री होसि मांणनैदै। दारूसू मतवा सिरदार लाहर्ता वोलं ठे । --रा.सा. सं. लाहरणहार, हरौ (हरी), लाहरसियौ--वि° । लाहुरिग्नोडौ, लाहरियोड, लाहस्योडौ-भू° का० ° । लाहयैजणौ, लाहरीजबौ -भाव जा० । लहर -देखो "लार" (रू. भे.) लाहरियोडौ--देखो 'ललरियोडौ' (. भे.) (स्त्री. लाहरियोड़ी) लाहर- देखो लार" (रू. भे.) उ०- तिर समे मारवणौजी पि दोलाजी रं लाहरं ई ज हवा -डटो. मा. लाहा-सं. स्व्री.--सोलंको क्षत्रियो कौ एक शाखा । लाहानृर-वि, [फा. लाह्‌+ग्र नूर] कच्चे रेशम के चमकदार । उ०--फरास्‌ सै श्रावासूं वीच वियत वणवाए । लाहानूर मुद घ्रजील की चौपस्मी गिलमूं की विल्ायत करं । --सू. प्र. लाहि-सं. स्त्री---१ वनस्पति विशो । उ०-लाज लज्जा. लदषमणा, लूंएी लसन लवंमि । लीलावती लूकडी, लाह लवीरी संगि । --मा. का.प्र, २ देखो "लाही' (रू. भे) उ०--कतास श्रतलस खासु कमस भद्रव, मित्त, भदरव, रेसमी द्रव, लाहि महीमुदीसाही मलमलसाही प्रमुख ननि विध भातिनां, नानाविव देक्च नां वस्व ्रएी समस्त परिवार, नमरलोक पहिरावी, ना मस्थापना कीघी । --व, स. लाहिण - देखो 'लाहण' (रू. भे.) उ०--पुज्य पाल्दण परि पटंता सुम दिनः संघ सफल उन्डाही हि # 1 1 । ` लहो जी संध पाटणा नउ गुर वांदी वलिउ, लार्हिण करित्यद लाहौ जी । --एे. ज. का. सं. लाहियोडी - देखो 'लाभियोड़ौ' (रू, भे.) (स्त्री. लाहियोडी) लाहियौ--देखो 'ह्हासियौ' (ङ. भे.) लाही-सं. स्वी. [सं. लाक्षा] १ लाल, चपडी । २ एक प्रकार का वस्त्र विदेष । र<. भे.- लाई, लाहि लाहीण-देखो लाह! (रू. भे.) लाहु-देखो 'लामः (रू. भे.) ० --१ सुख श्रपूरव भोगवद्‌, नछ दवदंति नारि । इच्छा पहुच- उइ मन तणी, लीह्‌ लाह संसारि । --नरदवदंती रासं उ०--२ उस्ण जढ मजन की कींजी, तांबरूलन लहुं लीजीड्‌ । एहवु सीश्राम्‌, मभ संभरइ, नकजी वाह, नवि वीसरइ । -नठदवदंती यसे उ०--२३ रटनजटित तिलक नुवीस, भ्राभरण पूजी मूरति नुवीत विह भेदं तेणई .पूजा किध, घरम प्रीधि्ानु लाह लिद्ध । | --नघ्ठदवदंती रास लाटी, लाहडौ--१ देखो लास" (श्रल्पा., रू, भे.) २ देखो श्लघु' (<. भे.) लाहोरणी-सं. स्तरी-- लाहौर में निमित एक प्रकार कौ बंदूक । उ०--धुणियासी घरणियां धरी, भज बढ पाठ मडांह्‌ । ते लकां लाहोरणी, दूटं लांवछडां । लाहीरी-सं. पु.--१ दिकारी कुत्ता विदोष । उ०-सौगंघ लीध सिकारियां, नह्‌ लाहोरी श्राय । धारौ सेकौ एक वस, लूम्रां प्रण सुकाय। --लू २ लाहौर में नि्भित एक प्रकार की वंदूक । वि.- लाहौर सम्बन्धी, लाहोर का । पा [॥ [ प्र | उ०--गुजराती कसमीरी कसूरी मारवाद्ी दखणी भरन भटनेर लाहोरी हजारमेखी घणी रंग रंग री वनात मुलमल कानूनी सोन रूपं रा वणिया जीरो हजार कीं द । रू. भे.-लाहउरी लाहोरीनमक-सं. पु. यौ.- सेवा नमक । लाहौ-देखो १ लाभः (रू. भे.) ~र, सा , सं , उ०-दे्ईदन दीन्ही वाटि, श्रादमगीरी श्रकलि कूं । लाहा येवा गहि, हरीया श्रसं श्राप सिर । -भ्रनुभववांणी २ देखो (लानौ' (रू. भे.) । लिगनास~-सं. पु..[सं.] नेत्र काएरू रोग विशेष ।- लीलं 7 लाहौल-सं. स्प्री, [श्र.] घृणा एवं उपेक्षा सूचक दाव्द या वाक्य । लिग-तं- पु. [सं. लिगप्‌ ३] १ चिन्हे, निशान । २ न्यायशास्त्र में वह्‌ वम्तु चिसके माध्यम मे किसी प्रकार की घटना या उसके तथ्यों का श्रनुमान हो । वि. वि.--न्यायन-शास्व मे ये चार प्रकारके कहेगयेर्है- (क) संबद्ध (खं) व्यस्त (ग) सहवर्तीं (घ) विपरीत ३ प्रमारा, साक्षी । ४ मीमांसा के श्रनुसार लिग निर्णय के दः लक्षगः-- उपक्रम, उपसंहार, श्रम्यास, श्रपूरवता, भ्रथेवाद उपपत्ति, ५ शिव की एक विक्षेष प्रकार की "मूत्ति जो पुरूष की जननेन्द्रियं के रूपमेरहोतीर। . उ०्~-लिय कौ चटावै लाह भाट को लमावं मोग, भड्वं पुजावं भग स्वामि सेल सोधांकी। --- ॐ, का. ६ सास्य के मतानुसार वह मूल प्रकृति जिसमे सारी विङरृत्तिया फिरसे लीन होती रं। ७ जननेलिय, शिद्न । (डि, को.) उ०--करवाय मोल गजराजकौ, लिग हाय महै लियौ । सुख- सींग कंमघ करतव सर्म, किसौ केम श्राद्धो कयौ! --भ्रग्पात , ८ व्याकरण मे शब्दों फा वहु वर्भीकिरण जिससे यह ज्ञात किया जाता कि कोई संज्ञाया सर्वनाम पुरुष जातिक्रावाचकरैया स्वी जाति का) | | । चि. वि.- संस्कृत, फारसी, मराठी, भ्रग्रेजी श्रादि भाषा्श्रोंमे तीन प्रकारके लिग होते ह (क) पूर््लिग (ख) स्तरीलिग (ग) नप्‌ सक लिग । इसके प्रतिरिक्त हिन्दी, उद्‌ श्रादि करईभापश्रोमेदो ही प्रकारके लिग होते ह--स्त्री ्लिग श्रौर पृ्लिग ।. € देवता कौ भूति या प्रतिमा ' १० वेदान्त में श्रात्मा का सूक्ष्म रूप ! ११ लिगायत लोगों द्वारा किसी श्रावरण मे प्रावेष्टिते करके गले मे लटका जाने वाली प्रतिमा या मूर्ति । लिगटी-देखो नलींगटी' (रू. भे.) लिगत्तियो- देखो 'रिगतियौ, (रू. भे.) उ०--"“ठक दउक्र.भायला वारणौ | कथो मायौ लंगा है 1" “हूांजी, सद्धा लिगतिया सेतरपाठ टै ॥" --वरसगाठ लिगदेह-सं स्म्री [सं.] श्रध्यासम के श्रन्ाररथून हरीरके नष्टं होने पर भिलने वाला वह्‌ श्रन्नकोण रहित श्रति सूष्ष्म शरीर जिसमें ज्ञानेन्द्रिय बर कर्मेन्द्रियं विद्यमान रहती ह+. नः -- (श्रमरत) लिभ-पुरग-सं. स्त्री. [यं] १८ पुराणों मे से एक पुराण, जिसमे धिव एवं उसके लिग पूजा के माहारम्य का उल्लेखः । | | ४१४८६ लिकौ - लग पूजा-सं. स्परी.--दिव की विडी क पूजा। लिगसरीर -देखो “लिगदेद' लिगायत-सं. पृ.--१ एक शव सम्प्रदाय । २ क्षव सम्प्रदाय काप्ननृयायी । लिगरर-देष्वो "लंगर (रू, भे.) लिगेदिय, लि्गे्ी-स. पु. सं. लिगेन्धिय] १ जननेन्दिय, दिदन । (्रमरत) लिगेटिगे -रेग्वौ 'नगेटगे' (रू. भे.) | लिघो-ष. पु.-वक्त्र विदोष। उ०--कचू नीलक को कीयौ, उपरि चीर उदढाडइ । लघौ लुंगी भाति को, मुद्र ने वहोत सुदाय, --व. स. । लिडवा-सं. पु.--एक नदी जो श्रलवर रियामत के प्रतापगढ व श्रजवगढ के नालो से निकल कर रेवाड़ी से श्रागे तक चली जाती है। (वीर विनोद) लिपौ, लिपौ -देस्यो लीपणौ, तीपवौ' (रू. भे.) ` उ०-लपह ताव निकंदनी, चदनि चंदनी देहु । निज निज नाय संभाग्यि, नारिय नव्रलउ नेह । --जयसेखसर सूरि लिपणहार, हारै (हरी), लिपणियौ --वि० ) लि पिग्रोडौ, लिपियोङ, हह ष्योड़ो - भ का० ० । लिपीजणी, लिषोजबौ-- कमं वा० । लिपियोडौ-देखो 'लीपियोडौ' (<. भे.) (स्त्री. लिपियोडी) लि-सं. स््री--१ दासी 1 २ विद्धी । ३ सखी, सहेली । ` स. पु.--४ सपं, सांप ५ व्हा । (एका.) | लिद्रण-वि--देखौ “लियण' (रू. भे.) उ०-लक लिश्रण अरण. दन दीश्रण, वरण धणं मह महण) नेद कुश्रर श्रर निडरनर, सुममरि हरिये लग ! --पि. प्र. लिएु-म्रव्य.--व्याकरण के श्रन्तर्गत सम्प्रदान कारक में प्रयुक्त होने वाला दाब्दः, हेतु, निमित्त । लिकणी-सं. स्त्री.--१ कुण्डी के श्राकारका पत्थर का वना वहु पात्र जिसमें घर के वर्तन साफ करके पानी'वज्ुठन डाली जाती है ` श्रौर जिसे कत्त श्रादि पशु चासते हु। ` २ लिक लिक करने की क्रियाया भाव ) ३ कुत्ता श्रादि के जलपान करते पमय. उत्पन्न होने वाली ध्वनि वि्ेष । # +# ॥ भ ॥ ४१८७ तिलणो लिक्णौ `: लिकणौ, लिकबौ-क्रि. स.--१ कत्ता, सियार श्रादि का जिह्वा सेःजलपान उ०- राजा कागद मेटियौ, लिक्लाड चड चोट । जिम जार तिम करना । मारलं कुश्रर कृरीगिर कोट । ग. रू. वं. । २ देवो "लिखणौ, लिखवौ" (र. भे.) लिक्खाडणहार, हारौ (हारी), लिक्छाडणियो-- वि, । तिकणहार, हारौ (हारी), लिकगियौ--वि. 1 लिक्वाडिश्रोड़ी, लिक्वाडियोड, तिक्वाव्यौडी- मू. का. क. 1 लिकिम्नोडी, लिकियोड़ौ, लिक्योडी - मू. का. ङ. । चिक्वाडीजणौ, लिक्वाडीजबौ -- कर्म वा. । लिकीजणौ, लिकोजबो - भाव वा. 1 लिक्वाडियोडी-देखो लिखायोडौ' (रू. भे.) लिकाणौ, लिकबो-- १ कृत्ते, विल्ली श्रादि से ठा करवा देना । (स्वरी. लिक्वाडियोड़ी) २ देखो 'लिलाणौ, लिखावौ' (<. भे.) लिक्वाणो, लिक्लाबौ--देखो लिखाणौ लिखावौ' (रू. भे.) लिकाणहार, हरो (हारी), लिकाणियो --वि- । लिक्वाणहार, हारो (हारी), तिस्लाधियौ -वि, । तिकायोडो--भू. का. कु. । लिक्लायोडो--भू. का. कृ. । लिक्तवीनणो, लिकावीजवीौ--भाव चा. | लिदला्नणौ, लिक्लाईजवौ--कमं वा, । , िकाबणो, 1 ४ लिक्लायोड़ौ-देखौ 'लिखायोडी' (रू. भे. लिकयोडी--१ कत्ते षिह्ली श्रादि से इूठा करवाया हुग्रा। (समी, लिमलायोडी २ देखो 'लिवाग्रीडौ (रू. भे.) ` (स्त्री. लिकरायोड़ी) लिकावणौ, लिकावबौ--१ देखो “लिकाणौ, लिकावौ' (रू. भे.) लिक्लाचणो, लिक्लाववौ -देखो लिखाणौ, लिखावौ' (रू. भे. ) लिक्लावणहार, हारी (हारी), लिक्वावगियौ--वि. लिक्खाविग्नोडी, तिक्लावियोडौ, लिक्लाव्योडौ - भर. का. हृ. ।. ९ देखौ 'लिखाणौ, लिखावो' (स भे.) लिक्लावीनणौ, लिक्लावीनवौ- कम वा. । लिकावणहार, हारौ (हार), लिकाकवणियौ --वि.। लिक्षावियोड़ो -देखो लिखायोडी' (रू. भे.) लिकाविश्रोडो, लिकावियोडी, लिकाव्योड़ा-- भू. का, क. । लिकावोजणौ, लिकाबीजबौ--कमं वा. 1 लिकावियोड्ै - १ देखो "लिकायोडो' (रू. भे.) २ देखो “निखायोडो' (रू. भे.) (स्त्री. लिक्खावियोडी ) लिक्खियोडी-देलो 'लिखियोड़ौ' (रू. मे.) (स्त्री. लिक्खियोड़ी) (स्री. लिकावियोड़ी) ` ` ` लिक्ल-- देलौ लीस्‌ (रू. भे.) तिक्षियोडे-भरू. का. $.--१ कृत्ते, वित्ली प्रादि का चाटा हुत्रा । लिखण -देखो "लिखतः (रू. भे ) २ देखो 'सिखियोडौः (र. भे.) | लिखणो-सं. पू--लिखने की क्रिया या भाव । | (स्वी, लिकफियोडी) । उ०-- पं हीरांजी हेमजी स्वामी ने कल्यौ: श्राप लिखणौ का लिकलिक -देलो "लकलक' (रू. भे.) करो । उदरांम जी स्वामी नँ पारी पावौ | --भि.द उ०--१ रांडां में बुबारियां रा लोतर ई कोनीं । दो महीना सूं | लिख्णो, लिखवो-क्रि. स.--१ किसी तिक्ष्ण या मुकीली चीजे कु चिकलिक करू कँ म्हारा डील में भ्रातस घणी पाच सेर कडकड़ श्रकित करना । खांड पांणीं मेँ रकाय नै पीव तौ कीं ठंडक वापर । --फुलवाड़ी २ क्म, पेन्सिलि श्रादि कै माध्यम से कागज पर श्रपने विचार. उ०--२ प्रेकर श्रां दोन घरियां नै राजाजी र हवार्लं कर दां । सिद्धांत, लेख रादि को वर्णाक्षरो द्वारा श्रकित्त केरा, लिपिवद्ध पञ्च राजाजी जास अर्सेठजी जांखं । श्रापां वीच में क्युं लिकलिक ५ | | । करां 1 --फुलवाड़ी १7 न मदं घा दूंमडाह्‌ । श्रिउ संदेसड लिक्वणौ, लिक्ववौ -देखो "लिखणौ, लिखवौ' (रू. भे.) १ पलि 2 पंसा । -टो. मा. | त (करो), पिवयामियो--वि, २ कूची, त्रश श्रादि से चित्र वनाना। लक्णहार, हारौ (हारी), लिक्लणियो--वि, उ०--लारोवरि ग्रस चि , लिक्विग्रोडौ, लिक्ियोडौ, लिक्व्योडो--भू. का. फ. । माल चोरी न हय ४ लिट, निहलरत्ा चरवर नर । न | खण चासन हुवे माहव, महियारी न हवै महर । --वेलि लक््सीजणोौ, जदो--कम वा. । ४ किसी साहित्यिक कृति की स्वना करना , सादित्य- लिष्लाडणौ, तिक्छाडनौ--देखो "लिखाणौ लिखावी' (रू. भे.) | ज्यु-वात लिवाणी, गीत लिखाणौ हत्य-पृजन करना । लिखत क्रि. श्र. ५ किसी कारण एवं परिणाम के घटित होने पर संयोग की प्रतीति होना । उय्‌ं- मागमे लिखा होना, प्रार्य मे होना । उ०--धारं मन वदं घोढोहर, तापे सूनां दृढ तठे । मोटा प्राखर कवा मेट्वे, कुटी लिखी सो महल कठं । --प्रोपौ श्रादी लिखणहार, हारी (हारी), लिखणियौ -वि° । लिखिघ्रोडी, लिखियोडी, लिच्योडो-भू° का० ०1 लघीजणो, लिखीजवौ -कमं वा० । लखणौ, लखवौ, लि क्वणो, लिक्ववौ, तिहणी, लिह्बी, लीखणौ, लीखबौ - ० भे०। लिखत-सं. पु.-- १ लिखने की क्रिया या भाव । २ लिखा हुभ्रा, लिपि वद्ध । २ नियम । उ०~-जदस्वांमीजी क्यो थारा नियम टोढा में इसौ लिखत है--इकीस टोां रौ याम श्रावै तौ दिक्षा देद महै लैणौ । --भि. द्र. ४ कानूनी रूपसे प्रमाणित माना जाने वाला दस्तावेज, लिखा हृभ्रा प्रमाण-पत्र या सनद । ५ भाग्यका लेख) रू. भे.-लिखण, लीखत । लिलमण-देखो "लक्ष्मण" (<. भे.) उ०--१ चरस करत लिखमण चमर, सरस श्रगर समीर ¦! उम सियजुत जन-मं्ं उर, वसौ सदा रघुत्रीर । --र, रू उ०--२ येद पतूसतूसू लंका वस, सो श्रावं घारक सुरत । जिकौ वतावं जडी संजीवन, तौ लिखमण ॐठ तुरत । --र. < लतिखमी-देखो "लक्ष्मी" (ङ. भे.) (ह्‌. नां मा.) ` उ०--प्रभण पिततमात पूत मत पातिरि, सुर नर नाग करं जसु सेव । क्िखमो समौ स्कमणी लाढी, वासुदेव सम सुत वसुदेव । -वेरि लिखमीनाय-देखो लक्ष्मीनाय' (<. भे.) उ०~-सरय काम नामेव रौ मुदार बेटे उपर श्रीर देवीदास रं ठकुरं र दरसण री प्रतिग्या सो सहुरसुं वाहिर श्रघकोपस्त देहरी तठे सी लिखमीनाय जी विराज् सो देवीदास नित दरसण कर्वानं जाव । पलक दरियाव री वात लखमीनारयण--देखो (लक्ष्मीनारा यरा" । लिपमीनाह्‌-देखो "लदमीनाय' (₹. भे.) उ०--ग्राद्‌ जुस तज ग्राह, देह दिव्य पार्द तुरत । निरखं लिखमी नाह, परसे पम पावन हूवौ 1 --गज उद्धार लखमीर देखो 'तष्मीवर' (₹. भे.) ५, ४३८८ लिखापीं उ ०---ग्रकठ तुहिज कं कोड श्रवर,-वोहोनांमी बुकन 1 लिखमौबर, लेखं नही, समवड पराणी खन्व । --ह. र. लिखमीभरतार-देखो 'लक्ष्मीभरतार' (र<. भे.) लिखमीवंत-देखो (लक्ष्मीवंत' (रू. भे.) लिखमीवर-देखो लक्ष्मीवर" (रू. भे.) (ह. नां. मा.) उ०--लिखमीवर श्रायां सुर लावै, वें चहं श्रनोबदछ्र वावै नर- वर प्रथी खवर सुज पाया, चगथौ श्रावं राहु चलाया । --रा. रू. लिखम्मी- देखो "लक्ष्मी' (रू. भे.) उ०--लिखम्मी पर्ग धरं उर लेह, रह सिध बुद्ध पगां तठ वेह्‌ नम पग दोह गोत्तम्म नारह्‌, वंद प्रग गरग कपितल्ल वेह॒ह्‌ । --ह्‌. र. लिखवार्ई-देखो 'लिखाई' (<. भे.) लिखांतर-देखो लेखांतर' (र. भे.) । लिखाई-स. स्व्ी.--१ लिखनेकी क्रियाया भाव । २ लिखने का तरीका, ढंग, लिखावट । ३ लिखने की मजदूरी ४ चित्र श्रंकित करने की क्रिया भाव । , रू. भे. लिखवाई | । लिखाइणौ, लिखाडवौ-देखौ 'लिखाणौ, लिखावौ' (<. भे.) लिखाइणहार, हारौ (हारी), लिदाडणियौ --वि० । लिखाडिश्रोडी, लिखाडयोडौ, लिखाडष्योडो-भू० का० $° । लिल्ड़ीजणौ, लिखाडीजवौ --कमं वा० 1 लिखाडियोञ-देखो 'लिखायोड़ौ' (रू.) . (स्त्री. लिखाडियोडी) । लिखाणो, लिखाबौ-प्र. <.-- १ किसी तीक्ष्ण या नुकीली चीज-से कु ग्रंकित कराना । २ कलम, पन्सिलि श्रादि के माध्यम से वर्णक्षिर श्रंकित कराना, लिपिवद्ध कराना । \ कची, त्रश श्रादि से चित्र वनवाना। ४ किसी साहित्यिक कृति को रचना कराना, साहित्य सुजन कराना . लिखाणहार, हारौ (हारी), लिखाणियो--वि. । लिखायोडो-- मू, का. कु. । लिखार्दजणो, लिलार्हजवौ-- कमं वा. । लिक्याडण, लिक्खाडबौ, लिखादणौ, लिखाडनौ, लिखावणौ लिख्राववौ, लिहाटणौ, लिहाठवी, लिहाणौ, लिहानौ, लिहावौ लिहावनो-- र<, भे. । लियपटी-स. स्त्री. ~ १ लिखने का काये, लिखाई । "~ तिखाबर २ पत्र-व्यवहार, पत्राचार । ३ लिखित संधि, शतेनामा या ब्रनुवन्धन । क्रि. प्र.--कराणी, व्दैएीः दोणी लिखावः, लिखावटि, लिखावटी--देखो 'लिखावट' (रू. भे.) उ०--पांती चंद्रसेणी भप देणी घार दीनी 1 पतीवार तीनां कौ लिलावरी मांड दीनी । --दि. वं. लिवायोडौ--भू. का. क.-- ९ किसी तीण या नुकीली वस्तु से ग्रकित कराया हुग्रा. २ कलम पेन्सिल रादि से वर्क्ष श्रंकित कराया हु २३ कूची त्रश ग्रादिसेचित्र बनाया हृग्रा- ४ सादित्य- सृजन कराया हुम्रा। (स्वी. लिखायोडी) लिलारौ-वि, - लिखने वाला, लेखक । लिद्ावट-सं. स्ती.- लेखन प्रणाली, लिखने का तरीका, ठग 1 २ किसीके हाय से लिते ग्रक्षर, लिपि) ६ लिखे हए वाक्यो का समूह, लेख । उ०-लिसै है ग्रेक स्ित-संजीवणी दवा रौ नुस्षखौ, प्राण भर जिसौ सावर-मंतर । ई लिष्ावर माथे ई तौ सगो दारमदार है । ॥ --वरसर्गाठ ङ. भे.--लखावट, लिखावट, लिखावटि, लिखावटी लिखावणी-सं स्व्री.--लिखानि को मजदूरी, लिखा । लिवावणी, लिखाववौ --देखो -दिखाणौ, लिखावौ' (रू. भे.) उ०--पण उण मं श्रेक मोटी खोड श्रा हीकेनीं तौवौ किणौ भ्रासामी सं खातौ लिखवतौ श्र नीं किणी न खाती लिखतौ -फुलवाडी लिखावणहार, हारौ (हारी); लिलावणियौ--वि. । लिखाविग्नोडी, लिखावियोडी, लिखाव्योडो- भू. का, कृ. । लिलावीजसरो, लिखावीजभौ--कमं वा. । लिखावियोडौ--देखो 'लिखायोड़ो' (रू. भे.) . ~ (स्वी. लिखावियोडी) लिखावत, लिखवतु-सं. पु.-- बादशाह एवं महाराजाग्नों दास ग्रपने सम्मानित व्यक्तियों के पत्र मेँ प्रयोग किया जाने वाला ब्द) उ०-- पदै महेसदासजी जाद्धौर पायी, गदपत्ती हुवा जिणसू लिखावट भ्राम न रही । प्रथीराज रं मनसव धरणौ हौ जिण सू वचनात्‌ नही नं लिखावतु लिखीजतौ । --चां. दा. ख्यात लिखित-भू का. कृ.--१ लिखा हुता, लिपि वद्ध । २ किसी प्रमाण या सनदकेसखूपमं लिखा प्रा । सं. पु.--१ एक मुनि, जो जैमीष्यव्य के दोपुत्रोमेंसे एक था) २ चंपकापुरी के हंसध्वज राजा का एक ढृ्टक पा पूरोहित 1 ४३८६ लिगरियौ [क गिं लिितकला-सं. स्त्री --७२ कलाश्रों में से एक । लिखिमीवर-- देखो "लक्ष्मीवर' (रू. भे.) {लिख्मीवंत-देखो 'लक्ष्मीवंत' (रू. भे.) उ०--लिदमीवंत चेतसी तण, श्रसदराज सोनिगिरउ भण्‌ । ब्रह्यण तणा करान्या ज्याग, सवा लास जिरि दीचा त्याग । --कां.दे.प्र. लिखू-सं. स्वी.-सप्तकोरी नदी की एक सहायक नदी का नाम) लिगम- १ किचित्त, थोड़ा । उ०--जनहरीया नहीं भाजिसी, संदेसौ डिगमिग । पीव मिदं पर- मातमा, श्रनेसौ नही लिंग । --ग्रनुमववांणी लिगत रसं. प --फटा पुराना ता । उ०--योडी ताढ पद्य फाटोड़ा लिगतरां रा फटकारा वजावतौ प्रक डोकरौ म्हारं पाखती श्रायनं ऊभग्यौ । --फुलवाडी रू. भे.--लगतर, लिग्तर । श्रल्पा.--लपतरी, लिगतरौ, लिग्तरी, लीतरौ । त्निगतस - देखो (लिगतर' (्रत्पा. ₹. भे } लिगतौ-सं. पु. [स्त्री. लिगती | कुत्ता, शवान । वि.-- पीर पड़ने वाला पिद्धलग्धू । उ०-- तनै ठा कोनी, श्रै लिगता दै साढा, इयां ने घालसां तौ बीजा चार ओर श्राय जासी, इय वास्त टेम-बे-ध्म को हिढावां नी। --यरसर्गाठ लिगदौ-सं. पु. (स्त्री, लिगदी) १ दुवेल, श्रशक्त । २ शिल व्ूणंका लदा) लिगन, लिगन्न --१ देखो लग्न" (रू. भे.) उ०--लिगत्ना नारे लैर देर सावौ नकौ लीधौ, सजाये ठीकांणा हं व्याव का सामान 1 हंगामा हौक्वा राग र्ग रा हमे हुवं । ग्रठी जान वा्ठी सोभा वणाव प्राजांन । --वादरदांन दघवाडियौ २ देखो 'लगन' (<. भे.) लिगरियौ -- १ देखो 'लगरयौ' (ङ. भे.) २ देखो 'लिगरू' (ग्रल्पा.+ र. भे.) उ०--ताहरां श्यं कही, "साह तौ लिगरू रावल जीरा खानेजाद छै सुकूनां री ईहां कही सु इहां री मोय हंती पणं ईहां भरीयै दरवार कटी, इतरी इणां मांह चूक दै । --वरसं तिलोकसी री वात २ एक प्रकार का वरसातमं होना “वाला पौचा या घास विदोष। ग्रल्पा.,-- लिगारियौ, लिगरयौ िगविगािया ___ _________--_-_-~--~_~_~__-~__~___-_-_~~~~_~~~_~_~~~~~~~_~___~_~_~_[______्‌ ~~~ बब] तियतिगारिया-सं. पु.--१ विलविलाने फी क्रियां । उ०--मा्थं खरोरिया, जकां मे थोडौ सामान" र पूर-पल्लौ मारग वैता-ग्रादमियां नं तिगलिगाटिया करता केता हा-“वान्रूजी । श्रारी, प्रक रौ श्राटौ । भूवा हां दया करो 1" --वरसरगांठ २ वक~-मक । िगार, लिगारद, लिगारि, तिगरी, लिगार-देखो लगारः (रू. भे.) उ०--१ 'मुकन' सुतन वठछ मडघ्नत्त, पडी न खड लिगार । *रेणा- यर' 'रामंग' रू, सरू हुवौ गह्‌ सार । --रा. रू. उ०--२ पाखलि करा काठगढ खाई, नहीय लिगारह माग । घोडा हाथी रह पाखस्या, किम चरैसदलाग। -कां.दे.प्र. उ०--२ हम सोई सत्ता सत्ता सोई हमै, ज्यु श्रग्नि उस्ण दक सारी । सुखराम श्रापनां श्राप श्रनंता, नहि देतात लिगारी ~ सुखरांमजी महाराज उ०--४सु राव छटौड़ करण परघारणा लागा । तरे कूतरं कान फडफडाया । तरे राव हेटा वैठा । ल्िगारं वटं उटीयां तरं वं कूतर कानि फडफड़ाया । --राव लासे री वात लिगीफ, लिगीयर-देखो (लगार' (रू. भे.) लिग्तर-देखो 'लिगतर' (रू. भे.) लितरो-देखो "लिगतर' (श्रल्पा ,रू. भे.) उ०-वूटी रौ नवि घोखतौ घोखतौ चोयोडौ वेटौ ई उल्छग्यौ को श्राघ घड़ी रे उपरांत नाड देखतौ देखतौ वेदराज डोकरिया रा माथा मे श्रावेस लिग्तरा री जंतराई । -- फुल वाड लिको-सं. स्त्री.-उदटण्ड गायकेगलेया सीगोंसेहर समय बंधी रहने वाली रस्सी । तिष्णौ, लिडावौ-क्रि. स.-१ वांघना या कसना । उ०-सो किण भांति रा वाकरा जिके कड़कती नटीरा, भादरं साद रा, मादद्िए पेट रा, माडि वोर, काचर रा वरडणहार, घण भट नं वावली री टीसीभ्रांरा चाडणहार, सिखिरि रा मालणहार, फिररीश्रं रा व॑सणहार, वालखसी वाकडा विसे वोकडा, खोरडे स्ीतहरी रा चारीग्रोडा, सो उञ विसे वोकडा मसकां री भांति सों लिह न घातिभ्रा्ं। --रा.सा. सं. २ लंद्छट्‌से दग्ध करना, दागना । | तिचणो-सं, स्व्ी.-- घुटने के पीदेका भाग जहाँ से षर मोड खाता था भुक्ता है। ल्िचपिच-देखो 'लचपच' (<. भे.) उ०--त्यावएावारं नं लिचपिच लापप्ती जी, कारणवाछां नै गदली सीरश्रो फ वरस वरसोदश होढी पावणी जी) --सो. गी. लिचपिचो--देसो 'तचपचौ' (₹. भे.) तिचापिच्य--१ विन्ता, चाट । ४३६० लि्ठर्मघिर उ०--लिचापिच्न लागी घड़ीताल भां, श्रहौ कोई राख श्रे श्रम्ह कारं । इसे संकटे जे जप जैनराय, सही पार पामे तिके सुक्ख साज | घ. व्‌, ग्र. लिच्छमी -- देर्खो ^लक्ष्मी' (<. भे.) लिच्छमीनाथ-देखो ^लक्ष्मीनाय' (रू. भे} लिच्छमीनारायण-देखो (लक्ष्मीनारायथण' (रू. भे.) लिच्छमौनाह्‌-देखो "लक्ष्मीनाथ" (रू, भे.) लिच्छुमीपति - देखो लक्ष्मीपति" (रू. भे.) लिच्छमीवर- देखो "लक्ष्मीवर' (<. भे.) लिच्छवी-सं. पु--१ एक एतिहासिक राजवंश जिसका नपाल, कौशल श्रौर मगघ मे राज्यं था! २ देखो "लक्ष्मी" (<. भे.) लिखपचती-वि.--कोमल, मूलायम । लिदछमण, लिघठमन- देखो लघ्म' (रू. भे.) उ०-लिमण वोलणा एक वार, म्हारी सित्याका सिरदार। --गी, रौ. चिष्ठमी-देखो 'लक्ष्मी' (र<. भे.) ८ उ०-१ म्हारंश्रांगण श्रांम, पिद्ोकड भरवौ यौ घर सदा ए सुवा- ` वणौ । तूं ती चाल लिष्ठुमी जं घर चालां, जं धररटीग्र वेघामणा । --लो. गी. उ०--२ मोरियार हाथां पर धुकावतौ रतौ, सौः वास दातारी रा गुण गावतौ कंतौ--चुगाईके है, लिद्मी है। -दसदोख उ०-३ एक दिन लिद्मी सेठ नं दरसण दिया । क्य सत्त पीदियां सूं र्ण घर रौ ठायौ नीं द्योडियौ । -- फुलवाड़ी लिद्धमोकत, लिद्मीकांत - देखो "लक्ष्मीकांत" (<. भे.) लिद्मीनाय, लिदमीनाह्‌- देखो लक्ष्मीनाय' (र. भे.) उ० --्र मत छोड रे हिया, लिया चै जो लाह । दिल साच तेड़ी दियां, नेड़ौ लिद्धुमीनाहु । ---र- ज. भ्र. लिदछमोपति-देखो "लक्ष्मीपति" (र. भे.) उ०--मामूली मन्गुरी पर काम कर' र जिर मकान मे एक म्र रातवासौ लणौ चाव है । उणनं घेरा ऊभी ही लिष्मीपति्यां री टोढी श्रर खन ऊभी ही वारी श्रापरी पिस । --रातवासौ लिद्धमीवर, लिद्मीवर-देखो लदमीवर' (ङ. भे.)} उ०--घरणीतठ व्याकु देलौ सिर धुरियौ, सरणागत वच्छ हेली नह्‌ सुरियो । लिद्धमोवर छू कान ले लीन, दीनन-बेु हूय दीनन दुख दीन्‌ । -- ऊ. का. उ०--२ भरेनजमनं मोग, ठरन किण सूं देलजौ। लिछमीवर रा लोग, भरं त जलमें मोतिया , -- रायर्सिह सद न्क लि्मीस-देखो "लक्षमीस' (र. भे.) उ०--लिद्धमीस राम प्रणर्भंग लखी, परमेस पाठ जन दीन पखौ 1 हूर पाप ताप दुंख-ताप ह्री, तिर पांय रेण रिख नार तरी, --र. ज.प्र. लि्म्मी - देखो "लक्ष्मी" (रू. भे.) लिखम्मीकंत, लिछम्मीकात -- देखो "लक््मीकोतः (रू. भे.) उ०-ज्वाकानठं जाठण काठि-जवन्न, कियौ मूुचकद हृकम्म किसन्न 1 वांखासुर छेद भूजा वक्त, कीघौ वौह्‌ चीर लिद्धम्मीकत । --ह. र. लिद्धम्मोनायः लिद्यम्मीनाहु--देखो "लमीनायः (<. भे.) उ०-नमौ वपु दीरध वामन वेख, भिखंग पुरंदर मांजण भेख । नमौ नर्व लिद्यम्मीनाह्‌, विसंभर विद्रूल श्रादि वराह !- हः (लिटरौ, लिटनौ-क्रि. श्र. - लोट-पोट होना, लुटना । रोक लिट फिरफिर चर इण --दसदेव उ०--ऊट्डा उगाठी सारः राद चसक घरौरा, गोढ टौढ मीगण करं । लिटणहार, हारौ (हारो). लिटणियौ--वि. । लिटिग्रोडौ, लिटियोडौ, लिव्योड़ो--भू- का. क. ऽलिरीजणौ, लिरीजवैौ मावे वा. । लिटियोड्ञो-भू. का. कृ.--! लोटपोट हुवा हृम्रा, २ जुटा हृत्राः (स्त्री. लिटियोडी) लित! - देखो 'लता' (रू. भे.) उ०-कटियौ भके कटं किूश्रंघौतं किय । लिता पान धनंग्व संम, छवकाटौ लदियौ । --र. ज. प्र. लित्त-सं. पु.--तुरन्त की लिपी हरै जमीन लाघकर श्राहार श्रादि तेने कादोप। (जन) लिद-देलो लद्ध' (<. भे.) उ० --इसीय वाच गयराह पडी, तड मद लिद्ध कुमारि, सत्यवती नामि हृसिए संतण घर नारि 1 --सालिभद्र सूरि लिप~सं. स्वी.--१ प्लीहा, तिल्ली । २ देखो 'लप' (रू, भे.) लिपटणो, लिपटबौ-क्रि. श्र.- देखो 'लपटणी, ल पटवौ' (€. भे.) उ०-लोहा लिपश्या काठ नू, धूम र्या ज माय । वडा इवण नांहि दं, जाकी पकड़ी वाय 1 --श्रग्यात लिपटणहार, हासौ (हारी). लिपटणियौ--वि० । लिपटिश्रोडी, लिपटियोडौ, लिपव्योड़ौ--भू° का० ॐ° । लिपरीजणौ, लिपरीजवो---माव वा० । लिपटाडणोौ, लिपटाडवौ - देखो 'लपटाणो, लपटावौ' (रू. भे.) लिपटाडणहार, हारौ (हारी). लिपटाडणियो - वि. । ¦ ४३६१ लिपरकी लिपटादिश्रोडो, लिपटाडियोड, लिपराडयोडो - भू. का क. । लिपटाडीजणौ, लिपटाडीजवौ --कमं वा. 1 लिपराडियोड-- १ देखो "लिपटायोडौ' (र. भे.) (स्वी. लिपटाडियोडी) लिपटाणौ, लिपटाबौ - देखो "लपटाणो, लपटावौ' (रू. भे.) उ०--१ पल्लव पलं वसन प्राभर्रण, इतर पराग लगायी 1 वल्यां मन सजघज श्रलवेल्यां, पति तर सूं लिपटायौ । --लो. गी. उ०--२ हल्दी तौ पीठी म्दारे श्रंग लिपटद्घ, मेहदी सूं राच्या म्हारा हाथ । पन कोड जादू जान प्रधारयाः दूट्हौ खीनंदकवार । --मीरां लिपटाणहार, हासे (हारो) लिपटाणियी--वि० । लिपटायोडौ -भू° का० ० । लिपटाईजणी, लिपटारईजवौ-- कम वा० । लिपटायोड - देखो "लपटायोढ़ौ" (रू. भे.) (स्त्री. लिपटायोडी) लिपदटावणौ, लिपटाववौ देखो (लपटाणौ, लपटाव्रौ' (रू. भे.) लिपरावणहार, हारौ (हारी), लिपटावरियौ--वि० । लिपयविग्रोडौ, लिपरावियोड़ी, लिपटगन्योडी--भू० का० क०। लिपरावीजणौ, लिपटावीजयौ--कमे वा० 1 लिपटावियोडो--देखो लपटायोड़ौ' (ङ. भे.) (स्त्री. लिपटावियोड़ी) लिपटियोडौ - देखो "लपटियोड़ौ' (र. भे.) (स्वी. लिपटियोडी) लिपणो, लिपवबो-क्रि. श्र.- किसी वस्तु का किसी तरल पदां से लिपना या पूतना । उ०- सील संतो सदा रहै सीतल, श्रानंद रूप रहै जांह्‌ तांही । पेम प्रवाह भ्यं तन भीतरि, श्रीर विक्रार लिपे नहीं काही । --भ्रनुभववांसी लिपणहार, हारी (हारी), लिपणियो--वि. । लिपश्रोड्धी, लिपयोडौ, लिप्योड़ो--मू. का. कृ. । लिपीजणौ, लिपीजवो- माव वा. । लिपत-देखो 'लिपतत' (रू. भे.) उ०-पसरे तीनों लोक में, लिपत नहीं धोखे । सो फल लागौ सहज मेँ, सुंदर सब लोकं । --दाद्वांरी लिपरकौ-सं. पु. [श्रनु.] १ मयया चिताके कारण विविष्ट श्रंगो में स्फुरण होने कौ क्रिया । लिप-लिप होने को क्रिया । उ०--ग्रोयि न्ट्वर जी पघारे हंता चदिया तरे सुरतां, प्रिथीराज, लिपठो . ४१६२ लिश्चर ~~~ श्रमरौ, मोपाटदास श्रं च्यारं दीढा श्र मदन री गांडि फाटिभ्रर लिपाडिग्नोडी, लिपाड्ोड़, लिपाडयोडो-भू० का० ० । लिपरका करणो लागी । ---द. वि. लिपाड़ीजणौ, लिपाडीजवौ--कमं वा०। २ देसो 'लपरकौ' (₹. भे.) लिपाड्योड - देखो "लिपायोडी' (<. भे.) तिपली-सं स्त्री.-१ तार, थूक । (स्त्री. लिपाडियोडी) २ टयक घेले पर संभोग कराने वाली, व्यभिचारिणी 1 लिपाणो, लिपावौ-क्रि. स. (लिपणौ क्रि. प्र. र.) किसी वस्तु को उ०--सरती मदनांमी चाहत नहीं चोरी, उरती वदनांमी गावत किसी तरल पदाथं से लेप कराना, पृत्ताना । नहि डोरी , चित भव भांदां री चर्चा नहि चावे । लिपढठी रांडां ज्यं - चौक लिपाखौ, धर लिपाणौ । री श्रर्वा नहि लाव । --ऊॐ. का. उ०--लिपद्‌ तावनिकदनि, चदनि देहु । निज निज नाथ संभारिय, नारिय नवलउ नेह । -जयसूरि तिपाणहार, हार (हारी), लिपाणियौ--चि० । लिपायोड़ो-भरू० काण कृ०। चिपार्दनणी, लिपार्ईजवौ - कमं वा० । १ लिपवाडणी, लिपवाडबौ, लिपवाणौ, लिपवावो, लिपवावणौ, र प्रविवेकी, मूर! लिपवावयौ, लिप।डणौ, लिपाडवोौ, लिपावणौ, लिषावकौ--रू० भे० ३ व्यभिचारी, जार। | | लिपवाडणौ, तिपवाडवौ - देखो 'लिपाणौ, लिपावी' (ङ. भे.) ०: ५ --१ किसी तरल पदाथंसे लेप कराया हमरा, तिपवाडइणहार, हारो (हयै), लिपबाडणियो-- वि. । ल लिपवादिग्रोदी, लिपवाडियोडौ, लिपवाडइयीडी-- भू, का. छ. । (4 01 तिपवाडीजणौ, लिपवाड़ीजवौ -- कमं वा. । लिषवाीडीयोडी-देखो 'लिषायोडी' (रू. भे.) लिपटौ-वि. (स्मी, लिपी) १जो कभी किसी वातकी श्रोर कभी प्न्य वात की तरफ रुकने वाला, श्रसिथिर दिमाग वाला । उ०--दुनियां दातारं ज्रुफारां देवं । लिपदछा लोकां नं लेखं कुरा लेवं । --ऊ. का. लिपावणौ, लिपाववौ-- देखो 'लिपाणौ, लिपानौ (<. भे.) . ^ लिपावणहार, हारौ (हारी), लिपावणियौ--वि° , लिपाविश्रोड़, लिपावियोड़ी, लिषवच्योड़ौ -भू० का० ० । ॥ ( । १ लिपावीजणां, लिपावयीजवौ--कमं वा० | त क | न री च 1 लिपावियोड ~ देखो भलिपायोडो' (रू. भे.) लपवाणहार, हरी (हारी), लिपवाणियी --वि. । लिपवायोड़ो--भू. का. फु, । | (स्तरी* लिपावियोड़ी) लिपवार्ईनणी, लिपवार्ईजवौ - कम वा. । ल्िपवायोडौ-देखी 'लिपायोडौ' (5. भे.) ~ लिपि-्ं. स्वी. [सं.] १ वराक्षिर लिखने का दंग, लिखावट। उ०~-लिपि लापर लेख लिखावन की, दुनियां विधि दैख दिखावन को, परमातमको नही पावन की, वक ब्रत्तिय ब्रह्म बतावन की । (स्त्री. लिपवायोड़) --ऊ. का लिपवावणौ, लिपवावयो-देखो "लिणणौ, लिपाणौ' (रू. भे.) २ लेख, हस्तलेख । लिपवाबणहार, हारी (हारी) ॥ ल्िपवावणिखे-वि० । लिविभेद-सं" स््री.-७ २ कलाश्रौमेसे एक । लिपवाविश्रोडौ, लिषवाचियोडधी, लिपवाव्योडौ -मू० का० ०! पयायो त उ०-दंडलक्षण, रत्नपरीक्षा स्व वस्म- लिपवाचीजणो, लिपवादीजवी -- कमं वार । त्वपरक्षा, कनक परोक्षा, टंक परीक्षा वस्त क ॥ । परीक्षा, चिपिभेद । --व. स. वयोष्री-देो लिपायीड्) (ङ्‌. मे.) लिपियोड़-मू. का. कृ.--१ तरल पदां से लिपा हा, पता टूश्रा । | (स्म. लिपयावियोदी) लिपी-सं, स्वी. देखो "नीपी' (रू. भे.) तपसा ॥ देनवो "लिप्ताः 0 भे.) लिप्त-वि. [सं.] १ पृतना, लिपाहुश्रा. २ ठका हप्र, छिपा हुमा । {्िपार-स. स्प्री--१ लीपने की क्रियाया भाव) ३ लगा हृश्रा, संलग्न । । २ उक्त काये का पारिश्रमिक या मजदूरी । 5. भे.--लिपत लिपादणौ, लिपाट्वौ -देनो "लिपासौ, लिपावौ' (र. मे.) तिप्तर-सं. स्मी. [जअनु.] १ चलते समय फटी-पुरानी सती मे उलतन्न त्िपाडणदहार, हा रो (हासे), लिपाङ्णियो--चि० 1 घ्वनि | पिन ॥ ^ ४३६३ लिराचियोडी न्म ___ ______ ? उ०--बापडौ लिक्ठर-लिक्ठर कत्ता कोस सू चलाय भ्रायौ, जल्दी लियणहार, हारौ (हारी), लियणियो--वि- । । सूं सीदौ देय उर सीख देवो । --पुलवाड़ी लियणिश्रोडौ, लियणियोडो, लियण्योडी- भू. का. क. । २ फटी पुरानी जूती । । लियणीजणौ, लियणीजवौ --कमं वा. । तिकप्ता-सं. स्वी.--समय का एक मान जो प्रायः एक मिनिटके वरावर । स्त्री. [श्र.] १ योग्यता, काविलियत । होता! (ज्योतिष) २ साम्यं, दक्ति, उस्साह ) लिप्ता-स. स्त्री. [सं.] १ किसी वस्तु को प्राप्त करनेकी इच्छा या ३ विद्रत्ता। ग्रभिलापा 1 ढं व्यवहार भ्रादि मे जिष्टता, भद्रता, दालीनतां 1 २ लालच, लोभ 1 <. भे. - लयाकत, त्याकत रू. भे.--लिपसा लियाज--देलो "लिहाज (रू. भे.) लिष्सु-वि.--लोचुष, लालची । लियोडधो-भू. का. क.--- १ लिया हृश्रा, प्राप्त किया हुत्रा. रहाय मे पकड़ा हरा, हस्तगत. ३ खरीदा हृग्राः ४ ग्रविकार या क्वन्जेमें कियाहूग्रा- ५ धारण किया ह्राः ६ उधार केरूप मे प्राप्त किया दहृश्रा. ७ वहन क्यारा. प पहुंचाया हुग्रा. £ सेवन किया हुभ्रा, खाया हृग्रा । (स्त्री. लियोडी) लिराडणी, लि राडवौ-देखो ' लिराणौ, लिरावौ' (रू. भे.) लिराडणहार, हारै (हारी). लि राडणियौ -- वि. । लिराडिश्रोड़ी लिराडियोङ, लिराडयोडो- मभू. का. कृ. । लिराडीजणौ लिराडीजवौ --कर्म वा. । लिराडियोञ - देखो “लिरायोडौ' (रू- भ.) (स्त्री. लिसडियोडी) लिराणी, लिरावौ-कि- स.