मुगल साम्राज्य में कृषि संकट से क्या अभिप्राय है? - mugal saamraajy mein krshi sankat se kya abhipraay hai?

मुगलकाल में “कृषि संकट”(इतिहासकार)

परिचय:- मुगल साम्राज्य के पतन के लिए जिम्मेदार कारणों के अतिरिक्त आधुनिक इतिहासकारों ने मुगल प्रशासन की कमजोरियों का अध्ययन प्रस्तुत किया है। इन विद्वानों ने इन्हीं कमजोरियों को पतन के लिए मुख्यता जिम्मेदार ठहराया है। इनमें इतिहासकार सतीश चंद्र, इरफान हबीब एवं नुरुल हसन प्रमुख है। मुगल शासक वर्ग सामाजिक अधिशेष अर्थात कृषि के अतिरिक्त उत्पादन पर निर्भर करता था। 18वीं शताब्दी में सामाजिक अधिशेष तथा शासक वर्ग की बढ़ती हुई मांगों के बीच अंतर बढ़ जाने से दोनों का संतुलन समाप्त हो गया। दिन-प्रतिदिन शासन का बोझ, लड़ाइयों का खर्च और उमरा वर्ग के ऐशो आराम से भरे जीवन की आवश्यकताएं बढ़ती गई और उसी अनुपात से सामाजिक अधिशेष घटता चला गया।

इस संतुलन के समाप्त हो जाने से मनसब प्रणाली में त्रुटियां प्रकट होने लगी। मुगल अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर करती थी, इसलिए सरकार की आय में निरंतर बढ़ोतरी, कृषि उत्पादन की मात्रा तथा गुणवत्ता को बढ़ाए बिना संभव नहीं था। मुगल सम्राट ने कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए लगातार प्रयत्न किए। किसानो को ऋण दिए जाते थे, सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध थी। इसके अतिरिक्त बंजर भूमि को जोत में लाने के लिए सरकार किसानों को हर तरह का प्रोत्साहन देती थी। परंतु यह सारी कोशिशें बढ़ते हुए खर्चों के सामने नाम मात्र की थी। सरकारी सहायता के बावजूद भी मुगल भारत में कृषि संकट गहराता चला गया।

सबसे पहले इतिहासकार नुरुल हसन ने 1969 में प्रकाशित अपने लेख में मुगलकालीन कृषि व्यवस्था में जमीदारों की भूमिका का अध्ययन किया। हसन के अनुसार मुगल शासन के दौरान कृषि संबंधों में ऊपर से नीचे तक एक पिरामिडाकार ढंग से एक प्राधिकारी संरचना का विकास हुआ।

इस संरचना में विभिन्न प्रकार के अधिकारी एक दूसरे के ऊपर अध्यारोपित किए गए। इसमें सबसे ऊपर जागीरदार थे और सबसे नीचे किसान। जागीरदार जमीदारों के माध्यम से राजस्व वसूल करते थे। अतः इन दोनों वर्गों के बीच जमीदार थे जो सीधे किसानों से राजस्व वसूल कर साम्राज्य या जागीरदारों को देते थे। नुरुल हसन के अनुसार एक वर्ग के रूप में जमींदार साम्राज्य के प्रति काफी निष्ठावान थे। परंतु, 18वीं शताब्दी में जब मुगल सत्ता का पतन हो रहा था और जागीरदारों पर आर्थिक दबाव बढ़ने लगा तो राजस्व की मांग भी बढ़ गई। राजस्व की बढ़ी मांग का सबसे अधिक बोझ तो किसानों पर पड़ा, परंतु जमींदार वर्ग भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। फलस्वरुप कृषि संबंधों की पूरी व्यवस्था ही चरमरा गई और साम्राज्य पतन की ओर उन्मुख हो गया।

