भृगुसुत’ एवं ‘रघुकुल भानु’ कहा गया है- - bhrgusut’ evan ‘raghukul bhaanu’ kaha gaya hai-

Chapter 2 राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Class 10 Hindi Kshitij NCERT Summary will make sure that a student has understood the specifics of every chapter in clear and precise manner. It will help students identify key points that they need to remember for exams. These notes are a valuable resource for any student who wants to succeed in exams. The students can excel in their classes and feel confident in their knowledge.

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शिवधनुष टूटने के साथ सीता स्वयंवर की खबर मिलने पर परशुराम जनकपुरी में स्वयंवर स्थान पर आ जाते हैं। हाथ में फरसा लिए क्रोधित हो धनुष तोड़ने वाले को सामने आने, सहस्रबाहु की तरह दंडित होने और न आने पर वहाँ उपस्थित सभी राजाओं को मारे जाने की धमकी देते हैं।

श्रीराम विनम्र वचन कहकर परशुराम को शान्त करने का प्रयास करते हैं। वे स्वयं को उनका दास बताते हैं, परन्तु परशुराम का क्रोध बढ़ता ही जाता है। लक्ष्मण परशुराम को यह कहकर और क्रोधित कर देते हैं कि बचपन में शिवधनुष जैसे छोटे कितने ही धनुषों को उन्होंने तोड़ा, तब वे मना करने क्यों नहीं आए और अब जब पुराना और कमज़ोर धनुष श्रीराम के हाथों में आते ही टूट गया तो क्यों क्रोधित हो रहे हैं।

लक्ष्मण उत्तर देते हुए कहते हैं कि हमारी दृष्टि में सभी धनुष एक समान हैं। श्रीराम ने इस धनुष को थोड़ा देखा ही था कि यह अपने आप टूट गया। अतः आप क्रोध न करें। तब परशुराम ने अपना फरसा दिखाते हुए धरती को क्षत्रियों से रहित करने की अपनी बात को याद को दिलाते हैं।

लक्ष्मण ने व्यंग्य करते हुए कहा कि आप तो फूंक मार पहाड़ को उड़ाने वाले महावीर हैं। मैं कोई ऐसा बालक नहीं हूँ जो तर्जनी देखकर डर जाऊँ। ब्राह्मण, हरिजन और गाय पर हम हथियार नहीं उठाते हैं। इसीलिए मैं आपके कठोर वचनों की ओर ध्यान नहीं दे रहा हूँ। ऋषि विश्वामित्र परशुराम के क्रोध को शांत करने के लिए लक्ष्मण को बालक समझकर माफ़ करने का आग्रह करते हैं। वे समझाते हैं कि राम और लक्ष्मण की शक्ति का परशुराम को अंदाज़ा नहीं है।

अंत में लक्ष्मण के द्वारा कही गई गुरुऋण उतारने की बात सुनकर वे अत्यंत क्रुद्ध होकर फरसा सँभाल लेते हैं। तब सारी सभा में हाहाकार मच जाता है और तब श्रीराम अपनी मधुर वाणी से परशुराम की क्रोध रूपी अग्नि को शांत करने का प्रयास करते हैं।

राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद का भावार्थ Class 10 Hindi Kshitij

नाथ संभुधनु भंजनिहारा, होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई।।
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने॥
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥
रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार।।

शब्दार्थ: संभुधनु – शिवजी का धनुष, भंजनिहारा – तोड़ने वाला, होइहि – होगा, केउ – कोई, आयेसु – आज्ञा, किन – क्यों नहीं, रिसाइ – क्रोध करके, कोही – क्रोधी, सेवकाई – सेवा, अरिकरनी – शत्रुता का कर्म, लराई – लड़ाई। तोरा – तोड़ा, बिलगाउ – अलग करके, जैहहिं – उसके कारण, परसुधरहि – रस की धार के समान व्यंग्य वचनों से, अवमाने – अपमान करके, लरिकाईं – बचपन में, भृगुकुलकेतू – भृगुवंश के महान् पुरुष अर्थात् परशुराम, कालबस – मृत्यु के वश में, धनुही – छोटा धनुष, त्रिपुरारिधनु – शिवजी का धनुष, बिदित – परिचित, सकल – सारा|

