कोयले का उपयोग कम क्यों करना चाहिए - koyale ka upayog kam kyon karana chaahie

दुनियाभर में बंद हो रहे हैं कोयले के पावर प्लांट, आगे क्या होगा

  • क्रिस बारान्यूक
  • बीबीसी फ्यूचर

20 सितंबर 2018

कोयले का उपयोग कम क्यों करना चाहिए - koyale ka upayog kam kyon karana chaahie

इमेज स्रोत, Chris Baraniuk

कोयला पूरी दुनिया में बिजली का सबसे बड़ा स्रोत है. भारत की कुल बिजली का 59 फ़ीसद हिस्सा कोयले से ही बनता है. इसी तरह चीन भी बिजली की ज़रूरतों के लिए कोयले पर निर्भर है.

पश्चिमी देश, प्रदूषण में कटौती के लिए कोयले से बने पावर प्लांट बंद कर रहे हैं.

ब्रिटेन ने तय किया है कि वो 2025 तक कोयले से बिजली बनाना बंद कर देगा. अब ब्रिटेन में गिने-चुने ही कोयले वाले बिजलीघर बचे हैं.

इन्हीं में से एक कोयले वाला बिजली घर है ड्रैक्स. पास के एक गांव के नाम पर इस बिजली घर का नाम रखा गया है. ड्रैक्स का ये कोयले से चलने वाला बिजलीघर पश्चिमी यूरोप के सबसे बड़े बिजलीघरों में से एक है.

इसके मालिकों ने तय किया है कि अगले पांच सालों में यहां कोयला जलाना पूरी तरह से बंद कर दिया जाएगा. इसके बजाय लकड़ी और गैस से बिजली बनाई जाएगी.

यूरोपीय यूनियन ने प्रदूषण घटाने के लिए कोयले से चलने वाले ज़्यादातर बिजलीघरों को बंद करने का फ़ैसला किया है.

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सिर्फ़ यूरोप ही नहीं, अमरीका भी कोयले से बिजली बनाना बंद करने की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रहा है. अब दूसरे ज़रियों से बनी बिजली ज़्यादा सस्ती पड़ रही है. ये माध्यम पर्यावरण के लिए भी कोयले से कम नुक़सानदेह हैं.

ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि कोयले के बड़े-बड़े बिजलीघरों का क्या होगा?

पिछली एक सदी से कोयले से चलने वाले बिजलीघरों ने दुनिया की तरक़्क़ी के लिए ऊर्जा मुहैया कराई है. कमोबेश हर देश में कोयले वाले बिजलीघरों का नेशनल पावर ग्रिड में अहम रोल रहा है. ऐसे में जब हम कोयले से मुंह फेर रहे हैं, तो भी इन बिजलीघरों से मुंह फेरना आर्थिक रूप से सही नहीं होगा.

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ऐसे पावर प्लांट का क्या हो सकता है, ड्रैक्स का बिजलीघर इसकी मिसाल बन सकता है.

ड्रैक्स का बिजलीघर कितना बड़ा है, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके ब्वायलर और टर्बाइन वाली इमारतों के आस-पास छह कूलिंग टावर हैं. इनसे लगातार सफ़ेद धुआं निकलता रहता है. बिजलीघर की चिमनी की ऊंचाई 259 मीटर है. बिजलीघर के पीछे की तरफ़ कोयले का विशाल ढेर लगा दिखता है. हालांकि इसके कर्मचारी बताते हैं कि मौजूदा ढेर तो कुछ भी नहीं. पहले तो इससे कई गुना ज़्यादा कोयले का ढेर यहां लगा होता था.

बिजलीघर में रखे इस कोयले को कन्वेयर बेल्ट तक लाकर कूटा जाता है. फिर इसे जलाकर बिजली पैदा की जाती है. बिजली पैदा करने का ये आसान तरीक़ा है, मगर बहुत गंदा भी है.

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बदल रही है बिजली

कोयला जलाने से होने वाले प्रदूषण की वजह से ही आज कोयले वाले बिजलीघरों के बंद होने का ख़तरा बढ़ रहा है. इस साल अप्रैल में ब्रिटेन ने तीन दिन बिना कोयले की बिजली के गुज़ारे. 2018 में अब तक ब्रिटेन बिना कोयले की बिजली के 1000 घंटे का वक़्त गुज़ार चुका है.

थिंक टैंक 'कार्बन ट्रैकर' के मैथ्यू ग्रे कहते हैं कि '2012 में ब्रिटेन की कुल बिजली का 45 फ़ीसद कोयले से आता था. आज कोयले का हिस्सा बेहद मामूली रह गया है.'