17वीं शताब्दी के अंतिम तथा 18वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में हुए कृषक-जमीदार विद्रोह को मुगल साम्राज्य के पतन का एक महत्वपूर्ण कारण माना गया है। मुगल साम्राज्य के द्वारा आरोपित आर्थिक दबावों का जमींदारों और किसानों ने अक्सर विरोध किया था। साम्राज्य को जोरतलब जमीदारों से भू-राजस्व वसूली के लिए हमेशा ही सैनिक शक्ति का प्रयोग करना पड़ता था। औरंगजेब के काल और उसकी मृत्यु के पश्चात अनेक किसानों और जमींदारों के विद्रोह हुए जैसे- जाटों, सतनामीयों और सिक्खों के विद्रोह। कभी इनकी व्याख्या करते हुए इन विद्रोह को औरंगजेब की धार्मिक नीति के विरुद्ध प्रतिक्रिया के तौर पर तो कभी अतिक्रामक केंद्रीय सत्ता के खिलाफ क्षेत्रीय और सामुदायिक पहचानो की राजनीतिक दावेदारी के रूप में पेश किया गया है। निश्चित रूप से इन विद्रोह के मूल कारण राजनीतिक न होकर आर्थिक थे।

इरफान हबीब ने अपने अध्ययन “द अग्रेरियन सिस्टम ऑफ मुगल इंडिया” में भू राजस्व, कृषि अर्थव्यवस्था और कृषि संबंधों का गहन अध्ययन किया। उन्होंने बताया कि मुगलों ने वेतनभोगी नौकरशाही पर आधारित अत्यंत कुशल भू-राजस्व व्यवस्था को मध्यकालीन भारत में लागू किया था। यह व्यवस्था उत्पादन के आधार पर भूमि के प्रकार, भूमि के सटीक माप, प्रतिवर्ष उत्पादन का उचित अनुमान और फसलों के बाजार मूल्यों के आधार पर राजस्व का सही-सही निर्धारण पर बनी थी। मुगलों ने इस तरह राजस्व निर्धारण कर लिया कि किसानों और जमींदारों के लिए छिपाने को कुछ नहीं बचा। कुल मिलाकर उत्पादन अधिशेष की वसूली में मुगल प्रशासन पहले से अधिक सक्षम था। इरफान हबीब के मतानुसार मुगल राजस्व व्यवस्था इस अलिखित समझौते पर टिकी थी कि किसान के पास जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त अनाज छोड़ दिया जाता था। जहां तक संभव हुआ अधिशेष को पूरा वसूला जाता था। हबीब के अनुसार किसानों पर इस काल में अत्यधिक दबाव था। बड़े किसान तो कुछ हद तक इस बोझ को सह भी सकते थे परंतु छोटे किसान अपने आपको उत्पीड़ित समझने लगे। अत: विद्रोहो के अवसरों पर किसानों ने जमीदारों का साथ दिया।

आगे हबीब बताते हैं कि मुगलों द्वारा राजस्व की वसूली व्यवस्था में द्वेष अंतरनिहित थे। साम्राज्य की सुरक्षा के लिए बड़ी से बड़ी सेना रखने की कोशिश की जाती थी और इस कारणवश राजस्व की दर भी ऊंची से ऊंची रखे जाने की नीति अपनाई जाती थी। दूसरी तरफ कुलीन अपनी जागीरों से ज्यादा से ज्यादा प्राप्त करना चाहते थे। उन्हें किसानों की बर्बादी की कोई चिंता नहीं होती थी। उन्हें इस बात की भी परवाह नहीं थी कि क्षेत्र विशेष में अत्यधिक वसूली करने से कृषक बर्बाद हो सकते हैं।