राम परशुराम से कहते हैं – हे नाथ! शिव के धनुष को तोड़ने वाला कोई आपका सेवक ही होगा । क्या आज्ञा है, मुझसे आप क्यों नहीं कहते? इसे सुनकर क्रोधित मुनि परशुराम नाराज होकर बोले – सेवक वही है, जो सेवा करे, शत्रुता का कर्म करके जो युद्ध करे, वह सेवक नहीं है। हे राम ! सुनो, जिसने शिव धनुष तोड़ा है, वह सहस्रबाहु की तरह मेरा शत्रु है, इसलिए वह उपस्थित राजाओं के समूह से स्वयं अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मेरे हाथों मारे जायेंगे। परशुराम के इन क्रोधपूर्ण वचनों को सुनकर लक्ष्मण मुसकराने लगे। अब लक्ष्मण ने व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘हे गोसाईं! बचपन में खेल-खेल में न जाने कितनी धनुहियाँ तोड़ डालीं, तब तो आपको गुस्सा नहीं आया, पर अब ऐसी कौन-सी खास बात हो गई जिसके कारण आप इतने क्रोधित हो रहे हैं? आखिर इस धनुष की क्या विशेषता है जिसके कारण आपको इससे इतना प्रेम और लगाव है? उसे सुनकर भृगुवंश की ध्वजा परशुराम क्रोध करके बोले
हे राजपुत्र ! कालवश होने के कारण बोलने में तुझे समझ नहीं है कि तू क्या कह रहा है? यह संसार भर को ज्ञात है कि यह शिव-धनुष क्या सामान्य छोटे धनुष के समान है?

काव्य सौंदर्य-

  • इसमें अवधी भाषा का और चौपाई छंद का प्रयोग हुआ है।
  • इस चौपाई में शुरू में शांत रस और बाद में रौद्र रस का प्रयोग हुआ है।
  • काह कहिअ किन, सेवकु सो, करि करिअ, सहसबाहु सम सो, बिलगाउ बिहाइ में अनुप्रास अलंकार की छटा दिखाई देती है।
  • ‘सहसबाहु सम सो रिपु मोरा’ और ‘धनुही सम त्रिपुरारिधनु’ में उपमा अलंकार है।

लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।।
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोह।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही।।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।
सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।

शब्दार्थ: हसि – हँसकर, छति – नुकसान, लाभु – लाभ, फायदा, जून – पुराना, भोरें – धोखे से, छुअत – छूते ही, दोसू – दोष, रोसू – रोष, क्रोध, कोही – क्रोधी, द्रोही – द्रोह करने वाला, बिपुल – अनेक, महिदेवन्ह – ब्राह्मणों को, बिलोकु – देखकर, दलन – नाश करना, परसु – फरसा, काज – कारण, हेतु, बधौं – वध करना, मार डालना, बिस्वबिदित – समस्त विश्व को विदित (ज्ञात) है, कीन्ही – किया, दीन्ही – दिया, छेदनिहारा – काटने वाला, गर्भन्ह के – गर्भ के, गर्भस्थ, अर्भक – शिशु, घोर – भयानक।

लक्ष्मण हँसकर परशुराम से बोले हे देव! मेरी समझ से सारे धनुष एक समान हैं। पुराने धनुष को तोड़ने से क्या लाभ-हानि? श्रीराम ने इसे नए के धोखे में देखा था। लेकिन यह तो छूते ही टूट गया, इसमें श्रीराम का क्या दोष है? इसलिए हे मुनि! आप बिना कारण ही क्रोध क्यों कर रहे हैं? तब परशुराम अपने फरसे की ओर देखते हुए बोले ‘हे दुष्ट ! तुमने मेरे स्वभाव के बारे में नहीं सुना है। मैं तो भला तुझे बालक समझकर नहीं मार रहा और तू मुझे निरा सीधा-सादा मुनि समझ रहा है। तो सुन ले – मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ और अत्यंत क्रोधी हूँ। सारा संसार जानता है कि मैं क्षत्रियों का घोर शत्रु हूँ। मैंने इस पृथ्वी को क्षत्रिय-शून्य कर दिया, फिर इस क्षत्रिय-रहित पृथ्वी को ब्राह्मणों को दे दिया’ कहने का तात्पर्य यह है कि परशुराम ने अपनी शक्ति से असंख्य क्षत्रियों का नाश करके पृथ्वी पर ब्राह्मणों का आधिपत्य स्थापित कर दिया। आगे परशुराम लक्ष्मण को संबोधित करते हुए कहते हैं कि “हे राजकुमार ! सहस्रबाहु
की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देखो। तुम अपने माता-पिता के लिए मरकर सोचने का कारण मत बनो । मेरा यह भयानक फरसा गर्भ में ही शिशु को मारने में समर्थ है।”

