शिकार करने वाले जानवरों के बारे में जानकारी क्यों हासिल करने लगे - shikaar karane vaale jaanavaron ke baare mein jaanakaaree kyon haasil karane lage

हर शिकारी जीव का शिकार करने का अपना तरीका होता है. कोई घात लगाकर हमला करता है, कोई कैम्फ्लेज का सहारा लेता है, तो कोई अपने जहर से शिकार का काम तमाम कर देता है. लेकिन चीते का फंडा अलग है. उसे अपनी रफ़्तार पर भरोसा है, वो छिपकर वार नहीं करता. अपने शिकार को बेतहाशा दौड़ाता है और आखिरकार दबोच लेता है. चीते के बाद दुनिया में सबसे तेज़ दौड़ने वाला जानवर है अमेरिकी हिरन प्रोंगहॉर्न. लेकिन ये इतनी तेज़ दौड़ते क्यों हैं? तब भी जब पीछे कोई शिकारी न हो, वैज्ञानिक बताते हैं दस हज़ार साल पहले अमेरिका के घसियाले मैदानों में एक चीते जैसा ही जानवर होता था. आज के चीते से भी बड़ा, फुर्तीला और मज़बूत. वो जानवर तो विलुप्त हो गया, लेकिन उसकी फुर्तीली छलांग और फर्राटेदार दौड़ प्रोंगहॉर्न हिरन के जेहन में आज भी ताज़ा है. डर की शक्ल में. कहते हैं इतिहास से सीखना चाहिए. प्रोंगहॉर्न ने सीख लिया है.
भारत में भी चीता 70 साल पहले विलुप्त हो चुके हैं. आख़िरी तीन भारतीय चीतों का शिकार एक राजा ने किया था. शान से तस्वीर भी खिंचाई थी. दस-बीस एशियाई चीतें बचे भी हैं तो ईरान में. और अब सालों की लंबी कवायद के बाद प्रयोग के तौर पर कुछ अफ्रीकी चीते भारत लाए जा रहे हैं. नर-मादा के दस जोड़े यानी कुल संख्या बीस. ये पहली बार होगा जब किसी मांसाहारी जानवर को एक महाद्वीप से दूसरे में शिफ्ट किया जाएगा. एक नई प्रजाति भारतीय जंगलों में कैसे पनपेगी? प्रयोग सफल रहेगा या नहीं इस बारे में एक्सपर्ट्स की मिली-जुली राय है. सब विस्तार से बताएंगे. लेकिन शुरुआत से शुरू करते हैं. इन बड़ी बिल्लियों का खानदान क्या है और भारत जैसे बायो-डाइवर्स टेरेन में चीते लुप्त कैसे हो गए ये समझते हैं.

बड़ी बिल्लियां-

अगर आपको कोई भारतीय चीते की नई-ताजी तस्वीर दिखाए तो इसे तब तक बाघ,तेंदुआ, जगुआर या प्यूमा ही मानिएगा जब तक आपको इसकी आंखों से लेकर नाक तक दोनों तरफ़ काली लाइन न दिखे. इन्हें अश्रु रेखा कहते हैं, यानी टियर लाइन, यही वो सबसे बड़ा शारीरिक अंतर है जो इसे अपने खानदान से अलग करता है. बाकी चीते का तो संस्कृत नाम ही चित्रकः है,यानी धब्बेदार. और धब्बे सभी बड़ी-छोटी बिल्लियों के शरीर पर हैं. खानदान के सबसे बड़े सदस्य बाघ से लेकर सबसे छोटे सदस्य घरेलू बिल्ली तक. जो आपको कंफ्यूज कर सकते हैं. बाघ और शेर के अलावा तीन तरह के तेंदुए, प्यूमा, कूगर, जैगुआर और चीता, इन सबको वैज्ञानिक 'बिग कैट' (Big Cat) की ही कैटेगरी में रखते हैं. इनमें से एक चीता ही है जो भारत में पूरी तरह विलुप्त हो गया है. इसकी कुल दो स्पीशीज हैं एशियाई और अफ्रीकी. एशियाई चीतों की अंतिम आबादी सिर्फ ईरान में बची है. और इनमें भी लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है. कुल संख्या उंगलियों पर गिने जाने लायक बची है.

