देहरादून, जेएनएन। उत्तराखंड के खेतों की उर्वरा क्षमता चिंताजनक स्थिति में है। देश में प्रति हेक्टेयर जितना गेहूं पैदा होता है, उत्तराखंड के खेतों में उसका महज 13.40 फीसद ही उत्पादन हो पाता है। उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (यूसैक) के 15वें स्थापना दिवस पर कटाई पूर्व फसल उत्पादन की जानकारी के प्रशिक्षण में गेहूं उत्पादन के आंकड़े प्रस्तुत किए गए।
यूसैक के आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड में गेहूं की फसल का रकबा 3.58 लाख हेक्टेयर है और इसमें वर्ष 2018-19 में 8.34 लाख मीट्रिक टन गेहूं का उत्पादन किया गया। इस तरह प्रति हेक्टेयर औसतन 429 किलो गेहूं का उत्पादन हुआ। वहीं, राष्ट्रीय औसत की बात करें तो यह आंकड़ा 3200 किलो है। पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें तो वहां भी प्रति हेक्टेयर 3000 किलो गेहूं पैदा हो रहा है। यूसैक के निदेशक डॉ. एमपीएस बिष्ट ने बताया कि रिमोट सेंसिंग और जीआइएस के माध्यम से कटाई से पूर्व ही खेतों में खड़ी फसल के उत्पादन का आकलन कर दिया जाता है। यही आंकड़े केंद्र सरकार को भी भेजे जाते हैं।
प्रदेश में गेहूं उत्पादन की तस्वीर
जिला, फसल रकबा, उत्पादन
ऊधमसिंहनगर, 99.67, 3.67
हरिद्वार, 45.37, 1.34
देहरादून, 19.34, 58.14
नैनीताल, 21.71, 65.74
अल्मोड़ा, 34.69, 38.65
पिथौरागढ़, 23.97, 24.98
टिहरी, 22.58, 34.65
पौड़ी, 22.73, 33.97
चमोली, 14.22, 16.54
रुद्रप्रयाग, 10.28, 13.20
उत्तरकाशी, 13.78, 16.54
बागेश्वर, 17.65, 15.70
चंपावत, 12.45, 14.78
नोट: रकबा हेक्टेयर और उत्पादन मीट्रिक टन में है।
घटती कृषि भूमि और उत्पादन पर चिंता
स्थापना दिवस समारोह को संबोधित करते हुए यूैसक निदेशक डॉ. एमपीएस बिष्ट ने पर्वतीय क्षेत्रों में घटती कृषि भूमि व उत्पादन पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि पलायन के चलते खेत बंजर या जंगलों में तब्दील हो रहे हैं। पोषण से भरपूर झंगोरा, मंडवा, कुलथ, तोर आदि की मांग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने के बाद भी इस तरह की पारंपरिक फसलों का रकबा घटता जा रहा है।
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दूसरी तरफ इस अवसर पर आयोजित कार्यशाला में कृषि विभाग के 42 अधिकारियों समेत 50 कार्मिकों को सिखाया गया कि किस तरह कटाई पूर्व फसल उत्पादन का आकलन किया जा सकता है। कार्यक्रम में डॉ. हेमंत कुमार बडोला, आइआइआरएस के विज्ञानी डॉ. अभिषेक डंडोलिया, यूसैक के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. प्रियदर्शी उपाध्याय, डॉ. आशा थपलियाल, डॉ. नीलम रावत, डॉ. गजेंद्र सिंह आदि उपस्थित रहे।
Submitted by Hindi on Mon, 05/15/2017 - 15:18
Author
देवेन्द्र मेवाड़ी
Source
उत्तराखंड उदय, 2015, अमर उजाला
पहाड़ों की उपजाऊ जमीन पर पहाड़ के किसान अपनी फसलें केवल वर्षा के भरोसे करते आ रहे हैं, समय पर वर्षा हो गयी तो उपज से घर-भंडार भर गए, नहीं हुई तो फसल चौपट। फिर तो बाजार से खरीदकर गुजारा करने की नौबत।
