चोल राजाओं के समय कृषि एवं सिंचाई की क्या व्यवस्थाएं थी? - chol raajaon ke samay krshi evan sinchaee kee kya vyavasthaen thee?

चोल वंश का इतिहास: कहते हैं कि भारत कभी सोने की चिड़िया था। यानी धन संपदा के मामले में भारत एक संपन्न देश था। लेकिन जिस तरह दुनिया के दूसरे प्राचीन राज तंत्रों की समृद्धि की बातें विश्व पटल पर बताई जाती हैं वैसी चर्चा भारतीय प्राचीन राजवंशों के बारे में नहीं सुनाई देती। कुछ ज़िक्र उत्तर भारत के शासकों का ज़रूर आता है। लेकिन अगर भारतीय इतिहास के पन्नों पर पड़ी धूल झाड़कर देखें तो एक दक्षिण भारतीय राजवंश की संपन्नता भारत को सोने की चिड़िया कहे जाने के मिथक को बाकायदा इतिहास बना सकती है। इस प्राचीन दक्षिण भारतीय राजवंश को हम चोल साम्राज्य(Chola Empire) के नाम से जानते हैं।
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पुरातत्त्व और इतिहास की दुनिया में चोल राजवंश को सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया में सबसे लम्बे दौर तक चले राजवंशों में से एक माना जाता है। यह एक ऐसा राजवंश था जिसके दो हजार साल लंबे दौर को चार चरणों में जानना पड़ता है।

शुरुआती चोल शासक मुख्य रूप से दक्षिण भारत के एक क्षेत्र में राज करते थे जिसे आज हम तमिलनाडु कहते हैं। पुख्ता इतिहास में चोल शासकों की सबसे पहली जानकारी 300 ईसा पूर्व से मिलनी शुरू होती है। दक्षिण भारत का प्राचीनतम साहित्य माने जाने वाले संगम साहित्य में भी चोल राजाओं का जिक्र है। यहां तक कि सम्राट अशोक के शिलालेख संख्या 13 में भी चोल राज्य से उनके संबंधों का उल्लेख है। यह समय चोल शासकों का पहला दौर था। इस पहले दौर में 300 ईसा पूर्व से 200 ईसवीं तक चोल राजाओं के नाम और दूसरे साक्ष्य मिलते हैं। मसलन इस कालखंड में राजा करिकाल, पेरुनारकिल्ली, नेदुनकिल्ली और नलनकिल्ली जैसे 15 से ज्यादा चोल राजाओं के नाम अभिलिखित कांस्य पट्टिकाओं और तमिल साहित्यिक रचनाओं में मौजूद हैं।

इतिहासकारों ने चोल राजवंश का दूसरा दौर 200 ईसवीं से 800 ईसवीं तक निर्धारित किया है। हालांकि इस दौर के किसी चोल शासक की कोई प्रामाणिक जानकारी अभी निकलकर नहीं आ पाई है। इसलिए कुछ इतिहासकार फिलहाल इसे चोल राजवंश का अज्ञात काल कहते हैं। प्रामाणिक इतिहास के लिहाज से ये वह दौर था जब दक्षिण में पल्लव और पांड्या राजवंशों का प्रभुत्त्व बढ़ गया था।


चोल राजवंश का तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण दौर रहा 848 ईसवीं से 1070 ईसवीं तक। इसी दौर में चोल साम्राज्य ने अकल्पनीय विस्तार किया। यह कालखंड पूरे भारतीय इतिहास का निर्णायक मोड़ है।

चोल साम्राज्य के इस तीसरे चरण यानी आज से एक हजार साल पहले भारत का यह गौरवशाली काल चोल राजवंश के दो सबसे पराक्रमी राजाओं का था। इनमें पहले राजा थे राजराज चोल और दूसरे हुए उनके बेटे और उत्तराधिकारी राजेंद्र चोल प्रथम। उसके बाद चोल साम्राज्य का चौथा और आखिरी दौर ग्यारहवीं से तेरहवीं सदी के बीच रहा।

