वर्तनी से आप क्या समझते हैं हिंदी वर्तनी के विभिन्न नियम पर प्रकाश डालिए? - vartanee se aap kya samajhate hain hindee vartanee ke vibhinn niyam par prakaash daalie?

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वर्तनी क्या है?

  1. वर्तनी भाषा में शब्दों को वर्णों से अभिव्यक्त करने की क्रिया को कहते हैं।
  2. वर्तनी को अंग्रेज़ी में स्पेलिंग और उर्दू में हिज्जे कहते हैं।
  3. किसी लिपि के प्रतीक-चिन्ह (वर्ण आदि) को उचित क्रम में लिखकर जब कोई शब्द निरूपित किया जाता है, वह उसकी वर्तनी कहलाती है।
  4. वर्तनी का सीधा सम्बन्ध भाषागत ध्वनियों के उच्चारण से है।

हिन्दी भाषा की वर्तनी

  1. भारतीय भाषाओं की लिपियाँ ध्वन्यात्मक (phonetic) हैं, यानी उनमें लिखित लिपिचिह्नों और संबंधित उच्चारण में अनन्य संबंध रहता है।
  2. इसीलिए हिन्दी में उच्चरित ध्वनियों को व्यक्त करना सरल रहा है।
  3. परन्तु अब यह स्थिति अनेक कारणों से बदल रही है जैसे कि क्षेत्रीय आंचलिक उच्चारण का प्रभाव, अनेकरूपता, भ्रम, परंपरा का निर्वाह आदि।
  4. एक ही शब्द की कई वर्तनी मिलने की वजह से इनको अभिव्यक्त करने के लिए किसी सार्थक शब्द की तलाश हुई (‘हुई’ शब्द की विविधता द्रष्टव्य है – हुइ, हुई, हुवी)।
  5. हिन्दी में अगर हम जैसा बोलते हैं वैसा लिखते हैं, तो बहुत सी गलतियाँ कर बैठते हैं।
    • जैसे कि सुनने में ‘ग-ए’ सही लगता है ‘ग-ये’ नहीं, मगर आगे हम देखेंगे कि ‘गये’ क्यूँ सही है!
    • इस विधि से शब्द की उत्पत्ति भी छिप जाती है।
  6. उच्चारण प्रमुख है, और प्रायः सभी भाषाओं में उच्चारण-दोष पाया जाता है – कभी लिखा सही हो, मगर बोला गलत जाता है।
  7. हिन्दी उच्चारण के दोष में प्रमुख हैं:
    • ‘ऋ’ का उच्चारण ‘रि’ की भांति करना।
    • विसर्ग के सही उच्चारण का ज्ञान न होना और फलस्वरूप ‘अतः’ को ‘अतह्’ की भांति बोलना।
    • ‘ज्ञ’ को ‘ग्य’ की तरह उच्चारित करना।
    • ‘ण’ का ठीक उच्चारण न कर पाना।
    • ‘श’ एवं ‘ष’ में भेद न कर पाना, आदि।
  8. संस्कृत पूर्णतः ध्वन्यात्मक है, जैसा कि उसके नाम के अर्थ हैं, उसमें विकृत उच्चारण की अनुमति नहीं है।
  9. कुछ गलत प्रयोग इतने प्रचिलित हैं कि उन्हें बदलना असंभव सा हो गया है [रही सही कसर गूगल पूरी कर देता है!]
  10. इन्हीं कारणों से मानकीकरण की आवश्यकता महसूस की जाने लगी।
  11. साहित्य में व्याकरण के नियम ज़रूरी हैं!

इस लेख में हम वर्तनी के मानकीकरण के निम्न नियमों को विस्तार से देखेंगे:

  1. संयुक्‍त वर्ण और अन्य व्यंजन
  2. कारक चिह्‍न
  3. क्रिया पद
  4. हाइफ़न (योजक चिह्‍न)
  5. अव्यय
  6. अनुस्वार और अनुनासिकता
  7. कुछ और स्वर-संबन्धित बातें:
    • क्यूं या क्यूँ
    • आं और आँ – कब, कैसे?
    • अंग, अंगों, अँगों, अङ्गों: सही प्रयोग?
  8. विसर्ग (:)
  9. हल् चिह्‍न (्)
  10. स्वन परिवर्तन
  11. ‘ऐ’ और ‘औ’ का प्रयोग
  12. कुछ और बातें:
    • ‘यी’ या ‘ई’?
    • ‘ए’ या ‘ये?
    • अंत मे ‘या’ हो तो?
  13. शब्द ‘वाला’ की वर्तनी
  14. श्रुतिमूलक ‘य’ और ‘व’ का प्रयोग
  15. विदेशी ध्वनियाँ
    • उर्दू शब्द
    • अंग्रेज़ी शब्द
  16. द्‍‌विधा रूप वर्तनी
  17. कुछ अन्य नियम: विरामादि चिह्‍न

संयुक्‍त वर्ण

खड़ी पाई वाले व्यंजन: खड़ी पाई वाले व्यंजनों के संयुक्‍त रूप परंपरागत तरीके से खड़ी पाई को हटाकर ही बनाए जाते हैं, जैसे कि:

  1. ख्याति
  2. लग्न, विघ्न
  3. कच्चा, कुत्‍ता, डिब्बा, छज्जा, उल्लेख
  4. नगण्य
  5. पथ्य
  6. ध्वनि
  7. न्यास, प्यास, व्यास
  8. सभ्य, रम्य
  9. शय्या
  10. श्‍लोक
  11. राष्ट्रीय
  12. स्वीकृति
  13. यक्ष्मा
  14. त्र्यंबक