वैसे कोयले वाले बिजलीघरों के मालिकों के लिए कोयले के विकल्पों पर काम करना आसान नहीं है. ड्रैक्स के सीईओ एंडी कॉस कहते हैं कि कोयले की जगह लकड़ी को ईंधन के तौर पर इस्तेमाल करने की कई चुनौतियां हैं.

कच्ची लकड़ी कन्वेयर बेल्ट से चिपक जाती है. लकड़ी के टुकड़े टूटते हैं तो बहुत धूल होती है. फिर लकड़ी को हर वक़्त सूखा रखने की चुनौती भी होती है. जलते वक़्त लकड़ी चटखती भी है. ड्रैक्स के प्लांट को कोयले के बजाय लकड़ी को ईंधन की तरह इस्तेमाल करने के लिए 70 करोड़ पाउंड से प्लांट में बदलाव करने पड़े. इस बिजलीघर को लकड़ी रखने के लिए चार बड़े गुम्बदों वाली इमारतें भी बनानी पड़ीं. रोज़ाना यहां 16 मालगाड़ियां लकड़ी लेकर आती हैं. इन्हें ढंक कर लाया जाता है. फिर लकड़ी को सुरक्षित जगह पर रखा जाता है.

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एंडी कॉस बताते हैं कि ड्रैक्स का ये बिजलीघर लकड़ी इस्तेमाल करने के लिहाज़ से दुनिया में सब से बड़ा है. इस वक़्त ड्रैक्स में 2 गीगावाट बिजली कोयले से और इतनी ही लकड़ी से बनाई जा रही है.

ड्रैक्स को दुनिया में कोयले के बिजलीघरों के नए पोस्टर ब्वॉय के तौर पर पेश किया जा रहा है. जबकि अमरीका में कोयले से चलने वाले कई छोटे बिजलीघर अब ईंधन के तौर पर गैस का इस्तेमाल करने लगे हैं. ये लकड़ी के मुक़ाबले ज़्यादा सस्ती पड़ती है.

आगे चलकर ड्रैक्स में बड़ी-बड़ी बैटरियां भी बनेंगी, जिनमें संकट के वक़्त इस्तेमाल करने के लिए बिजली जमा की जाएगी.

वैसे कोयले के बिजलीघरों के दूसरे इस्तेमाल के तरीक़े भी निकाले जा रहे हैं. 2016 में चीन ने एलान किया था कि वो अपने कोयले वाले कई बिजलीघरों को एटमी पावर प्लांट में तब्दील करेगा. हालांकि उसके बाद इस योजना का क्या हुआ, किसी को पता नहीं. इसी तरह डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगेन में भी एक कोयले वाले बिजलीघर को पूरी तरह से लकड़ी से चलाया जा रहा है.

इसी तरह गूगल एक पुराने कोयले वाले बिजलीघर को अपने डेटा सेंटर में तब्दील कर रहा है,

बादशाह कोयला

अभी भारत समेत कई ऐसे देश हैं, जहां कोयले की बादशाहत क़ायम है. चीन में कोयले से चलने वाले 100 से ज़्यादा बिजलीघर हैं. इसी तरह जर्मनी ने अपने सभी एटमी बिजलीघर बंद कर दिए हैं. वहां की कुल बिजली का 20 फ़ीसद कोयले से ही बनती है.

यानी अमरीका और यूरोप में जहां कोयले वाले बिजलीघर बंद हो रहे हैं, वहीं एशिया और अफ्रीका में ऐसे कई पावर प्लांट लगाए जा रहे हैं.

2015 में ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स राज्य की सरकार ने कोयले वाले एक बिजलीघर को घाटे का सौदा मानकर बेच दिया. जिस कंपनी ने उसे ख़रीदा आज वो उससे बिजली बनाकर भारी मुनाफ़ा कमा रही है.

वहीं पोलैंड में पीजीई नाम की कंपनी करोड़ों डॉलर ख़र्च कर के पुराने कोयले वाले बिजलीघरों को फिर से मुनाफ़े पर चलाने की कोसिश कर रही है. लेकिन, अब तक उसका ये दांव घाटे वाला ही रहा है.

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बड़ा सवाल ये भी उठता है कि कोयले के बजाय लकड़ी इस्तेमाल करने से पर्यावरण को फ़ायदा होता है या नुक़सान?