क्रमशः शेर, बाघ, जगुआर और प्यूमा (getty)

भारत में कैसे विलुप्त हुए चीते?

भारतीय चीतों के विलुप्त होने की कहानी हैरान करने वाली है. शेर जिसे सबसे खतरनाक शिकारी माना जाता है वो जबतक शिकार से 45 मीटर दूर नहीं पहुंच जाता, तबतक छिपा रहता है. क्योंकि शेर बहुत तेज़ और बहुत दूर तक शिकार के पीछे नहीं दौड़ सकता. लेकिन चीता, फुर्तीला, हलके वजन और मजबूत कद-काठी वाला तेज़ तर्रार शिकारी है जो 110 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से शिकार का पीछा कर सकता है. फिर चीता एशिया में खात्मे की कगार पर क्यों है? क्या उसे आहार की कमी पड़ गई? बिल्कुल नहीं. वजहें कुछ और हैं.
एक ज़माने में एशियाई चीते ईरान, मिडिल एशिया, अफ़गानिस्तान से लेकर भारत तक पाए जाते थे. भारत में चीते राजस्थान से लेकर पंजाब, सिंध, गंगा के किनारों से लेकर बंगाल, बिहार, यूपी, गुजरात और मध्यप्रदेश तक के जंगलों में बसर करते थे. आहार में कोई कमी नहीं थी, काले हिरन, नीलगाय और चिंकारा जैसे जानवर बहुतायत में उपलब्ध थे. लेकिन फिर इनको पालना और शिकार के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया गया. चीता, शेर और बाघ की तुलना में कम हिंसक होता है, इसे पालतू बनाना आसान होता है. जंगल से पकड़ कर लाने के बाद इन्हें सिर्फ 6 महीने में शिकार करने के लिए तैयार किया जा सकता है. इसीलिए इन बड़ी बिल्लियों के गले में पट्टा डाल दिया गया.

फोटो सोर्स- twitter

इतिहास में पहली बार चीता पालने का सुबूत संस्कृत ग्रंथ ‘मनसोल्लास’ में मिलता है. इसे लिखा था चालुक्य वंश के राजा सोमेश्वर तृतीय ने. यानी चीते सबसे पहले छठी शताब्दी के बाद से पाले जाने लगे थे. इसके बाद ये सिलसिला मध्यकालीन भारत में भी जारी रहा. कहा जाता है कि अकबर की शिकारगाह में एक हज़ार तक चीते थे (कुछ स्रोतों के मुताबिक ये संख्या ज्यादा भी हो सकती है). इन्हें शिकार के लिए ट्रेन करने के बाद जंगल में जानवरों के पीछे छोड़ दिया जाता था, ये प्रशिक्षित चीते हिरन वगैरह का शिकार करके लाते और अपने हिस्से की एक टांग से संतुष्ट हो जाते. साल 1613 में मुगल बादशाह जहांगीर ने भी अपनी बायोग्राफी तुजुक-ए-जहांगीरी में कैद में रखी गई एक मादा चीता द्वारा शावक को जन्म देने का किस्सा बताया है.

मुगलों के शासन में चीते पालतू बनाए गए (प्रतीकात्मक फोटो - आज तक)

राजा, जमींदार और बाद में अंग्रेजों के लिए भी शिकार के लिए जंगलों से चीते लाए जाने लगे और ये सिलसिला 18वीं शताब्दी के फर्स्ट हाफ़ तक अपने चरम पर पहुंच गया. इस दौरान एक ट्रेंड चीते की कीमत 150 से 200 रुपए तक होती थी जबकि जंगल से पकड़कर लाए गए चीते की कीमत 10 रुपए के आस-पास होती थी.

पालतू बनाने से क्या हुआ?

