Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 1 विद्यापति के पदविद्यापति के पद पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर Class 11th Hindi Book Bihar Board प्रश्न 1. Class 11 Hindi Book Bihar Board प्रश्न 2. Bihar Board Class 11th Hindi Book प्रश्न 3. Bihar Board Hindi Book Class 11 Pdf Download प्रश्न
4. कवि विद्यापति के ऐसा कहने के पीछे एक उद्देश्य यह निहित है कि प्रेम में विरह की अनिवार्यता तो है, किन्तु वास्तविक मरण तक यह विरह यदि जारी रहता है तो फिर प्रेम की समाप्ति निश्चित है। अत: कवि राधा को प्रबोध देते हुए अशान्वित करते हुए कृष्ण के आगमन की सूचना देता है ताकि मिलन की आकांक्षा में निराशा का भाव कुछ कम हो जाए और प्रेम की यह पवित्र क्रीड़ा अनवरत चलती रहे। Bihar
Board Hindi Book Class 11 Pdf प्रश्न 5. Bihar Board Class 11 Hindi Book Solution प्रश्न 6. Bihar Board 11th Hindi Book Pdf प्रश्न 7. आँखों के लिए काव्य जगत् में कई उपमान प्रचलित है। खंजन एक पक्षी है उसमें चापल्य होता है, उसका आँखों से गुण-साम्य होता है। इसी तरह हिरण से आँखों की उपमा स्निग्धता के आधार पर दी जाती है। कवि बिहारी लाल ने तुरंत (घोड़ा) से आँखों को उपमित करते हुए कहते हैं लाज लगाम न मानई नैना मो बस नाहि ऐ मुँह जोर तुरंग लौ ऐचत हूँ चलि जाहि। आँखों के लिए वाण, झील, दीप, मय के प्याले जैसे उपमानों का भी प्रयोग हुआ है जो क्रमशः आँखों की वेधन शक्ति गहराई, निर्द्वन्द्वता, नशादि गुणों में साम्य के कारण हैं। Bihar
Board Class 11 Hindi Book प्रश्न 8. (क) भनई विद्यापति मन दए रे, सुनु गुनमति नारी, प्रस्तुत पंक्तियों में कवि विद्यापति की विलक्षण प्रतिभा प्रस्फुटित हुई है। ‘आज आओत’ तथा ‘झट-झारी’ में निहित अनुप्रास अलंकार बड़े स्वाभाविक बन पड़े हैं। इस प्रकार भाव-संपदा एवं कला-सौष्ठव की दृष्टि से ये पंक्तियाँ अत्यंत उत्कृष्ट हैं। (ख) लोचन-तूल कमल नहिं भए सक, से जग के नहिं जाने। प्रस्तुत पंक्तियों में कवि की कल्पना-शक्ति का चमत्कार देखते ही बनता है। कमल को नायिका के नेत्रों में हीनतर सिद्ध किया गया है। अतः इसका काव्य-सौंदर्य सर्वथा सराहनीय है। Class 11 Bihar Board Hindi Book प्रश्न
9. विद्यापति के पद भाषा की बात Bihar Board 11th Hindi Book Pdf Download प्रश्न 1. Bihar Board Class 11 Hindi Book Name प्रश्न 2. उपमा में चार तत्त्व
होते हैं- उपमा का उदाहरण-तरुवर की छायानुवाद-सी/उपमा-सी, भावुकता-मी अविदित भावाकुल भाषा-सी/कटी-छटी नव कविता-सी। रूपक-जहाँ प्रस्तुत (उपमेय) में अप्रस्तुत (उपमान) का निषेध-रहित आगेप व अभेद स्थापना किया जाए वहाँ रूपक अलंकार होता है। उदाहरण- रूपक-ऊपमा में अन्तर-उपमा में उपमेय और उपमान में सादृश्य दिखाया जाता है। अमुक वस्तु अमुक वस्तु की तरह/जैसी है। जबकि रूपक में उपमेय और उपमान के बीच तादात्म्य अथवा अभेद की स्थापना होती है। सादृश्यवाचक शब्द रूपक में नहीं होते हैं। प्रश्न 3.
प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6.
अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर विद्यापति के पद लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. विद्यापति के पद अति लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. विद्यापति के पद वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर I. सही उत्तर सांकेतिक चिह्न (क, ख, ग या घ) लिखें। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें। प्रश्न 1. प्रश्न 2. विद्यापति पद कवि परिचय – (1360-1448) विद्यापति का जन्म 1360 ई. के आसपास विहार के मधुबनी जिले के बिस्पी नामक गाँव में हुआ था। यद्यपि उनके जन्म काल के संबंध में प्रमाणिक सूचना उपलब्ध नहीं है तथा उनके आश्रयदाता मिथिला नरेश राजा शिव सिंह के राज्य-काल के आधार पर उनके जन्म और मृत्यु के समय का अनुमान किया गया है। विद्यापति साहित्य, संस्कृति, संगीत, ज्योतिष, इतिहास, दर्शन, न्याय, भूगोल आदि के प्रकांड विद्वान थे। सन् 1448 ई. में उनका देहावसान हो गया। विद्यापति बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और तर्कशील व्यक्ति थे। उनके विषय में यह विवाद रहा है कि वे हिंदी के कवि है या बंगला भाषा के, किंतु अब यह स्वीकार्य तथ्य है कि वे मैथिली भाषा के कवि थे। वे हिंदी साहित्य के मध्यकाल के ऐसे कवि हैं जिनके काव्य में जनभाषा के माध्यम से जनसंस्कृति को अभिव्यक्ति मिली है। वे साहित्य, संस्कृति, संगीत, ज्योतिष, इतिहास, दर्शन, भूगोल आदि विविध विषयों का गंभीर ज्ञान रखते थे। उन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश और मैथिली तीन भाषाओं में काव्य-रचना की है। इसके साथ ही उन्हें अपने समकालीन कुछ अन्य बोलियो अथवा भाषाओं का ज्ञान था। वे दरबारी कवि थे, अतः दरबारी संस्कृति का प्रभाव उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाओं-‘कीर्तिलता व कीर्तिपताका’ पर देखा जा सकता है। उनकी पदावली ही उनको यशस्वी कवि सिद्ध करती है। रचनाएं-विद्यापति की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं-कीर्तिलता, कीर्तिपताका, पुरुष-परीक्षा, भू-परिक्रमा, लिखनावली और विद्यापति-पदावली। भाषा-शैली-विद्यापति मूलत: मैथिली के कवि हैं। उन्होंने संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी पर्याप्त साहित्य की रचना की है। उनकी भाषा लोक-व्यवहार की भाषा है। वास्तव में, उनकी रचनाओं में जन भाषा में जन संस्कृति की अभिव्यक्ति हुई है। उनकी भाषा में आम बोलचाल के मैथिली शब्दों का पर्याप्त प्रयोग हुआ है। विद्यापति के पद काव्य-सौंदर्य- विद्यापति के पद मिथिल-क्षेत्र के लोक-व्यवहार व सांस्कृतिक अनुष्ठान में खुलकर प्रयुक्त होते हैं। उन पदों में लोकानुरंजन व मानवीय प्रेम के साथ व्यावहारिक जीवन के विविध रूपों को बड़े मनोरम व आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया है। राधा-कृष्ण को माध्यम बनाकर लौकिक प्रेम के विभिन्न रूपों को वर्णित किया गया है, किंतु साथ ही विविध देवी-देवताओं की भक्ति से संबंधित पद भी लिखे हैं जिससे एक विवाद ने जन्म लिया कि विद्यापति शृंगारी कवि – हैं या भक्त कवि। विद्यापति को आज शृंगारी-कवि के रूप में मान्यता प्राप्त है। विद्यापति के काव्य में प्रकृति के मनोरम रूप भी देखने को मिलते हैं। ऐसे पदों में पद-लालित्य के साथ कवि के अपूर्व कौशल, प्रतिभा तथा कल्पनाशीलता