अन्य व्यंजन

  1. क और फ / फ़ के संयुक्‍ताक्षर:
    • संयुक्‍त, पक्का, दफ़्तर आदि की तरह बनाए जाते हैं।
  2. ङ, छ, ट, ड, ढ, द और ह के संयुक्‍ताक्षर हल् चिह्‍न लगाकर ही बनाए जाते हैं, जैसे कि:
    • वाङ्‍मय, लट्टू, बुड्ढा, विद्‍या, चिह्‍न, ब्रह्‍मा आदि।
    • न कि वाङ्मय, विद्या, चिह्न, ब्रह्मा।
  3. संयुक्‍त ‘र’ के प्रचलित तीनों रूप यथावत् रहते हैं, जैसे कि:
    • प्रकार, धर्म, राष्ट्र।
    • श्र का प्रचलित रूप ही मान्य है।
    • त+र के संयुक्‍त रूप के लिए इसका परंपरागत रूप त्र ही मानक है।
    • श्र और त्र के अतिरिक्‍त अन्य व्यंजन + र के क्र, प्र, ब्र, स्र, ह्र आदि बनते हैं।
  4. हल् चिह्‍न युक्‍त वर्ण से बनने वाले संयुक्‍ताक्षर के द्‍‌वितीय व्यंजन के साथ इ की मात्रा का प्रयोग संबंधित व्यंजन के तत्काल पूर्व ही किया जाता है, न कि पूरे युग्म से पूर्व, जैसे कि:
    • कुट्‌टिम, चिट्‌ठियाँ, द्‌वितीय, बुद्‌धिमान, चिह्‌नित आदि।
    • न कि कुट्टिम, चिट्ठियाँ, बुद्‍धिमान, चिह्‍नित।

टिप्पणीसंस्कृत भाषा के मूल श्‍लोकों को उद्‍धृत करते समय संयुक्‍ताक्षर पुरानी शैली से भी लिखे जा सकते हैं, जैसे कि:

  1. संयुक्त, चिह्न, विद्या, विद्वान, वृद्ध, द्वितीय, बुद्धि आदि।
  2. किंतु यदि इन्हें भी उपर्युक्‍त नियमों के अनुसार ही लिखा जाए तो कोई आपत्‍ति नहीं होगी।

कारक चिह्‍न

  1. संज्ञा शब्द प्रातिपदिक से पृथक् लिखे जाते हैं, जैसे कि:
    • राम ने, राम को, राम से, स्त्री का, स्त्री से, सेवा में आदि।
  2. सर्वनाम शब्द कारक चिह्‍न प्रातिपादिक के साथ मिलाकर जाते हैं, जैसे कि:
    • तूने, आपने, तुमसे, उसने, उसको, उससे, उसपर आदि।
    • अशुद्ध: मेरेको, मेरेसे आदि।
    • सर्वनाम के साथ यदि दो कारक चिह्‍न हों तो उनमें से पहला मिलाकर और दूसरा पृथक् लिखा जाता है, जैसे कि:
      • उसके लिए, इसमें से।
    • सर्वनाम और कारक चिह्‍न के बीच ‘ही’, ‘तक’ आदि का निपात हो तो कारक चिह्‍न को पृथक् लिखा जाता है, जैसे कि:
      • आप ही के लिए, मुझ तक को।

क्रिया पद

  1. क्रिया की पहचान आसान है: आना, खाना, जाना, नहाना आदि।
  2. वर्तमान में इनका रूप: आता, खाता, नहाता आदि होता है।
  3. संयुक्‍त क्रिया पदों में सभी अंगीभूत क्रियाएँ पृथक् लिखी जाती हैं, जैसे कि:
    • पढ़ा करता है, आ सकता है, जाया करता है, खाया करता है, जा सकता है, कर सकता है, किया करता था, पढ़ा करता था, खेला करेगा, घूमता रहेगा, बढ़ते चले जा रहे हैं आदि।
  4. यी और ई तथा ए और ये के प्रयोग में भ्रांतियाँ
    • जहाँ क्रियापद हो वहाँ पर ‘यी’ या ‘ये’ होगा अन्य स्थानों पर ‘ई’ या ‘ए’ होगा।
    • भूत में ऊपर बताई गई क्रियाएं: आया, गया, खाया, नहाया आदि हो जाती हैं।
    • इन्ही स्थानों पर ‘ये’ और ‘यी’ प्रयोग होता है, जैसे कि:
      • आये, गये, खाये, नहाये आदि, या
      • आयी, गयी, खायी, नहायी आदि।
  5. ध्यान दें:
    • लिए‘ का सम्बंध ‘लेना’ क्रिया से नहीं है। क्रिया की स्थिति में पूर्व नियम लागू होगा, जैसे कि:
      • वह जो फूल उसके लिए लाया था उसे हाथ में लिये हुए था।
  6. जहाँ अन्त में ‘या’ नहीं आता, वहाँ ‘ई’  या ‘ए’ प्रयोग होता है, जैसे कि:
    • ‘हुआ’ से ‘हुए’ बनता है ‘हुये’ नहीं या ‘हुई’ होगा ‘हुयी’ नहीं।

हाइफ़न (योजक चिह्‍न)

  1. हाइफ़न का विधान स्पष्टता के लिए किया गया है।
  2. द्‍वंद्‍व समास में पदों के बीच हाइफ़न रखा जाता है, जैसे कि:
    • राम-लक्ष्मण, शिव-पार्वती संवाद, देख-रेख, चाल-चलन, हँसी-मज़ाक, लेन-देन, पढ़ना-लिखना, खाना-पीना, खेलना-कूदना आदि।
  3. सा, जैसा आदि से पूर्व हाइफ़न रखा जाता है, जैसे कि:
    • तुम-सा, राम-जैसा, चाकू-से तीखे।
  4. तत्पुरुष समास में हाइफ़न का प्रयोग केवल वहीं किया जाता है जहाँ उसके बिना भ्रम होने की संभावना हो, अन्यथा नहीं, जैसे कि: भू-तत्व।
    • सामान्यत: तत्पुरुष समास में हाइफ़न लगाने की आवश्यकता नहीं है, जैसे कि:
      • रामराज्य, राजकुमार, गंगाजल, ग्रामवासी, आत्महत्या आदि।
    • भ्रम होने की संभावना वाले समस्त पद:
      • यदि ‘अ-निख’ (बिना नख का) समस्त पद में हाइफ़न न लगाया जाए तो उसे ‘अनख’ पढ़े जाने से ‘क्रोध’ का अर्थ भी निकल सकता है।
      • अ-नति (नम्रता का अभाव): अनति (थोड़ा),
      • अ-परस (जिसे किसी ने न छुआ हो) : अपरस (एक चर्म रोग),
      • भू-तत्व (पृथ्वी-तत्व): भूतत्व (भूत होने का भाव) आदि समस्त पदों की भी यही स्थिति है।
      • ये सभी युग्म वर्तनी और अर्थ, दोनों दृष्टियों से, भिन्न-भिन्न शब्द हैं।
  5. कठिन संधियों से बचने के लिए भी हाइफ़न का प्रयोग किया जा सकता है, जैसे कि:
    • द्‍‌वि-अक्षर (द्व्यक्षर), द्‍‌वि-अर्थक (द्व्यर्थक) आदि।

