कविता में छन्दों का क्या महत्व है तथा इसके प्रकार का बताइये - kavita mein chhandon ka kya mahatv hai tatha isake prakaar ka bataiye


परिभाषा:

कविता में छन्दों का क्या महत्व है तथा इसके प्रकार का बताइये - kavita mein chhandon ka kya mahatv hai tatha isake prakaar ka bataiye

पाणिनि के अनुसार जो आह्नादित करे, प्रसन्न करे, प्रसन्न करे वह छन्द है। उनके अनुसार छंद 'चदि' धातु से निकला है। यास्क ने निरूक्त में छंद की परिभाषा इस प्रकार दी है। ''छन्दांसि छादनात्'' अर्थात छन्द की व्युत्पत्ति 'छदि' धातु से है जिसका अर्थ है- 'आच्छादन' । प्रायः सभी भाषाओं के प्राचीन ग्रन्थ छंद में ही लिपिबद्ध हैं। पद को याद करने में सहूलियत होती है और याद की गई बात शीघ्र नष्ट नहीं होती।

छंद के भेद


    छन्द के मुख्य तीन भेद हैं (क) वर्णिक, (ख) मात्रिक और (ग) मुक्तक या रबड़।
  1. वर्णिक छंद: जिनमें वर्णों की संख्या, क्रम, गणविधान तथा लघु-गुरू के आधार पर रचना होती है।
  2. मात्रिक छंद: जिनमें मात्राओं की संख्या, लघु-गुरू, यति-गति, के आधार पर पद-रचना होती है।
  3. मुक्तक छन्द: इनमें न वर्णों की गिनती होती है, न मात्राओं की। इसमें भाव की प्रधानता होती है।

छंद से संबन्धित पारिभाषिक शब्दः

वर्ण: छन्द में अक्षर को वर्ण कहते हैं। वर्ण दो प्रकार के होते हैं।

  1. लघु: हृस्वारक्षर को लघु कहते हैं। अ, इ, उ, ऋ, क, कि, कु, ख, ग आदि। लघु का चिह्न '।' है। हिन्दी के पूर्ण विराम की तरह।

  2. गुरू: दीर्घाक्षर को गुरू कहते हैं। आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, का, की, कं, कः आदि गुरू हैं। गुरू का चिह्न (ऽ) है। अंग्रेजी के 'S' की तरह।

  3. संयुक्ताक्षर के पूर्व का लद्यु वर्ण गुरू माना जाता है।

  4. जैसे: नित्य, तथ्य, यहाँ 'नि' , 'त' गुरू हैं।

    अपवाद: संयुक्ताक्षर से पहले का लघु वर्ण, जिसपे दबाव नहीं होता उसे लघु ही माना जाता है। जैसे 'तुम्हारी' में 'तु' लघु है।

  5. चन्द्रबिन्दु वाला लघु वर्ण ही माना जाता है और अनुस्वार ( . ) वाला लघु वर्ण गुरू। विसर्गयुक्त वर्ण गुरू होता है।

  6. कहीं-कहीं उच्चारण के अनुसार गुरू को लघु और लघु को गुरू मानना पड़ता है।

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यति :- प्रत्येक छंद में कुछ स्थल बीच में ठहरने के लिए निश्चित रहते हैं। इसी ठहरने को यति या विराम कहते हैं। यति ठीक न रहने से छन्द में यतिभंग दोष आ जाता है।

गति :- प्रत्येक छन्द में एक विशेष प्रकार की संगीतात्मक लय होती है जिसे गति कहते हैं। छंद की गति ठीक नहीं रहने से गतिभंग दोष होता है।

पाद :- प्रत्येक छन्द में मुख्य चार भाग होते हैं जो नियमानुसार निश्चित विरामों से अलग किये जाते हैं, इनको पद, पाद या चरण कहते हैं।

गण :- तीन वर्णों के समूह को चाहे उनसे कोई शब्द बनता हो या नहीं एक गण कहते हैं। वर्णों की लघुता और गुरूता के विचार से गुणों के आठ रूप हैं। इन गणों के नाम और लक्षण निम्नलिखित सूत्र से सरलता पूर्वक स्मरण किये जा सकते हैं।

यमाताराज भानसलगा : इस सूत्र के द्वारा जिस गण का रूप जानना हो उसमें दिये गए आद्याक्षर के साथ आगे के दो वर्णों को मिलाने के अभिष्ट गण बन जाएगा।

गण-कोष्ठक

कविता में छन्दों का क्या महत्व है तथा इसके प्रकार का बताइये - kavita mein chhandon ka kya mahatv hai tatha isake prakaar ka bataiye


प्रमुख मात्रिक छंद

1. चौपाई :- यह एक मात्रिक सम छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16 मात्रा होती हैं। चरणान्त में जगण और तगण आना वर्जित है। चरण के अन्त में गुरू वर्णों को रखने से छन्द में रोचकता तथा मधुरता आ जाती है।

