ईश्वर कौन है कहां रहता है? - eeshvar kaun hai kahaan rahata hai?

सिर्फ और सिर्फ सनातन धर्म के अलावा बाकी सभी दूसरे धर्मों का मानना है कि जिस ईश्वर ने हमारी सृष्टि की रचना की है वह ईश्वर हमसे बहुत दूर, 7वें आसमान पर रहता है और हम सब का न्यायकर्ता भी वही है। वही ईश्वर फैसले करता है, वह पापियों को दंड और पुण्य लोगों को स्वर्ग देता है। यानी लगभग सभी धर्मों में ईश्वर को लेकर ऐसी कई सारी बातें कही गईं हैं, जिनसे पता चलता है कि ईश्वर एक न्यायकर्ता और शक्तिशाली पुरुष है।

लेकिन सनातन धर्म में ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। सनातन धर्म तो साफ-साफ कहता है कि, इस सृष्टि से पहले सत या सत्यता नहीं था और असत्य भी नहीं। ना ही यह अंतरिक्ष था और ना ही यह आसमान था। और अगर सत्य, असत्य, अंतरिक्ष, आसमान और जल, सब कुछ उस समय नहीं थे तो फिर आज कहां से आ गये? अब कहां से और कैसे उत्पन्न हो गए?

भला कोई यह बात कैसे कह सकता है कि उस समय यह सब नहीं था, उस समय ऐसा कौन था, जो यह कह रहा है कि यह सब नहीं था। तो उसके जवाब में हमारे एक महान ग्रंथ ऋग्वेद में साफ-साफ लिखा है कि- हिरण्य गर्भसृष्टि से पहले वह ईश्वर विद्यमान था, वही था सारे भूत जाति का स्वामी। ईश्वर सनातन है और सनातन का न आदि है न अन्त। सनातन शाश्वत और हमेशा बना रहने वाला ईश्वर है।

यानी सनातन धर्मग्रंथ के वेद में ईश्‍वर, परमेश्वर या परमात्मा की परिभाषा को बहुत ही साफ-साफ और सरल भाषा में और बहुत ही विस्तार से समझाया हुआ है। इसको समझना इतना कठिन नहीं है जितना की इसको समझा जाता है।

दरअसल, वेद बना है ‘विद‘ शब्द से और विद का सीधा-सीधा अर्थ होता है किसी भी विषय या वस्तु का ज्ञाता, ज्ञान रखने वाला या उसकी जानकारी रखने वाला। और, यहां विद या वेद का मतलब यह बिल्कुल भी नहीं है कि उस विषय को मानना है और न ही उसे मानने वाले से है। बल्कि, सिर्फ उस विषय की जानकारी रखने वाला और जानने वाला, जाना-परखा ज्ञान रखने वाला विद या वेद है।

जबकि सनातन धर्म के अलावा, बाकी के सभी धर्मों में इससे ठीक उल्टा है और इस बात की पुष्टि भी करता है कि ईश्वर एक ही है और उसका एक पुत्र भी है, और उसी ने हमारी इस सृष्टि की रचना की है। वह ईश्वर हमसे बहुत दूर, 7वें आसमान पर ही रहता है और हम सब का न्यायकर्ता भी वही है। लेकिन सनातन धर्म ऐसा बिल्कुल भी सही नहीं मानता है। सनातन धर्म की अवधारणा है कि यदि कोई हमसे बहुत दूर रहता है या किसी एक स्थान पर रहता है तो वह ईश्वर नहीं हो सकता। फिर तो वह कोई मानव है या फिर कोई निर्जीव वस्तु ही हो सकती है।

और जब हम ईश्वर के सत्य की बात करते हैं तो पता चलता है कि वेद का ज्ञान सबसे पहले 4 ऋषियों ने प्राप्त किया था, जिसमें- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य ऋषियों के नाम आते हैं। और उन्हीं 4 ऋषियों ने इस ज्ञान को सुना, भोगा और फिर आगे कहा। जब उन्होंने उस ज्ञान को आगे कहा तो ऋषियों ने भी सुना और फिर उन ऋषियों ने उसे दूसरे ऋषियों से भी कहा। इस तरह उस ज्ञान को सुनकर लिखा गया। इसका यह मतलब नहीं कि ईश्वर के अस्तित्व को लेकर उन ऋषियों ने जो लिखा है उसे वे सब जानते हैं। बल्कि यह उनका वह ज्ञान है जिसको वे वेद में लिख रहे हैं। और वेद में ईश्वर के बारे में क्या बताया गया है, हम यह जानते हैं।