दावा ये होता है कि जो पेड़ काट कर लकड़ी मिलती है, उन पेड़ों की जगह नए पेड़ लगाए जा सकते हैं. फिर लकड़ी जलाने से प्रदूषण भी कम होता है. लेकिन बहुत से पर्यावरणविद् इस तर्क से सहमत नहीं. ड्रैक्स की अपनी रिपोर्ट कहती है कि लकड़ी जलाने से ज़्यादा कार्बन डाई ऑक्साइड निकलती है. हालांकि ड्रैक्स के ही एक अधिकारी कहते है कि प्लांट में लकड़ी जलाकर बिजली बनाने मे कोयले के मुक़ाबले 80 फ़ीसद कम कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा होगी.

लेकिन, नए पेड़ तैयार होने में कई दशक लग जाते हैं. दुनिय भर में जंगल वैसे ही सिमट रहे हैं. ऐसे में कार्बन डाई ऑक्साइड को सोखने के लिए पेड़ कम ही बच रहे हैं. यानी कोयले वाले बिजलीघर बंद होने के बावजूद हालात सुधरने के बजाय बिगड़ रहे हैं.

हालांकि एंडी कॉस कहते हैं कि दुनिया भर में जंगल सिमटने के लिए कोयले वाले बिजलीघर ज़िम्मेदार नहीं. वो कई और नई तकनीकों की मदद से प्रदूषण की रोकथाम की बात कहते हैं.

आख़िर कोयले से इतना प्रदूषण क्यों होता है?

कोयला जलाने से कार्बन डाई ऑक्साइड समेत कई नुक़सानदेह गैसें पैदा होती है. कोयले के एक गट्ठर में 60-80 फ़ीसद कार्बन होता है. कोयला जलाने से पैदा हुई ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडल में जमा हो जाती हैं. आसमान में इनकी परत की वजह से सूरज से आने वाली बिजली हमारे वायुमंडल में ही क़ैद हो जाती है.

कोयला जलाने से कई ऐसी चीज़ें भी निकलती हैं, जो इंसान के लिए घातक होती हैं. जैसे की पारा, नाइट्रोजन ऑक्साइड और सल्फर डाई ऑक्साइड. इसके अलावा कोयले से निकलने वाली धूल भी बहुत नुक़सानदेह होती है. माना जाता है कि कोयले की वजह से हर साल हज़ारों लोग मर जाते हैं.

कोयले के बाद क्या होगा?

एक वक़्त आएगा, जब कोयले से बिजली उत्पादन बंद हो जाएगा. हम बिजली बनाने के साफ़-सुथरे तरीक़ों पर अमल करने लगेंगे. लेकिन याद रखना चाहिए कि कोयले ने क़रीब एक सदी तक दुनिया को तरक़्क़ी का ईंधन मुहैया कराया है. ऐसे में हमें इन बिजलीघरों को विलेन के बजाय हीरो की तरह विदा करना चाहिए.

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कोयले के उपयोग से कौन सी समस्या होती है?

कोयला जलाने से कार्बन डाई ऑक्साइड समेत कई नुक़सानदेह गैसें पैदा होती है. कोयले के एक गट्ठर में 60-80 फ़ीसद कार्बन होता है. कोयला जलाने से पैदा हुई ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडल में जमा हो जाती हैं. आसमान में इनकी परत की वजह से सूरज से आने वाली बिजली हमारे वायुमंडल में ही क़ैद हो जाती है.

कोयला का उपयोग क्या होता है?

कोयला एक ठोस कार्बनिक पदार्थ है जिसको ईंधन के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। ऊर्जा के प्रमुख स्रोत के रूप में कोयला अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। कुल प्रयुक्त ऊर्जा का 35% से 40% भाग कोयलें से प्राप्त होता हैं। कोयले से अन्य दहनशील तथा उपयोगी पदार्थ भी प्राप्त किए जाते हैं।

हमें कोयले और पेट्रोलियम का प्रयोग सावधानी से क्यों करना चाहिए?

कोयला और पेट्रोलियम कार्बन के विशाल भंडार हैं। यदि इनकी संपूर्ण मात्रा का कार्बन न जलाने पर कार्बन डाइऑक्साइड में परिवर्तित हो गया तो पृथ्वी पर ऑक्सीजन की उपलब्धता तो अत्यंत हो जाएगी पर साथ ही साथ कार्बन डाईऑक्साइड से अधिकता वैश्विक ऊष्मण होने का कारण बन जाएगी। इसलिए इन संसाधनों का उपयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिए

कोयले की कमी का क्या कारण है?

आयातित कोयले की कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि के कारण आयातित कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से बिजली उत्पादन में भारी कमी आई है, जिससे घरेलू कोयले पर अधिक निर्भरता बढ़ गई है। इससे कोयले की किल्लत भी हुई है। इसके बाद मानसून की शुरुआत से पहले पर्याप्त कोयले के भंडार का निर्माण न होने से कोयला खदानों पर प्रभाव पड़ा है।