- किसी पदाथं को लेने में प्रवृत कराना । लिफाफो-सं. पृ. [श्र. लिफाफः] १ कागज का वना वट थैला जिसमे पच श्रथवा श्रन्य सामान डाला जा सके। उ०-कारडतौ केती फिरै, हर कोड ते हुकनाक । जिण रीव्दै जिणनै करै, लेव लिफाफौ राख । --च्रग्यात २ लाक्षणिक श्र्थं मे उपरी तडक-भडक, बाह्य ग्राडम्बर। लिबरल-वि, [श्र.] ऊंचे दिल का, ्रसंकौणं ! उ०-श्रर दण वात मां घर+ रा मिनखां मे फट पड्ग्यौ। दो दढ वण॒ग्या है। एक लिवरछ श्र दूजौ कंजरवेटिव । --श्रमर चूनड़ी लिवाढी -देखो "लवाठी' (रू. भे.) लिबास-सं. पु.--ररीर्‌ पर धारण करने कै वस्व, पोाक विष । उ०--वांका लिवास तेरा तव जानी घोडा वे 1 पायकी पनियाद्यां वीद्धु डक वे। । --रसीले राज रू. भे: लवेस, लिवास लियण-वि.--लेने वाला । उ०-१ भगवानदास साराय मल्ल; ध्वगड़ी' तखत श्राखाडमल्ल । लांगुडौ हणु जिम लियण वाथ, श्रोगम लागै ग्रणभंग नाथ । २ किसी वस्तुको हस्तगत कराना । ३ कटाना, कटवाना । उ०--तखा प्च कितरं हैक दिने राव मंडढीक रौ नाई नागही र गांव गयो हृतौ । तिण कना नागरही वेदा री वहु पदमणी रा नख लिराया । --नणसी --गु. रू. ब. ' लिसाणहार, हारौ (हारी), लिराणियो -वि. । उ०--२ परभोपम पंचायण, घर दियण्‌, जस लिया, कठायरौ लिरायोडी - भू. का. कृ. । मोर! --रा. सा, सं. लिराडणौ, लिराडवौ, लिरावणौ, लिराव्वौ- रू. भे. । र<, भे.--लिश्रण लियणौ, लियनौ- देलो ्लणौलैवौ' (रू. भे. ) उ०--१ डाढी एक संदेसडठ, ढोलईइ लगि लड्‌ जाई । कणा पाकड करस टृश्रड, भोग लियड घरि श्राई्‌ 1 --ढो. मा. चु०-२ श्रांगणि जठ तिरप उरप ग्रलि पिश्रति, मरुत चक्र किरि लियत मरू । रंमसरी खुमरी लामी रट, धुमा माठ चंद घर लिरायोडो-भू. का. कृ.--९ प्राप्त कराया हुभ्रा. २ खरीदवाया हुत्रा. ३ चारण कराया हु्रा- ४ श्रविकारया कन्जे में कराया हुभ्रा 1 रावणी, लिरावबौ -देखो 'लिराणौ, लिरावौ' (रू. भे,) लिरावणहार, हारौ (हारी), लिरावणियो -वि. । लिराविश्नोडी, लिरावियोडी, लिराव्योड़ ~ भरु. का. कृ. । -- वेह चिरयावीजणौ, ल्िरयावीजवो-- क्म वा. । उ०--३ उचा मंदिर अरति घएउ; पराति सुदहावा कंत । दीजदलि | लिखवियोड़ौ -देखो ' लि रायोडौ' (<. भे.) लियद्‌ भनरूकड़ा, सिहर गहि नागत -टो. मा. | (स्त्री. लिरावियोड़ी) लिलडी ` ४६६४ . लिविग _ ~~~ ~ लिसड़ी-देखो लीली' (रू. भ.) उ०--बामौ सोत पाट को ए-लिली हरे हरे सूत कौ, पीठं पीठं पाट कौ, श्रौर मखतूढ को, वादस्या नवाव म्हारी दुलीराजा, निरः खर प्राह राज। -लो. गी. लिलवट-देखो 'निल' (रू. भे.) | उ०्-भंवारं हौ भंवारौ गवरढ्हेि फिर, हौ जी वेरो लिलवट भ्रांगछ च्यार, हे गवरढ रूडौ हे नजारौ तीखी हे नणां रौ! --तो. गी. लिल।म-देखो लीलांम' (₹ू. भे.) उ०~-जव लूं नित नाम तिलोचन वोल्यौ, भांमणा भीय होम भिंड । करवा ग्रह काज इसौ मोय प्रागढ, मांणस्र कोय लिलांम भिट । -भगतमाट लिलाई- देखो "ललाट! {रू. भे ) उ०-~१ जिण दील श्र॑ुतरन माव खिर, इणमृढारी होड करं दसं मृदौ किणरौ । एक मिदं है लेखौ, लिलाड देखी भावं श्ररघ चेद देखो ' --र. हमीर उ०--२ लिलाड में सठढ घाल्यां वींद श्रांकड़ा रौ जोड-तोड विठाव तौहौ कं वीदणौ वैह्ल री चांदणी उघाड वारं जोयौ । चिदकौ पड जेड़ौ श्राकरोौ तावड़ौ 1 --पफुलवाडी तिलाडी-देखो "ललाट" (श्रत्पा., <. भे} उ०-सो रन मे एक जवान रूपवंत भला स्वभावां वडी लिसाडी | भगवन मिक्ियौ । -नी. प्र. लिलारः, लिलार-देखो "ललाटः (रू. भे.) उ०-१ मथुरामे कुव्जा कर राखी, म्हाजनकोसी हाट1 कैसर चंदम लेपन कीन्ही, मोहन तिलक लिलाट। ~." -मीरां उ०-२ वस्यो लिलार राह बिग्रहते, संकर मयंक न राखि सङरेह्‌ । सरणा ई 'खेता' सीसोदा, लाल केणी नह्‌ कीयौ तेह 1 --लाला हाडा रौ मीत लित्ला-क्रि. चि. [अर] ईश्वर के लिए, ईश्वर के नाम पर । उ०--तोहीन श्रदालत श्रल-कितीक्र, "° लित्ला वजूद है लासरीक । मालुम मूलायजं करहु माफ़, श्रालिम एह श्रालिमगमीरमपि 1 --ऊ. का. लिवंग-देखो 'लवंग' (रू. भे.). : ` उ०-साग सीसव सरघू घणा र, वोर कदंव नारेग नग पूनाग रतांजणी र, दीसता सार ल्िवंग । . -कल्यांण लिव-सं. स्त्री-एकाश्रचित्तता से किसी वात की श्रोर घ्यान लगाना । ध्यान-मरन होना । उ०--१ पेम प्रीत का पागड़ा, लिव की करू लगाम । ह्रीया सासित, सुरति की, कीया निरत मुकांम 1 --भ्रनुभेववांणी उ०-२ संताघरद्टीमें वहरागा, प्रापा उलट प्रापुः दे, रहै रामम लिव लागा । । --प्रनुमव्गणी रू. भे.- लव । लिवणौ, लिचवो-देखो तणौ, संगौ' (रू, मे.) उ०--१ तृतौ भूतो नींद भरि, त्तिवं नचीतौ चम । हुरीयाः प्राया जोवतां, एक जुरा एके जंमं | । --प्रनुभयर्यांणीः तिवणहूर, हारौ (हासे), लिवणियो--वि० । लिदिप्रोडी, लिवियोडो, लिव्योश्-भरू° का० इ०। लिवोजणी, तिमीजगो - कतमं वा० । तिवाडणो, लिवाड्वो - देखो "तिकाणा), चिवावो' (ह. मे.) लिवादृणहार, हारौ (हसी), लिवाडणियौ -वि० । | तिवाहिश्रोष्ौ, तिवाह्िपोक, तिवाटचोर- भू° का० ४० 1 लिवादीजगो, लिवाहीजबो-- कम वा० । लिवाड्पोडी ~ देखो 'लिवायोडौ' (5. भे.) | (स्वरी, लिवाडियोषटी) लिवाणो, लिवायौ-क्रि. स.--१ तेने को कार्य श्रन्य से कराना) २ हस्तगत कराना, पकडाना, वमाना। . ८ “„ ३ मंगाना। तिवाणहार, हारौ (हारी), तिवाणियो--वि.। . तियायोडौ - भू. का. ई. । लिवार्दनणो, लिवार्ईइजबो--कमं वा. । लिवाडणो, लिवाडवौ, लिवाचणो, तिवावबौ -- रू. भे. । लिवायोड्-मू. का. कृ.-- १ लेने का कार्य प्रन्यसे करायाहुभ्रा. २ हस्तगतं कराया हुग्राः पकड़ाया हुभ्रा, थमाया हुभ्रा. ३ 'मेयाया हु्रा । (स्वी, लिवायोडीं) लिष्राट -देखो लिवार' (रू. भे.) लिवावणो, चिव(ववो--देखो "लिवाणौ, लिवायौ' (₹ू. भे.) लिवावणहुर, हारौ (हारी); लिवाचणियौ -वि०। लिवाविग्रोड, लिवाविधोड़ौ, लिवाव्योडौ-भू०का० कृ० । ` लिवावीजणौ लिवावीजवौ - कमं वा०। लिवावियोड़ो -देखो "लिवायोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. लिवावियोडी) लिवास-सं. स्मरी.--१ चिपकली । २ देखो "लिवास' {₹. भे.) । लिवासड्ो-देखो निवास" (श्रल्पा, <. भे.) लिचवग-देलो लवंग" (रू. भे.) लिदियोडे उ०--केवेडीद काथु लिंग एलची वोदा काटी जादफल जातवित्री करपुर कस्तुरी तड संयोगि चयस पाननां वीड्ा इम सरव परिवार नदं मोजन तंवोल दीघा । ---व, स. लिबियोडौ -देखौ (लियोड़ौ' (रू. भे.) (स्त्री. लिवियोडी) लित्तर-सं. स्तरी.--यर, कीति (श्र. मा.) लिषोडा-देखो लमोड़ा' (रू. भे.) , लिहु-वि.--चाटने वाला । विहणी -देखो (ल'एौ' (रू. भे } उ०-जीरण रिणाउं खांधं पंजरं करि दीजड, लिहृणा देत्रा लोदडी यानी चाज न कीज, लेखं करि सीजटढ, रातति जागी, ' दम्तरी लिखड्‌ 1 --व. स. तिहु, चिदहनौ-क्रि. स.--१ चाटना । २ देखो 'लिखरणौ, लिखवौ' (ङ. भे.) उ०~वनीता-पति विदेसं गय, मदिर मे श्रश्ययणीए । बाा लिह्इ . भुयंगो, कहि सुंदरि कवा चुज्जेण 1 --टो, मा. श्लहणहार, हासे (हारी), लिहणियौ --वि.। चिप्र, लिहियोङौ, लिदछोञो--भू- का, कृ. । लिहीजणो, लि हीजको--कर्म वा. । लिहाडी-सं. स्मी.-- मसाला पीसने की सिला । लिहाज-सं पु. [श्र.] १ श्राचार^व्यवहारमें किसी कै प्रति श्रादरवश रखा जामे वाला घ्यानं, भान, मर्याद । । श्राव जिन ई हुकारौ --फुलवाडी उ०--लिटाज-लचका री कींतौ माठ भरद) २ ध्यान, खयाल । उ०--युं सोनार री जात छकरी गिणी्जं । वां रेषंधं मेसगीमा गै ई लिहाज कोनी राख । - --श्रमरूनडी ३ संकोच । ९ भ ल्ठजा, शम ॥ _ ५ पक्षपत्त, तरफदारी 1 उ०-दीवांण जी रं हेलौ मारां धिना कोई पंचायती करी ती वारेजेडौमृडीनींहु। इण काम मे कोड लिहाज नीं बरतला । -- एुलवाडी लिहाजा -देखो नलेहाजा' (रू. भे.) लिहाणौ, लिहावौ-कि. स.--१ चटाना ) २ देखो 'लिखाणौ, लिखावौ' (रू, मे.) ~ ४३६५ लीडे लिहाणहार, दारौ (हारी), विहाणियौ-वि° 1 विहायोडो--भू० का० कृ° । लिहाडइणोौ, लिदहाडवौ, लिंहावणौ, लिहाववौ--रू० भे लिहाक-सं.पु [श्र.] १ सर्दीमंश्रोढने का रू्ददारं मोटा भारी वस्र, रजाई । रू. भे.-लेहाफ तिहायोज-भू, का. कृ.- १ चटाया दग्रा 1 २ देखो लिखायोडौ' (रू. भे } (स्री. विहाोड़ी) लिहालु-सं. प---कोयल । उ०--कुडिनेड कारि करि कुण, नर नींगमड कोडि । लिहासा तशणडइ कारण कुण, ज्वालेद्‌ रे चंदन खोडकिं । --नख्दवदंती रास तिहावणौ, लिहाववौ -१ देखो शतिहाणौ, लिहागौः (रू. भे.) २ देवो लिवाणौ, लिग्वावौ' (रू. भे). उ०~-देगिदेखि ब्रपनंदन दीमडई, एति सन्य जिपि कीरति वरि सीड । चंद्र नामु तुभ भ्राज लिहावड, ताहर यग्य समुद्रि वहावसं । --सालिसूरि लिहावगहार, हारौ (हारी), लिहावगणियौ --वि. । लिहाविग्रोडौ, लिहावियोडो, लिहव्योड --भू० का० ु° | लिहावीजणो, लिहावीजवकी --कमं वा०। लिहावियोड-- १ देखो 'लिदहायोडौ' (रू. भे.) २ देखो !लिखायीड़ी' (रू. भे.} (स्त्री. लिहावियोड़ी) लिहियोडो-भू. का. कृ.--१ चाटा हरा । २ देखो !लिखियोडौ' (रू. भे ) (म्री. लिद्वियोडी) लीगदी-स. स्त्री.-१ रेखा, लकीर 1 उ०-रिसता लोई री लीगटियां श्राशी श्र॑वटी कुरयोड़ी रही --फुलवाडी , २ पंक्ति, लाइन । ३ रीत्ति-रिवाज, प्रथा । रू. भे --लिगरी, लीमदी । लीगी-देखो लूंगी" (रू. भे.) लीड- देल "्लींडो' (मह. रू. भे.) लींडी--देलो लींडी' (ज्रल्या.” रू. भे.) लीडी-सं. पु.-- १ मलत्याग के समय वंघने वाली मल फी बत्ती, विष्ठा ! लोन ४३९६ सीक्ष कोणानि क "कर्द ~~~ प्रत्पा---लींडी मह.- लींड २ छोटे बच्चोमे एक दूसरे को चिद़ति समय हाथकेश्रंगरुठे का इदारा । क्रि, प्र-दिखाणौ, वताणौ लीण-देखो 'लीन' (रू. भे ) उ०-भींणी माया लीग हूय) रही प्रांण सूं रचि। सिध सन्यासी जोगन, गए मूनि जन पचि । --भ्रनुभववांणी सीवि-सं. पू.--१ नीरू, नीव उ० - लीवर ल्विगदह लसणीश्रा, लीगोरई्‌ तोव्रांन । लूुखटठ लासा लीवरू, लगिथगि लावां पान) --मा, का. पर. <, भे.- लीव तीवशी-सं. पु. देखो नीम" (अल्पा. रू. भे.) उ०--१ लोक परासि लीवड्ु. मघुरपणांनी माटि । कारठि काटि फपल सरद, पणि प्रर क~काहि । मा, कां. प्र. उ०-२ देवी वम्मरं डंगर रन्न वन्नै, देवी धुव्डं लीवदे यन्न न्तं । देवी भंगरं घाचरं षछव्व-छ्वं, देवी प्रवरं श्रंतरीसं ग्रलंवं 1 1 ---देवि, लीबरू-सं. पु.-- वृक्ष विदोष । उ०-- १ लीव लविगह लसणीभश्रा, सीवोरई लोवांन ! लूुखर तोषा लीवर, लगि यमि लावा पान । मा. को. प्र. लोबू-सं. पु. [सं. नीम्बूक] नीव । उ०-लाभई नवी तिली नद विही, कोटी बडां तणी कचरी । भ्रादां सूरण केलां श्रा, बीजोरां दाडम लीवृभ्रां! -कां.दे.प्र. सीबोष्ट-सं. स्त्री. वृक्ष विशेष । उ०-लीव लविगह लसरीभश्रा लबोदर लो्वांन । चूखट सासा लीवर, लगिथयगि लावा पान । मा. का. भ्र. ली-सं पु.--१ भौरा, म्रमर। (एका.) २ ईदवर। २३ मिलन, संगम । सं. स्त्री.-४ सखी, सहली । ५ पृथ्वी 1 सीश्एण-१ देखो 'लियण' (<. भ.) लीकं-सं. स्त्री.-- १ लम्बा व पतला बनाया दृञ्रा या भंक्रित क्रिया हमा चिल्ल, लकीर, रेखा । उ०--१ पदहिली ही पोत्ति श्रांणि गतै वांधी । ताक्रौः द्रस्टांत 1 जसे कपोत कतां कमेडा का कठ की स्याह लीक देखीर्यं । | "वेदि, उ०--२ कंवर र पलर्फां पीफ, प्रवरां फाजट री सीक्‌ । श्राप भ्रंग भाल श्रलतारौ रंग । --र, हमीर २ सत्य यचन। (£. कफो.) ३ रारता, मागं । उ० - लीक लीक गाडी वहै, फायर प्रन कपूत । लीक तजं उवट वहै, सायर सघ सपू । ४ पगडडी । ५ सीमा, मयदिा । उ०- चुंगलःछ प्रवठ भट चंचद्टा, लाख उभे चि चत्तिया 1 पिट जांणि लीक सातो महरा, हैक समूच्चं हल्तिया 1 --रा. ङ. ६ प्रतिष्ठा) मान, मर्यादा । उ०- हसक पाव हुमगत हेसहम, प्रं क रया ठदत । यामः नारि युःल सक विधुसक, कत नपुंसक कत । --3उ. का. ७ प्रथा, रीति। ८ दोप, कलंक 1 उ०-रांवण परतां राज, लीक संका तं लागी । जीवते किसनजी, दारका नगरी दामी । चावा रवि चदन, राहु भ्रावी नं रोक्र। पांडव कौरव प्रसिद्ध, सहु पिया दुस्‌ सौकं । --घ, व. भ्र. ६ गिनती, गणना । ध १० मटियाले रेग की चिडियः विद्धे ! १९ सम्वीव संकी जमीन । १२ देखो 'लीख' (ड. भे.) १२३ देखो 'लीको' (ह. भे.) मुह्‌ा.-लोह्‌ री लीक लोह फी वनी रेखा, दढ बात । लीक कुटी पुरानी प्रया पर चलना! <. भे.-लीह, ह्हीक श्रत्पा. लीकटी. लकड़ी, लीगदी लौकटी--देखो "लीक (श्रल्पा., <, भे.) उ० -- विडी कमेड़ी चील, दुजछा गोह्‌ टिव्छिया । सरपसंवार सरीर, लीकडी कोर लिटरिया । -- दसदेव लीकड्यी -१ देखो "लीक्री' (श्रल्पा., ₹. भे.) (१) लीकियौ-सं. पु--१ लकड़ी पर लकीर या रेखा बनाने का श्रौजार । २ देखो सीङी' (अल्पा. 5. भे.) लीकी-सं. स्वी.-१ संकड़ी व लम्बी कृपि उपयोगी भूमि का मालिक । २ संकंड़ी व लम्बी कृपि उपयोगी भूमि। उ०--भींडररामहाराजरीमां बाई यज वाजे पोटा पती तीन लीकौ पातसाह्‌ री दीवी है । बां. दा. स्यात ३ देखो श्लीक' (श्रत्पा .रू. भे.) लोख-सं. स्त्री सं. लिक्षा] १ जुंकाम्रंडा। लीखत ४३६७ र उ०--१ लारं बाटद री उरौ लीनोडौ, दौटौ दाढ्रदरौ धेरै दीनोडौ । लीन प्रागे । सेवं छत्रपति छोड समौसर, श्रोप धजा जगत चै ऊपर । जवां लीखां रा जभियोड़ा जाढा, नीचा नमियोड़ाकड कोड़ा काठा --रा, ₹. --ऊ. का. उ०--२ हंस गमणि देजदं हीदं, राति दिवस सुख संग । रांणौ लीण हुभ्रौ तुरत, जिम चंदन तर्हि भूजंग । -प. च, ची. रू. मे.-लिकसा, लिक्प, सीक लीखत-देखो "लिखतः (रू. भे.) लीखणौ, लोखबौ-देखो "लिखी, लिखवीौ' (ङ. भे.) उ०--जद स्वांमीजी वोल्यां; थरं वाप हुंडचां लीखी, थार ॑दादं हंडययां लीस्नी, पादा पाटी येई संवेटया कोई नहीं । -भि.द्र. लील्ीयौ-वि,--१ लिखा हरा 1 ८० --१ हरीया लीलीयौ भागे, रांम मता धन मास } एतौ नितेत्रित संप, मेट कौए मजाल । -- श्रनुभववांखी ४ देखो 'लीन्दौ' (ङ, मे.) लीणड -देखो “लीन्दौ' (रू. भे.) लीणता- देखो "लीनता" (<. भे.) लीतर-देखो 'लिगतरौ' (रू. भे.) लीद-सं. स्त्री--१ हाथी, घोडा, गधा श्रादि का मल। , , दोनं टंक वांरी लीद जोख्या करो । लीग~-स स्वरी. [्रं.] दूरी का एक नाप। च लीगटी -देखो भ्लींगटी' (र. भे.) =. भ.- लाद लीड़-सं. स्तरी.-१ दारीरमें ददं के स्थान पर श्रग्तिदग्ध लगाने की मह्‌.--लीदड़ करिया या भ्रग्निदग्व से होने वाला निशान, चिन्हे, डाम । लीदड़--देखो "लीद" (मह, रू. भे.) रू. भे.--लीरडी 1 । ] । 1 तीर ॥ लीघ, लीघु, लीघु, लीधू, लोषी-देखो लीन्हौ' (<. भे.) ३ देषो 'लीरौ' (ग्रत्पा. र. भे.) लीढो-सं. पू.-देखो "लीद (मह्‌. <. भे.) लीची-स. स्वी.-- १ एक सदा-वहार पेड जिसका फल मी होता है । महण मर्थमूं लीघ महमहण, तुम्हां किणे सीखव्या तई । दक्र लोध जीपि खग दावे, कपादिया भड़ तिरक काव । उ०-१ हसनं कंवण लागा-सेठां जे ताकड़ी चालणा सुं ई राजीब्हौतौ त्तवेलामे छोटा मोटा साठ घोड़ा घोड़ी है । नित पलवाड़ी मुहा.- लीद काडणी कोसी को वुरी तरह पीटना, मारना । उ०--प्रांसं सुर श्रसुर नाग नेत्रं नहि, राखियौ जइ मंदर रई । -- वेटि उ०--२ जिण॒ राणी चवदं सूत जाए, सो पितत हंता तेज सवाए । २ उक्त पेड का फल । लीदछम्मि, लीद्धस्मी - देखो "लक्ष्मी" (<. भे.) लीडर. पु. [्र.] मुखिया, नेता, लीडीकट-वि.- रेखा के समान सीधा । उ० -डार प्रेकं पासं द| भ्रेकल प्रेकतरफदै। सू प्रेकल किण सु. प्र, उ०-- ३ खुरम प्रवांखा मेलिया, लीधा राठौडेय । शगजर्वंची' श्राय खड, चडि तीन्दै घोडेय । --गु. रू. वं. उ०--४ कटुरः श्रचठ' कमथ तण, उर पण लीधौ एम । वरण त्रिविद्धि साह धड़, मरण तं द्रढ नेम । रा, रू. भांतरौ 1 जसे वार्ह श्रांगठ खग लीडीकट द) उ०--५ सुंदरि चोरं संग्रही, सव लिया स्िणगार । नक फली -- गंगेव नीववितरौ दो-पहरौ लीधी नही, कहि सखि क्वण विधार । --टो. मा, लोण-सं पु.-१ वर्षाच्छतुमे श्राकाश में श्राच्छादित जल रहित (स्वी. लीव) वादव लौर। लीघनिण-सं, स्वरी. [सं. ऋद्ध~+मणि] १ सुगा, प्रवाल । (भ्र. मा.) उ०--१ राग समीर साग डांसी ग्रहे, वाद उपडीया लीण जांणीं | लीधियोड़ी-देखो “लियोड़ौ' (रू. भे. ) बहै। । #॥ --गु-रू.वं. (स्त्री. लीधियोडी) © ~प? जम्गग ए सणि र वर $ भ ४.० ष ५ जलाहीण। किं न लीन-वि. [सं.] १ बिल्कुल मिला हुश्रा, समाविष्ट । २ उचित, योग्य । ^ उ०--लीर श्रौ भ्रलीण, मीन चीन्हतं लह्य । लीण न्दै श्रलीरा, दोउ दीन ते गयौ । --ऊ. का. ३ देखो लीन' (भे) उ०--१ लीणदहीणज्यां सौ गज लायै, ए कोई व सादु | गुरुको सरण गद । क्यों दिप, सकढ लोक परकारस् 1 उ०-१ मीरा हरि में लीन मई। सवम्‌ यांड भज्यौ सादहिवि कृ, -मीरां : उ०--र२ कहां लौन सुकदेव था, कहां पीपा रेदास । दादू साचो -दादूवांखी शे ४ र लोतता ४२६९८ तीर ____( ३ लुप्त, मायव। उ०--जो कहां हिस्ण री खुरी, दीठा किणनू सुहावे सुणतांही लागे वुरी कदंच जो कहां समंदरी सीप, तिका पिण न फाव इर समीप । भेर जो मीढां छोरी सी मीन, तिका तो लाजां मरती हई जल में लीन! --र. हमीर ४ किसी कायं में निमग्न या तल्लीन 1 उ०--१ सहज प्रमाणौ सांपरतः नही एक रस लीन । मुक्ता चुगही हम भिढ, भिढ वक चुनी मीन । --र, हमीर ५ चिपटाया हृभ्रा, सटा हुभ्रा । ६ देखो 'लीन्हौ' (<. भे.) <. भे.- लीरा लीनता-सं, स्वी.--१ लीन होने की श्रवस्या या भाव। रू. भे. लीखता। लीनोड़- देखो "लीन्टौ' (रू. भे.) उ०-लारं वाठद रो उरी लीनोड़ी, दोढ्टौ दाढ्द री घेरो दीनोडी । जवा लीखा रा जमियोड़ा जाद, नीचा नमियेड़ा कड कोड़ा काढा । --ऊ, का, (स्त्री, लीनोडी) लीनौी--देखो "लीच्हौ' (<. भे.) उ०-मेरौ मन ह्री हर लीनी राजा रणचछौड । राजा रणद्धोड प्यार रगीला रणद्धोड । -- मीरां लीन्ह, लीन्हउ, लीन्होडी, सीन्ही-भू. का. कृ. (स्वी. लीन्होड़ी) १ लिया हरा । उ०-१ लाखाएक लाखसा जो लाख मेदं देसे । लाख जोड लीन्ह यातं कोड कू न लेखे । उ० -२ रांणाजी चिस रौ प्यालौ भेच्यौ, रम््सिर लियौ चढाय। चरणास्रत को नाम ज लीन्हौ, पीगी परेम श्रघाय 1 --मीरां उ०--३ दादू नीकी वरियां श्राय करि, रांम जप लीन्हा) म्रातम साघन सोध कर, कारन भल कीन्हा । --दादूरवांणी रू.भे.-लीण, लीणउ, लीघ, लीधोडौ, लीधौ, लीन, लीनोडौ, लीनौ । लीपणी, लीपतौ-क्रि, स.--१ किसी तरल पदार्थं सेलेप करना या पतली तह चढाना, पोतना । उ०--१ धरि घरि कं विखं भीति ! हीगुलुरी गारिसों लौपंदै। फिटक की ईयसो भीति चरो पाटवचदीया दचैसु चंदणका यै। ५ --वेलि उ०--२ लीप्यौ-ढोल्यौ मोरौ श्रांगणौ, लुगार्ई-टावर फिर-चिरं सं हंसं वोने श्र चेलं खावै। -दसदोख =~~र | „ स+ २ हवना, लुप्त हीना । उ०-पिणा कुभरते नही राचसी, नुख महि होग्रद्धि नहि धाय। जिम कमट पाणी में नीपे, नही लीप दहो ऊंची रह्िवाय। --जयवाणएी ३ लिप्त होना) लीपणहार, हारै (हारी), लीपणियो - वि० । लीपिग्रोडी, लीपियोडौ, लीप्योटी--भू० का० कृ° । लीपीजण, लीपीजवी -- माव वा० । लीपाडमणौ, तीपाडवौ -देपो 'लिपाणौ, सिपावौ' (ङ. भे.) लीपाणो, सीपाबौ--देषो 'लिपाणौ, तिपाकौ' (स. भे.) लीपाणहार, हारो (हारो) लीपाणियौ--वि०। लीपायोटो-भ्रू° का० कू° । लीपार्दजणौ, लीपार्हजयौ-- कमं वा० । लीपयोडौ -देसो 'तिपायोडी' (<, भे.) (स्त्री. लीपायोडी) लीपावणौ, लीपाववो-देखो 'लिपाणौ, लिपावीौ' (5. भे.) लीपावणहुार, हार, (हारी), लीपावणियौ--चि० 1 लोपाविग्रोड़ी, लीपाधियोडी, लीपाव्योडो-शू° कार कृ० । ^ लीपाचीजणौ, लीपावीजवी --भाव वा. । लोपावियोडी-देखो 'लिपायोडी' <. भे.) (स्त्री लिपाचियोड़ी) लीपियोगरपियी, लीपियोद्रुपियो-वि.-- लिपा-पूता, साफ-सुयरा । लीपियोडो-भू. का. कृ.--१ लिपा हुश्रा. २डइवा च चपा हरा. ३ लिप्त इवा हुत्रा। (स्त्री, लीपियोडी) लीपी-स. स्वी.-१ किसी स्यान पर पानीके सूख जाने पर तले में जमी हुई पपड़ी । २ चने के घोल को गडढे में भरकर तयार किया जाने वाला लेप) रू, भे.- लिपी । लीव - देखो (लीव' (र. भे.) उ०-जय तेह मध्यस्थ कहन रां तउ विख श्रनद् भ्रस्त तथा रत्न प्रनइ काच, भ्रांवउ श्रनदइ लीव, साप श्रनद्‌ फुलमाल, श्र॑घारउ ्रनड्‌ ग्रजभ्रालूं एहइ तोल तेहई्‌ सरीखद् जि धिया 1 --सस्टीसतक लीयण-देरो लियर" (ङ. भे.} लीर-सं. पु.-१ फटा हुभ्रा, जीं । उ०--लीर-लीर व्हियोड्ो कूघा वरणौ ई घाधरौ । -- फुलवाडी २ देखो (लीरौ' (मह्‌, .<. भे.) उ०-- दुःखी देख प्रभ द्रोपदी, दई चीर की लीर । दस हजार गज- नेछ घटचौ, घटौ, न दस गज चीर --श्रग्यात्‌ तीर ४३६९ । लील लीरदी-सं. स्त्री. -देखो 'लीडी' (ङ, भे.) सीरडो-सं. पु.--देखो 'लीड़ी' (रू. भे.) ` उ०--संती संती पीड ताडौ, लपेट लकड़ी लीरडा । तीजं दिन वन पर्यान करे त्याग दुवाई चीरुडा 1 --दसदेव लीरी-सं, स्त्री.-देखो "लीरी' (ज्ल्पा., रू. भे.) लीसै-सं, पु.--१ वस्त्र का फटा, पुराना जीणै-क्षीण टुकड़ा, धन्जी । उ०-~--१ कहै दास सगरांम, ह्मे तो चेतौ वीरा । भ्रुखां मरता मरी, कमर मे लटकं लीरा! --सगराम २ शरीर पर गमं घातुसे दागने पर वना हुभ्रा चिन्ह, डम ! ३ ककडी, मतिरा श्रादिं को फांक । रू. भे.---लीडौ, लीर, लीरी, लीरडो । प्रत्पा.--लीडी, लीरडी, लीरी । लीलंग-सं. पु.-- हंस (नां मा.) उ०--१ मांन सरोवर के भोटठं भूल श्रनेक (क) लीलंग श्रावं । --सु. प्र. उ०--२ मोताहुकछ कमठ चुणतौ मांमी, श्रसमरि मुंह साजंती प्ररि ' पं लीलंग 'पंचायण' पेटी, भ्रुर तरा दढ मांनसरि । र --पंचायण करमसोत रौ गीत उ० -३ भाखित वेद चियार, माठ श्रपकंठ धरमधर भ्रासन ' चर धिर जंतर दयालं, लीलंग वाहे नम । --मा. वचनिका २ डिगलल के वेलियः सांणोर (खछोटासांणोर) छंदका एक भेद विशेष जिसके प्रथम द्वालि मे १६ लघु २४ गुर कुल ६४ मात्राए होती है तया इसी क्रमसेशेषद्रलोमे १६ लघुव २२३ गुरू कुल ६२ मात्राएं होती ई। वि.-लीला करने वाला । ङ. भे, - लीलग लीलगरित~सं. पु.-तोता, सुवा । (ग्र. मा. लीलंर-सं. धु. यौ. [सं. नील~-स्नम्वर] नीला ्राकाञ, नीलगगन 1 उ०- मधुर वचनं छुचि चंद मूख, ऊगमें उरज ऊतंग , सीलेवर ढाकं ललित, सुभ कंचन-भिर क्लग । -वगसीरांम प्रौहित री वात नील- देखो श्लीला (रू. भे ) उ० --वसं नवबाड़ीनांव न वासा, रहत उदासन लील निवासा) --ग्रनुभववांणी २ श्रानद, मंगल, परमसुख । उ०--रिखिदत्ता रांणी रूड़ी परि, पाल्युं निरमल सील रे । समय- षुदर कद मुगति पहंती, लाघा श्रविचल लील रे, -स.कु. ३ पानी पर जमने वाली काई। ४ हरियाली । उ०--उन्नाठ दे ईल, लील चौमास खुलावं 1 सीयाढं न्यायास ग्राखरचां सुखी सुखावे । --दसदेव ५ दारीर पर चोट या प्रहारसे उभरा हुश्रा नीला चिन्हे । उ०-दी्वाणजी इण हालत मे कांड जवाव देवता । ठौड्‌-ठोड लील जम्योड़ी । मृडौ सूज्योड् । -फुलवाड़ी ६ इयाम म्तनों वाली गाय । ७ रंग विदेष की घोड़ी) ८ सारस्वत नगर के वीरवमन राजा का पत्र । लीलय-देखो ^लीलंग' {रू.भे.) लीलगर--१ देखो शनीलगर' (ड. को.) उ०--१ हालौ न भूवाजी वाई चालो नी भतीजी श्रापां लीलगरां कौ चाला मोरी भूवा ए, नींद घरोरी लीलगरी का वेटा भाई, मरनं लीलौडोरौरंगदंनाीरामेरार, नीदधररी -लो. गी, लीलगरी - देखो ननीलगरी' उ०--लीलगरी का वेटा भाई, मन लीलौ डोरी रंग दना वीरा मेरा रे, नीद धरणरी । --लो. गी. लीलयवाहणी-सं. स्त्री. यौ. [राज. लीलग~-सं, वाहनी ] हंसवाह्नी, सरस्वती (ह्‌. नां. मा.) लीलड-सं. पु.-ञट का एक रोग विदेप जिसमें ऊंटकामलया विष्टा पतला हो जाता ह । लीलड़ी-स. स्त्री.-१ न्योहूरा, खुश्ामद ) उ० --१ घरवाटठा वासण तौ पड़ा कूवार्मे, पारकां रौ किसौक ग्रो्रमौ श्रायौ । चण्यां नं बुलाया, मृता हाथ जोड़"र गिडगिड़ाया, लौलडी काढी । -दसदोख उ०-२ भूवाठी खवतौ फिर ¦ धरधर गेडा काट । मिनखां नै रिरार्वं, लीलडी काट । ---दसदोख उ०-- ३ ऊण सभाव, चड़ड चल्लो, गावि रीवेटी पण सगटां सू गंचटौ । सूधी गरा उपरला दांत । किरगररावती सी वर्त, लीलडी सी काटं । -दददोख २ गहरे वेगनी रण काश्रमरसे कुछ वडा पक्षी जो फलों की पत्तियां व पराग खाता है । वि. वि.-- यह्‌ पी ग्रीष्म ऋतुमे ही भारतमें ग्राताहै श्रौर सर्दी प्रारंभ होते ही उष्ण देशो में चला जाता ह । मादा लीलदी ्वशाख से श्चाव तक पेड़ों कौ उच्चतम शाखा प्ररवयके नीड्‌की तरह लटकता हूश्रा घौसिला वना कर श्रडे देती हे । २ देखो "लीली' (म्रल्पा., रू. भे.) उ०--लीलड़ी बंघौ, भंवर जी त्हासपंजी, कोश्री सेल धरौ घम (गरेजीश्रे) साठ आप पधारौ मारूजी महलमेजी। -लो. गी. लील क लीलशौ-सं. पू.--१ सग्जी वनामें प्रयुक्त होने वाला काला मोटा पापड़ । २ देखो नीली" (रू. भे.) उ०-जिणा घर घौडौ लीलड्ौ, ऊज चिली नार। तिण धर सदा ऊजासणौ, दिवले तेल न वार । --श्रग्ात लीलणीौ, लीलबौ-क्रि श्र-नीला होना । उन्-थांरौ मारगियौ लीलांणौ । घरं पधार हौ गज, म्टारा साथीडा रं पावस मास प्रगटियौरे, काद धरती उगद्टयी भंडार । --पाव्रुजी रा पवाडा लीलणहार, हारो (हारी), लीलणियो -वि. । लोलिच्रोडी, लीलियोड़ी सलीत्योड़ो- भू. का. कृ, । लीलीजणी, लीलीजवौ --भाव वा. 1 लीलपत-देखो 'लीलापत' (रू. भे.) लीलभवा८, लीलभूभ्राठ, लीलभुवाढ-सं. पु.--टन्द्र, सुरपति 1 वि.--उदार, दातार । उ०--१ पाये छद प्रमोद ₹, सोल मात्र सविसाठ ! वा्वांणं श्रठ- रह वरण, लखपति लीलभुश्राढठ । --ल. वि. ॐ०--२ दूजौ भारमल तरणौ दीपक रीति रौ रखपाल । लाज धरा विरदाढ लाखी, भूप लीलभुवाद् । --ल. पि, रू. भे.--लीलाभवाठ, लीलाभुम्राढ, लीलाभुवा लीलरी-सं. स्त्री.-सल, भूर्य । उ०--तेह पुरुस-जरजर हवौ जी सिथिल पडीद्धं जी काय) लीलरी पड़ी सरीरमें जी चांमड़ी हाड विराय। --जयर्वांणी लीलवण-देखौ नोलवण' {र भे.) लीलविलास-सं. पु.--इन्दर, सुरपति । उ०--१ श्रागलि रहम करि श्ररदास, जाहू श्रं राड लीलविलास। जद साउर वडवानल समड, तउ कान्टड तुरकांनईइ नमद्‌ । --कां. दे. भ. २ समूद्र; सागर। ३ श्रष्ट वणु सहित १२ मात्राका दुद चिक्षेप) उ०--उगणत्रीसर माचा उचित, जगण भ्रति पय जास 1 तवां इसी विधि व्रांटकौ, लघखपति लीलबिलाप्त । --ल. पि. ४ भ्रानन्द, मगल । उ०-जेविधसूंयात्रा कर, सुर नर सेवक तास । "राजक्षमुदर गप्तगावता, श्रविचल लीलविलास 1 --व. स्तौ. वि.--१ लीला करने वाला। उ०--१ गायो रसायण लीलविलास, 'नाल्द' कह्द सव पूरज्यी | प्रास । रास रसायणा उपजाई, गढ श्रजमेरां उत्तिम ठाई । --वी. दे. &४४० सोषा २ दातार, उदार। उ०--विदणां वरहास वरगस, वधारण जस्वास । कूं्रर देप्रल तगौ कार्डम, वटी लीलविल्ात । --ल. पि. रू. भे.--तीलाविलास लीलांण-पं स्त्री.--ह्रियाली । लीलाम-सं. पु. [पुक्त, नेलम] १ वह सार्वजनिक विक्री विसमे ग्रचिक्‌ कीमत बोलने वालि को वस्तु वेची जती है । नीलम । २ इस प्रकार की चीज वेचने की क्रिया या भाव । रू, भे.--नी्वांम, सताम, लिला लीतांमघर-सं. पु, यौ. [पुत्तं तेलम~+-राज. धर] १ वहु स्यान र्हा पर नीलाम की जाने वाली चस्तुर््रो की वोली लमायी जाती है जहा वह वस्तुए सखी जाती हं । रू. भे.---नीलामघर' । लीलमी-सं. स्वी.-१ नीलाम्‌ की जाने वाली वस्तु । २ नोलाम करनैकी क्रियाया माव । रू. भे.- नीलामी 1 लीला-सं. स्वी. [सं.] १ श्रानन्द, मौज । [ +1 । उ०-१ सिर, संती जिरीसर सेवत ही सु खांण । इण भव लै श्लीला पर भव पद निरवांण ) --घ. वे, ग्र. २ एेसा कायं जो केवल मन की उमंगसे मनोरंजन के तिएु किया जाय | उ०--लखण वत्रीस संयुक्त । वाल लीला माह राजकूञ्रारि दृलदिया रमे छद्‌ । --वेणठि ३ भगवान हारा विभिन्न भ्रवतारों में किए गये भ्राचरण व कार्यों का प्रदशंन या श्रसिनय करना । ज्यु --रांमलीला, कस्णलीला ४ रचना, यनावट 1 उ०--१ कुदरत री इण नीलासूं उरण री कांड जरूरत । -फुलवाडी उ० --२ हीलाकर हिरके ईला हूय श्राघा, लीला भगवत री लीला नहीं लाधा । -- ऊ. का. ५ चरित्रगान। उ०--चाकर रहस वाग लगाम्युं नित उठि दरसणा पास्युं । ब्र दावन की कज गलिन में, तेरी लीला गास्युं । -- मीरा ६ नायिका का एक भाव, चेष्ठा । ७ ईर्वरावतार द्वारा मनुप्योचित की जाने वाली.क्रीडा वि. वि.-भक्तिमागं के मतानुसार भगवान विभिन्न काये-सिदधि हेतु या मनोरंजना्थे श्रवतार वारणा करकेजो श्राचरगा करते ह उसे भगवान की लीला कते ह लीलाकरण ४४०१ घोलौ ॐ०--१ मणि व्रइलोक प्रभा जग मंडित, इक पतनीव्रत धरम श्रखडित 1 कारज सुरां कर किय क्रीला, लीलां समद मांनखी लीला । -- स्‌ घ * ८ विक्षेपक नामक चंद का दूसरा नाम, & बारह माच्राग्नोंकाएक खद निसके श्र॑त में एक अगण होता है। १० एक प्रकार का वणंरृत जिसके प्रत्येक चरण भे भगण तगण श्रौर एक गुर होता ह 1 ११ चौवीस मात्राश्नोंका छंद विशेष जिसमे ७-{-७--७--३ पर विराम हता है प्रीर भ्रन्त में सगण होता है। १२ हरा घास) उ०--टीलाकर हिणकं ईला हय श्राचा, लीला भगवत री लीला नहीं लाघा। --ऊ. का. १४ निांणी चंद काभेद विद्ेष जिसके प्रत्येक चरण दस गुरु प्नौर तीन लघु वशं हो । १५ पद्यराज की पत्नी जिसने भ्रपनी पति की मृप्यु के पचात सरस्वती की कृपा से उसे पनः जीवित किया । रू. भे.-लील । लीलाकरण-सं. स्मी.- स्त्रियों की ६8 कलाग्नो मे से एक । सीलादो देवो !ललाट' (श्रल्या., रू. भे )} उ०--पर्च "मुंदचाड' षर "वादरौ' पीलाड़ी, कंवर र लीलाड़ी माय करके । हारणा वीयां सू हिल नां हीलाड़ी, सीलाड़ी तो विनां नहीं सरकं । --श्रमरदांन उ०--२वाघण देहे सीख, भिरगार्नेणी राज 1 थांरी ए लीलाड़ी एप्यारीकी पगथलठी जी म्हारा राज । --लो. गी. ह्ौलाती-सं- स्त्री. [सं. लीलायतं | मनोरजन, भ्रानन्द । उ० --महा कलपवृक्ष-उल्दस पांम्यां, श्राव्या मांडी क्षत्रि वराहं । बाल मात्र वट संपुट पौठ्या लीलाती लक्ष्मीनाह । -स्क्मणी मंगढ लोलाधण-सं. पु. यौ. (सं. लीला-~-राज. धरण] १ भगवान, दैरवर, लीला के स्वामी । उ०--१ लीलाघण ग्रहे मानुखी लीला, जगवासग वसियां जगति । पित प्रदुमन जगदीस पितामह, पोतो श्रनिरुष उखापति । --वेलि लोलाचर-सं. पु. यौ. सं. लीला घर] १ ईइवर, परमेदवर । उ०--१ जेह मगा ते जई, संभाठ त स्वामि । लीलाघरते त्याविसिद्‌, थीरमथातुं धामि) मा, कां. प्र. लीलापत, लीलापति-सं. पु. यौ. [सं. लीला~+पति] १ लीला स्वामी, ईश्वर । ५ २ दुन्द्र) रू, भे.--लील्षपत । लीलापुरसोत्तम-सं. पु.-श्री कृष्ण । लीलावर-सं पु. यौ. [स. लीला-{-वर] १ लीला स्वामी, ईहवर । लीलामवाढ, लीलाभुग्रा, लीलाभरवाक -देखो 'लीलभूवाठ' (रू. भे.) उ०्-खट भाख जाणा तप तेज भाण । विभ्र॒ णऊ पाठ, लीलाभूश्राढ । ---र. वचनिर्का लीलामय-वि. [सं.] कीड़ा युक्त, लीला युक्त । लीलावंती-१--एक वृक्ष विशेष । उ ०-- लाज लज्जा. लक्ष्मणां, लूंगी लसन लवंभि । लीलावती, लुंकड़ी, लादि लवीरी संमि | --मा. कां. प्र. लीलावती-सं. स्वरी, - १ प्रसिद्ध ज्योत्तिविद भास्कराचायं कीक्न्याका नाम, जिसने अपने नाम पर गणित नामक पुस्तक वनायी थी । वि. वि.- कुं इसे भास्कराचायं कौ पत्नी भी मानते हं, २ एकदेवी कानाम्‌) ३ सम्पूणं जाति की एके राभिनी । ४ वत्तीस मात्राश्रों का एक मात्निक छंद जिसमे लघु गुरुका विचार नहीं होता । उ०-- गुरु लघु विण नियम तीस विमत्ता, लोलावती गुर भ्र॑त कहै । जो रघुवर गावं सव सुख पावे, निभय जिकां जम ताप नह । --र, ज. प्र. लीलावर-वि-- लीला करने वाला । सं पु.--१ विष्णु २ श्रीकृष्ण । लीलाविलास - देखो 'लीलविलास' (<. भे.) लीलसंध-वि.--१ क्रीड़ायुक्त, श्रदभूत खेल करने वाला । उ०-किरेन दीठौ कानवौ, सुण्यी न लीलासंघ ) भ्राप वंघाणा ऊखलं वीजा घछोडरण वष । -नागदमरा लीलासागर-सं. पु. यौ. [सं. लीला सागर] लीला का समुद्रः भगवान कृष्ण) ड०--सलीमद्भागौत सवण सुनी, रसना रटत हरी \ मन इूवत लीलासागरमे, देही प्रीत धरी । --मीरां लीली साड़ी-सं. स्त्री.--१ देव स्थान पर जाते समय दृहा दुच्हिनि को गाया जाने वाला एक लोकगीत 1 लीलोती, लीलोतरो, लीलोत्री - १ देलौ नीलोतरी' (रू. भे.) उ०-- १ लीलोती चौवीस मागे, गणि न दोरौ गींवडौ । जद नीम सगां पली, थारी ही सूम नावौ) | १ हरी घास। लोली-सं. पू-- १ हरा घास । उ०--हीलाकर हिणक्रं ईला हूय प्रावा, लीला भगवत री लीला नटीं लाना । --दसदेव =©) 1 की ॥। ^ मः .; = ॥ , \ तीलौचेर न= ~~ ---- ~ ~~ ~ ~= ~ ~ ~ ~~~ ५ २ हरा रग। उ०--पांन एल नूं जीव तू, कोमल केलि सर्मान । ललरड़ो श्रति ताडलौ, लालन लीला पनि । -जयर्वांरी ३ देखो नीलौ" (ब्रल्पा., रू. भे.) उ०.