हालांकि, पहाड़ों का अधिकांश हिस्सा प्राचीन काल से ही घने वनों से ढंका रहा है, लेकिन ज्यों-ज्यों मनुष्यों की बसासत बढ़ती गई, वनों का क्षेत्रफल घटता गया। फिर भी, अगर आज की तस्वीर देखें, पूरे उत्तराखण्ड के कुल क्षेत्रफल 56.72 लाख हेक्टेयर में से मात्र 7.41 लाख हेक्टेयर भूमि में ही खेती की जा रही है। इनमें में से करीब 89 प्रतिशत क्षेत्रफल में खेतिहारों के पास छोटी और सीमान्त जोतें हैं। उत्तराखण्ड की खेती योग्य भूमि में से लगभग 3.38 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचित खेती की जा रही है। यह सिंचित क्षेत्र मुख्य रूप से नदी घाटियों में और कुछ एक जगहों पर पहाड़ों के पैताने के चौरस हिस्से में हैं, जहाँ नदियाँ-गधेरों से गूलें खोदकर लोग खेतों तक पानी लाते रहे हैं। लेकिन, पहाड़ों के पैताने से नीचे उतरकर भाबर की बलुई भूमि के पार तराई का नम और समतल इलाका देस के सबसे उर्वर इलाकों में गिना जाता है। देश का पहला कृषि विश्वविद्यालय यहीं 1960 में पंतनगर में खोला गया, जहाँ आधुनिक खेती पनपी और वहाँ पैदा किये गये उन्नत बीजों ने देश-विदेश में नई खेती की अलख जगाई। नोबल विजेता विश्व प्रसिद्द कृषि वैज्ञानिक डॉ. नार्मन बोरलॉग ने तो यहाँ तक कहा कि हरित क्रांति का जन्म तराई की इसी उर्वरा भूमि में हुआ।
उत्तराखण्ड में मुख्य फसलों का उत्पादन (मी. टन)
क्रम संख्या
फसलें
2011-12
2012-13
2013-14
1.
अनाज
(क) चावल
(ख) गेहूं
(ग) जौ
(घ) मक्का
(ड) अन्य
1760152
589764
864836
26160
38378
241014
1776424
579830
858226
30731
40168
267469
1719945
578574
842409
31469
35489
232004
2.
दालें
(क) उड़द
(ख) मटर
(ग) मसूर
(घ) चना
(ड) अन्य डालें
43881
8960
6576
9045
574
18726
51290
11568
4377
9553
438
25354
56512
11521
5352
9852
658
29129
3.
कुल तिलहन
(क) लाही एवं सरसों
(ख) मूंगफली
(ग) तिल
(घ) सोयाबीन
26085
9733
1538
400
14414
39491
16865
1214
555
20857
34068
10259
1202
536
22071
4.
अन्य फसलें
गन्ना
6348078
6715969
6432409
स्रोत- कृषि निदेशालय, उत्तराखण्ड
यानि समुद्रतल से लगभग 1000 फुट ऊंची तराई की चौरस भूमि से लेकर हिमाच्छादित नंदादेवी के 25660 फुट ऊंचे माथे तक फैली है, उत्तराखण्ड के नीची-ऊंची भूमि। इसमें हैं ऊंची पर्वतमालाएं, गहरी घाटियां, ग्लेशियर, नदी घाटियों में फैले समतल ‘सेरे’, कल-कल, छल-छल बहती नदियाँ, गाड़-गधेरे, अविरल बहते झरने और लबालब भरे झील-तालाब। परम्परागत रूप से पहाड़ के किसान के लिये साल भर में तीन मौसम आते रहे हैं: रुड़ी (ग्रीष्म), चौमास (वर्षा), और ह्यूंद (शीत)। इन्हीं मौसमों के हिसाब से वे अपनी परंपरागत फसलें उगाते रहे हैं। अनाज में गेहूं, धान, मक्का, मंड़वा (कोदो), मादिरा (ज्वार), कौनी, दालों में गहत, भट, माष, लोबिया, मसूर, सीमी (राजमा), मटर , तिलहनों में तोरिया (राई), सब्जियों में आलू, पालक, मेथी, मटर, प्याज, लहसुन, राई आदि।
ये सेरी का मोत्यूं तुम भोग लाग्ला हो
सेव दिया, बिद दिया देवो हो
ये गौं का भूमियां दैन ह्या हो
रोपारों तोपरों बरोबरी दिया हो
हलिया बल्दा बरोबरी दिया हो
पंचनाम देवो हो।
यानि, इस सेरी के मोती जैसे अन्न का तुम भोग लगाओगे, इसलिये हे देव, छाया देना, खुला दिन देना, इस गाँव के भूमिया देवता, हल चलाने वाले और बैलों को भी बराबर देना, हे पंचनाम देवों।
