Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Vitan Chapter 4 डायरी के पन्ने Textbook Exercise Questions and Answers. Show
Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Vitan Chapter 4 डायरी के पन्नेHBSE 12th Class Hindi डायरी के पन्ने Textbook Questions and Answersप्रश्न
1. हिटलर की सेना का इतना डर बैठा हुआ था कि यहूदी लोग भूमिगत होकर अभावग्रस्त जीवन जी रहे थे। वे लोग न दिन का सूरज देख सकते थे और न ही रात का चंद्रमा। सड़क पर सूटकेस लेकर निकलना निरापद नहीं था। ब्लैक कोड वाले पर्दे लगाकर जैसे-तैसे दिन और रात व्यतीत करते थे। राशन की बहुत कमी रहती थी और बिजली का कोटा निर्धारित था। चोर-उच्चके उनके सामान को उठा लेते थे। यहूदी लोग फटे-पुराने कपड़े तथा घिसे-पिटे जूते पहनकर समय काट रहे थे। जब कभी हवाई आक्रमण होता था तो बेचारे काँप जाते थे। इसलिए यह कहना सर्वथा उचित है कि डायरी के पन्ने में वर्णित कहानी किसी एक परिवार की नहीं है बल्कि यह साठ लाख लोगों की कहानी है। प्रश्न 2. उसकी मम्मी हमेशा केवल एक उपदेशिका की भूमिका निभाती रही। उसने कभी भी अपनी बेटी की व्यथा नहीं सुनी। केवल पीटर से ही ऐन की बनती थी लेकिन उसके साथ संवाद करना सरल न था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि भूमिगत आवास में वह क्या करे। वह बाहर की प्रकृति को देखना चाहती थी, सूरज तथा चाँद को निहारना चाहती थी परंतु यह वर्जित था। वह निर्णय नहीं कर पाई कि वह किसके सामने अपनी भावनाएँ प्रकट करें। सच्चाई तो यह है कि उसकी भावनाओं को और उसकी बातों को सुनने वाला कोई नहीं था। इसलिए उसने अपने उद्गार इस डायरी में व्यक्त किए हैं। प्रश्न 3. अब समय काफी बदल चुका है। हमारा देश परंपरावादी है। इसलिए यहाँ महिलाओं की स्थिति में अभूतपूर्व परिवर्तन देखा जा सकता है। जहाँ तक अशिक्षित ग्रामीण समाज का प्रश्न है वहाँ पर पुरुष स्त्रियों पर हावी रहते हैं। शिक्षित समाज में स्त्रियाँ पुरुषों से बेहतर हैं। उन्हें घर-परिवार, समाज, समूह, राष्ट्र सभी स्थानों पर सम्मान मिल रहा है। अब बच्चा पैदा करना या न करना अब नारी के हाथ में है। इसलिए ऐन फ्रैंक की डायरी में वर्णित नारी की स्थिति की तुलना में भारतीय स्थिति की हालत काफी बेहतर है। हमारे यहाँ नारियाँ सरकारी व गैर-सरकारी विभागों में नौकरियाँ कर रही हैं जिनमें से कुछ नारियाँ डॉक्टर हैं तो कुछ इंजीनियर हैं। शिक्षा जगत में तो नारियों ने अपना आधिपत्य जमा लिया है। प्रश्न 4. लेकिन ऐन तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन करती है; जैसे अज्ञातवास जाने के कारण का बुलावा, आवास में जर्मनों के डर के कारण दिन-रात अंधकार में छिपकर रहना, युद्ध के अवसर पर राशन तथा बिजली की कमी होना, लड़की द्वारा तटस्थता की घोषणा करना, ब्रिटेन द्वारा हॉलैंड को मुक्त कराने का प्रयास करना, प्रतिदिन 350 वायुयानों द्वारा 550 टन गोले बारूद की वर्षा करना, हिटलर के सैनिकों द्वारा दिए गए साक्षात्कार का रेडियो पर विवरण आदि तत्कालीन ऐतिहासिक दौर के जीवंत दस्तावेज कहे जा सकते हैं। ऐन ने निजी जीवन की व्यथा के साथ-साथ इन ऐतिहासिक तथ्यों का यदा-कदा वर्णन किया है जिससे दोनों का अंतर मिट गया है। प्रश्न 5. इसे भी जानें नाजी
दस्तावेजों के पाँच करोड़ पन्नों में ऐन फ्रैंक का नाम केवल एक बार आया है लेकिन अपने लेखन के कारण आज ऐन हज़ारों पन्नों में दर्ज हैं जिसका एक नमूना यह खबर भी है नाज़ी नरसंहार से जुड़े दस्तावेज़ों के दुनिया के सबसे बड़े अभिलेखागार एक जीर्ण-शीर्ण फाइल में 40 नंबर के आगे लिखा हुआ है-ऐनी फ्रैंक। ऐनी की डायरी ने उसे विश्व में खास बना लिया लेकिन 1944 में सितंबर माह के किसी एक दिन वह भी बाकी लोगों की तरह एक नाम भर थी। एक भयभीत बच्ची जिसे बाकी 1018 यहूदियों के साथ पशुओं को ढोने वाली गाड़ी में पूर्व में स्थित एक यातना शिविर के लिए रवाना कर दिया गया था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद डच रेडक्रास ने वेस्टरबोर्क ट्रांजिट कैंप से यातना शिविरों में भेजे गए लोगों संबंधी सूचना एकत्र कर इंटरनेशनल ट्रेसिंग सर्विस (आईटीएस) को भेजे थे। आईटीएस नाज़ी दस्तावेजों का एक ऐसा अभिलेखागार है जिसकी स्थापना युद्ध के बाद लापता हुए लोगों का पता लगाने के लिए की गई थी। इस युद्ध के समाप्त होने के छह दशक से अधिक समय के बाद अब अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रास समिति विशाल आईटीएस अभिलेखागार को युद्ध में जिंदा बचे लोगों, उनके रिश्तेदारों व शोधकर्ताओं के लिए पहली बार सार्वजनिक करने जा रही है। एक करोड़ 75 लाख लोगों के बारे में दर्ज इस रिकार्ड का इस्तेमाल अभी तक परिजनों को मिलाने, लाखों विस्थापित लोगों के भविष्य का पता लगाने और बाद में मुआवजे के दावों के संबंध में प्रमाण पत्र जारी करने में किया जाता रहा है। लेकिन आम लोगों को इसे देखने की अनुमति नहीं दी गई है। मध्य जर्मनी के इस शहर में 25.7 किलोमीटर लंबी अलमारियों और कैबिनेटों में संग्रहीत इन फाइलों में उन हज़ारों यातना शिविरों, बंधुआ मजदूर केंद्रों और उत्पीड़न केंद्रों से जुड़े दस्तावेजों का पूर्ण संग्रह उपलब्ध है। किसी ज़माने में थर्ड रीख के रूप में प्रसिद्ध इस शहर में कई अभिलेखागार हैं। प्रत्येक में युद्ध से जुड़ी त्रासदियों का लेखा-जोखा रखा गया है। आईटीएस में एनी फ्रैंक का नाम नाज़ी दस्तावेजों के पाँच करोड़ पन्नों में केवल एक बार आया है। वेस्टरबोर्क से 19 मई से 6 सितंबर 1944 के बीच भेजे गए लोगों से जुड़ी फाइल में फ्रैंक उपनाम से दर्जनों नाम दर्ज हैं। में ऐनी का नाम, जन्मतिथि. एम्सटर्डम का पता और यातना शिविर के लिए रवाना होने की तारीख दर्ज है। इन लोगों को कहाँ ले जाया गया वह कालम खाली छोड़ दिया गया है। आईटीएस के प्रमुख यूडो जोस्त ने पोलैंड के यातना शिविर का जिक्र करते हुए कहा यदि स्थान का नाम नहीं दिया गया है तो
इसका मतलब यह आशविच था। ऐनी, उनकी बहन मार्गोट व उसके माता-पिता को चार अन्य यहूदियों के साथ 1944 में गिरफ्तार किया गया था। ऐनी डच नागरिक नहीं जर्मन शरणार्थी थी। यातना शिविरों के बारे में ऐनी की डायरी 1952 में ‘ऐनी फ्रैंक दी डायरी ऑफ़ द यंग गर्ल’ शीर्षक से छपी थी। HBSE 12th Class Hindi डायरी के पन्ने Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. अब समय काफी बदल चुका है। अब महिलाओं की स्थिति में अभूतपूर्व परिवर्तन देखा जा सकता है। शिक्षित समाज में स्त्रियाँ पुरुषों से बेहतर हैं। उन्हें घर-परिवार, समाज, समूह, राष्ट्र सभी स्थानों पर सम्मान मिल रहा है। बच्चा पैदा करना या न करना अब नारी के हाथ में है। इसलिए ऐन फ्रैंक की डायरी में वर्णित नारी की स्थिति की तुलना में भारतीय नारी की हालत काफी बेहतर है। हमारे यहाँ नारियाँ सरकारी व गैर-सरकारी विभागों में नौकरियाँ कर रही हैं जिनमें से कुछ नारियाँ डॉक्टर हैं तो कुछ इंजीनियर हैं। शिक्षा जगत में तो नारियों ने अपना आधिपत्य जमा लिया है। प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. डायरी के पन्ने Summary in Hindiडायरी के पन्ने लेखक-परिचय प्रश्न- डायरी के पन्ने पाठ का सार प्रश्न- ऐन फ्रैंक ने गुप्त आवास में जो दो वर्ष व्यतीत किए थे, उसकी जीवन-चर्या को डायरी में लिपिबद्ध किया। किंतु 4 अगस्त, 1944 को किसी ने आठों व्यक्तियों के बारे में सरकार को सूचित कर दिया और वे पकड़े गए। परंतु यह डायरी पुलिस के हाथों नहीं लगी। सन् 1945 में ऐन अकाल मृत्यु का शिकार हो गई। बाद में उसके पिता ओरो फ्रैंक ने सन् 1948 में इस डायरी को प्रकाशित करवाया। डायरी में ऐन ने अपनी किट्टी नामक गुड़िया को संबोधित करते हुए चिट्ठियाँ लिखी हैं। इसमें 13 वर्षीय ऐन फ्रैंक ने गुप्त आवासकाल के भय, आतंक, भूख, प्यास, मानवीय संवेदनाएँ, घृणा, हवाई हमले का भय, अकेलेपन की व्यथा, मानसिक और शारीरिक जरूरतों का यथार्थ वर्णन किया है। वस्तुतः यह डायरी यहूदियों पर किए गए अत्याचारों का जीवंत दस्तावेज कही जा सकती है। ‘डायरी के पन्ने’ का सार इस प्रकार है बुधवार, 8 जुलाई, 1942-मेरी प्यारी किट्टी, रविवार से मेरे जीवन में जो परिवर्तन हुआ है, उसे तुम नहीं जानती। भले ही मैं जीवित हूँ, परंतु मेरी परिस्थितियों के बारे में कुछ मत पूछो। रविवार की दोपहर को मैं तीन बजे के लगभग बाल्कनी में धूप में अलसाई सी बैठी कुछ पढ़ रही थी। उसी समय मार्गोट ने धीमी आवाज से कहा कि पापा को ए०एस०एस०द्वारा बुलाए जाने का नोटिस मिला है, परंतु माँ पापा के बिजनेस पार्टनर तथा प्रिय मित्र वान दान को मिलने जा चुकी है। बुलावे का समाचार पाकर मैं हक्की-बक्की रह गई। इसका मतलब है यातना शिविर में नारकीय जीवन भोगना। माँ वान दान से यह पूछने गई थी कि कल ही दोनों परिवार छिपने वाले स्थान पर चले जाएँ। उधर पापा यहूदी अस्पताल में किसी मरीज को देखने गए हैं। उसी समय वान दान और माँ घर में आए और उन्होंने तत्काल दरवाजा बंद कर दिया। मैं और मार्गोट बेडरूम में बैठे बातें कर रहे थे। उस समय माँ और वान दान अकेले में वार्तालाप करना चाहते थे। इसलिए उनके कमरे में किसी और को नहीं जाने दिया। तब मार्गोट ने कहा कि बुलावा पापा के लिए नहीं आया, बल्कि स्वयं उसके लिए आया है। यह सुनकर मैं चीख उठी। उस समय मेरी बहन की उम्र सोलह वर्ष की थी। मेरे मन में यह शंका थी कि हम कहाँ जाकर छिपेंगे। हम दोनों बहनों ने शीघ्र ही आवश्यक सामान थैले में डालना शुरू कर दिया। मैंने एक डायरी, कर्लर, रूमाल, स्कूली किताबें, एक कंघी, कुछ पुरानी चिट्ठियाँ थैले में रख ली थीं। बाद में हमने मिस्टर क्लिीमेन को फोन करके सांयकाल को अपने घर पर बुलाया। उधर मिस्टर वान मिएप को लेने चले गए। मिएप आ तो गई लेकिन वह रात को पुनः आने का वचन देकर चली गई। रात को वे दोनों सामान से भरा थैला लेकर आ गए। हम सभी इतने डरे हुए थे कि किसी ने खाना तक नहीं खाया। मिएप और जॉन गिएज रात के ग्यारह बजे पहुँचे। ये दोनों पति-पत्नी पापा के अच्छे मित्र थे। रात मुझे गहरी नींद आ गई। हम सबने अपने-अपने शरीर पर बहुत कपड़े पहने, क्योंकि कोई भी यहूदी सूटकेस लेकर नहीं आ सकता था। मिएप ने अपने थैले में स्कूली किताबें भर ली और अज्ञात स्थान के लिए चली गई। साढ़े सात बजे हम भी अज्ञात स्थान की ओर चल पड़े। तुम्हारी ऐन गुरुवार, 9 जुलाई, 1942-प्यारी किट्टी, मैं और मम्मी-पापा थैले तथा शॉपिंग बैग लेकर तेज बारिश में भीगते हुए घर से निकल पड़े थे। सुबह-सुबह काम पर जाने वाले लोग हमें ध्यान से देख रहे थे। जब हम गली में प्रवेश कर गए तब मैंने मम्मी-पापा को बातें करते सुना कि हम सबको 16 जुलाई को अज्ञातवास में चले जाना होगा, परंतु अचानक मार्गोट के लिए बुलावा आ गया है। इसलिए हमें कुछ समय पहले जाना पड़ेगा। पापा के ऑफिस की इमारत में ही छिपने का स्थान बनाया गया था। इस इमारत के भू-तल में एक गोदाम था, जहाँ काली मिर्च, लौंग, इलायची की पिसाई होती थी। इस ऑफिस में बेप, मिएप, मिस्टर क्लीमेन काम करते थे। छोटे-से गलियारे में एक छोटा-सा बैंक ऑफिस था, जहाँ दम घोटने वाला अंधकार था, वहाँ मिस्टर कुगलर और वान दान बैठते थे। इस ऑफिस से बाहर निकलकर बंद गलियारे में चार सीढ़ियाँ चढ़कर एक ऑफिस बनाया गया था। जहाँ फर्नीचर, फर्श, कालीन, रेडियो, लैंप आदि सब कुछ था। ये सभी उत्तम दरजे की वस्तुएँ थीं। रसोईघर में दो हीटर तथा चूल्हे भी थे। पास ही एक शौचालय था। निचले गलियारे की सीढ़ियों के पास दूसरी मंजिल का रास्ता था। सीढ़ियों के ऊपर हमारी गुप्त एनेक्सी थी। उसके ऊपर फ्रैंक परिवार का कमरा था। एक छोटा-सा कमरा हम दोनों बहनों के लिए बना था। ऊपर गुसलखाना, शौचालय, एक बिना खिड़कियों वाला कमरा था जिसमें एक वॉस बेसिन भी लगा हुआ था। ऊपर के एक कमरे में वान दान तथा उसकी पत्नी थी, जिसमें एक गैस चूल्हा तथा सिंक भी थी। तुम्हारी ऐन शुक्रवार, 10 जुलाई, 1942-मेरी प्यारी किट्टी, मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ कि हम कहाँ पर आ गए हैं। मिएप हमें लंबे गलियारे से सीढ़ियों से ऊपर दूसरी मंजिल पर ले गई और फिर वह हमें एनेक्सी में ले गई। मार्गोट वहाँ पहले से ही थी। हमारी बैठक तथा दूसरे कमरे सामान से भरे पड़े थे। छोटा कमरा फर्श से लेकर छत तक कपड़ों से भरा पड़ा था। मैं और पापा सफाई करने लगे। माँ और मार्गोट थककर गद्दियों पर ही सो गईं। हम दिन-भर काम करते रहे। जब हम थक गए तो हम भी साफ बिस्तरों पर सो गए। अगले दिन हमने अधूरे काम को पूरा किया। बेप और मिएप हमारे राशन कुपन लेकर सामान लेने गए। इधर पापा ने ब्लैक कोड वाले पर्दे लगा दिए। बुधवार तक मैं इस घर की सफाई करने में लगी रही। तुम्हारी ऐन शनिवार, 28 नवंबर, 1942-मेरी प्यारी किट्टी, इन दिनों हमारे घर में बिजली बहुत खर्च हो रही है। इसलिए अब हमें थोड़ी किफायत करनी होगी। साढ़े चार बजे अँधेरा हो जाता है, इसलिए हम पढ़ नहीं सकते। अनेक प्रकार की हरकतें करके हम समय काटते हैं। दिन में हम पर्दे को एक इंच भी नहीं हटा सकते थे। अंधकार हो जाने के बाद हम पर्दे हटाकर पड़ोसियों के घरों की ताका-झाँकी कर लेते हैं। मैं मिस्टर डसेल के साथ एक कमरे में रहती हूँ, जो एक अनुशासन-प्रिय व्यक्ति है, परंतु वह चुगलखोर भी है। वह अकसर मेरी मम्मी से शिकायत कर देता है जिससे मुझे मम्मी का उपदेश सुनना पड़ता है, जिससे पाँच मिनट बाद मम्मी मुझे अपने पास बुला लेती है। यदि परिवार वाले घर के किसी सदस्य को दुत्कारते तथा फटकारते रहें तो उन्हें सहन करना कठिन हो जाता है और मैं दिन-भर अपने कामों के बारे में सोचती हूँ। तब मैं हँसती भी हूँ और रोती भी हूँ। मैं चाहती हूँ कि मैं अपने-आपको बदलूँ। अब मैं और नहीं लिख सकती क्योंकि कागज खत्म हो गया है। शुक्रवार, 19 मार्च, 1943-मेरी प्यारी किट्टी, हमें यह जानकर प्रसन्नता हुई कि टर्की इंग्लैंड के साथ मिल गया है, परंतु दुख का समाचार यह है कि हजार गिल्डर का नोट अवैध मुद्रा घोषित किया जा चुका है। अगले हफ्ते तक पाँच सौ गिल्डर के नोट भी अवैध घोषित हो,जाएँगे। इन नोटों को बदलने के लिए जरूरी है कि उनका प्रमाण दिया जाए। जो लोग ब्लैक मार्किट का
धंधा करते हैं, उनके लिए तो यह मुसीबत बन गई है क्योंकि उन लोगों के पास अपने धन का कोई हिसाब-किताब नहीं है। गिएज एंड कंपनी के पास जो हजार गिल्डर के नोट थे, वे अगली अदायगी में खर्च किए जा चुके थे। इसलिए अभी चिंता की कोई बात नहीं है। हमने रेडियो पर घायल हिटलर और उसके साथियों की बातें सुनीं जो अपने घावों की चर्चा कर रहे थे। वे अपने जख्म दिखाते हुए गर्व महसूस कर रहे थे। उनमें से एक हिटलर से हाथ मिलाने को इतना उत्साहित हो रहा था कि बोल भी नहीं पाया। मिसेज डसेल के साबुन पर मेरा पैर पड़ गया, जिससे वह पूरा साबुन ही नष्ट हो गया। उन्हें प्रति माह घटिया साबुन की एक ही बट्टी मिलती थी। मैंने अपने पापा से कहा कि उस साबुन की भुगताई कर दें। तुम्हारी ऐन शुक्रवार, 23 जनवरी, 1944 मेरी प्यारी किट्टी, मुझे कुछ सप्ताहों से अपने परिवार के वंशजों और राजसी परिवारों के वंशजों की तालिकाओं में गहरी रुचि हो गई। मैं खोज करके अधिक-से-अधिक जानकारी हासिल करना चाहती थी। साथ ही मैं स्कूल का काम भी नियमित रूप से करती थी और रेडियो पर बी०बी०सी० की होम सर्विस को समझती थी। रविवार को खाली बैठे मैं अपने प्रिय फिल्मी कलाकारों की तस्वीरें इकट्ठी करती थी और सोमवार को मिस्टर कुगलर जो पत्रिका देते थे उसे पढ़ती और देखती थी। परिवार के सभी सदस्य समझते थे कि मैं इन पत्र-पत्रिकाओं पर पैसा खराब कर रही हूँ। छुट्टी के दिन बेप अकसर अपने बॉयफ्रेंड के साथ फिल्म देखने जाती, लेकिन मैं पहले से ही उनको उस फिल्म के बारे में सब कुछ बता देती। इस पर मम्मी कहती कि इसे तो फिल्म देखने की कोई जरूरत नहीं है। जब मैं नई केश-सज्जा बनाकर बाहर आती हूँ तो घरवाले मुझे अवश्य ही टोकते हैं कि मैं फलाँ फिल्म स्टार की नकल कर रही हूँ। मेरा जवाब होता है कि यह स्टाइल मेरा अपना बनाया हुआ है। जब मैं सबकी बातें सुन-सुनकर बोर हो जाती हूँ तो गुसलखाने में जाकर अपने बाल फिर से खोल लेती हूँ। इससे मेरे बाल पहले जैसे धुंघराले बन जाते हैं। तुम्हारी ऐन बुधवार, 28 जनवरी, 1944 मेरी प्यारी किट्टी, मैं तुम्हें हर रोज बासी खबरें सुनाती हूँ। तुम्हें मेरी बातें नाली के पानी की तरह नीरस लगेंगी। मैं क्या करूँ, मैं मजबूर हूँ। मुझे हर रोज वही बातें सुनानी पड़ती हैं। खाने के समय कभी-कभी राजनीति वाली बातें हो जाती हैं। कभी-कभी मझे अपनी मम्मी और वान दान की बचपन की बातें सननी पडती हैं जो हम हजार बा हैं। उधर डसेल हमें महँगे चॉकलेट, लीक करने वाली नौकाएँ, चार वर्षीय तैरने वाले बच्चे, रेस वाले घोड़े, पीड़ित माँसपेशियाँ और भयभीत मरीजों की कहानियाँ सुनाते हैं। हमें सभी किस्से याद हो गए हैं। अब कुछ नया सुनाने के लिए नहीं है। जब कोई बात करता है तो मैं बीच में टोकने का प्रयास नहीं करती। जॉन और मिस्टर क्लीमेन अज्ञातवास में छिपे लोगों की तकलीफें हमें सुनाते हैं। जो लोग गिरफ्तार हो चुके हैं, उनके प्रति हमारी सहानुभूति है। जो लोग कैद से मुक्त हो जाते हैं, उनकी खुशी में हम भी खुश हो जाते हैं। अज्ञातवास में रहना अब सामान्य-सी बात हो गई है। फ्री नीदरलैंड्स के लोग अपनी जान खतरे में डालकर अज्ञातवास में रहने वालों को धन की सहायता देते हैं। उनके लिए नकली पहचान-पत्र बनवाते हैं और ईसाई युवकों के लिए काम करते हैं। कुछ लोग हमारी भी सहायता कर रहे हैं। कुछ लोग जर्मनों के विरुद्ध युद्ध में भाग ले रहे हैं। कुछ हम जैसों की मदद कर रहे हैं। कुछ दिलचस्प बातें सुनने को मिली हैं। क्लीमेन ने बताया कि गेल्डरलैंड में पुलिसकर्मियों और भूमिगत लोगों के साथ फुटबॉल मैच हुआ। खुशी की बात है कि हिल्वरसम में भूमिगत लोगों को राशनकार्ड दिए गए। पर ये सब काम छिपकर किए जाते हैं। तुम्हारी ऐन बुधवार, 29 मार्च, 1944-मेरी प्यारी किट्टी, कैबिनेट मंत्री मिस्टर बोल्के स्टीन ने लंदन में डच प्रसारण में यह घोषणा की कि युद्ध समाप्त होने के बाद उन डायरी तथा पत्रों का संग्रह किया जाएगा, जिसमें युद्ध का वर्णन किया गया है। मुझे यह जानकर खुशी है कि जब यह गुप्त एनेक्सी की कहानी छपेगी तो लोग इसे जासूसी कहानी समझेंगे। हम लोगों के बारे में जानकारी पाकर लोग उत्सुक हो जाएँगे। मैं तुम्हें यह बताना चाहती हूँ कि हवाई हमले के समय औरतें काफी डर जाती हैं। पिछले रविवार ब्रिटिश वायुसेना के 350 ब्रिटिश वायुयानों ने इज्मुईडेन पर 550 टन बारूद के गोले बरसाए। उस समय हमारा मकान घास की पत्तियों के समान काँपता दिखाई पड़ रहा था। मैं तुम्हें यह बताना चाहती हूँ कि यहाँ लोग लाइन बनाकर सामान खरीदते हैं। चोरी का भय हमेशा बना रहता है। लोग हाथों में अंगूठियाँ नहीं पहनते। छोटे बच्चे भी चोरी करने लगे हैं। लोग चौराहे की घड़ियाँ तथा सार्वजनिक टेलीफोन भी उतार लेते हैं। डच लोग नैतिकता को छोड़ चुके हैं। सभी लोग भूख से परेशान हैं। हफ्ते का राशन सिर्फ दो दिन चलता है। बच्चे बीमारी तथा भूख से व्याकुल हो रहे हैं। फटे कपड़े तथा फटे-पुराने जूते पहनने पड़ते है। जूतों की मरम्मत के लिए चार-पाँच महीनों तक मोची की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। लोगों को जर्मनी भेजा जा रहा है। सरकारी अधिकारियों पर भी हमले बढ़ते जा रहे हैं। खाद्य कार्यालय और पुलिस अधिकारी लोगों की सहायता कर रहे हैं। यह गलत बात है कि लोग डच में गलत काम करते हैं। तुम्हारी ऐन मंगलवार, 11 अप्रैल, 1944-मेरी प्यारी किट्टी, शनिवार का दिन है। 2 बजे के लगभग तेज गोलाबारी होने लगी। मशीनगर्ने भी चलने लगीं। रविवार को मेरे बुलाने पर पीटर साढ़े चार बजे मुझसे मिलने आया। हम ऊपर अटारी पर चले गए। उस समय रेडियो पर मोत्ज़ार्ट संगीत बज रहा था। हम दोनों एक पेटी पर सटकर बैठे हुए थे। मोश्ची भी हमारे साथ थी। पौने नौ बजे मिस्टर मिस्टर डसेल का कशन लेकर नीचे आ गए। इस पर डसेल हमसे नाराज हो गया। साढ़े नौ बजे पीटर ने पापा को ऊपर बुलाया। पिताजी, वान दान और पीटर जल्दी से नीचे गए और मैं, माँ, मार्गोट और मिसेज वान दान ऊपर इंतजार करने लगीं। एक जोरदार धमाके से हम सभी औरतें डर गई। दस बजे जब पापा ऊपर आए, तब वह घबराए हुए थे। तब उन्होंने आज्ञा दी कि हम बत्तियाँ बुझाकर ऊपर चली जाएँ। डर था कि पुलिस आ रही है। सभी आदमी नीचे थे। घर में घना काला अंधकार था। फिर से दो जोरदार धमाके हुए। पता चला कि गोदाम का आधा फाटक गायब था। होम गार्ड्स को सावधान कर दिया। वे चारों धीरे-धीरे नीचे गए। उन्होंने देखा कि गोदाम में सेंधमार अपने काम में लगे हुए थे। पुलिस के डर के कारण सेंधमार भाग गए थे। किसी प्रकार फाटक फिर से बंद कर दिया गया। इसी बीच एक आदमी और एक औरत पुलिस वहाँ पहुँच गए। सभी आदमी ऊपर बुककेस के पीछे छिप गए थे। मंगलवार, 13 जून, 1944 मेरी प्यारी किट्टी, अब मैं पंद्रह वर्ष की हो गई हूँ। जन्मदिन पर मुझे कलात्मक इतिहास की पुस्तक, चड्डियों का एक सेट, बैल्टें, जैम की शीशी, रूमाल, दही के दो कटोरे, ब्रेसलेट, मिठाई, मीठे मटर, वनस्पति विज्ञान की पुस्तक, लिखने की कापियाँ, चीज के स्लाइस, मारिया लेरेसा की एक किताब और गुलदस्ता मिला है। इधर मौसम बड़ा खराब है। हमले अभी भी जारी हैं। जो फ्रांसीसी गाँव ब्रिटिश कब्जे से मुक्त हो गए हैं, उन्हें देखने के लिए चर्चिल, स्मट्स आइजनहाबर तथा आर्मोल्ड आदि गए। इनमें चर्चिल बहुत ही बहादुर व्यक्ति है। ब्रिटिश सैनिक अपना उद्देश्य पूरा कर रहे हैं, परंतु हॉलैंड के लोग इस पक्ष में नहीं हैं कि वे ब्रिटिश पर कब्जा करें। वे चाहते हैं कि ब्रिटिश सैनिक लड़ाई करें और हॉलैंड को स्वतंत्र कराने के लिए खुद का बलिदान करें तथा आजादी मिलने पर माफी माँगते हुए हॉलैंड को छोड़कर चले जाएँ। इन्हें यह नहीं पता कि ब्रिटेन जर्मनी के साथ सुलह कर लेता तो हॉलैंड जर्मनी बन गया होता। डच लोगों को यह समझाना जरूरी है कि जर्मन हमारे हमलावर हैं और ब्रिटेन हमारे रक्षक हैं। मैं हर समय विचारों में डूबी रहती हूँ। मुझ पर आरोप लगाए जाते हैं तथा डाँट-फटकार भी सुननी पड़ती है। मुझे अपनी कमजोरियों और खामियों का पता है। मैं स्वयं को बदलना चाहती हूँ। सभी मुझे अक्खड़ मानते हैं। मिसेज वान दान और डसेल मुझ पर आरोप लगाते रहते हैं, लेकिन मैं जानती हूँ कि मिसेज वान दान मुझसे भी अधिक अक्खड़ हैं। उनका कहना है कि मेरी पोशाकें छोटी हैं। उनकी अपनी पोशाकें भी छोटी पड़ गई हैं। वे मुझे तीसमारखाँ कहती हैं, जबकि वे मुझसे अधिक तीसमारखाँ हैं। वे अकसर उन विषयों के बारे अधिक बोलती हैं, जिनके बारे में उन्हें कुछ पता नहीं है लेकिन मैं बहुत कुछ जानती हूँ जब मैं अपनी तुलना किसी से करती हूँ तो अपने आप को धिक्कारने लगती हूँ। माँ के उपदेश सुन-सुनकर मैं तंग आ चुकी हूँ। इससे मेरी कब मुक्ति होगी। मेरा विचार है कि मुझे कोई नहीं समझता, मेरी भावनाओं को कोई नहीं समझता। मैं चाहती हूँ कि कोई ऐसा व्यक्ति हो जो मेरी भावनाओं को समझ सके। मेरा विचार है कि पीटर मुझे दोस्त समझकर प्यार करता है, गर्लफ्रेंड समझकर नहीं। उसका प्रेम हर दिन बढ़ता चला जा रहा है पर कोई रहस्यात्मक शक्ति हमें पीछे धकेल रही है। मैं कई बार सोचती हूँ कि मैं पीटर के पीछे प्रेम में दीवानी हो चुकी हूँ। जब मैं उससे नहीं मिलती तो परेशान हो जाती हूँ। पीटर एक भला लड़का है, पर उसके धर्म के प्रति विचार उचित नहीं हैं। वह हर समय खाने की बातें करता रहता है इसलिए हम दोनों ने निर्णय किया है कि हम आपस में कभी झगड़ा नहीं करेंगे। वह बहुत शांतिप्रिय, सहनशील तथा बहुत-ही सहज आत्मीय व्यक्ति है। वह मेरी गलत बातों को भी सहन कर लेता है। वह चाहता है कि काम-काज में सही तरीका व सही सलीका हो। कोई उस पर आरोप न लगाए। परंतु वह अपने दिल की बात मुझसे नहीं बताता है। वह एक घुन्ना व्यक्ति है। मैंने और पीटर ने कुछ दिन इकट्ठे एनेक्सी में बिताए हैं। हमने वर्तमान, भविष्य तथा भूतकाल की बातें की हैं। मैं बहुत दिनों से घर से बाहर नहीं निकली। मैं प्रकृति का आनंद लेना चाहती हूँ। एक दिन गर्मी की रात के साढ़े ग्यारह बजे थे। मैं चाँद को देखना चाहती थी। बाहर चाँदनी की तीव्रता थी। इसलिए मैं खिड़की नहीं खोल पाई। अन्ततः एक दिन मैंने बरसात के समय खिड़की खोलकर रात में तेज हवाओं और बादलों को देखा। डेढ़ बरस में पहली बार मुझे यह मौका मिला था। . आसमान, बादलों, चाँद, तारों को देखकर मुझे शांति मिलती है और आशा की भावना ने मुझको बोर कर दिया। शांति तो रामबाण दवा के समान है। प्रकृति के वरदान की समता कोई नहीं कर सकता। मेरा विचार है कि पुराणों में शारीरिक क्षमता अधिक होती है। इसलिए वे औरतों पर आरंभ से शासन करते हैं। पुरुष कमाकर लाता है, बच्चों का पालन-पोषण करता है और जो मन में आए वही करता है। औरतें इस बेवकूफी का शिकार बनती हैं। परंतु यह प्रथा बहुत पुरानी पड़ चुकी है। अब शिक्षा, प्रगति और काम ने औरतों को जागृत कर दिया है। कुछ देशों में औरतों को पुरुषों के बराबर हक मिल चुके हैं, परंतु औरत आज पूर्ण स्वतंत्रता चाहती है। मेरा विचार है कि औरतों को भी पुरुषों को समान उचित सम्मान मिलना चाहिए। औरतों को सैनिकों-सा कहीं अधिक यंत्रणा को सहन क दर्जा
मिलना चाहिए। युद्ध में लड़ते समय सैनिक जिस पीड़ा और यत्रंणा को सहन करते हैं औरतें बच्चे को जन्म देते समय उससे को सहन करती हैं, ऐसा मैंने पढ़ा है। परंत बच्चा पैदा करने के बाद औरत की संदरता नष्ट हो जाती है। औरत के कारण ही मानव जाति आगे बढ़ रही है। वह बहुत अधिक मेहनत करती है, पर पुरुष उसे उचित सम्मान नहीं देता। मेरा कहना है कि औरतों को बच्चे पैदा नहीं करने चाहिएँ। मैं ऐसे पुरुषों की निंदा करती हूँ जो समाज में औरतों के योगदान को महत्त्व नहीं देते। मैं इस पुस्तक के लेखक श्री पोल दे क्रुइफ से पूरी तरह
सहमत हूँ कि सभ्य समाज में औरतों द्वारा बच्चे पैदा करना अनिवार्य काम नहीं है क्योंकि औरत के समान पुरुष को इस तरह गुजरना नहीं पड़ता। मेरा विचार है कि अगली सदी तक यह धारणा बदल जाएगी कि औरतों का काम सिर्फ बच्चे पैदा करना है। आने वाले समय में औरतों को अधिक सम्मान तथा आदर प्राप्त होगा। कठिन शब्दों के अर्थ अलसाई सी = आलस्य से युक्त। बिजनेस पार्टनर = व्यापार का साँझीदार। नज़ारे = दृश्य। हर्गिज़ = बिल्कुल। अज्ञातवास = छिपकर रहना। आतंकित = डरे हुए। कुलबुलाना = उथल-पुथल मचाना, व्याकुल होना। अफसोस = पछतावा। अजीबो-गरीब = विचित्र आश्चर्यजनक। स्मृति = यादें। पोशाक = पहनने वाले वस्त्र। मायने = अर्थ। स्टॉकिंग्स = लंबी जुराबें जो पूरी टाँगों को ढक लेती हैं। सन्नाटा = चुप्पी, मौन। अजनबी = अपरिचित। घोड़े बेचकर सोना = चिंता रहित सोना। किस्मत = भाग्य। बदन = शरीर। वजह = कारण। परवाह = चिंता करना। दिलचस्पी = रुचि । अरल्लम-गरल्लम = उल्टी-सीधी। बेचारगी = मजबूरी, लाचारी। निगाह = नज़र। वाहन = सवारी। दास्तान = विवरण, कथा। दौरान = मध्य, बीच में। यानी = अर्थात। गलियारा = संकरा रास्ता। दमघोंटू = साँस को रोकने वाला। पैसज = गलियारा। जरिया = द्वारा। सपाट = साधारण। बेडरूम = सोने का कमरा। स्टडीरूम = पढ़ने का कमरा। गुसलखाना = नहाने का कमरा। गरीबखाना = रहने का मकान। बखान = वर्णन। किस्सा = कहानी, वर्णन। राह देखना = इंतजार करना। अटा पड़ा = भरा हुआ। तरतीब = ढंग से, क्रमानुसार। पस्त = निढाल, थकी हुई। ढह गए = गिर गए। फुर्सत = समय की कमी। इस्तेमाल = प्रयोग करना। किफायत = कम खर्चा करना। पखवाड़े = पंद्रह दिन का समय। अरसा = समय, वक्त। तरीका = उपाय। डिनर = रात का भोजन। दरअसल = वास्तव में। शेयर करना = भाग लेना। खरादेमाग = उल्टा-सीधा सोचने वाला, अक्खड़। तुनकमिजाज = जल्दी क्रोध करने वाला। वाकई = सचमुच। मीनमेख निकालना = कमियाँ निकालना। दुत्कारना-फटकारना = धमकाना। खामी = कमी। आसान = सरल। अजीब = विचित्र । ख्याल = विचार । तटस्थता = निष्पक्षता। भूमिगत = छिपकर रहना। अफवाह = झूठी बात। सुबूत = प्रमाण। हफ्ता = सत्ता। अनुमानित = लगभग। अदा करना = चुकाना। अदायगी = चुकाने की प्रक्रिया। फिलहाल = इस समय। गर्दन पानी के ऊपर होना = सुरक्षित होना, कुशलमंगल होना। कायदे-नियम = पत्राचार, पत्र-व्यवहार। कारोबार = व्यापार। सवाल-जवाब = प्रश्नोत्तर। सिलसिला = क्रम। महसूस करना = अनुभव करना। वंश वृक्ष = परिवार की वंशावली। खासी = अधिक। अतीत = गुजरा हआ समय। मेहरबान = दयाल । फरटि = तेजी से। फिकरा कसना = ताने म न होना। टोक देना = बीच में रोकना। फलाँ = अमुक। कान पकना = सुनने की इच्छा न होना। जुगाली = बार-बार चबाने की प्रक्रिया। जरा = तनिक। हिमाकत = अशिष्टता। दिवाला पिटना = सारा धन समाप्त हो जाना। तकलीफ = कष्ट। हमदर्दी = सहानुभूति। प्रतिरोधी दल = मुकाबला करने वाला दल। वित्तीय = आर्थिक। रोजाना = हर रोज, प्रतिदिन। मनि खुशदिल = प्रसन्नचित्त। उपहार = भेंट। मदद = सहायता। दिलचस्प = रोचक। आग्रह = अनुरोध। मोची = जूतों की मरम्मत करने वाला व्यक्ति। मर्द = पुरुष। आमंत्रण = बुलावा। अटारी = मकान की ऊपर की मंजिल का कमरा। खूबसूरत = सुंदर। दिव्य = अलौकिक। सटकर बैठना = पास-पास। खफा = नाराज। प्रहसन = हास्य नाटक। दाल में काला = कुछ गड़बड़ होना। सेंधमारी = चोरी करना। आशंका = डर। निगाह = नजर। ताला जड़ना = ताला लगाना। थरथराना = काँपना। निष्फल = बेकार। ढिठाई = धृष्टता। फटाफट = जल्दी, शीघ्र । जुटा नहीं पाना = व्यवस्था न कर पानी। उपहार = भेंट। जन्मजात = जन्म से, पैदायशी। ब्रिटिश = ब्रिटेन की सरकार। नफरत = घृणा। वाहियात = बेकार की बातें, बकवास। बुढ़ाते = वृद्ध व्यक्ति। प्रताड़ित करना = मारना, कष्ट देना। ताकत = शक्ति। सांत्वना = दिलासा देना, संतोष। आत्मीय = अपनापन। इल्ज़ाम = आरोप। घुन्ना = चुप रहने वाला। मंत्रमुग्ध = ध्यान में मग्न, वशीभूत । साक्षात्कार = भेंट, इंटरव्यू। उत्कट चाह = तीव्र अभिलाषा। सराबोर = पूर्ण करना। विनम्रता = शालीनता से। वाहियात = बेकार की बातें। स्वतंत्र = आजाद। सानी = मुकाबला। अलंकृत = सुशोभित। जनना = पैदा करने वाली। भर्त्सना = निंदा, चुगली। डींग हाँकना = झूठी प्रशंसा करना। हकदार = असली मालिक। Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Vitan Chapter 3 अतीत में दबे पाँव Textbook Exercise Questions and Answers. Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Vitan Chapter 3 अतीत में दबे पाँवHBSE 12th Class Hindi सिल्वर अतीत में दबे पाँव Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. उनकी कला-कृतियों से पता चलता है कि वे सुरुचि संपन्न लोग थे और उन्हें सौंदर्य-बोध का समुचित ज्ञान था। उनकी कला संस्कृति राज-पोषित व धर्म-पोषित न होकर समाज-पोषित थी। साधन-संपन्न होने के बावजूद इस सभ्यता में भव्यता का आडंबर नहीं था। न ही वहाँ कोई भव्य प्रसाद था और न ही मंदिर। यहाँ तक कि राजाओं और महंतों की समाधियाँ भी यहाँ नहीं थीं। यहाँ के मूर्तिशिल्प या औजार छोटे थे। मकान भी छोटे थे और उनके कमरे भी छोटे थे। राजा का मुकुट भी छोटा और नाव भी छोटी थी। किसी भी वस्तु से इस सभ्यता में आडंबर का एहसास नहीं होता। इसलिए यह कहना सर्वथा उचित है कि सिंधु सभ्यता साधन-संपन्न थी, पर उसमें भव्यता का आडंबर नहीं था। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. कुछ महीने पहले हमारे विद्यालय के शिक्षकों ने दिल्ली के ऐतिहासिक स्थानों पर घूमने का कार्यक्रम बनाया था। मैंने भी इस कार्यक्रम में भाग लिया। इतिहास का विद्यार्थी होने के कारण मैं ऐतिहासिक स्थल देखने की अधिक रुचि रखत हम सबसे पहले लालकिला देखने गए। प्रस्तुत पाठ को पढ़ने के बाद मैं लालकिले के बारे में एक बार यह हमारे देश का एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। मुगल बादशाह शाहजहाँ ने इस किले का निर्माण करवाया था। इसकी भव्यता दूर से ही व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करती है। यमुना नदी के किनारे पर बने इस किले में लाल पत्थरों का प्रयोग किया गया है। इसके मुख्य द्वार की शोभा तो अत्यधिक आकर्षक है। इसी द्वार की छत पर हमारे प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा झंडा फहराते हैं। किले में अनेक महल बने हैं जिनमें संगमरमर का प्रयोग किया गया है। शाहजहाँ के काल में महलों की दीवारों पर सोने की नक्काशी की गई थी। दीवाने-आम तथा दीवाने-खास को देखकर दर्शकों की आँखें भौचक्की हो जाती हैं। परंतु लालकिले की सभ्यता भव्यता लिए हुए है और यह राजशक्ति का प्रमाण है। इसके मुकाबले में सिंधु घाटी सभ्यता राज-पोषित न होकर समाज-पोषित है। इसलिए मन में कभी-कभी ख्याल आता है कि शाहजहाँ ने तत्कालीन जनता का कितना शोषण किया होगा। प्रश्न
7.
प्रश्न 8. HBSE 12th Class Hindi अतीत में दबे पाँव Important Questions and Answersप्रश्न 1. सामूहिक स्थान के लिए 40 फुट लंबा, 25 फुट चौड़ा, 7 फुट गहरा कुंड था जिसमें उत्तर तथा दक्षिण से सीढ़ियाँ उतरती थीं। इसके तीन तरफ साधुओं के कक्ष बने थे। कुंड के पानी की निकासी के लिए नालियाँ भी थीं। कुंड के दूसरी ओर विशाल कोठार था। कुंड उत्तर:पूर्व में एक लंबी इमारत थी जिसमें दालान तथा बरामदे बने थे। दक्षिण में 20 कमरों वाला एक विशाल मकान था। नगर की मुख्य सड़कों की चौड़ाई 33 फुट तक थी। परंतु गलियों की सड़कें 9 फुट से 12 फुट तक चौड़ी थीं। प्रत्येक घर में एक स्नानघर था और घरों के भीतर पानी की निकासी की व्यवस्था भी थी। बस्ती के भीतर छोटी सड़कें व गलियाँ थीं। इस नगर में कुओं का उचित प्रबंध था जोकि पक्की ईंटों से निर्मित थे। नगर में यदि छोटे घर थे, तो बड़े घर भी थे। पर सभी पंक्तिबद्ध थे। घर के कमरे छोटे थे ताकि आवास की समस्या का हल निकाला जा सके। संपूर्ण नगर की वास्तुशैली एक ही प्रकार की प्रतीत होती है। इसलिए यह नगर वास्तुकला की दृष्टि से सुनियोजित और सुव्यवस्थित रहा होगा। प्रश्न 2. प्रश्न
3. प्रश्न 4. रागी की भी खेती करते थे। यही नहीं, यहाँ खरबूजे, खजूर और अंगूर भी उगाए जाते थे। झाड़ियों से बेर इकट्ठे किए जाते थे। भले ही कपास के बीज नहीं मिले परंतु सूती कपड़ा मिला है। जिससे सिद्ध होता है कि ये लोग कपास की खेती भी करते थे। यहाँ से सूत का निर्यात किया जाता था। प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न
10. लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. अतीत में दबे पाँव Summary in Hindiअतीत में दबे पाँव लेखक-परिचय प्रश्न- ओम थानवी सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों से जुड़े रहे हैं। यही नहीं, एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में भी इन्होंने सफलता प्राप्त की है। साहित्य, सिनेमा, कला, वास्तुकला, पुरातत्त्व और पर्यावरण में इनकी गहन रुचि रही है। 80 के दशक में ‘सेंटर फॉर साइंस एनवायरमेंट’ को फेलोशिप प्राप्त करने के बाद इन्होंने राजस्थान के पारंपरिक जल-स्रोतों पर खोज करके विस्तारपूर्वक लिखा। पत्रकारिता के लिए इन्हें अनेक पुरस्कार मिले। इनकी मुख्य उपलब्धि गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार है। 1999 में इन्होंने दैनिक जनसत्ता दिल्ली और कलकत्ता के संस्करणों के संपादन का कार्यभार संभाला। पिछले 17 वर्षों से वे इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिंदी दैनिक जनसत्ता’ में संपादक के रूप में काम कर रहे हैं। 2. साहित्यिक विशेषताएँ मूलतः ओम थानवी एक पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं। परंतु साहित्य और कला में भी इनकी विशेष रुचि रही है। इन्होंने विभिन्न विषयों पर लेखन कार्य किया है जो समय-समय पर समाचार-पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहा है। उन्होंने प्रायः सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर सफल निबंध लिखें। इनके द्वारा लिखित संपादकीय बड़े ही रोचक और प्रभावशाली रहे। 3. भाषा-शैली-ओम थानवी की भाषा-शैली सहज, सरल और साहित्यिक है। भाषा के बारे में इनका दृष्टिकोण बड़ा उदार रहा है। यही कारण है कि इन्होंने अपनी भाषा में हिंदी के तत्सम, तद्भव शब्दों के अतिरिक्त अंग्रेज़ी के शब्दों का भी सुंदर मिश्रण किया है। इनका वाक्य विन्यास भावानुकूल और प्रसंगानुकूल है। इन्होंने प्रायः वर्णनात्मक, विवेचनात्मक, विचारात्मक तथा व्यंग्यात्मक शैलियों का सफल प्रयोग किया है। आज भी वे अपनी लेखनी के द्वारा सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। अतीत में दबे पाँव पाठ का सार प्रश्न- मुअनजो-दड़ो नगर मैदान में नहीं अपितु टीलों पर बसाया गया था। ये टीले प्राकृतिक न होकर मानव निर्मित थे। यहाँ कच्ची-पक्की ईंटों से धरती की सतह को ऊँचा उठाया गया था। ताकि सिंधु नदी के पानी से नगर को बचाया जा सके। भले ही यह नगर आज खंडहर बन चुका है। फिर भी इसके स्वरूप के बारे में आसानी से अनुमान लगा सकते हैं। इस नगर में गलियाँ, सड़कें, रसोई, खिड़की, चबूतरे, आँगन, सीढ़ियाँ आदि सुनियोजित ढंग से बनाई गई हैं। नगर की सभी सड़कें सीधी व आड़ी हैं। आधुनिक वास्तुकार इसे ‘ग्रिड प्लान’ की संज्ञा देते हैं। सिरे पर बौद्धस्तूप बना हुआ है और उसके पीछे ‘गढ़’ है। सामने ‘उच्च’ वर्ग की बस्ती है। उसके पीछे पाँच किलोमीटर दूर सिंधु नदी बहती है। दक्षिण में कामगारों की बस्ती बनी हुई है। यही नहीं, नगर में महाकुंड नाम का तालाब भी है जो चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है। इसकी गहराई लगभग सात फुट है। कुंड में उत्तर:दक्षिण से सीढ़ियाँ नीचे उतर रही हैं। इसके तीन ओर साधुओं के कक्ष बने हुए हैं। उत्तर दिशा में आठ स्नानघर हैं। इसमें किसी भी स्नानघर का दरवाजा किसी दूसरे के सामने नहीं खुलता। महाकुंड का तल तथा दीवारें चूने और पक्की ईंटों को मिलाकर बनाई गई हैं। कुंड में बाहर का गंदा पानी न आए, इसका विशेष ध्यान रखा गया है। कुंड में पानी भरने के लिए एक कुआँ भी है जो दोहरे घेरे वाला है। कुंड के पानी को निकालने के लिए पक्की ईंटों की नालियाँ बनाई गई हैं जो ऊपर से ढकी हुई हैं। पानी की निकासी की ऐसी सुंदर व्यवस्था पूर्व कालीन इतिहास में कहीं नहीं मिलती। कुंड के दूसरी ओर एक विशाल कोठार है जिसमें अनाज रखा जाता था। यही नहीं यहाँ नौ-नौ चौकियों की तीन-तीन हवादार कतारें हैं। इसके उत्तर में एक गली है जिससे संभवतः बैलगाड़ियों में भरकर अनाज लाया जाता होगा। एक ऐसा ही कोठार हड़प्पा में भी मिला है। (2) बौद्ध स्तूप के अवशेष-मुअनजो-दड़ो सभ्यता के नष्ट होने के बाद एक जीर्ण-शीर्ण टीले के सबसे ऊँचे चबूतरे पर बहुत बड़ा बौद्ध स्तूप बना हुआ है जोकि पच्चीस फुट ऊँचे चबूतरे पर बना है। इसका निर्माणकाल छब्बीस सौ वर्ष पहले का है। चबूतरे पर भिक्षुओं के लिए कमरे बनाए गए हैं। राखालदास बनर्जी का कहना है कि ये अवशेष ईसवी पूर्वकाल के हैं। तत्पश्चात भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के महानिदेशक जॉन मार्शल ने खुदाई का कार्य आरंभ करवाया, जिसके फलस्वरूप भारतीय सभ्यता की गिनती मिस्र और मेसोपोटामिया (इराक) की प्राचीन सभ्यता के साथ की जाने लगी। यह बौद्ध स्तूप भारत का प्राचीनतम लैंडस्केप कहा जा सकता हैं जिसे देखकर दर्शक भी रोमांचित हो उठते हैं। स्तूप का यह चबूतरा मुअनजो-दड़ो के एक विशेष भाग के सिरे पर स्थित है जिसे विद्वानों ने ‘गढ’ कहा है। तत्कालीन धार्मिक तथा राजनीतिक सत्ता के केंद्र चारदीवारी के अंदर ही होते थे। शहर ‘गढ़’ से कुछ दूरी पर स्थित हैं। मुअनजो-दड़ो में ऐसी इमारत है जो अपने स्वरूप को आज भी बनाए हुए है। मुअनजो-दड़ो की शेष इमारतें लगभग खंडहर हो चुकी हैं। (3) सिंधु घाटी का परिचय-सिंधु घाटी में व्यापार और खेती दोनों काफी उन्नत स्थिति में थे। वस्तुतः उस समय के लोग खेती करते थे अथवा पशुओं को पालते थे। यहाँ कपास, गेहूँ, जौ, सरसों और चने आदि की फसलें उगाई जाती थीं। कुछ विद्वानों का मत है कि यहाँ ज्वार, बाजरा और रागी की फसलें भी होती थीं। यही नहीं खजूर, अंगूर, खरबूजे भी यहाँ उगाए जाते थे। मुअनजो-दड़ो में जहाँ एक ओर सूत की कताई-बुनाई होती थी वहीं दूसरी ओर रंगाई भी होती थी। खुदाई में रंगाई का छोटा-सा कारखाना भी मिला है। इस सभ्यता के लोग सुमेर से ऊन का आयात करते थे और सूती कपड़े का निर्यात करते थे। इन्हें ताँबे का समुचित ज्ञान था। उस समय सिंध में काफी मात्रा में पत्थर थे, वहीं राजस्थान में ताँबे की खानें थीं। खुदाई से खेती-बाड़ी के उपकरण भी मिले हैं। महाकुंड के आस-पास उत्तरपूर्व में एक बहुत लंबी इमारत के अवशेष मिले हैं जिसमें दालान, बरामदे तथा छोटे-छोटे कमरे बने हुए हैं। दक्षिण में एक छोटी इमारत भी है जिसमें बीस कमरों वाला एक हाल भी था। यह शायद राज्य सचिवालय या सभा भवन या सामुदायिक केंद्र होगा। ‘गढ़’ की चारदीवारी के बाहर छोटे-छोटे टीले हैं। इन पर जो बस्ती बनी है उसे ‘नीचा नगर’ कहा गया है। पूर्व में ‘रईसों की बस्ती’ है जिसमें बड़े-बड़े घर, चौड़ी सड़कें और काफी मात्रा में कुएँ हैं। जिन पुरातत्त्ववेत्ताओं ने मुअनजो-दड़ो की खुदाई करवाई थी उनके नाम से यहाँ मुहल्ले बनाए गए है; जैसे ‘डीके’ हलका-दीक्षित काशीनाथ की खुदाई आदि। ‘डीके’ के नाम से दो हलके हैं। यह क्षेत्र दोनों बस्तियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हलका माना गया है क्योंकि यहाँ शहर की मुख्य सड़क है जोकि बहुत लंबी है। आज तो केवल आधा मील बची है। इस सड़क की चौड़ाई तैंतीस फीट है। भले ही सड़क के दोनों ओर मकान बने हैं जिनमें से किसी का भी दरवाजा बीच सड़क पर नहीं खुलता। घरों के दरवाजे अंदर की गलियों में खुलते हैं। मुख्य सड़क से गली में जाकर ही किसी घर में पहुँचा जा सकता है। प्रत्येक घर में स्नानघर है। खुली नालियाँ भीतर बस्ती में भी नहीं हैं। घर का पानी पहले हौदी में आता है फिर सड़क की नाली में। बस्ती के भीतर की गलियाँ नौ से बारह फीट चौड़ी हैं। बस्ती में कुओं का प्रबंध भी है। संपूर्ण नगर में लगभग सात सौ कुएँ हैं। मुअनजो-दड़ो को जल संस्कृति का नगर कहा गया है क्योंकि इसमें नदी, कुंड, तालाब, स्नानघर, कुएँ और पानी निकासी की व्यवस्था भी है। बड़ी बस्ती में पुरातत्त्वशास्त्री काशीनाथ दीक्षित के नाम पर ‘डीके-जी’ का हलका है। यहाँ की दीवारें ऊँची और मोटी हैं। संभवतः यहाँ दो मंजिल वाले मकान रहे होंगे। कुछ दीवारों में छेद हैं। वे शायद शहतीरों के छेद होंगे। सभी घर भट्ठे की पक्की ईंटों के बने हैं जिनका अनुपात 1:2:4 है। इन घरों में पत्थर का उपयोग नहीं किया गया है। छोटे तथा बड़े घर एक ही पंक्ति में बनाए गए हैं। अधिकतर घर 30 जरबे 30 फुट के हैं। इनमें से कुछ दुगुने तथा कुछ तिगुने आकार के भी हैं। सभी घरों की वास्तुकला एक जैसी है। नगर में एक मुखिया का घर भी है जिसमें 20 कमरे तथा दो आँगन हैं। बड़े घरों में ऊपर की मंजिल होने के प्रमाण मिले हैं। घर चाहे छोटे हों या बड़े, पर कमरों का आकार बहुत छोटा है। इससे पता चलता है कि जनसंख्या काफी अधिक होगी। छोटे घरों में सीढ़ियाँ संकरी हैं तथा पायदान ऊँचे हैं। घरों की खिड़कियों तथा दरवाजों पर छज्जों के कोई सबूत नहीं मिले। ऐसा लगता है कि इस नगर में नहर नहीं थी। हो सकता है कि बारिश खूब होती हो, क्योंकि कुओं का तो कोई अभाव नहीं था। (4) राजस्थान संबंधी सूचना-मुअनजो-दड़ो की गलियों और घरों को देखकर लेखक को राजस्थान के घरों की याद आ जाती है। क्योंकि यहाँ पर भी ज्वार, बाजरे की खेती होती थी। बेर भी होते थे। जैसलमेर का कुलधरा गाँव मुअनजो-दड़ो से मिलता-जुलता है। इस गाँव में लोगों का राजा से झगड़ा हो गया। इसलिए वे सभी गाँव खाली करके चले गए। पीले पत्थरों से बना यह सुंदर गाँव आज भी अपने बाशिंदों की राह देख रहा है। राजस्थान के अतिरिक्त पंजाब, हरियाणा, गुजरात में भी कुएँ, कुंड, गली-कूचे तथा कच्ची-पक्की ईंटों के कई घर वैसे ही मिलते हैं जैसे हज़ारों साल पहले थे। जॉन मार्शल ने मुअनजो-दड़ो पर तीन खंडों का एक विशद प्रबंध प्रकाशित करवाया है जिसमें सिंधु घाटी में सौ वर्ष पहले तथा खुदाई में मिली लोहे के पहियों वाली गाड़ी के चित्र दिखाए हैं। इससे पता चलता है कि इस सभ्यता की परंपरा निरंतर आगे चलती रहती है। गाड़ी में जो कमानी या आरे वाले पहिए लगे हैं, वे परिवर्ती हैं। अब तो किसान बैलगाड़ियों में जीप से उतरे पहिए भी लगाने लग गए हैं। ऊँटगाड़ी में तो हवाई जहाज से उतरे पहिए भी लगाए जाते हैं। (5) मुअनजो-दड़ो का अजायबघर-मुअनजो-दड़ो भले ही आज खंडहर हैं परंतु यह सिंधु घाटी सभ्यता का अजायबघर कहा जा सकता है। यह किसी कस्बाई स्कूल के छोटे-से कमरे के समान है। परंतु यह अजायबघर छोटा-सा है और इसमें सामान भी कम है। मुअनजो-दड़ो की खुदाई में निकली हुई वस्तुओं का पंजीकरण भी किया गया था। उनकी संख्या पचास हजार से अधिक है। इसकी मुख्य वस्तुएँ दिल्ली, कराची, लाहौर और लंदन में हैं। परंतु यहाँ जो चीजें दिखाई गई हैं वे विकसित सिंधु घाटी की सभ्यता को दिखाने में सक्षम हैं। इन वस्तुओं में काला पड़ गया गेहूँ, ताँबे और काँसे के बर्तन, मुहरें, चाक पर बने मिट्टी के बर्तन, वाद्य, चौपड़ की गोटियाँ, दीपक, माप-तोल के पत्थर, ताँबे का आईना, मिट्टी की बैलगाड़ी, अन्य खिलौने, दो पाटों वाली चक्की, कंघी, मिट्टी के कंगन, रंग-बिरंगे पत्थर के मनकों वाले हार तथा पत्थर के औजार हैं। इस अजायबघर में अली नवाज़ नाम का व्यक्ति तैनात किया गया है जो बताता है कि पहले यहाँ सोने के आभूषण भी थे जो कि चोरी हो गए। अजायबघर को देखकर हैरानी की बात यह लगती है कि यहाँ कोई हथियार नहीं मिला। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ की सभ्यता में शक्ति के बल पर अनुशासन कायम नहीं किया जाता था। यहाँ पर कोई सेना भी नहीं थी। यह सभ्यता सांस्कृतिक तथा सामाजिक व्यवस्था पर टिकी थी। इसलिए यह अन्य सभी सभ्यताओं से भिन्न प्रतीत होती है। (6) मुअनजो-दड़ो-हड़प्पा सभ्यता-इस संस्कृति में न कोई सुंदर राजमहल है, न मंदिर और न ही राजाओं और महंतों की समाधियाँ हैं। मूर्तिशिल्प बड़े-छोटे आकार के हैं। राजा का मुकुट भी छोटे आकार का है। नावें भी छोटी हैं। लगता है कि उस काल में लोगों में लघता का विशेष महत्त्व था। मुअनजो-दडो सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा नगर रहा होगा। दृष्टि से समृद्ध प्रतीत होता है कि इसमें न भव्यता थी और न ही आडंबर। यहाँ से प्राप्त हुई लिपि अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी। इसलिए यहाँ की सभ्यता का समुचित ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। सिंधु घाटी की सभ्यता के बारे में लेखक लिखता भी है-“सिंधु घाटी के लोगों में कला या सुरुचि का महत्त्व ज़्यादा था। वास्तुकला या नगर-नियोजन ही नहीं, धातु और पत्थर की मूर्तियाँ, ‘ मृद्-भांड, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति, पशु-पक्षियों की छवियाँ, सुनिर्मित मुहरें, उन पर बारीकी से उत्कीर्ण आकृतियाँ, खिलौने, केश-विन्यास, आभूषण और सबसे ऊपर सुघड़ अक्षरों का लिपिरूप सिंधु सभ्यता को तकनीक-सिद्ध से ज्यादा कला-सिद्ध ज़ाहिर करता है। एक पुरातत्त्ववेत्ता के मुताबिक सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य-बोध है, जो राज-पोषित या धर्म-पोषित न होकर समाज-पोषित था।” प्रस्तुत अजायबघर में ताँबे और काँसे की बहुत सारी सुइयाँ मिली हैं। काशीनाथ दीक्षित को सोने की तीन सुइयां मिलीं जिनमें से एक तो दो इंच लंबी थी। हो सकता है कि यह सुई काशीदेकारी के काम आती हो। खुदाई में मुअनजो-दड़ो के नाम से प्रसिद्ध जो दाड़ी वाले ‘नरेश’ की मूर्ति प्राप्त हुई है, उसके शरीर पर आकर्षक गुलकारी वाला दुशाला भी है। खुदाई में हाथी दाँत तथा ताँबे के सुए भी मिले हैं। विद्वान मानते हैं कि इनसे शायद दरियों की बुनाई की जाती थी। मुअनजो-दड़ो में सिंधु के पानी का निकास होने लगा है जिसके कारण मुअनजो-दड़ो की खुदाई का काम रोकना पड़ा है। पानी का रिसाव होने के कारण क्षार और दलदल की समस्याएँ सामने आ गई हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि मुअनजो-दड़ो की सभ्यता के खंडहरों को किस प्रकार बचाया जाए। कठिन शब्दों के अर्थ अतीत के दबे पाँव = प्राचीन काल के अवशेष। मुअनजो-दड़ो = पाकिस्तान के सिंधु प्रांत में स्थित एक पुरातात्त्विक स्थान जिसका अर्थ है-मुर्दो का टीला। हड़प्पा = पाकिस्तान के पंजाब प्रांत का पुरातात्त्विक स्थान। परवर्ती = बाद का। परिपक्व दौर = समृद्धि का समय। ताम्र = ताँबा। उत्कृष्ट = सर्वश्रेष्ठ। व्यापक = विस्तृत। तदात = सरका। भाडे = बर्तन। साक्ष्य = प्रमाण। आबाद = बसा हुआ। टीले = मिट्टी के छोटे-छोटे उठे हुए स्थान। खूबी = विशेषता। आदम = अत्यधिक प्राचीन। सहसा = अचानक। सहम = भय। महसूस = अनुभव करना। इलहाम = अनुभूति। निर्देश = आज्ञा। अभियान = तीव्रता से काम करना। पर्यटक = यात्री। सर्पिल = टेढ़ी-मेढ़ी। पगडंडी = संकीर्ण रास्ता। नागर = नगर की सभ्यता। लैंडस्केप = पृथ्वी का दृश्य। आलम = संसार। बबूल = कीकर जैसे वृक्ष। वक्त = समय। निहारना = देखना। जेहन = दिमाग। ज्ञानशाला = विद्यालय (स्कूल)। कोठार = भंडार। अनुष्ठानिक = पर्व से संबंधित। महाकुंड = विशालकुंड। वास्तुकौशल = भवन निर्माण की कुशलता। अंदाजा = अनुमान। नगर-नियोजन = नगर-निर्माण की विधि। अनूठी = अनुपम । मिसाल = उदाहरण। मतलब = आशय। भाँपना = अनुमान लगाना। कमोबेश = थोड़ी-बहुत। अराजकता = अशांति। प्रतिमान = मानक। कामगार = मज़दूर (श्रमिक)। साक्षर = पढ़े-लिखे। इत्तर = भिन्न (अलग)। संपन्न = धनवान (पूँजीपति)। विहार = बौद्धों का आश्रम । सायास = प्रयत्नपूर्वक। धरोहर = उत्तराधिकार में प्राप्त। अनुष्ठान = आयोजन। पाँत = पंक्ति। पार्श्व = पास या अगल-बगल। समरूप = समान। धूसर = मटमैला रंग। निकासी = निकालना। बंदोबस्त = प्रबंध। परिक्रमा = चक्कर लगाना। जगजाहिर = जिसका सबको पता हो। निर्मूल = बिना शंका के। साबित = प्रमाणित। बहुतायत = अधिकता। आयात = विदेशों से मँगवाना। निर्यात = विदेशों को भेजना। अवशेष = चिह्न। सटी = नजदीक। भग्न = टूटी-फूटी। हलका = क्षेत्र। वास्तुकला = भवन का निर्माण करने की कला। चेतन = मस्तिष्क का वह भाग जिसके सहयोग से मानव काम करता है। अवचेतन = मस्तिष्क का वह भाग, जिसमें भाव सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं। मैल = गंदगी। बाशिदें = वासी (रहने वाले)। सरोकार = प्रयोजन (मतलब)। बेहतर = अच्छा। . मुताबिक = अनुसार। तकरीबन = लगभग। कायदा = नियम। याजक-नरेश = यज्ञ करने वाला राजा। शिल्प = कलाकारी। संग्रहालय = अजायबघर। ध्वस्त = टूटी-फूटी। चौकोर = चार भुजाओं वाला। अचरज = आश्चर्य। साज-सज्जा = सजावट। संकरी = तंग। प्रावधान = व्यवस्था। जानी-मानी = प्रसिद्ध। रोज़ = दिन। अंतराल = मध्य। अजनबी = अनजान व्यक्ति। चहलकदमी = टहलना। अनधिकार = अधिकार के बिना। अपराध बोध = गलती की अनुभूति। विशद प्रबंध = विशाल ग्रंथ। इज़हार = प्रकट करना। अहम = मुख्य। मेज़बान = यजमान। पंजीकृत = सूचीबद्ध। मृद्-भांड = मिट्टी के बर्तन। आईना = दर्पण (शीशा)। प्रदर्शित = दिखाई गई। ताकत = शक्ति। राजप्रसाद = राजमहल। समृद्ध = संपन्न। आडंबर = दिखावा। उत्कीर्ण = खोदी हुई। वजह = कारण। केशविन्यास = बालों की साज-सज्जा। सुघड़ = सुंदर बनी हुई। नरेश = कशीदाकारी। साक्ष्य = प्रमाण। हासिल करना = प्राप्त करना। क्षार = नमक। Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Vitan Chapter 2 जूझ Textbook Exercise Questions and Answers. Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Vitan Chapter 2 जूझHBSE 12th Class Hindi जूझ Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. उपन्यास का यह शीर्षक कथानायक की संघर्षमयी प्रवृत्ति की ओर संकेत करता है। जब दादा ने उसे पाठशाला जाने से रोक दिया तो वह चुपचाप नहीं बैठता। सर्वप्रथम वह अपनी माँ को अपने पक्ष में करता है और उसके बाद वह दत्ता जी राव देसाई का सहयोग प्राप्त करता है। यही नहीं, वह अपनी बात को दृढ़तापूर्वक रखते हुए दादा द्वारा लगाए गए आरोपों का डटकर उत्तर देता है और अन्ततः दादा को आश्वस्त करने के बाद पाठशाला में प्रवेश लेता है। पाठशाला की परिस्थितियाँ भी उसके सर्वथा विपरीत थीं, परंतु उसने हार नहीं मानी। अपने जुझारूपन के कारण वह कक्षा का मॉनीटर बन जाता है और स्वयं कविता भी लिखने लग जाता है। यह सब कुछ कथानायक की जूझ का ही परिणाम है। प्रश्न 2. प्रश्न 3. कविता सुनाते समय उनके चेहरे पर भावों के अनुकूल हाव-भाव देखे जा सकते थे। श्री सौंदलगेकर ने लेखक की तुकबंदी का अनेक बार संशोधन किया और बार-बार उसे प्रोत्साहित भी किया। वे लेखक को यह बताते थे कि कविता की भाषा कैसी होनी चाहिए, संस्कृत भाषा का प्रयोग कविता के लिए किस प्रकार होता है और छंद की जाति कैसे पहचानी जाती है। यही नहीं, उन्होंने लेखक को अलंकार ज्ञान से भी परिचित करवाया और शुद्ध लेखन पर भी बल दिया। वे कभी-कभी लेखक को पुस्तकें तथा कविता-संग्रह भी दे देते थे। इस प्रकार सौंदलगेकर कथानायक को कविता लिखने के लिए हमेशा प्रोत्साहित करते रहे और लेखक भी कविता लेखन में रुचि लेने लगा। प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. यदि लेखक की माँ यह झूठ नहीं बोलती तो लेखक के दादा (पिता) बहुत नाराज़ हो जाते और माँ-बेटे की खूब पिटाई करते। दत्ता जी राव को इस बात का पता नहीं चलता कि लेखक का पिता स्वयं अय्याशी करने के लिए बेटे को खेत में झोंके हुए है। इसी प्रकार लेखक ने यह झूठ न बोला होता कि दादा (पिता) को बुलाने आया हूँ, उन्होंने अभी खाना नहीं खाया है। तब लेखक वहाँ जा नहीं पाता और दादा (पिता) लेखक पर झूठे आरोप लगाकर दत्ता जी राव को चुप करा देता। यदि माँ-बेटे यह तीन झूठ न बोलते तो इसका दुष्परिणाम यह होता कि लेखक जीवन-भर पढ़ाई न कर पाता और कोल्हू के बैल के समान खेती में पिसता रहता। HBSE 12th Class Hindi जूझ Important Questions and Answersबोधात्मक प्रश्न प्रश्न 1. इसके लिए वह माँ के सहयोग से झूठ का सहारा भी लेता है। गाँव का यह छोटा-सा लड़का इस तथ्य को भली प्रकार जानता है कि पढ़ाई-लिखाई करके कोई नौकरी प्राप्त की जा सकती है अथवा कोई व्यापार भी किया जा सकता है। इसके साथ-साथ यह बालक बड़ा ही परिश्रमी है। सवेरा होते ही वह खेत में जाता है और ग्यारह बजे तक खेत में काम करने के बाद पाठशाला जाता है। यही नहीं, पाठशाला से लौटकर वह ढोर भी चराता है। यद्यपि कक्षा में उसे अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ता है, लेकिन वह खेती तथा पढ़ाई दोनों को बड़ी मेहनत एवं लगन के साथ करता है। शीघ्र ही कक्षा के होशियार बच्चों में उसकी गिनती होने लग जाती है तथा मॉनीटर के समान वह दूसरे बच्चों के सवाल जाँचने लगता है। शीघ्र ही यह बालक अध्यापकों को प्रभावित करने लगता है तथा गणित के मास्टर उसे मॉनीटर का कार्य सौंप देते हैं। मराठी अध्यापक के संपर्क में आने के बाद कविता लेखन में उसकी रुचि उत्पन्न होती है। वह छठी-सातवीं के बालकों के सामने कविता गान करता है तथा पाठशाला के समारोह में भी भाग लेता है। मराठी अध्यापक के सहयोग से शुरू में वह तुकबंदी करता है, लेकिन बाद में वह अच्छी कविता लिखने लग जाता है। प्रश्न 2. दत्ता जी राव साम, दाम, दंड, भेद आदि सभी तरीके अपनाकर काम निकालना जानते हैं। इसलिए लेखक तथा उसकी माँ के कहने पर दादा को अपने पास बुलाया। लेखक भी बहाने से वहाँ पहुँच गया। इस अवसर पर हुई बातचीत से दादा की सारी कलई खुल गई। राव जी ने उसे खूब फटकारा और खरी-खोटी सुनाई। उसे इस बात के लिए मजबूर कर दिया कि वह लेखक को पढ़ने के लिए पाठशाला अवश्य भेजे। वस्तुतः दत्ता जी राव एक कुशल कुम्हार की भाँति पहले तो उसे खूब ठोकते-पीटते हैं, बाद में अपनी उदारता एवं करुणा द्वारा उसे प्यार से अच्छी प्रकार से समझाते हैं। इसलिए वह लेखक के दादा को सही रास्ते पर ले आता है। प्रश्न 3. यदि कोई घर का आदमी उसकी आवारागर्दी में बाधा उत्पन्न करता है तो वह उसे कुचल देता है। वस्तुतः दादा गाँव के आम शराबियों तथा मक्कारों के समान है। अपनी रक्षा के लिए वह बड़े-से-बड़ा झूठ बोल सकता है। यही नहीं, वह अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए अपने मेहनती तथा होनहार बालक पर आरोप लगाने से बाज नहीं आता। लेकिन दादा एक बुरा व्यक्ति होते हुए भी दत्ता जी राव का पूरा आदर-मान करता है और उसकी डाँट-फटकार को सुनकर सीधे रास्ते पर आ जाता है। प्रश्न 4. प्रश्न 5. छुट्टी के बाद जब वह घर लौटा तो मन-ही-मन सोचा कि लड़के यहाँ मेरा मज़ाक उड़ाते हैं, मेरा गमछा उतारते हैं, मेरी धोती खींचते हैं। इस तरह मैं कैसे निर्वाह कर पाऊँगा। इससे तो खेत का काम ही अच्छा है। परंतु अगले दिन वह पुनः उत्साहित होकर पाठशाला पहुँच गया। उसे आठ दिन तक एक नई टोपी तथा दो नई नाड़ी वाली मैलखाऊ रंग की चड्डियाँ मिलीं। वस्तुतः यही स्कूल की ड्रेस थी। अन्ततः मंत्री नामक कक्षा के अध्यापक के डर के कारण लेखक शरारती लड़कों के अत्याचार से बच पाया और वह मन लगाकर पढ़ाई करने लगा। प्रश्न 6. अन्ततः लेखक द्वारा दत्ता जी राव के पास चलने के प्रस्ताव को वह स्वीकार कर लेती है। फिर भी उसे विश्वास नहीं है कि उसका पति आनंदा को पाठशाला जाने देगा। परंतु वहाँ जाकर उसकी हिम्मत बढ़ जाती है और वह सारी सच्चाई दत्ता जी राव को बता देती है। लेकिन वह दत्ता जी राव को यह भी कहती है कि वह उसके आने के बारे में उसके पति से कुछ न कहे। प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. प्रश्न 19. प्रश्न 20. प्रश्न 21. प्रश्न 22. लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. जूझ Summary in Hindiजूझ लेखक-परिचय प्रश्न- ‘जूझ’ एक बहुचर्चित एवं बहुप्रशंसित आत्मकथात्मक उपन्यास है। इसमें एक किशोर के देखे और भोगे हुए गंवई जीवन के खुरदरे यथार्थ की विश्वसनीय गाथा का वर्णन है। इसके साथ-साथ लेखक ने अस्त-व्यस्त निम्न मध्यवर्गीय ग्रामीण समाज तथा संघर्ष करते हुए किसान-मजदूरों के जीवन की यथार्थ झांकी प्रस्तुत की है। उपन्यास के इस अंश की भाषा सहज, सरल तथा सामान्य हिंदी भाषा है, जिसमें तत्सम, तदभव तथा देशज शब्दों का सुंदर मिश्रण देखा जा सकता है। आत्मकथात्मक शैली के प्रयोग के कारण उपन्यास का यह अंश काफी रोचक एवं प्रभावशाली बन पड़ा है। जूझ पाठ का सार प्रश्न- तब किशोर ने अपनी माँ से कहा कि वह दत्ता जी राव देसाई से इस बारे में बात करे। अन्ततः यह तय हुआ कि माँ-बेटा रात को उनसे बात करने जाएँगे। माँ चाहती थी कि उसका पुत्र सातवीं तक पढ़ाई तो अवश्य कर ले। इसलिए दोनों माँ-बेटा दत्ता जी राव के घर गए। दीवार के साथ बैठकर माँ ने दत्ता जी राव को घर की सभी बातें बता दी। उसने यह भी कहा कि उसका पति सारा दिन रखमाबाई के पास रहता है और खेत में खुद काम करने की बजाय उसके लड़के को इस काम पर लगा रखा है। इसलिए उसने उसके पुत्र की पढ़ाई बंद करवा दी है। दत्ता जी का रुख काफी अनुकूल था। यह देखकर किशोर ने कहा कि अब जनवरी का महीना चल रहा है, यदि उसे पाठशाला भेज दिया गया तो वह दो महीने में अच्छी तरह से पढ़कर पाँचवीं कक्षा पास कर लेगा। इस प्रकार उसका एक साल बच जाएगा। किशोर के पिता के काले कारनामे सुनकर राव जी क्रोधित हो उठे और कहा कि वह उसे आज ही ठीक कर देंगे। राव ने किशोर से यह भी कहा कि जैसे ही तुम्हारे दादा घर पर आएँ तो उसे मेरे यहाँ भेज देना और घड़ी भर बाद तुम भी कोई बहाना करके यहाँ आ जाना। माँ-बेटा दोनों ने मिलकर यह भी निवेदन किया कि उनके यहाँ आने की बात दादा जी को पता न चले। इस पर दत्ता जी राव ने कहा कि तुमसे जो कुछ पूछूगा वह तुम बिना डर के बता देना। आखिर माँ-बेटे घर लौट गए। माँ ने दादा को राव साहब के यहाँ भेज दिया। साथ ही यह बहाना बनाया कि वह उनके यहाँ साग-भाजी देने गई थी। किशोर का दादा राव के बुलावे को अपना सम्मान समझकर तत्काल पहुँच गया। लगभग आधे घंटे बाद माँ ने बच्चे को यह कहकर भेजा कि दादा को खाने पर घर बुलाया है। दत्ता जी ने किशोर को देखकर कहा कि तू कौन-सी कक्षा में पढ़ता है। इस पर किशोर ने उत्तर दिया कि पहले वह पाँचवीं में पढ़ता था। अब पाठशाला नहीं जाता। क्योंकि दादा ने उसे स्कूल जाने से मना कर दिया है और खेतों में पानी देने के काम पर लगा दिया है। दादा ने रतनाप्पा राव को अपनी सारी बात बता दी। इस पर राव साहब ने दादा को फटकारते हुआ कहा “खुद खुले साँड की तरह घूमता है, लुगाई और बच्चों को खेती में जोतता है, अपनी मौज-मस्ती के लिए लड़के की बलि चढ़ा रहा है । इसके बाद दत्ता जी ने किशोर से कहा-“तू कल से पाठशाला जा, मास्टर को फीस दे दे, मन लगाकर पढ़, साल बचाना है। यदि यह तुझे पाठशाला न जाने दे, तो मेरे पास चले आना, मैं पढ़ाऊँगा तुझे।” इसके बाद दादा ने किशोर पर आरोप लगाते हुए कहा कि यह दिन भर जुआ खेलता है, कंडे बेचता है, चारा बेचता है, सिनेमा देखता है, खेती और घर का काम बिल्कुल भी नहीं करता है। परंतु यह सब आरोप झूठे थे। अन्ततः दत्ता जी ने दादा को संतुष्ट कर दिया और किशोर को अच्छी प्रकार समझाया। इस पर दादा ने यह स्वीकार कर लिया कि वह अपने बेटे को पाठशाला भेजेगा। परंतु दादा ने यह भी शर्त लगा दी कि वह सुबह ग्यारह बजे तक खेत में काम करेगा और सीधा खेत से ही पाठशाला जाएगा। यही नहीं, छुट्टी के बाद वह घंटा भर पशु चराएगा। यदि खेत में अधिक काम हुआ तो वह कभी-कभी स्कूल से छुट्टी भी ले लेगा। किशोर ने यह सभी शर्ते मान लीं।। किशोर पाठशाला की पाँचवीं कक्षा में जाकर बैठ गया। कक्षा में दो लड़के उसकी गली के थे और बाकी सब अपरिचित थे। वे किशोर से कम उम्र के थे। वह बैंच के एक कोने पर जाकर बैठ गया। कक्षा के एक शरारती लड़के ने उसका मजाक उड़ाया। यही नहीं, उसका गमछा छीनकर मास्टर जी की मेज पर रख दिया। छुट्टी के समय उस शरारती लड़के ने किशोर की धोती की लाँग खोल दी। यह सब देखकर किशोर घबरा गया और उसका मन निराश हो गया। उसने अपनी माँ से कह कर बाज़ार से नई टोपी और चड्डी मंगवा ली, जिन्हें पहनकर वह स्कूल जाने लगा। इधर अध्यापक कक्षा के शरारती बच्चों को खूब मारते थे, इससे कक्षा का वातावरण कुछ सुधर गया। कक्षा का वसंत पाटील नाम का लड़का उम्र में छोटा था, परंतु पढ़ने में बहुत होशियार था। वह स्वभाव से शांत था और घर से पढ़कर आता था। इसलिए शिक्षक ने उसे कक्षा का मॉनीटर बना दिया। किशोर भी उसी के समान मन लगाकर पढ़ने लगा। धीरे-धीरे गणित उसकी समझ में आने लगा। अब वह भी वसंत पाटील के समान बच्चों के सवाल जांचने लगा। यही नहीं वसंत अब उसका दोस्त बन चुका था। अध्यापक खुश होकर उसे ‘आनंदा’ के नाम से पुकारते थे। अध्यापक के अपनेपन और वसंत की दोस्ती के कारण धीरे-धीरे उसका मन पढ़ाई में लगने लगा। पाठशाला में न.वा.सौंदलगेकर नाम के मराठी के अध्यापक थे। उन्हें बहुत-सी मराठी और अंग्रेज़ी कविताएँ आती थीं। वे स्वर में कविताएँ गाते थे और छंदलय के साथ कविता का पाठ करते थे। कभी-कभी वे स्वयं भी अपनी कविता लिखते थे और कक्षा में सुनाते थे। धीरे-धीरे किशोर लेखक को उससे प्रेरणा मिलने लगी। जब भी वह खेत पर पानी लगाता या ढोर चराता, तब वह मास्टर के ही हाव-भाव, यति-गति और आरोह-अवरोह आदि के साथ कविता का गान करता था। यही नहीं, वह स्वयं भी कविताएँ लिखने लगा। अब उसे खेत का अकेलापन अच्छा लगता था। वह ऊँची आवाज़ में कविता का गान करता, अभिनय करता और कभी-कभी नांचने भी लगता। मास्टर जी को भी किशोर लेखक का कविता ज्ञान बहुत अच्छा लगा। उनके कहने पर ही किशोर लेखक ने छठी-सातवीं के बालकों के सामने कविता का गान किया। पाठशाला के एक समारोह में उसे कविता पाठ करने का अवसर मिला। मास्टर सौंदलगेकर भी स्वयं कविता करते थे और उनके घर में भी कुछ कवियों के काव्य-संग्रह रखे हुए थे। वे अकसर लेखक को कवियों के संस्मरण भी सुनाते रहते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि किशोर लेखक को यह पता चल गया कि कवि भी हमारे समान एक मानव है। वह भी हमारे समान कविता कर सकता है। लेखक ने मास्टर जी के घर के दरवाजे पर लगी मालती की लता और उस पर लिखी कविता भी देखी थी। उसे लगा कि वह भी अपने खेतों पर, गाँव पर, गाँव के लोगों पर कविताएँ लिख सकता है। इसलिए भैंस चराते समय वह पशुओं तथा जंगली फूलों पर तुकबंदी करने लगा। कभी-कभी वह अपनी लिखी हुई कविता मास्टर जी को दिखा देता था। इस काम के लिए वह अपने पास एक कागज़ और पैन रखने लगा। जब भी कागज़ और पैल न होती तो वह कंकर से पत्थर की शिला पर या छोटी लकड़ी से भैंस की पीठ पर कविता लिख देता था। कभी-कभी वह अपनी लिखी हुई कविता मास्टर जी को दिखाने के लिए उनके घर पहुँच जाता था। मास्टर जी भी उसे अच्छी कविता लिखने की प्रेरणा देने लगे और छंद, लय तथा अलंकारों का ज्ञान देने लगे। यही नहीं, वे किशोर युवक को पढ़ने के लिए पुस्तकें भी देने लगे। धीरे-धीरे मास्टर जी और किशोर लेखक में समीपता बढ़ती गई और उसकी मराठी भाषा में सुधार होने लगा। अब किशोर लेखक को शब्द के महत्त्व का पता लगा और वह अलंकार छंद, लय आदि को समझने लगा। कठिन शब्दों के अर्थ मन तड़पना = व्याकुल होना। हिम्मत = हौंसला। गड्ढे में धकेलना = पतन की ओर ले जाना। कोल्हू = एक ऐसी मशीन जिसके द्वारा गन्नों का रस निकाला जाता है। बहुतायत = अत्यधिक। मत = विचार। भाव नीचे उतरना = कीमत घटना। अपेक्षा तुलना। जन = मनुष्य। कडे = गोबर के उपले या गौसे। स्वर = वाणी। मन रखना = ध्यान देना। तड़पन = बेचैनी। जोत देना = लगा देना। छोरा = लड़का। निडर = निर्भीक। मालिक = स्वामी। बाड़ा = अहाता। जीमने = खाना खाने। राह देखना = प्रतीक्षा करना। जिरह = बहस । हजामत बनाना = डाँटना, फटकारना। श्रम = मेहनत। लागत = खर्च। लुगाई = स्त्री, पत्नी। काम में जोतना = खूब काम लेना। खुद = स्वयं । बर्ताव = व्यवहार। गलत-सलत = उल्टा-सीधा। ज़रा = तनिक। ना पास = फेल, अनुतीर्ण । वक्त = समय। ढोर = पशु। बालिस्टर = वकील। रोते-धोते = जैसे-तैसे। अपरिचित = अनजान। इंतज़ार = प्रतीक्षा। खिल्ली उड़ाना = मज़ाक उड़ाना। पोशाक = तन के कपड़े। मटमैली = गंदगी। गमछा = पतले कपड़े का तौलिया। काछ = धोती का लाँग। चोंच मार-मार कर घायल करना = बार-बार पीड़ा पहुँचाना। निबाह = गुज़ारा। उमंग = उत्साह । मैलखाऊ = जिसमें मैल दिखाई न देता हो। दहशत = डर । ऊधम = कोलाहल मचाना। शाबाशी = प्रशंसा। ठोंक देना = पिटाई करना। पसीना छूटना = भयभीत होना। होशियार = चतुर। सवाल = प्रश्न। सही = ठीक। जाँच = परीक्षण। सम्मान = आदर। मुनासिब = उचित। व्यवस्थित = ठीक तरह से। एकाग्रता = ध्यानपूर्वक। मुलाकात = भेंट। दोस्ती जमना = मित्रता होना। कंठस्थ = जबानी याद होना। संस्मरण = पुरानी घटनाओं को याद करना। दम रोककर = तन्मय होकर। मान = आभास। यति-गति = कविता में रुकने तथा आगे बढ़ने के नियम। आरोह-अवरोह = स्वर का ऊँचा-नीचा होना। खटकना = महसूस होना। गपशप = इधर-उधर की बातें। समारोह = उत्सव। तुकबंदी = छंद में बंधी हुई कविता। महफिल = सभा। कविता का शास्त्र = कविता के नियम। ढर्रा = शैली। अपनापा = अपनापन, अपनत्व। सूक्ष्मता = बारीकी से। Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Vitan Chapter 1 सिल्वर बैंडिग Textbook Exercise Questions and Answers. Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Vitan Chapter 1 सिल्वर बैंडिगHBSE 12th Class Hindi सिल्वर बैंडिग Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. इसलिए यशोधर बाबू की पत्नी इस उम्र में भी बिना बाँह का ब्लाऊज पहनती है। होंठों पर लाली लगाती है और सिल्वर वैडिंग में खुलकर भाग लेती है। परंतु यशोधर बाबू एक परंपरावादी व्यक्ति हैं। वे अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को चाय पान के लिए तीस रुपये तो दे देते हैं परंतु वे आयोजन में भाग नहीं लेते। वे पूजा के लिए मंदिर जाते हैं। सुख-दुख में संयुक्त परिवार के लोगों से मिलना चाहते हैं। परंतु किसी अच्छे मकान में रहने के लिए नहीं जाते। यहाँ तक कि वे डी०डी०ए० का फ़्लैट लेने का भी प्रयास नहीं करते। जब उनके लड़के घर पर उनकी सिल्वर वैडिंग का आयोजन करते हैं, तो वे उससे भी बचने की कोशिश करते हैं। वे अपने आदर्श किशनदा के संस्कारों का ही अनुसरण करते हैं। परिणाम यह होता है कि वे परिस्थितियों के आगे झुक तो जाते हैं, परंतु उनका मन पुरानी परंपराओं से ही चिपका हुआ है। वे नए जमाने की सुविधाओं; जैसे गैस, फ्रिज आदि को अच्छा नहीं समझते। फिर भी वे सोचते हैं कि ये चीजें हैसियत बढाने वाली हैं। सच्चाई तो यह है कि वे समय के साथ ढल नहीं पाते और बार-बार किशनदा के संस्कारों को याद कर उठते हैं। प्रश्न 2. किशनदा ने भी इस वाक्य का प्रयोग किया है। अपनों से मिली उपेक्षा के लिए, वे इस वाक्य का प्रयोग करते हैं। किशनदा भी जन इसी ‘जो हुआ होगा’ से मरते हैं, गृहस्थ हों, ब्रह्मचारी हों, अमीर हों, गरीब हों, मरते ‘जो हुआ होगा’ से ही हैं। हाँ-हाँ, शुरू में और आखिर में, सब अकेले ही होते हैं। अपना कोई नहीं ठहरा दुनिया में, बस अपना नियम अपना हुआ। यहाँ इस वाक्य का अर्थ अन्य संदर्भ में देखा जा सकता है अर्थात् किसी-न-किसी कारण से ही सबकी मृत्यु होती है। पाठ के आखिर में जब बच्चे यशोधर बाबू पर व्यंग्य करते हैं, तो उनको यह निश्चय हो गया कि किशनदा की मृत्यु ‘जो हुआ होगा’ से ही हुई होगी। भाव यह है कि बच्चे जब अपने माता-पिता की उपेक्षा करने लगते हैं, तो उनके प्राण जल्दी निकल जाते हैं। प्रश्न 3. अन्यत्र उन्होंने अपनों से परायेपन का व्यवहार मिलने, डी०डी०ए० के फ्लैट के लिए पैसे न चुकाने, अपनी वृद्धा पत्नी द्वारा आधुनिका का स्वरूप धारण करने, बेटे द्वारा अपने पिता को वेतन न देने, संपन्नता में सगे-संबंधियों की उपेक्षा करने, बेटी द्वारा विवाह का निर्णय न लेने आदि को भी ‘समहाउ इंप्रापर’ कहा है। इसी प्रकार जब उसकी बेटी जींस तथा सैंडो ड्रैस पहनती है, घर में गैस, फ्रिज लाया जाता है। सिल्वर वैडिंग पर भव्य पार्टी दी जाती है। छोटा साला ओछापन दिखाता है और केक काटा जाता है, तब भी वे इसी वाक्यांश का प्रयोग करते हैं। वस्तुतः यशोधर बाबू किशनदा से प्रभावित होने के कारण सिद्धांतों पर चलने वाले व्यक्ति हैं। यही नहीं, वे भारतीय मूल्यों और मान्यताओं में विश्वास रखते हैं। लगभग ऐसे ही विचार आजकल के बुजुर्गों के हैं। वाक्यांश कहानी के मूल कथ्य से जुड़ा हुआ है। लेखक यह दिखाना चाहता है कि आज पुरानी और नई पीढ़ी में एक खाई उत्पन्न हो चुकी है। प्रत्येक पुरानी पीढ़ी नवीन परिवर्तनों को अनुचित मानती है। इस नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण ही उनके बच्चे तथा परिजन उनकी उपेक्षा करने लगते हैं, परंतु उनकी पत्नियाँ नए ज़माने के साथ स्वयं को अनुकूल बना लेती हैं। यही कारण है कि ‘समहाउ इंप्रापर’ एक प्रश्न चिह्न बनकर रह गया है। लेखक इस पाठ द्वारा यह कहना चाहता है कि यदि वृद्ध लोगों को अपने बच्चों के साथ सम्मानपूर्वक जीना है तो उन्हें नए परिवर्तनों को स्वीकार करना पड़ेगा, अन्यथा उनकी हालत यशोधर बाबू जैसी हो जाएगी। प्रश्न 4. वे निरंतर मुझे पढ़ने और आगे बढ़ने की प्रेरणा देती रहती हैं। परंतु मेरी माता जी का रहन-सहन बड़ा सादा और सरल है। वे बाहरी ताम-झाम में विश्वास नहीं करतीं। फलस्वरूप मैं आरंभ से ही पढ़ने-लिखने में ठीक हूँ। दसवीं की परीक्षा में मैंने नगर में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए थे। यही नहीं, मैं विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेता हूँ और अपने गुरुजनों का हमेशा आदर करता हूँ। मैं उच्च शिक्षा प्राप्त करके किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद प्राप्त करना चाहता हूँ। यदि ईश्वर की कृपा रही और मेरी माँ की मुझे नियमित प्रेरणा मिलती रही, तो मैं निश्चय से ही इस लक्ष्य को प्राप्त करूँगा। प्रश्न 5. परंतु सामंजस्य के द्वारा हम इस समस्या का हल निकाल सकते हैं। पुराने लोगों को थोड़ा आधुनिक बनना पड़ेगा और नए लोगों को थोड़ा पुराना। हमारे मूल्य आज भी हमारी धरोहर हैं, उनमें बहुत-सी ऐसी बातें हैं जो हमारे समाज के लिए अत्यधिक उपयोगी हैं। घर की साग-सब्जी, दूध, राशन आदि लाने में घर के सभी लोगों को सहयोग करना होगा। यदि आज के बच्चे आधुनिक युग की सुख-सुविधाओं को पाना चाहते हैं तो उन्हें यशोधर बाबू जैसे पिता को अपमानित नहीं करना चाहिए। पत्नी का भी कर्त्तव्य बनता है कि वह अपने पति की सलाह को मानती हुई अपनी संतान की देखभाल करे, बल्कि वह एक माँ के रूप में अपने पति और बच्चों के बीच सेतु का काम कर सकती है। इसके साथ-साथ यशोधर बाबू के समान अधिक परंपरावादी बनना भी अच्छा नहीं है। इधर घर की बेटियों और नारियों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे शालीनता का ध्यान रखते हुए वस्त्र धारण करें। अधिक मॉड बनने के दुष्परिणाम तो हम हर रोज़ देखते ही रहते हैं। इस कहानी में यशोधर बाबू ने तीस रुपये देकर, घर में गैस एवं फ्रिज के प्रति नरम रुख रखकर, केक काटकर तथा मेहमानों का स्वागत करके सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है। घर के अन्य लोगों का भी कर्त्तव्य बनता है कि वे यशोधर बाबू जैसे गृहस्वामियों की भावनाओं को समझें। दोनों पक्षों में सामंजस्य स्थापित करने से ही आधुनिक युग को सफल बनाया जा सकता है। प्रश्न 6. परंतु यदि गहराई से इस कहानी का अध्ययन किया जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कहानी की मूल संवेदना पीढ़ी का अंतराल है। यशोधर बाबू पुरानी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने वाले पात्र हैं। वे भारतीय संस्कृति को मानते हैं। पूजा-पाठ करते हैं। रामलीला देखने जाते हैं। रिश्तेदारी को निभाने का प्रयास करते हैं और सादा तथा सरल जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, परंतु उनके बच्चे तथा पत्नी आधुनिक रंग-ढंग में ढल गए हैं। इस कहानी का कथानक इसी द्वंद्व पर टिका हुआ है। पीढ़ी-अंतराल के कारण जो कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं, उसका शिकार यशोधर बाबू बनते हैं। वे अपने-आप में किशनदा से प्रभावित होने के कारण पुरानी व्यवस्था को अपनाते हैं। यही नहीं, वह पुरानी परंपराओं को सही तथा नई परंपराओं को ‘समहाउ इंप्रापर’ कहते हैं। इसीलिए सर्वत्र उपेक्षा होती है। घर के बच्चे उनकी वेशभूषा, चाल-ढाल, आचार-विचार आदि का विरोध करते हैं। उनका विचार है कि उनके पिता की सादगी वस्तुतः फटीचरी है। यही नहीं, उनके विचारानुसार रिश्तेदारी निभाना घाटे का सौदा है। धीरे-धीरे यशोधर बाबू उपेक्षित होते चले जाते हैं। बच्चे उनके लिए नया गाउन इसलिए लाते हैं कि ताकि वे फटा हुआ पुलओवर पहनकर समाज में उनकी बेइज्जती न कराएं। बच्चों को अपने मान-सम्मान की तो चिंता है, परंतु वे अपने पिता की मनःस्थिति को नहीं समझ पाते। अतः पीढ़ी अंतराल की समस्या ही इस कहानी की मुख्य समस्या है। प्रश्न 7. वे प्रायः कहते रहते हैं कि चूल्हे की रोटी का कोई मुकाबला नहीं है। इसी प्रकार उनका कहना है कि फ्रिज के कारण हम बासी भोजन करते हैं, टी०वी० अश्लीलता फैला रहा है और मोबाइल का अधिक प्रयोग लड़के-लड़कियों को बिगाड़ रहा है। इसी प्रकार इंटरनेट के प्रयोग के कारण युवक-युवतियाँ अश्लील फिल्में देखते हैं और वे चरित्रहीन बन रहे हैं। यद्यपि सच्चाई है कि बुजुर्गों के विचार पुराने हो सकते हैं, परंतु आधुनिक सुविधाओं का अधिक प्रयोग हमारी जीवन-शैली को जटिल बनाता जा रहा है, परंतु सुविधाओं की ऐसी आँधी बुजुर्गों के रोकने पर रुकने वाली नहीं है। प्रश्न 8. इस प्रकार हम देखते हैं कि यशोधर बाबू का द्वंद्व स्वाभाविक है। वे पिछड़े हुए ग्रामीण क्षेत्र से महानगर में आए हैं। अभी तक उनके मन पर ग्रामीण अंचल का प्रभाव बना पड़ा है, परंतु उनके बच्चे दिल्ली महानगर में जन्मे एवं पले हैं। वे आधुनिक परिवेश से अत्यधिक प्रभावित हैं। वे अपने घर में सब प्रकार की आधुनिक सुविधाएँ चाहते हैं। ये नयापन यशोधर बाबू को भी यदा-कदा आकर्षित करता है। उदाहरण के रूप में गैस तथा फ्रिज के बारे में उनकी सोच अथवा भूषण से हाथ मिलाना, अतिथियों को अंग्रेज़ी में अपना परिचय देना आदि नएपन के सूचक हैं। ऐसी स्थिति में यशोधर बाबू के प्रति सहानुभूति का व्यवहार करना उचित होगा। यदि यशोधर बाबू के परिवार के लोग उन्हें पहले से ही सिल्वर वैडिंग की सूचना दे देते तो वे समय पर घर आते और अतिथियों का भरपूर स्वागत करते। इसके साथ-साथ हमें यह भी देखना चाहिए कि घर के बड़े बुजुर्गों के साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए। उनकी उपेक्षा कभी नहीं की जानी चाहिए। HBSE 12th Class Hindi सिल्वर बैंडिग Important Questions and Answersबोधात्मक प्रश्न प्रश्न 1. (ख) एक संस्कारवान व्यक्ति-किशनदा से प्रभावित होने के कारण यशोधर बाबू प्रतिदिन मंदिर जाकर प्रवचन सुनते हैं और सुबह-शाम घर पर पूजा करते हैं। यही नहीं, वे अपने घर पर ‘जन्यो-पुन्यू’ तथा रामलीला शिक्षा का काम भी समाज-सेवा के रूप में करते हैं। यही नहीं, वे यह भी चाहते हैं कि सगे-संबंधियों की सुख-दुख में सहायता करनी चाहिए। वे सरल वेशभूषा पहनते हैं और समय पर घूमने जाते हैं और सुबह जल्दी उठ जाते हैं। (ग) सफल गहस्थी-उनको हम एक सफल गहस्थी कह सकते हैं। वे प्रतिदिन घर का राशन और साग-सब्जी खरीदकर लाते हैं तथा बच्चों का मन देखकर साइकिल छोड़कर पैदल जाते हैं। अनाथ होते हुए भी उन्होंने संयुक्त परिवार परंपरा को निभाया। (घ) आधुनिकता के आलोचक-यशोधर बाबू आधुनिकता के नाम पर मनमानी करना, कम कपड़े पहनना, नए उपकरणों का प्रयोग करना यह सब पसंद नहीं करते हैं। विवाह की रजत जयंती मनाने को एक अनावश्यक खर्च मानते हैं। इसी प्रकार वे अपनी बेटी और पत्नी द्वारा आधुनिक कपड़ों को अपनाने का भी विरोध करते हैं। वस्तुतः किशनदा से अत्यधिक प्रभावित होने के बाद वे नवीन मूल्यों को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते। फिर भी यशोधर बाबू ने पिता के कर्त्तव्य को अच्छी तरह निभाया। अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दी और उन्हें मानवीय मूल्यों तथा समाज संस्कृति से यथासंभव जोड़ने का प्रयास किया। लेकिन उनके बच्चे नए ज़माने से अत्यधिक प्रभावित हुए। प्रश्न 2. किशनदा एक सरल हृदय व्यक्ति हैं जो कुमाऊँ क्षेत्र से दिल्ली आकर सरकारी नौकरी करते हैं। उन्होंने कई पहाड़ी युवकों को अपने यहाँ शरण देकर उन्हें नौकरी प्राप्त करने में सहायता की। वे आजीवन कुँवारे रहे। यशोधर बाबू को उन्होंने न केवल नौकरी दिलवाने में सहायता की, बल्कि अनेक बार उन पर अपनी जेब से पैसे भी खर्च किए। किशनदा एक संस्कारवान तथा ग्रामीण संस्कृति से जुड़े व्यक्ति हैं। यशोधर बाबू के व्यक्तित्व का निर्माण करने में उनका अत्यधिक सहयोग रहा। उन्होंने ही यशोधर बाबू को सुबह सैर पर जाने, सवेरे-शाम पूजा-पाठ करने, रामलीला वालों को एक कमरे की सुविधा देने तथा पहाड़ी क्षेत्रों की परंपराओं का निर्वाह करने की आदत डाल दी। यही कारण है कि यशोधर बाबू किशनदा की मृत्यु के बाद भी उनके द्वारा बताए गए संस्कारों का पालन करते रहे। प्रश्न 3. उसका विवाह एक अनचाहे संयुक्त परिवार में हुआ। घर के बड़ों की शर्म के कारण वह न तो मन चाहा ओढ़-पहन सकी और न ही खा सकी। वह स्वच्छंद होकर जीवन को जीना चाहती थी। परंतु संयुक्त परिवार में होने के कारण ऐसा नहीं कर पाई। इसलिए एक स्थल पर वह अपने पति को कहती भी है-“किशनदा तो थे ही जन्म के बूढ़े, तुम्हें क्या सुर लगा कि जो उनका बुढ़ापा खुद ओढ़ने लगे हो?” वह आधुनिक रंग-ढंग से जीना चाहती थी। इसलिए अधेड़ अवस्था में आते ही उसने होंठों पर लाली तथा बालों में खिज़ाब लगाना आरंभ कर दिया। उसने अपनी बेटी पर किसी तरह की रोक नहीं लगाई तथा उसे जींस तथा टॉप पहनने की खुली छूट दी। यही नहीं, वह एक ऐसी नारी है जो आधुनिक सुविधाओं की दीवानी है। अपने पति के प्रति उसके मन में कोई सहानुभूति नहीं है। उसका मानना है कि उसका पति समय से पहले बूढ़ा हो गया है। इसलिए वह पूर्णतः आधुनिकता के रंग में रंगे बच्चों का साथ देने लगती है। प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. यशोधर बाबू के जीवन में ‘जो हुआ होगा’ तथा ‘समहाउ इंप्रापर’ वाक्यांशों का अधिक महत्त्व है। पहले में तो यथा स्थिति वाद की सोच है, दूसरे में अनिर्णय की स्थिति। यहाँ लेखक यह स्पष्ट करना चाहता है कि आधुनिकता के कारण जो बदलाव आ रहा है, उसे बड़े-बुजुर्ग लोग स्वीकार करने में द्वंद्व ग्रस्त दिखाई देते हैं। लगभग यही स्थिति यशोधर बाबू की है जो अ तरक्की से खुश होते हैं और इसे ‘समहाउ इंप्रापर’ भी कहते हैं। लेखक यशोधर बाबू बुजुर्ग लोगों के द्वंद्व को रेखांकित करना चाहता है। प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. (ii) “मुझे तो वे ‘समहाउ इंप्रापर’ ही मालूम होते हैं। ‘एनीवे’ मैं तुम्हें ऐसा करने से रोक नहीं रहा। देयरफोर तुम लोगों को भी मेरे जीने के ढंग पर कोई एतराज नहीं होना चाहिए।” प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. उपहार के रूप में एक गाउन देकर वह कहता है कि उनके पिता फटा हुआ गाउन पहनकर दूध लेने न जाएँ। इसी प्रकार उनकी लड़की स्वयं बेढंगे कपड़े पहनती है और पिता द्वारा टोकने पर उसे झिड़क देती है। यही नहीं, बच्चों के मन में अपने रिश्तेदारों और सगे-संबंधियों के प्रति भी कोई लगाव नहीं है। बुआ को पैसे भेजने के बारे में वे आनाकानी करते हैं और धर्म तथा समाज के कामों में भाग नहीं लेते। उनमें न तो अच्छे संस्कार हैं और न ही मानव मूल्य। उनके मन में केवल पद, प्रतिष्ठा और पैसे का ही मोह है। प्रश्न 18. प्रश्न 19. प्रश्न 20. प्रश्न 21. प्रश्न 22. इसके विपरीत नई पीढ़ी भौतिकता को महत्त्व देती है। वह रिश्तेदारी की अपेक्षा आर्थिक विकास को श्रेयस्कर कर मानती है। उनके लिए पुराने संस्कार और परंपराएँ व्यर्थ हैं। यहाँ तक कि नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को भी अपने रंग-ढंग में ढालना चाहती है। अतः सिल्वर वैडिंग में इन दो पीढ़ियों के संघर्ष का सजीव वर्णन किया गया है। प्रश्न 23. प्रश्न 24. प्रश्न 25. लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न
17. प्रश्न 18. सिल्वर बैंडिग Summary in Hindiसिल्वर बैंडिग लेखक-परिचय प्रश्न- 2. प्रमुख रचनाएँ इनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं
3. साहित्यिक विशेषताएँ-मनोहर श्याम जोशी एक बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने असंख्य कहानियाँ, संस्मरण, व्यंग्य लेख, साक्षात्कार तथा दूरदर्शन के लिए धारावाहिक लिखे। वे मूलतः आधुनिक युग बोध के साहित्यकार थे। उन्होंने आज की पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा नैतिक समस्याओं पर अपने मौलिक विचार व्यक्त किए। ‘हम लोग’ तथा ‘बुनियाद’ जैसे धारावाहिकों में उन्होंने समाज की नब्ज़ को पकड़ने का सफल प्रयास किया है। उदाहरण के रूप में ‘सिल्वर वैडिंग’ कहानी में लेखक ने पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच उत्पन्न खाई की ओर संकेत किया है जिसके फलस्वरूप आज संयुक्त परिवार टूटकर बिखर रहे हैं। अपने व्यंग्यात्मक लेखों में उन्होंने आज के राजनीतिज्ञों, तथाकथित साहित्यकारों एवं सामाजिक नेताओं पर करारे व्यंग्य किए हैं। उनकी कुछ कहानियाँ सामाजिक समस्याओं का उद्घाटन करती हैं और पाठकों को बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर देती हैं। उनकी अधिकांश रचनाएँ शिक्षा जगत् के लिए काफी उपयोगी हैं। 4. भाषा-शैली-मनोहर श्याम जोशी ने प्रायः साहित्यिक हिंदी भाषा का ही प्रयोग किया है, जिसमें अंग्रेज़ी तथा उर्दू शब्दों का मिश्रण खुलकर देखा जा सकता है। कहीं-कहीं तो वे अंग्रेजी भाषा के पूरे वाक्य का ही प्रयोग कर देते हैं। वस्तुतः उनकी भाषा पात्रानुकूल तथा प्रसंगानुकूल कही जा सकती है। आवश्यकतानुसार वे पंजाबी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग कर लेते हैं। ‘दिनमान’ तथा ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ पत्रिकाओं में उन्होंने पूर्णतया साहित्यिक हिंदी भाषा का ही प्रयोग किया है। इसके साथ-साथ उनकी शैली साहित्यिक विधा के अनुसार बदल जाती है। व्यंग्य लेखों में उनका व्यंग्य बड़ा ही तीखा और चुभने वाला है। इस पाठ से उनकी भाषा-शैली का एक उदाहरण देखिए “अपनी सिल्वर वैडिंग की यह भव्य पार्टी भी यशोधर बाबू को समहाउ इंप्रापर ही लगी तथापि उन्हें इस बात से संतोष हुआ कि जिस अनाथ यशोधर बाबू के जन्मदिन पर कभी लह नहीं आए, जिसने अपना विवाह भी कोऑपरेटिव से दो-चार हज़ार कर्जा निकालकर किया बगैर किसी खास धूमधाम के, उसके विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर केक, चार तरह की मिठाई, चार तरह की नमकीन, फल, कोल्डड्रिंक्स, चाय सब कुछ मौजूद है।” सिल्वर बैंडिग पाठ का सार प्रश्न- एक बार यशोधर बाबू को अपने पूर्ववर्ती अधिकारी किशनदा की याद आ गई। वे उनके साथ बिताए हुए कुछ क्षणों की याद में डूब से गए। चड्ढा द्वारा पुनः बोलने पर उनके मुख से अचानक निकल पड़ा “नाव लैट मी सी, आई वॉज़ मैरिड ऑन सिक्स्थ फरवरी नाइंटिन फोर्टी सेवन।” आफिस के एक अन्य बाबू ने तत्काल हिसाब लगाकर कहा-“मैनी हैप्पी रिटर्नुस आफ द डे सर! आज तो आपका सिल्वर वैडिंग है। शादी को पूरा पच्चीस साल हो गया।” परंतु यशोधर बाबू सिल्वर वैडिंग को गोरे साहबों का चोंचला मानते थे। इधर चड्डा तथा मेनन ने चाय-मट्ठी तथा लड्डु की माँग प्रस्तुत की। यशोधर बाबू ने इसे ‘समहाउ इंप्रॉपर’ कहकर दस रुपये दे दिए। सारे सेक्शन के कहने पर भी वे इस दावत में शामिल नहीं हुए। हाँ, उन्होंने दस-दस के दो नोट और अवश्य दे दिए। यशोधर बाबू ‘बॉय सर्विस से उन्नति प्राप्त करके सेक्शन ऑफिसर बने। किशनदा हमेशा उनके आदर्श बने रहे। वे उनके पूर्ववर्ती अधिकारी थे। इसलिए वे हमेशा उन्हीं का अनुकरण करते रहे और तरक्की करते हुए सेक्शन ऑफिसर बन गए। यशोधर बाबू किशनदा के समान सिद्धांतों के पक्के हैं। ऑफिस से छुट्टी मिलने के बाद हर रोज़ बिड़ला मंदिर जाते, प्रवचन सुनते और स्वयं ध्यान भी लगाते। वहाँ से निकलकर वे पहाड़गंज से साग-सब्जी खरीद कर लाते थे। इसी समय में वे लोगों से मिल-जुल लेते थे। वे पैदल घर से ऑफिस और ऑफिस से घर आते थे। यद्यपि ऑफिस से पाँच बजे छुट्टी मिल जाती थी, परंतु वे रात के आठ बजे ही घर पहुँचते थे। आज जब यशोधर बाबू बिड़ला मंदिर जा रहे थे, तो उन्होंने तीन बैडरूम वाले उस क्वार्टर को देखा, जिसमें किशनदा रहते थे। अब वह क्वार्टर नहीं रहा था। वहाँ पर एक छह मंजिला मकान खड़ा था। एक मंज़िल के क्वार्टर को तोड़कर छह मंजिला मकान बनाना यशोधर बाबू को अच्छा नहीं लगा। भले ही उन्हें पद के अनुसार एंड्रयूज़गंज, लक्ष्मीबाई नगर, पंडारा रोड पर डी-2 टाइप का अच्छा क्वार्टर मिल रहा था। परंतु उन्होंने स्वीकार नहीं किया। जब उनका अपना क्वार्टर तोड़ा जाने लगा तब उन्होंने बचे क्वार्टरों में से एक क्वार्टर अपने नाम अलाट करवा लिया। इसका कारण यह था कि वे किशनदा की यादों को मन में लिए वहीं रहना चाहते थे। किशनदा को याद करते-करते वे मन-ही-मन सोचने लगे। अच्छा तो यह होता कि वह भी किशनदा के समान शादी न करता और जीवन भर समाज की सेवा करता। फिर उन्हें याद आया कि किशनदा का बढ़ापा ठीक से व्य हुआ। जब सेवानिवृत्त होने के बाद किशनदा को क्वार्टर खाली करना पड़ा, तो किसी ने भी उन्हें आश्रय नहीं दिया। स्वयं यशोधर बाबू उन्हें अपने यहाँ रहने के लिए नहीं कह पाए। क्योंकि उस समय उनका विवाह हो गया था और उनके दो कमरों वाले क्वार्टर में तीन परिवार रह रहे थे। किशनदा कुछ साल राजेंद्र नगर में किराए का क्वार्टर लेकर रहे। किंतु मजबूर होकर वे अपने गाँव लौट गए और साल भर बाद स्वर्ग सिधार गए। यशोधर बाबू ने किशनदा से जो कुछ सीखा था, वह सब यशोधर बाबू को याद था। यशोधर बाबू को याद आया कि हर रोज़ भ्रमण करने के बाद लौटते समय किशनदा अपने इस मानस पुत्र यशोधर बाबू के घर आते थे। किशनदा ने उन्हें जल्दी उठना सिखाया था। किशनदा ने ‘अरली टू बैड एंड अरली टू राइज मेक्स ए मैन हैल्दी एंड वाइज़!’ का मंत्र यशोधर बाबू को दिया था। इसलिए वे भी जल्दी उठने और सैर करने जाने लगे। आज भी यशोधर बाबू उस दृश्य को नहीं भूला पाते, जब किशनदा कुरते-पजामे में सैर को निकलते थे। वे कुर्ते-पजामे के ऊपर ऊनी गाऊन पहनते थे, सिर पर गोल विलायती टोपी और पाँव में देसी खड़ाऊँ तथा छड़ी हाथ में लेकर चलते थे। यही कारण है कि जब तक किशनदा दिल्ली में रहे, तब तक यशोधर बाबू उनके शिष्य बने रहे। उन्होंने अपने बीवी-बच्चों की नाराज़गी की परवाह नहीं की। किशनदा से उन्होंने यह सीखा कि अपने घर पर होली गवाई जाए, जनेऊ बदलने के लिए कुमाऊँ वासियों को घर पर बुलाया जाए और रामलीला वालों को क्वार्टर का एक कमरा दिया जाए। सिद्धांतों का पालन करने वाले यशोधर बाबू की पिछले कुछ वर्षों से अपनी पत्नी तथा बच्चों से छोटी-छोटी बात पर तकरार होती रहती थी। इसलिए शायद वे घर जल्दी लौटकर नहीं आते। उन्हें यह बिल्कुल पसंद नहीं था कि उनकी पत्नी आधुनिक नारी बने। यह उनके मूल संस्कारों के विरुद्ध था। जबकि यशोधर बाबू की पत्नी अपने बच्चों का साथ देते हुए ‘मॉड’ बन गई थी। यशोधर बाबू को इस बात का दुख है कि संयुक्त परिवार में रहते हुए उसकी पत्नी ने उसका साथ नहीं दिया। कारण यह था कि यशोधर बाबू परंपरावादी थे और उनके बच्चे आधुनिकवादी थे। पत्नी पुरानी परंपराओं को ढकोसला मानती थी और बच्चों का साथ देती थी। अपनी पत्नी के शृंगार को देखकर मज़ाक करते हुए कहते थे-शानयल बुढ़िया, चटाई का लहँगा, बूढ़ी मुँह मुँहासे, लोग करें तमासे’। जब उनका बड़ा बेटा एक विज्ञापन संस्था में डेढ़ हज़ार रुपये मासिक का कर्मचारी बन गया, तो उन्हें ऐसा लगा कि उनके साधारण पत्र को असाधारण वेतन वाली नौकरी मिल गई है। उन्हें इस बात का भी दुख था कि उनका मंझला पुत्र ‘एलाइड सर्विसेज़’ में नहीं गया और बेटी विवाह के लिए तैयार न हुई, परंतु उन्हें अपने बच्चों की बातें उचित भी लगीं। उदाहरण के रूप में डी०डी०ए० के फ्लैट में पैसा न भरना, उन्होंने अपनी भूल ही मानी। उनके बच्चे बात-बात पर तर्क देते थे। उन्होंने यह भी सोचा कि पुश्तैनी घर में जाकर मरम्मत की जिम्मेवारी लेने से बेकार का झगड़ा लेना पड़ेगा। वे हमेशा किशनदा की बात को याद रखते थे कि मूर्ख लोग मकान बनाते हैं, सयाने उनमें रहते हैं। उनका सोचना था जब तक सरकारी नौकरी है, तब तक क्वार्टर है। बाद में गाँव का पुश्तैनी घर है। उनका यह विचार भी था कि उनके रिटायर होने से पहले उनके बेटे को सरकारी नौकरी मिल जाएगी और यह सरकारी क्वार्टर उन्हीं के पास रहेगा। आज प्रवचन सुनने में यशोधर बाबू का मन नहीं लगा। वे मन से न धार्मिक हैं, न कर्मकांडी। वे तो केवल अपने आदर्श किशनदा की परंपरा का पालन कर रहे थे। जैसे उनकी उम्र ढलने लगी तो वे किशनदा के समान मंदिर जाने लगे। गीता प्रेस गोरखपुर की पुस्तकें पढ़ने लगे और संध्या वंदना करने लगे, परंतु उनका मन कहीं टिकता नहीं था। कभी-कभी यह भी सोचते कि उन्हें आसक्ति को छोड़कर परलोक के बारे में सोचना चाहिए। अचानक प्रवचन में जनार्दन शब्द सुनकर उन्हें अपने जीजा जनार्दन जोशी की याद आ गई। उनकी तबीयत बहुत खराब थी और उनका हाल-चाल जानने के लिए उन्हें अहमदाबाद जाना होगा। परंतु उनके बीवी और बच्चे इसका विरोध करेंगे, जबकि यशोधर बाबू सुख अथवा दुख में सगे-संबंधियों के यहाँ जाना आवश्यक समझते थे। वस्तुतः यशोधर बाबू की पत्नी को उनका परंपरावादी होना बिल्कुल पसंद नहीं था। उसका कहना था कि उसके पति ने स्वयं कुछ नहीं देखा। माँ के मरने के बाद यशोधर बाबू को अपनी विधवा बुआ के पास रहना पड़ा, जिसका लंबा-चौड़ा परिवार नहीं था। जब मैट्रिक करके दिल्ली पहुंचे तो किशनदा की छत्रछाया में रहने लगे। किशनदा के पास केवल गवई लोगों का ज्ञान था। जबकि यशोधर बाबू की पत्नी बगैर बाँह का ब्लाऊज पहनती थी, रसोई से बाहर दाल-भात खाती थी और ऊँची हील की सैंडल पहनती थी। यशोधर बाबू इसे ‘समहाउ इंप्रापर’ कहते थे। यशोधर बाबू चाहते थे कि समाज उन्हें एक आदरणीय बुजुर्ग समझे, बच्चे उनका आदर करें और उनसे सलाह लें। उनका यह भी विचार था कि बच्चे उनकी हर बात को पत्थर की लकीर न समझें, परंतु वे मनमानी तो न करें। वे चाहते थे कि बच्चे उनसे कहें कि बब्बा अब दूध लाना, सब्जी लाना, दालें लाना, राशन लाना, दवा लाना, कोयला लाना आदि सब काम छोड़ दें। उनकी यह इच्छा थी कि उनका बेटा वेतन लाकर उन्हीं को दे। लेकिन घर का कोई सदस्य उनकी इच्छाओं की ओर ध्यान नहीं देता था। यशोधर बाबू टूटी-फूटी सड़कों से गुजरते हुए हाथ में सब्जी का झोला लटकाए जब घर पहुँचते हैं तो उनकी दशा द्वारका से लौटे सुदामा की तरह प्रतीत हो रही थी। घर के बाहर नेम प्लेट पर उनका अपना ही नाम वाई.डी. पंत लिखा है, परंतु उन्हें लगता ही नहीं कि यह घर उनका है। उनके क्वार्टर के बाहर एक कार, कुछ स्कूटर और मोटर-साइकिलें खड़ी थीं। लोग एक-दूसरे को विदा ले-दे रहे थे। उनके घर के बाहर गुब्बारे और कागज़ से बनी रंगीन झालरें और रंग-बिरंगी रोशनियों वाली लाइटें लगी हुई थीं। उनके बड़े बेटे भूषण को कार में बैठा व्यक्ति हाथ मिलाकर कह रहा था-“गिव माई वार्म रिगार्ड्स टू योर फादर।” यशोधर बाबू को यह सब देखकर कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि बाहर क्या हो रहा है? यशोधर बाबू ने देखा कि उसकी पत्नी एवं बेटी कुछ मेहमानों को विदा कर रही हैं। लड़की ने जींस और बगैर बाँह का टॉप पहना हआ था और पत्नी ने बालों में खिजाब और होंठों पर लाली लगा रखी थी। यशोधर बाबू को यह सब ‘समहाउ इंप्रापर’ लगा। जब वे घर पहुँचे तो बड़े बेटे ने झिड़कते हुए कहा-“बब्बा, आप भी हद करते हैं। “सिल्वर वैडिंग के दिन साढ़े आठ बजे घर पहुंच रहे हैं। अभी तक मेरे बॉस आपकी राह देख रहे थे।” इस पर यशोधर बाबू ने कहा कि-“हम लोगों के यहाँ सिल्वर वैडिंग कब से होने लगी है।” तब यशोधर बाबू के भांजे चंद्रदत्त तिवारी ने कहा कि जब से आपका बेटा डेढ़ हज़ार रुपये महीना कमाने लगा है। यशोधर बाबू को सिल्वर वैडिंग का आयोजन ठीक नहीं लगा, जिसमें केक, चार तरह की मिठाई, चार तरह की नमकीन, फल, कोल्डड्रिंक्स, चाय आदि सर्व की जा रही थी। उनको इस बात का दुख है कि आफिस जाते समय उन्हें किसी बात की सूचना नहीं दी गई थी। यही कारण है कि उनके पुत्र भूषण ने अपने मित्रों तथा सहयोगियों से अपने पिता का परिचय करवाया तो उन्होंने केवल बैंक्यू कहकर सबका जवाब दिया। आखिर बच्चों ने केक काटने का आग्रह किया। बेटी के आग्रह पर उन्होंने केक तो काटा पर साथ यह भी कहा “समहाउ आई डोंट लाइक आल दिस।” वे केक खाने को भी राजी नहीं हुए, क्योंकि उसमें अंडा होता है। उन्होंने अन्य सब लोगों को खाने के लिए कहा और खुद पूजा करने चले गए। आज यशोधर बाबू ने संध्याकालीन पूजा में अधिक समय लगाया। वे चाहते थे कि अधिकांश मेहमान चले जाएँ, तो वे अपनी पूजा को समाप्त करेंगे। पूजा करते समय उन्हें किशनदा दिखाई दिए। यशोधर बाबू ने उनसे पूछा कि ‘जो हुआ होगा’ से आप कैसे मर गए। किशनदा ने उत्तर दिया-“भाऊ सभी जन इसी ‘जो हुआ होगा’ से मरते हैं।” शुरू और आखिर में सब अकेले ही होते हैं। वे चाहते थे कि काश किशनदा उनका आज भी मार्ग दर्शन करते। इसी बीच यशोधर बाबू की पत्नी ने आकर उन्हें डाँटा, तो वे आसन से खड़े हो गए। सब रिश्तेदारों के जाने की बात मालूम होने पर यशोधर बाबू गमछा पहने ही बैठक में आ गए। यह देखकर उनकी बेटी क्रोधित हो उठी। तब यशोधर बाबू ने उसकी जींस पर व्यंग्य किया। अन्ततः यशोधर बाबू को प्रेजेंट खोलने के लिए कहा गया परंतु उन्होंने बच्चों से कहा कि तुम ही इसे खोलो और इसका इस्तेमाल करो। इस पर उनके बेटे भूषण ने प्रेजेंट को खोला और कहा कि यह ऊनी ड्रेसिंग गाउन है, मैं आपके लिए लाया हूँ। जब आप सवेरे दूध लेने जाएँ तो फटे हुए पुलोवर के स्थान पर इसे पहनकर जाएँ। उनकी बेटी कुर्ता-पजामा ले आई, तब यशोधर बाबू ने कुर्ता-पजामा पहन कर गाउन धारण कर लिया। परंतु यह निर्णय करना बड़ा कठिन है कि भूषण द्वारा कही गई दूध लाने की बात उन्हें चुभी या गाउन पहनकर उन्हें किशनदा बनना पसंद आया। परंतु इतना निश्चित था कि यशोधर बाबू की आँखें नम हो गईं। कठिन शब्दों के अर्थ सिल्वर वैडिंग = विवाह की रजत जयंती जो कि विवाह के पच्चीस वर्ष बाद मनाई जाती है। निगाह = दृष्टि। सुस्त = धीमी। मातहत = अधीन। जूनियर = अधीन काम करने वाला। शुष्क = रूखा। निराकरण = समाधान । छोकरा = लड़का। पतलून = पैंट। बदतमीज़ी = अभद्र व्यवहार। चूनेदानी = पान खानों वालों द्वारा चूना रखने का बर्तन । धृष्टता = अशिष्टता। करेक्ट = सही। बाबा आदम का ज़माना = पुराना समय। नहले पर दहला = जैसे को तैसा, जवाब देना। दाद = प्रशंसा। वक्ता = बोलने वाले। ठठाकर = ज़ोर से हँसते हुए। ठीक-ठिकाना = सही व्यवस्था। चोंचले = बनावटी व्यवहार। इनसिस्ट = आग्रह। चुग्गे भर = पेट भरने योग्य । जुगाड़ = अस्थायी व्यवस्था। नगण्य = महत्त्वहीन। सेक्रेट्रिएट = सचिवालय। नागवार = अनुचित। निहायत = सर्वथा, एकदम। बेहूदा = अनुचित। अफोर्ड करना = सहन करना। इसरार = आग्रह। गप्प-गप्पाष्टक = बेकार की बातें। प्रवचन = धार्मिक व्याख्यान। रीत = प्रणाली। सिद्धांत के धनी = विचारों के पक्के। फिकरा = वाक्यांश। वजह = कारण । मदद = सहायता। पेंच = कारण। स्कॉलरशिप = छात्रवृत्ति। वर = विवाह के योग्य युवक। तरक्की = उन्नति। खुशहाली = संपन्नता। उपेक्षा = तिरस्कार का भाव। दिलासा देना = सांत्वना देना। तरफदारी करना = पक्ष लेना। मातृसुलभ = माताओं की स्वाभाविक मनोदशाएँ। मॉड = आधुनिक। गज़ब = आश्चर्यजनक। ताई = पिता के बड़े भाई की पत्नी। ढोंग-ढकोसला = आडंबरपूर्ण व्यवहार। अनदेखा करना = ध्यान न करना। कुल = वंश। परंपरा = मान्यताएँ। निःश्वास = लंबी साँस । डेडीकेट = समर्पित। रिटायर = सेवानिवृत्त। विरासत = उत्तराधिकार। उपकृत = जिस पर उपकार किया गया है। प्रस्ताव = पेशकश। बिरादर = जाति भाई। किस्म = तरह। खुराफात = विघ्न डालने वाले काम। सर = सिर। दुनियादारी = सांसारिकता। पुश्तैनी = पैतृक। बिरादरी = जाति। बाध्य करना = मजबूर करना। कर्मकांडी = पूजा-पाठ करने वाला। राजपाट = राजसिंहासन। बाट = पगडंडी। जनार्दन = ईश्वर। तबीयत खराब होना = अस्वस्थ होना। एकतरफा लगाव = एक तरफ की आसक्ति। गम = दुख। गवाई = गाँव के। निभ = निर्वाह करना। बुजुर्गियत = वृद्धावस्था का बड़प्पन । बुढ़याकाल = वृद्धावस्था। एनीवे = किसी तरह। प्रवचन = भाषण। इरादा = निश्चय । लहजा = ढंग, तरीका। हाज़िरी = उपस्थिति। भाऊ = बच्चा। अनुरोध = आग्रह। पट्टशिष्य = प्रिय शिष्य। निष्ठा = विश्वास, आस्था। जन्यो पुन्यूं = जनेऊ परिवर्तित करने वाली पूर्णिमा। कुमाउँनियों = कुमायूँ क्षेत्र के निवासियों। सख्त नापसंद = अत्यधिक अप्रिय लगना। बदतर = बुरी हालत। दुराग्रह = अनुचित हठ। बुजुर्ग = वृद्ध व्यक्ति। हरगिज़ = बिल्कुल। एक्सपीरिएंस = अनुभव। सबस्टीट्यूट = विकल्प। कुहराम = कोलाहल । नुक्ताचीनी = आलोचना। कारपेट = फर्श की दरी। कारोबार = धंधा। चौपट = नष्ट होना। कई मर्तबा = अनेक बार। इंप्रापर = अनुचित। तरफदारी करना = पक्ष लेना। खिजाब = सफेद बालों को काला करने वाला द्रव्य । एल.डी.सी. = लोअर डिवीजन क्लर्क। कदम = डग। माह = मासिक। नए दौर = नया युग। मिसाल = उदाहरण। भव्य = सुंदर। चचेरा भाई = चाचे का पुत्र। संपन्न = धनवान। हरचंद = बहुत अधिक। जताना = बताना, परिचित कराना। अनमनी = उदासी से भरा हुआ। आखिर = अंत। रवैया = व्यवहार। आमादा = तैयार। खिलाफ = विरुद्ध । लिमिट = सीमा। प्रेजेंट = तोहफा। इस्तेमाल = प्रयोग। Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज Textbook Exercise Questions and Answers. Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाजHBSE 12th Class Hindi श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज Textbook Questions and Answersपाठ के साथ प्रश्न 1. प्रश्न 2. आज भले ही समाज में भयंकर जाति-प्रथा है, लेकिन उसके बाद भी कोई ऐसी मजबूरी नहीं है कि वह अपने पैतृक व्यवसाय को छोड़कर नए पेशे को न अपना सके। आज जो लोग पैतृक व्यवसाय से जुड़े हैं वे अपनी इच्छा से जुड़े हुए हैं अथवा किसी अन्य व्यवसाय में योग्यता की कमी के कारण पैतृक व्यवसाय को अपनाए हुए हैं। प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. पाठ के आसपास प्रश्न 1. प्रश्न 2. इन्हें भी जानें आंबेडकर की पुस्तक जातिभेद का उच्छेद और इस विषय में गांधी जी के साथ उनके संवाद की जानकारी प्राप्त कीजिए। हिंद स्वराज नामक पुस्तक में गांधी जी ने कैसे आदर्श समाज की कल्पना की है, उसे भी पढ़ें। HBSE 12th Class Hindi श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न
10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर 1. ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ के लेखक का नाम क्या है? 2. डॉ० भीमराव आंबेडकर का जन्म कब हुआ? 3. भीमराव आंबेडकर का जन्म कहाँ पर हुआ? 4. महू किस राज्य में स्थित है? 5. डॉ० भीमराव
का जन्म किस परिवार में हुआ? 6. डॉ० भीमराव ने आरंभिक शिक्षा कहाँ प्राप्त की? 7. उच्चतर शिक्षा के लिए सर्वप्रथम वे कहाँ गए? 8. न्यूयॉर्क के बाद भीमराव ने कहाँ पर उच्च शिक्षा प्राप्त की? 9. किन विश्वविद्यालयों ने डॉ. आंबेडकर को विधि, अर्थशास्त्र एवं राजनीति विज्ञान में डिग्रियाँ प्रदान की? 10. किस समाज से डॉ० आंबेडकर का मोह भंग हो गया? 11. डॉ० आंबेडकर कब बौद्ध धर्म के मतानुयायी बने? 12. डॉ. आंबेडकर के साथ और
कितने लोग बौद्ध धर्म के मतानुयायी बने? 13. डॉ. आंबेडकर किस महान कवि से प्रभावित हुए थे? 14. डॉ० भीमराव आंबेडकर का देहांत कब हुआ? 15. डॉ० भीमराव
आंबेडकर ने किसके निर्माण में योगदान दिया? 16. भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय ने बाबा साहेब आंबेडकर के संपूर्ण वाङ्मय को कितने खंडों में विभाजित किया है? 17. बाबा भीमराव की रचना ‘जेनेसिस एंड डवेलपमेंट’ का प्रकाशन कब हुआ? 18. ‘द अनटचेबल्स, हू आर दे? का प्रकाशन किस वर्ष में हुआ? 19. बाबा भीमराव आंबेडकर द्वारा रचित ‘बुद्धा एंड हिज़ धम्मा’ कब प्रकाशित हुई? 20. ‘हू आर द शूद्राज़’ का प्रकाशन कब हुआ? 21. ‘थॉट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स’ का प्रकाशन कब हुआ? 22. बाबा भीमराव आंबेडकर द्वारा रचित ‘द प्रॉबल्म ऑफ़ द रुपी’ का प्रकाशन कब हुआ? 23. ‘द राइज़ एंड फॉल ऑफ द हिंदू वीमैन’ कब प्रकाशित हुई? 24. ‘एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ कब प्रकाशित हुई? 25. डॉ. आंबेडकर द्वारा रचित ‘लेबर एंड पार्लियामेंट्री डैमोक्रेसी’ किस वर्ष प्रकाशित हुई? 26. सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान को लेखक ने क्या कहा है? 27. जाति-प्रथा
व्यक्ति को जीवन भर के लिए किससे बाँध देती है? 28. लेखक ने भारतीय समाज में बेरोज़गारी और भुखमरी का क्या कारण बताया है? 29. आंबेडकर ने दूध और पानी के मिश्रण की तुलना किससे की है? 30. लेखक ने काल्पनिक जगत की वस्तु किसे कहा है? 31. लेखक के अनुसार हिन्दू
धर्म की जाति-प्रथा व्यक्ति को कौन-सा पेशा चुनने की अनुमति देती है? 32. कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने के लिए मजबूर करना क्या कहलाता है? 33. कौन-सा धर्म व्यक्ति को जाति-प्रथा के अनुसार पैतृक-काम अपनाने को मजबूर करता है? 34. स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित समाज को आंबेडकर ने कैसा समाज कहा है? 35. लेखक के अनुसार इस युग में किसके पोषकों की कमी नहीं है? 36. माता-पिता के आधार पर श्रम विभाजन करना किसकी देन है? 37. आदर्श समाज की विशेषता है 38. इस युग में ‘जातिवाद’ क्या है ? 39. बाबा साहेब आंबेडकर ने किस प्रकार के समाज की कल्पना की है? 40. लेखक ने भाईचारे के वास्तविक रूप को किसके मिश्रण की भाँति बताया है? 41. लेखक के अनुसार
दासता का संबंध किससे नहीं है? 42. किस क्रांति में ‘समता’ शब्द का नारा लगाया गया था? 43. बाबा साहेब के अनुसार किसके आधार पर समानता अनुचित है? 44. जाति-प्रथा के पोषक लोग किन जातियों से संबंधित हैं? 45. आर्थिक विकास के लिए जाति-प्रथा का परिणाम कैसा है? 46. श्रम के परंपरागत तरीकों में किस कारण से परिवर्तन हो रहा है? 47. पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में किसका प्रमुख एवं प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है? 48. आधुनिक युग में विडम्बना की बात क्या है? 49.