चीतों को पालतू बनाए जाने के चलते दो चीज़ें हुईं एक तो इनकी शिकार करने की प्रवृत्ति कम हुई, दूसरा पिंजड़ों में बंद रहने से ये प्रजनन करने के लिए भी उतने आज़ाद नहीं रहे. पैदा होने वाले शावकों में यूं भी 60  फ़ीसद तक मर जाते थे. और इनके मरने की एक बड़ी वजह थी इनका शिकार. लकड़बग्घे, शेर और बबून के लिए ये आसान शिकार होते थे. दरअसल मादा चीता ज्यादातर अकेले रहना पसंद करती है.और मादा जब नर के पास संसर्ग के लिए आती है उस दौरान इसके शावकों को अकेले रहना होता है. यानी अपनी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उनकी अपनी. और ये वक़्त दूसरे शिकारी जानवरों के लिए सबसे मुफीद होता है.
और जो शावक, शिकारियों से बच भी जाते थे उन्हें मां की दी हुई ट्रेनिंग नहीं मिल पाती थी. जो कि दो साल तक चलती अगर मां आज़ाद होती, पिंजड़े और जंजीरों में न कैद होती. जिसके चलते चीतों की आने वाली नस्लें कमजोर होती गईं.

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मादा चीता और उसका शावक (फोटो सोर्स- gettyimages)

इसके अलावा चीतों की सुंदर खाल भी उनके खात्मे की वजह बनी. तस्करों ने अन्धाधुन इनका शिकार किया. अरब देशों में तो आज भी चीतों के बच्चों को पालने के लिए ख़रीदा जाता है. इनकी क़ीमत करीब 7 लाख रूपए तक होती है. ये भी चीतों की तस्करी और ख़ात्मे की एक बड़ी वजह है.

चीतों को मारने पर ईनाम दिए गए-

वापस टाइमलाइन पर आते हैं. साल 1880 में पहली बार एक चीते के हमले में किसी इंसान की जान गई. विशाखापत्तनम के तत्कालीन गवर्नर के एजेंट 'ओ. बी. इरविन' शिकार के दौरान चीते के हमले में मारे गए. चीता विजयानगरम के राजा का पालतू था. इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने चीते को हिंसक जानवर घोषित कर दिया और चीते को मारने वालों को ईनाम दिया जाने लगा. एक्सपर्ट कहते हैं कि चीते 20वीं सदी की शुरुआत तक बेहद कम हो गए थे.  और साल 1918 से 1945 के बीच राजा-महाराजा अफ्रीका से चीते मंगवाकर उन्हें शिकार के लिए इस्तेमाल करने लगे थे.

अफ्रीकी चीते के साथ अंग्रेज़ (फोटो सोर्स- gettyimages)

आख़िरी तीन चीते-

साल 1947. छत्तीसगढ़ की एक छोटी सी रियासत थी कोरिया. यहां के राजा रामानुज प्रताप सिंह उर्फ़ राजा सरगुजा ने भारत के आख़िरी तीन चीतों को भी शिकार में मार दिया, जिसके बाद 1951-52 में भारत सरकार ने भारतीय चीते को विलुप्त घोषित कर दिया. हालांकि इसके बाद बाद भी कोरिया इलाके में चीतों के देखे जाने की बात कही गई. लेकिन इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हो सकी. इसलिए मोटे तौर पर यही माना जाता है कि भारत के आख़िरी 3 चीते राजा सरगुजा के शिकार की भेंट चढ़ गए. जिसके बाद उन्हें कभी शिकार के पीछे छलांग लगाते नहीं देखा गया.

आख़िरी तीन भारतीय चीतों का शिकार करने के बाद राजा सरगुजा (फोटो सोर्स- twitter Pravin Kaswan)

कबीर संजय की लिखी किताब चीता- भारतीय जंगलों का गुम शहजादा के मुताबिक, हिंदुस्तान में चीतों के खात्मे के बाद उज्बेकिस्तान में चीते आख़िरी बार 1982 में देखे गए. जबकि तुर्कमेनिस्तान में आख़िरी चीता नवंबर 1984 में देखा गया, उसके बाद इन देशों में भी चीतों को विलुप्त मान लिया गया.