--१ लोला किम दीलौ वहै, पंय पयाणौ दुर । गोखं उडीके गोरडी, जोव्रन में भरपूर । --श्रग्यात उ०-२ कौ लीलाके कागड़ा करडा ह्रडा केके । मुसकी नुकरा मेयिया इसडा तुरंग श्रनेक । --पे. रू. उ०--२ भ्रावे कुण खड उपर, दीपे किरी डो । जायो लील जोरवर, षीटौ वंचियौ पोट । --मूकनर्दान लिडियौ उ०--४ गवे सखी वधावणा, मोत्यां भर भर थाठ । ओ्रंकं दिय ` सिर उपर, लीली सूत लंका 1 --मुकनदांन ज्िड्या उ०-५ संल करण गयौ सायत्रौ, हय लीली ्रसवार । कं जग कौ मिरगल्या, म्हारौ लियौ छ स्यांम विलमाय । - लो. गी. उ०--६ प्राव लीली ऊपरा, लेवृं हाय लगाम । --मुकनदांन खिडयी उ०-७ लीली घोड़ी हंसली, भ्रलयेलौ, श्रसवार । कड़घां कटारी, वांकडी, सोरध्डी तरवार 1 --लो. गी. उ०-- ० उणहीज वंदूकां गिलोलां सूं मुरगाब्यानै चोटां कीज छै । तमासौ हूयते रह्यो छै । सिकार मुरगावी श्रेकटी कर्‌ तठावसुं चाहूर पधार छ लीलीपोतां दूर कीजे च । -- गंगेव नींवावतरौ दो-पहरी (स्त्री. लीली) लीलौचेर-देखो (नीलीचेरः उ०--वींदणी श्रपूटी होय मंडी उघाड़ वैठगी । ऊंचौ जोयौ 1 पतटठी-पतली लीलीचेर लडाभ्रूम सांगरियां ई सांगरियां । । , ~-एलवाडी सोवशौ-देखो 'नीम' (भरत्पा., रू. भे.) उ०--साकर सेलडी नौ स्वाद तजी र, कडवौ लीवडौ घोठघां रे 1 वादा सूरज नृं तेज तजीने, श्रांगिया संगा थे प्रीत जोड्यां रे । -मीरां लीवलौण-देखो (लयलीन' (रू. भे.) उ०--हूरिजन हरि कौ लाउलौ लीवणीणन दूना लाड! भ्ठ मरोर मे, उलभ रहै नर प्रंव। सह्‌ ~ देखो (लोक (रू. भे.) उ०-१ लीहं नदी छादय लगी लागा षटोठ उलार। वागा फांमण व्राहुर, लागा गावणा मलार । -र. हमीर उ०--२ लीह्‌ नहीं लज्जा नही, नहीं र्ग नहि राग ।ते मांणस इम प्रटियं, जिमश्रंधारं नाग । --श्रग्यात $ई०२ --ग्रनुभव्वांसी | सुधियो उ०-३ श्रणवीह्‌ तूं नरसींह श्रोपं, लौह संतां नूं लोपे। ईस वातत श्रधात्त हाथ, ब्रवणा रकां प्राथ । --र. ज. भ्र. लीहूरी - देखो लीकटी' (हू. भे.) उ०--पंथो हाथ सदेसडइउ, धणं विललंती देह । पगसूं काठड लीहटीः उर भ्रांसूभ्रां भरेह। -टो.मा, लौह्वणौ, लीहववौ-क्रि. स.-कींगुर का घ्वनि करना । उ०--१ भीमरी भमती लीहवद्‌, सरांवण नी चक्रचाढ । उहां सिर तिहां श्रमीयमईइ, विरुहणीश्रां मनि काठ । -मा.कां.प्र लकड़ी, लुंकडी--१ एक वृक्ष विदोष । उ० -लाजे-लज्जाद्ु लद्मणा, लूणी लसन ल्वेग । लीलावती लुंकडी, लाहि लवीरी सगि । --मा. कां.प्र २ देखो ^लांकी' (अलत्पा., ₹<. भे.) उ०--पेरं सिकार माहि ससा लुंफड़ी सीद्‌ गोभः स्याठ रीं श्रनेक हरण प्रादि दे श्र भेठा हया छ --द. वि, लुंकारियो- देखो लकार" (म्रत्पा., <. भे.) उ०-- बट श्रघवृदी सी एक धिरांणी, लाल लुंकारियौ श्रोव्यां चूलें कने बेटी काचर छोल है, - दसदोख लुंकालु-वि. कृश, पतला ¦ | ध उ०-- स्वान तणी जिह्वा समानि पाय तल कूरमौोन्नत चरणं रक्तो तपल सद्रश नख, हंसगति, वदटी रोमराद, गंभीर नाभिः मध्यदेसि चफली, ईट सद्रस करि, लुंकालु पेट, सुवरण्ण सद्रस सरीर कांति। --व, स. ^ तुंगाड, लुगाडौ-वि.--वदमाश, धूतं, चालाक । लुंगी -देखो लुंगी' (रू. भे.) | उ०--१ प्रोयि पातिसाह्‌ जी लघु-संकाकी । करिग्रर लूंगी परिरी पिर श्र नदि माहु पधारिया। द. वि, , उ०--२ कचू नीलक को कीयौ, उपरि चीर उढाईइ । लिघी लुंगी भाति को, सुंदर ने वोत सुहाय । --व, स, लृंचन-सं स्वी. सं. सुंचनम्‌] बाल उखाडने या नौचने कीक्रिया या भाव । रू. भे.- लोच लुंचित-वि.-- १ नौचाहुभ्रा। उ०--दाड्मी वीज्‌. विसतरिया दीसं निरंछावरी नांखिया नग। चरणो लुंचित खग फट चूंवित, मधु मुंचति सीचति मग। ~ वेषि २ उखेडाहुश्रा. ३ काटाहु्रा। लुचियोडो-भू. का. क.--१ उखेडा हृश्रा. २ काटा हूभ्रा. ३ नीचा हशर । सुखणो ____„~__~_~-]---------~-----~__~_~__~_~_~~_~___~__~_~_____~_____~_____________~____~_~______________________ (स्त्री. लंचियोडी) लंखणी, लंब - देखो 'लृंखणी, लूंखवी' (रू, भे.) उ०--खीरोदक लुंछणडदं करी राजा, नाखदं चहं दिक्ि फिरी तिणि रसि रजि भणइ नरेस, मूंकड नाच ह्र ्रदेस । --दीराणंद सूरि लुंजी-देलो ल्‌ंजी' (<. भे.) उ०्--फीणा तौ वास्या वनड़ा लुंनी रौ तलचको इसड़ौ कतेवौ थारी माताजी करावं 1 --लो. गी. लृंखक-वि--लुटेरा । उ०-ग्रहार षड़िया लग्ग मौ, लुक पड़ा लग ! मह॒ पड़ पाणि न मांगियो, मरमरले खग मग्ग । --रेवतसिह्‌ भाटी लखि, लंढो-स. स्ती.--१-३६ प्रकार के दडायुचो मे से एक । उ०--१ चक्रं घनुप्त वज खड्ग क्रपांणी तोमर कुत त्रिसूल सक्ति पायु मुग्दर मसिका भल्ल भिडमाल गुम्ज कुठि गदा संख परु पटसु यस्टि । --व. स. २ धोडेके लोटने की क्रिया । लृंणप्तै, सुंखबौ- देखो शनुलणो, लुलवौ' (रू. भे.) उॐ०--जां वायौ तोही लृण्यौ विख वाह्य न जुणाय । --वित्हौजी लुंणणहार, हारी (हारी), लुंगणियौ- वि. । लंणश्रोज्ञ, लुणियोङ, लुण्योड-मू. का. क. । लृणीजणी, लुणीजवौ--कमं वा. । लंणाणौ, वुंणाबौ--देखो शलुणणौ, लुणात्रो' (<. भे.) उ०-जां वाह्यौ तांही लुण्यो विख चायो न लुंणाय । --वित्टीजी लुंणाणहार, हारो (हयै), चुणाणियी--वि. । संणायोड़ी -मू. का. कृ, 1 लुँणावीजणौ, लृणावीजवौ--कर्म वा. । लृंणायोडो-भू. का. क.- १ फसल कटवाई हुई । (स्वरी. लंखायोडी) लृणावणौ, वुंणववौ-देखो "नुणाणौ, चुणावौ' (5. भे.) तुंणाचगहार, हारौ (हरी), लं णषवणियो- वि. ! तृणाव्योडी, लृंणाव्योडा--मू. का, कृ. । ल्‌ णावीजणो, लंणावीजवौ - कमे वा. । लृंणावियोड -देखो 'लुंखायोड़ो' (रू. भे.) (स्वी. लुंणावियोडी) ४४०३ लुणियोड्-देखो "लुखियोडी' (<, भे.) (स्त्र लुंखियोडी) लुंपट-देखो “लं पट (र. भे.) उ०-संक्रम सुभ खरस्टीद्रस्टी लुम देती । लुंपट संपुट लरख [धूधट पट लेती । लुट कर लकुटी ते घ्रकुटी सल लाती । भूखी वाघण जी श्रकुटी मठलक्राती । ॐ का. लुंवक-सं. पु.--१ फलित उ्योतिप के २८ योगोमें सचे एक योग) लुवभवषठी--१ देखो लूवलूवारी' (<. भे.) लवणी, लुववौ -देखो लूवणौ, लृंववो' (<. भे.) उॐ०--१ भस्यिा रंग सरग भाद्रवद, लुंवीया ताइ अ्रंवर लगस। ग्रहर उस्रण॒ ग्नोपिया श्रनोपम, ससण॒ जुडीया तवोटढ रस । -- महादेव पारवती री वेचि उ ०-२ लिलता पहाड़ २ पाखती, श्रवर रतां चरण धरइ) ग्रैव तणां ब्र लुंव श्राविया, कुंजर विच सारसी करद्‌ 1 - महादेव पारवती री वर्टि लुवणहार, हारौ (हारी), लुंवणियौ--वि. । लृविग्रोडौ, लुवियोड), वृव्योञ्ञै--भू. का. कृ, । लुंवीजणो, लुबीजवो-- माव वा. । लंबी, लुवालौ-वि. (स्वरी, लुबाढी) १ श्रारामदायक । उ०--कठ प्रीत सावां ती, कठं रांष्यां सैदहेज जी । श्रं वरती सोवरौ, कठं लुंवाली सेज जी । -जयवांणी २ भूमा हन्ना । ३ सूतयारेदामके घागोके साथ पिरोए हए लाल वे मोतियों से युक्त गच्छा। ङ. भे.--लूवाटो । लुवनी-सं. स्वरी [सं] १ कपिलवस्तु के पास का एक वन जहां गौतम बुद्ध उत्पन्न हुए थे । लुवेक-सं. पु--- वार व नक्षत्र सम्बन्यी चनने वले २८ योगो मे से पद्रहुवां योग । लुंमणी, लंमवौ--देखो “लूंवणौ, लूववी' (र. भे.) उ०-रेसमी गृलव गेद केवडा समृहैह छ । ओर लीलडवर तयेवर पर वेलिदियां लुम रहै चै, --वगसीरांम प्रोहित्त री वात लृमणहार, हार (हारी), लुमणियौ -वि. 1 लुमिग्रोड़ी, लुभियोस्ञे, लुम्ोडो- भू. का, ङ. 1 लृमीजणो, लुंमीजवौ - भाव वा. । लुमियोड़ो -देखो (ल वियोड़ौ' (रू. भे.) स्री लृमियोड़ी) ल्‌-खं. स्वी -१ पृथ्वी । (एका) लुग्राव ६ ४: द लकमौ ~~~ ~ 7 - ~ ~~ ~~ ~ ~ ~~~ ~ ~~~ ~ ~ ३ काटना। हैतोही बुढापौ-वरी लुक्यौ नीं-चावं। - -दसदोख ४ संसार । उ०-२ इण विघ श्रापरं पगांभें लोगं ने साथौ निवाता देष्या, वि.--भक्षण करने वाला 1 तौ केवर रौ लुक्योड जो पाठौ वावडियौ । -फुलवाडी ( व घ्ट्त ६ 4 # | लृश्राव-सं. पु. [म्र.] १--चिपचिपा पदार्थं । उ०--२ दिवलौ वडी व्दतांई जिण भांत लुकयोडो ग्रंवारौ सामे ई प्रगट ब्है जाव, उणी भांत श्रा सुरतांई्‌ कंवररौ मूडौ कामौ प्रावदार-वि. 1 १ ने चिपचिपा । ल्‌ वि. [श्र फा] १ नेसदार, चि घ्राक पडग्यौ 1 --फुलवाड़ी लुश्रारियौ, लुश्रारौ-स. पु. (स्त्री. लुश्रारी) १ गायका छोटा व्वा % वंद होना, मिलना , (पलक का) २ देखो “नुहार' (ग्रल्पा., रू. भे.) उ०-भिड्या रत रण कूच भडं, दुरस्हि री दियेह ! लुकी पलक ति लाज, हव फिर धरत हवेह । --र. हमीर लृकणहार, हारी (हारी), सृकणियो-वि० । लृकिश्रोड़, लुकियोड़ी, लुक्योड़ा-भू० का० कृ०। लृफोजणौ, लृकीजवौ--माव वा० । लुक्कणी, लुङ्कग -ू० भे° । लृश्रदछ-वि.--उष्ण ज्वाला को लपट । सं पु-२ माली । व उ०-- १ तेल-सावण लगार्व॑, वंग-सलाजीत खा्वै, श्र गोटा पीरवं | | कहर वाज लोहाठ लुश्राछ् फाटक कटक, तुटतां बराल जम | ताथ । श्ररक ग्रीखम तण तेज तपीयौ श्रजन' मेष्ठं पद्छागरां तणं । माथ । -नाथौ माद्‌ | 1 लफजण-सं. पु.-एक प्रकार का कल्पित श्रंजन जिसको ग्रो में डालने से डालने वाले को सव कु दिखता है, परन्तु उत्ते कोई नहीं लुकथुक।-- देखो शलुगशरुगो" (रू. भे.) देख सकता । - लृकमान-सं. पु. [श्र. लुक्मान] १ कुरान मे वरत एक प्रसिद्ध रव्य लुफदर--१ देखो ^लकुंदर' (र, भे.) व वंज्ञानिक । । लुक्ठ-वि.--९ तेज प्रष्वलित । उ०--कीधी लुकर्मान सीहतीं प्रवाजा नाठवारी कहा, शछहामाठ वाटी गजा उतार दछाकोट । तसां प्रथीनाथ सोरभली नराताट- वादी, चाड छाती छुट प्रठं काठ वाटी चोट । -- चंडी जी वारहठ २ लुप्त, छिपा हुय्ा। (भ्र. मा.) लृकड़ी-देखो लांकी' (श्रल्पा. रू. भे.) उ०--१ वाट काटे मंजारड़ी, सांमही छींक हद्‌ कपाठ ! श्राडी २ होप) लृफटी भ्रावज्यौ, गोरी कठ प्रीय पादी हौ वाठ । -यी. दे. उ०--इतने लुकमांन उकार लयं, उदि घ्रूम धराः ग्रसमान गयं । लृफट-सं. पु. [सं. लकुट ] १ डंडा, लकड़ी चहुं ग्रोर नरकन के दठयं, ऊलटै मनुं स्िघु हिलोर लयं 1 २ वासुरी 1 | --ला. रा, लृफणाडा्ई-सं. स्वी.-- वच्चो का एक देशी खेल, जिसमें एक दल दूसरे भ । # ` लकर्मीचरी-सं. स्व्री.--१ वच्चो दारा सेला जाने ग्रख- चे हृएु दल कौ तलादा करता ह । | तुकमाचर १ दारा खेला जाने वाला रश्रख-मिचीनी र काखेल । सृफणौ, लृकयौ-क्रि. श्र. [सं. लुक] १ किसी गुप्त स्थान मं रहना उ०--१ इण सासरियं भाई र सार्थं पेली वार श्रं श्राई तौ म्ह याहोना। ध प्रौ नखायौ के म्ह लुकर्मीचणी री रमत रमूं हूं! --फुलवाडी उ० १ वार विस्वास रा सगद्ा भ्रसवार्‌ श्राप श्राप उ०-२ साथरियां रौ भूलरौ भाई-मतीजा नादी री पाट भेत्यां लुक्योड़ा वंखा हा । ऋ गीत, गडा, दूुलियां मुरी लृक्मीचणी -- श्रौ सगढ्रा सुख चछिटकाय उ०--२ फरणौ पुत्यौ नीं समाव है, मन मन में घौ राजी हुवे इण धरणी रो हाय कात्यौ । मां री खोटौ छोड परायाधररी ह्र है । श्राखा काम ब्रापरी कोटी में लृक-लृक करं है । --दसदोख करी । --फलवाडी २ किसी वस्तुकीश्रोटयाश्राटमें श्राने से दिखाई न देना । रू. भे.-लुकलुक मींचणी । उ०--१ इया सारू म्टारा गाधरा रं ग्रो दुक जाग्रौ नहींतौ | लुकमी-सं. पु. [श्र. लुक्मः] १ ग्रास, निवाला । वैरी रौ कांही विवास श्रं ग्रायनैमारनास। -वी. स. री. उ०--१ ऊगड़ां तन भुकमाह्‌, सौख न लुकमा साभिया । तुकमां उ०--१ रातां हव थोड़ी रही, वातां वह निमतार । सातां उठ पर तुकमाह्‌, पतस्ताही पावै "पताः ! --जुगतीर्दान देथौ सहेलियां, लृकौ कनातां लार 1 --मयारांम दरजी री यात उ०-र ले लीधा लुकमाह, रकल सला श्रवसांख रा ! तिरा पुढ रा २ श्ररध्य होना, मिटना। तुकमाह्‌, पावं श्रव लग तृं "पता! 1 --जुगतीदांन देयौ । क्न ए ल कम्मीनाठ--देखो (्लुकमांन' (२) उ०--कडवकौ लकम्मीनाखां भड्कंकं गिरंद काठाः सोह सुरां फड- कन फीफरा सांडीस । पत्ताजं खड़क्कं- पंगी चडकंकं कायर श्र, वडक्कौ उरेव छड रडक्कं भू सीस । --ची मनजी लकल क्मीचणी-- देखो "लुकमींचगी' (रू. भे.) उ०्~-तिण घखत इण भांतरी सम है, पड़्ताला पडती जमी नीठ लभै है । लट वीज जिका श्रामानूं घमं द किनां लुकलुकर्मचर्णा री रांमत्त रमं ह! --र. हमीर लकवेस-सं. पु.--कज (अ. मा.) लकसाज-सं. पु--चमकाया व सिभाया हृघ्रा विशेष प्रकार का % चमडा । लकाडणो, लकाडबौ-देखो “लुकाणो, सुकावौ' (ङ भे.) लकाडणहार, हारौ (हारी) लकाड़णियौ--वि° । लभदिश्रोडौ, लकाडियोड, लकाडयोडी-भू° का० 5० । तकाड़ीजणौ, लकाड़ीजबौ--कम वा० । लकाडियोडौ- देखो "लुकायोढौ' (रू भे.) ०(स्प्री. लुकाडियोडी) । लक्ाणौ, लकाबौ-क्रि. स.--१ किसी गुप्त स्थान मे रखना । उ०--सात ताढा जडचां ऊंडोडा भंवारा मे मकरुस चुकायोड़ो हे 1 ्‌ २ किसी वस्तु की श्राया श्रोट में छिपाना। उ०--म्हारी मरजी रा खास विस्वासी श्रसवारां नं पांच-पांच, सात- सात री टोच्ियां वाय नाक रे नाकं ठौड ठोड लूकाय न बठण दुला । --पुलवाड़ी ३ श्रटदय करना, मिटाना ! गुप्त रखना पै मासौ उणमै डोकरा डोकरी रे जीमण वाटी सगठी बात माड बताई । उछछाट धुराघुर री बात उण स्‌ नीं लुकाई) --फुलवादी लृकाणहार, हासै (हारी), लूृकाणियौ--वि° । लकायोडो-भू० का० क° लृकारईजणौ, सुकार्देनबौ - कम वा० । लकोणौ, लकोवौ, सलकोवणौ, लकोवबो, लुकाडणो, लुकाडवो लुकावरोौ, लुकावबौ--रू० भे० । - लकायोडो-मू. का. छ.-- १ किसी रुत स्थान मे रखा हरा. वस्तु की श्राडयाग्रोटमें छया हुत्रा. मिटाया हृश्रा. ४ गुप्त रखा म्रा । (स्त्री, लुकायोडी) ३ श्रहद्य किया हूम्रा ५ ४६०१ २ किसी लृगडियौ [न लकावणौ, लकाववौ--लुकाणौ, लुकाबो' (<. भे.) उ०--१ मिनख री भूख श्रागै इत्ती लाटी दुनियां मे शरम नं श्रापरौ जीव लृकावण री ई ठोड नीं लाधो । -- फुलवाड़ी उ०--२ डोकरी क्यौ --भला भ्रादमियां, भ्रा श्रीडवाठी वात व का है | श्रोलियाकड़ा, वातां लुकाव्ण री धांरीश्रा कां कुर्वाण है? --पएूलवाड़ी उ०-३ म्ह म्दारा मन सूं साची बात कीकर लकावतौ । -- फुलवाड़ी लृकावणहार, हारौ (हारी), लुकावखियो --वि० । लुकाविभ्रोडी, लृकावियोड़ौ, लुकान्योड्धौ --भू° का० ० । लुकावीजणौ, लृकावीजबौ -कमं वा० । लृकावियोडौ - देखो लुकायोड़ो' (रू भे.) (स्त्री. लुकावियोड़ी } लुकियोडौ-भू. का. कृ.--१ किसी गुप्त स्थान में र्हा हृताः र किसी वस्तु की श्राड़ याश्रोटमें्राने से दिखाई न दिया हृञ्ना, ३ श्ररष्य हुवा हुश्रा, भिरा हु्रा. (स्त्री, लुकरियोडी) लुङ्रणौ, चुङ्कबौ--देखो शलुक्णौ, लुकवौ' (<. भे. ) उ०--गूदल्धं व्योम ठकं गरद, रवि सुक्कं धुंधरां रवण । भ्रालम्म पयांणौ एण पर, कोप तेण फल्लं क्वण 1 रा, ड. उ०-२ सीह किसी साराह सरभ रव सुरौ सठक्कं । एकल की भ्रोपमा, लड भागे थह सुक्कं । --रा. द्ध, लुङ्गणहार, हारौ (हारी), दुङ्णियौ--वि० । लुरिकश्रोडौ, लुक्कियोडौ, लुक्क्योडो -भू° फा० ० । ५ लुक्कौजसी, लुक्षकोजवौ - भाव वा० । लृत्रिकयोडौ--देखो (ुकियोडी (रू, भे.) (स्त्री. लुद्धियोडी) लुक, लुक्लौ, लख -देखो 'लूखो' (रू. भे.) उ०-- १ श्राप निमित्तं कटियौ वाहिर, श्रयवा न काठ्यो परहार \ ती खातं ऊर, पंत वलँ लख श्राहार । --जयर्वाणी उ०--२ सुख श्राहारी नि कचनी गरव स्लाघावंत । भरवूजं पेट भरा कल्या, वलि वलि भगवंत । --जय्वांणी लृखौ-विः- देखो “खौ (रू. भे.) उ०--१ लृं श्रलूंरो घ्रत लुखो, सील तेज पावक सरस । मव नाथ सिद्ध पूद्धै श्रत" जोग स्गारक वीर रस। | , । --श्रत्सूनाथ जी कवियौ लुगड़ो-देखो 'लूगड़ो' (रू. भे.) लृगड्ौ-देखो "लूगड़ौ' (श्रत्पा. ₹. भे.) लगौ ४४०९६ ' लुडगो ____,_(_-( _-]-------------------~__ लगड - देखो 'तुगड़ी' (रू. भे.) लुगथुगो-वि. (स्त्री. लुगुगी) कान्तिहीन, शोभादहीन । उ०--पणा राजाजीरं उर रौ ई पारनींही) वां री घुगथुगौ मंडी किणी री निजरस्‌ ई छानी नीं रद्य, --फुलवाड़ी २ कम पानी कौ या लचपची सम्जी । रू भे.-लुकथुको । लुगदी-सं. स्त्री.--पदार्थं विरेप को सिला पर किसी तरल पदार्थं के साय वांट करया पीस कर वनाया हुश्रा लदा । मुहा. कूट'र लुगदी करणी =वुरी तरह पीटना । लुगदी लागी किसी को कटु ग्र्रिय वचन कहना । - लुगदो । लृगदो-सं. पु--देखो !लुगदी' (मह्‌. <. भे.) लृगार्ई-सं. स्वी-१ स्ी, श्रौरत । उ०--१ लृगार्हररूपरीश्रर पुरखरप्रेमरीभ्रा इज तौ छेहली मरजादा । -- फुलवादी उ०--२ गाछ लुगायां गावही, नर मुख उचत न गाठ । भ्रमल गाद मनावर कर, का सुभ वचन उगाढठ। --र्वा दा. २ पत्नी । उ०--पूरासौ रिपियांरौमेठ ! दोनूँं लोग लृगायां र॑हस्व रौ पारनीं। -फुलवाड़ी रू. भे.-लोगारई श्रल्पा.-- लुगावड़ी, लोगावडी लुगावड़ो -देखो श्लुगारई' (श्रत्पा, स, भे.) लृध-देखो (लघु (रू. भे.) उ०--्मे कव लुध दीरघता जानि, का मकि मान वडाई ठंनि। म कव सा भ्रसट जोग, म कव नानां करत भोग । --श्रनुभववांणी सुघता-देखो 'लघुता' (रू. भे.) उ०--वबडा हन कूं सव खसे, लृघता विरा कोय। हरीया लृघता वाहिरौ, रांम न परसतन होय । --भनुबेववांरी लुधवी-देखो लघु" (र<. भे.) उ०-मुहरि भ्रति लृघवी गुरभक्ति, वार चिध्रार विनांण । पय सोलह भाखर पररि, प्राखि रूप इहनांण । -ल. पि. सुघसधानिक-सं. पु.--१ तीर चलाने में दक्ष, कुशल । उ ०-तेहै घोडं कस्या किस्या खिग्री चडीया । पंचवीस वरस ऊपहुरा । पंचास वरस माहि । लुघसंधानीक विराधिवीर । -को.दे. भ्र. लुधु-देग्वो "लघु" (रू. भे.) ४. लृड्णै, लृडवौ-क्रि. ्र.--मुडना, हेटना । उ०्-एण दित श्रजन' लियं दढ श्रायौ, सभर बाट कोट संभायौ । वर्यौ मुंहुमेठ प्रथम दिन कीधौ, लुड्‌ मुड गयौ कोट निठ लोधौ } रा, ₹, लृडकणौ, लुडकयो--देखो जुकणो, जुढकबौ' (र, भे.) लृदकणहार, हासौ (हारी), लृडकणियो-वि° 1 ल॒डकिश्रोडी, बुडकियोड़ो, लुट््योडी--भू° का० $° । सुडकोजणौ, लुडकोजवौ - भाव वा० । । ४ लुडकाडणी, लृडकाडवौ ~ देखो लुटकाणौ, लुढकानौ' (रू. भे.) लृडकागहार, हार (हारी), लृडकाणियौ--वि° । ल॒उकाडिश्रोड्ी, तुडकाडियोडी, लूटकाडघोडो -- भु का० कु०। लुङकाडोजणो, तृडकाड़ीजयौ--कमं वा० । लुडकाहियोड -देखो शचुटढकायोडो' (< भे.) (ध्री. लुडकाडियोडी) सुडकाण, लुडकायी -देखो "वुटकाणौ, लुढक्रावो' (रू. भे.) लुडकाणहार, हारो (हारी), चुडकानियो-वि० । लुडकायोडौ --भू० फा० क० « लुडका्ईजणो, लुडकाईजवौ - कम वा०। तुडकावगो, लुड़काववौ- देखो "लुढकाणौ, चुदढकाबौ' (रू. भे.) सुडकावणहार, हारौ (हारी), लडकावणियौ-वि०। लृडकाविग्रोडी, लुडकावियोडी. लडयाव्योडो -भ्रु° का० ० । लुडकावीजणो, लुडकावीजबो - कमं वा० । लुडकावियोड़ौ -देखो (लुढकायोड़ौ' (र. भे.) (स्त्री. लुडकावियोदही) लुडकियोड़ो - देखो 'लुटकियोडौ' (रू. भे.) (स्वी. लुडकियोडी) लुडको-संः स्त्री. दही में बनी हुई भाय । लृडलुडागो, ल्‌ इखुडाबौ -देखो लइवडाणौ, लडखड़ावौ (रू. भे.) लृडखुडाणहार, हारो (हारी), चुडखुडाणियौ--वि० । लुडखुडायोडी--भू०° का० कृ० । ल्‌ इखुडार्ईनणौ, लुडखुडईजबौ -- भाव वा०। लुडखुडायोडो-देखो 'लड़खड्योड़ौ' (रू. भे.) (स्वरी. लुडखुडायोडी) | लृङ्णो, लूडवौ देखो "चुटी, लुढनौ" (रू. भे.) लुडणहार, हारो (हारी), लडणियौ-वि० । लृडिश्रोडो, तृड्योडौ, लूडचोङौ--भु० का० कृ० । स्‌ श्डणौ न श ष्क __ ल डीजणी, लडीजनौ - माव वा० 1 लडाडणो, ल डाडबौ--देलो ्लुढाणौ, लुढावौ' (रू. भे.) ल डाडइणहार, हारौ (हारी), ल्‌ डाडणियौ-वि० । ल डाडिश्रोडौ, ल ड(डियोडौ, लृडाडघोडौ-भू° का० $° । लडाडीजणौ, लडाडीजवौ--कम वा० । लुडाड़योड़ौ -देखो लुढायोडो' (र<. भे.) (स्वरी. लुडाडियोड़ी) लङाणौ, लडावौ - देखो (लुढाणौ, लुढावौ' (रू. भे.) उ०--चित गयौ चहुं चालि दिस, एक पडी श्रणराय । हरीया वाड़ी फुल ज्यु, लेग्यौ पाए लृड़य --श्रनुमववांणी ल डागहार, हारौ (हारी); लृडाणियो--वि० । ल्‌ डायोड्ञ--भू° का० $* । लडाईजणौ, लुडर्ईजवौ - कमं वा० । लृड्ायोड़ौ - देखो 'लुढायोड़ो' (रू. भे.) (स्वरी. सुडामोड़ी) लृड्योडो- देखो लुदियोड़ा (रू. भे.) भस््ी. ुडियोडी) | लृडीद-वि-- श्रिय, प्यारा। ०--श्रट पहर श्ररस यें, लृडीदा श्राहीन। दादू पसं तिन्न कं, भ्रसा खवर डीन्हु । --ददू्वांणी लुचाई, लुच्चाई -सं. स्वी--१ धूरत॑ता । २ नीचता । ३ कमीनापन उ०--पण एक वात कांनजी रे बडी जोर कीही,वा श्राकं वानं लृच्चाई लफगाई श्रर चोरी जारी सूं बड़ी चिड टी । लष्वौ-वि. [सं. लच्‌] (स्त्री. लुच्ची) १ दुराचारी, कुमार्गी, लंपट । उ०--लुच्चा ललचावै लालच घन लग, लोचण जन मोच सोचण खिण लां 1 --ऊ. का. २ चोर, उचक्का। ०--जिर भांत जहर सँ जहर द्वं उणी ज भांत एचोरगुंडा पुलिस सूं दवै । पुलिपस्तजे मारूट नीं करं तोएलृच्चालफगा प्राम रे फाडी करदे। --श्रमर चुनड़ी ३ दुष्ट, कमीना। $ दोगी, पाखंडी, लफगा। - लृटकणियो-सं. पु.-किसी किसी वकरी के गर्दन के नीचे लटक्ने वाला भ्रंग । लुटणौ, ल्‌खवौ-क्रि. ध्र.--१ लुट जाना, चटा जाना । उ०-उघडी चिर अरदभूत, लुटी छव लाज री 1 नोबत घुरी निहंग, मदन महाराज री । । के 2०७ -- र. हमीर | लुरायोश „=-= २ किसी-प्रिय वस्तु का हाथ से निकल जाना । ३ चोरया डाकू हारा लूटाशलजाना। परेशान होना,चराद होना - ` उ०--तलवां सं लय्ता त्तिक मेट करी मां-बाप । कासीदी कोसां मुजव, 'पातल' रो परत॑पि । --जुगतीदान देथी ५ हायन करना । । उ०--जद कूल मे लृटिया वेटाः ई घावढा रा. गुलाम व्दैगाती क्षं समतिया क्यु म्हारौ व्यान राखे । ~ -फुलवाड़ी ५ उपभोग करना, ब्रानंद लेना, रसास्वादनं करना । ९ उ०--२ इण भात मदन रस लृषियी, छंखीहा द्भुदिया । गलाव कटी विकसी, भंवर गुँजार निकसी । ˆ ` --र. हमीर ६ देखो "लोटौ, लोटवौ' (<. भे.) । उ०-१ मारौ श्रदेस सुणतांई छव वेट मलापता श्राय `उणंरं पगामें लृट्णनलागा। --फुलवाडी उ०-२ परम गुरा केसरणमें रहस्या, परणांम करा लुटकी। मीरांकंप्रभर गिरघरनागर जनम मरण सू द्ुटकी । लुटणहार, हासौ (हारी), लृटणियो--वि० । लृटिश्रोडो, लृटियोडौ, लूख्योड़ो-भर° का० ०1 ल॒टीजणो, लृटीजवौ-- भाव वा० । लट्णौ, लटबो - <° भे ० । --मीरां लृटाणौ, तुटावौ-क्रि. स- (चुटणौ क्रि. काप्रे. रू.) १ क्रिसीको एसी परिस्थिति मे डालना कि वहु च्ूटा जाय । २ श्रपनीवस्तुवमालको दूमरोके समक्ष इस प्रकार डालं देना कि वह उसका श्रपने मनमाने ढंगसे श्रधिकारकेर सके, प्रयोग कर सके । ३ वरवाद करना, भ्रपव्यय करना 1 ४ किसी वम्तु को सस्ती कीमत पर येचना । ५ दिलं खोल कर दान देना, वांटनां । उ०--रुपिया महर लृटाई रात, भगत हमरा सगद्ठा परभात । निरख निरख दठछ सिमरे-नांम, राधा गोविद सीताराम । ६ लुटने में प्रवृत्त करना । ७ वच्चे को देवता के चरणों मे लुटाना 1 ८ जमीन पर लोट-पोट कराना । लृखाणहार, हारौ (हारी), लुखाणियो--वि० । ल्‌टायोड़ो-भू° का० क० । लृटाईनगो, लृटाईजवोौ -- कमं वा० । लृटावणौ, लुटावबो--5० भे० । लुरायोदड्ो-भरु का. कृ.- १ किसी को एसी स्थिति मेंकिया हूग्रा कि वहु लुट जाय. २ प्रपनी वस्तुया सामान दूसरे के समक्ष इस ~र, स लृटावणो ~ जाना माणन म "जयः भम [1 रिकः प्रकार रखा हृशभ्रा किवे मनमाने ढंग से उसको प्रयोग मले. ३ भ्रपव्यय किया हुश्रा, वर्वाद किया हृश्रा, ४ सस्ती कीमत पर श्रोरो को श्रपनी वस्तुदीहूरईः ५ खुले दिनसे वादा श्रा, दान दियाहृग्रा ६ लोटनेमें प्रवृत किया हृश्रा. ७ छोटे वच्वोंको देवताश्रों के समक्ष लुटाया हूश्रा, ठ जमीन पर लोट-पोट कराया हृभा. (स्त्री. लुटायोड़ी) लृटावणौ, लुटाववौ- देखो लुटाणौ, बुटाबी' (रू. भे.) उ०्-घरधरश्रोधट घाट, दाट निस् दीह टावे। दिलं नहि लेव दाट, लाट गज हाट लटावं । --ऊ का, लटावणहार, हास (हारी(, लृखावणियौ--वि° । लटाविप्रोड़, लृटावियोषौ, तुरव्योड--भू० कार ० । लृटावीजणौ, तुखावीजवौ - कमं वा० । लूटाचियोडौ-देखो 'लुटायोड़ौ' (ख. भे.) (स्त्री. घ्रुटावियोद़ी) लृटियोडो-भू. का. कृ.--१ वह्‌ श्रवस्या या द्थित्ति जिसमे कोई प्रिय वस्तुहाथसेदखीनी गर्ईहौ. २ चोर याडाकूद्ारा चटा हुश्रा. ३ भ्रपव्यय किया श्रा, वर्वाद किया हुप्रा. फो सस्ती कीमत परदीहूर्द. ५ खुले दिव से वांटाहृश्रा, दान दिया हुश्रा। ६ देखो 'लोटियोडौ' (रू. भे.) ~ (सीः. -चुरियोढी) 4 "9 लूटेरो-वि.-- वह्‌ जो लूट पाट करता हो, डाकू, वागी । लृटरणौ, लृषटवौ--देली 'नुटणो, लुटवौ' (रू. भे ) ` ` उ्-स्रौणएके फंहारे प्रासमान को चुट, लगौ घख जमी प्र लौट . ज्यु लृष्रं। एेसं किसवृंका हुन्नर करि मूजरं को श्रावं । कड सून की गरजे इनाम मे पावं । --सू. प्र. लृटरूणहार, हासे (हारी), लृटरूणियौ--वि, । तृटद्िश्रोडौ, ल॒दियोड, लूटयोशो-- भू. का. क. । लुटीजणीौ, लृदरीजवौ--भाव वा. 1 लृष्रिपोडो-देखो शुटियोड़ो' (रू. भे.) (स्री. चुद्ियोडी) सृडणो, लृडबौ-देखो शलुढणो, सुट" (रू. भे.) ४०८ लृढकावियोडे लृडियोडौ--देखो शलुदियोद्ौ' (रू. भे.) (स्त्री. लुहियौडी) लुढकणो, लृढकवौ-क्रि श्र.--{ गेद कौ तरह वरावर्‌ ऊपर नी चक्रर ग्वाते हए नीचे गिरना । ज्यूं-द्ंगर मासं माटी लुढकणी । २ गुडक जाना) २३ मर जाना ) ४ परीक्षा में श्रसफल हीना । लृढकणरार, हारी (हारी), लृढकणियो-- वि. 1 लुटकिश्रोड़ो, लृढकियोडौ, लृढकयोडी- भू. का. फ़. । लुढकोजणी, लुटढकोजवौ-- माव वा. । लटठकणो, लटकबो, वृ डइकणो, लुढकबो-₹. भे. 1 लृढकाडणो, तुढकाडबौ-देखो “लुढकाौ, लुढटकायोौ' (रू, भे.) लृढकाडणहार, हारा (हारी), तढकाडणियौ-- वि. । लृटकाडिश्रोङो, लूढकाडियोल), चुढकाडयोडौ - भू. का. क. । लृठकाड़ोजणो, लृटकाड्जनौ-- कमं वा. । ४ श्रपनी वस्तु किसी | लुढकाड्यो भै - देखो 'चुढकायोडोः (रू. भे.) 1 (स्त्री. लुढकादियोडी) लुटकाणौ, लुढकाबौ-क्रि. स.--१ किसी को इस प्रकार चलाना या गति देना कि वह्‌ गेद की भांति चक्कर खाता हृश्रा नीचे चला जाय, २ गडकाना, लुढकाना । ३ मराना) ४ परीक्षामे श्रसफल कराना । लृढकाणहार, हारौ (हारी), लटकाणियौ-- चि. । लुदकायोज्ञो- भू. का. क. 1 लुढकार्दजनणौ, लुढकार्दजवो -- कमं वा. । लुडकाडणौ, लुडकाडवौ, लुडकाणौ, लुडकावौ, लुढकाड़वौ, लुढकावणौ, लुढकाववौ -- रू. भे. । लुढकायोड़ो-भू. का. क.--१ इस प्रकार चलायाया गति दिया हूना ` कि वह्‌ गेंद की तरह चक्कर लगाता चला गया हो. हरा, चुढकाया हृ्रा. (स्त्री. लुढकायोडी) सुढकाडणौः २ गृडकाया ३ परीक्षा में प्रसफल किया हूश्रा । उ०--तं मुख उडत नाग लिम लृडियौ, श्रौ सिव सिंघल दीपं ॒दिस | लुढकावणो, लुढकावबो--देखो “लुढकाणौ, नुढकावौ" (रू. भे.) उटियौ । दीप स्िचल पदमण दरसाई, श्राकरखण मंत्र पटं उडाई । । --सू. भ्र. घुडणहार, हारो (हारी), लुडणियो--वि. । लृदिश्रोडो, लृदियोशो, लृडयोढौ--मू, का. फ. । लृडोजणौ लृढोजमौ - भाव-वा. । ~ लृढकावएहार, हारौ (हारी), लृढकावणियो ~ वि. । लुटकाविश्रोडो, लृढकावियोडो, तुढकाव्योडौ भू. का. कृ. । लृढकावीजणो, लुढकावीजवो-- कमे वा. । सलुढकावियोड--देखो “लुढकायोडो' (रू. भे.) (स्त्री. लुढकावियोटी) लृढकियोड् द४०६ लुत्थवत्य _______ _ _______--~_~_~____________~____~________~__~____~_~___~~___~_-~_~_~__~-~__~_~_~_~_~___~_~____-________-~_~-~~_-_~_~_~_~_~_--- लृठकियोड्ौ-भर. का. क.--१ गेंद की तरह वरावर ऊपर नीचे चक्कर खाति हृए नीचे गिराहुभ्रा- २ गुकड्का ह्राः लुटका हृ्रा- ३ मराहुश्ना. ४ परीक्षामें ब्रसफल हुवा दुरा । (स्त्री, लुढकियोड़ो) लृढणो, लृढबौ-क्रि. ्र.-- १ लटक केर वार वार इधर उधर हिलिना, मलना 1 उ०--काचल कातरिया वा्घु मे काठ, भुतजल भेटं जां मेट श्रव माठा । कर मँ कांकरणियां जसदा गल काटी, ग्रदमुत मोरां पर लृढतोड़ी म्रारी । --ऊ. का. २ लुटकना, गिरना । ३ मस्तीमे सुमना) लृटरहार, हारौ (हारी), लृढणियौ-वि० । लदिश्रोडौ, वृदियोड़, ल्‌ढ्योडो--मू० का० कृ । लृटीजणौ, लृटीजवौ-- माव वा०। लेडणो, लृडनौ, लूडणो, ल्‌डवौ--5० भे० । लृढाडणौ, लृढाडवौ-देखो लुढाणो, लुढावौ' (रू. भे.) लृडाड्योड़ौ --देखो "लुडायोड़ो' (र. भे.) * (स्त्री. लुडाडहियोडी) लृडाणौ, ल॒ढाबौ-क्रि. स. लटका कर वार २ इधर उधर हिलाना, मूलाना 1 २ गिरना, लुटकाना 1 ३ मस्ती मे भ्रुमाना) लुढाणहार, हारी (हारी), लृडाणियौ - चि० । लृढायोड्ा-भू० का० ° । लृढाईजणो, लृढार्ईजवौ -- कमं वा० । लृडाड़णो. लुडाडवौ, लृडाणौ, लुडागौ, लुढाडणौ, लडाडवो, लुढावणी, लृह्ाववबौो-- ० भे ० । लृढायोड़ो-भू. का. क -- १ लटका करवार २ इधर उधर हिलाया हुश्रा, शरूलाया हुभ्रा. (स्त्री. लुढायोडी} लुडावणौ, चुढा्वो- देखो “लुगखौ, लुढावौ' (<. भे.) लृढावणहएर, हारै (हारी), चुढावणियौ -वि० । सुटाविग्रोडी, लृठर्गवियोड, लढाव्योडौ--भू० का० कृ०। चृटावीजणी, चुढावीजवौ--कमं वा० । लुढचियोड़ौ-देखो "लुढायोडौ' (<. भे.) (सनी. लुढाचियोदी) | लुदियड़ो-भू. का. क.--१ भिरा हु्रा, लुटका हुप्रा- वार वार हिला हूग्रा, मूला हृश्रा. २ भिरयाया ह्राः लुढकाया हु्रा । २ लटक कर २ भूमा हुत्रा। (स्वी. लुदियोडी ) लुणणो, लृणग-क्रि. स. [सं. युञ्वनम्‌] १ काटना । उ०--कत्पतव्रक्न मनोकामना पूर, एकवार वाठ, इकवीस वार लृखा । --रा. वं. वि. २ मेड की ञन को कतरना, काटना। नृणणहार, हारा (हारी), लृणणियो--वि. । लुणिग्रोडी, चृणियोडी, लण्योडो--भू. का. क. । लुणीजणौ, लुणीजवो--कमं वा. 1 लणणो, लणवौ, लवेणौ, चतवव, लृणणो, लृणवो- ङ. भे. । लुणाई-स स्त्री [सं. लुंचन] १ मेड के वाल कतरने को क्रियाया माव । २ वेह समय (मौसम) जव भेड के वाल (ऊन) कतरे जाये 1 ३ भेडकेवाल कतरने को मजदूुरी । लुणाणो, लुणावौ-क्रि. स.-१ कटाना । २ भेड की ऊन कतराना, कटघाना 1 लुणाखहार, हास (हारी), चुणाणियो--वि० । लुणायोडौ -भू० का० कु० 1 लुर्दजणौ, वुर्दजवौ -- कमं वा० 1 लुणाणो, लृणावो, चुणावणो, लुणाववौ-ङ० भे । लुखायोडौ-भू. का. कृ.--१ कटायः हुमा 1 २ भेड्‌ कौ उन कतरी (काटी) हई । (स्वी. लुणायोड़ी) लुणावणौ, लृखाववौ-देखो 'लुराणौ, लुणाबौ' (<. भे ) लुरवणहार, हरौ (हास), ृखावरियी-- वि. । लुखाविश्रोडी, लुखवियोडो, लृखा्णेडौ-- भू. का. कृ. । लुरणावीजरौ, लुराबीजवौ-- कमं वा. लुणवणौ, लृणाववौ--देखो श्लुणायोडौ' (ङ. भे.) लुरावियोडा- देखो लुखायोड़ो' (5. भे.) (स्री. लुखावियोडी) लणियोडौ-भू. का. कृ.-- १ काटा हुभ्रा । २ ऊन कतरी हुई (भेड्‌) । (स्वी. लुखियोडी) लृतफ-- देखो “लुत्फ (<, भे.) लुत्त- देखो श्लु प्तः (र<. भे.) लुत्तकेस-वि.--- केर लूंचन करने वाला {जेन} लुत्यवत्य--देखो "ल थवय' (₹ू. भे.) उ ०--दठ मुसघमांन वल्वांन ख, सुत्यवत्य धप्पं तरत । धप्पैन युद्ध पद्धरपति, भूर वीर दकं भिरत । ~= तातः सृत्य लुत्वि--देखो 'लोथ' (रू. भे.) उ०--खंषं सेह्ह खिल्हार के मर सेलं भचक्कं । खंड चटक्क खधघरी लगि सुत्व लटक्कं । -- वे, भा. वुत्फ-सं, पु. [श्र] १ श्रानन्द, मजा। २ स्वाद, रोचेकता। <. भे.- लुतफ घुणवत्य, लुयवय, चुयवय, लुधचुय-देखो 'लथवेथ' (रू. भे ) उ०-१ पाट तग वरग जंट काट खागां पड़, वहै घड़ खाग पड़ीया भ्रूगट रडवड़ं । हूर खड़ा वीर चोट सहत हडहड, घुथवय हप्रा उमराव खामंद लड , --किसनी श्रादी उ०-२ लंगरा रब्ट्रं कट नागेस नमावरां लागै, रिमां थाट ग्ररावां घमावा लागी रेणा । लोहा लुथवुथा कूपो गनीमां रमावा लागौ भाराथां मावा लायी यजां मीमसेख } --राटोड महेसदास रौ गीत ल्‌दराक, लुदरा्य, लुदरा्-देखो “्द्राक्ष' (रू. भे ) ल्‌वरो-सं. स्प्री. -१ एक श्राभपण॒ विश्षेप । (श्र. मा.) २ देखो ^द्री' (रू. भे.) पुद-वि. [सं. चुन्य ] लोभी, लालची । वुद्राक, लृद्राक्छ, लुद्रा्-देखो “श्द्राक्ष' (रू. मे.) तुष्य, लृष्धौ-वि. [सं लुन्ध] १ लालची, लोमी । २ चाहने वाला, इच्छुकः, प्रभिलापी . उ०--१ उलंवं सिर हथ्यड़ा, चाहदी रस-लुध्ध । विरह-महाघरा ऊमरच उ, धाह निहाख्ड मुच्च । -टो. मा. उ०-२ उमकवथी सिर हध्यड़ा, चाहती रस-लुध्व । ऊची चदि घाल्मि जिं, मागि निहाल मुष्व । --टो. मा. उ०-रे थाट्‌ निहाठद दिन गिरद्र, मारू ध्रत्ता-लुध्व । परदे घाघल पणा, विखड न जांण॒द मुष्व ! --टो. मा. युप--देसो लप" (<, भे.} लपक रुपक-क्रि. वि.--गुप्त रूप से, लुके-चे । उ०--लुपकं द्युपकं घी लोगां रौ, परात्र भरि पारियां । पाप चिकणां भव पेलंमे, सूव करेला स्वारियां 1 --ऊ. का. ०० - २ सुपकं दप राजमे, मोड रूढपट सोढ , खावै न कोई त्राणाद, डोफा देवं ढोठ । --नारायशरिह्‌ साहू लृपणौ, लुपचो--देमो ^लुकणौ, लुकथौ' उ०--चिलकंती भरूपाट निजर्‌ सूं लूपतौ जावै । पवन श्रवोटी उमरी सी, सायत दरसार्वं । --राक्तिदान कचिया सुपार, हारो (हारी) सपरियौ -वि०। लृपिद्रोशै, लूपियोदी, लष्योरौ--मू० का० क्र०। ४८४१० छुकब लुपीजरौ, सूपीजवौ-- साव वा० । लुपत-देखो 'लुप्त' (रू. भे.) लुपतोपमा -- देखो श्लुप्तोपमा' (रू. भे.) चुषियोड--देखो 'लुकियोडौः (स्वी. लुपियोडी) लृप्त-वि.