अव्यय

  1. अव्यय वे शब्द हैं जो संज्ञा या क्रिया के लिंग से प्रभावित नहीं होते, अर्थात्त संज्ञा या लिंग बदलने पर उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता।
  2. अनेक प्रकार के भावों का बोध कराने वाले अव्यय हैं: आह, ओह, अहा, ऐ, ही, तो, सो, भी, न, जब, तब, कब, यहाँ, वहाँ, कहाँ, सदा, क्या, श्री, जी, तक, भर, मात्र, साथ, कि, किंतु, मगर, लेकिन, चाहे, या, अथवा, तथा, यथा, और, इसलिए, किसलिए, लिए आदि।
  3. नियम के अनुसार अव्यय सदा पृथक् लिखे जाने चाहियें, जैसे कि:
    • आप ही के लिए, मुझ तक को, आपके साथ, गज़ भर कपड़ा, देश भर, रात भर, दिन भर, वह इतना भर कर दे, मुझे जाने तो दो, काम भी नहीं बना, पचास रुपए मात्र आदि।
    • ‘तक’, ‘साथ’ आदि अव्यय सदा पृथक् लिखे जाते हैं, जैसे कि:
      • यहाँ तक, आपके साथ।
  4. कुछ अव्ययों के आगे कारक चिह्‍न भी आते हैं, जैसे कि:
    • अब से, तब से, यहाँ से, वहाँ से, सदा से आदि।
  5. सम्मानार्थक ‘श्री’ और ‘जी’ अव्यय भी पृथक् जाते हैं, जैसे कि:
    • श्री श्रीराम, कन्हैयालाल जी, महात्मा जी आदि।
    • यदि श्री, जी आदि व्यक्‍तिवाची संज्ञा के ही भाग हों तो मिलाकर जाते हैं, जैसे कि:
      • श्रीराम, रामजी लाल, सोमयाजी आदि।
  6. समस्त पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि अव्यय जोड़कर लिखे जाते हैं, पृथक् नहीं, जैसे कि:
    • प्रतिदिन, प्रतिशत, मानवमात्र, निमित्‍तमात्र, यथासमय, यथोचित आदि।
    • यह सर्वविदित नियम है कि समास न होने पर समस्त पद एक माना जाता है। अतः उसे व्यस्त रूप में न लिखकर एक साथ लिखना ही संगत है।
      • ‘दस रुपए मात्र’, ‘मात्र दो व्यक्‍ति’ में पदबंध की रचना है।
      • यहाँ मात्र अलग से लिखा जाए (यानी मिलाकर न लिखें)।

अनुस्वार (शिरोबिंदु / बिंदी) तथा अनुनासिकता चिह्‍न (चंद्रबिंदु)

  1. अनुस्वार व्यंजन है और अनुनासिकता स्वर का नासिक्‍य विकार।
  2. हिंदी में ये दोनों अर्थभेदक भी हैं।
  3. अतः हिंदी में अनुस्वार (ं) और अनुनासिकता चिह्‍न (ँ) दोनों ही प्रचलित हैं।

अनुस्वार

  • संस्कृत शब्दों का अनुस्वार अन्यवर्गीय वर्णों से पहले यथावत् रहेगा, जैसे कि:
    • संयोग, संरक्षण, संलग्न, संवाद, कंस, हिंस्र आदि।
  • संयुक्‍त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचम वर्ण (पंचमाक्षर) के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो एकरूपता और मुद्रण / लेखन की सुविधा के लिए अनुस्वार का ही प्रयोग करना चाहिए, जैसे कि:
    • पंकज, गंगा, चंचल, कंजूस, कंठ, ठंडा, संत, संध्या, मंदिर, संपादक, संबंध आदि।
    • न कि पङ्कज, गङ्गा, चञ्चल, कञ्जूस, कण्ठ, ठण्डा, सन्त, मन्दिर, सन्ध्या, सम्पादक, सम्बन्ध [यह रूप संस्कृत के उद्‍धरणों में ही मान्य होंगे – हिंदी में बिंदी (अनुस्वार) का प्रयोग करना ही उचित होगा।]
  • यदि पंचमाक्षर के बाद किसी अन्य वर्ग का कोई वर्ण आए तो पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में परिवर्तित नहीं होगा, जैसे कि:
    • वाङ्‍मय, अन्य, चिन्मय, उन्मुख आदि।
    • न कि वांमय, अंय, चिंमय, उंमुख।
  • पंचम वर्ण यदि द्‍‌वित्व रूप में (दुबारा) आए तो पंचम वर्ण अनुस्वार में परिवर्तित नहीं होता है, जैसे कि:
    • अन्न, सम्मेलन, सम्मति आदि।
    • न कि अंन, संमेलन, संमति।
  • अंग्रेज़ी, उर्दू से गृहीत शब्दों में आधे वर्ण या अनुस्वार के भ्रम को दूर करने के लिए नासिक्‍य व्यंजन को पूरा लिखना अच्छा रहेगा, जैसे कि:
    • लिमका, तनखाह, तिनका, तमगा, कमसिन आदि।
  • संस्कृत के कुछ तत्सम शब्दों के अंत में अनुस्वार का प्रयोग म् का सूचक है, जैसे कि:
    • अहं (अहम्), एवं (एवम्), परं (परम्), शिवं (शिवम्)।