2. रोला :- यह मात्रिक सम छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। इसके प्रत्येक चरण में 11 और 13 मात्राओं पर ही यति अधिक प्रचलित है। प्रत्येक चरण के अन्त में दो गुरू या दो लधु वर्ण होते हैं। दो-दो चरणों में तुक आवश्यक है।

3. हरिगीतिका:- यह मात्रिक सम छंद है। इस छन्द के प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं। 16 और 12 मात्राओं पर यति और अन्त में लघु गुरू का प्रयोग ही अधिक प्रचलित है।

4. बरवै :- यह मात्रिक अर्धसम छन्द है। इस छंद के विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में 12 और सम चरणों (दूसरे और चौथे) में 7 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में जगण या तगण आने से मिठास बढ़ती है। यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है।

5. दोहा :- यह मात्रिक अर्धसम छंद है। इस छन्द के विषय चरणों (प्रथम और तृतीय) में 13 मात्राएँ होती हैं और सम चरणों (द्वितीय और चतुर्थ) में 11 मात्राएँ होती हैं। यति चरण के अन्त में होती है, विषम चरणों के आदि में जगण नहीं होना चाहिए। सम चरणों के अन्त में लघु होना चाहिए।

6. सोरठा :- यह मात्रिक अर्धसम छन्द है। यह दोहे का उल्टा है। अर्थात दोहे के द्वितीय चरण को प्रथम और प्रथम को द्वितीय तथा तृतीय को चतुर्थ और चतुर्थ का तृतीय कर देने से बनता है। इस छन्द के विषय चरणों में 11 मात्राएँ और सम चरणों से 13 मात्राएँ होती हैं। तुक प्रथम और तृतीय चरणों में होता है।

7. उल्लाला :- ये दो प्रकार के हैं।

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उल्लाला चार चरणों से युक्त वह मात्रिक छन्द है, सिसके विषम चरणों में पन्द्रह-पन्द्रह मात्राएँ होती हैं। सम चरणों में तेरह-तेरह मात्राएँ होती हैं।

उल्लाला चार चरणों से युक्त वह मात्रिक छंद है, जिससे प्रत्येक चरण में तेरह-तेरह मात्राएँ होती हैं। यह विचार कवि भानु का है।

8. छप्पय :- यह संयुक्त छंद है। (रोला+उल्लाला) इस छन्द में छह चरण होते हैं। प्रथम चार चरण रोला के और शेष दो चरण उल्लाला के, प्रथम चार चरणों में चौबीस मात्राएँ होती हैं, अन्तिम दो चरणों में छब्बीस-छब्बीस या अट्ठाइस-अट्ठाइस मात्राएँ होती हैं।

9. कुण्डलिया:- इसमें कुल छह चरण होते हैं। इसमें पहले दो चरण दोहा छंद के और शेष चरण रोला छंद के होते हैं। दोहे का चौथा चरण रोले के प्रथम चरण का पूर्वाद्ध होता है और दोहे के प्रारम्भ के एक-दो शब्द रोला के अन्त में आते हैं। प्रत्येक चरण में चौबीस मात्राएँ होती हैं।

10. आल्हा या वीर:- आल्हा या वीर छन्द में 16, 15 की यति से 31 मात्राएँ होती हैं।

11. सार:- इसे ललित पद भी कहते हैं। सार छन्द में कुल 28 मात्राएँ होती हैं। 16, 12 पर यति होती है और अन्त में दो गुरू होते हैं।

12. गीतिका:- इसके प्रत्येक चरण में 26 मात्राएँ होती हैं और 14 तथा 12 मात्राओं पर विराम होता है। अन्त में गुरू होना आवश्यक है।

13. ताटंक:- इसके प्रत्येक चरण में 16, 14 के विराम से 30 मात्राएँ होती हैं।

14. रूपमाला:- इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। 14 और 10 मात्राओं पर यति होती है। अन्त में गुरू लघु होना आवश्यक है।

15. दिक्पाल:- इस छन्द में 12, 12 मात्राओं पर यति के क्रम से 24 मात्राएँ होती हैं।

16. त्रिभंगी:- यह छन्द 32 मात्राओं का होता है। 10, 8, 8, 6 पर यति होती है। अन्त में गुरू होता है।

वर्णिक छंद

1. इन्द्रवज्रा :- यह ग्यारह अक्षर का छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में दो तगण, एक जगण तथा दो गुरू होते हैं।

2. उपेन्द्रवज्रा :- ‘ज ता ज गा गाइ उपेन्द्रवज्रा‘

यह ग्यारह वर्णों का वृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में जगण, तगण जगण एवं दो गुरू होते हैं। यदि दन्द्रवज्रा का पहला अक्षर लघु कर दिया जाय ओ वह उपेन्द्रवज्रा छन्द बन जाता है।