लेखक के अनुसार किस पहलू से जाति-प्रथा हानिकारक प्रथा है? 50. जाति-प्रथा मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा-रुचि व आत्म-शक्ति को दबाकर उसे
क्या बना देती है? 51. आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता के लिए किसे आवश्यक मानता है? 52. फ्रांसीसी क्रांति के नारे में कौन-सा शब्द विवाद का विषय रहा है? श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज प्रमुख गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या [1] यह विडंबना की ही बात है, कि इस युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं है। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है, कि आधुनिक सभ्य समाज ‘कार्य-कुशलता’ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है, कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंत किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता [पृष्ठ-153] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ में से उद्धृत है। इसके लेखक,भारतीय संविधान के निर्माता ० भीमराव आंबेडकर हैं। प्रस्तुत लेख में लेखक ने जाति-प्रथा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को स्वतंत्रता, समता तथा बंधुता से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। इस गद्यांश में लेखक यह कहना चाहता है कि जाति-प्रथा को श्रम विभाजन से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। व्याख्या-लेखक का कथन है कि हमारे लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आधुनिक युग में लोग जातिवाद का समर्थन करते हैं। जातिवाद का समर्थन करने वाले इसके लिए अनेक आधारों को खोजने की कोशिश करते हैं। उनके द्वारा जातिवाद का समर्थन करने का एक आधार यह बताया जाता है कि आज हमारा समाज सभ्य हो चुका है और कार्य-कुशलता के लिए श्रम का विभाजन नितांत आवश्यक है। जहाँ तक जाति-प्रथा का प्रश्न है यह श्रम विभाजन का ही एक अन्य रूप है। अतः जाति-प्रथा में कोई बुराई नज़र नहीं आती। भाव यह है कि जाति-प्रथा का समर्थन करने वाले लोग जाति-प्रथा को श्रम विभाजन से जोड़ने का प्रयास करते हैं। परंतु लेखक ने उनके इस मत के बारे में अनेक विपत्तियाँ उठाई हैं। उनका कहना है कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का रूप ले चुकी है। जहाँ तक श्रम विभाजन का प्रश्न है यह सभ्य समाज के लिए नितांत आवश्यक है परंतु संसार के किसी भी सभ्य समाज में श्रम के विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों के भिन्न-भिन्न वर्गों में बनावटी विभाजन नहीं करती। हमारे लिए दुःख की बात है कि जाति-प्रथा को हम श्रम विभाजन का आधार मान चुके हैं। यह समाज के लिए घातक है। भारत में प्रचलित जाति-प्रथा की एक अन्य विशेषता यह है कि यह न केवल श्रमिकों का अस्वाभाविक रूप से विभाजन करती है, बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे के मुकाबले में ऊँचा और नीचा घोषित कर देती है। परंतु ऊँच-नीच की यह प्रथा संसार के किसी भी समाज में प्रचलित नहीं है। केवल हमारे देश में ही श्रमिकों को विभिन्न वर्गों में बाँटकर ऊँच-नीच की खाई पैदा कर दी जाती है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) लेखक ने इस बात को विडंबना कहा है कि आज के वैज्ञानिक युग में हमारे देश में जातिवाद का समर्थन करने वालों की कमी नहीं है। वे लोग कार्य-कुशलता के लिए जाति-प्रथा को आवश्यक मानते हैं। (ग) लोगों का विचार है कि कार्य-कुशलता के लिए जातिवाद आवश्यक है। उनका कहना है कि जातियाँ कर्म के आधार पर बनाई गई हैं और ये कर्म का विभाजन करती हैं। अतः श्रम विभाजन के लिए जाति-प्रथा आवश्यक है। (घ) श्रम विभाजन का अर्थ है-मानव के लिए उपयोगी कामों का वर्गीकरण करना अर्थात प्रत्येक काम को कशलता से करने के लिए काम-धंधों का विभाजन करना । जैसे कोई खेती करता है, मजदूरी करता है, कोई फैक्ट्री चलाता है, कोई चिकित्सा करता है। (ङ) निश्चय ही जाति-प्रथा एक बुराई है क्योंकि यह श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिकों का भी विभाजन करती है। जाति-प्रथा मानव को जन्म से ही किसी व्यवसाय से जोड़ देती है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि मानव अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार काम नहीं कर पाता। यह इसलिए भी बुराई है क्योंकि इससे समाज में ऊँच-नीच का भेद-भाव उत्पन्न हो जाता है। (च) जन्म के आधार पर काम-धंधा तय करना, केवल भारत में ही प्रचलित है। यह व्यवस्था ऊँच-नीच को जन्म देती है। भारत के अतिरिक्त यह पूरे संसार में कहीं भी प्रचलित नहीं है। [2] जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व एकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है। [पृष्ठ-153-154] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ से उद्धृत है। इसके लेखक डॉ० भीमराव आंबेडकर हैं। प्रस्तुत लेख में लेखक ने जाति-प्रथा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को स्वतंत्रता, समता तथा बंधुता से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। यहाँ लेखक स्पष्ट करता है कि जाति-प्रथा मानव को जीवन भर के लिए एक ही पेशे से बाँध देती है। व्याख्या-लेखक का कथन है कि जाति-प्रथा मनुष्य के पेशे का दोषपूर्ण निर्धारण पहले से ही निश्चित कर देती है और वह आजीवन उस पेशे से बँध जाता है। भले ही वह पेशा उसके लिए उचित न हो, पर्याप्त न हो। यह भी संभव है कि वह व्यक्ति उस पेशे के कारण भूखा मर जाए। आज के युग में यह स्थिति अकसर देखी जाती है। कारण यह है कि देश में उद्योग-धंधों और तकनीक का या तो लगातार विकास होता रहता है अथवा कभी उसमें अचानक बदलाव आ जाता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य को मजबूर होकर अपना पेशा बदलना पड़ता है। इसके विपरीत हालातों में भी मनुष्य को अपना व्यवसाय बदलने की आज़ादी न हो तो उसके पास भूखा मरने की बजाय कोई अन्य रास्ता नहीं रह जाता। हिंदू धर्म में जाति-प्रथा का बोल-बाला है। किसी भी आदमी को ऐसा पेशा चुनने की आजादी नहीं दी जाती जो उसे पिता से प्राप्त न हुआ हो। भले ही वह उस पेशे में कितना भी प्रवीण क्यों न हो फिर भी वह उस पेशे को नहीं अपना सकता। जब जाति-प्रथा व्यक्ति को पेशा बदलने की आज्ञा नहीं देती तो भारत में बेरोजगारी तो बढ़ेगी ही। अतः जाति-प्रथा भारत में बढ़ती बेरोज़गारी का एक प्रमुख कारण है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) जब उद्योग-धंधों की प्रक्रिया या तकनीक में अचानक परिवर्तन आ जाए या उसका विकास अवरुद्ध हो जाए तो मनुष्य को अपना पेशा बदलना पड़ सकता है। (ग) यदि मनुष्य को पेशा बदलने की आज़ादी न हो और उसके पेशे की माँग में कमी आ जाए तो उसे भूखा मरना पड़ सकता है। (घ) हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी मनुष्य को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती जो उसका पैतृक पेशा न हो। यह व्यवस्था सर्वथा अनुचित है। (ङ) भारत में जाति-प्रथा मनुष्य को पेशा परिवर्तन की अनुमति नहीं देती। अतः यह जाति-प्रथा बेरोज़गारी को बढ़ावा देती है और यह बेरोज़गारी का प्रमुख कारण भी है। [3] श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाति-प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता। ‘पूर्व लेख’ ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत से लोग ‘निर्धारित’ कार्य को ‘अरुचि’ के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। [पृष्ठ-154] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ में से अवतरित है। इसके लेखक भारतीय संविधान के निर्माता डॉ० भीमराव आंबेडकर हैं। प्रस्तुत लेख में लेखक ने जाति-प्रथा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को स्वतंत्रता, समता तथा बंधुता से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। यहाँ लेखक स्पष्ट करता है कि श्रम विभाजन की दृष्टि से जाति-प्रथा में अनेक दोष देखे जा सकते हैं क्योंकि जाति-प्रथा के द्वारा बनाया गया श्रम विभाजन मनुष्य की इच्छा व रुचि को नहीं देखता। व्याख्या-लेखक पुनः कहता है कि जहाँ तक श्रम विभाजन का प्रश्न है, इसकी दृष्टि से भी जाति-प्रथा में अनेक गंभीर दोष देखे जा सकते हैं। जाति-प्रथा जो श्रम का विभाजन करती है, उसमें मनुष्य की इच्छा को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। मनुष्य के अपने निजी विचार क्या हैं; उसकी अपनी रुचि किस काम में है? इसके बारे में जाति-प्रथा में किया गया श्रम विभाजन कुछ नहीं करता। भाव यह है कि मनुष्य की व्यक्तिगत भावनाओं और रुचियों को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता, बल्कि जाति-प्रथा पूर्व जन्म य में लिखे हए को अधिक महत्त्व देती है। लेखक पनः कहता है कि आज हमारे देश में उद्योगों में गरीबी और शोषण इतनी गंभीर समस्या नहीं है जितनी कि अनेक लोगों को मजबूर होकर ऐसे काम करने पड़ते हैं जिनमें उनकी रुचि नहीं है और ये काम समाज द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। इन हालातों में मनुष्य में बुरी भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। वह या तो टाल-मटोल करता है या बहुत कम काम,करता है। इन हालातों में काम करने वालों का न तो उस काम में दिल लगता है और न ही वे दिमाग लगाकर काम करते हैं। अतः वे अपने काम में प्रवीणता प्राप्त नहीं कर सकते। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि जाति-प्रथा आर्थिक दृष्टि से समाज के लिए घातक है। कारण यह है कि जाति-प्रथा मनुष्य की स्वाभाविक बढ़ावा देने वाली रुचि और अंदर की शक्ति को दबा देती है और मानव अस्वाभाविक नियमों में बँध जाता है और वह बेकार हो जाता है। अतः जाति-प्रथा समाज के लिए सबसे बड़ी हानिकारक प्रथा है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) पूर्व लेख के आधार पर श्रम विभाजन का अभिप्राय है कि जन्म के आधार पर मनुष्य के पेशे का निर्णय करना अर्थात् यह सोचना कि मनुष्य को पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ही प्रतिफल मिलना चाहिए। (ग) श्रम के क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोगों को अपनी इच्छा व रुचि के अनुसार काम नहीं दिया जाता। उन्हें मजबूर होकर वह काम करना पड़ता है जो वे नहीं करना चाहते। इससे काम की उत्पादक शक्ति घट जाती है। (घ) कार्य निर्धारित होने का सबसे बुरा परिणाम यह होता है कि श्रमिक काम में रुचि नहीं लेता। वह काम को बोझ समझता है इसलिए काम के प्रति उसके मन में दुर्भावना उत्पन्न हो जाती है। वह टाल-मटोल की नीति को अपनाता है तथा दिल-दिमाग से उस काम को नहीं करता। (ङ) कार्य-कुशलता को बढ़ाने के लिए यह जरूरी है कि प्रत्येक मनुष्य को उसकी रुचि के अनुसार काम दिया जाए बल्कि उसे अपनी इच्छा से व्यवसाय ढूँढने का मौका दिया जाए। (च) आर्थिक दृष्टि से जाति-प्रथा अत्यधिक हानिकारक है। इस प्रथा के फलस्वरूप लोगों को पैतृक काम-धंधा करना पड़ता है जिसमें उनकी रुचि नहीं होती। वे दिल और दिमाग से उस काम को नहीं करते, जिससे न तो कार्य में कुशलता आ सकती है और न ही उत्पादकता बढ़ सकती है। [4] मेरा आदर्श-समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित होगा। क्या यह ठीक नहीं है, भ्रातृता अर्थात भाईचारे में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? किसी भी आदर्श-समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे तक संचारित हो सके। ऐसे समाज के बहुविधि हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। तात्पर्य यह है कि दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है। क्योंकि लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इनमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो। [पृष्ठ-154-155] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ में से उद्धृत है। इसके लेखक भारतीय संविधान के निर्माता डॉ० भीमराव आंबेडकर हैं। इस लेख में लेखक ने जाति-प्रथा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को स्वतंत्रता, समता तथा बंधुता से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। इस गद्यांश में लेखक ने आदर्श समाज की चर्चा की है। व्याख्या-लेखक कहता है कि मेरा आदर्श समाज ऐसा होगा जिसमें स्वतंत्रता, समानता और आपसी भाई-चारा होगा। लेखक का विचार है कि भाई-चारे में किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यह कुछ सीमा तक उचित भी है। आदर्श समाज में इतनी अधिक गतिशीलता होनी चाहिए ताकि उसमें आवश्यक परिवर्तन समाज के एक किनारे से दूसरे किनारे तक व्याप्त हो सके अर्थात् गतिशीलता से ही समाज में परिवर्तन आता है। इस प्रकार के आदर्श समाज के अनेक प्रकार के लाभों में सबको योगदान देना चाहिए। सभी को उन लाभों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में बिना किसी बाधा के आपसी संबंध होने चाहिएँ। इसके लिए सभी को साधन और अवसर प्राप्त होने चाहिएँ। भाव यह है कि भाईचारा दूध और पानी की तरह होना चाहिए। सच्चा भाईचारा ऐसा ही होता है। इसे हम लोकतंत्र भी कहते हैं। लेखक का कहना है कि लोकतंत्र शासन की एक व्यवस्था नहीं है, बल्कि लोकतंत्र सामाजिक जीवन जीने की एक पद्धति है और समाज के सभी अनुभवों के आदान-प्रदान का तरीका है। परंतु इसमें यह भी जरूरी है कि इसमें लोगों की अपने मित्रों के प्रति श्रद्धा और आदर की भावना भी उत्पन्न हो। नहीं तो भाईचारा सफल नहीं हो पाएगा और न ही लोकतंत्र। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) लेखक समाज में इस प्रकार का भाईचारा चाहता है जिसमें लोगों के बीच बिना बाधा के संपर्क हो। उस भाईचारे में न तो कोई बंधन हो, न जड़ता और न ही रूढ़िवादिता, बल्कि गतिशीलता होनी चाहिए। जैसे दूध और पानी मिलकर एक हो जाते हैं वैसे लोगों को मिलकर एक हो जाना चाहिए। (ग) लेखक भाईचारे का दूसरा नाम लोकतंत्र को मानता है। उसका विचार है कि लोकतंत्र केवल शासन पद्धति नहीं है, बल्कि सामूहिक जीवन जीने का ढंग है। सच्चा लोकतंत्र वही है जिसमें लोग परस्पर अनुभवों का आदान-प्रदान करते हैं और दूसरे का उचित सम्मान करते हैं। (घ) लेखक ने समाज में गतिशीलता का मत यह लिया है कि लोगों में परस्पर निर्बाध संपर्क हो, सहभागिता हो और सबकी रक्षा करने की जागरूकता हो। लोग दूध-पानी के समान मिले हुए हों और एक-दूसरे के प्रति श्रद्धा तथा सम्मान का भाव रखते हों। (ङ) गतिशीलता, अबाध संपर्क तथा दूध-पानी के मिश्रण में सबसे बड़ी समानता यह है कि लोगों में उदारतापूर्वक मेल-मिलाप हो। जिस प्रकार दूध और पानी मिलकर एक हो जाते हैं उसी प्रकार लोग जाति-पाँति के बंधनों को त्यागकर गतिशील रहते हुए परस्पर संपर्क करें और एक-दूसरे का सम्मान करें। [5] जाति-प्रथा के पोषक, जीवन, शारीरिक-सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु मनुष्य के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए जल्दी तैयार नहीं होंगे, क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्रता का अर्थ होगा अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता किसी को नहीं है, तो उसका अर्थ उसे ‘दासता’ में जकड़कर रखना होगा, क्योंकि ‘दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता। ‘दासता’ में वह स्थिति भी सम्मिलित है जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाई जा सकती है। उदाहरणार्थ, जाति-प्रथा की तरह ऐसे वर्ग होना संभव है, जहाँ कुछ लोगों की अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं। [पृष्ठ-155] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ में से अवतरित है। इसके लेखक भारतीय संविधान के निर्माता डॉ० भीमराव आंबेडकर हैं। प्रस्तुत लेख में लेखक ने जाति-प्रथा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को स्वतंत्रता, समता, बंधुता से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। यहाँ लेखक कहता है कि जाति-प्रथा के पोषक जीवन, शारीरिक सुरक्षा और संपत्ति के अधिकार को तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु मानव की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करेंगे। व्याख्या-लेखक का कथन है कि जो लोग जाति-प्रथा का समर्थन करते हैं, वे जीवन की शारीरिक-सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को तो प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लेंगे। इस प्रवृत्ति के प्रति उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी, लेकिन मानव के समर्थ तथा प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए वे आसानी से तैयार नहीं होंगे अर्थात् जाति-प्रथा के पोषक यह कदापि नहीं मानेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति को मानव समझकर उसे स्वतंत्रता का प्रभावशाली प्रयोग करने दिया जाए। कारण यह है कि इस प्रकार की स्वतंत्रता का मतलब यह है कि अपना व्यवसाय चुनने की आजादी किसी को नहीं है, बल्कि इसका मतलब है समाज के छोटे वर्ग को गुलामी में जकड़कर रखना। लेखक का कथन है कि केवल कानूनी पराधीनता को दासता नहीं कहा जा सकता । दासता में वो स्थिति भी शामिल है जिसमें कुछ लोगों को अन्य लोगों के द्वारा निश्चित किए गए व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। भाव यह है कि समाज का उच्च वर्ग निम्न वर्ग के लिए व्यवहार को निर्धारित करने और कुछ कार्यों का पालन करने के लिए मजबूर करे तो यह भी दासता ही कही जाएगी। समाज में इस प्रकार की स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी समाज में उपलब्ध हो सकती है।। उदाहरण के रूप में जाति-प्रथा के समाज में लोगों का ऐसा वर्ग भी हो सकता है जिन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे को अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) कुछ लोगों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने के लिए मजबूर करना ही दासता कहलाता है। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि जाति-प्रथा के आधार पर जो कर्त्तव्य लोगों के निर्धारित किए जाते हैं वे दासता के ही लक्षण हैं। (ग) जाति-प्रथा के कारण समाज में कुछ ऐसे वर्ग भी हैं जिन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं, परंतु यह कानूनी पराधीनता न होकर भी सामाजिक पराधीनता तो अवश्य है। उदाहरण के रूप में सफाई कर्मचारियों को सफाई का काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। उन्हें कोई और काम नहीं दिया जाता। (घ) जाति-प्रथा का पोषण करने वाले लोग मानव को पेशा (व्यवसाय) चुनने की स्वतंत्रता देने के विरुद्ध हैं। विशेषकर उच्च जाति के लोग इसका निरंतर विरोध करते रहते हैं। वे स्वयं तो ऊँचे कार्य करना चाहते हैं और समाज में श्रेष्ठ कहलाना चाहते हैं, परंतु छोटी जातियों को ऊपर उठने का अवसर प्रदान नहीं करते। [6] ‘समता’ का औचित्य यहीं पर समाप्त नहीं होता। इसका और भी आधार उपलब्ध है। एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय, राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी ही होती है, जिससे वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार पर वांछित व्यवहार अलग-अलग कर सके। वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूर्ण क्यों न हो, ‘मानवता’ के दृष्टिकोण से समाज दो वर्गों व श्रेणियों में नहीं बाँटा जा सकता। ऐसी स्थिति में, राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है, कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। राजनीतिज्ञ यह व्यवहार इसलिए नहीं करता कि सब लोग समान होते, बल्कि इसलिए कि वर्गीकरण एवं श्रेणीकरण संभव होता। [पृष्ठ-156] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ में से उद्धृत है। इसके लेखक भारतीय संविधान के निर्माता डॉ० भीमराव आंबेडकर हैं। प्रस्तुत लेख में लेखक ने जाति-प्रथा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को स्वतंत्रता, समता, बंधुता से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। यहाँ लेखक ने समता के औचित्य पर समुचित प्रकाश डाला है। व्याख्या-लेखक का कथन है कि समता का औचित्य बहुत व्यापक है। यह यहीं पर समाप्त नहीं हो जाता। इसके अन्य आधार भी देखे जा सकते हैं। एक राजनेता को असंख्य लोगों से मिलना पड़ता है। अपने हलके के लोगों से मिलते समय, व्यवहार करते समय.उसके पास इतना अधिक समय नहीं होता कि वह प्रत्येक व्यक्ति के विषय की जानकारी प्राप्त करे। न ही वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं और क्षमताओं को जान सकता है और न ही सबके साथ अलग-अलग आवश्यक व्यवहार कर सकता है। यदि गहराई से देखा जाए तो लोगों की आवश्यकताओं और क्षमताओं को आधार बनाकर भिन्न-भिन्न व्यवहार करना उचित नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा करने से हम मानवता की दृष्टि से समाज को दो वर्गों तथा श्रेणियों में विभक्त कर देंगे जोकि किसी भी प्रकार से सही नहीं कहा जा सकता। ऐसी स्थिति में राजनेता को अपने व्यवहार में एक ऐसे सिद्धांत को अपनाना होता है जो सबके लिए उपयोगी और व्यवहार्य हो और वह सिद्धांत यही है कि एक क्षेत्र के सभी लोगों के साथ एक-सा व्यवहार किया जाए। राजनेता यह व्यवहार इसलिए नहीं करता कि सभी लोग समान होते हैं, बल्कि इसलिए करता है कि उसके लिए लोगों का वर्गीकरण तथा श्रेणीकरण संभव होता है। लेखक के कहने का भाव यह है कि राजनेता को अपने सभी मतदाताओं के साथ एक-सा व्यवहार करना चाहिए, उसे किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) राजनीतिज्ञ को सबके साथ इसलिए समान व्यवहार करना पड़ता है क्योंकि उसका संपर्क असंख्य लोगों के साथ होता है। उसके लिए सबकी क्षमताओं और आवश्यकताओं को जान पाना संभव नहीं है। इसलिए उसे मजबूर होकर सबके साथ एक-जैसा व्यवहार करना पड़ता है। (ग) सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार को ही लेखक ने व्यवहार्य कहा है क्योंकि इस सिद्धांत के द्वारा वह सबके साथ एक जैसा व्यवहार कर सकता है। (घ) राजनीतिज्ञ सबके साथ एक-समान व्यवहार इसलिए नहीं कर पाता क्योंकि सभी लोग समान नहीं होते, बल्कि उनमें वर्गीकरण और श्रेणीकरण की संभावना बनी रहती है। श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज Summary in Hindiश्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज लेखिका-परिचय प्रश्न- डॉ० आंबेडकर ने अपने चिंतन तथा रचनात्मकता के लिए बुद्ध एवं कबीर से प्रेरणा प्राप्त की। जातिवाद से संघर्ष करते हुए उनका हिंदू समाज से मोह-भंग हो गया। अतः 14 अक्तूबर, 1956 को अपने पाँच लाख अनुयायियों के साथ वे बौद्ध धर्म के मतानुयायी बन गए। वे भारतीय संविधान के निर्माता थे। यही कारण है कि उनको ‘भारत रत्न’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। 6 दिसंबर, 1956 को दिल्ली में इस महान समाजशास्त्री का देहांत हो गया। 2. प्रमुख रचनाएँ-‘दें कास्ट्स इन इंडिया’, ‘देयर मेकेनिज्म’, ‘जेनेसिस एंड डेवलपमेंट’ (1917, प्रथम प्रकाशित कृति), ‘द अनटचेबल्स’, ‘हू आर दे?’ (1948), ‘हू आर द शूद्राज़’ (1946), ‘बुद्धा एंड हिज़ धम्मा’ (1957), ‘थाट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स’ (1955), ‘द प्रॉब्लम ऑफ़ द रुपी’ (1923), ‘द एबोलुशन ऑफ़ प्रोविंशियल फायनांस इन ब्रिटिश इंडिया’ (पीएच.डी. की थीसिस, 1916), ‘द राइज़ एंड फॉल ऑफ़ द हिंदू वीमैन’ (1965), ‘एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ (1936), ‘लेबर एंड पार्लियामेंट्री डैमोक्रेसी’ (1943), ‘बुद्धिज्म एंड कम्युनिज्म’ (1956), (पुस्तकें व भाषण) ‘मूक नायक’, ‘बहिष्कृत भारत’, ‘जनता’ (पत्रिका-संपादन), हिंदी में उनका संपूर्ण वाङ्मय भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय से बाबा साहब आंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय नाम से 21 खंडों में प्रकाशित हो चुका है। 3. साहित्यिक विशेषताएँ-डॉ० भीमराव आंबेडकर लोकतंत्रीय शासन-व्यवस्था के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने अपने साहित्य के द्वारा भारतीय समाज में व्याप्त जाति-प्रथा तथा छुआछूत का उन्मूलन करने का भरसक प्रयास किया। यही नहीं, उन्होंने जाति-प्रथा का विरोध करते हुए समाज में व्याप्त शोषण का भी विरोध किया। अछूतों के प्रति उनके मन में अत्यधिक सहानुभूति की भावना थी। वे आजीवन समाज के निचले तबके के लोगों के हक के लिए संघर्ष करते रहे। महात्मा बुद्ध, संत कबीर और ज्योतिबा फुले ने उनकी विचारधारा को अत्यधिक प्रभावित किया। वस्तुतः वे इस प्रकार के लोकतंत्र की स्थापना करना चाहते थे जिसमें न तो जाति-पाँति का भेदभाव हो और न ही कोई छोटा-बड़ा हो, बल्कि सभी समान हों। यही कारण है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में समकालीन समाज की विसंगतियों, विडंबनाओं, छुआछूत, जाति-प्रथा का यथार्थ वर्णन किया। प्रस्तुत निबंध ‘श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा’ उनकी निबंध-कला का श्रेष्ठ उदाहरण है जिसमें उन्होंने जाति-प्रथा जैसे विषय को स्वतंत्रता, समता और भाईचारे से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। 4. भाषा-शैली-डॉ० आंबेडकर ने अंग्रेज़ी तथा हिंदी दोनों भाषाओं में उच्चकोटि के साहित्य का निर्माण किया है। जहाँ तक हिंदी भाषा का प्रश्न है उसमें उन्होंने तत्सम एवं तद्भव शब्दों के अतिरिक्त उर्दू, फारसी तथा अंग्रेज़ी के शब्दों का भी सुंदर मिश्रण किया है। उनकी भाषा सहज, सरल तथा बोधगम्य है। जहाँ कहीं वे गंभीर विषय का वर्णन करते हैं, वहाँ उनकी भाषा भी गंभीर बन जाती है। शब्द-चयन एवं वाक्य-विन्यास पूर्णतया भावानुकूल तथा प्रसंगानुकूल है। उन्होंने प्रायः विचारात्मक, वर्णनात्मक, चित्रात्मक तथा व्यंग्यात्मक शैलियों का प्रयोग किया है। जहाँ कहीं वे सामाजिक विसंगतियों का खंडन करते हैं, वहाँ उनका व्यंग्य तीखा और चुभने वाला बन गया है। श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज पाठ का सार प्रश्न- बसे बडा दोष यह है कि यह लोगों को एक पेशे से जोड देती है। इसके कारण यदि किसी उद्योग-धंधे में तकनीकी विकास के कारण परिवर्तन हो जाता है तो लोगों को भूखा मरना पड़ता है समाज में पेशा न बदलने के कारण बेरोज़गारी की समस्या उत्पन्न होती है। जाति-प्रथा के आधार पर जो श्रम-विभाजन किया जाता है, वह स्वेच्छा पर निर्भर नहीं होता। न ही इसमें व्यक्ति की रुचि को देखा जाता है, बल्कि माता-पिता के सामाजिक स्तर और पूर्व लेख को महत्त्व दिया जाता है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि लोगों को मजबूर होकर वे काम करने पड़ते हैं जिनमें उनकी रुचि नहीं होती। ऐसे लोगों में टालू मानसिकता उत्पन्न हो जाती है। जो काम उनकी रुचि के अनुसार नहीं होता उसमें उनका दिल-दिमाग नहीं लगता। इसलिए हम कह सकते हैं कि जाति-प्रथा मनुष्य की प्रेरणा, रुचि को दबाती है और उन्हें निष्क्रिय बनाती है। बाबा साहेब एक आदर्श समाज की कल्पना करते हैं। वे ऐसा समाज विकसित करना चाहते हैं जिसमें स्वतंत्रता, समता तथा भ्रातृभाव हो। भ्रातभाव में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हमारा समाज गतिशील होना चाहिए ताकि वांछित परिवर्तन समाज में तत्काल व्याप्त हो जाएँ। इस प्रकार के समाज में सभी लोगों का सभी कार्यों में समभाग होना चाहिए। ऐसा होने पर सब सबके प्रति सजग होंगे और सबको सामाजिक साधन और अवसर प्राप्त होंगे। लेखक का कहना है कि भाईचारा दूध और पानी की तरह मिला होना चाहिए। इसी को वे लोकतंत्र का नाम देते हैं। उनका विचार है कि लोकतंत्र शासन की पद्धति नहीं है, बल्कि सामूहिक जीवनचर्या और अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम ही लोकतंत्र है। इसमें अपने साथी मनुष्यों के प्रति सम्मान तथा श्रद्धा की भावना होनी चाहिए। यह आदान-प्रदान जीवन और शारीरिक सुरक्षा का विरोध नहीं करता। हम संपत्ति अर्जित कर सकते हैं, आजीविका के लिए औजार बना सकते हैं तथा घर के लिए जरूरी सामान रख सकते हैं। इस अधिकार पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। दुःख इस बात का है कि मानव को सुखी बनाने के लिए प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के अधिकार के लिए सभी लोग तैयार नहीं होते। क्योंकि इसी के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता मिल जाती है। यदि यह स्वतंत्रता नहीं मिलती तो मनुष्य अभावों के कारण दास बन जाता है। दासता का संबंध कानून से नहीं है। यदि मनुष्य को दूसरों द्वारा निर्धारित व्यवहार तथा कर्तव्यों का पालन करना पड़े तो वह भी दासता कही जाएगी। जाति-प्रथा का सबसे बड़ा दोष यह है कि मनुष्य को अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशा अपनाना पड़ता है। फ्रांसीसी क्रांति में ‘समता’ शब्द का नारा लगाया गया था। परंतु यह शब्द काफी विवादास्पद रहा है। जो लोग समता की आलोचना करते हैं कि सभी मनुष्य एक-समान नहीं होते भले ही यह एक सच्चाई है, परंतु यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। समता भले ही असंभव सिद्धांत है, लेकिन यह एक नियामक सिद्धांत भी है। मनुष्य की क्षमता शारीरिक वंश-परंपरा, सामाजिक उत्तराधिकार तथा मनुष्य के अपने प्रयत्नों पर निर्भर है। इन तीनों दृष्टियों से मनुष्य समान नहीं होते। यदि ऐसी स्थिति है तो भी समाज को ऐसे लोगों के साथ असमान व्यवहार नहीं करना चाहिए, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता विकसित करने के लिए नए प्रयास करने चाहिएँ। बाबा साहेब का यह भी कहना है कि वंश-परंपरा और सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर असमानता अनुचित है। यदि यह असमानता की जाएगी तो उसमें केवल सुविधाभोगी लोगों को ही लाभ पहुँचेगा। ‘प्रयत्न’ मानव के अपने वश में हैं। परंतु वंश-परंपरा और सामाजिक प्रतिष्ठा उसके हाथ में नहीं है। इसलिए वंश-परम्परा और सामाजिक उत्तराधिकार के नाम पर असमान व्यवहार करना सरासर गलत है। अन्य शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि समाज के सभी सदस्यों को अपनी-अपनी योग्यतानुसार अवसर प्राप्त होने चाहिएँ और समान अवसरों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। जहाँ तक राजनेताओं का प्रश्न है, उनका वास्ता अनेक लोगों से पड़ता है, परंत उनके पास इतना समय नहीं होता कि वे सबके बारे में जानकारी प्राप्त करें तथा आवश्यकताओं और क्षमताओं को जानें। राजनेताओं के लिए यह व्यवहार्य सिद्धांत उपयोगी है कि वे मानवता का पालन करते हुए समाज को दो वर्गों और श्रेणियों में विभाजित न करें। उन्हें सबके साथ समान व्यवहार करना चाहिए, परंतु व्यवहार में ऐसा हो नहीं पाता। राजनीतिज्ञों को सबके साथ एक-सा व्यवहार इसलिए करना चाहिए क्योंकि वर्गीकरण तथा श्रेणीकरण करने में न केवल उनकी व्यक्तिगत हानि है, बल्कि समाज की भी हानि है। भले ही समता एक काल्पनिक वस्तु है फिर भी राजनीतिज्ञ को सभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए समता का पालन करना चाहिए। यह व्यावहारिक भी है और उसके व्यवहार की एकमात्र कसौटी भी है। कठिन शब्दों के अर्थ श्रम-विभाजन = मानवकृत कामों के लिए अलग-अलग श्रेणियाँ बनाना। विडंबना = दुर्भाग्य । पोषक = पुष्ट करने वाला। अस्वाभाविक = कृत्रिम (बनावटी)। श्रमिक = मज़दूर। समर्थन = सहमति। करार देना = घोषित करना। सक्षम = समर्थ । पेशा = धंधा। अनुपयुक्त = जो उचित नहीं है। प्रतिकूल = विपरीत। दूषित = दोषपूर्ण। प्रशिक्षण = शिक्षण देना। निर्विवाद = बिना किसी विवाद के। निजी = अपना। स्तर = श्रेणी (अवस्था)। निर्धारित करना = तय करना। निष्क्रिय = क्रियाहीन । प्रक्रिया = पद्धति। अकस्मात = अचानक। अनुमति = सहमति। पैतक = पिता से प्राप्त। प्रत्यक्ष = आँखों के समक्ष । स्वेच्छा = अपनी इच्छा से। पूर्वलेख = जन्म से पहले भाग में लिखा हुआ। उत्पीड़न = शोषण। दुर्भावना = बुरी भावना। प्रेरणा = रुचि (बढ़ावा देने वाली रुचि)। खेदजनक = दुखदायी। नीरस गाथा = उबाने वाली कथा या प्रसंग। भ्रातृता = भाईचारा। छोर = किनारा । गतिशीलता = आगे बढ़ने की प्रवृत्ति । बहुविध = अनेक प्रकार का। हित = स्वार्थ। सजग = सचेत। अबाध = बिना किसी बाधा के। पद्धति = तरीका। जीवनचर्या = जीवन जीने की पद्धति । गमनागमन = आना-जाना। स्वाधीनता = स्वतंत्रता। जीविकोपार्जन = जीवन के साधन जुटाना। समक्ष = सामने। पराधीनता = गुलामी। तथ्य = सच्चाई। नियामक सिद्धांत = दिशा देने वाला विचार। उत्तराधिकार = पूर्वजों से मिला अधिकार। ज्ञानार्जन = ज्ञान प्राप्त करना। निःसंदेह = बिना शक के। बाजी मार लेना = विजय प्राप्त करना। उत्तम = श्रेष्ठ । कुल = परिवार । ख्याति = प्रसिद्धि । पैतृक संपदा = पिता से प्राप्त संपत्ति। व्यावसायिक प्रतिष्ठा = व्यवसाय सम्बन्धी सम्मान। निष्पक्ष निर्णय = बिना पक्षपात के फैसला। तकाज़ा = आवश्यकता। व्यवहार्य = व्यावहारिक। वर्गीकरण = वर्गों में विभक्त करना। कसौटी = जाँच का आधार। Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 17 शिरीष के फूल Textbook Exercise Questions and Answers. Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 17 शिरीष के फूलHBSE 12th Class Hindi शिरीष के फूल Textbook Questions and Answersपाठ के साथ प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. (ख) जो कवि अपने कवि-कर्म में लाभ-हानि, राग-द्वेष, सुख-दुख, यश-अपयश की परवाह न करके जीवन-यापन करता है, वही सच्चा कवि कहा जा सकता है। इसके विपरीत जो कवि अनासक्त नहीं रह सकता, मस्त-मौला नहीं बन सकता, बल्कि जो अपने कविता के परिणाम, लाभ-हानि के चक्कर में फँस जाता है, वह सच्चा कवि नहीं कहा जा सकता। लेखक का विचार है कि सच्चा कवि वही है जो मस्त मौला है। जिसे न तो सुख-दुःख की, न ही हानि-लाभ की और न ही यश-अपयश की चिंता है। (ग) कोई फल या पेड़ स्वयं अपने आप में लक्ष्य नहीं है, बल्कि वह तो एक ऐसी अंगुली है जो किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए इशारा कर रही है। वह पेड़ या फल हमें यह बताने का प्रयास करता है कि उसे उत्पन्न करने वाली अथवा बनाने वाली कोई और शक्ति है। हमें उसे जानने का प्रयास करना चाहिए। पाठ के आसपास प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. भाषा की बात प्रश्न 1.
HBSE 12th Class Hindi शिरीष के फूल Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर 1. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म कब हुआ? 2. द्विवेदी जी का जन्म किस गाँव में हुआ? 3. द्विवेदी जी के पिता का नाम क्या था? 4.
द्विवेदी जी ने किस वर्ष शास्त्राचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की? 5. द्विवेदी जी किस ग्रंथ का नियमित रूप से पाठ किया करते थे? 6. द्विवेदी जी की नियुक्ति शांति निकेतन में कब हुई? 7. शांति निकेतन में द्विवेदी जी किस पद पर नियुक्त हुए? 8. शांति निकेतन में अध्यापन करने के बाद द्विवेदी जी किस
विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए? 9. पंजाब विश्व-विद्यालय में द्विवेदी जी किस पद पर नियुक्त हुए? 10. द्विवेदी जी किस पीठ पर आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए? 11. भारत सरकार ने द्विवेदी जी को किस उपाधि से अलंकृत किया? 12. द्विवेदी जी का देहांत किस वर्ष हुआ? 13. द्विवेदी जी की रचना ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ किस विधा की रचना है? 14. ‘अशोक के फूल’ किस विधा की रचना है? 15. ‘नाथ संप्रदाय’ किस विधा की रचना है? 16. ‘विचार और वितर्क’ किस विधा की रचना है? 17. ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के अतिरिक्त द्विवेदी जी ने कौन-सा उपन्यास लिखा है? 18. ‘अशोक के फूल’, ‘विचार-प्रवाह’, ‘विचार और वितर्क’ के अतिरिक्त
द्विवेदी जी का और कौन-सा निबंध-संग्रह है? 19. इनमें से कौन-सा समीक्षात्मक ग्रंथ द्विवेदी जी का नहीं है? 20. ‘शिरीष के फूल’ के रचयिता का क्या नाम है? 21. आरग्वध किस पेड़ का नाम है? 22. अमलतास कितने दिनों के लिए फलता है? 23. किस ऋतु के आने पर शिरीष लहक उठता है? 24. किस
महीने तक शिरीष के फूल मस्त बने रहते हैं? 25. शिरीष की समानता का उपमान है 26. शिरीष को कैसा कहा गया है? 27. शिरीष की डालें कैसी होती हैं? 28. द्विवेदी जी
ने ‘शिरीष के फूल’ नामक पाठ में संस्कृत के किस महान कवि का उल्लेख किया है? 29. शिरीष के फल किस प्रकार के होते हैं? 30. ‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!’ यह कथन किस कवि का है? 31. ‘एक कवि ब्रह्मा थे, दूसरे वाल्मीकि और तीसरे व्यास’-यह गर्वपूर्वक किसने कहा था? 32. शिरीष का वृक्ष कहाँ से अपना रस खींचता है? 33. लेखक ने किस भक्तिकालीन कवि की तुलना अवधूत के साथ की है? 34. पुराने कवि किस पेड़ में दोलाओं को लगा देखना चाहते थे? 35. आधुनिक हिन्दी काव्य में अनासक्त कवि हैं 36. लेखक ने कबीर के अतिरिक्त और किस कवि को अनासक्त योगी कहा है? 37. ‘शिरीष के फूल’ पाठ में महाकाल देवता द्वारा सपासप क्या चलाने की बात कही है? 38. बांग्ला के किस कवि को लेखक ने अनासक्त कवि कहा है? 39. ईक्षुदण्ड किसके लिए प्रयुक्त हुआ है? 40. अंत में लेखक ने शिरीष की तुलना किसके साथ की है? 41. ‘दिन दस फूला फूलि के खंखड़ भया पलास’ इस पंक्ति के लेखक कौन हैं? 42. राजा दुष्यंत कैसे थे? 43. शिरीष की बड़ी विशेषता क्या है? 44. ‘शिरीष के फूल’ निबंध में वर्णित कर्णाट-राज की प्रिया का क्या नाम है? 45. द्विवेदी जी ने जगत के अतिपरिचित और अति प्रामाणिक सत्य किसे कहा है? 46. लेखक ने कवि बनने के लिए क्या बनना आवश्यक माना है? 47. पुराने फलों को अपने स्थान से हटते न देखकर लेखक को किसकी याद आती है? 48. कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता के मंत्र का प्रचार कौन करता है? 49. शिरीष के फूल को संस्कृत साहित्य में कैसा माना गया है? 50. द्विवेदी जी के अनुसार सौंदर्य के बाह्य आवरण को भेदकर उसके भीतर तक कौन पहुँच सकते थे? 51. किस ग्रंथ में बताया गया है कि वाटिका के सघन छायादार वृक्षों की छाया में ही झूला (प्रेक्षा दोला) लगाया जाना चाहिए? शिरीष के फूल प्रमुख गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या [1] जहाँ बैठ के यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ, शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निर्धूम अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गरमी में फूल सकने की हिम्मत करते हैं। कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की बात मैं भूल हा हैं। वे भी आस-पास बहत हैं। लेकिन शिरीष के साथ आरग्वध की तलना नहीं की जा सकती। वह पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसंत ऋतु के पलाश की भाँति । कबीरदास को इस तरह पंद्रह दिन के लिए लहक उठना पसंद नहीं था। यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खंखड़-के-खंखड़-‘दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलासा!’ ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले। फूल है शिरीष। वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है, आषाढ़ तक जो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार करता रहता है। यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल-पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर नितांत ढूँठ भी नहीं हूँ। शिरीष के पुष्प मेरे मानस में थोड़ा हिल्लोल ज़रूर पैदा करते हैं। [पृष्ठ-144] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फूल’ में से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तत निबंध में लेखक ने शिरीष के फल के सौं वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखक स्पष्ट करता है कि शिरीष का फूल अपनी जीवन-शक्ति और संघर्षशीलता के लिए प्रसिद्ध है। व्याख्या-लेखक शिरीष के फूल का वर्णन करता हुआ कहता है कि मैं जहाँ बैठ कर लिख रहा हूँ, उसके चारों ओर असंख्य शिरीष के फूल हैं। ये पेड़ लेखक के आगे भी हैं, पीछे भी हैं, दाएँ भी और बाएँ भी। जेठ का महीना है। धूप जल रही है और पृथ्वी बिना धुएँ के भाग का कुंड बन चुकी है। परंतु शिरीष के पेड़ पर इस धूप का कोई प्रभाव नहीं है। वह ऊपर से लेकर नीचे तक फूलों से लदा हुआ है। प्रकृति के क्षेत्र में शिरीष जैसे बहुत थोड़े-से पेड़ हैं जो इस भयंकर गर्मी में भी फूल धारण कर सकते हैं। अधिकांश पेड़ तो ग्रीष्म ऋतु में मुरझा ही जाते हैं। लेखक कर्णिकार और अमलतास के पेड़ों को भूल नहीं सकता क्योंकि उसके आस-पास दोनों प्रकार के पेड़ विद्यमान हैं। परंतु लेखक का कहना है कि हम शिरीष के पेड़ के साथ अमलतास की तुलना नहीं कर सकते। अमलतास केवल 15-20 दिन तक ही फूल धारण करता है। जैसे पलाश का पेड़ बसंत ऋतु में अल्पकाल के लिए ही फूलता है। शायद यही कारण है कि कविवर कबीरदास को 15 दिन के लिए कर्णिकार का फूल धारण करना पसंद नहीं था। भला यह भी कोई बात है कि दस-पन्द्रह दिन तक फूल धारण करो और फिर दूंठ के दूंठ बने खड़े रहो। कबीरदास ने लिखा भी है-‘दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास’ । लेखक का कहना है कि इस प्रकार की पूँछ वालों से बिना पूँछ वाले ही अच्छे हैं। शिरीष के फूल का अपना ही महत्त्व है। जैसे ही वसंत आता है वैसे ही यह पेड़ खिल उठता है और फिर आषाढ़ के महीने तक अपनी मस्ती में खिला रहता है। अनेक बार यदि मन में आनंद आ गया तो वह भादों के महीने में भी बिना बाधा के फूला रहता है। जब गरमी के कारण व्यक्ति के प्राण उबलने लगते हैं और गर्म लू से हृदय सूखने लगता है तब यह अकेला शिरीष का पेड़ ही समय पर विजय पाने वाले संन्यासी के समान मानों इस मंत्र का प्रचार करता है कि जीवन अविजित है, उसे जीता नहीं जा सकता। अंत में लेखक कहता है कि अन्य कवियों के समान प्रत्येक फूल और पत्ते को देखकर आसक्त होने वाला दिल विधाता ने उसे नहीं दिया। लेकिन लेखक पूर्णतया भावनाहीन भी नहीं है। यही कारण है कि शिरीष के फूल लेखक के मन में थोड़ी बहुत हलचल जरूर पैदा कर देते हैं। लेखक ,ठ के समान नीरस न होकर सरस है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) लेखक को शिरीष के फूल इसलिए पसंद हैं क्योंकि उनमें जीवन-शक्ति और संघर्षशीलता होती है। जेठ की जलती हुई धूप में भी वह फूलों से लदा हुआ दिखाई देता है। विपरीत तथा कठोर परिस्थितियों में वह प्रकृति से जीवन रस खींचकर जीवन को अजेयता का संदेश देता है। (ग) अमलतास एक ऐसा वृक्ष है जो केवल 15-20 दिनों के लिए ही खिलता है और तत्पश्चात् ठूठ हो जाता है। इसी कारण कबीरदास को अमलतास पसंद नहीं है। एक तो उसमें जीवन-शक्ति बहुत कम होती है, दूसरा उसके सौंदर्य की आयु भी अल्पकाल की होती है। (घ) दुमदार उन पक्षियों को कहा गया है जिनकी पूँछ बहुत सुंदर होती है लेकिन ऐसे पक्षी अल्पकाल के लिए जीवित रहते हैं इसलिए कबीर को ये पक्षी पसंद नहीं हैं। उन्हें पूँछहीन पक्षी पसंद हैं जो विपरीत परिस्थितियों में भी जीवित रहते हैं और संघर्षों का सामना करते हैं। (ङ) शिरीष का वृक्ष वसंत के आने पर फूलों से लद जाता है और आषाढ़ तक मस्त बना रहता है। कभी-कभी तो भादों की गर्मी तथा लू में भी वह फूलों से लहकता रहता है। (च) कालजयी का अर्थ है-काल को जीतने वाला अर्थात् लंबे समय तक जिंदा रहने वाला संन्यासी। वस्तुतः ऐसे फक्कड़ साधु को कहते हैं जो कठिन परिस्थितियों में भी साधना में लीन रहता है। शिरीष के फूल की तुलना कालजयी अवधूत से करना सार्थक है क्योंकि वह गर्मी, लू आदि की परवाह किए बिना फलों से लहकता रहता है। [2] फूलों की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है! यह भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार ज़माने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं। [पृष्ठ-146] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फूल’ में से अवतरित है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तुत निबंध में लेखक ने शिरीष के फूल के सौंदर्य, उसकी मस्ती तथा स्वरूप के वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखक ने शिरीष के फूलों की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है। व्याख्या-लेखक का कथन है कि शिरीष के फूल इतने अधिक सुंदर और कोमल होते हैं कि कालिदास के बाद के कवियों ने यह सोच लिया कि शिरीष के वृक्ष की प्रत्येक वस्तु कोमल होती है, परंतु यह उनकी भारी गलती है। कारण यह है कि शिरीष के फल बहुत मजबूत होते हैं। ये फल नए फूलों के आ जाने पर भी अपने स्थान पर जमे रहते हैं। जब तक नए फल और पत्ते उन्हें मिलकर धक्का देकर बाहर का रास्ता नहीं दिखाते, तब तक वे अपने स्थान पर जमे रहते हैं। यही कारण है कि वसंत के आने पर संपूर्ण वन-प्रदेश फूल और पत्तों से लद जाता है और उनमें मर्र-मर्र की ध्वनि उत्पन्न होती रहती है। लेकिन शिरीष के पुराने फल खड़खड़ाते हुए अपने स्थान पर जमे रहते हैं। शिरीष के फलों को देखकर लेखक उन नेताओं को याद करने लगता है जो किसी प्रकार से भी जमाने के रुख को पहचानना नहीं चाहते और अपने पद पर तब तक जमे रहते हैं जब तक युवा पीढ़ी के लोग उन्हें धक्के मारकर बाहर नहीं निकाल देते। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) शिरीष के फूल बड़े कोमल होते हैं, परंतु उसके फल बड़े कठोर और अपने स्थान पर जमे रहते हैं। (ग) शिरीष के फलों तथा आज के नेताओं के स्वभाव में बहुत बड़ी समानता है। शिरीष के फल तब तक अपने स्थान पर जमे रहते हैं जब तक नए फूल और पत्ते उन्हें धक्का देकर नीचे नहीं गिराते। यही स्थिति आज के नेताओं की भी है जो कि इतने ढीठ हैं कि 80-85 आय तक भी राजनीति से संन्यास नहीं लेना चाहते। वे तभी अपने पद को छोड़ते उन्हें धक्का देकर बाहर का रास्ता दिखाते हैं। (घ) वसंत के आगमन पर प्रकृति में एक नवीन परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन पुराने फलों को यह इशारा करता है कि उनका समय अब खत्म हो गया है, अतः उन्हें अपना स्थान छोड़ देना चाहिए ताकि नए फल लग सकें। [3] मैं सोचता हूँ कि पराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मत्य, ये दोनों ही जगत के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इनकी सच्चाई पर मुहर लगाई थी-‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!’ मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है! सुनता कौन है? महाकालदेवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा जाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कीड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे! [पृष्ठ-146] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फूल’ में से अवतरित है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तुत निबंध में लेखक ने शिरीष के फूल के सौंदर्य, उसकी मस्ती तथा स्वरूप के वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखक ने शिरीष के वृक्ष के पुराने एवं मजबूत फलों को देखकर अधिकार-लिप्सा की चर्चा की है। व्याख्या-कवि का कथन है कि उसकी यह सोच है कि पुराने लोगों की अधिकार की इच्छा समाप्त क्यों नहीं होती। समय रहते हुए बिलकुल सावधान हो जाना चाहिए और अपने पद को त्याग देना चाहिए। बुढ़ापा और मौत संसार की ऐसी सच्चाई है जो पूर्णतया प्रामाणिक है तथा सभी को इसका पता भी है। लेकिन फिर भी लोग अधिकार की इच्छा को छोड़ना नहीं चाहते। गोस्वामी तुलसीदास ने बड़ी निराशा के साथ इस तथ्य का समर्थन किया है। उनका कहना है-“धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!” अर्थात् पृथ्वी का यह प्रमाण है जो फलता है वह निश्चय से झड़ता है, जो जलता है वह नष्ट होता है। भाव यह है कि मृत्यु निश्चित है। इससे कोई बच नहीं सकता। लेखक शिरीष के फूलों को देखकर कहता है कि उन फूलों को फलते समय यह जान लेना चाहिए कि झड़ना तो निश्चित है। मानव को भी इस तथ्य को समझ लेना चाहिए। यमराज बड़ी तेजी के साथ अपने कोड़े चला रहा है। जो पुराने और कमजोर हैं वे झड़ते जा रहे हैं। परंतु जिनकी चेतना अध्यात्म की ओर लगी हुई है, वे थोड़े समय तक जिंदा रहते हैं। इस संसार में प्राणधारा और सर्वत्र व्याप्त मृत्यु का संघर्ष निरंतर चलता रहता है। कोई भी मृत्यु से बच नहीं सकता। फिर भी अज्ञानी लोग यह समझते हैं कि जहाँ पर वे टिके हुए हैं, वहीं पर टिके रहने पर वे मृत्यु रूपी देवता से बच जाएँगे। ऐसे लोग मूर्ख हैं। जो व्यक्ति गतिशील है और अध्यात्म की ओर गतिमान है वह तो मृत्यु के कोड़े की मार से बच सकता है परंतु जो सांसारिक आसक्ति में डूबा हुआ है वह शीघ्र ही मृत्यु का शिकार बन जाएगा। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) तुलसीदास ने जीवन के इस सत्य का उद्घाटन किया है कि जो फलता है वह निश्चय से झड़ता भी है अर्थात् जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी हुई है। वे कहते भी हैं-“धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!” (ग) ऊर्ध्वमुखी से लेखक का अभिप्राय है कि जिन लोगों की चेतना हमेशा अध्यात्म की ओर रहती है वे कुछ समय तक अपने स्थान पर टिके रहते हैं। ऊर्ध्वमुखी का शाब्दिक अर्थ है-ऊपर की ओर टिके रहना अर्थात् अध्यात्म की ओर टिके रहना। (घ) काल देवता की आग से बचने का अर्थ है मृत्यु से बचना। जो व्यक्ति स्थिर नहीं रहता, अध्यात्म की ओर गतिशील रहता है और स्थान बदलता रहता है, वह कुछ समय के लिए मृत्यु से बच सकता है। [4] एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुःख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं, तब भी यह हज़रत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं। एक वनस्पतिशास्त्री ने मुझे बताया है कि यह उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस खींचता है। ज़रूर खींचता होगा। नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल तंतुजाल और ऐसे सुकुमार केसर को कैसे उगा सकता था? अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। कबीर बहुत-कुछ इस शिरीष के समान ही थे, मस्त और बेपरवा, पर सरस और मादक। कालिदास भी ज़रूर अनासक्त योगी रहे होंगे। शिरीष के फूल फक्कड़ाना मस्ती से ही उपज सकते हैं और ‘मेघदूत’ का काव्य उसी प्रकार के अनासक्त अनाविल उन्मुक्त हृदय में उमड़ सकता है। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है? [पृष्ठ-146] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फल’ में से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तुत निबंध में लेखक ने शिरीष के फूल के सौंदर्य, उसकी मस्ती तथा उसके स्वरूप के वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखक ने शिरीष की तुलना अवधूत के साथ की है। व्याख्या-लेखक कहता है कि कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि शिरीष का वृक्ष एक विचित्र फक्कड़ संन्यासी है। चाहे जीवन में दुख हों अथवा सुख, वह कभी निराश नहीं होता और न ही हार मानता है। उसे न तो किसी से कुछ लेना है, न ही किसी को कुछ देना है। वह हमेशा अपनी मस्ती में लीन रहता है। जब संपूर्ण पृथ्वी और आकाश गर्मी के कारण जल रहे होते हैं तब यह श्रीमान पता नहीं कहाँ से जीवन के रस का संग्रह करता रहता है। जब यह मस्ती में होता है तो आठों पहर ही मस्त बना रहता है। उसे किसी की चिंता नहीं होती। एक वनस्पति शास्त्री ने लेखक को यह बताया कि शिरीष का वृक्ष ऐसे वृक्षों की श्रेणी में आता है जो अपना रस वायुमंडल की श्रेणी से प्राप्त करता है। लेखक सोचता है कि निश्चय से शिरीष ऐसा ही करता होगा। अन्यथा इतनी गर्मी और लू के समय भी उसके फूलों में इतने कोमल तंतु जाल कैसे उत्पन्न हो जाते हैं और कैसे उसमें कोमल केसर उग आता है। लेखक का कहना है कि फक्कड़ कवियों ने ही संसार की सर्वश्रेष्ठ रसपूर्ण कविताओं की रचना की है। लेखक के अनुसार कबीरदास लगभग शिरीष के वृक्ष के समान ही था। वह भी अपने-आप में मस्त रहता था और संसार से बेपरवाह रहता था। उसमें सरसता और मस्ती थी। इसी प्रकार संस्कृत कवि कालिदास भी अवश्य आसक्तिहीन योगी था। जिस प्रकार शिरीष के फूल बड़ी मस्ती से पैदा होते हैं। उसी प्रकार मेघदूत जैसी काव्य रचना उसी कवि के हृदय से उत्पन्न हो सकती है जो अनासक्त और मुक्त हृदय हो। कवि का कहना है कि जो कवि आसक्तिहीन नहीं बन सका जिसमें फक्कड़पन नहीं है तथा जो अपने द्वारा किए गए काम का लेखा-जोखा करता रहता है, वह सच्चा कवि नहीं हो सकता है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) एक वनस्पति शास्त्री ने लेखक को यह बताया कि शिरीष उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस प्राप्त करता है। लेखक वनस्पति शास्त्री के इस विचार से सहमत है। वह तर्क देता हुआ कहता है कि भयंकर लू के समय शिरीष के फूल के तंतुजाल तथा कोमल केसर अपने आप उग जाता है। (ग) लेखक ने भक्तिकालीन कवि कबीरदास तथा संस्कृत कवि कालिदास को अवधूत कहा है। इन दोनों कवियों ने सरस रचनाएँ लिखी हैं। कबीर शिरीष के समान मस्त, बेपरवाह आसक्त तथा मादक था। कालिदास भी निश्चय से अनासक्त योगी था। वह भी शिरीष के समान था। उस अनासक्त योगी ने ‘मेघदूत’ काव्य की रचना की। (घ) लेखक ने सच्चा कवि उसे कहा है जो लाभ-हानि के हिसाब-किताब में नहीं पड़ता। वह फक्कड़ होता है और अनासक्त भाव से काव्य-रचना करता है। वह किसी की परवाह नहीं करता और अपने आप में मस्त रहता है। (ङ) कालिदास को अनासक्त योगी इसलिए कहा गया है क्योंकि उसने मेघदूत जैसी काव्य-रचना लिखी। जो व्यक्ति सुख-दुःख से प्रभावित नहीं होता और मस्ती में जीता है, वही इस प्रकार की काव्य-रचना लिख सकता है। (च) शिरीष के फूल उगाने के लिए व्यक्ति को सुख-दुःख की परवाह नहीं करनी चाहिए। उसे आठों पहर मौज-मस्ती में रहना चाहिए और सुख-दुःख तथा विपरीत परिस्थितियों में मस्त रहना चाहिए। जिस प्रकार शिरीष के फूल तपती लू में भी वायुमंडल से रस खींच लेते हैं, उसी प्रकार ऐसे लोगों को भी अपने आसपास के लोगों से जीवन-शक्ति प्राप्त करनी चाहिए। [5] कालिदास वजन ठीक रख सकते थे, क्योंकि वे अनासक्त योगी की स्थिर-प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय पा चुके थे। कवि होने से क्या होता है? मैं भी छंद बना लेता हूँ, तुक जोड़ लेता हूँ और कालिदास भी छंद बना लेते थे-तुक भी जोड़ ही सकते होंगे इसलिए हम दोनों एक श्रेणी के नहीं हो जाते। पुराने सहृदय ने किसी ऐसे ही दावेदार को फटकारते हुए कहा था-‘वयमपि कवयः कवयस्ते कालिदासाया!’ मैं तो मुग्ध और विस्मय-विमूढ़ होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता हूँ। अब इस शिरीष के फूल का ही एक उदाहरण लीजिए। शकुंतला बहुत सुंदर थी। सुंदर क्या होने से कोई हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुंदर हृदय से वह सौंदर्य डुबकी लगाकर निकला है। शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यंत भी अच्छे-भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुंतला का एक चित्र बनाया था, लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शकुंतला के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गए हैं, जिसके केसर गंडस्थल तक लटके हुए थे, और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार। [पृष्ठ-147] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फूल’ में से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तुत निबंध में लेखक ने शिरीष के फूल के सौंदर्य, उसकी मस्ती तथा उसके स्वरूप के वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखक ने संस्कृत के महान कवि कालिदास की साहित्यिक उपलब्धियों पर प्रकाश डाला है। लेखक उन्हें स्थिर-प्रज्ञता तथा अनासक्त योगी की संज्ञा देता है। व्याख्या-कालिदास साहित्य-रचना करते समय शब्द की लय आदि का समुचित ध्यान रखते थे, क्योंकि वे सच्चे अनासक्त योगी थे। उन्हें हम स्थिर-प्रज्ञता तथा तपा हुआ प्रेमी भी कह सकते हैं अर्थात् उनके पास एक सच्चे प्रेमी का हृदय था। कवि बनने और कहलाने से कुछ नहीं होता। संसार में अनेक ऐसे कवि हैं जो तुकबंदी कर लेते हैं, परंतु हम उन्हें कालिदास नहीं कह सकते। लेखक भी छंद बना लेता है और तुकबंदी भी कर लेता है। कालिदास भी ऐसा करते होंगे। कालिदास छंद भी बनाते थे और तुक भी जोड़ लेते थे। परंतु इससे लेखक और कालिदास एक ही श्रेणी में नहीं रखे जा सकते। एक प्राचीन सहृदय व्यक्ति ने कवि होने का दावा करते हुए एक व्यक्ति को कहा था-“हम भी कवि हैं, हम भी कवि हैं, ऐसा कहने से हम कवि नहीं बन पाते। सच्चे कवि तो कालिदास आदि थे।” लेखक कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर आश्चर्यचकित हो जाता है। वह उनके श्लोकों पर आसक्त होकर हैरान रह जाता है। इस संदर्भ में शिरीष के फूलों का उदाहरण दिया जा सकता है। शकुंतला अद्वितीय सुंदरी थी। परंतु सुंदर होने से कोई बड़ा नहीं बन जाता। देखने की बात तो यह होती है कि कवि अपने सुंदर हृदय द्वारा उस सुंदरता में से डुबकी लगाकर बाहर निकला है या नहीं। अर्थात् उसने सौंदर्य को गंभीरता से अनुभव किया है या नहीं। शकुंतला कालिदास के हृदय से उत्पन्न हुई थी। भाव यह है कि कालिदास ने अपने हृदय की अनुभूतियों द्वारा शकुंतला के रूप-सौंदर्य का निर्माण किया था। विधाता ने उसे सौंदर्य देते समय कंजूसी नहीं बरती और कवि ने भी अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी। दूसरी ओर राजा दुष्यंत के पास भी एक प्रेमी-हृदय था और वे सज्जन व्यक्ति थे। राजा ने शकुंतला के एक चित्र का निर्माण किया। लेकिन बार-बार उनका मन अपने-आप से नाराज हो जाता था। उन्हें लगता था कि कहीं-न-कहीं कमी रह गई है। बहुत देर तक सोचने के बाद उनके मन में विचार आया कि वह शकुंतला के कानों में शिरीष का फूल लगाना भूल गए हैं। जिसका केसर उसके कपोलों तक लटका हुआ था। यही नहीं, शरदकालीन चंद्रमा की किरणों के समान कोमल और सुंदर कमलनाल का हार भी बनाना भूल गए हैं। अतः उन्होंने बाद में शकुंतला के चित्र के कानों में शिरीष का फूल बनाया और गले में कमलनाल का हार बनाया। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) सामान्य कवि शब्दों का प्रयोग करते समय उनकी लय, तुक तथा छंद की ओर ज्यादा ध्यान देते हैं। यह तो कविता का बाह्य पक्ष है। इस पक्ष से वे विषय-वस्तु के मर्म को नहीं जान पाते और न ही विषय की गहराई में उतरकर लिख पाते हैं। जबकि कालिदास ने शकुंतला के सौंदर्य में डूबकर उसके सौंदर्य का वर्णन किया। (ग) शकुंतला भले ही सुंदर थी, लेकिन ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की नायिका शकुंतला की सुंदरता की सृष्टि कालिदास ने की थी। उसके सौंदर्य का वर्णन करने के लिए कवि शकुंतला के सौंदर्य में डूब गया और उसने सुंदरता के सभी पक्षों को देखते हुए काव्य-रचना की। (घ) ईश्वरीय-कृपा, प्रेमी-हृदय दुष्यंत का असीम प्रेम तथा कवि कालिदास की सौंदर्य मुग्ध दृष्टि तीनों तत्त्वों ने समन्वित रूप में शकुंतला के सौंदर्य का निर्माण किया। (ङ) जब राजा दुष्यंत शकुंतला के चित्र का निर्माण कर रहे थे तो उन्हें लगा कि यह चित्र पूर्ण नहीं है। उसका मन खीझ उठा। काफी देर सोचने के पश्चात् उन्हें ज्ञात हुआ कि उन्होंने शकुंतला के कानों में शिरीष के फूलों को नहीं लगाया है और न ही गले में कोमल तथा सुंदर कमलनाल का हार पहनाया है। [6] कालिदास सौंदर्य के बाह्य आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुख हो कि सुख, वे अपना भाव-रस उस अनासक्त कृपीवल की भाँति खींच लेते थे जो निर्दलित ईक्षुदंड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान थे, क्योंकि वे अनासक्त रह सके थे। कुछ इसी श्रेणी की अनासक्ति आधुनिक हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत में है। कविवर रवींद्रनाथ में यह अनासक्ति थी। एक जगह उन्होंने लिखा-‘राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।’ फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है। [पृष्ठ-147] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फूल’ में से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तुत निबंध में लेखक ने शिरीष के फूल के सौंदर्य, उसकी मस्ती तथा उसके स्वरूप के वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। इस गद्यांश में लेखक ने कालिदास की सौंदर्य दृष्टि की सूक्ष्मता तथा पूर्णता का वर्णन किया है। यहाँ लेखक ने कालिदास के अतिरिक्त सुमित्रानंदन पंत तथा रवींद्रनाथ को भी अनासक्त कवि कहा है। व्याख्या-कालिदास सुंदरता के सच्चे पारखी थे। वे सुंदरता के बाहरी परदे को पार करके उसकी गहराई में उतर जाते थे। चाहे सुख हो अथवा दुःख हो, वे अपने भाव-रस अनासक्त किसान के समान बाहर खींच कर ले आते थे। जिस प्रकार किसान भली-भाँति निचोड़े गन्ने से भी रस निकाल लेता है, उसी प्रकार कालिदास भी सौंदर्य में से भाव-रस निकाल लेते थे। कालिदास इसलिए महान् थे, क्योंकि वे अनासक्त व्यक्ति थे। उन्हें किसी से लगाव नहीं था। कवि सुमित्रानंदन पंत भी इसी श्रेणी के आसक्तिहीन कवि थे। कवि रवींद्रनाथ ठाकुर में भी अनासक्ति थी। इन दोनों कवियों ने सुख-दुःख की परवाह न करते हुए सुंदर काव्य-रचनाएँ लिखी हैं। एक स्थल पर उन्होंने लिखा भी है राजा के उद्यान का मुख्यद्वार चाहे कितना भी ऊँचा हो, उसकी शिल्पकला सुंदरतम क्यों न हो, वह कभी नहीं कहता कि मेरे अंदर आकर सब रास्ते समाप्त हो गए हैं। भाव यह है कि सौंदर्य चाहे कितना महान् क्यों न हो, लेकिन वह अंतिम नहीं होता। असली पहुँचने का स्थान तो उसे पार करने के बाद ही मिलता है। यह संकेत करना उस मुख्य द्वार का कर्तव्य है। अंत में लेखक कहता है कि चाहे फूल हो चाहे वृक्ष, वे अपने आप में पूर्ण नहीं होते। वे किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए अपनी अँगुली से इशारा करते हैं अर्थात् वे हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं और समझाते हुए कहते हैं कि उससे बढ़कर भी हो सकता है, उसकी खोज करो। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) अनासक्ति का आशय है-व्यक्तिगत सुख-दुःख तथा लाभ-हानि से ऊपर उठना। सौंदर्य को भी इसी दृष्टि से देखना अनासक्त कहलाता है। (ग) कालिदास, सुमित्रानंदन पंत तथा रवींद्रनाथ तीनों अनासक्त कवि थे। उन्होंने व्यक्तिगत सुख-दुःख, लाभ-हानि एवं राग-द्वेष से ऊपर उठकर सौंदर्य के वास्तविक रूप को समझा और उसके मर्म को जाना। ये तीनों कवि वास्तविक सौंदर्य को देखने की क्षमता रखते थे। (घ) राजोद्यान के बारे में रवींद्रनाथ ने कहा है कि सौंदर्य कितना परिपूर्ण या बहुमूल्य क्यों न हो, लेकिन वह अंतिम नहीं होता। बल्कि वह सौंदर्य किसी ओर सर्वोत्तम तथा ऊँचे सौंदर्य की ओर इशारा करता है तथा निरंतर आगे बढ़ने का संदेश देता है। [7] शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाह्य परिवर्तन धूप, वर्षा, आँधी, लू-अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है। शिरीष वायुमंडल में रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर है। गांधी भी वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूँ तब तब हूक उठती है-हाय, वह अवधूत आज कहाँ है! [पृष्ठ-147-148] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फूल’ में से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तुत निबंध में लेखक ने शिरीष के फूल के सौंदर्य, उसकी मस्ती तथा उसके स्वरूप के वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखक शिरीष के फूल को याद करते हुए देश की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालता है। व्याख्या लेखक का कथन है कि शिरीष का वृक्ष सचमुच एक पक्का अवधूत है। वह मेरे मन में भाव-तरंगें उत्पन्न करता है। ये भाव-तरंगें ऊपर को उठती हैं और मेरे मन में हलचल पैदा करती हैं। लेखक सोचता है कि शिरीष का वृक्ष इतनी तपती धूप में भी इतना सरस क्यों बना हुआ है? उसमें ऐसी क्षमता कहाँ से आई है। यह जो बाहरी परिवर्तन हो रहा है, उसमें धूप, वर्षा, आँधी, लू आदि क्या सच्चाई नहीं है। यह सच्चाई है। लेकिन शिरीष का वृक्ष इन विपरीत तथा कठोर परिस्थितियों में जीना जानता है। हमारे देश में भी काफी मार-काट हुई है, घरों को जलाया गया है, लोगों का कत्ल किया गया है। यह विनाशकारी आँधी हमारे देश में चली है। क्या हम इन कठिन परिस्थितियों में जिंदा नहीं रह सकते। जब शिरीष कठिन परिस्थितियों में स्थिर रह सकता है तब हम भी रह सकते हैं। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी इन कठोर परिस्थितियों में जीवित रहे थे। लेखक का मन उससे पूछता है कि ऐसा कैसे हो सका और क्यों हो सका। वे स्वयं उत्तर देते हुए कहते हैं कि शिरीष एक अनासक्त संन्यासी है। वह वायुमंडल से रस खींचकर कोमल भी बन सकता है और कठोर भी। महात्मा गांधी ने भी ऐसा ही किया था। उन्होंने भी वायुमंडल से रस प्राप्त करके कठोर जीवन यापन किया। लेखक जब-जब शिरीष की ओर देखता है तब-तब उसके मन में प्रश्न उठता है कि वह अनासक्त संन्यासी कहाँ चला गया? उस जैसे अवधूत अब कहीं दिखाई नहीं देते।। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) अग्निकांड और मार-काट के बीच शिरीष का वृक्ष स्थिर रह सका और महात्मा गांधी भी। शिरीष का वृक्ष तपती लू तथा धूप में जिंदा रह सका। इसी प्रकार महात्मा गांधी भारत-पाक विभाजन के समय हुई हिंसा के बावजूद स्थिर बने रहे। (ग) लेखक ने शिरीष को अवधूत इसलिए कहा है क्योंकि वह ग्रीष्म ऋतु की तपन और लू के बावजूद वायुमंडल से रस खींचता है और फलता-फूलता है। इन विपरीत परिस्थितियों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। (घ) एक बूढ़े से लेखक का अभिप्राय महात्मा गांधी है, जिन्होंने भारत-पाक विभाजन के समय हिंसा का सामना किया और लोगों को शांत बने रहने की शिक्षा दी। गांधी जी ने भी शिरीष के समान कठिनाइयों में सरस रहना सीखा। (ङ) गांधी जी ने अपनी आँखों से मार-काट को देखा। वे मार-काट करने वालों के आगे कठोर बनकर खड़े हो गए और इसी हिंसा के कारण उनके मन में करुणा की भावना उत्पन्न हुई और वे कोमल भी हो गए। इन विपरीत परिस्थितियों में भी गांधी जी कोमल व कठोर बने रहे। शिरीष के फूल लेखक-परिचय प्रश्न- सन् 1930 में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की नियुक्ति शांति-निकेतन में हिंदी अध्यापक के पद पर हुई। वहाँ पर उनको विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर, महामहोपाध्याय पं० विधु शेखर भट्टाचार्य, आचार्य क्षितिमोहन सेन, आचार्य नंदलाल बसु जैसे विश्व-विख्यात विभूतियों के संपर्क में आने का अवसर मिला। इस वातावरण ने लेखक के दृष्टिकोण को अत्यधिक व्यापक बना दिया। अध्यापन के क्षेत्र में आचार्य द्विवेदी का बहुत योगदान रहा है। कलकत्ता में शांति निकेतन’ में अध्यापन के पश्चात् लगभग दस वर्ष तक उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तथा अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। तत्पश्चात् वे पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में भी हिंदी के वरिष्ठ प्रोफेसर तथा टैगोर-पीठ’ के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे। भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्म-भूषण’ से अलंकृत किया। ये भारत सरकार की अनेक समितियों के निदेशक तथा सदस्य के रूप में हिंदी भाषा तथा साहित्य की सेवा करते हुए सन् 1979 में दिल्ली में स्वर्ग-सिधार गए। 2. प्रमुख रचनाएँ-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने विभिन्न विधाओं पर सफलतापूर्वक लेखनी चलाई है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
3. साहित्यिक विशेषताएँ-हिंदी निबंध-साहित्य में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पश्चात्
आचार्य द्विवेदी जी सवश्रेष्ठ निबंधकार हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य को जहाँ गवेषणात्मक, आलोचनात्मक और विचारात्मक निबंध प्रदान किए, वहाँ उन्होंने ललित निबंधों की रचना भी की है। वे हिंदी के प्रथम एवं श्रेष्ठ ललित निबंधकार हैं। यद्यपि उन्होंने पहली बार ललित निबंधों की रचना की, किंतु फिर भी उनका प्रयास अधूरा न होकर पूर्ण है। उनके निबंध साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- (ii) विषयों की विविधता आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन-अनुभव बहुत गहन एवं विस्तृत है। उन्होंने जीवन के विविध पक्षों को समीप से देखा और परखा है। अपने विस्तृत जीवन-अनुभव के कारण ही उन्होंने अनेक विषयों को अपने निबंधों का आधार बनाया है। उनके निबंधों को विषय-विविधता के आधार पर निम्नलिखित कोटियों में रखा जा सकता है
(iii) मानवतावादी विचारधारा-द्विवेदी जी के निबंध साहित्य में मानवतावादी विचारधारा के सर्वत्र दर्शन होते हैं। इस विषय में द्विवेदी जी ने स्वयं लिखा है, “मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न कर सके, जो उसके हृदय को परदुःखकातर, संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।” आचार्य द्विवेदी का साहित्य संबंधी यह दृष्टिकोण उनके साहित्य में भी फलित हुआ है। इसीलिए उनके साहित्य में स्थान-स्थान पर मानवतावादी विचारों के दर्शन होते हैं। (iv) भारतीय संस्कृति में विश्वास-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सदैव भारतीय संस्कृति के पक्षधर बने रहे। इसीलिए उनके निबंध साहित्य में भारतीय संस्कृति की महानता की तस्वीर देखी जा सकती है। भारतीय संस्कृति का जितना सूक्ष्मतापूर्ण अध्ययन व ज्ञान उनके निबंधों में व्यक्त हुआ है, वह अन्यत्र नहीं है। उन्होंने भारत की संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों में एकता या एकसूत्रता के दर्शन किए हैं। जीवन की एकरूपता की यही दृष्टि उनके साहित्य में साकार रूप धारण करके प्रकट हुई है। द्विवेदी जी सारे संसार के मनुष्यों में एक सामान्य मानव संस्कृति के दर्शन करते हैं। भारतीय संस्कृति के प्रति विश्वास एवं निष्ठा रखने का यह भी एक कारण है। ‘अशोक के फूल’, ‘भारतीय संस्कृति की देन’ आदि निबंधों में उनका यह विश्वास सशक्तता से व्यक्त हुआ है। (v) भाव तत्त्व की प्रधानता आचार्य द्विवेदी के निबंध साहित्य की अन्य प्रमुख विशेषता है-भाव तत्त्व की प्रमुखता। भाव तत्त्व की प्रधानता के कारण ही भाषा धारा-प्रवाह रूप में आगे बढ़ती है। वे गंभीर-से-गंभीर विचार को भी भावात्मक शैली में लिखकर उसे अत्यंत सहज रूप में प्रस्तुत करने की कला में निपुण हैं। इसी कारण उनके निबंधों में कहीं विचारों की जटिलता या क्लिष्टता अनुभव नहीं होती। इस दृष्टि से ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक निबंध की ये पंक्तियाँ देखिए “एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुःख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं तब भी यह हज़रत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं।” (vi) संक्षिप्तता-संक्षिप्तता निबंध का प्रमुख तत्त्व है। द्विवेदी जी ने अपने निबंधों के आकार की योजना में इस तत्त्व का विशेष ध्यान रखा है। यही कारण है कि उनके निबंध आकार की दृष्टि से संक्षिप्त हैं। ये आकार में छोटे होते हुए भी भाव एवं विचार तत्त्व की दृष्टि से पूर्ण हैं। ये विषय-विवेचन की दृष्टि से सुसंबद्ध एवं कसावयुक्त हैं। शैली एवं शिल्प की दृष्टि से भी कहीं अधिक फैलाव नहीं है। विषय का विवेचन अत्यंत गंभीर एवं पूर्ण है। इसलिए निबंध कला का आदर्श बने हुए हैं। (vii) देश-प्रेम की भावना आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध साहित्य में देश-प्रेम की भावना के सर्वत्र दर्शन होते हैं। वे देश-प्रेम को हर नागरिक का परम धर्म मानते हैं। जिस मिट्टी में हम पैदा हुए, हमारा शरीर जिसके अन्न, जल, वायु से पुष्ट हुआ, उसके प्रति लगाव या प्रेम-भाव रखना स्वाभाविक है। इसलिए उन्होंने अपने निबंध साहित्य में देश-प्रेम की भावना की बार-बार और अनेक प्रकार से अभिव्यक्ति की है। इस दृष्टि से उन्होंने अपने निबंधों में अपने देश की संस्कृति, प्रकृति, नदियों, पर्वतों, सागरों, जनता के सुख-दुःख का अत्यंत आत्मीयतापूर्ण वर्णन किया है। ‘मेरी जन्मभूमि’ निबंध इस दृष्टि से अत्यंत उत्तम निबंध है। इस निबंध में उन्होंने लिखा भी है, “यह बात अगर छिपाई भी तो भी कैसे छिप सकेगी कि मैं अपनी जन्मभूमि को प्यार करता हूँ।” 4. भाषा-शैली-आचार्य द्विवेदी जी के निबंधों में गंभीर पांडित्य और सरस हार्दिकता दोनों का साथ-साथ निर्वाह हुआ है। पांडित्य एवं लालित्य का ऐसा सामञ्जस्य मिलना दुर्लभ है। वे विषय को सरल-सहज भावों में इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि पाठक विषय को हृदयगंम करता चलता है। द्विवेदी जी की तत्सम प्रधान साहित्यिक भाषा है। इसमें उन्होंने छोटे एवं बड़े दोनों प्रकार के वाक्यों का प्रयोग किया है। जहाँ लंबे वाक्यों का प्रयोग हुआ है, वहाँ विचार को समझने में अवश्य थोड़ी कठिनाई अनुभव होती है। उनकी भाषा में तत्सम शब्दावली के अतिरिक्त यथास्थान तद्भव, अंग्रेज़ी, उर्दू-फारसी व देशज शब्दों का भी भरपूर प्रयोग हुआ है। भाषा सुसंगठित, परिष्कृत, विषयानुकूल एवं प्रवाहमयी है। उनकी रचनाओं में भावात्मकता, लालित्य एवं माधुर्य का समावेश सर्वत्र दिखलाई पड़ता है। उन्होंने अपने निबंधों में विचारात्मक, व्यंग्यात्मक एवं भावात्मक शैलियों का सफल प्रयोग किया है। शिरीष के फूल पाठ का सार प्रश्न- शिरीष का फूल अन्य वृक्षों से कुछ अलग प्रवृत्ति वाला है। वह वसंत के आते ही अन्य पेड़-पौधों के समान फूलों से लद जाता है और आषाढ़ के मास तक अर्थात् वर्षा काल तक निश्चित रूप से फूलों से लदा रहकर प्रकृति की शोभा बढ़ाता रहता है। कभी-कभी भादों मास तक भी इस पर फूल खिलते रहते हैं। भयंकर गर्मी में भी शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र पढ़ता हुआ प्रतीत होता है। शिरीष के फूल नए फूल आने तक अपना स्थान नहीं छोड़ते। यह पुराने की अधिकार-लिप्सा है। लेखक ने मनुष्य की इस प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, “जब तक नये फल-पत्ते मिलकर धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मझे इनको देखकर उन नेताओं की याद आती है जो किसी प्रकार के जमाने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नयी पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।” जब बुढ़ापा और मृत्यु सबके लिए निश्चित है तो शिरीष के फूलों को भी निश्चित रूप से झड़ना पड़ेगा, किंतु वे अड़े रहते हैं। न जाने वे ऐसा क्यों करते हैं। वे मूर्ख हैं, सोचते होंगे कि वे सदा ऐसे ही बने रहेंगे, कभी मरेंगे नहीं। इस संसार में भला कोई सदा बना रह सका है। काल देवता की आँख से कोई नहीं बच सकता। वृक्ष के पेड़ की यह खूबी है कि वह सुख-दुःख में सदा . समभाव बना रहता है। यदि वह वसंत में हँसता है तो ग्रीष्म ऋतु की तपन को सहता हुआ भी मुस्कुराता रहता है। लेखक को आश्चर्य होता है कि गर्मी के मौसम में वह कहाँ से रस प्राप्त करके जीवित रहता है। किसी वनस्पतिशास्त्री ने लेखक को बताया कि वह वायुमंडल से अपना रस प्राप्त कर लेता है। आचार्य द्विवेदी जी का मत है कि संसार में अवधूतों के मुँह से ही संसार की सरल रचनाओं का जन्म हुआ। कबीर और कालिदास भी शिरीष की भाँति ही अवधूत प्रवृत्ति के रहे होंगे क्योंकि जो कवि अनासक्त नहीं रह सकता, वह फक्कड़ प्रवृत्ति का नहीं हो सकता। शिरीष का वृक्ष भी ऐसी फक्कड़ किस्म की मस्ती लेकर झूमता है। लेखक ने शिरीष के फूल के महत्त्व को दर्शाने के लिए प्राचीन प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखा है, “राजा दुष्यंत भी अच्छे-भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुंतला का एक चित्र बनाया था, लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर बाद उन्हें समझ में आया कि शकुंतला के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गये हैं जिसके केसर गंडस्थल तक लटके हुए थे और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।” कालिदास की भाँति ही हिंदी के कवि सुमित्रानंदन पंत में भी अनासक्ति है। महान् कवि रवींद्रनाथ में भी यह अनासक्ति दिखलाई पड़ती है। लेखक की मान्यता है कि फूल हो या पेड़ वह अपने आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए संकेत है। शिरीष का पेड़ सचमुच में लेखक के हृदय में अवधूत की भाँति तरंगें जगा देता है। वह विपरीत स्थितियों में भी स्थिर रह सकता है, यद्यपि ऐसा करना सबके लिए संभव नहीं होता। हमारे देश में महात्मा गांधी भी ऐसी ही विपरीत परिस्थितियों की देन थी। वे भी शिरीष की भाँति वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल तथा कठोर हो सका। लेखक जब भी शिरीष के पेड़ को देखता है तो उसे गांधी जैसे अवधूत की स्मृति आ जाती है। कठिन शब्दों के अर्थ धरित्री = पृथ्वी। निर्धूम = धुएँ के बिना। कर्णिकार = कनेर। आरग्वध = अमलतास। पलास = ढाक। लहकना = खिलना। खंखड़ = ढूँठ। दुमदार = पूँछ वाले। लँडूरे = बिना पूँछ वाले। निर्घात = बिना बाधा के। लू = गर्म हवा। एकमात्र = इकलौता। कालजयी = समय को जीतने वाला। अवधूत = सांसारिक विषय-वासनाओं से ऊँचा उठा हुआ संन्यासी, वाममार्गी तांत्रिक। हिल्लोल = लहर। मंगलजनक = शुभदायक। अरिष्ट = रीठा का वृक्ष । पुन्नाग = सदाबहार वृक्ष । घनमसृण = घना चिकना। हरीतिमा = हरियाली। परिवेष्टित = ढका हुआ। कामसूत्र = वात्स्यायन का काम संबंधी ग्रंथ। दोला = झूला। तुंदिल = मोटे पेट वाला। परवर्ती = बाद के। मर्मरित = खड़खड़ाहट या सरसराहट की ध्वनि। सपासप = कोड़े पड़ने की आवाज। जीर्ण = पुराना। ऊर्ध्वमुखी = प्रगति की ओर। दुरंत = जिसका विनाश न हो सके। सर्वव्यापक = सर्वत्र व्याप्त। कालाग्नि = मृत्यु की आग। हज़रत = श्रीमान। अनासक्त = निर्लिप्त। अनाविल = स्वच्छ। उन्मुक्त = स्वच्छंद, द्वंद्वरहित। फक्कड़ = मस्तमौला। कर्णाट = प्राचीन काल का कर्नाटक राज्य । उपालंभ = उलाहना। स्थिर-प्रज्ञता = अविचल बुद्धि की अवस्था। विदग्ध = अच्छी प्रकार तपा हुआ। मुग्ध = आनंदित। विस्मय-विमूढ़ = आश्चर्यचकित। कार्पण्य = कंजूसी। गंडस्थल = कपोल, गाल। शरच्चंद्र = शरद ऋतु का चाँद। शुभ्र = श्वेत। मृणाल = कमलनाल। कृपीवल = किसान। निर्दलित = अच्छी तरह से निचोड़ा हुआ। ईक्षुदंड = गन्ना। अभ्रभेदी = गगनचुंबी। गंतव्य = लक्ष्य । खून-खच्चर = लड़ाई-झगड़ा। हूक = वेदना, पीड़ा। Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 16 नमक Textbook Exercise Questions and Answers. Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 16 नमकHBSE 12th Class Hindi नमक Textbook Questions and Answersपाठ के साथ प्रश्न 1. ‘प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. (2) यही नहीं सफ़िया एक निडर स्त्री भी है। उसका भाई उसे समझाता है कि कस्टमवाले किसी की नहीं सुनते। पाकिस्तान से भारत में नमक ले जाना गैर-कानूनी है। यदि तुम्हारा भेद खुल गया तो तुम मुसीबत में फँस जाओगी। लेकिन वह भाई की बातों से डरती नहीं। कस्टम अधिकारियों के समक्ष निडर होकर कहती है ‘देखिए मेरे पास नमक है थोड़ा-सा’ मैं अपनी मुँह बोली माँ के लिए ले जा रही हूँ। (3) सफ़िया में दृढ़-निश्चय है उसने बहुत पहले यह निश्चय कर लिया था कि वह सिख बीबी के लिए नमक ले जाएगी। अपना वचन निभाते हुए वह सरहद के पार नमक लेकर आई। भले ही यह काम गैर-कानूनी था। (4) यही नहीं सफ़िया एक ईमानदार स्त्री है। उसके भाई ने कहा था कि जब वह नमक लेकर सरहद से गुजरेगी तो कस्टमवाले उसे पकड़ लेंगे। तब उसने अपनी ईमानदारी का परिचय देते हुए कहा था-“मैं क्या चोरी से ले जाऊँगी? छिपाके ले जाऊँगी? मैं तो दिखा के, जता के ले जाऊँगी। (5) सफ़िया में मानवता के गुण भी हैं। वह सोचती है कि भले ही भारत पाकिस्तान दो देश बन गए हों, परंतु यहाँ एक जैसी जमीन है, एक जुबान है, एक-सी सूरतें और लिबास हैं। फिर ये दो देश कैसे बन गए हैं। अपने भाई को टोकती हुई कहती है कि तुम बार-बार कानून की बात करते हो क्या सब कानून हुकूमत के होते हैं, कुछ मुहब्बत, मुरौवत, आदमियत, इंसानियत के नहीं होते? आखिर कस्टमवाले भी इंसान होते हैं कोई मशीन तो नहीं होते। प्रश्न 6. हैरानी की बात यह है कि भारत-पाक विभाजन हुए लंबा समय बीत चुका है, लेकिन सिख बीबी आज भी लाहौर को अपना वतन कहती है। उसे अपने वतन से बड़ा लगाव है इसलिए वह लाहौर का नमक चाहती है। भारतीय कस्टम अधिकारी ढाका के नारियल के पानी को लाजवाब मानता है। पाकिस्तानी कस्टम अधिकारी दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों को अपना सलाम भेजता है। वह कहता भी है-“जामा मस्जिद की सीढ़ियों को मेरा सलाम कहिएगा। उन खातून को यह नमक देते वक्त मेरी तरफ से कहिएगा कि लाहौर अभी तक उनका वतन है और देहली मेरा, तो बाकी सब रफ्ता-रफ्ता ठीक हो जाएगा।” प्रश्न 7. क्यों कहा गया प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. समझाइए तो ज़रा प्रश्न 1. प्रश्न 2. पाठ के आसपास प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. आपकी राय प्रश्न-
भाषा की बात प्रश्न 1.