अनुनासिकता (चंद्रबिंदु)

  1. हिंदी के शब्दों में उचित ढंग से चंद्रबिंदु का प्रयोग अनिवार्य है।
  2. अनुनासिकता व्यंजन नहीं है, स्वरों का ध्वनिगुण है।
  3. अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में नाक से भी हवा निकलती है, जैसे कि:
    • आँ, ऊँ, एँ, माँ, हूँ, आएँ।
  4. चंद्रबिंदु के बिना प्राय: अर्थ में भ्रम की गुंजाइश रहती है, जैसे कि: 
    • हंस : हँस
    • अंगना : अँगना
    • स्वांग (स्व+अंग): स्वाँग आदि में।
    • ऐसे भ्रम को दूर करने के लिए चंद्रबिंदु का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए।
  5. जहाँ (विशेषकर शिरोरेखा के ऊपर जुड़ने वाली मात्रा के साथ) चंद्रबिंदु के प्रयोग से छपाई आदि में बहुत कठिनाई हो और चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु का (अनुस्वार चिहन का) प्रयोग किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न न करे, वहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु के प्रयोग की छूट रहेगी, जैसे कि:
    • नहीं, में, मैं आदि।
  6. कविता आदि के प्रसंग में छंद की दृष्टि से चंद्रबिंदु का यथास्थान अवश्‍य प्रयोग किया जाना चाहिए।
  7. इसी प्रकार छोटे बच्चों की प्रवेशिकाओं में जहाँ चंद्रबिंदु का उच्चारण अभीष्ट हो, वहाँ मोटे अक्षरों में उसका यथास्थान सर्वत्र प्रयोग किया जाना चाहिए, जैसे कि:
    • कहाँ, हँसना, आँगन, सँवारना, मेँ, मैँ, नहीँ आदि।

कुछ और स्वर-संबन्धित बातें:

  1. क्यूं या क्यूँ: दोनों सही हैं, क्यूँ उपयुक्त है।
  2. आं और आँ – कब, कैसे?
    • आं और आँ के उच्चारण में कोई भेद नहीं है।
    • जहाँ केवल नासिका स्वर देना हो वहाँ चन्द्रबिन्दु का प्रयोग उचित है
    • व्याकरण के नियमों को बदलना किसी भी रूप में उचित नहीं है – इसलिए भले ही हम हँसना को हंसना, चाँद को चांद लिखते रहें, लेकिन अनुस्वार और अनुनासिक के अन्तर की जानकारी होना अनिवार्य है।
  3. अंग, अंगों, अँगों, अङ्गों: सही प्रयोग?
    • अँगों ग़लत है।
    • अङ्गों सही शुद्धतम रूप है।
    • अंग और अंगों सही हैं।

विसर्ग (:)

  1. संस्कृत के जिन शब्दों में विसर्ग का प्रयोग होता है, वे यदि तत्सम रूप में प्रयुक्‍त हों तो विसर्ग का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए, जैसे कि:
    • ‘दु:खानुभूति’ में यदि उस शब्द के तद्‍भव रूप में विसर्ग का लोप हो चुका हो तो उस रूप में विसर्ग के बिना भी काम चल जाएगा, जैसे कि: ‘दुख-सुख के साथी’।
  2. तत्सम शब्दों के अंत में प्रयुक्‍त विसर्ग का प्रयोग अनिवार्य है, जैसे कि: 
    • अत:, पुन:, स्वत:, प्राय:, पूर्णत:, मूलत:, अंतत:, वस्तुत:, क्रमश: आदि।
  3. ‘ह’ का अघोष उच्चरित रूप विसर्ग है, अत: उसके स्थान पर (स) घोष ‘ह’ का लेखन किसी हालत में न किया जाए, जैसे कि:
    • अत:, पुन: आदि के स्थान पर अतह, पुनह आदि लिखना अशुद्‍ध वर्तनी का उदाहरण माना जाएगा।
  4. इन शब्दों में द्‍‌वित्व वाले रूप को प्राथमिकता दी जाती है:
    • दु:साहस / दुस्साहस, नि:शब्द / निश्शब्द के उभय रूप मान्य होंगे।
    • निस्तेज, निर्वचन, निश्‍चल आदि शब्दों में विसर्ग वाला रूप सही,
    • न कि नि:तेज, नि:वचन, नि:चल
    • अंत:करण, अंत:पुर, प्रात:काल आदि शब्द विसर्ग के साथ ही लिखे जाते हैं।
  5. तद्‍भव / देशी शब्दों में विसर्ग का प्रयोग नहीं किया जाता।
    • इस आधार पर छ: लिखना गलत होगा। छह लिखना ही ठीक है।
    • प्रायद्‍वीप, समाप्तप्राय आदि शब्दों में तत्सम रूप में भी विसर्ग नहीं है।
  6. विसर्ग को वर्ण के साथ मिलाकर लिखा जाता है, जबकि कोलन चिह्‍न (उपविराम 🙂 शब्द से कुछ दूरी पर, जैसे कि:
    • अत:, यों है :

हल् चिह्‍न (्)

