हमें अतिथि का स्वागत सत्कार क्यों करना चाहिए? - hamen atithi ka svaagat satkaar kyon karana chaahie?

 अतिथि और अतिथि-सत्कार


रूपरेखा:-

1. प्रस्तावना, 2. अतिथि का अर्थ और लक्षण, 3. अतिथि का महत्व, 4. अतिथि सत्कार, 5. मानस में अतिथि-सत्कार, 6. अतिथि का अनादर, 7. अतिथि का कर्तव्य, 8. आज का अतिथि और 9. उपसंहार।

प्रस्तावना :-

“साई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय।

मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥"

अपनी वस्तु को दूसरों के साथ बाँटकर सुख पाना-यही है भारतीयों की विशेषता। दूसरों का सम्मान करने में भारत की बराबरी करनेवाला और कोई देश नहीं है। दूसरे लोग स्वयं हमारे यहाँ न आवे तो हम उनको आमंत्रित करते हैं, उनका स्वागत करते हैं, उनको खिलाते हैं और खाते हैं - “मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।"

अतिथि का अर्थ और लक्षण:-

तिथि का अर्थ है दिन । अतिथि का अर्थ है जिसका दिन नहीं होता। यानी जो पहले सूचना दिये बिना अचानक आता है वही अतिथि है। “वार है न तिथि है वे अतिथि विचारे हैं।"

अत: अतिथि का लक्षण इस प्रकार है-जो अनपेक्षित (जिसकी चाह न हो) रीति से, यानी जिसके आने का समय निश्चित न हो, जो, गृहस्थों के प्रयत्न के बिना अपनी इच्छा से आता है, जो अपरिचित हो, जो पहले कभी न आया हो, जो दूर से आया हो, जो थका हो वही अतिथि है।

अतिथि का महत्व :-

अतिथि पुज्य होता है, प्रियतम होता है। शिवजी के लिए राम पूज्य अतिथि हैं

“अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के।" - मा. बा. 31/8

रामचंद्रजी वाल्मीकि के यहाँ पहुंचे तो उन्होंने राम को प्राण प्रिय पाया -

"मुनिवर अतिथि प्राण प्रिय पाए।" - मा. बा. 144/3

भारतीय धर्म में “अतिथि" सत्कार की परंपरा बहुत पुरानी है और उसका विशेष महत्व है। “अतिथि देवो भवः" के अनुसार अतिथि को देवता माना गया है। प्रत्येक गृहस्थ "अतिथींश्च लभेमहि" यानी “हम अतिथि को पावें" कहकर हार्दिक प्रार्थना करता है।

सूरदासजी अतिथि के आगमन और उसके दर्शन को कोटि तीर्थ स्नान फल सम मानते हैं -

"जा दिन संत पाहुने आवत।

तीर्थ कोटि स्नान करें फल जैसो दरसन पावत।"

श्रीराम खेलावन वर्मा कहते हैं"

आतिथेय से बड़ा अतिथि ही माना जाता है।

आतिथेय ही सदा अतिथि को माथ नवाता है।"

कहावत भी है कि

“मेहमान जो हमारा होता है वह जान से प्यारा होता है।"

विनोबाजी अतिथि को समाज का प्रतिनिधि मानते हैं। वे कहते हैं कि समाज अव्यक्त है पर अतिथि व्यक्त है। अतिथि समाज की व्यक्त मूर्ति है। हमारी यह भावना होनी चाहिए कि समाज अतिथि के रूप में हमसे सेवा माँगता है।

अतिथि-सत्कार :-

अतिथि का आगमन पूर्व पुण्य से होता है। गृहस्थों का धर्म है कि वे उसे अपने यहाँ ठहरावें और उसे भोजन आदि से संतुष्ट करें। जिसके घर में साधु का यानी अतिथि का स्वागत नहीं होता वह घर मरघट के समान हैपुल “जिहि घर साधु न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं। ते घर मरघट सास्षे, भूत बसें तिन माहिं।।" - कबीर

स्कंद पुराण के अनुसार जिसके घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है, उसे वह अपना पाप देकर और उसका पुण्य लेकर चला जाता है। जो अतिथि का आदर नहीं करता उसके सौ वर्षों के सत्य, तप, दान आदि सभी सत्कर्म नष्ट हो जाते हैं। जिसके घर पर दूर से प्रसन्नता पूर्वक अतिथि आते हैं वही गृहस्थ है। बाकी तो सब गृह के रक्षक मात्र हैं।

मानस में अतिथि सत्कार :-

अतिथि सत्कार हमारे धर्म, हमारी सभ्यता और संस्कृति का अभिन्न अंग है।

तुलसीदासजी ने अपनी रामायण में अतिथि-सत्कार का आदर्श और सुंदर वर्णन किया है। विश्वामित्र ऋषि के आने का समाचार पाते ही दशरथ स्वयं उनका स्वागत करने जाते हैं। अपने आसन पर बिठाते हैं, वरण पूजा करते हैं और अपने आपको धन्य मानते हैं। ऋषि भी अत्याधिक आनंद पाते हैं