कुलीनों का एक जागीर सेे दूसरी जागीर में स्थानांतरण होता रहता था, इस कारण वे कृषि संबंधी दुरगामी सुधारों में भी रुचि नहीं लेते थे। किसानों पर बोझ बढ़ता गया और उन्हें जीवनयापन की मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित होना पड़ा। इस अतिशय शोषण की प्रतिक्रिया में किसानों के पास विरोध के अलावा और कोई चारा नहीं रहा। मध्यकालीन भारत में इस प्रकार के ग्रामीण विरोधों के विभिन्न रूप देखने को मिलते है। कई स्थानों पर किसान खेत छोड़कर भाग गए। दूसरे गांवों या शहरों में चले जाने के कारण पूरा का पूरा गांव वीरान हो जाता था। कभी-कभी किसान राजस्व देने से मना कर देते थे और मुगल सत्ता के खिलाफ उठ खड़े होते थे। हबीब के अनुसार इन किसान विद्रोह के कारण साम्राज्य के राजनीतिक और सामाजिक संतुलन कमजोर हुए।

दूसरी तरफ जागीरदार भी किसानों और जमीदारों का शोषण करते थे। इसके विपरीत जमीदारों का किसानों और भूमि से करीबी संबंध था। हबीब के अनुसार जागीरदारों का बढ़ता दमन ही संभवत जमीदारों की खुली अवज्ञा का कारण बना। मुगलकाल में किसानों की दशा खराब होने का एक कारण इतिहासकारों ने इजारेदारी व्यवस्था को भी माना है। दरअसल अनेक मनसबदार-जागीरदार जो अपनी जागीर का प्रबंधन करने में असमर्थ थे उन्होंने अपनी जागीरें अधिक से अधिक बोली लगाने वालों को नीलाम करना आरंभ कर दिया। हबीब ने पाया कि यह व्यवस्था शाहजहां और औरंगजेब के दौर में भी जारी थी परंतु उत्तर-मुगलकाल में अत्यधिक प्रचलित होने लगी। स्वाभाविक था कि इजारेदारी की किसानों से मांग मालगुजारी की मांग से भी ज्यादा होती थी। अतः इस प्रथा का सबसे बुरा प्रभाव किसानों और छोटे जमीदारों पर ही पड़ा।

इजारेदारी व्यवस्था का व्यापक अध्ययन नोमान अहमद सिद्धकी ने किया है। उनके अनुसार इजारेदारों की रूचि किसान से केवल धन उगहाने में थी, जिसके लिए उन्होंने बहुत ही जालिमाना तरीकों का इस्तेमाल किया। इजारेदारों के अलावा जागीरदार और उसके कारिंदे भी किसानों से अवैध वसूली किया करते थे। समकालीन इतिवृत्त लेखकों भीमसेन और खाफी खां किसानों की दुर्दशा और सरकारी कारिंदों की लूट-खसूट का व्यापक वर्णन किया है।

मूल्यांकन:- सतीश चंद्र की पुस्तक के प्रकाशन के बाद अनेक विद्वानों ने साम्राज्य के राजनैतिक पतन के कारणों का पता लगाने के लिए इसके कार्यपद्धति के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना शुरू किया। अब कारणों की खोज व्यक्तियों और शासक की नीतियों के बजाय मुगल साम्राज्य के आधारभूत ढांचे में की जाने लगी जिस पर मुगल साम्राज्य टिका हुआ था। इरफान हबीब ने माना की मुगल साम्राज्य ने अपनी कब्र खुद खोदी। विद्रोह के फलस्वरुप साम्राज्य के विभिन्न भागों में स्वतंत्र स्थानीय राज्य कायम हो गए और मुगल सत्ता कमजोर पड़ गई। हाल में कुछ इतिहासकारों ने किसानों की निर्धनता और आर्थिक दबाव को इन विद्रोहों और इसप्रकार मुगल साम्राज्य के पतन की पर्याप्त व्याख्या को नहीं माना। इन्होंने 18वीं सदी के भारत में आर्थिक संकट के विचार को ही चुनौती दी है। यहां यह कहना उचित होगा कि हबीब के अध्ययन ने मुगलकाल पर इतिहासलेखन को आमूलचूल ढंग से परिवर्तित कर दिया। पहले के राजनीतिक विश्लेषण का स्थान आर्थिक विश्लेषणों ने ले लिया। उनेक अध्ययनों को नजरअंदाज कर मुगलकालीन इतिहास लिखना असंभव हो गया।

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