  • (्) को हल् चिह्‍न कहा जाए न कि हलंत।
  • व्यंजन के नीचे लगा हल् चिह्‍न उस व्यंजन के स्वर रहित होने की सूचना देता है, यानी वह व्यंजन विशुद्‍ध रूप से व्यंजन है।
    • इस तरह से ‘जगत्हलंत शब्द कहा जाएगा क्योंकि यह शब्द व्यंजनांत है, स्वरांत नहीं।
  • संयुक्‍ताक्षर बनाने के नियम के अनुसार ड् छ् ट् ठ् ड् ढ् द् ह् में हल् चिह्‍न का ही प्रयोग होगा, जैसे कि:
    • चिह्‍न, बुड्ढा, विद्‍वान आदि में।
  • तत्‍सम शब्दों का प्रयोग वांछनीय हो तब हलंत रूपों का ही प्रयोग किया जाए, विशेष रूप से तब जब उनसे समस्त पद या व्युत्पन्न शब्द बनते हों, जैसे कि:
    • प्राक्– (प्रागैतिहासिक),
    • वाक्- (वाग्देवी),
    • सत्- (सत्साहित्य),
    • भगवन्- (भगवद्‍भक्‍ति),
    • साक्षात्- (साक्षात्कार),
    • जगत्- (जगन्नाथ),
    • तेजस्- (तेजस्वी),
    • विद्‍युत्- (विद्‍युल्लता) आदि।
    • तत्सम संबोधन में हे राजन्, हे भगवन् रूप ही स्वीकृत होते हैं।
  • हिंदी शैली में हे राजा, हे भगवान लिखे जाते हैं।
  • जिन शब्दों में हल् चिहन लुप्‍त हो चुका हो, उनमें उसे फिर से लगाने का प्रयत्‍न न किया जाए, जैसे कि:
    • महान, विद्‍वान आदि – क्योंकि हिंदी में अब ‘महान’ से ‘महानता’ और ‘विद्‍वानों’ जैसे रूप प्रचलित हो चुके हैं।
  • व्याकरण ग्रंथों में व्यंजन संधि समझाते हुए केवल उतने ही शब्द दिए जाएँ,
    • जो शब्द रचना को समझने के लिए आवश्‍यक हों, जैसे कि:
      • उत् + नयन = उन्नयन,
      • उत् + लास = उल्लास
    • जो अर्थ की दृष्टि से उपयोगी हों
      • जगदीश
      • जगन्माता
      • जगज्जननी
  • हिंदी में ह्रदयंगम (ह्रदयम् + गम), उद्‍धरण (उत्/उद् + हरण), संचित (सम् + चित्) आदि शब्दों का संधि-विच्छेद समझाने की आवश्‍यकता नहीं है।
  • इसी तरह ‘साक्षात्कार’, ‘जगदीश’, ‘षट्कोश’ जैसे शब्दों के अर्थ को समझाने की आवश्‍यकता हो तभी उनकी संधि का हवाला दिया जाए।
  • हिंदी में इन्हें स्वतंत्र शब्दों के रूप में ग्रहण करना ही अच्छा होता है ।

स्वन परिवर्तन

  • संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी को ज्यों-का-त्यों ग्रहण किया जाता है, जैसे कि:
    • ‘ब्रह्‍मा’ को ‘ब्रम्हा’ में बदलना उचित नहीं है।
    • ‘चिह्‍न’ को ‘चिन्ह’ में बदलना उचित नहीं है।
    • ‘उऋण’ को ‘उरिण’ में बदलना उचित नहीं है।
    • गृहीत, द्रष्टव्य, अत्यधिक, अनधिकार ही लिखना चाहिए।
      • न कि ग्रहीत, दृष्टव्य, अत्याधिक, अनाधिकार।
  • जिन तत्सम शब्दों में तीन व्यंजनों के संयोग की स्थिति में एक द्‍‌वित्वमूलक व्यंजन लुप्त हो गया है, उसे न लिखने की छूट है, जैसे कि:
    • अर्द्‌ध को अर्ध लिख सकते हैं।
    • तत्‍त्व को तत्व लिख सकते हैं, आदि।

‘ऐ’ और ‘औ’ का प्रयोग

  • हिंदी में ऐ (ै), औ (ौ) का प्रयोग दो प्रकार के उच्चारण को व्यक्‍त करने के लिए होता है।
    • पहले प्रकार का उच्चारण ‘है’, ‘और’ आदि में मूल स्वरों की तरह
    • दूसरे प्रकार का उच्चारण ‘गवैया’, ‘कौवा’ आदि शब्दों में संध्यक्षरों के रूप में आज भी सुरक्षित है।
  • दोनों ही प्रकार के उच्चारणों को व्यक्‍त करने के लिए इन्हीं चिह्‍नों (ऐ, ै, औ, ौ) का प्रयोग किया जाता है।
    • ‘गवय्या’, ‘कव्वा’ आदि संशोधनों की आवश्‍यकता नहीं है।
    • अन्य उदाहरण: भैया, सैयद, तैयार, हौवा आदि।
    • दक्षिण के अय्यर, नय्यर, रामय्या आदि व्यक्‍तिनामों को हिंदी उच्चारण के अनुसार ऐयर, नैयर, रामैया आदि न लिखा जाए, क्योंकि मूलभाषा में इसका उच्चारण भिन्न है।
    • अव्वल, कव्वाल, कव्वाली जैसे शब्द प्रचलित हैं – इन्हें लेखन में यथावत् रखा जाता है।
    • संस्कृत के तत्सम शब्द ‘शय्या’ को ‘शैया’ नहीं लिखा जाता।

कुछ और बातें:यी’ या ‘ई’? ‘ए’ या ‘ये? अंत मे ‘या’ हो तो?