3. वंशस्थ :- बने सुवंशस्थ ज ता ज रा सदा

जगण, तगण एवं जगण, रगण के क्रम में बारह वर्णों की जाति वाला छन्द होता है।

4. द्रुतविलम्बित:- ''द्रुतविलम्बित के नभ भार हैं।''

इस छंद के प्रत्येक चरण में नगण, भगण एवं रगण के क्रम से 12 वर्ण होते हैं।

5. तोटक (त्रोटक):- 'रस चार स त्रोटक को रचिय' यह छंद 12 वर्णों का होता है। इसमें क्रम से चार सगण होते हैं।

6. भुजंग प्रयात :- ‘य है चार ही ये भुजंग प्रयातम्‘ यह 12 वर्णों का वृत है। इसमें क्रमशः चार यगण होते हैं।

7. मन्द्राक्रान्ता :- मन्द्रक्रान्ता म भ न त त गा रचाओ सदा ही।

यह छंद सत्रह अक्षरों की जाति का है। इसके एक चरण में क्रमशः मगण, भगण, नगण, तगन, तगण तथा दो गुरू होते हैं।

8. मालिनी :- ‘रच न न म य या से मालिनी सिद्ध लोक‘

यह 15 अक्षरों का वर्ण है। 8, 7 पर यति होती है। इसके प्रत्येक चरण में क्रमशः नगण, नगण, मगण, यगण, यगण होते हैं।

9. शिखरिणी :- ‘य म न स भ ला गा शिखरिणी‘

इसमें 17 अक्षर होते हैं। प्रत्येक चरण में यगण, मगण, नगण, सगण, भगण लघु और गुरू होता है।

10. शार्दूल विक्रीड़ित :- इसमें 19 अक्षर होते हैं। 12, 7 वर्णों पर विराम होता है। प्रत्येक चरण में मगण, सगण, जगण, सगण, तगण और अन्त में एक गुरू होता है।

11. सवैया :- जिन छंदों में प्रत्येक चरण में 22 से 26 वर्ण होते हैं, उन्हें सवैया कहते हैं। ये अनेक प्रकार के हैं और इनके नाम भी पृथक-पृथक हैं। सवैया में एक ही वर्णिक गण को बार-बार आना चाहिए। यद्यपि इसका निर्वाह नहीं होता है तो भी उनका नाम सवैया ही है। रसखान के सवैया बड़े मार्मिक हैं और तुलसीदास ने इसका उपयोग ‘कवितावली‘ में कुशलता के साथ किया है।

मत्तगयंग :- इसमें 23 अक्षर, सात भगण और दो गुरू होता है।

कवित्त :- यह वर्णिक छंद है। इसमें गण-विधान नहीं होता। इसे मुक्त वर्णिक-छंद भी कहते हैं। कवित्त के प्रत्येक चरण में 31 से 33 वर्ण होते हैं। ये अनेक हैं जिसमें मनहरण, रूप घनाक्षरी, देवघनाक्षरी आदि प्रसिद्ध हैं।

मुक्त-छंद - मुक्त-छंद में न तो वर्णों का बन्धन होता है और न मात्राओं का। इसके लिए बने-बनाये छंद के ढाँचे अनुपयुक्त होते हैं।

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कविता में छंदों का क्या महत्व है तथा इसके प्रकार का बताइये?

वर्णिक छंद जिन छंदों की रचना को वर्णों की गणना और क्रम के आधार पर किया जाता है उन्हें वर्णिक छंद कहते हैं । वृतों की तरह इनमे गुरु और लघु का कर्म निश्चित नहीं होता है बस वर्ण संख्या निश्चित होती है। ये वर्गों की गणना पर आधारित होते हैं। जिनमे वर्गों की संख्या क्रम गणविधान लघु गुरु के आधार पर रचना होती है

कविता में छंदों का क्या महत्व?

काव्य में छंद के माध्यम से कम शब्दों में आधिकारिक भावों की अभिव्यक्ति होती है तथा इससे संगीत और लय का समावेश हो जाता है। अतः गेयता, भावाभिव्यक्ति और नाद-सौंदर्य की दृष्टि से छंद की उपयोगिता सर्वमान्य है। मात्रा- किसी स्वर के उच्चारण में जो समय लगता है उसकी अवधि को मात्रा कहते हैं।

छंद क्या है छंद के प्रकार?

छंद के भेद: Chhand Ke Prakar.
वर्णिक छंद (या वृत) – जिस छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान हो।.
वर्णिक वृत छंद- इसमें वर्णों की गणना होती है.
मात्रिक छंद (या जाति) – जिस छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या समान हो।.
मुक्त छंद – जिस छंद में वर्णिक या मात्रिक प्रतिबंध न हो।.

छंद कितने प्रकार के होते हैं?

छंद चार प्रकार के होते हैं—मात्रिक, वर्णिक, वर्णिक वृत्त एवं मुक्त।