(ख) वाक्य में ‘ही’ के प्रयोग से यह पता चलता है कि सारे कानून हुकूमत के नहीं होते। उनसे परे भी कुछ नियम होते हैं जिन पर हुकूमत का कानून भी प्रभावी नहीं हो सकता।
प्रश्न 2.
प्रश्न 3.
सजन के क्षण प्रश्न- इन्हें भी जानें 2. सैयद-मुसलमानों के चौथे खलीफा अली के वंशजों को सैयद कहा जाता है। 3. इकबाल-सारे जहाँ से अच्छा के गीतकार 4. नज़रुल इस्लाम-बांग्ला देश के क्रांतिकारी कवि 5. शमसुल इस्लाम-बांग्ला देश के प्रसिद्ध कवि 6. इस कहानी को पढ़ते हुए कई फिल्म, कई रचनाएँ, कई गाने आपके जेहन में आए होंगे। उनकी सूची बनाइए किन्हीं दो (फिल्म और रचना) की विशेषता को लिखिए। आपकी सुविधा के लिए कुछ नाम दिए जा रहे हैं।
7. सरहद और मज़हब के संदर्भ में इसे देखें- HBSE 12th Class Hindi नमक Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. सफ़िया ने गुस्से में जवाब दिया, “कस्टमवालों को जानें या न जाने पर हम इंसानों को थोड़ा-सा जरूर जानते हैं और रही दिमाग की बात सो अगर सभी लोगों का दिमाग हम अदीबों की तरह घूमा हुआ होता तो यह दुनिया कुछ बेहतर ही जगह हो जाती, भैया।” प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. बहविकल्पीय प्रश्नोत्तर 1. रजिया सज्जाद जहीर का जन्म कब हुआ? 2. रजिया सज्जाद जहीर का जन्म कहाँ हुआ? 3. रजिया सज्जाद जहीर ने किस विषय में एम.ए. की परीक्षा पास की ? 4. सन् 1947 में रज़िया सज्जाद ज़हीर अजमेर छोड़कर कहाँ चली गई? 5. रजिया सज्जाद जहीर ने किस व्यवसाय को अपनाया? 6. रज़िया सज्जाद ज़हीर का देहांत कब हुआ? 7. रज़िया सज्जाद ज़हीर को
निम्नलिखित में से कौन-सा पुरस्कार प्राप्त हुआ? 8. उत्तरप्रदेश की किस अकादेमी ने रज़िया सज्जाद ज़हीर को पुरस्कार देकर सम्मानित किया? 9. रज़िया सज्जाद ज़हीर को ‘सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार’ तथा ‘उर्दू अकादेमी
पुरस्कार’ के अतिरिक्त और कौन-सा पुरस्कार प्राप्त हुआ? 10. सन् 1965 में रज़िया सज्जाद जहीर की नियुक्ति कहाँ पर हुई? 11. रजिया सज्जाद जहीर के
एकमात्र कहानी संग्रह का नाम क्या है? 12. रजिया सज्जाद जहीर मूलतः किस भाषा की लेखिका हैं? 13. ‘नमक’ कहानी की लेखिका का नाम क्या है? 14. नमक कहानी का संबंध
किससे है? 15. सफिया पाकिस्तान के किस नगर में गई थी? 16. सफिया लाहौर जाने से पहले किस कार्यक्रम में गई थी? 17. सिख बीबी ने
किसे अपना वतन कहा? 18. कीर्तन कितने बजे समाप्त हुआ? 19. सिख बीबी ने सफिया से क्या तोहफा लाने के लिए कहा? 20. सफ़िया लाहौर में किसके पास गई थी? 21. सफिया का भाई क्या था? 22. सफिया ने बादामी कागज की पुड़िया में क्या बंद
कर रखा था? 23. कस्टमवालों के लिए क्या आवश्यक है? 24. ‘आखिर कस्टमवाले भी इंसान होते हैं, कोई मशीन तो नहीं होते’, यह कथन किसका है? 25. आप अदीब
ठहरी और सभी अदीबों का दिमाग थोड़ा-सा तो ज़रूर ही घूमा हुआ होता है। यहाँ अदीब शब्द किसके लिए प्रयोग हुआ है? 26. सफिया के कितने सगे भाई पाकिस्तान में थे? 27. पहले सफिया ने नमक की पुड़िया को कहाँ रखा? 28. सुनीलदास गुप्ता को सालगिरह पर उसके मित्र ने पुस्तक कब भेंट की? 29. कस्टम अधिकारी सुनीलदास गुप्ता को उसके बचपन के दोस्त ने किस अवसर पर पुस्तक भेंट की थी? 30. संतरे और माल्टे को मिलाकर कौन-सा फल तैयार किया जाता है? 31. सफिया के दोस्त ने कीनू देते हुए क्या कहा था? 32. किस रंग के कागज़ की पुड़िया में सेर भर सफेद लाहौरी नमक था? 33. “मुझे तो लाहौर का नमक चाहिए, मेरी माँ ने यही मँगवाया है।” वाक्य में सफिया ने अपनी माँ किसे कहा है? 34. “मुहब्बत तो कस्टम से इस तरह गुज़र जाती है कि कानून हैरान रह जाता है।” यह कथन किसका
है? 35. ‘नमक’ कहानी में सबसे अच्छा डाभ कहाँ का बताया गया है? 36. सफिया अपने को क्या कहती थी? 37. सुनील दास किसे अपना वतन मानता है? 38. सफ़िया कहाँ की रहने वाली है? 39. सुनीलदास गुप्त अपने दोस्त के साथ बचपन में किन साहित्यकारों को पढ़ते थे? 40. अमृतसर में सफिया के सामान की जाँच करने वाले नौजवान कस्टम अधिकारी बातचीत और
सूरत से कैसे लगते थे? 41. ‘नमक’ पाठ के अनुसार क्या चीज़ हिंदुस्तान-पाकिस्तान की एकता का मेवा है? 42. सफिया की अम्मा सफेद बारीक मलमल का दुपट्टा कब ओढ़ा करती थी? 43. “हमारा वतन तो जी लाहौर ही है” यह कथन किसका
है? 44. सफिया अपने भाइयों से मिलने कहाँ जा रही थी? नमक प्रमुख गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या [1] उन सिख बीबी को देखकर सफिया हैरान रह गई थी, किस कदर वह उसकी माँ से मिलती थी। वही भारी भरकम जिस्म, छोटी-छोटी चमकदार आँखें, जिनमें नेकी, मुहब्बत और रहमदिली की रोशनी जगमगाया करती थी। चेहरा जैसे कोई खुली हुई किताब। वैसा ही सफेद बारीक मलमल का दुपट्टा जैसा उसकी अम्मा मुहर्रम में ओढ़ा करती थी। जब सफिया ने कई बार उनकी तरफ मुहब्बत से देखा तो उन्होंने भी उसके बारे में घर की बहू से पूछा। उन्हें बताया गया कि ये मुसलमान हैं। कल ही सुबह लाहौर जा रही हैं अपने भाइयों से मिलने, जिन्हें इन्होंने कई साल से नहीं देखा। लाहौर का नाम सुनकर वे उठकर सफिया के पास आ बैठी और उसे बताने लगी कि उनका लाहौर कितना प्यारा शहर है। वहाँ के लोग कैसे खूबसूरत होते हैं, उम्दा खाने और नफीस कपड़ों के शौकीन, सैर-सपाटे के रसिया, जिंदादिली की तसवीर। [पृष्ठ-130] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘नमक’ में से लिया गया है। इसकी लेखिका रजिया सज्जाद ज़हीर हैं। ‘नमक’ उनकी एक उल्लेखनीय कहानी है, जिसमें लेखिका ने भारत-पाक विभाजन के बाद दोनों देशों के विस्थापित तथा पुनर्वासित लोगों की भावनाओं का मार्मिक वर्णन किया है। विस्थापित होकर भारत में रहने वाली सिख बीबी लाहौर को अपना वतन समझती है और वहाँ से नमक मँगवाना चाहती है, परंतु पाकिस्तान से नमक लाना गैरकानूनी है। सफ़िया जब कीर्तन में उन सिख बीबी को देखती है तो उनमें उसे अपनी माँ की झलक दिखती है। वह सिख बीबी सफिया से लाहौर और वहाँ के लोगों की अच्छाइयाँ बताती है। इसी संदर्भ में लेखिका कहती है व्याख्या-उस सिख बीबी को देखकर सफिया हैरान हो गई कि किस प्रकार वह उसकी माँ से मिलती थी। उसका परिचय देते हुए सफ़िया कहती है कि उस सिख बीबी का शरीर भारी था, परंतु उसकी आँखें छोटी-छोटी तथा चमकदार थीं। उसकी आँखों से नेकी, प्रेम और दयालुता का प्रकाश जगमगाता था। उसका चेहरा क्या था, मानों कोई खुली हुई पुस्तक हो। उसके सिर पर श्वेत रंग का बहुत ही पतला मलमल का दुपट्टा था। इसी प्रकार का दुपट्टा उसकी माँ मुहर्रम के अवसर पर ओढ़ती थी। सफ़िया ने अनेक बार उसकी ओर प्यार से देखा। फलस्वरूप सिख बीबी ने लेखिका के बारे में घर की बहू से पूछ ही लिया। तब उसकी बहू ने बताया कि ये महिला मुसलमान है। कल सवेरे यह अपने भाइयों से मिलने लाहौर जा रही है। इसने अपने भाइयों को कई सालों से नहीं देखा है। जब सिख बीबी ने लाहौर का नाम सुना तो वह लेखिका के पास आकर बैठ गई और कहने लगी कि उसका लाहौर बहुत प्यारा शहर है। लाहौर के निवासी बड़े सुंदर और अच्छा खाना खाने वाले होते हैं और यही नहीं सुरुचिपूर्ण कपड़े पहनने के शौकीन होते हैं। उन्हें घूमने-फिरने से भी लगाव है। लाहौर और वहाँ के निवासी उत्साह और जोश की मूर्ति दिखाई देते हैं। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) सिख बीबी को देखकर सफ़िया इसलिए हैरान रह गई क्योंकि उसकी शक्ल उसकी माँ से मिलती थी। सफ़िया की माँ की तरह उसका शरीर भारी-भरकम, छोटी चमकदार आँखें, जिनसे दयालुता का प्रकाश विकीर्ण हो रहा था। सिख बीबी का मुख उसकी माँ जैसा था और उसने उसकी माँ की तरह मलमल का दुपट्टा ओढ़ रखा था, जो उसकी माँ मुहर्रम पर ओढ़ा करती थी। (ग) घर की बहू ने सिख बीबी को सफिया के बारे में यह बताया कि वह एक मुसलमान है और उसके भाई लाहौर में रहते हैं। वह पिछले कई सालों से अपने भाइयों से नहीं मिली। इसलिए वह उनसे मिलने लाहौर जा रही है। (घ) सिख बीबी ने सफ़िया को कहा कि लाहौर बहुत ही प्यारा शहर है। वहाँ के लोग न केवल सुंदर होते हैं, बल्कि सुरुचिपूर्ण कपड़े पहनते हैं। वे घूमने-फिरने के भी शौकीन हैं। उनमें उत्साह व जोश भी बहुत है। [2] “अरे बाबा, तो मैं कब कह रही हूँ कि
वह ड्यूटी न करें। एक तोहफा है, वह भी चंद पैसों का, शौक से देख लें, कोई सोना-चाँदी नहीं, स्मगल की हुई चीज़ नहीं, ब्लैक मार्केट का माल नहीं।” प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘नमक’ में से लिया गया है। इसकी लेखिका रज़िया सज्जाद जहीर हैं। ‘नमक’ उनकी एक उल्लेखनीय कहानी है, जिसमें लेखिका ने भारत-पाक विभाजन के बाद दोनों देशों के विस्थापित तथा पुनर्वासित लोगों की भावनाओं का मार्मिक वर्णन किया है। विस्थापित होकर भारत में रहने वाली सिख बीबी लाहौर को अपना वतन मानती है और वहाँ से नमक मँगवाना चाहती है, परंतु पाकिस्तान से नमक मँगवाना गैर-कानूनी है। यहाँ लेखिका ने अपने और अपने भाई के वार्तालाप को प्रस्तुत किया है। व्याख्या-लेखिका अपने पुलिस अधिकारी भाई से कहती है कि मैं यह कब कहती हूँ कि कस्टमवाले अपने कर्तव्य का पालन न करें। मैं तो मात्र एक छोटी-सी भेंट लेकर जा रही हूँ, जो थोड़े पैसों में खरीदी जा सकती है और वे इसकी अच्छी प्रकार जाँच कर सकते हैं। यह थोड़ा-सा नमक है, न सोना है, न चाँदी है। यह स्मगल की गई कोई वस्तु नहीं है, और न ही कोई काला-बाज़ारी का माल है। लेखिका की बातों का उत्तर देते हुए उसके भाई ने कहा कि अब आपसे कौन बहस कर सकता है, क्योंकि आप एक साहित्यकार हैं और साहित्यकारों का दिमाग थोड़ा सा घूमा हुआ होता ही है। लेकिन मैं आपको यह बता दूँ कि आप यह भेंट भारत नहीं ले जा सकेंगी। इससे हम सबको अपयश अवश्य ही मिलेगा। आप कस्टम अधिकारियों के बारे में कितना जानती हैं। वह प्रत्येक वस्तु की अच्छी तरह जाँच-पड़ताल करते हैं। तब सफ़िया ने क्रोधित होकर अपने भाई से कहा कि कस्टम वालों को चाहे कोई न जाने परंतु मैं मनुष्यों को थोड़ा बहुत अच्छी तरह जानती हूँ। जहाँ तक बुद्धि का सवाल है तो हम जैसे साहित्यकारों के समान लोगों का भी दिमाग थोड़ा घूमा हुआ होता तो यह संसार बहुत उत्तम होता। लेकिन दुख इस बात का है कि लोगों के पास हम जैसा दिमाग नहीं है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) सफिया का भाई अपनी बहन को साहित्यकार कहता है तथा यह भी कहता है कि सभी साहित्यकारों का दिमाग थोड़ा-सा हिला हुआ होता है। इस पागलपन में उसकी बहन नमक तो नहीं ले जा सकेगी, पर उसकी बदनामी अवश्य होगी। (ग) सफ़िया का मानवता पर पूर्ण विश्वास है। वह सोचती है कि सीमा शुल्क अधिकारी भी इंसान होते हैं और वे इस बात को समझेंगे कि यह नमक केवल प्रेम की भेंट है, जिसे वह सिख बीबी के लिए लेकर जा रही है। (घ) सफ़िया का विचार है कि सभी लोगों का दिमाग अगर साहित्यकारों जैसा हो, तथा उनकी सोच भी साहित्यकारों जैसी हो तो यह संसार आज और अच्छा होता। (ङ) सफ़िया का भाई कानून को मानने वाला इंसान है। इसलिए वह कहता है कि कस्टम अधिकारी नमक को भारत नहीं ले जाने देंगे परंतु सफिया कानून के साथ-साथ प्रेम, मुहब्बत तथा मनुष्यता को भी महत्त्व देती है। इसलिए उसका विश्वास है कि कस्टम अधिकारी भेंट के रूप में ले जाए रहे नमक को नहीं रोकेंगे। [3] अब तक सफिया का गुस्सा उतर चुका था। भावना के स्थान पर बुद्धि धीरे-धीरे उस पर हावी हो रही थी। नमक की पुड़िया ले तो जानी है, पर कैसे? अच्छा, अगर इसे हाथ में ले लें और कस्टमवालों के सामने सबसे पहले इसी को रख दें? लेकिन अगर कस्टमवालों ने न जाने दिया! तो मज़बूरी है, छोड़ देंगे। लेकिन फिर उस वायदे का क्या होगा जो हमने अपनी माँ से किया था? हम अपने को सैयद कहते हैं। फिर वायदा करके झुठलाने के क्या मायने? जान देकर भी वायदा पूरा करना होगा। मगर कैसे? अच्छा, अगर इसे कीनुओं की टोकरी में सबसे नीचे रख लिया जाए तो इतने कीनुओं के ढेर में भला कौन इसे देखेगा? और अगर देख लिया? नहीं जी, फलों की टोकरियाँ तो आते वक्त भी किसी की नहीं देखी जा रही थीं। उधर से केले, इधर के कीनू सब ही ला रहे थे, ले जा रहे थे। यही ठीक है, फिर देखा जाएगा। [पृष्ठ-133] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘नमक’ में से लिया गया है। इसकी लेखिका रज़िया सज्जाद ज़हीर हैं। ‘नमक’ लेखिका की एक उल्लेखनीय कहानी है, जिसमें लेखिका ने भारत-पाक विभाजन के बाद दोनों देशों के विस्थापित तथा पुनर्वासित लोगों की भावनाओं का मार्मिक वर्णन किया है। विस्थापित होकर भारत में रहने वाली सिख बीबी लाहौर से नमक मँगवाना चाहती है, परंतु पाकिस्तान से नमक मँगवाना गैर-कानूनी है। यहाँ लेखिका ने सफ़िया की मनःस्थिति का परिचय दिया है। भावना के स्थान पर बुद्धि हावी हो चुकी थी। इसलिए वह यह सोचने पर मजबूर हो जाती है कि वह नमक को भारत कैसे ले जाए। व्याख्या-धीरे-धीरे सफ़िया का क्रोध दूर होने लगा। भावनाओं का उबाल मंद पड़ चुका था। भावनाओं के स्थान पर बुद्धि उसे सोचने पर मजबूर कर रही थी। वह सोचने लगी कि उसे नमक तो ले जाना है, पर वह नमक को किस प्रकार ले जाए। यह एक विचारणीय प्रश्न है। वह सोचती है कि यदि वह नमक को अपने हाथ में ले ले और कस्टम अधिकारियों के समक्ष इसी को प्रस्तुत कर दे, तो इसका परिणाम क्या होगा। हो सकता है कि वह उसे नमक न ले जाने दें। ऐसी स्थिति में मजबूर होकर उसे नमक वहीं छोड़ना पड़ेगा। अगले क्षण वह सोचने लगी कि उसके वचन का क्या होगा, जो उसने अपनी माँ जैसी औरत को दिया था। सफ़िया सोचती है कि हम लोग सैयद माने जाते हैं और सैयद हमेशा वादा निभाते हैं। यदि मैंने अपना वचन न निभाया तो क्या होगा। मुझे अपने प्राण देकर भी यह वचन पूरा करना चाहिए। पर यह कैसे हो, यह सोचने की बात है। अगले ही क्षण सफ़िया सोचने लगी कि मैं कीनुओं की टोकरी के नीचे इस नमक की पोटली को रख दूँ। ऊपर कीनुओं का ढेर होगा। इन कीनुओं के नीचे कोई नमक को नहीं देख पाएगा। यदि किसी ने देख लिया तो क्या होगा? पर सफिया सोचने लगी कि ऐसा नहीं होगा। आते समय फलों की टोकरियों की जाँच नहीं हो रही थी। उधर से लोग केले ला रहे थे, इधर से कीनू ले जा रहे थे। इसलिए यही अच्छा है कि मैं नमक को कीनुओं के नीचे ही रख दूँ। जो होगा देखा जाएगा। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) सफ़िया के मन में यह द्वंद्व चल रहा था कि वह नमक हाथ में रखकर सीमा शुल्क अधिकारियों के समक्ष रख देगी। परंतु उसे विचार आया कि यदि अधिकारी न माने तो उसे नमक वहीं पर छोड़ना पड़ेगा, परंतु उसे फिर ध्यान आया कि जो वचन वह देकर आई थी, उस वचन का क्या होगा। (ग) सफ़िया सैयद मुसलमान थी और सैयद लोग हमेशा अपने वादे को निभाते हैं तथा सच्चा सैयद वही होता है जो अपनी जान देकर भी अपना वादा पूरा करता है। सफ़िया भी यही करना चाहती थी। (घ) अंत में सफ़िया ने यह फैसला लिया कि वह नमक की पुड़िया को कीनुओं की टोकरी की तह में रखकर ले जाएगी। जब वह भारत से आई थी तब उसने देखा कि अधिकारी फलों की जाँच नहीं कर रहे थे। भारत से लोग केले ला रहे थे, पाकिस्तान से लोग कीनू ले जा रहे थे। [4] उसने कीनू कालीन पर उलट दिए। टोकरी खाली की और नमक की पुड़िया उठाकर टोकरी की तह में रख दी। एक बार झाँककर उसने पुड़िया को देखा और उसे ऐसा महसूस हुआ मानो उसने अपनी किसी प्यारे को कब्र की गहराई में उतार दिया हो! कुछ देर उकईं बैठी वह पुड़िया को तकती रही और उन कहानियों को याद करती रही जिन्हें वह अपने बचपन में अम्मा से सुना करती थी, जिनमें शहजादा अपनी रान चीरकर हीरा छिपा लेता था और देवों, खौफनाक भूतों तथा राक्षसों के सामने से होता हुआ सरहदों से गुज़र जाता था। इस ज़माने में ऐसी कोई तरकीब नहीं हो सकती थी वरना वह अपना दिल चीरकर उसमें यह नमक छिपा लेती। उसने एक आह भरी। [पृष्ठ-133] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य
भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘नमक’ में से लिया गया है। इसकी लेखिका रजिया सज्जाद ज़हीर हैं। ‘नमक’ लेखिका की एक उल्लेखनीय कहानी है, जिसमें लेखिका ने भारत-पाक विभाजन के बाद दोनों देशों के विस्थापित तथा पुनर्वासित लोगों की भावनाओं का मार्मिक वर्णन किया है। विस्थापित होकर भारत में रहने वाली सिख बीबी लाहौर से नमक मँगवाना चाहती है, परंतु पाकिस्तान से नमक मँगवाना गैर-कानूनी है। यहाँ लेखिका ने सफिया के द्वंद्व का उद्घाटन किया है। सफिया सोच नहीं पा रही थी कि वह किस प्रकार नमक को
छिपाकर भारत ले जाए। अंत में उसने निर्णय किया कि वह व्याख्या-सफ़िया ने सारे कीनू कालीन पर पलट डाले और टोकरी को खाली कर दिया। अब उसने पुड़िया को उठाया तथा टोकरी की तह में रख दिया। उसने एक बार पुड़िया को देखा, तब उसे ऐसा अनुभव हुआ कि मानो अपने किसी प्रियजन को कब्र की गहराई में उतार दिया है। कुछ देर सफ़िया उकईं बैठी रही और पुड़िया को देखती रही। वह उन कहानियों को याद करने लगी, जिन्हें उसने अपनी माँ से सुना था कि एक राजकुमार ने अपनी जंघा को चीरकर उसमें एक हीरा छिपा लिया था। वह देवताओं, भयानक भूतों तथा राक्षसों के बीच होता हुआ सीमा पार चला गया था। वह सोचने लगी कि आधुनिक संसार में ऐसा कोई तरीका नहीं है जिसे अपनाकर नमक की पुड़िया को ले जाया जा सके। वह सोचती है कि काश वह अपना दिल चीरकर उसमें नमक की पुड़िया ले जाती पर वह एक निराशा की आह भरकर रह गई। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) सफ़िया को लगा कि कीनू की टोकरी में नमक को दबाना मानो किसी प्रिय जन को कब्र की गहराई में उतारना है। (ग) सफ़िया बचपन में सुनी राजकुमारों की कहानियों को इसलिए याद करने लगी क्योंकि वह किसी भी तरह इस भेंट को भारत ले जाना चाहती थी। (घ) वस्तुतः सफिया को देवता शब्द का समुचित ज्ञान नहीं है। वह नहीं जानती कि देवी-देवता हिंदुओं के लिए पूजनीय होते हैं। अपनी ना-समझी के कारण खौफनाक भूतों तथा राक्षसों के साथ देवताओं का प्रयोग कर देती है जोकि अनुचित है। (ङ) सफिया ने राजकुमार के कारनामों को सुनकर आह इसलिए भरी क्योंकि वह राजकुमारों जैसे कारनामे नहीं कर सकती थी। सफ़िया द्वारा आह भरना उसकी निराशा तथा मजबूरी का प्रतीक है। [5] रात को तकरीबन डेढ़ बजे थे। मार्च की सुहानी हवा खिड़की की जाली से आ रही थी। बाहर चाँदनी साफ और ठंडी थी। खिड़की के करीब लगा चंपा का एक घना दरख्त सामने की दीवार पर पत्तियों के अक्स लहका रहा था। कभी किसी तरफ से किसी की दबी हुई खाँसी की आहट, दूर से किसी कुत्ते के भौंकने या रोने की आवाज, चौकीदार की सीटी और फिर सन्नाटा! यह पाकिस्तान था। यहाँ उसके तीन सगे भाई थे, बेशमार चाहनेवाले दोस्त थे, बाप की कब्र थी, नन्हे-नन्हे भतीजे-भतीजियाँ थीं जो उससे बड़ी मासूमियत से पूछते, ‘फूफीजान, आप हिंदुस्तान में क्यों रहती हैं, जहाँ हम लोग नहीं आ सकते।’ उन सबके और सफिया के बीच में एक सरहद थी और बहुत ही नोकदार लोहे की छड़ों का जंगला, जो कस्टम कहलाता था। [पृष्ठ-133-134] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘नमक’ में से लिया गया है। इसकी लेखिका रज़िया सज्जाद ज़हीर हैं। ‘नमक’ उनकी एक उल्लेखनीय कहानी है, जिसमें लेखिका ने भारत-पाक विभाजन के बाद दोनों देशों के विस्थापित तथा पुनर्वासित लोगों की भावनाओं का मार्मिक वर्णन किया है। विस्थापित होकर भारत में रहने वाली सिख बीबी लाहौर को अपना वतन मानती है और वहाँ से नमक मँगवाना चाहती है, परंतु पाकिस्तान से नमक मँगवाना गैर-कानूनी है। यहाँ लेखिका ने प्रकृति का वर्णन करते हुए भारत-पाक विभाजन की स्थिति पर समुचित प्रकाश डाला है। व्याख्या-रात के लगभग डेढ़ बज चुके थे। मार्च का महीना था और खिड़की की जाली में से बड़ी सुंदर और ठंडी-ठंडी हवा अंदर आ रही थी। बाहर चाँदनी स्वच्छ और ठंडी लग रही थी। खिड़की के पास चम्पा का सघन पेड़ था। सामने की दीवार पर उस पेड़ के पत्तों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था। चारों ओर मौन छाया था। फिर भी किसी तरफ से दबी हुई खाँसी की आवाज़ आ जाती थी। दूर से किसी कुत्ते का भौंकना या रोना सुनाई दे रहा था। बीच-बीच में चौकीदार की सीटी बजती रहती थी, फिर चारों ओर मौन का वातावरण छा जाता था। सफ़िया पुनः कहती है कि यह पाकिस्तान था जहाँ उसके तीन सगे भाई रहते थे। असंख्य प्रेम करने वाले मित्र और संबंधी थे। उसके पिता की कब्र भी यहीं थी। उसके छोटे-छोटे भतीजे और भतीजियाँ भी थीं। जो बड़े भोलेपन से पूछते थे कि आप हिंदुस्तान में क्यों रह रही हैं। जहाँ हम आ नहीं सकते अर्थात हमारा हिंदुस्तान में आना वर्जित है। सफ़िया और उनके मध्य एक सीमा बनी हुई थी जहाँ नोकदार छड़ों का जंगला बना था, जिसको सीमा शुल्क (कस्टम) विभाग कहा जाता है। यही सीमा भारत और पाकिस्तान को अलग-अलग करती है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) कभी किसी तरफ से दबी खाँसी की आवाज़, दूर से कुत्ते का भौंकना एवं रोना और चौकीदार की सीटी की आवाज़ रात के सन्नाटे को भंग कर रही थी। (ग) पाकिस्तान में सफिया के तीन सगे भाई थे। असंख्य प्रिय मित्र थे, उसके पिता की कब्र थी और छोटे-छोटे भतीजे-भतीजियाँ थीं। (घ) भतीजे-भतीजियों ने भोलेपन से सफ़िया से पूछा कि फूफीजान आप हिंदुस्तान में क्यों रहती हैं, जहाँ हम लोग नहीं आ सकते। (ङ) सफ़िया का कहना है कि उसके सगे-संबंधियों तथा उसके बीच एक सीमा बनी थी। जहाँ नोकदार लोहे की छड़ों का जंगला लगा था, इसी को कस्टम कहा जाता था। [6] जब उसका सामान कस्टम पर जाँच के लिए बाहर निकाला जाने लगा तो उसे एक झिरझिरी-सी आई और एकदम से उसने फैसला किया कि मुहब्बत का यह तोहफा चोरी से नहीं जाएगा, नमक कस्टमवालों को दिखाएगी वह। उसने जल्दी से पुड़िया निकाली और हैंडबैग में रख ली, जिसमें उसका पैसों का पर्स और पासपोर्ट आदि थे। जब सामान कस्टम से होकर रेल की तरफ चला तो वह एक कस्टम अफसर की तरफ बढ़ी। ज्यादातर मेजें खाली हो चुकी थीं। एक-दो पर इक्का-दुक्का सामान रखा था। वहीं एक साहब खड़े थे लंबा कद, दुबला-पतला जिस्म, खिचड़ी बाल, आँखों पर ऐनक। वे कस्टम अफसर की वर्दी पहने तो थे मगर उन पर वह कुछ अँच नहीं रही थी। सफिया कुछ हिचकिचाकर बोली, “मैं आपसे कुछ पूछना चाहती हूँ।” [पृष्ठ-135] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘नमक’ में से लिया गया है। इसकी लेखिका रज़िया सज्जाद ज़हीर हैं। ‘नमक’ लेखिका की उल्लेखनीय कहानी है, जिसमें लेखिका ने भारत-पाक विभाजन के बाद दोनों देशों के विस्थापित तथा पुनर्वासित लोगों की भावनाओं का मार्मिक वर्णन किया है। विस्थापित होकर भारत में रहने वाली सिख बीबी लाहौर को अपना वतन मानती है और वहाँ से नमक मँगवाना चाहती है, परंतु पाकिस्तान से नमक लाना गैर-कानूनी है। यहाँ सफ़िया ने उस स्थिति का वर्णन किया, जब उसका सामान कस्टम पर जाँच के लिए बाहर निकाला जा रहा था। व्याख्या-सफ़िया कहती है कि आखिर वह समय भी आ गया जब उसका सामान कस्टम पर जाँच के लिए बाहर निकाला जा रहा था। उस समय उसके शरीर में एक कम्पन-सा उत्पन्न हो गया। अचानक उसने निर्णय लिया कि प्रेम की इस भेंट को वह चोरी से नहीं ले जाएगी बल्कि वह कस्टम अधिकारियों को यह नमक दिखाकर ले जाएँगी। शीघ्रता से उसने नमक की पुड़िया को कीनुओं की टोकरी से निकाल लिया और हैंडबैग में रख लिया। हैंडबैग में सफिया के पैसों का बटुआ और पासपोर्ट भी था। उसका सामान कस्टम से भारत जाने वाली रेल पर चढ़ाया जाने लगा। तो वह एक सीमा शुल्क अधिकारी की ओर बढ़ने लगी। अधिकतर मेजें अब खाली हो चुकी थीं। केवल एक-दो मेजों पर थोड़ा-बहुत सामान रखा था। वहीं एक सीमा शुल्क अधिकारी खड़ा था, जिसका कद लंबा था, परंतु शरीर दुबला-पतला था। उसके बाल आधे काले और आधे सफेद थे। उसने आँखों पर ऐनक पहन रखी थी। यद्यपि उसने शरीर पर सीमा शुल्क अधिकारी की वर्दी पहन रखी थी, परंतु वह वर्दी उसके शरीर के अनुकूल नहीं थी। सफ़िया ने थोड़ा सा साहस करके हिचकिचाते हुए कहा कि मैं आपसे कुछ पूछना चाहती हूँ। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) जब सफ़िया का सामान कस्टम से रेल की तरफ जा रहा था तो वह एक कस्टम अधिकारी की ओर बढ़ी। (ग) सफ़िया ने लिखा है कि कस्टम अधिकारी का कद लंबा था, परंतु उसका शरीर दुबला-पतला था। सिर के बाल खिचड़ी थे और आँखों पर ऐनक लगा रखी थी। भले ही उसने कस्टम अधिकारी की वर्दी पहन रखी थी पर वह उस पर जच नहीं रही थी। (घ) क्योंकि सफिया को यह डर था कि उसके पास नमक की पुड़िया है जिसे पाकिस्तान से भारत ले जाने की आज्ञा नहीं थी। इसलिए उसने हिचकिचाकर कस्टम अधिकारी से बात की। [7] सफ़िया ने हैंडबैग मेज़ पर रख दिया और नमक की पुड़िया निकालकर उनके सामने रख दी और फिर आहिस्ता-आहिस्ता रुक-रुक कर उनको सब कुछ बता दिया। उन्होंने पुड़िया को धीरे से अपनी तरफ सरकाना शुरू किया। जब सफिया की बात खत्म हो गई तब उन्होंने पुड़िया को दोनों हाथों में उठाया, अच्छी तरह लपेटा और खुद सफिया के बैग में रख दिया। बैग सफिया को देते हुए बोले, “मुहब्बत तो कस्टम से इस तरह गुज़र जाती है कि कानून हैरान रह जाता है।” वह चलने लगी तो वे भी खड़े हो गए और कहने लगे, “जामा मस्जिद की सीढ़ियों को मेरा सलाम कहिएगा और उन खातून को यह नमक देते वक्त मेरी तरफ से कहिएगा कि लाहौर अभी तक उनका वतन है और देहली मेरा, तो बाकी सब रफ्ता-रफ्ता ठीक हो जाएगा।” [पृष्ठ-135] प्रसंग -प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘नमक’ में से लिया गया है। इसकी लेखिका रज़िया सज्जाद ज़हीर हैं। ‘नमक’ लेखिका की एक उल्लेखनीय कहानी है, जिसमें लेखिका ने भारत-पाक विभाजन के बाद दोनों देशों के विस्थापित तथा पुनर्वासित लोगों की भावनाओं का मार्मिक वर्णन किया है। विस्थापित होकर भारत में रहने वाली सिख बीबी लाहौर को अपना वतन मानती है और वहाँ से नमक मँगवाना चाहती है, परंतु पाकिस्तान से नमक मँगवाना गैर-कानूनी है। यहाँ लेखिका ने सफ़िया और कस्टम अधिकारी के बीच की बात का वर्णन किया है, कि प्रेम का तोहफा कभी सीमाओं की परवाह नहीं करता।। व्याख्या-सफ़िया ने हैंडबैग कस्टम अधिकारी की मेज़ पर रख दिया और उसमें से नमक की पुड़िया निकालकर अफसर के सामने रख दी। तत्पश्चात् उसने डरते-डरते सब-कुछ बता दिया। कस्टम अधिकारी ने पुड़िया को धीरे से अपनी तरफ सरकाना आरंभ कर दिया। जब सफ़िया सारी बात कह चुकी तब कस्टम अधिकारी ने नमक की पुड़िया को अपने हाथों में ले लिया और ठीक से कागज में लपेट लिया। उसने स्वयं नमक की पुड़िया सफिया के बैग में रख दी और कहा कि प्यार सीमा शुल्क से इस प्रकार गुज़र जाता है कि कानून को पता भी नहीं चलता और कानून आश्चर्यचकित हो जाता है। जब सफ़िया वहाँ से चलने लगी तो सीमा शुल्क अधिकारी भी खड़ा हो गया और कहता है कि दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों को मेरा सलाम कहना और जब उस सिख बीबी को नमक देने लगो तो मेरी तरफ से कहना कि लाहौर अभी भी उनका वतन है और दिल्ली मेरा वतन है। आज जो स्थिति बनी हुई है वह भी धीरे-धीरे ठीक हो जाएगी। एक बार पुनः पाकिस्तान और भारत के संबंध सुधर जाएँगे। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) कस्टम अधिकारी पाकिस्तान का निवासी था, परंतु मूलतः वह दिल्ली का था। उसने नमक की पुड़िया सफिया को इसलिए लौटा दी, क्योंकि वह प्यार की भेंट थी। वह अधिकारी प्रेम-प्यार को फलते-फूलते देखना चाहता था। (ग) कस्टम अधिकारी के कहने का भाव यह है कि प्रेम-प्यार की भेंट पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं चलती और न ही अधिकारी उसकी जाँच करते हैं बल्कि वे प्रेम की भेंट को प्रेमपूर्वक भिजवा देते हैं। यही कारण है कि कानून को इसका पता नहीं चलता। (घ) कस्टम अधिकारी ने सफिया से कहा कि जामा मस्जिद की सीढ़ियों को मेरा सलाम कहना और सिख बीबी को नमक की पुड़िया देते समय कहना कि लाहौर अब भी उनका वतन है और मेरा वतन दिल्ली है। यदि इस प्रकार की मानसिकता भारत वासियों तथा पाकिस्तान में बनी रहेगी तो भारत-पाक संबंध एक दिन सुधर जाएंगे। (ङ) कस्टम अधिकारी का विचार है कि चाहे भारतवासी हों या पाकिस्तानी हों, दोनों आपस में स्नेह और प्रेम से रहना चाहते हैं। जब लोगों की ऐसी भावना है तो निश्चय ही भारत-पाक सीमाएँ समाप्त हो जाएंगी। [8] प्लेटफार्म पर उसके बहुत से दोस्त, भाई रिश्तेदार थे, हसरत भरी नज़रों, बहते हुए आँसुओं, ठंडी साँसों और भिचे हुए होठों को बीच में से काटती हुई रेल सरहद की तरफ बढ़ी। अटारी में पाकिस्तानी पुलिस उतरी, हिंदुस्तानी पुलिस सवार हुई। कुछ समझ में नहीं आता था कि कहाँ से लाहौर खत्म हुआ और किस जगह से अमृतसर शुरू हो गया। एक ज़मीन थी, एक ज़बान थी, एक-सी सूरतें और लिबास, एक-सा लबोलहजा और अंदाज़ थे, गालियाँ भी एक ही-सी थीं, जिनसे दोनों बड़े प्यार से एक-दूसरे को नवाज़ रहे थे। बस मुश्किल सिर्फ इतनी थी कि भरी हुई बंदूकें दोनों के हाथों में थीं। [पृष्ठ-135-136] प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘नमक’ में से लिया गया है। इसकी लेखिका रज़िया सज्जाद जहीर हैं। ‘नमक’ लेखिका की एक उल्लेखनीय कहानी है, जिसमें उन्होंने भारत-पाक विभाजन के बाद दोनों देशों के विस्थापित तथा पुनर्वासित लोगों की भावनाओं का मार्मिक चित्रण किया है। इसमें विस्थापित होकर भारत में आई सिख बीबी लाहौर को अपना वतन मानती है और वहाँ से नमक मँगवाना चाहती है, परंतु पाकिस्तान से नमक मँगवाना गैर-कानूनी है। यहाँ लेखिका ने रेलवे स्टेशन के उस प्लेटफार्म का वर्णन किया है जो पाकिस्तान की सीमा पर स्थित है। व्याख्या-लेखिका कहती है कि सफ़िया के बहुत से दोस्त, भाई तथा सगे-संबंधी प्रेमपूर्वक दृष्टि से उसे देख रहे थे। कुछ लोग आँसू बहा रहे थे, कुछ ठंडी आँहें भरकर उसे विदाई दे रहे थे। कुछ लोग अपने होठों को भींचकर आँसुओं को रोकने का प्रयास कर रहे थे। रेलगाड़ी इन सब लोगों के बीच से गुजरकर भारत-पाक सीमा की तरफ बढ़ने लगी। अटारी स्टेशन आते ही पाकिस्तान पुलिस व उनके अधिकारी रेलगाड़ी से उतर गए और हिंदुस्तानी अधिकारी उस गाड़ी में चढ़ गए। उस समय यह पता ही नहीं चल रहा था कि किस स्थान पर लाहौर खत्म हुआ और किस स्थान से अमृतसर शुरू हुआ। कहने का भाव यह है कि भारत-पाकिस्तान की ज़मीन वहाँ की प्रकृति और वातावरण सब कुछ एक जैसा था। लेखिका कहती भी है-एक ज़मीन थी और पाकिस्तानियों तथा भारतवासियों की एक ही जुबान थी। एक जैसी शक्लें थीं, एक ही जैसी वेशभूषा थी। यही नहीं उनकी बातचीत करने का ढंग एक जैसा था। हैरानी की बात तो यह है कि गालियाँ भी एक जैसी थीं जो दोनों एक-दूसरे को बड़े प्यार से निकाल रहे थे। कठिनाई केवल इस बात की थी कि दोनों तरफ के अधिकारियों के हाथों में बंदूकें थीं, जो लोगों में भय उत्पन्न करती थीं। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) अटारी एक स्टेशन का नाम है जहाँ से भारत की सीमा आरंभ होती है। यहाँ पर पाकिस्तानी पुलिस उतर जाती है और भारतीय पुलिस सवार हो जाती है। इसी प्रकार पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन से भारतीय पुलिस उतर जाती है और पाकिस्तानी पुलिस सवार हो जाती है। (ग) सफ़िया को लाहौर और अमृतसर में कोई अंतर प्रतीत नहीं हुआ। कारण यह था कि दोनों नगरों के लोगों की भाषा, ज़मीन, वेश-भूषा, बोलचाल, हावभाव तथा गालियाँ देने का ढंग लगभग एक जैसा था। दोनों में लोग एक-दूसरे से मिलकर बात-चीत कर रहे थे। (घ) भारत और पाकिस्तान के निवासियों के बीच सबसे बड़ी मुश्किल है-दोनों देशों का विभाजन। जिसे लोग नहीं चाहते थे। राजनीतिक कारणों से अब दोनों अलग होकर एक-दूसरे के दुश्मन बन गए हैं। दोनों ओर की सेनाएँ हमेशा बंदूकें ताने रहती हैं। नमक Summary in Hindiनमक लेखिका-परिचय प्रश्न- 2. प्रमुख रचनाएँ-उनकी एकमात्र रचना का नाम है ‘ज़र्द गुलाब’। यह एक उर्दू कहानी-संग्रह है। 3. साहित्यिक विशेषताएँ मूलतः रज़िया सज्जाद ज़हीर उर्दू की प्रसिद्ध लेखिका हैं। उन्हें महिला कहानीकार कहना ही उचित होगा, क्योंकि उन्होंने केवल कहानियाँ ही लिखी हैं। उनके पास एक प्राध्यापिका का कोमल हृदय है। अतः उनकी कहानियाँ जीवन के कोमलपक्ष का उद्घाटन करती हैं। कथावस्तु, पात्र चरित्र-चित्रण, देशकाल, संवाद, भाषा-शैली तथा उद्देश्य की दृष्टि से उनकी कहानियाँ सफल कही जा सकती हैं। संवेदनशीलता उनकी कहानियों की प्रमुख विशेषता है। उन्हें हम मानवतावादी लेखिका भी कह सकते हैं। रज़िया सज्जाद ज़हीर की कहानियों में जहाँ एक ओर सामाजिक सद्भाव और धार्मिक सहिष्णुता है, वहाँ दूसरी ओर आधुनिक संदर्भो में बदलते हुए पारिवारिक मूल्यों का वर्णन भी है। उनकी कहानियों में सामाजिक यथार्थ और मानवीय गुणों का सहज समन्वय अपनी कहानियों में मानवीय संवेदनाओं पर करारा व्यंग्य किया है। कहीं-कहीं वे मानवीय पीडाओं का सजीव चित्र प्रस्तुत करती हैं। 4. भाषा शैली-रज़िया सज्जाद ज़हीर ने मूलतः उर्दू भाषा में ही कहानियाँ लिखी हैं, परंतु उनकी उर्दू भाषा भी सहज, सरल और बोधगम्य है, जिसमें अरबी तथा फारसी शब्दों का खड़ी बोली हिंदी के साथ मिश्रण किया गया है। फिर भी उन्होंने अपनी भाषा में उर्दू शब्दावली का अधिक प्रयोग किया है। उनकी कुछ कहानियाँ देवनागरी लिपि में लिखी जा चुकी हैं और कुछ कहानियों का हिंदी में अनुवाद भी हुआ है। फिर भी उनकी भाषा सहज, सरल, तथा प्रवाहमयी कही जा सकती है। कहीं-कहीं उन्होंने मुहावरों तथा लोकोक्तियों का भी खुलकर प्रयोग किया है। नमक पाठ का सार प्रश्न- सिख बीबी ने सफिया के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करनी चाही। तब घर की बहू ने बताया कि सफिया मुसलमान है और वह कल अपने भाई से मिलने लाहौर जा रही है। इस पर सिख बीबी ने कहा कि लाहौर तो उसका वतन है। आज भी उसे वहाँ के लोग, खाना-पीना, उनकी जिंदादिली याद है। यह कहते-कहते सिख बीबी की आँखों में आँसू आ गए। सफिया ने उसे सांत्वना दी और कहा कि क्या वह लाहौर से कोई सौगात मँगवाना चाहती है। तब सिख बीबी ने धीरे से लाहौरी नमक की इच्छा व्यक्त की। सफिया लाहौर में पन्द्रह दिनों तक रही। उसके रिशतेदारों ने उसकी खूब खातिरदारी की और उसे पता भी नहीं चला कि पन्द्रह दिन कैसे बीत गए हैं। चलते समय मित्रों और संबंधियों ने सफ़िया को अनेक उपहार दिए। उसने सिख बीबी के लिए एक सेर लाहौरी नमक लिया और सामान की पैकिंग करने लगी, परंतु पाकिस्तान से भारत में नमक ले जाना कानून के विरुद्ध था। अतः सफ़िया ने अपने भाई जो पुलिस अफसर था से सलाह की। भाई ने कहा कि नमक ले जाना कानून के विरुद्ध है। कस्टम वाले तुम्हारे सारे सामान की तालाशी लेंगे और नमक पकड़ा जाएगा, परंतु सफ़िया ने कहा कि वह उस सिख बीबी के लिए सौगात ले जाना चाहती है, जिसकी शक्ल उसकी माँ से मिलती-जुलती है। परंतु सफिया ने अपने भाई से कहा कि वह छिपा कर नहीं बल्कि दिखाकर नमक ले जाएगी। भाई ने पुनः कहा कि नमक ले जाना संभव नहीं है, इससे आपकी बदनामी अवश्य होगी। यह सुनकर सफ़िया रोने लगी। रात होने पर सफिया सामान की पैकिंग करने लगी। सारा सामान सूटकेस तथा बिस्तरबंद में आ गया था। शेष बचे कीनुओं को उसने टोकरी में डाल दिया तथा उसके नीचे नमक की पुड़िया छुपा दी। लाहौर आते समय उसने देखा था कि भारत से आने वाले केले ला रहे थे और पाकिस्तान से जाने वाले कीनू ले जा रहे थे। कस्टमवाले इन फलों की जाँच नहीं कर रहे थे। यह सब काम करके सफ़िया सो गई। सपने में वह लाहौर के घर की सुंदरता, वहाँ के परिवेश, भाई तथा मित्रों को देखने लगी। उसे अपनी भतीजियों की भोली-भोली बातें याद आ रही थीं। सपने में उसने सिख बीबी के आँसू, इकबाल का मकबरा तथा लाहौर का किला भी देखा, परंतु अचानक उसकी आँख खुल गई, क्योंकि उसका हाथ कीनू की टोकरी पर लग गया था। उसे देते समय उसके मित्र ने कहा था कि यह पाकिस्तान और भारत की एकता का मेवा है। स्टेशन पर फर्स्ट क्लास के वेटिंग रूम में बैठी सफ़िया सोचने लगी कि मेरे आसपास कई लोग हैं, परंतु मुझे पता है कि कीनुओं की टोकरी में नीचे नमक की पुड़िया है। उसका सामान अब कस्टमवालों के पास जाँच के लिए जाने लगा। वह थोड़ी घबरा गई उसे थोड़ा-सा कम्पन हआ। तब उसने निर्णय लिया कि प्रेम की सौगात नमक को वह चोरी से नहीं ले जाएगी। उसने नमक की पुड़िया निकालकर अपने हैंडबैग में रख ली। जब सामान जाँच के बाद रेल की ओर भेजा जाने लगा तो उसने एक कस्टम अधिकारी से इस बारे में चर्चा की। उसने अधिकारी से पूछ लिया था कि वह कहाँ का निवासी है। उसने कहा कि उसका वतन दिल्ली है। आखिर सफ़िया ने नमक की पुड़िया बैग से निकालकर अफसर की मेज पर रख दी और सारी बात बता दी। कस्टम अधिकरी ने स्वयं नमक की पुड़िया को सफ़िया के बैग में रख दिया और कहा “मुहब्बत तो कस्टम से इस तरह गुज़र जाती है कि कानून हैरान रह जाता है।” अंत में उस अधिकारी ने कहा “जामा मस्जिद की सीढ़ियों को मेरा सलाम कहिएगा और उन खातून को यह नमक देते वक्त मेरी तरफ से कहिएगा कि लाहौर अभी तक उनका वतन है और देहली मेरा, तो बाकी सब रफ्ता-रफ्ता ठीक हो जाएगा।” अंततः गाड़ी भारत की ओर चल पड़ी। अटारी स्टेशन पर पाकिस्तानी पुलिस नीचे उतर गई और हिंदुस्तानी पुलिस चढ़ गई। सफिया सोचने लगी कि कितनी विचित्र बात है कि “एक-सी जुबान, एक-सा लबोलहजा तथा एक-सा अंदाज फिर भी दोनों के हाथों में भरी हुई बंदूकें।” । अमृतसर पहुँचने पर भारतीय कस्टम अधिकारी फर्स्ट क्लास वालों की जाँच उनके डिब्बे के सामने ही करने लगे। सफ़िया की जाँच हो चुकी थी, परंतु सफिया ने अपना हैंडबैग खोलकर कहा कि मेरे पास थोड़ा लाहौरी नमक है तथा सिख बीबी की सारी कहानी सुना दी। अधिकारी ने सफिया की बात को ध्यान से सुना। फिर उसे एक तरफ आने के लिए कहा। उसने सफिया के सामान का ध्यान रखने के लिए एक कर्मचारी को आदेश दिया। वह सफ़िया को प्लेटफार्म के एक कमरे में ले गया। उसे आदर-पूर्वक बिठाया और चाय पिलाई। फिर एक पुस्तक उसे दिखाई, जिस पर लिखा था-“शमसुलइसलाम की तरफ से सुनील दास गुप्त को प्यार के साथ, ढाका 1946″। उसने यह भी बताया कि उसका वतन ढाका है। बचपन में वह अपने मित्र के साथ नज़रुल और टैगोर दोनों को पढ़ते थे। इस प्रकार सुनील दास ढाका की यादों में खो गया-“वैसे तो डाभ कलकत्ता में भी होता है जैसे नमक पर हमारे यहाँ के डाभ की क्या बात है! हमारी जमीन, हमारे पानी का मज़ा ही कुछ और है!” उसने पुड़िया सफ़िया के बैग में डाल दी और आगे-आगे चलने लगा। सफिया सोचने लगी-“किसका वतन कहाँ है वह जो कस्टम के इस तरफ है या उस तरफ! कठिन शब्दों के अर्थ कदर = प्रकार। ज़िस्म = शरीर। नेकी = भलाई। मुहब्बत = प्यार। रहमदिली = दयालुता। मुहर्रम = मुसलमानों का त्योहार। उम्दा = अच्छा। नफीस = सुरुचिपूर्ण। शौकीन = रसिया। जिन्दादिली = उत्साह और जोश। तस्वीर = मूर्ति। वतन = देश। साडा = हमारा । सलाम = नमस्कार । दुआ = प्रार्थना, शुभकामना। रुखसत = विदा। सौगात = भेंट। आहिस्ता = धीरे। जिमखाना = व्यायामशाला। खातिरदारी = मेहमान नवाजी। परदेसी = विदेशी। अज़ीज़ = प्रिय। सेर = एक किलो से थोड़ा कम। गैरकानूनी = कानून के विरुद्ध। बखरा = बंटवारा। ज़िक्र = चर्चा। अंदाज़ = तरीका। बाजी = बहन जी, दीदी। कस्टम = सीमा शुल्क। चिंदी-चिंदी बिखेरना = बुरी तरह से वस्तुओं को उलटना-पलटना। हुकूमत = सरकार। मुरौवत = मानवता। शायर = कवि। तोहफा = भेंट। चंद = थोड़ा। स्मगल = चोरी । ब्लैक मार्केट = काला बाज़ारी । बहस = वाद-विवाद । अदीब= साहित्यकार। बदनामी = अपयश। बेहतर = अच्छा। रवाना होना = विदा होना। व्यस्त = काम में लगा होना। पैकिंग = सामान बाँधना। सिमट = सहेज। नाजुक = कोमल । हावी होना = भारी पड़ना। मायने = मतलब। वक्त = समय। तह = नीचे की सतह । कब्र = मुर्दा दफनाने का स्थान। शहजादा = राजकुमार। रान = जाँघ । खौफनाक = भयानक। सरहद = सीमा। तरकीब = युक्ति। आश्वस्त = भरोसा होना। दोहर = चादर। दरख्त = वृक्ष। अक्स = प्रतिमूर्ति । लहकना = लहराना । आहट = हल्की-सी आवाज़। बेशुमार = अत्यधिक। मासूमियत = भोलापन। नारंगी = संतरिया रंग। दूब = घास। लबालब = ऊपर तक। वेटिंग रूम = प्रतीक्षा कक्ष। निगाह = नज़र। झिरझरी = सिहरन, कंपन। पासपोर्ट = विदेश जाने का पहचान-पत्र। खिचड़ी बाल = आधे सफेद आधे काले बाल। गौर = ध्यान। फरमाइए = कहिए। खातून = कुलीन नारी। रफ्ता-रफ्ता = धीरे-धीरे। हसरत = कामना। जुबान = भाषा। सूरत = शक्ल । लिबास = पहनावा । लबोलहजा = बोलचाल का तरीका। अंदाज = ढंग। नवाजना = सम्मानित करना। पैर तले की ज़मीन खिसकना = घबरा जाना। सफा = पृष्ठ। टाइटल = शीर्षक। डिवीजन = विभाजन। सालगिरह = वर्षगाँठ। डाभ = कच्चा नारिथल। फन = गर्व। Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 15 चार्ली चैप्लिन यानी हम सब Textbook Exercise Questions and Answers. Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 15 चार्ली चैप्लिन यानी हम सबHBSE 12th Class Hindi चार्ली चैप्लिन यानी हम सब Textbook Questions and Answersपाठ के साथ प्रश्न 1. प्रश्न 2. वर्ग तथा वर्ण-व्यवस्था को तोड़ने का अभिप्राय यह है कि फिल्में किसी विशेष वर्ग तथा जाति के लिए नहीं बनतीं। फिल्मों को सभी वर्गों के लोग देख सकते हैं। प्रायः चार्ली से पूर्व फिल्में कुछ विशेष वर्ग तथा जातियों के लिए तैयार की जाती थीं। उदाहरण के रूप में समाज के सुशिक्षित लोगों के लिए कला तैयार की जाती थी। इसी प्रकार कलाकार किसी विचारधारा का समर्थन करने के लिए फिल्में बनाते थे, परंतु चार्ली ने वर्ग-विशेष या वर्ण-व्यवस्था की जकड़न को भंग कर दिया और आम लोगों के लिए फिल्में बनाईं। यही नहीं, उन्होंने आम लोगों की समस्याओं को भी अपनी फिल्मों में प्रदर्शित किया। परिणाम यह हुआ कि उनकी फिल्में पूरे विश्व में लोकप्रिय बन गईं। प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. पाठ के आसपास प्रश्न 1. प्रश्न 2. (ख) एक बार रामकुमार जैसे अड़ियल लड़के को दंड देने के लिए मास्टर ने इतना पीटा कि उसका पेशाब ही निकल गया। कक्षा के सभी लड़के उसे देखकर हँसने लगे जिससे रामकुमार घबरा गया और वह बेहोश होकर गिर पड़ा। अब सभी लोग बड़े दुखी थे। उसे होश में लाने के लिए प्रयत्न करने लगे। मास्टर जी भी बड़े घबराए हुए दिखाई दे रहे थे। इस प्रकार हास्य की घटना करुणा में बदल गई। प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. भाषा की बात प्रश्न 1. तीन वाक्य-
प्रश्न 2. (ख) चार्ली की पृष्ठभूमि निर्धनता पर आधारित थी। इसलिए वे समाज के पूँजीपति वर्ग तथा सामंती वर्ग से तिरस्कृत होते रहे। (ग) चार्ली की नानी का संबंध खानाबदोशों से था। यही कारण है कि लेखक यह सुदूर रुमानी संभावना करता है कि चार्ली में कुछ-न-कुछ भारतीयता का अंश भी होगा। कारण यह है कि यूरोप के जिप्सी भारत से ही गए थे। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्वयं को श्रेष्ठतम दिखलाने का प्रयास करता है, परंतु अचानक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि उसकी सारी गरिमा और गर्व सुई-चुभे गुब्बारे के समान फुस्स हो जाती है। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि चार्ली अपने श्रेष्ठ रूप को भी हास्य में परिवर्तित कर लेता है। (ङ) चार्ली ने अपने महानतम क्षणों में अपमान, श्रेष्ठतम शूरवीर क्षणों में क्लैब्य, पलायन तथा लाचारी में विजय के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। यही कारण है कि उनका रोमांस प्रायः हास्य में परिवर्तित हो जाता है। गौर करें प्रश्न 1. (ख) भावना को उकसाने वाली बुद्धि। (ग) मनुष्य ईश्वर का विदूषक है। (घ) सही है। (ङ) आचार्य तथा शिक्षक की सहायता लेकर कक्षा में फिल्म दिखाना। HBSE 12th Class Hindi चार्ली चैप्लिन यानी हम सब Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर 1. ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ के लेखक का क्या नाम है? 2. विष्णु खरे का जन्म कब हुआ? 3. विष्णु खरे का जन्म कहाँ पर हुआ? 4. विष्णु खरे ने किस विषय में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की? 5. विष्णु खरे ने किस कॉलेज से सन् 1963 में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की? 6. आरंभ में विष्णु खरे किस समाचार-पत्र में उप-संपादक रहे? 7. मध्य प्रदेश के अतिरिक्त विष्णु खरे ने और कहाँ पर प्राध्यापक के रूप में काम किया? 8. केंद्रीय साहित्य अकादमी में विष्णु खरे ने किस पद पर काम किया? 9. विष्णु खरे ने किस समाचार-पत्र में प्रभारी कार्यकारी संपादक के रूप में काम
किया? 10. किस समाचार-पत्र में विष्णु खरे ने वरिष्ठ सहायक संपादक के रूप में काम किया? 11. विष्णु खरे को सर्वप्रथम कौन-सा पुरस्कार मिला? 12. दिल्ली से उन्हें कौन-सा पुरस्कार प्राप्त हुआ? 13.