  1. यी’ या ‘ई’ और ‘ए’ या ‘ये’  – इनमें अक्सर कठिनाई आती है क्योंकि:
    • ‘इचुयशानां तालु:’ के सूत्र से इ, ई, चवर्ग, य और श के उच्चारण का स्थान तालु है।
    • अर्थात्त ई और य के लिए जीभ एक स्थान पर जाती है जिससे भ्रम हो जाता है।
    • ‘ई’ का उच्चारण ‘यी’ की तुलना में सरल होने से ‘ई’ ने अधिकांश जगहों से ‘यी’ को बेदख़ल कर दिया है।
    • यही ‘ए’ ने ‘ये’ के साथ किया है।
  2. यदि किसी शब्द के [प्रायः क्रियाओं के] किसी रूप में अंत मे ‘या’ आता है:
    • उसके बहुवचनात्मक तिर्यक प्रयोग में ‘या’ का ‘ये’ हो जाता है।
    • स्त्रीलिंग बनाने में ‘या’ का ‘यी’ हो जाता है।
    • जैसा हमने ऊपर देखा, संज्ञा, सर्वनाम और अव्यय इससे बाधित नहीं होते [सिलाई, कढ़ाई, बिनाई, रजाई आदि।]

पूर्वकालिक कृदंत प्रत्‍यय ‘कर’

  • पूर्वकालिक कृदंत प्रत्‍यय ‘कर’ क्रिया से मिलाकर लिखा जाता है।
  • जैसे कि: मिलाकर, खा-पीकर, रो-रोकर आदि।
  • कर + कर से ‘करके‘ और करा + कर से ‘कराके‘ बनता है।

शब्द ‘वाला’ की वर्तनी

  • क्रिया रूपों में ‘करने वाला’, ‘आने वाला’, ‘बोलने वाला’ आदि को अलग लिखा जाता है, जैसे कि: मैं घर जाने वाला हूँ, जाने वाले लोग।
  • योजक प्रत्‍यय के रूप में ‘घरवाला’, ‘टोपीवाला’ (टोपी बेचने वाला), दिलवाला, दूधवाला आदि एक शब्द के समान ही लिखे जाते हैं।
  • ‘वाला’ जब प्रत्यय के रूप में आएगा तब मिलाकर लिखा जाएगा, अन्यथा अलग से, जैसे कि:
    • यह वाला, यह वाली, पहले वाला, अच्छा वाला, लाल वाला, कल वाली बात आदि में वाला निर्देशक शब्द है – अतः इसे अलग ही लिखा जाता है।
    • इसी तरह लंबे बालों वाली लड़की, दाढ़ी वाला आदमी आदि शब्दों में भी वाला अलग लिखा जाता है।
    • इससे हम रचना के स्तर पर अंतर कर सकते हैं, जैसे कि:
      • गाँववाला –  villager  
      • गाँव वाला मकान  –  village house

श्रुतिमूलक ‘य’ और ‘व’ का प्रयोग

  1. जहाँ श्रुतिमूलक य, व का प्रयोग विकल्प से होता है वहाँ न किया जाए, अर्थात् पहले (स्वरात्मक) रूपों का प्रयोग किया जाए:
    • किए : किये,
    • नई : नयी,
    • हुआ : हुवा
  2. यह नियमक्रिया, विशेषण, अव्यय आदि सभी रूपों और स्थितियों में लागू माना जाए, जैसे कि:
    • दिखाए गए, राम के लिए, पुस्तक लिए हुए, नई दिल्ली आदि।
  3. जहाँ ‘य’ श्रुतिमूलक व्याकरणिक परिवर्तन न होकर शब्द का ही मूल तत्व हो वहाँ वैकल्पिक श्रुतिमूलक स्वरात्मक परिवर्तन करने की आवश्‍यकता नहीं है, जैसे कि:
    • स्थायी, अव्ययीभाव, दायित्व आदि।
    • न कि स्थाई, अव्यईभाव, दाइत्व।
  4. ‘नया’ पुल्लिंग से स्त्रीलिंग ‘नयी’ बनेगा लेकिन ‘नई’ अधिक प्रचिलित है।
  5. जहाँ भी सुनने में ई या ए लगे वहाँ स्वर को वरीयता दें:
    • जैसे गयी ग़लत नहीं, मगर गयी के स्थान पर गई कह सकते हैं।

विदेशी ध्वनियाँ

हिंदी भाषा में उत्पत्ति की दृष्टि से चार प्रकार के शब्द हैं:

  1. तत्सम शब्द [तत् अर्थात उसके + सम अर्थात समान या ज्यों का त्यों]: किसी भाषा के मूल शब्दों को तत्सम शब्द कहा जाता है।
  2. तद्भव शब्द: प्रयोग किये जाने के बाद तत्सम शब्दों का स्वरुप बदलता है, जो कि स्वरुप मूल शब्द से काफी भिन्न हो जाता है। तत्सम शब्दों के इस बदले हुए रूप को तद्भव शब्द कहते हैं – यानी वे शब्द जो संस्कृत और प्राकृत से विकृत होकर आधुनिक हिंदी भाषा में शामिल हुए हैं।
  3. देशज शब्द: वे शब्द जिनकी उत्पत्ति के मूल का पता न हो परन्तु वे प्रचलन में हों। ये शब्द आम तौर पर क्षेत्रीय भाषा में प्रयोग किये जाते हैं, जैसे कि:
    • लोटा, कटोरा, डोंगा, डिबिया, खिचड़ी, खिड़की, पगड़ी, अंटा, चसक, चिड़िया, जूता, ठेठ, ठुमरी, तेंदुआ, फुनगी, कलाई, डाब।
  4. विदेशी या विदेशज शब्द: ये शब्द विदेशी भाषाओं से हिंदी में आये हैं जिनमें मुख्यतः हैं:
    • अरबी, जैसे कि:
      • अफ़सर, अलमारी, औरत, क़दम, दुकान, दुनिया, बहस, मदद, मुग़ोल, मामूली, मौसम, लेकिन, हाल, हिम्मत, आदि।
    • फ़ारसी, जैसे कि:
      • अदा, आराम, तमाशा, दिल, दीवार, देहात, दंगल, दवा, पलंग, पलक, पुल, बीमार, मलाई, मुग़ल, मील, मोर्चा, याद, यार, रंग, राह, वर्ना, वापिस, शोर, सरकार, आदि।
    • तुर्की, जैसे कि:
      • आका, कालीन, कैंची, चेचक, चमचा, तोप, तमगा, तलाश, तौलिया, बहादुर, लाश, सुराग, आदि।
    • अंग्रेज़ी, जैसे कि:
      • अस्पताल, कप्तान, बोतल, जेल, डायरी, नंबर, नर्स, पार्टी, प्लेट, पार्सल, पाउडर, आदि।
    • पुर्तगाली, जैसे कि:
      • आलपिन, बाल्टी, चाबी, फ़ीता, तम्बाकू, आया, कनस्तर, कमरा, काजू, गमला, गोदाम, गोभी, नीलाम, परत, पिस्तौल, साया, परात, आदि।