आज़ाद भारत में चीतों के लिए क्या प्रयास हुए-

आज़ादी के बाद जिस तरह शेरों और बाघों के लिए संरक्षण अभियान चलाए गए, वैसा चीते के मामले में नहीं हो सका. एशियाई शेरों को बचाने के लिए बीते सौ सालों में जो कोशिशें हुईं उनके चलते गुजरात के गिर नेशनल पार्क में शेरों की तादात 600 के करीब पहुंच गई है. हालांकि वैज्ञानिक मानते हैं कि गिर नेशनल पार्क में शेरों के लिए अब पर्याप्त जगह नहीं हैं, और दूसरा कि पूरी दुनिया में एशियाई शेर सिर्फ गिर नेशनल पार्क में ही बचे हैं, ऐसे में एक ही इलाके में सभी शेरों का होना उनके लिए तब और खतरनाक हो सकता है जब कोई महामारी फ़ैल जाए, इसलिए साल 2006-07 से शेरों को भारत के दूसरे इलाकों में बसाने की मांग शुरू हो गई. लेकिन गुजरात सरकार के लिए ये एक तरह से अस्मिता का प्रतीक बन गया, सरकार शेरों को कहीं और बसाने के लिए राजी नहीं हुई. इसके बाद मामला कोर्ट चला गया. वैज्ञानिकों की मांग थी कि शेरों को मध्यप्रदेश के 'कूनो वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी' में बसाया जाए. वही कूनो जहां अब अफ्रीकी चीतों को लाकर बसाया जाएगा. साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने शेरों को गुजरात से लाकर कूनो में बसाने की इजाजत दे दी. हालांकि कूनो में सारी तैयारियां पूरी हो जाने के बाद भी अभी तक शेरों को बसाना शुरू नहीं किया गया है.

फोटो सोर्स -getty images )

अफ्रीकी चीते बसाने की कवायद-

अब रुख करते हैं चीतों की बसाहट की तरफ़. साल 2009 में चीतों को भारत में बसाने की कवायद शुरू हुई. कहा गया कि भारतीय चीतों को लुप्त हुए इतना वक़्त नहीं हुआ है कि इस इलाके में दोबारा चीते न बसाए जा सकें. योजना बनी कि अफ्रीकी देश नामीबिया से चीते लाकर भारत में बसाए जाएंगे. 'वाइल्ड लाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया' (WII) के वैज्ञानिकों की टीम ने भारत में दस जंगली इलाकों का सर्वे किया, तीन घास वाले इलाके फाइनल भी हुए. मध्यप्रदेश का कूनो वाइल्ड लाइफ सैंक्चुअरी, मध्यप्रदेश का ही नौरादेही वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी और राजस्थान का शाहगढ़ इलाका. प्लान फाइनल हो चुका था, करीब 300 करोड़ रुपए खर्च किए जाने तय हो गए थे. लेकिन साल 2012 आते-आते योजना स्थगित कर दी गई. कारण दो, एक हैबिटेट के शेरों के साथ साझा होने पर दोनों प्रजातियों को एक-दूसरे से होने वाले संभावित खतरों का डर और दूसरा अफ्रीकी चीतों के भारत में बस पाने को लेकर शंका.
दरअसल प्लान की शुरुआत में कहा गया था कि एशियाई चीते अपने अफ्रीकी रिश्तेदारों से पांच साल पहले ही अलग हुए हैं लेकिन बाद में हुए शोधों से पता चला कि दोनों का रिश्ता 25 से 30,000 साल पहले ही पूरी तरह टूट चुका है.यानी जेनेटिक कोड अब दोनों का पूरी तरह अलग है. साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने अफ्रीकी चीतों को 'विदेशी प्रजाति' बताया. सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में ये भी कहा गया कि कूनो में चीतों के लिए पर्यावास विकसित करने को लेकर कोई प्रयास नहीं किया गया है और वैसे भी वहां शेरों को बसाए जाने की योजना पर काम चल रहा है. ये भी कहा गया कि अफ्रीकी चीते यहां की जलवायु और बायोलॉजिकल कंडीशन में एडजस्ट कर पाएं ऐसा मुश्किल है. और इसके बाद ये योजना पूरी तरह ठन्डे बस्ते में चली गई. बताते चलें कि इसी तरह साल 1952 में ईरान से एशियाई चीतों को भारत लाने की योजना बनी थी, लेकिन परवान नहीं चढ़ सकी थी.

एशियाई शेर (फोटो सोर्स- gettyimages)

लेकिन इसके बाद अगस्त 2019 में एक बार फिर इस योजना को बल मिला. सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी (NTCA) को चीतों को लाने की मंजूरी दे दी. कहा गया कि एक्सपेरिमेंटल बेसिस पर नामीबिया से चीतों को लाकर भारत में बसाया जा सकता है. जनवरी 2020 में एनवायरनमेंट और फ़ॉरेस्ट स्टेट मिनिस्टर जयराम रमेश ने कहा कि हमने इस योजना को दस साल पहले शुरू किया था, और अब कोर्ट ने जो फैसला दिया है वो मेरे लिए खुशी की बात है.