‘रघुवीर सहाय सम्मान’, तथा ‘हिंदी अकादमी सम्मान’ के अतिरिक्त विष्णु खरे अन्य कौन-से सम्मानों से पुरस्कृत हुए? 14. विष्णु खरे को फिनलैंड का कौन-सा पुरस्कार प्राप्त हुआ? 15. ‘एक गैर रूमानी समय में के रचयिता का क्या नाम है? 16. ‘सिनेमा पढ़ने के तरीके’ किस विधा की रचना है? 17. ‘खुद अपनी आँख से’ के रचयिता का नाम क्या है? 18. ‘पिछला बाकी’ कविता-संग्रह के रचयिता का नाम लिखिए। 19. सत्ता,
शक्ति, बुद्धिमत्ता, प्रेम और पैसे के चरमोत्कर्षों में जब हम आईना देखते हैं तो चेहरा कैसा हो जाता है? 20. ‘सबकी आवाज पर्दे में’ के रचयिता का नाम क्या है? 21. किन दो समाचार पत्रों में विष्णु खरे के सिनेमा विषयक लेख प्रकाशित हुए हैं? 22. ‘मेकिंग ए लिविंग’ चैप्लिन की कौन-सी फिल्म है? 23. ‘मेकिंग ए लिविंग’ फिल्म को बने हुए कितने साल हो चुके हैं? 24. चार्ली ने अपनी
फिल्मों में किन दो रसों का मिश्रण किया है? 25. लेखक के विचारानुसार आने वाले कितने वर्षों तक चार्ली के नाम का मूल्यांकन होता रहेगा? 26. चार्ली चैप्लिन किस नेता से मिले? 27. चार्ली की जो फिल्में हमें अलग प्रकार की भावनाओं का एहसास कराती हैं, उनमें से दो के नाम लिखिए। 28. चार्ली की माँ किस प्रकार की नारी थी? 29. चार्ली चैप्लिन का बड़ा गुण माना जाता है 30. चार्ली को एक ‘बाहरी’, ‘घुमंतू’ चरित्र किसने बना दिया था? 31. विष्णु खरे के अनुसार संस्कृत नाटकों में जो विदूषक है, वह किनसे बदतमीजियाँ करता है? 32. आरंभ में चार्ली की किन लोगों ने भर्त्सना की? 33. किसकी तरफ से चार्ली खानाबदोशों से जुड़े हुए थे? 34. चार्ली चैप्लिन की एक पहचान का नाम है : 35. ‘यूरोप के जिप्सी किस देश से गए थे? 36. जब चार्ली बीमार थे तो उनकी माँ ने उन्हें किनका चरित्र पढ़कर सुनाया था? 37. किस प्रसंग को सुनकर चार्ली और उसकी माँ रोने लगे? 38. चार्ली की अधिकाँश फिल्में किसका इस्तेमाल नहीं करती? 39. भेड़ के पकड़े जाने पर चार्ली के हृदय
में करुणा का भाव उत्पन्न क्यों हो गया? 40. भारतीय सौंदर्यशास्त्र में हास्य का पात्र कौन होता है? 41. चार्ली से प्रभावित होकर राजकपूर ने कौन-सी दो फिल्में बनाईं? 42. किस भारतीय कलाकार ने चार्ली चैप्लिन की तरह अभिनय किया है? 43. देवानंद ने चार्ली का अनुकरण करते हुए किन फिल्मों में अभिनय किया? 44. जटिल परिस्थितियों ने चार्ली को हमेशा कैसा चरित्र बना दिया? 45. चार्ली चैप्लिन ने फिल्म कला को क्या बनाया? 46. चार्ली किस भारतीय साहित्यकार के अधिक नज़दीक हैं? 47. चार्ली चैप्लिन की कला ने कितनी पीढ़ियों को मुग्ध किया है? 48. किस भारतीय अभिनेत्री ने चार्ली चैप्लिन की तरह अभिनय किया है? 49. चार्ली चैप्लिन की फिल्मों का आधार क्या है? 50. बालक चार्ली का मकान किसके
पास था? चार्ली चैप्लिन यानी हम सब प्रमुख गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या [1] समय, भूगोल और संस्कृतियों की सीमाओं से खिलवाड़ करता हुआ चार्ली आज भारत के लाखों बच्चों को हँसा रहा है जो उसे अपने बुढ़ापे तक याद रखेंगे। पश्चिम में तो बार-बार चार्ली का पुनर्जीवन होता ही है, विकासशील दुनिया में जैसे-जैसे टेलीविज़न और वीडियो का प्रसार हो रहा है, एक बहुत बड़ा दर्शक वर्ग नए सिरे से चार्ली को घड़ी ‘सुधारते’ या जूते ‘खाने’ की कोशिश करते हुए देख रहा है। चैप्लिन की ऐसी कुछ फिल्में या इस्तेमाल न की गई रीलें भी मिली हैं जिनके बारे में कोई जानता न था। अभी चैप्लिन पर करीब 50 वर्षों तक काफी कुछ कहा जाएगा। [पृष्ठ-120] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ में से अवतरित है। इसके लेखक विष्णु खरे हैं। इस पाठ में लेखक ने चार्ली के कला-कर्म की कुछ मूलभूत विशेषताओं पर प्रकाश डाला है। लेखक की दृष्टि से चार्ली की प्रमुख विशेषता करुणा और हास्य के तत्त्वों का सामंजस्य है। यहाँ लेखक चार्ली के योगदान पर प्रकाश डालता हुआ कहता है कि व्याख्या-चार्ली ने समय, भूगोल तथा संसार की विभिन्न संस्कृतियों की सीमाओं के साथ खिलवाड़ किया अर्थात वह इन सीमाओं.को पार करके अपनी कला का प्रदर्शन करता रहा। आज भी वह भारतवर्ष के लाखों बच्चों को हँसाने में संलग्न है। भारत के ये बच्चे वृद्धावस्था तक चार्ली को याद करते रहेंगे। जहाँ तक पश्चिमी देशों का प्रश्न है, वहाँ तो चार्ली का बार-बार जन्म होता रहता है। आज की विकासशील दुनिया में टेलीविज़न तथा वीडियो का प्रसारण निरंतर बढ़ता जा रहा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि पश्चिमी देशों के अधिकांश दर्शक एक नवीन दृष्टिकोण से चार्ली को घड़ी ठीक करते हुए अथवा जूते को खाने का प्रयास करते हुए देखने लगे हैं। हैरानी की बात तो यह है कि चार्ली चैप्लिन की कुछ ऐसी फिल्में अथवा रीलें मिली हैं जिनके बारे में लोग और जो लोगों को कभी नहीं दिखाई गई। आने वाले पचास वर्षों तक चाली चैप्लिन के बारे में बहुत कुछ लिखा और सुना जाएगा। कारण यह है कि वह अपने समय का एक महान कलाकार था। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) चार्ली आज भी भारत के लाखों बच्चों को हँसा रहा है। ये बच्चे अपनी वृद्धावस्था तक चार्ली को याद रखेंगे। (ग) पश्चिम में टेलीविजन तथा वीडियो के प्रसार के कारण एक बहुत बड़ा दर्शक वर्ग नए सिरे से चार्ली को घड़ी सुधारते या जूते खाने की कोशिश करते हुए देख रहा है। (घ) चार्ली की कुछ फिल्में अथवा रीलें ऐसी प्राप्त हुई हैं जिनके बारे में कोई कुछ भी नहीं जानता था। [2] उनकी फिल्में भावनाओं पर टिकी हुई हैं, बुद्धि पर नहीं। ‘मेट्रोपोलिस’, ‘दी कैबिनेट ऑफ डॉक्टर कैलिगारी’, ‘द रोवंथ सील’, ‘लास्ट इयर इन मारिएनबाड’, ‘द सैक्रिफाइस’ जैसी फिल्में दर्शक से एक उच्चतर अहसास की माँग करती हैं। चैप्लिन का चमत्कार यही है कि उनकी फिल्मों को पागलखाने के मरीजों, विकल मस्तिष्क लोगों से लेकर आइन्स्टाइन जैसे महान प्रतिभा वाले व्यक्ति तक कहीं एक स्तर पर और कहीं सूक्ष्मतम रास्वादन के साथ देख सकते हैं। चैप्लिन ने न सिर्फ फिल्म कला को लोकतांत्रिक बनाया, बल्कि दर्शकों की वर्ग तथा वर्ण-व्यवस्था को तोड़ा। यह अकारण नहीं है कि जो भी व्यक्ति, समूह या तंत्र गैर-बराबरी नहीं मिटाना चाहता वह अन्य संस्थाओं के अलावा चैप्लिन की फिल्मों पर भी हमला करता है। चैप्लिन भीड़ का वह बच्चा है जो इशारे से बतला देता है कि राजा भी उतना ही नंगा है जितना मैं हूँ और भीड़ हँस देती है। कोई भी शासक या तंत्र जनता का अपने ऊपर हँसना पसंद नहीं करता। [पृष्ठ-121] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित निबंध ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ में से अवतरित है। इसके लेखक विष्णु खरे हैं। यहाँ लेखक स्पष्ट करता है कि चार्ली ने अपनी कला के द्वारा फिल्म कला को लोकतांत्रिक बनाया तथा दर्शकों की वर्ग तथा वर्ण-व्यवस्था को तोड़ डाला। व्याख्या-लेखक चार्ली की कलागत विशेषताओं का उद्घाटन करते हुए कहता है कि उनकी अधिकांश फिल्मों में भावनाओं की प्रधानता है, बुद्धि की नहीं। इस संदर्भ में हम ‘मेट्रोपोलिस’, ‘दी कैबिनेट ऑफ डॉक्टर कैलिगारी’, ‘द रोवंथ सील’, ‘लास्ट इयर इन मारिएनबाड’, ‘द सैक्रिफाइस’ ऐसी फिल्मों का उदाहरण दे सकते हैं, जिन्हें केवल उच्च स्तरीय दर्शक ही देखकर समझ सकते हैं, सामान्य दर्शक नहीं। चैप्लिन की फिल्मों का सबसे बड़ा चमत्कार यह है कि उनकी फिल्में जहाँ एक ओर पागलखाने के मरीजों और अस्त-व्यस्त मस्तिष्क वाले लोगों पर फिल्माई गई हैं, वहाँ दूसरी ओर आइन्स्टाइन जैसे महान प्रतिभाशाली व्यक्ति भी इन्हें एक ही स्तर पर सूक्ष्मतम रसास्वादन करते हुए देख सकते हैं और असीम आनंद प्राप्त कर सकते हैं। चैप्लिन का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने फिल्मकला को लोकतांत्रिक रूप प्रदान किया और साथ ही दर्शकों की वर्ग तथा वर्ण-व्यवस्था को भी तोड़ डाला। भाव यह है कि उनकी फिल्मों को सभी प्रकार के लोग देखते हैं, परंतु यहाँ इसका उल्लेख करना आवश्यक होगा कि जो व्यक्ति अथवा लोगों का समूह समाज में व्याप्त असमानता को दूर नहीं करना चाहता वह जिस प्रकार असमानता को दूर करने वाली संस्थाओं का विरोध करता है उसी प्रकार चार्ली चैप्लिन की फिल्मों का भी विरोध करता है। इसका प्रमुख कारण यही है चार्ली ने अपनी फिल्मों द्वारा समाज में वर्ग और वर्ण भेद को हटाकर समानता की स्थापना की है। चैप्लिन सामान्य भीड़ का वह व्यक्ति है जो संकेत के द्वारा यह स्पष्ट कर देता है कि राजा और उसमें कोई अंतर नहीं है। इसलिए वह बड़े-बड़े शासकों को भी नंगा करता है और उनकी कमजोरियों से लोगों को अवगत कराता है। यह सब देखकर दर्शकों की भीड़ हँसने लगती है। कारण यह है कि कोई भी राजा अथवा शासनतंत्र यह नहीं चाहता कि वह अपने ऊपर हँसे अर्थात् अपना मजाक उड़ाए। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) चार्ली चैप्लिन की फिल्मों को सभी लोग पसंद करते थे, चाहे पागलखाने के मरीज़ हों या सिर फिरे पागल या आइन्स्टाइन जैसे महान् वैज्ञानिक। सभी चैप्लिन की फिल्मों को अत्यधिक पसंद करते थे। (ग) चार्ली ने समाज की वर्ग और वर्ण-व्यवस्था को तोड़कर फिल्मकला को लोकतांत्रिक बनाया। उनकी फिल्में किसी एक वर्ग के लिए नहीं थीं, बल्कि सभी लोगों के लिए थीं। सभी देशों के लोगों ने उनकी फिल्मों को पसंद किया। (घ) जो लोग समाज में समानता को नहीं देखना चाहते और वर्ग तथा वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते हैं वही लोग चार्ली की फिल्मकला पर हमला बोलते हैं। (ङ) चार्ली ने अपनी फिल्मों के द्वारा आम नागरिकों तथा उनके साथ-साथ बड़े-बड़े शासकों की कमजोरियों को नंगा किया। इसलिए शासक वर्ग उनकी फिल्मों को पसंद नहीं करता है, क्योंकि शासक यह नहीं चाहते थे कि इन लोगों को उनकी कमजोरियों का पता चले। [3] एक परित्यक्ता, दूसरे दर्जे की स्टेज अभिनेत्री का बेटा होना, बाद में भयावह गरीबी और माँ के पागलपन से संघर्ष करना, साम्राज्य, औद्योगिक क्रांति, पूँजीवाद तथा सामंतशाही से मगरूर एक समाज द्वारा दुरदुराया जाना-इन सबसे चैप्लिन को वे जीवन-मूल्य मिले जो करोड़पति हो जाने के बावजूद अंत तक उनमें रहे। अपनी नानी की तरफ से चैप्लिन खानाबदोशों से जुड़े हुए थे और यह एक सुदूर रूमानी संभावना बनी हुई है कि शायद उस खानाबदोश औरत में भारतीयता रही हो क्योंकि यूरोप के जिप्सी भारत से ही गए थे और अपने पिता की तरफ से वे यहूदीवंशी थे। इन जटिल परिस्थितियों ने चार्ली को हमेशा एक ‘बाहरी’, ‘घुमंतू’ चरित्र बना दिया। वे कभी मध्यवर्गी, बुर्जुआ या उच्चवर्गी जीवन-मूल्य न अपना सके। यदि उन्होंने अपनी फिल्मों में अपनी प्रिय छवि ‘ट्रैम्प’ (बहू, खानाबदोश, आवारागद) की प्रस्तुत की है तो उसके कारण उनके अवचेतन तक पहुँचते हैं। [पृष्ठ-121] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब में से अवतरित है। इसके लेखक विष्णु खरे हैं। यहाँ लेखक ने चार्ली के पारिवारिक जीवन का यथार्थ वर्णन किया है। व्याख्या-चार्ली की माँ को उसके पति ने त्याग दिया था। दूसरा, वह दूसरे दर्जे की स्टेज़ की अभिनेत्री थी। आगे चलकर चार्ली और उसकी माँ को भयानक गरीबी का सामना करना पड़ा। उसकी माँ भी पागलपन से संघर्ष करती रही। यही नहीं, तत्कालीन साम्राज्य, औद्योगिक क्रांति, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था तथा सामंतशाही से प्रभावित अभिमानी समाज ने चार्ली को दुत्कारा और उसका अपमान किया। इस लंबे संघर्ष तथा अपमान से चार्ली को ऐसे जीवन-मूल्य मिले जो उसके करोड़पति बन जाने के बाद भी उसमें अंत तक विद्यमान रहे। भाव यह है कि अपनी माँ का अपमान, गरीबी, पागलपन तथा तत्कालीन समाज द्वारा किए गए अपमान के कारण चैप्लिन को जीवन की जो सोच मिली उसे वह आखिर तक नहीं भूल पाया। भले ही आगे चलकर वह करोड़पति बन गया लेकिन वह विगत जीवन तथा उसके मूल्यों को भूल नहीं पाया। चार्ली की नानी खानाबदोश परिवार की थी। लेखक सोचता है कि यह एक दूर की संभावना की जा सकती है कि चार्ली की नानी में कुछ भारतीयता रही हो, क्योंकि भारत से ही जिप्सी यूरोप में गए थे। यही कारण है कि चार्ली ने भी लगभग घुमंतुओं जैसा जीवन व्यतीत किया। चार्ली के पिता यहूदी थे। इससे पता चलता है कि चार्ली के जीवन की परिस्थितियाँ कितनी कठिन और विपरीत थीं, परंतु इन परिस्थितियों ने चार्ली को बाहरी तथा घुमंतू व्यक्ति बना दिया। वह हमेशा यहाँ से वहाँ भटकने वाला व्यक्ति बना रहा। उसने कभी भी मध्यम वर्गीय तथा उच्च वर्गीय जीवन-मूल्य नहीं अपनाए। उन्होंने अपनी फिल्मों में ‘ट्रैम्प’ की छवि प्रस्तुत की है। यह छवि कहती है कि वह एक बडु, खानाबदोश और आवारागर्द किस्म का चरित्र है। उसके इसी चरित्र के फलस्वरूप उसके अवचेतन को अच्छी प्रकार जान सकते हैं। लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि जटिल और विपरीत परिस्थितियों ने ही चार्ली को खानाबदोश और आवारागर्द व्यक्ति बना दिया था। अपनी फिल्मों में उसने अपनी इसी प्रिय छवि को प्रस्तुत किया है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) बचपन में चार्ली को घोर कष्टों का सामना करना पड़ा। उसकी माँ एक परित्यक्ता नारी थी। अत्यधिक गरीबी के कारण वह पागल हो गई थी। चार्ली को इस संघर्ष का सामना करना पड़ा। यही नहीं, चार्ली को तत्कालीन पूँजीपतियों, सामंतों तथा राजकीय अधिकारियों की घोर उपेक्षा भी सहन करनी पड़ी। (ग) बचपन में चार्ली को भयंकर गरीबी, माँ का पागलपन, प्रितहीन जीवन तथा पूँजीपतियों और सामंतों की उपेक्षा के कडुवे अनुभवों को भोगना पड़ा। (घ) चार्ली की नानी खानाबदोश जाति से संबंधित थी। ये खानाबदोश भारत से यूरोप जाकर जिप्सी कहलाने लगे। इससे लेखक यह संभावना करता है कि चार्ली का अप्रत्यक्ष रूप से संबंध भारत से था। (ङ) चार्ली के अवचेतन मन में उसकी नानी के खानाबदोशी संस्कार थे। उसे न तो माँ का प्यार मिला और न ही पिता का दुलार, बल्कि गरीबी के साथ-साथ उसे माँ का पागलपन भी झेलना पड़ा। यही नहीं, पूँजीपतियों और सामंतों में चार्ली को दुत्कारा और अपमानित किया जाता था। इसलिए वह न तो उच्च-वर्ग को अपना सका और न ही मध्य वर्ग को, बल्कि खानाबदोशों के समान जीवन बिताता रहा। [4] चार्ली पर कई फिल्म समीक्षकों ने नहीं, फिल्म कला के उस्तादों और मानविकी के विद्वानों से सिर धुने हैं और उन्हें नेति-नेति कहते हुए भी यह मानना पड़ता है कि चार्ली पर कुछ नया लिखना कठिन होता जा रहा है। दरअसल सिद्धांत कला को जन्म नहीं देते, कला स्वयं अपने सिद्धांत या तो लेकर आती है या बाद में उन्हें गढ़ना पड़ता है। जो करोड़ों लोग चार्ली को देखकर अपने पेट दुखा लेते हैं उन्हें मैल ओटिंगर या जेम्स एजी की बेहद सारगर्भित समीक्षाओं से क्या लेना-देना? वे चार्ली को समय और भूगोल से काट कर देखते हैं और जो देखते हैं उसकी ताकत अब तक ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। यह कहना कि वे चार्ली में खुद को देखते हैं दूर की कौड़ी लाना है लेकिन बेशक जैसा चार्ली वे देखते हैं वह उन्हें जाना-पहचाना लगता है, जिस मुसीबत से वह अपने को हर दसवें सेकेंड में डाल देता है वह सुपरिचित लगती है। अपने को नहीं लेकिन वे अपने किसी परिचित या देखे हुए को चार्ली मानने लगते हैं। [पृष्ठ-121-122] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ में से अवतरित है। इसके लेखक विष्णु खरे हैं। यहाँ लेखक ने स्पष्ट किया है कि चार्ली पर कुछ भी नया लिखना बड़ा कठिन होता जा रहा है क्योंकि फिल्म समीक्षकों ने उनकी फिल्मों पर प्रत्येक दृष्टिकोण से लिखा है। व्याख्या-चार्ली पर असंख्य फिल्म आलोचकों ने बहुत कुछ लिखा है और प्रत्येक दृष्टिकोण से अपनी फिल्म-कला का मूल्याँकन किया है। यही नहीं, फिल्मकला के विद्वानों तथा मानव-विज्ञान के विद्वानों ने भी उनकी फिल्मों के बारे में काफी माथा-पच्ची की है। उन सबने अंततः यह स्वीकार कर लिया है कि चार्ली पर कुछ भी नया लिखना असंभव होता जा रहा है। इसका प्रमुख कारण यह है कि सिद्धांतों से कला जन्म नहीं लेती, बल्कि कला अपने साथ सिद्धांत लेकर आती है अथवा कला से ही सिद्धांतों का निर्माण होता है। तात्पर्य यह है कि चार्ली ने सिद्धांतों के आधार पर फिल्मकला का निर्माण नहीं किया। उनकी कला में सिद्धांत स्वतः समाहित थे। अतः आलोचना के बाद भी उन्होंने कला का अनुशीलन करके सिद्धांतों का निर्माण किया। जो लोग चार्ली को फिल्मों में देखकर हँस-हँस कर लोट-पोट हो जाते हैं तथा उनके पेट दुखने लगते हैं, ऐसे लोगों को मैल ओटिंगर या जेम्स एजी की अत्यधि क गंभीर आलोचनाओं से कुछ लेना-देना नहीं है। उन्होंने न इन समीक्षाओं को पढ़ा है और न ही पढ़ने का प्रयास किया है। आलोचक चार्ली को समय और भूगोल से अलग करके देखते हैं परंतु जो लोग चार्ली को देखते हैं और देखकर रसास्वादन प्राप्त करते हैं, उनकी शक्ति ज्यों-की-त्यों है, वह घटी नहीं है। यह कहना कि दर्शक चार्ली में स्वयं को देखते हैं। की सोच है परंतु यह निश्चित है कि दर्शक जिस प्रकार चार्ली को देखते हैं उन्हें लगता है कि वे चार्ली को अच्छी तरह से जानते और पहचानते हैं। भाव यह है कि चार्ली ने अपनी फिल्मकला के द्वारा स्वयं को सभी लोगों के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। दर्शकों को चार्ली की हरकतों में अपने आस-पास की जिंदगी दिखाई देती है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) सिद्धांतों से कला पैदा नहीं होती, बल्कि कला से सिद्धांत उत्पन्न होते हैं। सर्वश्रेष्ठ कला को देखकर ही कला समीक्षक सिद्धांत गढ़ लेते हैं। पहले से चले आ रहे कला संबंधी सिद्धांत श्रेष्ठ कला पर लागू नहीं होते, बल्कि श्रेष्ठ कला ही सिद्धांतों को जन्म देती है। (ग) चार्ली का अभिनय तथा उसके कारनामे बड़े ही रोचक, चुटीले और हँसी उत्पन्न करने वाले होते हैं। उन्हें देखकर करोड़ों लोग हँस-हँसकर दोहरे हो जाते हैं जिससे उनके पेट दुखने लगते हैं। चार्ली की कला में हास्य रस का परिपाक देखा जा सकता है। (घ) कला को समय और भूगोल से काटकर देखने का अभिप्राय है कि कलाकृति अथवा फिल्म किसी विशेष देश अथवा समय से जोड़कर नहीं देखी जा सकती। श्रेष्ठ कलाकृति अपने देश और उसकी सीमाओं को लांघकर सार्वजनिक अथवा सार्वभौमिक बन जाती है। उसका प्रभाव सभी देशों के सब दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ जाता है। (ङ) चार्ली के कारनामे देखकर लोग समझते हैं कि वह उनसे किसी-न-किसी रूप में परिचित है। चार्ली की हरकतों में उन्हें अपने आस-पास की जिंदगी दिखाई देती है। [5] भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र को कई रसों का पता है, उनमें से कुछ रसों का किसी कलाकृति में साथ-साथ पाया जाना श्रेयस्कर भी माना गया है, जीवन में हर्ष और विषाद आते रहते हैं यह संसार की सारी सांस्कृतिक परंपराओं को मालूम है, लेकिन करुणा का हास्य में बदल जाना एक ऐसे रस-सिद्धांत की माँग करता है जो भारतीय परंपराओं में नहीं मिलता। ‘रामायण’ तथा ‘महाभारत’ में जो हास्य है वह ‘दूसरों’ पर है और अधिकांशतः वह परसंताप से प्रेरित है। जो करुणा है वह अकसर सद्व्यक्तियों के लिए और कभी-कभार दुष्टों के लिए है। संस्कृत नाटकों में जो विदूषक है वह राजव्यक्तियों से कुछ बदतमीजियाँ अवश्य करता है, किंतु करुणा और हास्य का सामंजस्य उसमें भी नहीं है। अपने ऊपर हँसने और दूसरों में भी वैसा ही माद्दा पैदा करने की शक्ति भारतीय विदूषक में कुछ कम ही नज़र आती है। [पृष्ठ-122-123] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब में से लिया गया है। इसके लेखक विष्णु खरे हैं। यहाँ लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि करुणा का हास्य रस में बदल जाना भारतीय परंपरा में नहीं मिलता। व्याख्या भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र में अनेक रसों की चर्चा की गई है। उनमें से कुछ रसों का किसी कलाकृति में एक साथ होना एक विशेष उपलब्धि मानी जा सकती है। भाव यह है कि श्रेष्ठ कलाकार अपनी कलाकृति में अनेक रसों का परिपाक करता आया है। यह भी सत्य है कि जीवन में सुख-दुख एवं आशा तथा निराशा अकसर आते रहते हैं। संसार की सभी सांस्कृतिक परंपराएँ इस तथ्य से परिचित हैं परंतु करुणा का अचानक हास्य में परिवर्तित हो जाना एक ऐसे रस सिद्धांत का निर्माण करता है जो भारतीय साहित्यशास्त्र में प्राप्त नहीं होता। यह स्थिति किसी भी भारतीय रचना में दिखाई नहीं देती। ‘रामायण’ तथा ‘महाभारत’ में जो हास्य रस का परिपाक हुआ है, वह अन्य पात्रों से संबंधित है। प्रायः हास्य दूसरे की पीड़ा से उत्पन्न दिखाया गया है परंतु भारतीय परंपरा में करुणा आदर्श पात्रों से संबंधित है। कभी-कभार दुष्ट या खलनायक पात्र भी करुणा को उत्पन्न करते हुए दिखाए गए हैं। जहाँ तक संस्कृत के नाटकों का प्रश्न है तो उनमें विदूषक राजाओं अथवा राज्य अधिकारियों से कुछ बदतमीजियाँ करते दिखाया गया है, जिससे हास्य रस उत्पन्न होता है, परंतु उसके हास्य में करुणा का मिश्रण बिल्कुल नहीं होता। भारतीय विदूषक में अपने ऊपर हँसने तथा दूसरे में ऐसी स्थिति उत्पन्न करने की स्थिति कहीं पर दिखाई नहीं देती। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) करुणा का हास्य रस में बदल जाना सर्वथा एक नवीन रस सिद्धांत की माँग करता है। यह भारतीय परंपराओं में प्राप्त नहीं होता। (ग) संस्कृत नाटकों में विदूषक राजाओं अथवा राज्याधिकारियों से बदतमीजियाँ करके, हास्य रस उत्पन्न करता है। वह अपने ऊपर हँसकर दूसरों में वैसी स्थिति उत्पन्न करने की बहुत कम कोशिश करता है। [6] चार्ली की अधिकांश फिल्में भाषा का इस्तेमाल नहीं करती इसलिए उन्हें ज्यादा-से-ज्यादा मानवीय होना पड़ा। सवाक् चित्रपट पर कई बड़े-बड़े कॉमेडियन हुए हैं, लेकिन वे चैप्लिन की सार्वभौमिकता तक क्यों नहीं पहुँच सकी पड़ताल अभी होने को है। चार्ली का चिर-यवा होना या बच्चों जैसा दिखना एक विशेषता तो है ही, सबसे बड़ी विशेषता शायद यह है कि वे किसी भी संस्कृति को विदेशी नहीं लगते। यानी उनके आसपास जो भी चीजें, अड़ेंगे, खलनायक, दुष्ट औरतें आदि रहते हैं वे एक सतत ‘विदेश’ या ‘परदेश’ बन जाते हैं और चैप्लिन ‘हम’ बन जाते हैं। चार्ली के सारे संकटों में हमें यह भी लगता है कि यह ‘मैं’ भी हो सकता हूँ, लेकिन ‘मैं’ से ज्यादा चार्ली हमें ‘हम’ लगते हैं। यह संभव है कि कुछ अर्थों में ‘बस्टर कीटन’ चार्ली चैप्लिन से बड़ी हास्य-प्रतिभा हो लेकिन कीटन हास्य का काफ्का है जबकि चैप्लिन प्रेमचंद के ज्यादा नज़दीक हैं। [पृष्ठ-124] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ में से उद्धृत है। इसके लेखक विष्णु खरे हैं। यहाँ लेखक यह स्पष्ट करता है कि चार्ली की कला सार्वभौमिक है। वे किसी भी संस्कृति को विदेशी नहीं लगते। व्याख्या-चार्ली की अधिकतर फिल्मों में भाषा का प्रयोग नहीं किया गया अथवा उनकी फिल्मों में भाषा का बहुत कम प्रयोग किया गया है। यही कारण है कि उनकी फिल्में सर्वाधिक मानवीय हैं। यूँ तो बोलने वाली फिल्मों में बड़े-से-बड़े विदूषक हुए हैं। परंतु जौ सार्वभौमिकता चार्ली को प्राप्त हुई है, वह उनको प्राप्त नहीं हुई। इसका क्या कारण हो सकता है, इस बात की अभी जाँच-पड़ताल की जानी है। इस संबंध में शोध करने की आवश्यकता है। चार्ली की एक प्रमुख विशेषता यह है कि वे एक चिर-युवा अथवा बच्चों जैसे दिखाई देते हैं, परंतु उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे संसार की किसी भी संस्कृति के लिए विदेशी नहीं हैं अर्थात् प्रत्येक देश के दर्शक समझते हैं कि चार्ली उनकी अपनी संस्कृति से जुड़े हुए हैं। कहने का भाव यह है कि फिल्म में चार्ली के आस-पास जो वस्तुएँ दिखाई जाती हैं अथवा बाधाएँ उत्पन्न की जाती हैं, जो खलनायक और बुरी औरतें दिखाई जाती हैं वे निरंतर विदेश का चित्र प्रस्तुत करते हैं। हम सभी स्वयं को चार्ली समझने लगते हैं। चार्ली पर हम जो भी मुसीबतें देखते हैं, उन्हें देखकर हमें यह महसूस होता है कि ऐसा मेरे साथ भी हो सकता है। यहाँ हमें ‘मैं’ की बात न करके ‘हम’ की बात करनी चाहिए अर्थात् हम सभी चार्ली बन जाते हैं। यह भी हो सकता है कि कुछ सीमा में ‘बस्टर कीटन’ में चार्ली से अधिक हास्य प्रतिभा हो सकती है, परंतु कीटन का हास्य काफ्का के समीप का हास्य है, परंतु चैप्लिन हमें प्रेमचंद के अधिक समीप दिखाई देता है। चार्ली का अभिनय प्रेमचंद के पाठों से मिलता-जुलता है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) चार्ली की कला की सार्वभौमिकता होने का कारण यह है कि उनकी फिल्मों में मानव की सहज और स्वाभाविक क्रियाओं का मिश्रण किया गया है। भाषाविहीन होने के कारण उनकी फिल्मों में मानवीय क्रियाएँ अधिक हैं। यही नहीं, उनकी फिल्में प्रत्येक दर्शक को अपने आस-पास के जीवन का परिचय देती हैं। (ग) चार्ली की फिल्मों के कलाकार दर्शकों को विदेशी पात्र जैसे नहीं लगते, बल्कि उन्हें अपने जैसे या अपने आस-पास के लोगों जैसे लगते हैं। भाव यह है कि चार्ली अपनी फिल्मों में मानवीय, सहज एवं स्वाभाविक क्रियाओं का वर्णन करता है, जिससे वह हमें आत्मीय लगता है। (घ) चार्ली के कारनामे विविध प्रकार के हैं। वे किसी एक पात्र की कहानी नहीं लगते। उनके माध्यम से हमें अपने आस-पास के जीवन की झाँकी दिखाई देती है। (ङ) लेखक ने चार्ली को मुंशी प्रेमचंद के अधिक समीप देखा है। [7] एक होली का त्योहार छोड़ दें तो भारतीय परंपरा में व्यक्ति के अपने पर हँसने, स्वयं को जानते-बूझते हास्यास्पद बना डालने की परंपरा नहीं के बराबर है। गाँवों और लोक-संस्कृति में तब भी वह शायद हो, नागर-सभ्यता में तो वह थी नहीं। चैप्लिन का भारत में महत्त्व यह है कि वह ‘अंग्रेज़ों जैसे’ व्यक्तियों पर हँसने का अवसर देते हैं। चार्ली स्वयं पर सबसे ज्यादा तब हँसता है जब वह स्वयं को गर्वोन्मत्त, आत्म-विश्वास से लबरेज़, सफलता, सभ्यता, संस्कृति तथा समृद्धि की प्रतिमूर्ति, दूसरों से ज्यादा शक्तिशाली तथा श्रेष्ठ, अपने ‘वज्रादपि कठोराणि’ अथवा ‘मूदुनि कुसुमादपि’ क्षण में दिखलाता है। तब यह समझिए कि कुछ ऐसा हुआ ही चाहता है कि यह सारी गरिमा सुई-चुभे गुब्बारे जैसी फुस्स हो उठेगी। [पृष्ठ-124] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ में से अवतरित है। इसके लेखक विष्णु खरे हैं। यहाँ लेखक यह स्पष्ट करना चाहता है कि भारतीय परंपरा में होली का त्योहार ऐसा है जिसमें व्यक्ति अपने पर हँसता है और दूसरों को भी जान-बूझकर हँसाता है। व्याख्या-भारत में होली का त्योहार ही एकमात्र ऐसी भारतीय परंपरा है जिसमें व्यक्ति अपने पर हँसता है तथा स्वयं को जानबूझकर हास्यास्पद बना डालता है। जिसके फलस्वरूप उसे देखकर अन्य लोग भी हँसते हैं। इस त्योहार को हम छोड़ दें तो भारतीय परंपरा में और कोई ऐसा त्योहार नहीं है जिसमें व्यक्ति स्वयं पर हँसता है और स्वयं को हास्यास्पद बनाता है। ग्रामीण क्षेत्रों तथा लोक संस्कृति में यह सब शायद होता हो, परंतु महानगरीय सभ्यता में यह न के बराबर है। चैप्लिन का भारत में विशेष महत्त्व है। कारण यह है कि वे हमें अंग्रेजों जैसे लोगों पर हँसने का मौका देते हैं। चार्ली स्वयं पर सर्वाधिक उस समय हँसता है जब वह गर्व से उन्मत्त और आत्मविश्वास से परिपूर्ण होता है, स्वयं को सफल, सभ्यता, संस्कृति और वैभव की प्रतिमूर्ति मानता है या अपने-आप को दूसरों से अधिक ताकतवर और श्रेष्ठ समझता है या वह स्वयं को वज्र से अधिक कठोर और फूलों से अधि समझता है। वस्तुतः वह एक ऐसी स्थिति उत्पन्न कर लेना चाहता है जिससे उसका सारा गौरव और गर्व सुई-चुभे गुब्बारे के समान फुस्स होकर रह जाए। जिस प्रकार हम गुब्बारे को फुलाकर उसमें सूई-चुभो कर उसे फुस्स कर देते हैं, उसी प्रकार चार्ली स्वयं को ताकतवर और श्रेष्ठ दिखाने का प्रयास करता है, परंतु उसका सारा गर्व और अभिमान उस समय चूर-चूर हो जाता है जब उसके सामने विपरीत परिस्थितियाँ आ जाती हैं। यही स्थिति हास्य के साथ करुणा का मिश्रण करती है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) भारत में उस हँसी का अभाव है जो अपने पर या अपने स्वभाव पर या अपनी कमियों के कारण उत्पन्न होती है। कहने का भाव यह है कि भारतीय स्वयं पर हँसना नहीं जानते। (ग) भारत में स्वयं पर हँसने की परंपरा न के बराबर है। केवल होली के त्योहार पर भारतवासी स्वयं पर थोड़ा हँस लेते हैं अथवा गाँव के लोग लोक संस्कृति के बहाने से स्वयं पर हँस लेते हैं। (घ) चार्ली स्वयं को हास्यास्पद उस अवसर पर बनाता है जब वह स्वयं को गर्वोन्मत, आत्म-विश्वास से लबरेज़ तथा सर्वाधिक शक्तिशाली समझने लगता है। इन क्षणों में हँसी उत्पन्न करके वह यह दिखाना चाहता है कि मनुष्य की गरिमा, शक्ति अथवा गर्व मात्र दिखावे के और कुछ नहीं हैं। (ङ) चार्ली गुब्बारा फुलाकर इसलिए फुस्स कर देता है ताकि वह समाज के आडंबरों तथा व्यर्थ की गरिमा की पोल खोल सके। वह मनुष्य को यह समझाना चाहता है कि उसे व्यर्थ का गर्व नहीं करना चाहिए और न ही शक्ति का प्रदर्शन करना चाहिए। [8] अपने जीवन के अधिकांश हिस्सों में हम चार्ली के टिली ही होते हैं जिसके रोमांस हमेशा पंक्चर होते रहते हैं। हमारे महानतम क्षणों में कोई भी हमें चिढ़ाकर या लात मारकर भाग सकता है। अपने चरमतम शूरवीर क्षणों में हम क्लैब्य और पलायन के शिकार हो सकते हैं। कभी-कभार लाचार होते हुए जीत भी सकते हैं। मूलतः हम सब चार्ली हैं क्योंकि हम सुपरमैन नहीं हो सकते। सत्ता, शक्ति, बुद्धिमत्ता, प्रेम और पैसे के चरमोत्कर्षों में जब हम आईना देखते हैं तो चेहरा चार्ली-चार्ली हो जाता है। [पृष्ठ-124-125] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ में से अवतरित है। इसके लेखक विष्णु खरे हैं। यहाँ लेखक स्पष्ट करता है कि हम जीवन के अधिकांश क्षणों में चार्ली के कारनामों के प्रतिरूप बन जाते हैं। व्याख्या-यहाँ लेखक यह कहना चाहता है कि हमारे जीवन का अधिकांश हिस्सा चार्ली के कारनामों का प्रतिरूप है। जिस प्रकार चार्ली के कारनामें और रोमांस अंत में असफल हो जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्य का रोमांस भी फुस्स हुए गुब्बारे जैसा हो जाता है। जब हमारा जीवन श्रेष्ठतम स्थिति पर पहुँच जाता है तो उस समय कोई व्यक्ति चिढ़ाकर या हमारा अपमान करके भाग जाता है। हमारे जीवन में अकसर ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। जब हम सफलता की ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं अचानक असफल हो जाते हैं। शूरवीरता के क्षणों में या हम हीरा बन जाते हैं या भगोड़े बन जाते हैं। अनेक बार ऐसी परिस्थितियाँ भी उत्पन्न हो जाती हैं जब हम मजबूर होते हुए भी विजयी हो जाते हैं। वस्तुतः अपने मूल रूप में हम सब चार्ली हैं। कोई भी सुपरमैन नहीं है। सत्ता प्राप्त करने, शक्तिशाली होने, बुद्धिमान कहलाने अथवा रोमांस और धन की चरम स्थिति में भी जब हम अपने यथार्थ को देखते हैं तब हम स्वयं को चार्ली के रूप में अपनाकर तुच्छ पाते हैं। भाव यह है कि मनुष्य अपने जीवन में चाहे जितनी भी अधिक उन्नति प्राप्त कर ले परंतु उसका मूल रूप तो चार्ली के समान ही है जो उत्कर्ष में भी उदास दिखाई देता है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) चार्ली एक ऐसे असफल व्यक्ति का प्रतीक है जो सफलता पाने के लिए खूब प्रयत्न करता है। कभी उसे सफलता मिलती है तो कभी नहीं मिलती। अंत में वह लालची और तुच्छ बनकर रह जाता है। (ग) चार्ली का चरित्र प्रायः सफलता के शिखर पर पहुँचकर असफल हो जाता है। शूरवीर के रूप में स्थापित होने के बाद भी वह कायर और भगोड़ा बन जाता है। महानता प्राप्त करने के बाद भी वह तुच्छ बन जाता है और कभी-कभी लाचार होते हुए भी विजय प्राप्त कर लेता है। (घ) चेहरा चार्ली हो जाने का अर्थ है कि हम सफलता की ऊँचाई पर पहुँचकर भी सामान्य, अदने और छोटे बन जाते हैं। हमारा सारा बड़प्पन, सारी शक्ति टॉय-टॉय फिस्स हो जाती है और हमारी कलई सबके सामने खुल जाती है। (ङ) चार्ली अपने चरित्रों के माध्यम से यह बताना चाहते हैं कि हमारा बड़प्पन, हमारी शक्ति, हमारी गरिमा आदि मात्र दिखावा हैं। हमारा बाह्य रूप फूले हुए गुब्बारे के समान है जो सुई लगने से फुस्स होकर रह जाता है। हमारा मूल रूप अदना, सामान्य चार्ली चैप्लिन यानी हम सबSummary in Hindiचार्ली चैप्लिन यानी हम सब लेखिका-परिचय प्रश्न- विष्णु खरे नई दिल्ली में केंद्रीय साहित्य अकादमी में उप-सचिव के रूप में काम करते रहे। इसी बीच वे ‘नवभारत टाइम्स’ से भी जुड़े। पहले वे ‘नवभारत टाइम्स’ में प्रभारी कार्यकारी संपादक के रूप में कार्य करते रहे, परंतु बाद में लखनऊ तथा जयपुर से प्रकाशित होने वाले संस्करणों के संपादक रहे। यही नहीं, वे ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में भी वरिष्ठ सहायक संपादक रहे। जवाहरलाल नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में भी वे दो वर्ष तक वरिष्ठ अध्यक्ष के रूप में काम करते रहे। 2. प्रमुख रचनाएँ ‘एक गैर रूमानी समय’, ‘खुद अपनी आँख’, ‘सबकी आवाज के पर्दे में’, ‘पिछला बाकी’ (कविता-संग्रह); ‘आलोचना की पहली किताब’ (आलोचना); ‘सिनेमा पढ़ने के तरीके’ (सिने आलोचना); ‘मरु प्रदेश और अन्य कविताएँ व (टी. एस. इलियट)’, ‘यह चाकू समय’ (ॲतिला योझेफ), ‘कालेवाला’ (फिनलैंड का राष्ट्रकाव्य) (अनुवाद)। 3. प्रमुख पुरस्कार-विष्णु खरे को हिंदी साहित्य की सेवा के कारण अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए। सर्वप्रथम उन्हें रघुवीर सहाय सम्मान मिला। बाद में वे हिंदी अकादमी का सम्मान, शिखर सम्मान तथा मैथिलीशरण गुप्त सम्मान से भी सुशोभित हुए। उन्हें फिनलैंड का राष्ट्रीय सम्मान-‘नाइट ऑफ दि ऑर्डर ऑफ दि व्हाइट रोज़’ भी प्राप्त हुआ। 4. साहित्यिक विशेषताएँ यद्यपि विष्णु खरे एक समीक्षक तथा पत्रकार के रूप में अधिक प्रसिद्ध हुए हैं, लेकिन उन्होंने कवि के रूप में सफलता अर्जित की। गद्य-लेखन में वे आधुनिक युग के एक सफल साहित्यकार कहे जा सकते हैं। एक फिल्म समीक्षक के रूप में उन्हें विशेष ख्याति प्राप्त हुई। यही कारण है कि ‘दिनमान’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘दि पायोनियर’, ‘दि हिंदुस्तान’, ‘जनसत्ता’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘हंस’, ‘कथादेश’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में उनके सिनेमा विषयक अनेक लेख प्रकाशित होते रहे हैं। वे उन विशेषज्ञों में से हैं जिन्होंने फिल्म को समाज, समय और विचारधारा के आलोक में देखा और इतिहास, संगीत, अभिनय, निर्देशन की बारीकियों के सिलसिले में उसका विश्लेषण किया। अपने लेखन द्वारा उन्होंने हिंदी के उस अभाव को पूरा करने में सफलता प्राप्त की है जिसके बारे में वे अपनी एक किताब की भूमिका में लिखते हैं-“यह ठीक है कि अब भारत में भी सिनेमा के महत्त्व और शास्त्रीयता को पहचान लिया गया है और उसके सिद्धांतकार भी उभर आए हैं लेकिन दुर्भाग्यवश जितना गंभीर काम हमारे सिनेमा पर यूरोप और अमेरिका में हो रहा है शायद उसका शतांश भी हमारे यहाँ नहीं है। हिंदी में सिनेमा के सिद्धांतों पर शायद ही कोई अच्छी मूल पुस्तक हो। हमारा लगभग पूरा समाज अभी भी सिनेमा जाने या देखने को एक हलके अपराध की तरह देखता है।” अपनी आलोचनाओं तथा लेखों में भी लेखक ने बेबाक अपने मौलिक विचार व्यक्त किए हैं। चार्ली चैप्लिन यानी हम सब पाठ का सार प्रश्न- लेखक लिखता है कि चार्ली की जन्मशती मनाई गई। उनकी पहली फिल्म ‘मेकिंग ए लिविंग’ को बने हुए पचहत्तर साल पूरे हो चुके हैं। विकासशील राष्ट्रों के लोग टेलीविजन तथा वीडियो द्वारा उनकी फिल्मों को देखते हैं। उनकी फिल्मों की कुछ ऐस भी मिली हैं, जिनका कभी कोई प्रयोग नहीं किया गया था। अतः लेखक का यह विचार है कि आने वाले पचास वर्षों तक उनके काम का मूल्यांकन होता रहेगा। चार्ली की लगभग सभी फिल्में भावनाओं पर आधारित हैं न कि बुद्धि पर। दर्शकों की चार्ली की फिल्में भावनाओं को एक अलग प्रकार का अहसास कराती हैं। ‘मेट्रोपोलिस’, ‘दी कैबिनट ऑफ डॉक्टर कैलिगारी’, ‘द रोवंथ सील’, ‘लास्ट इयर इन मारिएनबाड’, ‘द सैक्रिफाइस’ आदि कुछ इसी प्रकार की फिल्में हैं। चार्ली की फिल्मों का जादू पागलखाने के मरीज़ों, विकल मस्तिष्क वाले लोगों तथा आइन्स्टाइन जैसे महान प्रतिभाशाली लोगों पर भी देखा जा सकता है। वस्तुतः चार्ली ने फिल्म कला के सिद्धांतों को तोड़ते हुए वर्ग-व्यवस्था और वर्ण-व्यवस्था को नष्ट किया। उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि कमियाँ सभी के जीवन में होती हैं। चार्ली की माँ एक परित्यकता नारी थी। वह एक सामान्य अभिनेत्री थी, परंतु बाद में वह पागल हो गई। घर में गरीबी होने के कारण आरंभ में चार्ली को अमीरों, सामंतों तथा उद्योगपतियों से अपमानित होना पड़ा। बाद में करोड़पति बन जाने पर भी चार्ली ने अपने जीवन-मूल्य में कोई बदलाव नहीं किया। उसकी नानी खानाबदोश थी और पिता एक यहूदी थे। इन विपरीत परिस्थितियों ने चार्ली को एक ‘बाहरी’ व ‘घुमंतू’ चरित्र का बना दिया। इसलिए चार्ली ने अपनी फिल्मों में बद्द, खानाबदोश तथा अवारागर्द की छवि प्रस्तुत की। वह कभी भी न तो मध्यवर्गी व्यक्ति के जीवन-मूल्य को अपना सका और न ही बुर्जुआ या उच्चवर्गी व्यक्ति के जीवन मूल्यों को। फिल्म समीक्षक आज भी यह समझते हैं कि चार्ली का आकलन करना कोई सहज कार्य नहीं है। क्योंकि उनकी कला सिद्धांतों पर टिकी हुई नहीं है, बल्कि उनकी कला सिद्धांतों का निर्माण करती है। जब चार्ली देश-काल की सीमाओं को पार कर जाता है तब वह सभी को अपने जैसा समझने लगता है। दर्शकों को लगता है, कि उसका किरदार उन जैसा ही है। चार्ली ने बुद्धि की अपेक्षा भावनाओं को अधिक महत्त्व दिया। एक बार चार्ली बहुत बीमार पड़ गया। इस अवसर पर उसकी माँ ने बाइबिल से ईसा मसीह का जीवन पढ़कर सुनाया। ईसा के सूली चढ़ने के प्रसंग पर माँ-बेटा दोनों ही रोने लगे, परंतु इस प्रसंग से चार्ली ने स्नेह, करुणा तथा मानवता को समझा। एक अन्य घटना ने भी चार्ली पर प्रभाव डाला। उसके घर के पास ही एक कसाईखाना था, जिसमें वध के लिए सैकड़ों पशु हर रोज़ लाए जाते थे। एक बार वहाँ से एक भेड़ किसी प्रकार से अपनी जान बचाकर भाग निकली। मालिक उसके पीछे भागा, परंतु सड़क पर फिसलकर गिर पड़ा। दर्शक उसे देखकर हँसने लगे। अंततः वह भेड़ पकड़ी गई। चार्ली को पता था कि भेड़ के साथ क्या होगा। इससे उसके हृदय में करुणा का भाव उत्पन्न हो गया। यहीं से चार्ली ने “हास्य के बाद करुणा” इस मनोभाव को अपनी आने वाली फिल्मों का आधार बनाया। भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र भी रस से संबंधित हैं, परंतु हमारे यहाँ करुणा, हास्य में नहीं बदलती। जीवन में जब भी हर्ष और विषाद के अवसर आते हैं तो हास्य और करुणा के भाव आते-जाते रहते हैं, परंतु दोनों में कोई समीपता नहीं होती। हास्य की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब हम दूसरों को देखकर हँसते हैं, इसलिए हास्य आलंबन हम स्वयं न होकर दूसरा होता है। यद्यपि संस्कृत नाटकों में विदूषक अपने कारण दूसरों को हँसाता रहता है, परंतु करुणा और हास्य का मिलन वहाँ भी नहीं होता। दर्शक को यह पता ही नहीं चल पाता कि चार्ली कब करुणा का रूप धारण कर लेगा, कब करुणा-हास्य का। भारतीय साहित्यशास्त्र ने भी चार्ली के इस प्रयोग को स्वीकार कर लिया है, जिससे कला की सार्वजनिकता सिद्ध हो जाती है। चार्ली के इसी सौंदर्यशास्त्र से प्रभावित होकर राजकपूर ने ‘आवारा’ फिल्म का निर्माण किया। यह न केवल चार्ली का भारतीयकरण था, बल्कि ‘दि ट्रैम्प’ का शब्दानुवाद भी था। इस फिल्म के बनने के बाद उस परंपरा ने जन्म लिया जिस पर नायक स्वयं पर हँसते हैं। इसके बाद तो दिलीप कुमार ने ‘बाबुल’, ‘शबनम’, ‘कोहिनूर’, ‘लीडर’ तथा ‘गोपी’ जैसी फिल्में भारतीय फिल्म जगत को दी। देवानंद ने ‘नौ दो ग्यारह’, ‘फंटूश’, ‘तीन देवियाँ’ फिल्मों में भाग लिया। इसी प्रकार शम्मी कपूर, अभिताभ बच्चन तथा श्रीदेवी जैसे कलाकार चार्ली चैप्लिन जैसी भूमिकाएँ करते देखे गए हैं। आज भी जब हमें कभी किसी नायक का फिल्मों में किसी झाड़ से पीटने का दृश्य देखने को मिलता है तो हम चार्ली को याद कर उठते हैं। चार्ली की फिल्मों की अनेक विशेषताएँ हैं। पहली बात वे अपनी फिल्मों में भाषा का बहुत कम प्रयोग करते हैं। उनकी फिल्मों में मानवीय रूप अधिक उभरकर आता है। उनमें ऐसी सार्वभौमिकता है जिसके कारण उनकी फिल्मों को सभी देशों के लोग पसंद करते हैं। वे अपनी फिल्मों में चिर-युवा दिखाई देते हैं। किसी भी सभ्यता एवं संस्कृति के लिए चार्ली विदेशी नहीं हैं। चार्ली में सब कुछ बनने की अद्भुत क्षमता है। चार्ली में सब लोग अपना-अपना रूप देखते हैं। एक होली के पर्व की हम चर्चा न करें तो हमारे देश में स्वयं पर हँसने की परंपरा नहीं है और न ही कोई स्वयं को हास्यास्पद बनाता है। नगर के लोग तो अपने-आप पर हँसने की बात सोच भी नहीं सकते परंतु चार्ली सर्वाधिक स्वयं पर हँसता है। यही कारण है कि भारत में चार्ली का अत्यधिक महत्त्व है। वह बड़े-से-बड़े व्यक्ति पर हमें हँसने का मौका देता है। ऊँचे स्तर पर जाकर भी वह हास्य का पात्र बनने की क्षमता रखता है। उसका रोमांस अकसर असफल हो जाता है। महानतम क्षणों में भी वह अपमानित होने का अभिनय कर सकता है। शूरवीर क्षणों में वह कलैब्य और पलायन की स्थिति उत्पन्न कर देता है। उसके जो पात्र लाचार होते हैं वही अकसर विजय प्राप्त कर लेते हैं। इन विपरीत परिस्थितियों के कारण भारत में चार्ली का विशेष महत्त्व है। लोग उसे खूब पसंद करते हैं। कठिन शब्दों के अर्थ जन्मशती = जन्म की शताब्दी व जन्म का सौवाँ साल। मुग्ध = प्रसन्न। दुनिया = विश्व। इस्तेमाल = प्रयोग। अहसास = अनुभूति। विकल = बिगड़ा हुआ। रसास्वादन = आनंद लेना, रस लेना। परित्यक्ता = जिसे छोड़ दिया गया हो। मगरूर = अहंकारी। दुरदराया जाना = तिरस्कृत करना, दुत्कारा जाना। खानाबदोश = घुमक्कड़, घुमंतू। सुदूर = बहुत दूर। नेति-नेति = ना, ना। समीक्षा = कथन। सुपरिचित= जाना-पहचाना। बेहतर = अच्छा। उकसाना = प्रेरित करना। कसाईखाना = जहाँ जानवरों को काटा जाता है। ठहाका लगाना = जोर-जोर से हँसना। अहसास = अनुभव। त्रासदी = मार्मिक। सामंजस्य = तालमेल। श्रेयस्कर = सर्वश्रेष्ठ। विषाद = दुख। अधिकांशतः = अधिकतर। परसंताप = दूसरों का दुख। सद्व्यक्ति = अच्छा व्यक्ति। विदूषक = हँसी मजाक करने वाला। पारंपरिक = प्राचीन। स्वीकारोक्ति = स्वीकार करने वाली उक्ति। क्लाउन = प्रतिरूप। सान्निध्य = समीपता नितांत = आवश्यक। आरोप = दोष। परंपरा = रिवाज़। कॉमेडियन = हँसाने वाला। अंडगा = व्यवधान। सतत = लगातार। हास्य-प्रतिभा = हँसाने का गुण। हास्यास्पद = हँसी से भरी। अवसर = मौका। गर्वोन्मत्त = गर्व से भरा हुआ। लबरेज़ = लिपटा हुआ। समृद्धि = खुशहाली। गरिमा = महानता। सवाक् = बोलने वाली। क्षण = पल । लाचार = मजबूर। चार्ली-चार्ली = वास्तविकता का प्रकट होना। Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 14 पहलवान की ढोलक Textbook Exercise Questions and Answers. Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 14 पहलवान की ढोलकHBSE 12th Class Hindi पहलवान की ढोलक Textbook Questions and Answersपाठ के साथ प्रश्न 1.
ये शब्द हमारे मन में भी उत्साह भरते हैं और संघर्ष करने की प्रेरणा देते हैं। प्रश्न 2.
प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. परंतु सूर्यास्त होते ही सब लोग अपनी-अपनी झोंपड़ियों में चले जाते थे। किसी की आवाज़ तक नहीं आती थी। रात के घने अंधकार में एक चुप्पी-सी छा जाती थी। बीमार लोगों के बोलने की शक्ति नष्ट हो जाती थी। माताएँ अपने मरते हुए पुत्र को ‘बेटा’ भी नहीं कह पाती थी। रात के समय पूरे गाँव में कोई हलचल नहीं होती थी। प्रश्न 7. (ख) कुश्ती या दंगल की जगह अब क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस, वॉलीबॉल, फुटबॉल, घुड़दौड़ आदि खेल प्रचलित हो गए हैं। (ग) कुश्ती को फिर से लोकप्रिय बनाने के लिए अनेक उपाय अपनाए जा सकते हैं। गाँव की पंचायतें अखाड़े तैयार करके अनेक युवकों को इस ओर आकर्षित कर सकती हैं। दशहरा, होली, दीवाली आदि पर्यों पर कुश्ती आदि का आयोजन किया जा सकता है। सरकार की ओर से भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पहलवानों को पर्याप्त धन-राशि तथा सरकारी नौकरी मिलनी चाहिए। इसी प्रकार सेना, रेलवे, बैंक, एयर लाइंज आदि में भी पहलवानों को नौकरी देकर कुश्ती को बढ़ावा दिया जा सकता है। हाल ही में जिन पहलवानों ने मैडल जीते थे, उनको सरकार की ओर से अच्छी सरकारी नौकरियाँ दी गई हैं और अच्छी धन-राशि देकर सम्मानित किया गया है। प्रश्न 8. प्रश्न 9. 2. रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती….. पाठ के आसपास प्रश्न 1.
प्रश्न 2. प्रश्न 3. भाषा की बात प्रश्न 1. चिकित्सा-डॉक्टर, मैडीसन, अस्पताल, वार्ड ब्वाय, ओ०पी०डी०, नर्सिंग
होम, ओव्टी०, मलेरिया औषधि आदि। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रस्तुत पाठ में कुश्ती की भी कमेंट्री की गई है। दोनों में समानता यह है कि दर्शक अपनी-अपनी टीम के खिलाड़ियों के उत्साह वर्धन के लिए तालियाँ बजाते हैं और खूब चीखते-चिल्लाते हैं। प्रायः दर्शक दो भागों में बँट जाते हैं। परंतु दोनों की कमेंट्री में काफी अंतर दिखाई देता है। कुश्ती में कोई निश्चित कामेंटेटर नहीं होता और न ही कमेंट्री करने की कोई उचित व्यवस्था होती है। कुश्ती की कमेंट्री के प्रसारण की भी कोई उचित व्यवस्था नहीं होती। इसलिए यह खेल अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाया। HBSE 12th Class Hindi पहलवान की ढोलक Important Questions and Answersप्रश्न 1. आरंभ से ही लुट्टन एक भाग्यहीन व्यक्ति था। बचपन में ही उसके माता-पिता चल बसे, बाद में उसके दोनों बेटे महामारी का शिकार बन गए। यही नहीं, राजा श्यामानंद के स्वर्गवास होने पर उसकी दुर्दशा हो गई। परंतु लुट्टन ने गाँव में रहते हुए प्रत्येक परिस्थिति का सामना किया। उसने महामारी की विभीषिका का डटकर सामना किया और सारी रात ढोल बजाकर लोगों को महामारी से लड़ने के लिए उत्साहित किया। वह एक संवेदनशील व्यक्ति था, जो सुख-दुख में गाँव वालों का साथ देता रहा। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. प्रश्न 19. प्रश्न 20. बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर 1. ‘पहलवान की ढोलक’ रचना के लेखक का नाम क्या है? 2. ‘पहलवान की ढोलक’ किस विधा की रचना है? 3. फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म कब हुआ? 4. फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म किस राज्य में हुआ? 5. फणीश्वर नाथ
रेणु का जन्म बिहार के किस जनपद में हुआ? 6. फणीश्वर नाथ रेणु किस प्रकार के कथाकार हैं? 7. रेणु के जन्म स्थान का नाम क्या है? 8. रेणु ने किस वर्ष स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया? 9. रेणु का निधन किस वर्ष हुआ? 10. रेणु किस विचारधारा के साहित्यकार थे? 11. किस उपन्यास के प्रकाशन से रेणु को रातों-रात ख्याति प्राप्त हो गई? 12.