बहरहाल चोल साम्राज्य का सबसे वैभवपूर्ण और स्वर्णिम काल उनके शासन का तीसरा दौर ही माना जाता है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि तीसरे दौर यानी मध्यकालीन चोल शासन की स्थापना 848 ईसवीं में विजयालय नाम के एक चोल राजा ने की। विजयालय ने ही दोबारा दक्षिण में चोल राजवंश की पकड़ बनानी शुरू की। उनके बाद के चोल राजाओं ने पांड्या, पल्लव, राष्ट्रकूट और चेर शासकों से कई युद्ध लड़े और एक बड़ा दक्षिण भारतीय क्षेत्र चोल शासन के अधीन कर लिया। इसी दौर में तंजौर उनकी राजधानी बनी। उसके बाद 985 ईसवीं में राजा बने राजराज चोल। राजराज बेहद पराक्रमी राजा थे। उन्होंने पल्लव, पांड्या, चालुक्य और चेर राजाओं के कई और क्षेत्र जीतकर अपने साम्राज्य में जोड़े।

दक्षिण भारत में अपार सफलताओं के बाद भी राजराज चोल अपने साम्राज्य का विस्तार और बढ़ाना चाहते थे। उनकी इसी नीति के कारण भारतीय इतिहास में एक नया अध्याय शुरू हुआ। इतिहास के कालक्रम में पहली बार किसी भारतीय शासक ने दूसरे देशों की तरफ कूच किया। मसलन, राजराज ने श्रीलंका यानी तब के सीलोन पर हमला कर दिया। भारत के बाहर चोल साम्राज्य के विस्तार की यह शुरुआत थी।

राजराज के बाद सन 1014 में उनके बेटे राजेंद्र चोल राजा बने। उन्होंने अपने पिता के साम्राज्य विस्तार के अभियान को आगे बढ़ाया। दक्षिण भारत में अपने विस्तार के बाद राजेंद्र चोल ने उत्तर की तरफ चढ़ाई की। उड़ीसा और बंगाल के कई क्षेत्र जीत लिए। बंगाल में तब पाल राजवंश का शासन था। इस युद्ध के लिए चोल सेना ने गंगा नदी को पार कर हमला किया और विजयी रहे। इसी के बाद राजेंद्र चोल ने दक्षिण में कृष्णा नदी के किनारे एक नई राजधानी बसाई जिसका नाम रखा गया ‘गंगईकोंडाचोलपुरम’ जिसका अर्थ था ‘गंगा को जीत लेने वाले चोल का नगर’। यहां तक कि बंगाल की खाड़ी जो दुनिया की सबसे बड़ी खाड़ी है इसका प्राचीन नाम चोल झील ही था। यह नाम कई सदियों तक चोलों की महानता को बयां करता रहा। बाद में इसका नाम कलिंग सागर किया गया और फिर अंग्रेजों ने इसका नाम बदलकर बंगाल की खाड़ी रख दिया।


अक्सर यह सवाल उठता है कि दूसरे देशों में जाकर चोल राजाओं के युद्ध लड़ने और जीतने के पीछे राज़ क्या था। कहते हैं इसका सबसे बड़ा कारण था उनकी पराक्रमी और अपने समय की अत्याधुनिक चोल नौसेना। वैसे विश्व इतिहास में दुनिया की कई नौसेनाएं अपने समुद्री अभियानों और युद्ध कौशल के लिए मशहूर रही हैं, चाहे वो चीनी और ग्रीक नौसेनाएं हों या फिर अंग्रेज़ों की रॉयल नेवी या इम्पीरियल जेपेनीज नेवी, अपनी कामयाबियों के कारण इन सभी नौसेनाओं की दुनियाभर में शोहरत रही है। लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि प्राचीन भारतीय इतिहास में उस समय चोल साम्राज्य की नौसेना का लोहा पूरे विश्व ने माना था। यह हैरत की बात है कि दसवीं सदी यानी आज से बारह सौ साल पहले चोल शासकों ने इतने उन्नत जंगी जहाज कैसे बनाए। इतिहास में यह भी दर्ज है कि चोल नौसेना उस समय एशिया महाद्वीप की सबसे बड़ी नौसेना थी।