पहाड़ों की ऊंची उपजाऊ जमीन पर पहाड़ के किसान अपनी फसलें केवल वर्षा के भरोसे करते आ रहे हैं, समय पर वर्षा हो गयी तो उपज से घर-भंडार भर गए, नहीं हुई तो फसल चौपट। फिर तो बाजार से खरीदकर गुजारा करने की नौबत। चौमास में बादल-बरखा, तो ह्यूंद में हिमपात पर टिकी आँखें। सूखे पहाड़ों में बोये गेहूं पर अगर दिसंबर से फरवरी के बीच हिमपात हो जाये तो पहाड़ के किसान के लिये ‘हिवैं गिवै। मतलब, उस साल गेहूं इतना पैदा होगा की भकार (भंडार) भर जायेंगे।
फेर बल्दा फेर हो… फेर
मेरो बल्दा ह्वै जालै इज...फे...हो
खुरों ले माड़लै इजू, भकार भरलै
फेर बल्दा फेर हो… फेर
मंड़ाई के बाद धूप में सुखाकर डालों-भकारों में भरा जाता है गेहूं। कीड़ों से बचाने के लिये उसमें गाय के गोबर को सुखे उपलों की मुलायम राख मिला दी जाती है। आँगन में यहाँ-वहाँ बिखरे दानों के रूप में चहकती घिंदोड़ियों (गौरेयों) को उनका हिस्सा मिल जाता है। कुछ समय बाद फिर बादल आकाश में घिर जाते हैं। गरजते-बरसाते मानसूनी बादल और खरीफ की फसलों की बोआई फिर शुरू हो जाती है।
तराई-भाबर, गहरी घाटियों के समतल सेरों और पहाड़ों के ऊंचे ठंडों धूरों के भी ऊपर पहले तक एक और दुनिया थी, जो लगभग 10000 फुट से 13000 फुट की ऊंचाई पर पांच घाटियों में बसी हुई थी। ये घाटियाँ थी : माना, नीती, जोहार, दारमा, ब्यांस। कभी वहाँ पचासों जगह गाँव आबाद थे और वहाँ के शौक यानि भोटिया बाशिंदे प्रकृति की सबसे कठिन परिस्थियों में जीवन यापन करते थे। उनका पहला काम था, तिब्बत के साथ व्यापार करना और दूसरा था, जीने के लिये खेती करना। वे वहाँ की रूखी-सूखी जमीन में हैकबो (कुटले) और अकरबो (हल) से खेती करते आ रहे थे। तब वहाँ के मेहनती लोग 11000 फुट तक की ऊँचाई पर भी सीढ़ीदार खेत बना लेते थे। उन खेतों में भेड़-बकरियों की मेंगनी की खाद डाली जाती थी। एक-एक परिवार सैकड़ों भेड़-बकरियां पालता था। खेतों में हल खुद आदमी ही खींचते या फिर याक और गाय की संतान ‘जिबु’ से जुताई की जाती थी।
जून प्रारंभ में जब निचले पहाड़ों और घाटियों में धान, मंद्दुवा, मादिरा, और दालों की बोआई की जा रही होती, तब जोहार, दारमा, ब्यांस, माना और नीती की घाटियों में लोग गेहूं, जौ, वजौं (तिब्बती जौ), ओगल (कुटू), फापर या भे, सरसों और चुआ (चैआई) की फसलें बो रहे होते। ये फसलें चार माह यानि सितम्बर तक तैयार हो जातीं। इधर बोआई की जाती उधर भेड़चारक अपनी भेड़-बकरियां और खच्चर लेकर अप्रैल से जून तक हरे-भरे बुग्यालों यानी सघन घास की ढलानों में पहुँच जाते। फसल पकती और कड़ाके की सर्दी का मौसम शुरू हो जाता। तब शौका मितुर अपनी सैकड़ों भेड़-बकरियों के साथ निचले पहाड़ों की ओर उतर आते लेकिन, आजादी के बाद तिब्बत से व्यापार क्या बंद हुआ कि इन घाटियों में बसासत के द्वार बंद हो गए। वहाँ के बाशिंदे व्यापार और रोजी-रोटी की तलाश में नीचे के पहाड़ों और मैदानों की ओर उतरकर प्रवासी जीवन जीने के लिये मजबूर हो गये।
कवी-कलाकार मित्र नवीन पांगती के संकलन धार के उस पार की पंक्तियाँ याद आती हैं :
जोहार की इन तंग घाटियों से
जहाँ सड़कें नहीं जातीं
मै बचपन से डरता आया हूँ
किसी को कभी वहाँ
मैंने जाते नहीं देखा
पर आते देखा है कई बार
अंधकार को, आँधियों को, बारिश को