--१ छिपा हूना । २ शठ गोपनीय) २३ नष्ट, भग्न । | रू. भे.--लुत्त, लुपत लुप्तोतमा-सं स्त्री. [सं.] उपमा भ्रलंकार का चौथा भेद जिसमे उपमेय, उपमान धमं श्रौर उपमावाचक्रमें से किपीएकका लोप हो । रू. भे.--लुपतोपमी लव-सं पू.-१ चाट, इच्छा, लोभ) उ०--थित दाह्न मेलन येलिय की, चित चाहन चेलन चेलिय की । लुव लयन पाय पुजावन कौ, सुभ राय सु न्याय सुभावन की । --ऊ. का. २ कानों में पहनने का स्ति्योःका ्राभूपण । उ०--लुव शुलत कानि प्रभा सुघर्‌ दहुंधा मनु कांमहि चम्न करं । -- सगुणा सत्रसाठ री वातत लृवकौ-सं. पु. (स्त्री. लवकी) गाय का नव जात वच्चा ) लुवध--१ देखी लुन्वौ' (रू. मे.) (डि. को.) उ०--जिम मधुकर नद कमली, गंगा सागर वेल । लबधा ठोलउ- मारुवी, कां म-कत्तहुक केल । -टोमाः २ देखो लुज्वक' (रू. भे.) लुवधक - देखो लुन्धक' (रू. भे.) लुवधी, लुवधौ-वि.-- लोभी, लालची, दच्छकर । उ०--भवरा लुबधौ वासका, मोह्या नाद कररंय । इयौ दादर का मन राम सू, उयी दीपक जोत्त पतंग । --दादूरवांणी उ०--२ ललनाम्‌ू चुबधौ थकौ, लोपि गमावं लज्जा लीक कि । जाय घन पण हप, नीर रह नहि टी नीक किं । --घ. व. ग्र. चुवांन --देखो (लोवान' (रू. भे.) उ०-- १ पिया समीप सूपरासि दासि श्रासि पासियं भरं प्रकासची उदोति दीप जोति भासियं । सुगंध गव सार एण सार मेवसार ए सवास श्र॑वर लृ्वान इवरे निसार ए । --रा, रू. लुबुद, लृबुच - देखो "लुव्व' (रू. भे.) उ०--१ सषरसरित निरमट नीर सुंदर श्रमछ श्रवर-श्नोपायं । किरि सुवुधि वचि सतसंग कारण, लृबुघ होत विलोपयं। -रा. र्‌. तष्ध, ४४११ लृठखणो वा न ~~~ लुग्ध-वि.--१ लोम ग्रसित, लालची , । उ०--लालचै दाम खाटण लुभ्व, दुखमन सास्त्रारां दसं । कर इता दूर धर्मसी करै, विद्या भखििवा ने वसे । --घ. व, ग्र, २ मुग्ध, मोहित, श्रासक्तं । ३ ललचाया हृश्रा, श्रमिलापी । रू. भे, लुगघ, लुबुद, युवु । लुम्धक-सं. पू. [सं. लु्व | वहेलिया, व्याघ्र, शिकारी । २ उत्तरी गोलाद्धं का एक बहुत तेजवानं तारो । र, भे.--लुबघ, लृबघक लृम्धणौ, लुब्धवौ-क्रि. श्र--्रासक्त दोना, निमग्न या तल्लीन होना । उ०--परदारा सूं पापियउ, भोगवड्‌ कांम भोग । विस्षयारस नुन्बउ थक, न वीह्‌इ परलोग --स. कु. लृम्यखहार, हारै (हारी), लुव्धरियो -- वि. 1 लुल्चिश्रोौ, लुच्ियोड़ो, लन्ध्योडी- भू का. कृ. । ~ लम्धीजरौ, लून्घीजबौ--भाव वा, \ 71 लष्धियोडौ-भू. का. कृ.--भ्रासक्त हुवा हुमा, तल्लीन या निमग्न हुवा हमरा । "°(स्त्री. ल्‌व्वियोड़ी).. - लू माणो, लू माबौ-क्रिः भ्र.--लोभया लालच मे पड़ना । उ०-फालौ सिहदेव तौ प्रथमश्रणीमें ही लोह चक होय प्राणां रा पोवण मे लुभायौ यकौ प्रमदा सौ प्राहुौ अरपूठो खडियौ । --वं. भा. २ सुध-वुध भुलाना, मोह मं पड़ना ' क्रि, स.--१ मोहित करना, श्रासक्त करना, २ किसीकेमनमेंलोभया लालच पैदा करना। ३ मोह से युक्त करना, श्रनूरक्त करना । लृभाणहार, हारौ (हारी), लुभाणियौ -वि. । लभायोडो- भू. का. कृ. 1 लृमारईजणौ, लुभारईनवौ-- माव वा. कर्म वा. । सुमावणौ, लुभाववौ, लोनाौः लोगावी, लोमाणौ, लोभावौ-रू. - {भायोडी-मू. का. कृ.--१ लोभ या लालच मे पडा हश्रा, २ सुध युव भूला हुभ्रा. मौह में पड़ा हुमा. ३ किक्तीके मन मेलोभया लालच उत्पन्न करिया हुग्रा. ४ मोह से युक्त किया हुत्रा। (स्त्री. लृभायोड़ी) लुभावणौ-वि. [स्त्री. लुमावणी ] १ मोहित करने वाला, लृभाने वाला, | मनोहर । उ०--नैवा श्रित खवसूरत, इसी सुवावणी, इसी मनहस्णी, -इसी सुख्रदायीःश्रर दशी लुभावणौ, लागै के वात छोडौ । -फलवाड़ी २ सुन्दर, घृव्रभूरत । लुभावणो, लुभावबो - देलो ^लुमाणो, लुभावौ' (रू. भे.) † उ०--सिल-किस्तूरी-गंव समांणी घण मिरगाढं , गंग वहावणहारः हेमाठ-सीस हिमां । लेत विसाणी मेष सांवद्टो इसौ लुभाव, भो नादि कीच गुदछढता सींग सुहवं । - मेघदूत लृमावणहार, हारौ (हारी), लुमावखणियौ -वि.। ल्‌भाविग्नोडौ, लुभावियोडौ, लुभाव्योड़--भू. का. कृ. । लुभावीजणो, लुमावीजबौ--कमं वा. ' लुभावियोडौ - देखो (लुभायोड़ौ' (रू. भे.) (स्त्री. लुभावियोडी) ल॒रडणौ, ल्‌ रडय-क्रि. स.--तोडना । उ०--इणा निमभर नै सुरड बुरड भे्ठी कर राखै, लुरड लाव सां- भाठ, साल भर सागां नाखं । दही रायतं छक, मोकटटी नमर देव, लल चावे सुरराज भाज लप लवकौ लेव । लुरडरणहार, हारौ (हारी), लुरडणियौ - वि. । लुरडिम्रोडी, लू रडियोडौ, लुरडयोडौ - भू. का. कृ. । लुरडीजरौ, लृरडीजवौ --कमं वा. । लृरदियोडी-भू. का. कृ.-- तोड़ा हमरा । (स्त्री, लुरडियोड़ी) लरणी, तुरौ --देखो 'लुटखणौ लुणवी' (रू. भे } उ०-- काह को देह धरी भजन विन काहै को देह धरी) गरभेवास की त्रास दिखाई, वाकी पीठ लुरी --द, दे. । -मीरां लुरणहार, हारौ (हारी), लूररियौ -वि०। # लुरिश्रोड़ो, लुरियोड़, लूरयोडो - भ० का० क०। ल्‌ रीजणौ, ल्‌ रीजबौ--माव वा° । तुरियोडो--देलो "नुध्योडौ' (रू. ) (स्त्री. लुरियोड़ी) ल्रियौ-सं. पू.-ऊउट कीं चाल या गति विरेप। लुरी-सं. स्त्री.-१ चम्वे कानों वाली वकरी । २ श्रव्यधिक शीतल वायु । लृढणी, लृढवौ-क्रि. अ.-- १ भुकना, नीचा होना । उ०--म्रटी, ^रतना' सांमी भ्रायं लटकं लुढछी, तठ पूरण प्रेम री गांठ पूरण ची 1 कवर छातीहुं भिड़ भिदि, सनेह रो सांम॑द्र पाजांहूं िलिमौ । [र --र. हमीर २ लथपथ होना ४ लूढणी ४४१२ सुकाणो उ०--चोखां श्रोटूं चीर, लाढठ माही लृढ जाव । श्रतर लगा श्रंग, € प्रभाव कम होना । पाद ग्रामे पुछ जावं। --ॐ. का. च०--ष्व त्‌ भुकज्या इव तूं लुद्टज्या, किरोखं माला वं रही भ्र भांगडली । भवररौरसलं रहीत्रं मांगढ्ली । --लो. गी, ३ कायं सिद्धिया उदेश्य की पूर्ति के लिए यौड़ाश्रागे वदते हुए नीचे कौ श्रो प्रवृत्त होना, भकना । उ०--१ लागू हं पहली त्‌े, पीतांवर गुर पाय । भेद महारस भागवत, भ्रामं जेण पस्नाय । --ह्‌. र. उ०-२ पुन चेत ्रासोज रा स्वेत पालां. लुं मत नूं जातरी लोक साखां । वदी किस कीरती हैक वाकं, णठी री दूती दाखतौ संस थाकं । --मे. म. १० प्रभाव में श्राना, प्रभाचित्त होना । उ०-किसृ व्याकरण श्रवर भाषा प्रन पराक्रत, संसक्रित तरौ वयुं फिर साग । लर ठाकरां तणा माया वु, श्रखरांतणा गजबोह्‌ श्रा । --नवलजी लाम १९१ देखो 'र्कणौ, रच्ववौ' = ` उ०--कट््यं श्रौ भरव कडिर्य, चुढता केस, पावां भ्रौ भरव [त पार्वं वाज्या गूधरा। -- तो. गी. उ०-२ भरी रूप रंगरस भरी, सुश्राव जन लेख । सरवरत्यां तुकण्हार, हारौ (हारी), बुटरियौ--वि° तिरखण सही, नीरज कियकं ने । र. हमीर लुलिग्रोड, चुदियोडो, वुख्चोडी--भू० का० ० 1 ४ नखर भावे सेश्राचरण या व्यवहार करना, भ्रभिमाने चल ्रादि लुटीजणौ, सुढीजवौ--भावे वा० । फो छोड विनीत श्रौर सरल होना । लकछणौ, लठवौ, लुरभौ, चुरवी--ू० भे० 1 । उ०-वेटी रौ वाप सूकौ लक्कड़ तथा ट्ठ लृं नहीं टुरणौ जांणी । | चुठतारई-सं. स्त्री.-- १ लचीलापन, लचक, कोमलता । -सदोख उ०--थोथी करडावर रौखणवाढा जंगी ख चरड चरट्‌ उयढठी- ५ प्रवृत होना, उन्मुख होना । जण लागा लृटढत्राई रालणवाछा कवटा वांटका श्रटी-उटी सदाक उ०--१ कोद श्राठ-दस हजार हाथ लाग्या । चस, भन री विरती काक लुं पण न्हारो कीं नीं विगडं । एवा खर्च खानी लृढी । | --दसदोख र बिनघ्रता, नन्नता | | कि मि उ०--२ लिछमी जी लुठताह्‌, टुकीयक म्हां खानी हुता । (तो) 9 व व व ४; व सुता व 0, ॥ व न कयौ--“यीनणी नं वरी इसी चढासां जिकौ धरां भाई देखसी । भायां नं श्रमताह. कदंद कर देती करन" -लः वारहठ --वरसगांठ ६ मडराना, घुमड़ना । "4 लृखाडणो, लृखाडयौ--देखो "लु खणौ, लुठावौ' (र. भे.) उ०-१ सवण श्रायौ सायवा, लघठलतं प गोख उरी ; 2 ध व व लृठाडणहार, हारौ (हारी), लुढाडणियौ- वि° । शोरड़ी, जोवन में भरपूर । -नारायण डश्रोडं ॥ क ९ ४ नारायणसिह सादर लुखाडिश्रोडी, लुखाड़योड), लखाडयोडो-- भू० का० ० । उ०-२ घण रासायवारुश्रोतौ सांव लुछघां धर श्राय, लदछाडोजणौ, लछाडोजयौ-- करम वा०) चेटौ जाटकौरं, श्रो तौ साभ पद्यां घर श्राय । -तेजाजी री लावणी ७ कोमलतावश इवर-उधर भुकना, सिमटना । लठाड्योडो-देखो "लुकायोडौ' (ख. भे.) (स्वरी. बुढाड्योडी) | व | ॥ लुव्ठागी, लुढावी-क्रि स.--१ भुकाना, नीचा करना या कराना । उ०-१ तेंबोढ विनां खाधां श्राहार विकार धावं, माड़ी मोदी कटारी री पड़दलठी समाव । उतररौ वाव वाजं दलण म चुं चोवारौ वाजं तौ, वीच सूं भाज जार्वं। --खींची गगेव नीवरावत रौ दोपह्रौ उ०-२ धोथी करड़वण राखणवाा जंगी रूख चर चरड़ उथठीजण लागा , लुदताई रखणवाठा कवा वांटका श्रडी-उटी लद्राक लाक चुं प व्ही की नीं विगड़। -- फुलवाड़ी २ लथपथ करना या कराना) ३ कायं सिद्ध या उद्य कौ पूतिदहेतु नीचे की श्रोर प्रवत्त करना या सुकाना 1 ४ न्न भावते श्रचरणाया व्यवहार कराना या श्रभिमान बलं - श्रादि को दछोडाना, चिनीत्त वनाना। ५ प्रवृतया उन्मुख करना या कराना। ॥ ६ मंडराना, घुमङ़ाना । ८ गतिशील या स्थित ग्यक्तिया पदार्थं का दूसरी दिशाकी श्रोर ७ कोमल वस्तु यां पदार्थं को इधर उधर शरुकाना, मोड्ना । उन्ुल या प्रवृत्त होना, मुड्ना । उ०--जनच्वा राशी रे हद, तेल श्र गुज्जीरंश्रादा री पीढी उ०--रायजादौ चुढ-ल्‌ठ पाद्धौ जोव, जांणु म्दारी जान में भावोसा कर नश्राखौ डील मसच्ियौ । वारां उतारी । हाडका लुटाया । पधार , . -सो. गी, र --पुलवादी नताय ४४१३ लृट्‌ ना ८ प्रभाव कम कराना । & गतिशील या स्थित व्यक्तिया वातको एक तरफ- से हटाकर दूसरी दिला की तरफ उन्मुख या प्रवृत्त कराना, मुडना । उ०--दीवांराजी री श्रकल श्रंड़ी वातमें अ्रणुती भवती ही) कंडी द वात न लु्ठाय कटी नै ई पुगाय देता 1 --फुलवाडी १० मोडना 1 उ०्--श्रो तौ साव इज पतौ घोद्ठौ धोढ्धौ जांणं मांदगी सूं उव्वौ वहै । इण्न लृढायी कुण ! साव इज दोलड़ौ कर न्हांकियौ । --फुलवाड़ी ११ देखो ^रद्काणौ, रटकावौ' लृ छाणहार, हास (हारी) लृक्ाणियौ -वि०। लूछायोडी - भू का० क० । लुखाईजणी, लकार्दजवौ -- कमं वा०। लृक्ाडणौ, लाइव, लूढावणौ, लृकावबौ--रू° भे० । ललाय-सं. पु. [सं. लुलायः] भमा ! उ०--कर चाप श्रटारटंकी करं, परखां सर एलम की परख । उडि वेव श्रकास हवे डरता, छिक जाय लुलाय पखाल छता । 9 --मे. म. लुछायोड़-मू. का- ¢.--१ भुकाया हरा. २ लथपथ क्रिया हुघ्रा. ३ कायं सिद्धिया उदक्य की पूति के लिये थोड़ा श्रागे वदृते हृए नीचे की श्रोर प्रवृत किया हूश्रा, भुक्ताया हृम्रा. ४ नघ्रतासे श्राचरण या व्यवहार किया हन्ना, श्रभिमान वल श्रादि को दछोडा कर विनीत वं सरल किया हृश्रा. ५ प्रवृत किया हम्रा. £ मंड- राया द्रा, घुमड़ाया हृश्रा. ७ कोमल पदार्थं को इधर उधर भुकाया या मोडा हृश्रा. ८ गत्िथील या स्थित व्यक्ति, पदाथंया वातत को दूसरी श्रोर उन्मुख या प्रवृत्त किया हुभ्रा । £ देखो ‹रट८कायोडौ' (रू. भे.) } १ ८ गतिरील या स्थित व्यक्ति, पदार्थं या वात का दुसरी तरफ उन्मुख या प्रवृत हुवा हुम्रा. € प्रभाव कम हवा ह्राः १० प्रभाव में श्राया हुश्रा, प्रभावित्त । (स्त्री. सुकोड़ी) | > लृलुलिया, लुलूसाही-सं. पू.-१ मारवाड़ राज्यान्तगेत चलने धाला एक सिक्का विशेष । । वि, वि. यह्‌ जोषपुर राज्यान्तगंत महाराजा तखतरसिह जी के समय नाजर हयकणं दारा चलाया गया था । ल्‌ वण, लुववौ-क्ि- म --पछना । उ० --लेता यं विचराम, सींचता कटी चमेली । वरस फुहारां वाग वाहणी तीर सकेली ' मगसी शरुठण-लंव कपोढठां नीर लुवती । ति भामियां छाह्‌ करौ जे फु चिती । -मेष लृवणहार, हार (हार), लूबणियौ--वि० । ल॒विग्रोडी, लुवियोडी लृव्योड़ौ - भू° का० ० । लुवीजणो, लुबीजवौ-- कमे वा० । लृहणौ, लुहबौ, कणौ, लवौ, भ्र, लूग्रवौ, तूणो, लवौ, लुव्णो, लूववौ, लूहणी, बूहवौ - ० भे०। लृवरडौ, लुवरडौ-सं. पु. (स्त्री. लुवरड़ी लुवरडी) वेट), पुत्र । उ०--थारी लृवरडी म्हारौ लुवरड प्रवतौ करौ निगोडयौ न्याव रायजादी ये रुर छला प्यारी ये लूरजेसलमेरीये । -लो. गी. लृवार--१ देखो शुहार' (रू. भे.) उ०-१ साज लोहा रा सातरा, तादा करण तयार । किसवी सारा कामरी, लीक सुघड लृवार । --रमणप्रकस उ०-र रूप जेम वारगणा, रस छदा गारीह । सारी वातां सूलखणी, लीं लुवारीह । --रमणा प्रकाश २ देवो लुवारौ' (र. भे.) (स्त्री. लुवारी) (स्त्री. लुक्ायोडी ) लूढावणी, लृढाववौ-- देखो लुदढाणौ, लुकावौ' (रू. भे ) लुठावणहार, हारी (हारी). लूटाचणियौ -वि° । लखावियोडौ - भू० का० फु०। लृद्ावीजणौ. लृदछ्ावीजवौ - कमे वा०। लुटढावियोडौ - देषो "लुदायोड़ौ' (रू. भे.) (स्वी. लुावियोडी) लृल्योडो-भू.का. कृ.--१ शुका हुभ्रा- २ लथपथ हुवा हृश्रा. ३ काये सिद्धि या उदेश्य पूति हित श्रागे व्रढ कर थोडा नीचे मुका हरा या प्रवृत्त हवा हृश्रा. ४ नभ्नता से श्राचरणया व्यवहार करिया ह्रः, विनघ्न हवा ह्र. ५ प्रवृत हवा श्रा. £ कोमल- तवग इधर उधर शुका द्ृभ्रा. ७ मंडरायाया घुमडाया हृग्रा. | ल्‌वारियो, लुवारौ-सं. पू.-- १ गाय का छोटा वच्चा । उ० ~ दादीसासू पोतिया जुवार्ई्‌ नं देखण न तरसी श्र हारी कांपती दो ग्रांगखयां एक श्रां र एडं छे देय"र रसोई री वारी सूं उलढी, जां सुवाड़ी माय लृत्रारं टोघद्धिये पर रांभीहै। --दसदोख २ देखो शुहार' (ग्रल्पा, रू भे) ल्‌वियोड़ो-भू का. क.-पोछा हुभ्रा । (स्प्री. लुवियोडी) लुह-सं. प. --१ शस्त्र प्रहार । ~~~ उ०--हुवे रसि तांम चदे सु दुकाट, चुहां त्रवघरुत दिय नेदलाल । -- चू +° 1 २ लुग्वा, रक्ष) सुण ४४१४ लगी (~ ]]-------~-----__-___-_~____~_~[~~~______~_-~__ उ०--श्ररस विरस श्र॑त पंत चुह्‌, ए चाल्या पच श्राहार। ए जीमी | लूंकी -देखो (लांकी' (रू. भे.) जीवे मुनि घन, मोटा श्रणगार । --जयवांणी | लृंकीभूगौ--१ देखो लांकी भको" (र. भे.) चुहण-वि.--चुसने वाला, शोपण करने वाला । उ०--्रवर-लुहण त्‌ माहरेजी, कच्छेजा नी कोर । तू वच्छ ध्ाधा- लाकड़ी जी, किम हुवे कठिन कठोर --जयवाणी लुहणो, बुहो -देखो ^लुवणौ लुववौ' (रू. भे.) उ०--प्रीथीराज माली चाट था वरदछी चुही ऊजटी थका भ्रायौ । --नणसी वुहणहार, हारी (हारी), चुहणियो --वि० । वुहिग्रोखी, ल॑हियोड, लृद्योडी -भू० का० कू° । लृहीनणो चुहीजवौ- माव वा० । चुहार-सं. पु. [सं- तौहा ~+ कार, प्रा. लौहार] (स्वी. लुहारण, लुहारी) लोहे की चीज्ञे वनानेया काम करने वाली एक जातिया इस जाति का व्यक्ति । उ०--१ ससौ सास सम्हातां समर, तन मन सुव तपावं । लोह गुहार तणी गति लागे, मारीमार मचाववे । --ॐ. का. उ०--२ हर तिर धर लाल लृहारी नीसरीजी हूर भर हटवाडं र मय । धटद्ल्या म्हारा प्रजवे चुहूासदीवलीजी। -लो. गी. २ चौरासी चोहृष्टोमेसेएक। (समभा) रू. भे--लवार, लुवार, लोटूकार, लोहार प्रत्पा.~-लवारियी, लवारी, लुवारियौ, लुवारी लुहार्खाती- वेट जाति का वहू व्यक्ति जो लोहारकापेशाभी करता हो । (मा. म.) रू, भे लवारयाखाती चुहास-सं. पु--- याम घटा के शिखरपर उठने वाले वादल जो घटा को स्पदा करते ही उनमें पानी ही पानी दहो जाता है) (शेखावाटी) गुरी रही लूम फी उट ! लूकौ- (स्वरी. तकी )-देखो 'लांकौ' (रू. भ.) उ०--१ प्रगत तण परताप, नहीं पास्यौ नर देही । जगमें वीज जनम, हस्यो भुंगर कनसेही । लृकौ छलड़ी किना, बूट इजगर कन वोधी । गोगौ हुस्यौ क गोह्‌, भेड भीलां घर जोगी । --श्ररजुनजी वारह्‌ठ उ०--२ लक्यां करे न लोप, वन केहुर भेठा वसँ । करन सवा कोप, रको उपर राजिया । ---किरपारांम लूंग-सं. पु.--१ शमी, ववूल वृक्ष के पत्ते जो ऊंट भेड व वकरो को चरानेके काम श्रतेहु। उ०-- १ मस्तक लील लंग, घरण री धड़ ठरावं । खेजड़ खेवा खाय, मर में छान छवावं । --दसदेव उ० --२ उंच मूख सु उट, चरुर चट लूंगा लवकं । गलर गलर गटकाय, डोलती डागां वकं । --दसदेव उ० --२ सेजडी रा लंग ई इणा तड़ाश्रागे नीं ढवे, पर॑ वापड़ा साचरी कां जिनात । -एलवाड़ी २ वंदूक पर वारुद रखने का स्थान । उ०-लखवार वंद्काय लंग लिया, करि भ्रंग भालोड़ दुसोर किया । घाह्‌ साहर ऊपर घोर घले, सत वीसांयं नाहर ठौर सलं ।--पा. प्र २ एक पक्षी विदेष 1 ॐ०--चरज सीर्चाणु सो लाग श्रातुरी, वाज वहरू की भपट) --सू्‌. प्र. रू, भे.-- लूक । ४ देखो लवंग' (रू. भे) चुहियोडो-देखो 'लुवियोड़ी' (रू. भे. लृंगतीौ-देखो "लांकी' (रू. भे ) युही-देखो “लोही' (रू. भे.) लूगाएकरी-स. पु --एक मारवाड़ी लोकगीत । उ०--१ कटं पठ कमन स्नीफल कीघ, चुटी घट काढ जिकर घ्नत | लृंगो-सं. स्व्री.--१ वहं वस्त्र जो कमर से बांधा जाता एवं टखनौ तक लीध । धुवं रणाताठ सफ न्रघ्रोम, हकां धुनि वेद करं इम होम , लटकता है । --स्‌. प्र उ०--२ भयानकः हैक करं भाराय, हिकं ममतक्क पड पम हाय । वणी-ंड दका वीगष्वरियाह्‌, लुट मृद्‌ हैक चुहौ भरियाह्‌ 1 --गु. रू. वं २ भिर पर यांघतेया विद्धानेके काम श्रानै वाला वस्म्र चिरोप। उ०--करसे रे पितत रौ पिलांगा, लाल लगी रौ घासियौ। कसा कसूमल डोर, सरव सोना रा पागड़ा) -- सो. गी. २ स्त्रियों के ग्रोढने का वस्त्र विद्लेप । उ०--{ लृगी लाच्योजी,श्रोजी म्हारा ईसरजी श्री उमराव, जटाधारी, लूगी लाज्यौ जी । लूंगी महंगी ए, श्रो.ए म्हारी पात्तलडी ए गणगोर गां री गणी, लूंगी महंगी ए । -- लो. गी. ४ एक राजस्थानी -लोक गीत । लृंक--देखो तंग" (रू. भे.) लूक -देखो ^तांकी' (्रत्पा., <. भे.) संकार-सं. पु.--ऊनफावना मोटा वस्त्रजो श्रोढने के काम भ्राता है तया इकरंगा होता ह । करीदा नहं होता । [+> १ च ॥॥ श #। ब्‌ [० 9 १ पी ४९५ ५ छोटे बच्चे का हिरन) <. भे.--लंगी, लीगी, लोगी । लंचणौ, लंचबौ-- १ हडपना । उ०--१ उजवक थका राजमे उभा, लाला गंभीर श्रभनमी रगागौ' पादो जाव न पच । लंचणहार, हारै (हारी) लंचणियौ - वि० 1 लंचिश्रोडौ, लंचियोडौ, लूच्योडो - भू° का० ० । लंचीजरणौ, लंचीजवौ--भाव वा०। लंचणौ, लुचबो--₹ू० भे° । लंचाडणौ लंचाडवौ--देखो 'लूचाणौ सूचावो' (रू भे.) री धन लंच ॥ गहर --वुघजी श्रासियी लृचाणौ लूचाबौ-क्रि. स.-- ठड़पवाना । लंचाणहार, हारौ (हारी) लंचाणियौ-वि० । लंचायोडौ,-मू० का० ° । लंचारईजणौ, लंचाईजवौ -- कम वा० । लंचाडणौ, लंचाडवौ, ल्‌चावणौ, लंचावयो - ₹° भे० । लंचायोजञ-भू- का. कृ---हडपाया हुग्रा ' (स्वी. लूंचायोड़ी) लंचावण्तरै लंचाववौ -देखौ "लूंचाणौ, लूंचावौ' (रू भे.) लंचावणहार, हारौ (हारी) लंचावरियौ - वि० । लंचाविश्रोडौ, लंचावियोडौ, लं चान्योडो --भू° का० क°। लंचावीजरणौ, लंचावीजवौ--भाव वा० । लंचावियोडौ --देखो 'लृंचायोड़ो' (रू. भे.) लृचियोडौ-भू. का. कृ. हंडपा हरा । (स्वरी. लूंचियोडी) लंछण-सं. स्तरी---१ किसी वस्तु या पदाथ को सिर के उपर फेर दान देने की क्रिया यान्यौघ्यावर करने कौ क्रिया । २ वस्त्र विशेष 1 उ०-खीरोदक ततखेव-मांहां, श्राप्यां लृदण त्रग । पड पडला पहिरणद्‌, नवहृत्थां नवर्ग । --मा. कां. प्र छणौ, लंदवी-क्रि. स.-- १ न्यौदधावर करना । उ०--रल्न-कवल सिरि लृंदणां, तनु बु्हवा तनु-सुख । त्रवला भ्रारीसु लेई रही, जमली जोवा मुख! -मा. का. प्र लृछणहार, हारौ (हारी), लंधरियौ--वि° 1 लू चिग्रोडौ, लूंखियोड़, सू ख्योड़ो -- भरु का० ० । लंखछीजणो, लंछीजवौ कमं वा० । लुखणो, लखनौ - ० भे० । । लुछियोडो-मू. का. क.--१ न्यौद्छावर किया हुभ्रा। (स्त्री. लृंचियोडी) लूजी-स. स्मी-एक प्रकार का खाद्य पदाथं विशेष । लंण | # 1 रू. भे.- लुंजी । लृटणौ, लृंटबौ- देखो "सूटणौ, लूटवौ (रू. भे.) उ०--योड कुण कर भरोसौ धारौ, वीतां वार्तां लख दय । लं कुण तौ विन लाखी, जोवन सरखौ रतन जुरा 1 --ग्रोपौ श्राढी लंटणहार, हारौ (हारी), लूंटणियो -वि° । लंरिश्रोडौ, लंटियोडौ, लंय्योडो-भू० का० ० । लूटीजणौ, लूंटीजवौ--कम वा० । लूटियोडौ - देखो लुटियोडौ" (<, भे.) (स्त्री. लृटियोडी} लंठाई--देखो ^लांठाई' (रू. भे.) लूंठापण, लूंखापणो, लंखापौ - १ देखो 'लांठापणौ' (<, भे.) उ०--१ काचा करमां सू रगा गढ रीता। साचा सोना रा वाढ- लिया वीता । गौरां खाली हूय खालां री गांठ । लेग्यो लूढापण लां री लान । --ॐ. का. लृढौ -देखो "लांठौ' (रू. भे ) उ०--१ कद मरं कुटि श्रो काठसू" कहै उडाऊं कागली । लागगौ लार लृढौ लिय, श्रांटौ कोक भ्रागलो । --ऊ. का. उ०--२ खट दसखंघ उपाड्ण खृटा;, कीरत भुज जण्हुर चिहूं कटा \ लख काज श्रांणण गिर लखा टेक निवाह्‌ वाह किपः ट्टा । --र. ज. प्र. उ०-३ एतौ सगढी थोथी वातां है चौघरियां । प्रसली बात तौ कोई दूजी दीक्षे । स्यात्‌ रोजा सूं कांम कढावणौ द्भला, लखी इनाम लेवण री मसा व्दैला । --श्रमर चूनड़ी लृड-देखो 'लूडौ' (मह्‌ रू. भे ) उ०--कवडी रा लहण मही, राखे हट कर रोक । पाग कख मांभल लिया, लंड वजारी लोक । लंडौ- (स्वरी. लूंडी) --१ मू वेवकूफ । --वा. दा. २ लुच्चा, लफगा। उ०-१ लंड मूलक रा भेढछा हुड गया । सो एक तो मुगक्र इसा वेग श्रौर एक पठण सु सेखा सो दोनूं मुलकन्‌ं सूुटं। --गेोपाठदास गौड़ री वारता देखो ग्लौडौ' (< भे.) उ०--जदी लंडीया जाय हुरमां सुं मालुम करी वाई जी सायव खीज करि महल सै नीर्च श्राया श्रु श्रा्तंही वोनीया नहीं पोढा रहे । --राहव-साहव री वात (स्वरी. लूंडिया) लंण -देखो लवण (<. भे.) लृ णहुरमि उ०--भखियौ ज लंग भूपा रौ, घणा रिजक सांमढ धरणौ । कहि सभरीक ऊजल करां, तिक लूंण सांभर तौ । -- सुप्र. लृणहरांम-वि. यी. [सं. लवण~+श्र. हराम | कृतघ्न, नमकहराम । उ०--लांरत लंणहुय॑म, "जसवंत" मे कधी जका । मढ विदरां रौ कांम, सावत तो मं ^सादला'। --दटजी महू र<. भे.-लूणहराम । लृंगहरामी-सं. स्प्री--- १ कृतघ्नता । <, भे.--लूणहरांमी । २ देखो (्तूएहरंम' (रू. भे.) उ० -लंणह॒रामी वहत देष्या, वचन न मानि तोरा । म्ह ती सामघरम रे कारण श्ररजी करू सवेरा) --हरिरांमनी महाराज लंखियोडी-देखो 'नुवियोड़ो' (रू. भे.) (स्त्री. तरियोडी) लंणो-सं, स्प्री.--१ मारवाड की एक नदी का नाम । २ वनस्पति विदेप जिसके छोटे २ लाल फुल लगते हं । उ०--लाज-लजाचू ल्मणा, लृंणी लसन लवंगि । लीलावती लुंकडी. लाहि लवीरी संमि । --मा. कां. प्र. सं. पू.--३ मक्खन । लंणो, तृवो-- देसो 'लुवणो, युववौ' (रू. भे.) ल्‌ णहार, हारी (हारी), लंणिपी--वि० । लंणघ्ोडो, लूणियोडो, लृण्योडी-भू० का० कू° । लूणीजणो,. लृणौजगौ --क्मं वा० 1 लंय -देखो लोय' (रभे) उ ०--गदटोवक हैक चटा-वख गथ, लछावट हैक लुकं हृद लय, नटन्वठ हिक हुश्रा मरन चठ, घारां महि हैक दियं घमयोढ -गु. रू, चं. तृदौ-सं. पु-किसी गदि गीते पदाथेका दले की तरह ववा हुप्रा गोलाकार पिः लदा । उ०--म्हनं थांरं काकीसा रौ कागद पठनं सुखायदोवीरा ! म्ह धान विलांवणौ करती वखत वूजी र छनं माखण रौ लूदौ दुला । --श्रमर चूंनड़ी ङ. भे.-- लाद), लोदी । सृंधियो-सं. पु. - संध्याकाल का वह्‌ समय जय कुष्ठ श्रंधेरेके कारण पनेर स्पष्ट पहचाना न जा सके । लुंग-सं, स्वी. [सं. लुक] १ रेदाम यासूतके धां क्रा गुंयाहु्रा गृच्छा जो श्राभूपसों की च्ोभा वृद्धि के लिए लटकाया जातादै। # > ~ ४४१६ सूद „~~~ उ०-ऊंचर लागी नार नवेली, माथे ऊपर मटकी । बाकूडं री लूवां वरी, ईढांणी में श्रटकी । -चेतमांनखौ २ उट घोडे श्रादि के चारजामों के एद-गिदं लटकाया जाने वाला लाल व कोड़यों का गुच्छा, भुमका) उ०--क्रत सोभति रेषघम लंब करं, घुरवा किर एलिय सं घर। रति उग्र तुरंगम भ्रंग विये, क्रम सोभत ्रावत डोर कियं। । --रा, रू. ३ बहुत सी वस्तुश्रों कासा समूह्‌ जो एकं साथ उमा, उपजा था वना हो । उ०--१ वेर्दानै दाखां वेदानि श्रनार । चिलकौ्चं वेह ग्रौर सेवृंका विस्तार । कपूर-गरभ केठीका जथ केटकी भू । सरीफटढ विदांम प्रौर नीव के लूब। --सू.प्र. उ०--२ करतीयां रौ भंवकौ, मोत्तियां री लव हीरांरौ ली सरग री भूव । --मयारांम दरजी री बात ४ सावन भदो में श्रविच्छत् व निरन्तर होने वाली छोटी छोटी वृंदं की वर्षा, इस वर्पा के वादल । उ०- १ कैह्री दीठां कठा, खठ दल करसी खेह्‌ । लृवां फड नह्‌ लग्गिया, चुवां न कांनौ लेह्‌ -- तां, दा. उ०--२ श्रगिणत दनि निजर पह भ्रागे। लनां किर स्रावणं भड लाम 1 ~र], + उ०-३ लूंवा कड नदियां लहूर, यक पक्त भर वाथ । मोरां सोर ममोलियां, सांव लायौ साथ । -वां. दा. ५ मकान में दीपकं रखने हतु दीवार मेँ लगाया हुभ्रा पत्थर । ६ मकानमे छञ्ञे के नीचे लगे पत्थर पर खोद कर बनाए हूए गोते । ७ भून की श्रवरोहु गति। उ०--पवन का परवाह, गुलाव कौ मूठ, सिघराजकौ गोटकी, तारे की तूट । भ्रातस कौ भमकौ, चक्री की चाल, चपलाकी चमकौ छाती की ढाल । सींचारीं की कड्प, हीडकी लंब खगराजका वचा, खेतु मे खं । --मयारराम दरजी री वात लूबड्-सं. पु.-- नारियल वृक्ष का फल जिसके छिलके के श्रन्दर गिरि रहती है 1 लबथब -- १ सुसज्जित, श्छंगारयुक्त । उ०--१ कलावातु सागता जरी रा लृंवभ्ुब किया, संगीत नाचणा भाव परीरा सारीख। श्राकरा फालियां पाव तुरी सावतां ऊ, श्रढाई खुरीरा घाव्रद्भुरी राभ्रारीख। -- महाराजा वद्टतरिह रौ गीत उ०--२ सो किण मातरा पलांण जिके समंकरी नीपनी मौरवी पलांसी, दांमणा चमकती, पिडांमारी लगांमी श्रारसी श्रालीश्रांरी क न 1 लं क _ ____ ४१७ मणो षे = छालीभ्रा पावर घातिप्ा, पलाख लमांणः जीण सक्ति साक उ०--» दारण "कर्मा लूंबिया दोढा, शरान" लिया दिवां भ्रोक्छ । वामः लंबभब करिनं लांमण री ञ्ीजणी ज्यों पांडवै सिणगार श्रा" तणा सुहड़ रिण भ्राया, पड्या तेरह श्रवर पुद्छाया । पार घाति चोकि प्राणि हाजर कत्रा) | | (क. --राजांन राउत रो बत-वणाव ६ लूटना, २ भ्राष्छादितः, मरावेष्टित । उ०्-पदैश्री रावजी री फौजा ठोड-ठौड़ मेवाड़ में ्राय तूंबो। उ०- लुकि सूंब्छूब कद्व होवत, श्रव के चिह्र फेर । तर डार देसरौ जछ्छ जादा दीवांणजी न पहुंतौ । दीवांराजी न फिकर ` घ्रुजत मधुर कूजत, कोकिल तिर्हि वेर । -वि. $. सबद्धौ हुवौ । ` -रनणसी रू. अ.--तूभभूम, सूुमश्रुम ७ भूमना, उमड्ना । लवणो, लंबवौ-क्रि. श्र.--१ किसी वस्तु का एक सिरा किसी दूमरी लूंबणहार, हारौ (हासे), लूबणियो--वि० । वस्तु से लगा हृश्रा हो तथा दूसरा सिरा श्रघर मे लटकता रहो, त लू वियोड़ौ, लृत्योडो-मू० का० कृ* । लटकना, लहूमना । लूंबीजणो, सूबीजवौ - भाव वा० । उ०्-जे करतौ हवै चोरी जारी, उणसूं श्रनि नहीं कीजे यारी । न्ुबणो, लुववौ, सुंमणो, लृंमवो, सूंमणो, लूमवी, स्ुवणौ, श्रुववी, वदतत न लीन चोरी वाढी, लब मततुं निवी डरी । लूमणौ, लूम -ू० भे° । ^ -धघ. व. ग्र. | लंबलबाढी-वि०--लं ्रोवाली, जिसके लवे लगी हो, लूमो से युक्त । २ लिपटना, चिपटना । उ०--१ श्रौरांरं मोचा डोडा एलची ए, म्हारी श्रंवा्जी र उ०--व्रिरछों लू्ी वेलियां! पूली फली फर्वह । सीत छांह सुहा- | - नागर वेल , ग्रौरां र पोडण हिगल्‌, ढोलियौ ए, म्हारी श्रत्राजी रे वणी, दशियर किरण दवेह्‌ ! --र. हमीर लवली सेज । --लो, गी. ° उ०--१ ण करतां सीख करी, तद रतन" श्रांखियां भरी । | लंबाल्‌व-वि० --१ पूं श्ण गार से सुसज्जित, सजा हूभ्रा । लंबी, गद्टं विलंबी । बोल णी नह श्रयी, गद्टो गहरायौ 1 र<, भे.--लांवलूव, लांगलूव; --र. हमीर लंवाद्धौ - देखो ^लुत्रालो' (रू. भे.) श्राक्रमण करना, हमला करना 1 उ०-खारा रं समदा सू कोडा मंगाया, सूनेगढ गंथायारे, म्हारी [> १ | उ०--१ हे टेली म्हारं पती घरोघर म्‌ वैर वसाया हं दिनोदिन गोरवंद लंबी । ~ रोजीना दुसमण श्राय घाड़ री घाड़ माध लंब है। -वी. स. टी. | लूबियोड़ौ-भ्रु. का क.-- १ क्सी वस्तुकारएकष्ोरकिसीमें [र उ०--२ श्रभंग जोध श्रसरमान दिस, ऊनरिया श्रसमांन रा) हुश्रा होतया दूसरा छोर ग्रधरमें लटका हुग्ना. २ भ्रुमाया कमज कणं गिरि लंविया, किरि लंका गढ वानरा । - गु" रः चं लिपटा हूश्रा. ३ भ्रावेष्टिति किया हुभ्रा, षेराहृश्रा. ४ श्राक्रमणं उ०--३ सूता पर जुद्ध मे म्हारा कतस दस दस वीतां श्रादमी किया हृश्रा । । रायन लडण वासस लूंबिया तिकानै ऊठतं ही कंत भजय दीघा । (स्त्री. लूंवियोड़ी } । क -वी. स. टी. लंबी-सं. पु.-१ धन सम्पत्ति । ५ चेरना, श्रावेष्टित करना । , + २ लाम) उ०--गड लृबी चहुं मचि दमगढ, कोट वद्र प्र जछ कठ । क न । ट न र सर्म - घोम भख्वणा गयण॒ पू घठ, कालि-पठर मुख सकति कलक्ठ गला दीरौ तै 1 निकद्िपौ । तरं ॥ भीलां दी न कद्यौ--ल्ीमाता जी लंबौ दीघो । उ० -२ वाम वार हाक लूविया वैरी, वागिया फारक घार बहे, | . -जखडा मुखड़ा भाटी री बात जोबन करे "कमां' नीसरजै, करि भारथ कुढव्राट कहे । लूंम-सं. स्त्री.- देखो "लुम" (रू. भे.) --करमसैन कल्यांणौतं कष्चवाह्‌ रौ गीत उ०--सांवण मास सुहाव्रणौ, लागै भड़ जठ कूम । उण दिन ही उ०-३ सु श्रठं वड फगडौ हवौ । श्रादमी भ्राठ माराज रं हाथ श्रासव तणी, सौरभ नह्‌ ते संम । # ॥ --र्वा. दा. ठौड़ रया श्रं । श्र, माराज पण॒ घां पूर्‌ हुवा । सत्रसाल जी घावां पूर हुवा । दिखणी च्या कानी लृंबिया है वा लोकन । सांकड लियो । लूमणौ, लूमवौ-देष्वो "चू वणौ, सु ववौ' (रू. भे.) उ०-रेसमी, गुलाव, गद, केवड़ा समुह दै । प्रर लीलडंघर्‌ तरो. व ~व. दाः वर पर चेलिडियां लूंम रहै छ । --बगसी राम प्रहित री बात तृमियोड़ो य्‌ +५६॥ सि क न-पा ननो जोन तज ० पयय कोनी 99 थ पनन िमोि ेन जण तनवो) ५ मम जक, कनन + ना मी लंमणहार, हारौ (हारी), तृमणियो--वि° । उ०~-पीव लिगु समणीध्रा, पीवो सोानि । पूत्ट सामा लूंमिश्रोड, लंमियोडौ, लम्पोडो-भू° का०.° । लीय, सणिथनि लापा पान । पा. कत. भ्र. लूमीजणो, लूंमीजवो--भाव वा० लृप्ाणो, लूपासणो, तृप्पदणौ-य. पू.- १ मवेणी रपे वाक्ते परिवार सूमियोड़ो -देलो शु वियद (रू. भे ) फी वहु स्थिति जय कोट मयेदी दूधनदेता द्रो) (स्री. सू मियोड) २ परिवार विक्षेप फी वहु स्थिति जगपरमं दूय देनै वाला मेधी लंमर्भम - देखो शुवमूःय' (रू.'भे,) नदो) लमो-देखो "लू च" (श्रत्पा.५ रू. भे.) ससो-वि. (स्प्री. नूप) १ जिसे चिकनाहटनदहो, ्रन्नि्य । उ०--ईदी कवडी माथ पर प्रोडी । द्यैली भ्रलफावटठ भुग्वह पर चिकनाहट रहित । छोडी । मणक भालरियौ भूमस्यां कटकं । सूमी भीगां री पुणी | उ०-१ दण भातिम नुष्दायं रतौ माम्नरी फाचरं प्राहू षणी तठ लटकं । अ. प्रा । षटुतौपेवीन्टीण् धरो रा एलची यामणा माजन घृखा मूषा टूक्डा पावण प्ररणश्टं भ्रा मापयी मोगणी। । --प्रमर चुनरी तूपं, पु.-१ लोप । २ फाल। ३ प्रलय । ४ येदन ) ५ गुदा ६ सद्र। (एका) सं. स्त्री -१ ग्रीष्म छतु मे चलने बाली यटूत शरम हवा । २ पौष्टिक तत्त्व रहित भाजन या जिम पौध््टिवः तत्व पणी कमी जरम उ०--गियौ सियाष्टौ, 7ध्रायो अनाटो ! प्रु वाञ्छ, सीत लाजद हो, सार रहित 1 छं । पग दाद छ । तावड़ौ तपीनह दये ब ^ ठउ०--षएम जाणो पक्वानि प्ररोमू. पापर मिं न लृष्ठौ घान । उ०--२ सादूढा केसरीरसिह्‌ ज्वारानठ 'श्रगनी सू षटतां धका वीशावन रा-हाथिश्रारी पटरी छाया विसरांम शर घ । भुयंग सरपनीसरीभश्राद्धं'सोल्रूनं तावहं रीश्रगनिसू वन्ता घकां प्रीडि द्रौडि नं हाथीश्रां र सीतठ सूँडाहरा मांह पेति पेति रहीचा ख] --राजांन राउतरौ यति - वणाव घ्रादम फी पिध करं श््रोपला" भोटा जं रलियौ ज्रग्ननि । भोगे प्ररो ३ नीरस, फोका। उ०-१ लाग पादरी धार का पर, जिरएमे कटिया हूं जिकं - हौज कटं) काइ धायाप्ररकषटुभ्रूमा, ताग बिनासारा ही नामं लखा । --र, हमीर उ०--२ रहण कषां राजन, दुरस नह प्रमता दावे ' टतण कष्या क्रि. प्र.--लागणी, चालणी, वाजणी । हिति हां, जिका पिण सदीन जान, मिया दिया मोग, वसी रू. भे. -लूश्र, लूय । किम तृखा बाश्क । साय हवं सपरत, सोकसज रट मे तलाद्वक । क्रि. वि. - तक, पयन्त । --र. हमीर तृश्र- देखो । लु (रू. सै, ) # 4 भगप्रिय, भ्ररविकर । उ०--१ दूखण दीष दुरजणौ, रोपे फचित श्रसल्ल 1 चुश् भलक्कं न्क ज~ ष ० म षि ` ग १ उ०--३ लू याजं धरती तपे, मास श्रांकरौ जेठ । धारया पावत ऊलर, ऊभी निदर हैठ । --श्रग्यात 3 कि 1 त ` 1 “+~ उ०--माहि्मां परमातम भ्राततम नही भालम्‌ । -वात्हीथण नं तज लागतै, श्रावं स्वाद श्रवत्ल । _-घध.