काव्य सौंदर्य-

  • इसमें अवधी भाषा का और चौपाई छंद का प्रयोग हुआ है।
  • इसमें मुख्य रूप से रौद्र रस की प्रधानता है।
  • इसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।
  • ‘सठ सुनेहि सुभाउ’, ‘बालकु बोलि बधौं’, ‘बाल ब्रह्मचारी’, ‘भुजबल भूमि भूप’ तथा ‘बिपुल बार’ में अनुप्रास अलंकार की निराली छटा है।

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी।।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी।।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई।।
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।।

शब्दार्थ: बिहसि – हँसकर, मृदु – कोमल, मुनीसु – महामुनि, महाभट – महान् योद्धा, देखाव – दिखाता है, कुठारु – कुल्हाड़ा, पहारू – पहाड़, कुम्हड़बतिया – कुम्हड़े का फल, छुईमुई का पौधा, तरजनी – अँगूठे के पास वाली उँगली, सरासन – धनुष, भृगुसुत – परशुराम, सहौं – सहता हूँ। सुर – देवता, महिसुर – ब्राह्मण, हरिजन – भक्त, गाई – गाय, सुराई – वीरता, अपकीरति – अपयश, मारतहू – मारने पर भी, पा – पाँव, कुलिस – कठोर, छमहु – क्षमा करना, सरोष – क्रोध सहित, भृगुबंसमनि – परशुराम, गिरा – वाणी।

परशुराम द्वारा स्वयं की प्रशंसा को सुनने पर लक्ष्मण हंसते हुए मृदु वाणी में बोले-‘हे मुनिवर! आप स्वयं को महाबलशाली मानते हैं। आप बार-बार मुझे फरसा दिखा रहे हैं ऐसा लगता है जैसे आप फूंक मारकर पहाड़ उड़ाना चाहते हो लेकिन आप भी यह जान लीजिए कि यहाँ कोई कुम्हड़बतिया या छुईमुई तो है नहीं कि आपकी तर्जनी (अँगूठे के पास वाली उँगली) देखकर मुरझा जाएगी। मैंने तो कुठार व धनुष-बाण धारण किए हुए आपके वीर वेश को देखकर ही अभिमानपूर्वक कुछ नहीं कहा । हे भृगुपुत्र ! आपके जनेऊ को देखकर ही आपके वचनों को सुनकर मैंने अपने क्रोध को रोका हुआ हैं हमारे कुल की परंपरा है कि देवता, ब्राह्मणों, ईश्वर भक्त व गायों पर वीरता नहीं दिखाते इन्हें मारने से पाप लगता है और उनसे हारने पर अपयश मिलता है। इसलिए यदि आप मारें भी तो आपके पैरों पड़ना चाहिए। फिर व्यंग्यपूर्वक लक्ष्मण उनसे कहते हैं- आपका तो एक-एक वचन करोड़ों वज्रों के समान कठोर है। आप बेकार ही धनुष-बाण और फरसा लिए हुए हैं। यानी इनकी कोई आवश्यकता ही नहीं। किसी को मारने के लिए आपके वचन ही पर्याप्त हैं। अगर इन्हें देखकर मैंने कुछ अनुचित कह दिया है तो हे परम धैर्यवान महामुनि! मुझे क्षमा कर दें। ऐसा सुनकर भृगुवंश के मणि स्वरूप परशुरामजी ने क्रोध के साथ गंभीर वाणी में कहा।