इसके बाद अगस्त 2020 में मध्यप्रदेश के कूनो, नौरादेही और राजस्थान के शाहगढ़ वाइडलाइफ सैंक्चुअरी सहित पांच इलाकों को शॉर्ट लिस्ट किया गया. और नवंबर 2020 में लिस्टेड साइट्स का सर्वे शुरू कर दिया गया.
जनवरी 2021 में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में हुई एक मीटिंग में कूनो के जंगली इलाके को सबसे बेहतर विकल्प मानकर इस इलाके का गहन अध्ययन शुरू कर दिया गया. साउथ अफ्रीका के एनडेंजर्ड वाइल्डलाइफ ट्रस्ट से 'डॉक्टर विन्सेंट वान डेर मर्व' कूनो पालपुर के दौरे पर आए, साथ में थे वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया (WII) के डॉ. Y.V. झाला. इन दोनों एक्सपर्ट्स ने हैबिटैट पर स्टडी की और इसे अफ्रीकी चीतों के रहने के लिए सही उचित ठहराया. तय हो गया कि अफ्रीका से चीते लाए जाएंगे. चीते साउथ अफ्रीकी ग्रुप द्वारा डोनेट किये जाने थे, भारत को बस इनके ट्रांसपोर्टेशन का खर्चा उठाना था. कूना में 6 वर्ग किलोमीटर का इलाका चिह्नित कर दिया गया. और बाकी खर्चों के लिए सरकार ने 14 करोड़ रुपए भी आवंटित कर दिए. प्लान के मुताबिक़ सेंट्रल गवर्नमेंट, WII और कुछ डॉक्टर्स को ट्रेनिंग के लिए अफ्रीका जाना था. लेकिन 30 अप्रैल 2021 को NTCA की एक और मीटिंग हुई, जिसमें चीतों को लाने का प्रोग्राम नवंबर 2021 तक तय किया गया. कारण कोरोना संक्रमण का बढ़ता डर.

NTCA का एक्शन प्लान-

अब 5 जनवरी 2022 को NTCA की 19वीं मीटिंग हुई है. जिसमें कहा गया है कि अगले 5 साल में पचास चीते लाकर बसाए जाएंगे. फ़ॉरेस्ट, एनवायरनमेंट एंड क्लाइमेट चेंज मिनिस्टर भूपेन्द्र यादव ने कहा कि एक्शन प्लान के मुताबिक चीतों को लाये जाने की तैयारी पूरी कर ली गई है. हर साल तीन बार NTCA की मीटिंग होगी और चीते सहित कुल सात विडालवंशियों के संरक्षण पर काम किया जाएगा.

 तमाम बार कवायदें पहले भी हुईं, लेकिन प्लान फेल रहा. अब आगे क्या होता है ये देखने वाली बात होगी. कूना सैंक्चुअरी में अफ्रीकी चीतों के रहने के लिए स्थितियां कैसी हैं, अफ्रीकी चीतों के लिए यहां एडजस्ट करना कितना आसान या मुश्किल हो सकता है. इस बारे में हमने NTCA के 310 पन्ने के एक्शन प्लान का बारीकी से अध्ययन किया.
 ये एक्शन प्लान IUCN यानी इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ कंजर्वेशन ऑफ़ नेचर की गाइडलाइन्स के मुताबिक तैयार किया गया है. कुछ ख़ास बातें आपको बताए देते हैं.