‘मैला आँचल’ का प्रकाशन कब हुआ? 13. रेणु के उपन्यास ‘परती परिकथा’ का प्रकाशन कब हुआ? 14. रेणु के उपन्यास ‘दीर्घतपा’ का प्रकाशन वर्ष क्या है? 15. ‘कितने चौराहे’ किस विधा की रचना है? 16. ‘कितने चौराहे’ का प्रकाशन वर्ष क्या है? 17. ‘ठुमरी’ किस विधा की रचना है? 18. ‘ठुमरी’ का प्रकाशन कब हुआ? 19. रेणु जी का कौन-सा उपन्यास उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुआ? 20. ‘ऋण जल धन जल’ किस विधा की रचना है? 21. इनमें से कौन-सी रचना संस्मरण विधा की है? 22. रेणु की किस कहानी पर लोकप्रिय फिल्म बनी? 23. ‘नेपाली क्रांति कथा’ और ‘पटना की बाढ़’ किस विधा की रचनाएँ हैं? 24. ‘पहलवान की ढोलक’ मुख्य रूप से किसका वर्णन करती है? 25. लट्टन कितनी आयु में अनाथ हो गया
था? 26. किस पहलवान को शेर का बच्चा कहा गया? 27. गाँव में कौन-से रोग फैले हुए थे? 28. ढोलक की आवाज़ गाँव में क्या करती थी? 29. ‘शेर के बच्चे के गुरु का नाम था- 30. लुट्टन पहलवान के
कितने पुत्र थे? 31. लट्टन ने चाँद सिंह को कहाँ के दंगल में हराया था? 32. पंजाबी जमायत किसके पक्ष में थी? 33. पहलवान क्या बजाता था? 34. लुट्टन पहलवान अपने दोनों हाथों को दोनों ओर कितनी डिग्री की दूरी पर फैलाकर चलने लगा था? 35. लुट्टन को किसका आश्रय प्राप्त हो गया? 36. दंगल का स्थान किसने ले लिया था? 37. लुट्टन के दोनों पुत्रों की मृत्यु किससे हुई? 38. रात्रि की भीषणता को कौन ललकारती थी? 39. लट्टन पहलवान कितने वर्ष तक अजेय रहा? 40. लुट्टन सिंह ने दूसरे किस नामी पहलवान को पटककर हरा दिया था? पहलवान की ढोलक प्रमुख गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या [1] जाड़े का दिन। अमावस्या की रात-ठंडी और काली। मलेरिया और हैज़े से पीड़ित गाँव भयात शिशु की तरह थर-थर काँप रहा था। पुरानी और उजड़ी बाँस-फूस की झोंपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य! अँधेरा और निस्तब्धता! अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी। निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश में तारे चमक रहे थे। पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं। आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे। [पृष्ठ-108] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी साहित्य के महान आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। इसमें लेखक ने अपनी आंचलिक रचनाओं के माध्यम से ग्रामीण लोक संस्कृति तथा लोकजीवन का लोकभाषा के माध्यम से प्रभावशाली वर्णन किया है। प्रस्तुत कहानी में गाँव, अंचल तथा संस्कृति का सजीव चित्रण किया गया है। यहाँ लेखक मलेरिया तथा हैजे से पीड़ित गाँव की एक अमावस्या की रात का वर्णन करते हुए कहता है कि- व्याख्या-भयंकर सर्दी का दिन था। अमावस्या की घनी काली रात थी। ठंड इस काली रात को और अधिक काली बना रही थी। पूरा गाँव मलेरिया तथा हैजे से ग्रस्त था। संपूर्ण गाँव भय से व्यथित बच्चे के समान थर-थर काँप रहा था। गाँव का प्रत्येक व्यक्ति सर्दी का शिकार बना हआ था। पुरानी तथा उजड़ी हुई बाँस तथा घास-फूस से बनी झोंपड़ियों में अँधेरा छाया हुआ था, साथ ही मौन का राज्य भी उनमें मिला हुआ था। चारों ओर अंधकार तथा चुप्पी थी। कहीं किसी प्रकार की हलचल सुनाई नहीं देती थी। लेखक रात का मानवीकरण करते हुए कहता है कि ऐसा लगता था कि मानों अँधेरी काली रात चुपचाप रो रही है और अपनी चुप्पी को छिपाने का प्रयास कर रही है। ऊपर आकाश में टिमटिमाते हुए तारे अपनी रोशनी फैलाने का प्रयास कर रहे थे। ज़मीन पर कहीं रोशनी का नाम तक दिखाई नहीं दे रहा था। दुखी लोगों के प्रति सहानुभूति प्रकट करने के लिए यदि कोई संवेदनशील तारा ज़मीन की ओर जाने का प्रयास भी करता था तो उसका प्रकाश और ताकत रास्ते में ही समाप्त हो जाती थी, जिससे आकाश में अन्य तारे उसकी असफल संवेदनशीलता पर मानों खिलखिलाकर हँसने लगते थे। भाव यह है कि उस घने के एक तारा टूट कर पृथ्वी की ओर गिरने का प्रयास कर रहा था। शेष तारे ज्यों-के-त्यों आकाश में जगमगा रहे थे। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) अमावस्या की ठंडी और काली रात के कारण गाँव में अंधकार और सन्नाटा फैला हुआ था। (ग) गाँव के लोग मलेरिया तथा हैजे से पीड़ित थे। (घ) गाँव में मलेरिया तथा हैजा फैला हुआ था तथा महामारी के कारण हर रोज लोग मर रहे थे। चारों ओर मौत का सन्नाटा छाया हुआ था। इसलिए लेखक ने कहा है कि ऐसा लगता था कि मानों अँधेरी रात भी आँसू बहा रही थी। [2] सियारों का क्रंदन और पेचक की डरावनी आवाज़ कभी-कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर देती थी। गाँव की झोंपड़ियों से कराहने और कै करने की आवाज़, ‘हरे राम! हे भगवान!’ की टेर अवश्य सुनाई पड़ती थी। बच्चे भी कभी-कभी निर्बल कंठों से ‘माँ-माँ’ पुकारकर रो पड़ते थे। पर इससे रात्रि की निस्तब्धता में | बाधा नहीं पड़ती थी। कुत्तों में परिस्थिति को ताड़ने की एक विशेष बुद्धि होती है। वे दिन-भर राख के घरों पर गठरी की तरह सिकुड़कर, मन मारकर पड़े रहते थे। संध्या या गंभीर रात्रि को सब मिलकर रोते थे। [पृष्ठ-108] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से अवतरित है। इसके लेखक हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। इसमें लेखक ने अपनी आँचलिक रचनाओं के माध्यम से ग्रामीण लोक संस्कृति तथा लोकजीवन का लोकभाषा के माध्यम से प्रभावशाली वर्णन किया है। प्रस्तुत कहानी में गाँव, अंचल तथा संस्कृति का सजीव चित्रण किया गया है। यहाँ लेखक मलेरिया तथा हैज़े से ग्रस्त गाँव की अमावस्या की काली रात का वर्णन करते हुए कहता है कि- व्याख्या-गाँव में अंधकार और चुप्पी का साम्राज्य फैला हुआ था। बीच-बीच में झोंपड़ियों से कभी-कभी बीमार लोगों की आवाज़ निकल आती थी। इसी स्थिति का वर्णन करते हुए लेखक कहता है कि सियारों की चीख-पुकार तथा उल्लू की भयानक आवाजें उस मौन को भंग कर देती थीं। गाँव की झोंपड़ियों में बीमार लोग पीड़ा से कराहने लगते थे और कभी-कभी हैज़े के कारण उल्टी कर देते थे। बीच-बीच में हरे-राम, हे भगवान की आवाजें सुनने को मिल जाती थीं। भाव यह है कि गाँव के असंख्य लोग हैज़े और मलेरिया से ग्रस्त थे। कभी-कभी कमज़ोर बच्चे अपने कमज़ोर गलों से ‘माँ-माँ’ कहकर रोने लगते थे। इस प्रकार रात की चुप्पी पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था, लेकिन कुत्तों में परिस्थितियों को पहचानने की विशेष योग्यता होती है क्योंकि वे जान चुके थे कि गाँव में अनावृष्टि और महामारी फैली हुई है इसलिए उन्हें खाने को कुछ नहीं मिलेगा। वे कूड़े के ढेर पर गठरी के रूप में सिकुड़ कर पड़ संध्या अथवा गहरी रात होते ही सब मिलकर रोने लगते थे अर्थात् वे भूख से व्याकुल होकर भौंकते और चिल्लाते थे। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) सियारों और उल्लुओं की आवाजें इसलिए डरावनी लग रही थीं, क्योंकि गाँव में महामारी फैली हुई थी। प्रतिदिन दो-तीन लोग मर रहे थे। ऐसे में सियार और उल्लू भी चीख-पुकार कर रो रहे थे, मानों वे एक-दूसरे को मौत का समाचार दे रहे हों। (ग) झोंपड़ियों से बीमार तथा कमज़ोर रोगियों के कराहने तथा रोने और उल्टियाँ करने की आवाजें भी आ रही थीं। कभी-कभी ये रोगी हे राम, हे भगवान कहकर ईश्वर को पुकार उठते थे और छोटे बच्चे माँ-माँ कहकर रोने लगते थे। (घ) कुत्ते आसपास के वातावरण में चल रहे खुशी और गमी को पहचानने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। महामारी के कारण उन्होंने जान लिया था कि लोग महामारी के कारण प्रतिदिन मर रहे हैं। किसी के घर में चूल्हा नहीं जलता, इसलिए कुत्तों को भी खाने को कुछ नहीं मिलता वे कूड़े के ढेर पर दुबककर बैठे रहते थे और रात को मिलकर एक-साथ रोते थे। [3] लुट्टन के माता-पिता उसे नौ वर्ष की उम्र में ही अनाथ बनाकर चल बसे थे। सौभाग्यवश शादी हो चुकी थी, वरना वह भी माँ-बाप का अनुसरण करता। विधवा सास ने पाल-पोस कर बड़ा किया। बचपन में वह गाय चराता, धारोष्ण दूध पीता और कसरत किया करता था। गाँव के लोग उसकी सास को तरह-तरह की तकलीफ दिया करते थे; लट्टन के सिर पर कसरत की धुन लोगों से बदला लेने के लिए ही सवार हुई थी। नियमित कसरत ने किशोरावस्था में ही उसके सीने और बाँहों को सुडौल तथा मांसल बना दिया था। जवानी में कदम रखते ही वह गाँव में सबसे अच्छा पहलवान समझा जाने लगा। लोग उससे डरने लगे और वह दोनों हाथों को दोनों ओर 45 डिग्री की दूरी पर फैलाकर, पहलवानों की भाँति चलने लगा। वह कुश्ती भी लड़ता था। [पृष्ठ-110] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। इसमें लेखक ने अपनी आंचलिक रचनाओं के माध्यम से ग्रामीण लोक संस्कृति तथा लोकजीवन का लोकभाषा के माध्यम से प्रभावशाली वर्णन किया है। प्रस्तुत कहानी में गाँव, अंचल तथा संस्कृति का सजीव चित्रण किया गया है। यहाँ लेखक ने लुट्टन पहलवान की बाल्यावस्था का यथार्थ वर्णन किया है। व्याख्या-लेखक कहता है कि लुट्टन नौ साल का हुआ, तब उसके माता-पिता चल बसे और वह अनाथ हो गया। परंतु यह एक अच्छी बात थी कि उसका विवाह हो चुका था, नहीं तो वह भी मृत्यु का शिकार बन जाता। उसकी सास विधवा थी। उसी ने उसका लालन-पालन किया। बचपन में वह गाय चराने जाया करता था। गाय तथा भैंसों के थनों से निकला ताजा दूध पीता था तथा खूब व्यायाम करता था। अकसर गाँव के लोग उसकी सास को अनेक कष्ट देकर उसे परेशान करते थे। इसीलिए लुट्टन ने यह फैसला कि वह व्यायाम करके पहलवान बनेगा और लोगों से बदला लेगा। वह हर रोज नियमानुसार व्यायाम करता था, इसलिए किशोरावस्था में ही उसकी छाती चौड़ी हो गई थी और भुजाएँ खूब पुष्ट और सुदृढ़ बन गई थीं। जैसे ही लुट्टन ने यौवन में कदम रखा तो लोगों ने समझ लिया कि यह गाँव का सबसे अच्छा पहलवान है। अब गाँव के लोग उससे डरने लग गए थे। वह अपने हाथों को दोनों तरफ 45 डिग्री के फासले पर फैलाकर चलता था, जिससे उसकी चाल पहलवानों जैसी थी। कभी-कभी वह अन्य पहलवानों से से कुश्ती भी लड़ लेता था। भाव यह है कि जवानी में कदम रखते ही लुट्टन एक अच्छा पहलवान बन चुका था और लोगों पर उसका प्रभाव छा गया था। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) नौ वर्ष की आयु में लुट्टन के माता-पिता चल बसे और वह अनाथ हो गया था। (ग) गाँव के लोग लुट्टन की सास को तरह-तरह के कष्ट देते थे अतः लुट्टन के मन में आया कि वह उन लोगों से बदला ले जिन्होंने उसकी सास को तंग किया था। इसीलिए उसने अपना शरीर मज़बूत बनाने के लिए पहलवानी शुरू कर दी। (घ) लुट्टन बचपन में गाएँ चराकर और कसरत करके बड़ा हुआ। (ङ) लुट्टन अब एक नामी पहलवान बन चुका था। उसका शरीर हृष्ट-पुष्ट था। इसलिए लोग उससे डरने लगे थे। (च) इस पंक्ति का भाव यह है कि सौभाग्य से लुट्टन का विवाह हो चुका था। अगर उसका विवाह न हुआ होता तो उसकी देखभाल करने वाला कोई न होता। नौ वर्ष की आयु में उसके माता-पिता चल बसे तो उसकी सास ने ही उसका लालन-पालन किया। अन्यथा अपने माता-पिता की भाँति वह भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता। [4] एक बार वह ‘दंगल’ देखने श्यामनगर मेला गया। पहलवानों की कुश्ती और दाँव-पेंच देखकर उससे नहीं रहा गया। जवानी की मस्ती और ढोल की ललकारती हुई आवाज़ ने उसकी नसों में बिजली उत्पन्न कर दी। उसने बिना कुछ सोचे-समझे दंगल में ‘शेर के बच्चे को चुनौती दे दी। ‘शेर के बच्चे का असल नाम था चाँद सिंह। वह अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ, पंजाब से पहले-पहल श्यामनगर मेले में आया था। सुंदर जवान, अंग-प्रत्यंग से सुंदरता टपक पड़ती थी। तीन दिनों में ही पंजाबी और पठान पहलवानों के गिरोह के अपनी जोड़ी और उम्र के सभी पट्ठों को पछाड़कर उसने ‘शेर के बच्चे की टायटिल प्राप्त कर ली थी। इसलिए वह दंगल के मैदान में लँगोट लगाकर एक अजीब किलकारी भरकर छोटी दुलकी लगाया करता था। देशी नौजवान पहलवान, उससे लड़ने की कल्पना से भी घबराते थे। अपनी टायटिल को सत्य प्रमाणित करने के लिए ही चाँद सिंह बीच-बीच में दहाड़ता फिरता था। [पृष्ठ-110] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। यहाँ लेखक ने श्यामनगर के दंगल का वर्णन किया है, जिसमें पंजाब के पहलवान चाँद सिंह (शेर के बच्चे) ने सभी पहलवानों को कुश्ती के लिए ललकारा था। लेखक कहता है कि व्याख्या-एक बार लुट्टन श्यामनगर के मेले में आयोजित दंगल को देखने गया। पहलवानों की कुश्ती और दाँव-पेंच देखकर उसमें भी कुश्ती लड़ने की इच्छा उत्पन्न हुई। यौवनकाल की मस्ती और ढोल की ललकारती हुई आवाज़ ने उसके अंदर प्रबल जोश भर दिया। वस्तुतः ढोल की आवाज़ सुनकर लुट्टन की नसों में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती थी। पहलवानी का माहौल देखकर लुट्टन अपने आपको रोक नहीं पाया और उसने ‘शेर के बच्चे’ (चाँद सिंह) को कुश्ती के लिए ललकार दिया। शेर के बच्चे का मूल नाम चाँद सिंह था। वह अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ पहली बार श्यामनगर के मेले में आया था। वह बड़ा ही हृष्ट-पुष्ट और सुंदर नौजवान था। उसके शरीर के प्रत्येक अंग से सौंदर्य टपकता था। तीन दिनों में ही उसने पंजाबी तथा पठान पहलवानों के समूह को तथा अपनी आयु के सभी पहलवानों को हरा दिया जिसके फलस्वरूप उसे ‘शेर के बच्चे’ की उपाधि प्राप्त हुई। फलस्वरूप वह दंगल के मैदान में लँगोट कसकर चलता रहता था। वह एक विचित्र प्रकार की किलकारी भरता था और उछल-उछल कर चलता था। स्थानीय युवक पहलवान उससे कुश्ती करने में घबराते थे। कोई भी उसका मुकाबला करने को तैयार नहीं था। अपनी पदवी को सच्चा सिद्ध करने के लिए चाँद सिंह दहाड़कर अन्य पहलवानों को भयभीत करने का प्रयास करता था। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) बिजली उत्पन्न करने का आशय है कि प्रबल जोश उत्पन्न करना। ढोल की आवाज़ सुनने से लुट्टन की नसों में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती थी और उसके तन-बदन में एक बिजली-सी कौंधने लगती थी। (ग) ‘शेर का बच्चा’ पंजाब के पहलवान चाँद सिंह को कहा गया है। उसने श्यामनगर के मेले में तीन दिनों में ही पंजाबी तथा पठानों के गिरोह तथा अपनी उम्र के सभी पहलवानों को कुश्ती में हराकर यह पदवी प्राप्त की थी। (घ) ‘शेर का बच्चा’ अर्थात चाँद सिंह दंगल के मैदान में लँगोट कसकर सभी पहलवानों को खली चनौती दिया फिरता था। वह अपने-आपको शेर का बच्चा सिद्ध करने के लिए विचित्र प्रकार की किलकारी मारा करता था। वह छोटी-छोटी छलाँगें लगाकर उछलता-कूदता हुआ बीच-बीच में दहाड़ उठता था। [5] भीड़ अधीर हो रही थी। बाजे बंद हो गए थे। पंजाबी पहलवानों की जमायत क्रोध से पागल होकर लट्टन पर गालियों की बौछार कर रही थी। दर्शकों की मंडली उत्तेजित हो रही थी। कोई-कोई लट्टन के पक्ष से चिल्ला उठता था-“उसे लड़ने दिया जाए!” अकेला चाँद सिंह मैदान में खड़ा व्यर्थ मुसकुराने की चेष्टा कर रहा था। पहली पकड़ में ही अपने प्रतिद्वंद्वी की शक्ति का अंदाज़ा उसे मिल गया था। विवश होकर राजा साहब ने आज्ञा दे दी-“लड़ने दो!” [पृष्ठ-111] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आंचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। इसमें लेखक ने अपनी आँचलिक रचनाओं के माध्यम से ग्रामीण लोक संस्कृति तथा लोकजीवन का लोकभाषा के माध्यम से प्रभावशाली वर्णन किया है। प्रस्तुत कहानी में गाँव, अंचल तथा संस्कृति का सजीव चित्रण किया गया है। यहाँ लेखक ने उस स्थिति का वर्णन किया है जब लुट्टन राजा साहब से कुश्ती लड़ने की आज्ञा माँग रहा था। व्याख्या-लेखक कहता है कि लोगों की भीड़ बेचैन होती जा रही थी। यहाँ तक कि बाजे बजने भी बंद हो गए थे। लुट्टन बार-बार हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता हआ राजा साहब से कश्ती लड़ने की आज्ञा माँग रहा था। दूसरी ओर, पंज समूह क्रोध के कारण पागल हो रहा था। वे सभी लुट्टन पहलवान को गालियाँ दे रहे थे। कुछ लोग लुट्टन का पक्ष लेकर चिल्लाते हुए कह रहे थे कि उसे लड़ने की आज्ञा दी जानी चाहिए। उधर अकेला चाँद सिंह मैदान में खड़ा हुआ बेकार में हँसने की कोशिश कर रहा था। पहली पकड़ में उसे अंदाजा हो गया था कि उसका विरोधी ताकतवर है। उसे हराना आसान नहीं है। आखिर राजा साहब ने लुट्टन को अपनी स्वीकृति दे दी और कहा कि उसे लड़ने दिया जाए। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) पंजाबी पहलवानों की जमायत लुट्टन को इसलिए गालियाँ दे रही थी क्योंकि वे यह नहीं चाहते थे कि लुट्टन चाँद सिंह के साथ कुश्ती करे। (ग) चाँद सिंह मैदान में खड़ा इसलिए व्यर्थ मुसकुराने की चेष्टा कर रहा था क्योंकि उसने पहली पकड़ में यह जान लिया था कि उसका विरोधी लुट्टन ताकतवर है और उसे हराना आसान नहीं है। (घ) अंत में मजबूर होकर राजा साहब ने लुट्टन को चाँद सिंह से कुश्ती लड़ने की आज्ञा दे दी। [6] लुट्टन की आँखें बाहर निकल रही थीं। उसकी छाती फटने-फटने को हो रही थी। राजमत, बहुमत
चाँद के पक्ष में था। सभी चाँद को शाबाशी दे रहे थे। लट्टन के पक्ष में सिर्फ ढोल की आवाज़ थी, जिसकी ताल पर वह अपनी शक्ति और दाँव-पेंच की परीक्षा ले रहा था अपनी हिम्मत को बढ़ा रहा था। अचानक ढोल की एक पतली आवाज़ सुनाई पड़ी- प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। इसमें लेखक ने अपनी आँचलिक रचनाओं के माध्यम से ग्रामीण लोक संस्कृति तथा लोकजीवन का लोकभाषा के माध्यम से प्रभावशाली वर्णन किया है। यहाँ लेखक ने लुट्टन और चाँद सिंह की कुश्ती का वर्णन किया है। व्याख्या-लेखक कहता है कि चाँद सिंह ने लुट्टन को कसकर दबा लिया था जिस कारण लुट्टन थोड़ा कमज़ोर पड़ गया था। घबराहट के कारण उसकी आँखें बाहर निकलती नज़र आ रही थीं। उसकी छाती पर भी दबाव बढ़ता जा रहा था। राजा साहब के अधिकारी चाँद सिंह का समर्थन कर रहे थे। सभी उसे शाबाशी दे रहे थे। लुट्टन का समर्थन करने वाला कोई नहीं था। केवल ढोल की आवाज़ की ताल पर लुट्टन अपनी ताकत और दाँव-पेंच को जाँच रहा था और अपना हौसला बढ़ा रहा था। भाव यह है कि ढोल की आवाज़ उसके लिए प्रेरणा का काम कर रही थी। अचानक उसे ढोल की बारीक-सी आवाज़ सुनाई पड़ी, मानों ढोल लुट्टन से कह रहा था कि चाँद सिंह के दाँव को काटो और बाहर निकल जाओ। लुट्टन ने ऐसा ही किया। . विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) राजमत और बहुमत चाँद सिंह के पक्ष में इसलिए था क्योंकि एक तो वह ‘शेर के बच्चे’ की पदवी प्राप्त कर चुका था और दूसरा वह क्षत्रिय पंजाब का नामी पहलवान था। इसलिए सब लोग चाँद सिंह को ही शाबाशी दे रहे थे। (ग) लुट्टन के पक्ष में केवल ढोल की आवाज़ थी। उसी आवाज़ पर लुट्टन अपनी शक्ति और दाँव-पेंच की परीक्षा ले रहा था। (घ) ढोल की आवाज़ लुट्टन को स्पष्ट कह रही थी कि चाँद सिंह के दाँव को काटकर बाहर निकल जाओ। [7] पंजाबी पहलवानों की जमायत चाँद सिंह की आँखें पोंछ रही थी। लुट्टन को राजा साहब ने पुरस्कृत ही नहीं किया, अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। तब से लुट्टन राज-पहलवान हो गया और राजा साहब उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे। राज-पंडितों ने मुँह बिचकाया-“हुजूर! जाति का…… सिंह…!”, मैनेजर साहब क्षत्रिय थे। ‘क्लीन-शेव्ड’ चेहरे को संकुचित करते हुए, अपनी शक्ति लगाकर नाक के बाल उखाड़ रहे थे। चुटकी से अत्याचारी बाल को रगड़ते हुए बोले-“हाँ सरकार, यह अन्याय है!” [पृष्ठ-112] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। प्रस्तुत कहानी में गाँव, अंचल तथा संस्कृति का सजीव चित्रण किया गया है। जब लुट्टन पहलवान ने पंजाबी पहलवान चाँद सिंह को दंगल में चित्त कर दिया था तब राजा साहब ने उसे अपने दरबार में राज-पहलवान बना दिया था। व्याख्या-लेखक कहता है कि लुट्टन पहलवान ने पंजाबी पहलवान चाँद सिंह पर विजय प्राप्त कर ली। फलस्वरूप चाँद सिंह की आँखों में हार के आँस आ गए। उसके पंजाबी पहलवान साथी भी बहुत दुखी थे। वे सब मिलकर चाँद सिंह को सांत्वना दे रहे थे। दूसरी ओर, राजा साहब ने लट्टन को न केवल इनाम दिया, बल्कि उसे हमेशा के लिए अपने दरबार में राज-पहलवान बन चुका था। राजा साहब उसे लुट्टन सिंह के नाम से बुलाने लगे, परंतु राज पुरोहित उससे खुश नहीं हुए। उन्होंने मुँह बिचकाते हुए राजा से कहा कि महाराज! यह तो छोटी जाति का व्यक्ति है। इसे सिंह कहना कहाँ तक उचित है। राजा साहब का मैनेजर एक क्षत्रिय था। उससे भी यह सहन नहीं हुआ कि एक छोटी जाति वाला व्यक्ति राज-पहलवान बने। उसने दाढ़ी-मूंछ मुँडवा रखी थी तथा उसका चेहरा बड़ा सिकुड़ा हुआ था। वह बार-बार अपनी नाक के बाल उखाड़ता जा रहा था। अपनी नाक के एक बाल को रगड़ते हुए उसने महाराज से कहा कि हाँ सरकार, यह तो सरासर न्याय विरोधी कार्य है। मैनेजर साहब के कहने का यह अभिप्राय था कि एक छोटी जाति के व्यक्ति को राज-पहलवान नहीं बनाया जाना चाहिए। यह पदवी तो किसी क्षत्रिय पहलवान को ही मिलनी चाहिए। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) राजा साहब ने लुट्टन को हमेशा के लिए अपने दरबार में रख लिया और उसे इनाम दिया, चूँकि वह राज-पहलवान बन चुका था, इसलिए राजा साहब उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे थे। (ग) राजा साहब ने लुट्टन पहलवान को अपने दरबार में इसलिए रख लिया क्योंकि उसने ‘शेर के बच्चे’ चाँद सिंह को दंगल में हराया था। उसने सर्वश्रेष्ठ पहलवान बनकर अपनी मिट्टी की लाज को बचाया था। दूसरा, राजा साहब पहलवानों के प्रशंसक भी थे। (घ) राजपुरोहित तथा क्षत्रिय मैनेजर दोनों ने लुट्टन के राज पहलवान बनने का विरोध किया। पहले तो राज पंडित ने मुँह बिचकाते हुए इस बात का विरोध किया कि छोटी जाति के लुट्टन को लुट्टन सिंह कहकर दरबार में रखना ठीक नहीं है। इसी प्रकार क्षत्रिय मैनेजर चाहता था कि किसी क्षत्रिय को राज पहलवान नियुक्त किया जाना चाहिए। (ङ) प्राचीन काल में भारतीय समाज में जाति-पाति और ऊँच-नीच का काफी भेदभाव व्याप्त था। राजाओं के यहाँ बड़े-बड़े अधिकारी ऊँची जाति के होते थे और वे छोटी जाति के लोगों से घृणा करते थे। बल्कि वे छोटी जाति के प्रतिभा संपन्न लोगों को उभरने नहीं देते थे और उन्हें दबाकर रखते थे। [8] राजा साहब ने मुस्कुराते हुए सिर्फ इतना ही कहा-“उसने क्षत्रिय का काम किया है।” उसी दिन से लट्टन सिंह पहलवान की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। पौष्टिक भोजन और व्यायाम तथा राजा साहब की स्नेह-दृष्टि ने उसकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए। कुछ वर्षों में ही उसने एक-एक कर सभी नामी पहलवानों को मिट्टी सुंघाकर आसमान दिखा दिया। काला खाँ के संबंध में यह बात मशहूर थी कि वह ज्यों ही लँगोट लगाकर ‘आ-ली’ कहकर अपने प्रतिद्वंद्वी पर टूटता है, प्रतिद्वंद्वी पहलवान को लकवा मार जाता है लुट्टन ने उसको भी पटककर लोगों का भ्रम दूर कर दिया। [पृष्ठ-112] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। लेखक ने अपने उपन्यासों, कहानियों तथा संस्मरणों द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने आंचलिक जीवन तथा लोक संस्कृति का सजीव वर्णन किया है। यहाँ लेखक ने उस स्थिति का वर्णन किया है जब राजा साहब के क्षत्रिय मैनेजर तथा राज-पुरोहित द्वारा लुट्टन पहलवान को राज पहलवान बनाने का विरोध किया था। राजा साहब ने उनको दो टूक उत्तर दिया। व्याख्या-राजा साहब क्षत्रिय मैनेजर तथा राजपुरोहित द्वारा उठाई गई आपत्ति के फलस्वरूप मुस्कुराकर बोले कि लुट्टन ने चाँद सिंह पहलवान को धूल चटाकर एक क्षत्रिय का ही काम किया है। इसलिए यह कहना गलत होगा कि वह क्षत्रिय नहीं है। उस दिन के बाद लुट्टन सिंह पहलवान का यश चारों ओर फैलने लगा। दूर-दूर तक के लोग जान गए कि लुट्टन राज-दरबार का पहलवान बन गया है। अब उसे खाने के लिए पौष्टिक भोजन मिलता था। वह खूब कसरत भी करता रहता था। इस पर राजा साहब की कृपा-दृष्टि भी उस पर बनी हुई थी। इससे उसका यश और भी बढ़ गया। कुछ ही वर्षों में लुट्टन सिंह ने आस-पास के सभी मशहूर पहलवानों को पराजित कर दिया था, जिससे उसका नाम काफी प्रसिद्ध हो गया। भाव यह है कि लुट्टन सिंह ने आस-पास के सभी पहलवानों को कुश्ती में पछाड़ दिया था। उस समय काले खाँ नाम का एक प्रसिद्ध पहलवान था। उसके बारे में मशहूर था कि जब वह लँगोट बाँधकर ‘आ-ली’ कहता हुआ अपने विरोधी पर हमला करता है तो उसके विरोधी को लकवा मार जाता है अर्थात् उसके द्वारा हमला करते ही विरोधी पहलवान धराशायी हो जाता है। लुट्टन ने उसे भी दंगल में पटकनी दे दी जिससे लोगों के मन में काले खाँ को लेकर जो गलतफहमी थी, वह दूर हो गई। भाव यह है कि लुट्टन ने दूर-दूर के सुप्रसिद्ध पहलवानों को हराकर अपनी धाक जमा ली थी। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) लुट्टन ने पंजाब के प्रसिद्ध पहलवान चाँद सिंह को धूल चटाई जिससे लोगों में उसका नाम प्रसिद्ध हो गया। दूसरा, लुट्टन सिंह ने राजा श्यामानंद के दरबार में राज पहलवान का पद पा लिया। इसलिए उसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। (ग) काला खाँ एक नामी पहलवान था। उसे कोई भी हरा नहीं पाया था। उसके बारे में यह बात प्रसिद्ध थी कि जैसे ही वह लँगोट बाँधकर ‘आ-ली’ कहता है तो उसके विरोधी को लकवा मार जाता है। लट्टन सिंह ने उसे हराकर सब लोगों के भ्रम को दूर कर दिया। (घ) ‘मिट्टी सुंघाकर आसमान दिखाना’ का आशय है कि अपने विरोधी पहलवान को धरती पर पीठ के बल पटक देना, ताकि उसकी पीठ ज़मीन से लग जाए। कुश्ती की शब्दावली में इसे चित्त करना (हरा देना) कहते हैं। [9] किंतु उसकी शिक्षा-दीक्षा, सब किए-कराए पर एक दिन पानी फिर गया। वृद्ध राजा स्वर्ग सिधार गए। नए राजकुमार ने विलायत से आते ही राज्य को अपने हाथ में ले लिया। राजा साहब के समय शिथिलता आ गई थी, राजकुमार के आते ही दूर हो गई। बहुत से परिवर्तन हुए। उन्हीं परिवर्तनों की चपेटाघात में पड़ा पहलवान भी। दंगल का स्थान घोड़े की रेस ने लिया। [पृष्ठ-114] प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से अवतरित है। इसके लेखक हिंदी के सप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार तथा निबंधकार ‘फणीश्वर नाथ रेण’ हैं। लेखक ने अनेक संस्मरणों द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने आंचलिक जन-जीवन तथा लोक संस्कृति का सजीव वर्णन किया है तथा पहलवानी को एक कला के रूप में प्रस्तुत किया है। यहाँ लेखक ने लट्टन सिंह के जीवन में आए परिवर्तन की ओर संकेत करते हुए लिखा है- व्याख्या-लुट्टन सिंह ने पहलवानी के क्षेत्र में जो शिक्षण-परीक्षण प्राप्त किया था और राज दरबार में अपना स्थान बनाया था, वह सबं समाप्त हो गया था। यहाँ तक कि अपने बच्चों को भावी पहलवान बनाने के सपने भी चूर-चूर हो गए, क्योंकि वृद्ध राजा श्यामनंद का देहांत हो गया था। नया राजकुमार विलायत से शिक्षा प्राप्त करके लौटा था। उसने आते ही राज्य व्यवस्था संभाल ली। राजा साहब के समय में राज्य व्यवस्था कुछ ढीली पड़ गई थी, परंतु राजकुमार ने आते ही सब कुछ ठीक कर दिया। उसने अनेक परिवर्तन किए। उन परिवर्तनों का एक धक्का लुट्टन पहलवान को भी लगा। अब राजकुमार ने कुश्ती दंगल में रुचि लेनी बंद कर दी और वह घोड़े की रेस में रुचि लेने लगा। भाव यह है कि राजदरबार से लुट्टन सिंह और उसके दोनों बेटों को निकाल दिया गया, क्योंकि राजकुमार पश्चिमी सभ्यता में पला नौजवान था और वह पहलवानों का खर्चा उठाना नहीं चाहता था। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) नए राजकुमार ने विलायत से आते ही राज्य व्यवस्था को अपने हाथ में ले लिया। राजा साहब के समय राज्य व्यवस्था में काफी शिथिलता आ चुकी थी। राजकुमार ने इस शिथिलता को दूर किया और बहुत से परिवर्तन किए। उन्हीं परिवर्तनों में से एक धक्का पहलवान को भी लगा। (ग) राज्य परिवर्तन होने से किसी को लाभ होता है किसी को हानि। उदाहरण के रूप में जब राजकुमार राजा बना तो लुट्टन सिंह पहलवान को हानि हुई क्योंकि उसे राजदरबार से निकाल दिया गया। दूसरी ओर घुड़दौड़ से संबंधित कर्मचारियों को आश्रय मिल गया और उन्हें दरबार से धन मिलने लगा। (घ) प्रस्तुत कहानी को पढ़ने से पता चलता है कि राज दरबार में रहने के लिए राजाश्रय के साथ-साथ राजा के विश्वस्त मैनेजरों के साथ-साथ उसके सलाहकारों की कृपा दृष्टि भी बनी रहनी चाहिए, अन्यथा दरबार में राजाश्रित व्यक्ति का वही हाल होगा, जो लुट्टन सिंह का हुआ। [10] अकस्मात गाँव पर यह वज्रपात हुआ। पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैजे ने मिलकर गाँव को भूनना शुरू कर दिया। गाँव प्रायः सूना हो चला था। घर के घर खाली पड़ गए थे। रोज़ दो-तीन लाशें उठने लगी। लोगों में खलबली मची हुई थी। दिन में तो कलरव, हाहाकार तथा हृदय-विदारक रुदन के बावजूद भी लोगों के चेहरे पर कुछ प्रभा दृष्टिगोचर होती थी, शायद सूर्य के प्रकाश में सूर्योदय होते ही लोग काँखते-कूँखते कराहते अपने-अपने घरों से बाहर निकलकर अपने पड़ोसियों और आत्मीयों को ढाढ़स देते थे “अरे क्या करोगी रोकर, दुलहिन! जो गया सो तो चला गया, वह तुम्हारा नहीं था; वह जो है उसको तो देखो।” [पृष्ठ-114] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आँचलिक कहानीकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। लेखक ने अपने असंख्य उपन्यासों, कहानियों एवं संस्मरणों द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। प्रस्तुत कहानी में लेखक आँचलिक जन-जीवन तथा लोक-संस्कृति का सजीव वर्णन करता है, तथा पहलवानी को एक कला के रूप में प्रस्तुत करता है। यहाँ लेखक ने गाँव में अनावृष्टि, मलेरिया तथा हैजे के प्रकोप का बड़ा ही संवेदनशील वर्णन किया है व्याख्या-लेखक कहता है कि अचानक गाँव पर बिजली गिर पड़ी। पहले तो वर्षा न होने के कारण सूखा पड़ा जिससे अन्न की भारी कमी हो गई और लोग भूख से मरने लगे। इसके बाद मलेरिया तथा हैजे के कारण गाँव के लोग मृत्य को प्राप्त धीरे-धीरे सारा गाँव सूना होता जा रहा था। अनेक घर तो खाली हो गए थे। प्रतिदिन गाँव से दो-तीन शव निकाले जाते थे जिससे लोगों में काफी घबराहट फैली हुई थी। कहने का भाव यह है कि हर रोज दो-चार मनुष्यों के मरने से गाँव के लोगों में खलबली मच गई थी। दिन में शोर-शराबा, हाय-हाय तथा हृदय को फाड़ने वाले विलाप की आवाजें आती थीं। फिर भी लोगों के चेहरों पर थोड़ा बहुत तेज दिखाई देता था। कारण यह है कि सूर्य के उदय होते ही उसकी रोशनी में लोग खाँसते और कराहते हुए अपने घरों से बाहर निकलकर अपने पड़ोसी तथा रिश्तेदारों को सांत्वना देते थे। वे रोती हुई स्त्री से कहते थे कि हे बहू! अब रोने से क्या लाभ है, जो इस संसार से चला गया, वह अब लौटकर आने वाला नहीं है। यूँ समझ लो कि वह तुम्हारा था ही नहीं। जो इस समय तुम्हारे पास जिंदा है, उसकी देखभाल करो। कहने का भाव यह है कि अनावृष्टि, मलेरिया तथा हैज़े के कारण पूरे गाँव में मृत्यु का तांडव नाच चल रहा था। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) मलेरिया तथा हैजे की महामारी की चपेट में आने के कारण लोग मृत्यु का ग्रास बन रहे थे। प्रतिदिन गाँव से दो-तीन लाशें उठने लगी थीं, इसीलिए गाँव सूना होता जा रहा था। कुछ मकान तो खाली पड़े हुए थे। (ग) दिन के समय लोग काँखते-कूँखते-कराहते हुए अपने घरों से बाहर निकलकर अपने पड़ोसियों और सगे-संबंधियों को सांत्वना देते थे। इससे उनके चेहरे पर प्रभा रहती थी। (घ) लोग अपने पड़ोसियों तथा रिश्तेदारों को ढांढस बंधाते हुए कहते थे कि-अरी बहू! अब रोने का क्या लाभ है? जो इस संसार से चला गया, वह अब लौटकर आने वाला नहीं है। यूँ समझ लो कि वह तुम्हारा था ही नहीं। जो इस समय तुम्हारे पास जिंदा है, उसकी देखभाल करो। [11] रात्रि की विभीषिका को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी। पहलवान संध्या से सुबह तक, चाहे जिस ख्याल से ढोलक बजाता हो, किंतु गाँव के अर्द्धमृत, औषधि उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी। बूढ़े-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था। स्पंदन-शक्ति-शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी। अवश्य ही ढोलक की आवाज़ में न तो बुखार हटाने का कोई गुण था और न महामारी की सर्वनाश शक्ति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आँख मूंदते समय कोई तकलीफ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे। [पृष्ठ-115] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके
कहानीकार आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। लेखक ने असंख्य उपन्यासों, कहानियों, संस्मरणों द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने आंचलिक जन-जीवन तथा लोक-संस्कृति का सजीव वर्णन किया है तथा पहलवानी को एक कला के रूप में प्रस्तुत किया है। यहाँ लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि रात की भयानकता में पहलवान की ढोलक की आवाज़ आधे मरे हुए तथा दवाई-इलाज से रहित लोगों को संजीवनी शक्ति प्रदान करती थी। इसी स्थिति का वर्णन करते हुए लेखक कहता व्याख्या-मलेरिया और हैजे के कारण गाँव में निरंतर लोगों की मृत्यु हो रही थी। चारों ओर विनाश फैला हुआ था। दिन की अपेक्षा रात अधिक भयानक होती थी, परंतु पहलवान की ढोलक की आवाज़ इस भयानकता का सामना करती थी। लुट्टन पहलवान शाम से लेकर सवेरे तक, चाहे किसी भी विचार से ढोलक बजाता था, परंतु गाँव के मृतःप्राय तथा औषधि और इलाज रहित लोगों के लिए यह संजीवनी का काम करती थी अर्थात् ढोलक की आवाज़ बीमार तथा लाचार प्राणियों को थोड़ी-बहुत शक्ति देती थी। गाँव के बूढ़े-बच्चों एवं जवानों में निराशा छाई हुई थी, परंतु ढोलक की आवाज़ सुनकर उनकी आँखों के सामने दंगल का नज़ारा नाच उठता था। लोगों के शरीर की नाड़ियों में जो धड़कन और ताकत समाप्त हो चुकी थी ढोलक की आवाज़ सुनते ही मानों उनके शरीर में बिजली दौड़ जाती हो। इतना निश्चित है कि ढोलक की आवाज़ में ऐसा कोई गुण नहीं है जो मलेरिया के बुखार को दूर कर सके और न ही कोई ऐसी ताकत है जो महामारी से उत्पन्न विनाश की ताकत को रोक सकती थी। परंतु यह भी निधि कि ढोलक की आवाज़ सुनकर मरने वाले लोगों को कष्ट नहीं होता था और न ही वे मौत से डरते थे। भाव यह है कि ढोलक की आवाज़ सुनकर गाँव के अधमरे और मृतःप्राय लोग मृत्यु का आलिंगन कर लेते थे। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) रात की भयानकता के कारण लोगों में मौत का डर समाया रहता था, परंतु पहलवान की ढोलक की आवाज़ गाँव के सभी लोगों को सहारा देती थी। चाहे बीमार लोगों को कोई औषधि न मिलती हो, परंतु उन्हें उत्साह अवश्य मिलता था। (ग) पहलवान की ढोलक की आवाज़ सुनकर लोगों के निराश तथा मरे हुए मनों में भी उत्साह की लहरें उत्पन्न हो जाती थीं। उनकी आँखों के सामने दंगल का नजारा नाचने लगता था और वे मरते समय मृत्यु से डरते नहीं थे। (घ) ढोलक की आवाज़ गाँव के अधमरे, औषधि, उपचार तथा पथ्यहीन प्राणियों में संजीवनी का काम करती थी। [12] उस दिन पहलवान ने राजा श्यामानंद की दी हुई रेशमी जाँघिया पहन ली। सारे शरीर में मिट्टी मलकर थोड़ी कसरत की, फिर दोनों पुत्रों को कंधों पर लादकर नदी में बहा आया। लोगों ने सुना तो दंग रह गए। कितनों की हिम्मत टूट गई। किंत, रात में फिर पहलवान की ढोलक की आवाज़, प्रतिदिन की भाँति सुनाई पड़ी। लोगों की हिम्मत दुगुनी बढ़ गई। संतप्त पिता-माताओं ने कहा-“दोनों पहलवान बेटे मर गए, पर पहलवान की हिम्मत तो देखो, डेढ़ हाथ का कलेजा है!” चार-पाँच दिनों के बाद। एक रात को ढोलक की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी। ढोलक नहीं बोली। पहलवान के कुछ दिलेर, किंतु रुग्ण शिष्यों ने प्रातःकाल जाकर देखा-पहलवान की लाश ‘चित’ पड़ी है। [पृष्ठ-115] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके कहानीकार आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। लेखक ने असंख्य उपन्यासों, कहानियों, संस्मरणों द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने आँचलिक जन-जीवन तथा लोक-संस्कृति का सजीव वर्णन किया है तथा पहलवानी को एक कला के रूप में प्रस्तुत किया है। यहाँ लेखक ने लुट्टन सिंह पहलवान के आखिरी क्षणों का संवेदनशील वर्णन किया है व्याख्या-लुट्टन सिंह पहलवान के दोनों बेटे भी महामारी का शिकार बन गए, परंतु पहलवान के चेहरे पर कोई दुख का भाव नहीं था। उस दिन उसने राजा श्यामानंद द्वारा दिया गया रेशमी जाँघिया पहना और सारे शरीर पर मिट्टी मली। तत्पश्चात् उसने खूब व्यायाम किया और दोनों बेटों की लाशों को अपने कँधों पर लादकर पास की नदी में प्रवाहित कर दिया। जब लोगों ने इस समाचार को सुना तो सभी हैरान रह गए। कुछ लोगों की तो हिम्मत टूट गई। उनका सोचना था कि दोनों बेटों के मरने के बाद पहलवान निराश हो गया होगा, परंतु ऐसा नहीं हुआ। हर रोज़ की तरह रात के समय पहलवान की ढोलक की आवाज़ सुनाई दे रही थी। इससे निराश लोगों की हिम्मत दोगुनी बढ़ गई। दुखी पिता और माताओं ने यह कहा कि भले ही लुट्टन पहलवान के दोनों बेटे मर गए हैं, परंतु उसमें बड़ी हिम्मत और हौंसला है। उसका दिल बड़ा मज़बूत है। ऐसा दिल आम लोगों के पास नहीं होता। लेकिन चार-पाँच दिन बीतने के बाद एक रात ऐसी आई कि ढोलक की आवाज़ बंद हो गई। ढोलक की आवाज़ सुनाई नहीं दी। सुबह पहलवान के कुछ उत्साही और बीमार शिष्यों ने जाकर देखा तो पहलवान की लाश ज़मीन पर चित्त पड़ी है अर्थात् उसकी लाश पीठ के बल पड़ी है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) लोग पहलवान की हिम्मत के कारण हैरान थे। पिता होते हुए भी वह अपने बेटों की मौत पर नहीं रोया। मरते दम तक वह ढोल बजाता रहा। यही नहीं, अपने बेटों को बीमारी से लड़ने के लिए उत्साहित करता रहा। उनकी मृत्यु होने पर वह उन दोनों की लाशों को अपने कंधों पर लादकर नदी में प्रवाहित कर आया। (ग) लोगों ने देखा कि उन सबका उत्साह बढ़ाने वाले पहलवान के दोनों बेटे मर गए हैं और वह उनकी लाशों को अपने कंधों पर लादकर नदी में प्रवाहित कर आया था। इस घटना से लोगों की हिम्मत टूट गई थी। वे यह समझने लगे कि अब तो पहलवान बहुत ही निराश हो गया है। अतः वह अब ढोल नहीं बजाएगा। (घ) पहलवान ने अपने आखिरी दम तक ढोलक को बजाना जारी रखा। उसकी मृत्यु होने के बाद ही ढोलक बजनी बंद हो गई। (ङ) जब ढोलक का बजना बंद हो गया तो लोगों ने समझ लिया कि अब पहलवान भी संसार से विदा हो चुका है। (च) मौत के बारे में पहलवान की यह इच्छा थी कि उसके शव को चिता पर चित्त न लिटाया जाए क्योंकि वह जीवन में कभी भी किसी से चित्त नहीं हुआ था। इसलिए उसने अपने शिष्यों को कह रखा था कि उसके शव को चिता पर पेट के बल लिटाया जाए और मुखाग्नि देते समय ढोलक बजाई जाए। पहलवान की ढोलक Summary in Hindiपहलवान की ढोलक लेखक-परिचय प्रश्न-फणीश्वर नाथ रेणु का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। 2. प्रमुख रचनाएँ-रेणु जी मूलतः कथाकार हैं, लेकिन उन्होंने कुछ संस्मरण तथा रिपोर्ताज भी लिखे हैं।
3. साहित्यिक विशेषताएँ-फणीश्वर नाथ रेणु को अपने पहले उपन्यास ‘मैला आँचल’ से विशेष ख्याति मिली। इसकी कथा भूमि उत्तरी-बिहार के पूर्णिया अँचल की है। इसके बाद लेखक ने प्रायः आँचलिक उपन्यासों तथा कहानियों उन्होंने बिहार के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक चेतना का बड़ी बारीकी से चित्रण किया है। उनका साहित्य आँचलिक प्रदेश की लोक संस्कृति तथा लोक विश्वासों और लोगों के जीवन-क्रम पर पड़ने वाले प्रभावों को बड़ी आत्मीयता से उकेरता है। वस्तुतः मैला आँचल के प्रकाशन के शीघ्र बाद उन्हें रातों-रात एक महान साहित्यकार की उपाधि प्राप्त हो गई। जहाँ अन्य साहित्यकार स्वतंत्रता प्राप्ति को आधार बनाकर साहित्य की रचना करने लगे, वहाँ रेणु ने अपनी रचनाओं के द्वारा अँचल की समस्याओं की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया। ‘पहलवान की ढोलक’ रेणु जी की एक प्रतिनिधि कहानी है, जिसमें लेखक ने ग्रामीण अंचल की संस्कृति को बड़ी सजीवता के साथ अंकित किया है। उनके संपूर्ण कथा साहित्य में कथावस्तु, पात्रों का चरित्र-चित्रण, देशकाल, कथोपकथन, भाषा-शैली तथा उद्देश्य की दृष्टि से सर्वत्र आँचलिकता का ही आभास होता है। वे सच्चे अर्थों में आंचलिक कथाकार कहे जा सकते हैं। 4. भाषा-शैली-रेणु जी ने अपनी रचनाओं में प्रायः आँचलिक भाषा का ही प्रयोग किया है। भले ही उनकी रचनाओं की भाषा हिंदी है, परंतु उसमें यत्र-तत्र आँचलिक शब्दों का अत्यधिक प्रयोग किया गया है। लेखक ने अपनी प्रत्येक रचना में सहज एवं सरल, हिंदी भाषा का प्रयोग करते समय तत्सम, तद्भव तथा आँचलिक शब्दों का सुंदर मिश्रण किया है। कहीं-कहीं वे अंग्रेज़ी शब्दों का देशीकरण भी कर लेते हैं और कहीं-कहीं मैनेजर, क्लीन-शेव्ड, होरीबुल, टैरिबुल आदि अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करने से भी नहीं चूकते। उनकी रचनाएँ विशिष्ट भाषा प्रयोग के लिए प्रसिद्ध हैं। एक उदाहरण देखिए-“लुट्टन पहलवान ने चाँद सिंह को ध्यान से देखा फिर बाज़ की तरह उस पर टूट पड़ा। देखते-ही-देखते पासा पलटा और चाँद सिंह चाहकर भी जीत न सका। राजा साहब की स्नेह दृष्टि लुट्टन पर पड़ी, बस फिर क्या था, उसकी प्रसिद्धि में चार चाँद लग गए। जीवन सुख से कटने लगा। पर दो पहलवान पुत्रों को जन्म देकर उसकी स्त्री चल बसी।” संक्षेप में हम कह सकते हैं कि फणीश्वर नाथ रेणु की साहित्यिक रचनाएँ कथ्य तथा शिल्प दोनों दृष्टियों से उच्च कोटि की आँचलिक रचनाएँ हैं। उन्होंने बिहार के जन-जीवन का जो यथार्थपरक वर्णन किया है, वह बेमिसाल बन पड़ा है। वे प्रायः वर्णनात्मक, विवेचनात्मक, मनोविश्लेषणात्मक, प्रतीकात्मक तथा संवादात्मक शैलियों का सफल प्रयोग करते हैं। पहलवान की ढोलक पाठ का सार प्रश्न- 2. बाल्यावस्था में लुट्टन का विवाह लुट्टन की शादी बचपन में ही हो गई थी। नौ वर्ष का होते-होते उसके माता-पिता का देहांत हो गया। सास ने ही उसका पालन-पोषण किया। वह अकसर गाय चराने जाता था, ताजा दूध पीता था और खूब व्यायाम करता था, परंतु गाँव के लोग उसकी सास को तकलीफ पहुँचाते रहते थे। इसी कारण वह पहलवान बन गया और कुश्ती लड़ने लगा। धीरे-धीरे वह आसपास के गाँवों में नामी पहलवान बन गया था, परंतु उसकी कश्ती ढोल की आवाज के साथ जुड़ी हुई थी। 3. श्यामनगर के दंगल का आयोजन एक बार श्यामनगर में दंगल का आयोजन हुआ। लुट्टन भी दंगल देखने गया। इस दंगल में चाँद सिंह नामक पहलवान अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ आया था। उसने लगभग सभी पहलवानों को हरा दिया, जिससे उसे “शेर के बच्चे” की उपाधि मिली। किसी पहलवान में यह हिम्मत नहीं थी कि वह उसका सामना करता। श्यामनगर के राजा चाँद सिंह को अपने दरबार मे रखने की सोच ही रहे थे कि इसी बीच लुट्टन ने चाँद सिंह को चुनौती दे डाली। लुट्टन ने अखाड़े में अपने लंगोट लगाकर किलकारी भरी। लोगों ने उसे पागल समझा। कुश्ती शुरू होते ही चाँद सिंह लुट्टन पहलवान पर बाज की तरह टूट पड़ा। यह देखकर राजा साहब ने कुश्ती रुकवा दी और लुट्टन को समझाया कि वह चाँद सिंह से कुश्ती न लड़े। लेकिन लुट्टन ने राजा साहब से कुश्ती लड़ने की आज्ञा माँगी। इधर राजा साहब के मैनेजर और सिपाहियों ने भी उसे बहुत समझाया, लेकिन लुट्टन ने कहा कि यदि राजा साहब उसे लड़ने की अनुमति नहीं देंगे तो वह पत्थर पर अपना सिर मार-मार मर जाएगा। भीड़ काफी बेचैन हो रही थी। पंजाबी पहलवान लुट्टन को गालियाँ दे रहे थे और चाँद सिंह मुस्कुरा रहा था, परंतु कुछ लोग चाहते थे कि लुट्टन को कुश्ती लड़ने का मौका मिलना चाहिए। आखिर मजबूर होकर राजा साहब ने लुट्टन को कुश्ती लड़ने की आज्ञा दे दी। 4. लट्टन और चाँद सिंह की कुश्ती-ज़ोर-ज़ोर से बाजे बजने लगे। लुट्टन का अपना ढोल भी बज रहा था। अचानक चाँद सिंह ने लुट्टन पर हमला किया और उसे कसकर दबा लिया। उसने लुट्टन की गर्दन पर कोहनी डालकर उसे चित्त करने की कोशिश की। दर्शक चाँद सिंह को उत्साहित कर रहे थे। उसका गुरु बादल सिंह भी चाँद सिंह को गुर बता रहा था। ऐसा लग रहा था कि लुट्टन की आँखें बाहर निकल आएँगी। उसकी छाती फटने को हो रही थी। सभी यह सोच रहे थे कि लुट्टन हार जाएगा। केवल ढोल की आवाज़ की ताल ही एक ऐसी शक्ति थी जो लुट्टन को हिम्मत दे रही थी। 5. लुट्टन की विजय-ढोल ने “धाक धिना”, “तिरकट तिना” की आवाज़ दोहराई। लुट्टन ने इसका अर्थ यह लगाया कि चाँद सिंह के दाँव को काटकर बाहर निकल जा। सचमुच लुट्टन बाहर निकल गया और उसने चाँद सिंह की गर्दन पर कब्जा कर लिया। ढोल ने अगली आवाज़ निकाली “चटाक् चट् धा” अर्थात् उठाकर पटक दे और लुट्टन ने चाँद सिंह को उठाकर धरती पर दे मारा। अब ढोलक ने “धिना-धिना धिक धिना” की आवाज़ निकाली। जिसका यह अर्थ था कि लुट्टन ने चाँद सिंह को चारों खाने चित्त लक ने “धा-गिड-गिड” वाह बहादर की ध्वनि निकाली। लट्टन जीत गया था। लोग माँ दुर्गा, महावीर तथा राजा श्यामानंद की जय-जयकार करने लग गए। लुट्टन ने श्रद्धापूर्वक ढोल को प्रणाम किया और फिर राजा साहब को गोद में उठा लिया। राजा साहब ने लुट्टन को शाबाशी दी और उसे हमेशा के लिए अपने दरबार में रख लिया। 6. राज-दरबार में लुट्टन का काल-पंजाबी पहलवान चाँद सिंह के आँसू पोंछने लगे। बाद में राज-पंडित तथा क्षत्रिय मैनेजर ने नियुक्ति का विरोध भी किया। उनका कहना था कि राज-दरबार में केवल क्षत्रिय पहलवान की ही नियुक्ति होनी चाहिए, परंतु राजा साहब ने उनका समर्थन नहीं किया। शीघ्र ही राज्य की ओर से लुट्टन के लिए सारी व्यवस्था कर दी गई। कुछ दिनों में लुट्टन ने आसपास के सभी पहलवानों को पराजित कर दिया। यहाँ तक कि काले खाँ पहलवान भी लुट्टन से हार गया। राज-दरबार का आसरा मिलने के बाद लुट्टन घुटने तक लंबा चोगा पहने अस्त-व्यस्त पगड़ी पहने हुए मेलों में हाथी की चाल चलते हुए घूमता था। हलवाई के कहने पर वह दो सेर, रसगुल्ले खा जाता था। यहाँ तक कि आठ दस पान एक-ही बार मुँह में रखकर चबा जाता था, परंतु उसके शौक बच्चों जैसे थे। वह आँखों पर रंगीन चश्मा लगाता था। हाथ में खिलौने नचाता था और मुँह से पीतल की सीटी बजाता था। 7. लुट्टन का प्रभाव-लुट्टन हर समय हँसता रहता था। दंगल में कोई भी उससे कुश्ती करने की हिम्मत नहीं करता था। यदि कोई उससे कुश्ती करना भी चाहता तो राजा साहब उसे अनुमति नहीं देते थे। इस प्रकार राजदरबार में रहते हुए लुट्टन ने पंद्रह वर्ष व्यतीत कर दिए। लुट्टन की सास और पत्नी दोनों मर चुके थे। उसके दो बेटे थे। वे दोनों अच्छे पहलवान थे। लोग कहते थे कि ये दोनों लड़के बाप से भी अच्छे पहलवान निकलेंगे। शीघ्र ही दोनों को राजदरबार के भावी पहलवान घोषित कर दिया गया। तीनों का भरण-पोषण राजदरबार की तरफ से हो रहा था। लुट्टन अपने लड़कों से कहा करता था कि मेरा गुरु कोई मनुष्य न होकर, ढोल है। मैं इसे ही प्रणाम करके अखाड़े में उतरता हूँ। तुम दोनों भी इसी को प्रणाम करके अखाड़े में उतरना। शीघ्र ही उसने अपने बेटों को पहलवानी के सारे गुर सिखा दिए। 8. राजा साहब की मृत्यु और लुट्टन का बेटों सहित गाँव लौटना अचानक राजा साहब का स्वर्गवास हो गया। नया राजकुमार विलायत से पढ़कर लौटा था। शीघ्र ही उसने राजकाज को सँभाल लिया। उसने राज प्रशासन को सुव्यवस्थित करने के लिए अनेक प्रयत्न किए जिससे लुट्टन और उसके बेटों की छुट्टी कर दी गई। लुट्टन अपने बेटों को साथ लेकर और ढोल कंधे पर रखकर गाँव लौट आया। गाँव के लोगों ने उनके लिए एक झोंपड़ी बना दी। जहाँ लुट्टन गाँव के नौजवानों और ग्वालों को कुश्ती की शिक्षा देने लगा। खाने-पीने का खर्च भी गाँव वाले उठा रहे थे, परंतु यह व्यवस्था अधिक दिन तक नहीं चल पाई। गाँव के सभी नौजवानों ने अखाड़े में आना बंद कर दिया। अब लुट्टन केवल अपने दोनों लड़कों को ही कुश्ती के गुर सिखा रहा था। 9. लुट्टन के जीवन तथा परिवार का अंत-अचानक गाँव पर भयानक संकट आ गया। पहले तो गाँव में सूखा पड़ गया, जिससे गाँव में अनाज की भारी कमी हो गई। शीघ्र ही मलेरिया और हैजे का प्रकोप फैल गया। गाँव में एक के बाद एक घर उजड़ने लगे। प्रतिदिन दो-तीन मौतें हो जाती थीं। लोग रोते हुए एक-दूसरे को सांत्वना देते थे। दिन छिपते ही लोग अपने घरों में छिप जाते थे। चारों ओर मातम छाया रहता था। केवल पहलवान की ढोलक बजती रहती थी। गाँव के बीमार कमजोर तथा अधमरे लोगों के लिए ढोलक की आवाज़ संजीवनी शक्ति का काम कर रही थी। एक दिन तो पहलवान पर भी वज्रपात हो गया। उसके दोनों बेटे भी मृत्यु का ग्रास बन गए। लुट्टन ने लंबी साँस लेते हुए यह कहा कि “दोनों बहादुर गिर पड़े।” उस दिन लुट्टन ने राजा साहब द्वारा दिया रेशमी जांघिया पहना और शरीर पर मिट्टी मलकर खूब कसरत की। फिर वह दोनों बेटों को कंधे पर लादकर नदी में प्रवाहित कर आया। यह घटना देखकर गाँव वालों के भी हौंसले पस्त हो गए। चार-पाँच दिन बाद एक रात को ढोलक की आवाज बंद हो गई। लोग समझ गए कि कोई अनहोनी हो गई है। सुबह होने पर शिष्यों ने झोंपड़ी में जाकर देखा कि लुट्टन पहलवान की लाश चित्त पड़ी थी। शिष्यों ने गाँव वालों को बताया कि उनके गुरु लुट्टन ने यह इच्छा प्रकट की थी कि उसके शव को चिता पर पेट के बल लिटाया जाए क्योंकि वह जिंदगी में कभी चित नहीं हुआ और चिता को आग लगाने के बाद ढोल बजाया जाए। गाँव वालों ने ऐसा ही किया। कठिन शब्दों के अर्थ अमावस्या = चाँद रहित अंधेरी रात। मलेरिया = एक रोग जो मच्छरों के काटने से फैलता है। हैजा = प्रदूषित पानी से फैलने वाला रोग। भयार्त्त = भय से व्याकुल। शिशु = छोटा बच्चा। सन्नाटा = चुप्पी। निस्तब्धता = चुप्पी, मौन। चेष्टा = कोशिश। भावुक = कोमल मन वाला व्यक्ति। ज्योति = प्रकाश। शेष होना = समाप्त होना। क्रंदन = चीख-पुकार। पेचक = उल्लू । कै करना = उल्टी करना। मन मारना = थक कर हार जाना। टेर = पुकार । निर्बल = कमज़ोर। कंठ = गला। ताड़ना = भाँपना। घूरा = गंदगी का ढेर। संध्या = सांझ। भीषणता = भयंकरता। ताल ठोकना = चुनौती देना, ललकारना। मृत = मरा हुआ। संजीवनी = प्राण देने वाली बूटी। होल इंडिया = संपूर्ण भारत । अनाथ = बेसहारा। अनुसरण करना = पीछे-पीछे चलना। धारोष्ण = गाय-भैंस के थनों से निकलने वाला ताजा दूध । नियमित = हर रोज। सुडौल = मज़बूत। दाँव-पेंच = कुश्ती लड़ने की युक्तियाँ। बिजली उत्पन्न करना = तेज़ी उत्पन्न करना। चुनौती = ललकारना। अंग-प्रत्यंग = प्रत्येक अंग। पट्टा = पहलवान। टायटिल = पदवी। किलकारी = खुशी की आवाज़। दुलकी लगाना = उछलकर छलांग लगाना। किंचित = शायद। स्पर्धा = मुकाबला। पैंतरा = कुश्ती का दांव-पेंच। गोश्त = माँस । अधीर = व्याकुल । जमायत = सभा। उत्तेजित = भड़कना। प्रतिद्वंद्वी = मुकाबला करने वाला। विवश = मजबूर। हलुआ होना = पूरी तरह से कुचला जाना। चित्त करना = पीठ लगाना, हराना। आश्चर्य = हैरानी। जनमत = लोगों का साथ। चारों खाने चित्त करना = पूरी तरह से हरा देना। सन-जाना = भर जाना। आपत्ति करना = अस्वीकार। गद्गद् होना = प्रसन्न होना। पुरस्कृत करना = इनाम देना। मुँह बिचकाना = घृणा करना। संकुचित = सिकुड़ा हुआ। कीर्ति = यश। पौष्टिक = पुष्ट करने वाला। चार चाँद लगाना = शान बढ़ाना। आसमान दिखाना = हरा देना, चित्त करना। टूट पड़ना = आक्रमण करना। लकवा मारना = पंगु हो जाना। भ्रम दूर करना = संदेह को दूर करना। दर्शनीय = देखने योग्य । अस्त-व्यस्त = बिखरा हुआ। मतवाला = मस्त। चुहल = शरारत। उदरस्थ = पेट में डालना। हुलिया = रूप-सज्जा। अबरख = रंगीन चमकीला कागज़। वृद्धि = बढ़ोतरी। देह = शरीर । अजेय = जो जीता न जा सके। अनायास = अचानक। भरण-पोषण = पालन-पोषण। प्रताप = शक्ति। पानी फिरना = समाप्त होना। विलायत = विदेश। शिथिलता = ढिलाई । चपेटाघाट = लपेट में लेकर प्रहार करना। टैरिबल = भयानक। हौरिबल = अत्यधिक भयंकर। छोर = किनारा । चरवाहा = पशु चराने वाला। अकस्मात = अचानक। वज्रपात होना = वज्र का प्रहार होना, बहुत दुख होना। अनावृष्टि = सूखा पड़ना। कलरव = शोर। हाहाकार = रोना-पीटना। हृदय-विदारक रुदन = दिल को दहलाने वाला रोना। प्रभा = प्रकाश। काँखते-कूँखते = सूखी खाँसी करते हुए। आत्मीय = अपने प्रिय। ढाढ़स देना = तसल्ली देना। विभीषिका = भयानक स्थिति। अर्द्धमृत = आधे मरे हुए। औषधि = दवाई। पथ्य-विहीन = औषधि रहित। संजीवनी शक्ति = जीवन देने वाली ताकत। स्पंदन-शक्ति-शून्य = धड़कन रहित। स्नायु = नसें। आँख मूंदना = मरना। क्रूर काल = कठोर मृत्यु। असह्य वेदना = ऐसी पीड़ा जो सहन न की जा सके। दंग रहना = हैरान होना। हिम्मत टूटना = निराश होना। संतप्त = दुखी। डेढ़ हाथ का कलेजा = बहुत बड़ा कलेजा। रुग्ण = बीमार। Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 13 काले मेघा पानी दे Textbook Exercise Questions and Answers. Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 13 काले मेघा पानी देHBSE 12th Class Hindi काले मेघा पानी दे Textbook Questions and Answersपाठ के साथ प्रश्न 1. परंतु गाँव के किशोरों की टोली इंद्र देवता से वर्षा की गुहार लगाती थी। बच्चों का कहना था कि भगवान इंद्र वर्षा करने के लिए लोगों से पानी का अर्घ्य माँग रहे हैं। वे तो उनका दूत बनकर लोगों को जल का दान करने की प्रेरणा दे रहे हैं। ऐसा करने से इंद्र देवता वर्षा का दान करेंगे और खूब वर्षा होगी। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न
4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. पाठ के आसपास प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. मेरे जीवन में बादलों की विशेष भूमिका रही है, क्योंकि मैं ग्रामीण जन-जीवन से जुड़ा हुआ हूँ। वर्षा हमारे जीवन को आनन्द प्रदान करती है और नीरस जीवन में रस भर देती है। मन करता है कि मैं नगर को छोड़कर फिर से खेतों में चला जाऊँ और हरे-भरे खेत देखकर आनन्द प्राप्त करूँ। प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. चर्चा करें प्रश्न 1. प्रश्न 2. विज्ञापन की दुनिया प्रश्न 1. HBSE 12th Class Hindi काले मेघा पानी दे Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर 1. ‘काले मेघा पानी दे’ पाठ के लेखक का नाम है 2. धर्मवीर भारती का जन्म कब हुआ? 3. धर्मवीर
भारती के पिता का क्या नाम था? 4. धर्मवीर भारती की माता का क्या नाम था? 5. धर्मवीर भारती ने इंटर की परीक्षा कब उत्तीर्ण की? 6. धर्मवीर भारती ने किस पाठशाला से
इंटर की परीक्षा पास की? 7. धर्मवीर भारती ने किस विश्वविद्यालय से बी०ए० की परीक्षा पास की? 8. सर्वाधिक अंक प्राप्त करने पर धर्मवीर भारती को कौन-सा पदक मिला? 9. धर्मवीर भारती ने हिंदी में किस वर्ष एम०ए० की परीक्षा पास की? 10. धर्मवीर भारती ने किस वर्ष पी०एच०डी० की उपाधि प्राप्त की? 11. धर्मवीर भारती ने किस विषय में पी०एच०डी० की उपाधि प्राप्त की? 12. धर्मवीर भारती किस पत्रिका के संपादक बने? 13. धर्मवीर भारती ने इंग्लैंड की यात्रा कब की? 14. धर्मवीर भारती ने इंडोनेशिया तथा थाईलैंड की यात्रा कब की? 15. धर्मवीर भारती की ‘दूसरा सप्तक’ की कविताएँ कब प्रकाशित हुईं? 16. ‘ठंडा लोहा’ का प्रकाशन कब हुआ? 17. ‘कनुप्रिया’ के
रचयिता हैं 18. ‘गुनाहों का देवता’ किस विधा की रचना है? 19. ‘गुनाहों का देवता’ का रचयिता कौन हैं? 20. ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ किस विधा की रचना है? 21. ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ किसकी रचना है? 22. ‘ठेले पर हिमालय’ किस विधा की रचना है? 23. ‘कहनी-अनकहनी’ के रचयिता का क्या नाम है? 24. ‘मानव मूल्य और साहित्य, किस विधा की रचना है? 25. धर्मवीर भारती का निधन कब हुआ? 26. ‘नदी प्यासी थी’ किस विधा की रचना है? 27. धर्मवीर
भारती को किस राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया गया? 28. ‘पदम्श्री’ के अतिरिक्त धर्मवीर भारती को कौन-सा पुरस्कार मिला? 29. ‘अंधा युग’ के रचयिता का क्या नाम है? 30. ‘अंधा युग’ किस विधा की रचना है? 31. धर्मवीर भारती की किस रचना पर हिंदी में फिल्म बनी? 32. ‘आषाढ़’ से सम्बद्ध ऋतु है: 33. ‘काले मेघा पानी दे’ किस विधा की रचना है? 34. ‘इंदर सेना’ को लेखक ने क्या नाम दिया है? 35.