काव्य सौंदर्य-

  • इसमें अवधी भाषा का और चौपाई छंद का प्रयोग हुआ है साथ में तत्सम शब्दों की प्रचुरता है।
  • ‘मुनीसु महाभट मानी’, ‘कुम्हड़बतिया कोउ’, ‘कछु कहा’, ‘कछु कहहु’, ‘कोटि कुलिस’ और ‘सुनि सरोष’ में अनुप्रास
  • अलंकार है।
  • कोटि कुलिस सम वचनु तुम्हारा’ में उपमा अलंकार है।

कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु।।
भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू।।
काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।
तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।
नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।

शब्दार्थ: कौसिक – कौशिक यानी ऋषि विश्वामित्र, मंद – मंदबुद्धि, कुटिलु – कुटिल, घालकु – नाश करने वाला, राकेस – चंद्रमा, निपट – निरा, अबुधु – अबोध, असंकू – शंका रहित, होइहि – होगा, जो चहहु – जो चाहते हो, प्रतापु – वीरता, बलु – बल, शक्ति, सुजसु – सुयश, बरनै पारा – वर्णन कर सका, मुहु – मुँह, मुख, कछु – कुछ, रिस रोकि – क्रोध रोककर, सुनहु – सुनिए, येहु – यह, बालकु – बालक, कालबस – काल के वश में होकर, भानुबंस – सूर्यवंश, कलंकू – कलंक, निरंकुसु – निरंकुश, कालकवलु – मृत्यु का ग्रास, छन माहीं – क्षण भर के भीतर, उबारा – उबारना, रोषु – रोष, क्रोध, अछत – अक्षत, को – कौन, बहु बरनी – बहुत वर्णन किया, कहह – कहिए, दुसह – असहनीय, खोरि – दोष, बीरब्रती – वीर व्रत धारण करने वाले, गारी – गाली, बुरी बातें, सूर – शूरवीर, कहि – कहकर, आपु – अपने आप, स्वयं, रिपु – शत्रु, दुश्मन, हटकहु – मना करने पर, अछोभा – क्षोभरहित, सोभा – शोभा, समर – युद्ध, न जनावहिं – नहीं जताते, नहीं दिखाते, रन – रण, युद्ध, कथहिं – कहता है।

परशुराम ने कहा कि हे विश्वामित्र ! सुनो, यह बालक (लक्ष्मण) बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है। यह काल के वश होकर अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंशी होते हुए भी चन्द्रमा के कलंक के समान है। यह सभी तरह से उदंड, मूर्ख और निडर है। यह पल भर में ही काल का ग्रास बनने वाला है। मैं पुकार कर कहे देता हूं, फिर मुझे दोष मत देना । यदि तुम इसकी रक्षा करना चाहते हो तो इसे मेरे यश, बल और क्रोध के बारे में बताकर रोक लो।” परशुराम की सचेत वाणी सुनकर पुनः लक्ष्मण बोले – हे मुनि! आपके अक्षत रहते भला कोई और आपके सुयश (प्रसिद्धि) का बखान कैसे कर सकता है? अर्थात आपने अपनी प्रशंसा में इतना सब कह डाला है कि दूसरे को कुछ बोलने के लिए मौका ही नहीं रहा। आपने तो अपने मुख से अपने कर्मों का अनेक बार अनेक प्रकार से वर्णन किया है। इस पर भी यदि आपको संतोष नहीं है तो जो शेष है उसे कह दीजिए | इस प्रकार अपने क्रोध को रोकर आप क्यों असहनीय दुख को सहन कर रहे हैं। वीरता के व्रत को धारण करने वाले आप धैर्य व क्रोध रहित हैं, इसलिए गाली देना आपको शोभा नहीं देता है। शूरवीर तो अपना पराक्रम युद्ध में दिखाते हैं, बातों से वीरता नहीं दिखाते । युद्ध में शत्रु के समक्ष कायर पुरुष ही अपनी वीरता का बखान करते हैं।”