#आकलन बताता है कि कूनो में अफ्रीकी चीतों के रहने के लिए अनुकूल पर्यावास है.
#कूनो नेशनल पार्क में अभी 21 चीतों के रहने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं. एक बार चीतों के बस जाने के बाद कूनो में शेरों के बसाए जाने से भी चीतों को कोई समस्या नहीं होगी. कूनो में एक साथ शेर, बाघ, तेंदुए और चीते रह सकते हैं.
#अफ्रीकी चीतों को भारत में बसाए जाने में जेनेटिक स्तर पर कोई समस्या नहीं है. पहले जो स्टडी इस आधार पर की गई हैं कि एशियाई और अफ्रीकी चीतों को पूरी तरह एक दूसरे से अलग हुए 10 से 20,000 साल हो गए हैं, वह चिंता का आधार नहीं हैं. अफ्रीकी और एशियाई शेरों में, तेंदुओं और बाघों की पांच प्रजातियों में ये जेनेटिक गैप चीतों की तुलना में बहुत ज्यादा है.
#चीते की सभी प्रजातियों में कोई ख़ास फर्क नहीं है. साल 2021 का IUCN-CMS डॉक्यूमेंट भ्रमित करने वाला और गलत है. जिसमें कहा गया है कि दक्षिण अफ्रीकी चीते की तुलना में पूर्वोत्तर अफ्रीकी चीता, एशियाई चीते से ज्यादा नजदीक है. हमने इस डॉक्यूमेंट के बारे में IUCN के को-चेयरमैन को बता दिया है और उन्होंने इसे मान भी लिया है. साउथ अफ्रीकी चीता भी दूसरी स्पीशीज से उतना ही करीब है जितना नॉर्थईस्टर्न चीता.
#कूना में चीते के लिए उपलब्ध आहार के लिए 15 फरवरी 2021 से 29 अप्रैल 2021 तक सर्वे किया गया है. प्रति स्क्वायर किलोमीटर 23 से ज्यादा शिकार मौजूद हैं. कुल बारह प्रजातियां हैं जिनका चीते शिकार कर सकते हैं, इनमें सबसे ज्यादा उपलब्धता चीतल की है. चीतों के लिए कुल 12,798 की प्रे पापुलेशन है.

चीतल

एक्शन प्लान में पूरे प्रोजेक्ट के फेल होने या सफल होने के भी कुछ क्राइटेरिया निर्धारित किए गए हैं. कहा गया है कि मांसाहारी जीवों के ट्रांसलोकेशन की प्रक्रिया एक उचित संरक्षण नीति है. अगर सब कुछ ठीक रहा तो इकोसिस्टम को रिस्टोर करने में ये बड़ी सफलता होगी. ये भी कहा गया है कि कुछ नुकसान भी संभव हैं जिनके चलते ये प्रोग्राम पूरी तरह या पार्शियली फेल भी हो सकता है और कीमती, सीमित रिसोर्सेज़ का नुकसान हो सकता है.

अफ्रीकी चीतों की बसाहट कितनी सही?

हालांकि कुछ वाइल्डलाइफ एक्सपर्ट इस प्लान को पूरी तरह ठीक नहीं मानते. उनका पक्ष इसके ठीक विपरीत है. हमने फैयाज़ अहमद खुदसर से बात की, फैयाज़ वाइल्डलाइफ बायोलॉजिस्ट हैं और सालों कूनो पालपुर सैंक्चुअरी में काम कर चुके हैं. हमने उनसे कुछ सवाल किए.
हमारा पहला सवाल था, पूरी तरह लुप्त होने के पहले तक भारतीय चीतों का पसंदीदा हैबिटैट क्या था? फैयाज़ कहते हैं,

#अगर आप आज के छत्तीसगढ़ में कोरिया इलाके को देखें, जहां भारत का आखिरी चीता मारा गया था, तो एक वक़्त ये चीते के लिए स्पेसिफ़िक हैबिटैट था. ज्यादातर घास के मैदान और झाड़ीदार जंगल थे, जिनमें चीते के लिए पर्याप्त शिकार मौजूद थे.

हमारा दूसरा सवाल था कि क्या 'कूनो वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी' अफ्रीकी चीतों के लिए सही पर्यावास रहेगा?

#कूनो को कभी भी चीतों के संभावित आवास के रूप में नहीं देखा गया. इसे एशियाई शेरों को बसाए जाने के लिए तैयार किया जा रहा था. चीतों और एशियाई शेरों के लिए हैबिटैट में फर्क होता है. कूनो इस समय इकोलॉजिकली चीते को एक्सेप्ट करने के लिए तैयार नहीं है.

एशियाटिक लायन (gettyimages)

हमारा अगला सवाल था कि क्या अफ्रीकी चीते स्थानीय जानवरों के लिए कुछ बीमारियां ला सकते हैं?

