Gandhi Jayanti 2021 Special: कल भारत समेत पूरी दुनिया में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती धूमधाम से मनाई जाएगी. बापू का यह 152वां जन्म दिवस होगा. हर साल 2 अक्टूबर को महात्मा गांधी के जन्म दिवस के मौके पर गांधी जयंती मनाई जाती है. गांधी जी ने अहिंसा अपना कर अंग्रेजों के खिलाफ भारत की आजादी का ऐसा बिगुल फूंका जिसने भारत को आजादी दिलाकर रही. गांधी जी अंहिसा के रास्ते पर चलने की सबको सलाह देते थे. इसलिए गांधी जी के जनमदिवस के मौके पर अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस मनाया जाता है. आज हम आपको गांधी जी के भारत में किए गए उन पांच आदोलन के बारे में बताएंगे जिसने भारत को अंग्रेजी हुकूमत से आजादी दिलाई. गांधी जी के पांच प्रमुख आंदोलन चंपारण सत्याग्रह – बिहार के चंपारण में गांधी के नेतृत्व में हुआ यह पहला सत्याग्रह था. गांधी जी ने खाद्यान के बजाय नील और अन्य नकदी फसलों की खेती के लिए बाध्य किए जाने वाले किसानों के समर्थन में यह सत्याग्रह 1917 में किया था. असहयोग आंदोलन – महात्मा गांधी ने 1920 में भारतीय नेशनल कांग्रेस के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चलाया. इस आंदोलन ने भारत में स्वतंत्रता के संग्राम की एक नई ऊर्जा भरने का काम किया. ताज़ा वीडियो नमक छोड़ो आंदोलन- नमक छोड़ो आंदोलन को गांधी जी का प्रमुख आंदोलन माना जाता है. यह आंदोलन 13 मार्च.1930 से अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से शुरू हुआ था. इस आंदोलन में गांधी जी ने अपने अनुनाइयों के साथ 24 दिन की पैदल यात्रा कर दांडी गाव पहुंचे थे. यह आंदोलन ब्रिटिश राज के एक अधिकार के खिलाफ निकाला गया था. इस आंदोलन को दांडी यात्रा के नाम से भी जाना जाता है. दलित आंदोलन – महात्मा गांधी ने यह आंदोलन छुआछूत के विरोध में 8 मई 1933 में शुरुआत की थी. गांधी जी ने अखिल भारतीय छुआछूत विरोधी लीग की स्थापना 1932 में की थी. भारत छोड़ो आंदोलन – अगस्त 1942 में भारत में गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरूआत की थी. यह गांधी जी का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण आंदोलन था. इस आंदोलन के जरिए उन्होंने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया. इस आंदोलन के दौरान करो या मरो आरंभ करने का निर्णय भी गांधी जी ने लिया था.
Published in JournalYear: Nov, 2018 Article Details
महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा सत्य के साथ मेरे प्रयोग में चम्पारन के आंदोलन के बारे में तीन अध्यायों में जिक्र किया है. इस पुस्तक के 12वें अध्याय नील का दाग में उन्होंने बिहार के चम्पारन में अंग्रेजों के कानून के कारण किसानों के आंदोलन के बारे में विस्तार से बताया है. गांधी जी के शब्दों में पढे़ं- चम्पारन जनक राजा की भूमि है. जिस तरह चम्पारन में आम के वन हैं, उसी तरह सन् 1917 में वहां नील के खेत थे. चम्पारन के किसान अपनी ही जमीन के 3/20 भाग में नील की खेती उसके असल मालिकों के लिए करने को कानून से बंधे हुए थे. इसे वहां 'तीन कठिया' कहा जाता था. बीस कट्ठे का वहां एक एकड़ था और उसमें से तीन कट्ठे जमीन में नील बोने की प्रथा को 'तीन कठिया' कहते थे. मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि वहां जाने से पहले मैं चम्पारन का नाम तक नहीं जानता था. नील की खेती होती है, इसका ख्याल भी नहीं के बराबर था. नील की गोटियां मैंने देखी थी, पर वे चम्पारन में बनती हैं और उनके कारण हजारों किसानों को कष्ट भोगना पड़ता है, इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं थी. राजकुमार शुक्ल नामक चम्पारन के एक किसान थे. उन पर दुख पड़ा था, यह दुख उन्हें अखरता था. लेकिन अपने इस दुख के कारण उनमे नील के इस दाग को सबके लिए धो डालने की तीव्र लगन पैदा हो गई थी. जब मैं लखनऊ कांग्रेस में गया, तो वहां इस किसान ने मेरा पीछा पकड़ा. 