के दर्शन होते हैं। समस्त काव्य में प्रेम व सौंदर्य की निश्छल व अनूठी अभिव्यक्ति देखने को मिलती है.। विद्यापति मूलत शृंगार के कवि हैं, माध्यम राधा व कृष्ण हैं। इन पदों में अनुपम माधुर्य है। ये पद गीत-गोविर के अनुकरण करते हुए लिखे गए प्रतीत होते हैं। उन्होंने भक्ति व श्रृंगार का ऐसा सम्मिश्रण प्रस्तुत किया है जैसा अन्यत्र मिलना संभव नहीं है। निष्कर्ष रूप में कहें तो यह कहना अनुचित न होगा कि विद्यापति के वर्ण्य-विषय के तीन क्षेत्र हैं। अधिकांश पदों में राधा और कृष्ण के प्रेम के विविध पक्षों का वर्णन हुआ है कि कुछ पद शुद्ध रूप से प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन करते हैं और कुछ पद विभिन्न देवी-देवताओं की स्तुति में लिखे गए हैं। विशेष-इन पंक्तियों की भाषा ब्रज है। इसमें छंद दोहा है। श्लेष व अनुप्रास अलंकार है। केशों की श्यामलता से उत्पन्न अंधकार और आत्मा पर पड़े अज्ञान के आवरण की समता की गई है। विद्यापति के पदों का भावार्थ प्रथम पद मैथिल कोकिल, अभिनव जयदेव के नाम से प्रतिष्ठित महाकवि विरचित प्रस्तुत गीत वियोग शृंगार की एक स्थिति विशेष का ज्ञापक है। विरहिणी नायिका (राधा) प्रियतम (कृष्ण) के विरह में पागल है। उसकी एकमात्र कामना है कृष्ण से मिलने की। वह बासक सज्जा नायिका की तरह शृंगार कर कृष्ण के आने के मार्ग में आँखें बिछाये हुए, पथ को अपलक निहार रही है। परंतु जैस-जैसे समय बीतता जाता है, शरीर में लेपित चंदन, जो शीतलता प्रदान करने के लिए विख्यात है, अब सूख कर बाण की तरह चुभने लगे हैं। सौन्दय वर्द्धन करने वाले आभूषण अब भार लगने लगे हैं। गोकुल गिरिधारी श्रीकृष्ण इतने निष्ठुर निर्मोही हो गये हैं कि उनकी प्रतीक्षा करती नायिका के स्वप्न में भी नहीं आये। विरह विदग्धा, मिलनातुर कदम्ब के वृक्ष के नीचे अकेली खड़ी-खड़ी कृष्ण का मार्ग देख रही है। कृष्ण वियोग की ज्वाला से उसका हृदय दग्ध (जल) हो रहा है। शरीर की सुध-बुध खो देने से वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये हैं। पिछले कई दिनों से पहनी हुई साड़ी मलिन-गंदी हो चुकी है। नायिका वस्त्र बदलना तक भूल चुकी है। विरहिणी नायिका राधा की सखी उद्धव को सम्बोधित करते हुए कहती है.कि वे उद्धव ! अब आप मथुरा जाएँ और नायिका (राधा) की वर्तमान विचित्र, परिवर्तित स्थिति से कृष्ण को अवगत कराएँ। अब चन्द्रचवदनी राधा आपके बिना जीवित नहीं रह सकेगी और अगर राधा मर गयी तो यह स्वाभाविक मृत्यु नहीं होगी, वध होगा और इसका पाप तुम्हें ही लगेगा। महाकवि विद्यापति प्रबोध देते हुए कहते हैं कि हे गुणवना स्त्री। तू ध्यान से मेरी बात सुनो, आज कृष्ण का गोकुल आगमन होने वाला है। अत: तू झटक कर चल और कृष्ण मग में उनकी प्रतीक्षा का पति रचित प्रपदोनों विच विद्यापति रचित प्रस्तुत पद में विरहिणी नायिका का कारुणिक वर्णन हुआ है.। विरह वेदना की गहनता और तीव्रता दोनों विचारणीय हैं। नायिका में दैन्य और औत्सुक्य दोनों भाव सबल . होकर उभरे हैं। अतिशयोक्ति वीप्सा, लुप्तोपमा, परिकर आदि अलंकार पद के सौन्दर्य को ओर वर्द्धित करते हैं। दिताय पद भक्ति और श्रृंगार दोनों रसों के सिद्धहस्त मैथिल कोकिल कवि विद्यापति रचित प्रस्तुत पद में नायिका (राधा) के देह सौष्ठव का वर्णन सखी या दूती के द्वारा हुआ है। बसंत ऋतु का सुहाना मौसम है। दक्षिण दिशा में मलय पर्वत से आने वाली