#कई जेनेटिक बीमारियां अफ्रीका से उपजी हैं. और दूसरे हिस्सों में फ़ैली हैं. इन बीमारियों के कैरियर ज्यादातर वाहक ज्यादातर चमगादड़ और बन्दर जैसे मैमल्स रहे हैं. इस बार क्या होगा, यह कहना जल्दबाजी होगी. लेकिन हमें सभी सावधानियां बरतनी चाहिए.

अगला सवाल था कि क्या कूनो में चीतों के लिए पर्याप्त शिकार मौजूद है?

यदि आप 20वीं सदी के डॉक्यूमेंट्स को देखें, उनमें साफ़ है कि भारतीय चीते काफी हद तक काले हिरन और चिंकारा पर निर्भर थे, जबकि चीतल पर कम और नीलगाय पर बहुत कम. मुझे याद है जब मैं कूनो में काम करता था, तो वहां काले हिरणों की दो पॉपुलेशंस थीं. एक पोह की निमाई के पास था और दूसरी मानकचौक के पास. लेकिन कुछ ही सालों में काले हिरन गायब हो गए. खुले इलाके पहले घास के मैदान बने और फिर धीरे-धीरे झाड़ीदार और आख़िरी में जंगल में तब्दील हो गए.  और इसीलिए अब, कूनो में कोई काला हिरन नहीं है. एक समय में चिंकारा अच्छी संख्या में पाए जाते थे। 2004 में, मैंने डेटा इकट्ठा किया था. लेकिन धीरे धीरे ये भी गायब हो गए. इसका मतलब है कि इस इलाके में प्रे-बेस बहुत कमजोर है. और ऐसा नहीं है कि लोगों ने इन जानवरों को मार डाला है. ये बस यहां से बाहर चले गए हैं. एक अन्य शिकार प्रजाति, चीतल भी घट रही है.

उपयुक्त जंगली इलाके में कमी से चिंकारा आदि जंगल के बाहरी इलाकों में जाने लगते हैं और कई बार इंसानों से आमना-सामना हो जाता है

क्या चीते, शेर या दूसरे बड़े शिकारी जानवरों के साथ रह सकते हैं?

इकोलॉजी में इंट्रा-गिल्ड कॉम्पिटीशन होता है.कुनो में बिग कैट्स के बीच शिकार के लिए संघर्ष होगा. बाघ और तेंदुए जैसे हिंसक शिकारी चीतों के सामने होंगे. ऐसे में चीते आउट स्कर्ट्स में मूव करेंगे, जहां उनका इंसानों से संघर्ष हो सकता है.

भारतीय बाघ (gettyimages)

चीतों के लाए जाने से शेरों को कूना में बसाए जाने के प्रोजेक्ट पर क्या असर पड़ेगा?

कूनो 'एशियाटिक लायंस' के लिए प्रस्तावित सेकंड होम है. शेरों को यहां बसाने के लिए बहुत काम किया गया है. लगभग 24 गांवों को रिलोकेट किया गया है, और दूसरी जगह बसाया गया है. शेरों के लिए शिकार का बेस बनाया गया है. लेकिन अब जब हम अफ्रीकी चीतों को ला रहे हैं, तो उस तरफ़ ज्यादा समय और संसाधन लगेंगे. नतीजतन शेरों को बसाने की योजना में देरी होगी. मैं जब उस इलाके में जाता हूं तो लोग कहते हैं हम शेरों की वजह से हटा दिए गए, लेकिन शेर तो अभी भी नहीं आए हैं. उन्हें कब लाया जाएगा.

भारतीय शेर (gettyimages)

WII क्या कहता है-

जो कुछ WII के तैयार किए गए एक्शन प्लान में था, फैयाज़ की बातें काफ़ी कुछ उसके विपरीत थीं. इसलिए हमने WII के डीन और एक्शन प्लान को तैयार करने वाली टीम के प्रमुख  वैज्ञानिक YV झाला से बात की.
एशिया और अफ्रीका के चीतों के बीच जेनेटिक अंतर पर उन्होंने कहा,

'एक्शन प्लान में हमने स्पष्ट किया है कि दुनिया भर के चीतों में कोई फर्क नहीं है, ये आइडेंटिकल ट्विन्स की तरह होते हैं. जेनेटिक अंतर उतना ही है जितना कि स्पेन और जर्मनी के लोगों के बीच है.