व,ग्र. विलखांसौ वालम । भाई भाई, नं भूसौ तज मायौ । पग पग पुरसा सूम्रणौ, स्रौ पोना । नं रुख जग लागौ । --ऊ. का. उ०--वस्प्र कमाया नटामल-भरी दुरवनल प्रमा नरी । सूर श्रां ५ जिम नस्नता यी दिष्टताका भमावहौो । वांणी वकि, सोक प्रवाह सही नवि सकि । --नटठास्यानं ६ जिसमे दया, स्नेह श्रादि मधुर प्रवृत्तियों का प्रभावो । लृश्रर-रेखो "तूर" (रू. भे.) म ७०० जा ज नण 9 9.० क + ७ युरदरा। वुकड़ी-देखो लांकी' (रू. भे.) रू. भ.-- लुवख, नुक्सौ 1! लुकमुख-~सं. पु. एक देश का नाम। लगडी-स. स्त्री.--१ स्त्रियों के भ्रोढने का -वस्व। दूको-सं. पु.--लुच्चा, बदमाश । ` उ०~-भूटी -खुसडी फी खाली भ्रंख ऊगडी कोन्या, ककि दसी २ लफगा, चौर रीस श्रावं तत्पु लृगड़ो उतार, --ऊ. का. लूखट-स..पुः=~वृक्ष विरोष । २ देणो शलगडी' (भत्पा., रु. भे.) + ५ ॥>। एः । ॐ लूटायोड सूगडु ६८४१६ घूटप्य^* श _ _____ व्यापार या क्रिया । लृगड़., लूगड,.. सूगड़ी, तृगड्‌, लूघडौ-सं. १.--! श्नोढने का एक वस्त्र क्रि० प्र०~--करणी, मचणी । विक्ञेष 1 उ०--१ भ्राज श्रपूजित देव छद, पात्री लाविन पूत्र । करि लेई | पु.--लूटेरा 1 कटकु । लृगड़.. कचोरी कटि सूत्र । - मा. कार. उ०--दरूसरा वढेरा ठाकुर कै, सम राखौ गवि तो पांच दस २ वस्त्र, कपड़ा । श्रापा मारीया, उजादीया चौकस जौ उठा हीज सों पाष्चौ धिरतं उ०-१ यरिदा्यं रौ गांव लूटियौ । सासू रवाय रा लग खोयरणां । रौ मारग जाय चापां । कटक उहा री माल वितसौोश्रभरी हवी च! सु देवराज देखतां खोसणा --नणसी श्रग पाद्धै धिरतं नं इसड़ौ दवावां लूट लोक दशु हालतौ रहसी । उ०-२ ताहसं वीजा दी ठकृरं ही कहियौ-म्दै पणि लृगडा पटिग्रर -- तीड छाडावत री वात उदठहीज मजरी करिस्यां । --द. दा. उ०- ३ न पावै राव मीढौ कद नजीम, न वैरं लृघड़ा कदं नीका । डाकियौ प्रस्रण जम जिम हला दि, कसी विध ग्रावसी नीद कका 1 --श्रोपौ श्रादौ रू. भ.--लुगडो, लुगडी लूटणौ, लूटबौक्रि स [सं. लुट्‌] १ चलते राहगीर से वलात्‌ किसी वस्तु को छीनना । उ०-मिढ दल प्रबढ राडद्रह मार, सार श्रसुर साचौर संघार । मीर पचास सहर मे मार, पमंग दरक लूट ग्रणपारं। -रा, रू. २ शहर, गांव, वाजार, ब्रात श्रीर मकान ग्रादि में श्रनधिकारसूप मे धुस कर प्रवेश कर उसमें रखा माल श्र्तवाव उठा ले जाना 1 ग्रत्पा.,-- लुगडियौ, लगड, लूगडियी, लूगडी उ० --१ पडियौ हाकौ पड्गनां, लियौ मीमपुर लूट । रय उगाडा ^ र मै १ | १ ५ ५ ज लुघा-स. पू.--१ मुखलमाना कौ जाति विक्षेप रूखडा, काट दिया ज्यां कूट । --भोपालदान रषादू _ चदे सव्वदा-वेघ लचघा स्िघाणं । चडे तूरमे घातिभ्रा भूल ८ उ०--चडे स्वरा -वेघ लूघा सिषा धर # =०- २ श्रागमियौ कमधां श्सुर, लृटीजै श्रजमेर । किलम सफी-- ४ --गू-रू. वं. 0 वाख । ४ खां कांपियौ, जवन थया सह्‌ जेर । --रा. ₹. > ऋ । ५ १. धि <> र दीला-टाला । उ० --३ मुहकम लगौ मेडत. ज्या दशियर पर पेषवं। श्रपडियी उ०्-- धुर पैडनद्वाले मायो बूर, हाक केण दिसा हैराव \ दत घर लूटतां, वाहर गौहरसेख । =-रीः ह. मौने राघव स दीनौ, पाधौ लं तौ लाद्धपप्तावि । चौडी पीठ सांकडी छाती, करड़ उघड लूघा कनि । लाखा बाता पाद्यौ लील, कवर न दीजं दान कूदयन । --ग्रोपौ भ्राढौ ३ वे्मानी या धोचेसे कि्तीकी वस्तु या घन फो हडपना, भ्रधि- कारमेकरना, ४ किसीके हायसे पडीया द्ूटी वस्तु पर्‌ कन्ना करना । ५ रसास्वादनं करना, संभोग करना । उ०-जाभः रूप लूटियौ विलास श्रादूं जांम । रोस, पूज श्रली नांमरौ स पूतली पालां । भ्रुलां "चन्द्रगामः रौ न घामरो बा्वांण भूला, वामरौनभूलां भूलां काम रो वरखांण\ -र० हमीर ६ मोहित करना, वशीभूत करना । ७ किसी दृकषरे की वस्तु मनमनि ढंग से उपयोग करना । ८ उचित मूल्य से श्रधिक कीमत पर विक्रय करके ठगना । & वरवाद करना, नष्ट करना, नान्न करना । लूटणहार, हारौ (हारी), लूटणियौ -वि° । तूटिश्नोड, बूटियोडौ, लूव्योड़ो -भू* का० 5० । लूटीजणो, लूटीजवोौ--क्मं वा ० । लूटमार-सं. स्व्री--जरुटने व मारने का व्यापार या क्रिया । लूखार्णौ, लूटाबौ-देखो “लुटाणौ, चुटावौ' (रू. भे.) सूखाणहार, हारो (हारी), चूटाणियौ-वि० 1 ` लूटायोडो - भू० का० कु०। लूटा्ईजणी चूटार्ईजवौ--कमे वा० । लृटखसोट~सं. स्री. लोगों को म! रपीट, कर माल श्रसवाव छीनने का लूटायोडौ-भू° का ० क --देखो लुटायोडौ (₹. भे.) लूचर्बाण-सं- पु.- एक प्रकार का कुत्ता ) उ०--लाहौरी ताजी लूच्वांण निलजा पहाड़ी । जिकांरी मूडहय मोह नाक, हाथ भर नस, वड र पान लिसा कनि। --रा. सा. मं. लढ--सं. स्त्री -१ वलपूर्वेक किया जाने वाला किसी वस्तु का ग्रपहर्ण, छीनने की क्रिया) उ० तुरक पण मांणस घरां काम श्राया, सु तुरक पाछा विया, लूट कान की। --नणसी २ लूटमे प्राप्त धनः श्रसवाव । इ०--श्रगट गाम पुर धल श्रप्रवठ, मार-लियौ वहतां पुर मंड ! न्नोपत साथां मि ्रलेखै, लड तणौ चिगती कुण लेखं ।--रा. <. ३ विश्चप परिस्थितियों में किसी की विवक्षता से भ्रनुचित लाम उठनेकीक्छ्ियिया भाव ॥ क्रि. प्र-मर्चांणी लूटक-वि.-- लूटने वाला, लुटेरा लूटावभो । स लुटावणौ, तूटाववो --देखो (तुटौ, लुटावौ' (रू. भे.) लूटावणहार, हारो (हारी) वूटावणियी --वि० । तूटाविभ्रोड़ी, बूटावियोो, तरूटाव्योडो--भू° का० ° । लूटावियीडो--देमो लुटायोडो' (रू. भे.) (स्प्री. सूटावियोडी) सूटियोश्नौ-भू. का. कृ.--१ चलते राहगीर से वलात्‌ किसी वस्तु को छीना हृग्रा. २ णह्र, गांव, बाजार, वरात प्रौर मकान प्रादि श्रनधिकार रूप से धुस फर प्रवे कर उसमे स्वा माल-श्रसवाव उठातेगया हुभ्रा. ३ वेर्ईमानी या घोतेमेकिसी वम्तुया घनं को हडपा दभ्रा, श्रधिकारमें क्ियाहूध्रा. ४ फिसीके हायस पड़ी या दयुटी वस्तु पर कन्जा किया दन्ना. ५ रस्रास्वादन क्रया हुमा, संभोग किया हृप्रा. ६ मोदित फिया दृशा, वीभू किया हृश्रा. ७ किसी वस्तु का मनमानिदढ्ग से उपयोग किया श्ना, ८ उचित मूल्य से श्रधिक फीमत पर विक्रय करके टगाहृश्रा. € वर- वाद किया हप्र, नष्ट किया हुभ्रा, नादा किया हप्रा । (स्प्री. सूट्णोडी) । तूरी-सं. स्त्री. वहु वकरी जिसके कान उसके, शगीर्‌ कै माय चिपके हृए हो 1 तूरेरौ-वि.--१ रूट-पार कर जवरन वन्तु छीनने वाला, सूटने वाला, लृटेरा, डाकू । उ०--कान्दो साथे पाली उपर प्रापो \ प्रास्यान जी रीमरिपा) कानं पाली मारी, लूटेरू लोग चित्ते चालत रद्या। --नेणसी २ किसी वस्तु का श्रनुचित मूल्य प्राप्त फरने वाला । वि मोहित या वदीभूत करने वाला । घूठानर्ई - देखो 'लांठो' (रू. भे.) उ०--१ सार सुलक्षण जांणि करी, सदा निरंतर सेव । सखानह तू ले्लवद्‌, देव करीनद देव । --मा. का. प्र. सूड-वि.-१ वदमाश्ष, शेतान 1 उ०-- १ कोतिक लपे हूय विकराढ दीरघ रद किया, सादुल वशो चड सरीर खावण॒ कज सिया । लेखे श्रसतरी प्रभू लूड सारम सर ` लिया, दोॐ कान नात्ता दर श्राद्धट फर दिया । --र. रू, लूडणो, लूडयी-क्रि. श्र.- १ लडखवडाना । उ०-१ कटीए कल्लरा लूढता लालरा भौमि होदन्भरा गज्ज मारगरा । - सु, प्र. उ०-२ न जाणीग्र रात्रि न जांणिग्मन दीस, न जारीग्न पूरव न जारीश्र पस्चिम, सहु एकाकार हई, इमि समय (पर) दलद्र वरतमांनि राजा सन्तद्रवद्ध लोह चरणं हट सुहृद सुहृदं सगड हात्यीश्रा लडह, रथावली ऊथालवदई --व० स° ॥ , ४४२५ [9 श ` १1) [ ^~ १ परुदणहार, हारो (हारी), पूर्डरिपो--वि° ) पूदिश्रोर, पूषियाष, तूश्यौरो--भू० का० ० । सूदीजणौ, तरूरीजव्रौ- माय वा० 1 द्ुडागो, घ्रूटायो, सूखयभौ, पडाव -रू० मे० । तू णो, सूडावो-देसो --"वूटणौ, दूट्यो' (र. म.) लुटायहार, ह(री (हारी), ुखियो--कि० ) सूटायोशे-मू ¢ ० फ़ः० । पूडार्नणो, सूटार्हजनो -- माय कार । घुखायोकौ-भू. फा. ए.-१ लटरणदडया भ्रा । (स्प्री, सूद्रापौदी) तूडावणो, घुखटायनौ--देणो 'सूटणो, सुदयौ' (र. मे.) पूावणहार, हारै (हाती), दरूटावणिपो- चि. । पूशविग्रोडो, चूटायियोटहौ. दुडाव्योहो--भू. फा. ए. । तूदावीनणो, प्ुडटायीजगो--- भाय वा. घूखाचियोहो--देगो (तूषयोटौ' (<. मे.) (म्प्री. सुखचियोटो) घूटिपोडो-मू. का. ए---१ सष्टगदाया हृध्रा | (स्थी. सूटियोद्र) र वूण-देसो "तपरः (रू. भे.) उ०--१ नासं दाप दण उपानद्दै जीवत! वरी दप न दोष पपीहा पीवरौ ' पराहूरकीद्दैमाजक्‌ गान त्रमामदधां । साब वीज सटाव वगत्तर यादल्टीं । --र. हमीर उ०--२ चावह्िया नील-पंयिपा, वाढत ददु-दष्रघ्रूण । प्रिठमेरामद् प्रीउकीः तू प्रिउ कदस वरूण) --डठो. भा. मुहा. -१ चुरा सखावणौन्=किमीषा ग्रप्न साना। किमीके प्राश्य मे पलना । २ सूण-मिरच तगाणान्=करिसी वात को यदढाचदां कर तोड़ मरौ कर फटना । ३ बटघ्रा मायं लरए युरकणौ किसी को विदाना, चुमती चात कटुना । ४ चूण उतारणो, दू उवारणौ == एक्‌ रस्म विप जिसमे विवाह कै गमय दूत्दै के पीर वैठकर उसके ऊण्र से नमक घूमाना जिससे ष्टि-दोप श्रादि का ग्रसरन दहे लूणका-सं. स्व्री.--१ भाला क्षत्रिय वेश की एक शाखा । २ देखो 'चुणीः सुणरणो, लूणवौ-क्रि. सं.-- १ मेड की ऊन कतरना । [क 9 ए त स 7 । २ फसल काटना । उ०--१ सातां सात कानी ब्द, मलारने चितूण्यौ । जाशि सांमठा किसारां ईख दूष्यो । 0, दि. चं. लुणषपण ~] लृणणहार, हारौ (हारी), सूणणियो--वि* । लणिश्रोड़ौ, ल खियोडौ, लृष्योडौ--भू° का० ०) लणीजणौ, लणीजबौ -- कमं वा० लरपण लणपणौ-सं. पु.--१ स्वामिभक्त होने का भाव । नमक-ह्लाल । उ०--१ लेय ढाल हुथावय लोह लगे, श्रणियां तुल पायके पाल प्रग । सज ऊभाय पैदल सांम हणौ, परघांन उजाठत लूणपणो । --पा, प्र. लृणराव-सं. स्वी.--१ भारी वंश की एक शादा व इस क्षाखा का व्यक्ति । उ०-- १ गोपाटदेग्रोत, हडवा, लृणराव, संमा, समिजा कंदल । ---तां दा. ख्यात लृणह संम-वि.--देखो "लृणहरम' (रू. भे.) उ०--१ ति पात्तिसाह रौ ममौ ममरेजर्खान तिणि एदल नू मारि भरर टीकौ लियौ दिल्ली रौ । वरस एक राज कियौी । पाति- साह सेती लृणहरंमं कियो । --द. वि. लृणहरमी-सं. स्वी.-देखौ 'लृणहरमी' (र. भे.) उ०--१ तरं मान क्यौ -ग्रे तौ सोह महारा काम श्राया 1" तरं तुरकां क्यौ--ये लृणहरमो की तिसी सजा । -नेणसी उ०--२ नागजी खायौ खजानं रौ मालरे, वैरी, तृणहरामी हौ गयौ, श्रौ तागजी । --लो. गी. क्रि. प्रकरणी । लणाई-सं. स्ती--१ भेड़ को ऊन करने की क्रिया या भाव । २ फसल काटने का कायं । लृणागर-सं. स्वी.--१ लूनी नदी का एक नाम । ॥ लृणाणौ, लृणाबौ-- १ भेड कौ उन कतराना । २ फसल कटवना । लृणाणहार, हारो (हारी), लूणाणियौ -वि° 1 लृणायोङो-भू° का० कृ० । लूृणावणो, लृणावबो--5० भे । लृणार्ईजणी, लूणार्दजवौ - कमं वा० ) लृणायोडी-भू- का. क.--१ उन कतरा हुत्रा. २ फपल कारी हुई | लृणाचणी, लूणावचौ देखो-ुणरणौ, दुणावौ' (ङ. भे.) लृणावण्हार, हारो (हारी) लृणाचणियो--वि० 1" लृणावियोड़ौ, लृणाव्योडौ--मूऽ का० कृ° । लृणावीजणौ, लृणावीजबोौ--भावे वा० । लृणाचियोषो-देसो (लूणायोडौ' (रू. भे.) (स्ी. चूणावियोडी) ६२१ लधड़ी | > । लणि-सं. पु.-- १ मांस, मोत । उ०--१ कोई दीहतांईघाव में लूणि न श्राया चिगदा घण सजोरा सेवरसिघ जी धांम पाया! --रि, व, लृखियौ-सं. पु.--१ एक प्रकार का घास विदोष । २ मक्छन ) वि.--१ नमक का वना, नमकोन । † ल्‌ण्योडो-भू. का. कृ.--उन कतरा हुग्रा मेढा । (स्वी. लूरियोडी) लृणी-स. स्त्री.--१ वच्चो का एक देकी चेल ) २ लूनी नदी । वि. वि.--यह पुष्कर के पास से नागपहाड से निकन कर कच्छं के रन मे समाने वाली मारवाड की एक प्रसिद्ध नदीरहै। लृणौ, लूबौ - देखो ^लुवणौ, लुवणौ' (रू. भे.) लृणहार, हारौ (हारी), लुणियौ--वि० । लूुणिश्रोडो, चुरियोडो, चुण्योडो-भरू० का० ० । लुणीजणो, लूणीजयो - कमं वा० । लूत-सं. स्वी. [सं. लूता] १ मकड़ी, उणनाम । (डि, को.) रू. भे.-- लूता, लूतार । लूतरी-वि.-दीठ, निल । उ०--जाठ जीम विलाला जामे, सांडा मात सपूत्तरी। मरु नाव देवेया मविहा, ल्यावणख लोचै लूतरी । --दसदेव लुता, सूतार-देलो चूत" (ङ. भे.) (श्र. मा.) लूय-प. स्त्री-- कुज ! उ०-- वाग भ्रनेक वावड़ी, श्रदभूत फुल श्रपार । कोयल मोरे चकोर पिक, जपत भंवर गृजार । जपत भंवर गुंजार, गुलावां जुथमें। लता सूलं लपटात, सरोवर लूुयमें। --वगसीराम प्रहित री चात लुधबत्य, लुयचय, सूथवाय, रुयव्रुथ--देखो लथवथः' (रू. भे.) उ०-- हुवे लोह हस्यं, विन्द चरुथचत्यं । जड जमदाढं, करं पास कां । -- सु भ्र. उ०--२ वडा जुघां गर्यंदां ढाल वे वेत वेदीगारौ, चाठवै ससा पजा विरूथ सचाछर । ल्रुथवत्यां प्रंगरेजां सं सुर काह रूपी ल, उनागां खड्ग्गां सीह्‌, विष्हं उजाढ । --वुधजी सिढायच उ०--३ दोनूं श्रोड खांपासू, उ खाली ते हाथां । मौटरी तीर सेला, जराख घूं लृथवाथां 1 -- रि. व. उ०--४ सीसोद कमघां संफटठा, वहि मेल भट्ट वीजला हूय लृषवाय हकारियां, कर खंजर वाहू कटारियां । --सू, प्र. लूघड़्ी-वि. [सं. लुन्व प्रा. चुद्धा] १ भ्रासक्त, लुन्य । शूमरो ४४२२ । सूर स उ० --१ श्रासौ भ्राता लूधढी, हं मेलीं ईरि कंति । मधुकर | ब्ूमाणौ, मावो -देख ^लूबाणं, तूवावो' (रू. भे.) मालती परिहरी, पारचि पुटि भमति। --प्रा. फा. सं लसूमड्ै-देखो 'लृंवडौ' (<. भे.) भृम-सं. स्ी-१ पृष, दुम । (ड, को.) उ०-१ सचौडा उरां सांकडां श्रास्षणोटा, मंड पीठ मंचा जिसा गात मोटा 1 जिका गोढ पींडा उभे चाक जोढे, तिकां चांमरी लूम भा लूम तोडे --वं. भा. उ०-२ कसता विज मंड कोदंड कंधा, वणाव ब्रथा वेरर जेरवंवा । सटाया लजाठी लटाढी सुहार्वै, प्रिया नाग वाढी लखे दाग पावं । कर हाला कालरा नाद कठा, ्रथीला मरी भाला सूम गंठां। - व. भा. २ संपणं जाति का एक राग जिसमे सभी शुद्ध स्वर लगते है, ३ कपड़ा वुनने का करघा । % देषो ^लृव' (रू. भे.) उ०--१ एक समय जागीरदार उणरे वाग में विगर माणी री प्राग्या एक लूम दाख री लीवी । - नी. प्र. उ०-२ म्हारं सील को वाङ्गवंद धिरक र्यी, सावलड़ौ है वानु चंद रो लूम) --मीरां रू. भे.-- लूम । लृमककरूमक-देखो लावक मूमक' (रू. भे.) एूमभरूम- देखो लव फव' (रू. भे.) उ०- वरो वूमभूमां हुवा सज्ज वाजी, तुखारी घुरासांण माडेच ताजी । किता खेत कंवोज वाल्हीक कच्छी, उडं फाठलं लं फिर ढाठ श्रच्छी । --वं. मा. प्रमड़ो-देखो लोमड़ी' (<. भे.) सूमणो, सूमबौ -देखो "लवणो, लूचवौ' (<. भे.) उ०--१ गह धूमी सूमी घटा, पावस उढय्या पूर । सांवण महिने सायवा, कदे न रा दूर । --भ्रन्नात उ०--२ नख नहि निरखाती नाजक, नखराटी, पिय जिय प्रत- पाठी जाती पथ पाठी । घरूरण नयशणां*चल काजल जक धूमं । लडयड श्राथद्ती प्रीतम गठ लूम 1 --ऊ. का. उ ०-३ वाजरी र लुमता सिद्धां नं देख मासी रौ मन थोड़ी घणौ इच्ियौ । चान्न वातत र भच मूचौ देय बोली पंख खायां स कई जुग यीत्या । -- फुलवाड़ी उ०-४ पवन चक्र वाजं पिद्धम, गढ लूमी कर गाढ । चल महल मत चछोडज्यौ, श्राय मास भ्रसाद 1 - प्रग्यात लसूमणहार, हारी (हारी), चुमणियौ--वि० । सूमिश्रोडो, दूमियोड, लूम्योरौ- मू का० ० 1 लूमीनणो, लूमोजबी-- कमं वा० | लूभाणहार, हार (हारी), लूमाणियो--वि° । लूमायोडो--भू० का० कृ०। लुमीजणौ, लुमीजवो--कमं वा० । लूमावणो, सूमावबो-- ° भे० । लूमाको- देखो ^लृवाटी' (रू. भः) उ०-पावां पचडोरी पगरखियां पर, सूरत क्िघणसी वन रंग वेर । लोई श्रोढणनं साड़ौ च्रुमामौ, फुटर लटकंती नाडौ एूंदादौ । । --ॐ. का. लरम्यारीरोरी-स. स््री.-१ एक राजस्यानी सोक गोत) उ०--वाइ विचारं पीपठी, श्रे लरुम्यांरीडोरी जका किरभिरिया पनि, वारी श्रं लुम्यांरीडोरी। -लो. गी. लुय--देखो "लू" (ङ. भे.) उ०- महा पित्रूनउ श्रालउ, श्राग्यौ उन्हालउ लूय वाजड कान पापड़ दाफड्‌ । -रा, सा. स. लुश्रर -- देखो “वलुर' (रू. भे.) तूर-सं स्व्ी.--१ राजस्थान काएक लोकगीत जो फागुन मत्समे स्त्रियों द्वारा चक्राकार वृत मे श्रूमभ्रूम केर करतल ध्वनि केः साथ नृत्य करते हुए गाया जाता है । उ०--दहौनी श्रायी, श्रे सहैल्यां, मिढ वेलां लूर दहोढीश्रायी श्रे कोग्री कोग्री श्रोल्यां रीी बरूनड। कोश्री कोभ्री भ्रोद्यां दिखणी चीर होढी ्रायी ग्रै! -लो. गी. २ गणगौर के त्यौहार पर, गणगौर कीं परिक्रमा करती हुई, पात- रियो हारा नृत्य के साथ गाया जाने वाला एक लोकगीत, जिसमे. किसी विदेष पुरुप या राजा की कीति का वर्णन रहता है । (वीकानेर) ३ लोकं मंच पर, मारवाड़ी ख्याल करने वालों की श्रोरसे, ख्याल को समाति पर रात्रि के व्यतीत होने के समय, नृत्य के साथ गाया जाने वाला एक लोकगीत } ४ सावण भे तीज कै त्यौहार के दिन तीजशियों द्वारा गाया जाने वाला एक लोक गीत । श्रत्पा+--लूरडी } ५ देखो (लोर' (रू. भे.) उ०--१ है थट हमस-दाहुस होय, कटकां ग्यांन संख न कोय । लंणां चलं वट-वढ ल्रुर, लान पठण लसकर चुर । - गु. रू. वं. उ०-२ सांवण श्रायौ सायवा, लुढ चुदछ वरस तूर । गोख उदी. कं गोरडी, जोवन में भरपूर । --नारायणसिह्‌ सांदू रू. भे.--लूश्रर, लूवर, लूहर । लरडी लूरशी--देखौ (सूर (ग्रल्पा-, ₹ भे.) उ०--१ श्रे मा, काकोजी नै कहकं मने नूनड मंगादे, म खेल जास्युं दूरडी । --लो. गी लूलण-सं. पु.--१ रिदन, सूवरेन्दरिय 1 लूली-देखो 'लूलौ' (पु.) लू-वि.- मूख, बेवकूफ ।॥ उ०- श्रनधन जिख घर श्रासरौ । भला श्ररोगे भोग । पदसौ हव न पासं मे; लूलू कर देःलोग । --ॐ. का सूलोरा-सं. पु.--१ परिहार वंश को एक शाला" जो बाद में मुसलमान हो गर । लूलो-सं. पु.--शिदन, मूत्ेन्दरिय । ग्रत्पा.-- लूली । वि. (स्त्री. लुली) १ जिसके हाथ-पाव कटे हए हौ । २ जो कोद कायं करनेमें म्रसमथंदहो । लूवणो, लूवबो--देलो ^नुवणौ, लुववी' (रू. भे.) लूवणहार, हारौ (हारी); लूवणियो--वि० । लूविश्रोडौ, तूवियोडौ, लूव्योड़ो--भू° का० क०। लृवीजणो, लूबीनबो- भाव वा० । लूवर--देखो "लूर' (रू. भे.) उ०-१ श्रोजीगश्रो, म्न पाली रौ पोमचियौ रंगा माय । लूवर रमवा म जस्य । द, मोरी | सूस-सं. स्त्री.--१ सार तत्व ) उ०--गुण को प्रवाह, रूप को निधान, गुणवत की लूस. जोवनं को पेखणौ इसी उमां सांखुली छै! -लाली मेवाड़ी की वात लूसणौ, पूसवो-क्रि- स.--लूटना उ०--१ धरां वांद मृंहडा- सूं भागूं, गमि. घालौ लाद! गासि गांमि सूसदइ लूटायत, व्री धाडां घाद । --कां.दे. प्र उ०--२ कड मईइ कोड मुनिवर संतापि, कड उगती वेलि कापी |! रे । कद्‌ मद्‌ किना भंडारज चस्या, कद 'लीधी वस्तु नापौ रे । -नठदवदंती रास उ०--३ निहां भंडार भर्या हुता, चौर पददा त्यांहि । सरवस लूसी नीसरिउ, फली श्रांणख भ्रांहि 1 -मा, काँ. घ्र. लूसरणहार, हारौ (हारी), लुसणियो--वि० 1. लसिश्रोडो, लूसियोड़, सूस्योडो -भू° का० ° 1 लृसीजणौ, लूसीजबौ - कमं वा० । लूसाणौ, लसाबो-क्रि. स.--{लू्णौ क्रि. का प्रे ₹.) लुटाना, लुटवाना । लेदर) 7 क भ अ नगर ्रभंग श्रागिलां, श्राडरई,कोद्‌ न थाई 1' --का.दे. प्र. लूसारहार, हारौ (हारी), लूसाणियो--वि° । लृसायोड़ोौ-मू० का० क०। लसार्जणो, ल्‌ सार्दजवौ--कमे वा० लुहणौ; लरूहबौ -- १ बाल नौचना, उखेडना । उ०--श्रावड श्रावासि श्रापणडद, भ्रमिं बहता केस । पृण्य हुई तु पांमीई, वेस्या-केरु वेस । -मा. का. प्र २ देखो !लुवणौ, लुववौ' (रू. भे.) उ० --१ ताहरां राजा ऊरटि, हाथ कालि, उरौ खचि गादी कन्द आण वैसाणियी । कुंवर री ्रंखी राणी लूही महं ऊपरि हाय फेर है । --पलक दरियाव री वात उ०--२ कांमण तणा कपोल, रो, प्यारौ लूहै पीक । श्रलवेलण पिया श्रधर री, लूहै काजक लीक । --र. हमीर उ०--३' ताहरां लखंजी पो उपर पदेवड़ी फेरी 1 पेवडी सू घोड़ी लृह्यौ । --नंणसी लू हणहार, हारौ (हारी), चूहणियौ--वि० । लृहिप्रोड़ो, लृूहियोड़ौ; लूह्योड़ीः-भर° का० ° । लूहीजणोौ, ल्‌हीजबौ-- कमं वा०। लृहर-१ देखो "लूर' (रू. भे.) ऊ०--१, गहणां मे लड़ंमूव हुयोडी लुगायां री तणा लूहुर री ललकार में जि टेम सांमने वादी लंण नै जवावं देवश ग्रामे बढती तौ उणां रं पगां रा धम्मीड़ा सूं धरती धुजण लागती | --रातवासौ- उ०-२ उण दिनसूंदण चाकरी मे लाखणसी रौ चिकांरी' वीदासर बरावर वांवियौ. श्रु मीरगढ रे नवाव नूं पण इण मारियौ तिण सूं लाखणसी री लहर गार्ईजं है 1 --दः दा. उ०--३ तरे सांवरी तीज ऊपरां चढियौ तिकौ पाते पोहर घडी दोय दिन थकां महैव तीज मिदी छै, तीजरियां लूहरः गाव छ। --जगमाल मालावत री वात लहिोडो- देखो लुनियोड़ी' (रू. भे.) | (सत्री. लूहियोड़ी) - लेग-सं. पु---१ वह पुरुप जिसके वाल-वच्चे व स्री प्रादिन हो, उ०--वोदारे श्रडा वहै, सोदा मने सग । भुकोड़ा भंमता। फिर, लाइ्‌ खाव रंग । ले-सं. पु--१ दान ---ॐ, का. २ तार ३ पत्र सुत राम ५ दक्ष ६ वस्तु ७ मलिन = ढंग, तरीका € मेल, मित्रता (एका.) ्रव्य, -- १ तक, पयन्त + श ४ उ०--सोरठ माहि सह को नाठ्डं, भर्वा देष लूसाई ।-माजईइ“| लेइरणौ, लेड बौ -देखो ्लतेणो, लवौ" (रू. भे ) तेह्योओे ४४२४ लेखउं ~ ~~~ ~ ~ - = ~~~ ~ ~ --~-~ -----~-~-~-- ~ --~ ४ उ०--१ जिम नाम्‌ जुं जारि ते वांणिक लेहनि वालि। तिम उ०--२ दामोदर त्रुभ दसं द्रगपाढ, करिता इक पार न जाश ध्याताए दरुठा जमणी, रवि ससि ति कूंडालि । --नटास्यांन काठ । उमातौ पार श्रगम्म श्रलेख, लखम्मी तूर न जारो लेख । उ०--२ श्राडौ प्रडि एकाएक श्रापडे, वाग्यौ एम रुखमणी वीर --ह्‌. र. प्रवा जेड घणी भुं प्रायौ, प्रायौ हुं पग माड प्रहीर । ॥ ७ प्रारम्व, भाग्य । --वेलि. उ०--१ सुम मि श्रसुभ लेख विध साख, श्रसुम सगुन प्रथमी सह श्राखं । जोतिस सगुन विहं विध नाण, पोह्‌ ज्यां वरजं लेख प्रमाणं । - सू, प्र. उ०--२ सामि ध्यान धरं दुज साचौ, तिणानूं वर वाल्मा त्रपु राची । करतां ध्यान स्कति दरम कहि्यी, लेख प्रमांण सपनि चप लेदणहार, हारौ (हारी), लेदणियी--वि० । लेदश्रोडौ, लेदयोडी, तेयोडो-भू० का० ० । लेर्दजणो, तेर्दजनवौ-- कमे वा०॥ लेद्रयोडौ - देखो लियोड़ौ' (रू. भे.) ` (स्त्री लेदयोड़ी) लदहियौ --सू. प्र. ~स. स्तरी.- म कं साथ घोलकर प्राग पर ५ तेर्द-सं. स्वी--१ प्रादाय मंदाक पानी के साथ धोलकर्‌ प्र उ०--२ रई लेख ्रेसी भद्‌, ह्र हर कर जिश्र हाय 1 कासी दिस पका कर गाढा वनाया हृश्रा लसदार पदाथं जो कागज श्रादि कलिशरांणमल, चर्लह॒ भसम चढाय । चिपकाने के काममें श्रताहै। २ गाय भसके दूष पीने वाले वच्चे का मल, विष्टा। ॥ . रू. भे.--लई उ०--४ गहणी पोसाख नहीं तो पि रिरघवढठ सूरज श्राय ॥ चंद्रमा दीपं त्यूं दीसे यौ! पिणलेख स्‌ जोर नहीं । ऋ १ 1, ॥ 1 व्या रपून्‌ पय (न कचर-सं. पु. [भ्र.] १ व्याख्यान, भाषण । --जगदेव पवार री बात लेकचरवाजी-सं. स्वी.- भाषण देनेयाकरनेकौ क्रिया ने लेफचर २ श्व भावणदे +, ८ लौकिक मान्यतानृसार विधाता द्वारा भाग्य में लिखा श्युमाश्ुम क्रि, प्र.--केरणी । घटना-चक्रं । । (= लेकण-देखो नलेखण' (रू. भे.) उ०--१ कल्यौ न मांनत क्यूं क्यौ, भलत हौ द्ग देख । टलं उ०-लेकण कर खाग राड रा लदणा, सिगवी तं लीधा सरताज। नहीं तिल टचियो, लिख्यौ विघाता लेख । -गज उद्धार माग जक श्रजै नह्‌ मूक, श्राठ गुणा देतां ई श्राज । 1: । ` --वुघजी भ्रासियौ --कल्यारसिघ वाटेल री वात ६ समाचार । तंग १० प्रतिज्ञा-पत्र। -वि.- १ लिखने वाला, लेखक । ध ठ | उ०-रांण समनि व्यरा विवाहुरौ नरम कीषौ सुरि कुमार लेवह-सं. प.--१ हिसाव । ' व ् तौ चंड वडा प्रसभे र प्रमाण पितारौ संवंधं करवाद्र श्राप वित्तीड्‌ उ०--“र्तनिगुः ए शुनिगुः वेवि, दांणु दियंतउ नवि विसए1| री गादी छोडण रौ ज्तेव करि मारवाड रं श्रघीन कीधौ। माणिक ए मोतिए दानि, फणय कापदु लेखडह किसए । च --बं. भा, । | --पे. जे. का, सं | भ ११ परस्पर की हुई लिखापदी, लिखत । लेख-~स. ¶.--१ लिखे हए भ्रक्षयों का समूह । उ०--इण कारण जिणा रं जमी होइ सोही सूरवीर ठाकुर कदार्व। २ लिखायट । 6: 44 - : परन्तु जता श्रवही सी मीणा री चाल चोडि रजपूतां री राह री ३ पत्र, चिदु 1 | राह में रहण रौ लेख करि संप तौ यौ संबंध करण में श्राव । उ०--१ लेखिखि कागस लेर्-करि, लिखवा वर्ई्टी लेख । गुण _वं, भा. गरतां-गह्िनी धई, जांणड रती न रेख । --मा. कां, घ्र. १२ पाप, कके । उ०--२ भया करनं मूकजीः; कुसल खेम ना चेख । लीलापति लख- & ५ ॥ य क | उ०--चिलफत करं विसेस, प्यारी गढ लागपियार। हौ चिस्वां 1 सु दष) । -री. मा. ग्रति ५। वि सः सख टि ९ * ~ ९ % निबन्ध, रचना । हण, किस्तका लेख क्रिया र । रग उद्धुरंग री रात, दुरंग ४, लिपिवद्ध विये हुए विचार, लिखी हुई वात । जिर साय दिखाई । ईस्वर गति श्रलेल, पार करिणी नह पाई । [सं.] ६ देव, देवता 1 (ह. नां. मा.) --बस्तावरजी मोतौसर उ०--१ सरीरथुनाय समत्य, हत्य धारण धनु सायक । सेवक रू. भे.- लेख, लेखव, लेखि, लंखव । --- सरण सघार, तेख सेवे पेद लायक । --र. ज. श्र. | तेलंड-देखो लेखौ' (रू, भे.) मैः ह तेखवरणो लेखक ४४२५ लेखवरणौ ~ ~ ~~~ उ०--१ जीरण्ण रियं खांघे पंजरे करी दीजईइ, लिहणा देवा श्रावां कं पकड लावां तौ रजपूत लेखी । . लोहृडीयानी लाज न कीजङ्‌ लेखञ करी लीजद्‌ । ---व. स. --प्रतापरिघ म्होकमसिच री वात उ०--२ हरिद्रा तणड रंग, पाणी तणउ तरंग, दासि तणंउ इन, ३ सोचना, विचारना । श्रवा तणा मउर, कल।लनउ लेखं मद्यप तणयं प्रतिपन्न 1 ४-मानन स्वीकार कनो । | --व. स. ध त उ०-पेखियौ सहर जो्धांण पत, सव जग धणी संपेखियौ । वप लेलक-सं. पु.--१ लिखने का कायं करने वाला, वहु जौ लिखता टी । प्राभं परख च्यारू वरण, लाभ नयण पणा लेखियौ । --रा. ₹ू.. २ श्राजीविका या मनोरंजन हेतु कहानी, उपन्यास श्रादि लिखने ~ ~~ - । ५ देखना । ` वाला । । ्नोडं क उ०--समग्रि भार धर गुणां सवाया, श्रोड कच धमक थठ श्राया ।. ॥ मुज एेम कटि भार भक्रायौ, लेखि प्रीत सुत हियै लगायौ । -रा रू. ३ किसी कति कारचयिता। ` ग्रल्पा.,-- लयौ, लेहियौ ` लेख, लेख णि, लेख णी-सं. स्त्री.-- १ लिखने या ब्र्षर वनाने की वस्तु. कलम, लेखनी । उ०--१ प्ररो तुं कागज दोतलेखणलं श्रावै त्ते तोने लिख यां तद गुवाढ तीरं कागद दौतलेखण पेटी महि थीसो काठंनं राजा हस्घुर मेत्या । ` --र्गांम राघणी री वात ६ हिसाव करना. गिनती करना । उ० - चंद्रकला ते विकला जांणौ, घटत बढत नइ लेखह । साहिव नइ तड सदा सुरंगी, वाघई कला विसेखडइ । --वि. कू. लेख णहार, हारौ (हारी), लेख णियी--वि ० । लेचिश्रोड, लेखियोडो, तेख्योडो-भूऽ का० कु० । लेखीजणी. लेखीजवौ-- कमे वा० । । -4 लेखवणौ, लेखववौ --रू० भे० ! क --भ्रोषो प्राढौ | लेखन देखो लेख (रू. भे.) उ०--३ जाकी ममि चदि चठ पंयौ जोव भुवणि सतनं मन तयु उ०--परीक्षासुद्ध॒रतनजाति लीजइ, परदेसी वस्तुनां श्राय -मिचित"। लिखि राख ` कागल नख लेखणि, मसि काज ग्रासू उ०- २ भन जांसौ पिञ पै मिसरी, छाछ सोवनी मिठं न छट । वछ्िया सौ पाछा कुण वाद्यं, उण घर री लेखण रा रट पुद्ीदं वारुत्रना लेखना टीपण संभालीदं । --व, स. मिषति = लेखप्रणाढी-सं. स्वी. यौ.--१ लिखने की हली, ढंग तरीका । ॥ १००६०५०४. = १ लेखरिखम-सं. पु. [सं. लेखषभ] १ इन्र सुरपति । (ह्‌. नां. मा.) | 6 नि लेखवणो, लेखववौ- देखो" लेखणौ, लेखवौ' (ङ. भे.) १ खांसी नामक रोग । | । उ०-१ 'ललौ' 'कमौ' प्राचागली, ^सूजी' वैत" हराह । चीत मठावी.. ६ वहत्तर कलाश्नौ मे से एक । दुरगसी, लेलवि प्रीत घराह्‌ । --रा. ङ. ७ समभने या जानने कौ क्रिया । वः ५ ^ ध 9; १ 1 + ॥ 1 ( | हता 1 श्रौ वी समे दिवस खडि ग्रायौ, लेखवतां मग मास न लायौ। --रा. रू. लेखणौ, लेखबो-क्रि. स.--१ लिखना । ; उ०-३ तांरतौ माण ताकं तिर्कौ, उंघें मूख सं ्रांगरौ । चेखचवोौ उ०-१ "प्रजन तणौ लख जोस श्रफारौ सोच करे जवतां दल दुरस सगं लखर, मरण सरीखौ मांगरौ । । --घ.व, ग्र सारौ । पातसाह उर में भ्रम पायो, लेलिभ्न पुत्र श्रजीमः वुलायौ । उ०--४ हमं पीठी सिनांन सारू भख वसतर खोल है. तिर -रा. सम इणरौ रूप देख.-नायण “रंभा' योल है । जो कमलां ऊपर हीरा उ०--२ कागठ नहीं क मस नहीं, नहीं क लेखणहार ! संदेसा ही देखवां तौ नखां सहत यां पगां नं उपमा लेखवां । -र. हमीर नाविया, जीवं किस श्राघार । -दटो. मा. उ०-* विण हणु लंक प्रखर विभौ, सत्र गसि कण. मांह २ समना, जानना । खमणा 1 शश्रभसाह्‌' विनां पतिसाह्‌ अरति, चेवचि श्रौर न लख जण उ०--१ लग मत्ता चौवीस छंद मत्त लेखजं, सुज यां श्रधिका मत [र --रा. <. उपदंद विसेखजै । वरण मत सम नहीं श्रसम पद , जां णजे, वै चंदा उ०--६ निलवटि कस्तूरी तिलक, म करिसि मुधि ! श्रयांणा । मिक दंडक मत्त वखांराजं । -र.ज.भ्र. ' सरहिजि ससिहूर लेखवौ, करसि राहु-विनांण । -मा, कां.भ्र. उ०--२ लिणसूं किणही नै फरमाय हाय देखी । कं तौ मारि । लेखवणह्एर, हारौ (हारी), लेखवणियौ--चि० । सेवि ४२२९६ चेपविप्रोष्टौ, लेपवियोड्ी, तेखव्योड्--भू° का० ० । तेठवोजणीौ, तेलवीजवो-- कम वा० । चेददद्ि-वि.- १ भाग्यतेदा, भरारन्धवश । सेजम दुःख पठ्यु ए, क्रियहि नावि लेषु । --नलाच्यांस लेखे, लेख-क्रि. वि.- १ हिसाब मँ, गिनत्ती मे 1 २ निमित्त) उ- -पदहार घणा हणि सुजस पामि, कमघज्ज लेखवद्ि श्रयो | तेषवासौ-सं. पु --१ वही का वह्‌ भाग जिस ग्रोर खचं की जने वाली कामि 1 रच सवी महूरत इक्षे रेण, जिण वंधराज धर श्रडिग जेण । --सु, प्र. लेपवि-सं. स्यो.-- १ पुप्प, सुमन । (हु. नां. मा.) २ सक्ष्मी । तेखवियीडौ --देखो लिखियोडी' (<. भे.) (स्वी. तेखवियोडी) तेपसाल--१ पाठशाला । उ०--१ देवकुल श्रदालप्रास्तादभाल पोसघसाल लेखसास हस्तिसाल तुरगसाल, व्यायामसाल । --व. स. उ०--२ वरचि माड़ी लेखसाल, पंडित छठात्रप ठावि रे) छीलर जल थू हु, कारि फिठहू श्राविरे। । --प्राचीन फागु-संग्रह लेषातर-सं..पु. [सं. लेख ~-म्रन्तर | भाग्य, प्रारब्ध । <. भे.--लिातर। लेपापसि-मि.-- श्रपार, श्रस्स्य । उ० -१ तेखापाये सूटिया, घोड़ा ऊट दरन्ब । रौद्र प्रचार संधारिया सारे मार सरच्र। -- रा, <. लेयाफाड, लेखावही-स. स्त्री.-तेनदेन का हिसाव या लेखा रक्खी जाने याली वही जिसमे सूद श्रादि जोड़ा जातादहै। तेष्पएरियभ-से. पु. (सं. तेपपम] १ एन्द्र, सुरपति (ह्‌. ना. मा.) लेदि--देसो तेस' (ङ. मे.) उ०--१ टोला रदितनि निवारियउ, मिद्िसि दई कड सेखि । पंगढ हरस ज प्राहण ठ, दसरादा लग देखि 1 --टठो.मा. सेणिणि-देसो शतेपण' (रू. मे.) उ०--१ लेसिणि काग तेई्‌ करि लिखवा चर्ईटी लेख । गुण गरतं गहती थर, जाणडरतीन रेख । --मा. कां. प्र. तेपियोल्न-मू. का. क.-१ लिखा हप. २ सममा हुश्रा, जाना पा. ३ सोचा हमरा, विचारा हु. ४ हिताय लमाया या क्रिया हशर, निना हश्रा.- ५ देया हुप्राः £ माना हुश्रा, स्वीकार किया भ्रा. (म्प्री. सेदियोदी) सेपिराति, तेसिराती-सं. ध. [स. तेव्यराति] १ श्वान, कुत्ता । सेषु -देग्यो किममी (ख. ने.) उ₹०--सुदर मुम भोहाम्फरे, तेह हवि किदं देसु) एकं वारि | रादि श्रकित की जत्तीदह। लेखौ-सं. प.--१ भ्राय-व्यय का विवरण, खाता । २३ समानता, साह्श्यता । उ०--एक मिं है लेखौ. लिलाड देखौ भावं श्ररधर्चद्र देखो । श्रा उपमा सुरातां ही भ्रावं रीस, कठं नाठर नं कठं सीसं! --र. हमीर ३ व्यवहार । उ०्--सांचापण रहियौ सरस, चेखो सम लियोह । श्राप दियो जदं श्राप नू, दिल म्ह पहल दियोह्‌ । --र. हमीर ४ हिसाव, विवरण । उ०--१ नगद वजात रौ ले करौसोलेखौ क्रियां खजांनौ धरौ दीठं तरं उजीरां श्रमरावां कही - इतरौ माल दरवेसां नू नहीं दियौ चाहिर \ लस्कर विगर सामान नहीं रटै । नी. भ्र. उ० --२ श्रांगणा म्हारे लोटाजी तिरिया, पिषछवाडे हसती त्िराया जी। भोढास्रा राजननल्लेखौभी माग, दमडी को तेल कठ गयो जी। --लो. गी. उ०-३ दैखो विगड़ी देह्‌, डोढ विगड्गौ देखी । विगड़ गई सब वात, लारलौ ल कुण लेखो । -- ऊ. का. ५ गिनती, गराना । उ०-तीन वरसामेवे तीन वेला धरं श्राया ; वीस“ "बीस दिनं रीद्धुटरीमे। बा श्रागियां माथं गिण लागी ।**"एक वीस“ दो वीसी श्र तीन वीसीः""तीन वीकष्षी दिनां रा महीना कितस महीना ग्ड । मगर्वान जाश ' किणं लेखौ प्राव । --श्रमरचृनदी र. भे.