बहरहाल, राजेंद्र चोल ने दक्षिण एशिया के एक दो नहीं बल्कि कई देशों पर हमला किया और सफलता पाई। एक समय ऐसा आया जब मालदीव्स, श्रीलंका, मलेशिया, थाईलैंड, वियतनाम, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, फिलीपीन्स, सिंगापुर जैसे कई दक्षिण ऐशियाई देशों में चोल सेना ने अपना दबदबा कायम कर लिया। इनमें से ज्यादातर देशों के व्यापार और धन सम्पदा पर चोलों ने अपना आधिपत्य स्थापित किया और अपनी ताकत के बल पर उनसे अपनी अधीनता स्वीकार कराई।

इतिहास में झांककर यह भी गौर से देखने की बात है कि चीन के साथ व्यापार सम्बन्ध बढ़ाने के लिए राजेंद्र चोल ने कई राजनयिक वहां भेजे और वहां अपने दूतावास बनाए। इसी दौर में दक्षिण एशिया के ज्यादातर बंदरगाहों और समुद्री व्यापार मार्गों पर चोलों का वर्चस्व हो चुका था। इस बहुआयामी बल ने चोलों को मालदीव से फिलीपींस और उत्तर भारत तक फैले अपने विशाल साम्राज्य में सैन्य, राजनीतिक और सांस्कृतिक आधिपत्य बनाए रखने के लिए सक्षम बनाया। कहा जाता है कि अपनी विलक्षण नौसेना और व्यापार कौशल के बल पर ही चोल शासक रोम से चीन तक अपना व्यापार फैला पाए और उन्होने अकूत धनसंपदा हासिल की।

इसे भी चोल नौसैनिक प्रभाव ही कहा जाएगा कि दक्षिण पूर्व एशिया के कई देशों की भाषा, कला, धर्म और वास्तुकला में भारतीय संस्कृति का खासा असर आज भी दिखता है। इंडोनेशिया का बाली हिन्दू धर्म और वियतनाम की चाम संस्कृति को दक्षिण एशियाई देशों में चोल आधिपत्य की एक स्थायी विरासत माना जा सकता है।

बहरहाल इसी चौतरफ़ा प्रभुत्व से चोल साम्राज्य में अपार धन सम्पदा बढ़ी। और इसी संपन्नता के बूते चोल शासकों ने अपनी प्रजा की सुख समृद्धि के लिए ऐतिहासिक काम किए। चोल साम्राज्य में कृषि एक मुख्य व्यवसाय था। कृषि को बेहतर बनाने के लिए चोल राजाओं ने सिंचाई व्यवस्था पर बहुत ध्यान दिया। सिंचाई के लिए उन्होने बांध और तालाब बनवाए। आधुनिक समाजशास्त्रियों के लिए यह गौर करने की बात है कि आर्थिक संपन्नता के कारण किसानों को तबकी सामाजिक व्यवस्था में ऊंचा दर्जा हासिल था। और इसलिए प्रशासनिक कार्यों में किसानों की खास भागीदारी थी।


कृषि के अलावा दूसरे व्यवसायों की बात करें तो चोल साम्राज्य अपने रेशम उत्पादों और अदभुत बुनाई के काम के लिए दुनियाभर में मशहूर था। रेशम, कपास और धातु के उत्पाद खासकर सोने चांदी की चीजों का दूर दूर के देशों तक व्यापार होता था। चोल साम्राज्य के उसी इलाके में आज भी कांजीवरम सिल्क की साड़ियां और रेशम के दूसरे उत्पाद बनते हैं और देश दुनिया में आज भी उसी तरह मशहूर हैं।