भारत और अफ्रीका के क्लाइमेट चेंज पर झाला ने कहा,

हमने एक्शन प्लान में स्पष्ट किया है कि अफ्रीकी चीतों के लिए भारतीय जलवायु उपयुक्त है. भारत में चीते इसलिए ख़त्म हुए क्योंकि उनका शिकार किया जा रहा था और उनके पर्यावास का इस्तेमाल खेती के लिए किया जाने लगा था.

अफ्रीका में चीतों को खुले मैदान उपलब्ध हैं लेकिन भारत में घसियाले मैदान उपलब्ध नहीं हैं,  इस पर झाला ने कहा,

चीता की प्रजाति भारत में अलग-अलग हैबिटैट में पाई जाती थी, रेगिस्तान से लेकर जंगली इलाकों तक, इसलिए ये नहीं कहा जा सकता कि चीते सिर्फ घसियाले मैदान में ही रह सकते हैं. और चीते हैबिटैट के मुताबिक़ अपने शिकार की पद्धति भी बदल लेते हैं. चीते छिपकर शिकार करने वाले शिकारी भी बन जाते हैं और चेज़ करके भी शिकार कर लेते हैं. भारत के आख़िरी चीते घने जंगल में पाए जाते थे. कूनो में हालांकि घास के मैदानों की कमी है, लेकिन वो चीतों के लिए उपयुक्त रहेगा. हमने अफ्रीकी लोगों को कूना का दौरा करवाया है उनका कहना है कि यहां हैबिटैट हमारे यहां से बेहतर है.

अफ्रीकी चीते कब तक लाए जाएंगे? इस सवाल पर झाला ने कहा कि इंतज़ार की स्थिति है, कोरोना के हालातों को मद्देनज़र रखते हुए ही फैस्ला किया जाएगा.

पिछला वीडियो देखें: आर्टिकल 370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर और लद्दाख अब तक कोई राज्य पक्षी और जानवर क्यों नहीं बना पाए?

जंगली जानवरों का शिकार क्यों किया जाता है?

जंगली जीवों या घरेलू जानवरों का शिकार आम तौर पर मनुष्यों द्वारा भोजन, मनोविनोद, उन शिकारी जानवरों को हटाने के लिए जो मनुष्यों या घरेलू जानवरों के लिए खतरनाक हैं, या व्यापार के लिए किया जाता है। वैध शिकार अवैध शिकार से अलग है, जो प्रजातियों की अवैध हत्या, फँसाना या कब्जा करना है।

अवैध शिकार क्या है लोग जानवरों का शिकार क्यों करते हैं?

अवैध शिकार या Poaching उन जीवों के शिकार को कहते हैं जो क़ानून द्वारा संरक्षित हैं और जिनके शिकार पर या तो राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाबन्दी लगाई गई हो। इसमें जंगली पौधों या जानवरों को शिकार, कटाई, मछली पकड़ने, या फँसाने के माध्यम से अवैध या गैरकानूनी रूप से ले जाना शामिल है।

हम जंगली जानवरों को शिकार से कैसे बचा सकते हैं?

वन्य जीवों के संरक्षण के लिए सबसे पहले वनों की कटाई रोकनी चाहिए। वन्य जीव संरक्षण के लिए टीम बनानी चाहिए। शिकारियों पर अंकुश लगना चाहिए। हमें जानवरों के शरीर से बनी चीजों का बहिष्कार करना चाहिए, जिससे जानवरों का शिकार बंद हो सके।

जंगली जानवर तथा पशु पक्षियों का शिकार करना गलत क्यों है?

हालांकि, निवास की कमी और गिरावट तथा वन्य जीवों के अवैध शिकार की वजह से कई जानवर और पक्षियों के अस्तित्व खतरे में पड़ गये हैं या तो पड़ने की संभावना है। उनमें से कुछ तो विलुप्त भी हो गए हैं। जंगली जानवर और पक्षी भारतीय संस्कृति और परंपराओं के अभिन्न अंग हैं। लोग उन्हे देवी देवताओं के साथ जोड़कर देखते रहे हैं।

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