सुगंधित हवा पोरे-धीरे वह रही है। मैंने ऐसी परिस्थिति में तुम्हें देखा मानो जैसे स्वप्न में तेरा रूप-सौन्दर्य देखने को मिला हो। तुम अपने आनन से, चेहरे से आँचल हटाओ। सच मानो तुम्हारे शरीर की गोराई और लुनाई ऐसी है कि उसके समान चन्द्रमा को मानना मूर्खता होगी। तुम्हें विधाता ने यत्नपूर्वक बनाया है, गढ़ा है। ईश्वर ने चन्द्रमा को अनेक बार काटा, बनाया, कतर-ब्योंत की, फिर भी वह तुम्हारे सौन्दर्य से तुलनीय नहीं है। तुम्हारी आँखें इतनी सुन्दर मोहक हैं कि संसार प्रसिद्ध उपमान कमल भी इनसे तुलित नहीं हो सका। इसी लज्जा और संकोच से अपमानित होकर कमल पुनः जल में जा छिपा। विद्यापति कहते हैं कि हे बुद्धिमती युवती। तुम्हें जो रूप राशि प्राप्त है, वह लक्ष्मी के समान है। महाराज शिवसिंह, रूप नारायण हैं, साक्षात् सौन्दर्य के स्वामी हैं जो अपनी रानी लखिमा देवी के साथ रमण करते हैं, ठीक उसी तरह हे बुद्धिमती युवती ! तुम्हारा रूप-सौन्दर्य भी महाराजा के उपभोग के लिए है। प्रस्तुत पद में विद्यापति ने नायिका के सौन्दर्य को अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किया है। उसका सौन्दर्य लोकप्रसिद्ध उपमानों से भी श्रेष्ठ है। विद्यापति के पद कठिन शब्दों का अर्थ चानन-चंदन। सर-सिर, माथा। भूषण-गहना, अलंकार। भारी-भार स्वरूप। एकसरि-अकेले। पथ हेरथि-रास्ता देख रही है। दगध-दग्ध, झुलसा हुआ। झामर-मलिन। जाह-जाओ। जीउति-जीवित रहेगी। बध-वध। काहे-क्यों। झट-झारी-झटक कर। पाओल-पाया। बदन-मुख। चान-चंद्रमा। जइओ-जितना भी। जतन-यत्न, उपाय। बिहि-विधि, विधाता, ब्रह्मा। कए-कितने। तुलित-तुल्य। लोचन-आँख, नयन। नुकाएल-छिप गए। पंकज-कमल। जैवति-युवती। लाखिमा देई-लखिमा देवी। रमाने-रमण। इ सभ-यह सब। मधुपुर-मथुरा। गोकुल-ब्रज, वृंदावन। चीर-वस्त्र। काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या 1. चानन भेल विषय
सर…………….गिरधारी। 2. एकसरि ठाढ़ि कदम-तरे रे………………..झामर भेल सारी। 3. जाह जाह तोहें उपव है……………बध लागत काहे। 4. भनइ विद्यापति मन दए…………..झट-झारी। कवि गोपियों तथा राधा दोनों को सम्बोधित कर कहता है कि हे गुणवती नारियों तन मन देकर अर्थात् ध्यान देकर सुनो। आज कृष्ण मथुरा से गोकुल आवेंगे। अतः तुम पंग झाड़कर अर्थात् शीघ्रता से गोकुल चलो। यहाँ कवि द्वारा एक मनोवैज्ञानिक झटका दिया गया है। कृष्ण के आने की सूचना से राधा के मन की निराश-भाव लगेगा और उसकी मनोदशा बदलेगी। गोपियाँ राधा को लेकर गोकुल लौटेंगी और इस प्रक्रिया में जो परिवर्तन होगा वह विरहिणी को थोड़ी गहत दे सकेगा। अत: इन पंक्तियों में कवि द्वारा आशावाद के सहारे मनोवैज्ञानिक परिवर्तन लाने की चेष्टा की गयी है। 5. सरस वसंत समय भल…………….दुरि करु चीरे। 6. तोहर बदन सन चान होअथि…………तुलित नहिं भेला। 7. लोचन-तूल कमल नहि भए सक……………निज अपमाने। 8. भनई विद्यापति…………देइ रमाने। कवि विद्यापति ने अपने अधिकतर पदों में अपने आश्रयदाता राजा शिवसिंह और उनकी रूपसी पत्नी लखिमा देवी का सादर स्मरण किया है। यहाँ वे कहना चाहते हैं कि मैंने सौन्दर्य को जो लक्ष्मी-तुल्य कहा है कि इस बात को राजा शिव सिंह (जो रूपनारायण की उपाधि धारण करते हैं) और उनकी पत्नी लखिमा (या लछिमा) देवी भी जानते हैं। इन पंक्तियों में विद्यापति ने एक विशेष बात यह कही है कि सौन्दर्यवान स्त्री लक्ष्मी की तरह ऐश्वर्यशालिनी होती है। |