कश्मीरी भाषा की लोकप्रिय संत – कवियत्री ललद्यद का जन्म सन 1320 के लगभग कश्मीर स्थित पाम्पोर के सिमपुरा गाँव में हुआ था। उनके प्रारंभिक जीवन के बारे में ज्यादा जानकारी मौजूद नही है। इनका देहांत सन 1391 में हुआ। इनकी काव्य शैली को वाख कहा जाता है।
Vakh Summary in Hindi Claas 9 – वाख भावार्थ (ललघद)
(1)रस्सी कच्चे धागे की खींच रही मैं नाव
जाने कब सुन मेरी पुकार,करें देव भवसागर पार,
पानी टपके कच्चे सकोरे ,व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे,
जी में उठती रह-रह हूक,घर जाने की चाह है घेरे।
व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री ने नाव की तुलना अपने जिंदगी से करते हुए कहा है की वे इसे कच्ची डोरी यानी साँसों द्वारा चला रही हैं। वह इस इंतज़ार में अपनी जिंदगी काट रहीं हैं की कभी प्रभु उनकी पुकार सुन उन्हें इस जिंदगी से पार करेंगे। उन्होंने अपने शरीर की तुलना मिट्टी के कच्चे ढांचे से करते हुए कहा की उसे नित्य पानी टपक रहा है यानी प्रत्येक दिन उनकी उम्र काम होती जा रही है। उनके प्रभु-मिलन के लिए किये गए सारे प्रयास व्यर्थ होते जा रहे हैं, उनकी मिलने की व्याकुलता बढ़ती जा रही है। असफलता प्राप्त होने से उनको गिलानी हो रही है, उन्हें प्रभु की शरण में जाने की चाहत घेरे हुई है।
(2)खा खा कर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी,
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बन्द द्वार की।
व्याख्या – इन पंक्तियों में कवियत्री ने बताया है की ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, वह सबके हृदय के अंदर मौजूद है। इसलिए हमें किसी व्यक्ति से हिन्दू-मुसलमान जानकार भेदभाव नही करना चाहिए। अगर कोई ज्ञानी तो उसे स्वंय के अंदर झांककर अपने आप को जानना चाहिए, यही ईश्वर से मिलने का एकमात्र साधन है।
वाख की व्याख्या- मनुष्य का जीवन कच्ची मिट्टी के घड़े के समान है जैसे कच्चे घड़े में पानी नहीं रुकता वैसे ही कवयित्री ने जीवन को माना है। भक्त कवियों के यहाँ सबसे बड़ी सिद्धि भवसागर अर्थात् सांसारिक मोह-माया से मुक्ति पा जाने में बताई गई है। जीवन के साधन रूपी कच्चे धागों से इस संसार रूपी भवसागर में तिरती हुई मनुष्य की जीवन-नौका को डूबने से बचाने के लिए एक कुशल मांझी की जरुरत है; कवयित्री को यह अखंड विश्वास है कि एक परमात्मा ही उसकी यह जरुरत पूरी करने में समर्थ हैं। मनुष्य का मन स्वभावतः शंकालु होता है। इसलिए कवयित्री कहती है कि मुझे घर अर्थात् ईश्वर की शरण में जाना है। अत: मेरे मन में वहाँ शीघ्रातिशीघ्र जाने की इच्छा बलवती हो उठी है।
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खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बंद द्वार की।
वाख की व्याख्या- मानव-मात्र को संबोधित करती हुई वह कहती है कि ईश्वर के आराधन की अवस्था में मनुष्य को अपना सर्वस्व समर्पित करना होता है। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे कुछ प्राप्त ही नहीं हुआ। वस्तुत: ईश्वर की कृपा उसका अनुग्रह सब पर समान रूप से होता है। लेकिन मनुष्य जब ईश्वर की अखंड सत्ता में भेद उत्पन्न करके उसे टुकड़ों में बाँटकर देखता है तो वह अपने व्यक्तित्व और अपनी मान्यताओं को श्रेष्ठ और दूसरों को स्वयं से नीचा समझने लगता है। इसलिए कवयित्री मनुष्य को श्रेष्ठता के अहंकार से बचते हुए अपने आत्मा और अंत:करण के विकास की सलाह देती हुई कहती है कि सबको समान समझकर, आडंबरों से ऊपर उठकर, अपने में समभाव पैदा करो। क्योंकि इससे हृदय विशाल और चित्त शुद्ध होता है, चेतना व्यापक होती है। फलत: आत्मा के दरवाजों पर लगी अज्ञान,अहंकार की कुण्डी ढीली पड़ जाती है और मन-मस्तिष्क प्रकाश और ऊर्जा से भर जाता है।
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
माझी को दूं, क्या उतराई?