काव्य सौंदर्य-

  • इसमें अवधी भाषा का और चौपाई छंद का प्रयोग हुआ है|
  • तत्सम शब्दों की प्रचुरता है।
  • इसमें रौद्र एवं शांत रस का अवसरानुकूल प्रयोग हुआ है।
  • इसमें व्यंग्यात्मक शैली का पुट भी है।
  • इसमें अनुप्रास, उपमा और रूपक अलंकार का यथोचित सुंदर प्रयोग किया गया है।

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।।
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।।
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।।
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा।।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।।
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।।
उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें।।
न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे।।
गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।

शब्दार्थ: तुम्ह तौ – तुमको तो, कालु – मृत्यु, मोहि लागि – मेरे लिए, सुधारि – सँवारकर, घोरा – भयंकर, जनि – मत, बधजोगू – वध करने के योग्य, बाँचा – बचाता रहा, मरनिहार – मरने के योग्य, साँचा – वास्तव में, छमिअ – क्षमा कर दो, खर – पैना, अकरुन – करुणाहीन, कोही – क्रोधी, गुरुद्रोही – गुरु का अपमान करने वाला, सील – व्यवहार, होतेउँ – हो जाता, उरिन – ऋणमुक्त, अयमय – लोहे का बना हुआ, गन्ने गाधिसूनु = गाधि के पुत्र अर्थात् विश्वामित्र ।
हरियरे – हरा ही हरा, अजहुँ – अब भी।

लक्ष्मण परशुराम जी से कहते हैं कि ऐसा लगता है कि काल पर आपका वश है जो आप उसे बार-बार मेरे लिए बुला रहे हैं।” लक्ष्मण के कठोर वचन सुनकर परशुराम फरसे को सुधारकर हाथ में उठाकर बोले -” अब आप लोग मुझे दोष मत देना । कटु वचन बोलने वाला यह बालक मरने योग्य है। बालक समझ कर मैं इसे अब तक छोड़ रहा, परंतु यह अब सच में मरने वाला है।” इस पर ऋषि विश्वामित्र ने उनसे कहा – अपराध क्षमा करें क्योंकि साधु यानी सज्जन कभी भी बालक के दोष-गुण गिना नहीं करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आप तो साधु-महात्मा हैं, इस बालक के अपराध को क्षमा करें। परशुराम फिर बोले – मेरे हाथ में यह तेज़ धार वाला कुठार (कुल्हाड़ा) है और मैं अत्यंत क्रोधी एवं करुणारहित हूँ। मेरे सामने तो गुरु के प्रति द्रोह करने वाला अपराधी खड़ा है और मुझे जवाब दे रहा है। इतना होने पर भी यदि मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ तो केवल तुम्हारे प्रेम और सद्भाव के कारण, नहीं तो अब तक मैं इसे इस कठोर कुल्हाड़ी से काटकर थोड़े से ही श्रम से गुरु-ऋण से उऋण हो गया होता। परशुराम की इन बातों को सुनकर विश्वामित्र ने अपने मन में सोचा इन्हें तो सब जगह हरियाली ही दिखाई पड़ रही है और वे मन ही मन हँसने लगे। ‘हरा ही हरा सूझने’ का तात्पर्य यह है कि अब तक तो इन्हें सब जगह क्षत्रियों का नाश करने में सफलता मिली है, किंतु ये राम-लक्ष्मण कोई साधारण क्षत्रिय राजकुमार नहीं हैं। यह लक्ष्मण तो लोहे से बना खाँडा है न कि गन्ने की खाँड कि उसे चबा जाएँ। ऋषि विश्वामित्र अपने मन में ही परशुराम की नासमझी पर खेद प्रकट करते हुए कहते हैं कि अब भी मुनि (परशुराम) अबोध बने हुए हैं और इन दो बालकों के अमिट प्रभाव को नहीं समझ पा रहे हैं।

काव्य सौंदर्य-

  • प्रस्तुत काव्यांश में चौपाई छंद है।
  • इसमें तत्सम शब्दयुक्त अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है।
  • ‘खाँड़’ शब्द में श्लेष अलंकार है। इसके दो अर्थ हैं – एक तो कटार है और दूसरा गन्ने की खाँड है।
  • प्रथम पंक्ति में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
  • संपूर्ण काव्यांश में अनुप्रास एवं पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है।