--लेउ, लेख । तेडी-षे. पु. --१ ऊंट का पतला विष्टा, मले । तेचि, तेद्धी - देखो -लची' (रू. भे.) लेजम-प. स्वी. [फा-] १ एक प्रकार का धनुषं । उ०--्पंक्रि पटा एलहा, सोरि छिलकार कुसव्री । तस कसीस लेजमां, जजर गत्ती जाजश्री । ज्यान मदी बज्जर. भरर दाढा चवे फेररा । मोह चदी मौर, हौ कट्वी समसेरां । इलर्मां कूरांण कदि कि श्रली, वदे वीद हृं वरण । हावस्स खेल जही हरख, मुसलमान वहुर्म मरणा । -सू. भ्र. २ धनुष चलाने का अस्यास कटने कै निमित्त नी हू नरम प्रौर लचकदार कमान । ननी 1 पी टसं. स्त्री- १ लेटे की क्रियाया भराव ,। नेट ४४२७ ` "लप कराया हुभ्रा, सुलाया हुवा. ३ श्राराम' करने में प्रवृत कराया ह्श्रा। (स्त्री. लेटयोड़ी) लेटावबौ-- देखो शलेटाणौ, वेटावौ' (रू. भे.) लेखावहार, हारौ (हारी), लेटा्वंखियौ --वि० । लेटाविश्रोडौ, लेटावियोड, लेटाव्योडौ--भू° का०-$° । लेटाबीजसौ, लेटावीजबोौ-- कर्मं वा० । लेटावियोड्ौ-देखो लेटायोडी' ॥ (स्त्री. लेटावियोडी) लेदियोडौ-भू. का. कृ.--१ कोई वस्तु या व्यक्ति मुक कर जमीन परर भिराहृभ्रायासटादुग्राः २ सोया हृभ्रा, सुप्त । (स्त्री लेटियोडी) लेटौ-सं. पु.--कमी । लेड-देखो लेडी" (रू. भे.) लेडकौ-सं. ¶.-- देखो (लंडकौ' (रू. भे.) लेडौ , (स्वी लेडी) --१ मूख, वेवकूफ । : २ कायर राजपूत । [श्रं.] २ -देरी, विलम्ब । उ०-लजिणदिन संमदं इणरी माने साध चटायनं पुगायने श्रायो हं, उणदिन सूं लगायनं श्राजदिन तई भ्रौ नितरोज मोटर माथं जाव प्रर उणरं आ्रवणरी वाट उडीकं । मोटर पच "दम मिनट लेट मे भलाई व्हौ पण इण रं जार्वण मे जेज नीं ब्द ~-रमर चूँनडी वि०-जिपे देरी हुई हो । ८ सस्णो, लेयबो-क्रः श्र. [सं. लेटनम्‌] १ किसी खड़ी रहने ` ली वस्तु या प्राणी का जमीन पर गिर पड़ना, या जमीन से. सटना । उ०--कर- विधान करवत ले कासी, ने व्रज रेणु. लेटे । प्यौ न दिल प्रभुर पद पंकज, भिसत न त्यांतिक भेट । --र० ० २ शयन करना, नींद लेना । २ श्माराम करना, सुस्ताना।ः लेटणहार, हागै (हारी), लेटणिंयो -वि० । तेटिश्रोडौ, लेरियोड़ो लेध्योडो-भु° का° $° । लेरीजणो, लेटीजनौ - माव वा० 1 लेटफीस-~-सं स्धरी., यौ. [अरं. लेट-+फी] १ निश्चित ग्रवधिके पदचात्‌ किसी वस्तु श्रथवाव्यक्ति को प्रवेश हेतु दिया -जाने वाला ्रतिरिक्त शुल्क । -उ०--फिट "वीकां" फिट कालां, जंगढधर ेडह्‌ । 'दकठ्पत' हृड लेटरबाक्स-सं. पु. यौ [ब्र. लैटर ~+ वकस | १ उाकंखाने का वह डिन्वा, ठयं पकड्यौ^भाज गदड भेडांह । ~ श्रज्ञान जिस्म वाहर भेजी -जनि वाली चिद्वियां-श्रादि डाली जाती हं । मदे--लेड लेटाडणो, लेदाडबौ- देखो लेखाणौ लेटावौ' (रू. भे.) लेटाडणहार, हारौ (हारी), लेटाङणियो--वि० । लेटा, लेटाडियोडौ, लेटाड्योडो- भू का० ० । लेटाडोजणो,. लेटाड़ीजबो--कमं वा० । लेटाड्ोडो- देवो लेटायोड़ौ' (रू. भे.) (स्त्री. लेटाड्योड़ी) लेटाणो, 'तेटागौ-क्रि. स. (क्रि. का. भर. <.) १ किसी -खंड़ी रहने वाली वस्तु या व्यक्ति को भुका कर जमीन पर गिराना, या सटाना । ` लेण-देखो "लाइन (रू. भे.) लेणदार-देखो भ्लंरादार' (रू. भे.) लेणरित-सं षु. १ याचक, भिखारी । (ग्र. मा.) लेन-देन - देखो लेख देण' (रू. भे.) लेना-सं. स््री.--१ भाटी वंशकी एक शाखा । . उ०--मादियां री खाप लिखते-जेचंद, जेतुंग, बुध केलण सरूपसी, सीहड़, लेना, छखीकण । --वां. दा. स्यात लेप-सं. पु.- १ कोई गाढ़ी एवं गीली चस्तु जो किसी दुमरी वस्तु पर लगाई या पोतीजनेकीरहो। २ उक्त प्रकार की वहु तह जो किसी दूसरी वस्तु पर लगाई या चटढाई गड -हो। ३ उवटन २ दायन करान, सुलाना 1 ३ श्राराम करने में प्रवृत्त करना । लेटाणहार, हासौ (हारी), लेटाणियौ --वि०) ` लेटायोडौ --भू०° का० ° । क लेटाक्नणौ लेटाईजबनो - कमे वा० । °" लेखाङ्णौ, सेटाड़बौ, तेटाणौ, तेटावौ, लेटावणो, लेटावमो । --र<० भे० 1 सेटापोशो--भू०'का० क०--१ किसी खडी रहने वाली वस्तु या वपक्ति क्रि. प्र, करौ, चढाणौ, लगाणौ फो भुका कर जमीन पर गिराया हुमा, सटाया इमा. ¦ २ शयन | - ₹ू. भे. लेपन । उ०--ऊगटि-काजि उतावलुं कीघुं करदम-यक्ष । ललना लेप करद रही, सेवा-विसडइ समक्ष । --मा. का. प्र सेवक ~ = -----------------------------------------~_ लेपक-वि-- तेप करने वाला 1 लेपकरम्म-सं. पु.-- १ स्तियों की ६४्कलाश्रोमे सेएक ) उ०--१ भ्रंजन, लेपन, चिघ्रकरम्म, उपलकरम, लपकरम्म लोहकरम्म । --व* स लेपडौ -देसो श्लेवडी' (रू. भे.) लेपणो, लेपवौ -क्रि. स. [लेपनम्‌] १ किसी गदी व गीली वस्तु कौ तह चटाना, पौतना, लेपना लेपणहार, हाय (हारी), सेपरियौ--वि० ! लेपि्रोडी, तेपियोडौ, सेष्योज्ञो-भू° का० ° । हेपीजौ, देपीजवौ - कम वा०) लपन- १ चौसठ कलाप्रोमे से एक 1 उ०--१ श्रंजन, लेपन, चित्रकरम्म, उपलकरम,, लेपकरम्म्‌ । --व. स. २ देखो "लेपः (ख. भे.) उ०--श्रग लेपन लगावैं । भ्रमे खोलीजं छं) \ ` --रा. सा. सं. लेवल-सं. पू. [भ्र.] १ वोत, पुस्तक, डवा श्रादि पर लगी हृरद कागज फी वह्‌ छोटी चिट जिसपर उस वस्तुकानाम वविवरण॒ लिखा होता ट। लेधो-वि.-लटकता हुधरा + {दः} उ०--लासं र खनं ऊर्म पूजारी लेवी होठ कियां जरदा री पिचकारी छीहतां कद्यौ-सिवह्रे किवह्रे घोर कठजुग श्रायगौ । इण गाम रो पुन्या श्रव खतमद्भंगी) --श्रमर चुनड़ी तेमरो-सं. पु.--१ वाजरी.केश्राटेका वना खाद्य पदां । उ०-१ नं श्रवं योड़म्हारौ काजछवालीडवीमे मृडीतौ देखो क्स्पन्हौ गयौहैःलेमटारीषर द्धै जिसौ। --राततवासौ सेमन-स. पु--१ नीद्रूकेसतेका वह्‌ दारथत जौ हवा के जोर से वोतेत में वन्द क्रिया गया ह्ो। सेरिपौ--देलो '्तहरियौ' (रू. भे } उ०--१ ऊउनाद्टा रा पोमचा, चोमासा सलेरिया ' सियाल य फागण्यां, छपावौ म्दारा जोडीरा रतन प्ियष्डी राजनयृं ही नियौ णी - ---लो० गी° सेठ -देो 'तेलिदह्‌' (र. भे.) लेलर, तेलरी-सं स्व्री-घूनेकीम्टी फीदीगरमें लगने बाला एक \ + -1.- सेषौ तेलहांन, तेलिह चेलि्हान-तं. पु.--१ सर्प, सपि (श्र. मा. हु.ना. मा.) तेली -- १ देखो. "लसी' (€. भे.) २ देखो लंला' (<. भे ) तेव -- १ नजिस्के लार टपकती हो । २ भोला। सेव-सं. पु. [सं लेप] १ स्पर्शं, ्रसर 1 उ०-१ गार््जे नवरंग फागणए लागए नवि पाप सेवं । सेवकं सिव्रपुर माग ए, मागए भवि भवि सेव । प्राचीन फागू-सग्रद २ देखो लेवडौ' (मह्‌. रू. भे.) लेवड़-देखो लिवड़ी' (मह. रू. भे.) लेवङ-सं. दु. [स. लेण रा. लेव रा. भर. डी] १ क्च्वीया धूमे को दीवार की पपड़ी । रू, भे. लेपडी मह्‌--लेव, लेवड़ लेवी, लेवबी-देखो लणौ, लंबौ (रू. भे.) उ०- १ विरदछां वेलां पर चटणों बुषि चाही, उर मे श्रलवेलां बेल सुध श्राई। श्राणां तेवणनं प्रवरा श्राया, दरण दवणनं मोभी मुटकाया । --ऊ. का. उ०--२ नवी हूवोड़ा नीच, उवी मर लेवं डाको । दै समार बीच कर मगवार कजाको । -- ॐ, का. लेव्खहार, हारी (हारी), तेवणियो -- वि. । † लेविग्रोड़, लेवियोड़ो, लेव्योडो --भू. का. कृ. । लेवीजखणौ, लेवौजवो - माव वा. । लेवाड, लेवाड़ी, लेवाठछ-वि.-१ लेने वाला । | उ०--१ दासं दाद हिदवाद राज रौज वनां दाखी, लाखां वातां गौरा दढ्वां रटक्करां लेवाड्‌ । चंद सुर साली दाखी जहांन भावती चूडा, मृड मूव्ां राखी, राखी जावती मेवाड़ । - सलू्रर रावत केसरीसिे रौ मीत उ०--२ खिजायी त्रिनेण प्रं कठ रौरिमां धु खये, पांखियौ नारगेद्र फतं पाव रौ प्रमाव । ज्ेवाढ प्र॑तरौ गजां घाव रौ सुमार लाम, सेल भार"रावरौ क्रतान्त रौ सुजाव । -- राजा वलँ्िध रौ गीत २ खरीददार, ग्राहक रू, भे.--लित्राठ लेवियोढ - देखो "लियोटौ' (ख. भे.) (स्प्री. तेवियोडी) प्रफारफा रोम या विटारु जिसके कारण दीवार दटने व खराव होने | लेवी-सं स्मौ" --१ सरकार द्वारा श्रमावगरस्त क्षो म श्रनाज भेजने हैतु तगती दै, श्रि. भ्र. तागणी सेवङ-म. पू.--पमः प्रकारका धास। या श्रन्य कारणवन्च कौ जाने वाली श्रनाज की वसुली । लेवो-सं. ¶.-? ऊनी वस्यो को खराव कर काट देने वाला एक. सूश्म कीड़ा) सेस उ०--१ पसू खाल की वरौ पगरखी, पैर षर सुख पावे । भ्ररथ खाल थारी नहि श्रार्व, लेबौ श्ररथ लगाव 1 --ऊ. का. लेस-वि, [सं. तेश] १ रृष्ष्म । २ श्रत्यल्प, थोड़ा (ड. को.) उ०-१ रजतम गणको लेस न राख्य, सत्वगुण ल यो सभामी सत्वगुण की सप्रदाय सवही, विवेक श्रादि लिया सागी । --सुखरामजी महाराज उ०--२ वात मदौ संधियां विगर, लागे लपट न लेस । ' उहकि न चित्त दुावज्यी, इण मे श्रौ श्रदेस 1 --र,. हमीर उ०--३ मन खंडण की येहि उपाई दत भ्रहैत उठाजी । से सरह सो श्रना अरापही, चेस नहीं दूजाजी । --सुखरांमजी मर्हाराज ३ किंचित, तनिक । उ०-१९ न दियै दुख लेस किणी जण नामी, केसव वेस मनुर क्रियौ 1 मंड पाव कोस कंस मिटावण, देस कटै छज नसं दियो । --भगतमाटर ४ श्रणु ५ एक अलेकार विक्षेष जिसमें किसी वस्तु के वरन कै केवल एक ष्टी भागया रंश में रोचकता प्राती हैः ६ देखो (लेस' (रू. भे.) लसा, लेसाका--देखो नेसाठ' (<. भे.) उ०--१ जिहां भोगी करद रेवाड़ी, दसी विसाल वाडी । पटद छत्र चउसाल, तिहां इसी अनेक ले । -सभा तचसा्पौ चेसाठीयड--देखो 'नेसाट्ियी' (ङ. भे.) तेसु, लेसुबौ --देखो 'लसोडौ' (रू. भ.) उ०--१ तिण ऊपर घणां वड़ा पीपलां वोर वकायण नींवनाठर मावा श्रौबली सीसूं सरेस चेजड़ जा प्रासपालौ िद्धर गंदी लेसूडौ केसूला खिरणी मोटरसिरी । --रा, सा. सं. चस्या - सं. स्वी--१ ऊन घ्मनुसार जीव कीं वह्‌ श्रवस्या जिससे कर्मो का म्रा के साथ सम्बन्व हो। वि० वि०-यह खः प्रकारक होती हे। लेहेगौ--देखो 'लहंगो' (रू. भे-) लेह्‌-सं, प. [सं. लेय] १ भोजन, श्राहार (ब्र. मा.) २ श्रानन्द, मजा। उ०--१ हसज्यौ कसद्यौ वेलज्यौ, लीज्यौ जीवन लेहं । पलक न न्यासं पोढज्यौ, नाजक घण रा नेह । --वगसीरांम प्रोहित री वात ३ चाटकर खाद जाने वाली वस्तु 1 ४ ग्रहणा फा एक भेद जिसमे पृथ्वी की छाया सूयं को जीम के समान चाटती हुई प्रनीत होतीर्ह । =. भे.- लेह लेहण-देखो लिह' (ख. भे.) (डि. को.) लेहणौ--देखो 'लंणौ' (रू. भे.) लेहणौ, सेहवो-क्रि. स. [सं लेहः| १ चाटना । २ स्वाद, लेना, चखना । लेहगहार, हारौ (हारी), लहरिया -वि. 1 लेदिग्रोडौ, चेहियोडी, लेद्योडी - भू. का. कृ. । लेहीजरणौ, तेहीजबौ- भाव वा. । लेहत्ल - वि.--१ पकड़ कर रखने वाला । लेहाफ-देखो "लिहाफ' (र. भे.) तेहाल-देखो नेसाल' (रू. भे.) लेहासभा-सं. स्तरी- १ लेखक मण्डली उ०--१ श्रास्थानसमा स्लीगरणसभा व्ययकरणसभा धरम्माधि करण-समा देवकरणभा पंडितसभा वेहासभा भांडाकार कोस्टाकार। --व. स. लेहियीङौ-भू. का क.--१ चाटा हृश्रा. र स्वादनजिया हृभ्रा, चखा श्रा । (स्त्री. लेहियोड़ी) लेहियौ-देखो 'लेखय' (श्रल्पा. <. भे.) लेह्य-सं. पु--- १ चाटने के लिए वना पदार्थं । लँ गिक~सं. पु. [सं] १ वंशेपिक दशन के श्रनुसार लिग द्वारा भ्राप्त होने वाला ज्ञान, ग्रनुमान । वि.-१ लिग सम्बन्वी, लिगं का। २ चिन्ह सम्बन्वी। ३ मनुमित । लेगौ-देखो 'लहुंगौ' (रू. भे.) उ०-गोरे कंचन गात पर, श्रंगिया रंग श्रनार । सगौ सोहै लस- कतौ, लहरयौ लफादार । लेण-देखो 'लाश्न' (ङ. भे.) -र. हमीर उ०-वे सगद्राई पोत पोतारा ध्यान मे नीचां माथा कियोडा खाताः खाता चाल र्या । वार एक कानी मौटरां री चण चाल दरी धीरे-घीरं । इसौ लागे जां कीदी नगरौ जागगयौ । लप-सं. पू- [भ्र.] १ दीपक! र. भे.--लंप । तस्र [1 1 ~ ~~~ ~ ~~~ संसर-सं. पु. [श्र] १ रिसाते का एकं भेद, जिसके व्यक्ति भाला लिए हूए धौडे पर सवार रहते ह । त-स. प.-१ राम २ प्रलय ३ उमया ४ रमा, लक्ष्मी ५कर्णा दया ६ श्रवस्र मौका (एका.) ७ ध्यान) लगन । उ०-१ दाद्‌ द्रम्दं द्रस्टि समाइले, सूरतं सुरति समाद । सम सस सरमादने,लं्मौलंले लाद । --दादरूवांणी ७०--२ रांम कटै जिस ग्यांन सौ, भ्रञ्नत रस पीवं | दादू दूजा घाटि सव, लं लागी जीवै । -- दाद्वांणी ८ वद, ग्रविकार। पयूं-- भ्रा उणरं तं पडती वात है 1 लेफार-सं. स्त्री.--१ लयपुरो ध्वनि, मधुर ध्वनि । उ०-- १ वाढ वावा देसडउ, जहां पांणी सेवार । ना पणिदहारी भूलरछ, ना कूवद लकार । -दो. मा. [सं. लय-[-कार] २ विनाश्ष, संहार । उ०-- संघार मार लकार सेन, मिद सारघार प्रघार मेन । घड णड खंडये रुड घद्कु, करमाठ वहै किरिकाठ चछ्रु। णु. र.वं. ल"फौ - देवो 'लहकौ' (रू. भे.) लपव-देमो तख ' (5. भे.) तचाद्ट-सं. ए.-- १ तवहटी 1 उ०-दोढठी जि दूरगर, वस्भियौ नगर विसाद! यूं वसियौ श्रम- रावती, मेर तणौ लेचाढ । --मोपारदान साद २ डिगत का एक गीत (दद) विशेष । पि. वि.-दसषे विपम चरणों में दस मा्राश्रों ग्रीरग्राट माघाग्रों पर विश्रामरहोतारहै' स्मचरणोंमें प्रर मात्राएं स्खकर रग के याद 'जी' शब्द लगता है । र. भे--- लदहचाटठ लची-सं. स्त्री.-- १ चारण कुलोल्न्न एक देवी उ०-सचीयाय तुं ही वकल विसेक, लौलीयं लाल लंची तुं लेख । --रांमर्दान लास <. भे.--तेची, तेष्टी। लमो-देगो "लहु (<. भे.} तण-स. सपरी.--१ तुरंत च्याई हुई गाय । २ मृतकके वार्ह दिवेमोपरन्ति जाति मे वित्तरित पिया जनि दाता यरतन या पाच्र। ३ वेखागी. ड रेगो शलाद्रनः (<. भे.) ४४३० लंभो न्न लंण किलियर-सं. पु. श्रं. लेनदिलयर] रेलगाड़ी कै गाड या डूर्ईवर को श्रागे रास्ता साफ होने की दी जाने वाली सूचना । लंरादार-सं. पु--जिस्का ऋण चुकाना हो ) लेणदण-सं. स्तरी.- १ लेन श्रौर देन का व्यवहार, श्रादान-प्रदानं। २ व्यापारिक व सामाजिक क्षत्र मे लेन-देन का व्यवहार । ३ व्याज पर रुपया उचारदेनेवलेने का व्यवहार । रू. भे.-लेन देन, लंणौ दणी, सन दैन लंणायत, लणायती-वि.--१ त्छए वाता, करं देने वाला । उ०--१ तां उपरांति करि नं राजांन सिलामत्ति जिण भांत लेणायत दीठां दैणांयतत घट तिम तिणि भांति दिन दिन निसि दीं सूरज रौ तेज घटण लागौ नैं सूरज रौ तेज घटियौ राति मोरी होर लागी । --रा. सा. सं. उ०-२ सुखां नाग नर देव सक्रोई, विमगौ दान श्रद्रूनी वात । कीवी किरी न कोई करसी, पदम जिसी लंणायतं पात । --महाराज पदमिह री गीत रू, भे.-लहणायत, चेखायत, चेणायती , लंणार लंणियार-वि.-- १ लेने वाला । उ०--१ तकण समं कासी माह वरस दंन माह हेकण दन वैर्माखी पूरणमासी करवत दग्र ! तठं करवत रा लंणारसारा वीजादही कोहीं हंता ते पणा ग्रं भिछिया । --कल्याण्षिघ वादेल री वात रू. भे.-लणियार, लणिहार, लणीहार । लेणियो-स पु.--१ लाभ, मूनाफा। २ कजं ऋणा । नणो-सं. पु.--१ ऋण, कर्जा । २ लाभ, मुनाफा। ३ हित, भला । रू. भे.-तहणौ, लिहणौ ग्रत्पा--लह्‌णियौ, लहृण्यौ लणौ दणो - देखो 'लंणदेण' (रू. भे.) उ०्-यारनंराजारे काट तगौ दंणौ रे चौधरी? थं उरर्म मतीरौ क्यूं भेट कर्णौ चायं । | -श्रमर चंनडी सेणो, लवौ-क्रि. स.--१ प्राप्त करना, पाना । उ०--१ उशरंरूप रौ हाकौ चौकेर ह्वा में घुख््यौ हौ सों । चरसतौलंणादूभरव्दैगा।मांरीकरूखमें मायगी पण मातां र प्रागा नीं माई! --पफुलवादी उ०--२ लोमी ठाकुर श्रावि धरि, काट करद्‌ चिदे्षि। दिन दिन जोवणा तन चिस, ताभ किसाकठ वेसि । --ढो. मा. ४४३१ २ मोल लेना, खरीदना उ०--१ ईडरकी धर श्रउलगण, हुत जांखन देसि! धरि वइठाही म्राभरण, मोल मुरहुंगा लेसि । -टो. मा. उ०--२ धरि वदटा ही भ्राविस्यद्‌, लाच लियां लङ्ग } तिणमद्‌ लंस्था टाछिमा, वांकड़ मुहां विडंग । "नवो ती ३ किसी पदायं को उठाकरया व्यक्ति को चलाकर कहीं से लाना या पहुंचाना । उ०--१ भरीरूपरंग रस भरी, लु श्रावं जठ लेण! सरवर त्यां निरखण सही, नीरज किया क नैशा । --र. हमीर उ०--२ मीरस्तिकारां नं हुकम हुबौ छं । वाज, जुररा, कुटी, बहरी, सिकरा लगड चिपक तुरमती साय लीजै छै । -- सीची गंगेव नींवावत रौ दीपह्रौ उ, ~३ दूज दिन मांणस वडारणमा री छोकरी आरादमी सव हैक ग्राया भरमलनुं लणनुं। --कुवरसी सांखला री वारता ४ सेवेन करना, खाना । ज्यु--दवा लखी, प्रसाद लणौ । ५ श्रधिकारया कन्जे मे करना । ` ज्यु--जमीन ली, गांव लैएौ ६ पटुचना 1 ज्यूं--प्रापां ने ्रठासूं गाव सौ मुस्कल ज्यंत्थृं कर घर्‌ तांद लेणौ । ७ वहुन करना, उत्तरदायी वनना । ८ किसी वस्तुया व्यक्तिका उपभोग या उपयोग करना, काम में प्रवृत्त करना । ज्यू-वणज्दनींहातौदटरूक्टर सूं काम लंणौहौ । दण वगतमें नोकर सुं काम लेणौ कठ्ण है । € श्रमूतं वातो, विचासे, परामदो श्रादि के सम्बन्ध मेँ किसी रूप मे प्राप्त करना । उ्युं --सलाह णी, मन रौ भाव रवैणौ, याह णौ विशेषः--श्लणौ' क्रिया का प्रयोग बहुत सी क्रियाश्रों के साथ संयौ- जक क्रियाके ख्पमें होता है जहां पर यह क्रिया उस क्रिया की पूर्ति या समािका सूचक होती है) चेसे-खारचणौ,पी लंणौ. उठा लेण, सुख लेणौ प्रादि ¦ कुद अवस्थाश्रों व परिस्थितियों में यह इस वात्त का भी सूचक होता है कि कर्तां कोई वहुत ही कठिनता से, जभे-तेसे श्रथवा भह या वहूत ही साघारण रूपमे को न्रा तेरा लणो न कोड देणौ सम्बन्ध विच्छेद करना । लंणा रा देणा पडणा=जान पर श्रा पड़ना । लंणहार, हारी (हारी), लंणियौ--वि० । लियोडो--मू० का० कृ० | लिसयेजणी, लि रीजवोौ -- कमं बा० | लहणो, लहबौ, लह्यणौ, लह्यवौ, लिय्णौ, लियवौ, लिवणी, लिवयौ, लेवणो, लेववौ, लेहणौ, चेहवौ --5० भे ० । लन- देखो "लाइन" (रू. भे.) लनदन--देखौ 'लंणएदेण' (र. भे.) उ०--हिये हरी हमीरसौ श्रटी श्रमीर प्रैनमे । दया गंभीर देतिये, घमीर लंनर्दन में , --ऊ. का. लम-सं. पु. --क्रिचिनक्राल, अ्रल्पकाल । लर-क्रि. वि.--१ देखो लार" (रू. भे.) उ०--१ मतनाभ्र राणी ! ममलौ मारी, मत सा कादौ सेल जेपुर मिमी जोधपुर मिलगी, मिलगी वीकानेर दोय पगां नै जागां कोनी, भाई होग्या लैर । --इंगजी जलारजी री छावटी उ०--२ लार्गरंथांस्रु नेह पनाजीम्हांरौ श्रव जोरा जोरी तौ निमा सविट्डा थांरी लर म्रौ मागौरे) --रसीलेराज रा गीत उ०-- २ गिरयो काठ करंट परी भग तुच्छी, परे विधुरे भूमिर नाग विच्छी । जटी भूत प्रेतं लियं लर लस्यौ, हटी वीरभद्र तमास उमर्ग्यौ 1 --ता रा. २ देखो 'लहर' (रू. भे.) उ०--१ लंर-लर मे घमचक लागी, षंखी जाय पाठ नै लदियौ। काच पुय माची, काइ चूक पड़ी कँ घाटी पडियौ । --चेतमनसखरौ उ०--२ व्डी बठोडां री लंर मीठा वटाड रा गीत) भली भादरवा री रात, मिद्ठौ मनं रा मीत --चेतमांनखां उ०--३ नित भ्रुधर सीत निवारन का, धिन जे गढ गुदर धारन का 1 क्रले धर लर कमेडठ की, सहिमां हर लँ महिमंडक की, --अ. का. रू. भे.--सैरा, लरथां । लंरकौ, लेरद् - देखो 'लहर' (म्नल्पा., ङ. मे.) उ०--१ वडलासे जडी द्धीयानं पांी रा जडा तरफ । --फुलवाड़ी पूरी करने मे समये होता है । जेसे-तूटी-पफुटी ्रगरजी वौल खौ, | लरदार--देखो (लदरदार' (रू. भे.) थोड़ी धरणी संस्कृत समभ लंरी । लंरां- देखो "लारं' (र<. भे.) मूहा-~लेणो एक नँ देणां दौ कोह सम्बन्ध न होना । | उ०--कमधनजिया लेसं चालां ली, मोहौ मोही वाकी तर भं । .~“ 1 ॥, +. लोश्रगडो लराणी श्राय खडौ चतुरी घर श्रांगण, लंवाशमा दावण भाला । लंस मूढा र वुकनी दियो श्रर हाथा मे नागी तरासं लियोडा। --रसीर्लराज रा गीत --रातवासीौ लंसणी, सराव --१ देखो ^लहरणीः लहरवौ' (रू, भे.) २ सव प्रकार की सामभ्री से सजा हूश्रा, पूणंयुक्त) २ देवो 'लहराणौ, लहरावौ' (रू. भे.) र<. भे.- लेस, त्टैस । लै राणहार, हारी (हारी) लैराणियौ--वि° । देखो "लौ" (5. भे.) अ क व हि | उ०--१ नभाग्नी वायु लों जठ घरनि श्राप इन नहीं । महात्मन त सरईजणो, लराईजबी--भाव वा० । तेरे है श्रवर, नहि भेरे इन मही । न तरियादार- देखो "लहरदार' (रू. भे ) उ०--२ गृडी लों उदी एनी व्योम घछछायौ । नहीं हर रंभा रा तरैरियां- देखो 'लारे' (<, भे.) पथ पायौ । भिरी पक्छरां पक्रं भीरि पूरं । हयं गज गाह भय तरिसी-देखो "हरियौ' (रू. भे ) चुरमुर । --ला, रा. लंरी-देखो लहरी (रू अ } लोक-सं. स्थी.-लचक । सै'रौ-- १ देखो लहर' (ग्रल्पा” रू- भे.) लोंगी ~ देखो (लूंगी' (रू. भे.) २ देखो 'लहरियौ' (रू. भे.) उमां केसरीया पाग छै पहरण लाल लोगीदय। ते कटै द उ०--१ परिहार्या परवार, जाय सरवर जढ़ ल्यावण॒ । भूलि “रे रात तीतर योल) --खोखर छाडावत्त री वात मणकार, लसकरां लरौ ५९ । | -दसदेव लोड--देखो 'लौडौ' (मह्‌., ङ भे.) वः ५ + ०५ लोंडपण, लोंडापणौ-सं, ¶.-- १ वच्चो जेसी हरकत, छिदछछोरापन । लैस्धा--१ देखो (लार (रू. भे.) लोंडौ-स पू.-देखो 'लौडो' (रू. भे.) | २ देखो तेर (र. भ.) (4 लंस्यौ--देखो 'लहरियो' (रू. भे.) लोदी - देखो "लृंदौ' (रू. भे.) सैलहाणो, ललहावो--१ देखो 'लहलहाणौ, लहलहावौ (रू. भे.) लो-सं. पु.--१ मोह ' तलहाणहार, हारौ, (हारी), ललहाणियौ --वि ° । २ प्रीति) तंलहयोडी--भू० का० कृ० ३ मछली । ४ दिला 1 लैलका्रनणो, लंलहार्ईदनबो-- माव वा०। ललहायोड़ो-देखो 'लहलहायोडी' (रू. भे.) (स्त्री. लंलहायोडी) -लंला-सं, स्प्री.--१ ईरान के प्रसिद्ध ग्राकिक मजनू की प्रेमिका । रू. भे.-लेली, लंली । त॑ली-सं. स्त्री.-- १ एक प्रकार का पक्षी । र. भे.-लेली । २ देखो श्लला' (रू. भे.) लो'-देखो (लोह्‌' (रू. भे.) उ०--१ ऊज मठ संकुढ पीठी उवटांणीं, करडं लो' साधं श्ररण कूटांी । कछया कूं री कादं में कटठगी, विस्रहर संगत स्‌ पीपलियां वल्गी 1 -- ऊ. का. लोश्रडौ --१ देखो "लंड' (श्रत्पा., रू. भे.) २ देखौ 'घु' (रू. भे.) लोश्रण-देखो "लोचन ' (रू. भे.) संस-सं. पु--१ वड़ी व लम्बी नोक वाला एक प्रकार का वाण । उ०--१ लौश्रण तेह चिसि पडउ, केय पर वीय उल्हास्ी । चरण २ भाला! गेह तलि जाउ, जेणरिण पादा नासी । --पं. च. चौ. उ०--२ "कामकंदला' कही कटी, भ्रडह्‌ड मूकड धाह । पूरि चदियां ३ कपड़ों पर लगाने का वेल-वृटेदार फीता या वेल 1 व उ०-छैल दुष्टरायोतौ दुष्टरा री लसद्योतौ। पीठी पीली पांणि वहइ, लोश्रण ना परवाह । --मा. का. प्र. मोहरा दयो तौ, पूज्‌ गणगोर \ लो, मी. | 'लोश्रणडी त देखो लोचन" {श्रत्पा., रू. भे.) वि.--१ वर्दी व शस्त्रो से सुसजित । उ०- लोश्रणडे लेखं नहीं, वाधि पूर-प्रवाह । दीन वयर वेहू उ०-जमदूत ठाकरां ₹॒विलकूल साम॑ उभा हा-सस्तर पातीसू दुखी, दवद दीधु दाह । वी [म नन्क __ ______ _ _----------- | | । ४४२३ लोक लोश्ररकोरट-सं. पु. [श्र लोभ्रर कोट] १ नीचे की श्रदालत । लोई भरीजणौ पशुम से भ्रचिक परिश्रम लेने कै याद लोड- देखो "लोक' (<. भे.) किसी वंद स्थान पर वांघने से रक्त संचार पच वति कावंघदहो जाना! उ० --१ पंचेन्दरिय भव मनुस्यह्‌ तणु. प्रार्य देख उत्तम कुल गख । साध तणड योग दोहिलु होड, र्थानद्रस्टि जोड भविया लोई । | ५ + _ नटदवदती रास लोरईभांण--देखो 'लोदहींण' (रू. भे.) र. भे.-- लोड । उ०--२ देस निवा सजक जठ, मीठा वोला लोह । मारं कांमिरी | सोर्ईयाछ-वि---१ रक्त से भरारा, रक्तपुखं। दिखखि धर, हरि दीयडई तड दोद _ लो, मा. | लोकंजन-सं. पु--एक प्रकार का कल्पित श्रंजन जिसके लमाने २ देखो (लोई' । (रू. भे.) से मनुष्य श्रद्श्य हौ जाता है । मे रू. भे.--लोपांजन । उ०--प्रघदी पटाट पूर, गाढ दाढ गजञ्ज-ऊर । लोड दीप में लोचन्न, | । लोक-सं. पु--- १ संसार, जगत । कांगरि सारीखा कनच्च) --गु. रू, वं. लोदण--देखो लोचनः (र. भे.) उ०-१ नारायण रानांम सू, लोक मरत है लाज ) बरूडला बुष उ०--१ दीडी रूपाठी म्हई घणियां, पण दसी याही ज लोहणां । किव धा (४ । | क. सो श्रियां । जिण भांत खतंग रा वांणःलार्गा पद्वु हर हीजग्रंण । उ०--२ चत मार री चांदणी, सरस वधी संग सोक । जांण --र,. हमीर भ्राज खुमनाहला, लोम स्रं ड लोक । --र. हमीर २ संमाज । उ०--२ चोटी वाटी चमक लोर्दणां लागणी, फणधर जिसडं फल तवी कांड नागणी । श्रलकां वल श्रदभूत चुवंती छत्तियां, ऊभकती उ०-नायण जिण मे गुण नहीं, लोक कुटव लडह 1 पय वद्या गंग श्रग कता जणा तत्तियां , --र. हमीर इण प्रेम रे, परवस प्रांण पडंह ! --र, हमीर लोदयौ-स. पु.- १९ कच्चा मतीरा । (वोकनेर) | ३ एसी जगह या स्यान जिसका बोघ देखने से होता है । लोई-सं. स्व्री-९ ्रटे की रोटी वेलने हेतु वृनाया गोलीनुमा भ्रंश । ४ विभिन्न प्राणियों का विक्िष्ट निवास स्थान । ज्यूं--जीवलोक, मनुष्यलोक, देवलोक प्रादि । ५ पुराणानुसार माने गये वह स्यान जहां भगवान के भक्त मरणौ- परास्त जाकर रहते ह! २ स्वरियोके श्रोढने काएक खास रगमेंरगाहप्रा उनी वस्त) उ०--१ लोड श्रोदण न साडी लंमाढो, पटर लटकंती नाड़ी फंदाढी । पावां पचडोरी पगरचिर्या परे, सूरत सवण सी वन . वि, वि.--पृथ्वी, स्वगे, श्रौर पाताल लोक ये तीन तीन लोक मानै जगल वैर ! - ऊ. का. ९ | ध गये है, परन्तु श्रागे चलकर विभिन्न विद्वानों के मतानुसार १४ उ०--र प्रंवर धावठ आशी, सिर लोई स)& । न. लोक माने जाने लगे, जिनमे सात ऊध्वं लोक एवं सात श्रध: लोक । उ०--३ लोई सिर फावत धावढ लंक, चमूं पर साव सूढ च मकं । भूर्लोक, भुवलेकि, स्वर्लोक महलेकि, जनर्लोक तपर्लोक शओ्रौर सत्य. -मे. म. लोक, ये सात ऊर्वं लोक ह 1 श्रतल, वितल, सतल, रसातल, ३ देखो "लोवडी' (रू. भे.) तलातल, महातल श्रौर पाताल ये सात श्रघःलोक हैं । भ ६ प्रजा, जनता । कदीर की पत्नी का नाम। उ०--१ ति ऊपरं रजपूत वेसं तिको इसड़ी भ्राखडी पाठ › तिक ५ प्रसव के पचात स्त्रीया वच्चे के फी जानि वाली मालिश । इन वेसं नहीं तौ तलाक छै । गाव रो घी पाटी ने । ्रौर लोक्‌ नचंत वेटौ व्यापारी न चित 1 --रंमदास वेरावत रो भ्राखडी री वात उ०--२ भ्रावे मीर गांव उतरियौ, धूजं लोक तुरक श्रत्त धरियौ। इसडी ताल पाल' हर श्राया, दुयणां निजर कत दरसराया । ६ देखो 'लोही' (<. भे.) उ०--खरी नींदमे बाज, मूढ विण रवैठं मारं। नख लावा सूं निह्रुर, लोई काढ ललकारं । --ऊ. का. मुहा--लोई मरणौ -=कायरता राना । लोर ठसणौ == खून जमन, श्राश्चयं चकित होना । उ०-३ कोटवाढठ कन्द गि (7 | ठ कन्हे श्रादमी गयौ, योलाय त्याया । कोटवाछ लोई पीवरौ -=-रक्तपान करना, परेशान या दुखी करना पत्र दूंदियौ लोक भेठा हुग्रा । --सख!परे चोर री वात कष्ट देना 1 ७ सेना, फौज ! ४, षे नवि 11 क, +) 2) रिक 3 कक ++ कका, (1 क श 4. ह, ~ क [मी लोफ ४४१४ स्रोकवौ ` _---------~~~~ उ०--१ श्र जादुराय रां श्रसवार हजार छव मास्या गया । तता मा"राज खन हजार तीनक लोक रयौ । --द. दा. उ०-२ जोधांण "माल" श्रजैगढ नजेतौ' "कूप" वीकपुर राज करं। लाखा लोक चडे ज्यां लार, दिली श्रागरौ दहं उरं । --जेता कपा रौ गीत उ०--३ जद कवर चांदघिघ सिर्वािघोत न किसनर्सिच सादावत दोन पांच हजार लोक ले चढ़ा । --वा. दा. ख्यात उ०-# तद पाघ्ठा फिर वेतसी नूं मारियौ जुहर हुव लोक घौ काम श्रायो। ८ परिग्रह्‌ परिजन । उ०--१ रांणीजी मास १॥ दोढ बीकाैर रहि श्र रांणीजी र टन री पहिरावणी लोकां नुदे श्र वं राजाजी रा तेडाया ताहरां राजाजी दिसा सिवाया । --द. वि, उ० -२ तद चह्वाण मंडढीक री घोडियां रा पूंछ वादिया, श्र भसियां रा मगर तेल सूं वाछिया । तरं ग्नो कि मन में राखिश्रर श्रापरे लोफां मे समचो कर श्र ्मापरा मामा सूं ूक कियौ। --नेरसी उ०--३ तद दय राजा साम्हां श्रापरा परान मेल्टीया । कवर पासै श्राय पूण लागा करौ सायै! तद कुंवर रा लोकां कही कवर वीरमान छै फलांखा रोवरो चसु वापर पास श्रावं छ देसौट गयौ हतौ तिकौ प्रायौ चे । -- चीधोली ६ व्यक्तियों का समुह, भण्ड, दल ॥ उ०--तद तलवाई थी चहुवांण पीहर गई वाहडमेर । लोक साथे धरौ हती, सु चहुर्वाणां रं उजाड रोज घणौ करे! -नणमी १० कृषक, किसान । उ०--१ सेदो सूनौ वसी्वान लोक को नहीं । गांगारड यसा लोक तेत खड । --नणसी उ०--२ रा० मानर्िघ मुरारदास री वसी रा लोक खेत खड । --न सी उ०--३ चेत सरा सवज गेहं चिणा हवे । सेफो नहीं काय वास्णी रा लोक वाह । --नणसी ११ साथ। उ०--पदयैश्नाप सारा लोकांस श्ररोगण पारिया । व्यां परीसारो ह्रो । सारं साथ नूं सीरौ, तरकार्याः भाजी, इण भाति परीसारी हो । लोक जीमियौ । श्राप ही श्ररोगिया । -- नरसी १२ पति, स्वामि । १३ वत्तख की तरह का एकं प्रकार का वड़ा पक्षी | १४ सात या चौदह कौ संख्या । # (डि. को.) रू. भे.-- लोग, लोय ग्रस्पा.+-लोकडी, लोकी, लोगद्ी लोक्ईव-सं. पु. [सं. लोक + ईक्ष] ब्रह्मा (डि. नां. मा.) लोकडौ - देखो 'लोक' (भ्रत्पा., <. भे.) लोकचणल-स. पू. यौ. [सं. लोक ~+ चक्षु ] १ सूरय, भानु । लोकधारणी, लोकधारिणी-सं. स्वरी. यौ. [सं लोक-~+-वारिएी] १ पृथ्वी, भूमि। . ` लौकधुन, लोकधुनि-सं. स्वी. यौ (सं. लौक~-च्वनि| १ श्रफवाह्‌, नन रव । लोकनाथ-सं. पु. यौ. [सं. लोक~|-नाध] १ संसार का स्वामी, ईदवर। २ राजा, नृप । लोकनीत, लोफनीति-सं स्त्री. यौ. [सं. लोक~{-नीति] १ पुरूषो कौ ७२ कलाभ्रो मे से एक । उ०-- ९ न्रत्यकला, राजनीति, लोकनीति, घरम्मनीति, काव्यरीति साहित्यविद्या । -व, स. लोप, लोकपत, लोकपता, लोकपति, लोकपती-सं. पु. [सं लोकप, लोकपति, लोकपिता] १ ब्रह्मा । (डि"को.) २ ईदवर, प्रभू । ३ नृप, राजा) लोकपा, लोकपल-सं. पु.--१ राजा, नृप) उ० दुद्र संमानिदेव सपरिवारते त्रायस्विस् इसिद नामद्रं। दौ दुगंढग देव, ४ लोकपाल पय्मासिवा सुलसा श्रचला कालिंदी । --व. स. 1 २ ईश्वर, प्रभ! ३ देखो 'दिकपाल' (<. भे.) ॥ लोकफपितामह-सं. पु. यौ. [सं. लोकपितामह] १ ब्रह्मा । (डि. को.) लोकवंधु, लोकवंधू-सं. पु. यौ. [स. लोक ~-वंधु] १ सूये, ानु। (डि. को) उ०--सको सोखियौ हाकड़ौ नांम सिधु वहुंतौ थकौ रोकियौ लोकबंधु । चक्ती पीवो पाय भाई वचायौ ) क्षुषाढी हरो हैक हेरंव खायो । -मे. म, २ शिव, महादेव 1 लोफवट-सं. पु: यौ. [सं लोक~+- वल] १ अन-शक्ति । लोकमाता-सं. स्त्री. यो. [सं. लोकमाता] १ जगत-जननी) लक्ष्मी । उ०--लोफमाता सिघुसुता सी लिखमी पदमा पदमालया प्रमा। श्रवरग्रह श्रस्थिरा इंदिरा, रामा हरिवल्नभा रमता । --वेलि. लोकलाज-सं. स्वरी. यौ. [सं. लोक~{-लनज्जा] १ देखो “लोकालाजः (रू. भे.) लोकलीक-सं. स्त्री. यी. १ लोक्‌ मया । लोकनी-वि. लुप्त । सोकष्यवहार ___,__ ~~~ उ०-सूं ऊंट किण भांतरा दै, धापवीं तषी रा, सूपवीं नी स, “ नारा गोडं रा, वीलफठ इरकी रा, हथाघ्िये ईंडर रा, ससा सेरी बगलां रा घाट बाजोट रा, वायम काव रा, कसतूरिया षटां रा कौरवे कान रा,-टांमकतै माथ रा, लोकव नाक रा तजियं होढ रा + --रा. सा.सं. लोकव्यवहार सं पु.-१ समाज मे किया जने वाला रिष्ट व्यवहार । २ स्तियोंकी ६४ कलाग्रोमेसे एक) उ०-केसवंघन वीणानिनाद वितंडावाद भ्रंकविचार लोकव्यवहार प्रहलिका, स्त्री चतुः सस्टिकेला । । ध --व. स, लोकस-सं. १.-- १ एक प्रकार का व्क । ` उ०्--भाखरमें गढमें कुवा तढाव, भरणा वावड़ी घणा चछ। भालर निपट सकाडौ छ । धोहर, वोर, ग्रदी भांगड़ी लोकस गुगठ निपट स्राड़ौ छ । --वां. दा, ख्यात लोकांतर-सं. पु. [सं.] १ वहं लोक जहां मरणोपरान्त जीव जातादहै, * परलोक । | | लोका-देखो 'लांकी' (रू भे.) उ०--लोका लहे लांणति दुटकारा लेती, दीरथ कानासू फिट- ° कारा देती । | ` -ञ.का. लोकाई-सं. स्री! प्रजा, जनता, जन समूह्‌ । उ०-लारं लोकार्हह, सह कोटरी सालुढी । भ्राजो श्रा श्राह, वीरा कमटादे वही । | --पा. प्र. लोकाचार-सं. पू. यौ [सं लोक~+-श्राचार] १ समाज मे सम्बन्ध बनाये रखने हेतु क्रिया जाने कला व्यवहार । २ पुरुषो की ७२ कलाभोंमेसे एक । उ०-लोकाचार, जनानुवृत्ति, फलं श्र, खडगक्षुरिवं घन, मूद्रऽभायो। .„ वसः २ वह व्यवहार जो दुनिया मे सवके साय मेलजोल वनाये रखने के लिए किया जातांदहै) ति ४ किसी की हव-यात्रा में सम्मिलितदहोनेकी क्रिया या भाव । लोकाचारियौ-चि.--१ क्षव-यात्रा (लोकाचार) मे शामिल होने बाला लोकालाज- सामाजिक भय, शंका । उ०--सौक क्रियौ मन मे, डाक चूक उराह । लीधा लोकालाज ह, फीके मन फेराह्‌ 1 --र, हमीर लोकार-सं. पु, -१ लम्बी तथा नुकीली पत्तियों बाला पौषा विशेष लोकाधिष, लोकाधिपति, लोकाचिपती-सं, पु. [सं. लौकाचिपः लोका- ` धिपति] १ राजा, चप । २ ईदचर, प्रभू । >? ४४२१ सोकोकत रू. भे.--लोकाटहिवरई लोकाध्यक्ष-सं. षु. यो. [सं. लोक~-श्र्यक्ष] १ संसारका प्रध्यक्ष, दक्वर । ¢ \ # 9 ; ॥ [1 # उ०--नमौ श्रग्राह्यारू सरवन पुट सारू सत नमी । नमौ लोकाध्यक्षा- श्रत, विजय लक्ष्यापत नमी । --ॐ. का. लोकाय-सं. पू.--प्रजा, संसारके लोग । उ० -मुख लोचन चोठ करं मयनं श्रलवं यम पालक लोकाय नूं । | --पा, प्र. लोकयक-सं. पु.- जगत, संसार । उ०- हे पचो ये पंच कहावौ छौ, लोकायक में पर पंच परमेस्वरं किं छं । --पलक दरियाव री वात लोकायत-सं पु-- १ समाज । २ भारतीय ददान मे एक प्राचीन भ्रुतवादी नास्तिक सम्प्रदाय जिसे देव्रगुर वृहस्पति ने देत्यो कानाश् करने केलिए चलाया था) ३ चार्वाक दशन जिसमें परलोक एवं परोक्षवाद का खंडन है । ४ दुर्मिलं छंद का एक नाम । | | लोकालोक-सं. पू.