वाख का भावार्थ (व्याख्या)- ऐ! ईश्वर भक्ति के साधक! केवल एक समर्पण ही एक ऐसा मार्ग है जिससे उस परम पिता को प्राप्त किया जा सकता है। उसकी दी हुई जिन्दगी तो सोच-विचार और हठयोग साधना में बीत गई। अंततः जब उस पार उतारने वाले मॉझी ने, इस संसार रूपी सागर से बेड़ा पार लगाया तो मैं उसके प्रति कृतज्ञता भी ज्ञापित नहीं कर पाई। इस कृपा के बदले में एक कौड़ी भी उस माँझी को नहीं दे पाई। आशय यह है कि मनुष्य दुनिया के सरोकारों में फँसकर अपने लक्ष्य को भूल जाता है और समय बीत जाने पर, जीवन के अंतिम क्षण में जब उसे अपने जीवन की व्यर्थता का बोध होता है; तब कुछ भी करने में असमर्थता के कारण बड़ी पीड़ा होती है।
🎥 वाख भावार्थ (विडियो)
थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमान।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान।।
वाख का भावार्थ (व्याख्या)- प्रत्येक स्थान पर निवास करने वाला शिव तत्त्व अर्थात् कल्याणकारी परमात्मा एक है। इसलिए उसी की बनाई सृष्टि में हिंदू और मुसलमान का भेद कैसा? वस्तुतः हिन्दू और मुसलमान दोनों एक हैं, उनकी मनुष्यता एक है। ओ मानव! यदि तेरे अंंदर ज्ञान है, तो तू सबसे पहले खुद को जान ले और जिस दिन तू खुद को समझ लेगा, उसी दिन तू उस परमपिता का भी पहचान कर लेगा और उसका परिचित बन जाएगा।
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वाख के प्रश्न उत्तर
2'रस्सी' यहाँ किसके लिए प्रयुक्त हुआ है और वह कैसी है?
उत्तर-रस्सी शब्द यहाँ जीवात्मा अर्थात निरन्तर चलने वाली साँसों के लिए प्रयुक्त किया है। वह कच्चे धागे के समान स्वभावतः बहुत कमजोर है जो कभी भी टुट सकती है।
2. कवयित्री द्वारा मुक्ति के लिए किए जाने वाले प्रयास व्यर्थ क्यों हो रहे है?
उत्तर-कवयित्री कमजोर साँसों रुपी डोरी से जीवन रुपी नौका को भवसागर से पार ले जाना चाहती है पर शरीर रुपी कच्चे बरतन से जीवन रुपी जल टपकता जा रहा है इसलिए उनका प्रयास व्यर्थ हो जा रहा है
3. कवयित्रो का 'घर जाने की चाह' से क्या तात्पर्य है?
उत्तर- सभी संतो के समान कवयित्री भी मानती है कि उसका असली घर तो वहां है जहां परमात्मा निवास स्थान हैं इसलिए वह ईश्वर की कृपा प्राप्त करने और उसी में लीन हो जाना चाहती है। यही उसके घर जाने की चाह है।
4.भाव स्पष्ट कीजिए
(क) जेब टटोली कौडी न पाई।
(ख) खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं
न खाकर बनेगा अहंकारी।
उत्तर-
क. प्रस्तुत पंक्ति का तात्पर्य यह है कि मनुष्य संसार में स्वार्थ सिद्ध करने के प्रयास में हमेशा लगा रहता है और इस तरह वह अपने लक्ष्य से भटक जाता है। जिससे वह अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय व्यतीत कर देता है। और अंत में कुछ न कर पाने की असमर्थता की पीड़ा से व्याकुल हो जाता है।
ख. प्रस्तुत पंक्ति का तात्पर्य यह है कि सबको धार्मिक रुढ़ियों पुरानी परंपराओं से ऊपर उठकर समान भाव को अपनाना होगा और अहंकार का त्याग करना होगा।
5- बंद द्वार की साँकल खोलने के लिए ललद्यद ने क्या उपाय सुझाया है?
उत्तर- आत्मा में व्याप्त अज्ञानरूपी अहंकार, जातिवाद, छुआछूत इत्यादि सामाजिक बुराइयों के भाव को मनुष्य जब त्यागकर समान भाव से सबको देखेगा तो उसके आत्मा के बंद द्वार या दरवाजे के साँँकल या खिड़कियां खुल जाएंगे।
6- ईश्वर प्राप्ति के लिए बहुत से साधक हठयोग जैसी कठिन साधना भी करते हैं, लेकिन उससे भी लक्ष्य प्राप्ति नहीं होती। यह भाव किन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है?
उत्तर-
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
माझी को दूं, क्या उतराई?
7. 'ज्ञान' से कवयित्री का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जो स्वयं को पहचान ले वही ज्ञानी है, जो प्रत्येक व्यक्ति में अपने आप का दर्शन करें वही यानी है ।कवयित्री का ज्ञानी से यही अभिप्राय है ।