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा।।
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें।।
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।।
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपदोही।।
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बा़ढ़े।।
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे।।
लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।

शब्दार्थ: नीकें – अच्छी तरह, सो जनु – वह जैसे कि, माथे काढ़ा – मत्थे मढ़ा है, ब्यवहरिआ – व्यवहार करने वाला अर्थात हिसाब किताब करने वाला, तुरत – तुरंत, बचौं – बचाया, सुभट – शूरवीर, घरहि के – अपने घर के, सबु – सब, नेवारे – निषेध किया, मना किया, कृसानु – अग्नि, बिदित – ज्ञात, गुररिनु – गुरु का ऋण, हमरेहि – हमारे ही, बाढ़ा – बढ़ता गया, बिप्र – ब्राह्मण, नृपद्रोही – क्षत्रिय राजाओं के शत्रु, द्विज देवता – ब्राह्मण देवता, बाढ़े – बड़ यानी शेर, सयनहि – संकेत से, इशारे से, उतर – उत्तर, जवाब, रघुकुलभानु – रघुकुल के सूर्य अर्थात श्रीराम।

लक्ष्मण परशुराम का उपहास करते हुए कहते हैं कि “हे मुनि! आपके विनम्र स्वभाव को कौन नहीं जानता। यह सारा संसार आप से परिचित है। आप अपने माता-पिता के ऋण से तो अच्छी तरह से उऋण हो चुके हैं। इसलिए अब आप पर गुरु का ऋण ही शेष बचा है। उसे उतारने की ही चिन्ता आपके मन में है। अब आप मुझे मारकर शायद गुरु के ऋण से मुक्त होना चाहते हैं। लक्ष्मण उन्हें खिजाने के लिए आगे और कहते हैं – बहुत दिन हो गए हैं, अब तो उस ऋण पर बहुत ब्याज भी चढ़ गया होगा। किसी हिसाब-किताब करने वाले को बुला लीजिए (और सारा हिसाब करवा लीजिए) ताकि मैं थैली खोलकर हिसाब चुकता कर दूं। इस प्रकार कहे जाने पर परशुराम ने अत्यंत क्रोध के साथ अपना फरसा सँभाल लिया और इसे देखकर सभा में उपस्थित सभी लोग अनिष्ट की संभावना से ‘हाय-हाय’ कहने लगे। लेकिन लक्ष्मण ने अपनी बात बंद नहीं की। वे आगे बोलते चले गए – हे भृगुश्रेष्ठ! फरसा दिखाकर आप मुझे डराना चाहते हैं? हे क्षत्रिय राजाओं के शत्रु! मैं आपको ब्राह्मण समझकर अभी तक बचा रहा हूँ लेकिन ऐसा लगता है कि आपको कभी बलवान रणकुशल कोई वीर नहीं मिला है। तभी तो हे ब्राह्मण देवता! आप अपने घर के शेर (महापराक्रमी) बने हुए हैं। लक्ष्मण की ओजपूर्ण व्यंग्योक्ति को सुनकर सब लोग ‘यह अनुचित है, यह अनुचित है’ – ऐसा कहने लगे। तब श्रीराम ने संकेत से लक्ष्मण को चुप रहने के लिए कहा।

काव्य सौंदर्य-

  • इसमें अवधी भाषा का और चौपाई छंद का प्रयोग हुआ है|
  • तत्सम शब्दों की प्रचुरता है।
  • इसमें रौद्र रस की प्रधानता है।
  • ब्याज बड़ बाढ़ा’ ‘ब्यवहरिया बोली’, ‘सब सभा’, ‘बिप्र बिचारि बचौं’ और ‘बचन बोले’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘कोंपु कृसानु’ और ‘द्विज देवता’ में रूपक अलंकार है।
  • ‘लखन उतर आहुति सरिस’ और ‘जल सम बचन’ में उपमा अलंकार प्रयुक्त हुआ है।