- १ एक पौराणिक पर्वेत का नाम । । २ ससार, जगत 1 उ०-ताहरी ञ्योति सकलं त्रिभुवने, गावं सगला संत जी। केवल ग्यान करीन देखे, लोकालोक अ्रनंत जी -स्रीपाल लोकीक --देखो (लोकीक' (<. भे.) लोकेस-सं. पु- [लोक ~+ ईश | १ ब्रह्मा । (डि. को., नां. मा. ह्‌. नां. मा.] उ०-रहिदुधांस रो घ्रां दैसांख हणो । वगूणांरी श्रलंकार प्राकार ऊगौ । बुरज्जा चहु जांण लोकेस वाका, प्रयी स्रामं रौ वीच भागँ पताका 1 -मे. म. २ राजा, चप । । २ ईइन्द्र। ङ. भे.-लौकेस । लोकेषवर, लोकेस्वर-सं. पु. [सं. लोक -{-ईदवर ] ईदवर, प्रभ । २ राजा, चप । उ०-लेखडइ्‌ कठ कौ लाज, ल।ज लोपि लोकेसयर 1 स्वांमि-फयन श्रायी सुरण, तणी भोजाउत भाजि । ---श्र. वचनिका लोकंसणा-सं. स्वी. यौ. [सं, लोक~-एषणा]| १ ससार मे प्रतिष्ठा एवं यश्च को कामना । २ स्वर्ग-सुख की कामना । (श्र, मा.) | सोकोकत, लोकोकती, लोकोक्तिः लोकोक्ती-सं. स्प्री. [स, सोक +-उक्ति] १ कहावत, जनश्रुति । लोफोसर [प उ० -- वदां कनै तौ वद वसै, नेकां पासे नेक 1 मन तौ सारिसां भिक, भ्रा लोकोक्ति एक 1 --ऊ. का २ एक श्रलंकार जिसमे लोकप्रसिद्ध कहावत का प्रसंगवश वन हो । लोकोत्तर-वि.-१ श्रलोकिक विलक्षण । सोकौ -देखो 'लोक' (ग्रत्पा, ₹. भे.) उ०--निरभय नारायण सुद्धी सिर नाऊं, परहर संय भय बुद्धि वर पा । संबत छपे रौ केवण॒ स्िरलोकौ, लौकिक तसंयणनं सांमन- ज्यौ लोकौ । --ऊ. का, सोग-देखो लोक (रू, भे.) उ०-१ जाडौ तौ पड़ी जी नणद गाई सहर मे, मारया मार्या हटवा जी लोग, किस विघ भुगतांजी नणदवाई जादं न। -लो. गी. उ०--२ लों रौ वतूलियी पगा हालियौ । दोन्‌ घणी गायं बध्योडा हा । सेर ई खुर रगड़ता सार्थं चालता हा । --फुनवाद़ी उ०--३ यड सूनौ खेत्त जागीदारां रा लोग सखडं। -नणएसी (स्प्री. लुगाई) लोगक्-- देखो लोकः (श्रल्पा., रू. भे.) उ०--गांममें घौ दूध घणौ धी, कोठ्यां कणा रामे ङन्धौ ठाडौ धान, राजा राजनं प्रजा चैन । नीको दृख श्र नीं कोई दुग्राढ । लोगड़ प्रभू छांनां दिन कारं 1 -- भ्रमर चूनडी लोगार्ह--देखो 'लुगाई' (<. भे.) लोड़-सं. पु--१ वलात्कार । । २ लूटने की क्रिया । लोडणी, लोडवौ-क्रि. स.--१ लूटना, खोसना । उ०-- ल्यावै लोडि पराद्य, नहे द॑ प्रापरियांह । सखी श्रमीणा कथ री, उरसां भूपडि्यांह्‌ । -हा. का. २ हडपना, छीनना 1 उ०-धन लोड तोडं धरम, विध विघ जोड वात । जड़ सनेह्‌ खोदे जडश, गिनका मोई यात । --वां. दा. ३ प्राप्तं करना, पाना । उ०- जोड विराजे वर तरुणि, मोड वि यजं सीसर 1 कवे भ्रासीर्स लोड घन, जीवौ कोड़वरीस । रा. रू. ४ द्ुना, स्पदे करना उ०-- लागे प्राज लोडतौ लहरां, ऊमडते दरियाव उतंग । सूरज- तौ हदवा सूरज, पांणीपंयौ कियो पमंग । --महारांणा राजि्‌ रौ गीत ५ "मस्ती से भूमना \' उ०--वड सिर नाशि वडवडती, विसरसि परति चिपरति वेस ) ४४३६ सोश्रशियो लाडी श्रावं गगन सोडती, दौडाया भड्‌ चौदसं देस । ---रतरनपिध राठोड री वैति लोडणहार, हारो (हारी). सोदणिपौ--वि° 1 लोशि्रोरौ, लोहियोडौ, लोहयोडो -भू० का० ० । सोशटोजणौ, सोष्टीजश्नौ -फ्म/साव वा० 1 लोडणो, लोडयी, लौदणो, लौडनी - €० भे० 1 लोषश्वडार्द-पर. स्प्री. यौ.-१ योरे वडकीप्रायु का भ्रन्तर । ज्यू -इण दोनां रं किती लोडवटार्‌ दै! लोडऊ-वि.--लुटाने वाला, टद्नि वाता, खच करने क्ता । उ०--उत्तर जादजौ दिक्खण जादजौ समंद जादी पार्‌ + मार्‌- वणी रं नय लाद्रजौ मोती लाद्रजौ चार) गाढा माष छोजी राजं लाखां रा लोशऊ भारु-मारे नथ लायजौ राजि ॥ --लो. गी, रू. भे.--लोडाउ, लोडठऊ । लोटिपोडो-मू. का. कृ.-१ लूटा हुश्रा, सोता ह्राः २ हद्पा टगर, छीनाहृश्रा- ३ प्राप्तकिया ग्रा. ४ स्पदां किया दमा, दयप्र हरा. ५ मस्तीमं भूमा हुम्रा। (स्त्री. लोड्ोडी ) लोडहियौ - देखो, "लधु" (श्रल्पा., <. भे } । उ०--श्रोलग थारे लोषधिये वीर ने भेज पन्ना मारू 1 चतुर चोपामे राजन, धर बमौजी महारा राज --लो. मी. सोडो--१ देखो "लधु" (=. भे.) २ देखो लंड (रू. भे.) लोच-सं. स्वरी.-£ किसी वस्तुया पदा्थका वह्‌ गुण जिससे वह्‌ दचाने ्रथवा मोढ्ने पर दब या मृड जाती है एवं पुनः भ्रपनी पूर्वं ग्रत्रस्याको प्राप्त हो जाती है! लचक, लचीलापन । २ कोमलता, नरमी । ३ श्रमिलापा, इच्छा । ४ गधे हुए भ्रटेका वह गण जो लोई वनाति समय लंवी वधती है। २ सार, तत्व । लोचण-देखो लोचनः {₹<. भे.) (ड, को., ना. डि. को.) उ०- मोड मुख मोई हीतठ हतवाढी, पीतठ ष॑र्णनै सीतल सतवाठी 1 सुच्वा लल चावं लालच धिनलार्म, लोचण मोच सोचण 'खिण ला । --ऊः का. लोचणियो-स. पू.-- १ प्रातः काल का नादतां उ०-उठोम्हाराश्रौ डोलाजी करी नीं सोचणियो, सूगसुपारी वनडौ पान रौ बिड्ली, इसडा लोचरखियां थांरी भोजायां करावै । सो. गी. नन ___ + ~ ^ 3 नि ॥; ४ ~ + २ देखो लोचनः (बरल्पाररू. भ.) , ` ` ` : | लोचणो, लोचवौ~क्रि. स.--, सोचना, ` विचार करना 1 उ०-- वहतां वरस पच्यासियौ, श्रौ गुजरातं अ्रयाह । उ लोचं प्रसपति हृश्रण, सोच महमंदसाह्‌ । ` रा. रू" २ पक्षपात करना । । | -.द्‌- कोदिह-याः प्रयत्न, कदत 4 ^ 4 ^ , उ०्~-जाठ नीम विलाला जाम्‌, साडा ` मात सपूतरी.। › ` चे्वयां मयि, ल्यावण लोचं -श्ुतरी । त --दसदेव लोचणहार, हारै (हारी) लोचणियो-वि० 1 ~ : , लोचिसोडी, लोचियोहौ लोच्योडौ -भू० का करुण । ोचीजणी; चोचौजबौ--करमे वा०। - ` - शल्तौचन लोचक्न-सें: स्वी. {सः लोचनः] १ राख नत्र । (ह, ना. मा.) । : : म प्रग पटाट पूर, गाढ दाढ गज्ज-ऊर । लोड दीप मे लोचन कांगरि सरीखा कन्न । - --गर. ₹ू. व, : \*.. भरः लोश्रणे, लोणः `लोचणं, लोयण, लोयखि, लोयन ॥ श्रल्पा, ङ. भे.--लोग्रणडी, लोचखियौ ! लोचपलोच-सं. पु.--ग्रावेष्टन करने या चेरे कीक्रिया १, : `: ` ॥)। , उ०--१. रसिया रौ-तन. रोगसू-सड़ जावे नह्‌ सोच 1 टेम रजत ~ खातर हवै, पातर लोचपलोच ! --वा. दा उ०--२ गौरी मिल गीत सह्‌ गाव, जतन: रहाव. जुवा युवा । केू हमे किता घर फिरसी, हरू लोचपलोच हुवा । | --श्रोपो | लोचालाचौ-सं. पु.-- १ शीघ्रता । | उ०--प्ििणीयांरौ बारह कोस जायने वकरो. खाच) लोचालाचौ घौ ही क्रियौ पण उरं वाकरो खावण न पाया ।नृर री चोकियां । । | | लंम-ढंम वटी दयं । | । --नेणसी क्रि. प्रकरण । ह) सोचियोडौ-भू. का. कृ.--१. सोचा या विचारा हुा- र पलल किया हुमा. -३ कोर्दिशः प्रयत्न किया. हुत्रा. 1 . '. | ` .{स्व्ी. लोचियोड़ी) न ५ | लोन्रून-संः'पु. यो. [सं. लोह + शणं | १ लोहे फा चूण 1 लोट-संः स्त्री.--१ सलोटने कौ क्रियाया भाव) उ०~-श्ररिया धार ग्रनेक श्रावरत, पाड मूठज पासा गया 1 खडग परवारा खेडतं खेता, थाट रवंद रणं सोर थया 1 | ' --रीणा वेता रौ गीत ४१ क्रि. प्र. लगाणी । ` २ देखो लोटदी' (मह्‌. ₹ू. भे.) ३ देखो नोरः (रूः भे.) " ~ ~ ४ देतो (लुटः (हूस्भे.) -‡ ` .- - ~~ 3१ | | | क कैन 02 # २ ॥५। । मर नाव | ` -लोधपोट 1 प) [ 01 र<. भे.- लोट । लोरडी-सं. स्त्री.--१ ग्वालों व किसानों के साथम रला जान वाला मिटी का जल परात्र विह्ेष । : उ०--द्धोटी दीवडियां काखां तद खाल, .मौटी लोटा दावा “; - ज्छमार्त । निरव चौरा डर वसियोडा नेडा, दरव मौरां पर कमि- योडा' डेरा { `ˆ ` --ॐ. का. ` ° मह., <. भे--लोट । लोटरण-वि.--! लेटने वाला । + ` =£ २. एक.विद्रोष जाति का कवरूतर. जो -प्राकाश -म लुढक्ता हृत्रा उड़ता है । लंकी कवूतर । (+ उ० -- तिके सिर ईस लिये मुसताक, पड़ं छक जाक फूल वियाक , किता घट पट लुट हिचकंत, कदरूतर. लोटण. जेम. करत. ~. -द् मूः प्र रू. भे लोटीगण 1. लोरणकरवौ, लोरणकरियो-सं..पृ.-- १ प्रसिद्ध राजस्यांनी.लोक्मीत । उ०-- कोठे.मुवाऊं डोडा इलायची रे म्हारा लोटणकरद्ा कोठ मुवा. नागर-वेल है जी श्रौ भिरानेणी रा दोला, मारी उटीकं धर श्राव । त , >? ^ --न्नलो.गी लौटणौ; लोखवौ-क्रि.-श्र. [से. लुट] १ पेट या कमर के वल इवर- उवर लुढकना, जुटना, धुड़कना ।` - ` "`` "“: उ०--सा्मत विद्धो श्रंग सार, दोय जेम. कर करवत्त.. दरार पड़ सीस विना लोट पठांण॒, किर ज्वार सिरं रुका क्रमरांण.! . ^ 6 --रा, {~ २ शयन करना, सोना (ग्म मे) ध उ०--वावाजी रा पोता जीश्री, वापूजीरा वेट, माता जननी के प्रोदरलोरिया। ` ` न्लौ मी ३ विश्राम करना। , स ४ चाटुकारिता, खुशामद करना । 7 उ०्--भ्रगर सेवं है, सुगंधदेवैहै। सूचौ सूधीलजै हँ, सीसियां री सीसियां ऊघीञं है । चोटी करहै, तिणि श्रागे नायण- दही लोरी फिर है । यवा मे पड दै लहर, तठ कहौ कणं सकं ठहर । | ---र. हमीर लोरणहार, हारौ (हारी), लोटणियी--वि० ! ि लोटिश्रोडौ, लोष्योड़ो, लोव्योडी मू का क० ` लोरीजणौ, लोरीजवौ--माव वा० 1 + लुटणी; सुटवौ--5०-भे० । लोटपोट~-वि.--१ विपयस्त, ` ग्रस्त-व्यस्त । उ०--इण मात कटारियां रौ घमरोढ पई । लौटर्पोर हवा तिको श्रालात चक्र री सी लीक वधी न जांणज भेढा दक जुवा जुवा । २ - ~ प्रतापसिघ म्होकमसिथ री-वात [1 न + अ म सत 1 (क क र दी व यय ननु द ज ११. ५० ॥ क 1 17, [1 ् # ् + ^, ॐ» = ५ ~ न „ "अ क जानन्‌ गुम -वै मे ०४ लोरमादटी [ग क 0 २ कुलांच खानि की क्रिया) उ०--१ सव्र लोटपोर उदि दोर सिर, धजर चोट खग धोहडां । नवकोट ष्य खंड वागा निडर, लालकोर मि लोहडां । -सु. भ्र. उ०--२ वगतरं श्राग उद्ुत कुंग, दवहूरण जण होढी दरवृग । धशा कंका वाथां पडे घोट, लोटीगण खावें लोटपोट । --गु. <, वें ३ भानंदित, श्रत्यधिक प्रसन्न (प्रसश्नता से उन्मत्त) उ०--फामणी धरणौ क्रिसनागर कस्तूरी प्रवर प्रतर सपि सूं गरकाय हई थकी उवां राजां रा मल्ूुकजादां रा मन राखती धकी सलोटपोर हृद्‌ रही दै। --राजांन राउतरो वात-वणाव ४ ध्वस्त, नष्ट, विनाक्ष । उ०-- चलते चंदोल चेन मे, हरोल दग्गती चलं । दरार हैत द्रुग को चिरार चुग्गती चले । प्रकोट चोट मार कोटलोरषोट गहै जहां । प्वेस कोट रोक देन यप्य षप्यरे कहां । --ऊॐ. का. ५ सुद-युद्धहीन, मस्त, वेहोद् । उ०~- तिस दूजौ प्याली चावडी वटं भरियौ । जांखियौ गलौ प्रजे सपगां छ । दारूश्रायौतो खरौ पिण॒ लोरपोर न हूवौ ) जगदेव पवार री वातः =, भे.--लटापोट, लौटपोट । नोटमारी-सं. स्प्री.--१ कच्ची दीवारफो वर्पास्रे वचानै के लिए उस पर लगाया हुग्रा पास्रषुसव काटो का छप्पर । दीवार का छाजन लोराङणी, लोटाइ्वौ-क्रि. स.--दैखो 'लोटाणौ, लोटावौ' (रू. भे.) लोटाणौ, लोटाचो-क्रि. स.-१ पेट या कमर के वल इधर-उधर लुढ- फाना, लुटानेा, घुडाना 1 २ शयन फराना । ३ विश्राम कराना। ४ सुद्ामद कराना! | ५ धरादायी कराना, गिरना । लोटाणहार, हारौ .(हारी), लोटाणियी --वि० । लोटायोहौ --गू० फा० ०) लोयईनणौ, सोटार्ईजवौ क्म वा० । सलोरटाष्णी, लोराडहचो, लोटावणो, लोटाववौ -- 5० भे ० । सोटायोशो~नू. का. कृ.--१ पेट या कमर कै वल इधर-उधर लुकाया हुभ्रा. २ शयन कराया श्रा. खुशामद कराया हूग्रा ! (र््री. लोरायोदुी) लोटाबणौ, लोटायवौ-- देतो 'लोटाणौ, लोटाबौ' (रू. मे.) १५ ३ विश्रम कराया ह्ृष्रा. ४ ४ 1 लोडणौ जा ना क लोरावणहार, हारी (हारी) लोटावणियो-वि० । लोटाविश्रोडी, लोखावियोौ, लोटाव्योडो--भ्रु° का० ० । लोटाचीजणो, लोटावीजवी-- कमं वा० । लोटावियोज्ञ-देखो 'लोटायोदौ' (₹<, भे.) (स्प्री, लोटावियोडी) लोरियोञ्म-मू. का. क.--१ पेटया कमरके वने धरातलं परर लेटा दभ्रा, जुढेका हृप्रा. २ शयन किया हुश्रा, ३ विश्राम किया हुश्रा. ४ धराश्ायी हवा हुश्रा । | (स्पी. लोरियोदी) लोरियौ-सं. पु.--१ भिद्रीका वना श्टोटा जलपात्र । उ०--संज्यां पटतां लोटियो हायते जंगठ गयौ सो सहर सूं निसर ग्यौ | -र्नापं सांखले री वारता २ देखो "लोटौ" (श्रत्पा., रू. भे.) लोटी-स. स्व्री.-- पीतल का वना एक विदो उनावट काजक्त पात्र । रू. भे--लोटीका लोटीका--देखो "लोटी' (रू भे.) उ०--रहि रद वेहनड़ी वचन तु रोई ले लोटीका जल मुखम्बो । --बी. दे. लोटीगण--देखो "लोटा" (₹ू. भे.) उ० -वुगतरश्राग उदुत वग, दवहूरण जण होढी दवंग | घण भूमा वाथा पडं घोट, लोरीगण खव लोटपोट । --गु.रू.ब लोटौ, लोटी-सं. धु. - १ चांदी, ताबा, पीतल श्रादि घातु द्वास निपित जलपात्र विश्ञेप । उ०--१ हाथां हकलिया लटकता लोटा, रिणरिण रीकेता समुपनं मं रोदा । कोडी कोडी ल कडियोड़ा कूंगा, ढाल भूंडोडा दलियोष दगा । --ऊ. का. उ०--२ र्द उण कल्यौ ज्यु पेश्लीबायांमें सुं हाय काठ पच उणनं वाल्टी रं खनं विठय लोरौ भरने उरं माथा मां कूडण लाग्यो --प्रमरूनड़ी उ०--प महु उ्णारा हाथ-पग भिगौय ने उरतौ-उरतौ धीर-धीरं मल करण लाग्यी । कोई भरोसौ रीसां वटतौ भ्रवकं लोकौ तेषं माधामे नीं ठरकायदे, --भरमर चनद उ०--४ सकर दूरतो भवरनजीर्मव्ण.जी, हां जी दोला व्ण ज्याश्रू लोठो-डोर प्यास लगे जद मारू जी भर पिश्रोजी। -सो. गी. ष प्रत्पा.,-सोरियौ | लोडणो, लोडवो-१ साफ की हुई रूई की पुनियां यनाना । २ केपास्रसे रूट्‌ व विनोली को पृथक करना । ४ भनक सोडउ ४४२६ य ## 1 ३ पत्थर पर मसाला पीसना 1 ४ मस्ती से भूमना । ५ देखो 'लोडणौ, लोडवौ' (रू. भे. ) उ०--१ वैरका भंडये, गिग्गने लौडयं, फौज टहेमज्जेय स्रिग्ग प्रमूजय 1 -- गर. रू. वं. उ०--र हाजर हिद वै तुरक लिये न पर भु लोडि। चीत वटा- वण हक तूं, बीत वटावण कोडि --गु. रू. वं. लोड्णहार, हारौ (हारी), लोडणियौ-वि० । | लोडिग्नोङौ, लोडियोडौ, लोढ्योड़ी--भू° का० ० । लोडीजणौ, लोडीजवबौ--माव वा० । लोढणी, लोढबौ -- ० भे ° । लोडाउ, लोडाॐ-वि.-देषो 'लोड़ाऊ' (रू. भे.) उ०-- {बौ सेवालौत । साख राठोड । विणलारो धणी ' लाखा रौ लोडाड । रूढीयारां जोड । --वीरमदे सोनगरा री बात लोडियोडी-मू- का. क.--१ क्पाससे रूई व विनौले प्रथक किये हुए २ मस्तीमे भूमा हुमा । (स्त्री, लोडियोडी) तोडो-देलो "लघु" (रू. भे.) उ०--नरा मडोवर नर समद, खिति लोड लुरसाण । है केऽ देस न हङ्कडौ, दोड तेहा वार्खाण॒ । | --गु. रू. व २ देखो 'लोढी' (रू. भे.) उ०--गोरी षीडी पर उघडता गोडा, लवी वीर्खा दे लेतोडी लोडा। सेणा साजनिया उमर भर साल, धमर देतोडी केता घर ्वालं 1 --ऊॐ. का लोढ-सं पु -१ समूह, शुण्ड । उ०--मिट मावत लोढ कि बोढ मही, जमना दल वे समुद्र जही । --रा. रू. २ वजन, भार ` ३ तरंग) $ लोक वाहन । ५ देवो 'लोढौ' (मह्‌ *रू- भे) , लोढशरणै, लोढबौ - देखो 'लोडणौ. लोडगै' (रू. भे.) लोढणहार, हारौ (हारी), लौदणियो--वि° । लोटिश्नोडौ, लोदियोड़ी, लोब्योडौ--भू° का० $°; लोदीजणौ, लोदीजवौ-- कमे वा० । शलोदियोडो- देखो ग्लोडियोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. लोढियोडी) लोढिपौ -१ देखो लघु' (रू. भे.) सोय उ०--राधां बार्जी जिनवा रा भात, थारं वीरं कौ षति वैठा- यस्यां । देस्यां बाई थानं लोदियौ वीरौ साथ, भली ए जुगत मे घर पूगायस्या । ---लो. गी. २ देखो "लोढौ' (ग्रल्पा , रू. भे.) लोदी-सं. स््री.--१. हाधी-दांत का वह्‌ खोसला एव गोलाकार ढाचा जिसको चीर कर चूडा वनाया जाता ह । २ देखो "लोढौ' (ग्रत्पा. रू. भे.) लोढौ-सं. पु.--१ पत्थर का वह लम्बा व गोल दुका जिससे सिला पर कोई वस्तु रख कर पीसी जाती हं ¦ २ मस्ती मे भूपते हुए गतिमान होने कौ क्रिया या भाव । उ०--धुरवा धरणी लग लोढा लं धाव । जीमण जीमण तं मोडा जिम जावै । मोरा अनुमोदित लोरा लड़ लागी, नीफर नव नीरद भमना भय भागी । | --ऊ. का, रू, भे.-लोडी ग्रत्पा., ङ. भे.-- लोडी, लोदढियौ मह्‌. ङ. भे.-लोढ लोणी-सं, स्त्री.-एक प्रकार की हरी सन्जी । - लोतर-स. पु.-शुभ लक्षण, ज्ञान । लोतश्राठ-स. प--जंजाल-चक्र उ०--जो रचना जगपत्ती, लोर्तश्राछ श्रमे त्रयलोक । सोई सत्य सद्रट, रेखा सार भ्रक रजपत्ती 1 --रा, रू. लोथ-स. स्त्री--शरीर, देह । उ०~-१ चुट लंब, ताड तड तड्‌, वाणं छुट बड सौक सड सड । फूट फिफरड़ कचछिज भड्फड ग्रतङ़ उघरड़ लोथ लडथड़ । | --प्रतापसिघ म्होकमर्िव री वातत उ०-२ कह केविया तणी कत सूं कांमणी, करडा वेचन श्रणायर कोथ । कूरम नग जावस्यौ कांकड, लड़थडती भ्रावमी लोध } --राजसिघ भाखरोत-रौ गीत उ०--३ अ्ररश्रौ भ्राप पूरौ भरोसौ राखावौ एं टोन्युं लोयां जमी माथ पडला, ग्र प्च इज कोई ठाकर कानी हाथ श्रागे करेला ! --प्रमरचूनडी २ कव, लाश । उ०--१ जटं माहिली वदरका द्रुटे द । जकौ येक येक गौढी दस दस श्रादम्यां में कूटे छै । लोथ पर लोथ पड दै । --प्रतापसिघ म्हौकमसिघ री वात उ०-२ सेरखांन भर समर, कहर परख घर कदल 1 लोय लोय उपरा, गरा भिडजां गज तंडट्छ । ३ किसी गीली वं गादी वस्तुक श्रंश, लौदा। -- र. ₹5. उ०--१ स्रगसा नेत्र, मीन जसा चप । भह जांणै इद घनख छै । 7 ह । । 0 8 1.1) अ+ (श कक क +~ क + [> 3 1 १ का +, १ (1 सि-न ० १ त न र म अमि अः [] (= क 1 # लोयी ग ("दढ ज~न मख न्यू रं बंद युं, सोढहकढा संमूरण चै । पेट पीक रो पान | सोधा- स्त्री. एक राजपूत वंश । छै । पासा माश रीलोय सै नाभी मंड गुलाब रौभ्रुलसोद। र --खीची मयेव नीवावतरौ दोपहर उ०--र पेट गीवां की लोथ, भिरगार्नँणी राज । सूंडी तौ कहिए ए -रतन कचोदियां जी म्हारा राज । --लो. गी ख, भे.--लोधि 1 मह्‌.+- लोयडौ, लोधी । श्रल्पा.--लोयदी । लोचडी--देखो 'लोध' (अल्पा. ₹<. भे.) लोयडी-देखो ^लोच' (मह., इ. भे.) लोधवत्यां-देखो श्लयवथ' (रू. भ.) | | उ०--सीह द्ृटौ सांकठां चीच्यूटौ गाढा तेर सही, भीदह्ियां कपटं यद्धं भाजिगौ भरम्म 1 ब्राहे साघ खाग मटर विकटं सु लोयवेते्या, केवियां करना चारूढेदड़ाजञ्परू केरम्म। | --गंगारामनागरा रौ गीत लोधि-देखो 'लोय' (<. भे.) # "` + उ०--१ श्रमर' लोयि प्राविया, कीर दारण विकराना ) पाहि लछां जुचि पडे, काका किरमाठा । सुप्र. ॥। उ*--२ जोगणी उवक्कौ प्र हूववकं हवाई जंतर सोयि दक्कं |. धुवक्कं लटयक्रं गजां लोव । भुटक्कं श्रकारौ मेन वैदेमारौ क्रोघां भाय, जोघारौ हृचक्कं प्रजा रौ महाजोध 1 --वखतिघ रौ गीत लोपौ-देखो (लेथ (मह. र. भे.) | सोदंग-सं पु.- १ महादेव, रिव । - लोद--१ देखो (लोदी (ख. भे.) २ देलौ 'लोध' (रू. भे.) ६ | धोदरवो-प्र. पु.---१ फंसलमेर राप्य का एक प्राचीन नगर , रू. भे--लोद्र 1 प्रोदी-र्. स्त्री-- १ मृसलमानों मँ पठानों को एक जाति) २ फपडेसे वधी ह गररी। | <. भृ.--लोद, लोधी । लोध ~प. स्प्री. (सं. लोध्र] एक पेड़ विदेष जिमके लाल व सफेद पुल लगते हतया दसकी छाल लकड़ी वं प्ल ग्रौपध मेँ काम प्रतिर । (ड. को.) उ०-लीला पोयण पाण केसडा कुदम राजं । लोध~रजां भल भामियां र मुव साज । चोटी कुरवक पून भिरिसाः करण सजा \ सीस कदां फूल गोरियां घणी लुमावं 1 -- मेव रू, मे.-- तोद, लोध (ना. इि.को.) - उ०--वर्रिघदे वाघेलौ गुजरात सौ गंगाजी रौ जात श्रयो हृतौ, तद श्र वंघवरी खोड निष्रटा सा लोधा राजयूत रदैता, शेड खाली दीठी, तरं गंगाजी रा पला मनोहर देखने श्रठै रहण री कीवी । --नणसी लोधी-देखो "लोदी (रू. भे.) लोषेस्वर-सं. पु, - एक तीयं कानाम। उ०्-घटहीर्मे गगाघटही मे जमना, घट घट है भ्रविनासी । धट ही मे पुसकर श्री लोघेस्वर सदधिमन कंवर विलासी ¦ -मीरां लोपसं. द.--- १ क्षयः नादा ! ^ | २ व्यतीत या गायव होने फौ स्वस्था, लुप्त । उ०-सेवट श्रक दिनभ्रो खगडौ तौ ब्हैणौ इन हौ \भ्रचार वरस तौ सपनां रं उन्मान लोपं व्हैमा ¦ भरलां सपना रौ कित्तौक थावस ¦ श्र कित्तीक इरी जड ठंडी ! -- फुलवाडी २ भ्रमाव, कमी! । । ॥ ४ व्याकरण के एक नियमानुसार शब्द के साधन में कों वणं उड़ाया हटा दियाजाता दहै) । लोषणौ, लोपवौ-क्रि. स. [सं. लोपन] १ उल्लंघन फरना । ु उ०-विदून्यौ निधी नीरज्री हाय्वासं। पुरो.मे सकौ सीर हप्नौज पामं । सजा हूं छडायौ श्राई राव सेल । साट पुत्र पितरेस'रौ लोप लेखो -मे.म उ०--२ श्रवघरा वरी रिण सीह भज भ्रसह्‌, लीह संता तणी निक लोप मखं किव मेद में । तई समाय प्रभ वधु दीना तशा श्रनाथां ताथ भूज विरद रोप । वणो कव वेदमें । --र.-ज.प्र २ पार करना, लाघना। ५ उ० --१ डावया टोडा टोडडी, लोपौ नदी बनास , श्राडावदरौ उलांधियौ, जद छोडी घण श्रासं । जी उमराव महान कर दुखिया, चट चाल्या म्हाराराज ) -लो. गी. उ०--२ सुख गल तरौ सूत, मेले मास्त लोष धते गढ लंक में जी 1 पेखे मख प्रारभ खोय श्रदीखंभ, की सामग्री पके जी । - ~र. रू ३ जच्त करना । उ०--सोजत्‌ धा कोस ३ मूल बूर माहे । कमार बामण यसै । पटली वमिर्णा नुं सासणथौ, चु मोटे राजा लोपीयो) -- नयासी ४ मिटाना, साफ करना । ५ भ्रन्तध्यनि होना । लोपणहार, हारौ (हारी), सोषियो-वि०) .“ लोपिश्रोड्, लोपियोड़ौ, लोप्योड्ौ --भू०° का० कु० । लोपीजणौ, लोपीजनौ--कमं वा०, धावं वा० 1 , लोपन--१ लुत करने की क्रिया चा लाने; ‡ नि २ नष्ठकरने की क्रिया। ३ लांघने की क्रिया । ५ श्रवहेलना करने की क्रिया । लोपांजन- देखो लोकंजन' (रू. भे.) लोपा-सं. स्वी.--प्रयाग में एक देवी का स्थान । उ०- लोपा मुद्रा दोय देवी प्रयागे । --वां. दा. ख्यात लोपाडणौ, लोपाडबौ-देखो '्लोपाणौ, लोपावौ' (ङ. भे.) ` लोषाडणहार, हासौ (हारी), लोपाडणियौ--वि° । लोषाडिग्रोड़ौ, लोपाडियोडो, लोपाडयोडौ-- भू० का० कृ०। लोपाडीजणौ, लोपाडीजबौ--कमं वार! , लोपाडियोडौ--देखो (लोपायोडी' (रू. भे.) (स्री. लोपाडियोडी) । लोपाणौ, लोपावौ-क्रि. स---१ उल्लंघन कराना । २ पार करवाना, लंघवाना । उ०--मालदे न्‌ मुवा थोड़ा दिन हवा था । सु चंद्रसेन कन्दे साल साख रा सबला रजपूत था । सु पहिला रमा रौ खत्रर प्रार्‌ । शमा नु"“"नै घाटौ लोपायौ । नीठ रामौ कुसलं गयौ । ध राव चंद्रसेन री वात ६ जव्त कराना) % साफ करवाना, मिटवाना । लोपाणहार, हारौ (हारी), लोपाणियो --ति° लोपायोडौ-भू° का०कु° 1 लोपाईजणो, लोपाईजवौ--कमे वा० 1 लोपाडणौ, लोपाड़वी, लोपावणौ, लोपावबौ--षू० भे० ' लोपायोडौ-मू. का. क.--१ उल्लंघन कराया हृग्रा । २ पार करावा हुश्रा। ३ जन्त कराया हरा! ४ साक कराय हृत्रा मिटाया हया (स्त्री. लोपायोडी) लोपामुद्रा-सं. स्वी---१ भ्रगस्त्य ऋषि की पत्नीकां ताम। लोपावणौ, लोपावबो-देखो 'लोपाणौ लोपाबौ' (रू. भे. ) लोषाचण्ार, हारौ (हारी), लोपाचणियौ--वि०। लोपाविष्रोडौ, लोपावियोड़ो, लोपान्योडो-भू° का० कृ०। लोषादीजणौै, लोपावीजबौ - कमं वा० , लोपावियोडौ- देखो लोपायोडी' (रू. भे.) (स्त्री. लोपावियोडी) लोपियोडौ-मू. का. कृ.-- १ उत्लेधन किया ह्राः २ पार किया हरा. ३ जन्त किया हुभ्रा. ४ सरायाहुत्रा. * प्रेतर्ध्यान हुवा हश्रा 1 (स्त्री. लोपियोदी) ४२४१ लोमणो लोफर-सं. पू. [श्र.] १ श्रावारा व्यक्ति । २ धूतं, कपटी । ३ व्यभिचारी, लम्पट । ४ वातूनी । रू. भेलापर । लोफरपण, लोकरपणौ-स. पु. - १ श्रावारापन । २ धूर्तता, कपट । २ व्यभिचारिता, लम्पटता ॥ रू. भे.--लापरपण, लपरपणो । लोब-देखो (लोम' (ङ भे.) लोवान-सं. पु. [फा.] १ एक प्रकार का भुगंधित गोद, जो जलनि कै प्रतिरिक्त दवाग्रों में भी कामश्रातारहै) रू. भे.--लवर्वान, लुवनि । लोबाणौ, लोवाबौ- देखो (लुमाणौ, लुमावौ' (ङ. भे.) लोवागहार हारौ (हारी), लोवाणियौ--वि० । लोबायोङ्ौ--भू० का० कु°। लोवारईनणौ, लोबारईजवोौ - कमं वा० । लोबायोडौ--देखो "लुभायोड़ौ' (रू. भे.) (स्त्री. लोवायोड़ी } लोवियाकज-सं. पु.--१ एक प्रकार्‌ का गहरा र्ग 1 लोवी-देखो "लोभी" (रू. भे.) लोभ-स. प.-१ लालच, लिप्सा 1 (ड. को.) उ०--श्रासत्खान मन घोखौ श्रायौ, लोम विना दुख वाग लगायो । ्रसुरां तरां उकत उपजाई, वातां लालच ती वताई । --रा- रू. २ कृपणता, कंजूसी ३ ब्रह्मा काणक मानस पश्र, जो उसके श्रधरोष्ठसे उत्पन्न हरा था । । ४ इच्छा, लालसा, चाह्‌ 1 उ०--दोनां रौ जिवड़ौ जहुर, तिसडौ ही सहूर, परसपर री सारीखी ही सोभ, म सारीखौ ही देलण रौ लागौ लोम =. भे.--लोव ५ कालाषश्याम। % (डि.को) लोभौ, लोमनौ-क्रि. स.-- १ लोभ करना, लालच करना । २ देखो “लुमाणौ, लुभावौ' (रू. भे.) उ०--१ दक्ढ पीत सोभयं सुरुप वीज सोभयं । निखंग पीठ रक्जयं, सुचाप पांणि सक्जयं । --र. ज. प्र. उ०-२ कवर श्रसैवड विगर, प्रलं सागर सिर सोमं । क्वण विनां सुखदेव, देव माया नह लोभं । -र. हमीर गाध र्‌ा, ष [। लोभा लोमणहार, हारौ (हारी), लोभणियो--वि०। ' लोभिश्रोडी, लोभियोडी, लोभ्योड़- भू° का० ®° ) लोभीजणौ, लोभीजबी-- माव वा० ) सोभाठ-वि,-देखो ^लोभी' (<. भे.) उ०--सवा कोड लग श्रा सय, पात्र भगावं महापसाव । लोभाङ दियौ लाखावत; सिध तरणौ छत्र सामां-रव । -जांम उनड रौ गीत लोमाणौ, लोभावौ-देखो (लुभाणौ, लूुभावीौ' (रू. भे.) उ०-- ताह व्रिभुवणसी रौ भाई पदमसी हती, तियं नूं सखायौ तं त्रिमुवणसी नूं मारं तो तीनूं टीकौ देवां! । ताहरां पदमसी लोभायं थकं जानं त्रिमुवणएसी नूं पाटां महै सोमल नीव मांह भेदधियौ । --नेणसी लोभागहार, हारौ (हारी), लोभाणियो--वि. । लोभयोडो-भू का. कृ । लोभा्नणो, लो मार्ईजवो--कमं वा. । लोमयोडो-देखौ लुभायोडौ' (रू. भे.) (स्मी, लोभायोडी) लोमाट-देखो (लोभी (र. भे.) (ड. को) लोभियौ -देखो लोभी! (श्रत्पा., र. भे.) उ०--ग्राक संसार रंजियौ धशणौ श्रात्तमा, भ्रलखन भेटियौ कदं भ्रांगौ । योभियं दीह घडवक न थोमियौ.। लोभिवं पयाणौ कीयौ लाची । --ग्रोपौ श्रादी (स्त्री. लोभणी) लोभी-वि. [सं. लोभ ~-इन्‌] (स्त्री. लोमभण) १ जिसे किसी वस्तु पाने कालोभ टो, ग्रभिलापी । उ०--१ लोभी ठाकुर श्रावि धरि, कांई करइ विदेसि । दिन दिन जोव तन खिसइ, लाभ किस।कठ लेसि । --टो. मा, उ० -२ धारे भाभोसानं चायं भंवरजी धन धरणौ जी, हां जी “दोला { कंप्डे री लोभण थांरी माय! सेजां री लोभण उडीकं गोरडी जी, थारी गोरी उडावे काग । श्रव घर भ्रावौ जी धाई थांरी नौकरी । --लोकगीत २ अधिक लालसा वाला, लालची । उ०--सगुरा सत संयम रै, सन्पुख सिरजनहार । निगुरा लोभी लालची, भूच विसय विकार। ' --दादू्ांी ३ पणाः, कञ्ुस । (ड. को.) मांगने वाला, याचक (श्र. मा.) ५ प्रिय, प्यारा उ०-१ लोभी श्रणवर नले गयी, दाग दे गयौ देह । कंसा भ्रनाडी सूं ४४४२ * लोयं „____(]_]_------------_--_-~_---_--~_~~~_~~_~~_~~~__~_~__~_~_~________ कियौ, सचि मे श्राज सनेह्‌। --श्रग्यात उ०--२ नहीं बोत्यौ जावै निपट, लोभी श्रावं लाज । नथ तुटं बिदल्ली पड, तरौ हठ क्यु श्राज । --श्रग्यात रू. भे.--लोत्री, लोमारऊ लोभ | ग्रत्पा---लोभियौ, लोभीडौ लोभीगुण-सं. पु.-- १ कवि (ग्र, मा.) लोभीडो - देखो ^लोभी' . (ग्रल्या., रू. भे.) लोभ-सं. प.--१ क्षरीर के छोटे-छोटे वाल, रोमावति 1 (श्र. मा. हु. नां. मा.) उ०--चंत मास री चांदणी सरस वधी संग सोकर । जांण श्राज खुसजादला, लोम सरा सह लौक 1 - र. हमीर लोमकरणो-से. स्ी.--१ हिमालय पवत में १७००० फुट की ऊंचा पर पाई जाने वाली एक वनस्पति कौ सुधित जड । जटामासी लोमड़ी-स स्त्री. [स. लोमशा] १ कृत्ते या गीदड़ की तरह का धग हिस्क जानवर, जिसकी चालाकी प्रसिद्ध है। रू. भे. - लूमडी । लोमघराज, लोमपद-सं, पु.--श्रंग देस का एके सुविख्यात राथा. जिसे रोमपाद, चित्ररथ एव दशरथ श्रादि नामांतर भराप्तये। # १ लोमपादपुर-स पु.- भागलपुर का प्राचीन नाम । लोमविलोम~स.पु.-साहित्य में एक प्रकार का दाब्दालंकार, जिसको सीधा पठनेसे जो श्रथं निकलता है वही श्रथ उल्टा पढनेसे भी निक- लता हे । लोमस, लोमसरिख-~स..पु- [सं. लोमश~+-ऋषि ]पुराणानुसार एक दीघंजीवी महपि जिनके शारीर पर भ्रत्यधिक लोम (कैद) होने के कारण इनका नाम लोमस पड़ा । उ०--संनक संनक रिख तेड़ो, लोमस श्रातस श्रस्वास्ति रे! सुक सनकादिक तेड़ौ, जक्षे क्रप्नर ने कहावोरे । -स्कमणि मंगठ लोमहरसण-सं. पु. [सं. लोमहषंन] सूतकुलोत्पप्न एक मनि जो समस्त पुरारग्रन्यो का श्राद्य कथनकर््ता माना जाता है। लोय-स. स्वी.. [स. लेक] १ स्वी, पत्नी । उ०--"लाखौ' श्रघौ घी श्रघी, प्रधी लस" नी सोय । सांस वटाऊ पावर श्रावण होय न होय । ---भ्रग्यात २ लक्ष्मी 1 उ०--लाखां भावं लोय," सपनां -ज्यूः जावै सरव । हुवै भगत ज्यु होय, मुगत परापत '्मोत्तिया' । --रायसिह्‌ सादर ३ "लोकगीत भें प्रयुक्त सम्बोवन वाचक .शब्द । उ०--१ दिखलर दिसा सूँ श्रार्‌ लोय, इसलांमी श्रौ वादस्य 1 1 --लो. ग्री. लोपण लो कष्ण ___ _ -------------------- उ०--र कुण रे खुदाया कुप्रा वावड़ पिशणियारी जीरं लेय कृण रे खुदाया समंद तदछाव वाल्हा जी । --लो,. गी. % देखो "लोक (रू. भे.) उ० --१ जिण तिण श्रागक जोय, पड़ा काजन पांतरं 1 लागे सैणां लोय, मिसरी सरिखा मोतिया 1 -- रायह्‌ सांदू उ० -२ हर हर तणा हमीर नरेसुर, लाभ थका मूका रह्‌ लोय । एकण श्रास तुहाछठी उपर, सीसोदा भ्रावे सहं कोय्‌ । --महारांणा हम्मीर्षिव रौ गीत उ०--३ लिखियौ लाभ लोथ, पर-लिखियो लाभे नहीं! पर िर पदमहि जोय, जेविह्‌ विहवं ्रप्पियो । --नणसी ५ देखो न्लौ' (रू. भे ) उ०--१ सारस मरता जोय, सारस्णी मरसी सही । लाखीणी घ्रा लोय, जग में रद्रसी जेठवा । --जेठवा उ०-२ काया दीपक मनवाटरहै, चित की जगेज लोय । श्रंतर घर्‌ कै जोयले, ब्रह्य उजाढठौ होय । --सीहरिरांमजी महाराज उ०-३ पेट भार हिरण्यं वहै, रह्यौ न श्रोटो कोय रूश्रां रूश्रां नीसरे, लूश्रां धुरं लोय लोर्यण -देखो 'लोचन' (रू. भे.) (डि. को.) उ०-१ समन भरूलो वप्पड़ा, जे सिर छत्र प्रोय । कर जीहा लोयण सवण, वियौ न श्प कोय । -हःर- उ०--२ मोज महण मूरत मयशणा, लोयण लाज श्रपार । 'जेहल' राज कवार जिम, कुण ग्रन राजकवार । --वां दा. लोयणकमल-सं. पु. यौ. [सं लोचन ~{-कमल] विष्णु । (ड. को.) लोयधरख्र-सं, पु--देखो श्धुमलोचनः । उ०-लोयण-ूःख्र लुक्ाय, सुम्म निसुम्म सहारया । रक्त वीज ग्रारोभि, मंड चंडादिक्र मास्या । -मे, म. लोयणि-देखो "लोचनः (रू. भे.) उ०-नव नव पुर परि पणिनवा, नव नव न्रुखणं भाख । नव॒ नव नारी नर नवा, लोयणि जोतु लाख । लोयन - देखो ^लोचन' (र<. भे.) लोधणा--देखो 'लोहांण' (रू. भे.) लोयौ-स.पु -्राटे का लोदा। -मा. का. षर. ष 1 लोर-सं. पु.--१ सावन-मादो मास में अविच्छिन्नव निरन्तर छोटी छोटी ददं की वर्षा करने वाले बादल या उक्त बादलों से हीनि वाली लगातार वर्षा, भड़ी 1 उ०--१ थानं थान ए. म्हारी वाडा री वडवेल, थाने ए कुण | सीच॑गौ । सीतं सीर्च, ए म्हारौ सावशिया रौ लोर भादूडं रौ कड २ तीक्ष्ण ध्वनि, टेर, रट। उ०--१ वावहिया त्‌ं चौर, थारी चंच कटावितुं । रा तिज दीन्ही लोर, मड जांण्यउ प्री भ्रावियड । दोः चाः उ०--२ वावहिया तर-पंखिया, तदं किउं दीन्दी लोर । महं जांण्यउ प्रिय श्रावियउ, ससहर चंद चकोर । --दो. मा. ३ समूह्‌, शुण्ड । उ०- प्श्रक्वर-रोर, लसक्कर लोर । क्रमं दठठ कोम, गहु-महं गोम । --गर रू. वं. ४ तरंग, लहर । ५ चेतकी सीमा पर प्राकृतिक खूप से पंक्तिवद्ध वृक्षों को कतार । रू. भे.--लूर, लौर । लोरियौ-सं. पू.-१ चुम्बकका टुकड़ा जो किसी धातुके चरेमेसे लोहे के कण श्रलग करने के काममें स्रताहै। लो री-सं. स्वी. [स. लोल] १ बच्चों को थपको देकर सुलाने की क्रिया याढग। उ०--ाहदं ठंणी ऋलरिया कड, पासी पालस्य पीवण प्छाड । लोरी दे पोल लालरिया लेती, दडखिल खोदा ने हाल- रिया देती । लोढ्-स. स्त्री---१ कानके नीचे का हिस्सा) उ०-निज कूम सिभ जुग वण ग्रनोप, उत्तग सिखर घण सिखर प्रोप । कर लोठ मुलत श्रति चपल कान, विखई्‌ मन जाशिक उकतिवांन । --ॐ. का. -- रा. रू. २ श्रग्नि की लपट उ०--ग्रहु फाव्ठां गरजत, वं लोकं वैस्ानर । नर पुर जन हरि नांम, उचरि समरत ग्रगोचर । सती भ्रंग पति संग उलसि रग पावक श्रंकित 1 रोम भ्रस्त पठ चरम होय वपु नाडि सांमि-हित । १; =-रा * २८. ३ समुह, भ्ुड । उ० --१ चिल दचि द्धौठ, दढां वधि लो । पवंगां पाई, पड वड हाड } ४ पतंग मे घनुपाकार लगने वाली वांस की खपची । ५ कानोंमे वारण किया जाने वाला श्राभूपसणा। ६ एक श्रस््र विदेष ७ मंदिर व पञ्ुश्रो के गेम वांघे जने वाते घंटे कै अदर वीबो- वीच लटकने वाला वातु का गुटका, लंगर । -- गु. <, वे. वि, चि, = लभर लोको वि०-१ चगल, चंचल (ह. नां. मा.) उ०--१ कटीसु दधीन केहरी प्रवीन पायका नहीं, विनीत वानि वीनसी नवीन नायका नहीं । सूचन दैन सन स्वीय रेन ये रूठ नहीं । श्रपांग लोढ गोलती इलोल्ल मे ठठं नहीं । --ऊ. फा, ग्रत्पा. रू. भे.