इंदर सेना द्वारा जल का दान माँगने को लेखक क्या कहता है? 36. वर्षा का देवता कौन माना गया है? 37. लोगों ने लड़कों की टोली को मेढक-मंडली नाम क्यों दिया? 38. किशोर अपने-आप को इंदर सेना क्यों कहते हैं? 39. ‘गुड़धानी’ से क्या अभिप्राय है? 40. लंगोटधारी युवक किसकी जय बोलते हैं? 41. जीजी की दृष्टि में किसके
बिना दान नहीं होता? 42. बच्चों की टोली ‘पानी दे मैया’ कहकर किस सेना के आने की बात कहती है? 43. जीजी लेखक के हाथों पूजा-अनुष्ठान क्यों कराती थी? 44. जन्माष्टमी पर बचपन में लेखक आठ दिनों तक झाँकी सजाकर क्या बाँटता था? 45. किन लोगों ने त्याग और दान की महिमा का गुणगान किया है? 46. हर छठ पर लेखक छोटी रंगीन कुल्हियों में क्या भरता था? 47. ‘काले मेघा पानी दे’ पाठ में किस लोक प्रचलित द्वंद्व का सुंदर चित्रण किया गया है? 48. अंधविश्वास से क्या होता है? 49. प्रस्तुत पाठ में ‘बोल गंगा मैया की जय’ का पहला नारा कौन लगाता था? 50. प्रस्तुत पाठ में लेखक को कुमार-सुधार सभा का कौन-सा पद दिया गया? 51. जीजी के लड़के ने पुलिस की लाठी किस आंदोलन
में खाई थी? काले मेघा पानी दे प्रमुख गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या [1] उछलते-कूदते, एक-दूसरे को धकियाते ये लोग गली में किसी दुमहले मकान के सामने रुक जाते, “पानी दे मैया, इंदर सेना आई है।” और जिन घरों में आखीर जेठ या शुरू आषाढ़ के उन सूखे दिनों में पानी की कमी भी होती थी, जिन घरों के कुएँ भी सूखे होते थे, उन घरों से भी सहेज कर रखे हुए पानी में से बाल्टी या घड़े भर-भर कर इन बच्चों को सर से पैर तक तर कर दिया जाता था। ये भीगे बदन मिट्टी में लोट लगाते थे, पानी फेंकने से पैदा हुए कीचड़ में लथपथ हो जाते थे। हाथ, पाँव, बदन, मुँह, पेट सब पर गंदा कीचड़ मल कर फिर हाँक लगाते “बोल गंगा मैया की जय” और फिर मंडली बाँध कर उछलते-कूदते अगले घर की ओर चल पड़ते बादलों को टेरते, “काले मेघा पानी दे।” [पृष्ठ-100] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित संस्मरण ‘काले मेघा पानी दे’ से उद्धृत है। इसके लेखक डॉ० धर्मवीर भारती हैं। यह लेखक का एक प्रसिद्ध संस्मरण है जिसमें उन्होंने लोक प्रचलित विश्वास और विज्ञान के द्वंद्व का सुंदर चित्रण किया है। लेखक अपने गाँव के एक प्रसंग का वर्णन करता है। गाँव में अनावृष्टि के कारण किशोर युवकों की इंदर सेना उछलती-कूदती हुई गलियों में सिर्फ एक लंगोटी पहने लोगों से दान में पानी माँगती थी। इसी प्रसंग की चर्चा करते हुए लेखक कहता है व्याख्या-गाँव के कुछ नंग-धडंग किशोर एक लंगोटी बाँधे हुए गाँव की गलियों में लोगों से पानी की याचना करते थे। ये युवक उछलते-कूदते हुए एक-दूसरे को धक्का देते हुए आगे बढ़ते थे। ये किसी दुमंजिले मकान के सामने रुककर गुहार लगाते थे- हे माँ! तुम्हारे द्वार पर इंदर सेना आई है, इसे पानी दो मैया। प्रायः सभी घरों में जेठ माह के अंत में अथवा आषाढ़ के आरंभ में अनावृष्टि के कारण सूखा पड़ा रहता था और घरों में पानी की बड़ी कमी होती थी। जिन लोगों के घरों में प्रायः कुएँ थे, वे भी सूख जाते थे। सभी घर-परिवार पानी सँभाल कर रखते थे, क्योंकि पानी की बहुत कमी होती थी। तो भी लोग बचाकर रखे पानी से एक बाल्टी या घड़ा भरकर इंदर सेना पर उड़ेल देते थे जिससे वे सिर से पैर तक भीग जाते थे। भीगे शरीर से ये लोग मिट्टी में लोट जाते थे। पानी फैंकने से जो कीचड़ बन जाता था। उससे यह सेना लथपथ हो जाती थी। सभी के हाथों-पैरों, शरीर, मुख, पेट आदि पर गंदा कीचड़ लग जाता था, परंतु किसी को इसकी परवाह नहीं होती थी। सभी युवक जोर से नारा लगाते ‘बोल गंगा मैया की जय’ । तत्पश्चात् वे पुनः मंडली बनाकर उछलते-कूदते हुए अगले घर की तरफ चल देते थे। इसके साथ-साथ वे बादलों से पुनः पुकार लगाकर पानी माँगते और कहते-काले मेघा पानी दे। इस प्रकार यह इंदर सेना पूरे गाँव की गलियों में चक्कर लगाती हुई घूमती थी। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) जेठ महीने के अंतिम काल अथवा आषाढ़ महीने के आरंभ के दिनों में पानी की कमी हो जाती थी और घरों के कुएँ भी सूख जाते थे। (ग) उछलते-कूदते हुए किशोर दुमहले मकान के सामने रुककर कहते थे-“पानी दे मैया, इंदर सेना आई है”। (घ) लोगों का विश्वास था यदि इंदर सेना के किशोरों पर पानी उड़ेला जाएगा तो इंद्र देवता प्रसन्न होकर वर्षा करेंगे। (ङ) इंदर सेना के किशोर बादलों को टेर लगाते थे-काले मेघा पानी दे। [2] वे सचमुच ऐसे दिन होते जब गली-मुहल्ला, गाँव-शहर हर जगह लोग गरमी में भुन-भुन कर त्राहिमाम कर रहे, होते, जेठ के दसतपा बीत कर आषाढ़ का पहला पखवारा भी बीत चुका होता पर क्षितिज पर कहीं बादल की रेख भी नहीं दीखती होती, कुएँ सूखने लगते, नलों में एक तो बहुत कम पानी आता और आता भी तो आधी रात को भी मानो खौलता हुआ पानी हो। शहरों की तुलना में गाँव में और भी हालत खराब होती थी। जहाँ जुताई होनी चाहिए वहाँ खेतों की मिट्टी सूख कर पत्थर हो जाती, फिर उसमें पपड़ी पड़ कर ज़मीन फटने लगती, लू ऐसी कि चलते-चलते आदमी आधे रास्ते में लू खा कर गिर पड़े। ढोर-ढंगर प्यास के मारे मरने लगते लेकिन बारिश का कहीं नाम निशान नहीं, ऐसे में पूजा-पाठ कथा-विधान सब करके लोग जब हार जाते तब अंतिम उपाय के रूप में निकलती यह इंदर सेना। वर्षा के बादलों के स्वामी, हैं इंद्र और इंद्र की सेना टोली बाँध कर कीचड़ में लथपथ निकलती, पुकारते हुए मेघों को, पानी माँगते हुए प्यासे गलों और सूखे खेतों के लिए। [पृष्ठ-100-101] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित संस्मरण ‘काले मेघा पानी दे’ से उद्धृत है। इसके लेखक डॉ० धर्मवीर भारती हैं। यह लेखक का एक प्रसिद्ध संस्मरण है जिसमें उन्होंने लोक प्रचलित विश्वास और विज्ञान के द्वंद्व का सुंदर चित्रण किया है। लेखक अपने गाँव के उस प्रसंग का वर्णन करता है, जब गाँव में अनावृष्टि के कारण किशोर युवकों की इंदर सेना उछलती-कूदती हुई गलियों में सिर्फ एक लंगोटी पहने लोगों से दान में पानी माँगती थी। यहाँ लेखक भीषण गर्मी से उत्पन्न स्थिति का वर्णन करते हुए कहता है व्याख्या-सच्चाई तो यह है कि ग्रीष्म ऋतु के वे दिन इस प्रकार के होते थे जब नगर-मोहल्ले, गाँव-नगर सभी स्थानों पर भयंकर गर्मी पड़ती थी तथा गर्मी में भुनते हुए लोग भगवान से यही प्रार्थना करते थे कि हमारी रक्षा करो। जेठ के महीने के दस दिनों का ताप व्यतीत हो चुका था और आषाढ़ का पहला पक्ष गुजर गया था, परंतु आकाश में कहीं पर भी बादलों का नामो-निशान नहीं था। प्रायः इस मौसम में कुएँ भी सूख जाते थे और नलकों में भी बहुत थोड़ा पानी आता था। आता भी था तो आधी रात को तथा उबलता हुआ। नगरों के मुकाबले गाँव में हालत और भी खराब हो जाती थी। भाव यह है कि पानी का अभाव नगरों में कम होता था, परंतु गाँव में बहुत अधिक होता था। जिन दिनों खेतों में जुताई की जाती थी, वहाँ मिट्टी सूखकर पत्थर बन जाती थी। स्थान-स्थान पर पपड़ियाँ पड़ने से मिट्टी फट जाती थी। झुलसा देने वाली लू चलती थी जिसके फलस्वरूप रास्ते पर चलने वाला व्यक्ति आधे रास्ते चलने के बाद लू लगने से गिर पड़ता था। पानी की इतनी भारी कमी हो जाती थी कि प्यास के कारण पशु तक मरने लग जाते थे, परंतु दूर-दूर तक कहीं भी बरसात का नामो-निशान तक नहीं मिलता था। लोग ईश्वर की पूजा तथा कथाओं का वर्णन करके भी थक जाते थे और वर्षा बिल्कुल नहीं होती थी। आखिरी उपाय के रूप में यह इंदर सेना गाँव में निकल पड़ती थी। इंद्र को बादलों का स्वामी माना गया है। युवकों की यह टोली उसी की सेना मान ली जाती थी। इंदर सेना के किशोर कीचड़ से लथपथ होकर मेघों को पुकार लगाते थे और प्यासे लोगों तथा सूखे खेतों के लिए इंद्र देवता से पानी की याचना करते थे। कहने का भाव यह है कि अनावृष्टि के समय इंदर सेना के गठन का आयोजन अंतिम उपाय के रूप में अपनाया जाता था। विशेष-
गद्यांश पर आधारित
अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) आषाढ़ के महीने में लोग गर्मी तथा अनावृष्टि के कारण अत्यधिक परेशान हो जाते थे। कुएँ सूख जाते थे और नलों में पानी भी नहीं आता था। यदि आता भी था तो रात को उबलता हुआ पानी आता था। गर्मी के कारण पशु-पक्षी तथा लोग बेहाल हो जाते थे। (ग) गाँव की हालत शहरों से भी बदतर होती थी। जुताई के खेतों की मिट्टी सूखकर पत्थर बन जाती थी। धीरे-धीरे उसमें पपड़ी पड़ने लगती थी और ज़मीन फट जाती थी। गर्म लू के कारण आदमी बेहोश होकर गिर पड़ता था और प्यास से पशु मरने लगते थे। (घ) गाँव के लोग वर्षा के लिए इंदर भगवान से प्रार्थना करते थे। कहीं पूजा-पाठ होता था, तो कहीं कथा-विधान, जब ये सभी उपाय असफल हो जाते थे, तब कीचड़ तथा पानी से लथपथ होकर किशोरों की इंदर सेना गलियों में निकल पड़ती थी और इंद्र देवता से बरसात की गुहार लगाती थी। (ङ) ‘इंदर सेना’ गाँव के उन युवकों को कहा गया है जो एक लंगोटी पहने नंग-धडंग भगवान इंद्र से वर्षा माँगने के लिए घूमते थे। गाँव के लोग मकानों के छज्जों से उन पर एक-आध घड़ा पानी डाल देते थे और वे उछलते-कूदते हुए बादलों को पुकार कर कहते थे काले मेघा पानी दे। [3] पानी की आशा पर जैसे सारा जीवन आकर टिक गया हो। बस एक बात मेरे समझ में नहीं आती थी कि जब चारों ओर पानी की इतनी कमी है तो लोग घर में इतनी कठिनाई से इकट्ठा करके रखा हुआ पानी बाल्टी भर-भर कर इन पर क्यों फेंकते हैं। कैसी निर्मम बरबादी है पानी की। देश की कितनी क्षति होती है इस तरह के अंधविश्वासों से। कौन कहता है इन्हें इंद्र की सेना? अगर इंद्र महाराज से ये पानी दिलवा सकते हैं तो खुद अपने लिए पानी क्यों नहीं माँग लेते? क्यों मुहल्ले भर का पानी नष्ट करवाते घूमते हैं, नहीं यह सब पाखंड है। अंधविश्वास है। ऐसे ही अंधविश्वासों के कारण हम अंग्रेज़ों से पिछड़ गए और गुलाम बन गए। [पृष्ठ-101-102] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित संस्मरण ‘काले मेघा पानी दे’ से उधृत है। इसके लेखक डॉ० धर्मवीर भारती हैं। यह लेखक का एक प्रसिद्ध संस्मरण है जिसमें उन्होंने लोक प्रचलित विश्वास और विज्ञान के द्वंद्व का सुंदर चित्रण किया है। लेखक अपने गाँव के उस प्रसंग का वर्णन करता है जब गाँव में अनावृष्टि के कारण किशोर युवकों की इंदर सेना उछलती-कूदती हुई गलियों में सिर्फ एक लंगोटी पहने लोगों से दान में पानी माँगती थी। यहाँ लेखक इंदर सेना के गठन तथा गाँववालों द्वारा उन पर पानी फैंकने की परंपरा को अंधविश्वास घोषित करता है। व्याख्या-लेखक का कथन है कि ऐसा लगता था कि मानों पानी की आशा पर ही सबका जीवन आकर टिक गया हो, परंतु लेखक अपनी जिज्ञासा को प्रकट करते हुए कहता है कि यह बात उसकी समझ में नहीं आ रही थी कि सब तरफ पानी की इतनी भारी कमी है, फिर भी लोग बड़ी कठिनाई से इकट्ठे किए गए पानी को इंदर सेना के किशोरों पर बाल्टी भर-भर कर डाल देते थे। यह तो निश्चय से पानी की बरबादी है। ऐसा करना सर्वथा अनुचित है। यह एक प्रकार का अंधविश्वास है जिसमें पूरे देश की हानि होती है। पता नहीं लोग इसे इंदर सेना क्यों कहते हैं। यदि लोग इंद्र देवता से पानी दिलवा सकते हैं तो उन्हें स्वयं उससे पानी माँग लेना चाहिए। लोगों के कठिनाई से इकट्ठे किए गए पानी को बरबाद नहीं करना चाहिए। ये लोग मुहल्ले भर का पानी बरबाद करते हुए गलियों में घूमते हैं और शोर-शराबा करते हैं, यह न केवल पाखंड है, अंधविश्वास भी है। इसी अंधविश्वास के कारण हमारा देश पिछड़ गया है। हम भारतवासी इन्हीं अंधविश्वासों के कारण अन्य देशों से पिछड़ गए और अंग्रेज़ शासकों के गुलाम बन गए। अतः इस प्रकार के अंधविश्वासों को छोड़कर हमें पानी के लिए और कोई उपाय अपनाने चाहिएँ। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) लेखक के अनुसार नंग-धडंग किशोरों पर पानी डालना पानी की बरबादी है। जब पानी की इतनी कमी है तब लोगों को बूंद-बूंद पानी भी बचाना चाहिए। (ग) इंदर-सेना के विरोध में लेखक यह तर्क देता है कि जब इंदर-सेना के युवक इंद्र भगवान से पानी दिलवा सकते हैं तो ये अपने लिए उनसे पानी क्यों नहीं माँग लेते। सेना लोगों का पानी क्यों बरबाद करती है? (घ) लेखक की दृष्टि में इंद्र देवता को प्रसन्न करने के लिए इंद्र सेना के किशोरों पर घड़ा भर-भर पानी डालना गाँव वालों की नासमझी है। निश्चय से यह लोगों का अंधविश्वास है, ऐसा करने से वर्षा नहीं होती। (ङ) लेखक ने पाखंडों तथा अंधविश्वासों को भारत की गुलामी तथा अवनति का मूल कारण माना है। [4] मगर मुश्किल यह थी कि मुझे अपने बचपन में जिससे सबसे ज्यादा प्यार मिला वे थीं जीजी। यूँ मेरी रिश्ते में कोई नहीं थीं। उम्र में मेरी माँ से भी बड़ी थीं, पर अपने लड़के-बहू सबको छोड़ कर उनके प्राण मुझी में बसते थे। और वे थीं उन तमाम रीति-रिवाजों, तीज-त्योहारों, पूजा-अनुष्ठानों की खान जिन्हें कुमार-सुधार सभा का यह उपमंत्री अंधविश्वास कहता था, और उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकना चाहता था। पर मुश्किल यह थी कि उनका कोई पूजा-विधान, कोई त्योहार अनुष्ठान मेरे बिना पूरा नहीं होता था। [पृष्ठ-102] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित संस्मरण ‘काले मेघा पानी दे’ से उद्धृत है। इसके लेखक डॉ० धर्मवीर भारती हैं। यह लेखक का एक प्रसिद्ध संस्मरण है जिसमें उन्होंने लोक प्रचलित विश्वास और विज्ञान के द्वंद्व का सुंदर चित्रण किया है। यहाँ लेखक जीजी के साथ अपने प्रगाढ़ संबंधों पर प्रकाश डालता है। लेखक अपनी जीजी का बड़ा आदर मान करता है। वह कहता है कि- व्याख्या कठिनाई यह थी कि लेखक को बाल्यावस्था से ही सर्वाधिक प्यार अपनी जीजी से ही मिला था। उसके साथ लेखक का कोई गहरा रिश्ता नहीं था। वह लेखक की माँ से भी बड़ी थी, परंतु वह अपने लड़के तथा पुत्रवधू की अपेक्षा लेखक से अत्यधिक प्यार करती थी। वे समाज के सभी रीति-रिवाजों, तीज-त्योहारों, पूजा-पाठ तथा कर्मकाण्डों में पूरा विश्वास रखती थीं, परंतु लेखक आर्य समाज द्वारा स्थापित कुमार-सुधार सभा का उपमंत्री था और वह इंद्र सेना के इस कार्य को अंधविश्वास मानता था और वह चाहता था कि वह उसे जड़ से उखाड़ दे, लेकिन सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि लेखक के बिना जीजी का कोई भी पूजा-विधान, त्योहार-कार्य पूरा नहीं होता था। कहने का भाव यह है कि जीजी अपने प्रत्येक पूजा-विधान में लेखक का सहयोग लेती थी। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) लेखक सभी रीति-रिवाज़ों, तीज-त्योहारों तथा पूजा-अनुष्ठानों को अंधविश्वास कहता था। (ग) जीजी सभी प्रकार के पूजा-विधान, त्योहारों-अनुष्ठानों आदि में लेखक का पूरा सहयोग लेती थीं। [5] लेकिन इस बार मैंने साफ इनकार कर दिया। नहीं फेंकना है मुझे बाल्टी भर-भर कर पानी इस गंदी मेढक-मंडली पर। जब जीजी बाल्टी भर कर पानी ले गईं उनके बूढ़े पाँव डगमगा रहे थे, हाथ काँप रहे थे, तब भी मैं अलग मुँह फुलाए खड़ा रहा। शाम को उन्होंने लड्डू-मठरी खाने को दिए तो मैंने उन्हें हाथ से अलग खिसका दिया। मुँह फेरकर ‘बैठ गया, जीजी से बोला भी नहीं। पहले वे भी तमतमाई, लेकिन ज्यादा देर तक उनसे गुस्सा नहीं रहा गया। पास आ कर मेरा सर अपनी गोद में लेकर बोली, “देख भइया रूठ मत। मेरी बात सुन। यह सब अंधविश्वास नहीं है। हम इन्हें पानी नहीं देंगे तो इंद्र भगवान हमें पानी कैसे देंगे?” मैं कुछ नहीं बोला। फिर जीजी बोलीं। “तू इसे पानी की बरबादी समझता है पर यह बरबादी नहीं है। यह पानी का अर्घ्य चढ़ाते हैं, जो चीज़ मनुष्य पाना चाहता है उसे पहले देगा नहीं तो पाएगा कैसे? इसीलिए ऋषि-मुनियों ने दान को सबसे ऊँचा स्थान दिया है।” [पृष्ठ-102] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित संस्मरण ‘काले मेघा पानी दे’ से उद्धृत है। इसके लेखक डॉ० धर्मवीर भारती हैं। यह लेखक का एक प्रसिद्ध संस्मरण है जिसमें उन्होंने लोक प्रचलित विश्वास और विज्ञान के द्वंद्व का सुंदर चित्रण किया है। इस बार लेखक ने जीजी को साफ मना कर दिया कि वह इस गंदी मेढक-मंडली पर पानी नहीं डालेगा। व्याख्या-लेखक कहता है कि जीजी ने उसे बहुत समझाया कि वह इंदर सेना पर पानी डाले. परंत लेखक ने स्पष्ट कह दिया कि वह इन गंदे युवकों की मंडली पर बाल्टी भर-भर कर पानी नहीं डालेगा। परंतु जीजी बाल्टी भरकर पानी ले आई। उस समय उसके बूढ़े पाँव डगमगा रहे थे और हाथ काँप रहे थे, परंतु लेखक ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। वह जीजी से नाराज़ होकर एक तरफ खड़ा रहा। शाम को जीजी ने लेखक को खाने के लिए लड्ड और मठरी दी, परंतु लेखक ने अपने हाथ से खाने के सामान को दूर कर दिया और वह जीजी की ओर से मुँह फेर कर बैठ गया। यहाँ तक कि वह जीजी से बोला भी नहीं। लेखक की यह हरकत देखकर जीजी को पहले गुस्सा आया, परंतु यह गुस्सा क्षण भर का था। जल्दी ही जीजी का गुस्सा दूर हो गया। उसने लेखक के सिर को अपनी गोद में लेते हुए कहा- देखो मैया, मुझसे इस तरह नाराज़ मत हो और मेरी बात को जरा ध्यान से सुनो। इंदर सेना पर पानी की बाल्टी भर कर डालना कोई अंधविश्वास नहीं है। यदि हम इंद्र भगवान को पानी दान नहीं करेंगे तो बदले में वे हमें पानी नहीं देंगे। यह सुनकर भी लेखक ने कोई उत्तर नहीं दिया। जीजी फिर कहने लगी कि जिसे तू पानी की बरबादी समझ रहा है, वह कोई बरबादी नहीं है। वह तो इंद्र देवता को जल चढ़ाना और पूजा करना है। मनुष्य अपने जीवन में जो वस्तु पाना चाहता है उसके बदले उसे पहले कुछ देना पड़ता है। यदि वह कुछ देगा नहीं तो पाएगा कैसे। यही कारण है कि हमारे देश में ऋषियों ने दान को जीवन में सर्वोत्तम स्थान दिया है। भाव यह है कि यदि हम कुछ दान करेंगे तो बदले में कुछ प्राप्त कर पाएँगे। अतः इंद्र देवता को जल चढ़ाना किसी भी दृष्टि से जल की बरबादी नहीं है। इंद्र देवता ही तो बाद में हमें वर्षा के रूप में बहुत-सा पानी देते हैं। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) जब जीजी बाल्टी भर कर पानी लाई तब उनके बूढ़े पैर डगमगा रहे थे और उनके हाथ काँप रहे थे। (ग) लेखक जीजी से नाराज़ था। उसने स्पष्ट कह दिया था कि वह गंदी मेंढक-मंडली पर पानी नहीं फैंकेगा। इसलिए जब जीजी ने उसे खाने के लिए लड्ड, मठरी दिए तो लेखक ने उन्हें दूर खिसका दिया। (घ) जीजी ने यह तर्क दिया कि यह पानी हम इंद्र देवता को अर्घ्य के रूप में चढ़ाते हैं। मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ पाना चाहता है तो बदले में उसे पहले कुछ देना पड़ता है अन्यथा उसे कुछ नहीं मिलता, इसी को दान कहते हैं। ऋषि-मुनियों ने भी दान को जीवन में सर्वोत्तम स्थान दिया है। [6] “देख बिना त्याग के दान नहीं होता। अगर तेरे पास लाखों-करोड़ों रुपये हैं और उसमें से तू दो-चार रुपये किसी को दे दे तो यह क्या त्याग हुआ। त्याग तो वह होता है कि जो चीज़ तेरे पास भी कम है, जिसकी तुझको भी ज़रूरत है तो अपनी ज़रूरत पीछे रख कर दूसरे के कल्याण के लिए उसे दे तो त्याग तो वह होता – है, दान तो वह होता है, उसी का फल मिलता है।” [पृष्ठ-103] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित संस्मरण ‘काले मेघा पानी दे से उद्धृत है। इसके लेखक डॉ० धर्मवीर भारती हैं। यह लेखक का एक प्रसिद्ध संस्मरण है जिसमें उन्होंने लोक प्रचलित विश्वास और विज्ञान के द्वंद्व का सुंदर चित्रण किया है। यह कथन जीजी का है। वे लेखक को त्याग के महत्त्व के बारे में बताती हुई कहती है कि- व्याख्या-त्याग के बिना दान नहीं हो सकता। यदि तुम्हारे पास लाखों-करोड़ों रुपयों की धन-राशि है और तुमने उसमें से दो-चार रुपये दान में दे भी दिए तो यह त्याग नहीं कहलाता। त्याग उस वस्तु का होता है जो पहले ही तुम्हारे पास कम मात्रा में है और तुम्हें उसकी नितांत आवश्यकता भी है। परंतु यदि तुम अपनी आवश्यकता की परवाह न करते हुए दूसरे व्यक्ति के भले के लिए उसे त्याग देते हो तो वही सच्चा दान कहलाता है। इस प्रकार के दान का ही हमें फल मिलता है। कहने का भाव यह है कि सच्चा दान उसी वस्तु का होता है, जो तुम्हारे पास बहुत कम है और तुम्हें भी उसकी ज़रूरत होती है लेकिन तुम अपनी ज़रूरत की चिंता न करते हुए दूसरे व्यक्ति के कल्याणार्थ उसे दे देते हो तो वही सच्चा दान कहा जाएगा। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) लाखों-करोड़ों रुपयों में से दो-चार रुपयों का किया गया दान कोई महत्त्व नहीं रखता। यह तो मात्र दान देने का ढकोसला है। (ग) सच्चा त्याग वह होता है कि यदि किसी वस्तु की हमारे पास कमी हो और उसकी हमें ज़रूरत भी हो और परंतु फिर भी हम अपनी ज़रूरत को पीछे रखकर दूसरों के कल्याणार्थ उसे दान में दे देते हैं, वही सच्चा त्याग कहलाता है। (घ) त्याग और कल्याण की भावना से किए गए दान का फल अवश्य मिलता है। [7] फिर जीजी बोली, “देख तू तो अभी से पढ़-लिख गया है। मैंने तो गाँव के मदरसे का भी मुँह नहीं देखा। पर एक बात देखी है कि अगर तीस-चालीस मन गेहूँ उगाना है तो किसान पाँच-छह सेर अच्छा गेहूँ अपने पास से लेकर ज़मीन में क्यारियाँ बना कर फेंक देता है। उसे बुवाई कहते हैं। यह जो सूखे हम अपने घर का पानी इन पर फेंकते हैं वह भी बुवाई है। यह पानी गली में बोएँगे तो सारे शहर, कस्बा, गाँव पर पानीवाले बादलों की फसल आ जाएगी। हम बीज बनाकर पानी देते हैं, फिर काले मेघा से पानी माँगते हैं। सब ऋषि-मुनि कह गए हैं कि पहले खुद दो तब देवता तुम्हें चौगुना-अठगुना करके लौटाएँगे भइया, यह तो हर आदमी का आचरण है, जिससे सबका आचरण बनता है। यथा राजा तथा प्रजा सिर्फ यही सच नहीं है। सच यह भी है कि यथा प्रजा तथा राजा। यही तो गाँधी जी महाराज कहते हैं।” [पृष्ठ-103] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित संस्मरण ‘काले मेघा पानी दे’ से उद्धृत है। इसके लेखक डॉ० धर्मवीर भारती हैं। यह लेखक का एक प्रसिद्ध संस्मरण है जिसमें उन्होंने लोक प्रचलित विश्वास और विज्ञान के द्वंद्व का सुंदर चित्रण किया है। यहाँ जीजी दान का महत्त्व समझाने के लिए एक और उदाहरण देती है। वह लेखक से कहती है कि व्याख्या-तुम तो पढ़-लिखकर विद्वान बन गए हो, परंतु जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं गाँव के स्कूल में आज तक नहीं गई। मुझे तो यह भी पता नहीं कि स्कूल कैसा होता है। लेकिन मैं एक बात जानती हूँ कि यदि किसान को अपने खेत में तीस-चालीस मन अनाज उगाना हो तो पहले वह अपने खेत में क्यारियाँ बनाकर पाँच-सेर गेहूँ उसमें बीज के रूप में डालता है। इसी को हम बुआई कहते हैं। इस समय यहाँ सूखा पड़ा हुआ है। हम जो अपने घर का पानी इंद्र सेना पर डालते हैं, वह एक प्रकार से बुआई है। हम अपनी गली में पानी बोएँगे जिससे सारे नगर-कस्बे, शहर में बादल वर्षा करेंगे। यह वर्षा ही हमारी फसल है। हम बीज के रूप में पानी का दान करते हैं, बाद में काले बादल से पानी माँगते हैं। हमारे देश के ऋषि-मुनि भी यही कह गए हैं कि पहले तुम स्वयं दान करो, देवता तुम्हें चार गुणा और आठ गुणा करके वह दान वापिस करेंगे। यह आचरण प्रत्येक व्यक्ति का है। अन्य शब्दों में यह सबका आचरण बन जाता है। केवल यह सत्य नहीं है यथा राजा तथा प्रजा, बल्कि यह भी सत्य है कि यथा प्रजा तथा राजा। गाँधी जी ने भी इस बात का समर्थन किया था। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि लोग जैसा आचरण करते हैं, राजा को वैसा आचरण करना पड़ता है। हमारे देवता भी तो राजा हैं। जब लोग उनकी पूजा-अर्चना करेंगे, कुछ दान देंगे तो बदले में हमें भी बहुत विशेष-
गद्यांश
पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) जीजी द्वारा पानी दान करने की समानता किसानों से की गई है। जिस प्रकार किसान खेत में तीस-चालीस मन गेहूँ उगाने के लिए पाँच-छः सेर अच्छा गेहूँ बुआई के रूप में डालते हैं। किसान की यह बुआई ही एक प्रकार का दान है। इसी प्रकार काले मेघा से वर्षा पाने के लिए पानी की कुछ बाल्टियाँ दान करना मानों पानी की बुआई है। (ग) ‘यथा राजा तथा प्रजा’ का अर्थ है-राजा जैसा आचरण करता है, प्रजा भी उसे देखकर वैसा ही आचरण करती है। ‘यथा प्रजा तथा राजा’ का अर्थ है जिस देश की प्रजा जैसा आचरण करती है। वहाँ का राजा भी वैसा ही आचरण करता है। अन्य शब्दों में जनता का आचरण राजा को अवश्य प्रभावित करता है। (घ) गाँधी जी ने प्रजा के आचरण को अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। उनका कहना था कि प्रजा के आचरण को देखकर राजा को अपना आचरण बदलना पड़ता है। गाँधी जी ने सत्याग्रह आंदोलन द्वारा इस उक्ति को चरितार्थ कर दिखाया था। (ङ) ऋषि-मुनियों का कहना है कि मनुष्य को पहले स्वयं त्यागपूर्वक दान करना चाहिए तभी देवता उसे अनेक गुणा देते हैं। [8] इन बातों को आज पचास से ज़्यादा बरस होने को आए पर ज्यों की त्यों मन पर दर्ज हैं। कभी-कभी कैसे-कैसे संदर्भो में ये बातें मन को कचोट जाती हैं, हम आज देश के लिए करते क्या हैं? माँगें हर क्षेत्र में बड़ी-बड़ी हैं पर त्याग का कहीं नाम-निशान नहीं है। अपना स्वार्थ आज एकमात्र लक्ष्य रह गया है। हम चटखारे लेकर इसके या उसके भ्रष्टाचार की बातें करते हैं पर क्या कभी हमने जाँचा है कि अपने स्तर पर अपने दायरे में हम उसी भ्रष्टाचार के अंग तो नहीं बन रहे है? काले मेघा दल के दल उमड़ते हैं, पानी झमाझम बरसता है, पर गगरी फूटी की फूटी रह जाती है, बैल पियासे के पियासे रह जाते हैं? आखिर कब बदलेगी यह स्थिति? [पृष्ठ-103] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित संस्मरण ‘काले मेघा पानी दे’ से उद्धृत है। इसके लेखक डॉ० धर्मवीर भारती हैं। यह लेखक का एक प्रसिद्ध संस्मरण है जिसमें उन्होंने लोक प्रचलित विश्वास और विज्ञान के द्वंद्व का सुंदर चित्रण किया है। यहाँ लेखक ने जीजी के द्वारा दिए गए संदेश को स्वीकार करते हुए देश की वर्तमान दशा पर प्रकाश डाला है। व्याख्या लेखक कहता है कि इन बातों को गुजरे हुए पचास वर्ष हो चुके हैं। लेकिन जीजी की बातें आज भी मन पर अंकित हैं। ऐसे अनेक संदर्भ आते हैं जब ये बातें मन पर चोट पहुँचाती हैं। हम देश की वर्तमान हालत देखकर व्याकुल हो उठते हैं। लेखक कहता है कि हमने अपने देश के लिए कुछ भी नहीं किया। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम देश के सामने अनेक माँगें प्रस्तुत करते हैं, परंतु हमारे अंदर त्याग तनिक भी नहीं है। हम सब स्वार्थी बन गए हैं और स्वार्थ पूरा करना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य रह गया है। हम लोगों में व्याप्त भ्रष्टाचार की खूब चर्चा करते हैं। उनकी निंदा करके हमें बहुत आनंद आता है। लेकिन हमने यह नहीं सोचा कि निजी स्तर पर हम अपने क्षेत्र में उसी भ्रष्टाचार का हिस्सा तो नहीं बन गए हैं। भाव यह है कि हम स्वयं तो भ्रष्टाचार से लिप्त हैं। भ्रष्ट उपाय अपनाकर हम अपना काम निकालते हैं। काले मेघा के समूह आज भी उमड़-घुमड़कर आते हैं। खूब पानी बरसता है। पर गगरी फूटी-की-फूटी रह जाती है और हमारे बैल प्यासे मरने लगते हैं। भाव यह है कि हमारे देश में धन और संसाधनों की कोई कमी नहीं है, फिर भी लोग अभावग्रस्त और गरीब हैं। भ्रष्टाचार के कारण ये संसाधन आम लोगों तक नहीं पहुंच पाते। लेखक अंत में सोचता है कि इस स्थिति में कब परिवर्तन होगा और हमारे देश में कब समाजवाद का उदय होगा? विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) लेखक के मन को यह बात कचोटती है कि आज लोग सरकार के सामने बड़ी-बड़ी माँगें रखते हैं और अपने स्वार्थों को पूरा करने में संलग्न हैं किंतु न तो कोई देश के लिए त्याग करना चाहता है और न ही अपने कर्तव्य का पालन करना चाहता है। (ग) भ्रष्टाचार को लेकर लोग चटखारे लेकर बातें करते हैं और भ्रष्ट लोगों की निंदा भी करते हैं किंतु वे स्वयं इस भ्रष्टाचार के अंग बन चुके हैं। आज हर आदमी किसी-न-किसी प्रकार से भ्रष्टाचार की दलदल में फंसा हुआ है। (घ) इस कथन का आशय है कि हमारे देश में धन और संसाधनों की कोई कमी नहीं है, परंतु भ्रष्टाचार के कारण ये संसाधन लोगों तक नहीं पहुंच पाते जिसके फलस्वरूप लोग गरीब व अभावग्रस्त हैं। काले मेघा पानी दे Summary in Hindiकाले मेघा पानी दे लेखिका-परिचय प्रश्न- 2. प्रमुख रचनाएँ-धर्मवीर भारती की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं- 3. साहित्यिक विशेषताएँ-धर्मवीर भारती स्वतंत्रता के बाद के साहित्यकारों में विशेष स्थान रखते हैं। उन्होंने हर उम्र और हर वर्ग के पाठकों के लिए अलग-अलग रचनाएँ लिखी हैं। उनके साहित्य में व्यक्ति स्वातंत्र्य, मानवीय संकट तथा रोमानी चेतना आदि प्रवृत्तियाँ देखी जा सकती हैं, परंतु वे सामाजिकता और उत्तरदायित्व को अधिक महत्त्व देते हैं। इनके आरंभिक काव्य में हमें रोमानी भाव-बोध देखने को मिलता है। “गुनाहों का देवता” इनका सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है। इसमें एक सरस और भावप्रवण प्रेम कथा है। ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ भी भारती जी का एक लोकप्रिय उपन्यास है, जिस पर एक हिंदी फिल्म भी बन चुकी है। ‘अंधा युग’ में कवि ने आज़ादी के बाद गिरते हुए जीवन मूल्यों, अनास्था, मोहभंग, विश्वयुद्धों से उत्पन्न भय आदि का वर्णन किया है। ‘काले मेघा पानी दे’ भारती जी का एक प्रसिद्ध संस्मरण है जिसमें उन्होंने लोक प्रचलित विश्वास तथा विज्ञान के द्वंद्व का चित्रण किया है। प्रस्तुत संस्मरण किशोर जीवन से संबंधित है। इसमें दिखाया गया है कि किस प्रकार गाँवों के बच्चों की इंदर सेना अनावृष्टि को दूर करने के लिए द्वार-द्वार पर पानी माँगती चलती है। 4. भाषा-शैली-भारती जी आरंभ से ही सरल भाषा के पक्षपाती रहे हैं। उन्होंने प्रायः जन-सामान्य की बोल-चाल की भाषा का ही प्रयोग किया है जिसमें तत्सम, देशज तथा विदेशी शब्दावली का उपयुक्त प्रयोग किया है। अपनी रचनाओं में वे उर्दू, फारसी तथा अंग्रेज़ी शब्दों के साथ-साथ तद्भव शब्दों का भी खुलकर मिश्रण करते हैं। विशेषकर, निबंधों में उनकी भाषा पूर्णतया साहित्यिक हिंदी भाषा कही जा सकती है। ‘काले मेघा पानी दे’ वस्तुतः भारती जी का एक उल्लेखनीय संस्मरण है जिसमें सहजता के साथ-साथ आत्मीयता भी है। बड़ी-से-बड़ी बात को वे वार्तालाप शैली में कहते हैं और पाठकों के हृदय को छू लेते हैं। अपने निबन्ध तथा रिपोर्ताज में उन्होंने सामान्य हिंदी भाषा का प्रयोग किया है। एक उदाहरण देखिए- “मैं असल में था तो इन्हीं मेढक-मंडली वालों की उमर का, पर कुछ तो बचपन के आर्यसमाजी संस्कार थे और एक कुमार-सुधार सभा कायम हुई थी उसका उपमंत्री बना दिया गया था-सो समाज-सुधार का जोश कुछ ज्यादा ही था। अंधविश्वासों के खिलाफ तो तरकस में तीर रखकर घूमता रहता था।” काले मेघा पानी दे पाठ का सार प्रश्न- 2. लेखक द्वारा विरोध-लेखक भी इन किशोरों की आयु का ही था। वह बचपन से ही आर्यसमाज से प्रभावित था। वह कुमार-सुधार सभा का उपमंत्री भी था। इसलिए वह इसे अंधविश्वास मानता था और किशोरों की इस इंदर सेना को मेढक-मंडली का नाम देता था। उसका यह तर्क था कि जब पहले ही पानी की इतनी भारी कमी है तो फिर लोग कठिनाई से लाए हुए पानी को व्यर्थ में क्यों बरबाद कर रहे हैं। अगर यह किशोर सेना इंदर की है तो ये लोग सीधे-सीधे इंद्र देवता से गुहार क्यों नहीं लगाते। लेखक का विचार है कि इस प्रकार के अंधविश्वासों के कारण ही हमारा देश पिछड़ गया और गुलाम हो गया। 3. जीजी के प्रति लेखक का विश्वास-लेखक के मन में अपनी जीजी के प्रति बहुत विश्वास था। वह इंद्र सेना और अन्य विश्वासों को बहुत मानती थी। वह प्रत्येक प्रकार की पूजा और अनुष्ठान लेखक के हाथों करवाती थी, ताकि उसका फल लेखक को प्राप्त हो। जीजी चाहती थी कि लेखक भी इंदर सेना पर पानी फैंके, परंतु लेखक ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। जीजी काफी वृद्ध हो चुकी थी, फिर भी उसने कांपते हाथों से बच्चों पर पानी की बाल्टी फेंकी। लेखक न तो जीजी से बोला और न ही उसके हाथों से लड्डू-मठरी खाई। 4. जीजी और लेखक के बीच विवाद-जीजी का कहना था कि यदि हम इंद्र भगवान को पानी नहीं देंगे, तो वह हमें कैसे पानी देंगे। परंतु लेखक का कहना था कि यह एक कोरा अंधविश्वास है। इसके विपरीत जीजी ने तर्क देते हुए कहा कि यह पानी की बरबादी नहीं है, बल्कि इंद्र देवता को चढ़ाया गया अर्घ्य है। यदि मानव अपने हाथों से कुछ दान करेगा तो ही वह कुछ पाएगा। हमारे यहाँ ऋषि-मुनियों ने भी त्याग और दान की महिमा का गान किया है। त्याग वह नहीं है जो करोड़ों रुपयों में से कुछ रुपये दान किए जाएँ, परंतु जो चीज़ तुम्हारे पास कम है उसमें से दान या त्याग करना महत्त्वपूर्ण है। यदि वह दान लोक-कल्याण के लिए किया जाएगा, उसका फल अवश्य मिलेगा। लेखक इस तर्क से हार गया। फिर भी वह अपनी जिद पर अड़ा रहा। तब जीजी ने एक और तर्क दिया कि किसान तीस-चालीस मन गेहूँ पैदा करने के लिए पाँच-छः सेर गेहूँ अपनी ओर से बोता है। इसी प्रकार सूखे में पानी फैंकना, पानी बोने के समान है। जब हम इस पानी को बोएँगे तो आकाश में बादलों की फसलें लहराने लगेंगी। पहले हम चार गना वापिस लौटाएँगे। यह कहना सच नहीं है कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’ किंत हमें यह कहना चाहिए कि “यथा प्रजा तथा राजा” गांधी जी ने भी इसी दृष्टिकोण का समर्थन किया था। 5. लेखक का निष्कर्ष यह घटना लगभग पचास वर्ष पहले की है, लेकिन इसका प्रभाव लेखक के मन पर अब भी है। वह मन-ही-मन सोचता है कि हम देश के लिए क्या कर रहे हैं। हम सरकार के सामने बड़ी-बड़ी मांगें रखते हैं, लेकिन हमारे अंदर त्याग की कोई भावना नहीं है। भले ही हम लोग भ्रष्टाचार की बातें करते हैं, परंतु हम सभी भ्रष्टाचार से लिप्त हैं। यदि हम स्वयं को सुधार लें तो देश और समाज स्वयं सुधर जाएगा, परंतु इस दृष्टिकोण से कोई नहीं सोचता। काले मेघ अब भी पानी बरसाते हैं, लेकिन गगरी फूटी-की-फूटी रह जाती है। बैल प्यासे रह जाते हैं। पता नहीं यह हालत कब सुधरेगी? कठिन शब्दों के अर्थ मेघा = बादल। इंदर सेना = इंद्र के सिपाही। मेढक-मंडली = कीचड़ से लिपटे हुए मेढकों जैसे किशोर। नग्नस्वरूप = बिल्कुल नंगे। काँदो = कीचड़। अगवानी = स्वागत। सावधान = सचेत, जागरूक। छज्जा = मुंडेर। बारजा = मुंडेर के साथ वाला स्थान। समवेत = इकट्ठा, सामूहिक। गगरी = घड़ा। गुड़धानी = गुड़ और चने से बना एक प्रकार का लड्डू। धकियाना = धक्का देना। दुमहले = दो मंजिलों वाला। सहेज = सँभालना। तर करना = भिगोना। बदन = शरीर। हाँक = जोर की आवाज़। टेरते = पुकारते। त्राहिमाम = मुझे बचाओ। दसतपा = तपते हुए दस दिन। पखवारा = पंद्रह दिन का समय, पाक्षिक। क्षितिज = वह स्थान जहाँ धरती और आकाश मिलते हुए दिखाई देते हैं। खौलता हुआ = बहुत गर्म । जुताई = खेतों में हल चलाना। ढोर-ढंगर = पशु। कथा-विधान = धार्मिक कथाएँ कहना। निर्मम = कठोर। क्षति = हानि। पाखंड = ढोंग। संस्कार = आदतें। तरकस में तीर रखना = विनाश करने के लिए तैयार रहना। प्राण बसना = प्रिय होना। तमाम = सभी। पूजा-अनुष्ठान = पूजा का काम। खान = भंडार। जड़ से उखाड़ना = पूरी तरह नष्ट करना। सतिया = स्वास्तिक का चिह्न। पंजीरी = गेहूँ के आटे और गुड़ से बनी हुई मिठाई। छठ = एक पर्व का नाम। कुलही = मिट्टी का छोटा बर्तन। अरवा चावल = ऐसा चावल जो धान को बिना उबाले निकाला गया हो। मुँह फुलाना = नाराज़ होना। तमतमाना = क्रोधित होना। अर्घ्य = जल चढ़ाना। ढकोसला = दिखावा। किला पस्त होना = हारना। मदरसा = स्कूल । बुवाई = बीज होना। दर्ज होना = लिखना। कचोटना = बुरा लगना। चटखारे लेना = रस लेना, मजा लेना। दायरा = सीमा। अंग बनना = हिस्सा बनना। झमाझम = भरपूर। Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 12 बाज़ार दर्शन Textbook Exercise Questions and Answers. Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 12 बाज़ार दर्शनHBSE 12th Class Hindi बाज़ार दर्शन Textbook Questions and Answersपाठ के साथ प्रश्न 1. प्रश्न 2. निश्चय से भगत जी का यह आचरण समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकता है। अनावश्यक वस्तुओं का घर में संग्रह करने से घर-परिवार में अशांति ही बढ़ती है। यदि मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार ही वस्तुओं की खरीद करता है तो इससे बाज़ार में महंगाई भी नहीं बढ़ेगी और लोगों में संतोष की भावना उत्पन्न होगी जिससे समाज में शांति की व्यवस्था उत्पन्न होगी। प्रश्न 3. परंतु जो लोग आवश्यकता के अनुसार बाज़ार से वस्तुएँ खरीदते हैं, वे ही बाज़ार को सार्थकता प्रदान करते हैं। ऐसे लोगों के कारण ही बाज़ार में केवल वही वस्तुएँ बेची जाती हैं जिनकी लोगों को आवश्यकता होती है। ऐसी स्थिति में बाज़ार हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बनता है। भगत जी जैसे लोग जानते हैं कि उन्हें बाज़ार से क्या खरीदना है। अतः ऐसे लोग ही बाज़ार को सार्थक बनाते हैं। प्रश्न
4. प्रश्न 5. (ख) जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई-पैसे में पर्याप्त शक्ति होती है, लेकिन जीवन में अनेक अवसर ऐसे भी आते हैं जब पैसे की शक्ति काम नहीं आती। सेठ जी के पुत्र को कैंसर हो गया। सेठ जी ने उसके उपचार पर लाखों रुपये खर्च कर दिए। यहाँ तक कि वह उसे ईलाज के लिए अमेरिका भी ले गया, लेकिन उसका बेटा बच नहीं सका। सेठ जी के पैसे की शक्ति भी काम नहीं आई। पाठ के आसपास प्रश्न 1. (ख) मन खाली न हो-सर्दी आरंभ हो चुकी थी। मेरी माँ ने कहा कि बेटा एक गर्म जर्सी खरीद लो। दो-चार दिन बाद मैं अपने पिता जी के साथ बाज़ार चला गया। हमने बाज़ार में अनेक वस्तुएँ देखीं, लेकिन कुछ नहीं खरीदा। मैंने तो सोच लिया कि मुझे केवल एक गर्म जर्सी ही खरीदनी है। अन्ततः हम लायलपुर जनरल स्टोर पर गए। मैंने वहाँ से मनपसंद जर्सी खरीद ली और मैं पिता जी के साथ घर लौट आया। (ग) मन बंद हो-एक दिन सायंकाल मैं अपने मित्रों के साथ बाज़ार गया। लेकिन मेरा मन बड़ा ही उदास था। दुकानदारों की आवाजें मुझे व्यर्थ लग रही थीं। मुझे बाज़ार की रौनक से भी अपकर्षण हो गया। कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। मित्रों ने यहाँ-वहाँ से कछ सामान लिया लेकिन मैं खाली हाथ ही घर लौट आया। (घ) मन में नकार हो मैं कुछ दिनों से दूरदर्शन पर जंकफूड के बारे में बहुत कुछ सुन रहा था। धीरे-धीरे मेरे मन में जंक फूड के प्रति घृणा-सी उत्पन्न हो गई। मैं अपने मित्रों के साथ एक अच्छे होटल में गया। वहाँ पर पीज़ा, बरगर, डोसा, चने-भटूरे आदि बहुत कुछ था। लेकिन मेरे मन में नकार की स्थिति बनी हुई थी। मेरा मन तो सादी दाल-रोटी खाने को कर रहा था। अतः मैं मित्रों के साथ वहाँ से भूखा ही लौटा और घर में अपनी माँ के हाथों से बनी सब्जी-रोटी ही खाई। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. अनेक बार कुछ स्त्रियाँ देखा-देखी अनावश्यक वस्तुएँ भी खरीद लेती हैं। वे पुरुषों की नज़रों में सुंदर दिखने के लिए अपना बनाव-श्रृंगार भी करती हैं और इसके लिए आकर्षक वस्त्र तथा आभूषण भी खरीदती हैं। पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री की यह मज़बूरी बन गई है कि वह माया को जोड़े अन्यथा उसका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। आपसदारी प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. उपभोक्ता मामलों की जानकार पुष्पा गिरिमा जी का कहना है, ‘इसमें दो राय नहीं कि गाँव-देहात के बाजारों में नकली रीय उपभोक्ताओं को अपने शिकंजे में कसकर बहराष्ट्रीय कंपनियाँ, खासकर ज्यादा उत्पाद बेचने वाली कंपनियाँ, गाँव का रुख कर चुकी हैं। वे गाँववालों के अज्ञान और उनके बीच जागरूकता के अभाव का पूरा फायदा उठा रही हैं। उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए कानून ज़रूर हैं लेकिन कितने लोग इनका सहारा लेते हैं यह बताने की ज़रूरत नहीं। गुणवत्ता के मामले में जब शहरी उपभोक्ता ही उतने सचेत नहीं हो पाए हैं तो गाँव वालों से कितनी उम्मीद की जा सकती है। इस बारे में नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट्रस रिड्रेसल कमीशन के सदस्य जस्टिस एस.एन. कपूर का कहना है, ‘टीवी ने दूर-दराज़ के गाँवों तक में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पहुंचा दिया है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ विज्ञापन पर तो बेतहाशा पैसा खर्च करती हैं लेकिन उपभोक्ताओं में जागरूकता को लेकर वे चवन्नी खर्च करने को तैयार नहीं हैं। नकली सामान के खिलाफ जागरूकता पैदा करने में स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थी मिलकर ठोस काम कर सकते हैं। ऐसा कि कोई प्रशासक भी न कर पाए।’ बेशक, इस कड़वे सच को स्वीकार कर लेना चाहिए कि गुणवत्ता के प्रति जागरूकता के लिहाज़ से शहरी समाज भी कोई ज़्यादा सचेत नहीं है। यह खुली हुई बात है कि किसी बड़े ब्रांड का लोकल संस्करण शहर या महानगर का मध्य या निम्नमध्य वर्गीय उपभोक्ता भी खुशी-खुशी खरीदता है।
यहाँ जागरूकता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि वह ऐसा सोच-समझकर और अपनी जेब की हैसियत को जानकर ही कर रहा है। फिर गाँववाला उपभोक्ता ऐसा क्योंकर न करे। पर फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यदि समाज में कोई गलत काम हो रहा है तो उसे रोकने के जतन न किए जाएँ। यानी नकली सामान के इस गोरखधंधे पर विराम लगाने के लिए जो कदम या अभियान शुरू करने की ज़रूरत है वह तत्काल हो। (ख) उपभोक्ताओं के हित को मद्देनज़र रखते हुए सामान बनाने वाली कंपनियों का यह दायित्व है कि ग्राहकों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सही वस्तुओं का उत्पादन करें। अन्यथा उनका व्यवसाय अधिक दिन तक नहीं चल पाएगा। (ग) ब्रांडेड
वस्तु को खरीदने के पीछे लोगों की यह मानसिकता है कि ब्रांडेड वस्तुएँ बनाने वाली कंपनियाँ ग्राहक के संतोष को ध्यान में रखती हैं, परंतु जो कंपनियाँ नकली सामान बनाती हैं, सरकार को भी उन पर नकेल करनी चाहिए। प्रश्न 4. विज्ञापन की दुनिया प्रश्न 1. उत्तर: भारतीय जीवन बीमा निगम’ का उपरोक्त विज्ञापन सामान्य व्यक्ति को भी बीमा कराने की प्रेरणा देता है। इस विज्ञापन ने मुझे भी निम्नलिखित बिंदुओं में से प्रभावित किया है (1) विज्ञापन में सम्मिलित चित्र और विषय वस्तु-विज्ञापन में दिखाया गया परिवार (पति-पत्नी तथा उनका बेटा-बेटी) बीमा कराने के बाद सुरक्षित एवं प्रसन्न दिखाई देता है। अतः यह विज्ञापन विषय-वस्तु तथा चित्र के सर्वथा अनुकूल एवं प्रभावशाली है। (2) एक स्वस्थ एवं जागरूक परिवार हमेशा अपने भविष्य के प्रति चिंतित होता है। उपर्यक्त चित्र में परिवार के मुखिया ने अपनी पत्नी तथा बच्चों के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए ‘जीवन निश्चय’ बीमा करवाया है। यह एक एकल प्रीमियम प्लान है जोकि 5, 7, तथा 10 वर्ष की अवधि के बाद गांरटीयुक्त परिपक्वता लाभ दिलाता है। (3) विज्ञापन की भाषा-प्रस्तुत विज्ञापन की भाषा ‘गांरटी हमारी, हर खुशी तुम्हारी’ मुझे अत्यधिक पसंद है जिसे सुनकर कोई भी समझदार व्यक्ति अपने परिवार के लिए यह बीमा अवश्य लेना चाहेगा। स्लोगन सुनकर या पढ़कर ही ग्राहक इसकी ओर आकर्षित हो जाता है। प्रश्न 2.
मैं उपर्युक्त साधनों में से समाचार पत्र व दूरदर्शन पर विज्ञापन देना अधिक पसंद करूँगा। मैं उपभोक्ता की सुविधा को ध्यान में रखते हुए उत्पादित वस्तुओं की गुणवत्ता का विशेष ध्यान रखुंगा, ताकि लोगों तक अच्छी वस्तुएँ पहुँच सकें। भाषा की बात प्रश्न 1.
(ख) भाषा का अनौपचारिक रूप-
लाए तो कुछ नहीं। हाँ पर यह समझ न आता था कि न लूँ तो क्या? प्रश्न 2.
इस प्रकार के वाक्य निश्चय से पाठक को सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं। अतः इन वाक्यों की निबंध में विशेष उपयोगिता मानी गई है। प्रश्न 3.
प्रश्न 4. (ख) भी (ग) तो (ग) ही, तो, भी चर्चा करें 1. पर्चेजिंग पावर से क्या अभिप्राय है? HBSE 12th Class Hindi बाज़ार दर्शन Important Questions and Answersप्रश्न 1. तीसरा ग्राहक लेखक के पड़ोसी भगत जी हैं जो आँख खोलकर बाज़ार देखते हैं, पर फैंसी स्टोरों पर नहीं रुकते। वे केवल पंसारी की एक छोटी-सी दुकान पर रुकते हैं। जहाँ से काला नमक तथा जीरा खरीदकर वापिस लौट आते हैं। तीसरा ग्राहक अर्थात् भगत जी केवल आवश्यक वस्तुएँ ही खरीदते हैं। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न
8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. भगत जी पर बाज़ार के आकर्षण का कोई प्रभाव नहीं था। वे बाज़ार को आवश्यकता की पूर्ति का साधन मानते थे। इसीलिए वे पंसारी की दुकान से काला नमक और जीरा खरीदकर घर लौट जाते थे। भगत जी बाज़ार में सब कुछ देखते हुए चलते थे, लोगों का अभिवादन लेते थे और करते भी थे। वे हमेशा बाज़ार तथा व्यापारियों और ग्राहकों का कल्याण मंगल चाहते थे। प्रश्न 12.
प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. असमानता-पहले मित्र के पास पैसा अधिक है। वह पैसा खर्च करना जानता है। परंतु दूसरा मित्र दुविधाग्रस्त है लेकिन शीघ्र निर्णय नहीं ले पाता। प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. प्रश्न 19. प्रश्न 20. प्रश्न 21. परंतु भगत जी जैसे व्यक्ति में न अमीरों को देखकर ईर्ष्या होती है, न तृष्णा होती है। पैसे की व्यंग्य-शक्ति उन्हें छू भी नहीं हैं कहता है कि तुम मुझे ले लो, परंतु वे पैसे की परवाह नहीं करते, इसलिए भगत जी जैसे निस्पृह व्यक्ति के सामने पैसे की व्यंग्य-शक्ति चूर-चूर हो जाती है। बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर 1. ‘बाज़ार दर्शन’ के रचयिता हैं 2. जैनेंद्र का जन्म किस प्रदेश में हुआ? 3. जैनेंद्र का जन्म उत्तर प्रदेश के किस नगर में हुआ? 4. जैनेंद्र का जन्म कब हुआ? 5. जैनेंद्र का जन्म अलीगढ़ के किस कस्बे में हुआ? 6. जैनेंद्र कुमार ने उपन्यासों तथा कहानियों के अतिरिक्त किस विधा में सफल रचनाएँ लिखीं? 7. भारत सरकार ने जैनेंद्र कुमार को किस उपाधि से सुशोभित किया? 8. जैनेंद्र कुमार को पद्मभूषण के अतिरिक्त कौन-कौन से दो प्रमुख पुरस्कार प्राप्त हुए? 9. जैनेंद्र कुमार के प्रथम उपन्यास ‘परख’ का प्रकाशन कब हुआ? 10. जैनेंद्र कुमार का निधन किस वर्ष में हुआ? 11. ‘कल्याणी’ उपन्यास का प्रकाशन कब हआ? 12. ‘त्यागपत्र’ उपन्यास का प्रकाशन कब हुआ? 13. जैनेंद्र की रचना ‘मुक्तिबोध’ किस विधा की रचना है? 14. जैनेंद्र के उपन्यास ‘सुनीता’ का प्रकाशन कब हुआ? 15. ‘अनाम स्वामी’ किस विधा की रचना है?’ 16. ‘वातायन’ किस विधा की रचना है? 17. ‘नीलम देश की राजकन्या’ कहानी-संग्रह का प्रकाशन कब हुआ? 18. ‘प्रस्तुत प्रश्न निबंध संग्रह का प्रकाशन कब हुआ? 19. ‘पूर्वोदय’ निबंध-संग्रह का प्रकाशन किस वर्ष हुआ? 20. ‘विचार वल्लरी’ निबंध-संग्रह का प्रकाशन वर्ष कौन-सा है? 21. ‘मंथन’ के रचयिता कौन हैं? 22. ‘मंथन’ किस विधा की रचना है? 23. ‘मंथन’ का प्रकाशन किस वर्ष में हुआ? 24. ‘जड़ की बात’ का प्रकाशन वर्ष है? 25. ‘साहित्य का श्रेय और प्रेय’ के रचयिता हैं- 26. साहित्य का श्रेय और प्रेय की रचना कब हुई? 27. ‘सोच-विचार’ के रचयिता हैं- 28.
संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की कौन-सी विशेषता प्रभावित होती है? 29. बाजार चौक में भगतजी क्या बेचते थे? 30. लेखक ने चूरन वाले को ‘अकिंचित्कर’ कहा है, जिसका अर्थ है- 31. चूरन बेचने वाले महानुभाव को लोग किस नाम से
पुकारते थे? 32. ‘बाज़ार दर्शन’ का प्रतिपाद्य है 33. लेखक का मित्र किसके साथ बाज़ार गया था? 34. क्या फालतू सामान खरीदने
के लिए पत्नी को दोष देना उचित है? 35. लेखक के अनुसार पैसा क्या है? 36. जैनेन्द्र जी ने केवल बाजार का पोषण करने वाले अर्थशास्त्र को क्या बताया है? 37. हमें किस स्थिति में बाज़ार जाना चाहिए? 38. बाज़ार किसे देखता है? 39. ‘बाज़ारूपन’ से क्या अभिप्राय है? 40. बाजार में जादू को कौन-सी इन्द्रिय पकड़ती है? 41. ‘बाज़ार दर्शन’ पाठ के आधार पर धन की ओर कौन झुकता है? 42. फिजूल सामान को फिजूल समझने वाले लोगों को क्या कहा गया है? 43. जैनेन्द्र कुमार के मित्र ने बाजार को किसका जाल कहा है? बाज़ार दर्शन प्रमुख गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या [1] उनका आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उस महिमा का मैं कायल हूँ। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है। और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है। स्त्री माया न जोड़े, तो क्या मैं जोई? फिर भी सच सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्त्व की महिमा सविशेष है। वह तत्त्व है मनीबैग, अर्थात पैसे की गरमी या एनर्जी। [पृष्ठ-86] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। व्याख्या-लेखक का मित्र अपनी पत्नी के साथ बाजार से बहुत-सा सामान लेकर लौटा था। इस पर लेखक ने उससे कहा कि यह सब क्या है। इस पर मित्र ने उत्तर दिया कि उसकी पत्नी जो साथ थी, इसलिए उसे बहुत-सा सामान लाना पड़ा। लेखक का कहना है कि मित्र के कहने का भाव था कि यह पत्नी की महत्ता का परिणाम है। कोई भी व्यक्ति पत्नी के कहने को टाल नहीं सकता। लेखक भी पत्नी के महत्त्व को स्वीकार करने वाला है। प्राचीनकाल से ही इस विषय को लेकर पति की अपेक्षा पत्नी को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि घर का सामान खरीदने में पत्नी की बात ही सुनी जाती है। इसमें किसी के महत्त्व का प्रश्न नहीं है, बल्कि नारी का प्रश्न है। घर-गृहस्थी में प्रायः पत्नी की ही चलती है। लेखक कहता है कि स्त्री यदि धन-संपत्ति नहीं जोड़ेगी तो लेखक अर्थात् पुरुष तो नहीं जोड़ सकता। यह एक कड़वी सच्चाई है। हर आदमी इस बात में पत्नी का ही सहारा लेता है। परंतु बाज़ार से सामान खरीदने के लिए एक अन्य तत्त्व का भी विशेष महत्त्व है और वह है-धन से भरा हुआ थैला। अन्य शब्दों में हम इसे पैसे की गरमी भी कह सकते हैं। भाव यह है कि जिसके पास पैसे की गरमी होगी, वह निश्चय से सामान खरीदने में अपनी पत्नी का सहयोग करेगा। विशेष-
गद्यांश ,पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) बाज़ार से सामान खरीदने पर पुरुष हमेशा सारा दोष पत्नियों के सिर मढ़ देते हैं और साथ में यह तर्क देते हैं कि स्त्री माया का रूप है। अतः उसका स्वभाव ही माया जोड़ना है। (ग) बाज़ार से अनचाही वस्तुएँ खरीदने का मुख्य कारण मनीबैग है अर्थात जिसके पास धन की शक्ति होती है वही व्यक्ति बाज़ार से चाही-अनचाही वस्तुएँ खरीदकर लाता है। (घ) आदिकाल से सामान खरीदने के बारे में पति की अपेक्षा पत्नी को ही अधिक महत्त्व दिया जाता है। चाहे पुरुष बाज़ार से अनचाहा सामान खरीदकर लाए, परंतु वह सारा दोष पत्नी को ही देता है। [2] पैसा पावर है। पर उसके सबूत में आस-पास माल-टाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है! पैसे को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर माल-असबाब मकान-कोठी तो अनदेखे भी दीखते हैं। पैसे की उस ‘पर्चेजिंग पावर’ के प्रयोग में ही पावर का रस है। लेकिन नहीं। लोग संयमी भी होते हैं। वे फिजूल सामान को फिजूल समझते हैं। वे पैसा बहाते नहीं हैं और बुद्धिमान होते हैं। बुद्धि और संयमपूर्वक वह पैसे को जोड़ते जाते हैं, जोड़ते जाते हैं। वह पैसे की पावर को इतना निश्चय समझते हैं कि उसके प्रयोग की परीक्षा उन्हें दरकार नहीं है। बस खुद पैसे के जुड़ा होने पर उनका मन गर्व से भरा फूला रहता है। [पृष्ठ-86] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक सद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाजार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक पैसे की शक्ति पर प्रकाश डालता हुआ कहता है कि व्याख्या-पैसा निश्चय से ही एक शक्ति है, परंतु वह शक्ति तभी दिखाई दे सकती है जब उसके परिणामस्वरूप घर में काफी सारा सामान एकत्रित किया गया हो! क्योंकि सामान के बिना पैसे की शक्ति का कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि किसी के पास पैसा है अथवा नहीं, यह उसके बैंक के हिसाब-किताब से जाना जा सकता है जो कि लोगों के लिए संभव नहीं है। यदि किसी के पास बहुत बड़ा मकान, आलीशान कोठी और घर में तरह-तरह का सामान होगा, कार होगी, तो बिना देखे ही उसका पैसा दिखाई देगा। लेखक कहता है कि यदि कोई पैसे की क्रय-शक्ति का प्रयोग करता है तो पैसे के प्रयोग में पैसे की शक्ति का आनंद लिया जा सकता है। परंतु कुछ लोग ऐसे नहीं होते। वे संयम और नियम से काम लेते हैं। बेकार सामान को वे बेकार समझकर नहीं खरीदते। उसे खरीदना वे फिजूलखर्ची मानते हैं। वे पैसे को व्यर्थ में नष्ट नहीं करते। इसीलिए ऐसे लोग समझदार कहे जाते हैं। वे अपनी बुद्धि का प्रयोग करके और किफायत करते हुए धन का संग्रह करते हैं और इस प्रकार धन को जोड़ते हुए चले जाते हैं। उन्हें पैसे की शक्ति पर पूरा भरोसा होता है। परंतु वे पैसे के प्रयोग की कभी भी जाँच नहीं करते। केवल धन का संग्रह होने के कारण ही उनके मन में अभिमान भरा रहता है। वे गर्व के कारण फूले नहीं समाते। ऐसे लोग केवल धन का संग्रह करते हैं, उसे खर्च नहीं करते। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) लोग पैसे की पावर का प्रयोग घर का सामान, बंगला, कोठी, कार आदि खरीदकर करते हैं। वे अन्य लोगों को अपनी क्रय-शक्ति दिखाकर अपने शक्तिशाली होने का प्रमाण देते हैं। (ग) यहाँ ‘संयमी’ शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए किया गया है जो पैसे को खर्च नहीं करते। वस्तुतः इस शब्द में करारा व्यंग्य छिपा हुआ है। कंजूस लोग धन का संग्रह करके स्वयं को बुद्धिमान सिद्ध करते हैं। अतः यहाँ लेखक ने कंजूस अमीरों पर करारा व्यंग्य किया है। (घ) अमीर लोगों का मन इकट्ठे किए गए धन के कारण गर्व से फूला हुआ रहता है। वे धन को खर्च करना नहीं जानते। [3] मैंने मन में कहा, ठीक। बाज़ार आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो। सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए है? मैं तुम्हारे लिए हूँ। नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हरज़ है। अजी आओ भी। इस आमंत्रण में यह खूबी है कि आग्रह नहीं है आग्रह तिरस्कार जगाता है। लेकिन ऊँचे बाज़ार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चौक बाज़ार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफी नहीं है और चाहिए, और चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है ओह! [पृष्ठ-87] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक ने बाज़ार की प्रवृत्ति पर समुचित प्रकाश डाला है। व्याख्या-इससे पूर्व लेखक का मित्र कहता है कि बाज़ार तो शैतान का जाल है, जिसमें सजा-सजाकर सामान रखा जाता है। इसलिए भोले-भाले लोग उसके जाल में फंस जाते हैं। इस पर लेखक मन-ही-मन सोचता है कि यह तो सर्वथा उचित है। बाजार मनुष्य को अपने प्रति आकर्षित करता है। मानों वह कहता है कि यहाँ आओ। मुझे आकर लूट लो। अन्य सब बातों को भूल जाओ और मेरी तरफ देखो, मैं जो यहाँ सजधज कर तैयार खड़ा हूँ किसी और के लिए नहीं अपितु तुम्हारे लिए खड़ा हूँ। यदि तुम कुछ भी खरीदना नहीं चाहते तो न खरीदो, परंतु मुझे देखने में क्या बुराई है। मेरे पास आओ और मुझे अच्छी तरह से देखो। बाजार द्वारा दिया गया यह आमंत्रण विशेष प्रकार का है। यह आमंत्रण ऐसा है जिसमें कोई खुशामद नहीं है, क्योंकि खुशामद के कारण मनुष्य में अपमान की भावना उत्पन्न होती है। जो जितना बड़ा होता है, उसका आमंत्रण भी मौन रूप से होता है जिससे ग्राहक में सामान खरीदने की इच्छा पैदा होती है। इच्छा से अभिप्राय मनुष्य में किसी-न-किसी चीज की कमी है। जब मनुष्य बाज़ार में खड़ा हो जाता है तो उसे यह लगने लगता है कि उसके पास पर्याप्त मात्रा में सामान नहीं है। उसे और अधिक सामान खरीदना चाहिए। यह चाहत वस्तुएं खरीदने के लिए मजबूर करती है। वह सोचता है कि उसके पास सीमित साधन हैं जबकि बाज़ार में असंख्य और अनेक वस्तुएँ पड़ी हैं। इसलिए उसे अधिकाधिक वस्तुएँ खरीदनी चाहिएँ। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) बाज़ार का मौन-मूक आमंत्रण ही ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। बाज़ार किसी को आवाज़ देकर अपने पास नहीं बुलाता। वस्तुतः बाज़ार की आकर्षक वस्तुएँ ही ग्राहक को यह सोचने को मजबूर कर देती हैं कि वह भी बाज़ार से कुछ-न-कुछ खरीद कर अवश्य ले जाए। (ग) बाज़ार का चौक लोगों में वस्तुएँ खरीदने की कामना को जागृत करता है। लोग उन वस्तुओं को भी खरीद लेते हैं जिनकी उन्हें आवश्यकता नहीं होती। (घ) बाज़ार में वस्तुओं के भंडार को देखकर ग्राहक को लगता है कि उसके घर में बहुत कम वस्तुएँ हैं जबकि यहाँ तो असीमित और अपार सामान सजा है। अतः उसे भी यहाँ से और वस्तुएँ खरीद लेनी चाहिए। [4] बाज़ार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है पर जैसे चुंबक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो, और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाज़ार की अनेकानेक चीजों का निमंत्रण उस तक पहुँच जाएगा। कहीं हुई उस वक्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है! मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान ज़रूरी और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फैंसी चीज़ों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है। थोड़ी देर को स्वाभिमान को ज़रूर सेंक मिल जाता है पर इससे अभिमान की गिल्टी की और खुराक ही मिलती है। जकड़ रेशमी डोरी की हो तो रेशम के स्पर्श के मुलायम के कारण क्या वह कम जकड़ होगी? [पृष्ठ-88] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक ने स्पष्ट किया है कि बाज़ार में एक ऐसा जादू होता है जो ग्राहक को तत्काल मोहित कर लेता है। व्याख्या-लेखक का कथन है कि बाजार की सजधज में एक ऐसा जादू है जो देखने वाले की आँखों के माध्यम से अपना प्रभाव छोड़ जाता है। वस्तुतः उसका जादू नई-नई वस्तुओं के सुंदर रूप पर निर्भर करता है। जिस प्रकार चुंबक का जादू केवल लोहे पर ही चलता है, ईंट व पत्थर पर नहीं, उसी प्रकार बाज़ार के जादू की एक सीमा होती है। यदि किसी व्यक्ति के पास बहुत सारा पैसा हो, परंतु उनका मन पूर्णतः खाली हो तो ऐसे लोगों पर बाज़ार के जादू का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार अगर किसी के पास पैसे नहीं हैं और उसके मन में वस्तुएँ खरीदने की इच्छाएँ हों तो उस पर भी बाज़ार का आकर्षण कारगर सिद्ध होता है। यदि किसी व्यक्ति के पास धन का अभाव है परंतु उसके मन में इच्छा है तो बाज़ार की सजी असंख्य वस्तुओं का आकर्षण उसे अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। भाव यह है कि व्यक्ति कहीं से भी उधार लेकर वस्तुएँ खरीदने में नहीं हिचकिचाएगा, परंतु यदि दुर्भाग्य से किसी ग्राहक के पास काफी सारे पैसे हों, तब उसका मन किसी की बात को नहीं सुनता। तब उस व्यक्ति का मन यह अनुभव करता है जो कुछ बाज़ार में है, मैं सब कुछ खरीद लूँ। मुझे बाज़ार की सभी वस्तुओं की इच्छा है। वह सोचता है कि बाज़ार की ये सब वस्तुएँ मेरे लिए आरामदायक सिद्ध होंगी, बाज़ार के जादू के प्रभाव के कारण मनुष्य ऐसे सोचने लगता है, जैसे ही बाज़ार का जादू अर्थात् आकर्षण उसके मन से उतर जाता है वैसे ही उसे यह महसूस होता है कि ये सब वस्तुएँ तो उसके लिए बेकार हैं। इन वस्तुओं की अधिकता उसे आराम देने में सहायक सिद्ध नहीं होगी, बल्कि उसके जीवन में बाधा उत्पन्न करेंगी। तब व्यक्ति में बाज़ार के आकर्षण के प्रति अपकर्षण उत्पन्न हो जाता है और वह सोचने लगता है कि मैंने ये वस्तुएँ व्यर्थ में ही खरीद ली हैं। मुझे तो उनकी आवश्यकता ही नहीं थी। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) जब व्यक्ति के मन में बाज़ार से कुछ भी खरीदने की इच्छा नहीं होती, तब उसके मन को खाली कहा जाता है, परंतु यदि उसके पास बहुत सारे पैसे होते हैं तो लोग अपने धन की शक्ति को दिखाने के लिए वस्तुओं का क्रय करते हैं। अतः जेब भरी होने का अर्थ है-बहुत सारा धन होना और मन खाली का अर्थ है कि कोई निश्चित सामान खरीदने की इच्छा न होना। (ग) बाज़ार का जादू केवल उन व्यक्तियों को प्रभावित करता है जिनके पास पैसे की भरमार होती है, लेकिन मन में कोई वस्तु खरीदने की लालसा नहीं होती, परंतु बाज़ार की सजी-धजी वस्तुएँ ऐसे लोगों को अनावश्यक वस्तुएँ खरीदने के लिए मजबूर कर देती हैं। (घ) जब बाज़ार के आकर्षण का प्रभाव समाप्त हो जाता है तब ग्राहक यह अनुभव करने लगता है कि जो लुभावनी वस्तुएँ उसने आराम के लिए खरीदी थीं, वे तो उसके किसी काम की नहीं हैं। वे आराम देने की बजाए उसके जीवन में बाधा उत्पन्न कर रही हैं और उसके मन की शांति को भंग कर रही हैं। [5] पर उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा-सा उपाय है। वह यह कि बाजार जाओ तो खाली मन न हो मन खाली हो, तब बाज़ार न जाओ। कहते हैं लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए। पानी भीतर हो, लू का लूपन व्यर्थ हो जाता है। मन लक्ष्य में भरा हो तो बाज़ार भी फैला-का-फैला ही रह जाएगा। तब वह घाव बिलकुल नहीं दे सकेगा, बल्कि कुछ आनंद ही देगा। तब बाज़ार तुमसे कृतार्थ होगा, क्योंकि तुम कुछ-न-कुछ सच्चा लाभ उसे दोगे। बाज़ार की असली कृतार्थता है। आवश्यकता के समय काम आना। [पृष्ठ-88] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक बाज़ार के जादू से बचने का एक श्रेष्ठ उपाय बताता है कि जब भी हम बाज़ार जाएँ, उस समय हमारा मन खाली नहीं होना चाहिए। ख्या-जब भी बाजार जाना हो तो हमारे मन में किसी प्रकार का भटकाव एवं भ्रम नहीं होना चाहिए, बल्कि हमें एक निश्चित वस्तु का लक्ष्य रखकर ही बाज़ार जाना चाहिए। बाज़ार के जादू से बचने का सीधा-सरल उपाय यही है। यदि तुम्हारे मन में कोई वस्तु खरीदने का लक्ष्य न हो तो बाज़ार मत जाओ। लेखक एक उदाहरण देता हुआ कहता है कि लू से बचने का एक ही उपाय है कि पानी पीकर ही लू में बाहर जाना चाहिए। यदि शरीर में पानी होगा तो लू शरीर को किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं कर पाएगी। अतः यदि हमारे मन में किसी वस्तु को खरीदने का लक्ष्य है तो बाज़ार की व्यापकता और आकर्षण हमारे लिए किसी काम का नहीं रहेगा, वह हमें कोई पीड़ा नहीं दे सकेगा, बल्कि हम आनन्दपूर्वक बाज़ार का दर्शन कर सकेंगे। दूसरी ओर बाज़ार भी तुम्हारे प्रति कृतज्ञता का भाव रखेगा, क्योंकि तुमने उसे थोड़ा-बहुत सही लाभ पहुंचाया है। बाज़ार का सबसे बड़ा लाभ यह है कि वह आवश्यकता पड़ने पर हमारे काम आता है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) हम लू में पानी पीकर इसलिए घर से बाहर जाते हैं ताकि हमारे शरीर में पानी हो। यदि हमारे शरीर में पानी होगा तो लू हमें किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचा सकेगी। (ग) बाज़ार की सार्थकता ग्राहकों की आवश्यकताएँ पूरी करने में है। जब ग्राहकों को अपनी ज़रूरत की वस्तुएँ बाजार से मिल जाती हैं तो बाज़ार अपनी सार्थकता को सिद्ध कर देता है। (घ) मन में लक्ष्य भरने का तात्पर्य यह है कि उपभोक्ता बाज़ार जाते समय किसी निश्चित वस्तु को खरीदने का लक्ष्य बनाकर ही बाज़ार में जाए। यदि वह बिना लक्ष्य के बाज़ार जाएगा तो वह निश्चित रूप से बाज़ार से अनावश्यक वस्तुएँ खरीदकर ले आएगा, जो बाद में उसकी अशांति का कारण बनेंगी। (ङ) जब उपभोक्ता बाज़ार से व्यर्थ की वस्तुएँ खरीदने की बजाय केवल अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ खरीदता है तो बाज़ार उसे आनंद प्रदान करने लगता है इससे बाज़ार भी कृतार्थ हो जाता है। [6] यहाँ एक अंतर चीन्ह लेना बहुत ज़रूरी है। मन खाली नहीं रहना चाहिए, इसका मतलब यह नहीं है कि वह मन बंद रहना चाहिए। जो बंद हो जाएगा, वह शून्य हो जाएगा। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है जो सनातन भाव से संपूर्ण है। शेष सब अपूर्ण है। इससे मन बंद नहीं रह सकता। सब इच्छाओं का निरोध कर लोगे, यह झूठ है और अगर ‘इच्छानिरोधस्तपः’ का ऐसा ही नकारात्मक अर्थ हो तो वह तप झूठ है। वैसे तप की राह रेगिस्तान को जाती होगी, मोक्ष की राह वह नहीं है। [पृष्ठ-88-89] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक ने मन के खाली होने तथा बंद होने के अंतर को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। व्याख्या-लेखक का कथन है कि हमें इस अंतर को भली प्रकार से पहचान लेना चाहिए कि हमारा मन खाली है अथवा भरा हुआ है। मन को खाली रखने का मतलब यह नहीं है कि हम अपने मन को पूर्णतः बंद कर दें अर्थात् हम मन में सोचना ही बंद कर दें। यदि हमारा मन चिंतनहीन हो जाएगा तो वह निश्चय से शून्य हो जाएगा। इसका अर्थ है मन का मर जाना और उसकी इच्छाएँ समाप्त हो जाना। इस स्थिति पर अधिकार प्राप्त करने का अधिकार केवल ईश्वर को है, जो कि अपने अन्दर सनातन भाव को लिए है। ईश्वर के अतिरिक्त संपूर्ण सृष्टि अधूरी है, पूर्ण नहीं है, क्योंकि संपूर्णता केवल परमात्मा के पास है। इसलिए हमारा मन इच्छाओं से रहित नहीं हो सकता। यह कहना सरासर झूठ है कि कोई व्यक्ति सभी इच्छाओं को त्याग सकता है और यह कहना भी गलत है कि इच्छाओं का निरोध ही तपस्या है। यदि कोई इस प्रकार के नकारात्मक अर्थ को स्वीकार करके उसे तपस्या का नाम देता है, वह भी सरासर झूठ है। लेखक के अनुसार तपस्या का मार्ग रेगिस्तान के समान व्यर्थ और बेकार है। वह मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग नहीं है। आनंद पूर्ण साधना यही है कि मानव संसार में रहते हुए उसके बंधनों से बचने का प्रयास करे। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) ईश्वर और मानव की प्रकृति में मुख्य अंतर यह है कि ईश्वर अपने आप में संपूर्ण है। उसकी कोई भी इच्छा शेष नहीं है, परंतु मानव हमेशा अपूर्ण होता है। उसमें हमेशा इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं तथा नष्ट होती रहती हैं। (ग) लेखक के अनुसार मानव द्वारा अपनी सब इच्छाओं पर नियंत्रण पा लेना ही नकारात्मक प्रवृत्ति है। जो लोग मन को मारने की प्रवृत्ति को तपस्या का नाम देते हैं, वे सर्वथा झूठ का आश्रय लेते हैं। कोई भी मनुष्य अपने मन की सब इच्छाओं पर काबू नहीं पा सकता। (घ) तप का रास्ता एक सारहीन और व्यर्थ का रास्ता है। जो लोग यह समझते हैं कि इच्छाओं को मारकर ही तप किया जा सकता है, वे झूठ बोलते हैं। वस्तुतः संसार में रहकर उसके बंधनों से बचने का प्रयास करना ही मोक्ष है। जो कि आनंदपूर्वक साधना कही जा सकती है। रेगिस्तान की राह द्वारा लेखक यह व्यंग्य करता है कि सभी इच्छाओं को समाप्त करना संभव नहीं है। यह तो रेगिस्तान के मार्ग की तरह शुष्क तथा बेकार का परिश्रम है।
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके नेर हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंन उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक स्पष्ट करता है कि मन की सभी इच्छाओं एवं उमंगों को मार डालना निर्जीवता है। इस संदर्भ में लेखक कहता है कि व्याख्या-सुख-सुविधाएँ प्रदान करके मन को शांत रखना निर्जीवता ही कही जाएगी। ऐसा करके हम लोभ पर विजय प्राप्त नहीं करते। यदि हमारे मन में लोभ है तो हमारा दृष्टिकोण नकारात्मक हो जाएगा। जिस मन में लोभ पैदा होता है यदि हम उसे पूरी तरह बंद कर दें तो निश्चय से यह मनुष्य की हार कही जाएगी। यदि कोई व्यक्ति अपनी आँखों को ही नष्ट कर देगा और सोचेगा कि वह लोभ को प्रेरणा देने वाली वस्तु को देखने से बच जाएगा तो उसकी यह सोच व्यर्थ कही जाएगी। इससे तो उसकी अपनी हानि होगी। इस प्रकार से लोभ-लालच को मिटाया नहीं जा सकता। यह कहना सर्वथा अनुचित है कि आँखें नष्ट करने से सुंदर रूप दिखाई देना बंद हो जाएगा। इस तथ्य से सभी लोग परिचित हैं कि हम सभी आँखें बंद करके ही सपने लेते हैं। उनमें अनेक सपने ऐसे होते हैं जो हमारी सुख-शांति को भंग करते हैं और हमें आराम से नहीं बैठने देते। इसलिए मन को बंद करने की ऐसी कोशिश करना व्यर्थ ही कहा जाएगा। यह एक बेकार का कार्य है। इसे हम योग नहीं कह सकते, केवल हठ ही कह सकते हैं। इससे हमारा मन उसी प्रकार शक्तिहीन तथा कमजोर होता है जैसे किसी विद्वान का ज्ञान शक्तिहीन या कमज़ोर होना। इससे मुक्ति नहीं मिलती। मन को बंद करने से मनुष्य की व्यापकता तथा विराटता समाप्त हो जाती है तथा क्षुद्रता एवं संकीर्णता उत्पन्न होती है। इसलिए लेखक का विचार है कि हमें मन की इच्छाओं को मारना नहीं चाहिए। इससे हमारा मन कभी भी पूर्ण नहीं बन सकता। यदि हमारे अन्दर पूर्णता होती तो हम परमात्मा से कभी अलग न होते। यह अपूर्णता ही हमारे जीवन का सबसे बड़ा आधार है। इसी के कारण हमारा अस्तित्व बना हुआ है। सच्चा ज्ञान वही है जो हमारी इस अपूर्णता के ज्ञान को और अधिक गहरा बनाता है। जब हम अपनी इस अपूर्णता को स्वीकार कर लेते हैं तो हम सच्चा कर्म करने में सक्षम होते हैं। अतः यह सोचना ही व्यर्थ है कि हम अपने मन को मारकर ईश्वर के समान पूर्ण हो जाएँगे। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) जब मनुष्य अपने उस मन को पूरी तरह बंद कर देता है जिसमें लोभ उत्पन्न होता है तो उस स्थिति में लोभ की विजय होती है और आदमी की हार होती है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि मनुष्य ने लोभ से डर कर अपने मन के द्वार बंद कर दिए हैं। उसमें लोभ से संघर्ष करने की शक्ति नहीं रही। (ग) ‘आँख फोड़ डालने’ का व्यंग्य यह है कि संसार की गतिविधियों को अनदेखा करना और उसकी ओर से मन को हटा लेना और मन में यह निर्णय ले लेना कि वह संसार के आकर्षणों की ओर ध्यान नहीं देगा। (घ) जब मनुष्य संसार की सारी गतिविधियों को अनदेखा करने लगता है तब भी उसके मन में अनेक प्रकार के सपने बनते-बिगड़ते रहते हैं। अतः मनुष्य अपने उन सपनों के बारे में सोचता हुआ हमेशा बेचैन ही रहता है और उसके मन को शांति नहीं मिलती। (ङ) संसार की सभी इच्छाओं, स्वादों और आनंदों का निषेध करना ही हठ योग कहलाता है। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि जब मनुष्य अपने मन में यह हठ कर लेता है कि वह संसार की गतिविधियों की ओर ध्यान नहीं देगा और अपनी इच्छाओं को मार लेगा, तभी वह हठ योग की ओर अग्रसर होने लगता है। (च) लेखक के अनुसार सच्चा ज्ञान वही है जो हमें हमारी अपूर्णता का बोध कराता है। इस प्रकार के ज्ञान से हम पूर्णता प्राप्त करने के लिए प्रेरित होते हैं और कर्म करने लगते हैं। [8] क्या जाने उस भोले आदमी को अक्षर-ज्ञान तक भी है या नहीं। और बड़ी बातें तो उसे मालूम क्या होंगी। और हम-आप न जाने कितनी बड़ी-बड़ी बातें जानते हैं। इससे यह तो हो सकता है कि वह चूरन वाला भगत हम लोगों के सामने एकदम नाचीज़ आदमी हो। लेकिन आप पाठकों की विद्वान श्रेणी का सदस्य होकर भी , मैं यह स्वीकार नहीं करना चाहता हूँ कि उस अपदार्थ प्राणी को वह प्राप्त है जो हम में से बहुत कम को शायद प्राप्त है। उस पर बाजार का जादू वार नहीं कर पाता। माल बिछा रहता है, और उसका मन अडिग र पैसा उससे आगे होकर भीख तक माँगता है कि मुझे लो। लेकिन उसके मन में पैसे पर दया नहीं समाती। वह निर्मम व्यक्ति पैसे को अपने आहत गर्व में बिलखता ही छोड़ देता है। ऐसे आदमी के आगे क्या पैसे की व्यंग्य-शक्ति कुछ भी चलती होगी? [पृष्ठ-90] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक चूरन बेचने वाले भगत जी की बात कर रहा है जो बिना आवश्यकता के बाज़ार में देखता तक नहीं। व्याख्या-लेखक कहता है कि शायद उस भोले भगत जी को अक्षर-ज्ञान है या नहीं अर्थात् वह अनपढ़ व्यक्ति लगता है। इसलिए वह बड़ी-बड़ी बातें नहीं करना चाहता है और न ही उसे बड़ी-बड़ी बातों का पता है। अन्य लोग तो बड़ी-बड़ी बातें जानते भी हैं और करते भी हैं। इससे लोग यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि भगत जी उनके सामने मामूली व्यक्ति हैं जिसका कोई महत्त्व नहीं है। भले ही लेखक पाठकों की पढ़ी-लिखी श्रेणी का ही व्यक्ति है, परंतु वह इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करता। भगत जी जैसे मामूली व्यक्ति को जो कुछ प्राप्त है, वह शायद हम में से बहुत कम लोगों को प्राप्त है। सत्य तो यह है कि भगत जी पर बाज़ार का जादू चल ही नहीं सकता। उसके सामने बाज़ार का माल फैला रहता है, परंतु उसका मन कभी चंचल नहीं होता। वह स्थिर रहता है। पैसा उसके सामने भीख माँगता हुआ कहता है कि मुझे स्वीकार कर लो, परंतु भगत जी पैसे की माँग को ठुकरा देते हैं। उन्हें पैसे पर दया नहीं आती। जिससे पैसे का गर्व टूटकर बिखर जाता है। पैसे के संबंध में भगत जी एक कठोर हृदय वाले व्यक्ति हैं। ऐसा लगता है कि मानों पैसा उसके आगे रोने लगता है और भगत जी के स्वाभिमान के आगे नतमस्तक हो जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति पर पैसे की व्यंग्य-शक्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता पैसे की व्यंग्य-शक्ति उसके आगे कुंठित हो जाती है और अपने आपको कोसने लगती है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) अपदार्थ का अर्थ है-बेचारा या अंकिचन संसार की नज़रों में भगत जी न अमीर हैं और न ही शिक्षित हैं, इसलिए लोग उन्हें अपदार्थ कहते हैं। (ग) भगत जी एक संतोषी, विवेकशील तथा संयमी व्यक्ति हैं। ये गुण संसार के बड़े-बड़े विद्वानों में भी नहीं मिलते। संसार के अधिकांश लोग लोभी, लालची होते हैं। (घ) भगत जी सीधा-सादा जीवन व्यतीत करते हैं। उनके मन में आकर्षक वस्तुएँ खरीदने की तृष्णा नहीं है। इसलिए बाज़ार का जादू उनको प्रभावित नहीं कर पाता। वे अपनी आवश्यकतानुसार जीरा व काला नमक लेकर घर लौट आते हैं। (ङ) पैसे,की व्यंग्य-शक्ति का अभिप्राय है कि पैसे की शक्ति लोगों को लुभाती है, उन्हें लोभी बनाती है तथा तृष्णा से व्याकुल कर देती है, परंतु भगत जी पर पैसे की व्यंग्य-शक्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे तो बाज़ार की अनावश्यक वस्तुओं को देखते तक नहीं। फलस्वरूप पैसे की व्यंग्य-शक्ति विफल हो जाती है। [9] पैसे की व्यंग्य-शक्ति की सुनिए। वह दारुण है। मैं पैदल चल रहा हूँ कि पास ही धूल उड़ाती निकल गई मोटर। वह क्या निकली मेरे कलेजे को कौंधती एक कठिन व्यंग्य की लीक ही आर-से-पार हो गई। जैसे किसी ने आँखों में उँगली देकर दिखा दिया हो कि देखो, उसका नाम है मोटर, और तुम उससे वंचित हो! यह मुझे अपनी ऐसी विडंबना मालूम होती है कि बस पूछिए नहीं। मैं सोचने को हो आता हूँ कि हाय, ये ही माँ-बाप रह गए थे जिनके यहाँ मैं जन्म लेने को था! क्यों न मैं मोटरवालों के यहाँ हुआ! उस व्यंग्य में इतनी शक्ति है कि ज़रा में मुझे अपने सगों के प्रति कृतघ्न कर सकती है।। [पृष्ठ-90] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक ने पैसे की व्यंग्य-शक्ति के प्रभाव को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। व्याख्या-पैसे की व्यंग्य-शक्ति बडी विचित्र और कठोर है, लेखक उस शक्ति का वर्णन करता हआ कहता है कि एक व्यक्ति बाज़ार में पैदल जा रहा था। उसके पास से धूल उड़ाती एक मोटरकार निकल जाती है। उस मोटरकार के निकलते ही पैदल चलने वाले व्यक्ति के कलेजे को पार करती हुई एक कठोर व्यंग्य की लकीर निकल जाती है। उस व्यक्ति के हृदय में एक जलन-सी होने लगती है मानों कोई उसकी आँखों में उँगली डालकर यह दिखाने का प्रयास करता है कि तुम्हारे सामने से मोटरकार गुजर गई है। यह मोटरकार तुम्हारे पास नहीं है। इससे पैदल चलने वाले व्यक्ति को अपनी मजबूरी का पता चल जाता है और वह अपनी हालत के बारे में सोचने के लिए मजबूर हो जाता है। वह सोचने लगता है कि उसके पास इस प्रकार की मोटरकार क्यों नहीं है। बड़े दुख मैंने ऐसे माँ-बाप के यहाँ जन्म लिया जिनके पास मोटरकार नहीं है। मैं मोटरकारों वालों के यहाँ क्यों नहीं जन्मा? उस व्यंग्य में इतनी तीव्र शक्ति होती है कि मैं अपने सगे-संबंधियों से भी घृणा करने लगता हूँ और मेरे अन्दर अकृतज्ञता का भाव उत्पन्न हो जाता है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) पास ही धूल उड़ाती निकली मोटरकार ने पैसे की व्यंग्य-शक्ति का प्रभाव दिखा दिया। पैदल चलने वाले व्यक्ति को यह तत्काल ही महसूस हो गया कि उसके पास मोटरकार नहीं है, इससे उसे अपनी हीनता महसूस होने लगी। (ग) पैदल चलने वाला व्यक्ति यह सोचने के लिए मजबूर हो जाता है कि वह ऐसे माँ-बाप के यहाँ क्यों जन्मा, जिनके पास मोटरकार नहीं है। काश! मैं मोटरकार वाले माँ-बाप के यहाँ जन्म लेता। (घ) पैदल चलने वाला व्यक्ति पैसे की व्यंग्य-शक्ति के कारण ही अपने सगे-संबंधियों के प्रति कृतघ्न हो जाता है। वह यहाँ तक सोचने लगता है कि उसका जन्म भी किसी अमीर परिवार में होता। [10] उस बल को नाम जो दो; पर वह निश्चय उस तल की वस्तु नहीं है जहाँ पर संसारी वैभव फलता-फूलता है। वह कुछ अपर जाति का तत्त्व है। लोग स्पिरिचुअल कहते हैं; आत्मिक, धार्मिक, नैतिक कहते हैं। मुझे योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अंतर देखू और प्रतिपादन करूँ। मुझे शब्द से सरोकार नहीं। मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटकूँ। लेकिन इतना तो है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। बल्कि यदि उसी बल को सच्चा बल मानकर बात की जाए तो कहना होगा कि संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। निर्बल ही धन की ओर झुकता है। वह अबलता है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है। [पृष्ठ-90-91] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाजार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। इससे पूर्व लेखक यह स्पष्ट कर चुका है कि लोक वैभव की व्यंग्य-शक्ति उस सामान्य चूरन वाले व्यक्ति के सामने चूर-चूर हो गई थी। उसमें ऐसा कौन-सा बल था जो इस तीखे व्यंग्य के सामने अजेय बना रहा। इस संदर्भ में लेखक कहता है कि व्याख्या-उस बल को कोई भी नाम दिया जा सकता है। वह निश्चय से कोई ऐसी गहरी वस्तु नहीं है जिस पर खड़ा होकर संसार का धन-वैभव बढ़ता है। वह बल धन-संपत्ति को नहीं बढ़ाता और न ही वह उससे संबंधित है। वह तो एक अलग प्रकार का तत्त्व है जिसे लोग आध्यात्मिक शक्ति कहते हैं। उसे धार्मिक, नैतिक अथवा आत्मिक शक्ति भी कहा जा सकता है। लेखक स्वीकार करता है कि उसके पास ऐसी सोच-समझ नहीं है जिसके द्वारा वह गहराई में जाए और उस शक्ति की व्याख्या करे। लेखक यह भी स्वीकार करता है शब्दों में अंतर से उसका कोई संबंध नहीं है। वह यह भी स्वीकार करता है कि वह ऐसा विद्वान नहीं है जो यहाँ-वहाँ भटकता फिरे। लेकिन फिर भी वह अपनी समझ से प्रकाश डालता हुआ कहता है कि जिन लोगों में धन प्राप्त करने की इच्छा है, धन का संग्रह करने की चाह है, ऐसे लोगों के पास वह बल नहीं है, परंतु उस बल को यदि सच्चा बल मान लिया जाए तो धन-संग्रह की इच्छा और धन-वैभव की चाह मनुष्य को कमज़ोर ही बनाती है और कमज़ोर व्यक्ति ही धन की ओर भागता है जिसे लेखक बलहीनता कहता है। अन्य शब्दों में लेखक कहता है ऐसी स्थिति में मनुष्य पर धन की विजय होती है अर्थात् वह धन का गुलाम हो जाता है। यह चेतन पर जड़ की विजय है। मनुष्य तो चेतनशील है, परंतु धन-वैभव जड़ है। फिर भी वह चेतनशील मनुष्य पर विजय प्राप्त कर लेता है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) जिस व्यक्ति में न तो संचय की तृष्णा है और न ही वैभव की चाह है, वह सबल है, परंतु जिसमें ये दोनों चीजें हैं वह निर्बल है। निर्बल व्यक्ति ही धन की ओर झुकता है, सबल नहीं। (ग) व्यक्ति की निर्बलता इस बात से प्रमाणित होती है कि उसमें धन-संपत्ति का संचय करने की तृष्णा और वैभव की चाह होती है। (घ) मनुष्य में जब धन का संग्रह करने की तष्णा पैदा होती है तो यह मनुष्य पर धन की विजय है। मनुष्य एक चेतनशील प्राणी है और धन जड़ और निर्जीव है। इसलिए यह जड़ पर चेतन की विजय कहलाती है। [11] एक बार चूरन वाले भगत जी बाज़ार चौक में दीख गए। मुझे देखते ही उन्होंने जय-जयराम किया। मैंने भी जयराम कहा। उनकी आँखें बंद नहीं थीं और न उस समय वह बाज़ार को किसी भाँति कोस रहे मालूम होते थे। राह में बहुत लोग, बहुत बालक मिले जो भगत जी द्वारा पहचाने जाने के इच्छुक थे। भगत जी ने सबको ही हँसकर पहचाना। सबका अभिवादन लिया और सबको अभिवादन किया। इससे तनिक भी यह नहीं कहा जा सकेगा कि चौक-बाज़ार में होकर उनकी आँखें किसी से भी कम खुली थीं। लेकिन भौंचक्के हो रहने की लाचारी उन्हें नहीं थी। व्यवहार में पसोपेश उन्हें नहीं था और खोए से खड़े नहीं वह रह जाते थे। भाँति-भाँति के बढ़िया माल से चौक भरा पड़ा है। उस सबके प्रति अप्रीति इस भगत के मन में नहीं है। जैसे उस समूचे माल के प्रति भी उनके मन में आशीर्वाद हो सकता है। विद्रोह नहीं, प्रसन्नता ही भीतर है, क्योंकि कोई रिक्त भीतर नहीं है। देखता हूँ कि खुली आँख, तुष्ट और मग्न, वह चौक-बाज़ार में से चलते चले जाते हैं। राह में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर पड़ते हैं, पर पड़े रह जाते हैं। कहीं भगत नहीं रुकते। रुकते हैं तो एक छोटी पंसारी की दुकान पर रुकते हैं। वहाँ दो-चार अपने काम की चीज़ ली और चले आते हैं। बाजार से हठ पूर्वक विमुखता उनमें नहीं है। [पृष्ठ-91] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यहाँ लेखक उस घटना का हवाला देता है जब उन्हें बाज़ार चौक में भगत जी दिखाई दिए थे। उस समय भी भगत जी संतुष्ट और प्रसन्न थे। व्याख्या-लेखक कहता है कि एक बार उन्हें चूरन वाले भगत जी बाज़ार चौक में मिल गए। लेखक को देखते ही भगत जी ने उनसे जय-जयराम किया। लेखक ने भी उत्तर में उनका अभिवादन किया। उस समय भी उनकी आँखें पूरी तरह से खुली थीं। ऐसा लगता था कि वे किसी भी प्रकार बाज़ार की निंदा या आलोचना नहीं कर रहे थे। भाव यह था कि उनको बाज़ार से किसी प्रकार की आसक्ति नहीं थी। बाज़ार में बहुत-से लोग व बालक थे। वे चाहते थे कि भगत जी उन्हें पहचानें। भगत जी ने हँसते हुए सभी को पहचाना। सभी से अभिवादन लिया और सभी को अभिवादन किया। इससे पता चलता है कि भगत जी बहुत मिलनसार व्यक्ति थे। साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि भगत जी चौक बाज़ार में चलते समय बाज़ार और वहाँ के लोगों की तरफ ध्यान न दे रहे हों। वे सब लोगों को देख रहे थे और बाज़ार की वस्तुओं को भी देख रहे थे, परंतु उनमें हैरान होने की मजबूरी नहीं थी। न ही उनके व्यवहार में किसी प्रकार का असमंजस था। वे बाज़ार को हैरान होकर देखकर खड़े भी नहीं होते थे। बाज़ार चौक बढ़िया-से-बढ़िया वस्तुओं से भरा हुआ था। उन वस्तुओं में एक विचित्र आकर्षण भी था। परंतु भगत के मन में इन वस्तुओं के प्रति घृणा की भावना भी नहीं थी। ऐसा लगता था मानों वे बाज़ार के माल को मन-ही-मन आशीर्वाद दे रहे हों। उनके मन में विद्रोह की भावना नहीं थी, बल्कि प्रसन्नता की भावना थी। कारण यह है कि किसी का भी मन किसी समय खाली नहीं होता। कोई-न-कोई विचार मन में चलता रहता है। भगत जी का मन इस समय प्रसन्न था। लेखक ने देखा कि भगत जी खुली आँखों से संतुष्ट तथा निमग्न होकर चौक बाज़ार के बीचों-बीच चले जा रहे हैं। मार्ग में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर भी हैं, परंतु भगत जी कहीं भी नहीं रुकते। वे निरंतर बाज़ार को देखते हुए आगे बढ़ते चले जाते हैं और अंत में पंसारी की एक छोटी-सी दुकान पर जाकर रुक जाते हैं। वहाँ से वे दो चार आने का सामान खरीद लेते हैं और लौट आते हैं। बाज़ार के प्रति उनके मन में कोई विद्रोह का भाव या विमुखता भी नहीं थी। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि बाज़ार के प्रति भगत जी का न तो कोई लगाव था, न अलगाव था। वे केवल अपनी आवश्यकता की वस्तु खरीदने के लिए बाज़ार में जाते हैं। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) भगत जी बाज़ार में प्रसन्न व संतुष्ट इसलिए दिखाई देते हैं क्योंकि उन्हें बाज़ार से अपनी आवश्यकतानुसार काला नमक व जीरा मिल जाता है। इसके अतिरिक्त बाज़ार की वस्तुओं के प्रति उनके मन में न तिरस्कार है और न ही उन्हें खरीदने की इच्छा है। बाज़ार का आकर्षण उनके मन में विकार उत्पन्न नहीं करता। इसलिए वह सहज भाव से प्रसन्न व संतुष्ट दिखाई देते हैं। (ग) भगत जी रास्ते में चलते हुए सबसे जय-जयराम करते थे। वे सबसे हँसकर मिलते थे और उनका अभिवादन भी करते थे। कारण यह था कि वे बड़े मिलनसार व्यक्ति थे। इसलिए रास्ते के लोग चाहते थे कि भगत जी पहचान कर उनका अभिवादन करें। (घ) बाज़ार की फैंसी वस्तुओं को देखकर वही लोग भौंचक्के होते हैं जिनके मन में उन वस्तुओं को खरीदने की इच्छा होती है। ऐसे लोग तृष्णा के कारण ही आकर्षक वस्तुओं को देखकर भौंचक्के होते हैं। भगत जी के मन में फैंसी माल के प्रति कोई तृष्णा नहीं थी और न ही उन्हें इसकी आवश्यकता थी। इसलिए वे फैंसी माल को देखकर भौंचक्के नहीं हुए। (ङ) भगत जी बाज़ार में काला नमक व जीरा खरीदने के लिए जाते थे। इनसे वे चूरन बनाकर बाज़ार में बेचते थे। [12] लेकिन अगर उन्हें जीरा और काला नमक चाहिए तो सारे चौक-बाज़ार की सत्ता उनके लिए तभी तक है, तभी तक उपयोगी है, जब तक वहाँ जीरा मिलता है। ज़रूरत-भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं बराबर हो जाता है। वह जानते हैं कि जो उन्हें चाहिए वह है जीरा नमक। बस इस निश्चित प्रतीति के बल पर शेष सब चाँदनी चौक का आमंत्रण उन पर व्यर्थ होकर बिखरा रहता है। चौक की चाँदनी दाएँ-बाएँ भूखी-की-भूखी फैली रह जाती है क्योंकि भगत जी को जीरा चाहिए वह तो कोने वाली पंसारी की दुकान से मिल जाता है और वहाँ से सहज भाव में ले लिया गया है। इसके आगे आस-पास अगर चाँदनी बिछी रहती है तो बड़ी खुशी से बिछी रहे, भगत जी से बेचारी का कल्याण ही चाहते हैं। [पृष्ठ-91] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि भगत जी के लिए बड़े-बड़े फैंसी स्टोरों का कोई महत्त्व नहीं है। उनके लिए केवल छोटी-सी पंसारी की दुकान का महत्त्व है। व्याख्या-लेखक कहता है कि भगत जी के रास्ते में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर हैं, पर भगत जी कहीं पर नहीं रुकते। भगत जी के सामने वे फैंसी स्टोर ज्यों-के-त्यों पड़े रह जाते हैं। क्योंकि भगत जी तो एक छोटी-सी पंसारी की दुकान पर जाकर रुकते हैं। जहाँ से वे दो-चार आने का सामान लेकर लौट पड़ते हैं। इस स्थिति में भगत जी के मन में न तो बाज़ार के लिए हठ है और न ही विमुखता। उन्हें तो केवल जीरा और काला नमक चाहिए था जिसे उन्होंने खरीद लिया। भगत जी के लिए चौक बाज़ार का अस्तित्व तब तक है जब तक उन्हें बाज़ार से जीरा व काला नमक उपलब्ध होता है। जब उन्होंने अपनी आवश्यकतानुसार जीरा खरीद लिया तो सारा चौक उनके लिए कोई महत्त्व नहीं रखता। उनके लिए तो केवल जीरे और नमक का महत्त्व है, जो उन्हें बाज़ार से मिल गया। भगत जी के इसी निश्चित विश्वास के कारण शेष संपूर्ण चाँदनी चौक का निमंत्रण उनके लिए बेकार है। भगत जी उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देते। चौक का आकर्षण दोनों दिशाओं में मानों भूख से व्याकुल होकर देखता रह जाता है। भगत जी को केवल जीरा ही चाहिए था जिसे उन्होंने केवल पंसारी की दुकान से बड़े सहज भाव से खरीद लिया। चाँदनी चौक के आकर्षण से न भगत जी को कोई लगाव है, न अलगाव है। चाँदनी चौक का संपूर्ण सौंदर्य उनके लिए फैला रहता है। भगत जी उस बाज़ार का भला ही चाहते हैं, परंतु उसके आकर्षण के प्रति आसक्त नहीं होते और अपनी ज़रूरत की वस्तुएँ खरीदकर लौट जाते हैं। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण
संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) भगत जी बाज़ार में बेचने के लिए चूरन तैयार करते हैं। अतः उन्हें अपनी आवश्यकता का सामान अर्थात् काला नमक व जीरा इसी छोटी-सी पंसारी की दुकान पर मिल जाता है। इसलिए वह पंसारी की दुकान पर रुक जाते हैं। (ग) जब भगत जी बाज़ार से अपनी ज़रूरत के अनुसार जीरा और नमक खरीद लेते हैं तो सारा चौक तथा बाज़ार उनके लिए नहीं के बराबर हो जाता है, क्योंकि उन्हें जो कुछ चाहिए था, वह उसे लेकर लौट आते हैं। (घ) भगत जी केवल अपनी ज़रूरत का सामान खरीदने ही चाँदनी चौक बाज़ार में जाते हैं। चाँदनी चौक का आकर्षण भगत जी को व्यामोहित नहीं कर पाता। इसलिए सारा चौक भगत जी के लिए कोई महत्त्व नहीं रखता। [13] यहाँ मुझे ज्ञात होता है कि बाज़ार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है। और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ‘पर्चेजिंग पावर’ के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ति-शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति ही बाज़ार को देते हैं। न तो वे बाज़ार से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाज़ार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाज़ार का बाज़ारूपन बढ़ाते हैं। जिसका मतलब है कि कपट बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर में सद्भाव की घटी। [पृष्ठ-91] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाजार दर्शन’ लेखक का एक महत्त उपभोक्तावाद तथा बाजारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बाज़ार की सार्थकता पर समुचित प्रकाश डाला है। व्याख्या-लेखक का कथन है कि वही व्यक्ति बाज़ार को सार्थक बना सकता है जिसे पता है कि उसे बाज़ार से क्या खरीदना है, परंतु जो लोग यह नहीं जानते कि उन्हें क्या खरीदना है, उनका मन खाली होता है। वे अपनी क्रय-शक्ति के अभिमान में बाज़ार को केवल अपनी विनाशक शक्ति प्रदान करते हैं। लेखक इसे शैतानी-शक्ति अथवा व्यंग्य की शक्ति कहता है। कहने का भाव यह है कि इस प्रकार के लोग अपनी पर्चेजिंग पावर का अभिमान प्रकट करते हुए बाज़ार से अनावश्यक वस्तुएँ खरीद लेते हैं। उनकी यह शक्ति एक शैतानी शक्ति है जो कि समाज तथा बाज़ार का ही विनाश करती है। इस प्रकार के लोग न तो स्वयं बाज़ार से कोई लाभ उठा सकते हैं और न ही बाज़ार को सच्चा लाभ पहुंचा सकते हैं। इस प्रकार के लोगों के कारण बाज़ार के बाजारूपन को बढ़ावा मिलता है। यही नहीं, इससे छल-कपट की भी वृद्धि होती है और कपट बढ़ने का अर्थ यह है कि लोगों में सद्भाव घट जाता है अर्थात् अनावश्यक वस्तुएँ खरीदने वाले लोग बाज़ार में छल-कपट को बढ़ावा देते हैं तथा आपसी सद्भावना को नष्ट करते हैं। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) जो लोग धन की ताकत के बल पर अनावश्यक वस्तुओं को बाजार से खरीदते हैं वे लोग ही बाजारूपन तथा छल-कपट को बढ़ावा देते हैं। इस प्रकार के लोग मानों “ह दिखाना चाहते हैं कि उनमें कितना कुछ खरीदने की ताकत है। इससे लोगों में अनावश्यक वस्तुएँ खरीदने की होड़ लग जाती है। फलस्वरूप वस्तुएँ आवश्यकता के लिए नहीं, बल्कि झूठी शान के लिए खरीदी जाती हैं जिससे छल-कपट तथा शोषण को बढ़ावा मिलता है। (ग) धन की शक्ति बाज़ार में शैतानी-शक्ति को बढ़ावा देती है। अमीर लोग बाज़ार से अनावश्यक फैंसी वस्तुएँ खरीद कर अपनी शान का ढोल पीटते हैं। दूसरी ओर दुकानदार अर्थात् विक्रेता कपट का सहारा लेते हुए उसका शोषण करता है जिससे ग्राहक और दुकानदार में सद्भाव नष्ट हो जाता है। दुकानदार और ग्राहक एक-दूसरे को धोखा देने में लगे रहते हैं। (घ) जब बाजार ग्राहकों की आवश्यकताओं को पूरा करने का साधन बनता है तब लोगों में सदभावना बढ़ती है, परंतु जब ग्राहक अपनी शान का डंका बजाने के लिए अनावश्यक वस्तुएँ खरीदने लगता है तो बाज़ार भी छल-कपट का सहारा लेने लगता है जिससे दुकानदार और ग्राहक में सद्भाव नहीं रहता। दोनों एक-दूसरे को धोखा देने की ताक में लगे रहते हैं। [14] इस सद्भाव के हास पर आदमी आपस में भाई-भाई और सुहृद और पड़ोसी फिर रह ही नहीं जाते हैं और आपस में कोरे गाहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं। मानो दोनों एक-दूसरे को ठगने की घात में हों। एक ही हानि में दूसरे का अपना लाभ दीखता है और यह बाज़ार का, बल्कि इतिहास का; सत्य माना जाता है ऐसे बाजार को बीच में लेकर लोगों में आवश्यकताओं का आदान-प्रदान नहीं होता; बल्कि शोषण होने लगता है तब कपट सफल होता है, निष्कपट शिकार होता है। ऐसे बाज़ार मानवता के लिए विडंबना हैं और जो ऐसे बाज़ार का पोषण करता है, जो उसका शास्त्र बना हुआ है; वह अर्थशास्त्र सरासर औंधा है वह मायावी शास्त्र है वह अर्थशास्त्र अनीति-शास्त्र है। [पृष्ठ-91-92] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक यह स्पष्ट करता है कि किस प्रकार दुकानदार तथा ग्राहक के बीच सदभाव का पतन होने लगता है। व्याख्या-लेखक कहता है कि जब दुकानदार तथा ग्राहक के बीच सद्भाव नष्ट हो जाता है तो वे दोनों न तो आपस में भाई-भाई होते हैं, न मित्र होते हैं और न ही पड़ोसी होते हैं, बल्कि दोनों एक-दूसरे के साथ ग्राहक और बेचक जैसा व्यवहार करने लगते हैं। दुकानदार सौदेदारी करता है और ग्राहक भी मूल्य घटाने का काम करता है। ऐसा लगता है कि मानों दोनों एक-दूसरे को धोखा देने का प्रयास कर रहे हैं। यदि एक को हानि होती है तो दूसरे को लाभ पहुँचता है। जो कि बाज़ार का नियम नहीं है, बल्कि इतिहास का नियम है। यह कटु सत्य है कि इस प्रकार के बाज़ार में लोगों के बीच आवश्यकताओं का लेन-देन नहीं होता, केवल छल-कपट होता है। सच्चाई तो यह है कि दुकानदार शोषक बनकर ग्राहकों का शोषण करने लगता है जिससे छल-कपट को सफलता मिलती है तथा भोले-भाले लोग उसका शिकार बनते हैं। इस प्रकार का बाज़ार संपूर्ण मानव जाति के लिए सबसे बड़ा धोखा है। जो लोग इस प्रकार के बाज़ार को बढ़ावा देते हैं और उनके द्वारा जो शास्त्र बनाया गया है वह अर्थशास्त्र बिल्कुल उल्टा है। वह धोखे का शास्त्र है। इस प्रकार का अर्थशास्त्र अनीति पर टिका है जो कि ग्राहक का कदापि कल्याण नहीं कर सकता। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) लेखक ने उस अर्थशास्त्र को अनीतिशास्त्र कहा है जो कि बाज़ार में बाजारूपन तथा छल-कपट को बढ़ावा देता है। इस प्रकार का बाज़ार अनीति पर आधारित होता है और वह ग्राहकों से धोखाधड़ी करने लगता है। (ग) जब बाजार में बाजारूपन बढ़ जाता है और छल-कपट बढ़ने लगता है तो दुकानदार और ग्राहक दोनों ही एक-दूसरे का शोषण करने लगते हैं। दुकानदार ग्राहक को ठगना चाहता है और ग्राहक दुकानदार को। (घ) लेखक का कहना है कि जो बाज़ार छल-कपट तथा शोषण पर आधारित होता है वह मानवता का शत्रु है। इस प्रकार के बाज़ार में सीधे-सादे ग्राहक हमेशा ठगे जाते हैं। कपटी लोग निष्कपटों को अपना शिकार बनाते रहते हैं। बाज़ार दर्शन Summary in Hindiबाज़ार दर्शन लेखिका-परिचय प्रश्न- 2. प्रमुख रचनाएँ-श्री जैनेंद्र कुमार की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
3. साहित्यिक विशेषताएँ-जैनेंद्र कुमार ने प्रायः विचार-प्रधान निबंध ही लिखे हैं। उनके निबंधों में लेखक एक गंभीर चिंतक के रूप में हमारे सामने आता है। ये विषय साहित्य, समाज, राजनीति, संस्कृति, धर्म तथा दर्शन से संबंधित हैं। भले ही हिंदी साहित्य में वे एक मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार तथा कहानीकार के रूप में प्रसिद्ध हैं, परंतु निबंध-लेखक के रूप में उन्हें विशेष प्रसिद्धि प्राप्त हुई है। वस्तुतः उनके निबंधों में वैचारिक गहनता के गुण देखे जा सकते हैं। एक गंभीर चिंतक होने के कारण वे अपने प्रत्येक निबंध के विषय में सभी पहलुओं पर समुचित प्रकाश डालते हैं। इसके लिए हम उनके निबंध बाज़ार दर्शन को ले सकते हैं जिसमें उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा देखी जा सकती है। भले ही यह निबंध कुछ दशक पहले लिखा गया हो, परंतु आज भी इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है। इसमें लेखक यह स्पष्ट करता है कि यदि हम अपनी आवश्यकताओं को ठीक-ठीक समझकर बाज़ार का उपयोग करेंगे तो निश्चय ही हम उससे लाभ उठा सकेंगे, परंतु यदि हम खाली मन के साथ बाज़ार में जाएँगे तो उसकी चमक-दमक में फँसकर अनावश्यक वस्तुएँ खरीदकर लाएँगे जो आगे चलकर हमारी शांति को भंग करेंगी। वे अपने प्रत्येक निबंध में अपने दार्शनिक अंदाज में अपनी बात को समझाने का प्रयास करते हैं। परंतु फिर भी कहीं-कहीं उनके विचार अस्पष्ट और दुरूह बन जाते हैं जिसके फलस्वरूप साधारण पाठक का साधारणीकरण नहीं हो पाता। 4. भाषा-शैली-यद्यपि कथा-साहित्य में जैनेंद्र कुमार ने सहज, सरल तथा स्वाभाविक हिंदी भाषा का प्रयोग किया है, परंतु निबंधों में उनकी भाषा दुरूह एवं अस्पष्ट बन जाती है। फिर भी वे संबोधनात्मक तथा वार्तालाप शैलियों का प्रयोग करते समय अपनी बात को सहजता तथा सरलता से करने में सफल हुए हैं। यद्यपि वे भाषा में प्रयुक्त वाक्यों के संबंध में व्याकरण के नियमों का पालन नहीं करते, फिर भी उनके द्वारा प्रयक्त वाक्यों की अशद्धि कहीं नहीं खटकती। उनकी भाषा में रोचकता आदि से अंत तक बनी रहती है। वे अपनी भाषा में प्रचलित शब्दों का ही प्रयोग करते हैं। यत्र-तत्र वे अंग्रेज़ी, उर्दू तथा देशज शब्दों का मिश्रण कर लेते हैं। श्री तारा शंकर के शब्दों में-“जैनेंद्र की सबसे बड़ी विशेषता इनकी रचना का चमत्कार, कहने का ढंग या शैली है। उनकी भाषा के वाक्य प्रायः छोटे-छोटे, चलते, परंतु साथ ही मानों फूल बिखेरते चलते हैं। वे पारे की तरह ढुलमुल करते रहते हैं। जैनेंद्र को न तो उर्दू से घृणा है, न अंग्रेज़ी से परहेज है और न ही संस्कृत से दुराव है। इसलिए उनकी भाषा सहज, सरल तथा प्रवाहमयी है।” एक उदाहरण देखिए-“यहाँ मुझे ज्ञात होता है कि बाज़ार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है। और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ‘पर्चेजिंग पावर’ के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति ही बाज़ार को देते हैं। न तो वे बाज़ार से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाज़ार को सच्चा लाभ दे सकते हैं।” बाज़ार दर्शन पाठ का सार प्रश्न- 2. बाज़ार का प्रभावशाली आकर्षण-फालतू सामान खरीदने का सबसे बड़ा कारण बाज़ार का आकर्षण है। मित्र ने लेखक को बताया कि बाज़ार एक शैतान का जाल है। दुकानदार अपनी दुकानों पर सामान को इस प्रकार सजाकर रखते हैं कि ग्राहक फँस ही जाता है। वस्तुतः बाजार अपने रूप-जाल द्वारा ही ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। ब आग्रह नहीं होता। वह ग्राहकों को लूटने के लिए प्रेरणा देता है। यही कारण है कि लोग बाज़ार के आकर्षक जाल का शिकार बन जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति खाली मन से बाज़ार जाता है तो वह निश्चय से लुट कर ही आता है। लेखक का एक अन्य मित्र दोपहर के समय बाज़ार गया, परंतु वह शाम को खाली हाथ लौट आया। जब लेखक ने पूछा तो उसने बताया कि बाज़ार में सब कुछ खरीदने की इच्छा हो रही थी। परंतु वह एक भी वस्तु खरीदकर नहीं लाया। पूछने पर उसने बताया कि यदि मैं एक वस्तु खरीद लेता तो उसे अन्य सब वस्तुएँ छोड़नी पड़ती। इसलिए मैं खाली हाथ लौट आया। लेखक का विचार है कि यदि हम किसी वस्तु को खरीदने का विचार बनाकर बाज़ार जाते हैं तो फिर हमारी ऐसी हालत कभी नहीं हो सकती। 3. बाज़ार के जादू का प्रभाव-बाज़ार में रूप का जादू होता है। जब ग्राहक का मन खाली होता है, तब वह उस पर अपना असर दिखाता है। खाली मन बाज़ार की सभी वस्तुओं की ओर आकर्षित होता है और यह कहता है कि सभी वस्तुएँ खरीद ली जाएँ। परंतु जब बाज़ार का जादू उतर जाता है तब ग्राहक को पता चलता है कि उसने जो कुछ खरीदा है, वह उसे आराम पहुँचाने की बजाय बेचैनी पहुंचा रहा है। इससे मनुष्य में अभिमान बढ़ता है, परंतु उसकी शांति भंग हो जाती है। बाज़ार के जादू का प्रभाव रोकने का एक ही उपाय है कि हम खाली मन से बाज़ार न जाएँ बल्कि यह निर्णय करके जाएँ कि हमने अमुक वस्तु खरीदनी है। ऐसा करने से बाज़ार ग्राहक से कृतार्थ हो जाएगा। आवश्यकता के समय काम आना बाज़ार की वास्तविक कृतार्थता है। 4. खाली मन और बंद मन की समस्या-यदि ग्राहक का मन बंद है तो इसका अभिप्राय है कि मन शून्य हो गया है। मनुष्य का मन कभी बंद नहीं होता है। शून्य होने का अधिकार केवल ईश्वर का है। कोई भी मनुष्य परमात्मा के समान पूर्ण नहीं है, सभी अपूर्ण हैं। इसलिए मानव-मन में इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। इच्छाओं का विरोध करना व्यर्थ है। यह तो एक प्रकार से ठाट लगाकर मन को बंद करना है। ऐसा करके हम लोभ को नहीं जीतते, बल्कि लोभ हमें जीत लेता है। जो लोग मन को बलपूर्वक बंद करते हैं। वे हठयोगी कहे जा सकते हैं। इससे हमारा मन संकीर्ण तथा क्षुद्र हो जाता है। प्रत्येक मानव अपूर्ण है, हमें इस सत्य को स्वीकार करना चाहिए। सच्चा कर्म हमें अपूर्णता का बोध कराता है। अतः हमें मन को बलपूर्वक रोकना नहीं चाहिए अपितु बात को सुनना चाहिए। क्योंकि मन की सोच उद्देश्यपूर्ण होती है, परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हम मन को मनमानी करने की छूट दें, क्योंकि वह अखिल का एक अंग है। अतः हमें समाज का एक अंग बनकर रहना होता है। 5. भगत जी का उदाहरण लेखक के पड़ोस में चूरन बेचने वाले एक भगत जी रहते हैं। उनका यह नियम है कि वह प्रतिदिन छः आने से अधिक नहीं कमाएँगे। इसलिए वह अपना चूरन न थोक व्यापारी को बेचते हैं न ही ऑर्डर पर बनाते हैं। जब वे बाज़ार जाते हैं तो वह बाज़ार की सभी वस्तुओं को तटस्थ होकर देखते हैं। उनका मन बाज़ार के आकर्षण के कारण मोहित नहीं होता। वे सीधे पंसारी की दुकान पर जाते हैं जहाँ से वे काला नमक तथा जीरा खरीद लेते हैं और अपने घर लौट आते हैं। भगत जी द्वारा बनाया गया चूरन हाथों-हाथ बिक जाता है। अनेक लोग भगत के प्रति सद्भावना प्रकट करते हुए उनका चूरन खरीद लेते हैं। जैसे ही भगत जी को छः आने की कमाई हो जाती है तो वे बचा हुआ चूरन बच्चों में बाँट देते हैं। वे हमेशा स्वस्थ रहते हैं। लेखक का कहना है कि भगत जी पर बाज़ार का जादू नहीं चलता। भले ही भगत जी अनपढ़ हैं और बड़ी-बड़ी बातें नहीं करते परंतु उस पर बाज़ार के जादू का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। पैसा मानों उनसे भीख माँगता है कि मुझे ले लो परंतु भगत जी का मन बहुत कठोर है और उन्हें पैसे पर दया नहीं आती। वह छः आने से अधिक नहीं कमाना चाहते।। 6. पैसे की व्यंग्य शक्ति का प्रभाव पैसों में भी एक दारुण व्यंग्य शक्ति है। जब हमारे पास से मोटर गुज़रती है तो पैसा हम पर एक गहरा व्यंग्य कर जाता है तब मनुष्य अपने आप से कहता है कि उसके पास मोटरकार क्यों नहीं है? वह कहता है कि उसने मोटरकार वाले माता-पिता के घर जन्म क्यों नहीं लिया? पैसे की यह व्यंग्य-शक्ति अपने सगे-संबंधियों के प्रति कृतघ्न बना देती है, परंतु चूरन बेचने वाले भगत जी पर इस व्यंग्य-शक्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसके सामने व्यंग्य-शक्ति पानी-पानी हो जाती है। भगत जी में ऐसी कौन-सी शक्ति है जो पैसे के व्यंग्य के समक्ष अजेय बनी रहती है। हम उसे कुछ भी नाम दे सकते हैं, परंतु यह भी एक सच्चाई है कि जिस मन में तृष्णा होती है, उसमें शक्ति नहीं होती। जिस मनुष्य में संचय की तृष्णा और वैभव की चाह है, वह मनुष्य निश्चय से निर्बल है। इसी निर्बलता के कारण वह धन-वैभव का संग्रह करता है। 7. बाज़ार के बारे में भगत जी का दृष्टिकोण एक दिन भगत जी की लेखक के साथ मुलाकात हुई। दोनों में राम-राम हुई। लेखक यह देखकर दंग रह गया कि भगत जी सबके साथ हँसते हुए बातें कर रहे हैं। वे खुली आँखों से बाज़ार में आते-जाते हैं। वे बाज़ार की सभी वस्तुओं को देखते हैं। बाज़ार के सामान के प्रति उनके मन में आदर की भावना है। मानों वे सबको दे रहे हैं क्योंकि उनका मन भरा हआ है। वे खली आँख तथा संतष्ट मन से सभी फैंसी स्टोरों को छोडकर पंसारी की दकान से काला नमक और जीरा खरीदते हैं। ये चीज़े खरीदने पर बाज़ार उनके लिए शून्य बन जाता है, मानों उनके लिए बाज़ार का अस्तित्व नहीं है। चाहे चाँदनी चौक का आकर्षण उन्हें बुलाता रहे या चाँदनी बिछी रहे, परंतु वे सभी का कल्याण, मंगल चाहते हुए घर लौट आते हैं। उनके लिए बाज़ार का मूल्य तब तक है, जब तक वह काला नमक और जीरा नहीं खरीद लेते। 8. बाज़ार की सार्थकता-लेखक के अनुसार बाज़ार की सार्थकता वहाँ से कुछ खरीदने पर है। जो लोग केवल अपनी क्रय-शक्ति के बल पर बाज़ार में जाते हैं, वे बाज़ार से कोई लाभ प्राप्त नहीं कर सकते और न ही बाज़ार उन्हें कोई लाभ पहुंचा सकता है। ऐसे लोगों के कारण ही बाज़ारूपन तथा छल-कपट बढ़ रहा है। यही नहीं, मनुष्यों में भ्रातृत्व का भाव भी नष्ट हो रहा है। इस मनोवृत्ति के कारण बाज़ार में केवल ग्राहक और विक्रेता रह जाते हैं। लगता है कि दोनों एक-दूसरे को धोखा देने का प्रयास कर रहे हैं। इस प्रकार का बाज़ार लोगों का शोषण करता है और छल-कपट को बढ़ावा देता है। अतः ऐसा बाज़ार मानव के लिए हानिकारक है। जो अर्थशास्त्र इस प्रकार के बाज़ार का पोषण करता है, वह अनीति पर टिका है। उसे एक प्रकार का मायाजाल ही कहेंगे। इसलिए बाज़ार की सार्थकता इसमें है कि वह ग्राहकों की आवश्यकताओं को पूरा करे और बेकार की वस्तुएँ न बेचे। कठिन शब्दों के अर्थ आशय = प्रयोजन, मतलब। महिमा = महत्त्व, महत्ता। प्रमाणित = प्रमाण से सिद्ध । माया = धन-संपत्ति। मनीबैग = धन का थैला, पैसे की गरमी। पावर = शक्ति। माल-टाल = सामान। पजे ग पावर = खरीदने की शक्ति। फिजूल = व्यर्थ। असबाब = सामान। करतब = कला। दरकार = आवश्यकता, ज़रूरत। बेहया = बेशर्म, निर्लज्ज। हरज़ = हानि। आग्रह = खुशामद करना। तिरस्कार = अपमान। मूक = मौन। काफी = पर्याप्त। परिमित = सीमित। अतुलित = जिसकी तुलना न हो सके। कामना = इच्छा। विकल = व्याकुल । तृष्णा = लालसा। ईर्ष्या = जलन। त्रास = दुख, पीड़ा। बहुतायत = अधिकता। सेंक = तपन, गर्मी। खुराक = भोजन। कृतार्थ = अनुगृहीत। शून्य = खाली। सनातन = शाश्वत। निरोध = रोकना। राह = रास्ता, मार्ग। अकारथ = व्यर्थ। व्यापक = विशाल, विस्तृत। संकीर्ण = संकरा। विराट = विशाल । क्षुद्र = तुच्छ, हीन। अप्रयोजनीय = बिना किसी मतलब के। खुशहाल = संपन्न। पेशगी = अग्रिम राशि। बँधे वक्त = निश्चित समय पर। मान्य = सम्माननीय। नाचीज़ = महत्त्वहीन, तुच्छ। अपदार्थ = महत्त्वहीन, जिसका अस्तित्व न हो। दारुण = भयंकर। निर्मम = कठोर। कुंठित = बेकार, व्यर्थ। लीक = रेखा। वंचित = रहित। कृतघ्न = अहसान को न मानने वाला। लोकवैभव = सांसारिक धन-संपत्ति। अपर = दूसरा। स्पिरिचुअल = आध्यात्मिक। प्रतिपादन = वर्णन। सरोकार = मतलब। स्पृहा = इच्छा। अकिंचित्कर = अर्थहीन। संचय = संग्रह। निर्बल = कमज़ोर। अबलता = निर्बलता, कमजोरी। कोसना = गाली देना। अभिवादन = नमस्कार। पसोपेश = असमंजस। अप्रीति = शत्रुता। ज्ञात = मालूम। विनाशक = नष्ट करने वाला, नाशकारी। सद्भाव = स्नेह तथा सहानुभूति की भावना। बेचक = बेचने वाला या व्यापारी। पोषण = पालन। लेखक को हामिद की याद बनी रहे इसके लिए उसने क्या तरीका अपनाया?भारत जाने पर भी लेखक को हामिद की याद आए, इसके लिए उसने लेखक को भोजन के बदले दिया गया रुपया वापस करते हुए कहा, 'मैं चाहता हूँ कि यह आपके ही हाथों में रहे। जब आप पहुँचे तो किसी मुसलमानी होटल में जाकर इसे पैसे से पुलाव खाएँ और तक्षशिला के भाई हामिद खाँ को याद करें।”
लेखक ने हामिद खाँ को अपने मुल्क के विषय में क्या बताया हामिद खाँ उसकी बातों पर विश्वास क्यों नहीं कर पा रहा था?Answer: लेखक ने हामिद को कहा कि वह बढ़िया खाना खाने मुसलमानी होटल जाते हैं। वहाँ हिंदू-मुसलमान में कोई फर्क नहीं किया जाता है। हिंदू-मुसलमान दंगे भी न के बराबर होते हैं तो हामिद को विश्वास नहीं हुआ।
लेखक व हामिद खाँ में कैसे संबंध थे?हामिद खाँ और लेखक के बीच तब सम्बन्ध स्थापित हुआ जब लेखक तक्षशिला के खण्डहर में घूमते हुए भूख-प्यास से बेहाल हो हामिद खाँ की दुकान में भोजन करता है। हामिद खाँ उसे आत्मीय भाव से भोजन खिलाता है और अपना मेहमान बनाकर उससे पैसे तक नहीं लेता। दोनों में एक सौहार्दपूर्ण आत्मीय सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।
लेखक ने हामिद खां को अपने देश के बारे में गर्व से क्या बताया?उत्तर:- हामिद खाँ को गर्व था कि एक हिंदू ने उनके होटल में खाना खाया। साथ ही वह लेखक को मेहमान भी मान रहा था। वह लेखक के शहर की हिंदू-मुस्लिम एकता का भी कायल हो गया था। इसलिए हामिद खाँ ने खाने के पैसे नहीं लिए।
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