"मुनि आगमन सुना जब राजा।

मिलन गयउ लै विप्र समाजा॥

करि दंडवत् मुनिहि सनमानी।

निज आसन बैठारेन्हि आनी॥

चरन पखारिकीन्हि अति पूजा।

मो सम आजु धन्य नहीं दूजा।

बिबिध भाँति भोजन करवायाँ।

मुनिवर हृदय हरष अति पावा॥" - मानस 1/2-07/1-4

उसके बाद अपने प्राणों से प्रिय पुत्र राम और लक्ष्मण को यज्ञ-रक्षा के लिए दे देते हैं। दशरथजी का यह दिव्य तथा अद्वितीय आतिथ्य समस्त विश्व के लिए अद्भुत आदर्श है।।

राजा जनक ने भी विश्वामित्र और राम लक्ष्मण को जनकपुर के सर्वोत्तम अतिथि गृह में स्थान दिया और रंगभूमि में सर्वोच्च मंच पर बिठाया

“सब मंचन्ह तें मंच एक सुंदर विसद बिसाल।

मुनि समें दौउ बंधु तहाँ बैगरेमहिपाल।" - मानस 1/12-44

अतिथि का अनादर-वशिष्ट जी कहते हैं

"सोचिअ बयस कृपन धनवान।

जो न अतिथि शिव भगति सुजानू॥" - मानस 101/5

यानी हमें उस वैश्य की कोच करनी चाहिए जो धनवान होकर भी कंजूस हो, जो अतिथि सत्कार और शिव भक्ति में कुशल न हो।

किन्तु कबीरदास तो स्पष्ट कहते हैं- कि जहाँ अतिथि का आदर नहीं होता वह श्मशान है

“जिहि घर साधु न पूजिये, हरि की सेवा नाहिं।

ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माँहि।।"

अतिथि का कर्तव्य:-

मन के अनुसार अतिथि वह सन्यासी है जो कहीं एक रात से अधिक न ठहरे। अतिथि तो यात्री होता है- (यात्री का अर्थ तो उन्होंने यही बताया है- “एक सत्रं तु निवसम्मतिथि वह्मिणः स्मृतः॥"

एक कहावत है- अतिथि के बारे में – “प्रथम दिन अतिथि, दूसरे दिन भार और तीसरे दिन कंटक है।" पहले दिन मेहमान, दूसरे दिन इनसान और तीसरे दिन हैवान । जहाँ सम्मान नहीं होता वहाँ अतिथि को ठहरना ही नहीं चाहिए

" रहिमन तब लगि ठहरिए, दान मान सम्मान।

घटत मान देखिए जबहिं, तुरतहिं करिय पयान।" -

रहीम तुलसीदासजी, यहाँ पर कहते हैं, जहाँ हमारे पहुँचते ही लोग खुश न हों, वहाँ जाना ही नहीं चाहिए

“आवत ही हरषे नहीं, नयनन नहीं सनेह।

तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह॥"

आज का अतिथि:-

आज का अतिथि किसी के यहाँ जाता है तो पहले ही सूचना दे देता है, आने की तारीख भी तय कर देता है। क्यों कि वह नहीं चाहता कि उसके पहुंचने पर ऐसा न हो कि उसका सत्कार न हो। आज के युग में अतिथि भी कई तरह के हो गये हैं जैसे सामजिक, धार्मिक और राजनैतिक। आजकल लोग अपनी हैसियत से अधिक कर्ज लेकर अतिथि का सत्कार करते हैं सिर्फ दिखावा करने के लिए।

उपसंहार:-

जब कभी कोई किसी के यहाँ अतिथि बन कर जाय तब उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उससे उसके रिश्तेदार के लिए परेशानी न हो। उसे अपने घर की तरह रहना चाहिए, बोझ बनकर नहीं।

अतिथि सत्कार क्यों आवश्यक है?

घर आए किसी भी मेहमान या आगुंतक का स्वागत सत्कार करना, अन्न या जल ग्रहण काराने से आपके सामाजिक संस्कार का निर्वहन होता है जिसके चलते मान सम्मान और प्रतिष्ठा बढ़ती है। 10. अतिथियों की सेवा से देवी और देवता प्रसन्न होकर जातक को आशीर्वाद देते हैं।

अतिथि सत्कार से क्या फल मिलता है?

यानि घर आए अतिथि, याचक तथा पशु-पक्षियों का उचित सेवा-सत्कार करने से जहां अतिथि यज्ञ संपन्न होता हैं वहीं जीव ऋण भी उतर जाता है। तिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट होता है।

अतिथि का सत्कार कैसे करना चाहिए?

आदर से उन्हें बैठने के लिए कहेंगे। फिर सादरपूर्वक उनका हाल-चाल पूछकर जलपान करवाएँगे। यह भी मेहमान के आने पर निर्भर करता है कि वह किस समय आता है। यदि सुबह का समय होगा तो चाय-नाश्ता करवाएँगे, दोपहर के समय उसे प्रीतिभोज व रात्रि मैं मेहमान आए तो रात्रिभोज करवाना हमारा कर्तव्य बनता है।

अतिथि सत्कार से आप क्या समझते हैं?

आतिथ्य एक ऐसा गुण या गुण है जिसमें दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करना, दयालुता है । यह शब्द, जिसका मूल लैटिन हॉस्पिटैलिटी में पाया जाता है, हर किसी की सहायता और ध्यान देने के लिए सोचता है, जिसे कुछ चाहिए।

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