'वकील बाबू आपको सब हाल बताएंगे'. ये वाक्य वे कहते जाते थे और मुझे चम्पारन आने का निमंत्रण देते जाते थे. वकील बाबू से मतलब था, चम्पारन के मेरे प्रिय साथी, बिहार के सेवा जीवन के प्राण ब्रजकिशोर बाबू से, राजकुमार शुक्ल उन्हें मेरे तम्बू में लाए. उन्होंने काले आलपाका की अचकन, पतलून वगैरा पहन रखा था. मेरे मन पर उनकी कोई अच्छी छाप नहीं पड़ी. मैंने मान लिया कि वे भोले किसानों को लूटने वाले कोई वकील साहब होंगे. मैंने उनसे चम्पारन की थोड़ी कथा सुनी. अपने रिवाज के अनुसार मैंने जवाब दिया, 'खुद देखे बिना इस विषय पर मैं कोई राय नही दे सकता. आप कांग्रेस मे बोलिएगा. मुझे तो फिलहाल छोड़ ही दीजिए.' राजकुमार शुक्ल को कांग्रेस की मदद की तो जरूरत थी ही ब्रजकिशोर बाबू कांग्रेस में चम्पारन के बारे में बोले और सहानुभूति सूचक प्रस्ताव पास हुआ. राजकुमार शुक्ल प्रसन्न हुए पर इतने से ही उन्हें संतोष न हुआ. वे तो खुद मुझे चम्पारन के किसानों के दुख बताना चाहते थे. मैंने कहा, 'अपने भ्रमण में मैं चम्पारन को भी सम्मिलित कर लूंगा और एक-दो दिन वहां ठहरूंगा'. उन्होंने कहा, 'एक दिन काफी होगा, नजरों से देखिए तो सही' लखनऊ से मैं कानपुर गया था. वहां भी राजकुमार शुक्ल हाजिर ही थे. 'यहाँ से चम्पारन बहुत नजदीक है, एक दिन दे दीजिए. 'अभी मुझे माफ कीजिये पर मैं चम्पारन आने का वचन देता हूं' यह कहकर मैं ज्यादा बंध गया. मैं आश्रम गया तो राजकुमार शुक्ल वहां भी मेरे पीछे लगे ही रहे. अब तो दिन मुकर्रर कीजिए' मैंने कहा, 'मुझे फलां तारीख को कलकत्ते जाना है. वहां आइए और मुझे ले जाइए. देखें- आजतक LIVE TV इस तरह गांधीजी पटना के लिए निकल पड़े थे. बता दें कि पूरे देश में बंगाल के अलावा यहीं पर नील की खेती होती थी. इसके किसानों को इस बेवजह की मेहनत के बदले में कुछ भी नहीं मिलता था. उस पर उन पर 42 तरह के अजीब-से कर डाले गए थे. राजकुमार शुक्ल इलाके के एक समृद्ध किसान थे. उन्होंने शोषण की इस व्यवस्था का पुरजोर विरोध किया, जिसके एवज में उन्हें कई बार अंग्रेजों के कोड़े और प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा. जब उनके काफी प्रयास करने के बाद भी कुछ न हुआ तो उन्होंने बाल गंगाधर तिलक को बुलाने के लिए कांग्रेस के लखनऊ कांग्रेस में जाने का फैसला लिया. लेकिन वहां जाने पर उन्हें गांधी जी को जोड़ने का सुझाव मिला और वे उनके पीछे लग गए. अंतत: गांधी जी माने और 10 अप्रैल को दोनों जन कलकत्ता से पटना पहुंचे. वे लिखते हैं, ‘रास्ते में ही मुझे समझ में आ गया था कि ये जनाब बड़े सरल इंसान हैं और आगे का रास्ता मुझे अपने तरीके से तय करना होगा.’ पटना के बाद अगले दिन वे दोनों मुजफ्फरपुर पहुंचे. वहां पर अगले सुबह उनका स्वागत मुजफ्फरपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और बाद में कांग्रेस के अध्यक्ष बने जेबी कृपलानी और उनके छात्रों ने किया. शुक्ल जी ने यहां गांधी जी को छोड़कर चंपारण का रुख किया, ताकि उनके वहां जाने से पहले सारी तैयारियां पूरी की जा सकें. मुजफ्फरपुर में ही गांधी से राजेंद्र प्रसाद की पहली मुलाकात हुई. यहीं पर उन्होंने राज्य के कई बड़े वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग से आगे की रणनीति तय की. इसके बाद कमिश्नर की अनुमति न मिलने पर भी महात्मा गांधी ने 15 अप्रैल को चंपारण की धरती पर अपना पहला कदम रखा.यहां उन्हें राजकुमार शुक्ल जैसे कई किसानों का भरपूर सहयोग मिला. पीड़ित किसानों के बयानों को कलमबद्ध किया गया. बिना कांग्रेस का प्रत्यक्ष साथ लिए हुए यह लड़ाई अहिंसक तरीके से लड़ी गई. इसकी वहां के अखबारों में भरपूर चर्चा हुई जिससे आंदोलन को जनता का खूब साथ मिला. इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी सरकार को झुकना पड़ा. इस तरह यहां पिछले 135 सालों से चली आ रही नील की खेती धीरे-धीरे बंद हो गई. साथ ही नीलहे किसानों का शोषण भी हमेशा के लिए खत्म हो गया. |