उर्दू शब्द
[ये मूल लेख भी देखें – तलफ़्फ़ुज़ [उर्दू लफ़्ज़ों के सही उच्चारण]

  1. अरबी-फ़ारसी मूलक उर्दू से आए शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है, हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं, जैसे कि:
    • कलम, किला, दाग आदि।
      • न कि क़लम, क़िला, दाग़।
  2. पर जहाँ उनका शुद्‍ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्‍यक हो, वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक़्ते लगाए जाते हैं, जैसे कि:
    • खाना : ख़ाना
    • राज : राज़
    • फन : हाइफ़न आदि।

यहाँ देखते हैं वर्तनी की मदद के लिए वर्णमाला के नुक़्ते के साथ कैसे लिखें:

समूची उर्दू / हिन्दी के लिये बारहखड़ी यहाँ देखें: बारहखड़ी

क़ क़ा क़ि क़ी क़ीं क़ु क़ू क़्र र्क़ क्र क़्क़
ख़ ख़ा ख़ि खी ख़ु ख़ू ख़ै ख़ौ खं खः
ग़ ग़ा ग़ी गु ग़ु ग़ू ग़ै ग़ो ग़ों ग़ौ र्ग़
ज़ ज़ा ज़ि ज़ी ज़ु ज़ू ज़े ज़ो ज़ों ज़ौ जं ज़ां ज़ः
फ़ फ़ा फ़ि फ़ी फ़ु फ़ू फ़े फ़ै फ़ो फ़ौ फं फ़ः

अंग्रेज़ी शब्द

  1. अंग्रेज़ी ध्वन्यात्मक भाषा नहीं है, अतः इसके शब्दों की वर्तनी तथा उनसे संबद्ध उच्चारण में असंदिग्ध संबंध नहीं रहता है।
  2. अंग्रेज़ी के जिन शब्दों में अर्धविवृत ‘ओ’ ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्‍ध रूप का हिंदी में प्रयोग अभीष्ट होने पर ‘आ’ की मात्रा के ऊपर अर्धचंद्र का प्रयोग किया जाए (ऑ, ॉ)।
  3. अंग्रेज़ी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण इतना क्लिष्ट नहीं होना चाहिए कि उसके वर्तमान देवनागरी वर्णों में अनेक नए संकेत-चिह्‍न लगाने पड़ें।
  4. अंग्रेज़ी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण मानक अंग्रेज़ी उच्चारण के अधिक-से-अधिक निकट होना चाहिए।
  5. अतः अनुभव एवं अध्यास से लोगों को वर्तनी तथा उच्चारण, दोनों, सीखने पड़ते हैं ।

द्‍‌विधा रूप वर्तनी

  • हिंदी में कुछ प्रचलित शब्द ऐसे हैं जिनकी वर्तनी के दो-दो रूप बराबर चल रहे हैं। 
  • विद्‍वत्समाज में दोनों रूपों की एक-सी मान्यता है।
  • जैसे कि निम्न वैकल्पिक रूपों में से पहले वाले रूप को प्राथमिकता दी जाती है:
    • गरदन/ गर्दन,
    • गरमी/ गर्मी,
    • बरफ़/ बर्फ़,
    • बिलकुल/ बिल्कुल,
    • सरदी/ सर्दी,
    • कुरसी/ कुर्सी,
    • भरती/ भर्ती,
    • फ़ुरसत/ फ़ुर्सत,
    • बरदाश्त/ बर्दाश्त,
    • वापस/ वापिस,
    • आख़िरकार/ आख़िरकार,
    • बरतन/ बर्तन,
    • दुबारा/ दोबारा,
    • दुकान/ दूकान,
    • बीमारी/ बिमारी आदि।

कुछ अन्य नियम: विरामादि चिह्‍न

  1. फ़ुलस्टॉप (पूर्ण विराम) को छोड़कर शेष विरामादि चिह्‍न वही ग्रहण कर लिए गए हैं जो अंग्रेज़ी में प्रचलित हैं, जैसे कि:
  2. – (हाइफ़न/योजक चिह्‍न),
  3. – (डैश/निर्देशक चिह्‍न), 
  4. :– (कोलन एंड डेश/विवरण चिह्‍न),
  5. , (कोमा/अल्पविराम),
  6. ; (सेमीकोलन/अर्धविराम),
  7. : (कोलन/उपविराम),
  8. ? (क्वश्‍चनमार्क/प्रश्‍न चिह्‍न),
  9. ! (साइन ऑफ़ इंटेरोगेशन/विस्मयसूचक चिह्‍न),
  10. ‘ (अपोस्ट्राफ़ी/ऊर्ध्व अल्प विराम),
  11. ” ” (डबल इन्वर्टेड कोमाज़/उद्‍धरण चिह्‍न),
  12. ‘ ‘ (सिंगल इन्वर्टेड कोमा/शब्द चिह्‍न).
  13. ( ), { }, [ ] (तीनों कोष्ठक),
  14. … (लोप चिह्‍न),
  15. (संक्षेपसूचक चिह्‍न)/(हंसपद)।
  16. विसर्ग [:] के चिह्‍न को ही कोलन [:] का चिह्‍न मान लिया गया है। पर दोनों में यह अंतर रखा गया है कि:
    • विसर्ग वर्ण से सटाकर, और
    • कोलन शब्द से कुछ दूरी पर रहे।
  17. पूर्ण विराम के लिए:
    • खड़ी पाई (।) का ही प्रयोग किया जाए।
    • वाक्य के अंत में बिंदु (अंग्रेज़ी फ़ुलस्टॉप [.] का नहीं)।

और अंत में:

  1. इस लेख में हमने वर्तनी के मानकीकरण के कुछ नियम विस्तार से देखे [संयुक्‍त वर्ण और अन्य व्यंजन, कारक चिह्‍न, क्रिया पद, हाइफ़न, अव्यय, अनुस्वार, अनुनासिकता, विसर्ग, हल् चिह्‍न, स्वन परिवर्तन, क्यूं-क्यूँ, आं, आँ, ‘य’, ‘व’, ‘ऐ’, ‘औ’, ‘यी’-‘ई’, ‘ए’-‘ये का प्रयोग, विदेशी ध्वनियाँ, द्‍‌विधा रूप वर्तनी, विरामादि चिह्‍न इत्यादि]।
  2. व्याकरण के अनुसार क्या शुद्ध है, यह जानकारी होना बहुत आवश्यक है।
  3. जिन्हें व्याकरण ज्ञात है वे असुविधा होते हुये भी शुद्ध रूप को सुरक्षित रखें। एक बार अशुद्ध का अभ्यास हो जाए तो शुद्ध ही अशुद्ध लगने लगता है।
  4. केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने कुछ शब्दों को छोड़कर कर सभी में व्याकरण सम्मत वर्तनी के स्थान पर श्रुतिमूलक रूप को प्रयोग करने की बात कही है।
  5. वर्तनी में अशुद्धियाँ कई कारणों से आ जाती हैं, जैसे कि उच्चारण-संबंधी [‘ब’ और ‘व’, ‘छ’ और ‘क्ष’, ‘श’, ‘ष’ और ‘स’] या फिर सन्धि, समास, हलन्त-संबंधी, इत्यादि यहाँ देखिये अशुद्धियों के कुछ उदाहरण:
    • हिंदी वर्तनी: प्रत्यय और लिंगप्रत्यय-संबंधी अशुद्धियाँ
    • हिंदी वर्तनी: संधि-संबंधी अशुद्धियाँ
    • हिंदी वर्तनी: समास-संबंधी अशुद्धियाँ
    • हिंदी वर्तनी: वर्ण-संबंधी अशुद्धियाँ
  6. पेश है, राजेश जोशी की कविता: चाँद की वर्तनी

‘चाँद की वर्तनी’
चाँद लिखने के लिए चा पर चन्द्र बिंदु लगाता हूँ
चाँद के ऊपर चाँद धरकर इस तरह
चाँद को दो बार लिखता हूँ
चाँद की एवज सिर्फ़ चन्द्र बिन्दु रख दूँ
तो काम नहीं चलता भाषा का
आधा शब्द में और आधा चित्र में
लिखना पड़ता है उसे हर बार
शब्द में लिखकर जिसे अमूर्त करता हूँ
चन्द्र बिंदु बनाकर उसी का चित्र बनाता हूँ
आसमान के सफे पर लिखा चाँद
प्रतिपदा से पूर्णिमा तक
हर दिन अपनी वर्तनी बदल लेता है
चन्द्र बिन्दु बनाकर पूरे पखवाड़े के यात्रा वृत्तांत का
सार संक्षेप बनाता हूँ
जहाँ लिखा होता है चाँद
उसे हमेशा दो बार पढ़ता हूँ
चाँद
चाँद!

आभार

  1. मूल लेख: केंद्रीय हिंदी निदेशालय: मानक हिंदी वर्तनी (Standard Hindi Spelling) – यहाँ वर्तनी के बारे में विस्तृत जानकारी है।
  2. योगेन्द्र जी: शंका समाधन: ‘long’, ‘song’ आदि का लिप्यंतरण कैसे हो?
  3. sugamgyan
  4. श्री अमिताभ त्रिपाठी जी [//www.facebook.com/amitabh.ald]
  5. अंग्रेज़ी लिपि के लिए यहाँ देखें: Devanagari Transcription Chart, Devanagari transliteration
  6. उर्दू अधिकांशतः नस्तालीक़ लिपि में लिखी जाती है, जो फ़ारसी-अरबी लिपि का एक रूप है। उसे यहाँ देखें: नस्तालीक़

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वर्तनी की कमियों की माफ़ी!
कुछ अन्य चीज़ें [मात्रा गणना,
हिंदी वर्तनी इत्यादि] यहाँ देखें:
हिन्दी मैंने यूँ सीखी

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वर्तनी से आप क्या समझते हैं?

वर्तनी- लिखने की रीति को वर्तनी या अक्षरी कहते हैं। यह हिज्जे (Spelling) भी कहलाती है। किसी भी भाषा की समस्त ध्वनियों को सही ढंग से उच्चरित करने के लिए ही वर्तनी की एकरूपता स्थिर की जाती है।

हिंदी में वर्तनी प्रयोग के प्रमुख नियम कौन कौन से हैं?

किसी लिपि के प्रतीक-चिन्ह (वर्ण आदि) को उचित क्रम में लिखकर जब कोई शब्द निरूपित किया जाता है, वह उसकी वर्तनी कहलाती है।.
क और फ / फ़ के संयुक्‍ताक्षर: ... .
ङ, छ, ट, ड, ढ, द और ह के संयुक्‍ताक्षर हल् चिह्‍न लगाकर ही बनाए जाते हैं, जैसे कि: ... .
संयुक्‍त 'र' के प्रचलित तीनों रूप यथावत् रहते हैं, जैसे कि:.

वर्तनी कितने प्रकार के होते हैं?

इसे सुनेंरोकेंवर्ण के मुख्यतः दो भेद माने गए हैं – १ स्वर , २ व्यंजन।

वर्तनी की आवश्यकता क्यों है?

किसी भी भाषा के सीखने-सिखाने में सहायक या बाधक बनने वाले दो प्रमुख तत्त्व हैं उसका व्याकरण और लिपि। लिपि का एक पक्ष है सामान्य और विशिष्ट स्वनों के पृथक् प्रतीक-वर्णों की समृद्धि, उनका परस्पर स्पष्ट आकार-भेद, लिखावट में सरलता तथा स्थान-लाघव एवं प्रयत्न-लाघव।

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