छन्दोग्य उपनिषद् के अनुसार ईश्वर एक ही है, दूसरा बिल्कुल भी नहीं है और न ही वह किसी दूसरे के सहारे है। वह सिर्फ और सिर्फ एक ही है। उसके सिवाय और कोई ईश्वर नहीं है। छन्दोग्य उपनिषद्, मुख्य रूप से ब्रह्मज्ञान के लिए प्रसिद्ध है और ईश्वर के अस्तित्व से संबंधित यह प्रवचन ब्रह्मा ने स्वयं प्रजापति को दिया था और प्रजापति ने मनु को और मनु ने अपने पुत्रों को दिया। और मनु के पुत्रों से ही इस जगत का विस्तार हुआ।

जबकि, अथर्ववेद में भी यही बात साफ-साफ कही गई है कि- ईश्वर एक ही है, दूसरा बिल्कुल भी नहीं है और सभी देवता उसी में निवास करते हैं और उसी से नियंत्रित भी होते हैं। इसलिए केवल उसी की उपासना करनी चाहिए और किसी की नहीं।

श्वेताश्वतारा उपनिषद् में भी यही बात कही गई है कि ईश्वर वही है जिसे किसी ने पैदा नहीं किया और वही पूजा के लायक है। उसका कोई आकार नहीं है इसलिए उसकी कोई भी छवि नहीं बनाई जा सकती। कोई पिक्चर, कोई फोटो, कोई मूर्ति नहीं हो सकती, वह निराकार है।

ईश्वर के अस्तित्व को लेकर यजुर्वेद में कहा गया है कि- ईश्वर शरीरविहीन और शुद्ध ईश्वर है, इसलिए ईश्वर को किसी भी आंख से देखा नहीं जा सकता, क्योंकि उसे कोई देख ही नहीं सकता।

ऋग्वेद में लिखा है कि- वह परम पुरुष निस्वार्थता का प्रतीक है, वह सारे संसार को नियंत्रण में रखता है, वह हर जगह मौजूद है और सब देवताओं का भी देवता है, एकमात्र वही सुख देने वाला है। जो उसे नहीं समझते वो दुःख में डूबे रहते हैं और जो उसे अनुभव कर लेते हैं, मुक्ति सुख को पाते हैं। उसका कोई संदेशवाहक नहीं है, वह अपना प्रचार भी नहीं करता। इसलिए, सिवाय उसके और किसी की भी पूजा मत करो। क्योंकि, वही सत्य है, पूजनीय है, इसलिए उसकी पूजा एकांत में करो।

ऋग्वेद में यह भी कहा गया है कि- ईश्‍वर किसी एक स्थान पर नहीं रहता। न धरती पर और न आकाश में। वह हर जगह होकर भी अकेला ही है। ईश्वर, समय और स्थान से प्रभावित नहीं होता है। सृष्टि से पहले भी वही ईश्वर था और सृष्टि के बाद भी वही एकमात्र रहेगा। ईश्‍वर हम सभी की आत्मा में है और हम सब की आत्मा ही ईश्वर है।

लेकिन, उसकी महानता है कि वह कभी किसी को महसूस नहीं होता। वह हमसे बहुत दूर भी है और हमारे पास भी है। ईश्वर का न कोई प्रारंभ है और न अंत। वह कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। ईश्वर में कोई परिवर्तन नहीं होता और उसकी न ही कोई गति है। इसलिए उसका किसी भी काल या युग में अंत नहीं होता। ईश्वर वह सनातन है जो शाश्वत है, यानी हमशा बने रहने वाला।

श्रीमद् भगवद् गीता के अनुसार- ईश्‍वर न तो भगवान है, न देवी है, न देवता और न ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश है। ईश्वर का न कोई पिता है और न ही वह किसी का पुत्र है। ईश्वर न पुरुष है और न स्त्री। ना ही ईश्वर का कोई स्वामी और न ही वह स्वयं किसी का स्वामी है।