व्यापारिक फसलों में आलू पहाड़ों की प्रमुख फसल है। पहाड़ी आलू की साख आज भी मैदानों में बनी हुई है। कहा जाता है, उत्तराखण्ड के पहाड़ों में 1843 के आसपास पहली बार आलू लाया गया था। वहाँ आलू लेन का श्रेय एक अंग्रेज अफसर मेजर यंग को दिया जाता है, जिसने आलू के लिये अच्छी आबोहवा देखकर पहली बार मसूरी की पहाड़ियों में इसे बोया था। आलू वहाँ खूब पनपा और इसकी खेती लोकप्रिय होती चली गई। कभी गरुड़ घाटी के आलू का बड़ा नाम था और मंडी में इसे पहाड़ी आलू का मानक माना जाता था।
उत्तराखण्ड के बागवान एक अरसे से सेब, आडू, खुबानी, प्लम, नाशपाती, अखरोट, लीची, संतरा और नीबू की बागवानी करते आ रहे हैं। उत्तराखण्ड के रसीले सेब और मीठी लीची की बाजार में विशेष मांग बनी रहती है। देहरादून की लीची की अपनी साख बनी हुई है।
समय के फेर ने पहाड़ाे की परम्परागत खेती के साथ ही परंपरागत फसलाें में भी बडा़ फेर बदल कर दिया है। युवाआें के जाे हजार हांथ कभी पहाड़ में खेती-पाती का काम संभालते थे, अब राेजगार की तलाश में वे शहराें में दस्तक दे रहे हैं। पहाड़ में आज भी राेजगार का अकाल हाेने के कारण युवाआें का प्रवास बड़े पैमाने पर जारी है। पहाड़ाें की पैताने की मंडियाें आैर शहराें में जैसा भी आैर जाे भी राेजगार मिल जाने पर पहाड़ में घर पर केवल महिलायें, बच्चे आैर बुजुर्ग रह जाते हैं जिनके लिये अकेले पहाड़ की खेती का कठिन काम संभालना मुश्किल हाे जाता है। इस कारण खेत खाली छूटते जा रहे हैं आैर उन जमीनाें पर आैने-पाैने दाम में भू-माफिया कब्जा करने लगे हैं। इस कारण कल की कृषि भूमि रिजार्टाें आैर हाेटलाें में तब्दील हाे रही है। खेती का रकबा घट रहा है। जहाँ जमीनें बची हुई हैं आैर घर में लाेग भी हैं, वे भी मंड़वा जैसी मेहनत मांगने वाली फसलाें की खेती बहुत कम कर रहे हैं, हालाकि शहराें में इसे हेल्थ फूड के नाम पर इसे ऊंचे दामाे में बेचा जा रहा है। पहाड़ाें में उपज की बिक्री या फलाें के विपणन के लिये काेई भराेसेमंद तंत्र न हाेने के कारण पहाड़ के किसान मंड़वा, साेयाबीन, प्याज, लहसुन, मिर्च, अदरक, हल्दी, अरबी जैसी नकदी फसलाें की खेती से भी हांथ खींच रहे हैं। राेजगार में लगे बेटे के मनीआर्डर से भेजे पैसाें से सस्ता राशन खरीद कर या मनरेगा से मिला राशन खाना कहीं आसान लगने लगा है। इस सबकी मार पहाड़ की खेती पर पड़ रही है। फल यह हुआ है कि ‘हु़ड़किया बाैल’ जैसे कृषि गीत गायब हाेते जा रहे हैं आैर खुशी से दांय माड़ते-माड़ते, बैलाें काे घुमाते किसान के मुंह से अधिक उपज के लिये निकलते बाेल खामाेश हाे गये हैं। रही-सही कसर माैसम के मजाज ने पूरी कर दी है। कभी जहाँ केवल रूड़ि (ग्रीष्म), चाैमास (वर्षा), आैर ह्यूंद (शीत) के तीन माैसम हाेते थे, आज पता ही नही लगता कि कब घनघाेर बारिश बरस जाएगी आैर कब सूखा पड़ जायेगा. कब बेमाैसम आेलावृष्टि आैर हिमपात हाे जायेगा।
किसान ताे बस विवश हाेकर केवल आसमान को ताक सकता है आैर ताक रहा है। काश स्रोताें, झरनों आैर नदी-नालाें का पानी घेर कर उसके खेताें तक लाया जा सकता, उसकी उपज की बिक्री के लिये काेई मुकम्मल तंत्र हाेता, उसके बाग में पैदा हाेने वाले फलाें काे सड़ने से बचाने के लिये फल संरक्षण इकाइयां हाेतीं। ....यह स्वप्न था आैर स्वप्न ही रहा है।
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