इसे चोल सम्राज्य की संपन्नता और उनके शासकों की सजगता ही कहा जाएगा कि चोल शासकों ने अपनी प्रजा की शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए बेमिसाल काम किए। कुछ अभिलेखों से पता चलता है कि उस जमाने में अपनी प्रजा के लिए भी उन राजाओं ने अस्पताल बनवाए। राजा वीरराजेंद्र चोल के एक अभिलेख से पता चलता है की ‘वीरसोलन’ नाम से एक बड़ा अस्पताल चोल साम्राज्य में बनवाया गया था।
कई विश्वसनीय अध्ययनों से सिद्ध हो चुका है कि चोल शासक कुशल प्रशासक और युद्ध रणनीतिकार थे। अपने चरमोत्कर्ष पर उनका साम्राज्य विशाल आकार ले चुका था। आकार में बेहद बड़े हो चुके साम्राज्य को संभालने के लिए चोल राजाओं ने विकेंद्रीकरण प्रबंधन नीति अपनाई। पूरे राज्य को छोटी इकाइयों में बांटा और हर इकाई को प्रशासनिक निर्णय लेने की स्वायत्तता दी।

आज के लिहाज से बड़े काम की बात देखना चाहें तो चोल राजव्यवस्था की इसी विकेंद्रीकरण नीति को कुछ विस्तार से समझा जा सकता है। मसलन, अपने साम्राज्य को चकित कर देने वाली हद तक विस्तारित करने वाले चोल शासकों ने सत्ता के विकेंद्रीकरण की अहमियत बखूबी समझ ली थी। उन्होंने अपने राज्य को पहले कुछ हिस्सों में बांटा, जिन्हें ‘मंडलम’ कहा जाता था। हर मंडलम को कुछ नाडू, कोट्टम और कुर्रम में बांटा जाता था। हर आखिरी इकाई में शासकीय और प्रशासकीय निर्णय लेने के लिए समितियां होती थीं। ये समितियां इन स्थानीय निकायों को अधिकार संपन्न बनाती थीं। इससे निर्णय प्रक्रिया को रफ़्तार मिलती थी।

बहरहाल, चोल शासनकाल युद्ध कौशल से लेकर व्यापार, लोक कल्याण और प्रशासन जैसे हर क्षेत्र में बेमिसाल नज़र आता है। भारत का यह ऐसा संपन्न और समृद्ध साम्राज्य रहा है जिसके आधार पर भारत को सोने की चिड़िया कहे जाने का मिथक एक पुख्ता इतिहास बनकर सामने आ सकता है।

आवाज़ : रोहित उपाध्याय

चोल की प्रशासनिक व्यवस्था क्या थी?

चोल प्रशासन- चोल प्रशासन व्यवस्था एक जटिल नौकरशाही पर आधारित थी। राजा प्रशासन का प्रमुख था। चोल राजाओं के अनेक अभिलेख उस समय की प्रशासन-व्यवस्था पर भी प्रकाश डालते हैं। चोल साम्राज्य के विस्तार के साथ राजा की शक्ति और सम्मान में भी वृद्धि हो गई थी

चोल साम्राज्य की प्रमुख विशेषता क्या थी?

स्थानीय स्वशासन - चोल प्रशासन की प्रमुख विशेषता उसका स्थानीय स्वशासन था। ग्राम स्वशासन की पूर्ण इकाई थे और ग्राम का प्रशासन ग्रामवासी स्वयं करते थे। चोल शासकों से इस अभिलेखों से इस व्यवस्था पर विस्तृत प्रकाश पड़ता है। व्यवस्था - आर्थिक दंड सामाजिक अपमान पर आधारित होते थे।

चोल शासकों की प्रमुख उपलब्धियों क्या थी?

चोल शासक प्रसिद्ध भवननिर्माता थे। सिंचाई की व्यवस्था, राजमार्गों के निर्माण आदि के अतिरिक्त उन्होंने नगरों एवं विशाल मंदिर तंजौर में बनवाया। यह प्राचीन भारतीय मंदिरों में सबसे अधिक ऊँचा एवं बड़ा है। तंजौर के मंदिर की दीवारों पर अंकित चित्र उल्लेखनीय एवं बड़े महत्वपूर्ण हैं।

चोल साम्राज्य में किसानों की बस्तियां क्या कहलाती थीं?

Detailed Solution. उर गाँव की महासभा थी। उर में विशेष रूप से गांव के सभी कर देने वाले निवासी शामिल होते हैं। उर सभी वयस्क पुरुषों के लिए खुला था लेकिन पुराने सदस्यों का वर्चस्व था।