ईश्‍वर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश भी नहीं। ईश्वर सभी जीवों की आत्मा है, इसलिए उसका सभी जीवों के साथ सीधा संबंध है। सभी उसमें से उत्पन्न होकर उसी में लीन हो जाते हैं। वे जो मुझे जानते हैं कि मैं ही हूं, जो अजन्मा हूं, मैं ही हूं जिसकी कोई शुरुआत नहीं, और सारे जहां का मालिक हूं। वे ही मेरी पूजा करते हैं। लेकिन, जो सांसारिक इच्छाओं के गुलाम हैं, उन्होंने ईश्वर को झूठ का सहारा बनाकर अपने लिए सुविधा के अनुसार ढाल लिया है।

हालांकि, ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा का कोई आकार नहीं है इसलिए उसकी कोई मूर्ति या तस्वीर नहीं बनाई जा सकती, उसको कोई आकार देना संभव ही नहीं है। इसलिए वेदों में मूर्ति पूजा के विषय में स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया है। लेकिन, इसका यह मतलब बिल्कुल भी नहीं कि जो व्यक्ति मूर्ति पूजा करता है उसे नास्तिक माना जाए या उसे किसी प्रकार की सजा दी जाए या उसे भ्रम में जीने वाला व्यक्ति कहा जाए। सनातन धर्म की शिक्षा है कि सभी की भावनाओं का सम्मान किया जाए।

हमारे भीतर की आत्मा ही सब कुछ है। हर प्रकार के भाव, विचार या किसी भी वस्तु और सिद्धांतों से बढ़कर आत्मा होती है। आत्मा को जानने से ही परमात्मा को जाना जा सकता है। यही सनातन धर्म का सत्य भी है। ईश्वर सनातन है, यानी हमेशा बने रहने वाला शाश्वत। लेकिन, आज सनातन को मात्र एक धर्म मान लिया गया है।
जिस सनातन को आज एक धर्म के रूप में माना जाता है, दरअसल वह धर्म नहीं बल्कि उस ईश्वर का अनन्द प्रमाण है जिसमें आत्मा को ही परमात्मा माना जाता है। और

यदि सनातन को धर्म मान भी लिया जाय, तो भी सनातन का शाब्दिक अर्थ होता है शाश्वत या हमेशा बना रहने वाला ईश्वर। यानी सनातन का सीधा सा अर्थ है जिसका न आदि है न अन्त।

– गणपत सिंह, खरगौन (मध्य प्रदेश)

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ईश्वर कौन है कहां है?

*ईश्‍वर न धरती पर है और न आकाश में लेकिन वह सर्वत्र होकर भी अकेला है। *सृष्टि से पहले भी वही था और सृष्टि के बाद भी वही एकमात्र होगा। *ईश्‍वर सभी की आत्मा में है और सभी की आत्मा ही ईश्वर है, लेकिन वह कभी किसी को महसूस नहीं होता। उसके लिए आत्मवान होना जरूरी है।

गीता में ईश्वर को क्या कहा गया है?

बेशक पंदरहवें अध्याय के 17-18 श्लोकों में परमात्मा, उत्तम पुरुष, पुरुषोत्तम तथा ईश्वर शब्दों से ऐसे ही ईश्वर का उल्लेख आया है जो प्रकृति एवं पुरुष के ऊपर - दोनों से निराला और उत्तम - बताया गया है।

ईश्वर का सच्चा नाम क्या है?

सत्य यह है कि एक ही सच्चा ईश्वर है जिसने आकाश और पृथ्वी को बनाया और केवल मनुष्य को अपने स्वरूप में बनाया। जी हां! ईश्वर हम से प्रेम करते हैं और केवल मनुष्य को ही उसने अपने स्वरूप में रचा है। इसलिए हमारा स्वभाव जानवरों, पक्षियों, पेड़ पौधों जैसा नहीं है क्योंकि हम परमेश्वर के स्वरूप में रचे गए हैं।

ईश्वर को कहाँ और कैसे पाया जा सकता है?

उन्होंने कहा कि ईश्वर को प्राप्त करने का सबसे उत्तम और सरल उपाय प्रेम ही है। प्रेम भक्ति का प्राण भी होता है। प्रेम के बिना इंसान चाहे कितना ही जप, तप, दान कर ले, ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता है। दुनिया का कोई भी साधन प्रेम के बिना जीव को ईश्वर का साक्षात नहीं करा सकता है।