-- लोकी लोढफी -देखो लोढ' प्रता, (€. भे.) सोल-वि.-- ९ परिवतनशील २ क्षणिक ३ मूख, वेवकुफ उ०-राज हंस सम राजवी, वडा करं किलौल। काग सरीखी कब्र, श्रावि उभौ लोल । -- सीपात ४ धेल, क्रीडा उ०-सरसा सरोवर चिम जलसं भरधारहै भरपूर । लख लोल करत हिलोल हरित हंस पक्षि पद्ुर --वि, फु. लोढणी, लोठनो-क्रि. स.-- १ म्द या कीचड़ में लथपथ करना । उ०--वाहृठं खाह्ढं लाज वचा, काद लोद्धण काया । कामण वण सांच कर कंथा, इण विध पाद्या श्राया 1 -क्रायर रौ गीत २ मोड़ना, शरुकाना । २३ फसना, उलमभ्छना । ज्यं -कांटां, भरट मे लो्रीजणौ । ४ दौड़ कर पकड़ना । ज्यू --र्गाववादछठाचोरां नं तालर मे श्रावतां लो लिया, कृत्तां टोगडी ने लोन ली । लोटणहार, हारौ (हारी), लोदणियी - चि. । लोदिग्रोड, लोचियोडी, लोढ्योडी-मू. का. कृ. 1 लोरीजणौ, लोढीजयौ -कमं वा. 1 लाठणौ, लाढवौ--रू. भे. । लोलणी, लोलवौ--१ तडफना, लुटना । ॐ०-- हार प्रौडती, वलक मोडती, भ्रामर भांजती, वस्त्र सांजती, क्रिकणीकलापृच्छोढती, माथड फोडती, वक्षःस्थल ताडती कंतल- कलाप रोलती. प्र्वीतल लोलती 1 --व. स. २ देखो "लो्णौ लोट्वौ (<. भे.) स्रोवणद्ार, हारौ (हारी), लोलणियौ -वि. । लोलिम्रोडौ लोलियोड सोत्योडो- भू. का. क़. । लोलीजणौ लोलीजवौ-- कर्म वा. 1 लोढमी-वि.-- १ मृुडने वाली उ०-- १ तठा उपरांत करिनं राजान सिलांमति कादली कृत्तरा लाहोरी दूतस, विलायती कूतरा, लोमी लालमी जीभ रा वघ्िं पु रा, लापदृं कान रा। रा. सा. सं. ईटयट । सोलावियोश लोला-सं. स्वी.- १ जीम, जिब्हा। (ड, को.) २ राटीड वंश की एक चाघ्वा। (वा. दा, च्यात्त) लोलाणौ, लोषवो - १ मद्री या कोचड्‌ में लथपथ कराना । २ मीडना, भुकान। । ३ उलसाना, फसाना । लोढाणह¶र, हारी (हारी), लोगणियौ- वि, । लोक्ायोड़ो- भू. का. कृ. । लोढर्हजणौ, लोष्र्हनवो-- कमं वा. । लोदढ्ावणौ, लोलाववौ --₹. भे. । लोलाणो, लोलावौ --१ तडफाना, चुराना । २ देखी 'लोढाणौ, लोठार्वी' (<. भे.) लोलाहणहार, हारौ (हारी), लोलागियौ वि. 1 लोलायोडो- भ का. कृ, । लीलार्दजणी, लोलार्दजशगै-- कमं वा. । लोलावणी, लोलावयौ- रू. भे. । लोटायोडो-मू का. .~-१ मदीया कीचड़ में लथपथ किया हुश्रा. २ मोडा हुश्रा. ३ उलकाया हृ्रा, फंप्ाया हृम्रा. (स्त्री, लोद्टायोडी) लोलयोडी-भू. का. कृ.--१ तडफाया हृश्रा, लुटाया द्रा) २ देखी 'लोकायोडीः (€. भे ) (स्त्री. लोलायोड़ी) लोटावट-सं. स्त्री --१ मुढने या भुकने की क्रिया । उ०-जुघ सीस पडत धडाहं जोढटा, वीज धघक्के चरक्क वहै.) गद्धिवांह लोढ्ावरट होय गद्टोवद्ध, गूधावत्य सुभटः ग्रहै । --गु. ड. ब. लो्ाचणो, लोढावबौ-देखो (्लोत्ाशौ, लोढावौ' (रू. मे,) सोक्ावणहार, हारौ (हारी), लोछावणियौ--वि, । लोगाचिश्रोड, लोढावियोडो, लीशखव्योौ-- भू. वा. कृ. । लोद्ावीजणौ, तोट्ठानीजवौ - कमं वा. 1 लोत्तचणो, लोलाववौ-- १ दैवो लोलाणौ, लोलावीौः (रू. भे.) २ देखो "लोणी, लोढावौ' (रू. भे.) लोलावणहार, हारै (हारी), लोलावणियौ-- वि, । लोलाविश्रोड़ी, लोलावियोड, लोलाव्योडौ- भू. का. क. । लोलावीजणी, लोलावीजनौ--कर्म वा. । । लोन्ावियोडीो-देखो "लोढायोड्ौ' (रू. भे.) (स्त्री. सलोावियोडी) ` लोलाचियोड़ो--देखो 'लोलायोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. लोलावियोडी) लोलासन .__„_ „~~, ~~~ {~ लोलापन-पं. पु.--योग के ८४ श्रासनों मे से एक, जिसमे पावो कौ स्थिति पद्मासन की तरह रखकर दोनों हाथो के करतलो (हथेलियो) फो जमीन पर टिका कर उनके वल शरीर को ऊच उठाना होता है। , सोक्ठियोडो-भू. का. क.--१ भिदटरी या 'कोचड़ मे लथपथ किया हमरा. २ मोड़ाया भुकाया हूग्रा- ३ उल्ाया या फसाया हुत्रा) (स्त्री. लोजियोडी) लोलियोडीो--१ तड़फा हुप्रा । २ देखो "लोलियोडौ' (रू. भे.) (स्त्री. लोलियोडी) लोली-सं. स्तरी.--मस्ती मे सिर हिलाने की क्रिया) उ०--तिणा माहे बादघछा भोति भांति रा निजरभ्रावे 1 तिण भांति केक तौ गाह्डमल भौखा खाई रह्या छ । केक वाका पाघडा रालोलीदेरह्या छ । केदक डाक जमद्रूत । -- मा. वचनिका लोदु-वि.-जिन्हा रस का शौकीन । उ०--जिस्यु वदहुघ्रोलानी जीभनु लोल्ु, जिस्यु कागनु डोलौ । ० जिस्यु घजनु अंचल, तििड संसार चंचल वैराग्य । --व.स. लोल्‌ष~वि.-- १ लोभी, लालची (ड. को.) २ उत्सुक, इच्छुक लोलो-सं. प.--१ दिदनः, लिग 1 प्रल्पा. लोली । सं. स्वी--२ भग, यौनि । वि.--१ मूख, भ्र्ञानी । २-भोला, सीधा-साघा । उ०--मुग्ध लोला तेह ना रंजवेवा श्रावरजवा भणी । --सष्टि शतक लोगौ-स. पु--१ वाण, शर । उ०--दुरग श्रचीत चेरियौ देतां, पमगां श्राठ सहस पखरेतां । चीरारस जागी भिर वागा, लोढा पज सिखरसिरलागा' -- रा. २ वुत्ता, भसा । ३ मांस पिण्ड । लोत्या-सं. स्त्री - १ वासना, इच्छा \ उ०--नीदङ्‌ं ककोल्या, मुकी संभोग नी लोल्या, स्वरी भरतार उमडोल्या --रा. सा. सं. लोव-- देखो 'लोह' (र. भे.) उ०--जीण भेरी वारये! मतं गयादधैवे घोड़ा टारडा ! तोडी ४२८४५ लोवटवाटटी वां लोवां री लगाम, जांमण की ये जाई, खेड़ी रा तोड़या ये दूवकी दवणा । ---लौ. गी. लोवड़ -१ देखो "लोई' (मह. रू. भे. २ देखो (लोवड़ी' (मह्‌. रू. भे.) उ०--वंघु वचायौ व्याठ जहुर सू, वस जहाज तिरांणी । रवि रौ रथ ऊगंतां रोक्यौ, श्राडी लोवड प्रांणी ¦ -राधौदास भादी लोवडियाटट, लोवडिया्टी-वि. ~ लोवड़ी नामक ऊनी वस्व धारण करने वाली । सं. स्वी- देवी । उ०--१ पथ पीर पकंबर लार पुलचा, महमाय सूं प्राय प्राधीट मिलया ' भखिया नव पीर संताप भग्यौ, लोचड्याच्ठ पगां पड़ रोण लग्यौ । -करणीजीरो दद उ०--२ 'ग्रभसाह' सहायति ईसरी लोवड्यिादी लक्ख नव । रथ खेडि मिती गिकवा रवद, रूप हद्‌ जं सह रव । -रा- रू, रू. भे.-- लोव डियाढ, लोवडियाषी, लोहूड़्याढ लोहूडियाढी लोवडियाण, लोवडियाकी - देखो !लोवडियाछ, लोवडियाली' (रू. भे.) उ० वाकी कटै टं द्वित विखमा, धणियांणी ने धायां । लोवडियाद ताप नह्‌ लाम, श्रोते थारे भ्रायां । --वां. दा. लोवड़ी-स. स्त्री.--१ लोवड़ो नामक ऊनी वस्त्र धारण करने वाली देवी के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द । उ०--जपियौ नां जाप, कव चालक कदमां र्यौ । उण कुट री भ्रव श्राप, लाज रूखाटं लोवड़ी । --गरोरदांन लास्स २ एक प्रकारका चस्त्र विशेपजो ऊन का वना होता है । उ०-१ चारणां वरण पर क्रपा नित चोवड़ी, तोवडी नकौ मां सूल तोल । विपे हेव सांसणां ्रजादां दोवेड़ी, एक इण लोवड़ी तरौ म्रोलै । --खेतसी बारह्‌ठ उ० --२ वरजती वाप रखावती व्याह, प्रंकन कवारी रहती सखी । ग्रोढण लोवड़ी काटती काड़, वेत कमाती जार ज्यं, --वी. दै. उ०--२ वंणव वीजशियां वंघण॒ विगता, , लड घोतां रा खजा लटकाठ । राती कानी री पोतडियां रूड़ी, ऊनी लोवडयां बगला सें उडी । ३ देखो (लृकारः ॥वं ॐ ॥ ॥ क ॥ । उ०--मूगी छम लोवडियां लिया, विच विच चुन्नी चीवटा 1 खोढ मदौनां खडा मोह, सकड़ सदीनां मीवटा । --दसदेव रू. भे.---लोवडी, लोहड़ी लोवडी-देखो लोवडी' (रू भे.) उ०--नंदरवारी पाघडी, पामडी लोवडी, वादृएवही लोवडी । पडी चूुनडी, गजवडी वोरी श्रावडि हसवडि सुवरणवडि । लोवठवाकी-वि.---लोवद़ी नामकं वस्त्र, श्रोढने वारी । ह 3 सोवांशियोौ उ०--सवै लोवछवाढीयां, न जांणु घण काय । ऊजक्दंतौ मारः वरा, पदम जडार्वं पाय । --टो. मा, लोवांणियौ-स. पु-- मुसलमानों की एक जातिया इस जाति का व्पक्ति ) लोवा-सं. स्थ्री.-१ सोमड़ी । उ०--चाला चउरांस्यान लावी वार, श्राडी ध्रावज्यौ इवणहार। वरूड मह्हा लोवा सीयमाल, चाल्यो राजा जाई भोवाल । --वी. दे, लोसक-सं. ¶.-- ताना । सलो'सार--देखो (लोहस।र' (€. भे.) लोह्‌-सं. पू.--१ लोहा नामक प्रसिद्ध धातु (श्र. मा. ह्‌. नां. मा.) उ०--राम भणे भण रांम भरा, श्रवरां रांम मणाय । जिण॒ मुख रांम न ऊचर, ता मुख लाहु जडाय । --ह्‌, र. २ दस्त्र प्रहार । ` उ०--१ वव नय॒ विक्रम गजवोहां, लागां लड श्रसीचत्र सोह । धारणा चित्त सिरदार नजर धरि, श्रसि तौरियौ सेरखां ऊपरि । --सू. प्र. उ ०--२ दोही तरफां लोह रा प्रसावं मे कसरनं राखी तथापि पदिचम रौ श्रघीस जांणि वारसुंदरी रं स्वभाव जय लक्ष्मी रौ कटाक्न तौ भोद्धाराव री तरफ हुवौ 1 --च.-भा, ३ रास्प्र, हथियार । ४ तलवार्‌ । उ०--सोन धार घर चलत, चलत लख पक्तिं पलच्चर। कातर विमु चलत, चलत समृहै नर हैमर चलत लोह उत्तालः, सूल सरगदा परिष्धन । चलत सोर पावत, मनहं डहर वंद घन । --ला, रा. मुहा०- १ लोह कर्णौ न्=तलवार का प्रहार करना । २ लोह भेढणौ युद्ध करना 1 ३ लौह लंणौ == मुकाबला करना । ४ लोह मानिणो = हार स्वीकार करना । ५ लगाम, वल्गा । उ०--१ वित्त पूडि पटी भांति सुरांह्‌, तीनां ऊरवरवं तुरांह्‌ । तपिए तार्‌ ए उतेग, पीसे मुहे लोह्‌ पवग । --ग. रु. घं. उ०--२ षादगाह्‌ मंड चरा पाट, सांहणी छोड सिगार थाट । लाखीक तण मुह्‌ दीघ लोह, सोब्रच्न जोत नग जडत्त सोह । गु. र.वं. वि.--श्रत्यचिक कटर । ७ फाला, श्याम । # (डि. को.) रू. भे.--सोव, सोहउ, लोहडउ, सोह, तोहडी, लौही, लौह । मह्‌.- लोहइ, लोट । - ४४४६ त्रो “० लोह श्रभिसार-स पू.-- १ दशहरा पर किया जाने वाला तलवार का पुजन । । उ०--पावस चौमासौ श्रायां जक पं घरं रहै जितरं चौमासौन श्रावं इतरं पलां, सचां न, धरणी दहल पड है-शौर भाजङ री (भाग जांण री) धरीघर में तयारी हवं है जदकं हुवां लोह प्रसिसार (दसरावं तरवार री पूजन) होवतां दही) -वी.स. री. २ सामरिकरीति। लोहड-देखो (लोह' (ख. भे.) उ ०--करह्‌ा माठवणी कटर, संभचि बोल्य सच्च । तातउ लोह ताहरद, वयस न लागौ जेच्च। --टो. मा, लोहकरम्म-सं. पु.-- पुरुषों की ७२ कलाश्रो में से एक । उ०--उपलकरम लेपकरम्म लोहकरम्म मरिकरम्म सुवरण्णकरम्म दासकरम्म । --व. स. लोहफार-स, १, सं. लुहार । उ०-सोहकार उत्ताल मनहूं प्ररन घन गज्जिय । गजर मनेहू धरियार, जाम पूरन प्रति वज्जिय । --ला. रा. रू. भे.--लौहूकार लोड -१ देखो "लघु" (मह. र<. भे.) ८ उ०-केहरि छौटौ वहुत गुण, मोड गयंदां मांण । लाहड व्डाई की केरे, नरां नखत परमांण --हा. भा. २ देखो "लोह" (मह्‌. रू. भे.) लोहृडउ- देखो "लोट" (<. भे.) उ०-इसउ नहीं हो ठाकरे ! इस उ कीजद्‌-गखद्‌ सात संद सालि- ग्रंम तुठसी कौ माढ्वा घातिजद भ्रचनलसरका श्रावास-थद्‌ लोहडउ करतां करतां गोरी-राजा का गूडरहद् जादइजद । --श्र, वचनिका क्रि. प्र.-करणौ लोहंडिाठ, लोहड्ाकी-देखो 'लोवडियःद' (रू. भे.) उ०--ह्य मां होढोहः श्रर सावत सुण उठती । फलकत भल- भोठीह्‌, तोहडियावी पुखच लग । -षा. भ्र. लोहडो- देखो 'लोवडी' (रू. भे.) लोहडौ-देखो "लोह" (मह. <. भे.) उ०-- १ कोन किसनावतत । मोट कुंडल मांह भादियां सूं वेढ की तद पूर लोह्ड पडयौ । -र्नणसी उ०-२ इण भति कमंघां श्रगढी, सूक वजायी रोहूडई । वीरां कि श्रारणा चावर, ज्यां घण तत्तं लोहई । --रा. रू. २ देखो "लघु" उ०-तर जेसौ मंडटीक रौ लोटौ भाई, तण सारी धरती रौ भार संभायौ। 1 -- नरसी लोहक ` =-= , लोहक, लोहक! लोहुछाक-वि.-- शस्व प्रहारो से क्षतःविक्षत, घायल । उ०--१ छलौ सिह देवतौ प्रथम प्रणी मे ही लोहक होय प्राणा रा पोखण भ लुभायौ थकौ प्रमदा रो पाणी शरपूठो खडियो । । -वं. भा. उ०--२ तडच्िया जाहि गोडिया तांण, जमदढां टेव उ जुवांण । लाम भड लोह लोहच्याक, धूमंति जांण पीये एराक । --गु. र<. उ०--३ या सुरातांही लोहक होय पडि थकं दी मलप लेर चालुक्य राज हमीर कं्मांस री कख मे चंपिया भ्रापरा स्वामी न भाटकियो 1 --वं. भा लोहट्ा-सं. पु.--राजलोक वे विशेष का नाम । उ०--लोहटिया दीवटिया मसूुरिया तलार तत्रपाल चामच्वार वालउ ्रतेडर कांमतेउर । --व, स. लोहटोप--देवो 'लोहलटोप' (रू. भे.) लोहड-१ देखो "लोह (मह, ₹- भे.) उ०--करहा माठवणी कह, संभकि वौल्यौ सन्व । तातौ लोहड । ताहरड, वलि लागी ना बद्ध ! --टो. मा. लोहडियाठ--शस्पों से सुसज्जित, लेस । उ०--उडतांण ग्रहै कर मूठ श्रडां, मड घीवांय लोहडियाठ भडां मुरजाठाय जोर रखी मुजरौ, घण घोडाय सीस घलां गजरी । --पा. प्र. लोहडौ-देखो "लोट (रू. भे.) उ०--श्ररस हन ऊतरं एक वर श्रच्छर वरिया, एक प१डं लोहदक्का लालुरिया । --गु- रू. वे. २ देखो "लघु" (रू. भे.) उ०--मंडोवर मूरधरा सेत लोहड्म खुरसांणह । नर समंद तं नाम, सह्‌ सिर हिदुसर्थांनह । --ग. <. व. लोहण--१ देखो ^लोही' (₹ू. भे.) उ०- तस ज्र जंग्री तांिया, वरमाढ गह गिरांिया 1 धणं हए लोहण सघण घण, हिय गजण कण २ ्रसण हए । --र. रू. २ देखो श्लोह्‌' (रू. भे.) लोहणौ, लोहबौ-क्रि. -स.-- पोना उ*-- तटा उपरोयत पाछा कारा चर. करण र पगा मंगायजें छ । चठ कील दै । करत्वा कीजै छै 1 हाथा लोहण नूं रूमाल हाजर . टवाद --खीयी 'गंगेव नींवांवत सै दौ-पहरौ ६४७ लोहतोडो-सं ए.-ॐट 1 [1 लोहर-सं. पु.-एक दे का नाम । - लोहलगर लोहणहार, हारौ (हारी), लोहणियौ--वि ० । छोहिग्रोडौ, लोहियोडी, लोदयोड --भू° का० कृ० । लोहीजणौ, लोहीजवौ -- कमं वा० । लोहतचंदण--देखो "लोहितचंदण' (रू. भे.) लोहतम-सं. पु. [सं. लोह +- उत्तम] १ स्वरं, सोना । (ग्र. मा.) लोहतरंग-सं. स्त्री.- लोहे का वना एक वाजा जोलोह के उंडों मे वजाया जाता है) (ना. डि. को.) लोहधात-सं. स्वी.- तलवार 1 (श्र. मा.) लोहवद्-सं. पु.- हथियार विशेष । उ०--यंतरमृक्त मुक्तामूक्त दुस्फोट तरवारि श्रानि तेल लोहृवद्ध लुडि एवंविव श्राय विसेसि ढांचा भरियां । लोहमोगढ लोहमोगल-सं. पु.--लोह की वनी भ्रगंला । उ०-गढ गिरुड श्रनईइ विसमउ, जेहुनड पायउ पातालिं पयठउ, महागज तणा जिस्रा पाग तिसा कोसीसां गरड पोलि, निविड कमाड, लोहमोगढ, विजांहरी तणी पद्धति । ~व. स. ला व ॥ स क लोहमह्नांगी-सं. धु. - कवच विप । उ०--ग्रसवार श्रसवारि, पायक पायकिं, भयादतु भयादि, ' सरा- सरिखद्धा खद्धी, गदागदि केसाकेसि, दंतादंति, मुस्टापुस्टि एक श्र॑गी लोहमदश्रांगी करी । लोहमराट-देखो "लौहमराट' (रू. भे.) उ०--विढता वीर ति वाट चात्या राइ चाली हुवद्‌ । कह सूचद कह सिलसता, लोहया लोहमराट । -- ग्र. वचनिका २ हट, मजन्रूत । लोहमिपोलि-सं- स्त्री- लोहे की पोल या दरवाजा । उ०-जे नगर मांहइ चुरासी चुहुटां तणी उलि, वारं दरवा लोहमिपोलि । लोहमी वाड-सं. स्वी.--भ्रस्तर-शस्त्र से भुसज्जित । ~~त स 1 पसः व ॐ स 1 उ०-- वीस लाख श्रसवार पाखरीभ्रा लोहमीवाड किञ्नां, वगतर, हाथल, टोप, शिलमें चिलकतां ऊपरं पूरी सिलहा किश्रां । - राजान राउतरी वात-वणाव लोहमे-वि. [सं. लौहमय] सोहे का, लोह निमित । उ०-पवं भिरा पगार पौकि, लोहम कपाट ए । क्लिगमेर सीक्ष जारि, ग्रोपियंत प्रार ए, -गु. रू. वं. उ०--डाहला, नवलक्ष, लहर नवलक्ल, लावनवलक्ष ही रालूलि । क --व, स, लोहलंगर-सं. पु.--१ जहाज का ` `“ सोहलटोप 24. सोवि \ वि.--टृट, मजबूत । लोहूलरोप-सं. पु-- युद्ध के स्मय सिर पर धारण करने का लोहे काटोप) उ०--लोहलटोपा वंच पूपा, कडौ ह्पा कस्तए । प्राटी अ्रलोजा मूठ तोजा, घल्ल मोजा तस्सए । --पा. प्र. र. भे.--लोहटोप । सोहलठ, लोहूलाठ, लोहलाठि्वाणी-सं. ¶.- शेर, सिंह । (ना. ड. को ) वि.~- टट, मजयूत । उ०--१ लोहलाठ कड़ावंघ संधी खड प्राम लागा, नागा घड़ा वंच श्राहृड निवात । काढा कुमा के खंड नरिद वाढा भई किना, पड पव्वं माछा इद्रवाढछा वच्पात \ --हुकमीचंद खिड्या उ०--२ लोभी पनां श्रानाड़ा सग्रर्मा लोहलाढीयणी, वागां फोजां फाडा पोडां फाठीयांणी वेस । पदी संथां मेवाडा प्रारेह वीर पाटी- यां, पांणीपंया काठीरयांणी घाड़ा पमगेसं । - महादान महडू उ०--३ खतंगा कराड काट वागे राठरीठ खार्ग, जाग पाट प्रेत काक्ठी श्रनाढ जुप्रांणा । सतारा हजारां श्राठ लोहलाड श्रायौ | न्यासा" रा तीन मै साठ नीमजे श्रारंण । सोहवात-सं. प---१ एक प्रकार का वात रोग । उ०- श्रथ रोगा, कास स्वासं ज्वार भगंदर गुल्मवात गल्लवात. रक्तवात भस्मवात उस्णवात श्रग्निवात लोहवात दूतिवात । --व, स. लोहसंक-सं पू- [सं. लोहदंकु। १ पएराणानुसार एक नरक कानाम। २ लोह का कटा । । लोहसार-सं. स्री - १ तलवार । २ लोह भस्म । (वयक) "रू. भे.-लो'सार, लीहसार लोहाण-देखो "लोहांण' (रू. भे.) लोहयोह्‌--शस्त प्रहार । उ०-पंखणा समर विचार धरे पुर, चुतरंग वर परं कुण चाड । लोहाबोह्‌ 'लालावत' लेती, वठ करत्तौ वांका यर वाढ । (हि. ना. मा.) सांगा रौ गीत लोहाकार-देखो "लुहार' (<. भे. } उ०--लोहाकार उत्ताल मनहु श्रैरन घन गञ्जिय ॥ गजर मनहु घरियार, जांम पूरन प्रति वज्जियं । -ला. रा. सोहागर-स. पु.--लोद्‌ {निकालने का स्थान, लोह खान । उ०--किहां करीरतस, किटा फल्पतर, {कहा लोहागर किटा वयरा- --पहाडवरं श्राद लोहाव-सं. धु. - रास्तर प्रहार । गर, किहा गृंजाफल, किहा मुक्ताफल, किहा काचखंड, किह पाथर- खंड । --व. स. लोहागिरी-सं. स्री. वैष्णव सम्प्रदाय कौ एक शाखा । लोहायद-सं. पु.--नाथ-सम्प्रदाय का संन्यासी । उ०-लोहायच्छ भ्न चोलिषए सुंदर, नागायलूजरा मै नहं दासिक । र॑ त मच्दर ओन जनछघर, यहंरी गोरख तूं करडा लल । --पा, प्र. लोहार-देखो 'लुहार' (रू. भे.) (ड. को.) उ०- १ श्रासत सगत ऊधरां श्राचां, जस जालम्‌ श्रलमाल जिसौ । लोह्‌ द्रोयण ताद लोहलंगर, श्रौ "लालौ' लोहार यसौ 1 --लालिह राठौड़ रौ गीत ॥ 1 उ०--२ काट सार वडेकारीगर, जींजरिया र्ण जुवा जुरा । पर लोहार करिया सर पार, हाले सात्रव जेर हुप्रा । --तेजसी साद्‌ उ०--३ राव लाखरसी पि सांभचियौ जे सोनगिरी नै ले गयौ । लोहासं नं बुलाया 1 इसी मालो घड़ौ तिण सूं एथ वंठा निवना तं मारां । --वीरमदे सोनगरा री बात (स्वरी, लोहारण) । } उ०--"रिणमाल' ऊरि नरलिघ रुख, पय ग्रहि लात पछ्छाडिया लोहा श्रठारदि विड लगां, पिखण श्रठारह पाड़या । -सु- भ. लोहित-~सं. प. [सं] १ रगस्ाल । (अ. मा.) २ महादेव का त्रगूल । [सं. लोहित] २ रक्त, खून । ४ मंगलग्रहु ५ सपे विदेष । वि.--१ रक्त से सना हृश्रा | २ लाल रग का। रू. भे.--लोहित्त 1 लोहितक-सं. पु. [स.] १ लाल मणि) २ मंगल ग्रह । लोहितचंदण--सं. पु --१ केसर । २ लालचंदन 1 रू, भे.--लोहतचंदण लोहितभाल-सं. पु-- लकरः, महादेव । लोहिताग-स. पु. [सं.] मगल ग्रह्‌ । (श्र. मा. ना. मा.) (नां. मा.) (अ. मा.) लोहिताक्ष-सं. प--एक प्रकार का रत्न । उ ०--हरिन्मणि चूनडी लोहिताक्त मसारगल्ल हंसगरव्म पूलक ग्रंक श्रंजन भरिस्ट चितामणि । -व. स. सोहि [री लोहित--देखो (लोहित' (रू. भे.) उ०-- हवं धत्त लोहित्त मेमत्त हाला, नसारा किसा पार सूठा निवाढा । मधू-मास श्रासोज में रास मंडे, तिहूं लोक री डोकरी तेधि तंड । --मे. म. लोहिय-देखो (लोही' (<. भे } लोहियी-सं प- लोह की वस्तुग्रों का व्यापार करमे वाला । लोही-सं. पु, ~ रक्त, सून 1 उ०--पद्य राव जिण वड्‌ हेठं वटी थौ, सु वड लोही बुटी, तोही समभ नहीं । ' --नंणसी र. भे.-- वु, लोई, लोह भ्रल्पा..-लोहीडी लोदीश-देखो 'लोही' (अल्पा. ₹. भे.) उ०--घरती नै सीचां रम्हती लोहीड री धार । इतरी कीकर मांगे प्री दीघोड़ी सरकार । --चेतमांनखां लोही ांण-वि.- सुन से चथ-पथ, तरवतर । रू. भे. - नलोरईभांण ध लोह्न--देखो लोही' (रू. भे.) (श्र. मा.) लो-प्रव्य.-- तक, पयन्त । उ०-१ कटि वरस लौ राखिये, वंसा चंदन पास ! दद्‌ गुण लीये रहै, कदं न लागे वास । उ०--२ तौ वडार्ण॒ कही, प्रानलीतौच्चूरीच्यु द्ध) --नापे सांखलं री वारता सट. भे.-लो, लौ) सौग -देखो "लवंग' (ङ. भे.) उ०--तेजप्‌ज श्रासप श्ररोगीजं छं । व्यार नं सोसदेदेनंप्याला दीजै छ धरां लगि पान वीडारा रस लील द! राजनि राउत रौ वात-वेणाव लगे- देखो (्लांटी" (रू. मे.) उ०-१ जोगी किणहिन जोग, सह जोगौ कीघौ सुक्व । लोटा चारण लोग, तारण कुठ खचधियां तणा ) -महाराजा मांनरसिह उ०--२ अणां कुवरसी दीठौ जे लियां तौ वख नहीं! श्रागै लोखा मांसां सुं कजियौ द्ध" --कुवरसी सांखला री चारता लेड-देखो "लड" (मह्‌. र<. भे.) उ०--तद वां देखनं किय । गोढी री तो नदेणी । इर लाड री भमी मजबूती देखी 1 -- प्रतापर्सिह म्होकमिह्‌ री बात लोडापण, लोँडापणो --१ लौडा होने का भाव, लडकपन ! २ लखिबाजी के कायं का माव । ४४४९. --दाद्ूवांणी ली~सं. दौकिकफ पा 2 रिभ लौडावाज--देखो 'लडिवाज' (रू. भ.) ्लोडावाजी-देखो लौँडेवाजी' (र< भे.) लौडी-~-सं. स्वी.- दासी, सेविका । लोडिवाज-सं. पु.--१ वह लडका या पुरुष जो लडका के साथ प्रकृति विरुद्ध भ्राचरणं करता हो । (वाजा) २ (स्त्री) जो नवयुवकों सेगप्रेम करतीहो। रू. भे---लडावाज । लडिवाजी~सं. स्त्री.--१ लंडिवाज का कायं । २ लौडेवाज होने को श्रवस्या या मात । <. भे.-लोटावाजो । लीडे-सं. पृ. [स्वी. लीडी, लडिया] १ लडका, नवयुवक । २ श्रवोघ या नासम्‌ वालक । ३ एेसा लडका जिसके साय लोग श्रप्राकृतिक श्राचरण फरते टो । मह्‌.- लड । लीण- देखो "लवर" (रू. भे.) उ०-- ज्यों जघ पसे दूषमे, ज्यों पाणी में जण । रेपे श्रातम रांमसों, मन हठ साधे रकण । - दादूवांणी लदि-स पु.- १ भ्रविमास्त, मलमास । लीदौ-देषो 'लूदौ' (5. भे.) स्त्री.--१ दीप-डिखा ज्योति । श्राग की लपट, ज्वाला । इच्छा, चाद । लगन, चित्तवृत्ति । २ १ ५ 1 ५ उ०-जनम जनम को साहिव मेरो, वाहीसोंलौ लागी । श्रपणा पिया संग हिल-मिल बेलू, भ्रधर सुधारस पागी । -मीरां क्रि. प्र---लागणी । ६ देखो ग्लौ" (ख, भे.) ७ देखो "लय" (रू, भे.) रू. भे.-- लोह, लोय, त्यौ । लोकिकं, लौकोक-मं. स्वी. [सं. लौकिक] १ परम्परा) भ उ० --१ खतरनाक उमर री जुगायां कई वार ठाकर री मौदूदी ने भल जावती श्र लौककि मरजाद नै तोड़ नांखत्ती । -रातवापतौ उ०-२ पराई लुगाई अरर पराया मोस्यार सार मन तावा तोड़ प्स लौकीक री मरजाद सार ठकणौ उघाडचां नीं चक । --फूलवादी २ समाज । उ०--सती लुगायां र चरित रा चाढा म्ह घणा घणा दीठा इर --देणो "तु" (ू.भे.) तौ सगद्धो लौकीफ रौ व्दै। - फलवा उ० --"ोश्ररधनः गाद्िम लोहू-गद्ट, सरप्राम-वंद समधम सनद । ३ लोकवृत्तान्त, सांसारिक हाल । याला-पुर विदियौ वद-प्रमांण, व्रर्‌ रावत तोडी सुरागमांण | उ०--निरभय नारायण सुद्धी सिर नाठ, परद्र संसय भय बुद्धी वर ध ४ पां । संवत्त छप रौ केवणा सिरलोको, लौकिक सैवण मै सामदज्यो लोकौ । ~--ऊ. का. ॐ व्यवहारिकपनः व्यवहार कुशलता । वि.-१ लोक संवंषी. २ इस लोकसे संवंघ रखने वाला, ३ लोक व्यवहार से संवथ “रखने वाला, व्यव हारिफ़ । लोकेस- देखो 'लोकेस' (रू. भे.) लौडणो, लौडवौ - देखो 'लोडणी, लोडवौ' (रू. भे.) लौडणहार, हारो (हरी), लोड णिधौ--वि० । लौ टिश्रोड़ी, लोड्योडौ, लौडद्योडौ--भू० फका० ° । लौड़ीजणो, लौड़ीजवौ - कमं वा० । लौटियोडो - देखो 'लोडियोढी' (रू. भे.) (स्त्री. लौडियोडी) लोडौ --१ देखो "लघु" (ङ. भे.) इ०- दण वास्तं म्हनै तौ तुल है की वाभी जी साहव म्हारं पती लौडी सौक वसार्वैला श्ररथात जुद्धमे मारीज श्रषद्यरा वरसी ह सत करनं जासू जितरं सोढ़ी सोक धकं मिढसी । --दी. स, टी, (स्वरी. लौडी) २ देखो "लंड' (रू. भे.) लोचणौ, लौचयौ--देखो 'लोचरौ, लोचवौ' (रू. भे.) उ०--कहर म्लेच्छं सहर उहर कंद काटिवा, लहर दरियाउ निज घरम लौचं । हिन्द्र राउ श्रा दिली लेसी उर" सवल मन माहि सुल्तांण सोच 1 --घ. व. भ्र, लौचणहार, हारौ (हारी), लौचणियो - वि०1 लौचिश्रोडौ, लोचियोडो, नौव्योडो--भू० का० ० । लौचीजणो, लौचोजवौ--कमं वा० \ लौट -देखो 'लोट' (रू. भे.) लौटण-देखो 'लोटण' (रू. भे.) उ०्-स्लोणके फंहारे श्रासमान को दुरे, लगौ घल जमीं पर लोटण ज्य लु । एसे किसवूं का हुनर करि मुजरे को भ्रावे, कड सूनंकी लौर-देमो "लोर" (रू. भे.) उ०--साार्यरी सामां, मीठा यावै मौर । ऊय वरन बादर, लंवा-मूत्रा तोर । --मयारांम रजी री जत्र सोलीण--दैसो 'लवलीन' (रू. भे.) उ०--सहज मंद धमकी, वा रनद वीण । नोरंगी वांणी तन रतन, साध भगत लीतीख । --श्रासम जी लीह्‌-देणो "लोह" (रू. मे.) लौहफार--देगो (्तोहुकार' (र. भे.) लोहश्ौ--देणो "लघु" (₹. भे.) लोहवारर-सं. पु.--एक भौपरा नरकः फा नाम । (पौराणिक) लोट्मराट-सं. पु.- णस्य चलाने मे प्रयीरा, योद्धा । उ०--१ श्रारण फरियौ उद्धाहु, वीरातन षद्वियौ । मार तौहमसर, चमू समः द्वियो । श्रारण मम भ्रस्त उरा श्रोरिया भितमां सीजढ काट, निराट निमोरिया ` --किमसोरदान वारर उ०--र 'माघावत' रामसि लौहुमराट, वेदत मीर थटांसग ट । समोश्रम 'मांडणा' दारणा सूर टटी खट मीर बरवत दुर । --सू. प्र. <. भे.--"लोह्‌मरारः लहसार-देखो "लोहसार' (र. ने.) लौहांण-सं. पु.-- एक राजपूत वंदा । उ०-भिष्टिया तिकँ मुवा काद्‌ भ्रमिया, जट लौहूंण खत्री जोसः मिया, जुडि गज चेत पटे यौह्‌ जिसहा, इकक्षठ समर जीपियौ दसडा 1 --म्‌. प्र. लौहित-देखो "लोहित" (रू. भे.) -लोहित्य-सं. पु.--१ ब्रह्मपुत्र नदी का नाम । २ एक पर्तत कां नाम। ३ घरमा की सीमा पर स्थित प्रदेश का प्राचीन नाम । % लालसागर का पुराना नाम । गुरज हनांमू मे पावे । -सु. भ. | लोहोडो--देलो "लघु" (रू. भे.) लौडस्पकर-सं पु. [श्र. लाँ उडस्पीकर | विपुल नापः ध्वनि विस्तारक उ०--कमघज्जां नाल लसक्कर, लौहोडौ खुरसांण मंहोवर । यंत्र । हेरि कतार नयर द्रूनाडै, मांडं ठं राण मेवाडे। --गृु. रूवं. उ०-सग्ाई्‌ माव वाधा मिलन एक गायसांऊं रेडियौ श्रर (स्त्री. लौहडी) लौडस्पकर ले श्राव । --भ्रमस्चूनडी | स्पाकत--देखो 'लियाकत' (र. भे.) ४५ १ ल्हेष ल्या'डओे ~= ~ ~ ~~ ~~ त्या" डौ - देखो 'लाड़ायौ' (रू. भे.) जीवले,भ्रा र्ण चंड जाइ्‌। .. ¦`. ` --दाद्ूवांणी ल्याणौ, त्यादौ -देखो (लाणौ, लावौ' (रू. भे.) | उ० -२ दादू ग्रहनिस सदा सरीर मे, हरि चितन दिन जाइ । प्रेम मगन लं लीन मन, ग्र॑तर गति ल्यौ लाई _. -दद्रवांणी उ०--१ एमा ल्याश्री त्याश्रौ पाचु हथियार तौ पंचं त्याश्रौ म्हाया कापड़ा जी । घनं भेजांगावापकंजी।. लो. भी. [ यपक-सं पु. [सं. लृपक] १ उनचास क्षेत्रषालोमे से ४१ वां ्लेत्रपाल । उ०- २ नागी नूं कहण लागी, "हानं थांहरी बहू दिलावो' तर । लपतकेस-सं. पू. [सं लृपतकेस | १ उनच्चास कषेत्रपालोमेमे४्रवां नागही वहू नू सिणगार ल्याई । वहु रा पग धरती लागे नहीं । सेच्पाल । --नैणसी | ल्हसकर--१ देखो 'लसकर' (रू. भे.) उ०--३ तरै भीम सांमौ जाय परं लागौ । श्रापरौ उरौ ,नीबड़ी उ०--१ सांम्हा स्टूसकर मेलि (लिहि) या, जाल घर श्रगजीत' । हतौ, तठ साये तेढ्नं ल्यायो । , -नणसी | ` खड स्नायौ ईवरांमखां, भिठण जवा स-जमीत । -रा. ₹, ल्याणहार, हारौ (हारी), ल्याणियौ--वि० । उ० --२ चूटीयौ ल्हुसकर श्रांण वासि. कर छोडियौ ्रालिम 1 त्यायोज् -मू० का० कृ° । जीत्यौ पवाड़ौ घरम श्राडौ श्रावीयौ क्रत करम -प. च. चौ. ल्यारईजणोौ, ल्याईजवौ--कमं वा० । त्हसकरियौ --१ देखो 'लसकरियौ' (रू. भे.) त्पायोडौ - देखो (लायोडौ' (रू. भे.) २ दैखौ, ^लसकर' (ब्रत्पा, <. भे.) (स्त्री. त्यायोडी) ल्हुसण- देखो (लसर (रू. भे.) ह्याढ -देखो "लाठ' (रू. भे.) ल्हास-सं. स्वी.- १ फसल कौ कटाई, बुवाई श्रादि के समय सामूहिक उ०- न्याह रौ नावौ कानां पडियौ, हाथ सूं काच च्ट^र ड्कंड़ा रूप से कायं संलग्न व्यक्तियों को खिलाये जाने वाला भोज, हुयग्या । दलाल सामी मंडी ठीलो करौ, राफां तिडाई जद त्याठ मोजन । ५ --दसदोख उ०--श्ररि चारौ जङ्‌ हंत ऊपाड, सक्ूर घौरि हाक सर । ठहास त्याढी-पं. पु.--भेडिया । करं फौजां वड लंगर, क्रोव निनांणी हमल कर । उ०--सू गाडर स्याद्या श्रागौ वच्च नूं ले रही है, तारां नाषेजौ -लालर्सिह राठोड रौ गीत ल्याछियां नूं ताड दूर किया । नदः दा | क्रि. प्र.--करणी। रू. भे-- लाठी । २ देखो लास" (र. भे.) ह्पावणौ, त्यावबौ- देखो ^लाणौ, लावौ' (रू. भे.) उ०-घोड़ी म्हारी चंद्रमुखी इंदरलोकां से्राई्‌ हौ राज । आई रतनारी हो तीजण, ठ्हास वंधाई हो राज । -लो. गी. उ०-१ म्हारं गं न हारज त्याव, म्हारया जामा यांही रेवौ जी। --लो. गी उ०--२ माजी ! ये म्हारी मह दीटठौ जीवते रौ । हवं राखाइत रहासक-वि. [सं लासक | १ लिलाड़ी, क्रीड़ा प्रिय । महार कनारं ल्यावौ । ज्यु हं हाय लाऊ, च्यु दय नू मुगत हव । २ इघर उधर हिलने वाला । --नणसी | ल्हासणौ, त्हासबौ-क्रि. भ्र.--१ भागना, दौड़ना । रू. भे.--ला, लास, लाह्‌ । न्न ्---^ त ल्यावं लोडि पराद्य, नहं दे प्रापरियांह । सखी श्रमीणा उ ०--घडच कनांता घार सूं, गौ रहवास मार । नूरमली लख कथरी, उरसां सूपदिर्यांह । -- हा, का ल्हासत मौर भली तरवार । -- रा. रू, ल्यादणहार, हारौ (हारी), ल्यावणियौ -वि० । ठहासियौ-वि.--्दासः' मे जाकर काम करने वाला । ल्याविश्नोडो, ल्यावियोडो, त्पान्योडो-भु° का० ० । रू. भे.--लहासियो, लासियी, लाहियौ, लाग्यौ ल्यावीजणौ, त्यावोजबौ--कमे वा० । स्टीक-देखो 'लीक' (रू, भे.) | ह्यावियोडो--देलो "लायोड़ौ' (रू. भे.) त्देस-देखो "लेस (रू. भे.) (स्वी. ल्यावियोडी) स्यो--देखौ लौ! (र. भे.) ८०--१ तर जगवेव भी वे काढ चितं शरारिः म कल्म, नारी 7 ॥ तूं रंडरी जात, तूं हत्या मती चदे, मारग सं उछि न डावी .उ०--१ दादू मरणा मांड कर, रदै नदीं त्यौ लाद । कायर भाजे जीमणी टचि वसि । धन #॥ थ र ट्री ष्ेसवो व 0 ~~~ ~ ~~ =०--२ तिस ल्ेत री दीधी । तिको लभी दीक माह न मूग्दरार उ०-जद हरियाली ते धर धाद मनं त्लेधिि देषरदेमी म नीकटी । --जगंदेव पर॑वार री बात मूवा ए नीद घोरो । --देश्नो "तपु (रू.-भ, घवो देवो प्लसोद' (र. भे. ्ेरो-देसो "वधुः (रू भ | ~ ^ ववो, [स. लघु] १ छोटापन, लघुता । उ०--तटोडी-वषी का दौ स्पा, मंगादोजी । क्षायबा, नलसर ४ # = ५ 9 लोधी । री भागदली दछणावौ । नवो २ दी पलियोमसे छीट। । (स्त्री, द्टोष्र) ्ेती-वि -दीटी वा । 1 क ष्होहृती परणाधूं रे क ला! मर व वः ख भेरी वोड़ी से # परणाप्‌ 7 भी उ०---विदती तौ गणाद गमा, म्दार्‌ ल्टौदयौ देवर पाड द नगद ता चलं । (1. विदली त्ये । --गो. मी त्होडियो--देलो (लघु (र भे.) (अ) © \* 100 1. भरः 1 (एला), [ 1 त, | ^ 711") 1 £ 4} {7 ( १ ८.{ 11, 8. न {0 {04४५८00 ५ न ॥ + चन ॥॥ च भदन ५ १ ४ श # ५ 2 [9 1 र त 6 र ह! 1 १ ५ { 4 ह ॐ & ^ ॥ १. # ॥। #1 ॥॥ १] [ १ १। ध [१ ६ ^ ५ ४, ४ [न + । | ©=333333=3 ~ &32353-36353363653535333535353353 63333553 533 53 == ६ 33: :=:3:- = = =-3-=-33 3335323 23353333 35333323 3323=35353533 32: =3 = ८ (यरल) राजस्थानी सवद कोस | राजस्थानी हिन्दी वृहत्‌ कोक्च | [ चतुथं खण्ड | { प्रथम जिल्द )} संपादक ( संपादन, परिवर्धन एवं संज्ञोधन कर्ता ) सीताराम लालस व्युत्पति श्रादि द्वारा परिष्कारक स्व० पं० नित्यानस्द शास्त्री दाधीच [ श्राखुक्रवि, कविभूषण, व्याकरण साहित्य, कौकश{दि तीथं श्री रामचरिताण्विरत्नम्‌ महाकाव्य भादि कै प्ररोता | कर्ता सीताराम लाटठष स्व ° उदयराज उट प्रकाङ्चक चोपासनी शिक्षा सनिति जोधपुर. शव्द सस्या १२४०५ =3==3=-3=-3353 3533633 €333 53388355 53535855 == ~ 11 --(-~

मीर ए आतिश के क्या कार्य थे?

मीर--आतिश या 'दरोग़ा--तोपख़ाना' मध्य काल में मुग़लकालीन शासन व्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण पद था। यह बन्दूक़चियों एवं शाही तोपख़ाने का प्रधान होता था। युद्ध के समय तोपख़ाने के महत्व के कारण मीर--आतिश को मंत्री का स्थान मिलता था।

मुगलकाल में मीर ए सामा का क्या काम होना था?

मीर सामाँ मध्य काल में मुग़लकालीन शासन व्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण पद था। यह बादशाह के घरेलू विभागों का प्रधान होता था। बादशाह के दैनिक व्यय, भोजन एवं भण्डार का निरीक्षण मीर सामाँ करता था। मुग़ल साम्राज्य के अन्तर्गत आने वाले कारखानों (बयूतात) का भी संगठन एवं प्रबन्धन मीर सामाँ को करना पड़ता था

मुगल काल में धार्मिक मामलों का प्रधान कौन था?

सद्र-उस-सुदूर या सद्रेजहां- यह धार्मिक मामलों का प्रधान होता था। इसका कार्य धार्मिक मामलों में बादशाह को सलाह देना था

मुगल काल में दीवान कौन था?

SHIVAM CHAUDHARY. दीवान मुग़लकालीन शासन व्यवस्था में सबसे बड़ा अधिकारी होता था। वह राजस्व एवं वित्त का एकमात्र प्रभारी होता था

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